लघुकथा - 2023 ( ई - लघुकथा संकलन )

यह सफर लघुकथा - 2018 से शुरू हुआ । जो लघुकथा - 2019 , लघुकथा - 2020 , लघुकथा - 2021 ,लघुकथा - 2022 व लघुकथा‌- 2023 आपके सामने ई - लघुकथा संकलन के रूप में है । ये बेजोड़ श्रृंखला तैयार हो रही है।लघुकथाकारों का साथ मिलता चला गया और ये श्रृंखला कामयाबी के शिखर पर पहुंच गई । सफलता के चरण विभिन्न हो सकते हैं । परन्तु सफलता तो सफलता है । कुछ का साथ टूटा है कुछ का साथ नये - नये लघुकथाकारों के रूप में बढता चला गया । समय ने बहुत कुछ बदला है । कुछ खट्टे - मीठे अनुभव ने बहुत कुछ सिखा दिया । परन्तु कर्म से कभी पीछे नहीं हटा..। स्थिति कुछ भी रही हो ।  जीवन में बहुत‌ सिखा है । यह अनुभव अनमोल है। 
       लघुकथाकारों के साथ पाठकों का भी स्वागत है । अपनी राय अवश्य दे । भविष्य के लिए ये आवश्यक है । आप सब‌की प्रतिक्रिया की  प्रतिक्षा में ......।

                                                    आप का मित्र 
                                                   बीजेन्द्र जैमिनी                                                                    सम्पादक
                                            ई - लघुकथा संकलन
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क्रमांक : - 001

अस्तित्व
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शिवानी अपनी एक बहुत प्रसिद्ध साहित्यकार सहेली को मुझसे मिलवाने ले आयी। हम बीकानेर वाला के यहाँ पसन्द की चीजों का
ऑर्डर करने के बाद घर-परिवार की बातें करने लगे। शिवानी अपनी प्रॉपर्टी और अपने बड़े बिजनेस के
बारे में बहुत शान के साथ बताने लगी।साहित्यकार मित्र बहुत ध्यान  से और शान्त भाव से उसकी बातें  सुन रही थी,फिर अचानक कहने लगी ," मैंने अपना सारा वेतन ससुराल वालों पर,जरूरतमंद लोगों  पर न लगाया होता, तो आज मेरे  पास भी एक दो फ्लैट्स, गाडियाँ, ऑफिस ,बीसियों  कर्मचारी होते--,"मुझसे नहीं  रहा गया ।उनकी बात पूरी भी नहीं  हो पायी और मैं बोल  उठी, " वह सब कुछ तो होता, लेकिन फिर आप- - -
आप कहाँ होतीं !" दोनो मुझे देखती  रह गयीं ।
                        - मिथिलेश दीक्षित
              ‌‌‌        लखनऊ - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक : - 002

दीये का प्रकाश
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चारों ओर दीवाली की धूम थी।आसपास बनी ऊँची-ऊँची बिल्डिंगें और कतार में खड़े गगनचुंबी अपार्टमेंट्स झालरों की जगमगाती रोशनी से नहाए हुए थे। बाजार में अभी भी चहल-पहल थी। सड़क के किनारे फल-मिठाई-सजावट के सामानों की दुकानें रंग-बिरंगे बल्बों से सजी हुई थीं। शाम ढल रही थी और लोग दीवाली की बची-खुची खरीददारी में लगे हुए थे।
                   अपनी झोपड़ी के सामने एक टोकरी में मिट्टी के दीये लिए बैठी कमलिया राह से गुजरने वालों को याचना भरी नजरों से देख रही थी और सोच रही थी कि कुछ और दिये बिक जाते, तो बच्चे के लिए कुछ पटाखे खरीद लेती।  सुबह से जिद किए जा रहा है मनुआ। मगर इलेक्ट्रॉनिक लाईटों के जमाने में अब दीये खरीदता भी कौन है ? न तो छतों की मुड़ेरों पर अब दीपमालाएँ सजती हैं, न ही कुम्हारों की मेहनत का अब कोई मोल रह गया है ?
                      मनुआ बगल में चुपचाप बैठा कभी माँ की ओर, तो कभी आने - जाने वाले लोगों को देख रहा था।
                 अँधेरा बढ़ने लगा तो कमलिया उठकर दीया जलाने झोपड़ी के अंदर चली गयी। तभी अचानक पावर कट हो गया और चारों ओर घटाटोप अँधेरा छा गया। ऊँचे-ऊँचे मकान और गगनचुंबी इमारतें अँधेरे में कहीं खो गयीं।
             थोड़ी देर में कमलिया हाथ में दीया जलाए झोपड़ी से बाहर आई। मिट्टी के दीये की रोशनी ने धुप्प अँधेरे को चीर दिया।
                  मनुआ ने सिर घुमाकर एक बार अँधेरे की ओर देखा, फिर माँ के हाथ में जगमगाते दीये को...और खुशी से झूमकर नाच उठा, और बोला - माँ, मुझे पटाखे नहीं चाहिए।

- विजयानन्द विजय
बक्सर - बिहार
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क्रमांक : - 003

नैनों की भाषा
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वह मुठ्ठी में पैसों को दबाये बोझिल कदमों से घर की ओर चला जा रहा था। उसे समझ ही नहीं आ रहा था घर पहुँच कर बच्चों और पत्नी को क्या जवाब देगा।  सांत्वना देने के लिए अब माँ भी घर पर नहीं है। पत्नी की किचकिच से तंग आकर माँ को वृद्धाश्रम छोड़ आया था। मूर्ति बनाने की कला उसे विरासत में मिली थी। वह मूर्ति बनाता था और माँ हमेशा की तरह मूर्ति के चेहरे की भाव भंगिमाओं को सधे हाथों से उकेरती थी। पत्नी का काम मूर्ति के जेवरों और कपड़ों की सज्जा करना था। दशहरा पर दुर्गा जी की मूर्तियों की बिक्री से उसका साल भर का राशन और सभी के कपड़ों का इंतजाम हो जाता था पर इस बार...
घर पहुँचते ही पत्नी ने मुस्कुरा कर चाय का गिलास पकड़ाया।
"सुनो! इस बार मैं माँ के हिस्से की दो साड़ियाँ यानि चार साड़ियाँ लूंगी" इठलाती हुए बोली।
"चार क्या इस बार तो मैं एक भी साड़ी न दिला पाऊँगा।"
" क्यों "
" इस बार आधी मूर्तियांँ भी नहीं बिकी।" कहते हुए चेहरे दर्द उभर आया
"ऐसे कैसे हो सकता है हमारी मूर्तियाँ तो हाथों- हाथ बिक जाती थी।"
"हाँ, पर लोगों का कहना है इस बार  मूर्तियों की आँखों में वो आकर्षण नहीं है जो हमेशा रहता था। उदास आँखों वाली मूर्तियाँ उन्हें नहीं चाहिए।"
"पर चेहरा तो आपने हमेशा की तरह ही बनाया था फिर क्यों...? "
जब भी आँखों में रंग भरता हूँ तो माँ की आँखे सामने आ जाती हैं।
"जब माँ की आँखों में उदासी हो तो दुर्गा माँ कैसे मुस्कुरा सकती हैं।"

- मधु जैन
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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क्रमांक : - 004
                 
पर्यावरणविद
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आज के भव्य समारोह में मंच से जब किन्नर  मधुताई को
पर्यावरण के क्षेत्र में किये गये अद्वितीय कार्यों के लिए सम्मानित करने हेतु  आमंत्रित किया गया तब प्रांगण में उपस्थित केन्द्रीय मन्त्री सहित सभी दर्शकगण  उसके सम्मान में अपने स्थान पर तालीयाँ बजाते हुए खड़े हो गये ।
        रेड कार्पेट पर चलते हुए मधु को (जो अब मधुताई के नाम से देश भर में पहचानी जाने लगीं हैं )  अपना अतीत याद आने लगा जब किन्नर गुरु और उसके माता -पिता के मध्य उसे उनके साथ न भेजने की जिद चल रही थी । पिता हाथ जोड़कर किन्नर गुरु से याचना कर रहे थे " भले ही मेरी  पुत्री मधु किन्नर है लेकिन वह उनकी इकलौती संतान है । चिकित्सीय जाँच के अनुसार अब उनकी पत्नी दूसरी संतान को जन्म देने में असमर्थ है अत: उसे उनके पास ही रहने दें । हम पति -पत्नी का दृढ़ विश्वास है कि वह अपने जीवन में राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त करेगी । "
      लेकिन गुरु माँ एवं उनके साथी नहीं माने और उसके माता -पिता को बिलखता छोड़ उसे अपने साथ ले आये ।
          माँ-बाप इस गम को न सह सके और असमय अपनी किन्नर बेटी के गम में संसार से विदा हो गये ।
         मधुताई ने आसमान की ओर देखते हुए  अपने
माता -पिता को नमन  कर राष्ट्रीय  सम्मान प्राप्त कर  किन्नर समाज को गौरान्वित किया ।
                       - निहाल चन्द्र शिवहरे
                         झाँसी - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक : - 005

दर्द का रिश्ता
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"हमारे पास सभी सुख हैँ सिवाय सिर पर छत के.इसलिये दो रोटी के लिये सिर पर लकड़ियों का बोझ ढोना बुरा नहीं लगता, सौतन जो ठहरी." नल पर पानी के चार घूँट गले से उतारते हुए सुगना बोली.
"अच्छा तो तुम अपने पति की दूसरी पत्नी हो."नल पर पानी भरती अम्मा ने कहा.
"अब पहली मेरी सौतन या मैं उसकी. फ़र्क सिर्फ़ है कि बाहर के काम मैं करती हूँ . वो बच्चे पैदा कर सकती है, उनको खिलाना-पिलाना, संभालना सब पहली का काम. जंगल से लकड़ी लाना, पहाड़ी झरनों से पानी लाना,तम्बू के आस-पास की जमीन पर सब्ज़ियाँ उगाना वगैरह, सब काम मैं करती हूँ. आज तो मैं इस नल पर इसलिये आ गई कि पास के सरकारी अस्पताल से अपना इंतजाम करवा आई."
"इंतजाम? कैसा इंतजाम? "
"जिससे बच्चे पैदा न कर सकूँ."
"क्या?  तुम माँ नहीं बनना चाहती?"
"माँ कौन नहीं बनना चाहता अम्मा पर मेरा मर्द मुझे घर बिठा देगा और तीसरी ले आयेगा बाहर का काम करवाने के लिये. यही रिवाज़ है हमारे कबीले में."
सिर पर लकड़ी का गठ्ठर रखते हुए बोली, "आज लकड़ी ले कर जाने में देर हुई तो रोटी नहीं पकेगी."
उसको जाते देख अम्मा बुदबुदाने लगी, "आखिर पेट की खा़तिर पेट में कुछ बाँधना पड़ जाता है. एक सौत काठ की तो दूजी सौ लात की. "
- शील निगम
मुम्बई - महाराष्ट्र
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क्रमांक : - 006

वापसी
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आज फिर  प्रातःभ्रमण को निकले थे हरी बाबू। बेटे की बेरोज़गारी से उपजी पारिवारिक चिंताओं के झंझावात में फँसे, यंत्रचालित-से दूर तक निकल गए। चलते-चलते एक जगह एकाएक पैर काँपने-से लगे तो उनकी तन्द्रा टूटी। इधर-उधर देखकर पास वाले मकान के बाहर बनी सीमेंट की स्लैब पर बैठ गये। आवारा घूमता एक सड़कछाप कुत्ता बिना बात ही, जोर-जोर से उन पर भौंकने लगा।
हरी बाबू उसाँसे हो रहे थे। कुत्ते का बेहिसाब भौंकना सुन उनकी साँस धौंकनी की तरह चल निकली। 
"हाँ जी! कौन?" घर के भीतर से एक पुरुष स्वर उभरा।
" पा-नी... मिले-गा थो-ड़ा..." हरी बाबू बड़ी मुश्किल से कह पाये।
बाहर आ गया व्यक्ति उनकी दशा देख अंदर भागा और गिलास व पानी की बोतल ले आया।
"लीजिए।" गिलास में पानी डालकर उनकी ओर बढ़ाते हुए  उसने कुत्ते को दुत्कारकर दूर भगाने की नाकाम कोशिश की। 
हरी बाबू ने धीरे-धीरे पानी के घूँट भरे। उन्हें थोड़ी राहत महसूस हुई।
"आप...?" व्यक्ति ने परिचय जानना चाहा।
उधर, साइकिल से गुजरते हुए एक व्यक्ति ने एकाएक हरी बाबू को देखा। पहचाना। वह हरी बाबू का पड़ौसी था।
"हरी, आप यहाँ कैसे?" उसने आश्चर्य से पूछा।
हरी बाबू अब तक सँभल चुके थे।
"सोचते-सोचते पता ही नहीं चला कितनी दूर निकल आया !!" वह बोले।
"तभी कहता हूँ--कम सोचा करो। इतना क्यों सोचते हो यार!!"
"सोचना-विचारना तो असलियत में उसके साथ चला गया, ठकराल। अब तो बस चिंताएँ बची हैं?"
घर के मालिक का आभार व्यक्त करते हुए हरी बाबू उठ खड़े हुए।
कुत्ता था कि दुत्कारा जाने के बावजूद भौंकने से बाज नहीं आ रहा था।
"बेरोजगार  बेटे के बारे में सोचकर चिंतित हो जाता हूँ।" चलते-चलते हरी बाबू बोल रहे थे, "लोग कहते हैं--अभी तो मेरी पेंशन से उसकी गुजर हो रही है! मेरे बाद...!" 
उनके साथ चल रहा ठकराल इस हकीक़त को जानता था, पर दोहराना नहीं चाहता था।
"कुछ लेने के लिए तो नहीं निकले थे घर से?" उसने बात बदली।
"अरे, हाँ। दूध-ब्रैड लेकर जाना था!" हरी बाबू चौंके। जेब से निकालकर रुपए ठकराल को थमाते हुए बोले, "तुम्हारे पास तो साइकिल है। खरीदकर घर पहुँचा देना। कोई पूछे तो बोल देना, आ रहे हैं धीरे-धीरे।"
ठकराल निकल गया।
सड़क पर चलते हुए हरी बाबू के कानों में दूर कहीं बजते हुए गाने के बोल पड़ने लगे--
जीवन से न हार ओ जीने वाले
बात मेरी तू मान अरे मतवाले..
इन्हें  सुन हताशाओं का कोहरा उन्हें अपने चारों ओर से छँटता-सा लगा: --विवश बेटे का सहारा वे नहीं बनेंगे तो कौन बनेगा! किसी भी बकवास पर कान नहीं देंगे।--सोचते हुए घर की ओर वे मजबूती से छड़ी टेकते हुए चलने लगे।
कुत्ते के भौंकने की आवाज कदम-दर-कदम पीछे छूटने लगी थी।□
- अशोक जैन
गुरुग्राम- हरियाणा
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क्रमांक : - 007

समय के पदचिन्ह
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अनुभव ने लाला मदन लाल को कहा-" मुझे बढ़िया से जूते दिखाओ '।लाला का नौकर उसे जूते दिखाता गया और वह रेंज बढ़ाता गया। कस्बे की इस दुकान पर सबसे महंगे जूते दस हजार तक के ही थे । उसने कहा -' इससे महंगे और भी है जूते?" लाला ने इंकार कर दिया। अनुभव ने वे जूते खरीद लिए । पैसे देने के लिए जैसे ही अनुभव लाला मदनलाल के काउंटर पर खड़ा हुआ , लाला मदन लाल ने बिल काटते हुए कहा बेटा आप कहां से हो ?  मैंने आपको पहचाना नहीं  ? अनुभव बोला - लालाजी मैं धर्मनगर से महू का बेटा हूं । फिर लाला ने पूछा क्या करते हो  ? तो वह बोला  - मैं एक मल्टीनेशनल कंपनी में साइंटिस्ट हूं ।तब लाला बोला -अच्छा तो आप महू के बेटे हो; महू तो हमारा ही ग्राहक था। अनुभव बोला जी पिताजी आपके ही ग्राहक थे । फिर वह आगे बोला- "शायद आपको याद हो न हो लेकिन मुझे तो आज भी बीस बरस पहले की वह सारी घटना याद है। मैं बीमार था मेरे पिताजी मुझे दवाई लेने बाजार आए थे ।उनके जूते फटे हुए थे । बारिश लगी थी ।बारिश का सारा पानी जूतों में जा रहा था ।मैं उस समय दस वर्ष का था ।वह आपकी दुकान पर आए और आपसे उधार में जूते मांगे । उन जूतों का मूल्य उस समय दस रुपए था । परंतु आपने उधार में जूते देने से यह कहकर इंकार कर दिया कि यह बहुत महंगे जूते हैं आपकी हैसियत से बाहर हैं । इतने महंगे जूते मैं आपको उधार नहीं दे सकता । आपने दूसरी तरफ रखे हुए जूते दिखाते हुए कहा था कि "आपने लेने ही हैं तो ये दो रुपए वाले ले लो उधार में।" पिताजी को यह बात चुभ गई । वे उन्हीं फटे जूतों में वापिस घर आ गए। जबकि पिताजी आपके पास ही पूरे परिवार के लिए जूते खरीदा करते थे । उस दिन मुझे बहुत बुरा लगा था। फिर वह आगे बोला - ये जूते मैं अपने पापा के लिए ही ले रहा हूं । लालाजी वक्त बदलता रहता है ।यह कहकर वह दुकान से बाहर आ गया । अब समय के पदचिन्ह लाला के मानस पटल पर उभर आए थे । वह निरुत्तर सा होकर अनुभव को तब तक देखता रहा जब तक वह अपनी कार में न बैठ गया ।
- अशोक दर्द
डलहौजी - हिमाचल प्रदेश
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क्रमांक : -. 008

दहेज़
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        अभी एक माह  भी नहीं नहीं हुआ था गीता की शादी को कि बेटी अचानक घर आ गई। मां ने पूछा,'' बेटी तू ठीक तो है ना---?''
       हाँ माँ ! उत्तर देते हुए बेटी का गला रुंध गया----।
      '' परन्तु यह तेरे शरीर पर नीले - लाल निशान कैसे हैं?''
         '' माँ ! कुछ नहीं तू चिंता न कर ।"
        " लेकिन माँ तो माँ होती है उसे चैन। कहाँ, उसने फिर पूछा ।"
         " फिर भी ।"बता तो सही क्या हुआ?
        " बेटी ने आँख में आँसू लिए कहा, यह तो माँ रंगीन टेलीविजन के बिगड़ते कार्यक्रमों की कुछ झलकियां हैं-----।"
       " बस फिर क्या था माँ को समझने में देर नहीं लगी।"
        
                       - अशोक विश्नोई
                मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक : - 009

सौंदर्यीकरण
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"अरे वाह, आज तो बहुत इठला रहे हो भई", हाईवे के डिवाइडर पर लगे पीले कनेर के फूलों ने गुलाबी कनेर के फूलों से कहा । " हाँ , हाँ, तुम भी तो मस्त हवा में झूम कर अपनी खुशी का इज़हार कर रहे हो, गुलाबी कनेर बोला। "अब की बार ईश्वर की मेहर ही इस प्रकार हुई है , सो हमारा इतना तो फ़र्ज़ बनता ही है क्यों, है ना ? सही कह रहे हो भाई। बरसती बरखा में हम खिलते, निखरते हैं, प्रफुल्लित होते हैं तो हमें देखने वाले भी कितने खुश होते हैं। हाँ, यह ईश्वरीय अनुकंपा है, कुदरत का सुंदर उपहार है,सभी के लिए।"  अचानक अपनी ओर एक मानव को हाथ में हंसिया लेकर आते हैं देख दोनों ही फूलों के झाड़ जरा सहम गए -"  यह क्यों आ रहा है हमारी ओर? "
उन्होंने ठेकेदार को बेलदार को कहते हुए सुना, " यह सभी झाड़ की कटाई छँटाई आज पूरी हो जानी चाहिए हर एक में सिर्फ एक बीच की शाखा छोड़ना, ठीक है? बेतरतीब से यहां - वहां फैले जा रहे हैं। और सुनो जितना काटो, उसकी सफाई भी कर देना। निपटा कर ऑफिस में हाजिरी देना, समझे?"  ”जी साहब,  आपका जैसा हुकुम।" बेलदार हाथ जोड़ते हुए बोला। शाम तक हँसते - खेलते,फलते - फूलते  सभी पीले, गुलाबी, लाल कनेर के फूल अपनी शाखों सहित ज़मीन  पर धाराशायी हो चुके थे। स्मार्ट सिटी के सौंदर्यीकरण के नाम पर सावन में पेड़, पौधों, फूलों इत्यादि की आहुति दी जा चुकी थी।
    - डॉ. विनीता अशित जैन.
       अजमेर - राजस्थान
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क्रमांक : - 010

बँटवारा
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पापा द्वारा ख़रीदा गया घर जहाँ बचपन तो नहीं हाँ किशोरावस्था बिता था।जहाँ से डोली उठी थी…शहनाई की गूँज और ढोलक के थाप की मधुर यादें अब भी ताज़ा थी।उस मकान के दस्तावेज भाइयों के कहे अनुसार वकील साहब ने तैयार कर लिए थे।
कोर्ट की ठंडी सीट पर बैठे हुए सीमा के हाथ पसीने से तर थे।आज सीमा का गला रह -रह कर भर जा रहा था।आँखों के कोर सूख ही नहीं पा रहे थे।
वह भारी मन से निशांत के साथ रजिस्ट्री ऑफिस में अपनों संग घिरी बैठी हुई थी।वहाँ माँ थी दोनों भाई,भाभी थे।सभी रजिस्ट्रार के आने का इंतज़ार कर रहे थे।
“दीदी ,कुछ खाइएगा?”भाभी मुझसे दो तीन बार पूछ चूकी थी।आज भाभी की वाणी से शहद टपक कर रहा था।
सीमा की भूख मर चूकी थी।बार- बार पापा की तस्वीर आँखों के सामने तैर जाती।
क्या पापा होते तो ऐसा होता ?मन ही मन सीमा अंतर्मन के झंझावात  से जूझ रही थी।जहाँ -जहाँ वकील ने साइन करने को कहा सीमा ने बिना कुछ सोचे कर दिया।
हस्ताक्षर की रस्म निभा कर घर आ गई।
‘भाइयों के आँख में ज़रा भी पानी नहीं बचा…
माँ भी तो मूक दर्शक बनी रही।’
निशांत ने सांत्वना देते हुए कहा-“अरे,सीमा अब छोड़ो ग़ुस्सा थूक दो, ज़्यादा मत सोचो ज़्यादातर ऐसा ही होता है।चाहे लाख कानून बन जाए।”
“नहीं निशांत ,मैं चिंतित हूँ कि दीदी को जब पता चलेगा तो…दस्तावेज में तो उनके नाम का ज़िक्र तक नहीं है।”
- सविता गुप्ता
राँची- झारखंड
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क्रमांक : - 011

बिटिया तेरे रूप
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         बड़ा सात्विक वातावरण था।  एक के बाद एक मनमोहक गूँज रहे थे जिन्हें गा रही थी बीस इक्कीस साल की साड़ी में लिपटी एक सलोनी-सी नवयुवती जो भारत में बहुत प्रसिद्ध हो चुकी थी उसके भजन यूट्यूब पर भी धूम मचा रहे थे।
         आज तक तो फिल्मी गानों का ही क्रेज देखा था पर आज पंडाल में हजारों नवयुवक, नवयुवतियाँ, सभी स्त्री-पुरुष और बच्चे नाचने-गानें में व्यस्त थें।
सबइंस्पेक्टर राजन की ड्यूटी लगी हुई थी। इस बहाने उन्हें यह सात्विक वातावरण जीने का मौका मिला तो जैसे उनका भी मन  मंदिर-सा हो गया, बहुत दिनों बाद शहर में ऐसा आयोजन हुआ था। हर पुरुष की आंखों में उस बिटिया के प्रति बस सुन्दर पवित्र, भावना  ही नजर आयी। सब उसकी मधुर आवाज में इस कदर डूब गये, जैसे हवा में कोई महक घुल गई थी।
         उस बिटिया के चेहरे का तेज, सात्विक वातावरण फूलों की वर्षा, भजन-संगीत सुनकर पुलिसिया महकमे से हटकर जैसे किसी मंदिर से लौटते हुए राजन खुद को गौरवान्वित महसूस कर रहे थे ... घर आकर जैसे ही अंदर आए तो अपनी बिटिया को फटी जींस और छोटे से टॉप में देखकर बौखला गये और चिल्लाकर बोले, "शर्म नहीं आती तुमको कितनी बार कहा है यह कपड़े मत पहना करो ... मुझे बिल्कुल पसंद नहीं है ... समझ में नहीं आता तुमको!"
         बिटिया खिसिया गयी, बोली, “क्या हो गया पापा? आप ही ने तो यह कपड़े दिलाये थे।"
राजन का पारा सहसा उतर गया और वे सामान्य होते हुए अपने कान पकड़ कर बोले- "हाँ बेटा, मुझसे गलती हो गयी ... काश! मैं भी तुम्हें उस बिटिया के जैसे संस्कार दे पाता!"
- अपर्णा गुप्ता
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक : - 012

रेशमी रूमाल
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   "अरे! यह क्या गिरा हुआ है...?" 
झाड़ू करती हुई सलोनी ने उसे उठा कर मुझे देते हुए कहा।
"कहाँ मिला यह तुम्हें?"
लगभग झपटते हुए मैंने उसके हाथों से छीन लिया। वह थोड़ी सहम गयी, बोली,
"यहीं आलमारी के नीचे था, ऐसा क्या है इसमें? देखने में तो एक छोटा-सा रूमाल लग रहा है।"
"बहुत खास है यह मेरे लिए, तुम नहीं समझोगी। जाओ एक कप चाय बनाकर ले आओ।"
  फिर धीरे से उस रेशमी रूमाल को खोला जिसपर चाय से ' I L U ' लिखा हुआ था। मैंने यादों का झरोखा खोला तो आँखों के सामने वही रेस्तरां नजर आया…
"अरे, क्या कर रहे हो? लोग खून से I L U लिखते हैं और तुम चाय से?"
"हाँ, क्योंकि तुम्हें दुनिया में सिर्फ दो ही चीजें पसंद हैं,... एक मैं और दूसरी ये चाय।"
"और मैं मरते दम तक दोनों को नहीं छोड़ सकती।"
'काश! मैं थोड़ी सी हिम्मत कर पाती और जात-पांत के जंजीरों से जकड़े समाज से विद्रोह कर पाती तो चाय के साथ-साथ आज इस 'रेशमी रूमाल' की जगह तुम होते।'                  
     — गीता चौबे गूँज
         बेंगलूरु - कर्नाटक
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क्रमांक : - 013

धुँधली यादें
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बधाई देने वालों का ताँता लगा है । आज राजेश 'व्यथित' जी को उपन्यास 'धुँधली यादें ' पर ज्ञानपीठ पुरस्कार मिला है ।
"व्यथित जी लोग कहते हैं यह उपन्यास आपके जीवन पर आधारित है, "एक पत्रकार ने पूछा  ।
"हर कहानी किसी न किसी के जीवन से निकल कर आती है । यह आवश्यक नहीं वह अपने जीवन से ही हो ,"व्यथित जी बातें बनाकर अन्यत्र चले गए ।
"कल का असफल प्रेम आज सफलता के झण्डे गाड़ रहा अगर तुम मिल गयीं होतीं तो 'धुँधली यादें 'कहाँ होती,"मन ही मन सोच कर  व्यथित जी मुस्कुरा उठे ।
  - सीमा वर्णिका
कानपुर - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक : - 014
           
अपकृत्य
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    " ये देखो,ये  लेखिका  अ.....पहले तो अपनी रचना के साथ खुद के  बहुत से फोटो भेजती थी ! "  मैंने सहायक सम्पादक से कहा,"और पूछती थी मेरा फोटो  जरूर लगाना l कभी बोलती थी-ये नही ,ये वाला फोटो  लगाना था  मेरा। "
सुनकर सहायक ने यकायक  अपना चेहरा गम्भीर कर लिया।
"और अब  पता नहीं क्या हुआ? अब   सिर्फ़ रचना भेजती है, फोटो की बात करते ही  भड़क जाती है lकोई बीमारी हो गई है शायद इसे। "

  " सर, बीमारी उसे नहीं, समाज के एक  सड़े दिमाग के  कीड़े को  थी।"
      " क्या मतलब?"
"उसके चेहरे पर एसिड अटैक हुआ है! "
- सन्तोष सुपेकर
उज्जैन - मध्यप्रदेश
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क्रमांक : -‌015

जाने कब होगी
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“राम जी की जय।“
वह जयकारे लगाते हुए नाच रहा था।
सामने से एक और समूह आया, जिसमें भावबद्ध आवाज़ में ‘जय श्री राम’ का घोष हो रहा था।
दोनों दल एक दूसरे के सामने पहुंचे।  उसके समूह का अगुवा “राम जी की जय‘ कहते हुए उस दल की तरफ बढ़ा, उस दल का अगुवा भी आगे बढ़ा।
और दोनों एक-दूसरे के गले मिल गए।
वहीं खडा कोई तेज़ आवाज़ में बोला, “राम-भरत मिलाप।“ जिसे सुन प्रेमवश उसकी आँखों से आँसू भी आ गए।
यह देख उसके समूह के सभी लोग आगे बढ़कर दूसरे समूह के व्यक्तियों से गले मिलने लगे, वह भी दूसरे समूह के एक अन्य व्यक्ति  के गले लग गया। सामने वाला भी उससे कस कर गले मिला।
कुछ क्षणों बाद दोनों ने एक दूसरे को छोड़ा, उन्होंने पहले एक-दूसरे का चेहरा नहीं देखा था तो सबसे पहले एक-दूसरे के चेहरे देखे।
और चेहरे देखते ही दोनों की आखों में खून उतर आया।
वे दोनों सगे भाई थे और अपने पैतृक मकान पर अपना-अपना दावा किए हुए थे।
“राम-भरत मिलाप।“ का घोष लगातार हो रहा था।
- डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
उदयपुर - राजस्थान
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क्रमांक : -. 016

सरप्राइज
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  रोहित की हँसी रुक नहीं रही थी। जब से उसकी शादी हुई थी, गृह- कार्य में अनाड़ी उसकी दुल्हन से घर के सभी बड़े नाखुश थे। लेकिन आश्चर्य की बात थी,घर के सारे बच्चे उससे बेहद खुश थे। इतना ही नहीं, सब के सब उसके फैन थे। घर के बड़े- बुजुर्ग के सामने यह रहस्य बना हुआ था। वे समझ नहीं पा रहे थे कि वह बच्चों में इतनी प्रिय क्यों है? लेकिन आज उसका पर्दाफाश हो गया था। पड़ोस में रहने वाली चाची आई थी। उन्होंने बताया कि आप लोग जब दोपहर में आराम करते हैं, उस वक्त आपकी बहु रानी बच्चों के साथ पिछवाड़े में होती है। वह उनके साथ खेलतीं हैं । जामुन के पेड़ पर चढ़कर डालियाँ हिलाती है,ताकि पके जामुन नीचे गिर जायें।फिर नीचे गिरे जामुनों को बच्चे इकट्ठा करते हैं और उसे सब मिलकर खाते हैं। अम्मा ने अपना माथा पीट लिया। फिर उसकी दुल्हन को बहुत डांट पड़ी। रोहित उसका मूड ठीक करने के लिए ही बाहर घुमाने ले आया था। वह बोला," यह तो बड़ा सरप्राइज है कि तुम पेड़ पर चढ़ जाती हो ।"
  "अब तुम भी मेरा मजाक उड़ा लो। माँ के गुजरने के बाद मेरे घर में कोई महिला नहीं थी। मैं अपने दोनों भाइयों के साथ बड़ी हुई हूँ। इसलिए  मुझे लड़कों वाले खेल पसंद हैं।"... रुआँसी होती हुई वह बोली।
   तभी रोहित के मोटरसाइकिल को एक ऑटो वाले ने धक्का मार दिया। वह गिर पड़ा। साथ में उसकी दुल्हन भी। रोहित के पैर में ज्यादा चोट आई थी। वह खड़ा भी नहीं हो पा रहा था ।
  "अब घर कैसे जाएंगे?"... वह परेशान था ।
  "तो एक और सरप्राइस के लिए तैयार हो जाओ।"... कह कर उसकी दुल्हन मोटरसाइकिल के ड्राइवर वाली सीट पर बैठ गई और मोटरसाइकिल स्टार्ट कर उसे अपने पीछे वाली सीट पर बैठने के लिए इशारा करने लगी।
   रोहित मुस्कुरा उठा...असली सरप्राइज उसे अब मिला था।
       - रंजना वर्मा उन्मुक्त
        रांची - झारखण्ड
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क्रमांक : - 017

संवेदनाओं के स्वर
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ब्रूनो बहुत उदास था। दो दिन से उसने कुछ खाया भी नहीं था। अन्न का दाना मेरे हलक के नीचे भी नहीं उतर रहा था। तो क्या ब्रूनो की उदासी मेरे अंदर भी घर कर गई थी?
     ब्रूनो और ऑस्कर एक साथ ही आए थे हमारे घर। ऑस्कर बड़े भैया के यहां और ब्रूनो मेरे। पारिवारिक मतभेद के चलते हम अलग हो गए थे। फिर तो ऑस्कर को भैया के साथ जाना ही था। सोचा था कि अलग होने से लड़ाई खत्म हो जाएगी मगर यहां तो चारों तरफ़ उदासी पसर गई थी।
   आज तो इसके शरीर ने हरकत करना भी बंद कर दिया था। खुली आँखों से जैसे वह किसी का इंतजार कर रहा हो। गहरी सांँस लेते हुए मैं सोच में पड़ गया, इस तरह तो यह मर जाएगा। इसी कश्मकश में मैंने उसे उठाकर गाड़ी में लिटाया और डाक्टर को दिखाने चल पड़ा।
उधेड़बुन में ड्राइव करते-करते ना जाने कब गाड़ी भैया के घर के सामने जाकर रुक गई। मैं सकते में आ गया। उफ़ अब मैं क्या करूं?
अचानक ब्रूनो की सांँसें तेज़ी से चलने लगी। वह सिर उठाकर इधर- उधर झांँकते हुए भौंकने लगा।
ऑस्कर को भी शायद ब्रूनो की गंध लग गई थी। अंदर से उसके भौंकने की भी आवाजें आने लगीं।
इससे पहले मैं कुछ करता। सकपकाए से भैया बाहर निकल आए। मैं गाड़ी से नीचे उतर गया मगर उनसे नज़रें ना मिला पाया।
ऑस्कर ने आकर गाड़ी को सूंँघना शुरू कर दिया। भैया ने आगे बढ़कर गाड़ी का दरवाज़ा खोल दिया। ब्रूनो कूदकर बाहर की ओर लपका और ऑस्कर से जा लिपटा।
"इंसानों से अच्छे तो यह जानवर है!" कहते हुए भैया ने मुझे गले से लगा लिया।
- सीमा वर्मा
लुधियाना - पंजाब
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क्रमांक : - 018

एक लेखक की मौत
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पुस्तक लोकार्पण का कार्यक्रम चरम पर पहुंच गया। मंच पर विराजित सभी विद्वान अतिथियों ने नवोदित कवि की शान में बेहतरीन कसीदे पढ़े। पुस्तक चर्चा में शहर के नामचीन समीक्षक ने काव्य संग्रह की प्रशंसा करते हुए कहा "युवा कवि रत्नेश की कविताओं में जीवन का अनुभूत सत्य उजागर होता है। इनकी पुस्तक मौलिकता का जीवंत दस्तावेज है । निकट भविष्य में शोधार्थियों के लिए युवा कवि का यह काव्य संकलन मिल का पत्थर साबित होगा।"
कुछ प्रायोजित अति उत्साहित छात्रों ने शोध हेतु नवोदित की पुस्तक का चयन भी कर लिया।
समारोह समाप्ति की घोषणा होते ही खचाखच भरी दर्शक दीर्घा में बैठे एक सफेद खिचड़ी दाढ़ी वाले बुजुर्ग लेखक लड़खड़ाकर दबी हुई आवाज में अचानक उबल पड़े "क्या खाक मौलिकता का जीवंत दस्तावेज है। आज से पचास साल पहले लिखी मेरी कविता को इस चौर्य कर्मवीर ने जैसी  तैसी उतार कर अपने संग्रह में छाप दी।  मैं आज भी पुराने अखबारों की कटिंग और पांडुलिपियां लिए घूम रहा हूं।"
इतना कहकर बुजुर्ग लेखक ने अपने गंदे झोले से कागजों का बंडल निकालकर  हवा में उछाल दिया।
लोकार्पण समारोह समाप्ति की सूचना होते ही दर्शक दीर्घा की भीड़ फर्श पर बिखरे पड़े पन्नों को पैरों तले रौंदती हुई बाहर निकल गई। मूर्छित बुज़ुर्ग की आंखों के सामने अंधेरा छा गया।

-  रमेश चंद्र शर्मा
इंदौर - मध्यप्रदेश
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क्रमांक : - 019

दिमाग का खेल
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     फ़ोन की घंटी से मेरी नींद खुली। उधर से मेरा दोस्त अनूप अपने किसी दोस्त के घर चलने के लिए बोला।
मैंने जानना चाहा, मगर मिलने पर बताने और जल्दी तैयार होने को बोला।साथ ही वह यह भी बोला कि वह थोड़ी देर में पहुंच रहा है।
    मुझे महसूस हुआ कि उसके स्वर में कुछ चिंता थी।
खैर.....! मैं बिस्तर से निकला और नहा धोकर तैयार हो गया।
श्रीमती जी ने शायद हमारी बातें सुन ली। जब तक मैं तैयार हुआ, दो जगह नाश्ता हाजिर हो गया।
   अनूप भी पहुंच गया।न नुकुर के बाद श्रीमती जी का कहना टाल नहीं सका। मगर चाय पीते हुए ऐसा लग रहा था कि वो रो देगा।
      मैं तो कुछ बोल न पाया लेकिन श्रीमती जी ने पूछा ही लिया तो वह खुद को रोक न सका और रो ही पड़ा।
     अब मुझे बोलना पड़ा - यार रोना बंद कर पूरी बात बता।तभी कुछ हल निकल सकता है।
    अनूप ने संक्षेप में सारी कहानी कह दी।
    अब श्रीमती जी ने हम दोनों से कहा - मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि आप लोग अब तक हाथ पर हाथ रखकर क्या बहन के मरने के इंतजार करते रहे।
     मुझे तो कुछ पता ही नहीं था, मगर अनूप भी कुछ बोल न सका।
       श्रीमती जी ने आदेशात्मक अंदाज में कहा मैं भी  साथ चलती हूं।सारा विवाद आज ही खत्म हो जायेगा।बस आप दोनों को सबकुछ चुपचाप सुनना होगा। बाकी मैं संभाल लूंगी।
सहमति के अलावा कोई रास्ता न था।
हम तीनों बहन के घर पहुंच गए। हल्के प्रतिरोध के बीच श्रीमती जी बहन से मिलीं। क्या बात हुई, ये तो पता नहीं, मगर जब वो बाहर आई तो संतोष का भाव उनके चेहरे पर था।
    चलते चलते एक बार सबको ये ताकीद करना भी न भूली कि इस बात का ध्यान रहे कि यदि मेरी बहन को खरोंच भी आती है, तो आप सपरिवार जेल में सड़ने के लिए तैयार रहिएगा।अब तक जो आप सबने किया वो सब रिकार्ड हो गया है। यह मत सोचिए कि मेरा मोबाइल छीन कर आप बच जायेंगे। पुलिस कप्तान मेरा भाई है, उसे मैंनें रिकार्डिंग भेज दिया है।
     बस! वो तब तक चुप रहेगा, जब तक आप लोग शरीफ़ बने रहेंगे।
    और हम वापस हो गए।
श्रीमती जी के दिमाग ने गंभीर होती समस्या का हल चुटकियों में दे दिया।

- सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा, उत्तर प्रदेश
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क्रमांक : - 020

दोषी कौन ?
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आज शहर के नामी स्कूल में" बाल दिवस" मना कर  लौटते समय स्थानीय विधायक राम प्रसाद जी अत्यंत प्रसन्न थे।स्कूल में महकते-चहकते फूल रूपी विद्यार्थी जो देश का भविष्य हैं,देखकर राम प्रसाद जी का सेर खून बढ़ जाता।वह सोचता कौन जाने इन बच्चों में कितने भारत के भाग्य विधाता होंगे।अचानक तेज झटके से कार रुकी तो वह वर्तमान में लौट आये।
     अरे रमेश!क्या हुआ?गाड़ी क्यों रोक दी?राम प्रसाद जी  ने पूछा।
   साहब,एक तो रेड लाइट है,दूसरा जाम लगा हुआ है।ड्राइवर ने बताया।
        राम प्रसाद जी अब ध्यान से बाहर देखने लगे तो उनकी नजर सामने "नारी सशक्तिकरण "के आदमकद बोर्ड पर पड़ी।वह मन ही मन खुश हुए कि आज हमारे देश की नारी नये कीर्तिमान स्थापित कर रही है।उस की तंद्रा तब भंग हुई जब कार के शीशे पर ठक-ठक की आवाज सुनी।एक लड़की शनि देव की मूर्ति लेकर भीख मांग रही है।एक लड़का भूखे होने का इशारा करके खाने को मांग रहा है मानो गूंगा हो।
    चल भाग यहां से भीख मांगने के लिए ढ़ोंग कर रहे हो निकम्में कहीं के---स्कूल क्यों नहीं जाते?ड्राइवर की झिड़क सुन कर दोनों बच्चे अगली कार की तरफ हो गए।
राम प्रसाद जी ने सड़क की दूसरी तरफ देखा, एक औरत पीठ पर बच्चे को लाद कर भीख मांग रही है और  एक अबोध बालिका नंगे पांव हाथ ठेले में अपाहिज बनी मां और भाई को खींच रही है।
    राम प्रसाद ने दुखी होकर लंबी सांस लेकर ड्राइवर से कहा," सरकारी स्कूलों में बच्चों को निःशुल्क दाखिला दिया जाता है।दोपहर का सभी को भोजन और गरीब बच्चों को  बहुत सी सहूलियतें दी जाती हैं लेकिन यह कैसे मां-बाप हैं जो बच्चों से भीख मंगवाते हैं।मैं विदेशों में भी घूमा हूँ, वहाँ ऐसे कोई भीख मांगते नहीं देखा।
    राम प्रसाद जी ने देखा बहुत सारे लोग इन भीख-मंगों को दया द्रष्टि से और कुछ लोग पीछा छुड़ाने के लिए कुछ न कुछ दान  दे रहे हैं।राम प्रसाद समझ नहीं पा रहे थे कि भीख देने वाले दोषी हैं या लेने वाले?

- कैलाश ठाकुर
नंगल टाउनशिप (पंजाब)
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क्रमांक : - 021

बहती गंगा
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बहुत जतन या यूँ कहें रमेश की जो नौकरी लगी मन्नतों ,दूआओं का ही असर है,कहते थे सब।
नौकरी हो गई ,नौकरी हो गई.. पुरे कस्बे में बात फैलते देर न लगी।
दिनभर लोगों का आना-जाना ,बैठक में बैठ सबसे बड़े गर्व से मिलते पिताजी बार-बार ठहाके लेकर हँसते।
सब बहुत खुश थे.."अब तो दुख के दिन छँट गये भाई!.रमेश अब सरकारी आदमी हो गया। आपको अब क्या चिंता करना।"
रमेश के चेहरे पर कोई खुशी नहीं थी। इस अधेड़ावस्था में नौकरी का सुख काँटे की तरह चुभ रहा था।
घर के खर्चे,बच्चों की परवरिश, पढ़ाई-लिखाई, फिर दोनों बेटी की शादी,माँ-बाबूजी की तीर्थयात्रा और अब अम्मा ने जो मन्नतों की लिस्ट थमाई थी..जिंदा रहते शायद ही पुरा हो पाए।
अम्मा पर बड़ा गुस्सा आ रहा था।
" क्या जरुरत थी इतनी मन्नत  की...पूजा -पाठ में खर्चे क्या कम लगते हैं,उसपर रिश्ते-नाते सब को बुलाना,उन्हें सम्मानपूर्वक बिदा करना,दान-धर्म भी साथ-साथ।"
एकबार अपने आप पर ग्लानि भी होने लगी,माँ की ममता का तुम्हें कोई ख्याल नहीं।कहाँ-कहाँ न पत्थर पूजे..आखिर पत्थर दिल पिघल ही गया।
पर बड़ी देर कर दी पिघलने में...
अपना सर थामे देर तक सोंच में डूबा बैठा रहा...
"ये नौकरी ने तो मुझे उम्मीदों तले दबा ही दिया,कहाँ से सब कर पाऊँगा मैं..एक मामूली किरानी की नौकरी है।"
"ये अलग बात है कि छोटी रकम की सलामी मिलती रहेगी।इससे सब पूरा हो पायगा क्या..?" 
इसी सोंच में दिमाग की नसें थक गई और नींद हावी हो गया।
कुछ पल ही बीते थे कि पत्नी की खुरदुरी हथेली माथे पर घुम रही थी।सहलाते हुए बड़े ही प्यार से बोली!."एक बात बोलनी थी,पहली पगार में हम दोनों कहीं पास में ही बाहर घुमने जाएँगे और बाहर ही खाना भी खाएँगे।ठीक है न।"
नींद से बोझिल आँखे आधी-अधूरी बात पर हाँ,हूँ निकली ली।
"राम जी सब दुख हर लेगें अब हमारी!..कुछ गहने ,साड़ियाँ भी ले लुँगी।
बहुत हो गया मन को मारकर जीना।"
सुना है कि किरानी का पद बहती हुई गंगा है। फिर चिंता किस बात की..हम-सब तर जाएँगे।

- सपना चन्द्रा
भागलपुर - बिहार
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क्रमांक : - 022

बाजार की मांग
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"गुरुदेव एक जिज्ञासा है मन में।" प्रवचन कर्ता गुरु से शिष्य ने निवेदन किया ।
"कहो शिष्य क्या जिज्ञासा है?"
"गुरुदेव पिछले दस वर्षों से आपके साथ हूं। पहले आपके प्रवचन में केवल माताओं बहनों को संदेश हुआ करता था। सिर पर आंचल रखो,पति की आज्ञा मानो,  सास ससुर की सेवा करो...किंतु आजकल देख रहा हूं आप पतियों को संदेश दे रहे हैं। कि जो पति, पत्नी का सम्मान नहीं करेगा लक्ष्मी उससे रूठ जायेगी।सुख शांति उससे दूर हो जायेगी, उसकी तरक्की रुक जायेगी...!यह परिवर्तन समझ नहीं आया गुरुदेव।"
"शिष्य ! तुममे अभी ज्ञान का अभाव है, इसलिए समझ नहीं पाए। दरअसल यह बाजार की मांग है। अगर आपको सफल होना है तो बाजार की हवा के अनुसार चलो।"
"मैं समझा नहीं!"
"समझाता हूं ,बहुत सी बातें है ,पहली तो देश की राजनीति हवा इस समय माताओं बहनों के पक्ष में है।और जिधर राजनीति की बयार हो हमें उसी दिशा में रुख किए रहना चाहिए इससे हम बचे रहेंगे।"
"ठीक, और?"
"और... बताओ हमारे प्रवचन में किन श्रोताओं की संख्या अधिक होती है ?"
"यकीनन माताओं बहनों की।"
"फिर उनसे पंगा लेकर क्या अपनी दुकान बंद करवानी है हमें?"
"समझ गया गुरुदेव।"
....०००....
- डा. लता अग्रवाल "तुलजा"
भोपाल - मध्यप्रदेश
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क्रमांक : - 023

पक्की सहेली
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  "हैलो"
  "..."
  "कैसी हो विनी ?"
  "आप कौन ?"
  "अरे, मैं रोमा बोल रही हूँ।"
  "ओहो! कैसी हो रोमा ? इतने दिनों बाद याद
  किया ?"
  "मैं ठीक हूँ। लेकिन तुम तो मेरी आवाज भी
  भूल गई।..?"हँसते हुए रोमा ने कहा।
  "अरे नहीं तुम्हारा नम्बर सेव नहीं है और इतने          दिनों बाद बात हुई तो कन्फ्यूज हो गई।"
  "चलो कोई बात नहीं। सुनो मैंने एक पार्टी रखा है। तुम सबको आना है।"
  "अच्छा ! किस बात की पार्टी है, ये तो बता दो ।"
  "वो सिक्रेट है। यहाँ आओ तब बताएँगें। देखो कोई बहाना नहीं चलेगा। चार-पाँच घंटे का ही रास्ता है, आना जरूर।"
  "अच्छा ठीक है। बाकी सब कैसे हैं, बच्चे वगैरह ?"
   "सब ठीक हैं। बाकी बातें मिलने पर करेंगे मैं कुछ जल्दी में हूँ, कुछ को फोन करना है।"
   "ठीक है, बाय..?"
   "बाय,बाय।..." कहते हुए फोन कट कर दिया रोमा ने।
वहीं सब सुन रहे रोमा के पति विवेक ने कहा "सुनीता को भी बुला रही हो ?"
"नहीं नहीं, उसे नहीं बुलाऊँगी।"
"क्यों वो भी तो उसी शहर में है और तुम्हारी पक्की सहेली भी।"
  "उसने जब पार्टी दी थी तो मुझे कहाँ बुलाया था ?"
   "पर..." मुँह की बात अंदर ही रह गई पतिदेव की।
रोमा एकदम से बोल पड़ी "उसी को तो मजा चखाना है, इसीलिए विनी को बुलाया है।.. खैर आप नहीं समझोगे।"
-पूनम झा 'प्रथमा'
  जयपुर - राजस्थान
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क्रमांक : - 024

स्वयं लिखी

   उस दिन काव्य-पाठ प्रतियोगिता को जज करने में मेरी भी ड्यूटी लगी थी। इस प्रतियोगिता में हमारे ही कॉलेज के छात्र-छात्राएं भाग ले रहे थे। प्रतियोगियों से कहा गया था कि कविता सुनाने से पहले उन्हें बताना होगा कि कविता उनकी अपनी है या किसी दूसरे कवि की? अगर किसी दूसरे शायर की है तो उसका नाम भी बताएं। एक लड़की ने अच्छी प्रस्तुति के साथ एक अच्छी कविता सुनाई और यह भी कहा कि "कविता स्वयं मेरे द्वारा लिखी गई है।" मुझे संदेह हुआ कि एक बी.ए. की लड़की इतनी अच्छी कविता नहीं लिख सकती। वह मंच से उतर कर अपनी सीट पर जाने लगी तो मैंने उसे रोका और पूछा, "बेटा, क्या यह कविता तुमने खुद लिखी है?" "हाँ सर," उसने बेझिझक कहा। जब परिणाम घोषित हुआ तो उसे प्रथम स्थान प्राप्त हुआ। अगले दिन कक्षा में पढ़ाते समय मैंने उस लड़की से फिर पूछा, ''कल जो कविता तुमने सुनाई थी, वह तुम्हारी मौलिक थी?'' उसने पूछा, ''मौलिक क्या होता है सर?'' मैंने कहा , "जो स्वयं का लिखा हुआ हो।" उसने पूरे आत्मविश्वास से उत्तर दिया, "हाँ सर, मैंने ही लिखी है।" वह अपनी सीट पर गई और अपने बैग से एक नोटबुक लाई और मुझे दिखाते हुए बोली, "यह देखो सर, यह मेरी है, अपना लेखन। यह मेरी स्वयं की लिखी हुई है। यह मेरी ही लिखाई है, किसी से भी पूछ सकते हैं आप!" मैं घबराकर कभी उसे तो कभी उसकी नोटबुक को देख रहा था।”
                            
- प्रो. नव संगीत सिंह
बठिंडा‌- पंजाब
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क्रमांक : - 025

संशय
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" अरे बच्चों ! तुम दोनों कक्षा से बाहर क्यों खड़े हो ?"
अमित सुमित ने कोई जवाब नही दिया प्रिंसिपल ने पुन: पूछा फिर भी कोई जवाब नहीं अमित सुमित बस ! सिर झुकाए चुपचाप खड़े रहे । अंतत: प्रिंसिपल ने कक्षा के अंदर पढ़ रही शिक्षिका से ही प्रश्न किया-
" इन बच्चों को किस बात की सजा दी गई है?"
गर्वोक्ति पूर्ण लहजे में शिक्षिका ने कहा-
" सर ! ये बच्चे स्कूल कैंपस के अंदर परस्पर हिंदी में बातें कर रहे थे।"
इतना सुन प्रिंसिपल के  माथे पर बल पड़ गए और मुख से अचानक ही निकल पड़ा -
" ओ- हो "
उसी समय घंटी बज गई और अन्य बच्चों के साथ अमित सुमित भी अपना-अपना बस्ता उठाकर घर की ओर रवाना हो गए ।
                    अगले दिन कथित शिक्षिका को प्रिंसिपल द्वारा भेजा गया एक लिफाफा प्राप्त हुआ। लिफाफा देखकर वे खुशी से फूली नहीं समा रही थी,
" जरूर कल वाली घटना अर्थात् अंग्रेजी के प्रति मेरी कर्तव्यनिष्ठा हेतु प्रशंसा पत्र प्राप्त हुआ होगा"
       अति उत्साहित हो लिफाफा खोला, पत्र पढ़कर चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगी, पत्र में लिखा था-
" जवाब दीजिए कानून की किस धारा के अंतर्गत हिंदुस्तान में हिंदी में बात करना गुनाह है?"

- मीरा जैन
उज्जैन - मध्यप्रदेश
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क्रमांक : - 026

क्यों?
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क्यों? बस यही तो पूछा था उसने।
बस इतनी सी बात पर यह रिपोर्ट।
दहेज और शारीरिक शोषण का आरोप।
क्यों, नहीं पूछ सकता वह कि कहां रही
दिन भर? 
क्यों,नहीं जान सकता वह, कि पत्नी ने
उसके महीने भर की कमाई को एक सप्ताह
में ही कहां खर्च कर दिया?
क्यों, उसके प्रति हमेशा अपमानजनक
टिप्पणियां करती रहती है वह?
क्यों,उसकी पारिवारिक व्यवस्था को नहीं
संभाल रही वह?
क्यों? मिस्टर,आप पत्नी के प्रति  ऐसा
व्यवहार क्यों करते हैं? इंस्पेक्टर के इस प्रश्न
पर वह सोच से बाहर आया।
सर, क्यों?,इसका उत्तर ही तो मैं जानता
चाहता हूं।
-- डॉ. अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक : - 027

तनाव
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‌मैं आज सब से बहुत नाराज़ हूॅं। मेरा नाम‌ सभी बदनाम करते हैं।‌ जबकि मेरे ही नाम‌ से अपना उल्लू सीधा करते हैं।‌ अगर मैं इतना ही बुरा हूॅं ‌तो मुझे बुलाते क्यों हो? सच‌ में‌ मैं तो अमीबा की तरह‌ एक कोशिय‌ हूॅं। एक जगह पर अपनी तरलता और तरंगों को लेकर निश्चेष्ट पड़ा रहने में ही अपने जीवन की सफलता मानता हूॅं। मानव‌ के मस्तिष्क के एक कोने में  सुप्तावस्था में रहना स्वर्ग लगता‌ है।‌जब तक कोई मुझे धक्का नहीं‌ देता  मैं किनारे पर रखी नाव की तरह औंधे मुंह पड़ा रहकर राजी रहता हूॅं।
  पर आजकल ईश निर्मित सब  से बुद्धिमान जीव को ना जाने क्या हो गया है? साधारण सी बातों पर, छोटी सी नाकामी पर, असफलता के हल्के से धक्के से, कठिनाईयों को दूर से देखकर, अपने ही मन के काल्पनिक युद्ध‌  को आकार देता है और तिल का ताड़ बना देता है।‌ मुझे जगा कर मेरे नाम पर व्यक्तिगत, समाजगत और‌ देशगत सामंजस्य को आग लगाने में किंचित भी सोचता नहीं है।" चारों ओर तनाव फैल गया"
यह कह कर तांडव नृत्य करता है। जब तुझे मालूम है कि मुझे जितना बीच में से तोड़ने की कोशिश करोगे मैं वहीं से द्विगुणित होकर फैलूंगा , रक्तबीज की तरह तो क्यों ऐसा करते हो। मेरा तो शरीर ही ऐसा है कि मैं बिना पैरों के भी  आकार बदल कर गतिमान हो जाता हू्ॅं। फिर क्यों मेरे आकार को बढ़ाते हो। मैं हाथ तो जोड़ नहीं सकता पर प्रार्थना करना चाहता हूॅं कि अपनी कुचालें मुझ पर मत आजमाओ।क्षमा करो मुझे। बस पड़े रहने दो।
- डाॅ.नीना छिब्बर
जोधपुर - राजस्थान
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क्रमांक : - 028

चाय की प्याली
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रसोइए को निर्देश देकर चाय की प्याली और अखबार हाथ में लिए, निशा सुकून से बैठने आई थी।
            'कितनी व्यस्तताओं में बीते थे पिछले कुछ दिन! ये त्योहार तो आते ही हैं अपने साथ काम का अंबार लिए। हम महिलाओं के लिए तो खुशियाँ कम परेशानियाँ ही अधिक होती हैं। कितने भी मददगार रख लो, एक-एक काम की निगरानी तो रखनी ही पड़ती है, नहीं तो सब कुछ उल्टा-पुल्टा करके रख देंगे ये लोग। आज थोड़ा सुकून से बैठने का अवसर मिला है।'
         यही सब सोचते हुए उसने एक घूँट चाय की ली ही थी कि दरवाजे की घंटी बजी। माली आया था -
"मेमसाब! आपने कहा था पौधे मँगवाने हैं। अभी पड़ोस वाली मेमसाब बाजार भेज रही थीं तो सोचा आपसे भी पूछ ही लूँ।"
"हाँ-हाँ! अभी देती हूँ पैसे। जितनी क्यारियाँ तैयार हुई हैं अभी, उन्हीं के अनुसार ले लेना पौधे।"

माली को पैसे देकर चाय की तरफ बढ़ ही रही थी कि कामवाली का फोन आ गया-
"मैडम जी! मेरी तबीयत ठीक नहीं लग रही है, आज मैं काम पर नहीं आ पाऊँगी। मैंने अपनी बेटी को कहा है आपके घर चली जाएगी। लेकिन थोड़ी देर हो जाएगी तब तक आप देख लेना।"
"ठीक है, कल जरूर आना..."
धीमी आवाज में कहते हुए निशा ने प्याली हाथ में उठाई, चाय तो बिलकुल ही ठंडी हो गई थी उस पर मन भी दुखी हो गया था। चारों तरफ फैले-बिखरे घर को देखते हुए सोच रही थी कौन सा काम करे और कौन सा छोड़े। इतनी देर हो गई थी। अभी नहाना-धोना भी बाकी ही था। तभी राकेश का फोन आ गया--
"सुनो तैयार रहना, अभी आ रहा हूँ। तुम्हारे ड्राइविंग लाइसेंस के लिए अभी ही बुलाया है। तुम्हें भी साथ में रहना ही पड़ेगा।"
"अभी!! अभी कैसे जा सकती हूँ? अभी तो घर का काम भी नहीं हुआ है, मैं तो नहाई भी नहीं हूँ अभी तक।"
"अभी तक नहाई क्यों नहीं, क्या करती रहती हो?  सब काम के लिए तो आदमी रखे हुए हैं, तुम्हें कौन सा काम करना होता है? किस चीज में इतनी व्यस्त रहती हो? अभी सबकुछ छोड़कर जल्दी तैयार हो जाओ। बड़ी मुश्किल से समय दिया है उन्होंने अभी।"
                निशा सोचने लगी, 'बात तो सही है, सभी कार्यों के लिए तो अलग-अलग मददगार हैं ही, फिर भी उसका सारा समय कैसे बीत जाता है?'
'खैर! अब तो सबकुछ छोड़कर पहले तैयार ही होना पड़ेगा फटाफट। त्योहार हो या सामान्य दिनचर्या, जिंदगी की ये व्यस्तताएँ कभी समाप्त नहीं हो सकती हैं।'
उसने ठंडी हो चुकी चाय की प्याली पुनः  उठाई और एक साँस में ही उसे समाप्त करते हुए अपने कमरे की तरफ बढ़ गई।

- रूणा रश्मि 'दीप्त'
दुर्गापुर - पश्चिम बंगाल
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क्रमांक : - 029

बुढ़ापे के लक्षण 
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“मैंने अपने कंगन यहीं रखें थे।”सुप्रिया ने सिसकते हुए कहा।
“यहीं रखें थे तो कहां जाएंगे। थोड़ा तसल्ली से खोज लो।हो सकता है कि तुम और कहीं रखकर भूल गई हो।”विनय ने झल्लाकर कहा।
“ऐसा हो ही नहीं सकता! मैं यहीं तैयार हो रही थी और आलमारी खोलकर मैंने यहीं ड्रेसिंग टेबल पर रख दिए थे।बस थोड़ी देर के लिए बाहर बरामदे में चली गई थी,वह भी पड़ोसी रचना भाभी ने आवाज लगा दी थी, वरना मैं कहां किसी का भरोसा करती हूं।”
“फिर क्या कोई ड्रेसिंग टेबल पर से उठा ले गया। अच्छा बताओ,उस समय घर में और कौन कौन था।”
“घर में तो बस बहू काजल थी और अपनी कामवाली  रेशमा थी।बहू तो ऐसा कर नहीं सकती। कहीं ऐसा तो नहीं कि रेशमा ने ही हाथ की सफाई बता दी हो लेकिन हां याद आया, रेशमा तो अपना काम पूरा करके पहले ही चली गई थी।वह तो अच्छा हुआ कि मैंने उससे पूछा नहीं, अन्यथा कल से घर के काम की आफ़त आ जाती। हां,मन में यह विचार जरूर आ रहा है कि कहीं बहू ने तो!”
“उससे पूछ देखो, कहीं उसने देखें हों।”
“अरे नहीं,उसे लगेगा कि हम उसपर इल्जाम लगा रहे हैं।लेकिन हो न हो, गायब उसी ने किए हैं।”
“अगर ऐसा लग रहा है तो कह देना चाहिए। उससे पूछ लेना चाहिए था।मन में कोई वहम क्यों रखना! वैसे भी बिना विचारे किसी पर इल्ज़ाम लगाना  ठीक नहीं है।”
“पूछेंगे तो वह क्या सोचेगी। बेटे के दिल पर क्या गुजरेगी और फिर हमें बहू-बेटे के साथ ही तो जीवन गुजारना है।”
“तब मत पूछो। हां,एक बार दिमाग पर जोर देकर फिर से सोच लो कि कंगन तुमने वहीं रखें थे।”
“अरे हां,याद आया, मैंने कंगन वापस आलमारी में रख दिए थे जब रचना ने आवाज लगाई थी। देखिए बुढ़ापे में कैसा दिमाग हो जाता है।”कुछ देर सोचने के बाद सुप्रिया ने खिसियाते हुए कहा।
“देवी जी, ऐसा दिमाग रखकर बुढ़ापा मत बिगाड़ लेना, बुढ़ापे के ये लक्षण ठीक नहीं हैं।”कहकर विनय खिन्न मन से पुनः अखबार पढ़ने में व्यस्त हो गए।
- डॉ प्रदीप उपाध्याय
देवास - मध्यप्रदेश
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क्रमांक : - 030

मुक्ति मार्ग
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"हेलो.."
"हेलो.."
"अरे... क्या हुआ तुम्हें ? इतना धीरे क्यों बोल रही है बिल्कुल जैसे कछुआ चलता है  उसी तरह..।"
"हूं... "
"वैसे है कहाँ तू..?"
"अरे और कहाँ ..वहीं अपने छोटे से कमरे में.. दोनों भाई बहनों के साथ..।"
" तो फिर जा रही है ना आज शाम को उससे मिलने ."
"पर तेरे पास पक्की खबर है ना.."
"अरे हां, जब से उसने नया काम पकड़ा है एक अलग कमरा भी खोज लिया है, तभी तो शादी की सोच रहा है. "
" कहीं पिछली बार जैसा ना हो। तूने कहा था मां बाप का एक ही लड़का है, पर मां-बाप साथ रहने से तो कमरे में फिर वही चार जन हो जाते ना..।"
"अरे नहीं, पूरी खबर है.."
"...."
"हेलो... हेलो..."
" हां बोल.."
" क्या हुआ कहां खो गई.."
" कुछ नहीं यार बस सोच रही थी.."
"अब क्या सोचने लगी..?"
"मैं तो बिल्कुल भी ना करूं.."
" क्या शादी.."
"नहीं यार..  दस फुट बाई बारह फुट के कमरे में तीन बच्चे..ऊफ्फ.."
- कनक हरलालका
धूबरी - असम
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क्रमांक : - 031

मूक संवाद
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             रचित छुट्टियाँ खत्म करके अपनी सेना की सेवा में वापस जा रहा था और रीमा उसको दरवाजे तक छोड़ने आई तो --
    "तुम अब अंदर जाओ रीमा, मेरे पैरों में हमारा अंश बेड़ियाँ बन रहा है।"   रचित तिरछी नजर से देखता हुआ मन ही मन सोच रहा था।
      रीमा मन ही मन आश्वासन दे रही थी - "जाओ रचित मैं तुम्हारी आने वाली पीढ़ी को सहेज कर रखूँगी और आने पर तुम्हें सौंप दूँगी।"
       "तुम नहीं जानती रीमा, सीमा पर जाना मेरे वश में है, लेकिन वहाँ से वापस आना तुम्हारे भाग्य से होगा।" मन में एक द्वन्द्व लिए रचित भारी कदमों से आगे बढ़ रहा था।
      "तुम बेफिक्र होकर जाओ, मेरी साधना और तुम्हारा राष्ट्र समर्पण सदैव कवच बन कर रहेगा।"
         एक मूक संवाद करते दोनों आपस में दूर विपरीत दिशाओं में बढ़ गये।
- रेखा श्रीवास्तव
कानपुर - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक : - 032

मोह
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वृधाश्रम खुलने से  बुज़ुर्ग अब घर के एक कोने में उपेक्षित पड़े रहने की बजाय इन  में आकर रहने लगे।  हमारे शहर में भी  इस के बाहर एक वृधाश्रम खुल गया।   आज कॉलिज के विद्यार्थी की इस आश्रम में विज़ट रखी गई  थी ये  जानकारी प्राप्त की  जा सके कि  कैसे उनका समाजिक पुनर्वास हो रहा है समाज और सरकार इस। में क्या योगदान दे रही या दे सकती है।गाड़ी वृधाश्रम आ कर  रुकी स्टूडेंट्स  बस  से उत्तर कर वृधाश्रम की तरफ़  बढ़े और गेट के पास बने आफ़िस के पास पहुँचकर स्टूडेंट्स रुक गए।  स्टूडेंट्स के साथ आया रविंद्र दफ़्तर में दाख़िल हुआ और कुछ देर बाद वहाँ के सुपरवाइजर के साथ बाहर आ गया।   विद्यार्थी  को  वृधाश्रम के बारे बताने लगा,  "प्रधान जी की कोशिश से ये वृधाश्रम  बन के  तैयार कराया गया   है।  यहां तीस बुजुर्गों के रहने का प्रबंध है,  एक साथ रहने से इनकी  अकेले पन की समस्या दूर हो जाती  है।  यहां बुजुर्गों की जरुरतों का ध्यान रखा गया है। ये फर्श भी ऐसे बनाए गए  कि  इनके फिसलने  की संभावना न हो। मैस के साथ ही एक कमरे में टी वी  लगा हुआ है और बाहर  लान में कुछ  कुर्सी रखी हैं।“ जब वह ये सब कुछ बता रहा था  तो विद्यार्थी  भी अपने अपने सवाल पूछते जा रहे थे।  जब कमरा नंबर पचीस पर पहुंचे तो ऐसा  लगा विद्यार्थी के सभी सवाल खत्म हो गए होंकिसी को कोई सवाल नहीं सूझ रहा था। रविंद्र जो कि  इस वृधाश्रम में पहले भी आता जाता था और इसके साथ जुड़ा हुआ था। फिर उस ने कहा  चाचा, "बता दो फिर जवानी के प्यार अपने की कहानी।" , "मत पूछो भतीजेआँख में आँसू भरते हुए उसने कहा, "यूँ तो यहां मज़ा है.. ।" बाज़ू पर लिखे नाम को दिखाते हुए बोले, "मगर जाने वाले का मोह चैन से नहीं रहने देता।"मित्रो रुला देती है याद आ कर  मुझे " और बिस्तर की फूल बूटे वाली चादर को बड़े प्यार से ठीक करने  लगा ।
- मोहन बेगोवाल
अमृतसर - पंजाब
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क्रमांक : - 033

प्रज्ञाचक्षु
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टिंग - टौंग  की आवाज़ सुनकर रामायण पढ़ रही  माँ ने कहा, " जरा देखना तो बेटा कौन है। "
" ठीक है माँ। "
उसने दरवाजा खोला तो  सामने दो युवक खड़े थे। पीछे वाला जो आंशिक रूप से अंध था उसके एक हाथ में छड़ी थी और दूसरा हाथ उसने अपने आगे वाले के कंधे पर  रखा था ।  आगे वाले युवक ने रसीद बुक बढ़ाते हुए कहा, "दीदी ब्लाइंड स्कूल के लिए अपनी इच्छानुसार राशी दे  दीजिए।"
" कौन है बेटा ? "
"ब्लाइंड स्कूल से आये हैं माँ। "
" ओह!  कुछ पैसे दे दे उन्हें। "
" ...माँ ये लोग स्कूल की आड़ में खुद के लिए पैसा मांगते है। " उसने भीतर आते हुए कहा।
"अरे बेटा ! देखती नहीं वो आँखों से लाचार हैं। "
"  आंशिक रूप से होते हैं माँ । चाहे तो ये  काम भी कर सकते है। 
ऐसी कई इतनी ऊँची बिल्डिंग की सीढ़ियां  आराम से चढ़ जाते है। "
"पर सहारे की जरूरत तो पड़ती ही है ना बेटा।  संत महात्मा कहते हैं अपने कमाई का दशमांश हिस्सा नेकी के कार्य में लगाना चाहिए। वैसे भी दरवाजे पर आये को लौटाते नहीं हैं , क्या पता नारायण किस रूप में आ जाए हमारी परीक्षा लेने  । "
" बस... तुम्हारी इसी सोच का तो ये लोग फ़ायदा उठाते हैं माँ, तुम्हीं दे दो । "
'आजकल के बच्चों से तो बात करना फिजूल है।' माँ मन ही मन बड़बड़ाई और  स्वयं ही दान देने के लिए उठी।
"ये लो बेटा ।"  पैसे देते वक़्त एक नोट नीचे गिर गया। हाथ में छड़ी पकड़ा  हुआ युवान  तुरंत ही झुका और पैसे उठाकर अपने आगे वाले को पकड़ा दिया।
माँ कुछ पल को अचंभित हुई, पर आँख बंद कर के भीतर चली गई।

- पूनम सिंह 'भक्ति'
     दिल्ली
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क्रमांक : - 034

प्रसव विरोधी
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'अरे वर्षा तूं यहाँ , तेरे तो बड़े चर्चे हैं आजकल।' 
योगिता ने अपनी सहेली वर्षा को अपने शहर के माल में देखते हुए पूछा।
'कैसे चर्चे ?' अपनी प्रसिद्धि की बात अपने सहेली की होठों से सुनकर गर्वित होते हुए वर्षा ने पूछा था।
'अरे वही तेरी प्रसव विरोधी और बच्चे न पैदा करने वाली क्रांति की।'
'हाँ..  हाँ...  वो तो है। 'वर्षा योगिता के सामने अपनी क्रांति की ख़ुशी बिखेरते हुए बोली 'वो क्या है योगिता कौन बच्चे पैदा करे, उन्हें संभाले और उनके चक्कर में मैं अपनी जवानी गर्क करे।'
'पर कालेज टाईम में तो तूं बड़े चाव से शादी के बाद बच्चे पैदा करने उनकी अच्छी परवरिश की बातें किया करती थी।'    
योगिता के सवाल पर वर्षा बायीं आँख दबाते हुए बोली 'यार तूं तो जानती है मैं कितनी होशियार हूँ परस्थितयों को कैसे अपनी तरफ मोड़ लेना है ये मैं बखूबी कर सकतीं हूँ।'
'मतलब ?' योगिता की सवालिया नजर वर्षा पर टिक गई।
'वो क्या है वर्षा मुझे पता चल गया था कि मैं कभी बच्चे पैदा नहीं कर सकती इसलिए मैने प्रसव विरोधी क्रांति का आगाज कर दिया।'
वर्षा न जाने क्या - क्या बोले जा रही थी और योगिता उसकी प्रसव विरोधी क्रांति का सच सुनकर आश्चर्य से बस उसे देखे जा रही थी।
-- सुधीर मौर्य
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक : - 035

खुशी का थप्पड़
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सुबह-सुबह आंख मसलते हुए बच्चे के हाथ से दो लीटर दूध से भरी हुई भगोनी अचानक छूट गई। बच्चे को चोट लगी। पापा ने उसको संभाला लेकिन यह कहते हुए दो थप्पड़ रसीद कर दिए कि "बेवकूफ ! इतना नुकसान कर दिया? दिखता नहीं है क्या? पैसे क्या पेड़ पर उगते हैं?"
      डांट-फटकार के कुछ देर बाद पापा नहा-धोकर चकाचक हुए थे कि उनके मोबाइल पर बधाई संदेशों की झड़ी लग गई। थोड़ी देर बाद कुछ लोग घर पर आए और पापा 'रेडी' होकर उनके साथ चले गए। पूर्व नियोजित कार्यक्रमानुसार पापा के जन्मदिन के उपलक्ष्य में गरीबों, मरीजों और निराश्रितों को दूध वितरण का प्रोग्राम था। बाद में कार्यक्रम के तमाम फोटो देखकर बच्चा सोचने लगा कि दो लीटर दूध की कीमत, जन्मदिन की खुशी में बांटे गए सौ दो सौ लीटर दूध से शायद ज्यादा होती होगी?
- जय बजाज
इंदौर - मध्यप्रदेश
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क्रमांक : - 036

पक्षियों संग घर परिवार
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घर के आगे आम का पेड़ था और पिछवाड़े शहतूत का पेड़ था | रीमा आटा गूंधती तो कुछ गीला आटा बाहर रख देती और कभी थोड़े दाने भी ड़ाल देती| एक दिन रीमा ने पति को कहा, “अगर मै आटा गूंधने में लेट हो जाऊं तो चिड़िया दरवाजे के बाहर शटर पे चोंच मार नराजगी दिखाती है|” रीमा के पति राजन बोले, “तुम इनको एक फुल्का चूर कर ड़ाल दिया करो| इनकी तृप्ति हो जाया करेगी|” धीरे-धीरे चिड़ियों कुत्ते और रीमा की बेटी से भी घुल मिल गयीं, सबके पास बैठ जातीं या रोटी का टुकड़ा भी हाथ से उठा लेतीं| रीमा को कुछ दिन के लिये कहीं जाना था तो छोटे बच्चों को सम्भालने के लिये एक नौकर लाया गया| उसनें चिड़ियों से ऐसा गंदा ब्यवहार किया, रीमा के देख होश उड़ गए| रीमा जब घर आई तो देखा कमरे में नौकर ने चिडियों के पैर रस्सी से बाँध दस-दस चिडियों के झुण्ड थे| सारे घर में चिडियों के पंख और चिडियों की दर्द भारी चीं-चीं की आवाज़ गूँज रही थी| रीमा ने नौकर को फटकार लगते हुए कहा, “इन सब चिडियों को तुरंत खोल और खुले आकाश में उडने दे|” नौकर बोला, “मैं इन्हें अपने घर ले जाऊं, मैं इनको पाल लूँगा|” रीमा ने साफ़ मना कर चिड़ियों को आज़ाद किया| चिडियाँ भी दोबारा उस घर में कभी नहीं दिखाई दीं| रीमा रोज़ उन चिडियों का इंतज़ार करती| रीमा ने पेड़ पर चिडियों के गतें के घौसले और पानी भी रख दिया |कुछ दिनों बाद पेडो पे फल आये और पानी का वर्तन पड़ा देख नन्ही कुहूँ के स्वरों ने चिड़ियों को खींच ही लिया| रीमा कुहूँ को प्यार कर बोलती, “मेरी भी ये छोटी सी सुंदर सी चिड़िया है| इस तरह भगवान की चिड़ियाँ संग हमारा सदा भरा पूरा घर परिवार रहे|”
- रेखा मोहन
पटियाला - पंजाब
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क्रमांक : - 037

सोच
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गाड़ी हाई वे पर 100 की रफ्तार से भागी जा रही थी। अंदर बैठी दादी लगातार कहती जा रहीं थीं..."धीमे चला कहीं कोई अनहोनी हो गई तो...!"
बात बीच में ही काटते हुए मुकुल (पापा) की आवाज़ "मम्मी जी चलाने दो न अच्छा-अच्छा सोचो, बुरा सोचोगे तो बुरा होते हुए देर नहीं लगती। यह आज़ की पीड़ी है सब संभालना जानती है।"
"मम्मी जी सही तो कह रहीं हैं। ज़रा धीमे चलाओ तो गाड़ी अपने हाथों में रहती है, वर्ना लगाम ढीली करते ही कुछ भी हो सकता है।" कह मम्मी नेहा गहरी सांस लेती है।
"हम पुराने ज़माने के हैं सो हमें जो सही लगा वह कह दिया। अब मानों या न मानो यह तुम्हारी मर्जी।" कह दादी भी गहरी सांस लेती नज़र आईं।
तीनों की बात सुन बेटी हर्षिता ने अपनी गाड़ी की रफ़्तार 80 करते हुए कहा " दादी जी अब ठीक है और मुझ पर भी विश्वास करो जैसे आप भैय्या पर करती हो।"
उसकी बात सुन तीनों शांत हो जाते हैं फिर एक शब्द भी किसी के मुख से बाहर नहीं आता। आगे पूरे रास्ते एफ एम पर अन्नू कपूर की बातें और गाने ही सुनाई पड़ते हैं।
- नूतन गर्ग
  दिल्ली
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क्रमांक : - 038

तुम ही सब कुछ
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रीना विदेशी साधारण परिवार की महिला अपने पति और बच्चों के साथ जिंदगी तो गुजार रही थी पर पति द्वारा अधिक धन कमाने की लालसा में वह  उससे दूर विदेश चला गया था।
         दांपत्य जीवन की आवश्यकता में मात्र धन ही सब कुछ नहीं होता । इसी सोच से ग्रस्त रीना ने भी मनपसंद कम उम्र वाले राजू से मन की बातें शेयर करना शुरू कीं।  बातों का सिलसिला कुछ दिनों में एक नए सर्वधर्म समभाव को जोड़ता, देश काल की परिधि को लांघता परस्पर मिलन को आतुर हो उठा।
      दोनों ने एक सुर से इस सबका माध्यम बने एकमात्र बहुमूल्य मोबाइल को अपना सब कुछ मानकर एक स्वर से स्वीकार किया-" तेरे बिनाभी क्या जीना"। फिर दोनों एक नए रिश्ते में बंधने के लिए तैयार हो गए और कुछ समय में ही रीना ने राजू के देश जाकर विवाह सूत्र में बंथ कर मन माफिक जिंदगी की शुरुआत की ।
- डॉ. रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक : - 039

तिजोरी
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वृद्धावस्था में बहु व बेटों से दिन प्रतिदिन अपमानित होने के कारण रामदीन बहुत दुःखी व परेशान थे । क्या करे धर्मपत्नी बहुत जल्दी ही स्वर्गलोक जो सिधार गयी। कोई नहीं था देखरेख करने वाला । समय से खाना पानी के लिए राह देखना पड़ता था । दोनो ही बहु बेटे बड़े निकम्मे निकले ।जिंदगी कैसे कटेगा इन हालातों में सोचकर अक्सर ही बड़े दुःखी हो जाया करते थे ।
एक दिन उनके जेहन में एक युक्ति सूझ गयी । वे रोज आधी रात में  कुछ  सिक्कों को एक मिट्टी के पात्र में डालते व निकलते । सिक्कों की आवाज बहु बेटों के कान तक जा रही थी ओ हो न हो.....बाबूजी के पास खज़ाना है.....खज़ाना। अब तो प्रतिदिन का यही रवैया हो गया रामदीन का......झटपट अपनी तिजोरी खोलते और उसमें रखकर बड़ा सा पीतल का ताला लगाकर चाभी अपने जनेऊ में लटका लेते ।
अब तो दोनों बहुओं की नजर रामदीन के तिजोरी पर टिकी हुई थी । धन की चाह में दोंनो बहुएं अब ससुर जी का आवभगत करना शुरू कर दी । समय से नास्ता, खाना, चाय - पानी ।
अब तो रामदीन के मजे जी मजे थे..... न वैसे तो ऐसे ही सही। समय से स्वादिष्ट भोजन व नाश्ता -  चाय । अब तो बुढ़ापा सुखमय ढंग से खा - पी कर समय निकलता गया । अब तो दोनों बहुओं में होड़ सी लग गयी कि जो ज्यादा देख रेख और सेवा भाव करेगा ससुर जी खुश होकर उसे ही अधिक संपत्ति के मालिक बना देंगे ।
कई साल  ऐसे ही बीतते गये । रामदीन को अब खतरनाक बीमारी चरम सीमा तक सताने लगी । दिन पर दिन स्वास्थ्य बिगड़ता चला गया । उस दिन वह समय आ ही गया ईश्वर को प्यारे हो गये ।
अब दोनों बेटों ने मिलकर पिता का क्रियाकर्म किया । उन्हें पूर्ण रूप से भरोसा था कि बहुत सारा धन छुपाकर तिजोरी में रखे हुए है । अब तो हम धनी हो जायेंगे । छोटा भाई बड़े भाई से कहता है कि अब तो पिता जी का सोरहवीं भी बीत गया भइया, आज क्यों न तिजोरी खोलकर धन का बटवारा कर लिया जाय......दोनो बहु बेटे बड़े उम्मीद के साथ ताला खोले.......उसमें कई मटके छोटे - बड़े रखे हुए थे बहुओं के खुशी का ठिकाना ही नहीं था ..आंखे तिजोरी के उन मटकों पर ही टिकी हुई थी ......ओऊऊऊ जरूर सोने के सिक्के होंगे व सासु माँ के पुराने कीमती गहने । तभी तो बाबूजी तिजोरी के पास भी हम सबको नहीं फटकने देते थे...ओ धन का तो अम्बार है ।
मटकों को खोलकर देखा गया तो पता चला सबमें कंकड़ भरे हुए हैं..... दोनों बहु बेटों के शरीर का खून ही सूख गया..... हाय रे ! सब उम्मीदों पर पानी फिर गया.....।
- डॉ. अर्चना दुबे
मुम्बई - महाराष्ट्र
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क्रमांक : - 040

बेटी
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पढऩे में अति होशियार रीना को देखकर शिक्षक बहुत प्रसन्न हुआ परंतु जब उसके कपड़ों और जूतों की ओर देखा तो एकदम दर्द में डूब गया। बेचारी रीना फटे पुराने कपड़े पहने हुए थी, पैरों में चप्पल थी और ठंड में बदन में कंपन आ रही थी। शिक्षक ने पूछा- रीना,तुम्हारे माता पिता क्या करते हैं? इतना सुनकर रीना की आंखों में आंसू आ गए। कहा- गुरु जी, मेरी मां मुझे बचपन में छोड़ कर भगवान को प्यारी हो गई। पिता शराब में डूबा रहता है, खाने को दो वक्त की रोटी भी नहीं मिलती। ऊपर से मारता पीटता भी है। यह देखो मेरे हाथों पर आज भी मार के निशान हैं। घर में और कोई भाई बहन नहीं है। खाना भी मुझे बनाना पड़ता है। शिक्षक ने कहा-बस करो रीना। मुझसे नहीं सुना जाता और कुछ ना कहो। छोटी सी बच्ची को अपने कलेजे से लगाते हुए कहा आज से तुम मेरी बेटी के समान हो। में तुम्हारी हर संभव सहायता करूंगा। शिक्षक ने तुरंत प्रभाव से एक जोड़ी जूता, कपड़े ,पढऩे के लिए पेन और पेंसिल ला कर दिए और कहा- बेटी, तुम इसी प्रकार पढ़कर अपनी उस दिवंगत मां का नाम रोशन करो। यही मेरी हार्दिक इच्छा है। रीना ने सारा सामान ग्रहण करते हुए कहा- ठीक है, गुरु जी। मैं अब दिन-रात पढ़कर अपनी मां का नाम रोशन करूंगी। इतना कहकर कांपते हुए रीना घर की ओर रवाना हो गई शिक्षक की आंखों में आंसू थे। शिक्षक बच्ची को देखता ही रह गया कि बेटियां कितनी मेहनत से काम करती हैं।
-  डा. होशियार सिंह यादव
कनीन - हरियाणा
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क्रमांक :- 041
कब ?
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   कब ? ये पूछ लेना दीपक को अच्छा नही लगा, राखी चुप्पी साधे रसोई में काम करने लगी खाना तैयार कर थाली में परोसा और मेज़ पर रख दिया हर दिन की तरह दीपक ने खाना शुरू कर दिया एक के बाद एक दो तीन फूले हुए गरमा-गरम फुलके राखी ने थाली में रख दिए बहू बेटे को मौन साधे हुए देखकर बूढ़ी माँ समझ तो गई पर कुछ बोली नहीं आख़िर माँ की नज़र सब ताड़ गई शादी के पाँच बरस बीत जाने के बाद भी घर में कोई बच्चा नहीं था यही वजह थी आज के मौन की, दीपक की कमजोरी को राखी ने किसी को बताया तक नहीं था कि वह बाप नहीं बन सकता है आख़िर धैर्य की भी सीमा होती है राखी माँ बनना चाहती थी आई.वी.एफ का ऐड मोबाइल पर देखकर ही तो पूछा था “कब” दीपक का मौन ग़ुस्से में नहीं था बल्कि राखी के प्रश्न के कारण अधर निरुत्तर हो गए थे राखी की उत्कंठा दीपक के मौन से बहुत बड़ी थी आंगन में जल्दी किलकारी गूंजे ये साँस बहू दोनों की इच्छा कब पूरी होगी ये सब दीपक के मौन टूटने पर ही निर्भर था ।क्यों को सब जानते हैं  कैसे बताने वाले चारों ओर रहते हैं आख़िर कब तो राखी और दीपक ही तय करते, बल्कि भारत में तो दीपक ही कब को तय कर करेगा क्योंकि हमारे देश में पुरूष प्रधान जो है

- डॉ भूपेन्द्र कुमार
धामपुर  - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक : -  042      
                                                                                                                   मिट्टी या सोना?                 
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“चिराग! चिराग! अपनी माँ को छोड़ कर तू कहाँ चला गया बेटा?” स्थानीय मेडिकल कॉलेज के युवा प्रोफ़ेसर चिराग की एक भीषण सड़क दुर्घटना में मृत्यु के उपरांत उसकी माँ उसके मृत शरीर पर पछाड़ें मार-मार करुण क्रंदन कर रही थी।
बेटे का नाम बुदबुदाते हुए वह न जाने कितनी बार अचेत हुई।
तभी चिराग के बड़े भाई ने तनिक संयत होते हुए भाई के मेडिकल कॉलेज को जल्दी से देहदान के लिए उसका शरीर ले जाने के लिए कहा।
बेटे की कॉलेज वालों से बातचीत सुनकर माँ पर जैसे वज्रपात हुआ। वह सिसकते हुए बेटे को अपने आँचल से ढाँप चीख उठी,“क्या! देहदान? नहीं! नहीं! मेरे लाल को यहाँ से कोई नहीं ले जाएगा! उसके शरीर पर चीर-फ़ाड़ करेंगे सब। बहुत बेक़दरी होगी उसकी!”
“माँ! उसका शरीर तो अब मिट्टी है। चिरागका मृत शरीर चिकित्सा जगत के लिए बेशकीमती होगा, क्योंकि यह मात्र चिकित्सा शिक्षा ही नहीं, वरन रिसर्च के काम भी आ सकता है। कई बार दिग्गज सर्जन मृत शरीर पर प्रैक्टिकल कर जटिल से जटिल शारीरिक समस्या का निदान ऑपरेशन द्वारा करने का अभ्यास करते हैं। सोचो माँ, इससे हज़ारों लोगों की ज़िंदगियाँ बच जाती हैं। तो यह पुण्य का काम हुआ या नहीं?”
“पर बेटा! बिना क्रिया-कर्म के उसकी आत्मा को शांति नहीं मिलेगी।”
“अरे माँ! अपने यहाँ भी तो महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियाँ दान में दी थीं। अगर देहदान धर्म विरुद्ध होता तो क्या महर्षि दधीचि यह करते? माँ! अनगिनत ज़िंदगियाँ बचाने से और पुण्य का काम क्या होगा? इस से तो सच्चे मायनों में उसकी आत्मा को शांति मिलेगी।
अब आप ही बताओ, इस नेक काम से चिराग की मिट्टी सोना बन जायेगी या नहीं?”
- रेणु गुप्ता    
जयपुर - राजस्थान
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क्रमांक : - 043

अमर धन
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"उगता नहीं तपा, तो डूबता क्या तपेगा! अपने युवराज को समझाओ पुत्र तुम्हारे कार्यालय जाने के बाद दिनभर उनके दरवाजे, खटिया पर पड़ा रहता है जिनके बाप-दादा जी हजूरी करते रहे। किसी घर का बड़ा बेटा चोरों का सरदार है। किसी घर की औरत डायन है,"
"जी उससे बात करता हूँ।"
"उसे समझाना पंक भाल पर नहीं लगाया जा सकता।"
"कहाँ खो गये पापा?"
"अतीत में! तुम्हारे देह पर वकील का कोट और तुम्हारे मित्र की वर्दी तथा तुम्हारे स्वागत में आस-पास के कई गाँवों की उमड़ी भीड़ को देखकर लगा, पंक में पद्म खिलते हैं।"
"फूलों की गन्ध क्यारी की मिट्टी से आती ही है।"
- विभा रानी श्रीवास्तव
    पटना - बिहार
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क्रमांक : - 044
                                                                                                                                                                                              
आय एम सॉरी
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“ये लो महारानी आटा फैलाकर चलती बनीं और अब सफ़ाई मैं करूँ। न कोई ढंग, न कोई शऊर। अभी कुछ कह दो तो कहती फिरेंगी सारे में कि लो, सास ने ये कहा सास ने वो कहा। अब बताओ, क्या बेटियों से माँ कुछ कह भी नहीं सकती?
ऊँह! मुझे तो वैसे भी सास बनने का कोई शौक नहीं था।
वो तो उस दिन जब बेटा, बहू को विदा करा के घर लाया था, रिश्तेदारनियाँ कैसा आँखों ही आँखों में तंज मार रही थीं। लो सासरानी सम्हालो अपनी बहूरानी को। सास बनी हो तो अब मज़ा भी लो। भगवान जाने, क्या पता इन्हीं औरतों की वजह से ये रिश्ता इतना बदनाम हुआ हो।
सच कहूँ तो बड़ी कठिन परीक्षा है, पहले बहू बनो, फिर चलो सास बनो। अच्छी राग-माला है सास-बहू की।
येल्लो जी! अब यहाँ देखो, शीशे पर बिन्दियाँ चिपका रखी हैं। आने दो महारानी को, उन्हीं से साफ़ करवाऊँगी शीशा।
अरे! ये कैसी दिखाई पड़ रही हूँ मैं? बिलकुल फ़िल्मी सास जैसी! ऐसी तो न थी मैं …!
अपनी पिंकी की सास तो बिलकुल भी ऐसी ना निकलीं। पिंकी को विदा करते वक्त कितना डरी थी मैं कि ससुराल जाकर लड़की मेरी नाक तो जरूर ही कटाएगी। कितना सिखाया पढ़ाया, लेकिन भवानी बिलल्ल ही रहीं। वो तो धन्य हैं उसकी सासूमाँ, जिन्होंने धैर्य के साथ उसे सँवार दिया। आज देखो कैसा सबकी आँखों का तारा बनी बैठी है! सच कहूँ तो बहू-बेटियाँ सब एक जैसी ही होती हैं। बस थोड़ा लाड़-दुलार करो फिर देखो कैसी निखर आएँगी। मैं भी तो ऐसी ही थी ना…। अल्हड़।
ना बाबा ना, अब नहीं बड़बड़ाऊँगी, कभी भी। प्रॉमिस! ताकि बहुएँ कहें तो कि ‘सास लगे मोहे न्यारी।,”
- प्रेरणा गुप्ता
कानपुर - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक : - 045

आंगिक  चेष्टा
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पाटीदार हिसाब-किताब में व्यस्त था।जब नजर उठाकर देखा तो सामने एक गोरी - चिट्टी लङकी दिखी।उसने पूछा-- "कौन हो  ? "
" मी लावणी  , भीमराव ची मुलगी ( लङकी) "
" हां बोलो क्या बात है  ? "
" बाबा आजारी ( बीमार) है।काम पे ऐनार नाहीं- - पईसे पाहिजे- - दवा लेना है। "
               पाटीदार घूर-घूर कर उस लङकी को निहारा। फिर आत्मीयता जताते हुए बोला--  " पैसे तो मैं दे देता हूं। बाबा का इलाज करा पर तू कल से काम पे आ जा। डबल मजदूरी दूंगा।
" पर मैं बाबा का काम कैसे कर सकती ।"
" बस मेरा चाय नाश्ता का इंतजाम करना, ऑफिस का देखभाल और मेरा ख्याल। "
लावणी को उसकी बात तो अच्छी लगी पर उसकी आंखों में कुछ और ही नजर आया। इतनी भी बेबकूफ नहीं कि हवस की भाषा न समझे।
" आप पैसे दे दो - - मैं बाबा से पूछ कर काम पे आऊंगी। "
                  चिङिया हाथ से निकलता देख पाटीदार चुप हो गया। बहानेबाजी में लिपटा नकारात्मक जवाब उसके इरादे पे पानी फेर दिया।
                                   ‌‌‌‌‌‌‌    -सेवा सदन प्रसाद
                                     नवी मुंबई - महाराष्ट्र
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क्रमांक : - 046

भूख
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मकान की चिनाई का कार्य बस अब कुछ ही बचा था
पुराना बेलदार के छुट्टी पर था
वह उस की जगह आया,
वो  पसीनें से तरबतर था और आते ही बताये  काम को करनें लगा पर काम में जैसे उस के हाथ उठ नहीं रहे थे।
बार बार मिस्त्री की आवाज आ रही थी ।
"अरे तेरे हाथों में जान नहीं क्या?"
"बार बार बैठ जाता हैं ,जल्दी से मसाला बना!"
वह फिर हाथ जल्दी जल्दी चलानें की भरसक कोशिश करता हुआ मसाला बनानें लगता हैं।
राज मिस्त्री इस बार लगभग चिल्लाते से अंदाज में उस  बरस पड़ा,"अबे !आज खाना खाकर नहीं आया है क्या?"
  अन्दर बैठी अनिता ने जब बार बार ये सब सुना तो उस से रहा नहीं गया और वह भाग कर इस बार उसे देखने कमरे से बाहर आ गयी ।
वह 19-20साल का दुबला पतला नौजवान था बिखरें बाल फटे कपड़ें पहने,उसकी ऑखों में पानी देख  अनिता  भाग कर रसोई  सेअपनें खानें से थाली में कुछ रोटी , सब्जी लाकर उस को देते हुए बोली
"लो पहले तुम कुछ खा लो,
फिर काम करना....।"
उसने पहले  ना  करनें की मुद्रा में खानें की तरफ देखा ।
फिर छपटते से अंदाज में थाली ली और जल्दी जल्दी खानें लगा ,
खाना खानें के बाद उस ने अनिता की ओर हाथ जोड़े और
  अब फुर्ती के साथ काम में जुट गया ।
- बबिता कंसल
    दिल्ली
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क्रमांक : - 047

सूनी होली
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मोहन को होली की मस्ती बचपन में कुछ ज्यादा ही रहती थी । पापा से  उसका रंग और पिचकारी के लिए जिद करना। माँ का डाटना यानि कपडे बिस्तर परदे आदि ख़राब न कर दे और घर के बाहर जाकर रंग खेले की हिदायत मिलना तो आम बात थी।मोहन बड़ा हुआ  तो दोस्तों के साथ होली खेलना घर के सदस्यों ,रिश्तेदारो को छोड़ होली के दिन दिन भर बाहर  रहना ये हर साल का उसका क्रम  रहता था।मोहन ने शादी होने के बाद शुरू शुरू में पत्नी के संग होली खेली कुछ सालो बाद में फिर दोस्तों के संग।घर में बुजुर्ग सदस्य की भी इच्छा होती थी  की कोई हमें भी रंग लगावे  हम भी खेले होली।वे बंद कमरे में अकेले बैठे रहते और उन्हें दरवाजा नहीं खोलने  की बाते भी  सुनने को मिलती कि " बाहर से मिलनेजुलने वाले लोग आयेंगे तो वे घर का फर्श,दीवारे  ख़राब कर देंगे।"इसलिए या तो बाहर बैठो  नहीं तो दरवाजा बंद  कर दो।मोहन के पिता  बाहर बैठे  रहते । अक्सर देखा गया की बुजुर्ग को कोई रंग नहीं लगाता वे तो महज घर के सदस्यों का लोग बाग पूछते तो वे बताते रहते । ऐसा लगता है कि घरों में बुजुर्गों के साथ बैठ  कर भोजन करने एवं उन्हें बाहर साथ ले जाने की परम्परा तो मानो विलुप्त सी हो गई हो ।
मोहन की पत्नी तबियत ख़राब रहने लगी।कुछ समय बाद उसका स्वर्गवास हो गया । होली का समय आया तो होली पर मृतक के यहाँ जाकर रंग डालने की परम्परा होती है वो हुई ,रिश्तेदार रंग डालकर चले गए।अगले साल फिर होली के समय घर के  बाहर होली खेलने वालो का हो हल्ला सुनाई दे रहा था । मोहन दीवार पर लगी पत्नी  की तस्वीर को देख रहा था।उसे पत्नी  की बाते  याद आ रही थी "-क्या जी दिन भर दोस्तों के संग होली खेलते हो मेरे लिए आपके पास समय भी नहीं है।मै होली खेलने के लिए  मै  हाथो में रंग लिए इंतजार करती रही।इंतजार में रंग ही फीका पड हवा में उड़ गया ।"
मोहन आँखों में आंसू लिए  दोनों हाथो में गुलाल लिए तस्वीर पर गुलाल लगा  सोच रहा था।वार त्यौहार पर तो घर के लिएभी कुछ  समय निकालना था।वे पल लौट कर नहीं आ सकते जो गवा दिए ।
जब बच्चो की माँ जीवित थी तो बच्चे एक दूसरे को रंग लगाने के लिए दौड़ते तब वे माँ के आँचल में छुप जाते थे।अब मोहन के बच्चे मोहन और घर के बुजुर्गों को रंग लगा रहे थे ।हिदायते गायब हो चुकी थी । मोहन दोस्तों से आँखों में आँसू लिए हर होली पे यही बात को दोहराता -" त्यौहार तो आते मगर अब  लगते  सूने से ।"
- संजय वर्मा "दृष्टि"
धार - मध्यप्रदेश
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क्रमांक : - 048

मैं समाज का हिस्सा हूँ
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       "मांँ.... मुझे "विकलांग कोटा" से सरकारी नौकरी मिल गई है। मुझे अभी पटना रवाना होना होगा। कल ज्वाइनिंग देनी है। समाज में मुझे अब कोई भी हिकारत की नज़र से नहीं देखेगा। लोग मुझपर किसी तरह का कटाक्ष नहीं करेगें। मैं तेरे सभी सपने पूरे करूंँगा"। खुशी से आह्लादित होकर राहुल ने एक ही सांस में अपनी माँ सावित्री देवी जी को खुशखबरी सुनाई।
       "शाबाश मेरे लाल"!! कहते हुए सावित्री जी ने राहुल को अपने अंक में भर लिया।
      सावित्री जी की आंँखों से मोती के समान झर-झर खुशी के आंँसू बहने लगे। खुशी से उनका पूरा शरीर कांपने लगा। वह खुद को संभाल नहीं पाई और धम्म से वही जमीन पर बैठ गई। दोनों हाथ खुद व खुद ईश्वर के सम्मुख धन्यवाद की मुद्रा में जुड़ गए। वह बुदबुदाई "क्षमा करना प्रभु.... मुझे क्षमा करना... जिस राहुल को मैं पोलियो ग्रस्त होने के कारण पिछले जन्म के पाप का फल मानती थी... माँ होकर भी जिसे मैं सदा बोझ समझती थी, वही राहुल मेरे जीवन का आसार बन गया है"। फिर भागते हुए दूसरे कमरे में गई-" सुनते हो राहुल के पापा....आज राहुल ने आपके विश्वास को सच साबित कर दिया है।आप ठीक कहते थे... राहुल लगड़ा कर चलता है तो क्या हुआ, कुशाग्र बुद्धि पाई है इसने"। फिर कुछ याद करते हुए बोलीं..." राहुल के पापा आपने बहुत अच्छा किया जो राहुल को हमेशा पढ़ाई-लिखाई करने को प्रोत्साहित किया।आज राहुल के परिश्रम का ही परिणाम है कि यह शुभ घड़ी आई है"।
       सावित्री जी की बूढ़ी हड्डियों में न जाने कहाँ से इतना जोश भर गया था। वे बोलती भी जा रही थी और साथ ही साथ राहुल का सामान भी पैक कर रही थी।
     राहुल ने हाथ में अटैची पकड़ी, पीठ पर बैग लटकाया, दोनों के चरण स्पर्श किए तथा अपने गन्तव्य की ओर चल पड़ा।आज उसकी विकलांगता उसके सुनहरे भविष्य के द्वार की चाभी साबित हुई थी। 
               
                - संध्या प्रकाश
               रांची (झारखंड)
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क्रमांक : - 049

सुख - दुख
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आश्चर्य किंतु सत्य...मेरी नौकरी लगे आज पूरा एक महीना हो गया। पहले वेतन के पैसे देखकर मुझे अतुलनीय खुशी हुई। अकेले में, मैं मारे खुशी के बच्चों जैसा नाचने लगा। इतने वर्षों से मन में दबी सभी इच्छायें, मैं आज ही पूरी करने का सोचकर, उससे मिलने वाली खुशी के लिए मेरा मन भर आया।
          घर में आज हम सभी पहली बार साथ में बैठकर खाना खायेंगे वह भी भरपेट। कुछ मिठाई, नमकीन और कुछ फल भी ले लिए। मां के लिए नई चप्पल, पत्नी के लिए पहली बार मैचिंग की साड़ी, ब्लाऊज़ और बच्चों के लिए फिलहाल एक - एक नए कपड़े लिये।
          आज हम सभी बिना किसी से अपमानित हुये भरपेट खाना खायेंगे। आज तो बाबूजी खुशी से गदगद हो जायेंगे। भले ना जताएं ये अलग बात है। मां बोलेगी...पहले तुम लोग खा लो...मैं और बहू बाद में खा लेंगे, लेकिन इतना अच्छा खाना देखकर उससे भी सब्र नहीं होगा। पत्नी मुझे खुश देखकर खुश हो लेगी, बच्चों का तो कहना ही क्या...नए कपड़े पहनकर अपने को राजकुमार समझकर मुहल्ले के सारे बच्चों को दिखाएंगे, जब तक की उनके सभी दोस्त देख न लें।
          यह सब सोचकर खुशी के मारे मेरी आँख भर आयी, मेरी रुलायी फूट पड़ी कि पत्नी ने झकझोरा और मेरी नींद खुल गई।
- सुधाकर मिश्रा
इंदौर - मध्यप्रदेश
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क्रमांक : - 050
                 
बर्दी का रौब
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ईशारा मिलते ही मोटर साइकिल सवार रूक गया।
क्या बात हेलमेट कहां  है,मोटर साइकिल के कागज बनवा रखे हैं या नहीं ?
मोटर साइकिल सवार से पुलिस वाले ने पूछा,
मोटर साइकिल सवार अपना वाक्य पूरा करता इससे पहले ही पुलिस वाला बोला चल मुझे अगले चौक पर उतार देना।
- प्रेम कुमार शर्मा
सिरसा - हरियाणा
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क्रमांक : - 051

उत्कृष्ट रचना
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_ प्रतिष्ठित रचनाकार द्वारा एक रचना और लिखी गयी । बताया गया कि यह लघुकथा है ।
_ रचना का आशय और उददेश्य पाठकों की समझ में नहीं आया ।
_ रचना क्योंकि प्रतिष्ठित रचनाकार ने लिखी थी , उसका समझना जरूरी था , इसलिये समझदार लोगों का सम्मेलन तय हुआ ।
_ खूब चर्चा हुई , रचना का आशय फिर भी किसी की समझ में नहीँ आया ।
_ रचनाकार महोदय स्थापित रचनाकार थे और  अडिगथे कि यह एक उत्कृष्ट लघुकथा है । इसलिए उसका आशय  समझना सबके लिए जरूरी था ।
_ सबका कहना था कि रचना को समझे बिना  वाह - वाह नहीं की जा सकती ।
_ तय हुआ कि लघुकथाकार महोदय से सम्पर्क किया जाय ।
_ वे आये तो उन्होंने पहले सभी उपस्थित लोगों को देखा और फिर  एक रहस्यमय नजर अपने खास चहेतों पर डाली ।
_ अब तालियां इतनी जोर से बजीँ कि सब कहने लगे , " यह लघुकथा साहित्य की अमूल्य  धरोहर है । इसका स्वागत किया जाना चाहिये । "
_ अब लघुकथा निर्विवाद रूप से सबकी समझ में आ गयी थी ।
जो अब भी नहीं समझ पाये , वे अधकचरी समझ के समझे गये ।
- सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
सहिबबाद - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक : - 052

लक्ष्य
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सुनीता मैदान में खड़ी बार-बार अपने पैर को निहार रही यह घाव कहां से लगा,, माँ कितनी मेहनत से मुझे इस प्रतियोगिता के लिए तैयार किया ,,,,बेचारी घर-घर बर्तन मांज थी कपड़े धोती अपना पेट काट कर और मुझे तैयार किया,,,,,,,,,,
क्या मैं नहीं दौड़ पाऊंगी?,,,,मां की सपने अधूरे रह जाएंगे?
बाजू से आवाज सुनती है ।
दो प्रतिभागी आपस में बात करती हैं आज तो यह गई काम से भाग ही नहीं ले पाएगी।!
जैसी तैसी भाई अपने जख्मों को देखते हुए धीरे-धीरे ट्रैक पर आती है अपनी पारिवारिक परिस्थितियों को उदाहरण में बनती है तभी उसके कान में रेफरी के द्वारा बजाई सिटी सुनाई देती है वह सचेत हो पूरी दम लगाकर दौड़ पड़ती है उसके सामने मां का चेहरा था और वह दौड़े जा रही थी इतनी तेज दौड़ी की में लक्ष्य पर सबसे पहले पहुंची आज उसे विजेता की ट्रॉफी में अपनी मां का मुस्कुराता चेहरा दिख रहा था चारों ओर से तालियां बज रही थी किंतु उसे अपनी मां का मुस्कुराता चेहरा बार-बार ममता से अपने गले लग रहा था।

- चंदा देवी स्वर्णकार
जबलपुर - मध्य प्रदेश
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क्रमांक : - 053

हैलो 911
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“हेलो....क्या यह 911 है?
“Hello….is this 911?” उधर से उत्तर मिला....”Yes...हाँ”....
फिर उधर से अंग्रेज़ी में ही पूछा गया “how can we help you?  हाउ केन वी हेल्प यू? जी कहिए....हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं?”
“देखिए यहाँ ब्रूज़ ड्राइव स्ट्रीट के साइड वाक पर मुझे एक बुजुर्ग महिला गिरी हुई दिखी है, मैं उन्हें हिलाने की कोशिश कर रही हूँ पर उनकी तरफ़ से कोई रिस्पोंस नहीं आ रहा। आप कृपया करके जल्द आएँ....” “बस एम्बुलेंस पहुँचती ही होगी जब तक आप वहीं रुकिए।“
“ओक़े घन्यवाद” कहकर मैं जैसे ही पलटी तो देखा, वो मिसेज़ मेहता थी। जिनको मैंने अक्सर सामने वाली बिल्डिंग, जो ओल्ड एज होम थी, से अक्सर आते-जाते देखा था। मैं अभी सोच ही रही थी....ऐसा क्या हुआ आज इनके साथ....कि इतने में देखा....स्ट्रेचर पर मिसेज़ मेहता को लिटा ऑफ़िसर ने उन्हें एम्बुलेंस में डाल भी दिया था और साथ ही फ़र्स्ट एड भी दी जा रही थी।
मैं हैरान हुई कि क्या फ़ोन में अली बाबा का कोई जिन्न घुस आया था।
उत्सुकतावश मैंने एक ऑफ़िसर से पूछ ही लिया की उनका घटनास्थल पर इतनी शीघ्र पहुँचना कैसे सम्भव हुआ? अभी तो बस मैं फोन बंद कर मुड़ी ही तो थी।  उन्होंने बताया कि यहाँ अकेले रहने वाले बीमार बुजुर्गों की कलाई में एक चिप बैंड के साथ पहना दी जाती है जिससे कोई भी मेडिकल इमर्जेन्सी होने पर चिप द्वारा अलार्म बजने से हम अलर्ट होते ही तत्काल निकल पड़ते है। ताकि समय रहते उनको अस्पताल पहुंचाया जा सके। ज़िंदगी बचाने के लिए इतनी तत्परता वाकई काबिले तारीफ थी। 
“ओह ओके धन्यवाद”…. कहकर मैं रास्ते भर सोचती रही, हे ईश्वर, काश, बुजुर्गो के दुख व अकेलेपन का अहसास कराने वाली, ऐसी ही कोई अलर्ट चिप, उनके बच्चों के लिए भी बन पाएँ, जिसका एक तार 911 के पास नहीं बल्कि उनके दिल से जुड़ा हो।

- अनिता कपूर
कैलिफोर्निया - ‌अमेरिका
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क्रमांक : - 054

दोस्ती की डोर
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   आज सुबह अंजना अपनी  दोस्त स्नेहा चड्डा  के साथ झूलेलाल मन्दिर  में ईश झूलेलाल  के  दर्शन कराने  लायी । अखण्ड कीर्तन चल रहा था ।  वे भी कीर्तन करने लगी ।  अचानक कीर्तन मंडली  में अंजना को बचपन की सहपाठी , दोस्त जानकी   का चेहरा   दिखाई दिया ।
  वे  दोनों एक दूसरे के चेहरे को देख रहे थे ।
अंजना सोच रही थी कि क्या यह वही मेरी दोस्त जानकी है क्या ?  नाना प्रश्न मन पटल पर हिलोरे ले रहे थे  और पहचानने की कोशिश कर रहे थे ।
कीर्तन खत्म होने के बाद  बेचैन अंजना ने पहल कर  उससे पूछा , " तुम जानकी   हो  क्या ?    "
    " हाँ मैं जानकी हूँ । दो बच्चों की माँ ।"
"  तुम अंजना हो । "
"   हाँ सही पहचाना । मैं दो बेटियों की माँ हूँ।
    बारहवीं कक्षा के बाद आज मुलाकात हुई। चेहरे भी बदल से गये हैं ।"
  "हा , शादी होने के बाद पति के संग मुम्बई
आ गयी ।"
"तुम्हें शादी करना पसंद था।
मुझे केरियर के लिए पढ़ना पसंद था । उच्च स्नाकोत्तर  संग बीएड की डिग्री हासिल की।
नौकरी कर रही हूँ। बेटी पढ़ेगी तभी देश बढ़ेगा ।"
दोनों सखी   का खुशी का ठिकाना न था । झूलेलाल  का धन्यवाद दे कहने लगी -
  "पुरानी  भरोसेमंद पक्की सहेली से मुलाकात ईश्वर ने करा दी । हमारी   कौमार्यावस्था , कॉलिज की सब पुरानी भावुक  यादें मन को  झखझोरने लगी।
प्रभु की आशीषें , आशीर्वाद हमारे जीवन की मैत्री को प्रगाढ़ बना रही है ।"
" हाँ , प्रसाद लिये बाहर निकल के  भक्तिमय , शुद्ध  परिवेश  में कृष्ण -सुदामा  की दिव्यता -  सी दोस्ती   दीप्तिमान हो रही थी ।  तुमने तो सच्चे दोस्त  की तरह जीवन में दुख  -सुख में साथ निभाया  है । मुझे  गलत मार्ग  पर जाने से रोका। मैं अपनी हर बात किसी को नहीं  कहती थी  लेकिन  तुम्हें अपनी  हर   बात बता देती थी ।"
"हा सखी ! सही सलाह , सुझाव भी तुझे देती थी ।"
"हा , दोस्ती में   दो हस्तियों का , दो व्यक्तित्व का मिलन  होता है।"
" हा , दोस्त वही जो दोस्त के काम आए । इस कसौटी पर हम खरे उतरे हैं ।"
" सही  है , दोस्त शब्द का अर्थ होता  है जो हमारे दोष  का अस्त कर दे । वही दोस्त है । "
  "हाँ में गर्दन हिला  उत्साहित अंजना ने उसे घर आने का निमंत्रण दिया। "
  चेहरे पर चौड़ी मुस्कान लिये स्नेहा उनकी दोस्ती पर नाज कर रही थी और कहा , "दोस्त हो तो जानकी -अंजना जैसे।

- डॉ मंजु गुप्ता
मुम्बई - महाराष्ट्र
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क्रमांक :- 055

इंसाफ
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एक बार की बात है, एक गांव में एक बुजुर्ग किसान दया शंकर और उसका पोता राजू रहते थे। किसान का पोता राजू बहुत ही समझदार, मेहनती और सच्चा था। वह हर रोज अपने दादा के साथ खेत में काम करता, पशुओं की देखभाल करता, और स्कूल में पढ़ाई भी करता।
वह कबड्डी का भी अच्छा खिलाड़ी था।
एक दिन, किसान को पता चला कि उसके पड़ोसी, मुनीम, ने उसके ज़मीन पर कब्जा करने की साजिश कर रहा है। मुनीम ने ज़मीन के फ़र्ज़ी कागजात तैयार करवा लिये है  और ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश मे लगा हुआ है। मुनीम का क़हना था कि ज़मीन पहले से ही उसे उसके पिता से मिली हुई है, और क़ानूनी रुप से वह ही उसक असली मालिक हैं उसके पास सभी जरूरी कागजात भी है।
किसान ने मुनीम से अपनी ज़मीन को ख़ाली करने को कहा, पर मुनीम मानने को बिल्कुल भी तैयार नहीं हुआ। मुनीम ने क़हा, "तुम्हारे पास ज़मीन का सही पत्र है? मुझे ज़मीन से हटाने का हक है? मुझसे पहले क़ानून से पुछो!"
किसान जमीन हाथ से निकल जाने के ग़म से बहुत दुःखी रहने लगा, क्योंकि ज़मीन पर किसान का प्राण-प्रेम होता है, पोता राजू दादा को संत्वना देता, हमे इन्साफ जरूर मिलेगा।" दादा जी ।
किसान के  पोते राजू ने अपनी पढ़ाई की तैयारी करनी शुरू की, और उसने अपने दादा की मदद करने के लिए एक वकील की तलाश की। उसने एक वकील को तय किया , जिसका नाम था गणेश शर्मा। वकील ने किसान की कहानी सुनी, और ज़मीन के कागज पत्रों की जाँच की।
तो वकील को पता चला, कि मुनीम के पास फ़र्ज़ी पत्र हैं, और ज़मीन की असली मालिक किसान है। वकील ने किसान का पक्ष सम्भाला, और मुनीम के ख़िलाफ़ अदालत मे क़ानूनी कार्यवाही शुरू की।
कई महीनों के बाद, क़ानूनी मुकदमे में, न्यायाधीश ने फ़र्ज़ी पत्रों को ख़ारिज़ करके, ज़मीन पर किसान का हक मान्य करते हुए, मुनीम को ज़मीन से ख़ाली करने, और किसान को मुआव्ज़ा देने का आदेश दिया।
किसान, उसका पोता, और परिवार में सब प्रसन्नता और  ख़ुशी-से-भर-कर-उछल-पडे जब उन्होंने अदालत का यह फैसला सुना।
"धन्यवाद, प्रभु! मुझे मेरी ज़मीन वापस मिल गई!"
"धन्यवाद, प्रभु! मुझे मेरी ज़मीन वापस मिल गई!"
राजू के सिर पर हाथ रखकर किसान ने हाथ जोड़कर  आसमान की तरफ देखकर कहा।
"धन्य है आप प्रभु आप न्यायकारी हैं सभी का सहारा है।
- डा० प्रमोद शर्मा प्रेम
नजीबाबाद  - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक :- 056
पर्यावरण
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नीना आज बड़ी दुखी दिख रही थी मां ने पूछा तो फफक फफक कर रोने लगी। सुनीता ने अपनी गुड़िया  को लपक कर गले लगा लिया। गोद मे बैठाकर पूछा क्या बात है बिटिया ऐसा क्या हो गया कि इतनी दुखी हो । नीना ने अपने आंसू पोंछते हूये बडी मासुमियत से कहा मां मै बगीचे गयी थी खेलने तो मैने देखा कि वहां के पौधे तेज गर्मी के कारण झुलस गये है । मेरे जैसे वो भी तो छोटे और नाजुक बच्चे हैं । आप और पापा मेरा और भईयु का कितना ध्यान रखते हो हमे तेज गर्मी से बचाते हो। मम्मा क्या इनके मम्मी पापा नहीं होतें जो इन्हें प्यार से सम्हाल सके माँ अपनी नन्ही गुड़िया के दर्द को भली भांति समझ चुकी थी । नीना ने एक छोटी सी पानी की बाल्टी उसे पकड़ाते हुए कहा बेटा इन पेड़ो के मम्मी पापा ने अपने कलेजे के टुकड़ो को हमारे सुख के लिए अपने से अलग कर दिया है ताकि हम जी सके हमें ओक्सीजन मिल सके और हम स्वस्थ रह सकें। नीना अपनी छोटी सी बाल्टी ने पानी भरकर मुस्कुराते हुए चल दी ।
- शुभा शुक्ला निशा
रायपुर - छत्तीसगढ़
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क्रमांक  : - 057
मौत का डर
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                   हमारे पडौस में एक नया किरायेदार आया,जो अपनी मौत से बहुत डरतालघुकथा था,वह अकेला ही एक कमरे में रहता था और उसने कमरे के एक कोने में दीवाल से सटाकर अपना पलंग बिछाया था,एक दिन मैंने उनसे पूछा कि-आपने यह पलंग कोने में क्यो बिछाया है? आपको तो पंखे की हवा कम लगती होगी? तो वे सज्जन बोले कि-यदि मैं पंखे के नीचे सोया, तो हो सकता है कि कभी पंखा नीचे गिरा, तो वो मेरे ऊपर ही गिरेगा और मुझे चोट लग सकती या मैं मर भी सकता हूं। मुझे मौत से बहुत डर लगता है।
                 मैने उन्हें अपना तर्क देते हुए कहा कि यह आपकी गलतफहमी है यदि,पंखा चलते हुए अचानक नीचे गिरता है, तो वह पंखुड़ियों के घूमने के कारण घूमता हुआ किसी कोने में ही गिरेगा और सकता है कि जिस कोने में आप सोते हो वहीं पर ही गिरे। उन्हें मेरी बात ठीक लगी और उन्होंने अपना पलंग बीच कमरे में पंखे के ठीक नीचे लगा लिया।
               कुछ दिन बाद फिर किसी काम से मैं उनके कमरे में गया, तो मैने उनसे कहा कि-मैं आपको एक बात, तो बताना ही भूल गया। पंखे के नीचे सोने से भी आपको मौत का खतरा है, वे बोले कैसे ? मैंने कहा कि- मान लो यदि पंखा बंद है और फिर अचानक गिर जाए, तो वह वजन के कारण सीधे बीच में ही नीचे गिरेगा। यह सुनकर वे पसीना- पसीना हो गए, बोले तुमने तो मुझे अजीब उलझन में डाल दिया, अब तुम्हीं कोई उपाय बताओ, इस गर्मी में बिना पंखे के रहा भी नहीं जा सकता है।
                 मैंने उन्हें सलाह दी कि तुम मुसीबत की जड़ इस पंखे को ही निकाल दो और उसके स्थान पर एक टेबिल फेन या छोटा सा कूलर खरीद लो। उन्हें मेरा यह सुझाव पसंद आ गया और पंखे से मौत होने का उनका डर कुछ कम हो गया।
                                 ***
- राजीव नामदेव ‘राना लिधौरी’
टीकमगढ़ - मध्यप्रदेश
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क्रमांक  : - 058

  नँगा सच
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पत्रकारिता एवं साहित्य के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने के लिये रोहित को "साहित्य समिति पुरस्कार" मिला था। पुरस्कार लेकर जब वह अपने घर पहुँचा तो उसके चेहरे पर अपार खुशी झलक रही थी।
अपने पति को घर आया देख, उसकी पत्नी शीला ने चहकते हुए उससे पूछा कि इस पुरस्कार में उन्हें क्या-क्या मिला है ? अपनी पत्नी को शाल ओढ़ाते हुए रोहित ने जवाब दिया कि उसे इस ख्याति प्राप्त पुरस्कार में यह शाल, प्रशस्ति पत्र तथा एक स्मृति चिह्न मिला है।
" इनके साथ कुछ नकद धनराशि नहीं मिली?"-- उत्सुकतापूर्वक पत्नी ने पूछा।
" नहीं, यह पुरस्कार मिलना क्या कम है ? इस पुरस्कार को पाने के लिये लोग अपनी सारी उम्र गुजार देते हैं, पर उन्हें यह पुरस्कार नहीं मिल पाता।"---- गर्व के साथ रोहित ने जवाब दिया।
अपने पति की यह बात सुनकर शीला का मुँह लटक गया था। वह मरे मन से बोल उठी---
" इन कागज के टुकड़ों तथा पीतल के पत्तरों से क्या पेट भरता है, पेट तो रोटी से भरता है। क्या तुम्हें मिला यह पुरस्कार इस अभावग्रस्त परिवार का तन ढक सकता है या पेट भर सकता है ?"
इतना कहकर वह रसोईघर की तरफ चली गई। पुरस्कृत साहित्यकार कभी तो जाती हुई पत्नी को निहारता, तो कभी पुरस्कार में मिले प्रशस्ति पत्र को उसे लगा जैसे पत्नी द्वारा कहा गया नँगा सच, इस पुरस्कार को भी नँगा कर गया था।
        
    - रोहित यादव
मंडी अटेली - हरियाणा
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क्रमांक  : - 059

बदलाव की बयार
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"माँ ,तुम पायल और चूड़ी पहनो...!  तुम्हारा हाथ,पैर सूना- सूना  देखकर मुझे अच्छा नहीं लगता है !” डाॅक्टर  बेटी ने माँ से हठ करते हुए कहा |
"नहीं बेटी, अब मैं पायल और चूड़ी नहीं पहन सकती ! मैं विधवा हो गई‌ हूँ |” माँ ने जोर देकर कहा।
"वाह! पिछले  साल मौसी मर गई तो मौसा जी  विधुर हो गए ,फिर  वो टाई,कोट, पैंट, अँगूठी  सब क्यों पहनते हैं ?नॉनवेज क्यों खाते हैं ? और तुम हर बात में यही कहती हो ,मैं विधवा हो गई इसलिए ये नहीं पहनूँगी ,वो नहीं खाऊँगी ? नियम केवल औरतों के लिए ही बनाया जाता है  ?बताओ माँ! ”
"हाँ बेटी, हमारा समाज ऐसा ही है !  औरत को ही हमेशा अग्नि परीक्षा देनी पड़ती है।”
"नहीं माँ, मैं ऐसा नहीं होने दूँगी। मैं
पढ़ी लिखी हूँ , दक़ियानूसी नियमों को तोड़ना चाहती हूँ | लो ये पायल और कंगन ,पहनो  इसे | तुम भी हमारी तरह एक इंसान हो, तुम्हारे अंदर भी भावनाएं होंगी
जीते जी तुम अपने शौक को मत मारो! लिख डालो अपनी व्यथा,रच डालो एक महाकाव्य।”  पिता की तेरहवीं में घर आए गेस्ट ऐसा सुनकर निःशब्द रह गए |
बेटी के दिये पायल और कंगन माँ के सूने हाथों , पैरों की शोभा बढ़ा रही थी| बेटी का मन मयूर बन थिरकने लगा।

- मिन्नी मिश्रा
पटना - बिहार
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क्रमांक  : - 060

शव
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रिक्शा चलाने वाले रघु का एक्सीडेंट हो गया। वह लहू लुहान  हो सड़क पर गिर पड़ा था किसी ने उठाकर उसे साथ वाले अस्पताल में दाखिल करवा दिया ।  जैसे तैसे रघु की पत्नी सीमा को  पति के एक्सीडेंट की खबर मिल गई। वह भी लोगों के घरों में बर्तन साफ करके पति के साथ मिलकर गृहस्थी की गाडी़ खिंच रही थी। उसे जब पता चला तो वह भागते हुए अस्पताल पहुंची। डॉक्टर ने रघु को दाखिल कर लिया था और उसे आईसीयू में लेकर गए हुए थे ।  डाक्टर ने उसके बारे में कोई सही जानकारी नहींं दी। जब भी सीमा कुछ पूछती डाक्टर रुपये जमा करवाने की बात करता। दो दिन आई सी  यू में  पड़े रघु के शव का डॉक्टर बिल बनाता रहा । दो दिन बाद डॉक्टर ने कहा की  ₹100000 जमा करवाओ जो दवाइयों  का खर्चा  आया है  और  शव को ले जाओ वो अब नहीं रहे। सीमा को समझ नहीं आ रहा था कि किस से लाख रुपए उधार लेकर वह पति की पति के शव को उठाएं  फिर उसका दाह संस्कार करें या फिर बच्चों को पाले। बहुत सारी औरतें इकट्ठी होकर अस्पताल गई और फरियाद की  कि शव दे दिया जाए उनके पास बिल भरने के पैसे नहीं है लेकिन डॉक्टर मान नहीं रहा था ।  सबने सीमा को कहा कि पैसा उधार लेकर पति के शव को अस्पताल से ले आओ ।  न जाने सीमा को क्या सूझी  वह अस्पताल में गई और डॉक्टर को बोली   ना तो मेरे पास पैसे हैं शव लेकर जाने के लिए और ना ही मैं शव को लेकर जाऊंगी आप अपने पास रख लीजिए जितने दिन रख सकते हैं और  वापस आकर बच्चों की रोटी का इंतजाम करने लगी । 
- नीलम नारंग
    चंडीगढ़
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क्रमांक : - 061

बदलती हवा
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            सुबह से घर में एक उथल-पुथल भरा खुशियों का माहौल बना हुआ था। आज लावण्या जी के पोते के लिए लड़की देखने जो जाना था।
            “ अरे परिधि! सब तैयार हो गए या कोई बाकी है?”…..विस्मित ने घड़ी बाँधते हुए पूछा।
          “ हाँ हाँ..सब तैयार हैं। रोली और पापा जी तो सबसे पहले तैयार होकर बैठे हैं। बस मम्मी जी आ जाएँ ऊपर से तो निकलते हैं “…कहते हुए परिधि उन्हें बुलाने चली।
           “ उसका वहाँ क्या काम है? हम सब काफी हैं….पापा जी की रौबीली आवाज गूँजी।
              “ वहाँ मेरा ही तो काम है और मैं जाऊँगी। चलो फटाफट निकलें अब।”
              आज लावण्या जी अपने अतीत की कड़वी स्मृतियों के दंश को जीती हुई बेहद परेशान थी। शिक्षित न होने और दहेज….इनके कारण  उनके सास-ससुर और पति ने सदा उन्हें अपमानित किया था। आज वे एक संकल्प लेकर चली थी। जो अपने बेटे के समय नहीं कर पाई वह पोते के समय करने के लिए कटिबद्ध थीं।
              वहाँ पहुँच कर सारी बातें होने के बाद लावण्या जी ने बहुत धीर-गंभीर स्वर में कहा….” सारी बातें ठीक हैं पर मुझे दहेज चाहिए और वह भी होने वाली पोता बहू से। आप लोगों को मान्य हो तो मैं कहूँ।”
                “ मैं तैयार हूँ दादी माँ! आप कहिए।”
       लावण्या जी पूर्ति बिटिया का हाथ अपने हाथ में लेकर बोली….तुझे दहेज देने के रूप में आज मुझे दो वचन देने होंगे। पहला तू मेरे गाँव में एक विद्यालय खोलेगी ताकि गाँव की बेटियाँ ही नहीं उनकी माएँ भी शिक्षित हो सकें और दूसरा मेरी बहू परिधि की तरह तू भी समय आने पर ऐसा ही दहेज देगी और लेगी। लेकिन मेरी बात अभी पूरी नहीं हुई है। अपने पोते की ओर से मैं भी तुझे दहेज देने के रूप में दो वचन देती हूँ। जीवन में जो भी निर्णय लेना होगा वह तुम दोनों की सहमति से ही होगा और और तुम्हारे साथ सदा कदम मिला कर चलेगा।”
            लावण्या जी के पति आज उनका यह यह क्रांतिकारी रूप देख कर निशब्द थे।

- डा० भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखण्ड
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क्रमांक : - 062

लौट आया नरेन
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आज तक तो कभी उसके साथ ऐसा नहीं हुआ था। लेकिन आज उसके साथ यह क्या हो रहा है, वह समझ ही नहीं पा रहा। कभी भावना गीत बन जाती है, तो कभी गीत भावना में बह जाता है। वह अपने आप को पर्वत की सूखी चोटी समझता रहा है, फिर आज वह हिमाच्छादित शिखर कैसे बनता जा रहा है?
अभी-अभी पापा का फोन आया था। हालांकि उन्होंने शब्दों में तो कुछ नहीं कहा था, लेकिन उनके बार-बार रुंधते गले और रह-रह कर नाक सुड़कने की आवाज ने बहुत कुछ कह दिया था।
उसे काफ़ी वर्ष पहले पढ़ी पापा की एक लघुकथा 'लौट आओ नरेन' याद आ रही थी। लघुकथा का नायक नरेन बिल्कुल उसी की तरह एमबीबीएस करने के बाद उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका चला जाता है और फिर वहीं का होकर रह जाता है। कथा-नायक का पिता उसे बहुत समझाता है- 'मेरे और अपनी मम्मी के लिए नहीं, तो अपनी मातृभूमि के लिए ही आ जाओ बेटा! उसका कर्ज तो तुम हजारों जन्म निछावर करके भी नहीं उतार सकते। अमेरिका के लोग तो बहुत धनी हैं, लेकिन तुम्हारे देश के गरीब मरीज़ तो तुम्हारे पास ईलाज के लिए नहीं आ पायेंगे ना! फिर उन्हें तुम्हारी उच्च शिक्षा और प्रतिभा का क्या फायदा हुआ?' आदि-आदि। लेकिन कथा-नायक पर इसका कोई असर नहीं हुआ- 'इन सब व्यर्थ की बातों के लिए मैं अपना कैरियर तो बर्बाद नहीं कर सकता ना!' और कथा-नायक का पिता पापा के टूटते शब्दों की तरह ही टूटकर चला गया था।
उसे लगा कि यह लघुकथा अभी-अभी फिर लिखी गई है और इसका नायक कोई और नहीं वह स्वयं है। किंतु वह इसका अंत पहले जैसा नहीं होने देगा। उसने सोचा और पापा को फोन लगा दिया- "मैं इंडिया आ रहा हूं पापा!"
-  डॉ. सत्यवीर 'मानव'
नारनौल - हरियाणा
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क्रमांक : - 063
           
ठेंगे पर साहित्य
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मेरी लघुकथा को प्रथम पुरस्कार कैसे  नहीं मिलता ? इसके पीछे काफी मेहनत किया है मैंने,  अपनी लघुकथा
" कामचोर " पर ढेर सारे लाईक बटोरने  के लिए l '''' -- कुछ देर रुक कर फिर उसने आगे कहा --
" तू तो बुद्धू हो रे,बुद्धू l कम से कम अपने दोस्तों को मिठाई खिलाने की बात कहकर लाइक तो करवा ही सकते थे अपनी लघुकथा " प्रलोभन " पर ! कम से कम सांत्वना पुरस्कार तो तुझे जरूर मिल जाता !"
" तुम ठीक कह रही हो प्रियंका  l लेकिन मैं क्या करता ? मेरी तबीयत तो कल से ही खराब चल रही है l यह सच है कि  अपनी लघुकथा पर पुरस्कार पाने के लिए, मैं कोई सार्थक प्रयास नहीं कर सका l वरना मेरा एक मित्र तो धर्म गुरु है  l यूट्यूब पर उनके दो लाख फौलोवर हैं  l फेसबुक पर उनके लाखों ऐसे चेले हैं,  जो उनके इशारे पर, बिना पढ़े लिखे,  बिना सोचे समझे अपना अंगूठा लगाने को तैयार हो जाते हैं l मैं अपने उस धर्मगुरु मित्र को सिर्फ कह देता तो वे मेरी लघुकथा पर उन हजारों चेलो का अंगूठा, लाइक के बटन पर अवश्य लगवा देते! ओह! बहुत मिस कर गया यार  ! "
          दोनों के बीच बैठी तीसरी मित्र मीना, दोनों की बातें बड़ी गंभीरता से सुन रही थी l उसने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा -
" तो, साहित्य की विशेषता का मापदंड अंगूठे से किया गया फेसबुक लाइक है क्या ?  "
" हां यार, आजकल साहित्य जगत में भी यही कुछ तो हो रहा है  l प्रेमचंद, निराला जैसे रचनाकारों ने कभी ऐसी साहित्य प्रतियोगिता में हिस्सेदारी की है क्या ?  "
" हां l यह बिल्कुल सही बात है l आज ऐसे ही साहित्यकारों की वजह से साहित्य का बाजार फल फूल रहा है l साहित्य के सौदागर खूब लूट- खसोट कर रहे हैं l "
" मीना   ! एक बात पूछूं मैं तुमसे ? फिर साहित्य के पाठक गए कहां ? "
        दोनों की बातों पर पहला मित्र ने हंसते हुए और अपना अंगूठा दिखाते हुए कहा -
" साहित्य पाठक गए फेसबुक पर  और साहित्य गया  ठेंगे पर !  "  [][][]

- सिद्धेश्वर
  पटना - बिहार
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क्रमांक : - 064

नादानियाँ
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सासु माँ हाथ बढ़ा बेटे नई बहु चंदा का स्वागत कर गुड़ की डली मुँह में रख बहूँ से कहती यूँ ही  मेरे आँख का तारा प्रकाश गुड़ की डली की तरह इसकी मिठास तेरे मुँह में हो । इसे बरकरार रखना ! सासु माँ ने कहा अब अब पहला कदम रख घर के अंदर आ जा । दोराहे पर मेरे बेटे प्रकाश को कभी ना खड़े होने देना । मैंने अपने आँचल की गाँठ खोल तुझे पकड़ा दी है ।अब अपने आँचल से गुड़ डली गाँठ बाँध परम्पराओं के अनुसार आगे पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ते रहना !
परिणय बंधन खोल बेटा प्रकाश बाहर जाने लगा ।
दौनों हाथों सेआँचल में समेट बहुरानी से कहा -
इसकी नादानियाँ बचपन से लेकर बुढ़ापे तक ऐसे ही रहेगा ।अभी मेरे ऊपर झल्ला के गया । ख़ूब चिल्ला चिल्ली कर गया ।माँ तुम ये नहीं किया वो नही किया । आखिर मुझे आप ने अब तक बच्चा ही समझ तहज़ीब सिखाती ,ये देरी से किया वो देरी किया वग़ैरह ,वग़ैरह .। वो छोटा था तब भी ऐसा ही झल्लाता  चिल्लाता था । उसका कोई सामान इधर से उधर हुआ और उसे समय पर नहीं मिलता , तो आसमान सर पर उठा लेता ,और मैं मुस्कुराकर उसे देखती रहती थी ।
प्यार से दूलार से ममता से आख़िर मैं उसकी माँ जो ठहरी ,और आज भी जब उसकी शादी हो चुकी हैं ।
मैं उसे उसी प्रकार झल्लाते देख मुस्कुराती रहती हूँ ।आखिर वो मेरा राजा बेटा प्रकाश ही तो है ।
आखिर मेरा ध्यान भी तो वो ही रखता है ,
सेवा भी तो वी ही करता है  !
मेरी आँखों का तारा भी वही है ।
बहु चंदा तो तुम तो अभी आई हो तुम्हें  हाथ बढ़ा सिखाना तो मेरा ही काम है । धीरे धीरे सोढ़ी चढ़ कामयाबी हासिल कर लो गी !  अच्छी शुरुआत अच्छी पहल से ज़िंदगी सवाँरोगी ।
अच्छी सोच भ्रम दूर कर प्यार देकर प्यार से प्यार की जीत होती है ।ये सारी बातें चंदा ने अपनी सासु माँ से सिखा है हर कदम साहस के साथ बढ़ते गये !
आज बरसों बाद चंदा अपनी सासु के विचारों के साथ अपने बेटे जुगनू को उसकी उच्च महत्वाकांक्षाओं के साथ उड़ना देखना चाहती है।
- अनिता शरद झा
मुम्बई - महाराष्ट्र
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क्रमांक : - 065

मैं जीत गई
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             एक बहुत बड़े साहित्यकार,  जिन्हें नवांकुरों की तरफ तो देखना भी गंवारा नहीं था । वह सोचते थे कि यह क्या खाक लिखते होंगे  । एक दिन उनके एक मित्र ने उन्हें एक पांडुलिपि,  भूमिका लिखने के लिए लाकर दी जिसके लिए उन्होंने स्पष्ट रूप से मना कर दिया । लेकिन मित्र भी अपनी जिद पर अङा रहा । और उन्हें वह पांडुलिपि रखनी पड़ी । सोचा,  लिखूंगा तब देखा जाएगा ।
             उन्होने उसे टेबल पर रख दी, एक सरसरी सी नजर उस पर डाली तो वह कुछ सधी हुई सी नजर आई । वह वहां से जाने ही वाले थे कि हवा का एक झोंका आया और उसके पन्ने फड़फड़ा कर खुलने लगे । एकाएक उनकी दृष्टि उस पर ठहर गई । हाथों ने अनायास ही उसे उठा लिया, वे आंखें फाड़े उन मोतियों को देखने लगे ।
            किसी की लिखावट इतनी सधी हुई और सुंदर भी हो सकती है ? उन्हे यकीन नहीं हो रहा था । वह वहीं बैठ गए और उसे पढ़ने लगे ? ज्यों-ज्यों पढते जा रहे थे, उनकी जिज्ञासा भी बढ़ती जा रही थी । उसमें किसी दुर्घटना में अपने दोनों हाथ गंवा चुकी लड़की की दर्द भरी दास्तान थी । उसे लिखने-पढ़ने का बहुत शौक था पर लिखे कैसे ?
           एक दिन उसके मन ने कहा-
"मैं हूं ना ! तू मेरे साथ चल और अपने पांवों से लिख ।"
           आत्मा के प्रोत्साहन का ऐसा प्रभाव पङा कि दर्द धीरे-धीरे खुशियों में बदलने लगा । उसका अभ्यास रंग लाया और उसनें एक पुस्तक लिखी-
"मैं जीत गई ।"
           मन को झकझोर देने वाली उस पाण्डुलिपि ने उनके मन को भी झकझोर कर रख दिया ।  आज वह खुदको बोना महसूस कर रहे थे । ऐसा लग रहा था मानों रचनाकार नें स्वयं उस दर्द को जिया हो अथवा किसी के भीतर गहरे उतरकर उसे महसूस किया हो । उन्होंने कई कई भूमिकाएं लिखी मगर ये पहला अवसर था, जब वह विचलित हो गए । उसे पढने में वे इतने तल्लीन हो गए कि समय का भान ही नहीं रहा.....कठोर हृदय होते हुए भी अपने आंसू रोक नहीं पा रहे थे । 
           उनका मन उस लेखिका से मिलने को उतावला होने लगा । उन्होंने जबरन अपने आप को संयत करते हुए अपने मित्र को फोन कर बुलाया और चल पड़े उसके साथ, उस अनजान लेखिका से मिलने ।
           जब वह उससे मिले तो.....तो.......यह क्या ? वह हतप्रभ रह गए । वही.....वही....उस पांडुलिपि की नायिका थी । सच में वह जीत गई थी ।                
                            
- बसन्ती पंवार
जोधपुर - राजस्थान                      
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क्रमांक : - 066

  भूख का समाधान  
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    घने कुहरे की सर्द सुबह.. एक फटेहाल, कृषकाय बालक...कन्धे पर बडी़ सी बोरे की झोली लटकाये ,
जगह-जगह कूडे़ में प्लास्टिक  बोतल नंगे पैर बीन रहा था ।  वह टटोल रहा था  , गन्दगी सने हाथ पैरों से , पापी पेट की भूख को कुछ पैसों की जुगाड़... ।
    शाम ढलते कष्ट से बे-परबाह उसने ,  कबाडी़ से मिले चन्द सिक्के रात को बीमार माँ की हथेली पर रखे तो मजबूरी में दुखी माँ ने भरे नयन भूख की कुछ जुगाड़ पा कर बच्चे के भविष्य को देख चिन्ता मग्न सोच में डूब गयी  ।
    वह अभागा मासूम रात को गुदडी़ में पडा़ सोच रहा था ..." कल कहाँ अधिक कबाड़ मिलेगी  ? जल्दी जाझकर , देर तक खोज के यदि कमा सका तो कहीं से पुराने जूते खरीद
लायेगा । " आज नँगे पैर में  घुसी कील से उसे अजीब दर्द होकर, बेचैनी सी हो रही थी परन्तु उसने माँ को नहीं बताया था ।
    रात भर में सूजन बढ़ गयी , .....शरीर में अचानक
ऐंठन सी होने लगी  ,  .... और न जाने कब वह मासूम....निःशक्त ...साँसे खो चुका था । सुबह तड़के
बीमारी से लड़खडा़ती माँ ने उसे पुकारा.."..बेटा अभी जागा नहीं ....धूप आ गयी.!."..परन्तु जब नहीं आया जाग कर  , तो जाकर देखा....माँ की चीख निकल गयी....वह लिपट कर दर्दनाक विलाप करने लगी ,
......बेचारी बीमार बूडी़ माँ का आखिरी सहारा खो
चुका था...... और...वह अभागा मासूम.... भूख का
समाधान  पा गया था ।

- रवीन्द्र वर्मा
आगरा - उत्तर प्रदेश
                    
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क्रमांक : - 067

दीये
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          अरे भाई यह "दीये" कैसे दे रहे हो। विनोद ने सिगरेट सुलगाते हुए दिवाली पर मिट्टी के लिए बेचने वाले से पूछा।
श्रीमान जी दीये तो ₹10 की इक्कीस हैं, परंतु इससे पहले आप यह जो सिगरेट पी रहे हैं । इसको बुझा दीजिए क्या आपको पता है? आपने दियासलाई की तिल्ली से जो यह सिगरेट जलाई है, इससे ग्लोबल वार्मिंग में कितना इजाफा हुआ है,आपको यह भी मालूम नहीं होगा कि यह जो धुआं वातावरण को कितना दूषित कर रहा है।  वातावरण के साथ-साथ आप के अंदरूनी हिस्से को भी दूषित कर रहा है ।
विनोद- ठीक है ठीक है तू तेरा काम कर शायद उसे अपनी गलती का एहसास होते ही सिगरेट को तोड़ दिया और मोल भाव करने लगा। 
- शुभकरण गौड़ 
हिसार - हरियाणा
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क्रमांक : - 068

भूख की बीमारी 
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“आपके सभी टेस्ट ठीक हैं, माताजी! आपको कोई बीमारी भी नहीं है। आप अपने घर में ही आराम कीजिए। हम आपको आज शाम तक डिस्चार्ज कर देंगे। कुछ  दवाईयाँ लिख दी हैं, तीनों टाइम खाने के बाद लेनी हैं।” वार्ड में वृद्ध महिला को समझाते हुए डॉक्टर ने कहा।
वृद्धा दो दिन पहले ही इस सरकारी अस्पताल में भर्ती हुई थी। पिछले दो सालों में वह कई बार भर्ती हुई थी।
खाने की भरी थाली हाथ में पकड़े हुई वृद्धा के होंठ फड़फड़ाए – घर...घर ....अपने घर। उसके चेहरे के उड़े रंग को मानो झुर्रियों ने ढाँप लिया। मुँह से शब्द ना निकले परंतु मन चीत्कार कर पूछ रहा था कि स्त्री का अपना घर कौन-सा होता है? अपने पिता के घर से तो वह बहुत पहले ही विदा कर दी गई थी। जिस घर को बरसों से सँजोया, पति के मरते ही वह बच्चों का हो गया और वह अवांछित वस्तु मात्र बन गई। इस सरकारी अस्पताल में उसे कम से कम इज्ज़त के साथ तीन वक्त का खाना तो मिल जाता है। यहाँ उसके जैसे ही बहुत से वृद्ध हैं, जो शारीरिक बीमारी से नहीं बल्कि भूख की बीमारी की वजह से यहाँ पड़े रहते हैं।
कँपकपाते हाथों से उसने खाने की थाली वहीं पास में पड़ी टेबल पर रख दी और भरी आँखों से उसे निहारने लगी। कुछ सोचते-सोचते उसकी आँखों से आँसू बह निकले। बेबस पड़ी थाली मानो उसे दिलासा देते हुए कह रही थी ....ना ....ना...री  उदास मत हो। ये भूख की बीमारी है, दवाइयों से ठीक नहीं होगी। तुम फिर लौटकर यहीं आओगी।

- अनिता तोमर ‘अनुपमा’
बेंगलुरु - कर्नाटक
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‌‌    क्रमांक :- 069


शीर्षक-स्तब्ध 

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       सुबह ही तो हुआ है। घर में चहल पहल थी ।जल्दी करो !कमला बाई भी नहीं आयी है ।अम्मा काम करती जाती है और बाईं कों कोषती जाती।

      ये लोग भी समय पर धोखा देते हैं ।घर की सफ़ाई, अपना काम, प्रसाद की तैयारी चल रही थी ।आख़िर घर में पूजा जो थी ।पंडितजी को लाने गये हैं ।

      लेकिन काम वाली नहीं आयी। पूजा की तैयारी हो चुकी है ।पंडित जी से बात की है ।कितना समय लगेगा उन्हें आने में ।अभी ट्रैफ़िक में फँसे हैं ।

      आनन फ़ानन घर को सर पर उठा ली थी माँ ।पंडितजी आ चुके हैं ।सभी पड़ोसी अपनी जगह बैठ चुके थे ।पूजा शुरू हुई ।सत्य नारायण प्रभु की पूजा थी ।सात शंख बजे।हवन ,आरती हुई ।

       सभी प्रसाद लेकर घर को वापस गए ।

बाईं जब आयी शाम हो चुकी की थी। अम्मा ने कहा -कहाँ गयी थी ।तुम्हें आज ही धोखा देना था ।

      इधर देखा बाईं की  आँखें सूजी हुई है ।वह रो रही है ।पति का एक्सीडेंट हो गया है ।मैं अस्पताल से आ रही हूँ ।          अम्मा जो अब तक आग बबूला हो रही थी। बिलकुल शांत हो गयी। शब्द कम पड़ गये ।

- सुधा पाण्डेय 

 पटना - बिहार

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क्रमांक :-‌ 070


उड़े हुए पंछी

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"भाभी ई खाली पिंजरा नीक नाही लागत। उतार देई का?"

रामदेई ने उनसे पूछा।

कभी इस पिंजरे में सुन्दर से पंछी का जोड़ा रहा करता था। एक दिन पिंजरे का दरवाजा खुला पाकर पंछी उड़ गये। तब से पिंजरा खुले दरवाजे के साथ बरामदे में लटका हुआ है।

उन्होंने पिंजरे की तरफ देखा और कहा "रहने दे। शायद पंछी लौट आयें।"

"एल्लो, कभी उड़े पंछी वापिस लौटे हैं क्या?"

रामदेई की इस बात का कोई जवाब न देकर, वे बोलीं "मोबाईल की रिंगटोन आ रही है, मेरे कमरे से। जाकर ले आ।"

"का बेटू भैया रहे फोन पर।? का कये रये थे। आय रये है न भैया,बच्चन समेत दिवारी पे?"

वे चुप रहीं, क्षणोपरांत बोलीं "रामदेई पिंजरा उतार ले।"

- सुनीता मिश्रा

भोपाल‌- मध्यप्रदेश

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क्रमांक :- 071


विवशता

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"आज आपने बहुत देर कर दी। बच्चे इंतज़ार करके अभी-अभी सोए हैं। क्या बहुत काम था।" शुभ्रा ने विनीत से पूछा।

हाँ। संक्षिप्त सा उत्तर देकर विनीत चुप हो गए।

"बोनस मिला क्या!" खाना परोसते हुए शुभ्रा ने पूछा।

"मिला तो था, पर•••"

"पर क्या?" शुभ्रा ने उत्सुकता से पूछा।

"चपरासी को मुझसे ज्यादा जरूरत थी।  उसकी माँ बहुत बीमार है। इसलिए मैंने उसे बोनस में मिले सारे पैसे दे दिए।"

"आपने बहुत अच्छा किया।"

"पर शुभ्रा बच्चों के कपड़े! इस बार पहली बार उन्होंने मुझसे कुछ माँगा है।"

"चिंता मत कीजिए। हम बच्चों को समझा देंगें। हमारे बच्चे बहुत समझदार हैं।"

विवशता से जहाँ विनीत की आँखें भरी हुई थी। वहीं शुभ्रा के मन में भी बच्चों की इच्छा पूरी न कर पाने की टीस उभर रही थी। 

- अर्चना कोहली अर्चि

नोएडा - उत्तर प्रदेश

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क्रमांक :- 072


 धर्म

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"दो शीशी खून चाहिए एबी नेगेटिव।अपने अस्पताल में इस ग्रुप का खून नहीं है।आप लोग कहीं से भी इसकी व्यवस्था  अविलंब करें।"

डॉक्टर ने बाहर आकर कहा और  पुनः ओटी के अंदर चले गए।

 साथ आए रिश्तेदार ने देखा मरीज की माँ और पत्नी बिल्कुल टूट चुकी हैं। थोड़ी हिम्मत बटोरकर  उसने रक्त दान शिविर लगाने वाले एक एनजीओ को फोन पर  घटना की सूचना दी।

"आप निश्चिंत रहें।अपने ही एनजीओ के एक लड़के का ब्लड ग्रुप एबी नेगेटिव है।"

 कुछ ही मिनटों में   सामने बाइक से दो युवक उतरे और खून देने के लिए आगे बढ़े।

" मैं तैयार हूँ।" एक युवक ने कहा।

 रिश्तेदार ने देखा  बिल्कुल स्वस्थ और हट्टा कट्टा नौजवान खून देने को तैयार है। युवक के पहनावे और भाषा से साफ प्रतीत हो गया कि उसका धर्म अलग है लेकिन खून देने के लिए उसके मन में कोई धार्मिक भेदभाव नहीं है।

"आप देर न करें। मैं कोई फरिश्ता नहीं सामान्य इंसान हूँ।  एक जरूरतमंद के लिए खून देकर एक इंसान का धर्म निभा रहा हूँ।" 

रिश्तेदार  युवक को  अस्पताल के अंदर  ले गए।

- निर्मल कुमार डे

 जमशेदपुर- झारखंड

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क्रमांक :-073


आलौकिक आनन्द 

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मैं मंदिर जा रही हूँ- "दरवाजा बन्द कर लेना"                          

रूपा पति को बोलती  हुई  निकल गई। 

आज रूपा की इकलौती बेटी रोमा का जन्मदिन जो था।

 बेटी रोमा पास हीं के शहर में सरकारी अस्पताल में नौकरी कर रही थी।

 इस बार रोमा पास ना थी।

प्रसाद के लिए  हाथ फैलाए एक,  माँ -  बेटी सामने खड़ी थी। 

रूपा  ने बड़े प्यार से दोनों के हाथ पर लड्डू रख दिये।                 

 " लो खाओ आज मेरी बेटी का जन्मदिन है।" 

"ये केला भी लो !" 

आज मेरी भी बेटी का  जन्मदिन है लेकिन-- मैं अभागिन,

"अरे ! ये तो बड़ा सुन्दर संयोग है।"

"आप ये कुछ रूपये रख लो बिटिया के लिए एक नई पोशाक खरीद लेना।"

आज तो सचमुच मेरी बेटी का दिन बन गया।

 जो आप जैसी दयालु की नजर हम पर पड़ गई। 

मैं कब से कोशिश कर रही थी, 

कि इसके  लिए नया कपड़ा ले दूँ। इस  फटे कपड़े से इसका तन भी दिख रहा है।               

लेकिन दाल -रोटी जुगाड़ करते- करते बचत ना हो पाती।

 आप का ये  उपकार  हम माँ -बेटी सदा याद रखेंगे। 

अरे ! मैं तो हर वर्ष इस मंदिर में बेटी के जन्मदिन पर  गुप्त दान करती हूँ।      

आज वही रूपये मेरे पास हैं।  

जो बिटिया के तन ढकने के काम आ जाएगें। 

मेरे साई राम सब देख रहें हैं। 

"हाँ !भगवान सब देखते हैं।

तभी तो आज मेरी भी इच्छा पूरी हो गई।"

"आपकी बेटी को इस लाचार  माँ का ढेरों आशीर्वाद"।         

 दोनों  आगे बढ़ गई खुशी छलकाती।

 रूपा भी प्रभु जी के इशारे को समझ खुद में, एक अलग खुशी महसूस करती घर की ओर बढ़ गई।

- डॉ पूनम देवा

पटना - बिहार

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क्रमांक - 074


नासूर बने घाव

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" बिट्टो ! ये डॉगी जब भी तुम्हें देखता है, काँच वाली खिड़की पर पंजे क्यों मारने लगता है। "

" वो, वो ना मेरी सहेली नीनू का पेट जोजो है। "

" और तुम भी उसे बड़ा प्यार जताती हो। तुम परेशान क्यों हो ? बताओ मुझे। अब तो नीनू कहीं चली गई है। फ़िर जोजो यहाँ कैसे ? "

बिट्टो अपने आँसू छुपा नहीं पाई। एक दिन वह नीनू के घर गई थी। घर में उसके पापा अकेले थे। नीनू कहीं गई थी। उसके पापा ने चॉकलेट देकर बिठाया। फ़िर अचानक उसे खूब चूमने लगे। तभी जोजो ने उनको बुरी तरह से काट लिया।

" अच्छा तो उस दिन... तुम घबराई हुई आई थी। कह रही थी जोजो ने तुम्हारी फ्रॉक फाड़ दी। "

बिट्टो अपनी मम्मा से लिपट कर रोने लगी, " हाँ मम्मा ! उसके बाद से जोजो, अंकल को देखकर काटने दौड़ता। इसलिए नीनू की फैमिली दूसरे घर में शिफ्ट हो गई। जोजो तभी से उनके नौकर के पास है।"

"बिट्टो ! चलो तो, हम जोजो को अपने घर ले आते हैं।"

जैसे ही बिट्टो अपनी मम्मा के साथ जोजो को सहलाया, वह खुशी के मारे उछलने लगा। नौकर यह भी बताया कि जोजो के काटने का घाव साहब के हाथ में अभी तक ठीक नहीं हुआ है। 

     बिट्टो की मम्मा बोली, "मासूम बच्चों की भावनाओं को घायल करनेवालों के घाव नासूर बन जाते हैं। "

- सरला मेहता

इंदौर - मध्यप्रदेश

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क्रमांक - 075


संकल्प

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पर्यावरण दिवस से एक दिन पहले स्कूल में भाषण प्रतियोगिता रखी गयी थी। रोज़ हाउस से रोहन स्टेज पर गया। इसके पहले लिलि हाउस ने खूब तालियां बटोरी थी।

रोहन ने अपने भाषण में कहा - "मेरे दादा जी, मेरे पापा, मेरी मम्मी और मैं, हर साल अपने जन्मदिन पर अपने फार्महाउस में पेड़ लगाते है। हमारे बाद पेड़ - पौधों की देखभाल रामू काका करते है, जो वहीं रहते है। हम भी बीच-बीच में जाकर अपने बढ़ते हुए पौधों को देखकर खुश होते है। मेरे दादाजी के लगाए पेड़ अब फल देने लगे है। दादाजी ने पापा और मेरे से यह संकल्प लिया है कि पेड़ - पौधे लगाने के साथ - साथ उसकी देखभाल करना भी जरूरी है।धन्यवाद", हाॅल में सन्नाटा छा गया, क्योंकि रोहन ने हरियाली पर कोई भाषण नहीं दिया था। तभी प्राचार्या ने उठ कर कहा - "हर साल की तरह, इस साल भी कल पर्यावरण दिवस पर बच्चे जो भी पेड़ लगाएंगे। उसकी देखभाल स्कूल करेगा, और बच्चे पौधों को प्रतिदिन बढ़ते हुए 

देखेंगे।"  अब पूरा हाॅल तालियों से गूंज उठा। 

                  - कल्याणी झा 'कनक' 

                      राँची - झारखंड 

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क्रमांक - 076


बुढ़ापा

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              राम सिंह अपने गांव के सबसे वयोवृद्ध व्यक्ति हैं। उन्होंने जीवन के 80 बसंत देख लिए हैं , उनके हाथों -पैरों में कमजोरी के लक्षण स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं और उठने-बैठने चलने-फिरने में उन्हें दिक्कतें आ रही हैं।उनकी पत्नी 10 वर्ष पहले उनका साथ छोड़ चुकी थी और बेटे शहर में  सपरिवार रहते हैं।एक बेटा किसी कंपनी में इंजीनियर होकर अमेरिका चला गया है ।भाई-भाई का अलगाव होने के कारण वह घर में अकेले रहते हैं और पड़ोस की एक लड़की उनका सुबह-शाम का खाना बना देती है। जिसके बदले वे उसके पढ़ने-लिखने, महीने का खर्च अपनी वृद्धावस्था पेंशन से दे देते हैं।

             मोबाइल ही एक सहारा है,जिससे उन्हें बच्चों का हाल-चाल मिल जाता है और वे भी अपना हाल-चाल दे देते हैं । नाती-पोतों की तुतली आवाज उनके कानों को बहुत मीठी लगती है। दूर से ही सही, उन्हें एक आत्मिक सुकून मिल जाता है।गांव में भी तरह-तरह के विवाद होते रहते हैं ,अधिक उम्र हो जाने के कारण वे लोगों के किसी भी मामले में शामिल नहीं हो पाते।इस कारण भी उन्हें चार बातें सुननी पड़ती हैं। उन्हें याद है कि जब उनकी पत्नी मरणासन्न हो गई थी तो उनके अमेरिका में रहने वाले बेटे ने कहा था - पापा! आप मम्मी का ख्याल रखिए, मैं बहुत दूर हूं ।जैसे भी हो यह मामला निपटाइए। जब वह दिवंगत हो गई तो उसने अपने बड़े भाई को फोन करके कहा - भैया ! मम्मी का मामला आप निपटा दीजिए। पापा जब नहीं रहेंगे तो मैं आकर सब काम निपटा दूंगा। 

             राम सिंह को बहुत दुख हुआ, क्या इसी दिन के लिए हमने बच्चों को पढ़ाया लिखाया था ।आज मेरे दुख में कोई हमारे साथ नहीं है ।बिजली भी कभी-कभी हफ्तों चली जाती है ।गांव के घुप्प अंधेरे में सांप-बिच्छू घर बाहर टहलते रहते हैं ।रात में कुछ भी हो जाए,कोई पूछने वाला नहीं है।  बड़े भैया के बेटे बेरोजगार हैं, बहु झगड़ालू है। बड़ा बेटा मर भी गया। उन्होंने अपनी बिटिया के घर शरण ले रखा है। अपना दुख किसे कहें ,कौन सुनने वाला है ?

             हाय बुढ़ापा! यही सबसे बड़ी बीमारी है। रिश्तेदार भी दूर-दूर बस फोन पर ही हाल-चाल लेने वाले हैं। हमारे एकांत में कोई नहीं है हमारा।बस हम मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहे हैं......।

- डॉ०विजयानन्द

प्रयागराज -उत्तर प्रदेश

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क्रमांक - 077

आजीविका 

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मूर्तिकार निबला जैसे ही अपनी हथौड़ी  हाथ में ले छैनी से मूर्ति के नीचे बाकी का काम करने जा ही रहा था तभी मूर्ति से आवाज आई ! उसके हाथ थंब गये...

"निबला तुम्हारे हाथों में कितनी जान है...? वर्षों से मुझे तराशते तराशते तुम बुढ़े और क्षीण हो गये हो अब मेरी सुंदरता में थोड़ी बहुत खामी होगी भी तो मुझे चलेगा ।"

" ऐसे कैसे  ? आपको चलेगा मुझे नहीं !"

"गणेश जी ने मुस्कुराते  हुए कहा वो क्यों ?"

"निबला ने बड़े ही दीन-भाव से कहा, यदि तुम्हारी मूर्ति में कुछ कमी रह गई अथवा मूर्ति सुंदर नहीं है तो कौन आपको खरीदेगा ? मेरा परिवार कैसे चलेगा ? आप तो साल में एकबार सभी के घर आकर सालभर के लड्डू का कोटा पूरा कर लेते हैं किंतु मै आपके आने से महीनों पहले से ही आपको गढ़ता हूँ , तब कहीं हमारा पेट चलता है अतः मुझे मेरा काम करने दें ।"

- चंद्रिका व्यास

मुंबई‌- महाराष्ट्र

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क्रमांक - 078


अनोखी आभा

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सुबह- सुबह घूमने में  आनन्द आता है, कहते हुए सरोज पास बने चबूतरे पर जा बैठी । 

सुमन ने कहा आप बैठिए, मैं तेजी से पार्क के दो चक्कर लगाकर आती हूँ । 

ठीक है आहें भरते हुए सरोज ने कहा । क्या करूँ मन तो अभी भी बचपने की सैर करता - रहता है परंतु ये घुटने समय- समय पर उम्र का अहसास कराने से नहीं चूकते हैं । 

तभी वहाँ से  कॉलेज के बच्चों का झुंड गुजरा जो शायद फिटनेस  के लिए यहाँ पर एक साथ - दौड़ते हुए आया था ,उनमें से एक लड़का उनके पास आकर बैठ गया । 

क्या हुआ दादी,घुटने ने जवाब दे दिया ? 

अरे तुझे कैसे मालूम, चेहरे पर मीठी मुस्कान बिखेरते हुए सरोज जी ने पूछा । 

मेरी दादी के साथ भी यही समस्या है  जब मैं घर पर रहता हूँ तो उन्हें वॉकिंग पर ले जाता हूँ  पर जब इस तरह से आना हो तो उस दिन उनका टहलना रुक जाता है बच्चे ने उदास स्वर से कहा । 

उसके सिर पर हाथ फेरते हुए सरोज जी ने कहा आज मुझे हाथ पकड़ कर कुछ कदम टहला दो, तुम्हारे मन की उदासी दूर हो जाएगी । 

अब तो उस बच्चे के चेहरे पर अनोखी आभा झलकती हुई साफ देखी जा सकती थी । 

- छाया सक्सेना प्रभु

जबलपुर - मध्यप्रदेश

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क्रमांक - 079


खोटा सिक्का 

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नीता घर का दरवाज़ा खोलते हुए,"अरे बुआ जी आप?इतनी सुबह-सुबह और साथ में आपका बेटा राजू भी नहीं।अकेले?"

पचहत्तर वर्षीय बुआ जी आगे बढ़ते हुए कहती हैं,"हॉं ,नीता!मैं अकेले हूॅं। मुझे कुछ दिन यहॉं रहने दोगी? कुछ दिन बाद राजकुमारी तुम्हारी दूसरी बुआ के घर चली जाऊंगी"

नीता,"अरे बुआ जी!आप कैसी बात कर रही हैं।आप रहिये,मगर हुआ क्या है? कुछ तो बताइये।"

बुआजी-"अरे बेटा!राजू जिसको मैंने और तुम्हारे फूफा जी ने गोद लिया था, तुम्हारे फूफा जी के जाने के बाद एक कागज पर धोखे से मेरा हस्ताक्षर करवा लिया और अब मुझे घर से निकाल दिया।अब मैं कहॉं जाऊं,समझ ही नहीं आ रहा है।मेरा ही सिक्का खोटा निकला।सोचा है सब जगह थोड़ा-थोड़ा रहूंगी।समय निकल जाएगा। किसी को क्या दोष दूं।"

- वर्तिका अग्रवाल 'वरदा'

वाराणसी - उत्तर प्रदेश

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क्रमांक - 080


जूठन

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 जूठन समेटकर  एहतियात से पन्नी में भर रही थी।मैंने उसे बड़े गुस्से की नजरों से देखा 

" मैं गुस्से में बोली यह क्या जाहिल पन है?"

तुम्हें शर्म नहीं आती है ऐसा करते हुए।

उस काम वाली बाई के ऊपर मेरी बातों का कोई असर नहीं हो रहा था। वह मेरी बातों को अनसुना सा कर रही थी।

बड़े ही इत्मीनान से वह सारी जूठन पन्नी में गांठ लगाते हुए बोली मेम साहब घर में मेरी मां बीमार है बहन और 5 साल की छोटी बेटी भी है।

उन्हें आज भरपेट खाना खिलाऊंगी आज खाने में बहुत सारे पकवान है मैं तो भगवान से यही प्रार्थना करती हूं कि आप और आपके बच्चे रोज इसी तरह खाना बनाने को काहे लेकिन वह खाना खाते कहां है प्लेट में थोड़ा सा लेते हैं यह पतीले का खाना जूठन कहां हुआ।छोड़ें में साहब आप लोग खाने की कीमत कहां समझोगे?

  हम जैसे भूखे मरते लोगों का पेट तो भरेगा,और यह अच्छा खाना मिलेगा।  हमारी किस्मत में ऐसा परोसा  भोजन नहीं है । आप के कारण हमें यह सब अच्छी चीजें भी खाने को मिल जाती हैं।

मैं अवाक रह गई उसकी बातें सुनकर मैं स्वयं को बहुत बौना महसूस कर रही थी। उसकी आंखों में खुशी झलक रही थी।

जल्दी पहुंचने का उतावलापन उसकी आंखों में दिख रहा था। और तुरंत सारा सामान एक झोले में भरकर वह घर की ओर जाने लग गई मैं भी उसे दरवाजे में खड़ी हो कर देखती रह गई जब तक वह मेरी आंखों से ओझल नहीं हो गई।

- उमा मिश्रा "प्रीति"

 जबलपुर - मध्य प्रदेश

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क्रमांक - 081


संतुष्टि 

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चमनू अपने इलाके में जाना - माना आदमी था। बडे़-बडे़ आदमियों में उसकी जान पहचान थी। उनके के साथ उनका उठना बैठना अक्सर होता रहता था। खासकर शहर की जानी-मानी शख्सियत छांगू को अपना लंगोटिया यार मानता था।चमनू और अलग अलग जात होने के बावजूद चमनू को लगता छांगू और मैं दो जिस्म एक जान है। चमनू का छांगू के घर हर समय आना जाना लगा रहता था। हरेक मौके उनका सलाह मशविरा एक जैसा होता था। इनका ये अपनापन व लगाव मानो एक दूसरे के विचारों का पूरक था। छांगू व चमनू के विचार व सोच भी एक जैसी थी। छांगू व चमनू के विचारों व सोच में कोई भेदभाव नहीं था। आज चमनू बड़ा खुश था क्योंकि चमनू की बेटे की शादी हो रही थी।

चमनू ने अपने रिश्तेदारों के साथ-साथ अपने जान-पहचान वाले तथा समाज में रुतबा रखने वाले नामी-गिरामी शख्सियतों को न्यौता दे रखा था। सभी रिश्तेदार व नामी-गिरामी हस्तियां बारात में शामिल हुई। सभी ने खूब आंनद लिया। 

दूसरे दिन चमनू ने अपने घर में धाम का आयोजन किया था। चमनू बडे़ खुशी दिल मेहमानों का स्वागत कर रहा था। चमनू की नज़र दूर से अपने लंगोटिया यार छांगू पर पड़ी जो शहर व कस्बे के रसूखदार लोगों के साथ आ रहा था। चमनू ने आगे दौड़कर बड़ी आत्मीयता से उनका स्वागत किया है। और बड़े सलीके से उसको बिठाया। चमनू उसके रिश्तेदार रमनू ने आवाज लगायी "चमनू इधर आना जरा काम है"। चमनू ने छांगू से कहा "मैं थोड़ी देर में आता हूं।" छांगू ने कहा कि ठीक है चमनू आराम से आना। 

उधर छांगू का ध्यान बार बार जहां मेहमानों के लिए खाना बन रहा था रसोई की तरफ जा रहा था। महान हस्ती भानू चौहान की नज़र छांगू की तरफ गयी। छांगू का बार बार इस तरह से रसोई की तरफ ध्यान जाना भानू को अखरा और उसने भानू ने छांगू के पास जाकर पूछ लिया है "क्या बात है जनाब?" आपकी नज़र रसोई की तरफ लगातार जा रही है। 

"कुछ नहीं भानू मैं तो रसोई बनाने बालों को देख रहा हूं कि कोई हमारी पहचान का भी है।" छांगू ने भानू ने कहा। 

"जनाब आप के जात के रसोईये लगाये है। चमनू ने सबका ख्याल रखा है"। भानू ने कहा। 

इतना सुनते है छांगू के मन की बैचेनी शांत हुई। उधर चमनू छांगू के मन की ऊहापोह से अनभिज्ञ मेहमानों की खातिरदारी में व्यस्त था। 

- हीरा सिंह कौशल

 मंडी - हिमाचल प्रदेश 

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क्रमांक - 082


रुद्राक्ष   

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अरी जमुना ओ जमुना कहाँ है ? जमुना मेथी की भाजी साफ कर रही थी |

मेथी की भाजी ?किसन ने कहा मछली लाया हूँ पगली,चल मछली भात बना |

किसन ने झोपड़ी पर पड़ी खाट पर मछली का थैला रखा|

नहीं,आज मछली नहीं बनेगा भाजी बनेगी,फिर अपन पास के गांव में बाबा के पास चलेंगे रुद्राक्ष बंट रहा है,वहां सभी मन्नत पूरी होगी|

 पगली सब यही है तेरे और मेरे भीतर,किसन बोला,भीड़ होगी वहाँ|

 लेकिन जमुना नहीं मानी भीड़ में भगदड़ मचने से कई लोग मर गए जमुना उनमें से एक थी|

सच ! रुद्राक्ष ने जमुना की मन्नत पूरी कर दी थी|गरीबी से हमेशा के लिए वह मुक्त हो गई थी| 

-  इन्दु सिन्हा"इन्दु"

रतलाम - मध्यप्रदेश

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क्रमांक - 083


शाबाश बच्चो 

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आज़ मुदित के बैग मेंं ममा नाश्ते का टिफ़िन रखना ही भूल गईं थी 

और मुदित नें भी ध्यान नहीँ दिया 

जब लंच टाईम मेंं उसने बैग खोला तो ये देखकर अवाक रह गया कि 

ममां बैग मेंं टिफ़िन तो आज़  रखना ही भूल गईं थी 

उसे भूख भी लग रही थी लेकिन अब क्या हो सकता था 

जब छुट्टी मेंं घर पहुंचा तब ममां को याद आया हाय राम बेटा आज़ तो मैं तुम्हारा नाश्ते का टिफ़िन ही रखना भूल गई 

मेरा बेटा भूखा होगा उसने मुदित को प्यार से गोदी मेंं उठा कर गले लगा लिया 

तब मुदित नें कहा नहीँ मम्मी मैं भूखा नहीँ रहा 

जब मेरे क्लास के फ्रेंड्स नें देखा कि आज़ मेरा टिफ़िन नहीँ आया है तो सबने मुझे अपने लन्च मे शेयर किया आज़ तो कई तरह की चीज़े खानें को मिली 

स्वाति मैगी लेकर आईं थी आर्यन पास्ता लाया था 

काव्या और सौम्या आलू के परांठे लाई 

मिन्नी और मान्या पोहे लाई थी और ऐरिका और सिम्मि कटलेट लेकर आईं थी मैंने उनको मना भी किया था तो वो सब नाराज़ होने लगे  कहनें लगे तू भी तो रोज़ हम लोगोँ को कुछ ना कुछ खिलाता रहता है खाएगा कैसे नहीँ निहित आदि अनन्नया मोनालि कुहू निन्नू  ऋद्धि भी कुछ ना कुछ लाई थी 

आज़ तो बहुत मज़ा आया

बच्चो का ये प्रेम देख कर बहुत अच्छा लगा 

मम्मी नें फ़िर एक बार मुदित को उठा कर  गले लगा लिया 

- डॉ रमेश कटारिया पारस

ग्वालियर - मध्यप्रदेश

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क्रमांक - 084



जो बोएंगे

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सुजाता रसोई घर में कुरकुरी भिन्डी बना रही थी, उसके बेटे रवी को बहुत पसंद थी।काम करते वक्त उसका हाथ वहां के कांच के बहुत ही खूबसूरत जग को लगा।जो रवी को बेहद पसंद था। उस‌ का हाथ लगते हैं वह धड़ाम से फर्श पर गिरा और चकनाचूर  हो गया।

    रवि हॉल में अपने कंप्यूटर पर कुछ काम कर रहा था ,आवाज सुनते ही वह दौड़ कर किचन में आया।   सुजाता को लगा की  वह  बहुत सारी सुनाएगा‌। वह निचे बैठकर कांच के टुकड़े समेटने लगी।

    रवि किचन में आया। आते ही पहले उसने सुजाता को पकड़कर उठाया और डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर बिठा दिया ।"हाथ को लग जाता तो? मैं था ना इधर ?मुझे आवाज देती ।जरा संभल कर काम करना मां,कांच लग जाता था तो ?रवी सुना रहा था पर बड़े प्यार से  ।

           सुजाता  को याद आया। बचपन में बहुत किमती फूलदान रवी के हाथ से टूट गया था,वह डर से मारे कांच समेटने लगा।पर उसने पहले रवी को संभाला,उसे डांटा नहीं था। पर कहा  था, "हाथ को लग जाता तो? मैं थी ना इधर ?मुझे आवाज देता।जरा संभल कर काम करना बेटा ,कांच लग जाता तो?...

वही बातें रवी दोहरा रहा था। सच में जो बोएंगे वही पाएंगे।

- सुवर्णा जाधव 

 पुणे - महाराष्ट्र

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क्रमांक - 085



निरूतर

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              जाड़े की कम्पकम्पाती ठण्ड में बड़े बूढों का मन नहीं करता नहाने को तो बेचारा सात साल का जानू भी क्या करे । उसकी भी क्या गल्ती जो नहाने में आनाकानी करता है । बड़ी लम्बी लिस्ट है उसके पास न नहाने के बहानो की , जिन में से कुछ महीने में एक दो बार ही नहाने से निजात दिला पाते हैं । माँ के कड़े ऊसोलों के सामने सब दलीलें बेकार हो जाती हैं । 

       आज बहुत सोच समझ कर तर्क लाये जानू जनाब कि इतनी ठण्ड में नहाया तो जुकाम हो जायेगा और जुकाम बिगड़ने पर निमोनिया भी हो सकता है, काँपने की एक्टिंग करते हुये | माँ ना में  सिर हिलाते हुए व कपड़े उतरवाते हुए कहने लगी , “ अगर नहाने से जुकाम होता तो कोई माँ सर्दियों में बच्चों को न नहलाती । माँ क्या अपने लाडले बच्चों का अहित करना चाहेगी । नहाने से तो बीमारियाँ दूर भागती  हैं व शरीर सेहतमंद रहता है ।” वो समझ गया कि अब कोई तर्क नहीं चलने वाला अनमने मन से तैयार हुआ नहाने को ।

        माँ को लगा कि नाज नखरे करते करते पानी ठंडा हो गया होगा , तो  बोली, “ जरा ठहरो  थोड़ा और गर्म पानी मिला लेते हैं।”  इतना सुनना था कि पैर पटकते हुए कहने लगा , “ इतना उबलता पानी डाल दिया , आप चाहते हो कि मैं जल ही जाऊँ । जाओ-जाओ मैं नहीं नहाता ।”  माँ ने प्यार से सहलाया व नहलाते हुए, बहलाने के लिए कहने लगी , “ नहीं, मेरे राजा बेटा दुनिया में एक माँ बाप ही तो ऐसे होते हैं जो बच्चों को नुकसान पहुँचाने की बात तो दूर , कभी सपने में भी ऐसा नहीं सोच सकते, ये बात गांठ बाँध लो, फिर माँ क्यों  आपका बुरा चाहेगी ।”  

         इतना सुनते ही जोर से चिल्ला के बोला नन्हा जानू , “ नही माँ बाप भी बुरे होते हैं , बुरा करते हैं बच्चों का ।” माँ ने ना मै सिर हिलाया , मुस्कुरा के दुलारते हुए कहा कि ऐसा नहीं कहते क्यूंकि ऐसा नहीं होता। जानू झट से बोला , “होता है , माँ बाप भी बुरा करते हैं ।” फिर सिर झुका के झिझकते सकुचाते हुए , शान्त होके मासूमियत से शर्माते हुए  बोला , “ वो-वो ,वो जो पैदा होने से पहले कन्या भ्रूण हत्या करते हैं और, और वो जो  , जो कि पिछले हफ्ते पापा आपको बता रहे थी कि हस्पताल के बाहर एक नवजात शिशु को कूड़े के ढ़ेर से कुछ आवारा कुत्ते घसीट के ले जा रहे थे , जिसे बड़ी मुश्किल से बचाया । उसके भी तो माँ बाप होंगे ना , गंदे मम्मी-पापा, फिर आप कैसे कह सकते हो कि माँ-बाप बुरे नही होते।”

          अब सिर झुकाने व शर्मिंदा होने की बारी माँ की थी । निरुतर , चुपचाप तोलिए से पोंछ कर  जानू को कपड़े पहनाने लगी , इस अमानवीय घटना के बारे सोचते हुए कि ऐसी घटिया सोच को स्वच्छ करने की कोई विधि मिल जाये ।                                                                 

  - प्रोमिला भारद्वाज

शिमला - हिमाचल प्रदेश

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क्रमांक - 086



स्त्री

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मोहल्ले में दस-साढ़े दस बजते ही सन्नाटा पाँव पसारने को आतुर हो उठता था| परन्तु मैं ठहरी उल्लू बिरादरी की। रात के ग्यारह-बारह बज रहे थे। मजदूरी करके लौटते चप्पलों की आवाजें, तो कभी-कभार कार-बाइक  की साँय-साँय का शोर सड़क पर पसरे नीरवता को रह-रहकर भंग कर देता था। उन आवाजों को सुनकर लगता कि कोई तो है जो मेरे साथ जाग रहा है।

 अभी कुछ दिन पहले मोहल्ले में एक स्त्री की चीखती हुई आवाज सन्नाटे को चीरती हुई कहीं शून्य में गुम हो गयी थी। यदि वातावरण में कुछ बचा था, तो वो थीं उसकी सिसकियाँ। मेरी सोच के तार अब तक उस दिन की घटना से तारतम्य बैठा नहीं पाये थे| क्यों- किसके घर से आई थी

वह आवाज, सोच ही रही थी अब तक कि अचानक से आज फिर सड़क से चीख-चिल्लाहट की आवाज कान से टकराई। न चाहते हुए भी मैं बालकनी से उस आवाज की तरफ देखने लगी। 

मैंने देखा कि चिकचिक के बीच पति ने पत्नी के गाल पर एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया, जो लगभग चार साल के बच्चे का हाथ पकड़े उसके पीछे चल रही थी।  

“औरतों की स्थिति न कल बदली थी, न ही आज बदली है।” बरबस ही मेरे मुँह से मेरा दर्द भी बह निकला। मैं दुखी होकर कमरे में जाने वाली थी कि चटाक की आवाज फिर से आई। 

”आह! सहना तो हम औरतों की नियति है!” कहते हुए मैंने पलटकर देखा| पत्नी बच्चे से हाथ छुड़ाकर पति के गाल पर तमाचे जड़ती जा रही थी। “चटाक...!चटाक...!”

“अहा! तू तो शेरनी निकली। हम मध्यमवर्ग को स्त्रियाँ तो इतनी हिम्मत जुटा ही नहीं पातीं..!” अनायास आसमान में बिखरी चाँदनी मेरे चेहरे पर ठहर गई।

मैंने देखा, अब पति, बच्चे का हाथ पकड़ सिर झुकाए सड़क पर चप्पल घिसटते हुए बढ़ा जा रहा था। बड़बड़ाती हुई उसकी पत्नी ऐंठ में उसके साथ-साथ चली जा रही थी।  

सहज ही मशहूर शेर याद हो आया- 

‘मेरे सीने में न सही तेरे सीने में सही

हो कहीं आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।’

- सविता मिश्रा 'अक्षजा'

आगरा - उत्तर प्रदेश

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क्रमांक - 087



घर

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सुमन ने बैग पैक करके रखा था। एयरपोर्ट निकलने में अभी पंद्रह मिनट थे। संजय चाय लेकर सुमन के पास बैठ गया। अपने बिजनस के कारण वह हर समय दौड़ता ही रहता है, कभी शहर में तो कभी देश-विदेश।

"सच में सुमन तुम मेरी पत्नी नहीं होती तो मैं कभी जीवन में इतनी ऊँचाई पर नहीं पहुँच पाता। तुम्हारे सामंजस्य की वजह से ही मैं पूरा समय अपनी महत्वाकांक्षाओं को दे पाता हूँ।" हर बार की तरह उसने आज फिर सुमन की प्रशंसा की। और करे भी क्यों नहीं। व्यस्तता के चलते वह विवाह के बाद के छः सालों में भी अपना परिवार आगे नहीं बढ़ा पाये। तब भी सुमन ने कभी शिकायत नहीं की। 

संजय की बात सुन हर बार की तरह आज भी सुमन हौले से मुस्कुराई।

"अच्छा सुमन मैंने तो अपने दिल की बात बहुत बार कही है। आज तुम भी अपने दिल की बात बताओ न। अगर मैं तुम्हारा पति नहीं होता तो?" आज संजय का मन किया सुमन से अपनी प्रशंसा सुनने का। वह उत्सुक होकर सुमन का चेहरा तकने लगा।

कुछ देर सुमन सोचती रही फिर सहजता से बोली "आप मेरे पति नहीं होते तो मेरा भी एक प्यारा सा परिवार होता। हम कभी साथ फ़िल्म देखने जाते, कभी सब्जी खरीदने तो कभी घर का सामान लाने, कभी यूँ ही पार्क में जाकर बैठे रहते। हर काम साथ रहकर करते।

आप मेरे पति नहीं होते तो भले ही मेरे पास पैसा कम होता लेकिन छोटी-छोटी हज़ारों खुशियाँ होती। सर दर्द में कोई प्यार से सर सहला देता, बुखार में पास बैठकर दवाई देता।"

संजय स्तब्ध रह कर सुनता रह गया।

"मैं भी अपने बच्चों का टिफिन बनाकर उन्हें स्कूल भेजती। आप मेरे पति नहीं होते तो मैं भले ही थोड़े छोटे घर में रहती लेकिन खाली दीवारों की बजाय जीते-जागते इंसान मेरा परिवार होते।" सुमन के चेहरे पर कोई उलाहना नहीं था लेकिन इस सपने के प्रति अजीब सी ललक और ख्वाहिश का रोमांच था जो उसके चेहरे पर चौड़ी मुस्कुराहट में झलक रहा था। 

संजय सन्न सा उसे देखता रह गया था। हाथ में पकड़े कप में चाय ठंडी हो चुकी थी और फ्लाइट का समय बीत चुका था।

- विनीता राहुरीकर

भोपाल - मध्यप्रदेश

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क्रमांक - 0888


उतरन 

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_ ताऊ आपके लिए दिवाली उपहार लाया हूं ।

_ आशीर्वाद बेटा , क्या लाया ?

_ एप्पल वॉच है , आधुनिकता की पहचान ।

_ अच्छा , पर इसमें कुछ दिखाई तो देता नहीं ?

_ ताऊ, बस साथ लगा यह बटन दबाओ, समय चमकने लगेगा । 

_ बढ़िया है ।

_ एक फायदा और , यह आपके एप्पल फोन से भी जुड़ जाएगी । 

_ कैसे ? 

_ मैं आपको कनेक्ट करके दूंगा ।

_ ठीक है ।

_ आप कार चला रहे हो, अचानक किसी का फोन आ जाए , तो आप मोबाइल को बिना कान से लगाए बात कर सकते हो। तब शहर में पुलिस के चालान का भी डर नहीं रहता ।

_ बहुत बढ़िया, पर यह वॉच बहुत महंगी होगी।

_ ताऊ आपको उससे क्या लेना। यह तो आपको मेरी तरफ से उपहार है।

_ फिर भी ।

_ बात ऐसी है ताऊ , यह सीरीज 3 का बहुत बढ़िया मॉडल है। पर अब बाजार में मॉडल 6 आ गया है। मेरे सब दोस्तों ने खरीदा,तो मैंने भी ख़रीद लिया। पर यह बहुत बढ़िया हालत में है। यह मत समझना कि मैंने आपको अपनी कोई पुरानी.........

_ नहीं बेटा समझ में तो सब बहुत अच्छी तरह आ गया है। पर इसे तू अपने पास ही रख। 

_ क्यों ताऊ? 

_ बेटा मैंने आज तक किसी की उतरन नहीं पहनी!!

      - विष्णु सक्सेना 

गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश

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क्रमांक - 089


फलसफा जिंदगी का

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शादी की पचासवीं सालगिरह पर दोनों पति- पत्नी बगीचे में इत्मीनान से बैठे अपनी पुरानी यादों को ताजा करने की गरज से फोटो एलबम देख रहे थे।

"देखिए जी.. इस फोटो को हमारी शादी की पहली सालगिरह पर हमने खिचवाई थी.... और ये दूसरी और ये तीसरी....  " पत्नी ने खुश होते हुए कहा। 

"हम्म"- ठंडी सांस भरकर पति ने कहा।

"वादा किया था तुमसे, हर सालगिरह पर फोटो खिचवाने का...और हमने हमारा वादा निभाया। "

 फोटो देखते हुए इत्मिनान से  पत्नी ने पति के कांधे पर सर टिका दिया।

एलबम के पन्नों को अलट -पलट कर पति ने कहा

"सूरज की माँ, तुमने गौर किया... गृहस्थी की गाड़ी खींचते हुए, समय कितनी तेजी से हमारी जवानी ले हमें बुढ़ापे के दरवाजे पर ले आया हमें पता भी नहीं चला।"

" नहीं जी,...मुझे तो ऐसा नहीं लगता, आप अभी भी पहले की तरह लगते हो जी। "- लजाकर पत्नी ने साड़ी का पल्लू दांतों से दबा कर कहा

"मैं जानता हूँ, ये तुम मेरा मन रखने के लिए कह रही हो.... "

" नहीं जी, में सच कह रही हूँ...." 

पत्नी की बात पूरी होने से पहले ही "नहीं भाग्यवान...पहले जैसी बात अब कहाँ...कमजोर शरीर, झुकी कमर, कांपते हाथ... गवाही दे रहे हैं बुढ़ापे की.... जवानी तो हमें छोड़ कर कब की जा चुकी है। "

"पर मैं जहाँ से देख रही हूँ, वह तो पहले की तरह अब भी बरकरार है। "

"क्या मतलब? " पत्नी की बात सुनकर उन्होंने कहा।

पत्नी ने ठोड़ी पकड़ कर उनकी नजर एलबम से हटाकर सामने... पार्टी की तैयारी में व्यस्त अपने नौजवान बेटे की ओर कर दी।

"वही सुगठित शरीर सौष्ठव..,चौड़ी छाती..., बलिष्ठ भुजाएँ....आपकी जवानी खोई नहीं है बल्कि आपके बेटे ने अपने पास संभाल कर रख ली है " पत्नी ने धीरे से कहा।

"मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया.... " 

पार्श्व में बजता गीत सुनकर

 दोनों एक -दूसरे का हाथ थामें मुस्कुराने लगे। 

- अर्चना राय

जबलपुर - मध्यप्रदेश

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क्रमांक‌ - 090


झुर्रियां 

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- "सुनते हैं जी, एक खुश खबरी है।" 

अखबार में मुँह डुबाये पति ने तिरछी नजर से देखा। 

- "वर्षों बाद हमारा बेटा आ रहा  है। साथ में बहू भी और छोटा-सा हमारा पोता भी।" 

पति ने पुनः निगाह पत्नी पर डाली। खुशी उसके चेहरे पर उग आई झुर्रियों और  खोतेनुमा दाढ़ी में उलझ कर रह गईं। 

- "जा रहीं हूँ तैयारी करने। मौनी बाबा, तुम तो न कुछ बोलोगे, न कुछ करोगे।" 

पति की नजर पेपर में मानो डूब-सी गई। 

बेटा- बहू आये। पोते की धमाचौकड़ी से घर भी नाच उठा। 

एक दिन बाद। 

- "पापा, मैं जा रहा हूँ। छुट्टी नहीं मिली। आपकी बहू अभी यहीं रहेगी। बेटे का स्कूल भी बंद है।" 

उसने सोचा,महीना से पहले वह वापस आने से रहा तबतक के लिए बेटे के लिए दूध, चॉकलेट और  रोजमर्रे के खर्चे लिए शोभा के हाथ में कुछ रुपये दे दूं। 

उसने जेब से रुपये निकाले- " लो रख लो, बाबू के दूध वगैरह के लिए।"

उसके आगे पत्नी और मां के हाथ एक साथ बढ़ गए। 

उसने रुपये पत्नी के हाथ में थमाते हुए उठकर बैग लिया  और निकल गया। 

पति ने पेपर से आँखे उठाकर  पत्नी पर डालीं। पत्नी भी उसी को देख रही थी। 

इस बार पति का  दुख झुर्रियों में अटक कर नहीं रह गया , आंखों में पानी बनकर तैरने लगा था। 


- कृष्ण मनु 

धनबाद - बिहार

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क्रमांक - 091


जरूरत 

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सरिता ने किराने की दुकान से दो बोरी  चावल की खरीद कर वहीं  रखवा दी । 

बाहर निकल कर देखा तेज धूप के कारण कोई रिक्शा चालक दिखाई नहीं दे रहा था। 

"सरिता के माथे पर पसीने बूंदें चमकने लगी थी ।" 

दुकानदार का नौकर बोरी पैर के नजदीक   रखकर चला गया ।

चिलचिलाती धूप में छाता  भी गर्मी रोकने में नाकाम हो रहा था । सामने से एक रिक्शा चालक को आता हुआ देख कुछ आस बंधी लेकिन पास आने पर देखा उसकी  एड़ी के पास चोट लगी थी उसमें से  रिसाव हो रहा था । 

" मैडम जी रिक्शा चाहिए क्या ? "

हाँ,  भाई चाहिए तो लेकिन तुम्हारा पैर तो जख्मी है। 

 "तुम कैसे  रिक्शा चला पाओगे  ?"

"आप उसकी आप चिंता न करें " 

"अच्छा ये बताओ चोट कैसे लगी ।"

 बीबी जी पिछले तिराहे पर एक नशे में धुत लड़के ने बाइक से टक्कर मार दी  पीछे मुड़कर भी नहीं देखा ।

इस बेतहाशा गर्मी में सवारी भी नहीं मिली‌ पट्टी कराने के भी मेरे पास पैसे नहीं हैं ।

मैडम आप मना मत करना मुझे पैसों की सख्त जरूरत है । पत्नी की दवाई लेनी है ।

अच्छा ऐसा करो पहले 100रु लो और सामने क्लीनिक में जाकर पट्टी करा लो मैं    इंतजार कर लेती हूँ ।

रिक्शा चालक ने दोनों बोरी रिक्शा पर रख दी मैडम आप भी बैठ जाएं में पेड़ के नीचे रिक्शा रोककर पट्टी करा लूंगा ।

रिक्शा पर बैठ तो  गई लेकिन मन भर आया सरिता ने अपने सिर को दुपट्टे से ढक लिया और अपने सिर पर लगा छाता  रिक्शा चालक के सिर पर लगा दिया ।


- अर्विना गहलोत

नागपुर - महाराष्ट्र

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क्रमांक - 092

                   

 एक दिन में 

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                 '  यदि पापा को मरना ही था ..... तो रिटायरमेंट के एकाध दिन पहले मर जाते.....। ' फ़िर कुछ देर रुकते हुए बोली , ' भैया को अनुकम्पा नियुक्ति और मुझे दहेज़ के लिए .... थोड़ा - बहुत पैसा मिल जाता । एक दिन में कितना फ़र्क़ पड़ गया ..... हैं न मां ! '           

                मां ने उसे समझाते हुए कहा , ' बेटा ! मौत पर किसी का अधिकार नहीं होता । वह अपने निर्धारित समय पर ही आती है । हमारे सोचने से कुछ नहीं होता । '

                ' ठीक कहा मां आपने ! पर मां ! पापा को रिटायरमेंट के एक दिन बाद भी नहीं मरना था । ' निधि ने दुपट्टे से अपने आंसू पोंछते हुए कहा ।


- अशोक ' आनन ' 

    शाजापुर - मध्यप्रदेश

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क्रमांक - 93


मन गुलाबी हो गया

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सुरेश जी और सुधा जी दादा दादी बनने जा रहे थे। जिस दिन से सुधीर ने यह खुशखबरी सुनाई है ...दोनों के पॉंव धरती पर पड़ ही नहीं रहे थे। बहू की देखभाल के लिए वे दोनों दिल्ली जाने की तैयारी कर रहे थे। 

उस दिन सुबह बहू को खिलाने के लिए गोंद के लड्डू बांधते हुए वह बोलीं,

" सुनिए जी, सुधीर को समझा दीजिए कि प्रतिदिन सुबह रंजना  को रसगुल्ला और सफेद नारियल खिलाए। इससे हमारे पोते का रंग गोरा होगा। बाकी तो हम आकर सब सम्हाल ही लेंगे। मेरे पोते का स्वागत बढ़िया से होना चाहिए।"

सुरेश जी चिढ़ गए थे,

" यह हर समय पोते का राग क्यों अलापती रहती हो। पोता या पोती...जो भी ईश्वर देगा, वह हमारे सिर माथे पर।"

"अरे नहीं जी, शुभ शुभ बोलो। पहला बच्चा तो पोता ही चाहिए।"

इसी तरह की बातें बहू रंजना से भी कहती रहती थीं और हर बार नित नई हिदायतें  भी देती रहती थीं। सब सुन सुन कर बेचारी रंजना सहमती रहती थी और चिंता से सूख कर कांटा होती जा रही थी। लेडी डाक्टर भी उस दिन  रंजना से चिंतित होकर कहने लगी थी,

" रंजना जी, आप किस चिंता से ग्रस्त हैं। आप माॅं बनने जा रही हैं। यह आपके जीवन का अनमोल समय है। मस्त होकर खाइए पीजिए । अच्छी अच्छी किताबें पढ़िए। आप तो दिन प्रतिदिन सूखती ही जा रही हैं। इस तरह कितनी दवाएं और गोलियां खाएंगी। अपनी सास या मम्मी जी को बुला लीजिए। वे आपका ध्यान रखेंगीं।"

सुधीर सब सुन कर बहुत सोच में पड़ गया और बहुत सोच विचार कर सुधा जी को फोन लगा बैठा,

" अम्मा, आप कुछ तो समझिए। आपकी  दिन रात  की पोते की रट ने बेचारी रंजना का सुख चैन हर लिया है। अगर पोती हो गई तो..."

सुधा जी सहम गई और धीरे से बोलीं,

" तू ठीक कह रहा है। मैं ही बौरा गई थी। अरे, पोता या पोती में क्या अंतर है... सिर्फ़ रूढ़िवादी सोच का ही तो अंतर है। रंजना मैं  को समझा दूंगी। मस्त रहे, खुश रहे। अधिक दवाइयों और गोलियों के सेवन से होने वाले बच्चे पर गलत असर पड़ेगा। हमारी बहू स्वस्थ तो हमारा बच्चा भी स्वस्थ। अब मैं ऐसी नादानी नहीं करूॅंगीं।"

पास खड़ी रंजना खुश हो गई। आज पहली बार आसन्न मातृत्व की गरिमामयी लालिमा से उसका अंतर्मन गुलाबी हो गया था।"


- नीरजा कृष्णा

पटना - बिहार

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क्रमांक - 094


 इंस्टेंट 

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होश आते ही, अपने आपको अस्पताल की बेड पर लेटे हुए, हाथ में सलाइन की बोतल लगी हुई, पास में पापा और मम्मी को चिंतित देखकर मनोज घबड़ा गया।

"मुझे क्या हो गया था? मैं तो ठीक ही था। रोज की तरह जिम कर रहा था।" आशंकित मनु सवाल पर सवाल करता जा रहा था।

डाॅक्टर साहब ने कहा "घबड़ाने की कोई बात नहीं, अब आप खतरे से बाहर है। "

"लेकिन मुझे क्या हुआ था डाॅक्टर साहब? मैं तो बिलकुल फिट हूं। मुझे कोई बीमारी नहीं है।"

"आपको माइनर हार्ट अटैक आया था।"

"क्या??" इतना सुनते ही मनोज भौंचक्का रह गया।

"यह बाॅडी बनाने के लिए जो सप्लीमेंट आप ले रहे थे ये उसी का परिणाम है। सप्लीमेंट्स और प्रोटीन पाउडर का ज्यादा सेवन करने से ब्लड फ्लो प्रभावित होता है। जिसकी वजह से हार्ट स्ट्रोक और अटैक का खतरा काफी ज्यादा बढ़ जाता है।"

"लेकिन वो तो जिम ट्रेनर के कहने पर ही ले रहा था। उन्होंने कहा था ये दवाएं आजमाए हुए हैं, इसका कोई नुकसान नहीं है।"

"आजकल सबको इंस्टेंट सफलता चाहिए। आपको भी, आपके जिम ट्रेनर को भी।" चिंतित स्वर में डाॅक्टर ने कहा।


- प्रगति त्रिपाठी

बैंगलुरू - कर्नाटक

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क्रमांक - 095


दवाई

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       कुछ आदर लिहाज तो कुछ घर की शांति भंग न हो इस विचारधारा के साथ सदा सबकी सुनते हुये भी मौका पा जब कोई मिल जाता अपनें विचारों की अभिव्यक्ति देने में पीछे न हटने के साथ नेकदिल ,हँसमुख व खुशमिजाज इंसान होने के कारण वो सभी के दिलों में राज करतीं थीं। 

इधर वृद्धावस्था में  बढ़ती अस्वस्थता की वजह से दवाओं  की जबरन घुसपैठ नें उन्हे कुछ चिड़चिड़ा सा कर दिया था ।

         आखिर आज वो दिल की बात सहज ही कह ही बैठी। "हमसे नहीं होता। जीवन से निराशा व शरीर से थकान होने लगी है। पता नहीं कितने दिन और जीना है।" कहते हुये उदासी के आलम से हाथ में ली दवा उन्होंने दरकिनार कर रखनी चाही।

"देखो जब तक जीवन है जितना और जैसे स्वस्थ रह सकते हो वैसे स्वस्थ रह कर जीवन जियो। अस्वस्थ रह कर सब पर बोझा बन कर जीने से अच्छा है सही समय पर चाहे दवा खा कर ही जितना हो सके स्वस्थ जीवन जी कर दूसरों के काम आया जाये।" शुभचिंतक की बात समझते हुये आखिर बेमन से ही अब उन्होंने मुँह बनाते हुये बेस्वाद दवाई दिल को चीरती बेमानी सी बातो की तरह चुपचाप पानी के साथ गले में गटक ली। 


- इरा जौहरी 

लखनऊ - उत्तर प्रदेश

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क्रमांक - 096


सिर चढ़ा भूत  

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"ऊफ..! कितनी भीड़ थी अस्पताल में, लगता है सारा शहर बीमार है?"जूते उतारते हुए मैं बड़बड़ाया।

"क्यों परेशान हो रहे हो... क्या कहा डाक्टर ने?"-पत्नी वीणा ने पूछा‌।

"कहा डिप्रेशन है... आजकल आम बीमारी है...दवा दे दी है !पोल्यूशन के मारे देश की हालत खराब है! वैसे भी मुल्क का तो भगवान ही मालिक है?"-मैं निराश होकर बोला।

 "क्या हो गया है ?"

"बस मंहगाई, बेरोजगारी, बलात्कार, आत्महत्याएं, भ्रष्टाचार, यह ही तो रह गया है ?"

"तुम अच्छा कमाते हो , मैं भी ठीक हूं और बच्चे भी सब अच्छा कर रहे हैं, फिर तुम्हें अवसाद क्यों है?"-वीणा ने मेरे हाथ में पकड़े दवा के पैकेट को लेते हुए कठिन सवाल दाग दिया!

"अरे देख नहीं रही हो देश की हालत... नेताओं के पेट फूल रहे हैं और आम आदमी के पेट पिचक कर छुंआरा हो रहे है? जिसे ईमानदार समझ कर चुनें वह ही बेईमान साबित हो जाता है...! कैसे जियें इस देश में?'-मेरे चेहरे पर अवसाद उभर आया था !

"बस यह ही देखते सुनते हो .. ?"-वीणा आहिस्ता से बोली

"तो और क्या है जो बोलूं ?"-मैं थका थका सा महसूस कर रहा था।

"पोजेटिव सोचो... देखो देश चांद पर जा रहा है। खेलों में हम जीत रहे हैं।पक्की सड़कें बन रही हैं।अच्छे अस्पताल और स्कूल सुलभ होते जा रहे हैं। खूबसूरत शहर बस रहें हैं। और भी बहुत कुछ है गर्व करने के लिये ?-वीणा बोल रही थी!

"हां ये तो है... मैंने तो इस तरह सोचा ही नहीं?"-मैं आश्चर्य से बुदबुदाया!

वीणा ने पानी का गिलास और अवसाद की गोलियां हाथ में थमाते हुए कहा-" इन गोलियों से कुछ नहीं होगा? ये माथे पर निराशा का जो भूत बैठा रखा है न  उसे उतारो और ताजी हवा खाने पार्क में जाओ ! वहां दोस्तों के साथ हंसो, उड़ते चहचहाते परिंदे और खिलते रंग-बिरंगे फूलों को देखो और छोटे छोटे बच्चों को हंसाओ और फिर देखो यह अवसाद का भूत कहां चला जाता है?" कहते हुए वीणा ने प्यार से एक चपत मेरे सिर पर मार दी।

                 

- पदम गोधा 

गुरूग्राम - हरियाणा

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क्रमांक - 097

                   

सीख

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         नीता अस्पताल में बैठी सोच रही है  गलत काम का नतीजा ग़लत ही होता है।छोटे भाई राजन को कितना समझाया था ड्रग्स मत ले यह ऐसी डायन है तुझे और  परिवार को खा जायेगी पर वह नहीं माना । आज वह  मरणासन्न अस्पताल में पड़ा है।

         नीता को याद आया उसने राजन को कुछ ग़लत लड़कों के संगत में देखा था।उसने राजन को खूब रोकने की कोशिश की। राजन बाद में झूठ बोलने लगा कि उसने कुछ ग़लत चीज़ नहीं ली है।

   नीता  ने देखा राजन नर्स के हाथ से दवाई लेने से मना कर रहा है।

उसने राजन को समझाया 

कि  -" शरीर को सुधारने के लिए सही दवाई ज़रुरी है पर ये सभी ग़लत  चीजें  स्वास्थ्य के लिए बहुत ख़राब है।"

    राजन ने कहा कि मैं सबको समझाऊंगा कि - " ड्रग्स के लिए ना करना है और हमारी ना ही रहेगी।"


- नीरजा ठाकुर नीर

 मुंबई - महाराष्ट्र

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क्रमांक - 098


कर्मजली 

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"तुम एकदम ठंडी औरत हो बिस्तर पर, जिन्दगी ख़राब हो गयी है मेरी तो, एकदम हिजड़ा हो।" मोहक तो हृदय को भेदने वाली बातें बोल दूसरे कमरे में चला गया था, पर रचना की आँखों से नींद गायब हो चुकी थी। रात का गहन अंधकार भी उस टीस को छिपा नहीं पा रहा था, जो आज मोहक के शब्दों ने रचना को प्रदान की थी।

"क्या वाकई मोहक? अगर ऐसा था, तो शादी के तीन सालों में लगातार दो बच्चे..यह कैसे हुआ? उन बच्चों को जन्म देने की असह्य पीड़ा तो उनकी मुस्कान और मेरे ममत्व ने एकदम से मिटा दी थी, और मैंने एक पत्नी से लेकर माँ की हर जिम्मेदारी निभाने में अपने शरीर को पूरी क्षमता से झोंक दिया था। घर के चूल्हे चौके से लेकर बच्चों की हर छोटी बड़ी ज़रूरत पूरा करने में ही लगी रही । उनकी पढाई लिखाई से लेकर उन्हें उच्च शिक्षा के लिए भेजने तक के हर उत्तरदायित्व को निभाने के वक़्त तुम कहाँ थे मेरे साथ? और अब रजोनिवृत्ति के इस कठिन दौर से गुजरते हुए जब मुझे तुम्हारे प्यार की बेइंतहा ज़रूरत होती है, तब भी तुम सिर्फ मेरे जिस्म में उत्तेजना भरने की असफल कोशिश में लगे होते हो..मेरी पीड़ा का ज़रा सा भी एहसास तो दूर.".एकदम से जोर का दबाव महसूस होते ही रचना गुसलखाने की तरफ भागी। 

फ़्रेश होकर शयनकक्ष में आकर आदमकद आईने में देखा, तो अपना ही चेहरा अपरिचित सा लगने लगा। मानो बीस साल पहले की रुचि अपने हाथों में कई मैडल और प्रमाणपत्र लिए उसे चिढ़ा रही थी और पीछे सहमी हुई माँ कातर ध्वनि में उसे कह रही थी, " देख लाडो! यह आगे पढ़ने की जिद्द छोड़ दो। स्नातक हो गयी न, यही शुक्र कर। मोहक जैसा व्यापार में सेटल लड़का आगे मिलेगा, क्या भरोसा? बड़े नेक कर्मों से ही ऐसा रिश्ता हाथ में आता है।" आज उन नेक कर्मों की फेहरिस्त कहाँ खो गयी माँ? यह सोचते  हुए रचना फफक फफक  कर रो दी।


- सीमा भाटिया 

लुधियाना - पंजाब

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क्रमांक - 099


जीवन का लक्ष्य

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सुधा ने दर्पण की तरफ देखा। सामने उसका प्रतिबिंब था और था एक छोटा सा दिल जो उसने चाक से दर्पण पर बनाया था। 

     वह बुदबुदा उठी --काश मेरे इस दिल की कदर करने वाला भी कोई होता।

      उसकी सभी सहेलियों के बॉयफ्रेंड थे। लेकिन उसके जैसी  साधारण शक्लोसूरत वाली लड़की की तरफ कोई पलट कर भी नहीं देखता था। उसने झिझकते हुए एक दो लड़कों को प्रणय निवेदन भी किया। लेकिन वह लोग-_ बहन जी माफ कीजिएगा, अगले साल राखी बंधवा लूंगा आपसे--- कह कर कन्नी काट गए।

     उसकी आंखें आंसुओं से भर गई।

   क्यों रो रही हो-- दर्पण में प्रतिबिंबित सुधा बोली।

    क्या कोई मुझे कभी प्यार नहीं करेगा? मेरे इस दिल की कदर करने वाला क्या कोई नहीं--सुधा के दिल से एक कराह सी निकली और उसकी गूंज पूरे कमरे में फैल गई।

    तुम्हें खुद अपने इस दिल की कदर करनी पड़ेगी सुधा। अपने इस अनमोल दिल को ऐसे ऐरो गैरों पर लुटा कर बर्बाद मत करो। केंद्रित करो अपने मन को अपनी पढ़ाई के ऊपर। तुम इतनी होशियार, समझदार और कुशाग्र बुद्धि की हो। तुम्हें पढ़ने में दिल लगाना है और अपने लक्ष्य की प्राप्ति करनी है। भूल गई क्या, तुम्हारे पिता ने क्या क्या सपने देखे हैं तुम्हारे लिए। वह चाहते हैं कि तुम आई ए एस पास कर डिस्ट्रिक्ट कमिश्नर बनो और वह तुम्हारी इस उपलब्धि पर गर्व कर सकें। 

     जिस दिन तुम अपने इस लक्ष्य को प्राप्त कर लोगी, उस दिन एक नई सुधा का जन्म होगा, एक नई सुधा दुनिया के सामने होगी, जिसके सामने हर कोई अदब से सर झुकाएगा। फिर तुम्हें लोगों के पास नहीं जाना पड़ेगा, लोग खुद तुम्हारे पास आएंगे।

       हां सही कहा तुमने।सचमुच, मैं अपनी राह से भटक गई थी। शुक्रिया मुझे सही रास्ता दिखाने के लिए। सुधा मुस्कुरा उठी और उसका प्रतिबिंब भी मुस्कुराने लगा।


- उषा किरण टिबडेवाल

तेजपुर‌- असम

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क्रमांक - 100


कब्र की वासना

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"चूड़ियाँ ले लो चूड़ियाँ ! मुरादाबादी चूड़ियाँ ! दस रूपय की छह और बीस रू में भर-भर हाथ !"

    गोल चेहरा गदराया बदन ,तीखा नाक- नक्शा, रंग गेहुँआ ,पीली सलवार और पीला दुपट्टा , सर पर करीने से रखा हुआ। मुरादाबाद स्टेशन से चूड़ियों का बड़ा सा डिब्बा सर पर रखे मीना ट्रेन में चढ़ी तो ट्रेन में बैठे लोग उसे आँखें भर- भर कर देख रहे थे। 

तभी मीना ... "क्या हुआ साहिब ! मेम साहिब के लिये मुरादाबादी चूड़ियाँ ले लो, रास्ते की सौगात ,अपनो का प्यार... केवल दस रू की छह!!" मीना उस अधेड़ उम्र के व्यक्ती से कहती है जो एकटक उसे देख रहा था । जब मीना ने सर से चुड़ियों का डिब्बा उतारा तो गरीबी अनायास ही फटे दुपट्टे से बाहर झाँकने लगी। किसी ने चूड़ियाँ निगाह भर देखी तो किसी ने मीना को !!  मीना आगे बढ़ गई ,तभी ट्रेन में दो -तीन हिजड़े ताली बजाते हुए पैसा माँगने लगे , "निकाल मेरे शहरुख  खान! दे... भगवान जोडी बनाएगा !! तभीमीना तो ललचाई आँखों से देखते  उस आदमी से हिजड़ा कहता है --"क्या हुआ चचा ! उधर ही देखते रहोगे ? आँखों की सेक पूरी हो गई हो तो ,पॉकेट ढीली करो! "

 वह आदमी गुस्से से - " क्या बेशर्मी है! पता नहीं रिजर्व  बौगी में इन लोगों को क्यों चढ़ने देते हैं!"

   हिजड़े ताली मारकर कहते हैं - " हम हिजड़े हैं भगवान ने हमें बेशर्म बनाया है ,पर साहिब !तुम्हें तो पूरा बनाया है । किसी का बाप , भाई , बेटा ,पति... फिर ऐसी निगाह क्यों ? 

         

- मनीषा सुमन

जबलपुर - मध्यप्रदेश

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                         बीजेन्द्र जैमिनी

                    ( Bijender Gemini )


जन्म : 03 जून 1965 , पानीपत - हरियाणा

शिक्षा : एम ए हिन्दी , पत्रकारिता व जंनसंचार विशारद्

             फिल्म पत्रकारिता कोर्स

            

कार्यक्षेत्र : प्रधान सम्पादक / निदेशक

               जैमिनी अकादमी , पानीपत

               ( फरवरी 1995 से निरन्तर प्रसारण )


मौलिक :-

मुस्करान ( काव्य संग्रह ) -1989

प्रातःकाल ( लघुकथा संग्रह ) -1990

त्रिशूल ( हाईकू संग्रह ) -1991

नई सुबह की तलाश ( लघुकथा संग्रह ) - 1998

इधर उधर से ( लघुकथा संग्रह ) - 2001

धर्म की परिभाषा (कविता का विभिन्न भाषाओं का अनुवाद) - 2001


सम्पादन :-

चांद की चांदनी ( लघुकथा संकलन ) - 1990

पानीपत के हीरे ( काव्य संकलन ) - 1998

शताब्दी रत्न निदेशिका ( परिचित संकलन ) - 2001

प्यारे कवि मंजूल ( अभिनन्दन ग्रंथ ) - 2001

बीसवीं शताब्दी की लघुकथाएं (लघुकथा संकलन ) -2001

बीसवीं शताब्दी की नई कविताएं ( काव्य संकलन ) -2001

संघर्ष का स्वर ( काव्य संकलन ) - 2002

रामवृक्ष बेनीपुरी जन्म शताब्दी ( समारोह संकलन ) -2002

हरियाणा साहित्यकार कोश ( परिचय संकलन ) - 2003

राजभाषा : वर्तमान में हिन्दी या अग्रेजी ? ( परिचर्चा संकलन ) - 2003


ई - बुक : -

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लघुकथा - 2018  (लघुकथा संकलन) 

लघुकथा - 2019   ( लघुकथा संकलन ) 

नारी के विभिन्न रूप ( लघुकथा संकलन ) - जून - 2019

लोकतंत्र का चुनाव ( लघुकथा संकलन ) अप्रैल -2019

मां ( लघुकथा संकलन )  मार्च - 2019

जीवन की प्रथम लघुकथा ( लघुकथा संकलन )  जनवरी - 2019

जय माता दी ( काव्य संकलन )  अप्रैल - 2019

मतदान ( काव्य संकलन )  अप्रैल - 2019

जल ही जीवन है ( काव्य संकलन ) मई - 2019

भारत की शान : नरेन्द्र मोदी के नाम ( काव्य संकलन )  मई - 2019

लघुकथा - 2020 ( लघुकथा का संकलन ) का सम्पादन - 2020

कोरोना ( काव्य संकलन ) का सम्पादन -2020 

कोरोना वायरस का लॉकडाउन ( लघुकथा संकलन ) का सम्पादन-2020

पशु पक्षी ( लघुकथा संकलन ) का सम्पादन- 2020

लघुकथा - 2021  ( ई - लघुकथा संकलन )

लघुकथा - 2022  ( ई - लघुकथा संकलन )

मन की भाषा हिन्दी ( काव्य संकलन ) का सम्पादन -2021

स्वामी विवेकानंद जयंती ( काव्य संकलन )का सम्पादन - 2021

होली (ई - लघुकथा संकलन ) का सम्पादन - 2021

मध्यप्रदेश के प्रमुख लघुकथाकार ( ई - लघुकथा संकलन ) - 2021

हरियाणा के प्रमुख लघुकथाकार (ई - लघुकथा संकलन ) -

 2021

 मुम्बई के प्रमुख हिन्दी महिला लघुकथाकार (ई लघुकथा संकलन ) - 2021

 दिल्ली के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021

  महाराष्ट्र के प्रमुख लघुकथाकार ( ई - लघुकथा संकलन ) - 2021

  उत्तर प्रदेश के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021

  राजस्थान के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021

 भोपाल के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021

  हिन्दी की प्रमुख महिला लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021

  झारखंड के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021

 हिन्दी के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021

 इनसे मिलिए ( ई - साक्षात्कार संकलन ) - 2021

 सुबह की बरसात ( ई - लघुकथा संकलन ) - 2021

 जीवन ( ई - लघुकथा संकलन ) - 2022

 मैं कौन हूँ ( ई - काव्य संकलन ) - 2022


बीजेन्द्र जैमिनी पर विभिन्न शोध कार्य :-


1994 में कु. सुखप्रीत ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. लालचंद गुप्त मंगल के निदेशन में " पानीपत नगर : समकालीन हिन्दी साहित्य का अनुशीलन " शोध में शामिल


1995 में श्री अशोक खजूरिया ने जम्मू विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. राजकुमार शर्मा के निदेशन " लघु कहानियों में जीवन का बहुआयामी एवं बहुपक्षीय समस्याओं का चित्रण " शोध में शामिल


1999 में श्री मदन लाल सैनी ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी के निदेशन में " पानीपत के लघु पत्र - पत्रिकाओं के सम्पादन , प्रंबधन व वितरण " शोध में शामिल


2003 में श्री सुभाष सैनी ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. रामपत यादव के निदेशन में " हिन्दी लघुकथा : विश्लेषण एवं मूल्यांकन " शोध में शामिल


2003 में कु. अनिता छाबड़ा ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. लाल चन्द गुप्त मंगल के निदेशन में " हरियाणा का हिन्दी लघुकथा साहित्य कथ्य एवम् शिल्प " शोध में शामिल


2013 में आशारानी बी.पी ने केरल विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. के. मणिकणठन नायर के निदेशन में " हिन्दी साहित्य के विकास में हिन्दी की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं का योगदान " शोध में शामिल


2018 में सुशील बिजला ने दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा , धारवाड़ ( कर्नाटक ) के अधीन डाँ. राजकुमार नायक के निदेशन में " 1947 के बाद हिन्दी के विकास में हिन्दी प्रचार संस्थाओं का योगदान " शोध में शामिल


2021 में प्रियंका कुमारी ने जय प्रकाश विश्वविद्यालय , छपरा - बिहार के अधीन डॉ अनिता ( पटना ) के निदेशन में " आधुनिक हिन्दी लघुकथाओं का विकास : पत्र , पत्रिकाओं और संस्थाओं का योगदान " ( पी. एच . डी ) शोध में शामिल


सम्मान / पुरस्कार


15 अक्टूबर 1995 को  विक्रमशिला हिन्दी विद्मापीठ , गांधी नगर ,ईशीपुर ( भागलपुर ) बिहार ने विद्मावाचस्पति ( पी.एच.डी ) की मानद उपाधि से सम्मानित किया ।


13 दिसम्बर 1999 को महानुभाव विश्वभारती , अमरावती - महाराष्ट्र द्वारा बीजेन्द्र जैमिनी की पुस्तक प्रातःकाल ( लघुकथा संग्रह ) को महानुभाव ग्रंथोत्तेजक पुरस्कार प्रदान किया गया ।


14 दिसम्बर 2002 को सुरभि साहित्य संस्कृति अकादमी , खण्डवा - मध्यप्रदेश द्वारा इक्कीस हजार रुपए का आचार्य सत्यपुरी नाहनवी पुरस्कार से सम्मानित


14 सितम्बर 2012 को साहित्य मण्डल ,श्रीनाथद्वारा - राजस्थान द्वारा " सम्पादक - रत्न " उपाधि से सम्मानित


14 सितम्बर 2014 को हरियाणा प्रदेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन , सिरसा - हरियाणा द्वारा लघुकथा के क्षेत्र में इक्कीस सौ रुपए का श्री रमेशचन्द्र शलिहास स्मृति सम्मान से सम्मानित


14 सितम्बर 2016 को मीडिया क्लब , पानीपत - हरियाणा द्वारा हिन्दी दिवस समारोह में नेपाल , भूटान व बांग्लादेश सहित 14 हिन्दी सेवीयों को सम्मानित किया । जिनमें से बीजेन्द्र जैमिनी भी एक है ।


18 दिसम्बर 2016 को हरियाणा प्रादेशिक लघुकथा मंच , सिरसा - हरियाणा द्वारा लघुकथा सेवी सम्मान से सम्मानित


अभिनन्दन प्रकाशित :-


डाँ. बीजेन्द्र कुमार जैमिनी : बिम्ब - प्रतिबिम्ब

सम्पादक : संगीता रानी ( 25 मई 1999)


डाँ. बीजेन्द्र कुमार जैमिनी : अभिनन्दन मंजूषा

सम्पादक : लाल चंद भोला ( 14 सितम्बर 2000)


विशेष उल्लेख :-


1. जैमिनी अकादमी के माध्यम से 1995 से पच्चीस प्रतिवर्ष अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन


2. जैमिनी अकादमी के माध्यम से 1995 से प्रतिवर्ष अखिल भारतीय हिन्दी हाईकू प्रतियोगिता का आयोजन । फिलहाल ये प्रतियोगिता बन्द कर दी गई है ।


3. हरियाणा के अतिरिक्त दिल्ली , हिमाचल प्रदेश , उत्तर प्रदेश , मध्यप्रदेश , बिहार , महाराष्ट्र , आंध्रप्रदेश , उत्तराखंड , छत्तीसगढ़ , पश्चिमी बंगाल आदि की पंचास से अधिक संस्थाओं से सम्मानित


4. बीजेन्द्र जैमिनी की अनेंक लघुकथाओं का उर्दू , गुजराती , तमिल व पंजाबी में अनुवाद हुआ है । अयूब सौर बाजाखी 


https://bijendergemini.blogspot.com/2022/02/blog-post_18.html




Comments

  1. मैने अपनी लघुकथा कब्र की वासना फेसबुक पेज पर डाली है .....सादर

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