वृद्धाश्रमों की आवश्यकता क्यों हो रही हैं ?

वृद्धाश्रमों की आवश्यकता दिनों दिन बढती जा रही है । जो चिंता का विषय है । परिवार दिनों दिन टूट रहे हैं । यही जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : -
भारत की सनातन भारतीय संस्कृति संयुक्त परिवार की  है ।  समाज में पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से देश में परिवर्तन आया है । संयुक्त परिवार एकल परिवार में बदल  गए । परिवार में बड़े , बूढ़ों की अवेहलना होने लगी और उनकी अहमियत शनैःशनैः खत्म होने लगी ।
   मानव में मूल्यों , संस्कारों का ह्रास होने लगा । माता -पिता जिन्होंने संतान को स्वाबलंबी , आत्मनिर्भर बनाया । उन्हीं की औलाद अपने माता -पिता को बोझ मानते हैं । वे अपने संग रखना पसंद नहीं करते हैं । बुढापे में बच्चों की सेवा की  जरूरत होती है तो वे बच्चे सेवा करना पसंद नहीं करते है । सन्तान को उनकी बात भी  बुरी लगती है । 
 माता - पिता की सेवा न करने से सन्तान  आजाद रहना
चाहती है इसलिए उन्हीं की संतान  उन्हें वृद्धाश्रम में रखना पसंद करते हैं । समाज में यही नकारकात्मक भाव परिवार में पैदा होरहे हैं । सन्तान भूल जाती है कि हमारे माता पिता ने अपने  सुख छोड़कर जीवन में संघर्ष करके  बच्चों की सेवा करके इस योग्य बनाके भविष्य को गढा है ।
भारतीय सभ्यता संस्कृति के मूल्यों का  समाज में हनन हो रहा है इसलिए वृद्धाश्रमों की आवश्यकता  हो रही है ।
आचार - विचार , व्यवहार , मूल्य को आज की पीढ़ी को अपनाना होगा तभी वृद्धाश्रमों की आवश्यकता खत्म हो सकती है ।
- डॉ मंजु गुप्ता
मुम्बई - महाराष्ट्र
 वृद्धाश्रम घर से निकले गए असहाय वृद्ध जनों की पनाह देता है। इन बुजुर्गों की हालात के जिम्मेदार और कोई नहीं अपितु उनके बच्चे होते हैं। जिन्हें प्यार से हर परिस्थिति में पाला होता है। वे ही मां-बाप को वृद्धाश्रम का रास्ता दिखा देते हैं। यह परिणाम है भारतीय समाज का पश्चिमी सभ्यता की ओर बढ़ने की।हम आधुनिकता के नाम पर अपनी संस्कृति और संस्कारों को इतना पीछे छोड़ रहे हैं, कि इंसानियत कहीं ना कहीं खोती जा रही है।
मां बाप हमें बिना किसी स्वार्थ के पालते हैं बस हम से केवल एक ही आशा रखते हैं कि हम बड़े होकर उनकी लाठी बने।उनके बुढ़ापा में सहारा देंगे लेकिन आजकल स्वार्थ था तो देखिए एक बार सारी संपत्ति लेकर मां-बाप को त्याग देते हैं। एक छोटा सा उदाहरण:-एक दंपति को दो पुत्र हुए। दंपति बहुत खुश थे मेरा दो वैशाखी है। दोनों पुत्र होनहार पढ़ लिख कर अपने अपने कार्यक्षेत्र में आगे बढ़ते गए जिसमें संजोग से एक पुत्र विदेश चले गए दूसरे पुत्र बड़े शहर में कार्यरत है और पश्चिमी देश का नकल करते हैं। संजोग से बुजुर्ग अकेला हो गये।
और अपने कर्म भूमि पर स्थाई निवास मैं समय काट रहे हैं। दोनों पुत्र अपने अपने कार्य क्षेत्र में व्यस्त हैं। आजकल स्वार्थता तो देखिए सारी संपत्ति लेकर अकेला बुजुर्ग पिता को त्याग दिए।
लेखक का विचार:-वृद्धाश्रम उस निवास स्थान का नाम है जहां पर असहाय निर्बल अथवा परिवार से विरक्त हो चुके वृद्धों के आश्रम तो देता ही है उनकी सभी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए सामूहिक स्तर के लिए आयोजित किया जाता है। यह चलन पश्चिमी देशों में है। *हमारे देश में संस्कृति और संस्कार है*। 
लेकिन आजकल की नई पीढ़ी इस पर ध्यान नहीं दे रहे हैं।
कल वह भी बुजुर्ग होंगे उसके बाद समझ आएगा संस्कार के बारे में ।
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखण्ड
   जीवन के तीन रंग हैं। बचपन, यौवन और बुढ़ापा अर्थात वृद्धावस्था। इन में से सब से श्रेष्ठ, शांत और चरम अवस्था वृद्धावस्था होती है। भारत में पारिवारिक बंधन मजबूत होने के कारण वृद्ध दम्पति अपने बच्चों के साथ भावनात्मक रूप से अधिक बंधे होते हैं। इस लिए वो सारी जिंदगी बच्चों के साथ, पोते पोतियों के साथ रहना चाहते हैं। 
         कई बार बच्चे आर्थिक तौर पर अधिक संपन्न होते हैं। वो अपनी मर्ज़ी से अपने हिसाब से परिवार को चलाना  चाहते हैं। वहां वृद्ध दम्पति अपनी उपेक्षा समझते हैं। घर कलह क्लेश का स्थान बन कर रह जाता है। इस लिए युवा पीढ़ी वृद्धों  को वृद्धाश्रमों में छोड़ना पसंद करती है। यह सब अपनी सोच और तालमेल पर निर्भर करता है। 
      कई बार वृद्ध आर्थिक तौर पर अधिक संपन्न होते हैं। वह निर्भरता से बचने के लिए और स्वाभिमान की वजह से घर में नहीं, वृद्धाश्रमों में रहना श्रेयसकर मानते हैं। दूसरा समय के अनुसार बदलती समाज संरचना का असर है कि आज कल एकल परिवारों का चलन बढ़ रहा है। 
     उच्च वर्गीय लोग पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव के कारण वृद्ध अभिभावकों के साथ रहना पसंद नहीं करते।इस लिए भी वृद्धाश्रमों की आवशयकता हो रही है। 
        लेकिन संतान को यह बात अच्छी तरह से जान लेनी चाहिए कि एक दिन  यह अवस्था उन पर भी आनी है। वृद्धों को उपेक्षित महसूस न करने दें बल्कि उन के जिंदगी भर के तजर्बे से अपना जीवन सुखमय बनाएँ। जिन के घर में वृद्ध होते हैं, उन का घर ही शिवाला होता है। 
- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब
      आजकल की पीढी में परिवार के प्रति संवेदनशीलता निरंतर क्षीण होती जा रही है।पश्चिमी सभ्यता की अंधी दौड़ में शामिल होने को आतुर वर्तमान पीढ़ी अपने माता - पिता के प्रति कर्तव्य को भूलते जा रहे है।
    यह भी सत्य है कि बेटियां ही किसी घर पर जाकर बहू बनती हैं I।अगर वह भी बुजुर्ग सास ससुर को अपने माता - पिता के समान ही समझते हुए व्यवहार करे तो वृद्धाश्रम की जरूरत ही पड़े।
        जिन बच्चों को माता - पिता बचपन में बहुत सहारा देकर पालते हैं,वहीं बच्चे अपने माता पिता को बड़े होने पर बोझ समझने लगते है।
      वृद्धाश्रमों में वृद्धों के लिए आश्रय और भोजन की व्यवस्था की जाती है।इसलिए कुछ लोग अपने वृद्ध माता - पिता को वृद्धाश्रम में छोड़ आते हैं। वे अपने बुजुर्गो कि परिवार पर बोझ समझते हैं । बुढ़ापे में भी सभी अपने परिवार के साथ ही रहना चाहते है। चाहे सुविधा न मिले बस परिवार का साथ सभी को जरूर मिलना चाहिए। जबकि उनके जीवन में तो वर्तमान स्थिति तक पहुंचाने में उनका बहुत बड़ा त्याग और योगदान रहता है।फिर भी नई पीढ़ी अपने बुजुर्गो का अहसान नहीं मानती। इस प्रकार की संवेदनहीनता के साथ आगे बढ़ते इस समाज को विकसित समाज की संज्ञा देना निश्चित रूप से उचित नहीं कहा जा सकता।
        हमारी संस्कृति में परिवार नामक संस्था को बहुत सोच समझकर बनाया गया था, लेकिन आज पश्चिमीकरण के प्रभाव से यह व्यवस्था टूट रही है। इसलिए वृद्धाश्रमों की आवश्यकता हो रही है।
- सुरेंद्र सिंह
अफ़ज़लगढ़ - उत्तर प्रदेश
भारतीय समाज अपनी संस्कृति सभ्यता पर    गौरवान्वित होता रहा है।  पूरे विश्व में भारतीय संस्कृती, पारिवारिक संस्कार अपना विशेष महत्व रखते हैं।
 समय परिवर्तन के साथ-साथ आज हमारी संस्कृति  तिल तिल कर बिखर रही है । क्या यह हमारे आधुनिक संस्कारों की उपज है ?
 आधुनिकता के परिवेश में हम अपनी संस्कृति को ही भूल गए । यह अत्यंत सोचनीय विषय है चिंतनीय विषय है। वृद्धा श्रमों की आवश्यकता क्यों हो रही है? यह आज की चर्चा का विषय है । मैं इसका सबसे बड़ा कारण आधुनिक संस्कारों की उपज मानती हूं। 
आजादी के बाद पिछले कुछ दशकों में शहरीकरण बढ़ा है। शिक्षा का व्यापक प्रसार हुआ है। नौकरियों को ज्यादा महत्व दिया गया। गांव से पलायन किया गया। शहरों में आशियाने बसाए गए। पुरखों के घर/ जमीनों की अनदेखी हुई ।
 परिणाम स्वरूप संयुक्त परिवार टूटते गए, पारिवारिक विघटन होता गया, एकाकी परिवार अपना रूप पकड़ता गया । पश्चिमी संस्कृति सभ्यता का भी असर देखने को मिला है ।
ऐसे में बुजुर्ग दंपत्ति भले ही उनकी मासिक आय अच्छी है फिर भी देखभाल के लिए वृद्ध आश्रमों की आवश्यकता पड़ी है। विदेशों में नौकरी पेशा करने वाली  संताने भी अपने वृद्ध मां बाप के लिए वृद्धा आश्रम को ही अच्छा विकल्प मानते हैं । इसके अलावा बहुत से ऐसे बुजुर्ग हैं जिनका कोई अपना नहीं या अपनों ने छोड़ दिया है ,आमदनी का कोई सहारा नहीं ,लावारिश है ,उन्हें भी वृद्धाश्रम का सहारा लेना पड़ता है ।
 भारत में कुछ वृद्धाें की इतनी दयनीय स्थिति है कि मंदिरों में ,मेलों में सड़कों, चौराहों पर उन्हें भीख मांगते हुए देखा जा सकता है । ऐसे में वृद्धा आश्रम तो उनके लिए स्वर्ग समान है । अनेकों वैसे कारण है जिस वजह से वृद्धाश्रमों की आवश्यकता दिन-ब-दिन बढ़ रही है। यद्यपि जिन वृद्ध लोगों को मासिक पेंशन नहीं है उनके लिए भी सरकार ने सामाजिक पेंशन का प्रावधान किया है फिर भी देखभाल के अभाव में वृद्धाश्रम का रुख करना ही पड़ता है । मुझे नहीं लगता कि आने वाले समय में वृद्धाश्रमों की जरूरत कभी कम होगी । बस कुछ प्रयास हो सकता है ताकि वृद्ध आश्रमों की कम से कम जरूरत पड़े। सर्वप्रथम अपनी संस्कृति को विस्मृत न किया जाए। संतानों में अच्छे संस्कार भरे जाएं ताकि बुजुर्गों का सम्मान हो सके। मानवीय संवेदनाओं के आधार पर पारिवारिक रिश्ते कायम रखे जाएं। बुजुर्गों के प्रति उच्च सोच को हर संभव व्यवहारिक बनाया  जाकर अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया जाए। भौतिक भोगों की प्रबल इच्छा से सु संस्कारों का हरण कभी न हो । किसी भी परिवार के बुजुर्ग मानसिक दुविधा नहीं बल्कि मानसिक संतुष्टि का अवलंबन है। पारंपरिक मान्यताएं अवधारणाएं कभी खंडित न हो ऐसा प्रयास होना चाहिए । विकासशील देशों में वृद्ध आश्रम सामान्य सी बात है परंतु भारत में वृद्ध आश्रम की अवधारणा को संस्कार हीनता  और संतान की नकारात्मक सोच का परिणाम माना जाता है । क्योंकि भारतीय संस्कृति में इसे बुजुर्गों का अपमान माना जाता है । लेकिन जैसे-जैसे विकास दर बढ़ती जाएगी वृद्ध आश्रमों की आवश्यकता अच्छी लगती जाएगी। बुजुर्ग भी उपेक्षित जीवन जीने की अपेक्षा वृद्धा आश्रम को ही महत्व देते हैं ।
-  शीला सिंह 
बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश
जिस तरह दूध देकर तिजोरी भरने वाली गाय,एक उम्र के बाद दूध देना बंद कर देती है, तो उसका मालिक गाय को अनुपयोगी समझकर भगा देता है। 
   उसी तरह वृद्धजन जब परिवार के उपयोग और लाभ देने लायक नहीं रहते तो उन्हें खुद का बेटा या पारिवारिक सदस्य वृद्धाश्रम में डाल देते हैं। किसी पुराने और अनुपयोगी फर्नीचर की तरह।
   यह आज कि शाश्वत सत्य है कि इंसान जरूरत से ज्यादा ही स्वार्थी हो चुका है। इसके लिए हमारी पीढ़ी भी तो दोषी है। जिसने बच्चों में संस्कार, उचित शिक्षा नहीं दिलवाया है। 
  बच्चों को अपना समय नहीं दिया।अच्छा और सच्चा इंसान बनाने में ध्यान कम दिया।परिणाम मां बाप वृद्ध होने पर उसकी चिकित्सा पर खर्च, रहने खाने का खर्च, उन पर ध्यान(सेवा)दैने का वक्त, इज पारिवारिक सदस्यों के पास नहीं रहता।
   पहले संयुक्त परिवार होते थे।वृद्धाश्रमों की संख्या भी नगण्य होती थी।अब तो एकल परिवार का समय है। मियां, बीवी,एक बच्चा। किसी को किसी की परवाह कहाँ। समय और आवश्यकता कहाँ। 
   इसलिए वृद्धाश्रमों में वृद्धों को डाल दिया जाता है (रिश्ता चाहे जो भी हो)और अपने फर्ज की इतिश्री समझ लिया जाता है। 
    -  डाॅ•मधुकर राव लारोकर 
         नागपुर - महाराष्ट्र
      वृद्ध व्यक्ति की जो पहली तस्वीर  जहन में आती है वो है लाचार, बीमार,असहाय,एक ऐसा शख्स जो निठ्ठला है और उसके पास समय ही समय है। उसे खान-पान, स्नान , आराम ,अपने अन्य दैनिक कामों के लिए अत्यंत धैर्य रखना चाहिए। कहीं जाना नहीं, कुछ काम नहीं, फिर क्या हाय  तौबा। यह तो तस्वीर का एक रूख है दूसरा भी है। बूढ़े ना चाहते हुए भी जल्दी उठ कर पोता -पोती को स्कूल बस  तक ले जाते, अशक्त होने पर भी बाजार से  सब्जी आदि लाते ,भर दोपहरी नींद को दूर भगा कर बच्चों. को वपिस घर लाते। फिर शुरू होती है  लंबी जद्दोजहद,शाम तक संभालना और घर की चौकीदारी खत्म। 
    ऐसी कहानियाँ आम हैं। पर फिर भी वृद्ध आश्रमों की आवश्यकता हो रही है क्योंकि वर्तमान पीढ़ी अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों में काम करते, रात दिन की बंदिशों से दूर।
खाने -पीने के आचार विचार,नियम ,सोना -जागना, घूमना स्वतंत्र और स्वछंद। इनके माता पिता भी इन्हे कुछ नहीं कह पाते तो घर के  बुजुर्गों की क्या हिम्मत। एकल परिवार में जहाँ युवा  माता पिता दोनों नौकरी करते, बच्चे  मनमानी करते, सुख सुविधाओं में पले, देना, झुकना ,सुनना सीखा ही नहीं। युवा युगल भी अपने माँ पिता की संपत्ति येन केन प्रकरेण हथिया कर उन्हे घर के बाहर का रास्ता दिखाने में झिझकते नहीं हैं ।
    सहनशीलता, अपनापन और रिश्तों की गर्माहट जो घरों में वृद्धों को मान सम्मान और सुरक्षा देते थे वो खत्म हो गई है । स्वार्थपरता के साथ जब बेहयाई जुड़ जाती है तो बच्चों को जरा भी शर्म नहीं आती कि उनके माता पिता वृद्धाश्रम  में रहेंगे।
     वृद्ध व्यक्ति भी रोज रोज के लड़ाई झगड़े, ताने अपमान और सूनेपन से बेजार हो कर, भारी मन से अनेक बार खुद ही वृद्ध आश्रम को सुरक्षित समझने लगते हैं ।
   जब जब हम अपनी पुरानी अच्छी और नैतिक बातों को हवा में उड़ा देंगें तब-तब ऐसे आश्रमों की संख्या बढ़ेगी जो दुखद है ।
   मौलिक और स्वरचित है ।
  -  ड़ा.नीना छिब्बर 
     जोधपुर - राजस्थान
बदलती सामाजिक व्यवस्था और टूटती संयुक्त परिवार संस्था का परिणाम है वृद्धाश्रम। इनका चलन विदेशों से चला और धीरे धीरे, हमारे भारत में भी हो गया। एक सर्वे हेल्पएज इंडिया नामक संस्था का आया था जिसके मुताबिक 29 प्रतिशत लोगों ने वृद्धों को अपने साथ न रखने की बात स्वीकारी। वे उन बुजुर्ग सदस्यों को अपने साथ नहीं रखना चाहते।कारण में उनकी देखभाल, चिकित्सा खर्च,स्वभाव, उनकी बातें सहन न करना आदि कारण रहे। 
अब बात बढ़ते वृद्धाश्रमों के कारण की तो इसमें शामिल हैं बढ़ती सम्पन्नता,साथ न रहने और स्वतंत्र जीवन जीने की प्रवृत्ति, सहनशीलता की कमी, संस्कारों की कमी आदि। भारत के विभिन्न भागों में वृद्धाश्रम चल रहे हैं।कहीं इसी नाम से और कहीं वानप्रस्थ आश्रम के नाम से। इनमें रहना, सुखद तो किसे लगता होगा,जिस उम्र में परिवार की जरूरत सबसे अधिक होती है, उसमें परिवार से दूर रहना भला किसे लगेगा। लेकिन इनकी दिन ब दिन बढ़ती संख्या हमारी मानवीय सोच और व्यवहार के पतन को बताते हुए, हमारे आने वाले कल की तस्वीर दिखा रही है।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
आज हम देख रहे हैं जगह जगह वृद्धाश्रम है और इसके अनेक कारण हैं -- कई अपने मां बाप को वृद्धाश्रम में इसलिए रखते हैं कि उनके पास समय नहीं है ! ऑफिस जाना ,घर पर फिर सब देखना , सो मैनेज नहीं कर पाते , फिर माहौल ऐसा हो गया है कि वृद्धों का घर पर अकेला रहना खतरा बन गया है !घर लूटना तो एक बात है हत्या भी बहुत होने लगी है अतः उनकी सुरक्षा के लिए भी रखते हैं!
2. कुछ इसलिए रखते हैं उनकी स्वतंत्रता में बाधा आती है--बुढे़ मां-बाप उनके लिए बंधन बन जाते हैं  -- कुछ माता-पिता स्वयं घर के हालात और बहु बेटों के तिरस्कार की वजह से स्वयं जाना चाहते हैं ,और कुछ माता -पिता समझदारी  दिखाते हुए भारी मन से जाना चाहते है! वृद्धाश्रम में होना कोई गलत नहीं है---हां यदि मां बाप को बोझ समझकर रखें तो दुख की बात है और यदि समयाभाव के कारण उन्हें रखते हैं कि उनका खाना पीना ,देखभाल अच्छे से होगी तो इसमे कोई गलत नही है !
हर सिक्के के दो पहलू होते हैं अगर वृद्धाश्रम में बेटा मजबूरी से भेजता है तो वह अपने मां बाप की सही चिंता करता है और अगर बहु बेटों के झगड़े की वजह से तिरष्कृत होकर जाते हैं यह दूसरा पहलू है जो गलत है !
वैसे मैं यह अवश्य कहना चाहूंगी दोनों ही पहलू में वे अपनों से दूर हो जाते हैं !
वृद्धाश्रम इसलिए भी आवश्यक है यदि बेटा अपने परिवार के साथ विदेश में रहता है और माता पिता अपने वतन में ही रहना चाहते हैं तो वृद्धाश्रम से सुरक्षित स्थान कोई नहीं है छुट्टियों में आते हैं
तो उन्हें अपने साथ रखते हैं फिर भारी मन से सुरक्षित स्थान (वृद्धाश्रम)छोड़ जाते हैं !
अतः इन सब  करणों की वजह से वृद्धाश्रम आवश्यक है !
           - चंद्रिका व्यास
           मुंबई - महाराष्ट्र
वृद्ध आश्रम व्यवस्था कोई आज की व्यवस्था नहीं है यह आर्यों के समय से चली आ रही है वेदों के अनुसार जीवन को ४ सोपानों में विभाजित किया गया है - बाल्य अवस्था , युवा अवस्था , प्रौढ़ , वृद्ध - उसी अनुरूप , ब्रह्मचर्य २५ वर्ष की आयु तक  , गृहस्थ ,५० वर्ष की आयु तक, वानप्रस्थ , ७५ वर्ष की आयु तक व् संन्यास , उसके बाद के वर्ष की आयु  से  अंत तक, बाद के दोनों व्यवस्था में मनुष्य को गृहस्थ से इतर स्वेच्छा से  अपना जीवन व्यतीत करना होता था  और इसका सबसे  विशेष कारण है कि 50 से ऊपर की आयु वर्ग के जितने भी व्यक्ति हैं समाज के अनुसार   उनके   को एक विशेष प्रकार की व्यवस्था की  जाए, वो अपना समय ध्यान योग पूजा पाठ आदि करें , युवाओँ को सारी जिम्मेदारियां संभालने दे।  
आज  के समय में या आधुनिक युग में सब कुछ गड्ड मड्ड चल रहा कोई वेद सम्मत व्यवस्था नही रही , सब अपने अपने हिसाब से अपने अपने परिवार को चलाने लगे हैं कोई विरला ही उन प्रावधानों को निभाता होगा।  समाज के धार्मिक कृत्य या अनुष्ठान सब दिखावे के लिए किये जाते हैं या वैभव प्रदर्शन का एक tool / यंत्र प्रयोग स्व रूप करते हैं।  
अब रहा आज का सबाल - वृद्धा आश्रम की आवश्यकता क्यों ? - उपरोक्त पृष्ठ भूमि में , सब कुछ साफ़ है - २० प्रतिशत परिवार आज भी प्रेम से अपने बुजुर्ग जन को सम्मान से अपने साथ रखते है , २० % अन्य कुछ और नहीं तो ना नुकर के  साथ निभा लेते है क्यूकि सारी गलती उन्ही की नहीं होती मतलब बहुत से बुजुर्ग अपने बच्चों की पारिवारिक जिंदगी में दखल देना अपना अधिकार समझते है। जाने अनजाने में उनकी जिंदगी में विष घोलते रहते है।  
यहां शिक्षा के प्रसार के साथ भी सोच में काफी बदलाब आया है पढ़ी लिखी लड़कियां अपने तरीके से अपने परिवार को चलाना चाहती हैं तो बुजुर्ग अपने अधिकार का अंगूठा नीचे करना तौहीन समझते है।  
ऐसे में एक आसरा वृद्ध आश्रम ही बचता है , खुद से जाए  या भेजे जाए , अब २० प्रतिशत समर्थ बुजुर्ग स्वेच्छा से मॉर्डन वृद्ध आश्रम में रहते हैं सभी ऐशो आराम मासिक खर्च पर साथ ही स्वतंत्रता भी अपने पैसे का भरपूर आनंद भी 
मुझे इस व्यवस्था में बस एक ही कमी लगती है वो है आर्थिक रूप से कमजोर व्  अशिक्षित , बुजुर्ग जो इसके दंश को झेलने को मजबूर हैं।  ऐसे में समाज ने सरकार ने बिना खर्च के कुछ वृद्ध आश्रम / ओल्डएज होम बनाये हैं जो की नितांत जरुरी भी है बात तो बस उनके सही रूप से सुचारु रूप से कार्यान्वित होने की है।  फिर भी ये व्यवस्था जीवन को शांति से व्यतीत करने में सहायक तो हैं ही [ आखिर रोटी कपड़ा मकान [ सर पर  एक छत ] तो मौलिक जरुरत है न भाई।  
- डॉ. अरुण कुमार शास्त्री
दिल्ली
आज के परिवेश में बहुतायत से नव दंपतियों का व्यवहार बुजुर्गों के साथ बदलता चला जा रहा है। अब न तो पहले जैसी मान मर्यादा है और न ही प्रेम पूर्ण सम्मान वाला व्यवहार। जो लड़कियां अपने मां बाप को जी जान से चाहती हैं, उनकी एक एक खुशी के लिए वारि जाती हैं, वही लड़कियां अधिकांशतः ससुराल में आते ही वृद्ध सास ससुर को माता पिता समान न समझ एक बोझ के रूप में समझने  लगती हैं। कुछ लड़के लोग तो कुछ समय  संतुलन बनाने का प्रयास करते हैं किंतु  अंत में हार कर उन्हें अपने मां बाप को वृद्धाश्रम छोड़ने पर मजबूर हो जाना पड़ता है। रोज रोज के कलहपूर्ण वातावरण, अपमान एवं उचित व्यवहार न मिलने से माता पिता भी वृद्धाश्रम जाने में कोई गुरेज नहीं करते। यही कारण है कि आज के समय में वृद्धाश्रमों की आवश्यकता महसूस की जा रही है ताकि वृद्ध  माता पिता वहां सुकून के साथ अपने आखिरी पल जी सकें। समाज के अन्य वृद्ध भी जिनका कोई सहारा नहीं है वे भी वहां पारिवारिक माहौल में रह सकें।
- श्रीमती गायत्री ठाकुर "सक्षम"
 नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
भौतिकता का अंधानुकरण, दिखावे की चकाचौंध जिन्दगी जीने की लालसा, रिश्तों के प्रति असम्मान, भावनात्मकता में कमी, संवेदनहीनता, सामुहिक परिवारों का विघटन और भारतीय संस्कृति को भुला देने से आज वृद्धाश्रमों में वृद्धजनों की संख्या में वृद्धि हो रही है। 
भारतीय संस्कृति में सदैव अपने बुजुर्गों के प्रति श्रद्धा भाव और उन्हें सदैव सम्मान देना सिखाया जाता है। एक कहावत है कि.... "घर में बड़े बुजुर्ग का बैठे रहना ही अत्यन्त फलदायक है।" 
परन्तु आज अधिकांश परिवारों में बुजुर्गों को बोझ समझा जाने लगा है। उनके सुझावों को 'अपनी कथित स्वतन्त्रता में दखल देना' समझा जाने लगा है। 
एक महत्वपूर्ण बात यह कि आज का युवा वर्ग अपने बुजुर्गों को देखकर यह नहीं समझता कि उसका भविष्य भी वृद्धावस्था है और जो आज वह अपने घर के बुजुर्गों के साथ कर रहा है, कल उसके साथ भी होना है। 
लालसा भरी कथित स्वतन्त्रता पाने की चाह में वृद्धजनों को वृद्धाश्रमों में भेज देने की प्रवृत्ति समाज में बढ़ रही है। 
इन्हीं सब बातों के कारण वृद्धाश्रमों की आवश्यकता हो रही है। 
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
वृद्ध हमारी पीढ़ियों की सभ्यता संस्कार की परंपरा विरासत धरोहर को संजोकर रखते  हैं
परिवर्तन समाज का नियम हर युग में परिवर्तन होता रहा कलयुग में भागदौड़
संयुक्त परिवार का विघटन एकल परिवार की अधिकता पति पत्नी दोनों का नौकरी व्यवसाय में होना आधुनिक युग में सभी प्रतिस्पर्धा की भावना में एक दूसरे से आगे बढ़ने बड़े-बड़े पैकेज का लालच अपनी जन्मभूमि मातृभूमि से दूर विदेशों में पढ़ाई नौकरी  व्यवसाय करना माता पिता यहीं  रह जाते हैं दूसरी बात यह कि समाज में तीव्र गति से परिवर्तन हुआ है नितांत पति पत्नी अपने स्वार्थ तक ही सोचते हैं  अपने  बच्चों की बस  ऐसे  में वृद्धावस्था में शारीरिक बीमारियों के चलते उचित रखरखाव नहीं हो पाता है
बुजुर्गों से कोई बात करने वाला नहीं होता दो घड़ी उनके पास भी कोई नहीं बैठता बुजुर्ग अपने को असहाय महसूस करते हैं विदेशों में रहने वाले बच्चे समय पर उन्हें देखने भी नहीं आ 
पाते दूर से आना जाना बहुत खर्चीला है इतनी जल्दी संभव नहीं नौकरी पढ़ाई व्यवसाय छोड़कर बहुत से अनेक कारण होते हैं जिसके कारण वृद्ध आश्रमों की आवश्यकता बढ़ गई है और सबसे बड़ी बात है कि सोच भी संकुचित हो चुकी है संवेदनाएं पहले जैसी नहीं रही माता पिता के प्रति
श्रवण कुमार होना  तो बहुत दूर
साधारण पुत्र पुत्री रहे यही बड़ी बात है।
*निजी संस्कार को छोड़कर पश्चात* *जीवन शैली अपनाते लोग देख पराई चुपड़ी मन ‌भागे पीछे*क्या भला क्या बुरा अब सोचे कौन*
- आरती तिवारी सनत
दिल्ली
     एक कहावत हैं, "पुत्र-कपुत्र, क्यों  धन संचय" वास्तविक जीवन में सार्थक होते जा रहा हैं। वर्तमान परिदृश्य में पारिवारिक माहौल में जो भी घटनाऐं घटित हो रही हैं, जिसका सीधा सा प्रभाव वृद्धावस्थाओं को पड़ता हैं और यही से प्रारंभ होता हैं, परिवार वाद का पतन?  जो वयोवृद्धों का सम्मान करते हैं, वे ही दुर्लभ होते हैं, यही हैं अच्छे-बुरे का आंकलन किया जाता, उनकी संस्कृति-संस्कारों का पता चलता हैं। शासकीय-
अर्द्धशासकीय संस्थानों द्वारा वृहद स्तर पर विभिन्न प्रकार के वृद्धाश्रमों को संचालित किया जा रहा हैं, जहाँ उनकी मूलभूत सुविधाओं को सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर पूर्ण करने में सार्थक भूमिका हो रही हैं। यह सबसे बड़ी बात हैं, जो सीधे तौर पर उन कलयुगी परिवार जनों को तमाचा हैं। अगर हम नैतिकतावादी बन कर वृद्धाओं का सम्मान करते तो आवश्यकता प्रतीत नहीं होती?
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
यह सत्य है कि आज वृद्धाश्रमों की आवश्यकता हो रही है क्यों कि ज्यादातर परिवारों में स्वतंत्र विचार का बोल बाला हे गया है ।बुजर्गों  को युवापीढ़ी की बहुत सी आधुनिक  बातें नहीं पसंद पड़ती और युवा उनकी रोक टोक को रुकावट महसूस करते हैं ।एक दिन का निभना आसा है लेकिन रोज -रोज की किच -किच  किसी को नहीं भाती ।इधर वृद्ध परिवार में रहते हुए भी अकेला पन महसूस करते हैं इसलिए वो वृद्धाश्रम पसंद करने लगे हैं ।आज बहुत सुविधा जनक वृद्धाश्रम हो गये हैं तो बुजुर्ग अपनी जमापूँजी वहीं लगा कर चैन से जीना चाहते हैं यद्यपि परिवार को छेड़ने में बहुत दुख होता है ।फिर भी वृद्धाश्रम बुजुर्गों की भी जरुरत हो गयी है और युवा  भी आजादी पा जाते हैं ।
- कमला अग्रवाल
गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश
वृद्धाश्रमों की आवश्यकता इसलिए हो रही है कि हमारे आज कल के नवजवान बुजुर्गों की सेवा नहीं कर रहे हैं। उन्हें मोबाइल और बीवी से फुरसत ही नहीं मिल रही है कि वे बुजुर्गों की सेवा करें। पश्चिमी सभ्यता की सब नकल कर रहे हैं। पहली बात माँ-बाप दोनों नौकरी करते हैं उन्हें बच्चों को संस्कार देने का समय ही नहीं मिल रहा है। दिनभर काम से थके आते हैं खाते पीते हैं टी.वी. देखते हैं सो जाते हैं। बच्चे टी.वी. देखकर जो कुछ सीखते हैं वही वो करना चाहते हैं या कर रहे हैं। बहुएं सास-ससुर की सेवा करना नहीं चाहती हैं। बेटा करना भी चाहता है तो फुर्सत नहीं मिलती है कि वो माँ-बाप की सेवा करे। कहीं कहीं सास का व्यवहार ऐसा होता है जो बहु उसकी सेवा करना नहीं चाहती। कहीं कहीं बहु ऐसी होती है जो सास उसे देखना नहीं चाहती। इसलिए बेटा माँ-बाप को वृद्धाश्रम में रख देता है कि वहाँ पर कम से कम उनकी देखभाल तो होती रहेगी। दूसरी बात नौकरी और ज्यादा पैसे के लालच में लोग विदेश चले जाते हैं जहाँ माँ-बाप को लेकर जाना संभव नहीं हो पाता है। घर पर कोई दूसरा देखने वाला नहीं होता है। इसलिए माँ -बाप को वृद्धाश्रम में रखना पड़ता हैं। पारिवारिक झगड़ों के कारण भी कई माँ-बाप शान्ति से वृद्धाश्रम में ही रहना पसंद करते हैं। किसी-किसी के परिवार में पैसों के लेन देन के कारण तुम देखो तो तुम देखो होता रहता है। इसलिए माँ-बाप को वृद्धाश्रम जाना पड़ता है।
इसे कलयुग का प्रभाव कहें या संस्कार की कमी कि सब कोई बंधन मुक्त रहना चाहता है। सब चाहते हैं फ्री होकर बीवी बच्चों के साथ मस्ती करते रहें। बूढ़े माँ -बाप उनकी  मौज में रुकावट बनते हैं। माँ-बाप जैसा करते हैं बच्चे उसी का अनुसरण करते हैं। जिसने अपने माँ-बाप को आश्रम में रखा  उनके बच्चे भी उन्हें वृद्धाश्रम में रखते हैं। सबको अपने-अपने कर्मों का हिसाब मिलता है। वृद्धाश्रम में बुजुर्गों को रखना एक तरह से फैशन बनता जा रहा है। आनेवाले समय में वृद्धाश्रमों की संख्या और बढ़ेगी। लोग संस्कार हीन होते जा रहे हैं। शिक्षा केवल पैसे कमाने का साधन बनती जा रही है। संस्कार नाम का चीज शिक्षा से प्रायः गायब ही हो जा रहा है। ऐसे में वृद्धाश्रमों की संख्या बढ़नी ही बढ़नी है।
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश" 
कलकत्ता - पं. बंगाल
जिंदगी की अनुभवों मे एक अनुभव वृद्धावस्था होती है ।जीवन की सारी कसौटियों पर मात पिता खड़े उतरते हुए अपनी जीवनशैली अपने बच्चों के लिए समर्पित करते हैं।यही बच्चों के कारण वृद्धावस्था मे मात पिता तथा बूर्जगो को बेहद तकलीफ़ मिलती है और वृद्ध होने की सजा उनको उनके घर से निकाल कर वृद्धावस्था मे वृद्धाश्रमों की आवश्यकता होती है।मानव संसाधन मे इंसान की मानसिकता बेहद निम्न स्तर पर आ चुकी है।हम जीवन के अनमोल उपहार को नही समझते और अपने ही छाँव को धूप मे गैरों के पास वृद्धावस्था मे आश्रम मे डाल देते हैं।ताउम्र जिन्होंने बच्चों की देखरेख करने का पीडा़ सहा भुखमरी लाचारी की हालातों मे भी अपने परिवार बच्चों को समेटा।समय की लोभ माया मे अपने ज़मीर को लोग बेच देते है।तकलीफों की कतारें मात पिता की बढ़ जाती है जब उनके औलाद उन्हें वृद्धाश्रम मे छोड़ देते हैं।इसलिए वृद्धाश्रमों की आवश्यकता हो रही है।वही लोगों के गैर भी अपने बन जाते है।अपनो के रूप मे अपनों के द्धारा ठुकराया गया इंसान ही वृद्धाश्रम मे जाता है।जिन्हें अपने दो वक्त की रोटी नही दे सकते।ये बेहद ही मार्मिकता भरे पल होते है जब अपने ही बच्चे या कोई रिश्तेदार अपनों को वृद्धावस्था मे आश्रम की चौखट पर ले जाते होगे।ऐसी मानवता का चलन आम तौर पर दिखाई देती है इसलिए वृद्धाश्रमों की निंरतर आवश्यकता हो रही है।जहां एक छत होता हैं खाने की व्यवस्था और सभी लोग अपने दुखद पहलू पर अपनी संवेदना व्यक्त करके जीवन की अनुभवों पर अपनी भावना को कम करने की कोशिश करते है।इन वृद्धों की कोमल हृदय को अपने ही पीडा़ देते हैं और अपने घर मकान से निकाल दिया जाता है।कानून व्यवस्था मे वृद्धा पेंशन आदि सुविधाएं मुहैया की गई है पर सभी को उसका लाभ नही मिल पाता है।और लाचारी वंश उनको वृद्धाश्रमों के दहलीज पर जाकर अपनी बाकी जीवन बिताने के लिए मजबूर होना पड़ता है।जब शंताने भी अपने कंर्तव्यं से भागने लगते और उम्र के एक पडाव पर इंसान बेहद टूट जाता है उनको अनेक स्थानों पर कोई सहारा नही मिला रिश्तेदार मित्र बच्चे सभी अपने जीवन मे उन्हें तिस्कार करें तो एक ही रास्ता नजर आता है। वृद्धाश्रमों की आवश्यकता इस मोड़ पर होती है।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर -  झारखंड
        अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है कि वृद्धाश्रमों की आवश्यकता क्यों हो रही है? इसके पीछे विभिन्न गम्भीर भूमिकाओं का एहम रोल है। जैसे एक पीढ़ी का दूसरी पीढ़ी से अंतराल का होना है। सोच-विचारों में विभिन्नता एवं मतभेद होना। जीवन की असफलताओं का कुप्रभाव पड़ना। कुप्रथाओं एवं दूसरों के घरों में महाभारत करवाने का शौक भी आधे घरों को बर्बाद करने में योगदान देता है। जिससे घरों में कलह जन्म ले लेती है।
      उल्लेखनीय है कि पति-पत्नी में अनबन कलह की उत्पत्ति का प्रमुख आधार बनता है। जिसकी मुख्य भूमिका पति की सास या बहू की सास निभाती हैं। 
       जब कलह लम्बी हो जाए तो घर बिखर जाते हैं। जिसकी गाज सर्वाधिक वृद्धों पर पड़ती है और उन्हें अलग-थलग करने के अलावा कोई चारा शेष नहीं बचता। ऐसे निपटारे के लिए वृद्धाश्रम एक मात्र समाधान हो सकता है। ताकि दोनों पक्षों को स्वतंत्रता अनुभव हो और 'अपना घर' जेल न लगे।
      ऐसी ही अनेक घरेलू समस्याओं को सुलझाने के लिए और स्वतंत्र जीवनयापन के लिए वृद्धाश्रमों की आवश्यकता पड़ती है। जो प्रत्येक युग में पड़ती आई है। इसलिए धर्मग्रंथों में जीवन के चौथे चरण में वनों में जाने का परामर्श दिया गया है।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
भौतिक विकास की अंधी दौड़ में संयुक्त परिवारों की टूटन से एकल परिवारों की स्वतंत्र जीवनशैली-- खानपान, वेशभूषा, बिंदास जीवनचर्या में शरीर से असहाय अशक्त वृद्ध जनों के आश्रय के लिए आज लोग वृद्धाश्रमों की ओर देखने लगे हैं ।संभ्रांत से सामान्य परिवार के लोग भी  वृद्धों की सेवा सुश्रुषा तो बहुत दूर उनके प्यार और आशीर्वाद  पाने के महत्व को वरीयता नहीं देते।बल्कि उनकी जमा पूंजी भी हड़प कर उन्हें वृद्धाश्रम का रास्ता दिखा देते हैं।लोग नहीं समझते बच्चा- बूढ़ा एक समान होता है ।आज मानवीय संवेदनाएं दिन प्रतिदिन तिरोहित होती जा रही हैं ।अतः पीढ़ियों के असामंजस्य ने वृद्धाश्रमों की आवश्यकता का जन्म दिया है।
- डाॅ.रेखा सक्सेना
  मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
 आज की चर्चा में जहां तक यह प्रश्न है कि वृद्ध-आश्रमों की आवश्यकता क्यों हो रही है तो इस पर मैं कहना चाहूंगा कि भारतीय जनमानस पाश्चात्य संस्कृति से बहुत अधिक प्रभावित हो रहा है और यह उसके मन को बहुत अधिक प्रभावित कर रही है जहां भारतीय संस्कृति जैसे मानवीय मूल्यों का कोई स्थान नहीं है इसी के प्रभाव का असर है कि भारतीय समाज में भी अब बुजुर्गों और माता पिता का अब तिरस्कार हो रहा है उन्हें पहले जैसा आदर और सम्मान नहीं मिल पा रहा है दूसरी ओर स्वार्थपरता इस कदर बढ़ गई है कि वह सांस्कृतिक और सामाजिक मूल्यों पर हावी हो गई है और व्यक्ति प्रत्येक दशा में अपना व्यक्तिगत स्वार्थ और हित सर्वोपरि रखना चाहता है इसी के चक्कर में वह मानवीय मूल्य और सांस्कृतिक विरासत का हनन कर रहा है और वृद्ध आश्रम जैसी कुरीतियां भारतीय समाज में भी पनप रही है वह समाज जो अपने माता-पिता एवं बुजुर्गों को देवता सरीखा आदर सम्मान प्रदान करता था आज उनकी उपेक्षा कर रहा है और वह उसे बोझ लगने लगे हैं और उन से पीछा छुड़ाने का बहुत सरल सा उपाय उसे वृद्ध आश्रम के रूप में दिखाई दे रहा है यही कारण है कि इनकी संख्या समाज में दिनों दिन बढ़ रही है और अच्छे भले संभ्रांत परिवारों के कुछ बुजुर्ग हैं इन वृद्ध आश्रम की ओर देख रहे हैं तथा कुछ अपना जीवन यापन वहीं रहकर कर रहे अब भारतीय परिवारों में बुजुर्गों की उपेक्षा एक आम सी बात हो चली है उनका बढ़ता हुआ एकाकीपन उन्हें परिवार से दूर जाने के लिए विवश कर रहा है और वह भी धीरे-धीरे जब घर परिवार में रहकर अपनी उपेक्षा से ऊब जाते हैं तो अपने जैसे लोगों के बीच सुकून तलाशना चाहते और धीरे-धीरे अपनी ममता को मार कर वहाँ रह रहे है ....
इस बदलती मानसिकता की उपज है यें वृद्धाश्रम 
यही कारण कि वृद्धाश्रमों की आवश्यकता हो रही है....
- प्रमोद कुमार प्रेम
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
वसुदैव कुटुंब की परम्परा  लगभग आजकल लुप्त प्राय  सी होती जा रही है। आजकल  लोगों की सोच संकुचित  होती जा रही है।पहले वाली बात  अब बहुत  विरले ही देखी जाती है। यह एक बहुत हीं गलत मानसिकता  समाज  मे व्याप्त  होती जा रही है। पाश्चात्य सभ्यता  का अंधानुकरण  हो रहा है। सारी जिन्दगी जिस माँ - बाप की  सुखद  छाँव  में बचपन बिताते हैं क्या  बड़े  होकर उन्ही पेड़ को काट देना सही होगा? लोग फ्लैट में भले रहे लेकिन  विचार  व्यवहार संकुचित नहीं होना चाहिए। हमे सदैव बुज़ुर्गों का सम्मान  और प्यार देना ही चाहिए। तभी आनेवाली पीढ़ी  भी वैसा ही करे।
- डाॅ पूनम देवा
पटना - बिहार
            यह बात सही है कि वर्तमान समय में वृद्ध व्यक्तियों तथा उनकी भावी पीढ़ी व संतानों के बीच में दूरियां बढ़ी  हैं।  65 वर्ष से ऊपर के व्यक्तियों को वृद्ध कहा जाता है और उस अवस्था में जब उनकी संतानों के द्वारा उनकी देखरेख नहीं की जाती है या जो संतान बिहीन हैं  तो ऐसे बृद्धजनों  को वृद्धावस्था में अपने जीवन को चलाने के लिए बृद्धाश्रमों में  शरण लेना पड़ती है। एक अनुमान के मुताबिक भारत में वर्तमान समय में 1000 से ज्यादा वृद्धाश्रम स्थित है जिनमें बड़ी संख्या में परिवार से उपेक्षित या प्रताड़ित  वृद्ध व्यक्ति निवास करते हैं । वहाँ  उनके भोजन व चिकित्सा  की व्यवस्था की जाती है ।
 इसकी आवश्यकता वर्तमान समय में कुछ इसलिए भी महसूस  हो रही है क्योंकि आज की पीढ़ी निज स्वार्थ में लिप्त है।संस्कार से बिहीन होने के साथ-साथ बे अपने बुजुर्गों की देख-रेख में लापरवाह हैं । केवल बे स्वयं व अपनी पत्नी, बच्चों पर ही  ध्यान दे रहे है और वृद्ध माता पिता और परिवार के अन्य बुजुर्गों  सदस्यों की ओर उनका ध्यान नहीं है। इस कारण से हमारे देश में वर्तमान समय में वृद्धाश्रम की आवश्यकता महसूस हो रही है।
 - अरविंद श्रीवास्तव 'असीम '             
दतिया -मध्य प्रदेश
प्रातः काल उठि रघुनाथा,मातु पिता गुरु नावहिं माथा ll
ऐसी भारत भूमि पर कुकरमुत्ते की तरह पनप रहे वृद्धाश्रम निश्चित रूप से हमारे नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों के हो रहे अधोगामी पतन को ही रेखांकित कर रहे हैं l मेरा विश्लेषण, चिंतन, मनन कुछ यों है -
1. आखिर क्या गुनाह किया जो परिवार ने ठुकरा दिया?
2. वृद्धाश्रम बनने के पीछे कहीं शहरीकरण और आधुनिक जीवन अहम कारक तो नहीं l
3. विचारणीय प्रश्न है युवा पीढ़ी को क्यों भार लग रहे हैं माता -पिता?
4. क्या हम इतने स्वार्थी हो गये हैं कि स्व के अलावा कुछ दिखाई नहीं देता l अपनेपन का मीठा एहसास न जाने कहां खो गया है l
5. जिन माता पिता ने अंगुली थाम चलना सिखाया और जब उनके पाँव डगमगाने लगे तो...
आखिर क्यों?
6. आज हम क्यों अपनों को भुला रहे हैं,कर्तव्य को क्यों भूल रहे हैं l
7. वृद्धाश्रम सामाजिक विघटन की ओर ले जाने वाला खतरनाक मोड़ है जो हमें घर से बेघर कर देगा l
        चलते चलते --
1. जाग जाओ मेरे देशवासियों!
माता पिता की छत्र छाया में स्वर्ग सुख ही मिलेगा, दुःख तो कभी नहीं l
2. जरा विचार करें, वही हाथ है अब सहारे की तलाश में,
जिनको थाम कभी गुजारा था बचपन कहीं l
        आखिर क्यों?
  - डॉ. छाया शर्मा
अजमेर -  राजस्थान 
वृद्धाश्रमों की आवश्यकता होने के कई कारण हैं। हमारी खो रही संस्कृति और धूमिल पड़ते संस्कार। इसका एक कारण शहरी क्षेत्रों की जीवन शैली में बदलाव जहां पश्चिमी आधुनिकता ने अपने पांव पसार लिए हैं और तथाकथित स्वतंत्रता की आड़ में वृद्धों को या तो बेघर कर दिया जाता है या फिर आर्थिक रूप से समृद्ध होने पर वृद्धाश्रमों की राह दिखा दी जाती है। इसका व्यावसायिक लाभ उठाने में बिल्डर्स भी पीछे नहीं हैं। वृद्धों को सुविधाएं देने के नाम पर वे अत्याधुनिक आश्रम बना रहे हैं। दूसरा कारण बुजुर्गों की सलाह को जीवन में हस्तक्षेप मानना। इसके कारण अनेक घर टूट रहे हैं। जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में यह प्रतिशत कम है। तीसरा कारण बच्चों का विदेशों में बस जाना। कई बच्चे अपने बुजुर्गोंं को वहां बुलाना चाहते हैं जिसके दो कारण होते हैं, एक वे उन्हें अकेला नहीं छोड़ना चाहते, दूसरा उन्हें घर में काम करने के लिए एक सहायक या सहायिका मिल जाती है। पर अधिकतर बुजुर्ग विदेशी परिवेश में ज्यादा दिन नहीं रह पाते और लौट आते हैं। चैथा कारण बुजुर्गों द्वारा भावाभिभूत होकर अपनी तमाम सम्पत्ति जीते जी बच्चों के नाम कर देना और फिर उनसे आंखें मोड़ लेना। जब परिवार के लोग नहीं अपनाते तो बुजुर्ग वृद्धाश्रम की राह देखते हैं जो हरेक के नसीब में नहीं होती। पांचवा कारण सभी बच्चों के विदेश में बस जाने के कारण अकेले रह जाना और शारीरिक रूप से असमर्थ होने पर वृद्धाश्रमों की राह जाना। छठा कारण बुजुर्गों का स्वयं को परिवार की आवश्यकता के अनुसार न बदल पाना। ये कुछ कारण हैं जिनसे वृद्धाश्रमों की आवश्यकता हुई है।
- सुदर्शन खन्ना
दिल्ली 
आज की भागदौड़ की जिंदगी में मां बाप बच्चों को मशीन बनाने लगे हैं पढ़ाई करो धन कमाओ संस्कार और पहले की तरह संयुक्त परिवार भी नहीं रह गए संस्कारों की कमी के कारण ही वृद्ध आश्रम की आवश्यकता पड़ी ना बच्चों को मां-बाप की जरूरत है और मां-बाप के बच्चों को कहां पालते हैं बच्चे तो नौकरों के हाथों में पलते हैं।
जब हम साथ में रहेंगे ही नहीं तो एक दूसरे के प्रति अटैचमेंट कैसे रहेगा।
इसलिए आजकल वृद्ध आश्रम बन रहे हैं। हमारी संस्कृति में पश्चात सभ्यता का ज्यादा असर हो गया है आधुनिक होने लगे हैं मां-बाप को बहुत समझने लगते हैं।
- प्रीति मिश्रा 
जबलपुर - मध्य प्रदेश 
 वृद्ध आश्रमों की आवश्यकता इसलिए हो रही है कि हम मानव जाति संबंधों को नहीं पहचान पा रहे हैं जब संबंध का ही पहचान नहीं होगा तो मूल्यों का निर्वाह कैसे हो पाएगा इसी वजह से लोग भौतिकता में डूब कर भाव का  समझना पाने के कारण  लोगों में अपनत्व के भाव ह्रास की ओर जा रही है। इसी वजह से सरकार शिक्षा के माध्यम से मूल्य शिक्षा नहीं दे पा रही है बल्कि समस्या में गिरे हुए गरीबों का पोषण संरक्षण कर रही है इसी के वास्ते वृद्धा आश्रम ओं की आवश्यकता हो रही है। 
- उर्मिला सिदार 
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
वृद्धाश्रमों की आवश्यकता इसलिए हो रही है क्योंकि आज लोगों की आँखों की की शर्म मर चुकी है .....भूल चुके हैं लोग की जिन माता पिता ने पाल पोसकर इस दुनियां मैं जीना सिखाया ....जो आज बुज़ुर्ग हैं ....उन्हें सहाय की ज़ररत है ...देखभाल की ज़रूरत है ....प्यार की ज़रूरत है ....वृद्धाश्रम की नहीं
बुढ़ापे का सहारा न बन सके तो को से कम उनको चैन से जीने दो ....वृद्धाश्रम तो न दिखाओ ....नहीं तो याद रखना .....अगली पीढ़ी भी तुम्हारे साथ यही व्यवहार करेगी
- नंदिता बाली
सोलन - हिमाचल प्रदेश
"तेरी चोट  देख कर तुझसे ज्यादा रोती मां, 
तेरे सुकुन की खातिर अपना चैन खोती मां, 
फिर क्यों वृदाश्रम में रोती मांं"। 
कहते हैं मां विना संसार नहीं, 
देखा जाए तो मां बाप वड़ी मुश्किल से अपने बच्चों का पालन पोषन कर उनको अपने पांव पर खड़ा करते हैं बच्चों का  उंची से उंची जगह पर पहुंचाने की हर संभव कोशिश करते हैं ताकी बूढ़े होने पर ब्च्चे मात्र उनकी लाठी का सहारा बनेंगे किन्तु आजकल ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। 
अक्सर देखा गया है कि  वृदाश्रमों में ही ज्यादातर  वृदों के दिन निकल रहे हैं इसके पीछे क्या कारण हैं आईये चर्चा करते हैं कि वृदाश्रमों की आवश्कता क्यों हो रही है।
मेरा मानना है कि वृदाश्रम उस निवास स्थान का नाम है यहां पर असहाय, अशक्त व निर्वल  व परिवार से निरक्त हो चुके वृदों को आश्रय मिलता है, 
लेकिन आजकल ऐसा नहीं हो रहा है, देखा जाए आजकल लोग आधुनिकता के नाम पर अपनी संस्कृति और संस्कारो़  को  इतना पीछे छोड़ चुके हैं कि इन्सानियत खोती जा रही है, 
आजकल के वुजुर्ग अपनी औलाद को वोझ नजर आ रहे हैं। 
देखा जाए ऐसा कोई शहर नहीं हैं यहां पर एक या दो वृदाश्रम  नहीं हैं और वो भी खाली नहीं हैं ऐसा लगता है कि वृदों की संख्या वढ़ चुकी है या संस्कारों की कमी इतनी गिर चुकी है कि वुढ़ापे को अभिशाप समझा जा रहा है। 
देखा जाए तो जिस तरह बालआश्रम जरूरतमंद बच्चों के पनाह देता है वैसे ही वृदाश्रम घर से निकाले गए असहाय वृदों को पनाह दे रहा है, 
सोचा जाए इन वुजुर्गों की हालत के जिम्मेदार और कोई नहीं अपितु उनके बच्चे ही होते हैं, जिनको बहुत लाज प्यार से मां बाप ने पाला होता है वोही एक दिन उनको वृदाश्रम का रास्ता दिखाते हैं 
वो यह भूल जाते हैं कि एक दिन वो भी वूढ़े होंगे, 
लेकिन आजकल लोगों की स्वार्थता इतनी गिर चुकी है कि एक बार संपति हड़प कर लेने के बाद अपने मां बाप को त्याग देते हैं और उनके वृदाश्रम के लिये छोड़ देते हैं जिस से वृदाश्रमों की भी कमी महसुस होने लगी है जो वृदा अवस्था का घेर हनन है। 
यही नहीं आजकल लोगों को समाझ व सम्मान का थोड़ा भी भय नहीं है, देखा जाए फादर्स डे व मदर्स डे सिर्फ सोशल मीडीया पर मनाया जाता है, असल में वूढ़े मां बाप की तवाज्जो बहुत कम लोग दे रहे हैं, सोचा जाए हमेंअपने बच्चों मे संस्कार भरने होंगे यह तभी संभव हेगा जब हम अपने बुजुर्गों की खूब सेवा करेंगे व इज्जत मान करेगें ताकि बच्चों को भी महसूस हो सके कि माता पिता को कैसा रखा जाता है उनके साथ बात करने का क्या सलीका है, 
तभी जा कर आने वाला समाज समझ पायेगा  अपितु वे दिन दूर नहीं  जब वृदाश्रमों की कमी ही दिखेगी और हम उनके बाहर बैठे दिखेंगे, 
आखिरकार यही कहुंगा, 
"कितनी भी तू  कर ़इबादत मां को न तूने पूजा, 
मोक्ष की राह दूर रही नरक दवार तूने खोजा। 
कहने का भाव यह कि मां बाप की पूजा भगवान से भी वढ़ कर मानी गई है इसलिए इन्हें हर हालत में खुश रखें
क्योंकी मां की पुकार वृदाश्रम में यही कहती  है, 
" मेरे हृदय में तू अपनी फोटो आकर तू देख जा, 
बेटा मुझे आपने साथ  अपने घर तू ले जा, 
अकाल के समय तेरा जन्म हुआ था तेरे  दूध के लिए हमने चाय पीना छोड़ा था। 
उम्मीद करता हुं हम सब व अाने वाली पीढ़ी दर पीढ़ी अपने बुजुर्गों को इतनी इज्जत व मान दे ताकि की वृदाश्रमों की जरूरत ही न पड़े । 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर

" मेरी दृष्टि में "  वृद्धाश्रमों से भारतीय सस्कृति को धक्का लग रहा है । इसलिए वृद्धाश्रमों की परम्परा को रोकने की आवश्यकता है ।
- बीजेन्द्र जैमिनी

Comments

Popular posts from this blog

हिन्दी के प्रमुख लघुकथाकार ( ई - लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी

लघुकथा - 2023 ( ई - लघुकथा संकलन )