हिन्दी के प्रमुख लघुकथाकार ( ई - लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
जन्म तिथि : 1अप्रैल 1953.
जन्म स्थान : सिरसा ( हरियाणा )
माता-पिता : श्रीमती विद्या देवी,वैद्य बीरबल दास .
पत्नी श्रीमती रेशमा देवी
दो पुत्र : रजनीश कुमार , रविराज सिंह तथा चार पौत्र- पौत्रियां
शिक्षा : एम. ए. ( हिंदी )
प्रकाशित साहित्य : -
दस लघुकथा-संग्रह प्रकाशित सहित 1000 से अधिक लघुकथाओं का प्रणयन - लेखन : --
1 कटा हुआ सूरज ,
2 बीस दिन ,
3 अदालत चुप थी ,
4 उमंग उड़ान और परिन्दे ,
5 नन्ही ओस के कारनामे ,
6 दिव्यांग जगत की 101 लघुकथाएं ,
7 माँ पर केंद्रित 101 लघुकथाएं ,
8 आसपास की लघुकथाएं ,
9 चित चिंतन और चरित्र ,
10 अम्मा फ़िर नहीं लौटी
सात काव्य-संग्रह : -
1 अब तुम रहने दो
2 मृत्यु की खोज में
3 तुम अवतार नहीं थे
4 नदी को तलाश है
5 युग से युग तक
6 रास्ते इंतजार नहीं करते
7 पीले गुलाबों वाला घर
दो कहानी-संग्रह : -
1 सलवटें
2 अचानक
एक उपन्यास : -
1 साये अपने - अपने( दो संस्करण प्रकाशित 1985 , 2020 ) .
तीन व्यंग्य-संग्रह : -
1 तक् धिना धिन
2 पत्नी की खरी - खरी
3 गलत पते पर
तीन ग़ज़ल-संग्रह :-
1 तपी हुई ज़मीन
2 पत्थर में आंख
3 रोशनी दा सफर ( पंजाबी में )
एक आलेख-संग्रह : -
1 तू भी हो जा रब
एक सूक्ति-संग्रह : -
1 सूक्तियां मेरा अनुभव संसार
पाँच बाल साहित्य की पुस्तकें : -
1 मेरा देश भारत
2 बँटे अगर तो मिट जाओगे
3 खट्टे हैं अंगूर तुम्हारे
4 जीवन से संघर्ष बड़ा है
5 शिक्षाप्रद ,ज्ञानवर्धक ,रोचक बालकथाएँ
एक आलोचना : -
1 मधुकांत का नाट्य संसार
एक गीत संग्रह : -
1 निर्जन तट पर
दो चालीसा पुस्तिका ( बेटी चालीसा व दिव्यांग चालीसा )
बेटी चालीसा पुस्तिका की 13000 प्रतियां प्रकाशित और वितरित तथा " दिव्यांग चालीसा " की 5000 प्रतियाँ प्रकाशित और वितरित तथा
एक "मां महिमा" पुस्तिका की 5000 प्रतियाँ प्रकाशित व निशुल्क वितरित ....
सहित विभिन्न विधाओं में अब तक 36 पुस्तकें प्रकाशित .
मान-सम्मान : ---
1 नई दिल्ली में आयोजित सहस्राब्दी विश्व हिंदी सम्मेलन द्वारा " राष्ट्रीय हिंदी सेवी सहस्राब्दी सम्मान -- 2000 " ,
2 गुजरात हिंदी विद्यापीठ अहमदाबाद द्वारा " " हिंदी गरिमा सम्मान -- 1994 " ,
3 हिंदी साहित्य सम्मेलन , प्रयाग ( इलाहाबाद ) द्वारा " साहित्य महोपाध्याय सम्मान -- 2003 " ,
4 दलित साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा 1992 में प्रशस्ति पत्र ,
5 विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ द्वारा विद्यावाचस्पति एवं विद्यासागर की मानद उपाधि सम्मान सहित देश की विभिन्न 40 से अधिक संस्थाओं द्वारा समय-समय पर सम्मानित .
6 हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा वर्ष सन 1918 के लिए "श्री बाबू बालमुकुंद गुप्त सम्मान " (सम्मान राशि 2 लाख रुपये ) सन 2021 में घोषित.
विशेष उल्लेख :
- विश्व काव्य-संकलन में रचनाएं तथा शताधिक संकलनों में कहानी , लघुकथा , ग़ज़ल , गीत , दोहा , सूक्तियाँ ,व्यंग्य , साक्षात्कार , बालकथा , बाल-लघुकथा , आलेख , आलोचना आदि प्रकाशित .
- गद्य व पद्य के व्यंग्य स्तंभों के नियमित लेखक .
- तमिलनाडु बोर्ड ऑफ स्कूल एजुकेशन के दसवीं कक्षा के हिंदी पाठ्यक्रम में लघुकथा " उपेक्षित " शीर्षक से सम्मिलित .
- राजकुमार निजात के रचना कर्म पर विभिन्न विश्वविद्यालयों द्वारा छह एम.फिल. व छह पी-एच .डी. के शोध कार्य संपन्न व दो अन्य पर शोध कार्य जारी .
- आलेख-संग्रह " तू भी हो जा रब " का डॉ. प्रधुम्न भल्ला द्वारा हिन्दी से अंग्रेजी अनुवाद .
- डॉ दर्शन सिंह द्वारा "मां पर केंद्रीय 101 लघुकथाएं" लघुकथा-संग्रह का हिंदी से पंजाबी में अनुवाद. ( पुस्तक प्रकाशनाधीन )
- माँ पर केंद्रित 101 लघुकथाएँ लघुकथा-संग्रह का हिंदी से मलयालम भाषा में अनुवाद ,पुस्तक प्रकाशनाधीन
- अध्यक्ष : समग्र सेवा संस्थान ,सिरसा ( हरियाणा )
- पूर्व सदस्य हरियाणा साहित्य अकादमी पंचकूला
पता : मकान नं. 5 7 , गली नंबर -1 , हरि विष्णु कॉलोनी , कंगनपुर रोड , सिरसा --125055 हरियाणा
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दिन भर हुई भारी बरसात ने गाँव की गलियांँ और आंँगन सब भर दिए थे । तालाब और जोहड़ भी लबालब हो गए थे । बरसात अब भी जारी थी । गांँव के सरपंच चौधरी मुख्तियार सिंह अपनी दालान में अपनी गाड़ी सरकार द्वारा गांँव के लिए पीने के पानी की सप्लाई से धो रहे थे ।
गांँव के दो पढ़े-लिखे नौजवानों को जब इस बात का पता चला तो वे पानी में भीगते भिगाते आए और सरपंच से बोले , " सरपंच साहब ! आप पीने का पानी बर्बाद कर रहे हैं । गांँव वालों को पहले से ही पीने का पानी नहीं मिल रहा और आप इस पानी से अपनी गाड़ी धो रहे हैं ? आप यदि बरसात में अपनी गाड़ी खड़ी कर देंगे तो यह अपने आप धुल जाएगी । "
इस पर सरपंच ने ठोक कर कहा , " पानी सब के लिए है नौजवानो ...आपके लिए भी है । गाड़ी बाहर बरसात में खड़ी कर दी तो खराब हो जाएगी । "
सरपंच का यह गैर जिम्मेदाराना उत्तर सुनकर उन नौजवानों ने उसी समय उस दृश्य की वीडियो सोशल मीडिया पर लाइव डाल दी ।
सरपंच साहब यह देखकर घबरा गए । अब वे मिन्नतों के साथ हाथ जोड़कर माफी मांँग रहे थे । ****
2. पहला पाठ
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सास ने आज फिर सब्जी में नमक ज्यादा होने की बात कही तो बहू श्वेता बोली , "आपका बेटा नमक कुछ ज्यादा खाता है ,आप कम खाती हैं तो मेरे पास भला इसका क्या इलाज है ? कल से मैं नमक बिल्कुल नहीं डालूंँगी जिसने जितना लेना हो डाल लेना । "
दरअसल गत दिनों श्वेता की ननद की शादी के बाद उसका व्यवहार कुछ बदल गया है । अपनी सास से उसके रिश्ते पहले जैसे मधुर नहीं रह गए हैं । "
नीरज की माँ बोली , "शाम को सब्जी मैं बनाऊंँगी । देखना तुम सब उंँगली चाटते ही रह जाओगे ।" बहू को सास की यह बात अच्छी नहीं लगी लेकिन वह चुप रही ।
नीरज ने इसे बहू का अपमान समझा । शाम को वह होटल से सब्जी ले आया लेकिन मांँ ने जो सब्जी बनाई उसे सभी ने जी भर कर खाया और पसंद किया । श्वेता भी इस पर कोई सवाल नहीं कर सकी । अब नीरज अपनी गलती पर शर्मिंदा था ।
श्वेता बोली , " मांँ जी ! आप ऐसी स्वादिष्ट सब्जी बनाना मुझे भी सिखा दो फिर घर में किसी को कोई शिकायत नहीं रहेगी । "
पिछले तीन महीनों से आज श्वेता ने नए घर में रहने का पहला पाठ सीख लिया था । ****
3.उनका आदर्शवाद
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उस शांति सभा में नगर के अनेक वरिष्ठ लोग इकट्ठे हुए थे । वरिष्ठ साहित्यकार प्रमोद कश्यप जी जो अपनी आदर्शवादिता और विनम्रता से जाने जाते थे वह भी उस शांति सभा में उपस्थित थे । नवोदित लेखक विनोद ने उन्हें नमस्कार किया तो उन्होंने बड़ी सह्रदयता से नमस्कार स्वीकार करके उसका उत्तर दिया । पूछा , " विनोद जी आप कैसे हैं ? "
एक वरिष्ठ और प्रतिष्ठित लेखक ने बड़ी विनम्रता से उसका हालचाल पूछा तो वह गदगद था ।
शांति सभा समाप्त हुई और वे चाय पान ग्रहण करके जाने लगे तो विनोद ने उनका हाथ पकड़ लिया और बोला , " सर ! आइए मैं आपको बाहर तक छोड़ आता हूँ । "
तभी उन्होंने देखा कि उनका वृद्ध ड्राइवर कुछ दूरी पर अकेला खड़ा था । उन्होंने आवाज देकर उसे बुलाया और उस पर बुरी तरह गुस्सा होते हुए बोले , " अरे नालायक तू कहांँ था ? तुझे मेरे आस-पास ही रहना चाहिए था । मैं तुझे कब से ढूंँढ रहा हूंँ ? क्या मैं तुम्हें इसलिए यहाँ लाया हूंँ कि तू मुझे नजर ही न आए ? " कहते हुए उन्होंने उसे बुरी तरह प्रताड़ित करना शुरू कर दिया ।
बूढ़ा ड्राइवर शर्मिंदा हुआ और वह उनका हाथ थाम कर उन्हें कार तक ले जाने के लिए चल पड़ा । ****
4. कट्टरता
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" सुनो ! क्या यह है तुम्हारा बेटा है ? "
" हांँ यह मेरा बेटा है । "
" क्या यह सचमुच ही तुम्हारा बेटा है ? "
" हांँ ! मैंने कहा न कि यह मेरा ही बेटा है । "
" लेकिन शक्ल सूरत और चेहरे से तो यह तुम्हारा बेटा नहीं लग रहा ? तुम गहरे और पक्के रंग के हो और यह लड़का गोरे लाल रंग का ? "
" यह एक ब्राह्मण की संतान है और मैं एक दलित हूंँ । लेकिन यह मेरा ही बेटा है क्योंकि मैंने इसे अनाथालय से गोद लिया है । "
" तुम एक दलित के बेटे को ही गोद लेते तो उसकी अच्छी परवरिश कर पाते । " उस ब्राह्मण ने चलते चलते एक सवाल और कर डाला ।
" ब्राह्मण के बेटे की परवरिश मैं क्यों नहीं कर पाता ?"
"तुमने अपने अधिकार का गलत प्रयोग किया है ?"
" सुनिए ! मेरी दो संतानें हैं । फिर भी मैंने इसे गोद लिया क्योंकि यह अनाथ आश्रम में रहता था । माता - पिता आतंकवादी घटना में मारे गए । यह अकेला था तो इसे अनाथ आश्रम में छोड़ दिया गया । मुझे जब इसके बारे में पता लगा तो मैंने इस होनहार और प्यारे बालक को गोद ले लिया । "
बेटा उस ब्राह्मण की सारी बातें गौर से सुन रहा था । वह बोला , " मैं इनका ही बेटा हूंँ और यह मेरे पिता हैं । यदि तुम लोगों को मेरी फिक्र होती तो तुम अवश्य ही मुझे गोद लेने के लिए आगे आते ? पिताजी चलिए यहांँ से । मुझे जात पात का ऐसा निम्न जीवन जीने वालों से नफरत हो गई है । " ****
5.संघर्ष
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वह अपने एक बेटे और एक बेटी जिसकी लगभग उम्र पाँच और छ: वर्ष के बीच रही होगी, के साथ सुबह-सुबह पार्क में घूमने के लिए आया था । पार्क में लोग जोगिंग कर रहे थे ,दौड़ रहे थे ,योग कर रहे थे , खेल रहे थे । सभी अपने-अपने ढंग से सुबह का आनंद ले रहे थे । लेकिन वे तीनों धीरे धीरे चलते हुए पार्क की परिक्रमा कर रहे थे ।
उसके पाँच वर्षीय बेटे ने पिता से कहा , " पिताजी आप भी दौड़ लगाइए , लोग दौड़ रहे हैं । "
पिता ने कहा , " नहीं ! दौड़ोगे तो गिर जाओगे ।"
बच्चों ने पूछा , "आप नहीं दौड़ते तो हम दौड़ें ? "
पिता ने बच्चों को दौड़ने से मना कर दिया लेकिन बच्चे थे कि मान नहीं रहे थे । उन्होंने पिता की बात की अनदेखी करते हुए दौड़ना शुरू कर दिया और उस पार्क के दो चक्कर लगा डाले । तभी उन्होंने देखा कि उनके पिता चोटिल होकर बैठे हैं ।
बच्चों ने पूछा , " क्या हुआ पिताजी ? "
वह बोला , " ठोकर खाकर गिर गया था । "
" लेकिन हम तो नहीं गिरे पिताजी ! "
उनके पीछे पीछे एक बुजुर्ग सज्जन आ रहे थे । वे यह सारी बात देख रहे थे । उन्होंने उस व्यक्ति पर कटाक्ष करते हुए कहा , " जो मंजिल पर चलना या दौड़ना ही नहीं चाहता उसे क्या पता कि मंजिल क्या है , कैसी है ,संघर्ष क्या है ? जो दौड़ता है वही आगे निकलता है । " ****
6.गर्व और घमंड
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एक बहुत सुंदर लड़की उस सड़क पर चली जा रही थी । उसके सौंदर्य का गुमान उसके चेहरे से साफ झलक रहा था । अपनी मस्ती में चलते हुए वह स्वयं को धरती की सबसे सुंदर लड़की समझ रही थी ।
तभी दो जवान और खूबसूरत लड़के उसके सामने से गुजरे । वे अपनी बातों में इतने मग्न थे कि उन्होंने लड़की की तरफ आँख उठाकर भी नहीं देखा । लड़की को अपने सौंदर्य के घमंड पर चोट लगी । तभी एक बेरोजगार युवक वहांँ से गुजरा । वह चिंता ग्रस्त था । उसने भी उस खूबसूरत कन्या की ओर नहीं देखा । अब तो उसका घमण्ड और चोटिल हो गया ।
तभी वह लड़की ठोकर खाकर गिर पड़ी । उसका सुंदर चेहरा छिल गया और उसके आगे के दो दांँत टूट गए । उसके घुटनों पर भी चोट आई थी । वह ठीक से खड़ी नहीं हो पा रही थी ।
उसके पीछे पीछे चल रहे एक सज्जन ने सहानुभूति के साथ उसे संभाला और उसे अपने पांँवों पर खड़ा होने में मदद की ।
लड़की अब लंगड़ा कर चल रही थी । आ-जा रहे लोग उसकी ओर देखते और एक सहानुभूति छोड़ते हुए आगे निकल जाते ।
वहीं उस सड़क के फुटपाथ पर बस की प्रतीक्षा में एक साधु खड़े थे । वे उस सारी स्थिति को भाँपते हुए उस सज्जन से धीरे से बोले , " गर्व करो लेकिन घमण्ड मत करो । हर अच्छे और बुरे समय में आत्मविश्वास जागृत रखो । गर्व उतना ही करो जो तुम्हें विचलित न होने दे ? "
शायद उस सुंदर लड़की ने भी साधु बाबा की बातें सुन ली थी । ****
7. निर्माण
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परिंदा उस जंगल से पत्तों के हरे तिनके चुन-चुन कर इकट्ठा करता और अपने पंखों में अटका लेता । वह एक तिनका तोड़ता और उसे चोंच में दबाकर गर्दन घुमाते हुए अपने पंखों में गूँथ लेता ।
जब बहुत सारे तिनके इकट्ठे हो गए तो वह उन्हें लेकर उड़ चला । उड़ते हुए वह अपने उस निर्माणाधीन घोंसले के पास आया और एक डाल पर बैठ गया । आज वह बहुत खुश था । आज उसके घोंसले का निर्माण पूरा होने वाला था ।
तभी बादलों ने उमड़ते-घुमड़ते हुए तेज बारिश की सूचना दे डाली । लेकिन वह तो अपने निर्माण में व्यस्त था । बादलों ने उसे देखा कि बारिश के आसार होने पर भी वह परिंदा निश्चिंत होकर अपना घोंसला बनाने में व्यस्त है ।
बादलों की घोर उपेक्षा होने पर वे तिलमिला उठे और झमाझम बरसने लगे । बारिश में वह और उसका घोंसला पूरी तरह भीग गए थे । आखिरकार बारिश थमी ।
परिंदे ने फिर उड़ान भरी और जंगल में फिर से तिनके इकट्ठा करने में लीन हो गया । उसके पास पूरा आसमान था और उसका हौसला भी आसमान जितना बड़ा था । ****
8. जन्म
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भरे बाजार में वह वृद्ध एक भारी-भरकम थैला अपने कंधे पर उठाए और हाथ में छड़ी लिए ,धूप में बड़ी मुश्किल से अपने घर जा रहा था ।
" लाइए दादाजी ! मुझे दे दीजिए मैं उधर ही जा रहा हूंँ । " कहकर उस चोर ने उस वृद्ध का थैला अपने कंधे पर उठा लिया ।
" तुम्हारा भला हो बेटा ! " वृद्ध ने थैला भरपूर स्नेह है व आशीष के साथ उस युवक को दे दिया ।
कुछ दिन पहले इसी तरह उस चोर की मांँ से कोई थैला छीन कर भाग गया था ।
चोर के मन में आज पहली बार सहयोग व संस्कार के भाव जन्म ले रहे थे । ****
9. बलात्कार
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उसने सड़क पर जा रही एक स्त्री को कुछ मौन इशारे किए । स्त्री हल्का सा मुस्का दी और चल दी ।
आगे बढ़कर उसने फिर उस स्त्री को मौन इशारे किए । स्त्री फिर वैसे ही मुस्काई और चल दी ।
तीसरी बार उसने फिर वैसा ही किया । अब सवाल स्त्री की मर्यादा का था । इस बार वह मुस्काई नहीं, वह रुकी और उसे एक जोरदार थप्पड़ जड़ दिया ।
स्त्री का बलात्कार होते-होते रह गया था ।
वह तो उस पुरुष की गुस्ताखियों पर हंँसी थी । ****
10. पराजय
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कुत्ते की नज़र अपने अंडे सेंक रही एक बत्तख पर पड़ी तो उसकी पूंँछ ऊंँची हो गई और वह पूरी तरह से शिकार करने की पोजीशन में आ गया ।
वह धीरे-धीरे आगे बढ़ा ।
बत्तख भी उसे देखकर चौकन्नी हो गई ।
कुत्ता जैसे ही उसके नजदीक आया , बत्तख ने अपने तेंवर सख्त कर लिए और पूरी शक्ति लगाकर उस पर झपट पड़ी ।
कुत्ता उसकी गर्दन पकड़ लेना चाहता था लेकिन वह उछल-उछल कर , झपट-झपट कर अपनी चोंच व पंखों से उस पर प्रहार कर रही थी ।
यह एक भयंकर युद्ध था जिसमें एक की हार निश्चित थी । कुत्ते का चेहरा लहूलुहान हो गया था लेकिन वह शायद अंतिम तौर पर जूझ रहा था ।
बत्तख ने अपनी चोंच को अपना भाला बना लिया था और वह टूट-टूट कर उस पर वार कर रही थी ।
अंततः कुत्ता डरते हुए उल्टे पांँव भाग खड़ा हुआ ।
बत्तख ने उसका कुछ दूर तक पीछा किया मगर वह अपनी जान बचाकर भाग गया ।
मौका पाकर जंगल से अपने वाहन के साथ गुजर रहे किसी राहगीर ने उस युद्ध का वीडियो बना लिया था । वह उस महायुद्ध से रोमांचित होने की बजाय यह वीडियो बन जाने पर खुश था ।
वहांँ से दो युवक गुजर रहे थे ।
एक ने कहा , " वंडरफुल ! आखिर एक दीये ने तूफान को हरा दिया । " ****
11. लक्ष्य के साथ
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" बेटी नीलिमा ! आ जाओ ! नाशता लगा दिया है , ठंडा हो जाएगा , खा लो आकर । "
नीलिमा ने आवाज़ सुनी तो झटपट अपनी किताबें कापियाँ संभालने लगी ताकि समय पर कालेज पहुंँच जाए । पिछले एक साल से नीलिमा की चाची उसे मांँ से भी ज्यादा प्यार करती है । बहुत ही प्यार से खाना बनाती है् और उतने ही प्यार से परोसती भी है । अब तो नीलिमा की सच्ची मांँ यही है ।
नीलिमा तैयार होकर दौड़ी-दौड़ी आई और बरामदे में आकर बैठ गई । हमेशा की तरह नाश्ता बहुत लजीज़ बना था । बोली , " माँ जी ! आप भी तो खाइए । नाश्ते का असली समय यही सुबह आठ बजे का ही होता है , उसके बाद तो दिन चढ़ने लगता है । " कहते हुए नीलिमा ने चाची मांँ को खुद खाना परोसा और दोनों मिलकर खाने लगीं ।
"नाश्ते का टिफिन बांँध कर रख दिया है । भूल मत जाना , ले जाना । कॉलेज में न जाने कितना समय लग जाए ? अब तो तुम्हारे प्रैक्टिकल भी शुरू हो गए हैं , भूख तो समय पर लगती है ना ? दो चपाती ज्यादा डाल दी हैं । अपने किसी फ्रेंड के साथ बैठकर दोनों साथ-साथ खा लेना । "
चाची मांँ जानती थी कि नया युग है और लड़कियांँ अपने बॉयफ्रेंड भी बनाने लगी हैं । वह यूंँ तो इस प्रथा के खिलाफ थी लेकिन नई परंपराओं का विरोध भी नहीं करना चाहती थी । एल एल एम करने के बाद चाची मांँ उसे एक बड़ा वकील बनते हुए देखना चाहती थी । चाचा जी के मर्डर की गुत्थी अभी तक सुलझी नहीं थी ।
नीलिमा के भीतर भी यही आग पल रही थी । चाची माँ तरह अपने जीवन का लक्ष्य साधकर वह सही दिशा की ओर बढ़ रही थी । दोनों की आंँखें नम हो आई थीं । ****
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क्रमांक -002
मूल नाम- मुकेश कुमार वर्मा
जन्म तिथि- 5 जनवरी, 1960.
जन्म स्थान- पटना
शिक्षा- अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर
सम्प्रति- वाणिज्यकर विभाग, बिहार में राज्यकर संयुक्त आयुक्त पद से सेवानिवृत्त
लेखन :-
मूलत: बाल साहित्य व लघुकथा लेखक
प्रकाशित पुस्तकें : -
लघुकथा संग्रह-
1) भेड़िया जिन्दा है (प्रकाशक-शिल्पायन, शाहदरा, दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2008)
2) मां की याद (प्रकाशक-शिल्पायन, शाहदरा, दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2016)
3) उतरन (प्रकाशक-नमन प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2014)
4) मैं अभी बेटी हूँ (प्रकाशक- लाॅर्ड्स पब्लिशिंग हाउस, रांची। प्रकाशन वर्ष- 2008)
बाल कहानी संग्रह-
1) अधूरे ज्ञान का दंड (प्रकाशक-आलेख प्रकाशन, नवीन शाहदरा, दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2008)
2) वात्सल्य का प्रतिदान (प्रकाशक-आलेख प्रकाशन, नवीन शाहदरा, दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2018)
3) चींटी की धरोहर (प्रकाशक-पीताम्बर पब्लिशिंग क0 प्रा0 लि0, करौल बाग, नई दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2010)
4) चाँद की भूल-भुलैया (प्रकाशक-पीताम्बर पब्लिशिंग क0 प्रा0 लि0, करौल बाग, नई दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2012)
5) मोम की परियाँ (प्रकाशक-पीताम्बर पब्लिशिंग क0 प्रा0 लि0, करौल बाग, नई दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2014)
6) मन का दरवाजा (प्रकाशक-पीताम्बर पब्लिशिंग क0 प्रा0 लि0, करौल बाग, नई दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2014)
7) बेमिसाल मित्र (प्रकाशक-ज्ञान प्रकाशन, कुर्जी, पटना, प्रकाशन वर्ष- 2008)
सम्मान : -
- लघुकथा संग्रह ‘भेड़िया जिन्दा है’ को अखिल भारतीय लघुकथा प्रगतिशील मंच, पटना द्वारा श्री परमेश्वर गोयल लघुकथा शिखर सम्मान, 2009
वर्तमान पता-
फ्लैट संख्या-301, साई हाॅरमनी अपार्टमेन्ट
अल्पना मार्केट के पास, न्यू पाटलीपुत्र काॅलोनी,
पटना-800013 ( बिहार )
स्थायी पता-
द्वारा- श्री महेश्वर नाथ वर्मा ‘गुरु कृपा’
रोड न. 2, विकास नगर, (कोठियां)
कुर्जी, पोस्ट- सदाकत आश्रम, पटना-800010 (बिहार)
1. पास की दूरियाँ
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माँ कई दिनों से ज्वर से पीड़ित थी। हर समय सर और बदन भी दुखते रहते। मगर जिस अंग को सबसे ज्यादा पीड़ा हो रही थी, वह था मां का हृदय। दूर जा बसे एकलौते पुत्र को घर आने का कई बार संदेशा भेजा गया। मगर वह हाईटेक दुनिया के सुलझे-अनसुलझे कामों के जंगल में ऐसा भटका था कि मां की सुधि लेने की उसे फुर्सत ही नहीं हो रही थी।
मां की दशा बिगड़ती चली गई। लाठी के सहारे खड़े पिता अकेले पत्नी को कितना संभालते। एक दिन वे हिम्मत हार बैठे। उन्होंने बेटे को कह दिया, ‘‘बेटा, अब मुझसे नहीं होता। दया करके अब तो आ जाओ।’’
इस आर्त विनीत संदेश का असर हुआ। बेटा दूसरे ही दिन फ्लाईट से आ पहुंचा। बेटे का चेहरा देख मां के हृदय की पीड़ा कम हुई। बेटा मां के पास थोड़ी ही देर बैठकर ऊपर अपने कमरे में चला गया। शाम हुई, फिर रात हुई। मगर बेटा ऊपर कमरे में ही रहा। पिता ने समझाया, ‘‘बेटा थका-हारा है। आज उसे पूरा आराम कर लेने दो। वह सुबह आकर जरूर तुम्हारा पूरा खयाल रखेगा।’’
मां ने इस विश्वास के साथ रात गुजारी। सुबह के आठ बज गए। बेटा नीचे नहीं आया। पिता ऊपर देखने गए तो उसे अभी भी सोया हुआ पाया। नौ बजते-बजते पिता फिर लाठी टेकते ऊपर गए। इस बार गुसलखाने से आवाज आई। वे समझ गए, बेटा तैयार हो रहा है। अब नीचे आएगा ही। मगर दस बज गए। बेटा ऊपर ही रहा।
तभी काॅल बेल बजी। दरवाजे पर जोमैटो ब्वाय नाश्ता लिए हाजिर था। वह ऊपर कमरे में बेटे को नाश्ता पहुंचाकर चला गया। पिता ने थोड़ा और धैर्य रखा। उन्होंने सोचा, ‘चलो अच्छा है। उसने खुद अपना नाश्ता मंगवा लिया।’
मगर देखत-देखते ग्यारह बज गए। अब टूट गई पिता की हिम्मत। वे पत्नी के पास आकर निढाल हो गए। तभी पत्नी का मोबाइल बजा। पत्नी ने देखा मोबाइल पर किसी का व्हाट्सएप मेसेज आया हुआ है। यह मेसेज उसके बेटे का ही था। मां ने मेसेज पढ़ा। लिखा था, ‘मां, तुम कैसी हो ? बुखार उतरा कि नहीं ? दर्द कम हुआ या नहीं ? दवा लेती रहना। पौष्टिक आहार भी ले लेना। मां, साॅरी। मैं अभी आफिस के काम में बिजी हो गया हूं। उसे आनलाइन निपटा रहा हूं। अभी नीचे आ नहीं पाऊंगा। देखता हूं, कबतक आ पाता हूँ। तुम अपना खयाल रखना।’’
मां को लगा, बेटा अभी भी दूसरे शहर में बैठा है। पिता भी समझ गए कि उन्होंने पुत्र को बुलाकर भूल ही कर दी है। ****
2. सम्मान
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मैं अपने मित्र के साथ भोजन कर रहा था। मैंने सभी चीजें बड़े चाव से खा ली। मेरी थाली साफ-सुथरी हो गई। लेकिन मेरे मित्र ने बहुत सारा खाना छोड़ दिया। उसने अपनी पत्नी को पास बुलाया और गर्व भाव से थाली सरकाते हुए कहा, ‘‘प्रिये, मेरा बचा खाना खा लो।’’
उसकी पत्नी बड़े प्रेम से थाली उठाकर चली गई। मैं बड़े हैरत में था। मैंने पूछा, ‘‘तुमने ऐसा क्यों किया ?’’
उसने जवाब दिया, ‘‘हम अन्न का बहुत सम्मान करते हैं। उसे बर्बाद नहीं कर सकते।’’
मैंने तुरंत कहा, ‘‘लेकिन मैं बचे हुए खाने कभी पत्नी को नहीं देता। हिसाब से ही लेता हूं या फिर बचे भोजन को खुद ही खाने का भरसक प्रयास करता हूं।’’
उसने पूछा, ‘‘तो क्या तुम अन्न का सम्मान नहीं करते ?’’
मैंने बेलाग कहा, ‘‘मैं बेशक अन्न का सम्मान करता हूँ । लेकिन मैं पत्नी का भी सम्मान करता हूं। जूठा खिलाकर उसका अपमान नहीं करता।’’ ****
3. स्वार्थ की तेरहवीं
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अपने शहीद पापा की तेरहवीं पर रात के वक्त बेटा छत पर उदास बैठा था। गांव के सभी शुभचिंतक लोग शहीद की आत्मा की शांति के लिए प्राथना करने के बाद अपने-अपने घर जा चुके थे। बच्चे की दादी छत पर आई और बच्चे को उदास बैठा हुआ देखा तो उसे बुलाकर नीचे ड्राइंग रूम में ले आई। चारो तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था। तभी दादी ने टीवी आन कर दिया और एक न्यूज चैनल लगा दिया। उस चैनल पर आतंकवादी घटना को लेकर अभी भी गरमा-गरम बहस चल रही थी। बेटे ने दुखी होकर चैनल बदल दिया। दूसरे चैनल पर भी आतंकवाद से जुड़ी समस्या पर गहन चिन्तन-मनन हो रहा था। बेटे ने फिर चैनल बदला। वहां भी आतंकवाद का ही मसला फेंटा जा रहा था। पृष्ठभूमि में ‘‘बदला लेंगे, बदला लेंगे....’’ का शोर सुनाई दे रहा था।
बेटे ने गुस्से में आकर टीवी बंद कर दिया। उसने दादी से कहा, ‘‘दादी, हमने पापा की आत्मा की शांति के लिए तेरहवीं मना ली और अब हम नए जीवन की शुरुआत में भी लग गए हैं। मगर ये लोग अभी भी इतना बावेला क्यों खड़ा कर रहे हैं ?’’
दादी ने समझाते हुए कहा, ‘‘बेटा, दरअसल जिनका निजी नुकसान नहीं होता, उनकी तेरहवीं कुछ ज्यादा ही लंबी चलती है।’’ ****
4. तीर्थ यात्रा
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माँ वैष्णव देवी के मंदिर जाने का मेरा और पत्नी का कार्यक्रम फाइनल हो गया था। हम उत्साह में थे और ऐसे पवित्र जगह जाने के नाम पर हमारे मन में भक्ति भाव जागृत होने लगा था। हम जम्मू जाने के लिए एयरपोर्ट निकल चुके थे। तभी पिता जी का फोन आया। वे बड़े विचलित से थे। उनकी आवाज थरथरा रही थी। कह रहे थे, ‘‘बेटा, तेरी माँ की तबीयत अचानक बिगड़ गई। दमे के दौरे बढ़ गए हैं। समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूँ ?’’
मैंने पिताजी को ढ़ाढ़स बंधाया और कहा, ‘‘पापा, धीरज धरिए। माँ को दमे की दवा नियमित दीजिए। दौरे कम हो जाएंगे।’’
पिता जी ने बड़ी आशा से पूछा, ‘‘बेटा, आओगे नहीं ?’’
मैंने कहा, ‘‘पापा, साॅरी। हमलोग वैष्णव देवी जा रहे हैं। घर आ नहीं पाएंगे। हम वहाँ जाकर देवी माँ से आशीर्वाद लेंगे। माँ जरूर अच्छी हो जाएंगी। आप ज्यादा चिन्ता न करें......’’ और इतना कहते ही फोन कट गया।
हमारा प्लेन जम्मू के लिए उड़ चला था। मगर मैं एक अपराध बोध से ग्रसित होने लगा था। पत्नी ने समझाया, ‘‘हम एक पुण्य कार्य पर ही जा रहे हैं। ज्यादा मत सोचो, सब अच्छा होगा।’’
अगले दिन हमने माँ के दर्शन किए। हमने देवी माँ से अपनी माँ के लिए दुआएं कीं। देवी माँ का आशीर्वाद लेकर हम आश्वस्त हुए और मंदिर से बाहर निकले। हाथ में फूल और प्रसाद लिए मंदिर की सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी पिता जी का फिर फोन आया। वे काफी नर्वस थे। ठीक से बोल नहीं पा रहे थे। उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, तुम्हारी माँ ठीक से सांस नहीं ले पा रही हैं। लगता है, अब बच नहीं पाएंगी। मैं अकेला क्या करूँ ?’’
मैंने पिताजी को समझाया, ‘‘पापा, मैंने देवी माँ का आशीर्वाद ले लिया है। माँ के साथ ऐसा पहले भी हुआ है। देवी माँ के प्रताप से वे जरूर ठीक हो जाएंगी। आप निश्चिंत रहें......’’
बात पूरी नहीं हुई और एक बार फिर फोन कट गया। हम जम्मू वापस आकर दिल्ली के लिए ट्रेन में बैठ चुके थे। ट्रेन समय पर चल पड़ी। तभी पिता जी का एसएमएस आया, ‘बेटा, सब खत्म-सा हो गया लगता है। तुम्हारी माँ शायद कल की सुबह नहीं देख पाएंगी।’
मैं बहुत विचलित हुआ। क्या माँ के दरबार में हमारी प्रार्थना नहीं सुनी गई ? क्या हमारी यात्रा सफल नहीं हुई ? मैं उदास होकर सोचता रहा और सोने चला गया। काफी देर तक करवटें बदलने के बाद बड़ी मुश्किल से नींद आई। सुबह चार बजते ही पिता जी का फोन आया। इस समय फोन आया देख मैं पूरा आशंकित हो गया। काँपते हाथ से मैंने फोन कान से लगाया। पिता जी की आवाज आई।
उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, घबराना मत। आधी रात को तेरा छोटा भाई अपने शहर से एंबुलेंस लेकर आ गया। हम एक घंटे में ही शहर के बड़े अस्पताल पहुँच गए। उसने डाक्टरों से पहले ही बात कर ली थी। आनन-फानन में माँ को आईसीयू में ले जाया गया। वहाँ तुरन्त आक्सीजन चढ़ने लगा। तेरी मरणासन्न माँ की सांसें लौट आईं। अब वे ठीक हैं। सुबह होते ही वार्ड में आ जाएगी।’’
मैंने पिताजी से पूछा, ‘‘पापा, छोटे ने तो कल ही शिरडी जाने के लिए एयर टिकट ले रखा था। क्या वह शिरडी नहीं गया ? क्या टिकट के पैसे डूब गए ?’’
पिताजी ने कहा, ‘‘बेटा, उसने टिकट के पैसों से ज्यादा अपनी माँ की परवाह की। समझो, उसी ने अपनी माँ के प्राण बचा लिए। तुम अब चिन्ता मत करो। निश्चिन्त होकर अपनी तीर्थ-यात्रा पूरी करो।’’
इतना कह, पिताजी ने फोन काट दिया। मैं ग्लानि और क्षोभ से दबने लगा। सुबह दिल्ली पहुंचकर घर लौटते वक्त मैं रास्ते भर यही सोचता रहा कि तीर्थ-यात्रा हमने पूरी की थी कि मेरे छोटे भाई ने ? ****
5. अंधकार का उजाला
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सुबह का समय था। मुझे नहाने की बड़ी जल्दी थी। मुझे चाचा जी को लेने के लिए स्टेशन जाना था। मैं बाथरूम की तरफ बढ़ा। मगर मैंने बाथरूम का दरवाज अंदर से बंद पाया। मैं झल्ला उठा। मैंने पत्नी से पूछा, ‘‘बाथरूम में कौन गया है ?’’
पत्नी ने कहा, ‘‘कामवाली नहाने गई है।’’
मैं चैंक पड़ा, ‘‘कामवाली ? उसे नहाने की इजाजत किसने दी ?‘‘
पत्नी ने कहा, ‘‘मैंने। घर से आते वक्त किसी ने उसके देह पर गंदा पानी गिरा दिया था। इसलिए मैंने उसे नहाने भेज दिया है।’’
मैं पत्नी पर नाराज होने लगा। मैंने कहा, ‘‘बाथरूम वैसे ही गंदा रहता है। वह और गंदा कर देगी।’’
मैं गुस्से में भरकर सोफे पर आकर बैठ गया और कामवाली के बाहर आने का इंतजार करने लगा। तभी कामवाली बाहर निकली। मैं यह सोचकर बाथरूम में घुसा कि अब तो और ज्यादा गंदे बाथरूम में नहाना पड़ेगा। लेकिन मैंने अंदर जाकर जो देखा तो आश्चर्य में डूब गया। बाथरूम बिल्कुल साफ हो गया था। कहीं कोई गंदगी नहीं थी। मैं पहली बार इतने साफ बाथरूम में नहाया। नहाकर मन प्रसन्न हो गया। मैं बाहर निकला और सबसे पहले मैंने कामवाली को ‘धन्यवाद’ कहा। मुझे बेहद ग्लानि हो रही थी कि जिसे हम गलत समझते हैं, वही लोग बेहद बेहतर काम कर जाते हैं। ****
6. दानकर्ता की भूल
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आफिस के चपरासी का माबाईल पुराना पड़कर खराब हो चुका था। उसे घरवालों से बात करने में रुकावटों का सामना करना पड़ता था। एक दिन वह मेरे चैंबर में आया और उसने एक नया मोबाईल आनलाइन मंगा देने की गुजारिश की। उसने कहा, ‘‘सर, पैसा आप लगा दीजिए। मैं धीरे-धीरे कर चुका दूंगा।’’
मैंने उसका निवेदन तत्क्षण स्वीकार कर लिया। मोबाईल आनलाइन बुक हो गया। तीसरे ही दिन कुरियरवाला मोबाईल की डिलीवरी कर गया। मोबाईल पाकर चपरासी प्रसन्नचित्त हुआ और मेरे प्रति कृतज्ञ भी। उसने फिर दुहराया, ‘‘सर, तनख्वाह मिलते ही आपके पैसे लौटा दूंगा।’’ मैं चुप रहा।
नया माह आया। पहली तारीख को वेतन बंट गया। मगर मुझे पैसे वापस नहीं मिले। एक दिन वह मेरे पास आया तो शरमा रहा था। कहा, ‘‘सर, पैसे खर्च हो गए। अगले माह जरूर चुका दूंगा।’’ मैं फिर चुप रहा।
अब वह जब भी मेरे सामने आता तो लजाया रहता और अपराध बोध से ग्रसित दिखता। वह नजरें झुकाकर फाइल रखता और ले जाता। मैं कभी उसकी ओर चेहरा उठा लेता तो उसका चेहरा लाल हो जाता। देखते-देखते दो माह और बीत गए। उसकी दशा वैसी ही बनी रहती। वह धीरे से कहता, ‘‘सर, कुछ समय और दीजिए।’’
एक दिन वह अपराधी की तरह खड़ा था और मेरे कप में चाय डाल रहा था। उसे हाथ कांप रहे थे। चाय की कुछ बूंदें बाहर छिटक गयीं। उसकी यह दशा देख आज मुझे दया आ गई। मैंने तुरन्त निर्णय लिया और कहा, ‘‘दयाराम, वह मोबाईल मेरी ओर से उपहार समझो। तुम्हें पैसे चुकाने की जरूरत नहीं है।’’
वह आश्चर्य और खुशी से लबरेज हो गया। उसका अपराध-बोध विलीन हो गया। यह देख मुझे भी राहत हुई। मगर अगले ही क्षण वह थोड़ा गंभीर हो गया। मैंने पूछा, ‘‘कुछ गड़बड़ हुआ क्या ?’’
उसने कहा, ‘‘सर, यह बात आप पहले भी कह सकते थे। मैं आजतक अपराध के बोझ से दबा आ रहा था। पिछले तीन माह किस तरह बीते हैं, यह मैं ही जानता हूं। आप ये बात पहले कह देते तो मैं पहले ही निश्ंिचत हो जाता ? आपने तो तीन माह के लिए मुझे जिन्दा ही मार दिया था।’’
ये बातें कहकर वह चैंबर से बाहर चला गया। तब स्थिति यह हुई कि वह तो अपराध मुक्त हो गया, लेकिन मैं अपराध बोध से ग्रसित हो गया था। ****
7. ज्ञान तो ज्ञान है
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हमारे कार्यालय में एक बड़े अधिकारी थे। वे ज्ञान का सागर थे। वे कई विषयों में पारंगत थे। लंच टाइम में लंच खाने के बाद उन्हें जैसे ही फुर्सत मिलती तो वे किसी-न-किसी को अपने चैंबर में बिठाकर अपना ज्ञान बांटने लगते। कभी-कभी मैं भी उनके चैम्बर में चला जाता। लेकिन मैंने जल्दी ही यह महसूस किया कि ज्ञान बांटने के बहाने दरअसल वे अपने आप को महिमामंडित करते थे। साथ ही, वे सामने वाले व्यक्ति को बड़ी ही हेय दृष्टि से देखते थे, मानो सामने बैठा व्यक्ति बेहद अज्ञानी और मूढ़ हो। यह सच्चाई खुलते ही मेरे आत्म-सम्मान को ठेस लगी और मैंने उनके चैंबर में जाना छोड़ दिया।
एक दिन किसी अन्य व्यक्ति के साथ एक विषय पर बहस के क्रम में बड़े अधिकारी द्वारा दिया गया ज्ञान बड़ा काम आ गया। उस दिन मैं सोच में डूब गया कि अब आगे क्या करूं। एक तरफ ज्ञान है तो दूसरी तरफ आत्म-अभिमान। दोनों के बीच कशमकश चलती रही। आखिर यह समझ में आया कि भाई, ज्ञान तो ज्ञान है। जहां अवसर मिले, वहां इसे सहर्ष ग्रहण कर लेना चाहिए। इस निरे अभिमान को ज्ञान के प्रवाह के बीच में आड़े नहीं आने देना चाहिए। मैंने उस दिन अपने अभिमान की दीवार ढहा दी। मैं उनके चैंबर में बराबर जाने लगा और ज्ञान की गंगा में गोते लगाने लगा। मैंने फिर इस बात की कतई परवाह नहीं की कि ज्ञान बांटनेवाले की भावना क्या है। ****
8. मोह की बाधा
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एक राजा था। एक बार उसके मन में यह विचार आया कि क्या वह प्रजा का सच्चा हितैषी है। यह परखने के लिए उसने एक योजना बनाई। उसने राज पुरोहित को बुलाया। राजा ने राज पुरोहित से कहा, ‘‘आप एक ऐसे व्यक्ति को लाएं जिसे तैरना नहीं आता हो। उसे राज सरोवर में डुबोया जाएगा। तैरना मुझे भी ठीक से नहीं आता है। यदि मैं उसे बचाने सरोवर में कूद गया तो समझो कि मुझे प्रजा से प्रेम है। यदि नहीं तो समझो कि मैं राजा कहलाने के योग्य नहीं हूं।"
ऐसा ही किया गया। राजा के सामने एक व्यक्ति को राज सरोवर में ढकेल दिया गया। वह पानी में हाथ-पांव मारने लगा। मगर राजा उसे बचाने से पहले एक दुविधा में डूब गया। उसने सोचा, क्या एक स़क्षम राजा को महज एक साधारण प्रजा के लिए प्राण दांव पर लगा देना चाहिए। उसने पानी में कूदने से मना कर दिया। उसने राज पुरोहित से मदद मांगी। राज पुरोहित ने कहा, ‘‘राजन, आप राजा होने की भावना त्याग दीजिए।"
राजा ने तुरंत अपना मुकुट नीचे रख दिया और पानी में कूदने के लिए तैयार हो गया। तभी वह दूसरे धर्म संकट में पड़ गया। उसने सोचा, ‘मैं तीन रानियों का पति हूं। क्या मैं एक साधारण प्रजा के लिए तीन रानियों को विधवा कर दूं ?"
राज पुरोहित ने राजा का मन पढ़ लिया था। उसने कहा, ‘‘राजन, आपको रानियों का मोह त्यागना होगा। आपको भूलना होगा कि आप किसी के पति हैं।"
राजा ने ऐसा ही किया। वह दाम्पत्य स्थिति को भूल गया और एक बार फिर सरोवर में उतरने के लिए उद्यत हुआ। तभी फिर एक नए संशय ने उसे आ घेरा। इस बार उसे चार पु़त्रों की चिंता ने दबोच लिया। राज पुरोहित सब समझ रहे थे। उन्होंने राजा को समझाया, ‘‘राजन, पुत्र का भी मोह त्याग दें। आप तभी अपना यह कर्तव्य पूरा कर पाएंगे।"
राजा ने पुत्रों का भी मोह त्यागा। अब उसके मन में कोई संशय नहीं रहा। वह बिल्कुल साधारण व्यक्ति बन गया। वह सम्पूर्ण मोह त्यागकर पानी में कूद गया और थोड़े प्रयत्न के बाद ही उस व्यक्ति को बचा लाया। राजा ने राज पुरोहित से कहा, ‘‘सभी तरह के मोह त्यागने के बाद मुझमें कोई डर शेष नहीं रह गया था। इससे मेरा काम बड़ा आसान हो गया। मुझे मोह-मुक्त करने के लिए आपको कोटिशः धन्यवाद।"
कहते हैं, तब से ऐसे राजाओं को अपने कर्तव्य निर्वहन में कभी कोई दिक्कत नहीं आती है। ****
9. अपने-अपने सपने
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मध्य आयु वर्ग के माता-पिता इस बात से दुखी रहते कि उनका युवा पुत्र उनके साथ और उनके माँ-बाऊजी के साथ बैठना और विचारों का आदान-प्रदान करना पसंद नहीं करता। घर में रहते हुए भी उन्हें लगता कि वे पुत्र से बहुत दूर रहते हों। एक बार उन्होंने बेटे से विनयपूर्वक आग्रह किया कि सप्ताह में एक बार तो साथ में बैठो। बेटा मान गया। रविवार के दिन दस बजे सभी का साथ बैठना तय हुआ।
नियत तिथि और समय पर बूढ़े दादा-दादी, माता-पिता और पुत्र ड्राइंग रूम में विराजमान हुए। युवा पुत्र ने बातचीत का सिलसिला शुरू किया। वह एक बड़ी कंपनी में ऊँचे पद पर था। उसने भविष्य की अपनी योजना की बात करनी शुरू की। उसने लंदन के अत्याधुनिक रेस्त्रां की भी चर्चा की। उसने कहा, “उस रेस्त्रां में इतने आइटम थे कि उन्हें खाते-खाते पेट भर जाता, मगर मन कभी नहीं भरता। वहां सारी दुनिया की चीजें मिलती हैं। मैं भी भविष्य में ऐसे ही रेस्त्रां शुरू करने के बारे में सोचू रहा हूं।"
इसपर पिता ने कहा, “हाँ, हमारे ज़माने में भी एक ऐसा ही रेस्त्रां होता था, जिसमें कई तरह के डोसे और समोसे मिलते थे।"
माँ बोल पड़ी, “अरे, अपने मायके में गोपाल दादा की चाय की दुकान कितनी फेमस थी। कहने को तो चाय की दुकान थी, मगर उसके यहाँ पकोड़े, जलेबी, गोलगप्पे के क्या कहने ?’’
अब दादाजी कहाँ चुप रहते। वे अपने गांव की सुदूर पतली गली में जा पहुंचे। उन्होंने कहा, “अरे छोड़ो आज की बातें। हमारे ननिहाल का लिट्टी-चोखा पटना तक धूम मचाते थे। गवर्नर और मुख्यमंत्री भी कभी उधर आते तो सर्किट हाउस में लिट्टी-चोखा मंगाकर खाना नहीं भूलते।"
अब दादी भी मुँह खोलनेवाली थी कि तभी युवा पुत्र झल्ला उठा। उसने सोफे के हैंडल पर हाथ मारते हुए कहा, “अब समझ में आया न कि मैं आपलोगों के साथ बातें करना क्यों नहीं पसंद करता हूँ। मैं कहाँ दस-बीस साल आगे जाने की बात कर रहा हूँ। और आपलोग हैं कि भूतकाल में दौड़ पड़े। पापा-मम्मी जहाँ बीस साल पीछे भागे तो दादा चाली साल पीछे। आपलोगों को तो बीता हुआ भूत पीछा ही नहीं छोड़ता है ! इंटरनेशनल क्यूसिन के जमाने में मैं क्या आपलोगों से लिट्टी-पकौड़े डिस्कस करूंगा ?"
बेटा उठ खड़ा हुआ और अपने कमरे में दाखिल हो गया। उसने जोर से दरवाजा बंद कर लिया। आवाज़ सुनकर माता-पिता और दादा-दादी की जैसे नींद खुली हो। वे कुछ पल सकते में रहे। मगर उन्हें अगले ही पल बड़ा साफ महसूस हुआ कि उन्हें तो पुराने दिनों के ही सपने बड़े मीठे लगते हैं। ****
10. प्यार की लाठी
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पिता ने अस्सी वर्ष की आयु की दहलीज पार कर ली थी। बच्चों को लगा, पिता के पाँव अब कमजोर हो गए होंगे। उन्हें अब सहारे की जरूरत है। लिहाजा अस्सीवें जन्मदिन पर उन्हें एक हाई टेक छड़ी भेंट की गयी। छड़ी को खोलकर और बंदकर दिखाया गया कि यह किस प्रकार छोटी और बड़ी हो जाती है और इसका मूठ किस प्रकार पकड़ा जाता है। पिता निर्विकार भाव से छड़ी का डेमो देखते रहे। मुख निःशब्द था, मगर चेहरे की अभिव्यक्ति यह साफ कह रही थी कि तुम बच्चों के होते हुए इस हाई टेक, परन्तु निर्जीव छड़ी की क्या जरूरत ? बच्चे उस चुप अभिव्यक्ति को समझ नहीं सके और गर्व करते रहे कि उन्होंने पिता का पूरा खयाल रखा है।
छड़ी आ जाने के बाद पिता को सचमुच यह लगने लगा कि उनके पाँव कमजोर होने लगे हैं। इस बदलाव से वह बेचैन रहने लगे। वे बच्चों का मन रखने के लिए कभी-कभी छड़ी का इस्तेमाल कर लेते। लेकिन बहुत बुरा अनुभव करते।
एक दिन छड़ी दीवाल के सहारे खड़ी थी। तभी उनका पोता दौड़ता हुआ आया और सीधे छड़ी पर जा गिरा। छड़ी के दो टुकड़े हो गए। पोता भी गिर कर रोने लगा। पिता वहीं सोफा पर बैठे थे। इस घटना से उनके अंदर मिली-जुली प्रतिक्रिया हुई। पोते को गिरा हुआ देख जहाँ पीड़ा हुई, वहीं छड़ी को टूटा हुआ देख उनके अंदर एक ऊर्जा कौंध गयी। उन्हें लगा उनके अपमानित पाँव में सम्मान जाग गया हो। वे तेजी से उठे और रोते हुए पोते को गोद में उठा लिया। वे खूब तेज क़दमों से कमरे में गोल-गोल चलने लगे और पोते को चुप कराने लगे। तबतक बच्चे और उनकी पत्नियां कमरे में आ गए। पिता के पांवों की ऊर्जा देख सभी सकते में थे। उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा था कि पिता के बूढ़े पांवों में इतनी ऊर्जा आयी कहाँ से। तभी उनकी नजर टूटी छड़ी पर गयी। उन्हें फ़ौरन सब समझ में आ गया। उन्हें मूक पिता का सन्देश मिल गया था।
बड़े बेटे ने झट छड़ी उठाई और उसके चार टुकड़े कर डस्टबिन में फ़ेंक दी। दूसरे बेटे ने आगे बढ़कर पिता का हाथ थाम लिया और उन्हें चलने में सहारा देने लगा।
यह सब देख पिता खिलखिला उठे। पोता भी हँसने लगा था। ****
जन्मतिथि : 04 मार्च 1956
शैक्षणिक योग्यता-एम. ए.,पी-एच.डी.
सम्प्रति : पूर्व प्राचार्य, शासकीय निर्भयसिंह पटेल विज्ञान महाविद्यालय, इंदौर
लेखन : -
कहानियां, शोधपरक आलेख ,कविताएं ,व्यंग्य, बाल साहित्य तथा लघुकथा
प्रकाशित : -
शपथयात्रा (लघुकथा संग्रह), किताबघर, दिल्ली से "लघुकथाओं का पिटारा" प्रकाशित तथा पुरस्कृत।
अनुवादित कृतियां : -
"शपथयात्रा" (100 लघु कथाएं मराठी में )
"लघुत्तम कथांचा गुलदस्ता"(112 लघुकथाएं मराठी में )
" कथांजलि:"(55 लघुकथाएं ,मूल पाठ सहित संस्कृत में )(संस्कृत में अनूदित पहला लघुकथा संग्रह)
"बदलते पैमाने"(117 लघुकथाएं उर्दू में अनूदित)(पाकिस्तान में पढ़ा जा रहा)
"सतरंगी लघुकथाएं"(72 लघुकथाएं सिंधी में )
"डॉ. योगेन्द्र नाथ शुक्ल दीयां मिन्नी कहाणीयां"(90 लघुकथाएं पंजाबी में )।
संपादन-
"समय का साथी"(काव्य संग्रह)
"समप्रभ"(लघु कथा संकलन)"दैनिक भास्कर",
"अंतरराष्ट्रीय मानस संगम", "वाग्धारा"(लघुकथा विशेषांक)
"रिसर्च 2000","हरिद्रा""काफला इंटरनेशनल"शोध-पत्रिकाओं का संपादन
सम्मान-
- 21वें अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन में " डॉ परमेश्वर गोयल लघुकथा शिखर सम्मान" से सम्मानित।
- साहित्य में अविस्मरणीय योगदान के लिए देश की अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मानित
विशेष : -
लगभग 35 वर्षों से साहित्य लेखन में सक्रिय
लगभग 625 लघुकथाएं प्रकाशित
पता : 390, सुदामा नगर, अन्नपूर्णा मार्ग, ए सेक्टर, इंदौर, मध्य प्रदेश 452009
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लंदन एयरपोर्ट में उतरते समय मैं खुशी से फूल उठा!..... बचपन का ख्वाब था कि ओलंपिक देखने जाऊं और वहां तिरंगा उसी तरह लहराऊं, जैसे मैं भारतीयों को टीवी में लहराते हुए देखता हूं।कभी सोचा ही नहीं था कि ईश्वर इतनी जल्दी मेरी इच्छा पूरी करेगा।
उस होटल में रुके सभी भारतीय रोज शाम को लंदन घूमने निकलते।मैं भी उनके साथ दो तीन बार गया ,परंतु लंदन की चकाचौंध मुझे जरा भी प्रभावित न कर सकी। उनके साथ घूमते हुए सोचता रहता कि इससे तो अच्छा होता कि मैं यहां आता ही नहीं! लाखों की आबादी वाले देश के खिलाड़ी पदक ला रहे और हम सवा अरब देश के खिलाड़ी अब तक पदक का खाता भी नहीं खोल पाए! मैं रोज तिरंगा लेकर स्टेडियम जाता और लौटकर जब उसे अलमारी में रखता तो मन शर्म से भर उठता।दूसरे देशवासियों से मिला तो मालूम हुआ कि वहां स्कूल स्तर पर ही उनकी रुचि के अनुसार अलग-अलग खेलों के लिए बच्चों का चयन कर लिया जाता है। सरकार उनके खान-पान का पूरा खर्च उठाती है। उनका काम दिन-रात प्रैक्टिस करना, खेल की बारीकियों को समझना होता है।वह भले ही पदक लाएं या ना लाएं परंतु उनके सारे जीवन की सुरक्षा, सरकार उन्हें वेतन देकर करती है।.... जब -जब मैं यह सुनता तो मन खिन्न हो उठता।
उस दिन एकाएक जब भारत को रजत पदक मिला तो मानो मेरे तो पर ही लग गए! कितनी देर तिरंगा लहराया.... कितनी देर उसे लेकर नाचता रहा मालूम नहीं....!
उस रात होटल नहीं गया, सारी रात घूमता रहा, लगा कि लंदन वाकई बहुत खूबसूरत है।*****
2. रहस्य
*****
ऐसा कई बार हुआ था।
आज भी उसकी उंगली सिंह राशि पर टिक गई और वह अपने अतीत में खो गया।
" पूरे बीस बरस हो गए उसे देखे ! क्या पता उसे मेरी याद भी आती होगी या नहीं ? उस समय सुना था कि उसका पति अहमदाबाद में इंजीनियर है। अभी उस पर शनि की साढ़ेसाती चल रही है। भगवान ! उसे कोई कष्ट मत देना! चाहे तो मुझे... उसके बदले में...!"उसकी आंखें नम होनी शुरू हो गईं ।
" सुनिए ! मैं वर्षों से देख रही हूं कि आप जब भी भविष्यफल देखते हैं तो सिंह राशि का भविष्यफल जरूर पढ़ते हैं , जबकि अपने परिवार में इस राशि का कोई नहीं ! "
पत्नी की आवाज सुनकर उसके वे बिंब टूटने लगे।
" कुछ नहीं बस ऐसे ही!"
अपने चेहरे के भावों को छुपाता हुआ वह दूसरे कमरे की ओर चला गया।
सिंह राशि पत्नी के लिए आज भी रहस्य ही बनी रही।****
3. रंग- बिरंगे सपने
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रात को वह गुलाल और रंगों के पैकेट बना रहा था। कल उसे फुटपाथ पर अपनी दुकान लगानी थी। कोतवाली के घंटे से टन... टन...टन...टन... की आवाज आई तो मां से न रहा गया , " बेटा! चार बज गए , अब सो जाओ। अभी तो होली को पांच दिन बाकी हैं। थोड़े पैकेट कल दुकान में बैठकर बना लेना। "
" बस अम्मा... कुछ पैकेट और बना लूं फिर सो जाऊंगा।... और हां, अम्मा! मुझे जल्दी जगा देना, देर हो जाएगी, तो मौके की जगह हाथ से निकल जाएगी! "
टन... टन...टन...टन...टन... की आवाज सुन कर मां ने कहा " बेटा, अब तो पांच बज गए... जा सो जा सुबह जल्दी भी तो उठना है। "
उसने सारे पैकेट डब्बे में हिफाजत से रखे। थक कर चूर -चूर हो गया था ,इसलिए लेटते ही नींद लग गई।
.... रात भर सपने देखता रहा कि उसकी दुकान में भीड़ लगी है। गुलाल और रंग का सारा माल बिक गया। घर आकर वह रुपए गिन रहा है। वह और उसकी बहन खाना खा रहे हैं। अम्मा खीर परोस रही है। रोज की तरह थाली में सिर्फ प्याज और नमक ही नहीं है, सब्जी भी है...!
" उठो बेटा...आठ बज गए... जल्दी जा, नहीं तो जगह चली जाएगी।"
चौंक कर वह उठ बैठा। उसकी आंखे जल रही थी ।पोर पोर में दर्द हो रहा था।
" अम्मा! थोड़ी और जल्दी जगाना था!" तभी उसे रात का सपना याद आ गया।उसका सारा दर्द दूर हो गया और वह उन रंग-बिरंगे सपनों के क्रियान्वयन में जुट गया।****
4. खून सनी दीवारें
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" बेटा ! जब से तुम अमृतसर से आए हो तब से मैं देख रही हूं कि रात को तुम्हें बहुत देर तक नींद नहीं आती! कोई परेशानी हो तो मुझे बताओ ! "
" मम्मी! जब भी मैं लेटता हूं तो मुझे जलियांवाला बाग की खून से सनी दीवारें नजर आती हैं... दीवार में गोलियों के छेद नजर आते हैं...! कभी मुझे वहां का कुआं नजर आता है....मैं सोचता रहता हूं कि हजारों निहत्थे लोगों पर जनरल डायर ने कैसे गोलियां चलवाई होंगी?कैसे पुरुष और बच्चे को गोद में लिए महिलाएं उस कुएं में कूदी होंगी ? "
" बेटा, कुछ लोग जलियांवाला बाग को जब पिकनिक स्पॉट की तरह देखते हैं तो बड़ा दुख होता है... पर तू उन सब से अलग है क्योंकि तू शहीद लेफ्टिनेंट दीपक सिंह का बेटा है।"
" मम्मी... जब मैंने वहां की मिट्टी को अपने मस्तक से लगाया तो कुछ लोग अचंभे से मुझे देख रहे थे लेकिन बाकी लोग जब मेरी देखा देखी मिट्टी को मस्तक से लगाने लगे ,तो धीरे-धीरे सभी लोगों ने वहां की मिट्टी को मस्तक से लगाया! आश्चर्य की बात तो यह थी कि वहां मुस्लिम, पारसी भी थे !"
" बेटा! हिंदू ,मुस्लिम, सिख ,पारसी सभी ने अंग्रेजो के खिलाफ उस जंग में भाग लिया था। वह तो इन राजनीतिक पार्टियों ने वोटों की खातिर अंग्रेजों के समान " फूट डालो-राज करो " की नीति अपनाई। तू ज्यादा सोचा मत कर... अच्छी सेयत के लिए नींद आना भी जरूरी है ।"
" क्या करूं मम्मी... वह खून से सनी दीवारें मेरे दिमाग से हट ही नहीं रही ! "
" बेटा... यदि सभी लोग तेरी तरह हो जाएं तो सारा देश ही बदल जाए और उन शहीदों का सपना पूरा हो जाए। " ****
5. वापसी
*****
वृद्धाश्रम में अम्मा को खड़ा कर , उसने उनका सूटकेस वहां रखा और औपचारिकताएं पूरी करने के लिए कार्यालय की ओर चला गया।
लौटकर आया तो अम्मा को आंसू पोछते देख कर, वह द्रवित हो गया।
"क्या करूं अम्मा...? घर में शांति के लिए मजबूरीवश मुझे यह करना पड़ रहा है। तुम तो जानती ही हो रेखा को...!"
"जा बेटा... घर जा... बहू इंतजार कर रही होगी। चलते समय बच्चों के सिर पर हाथ भी नहीं फेर सकी... वह सो रहे थे, मैं चुपचाप चली आई।"
" अम्मा... मुझे भी अच्छा नहीं लग रहा!"
" बेटा ,यदि तीस बरस पहले मैं तुझे अनाथालय में छोड़ आती तो आज मुझे यह दिन नहीं देखना पड़ता!... लेकिन मैं मां हूं! तू खुश रह... मेरा आशीर्वाद हमेशा तेरे साथ है।" अम्मा सिसक पड़ी।
यह सुनकर बेटा कांप उठा। अनाथालय... वृद्धाश्रम.... उफ!
".... चल अम्मा ,घर चलें... अब जो भी हो, लेकिन मैं तुझे वृद्धाश्रम मैं नहीं रखूंगा।" *****
6. आवरण पृष्ठ
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" भाई साहब! आपकी यह कृति पुरस्कृत है। पाठकों ने उसे पसंद किया ,तभी तो उसका द्वितीय संस्करण आया। वह भी ऐसे समय जब पाठक निरंतर कम होते जा रहे हैं।... और फिर इतने बड़े प्रकाशक ने स्वयं आपसे पांडुलिपि मँगवाकर उसे छापा था, आश्चर्य है कि उन्होंने इन सब बातों पर ग़ौर नहीं किया और एक पत्रिका ने उस कृति का आवरण-पृष्ठ छाप कर किताब की चर्चा क्या कर दी, वह आवरण- पृष्ठ पर ही टीका टिप्पणी करने लगे। "
" ................................."
" आज द्वितीय संस्करण कितनी कृतियों के आ रहे? आश्चर्य है कि इसकी किसी ने बधाई नहीं दी! लगता है कि ऊपरी चमक दमक ही आज साहित्य में प्रमुख हो गई है। मुझे तो लगता है इसी को देखकर पुरस्कार भी दिए जा रहे! "
".............................."
" सोशल मीडिया में ज्ञान बघारने, ख़ुद को जीते जी इतिहास में दर्ज कराने और दूसरों की छीछालेदर करने का युग चल रहा। भाई साहब ,आप कुछ बोल नहीं रहे! क्या आपको बुरा नहीं लगा? "
" .... नहीं, मुझे ज़रा भी बुरा नहीं लगा! "
" क्यों... क्यों? "
" ... क्योंकि सभी की अपनी-अपनी दृष्टि है। " ****
7. चॉकलेट-डे
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वह भगवान के चित्र के समाने प्रार्थना कर रहे थे तभी ट्रिन...ट्रिन....ट्रिन घंटी बजी। पत्नी, बच्चे बाहर गए थे, इसलिए भगवान से क्षमा मांगते हुए उठे और दरवाजा खोला।
“अंकलजी! आज मम्मी की तबीयत ठीक नहीं, इसलिए हम दोनों को काम करने भेजा है।”
कैसी है मां? अभी इन बच्चियों की पढ़ने-लिखने की उम्र है, इन्हें स्कूल से छुट्टी दिला कर काम करने भेज दिया। उन्हें इशारा कर उन्होंने बरतनों की जगह बताई और पुन: प्रार्थना करने लगे। दीवार के उस तरफ वे दोनों लड़कियां बरतन मांजते-मांजते बातें कर रही थीं, जो उनकी एकाग्रता भंग कर रही थी।
“आज चॉकलेट डे हैं।”
“नही, तुझे मालूम नहीं आज प्रॉमिसडे है।”
“लेकिन सुरेश तो बोल रहा था कि आज चॉकलेट डे हैं।”
“वो भी तेरी तरह बुद्धू है। मुझे एक-एक दिन याद है।....रोज डे, प्रपोज डे, चॉकलेट डे, टेडी डे, प्रॉमिस डे, हग डे, किस डे, और फिर वेलेन्टाइन डे। समझी....!”
उन दोनो की बातें सुनकर उनके भीतर बसे संस्कार कलमलाने लगे। फिर प्रार्थना में मन न लगा....। मैं तो इन बारह-तेरह साल की कन्याओं को छोटा समझ रहा था लेकिन ये तो.....? एक-एक दिन ऐसे गिना दिए जैसे कविता सुना रही हों? अभी इनसे अपने रीति रिवाज पूछो तो बगले झांकने लगेगीं। अपने मन की जिज्ञासा शांत करने के लिए जाते समय उनसे पूछ लिया- “बेटा....ये चॉकलेट-डे क्या है....?”
“आप टीवी नही देखते....? क्या अंकलजी आप भी....!” उन दोनो की फटी आंखें उनके पढ़े-लिखे होने पर प्रश्नचिन्ह लगा रही थी। *****
8. क्रिसमस-ट्री
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आज 5 फीट ऊंचा "क्रिसमस ट्री" चर्च में लगाया गया था, जो आकर्षण का केंद्र बना हुआ था।
..... पिछले 3 माह से लूसी और उसकी सहेलियां, शोभा जार्ज और रितु फ्रांसिस ने मिलकर इसे तैयार किया था। पूरा का पूरा सफेद, लाल और हरे रंग के ऊन से बना था। उसमें सांता क्लॉज के अलावा पेंगुइन्स, रेंडियर्स और बहुत सुंदर आकृतियों वाले स्नोमैन लगाए गए थे। लूसी तो आज फूली नहीं समा रही थी। उसे पिछले साल का वह दिन याद आ रहा था, जब मस्ती मस्ती में उसने अपनी सहेलियों से ऐसा ट्री बनाने को कहा और सभी इसके लिए बहुत खुशी से तैयार हो गयीं। अक्टूबर से रोज शाम से लेकर रात तक वे ट्री बनाया करती।
उस ट्री को घेरकर लोग खड़े थे और उसकी तारीफ के पुल बांध रहे थे। वहीं खड़ी लूसी अपनी सहेलियों से कह रही थी "....बाद में हम इसके उनके टुकड़ों को जोड़कर कंबल बना लेंगे और जरूरतमंद लोगों को बांट देंगे। "
उसकी बात सुनकर पीछे से निकल रहे फादर माइकल के कदम अनायास ही थम गए। वह लड़खड़ा थी जुबान से बोले "लूसी माय चाइल्ड...! तेरे जैसी सोच यदि सभी की हो जाए, तो सारी की सारी दुनिया ही बदल जाए। " ****
9. बेचारी तख्तियां
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कार्यालय के उस कोने वाले कक्ष में, जहां टूटी फूटी चीजें रखी जाती थी, वे वही रखी रहतीं। आज उस कक्ष का ताला खुला हुआ था।उन्हें बाहर निकाला गया और झाड़- पोंछ करकर सभागार के चारों और लगा दिया गया।
कार्यक्रम शुरू होने में अभी समय था। बड़े साहब व्यवस्था देखने वहां आए। अधिकारी उन्हें खुश करने के लिए बोला," सर!महापुरुषों के मातृभाषा संबंधी उद्गारों से सजी इन तख्क्तियों के दीवार पर लगते ही सभागार खिल उठा। "
बड़े साहब ने प्रशंसात्मक दृष्टि से उसे देखा और बोले "यू आर वेरी स्मार्ट।"
कार्यक्रम संपन्न होते ही बड़े साहब ने उस अधिकारी से कहा,"इन तख्क्तियों को वही हिफाजत से रखवा देना.... अगले 14 सितंबर को फिर इनकी जरूरत पड़ेगी।"
अधिकारी ने तुरंत उनके आदेश का पालन किया। उन्हें वही रखवा कर, उस कक्ष का ताला लगवा दिया।
.... ऐसा लग रहा था जैसे उन्हें 'पैरोल 'पर कुछ घंटों के लिए ही बाहर निकाला गया हो।
बेचारी तख्तियां!****
10. खामियाजा
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पचासों फूले हुए शव नदी में तैर रहे थे। किनारे पर खड़ी भीड़ उन्हें विस्मय से देख रही थी।
"दो दिन पहले शहर से शाम को मैं गांव लौट रहा था। बारह तेरह किलोमीटर ही हुए होंगे कि मेरे पास से एक एंबुलेंस निकली। आगे जाकर देखा तो वह नदी के किनारे खड़ी हुई थी। मैंने मोटरसाइकिल रोक दी। देखा कि उसमें से ढेरों शव निकाले जा रहे थे। फिर उन शवों को घसीटते हुए कर्मचारियों ने गंगा में ऐसे फेंका जैसे हम कचरापेटी में कचरा फेंकते हैं।"
" उफ! ....तो यह सारे शव कोरोना मरीजों के हैं। करे कौन और भरे कौन? जैसे हमें नेताओं की करनी का फल ना चाहते हुए भी भोगना पड़ता है,बस वैसे ही शासन - प्रशासन की लापरवाही और मक्कारी का खामियाजा बेचारी हमारी गंगा मैया को भोगना पड़ रहा।" ****
11. गिरमिटिया
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इन दिनों गिरमिटिया शब्द उसके मन को छलनी कर देता था। उसका वश चलता तो इसे शब्दकोश से निकालकर ,समुद्र के बीचो-बीच जाकर फेंक आता। इसका कारण यह था कि कॉलेज में जैकसन सबके सामने उसकी और उसके दोस्तों की मजाक उड़ाने के लिए उन्हें गिरमिटिया कहा करता था। सभी अपमान का घूंट पीकर रह जाया करते।
आज जैक्सन जब अपने साथियों के साथ सामने से आता दिखाई दिया तो उसके दोस्त उसे समझाने लगे कि वह उसके मुंह ना लगे।
“क्यों रे गिरमिटिया…कैसे हो?”
“………………………..”
“आज तो तू कुछ बोल ही नहीं रहा? क्या गूंगा हो गया गिरमिटिया?”
“………………………..”
“इन साले गिरमिटियों को जब फीजी से भगाया गया तो सब ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा चले गए जो निर्लज्ज थे, वे यहीं रह गए। यह लोग वही हैं!”
अब उसके धैर्य का बांध टूट गया।
“सुनो जैकसन! उन लोगों पर तुम्हारे जैसे लोगों ने इतनी ज्यादतियां की, कि उन्हें न चाहते हुए भी देश को छोड़ना पड़ा।“
“बाहर से आकर फीजी में अपना हक जताने वाले गिरमिट…चुप हो जा।“
लेकिन आज उसका क्रोध सातवें आसमान पर था।
“हां…हां…हां…मेरे पिताजी गिरमिटिया थे, हमारा सारा खानदान गिरमिटिया है। हम भले ही भारत मूल के हैं लेकिन हम फीजी को अपना देश मानते हैं क्योंकि हम सब इसी मिट्टी में पले बड़े हुए हैं।“
“हमारे देश में भार बनकर जी रहे हो और बातें बड़ी-बड़ी करते हो…सुन ले गिरमिटिए, हम मूल फिजी वासी हैं, यह हमारा देश है, तुम्हारे जैसे गिरमिटियों का नहीं!”
“तुम भूल गए जैकसन कि हम गिरमिटीओं ने ही फीजी को हरा-भरा बनाया। शक्कर ,टेक्सटाइल और सोने के कारण आज यह देश सारे संसार में जाना जा रहा, इसके पीछे हमारे पूर्वजों की कड़ी मेहनत है। उन्होंने खून पसीना एक किया तब फीजी इतना समृद्ध हो पाया।” वह जोर से चिल्लाया। चारों ओर छात्र छात्राएं एकत्रित होकर उनकी बातें सुन रहे थे।
“जेकसन…इस गिरमिटिये की एक बात और सुन! तुम इस देश का इतिहास ही नहीं जानते, यदि जानते होते तो हम लोगों का अपमान नहीं करते बल्कि सम्मान करते।…जो आदमी अपने देश का इतिहास नहीं जानता वह कभी देशभक्त हो ही नहीं सकता!”
चारों ओर खड़े विद्यार्थी तालियां बजाने लगे और जैकसन अपने साथियों के साथ वहां से खिसक गया।****
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क्रमांक - 004
जन्मतिथि : 14अक्टूबर
शिक्षा : स्नातक (राजनितिक शास्त्र )
पति : बिस्वंभर शर्मा (अधिवक्ता )
रूचि : लेखन, संगीत
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन, कई मंचों से जुड़कर साहित्य सेवा
विधा : कहानी, लघुकथा, कविताओं आदि
सम्मान : -
1.साहित्य संगम संस्थान द्वारा श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान।
2.आगमन द्वारा तीन बार सम्मनित।
3. पूर्वाषा हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा सौरभ सम्मान.
4. अलग अलग मंचों द्वारा मेरी कहानी, लघुकथाएं को श्रेष्ठ रचना का सम्मान।
Address : 5C ,5th floor , pink House , A, K. Azad Road , Rehabari -781008 Guwahati - Assam
1. स्वप्न
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"सुबह सुबह आपको कष्ट देने के लिए क्षमा चाहते हैं गुरुजी,देखिए न लता को क्या हुआ हैं सुबह आंख खुली तब से बस एक ही रट लगाए हैं कि मुझे अभी गुरूजी से मिलना हैं।"..... लता जी के पति माधव जी ने गुरूजी को प्रणाम करते हुए कहा.
" आओ लता बेटी...... अब शांत मन से अपनी व्यथा मुझे बताओं..... " गुरूजी ने लता जी के सर पर स्नेह का हाथ फेरा।
"गुरुजी कल मैंने स्वप्न में .... अपने आप को स्वर्ग में पाया.... वहाँ मुझे कई प्रकार के पकवान खाने को दिए गए, और खाने के बाद जब मैंने पीने के लिए...पानी को हाथ लगाया तो मेरे होठों तक आते आते सारा पानी सुख गया..... स्वादिष्ट पकवान खाने के बाद मैंने अपने आप को पानी के लिए तड़पते देखा.....कहते कहते लता जी के कंठ सूखने लगे..।
"फिर क्या हुआ...?"गुरूजी ने सप्रेम पूछा ।
"मेरी तड़पती हालत देख वहां की देवियां मुझे एक बहुत सुंदर महल में बने बगीचे में ले गई... वहाँ गर्म- गर्म लू चल रही थी... इतने विशाल बगीचे में एक भी हरा भरा पेड़ नहीं था,कि जिसकी छाँव में बैठकर मुझे तनिक आराम मिलता... मेरा बदन जल रहा था..... गुरुजी,सपने की तपिश को मैं अब भी महसूस कर रही हूं.... कृपया मेरे स्वप्न का अर्थ बताए.....।
मैं तुम्हारे स्वप्न का अर्थ समझ गया.... तुमने अपने जीवन में जल का उपयोग से ज्यादा दुरूपयोग कर अपने हिस्से का जल व्यर्थ बहा दिया....इसलिये तुम्हें परमात्मा के घर में जल नहीं मिला.... दूसरा, तुमने अपने जीवन में कभी कोई पेड़ नहीं लगाया... कभी किसी पेड़ को सींचा नहीं और न पेड़ पौधों की देखभाल की हैं..... तो परमात्मा के घर तुम्हें शुद्ध हवा और पेड़ो की ठंडी छांव कहां मिलेगी....? "
बेटी ये तो तुम्हारा स्वप्न था...जो हमें आगाह कर रहा हैं कि हम संभल जाए... प्राकृतिक संपदा की रक्षा करे.. हम इन सम्पदाओं का यहाँ दुरूपयोग करेंगे तो परमात्मा के घर उसका उपभोग कैसे करेंगे.....? " ****
2. मोह के बंधन
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"माँ,...बाऊजी की तेरहवी का सारा काम बड़े सुन्दर रूप से हो गया हैं। तो माँ अब तुम कहो तो वकील चाचा को बुला ले..."
बड़े बेटे के मुँह से वकील शब्द सुनकर मोहिनी जी को आश्चर्य हुआ.... "वकील क्यों .....?"
तभी छोटे बेटे नविन ने माँ की बात बीच में काटी,
"माँ हम दोनों तो विदेश में रहते हैं बाऊजी के समय तो संजोग ही कहो की हम दोनों भाई सपरिवार आ गये। लेकिन अब बार बार तो ऐसे आना नहीं हो पायेगा। अब आपको तो हम यहां अकेले छोड़ नहीं सकते.... आपको छः महीने मेरे और छ: महीने भैया के पास रहना हैं...आप प्लीज ना मत करना।"
छोटे बेटे की बात खत्म हुई थी कि फिर बड़े बेटे प्रवीन ने मोर्चा संभाला, "माँ जाने से पहले इस मकान को भी बेचना पड़ेगा, इसलिये वकील चाचा को बुलवाया हैं कि उनके सामने आप सब कुछ दो बराबर हिस्सों में बाँट दो।"
मोहिनी जी को बेटों की बातें सुनकर.. अपने चारों और जो मोह के बंधन उन्होंने बांध रखे थे, उससे चुभन सी महसूस होने लगी । अपने सपनों का संसार जिसे बच्चे मकान कह रहे थे उसके टुकड़े वो कभी नहीं करेंगी। और न वो अपना घर छोड़ बेटों के साथ जायेगी। पति की तस्वीर को अपलक निहारते हुए,मोह के बंधन से स्वयं को आज़ाद कर उन्होंने अपना दृढ़ फैसला सुनाया....
"इस घर में तुम्हारे बाऊजी की यादें हैं जो मेरी बाकी की जिंदगी के लिए काफी है...मेरे अंत समय में जो यहाँ मेरे साथ होगा... सब बस उसी का होगा..... फिर वो तुम दोनों हो या कोई और।" ****
3. हैप्पी फादर्स डे
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"मनोहर जी आपके लिए चिट्ठी आई है सरकारी तो नहीं लगती देखिए जरा...." मनोहर जी के पड़ोसी ने उनके हाथ में एक लिफाफा पकड़ाते हुए कहा।
"मेल...व्हाट्सएप के जमाने में मुझे चिट्ठी कौन भेजेगा..लिफाफे को उलट-पुलट कर देखने के बाद उन्होंने उसे खोला तो लिखावट देखते ही पहचान गए ...." सोनू की माँ,यह तो अपने सोनू की चिट्ठी है....।"
"अरे पढ़ो तो जरा...रोज फोन पर तो बात होती है..तो चिट्ठी काहे को......"
"धैर्य रखो पढ़ता हूं.. ... "आंखों में चश्मा चढ़ाते हुए मनोहर जी ने चिट्ठी पढ़ना आरंभ किया...
पापा प्रणाम,
पापा,मैं कई दिनों से आपसे कुछ कहना चाहता हूँ पर कहने को शब्द नहीं मिल रहे इसलिए यह चिट्ठी लिख रहा हूँ....पापा,आपका पोता छः महीने का हो गया है...इन छः महीने में मैंने उसके प्रति अपने असीम लगाव को महसूस किया है..मैं उसे दों घंटे ना देखूं तो मन तड़पने सा लगता है.... पापा,मुझे अपनी तड़प में आपकी तड़प का अहसास होता हैं...आपको भी तो पूरे दों साल हो गए हैं मुझे अपने गले लगाए,....वो जब रात रात भर जगाता है..और मैं पूरी रात उसे सुलाने की कोशिश करता हूं तो मुझे... मेरे लिए आपकी वो फिक्र,वो प्यार,आपका गुस्सा...सब याद आता है.... मुझे एक बेहतर भविष्य देने के लिए आपका संघर्ष मुझे अब समझ आया हैं... पापा, मैंने पिता बनने के बाद इस रिश्ते की गहराई को समझा हैं ..... हैप्पी फादर्स डे पापा।
आपका सोनू
चिट्ठी को दिल से लगाते हुए मनोहर जी ने मन ही मन कहा.. "बच्चे पिता के प्यारऔर फर्ज़ का मर्म समझ ले तो एक पिता के लिए हर दिन हैप्पी हैं।" ****
4. मेला
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"बापू एक बार चल कर दिखाओ.. थोड़ा आगे.. अब थोड़ा पीछे.. हाँ आपके पैरों में कोई दर्द नही हैं...मैंने आपकी सायकिल भी देख ली.. वो भी एकदम ठीक हैं... बापू कल मेले का आखरी दिन हैं.. आप ना मत करना ... हम कल मेला देखने जायेंगे....।"
"दादी कल मेला घूमने जाऊंगा. गरमा गरम जलेबी खाऊंगा...मेले से बहुत सारे खिलौने भी लाऊंगा....।"
"बिरजू को कैसे समझाऊं....हाथ में चार दिन से एक पाई नही आई.. ऊपर से रासन पानी... अम्मा की दवाई.. ऐसे में तू ही बता बिरजू की माँ...मैं उसे कैसे मेला दिखाने लेकर जाऊं..??"
" आह,माँ.. बापू मेरे पेट में मरोड़े चल रहे हैं पेट बहुत दुःख रहा है.....। "
"अरे अभी तो सब ठीक था अचानक दर्द कैसे हो गया... कुछ अंट शंट खा लिया क्या....? "
दरवाज़े की ओट से माँ ,बापू की बातें सुनकर अचनाक बिरजू के पेट में उठे दर्द को माँ बापू तो नही समझ सके मगर दादी की बूढ़ी बेबस आँखों ने सब भांप लिया। ****
5. ख्वाहिश
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"कल हमारी शादी की चालीसवी सालगिरह हैं गुड्ड के पापा.... लगता हैं मेरे दिल की ख्वाहिश मेरे दिल में ही रह...".पम्मी जी अपने पति रोशन जी से अपने दिल की बात कह ही रही थी कि उनकी जीठानी ने अधूरी बात सुन ली....।
"देवरजी आपसे ऐसी उम्मीद तो नही.... भगवान का दिया सब कुछ हैँ.. फिर पम्मी की कौन सी ख्वाहिश....क्यूँ भला दिल में रह जायेगी ...?"
" न भाभीजी आप मेरी बात तो सुनो....."बेचारे रोशन जी कुछ बोलते उससे पहले बेटे की बहू आ गई...
" पापाजी आप को देख कर तो नही लगता आप मम्मीजी की कोई ख्वाहिश अधूरी छोड़ते होंगे..."पर मम्मीजी कह रही हैँ तो......
"कोई मेरी भी सुनेगा...".सबकी सुन सुन रोने को आए रोशन जी ने फिर कुछ कहना चाहा तो बेटे जी भी आ गए...
"मम्मी आपकी कोई ख्वाहिश थी तो आप मुझे कहती ना मैं एक पल में पूरी कर देता... आप भी पापा को बोलती रहती हो.... जानती हो ना पापा कितने आलसी हैँ।
बेटे की बात ने रोशन जी में किसी टॉनिक का काम किया
चेहरे पर कुटिल मुस्कान लेकर कहा.....हाँ ,हाँ पम्मीजी अब बताओं आपके दिल की जो मैं पूरी न कर सका वो आपका बेटा पूरी करेगा...."
" हाँ तो, बताओं मम्मी आपको क्या चाहिए,.... कही घूमने जाना है.... बताओं... " बेटे ने छाती फुलाकर कहा।
"बेटा,शादी के बाद से मेरी दिली ख्वाहिश रही हैँ कि.....तेरे पापा मुझे गोद में उठाकर रोमांटिक अंदाज में निचे सीढ़ियों से ऊपर बैडरूम तक गुनगुनाते हुए लाए ...... " बस इतनी सी बात....।
"बस इतनी सी बात"..... बेटे बहू और भाभीजी के मुँह से एक साथ निकली......क्यूंकि एक सौ चार किलो की पम्मी जी की यह ख्वाहिश पूरी करना घर के किसी भी सदस्य के बलबूते से बहार की बात थी।
इतनी देर से सबकी सुन रहे रोशन जी ने बेटे को छेड़ा... "तो बताओं कलयुग के श्रवण कुमार अपनी मम्मी की ख्वाहिश कब पूरी कर रहे हो.....?" ****
6. अमानत
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"मम्मी क्या बताऊं आपको ,..मम्मीजी को गए अभी एक महीना भी नहीं हुआ है और पापा जी इतने रंगीन मिजाज के हो गए हैं.....मैं कैसे बताऊं.....कल रवि (पति )से बोल रहे थे...चश्मे का पावर चेक करा दो..... बाकी के पति तो पत्नी की मृत्यु के बाद उसके वियोग में खाना पीना सब छोड़ देते हैं, लेकिन यहां तो पापा जी का मॉर्निंग वाक, इवनिंग वाक....खाने में पनीर, स्प्राउट्स,ड्राई फ्रूट सब कुछ चाहिए एकदम टाईम टू टाइम....दस मिनट भी इधर उधर हो जाए तो किचन तक आ जाते है....।"
"निशी अपनी मम्मी से कुछ और भी कहती की सामने ससुर को देख सहम गई..... "पापाजी आप.... मै तो वो मम्मी से...."
"हाँ बहू मैंने सब सुन लिया ..... लाओ मेरी बात करवाओ समधनजी से मुझे कुछ कहना है उनसे......"
"नमस्ते समधन जी.... माफ़ी चाहता हूँ....प्रेमाजी (पत्नी )के जाने के बाद निशी बहू पर घर परिवार की बहुत जिम्मेदारीयां आ गई हैं..... आप चिंता न करें......बहु ने बहुत समझदारी से सब संभाल लिया है। लेकिन आज मै आप सब को कुछ बताना चाहता हूँ....समधन जी.....मैंने अपनी आँखों के साथ साथ अपने शरीर के कई अंग दान किए हुए है..... जो मेरी मौत के बाद कई लोगों की जिंदगी मे खुशीयां लौटा सकते हैं ...... मैं नहीं चाहता मेरी किसी भी लापरवाही से इन अंगों को कोई नुकसान पहुंचे... ये तो मेरे पास बस किसी की अमानत मात्र है...।"
जैसे ही ससुर जी ने फ़ोन रखा निशी उनके कदमों में झुक गई......
" पापजी मुझे माफ़ कर दीजिए....". आत्मग्लानि से बहते उसके आंसू ससुरजी के चरण पखार रहे थे। ****
7. रक्तदान
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"रक्तदान महादान "..." मानवता का पहला परिचय रक्तदान "
रक्तदान के ऊपर नारों के बड़े बड़े पोस्टर लगवा रखे थे चौधरी जी ने । अपना जन्मदिन कुछ खास अंदाज मे मनाते हैं जनाब......और आज तो होने वाले जवाई सा भी आ रहे हैं तो जश्न की बात ही कुछ और हैं।
"अरे गिरधारी कुछ फूल मालाएँ इधर भी टांग.... जवाई सा और उनका परिवार आता ही होगा....अरे भाई इन रक्तदान करने आये नौजवानो को अनार का जूस पिलाओ
कुछ अच्छा सा खिलाओ भी....." बोलते बोलते ही चौधरी जी की नज़र एक लड़के के ऊपर आकर ठहर गई।
"गिरधारी....ये छोरा कौन हैं...? बड़ा हट्टा कट्टा सुन्दर नौजवान हैं किसका बेटा हैं...??"
मालिक ये वो....हरिया माली...का बेटा हैं, बहुत पढ़ा लिखा और क़ाबिल हैं.. इसका खून ना वो सबसे अलग कुछ ओ नेगेटिव कहे हैं ना....गाँव में बस इसी का...। "
"चुप कर हम चौधरीयों के यहाँ लोगों की कमी ह के जो इस माली के बेटे का खून लेंगे.... दफ़ा कर इसे यहाँ से। "
थोड़ी ही देर में फ़ोन बजा.... "मालिक मालिक होने वाले जवाई सा की गाड़ी का एक्सीडेंट हो गया बहुत चोट लगी हैं खून भी बहुत बह गया ....डॉक्टर जल्दी खून का इंतजाम करने को कह रहे हैं।"
"तो जल्दी करो खून देने वालों की तो लाइन लगी हैं ना...."
" ना मालिक जवाई सा का वो सबसे अलग कुछ..ओ नेगेटिव वाला खून बता रहे.... "
जा गिरधारी,बुला ला उस छोरे को...कहना खून की कोई जात नहीं होती... मैंने भी आज अपने अहम का त्याग कर दिया.....रक्तदान महादान होवे हैं....कही सुनी माफ़ करे
आकर म्हारे जवाई की जान बचाले। " ****
8. सत्संग
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"अरे कितनी घंटी बजा रही हो मालती... मुझे तुम्हारी आवाज़ आ रही हैं ज़रा ठहरो दरवाज़ा खोलती हूं।" सविता जी अपनी सात महीने की पोती को गोद में लिए लिए ही दरवाज़ा खोलती हैं
" इतनी क्या जल्दी हैं कि घंटी पर घंटी बजा रही हो..... आओ बैठो ..... अब बताओ?"
"मैं क्या बताऊ,मैं तो तुमसे पूछने आई हूं की तुम दो दिनों से सत्संग क्यूँ नहीं आ रही........ तबियत तो ठीक हैं ना.....?तुम्हारी बहू को देखा कल बाज़ार में.....आज ब्यूटीपार्लर जाती दिखी.... क्या बात हैं मुझे ना तुम्हारी फ़िक्र हो रही हैं सो तुम्हारे हाल जानने चली आई ।"
सविता जी को अपनी सहेली की बातों से उसकी संकीर्ण सोच पर तरस आ गया ।
"अच्छा इतनी फिकर....? बहू के भाई की सगाई हैं सो मैंने ही कहा कि, मैं बिटिया को संभालती हूँ और वो जाकर अपनी जरुरत का सामान वगैरह ले आये...और ब्यूटीपार्लर जाना भी तो जरुरी हैं ना आजकल...।"
"बहू के चक्कर में सत्संग छोड़ बच्चे खिला ......."
"नहीं मालती तुम्हारी सोच गलत हैं अपने बच्चों की जरुरत का हिस्सा बनना मेरे लिये संतोष की बात हैं जहाँ एक दूसरे के लिये प्यार और समर्पण हो उस घर के माहौल में ही इतनी सकारात्मकता होती हैं कि एकाध दिन सत्संग ना जाओ तो भी भगवान नाराज़ नहीं होते।" ****
9. हिचकी
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"भाग्यवान.. पानी पी लो कब से तुम्हें हिचकी आ रही हैं।"
पत्नी की ओर पानी का गिलास आगे बढ़ाते हुए हरीश जी ने कहा।
"ना ना,पानी नहीं चाहिए..मेरा सोमू याद कर रहा होगा..... उसे याद होगा आज मेरा जन्मदिन हैं..देखना थोड़ी देर में फ़ोन आएगा ।"
"मीना जी...ये बच्चे जो परदेस चले जाते हैं ना...वो परदेशी हो जाते हैं...."
"ओहो.... देखो जरा फ़ोन बज रहा हैं सोमू का ही होगा.. "
फ़ोन की घंटी सुनते ही पति की बात को बीच में ही काट दिया मीना जी ने।
"पापा अच्छा किया आपने याद दिला दिया कि आज मम्मी कर जन्मदिन हैं मुझे तो ये सब याद ही नहीं ..... जल्दी उन्हें फ़ोन दों मुझे एक जरूरी मीटिंग के लिए जाना हैं.... फिर टाइम नहीं मिलेगा ....।"
"देखो मैं कहती थी ना मेरा सोमू मुझे याद कर रहा तभी इतनी हिचकी आ रही थी... अब देखो उससे बात करते ही हिचकी बंद हो गई। " बेटे से मिली जन्मदिन की शुभकामनाएं मीना जी के चेहरे पर साफ़ झलक रही थी।
हरीश जी मन ही मन परमात्मा को धन्यवाद दे रहे थे.... जिन्होंने हिचकी रोक कर आज एक माँ के विश्वास की लाज रखी। ****
10. मुट्ठी भर ग़ुलाल
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बरामदे से अंदर आते ही प्रमिला जी ने घर की बड़ी दादी को प्रणाम किया,..."प्रणाम अम्मा कैसी है आप...?
मैं तो ठीक हूँ... पर तेरी अक्ल पर पत्थर पड़े हैं क्या?...जो यें रंग ग़ुलाल से सज़ा थाल लेकर आई हैं... मेरे पोते जसराज को गये महीना भी नहीं हुआ.... तूने कैसे सोच लिया कि हम रंग खेलेंगे..?
"अम्मा मुझें पाता हैं,...आपका दुःख मुझसे छिपा नहीं हैं।जसराज और मेरा विराट एक साथ बड़े हुए है...एक स्कूल, एक ही कॉलेज और बॉर्डर पर भी दोनों साथ थे.... पर देखिये ना देश के लिए शहीद होने का सौभग्य जसराज को मिला....। "
" बस कर प्रमिला.... "
जवान पोते के गम में दादी का हृदय फट रहा था...मगर सबके सामने आँसू बहाकर वो पोते की शहादत का अपमान नहीं करना चाहती थी।
" अम्मा, ये रंग मैं मानसी के लिये लाई हूँ... उसके जीवन में मैं अपने विराट के रंग भरना चाहती हूँ.. "
"क्या...मेरे जसराज की मानसी...नहीं ये... कभी..".
अम्मा आगे कुछ कहना चाहती.. पर दूर से आती मानसी का वैधव्य रूप आज उनकी आँखो में शूल सा चुभ गया..... प्रमिला जी की थाल से मुट्ठी भर ग़ुलाल लेकर उन्होंने स्वयं मानसी की साड़ी पर उढ़ेल दिया। ****
11. संकीर्ण सोच
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"निर्मला ओ निर्मला...."
निर्मला जी ने पीछे मुड़कर देखा,कॉलेज की सहेली उषा उन्हें पुकार रही थी।
"अरे उषा तू यहां कैसे....?"कई सालों के बाद मिलने की खुशी दोनों सहेलियों के चेहरे पर साफ झलक रही थी।
"हम तो यहां वो नया फार्महाउस खुला है ना....उसमें आते हैं फल सब्जियां सब ऑर्गेनिक मिलती है.... हष्ट पुष्ट गायों का दूध पनीर सब मिलता है...दूर-दूर से लोग आते हैं इस फार्म हाउस में..... थोड़ा महंगा हैं, पर स्वस्थ रहने के लिए इतना तो कर ही सकते हैं....तुम भी कभी आकर देखना ....."
हाँ जरूर.....आओ घर चलकर बातें करते हैं... तुम्हें अपनी बहु के हाथों की इलाइची वाली स्ट्रांग चाय भी पिलाऊंगी.निर्मला जी ने कहाँ।
. "क्या तुम्हारी बहु हाउस वाइफ.... तो बेटा..वो भी यही हैं क्या... उसने अपनी इंजीनियरिंग पूरी की या नहीं.... खुद तो कभी इस छोटे से शहर से नही निकले नहीं और बेटे को भी यही बसा लिया...."
" बस-बस आराम से.. "सहेली की बातों को बीच में ही काटकर निर्मला जी ने कहाँ,
"उषा,मेरा बेटा एग्रीकल्चर इंजीनियर(कृषि अभियंता)हैं, और मेरी बहु जानवरों की डॉक्टर हैं... और तुम जो इस छोटे से शहर के बड़े से फार्म हाउस में आते हो ना....वह इन दोनों की मेहनत का नतीजा है, पढ़ लिखकर सब बड़े शहर में रहना अपनी शान समझते हैं.....मेरे बेटे बहू ने अपनी काबिलीयत से छोटे से शहर में बड़ा काम किया है। "
" आंटी जी प्रणाम....आपकी इलायची वाली चाय.. "निर्मला जी की बहू चाय लेकर सामने खड़ी थी लेकिन अपनी संकीर्ण सोच के कारण उषा जी अब निर्मला जी और उनकी बहू से आँखे नही मिला पा रही थी। ****
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क्रमांक - 006
जन्मतिथि : 01 सितम्बर, 1946
जन्मस्थान : इटावा - उत्तर प्रदेश
पिता : प्रो. आई. डी. दुबे
माता : श्री मती माधवी दुबे
शिक्षा : एम. ए. (हिन्दी, संस्कृत), पी-एच. डी.
व्यवसाय - पूर्व अध्यक्ष - हिन्दी विभाग
पी. जी. कालेज (आगरा वि. विद्यालय)
लेखन : -
निबन्ध, शोध, समीक्षा, साक्षात्कार,काव्य, लघुकथा, इतिहास, सन्दर्भ,कोश आदि से सम्बन्धित
प्रकाशित पुस्तकें : -
एक पल के लिए,
मधुमालिका,
बोलती यादें,
यादों के साये,
सिन्धु सीपी में,
धूप और दीप,
ठहरे हुए पल,
समान्तर विमर्श,
हिन्दी लघुकथा :प्रासंगिकता एवं प्रयोजन,
हिन्दी लघुकथा -:मर्म की तलाश,
हिन्दी लघुकथा :स्वरूप एवं सार्थकता
हिन्दी भाषा के विविध आयाम
आदि 60 से अधिक पुस्तकें /ग्रन्थ प्रकाशित
सम्मान : -
- उ. प्र. हिन्दी संस्थान द्वारा पत्रकारिता में दो बार और समग्र साहित्य पर साहित्य भूषण (दो लाख की धनराशि सहित्) सम्मान प्राप्त।
- भारत में 200 से अधिक सम्मान तथा अनेक मानद उपाधियाँ। मारिशस, कम्बोडिया, इंडोनेशिया, वियतनाम में
स्तरीय सम्मान।
रचनाधर्मिता पर प्रसिद्ध विद्वानों द्वारा दस ग्रन्थ प्रकाशित।
- रचनाधर्मिता पर अनेक शोध कार्य और अनेक राष्ट्रीय पत्रिकाओं के अंक और विशेषांक प्रकाशित।
- भाषा एवं साहित्य के उन्नयन एवं प्रचार-प्रसार हेतु सात देशों की यात्राएँ
- अनेक संस्थाओं, पत्र - पत्रिकाओं की
ट्रस्टी, अध्यक्ष, सचिव, परामर्शक, संरक्षक, आजीवन सदस्य
- सोशल मीडिया में निरन्तर सक्रिय।
विशेष : -
- अनेक पत्रिकाओं का सम्पादन एवं विशेष अंकों का अतिथि सम्पादन। अनेक पुस्तकों का सम्पादन।
- अनेक सन्दर्भ - ग्रन्थों, कोश-ग्रन्थों, शोध - ग्रन्थों, इतिहास-ग्रन्थों में उल्लेख एवं परिचय प्रकाशित।
पता : जी - 91, सी, संजय गान्धी पुरम ,
लखनऊ - 226016 उत्तर प्रदेश
1. सुरक्षा कवच
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शहर में बहुत - सी दूकानें खुलने लगीं थीं। पान के शौकीन सरयू प्रसाद लखनवी को पता चला कि गली के मोड़ पर कालू पान वाले की ठेलेनुमा दूकान भी आज खुल गयी है। वे अपने को रोक नहीं पाये और छड़ी उठा कर पीछे के दरवाज़े से दबे पाँव खिसक लिए। कालू से दो पान लगवाकर मुँह में एक ओर रखते हुए वे अपने पक्के
मित्र श्रीनिवास के घर की ओर बढ़ गये। दरवाज़े की घंटी बजायी-एक बार, दो बार, तीन बार। कोई उत्तर नहीं। दीवार की टेक लेकर वे खड़े हो गये और अतीत की यादों में खो गये। आहट लगी तो उन्हें लगा कि श्रीनिवास ने खुशी से चीखते हुए उन्हें गले से लगा लिया। दरवाज़ा खुला तो श्रीनिवास आश्चर्य से बोल पड़े, "आप यहाँ, क-क-कैसे, यानी कि यहाँ कैसे! मतलब ठीक तो हैं!"
पान भरे मुँह को ऊपर उठा कर सरयू प्रसाद बोल पड़े, "ओ हो, मियाँ, अन्दर तो आने दो।"
"जरा यहीं ठहरिए" कहकर वह अन्दर गये और सेनेटाइजर की शीशी लेकर आ गये और उनके हाथों में कुछ बूँदों को डालकर उनकी छड़ी पर छिड़कने लगे। उसके बाद उन्होंने जूते बाहर ही उतरवा लिए और आगे - आगे कुछ दूरी
बनाकर चलते हुए उन्होंने दरवाज़े के पास रखी कुर्सी पर बैठने का इशारा किया। पोते - पोतियो को प्यारे दादू के
आने की आहट मिली तो वे चीखते हुए बाहर आने लगे। उससे पहले ही झट से उठकर श्रीनिवास ने अन्दर की ओर वाला दरवाज़ा बन्द कर दिया और कोरोना महामारी के विषय में बातें करने लगे। सरयू प्रसाद की पान की पीक बाहर आने को मचल रही थी। वे मुँह उठाकर दरवाज़े के एक ओर रखे गमले पर पिचकारी मारने के लिए घूमे
ही थे कि श्रीनिवास चीख उठे, "अरे - अरे, क्या कर रहे हैं आप! इधर नहीं, बाहर जाकर नाली में थूकिए, भाई!"
न पानी, न जूस, न चाय, न भाभी के हाथ के बने गर्म - गर्म पकौड़े, न तश्तरी में लौंग लगे पान के बीडे, न उत्सुकता, न प्रसन्नता! सरयू प्रसाद को लगने लगा कि रिश्ते का सारा जूस कोरोना ने चूस लिया और आत्मीय घनिष्ठ सम्बन्ध एक कंकाल मात्र रह गया। उन्हें घुटन भरे जेल के कमरे जैसा अपने घर का एकान्त कमरा सुरक्षा कवच लगने लगा और वह अपनी छड़ी उठाकर घर की ओर चल दिये। ****
2. दर्द की रेखाएँ
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"अब इनका जल्द ही कुछ अलग इन्तज़ाम करो,"मालती झुंझलाकर गुस्से में बोले चली जा रही थी , "मम्मी जब तक थीं,तबतक तो ठीक था,लेकिन अब इनको कौन झेले ?" उसका मुँह बराबर चल रहा था, " दोनो बच्चे बिगडे जा रहे हैं ।रात भर खाँसते रहते हैं ।सोने नहीं देते । दिन में पूरे घर में चलते रहते हैं। दो घण्टे भी इनसे शान्ति से बैठा नहीं जाता ।स्कूल से बच्चों के लौटने से घण्टा भर पहले ही आफत मचा देते हैं और गेट तक चक्कर लगाते रहते हैं।
सुबह-शाम बच्चों के पीछे लगे रहते हैं ।इनकी वजह से बच्चों की पढाई का नुकसान हो रहा है। परसों से मयंक के इम्तहान शुरू हो रहे हैं ।मुझे तो उसकी बहुत चिन्ता हो रही है ।--तुम ऐसा करो,ऊपर बरसाती में इनके रहने का
इन्तज़ाम कर दो ।"
नरेश हकबका गये," कैसी बातें करती हो ?
बच्चों को सामने न देखकर बाबू जी कैसे रह
पायेंगे अकेले? सीढ़ियाँ भी चढ-उतर नहीं पायेंगे ।"
"तो वृद्धाश्रम भेज दो, "मालती तपाक से बोली।
"हद हो गयी,"गुस्से के कारण वह और कुछ कह
नहीं पाया । तेज़-तर्रार पत्नी के सामने उसकी एक न चलपायी और बाबू जी के बिस्तर-कपड़े और कुछ ज़रूरी सामान ऊपर बरसाती में पहुँचा दिया गया ।
दिन भर घर में चहल क़दमी करने वाले,बच्चों के साथ खेलने वाले,बेटे और बहू का मुँह देख कर जीने वाले बाबूजी अपनी बेचैनी में मौन हो गये । परीक्षा देते समय मयंक के सामने दादा जी खड़े हो जाते। उनके चेहरे पर उपेक्षा,
अपमान और अकेलेपन के दर्द की अनगिनत रेखाएँ उभर आतीं । ****
3. वसीयत
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"कोई वसीयत भी लिखा रखी है क्या इन्होंने", तौलिए से हाथ पोछते हुए दिनकर ने पत्नी से पूछा।
"मैं क्या जानूँ, पापा जी क्या मुझे बताकर अपने काम किया करते हैं", शीला ने मेज से नाश्ते के वर्तन समेटते
हुए कहा।
"असल में मुझे इनके सभी निवेश और
ज़मीन - मकान बगैरह के कागज़ात देखने हैं। मैं समझता हूँ मुझे वे सभी अपने पास रख लेने चाहिए।" दिनकर की आँखें चमक रहीं थीं।
" क्यों ", शीला के मुँह से निकल पड़ा।
" क्यों - - क्या पागल हो गयी हो? कोरोना महामारी बुरी तरह फैली हुई है।कोविड - 19 से बड़े - बूढ़े लोग दम
तोड़ रहे हैं। आजकल तो किसको क्या हो जाये, कोई ठिकाना है! "दिनकर चिल्ला उठा।
" देखिए, पहले पापा जी के खान पानऔर दवाइयों पर ध्यान देना है, जो ज़रूरी है। उन्हें कुछ नहीं होगा। अभी-अभी तो रिटायर हुए हैं। अगर आपको परेशानी हो रही हो, तो छोटे भैया को बोल दो, वह ले जायेंगे", शीला की बात से दिनकर को और भी गुस्सा आ गया, " अरे मूरख, समझती क्यों नहीं!इन्हें रखने से तो मुझे फ़ायदा ही है। मैं तो दूसरी बात कह रहा था", दिनकर की इस दूसरी बात को समझने से पहले ही शीला पापा जी के लिए काढ़ा बनाने के लिए चल दी। ****
4. मज़बूर हैं हम
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"पापा, आज मत जाओ, तुम्हें बहुत तेज बुखार है।" खांसते हुए पापा ने कहा, "नहीं जायेंगे, तो खायेंगे क्या हम सब और सारी सब्जियाँ भी तो खराब हो जायेंगी। लड़का होता, तो उसे भेज देते अपनी जगह, ठेला लेकर तुझे तो
भेज नहीं सकते बिटिया। क्या करें! मजबूर हैं हम। मजदूर हैं हम। "
कन्धे पर पड़ा उसका अंगौछा उसके आँसू पोछ कर मास्क बन गया! ****
5. डर लग रहा
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एक साल बाद आज भोपाल में रह रही बेटी का दिल्ली में अपने भाई केयहाँ रह रही 78 साल की बीमार माँ के पास फोन आया, "कैसी हैं मम्मी! हमारे शहर में भी बुरी तरह फैल रहा है कोरोना। हमारी कालोनी की मोनिका की रिपोर्ट पॉजीटिव आयी है। हमें तो बहुत डर लग रहा है, मम्मी!" ****
6. अन्तर
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" मुखौटा और मास्क में क्या अन्तर होता है, साहब", सड़क पर पीछे चलती हुई एक मानव छाया ने आगे वाली से पूछा।
"मुखौटा अदृश्य और मास्क दृश्य होता है", आगे वाली छाया ने जवाब दिया।
"समझा नहीं, साहब", पीछे वाली ने भोलेपन से कहा ।
"मुखौटा खास के लिए और मास्क आम आदमी के लिए होता है, अब समझा ", आगे वाले ने पीछे मुड़कर जोर से कहा।
"जी, समझ गया, साहब। बिलकुल समझ गया," पीछे वाली छाया ने झुकते हुए सिर हिला दिया। ****
7. डंडा
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"मास्क नहीं लगाया। ला, दे जुर्माना",
सिपाही ने सड़क पर डंडा खटखटाया।
"साहब, हम पहने तो हैं। आधा मुंह ढके हैं।"
"यह अंगौछा है, मास्क नहीं ।"
"साहब, यह भी तो धूप, हवा, माटी से बचाता है।"
"लेकिन यह कीटाणु रक्षक नहीं है। मास्क लगाना बहुत जरूरी है।"
"वह तो मंहगा आता है, साहब। हम मजदूरी कर के भी पूरे घर का पेट नहीं भर पाते हैं।"
"तो सस्ता ले ले दस रुपये वाला, लेकिन लगा जरूर। आगे वाली परसादी वाले की दूकान से खरीद ले
सौ रुपये में बारह मिल जायेंगे। उस ठेले वाले धनुआ को देख, उसी से लेकर लगाता है और आज तक उसे कोरोना नहीं हुआ। "
" साहब, वह तो आपको देख कर लगालेता है और उसे तो उसका मामा फ्री में भेजता है। उसका कौन पैसा लगता
है। "
" अब तू यह बता कि तुझे मास्क लगाने से मतलब है या कि उसकी कीमत से और दुनिया वालों से, ला, दे जुर्माना! "
सिपाही ने सड़क पर और जोर से अपना डंडा खटखटाया। ****
8. प्यार और परख
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" अरे,श्रद्धा,तूने सूट क्यों पहन लिया? अपने खास रिश्तेदार के बेटे की शादी है।
परिवार के सारे लोग होंगे,पड़ोसी भी होंगे,क्या कहेंगे ! लल्ला के साथ सूट में तू अच्छी ना लगेगी ! मैं बताऊँ,तू लाल वाली साड़ी पहन ले और सफेद प्लास्टिक
के फूलों का गजरा लगा ले अपनी लहराती हुई चोटी में । सच कहूँ,तू बहुत ही सुन्दर लगेगी ।"
" पर,मम्मी जी,साड़ी पहनने में बहुत देर लग जायेगी ", श्रद्धा ने बहाना खोज लिया।
"कोई ना लगेगी ।मिन्नी और दामाद जी भी तो अभी तक नहीं आये हैं। सब लोग साथ ही तो चलेंगे - - -ये ल्लो,नाम लिया और आ गये ।"
सासू जी बालिश्त भर का टॉप और कसी हुई जींस पहने हुए अपनी बेटी मिन्नी को बड़े गर्व और प्यार से निहारती हुईं गले लगाने दौड़ पड़ीं । *****
9. हम जो हैं ना
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"फैला कोरोना, फैला कोरोना, सब कह रहे हैं नानू। इस कोरोना से लोग मर जाते हैं क्या?"
नानू के जवाब देने से पहले ही नाती बोल उठा, "तुमको कुछ नहीं होगा,नानू, तुम मत मरना! हम जो हैं ना !" ****
10. परवाह
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" अरे भई, अब और कितनी देर लगाओगी । जयमाल पड़ जायेगी,तब पहुँचोगी ?"
"बस,पाँच मिनट। प्रज्ञा को भी तो तैयार करना था। इसीलिए कुछ देर लग गयी ।"
"प्रज्ञान तैयार हो चुका?"
"अब पूरी फौज-पलटन नहीं जायेगी । वह अपनी बुआ के पास बना रहेगा ।"
"अरे,ऐसा न करो । वह भी तो अभी छोटा है।
उसका भी मन हो रहा होगा शादी में जाने का ।"
अमरेन्द्र और मीरा बात कर रहे थे ।प्रज्ञान दरवाज़े के पीछे खड़ा सुन रहा था । हिम्मत कर वह अपने पापा के पास आकर जाने के लिए कहने लगा ,लेकिन मीरा ने उसका हाथ
झटक कर दूर कर दिया और साफ मना कर दिया । भारी मन से अमरेन्द्र मीरा के पीछे चलते हुए बोल पड़ा,"लोग कहेंगे कि सौतेला है,इसीलिए साथ नहीं लायी हो ।"
मीरा ने मुँह बनाते हुए कहा,"कहें तो कहते रहें।
मैं लोगों की परवाह नहीं करती ।"
मैरेज होम पहुँचने पर कार से जब वे उतरे,
तब गिफ्ट पैकेट नदेखकरउसको लेने के लिए घर लौटे ।प्रज्ञान सुबक रहा था ।प्रज्ञा ने प्रज्ञान को देखकर हाथ फैला दिये और प्रज्ञान प्रज्ञा से लिपट कर रोने लगा ।दोनो फूट-फूट कर रो रहे थे ।मीरा के भी आँसू बहने लगे ।प्रज्ञान को अपनी बाँहों में भर कर वह उसे चूमने लगी ।
उसे भी तैयार कर जब वे सब कार में बैठे,दोनो बच्चे एक दूसरे को छू रहे,धक्का मार रहे थे और खिलखिला कर हँस रहे थे । ****
11. संस्कार
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कुन्दन लाल जी का कल रात अचानक देहावसान हो गया। सुबह काम करने वाली सलोनी जब आयी तो
उनके शव को एम्बुलेंस से शवदाह गृह ले जाया जा चुका था। वह भी रिक्शा कर वहाँ पहुँच गयी। शवदाह की प्रारंभिक प्रक्रिया पूरी कर कुन्दन लाल जी के बेटे - बहू वहाँ से चले गये और वह बाहर जमीन पर बैठ गयी और अपने आंसुओं ओ रोकने की कोशिश करने लगी। तभी एक कर्मचारी हस्ताक्षर के लिए आया और नाम पुकारने पर कोई नहीं दीखा तो सलोनी ने आगे बढकर हस्ताक्षर कर दिये।
कितना समय लगेगा, पूछने पर उसने बताया कि अभी टोकन मिलेगा।. कुछ घंटे लग सकते हैं। अपने छोटे-छोटे बच्चों को घर छोड़कर वह आ गयी थी।. अब यहाँ से भी नहीं जाना चाहिए उसे। वह वहीं बैठकर फूट फूट कर रो पडी। उसे लगने लगा कि उसके पिता का ही साया उसके सर से उठ गया। ****
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क्रमांक - 007
जन्म स्थान: नैनीताल- उत्तराखण्ड
शिक्षा : एम..ए,. एम .फिल. संस्कृत
अध्यापन कार्य - अल्मोड़ा , तंजानिया- पूर्वी अफ्रीका,शिमला, शिलोंग,व दिल्ली में
सम्प्रति : गृहणी
लेखन : हिन्दी और कुमाउनी में कविता ,हाइकु,तांका,वर्ण पिरामिड ,दोहा , गीतिका ,मुक्तक,लघुकथा आदि
प्रकाशित कृतियाँ : -
ओ माँ
उपन्यास 'खट्टे मीठे रिश्ते 'में सहभागी
सम्मान : -
- २०१० -२०११ में उद्भव मानव सेवा सम्मान
- शोभना काव्य सृजन सम्मान 2012
- कुमाउनी साहित्य सेवी सम्मान 2019
पता : A 45, Regency Park 1, DLF Phase 4
Gurugram - Haryana -122009
1. मासूम सवाल
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अम्मा सुबह स्नान घर में फिसल कर गिर पड़ीं .उनकी कराह सुन बेटा सुमंत दौड़ा आया उसने पत्नी रजनी को आवाज़ दी.दोनों ने मिलकर जैसे तैसे दरवाज़ा खोला उन्हें बिस्तर पर बैठाया.उनकी वेदना समझ कर तुरंत उन्हें अस्पताल ले गए.जाँच और एक्स- रे से पता चला मल्टिपल फ्रैक्चर हैं अतः उन्हें अस्पताल में ही रखा गया.
उनका दस वर्षीय पोता बंटी स्कूल से लौटने पर उन्हें न देख रोने लगा कि बिना बताये दादी कहाँ चली गयी ? मम्मी पापा ने ज्यों ही बताया तो बंटी ने और ज़ोर ज़ोर से रोना शुरू कर दिया.
उसकी ज़िद थी कि उसे फ़ौरन अस्पताल ले जाकर दिखाया जाय कि दादी वहीँ है.उसे लगा कि ये दोनों उसे झूठ कह रहे हैं.ये लोग ज़रूर दादी को किसी मंदिर या और किसी जगह छोड़ आये हैं क्योंकि चोट से दादी की हड्डियाँ टूट चुकी हैं.वह खंडित तो नहीं हो गयी ?पिता सुमंत आश्चर्य में बोले-'' बेटा ऐसा कुछ नहीं ,ये किसने कह दिया ?
बंटी ने माँ की ओर इशारा किया ,रजनी अवाक् रह गयी फिर याद आया.. अभी दो महीने पहले जब वे इस शहर में आये थे.बरसात का मौसम होने के कारण सामान का ट्रक कुछ दिनों के बाद पहुँचा था .कुछ सामान टूट भी गया था.घर के पूजा स्थान में सभी सामान करीने से सजाते हुए रजनी ने देखा कि एक मूर्त्ति के पीछे दरार सी पड़ गयी है..उसने उस को एक किनारे रख दिया ....पास में बेटा बंटी जो सामान उठा -उठकर उसे दे रहा था पूछने लगा ...''माँ !ये क्या ?ये मूर्त्ति यहाँ क्यों रख रही हो ?उसने उत्तर दिया ..''बेटा !देखो न ?इसके पीछे दरार सी पड़ गयी है.अब यह मूर्त्ति पूजा के लायक नहीं .खंडित हो गयी है न ? इसलिए इसे किसी नदी में प्रवाहित कर देंगे या किसी मंदिर में रख देंगे .इसकी जगह नई मूर्त्ति लेकर स्थापना कर देंगे.''
अब बंटी को दादी की चिंता थी. ****
2. अनोखा रिश्ता
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लीना को नए शहर की नयी कॉलोनी में आये हुए अभी कुछ ही दिन बीते थे.किसी से जान पहचान भी अभी नहीं हो पाई थी। वह सोचती एक बार सैटल हो कर ही पड़ोस में मेलजोल शुरू करेगी। पड़ोस से भी अभी तक कोई औपचारिक रूप से पूछने नहीं आया था। अक्सर सामने वाले घर में कुछ लोग दिखाई देते। अधेड़ पति पत्नी और एक बीस बाइस साल की बेटी। छुट्टी वाले दिन या तीज त्यौहार पर एक युवक भी दिखाई देता। पर उसकी चाल ढाल उसे बड़ी अजीब सी लगती। कौन होगा यह ?उसके मन में उत्सुकता बनी रहती।
आज राखी का दिन था। लीना अपने भाई की राह देख रही थी। उसने देखा सामने वाले घर में आज उस लड़के के साथ सजे धजे दो हिजड़े भी दिखाई दिए। उसे आश्चर्य हो रहा था कि शादी व्याह में तो इनका आना जाना होता ही है पर आज के दिन ?
लीना उन्हें देखते ही असहज सी हो गयी। बचपन से ही उनके बारे में सुनती आई थी। मांग पूरी न हो तो बदतमीज़ी पर उतर आते हैं.,बच्चों को चुरा कर अपना जैसा बना देते हैं आदि। वह बरामदे से लौटने को ही थी। तभी शायद एक की निगाह उस पर पड़ गयी और शायद उसके मन को भांप गयी बोली
ओ बहन ! घबरा मत। आज ते तेरे घर नहीं आ रहे। जब खुश खबरी होगी तो आएंगे ,
कुछ आवाज़ें सुन पति पत्नी निकल कर आये और बड़े ही प्रेम भाव से उनकी अगवानी कर अंदर ले गए। बाद में वे उन्हें छोड़ने आये ,. लीना को अभी तक वहीँ खड़ी देख दोनों पति पत्नी उसके पास आये .जान पहचान शुरू हुई
''आप लोग अभी यहाँ शिफ्ट हुए हैं न?
..''हम लोग पहले मिल भी न पाए न किसी चीज़ के लिए आपसे पूछा।''लेना ने कहा कोई बात नहीं अंकल आंटी मैं भी न आ पाई ''
खैर अब बताइये क्या परेशानी है कुछ मदद कर सकू तो ?''
नहीं बेटा ! अब सब ठीक है। ये जो हिज़ड़े तुमने देखे न इन्होने ही बुरे समय में मानवता का परिचय दिया।''
आंटी ने रो रो कर बताया। बेटी दूसरे शहर में एम् बी ए करती है.पिछली दीवाली में घर लौट रही थी। ट्रेन लेट होने से स्टेशन से ऑटो ले आ रही थी की कुछ गुंडों ने पीछा कर ऑटो वाले को मार पीट कर रोमी को अपना शिकार बनाना चाहा। अँधेरे और बारिश के कारण कोई मदद करने वाला नहीं था। तभी ये किसी के यहाँ गए बजा कर लौट रहे तो लड़की के चीखने की आवाज़ सुन उसे बचाने आये .और ईश्वर की कृपा से अनहोनी होने से बच गयी। रात भर पुलिस खोज करती रही। बेटी के अस्त व्यस्त कपड़ों को ठीक करने वे अपने घर ले गए फिर वह इसे अपने साथ आधी रात को लाया। पता है हमने ना समझी और जल्दबाज़ी और अपने पूर्वाग्रहों से ग्रसित हो उसे ही कसूरवार मान कर पुलिस के हवाले किया तो बेटी ने सच्चाई बताई। ..
शर्मिंदा होकर हमने माफ़ी मांगी। पुलिस की मार से लहू लुहान होकर भी उसने मुस्कुरा कर बेटी से कहा ''सुनो बहन !हमारा रूप ही दोषी है। मैंने तुम्हे अपनी बहन मान कर ही बचाया अब तुम जो भी मानो भाई या बहन। चलता हूँ। ''
तभी से रोमी और उसमे एक अनोखा भाई बहन का रिश्ता जुड़ा है। ****
3. कलश परम्पराओं का
****************
अनीता दीपावली की तैयारियों में दुगुने उत्साह से लगी हुई थी। साफ सफाई ,रंग रोगन के बाद अल्पना ,बंदनवार और अन्य सजावट।अनेक पकवान बनाने की तैयारियां ,मन ही मन उसे अपेक्षा थी कि उसकी बहू भी जरूर हाथ बटाएगी। पर निराशा ही हाथ लगी। सोनी को किसी भी काम में न तो दिलचस्पी दिखी न सीखने समझने का उत्साह । इस बार बहू की पहली दीवाली थी।
तभी पड़ोस में नयी आई हुई सुनीता आकर बोली ''आंटी जी मुझे ये सब कुछ सिखा दीजिए। अभी तक कॉलेज और नौकरी के चक्कर में माँ और भाभी को ही काम करते देखा और थोड़ी मदद कर देती। अब विवाह के बाद तो सभी कुछ सीख कर ही गृहस्थी बसानी है .सोचा तो था घर ही जायेंगे पर मुश्किल लग रहा है। मेरे सास ससुर ही यहां आ जायेंगे। उनके आने से पहले ही मैं तैयारी करना चाहती हूँ बाकी सासू माँ बता देंगी। ''
अनीता ने कहा ,,अरे ! क्यों नहीं ?तुम्हें जो भी पूछना है। या मेरी जो भी मदद चाहिए बताओ। सोनी भी जैसे सब जानने को उत्सुक थी हर बात का महत्त्व,उसके पीछे की कथा, तर्क वितर्क।वह कुछ बातें लिख भी रही थी।
फिर कुछ सोचती हुई बोली ''आंटी ! हम पढ़े लिखे होने के भ्रम में अपनी परम्पराओं को हेय समझ रहे हैं और दूसरों के नए पर्व त्योहार मनाने लगे हैं। .''
हाँ ! बेटी ! शायद हम भी भूल कर रहे हैं अपनी नयी पीढ़ी को अच्छे संस्कार नहीं दे पा रहे।"
तभी सोनी सर झुकाये सामने आ गयी और बोली माँ ! सुनीता सच कह रही है। मैं भी इसी भूल में जी रही थी. अब बताइये मुझे क्या क्या करना है? ''
अनीता जी की आँखें छलक आईं।
''सोनी और सुनीता के रूप में उन्हें परंपरा के कलश संभालने के भागीदार मिल गए । '' ****
4. मददगार
******
कोरोना के कारण कॉलोनी में भी आना जाना बंद ही था। आज जब मैना देवी सुबह दूध ले ने लॉबी में गयी तो पडोसी समीर जी को परेशां हालत में फ़ोन पर किसी से बात करते देखा।आवाज़ में घबराहट और मायूसी थी।
उनसे कुछ पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। कुछ समय से दोनों परिवारों में किसी गलत फहमी से बोलचाल बंद थी। जबकि कई वर्षों से साथ रहे और घर परिवार जैसे सम्बन्ध रहे थे।
दोनों के बच्चे आपस में साथ खेलते थे पर अब माता पिता के कारण उन्हें भी दूर रहना पड़ रहा था।
गार्ड से पता चला कि उनकी पत्नी रेखा की तबियत बहुत गंभीर है ।वे एम्बुलेंस का इंतज़ार चार घंटे से कर रहे हैं। मैना तुरंत ही घर वापस आकर पति सुरेश को बोली --
'जल्दी से गाड़ी निकालो। रेखा की हालत ठीक नहीं। उसे अस्पताल ले जाना है। '
ओह !पर तुम क्यों चिंता कर रही हो ? तुम्हे पता तो है। उनका हमारा आपस में क्या लेना देना ?पड़ोस में और लोग भी हैं। '
अरे वो सब याद करने का समय नहीं है। संक्रमण के दर से कोई आगे नहीं आ रहा है.
''अभी समय की पुकार यही है कि हम उनकी मदद करें। पडोसी ही मुश्किल वक्त में ईश्वर के बाद याद आता है ।''
''पर क्या वो मदद स्वीकार भी करेंगे समीर के गुस्से को तो तुम जानती हो। ''
आपस में तर्क जारी रखते हुए सुरेश और मैना फिर लॉबी में आये। अभी तक एम्बुलेंस का कोई पता नहीं था।
सुरेश ने समीर को रेखा को अस्पताल ले जाने की तैयारी करने को कहा। तो समीर असमंजस में पड़ उसे देखता रह गया।
''अरे !देर मत कर भाभी को जल्दी डॉक्टर की ज़रुरत है ,
"रिंकू की चिंता मत कर उसे मैना संभाल लेगी ।
पर सुरेश !तू मेरी मदद ?"
"अब चुप कर ,अगर मैं इस हालत में होता तो क्या तू नहीं आता ? ''
सुरेश ने उसके कंधे पर हाथ रखा। मैना
रिंकू को साथ लेकर आई। कार में बैठ कराहती हुई रेखा दर्द में भी मुस्कुरा उठी उसने आँखों में कृतज्ञता के आंसू छलक आये। ****
5. खुशियों की दस्तक
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आज नंदा के जीवन में खुशियों ने दस्तक दे ही दी।लोकेश ने जब उसे बताया कि आज उसकी दसवीं कक्षा का रिजल्ट आ गया और वह पास हो गई।दोनों बच्चे भी बहुत खुश थे मां की इस उपलब्धि पर।सुनते ही नंदा खुश होकर उनसे लिपट गई।पति से बोली "यह तो आपका ही करिश्मा है।अगर आपने वर्षों पहले मेरे हाथ में कलम दवात थमाते तो मैं गंवार ही रह जाती"
"नहीं नंदा !यह तो तुम्हारी लगन और मेहनत का फल है . अब तुम निश्चिंत हो आगे की पढ़ाई जारी रखो”
नंदा ने लोकेश की बातें सुनी कि नहीं वह तो यादों की गलियों में पहुंच गई थी।
जब नंदा पति के साथ शहर तो आ गईं लेकिन पग-पग पर उसे अपने अनपढ़ होने का दुख सालने लगा था।बच्चों का एडमिशन अच्छे पब्लिक स्कूल में हो गया था।कॉलोनी में सभी महिलाऐं पढ़ी लिखी थी।उनसे मिलने पर वह बातें कम ही कर
पाती। इसीलिए वह घर से बाहर काम ही निकलती। घर के कामों सिलाई ,बुनाई,अचार ,पापड़ बनाने में कुशल थी अतः कुछ महिलाएँ उसकी सहेलियां बन तो गई थी पर वह उनकी तरह पढ़ी लिखी न होने से उदास हो जाती।
कई बार तो फिर गांव लौट जाना चाहती।तब लोकेश उसे समझाता।
देखो ! तुम अपने अनपढ़ होने से इतना दुखी हो तो सोचो बच्चों की पढ़ाई कैसे होगी ?अकेले वे कैसे रहेंगे और गांव में पढ़ाई किस तरह की होगी? क्या तुम उन्हें अपना जैसा ही बनाना चाहती हो?
उसकी बातें सुन नंदा की आंखों से आंसू झरने लगते।
तभी एक दिन लोकेश उसके लिए कुछ किताबें,चार्ट कलम और दवात ले आया उसे देकर बोला था ।देखो अगर तुम पढ़ना चाहती हो तो मैं तुम्हारी पूरी मदद करूंगा साथ में बच्चे भी तुम्हे मदद करेंगे।
पहले तो नन्दा को विश्वास ही नहीं हुआ कि घर गृहस्थी और बच्चों के बीच वह कुछ कर पाएगी।जब पढ़ने की उम्र थी और शौक भी,तब माता पिता ने ज़रूरी नहीं समझा ।बेटे के भविष्य के बारे में ही सदा प्रयत्नशील रहे।बेटी का क्या उसे तो घर परिवार ही संभालना है। वह स्त्री है तो वही काम सीखे।
अब वह दिखाना चाहती है स्त्री होकर भी सपनों की उड़ान भरी जा सकती है।
नंदा ने तभी से पढ़ना शुरू किया।पति और बच्चों से बोली.". मैं खूब मेहनत करूंगी पर मुझे अनपढ़ पत्नी और मां न रहने देना मेरा साथ देना।"
तभी बच्चे बोले माँ अब पार्टी तो होनी चाहिए। नंदा अतीत से वर्तमान में लौटी रसोई की ओर जाते हुए उसकी चाल में आत्मविश्वास झलक रहा था। ****
6. अपनी इज़्ज़त
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शोभित और राकेश कालेज के ज़माने के ज़िगरी दोस्त थे। हर अच्छे बुरे काम ,शरारतों के हमराज। इस बार कालेज में इस बैच के छात्रों ने मिलने का आयोजन रखा। सभी साथी बहुत ही उत्साहित थे एक दूसरे से मिलकर। कालेज के नए विद्यार्थियों ने इस कार्यक्रम के आयोजन का ज़िम्मा संभाल लिया था।
पुराने किस्से, नाच गाने खाने पीने के साथ सभी मस्ती में थे। तभी राकेश उठ कर बाहर चल दिया वह थोड़ा बेचैन लग रहा था । थोड़ा इंतज़ार कर शोभित उसे देखने बाहर चला आया। उसने देखा वह बरामदे में घूमता हुआ सिगरेट पी रहा था .शोभित उसके पास जाकर बोला ''अरे यार ! तुम यहाँ क्या कर रहे हो ?इतने अंतराल के बाद तो मिले हैं कितनी बातें करनी हैं ?''
''हाँ भई इतनी देर से बैठा तो था। अब सिगरेट के लिए आया हूँ बाहर। ले तू भी ले याद है कालेज के दिनों में साथ ही तो ये लत पाली थी। मैं तो चैन स्मोकर कर हूँ। ''
उसने सिगरेट निकाल कर शोभित को देनी चाही पर ये क्या ...पहले तो उसने हाथ के इशारे से मना किया। दुबारा कहने पर उसने छीन कर फेंक दी।
राकेश उसे देखता रह गया। ''क्या बात है ? तूने छोड़ दी ? कैसे ? अरे आज के खुशनुमा माहौल में एक दो कश तो लगा ले । कुछ नहीं होगा। ''
'' नहीं राकेश! मैं तो तभी चेन स्मोकर हो गया था। बाद में शादी के बाद पत्नी ने रोकना चाहा।एक दो बार कुछ दिन छोड़ी भी पर फिर उसकी गिरफ्त में इतना फँस
गया कि लगा अब अंतिम साँस तक साथ रहेगा।
''तो अब ?''
''मेरे बेटे के कारण बात ये है कि अक्सर शाम को पूरा परिवार साथ टी.वी. देखता। फिर भोजन का समय होता इस बीच नशा विरोधी विषय पर एक प्रोग्राम हर सप्ताह आता..पहला प्रोग्राम ख़तम होते ही मैं वहां से उठ कर चला गया तो आठ वर्षीय बेटा बोल पड़ा
'' हाँ जाने दो पापा को। वैसे भी ये प्रोराम उनके मतलब का नहीं है तो क्यों देखना? मैंने पलट कर पूछा तो उसने कुछ इस तरह मुझे कहा आप तो सिगरेट पीना छोड़ेंगे नहीं'' बस उसकी ये बात मेरे लिए अनमोल सीख बन गयी।
अगर अब मैंने इस लत को नहीं छोड़ा तो एक बेटे की नज़र में मैं कभी नहीं उठ पाऊंगा उसे कभी कुछ कहने ,रोकने के योग्य नहीं रह सकूंगा ''
''अब मैंने इसे छोड़ दिया है बच्चो के सामने अपनी इज़्ज़त की खातिर।''
दोनों कुछ समय चुप खड़े रहे।
राकेश ने भी सिगरेट को फेंक पैरों से कुचल दिया और शोभित के साथ हाल में लौट आया। ****
7. पितृ पूजा
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घर से जब चाची का फोन आया कि तीन दिन बाद घर पर कोई पूजा है और तुम्हें आना है तो सुदीपा सोचने लगी की कौन सी पूजा होगी अभी कोई त्यौहार भी नहीं,खैर .उसने हॉस्टल मैट्रन को बता कर जाने की तैयारी कर ली.शाम को घर पहुँच कर देखा सभी व्यस्त हैं. ख़ुशी का माहौल कम दिखा.
पूछने पर चाची बोली..’’बिटिया ! यह कोई आम पूजा नहीं है ?’’
असल में चाचा की लम्बी बीमारी,बेटी रूमी की शादी में देरी ,और इकलौते बेटे रवि का गलत संगति में पड़ कर भटकना..सभी परेशानियाँ एक साथ आ गयी हैं .इनको दूर करने के लिए पंडित जी ने जो उपाय बताया ,वही करना है’’
‘’क्या उपाय है चाची ?’’
‘’उनके अनुसार कई पीढ़ी पहले घर के कोई सदस्य की आत्मा नाराज़ हैं .शायद उनकी आत्मा अतृप्त रह गयी.इसी कारण ये सब हो रहा है .अब पुनः उनका अंतिम संस्कार विधि पूर्वक हो श्राद्ध आदि हो तो आत्मा संतुष्ट हो जाएगी.’’
अतः वही पितृ पूजा की तैयारी चल रही है.
सुदीपा सुन कर सन्न रह गयी
‘’चाची ! आप तो पढ़ी- लिखी हो ,शिक्षिका रह चुकी हो ,आप इन बातों को मानती हो ?कई पीढ़ी पहले जो भी रहा हो .मरने के बाद उसकी आत्मा का क्या अपनी ही संतानों का पीछा करती रहेगी ?वह दूसरी योनि में जन्म नहीं ले चुकी होगी?’’
‘’ एक बार सोच कर देखिए..चाचा की बीमारी का कारण उनका सेहत के प्रति लापरवाही ,अधिक काम करना, बच्चों को उनकी हर ख्वाहिश पूरी कर उन्हें अधिक स्वच्छंद बना देना नहीं है ?’’
तभी अन्दर कमरे से दादी के कराहने की आवाज़ सुनाई दी.घर में सभी इतने व्यस्त थे कि उनके पास जाने ,दो बोल बोलने का समय नहीं था.दयनीय हालत में थीं वे सुदीपा दौड़ती हुई दादी के पास गयी.
उसे अपने पुराने दिन याद आ गए जब सारा परिवार हँसी ख़ुशी साथ रहता था. दो वर्ष पूर्व माँ पापा के एक्सीडेंट में स्वर्गवास होने के बाद उसे हॉस्टल जाना पड़ा और दादी को चाचा -चाची के पास..
अचानक वर्तमान में लौटती सुदीपा दुःख और रोष में बोल उठी
‘’चाची! पितृ पूजा छोड़ जीवित दादी की पूजा नहीं..उचित देखभाल ही कर देती आप ? शायद भविष्य मे ंंएक आत्मा रुष्ट होने से बच सकती’’ .
चाची थोड़ी विचार मग्न हो गयी फिर बोली ‘’बात तो सही है बिट्टो ! तूने मेरी आँखे खोल दी मैं यथार्थ को छोड़ अन्धविश्वास को कैसे अपनाने लगी?’’ ****
8.वर्दी
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मिलिट्री अकेडमी के विशाल प्रांगण में सारे केडेट पासिंग आउट परेड के लिए जमा थे। आज उनके अभिभावक भी आये थे।
ऑफिसर ने बेस्ट कैडेट जिसको' सोर्ड ऑफ़ ऑनर 'मिलने वाले रोहित की माँ सुलेखा से मिल कर जब उन्हें बधाई देनी चाही तो धन्यवाद देने के लिए उसकी आवाज़ ही न निकल सकी। बस आँखें छलचला गयीं और सर झुका अभिवादन ही कर पाई।
वह तो अतीत में मग्न हो गयी थी। वर्षों पहले विवाह के बाद पति तो अक्सर सीमा पर ही तैनात रहते। छुट्टियों में ही घर आते। देश प्रेम की ही बातें होती। कहते -''मैं अपने बच्चों को भी सेना में ही भेजूंगा।अगर मैं न रहूँ तो तुम मेरी इस इच्छा का मान रखना ''यह तुम्हारा अपने देश के प्रति प्यार और सम्मान होगा ''अक्सर पत्रों में भी यही बात होती।
और तब कुछ ही वर्षों का साथ देकर अचानक राघव कारगिल युद्ध में देश के काम आ गए।
आँगन में तिरंगे में लिपटा राधव चिर निद्रा में घर लौटा था। परिवार और अड़ोस- पड़ोस के लोग आँखों में आंसुओं को बरबस रोकने की कोशिश कर रहे थे.सभी के दिलों में उसकी कोई कोई बात सर उठा रही थी। उसकी अंतिम विदाई का पल आ चुका था।
माँ निढाल सी हो रही थी। पत्नी सुलेखा तो मूर्छित हो गयी थी। पांच साल का बेटा रोहित तो कुछ समझ ही नहीं पा रहा था.कभी अंदर आता तो कभी बाहर दौड़ जाता। सभी सान्त्वना देने उसके सर को सहला देते। तभी बाहर से आकर किसी ने अंतिम दर्शन कर पुष्पांजलि देकर राघव को विदा करने को कहा। पड़ोसनें सुलेखा को होश में लाने का प्रयास कर रही थी।
सुलेखा एकदम उठी और अपने कमरे की और जाने लगी। वह हाथ में कुछ चिट्ठियां और राघव की वर्दी लेकर सीधे आँगन में दौड़ गयी। राघव के सीने में सब कुछ रख कर बोली -
''तुम मुझे यों मंझधार में छोड़ कर जा रहे हो..अब मैं ही तुम्हारी इच्छा को पूरा करूंगी। "
तुमने तो देश के लिए अपने प्राण न्योछावर कर अपना कर्तव्य पूरा लिया। अब मैं तुम्हारी बात पूरी कर देश सेवा के लिए प्रयत्न करूंगी '.ये मेरा वादा रहा ''
तब से वह हर रात राघव की वर्दी को लेकर ही सोती ताकि वह वादा न भूल जाए। रोहित को भी पिता की बातें सुनाती।
तभी उसके बेटे का बेस्ट केडेट के रूप में नाम का उद्घोष हुआ। बेटे ने उसके पैर छुए तो वह वर्त्तमान में लौटी बेटे को आशीष देते हुए उसका चेहरा चमक उठा और बैग से वर्दी निकाल माथे
से लगा कर बोली
" रोहित! अब तुम्हें भी अपनी वर्दी का मान रखना है ." ****
9. दूर के ढोल
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जब से व्याह कर सिम्मी इस घर में आई थी। रिश्तों को बनाने सींचने में ही उम्र निकल गयी। कब नई दुल्हन से बहू ,भाभी माँ ,ताई , मामी ,चाची से अब तो सास भी बन गयी। घर परिवार की मर्यादा तीज त्यौहार लोक व्यवहार निभाते निभाते उसी में रम गयी।
यही सब अपनी दोनों बेटियों को भी सिखाया।
अब कभी सोचती अपना जीवन तो जी लिया कभी अपने लिए दो पल फुर्सत के नहीं मिले। अब बहू के आने पर ही सकूं मिलेगा।
बेटे गुंजन का विवाह होगया। अब तो बहू भी आगयी। महीने भर की गहमा गहमी ,हँसी ख़ुशी में कब बीते पता ही नहीं चला.आज तो बेटे बहू भी जाने वाले हैं। कितनी बातें करनी थी बहू से। परिवार के बारे में। अपने घर की रीतियों रिश्तों के बारे में। पर समय ही नहीं मिल पाया।
मन को ही मना लिया ''अरे! अभी कौन सी जल्दी है। बहू तो अपनी ही है। अपने घर को संवारेगी तो खुद भी सीखेगी और पूछ भी लेगी। अभी तो खेलने खाने मौज मस्ती के दिन हैं। खुश रहने दो। हमारा ज़माना नहीं है अब।''
अभी उसके पास जाकर वह बहू से कहने ही जा रही थी- ''बेटी ! इस बीच तो समय ही नहीं मिला अब तुम जल्दी आना या मौका मिला तो हम ही आएंगे। तुम हमारे घर बेटी बन आई हो तो यहां के बारे में जान लोगी तो परायेपन का अहसास नहीं होगा ''
बहू ने जो जवाब दिया उससे वो सन्न रह गयी
'' मैं गुंजन के साथ व्याह कर आई हूँ और किसी से मेरा कोई मतलब नहीं। अच्छा होगा आप अभी से यह बात समझ लें। बाकी तो जो भी कुछ पूछना करना होगा मेरी माँ हैं।आप लोगों को चिंता करने की ज़रुरत नहीं ''
''ठीक है बेटी '' कह सिम्मी रसोई की और बढ़ गयी। उसे लगा किसी से आस- उम्मीद लगाना सदा दुःख देता है। अब जैसे चावल के एक दाने को देख कर पता लगता है ,चावल पके या नहीं। चावल कैसे हैं? वैसे ही आज की बात से बहू का स्वभाव और संस्कार पता लग चुके। अब इसे बहू स्वीकार तो कर ही लिया गुंजन के खातिर। उसकी पसंद है. विवाह को न मानते तो वह दूर हो जाता। पर बहू को बेटी बनाना -मानना तो समय ही बताएगा। ''
''उसके संस्कारों का कलश रीता ही रह गया शायद। नए संस्कार भरने तक मौन प्रतीक्षा!" ****
10. नई सोच
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अम्मा एकदम पुराने विचारों वाली, घर में इतनी रोक टोक कि सब परेशान हो जाते।.घर में कोई आये तो ऊँच नीच के प्रश्न,काम करने वालों के भी खानदान की खोज ,.उनका मन न माने तो उनके जाने के बाद घर की पवित्रता का ध्यान ....बच्चे स्कूल से या खेलकर आते तो पहले उन पर .कभी गंगा जल छिड़कती...अपना खाना पीना भी अलग देखरेख में बनवाती कहीं कोई छू न ले। .सभी अम्मा से आँख बचाकर चले जाते ....उनको कहने-टोकने पर वे कहती ..''सारी जिंदगी जो परम्पराएँ निभाईं हैं उन्हें अब कैसे छोड़ूँ''..
अम्मा अचानक बीमार पड़ गईं.पर दवाई लेने और अस्पताल जाने से उन्होंने इंकार कर दिया ....सभी ने समझाया ..''अम्मा !ऐसी ज़िद ठीक नहीं.इलाज के बिना कैसी जियोगी ?बहुत मान मनौवल की गई ...वे इस शर्त पर तैयार हुईं कि ठीक होने पर वे तीर्थ यात्रा करेंगी ताकि प्रायश्चित हो सके।
.इस बीच उनकी तबीयत और बिगड़ गई और उन्हें अस्पताल में भर्ती कर दिया गया ......वहाँ वे बेमन से ही सारी दवाइयाँ खाती....न जाने डॉक्टर -नर्स कौन हैं ?
दस दिन बाद वे घर वापस आईं.अब वे पूर्ण रूप से स्वस्थ हो गयी थीं .....घर आते ही सबने महसूस किया कि अम्मा कुछ बदली -बदली सी हैं। .उन्होंने न तो कोई छुआछूत की ही बात की न तीर्थ यात्रा की ....बहू ने एक दिन बात छेड़ी तो अम्मा बोली ....''छोडो ये सब बातें ....अस्पताल न जाती तो इस जनम में न जाने कितने पाप और भोगती ...बहू ! पता है जब इतनी अशक्त हो गयी कि बिस्तर में ही मल-मूत्र त्याग करने की नौबत आ गयी तो अस्पताल में आया और नर्सों ने ही मदद की.वे हर समय उपस्थित रहते और हर काम मुस्कुरा कर करते। ..मैंने उन्हें कभी झुँझलाते नहीं देखा ...मेरी जान उन्हीं की सेवा से बची है..और एक मैं थी जो हमेशा दूसरों को अपने से कम समझती थी''.काश! मुझे ये अनुभव पहले हो गया होता...''
"अब मैं नई सोच से अपना जीवन यापन करूँगी घर- आँगन के साथ साथ मन को पवित्र कर सब को समान समझूँगी यही तीर्थयात्रा होगी। " ****
11. प्रायश्चित
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‘’निर्मला दीदी ओ निर्मला दीदी ! देखो कोई मिलने आया है तुमसे ‘’
सहायिका बिमला की आवाज़ पर निर्मला देवी फिर क्षीण हंसी के साथ कराहती सी बोली –
‘’तू भी न बिमला बिना समझे बोलती रहती है.मुझ से कौन मिलने आएगा चार साल से तो कोई न आया फिर देख ही सकती तो ?’’
उठने की कोशिश कर हाथ पसार लाठी ढूँढने लगी.
तभी वृद्धाश्रम की संचालिका किसी को साथ लेकर उसकी चारपाई के पास पहुँच गयी उनके अभिवादन का जवाब देती शिकायत के स्वर में बोली—देखो न बिमला को मन बहलाने को झूठ मूठ ही कह रही है कोई आया है’’ और कहते कहते गला भर सा आया
तभी उनके पैर किसी ने छुए और कुछ गर्म बूँदें सी आ गिरी.स्पर्श तो जाना पहचाना सा लगा पर ये संभव न था.फिर भी हाथ सर पर रख आशीषों की बौछार कर दी.
‘बेटी! तुम्हें जानती नहीं देख भी नहीं सकती ...खुश रहो ‘’.
अनु यही नाम बताया था उसने संचालिका को .....निर्मला जी के गले मिल रोने लगी.फिर क्षमा मांगते हुए बोली..
जन्मस्थान: पंजाब
शिक्षा: स्नातक फाइन आर्ट्स, एम ए पंजाबी, बी एड
विधाएं: लघुकथा, कहानी, छंदमुक्त
भाषा ज्ञान: हिंदी, पंजाबी, इंग्लिश
संपादन: ई-पत्रिका चिकीर्षा
पुरस्कार/सम्मान: -
अखिल भारतीय कथादेश लघुकथा की विजेता,
पंजाबी मिन्नी कहानी मुकाबला की विजेता,
उर्मिला कौल स्मृति लघुकथा रत्न सम्मान,
कथा शिल्पी सम्मान 2020,
कोरोना योद्धा रत्न सम्मान,
ओनटैरियो क्लब बरैंपटन की प्रतियोगिता में पहला स्थान प्राप्त।
संप्रति: कुछ वर्षों के अध्यापन के बाद अब ऑनलाइन अंतरराष्ट्रीय टिउटर पंजाबी एवम् ड्राइंग बाथ ही स्वतंत्र लेखन एवम् अनुवाद का कार्य हिन्दी से पंजाबी और पंजाबी से हिन्दी।
विशेष : -
देश विदेश की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और प्रमुख अंतर्जाल पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित, दृष्टि, लघुकथा कलश, संरचना, कथादेश, अविराम, इकरा, माँ को समर्पित लघुकथा संग्रह "माँ", पंजाबी की पत्रिकाएं मिन्नी, अणु, गुस्सईयां जैसे साझा संकलनों में रचनाएं संकलित
पता : हाउस नं बी 369 , गुरु नानक देव गली-1
पुरानी माधोपुरी , लुधियाना (पंजाब) 141008
1. टूटते तारों का सच
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रोज़ की तरह मीता आज फिर स्कूल देर से पहुंँची। पी.टी. मैडम ने उसे गेट पर ही पकड़ लिया और वहीं खड़े रहने की सज़ा दे दी।
इतने में वहांँ प्रिंसिपल मैडम आ गए, उन्होंने उसे उनके ऑफिस पहुंँचने का आदेश दिया।
डरते- डरते मीता ने उनके ऑफिस में प्रवेश किया।
"अपने मम्मी पापा को लेकर आना कल!" उन्होंने उसकी तरफ़ देखते हुए कहा
"मैम, मुझे माफ़ कर दीजिए, कल से मैं जल्दी आऊंगी!" हाथ जोड़ती मीता की आंँखों में बेबसी साफ़ दिखाई दे रही थी।
"सुबह कितने बजे उठती हो? अचानक उन्होंने सवाल किया
"जी पांँच बजे!"
"इतनी सुबह उठकर भी समय पर स्कूल क्यों नहीं पहुंँचती?" गुस्से से उसकी तरफ़ देखते हुए वह बोले
वह सहमी हुई बोली, "जी, मुझे सबका नाश्ता बनाना होता है। फिर घर की सफ़ाई, बर्तन और कपड़े धोकर ही मैं यहाँ पर आ पाती हूंँ।"
"क्यों, तुम्हारी मांँ क्या करती है?"
मीता ने कोई जवाब ना दिया।
"चुप क्यों हो, बोलो?"
"मैम व..वह सोई रहती है। वह मेरी नयी माँ है।" ****
2. उजाले की ओर
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खुसर फुसर सी आती आवाज़ों से वह चौंक पड़ी! रात का वक्त और घना अंधेरा, कोई भी तो नहीं था वहां! उसके क़दम उस आवाज़ की ओर बढ़ गये।
अम्मी को किसी से बात करते सुन वह वहीं ठिठक गई। आवाज़ उसे कुछ जानी पहचानी-सी लगी।
"तू घबरा मत, कुछ दिनों की ही बात है! मैं ले चलूंँगा तुम्हें और ट्रेनिंग भी दिलवा दूंँगा!" वह बोला
"और हमारी लाड़ो?" अम्मी की आवाज़ में घबराहट साफ़ झलक रही थी।
"उसे थोड़े समय के लिए अम्मी के पास छोड़ देना, मक़सद पूरा होते ही उसे भी साथ ले चलेंगे।"
उसकी आँखे ख़ुशी से चमक उठी, ओह यह तो मेरे अब्बा हैं, जिन्हें देखने को लिए वह बरसों से तड़प रही थी! उनके पास जाने के लिए उसके क़दम उतावले हो उठे। तभी उसके कानों में जैसे किसी ने खौलता सीसा डाल दिया हो, वह वहीं जड़ हो गई।
"हमारा जेहाद तब तक चलेगा जब तक यह देश हमारा नहीं हो जाता! तुम तैयार रहना और लाल कोठी पर मेरा इंतजार करना।" कहकर वह मुँह लपेटे दीवार फांँदकर बाहर निकल गया।
उसकी मुट्ठियांँ तन गई! वह बुदबुदा उठी, "तो यह वही जेहादी है जिसे पुलिस घर- घर ढूंँढ रही है और वह उस की बेटी...नही ..नही..यह कभी नहीं हो सकता!"
उसके कदम तेज़ी से पुलिस थाने की ओर बढ़ चले। ****
3. मैं द्रौपदी नहीं बनूंँगी
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आज फिर उसका पति दोस्तों के साथ घर में महफ़िल जमाए हुए था।
माला रसोई में उनके लिए स्नैक्स बनाकर कमरे के बाहर पहुँचा रही थी क्योंकि शराबी दोस्तों के सामने जाना उसे गवारा नही था। शराब और सिगरेट के धुंँए की बदबू और तेज़ हो गई थी।
दु:खी मन से वह मानों खुद को सज़ा दे रही थी। वह उसे समझा-समझा कर थक चुकी थी। घर में कोई बुजुर्ग भी नहीं था जो उसे सही ग़लत का फर्क समझा पाता। उसका जी घुट रहा था। आखिर यह सब कब तक चलेगा।
अब उनकी अश्लील भाषा और आपस में हँसी मज़ाक की आवाज़ें कमरे से बाहर तक आने लगी थी। अचानक उसके कानों में अपना नाम गूँजा। वह वहीं ठिठक गई और दीवार के साथ सटकर खड़ी हो गई। उसके दिल की धड़कनें तेज़ हो गई थी। पति उसे सबके सामने नचाने की बात कर रहा था, सुनते ही उसके होश फाख्ता हो गए। वह घायल हिरणी सी तड़प उठी। कोई इतना कैसे गिर सकता है छी..अपनी ही पत्नी को ...! जाड़े के मौसम में भी उसके चेहरे पर पसीने की बूंदें उभर आईं
किससे कहे कहाँ जाए! बाहर घुप्प अंँधेरा और चारों तरफ़ सन्नाटा छाया हुआ था। तभी उसने पीसीआर के सायरन की आवाज़ सुनीं। वह भाग कर बाहर आई, उसने पुलिस को सारी व्यथा बताई।
पुलिस ने सब को दबोच लिया। उसका पति उसे आग्नेय नेत्रों से घूरने लगा मगर उसकी नज़रों का उसने हिम्मत से जवाब दिया, "मैं किसी भी कीमत पर द्रौपदी नहीं बनूंगी न ही घर में महाभारत होने दूँगी।" ****
4. होली आई रे
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होली के त्योहार की खरीदारी करने के लिए नीलिमा बाज़ार निकल गई। वहां पहुंँचकर जगह-जगह सजे होली के रंगों के ढेर देखकर वह एक दुकान के सामने ठिठक गई। दुकान के अंदर भीड़ होने के कारण वह बाहर से ही सामान का चुनाव करने लगी।
सेल्स मैन उसे अलग-अलग डिजाइन की पिचकारियांँ दिखाने लगा। इतने में उसका ध्यान दूर खड़े एक छोटे से लड़के पर गया जो शायद लिफाफा बीनने वाला था। उसने अपनी पीठ पर एक बड़ा सा प्लास्टिक का थैला लटका रखा था। उसकी मासूम निगाहें बड़े ही प्यार से रंगों और पिचकारियों को निहार रही थी। जैसे ही वह दुकान की तरफ़ बढ़ता, सेल्समैन उसे धमका कर वहां से भगा देता। वह दूर जाकर फिर से एकटक उन्हें देखने लगता।
नीलिमा के मन में ना जाने क्या आया, उसने एक पिचकारी और थोड़े से रंग लिए और उसे देने के लिए हाथ बढ़ाया मगर उसने सेल्समैन की तरफ़ देखते हुए सिर हिलाते हुए लेने से मना कर दिया।
नीलिमा ने मिन्नत करते हुए सामान उसकी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा, "आ जाओ...डरो मत...यह मैं, तुम्हें दे रही हूँ, ले लो!"
झट से उसने अपनी जेब से दस रुपए का एक मुड़ा-तुड़ा नोट निकाला और उसे पकड़ाने लगा। वह हंँसते हुए बोली, "अरे नहीं, तुम ऐसे ही रख लो।"
सामान पकड़ता हुआ वह धीरे से बोला, "एक पिचकारी और लेनी।"
वह हंँस पड़ी और बोली, "वह किसके लिए?"
"मेरे दो भाई बहन हैं छोटे, एक पिचकारी होगी तो दोनों आपस में लड़ेंगे!"
उसकी बात सुनकर वह स्तब्ध रह गई। तभी उसने एक पिचकारी उसको और पकड़ा दी। झट से उसके हाथ में नोट रखते हुए "होली आई रे..." कहकर भागते हुए वह भीड़ में गुम हों गया।
वह उसके चेहरे पर जिस मुस्कान को देखना चाहती थी, उसे देखने से वंचित रह गई मगर उसका दिया हुआ नोट अभी भी उसके हाथों में पड़ा मुस्कुरा रहा था। *****
5. मज़बूत इरादे
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उसने जो सपना बरसों से सँजोया था, आज उसके पूरा होने का वक्त आ गया था। खुश होते हुए भी उसकी आँखें नम हुई जा रही थीं।
घर में सबके विरुद्ध जाकर उसने अपने सपने को पूरा करने का हर संभव प्रयास किया था। उसके बेटे नमन ने भी दिन-रात एक कर दिया था।
आज जब वह उससे दूर जा रहा था तो वह अपनी आँखों से छलकते आँसुओं को सबसे छुपाने में लगी हुई थी। यही हाल नमन का भी था। वह भी माँ को कमज़ोर पड़ते नहीं देखना चाहता था। इसलिए खुद को उलझाए हुए था । कभी बैग में झाँक रहा था कि कोई सामान तो नहीं छूट गया तो कभी फ़ोन अटैंड करने का बहाना कर रहा था ।
इतने में टैक्सी भी आ गयी थी और वह अपने भाई के साथ मिलकर सारा सामान उसमें रखने लगा। नमन के पिता, कितनी बार उसकी माँ को साथ चलने के लिए बोल चुके थे, पर उसने बहाना बना कर टाल दिया कि उससे नहीं होता इतना लंबा सफ़र मगर दिल में उथल-पुथल मची हुई थी।
अचानक नमन आया और माँ के पैर छूते हुए गले लगकर उसके कान में फुसफुसाया "ध्यान रखना माँ "... और बाहर की तरफ चल निकला। वह़ अपने लाडले को एक बार और गले से लगाना चाहती थी, पर हिम्मत नहीं कर पाई क्योंकि उसे डर था कि उसकी ममता के आँसू कहीं उसके मज़बूत इरादों को कमज़ोर न बना दे।
उसके टैक्सी में बैठते ही उसकी आँखों से सुख और दुःख के मिश्रित आँसू बह निकले। जब तक वह बाहर की तरफ़ भागी.. टैक्सी अपने गंतव्य की ओर निकल चुकी थी। ****
6. वात्सल्य
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"कालू...कैसा है रे, मेरा बच्चा!" दुलार करती रधिया के बोलते ही रेखा आज फिर चिढ़ गई। अपने बच्चे का कालू नाम सुनकर उसके माथे पर त्योरियां चढ़ आईं। वह मन ही मन सोचने लगी ऐसे तो उसके बेटे का यही नाम प्रचलित हो जाएगा।
सासू मांँ अभी पाठ कर रही थी। उनके बाहर आते ही रेखा उसे डांटने जा रही थी कि उन्होंने इशारे से उसे चुप रहने के लिए कहा।
रधिया उनके घर पिछले बीस सालों से काम कर रही थी। हर दुःख सुख में उन्होंने एक दूसरे का साथ दिया था। वह उसे घर का सदस्य ही समझती थी और बच्चे के प्रति उसके प्रेम को भी। वह बहू को सुनाते हुए बोलीं, "क्यों री रधिया, कहांँ से दिख रहा है यह काला, बता तो जरा!"
रधिया बर्तन धोते- धोते हंँस पड़ी और बोली, "अरे दीदी, अब क्या बताऊं, यह है ही इतना सुंँदर!"
"सुंँदर है तो फिर तू इसे कालू क्यों बुलाती है रे!"
"मैं तो ऐसा इसे बुरी नज़र से बचाने के लिए कहती हूंँ, मगर अब से मैं इसे लालू बुलाऊंगी, वरना यह न हो कि सब मेरे लल्ला को कालू बुलाने लगें!" गीली आस्तीन से बालों की लट को हटाती हुई वह हंँसते हुए बोली
तभी सासु मांँ ने रेखा की तरफ़ देखा जो यह सुनते ही मुस्कुरा उठी थी। ****
7. चहचहाहट
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आजकल न जाने क्यों फिर वही चमक, लौट आई थी उसके चेहरे पर! सारा दिन गुनगुनाती फिरती थी घर में। कभी अंदर कभी बाहर, बिल्कुल वैसे ही जब पच्चीस साल पहले उसके घर बेटे ने जन्म लिया था। पतिदेव उसे देखकर ख़ुश होते रहते।
"जरा बताओ तो अपनी ख़ुशी का राज़!" पति अक्सर उसे छेड़ने के अंदाज में पूछते।
"बताती हूँ, बताती हूँ ,तनिक सांँस तो लेने दीजिए !" वह हमेशा जल्दी में रहती।
"आज वह भागी-भागी पति के पास आई और बोली, "सुनो जी, वो अपनी छुटकी है न, उसके चूंचू-चींची आ गये!
"अरे सुनों तो मेरी बात !" वह बुलाते इससे पहले वह फिर भाग गई यह कहते हुए, "बस थोड़ी देर रुको, मैं उन बच्चों के लिए दाना पानी रखकर आती हूँ!"
श्रीमान जी ने पढ़ने के लिए अखबार उठाया मगर उनकी चेतना अतीत में लौट गई। बेटा-बहू विदेश में बस गये थे। वह चाहते थे कि माँ-बाप भी उनके साथ वहीं रह जाएं। मगर उनका मन अपने ही देश में रमा हुआ था, क्योंकि सारी जिंदगी तो उन्होंने यहीं बिताई थी। वह लौट आए थे और कितने दिनों तक गुमसुम रहे थे।
वह उससे कहना चाहते थे कि वह इन बच्चों से मोह ना लगाए वर्ना एक दिन पंँख लगते ही यह भी अपनी दिशा में उड़ जाएंगे। फिर उन्होंने गहरी सांँस ली, क्या पता यह उनका मोह नहीं बल्कि परिंदों के प्रति प्रेम ही हो!
चिड़ियों की चहचहाहट अब उनके कानों में भी पड़ने लगी थी और उनकी आँखों में भी उनके लिए स्नेह उभर आया था। ****
8. दीये जल उठे
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नीलू दीवाली पर पूजा की तैयारी कर ही रही थी, तभी वीना बदहवास सी उसके घर आई और बोली, "नीलू, अभी तुरंत बाज़ार चलेगी मेरे साथ!"
"दो घंटे बाद तो पूजा का मुहूर्त है और तू इस वक्त बाज़ार चलने की बात कर रही है।"
"क्या बताऊं, हटड़ी हाथ से फिसल कर टूट गई। घर में बताऊंगी तो सब अपशकुन मानेंगे।" एक ही सांस में बोल गई वह।
नीलू ने घड़ी देखते हुए कहा, "चल अच्छा! समय से वापस भी आना होगा।"
दोनों बाज़ार के लिए निकल पड़ी। मगर किसी भी दुकान पर उन्हें हटड़ी नहीं मिली। वीना के हाथ पांँव फूलने लगे, वह बोली, "बिना उसके तो आज घर में हँगामा हो जाएगा।"
अचानक नीलू बोली, "अरे, जिससे मैंने खरीदी थी, उसका घर भी इधर ही है!"
वीना बोली, "जल्दी चल, उसी से लेते हैं!"
"उस मैलेकुचैले आदमी से ... !" नीलू ने उसे छेड़ते हुए कहा
वीना शर्मिंदा होकर बोली, "अब जले पर नमक तो मत छिड़क!"
दो दिन पहले जब वह बुड्ढा मोहल्ले में दीये और हटड़ी बेच रहा था, उसे देखकर वीना बोली थी, इस मैले-कुचैले आदमी से वह पूजा का सामान तो कभी न खरीदेगी।
दोनों गली से होती हुई उसकी कोठरी के पास पहुँच गयीं। जहां वह पत्नी के साथ एक दीये की रोशनी में बैठा बतिया रहा था।
देखते ही नीलू ने उससे पूछा, "बाबा, क्या आपके पास हटड़ी होगी?"
बूढ़ी औरत बोली,"हाँ, है!" वह उठकर अंदर से हटड़ी उठा लाई।
देखते ही वीना खुशी से उछल पड़ी, "अरे अम्मा! जल्दी से दाम तो बताओ!"
"बिटिया, एक ही बची थी, तुम्हारे भाग्य से, जो मन आए सो दे दो!"
वीना ने जल्दी-जल्दी पर्स से पाँच सौ का नोट निकाला और उसकी हथेली में थमा दिया।
बुढ़िया ने जैसे ही नोट देखा, मानों उसकी अंँधेरी कोठरी में ढ़ेरों दीये जगमगा उठे हों। ****
9. तम के पहरेदार
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अपने काम धंधे से निराश और जिंदगी से परेशान शाम लाल किसी मित्र के कहने पर, बड़ी उम्मीद के साथ पंडित जी के पास पहुंँचा।
पंडित जी ने उसकी जन्म पत्री देख, ग्रहदशा खराब कह, उसे एक खास पत्थर धारण करने को कहा और कुछ उपाय भी बताए।
उनकी फीस देकर वह वहाँ से विदा हो ही रहा था कि तभी पंडित जी का बेटा आता दिखाई दिया।
उसके चेहरे पर मायूसी देखकर पंडित जी परेशान हो उठे और बोले, "क्या हुआ मुन्ना! इतना परेशान क्यों हो?"
"पिता जी इस बार भी मैं पास नहीं हो पाया, ग्रह दशा ही खराब चल रहा है। आज रिजल्ट लेने जा रहा था तो बिल्ली रास्ता काट गयी।"
पंडित जी गुस्से से लाल पीले हो गए और अपना आपा खो बैठे। उन्हें शाम लाल की उपस्थिति का भी ध्यान ना रहा। बेटे को डांँटते हुए बोले, "बहाने बनाना छोड़ मुन्ना! ये ग्रह दशा कुछ नहीं होती, कर्म करने से फल मिलता है, तू पढ़ने में मन लगाता तो जरूर पास होता। बिल्ली का रास्ता काटना सब फालतू बातें है। बिल्ली रास्ते पर नहीं चलेगी तो क्या हवा में उड़ेगी!"
जूते में पाँव डालते-डालते शाम लाल ने उपाय की पर्ची वहीं फाड़ कर फेंक दी। ****
10. एक था भोला
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आज तीन दिन बीत चुके थे मगर भोला ना आया। नानी रोज़ उसकी रोटी बनाकर उसका इंतजार करती।
यह नाम भी तो नानी ने ही दिया था उसे। वह रोज़ाना रोटी के समय उसके दरवाज़े पर आवाज़ करने लगता और नानी उसे रोज़ रोटी देती। तीन दिन पहले जिस वक्त वो आया था नानी न जाने क्यों परेशान थी और प्यार से भोला बुलाने की बजाय ज़ोर से चीख पड़ी थी,"चला आता है रोज मुंँह उठाए जैसे और कोई काम ही नहीं है, सेवा करो बस महाराज की!" दरअसल उसी को लेकर तो नाना से नानी की खट-पट हो गई थी।
नानी बड़बड़ाती हुई रोटी लेकर जैसे ही बाहर आई भोला को वहां ना पाकर परेशान हो गयी। उसने उसे इधर- उधर बहुत ढूंँढा मगर वह कहीं भी ना मिला। फिर उस दिन तो नानी के गले से निवाला भी ना उतरा।
"अजी सुनती हो" कहते हुए नाना जी घर में घुसे और व्यंग से मुस्कुराते हुए बोले,"अरे तुम्हारा लाड़ला! आज मंदिर के बगल में बैठा दिखा।"
"क्या..." कहते हुए नानी तेज़ क़दमों से घर के बाहर निकल गई।
मंदिर के पास जैसे ही भोला ने उसे देखा अपना मुँह दूसरी और फेर लिया। नानी ने उसके कान उमेठते हुए कहा,"मैं बेकार में ही तुझे बैल बुद्धि कहती थी, तुझे भी इंसानों वाला रोग लग गया है जो अब तुझे मान-मनौव्वल चाहिए!"
भोला ने धीरे से अपने कान हिलाए मगर मुँह दूसरी तरफ़ ही घुमाए बैठा रहा।
इस बार नानी रो पड़ी,"जा मैं ही तुझसे मोह लगा बैठी थी, तू तो बैल का बैल ही रहेगा!" जैसे ही नानी के आंँसू उसके चेहरे पर पड़े वह सींग लहराता फ़ोरन उठ खड़ा हुआ और सिर झुकाए पूंँछ हिलाता नानी के पीछे-पीछे घर की तरफ़ चल दिया। ****
11. मखमली डिब्बा
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निम्मी जब भी बाज़ार जाती बरबस ही उसकी निगाहें उस गली की ओर उठ जाती मगर चाहकर भी वह उस तरफ़ जा ना पाती। बहुत दिनों से कुछ ऐसा था जो उसे अपनी ओर खींच रहा था।
आज अनायास उसके क़दम उस गली की ओर मुड़ गए। इसी गली में तो उसका बचपन बीता था। शाम होते ही सारे बच्चे एक साथ मिलकर खूब धमाचौकड़ी मचाते थे। उनके बीच कोई भेदभाव नहीं था।
एक-एक घर को वह निहारती जा रही थी। उसे लग रहा था कि अभी कोई खिड़की से झांँककर उसे आवाज़ दे देगा। मगर यह तो शायद उसका वहम ही था। उसे वह दिन भी याद था जब उन्हें अपनी जान बचाकर रातों-रात वहांँ से भागना पड़ा था।
अपने घर के सामने आते ही उस के कदम ठिठक गए। घर की खस्ता हालत देखकर उसका मन भर आया। अचानक अपना नाम सुनकर उसने पीछे मुड़कर देखा मम्मी की सबसे अजीज़ सहेली सलमा आंँटी सामने खड़ीं थीं। उन्हें देखते ही उसकी आँखें छलछला आईं।
वह उसका हाथ पकड़कर अपने घर के अंदर ले गईं। फिर तो ना जाने कितनी सारी बातें खत्म होने का नाम ही ना ले रही थी।
विदा होने से पहले एक मखमली डिब्बा लाकर उन्होंने उसके हाथ में रख दिया। वह चौंक कर उन्हें देखने लगी। तभी उसकी धुंधली यादों में यह डिब्बा उसकी आँखों के सामने आ गया। ओह.... यह डिब्बा तो उसकी माँ का था!
लंँबी सांस लेकर सलमा आंटी बोली, "मैं कब से इंतजार कर रही थी कि कोई आए तो मैं यह अमानत उसे सौंप दूंँ!" वह अपनी रुलाई ना रोक सकी और सलमा आंँटी के गले लग गई और बोली, "कौन कहता है कि हम बंँट गए, हम तो आज भी एक ही हैं!" ****
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क्रमांक - 009
जन्म : 22 नवम्बर 1974
कार्यक्षेत्र - स्वतंत्र लेखन, अभिनय, निर्देशन एवं एस.बी.आई. लाइफ जीवन बीमा व स्वास्थ्य बीमा
प्रकाशित कृतियाँ -
अहंकार के अंकुर (कहानी संग्रह 2018)
देख कबीरा हँसा (लघु कहानी संग्रह 2019)
फिर वही पहली रात (लघुकथा संग्रह, 2019)
फूस का महल (कहानी संग्रह, 2020)
सम्मान: -
- समग्र सेवा संस्थान, सिरसा द्वारा श्री उदयकरण सुमन स्मृति "साहित्य गौरव सारस्वत सम्मान" 2020,
- आनंद कला मंच, भिवानी द्वारा जयलाल दास साहित्य साधक सम्मान 2021,
- श्रीमद शंकर स्वामी विश्वदेवानंद तीर्थ धर्मार्थ ट्रस्ट, रोहतक द्वारा युवा साहित्यकार सम्मान 2021
विशेष : -
हरियाणा साहित्य अकादमी से कहानी 'मेरा अस्तित्व' को द्वितीय पुरुस्कार
पता : मकान नंबर 51, टाइप 1A, नजदीक श्री गौरीशंकर मंदिर, म.द.वि. कैम्पस, रोहतक - 124001 (हरियाणा)
1. रिंकिया के पापा
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"सुनत हो, रिंकिया के पापा! उ देखो उहाँ भीड़ लगल रही। लागत है कोन्हों सेठ खाना-पानी बाटत है।भूख-पीयास के मारे हमरी तो जान निकलबे को है। जाओ तुम भी लाइन में लगके कुछो लेइ आओ।" सिर पर बोरा और बग़ल में दूधमुहे बेटे संकटवा को अपनी चुन्नी से ढके हुए पैदल सरक रही धनिया बोली।
"हाँ.... हाँ!।" कहते हुए मुनेश ने उम्मीद भरी हसरत से साइकल को एक छायादार जगह रोका। धीरे से स्टैंड लगाया कि कहीं साइकल के कैरियर पर बँधे समान पर सो रही नन्हीं रिंकिया की नींद न टूट जाए और भीड़ की तरफ बढ़ा। कुछ देर बाद खाली हाथ लौटा तो धनिया ने सवाल किया, "का भइल? खाली हाथ काहे आ गए? खाना खत्म होई गवा का?"
"अरि पगली! उहाँ खाना-पानी नाही मिलत रही। उहाँ तो कोहनो बड़ा आदमी चिन्दी-सा कपड़ा बाटत रही, अउर कहत रही मासक लगईबे जीबन बचईबे। ससुरा फोटू भी खिंचावत रहिन। अरे पेट मा रोटी न रहीं तो उका मासक जीबन बचा लीबे?"
तभी मुनेश के कानों में एक जोरदार चीख़ सुनाई पड़ी, कोई उसे झकझोर रहा था। उनकी नींद उखड़ गयी। धनिया दहाड़े मार रही थी, "रिंकिया के पापा!
.... रिंकिया तो..... "
मुनेश ने देखा साइकिल के कैरियर से बंधे समान पर सो रही रिंकिया के जिस्म में कोई हरक़त नहीं रही। उधर धनिया की चीख़ सुनकर पास से गुजर रहे कुछ लोग रुककर उनकी वीडियो बनाने में व्यस्त हो गए। ****
2. कल्पना
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"अरे कल्पना! तुम यह क्या कर रही हो? यह चारपाई और ये बिस्तर...?"
पत्नी को अपने बेडरूम में अतिरिक्त चारपाई बिछाते हुए देखकर ज्ञानेन्द्र बोला।
"पिता जी के लिए चारपाई बिछा रही हूँ, आज से वह यहीं सोया करेंगे।"
"अरे पागल हो गयी हो क्या। .... हमारी प्राइवेसी का क्या होगा?' ज्ञानेन्द्र झुंझला गया।
"ज्ञानू! पिता जी की तबीयत ज़्यादा खराब रहने लगी है। रात को जाने कब उन्हें किस चीज़ की जरूरत पड़ जाए। वह यहाँ सोएंगे तो हमें आसानी रहेगी उनकी देखरेख करने में।"
"तुम जैसी मॉडर्न लड़की और इस तरह की सोच.....?" ज्ञानेन्द्र हैरान था।
"तुम नहीं जानते, जब मैं छोटी थी तब मम्मी-पापा और हम एक कमरे में और बीमार होते हुए भी मेरी दादी जी अकेली अलग कमरे में सोती थीं। एक सुबह दादी जी नहीं उठी जाने रात को उनके साथ क्या हुआ होगा। यदि हम में से कोई दादी के पास होता तो शायद दादी जी कुछ वर्ष और जी लेती।......" ज्ञानेन्द्र टकटकी लगाए कल्पना की बातें सुन रहा था। ".....सासु माँ के चले जाने के सदमे से अब पिता जी की हालत बहुत ख़राब रहने लगी है। मैं उनकी हर वक़्त देखभाल करना चाहती हूँ। नहीं तो कहीं हमें असमय अनाथ न होना पड़ जाए।"
भीगी पलकों से ज्ञानेन्द्र ने कल्पना को गले लगा लिया, "कल्पना... ओ मेरी कल्पना!......" ****
3. नँगा
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रामबीर बहुत दिनों बाद अपने गाँव जा रहा था। वह अपनी चमचमाती मोटरसाइकिल पर सवार, बहुत ही महंगे–महंगे ब्रांडेड कपड़े पहने, महंगा चशमा लगाए, बहुत ही कीमती घड़ी बाँधे हुए था। अप्रोच रोड़ पर बसे उसके गाँव के खेतों में एक रहट था जिसका पानी बहुत ही शीतल एवं मीठा था। जिन मुसाफिरों को उस रहट के बारे में पता था उनको प्यास नहीं भी होती तब भी वह उसका पानी पीने के लिए ओर पाँच–दस मिनट उसके आस–पास लगे फलदार वृक्षों की छाँव में बैठने का लालच कर लेते थे।
जैसे ही रामबीर अपनी मोटरसाइकल पर उस रहट के पास से गुजरा उसे अपने बचपन के दिन याद आ गए जब इस रहट पर रहने वाले भरतू चाचा को उनकी टोली परेशान किया करती थी । उसने सोचा अब तो भरतू चाचा भी बहुत बूढे हो गए होंगे। उनसे मिला जाए, कुछ देर पेड़ों की छाँव तले आराम का आनन्द भी ले लूंगा और पानी भी पी लूंगा। ऐसा विचार कर उसने मोटरसाइकल रहट की तरफ मोड़ दी। दूर धान के खेतों से आता हुआ उसे भरतू नज़र आया तो उसने मोटरसाईकल सड़क किनारे ही खड़ी कर दी और पैदल ही खेतों के मेड़ पर चलते हुए भरतू की तरफ बढ़ने लगा| उनके पास पहुँचा तो भरतू चाचा हड्डियों का पिंजर मात्र बचे थे । चाचा को उसने राम–राम की। चाचा ने यादास्त पर थोड़ा जोर लगाकर उसे पहचान लिया।
“अरे तू तो रामबीर है ना? हजारी को छोरा।”
“हाँ चाचा! मैं रामबीर ही हूँ हजारी जी का बेटा।”
“भाई! लगता है तू तो बड़ा आदमी बन गया है। इतने अच्छे कपड़े, घड़ी, आँखों पर फैशन का चश्मा। पर बुरा मत मानना बेटा तू चाहे कितना ही बड़ा आदमी बन गया हो मुझे तो तू नंगा ही दिखाई दे रहा है।"
भरतू की बात सुनकर रामबीर ने अपने आपको ठीक से देखा और बोला, "चाचा तुम्हें ग़लतफ़हमी हो गयी है लगता है आँखों में मोतिया उतर आया है|"
"नहीं बेटा मुझे तो बहुत दूर का दिखाई देता है| तूझे ऐसा बनाने के चक्कर में तेरा बाप बुरी तरह से दुनियाँ के बोझ तले दबा हुआ है।”
भरतू चाचा की बात सुनकर रामबीर उलटे पाँव हो लिया।
भरतू ने पुकारा, “अरे बेटा कहाँ चला? बैठ जा थोड़ा आराम करके चले जाना।”
“नहीं चाचा! अब रुक नहीं सकता। अब तो तभी वापिस आऊंगा जब मेरे पुरे ख़ानदान के बदन पर पुरे कपडे होंगे और कोई हमें नंगा नहीं कह सकेगा" ****
4.फल
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पंडित जी अपने आँगन की दीवार के साथ लगे एक फलदार वृक्ष को काट रहे थे। महीने में कभी-कभार पंडित जी की गली से होकर एक छोटे बालक के साथ गुजरने वाले फ़क़ीरी चोले वाले बुज़ुर्ग ने पूछा, "अरे पंडित जी! यह फलदार, छायादार वृक्ष क्यों काट रहे हो?"
"अरे क्या बताऊँ, बड़े जतन से लगाया था यह पेड़। बच्चे की तरह देखभाल की है इसकी। सोचा था बड़ा होकर अच्छे फल देगा। लेकिन सब जतन करने के बाद भी एक फल के दर्शन नहीं हुए। फ़ालतू में जगह घेरे हुए है। इसको काटकर यहाँ एक दुकान निकाल दूँगा। बैठे-बिठाए कुछ किराया तो आएगा।"
"पंडित जी! तुम्हारा पढ़ा-लिखा लड़का भी तो कई वर्षों से खाली बैठा है, कोई काम-धाम नहीं करता।" अपने साथ चल रहे बालक के सिर पर हाथ फेरते हुए फ़कीरी लिबास ने कहा और आगे निकल लिया। ****
5.अन्नदाता
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"अरे रमुआ! ई बार की को वोट दई हो?" खेत की मेड़ पर पेड़ की छाँव तले लगभग झूलती हुई सी टूटी हुई चारपाई पर पसरे हुए जमींदार ने हुक्के का धुँवा आसमान में छोड़ते हुए पूछा।
"माई बाप! हमार वोट तो अन्नदाता को ही जई है।" बिना रुके खेत मे कस्सी चलाते-चलाते रमुआ ने जवाब दिया।
जमींदार का पारा सातवें आसमान पर था, "साले नमक हराम, ईका मतबल तू हमें वोट नाही देईबे।" ****
6.आदत
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प्यास लगी तो कुर्सी पर बैठे–बैठे ही पानी पिलाने के लिए पत्नी को आवाज़ लगाने को हुआ,.......... “ओह! वह तो नाराज होकर मायके गयी हुई है।” उठकर रसोई घर में गया, देखा सभी बर्तन शिंक में भरे पड़े हैं। पानी लेने के लिए गिलास तो क्या, एक कटोरी भी बर्तन के रैक में नहीं बची। पाँच दिनों में सभी बर्तन तो वह झूठे कर चुका था।
उस दिन छोटी–सी ही बात तो थी, जिस पर उसने पत्नी को बुरी तरह डाँट दिया था और पत्नी नाराज़ होकर मायके चली गयी थी। उस समय तो उसको असीम शांति की अनुभूति हुई थी, लेकिन आज पत्नी की महत्ता का पता चला। अब तो उसे पत्नी की वह टोका–टोकी, नाराज़गी में छुपा उसका प्यार नज़र आने लगा। आख़िर कितना ख्याल रखती है वह मेरा, यही सोचकर पत्नी को मनाने के लिए फोन करने वापिस कमरे में आया। फोन उठाया ही था कि डोर बैल बजी।
“उफ इतना जरूरी फोन करना है, कौन कम्बख़्त आन मरा। पहले उसे ही देख लूँ फिर आराम से पत्नी से बात करूँगा।” यही सोचते हुए उसने दरवाजा खोला तो सामने पत्नी जी खड़ी थी। पत्नी ने अन्दर आकर घर की हालत देखी तो, “तुम किसी काम के नहीं हो। मुझे मालूम था,.......... मालूम था मुझे, तीन–चार दिन में ही तुम मेरे घर का टीब्बा उठा दोगे। अरे नौकरानी समझ कर ही मुझे फोन कर देते, कम–से–कम मेरे घर की यह हालत तो न होती .......... लेकिन नहीं, नहीं करना था। तुम्हें अपनी मौज–मस्ती से फुर्सत होती तो करते ना। लेकिन नहीं, क्या जरूरत पड़ी है .......... मेरे आने से तुम्हारी आज़ादी में खलल पड़ जाता। .......... हे भगवान मेरी रसोई का यह क्या हाल बना दिया इस आदमी ने।”.......... पत्नी बोले जा रही थी .......... पाँच–छ मिनिट तो वह अपराधी की तरह उसकी बातों को सुनता रहा.......... फिर अचानक पत्नी को बाहों में जकड़कर अपना सिर उसके कंधे पर टिका दिया। पत्नी भी बर्फ–सी पिंघलती हुई उसे सीने में समा गयी। उन्हें एहसास हो रहा था जैसे वह दो जिस्म एक जान हैं। एक दूसरे की आदत–सी बन गए हैं।
कुछ पल इसी तरह रहने के बाद, “अरे तुम थकी हारी आई हो पानी देना तो भूल ही गया।”
“रहने दो, रहने दो.......... तुम क्या पानी पिलाओगे मुझे। रसोई में एक गिलास भी साफ नहीं होगा।”..........
“तुम्हें कैसे मालूम?”
“माँ ही अपने बच्चों के रग–रग को नहीं पहचानती, पत्नी भी पति की रग–रग से वाकिफ़ होती है।”
वह स्वयं को बड़ा खुशनसीब अनुभव कर रहा था, जो इतनी समझदार जीवन–संगिनी उसे मिली।****
7. शर्तिया
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सोमबीर हैरान था, पंडित जी, बाबा जी, वैद्यजी.... सब गलत कैसे साबित हो सकते हैं?..... पंडित जी ने मेरी कुण्डली देखी थी तो कहा था, पहला लड़का होगा। ममता का तीसरा महीना चल रहा था, तब जो बाबा आया था वह भी शर्तिया लड़का होने का आशीर्वाद दे गया था। फिर मैंने भी तो चूक की कोई गुंजाईश नहीं छोड़ी थी। वैद्यजी से शर्तिया लड़का होने वाली दवाई भी लाकर दी थी ममता को।
तभी उसकी बहन नवजात बच्ची को ले आई और उसकी गोद में देते हुए बोली, “ले सोमबीर भाई ...... देख! बिल्कुल देवी स्वरूपा है। रंग तो भाभी पर है, लेकिन नयन-नक्श बिल्कुल अपनी अम्मा जैसा मनमोहक है।”
सोमबीर ने बुझे मन से बच्ची को गोद में लिया| बच्ची उसके हाथों में आते ही मुस्कुराई, तो उसने बच्ची का चेहरा देखा| सोमबीर की खुशी का ठिकाना न रहा। उसे लगा जैसे उसकी माँ (जिसका स्वर्गवास सालभर पहले हुआ था) आज उसकी गोद में बैठी मुस्कुरा रही है ।
ममता सोमबीर को देखते हुए अपनी माँ का धन्यवाद कर रही थी, जिसने शर्तिया लड़का होने वाली दवाई लेने की बात बताने पर समझाते हुए कहा था, “बेटी!...... ऐसी–वैसी दवाई लेने से न जाने होने वाले बच्चे पर क्या असर पड़े? फिर बच्चे तो परमात्मा का प्रसाद होते हैं। वह लड़का–लड़की जिस भी रूप में मिले उसे सहर्ष स्वीकार करना चाहिए।”
उनकी बात मानकर ही ममता ने सोमबीर से छुपकर शर्तिया लड़का होने वाली दवाई नाली में बहा दी थी। ****
8. आदम जात
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कॉलोनी के मोड़ पर कूड़े के ढेर के पास भीड़ जमा थी । कुछ नौजवान सोशल मीडिया पर यहाँ घटित घटना को लाईव करने में व्यस्त थे । खबरियाँ चैनल वाले आए तो उन्होंने लोगों की प्रतिक्रिया लेनी शुरू की । टी.वी. पर चेहरा दिखेगा, इसीलिए सभ्य से दिखने वाले लोग बड़ी मार्मिक प्रतिक्रिया देने में व्यस्त हो गए । सबसे बाद में पुलिस पहुँची, उसने देखा कूड़े के ढेर पर अखबार में लिपटा एक नवजात शिशु पड़ा था । जिसने अपने पैर का अंगूठा मुँह में ठूंस रखा था, उसकी अर्धखुली आँखों से निकला पानी सूख चुका था, लेकिन सांसें चल रही थी । पुलिस ने भीड़ से पूछताछ शुरू की तो, जो लोग अब तक टी.वी. वालों को बड़ी मार्मिक प्रतिक्रियाऐं दे रहे थे, सब के सब पुलिस के सवालों पर चुप्पी साध गए।
कुछ सोच–विचार कर पुलिस ने उपस्थित लोगों से आग्रह किया, “जब तक इसके माता–पिता का पता नहीं चलता, तब तक कोई इसे रखने का कष्ट करे ।”
सभ्य लोगों की भीड़ चुप थी । कूड़ा बीनने वाली ‘सुन्दरी’ (उसी ने सबसे कूड़े के ढेर में पड़े नवजात की सूचना कॉलोनी वालों को दी थी) बोली, “साहेब!..... पुलिस साहेब!! इ बच्चा सबसे पहले हम देखत रहे । इ को हमें देई दयो ।”
अब पुण्य कमाने के चक्कर में स्वयं को पिछड़ता देख एक–दो लोग बच्चे का खर्च उठाने को राजी हो गए ।
सुन्दरी, “जो बाबू लोग इ बच्चा का दूध, लत्ता–कपड़ा देईबे का है, हम उ का घर से ले आईवे ।”
भीड़ में से अदृश्य आवाज आई, “बच्चे की देखभाल के बहाने अपना घर चलाना चाह रही होगी ।”
दूसरी अदृश्य आवाज, “बच्चे बेचने वाली लगती है । इसको बच्चा नहीं दिया जाए ।”
सुन्दरी, “नहीं बाबू!..... हमऊ एइसन ना ही हैं । हमरेे झौंपड़े में तो कुत्ता, बिल्ली..... सबका बच्चा पलत रहइन । फिर इ तो आदम जात है । किसी को कोन्हो जोखम लागत हई तो हम हर रोज सुबह–साम थाने में जाकर, पुलिस साहेब को इ बच्चा दिखा भी आइबेे ।”
एक आवाज ओर आई, “बच्चे को अनाथ आश्रम में भेज दिया जाना चाहिए।”
एक महिला बोली (पोशाक से डॉक्टर लग रही थी), “नहीं.... नहीं अनाथ आश्रम में नहीं, इस नन्हीं जान को घर जैसे वातावरण में रखना चाहिए । मैं इस गरीब महिला को यह बच्चा देने का समर्थन करती हूँ । जब तक इस शिशु के माता–पिता का पता नहीं चलता तब तक मैं इस बच्चे का पूरा खर्च भी उठाऊंगी ।”
भीड़ में खुसर–फुसर जारी थी । पुलिस ने काग़जी कार्यवाही करने के बाद नवजात शिशु, सुन्दरी को दे दिया ।
महिला, “सुनो!.... क्या नाम है तुम्हारा......, पहले इसे मेरे क्लीनिक ले चलते हैं । वहाँ इसके स्वास्थ्य की जाँच करके, बाद में ड्रैस खरीदने चलेंगे।”
सुन्दरी ने अपना कूड़े का बोरा वहीं छोड़ा और अपने फटे आँचल में नवजात को दुबका कर महिला के पीछे–पीछे हो ली ।
खबरीया चैनलों की खबर में कूड़े में मिले नवजात शिशु की खबर तो ब्रेकिंग बनी हुई थी लेकिन इनमें से दोनों महिलाओं का नेक काज ब्रेक हो गया था। ****
9. कुर्बानी
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“सलीम भाई! ईद मुबारक ।”
मटन बिरयानी के शौकीन सलीम के दोस्तों ने फोन के माध्यम से उसको बकरीद की ब/ााई दी । सलीम ने भी ब/ााई कबूल कि ओर उन्हें घर पर आमंत्रित किया ।
मटन बिरयानी उड़ाने के लिए सभी दोस्त सलीम के घर पहुंचे । लेकिन वहाँ का मंजर देख सभी हैरान थे । उन्होंने सलीम से पूछा, “भाई सब खैरियत तो है ? कुर्बानी नहीं की ?”
सलीम, “कुर्बानी की है भाइयो । मैंने आज से जर्दा खाना छोड़ दिया, जिसके बिना एक पल भी नहीं रह सकता था ।”
सभी ऊपर से खुश दिख रहे थे, लेकिन अंदर ही अंदर कुढ़न महसूस कर रहे थे, क्योंकि सलीम के घर जैसी मटन बिरयानी उनके पूरे शहर में कहीं नहीं मिलती थी। ****
10. समर्पण
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शादी के बाद सभी रिश्तेदार अपने-अपने घर जा चुके थे। शाम का खाना बनाने की तैयारी थी शालिनी की सासू माँ -
"उफ़ कई दिन हो गए ढंग का खाना खाएं हुए। आज तो मैं अपने हाथों से कुछ अच्छा सा बनाती हूँ।"
"माँ जी! मैं कोई मदद करूँ?" शालिनी बोली।
"अरे नहीं! सारी उम्र तुझे ही तो बनाना है। अभी कुछ दिन तो मेरे हाथ का बना खाना खा ले। हमारे टेस्ट का भी पता चल जाएगा तुझे।"
शालिनी और मधुर की अरेंज मैरिज हुई है। शादी से पहले मिलना तो दूर फोन पर बात भी नहीं कि है एक दूसरे से। शादी के बाद भी आज पहली बार एक दूसरे से ढंग से बातचीत होगी। खाना बन कर तैयार होने पर सासु माँ खाना उनके कमरे में ही रख गयीं। सब्जी देखकर मधुर बड़ा ख़ुश हुआ -
"अरे वाह, माँ ने मेरी मनपसंद अंडाकरी बनाई है। कई दिनों बाद आज खाने में स्वाद बैठेगा।"
अंडाकरी की खूशबू लेते हुए वह आत्मविभोर हो रहा था।
लेकिन शालिनी ख़ुश नहीं थी, वह बोली -
"मेरे लायक़ खाने को कुछ नहीं है इसमें।"
"अरे इतनी अच्छी अंडाकरी है तो। जमकर खाओ।" मधुर की ख़ुशी का ठिकाना नहीं था।
"मैंने कभी अंडे नहीं खाएं।"
"लेक़िन हमारे घर मे तो लगभग हर रोज अंडे खाए जाते हैं। अब तो तुम्हें अंडे खाना ही नहीं बल्कि बनाना भी सीखना होगा।"
"नहीं मैं ऐसा नहीं कर सकती मुझे घिन्न आती है।" शालिनी ने नाक सिकोड़ते हुए कहा।
"देखो! हमें जीवन भर साथ रहना है, इसलिए एक दूसरे की पसंद, नापसंद, खानपान सबके साथ एडजेस्ट करके ही चलना होगा। नहीं तो दाम्पत्य जीवन में बड़ी गड़बड़ी होगी।" मधुर बड़े सहज भाव से बोला।
शालिनी शांत भाव से मधुर की बातें सुन रही थी। कुछ विचारने के बाद उसने रोटी का टुकड़ा तोड़ा और अंडाकरी में डुबो कर मुँह में डालने के लिए हाथ बढ़ाया, तभी मधुर ने उसका हाथ रोक लिया और अंडाकरी भी एक तरफ रख दी।
"क्या हुआ? मैं खा तो रही हूँ।"
"नहीं पगली मन मारकर खाना अच्छी बात नहीं है। तुम्हें यह नहीं अच्छा लगता तो यह तुम मत खाओ....."
शालिनी प्रश्नसूचक नज़रों से मधुर को देख रही थी।
"....... हमें जीवन भर साथ रहना है, अब तुमको अंडाकरी पसंद नहीं है तो अभी से मुझे भी यह पसंद नहीं है।" ****
11. पवित्र पाप
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"अरे पिता जी! आप.... इस समय?"
शमशेर अपने पिताजी को रात के 10 बजे अपनी बैरक में देखकर हैरान था। शमशेर दूरदराज़ के एक छोटे-से गाँव का नौजवान है, जो अपनी कड़ी मेहनत से फ़ौज में भर्ती होने में सफ़ल गया था और ट्रेनिंग के लिए आया हुआ था। 7 बहनों में एक भाई और ज्येष्ठ होने के नाते जिम्मेदारीयों का बोझ भी उसी पर है।
"वो घर पर सभी तेरे लिए चिंता करते हैं। तुम्हारी माँ ने जबरदस्ती तुम्हें देखने के लिए भेज दिया।" पिता जी के शब्दों में लाचारी और चेहरे पर थकान भरी भूख साफ़-साफ़ देखी जा सकती थी। शमशेर को मालूम था, पिताजी रास्ते में कुछ नहीं खाते। खाएं भी तो कैसे ग़रीबी ने बड़ी लंबी परीक्षा जो ले रखी है। रेल का किराया भी मुश्किल से जुटाया होगा। शमशेर ने पिताजी के नहाने का पानी रखा और उनके लिए मैस से खाना लेने के लिए चल दिया। वैसे तो इस समय खाना मिलने की कोई उम्मीद नहीं थी फिर भी उसने कौशिश करना उचित समझा।
"अरे रामेश्वर जी! खाना बचा हुआ है क्या?"
"खाने के समय क्यों नहीं आए? अब तो सब खत्म हो गया है।"
"नहीं नहीं मैं तो टाइम पर खा गया था। वो तो अभी-अभी मेरे पिताजी आ गए। इसलिय देखने चला आया।"
"तुम्हारे पिताजी आए हैं....। ठहरो देखता हूँ कुछ खाने को मिल गया तो।.... अरे शमशेर थोड़ा सा मीट और चावल बचे हुए हैं।"
"मीट?.... पर पिताजी तो शाकाहारी हैं।"
"देख भाई मेरे पास जो बचा है वही है। नया बनाना मेरे बसकी बात नहीं सब बर्तन-भांडे धो-मांज चुका हूं। सुबह भी जल्दी उठना है। जल्दी से बताओ क्या करूँ।"
शमशेर की समझ मे नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? पिताजी मांसाहारी नहीं हैं, लेकिन पिताजी को भूखा भी नहीं सुला सकता था। थोड़ा विचारने के बाद शमशेर ने रामेश्वर से कहा "एक थाली में चावल डालकर उसपर मीट की तरी इस तरह डालना कि उसमें मीट का कोई टुकड़ा न आने पाए। और हाँ इस बारे में किसी को कुछ न कहना।" रामेश्वर ने एक थाली में चावल डाले और उनपर मीट की तरी बड़ी सावधानी से डालकर शमशेर को दे दिया। शमशेर अब संतुष्ट था कि पिताजी को भूखे नहीं सोना पड़ेगा, लेकिन मन में भय भी था कहीं ऐसा करके उसने कोई पाप तो नहीं कर दिया। ****
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क्रमांक - 012
शिक्षा : एम ए अर्थ शास्त्र व हिंदीसाहित्य में पी एच डी
उम्र : 70 वर्ष
व्यवसाय: सेवा निवृत्त व्याख्याता
विधा : गद्य (कहानियां ,संस्मरण,आलेख ) पद्य (अतुकांत एवं तुकांत एवम छंद बद्ध कविताएं )
प्रकाशित पुस्तकें : -
1 छत्तीसगढ़ के लोकाचार की कथाएं
2 अनाम रिश्ता (मलयाली में शिक्षा सचिव के द्वारा अनुवदित)
3 सप्तक
4 सफलता के सात सोपान
5 पुरान के गोठ
6 मेरे आँगन की धूप
7 काव्य त्रिधारा
8 दुलारी की वापसी (एकादश एकांकी संग्रह)
9 बूढ़ी दाई के कहिनी
10 ममा दाई के किस्सा( 24 कहानी)
11 जिंदगी की मशाल
12 गियान के जोत
13 वासन्तक (कथा संग्रह)
14 छत्तीसगढ़ी लोक कथाएं
15 आलेख माणिका
16 प्रेमचंद के उपन्यासों में नारी अस्मिता (350 पेज) शोध ग्रंथ
सम्मान : -
1 - श्रीलंका --2012 में मुकुटधर पांडेय सम्मान
2 - मलेशिया 2013 में the blessed juno --award
3 - थाईलैंड 2014 में -lady of the age (युग नारी )
4 - 2015 में रूस का Minarva of the East award
5 - मॉरीशस में 2016 काpride of india award
6 - 2017 में हांगकांग विश्व शिखर सम्मान
7 - लोक गौरव सम्मान , उत्तर प्रदेश
8 - भारती भूषण सम्मान , उत्तर प्रदेश
9 - कविता लोक रत्न सम्मान , हरियाणा
10 - साहित्य गौरव सम्मान , दिल्ली
11 - आचार्य श्री सम्मान , मध्यप्रदेश
12 - विशिष्ठ हिंदी सेवी सम्मान , दिल्ली
13 - लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड 2010 , रायपुर
14 - दिनकर सम्मान , रायपुर 2020
15 - कृति रत्न सम्मान , अम्बिकापुर
16 - आदर्श शिक्षिका सम्मान , लायन्स क्लब , कोरबा
17 - विद्यासागर सम्मान सन 2012 विक्रमशिला विद्यापीठ उज्जैन
18 - भारत गौरव सम्मान सन 2014 में विक्रम शिला विद्यापीठ उज्जैन
19 - इंडियन बेस्टीज अवार्ड 2021 उदयपुर
विशेष : -
- अध्यक्ष कृति नारी साहित्य समिति कोरबा छ ग
- अनेक राष्ट्रीय एवम अंतर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलनों में काव्यपाठ
- कृति मंजूषा वार्षिकी की 3 वर्ष तक प्रमुख सम्पादक
- सम्पादक : 1. सद्भावना 2.अनुप्रिया
- A I P C की 20 वर्षों से सक्रिय और सम्माननीय सदस्या
- 1992 से1997 तक लगातार नवभारत के "सुरुचि" अंक में धाराप्रवाह प्रकाशित
- अनेक राष्ट्रीय - अन्तर्राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में लगभग 300 रचनाये प्रकाशित
पता : ब्लॉक 6/122 प्रथम तल ,हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी खमार डीह, कचना रोड,शंकर नगर ,रायपुर - 492 007 छत्तीसगढ़
1. पढ़ा - लिखा होता तो..!
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प्रेमनगर कालोनी में कुल 25 ब्लॉक में 600 M I G फ्लैट बने हैं हर पांच साल में कालोनी वासियों की प्रबन्धन समिति का चुनाव होता है । इस बार वहाँ के बड़े पुराने प्रतिष्ठित निवासी मंगल सिंह अध्यक्ष चुने गए हैं। कालोनी में एक छोटा सा मन्दिर है।उसका जीर्णोद्धार करवाने का प्रस्ताव है ।मंदिर से लगा बड़ा सा सभागार भी बनवाना है । लगभग 8 -10 लाख का खर्च बताया गया। हर निवासी 500 रु और समिति के नवगठित पदाधिकारियों को एक हजार चन्दा देना है ।
चन्दा लेने की शुरुआत अध्यक्ष महोदय से की गई।
उन्होंने कहा ----मेरे तरफ से 5 लाख का चेक भर लो ।
सचिव चेक भरकर कहा --इसमे हस्ताक्षर कर दीजिये ।
उन्होंने उस पर अंगूठा लगा दिया ।
समिति वाले एक दूसरे का चेहरा देखने लगे । सचिव से रहा नहीं गया।उन्होंने कहा --ये क्या मजाक है???भई ...
ये मजाक नहीं सच्चाई है ---- मैं अनपढ़ हूँ --- फिर उहोने
बताया कि ---आज से 16 साल पहले इस कालोनी में चौकीदारी करता था। इस बार की तरह नया चुनाव हुआ।
समिति के सदस्यों का निर्णय था --अब चौकीदार ,सफाई
कर्मी पढ़े लिखे लोगों को ही रखा जाएगा। सभी अनपढ़ लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया।
परिवार पालने के लिए मैंने कालोनी के बाउंड्री के बाहर चाय पकौडे का ठेला लगा लिया । धीरे धीरे
अच्छी आमदनी होने लगी। कालोनी में कुछ किराएदार
कॉलेज पढ़ने वाले लड़के और अविवाहित लोग भी थे ,
उनके लिये खाना बना देता।
हमारा काम चल पड़ा। हमने धीरे से एक रेस्टोरेंट खोल लिया । टिफिन सप्लाई का काम इतना बढ़ा की सहायता के लिए गांव से भाई बन्धुओं को भी बुलाना
पड़ा। यहॉं इसी कालोनी मेंआठ साल पहले अपने लिये मकान भी खरीद लिया ।
भाइयों अब आप ही बताएँ मैं आपलोगों से
क्यों मजाक करूँगा ???? वहां उपस्थित लोगों ने कहा -- वाकई आपने तो कमाल ही कर दिया। इतना प्रोग्रेस किया जितना पढ़े लिखे भी -----उन्हें बीच मे रोकते हुए
मंगल सिंह ने कहा----अगर उस समय पढ़ा लिखा होता तो शायद आज भी चौकीदार ही बना रह जाता .....। ****
2. एक मौका तो दीजिए
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प्रवीण अपने बचपन की दोस्त सुषमा से बहुत प्यार करता है।उससे शादी करना चाहता है वह एक दिन उससे बोला-- सुषमा मेरे घर वाले शादी के लिए जोर डाल रहें है। तुम मेरा पहला प्यार हो । बताओ घर वालों को शादी की बात करने कब भेजूं ?
सुषमा - तुम मेरे बचपन के दोस्त हो। लेकिन शादी मेरी मंजिल नहीं है । मैं पहले कुछ बनना चाहती हूं। मैं पुलिस बनना चाहती हूं। पुलिस की वर्दी पहन कर जनसेवा करना,लड़कियों में आत्मविश्वास जगाना मेरा सपना है ।उसके बाद ही शादी करूंगी।
प्रवीण - मेरी इलेक्ट्रॉनिक की दूकान है । अच्छा खासा कमा रहा हूँ ।हमारे परिवार की कोई बहुएं बाहर जाकर नौकरी नहीं करती हैं। तुम भी रानी बनकर घर में रहना ।
सुषमा -- तो फिर तुम किसी ऐसी लड़की से शादी कर लो ,जो तुम्हारी रानी बनकर खुश रहे।
मुझे तो ऐसा जीवन साथी चाहिए, जो मेरे सपने को पूरा करने में मेरा साथ दे सके।
प्रवीण - सुषमा मैं तुम्हे फिर कहता हूं , कि अपनी फालतू की जिद छोड़ दो । मेरे कई दोस्त हैं ,जो पुलिस बनने के लिए कई बार इंटरव्यू दिए और फेल हो गये कोई ऑटो चला रहे हैं, कोई प्राइवेट सिक्युरिटी गार्ड बने सात आठ हजार रुपए में गुजारा कर रहे हैं
सुषमा - तुम मुझे मेरे हालबमें छोड दो। मैं ऐसे हार मानने वालों में से नहीं हूं ।एक दो बार कोशिश तो कर लेने दे।उसके बाद देखा जाएगा।
सुषमा के मामा हवलदार थे, वह उनसे मिलना चाहती थी। पर उसके पिता भी नहीं चाहते हैं ,कि वह पुलिस बने । इसीलिए उसे कभी मामा के घर नहीं भेजे।वेउसकी शादी करके अपनी जिम्मेदारी से मुक्त होना चाहते हैं।गांव में रहते हैं पुराने जमाने की सोच रखते हैं। उनका कहना है ,कि नौकरी ही करनी है तो मास्टरनी या ग्राम सेविका बन जा। पुलिस बनना लड़कों को शोभा देता है।भगवान ने लड़की बनाया है तुझे तो घर गृहस्थी सम्हाल ।अगर पुलिस बन भी गई, तो जिंदगी भर कुंवारी रह जावेगी। तेरे से शादी कौन करेगा? मेरे मरने के बाद तेरा क्या होगा ? कुंवारी मर जाएगी ,तो भूतनी बन कर तेरी आत्मा भटकती रहेगी ।
सुषमा बोली- बापू तुम मझको बहुत चाहते हो न ?माँ के मरने के बाद मुझे कोई तकलीफ न हो इसीलिए दूसरी शादी भी नहीं किया।तो बापू पुलिस बनना मेरा सपना है।
बापू मेरी माँ आज जिन्दी होती तो वह इसलाडली बेटी की इच्छा जरूर पूरी करती ।मैँ तो हूँ ही अभागिन । नई तो मेरी माँ क्यों मरती? कम से कम मेरा मन रखने के लिए एक दो बार कोशिश करने का मौका तो देती न? इतना कह कर जोर जोर से रोने लगती है ...... वह रोते रोते भूखी ही सो जाती है....
दूसरे दिन बोलती है --बापू सब बोले हैँ न फिजिकल में गांव के सारे लड़के फेल होजाते हैं न? तो मेरे को एक बार का मौका तो दो । मैं अगर पास नहीं हुई तो जहां बोलोगे शादी कर लूँगी । और जो तुमने मौका नहीं दिये न ,तो ऐसे भी अधूरी इच्छा ले के मरूँगी , तो भूतनी बनकर मेरी आत्मा भटकती रहेगी ।
तब कहीं जाकर उसके उसे एक मौका देने को तैयार हुए। वह बापू के साथ शहर पुलिस थाने गई। वहां थानेदार से भर्ती की सारी जानकारी ले कर आई। किताबें खरीद लाई। थानेदार ने भी उसका हौसला बढ़ाया।हर सम्भव सहायता करने का आश्वासन दिया।
अब सुषमा के लिए एक चुनौती है कि उसके लिए यह पहला और आखरी मौका है ।
उसने एक साल तक फिजिकल फिटनेस की तैयारी के लिए फिजिकल कालेज पेंड्रा में C PED ( सर्टिफिकेट ऑफ फिजिकल एजुकेशन) कोर्स में एडमिशन ले कर होस्टल में रहकर तैयारी की । एथलेटिक्स इवेंट की टेक्निक सीखा ,वहां के कोच से सही मार्गदर्शन मिला । रनिंग के लिए स्पाइक्स, इशु करवा लिया । वहां उसे तीन चार साथी भी मिल गये जो सेना, पुलिस में जाने में रुचि रखते हैं। उनके साथ प्रेक्टिस करती। बीच बीच में समय निकाल कर पुलिस भर्ती परीक्षा से सम्बंधित पुस्तकें पढ़ती ।
उसके बाद आवेदन फॉर्म भरा, इंटरव्यू दिया और टॉप रेंक लेकर चयनित हुई । पोस्टिंग मिलने के बाद ट्रेनिग में जाने के लिए पिता से अनुमति और आशीर्वाद लेने गांव लौटी।उसे देखकर पिता का सीना गर्व से चौड़ा हो गया।
गांव के सरपंच ने उसके स्वागत और सम्मान में कार्यक्रम रखा खूब बधाइयाँ मिली ।उसके बापू ने माइक पर कहा। बेटी बेटे में कोई फर्क ना है ।ये तो मेरी बेटी ने आज साबित कर दिखाया । उन्हें मौका जरूर मिलना चाहिए। दो साल बाद पुलिस विभाग के सहायक इंस्पेक्टर से उसकी शादी हो गई। बाद में बापू को भी वह सपने साथ ले गई ।
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3. लकीर के फकीर
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शहर की रहने वाली ग्रेजुएट मीनू की शादी सुदूरवर्ती गांव मनकापुर के अत्यंत साधारण परिवार में हुआ है। उसका पति परेश नरसिंग पुर में रेलवे में क्लर्क है .। विदाई के बाद पहली बार मीनू ससुराल आई। उसकी बड़ी बुआ और छोटी नानी को उसके साथ इसलिए भेजा गया क्योंकि वे मनकापुर के पास आमगांव और परसा टोला की रहने वाली हैं। वे दोनों गांव के रीति रिवाज की अच्छी जानकार और मीनू के ससुराल एवम मायके पक्ष के रिश्तेदारों को भी जानती हैं।
दूल्हा दुल्हन की आरती उतारने के बाद दोनों को देवकक्ष में माथा टेकने ले गये फिर पंडाल में सारे रिश्तेदारों से दुल्हन का परिचय कराने की रस्म के लिए एक तरफ बच्चे किशोर दूसरी तरफ बड़े बुजुर्ग लोग खड़े थे । बुआ ने क्रमशःबताया मीनू ये तुम्हारे सास ससुर, बड़ी सास ,बड़े ससुर ,काका ससुर काकी सास ,जेठ जेठानी हैं ।तुम्हे इनके चरण स्पर्श कर केआशीर्वाद लेना है।
मीनू ने सभी के पांव छू कर सबके आशीर्वाद लिए ।उसके बाद बच्चों में ननद ,देवर भांजा,भांजी,जेठ बेटा , जेठ बेटी के पांव छूने को कहा गया । मीनू ने उन सबके पैर छूने से साफ इनकार कर दिया ।
नई दुल्हन के ये तेवर देखकर क्षण भर के लिए सब सकते में आ गये । नारी वर्ग में सास,डेढ़ सास, फुआसास
दादी सास सभी ने तुरंत तीखी प्रतिक्रिया दी। नववधू और उसके मायके पक्ष वालों पर तंज कसे जाने लगे कि - दुल्हन को मर्यादा नहीं सिखाया गया, किसी ने कहा -आज तक ऐसा नहीं हुआ कि - कोई दुल्हन ससुराल में कदम रखते ही वहां के रीति रिवाज मानने से ऐसे इनकार किया हो-- हमारे परिवार में पहली ग्रेजुएट बहू आई है। अब देख लो लड़कियों को जादा पढ़ाने का नतीजा।
मीनू के जेठ ने कहा -- ये तो घर का माहौल ही बिगाड़ देगी। ऐसा करो कि पगफेरे में चार दिन बाद इसके मायके वाले आने वाले हैं तब उनकी अच्छी खबर ली जाएगी । इसे मायके से तभी वापस लाया जाएगा, जब यहां के सारे रीति रिवाज सीख ले और उसे मानने के लिए कसम भी खाए।
मीनू ने सबके सामने हाथ जोड़कर बड़ी विनम्रता से कहा - मैं आप सबके सामने अपने कुल देवता की शपथ लेकर कहती हूँ ---कि मैं यहां के रीति रिवाजों और मान मर्यादा का पालन अवश्य करूँगी ।अब तो यही मेरा धर्म है। किंतु मेरे मन में जो दुविधा है , मेहरबानी करके उसे पहले दूर कर दीजिए न.....
उसने कहा ---- बड़ों के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद
लेने से आत्मविश्वास बढ़ता है न ? बिगड़ेकाम भी बनते हैं, सकारात्मक ऊर्जा आती है ।
लेकिन जो उम्र में छोटे हैं, उन्हें ज्ञान और अनुभव तो दूर की बात है ठीक से कपड़ा पहनना नहीं आता । यहां तक की नाक साफ करना भी नहीं आता ,और रिश्ते में बेटा बेटी की तरह हैं । उनसे किस आशीर्वाद की उम्मीद रखूँ मैं ???
मैं इन बच्चों में से किसी की मैं चाची किसी की मामी, किसी की ताई,,किसी की भाभी हूँ ।होना तो ये चाहिए कि ये अपने से बड़ों का पांव छू कर आशीर्वाद लें । रामायण महाभारत जैसे ज्ञान ग्रंथो में भी तो यही लिखा है। अब भी आप लोग कहोगे तो बेमन से आपकी बात मान तो लूँगी ---
आप लोग नीति विरुद्ध काम करने मुझे मजबूर किया इसके लिए ज्ञानी मुनि लोग आप लोगों को माफ नहीं करेंगे ....
जेठजी और,दादाससुर जी ने कहा -- बहू ठीक कहती है ।आज तक हमने इस बात कीओर ध्यान ही नहीं दिया।बस लकीर के फकीर बनकर लकीर ही पीटते रहे ।आओ सभी बच्चा पार्टी अपनी चाची ,मामी, ताई के चरण छूकर आशीर्वाद लो..... । ****
4.माँ का पूर्वाग्रह
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शशी के मन में ये बात पहले से बैठ गई थी ,कि शादी के बाद लड़के जोरू के गुलाम बन जाते हैं।और लड़की उनके पसन्द की हो तो माँ की फ़जीहत सुनिश्चित है। बेटे प्रणव अपने मित्र की बहन मीतू (सुमिता)से शादी करना चाहता है।
बेटे के जिद के आगे माँ को झुकना पड़ा ,और मीतू उसके घर की बहू बन कर आ गई ।मीतू बहुत ही सुशील, सुंदर समझदार लड़की है ।वह अपनी सास शशी का बहुत सम्मान करती है।
लेकिन शशी हर काम में उसकी कमी निकालती ही रहती है। कभी बहू से खुश नहीं रहती ।घुटने दर्द के बहाने मीतू से मालिश करवाती देर रात तक अपने कमरे रोके रखती। बहू के आते ही घरेलू नौकरानी की छुट्टी कर दी, बहू को सारे काम फटा फट निपटा कर जब गाने सुनना या टीवी देखना चाहती तो रिमोट अपने हाथ में रखती। प्रणव ने एक छोटा टीवी अपने कमरे के लिए खरीद दिया ।प्रणव को शादी में नई मोटर साइकिल मिली थी। उसने अपनी पुरानी बाइक के बदले स्वीटी के लिए स्कूटी खरीद दी ।स्वीटी सासू को रोज मंदिर छोड़ने , कभी शॉपिंग कराने कभी हॉस्पिटल ले जाती सासु के मन पसन्द खाना बनाती बड़े प्यार से खिलाती ।
स्वीटी सासू का दिल जीतने का हर प्रयास करती ।फिर भी वह कभी स्वीटी की तारीफ नहीं करती ।
अब स्वीटी की तबीयत खराब रहने लगी है । मॉर्निंग सिकनेस बढ़ गई । उल्टियां होने लगी । पहले की
तरह सासू का ध्यान नहीं रख पाती। वह बहू को ताने देने से नहीं चूकती।
कहती --ये आजकल की लड़कियों के चोचले हैं -- हमने भी तो बच्चे पैदा किये हैं । प्रणव उसकी तबियत को देखते हुये कुछ दिन के लिए स्वीटी को मायके छोड़ आया ।
बहू के न रहने पर उसे अपने हाथ से सारे काम करने पड़े ।उनकी भजन मण्डली,मंदिर जाना सब्जी लेने जाना बन ठन रहना सब छूट गया ।
तब बहू की कीमत समझ में आई ।उनकी बेटी रीतू को टाइफाइड हो गया।रीतू भी उसी शहर में रहती है। वह माँ के पास चली आई । शहर में कोरोना की नई बीमारी फैल रही है। कोई सही बात नहीं बताता।शुरू में उसे वायरल फीवर निमोनियाँ, ही बताते हैं।
शशी के लिए दोहरा संकट बढ़ गया ।क्योंकि बहू के आने के बाद साल भर से काम की आदत छूट गई थी, कोई सर्वेंट नहीं मिल रहे थे, बीमार बेटी के लिए समय पर दवा दलिया , खिचड़ी अलग से बनाना साफ सफाई का ध्यान रखना भारी पड़ने लगा।
शशी ने बेटे से कहा --स्वीटी को जाकर ले आओ मुझसे बुढ़ापे में काम नहीं होता ।
प्रणव ने कहा -माँ उसकी भी तो तबियत ठीक नहीं है ।उसे आराम की जरूरत हैं। वह मायके में ही ठीक है ।
शशी ने कहा-- वाह रे जोरू के गुलाम ।यहां बीमार बहन बूढ़ी माँ की तकलीफ तुझे दिखाई नहीं देती । क्या फायदा ऐसी बहू के होने से जो वक्त में हमारे काम न आये?
प्रणव ---माँ स्वीटी इस घर की बहू है नौकरानी नहीं ।इस समय उसे आपके प्यार,देखभाल और आराम की जादा जरूरत थी।दीदी तो ससुराल जाने के छः महीने बाद ही आपके भड़काने पर अपने सास ससुर से अलग हो गई ।
स्वीटी आपका कितना ध्यान रखती है । कितना मान करती है ? आपको फिर भी हमेशा उसमें कमी ही नजर आती रही।बचपन में ही उसकी माँ का निधन हो गया ।वह आप में अपनी माँ की छवि ढूंढती रही ।आप उसकी उपेक्षा करती रही । चूंकि वह इस घर में मेरी पसन्द से आई है , इसीलिए उसमे आपको उसकी कोई अच्छाई नहीं दिखी ----
ये कैसा पूर्वाग्रह है आपका -- कि मेरे होने वाले बच्चे की माँ के रूप में भी उस अपने दिल में जगह नहीँ दिया.....
अब तो मैं भी ससुराल में ही जाकर रहने की सोच रहा हूँ।
दीदी तो यहां आ ही गई है जीजाजी को भी बुलवा लेता हूँ।
नहीं--नहीं बेटा मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई । जो मैं स्वीटी जैसी बहू की कदर नहीं पाई अब आगे से ऐसा नहीं होगा ...... तुम्हारी खुशी में ही मेरी खुशी है ।****
5. हरीश का जन्मदिन
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हरीश के जन्म के 15 दिन बाद ही माँ की मृत्यु हो गई।बूढ़ी नानी ने उसे कलेजे लगाकर पाला। उसका मामा चमन इतवारी (नागपुर) रेलवे स्टेशन के पास झुग्गी बस्ती में रहता है। नानी के साथ सात साल की उम्र में हरीश मामा के घर आ गया। मामा मजदूरी करते हैं ।किसी तरह दो वक्त की रोटी का जुगाड़ हो पाता है ।मामा दयालु स्वभाव के हैं। कुछ दिन रहने के बाद हरीश की दोस्ती पास पड़ोस में रहने वाले कबाड़ बीनने वाले लडकों से हो गई। वह भी उनके साथ शहर के कूढ़े दान से प्लास्टिक के बोतल ,टीन टप्पर,लोहा लंगड़,फेके गए पुराने कपङे कागज के गत्ते,किताब , कापी कांच के टुकड़े बीन कर लाता और कबाड़ खरीदने वाले सेठ के पास बेच कर 25 से 30 रु कम लेता । एक दिन दोपहर कोअपने साथियों के साथ
गायत्री मंदिर के पास से गुजरे । वहां पंचकुंडीय यज्ञ के समापन उपलक्ष में भंडारा चल रहा था । हाथ पैर धोकर वे भी पंगत में बैठ गए। उन्हें भी भर पेट खाने को अच्छा भोजन मिला ।
मंदिर कमेटी वाले बालसंस्कार शाला प्रारम्भ करने की बात सोच रहे थे उनमे से विवेक की नजर इन बच्चों पर पड़ी ।विवेक जी ने बच्चोँ केपास आकर उनका नाम पता पूछा और अगले दिन फिर बुलाया ।
अगले दिन हरीश और उसके साथी साफ कपड़े पहन कर वहाँ गए । वहाँ उन्होंने देखा कि एक 11वर्षीय पार्थ नाम के लड़के का जन्मदिन है। हवन के पश्चात जितने लोग मंदिर परिसर में उपस्थित थे उनके हाथ मे पुष्प अक्षत दिए गए मंत्रोच्चार के साथ उस बालक पर बरसाए गए । जन्मदिन की बधाई दी गई । सभी को मिठाई दी गई । हरीश और उनके साथी आज के विशेष मेहमान थे जिन्हें वहीं पर। बैठा कर पत्तल में भरपेट पूरी सब्जी खिलाया गया आज तक उन झुग्गी निवासी बच्चो को इतना मान कभी नहीं मिला था । वे बहुत खुश हो गए ।
उसके बाद मनोरा दीदी और आरती दीदी के साथ विवेक भैया भी आये अपनी गाड़ी में बिठा कर उनकी बस्ती मैं उन्हें छोड़ने गए । हरीश के घर बैठे बच्चों से कहा अपने अपने माता पिता को बुलाकर कर लाएं । उन्हें समझाया कि वे उस झुग्गी बस्ती के बच्चों को हप्ते में दो दिन बिना कोई शुल्क लिए पढ़ाना चाहते हैं।
इस तरह उन पांच सात बच्चों को लेकर बाल संस्कार शाला शुरू हुई। चमन की झोपड़ी में शनिवार रविवार को बच्चे दो घण्टे के लिए आते उन्हें खेल खेल में मनोरंजक ढंग से अक्षर ज्ञान, गिनती,स्वच्छता, गायत्री मंत्र बोलना ,सरल सी प्रार्थना,छोटे बाल गीत , सलीके से बोलना उठने -बैठने के तौर तारीके सिखाये गए ।धीरे धीरे बच्चों की संख्या बढ़ती गई। गायत्री मंदिर के कार्य कर्ता जन मिलकर चंदा करके वहां एक बड़ा हाल बनवा दिया । आये दिन पर्व त्योहार में यज्ञ हवन होने लगे।
इस बीच सावन महीने की अमावस्या तिथि को हरेली के दिन हरीश का जन्मदिन आया।
हरीश की नानी और मामा बड़े उत्साहित हैं कि पहली बार उस झुग्गी बस्ती में हरीश का जन्मदिन विशेष तरीके से मनाया जाएगा। इस हप्ते हरीश ने कबाड़ बेचकर सत्तर रु.कमाए हैं। उसने विवेक भैया को पैसे देते हुए कहा - हवन और मिठाई के लिए मैं इतना ही जमा कर पाया । बाकी के लिए क्या करें? मनोरा दीदी ने कहा - तुम्हारे लिए नए कपड़े हमारी तरफ से ।
चमन मामा और नानी ने हॉल की साफ सफाई कर दी । सुबह नौ बजे सारे लोग इकट्ठा हो गए। संस्कार शाला के बच्चे फूल तोड़ कर ले आये ।आम के पत्ते तोड़ कर तोरण बना लिए ।उसके बाद शंख नाद और दीप प्रज्वलित करके कार्यक्रम प्रारम्भ हुआ। नए कपडे पहनकर हरीश हवन में बैठा जयघोषऔर मंत्रोच्चार के साथ विधि विधान से हवन पूजन के बाद सभी उपस्थित लोगों को अक्षत चावल दिए गए हरीश के सिर पर पुष्प अक्षत डाले गए सबने मिलकर विवेक भैया के साथ ये शुभकामना दोहराई -"हरीश दीर्घायु बने,स्वस्थ रहे, इन फूलों की तरह महकता रहे,,मानवता के धर्म का पालन करे । मामा और नानी की सेवा करे। अच्छा इंसान बने । हरीश बहुत भावुक हो गया । अपने गुरुओं एवम सभी बड़ों के चरण स्पर्श किये,मित्रों से गले मिला।सबको बूंदी बांटा गया। हरीश के द्वारा आंवले का पौधा लगवाया गया। उस पौधेकी बड़ा करने की उसे जिम्मेदारी दी गयी ।
उसके बाद संस्कार शाला के हर बच्चे को अपने जन्मदिन का बेसब्री से इंतजार रहने लगा। ****
6.जिंदगी के फैसले
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धनेंद्र जबलपुर की आयुध फैक्ट्री में स्टोर कीपर है। अभी महीने भर पहले ही उसी शहर की नीरा से उनकी शादी हुई है । नीरा एम .ए . बी .एड . है । कई जगह नौकरी के लिए आवेदन दे रखा है ।एक दो जगह इंटरव्यू भी दिया है पर नियुक्ति नहीं मिली है ।
धनेंद्र मंडला जिले के एक गांव के निवासी हैं ।गांव में पले बढ़े हैं ,ग्रेजुएट हैं ।भले ही शहर में रहते हैं ।पर मूल सोच में कोई बदलाव नहीं आया है। ।शादी के पहले उनकी ख्वाहिश थी ,कि पत्नी कम से कम मैट्रिक पास मिल जाये , क्योंकि उनकी फैक्ट्री में यह नियम है कि किसी कर्मचारी की मृत्यु होने पर पत्नी को अनुकम्पा नियुक्ति मिल जाती है
धनेंद्र की तो किस्मत खुल गई । चाहा था सोना और मिल गया हीरा । नीरा हीरा ही तो है । देखने में सुंदर कामकाज में निपुण व्यवहार कुशल । पर हीरे की परख तो जौहरी ही कर सकता है न ?
उसके घर वाले तो पुराने खयालात के हैं । धनेंद्र को परिवार वालों में से कोई न कोई उसे हिदायत देते रहते-- अपने से ज्यादा पढ़ी लिखी ,ज्यादा हैसियत वाले घर की बहू लाया है । उसे दबाव में रखना ,नहीं तो सिर पर चढ़ जाएगी। पत्नी तो पांव की जूती की तरह होती है । उसकी जगह पांव में होती है याद रखना ,नहीं तो बाद में पछताना पड़ेगा ।
मित्र कहते -- धन्नू तेरी तो किस्मत खुल गई यार .....
इतनी पढ़ी लिखी गुणी पत्नी मिली है । सुना है सरकारी नौकरी भी मिलने वाली है।।तेरे तो दसों उंगलियां घी में और सिर कढ़ाही में .....
यार हमें भी तो अपने घर खाने पर बुला न कभी । उनके हाथ के बने खाने की बहुत तारीफ सुनी है। वह आये दिन दोस्तोँ को खाने पर बुलाने लगा।वाकई खाना बहुत स्वादिष्ट बनाती सलीके से परोसती है।
चाचा ताऊ के लड़के उसे उकसाते रहते - पत्नी को पति से कमतर होनी चाहिए ।नहीं तो उसकी नजर में पति की कोई इज्जत नहीं रह जाती ।
अब धनेन्द्र भी दिखा देना चाहता है ,कि वह कैसे पत्नी पर रौब रखता है ।उसे जल्दी ही मौका मिल गया । उसके फूफा जी अपने दामाद के साथ उनके घर मिलने आये । वे चिकन प्रेमी हैं घर मे चिकन आया ।
खाने के समय जैसे ही थाली परोसी गई उसमे में नान वेज न देख कर धनेंद्र चीख कर बोला --- चिकन की सब्जी कहां है? जल्दी लाओ ...
नीरा --- मंझली जेठानी जी बनाकर लाने ही वाली है।
फूफ़ा जी -- अरे भई हमे तो नई बहू के हाथ की बनी रसोई खानी है ।
नीरा -- जी हमे क्षमा करें। हमारे घर में सब शाकाहारी हैं । हमें नानवेज बनाना नहीं आता। उसे छोड़कर बाकी सब चीजें हमने बनाई है।धनेंद्र को तो सबके सामने उसे नीचा दिखाने का मौका मिल गया । उसने ऊंचे स्वर में बोला --- कैसी गंवार हो ?? तुम्हारे माँ बाप ने घाँस -फूस के अलावा कुछऔर बनाना नहीं सिखाया?
नीरा - क्षमा चाहती हूँ ,हम आचार्य श्री शर्मा जी से दीक्षित शुध्द शाकाहारी हैं ।सबके परिवार के खान पान,रहन सहन अलग होते हैं। इसमे क्रोधित होने वाली या अपराध करने वाली तो कोई बात हमे नजर नहीं आती ।
धनेंद्र को सबके सामने पत्नी पर रौब झाड़ने का एक मौका तो मुश्किल से मिला है ।उसे कैसे हाथ से जाने देता -- -तैश में आकर उसने कहा -- एक तो ढंग से खाना बनाना नहीं आता ,ऊपर से सबके सामने मुंह चलाती हो ? कहते हुए उसे थप्पड़ लगाने को हाथ उठाया ही था, कि नीरा ने उसका हाथ बीच में ही पकड़ लिया -
अब तो धनेंद्र आपे से बाहर हो गया और चीख पड़ा -- जो औरत पति का सम्मान करना नहीं जानती ।उसे अपने घर में एक पल भी बर्दाश्त नहीं कर सकता । निकल जाओ मेरे घर से अभी .........
मैं आपकी विवाहिता पत्नी हूँ । इस घर में जितना आपका हक है उतना मेरा भी है। इस समय मैं आप से यही निवेदन करती हूं कि आपसी मतभेदों को हम आपसी बात चीत से सुलझा लें । मुझे मालूम है, कि आप में समझदारी की कमी नहीं है। कुछ न कुछ गलत फहमी हमारे बीच आ गई है । ठंडे दिमाग से बाद में इस पर सोचना होगा। इस तरह तैश में आकर जिंदगी के फैसले नहीं लिए जाते......
समझदार पत्नी मतभेदों में उलझती नहीं उसे सुलझा कर स्थिति को अपने अनुकूल बना लेती हैं।****
7.आत्मसम्मान के खातिर
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आज जगदलपुर के जिला अस्पताल की हेड नर्स सुनीता का विदाई समारोह है। विगत सैंतालीस साल से बस्तर के इस बेहद पिछड़े सुविधा विहीन क्षेत्र में उसने खूब काम किया ।लोगों को स्वास्थ्य के प्रति जागरूक किया ,नई उम्र की लड़कियों को पढ़ने और आगे बढ़ने में हर सम्भव सहायता करती है।पिछले साल भी कोरोना काल में दिन रात अपने जान की परवाह किये बिना मरीजों की सेवा करती रही है। उसे राज्य सरकार की ओर से जिलाधीश महोदय ने ,"मदर टेरेसा सम्मान " का सम्मान पत्र ,सम्मान चिन्ह और ढाई लाख रुपए की सम्मान राशि का चेक प्रदान किया ।
प्रोगाम के बाद घर आकर फूलमाला और सम्मान पत्र टेबल पर ऱखकर सिर टिका कर सोफे पर बैठ गई ।
उसके सामने चुपके से उसका अतीत आकर खड़ा मुस्कुरा रहा था । जब से उसने बगावत की राह पकड़ी एक -एक कर सारी घटनाएं मुखर होने लगी ।
शहर में पली बढ़ी रिटायर्ड प्रायमरी टीचर की सबसे छोटी बेटी सुनीता शादी के बाद बीहड़ जंगलों के बीच बसे मान पुर गांव के देवेंद्र सिंह की बहू बनकर आई है। तब न टी वी थे न मोबाइल और न घरोंमें शौचालय होते थे । नववधू के स्वागत आरती और नेंग दस्तूर के बाद शाम ढलने के बाद हाथ भर लम्बा घूंघट निकाले हाथ मे लोटा लिए बहू बेटियों को एक अधेड़ स्त्री दिशा मैदान के लिए थोड़ी दूर मैदान में ले गई। लौटते समय एक युवती जिसकी गोद में तीन साल का बच्चा था, सुनीता के पांव पकड़ कर रोते हुये बोली --- मैं तुम्हारे पति की ब्याहता हूँ। ये बच्चा भी उन्ही का है । मैं बीमार हो गई तो मुझे मायके भेजकर तुमसे शादी कर ली। उनसे कुछ भी कहना बेकार है। पर तुम तो पढ़ी लिखी समझदार हो औरत का दर्द समझ सकोगी इसी उम्मीद में तुम्हारे पास आई हूं। मैं अनपढ़ गंवार इस बच्चे को लेकर कहाँ जाऊँ ?
सुनीता कुछ देर के लिए स्तब्ध रह गई । फिर उसे अपने साथ लेकर पति के पास आई और पूछी ---- क्या यह स्त्री तुम्हारी ब्याहता है ? ये बच्चा तुम्हारा------
पति ने शान के साथ कहा ---हां है तो क्या ?
सुनीता ने घूंघट उलट कर नाराजगी जताया ।
पति ने कहा -- हम ठाकुर हैं ।हमारे समाज में एक नहीं कई शादियाँ करने का रिवाज है ।
सुनीता ---और झूठ बोलने का भी रिवाज है क्या ?
पति गुस्से को दबाते हुए -- तुम इस घर में अभी अभी आई हो।अपनी हद में रहना सीख लो ।इस घर में मर्दों से इस तरह सवाल जवाब बर्दाश्त नहीं किया जाता । इतनी चेतावनी देकर वहां से चले गए।
वह भी सुहाग रात वाले कमरे में में जाकर अंदर से बंद कर लिया।उसने सोच लिया किसी भी तरह रात गहराने के बाद सबकी नजर बचा कर यहाँ से निकलना है ,और फिर लौट कर कभी वापस नहीं आना है।उसे ये शादी स्वीकार नहीं है ।
उसने मांग टीका ,चूड़ियां, शादी का लाल,जोड़ा उतार कर
पलँग पर रख दिया ।
उसने एक थैले में अपने पिता के घर के जेवर,,नेग में मिले रुपये टार्च डाला ।एक पतला से चादर
ओढ़कर पीछे के दरवाजे से दबे पांव पैदल ही निकल पड़ी।
लगातार तीन घण्टे चलकर थक गई । कुछ घर दिखाई दिए। मुर्गे ने बांग दिया, उसे एक वृद्धा स्त्री को अपनी ओर आती दिखाई दी। उसने रोनी सूरत बना कर कहा -माँ जी मेरी सहायता करो मेरे पिता बहुत बीमार है मुझे अंतिम दर्शन करना है ,पति परदेश में हैं ससुराल वाले मायके नहीँ जाने देते। इसलिए अकेले ही निकल पड़ी हूँ।वृद्धा को दया आ गयी ।उसने अपने बेटे को नींद से जगाया और उसे सायकल से स्टेशन छोड़ने को कहा । सुबह छै बजे की ट्रेन से पिता के घर आई । पिता को सारी बातें बताई ।उन्होंने इज्जत का हवाला देकर घर मे रखने से मना कर दिया। वहाँ से अपनी मौसी के घर गई। मौसी का बेटा दूसरे शहर में नौकरी करता है । उसने सहायता की ।उसने
नर्सिंग ट्रेनिंग का फार्म भरवाया । दो साल की ट्रेनिंग के बाद नौकरी के लिए अपने गांव, शहर से दूर बस्तर क्षेत्र को चुना ।जहां उसके कोई रिश्तेदार नही थे।
यहां आकर खुद को काम में व्यस्त कर लिया। 37 साल की उम्र में उसी के हॉस्पिटल में काम करने वाले डॉक्टर ने शादी के लिए प्रपोज किया ।तीन साल पहले उसकी पत्नी
की केंसर से मृत्यु हो चुकी थी और नौ साल की एक बेटी
है । उसके साथ अंतरजातीय विवाह कर लिया । ****
8.पान वाली दादी
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अजय खुशी खुशी घर आया और दादी से बोला -- दादी अब कल से तुम दूकान में नहीँ बैठोगी । मुझे नगर निगम में क्लर्क की नौकरी मिल गई है।
दादी- अभी तो तेरी नौकरी लगी है ।वो भी संविदा में तनखा तो मिलने दे । घर में छै जन खाने वाले ,इसके अलावा और भी तो दीगर खर्च है । दीपा मैट्रिक में है ।उसकी शादी के लिए लड़का देखना है ।शादी की तैयारी करनी है। अभी तुम्हारी ज्योति दीदी कुंवारी बैठी है । उसकी शादी दो साल से टल रही है । बेटा थोड़ा धीरज रखो ।ये शादी निपट जाने दो ।इसी पान की की दूकान ने हमे मुसीबत से उबारा है ।
अजय --- दादी मैं अब बड़ा हो गया हूँ न ? सब सम्हाल लूंगा।
आपकी पछत्तर साल उमर हो गई है । ये काम करने की नहीं आराम करने की उमर है। मैं पार्ट टाइम कुछ और काम खोज लूंगा ।
दादी ---बेटा मैं यहाँ बैठी ही तो रहती हूँ ।कौन पत्थर तोड़ती हूँ ,कि बोझा ढोती हूँ ? फिर दूकान का जो समान भरा ह,ै उसे बेचना तो पड़ेगा न ? ऐसे निर्णय एकाएक नही लिए जाते बहुत सोच समझ के लेने पड़ते हैं ।
अजय --ठीक है जितना सामान भरा है जैसे ही वह बिकता है। तुम्हेंऔर नहीं मंगवाना है ।
दादी --- अभी तो आरती का समय हो गया है।चलो आरती करके सब खाना खाते हैं।
रात बिस्तर पर गई तो जानकी देवी जो आज दादी बन गई है घर की मुखिया है ।उसे नींद नहीँ आरही है। उसे बीते दिनों की याद आ रही है । पन्द्रह साल की उमर में शादी होकर इस घर में आई थी । सास ससुर देवर जेठ सभी साथ रहते थे ।तब बाहर के काम के लिए नौकर चाकर भी थे । घर में सास का हुकुम चलता था । बहुएं एक हाथ लम्बा घूंघट डाले या तो पर्व त्यौहार में मंदिर ही जाती थी ।आज से 90 साल पहले गांव में दो मंजिला पक्का मकान था ,जो दूर से ही दिखता था।ननदों की शादी हुई देवर जेठ अलग अलग दूसरी जगह दूकान खोल कर परिवार के साथ चले गए। खेती बाडी का हिस्सा बंटवारा हो गया । इस मकान में अब हम और हमारा परिवार ही रह गया।
तीन बेटियों और एक बेटे की शादी के बाद पति गुजर गए । बड़ा बेटा किशोर बहुत दूर शहर में नौकरी करने लगा परिवार सहित वहीं बस गया।
छोटे बेटे कन्हैया को यहीं नौकरी मिल गई। उसे मिर्गी की बीमारी थी उसकी आकस्मिक मृत्यु हो जाने से घर की आर्थिक व्यवस्था चरमरा गई । जवान बहू के पांच बच्चों में बड़ा अभी पन्द्रह साल का अजय दसवीं में पढ़ रहा था। दो बेटियां शादी के लायक हो गई हैं।
घर का एक हिस्सा किराये पर उठा दिया, घर के बर्तन ,जेवर बिकने लगे, गाय ,बैल बिक गए। बिना कमाई के तो कुबेर का खजाना भी खाली हो जाता है। ।देवर, जेठ ,बड़े बेटे से सहायता मांगी किसी ने सहायता नहीं मिली । और सहायता मिलती भी कितने दिन ख़र्च चलता ।इतने बड़ा परिवार के दो जून की रोटी कैसे और कब तक चले ? उसके अलावा और भी खर्चे होते हैं।
तब भी चिंता में जानकी देवी के आंखों की नींद उड़ गई थी । बड़े घर की बहू जो कभी बिना घूंघट के घर के बाहर कदम नही रखी थी । घर के का काम और रसोई के अलावा कोई काम नहीं किया । उस जमाने में न तो गांव -गांव में स्कूल थे, न तो लड़कियों को पढ़ाया जाता । पर वह हिसाब की पक्की है।जबानी कर लेती है । दीवार में लकीर खींचकर भी सौ हजार तक के नोट गिन लेती ।
बड़ा घर था घर में दरबार सा लगा रहता था। तीज त्यौहार में भजन,कीर्तन, रामायण,आल्हा गाये जाते। पूरे मोहल्ले के लोग वहीँ इकट्ठे होते ।अतिथि सत्कार में चाय का चलन तब नहीं था। पान, सौंफ,सुपारी दिया जाता था ।जानकी देवी को तरह तरह के आकार के पान के बीड़े बनाना बहुत अच्छा लगता था।
उन्होंने बहुत सोचा फिर समस्या का हल ढूंढ ही लिया। अपने दिवंगत बेटे के मित्र के साथ जाकर सोने की हंसुली को सेठ लालचन्द के पास गिरवी रखा और गुमटी बनवाई ।पान दूकान खोलने का सारा इंतजाम करके घर के पास वाले चौक में दूकान खोल लिया । उसने सोच लिया कि मुझे परिवार पालना है ।
लोग क्या बोलेंगे--ताना मारेंगे --व्यंग्य करेंगे इस पर
जरा भी ध्यान नहीं देना है....... ये लोग मेरे बच्चों की परवरिश तो नहीं कर देंगे। मुझे अपने नाती पोतों का पेट पालना है,उनका भविष्य सँवारना है ....... मैं दूकान खोल कर कुछ गलत तो नहीं कर रही हूं। इस उमर में अपने परिवार के लिए जो बेहतर कर सकती हूं ।जरूर करूँगी । किसी के सामने अब सहायता के लिए हाथ तो नही फैलाऊंगी।
धीरे धीरे दूकान में दैनिक जरूरत की चीजें भी रखने लगी । उनके अच्छे व्यवहार,सही क्वालिटी,सही कीमत की वजह से कुछ ही दिनों में दूकान अच्छी चलने लगी। परिवार सम्हल गया। गांव तो अब शहर बन गया शहर में मोहल्ले में सब उनका सम्मान करते हैं ।उनका छोटा पोता अभय पढ़ने में मन नहीं लगाता । इस दूकान का रूप -रंग बदलकर उसे सौंपना चाहती है।*****
9. संगत ने बदली रंगत
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कुछ दिनों पहले सोनम अंबुजा मॉल में शॉपिंग कर रही थी । वहां उसकी स्कूल फ्रेंड विनी मिली । उसने चहक कर कहा -- अरे सोनम तुम यहाँ कैसे ??
सोनम -- तुम .... विनी हो क्या ??
सॉरी यार मैं पहले तो तुझे पहचान ही नहीं पाई । कैसा हुलिया बना रखा है तुमने? बिल्कुल आँटी जी लगती हो। विनी --- मैंने तो तुम्हें देखते ही पहचान लिया । बिल्कुल जस की तस ,पहले से ज्यादा स्मार्ट हो गई हो। बता यहां कैसे??
सोनम --चलो सामने काफी शॉप में बैठ कर बातें करते हैं ।फिर सब तुम्हें बताउंगी।
विनी -- तुम चलो । मैं अपने श्रीमान को बता कर आती हूँ।
वह लौटकर आई और बोली ---
सोनम मैं आ गई कुछ खाने पीने का ऑर्डर नहीं किया क्या ....?
सोनम -- बोलो क्या मंगाना है?
विनी - पहले तो कोल्ड ड्रिंक,फिर चाउमीन या पास्ता बोल क्या पसन्द है? पीजा या बर्गर ----
सोनम --- पार्टी करनी है क्या ???
विनी --अरे खाने आये हैं तो अच्छे से खाएंगे न ।
सोनम - विनी तू कितनी बदल गई है हमारे फ्रेंड सर्कल में सबसे स्मार्ट ,जिंदादिल,फुर्तीली, हंसने हंसाने वाली अपनी उमर से कई साल बड़ी लगने लगी हो ।
विनी --- शादी के बाद पति,बच्चों की जिम्मेदारी अपने लिए कुछ सोचने का वक्त ही नहीं मिलता था। अब दोनो बच्चे बाहर पढ़ते हैं ,पति की इलेक्ट्रॉनिक की दूकान है। सब अपने काम में व्यस्त हैं।बैंक जाना हो होस्पिटल या शॉपिंग मुझे पति का मुंह ताकना पड़ता है।अब अकेले बाहर जाने का मन ही नहीं होता ।
सोनम -- कोई बात नहीं अब इसी शहर में मेरे पति का ट्रांसफर हो गया है ।हम मिलते रहेंगे,और वो पहले वाली विनी को वापस ले आएंगे ।
विनी -- सच ! ऐसा हो सकता है??
सोनम -- अभी भी वक्त है सम्हाल ले खुद को। अगर तू चाहेगी तो पहले जैसी स्मार्ट बन सकती है ।बस मैं जैसा कहूँ तुझे पूरी ईमानदारी से करना होगा ।
विनी -- गॉड प्रॉमिस मुझे अपने जैसी बना दे। तू जो कहेगी मैं करूंगी । बस वेरिकोस वाला ऑपरेशन नहीं कराउंगी ।उपासी नहीं रहूंगी। कितना सारा हर्बल ट्रीट मेन्ट करवा ली कोई फर्क नहीं पड़ा।
सोनम --ठीक है।कल से मॉर्निंग वॉक और योगा शुरू। अपना पता बता दे सुबह अपनी स्कूटी से तुझे लेने आऊंगी ।
विनी के पति भी वहां आ गये । सबने काफी पीया। सोनम से मिलकर बहुत खुश हुए और बोले -- सोनम जी अगर विनी की स्मार्टनेस और कांफिडेंस वापस आ जाये तो चमत्कार हो जाएगा । मैं जीवन भर आपका एहसानमन्द रहूंगा ।
सोनम -- इसके लिए हम और आप तो हेल्पर हैं । जो करना है इसे ही करना होगा। आपको इसे हौसला देते रहना है । मैं जैसा कहूंगी उसे मानना है। अच्छा तो कल मिलेंगे ---
: दूसरे दिन से सोनम उसे पास के गार्डन में योगा कराती
गार्डन के 4 -5 चक्कर लगवाती । फ़ास्ट फूड,जंक फूड,कोल्ड्रिंक, चटर-पटर सब बन्द।सादा खाना सलाद और फल के अलावा घर मेंऔर कुछ भी लाना बन्द करवा दिया । एक महीने में 5 kg वजन कम हो गया।
सोनम ने XXL के बाद अब XL साइज के बढ़िया सलवार सूट विनी को गिफ्ट दिए । सोनम की लोक प्रियता इतनी बढ़ी कि उस गार्डन में 8 -10 महिलाएं उनके साथ नियमित योगा करने योगा मेट लेकर आ जाती। तीन महीने में सबका 12 से15 kg वजन कम हो गया। अधिकांश लोग सलवार सूट और लेगीस , कुछ जीन्स टॉप पहनने लगी।
इस बीच एक दिन सोनम ने विनी से कहा -मेरे घर के पास मेरी पड़ोसन प्राइवेट स्कूल चलाती है। उसकी एक टीचर प्रसूति अवकाश पर चली गई। तो तीन महीने तू वहां नौकरी करले।
विनी के पति ने उसे ढ़ाई तीन हजार की नौकरी करने को मना कर दिया कहा -- तुम मेरे से हर महीने छै हजार ले लेना पर नौकरी नहीं करना ।
सोनम ने उन्हें समझाया --- कि यहां बात पैसे की नहीं - किसी की जरूरत में सहायता करने की है। जब वो सक्षम है वेतन देने में ,तो स्वैच्छिक या अवैतनिक काम करने की जरूरत नहीं है। जो पैसा मिलेगा उसे किसी गरीब को दान कर देना अपनी मेहनत की कमाई को दान करने की खुशी और सन्तुष्टि को महसूस करके देखना।तब उनके पति ने नौकरी की अनुमति दे दी।
अब प्रश्न उठा कि वह नौकरी पर जाएगी कैसे ?
सोनम --तेरी बेटी की स्कूटी गैरेज में ऐसे ही बेकार पड़ी है ,कब काम आऐगी ??
अब विनी बोली -- बाप रे बाप मैं नहीं सीख सकती स्कूटी . -----सीखना तो तुझे पड़ेगा ...गॉड प्रॉमिस को भूल गई ??
सोनम ---अभी दिसम्बर की छुट्टी में तेरे बच्चे आएंगे न वो प्रेक्टिस करा देंगे और जीजाजी दो तीन दिन में सीखा देंगे। उन्हें भी तो मम्मी के स्मार्टनेस की सरप्राइज देनी है कि नहीं।
विनी ने स्कूटी सीखी धीरे धीरे अकेली बाहर जाने लगी। स्कूल स्टाफ के साथ रहन सहन का तौर तरीका बदला, 5 -6 घण्टे बाहर रहती । पहले घर में T V के सामने घण्टों बैठे बैठे अनाप शनाप खाती रहती थी ।अब उसको वक्त ही नहीं मिलता। अब तो जल्दी से तैयार होना, सलीके से कपड़े पहनना,पढ़ाने की तैयारी करना होता है।इससे नॉलेज बढ़ने लगा, पैसा कितनी मेहनत से कमाया जाता है । इसका अनुभव भी हुआ ।
ये सब उसकी फ्रेंड के पर्सनालिटी डेवलपमेंट का हिस्सा था । जिसने उसके अंदर बहुत परिवर्तन लाया ।
यही है संगत की रंगत और सकारात्मक सोच का परिणाम है। यह सोनम के नारी जागृति अभियान का प्रभावी तरीका नारी सशक्तीकरण का हिस्सा भी है। इस तरह अपने समय का सदुपयोग करती है वह। ****
10.आसमान से गिरे
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सोनम के माँ बड़े चाव से अपनी बेटी के साथ घूमने अमेरिका गई थी। जिंदगी में पहली बार हवाई
जहाज पर बैठ कर अपने भाग्य पर इतरा रही थी ।सोनम और उसके पति धर्मेश न्यूजरसी शहर में किसी बड़ी कम्पनी में काम करते है उनका तीन वर्षीय पुत्र नानी की देख रेख में घर पर रहता है।हर रविवार को वे चारोंआउटिंग के लिए कहीं न कहीं जाया करते ।सोनम की माँ को आये अभी एक महीना ही हुआ है कि चीन से होता हुआ कोरोना वायरस अमेरिका मे भी दस्तक देने लगा।
सोचे थे इस रविवार को नियाग्रा फॉल देखने जाएंगे ।पर भारतसे फोन आया कि उनका पंचवर्षीय पोता शिवांक बीमार है ,उसे 3- 4दिनों से बुखार हो गया है वह दादी -दादी की रट लगाए हुए है । उसके दो दिन बाद खबर आई कि बाथ रूम में पांव स्लिप हो जाने से उनके पति के पांव में फेक्चर हो गया है वो हॉस्पिटल में भर्ती हैं ।
अब तो आनन फानन में उनकी फ्लाइट की टिकिट बुक की गई और दूसरे दिन ही उन्हें मुंबई होते हुए नागपुर के लिए रवाना किया गया । भारत में भी कोरोना का ख़ौफ़ समाया हुआ है।एहतियात के तौर पर हर अंतरराष्ट्रीय यात्रियों की प्राथमिक जाँच की जा रही है।आवश्यक निर्देश दिए जा रहे हैं। वहां पर उन्हें बुखार न होने के कारण घरेलू उड़ान से नागपुर भेज दिया गया । लेकिन नागपुर के एयर पोर्ट की जांच में एहतियात के तौर पर उन्हें रोक लिया गया। और 15 दिनों के लिए आइसोलेशन सेंटर में भेज दिया गया ।
अब तो सोनम की माँ का हाल रो -रो कर बुरा हो गया । अधिकारियों से कितनी मिन्नतें कर के हार गईं ,कि एक बार उसे हॉस्पिटल जाकर बीमार पति को दूर से ही देख लेने की अनुमति तो मिले। बेटा कार लेकर आया था पोता भी जिद करके साथ आ गया था पीछे बैठा कार केबंद शीशे से ही हाथ पसार कर दादी -दादी की गुहार लगाए रो रहा था।
अब तो 15 दिन बाद ही जांच रिपोर्ट नेगेटिव आने पर
वह अपने घर जा पाएंगी ।उनकी हालत तो "आसमान से गिरे और खजूर में अटके "की तरह हो गई है ! ****
11. छद्म वेश धारी दुश्मन
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साहिल और आर्यन दोनो पक्के मित्र हैं ।दोनों ही बड़े चुलबुले और शरारती हैं ।एक ही स्कूल के एक ही क्लास में पढ़ते हैं ।लॉक डाउन के कारण मम्मी पापा घर के बाहर जाने नहीं देते । दस बीस मिनट के लिए मम्मी या पापा की नजर बचा कर बाहर ये भाग ही जाते हैं। अपने दरवाजे के सामने या छत पर बैडमिंटन ,सांप सीढ़ी, लूडो खेलते साइकिल चलाते हैं।
ऐसे ही कल साहिल अपनी छोटी साइकिल चला रहा था उसी समय कंधे पर दो झोला टांगे एक फेरी वाला बच्चों के लिए रंग बिरंगे फुटबाल ,रैकेट,चिड़िया, गुड़िया,मोटर
पिट्टूल बहुत ही सस्ते दाम में बेचने आया जो खिलौने देखने आता उसे किटकैट, टॉफी मुफ्त में देता । आसपास के कई छोटी बच्चे भाग कर फेरीवाले के पास आकर खड़े हो गए। रोहित दो रैकेट लेने की जिद करने लगा ।उसकी दीदी प्रिया को कुछ सन्देह हुआ ।
पापा को दिखाने बॉल लेकर साहिल घर मे तेजी से दौड़ता हुआ आया उसके पास 2 मिल्क चाकलेट था उसकी बड़ी बहन तान्या ने तुरंत 100 नम्बर डायल कर पुलिस को इस फेरी वाले कीसूचना दी। आनन फानन में पुलिस आ गई। फेरी वाला बेग छोड भागने लगा । उसे पकड़ कर पुलिस ले गई । बाद हर गली मोहल्ले में पुलिस की ओर से मुनादी हुई कि--
शहर में छद्मवेश धारी कोरोना प्रसारक सब्जी,फल, खिलौने ,खजूर, ब्रेड,टोस्ट लेकर, सस्ते में बेच रहे हैं इनसे कोई सामान न खरीदें । कबाड़ीवालों से भी सावधान रहिए । बच्चों को घर से बाहर न निकलने दें ।जमीन पर पड़े हए नोट ,टॉफी, चॉकलेट आदि न उठाएं । ****
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क्रमांक - 013जन्मतिथि:16 अप्रैल 1981
शिक्षा:-एम.ए(अर्थशास्त्र),डी.पी.इ
पिता का नाम:श्री सदानंद ठाकुर
माता का नाम:श्रीमती मीना देवी
पति का नाम:अमल झा
बच्चें:पीयूष प्रियदर्शन झा, शाम्भवी प्रियदर्शी
सम्प्रति : शिक्षिका , उत्क्रमित माध्यमिक विद्यालय , करजापट्टी , केवटी , दरभंगा - बिहार
रूचि:-हिन्दी, अंग्रेजी, मैथिली में लिखना और पढना
प्रकाशित पुस्तकें:-साझा संग्रह 'यादें' , दिल के अल्फाज , मेरी धरती, मेरा गाँव, 'चमकते कलमकार,शहादत साझा काव्य संग्रह, बचपन, मिथिला संस्कृति, जख्मी दिल, साझा काव्य संग्रह 'प्रतिबिम्बित जीवन, लघुकथा संग्रह 'पुष्प परिमल, लघुकथा साझा संग्रह 'कथादेश,साझा काव्य संग्रह'काव्य मंजरी साझा संग्रह ई बुक पिता, E-book 'Love is blind' इत्यादि
सम्मान:-
श्रेष्ठ लघुकथाकार सम्मान,
चमकते कलमकार सम्मान,
अजयचंद लघुकथा प्रतियोगिता में प्रथम स्थान,
विवेकानंद स्मृति सम्मान,
जय जय हिन्दी संस्था द्वारा दैनिक श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान,
अनेक मंचों पर आनलाइन एवं आफलाइन काव्य वाचन के लिए सम्मान पत्र, प्राप्त, साहित्य प्रहरी सम्मान,
श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान,
मगसम द्वारा 'रचना प्रतिभा सम्मान
मातोश्री सम्मान-2021प्राप्त
Resilient Teacher Award 2018-19 इत्यादि
विशेष : -
आकाशवाणी दरभंगा द्वारा काव्य पाठ का प्रसारण
पता : उत्क्रमित माध्यमिक विद्यालय करजापट्टी
केवटी,दरभंगा - बिहार
1.वचन भंग
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नेता जी मंच पर भाषण दे रहे थे। अनेकों कसमें खाकर वादा कर रहे थे कि मैं आप सबका रहनुमा बनूंगा।
" सब झूठ बोल रहे हैं। पांच साल बाद आज ही दिखाई दे रहे हैं।"सभा में उपस्थित कुछ ग्रामीण आपस में खुसुर-फुसुर कर रहे थे। उनमें से एक ग्रामीण नेता जी पर टमाटर फेंकते हुए उनका वचन भंग कर देता है।"अरे जा, बड़ा आया है रहनुमा बनने।पीछले बार बाढ़,सुखार, आगलगी हुई तो किसी का हालचाल पूछने नहीं आए।" नेता जी मंच से उतर कर पानी-पानी हो कार में बैठ चुपचाप चल देते हैं।****
2. काहे को भेजी परदेश बाबुल
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माता-पिता के आर्थिक तंगी देखकर सुरेश दिल्ली कमाने चला जाता है। उसके पिता जी की अधिक जोर थी कि सुरेश दिल्ली जाकर रूपया कमाए।घर की आर्थिक स्थित ठीक करें । लेकिन छह महीने बाद ही वह कोरोना के कारण कारखाना बंद होने पर गांव की ओर रूख करता है।एक सप्ताह पैदल चलकर अपने गांव पहुंचता है।गांव में उसे एक विद्यालय में चौदह दिन क्वारांटाइन में रखा जाता है।चौदह दिन बाद वह घर पहुंचता है।सभी को उसकी हालत पर तरस आ रही है।" मेरा बेटा मरते-मरते बचा है।इसने क्या हालत कर ली है?" उसके पिता जी के आंखें नम हो जाते हैं। मां भी उसकी दुलार करते हुए दुख प्रकट करती है।"अब न जाएगा मेरा लाल कहीं। यहीं रहेगा,मेरे पास। यही कमाएगा,चैन की रोटी खाएगा।"
सुरेश तपाक से पिता जी से बोलता है," काहे को भेजी परदेश बाबुल।हम त कहले रही,हम नहिखे जायब।"
सुरेश के पिता जी उसको गले लगाते हुए बोलते हैं," अब नहिखे जायब देब परदेश बबुआ।" ****
3. दूसरी मां
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श्रद्धा दूसरी मां रीना जी के आने से बहुत दुखी थी।वह नहीं चाहती थी कि उसकी मां का स्थान कोई दूसरी औरत ले।कभी भी उनसे ठीक से बात भी नहीं करती थी। लेकिन आज वह बिल्कुल बदल गयी। वह अस्पाताल में है और उसकी दूसरी मां उसके पास बैठी है।
" मां,आप यहां से जाइए। नहीं तो आपको भी कोरोना हो जाएगा।" श्रद्धा के आंखों से आंसुओं की धार बहने लगती है।
" मुझे कोरोना छू भी नहीं पाएगा।मेरी प्यारी बिटिया जो मेरे साथ है जिसने कोरोना को बहादुरी से हराया है।"
श्रद्धा का हाथ चूमते हुए रीना जी बोलती है।
श्रद्धा ठीक होकर घर आती है।घर आने पर उसे मालूम होता है कि रीना जी उसके आक्सीजन लेबल कम होने पर अपने जेवर बेचकर आक्सीजन सिलेंडर की इंतजाम की। दिन-रात उसकी देखभाल की। श्रद्धा रीना जी के पास जाकर उनके चरणों पर गिर जाती है और अश्रुपूरित हो कहती हैं," मां, मां मुझे अपने ममता की छांव से कभी नहीं दूर कीजिएगा।मेरे बेरूखे व्यवहार को माफ कर दीजिए।
रीना जी श्रद्धा को उठाकर गले लगा लेती है! ***
4.सीख
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मैं और मेरी सहेलियां अंग्रेजी का गृह-कार्य दिखा रही थी। मैम बहुत सक्त थी।एक भी गलती करने पर कठोर सजा देकर लज्जित करती।सभी सहमे हुए थे।
" जिनका वर्ग-कार्य नहीं है ,वे सब खड़े हो जाएं। " मैम बोली।
कुछ लड़कियां खड़ी हो गयी। लेकिन स्नेहा खड़ी नहीं हुई। मैं तपाक से बोली" मैम,स्नेहा भी गृह-कार्य बनाकर नहीं लायी है।वो खड़ी नहीं हुई है।"
मैम उसको भी खड़ी होने को बोली।वह वर्ग में गृह कार्य कर रही थी। मैम के कहने पर खड़ी हुई।उसे भी सबकी तरह दोनों हाथों पर एक-एक छड़ी लगायी।वह बहुत रोने लगी।
वर्ग से जाते वक्त मैम मुझसे बोली," हमेशा बचाने का काम किया करो, न कि सजा दिलाने का..............।" मैं उनकी बात सुनकर बहुत लज्जित हुई और सिर झुका ली।मन ही मन कसम खायी कि फिर ऐसा कभी नहीं करूंगी।****
5.प्यारा गांव
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अरे रमेश! तुम अभी तक यहीं है। गांव में रहने के लिए उच्च शिक्षा हासिल किए थे।शहर जाओ, खूब पैसा कमाकर गरीबी दूर करो।" उसे देखकर अभिनव को बहुत आश्चर्य हुआ।
मैं कहीं नहीं जाऊंगा। मुझे गांव बहुत प्यारा लगता है। मैं यहीं रहकर आप सबके साथ काम करके परिवार की गरीबी दूर करूंगा। यहां की सुंदरता और अपनापन मुझे मजबूत डोर से बांध रखा है।"रमेश मुस्कराते हुए बोलता है।
"यहां तुम्हारे लायक तो कोई काम नहीं है" अभिनव सोच में पड़ जाता है।
"मैं आप सबके साथ नयी तकनीक से खेती करूंगा , फलदार, छायादार ,औषधिय पौधा लगाकर लगाकर इसकी सुरक्षा करूंगा। परिवार के साथ-साथ गांव की भी गरीबी हरूंगा।" रमेश आत्मविश्वास से बोलता है। ****
6. वृक्ष की महत्ता
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माखनलाल जी अस्पताल में भर्ती हैं।कोरोना होने के कारण उनका आक्सीजन लेबल कम हो गया था। बहुत मुश्किल से आज ठीक हुए हैं।
" आप आज घर जा सकते हैं ।घर जाकर नीम, बरगद,पीपल, अशोक इत्यादि वृक्ष के आसपास कम से कम आधा घंटा रहिएगा। गिलोय, तुलसी के पत्तों का इस्तेमाल काढ़ा बनाने में कीजिएगा। इससे आप जल्द पूरी तरह स्वस्थ हो जाएंगे।" डाक्टर उन्हें सलाह दिए।
वे पत्नी और बेटा की ओर देखने लगते हैं। उन्हें आज अपनी गलती का अहसास हो रहा था । उन्होंने बेटा और पत्नी के मना करने के बाबजूद भी तुलसी के सारे पौधे आंगन से उखाड़ दिए हैं।नीम,आंवला,अशोक,बरगद इत्यादि के वृक्ष मकान के आगे से कटवा दिए हैं ताकि उन्हें सफाई न करना पड़े।उन्हें वृक्षों के गिरते हुए पत्तों एवं उनपर चिड़ियों की चहचहाहट से बहुत चिढ़ थी।वे प्रकृति की अनमोल भेंट की महत्ता पर कभी ध्यान नहीं दिए।
" अब मुझे अहसास हो रहा है कि मैं अपराधी हूं जिसकी सजा मुझे मिली है। मैं तुमलोगों से वादा करता हूं कि जीवन रक्षक वृक्षों को बचाऊंगा और नीम, आंवला, अशोक,बरगद इत्यादि के पौधे लगाऊंगा।अपने आसपास आक्सीजन की कमी नहीं होने दूंगा।"माखनलाल जी कसम खाते हैं। ****
7. एक रूपया
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"अरे माता जी,आप एक रूपया के लिए क्यों अड़ी हैं। छोड़ दीजिए।एक रूपया से क्या होगा?" दुकानदार बोलता है।
" मुझे मेरा एक रूपया दे दो। बूंद-बूंद से घड़ा भरता है।प्रत्येक दिन जमा किए गए यही एक रूपया मेरे जीवन के आर्थिक समस्या को दूर करता है।कभी यही एक रूपया नहीं रहने पर शगुन कार्य नहीं होता।यह मेरा आर्थिक हथियार है। आप सब भी इस बात को समझकर जीवन में पुष्प खिलाएं।" मीना जी एक रूपया मांगते हुए बोलती है। उनकी बात सुनकर दुकानदार एक रूपया दे देता है।वह एक रूपया संभाल कर रखते हुए मुस्कुराती हुई विदा होती है। दुकानदार भी सोच में पड़ जाता है। ****
8.प्लेटफार्म
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दरभंगा जंक्शन पर रंजू अपने पति के साथ दिल्ली जाने के लिए रेलगाड़ी की इंतजार कर रही है।" मां जी,रुपया दीजिए। बहुत भूखा हूं। मां जी, आपको प्रणाम करता हूं।"एक अंधेर उम्र का लड़का रंजू के समक्ष हाथ फैलाए खड़ा है।
"यहां से जाओ ।मेरे पास तुम्हारे जैसे हट्टे-कट्टे के लिए फालतू रूपया नहीं है। रंजू बोलती है।
"मां जी, कहां काम करने जाएं,जिस कम्पनी में काम करते थे, उसके आधे से अधिक मजदूरों को कोरोना हो गया था। मुझे भी कोरोनावायरस हो गया था। कम्पनी बंद हो गयी।जो पैसा जमा किया था, इलाज कराने में खर्च हो गया।अब प्लेटफार्म ही मुझ जैसे मजदूरों का सहारा है।"उसने अपनी बेबसी बताती।उसकी बातों को सुनकर एवं वर्तमान हालातों को देखते हुए रंजू का पति उसे रूपरेखा देने को कहता है।रंजू उसे पचास रूपये देती है।वह रूपया लेकर झूमता हुआ चला जाता है।आगे प्लेटफार्म के एक दुकान से ब्रेड लेकर खाने लगता है।उसे देखकर वह देश की कमजोर होती आर्थिक स्थिति के बारे में सोचने लगती है। ****
9. अच्छे दिन
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"मालकिन कब आएंगे अच्छे दिन।बुधवा के बाबू के टेम्पो लाक्डाइन में नहीं चलती है।दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज हो गये हैं। बैंक के कर्मचारी गाड़ी की ऋण भी चुकाने के लिए कहते हैं। मालकिन रनिया भी जवान हो गरी हैं। " ननकी अपनी परेशानी बतायी।
" सब ठीक हो जाएगा।आशा की किरण देखो दस्तक दे रही है।"मीता उगते हुए सूरज की ओर इशारा करती है।
" लेकिन, मालिकन कब? दो साल से यही हालात हैं। मोदी जी भी झूठ बोलते हैं।सब सामानों की कीमतें आसमान छू रही है।" ननकी मीता से कहती है।
" धैर्य रखो। मुसीबतों का सामना करों।प्रभु अवश्य अच्छे दिन आएंगे।" मीता ननकी को समझाती है। तभी मीता का बेटा बताता है कि मां बसों, रेलगाड़ियों के भाड़ें भी बहुत बढ़ गये हैं। पेट्रोल,डीजल के दाम बढने से आम आदमी खुद का गाड़ी भी नहीं चला सकता है। "मालकिन झूठी दिलासा देती है।अच्छे दिन अब कभी नहीं आएंगे।" ननकी बड़बड़ाती हुई घर का काम करके आंगन से निकलती है। ****
10. सुधार
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" सर आप इन छोटे बच्चों से यह क्या करवा रहे हैं। इनके कोमल हाथ खराब हो जाएंगे।किताब पढ़ाकर सेलेबस समाप्त कीजिए।" विद्यालय के प्रधानाचार्य विमल सर वर्ग प्रथम के हिन्दी के शिक्षक सुरेंद्र सर से कहते हैं।
" सर ,ये किताब के सेलेबस का ही भाग है। दीपावली पर्व आने वाली है। बच्चों को उसके बारें में बताया है।उसी के संदर्भ में सभी बच्चे मिलकर सुंदर दीप बना रहे हैं। एक-दूसरे से नये-नये डिजाइन के दीप बनाना सीख रहे हैं।सभी बच्चे भी शांति पूर्वक वर्ग में है।शिक्षा में सुधार करने एवं रोजागारोनमुख करने के लिए अभी से ध्यान देना होगा।तभी शिक्षा में सुधार होगा और एक भी शिक्षित व्यक्ति बेरोजगार नहीं रहेंगे।" सुरेन्द्र जी बताते हैं।
"जी सर, आपका कहना बिलकुल सही है।इसी उम्र से बच्चों में संस्कार देने और आत्मनिर्भर बनाने के लिए ऐसी शिक्षा देने की जरूरत है।आप से अन्य शिक्षकों को भी सीख लेनी चाहिए।" विमल सर सुरेंद्र सर का पीठ थपथपाते हैं और आगे बढ़ जाते । ****
11. हमारा घर
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बैधनाथ जी फूट-फूट कर रो रहे हैं।उनका भाई उनके घर से निकाल दिया है। बड़ी मेहनत से घर बनाए थे। पिता जी की मृत्यु के बाद छोटा भाई घर से बेदखल कर दिया।
"अब हम कहां जाएं।हमारा घर हमारा नहीं रहा। इन्हीं हाथों से एक-एक पैसा जमा कर घर बनाया था। लेकिन आज ............" एक पेड़ के नीचे बैठे पत्नी से बोलते हैं।दो जवान बेटियां भी पास बैठी हैं।
" पापा वो हमारा घर नहीं हो सकता ।आप हिम्मत मत हारिए।हम लोग मिलकर फिर से खुशियों से भरा सुंदर घर बनाएंगे।सभी मिलकर रहेंगे।चाचा तो प्रतिदिन कलह करते थे।वो घर नहीं , नरक है। आपका साथ है तो सपनों का हमारा घर बन जाएगा।"
बड़ी बेटी की बात सुनकर पति-पत्नी मुस्काने लगे।सभी एक-दूसरे का हाथ थाम वहां से मुस्कुराते हुए आगे बढ़े। ****
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क्रमांक - 014
जन्मतिथी : 04 जनवरी 1950
जन्म स्थान - मिर्जापुर - उत्तर प्रदेश
पति :स्वर्गीय कन्हैया प्रसाद(उच्चतम न्यायलय अधिवक्ता )
शिक्षा :1967 में इन्टर मिडियेट आर्य कन्या इंटर कालेज
शादी :1967 में गया - बिहार
रुचि : साहित्य पढ़ना , बागवानी और लेखन
विधा : कविता ,लघुकथा, कहानी व सामयिक विषय पर विचार लिखना पसन्द है ।
सम्मान : -
- जैमिनी अकादमी द्वारा हिन्दी दिवस पर शहीद चन्द्रशेखर आजाद सम्मान - 2020
- जैमिनी अकादमी द्वारा " 2020 के एक सौ एक साहित्यकार " में 2020 - रत्न सम्मान प्राप्त
- जैमिनी अकादमी द्वारा गणतंत्र दिवस पर भारत गौरव सम्मान - 2021
- जैमिनी अकादमी द्वारा विश्व कविता दिवस सम्मान - 2021
आदि अनेक सम्मान प्राप्त हुए
विशेष : -
- पहली कविता 'साँझपरे घर आजाना ' को दिल्ली इंटर नेशनल फिल्म फेस्टिवल की मैग्जीन में जगह मिली ।
- साहित्य की कई संस्थाओं से जुड़ी हूँ । जैमिनी अकादमी- पानीपत ,लेख्यमंजूषा - पटना ,साहित्य संवेद , भारतीय लघुकथा विकास मंच ।
- हेल्पिंग ह्यूमेन क्लब की सदस्यता ।
Address :
3A.031 , G.C.Grand , 2C , Vaibhav khand
Indirapuram , Ghaziabad, U.P.- 201010
1. छँटती धुंध
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बाबूजी मिठाई लेकर आये थे। आवाज़ लगाई, "आओ बच्चों !"
तीनों बच्चे आकर खड़े हो गए। आगे दोनों बेटे, उनके पीछे बेटी ज्योति; उसे पता था कि जो कुछ भी हो उसे भाइयों के बाद ही मिलेगा क्योंकि हमेशा यही होता आया है। किन्तु आज बाबूजी बोले, "ज्योति ! तुम आगे आओ " । बाबूजी ने दो पूए ज्योति के हाथों पर रखे। फिर बेटों की पारी आई, दो- दो पूए उन्हें भी मिले।
बाबूजी की पत्नी पार्वती एकटक पति को देख रही थी । उसकी आखों में आश्चर्य के भाव थे ! अपनी तरफ पार्वती को एकटक देखते देखकर बाबूजी बोले, "आज ,बाजार में केले के छिलके पर पैर पड़ने के कारण,मैं गिर गया था । दूर खड़े दो लड़के हँसते रहे ,जबकि पास से गुज़रती एक बिटिया ने मेरा हाथ पकड़कर मुझे उठाया और छिलके को कूड़ेदान में डाला। मुझे ज्यादा चोट नहीं लगी ।बाबूजी बड़बड़ाए ये आज कल के लड़के भी... "
पार्वती इस परिवर्तन को देख कर मुस्कुरा दी । ****
2. बदलता वक्त
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नाम था शिव चरण प्रसाद लेकिन मुहल्ले वाले सभी लोग उन्हे पत्ता वाले चाचा कहते थे ।बीड़ी के पत्ते की रोजगार की वजह से उन्हे ये नाम मिला था ।उनकी पत्नी को सभी चाची कहते ,वो मीठे स्वभाव वाली लेकिन दृढ़ संकल्प वाली थीं । बड़ी लड़की स्नेहा की शादी सरकारी नौकरी वाले लड़के से कर चाचा काफी खुश रहते थे । छोटा बेटा किशोर पढ़ रहा था ,उसे रोजगार में तनिक भी रुची नहीं थी ।सहायक दीनू भी चाचा के परिवार का हिस्सा था ।सभी एक किराये के मकान में रहते थे ।
छुट्टी वाले दिन चाचाके यहाँ अच्छी खासी मजलिश जमती थी । आस पास के सभी लोग जमा होते और बातों का दौर चलता ।चाचा बराबर कहा करते "भैया जिन्दगी के कई रंग होत हैं ,समझ ल्यो ,सब दिन न होत एक समान " । एक दिन चाचा की बातें सच हो गयीं ।चाचा के गोदाम में आग लग गयी ,सब कुछ जलकर खाक हो गया ।चाचा इस सदमें से उबर नहीं पाये,हृदय गति रुकने के कारण उनका देहान्त हो गया ।किशोर भी नौकरी की तलाश में कलकत्ता चला गया मकान मालिक ने घर खाली करने को कह दिया ,चाची पर तो गमों का पहाड़ टूट पड़ा ।चाची ने हिम्मत न हारी ,अपना समान समेट एक छोटे घर में आ गयीं,दीनू ने उनका साथ न छोड़ा ।
वहाँ आस पास के लोगों केलिए खाना पैक करने का काम शुरु किया ।अच्छी गुणवत्ता और समय की पावंदी रंग लायी ,चाची का काम चल निकला ।बेटा भी लौट आया था ।सब कुछ पहले जैसा थ।, केवल पत्ता वाले चाचा ही विदा हो चुके थे । ****
3. भावना के धागे
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दिल्ली में दो कमरे के फ्लैट में निशी और उसके पति राजेश रहते थे । दस वर्ष शादी के हो चुके थे ,लेकिनअभी तक निशी निः सन्तान थी ।वह अपने बड़े भाई सुशील से बहुत प्यार करती थी ।
आज राखी का दिन था ,भाई सुशील बहन से राखी बँधवाने आये थे ।सुबह ग्यारह- तीस के बाद शुभ मुहूर्त था ।सुबह से भाग दौड़ कर, निशी ने सुबह के नाश्ता फिर दोपहर के खाने का काम निपटाया ।राखी बाँंध कर सब की बाहर घूमने जाने की योजना थी ।
काम खत्म करके, निशी हाथ धुल ही रही थी ,इतने में काल बेल बज उठी । निशी के पति राजेश बोले "अब कौन शुभचिन्तक आगया "।निशी मुस्कुराई ,दरवाजा खोला तो सामने दूध वाला मुरारी खड़ा था ।निशी बोली" अरे ! मुरारी तू ! क्या बात है ? ।" मुरारी ने पूछा, "दीदी ! मैं अन्दर आजाऊँ ? "
निशी "आ, जा !"
मुरारी ने जेबसे राखी निकाली बोला "गाँव से बहन की राखी आयी है ,पहले मैं पंडितजी से बँधवा लेता था । जब से आप के यहाँ दूध देने लगा ,आपका मुरारी भइया कहना मेरे दिल को छूता था ,सोचा आप से ही राखी बँधवा लूँ , बाँधोगे दीदी ? "।
निशी बोलती उसके पहले पति राजेश बोल पड़े ,"क्यों नहीं ! बाँधेगी भी और तुमसे नेक भी लेगी " ।
भाई सुशील के इशारा करने पर निशी ने पहले मुरारी फिर सुशील को राखी बाँधी । ****
4 . ज्ञान का सम्मान
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कलकत्ता की रहने वाली शकुन्तला देबी की शादी गाजीपुर शहर में हुई ।परिवार रजवाड़े से ताल्लुक रखता था ।अतः विचारों में पुराना पन था ।दसवीं पास शकुन्तला जी को संगीत का बहुत सौख था ,जो इस परिवार में संभव न था ।दिन गुजरते रहे शकुन्तला देवी दो लड़कियों की माँ बनी । एक समय ऐसा आया पहले पति फिर श्वसुर चल बसे ।घर में किसी चीज की कमी न थी ।उन्होने लड़कियों को अच्छी शिक्षा दिला कर ,उनके मन मुताबिक शादी करदी ।
शरीर चलता रहे इसलिए वे जरुरत का सभी सामान स्वयं लाती ।एक दिन खरीद दारी करते समय
उनकी मुलाकात बड़ी बेटी की सहेली शोभा चटर्जी से हुई ।शोभा से कुशल क्षेम पूछ कर उन्होंने उससे परिवार सहित घर आने का आने का आग्रह किया ।
एक दिन शोभा परिवार सहित उनके घर आयी ।खाने पीने के साथ पुरानी बातों का दौर चला ।शोभा ने बताया कि उसने संगीत से एम.ए. किया ।ये सुनकर शकुन्तला देवी की संगीत सीखने दबी इच्छा फिर से जाग उठी ।उन्होंने शोभा को स्वयं को संगीत की शिक्षा देने को का आग्रह किया । सिलसिला शुरु हो गया ।शोभा हप्ते में तीन दिन उन्हें शिक्षित करने आती ।वह उनकी इच्छाशक्ति पर चकित थी । शकुन्तला देवी को वो जो भी सिखाती , साठ की उम्र में भी उनका , उस परअधिपत्य हो जाता ।साल भर ऐसा चलता रहा ।एक दिन शोभा बोली ," चाचीजी मेरे पति का तबादला हो गया है ।मैं पन्द्रह दिन ही और आ सकूँगी " ।
शोभा के जाने के दिन नजदीक आ गये ।शकुन्तला देवी ने उसे एक सोने की चेन उपहार में देनी चाही ।बहुत कहने पर भी शोभा ने वह चेन न ली ।शकुन्तला देवी झुकी और उन्होंने शोभा के पैर छू लिए ,शोभा एकदम से पीछे हट गयी बोली "आप एसा न करें चाचीजी आप मुझसे बड़ी हैं " .।शकुन्तला देवी ने कहा "ज्ञान देने वाला हमेशा से आदर के योग्य होता है " । ****
5. टूटती रुढ़ियाँ
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"लाखन ओरे लाखन " !
" हों बाबो "
'" आज ...थारौ छोरी ,उदय रा मिलणे वास्तैे किले पर फिर गई थी "
" देखंवगा काका" ।
गुस्से से भरा लखन, घर पहुँच कर अपनी बेटीको बुरी तरह पीटने लगा ।
लक्ष्मी रोती रही और पूछती रही " म्हारौ रा क्यों मार रह्यो बापूसा " ?
" म्हांनै मना करण पर भी तूं उदय से मिलणे वास्तै जावे है" ।
रोते- रोते लक्ष्मी बोली " हों बापू सा म्है गयी थी म्हारौ को वो आछौ लागे है ।"
" वो दलिद्दर छोरो " !
" हों बापू सा हों " लक्ष्मी ने दृढ़ता से कहा ।
लाखन गुजरे वक्त का सारा गुस्सा अपनी बेटी पर उतारता रहा ।रात की खामोशी में लक्ष्मी की सिसकियाँ गूँजती रहीं । बूढ़ी दादी धनेश्वरी ये घटना क्रम देखती रही ।आज उसे लक्ष्मी का क्रन्दन भयावह लग रहा था ,जो भविष्य में सभी मर्यादाओं को तोड़ता दीख रहा था । धनेश्वरी मन में अनेक विचार लिए रात भर चहल कदमी करती रही और उस बुरे वक्त को
कोसती रही ,जब बेटे (लाखन )के मना करने पर भी ,
चौदह वर्ष की उम्र में लक्ष्मी की शादी कर दी ।साल भर के अन्दर ही मोटर साइकिल की दुर्घटना में लक्ष्मी के पति का देहान्त हो गया ,ससुराल वाले उसे मनहूस कहकर ,मायके छोड़ गये ।
वक्त बीता लक्ष्मी बीस वर्ष की हो चुकी थी ,उम्र अपना स्वभाव दिखा रही थी । आज दादी धनेश्वरी को लक्ष्मी का बार-बार उदय से मिलना स्वाभाविक लग रहा था ।लेकिन गाँव के सरपंच होने के नाते वो लक्ष्मी के पक्ष में फैसला करने में हिचकिचा रही थी ।उसकी तंद्रा एक सुरीली आवाज से टूटी ,कोई मुसाफिर गाता हुआ चला जा रहा था .......
मधुवन ..खूशबु ...देता है ,सागर..पानी.देता है ,
जीना..उसका . .जीना है ,जो.औरों..को जीवन देता है ।
धनेश्वरी की अाँखों पर पड़े रुढ़वादिता के सींकचे ,एकाएक धराशायी हो गये ।वह बुदबुदायी
"सरपंच की कुर्सी राहो या जाओ ,अबतो ..लक्ष्मी के जीवण में अब उजला होके रहोगो " ।वह खिड़की पकड़
कर सुबह होने का इन्तजार करने लगे । ****
6.नई सुबह
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" मास्टरजी ! आठ बज गयें हैं ,खाना खा लीजिए ।"
पत्नी सुधा ने पति से कहा ,साथ ही बड़बड़ाई कहानी सुनाने की जगह ट्यूशन लेते तो कुछ पैसे भी आते ।
नि:संतान मास्टरजी गाँव के प्राइमरी विधालय के शिक्षक थे । सभी उन्हे मास्टरजी कहकर बुलाते ।सुधा की भी आदत मास्टरजी कहने की पड़ गयी थी ।आत्मियता मिलने के कारण बच्चे शाम को भी मास्टरजी से कहानी सुनने आ जाते ।अपनी कहानियों के माध्यम से वो बच्चों में नैतिकता का बीज बोना चाहते थे । उनका मानना था कि नैतिकता जीवन में सफलता के साथ स्थिरता और सम्मान भी देती है ।
गाँव वालों का कहना था ,मास्टरजी द्वारा शिक्षित बच्चे ज्यादातर बड़े -बड़े पदों पर आसीन थे ।वक्त पंख लगाके उड़ता रहा ,मास्टरजी के अवकाश पाने का समय आगया । पत्नी से बोले "सुधा ! अब हम दोनों यात्रा पर चलेगें "।
अवकाश समारोह से लौट कर मास्टर जी ने पाया कि तेज बुखार और पेट दर्द से सुधा कराह रही थी ।बिमारी गाँव के इलाज से न ठीक हुई तो शहर ले गये ।जाँच में कैंसर निकला ।
मास्टरजी ने इलाज के लिए गाँव और शहर एक कर दिया । इलाज में सारी पूँजी स्वाहा हो गयी , गाँव का मकान भी गिरवी हो गया । पर लाख कोशिशों के बाद भी वह पत्नी को न बचा सके ।
सुधा की मृत्यु के बाद मास्टरजी ने वैराग्य लेने की ठान ली ।एक दिन रात्री के वक्त बचे खुचे सामान के साथ घर से निकल पड़े । सुबह कोहराम मच गया । मास्टरजी कहाँ चले गये ? बात उनके विद्यार्थीयों तक पहुँची ।चारों तरफ उनकी तलाश शुरु हो गयी ।एक चौराहे पर मास्टरजी दिखाई दिए । सभी ने उनको रोकना चाहा पर वो न तैयार हुए ।
एक विद्यार्थी अादर्श ने उनका सामान होथों से ले लिया बोला "मास्टरजी ! मैंने एक आदर्श विधालय खोल रखा है ।वहाँ गरीब बच्चों को शिक्षा दी जाती है । यदि आप के संरक्षण में वो विद्यालय आगे बढ़ेगा तो गरीब बच्चों का भविष्य उज्वल होगा ।"
लम्बे समय के बाद मास्टरजी मुस्कुराये बोले " आदर्श ! तुमने बातों में हमें उलझा ही लिया " । ****
7. निश्चय
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आदित्य निश्चय नहीं कर पा रहा था ,वर्षों पुरानी दोस्ती की जंजीर ,जोकि अब उसके लिए पैरों की बेड़ियाँ बन चुकी हैं , कैसे काटे और आगे बढ़कर अपनी पत्रकारिता का फर्ज निभाये ।
उसे याद आरहा था रवि और उसने साथ -साथ बाल्यकाल और जवानी बिताई ।साथ-साथ पढ़े खेले ,कितनी बार पैसे के आभाव में उसकी फीस भी रवि अपनी माँ से शिफारिश कर भर देता ।हर बात एक दूसरे से बाँटते । एक बार तो रवि , अपने ही जैसी शर्ट आदित्य के लिए भी ले आया बोला " दोनों दोस्त एक जैसी पहनेंगे ।"
आदित्य पत्रकारिता की पढ़ाई पूरी कर अपने काममें व्यस्त हो गया और रवि अपने स्वर्गीय पिता के केमिकल के कारखाने की देख- भाल करने लगा ।और से और की चाह ने रवि को गलत रास्ते पर ला खड़ा किया ।बुधना नाम के एक कर्मचारी ने साहब -साहब कहकर उसे ड्र्रगस कीआदत लगावादी ।रवि
को अब इसमें रुची बढ़ती गयी ।अब वह सरगना बनने के सपने देखने लगा ।एक दिन खबर एकत्र करते हुए आदित्यने रवि को देखा ,वह बहुत से व्यक्तियों से घिरा था और सभी उससे अपना हिस्सा मांग रहे थे ।
आदित्य ने बात कीतह तक जाने की कोशिश की ,उसे
रवि के ड्रगस के धन्धे का पता चला ।आज उसने निश्चय कर वर्षों पुरानी दोस्ती के आगे अपने फर्ज को रखा ।दोस्ती लहू -लुहान होने जारही थी । आदित्य ने सारी जानकारी पुलिस को दे दी ।रवि पकड़ा गया ,दूसरे दिन का समाचार पत्र रवि के कारनामो से रंगा पड़ा था । ****
8. दीये की अभिलाषा
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दो दीयों में दोस्ती हुई न०A न० Bसे बोला "आज तो दिवाली है मैं किसी सेठ के यहाँ जलूँगा खूब आवभगत होगी मेरी "
B "मैने तो सुबह एक बूढ़ी को कुछ खोजते हुए देखा था ,वहाँ ही जाऊँँगा जानना चाहता हूँ वह क्या ढूँढ़ रही थी ?"
।गुजरी रात दोनों ने अपने अपने मनसूबे के साथ बितायी ।
दोनों फिर मिले B "यार कैसी गुजरी "
A " हाँ दोस्त ! बारह बजे तक तो बहुत आव- भगत हुई उसके बाद तो किसी ने ख्याल न किया ।अब तू बता ।"
B "मैं तो पूरी रात बाती संग रहा जब-जब तेल खत्म होता बूढ़ी माता डाल देती ।पूरी रात वह फूलों की माला गुँथती रही गोवर्धन पूजन के लिए ।सुबह मुझे समेट कर करीने से दुसरी रात के लिए रख दिया और हाँ ! बीती रात वह अपनी सूई ढ़ूँढ़ रही थी ।"
दोनों एक साथ बोले " जरुरतमंद के पास अपनी कदर है भाई "। ****
9. बोली की ताकत
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बिरजन नाम था उसका लेकिन लोगउसे बिरजनिया कहके बुलाते थे । एकदम तीखे नययन नक्शों वाली ,गोरी चिट्टी । जिस तरह उसके तीखे नयन नक्श थे उसी तरह तीखी जु बान , उसे अपनी सुरक्षा के लिए गोली ,बन्दूक ,तलवार और कटार की जरुरत ही न थी ।उसकी बोली ही औजार थी ,बात बोलते गाली बकती ।किसकी मजाल की उसे हाथ लगा ले ।बीच बाजार बहुतेरों के सामने उसके कर्मों का पर्दा फास कर देती ।सभी उससे डरते थे । डरते ही नहीं दूर भागते थे ।
शरीफ और दुखियों की वह साथी थी ।थी आदिवासी लेकिन कोठियों में काम करते -करते हिन्दी बहुत अच्छी बोलना सीख गयी थी ।उसकी माँ लंगड़ी थी,एक भाई वह भी टी.वी.का मरीज ।माँ किसी तरह घर का सभी काम कर लेती , बिरजन भाई की देख भाल कर के खाना लेकर सुबह आठ बजे ही घर से निकल जाती । दिन भर कोठियों में काम करती रात आठ बजते -बजते अपनी कोठरी में पहुँच जाती । जाड़े केसमय में प्रायः लौटते समय वह एक पगली को मैली कुचैली साड़ी पहने हलवाई की भट्टी के पास घूमते हुए पाती ।मन कहता पगली है तो क्या? ठंड तो उसे भी लगती होगी ।एक दिन उसके भाई की तबियत काफी बिगड़ गयी ।कोठियों से उसने आधे दिन की छुट्टी ले ली ।रात नौ बजे का डाक्टर से मिलने का समय निर्धारित था ।ज्यादा ठंड के कारण सड़क पर सन्नाटा पसर रहा था ।उसने
एक रिक्शा बुलाकर ,लाठी पकड़ाते हुए भाई को सहारा देकर रिक्शे पर बैठाया ।रास्ते में उसने देखा कि दूर पर दो शराबी उस पगली के साथ अभद्र व्यवहार कर रहे हैं । फिर क्या था वह रिक्शे से कूद पड़ी भाई के हाथ से लाठी छीन ली ।सड़क पर खड़ी हो कर चिल्लाने लगी
" जागो समाज के ठेकेदारों ,अपने समाज की दशा देखो "।वह चिल्ला -चिल्ला कर लाठी भाँज रही थी। बिरजन की आवाज को पहचान लोग घरों से निकल आये । सबकी सहायता से बिरजन ने पगली को सुरक्षित स्थान पर छोड़ा ।
जब लौट कर आयी पाया कि भाई खून की
उल्टियाँ कर रहा है किसी तरह लेकर डाक्टर के पास पहुँची क्लिनिक पहुँते ही उसका भाई बेहोश होकर गिर पड़ा ।
डाक्टर ने कहा "तुमने देर कर दी बिरजन काफी खून निकल चुका है बचने की आशा कम है " ।
वह रो पड़ी बोली "मैं किसी एक को ही बचा सकती थी ।" ****
10. मिट्टीे के दिये
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दिवाली की रात नव्या जिद करने लगी " माँ ! मैं भी मिट्टी के दिए जलाऊँगी "।
" बेटे ! हम सुन्दर -सुन्दर कैंडल जलायेंगे ,दिये के तेल से तुम्हारे कपडे खराब हो जायेंगे "।
"नहीं माँ ! मैं तो दिये ही जलाऊँगी " । ज्योति ने कामवाली के बेटी सुरसतिया को नव्या की देख रेख के लिए नियुक्त कर दिया । बजार से दिए ,तेल बाती सभी चीजें खरीदी गयीं । दिवाली की रात नव्या ने सुरसतिया के साथ दीये सजाये ।सुरसतिया ने पूरा ख्याल रखा कि नव्या के कपड़ों पर तेल न गिरे ।तेल का हाथ वह अपनी फ्राक में पोंछती चलती ।नव्या दीयों की रोशनी देखकर काफी खुश थी । लक्ष्मी पूजन के बाद ज्योति ने सुरसतिया को सौ रुपये दिए औरहा
"तूने तो दीयों को बहुत अच्छे ढ़ंग से सजाया ।" सुरसतिया ने पहले ज्योति के पैर छुए फिर ठठा कर हँस पड़ी ।ज्योति भौचक्की सी उसका मुँह ताकने लगी । सुरसतिया हँसते हुए बोलती गयी "मालकिन ! हम तो अपनी झोपड़िया में रोज दीया जलावत हैं , रोज उत्सव मनावत हैं ,हमका आवत है ।"फिर हँस पड़ी ।
छोटी सी उम्र में उसके आत्मविश्वास को देख कर ज्योति अचंभित रह गयी । आज उसे सुरसतिया का अनुभवी ज्ञान विजयी होता दीख रहा था । ****
11. शिक्षा एक पूँजी
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माँ मंगला गौरी का मंदिर ,मंदिर तक पहुँचने के लिए सत्तर सीढ़ियाँ थीं । करीब पच्चीस सिढ़ियों पर दोनों तरह भीखारी कुछ मिलने की आस में बैठे होते । पिछले वर्ष बेटे की मृत्यु के बाद से टीचर रीमा हर शनिवार उन सब को खाना खिलाने जाया करती ।उनमें से एक भिखारी जो एक हाथ से अपाहिज था और शरीर पर जगह -जगह कुष्ट रोग
के चिन्ह थे ,बराबर रीमा से खाने की जगह पैसे
मांँगता ।उसके पैसे माँगने पर सारे भिखारी चिल्ला उठते "दारु पियेगा -दारु पियेगा " ।रीमा भी ऐसा ही सोचती थी ।इसलिए वह उसे पैसे नहीं देती ।
एक शनिवार कुष्टरोगी भिखारी रीमा के पीछे -पीछे मन्दिर के द्वार तक पहुँच गया ।छलछलाई हुई आँखों से उसने आवाजदी " माँजी ! दया कर मेरी बात सुन लीजिए ,मैं दारु बाज नही हूँ ।पिछले साल मेरी पत्नी का देहान्त हो गया ।मेरा आठ साल का एक बेटा है ।वह कहता है कि वह मेरी तरह भीख नहीं माँगेगा बल्कि पढ़कर अपनी तकदीर सवाँरेगा ।उसीके काॅपी किताब के लिए मैं खाना नहीं रुपया माँगता हूँ ।"
रीमा उसके विचार से बहुत प्रभावित हुई एवं अपने स्कूल का पता बताते हुए अगले दिन बच्चे को लेकर स्कूल आने को कहा । ****
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क्रमांक - 016
जन्म तिथि : 09 अप्रैल 1973
जन्मस्थान : बोकारो - झारखंड
माता : श्रीमती वेदनामयी देवी
पिता : श्री मगाराम गोप
शिक्षा : एम.ए.( हिन्दी , इतिहास )
पेशा : अध्यापन
रूचि : साहित्य-लेखन व पठन तथा संगीत श्रवण
विशेष : -
- लघुकथा विधा का प्रथम स्तंभकार [प्रखर गूंज प्रकाशन नई दिल्ली की मासिक साहित्यिक पत्रिका 'साहित्यनामा' में लघुकथा का नियमित स्तंभ-- लिये लुकाठी हाथ]
- देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन
- आकाशवाणी रांची से कई बार रचनाओं का प्रसारण
- बांग्ला, उड़िया, पंजाबी आदि विभिन्न भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद
सम्मान : -
- भारतीय लघुकथा विकास मंच द्वारा " कोरोना योद्धा रत्न सम्मान - 2020 "
- भारतीय लघुकथा विकास मंच द्वारा माधवराव सप्रे जंयती के अवसर पर " लघुकथा दिवस रत्न सम्मान - 2020 "
- जैमिनी अकादमी द्वारा " 2020 के एक सौ एक साहित्यकार " पर " 2020 रत्न सम्मान "
- जैमिनी अकादमी द्वारा गणतंत्र दिवस पर " भारत गौरव सम्मान - 2021 "
आदि अनेक सम्मान
पता : सेंट्रल पुल कॉलोनी (बेलचढ़ी) , पो.--निरसा ,
जिला-- धनबाद (झारखडं)
1. अकाल जन्म
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"अरे, यह कहानी सुनने-सुनाने का समय है क्या?"
"हां दादा जी, सुबह का समय शुभ होता है। सुनाइए न !"
बच्चों की जिद को दादाजी नकार न सके। महाभारत की कहानी सुनाने लगे। कद्रु और विनता की कहानी।
कद्रु के सारे अंडों से बच्चे निकल आए थे। परंतु उसकी सौत विनता के दोनों अंडे ज्यों-के-त्यों पड़े थे। ईर्ष्या की चिंगारी भड़क उठी। वह ज्योतिषी के पास गई और शुभ दिन देखकर एक अंडा फोड़ डाला।
"मां, मां, तूने यह क्या किया?" चिल्लाता हुआ बच्चा अंडे से बाहर निकल आया। वह ठंड से कांप रहा था।
"मां, मैं दुनिया का सबसे बड़ा शक्तिमान होता। पर हाय ! तेरी वजह से अधूरा रह गया ! मां, मुझे ठंड बर्दाश्त नहीं हो रही है। मैं जा रहा हूं।" और वह उड़ता हुआ सूर्य देवता के पास चला गया। उनके आगे बैठ गया और उनका सारथी बन गया।
"आगे क्या हुआ दादा जी?"
जाते-जाते वह बच्चा एक बात कह गया। "मां, दूसरे अंडे को मत..."
फट से दादा जी के माथे पर अखबार पड़ा।उनकी कहानी छिन्न-भिन्न हो गई।
"दादाजी, दूसरे अंडे का क्या हुआ?"
"अभी नहीं, बाद में।"
"बाद में कब?"
"कहानी सुनाने के उचित समय पर।" कहते हुए दादाजी ने अखबार उठा लिया। अखबार के मुखपृष्ठ पर मुख्य समाचार था-- 11.11.11 के शुभ काल में बहुत सी माताओं ने अकाल जन्म दिया अपने बच्चों को। ऑपरेशन के द्वारा जन्मे ये बच्चे। *****
2. नाम में क्या रखा है?
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अखबार में मेरा नाम छपने के कारण आज मेरे मन में खुशी की लहरें दौड़ रही थीं। दिमाग में दिवास्वप्न चल रहा था, नामी होने का। उधर जनगणना का काम भी करता जा रहा था। मन कभी-कभी खिन्न हो उठता था जब आदिवासी लोग अपने बाल-बच्चों का नाम नहीं बता पाते थे। बोने लाल मरांडी काफी उद्विग्न था। वह मेरे इर्द-गिर्द घूम रहा था। वह चाहता था कि जल्द-से-जल्द उसके घर जाकर उसके परिवार का नाम लिख लूं। सरकार जब नाम लिखवा रही है तो कुछ-न-कुछ जरूर मिलेगा। बोनेलाल के पहले एक बुढ़िया का मकान पड़ता है। विधवा सास-पुतोहू साथ रहती है। पुतोहू मजदूरी करने गई थी और बुढ़िया भेड़ चराने। मैंने मकान का हुलिया देखा। बूढ़ा मकान आगामी जनशून्यता को प्राप्त होने के पहले ही अपने को ढाह देना चाहता था। अपना नामोनिशान मिटा देना चाहता था।
बोनेलाल दौड़कर बुढ़िया को बुला लाया। एक हाथ में लाठी थामे वह मेरे सामने आकर खड़ी हो गई। उसके बदन पर नाम मात्र का कपड़ा था। मैंने पूछा, "दादी जी, आपका नाम क्या है?"
मेरा प्रश्न सुनते ही उसके चेहरे की मायूसी गहरी हो गई। वह कुछ देर तक सोचने लगी। फिर अपने माथे पर हाथ रखते हुए बोली, "नाम? ... नाम तो भूल गया हूं बेटा !"
"क्या कहती हो दादी, अपना नाम भूल गई?"
बुढ़िया के हां शब्द के साथ हा करके उसका मुंह खुल गया था। मुंह में हिलते हुए केवल दो दांत बचे थे। बोली, "कुछ भी लिख दो न बेटा, नाम में क्या रखा है?"
बुढ़िया का उत्तर सुनकर मैं स्तब्ध रह गया। मुझे शेक्सपियर की उक्ति याद आ गई-- व्हाट इज इन द नेम?
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3. एक ठेला स्वप्न
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आज खूब ठूंस-ठूंसकर खाना खा लिया था। पेट भारी हो गया था। इसलिए पलंग पर लेट गया। लेटे-लेटे खिड़की से बाहर का नजारा देखने लगा।
एक फेरीवाला आया था। वह एक बड़े ठेले पर एक ठेला स्वप्न लाया था। उसका साथी माइक पर घोषणा कर रहा था-- ले लो, ले लो ! अच्छे-अच्छे स्वप्न ले लो। चौबीस घंटे पानी-बिजली का स्वप्न। हर घर में ए.सी. का स्वप्न। घर-घर मोटर कार का स्वप्न। ...ले लो भाई, ले लो !
देखते-देखते कॉलोनी वालों की भीड़ लग गई। औरत-मर्द, जवान-बूढ़े सब ठेले के चारों तरफ जमा हो गए। माइक पर घोषणा जारी थी-- ले लो भाइयों, ले लो ! बेटे-बेटियों को अंग्रेजी स्कूल में पढ़ाने का स्वप्न। उन्हें डॉक्टर-इंजीनियर बनाने का स्वप्न। आई.ए.एस.-आई.पी.एस. बनाने का स्वप्न। हजारों तरह के स्वप्न हैं। अच्छे-अच्छे स्वप्न हैं। ले लो भाइयों, ले लो !
माइक की आवाज बगल के आदिवासी गांव चोड़ईनाला तक पहुंच रही थी। आदिवासी महिला-पुरुषों का एक झुंड दौड़ा-दौड़ा आया। वे ठेले से कुछ दूरी पर खड़े हो गए। एक बूढ़ा जो लाठी के सहारे चल रहा था, सामने आया। उसने फेरीवाले से पूछा, " भूखल लोकेकेर खातिर किछु स्वप्न होय कि बाबू? (भूखे लोगों के लिए कोई स्वप्न है?)"
"नहीं।" फेरीवाले ने कहा, "भूखे लोगों के लिए भोजन के दो-चार स्वप्न हैं जो काफी नीचे दबे पड़े हैं। अगली बार जब आऊंगा, ऊपर करके लाऊंगा। तब तक इंतजार कीजिए।"
" इंतजार करैत-करैत त आज उनसत्तइर बछर (69 वर्ष) उमर भैय गेले। आर कते...?" कहते-कहते बूढ़े को खांसी आ गई और खांसते-खांसते वह अपने झुंड के पास चला गया। कॉलोनी वाले अपनी-अपनी पसंद के स्वप्न खरीद रहे थे। हो-हुल्लड़, हंसी-ठहाका भी चल रहा था। आदिवासियों ने कुछ देर तक इस नजारे को खड़े-खड़े देखा और अपने गांव की ओर चल दिए। इसी बीच मेरी नींद टूट गई। ****
4. टी वी के किसान
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हल-बैल खोलकर, बरामदे की चारपाई पर बैठा भूखला सुस्ता रहा था। कीचड़ से लथपथ... पसीने से नहाया हुआ... कृशकाय... कृष्णवर्ण... कांतिहीन चेहरा। उसकी बेटी ने आवाज दी, "बापू, अंदर बैठिए न।" वह उठकर टीवी के सामने जाकर बैठा। तभी टीवी पर एक विज्ञापन आया। एक किसान अपनी पत्नी के साथ खेत में काम कर रहा था और कृषकों की एक योजना के बारे में बता रहा था। उनके दमकते चेहरे और खूबसूरत पहनावे को देखकर भूखला मुस्कुरा उठा। उसकी बेटी ने पूछा, "बापू, आप मुस्कुरा क्यों रहे हैं?"
"टीवी के किसानों को देख कर।" कहते हुए भूखला हंस पड़ा।
"क्यों, ऐसी क्या बात है?" बेटी ने पूछा।
"बेटी, ऐसी कौन-सी योजना है जो किसानों के चेहरे पर इस तरह की...?"
तभी उसकी पत्नी ने एक गिलास पानी और एक शीशी में थोड़ा तेल लाकर दिया। वह गटगटाकर पानी पी गया। बेटी बोली-- बापू, वे किसान नहीं है। फिल्म के हीरो-हीरोइन हैं। उनका नाम...
भूखला हाथ में तेल की शीशी लिए उठ चुका था। वह तालाब की ओर चल दिया, नहाने के लिए। ****
5. हरामखोर
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दो बैल कुल्ही (गली) में दो अलग-अलग खूंटे से बंधे थे। बैठे-बैठे जुगाली कर रहे थे। एक ने कहा, "पूंछ में दर्द हो रहा है। कल मालिक ने जोर-जोर से मरोड़ी है।"
"हूं... मेरा भी।" दूसरे ने कहा, "और चाबुक की मार खा-खाकर पीठ तो सुन्न होने लगी है।"
"सबसे ज्यादा चोट तो तब लगती है भाई, जब मालिक हमें गाली देते हैं 'हरामखोर' की। दिल टूट जाता है।" कहते हुए पहले बैल ने लंबी सांस ली। उसने पुनः कहा, "क्या मिलता है हमें? पीठ पर मोटा चाबुक और पेट में मोटा पुआल। बस, खटते रहो जीवन भर दूसरों के लिए। हल जोतो, गाड़ी खींचो, खेती... मजदूरी..."
"और यही हल जोतते-जोतते और गाड़ी खींचते-खींचते एक दिन दम तोड़ दो। न नाम... न निशानी..."
दोनों का दिल बैठ गया। कुछ देर मौन रहने के बाद, पहले ने कहा, "क्या लगता है भाई, यह सिलसिला कभी थमेगा भी?"
" हां-हां, जल्द ही। देखो न ट्रैक्टर आदि मशीनों का प्रयोग खूब होने लगा है।" दूसरे ने आश्वस्त किया।
"मगर उस समय हमारी उपयोगिता..."
"चुप...! चुप हो जाओ। देखो साला ..... आ रहा है। माथा झुका लो। नजर नीचे।"
एक सांड़ आ रहा था। मोटा-ताजा। थुल-थुल... बलिष्ठ शरीर। मदमस्त... उन्मत्त...। वह सामने आया। कुछ देर तक उन दोनों को घूरने लगा और अपनी घमंडी चाल से झूमते हुए आगे बढ़ गया। ****
6. अपना गांव
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अरसे बाद... जी हां, कई वर्षों बाद... अपने गांव में... अपनी जन्मभूमि में... अंतिम समय बिताने... अंतिम सांस छोड़ने... अपने पुरखों की माटी में अपने को मिटाने-मिलाने के लिए आए थे-- एक चिड़िया और एक चिड़ी।
"आह... ! अपना गांव ! जननी जन्मभूमिश्च... ! अपनी माटी की कैसी खुशबू है।" चिड़ा ने लंबी सांस ली और कहा, "चलो मथा टेकाओ, इस माटी पर।"
" नहीं, यह हमारा गांव नहीं हैं।" चिड़ी ने संदेह व्यक्त किया।
"धत् पगली ! अपने गांव को नहीं पहचान रही हो?"
" ये ऊंची-ऊंची इमारतें...। कहां है माटी के घर? फूस की छत... छत के छाजों पर पक्षी के घोंसले?"
" अरी पगली, गांव का विकास हुआ है।"
"पर घोंसला कहां बनाओगे? बड़े-बड़े वृक्ष कहां हैं? यहां तो कलम किए हुए छोटे-छोटे वृक्ष हैं।"
"हूं... ।" चिड़ा को थोड़ी निराशा हुई। दोनों उड़-उड़कर पूरा गांव देखने लगे। चिड़ी बोली, "देखते हो शाम की बैठकी भी नहीं होती यहां। सब अपने-अपने घर में घुसे हुए हैं।"
"हां, शहरीकरण का प्रभाव है।"
"और ये छोटे-छोटे परिवार... भाई-भाई में बातचीत नहीं... कैसा तनावपूर्ण परिवेश है।"
"हूं...।"
शाम को पक्षियों का चहचहाना एकदम नहीं। कैसा दमघोंटू वातावरण है। लगता है कोई श्मशान...।"
चिड़े ने चुप रहने का इशारा किया। कोई व्यक्ति उनकी बातचीत को सुनकर उन पर लक्ष्य साथ रहा था। वे डर गए। मन निराशा से भर गया। दोनों झट से नीचे उतरे। जमीन पर माथा टिकाये। और फुर्र से उड़ गये। दूर... बहुत दूर...! ***
7. ग्रह के फेर में यम
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"जानती हो संजू, यम अब नहीं है।"
खेलते-खेलते पाप-पुण्य की बात निकली तो बबलू ने संजू से कहा। संजू को बात अविश्वसनिय लगी-- धत् क्या कहते हो, यम मर गया?
" नहीं, मरा नहीं है। वैज्ञानिक लोगों ने उसे आउट कर दिया।"
"आउट कर दिया मतलब?"
"मतलब, हमारे एरिया से बाहर कर दिया।"
बगल में बैठी शांति मौसी सब सुन रही थी। बातचीत में शरीक होते हुए बोली-- तुम्हें किसने बताया बबलू?
"पापा बता रहे थे।" बबलू ने जवाब दिया।
"तब तो बात सही होगी। वाह ! मैं बहुत खुश हूं। वैज्ञानिक लोगों ने आज एक बहुत अच्छा काम किया है।" मौसी खुशी से झूम उठी।
"क्यों मौसी?" बबलू ने पूछा।
"निरबंसिया थोड़े से पाप के चलते कड़ी सजा देता था। अच्छा किया भगा दिया निरबंसिया को।" मौसी के मुंह से गाली छूट रही थी।
"उसे निरबंसिया मत कहो मौसी। उसका एक बच्चा भी है।"
"उ मुंहजरा कहां है?"
"अपने बाप के साथ ही बाहर भटक रहा है।"
"ठीक है, भटकने दो। इधर न आवे। उधर ही भटक-भटक के मरे।"
तभी सरपतिया चाची कमर पर हाथ रखे चली आयी-- "का कहा तड़ू शांति, यमराज ना रहियन त पाप-पुण्य के विचार के करी? इ विज्ञानिकवा लोग एक-एक करके सभे देवतवन के भगा देलसन। बाप रे बाप। अब त पाप से दुनिया डूब जायी। गिरह के इ कौन-सा फेरा लागल कि यमराजवो के इ खराब दिन के पड़ गइल।" ****
8. हजार साल बाद
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"बेटा भागीरथ ! आ गया बेटा?"
"यस मम्म ! सारा कचड़ा गड्ढे में डाल दिया।"
"ओके बेटा।"
मम्म काम में व्यस्त थीं। भगीरथ उनके पास गया।
"मम्म, एक बात पूछनी है।"
"कौन-सी बात बेटा?"
"मम्म, ये लंबे-लंबे गड्ढे... भगवान ने इतने लंबे-लंबे कूड़ेदान क्यों बनाए हैं? नानी के गांव में भी है।"
"नहीं बेटा, ये कूड़ेदान नहीं हैं। एक समय इन लंबे-लंबे गड्ढों में पानी बहता था।"
"पानी?" भगीरथ चौंक उठा।
"हां, और इनका कोई छोटा-सा नाम भी था... दो अक्षरों का। अभी मुझे याद नहीं आ रहा है। रात को मैं इन गड्ढों के बारे में तुम्हें कहानी सुनाऊंगी।शायद तब तक मुझे नाम भी याद आ जाए।"
"ओके मम्म !" कहते हुए भगीरथ हाथ-पैर धोने के लिए बाथरूम में चला गया। उसने नल खोला और मम्म को आवाज दी, "मम्म नल से पानी नहीं गिर रहा है।"
"पानी का कार्ड खत्म हो गया है बेटा। तुम्हारे डैड रिचार्ज कराने गए हैं।" मम्म ने बाहर से आवाज दी।
रात हुई भगीरथ कहानी सुनना चाहता था। मम्म को उन गड्ढों का नाम भी याद आ गया था। वह प्रेम से अपने बेटे को कहानी सुनाने लगीं-- बेटा भगीरथ ! एक थी 'नदी'। उसका नाम था...। ****
9. सरस्वती पूजा
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बच्चे भूख से बिलबिला रहे थे। बारह बजे तक भूखा रहना कोई मामूली बात तो नहीं। उधर पंडितजी का कोई अता-पता नहीं था।किसी दूसरे पंडितजी को पकड़ लाने के लिए महादेव इधर-उधर घूम-घामकर वापस आ चुका था। आज के दिन तो हरेक पंडित दस-दस बारह-बारह मूर्तियों की पूजा का ठेका पहले से लिए रखते हैं।
सभी लोग परेशान थे। अब क्या होगा? पूजा कैसे होगी?
मैंने कहा, "एक बात कहूं?"
"हां, कहिए न सर।" सबने स्वीकृति दी।
"महादेव, तुम तो स्कूल का सबसे होशियार लड़का हो। पूजा तुम करो।"
यह सुनकर सब चुप हो गए। लड़खड़ाती आवाज में महादेव ने कहा, "म-म-मैं? मैं तो आदिवासी...?"
"उससे क्या? आज के लिए पंडित बन जाओ।"
"पर मुझे तो मंत्र-तंत्र कुछ नहीं आता।"
"मंत्र नहीं आता, मन तो है न तुम्हारे पास। अपने मन से मां का आह्वान और पूजा करो। अपनी भाषा में मन की बात बोलो। बस।"
महादेव मूर्ति के नजदीक बैठ गया। उसके पीछे सारे छोटे-छोटे बच्चे बैठ गए। उसने धूप-दीप जलाया और पूजा शुरू हो गई--
'जोहार गो सरस्वती !
आले मंत्र-तंत्ररा कथा वाले बुझ एदा...
ओनाते आलेरेन गो आ कथारे...
मनेरेणक कथारे, अंतर मनेते...
देवा सेवा एह ले...
आतांग में !
ऐ गो, आतांग में !!
( नमो माता सरस्वती। हम मंत्र-तंत्र की भाषा नहीं समझते। इसलिए अपनी मां की भाषा में... हृदय की भाषा में...हृदय से तुम्हारी पूजा कर रहे हैं। स्वीकार करना... हे मां, स्वीकार करना !) ****
10. फूटा कपाल
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आज एक भी बच्चा स्कूल नहीं आया था। मैं अकेला बरामदे में टेबल-कुर्सी लगाकर बैठा था। बस्ती से एक बुढ़िया आ रही थी। उसकी कांख में एक खाली बोरा दबा हुआ था। दाहिने हाथ में लाठी का सहारा था। अचानक वह रुक गई। हथेली से कपाल को तीन बार ठोका और फिर चलने लगी।
जब वह मेरे नजदीक पहुंची तो मैंने आवाज दी, "ओ मासी, एदिके आसुन।" वह आई और मेरे सामने जमीन पर बैठ गई। मैंने पूछा, "मासी, इस बोरे में क्या लाती है?"
"मूढ़ी लाती हूं मास्टर बाबू। गांव-गांव भेजती हूं।"
"क्या आपका लड़का-बच्चा नहीं है?"
"हैं न, तीन-तीन बेटे हैं। ससुराल में रहते हैं।"
"और आप अकेली रहती हैं?"
"हां बाबू। क्या करूं, फूटा कपाल है मेरा।" कहते हुए उसने दोनों हाथों से कपाल को पकड़ लिया। आंखों से टप-टप आंसू गिरने लगे।
तभी जीवलाल मुर्मु, जिसे गांव के लोग चट्टान सिंह कहते हैं, झूमता हुआ आया। हल्का पिया हुआ था। उसने बुढ़िया को डांटते हुए कहा, "ऐ बुढ़िया, भाग यहां से। रोती है। रोना-धोना मुझको बर्दाश्त नहीं होता। जब तक जियो, मस्त रहो।"
"तुम मां-बाप का दर्द क्या समझोगे चट्टान? बाल-बच्चा होता तो समझता। तुम तो अपत्यहीन हो।" कहते हुए बुढ़िया उठने लगी।
अकस्मात मेरी नजर चट्टान के कपाल पर पड़ी तो पूछ बैठा, "चट्टान जी आपके कपाल पर दाग?"
"हां सर, गिरने से कपाल फूट गया था। लेकिन दाग अच्छा है, तिलक जैसा।" कहते हुए वह 'हा:- हा:' करके हंसने लगा। ****
11. सहज प्रवृत्ति
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जागरण की ऊर्जा के साथ स्वर्णिम आलोक रश्मि क्षितिज को आलोकित कर रही थी। सन-सन की मधुर धुन के साथ मंद-मंद उन्मुक्त वायु बंधन-मुक्ति का संगीत सुना रही थी। किचिर-मिचिर की चहचहाहट के साथ पक्षियों की वार्ता चारों तरफ प्रेम-सुधा का वर्षण कर रही थी। परंतु कांव-कांव की कर्कश ध्वनि वातावरण को बोझिल बना रही थी। शांति में खलल डाल रही थी।
मैंने खिड़की से झांककर देखा। मैदान के एक कोने में मेरी दृष्टि गई। कौए के एक बच्चे को उसकी मां उड़ना सिखा रही थी।बच्चे को खदेड़ रही थी। चोंच से आघात कर रही थी। बच्चा दौड़ रहा था... भाग रहा था। परंतु वह पंख नहीं फैला रहा था।
मैंने मैदान की दूसरी तरफ देखा। चिंटू की मां उसे मॉर्निंग वॉक के लिए लेकर आई थी। वह चिंटू को दौड़ने के लिए प्रेरित कर रही थी। पर चिंटू नहीं दौड़ रहा था। वह मां का आंचल पकड़कर खड़ा था।
तभी उधर से दौड़ते हुए कौए का बच्चा चिंटू के सामने आ गया। उसे देखते ही चिंटू एक साथ प्रफुल्लित और उत्तेजित हो उठा। वह तत्क्षण उसके पीछे दौड़ पड़ा...एक आक्रामक दौड़। कौए के बच्चे ने भी आतंकित होकर दौड़ते-दौड़ते पंख फैला दिया। और वह हवा में उड़ने लगा... एक सुरक्षात्मक उड़ान।
उधर काक-शिशु आसमान में था और मानव-शिशु मैदान के दूसरे छोर पर ! इधर प्रसन्नता के साथ मानव-माता खिलखिला रही थी और काक-माता कांव-कांव कर रही थी ! ****
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क्रमांक - 017
जन्म दिन - ५ मई १९६७
जन्म स्थान- बांदीकुई जंक्शन - राजस्थान
शैक्षणिक योग्यता- Bsc ; M.A English and Hindi) ; MPhil (E.L.T); PhD ( English); Diploma in French; P.G.C.T.E.; L.L.B ; Vidya Vachaspati (double): Vidya Sagar
सम्प्रति - शेठ पी टी कला एवम् विज्ञान स्नातकोत्तर महाविद्यालय गोधरा (गुजरात)में स्नातको्तर अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष एवं एसोसिएट प्रोफेसर
प्रकाशित पुस्तकें : -
1 कुछ क्षण अपने - प्रथम काव्य संग्रह 1995
2 A Comprehensive English Grammar - 2002
3 जीवन तो बहता जाता है - खंड काव्य 2004
4 दर्द जब हद से - प्रथम ग़ज़ल संग्रह 2008
5 गीत सुनो तुम मीत - प्रथम गीत संग्रह 2015
6 गज़ल गुच्छ - द्वितीय गज़ल संग्रह 2016
7 गीत तर्पण - द्वितीय गीत संग्रह 2017
8 चुटकी भर हास्य - प्रथम हास्य व्यंग संग्रह 2017
9 कविता सागर - द्वितीय काव्य संग्रह 2018
10 A Comprehensive English Grammar for Success 2018
11 मन उपवन में सांझ गुलाबी - तृतीय गज़ल संग्रह 2019
12 कुछ क्षण अपने - काव्य संग्रह द्वितीय आवृति 2019
13 हास्य फुहार - द्वितीय हास्य व्यंग संग्रह 2020
14 जीवन तो बहता जाता है - खंड काव्य द्वितीय आवृति 2020
15 पंच - पुष्प - तृतीय काव्य संग्रह 2021
सम्मान- पुरस्कार प्राप्त -
1. मेरे हास्य व्यंग संग्रह चुटकी भर हास्य को गुजरात साहित्य अकादमी, गांधीनगर गुजरात का 5000 रुपए का पुरस्कार प्राप्त हुआ । इसी संग्रह को बिसौली, बदायूं उत्तर प्रदेश से 1100 रुपए का पुरस्कार प्राप्त हुआ।
2. जैमिनी अकादमी द्वारा हिन्दी दिवस पर गोधरा - रत्न सम्मान - 2020
3. जैमिनी अकादमी द्वारा 2020 के एक सौ एक साहित्यकार में 2020 - रत्न सम्मान
4. जैमिनी अकादमी द्वारा विश्व कविता दिवस सम्मान 2021
5. भारतीय लघुकथा विकास मंच द्वारा वरिष्ठ लघुकथाकार सरेश शर्मा स्मृति लघुकथा सम्मान -2021
आदि साहित्य, समाज सेवा एवम् शिक्षा के क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय एवम् राज्य स्तार के लगभग साढ़े तीन सौ (350) सम्मान एवम् पुरस्कार प्राप्त हुए हैं ।
विशेष -
1.आकाशवाणी , टेलीविजन कलाकार एवम् यू ट्यूब पर अनेक प्रवचन उपलब्ध।
2. लगभग 650 से भी अधिक अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय काव्य संकलनों , पत्रिकाओं वगैरह में रचनाएं प्रकाशित ।
पता - जी- ५, जगदम्बे निवास, आनंद नगर सोसायटी, साइंस कॉलेज के पीछे, गोधरा (गुजरात)३८९००१
1. पुलिस
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जब रामजीलाल बीमार पड़े तो उनको कोई हॉस्पिटल लेजानेवाला भी नहीं था क्योंकि लड़का बाहर रहता था। उनके घर में स्कूटर तो था, उन्हें चलाना भी आता था मगर लाइसेंस नहीं था। उन्होंने हिम्मत की ओर वह लेकर हॉस्पिटल के लिए चल पड़े। रास्ते में जब उनको एक पुलिस वाले ने रोका तो वह घबरा गए और उन्होंने उस युवक पुलिस वाले से सब कुछ सच सच कह दिया। उस पुलिस वाले ने देर किए बगैर उन्हें हॉस्पिटल में भर्ती करवाया और कहा कि आप बिल्कुल भी चिंता न करें। मेरे लायक और कोई काम हो तो बताइए। यह सुनकर वे बोले कि पुलिस वाले तो व्यर्थ ही बदनाम हैं। समय पर काम तो वास्तव में यही आते हैं। ****
2. भूत और वर्तमान
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पुराने जमाने की एक कथा है - गौतम बुद्ध और जंगल के एक दस्यु अंगुलिमाल की जो जंगल से गुजरने वाले यात्रियों की हत्या कर, उनकी अंगुलिया काट, एक माला में पिरो कर, अपने गले में लटका लेता था। जब बुद्ध उस जंगल से गुजर रहे हैं तो अंगुलिमाल उन्हें कड़ककर आदेश देता है- ठहर जा। यह सुनकर बुद्ध ठहर जाते हैं और उससे मुस्कुरा कर कहते हैं- मै तो ठहर गया पर तू कब ठहरेगा: और फिर कथा कहती है कि अंगुलिमाल जैसा दस्यु भी उस शब्द ठहर गया का गुड़ार्थ समझ सुधर गया ; उसने वन से गुजरते यात्रियों को लूटना और उनकी हत्या करना बंद कर दिया। आज वर्तमान परिपेक्ष्य में कोरोना महामारी के कारण जब संपूर्ण विश्व लॉक डाउन हो चुका है और कुदरत हमें थोड़ा ठहर कर, अपनी बात सुनाने का, अपना संदेश देने का एक प्रयास कर रही है तो जो लोग बुद्ध समान हैं- जिन्होंने प्रकृति की महत्ता का स्वीकार कर लिया है, वे लोग आज शांत भाव से ठहर गए हैं और प्रकृति के इस संगीत को सुनने का प्रयत्न कर रहे हैं; उसकी कथा को सुन उसकी व्यथा दूर करने का प्रयास कर रहे हैं। मगर जो लोग आज भी बेचैन हो,अंगुलिमाल की तरह, इस लॉक डाउन में भी बाहर भटक रहे हैं वे दूसरे मनुष्यों की जान को भी संकट में डाल रहे हैं। आज समय आ गया है कि ऐसे भटकते लोग अपने अकेलेपन को, अपनी बैचेनी को एकांत में तब्दील कर लें जहां वे स्वयं के साथ समय गुजार सकें, अपने आप को समझ कर अपने जीवन को एक दिशा दे उसमें आमूल चूल परिवर्तन कर सकें। ****
3. कोरोना से कैसे बचें
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एक बार जब अल्पा को थोड़ा सर्दी, जुकाम और बुखार हुआ तो वह बहुत घबरा गई क्योंकि शहर में चारों तरफ कोरो ना नाम की महामारी फैली हुई थी। वह तुरंत ही अपने फैमिली डॉक्टर पंडित साहब के पास जांच कराने गई। डॉ साहब ने उसकी सामान्य जांच के बाद पाया कि उसे हल्की खांसी जुकाम है और उन्होंने उसे इसकी दवा गोली भी दे दी। फिर डॉ साहब ने अल्पा से पूछा कि बुरा न मानें तो आपसे एक बात पूछूं कि आप घर से बाहर सप्ताह में कितनी बार जाती हैं? अल्पा ने कहा कि किसी न किसी काम से लगभग रोज ही जाना पड़ता है। यह सुनकर डॉ साहब बोले कि आप लोग यही तो गलती करते हैं। इस महामारी से बचने का एक ही रास्ता है कि घर से कम से कम निकलें। सामान, सब्जी, फल वगैरह लेने के लिए भी सप्ताह में एक ही दिन निकलें। जब भी बाहर किसी काम से निकलें तो मास्क पहन कर ही निकलें और इस मास्क को बार बार हाथ से न छुएं। बाहर भी दूसरे लोगों से कम से कम छह फीट की दूरी बनाए रखें और काम कर तुरंत घर वापस लौट कर आ जाएं, इधर उधर व्यर्थ भटकें नहीं । जब घर लौट कर आएं तो सारा सामान बाहर ही रख दें और खुद के हाथ पांव साबुन से मल मल कर धोएं । फिर अपने कपड़े उतार कर सीधे धोने में डाल दें और हल्के गर्म पानी से स्नान करें। बाज़ार से लाई सब्जी और फलों को डिटर्जेंट पाउडर मिले हुए पानी में थोड़ी देर डुबो कर रखें और फिर स्वच्छ पानी में अच्छी तरह धो कर, सुखा कर फिर फ्रीज में रखें और बाकी सामान को तो कम से कम तीन दिन बाहर ही किसी सुरक्षित जगह पर रख दें, फिर अन्दर लें । हो सके तो रोज सोते समय दूध में थोड़ी हल्दी मिला कर पिएं या फिर गुनगुने पानी में थोड़ी हल्दी और नमक डाल उसके गरारे करें। अगर कभी शरीर में हरारत जैसी लगे तो सुदर्शन चूर्ण अथवा गोली का सेवन करें । रोज योग, प्राणायाम वगैरह करें और अपनी इम्यूनिटी बढ़ाने के लिए विटामिन सी के स्वरूप में नींबू या दूसरे खट्टे फल और विटामिन डी के स्वरूप में सुबह के समय की सूर्य की किरणों में थोड़ी देर बैठें। भोजन सुपाच्य लें और वजन कम रखें। ये छोटे छोटे पहलुओं का ध्यान रख कोरो ना से काफी हद तक बचा जा सकता है। यह सुन कर अल्पा ने इतनी अच्छी सलाह देने के लिए डॉ साहब का शुक्रिया अदा किया और फिर उनसे इजाजत ले अपने घर आ गई। ****
4. भाईचारा
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शहर में गणपति उत्सव चल रहा था और इस उपलक्ष्य में यहां जगह जगह पर गणपति जी के छोटे- मोटे पंडाल लगे हुए थे, जिनमें भगवान श्री गणेश की अलग अलग भाव- भंगिमाओं वाली मूर्तियां पांच दिन के लिए स्थापित की गई थीं। इन दिनों दौरान शाम के समय लगभग पूरा शहर ही इन चिताकर्षक मूर्तियों के दर्शन करने हेतु निकल पड़ता था और इन सभी पंडालों में जबरदस्त भीड़ रहा करती थी। यह एक सांप्रदायिक शहर था जहां हिंदू- मुस्लिम दंगा होना एक सामान्य बात थी और अनेक मर्तबा तो बिल्कुल नगण्य बात पर भी सांप्रदायिक दंगे हो जाया करते थे। जहां हिंदू बस्ती और मुस्लिम बस्ती एक दूसरे से अलग पड़ते थे, वहीं चौराहे पर एक गणेश पंडाल लगा हुआ था जिसमें गणेश जी बाल स्वरूप में, अन्य मुषकों के साथ स्कूल जाते दिखाई पड़ रहे थे और यह मूर्ति शहर में चर्चा का केंद्र बनी हुई थी और बच्चों के साथ ही बड़े भी इस मूर्ति को देखने के लिए उमड़ रहे थे। एक दिन जब इस शहर में रहने वाले एक शिक्षक, सक्सेना साहब इस मूर्ति को देखने के लिए पंडाल में आए तो उन्होंने देखा कि मुस्लिम बस्ती की तरफ से एक छोटा बच्चा तेजी से दौड़ता हुआ आया और इस पंडाल में इस मूर्ति को बड़े आनंद से देखने लगा। उस बच्चे के पीछे पीछे ही उसके पिता आए और उस बच्चे को वहां गणेश जी की मूर्ति के सामने खड़ा देख सक्सेना साहब को बोलने लगे कि साहब हमारे बच्चे को यह मूर्ति इतनी अच्छी लगती है कि यह मौका देखते ही घर से निकल यहां मूर्ति को देखने आ जाता है। यह सुन सक्सेना साहब बोले कि स्वार्थी लोग ही अपने फायदे के लिए इस शहर में बात बात पर सांप्रदायिक दंगे भड़काते हैं मगर बच्चों में तो खुद ईश्वर बसता है और यही हम लोगों को सच्चा भाईचारा सिखाते हैं। यह सुन कर बच्चे के पिता भावुक हो गए और वे सक्सेना साहब के गले लग गए।****
5. नौसेना दिवस
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आज फिर मिसेज आहूजा मुंबई में समंदर किनारे जाकर बैठ गई थीं। वहां नियमित सैर को आने वाले, खोमचे लगाने वाले और अन्य लोग उन्हें वहां पिछले कई दिनों से नियमित आते देख रहे थे। वे आतीं और यहां दरिया किनारे घंटों बैठी रहतीं। न वे किसी से बोलतीं, न बात करतीं और न ही कोई सैर सपाटा करतीं। वे तो बस शांति से बैठ कर समंदर में दूर तक देखती रहतीं जहां तक उनकी नज़र जा सकती थी। जब भी दरिया में दूर कोई जहाज दिखाई पड़ता तो उनकी आंखों में एक प्रकार का इंतजार और प्रसन्नता झलकने लगती थी। उनको यूं बैठा देख कर लगता था जैसे कि वे किसी का बेसब्री से इंतज़ार कर रही हों। वहीं नियमित सैर को आने वाली एक लड़की सोनम, पिछले कुछ दिनों से इन वयोवृद्ध महिला को वहां आते और घंटे बैठते देख रही थी। जब उससे एक दिन नहीं रहा गया तो उसने मिसेज आहूजा से पूछ ही लिया कि आखिर वह यहां इस तरह आकर घंटों क्यूं बैठी रहती हैं। पहले तो मिसेज आहूजा ने कुछ ध्यान नहीं दिया मगर कुछ देर बाद उन्होंने सोनम को बताया कि उनका एकमात्र लड़का सुमित नौसेना में बड़ा अधिकारी है और नौकरी के सिलसिले में उसे महीनों घर से बाहर दरिया में रहना पड़ता है। वैसे तो वह साल में एक बार उनसे मिलने आता है मगर इस बार नहीं आया। एक मर्तबा जब फोन पर बात हुई तो सुमित ने बताया कि मां मैं तुमसे नौसेना दिवस मनाने के बाद ही मिलने आ पाऊंगा क्यूंकि इस बार हम नौसेना दिवस भारत में ही मनाने वाले हैं। मिसेज आहूजा को यह पता नहीं था कि नौसेना दिवस कब आता है। जब सोनम ने बताया कि नौसेना दिवस तो कल ही है तो यह सुनकर मिसेज आहूजा की आंखों में चमक आ गई और वे दरिया में इस तरह देखने लगीं मानो कि सुमित अभी उनसे मिलने आ रहा हो। ****
6. बुजुर्ग जीवन
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कामताप्रसाद जी भारत सरकार के एक कार्यालय से अभी दो -तीन वर्ष पूर्व ही बड़े बाबू के सम्मानजनक पद से सेवानिवृत हुए थे। आज उनके पास जीवन में सब कुछ था - मकान, वाहन, संपत्ति वगैरह और उनका लड़का भी अच्छे पद पर कार्यरत था लेकिन वह अपने परिवार के साथ किसी दूसरे शहर में रहा करता था। तमाम प्रकार के सुख होने के बावजूद कामता प्रसाद जी के जीवन में एकाकीपन था और इसके कारण वे अपने बुजुर्ग जीवन से दुखी थे। एक दिन जब वे सड़क पर यूं ही चलते चलते शहर के एक अनाथाश्रम के आगे से गुजर रहे थे तो उन्होंने वहां भीड़ देखी। कौतूहलवश जब वे अंदर गए तो उन्होंने देखा कि उन्हीं की उम्र के कई बुजुर्ग लोग वहां अनाथ बच्चों को कुछ न कुछ बांट रहे थे और इस प्रकार उन अनाथ बच्चों की खुशी देख खुद भी खुश हो रहे थे। यह दृश्य देख कामता प्रसाद जी को अपने एकाकी बुजुर्ग जीवन को गुलज़ार करने का रास्ता मिल गया और वे उन बुजुर्ग लोगों के समूह में शामिल हो गए। ****
7. आग
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'आखिर ऐसा क्या हुआ कि हमारे ऊष्मा भरे संबंधों में आग लग गई?' चंद्रावती बहिन ने रोते रोते अपनी पड़ोसन शशिकला बहिन से पूछा। ' हमारे पारिवारिक संबंध तो इतने प्रगाढ़ थे कि हम आधी रात को भी एक दूजे की सहायता करने में पीछे नहीं हटते थे। आखिर क्या गलती हो गई हमारे परिवार से कि आपके परिवार ने हमसे मुंह मोड़ लिया ' चंद्रावती बहिन यह पूछते हुए लगातार सुबक रही थीं। यह सुनकर शशिकला बहिन ने कहा कि जब मेरा पुत्र आपके घर आपके पुत्र के साथ खेलने आया तो आपका पुत्र स्कूल का गृहकार्य कर रहा था। आपने मेरे पुत्र को यह कहकर झिड़क कर आपके घर से भगा दिया कि तू खुद तो पढ़ाई -लिखाई करता नहीं है और समय -बेसमय हमारे घर में घुस कर हमारे बच्चे को भी अपने साथ पूरे दिन भटकाता रहता है। आपके इस तरह झिड़कने से हमारे बच्चे का दिल इस कदर टूट गया कि वह दो दिन तक लगातार रोता रहा और उसने ढंग से खाना भी नहीं खाया। यही वह घटना बनी कि इससे हमारा पूरा परिवार आहत हो गया और अपने संबंधों में आग लग गई। अगर उस दिन आपने हमारे बच्चे से प्रेमपूर्वक बर्ताव किया होता तो यह नौबत नहीं आती। सच बात है कि संबंध निभाने में प्रेम की ऊष्मा जरूरी है नहीं तो फिर संबंधों में आग लग जाती है। ****
8. मजबूर मानवता
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जैसे ही सवारी गाड़ी स्टेशन का प्लेटफार्म आने पर धीमी हुई, प्लेटफार्म पर कई लोग दिखाई पड़े । उस दिन लगता है कि गाड़ी में चढ़ने वालों की संख्या बहुत थी। जहां तक नज़र जाती थी, चारों तरफ लोगों का हुजूम था। धीमे -धीमे गाड़ी बिल्कुल रुक गई। अंदर से बाहर उतरने वालों की भीड़ और बाहर से अंदर चढ़ने वालों की भीड़, दोनों ही तरफ लोग काफी संख्या में थे। मैं काफी दूर से यात्रा कर रहा था। इच्छा थी कि कोई बडा स्टेशन आने पर थोड़ी देर डिब्बे से बाहर उतर कर प्लेटफार्म पर घूम भी आऊंगा और प्यास लगी थी अतः पानी भी पी आऊंगा। परंतु उफ ये भीड़ ! क्या करूं , कुछ सूझ नहीं रहा था। इतने में बाहर से एक आवाज़ सुनाई पड़ी कि कृपया मेरा सामान सामने की सीट पर रख दीजिए। मैंने देखा तो बाहर एक पतला सा आदमी आंखों में अनुनय - विनय के भाव लिए मुझसे खाली होती सीट पर रूमाल रखने को कह रहा था। मुझे खूब प्यास लगी थी। मैंने कहा - भाई, मुझे प्यास लगी है , नीचे उतरना है। वह बोला - भाईसाहब, आप बैठे रहिए , मैं ले आता हूं। पर कृपया आप मेरे बैग को उस सीट पर रख, उस सीट को सुरक्षित रखिए , जब तक मैं अंदर न आ जाऊं। कितना मानवीय दृष्टिकोण परंतु कितनी मजबूरी में, मैं खड़ा - खडा सोचता ही रह गया। ****
9.मजदूर
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एक दिन दीनानाथ जी के दरवाजे पर किसी ने खटखटाया। जब दीनानाथ जी ने देखा तो वह एक तीस - बत्तीस वर्ष का नवयुवक था जो शक्ल से शरीफ और तेजस्वी लग रहा था। दीनानाथ जी को देखकर उसने कहा कि अंकल जी क्या आप के घर कोई मजदूरी का काम करने जैसा है। जब दीनानाथ जी कुछ समझे नहीं तो वह आगे बोला कि वह एम ए पास पढ़ा लिखा है लेकिन कोई नौकरी न मिल पाने के कारण मजदूरी कर अपनी आजीविका कमाता है। परंतु आजकल कोरोना महामारी के चलते उसको काम मिलने में तकलीफ पड़ती है अतः वह कॉलोनी विस्तार में इस प्रकार घूम घूम कर काम मांगता है। यह सुन कर दीनानाथ जी बहुत प्रसन्न हुए क्योंकि वे रिटायर्ड शिक्षक थे और ऐसे खुद्दार इंसानों की वे बहुत कद्र करते थे। परंतु उनके घर तो कोई मजदूरी का काम था नहीं अतः उन्होंने उस युवक से कहा कि भाई तुमको मैं वैसे ही सौ -दो सौ रुपए दे देता हूं क्योंकि मेरे घर कोई मजदूरी का काम तो नहीं है परंतु मैं तुमसे काफी प्रभावित हूं अतः तुम्हें कुछ आर्थिक मदद करना चाहता हूं। यह सुन कर वह नवयुवक बोला कि माफ कीजिए इस तरह मैं पैसे नहीं लेता क्योंकि मैं एक मजदूर हूं भिखारी नहीं और वह वहां से चला गया। ****
10. उपकार
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चतुर्वेदी साहब शहर के एक नामांकित और प्रतिष्ठित वकील थे। उन्होंने वकालत के सम्मानजनक व्यवसाय द्वारा खूब धन -दौलत और शोहरत कमाई थी और वकालत शुरू करने के दस -बारह वर्ष में ही उनका नाम इस शहर के सबसे बड़े, विख्यात और प्रतिष्ठित वकील के रूप में लिया जाने लगा था। एक अच्छे वकील होने के साथ -साथ चतुर्वेदी साहब की समाज में इज़्जत एक सहृदय और दिलदार व्यक्ति के रूप में भी थी। एक मर्तबा उनकी अपार धन -दौलत से आकर्षित हो एक चोर ने रात्रि के अंधकार में, चोरी करने के उद्देश्य से चतुर्वेदी साहब के घर में प्रवेश किया। जब वह घर के एक तरफ़ के दरवाजे को तोड़ने का और घर में सेंध लगाने का प्रयास कर रहा था, तभी चौकीदार ने उसको देख लिया और उस चौकीदार की सतर्कता से वह चोर पकड़ा गया। जब चौकीदार ने उस चोर को पकड़ कर चतुर्वेदी साहब के हवाले किया तो चोर को पक्का यकीन था कि चतुर्वेदी साहब उसे मार -पीट कर अवश्य ही पुलिस के हवाले कर देंगे। मगर चतुर्वेदी साहब ने उसे अपने सामने बैठाकर चोरी करने का कारण पूछा। चोर ने रोते हुए बताया कि उसकी पत्नि बहुत बीमार है मगर घर में अत्यधिक गरीबी होने की वज़ह से वह उसका ईलाज नहीं करवा सकता। यह सुन कर चतुर्वेदी साहब का हृदय द्रवित हो उठा और उन्होंने चोर को उसकी पत्नि के ईलाज के लिए समुचित धन प्रदान किया और उससे यह वचन लिया कि भविष्य में वह कभी भी चोरी नहीं करेगा। चतुर्वेदी साहब के अपने प्रति किए गए इस उपकार को चोर कभी नहीं भूला और उसने चोरी करना छोड़, मेहनत से अपनी रोज़ी रोटी कमाने का दृढ़ संकल्प कर लिया। ****
11. विद्यार्थी जीवन
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चंदन एक गरीब घर का लड़का है जिसके पिता अकाल मृत्यु ग्रस्त हो गए थे और इसकी वजह से उसके पूरे परिवार का बोझ उसके कंधों पर आ गया है। वह शहर की एक गरीब बस्ती में अपनी मां और तीन छोटी बहनों के साथ रहता था। दिन भर वह एक दुकान पर नौकरी करता और रात को तीन घंटे चलने वाली एक क्लास में पढ़ने जाता। उसे पढ़ाई का बहुत शौक था और वह पढ़ लिख कर देश का एक अच्छा नागरिक बनना चाहता था। एक बार मज़ाक मज़ाक में उसके एक दोस्त ने उससे चुटकी लेते हुए कहा कि भाई चंदन तू इस तरह फीस भर कर व्यर्थ ही अपना समय और शक्ति क्यूं बर्बाद कर रहा है। आज जब देश में इतनी बेरोजगारी है और किसी भी पढ़े लिखे युवा को नौकरी नहीं मिल रही है तो तुझे कहां मिलने वाली है। इससे अच्छा है कि तू ये फीस के पैसे बचा कर अपने घर में कोई वस्तु खरीद ले, फायदे में रहेगा। यह सुन कर चंदन ने बड़ी विनम्रता से जवाब दिया कि भाई शिक्षा का सिर्फ एक ही उद्देश्य नौकरी पाना नही होता। इसके अनेक उद्देश्य होते हैं और उसमे से एक उद्देश्य है सभ्रांत , सुशील और संस्कारी बनना और मैं इसी कारण से शिक्षा प्राप्त कर रहा हूं। यह सुन कर उसका मित्र बहुत प्रसन्न हुआ और उसने प्रेम से चंदन का कंधा थपथपाया। ****
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क्रमांक - 018
जन्म:5 सितम्बर ग्वालियर मध्यप्रदेश
शिक्षा: स्नाकोत्तर फ़ैशन डिजाइनिंग डिप्लोमा कोर्स, आई म्यूज सितार
साहित्यिक अभिरुचि:
हिंदी भाषा मे लेखन
लघुकथाएं, कहानियां,कविताएं, बाल साहित्य ,लेख, हायकू।
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं, न्यूज पेपर में रचनाओ का प्रकाशन
इंदौर समाचार ,अक्षर विश्व ,हरियाणा प्रदीप जनवाणी,हिंदी भाषा.कॉम,ईकल्पना, रचनाकार,साहित्य समीर दस्तक,हिन्दी प्रतिलिपि, स्टोरी मिरर,प्रदेश वार्ता,पवनपुत्र आदि में प्रकाशित कहानियां,लघुकथाएं, एवं कविताएं।
इंदौर लेखिका संघ की सदस्य,
स्तंभ लेखक मालवा प्रान्त की सदस्य
सम्मान:
2018 में भाषा सहोदरी दिल्ली द्वारा,2018 में सम्मान
जून 2019 में अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन शुभ संकल्प द्वारा सम्मान
2019 में अग्निशिखा गौरव सम्मान
2019 में विश्व हिन्दी लेखिका संघ द्वारा सम्मान तथा
भारतीय लघुकथा विकास मंच द्वारा सम्मान
पता : -
63 , जल एनक्लेव सिल्वर स्प्रिंग बाय पास रोड , इंदौर - मध्यप्रदेश
1. व्यथा
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हर तरफ़ बाजारों में सूनापन बिखरा पड़ा था. ना जाने यह कोरोना महामारी कब तक जाएगी.65 वर्षीय रघुनाथ जी खिड़की से आती शांत बयार को महसूस कर रहे थे.सभी साजो सामान होते हुए भी आंखों नमी लिए थी वह खिड़की के बाहर शून्य नजरों से झांक रहे थे.
रसोई से आती दाल की खुशबू अचानक उनके मस्तिष्क को तरोताजा कर गई.
वरुण अकेला विदेश में बैठा लॉकडाउन में फंसा हुआ था.वहां पर वरुण भारतीय खाने का स्वाद और माँ के हाथों का खाना खाने के लिए तरस रहा था.
तभी वीणा के भराई हुई.आवाज उन्हें सुनाई दी.." चलो खाना खालो..., रघुनाथ जी खाने की थाली देख सोचने लगे. काश.... आज वरुण यहां होता... वरुण के पैसों से सजा घर देखकर उनकी आंखें भर आई. आज विदेश भेजने का दर्द उनकी आंखों में साफ नजर आ रहा था । ****
2. अनाथ
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सुरेश बाबू सुबह का अखबार लिए बैठे थे।जैसे ही एक समाचार पर उनकी नजर पड़ी।वह स्तब्ध रह गए।
तभी उनके कानों में घर के सदस्यों की आवाजें सुनाई देने लगी। सुबह की कवायद शुरू हो चुकी थी।अदरक से बनी चाय की महक पूरे घर में महक रही थी।अपने कमरे में बैठे वह चाय का इंतजार कर रहे थे।उनका प्याला हमेशा ही आखिर में आता।घर की बहुओं ने घर की परंपराओं और रिवाजों को अपने सुविधानुसार बदल दिया था। वह हमेशा यहीं सोचते रहते। जीते जी अपनी इतने वर्षो की संजोई हुई संस्कारो की पूंजी को बिखरता देख उन्हें बहुत दुख होता।
अपने बनाये हुए महल में अपने ही कमरे में पड़े रहते। कभी किसी काम के विषय में बोलने से पहले ही बहूएं उन्हें टोक देती कहती-"बाबूजी आप तो रहने ही दो,हम हमारा देख लेंगे।सुरेश बाबू अपने मन की व्यथा किसी से कह नहीं पाते।अखबार की खबर पढ़ते ही उनकी आँखें सजल हो गई।आज अखबार में उसी आश्रम की खबर छपी थी।अनाथों को सहारा देने वाला कन्धा आज छूट गया था।आज सारे रिश्तो के होते हुए भी वे पहले की तरह अनाथ ही थे। ****
3. महल
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अनिल बाबू का सामाजिक रुतबा बहुत था।सभी सोसाइटी के लोग उनके वैभव और शाम को देख कर दंग रह सलाम ठोकते। घर तो मानो जैसे किसी फाइव स्टार होटल से कम नहीं था। वह अपनी बुद्धिमत्ता पर सदैव गर्वित रहते। कल अचानक एक के बाद एक फोन आता देख। विभा पूछ बैठी- "क्या बात है, तुम कुछ परेशान दिख रहे हो..., कुछ समस्या हो गई क्या...? अनमने ढंग से... "नहीं! अचानक अलमारी से कुछ कपड़े निकाल तत्काल प्लेन का टिकट ऊंचे दामों में खरीद रातों-रात अनिल बाबू निकल गए। विभा मौन मूरत बनी ठगी सी उन्हें जाते देख रही थी। सुबह अलसाए मन से अखबार उठाकर अंदर आई तो देखा। बड़े-बड़े अक्षरों में अनिल बाबू का नाम और फोटो देख पांव के नीचे की जमीन खिसक गई।"जमीनों के सौदागर पर सरकार की नकेल" अब तक सारी कॉलोनी के लोगों उन्हें सलाम ठोकते थे।अब वही नजरें उन्हें घूर रही थी। गरीबों के हक छीनकर बनाया गया महल विभा को सीलन भरी कोठरी का एहसास करवा रहा था। और मानो जैसे कानों में गरीबों की बद्दुआओं के स्वर चीख-चीख कर उन्हें शापित कर रहे थे। ****
4. स्वाभिमान
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6 वर्षीय राहुल सुबह से पिचकारी की रट लगाए था।पिता के पैरों पर चढ़ा प्लास्टर देख वह बोल पड़ा- पापा मुझे आज ही और अभी ही पिचकारी चाहिए, नहीं तो मैं आपसे बात नहीं करूंगा।पिता की शारीरिक और आर्थिक मजबूरी देख कर भी राहुल जिद पर अड़ा रहा।
मां बार-बार समझाकर हार चुकी थी।आखिर मां पांव में चप्पल डाल बाहर की ओर निकल पड़ी। वह चलते-चलते मंदिर के पास रुक गई।मां को बाहर जाता देख राहुल भी चिंतित हो उसके पीछे भागा। मोहल्ले में रंगों का खेल जोरों पर था। सभी और ढोल-ताशे बज रहे थे। बच्चों की टोलियां झूम-झूम कर रंग उडाती हुई अपनी खिलखिलाती हंसी बिखेर रही थी। राहुल मां का हाथ पकड़कर बोला-मां तुम यह क्या कर रही हो मंदिर में भीख मांगने आई हो..? मां आंखों में आंसू लेके बोली- तू सब जानता है, फिर भी समझता नहीं.., इसीलिए तेरी जिद पूरी करने के लिए यहां आई हू।
नहीं-नहीं, मां.., मैं तो बिना पिचकारी के रंग खेल लूंगा,आप तो घर चलो। आज वह अपनी जिद छोड़ मां का हाथ पकड़ घर ले आया।
आज स्वाभिमान का रंग राहुल पर चढ़ चुका था। हालातों से समझौता करते हुए आटे का हलवा खाकर राहुल खुश हो गया। और रंगों से सराबोर हो रही बच्चों की टोली में शामिल हो गया। उसकी चेहरे पर एक अजब सी खुशी देखकर पिता पलँग पर लेटे-लेटे उसे देख रहे थे।राहुल मुस्कुराते हुए पिता की और देख रहा था। स्वाभिमान का गुलाल राहुल के गालों को गुलाबी कर रहा था।***
5. रिश्तों का मोह
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केदारनाथ ने जमनी को आवाज लगाते हुए कहां-जमली आज सुबोध मुझे लेंगे आ रहा हैं, कमरे का सारा सामान तू ले जाना।अब मुझे इसकी कोई जरूरत नहीं...।जमली चहक कर.. अच्छा!बाबूजी आपके पुण्य काम आए,नहीं तो आज के बच्चें माँ बाप की सुध कहां लेते हैं। कहकर जमनी फटाफट काम निपटाकर कमरें के समान का निरीक्षण लगी।
सुबोध के आने पर केदारनाथ का उत्साह दोगुना हो गया।लेकिन सुबोध के चहरे पर समय के उतार-चढ़ाव को देख केदारनाथ पूछ बैठे-"क्या बात है..बेटा? कुछ ज्यादा ही परेशान नजर आ रहे हो.?वो...वो...कुछ नहीं बाबूजी बस...यूहीं..।
"बोल दे बेटा,बचपन से तुझे जानता हूं।मुद्दे की बात पर हमेशा तेरी जुबान लड़खड़ाती हैं। वो बाबूजी मैं आपको नहीं ले जा सकता!थोड़ी फाइनेंशियल प्रॉब्लम आ गई हैं।लेकिन बेटा मेरा तो कोई विशेष खर्चा भी नहीं हैं,अब तो तुम्हारें कहने पर सारी संपत्ति तुम्हारें नाम कर दी हैं,तुम तो हमेशा कहते थे कि मझे पैसा नहीं आपका आशीर्वाद चाहिए।फिर भी तुम्हारी पत्नी के कहने पर तुम्हें समय रहते सब कुछ दे दिया तो फिर ऐसा क्यों? बाबूजी वो नलिनी की माँ कुछ दिनों के लिए आई हैं....।
जमनी और केदारनाथ कमरें के सामान को निहार रहे थे।जमनी की उम्मीदों पर पानी फिर चुका था।और केदारनाथ के रिश्तों का मोह आँखों से गिरते आंसुओ के साथ गलने लगा।****
6. जिद
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गर्मी की छुट्टियां लग चुकी थी।वैभव के मम्मी पापा जॉब करते थे। तो वैभव अपनी बड़ी दीदी के साथ घर में अकेला रहता।उसे बचपन से ही क्रिकेट खेलना पसंद था।लेकिन अभी इन दो तीन सालों में वह सारा दिन मोबाइल पर गेम खेलने की जिद्द करता। तंग आकर एक दिन वैभव की दीदी ने मां से उसकी शिकायत कर दी। वैभव अभी12 साल का था। टी.वी पर सावधान इंडिया जैसे शो देखना उसे बहुत पसंद थे। मम्मी से मोबाइल,गेम खेलने के उद्देश्य मांगता और यूट्यूब पर मनपसंद फिल्मी गाने देखता। इस तरह 12 साल की उम्र में 22 साल के लड़के जैसे उसके तेवर हो गए थे।उसका बचपन कही खो सा गया था।ऊँची आवाज में बोलना अपनी हर जिद मनवाना उसकी मां हमेशा उसकी बातों का समर्थन करती।
एक दिन गुस्से में उसकी दीदी ने टीवी बंद कर दिया और मोबाइल भी उसके हाथ से छीन लिया।तो गुस्से में वैभव ने अपना इतना सिर पटक लिया।मजबूरन उसे मोबाइल देना पड़ा। वैभव का गुस्सा अब उसकी जीत बन चुका था। वह अपनी हर जिद्द पूरी कराना चाहता था।उसके मम्मी- पापा को समझ नहीं आ रहा था। कि वह ऐसा क्यों कर रहा है।उसकी दीदी जानती थी।यह सब टी.वी और मोबाइल की वजह से उसका स्वभाव जिद्दी हो गया है। एक दिन उसके दीदी ने उसे प्यार से समझा कर उसे अपने साथ क्रिकेट खेलने को मना लिया। वह उसका सारा ध्यान टीवी मोबाइल से हटा कर दूसरी ओर लगाना चाह रही थी। आखिरकार उसकी जीत हुई, धीरे धीरे वह क्रिकेट खेलने लगा। और टीवी मोबाइल से दूर होता चला गया। इससे उसका शारीरिक और मानसिक दोनों का विकास हुआ। थोड़ा बड़ा होने पर उसे बात यह अच्छी तरह समझ आ गई। कि टीवी मोबाइल हानिकारक वस्तुएं हैं। इसे एक लिमिट ही इस्तेमाल करना चाहिए।अन्यथा इसकी आदत हानिकारक भी हो सकती है।वैभव में बदलाव देखते हुए उसकी मां ने दीदी की सराहना की और उसे कहा,"इसी सोच कि हमारे समाज में आज बहुत आवश्यकता है। वैभव की दीदी अपने सही निर्णय ओर जीत पर मुस्कुरा उठी।आज के समय में हर घर में वैभव की दीदी जैसे भाई,-बहन होना चाहिए।****
7. थीम
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आज सरला ने किटी थीम वेस्टर्न गाउन रखी थी।सभी अधेड़ उम्र की हाई प्रोफाइल महिलाओं की किटी उनके गमों को भुला कर कुछ पल जीने का जरिया सोने के पिंजरे में कैद बुलबुल की तरह झटपटाती बेताबी से किटी का इंतजार करती।
सरला के यहां सभी का आना चालू था। सरला अपनी सहेलियों को गाउन में देख मन ही मन मुस्कुरा उठी।किटी मेंबर के फोटो ले उन्हें चने के झाड़ पर चढ़ाने लगी। सभी एक दूसरे की प्रतिद्वंदी बनकर आई थी।किटी की थीम तो एक बहाना था।अपनी बेटी दिशा के बुटीक से सामान बिकने का उसका धेय था। दिशा मां की कुशाग्र बुद्धि को देख अगले महीने की थीम क्या रखनी है।वह आज ही डिसाइड हो जाए। इसी उहापोह में लगी थी। मां ने धीरे से आँख दबाते हुए धीरज रखने को कहा। ****
8. जहर
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आज सुबह का अखबार सुर्खियां लिए हुए था। देसी जहरीली शराब पीने से सात लोगों की मौत...! चंद्रबाबू ने खबर पढ़ आँखें चौड़ी कर दी और जोर से बोल पड़े- "क्या घोर कलयुग आ गया है, जिधर देखो उधर अपराध और लूटमारी फैली हुई है। अब लोग इतने गिरे स्तर पर भी काम कर सकते हैं। कि बिचारे कामगार मजदूर सुबह शाम की थकान मिटाने के लिए शराब पिये तो उसमें भी ज़हर...? तभी बाहर से भूरी संदेश लाई बोली- "मालकिन आज लल्ली नहीं आ सकेगी उसका घरवाला चल बसा...। "कैसे...! कल तक तो भला चंगा था। क्या हुआ उसे अचानक सुधा ने विस्मय नेत्रों से पूछा..।वो रात कुछ ज्यादा दारू ज्यादा पी गया था।उसी वजह से तबीयत बिगड़ गई। तभी फोन की घंटी घनघना उठी। दूसरी तरफ से आवाज आई कल ज्यादा बारिश होने के कारण सारा माल इसी शहर में आपके इलाके में ही उतार दिया था। चंद्रबाबू जोर से चिल्लाए रास्ते में तो नहीं बेचा..., पूरा पैसा लूंगा चाहे कहीं भी उतार। सुधा के कानों पर पड़े चंद्रबाबू के स्वर उसके अंतर्मन को छलनी कर गए।****
9. पुनरावृत्ति
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अभय और अजय का लगातार संवाद चालू था। मां की नम आंखें बार-बार कभी बच्चों को तो कभी अपने पति की ओर देख रही थी। संवाद जोर पकड़ रहे थे। बच्चे अपने पिता से संपत्ति के बंटवारे को लेकर ऊंची आवाज में संवाद कर रहे थे। विमला ने पति को देखकर कहा- "कहां इस उम्र में टेंशन ले रहे हो, स्वास्थ्य पर असर पड़ेगा, दे दुआ के अलग करो, वे भी जिए और हम भी।आज इस पुनरावृत्ति को देख वह खामोश थे। ****
10. अनाथ
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सुरेश बाबू सुबह का अखबार लिए बैठे थे।जैसे ही एक समाचार पर उनकी नजर पड़ी।वह स्तब्ध रह गए।
तभी उनके कानों में घर के सदस्यों की आवाजें सुनाई देने लगी। सुबह की कवायद शुरू हो चुकी थी।अदरक से बनी चाय की महक पूरे घर में महक रही थी।अपने कमरे में बैठे वह चाय का इंतजार कर रहे थे।उनका प्याला हमेशा ही आखिर में आता। घर की बहूओं ने घर की परम्पराओं ओर रिवाजों को अपने सुविधानुसार बदल दिया था।वह हमेशा यहीं सोचते रहते। जीते जी अपनी इतने वर्षो की संजोई हुई संस्कारो की पूंजी को बिखरता देख उन्हें बहुत दुख होता।
अपने बनाये हुए महल में अपने ही कमरे में पड़े रहते। कभी किसी काम के विषय में बोलने से पहले ही बहूएं उन्हें टोक देती कहती-"बाबूजी आप तो रहने ही दो,हम हमारा देख लेंगे।सुरेश बाबू अपने मन की व्यथा किसी से कह नहीं पाते।अखबार की खबर पढ़ते ही उनकी आँखें सजल हो गई।आज अखबार में उसी आश्रम की खबर छपी थी।अनाथों को सहारा देने वाला कन्धा आज छूट गया था।आज सारे रिश्तो के होते हुए भी वे पहले की तरह अनाथ ही थे। ****
11. आग
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किसान आंदोलन में सब तरफ़ अपने अधिकारों को लेकर राजमार्ग रोके जा रहे थे। आगजनी, तोड़फोड़ आए दिन आंदोलन का हिस्सा बना हसिया भी सुबह के लिए बोरे में कुछ जलावन का सामान इकट्ठा कर लाया था। शायद दूसरे दिन के आंदोलन की तैयारी थी।घर के सारे अनाज खाली हो चुके थे। जमुना अपनी 10 साल की बेटी को भूखा देख हसिया से बोली-"पहले घर के सदस्यों की पेट की आग तो बुझाओ, फिर आंदोलन में जाकर आगजनी करना। उसकी बात सुन हसिया बोला-"बस उसी की जुगाड़ में हूं, थोड़ा इंतजार और कर ले 10 वर्षीय मुनिया सूनी आंखों से मां-बाप को देख रही थी। वह आग समझ सकी। आंदोलन नहीं...? ****
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क्रमांक - 019
क्रमांक - 020
जन्म : 05 सितम्बर 1956 , लखनऊ - उत्तर प्रदेश
शिक्षा : एम. एस. सी. ( जियोलॉजी ) , डी.आई.आई. टी. अप्लाइड हाइड्रोलोजी , मुम्बई
सम्प्रति : भूगर्भ जल विभाग उ.प्र. के निदेशक पद से सेवानिवृत्त
कृतियाँ : -
डरे हुए लोग (लघुकथा-संग्रह) - 1991
ठंडी रजाई (लघुकथा-संग्रह) - 1998
साइबरमैन (लघुकथा-संग्रह) - 2019
लघुकथा : सृजन और रचना-कौशल(आलेख संग्रह) 2019
मैग्मा और अन्य कहानियाँ (2004)
अक्ल बड़ी या भैंस (2005,बालकथा-संग्रह)
सम्मान : -
माता शरबती देवी पुरस्कार 1996,
माधवराव सप्रे सम्मान 2008 ,
वीरेन डंगवाल स्मृति साहित्य सम्मान-2018 के अलावा अन्य अनेक सम्मान
विशेष : -
- लघुकथा- संग्रह पंजाबी, गुजराती, मराठी, उर्दू एवं अंग्रेजी में भी उपलब्ध।
- मैग्मा कहानी सहित अनेक लघुकथाएँ जर्मन भाषा में अनूदित।
- अनेक रचनाएँ पाठयक्रम में शामिल, ‘रोशनी’ कहानी पर दूरदर्शन के लिए टेलीफिल्म।
- ठंडी रजाई , दादा जी, कुत्ते से सावधान आदि लघुकथाओं पर शार्ट फिल्म ।
- अनुवाद : खलील जिब्रान की लघुकथाएँ (1995)
- सम्पादन : हिन्दी लघुकथा की पहली वेबसाइट .laghukatha.com का वर्ष 2000 से सम्पादन
- लघुकथा विषयक अनेक पुस्तकों का संपादन
पता : 185, उत्सव पार्ट 2, महानगर बरेली-243006 उत्तर प्रदेश
1.सूखा
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‘‘क्या बात है? बहुत उखड़े-उखड़े लग रहे हो!’’ धरती से भाप के रूप में लौटे पानी से बादल ने पूछा।
‘‘कुछ मत पूछो, भैया!’’ पानी ने ठंडी साँस छोड़ी,’‘पृथ्वी और उस पर रहने वाले सभी प्राणियों को हम एक नजर से देखते हैं, लेकिन धरती पर पहुँचते ही जिस तरह का सुलूक हमारे साथ किया जाता है उससे हमारे सभी प्रयास निष्फल हो जाते हैं।’’
‘‘तो क्या इस बार भी?’’
‘‘हाँ, वही तो...इस बार उन्होंने मुझे बोतलों में भरकर बिक्री के लिए सजा दिया था। रेलवे स्टेशन के सभी नल सूखे पड़े थे, लोग मेरी एक-एक बूंद के लिए तरस रहे थे। पर मैं कैदखाने से उन्हें टुकुर-टुकुर ताकने के सिवा कुछ नहीं कर सकता था।’’
‘‘फिर तुम मुक्त कैसे हुए?’’
‘‘वातानुकूलित यान में यात्रा कर रही एक युवती ने मुझे खरीदा, उसने मेरा इस्तेमाल टूथपेस्ट करने में किया।’’
बादल सोच में पड़ गया।
‘‘भइया,’’ थोड़ी देर बाद बादल ने कहा, ‘‘अब मुझे इस समस्या का एक ही हल नजर आता है, हमें जनहित में अपने गुणधर्म का परित्याग कर देना चाहिए, आज से हम वहीं बरसेंगे जहाँ हमारी सबसे अधिक जरूरत होगी।’’
पानी को बादल की बात जँच गईं। वे दोनों ऐसे ही किसी क्षेत्र की खोज में निकल पड़े।
थोड़ा रास्ता तय करने के बाद उन्होंने देखा-एक ग्रामीण युवती निर्वस्त्र हो सूखे खेत में हल चला रही थी ताकि इन्द्रदेव प्रसन्न होकर वहाँ वर्षा कर दें। वह इलाका पिछले चार सालों से सूखे की चपेट में था। इसी गाँव के तीस किसानों ने पिछले महीने गरीबी से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी।
‘‘हमें यहीं बरसात करनी चाहिए!’’ दोनों एकमत थे।
उन्होंने उन सूखे खेतों पर हल्की फुहार छोड़ी ही थी कि पश्चिम दिशा से आई तेज हवा उन्हें अपने साथ उड़ा ले चली। इससे पहले कि उनकी समझ में कुछ आता, वे उस ‘स्वीमींग पूल’ पर बरस रहे थे जहाँ ‘मिस युनिवर्स’ के खिताब के लिए जमा सुंदरियाँ जल क्रीड़ा कर रही थीं। ****
2.ब्रेक पांइट
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‘‘माँ जी, आपके पति बहुत बहादुर हैं......’’ राउण्ड पर आए डॉक्टर ने नाथ की पत्नी से कहा, ‘‘ एक बारगी हम भी घबरा गए थे, पर उस समय भी इन्होंने हिम्मत नहीं हारी थी। अब खतरे से बाहर हैं।’’
पूरे अस्पताल में नाथ की बहादुरी के चर्चे थे। चलती टेªन से गिरकर उनका एक बाजू कट गया था और सिर में गम्भीर चोट आई थी। घायल होने के बावजूद उन्होंने दुर्घटना स्थल से अपना कटा हुआ बाजू उठा लिया था और दूसरे यात्री की मदद से टैक्सी में बैठकर अस्पताल पहुँच गए थे। चार घण्टे तक चले जटिल ऑपरेशन के बाद वह सात दिन तक आई.सी.यू. में जिंदगी और मौत के बीच झूलते रहे थे। आज डॉक्टरों ने उन्हें खतरे से बाहर घोषित कर जनरल वार्ड में शिफ्ट कर दिया था।
‘‘विक्की दिखाई नहीं दे रहा है.....?’’ दवाइयों के नशे से बाहर आते ही उन्होंने पत्नी से बेटे के बारे में पूछा।
‘‘सुबह से यहीं था, अभी-अभी घर गया है।’’ शीला ने झूठ बोला, जबकि सच्चाई इससे बिल्कुल उलट थी। माँ-बाप को छोड़कर सपत्नीक अलग रह रहा पुत्र अपनी नाराजगी के चलते पिता के एक्सीडेंट की बात जानकर भी उन्हें देखने अस्पताल नहीं आया था।
थोड़ी देर तक दोनों के बीच मौन छाया रहा।
‘‘मेरे ऑपरेशन की फीस किसने दी थी?’’ उन्होंने फिर पत्नी से पूछा।
इस दफा शीला से कुछ बोला नहीं गया। वह चुप रही। नाथ ने आँखें खोलीं और सीधे पत्नी की आँखों में झाँकने लगे। शीला ने जल्दी से आँखें चुरा लीं। उनको अपनी जीवनसंगिनी का चेहरा पढ़ने में देर नहीं लगी। उनकी आँखें पत्नी की कलाई पर ठहर गईं, जहाँ से सोने की चूड़ियाँ गायब थीं।
‘‘शाबाश पुत्रा!!’’ उनके मुँह से दर्द से डूबे शब्द निकले और उनकी आँखें डबडबा आईं।
शीला ने पैंतीस वर्ष के वैवाहिक जीवन में पहली बार अपने पति की आँखों में आँसू देखे तो उसका कलेजा मुँह को आने लगा। यह पहला अवसर नहीं था जब जवान बेटे ने उनके दिल को ठेस पहुँचाई थी, पर हर बार बेटे की इस तरह की हरकतों को उसकी नादानी कहकर टाल दिया करते थे।
एकाएक उनकी तबियत बिगड़ने लगी। डयूटी रूम की ओर दौड़ती हुई नर्सें.....ब्लड प्रेशर नापता डाक्टर.....इंजेक्शन तैयार करती स्टाफ नर्स....
उनकी साँस झटके ले लेकर चल रही थी....
डॉक्टर ने निराशा से सिर हिलाया और चादर से उनका मुँह ढक दिया। वह हैरान था, उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि जिस आदमी ने अपनी बहादुरी और जीने की प्रबल इच्छा के बल पर सिर पर मँडराती मौत को दूर भगा दिया था, उसी ने एकाएक दूर जाती मौत के आगे घुटने क्यों टेक दिए थे?! ****
3.अथ विकास कथा
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बड़े साहब के चेम्बर में बड़े बाबू विकास सम्बंधी कार्यों के बिल पारित करवा रहे थे। ब्रीफिंग के लिए छोटे साहब भी वहाँ मौजूद थे।
‘‘यह बिल किस काम का है?’’ बीस लाख के एक बिल पर हस्ताक्षर करने से पहले बड़े साहब ने जानना चाहा।
‘‘सर, यह बिल उस पीरियड से सम्बंधित कार्यों का है, जब माननीय मंत्री जी क्षेत्रीय निरीक्षण पर आए थे।’’
‘‘ग्राम मेवली में कुछ ज्यादा ही खर्च नहीं हो गया?’’ अगले बिल को देखते हुए बड़े साहब ने पूछा।
‘‘नहीं सर! दीवाली पर प्रमुख सचिव महोदय से आपकी जो वार्ता हुई थी, उसी के अनुसार बिल तैयार कराए गए हैं।’’
‘‘ये छोटे-छोटे कई बिल......?
‘‘ये सभी बिल चीफ साहब से सम्बंधित है, जब नैनीताल से लौटते हुए उन्होंने तीन दिन हमारे क्षेत्र में आकस्मिक निरीक्षण हेतु हाल्ट किया था।’’
‘‘हमारी बेटी की शादी भी करीब आ गई है....’’ बड़े साहब ने अर्थपूर्ण ढंग से छोटे साहब की ओर देखा।
‘‘पूरी तैयारी है, सर!’’ छोटे साहब ने उत्साह से बताया और बड़े बाबू ने तत्काल एक बिल बड़े साहब के सामने हस्ताक्षर हेतु रख दिया।
‘‘इन बिलों को शामिल करते हुए क्षेत्र के विकास के लिए प्राप्त कुल धनराशि के विरूद्ध खर्चे की क्या स्थिति है?’’
‘‘शतप्रतिशत!’’ छोटे साहब ने चहकते हुए बताया।
‘‘एक्सीलेंट जॉब!’’ बड़े साहब ने शाबाशी दी। ****
4. जागर
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बरसों बाद, उस रात मैंने जागते हुए सपने देखे।
सुबह उठा तो बाहर बहुत शोर-सा मालूम दिया। खिड़की से झांककर देखा-मेरे बहुत से साथी घर के बाहर जमा थे। बाहर आतेे ही उन्होंने मुझे घेर लिया। उनके मुखिया के मुझे खबरदार करते हुए कहा, ‘‘तुम इस तरह अलग नहीं हो सकते!’’ मैंने उन्हें शान्त किया और अपने सपनों के बारे में बताया। सुनकर एकबारगी वहाँ सन्नाटा छा गया, उनके चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। उन्हें लगा, मुझे डाक्टर की जरूरत है।
जब डॉक्टर मेरी जांच करने लगा तो मैंने उसे रोका और अपने सपनों के बारे में विस्तार से बताया। पर उसे मेरे सपनों की भाषा समझ में नहीं आई जबकि उनकी भाषा वह बखूबी समझ रहा था। उसे लगा, मुझे गहरी नींद की जरूरत है।
नींद की गहरी झील को मैंने पलक झपकते ही पार कर लिया। वे साये की तरह मेरे पीछे लगे हुए थे। जब मैं सड़कों पर निकल पड़ा तो वे धैर्य खो बैठे। उन्हें लगा, मुझे मानसिक चिकित्सालय की जरूरत है।
पागलखाने में मेरे जैसे बहुत-से थे, पर रोगियों के साथ रहते-रहते उनके सपने फ्रीज हो गए थे। जैसे ही उन्होंने मेरी आँखों में झांका, उनके सपने सजीव हो उठे। बाहर वे डॉक्टरों के साथ मंत्रणा कर रहे थे, मुझे तनहाई की जरूरत है।
बार-बार शॉक दिए जाने से मेरा शरीर जर्जर हो गया था। सपने धुंधले,बदरंग और आधे-अधूरे दिखाई देने लगे थे। मैं जीवन की अंतिम सांसें ले रहा था। उन्हें लगा,अब मुझे किसी इलाज की जरूरत नहीं है।
मां की गोद में लेटा मैं सपने देखने में मगन था।
मेरे जन्मोत्सव में वे भी शामिल थे।
‘‘बहुत मेधावी लगता है।’’ मुझे देखकर उनमें से एक बोला।
सुनकर मेरे होठों पर मुस्कान आ गई।
‘‘देखो.....’’ उनके मुखिया ने कहा, ‘‘पिछले जन्म की मीठी यादों में कैसे मुस्करा रहा है।’’ ****
5.पहचान
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वह हड़बड़ी में था-उसे ठीक नौ बजे ‘हिंदी दिवस’ के उपलक्ष में आयोजित व्याख्यानमाला में भाग लेने हेतु विश्वविद्यालय पहुँचना था। एक तो गाड़ी ने दो घण्टे की देरी से पहुँचाया था, दूसरे वह इस शहर के भूगोल से बिल्कुल अनजान था। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि विश्वविद्यालय तक कैसे पहुँचे।
एक व्यक्ति विदेशी नस्ल के कुत्ते की जंजीर पकड़े बहुत तेजी से चला आ रहा था।
‘‘टायसन! मूव.....मूव फास्ट!’’ इससे पहले कि वह कुछ पूछता, वहउसे अनदेखा कर तेजी से निकल गया।
‘‘भाईसाहब, रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय के लिए बस कहाँ से मिलेगी?’’ अगले ही क्षण वहाँ से गुजर रहे एक साइकिल सवार को रोककर उसने पूछ लिया।
साइकिल सवार कुछ सोचते हुए बोला, ‘‘जीआईसी, जीजीआईसी, बीबीएल वगैरह के बारे में तो पता है, जीपीएम, बीसी और सेंट मारिया तो बिल्कुल नजदीक हैं, पर....वो....क्या कहा आपने रोहेलखण्ड....? इस बारे में तो पहले कभी नहीं सुना। माफ कीजिए.....हिन्दी के मामले में अपना दिमाग जरा ऐसा-वैसा ही है, आप किसी और से पूछ लीजिए......’’
देर पर देर हो रही थी। उसने बस से जाने का ख्याल छोड़ दिया और रिक्शे से जाने का निश्चय किया।
‘‘भैया, रुहेलखण्ड विश्वविद्यालय चलोगे?’’
‘‘सही मोहल्ला बताओ साब, इस नाम की कोई जगह नहीं है यहाँ।’’
‘‘अरे भाई, बताया तो-विश्वविद्यालय! इतना भी नहीं जानते तुम?!’’ .....जहाँ लड़के-लड़कियाँ पढ़ते हैं.....।’’
‘‘कैसी बात करते हो, साहब जी,’’ रिक्शेवाले ने बुरा-सा मुँह बनाया, ‘‘बीस साल से इसी शहर में रिक्शा चला रहा हूँ, यहाँ के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हूँ। इस शहर में इस नाम का केाई सकूल नहीं है।
रिक्शे वाला आत्मविश्वास भरी आँखों से उसकी ओर देख रहा था।
‘‘भाई, मुझे युनिवर्सिटी से बुलावा आया है,’’ झल्लाकर उसके मुँह से निकल पड़ा, ‘‘पीलीभीत जाने वाली सड़क पर बहुत बड़ी इमारत है.....’’
‘‘युनवसटी!!’’रिक्शेवाला चहका, ‘‘तो पहले ही सही बोलना था। युनवस्टी कौन नहीं जानता ! बैठो अभी पहुँचाए देता हूँ।’’ *****
6.प्रक्षेपण
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‘‘रोहित, रमन अंकल के यहाँ से अखबार माँग लाओ।’’
‘‘पापा....मैं वहां नहीं जाऊंगा...’’
‘‘क्या कहा? नहीं जाओगे!’’ उन्होंने गुस्से से रोहित को घूरा, ‘‘क्या वे अखबार देने से मना करते हैं?’’
‘‘नहीं...पर’’ पाँच वर्षीय रोहित ने झुँझलाते हुए कहा, ‘‘...मैं कैसे बताऊँ... मैं जब अखबार माँगने वहाँ जाता हूँ तो वे लोग न जाने कैसे-कैसे मेरी ओर देखते हैं।’’
‘‘किसी ने तुमसे कुछ कहा?’’
सब्जी काट रही माँ हाथ रोकर बेटे की ओर देखने लगी, नीतू भी अपने छोटे भाई के नजदीक आकर खड़ी हो गई।
‘‘कुछ कहा तो नहीं पर.....’’ उसे चेहरे पर अपनी बात न कह पाने की बेबसी साफ दिखाई दे रही थी, ‘‘मैं जब अखबार मांगता हूँ तो वे लोग आपस में एक दूसरे की ओर इस तरह देखते हैं कि...मुझे अच्छा नहीं लगता है!’’
‘‘वे रोजाना अखबार दे देते हैं....तुझसे कभी कुछ कहा भी नहीं, फिर क्यों नहीं जाएगा?’’ उन्होंने आँखें निकालीं।
‘‘नवाबसाहब को अच्छा नहीं लगता!.....कामचोर!!’’ सब्जी काटते हुए माँ बड़बड़ाई।
‘‘पापा, ये बहुत बहानेबाज हो गया है।’’ नीतू भी बोली।
‘‘ेअब जाता क्यों नहीं?’’ उन्होंने दाँत पीसते हुए रोहित की ओर थप्पड़ ताना।
रोहित डरकर रमन अंकल के घर की तरफ चल दिया। बरामदे में उनका झबरा कटोरे से दूध पी रहा था। रोहित का मन हुआ-लौट जाए। उसने पीछे मुड़कर अपने घर की ओर देखा। उसे लगा, पापा अभी भी जलती हुई आँखों से उसे घूर रहे हैं।
उसने दीर्घ निःश्वास छोड़ी उसकी आंखों की चमक मंद पड़ती चली गई। उसने बेजान कदमों से रमन अंकल के घर में प्रवेश किया। ****
7.गोल्डेन बीच
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जाल को मजबूती से पकड़े वे तट की ओर झपटती लहरों से भिड़ जाते हैं, फिर एक के बाद एक तट की ओर उछलकर आती लहरों पर फिसलते नजर आते हैं। लहरों की समुद्र में वापसी से पहले उनका फेन तट की रेत पर दूर-दूर तक बिखर जाता है, लहरों के इसी पॉज के दौरान वे दोनों जाल का निरीक्षण करते हैं। कभी-कभार जाल की बारीक बुनावट में कुछ फंसा नजर आता है जिसे वे मिट्टी की हंड़िया में डाल लेते हैं। दूर से समझ नहीं पाता कि वे क्या इकट्ठा कर रहे हैं।
नज़दीक से देखने पर उन लड़कों की उम्र आठ-दस साल से अधिक नहीं लगती-अस्थिपंजर-सी काया, कुपोषण की शिकार पीली आँखें। मेरी उपस्थिति से वे ठिठक जाते हैं। इस बार उनके जाल में कुछ फंसा है। मैं उनकी भाषा नहीं जानता, वे मेरी भाषा नहीं जानते। मेरे पास खड़ा लड़का मेरी आँखों से मन की बात पढ़ लेता है और जाल में फंसी वस्तु निकालकर मेरे हाथ पर रख देता है।
एक नन्ही-सी मछली मेरी हथेली पर छटपटाने लगती है। पानी के अभाव में तड़पना मुझसे देखा नहीं जाता, मैं उसे जल्दी से लहरों के हवाले कर देता हूं।
लड़के के चेहरे पर गुस्से की लपट-सी दौड़ जाती है, वह मुझे घूरकर देखता है। पता नहीं उसे मेरे चेहरे पर क्या दिखाई देता है कि उसकी गुस्से से तनी मांसपेशियाँ ढ़ीली पड़ने लगती हैं। वह फीकी हंसी हंसता है। शायद यह उसका मछली के नुकसान को भूलने का प्रयास है या फिर मुझे माफ कर दिए जाने का संकेत। वह अपने साथी को इशारा करता है। वे दोनों जाल को सम्हालकर फिर लहरों की ओर दौड़ पड़ते हैं।
लहरों की पहुँच से दूर वो हंड़िया पड़ी हुई है जिसमें उनकी दिनभर की कमाई नन्हीं मछलियों के रूप में जमा है।
अचानक हवा काफी तेज हो जाती है। रेत के उड़ते कण चेहरे और शरीर के दूसरे खुले भागों पर सुइयों से चुभने लगते हैं। लगता है जैसे जिस्म को छलनी कर देंगे। लहरें पहले से कहीं अधिक तेजी से गरजती,फुफकारती अपना फेन तट पर उगलने लगी हैं। कहीं यह सुनामी लहरों के आने का संकेत तो नहीं? पिछली तबाही के दृश्यों को याद कर शरीर में कंपकंपी-सी दौड़ जाती है। जल्दी से जल्दी किसी सुरक्षित स्थान पर पहुँच जाना चाहता हूँ। ....पर वे दोनों अभी भी बेखौफ लहरों से भिड़े हुए हैं। मुझे हैमिंग्वे का बूढ़ा मछुआरा याद आता है जो शेरों के सपने देखा करता था। सोचता हूँ सोनामी के बाद यह नन्हें मछुआरे अपने सपनों में क्या देखते होंगे। ****
8.मसिजीवी
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‘‘तो तुमने क्या फैसला किया?’’
‘‘पिता जी, मैं पत्रिका के दफ्तर में ही नौकरी करना चाहता हूँ।’’
‘‘फिर हमारे इस कारोबार का क्या होगा?’’
‘‘इसे आपने बहुत ही अच्छी तरह सँभाला हुआ है,’’ वह झिझकते हुए बोला, ‘‘मदद के लिए किसी को नौकरी पर रख लीजिए।’’
‘‘वाह बेटा!’’ वे गुस्से में बोले,’’ उस दो टके की नौकरी के लिए तुम्हें हमारा दिल दुखाते शर्म नहीं आती?’’
‘‘पिता जी,’’ उसने कहा, ‘‘आपने पढ़ा-लिखाकर मुझे इस काबिल बना दिया है कि अपने देश और समाज के लिए कुछ कर सकूँ, मेरे काम की सर्वत्र चर्चा है। आपको तो खुश होना चाहिए!’
‘‘मैंने इन कलम घिसने वालों को सदा भूखों मरते देखा है। तुम्हारा वह मुंशी लेखक प्रेमचन्द....सुना है अंतिम दिनों में उसे खाने के भी लाले पड़े थे,’’ वे चिढ़कर बोले, ‘‘अपने बूते पर जितना तुम कमाते हो, उतना तो हम अपने एक नौकर को दे देते हैं। ऐसे काम का क्या फायदा? मैंने तुम्हें पढ़ा-लिखाकर बड़ी भारी गलती की!’’
‘‘किसी बड़े मकसद के लिए कष्ट तो उठाना ही पड़ता है।’’
‘‘तुम्हारा तो दिमाग़ फिर गया है, ‘‘तुम्हें इस तरह समझाना बेकार है।’’
वह दुखी मन से बाहर आ गया। वह जानता था कि उसके साफ-साफ मना कर देने के बावजूद पिता जी चुप नहीं बैठेंगे। वे उसके रास्ते में जितनी रुकावटें खड़ी कर सकेंगे, करेंगे ताकि वह उनका पुश्तैनी लेन-देन का कारोबार सँभाल ले। एक बार पहले भी उनके कारण उसे बहुत प्रतिष्ठित पत्रिका की नौकरी से हाथ धोना पड़ा था।
वह अहाते में खड़े बूढ़े बरगद के नीचे बैठ गया। बचपन की अनेक यादें उसकी आँखों के आगे तैरने लगीं। इसी वट की शीतल छाया में हँसते-खेलते उसका बचपन कैसे बीत गया, उसे पता ही नहीं चला। उसे नहीं याद पिता जी ने कभी उसकी पढ़ाई-लिखाई में जरा भी रुचि ली हो।
कोठी के पुराने लठैत लखन की पत्नी वट की पूजा कर रही है। घर के दूसरे नौकर-चाकर भी पिता जी की दबंगई से सहमे रहते हैं।
उसकी नजर वट से लटकती जड़ों पर स्थिर हो र्गइं, जो अपनी ही छाया में बने मजबूत चबूतरे को नुकसान पहुँचा रही थीं। ****
9. मरुस्थल
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‘‘जमना, तू क्या कहना चाह रही है?’’
‘‘मौसी, जे जो गिराहक आया है, इसे किसी और के संग मत भेजियो।’’
‘‘जमना, जे तू कै रई हय? इत्ती पुरानी होके। हमारे लिए किसी एक गिराक से आशनाई ठीक नई।’’
‘‘अरे मौसी, तू मुझे गलत समझ रई है। मैं कोई बच्ची तो नहीं तू किसी बात की चिन्ता कर। पर इसे मैं ही बिठाऊँगी।’’
‘‘वजह भी तो जानूं?’’
‘‘वो...बात जे है कि...कि...।’’ एकाएक जमना का पीला चेहरा और फीका हो गया, आँखें झुक गई-‘‘इसकी शक्ल मेरे सुरगवाली मरद से बहुत मिलती है। जब इसे बिठाती हूँ तो थोड़ी देर के वास्ते ऐसा लगे है जैसे मैं धंधे में नहीं अपने मरद के साथ घर में हूँ।’’
‘‘पर...पर...आज तो वह तेरे साथ बैठनाई नहीं चाह रिया...उसे तो बारह-चौदह साल की चइए।!’’ ****
10.अच्छाई
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मयखाने के सामने उन दोनों का सामना हो गया।
‘‘कैसी हो?’’ पहली ने पूछ लिया।
‘‘तुम! यहाँ?!’’ दूसरी ने उसे देखकर बुरा-सा मुँह बनाया, ‘‘हमारे इलाके में आने की तुम्हारी जुर्रत कैसे हुई?’’
‘‘जरा आँखें खोलकर देखो....’’ पहली ने विनम्रता से कहा, ‘‘मैं तो हर कही हूँ।’’
‘‘चल...जा, वो जमाने लद गए।’’ दूसरी ने ललकारा, ‘‘अब तो हर कहीं मेरा ही बोलबाला है। हिम्मत है तो भीतर चल, अपनी आँखों से ही देख ले।’’
पहली ने मूक सहमति दे दी।
‘बार’ के भीतर दोनों एक मेज के नजदीक ठिठक गईं, जहाँ तीन युवक बैठे बीयर पी रहे थे।
‘‘अमां यार, अब और कितना इंतजार करवाओगे? जल्दी बताओ, कैसी रही फर्स्ट नाइट?’’ पहला पूछ रहा था।
‘‘और सुन,....’’ दूसरे ने मित्र को आगाह किया, ‘‘कुछ भी सैंसर किया तो साले तेरी खैर नहीं।’’
यह सुनकर मेज के पास खड़ी दूसरी ने पहली की ओर देखकर खिल्ली उड़ाने के अंदाज में आँखें नचाईं।
तीसरे ने बीयर का बड़ा-सा घूँट हलक के नीचे उतारा, फिर बोला, ‘‘छोड़ो भी यारो! तुम लोग नहीं समझोगे, कोई और बात करो।’’
‘‘वाह बेट्टा!’’ पहले ने चिढ़कर कहा, ‘‘अपनी बारी आई तो बिदक रहे हो।’’
‘‘हमने तो तुम्हें ‘सबकुछ’ बता दिया था।’’ दूसरा बोला।
‘‘कोई दूसरी दिक्कत है तो भी कह डाल, यारों से क्या शरमाना?’’ पहले ने चिढ़ाया।
‘‘नहीं यारो!’’ तीसरे युवक का गंभीर स्वर, ‘‘ऐसी कोई बात नहीं है। दरअसल जब मैं उसके पास पहुँचा तो वह किसी अबोध शिशु की तरह गहरी नींद में सो रही थी। आँखों की कोरों पर आँसू की बूँदें मोती की तरह ठहरी हुई थीं। शायद माता-पिता से बिछोह के कारण कुछ देर पहले तक रोती रही थीं। मैंने उसे नहीं जगाया......सोने दिया। बस इतना ही।’’ कहकर वह चुप हो गया।
उसकी बात सुनकर वहाँ चुप्पी छा गई। किसी से कुछ बोलते नहीं बना।
यह देखकर पहली ने दूसरी की तलाश में नजरें दौड़ाईं़-
उसकी नजर थोड़ी दूर बैठे उस युवक पर पड़ी जिसने जरा सा पानी झलक जाने पर अपने पिता समान बूढ़े वेटर के गाल पर तमाचा जड़ दिया था। ****
11.मैं कैसे पढ़ूँ
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पूरे घर में मुर्दनी छा गई थी। माँ के कमरे के बाहर सिर पर हाथ रखकर बैठी उदास दाई माँ और रो-रोकर थक चुकी माँ के पास चुपचाप बैठी गाँव की औरतें । सफ़ेद कपड़े में लिपटे गुड्डे के शव को हाथों में उठाए पिताजी को उसने पहली बार रोते देखा था ।
“शुचि !” --टीचर की कठोर आवाज़ से मस्तिष्क में दौड़ रही घटनाओं की रील कट गई और वह हड़बड़ा कर खड़ी हो गई।
“तुम्हारा ध्यान किधर है ? मैं क्या पढ़ा रही थी...बोलो?” --वह घबरा गई। पूरी क्लास में सभी उसे देख रहे थे।
“बोलो!” --टीचर उसके बिल्कुल पास आ गई।
“भगवान ने बच्चा वापस ले लिया...” मारे डर के मुँह से बस इतना ही निकल सका ।
कुछ बच्चे खी-खी कर हँसने लगे। टीचर का गुस्सा सातवें आसमान को छूने लगा।
“स्टैंड अप आन द बैंच !”
वह चुपचाप बैंच पर खड़ी हो गई। उसने सोचा--
ये सब हँस क्यों रहे हैं ? माँ-पिताजी, सभी तो रोये थे । यहाँ तक कि दूध वाला और रिक्शेवाला भी बच्चे के बारे में सुनकर उदास हो गए थे और उससे कुछ अधिक ही प्यार से पेश आए थे। वह ब्लैक-बोर्ड पर टकटकी लगाए थी, जहाँ उसे माँ के बगल में लेटा प्यारा-सा बच्चा दिखाई दे रहा था । हँसते हुए पिताजी ने गुड्डे को उसकी नन्हीं बाँहों में दे दिया था। कितनी खुश थी वह!
“टू प्लस फाइव कितने हुए?” --टीचर बच्चों से पूछ रही थी ।
शुचि के जी में आया कि टीचर दीदी से पूछे जब भगवान को गुडडे को वापस ही लेना था तो फिर दिया ही क्यों था?
उसकी आँखें डबडबा गईं। सफ़ेद कपड़े में लिपटा गुड्डे का शव उसकी आँखों के आगे घूम रहा था। इस दफ़ा टीचर उसी से पूछ रही थी । उसने ध्यान से ब्लैक-बोर्ड की ओर देखा। उसे लगा ब्लैक-बोर्ड भी गुड्डे के शव पर लिपटे कपड़े की तरह सफ़ेद रंग का हो गया है । उसे टीचर दीदी पर गुस्सा आया । सफ़ेद बोर्ड पर सफ़ेद चाक से लिखे को भला वह कैसे पढ़े?
==================================क्रमांक - 022
नाम : डॉ. क्षमा सिसोदिया
अंतराष्ट्रीय,कवियत्री,लघुकथाकार,हास्य व्यंग्य, हाइकु,
मुकरी विधा की स्वतंत्र लेखिका।
शिक्षा - इलाहाबाद वि.वि. से स्नातक।
लखनऊ वि. वि से स्नातकोत्तर।
विक्रम वि.वि से पीएचडी ।
इंटिरियर डिप्लोमा कोर्स।
इंडस्ट्रियल डिप्लोमा कोर्स।
पर्सनालिटी डिप्लोमा कोर्स।
शैक्षणिक योग्यता -
सांदीपनी कालेज,उज्जैन में तीन वर्ष शिक्षण योगदान।
विक्रम वि.वि में काॅमर्स,एम.ए,एमफिल तक।
उपलब्धियाँ -
--------------
1-देवी अहिल्या वि. वि. में गवर्नर
नामिनी कार्यपरिषद की सदस्या।2005
2-"रेकी थैरेपी" (प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति) में उत्कृष्ट कार्य हेतु राज्यपाल से गोल्ड मेडल प्राप्त - 2006
3- लखनऊ वि. वि. से उत्कृष्ट छात्रा के रूप में
"मिस हिन्दी" अवार्ड प्राप्त -1996
4-छात्र-जीवन से ही लेखन में रूझान,समाचार पत्रों में लेखन।
5-आकाशवाणी पर कई बार कविता पाठ।
6- महाकवि कालिदास-स्मृति समारोह समिती उज्जयिनी द्वारा साहित्यिक सम्मान 2014
7-नीरजा सारस्वत सम्मान, उज्जैन। 2009
सामाजिक क्षेत्र :-
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1-वर्धमान क्रिएटिव एंड वेलफेयर सोसाइटी महिला विंग उज्जैन द्वारा - मातृत्व दिवस पर मातृत्व सम्मान - 2011
2- दिगम्बर जैन महिला परिषद अवंति उज्जैन द्वारा सम्मान -2009
3-पंजाबी महिला विंग द्वारा अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर सम्मान
4-अखिल भारतीय क्षत्राणी पद्मिनी समिति महाराष्ट्र द्वारा "Achieve ment Award"-2019
5-8मार्च अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर सामाजिक संस्थाओं द्वारा सम्मान - 2003 to 2005
6-नई दुनिया समाचार पत्र द्वारा सामाजिक गतिविधियों हेतु नायिका अवार्ड 2010
7-राजपूत महिला ग्रुप उज्जैन द्वारा - समाजिक गतिविधियों हेतु सम्मान।
8-पंजाबी महिला ग्रुप उज्जैन द्वारा सामाजिक गतिविधियों हेतु सम्मान।
9-राॅयल पद्मिनी राजपूतानी समिति-मंदसौर द्वारा 'क्षत्राणी' सम्मान। 2018
10- महिला सोशल विंग द्वारा सम्मान। 2019
साहित्यक क्षेत्र:-
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1-अभिव्यक्ति विचार मंच (नागदा) द्वारा सम्मान - 2008
हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग संस्था द्वारा साहित्यिक सम्मान,2011 उज्जैन।
2-अग्नि पथ समाचार पत्र द्वारा साहित्यिक सम्मान - 2013
3-दैनिक भास्कर, समाचार पत्र द्वारा सम्मान- 2015
4-पत्रिका समाचार द्वारा-प्रशस्ति-पत्र (सामाजिक क्षेत्र में योगदान हेतु- "Creator...,celebrate the Success of woman Award-2016
5-नई दुनिया समाचार पत्र द्वारा-वुमन अचीवर्स अवार्ड- 2018
6-हिन्दी शब्द साधिका सम्मान
7-अवध ज्योति रजत जयंती द्वारा -साहित्यक सम्मान 2019
8-अखिल भारतीय साहित्य परिषद मालवा प्रान्त द्वारा -"शब्द साधिका सम्मान।"
9--स्वर्णिम भारत मंच युवा संगम उज्जैन द्वारा साहित्यिक सम्मान 2021।
10-:स्टोरी मिरर अंतर्राष्ट्रीय स्पर्धा में लघुकथा विजेता।
11- अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिता में कविताएं विजेता।
13- मध्यांतर मंच- से लघुकथा प्रतियोगिता में लघुकथा (मय राशि) विजेता।
14-नया लेखन-नया दस्तखत मंच पर कई लघुकथाएं विजेता।
15- इंदुमति श्री स्मृति लघुकथा योजना में लघुकथा सम्मिलित हो राशि प्राप्त।
16- लोकरंग संस्कृति मंच और लोकगीत कजरी गायन पर सम्मान।
17-साहित्य संगम संस्थान दिल्ली से
स्थानीय भाषा भोजपुरी में कव्य प्रसारण।
18-यूट्यूब पर रचनाओं का प्रसारण।
प्रकाशित संग्रह -
---------------------
1-केवल तुम्हारे लिए" - काव्य संग्रह।
2-'कथा सीपिका '- लघुकथा संग्रह ।
3- 'भीतर कोई बंद है।' लघुकथा संग्रह।
4- तीन अन्य पुस्तकें प्रकाशनार्थ हैं।
5- कई साझा संग्रह में रचनाओं का प्रकाशन।
6-कलश,अविराम साहित्यिकी लघुकथा स्वर्ण जयंती विशेषांक में लघुकथाओं का चयन।
एवं अन्य कई पत्रिकाओं में लघुकथा,कविता, आलेख प्रकाशित।
अंतरराष्ट्रीय उपलब्धियाँ -
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1-नेपाल साहित्य धरा से प्रकाशित साहित्य 'भोजपुरी दर्शन' में प्रांतीय भाषा (भोजपुरी में) भी लघुकथा, कविता का प्रकाशन।
2- पुस्तक-भारती (कनाडा) में रचनाएं प्रकाशित।
3-विश्व हिन्दी ज्योति (कैलिफोर्निया से प्रकाशित ') में रचना प्रकाशित।
4-12वाँ अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी उत्सव 2020
परिकल्पना उत्सव सम्मान (शारजाह,दुबई, ,मालदीव)
अन्य गतिविधियाँ :-
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1-साहित्यिक-सांस्कृतिक संस्था त्रृचा विचार मंच की कार्यकारिणी सदस्य।
2-मध्य प्रदेश लेखक संघ समिति की कार्यकारिणी सदस्य।
3- स्वर्णिम भारत मंच उज्जैन (सामाजिक सेवा संस्थान) की कार्यकारिणी सदस्य।
विशेष :-
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लेखन के साथ एक सामाजिक कार्यकर्ता ।
सेवा के रूप में अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर
1-"भैरोगढ जेल (उज्जैन)में कैदी महिलाओं के चर्चा कर साथ समय व्यतीत किया।
2-14 फरवरी वेलेंटाइन डे पर (स्व खर्च से) स्टूडेंट के साथ गंभीर नदी की सफाई में कर सेवा कार्य।
3- नारी-निकेतन की कन्याओं के विवाह में योगदान।
पता :-
आशीर्वाद
डाॅ.क्षमा सिसोदिया
10/10 सेक्टर बी
महाकाल वाणिज्य केन्द्र
उज्जैन-456010 मध्यप्रदेश
1.तस्वीर
*****
"अरे, तू यह क्या कर रहा है...?"
"कुछ नही,अपनी ही तस्वीर बना और बिगाड़ रहा हूँ।"
"क्यों...!"
"बस देखने की कोशिश रहा हूँ,कि हम सबको बनाने में ईश्वर को कितनी मेहनत लगी होगी।"
"अच्छा,तो तू अब ईश्वर बनने की कोशिश कर रहा है...?"
"अरे नही यार, मैं देख रहा हूँ,कि हमें बनाने में उसे कितनी मेहनत करनी पड़ती है,फिर भी हम लोग हमेशा रोते ही रहते हैं।"
"कभी पलट कर हम लोग यह नही सोचते हैं,कि-हमारे इस जीवन रूपी तस्वीर बनाने में हमारे माता-पिता को कितनी मेहनत करनी पड़ी होगी।"
"एक साधारण सी तस्वीर बनाने में मुझे छः घंटे लगे और इस बीच में मुझे न जाने कितनी बार मायूस होना पड़ा,तब जाकर ऐसी तस्वीर बना पाया।"
"बस इसी बात को आज खुद समझ रहा और अपने बच्चों को भी समझाने की कोशिश कर रहा हूँ,कि जिन्दगी के कैनवास पर अपनी साफ-सुथरी तस्वीर बनाना इतना आसान नही होता है।" ****
2. अकेली औरत
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वर्षों से शगुन अपना हर काम अकेली ही करती आ रही थी,बीच-बीच में कुछ लोगों को अपने उपर ज्यादा ही मेहरबान होते हुए भी देखा था,लेकिन मजबूत शगुन नितान्त अकेली होने के बाद भी खुद को सम्भाले हुए थी।
आफिस में शर्मा,वर्मा,गुप्ता,मिश्रा जी के स्वभाव के वजह से कुछ परेशान जरूर रहने लगी थी,आज उससे भी निपटने का उसने रास्ता निकाल ही लिया।
जन्म दिन के बहाने उसने सभी सह- कर्मियों को अलग-अलग तरीके से वही सामग्री लेकर आने के लिए घर पर निमंत्रित किया,जिसे देने के बहाने से उसके नजदीक आने की कोशिश करते,सभी बहुत खुश हुए,लेकिन किसी को यह पता नही लगने दिया कि उनसे पहले भी वहाँ कोई और पहुँचेगा।वहाँ सब एक-दूसरे को देखकर हतप्रभ थे,ओले पड़ते देख कोई सिर खुजला रहा था,तो कोई गले में अटकी आवाज़ को बाहर निकालने के लिए टाई ढीली कर रहा था।
शगुन ने कुछ गरीब बच्चों को भी बुलाया था।
केक कटने के बाद,सह कर्मियों द्वारा लाए हुए सामानों को उनके ही हाथों से गरीब बच्चों में बँटवा दिया।
और घर में रखे खाद्य सामग्री से सभी का आवभगत कर,रिटर्न गिफ्ट के साथ विदा कर दिया। रिटर्न गिफ्ट को खोलने की आतुरता से सभी बेहाल हो रहे थे।
बंद लिफाफा,लिफाफे में चिठ्ठी देख कर तो सबकी आँखों में बिना पीए ही मदिरा उमड़ने लगी,लेकिन जैसे ही शब्दों को मापा,तो होश उड़ गये।
"आप लोगों को क्या लगता है,कि समाज में अकेली रहने वाली औरत,सार्वजनिक सम्पति है ?,
जिस पर हर कोई अतिक्रमण करने की जुगाड़ में लगा रहता है ?,
यह लावारिस पड़ी हुई जमीन नही है,जीती-जागती जिन्दगी है,और जिसकी रजिस्ट्री माँ-बाप द्वारा दिए संस्कारों से होती है।आप लोग अकेली औरत की सहायता करने के लिए चिकनी-चुपड़ी बातों के वजाए,कभी यह बोलते हैं,कि लाओ नगरपालिका,न्यायपालिका या बिजली विभाग का कोई काम हो तो बताओ,मैं कर देता हूँ,भला वहाँ कौन जाए।
'लेकिन सबको बाबू मोशाए जरूर बनना हैं।यह खाने-पीने की चीजें मुझे नही,इन गरीब बच्चों को दिया करें।,
"और हाँ,अकेली औरत जब अपनी घर-गृहस्थी सम्भाल सकती है,तो क्या अपनी काया को नही सम्भाल सकती है ?,मुझे उन औरतों की तरह मत समझना,जो पति के रहते दूसरे मर्दो को पसंद करती हैं।मैं आदर्शों पर चलने वाली भारतीय नारी हूँ।
"मुझ जैसी औरतों को कभी कमजोर मत समझना,औरत अकेली होकर और मजबूत हो जाती है,पुरूषों की तरह कमजोर नही होती है।इसलिए मुझे नही खुद को सम्भालने की जरूरत है।मेरी बात समझ में आ जाए तो ठीक है,नही तो अब अगली मीटिंग आपके घरवाली के साथ होगी।"
बर्थडे के दूसरे दिन शगुन जब आफिस पहुँचती है,तो उसे वहाँ सभ्यता और सौहार्द सा वातावरण महसूस होता है,इतने दिनों से जो आँखें उसके सिंदूर और मंगलसूत्र पर अटकी थीं,वो आज फाइल के पन्नों में उलझी हुई थीं।
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3. खुल जा सिम-सिम
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हे प्रभु,
"क्या यह भारत भूमि ही है...?"
"नही,ऐसा कैसे हो सकता है...!!"
"यहाँ की संस्कृति तो कुछ और ही थी,क्या अब यहाँ से वह विलुप्त हो गयी है...?"
"महात्मा विदूर जैसे मंत्री, कृपाचार्य जैसे राजगुरू, द्रोणाचार्य जैसे महारथी और भीष्म जैसे मार्गदर्शक' के रहते हुए भी हस्तिनापुर का सर्वनाश कैसे हो जाता है... ?"
"कैसे प्रभु, कैसे।"
"स्त्री हो या राष्ट्र की शान तिरंगा हो,इसकी बेइज्जती होने पर जो घाव होते हैं, उसके दाग सदियों तक मिटाए नही मिटते हैं।"
"प्रभु, आज तो न्यायालय भी पराए जैसा निर्णय सुनाता है, कि-"लड़की के विशेष अंग को वस्त्र के ऊपर से छूना,दुष्कर्म में नही आता है उसके लिए चमड़ी से चमड़ी का स्पर्श होना आवश्यक है।"
"हम औरतें अब कहाँ और किधर जाएं...? "
स्टेज पर कलाकार आकर अपनी-अपनी भूमिका निभाते जा रहे थे।
"वत्स,
अपने ज्ञान चक्षु खोल कर जीना सीखो, क्योंकि समय दुर्योधन के अहंकार की तरह ही आता है और उसके आगे जब स्वार्थी मन मौन रहते हैं,तब उस मौन की कीमतें ऐसे ही चुकानी पड़ती है।"
" जी प्रभु,
हमें भी इसकी कीमत आज इज्जत को नीलाम करके चुकानी पड़ रही है,ऐसा कहते ही जीवंत स्त्री का चेहरा यंत्रवत मशीन की तरह नीचे झुक जाता है और उसके मौन होंठ बोल उठते हैं-
'खुल जा सिमसिम"
ऐसा बोलते ही स्वचलित परदा हट जाता है और पर्दे के पीछे खड़ी जनता अपने हाथों में तख्तियां लिए नेता जी के साथ अधिकार जताने बाहर आकर खड़ी हो जाती है।' ****
4. केसरिया मिलन
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गगन के अपरिमित विस्तार में साँझ ढले का सिंदूरी रंग दूर-दूर तक छितरा कर निशा की आकुलता से प्रतीक्षा कर रहा था।
"नभ का प्रचंड यात्री 'सूरज' अपने ढलते रंग और शैथिल्यता के साथ अब निशा के स्यामल आगोश में समा जाना चाहता था।"
निशा का कायिक व्यक्तित्व निर्बल और कालिमा युक्त अवश्य है, लेकिन थकित श्रमित सूरज के लिए इस पल उसके आगोश का महत्व स्वयं की सुदीप्ति से कम नही है,इसलिए ही यह थका-हारा नभ यात्री हर साँझ अपने व्याकुल,बोझिल थके मन से निशा की आतुरता से प्रतीक्षा करता है और निशा के प्रेमोत्तप्त आलिंगन की नवल ऊर्जा से ऊर्जस्वित हो, यह पथिक पुन: भोर होते ही आगामी यात्रा पर निकल पड़ता है।
प्रभात और निशा के सामान्य सम्बन्ध नितान्त अन्तर्विरोधी होते हुए भी कुछ क्षणों के लिए मिश्रित हो एकसार हो जाते हैं और स्वयं को स्वयंभू समझने वाला सूरज का दर्प और अभिमान उसके पहलू में विलुप्त हो जाता है,शेष बचता है तो केवल पारस्परिक अकल्पनीय प्रेम।
"स्वर्गिक प्रीत की यह अद्भुत प्राकृतिक छटा,आत्मीय 'केसरिया मिलन' के उषाकाल में परिणत होकर सनातन सृष्टि का मंगल मुहूर्त बन जाता है और सृष्टि झोली में एक नये सृजन का वरदान दे जाती है।" ****
5. यादों की चादर
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आज वर्षों बाद भी ऐसा क्यों नही लगता है,कि यह बहुत पुरानी बात है,बल्कि कभी-कभी तो ऐसा क्षण आता है,जैसे वो कही आस-पास ही है।
क्या,रूह भी सब बातें याद रखती है,या फिर वह अपनों के आस पास ही घूमती रहती है,या फिर अपना मन ही उसके आस-पास घूमता रहता है ?
"नही,ऐसे कैसे हो सकता है,मैं तो अपने काम में दिन भर व्यस्त रहती हूँ और फिर थक कर सो जाती हूँ,तो फिर उन यादों को याद कब करती हूँ,मैं नही याद करती हूँ,मैं तो बहुत मजबूत औरत हूँ।"
इन बातों से मिष्ठी लगातार अपने अंदर बैठी उस औरत को समझाती जा रही थी,जो आज का दिन आते ही कमजोर होने लगती है और खुद को अकेले यादों के साथ रखने में ही अधिक खुश रहती है।
लेकिन फिर ऐसा क्या होता है,जब आज के दिन मिष्ठी नाम की यह महिला,किसी से भी मिलना नही चाहती है,जबकि आज के लिए तो लोग कितना धूम-धाम और खुशी मनाते हैं और मिष्ठी ठीक इसका उल्टा करती है।उसको आज लोगों की भीड़ सुकून देने की जगह,दुःखी करता है,शायद इसीलिए...! ?,
नही,वो तो अक्सर ही इस तरह के नकली लोगों के भीड़ से गुजरती रहती है,यह कोई नयी बात थोड़ी न है
नही,नही,यह सब कहाँ ?,उसे तो मुकेश की यादें ही तसल्ली देती हैं,सच में वो उसे कितना प्यार करता था,पहला जन्मदिन उसने लगातार तीन दिन तक मनाया था,उसका पक्ष लेने की वजह से वह परिवार में खुद बुरा बन जाता था।
मिष्ठी को खुश रखने लिए वह खुद को कितना बदल डाला था।
शायद इसलिए ही वो अपने जन्मदिन के अवसर पर ऐसा करती है और उसके यादों का सुनहरी चादर बना उसे ओढ़ अकेली ही खुश हो लेती है,क्योंकि उसको अपने अंदर के भादों से किसी और को रूबरू होने ही नही देना होता है।
अब सो भी जा मिष्ठी,बहुत रात हो गयी है,देख यह गाना भी तुझे यही समझा रहा है।
"जिंदगी के सफर में गुज़र जाते हैं,जो मकां वो फिर नही आते,अब तो तारीख भी बदल गयी है।" ****
6. जीने की राह
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दो प्यार भरे दिल रोशन हुए,लेकिन उनकी रातें बहुत अँधियारी थी।मिले और फिर मिलकर बिछड़ गये।
दिल की उस जगमगाती रोशनी को महुआ ने अपने काज़ल की कोर में छुपा लिया था,कि कहीं वक्त की नज़र न लग जाए,लेकिन लाख छुपने-छुपाने के बाद भी वक्त की नज़र तो लगनी ही थी।
आज कितना खुशनुमा मौसम है,ऐसा लगता है,जैसे सावन का यह सुहावना मौसम दिल पर डकैती ड़ालकर ही दम लेगा।
लेकिन महुआ भी कहाँ इतनी कमज़ोर थी।उसने झट नम्बर डायल कर कागज़ और कलम को अपने गिरफ्त में बुला लिया और भरी बरसात में झाँक-झाँक कर ढूँढ़ने लगी,कि इस सौतन बरसात की रिपोर्ट में क्या-क्या और शिकायतें लिखूँ....... ?,कि इस सावन के मौसम ने तो जीना ही मुश्किल कर दिया है।
"सन्न,सन्न,सन्न,सन्न,सन्न करती पवन ऐसे चल रही है,जैसे आगोश से चम्पई ऑचल को अपने साथ उड़ा ले जाएगी और उस पर से यह बारिश की बेशर्म बूँदें तो आज पूरी तरह से ही बेईमानी पर उतर आई हैं,टिप-टिप कर ऐसे छापें मार रहीं हैं,कि साँस तक लेना मुश्किल कर दिया है।"
'अभी आगे कुछ सोच ही रही थी,कि घुमड़ते हुए बादलों ने जैसे चुपके से आकर उसके कान में धीरे से कहा-
"ए सखी सुन,आज़ तू मेरे साथ चल,मुझे अपने संग ले ले,और चल हम दोनों पवन संग झूम-झूमकर गाएंगे-नाचेंगे।"
तभी बसंती हवाओं ने जैसे सूखे पत्तों पर ताल दी हो,और वह भी वीराने में खड़-खड़-खड़-खड़ाते बज उठे,उनके साथ झिंगूर के बोल ऐसे लगने लगे,जैसे झांझ,ढोल,करताल बजा जुगलबन्दी कर रहे हों।
बर्फ सी ठंडी हवाएं झूम-झूमकर लहराने लगी और बल-खाकर इठलाती हुई कहने लगी-
"देख सखी रंग-बिरंगे जो पुष्प तेरे बगिया में खिले हैं न,वह तुमको अपने सुगंधों से भरने को आतुर हो रहे हैं।
देख कितनी नर्म-नर्म मखमली हरी घास बिछी हुई हैं,जो तेरे चरणों को चूम रही हैं।
सखी तू उदास क्यों होती है ....... !!?,
हम सब तेरे ही संग-सखा हैं,हम सब भी तो सिर्फ़ इस दुनिया को कुछ रंग और संग देने ही आए हैं न।"
"देख,मौसम कितना सुहावन हो गया है,बाग-बगीचों के आँचल में खुशियां नही समा रही है,ऐसा लग रहा है,जैसे चारों तरह धरती हरी चुनर ओढ़ ली है। सावन की बदली के इस प्राकृतिक सौन्दर्य से प्रेम कर सखी और आज
इनसे ही अपना सोलह-श्रृंगार कर और बन जा तू भी दुल्हन। झूठा ही सही दो घड़ी तो तू भी जी ले,हम सब के संग-संग।" ****
7. तरंगित संवाद
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अगहन की ठंड में , सूरज की गर्मी से मन ही मन बातें करते हुए सेवानिवृत्त सेठ जी, अभी रिश्तों को लेकर कुछ यादें ताजा कर ही रहे थे कि अचानक फोन की घंटी घनघना उठी... .
"यह किसका नंबर है.. !!?,"
स्मृतियों पर जोर देते हुए हैलो किया, तो उधर से आने वाली आवाज़ ने ठंड से ठिठुरते हुए उनके कर्ण को अपनी स्वर की गर्मी से तृप्त कर दिया।
"हैलो, मामाजी, मैं रितेश बोल रहा हूँ। आज माँ की पुण्यतिथि है। मैं हवन करने के लिए बैठा हूँ, लेकिन कौन सा मंत्र पढूँ,यह मेरे समझ से बाहर है, प्लीज़ आप मुझे बताने की कृपा करें।"
"यह सुनते ही सेठ जी के शरीर का तापमान बढ़ गया और फूर्ती से उठकर बोले, बेटा तू ऐसा कर, मुझे वीडियो काल कर, मैं यहाँ से मंत्रोच्चारण करता हूँ, तू वहाँ हवन करता जा।"
" हवन समाप्त होते ही रितेश सबसे पहले अपने मामा का वही से चरण स्पर्श करता है और माफी माँगते हुए बोला- "मामा जी, मैं विदेश आकर अपने काम-काज में इतना मशगूल हो गया था, कि, पीछे पलटकर रिश्तों की तरफ देखा भी नही।
आज इतनी देर से परेशान होता रहा, तब जाकर आपका नंबर मिला और आपसे बात करके पूजन कार्य सम्पन्न हुआ,तब समझ आया कि विदेश में रिश्तों की कीमत पैसों से कहीं अधिक है।" ****
8. फैसला
******
"स्साला........।
आखिर तू अपनेआप को समझता क्या है,
औरत पैर की जूती है,जो पुरानी हो जाए तो उठाकर एक कोने में फेंक दिया,हम जैसी औरतों को तेरे जैसे दिल-दिमाग से बीमार मर्द भला क्या समझेंगे ? "
"तू औरतों को खिलौना समझता है न !,तो जा,जाकर खेल वैसी औरतों के साथ,मैं तुझे आजाद करती हूँ।जीवन भर धक्के खाकर,तिनका-तिनका जोड़ कर यह घर बनाई हूँ। लेकिन तूने इसे कभी घर समझा ही नही।अब मुझे भी ऐसा घर नही चाहिए,जिसकी ईंटें मुझे रोज नोचती हों।"
"इस रिश्ते को बचाए रखने के लिए,तेरे न जाने कितने ही सितम सहें हैं।इसलिए आज तेरी नज़रों में मैं बेचारी बनी हुई हूँ,क्योंकि तुझे खुश रखने के चक्कर में अपने मन में झांक कर नही देखा,कि हमारा मन भी मुझसे कुछ माँगता है।अपनी गृहस्थी को बचाने के लिए अपने अंदर उठते हुए बवंडर को पूरी ताकत से रोकती रही,लेकिन अब उथल-पुथल मचाते हुए अपने मन को कस कर बाँध लिया है।"
" ला दे,कहाँ और किस कागज पर हस्ताक्षर करना हे ?,तुझे मेरी ज़ुबान से अधिक इस काग़ज़ पर भरोसा है,तो ला दे,आज तुझे यह भी करके दिखाती हूँ।मत भूल की यह एक पतिव्रता औरत की ज़ुबान है,लेकिन इसके साथ ही कान में तेल डालकर तू मेरी भी शर्त सुन ले,कि वहाँ से मन भरने के बाद फिर पलट कर भी मेरे पास मत अइओ और दिमाग से यह बात भी निकाल दे,कि अब मैं फिर पलट तेरे दरवाजे पर कभी आऊंगी।"
'अरे हाँ, जा-जा,नहीं आऊंगा,बहुत देखी है तेरी जैसी औरते।'
"औरतों को तू पानी के ऊपर तैरता हुआ कचरा समझता है न !?,तो जिन्दगी में कभी उस पवित्र जल के अन्दर स्नान करके भी देखना,जीवन सार्थक हो जाएगा।बाजारू जल से जब तू सड़ेगा,तब तुझे घर का यह पवित्र जल याद आएगा।"
श्यामली बाहर बरामदे में पड़ी खाट पर लेटे-लेटे ही जागती आँखों से कोयले की तरह आज की स्याह रात काट दी और सुबह होते बिना पीछे देखे ही चुपचाप उठ कर अपने रास्ते पर चल दी। ****
9. दर्द भरी दरारें
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हे राम,तूने उसे मार दिया.......!!?
लडखडाती ज़ुबान के साथ ही सुगना ने अपने पति के हाथ से गड़ासा छीन अपने हाथ में ले लिया।
हाँ मार दिये,हाथ छोड़ और गड़ासा मुझे दे,नही तो तू अपराधी मानी जाएगी।
"हम साहुकार थे और साहुकार के तरह ही जीएंगे।चोरों की तरह मैं नही जी सकता,सो किस्सा ही खत्म कर दिया।
दोनों जार-जार रोते हुए बेसुध से अपने उस दिल के टुकड़े की तरफ टुकुर-टुकुर देखे जा रहे थे,जिसे बहुत अरमानों के साथ पाल-पोस कर बड़ा किए थेदद।वही आज कहीं मुँह दिखाने लायक नही छोड़ेगी,ऐसा तो कभी सपने में भी नही सोचे थे,तभी ठक-ठक-ठक बूटों की आवाज़ ने बाहर की तरफ देखने के लिए मजबूर कर दिया,नज़र उठाते ही खाकी वर्दी सामने खड़ी थी।
" साहब आप यहाँ बैठो,मै सब बताती हूँ।
हमार मर्द गलत नही है,
इसने तो अपने और मेरे पेट को काट-काट कर उसके हर सपने को पूरा किया था।जात-बिरादरी के मना करने पर भी इसे गाँव से निकाल कर शहर पढ़ने के लिए भेज दिया,ताकि हमें जो नही मिला,वो हमारी बेटी को मिले।कम से कम हमारी बेटी पढ़-लिख कर कुछ बन जाए।"
तो क्या तुम कानून को हाथ में ले लोगे ?,चलो उठो कहानी मत सुनाओ।
" साहब क्या करता ?, इसके सिवाय मेरे पास कोई रास्ता ही नही था।इसे जिन्दा रख कर भी तो मरना ही था।जात-बिरादरी वाले ताने मार-मार कर जीना मुश्किल कर देते।"
साहब माँ-बाप मेहनत मजदूरी करके अपनी संतानों को पालते-पोसते और उनके हर सपने को पूरा करते हैं,क्या इसलिए कि संतानें माँ-बाप के आँखों में धूल झोक कर इस हद तक गुलछर्रे उड़ानें,कि बिन ब्याही माँ बन जाएं ?,
"मैंने ,उसको सपने पूरे करने के लिए शहर भेजा था,न कि मेरे सपनों को तोड़ने के लिए।"
" साहब,
कोठियों में खिड़कियाँ होती हैं,उन पर रेशमी पर्दे पड़े होते हैं,लेकिन झोपड़ियों में तो सिर्फ दरारें ही होती हैं,उन दरारों की घुटन से तो यह हथकड़ी भली।" ****
10.क्या कहेंगे लोग
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"आज अच्छी बातें और आदर्श तो सिर्फ़ किताबों तक ही सीमित रह गयीं हैं,जिसे देखो वही समय के साथ भागे जा रहा है।
रूकना, सोचना और पीछे मुड़कर तो कोई देखना ही नही चाहता है।"
"पूरा जीवन यूँ ही गुजर जाता है, कि क्या कहेंगे लोग।"
"वो लोग रहते कहाँ हैं, कौन होते हैं वो लोग...?"
"कहाँ से आते हैं वो लोग, जब पूछो तो सब मौन हो जाते हैं।"
" क्या ए लोग बंद दरवाजों के अन्दर सि-सकती आवाज़ों पर भी कभी बोलते हैं...?"
" कभी नही न,हाँ दूसरों के झरोखों में झांकने के लिए अपनी कैंची की धार जरूर तेज करते रहते हैं।"
"वो चुपचाप बैठी है,इसका मतलब यह तो नही, कि वह गलत ही है,रास्ते की गर्द से उसकी ओढ़नी जरूर मैली हो गयी है,लेकिन उसके आँचल में दाग का एक छोटा निशान भी नही है।"
" तो फिर इन अप्रत्यक्ष लोगों की चिन्ता क्यों...?"
"कटाक्ष है, तुम्हारे उन लोगों पर जो आधुनिकता की खोल में आज भी वही अटके हैं।"
"कभी धर्म, कभी सम्प्रदाय तो कभी रीति-रिवाजों के नाम पर 'लोगों' के बहाने खुद के बुद्धि-विवेक को ही बाँधे रखते हैं।"
"हाँ भाई हाँ, सही है।"
"जिस दिन हम सब स्वयं के अंदर से 'लोगों' के कहने का भय निकाल देंगे,उस दिन से ही जिन्दगी की अंधेरी रात में भी एक स्वस्थ भोर उदय हो जाएगी।
अब कैंची हमें खुद के दिग्भ्रमित सोच पर चलानी होगी।
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11. प्यार का वायरस
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मेहमानों को विदा कर,भूमि और आकाश भी अपने हनीमून के लिए निकल गये।चाँद-सितारे,झील-समुंद्र से रूबरू होते हुए कब समय निकल गया,पता ही नही चला।
आज वेलेंटाइन डे के मौके पर इन वादियों से रूख़सत होने का दिन भी आ गया,दोनों बहुत खुश थे,कि अपने सपनों के महल में आज का दिन बिताएंगे।अच्छा हुआ जो हम लोग शिपिंग मोह खत्म कर,इधर का प्लान बना लिए थे।
"देखो न,संक्रामित रोग के भय से कोई भी देश,उस जहाज को अपने तट पर रूकने ही नही दे रहा है,और वही का रखा भोजन खाना पड़ता।"
"यह वायरस भी कितना भयंकर होता है न,
इतना सूक्ष्म होते हुए भी बड़े-बड़े प्राणियों को लील लेता है।शहर का शहर चट कर खत्म कर देता है।अब उन मांसाहारियों को पता चलेगा,जो दूसरे जीव को जीव नही समझते हैं।"
"हाँ भूमि,कोई सा भी वायरस हो,ऐसा ही होता है।
चाहे वह प्रेम का हो,घृणा का हो या संक्रमण का हो।"
'चाँदनी रात में अपने चाँद को निहारते और उसकी जुल्फों से खेलते हुए, देखो न मेरे प्यार के वायरस को,जो तुम पर अटैक करके,तुम्हारे दिल-दिमाग पर पूरी तरह से कब्जा कर लिया,और आज तुम उससे घायल हो मेरी बाहों में हो,गिफ्ट के रैपर को फूल की तरह आहिस्ता-आहिस्ता खोलते हुए आकाश ने बहुत ही मधुर स्वर में कहा।,
'सही कह रहे हो।
उसी प्यार के संक्रमण से तुम्हारी दंभ से भरी टेढ़ी-मेढ़ी सोच वाली नाक और भोंपू जैसी रूखी आवाज़ अब एकदम सही हो गयी।जिसकी वजह से तुम भी आज इतनी मधुर स्वर में बोलना सीख गये हो,नीली आँखों वाली शरारती भूमि ने अपने बालों में बचे हुए जल की शीतल बूँदों को आकाश के ऊपर छिड़कते हुए बोली।,
"दोनों एक-दूसरे की तरफ इस मधुर अंदाज से देख रहे थे,जैसे एक-दूसरे के बीमारी को जड़ से पकड़ लिए हों,जिसका इलाज सिर्फ़ प्रेम था।" ****
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क्रमांक - 023
साहित्यिक उपनाम : -डॉ अरविंद श्रीवास्तव 'असीम'
साहित्य सेवा-
हिंदी व अंग्रेजी में लिखित व संपादित पुस्तकें, गाईड्स व सीरीज 106 से अधिक ,बच्चों के लिए विद्यालय हेतु कई नाटकों का लेखन
सम्पादन : पत्रिकाओं का संपादन-4 मासिक, अर्धवार्षिक,वार्षिक पत्रिकाएं
अभिनय: डाॅक्यूमेंट्री फिल्म 'बिटिया रानी ' में महत्वपूर्ण भूमिका ,कई नाटकों में विद्यालय स्तर पर अभिनय
आकाशवाणी के तीन केंद्रों से संबद्धता-कहानी वाचन,आलेख वाचन,काव्य पाठ
वीडियो एल्बम-आज का वातावरण, प्रेम के रंग (काव्य पाठ)-इंदौर व मुंबई से निर्गत
सम्मान :
विदेश में : (मास्को रूस, काठमांडू तथा म्यान्मार बर्मा में) 7 सम्मान
देश में : लोकसभा अध्यक्ष श्री* *ओमकृष्ण बिरला जी द्वारा 'साहित्य श्री ' सम्मान सहित 140 से अधिक* सम्मान ।
महत्वपूर्ण दायित्व-
अध्यक्ष-एकल अभियान परिषद जिला-दतिया, संरक्षक-संस्कार भारती जिला-दतिया, संयोजक-मगसम दतिया जिला,*
एवं लगभग 7 अन्य साहित्यिक व समाज सेवा से संबंधित संस्थाओं में राज्य व जिला स्तरीय शीर्ष पदभार ।
विशेष-जून 2018 में मास्को में 2पुस्तकों का विमोचन ,जनवरी 2020 में 3 पुस्तकों का विमोचन रंगून (बर्मा)में सम्पन्न ।
पता : 150 छोटा बाजार दतिया - मध्यप्रदेश 475661
जन्म : 15 अक्टूबर, शाहजहांपुर - उत्तर प्रदेश
शिक्षा- एम. ए. (हिंदी , संस्कृत), बी.एड., पीएच.डी.
सम्प्रति- स्वतंत्र लेखन व प्रध्यापिका : स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बरखेड़ा, पीलीभीत - उत्तर प्रदेश
विधाएंँ- लघुकथा, कहानी,साझा उपन्यास,(आइना सच नहीं बोलता), कविताएंँ (छंद मुक्त), रेखाचित्र, संस्मरण, यात्रावृत्त , डायरी, रिपोर्ताज,आलेख,पत्र, समीक्षा आदि।
पुस्तकें : -
- 'राजा नंगा है' (ई बुक संग्रह)2016
- 'ततःकिम' लघुकथा संग्रह, (माननीय राज्यपाल श्री राम नाइक के कर कमलों द्वारा लोकार्पित)2016
- 'अंधेरा उबालना है' लघुकथा संग्रह 2020
सम्पादन : -
काफी हाउस किताब (विविध विधा रचना संग्रह)
साँझा संकलन-
श्रेष्ठ काव्य माला,
मुट्ठी भर अक्षर,
बूंद बूंद सागर,
लघुकथा अनवरत,
क्षितिज अपने अपने,
पड़ाव और पड़ताल (खण्ड 26),
नई सदी की धमक,
आस-पास से गुजरते हुए,
समकालीन प्रेम विषयक लघुकथाएं,
गहरे पानी पैठ,
मास्टर स्ट्रोक,
हमारा साहित्य (जे ऐंड के एकैडमी आॅफ आर्ट कल्चर एंड लैंग्विज आॅफ जम्मू )आदि।
सम्मान : -
- दिशा प्रकाशन द्वारा दिशा सम्मान,
- हिंदी चेतना पत्रिका कनाडा द्वारा हिंदी चेतना सम्मान
- प्रतिलिपि पत्र सम्मान 2016
- शब्दनिष्ठा समीक्षा सम्मान 2020
विशेष : -
- अविराम साहित्यिकी (त्रैमासिक पत्रिका) का सम्पादन
- समीक्षा कार्य पड़ाव और पड़ताल (खण्ड 28,सीमा जैन की ग्यारह लघुकथाएं एवं सम्पूर्ण खण्ड 9)
पता : डाॅ सन्ध्या तिवारी , पत्नी श्री राजेश तिवारी
38, बेनी चौधरी, निकट वाटर वर्क्स ,
पीलीभीत, 262001- उत्तर प्रदेश
1. सदाबहार
********
जाने किस ताने-बाने में उलझी, मैं अपनी खिड़की पर खड़ी थी।
इतने में मैंने देखा - एक सदाबहार का पौधा जो कि खिड़की की चौखट और दीवार की संद से निकल कर लहलहा रहा था ।
उसके हरे चिकने पत्ते प्याजी रँग के फूल मुझे अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे, लेकिन दीवार में बरसात का पानी मरेगा , यह सोच कर मैंने उखाड़ने के लिये हाथ बढ़ाया ही था, कि नीचे गली से आवाज आई-
"पौधे ले लो, पौधे"
मैंने देखा- ठेले पर देसी गुलाब, इंगलिश गुलाब ,बोगन बेलिया ,एरोकेरिया, पाम की विभिन्न किस्में रखी थी।
ये इंगलिश गुलाब कैसे दिया?
"सौ रुपये का।"
"हूँऽऽ !और ये देसी वाला?" मैंने पूछा?"
"सत्तर का ।"
"बडा मंहगा बता रहे हो। इसमें करना ही क्या होता है, केवल कलम ही तो लगानी होती है।"
मैंने धौंस जमाते हुये कहा-
" हाँ लेकिन इतने दिन इसकी परवरिश खाद-पानी, देख-रेख ,सुबह-शाम सींचना इसका कुछ नहीं।"
मैंने हँसते हुये कहा ; "अच्छा तो तू बेटे का बाप है.... ।"
"और मैं अनचाही बेटी...।
जिसे बोने से सींचने तक तुमने कुछ नहीं किया...हाँ आज उखाड़ कर फेंक जरूर रही हो...।"
फुसफुसाहट सदाबहार की थी...।
मेरा चेहरा पीला पड़ गया। ****
2. छिन्नमस्ता
********
मेरा इकलौता कमरा जो दिन में ड्राइंग रूम और पूजा गृह बन जाता, रात में बेड रूम मे तब्दील हो जाता है।
सामने की दीवार पर छिन्नमस्ता माता का एक चित्र जो पलँग के सामने की दीवार पर लगा है और मैं उसे प्रतिदिन देखती हूँ । उस चित्र में देवी अपना ही सिर काट कर अपना ही रक्त पीतीं हैं मुझे हमेशा अचम्भित और सशंकित करता । देवी माँ के और रूपों की तरह मैं कभी उसे आत्मसात नहीं कर पाती।
चौथा महीना पूरा होने को है, आज मुझे अल्ट्रा साउण्ड कराने जाना है, मन बहुत बैचैन और भारी है, शंकाओ के नाग फूत्कार रहें हैं, कहीं पिछली बार की तरह न हो ,भगवान ।
चार महीने देवी-देवता मनाना, शिवलिंगी के बीज खाना , सिद्ध स्थानों पर मनौती मानना ,पीर फकीरों के द्वार माथा रगड़ना। एक झटके में सोनोग्राफी मशीन निश्फल कर देती है।
हे प्रभु ! इस बार ऐसा न करना।
अन्दर से जी अकुला रहा है जैसे बाघ को सामने देख बकरे का हाल होता है ठीक वैसा ही हाल अल्ट्रा साउण्ड कक्ष में जाते मेरा हो रहा था। सास ननद पति किसी को मुझ पर तरस नहीं आ रहा ।
' सब गर्भस्थ शिशु नर है' की ध्वनि श्रवण को उत्सुक मुझ बेचारी के हाल से सर्वथा अनभिज्ञ अथवा अनभिज्ञता का ढोंग कर रहे थे। मुझे ठीक से पता नहीं।
और बस अभी अभी अजन्मे पर दूसरी अजन्मी को वार कर वापस आयी हूँ ।
आज पहली बार दीवार पर टँगी छिन्नमस्ता की तस्वीर को देख कर बहुत कुछ उमड़ पड़ा।
मैं भी तो बार बार आपने ही हाथों अपना सिर काट कर अपना रक्तपान कर रही हूँ।
कहीं गहरे तक छिन्नमस्ता मुझ में समा गयीं। ****
3. साँकल
*****
पिछले दो सालों से साथ पढ़ती पायल और पूर्वी अब तक फास्ट फ्रैन्ड बन चुकी थी , लेकिन पायल घर कम ही आती और आती तो बाहर वाले कमरे तक।
मम्मी ईशान कोण में बने पूजा गृह के समक्ष ऊन से बने धवल आसन पर बैठ चुकी थी। कितनी पवित्र लग रही थी खुले गीले बालो में । मानो केशों से पानी के मोती टपक रहे हों ।
मम्मी 'आदित्य ह्दय स्तोत्र' पाठ के लिये आचमन कर चुकी थीं अब तो वह बोलेंगी नहीं, जब तक "ऊँ अस्य श्री बाल्मीके रामायणे आदित्य ह्दय स्तोत्र ॐ तत्सत् " नहीं कह लेती ।
मन ही मन सोचती पूर्वी ने धीरे से कार्ड मम्मी के पास रख दिया और खुद काम में लग गई।
"किसका कार्ड है यह, और यहाँ किसने रखा ? "
कार्ड पर नज़रें गड़ाए मम्मी गुस्से से उबल रहीं थी।
" मम्मी पायल के भाई की शादी है , और वही कार्ड दे गयी ।
आप कार्ड पूजा से उठते ही देख लो , इसलिए मैंने ही रख दिया। क्या कुछ गलत हुआ ?"
पूर्वी ने सहमते हुये पूछा।
" हे भगवान ! धरम भ्रष्ट कर दिया पूर्वी तूने। एक ब्राह्मण के यहाँ जन्म लेके एक वाल्मीकि से दोस्ती । तुझे कोई और सहेली नहीं मिली । देख कार्ड पर बाकायदा पायल के भाई के नाम के आगे बाल्मीकी लिखा है । ये लड़की न...........आगे से तुम्हारी पायल से दोस्ती ख़त्म और हाँ कार्ड कूडेदान में डालकर नहाओ । और मैंने भी तो कार्ड छू लिया है मुझे भी अब दोबारा नहाना पड़ेगा। उं ..हूँ..."
"लेकिन मम्मी आप तो रोज़ ही वाल्मीकि का लिखा स्तोत्र पढ़ कर पुण्यार्जन करती हो और पवित्र होती हो । तो फिर ...." पूर्वी ने डरते-डरते कहा
चोऽऽऽप्प ।मम्मी की धारदार आवाज रीढ़ की हड्डी चीर गई। ****
4. काला फागुन
**********
मौसम की अंगनाई में बसन्त दस्तक दे रहा था ।टेसू फूल उठे थे।फागुनाहट के जादू से बंधे चिरइया-चुरुगुनी बौराये फिर रहे थे, तो उसकी कौन बिसात।
आखिर उसकी देह की देहरी पर भी तो बसन्त कब से सिर पटक रहा था, लेकिन वह थी , कि लोक लाज के भय से द्वार ही नहीं खोल रही, लेकिन फागुन की ऊभ-चूभ ने ऐसा षड़यन्त्र रचा कि वह सुध-बुध खो बैठी।
उसका सारा वज़ूद 'मन-मिर्ज़ा तन-साहिबा' हो उठा ।
'तन साहिबा' गुलाल भरी मुठ्ठियाँ लिये
उसके दरवज्जे उझकी,
मन ही मन हुलस कर उसने अपने
'मन मिर्ज़ा ' को रंग दिया ,लेकिन दरवज्जे के भीतर केवल मिर्जा ही न था ,एक पूरी दुनिया थी , दक़ियानूसी दुनिया । जिसने देखा एक लड़की को एक लड़के पर रंग ड़ालते हुये।दुनिया ने लड़के को मर्द होने के लिये धिक्कारा--
" ...अरे ! कैसा मर्द है रे तू , लानत है तुझ पर। वह तुझे रंग गई और तू बैठा-बैठा देखता रहा " क्यों रे तूने क्या चूड़ियाँ पहन रखी है ... एक लड़की की इतनी हिम्मत....लड़की है , तो लड़की की तरह रहे...अपनी बहनों ,
भाभियों, सहेलियों से खेले न कि लड़को से रंग खेलेगी...अब तो इस दुस्साहसी लड़की के गालों पर गाढ़ा लाल 'पोटास ' लगना ही चाहिये ।आखिर उसे तो भी याद रहे ' आग से खेलने' का नतीजा..."
'पोटास' और साबुन का ऐसा केमिकल रियेक्शन कि पूरा चेहरा झुलस गया ।
साथ ही झुलस गया उसका फागुन ।सूख गये टेसू । आ गया पतझड़। खो गया मिर्ज़ा, मिट गयी साहिबा
कोई दुनिया का सदक़ा तो उतारो....। ****
5. हूक
****
बहू शालू ने पानी का ग्लास हाथ में पकड़ाते हुये कहा ; "माँजी इतनी सर्दी में इतना ठंडा पानी क्यों पीतीं हैं , आपकी तबीयत खराब हो जायेगी ।"
" इति एक ही साँस में पूरा पानी हलक़ में उड़ेल कर बोली ; " नहीं नहीं , मुझे कुछ नहीं होगा तुम चिन्ता न करो ," कहते हुये उसने नज़रे झुका लीं ।"
"माँ पिछले दो सालों से ठंडा पानी ही पीती है। " शून्य में नज़रे गड़ाए इति के छोटे बेटे प्रियम ने अपनी नवोढ़ा पत्नी को बताया।
"माँ पेट में बहुत जलन पड़ रही है ।मुझे बचा लो। मैं आपसे बहुत प्यार करता हूँ। और सोनिया से भी , लेकिन आपने कहा अगर मैं सोनिया से शादी करूँगा तो आप अपनी जान दे देंगी , लीजिये मैं ही जान दे रहा हूँ । आप और आपकी इज्जत सदा बनी रहे ।
पेट में बहुत जलन पड़ रही है। बर्फ का ठंडा पानी पिला दो माँ....प्लीज़ माँ...
आपको मेरी कसम.....माँ ..ऽऽ."
इति हड़बड़ा कर उठ बैठी।जैसे उसे चाबुक पड़ा हो, और किसी ने उसका मुँह भींच दिया हो ।गूँ गूँ की घुटी हुई आवाज के साथ रात के अन्धेरे में आँखे फाड़े कुछ खोजती हुई सी उसने अंजुरी भर-भर बर्फ का पानी ऐसे पिया जैसे अपने बड़े लाड़ले की अतृप्त आत्मा को जलदान कर रही हो । ****
6. पति पत्नी और वह
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रात के ग्यारह बज चुके थे , अपने इर्द गिर्द रजाई लपेटे नाक पर ऐनक चढ़ाये उसकी अँगुलियाँ सलाइयों पर सरपट दौड़ रही थीं । तनिक देर में सौ डेढ़ सौ फंदे इधर से उधर सरकते जा रहे थे ।लेकिन बीच बीच में एक चुहिया की भाग- दौड़ उसकी एकाग्रता रह-रह कर भंग कर रही थी।
चार दिन से चूहे दान कोने में बैठा उसके फंसने की प्रतीक्षा में मुँह बाये उसे अपने दांये बायें से कन्नी काटते हुये देखता रहता। साथ में वह भी ।
" अब सो भी जाओ ,क्या आज रात ही यह स्वेटर पूरा करना है ।" पति ने टोहका दिया।
" एक तो यह चुहिया नाक में दम करे है, दूसरे आप है , कि मेरी सुनते नहीं। मैंने आपसे कितनी बार कहा , कि चूहे मार दवा ला दो , लेकिन आपको तो सारे चूहे - 'गणेश जी का वाहन ' ही नज़र आते हैं , अरे ! मैं कहती हूँ, जितने चूहे 'रैट किल' से मरें सब का सब पाप मुझे चढ़ा देना , मैं भुगत लूँगी , लेकिन इनसे छुटकारा दिलाओ।"
कई दिन से चूहों से परेशान और खिसिआई पत्नी का लहज़ा तल्ख़ हो उठा।
भुनभुनाते पति ने रजाई सिर तक खींच ली । पाँच मिनट बाद ही कमरा खर्राटे से गुंजायमान था।
पत्नी ने भी स्वेटर सलाई एक तरफ रखी और रजाई में दुबक गयी ।
पहली नींद का झोंका आया ही था , कि खटाक् की तेज आवाज कमरे में गूँज गयी। " अजी सुनते हो, कुछ खट्ट से हुआ।" अधनींदी पत्नी , पति से बोली
" अऐं क्या कहा ? " पति भी सोते सोते बड़बड़या
" कुछ खट्ट से हुआ, " पत्नी ने फिर बात दोहराई
"अरे ! चुहिया फँसी होगी। मैं अभी बाहर आँगन में चूहेदान रख देता हूँ, सुबह बग्गर में छोड़ दूँगा।"
" हाँ ठीक है , लेकिन सुनो, बाहर आँगन में रखोगे , तो सुबह तक ठंड में ऐंठ जायेगी । ऐसा करना चूहेदान गैलरी में रख देना और उसके ऊपर कोई कपड़ा ओढ़ा देना।"
अधनींदी पत्नी नींद में बड़बड़ायी । ***
7. स्टैचू N ओवर
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" क्यों , तुम तो कहतीं थीं , कि काली साड़ी तुम्हे पसन्द नहीं और आज तो तुमने काली साड़ी ही पहनी है "
सीमा की सहेली अपूर्वा ने कटाक्ष किया
" अरे ! यार , क्या बताऊँ , लेने तो गयी थी दूसरे रंग की साड़ी , लेकिन दुकानदार ने कहा भाभी जी आपकी च्वाइस डिफ्रेन्ट है ,आप यह काली साड़ी लेकर जाइये आप पर बहुत फबेगी ।
मेरे न, न कहने के बावजूद उसने यह साड़ी मुझे थमा ही दी। "
सीमा ने हंँसते हुए उसे बताया
"अच्छा तो दुकानदार का दिल आ गया तुझ पर । देख रहे है न भाई साहब आप इसके लच्छन । "
सीमा के पास ही खड़े उसके पति को देखते हुए अपूर्वा ने बनावटी गुस्से से कहा।
" हाय राम ! तूने तो मेरी औकात ही गिरा दी , कुछ तो सोच समझ के बोला कर।" सीमा ने हंँसते हुए अपूर्वा को टोका
" आज तो बच्चू , भाई साहब तेरी अच्छी क्लास लेंगें ।"
अपूर्वा एक आँख दबा कर खास अंदाज़ में हंँस पड़ी
सीमा के पति तब तक बाइक स्टार्ट कर चुके थे सो वह बाइक पर बैठ कर अपूर्वा को हाथ हिलाती हुई चल पड़ी।
बात वहीं खत्म हो जानी थी ,
लेकिन सीमा , अपूर्वा द्वारा निर्मित दुकानदार के किरदार से जनमानस में पैठे लोकगीतों के किरदारों में उतर गयी,
वही माली ,धोबी,कहार, सास , ससुर, पति ,बच्चे ,सौत , यार ___ बस इन्हीं बिन्दुओं पर आकर आदिमानवियों से लेकर तथाकथित आधुनिक मानवियों तक की सोच को स्त्री की नियति ने स्टैचू कह दिया है
क्या नियन्ता कभी कहेगा गेम ओवर ? ****
8.आखेट
*****
"मम्मी , इडली बना दो ।"
" सुम्मी ,आज शाम खाने में शाही पनीर और नान बनाना ।"
" बहु बहुत दिन हो गये, तुमने मिजनी नहीं बनाई ।"
"भाभी , तुम्हारे हाथ का गाजर का हलवा नहीं खाया, कब खिला रही हो?"
"बहू जी , अब के बहुत दिन हो गये कछु दओ नहीं तुमने ।"
तुमने यह नहीं किया तुमने वह नहीं किया।
अनेक आखेटक एक आखेट।
घरवालों और कामकाजी लोगों की भाषा में यह ऊल-जलूल विचार हैं, सो इन्हें साड़ी पर लगी धूल सा झटक कर जल्दी जल्दी काॅपी चेक करने सेंटर की ओर लपक चली।
काॅपी चेक करने वाले ग्रुप में कुछ पांचेक लोग थे , पैंतीस से पैंसठ बरस के बीच के अध्यापक और एक वह खुद ।
"हमारे साथ जिन मैडम ने पिछले साल काॅपी जांँची थी , वह हम सबके लिये अपने घर से मिर्च के पकौड़े , धनिये की चटनी कभी हलवा कभी पोहा आदि लातीं थी , आप भी कभी लाया करो ।हम लोग भी आप के हाथ का कुछ खाकर धन्य हो जायें।"
पैंसठ साल के बुजुर्ग मास्टर ने साथ काॅपी जांँच रहीं सुम्मी की ओर ऐनक के ऊपर से झांँकते हुए जुमला उछाला। बाकी अध्यापक भी सुम्मी की ओर अपनी खीसें निपोरते हुए उन अध्यापक महोदय के पक्ष में मूक सहमति दे रहे थे।
सुम्मी कुछ ठिठकी फिर पूर्ववत् काॅपी जांँचने में तत्पर हो गयी। करूण रस तो उस पर सुबह से ही सवार था, अध्यापक महोदय की बात सुन रौद्र रस हाॅवी होने लगा ।
उफ्फ ! यहाँ भी आदर के आवरण में लम्पट अपेक्षा ।
एक औरत से समाज को कितनी अपेक्षायें है ? भन्ना गया था सुम्मी का दिमाग ।परन्तु प्रत्यक्षतः संयत स्वर में बोली ;
" ठीक है सर , मै भाभी जी( आपकी धर्मपत्नी ) को फोन कर दूँगी, वह आपके पसन्द की चीजें बना कर आपको खिलायेंगी ।"
उसकी बात सुन बुजुर्ग मास्टर साहब कुछ ढिठाई से बोले; " भई हमारी बीबी तो परलोक सिधार गयी हैं इसलिये..."
" तो बहू तो होगी ही न सर"
सुम्मी सुलगते स्वर को चाशनी में लपेट कर बोली
कहने को तो सुम्मी ने कह दिया , लेकिन उसका दिल कचोट उठा कि उसने भी तो एक औरत का ही शिकार किया है...। *****
9. एनेस्थिसिया
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"नाथ , कुछ कीजिये , मैं अपनी संतानो की हत्या नहीं देख सकती ।"
वसुदेव ने देवकी को सम्भालते हुये कहा ; " धैर्य रखो देवि ,जल्द ही कृष्ण का आविर्भाव होगा , और...."
" और क्या ....? तब तक हम यूँ ही अपनी संतानो की हत्या देखते रहें ।"
देवकी तड़प उठी ।
" ये , उठो , चलो , तुम्हारा मरद बाहर बैठा है । ठीक से खड़ी रहो , नाटक नको। रोज रोज पेट लेके इधर आता फेर नाटक करता ।"
प्राइवेट हाॅस्पिटल की नर्स कम आया ने बड़बड़ाते हुये , उसकी बाजू पकड़ कर लगभग कठोर उदासीन भाव से घसीटते हुए डाॅक्टर के सामने बैठे पति के पास की कुर्सी पर बैठा दिया ।
" अपने माँ बाप की खुशी के लिये कितनी बार एवार्शन करवाओगे मिस्टर शर्मा ? यह चौथा एवार्शन है ।बार- बार ऐसा करने से शरीर में कई रोग हो जाते है एक लड़के के लिये और कितने ? खैर.....अब फिर ऐसा मत करना ।
देवकी ठीक हो ? देवकी बोलो , ठीक हो? " डाॅक्टर ने आगे झुकते हुये उसकी आँखों में झाँक कर पूछा
.....
"देवकी क्या सोच रही हो ? "
.......
"देवकी......बोलो न क्या सोच रही हो ? डाकसाब क्या पूछ रहीं हैं ,जवाब दो ।"
पास बैठे पति ने देवकी को लगभग झकझोरते हुये कहा
" .....मैं सोच रही हूँ , कि कृष्ण के पैदा होने से पहले , वसुदेव ने क्या अपनी किसी संतान के लिये कंस का विरोध नहीं किया ?
क्या उसमें इतना साहस भी नहीं था ?
वह क्या केवल सम्भोग के लिये मर्द था ।"
......अभी शायद एनेस्थीसिया का असर उतरा नहीं है इसलिए यह बड़बड़ा रहीं हैं, शर्मा जी आप इन्हें घर ले जाइये शाम तक ठीक हो जायेंगी ।
यह डाक्टर और शर्मा जी की सम्मिलित राय थी। ****
10. लेकिन मैं शिव कहांँ
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किस्मत के कछुये की पीठ पर रखा, मन का मंदराचल, विवाह के वासुकी से जीवन समुद्र मथा जा रहा था ।
एक सिरे पर मैं थी अकेली ,एक पर पति और सगी बहन ।शेष सभी 'दर्शक देवता'।
मंथन दस साल से चल रहा था।
मंथन से और कुछ तो नहीं, समय-समय पर कालकूट अवश्य ही निकलता रहता था ।
आज चाची सास, ताई सास, सभी ननदें बैठक में जमा थीं ।
सब मेहमान थे, मैं मेज़बान ।
कालकूट मुट्ठी में भर-भर ,
किस्मत उस बैठक में छीटें उड़ा रही थी।
इसी बीच चाय पीती मेरी सास मेरी बहन का नाम लेकर चाची सास से बोलीं; "सुधा ने कई—‘अम्मा, अगर हम तुम्हाई दुसरी बहू बनि के आइ जाईं ,
तउ तुमै तौ कोई इतराज नाईं,’ तउ हमने तो कए दई—‘हमै का इतराज, हमैं तो दुई रोटी चइये,
चाए तुम देउ,
चाए तुम्हाई बहिनी ।’’
समवेत सकारात्मक हंँसी कालकूट की तेजाबी गंध-सी मेरे नथुनों, नेत्रों, कानों और रोम-छिद्रों में आ घुसी थी।
…और इस बार किस्मत ने कालकूट-विषभरी अंजुली ही मेरे होठों से लगा दी ।
लेकिन मैं शिव .... ! ****
11. उगता सूरज
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उसे अपने माही सरीखे लम्बे बालों से बड़ा प्यार था।
आज उसका आईआईटी का रिजल्ट आया था। आईआईटी में सेलेक्ट होने की खुशी में नाते रिश्तेदारों के फोन अड़ोसी पड़ोसी का घर आना जाना लगा हुआ था।
वह झटके से अपने लम्बे बालों को पीछे फेंक कर सभी का अभिवादन कर रहा और बधाइयाँ ले रहा था।
तभी उसे किसी ने दरवाजे के बाहर से पुकारा।
दरवाजे पर उसके कालेज के प्रिंसिपल और मैनेजिंग डायरेक्टर खड़े थे।
उन्हें देखते हुए एक पल को उसका मन कौंध कर आज से दो महीने पीछे चला गया।
हाईस्कूल के बाद ही आईआईटी की तैयारी के लिए उसे कोटा जाना था लेकिन आईआईटी के लिए इन्टर भी पास करना जरूरी था।
इन्टर करने के लिए उसने अपने शहर के एक इन्टर कालेज में डमी स्ट्यूडेंट के बतौर एडमीशन ले लिया था। जहाँ पूरे साल बिना उपस्थित हुए केवल स्कूल की फीस भरकर एक्जाम दिया जा सकता था।
इन्टर, सेकेण्ड इयर में इत्फाक़न वह अपने शहर में था। जब उसकी फेयर वेल पार्टी थी।
डमी स्ट्यूडेंट है तो क्या?है तो इसी कालेज का- सोच कर उसने शेरवानी पहनी अपनी लम्बी जुल्फ़ों को सँवारा और पार्टी में पहुँच गया।
प्रिंसिपल और सारे टीचर उसके इस रूप को देखकर हिल गये। उन्हें लगा यदि यह लड़का यहाँ ज़्यादा देर ठहरा तो उनके कालेज के लड़के बागी हो जायेंगे। लड़कियाँ बिगड़ जायेंगी। संस्कार और संस्कृति का क्या होगा? "बाल कटा कर सभ्य तरीके से स्कूल आओ।"
उन्होंने उसे यह कह कर स्कूल से खदेड़ दिया।
"हेलो! दीपक कहाँ खो गए?"
प्रिंसिपल साहब की आवाज और उनका हाथ मिलाने के लिए बढ़ा हाथ देख-सुन वह वर्तमान में लौट आया।
"जी.. सर.., मैं.. यहीं .. हूँ।"
कहकर उसने गर्मजोशी से हाथ मिलाया और उन्हें घर के अँदर ले गया।
मैनेजिंग डायरेक्टर और प्रिंसिपल साहब दोनों उसे बधाई देते हुए बोले
" दीपक, तुम्हारा एक लेटेस्ट फोटो चाहिए काॅलेज फ्लैक्सी के लिए।"
"लेकिन सर मेरे जो भी फोटो है बड़े बालों में ही हैं।" दीपक ने कहा
हें...हें...हें... कोई बात नहीं दीपक... तुम तो हमारे कालेज के... स्टार स्ट्यूडेंट...। ****
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क्रमांक - 025
जन्म : 6 अक्टूबर 1950 , बांँसवाड़ा -राजस्थान
शिक्षा : बी. एससी., एम ए (अर्थशास्त्र ,हिंदी ) , CAIIB
संप्रति : पूर्व बैंक अधिकारी SBBJ .BANK, वर्तमान में स्वतंत्र लेखन
प्रकाशित कृतियाँ : -
सुनो पार्थ ( काव्य संग्रह )
अपना अपना आकाश ( कहानी संग्रह )
कामाख्या और अन्य कहानियाँ ( कहानी संग्रह )
टापरा व अन्य कहानियाँ ( कहानी संग्रह )
पीर परबत-सी (उपन्यास)
फुलवारी (बाल कहानियाँ)
तूणीर के तीर (व्यंग्य संग्रह)
सम्मान एवं पुरस्कार : -
- साप्ताहिक हिंदुस्तान काव्य पुरस्कार - 1984 दिल्ली
- साहित्य गुंजन सम्मान - इंदौर
- साहित्य समर्था श्रेष्ठ कथा के अन्तर्गत सम्मान -जयपुर
- शब्द निष्ठा लघुकथा अजमेर धनपती देवी सम्मान
- समवेत कथा सम्मान - सुल्तान पुर
- राजस्थान पत्रिका सृजन सम्मान.
- साहित्य कला एवं संस्कृति रत्नाकर सम्मान हल्दीघाटी
- सलिला साहित्य रत्न सम्मान सलूम्बर
- विधुजा सृजन सम्मान बाँसवाड़ा
विशेष : -
संपादन - शेष यात्राएं (काव्य कृति)
प्रसारण - दूरदर्शन जयपुर, आकाशवाणी -उदयपुर एवं बाँसवाड़ा. से समय समय पर
संपर्क - 1- ए -39 , हाउसिंग बोर्ड़ कालोनी ,
बाँसवाड़ा , राजस्थान - 327001
1. पैसा पेड़ पर नहीं लगता है
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गुरू द्रोण आष्चर्य चकित रह गये । देख रहे है अर्जुन पेड पर चढ़ गया हैं। अरे वत्स वहा पेड़ पर क्या रहे हो ?
जी गुरूजी उस चिडिया को खोज रहा हूँ । जिसकी आँख मुझे फोडनी हैं। निषानेबाजी का यह रोज रोज का झंझट अब मुझसे नहीं होता हैं मुझे एकलव्य का डर लगता है वह हर रात मुझे स्वप्न मंे दिखायी देता है। एक बार ’वो’ चिडिया पकड में आ जाये बस
गुरू द्रोण का माथा ठनका - अरे वत्स मेरी बात सुन मुझ पर भरोसा कर मैने विदेष से पी॰एच॰डी॰ की है कोई झख नही मारी हैं।
पहली बात - एकलव्य का डर मन से निकाल दे। उसको धर्नुविद्या की तस्करी के आरोप में गिरफ्तार किया जा चुका हैं। तुम युवराज हो युवराज की तरह सोचों आत्मविष्वास मजबूत रखो । आज का युवराज ही कल का राजा होता है।
उतरो वस्त पेड से नीचे उतरो, जिस चिडिया को तुम यहाँ खोज रहे हो वह कब की फूर्र हो गयी । वह सात समन्दर पार विदेषी बैंक के लाॅकर में पडी है । वहाँ एकलव्य की सात पुष्ते भी पर नहीं मार सकती है ।
अर्जुन जब पेड से उतर गये तब गुरू द्रोण ने उनके कान में कहा - ’’ पैसा पेड पर नहीं लगता । ’’ ****
2. कुर्सी
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देष का नक्क्षा उनकी टेबल पर पड़ा है, वो लगभग ऊंघते हुए कुर्सी पर बैठे है। तभी उन्हें लगा कुर्सी में कुछ आवाज आ रही है। ध्यान से देखने पर पता लगा कि यह वही कुर्सी जिस पर बैठकर सदियों से शासाकों ने अच्छे बुरे निर्णय लिये है।
कुर्सी बोली - धन्य है राजा दषरथ को जिन्होने सिर में एक बाल सफेद दिखायी देते ही मुझे छोडकर सन्यास लेने का फैसला लिया पर श्रीमान् आपके बालों में चांदी की खेती पक गई है। न आपके आँख से बराबर दिखायी देता है न कानों से सुनायी देता है न बोलने की शक्ति बची हैं । शरीर जीर्ण शीर्ण हो चुका है फिर भीे मेरे प्रति आपका मोह मेरी समझ से परे है।
वे खमोष रहे तो कुर्सी फिर फुसफुसाई कुछ तो लिहाज करो एक राजा भरत हुए जिन्होने कुर्सी को ठोकर मार दी, सत्ता से कोसों दूर रहे । अरे वानप्रस्थ आश्रम का कुछ तो अर्थ समझो जिसके बाद देख तमाषा लकडी का होता है।
आगे लकड़ी पीेछे लकड़ी
तब उन्होने फुसफुसाते हुए कहा - राजा दषरथ को तो अपी संतान को ही सत्ता हस्तान्तण की सुविधा थी । राजा भरत तो असंवैधानिक सत्ता केन्द्र थे । उन लोगों को सत्ता के लिये किसी से वोट की भीख नहीं मांगनी पड़ी थी । आगे लकड़ी पीछे लकड़ी तो बाद की बात है, हाथ में लकड़ी काम की है।
और कुर्सी ने देखा उन पर बैठे महाषय का चेहरा एक दम खिल गया । सिर के सारे बाल काले हो गये और राजा यथाति की तरह उनका यौवन लौट आया। ****
3.पन्द्रह अगस्त: छब्बीस जनवरी
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स्कूली छात्रों को एक प्रष्न पत्र में पूछा गया पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी के बारे में क्या जानते है तथा कैसे मनाये जाते है और कैसे मनाना चाहेगे।
एक बच्चे का उत्तर इस प्रकार था। पन्द्रह अगस्त के दिन देष आजाद हुआ, 26 जनवरी को देष प्रजातंत्र की लोअर के॰जी॰ मे भर्ती हुआ। 15 अगस्त बड़ा भाई है 26 जनवरी छोटी बहन है। 15 अगस्त पुर्लीग है, 26 जनवरी स्त्री लींग है। दोनो ही त्यौहार पर मास्टर परेड़ करवाते है, बच्चे परेड़ करते है अफर और मंत्री सलामी लेते है झंणा फहराते है। बाबु छुट्टी मनाते है। दोनो ही त्यौहार पर केला/समोसा/कचोरी का प्रसाद वितरण किया जाता है। 15 अगस्त वर्षा ऋतु का तथा 26 जनवरी शीत काल का त्यौहार है। दोनो त्यौहार अभी परेड़ कर मनाता हूँ। बड़ा होकर दूसरो की परेड़ लेना पसन्द करूंगा। ****
4. ठहाके गिरफ्त में
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समने न्न्यंबकेष्वर का नेसर्गिक सौन्र्दय से आच्छादित पहाड़ कहीं दृष्य कही अदृष्य सर्पाकार सीढियां और वातावरण में चार चाँद लगाता सीढ़ियाँ चढ़ता एक हनीमुन पेयर चूडियो की खनक और झरनो की निष्चल हंसी बिखेरता एक दूरसे की कमर मे हाथ ड़ाले दुनिया जहान से बेखबर पर्वत की ऊँचाई पर अग्रसर हो रहा था।
तभी बुढ़ापे की दहलीज पर दस्तकें देते फटी धोती और कुर्ता पहने पांवो मे पुराना चमरोधा जूता पहने ड़ोली वाले दो बूढे दाल भात मे मूसलचंद की तरह प्रकट हुए।
साब ! मेम साब थक जायेगी ड़ोली कर लीजिये अभी गोरखनाथ की गुफा और गोदावरी बहुत ऊँचाई पर है।
युवक ने पीछे मुड़कर झिड़का - अरे बूढे ! मेेम साब के थकने की चिन्ता तुझे क्यों है ? जा रास्ते लग।
अपनी नवोढ़ा से मुखातिब होकर कहता है - देखो डार्लिग पर्यटन स्थलो की सुंदरता की सुंदरता की इन लोगो ने एसी तेसी करके रख दी है।
और डार्लिग ने पारदर्षी गोगल्स मे आँखे नचाकर पति की बात का समर्थन किया।
तभी बूढ़े फिर आ टपके - बाबूजी डोली के अस्सी रूपये ले लेगे बैठ लाइये।
अभी नीचे तो सौ बता रहा था आ गया न अब रास्ते पर।
युवक - डार्लिग तुम थक रही हो तो ड़ोली कर ले।
नहीं अभी नही थोड़ा और चढते है अभी और कम करेगा।
और पत्नी की इस समझदारी पर पतिने फिर ठहाका लगाया।
डोली वाले गिडगिडाते रहे और रेट काम करते रहे। अन्ततः बूढो ने प्रस्ताव किया चालीस रूपये दे देना हमारे बच्चों का लिहाज तो करो तीन दिन से कोई ग्राहक नही मिल रहा । आप बैठेगे तो रात को चावल पकेगा।
केमलांगी पत्नी के मुख मंडल पर छलकते स्वेद कण देखकर पति ने यह रेट स्वीकार कर ली।
हाँफते कांपते बूढ़े और दीन दुनिया से बेखबर ड़ोली मे हनीमुन पेयर *****
5. टिकट
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राजस्थान रोड़वेज की बस सवारियों से खचाखच भी थी। कहीं तील धरने की जगह नहीं थी। सामान्यतया होता यह है कि घाघ किस्म के कन्डक्टर अपडाउन करने वालों के तथा कम दूरी की सवारियों के टिकट बहुत कम काटते हैं। किराया राषि में रियायत के कारण दोनों पक्षों की मौन स्वीकृति होती है। ऐसी सवारियों और कन्डक्टर के बीच एक अलग प्रकार का अपनापन होता है।
इन्हीं अपडाउनर्स के बीच बैठे एक बा साहब अस्सी की उमर के बार बार कमजोर कंधे उचका कर टिकट मांग रहे थे। कन्डक्टर उनसे रूपये लेकर आगे बढ़ गया था।
अपडाउनर्स कन्डक्टर की पैरवी करते हुए बुजुर्ग को समझा रहे थे - बा साहब शांति रखीए। टिकट कहाँ भागा जा रहा है। भीड़ कितनी है । शांति रखीए।
सिद्धान्तवादी बा साहब को टिकट के बगैर चैन नहीं था। आखिर खिसक - खिसक कर कन्डक्टर तक पहुँच गये ।
लाओ भाई मेरा टिकट । सुना है आजकल टिकट के साथ दुर्घटना बीमा हो जाता है।
कंडक्टर ने कहाँ - ऐसा होने पर सबसे पहले तो जेबंे साफ होती है । टिकट कहाँ मिलेगा। ****
6.पहचान पत्र
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शहर की सीमा से सटा एक खूंख्वार अपराधी जाति का एक गाँव, जहाँ बचपन से ही बच्चों को चोर उचक्का, डकैत बनने की षिक्षा दी जाती थी। गाँव के आधे आदमी हर वक्त जेल में होते समाजवाद इतना उच्च कोटी का कि गाँव में बच रहे पुरूष चोरी उठाई गीरी से पूरे गाँव का भरण पोषण करते।
बिल्ली के भाग्य से छिका टूटा। गाँव वालांे की जमीने रीको ने अधिग्रहित कर ली पूरे गाँव का मुआवजा लगभग दस करोड़ के ऊपर। शहर की सारी बैंकों के मुँह में डिपोजीट के लिये लार टपकने लगी।
प्रभुलाल भी एक बैंक के मैनेजर थे। उनके फोन की घंटी धनधना उठी। बड़े साहब ने फटकार लगाई - अरे सोये हो क्या वहाँ फलाँ गाँव में रूपयों की बरसात हो रही है। बैंक में बैठे बैठे क्या मक्खियाँ मार रहे हो।
सर वो कुख्यात अपराधियों का गाँव है उन लोगों के पास जंगली और षिकारी कुत्ते हैं।
हाँ तो तुम्ही को खा जायेंगे क्या ? दुसरी बैंक कैसे जा रही है। प्रभुजी ने यस सर कहकर फोन रख दिया । एक कद्दावर गार्ड को मोटर साईकल पर पीछे बिठाकर कुत्तों से बचते बचाते एक ठीक ठाक से घर में प्रवेष कर गये।
घर का मुखिया दारू गटक रहा था। देखो भाई हम बैंक वाले हैं आप लोगांे के खाते खोलने आये है।
हाँ तो खोल दो।
मैनेजर साहब - आप लोगों के आधार कार्ड, वोटर आईडी, राषन कार्ड उपलब्ध करादे फोटो हम खिचवा लेगे।
मुखिया - आप लोग गलत जगह आ गये ये यहाँ कुछ नहीं मिलेगा। आप लोग शहर की कोतवाली में चले जाओ हमारे फोटो भी वहीं मिल जायेगे। ****
7. असर
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’’वो’’ एक आला दर्ज के अफसर है। उनका बेटा एक ऊँचे अंग्रेजी स्कूल में पढ़ता है। बेटे को बड़ा आदमी बनाने के उन्होने पक्के प्रबंध कर रखे हैं। अपने व्यस्त कार्यक्रमों मे से यदा - कदा समय निकाल कर अपने बेटे से पढ़ाई - लिखाई के विषय में बात कर लिया करते हैं। एक बार जब किसी मेहमान ने उनके बेटे को ’’ बढ़े होकर क्या बनोगंे ’’ जैसा सवाल पूछ लिया और बेटे ने ’’ ओटो चलाने वाला ’’ जैसा जवाब दिया तो उन्होंने अपने बेटे को बुरी तरह से डांटा था।
उसके बाद जब भी कोई मेहमान ऐसा सवाल पूछता उनका बेटा सहम कर रटा रटाया जवाब ’’ बड़ा प्रषासनिक अधिकारी ’’ बनूँगा कह देता । अक्सर उनका बेटा उदास और सहमा - सहमा रहता और उन्हें जब भी समय मिलता वे राजा शुद्धोधन की तरह अपने पुत्र सिद्धार्थ की उदासी के कारण खोजते रहते।
आज इन्हंे अपने व्यस्त जीवन में फिर कारण खोजने का समय मिल गया बेटे से अंग्रेजी कविताएं सुनी और उसका बस्ता चैक करने लगे। काॅपियों और किताबों पर चढ़े कवर देखकर वे बेहद नाराज हुए, कवर चढ़ाने वाले नौकर को बुरी तरह से डाँटा यह क्या एक भी तो कवर सही नहीं है । नौकर को हांक लगाकर अपने कमरे से विदेषी रंग बिरंगी पत्रिका का पुलिन्दा मंगवाया। गुस्से और रोष में भरे ’’ वो ’’ किताबों को अनावृत्त कर रहे थे । उन रद्दी अखबारों की काली छाया से जिन पर अकाल, बाढ़, भूखमरी जैसे बहिपात समाचार छपे थे नौकर उन पर चिकने गत्ते रंग - बिरंगे पहाड, नदियों और झरनों के गत्ते चढ़ा रहा था। अचानक एक किताब का गत्ता देखकर वो गुस्से में हाँफने लगे और कवर उतार कर कागज के फरखच्चे उड़ा दिये। रद्दी अखबार में स्कूल की छत गिर जाने से मरने वाले बच्चों का समाचार छपा था। ****
8.योग्य वर
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रामलखनजी एवं उनकी पत्नी को वयस्क होती जा रही बेटी की शादी की चिन्ता सता रही है। एक ही बेटी बडे लाड़ प्यार से पाला है पर एक न एक दिन तो उसको पराये घर तो जाना ही पड़ेगा।
नाते रिष्तेदारों का दबाव भी बढ़ रहा था। आखिर कितने दिन घर पर रखोगे योग्य लड़का देखकर शादी कराओ।
वो पलट कर जवाब देते - मेरी लड़की लाखों में एक है।
योग्य लड़का तो बताओं।
एक रिष्तेदार ने बताया - देखों अमूक लड़का अपने कस्बे मंे ही है। सरकारी नौकरी में भी है। बेटी यही रहेगी तुम्हारे दूसरी संतान तो है नहीं, अतः तुम्हारा भी ध्यान रखेगी।
रामलखनजी माथे पर हाथ फेरते रहे - सो तो ठीक है पर लड़का सयुंक्त परिवार मे रहता है। ना बाबा ना - मेरी बेटी इतने बड़े झमेले की रोटियाँ नही बना सकती।
इसी तरह प्रस्ताव आते रहे । वो कोई न कोई कारण बताकर अस्वीकार करते रहे। हर बार बेटी जब भी प्रस्तावक आता दुसरे कमरे की ओट से वार्तालाप सुनती ।
आज रविवार है और रामलखनजी चाय की चुस्की के साथ वैवाहिक विज्ञापन ध्यान से पढ़ रहे थे। तभी उनका बचपन का मित्र श्याम आ गया।
अरे यह क्या अभी तक तेरी खोज पूरी नहीं हुई।
रामलखन - अरे श्यामू कोई योग्य लड़का तो मिले।
श्याम - यार देख मेेरे ध्यान में एक लड़का है, पर उसमे कुछ परेषानियाँ है। लड़का अच्छा भला स्मार्ट है पर हाई फाई पेकेज पर सात समंदर पर एक मल्टीनेषनल कम्पनी में न्युयार्क मे नौकरी करता है।
फिर तेरी बेटी के तो ’ मंगल ’ भी है कुडंली मैच हो न हो।
रामलखनजी के चेहरे पर एक नई चमक और उत्साह आ गया। पत्नी को आवाज लगाई जरा सुनो तो, खुष - खबरी । श्याम ने कहा - पर तेरी एक ही बेटी बहुत दूर चली जायेगी।
रामलखनजी ने चाय के कप से कप टकराया - ’ चियर्स ’ छोड पोगापंथी की बाते । यकायक उनकी बेटी आकर कंधे से झूल गयी । ’’हाउ स्वीट पापा यू आर।’’ ****
9. ग्राहक सेवा
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आज बैंक की शाखा में प्रधान कार्यालय से बड़े बड़े पोस्टरों एवं बैनरों के बंडल आये है । पन्द्रह दिन तक उत्कृष्ट ग्राहक सेवा पखवाडा मनाने के आदेष है।
बड़े मेनेजर साहब ने सारे स्टाँफ की मीटिंग ली कर्मचारियों को चाय बिस्कीट के साथ ग्राहक सेवा की आवष्यकता एवं उपादेयता पर सविस्तार समझाया।
ग्राहकों की आवाजाही रोजमर्रा की तरह प्रांरभ हो गयी। बडे़ मैनेजर साहब ने अपने केबिन के पर्दे खोल दिये ताकि अंदर ही बैठे कर ग्राहक सेवा का मूल्यांकन कर सके।
सभी कर्मचारी अपने काउन्टरों पर बैठ गये। कोई चाय की चुस्की ले रहा है, कोई काम करता हुआ पास वाले स्टूल पर बैठे से बतिया रहा है। किसी के कन्धे और कान के बीच मोबाईल है जिस पर चहक - चहक कर हैलो हाय कर रहा है।
एब खुबसूरत महिला का प्रवेष होता है जो इन्द्र की किसी अप्सरा से कम नहीं है। काउन्टरों पर खुसुर - पुसुर होती है । अपने काउन्टर के सामने खड़े ग्राहकांे को छोडकर कमोबेष सभी कर्मचारी जलेबी रेस की तरह आगे बढ़कर दाँतों के विज्ञापन वाली मुस्कहराट के साथ उसका स्वागत करतेे है - मेम, मै आई हेल्प यू।
प्रत्युत्तर में वो भी अपनी मुस्कान के अनार दाने बिखेरती हुई अपने काम बताती जाती है। आनन - फानन में कर्मचारी इधर - उधर भागकर उसके सारे काम कर देते हैं। एक अच्छे सोफे पर बिठाकर उसकों काफी मान मनुहार के साथ अच्छी काकरी में काॅफी पिलायी जाती है।
थेंक्स कहती हुई वो सुझाव बाक्स में एक पर्ची ड़ालकर चल देती है।
भीतर बैठे मैनेजर साहब ने यह दृष्य अभी पूरा देखा ही था कि किसी काउन्टर पर झगड़ने की आवाज सुनते हैं।
उन्होंने देखा एक बुजुर्ग जिनको चलने मे भी काफी परेषानी हो रही हैं, लगातार इस काउन्टर से उस काउन्टर पर धक्के खा रहे हैं काम उनका कोई कर नही रहा है। परेषान होकर वो मेनेजर साहब के चैम्बर में प्रवेष कर जाते हंै।
अरे साहब हमारे नाम का पखवाडा मना रहे हो कम से कम इस अवधि मंे तो हमारे काम निपटाओ। कोई बाबू ठीक से जवाब नही दे रहा और बोल रहे है वो उटपटाग तो कोई पत्थर की मूर्ति की तरह बैठे हैं।
बड़े मैनेजर साहब उनको ’ सारी ’ बोलकर कुर्सी पर बिठाते हैं। ठंडा पानी मंगवाकर पिलाते है। स्वंय बाहर जाकर उनके काम अपने हाथ से कर सम्मानपूर्वक बुर्जुग को विदा करते हैं।
शाम को फिर एक मीटिंग लेकर स्टाफ को फटकारते है। वरिष्ठ नागरिकांे के प्रति आप लोग का रवैया ठीक नही एक न एक दिन हम सभी को बुढ़ा होना है।
स्टाफ मे जो नेता किस्म के थे वो प्रतिवाद करते हैं। वरिष्ठ नागरिक के आखिर कौन से सिंग लगे है।
अरे साहब वो आदमी पक्का खडूस और चिम्मड़ है। घरवाली को मरे दस साल हो गये, बेटा बहू गाँठते नही । रोज उठकर एक - एक एन्ट्री के लिये बैंक वालो का भेजा चाटता रहता है।
अरे उसकी पूरी डिपाजीट यहाँ पड़ी है।
पड़ी है तो सर बैंक ब्याज भी तो दे रहा है। यूं कहते हुए नेता नुमा स्टाफ ने चपरासी को आवाज लगाई -
अरे हकरा राम वो सुझाव पेटी में खोल के ला क्या पड़ा है। मैनेजर साहब को पढ़ा वह खुबसूरत महिला लिख के गयी थी।
एक्सीलेन्ट कस्टमर सर्विस, नाइस विहेवियर, हर्टियष्ट थेक्स टू आल स्टाफ।
मेनेजर साहब ने पूछा पर वो किस काम से आयी थी उसका खाता नम्बर लिखवा दो बड़े साहब के आने पर कस्टमर मीट मे उसे भी बुलायेंगे।
अरे सर वो तो ढ़ेर सारे फटे नोट बदलवाने तथा रेजगारी लेने आई थी। अपने यहाँ तो उसका कोई खाता नही है। आप तो नये आये हो सर - उस बूढ़े को भूलकर भी मत बुलाना उसके दिमाग का एक स्क्रू ढ़ीला है।
मेनेजर साहब ने माथे पर अपना हाथ रख लिया स्टाफ खुद की ही पीठ थपथपाता हुआ केबीन से बाहर निकल गया। ****
10. नरक
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आज एक महान लेखक का देहावसान हो गया। देष के साहित्यिक समाज में शोक की लहर छा गयी। अनेक प्रतिष्ठित पुरस्कारांे से सम्मानित लेखक महोदय के सम्मान में देष के बड़े - बड़े शहरांे में शोकसभाएँ आयोजित की गयी। दिल्ली चूंकि देष की राजधानी है अतः वहाँ बड़ी शोकसभा आयोजीत की गयी।
पहली बार किसी बड़े आयोजन में बतौर अध्यक्ष वो नही थे । मंच के पास एक कुर्सी पर उनकी तस्वीर थी, पास में एक दीपक जल रहा था। ढेर सारी फुल मालाएँ चढ़ी हुयी थी।
मंच पर अन्य महान लेखक अथवा महानता की कतार में खड़े अन्य साहित्यकार आसीन थे।
श्रोताओ में अप्रसिद्ध, नये लेखक, संवेदनशील पाठक आदि मौजुद थे।
सभी वक्ताओं ने दिवंगत लेखक के झुझारू व्यक्तित्त्व का उल्लेख किया । किसी ने स्त्री विमर्ष पर उनके विचारों का प्रभाव रेखांकित किया । किस तरह वो जीवन भर धारा के विरूद्ध जाबांज तैराक की तरह तैरते रहे। कुछ लोगों ने मिड़िया को कोसा, जिसने उनकी मृत्यु को शोक खबरों में केवल नीचे चलने वाली लाइन मे स्थान दिया गया। कुछ वक्ताओं ने बताया कि केवल उनके छू लेने भर से किसी नये लेखक की कृति महत्वपूर्ण तथा उल्लेखनीय हो जाती थी। कुल मिलाकर उनके लेखन की भूरी - भूरी प्रषंसा वक्ताओं ने उन्हें आम आदमी का महत्वपूर्ण चेहरा, शोषित पिछडं़े लोगांे तथा पीड़ित लोगांे की लड़ाई का सेनापति बताया। कुछ वक्ताआंे ने शोधार्थियो को उन पर शोध तथा प्रकाषकों को ग्रन्थावली छापने की आवष्कता बतायी।
अन्त मे दो मिनट का मौन प्रारम्भ हुआ।
उधर यमराज के दूत उनको नरक की तरफ धकेलने लगे । आदत के मुताबिक उन्होंने विरोध किया।
यमराज के सामने जब प्रस्तुत किया तब उन्होंने पूछा मुझे किस कृत्य के अपराध मे नरक मे भेजा जा रहा है। भू लोक के तमाम लोग मुझे स्र्वगवासी कर रहे है।
यमराज ने कहा - आपने जिन लोगों पर लिखा उनके नरक का अच्छा और प्रभावी चित्रण किया। किन्तु सारे नरक भोगने के बाद जब धरती पर जाओगें तुम्हारा लेखन भोगे हुए यथार्थ के कारण धारदार तथा प्रभावी हो जायेगा । देखे और भोगे यथार्थ का अन्तर आपको नोबल पुरस्कार दिलायेगा। दूतो नें उनको नरक मे धकेल दिया। ****
11. अस्पताल का कमरा
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वो चार बिस्तरों वाला अस्पताल का कमरा था । उसमे भर्ती मरीज एक - दो दिन के अंतराल पर लगभग साथ ही भर्ती हुए थे ।
मरीजों को तो भर्ती होते वक्त विषेष सुध बुध नही थी । उनकी बीमारियों का इलाज लम्बा चलने वाला था । तय है उन्हे एक लम्बा समय अस्पताल में गुजारना था ।
उनके साथ आये तथा अस्पताल मे साथ रहने वाले मित्र एवं रिष्तेदार एक दूसरे को देखकर नाक भों सिकोढ रहे थे । इसका कारण था सभी एक दूसरे के लिये विधर्मी थे ।
कोई मोहनलाल तो कोई अब्बदुल तो कोई सतबंत सिंह सरदार तो कोई जैन अंकल थे । हर एक का अपना - अपना धर्म, अपने - अपने ईष्वर तथा अपना - अपना खान - पान एवं परहेज था ।
मरीज के साथ एक रिष्तेदार को तो उसकी देख भाल के लिये कमरे मंे जगह मिल जाती थी । शेष रिष्तेदार एवं मित्र जो बाहर बरामदे में ड़ेरा डालते आपस मे पहचानने लगे । समय के साथ दुःख बीमारी एवं दैनिक आवष्यकताओं के कारण मन मे जमी हुई बर्फ पिघलने लगी ।
सभी के मन मे एक दूसरे के प्रति सम्मान भाव जाग रहा था । भावना सम्मान के अन्तर्गत सतबंत के रिष्तोदारो को सतश्री अकाल, मोहनलाल जी को जयश्री कृष्ण तथा अब्दुल्ला को सलाम कहने मे या जय जिनेन्द्र कहने मे संकोच के स्थान पर प्रसन्नता का अनुभव होता था । यह भाई चारा इतना परबान चढ़ा की कभी किसी का रिष्तेदार विलम्ब से आता तो शेष लोग संभाल लेते । दूध, चाय, दवाई, फल जो भी आवष्यकता होती पूरी कर देते ।
एक मरीज जो गुर्दों का रोगी था खून की आवष्यता पडी उसकी पत्नी चिन्ता मे थी, इतने बोतल खून की व्यवस्था कैसे करूँ ?
दूसरे सभी मरीजो के रिष्तेदार आगे आये
- आंटी क्यों चिन्ता करती हो हम सभी तैयार है सभी खून का रंग तो लाल ही होता है । ग्रुप अलग - अलग हो सकता है ।
मोहनलालजी का आॅपरेषन है तो रिष्तेदार चादर चढ़ाने के रूपये दे रहे है । अब्दुल भाई का लकवा ठीक नही हो रहा है वो किसी माताजी के स्थानक पर जाने की इच्छा प्रकट कर रहे है।
यकायक छोटी कहासुनी को लेकर शहर मे बड़े दंगे भड़क गये जो विकराल रूप लेने लगे । अस्पताल में दंगो मे घायल लोगो का ताँता लग गया ।
नेट, मोबाइल, एस.एम.एस सभी जगह से अफवाहंे फैल रही थी । अखबारों की सुखर््िायाँ खून से लथपथ थी । अस्पताल मे चल रहे टी.वी. के चैनल आग मे घी ड़ालने की प्रतिस्र्पधा मे टी.आर.पी. बढ़ा रहे थे ।
कमरे मे मरीज व उनके रिष्तेदारों के प्रति एक दूसरे का गहरा आषवस्ति भाव था । वह आपस मे लगातार एक दूसरे की कुषल क्षेम पूछ रहे थे, सलामती की दुआ मांग रहे थे ।
जब शहर मे अनिष्चित कालीन र्कफ्यू लग गया मौन का सन्नाटा पसर गया ।
अस्पताल के कमरे मे सब अपने - अपने ईष्वर को याद कर रहे थे उनके अलग - अलग ईष्वर थे पर प्रार्थना एक थी ।
हे ! ऊपर वाले तू जल्दी हमारे शहर को अस्पताल के कमरे मे तब्दील कर दे । ***
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पता : -
श्री विजयकुमार मिश्र
नूतन भारत स्कूल के पास अभ्यंकरनगर नागपुर 440010 - महाराष्ट्र
लेखन: लघुकथा ,कविता ,हाइकु ,तांका, व्यंग्य, कहानी, निबंध आदि विधाओं में समान रूप से निरंतर लेखन । देशभर की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में सतत प्रकाशन।
सम्पादन:क्षितिज संस्था इंदौर के लिए लघुकथा वार्षिकी 'क्षितिज' का वर्ष 1983 से निरंतर संपादन । इसके अतिरिक्त बैंक कर्मियों के साहित्यिक संगठन प्राची के लिए 'सरोकार' एवं 'लकीर' पत्रिका का संपादन।
प्रकाशन:
पुस्तकें शब्द साक्षी हैं (निजी लघुकथा संग्रह),
पिघलती आंखों का सच (निजी कविता संग्रह )
कोहरे में गांव (गजल संग्रह) शीघ्र प्रकाश्य।
संपादितपुस्तकें -
तीसरा क्षितिज(लघुकथा संकलन),
मनोबल(लघुकथा संकलन),
जरिए नजरिए (मध्य प्रदेश के व्यंग्य लेखन का प्रतिनिधि संकलन),
साथ चलते हुए(लघुकथा संकलन उज्जैन से प्रकाशित),
सार्थक लघुकथाएँ( लघुकथा की सार्थकता का समालोचनात्मक विवेचन),
शिखर पर बैठकर (इंदौर के 10 लघुकथाकारों की 110 लघुकथाएं संकलित)
कोरोना काल की लघुकथाओं पर एक संपादित पुस्तक का प्रकाशन।
साझा संकलन-
समक्ष (मध्य प्रदेश के पांच लघुकथाकारों की 100 लघुकथाओं का साझा संकलन)
कृति आकृति(लघुकथाओं का साझा संकलन, रेखांकनों सहित),
क्षिप्रा से गंगा तक(बांग्ला भाषा में अनुदित साझा संकलन),
शिखर पर बैठ कर (दस लघुकथाकारों का साझा संकलन)
अनुवाद:
निबंधों का अंग्रेजी, मराठी एवं बंगला भाषा में अनुवाद ।
लघुकथाएं मराठी, कन्नड़ ,पंजाबी,नेपाली, गुजराती,बांग्ला भाषा में अनुवादित । बांग्ला भाषा का साझा लघुकथा संकलन 'शिप्रा से गंगा तक वर्ष 2018 में प्रकाशित।
विशेष:
लघुकथाएं दो पुस्तकों में,( छोटी बड़ी कथाएं एवं लघुकथा लहरी ) मेंगलुर विश्वविद्यालय कर्नाटक के बी ए प्रथम वर्ष और बी बी ए के पाठ्यक्रम में शामिल।
लघुकथाएं विश्व लघुकथा कोश, हिंदी लघुकथा कोश, मानक लघुकथा कोश, एवं पड़ाव और पड़ताल के विशिष्ट खंड(11) में शामिल।
शोध:
विक्रम विश्वविद्यालय उज्जैन में एम फिल में मेरे लघुकथा लेखन पर शोध प्रबंध प्रस्तुत । कुछ पी एच डी के शोध प्रबंध में विशेष रूप से शामिल ।
पुरस्कार सम्मान:
साहित्य कलश, इंदौर के द्वारा लघुकथा संग्रह' शब्द साक्षी हैं' पर राज्यस्तरीय ईश्वर पार्वती स्मृति सम्मान वर्ष 2006 में प्राप्त।
लघुकथा साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए मां शरबती देवी स्मृति सम्मान 2012 मिन्नी पत्रिका एवं पंजाबी साहित्य अकादमी से बनीखेत में वर्ष 2012 में प्राप्त ।
सरल काव्यांजलि साहित्य संस्था,उज्जैन से वर्ष 2020 में सारस्वत सम्मान से सम्मानित।
सम्प्रति : भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त होकर इंदौर शहर में निवास, और लघुकथा विधा के लिए सतत कार्यरत।
पता : -
सतीश राठी
त्रिपुर ,आर- 451, महालक्ष्मी नगर,
इंदौर 452010 मध्यप्रदेश
1.रैली
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'सरकार कितना ही प्रयास कर ले हमारा एजेंडा तो पूर्व निर्धारित है। हमें इस आंदोलन को लंबा और लंबा खींचना है।" आंदोलन के नेताजी बोले।
"पर ऐसा क्यों कर रहे हो आप ?सरकार ने आपकी अधिकतर मांगें मान ली हैं । सरकार अब तो कुछ अवधि के लिए कानून स्थगित भी करने को तैयार है । "-पत्रकार ने नेता जी से पूछा।
नेता जी पत्रकार को हाथ पकड़ कर एक किनारे पर ले गए और बोले ,"हम समझौते के लिए आए ही कब थे। हमें तो आगे बढ़ाना है इसे। अब टैक्टर की रैली भी निकालना है।"
"पर आपको सरकार ने रैली निकालने की अनुमति कहां दी? अभी तो पुलिस ने ही मना कर दिया है ।"
"अब किसी के बाप में हाथ लगाने की हिम्मत है क्या? ट्रैक्टर की रैली तो निकलेगी। सारा फंड ही उसके लिए आया हुआ है।"- नेताजी कड़क कर बोले ।
फिर पत्रकार का हाथ दबा कर बोले," इसके आगे पीछे का मत सोच। हम हमारा काम कर रहे हैं, जिसके लिए हम बैठे हैं। देखते हैं सरकार का संयम और कितना है। हम तो इंतजार कर रहे हैं सरकार का संयम टूटने का। तभी तो इतने भड़काने वाले बयान जारी कर रहे हैं।" ****
2.स्यापा
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उनके स्यापा करने के दिन तो नहीं थे लेकिन वे प्रधानमंत्री का नाम ले लेकर स्यापा कर रही थी।
किसी ने उनसे पूछ ही लिया ,'पैर तो तुम्हारे कब्र में लटके हैं, फिर यह स्यापा क्यों?'
उन्होंने कहा,' सच बताएं! हमें तो इसके पैसे मिल रहे हैं। और हां! इससे उसकी तो उम्र बढ़ रही है।' ****
3.काला कानून
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'तुम यह धरना क्यों दे रहे हो ?'
'किसान को उसकी फसल की सही कीमत मिले, यही तो हमारी मांग है ।'
'तो यह बात तो कानून में लिखी है।'
' हां !लिखी होगी ।हमें नहीं पता। हमें तो बस इतना पता है कि यह कानून काले हैं। तो फिर इन्हें बनाने वालों के दिल भी काले होंगे।'
' लेकिन वह तो तुम्हारे हित का ही सोच कर इन कानूनों को बनाए हैं ।तुम एक बार इनके हिसाब से चल कर तो देखो ना भाई ।'
'ना! हमारे नेता जी ने जब बोल दिया कि यह काले कानून हैं, तो है ।और फिर ...सही बात तो यह है कि, जितने दिन यहां हैं पेट भर कर तर माल मिल रहा है ।'
फिर एक आंख मार कर बोला,' दारू की व्यवस्था भी है ।इतनी सारी बात के लिए तो सारे जमाने को काला कह सकते हैं।' ****
4.अनाथों का नाथ
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गणेश जी की मूर्ति के सामने उसकी आंखों से धार- धार आंसू बह रहे थे। मंदिर के बाहर उसे किसी ने कह दिया था कि, यह खड़े गणेश का जो मंदिर है, वह बहुत चमत्कारी है बेटा ! जो मांग लेगा वह मिल जाएगा । दुखी मन बेचारा क्या करे । विश्वास कर वह बुद्धि देने वाले गणपति से विद्या की भिक्षा मांग रहा था।
गांव में मां और बापू के मरने के बाद निहाल को गांव के जमींदार ने बुलाया और कह दिया कि, कल से यहां पर आना । दिन भर यहीं पर झाड़ू बुहारा और दूसरे काम करना। तुझे दोनों टाइम का खाना यहीं मिल जाएगा।
उसे समझ में आ गया था कि, बापू की तरह उसका भी अब बंधुआ मजदूर बनने का मौका आ गया है । पर अनाथ का कौन? गांव में सबने कह दिया, जमींदार से बैर मत लेना ,चले जाना ।
निहाल के मन में तो पढ़ने की लगन लगी थी, इसीलिए वह गांव छोड़कर शहर में भाग आया था। मन में विचार आया कि, अनाथों का नाथ कौन ?अनाथों का नाथ तो भगवान ही होता है। और बस मंदिर में चला आया था ।
शायद उसका भाग्य प्रबल था। एक व्यक्ति जो उसे बहुत देर से गणपति के समक्ष रोते, गिड़गिड़ाते हुए देख रहा था ,उसके पास आकर बोला ,'वह जो हाथी जैसी चाल से आ रहे हैं ना !वह यहां के बड़े रावले के जमीदार हैं । बहुत दयालु आदमी हैं । उनसे हाथ जोड़कर विनती कर लेना ,तो फिर तेरे रहने, खाने, पढ़ने की व्यवस्था हो जाएगी ।'
निहाल को तो लगा जैसे भगवान ने ही उसके लिए मददगार भेज दिया है। वह रोता रोता जाकर जमीदार के पैरों में गिर गया। जमीदार साहब एकदम चौक गए, पर फिर उससे पूछा ,'क्या बात है? रो क्यों रहा है?'
निहाल ने कहा ,'गांव से भाग कर आया हूं। मां और बापू दोनों नहीं रहे ।अनाथ हूं ।आगे पढ़ना चाहता हूं। बड़ा आदमी बनना चाहता हूं .....आप सबके जैसा । '
कुछ भगवान की प्रेरणा और कुछ जमीदार साहब का दयालु दिल । वे उसे अपने साथ अपने बड़े रावले के महल में ले गए ,जहां नीचे उन्होंने गरीब छात्रों के रहने और खाने की व्यवस्था कर रखी थी । निहाल को भी वहां रहने ,खाने की व्यवस्था हो गई।
उसे लगा ,वह मंदिर में खड़ा गणपति अनाथों का नाथ है या यह जमीदार साहब । गांव में होता तो उस जमीदार के यहां झाड़ू लगा रहा होता। यहां के जमीदार के हाथों अब पढ़ने का मौका मिल गया है। अनायास ही उसके दोनों हाथ भगवान को ध्यान कर जमींदार जी के समक्ष कृतज्ञता से जुड़ गए।****
5.रोटी की कीमत
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आटा चक्की पर भीड़ लगी हुई थी। सभी लोग गेहूं पिसवाने के लिए आए हुए थे उसी समय एक महंगी कार में से एक सूटेड बूटेड व्यक्ति ने उतर कर आटा चक्की वाले से पूछा ,'भाई! गेहूं पीस दोगे।
आटा चक्की वाले ने कहा,' इसीलिए तो बैठे हैं। थोड़ा समय लगेगा। भीड़ काफी है। बैठिये आप।'- इतना कहकर एक कुर्सी उस व्यक्ति की ओर बढ़ा दी।
कसमसाता हुआ व्यक्ति उस कुर्सी पर बैठ गया और अपना मोबाइल देखने लगा। उसकी बेचैनी बार-बार उसके चेहरे पर परिलक्षित हो रही थी। चक्की वाला लगातार लोगों के डिब्बे के गेहूं चक्की में डालकर उन्हें पीसता जा रहा था। तकरीबन बीस मिनट इंतजार के बाद उसने पूछा,' हो जाएगा ना!'
चक्की वाले ने कहा,' अब आपका ही नंबर है और उसका गेहूं चक्की में पीसने के लिए डाल दिया। वह व्यक्ति बड़ा असहज महसूस कर रहा था।
उसने आटा चक्की वाले को लगभग सफाई देने की भाषा में बोलते हुए कहा,'अपने जीवन के इतने बरसों में आज पहली बार गेहूं पिसाने के लिए आया हूं। कभी मुझे तो आने की जरूरत ही नहीं पड़ी।
आटा चक्की वाले ने उससे कहा,' चलिए अच्छा है भाई साहब !आज आपको रोटी की कीमत तो समझ में आई।'
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6.जिस्मों का तिलिस्म
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वे सारे लोग सिर झुकाकर खड़े थे। उनके कांधे इस कदर झुके हुए थे कि, पीठ पर कूबड़-सी निकली लग रही थी। दूर से उन्हें देखकर ऐसा लग रहा था, जैसे सिरकटे जिस्म पंक्तिबद्ध खड़े हैं।
मैं उनके नजदीक गया। मैं चकित था कि ,ये इतनी लम्बी लाईन लगा कर क्यों खड़े हैं?
"क्या मैं इस लम्बी कतार की वजह जान सकता हूं?" नजदीक खड़े एक जिस्म से मैंने प्रश्न किया।
उसने अपना सिर उठाने की एक असफल कोशिश की। लेकिन मैं यह देखकर और चौंक गया कि उसकी नाक के नीचे बोलने के लिए कोई स्थान नहीं है।
तभी उसकी पीठ से तकरीबन चिपके हुए पेट से एक धीमी सी आवाज आई, "हमें पेट भरना है और यह राशन की दुकान है।"
"लेकिन यह दुकान तो बन्द है। कब खुलेगी यह दुकान?" मैंने प्रश्न किया।
"पिछले कई वर्षों से हम ऐसे ही खड़े हैं। इसका मालिक हमें कई बार आश्वासन दे गया कि, दुकान शीघ्र खुलेगी और सबको भरपेट राशन मिलेगा।" आसपास खड़े जिस्मों से खोखली सी आवाजें आईं।
"तो तुम लोग... अपने हाथों से क्यों नहीं खोल लेते हो, यह दुकान?" पूछते हुए मेरा ध्यान उनके हाथों की ओर गया, तो आंखें आश्चर्य से विस्फरित हो गई।
मैंने देखा कि सारे जिस्मों के दोनों हाथ गायब थे। ****
7.घर में नहीं दाने
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विमला देवी ने सुरेंद्र कुमार से कहा," घर चलाने के लिए पैसे अब समाप्त हो गए हैं।"
सुरेंद्र कुमार ने कहा," पिताजी के जमाने के पीतल के घड़े पड़े हैं घर में .....उन्हें बेच दो।"
विमला ने कहा," वह तो पिछले माह ही बेच दिए थे।"
" अरे!!! तो पुराने समय के जो जेवरात पड़े हैं, उन्हें बेच दो।" सुरेन्द्र बोला।
" वह भी तो बेच दिए थे बीमारी में ।" विमला ने दुखी मन से जवाब दिया।
" तो फिर, हमारे इस हवेली जैसे प्राचीन घर में जितनी भी पुरानी एंटीक चीजें रखी हैं, अब उन्हें बेचने की बारी आ गई है। ऐसा करो, अब धीरे धीरे उन्हें बेचने का काम शुरू कर दो। आखिरकार ! किसी तरह घर तो चलाना है ना।" सुरेन्द्र बोला।
विमला मौन हो गई। उसे तो सुरेंद्र का कहना मानना ही था।
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8.शिष्टाचार
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-और क्या हाल-चाल है मित्र?
- दुआ है यार।
-बड़े दिनों बाद मिले हो।
- क्या SS करें यार... समय ही नहीं मिलता ।
-पहले तो घर भी आ जाते थे ।
-व्यस्तता बहुत है यार।
-अरे कभी दोस्ती भी निभाया करो ।भाभी को लेकर आओ ना।
- देखेंगे यार आऊंगा कभी।
-इस संडे को आ जाओ।
-अच्छा समय निकालकर संडे को ही आता हूं।
चलो फिर! ओके बायSS ...मिलते हैं।
और वह एकाएक सोचने लगा कि, कहीं यह वाकई रविवार को घर ना आ जाए। मैं तो इसे सिर्फ शिष्टाचार में कह रहा था। ****
9. आजादी के अंधेरे
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वह बार-बार पलट कर अपने उस घर को देख रहे थे, जिसकी एक एक ईट में उनकी मेहनत का पैसा लगा हुआ था, उनके परिवार का प्रेम लगा हुआ था। जीवन में कभी नहीं सोचा था इस तरह से अपना घर और अपना देश छोड़कर जाना पड़ेगा। क्या आजादी की कीमत इतनी अधिक होती है? जिन मुस्लिम परिवारों के साथ मिलकर उन्होंने साथ में ईद और दीवाली मनाई थी उन्हीं में से कुछ भले मानस उनके पास आकर कह गए थे,' अब आप हिंदुस्तान चले जाइए ।हम यहां बढ़ते हुए आतंक को नहीं रोक पाएंगे। आपकी रक्षा नहीं कर पाएंगे ।'
उन्होंने भी यह सोचा जब हिंदू होने के नाते अपने देश में ही जाकर रहना हैं तो चल दिया जाए, पर जिसे छोड़ कर जा रहे हैं उसमें तो ह्रदय बसा हुआ है। साथ में सब कुछ लेकर भी तो नहीं जा सकते ।कुछ जेवरात कुछ नगद और कुछ यादें । यही सब कुछ ले पाए थे वह अपने हाथ में ।
नम आंखों से घर को छोड़ बिलखते हुए चल दिये।
एक के बाद एक ट्रेन हिंदुस्तान की ओर जा रही थी। पीठ पर सामान को लादे, हाथ में पत्नी और दोनों बच्चों का हाथ पकड़े, अंततः श्यामलाल जी किसी तरह स्टेशन तो पहुंच ही गए। भगदड़ मची थी। लोग ट्रेनों में भेड़ बकरियों से भी बदतर स्थिति में घुस रहे थे ।उन्हें भी घुसना ही पड़ा । ट्रेन चल तो दी लेकिन रास्ते में कई जगहों पर ट्रेन को रोककर कट्टर मुस्लिमों के द्वारा मारपीट की गई, हत्याएं की गई, सामान लूटे गए।
यह उनकी खुशकिस्मती थी कि वह लाशों से लदी हुई उस ट्रेन में जीवित रहकर किसी तरह हिंदुस्तान पहुंच गए। पर यहां क्या ?, ना घर अपना ना शहर। सब कुछ उजड़ा उजड़ा पराया सा लग रहा था ।कुछ अस्थाई सरकारी व्यवस्था टेंट बांधकर की गई थी। वह भी एक छोटे से टेंट में रुक गए।
अपने सारे सपनों को खोकर इस तरह चले आना उनके दिल में दर्द पैदा कर रहा था। क्या इसी आजादी के लिए हम लड़े? क्या यही आजादी है जो मनुष्य को मनुष्य से दूर करती है?क्या जहां मानवता की हत्या होती है वह आजादी है?
ढेर सारे प्रश्न उनके दिमाग में मचल रहे थे। पत्नी और बच्चों के साथ उस छोटे से टेंट में उन्होंने अपनी आंखें बंद कर ली । जीवन जो जी लिया, चलचित्र की तरह आंखों में घूम रहा था । जो आने वाला जीवन था वह कैसा होगा, इसकी आशंका उनके शरीर में सिहरन पैदा कर रही थी। आजादी एक अंधेरे की तरह उनके जीवन में प्रवेश कर गई थी। ****
10.गणित
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दीपावली का समय था । यह तय हुआ कि निहाल को बुलाकर उससे बिजली की सारी बंद लाइट बदलवा दी जाए तथा और भी बिजली के जो छोटे-मोटे काम बचे हैं, वह करवा कर घर के बाहर की झालर लाइट भी लगवा ली जाए।
वैसे तो बिजली मैकेनिक को बुलाना ही बड़ा टेढ़ी खीर होता है ,लेकिन हमारी धर्मपत्नी की आदत है कि, जब भी कोई कारीगर आता है तो, वह उसकी खातिरदारी अच्छे से कर देती है और वह बड़ा खुश होकर जाता है । इसलिए जब निहाल को फोन लगाया तो निहाल ने तुरंत दोपहर में आने की हामी भर दी।
निहाल ने सारा काम तकरीबन एक घंटे में पूरा कर दिया । जब मैंने उससे पूछा कि ,भाई कितने हुए तो, निहाल ने तुरंत जोड़कर बताया सर पंद्रह सौ रुपए दे दीजिए ।
तभी धर्मपत्नी चाय और उसके साथ नाश्ते की एक प्लेट निहाल के लिए लेकर आ गई । निहाल ने मना किया ,लेकिन मेरी पत्नी ने बड़े आग्रह के साथ उसे नाश्ता भी करवाया और चाय भी पिलाई ।
निहाल जब जाने के लिए तैयार हो गया तो मैंने उससे पूछा,' हां निहाल भाई ! कितने दे दूं।'
' अब सर, आपका तो घर का मामला है । आप तो सिर्फ बारह सौ रुपए दे दीजिए ।मैंने उसे तुरंत 12 सो रुपए निकाल कर दे दिए।
उसके जाने के बाद पत्नी ने कहा 'देखा मेरी चाय और नाश्ते की प्लेट का कमाल! आपके ₹300 बच गए । मेरी चाय और नाश्ते की लागत सिर्फ ₹25 ही थी।'
मैं मौन रह गया ।पत्नी का गणित मेरी समझ से बाहर का था। ****
11.पेट का सवाल
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"क्यों बे! बाप का माल समझ कर मिला रहा है क्या?" गिट्टी में डामर मिलाने वाले लड़के के गाल पर थप्पड़ मारते हुए ठेकेदार चीखा।
" कम डामर से बैठक नहीं बन रही थी ठेकेदार जी। सड़क अच्छी बने यही सोचकर डामर की मात्रा ठीक रखी थी।" मिमियाते हुए लड़का बोला।
"मेरे काम में बेटा तू नया आया है। इतना डामर डाल कर तूने तो मेरी ठेकेदारी बंद करवा देनी है।" फिर समझाते हुए बोला," यह जो डामर है इसमें से बाबू ,इंजीनियर, अधिकारी, मंत्री सबके हिस्से निकलते हैं बेटा। खराब सड़क के दचके तो मेरे को भी लगते हैं । चल! इसमें गिट्टी का चूरा और डाल।" मन ही मन लागत का समीकरण बिठाते हुए ठेकेदार बोला।
लड़का बुझे मन से ठेकेदार का कहा करने लगा। उसका उतरा हुआ चेहरा देखकर ठेकेदार बोला," बेटा ,सबके पेट लगे हैं। अच्छी सड़क बना दी और छह माह में गड्ढे नहीं हुए तो, इंजीनियर साहब अगला ठेका किसी दूसरे ठेकेदार को दे देंगे ।इन गड्ढों से ही तो सबके पेट भरते हैं बेटा।" ****
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लेखन विधा : लघुकथा, कहानी, आलेख, समीक्षा
प्रकाशित संग्रह :-
एक लघु संग्रह 'दिन अभी ढला नहीं' (2021,जन लघुकथा साहित्य समूह, नवीन शाहदरा दिल्ली द्वारा)
भागीदारी के स्तर पर कुछ प्रमुख संकलन :-
'बूँद बूँद सागर’ 2016,
‘अपने अपने क्षितिज’ 2017,
‘लघुकथा अनवरत सत्र 2’ 2017,
‘सपने बुनते हुये’ 2017,
‘भाषा सहोदरी लघुकथा’ 2017,
'स्त्री–पुरुषों की संबंधों की लघुकथाएं’ 2018,
‘नई सदी की धमक’ 2018,
'लघुकथा मंजूषा’ 2019,
‘समकालीन लघुकथा का सौंदर्यशस्त्र’ 2019
साहित्य क्षेत्र में पुरस्कार / सम्मान :-
पहचान समूह द्वारा आयोजित ‘अखिल भारतीय शकुन्तला कपूर स्मृति लघुकथा’ प्रतियोगिता (२०१६) में प्रथम स्थान।
हरियाणा प्रादेशिक लघुकथ मंच द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता (२०१७) में ‘लघुकथा स्वर्ण सम्मान’।
मातृभारती डॉट कॉम द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता (२०१८) ‘जेम्स ऑफ इंडिया’ में प्रथम विजेता।
प्रणेता साहित्य संस्थान एवं के बी एस प्रकाशन द्वारा आयोजित “श्रीमति एवं श्री खुशहाल सिंह पयाल स्मृति सम्मान” 2018 (कहानी प्रतियोगिता) और 2019 (लघुकथा प्रतियोगिता) में प्रथम विजेता।
पता :
एफ - 62 , फ्लैट नं - 8 , गली नं - 7, मंगल बाजार के पास , लक्ष्मी नगर , दिल्ली - 110092
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परिवार में सब उत्साहित थे, इस बार नवरात्रों में दुर्गा माँ की स्थापना के लिये शिवा स्वयं माँ की प्रतिमा बना रहा था। आखिरकार जब दुर्गा माँ की प्रतिमा तैयार हो गयी और अपने सधे हाथों से शिवा, प्रतिमा को ‘अन्तिम टच' देने मे लगा हुआ था तभी उसकी पत्नी उमा ने उसे 'जो' कहा उसे सुनकर ही वह काठ हो गया था। और अब, जब प्रतिमा स्थापना की पूजा के लिये उसका पुत्र उसे बुलाने आया।
"पिताजी, पूजा प्रारम्भ हो रही है और आप अभी तक तैयार. . .।"
उसकी बात बीच मेँ ही काटते हुये शिवा बोल उठा था। "बेटा, हम पति-पत्नी तो पूजा मेँ नहीं आ पायेगेँ।" बेटे सहित पुरे परिवार के प्रश्नचिन्ह बने चेहरों की ओर देखता हुआ शिवा दु:खद स्वर में अपनी बात कहता चला गया। "बेटा, पंडाल में जिस देवी की पूजा होने जा रही है, वह तो मेरी बनायी मात्र मिट्टी की प्रतिमा है। लेकिन, हमारे परिवार मेँ खुशियाँ लेकर जो जीती जागती 'देवी’ आने वाली थी, उस देवी माँ को तो 'तुम दोनो' (पुत्र और पुत्रवधू) ने पूजा से पहले ही 'विसर्जित' कर दिया है। ****
02. जवान बच्चे
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"कम्मो। जरा इधर तो आ, तूने अचानक काम पर आना कयों बंद कर दिया?" मिसेज माधवी ने बालकनी की खिड़की से ही गली में गुजरती अपनी काम वाली बाई को आवाज लगाई।
"जी मेम साहब। वो क्या है कि अब हम आप के यहाँ काम नही करेगें।" कम्मो भी गली से ही लगभग चिल्लाती हुयी बोली।
"क्यों कहीं और ज्यादा पैसें मिलने लगे या पैसों की जरूरत नहीं रही।" मिसेज माधवी की आवाज में कटाक्ष था।
इस बार कम्मो कुछ आराम से बोली। " नहीं-नहीं मेमसाहब, बस ऐसे ही। वो. . . वो. . . बच्चे जवान हो गये ना।"
मिसेज माधवी कुछ हैरान सी। "तेरे बच्चे!"
कम्मो गली में आगे जाते-जाते बोल गयी। " नहीं-नहीं मेमसाहब, बच्चे आपके जवान हो गये हैं न।"
मिसेज माधवी की खिड़की खटाक से बंद हो चुकी थी। ***
03. श्राद्ध
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कार शहर को पीछे छोड़ अब बाहरी रास्ते पर दौड़ रही थी। सुबह बेटे से हुयी बहस के बाद उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि उससे पूछे कि वह उन्हें कहाँ लेकर जा रहा है। सुबह की बातें एक बार फिर उनके कानों में गूँजने लगी थी।
. . . . "ओह बाऊजी, आप समझ क्यों नहीं रहें हैं? ये फ़ॉरेन है, यहाँ श्राद्ध जैसे ढकोसले करने का लोगों के पास समय नहीं है।" बेटा झुँझलाहट में था।
"लेकिन बेटा अपने पितरों की मुक्ति के लिए यह जरूरी है।"
"आप भी वर्षों से कैसे आडंबरों को ढोए चले जा रहे हैं बाऊजी। अब यहाँ के लोग यह सब नहीं करते तो क्या उनके पूर्वजों की मुक्ति नहीं होती।"
"पर बेटा, यह सब हमारी आस्था और परंपरा...!"
“बस बाऊजी!" बेटे ने उनकी बात बीच में ही काट दी थी। "रहने दीजिए, सुबह-सुबह ये बहस। मुझे और भी कई जरूरी काम हैं।" . . . .
"बाऊजी, बाहर आईए।" कार एक ऊँची आलीशान इमारत के बाहर खड़ी थी और बेटा उन्हें बाहर बुला रहा था।
"वृद्धाश्रम!" बेटे-बहू से जुड़े जीवन के सारे लम्हे एक क्षण में उनकी आँखों के सामने से गुजर गए। सुबह हुयी बहस के बाद बहू का बेटे को अंदर बुलाकर बहुत कुछ समझाने का रहस्य अब उनकी समझ में आ गया था, उनकी आँखें नम होने लगी थी।
"लगता है, आप अभी तक नाराज हैं।" बेटा कह रहा था और वे विचारमग्न थे।
"बाऊजी! इस इमारत की ओर देखिये जरा। यह 'पैराळाइसिस होम' है, और इस बार हम अपने पूर्वजों का श्राद्ध यहाँ रहने वाले लाचार लोगों की सेवा करके मनाएंगे। बाऊजी, आपकी बहू का कहना है कि जरूरतमंदों और बीमारों की सेवा करना भी तो एक तरह का धर्म और पुण्य. . . .।" बेटा अपनी बात कहे जा रहा था और उनकी नम आँखों में कुछ देर पहले अपनी बहू को गलत
समझ बैठने के प्रायच्छित-स्वरूप कुछ आँसू आशीर्वाद के ढलक आये थे। ****
04. नफ़रत
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वह नाराज हो जाती थी अगर मित्रों में से कोई उसे दो बातों के लिये टोकता था। एक; स्वयं को दर्पण मेँ निहारना और दूसरा 'रसायन’ (केमेस्ट्री) के विषय को पढ़ना। लेकिन अब नहीं!. . .
अब तो वह नफरत करती है।. . . . 'दर्पण' से, 'रसायन' से, और उन्हीं मित्रों में से एक मित्र से भी। ****
05. जवाब
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वह ‘वरिष्ठ नागरिक सीट’ पर बैठी हेडफोन लगाए अपने आप में मस्त थी, जब मैंने मेट्रो में प्रवेश किया। बहुत सुंदर तो नहीं कह सकता था, पर भारतीय परिवेश की दृष्टि से बेहतर ही थी। पहनावा भी सभ्य और आकर्षक था। लेकिन एक बात, जो मैं नहीं समझ पाया था, वह थी उसके सिर्फ एक पैर में ‘पायल’ का होना। उसके दूसरे सूने पैर का कारण जानने की कोशिश तो मैं नहीं कर सकता था, लिहाजा कोच में एक तरफ खड़ा होकर मैं भी अपने मोबाइल में मस्त हो गया। मेट्रो में भीड़ कम ही थी। साकेत से एक पचपन-छप्पन वर्षीय सज्जन चढ़े और सीधे उस सीट की ओर पहुँचकर उसे सीट छोड़ने को कहने लगे।
लड़की विनम्र भाव से बोली, ‘‘अंकल! बस ‘एम्स’ पर उतर जाऊँगी।’’
सज्जन कुछ उपदेश देने की मुद्रा में थे शायद। ‘‘ठीक है, पर इस उम्र में तो तुम खड़ी होकर भी यात्रा कर सकती हो।’’
‘‘यह लेडिज कोच में भी तो जा सकती थी।’’ पीछे से एक आवाज आई।
‘‘जानबूझकर आती हैं ये और फिर सीट भी नहीं छोड़ती।’’ एक और शख्स की आवाज थी यह।
न जानें क्यों मैं चुप न रह सका। ‘‘भाई आपके भी तो बेटी होगी, ऐसी ही. . . .!’’
‘‘नहीं अंकल! ईश्वर न करे इनकी बेटी मेरे जैसी हो।’’ उस लड़की ने मेरी बात काट दी।
एम्स आ चुका था। वह कुछ सँभलते हुई उठी और धीरे-धीरे कदम बढ़ाती हुई कोच से बाहर चली गई। चलते समय मेट्रो के फर्श पर लगभग घिसटता हुआ उसका कृत्रिम पैर हम सबकी बातों का सही जवाब दे गया था। ****
06. विसर्जन
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"गणपति भप्पा मौर्या... अगले बरस तू जल्दी आ....।"
हर प्रतिमा विसर्जन के साथ कई आवाजें उठती और इन्हीं आवाजों के साथ उसके चेहरे पर कभी बच्चों जैसी खुशी झलकने लगती तो कभी चेहरा गंभीरता का आवरण ओढ़, वह न जाने क्या सोचने लगता?
धुंधली शाम अब रात में ढलने लगी थी लेकिन उसे अभी तक वहीं टहलते देख 'नाव वाले' से रहा नहीं गया। "विसर्जन तो कब का हो गया बाबा? रात हो गयी है, अब घर जाओ।"
"घर. . .! कौन से घर?" बुजुर्ग ने एक गहरी सांस ली और ग॔गाजी की लहरों को देख, बुदबुदाने लगा। "विसर्जन तो मेरा भी हो गया है। बस, मैं ही गंगाजी में उतरने की हिम्मत नहीं कर पाया अभी तक। ****
07. रिश्तों की भाषा
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"नहीं समीर, इतना आसान कहां होता है सब कुछ भूल पाना।" वर्षो पहले एक रात अचानक उसे छोड़ कर चले जाने वाला पति आज फिर सामने खड़ा सब भूलने की बात कर रहा था।
"तान्या! मैं मानता हूँ कि मैं तुम्हारे प्रेम को नकारकर 'उसके' साथ चला गया था लेकिन अब मेरा उससे अलगाव हो चुका है और मैं हमेशा के लिए तुम्हारे पास लौट आना चाहता हूँ।" उसकी आवाज और आँखें दोनों में अधिकार भरी याचना नज़र आ रही थी।
"आज तुम लौटना चाहते हो लेकिन उस समय तुमने एक बार भी नहीं सोचा कि मेरा क्या होगा? अगर मेरे मित्र ने साथ नहीं दिया होता तो मैं ऐसे समय में जीवन का सामना कभी नहीं कर पाती।"
"तान्या! अब तुम्हे उसका अहसान लेने की कोई जरूरत नहीं, हम फिर एक साथ रह सकते हैं।" उसने आगे बढ़कर तान्या के हाथ थाम लिए।
"समीर! मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ।" जाने क्यों उसे समीर के हाथों में पति-प्रेम की अपेक्षा एक पुरुष-प्रेम का अहसास अधिक लगा। "तुम्हारे पीछे मुझे कुछ समय अपने मित्र के साथ भी रहना पड़ा और. . . ." समीर का चेहरे पढ़ते हुए तान्या ने सवालियां नजरे उस पर टिका दी। ". . . हमारे बीच इसे लेकर कभी कोई दुविधा नहीं होगी !"
"तान्या! तुम कैसे भूल गयी कि तुम एक 'ब्याहता' थी!" बदलते भावो के साथ उसकी आवाज भी तल्ख़ होने लगी। ".......ये मेरी ही गलती थी जो मैं लौट कर चला आया।" और उसकी प्रतिक्रिया जाने बिना बात पूरी करते करते वह मुँह फेर चुका था।
वह खामोश खड़ी उसे दूर तक जाते देखती रही, देखती रही। दिल बार-बार कह रहा था। "तान्या, उसे बताओ कि तुम सदा उसकी ही रही हो।" लेकिन जहन दिल को नकार एक ही बात कह रहा था। "जिस्म की देहरी पर खत्म होने वाले संबंध निस्वार्थ रिश्तों की भाषा नहीं पढ़ पाते।" ****
08. मोह-जाल
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सुबह से ही कशमकश में था बिप्ति। आखिरकार उसने 'अखबार' को होटल के फर्श पर फेंक दिया और मन में बढ़ते तनाव से मुक्त होने के लिए कमरे की खिड़की को खोल दिया। एक ठंडी हवा के झोंके के साथ कुछ दूर पर हो रहे कोलाहल के बीच नदी पर फैले अपार जनसमूह ने उसके मन को थोडा शांत किया।
"क्या देख रहे हो साहबजी?" होटल के वेटर बन्नू ने कमरे में घुसते हुए उसका ध्यान आकर्षित किया। "छठी मैया का उत्सव है, बहुत धूम धाम से मनाया जाता है इस नदी पर।"
"अच्छा! सुना तो बहुत है इसके बारें में।"
"हाँ साहब, यह लोक आस्था और सूर्योपासना का पर्व है जिसे चार दिन तक मनाया जाना जाता है।" बन्नू अपना ज्ञान बांचने लगा। "यूँ तो इसे स्त्री-पुरुष सभी करते है लेकिन स्त्रियां विशेष तौर पर इसे पुत्र की प्राप्ति या पुत्र की कुशलता के लिए रखती है। इसमें व्रती सुबह स्नान कर सूर्य को जल अर्पित करने के बाद शुद्ध भोजन का प्रसाद ग्रहण करती है और उसके बाद 36 घंटे का निर्जला व्रत जिसमें पानी भी नहीं पीते, रखती हैं। और साहब जी अपने पुत्र की कुशलता के लिए ये माताएं इतना कठोर व्रत......।" बन्नू अपनी बात कहता जा रहा था और बिप्ति एक बार फिर से अपने तनाव में घिरने लगा था लेकिन इस बार उसका मन एक निर्णय पर पहुँचने लगा था।
"बन्नू एक काम करो, मैनेजर से कहो मेरा 'चेक-आउट' कर के बिल तैयार करे। मुझे जल्दी लौटना है।" कहते हुए बिप्ति, बन्नू की कथा बीच में ही छोड़ अपना सामान समेटने लगा।
चलते-चलते उसने फर्श पर पड़े अखबार को उठा दिल से लगा लिया जिस पर उसके नाम के साथ उसके पिता का संदेश छपा था। "बेटा ! मेरे लिए न सही अपनी माँ के लिए नाराजगी छोड़ कर घर लौट आओ जो पिछले तीन दिन से भोजन, बिछौना सब छोड़, तुम्हे देखने के लिये निर्जला व्रत रखे हुए है।" ****
09. आदर्श एक जुनून
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"मैं मानती हूँ डॉक्टर, कि ये उन पत्थरबाजों के परिवार का ही हिस्सा है जिनका शिकार हमारे फ़ौजी आये दिन होते हैं लेकिन सिर्फ इसी वज़ह से इन्हें अपने 'पढ़ाई-कढ़ाई सेंटर' में न रखना, क्या इनके साथ ज्यादती नहीं होगी?" हजारों मील दूर से 'घाटी' में आकर अशिक्षित और आर्थिक रूप से कमजोर औरतों के लिये 'हेल्प सेंटर' चलाने वाली समायरा, 'आर्मी डॉक्टर' की बात पर अपनी असहमति जता रही थी।
"ये तुम्हारा फ़ालतू का आदर्शवाद है समायरा, और कुछ नहीं।" डॉक्टर मुस्कराने लगा। "तुमने शायद देखा नहीं है पत्थरबाजों की चोट से ज़ख़्मी जवानों और उनके दर्द को, अगर देखा होता तो. . .!"
"हाँ, नहीं देखा मैंने!" समायरा ने उनकी बात बीच में काट दी। "क्योंकि देखना सिर्फ आक्रोश पैदा करता है, बदले की भावना भरता है मन में।"
"तो तुम्हें क्या लगता है कि हमारे फ़ौजी जख्मी होते रहे और हम माफ़ी देकर उनका दुस्साहस बढ़ाते रहे।"
"नहीं, मैं भी चाहती हूँ कि उन्हें सख्त सजा मिले ताकि वे आइंदा ऐसा करने की हिम्मत न करें। लेकिन ये सब तो क़ानून के दायरे की बातें हैं और मैं नहीं समझती कि इस सजा में उनके परिवार को भागीदार बना देना उचित है डॉक्टर।" समायरा की नजरों में एक चमक उभरी आई।
"यानि कि आप दुश्मनों का साथ देना चाहती हैं!" डॉक्टर की बात में एक व्यंग झलक आया।
"डॉक्टर, हमारे दुश्मन ये भटके हुए लोग या इनके परिवार वाले नहीं हैं। हमारी दुश्मन तो सदियों से इनके विचारों में पैठ बनाये बैठी नफरत और निरक्षरता की अँधेरी रातें हैं, हमें इसी रात को सुबह में बदलना है।" वह गंभीर हो गयी।
"तो इस फ़ालतू आदर्शवाद को अपना जुनून मानती हैं आप!" डॉक्टर के चेहरे की व्यंग्यात्मक मुस्कान गहरी हो गयी।
"नहीं! ये फ़ालतू आदर्शवाद नहीं, जीवन का सच है जो हर युग में और भी अधिक प्रखर हो कर सामने आता है।"
"अच्छा! और कौन था वह जिसने ये आदर्श दिया तुम्हे।" सहसा डॉक्टर खिलखिला उठा।
"एक फ़ौजी था डॉक्टर साहब!" अनायास ही समायरा भावुक हो गयी। "जिसने अपनी मोहब्बत भरी अंगूठी तो मुझे पहना दी थी लेकिन ऐसे ही कुछ पत्थरबाजों के कारण अपनी क़समों का सिन्दूर मेरी मांग में भरने कभी नहीँ लौट सका था।"
डॉक्टर की मुस्कराहट चुप्पी में बदल गयी लेकिन समायरा की आँखें अभी भी चमक रही थी। *****
10. एक और एक ग्यारह
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"नहीं समीर नहीं। ये नहीं हो सकता, तुम इस बात को यहीं खत्म कर दो।" तनु के जवाब ने उसको थोड़ा निराश कर दिया।
बहुत अधिक समय नहीं हुआ था उनकी पहचान को। लगभग वर्ष भर पहले ही वह दोनों एक विशेष भर्ती अभियान के तहत एक निजि संस्थान में भर्ती हुए थे। जहां समीर का एक बाजू और एक पांव से लगभग लाचार होना और तनु का आकर्षक होते हुये भी 'मर्दाना' लक्षणों के कारण सहज ही बाकी स्टाफ से अलग-थलग सा हो जाना, उनकी नियति बन गयी थी। ऐसे में कब वे एक दूसरे के करीब आ गए, पता ही नहीं लगा था। लेकिन आज विवाह के प्रश्न पर तनु के इंकार ने समीर को उसकी शारीरिक अक्षमता का तीव्रता से अहसास दिला दिया।
"सॉरी तनु! मुझे लगा कि हमारा रिश्ता विवाह-बंधन में बदल सकता है, लेकिन मैं भूल गया था कि एक अधूरे इंसान को तुम्हारे जैसी योग्य और अच्छी लड़की के बारें में नहीं सोचना चाहिए।" उसकी आँखें नम हो गई।
"ऐसा मत कहो समीर, ख़ुद को अधूरा कह कर अपना मूल्य कम मत करो। अधूरापन तो मेरे जीवन में है, जो न पूर्ण रूप से स्त्री बन सकी और न पुरुष। ऐसा लगता है, जैसे गीली लकड़ी बन कर जी रहीं हूँ जो न जल पा रही है और न बुझ पा रही है।" अपनी बात कहती हुई तनु उठ खड़ी हुई। "समीर, एक 'किन्नर' ही तो हूँ मैं! एक मित्र तो बन सकती हूँ पर किसी की पत्नी नहीं।"
"नहीं तनु।" समीर ने उठ कर जाती तनु का हाथ पकड़ लिया। "तुम एक अच्छी मित्र ही नहीं पत्नी भी बन सकती हो, क्योंकि ये जरूरी तो नहीं कि हमारा संबंध केवल दैहिक रिश्तों पर ही आधारित हो।"
"और ये समाज...!"
"हां तनु। ये समाज हमारी 'फिजिकली डिसमिल्रिटीज' (प्राकृतिक विषमताओं) पर प्रश्न उठाता रहा है, तो ज़ाहिर है कि हमारे संबंधों को भी आसानी से स्वीकार नहीं करेगा।"
"हाँ समीर, और बात इतनी भी नहीं है। एक विवाह का अर्थ शारीरिक जरूरतों के साथ वंश वृद्धि से भी जुलड़ा होता है, क्या तुम इसे स्वीकार. . .?"
"बस और कुछ मत कहो तनु।" समीर ने उसकी बात काट दी थी। "मैं तुम्हारे हर प्रश्न का उत्तर बनने के लिए तैयार हूं, यदि तुम मेरा साथ दे सको। रही बात समाज की, तो जब हम अकेले समाज से संघर्ष करके यहाँ तक पहुंच सकते हैं तो क्या दोनों मिलकर समाज के हर प्रश्न का उत्तर नहीं बन सकते?" उसकी आँखों में झलकते विश्वास को देख, अनायास ही तनु मुस्करा उठी और उसने आगे बढ़ समीर का हाथ थाम लिया। ****
11. अपोस्ट्टाइज एक पहचान
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"कहीं ये सब सपना तो नहीं!" ढलती शाम के साये में आँखें बंद किये वह स्वयं से ही बुदबुदा रहा था। "एक ही दिन में इतना पैसा, कच्ची छत की जगह पक्की छत का मकान और सुंदर कपड़ो सहित कई उपहार। ये सब तो शायद वर्षों तक नहीं बना पाता मैं।"
"हाँ नहीं बना सकता था तू लेकिन..." अचानक ही उसके अंतर्मन से आवाज आई। "इतना सब पाने के लिये जो तूने अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया, उसका क्या?"
"नहीं, मैंने कुछ गलत नहीं किया। मेरे लिए सबसे बढ़कर है मेरा परिवार, जिसके लिये मैं सब कुछ कर सकता हूँ।"
"क्या मेरा त्याग भी. . .?" सहसा कहीं से एक स्वर गूंजा।
"हाँ...हाँ...।" वह चिल्ला उठा। अनायास ही तीव्र प्रकाश से उसकी आँखें खुल गई और साक्षात् ईश्वर को सामने अनुभव कर उसका सर्वांग कांप गया। सर्वशक्तिमान की अवधारणा भय बनकर उसके मन-मस्तिष्क पर इस कदर छाई कि वह डर से काँपने लगा। "क्षमा प्रभु, क्षमा. . . मेरे अपराध के लिये मुझे क्षमा करना प्रभु! मैं अपने दुःखों से हार गया था बस इसलिए अपनी पहचान भी. . .।"
"नहीं पुत्र तुमने कोई अपराध नहीं किया है।" सामने खड़े प्रभु मुस्करा रहे थे। "तुमने मेरा त्याग कब किया पुत्र? तुमने तो केवल मेरे कुछ चिन्हों और प्रतीकों का अपने जीवन में स्थान परिवर्तन कर लिया है। पुत्र, मुझे पाने के लिए तो इन सब की आवश्यकता ही नहीं है। मैं तो सदा ही तुम्हारे अंदर हूँ, इसलिए मुझे पाने के लिए तो केवल तुम्हें स्वयं को ही पाना है पुत्र।"
दूर कहीं सूरज बादलों में ढलने लगा था लेकिन उसके भीतर एक नया सूरज उदय होने लगा था। "हाँ, मैं तो वस्तुतः एक मनुष्य हूँ, मुझे और किसी पहचान की आवश्यकता ही कहाँ है?" कहते हुये वह अनायास ही अपनी बाहरी पहचान के चिन्हों से मुक्त होने लगा था। ****
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पिता : पूरन सिंह
माता : धनपति देवी
जन्म तिथि : 15.07.1974
जन्मस्थान : हसनपुर
शिक्षा : एम.ए (हिंदी) एमफिल. पीएच.डी (हिंदी लघुकथाओं के आलोक में राष्ट्रीय चेतना)
प्रकाशित पुस्तकें : अभी बुरा समय नहीं आया है । (लघुकथा संग्रह) कीचड़ में कमल( लघुकथा संग्रह) समरीन का स्कूल (बाल कहानी संग्रह) संपादित : हरियाणा से लघुकथाएं : विशेष सहयोग
पुरस्कार: साहित्य समर्था जयपुर की ओर से अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता में कहानी 'फसल' को तीसरा स्थान । साहित्य सभा कैथल की ओर से 'स्वदेश दीपक स्मृति पुस्तक पुरस्कार' वीएचसीए फाउंडेशन घरौंडा द्वारा 'हिंदी रत्न' सम्मान
अनुवाद : लघुकथाएं पंजाबी अंग्रेजी और मराठी में अनुवादित।
प्रसारण : कुरुक्षेत्र , रोहतक आकाशवाणी एवं हिसार दूरदर्शन से लघुकथाएं प्रसारित।
पता:
नसीब विहार कॉलोनी घरौंडा - करनाल 132 114 - हरियाणा
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आज दीनानाथ जी मिश्रा जी से मिलने उनके घर आए थे ।
दोनों किसी विषय पर बात करते हैं उससे पहले ही मिश्रा जी ने अपनी पुत्रवधू को चाय के लिए आवाज लगाई ।
थोड़ी देर बाद ही चाय आ गई साथ में बिस्किट भी ।
"यार तुम बहुत सुखी हो तुम्हारी पुत्रवधू तुम्हारा कितना आदर करती है। और एक मैं हूं मेरे बच्चे मुझे खास तवज्जो नहीं देते ।वे तो चाहते हैं कि मैं कोल्हू के बैल की तरह घर के कामों में लगा रहूं। मैंने तो स्पष्ट कह दिया है मुझसे कोई काम नहीं होगा ।" दीनानाथ जी ने चाय का कप उठाते हुए कहा।
"अरे घर के काम तो मैं भी करता हूं। घर के काम करने में क्या परेशानी ?मैं सुबह सैर को निकलता हूं तो ताजा ताजा सब्जियां ले आता हूं। शाम को दूध लेने चला जाता हूं, दूध भी आ जाता है और बाहर मित्र प्रयासों से बात हो जाती है। अरे हमारे बच्चे काम पर जाते हैं तो ऐसे में हमारा भी कर्तव्य बनता है कि हम अपने बच्चों की खुशियों का ध्यान रखें।
"तुम बात तो सही कह रहे हो मिश्रा।" दीनानाथ जी ने कुछ सोचते हुए कहा।
घर आते ही दीनानाथ जी ने पुत्रवधू को आवाज लगाई ,"बहू दूध का बर्तन देना उधर दूध वाले की तरफ जा रहा हूं। आते हुए दूध ले आऊंगा।"
अब दीनानाथ जी बर्तन को हिलाते हुए इस प्रकार चल रहे थे मानो शरीर में खुशी की कोई लहर दौड़ रही हो । ****
2. प्रवासी पंछी
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हर रोज की भांति हम आज भी रेलवे प्लेटफार्म पर पहुंचे।
शाम 5:00बजे वाली गाड़ी एक घंटा लेट पाई। मौसम की वजह से गाड़ियां दिसंबर जनवरी में अक्सर लेट हो जाती हैं।
हम बैठने के लिए बेंच तलाश ही रहे थे कि पक्षियों की चहचहाहट ने हमारा ध्यान अपनी ओर खींचा। पक्षियों का एक झुंड बिजली के खंभों पर कतार बना कर बैठा था ।थोड़ी देर बाद ही वे पंछी उड़कर उस दिशा में चले गए जिधर बहुत से पेड़ खड़े थे। हमने देखा वे फिर दुगनी संख्या में होकर वापस आए ।
"देखो यार इन पंछियों का एक दूसरे के प्रति कितना प्रेम है। कैसे एक साथ रहते हैं ।" साथी बलिंदर ने कहा।
"अरे परिवार है इनका। अपने दुख सुख सांझे करते हैं और रूठे हुए को मनाते हैं । फिर चुपचाप उन पेड़ों पर जाकर सो जाते हैं।" सुभाष शर्मा ने अपना अनुभव साझा किया।
इसी बीच राजीव कहने लगा,"देखो इन्हीं अपनी जन्मभूमि से कितना प्रेम है। हर वर्ष इन्हीं दिनों यहां आते हैं। मैं हर वर्ष इन्हें देखता हूं।"
" अरे अपनी माटी से इतना प्रेम तो होना ही चाहिए ।जिस माटी में खेले कूदे बड़े हुए उसकी खुशबू तो लेते रहना चाहिए । कुछ भी हो यार इन पंछियों को देख कर मेरा मन खुशी से गदगद हो उठा। पर मेरे मन की खुशी ज्यादा देर टिकी न रह सकी । एक वृद्ध दंपत्ति जो हमारे पास ही बैठा था अचानक यह कहते हुए अपनी जगह से उठ खड़ा हुआ कि हमारे बच्चों से तो यह प्रवासी पंछी अच्छे हैं जो साल में एक बार तो अपने घर आ जाते हैं पर हमारे बच्चे.....! ****
3. कमी
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"अच्छा रमा की मां अब चलती हूं….. बच्चों के आने का वक्त हो गया है" राधा की मां ने सोफे से उठते हुए कहा था ।
"बैठी रहना बहन। मेरा मन लगा रहेगा वैसे भी तुझे घर पर कौन सा काम करना है ।"रमा की मां की वाणी से अपनापन झलक रहा था।
"काम तो नहीं करना। काम तो बहुएं ही कर लेती हैं ।वे तो दोनों बेटे काम से आकर मेरे पास बैठते हैं। वे दो बातें अपनी कह लेते हैं चार मैं सुना देती हूं। बस, मन शांत हो जाता है।रात में ठीक से नींद आ जाती है। सुबह तन मन बिल्कुल रुई के फाहे सा हल्का होकर हवा में उड़ता सा लगता है।"
"तुम्हारे बच्चों का क्या हाल है आजकल?" राधा की मां ने चलते-चलते पूछ ही लिया था।
"मेरे बेटों के फोन आते रहते हैं एक का फोन आया था... कह रहा था घरवाली के जन्मदिन पर नई गाड़ी खरीदी है । इस बार बच्चों को महंगे वाले स्कूल में डाल रहे हैं ।और दूसरा उसकी तो पूछो ही मत । उसके तो टूर ही खत्म नहीं होते। एक देश से दूसरे देश,बस ,उन देशों के बीच अपना ही घर नहीं होता ।"उसकी आवाज से मां होने का दर्द खुद बोल रहा था।
" रमा की मां तुझे तो खुश होना चाहिए तेरे बच्चों के पास सब कुछ है और एक हमारे बच्चे हैं सुबह काम पर जाते हैं शाम को लौटते हैं ।"
"हां सब कुछ है मेरे पास, बस एक चीज की कमी है ।"
"कमी और तेरे पास क्यों मजाक करती हो रामा की मां।"
" मजाक नहीं सच कहती हूं रात भर जल से अलग हुई मछली की तरह तड़पती रहती हूं। तेरे जैसी नींद नहीं है बहन मेरे भाग्य में ।"ऐसा कहते हुए उसकी आंखें न जाने क्यों नम हो गई। ****
4. मुआवजा
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गांव में आंधी और ओलावृष्टि के कारण नष्ट हुई फसल के बदले मुआवजा राशि बांटने एक अधिकारी आया। बारी-बारी से किसान आ रहे थे और अपनी मुआवजा राशि लेते जा रहे थे जब सारी राशि बंट चुकी तो रामधन खड़ा हुआ और हाथ जोड़कर बोला," साहब जी, हमें भी कुछ मुआवजा दे दीजिए"
" क्या तुम्हारे भी फसल नष्ट हुई है?" अधिकारी ने सहज भाव से पूछा।
" नहीं साहब जी, हमारे पास तो जमीन ही नहीं है."
" तो तुम्हें मुआवजा किस बात का?"
" साहब जी, किसान की फसल होती थी ,हम गरीब उसे काटते थे और साल भर भूखे पेट का इलाज हो जाता था। अब फसल तबाह हो गई तो बताइए हम क्या काटेंगे और काटेंगे नहीं तो खाएंगे क्या?"
" तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा । जाइए अपने घर।" इस बार अधिकारी जैसे आपे से बाहर हो रहा था।
रामधन माथा पकड़े वहीं बैठ गया। ****
5. बड़ा हूं ना
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पति-पत्नी किसी पर्यटक स्थल की सैर को रवाना हुए थे। अभी उन्हें घर से निकले 2 घंटे ही हुए होंगे कि बड़े भाई ने फोन कर हालचाल पूछा । साथ में यह भी कहा कि फोन करते रहना। "ठीक है भाई!" इतना कह छोटे ने फोन काट दिया ।
सफर में वह पत्नी से बातें करने में इतना मशगुल हुआ कि फोन करना ही भूल गया ।
बड़े भाई का ही फोन आया," कहां तक पहुंच गए ?कोई परेशानी तो नहीं अपना ख्याल रखना।"
" ठीक है भाई । हम अपना ख्याल रखेंगे। "छोटे ने जवाब दिया।
उसकी पत्नी ने कहा ,"भाई साहब तो आपको बच्चा समझते हैं ।बार-बार नसीहत देते हैं। सफर का सारा मजा किरकिरा कर दिया । लाओ ,मुझे फोन दो , मैं स्विच ऑफ करती हूं ।"और उसने वैसा ही किया
घर पर बड़ा भाई बार-बार फोन मिला रहा था, पर फोन न मिल पाने के कारण बेचैन हुए जा रहा था।
उसकी बेचैनी देख पत्नी ने कहा,"क्यों पागल हुए जा रहे हो ?चिंता छोड़ो और आराम से सो जाओ।"
"कैसे सो जाऊं पता नहीं वह किस हालात में होंगे? फोन भी मिल नहीं रहा। "भाई ने बार-बार फोन मिलाते हुए कहा ।
"सो जाओ ना और भी है इस घर में" पत्नी ने खींझ भरे शब्दों में कहा।
" बड़ा हूं ना !"उसने एक ठंडी आह भरते हुए कहा। ****
6. सुख
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पति पत्नी बेड पर लेटे थे ।
एक बात कहूं ,"पत्नी ने अनमने भाव से पति से पूछा ?"
पति की नजरें छत की ओर लगी थी ।
वे उसी मुद्रा में बोले,"कहो ?"
"आप दूसरी शादी....." पत्नी सिर्फ इतना ही कह पाई ।
थोड़ी देर के लिए उन दोनों के बीच सन्नाटा पसर गया ।
फिर पति के मुख से निकला," क्यों?" "संतान सुख जरूरी है जीवन में।"
फिर चुप्पी ।
इस बार पति ने अपनी नजरें वहां से हटाकर पत्नी के चेहरे पर टिका दी।
"क्या?"
"हां समझा करो।"
"कैसी बातें कर रही हो ।"
"पता है दूसरी शादी ....सौतन आएगी तेरी।"
"यही कहना चाहते हो ना कि मैं कहीं की नहीं रहूंगी.... मैं सब सह लूंगी... सब।"
"मेरे लिए सब सह लेगी और मैं ....सोच कैसे लिया तूने ....मैं तुम्हें नरक में डालकर स्वर्ग पाऊंगा! नहीं नहीं पाऊंगा नहीं।" इतना कह उसने पत्नी को अपनी बाहों में भर लिया।
अचानक पत्नी के भीतर सुख की एक नदी उमड पड़ी और उसने बाहों से पति को दुगने जोश के साथ वैसा ही उत्तर दिया। ****
7. सजा
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आज अदालत में उस मुजरिम को सजा सुनाई जानी थी,जिसने कभी एकतरफा प्यार में दीवाना होकर एक बेकसूर लड़की पर तेजाब फेंका था। लड़की बुरी तरह जल गई थी।
अदालत के कटघरे में मुजरिम रो-रोकर चिल्लाने लगा," जज साहब, मुझे इतनी बड़ी सजा मत दीजिए ....मैं ताउम्र जेल में नहीं सड़ सकता ।मैं मर जाऊंगा ।"
"यह तो तुम्हें लड़की पर तेजाब फेंकने से पहले सोचना चाहिए था।"
"साहब गलती हो गई.... माफ कर दीजिए ...आगे से ऐसी गलती नहीं होगी ।"
"अच्छा ! यह बताओ तुम्हें सजा क्यों न दी जाए ?"
मुजरिम चुप ।
"बोलो? अब जवान क्यों नहीं खुलती तुम्हें सजा जरूर मिलेगी।"
"साहब कम कर दीजिए ।"
जज साहब ने कुछ देर सोचा. फिर बोले," ठीक है तुम्हारे सामने दो विकल्प है एक, तुम्हारे चेहरे पर वही तेजाब डाला जाए। दूसरा, उम्र भर कैद ।"
मुजरिम ने दूसरा विकल्प चुना ****
8. मेरा घर
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पति-पत्नी शाम को ऑफिस से आए तो घर की साफ सफाई... चकाचक बर्तन और धुले कपड़े देख दोनों हैरान रह गए ।
कामवाली बाई तो ऐसे काम करने से रही । अवश्य ही यह सब मां ने ही किया होगा । उन्होंने मन ही मन सोचा मां कल ही गांव से शहर आई थी।
"पुत्र क्या देख रहे हो ? यह सब मैंने किया है ....इन बूढ़ी हड्डियों में इतनी तो जान है कि घर के छोटे-मोटे काम तो निपटा ही सकती हूं। मुझे तो यहां आकर पता चला कि तुम्हारी जिंदगी तो रेल बनी हुई है ..मेरी बहू की तो और भी परेशानी ....खुद तैयार होना.... बच्चों को तैयार करना..... खाना बनाना..... खाना पैक करना ...अरे कितने काम। मैंने सोच लिया है जब तक मैं यहां रहूंगी... ज्यादातर काम निपटा दिया करूंगी. मैंने तो कामवाली बाई से भी कह दिया है कि वह अपना काम कहीं और देख ले ।"
"ठीक है मां जैसा तू चाहती है, वैसा ही कर ।"
रात को खाना खाने के बाद पति पत्नी टहलने छत पर चले गए ।
वहां पत्नी कहने लगी," मैं कहती हूं मां जी ने कामवाली को भी मना कर दिया.... कहीं !"
"ठीक ही तो किया.... दो पैसे बचेंगे ...मां के रहते हम निश्चित भी तो रहेंगे ।बच्चों को दादी का प्यार भी मिल जाएगा । "पति ने पत्नी की बात बीच में काटते हुए कहा।
" वह सब तो ठीक है। पर...!"
" पर क्या ?"
"कहीं मां यहीं रहने की तो नहीं सोच रही?"
" तुम ऐसा क्यों सोचती हो । खुश रहना सीखो ।रहने दो उसका घर है।"
" और मेरा.... मेरा कुछ नहीं....?" इतना कह पत्नी पैर पटकती हुई पति से दूर चली गई ****
9. समाधान
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सपना खाना खाने के बाद बर्तन धो मौज कर जब बेड पर आई तो साहिल ने बातों ही बातों में कहा ,"सपना कोर्ट ने औरतों को कितना सम्मान बढ़ा दिया। वह भी पुरुषों की भांति पैतृक संपत्ति में बराबर की हिस्सेदार बनेंगी। क्या इससे औरतें खुद को गौरवान्वित महसूस नहीं करेंगी।"
"आज यह कोर्ट कचहरी कैसे याद आ गई ।"सपना ने मजाक के लिहाजे में पूछा।
" सपना ,मैं सोचता हूं ....अपनी दुकान के पास एक खाली दुकान बिक रही है क्यों ना उसे खरीद लिया जाए।"
" नेकी और पूछ पूछ .....एक से दो हो जाएंगी।" ऐसा कहते हुए उसका एक-एक शब्द प्रसन्नता से भर उठा था। पर उसकी प्रशंसा उस समय मायूसी में बदल गई जब साहिल ने कहा ,"सपना, तुम्हारा अपने पिता की संपत्ति में जो हक बनता है यदि वह संपत्ति तुम्हें मिल जाए तो वारे न्यारे हो जाए।"
"क्या !" अभी तक खुशी के मारे सांसो का जो विस्तृत फैला हुआ था वह तुरंत सिमट कर रह गया।
"हां सपना !एक बार सोच कर देखो।" कैसी बातें कर रहे हैंआप । पांच पांच बच्चों को पढ़ाना ...उनको अपने पांव पर खड़ा करना.....उनके विवाह करना। ऐसे में आदमी के पास बचा ही क्या है ? आप खुद ही सोचो ।"
"सोचने का वक्त नहीं है मेरे पास। मैं जुबान दे चुका हूं ,यदि हमने वह दुकान नहीं खरीदी तो मार्केट में क्या वैल्यू रह जाएगी हमारी ? इसके लिए अब तुम्हें ही कुछ करना होगा तुम कल अपने पिता के पास जाओगी और रूपयों का प्रबंध करके ही आओगी।समझी! आगे तू खुद समझदार है ।"
"आप पढ़े लिखे हो कर भी?"
" मैं कुछ नहीं जानता। बस, वह दुकान हमारी और केवल हमारी होनी चाहिए। नहीं तो ।"अबकी बार उसने चेतावनी दे डाली ।
उसने साहिल के इस रूप की कल्पना भी नहीं की थी। पहले तो वह एक अनजाने डर से कांप उठी । बाद में गहन चिंतन में डूब गई । वह सुबह उठी भगवान से प्रार्थना की -"हे भगवान ! मैं जो कदम उठाने जा रही हूं उसमें मेरी सहायता करना।" फिर एक दृढ़ निश्चय से इस समस्या का समाधान खोजने हेतु अपने पिता के पास जाने की वजह वह सीधी साहिल की बहन की ससुराल जा पहुंची। ****
10.बाढ़ राहत
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बाढ़ ग्रस्त लोगों की ही सहायतार्थ एक सरकारी आदेश गांव के मुखिया के नाम आया।
"आप दो सूचियां तैयार करें -पहली सूची, उन लोगों की जिनका नुकसान ज्यादा हुआ है उन्हें सहायता राशि पहले दी जाएगी. दूसरी सूची उनकी जिनका नुकसान कम हुआ है, उन्हें सहायता राशि बाद में बांटी जाएगी।
दो दिन बाद एक अधिकारी राहत राशि बांटने आया।
मुखिया द्वारा जो सूची अधिकारी को दी गई उसके अनुसार पहली सूची में वे नाम थे जिन्होंने पंचायत चुनाव में मुखिया का साथ दिया था और दूसरी मे वे नाम जिन्होंने मुखिया के प्रतिद्वंदी का साथ दिया। ****
11.इतिहास
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आज फिर से भेडों का आपस में झगड़ा हो गया।
झगड़ा भेड़ों का और चेहरे पर रौनक छाई भेड़िए के । छानी ही थी क्योंकि हर बार भेड़िया ही तो करवाता आया है भेड़ों का समझौता । भेड़िया इसकी एवज में खाता आया है दोनों पक्षों से खूब मलाई।
आज वह अपने ठिकाने से एक पल को कहीं नहीं गया क्योंकि न जाने कब कौन सा पक्ष आ जाए।
सुबह से शाम हो गई। पर, भेड़ें न आईं। वह यह सोच कर कि कहीं भेड़ें भूल गई हो । वह उनके घर की ओर चल दिया।
वहां पहुंचते ही उसके होश उड़ गए। उसे अपने पैरों तले से जमीन खिसकती नजर आई और उसने देखा कि भेड़ें आपस में बतिया रही हैं और उनकी पढ़ी-लिखी एवं समझदार संताने पास खड़ी खिलखिला रही हैं।ऐसा देख भेडिये को अपना सिंहासन डोलता नजर आया ****
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प्रकाशन: -
4 व्यंग्य- संग्रह,
3 कथा-संग्रह,
2 कविता-संग्रह,
2 लघुकथा-संग्रह
पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशन : -
राष्ट्रीय/ अंतराष्ट्रीय स्तर की पत्र-पत्रिकओं में विविध विधाओं में 1000 से अधिक रचनाएं।
अनुवाद : -
मराठी, नेपाली, अंगरेजी, कन्नड़, मलयाली, उड़िया, नेमाड़ी भाषा में रचनाओं का अनुवाद प्रकाशित ।
मराठी से हिंदी में 6 पुस्तकें तथा 30 से अधिक कहानियां एवं कुछ लेख, कविताओं का अनुवाद प्रकाशित।
आकाशवाणी : -
आकाशवाणी से 30 मिनट के छह नाटक एवं अनेक कविताएं, वार्ता प्रसारित
प्रमुख सम्मान: -
भारत सरकार द्वारा ‘हिंदीतर-भाषी हिंदी लेखक राष्ट्रीय पुरस्कार’, राष्ट्रीय सहस्राब्दी सम्मान 2000, लघुकथा-संग्रह बोनसाई पर किताब घर दिल्ली द्वारा ‘राष्ट्रीय आर्य स्मृति साहित्य सम्मान 2018,
महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई द्वारा दो कहानी-संग्रहों पर मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार,कविता-संग्रह को संत नामदेव पुरस्कार, मराठी उपन्यास धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे के हिंदी अनुवाद के लिए ‘मामा वरेरकर अनुवाद पुरस्कार’ । महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा डॉ. राममनोहर त्रिपाठी फेलोशिप इत्यादि
पता: 30 गुरुछाया कालोनी, साईंनगर, अमरावती-444607 महाराष्ट्र
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पिछवाड़े की नाली में एक कुत्ता मरा पड़ा था। हमेशा लाइब्रेरी के लिए घर से पत्रिकाएं लेकर जानेवाला अशोक आया तो मैंने उससे कहा, ‘‘यार अशोक, कोई स्वीपर हो तो भेज देना। एक कुत्ता मरा पड़ा है। जितने पैसे कहेगा, मैं दे दूंगा उसे। जल्द निकालना जरूरी है। नहीं तो बास मारने लगेगा।”
“ठीक है, सा’ब।” कहकर अशोक चला गया।
दोपहर करीब बारह बजे मुंह पर कपड़ा लपेटे एक लड़का आया। उसने सौ रुपये लेकर कुत्ता हटाने की बात की तो मैं तुरंत तैयार हो गया। उसने पतलून फोल्ड की और नाली में उतरकर कुत्ता निकाल लिया।
“सा’ब, इसे दूर ले जाकर डालना होगा नहीं तो बास मारेगा।”
“हां, दूर ...उधर रेल्वे लाइन के पार ले जाकर डाल दो।”
“जी, आप पैसे दे दीजिए...।”
मैंने श्रीमती जी को आवाज दी। उसने लड़के को पैसे दे दिये।
लड़के ने कुत्ते को उठाकर साइकिल के कैरियर पर रखा और जाने लगा। इस बीच श्रीमती जी ने मेरे कान में कहा, “यह लड़का कोई और नहीं, वो अशोक ही है।”
“क्या कहती हो!...अशोक यह काम नहीं करेगा।”
“मैंने पैसे देते वक्त उसके हाथ देखे । दोनों हाथों में छह-छह उंगलियां हैं। मैंने अशोक के हाथ देखे हैं। मुंह ढंक के और मेक-अप करके आया है इस कारण आपने नहीं पहचाना।”
लड़का साइकिल पर बैठता कि मैंने उसे आवाज दी, “सुनों, तुम्हारी एक रस्सी यहां छूट गयी है...अशोक!”
“नाम सुनकर लड़का कुछ चौंका। फिर रस्सी उठाने कों बढ़ा ही था कि मैंने उसके कंधे पर हाथ रख दिया। “अशोक ...तुम अशोक ही हो न...!”
उसकी आंखों में आंसू उमड़ आएं। कहने लगा, “सा’ब , मैं ऊंची जात का हूं। यहां पढ़ने के लिए अपने मामा के घर रहता हूं। फीस... किताबों के लिए पैसे चाहिए होते हैं इसलिए ...। किसी से कहना नहीं साहब नहीं तो मेरे मामा मुझे घर से निकाल देंगे...।” और मैं कुछ कहूं इसके पूर्व अशोक निकल गया। ।” ****
2. खतरा
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मोबाइल बजा। घर में पोंछा लगा रही कामवाली बाई ने मोबाइल उठाया और जल्दी-जल्दी चलकर आंगन में गमलों को पानी दे रहे बुजुर्ग से कहा, ‘‘बाबूजी, फोन ...।’’ बुजुर्ग ने अलजाइमर से कांपते हाथ में फोन लेकर नाम पढ़ा। फिर संयत स्वर में बोले, ‘‘हैलो...हैलो...हैलो...आवाज नहीं आ रही है...।’’
उधर से फिर आवाज आयी, ‘‘हैलो...हैलो बाबा..., आप लोग घर में ही हैं कि दीदी के यहां चले गये? बाबा...मैं घर आना चाहता हूं। बाबा...आप लोग घर में हैं क्या बाबा...हैलो...हैलो...बाबा...मैं घर आना चाहता हूं बाबा...!’’ जवाब में बुजुर्ग दोहराते, तिहराते रहे, ‘‘हैलो...हैलो...मैं कुछ भी सुन नहीं पा रहा हूं...बिल्कुल आवाज नहीं आ रही है...हैलोऽऽ...।’’ और बुजुर्ग ने मोबाइल बंद कर दिया।
थोड़ी देर बाद फिर बेल बजी। बुजुर्ग ने नाम पढ़ा और खुद-ब खुद बंद होते तक बेल बजने दी।
‘‘आवाज तो आ रही थी। स्पीकर जो ऑन था! मैंने सुना, अनुराग की ही आवाज थी। वह घर आना चाहता है...पता नहीं, वहां किस हाल में है, हमारा बेटा...! आपने ऐसा क्यों किया?’’ पास में मनी-प्लांट संवारती बुजुर्ग महिला करीब आकर खड़ी हो गयी थी ।
‘‘गौरी…, पंचायत में कल ही फैसला हुआ है कि जब तक ये कोरोना-वायरस समाप्त नहीं हो जाता तब तक बाहर से किसी को गांव में नहीं आने दिया जाएगा।... अपना बेटा जिस शहर में है वहां सबसे ज्यादा केसेस पॉजिटिव निकले हैं। ऐसे में उसका यहां आना पूरे गांव के लिए खतरा साबित हो सकता है!’’
‘‘और उसका वहां बने रहना... ?’’ भर्रायी आवाज में एक प्रश्न गूंज उठा।
बुजुर्ग ने सुना पर कोई जवाब नहीं दिया। फतुही की जेब से रूमाल निकाला और छलक आये आंसुओं को समेटते हुए फिर गमलों की ओर मुड़ गये। ****
3.खानदान
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बेटे श्रीधर की प्ले-स्कूल से फोन आया तो नीरजा घबड़ा गयी। ‘मै’म, आपके बेटे को लगातार वॉमिटिंग हो रही है। वह सुस्त पड़ गया है। हम लोग स्कूल की गाड़ी से उसे पास के सचिंद्रा हॉस्पिटल में लेकर जा रहे हैं। आप जितनी जल्दी हो सके, वहां आ जाइए।’ हेड-मिस्ट्रेस ने कहा और फोन रख दिया।
नीरजा विवाह से पहले एक प्राइवेट कंपनी में नौकरी करती थी। वामनराव के साथ ही बी. ई. किया था उसने। हाइस्कूल से साथ थे दोनों। वामनराव ने विदेश जाकर एम.एस. किया। शायद पी-एच. डी. भी करते । लेकिन कार एक्सिडेंट में पिताजी के निधन के कारण आगे की पढ़ाई के सपने अधूरे छोड़कर घर का कारोबार संभालना पड़ा। ट्रान्सफॉर्मर बनाने का कारखाना, दो पेट्रोल पंप, बीस एकड़ खेती। बारहवी में बाईसवीं मेरिट नीरजा होशियार होने के साथ-साथ सुंदर और सुशील भी थी। वामनराव ने उससे विवाह के लिए ‘मम्मी जी’ की राय जाननी चाही तो उन्होंने साफ इंनकार कर दिया। कारण था,नीरजा की साधारण आर्थिक परिस्थिति। आखिर मम्मी जी को किसी प्रकार समझा-बुझाकर वामनराव ने नीरजा से ही विवाह किया । नीरजा की नौकरी जारी रहने का सवाल ही नहीं था।‘कमा-कमा कर ऐसे कितने कमा लोगी तुम ? बहुत हुआ तो तीस-चालीस हजार ही न! इतने तो हमारे यहां हम मैनेजर को देते हैं!’ मम्मी जी ने कहा था।
नीरजा ने वामनराव को फैक्टरी में फोन किया। वामनराव बोले, “मैं सीधे अस्पताल पहुंचता हूं। ड्राइवर मुझे अस्पताल में छोड़कर तुम्हें लेने आ जाएगा। तुम तैयार रहो।”
शामको श्रीधर को अस्पताल से छुट्टी मिल गयी। वह मां-पिताजी के साथ घर आ गया। आते ही उसे अपने पास लेकर ‘मम्मी जी’ पूछने लगी, “स्कूल में कुछ खाया था क्या तुमने?’’
“नहीं दादी मां, ...घर में फ्रूट-जैम के साथ ब्रेड का नाश्ता किया था, बस वही...।”
“वह तो तुम रोज ही करते हो। तब आज वॉमिटिंग का कारण क्या है? याद करो, कुछ और खाया होगा, तुमने ...!”
“नहीं दादी मां, ...हांऽऽ... याद आया। आज मम्मी ने ड्राय-फ्रूट्स दिये थे खाने के लिए, बस वह खाये।”
“ड्राय-फ्रूट्स ...!” ‘मम्मी जी’ ने बहू की ओर देखा।
“वो दीपावली में स्टाफ को बांटने के लिए जो गिफ्ट -पैकेट्स लाये थे न, उनमें से कुछ बच गये थे। मैंने कल वो सब खोलकर देखे। जो खराब हो गये थे वे फेंक दिये लेकिन कुछ ड्राय-फ्रूटस अच्छे दिखे तो वो मैंने निकालकर रख लिए। उन्हीं में से आज चिंटू को नाश्ते के बाद दिए थे ।’’
‘‘अरी पगली, मैंने तुम्हें पिछले माह ही कहा था कि जो बचे हैं, उन्हें फेंक दो। अक्टूबर में मंगवाये थे। पता नहीं, उन्होंने कबसे पैक करके रखे होंगे! अब मार्च चल रहा है। वे भी स्टाफ में बांटने के लिए थे! अपने खाने के लिए नहीं...समझी!’’ वामनराव कहने लगे। ‘‘तुम्हारे वो सड़े ड्राय-फ्रूटस् खाकर आज श्रीधर की जान चली जाती तो क्या भाव पड़ता! तुम ऐसा क्यों करती हो, मेरी समझ में नहीं आता...!”
नीरजा वामनराव को कुछ सफाई देती इसके पूर्व ही ‘मम्मीजी’ ने जैसे हथौड़ा चला दिया, “इसीलिए कहा था, केवल थोबड़ा देख लेने से काम नहीं चलता...खानदान भी देखना पड़ता है, रिश्ता जोड़ने के लिए। लेकिन यहां सुनता कौन है...?”
नीरजा के लिए यह उलाहना नया नहीं था। फिर भी आंखों से आंसू बाहर आ ही गये। ****
4. दहशत
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शहर की शानदार होटलों में से एक का हॉल। मद्धिम रोशनी में दो व्यक्तियों ने प्रवेश किया। पल भर ठिठक कर मुआयना किया और कोनेवाली टेबिल संभाल ली। ऑडर लेनेवाली चुस्त-दुरुस्त युवती प्रस्तुत हो गयी। ‘‘एस सर...!’’
‘‘सर, क्या लेंगे...विस्की...या रम?’’ एक व्यक्ति ने युवती को इत्मीनान से घूरने के बाद दूसरे से पूछा।
‘‘रम...।’’
‘‘एक रम ...पूरा बम्पर भिजवा दो। साथ में फ्राइड काजू और कुछ नमकीन वगैराह ...।’’
‘‘सर, दो-पेग से अधिक सर्व करना एलाउड नहीं है...वो भी एकेक करके।’’
‘‘अलाउड नहीं है का क्या मतलब? और यहां कौन देखने आनेवाला है? ...जानती हैं, साहब कौन हैं? अपने गाजीपेठ पुलिस-स्टेशन के इंचार्ज...! दो दिन पहले ही चार्ज लिया है। अभी फैमिली भी शिफ्ट नहीं की है।’’
‘‘जी...मैं कहती हूं, मैनेजर से। तब तक आप कृपया केबिन में बैठ जाइए।तीन नंबर खाली है। बाहर वाइन सर्व करना मना है।’’
कहकर युवती ने मैनेजर से आकर सारी बात बता दी। मैनेजर ने तीन नंबर केबिन में झांक कर उसमें बैठे व्यक्तियों को देखा। फिर खुद ‘रम’ का बम्पर लेने चले गये। लेकिन जाते-जाते युवती से कहा, ‘‘सौदामिनी, तुम आज जल्दी घर चली जाओ। आज तुम्हें जल्दी छुट्टी...। और अर्पिता को भी साथ ले जाओ। उससे कहना काउंटर का अपना चार्ज संतोष को सौंप दे। जाओ, निकल जाओ तुम लोग...!’’ ****
5. उपयोग
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“सुनों न, मेरी इच्छा है, मम्मी को मैं छोटू के पास से यहां ले आऊं,अपने पास ।”
“ले आओ न ! मैं कल अपने मायके चले जाती हूं। आप परसो जाकर ले आओ और रखो अपने साथ अपनी मम्मी को। करेगी बच्चों का भी और आपका भी ।”
“ये क्या बात हुई? तीन साल से रह रही है, छोटू के पास। कुछ दिन यहां अपने पास रह लेगी।”
“ये अचानक मां की ममता क्यों उमड़ पड़ी, जरा मैं भी तो जानूं! घर की शांति से ऊब गये हो कि मेरा आराम से रहना किसी को चुभ रहा है?”
“शांति-अशांति की बात मत करो। मैं ये रोज के जाने-आने के चक्कर से ऊब गया हूं। सुबह उठे कि भाग-दौड़ । स्कूटर से बस-स्टैण्ड जाओ। बस पकड़ो। दो अढ़ाई घंटे लगते है, यहां से वरुड। बस से उतर कर फिर दो अढ़ाई किलोमीटर जाओ, दफ्तर! पैदल जाओ या ऑटो करो। लौटने में रात के नौ बज जाते हैं। बरसात-पानी में दुनियाभर की परेशानी। जाने-आने में पैसा खर्च हो रहा है, सो अलग ।”
“लेकिन इस सबका मम्मी को यहां लाने से क्या संबंध?’’
‘‘तुम जरा शांति से सुनों तो बतलाऊं!’’
“बतलाओ...मैं सब सुनती हूं। लेकिन उनके यहां आने से मेरा सिर दर्द बढ़ेगा, उसका क्या? ‘उमा, तुमने ये ऐसा क्यों किया, वो वैसा क्यों किया?... तुम बिना नहाये चौके में क्यों गई? माहवारी में इधर हाथ क्यों लगाया, उधर क्यों छू लिया...?’ सारे दकियानूसी ख्यालात ! मेरे नाक में दम कर देती है ! अब कहीं थोड़ी सुकून की जिंदगी जी रही हूं तो देखा नहीं जा रहा है आपसे...यही न!”
“तुम मेरी बात समझने की कोशिश तो करो।”
“मैं तो कहती हूं, एकाध पुरानी स्कूटी या वैसा कुछ खरीदकर वहां भी बस-स्टैण्ड पर रख दो...। दो -एक साल में यहां ट्रांसफर हो जाएगी तब बेच देना।”
“नहीं होगी दो-एक साल में ट्रांसफर...। इसीलिए तो कह रहा हूं। मेरा सातवां नंबर है ट्रांसफर-पैनल में और यहां डिविजनल हेड-क्वार्टर में जगह नहीं है। लोग-बाग प्रमोशन पर भी बाहर जाने को तैयार नहीं होते यहां से !... आज झोनल मैनेजर आये थे। उनसे मिला। बताया, बेटी की बारहवीं है इस साल और बेटे की दसवीं। तो कह रहे थे, ये कोई कारण नहीं है। कोई एक्स्प्शनल कारण हो तभी सोचा जा सकता है, आऊट ऑफ टर्न ट्रान्सफर के लिए।”
“एक्स्प्शनल मतलब?”
“मतलब कुछ अलग-सा कारण। घर में किसी की गंभीर बीमारी या बूढ़े मां-बाप की देखभाल आदि । ...मम्मी अस्सी साल की हैं। उन्हें यहां ले आते हैं। फिर उनकी बीमारी और देखभाल का कारण बताकर ट्रांसफर संभव हो पाएगा। पाटिल का तबादला उसी कारण से परतवाड़ा से यहां हो गया। उसे तो बाहर गये अभी दो साल भी पूरे नहीं हुए थे और लिस्ट में ग्यारहवां नंबर था,उसका। ...मम्मी को हार्ट-अटैक भी आ चुका है। उनके इलाज और देखभाल का सॉलिड रीझन है। उनके अपने पास आते ही मैं आवेदन कर दूंगा।”
“क्या सचमुच उनकी ‘देखभाल’ का कारण लिखने से आपका तबादला यहां हो जाएगा?”
“हां, आजकल सीनियर- सिटिजन की देखभाल को जरा अधिक महत्व दिया जा रहा है और साहब का वीक-प्वाइंट भी है। उनके माता-पिता उन्हीं के साथ रहते हैं । दोनों एट्टी-प्लस हैं और साहब उनकी खूब अच्छे से देखभाल करते हैं।”
“तब तो मम्मी को लेने मैं भी साथ चलूंगी। अकेले आपके कहने से नहीं आएंगी वे । पिछली बार चख-चख हुई तो मैं कुछ ज्यादा ही बोल गई थी, उन्हें।” *****
6. शिकायत
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‘‘मैडम टीचर, मैं मनीष जो आपके क्लास में है, उसका पिता हूं। मुझे आपसे एक शिकायत है।’’
‘‘हां जी... कहिए, क्या शिकायत है आपकी।’’
‘‘आपने मनीष की कॉपी जांची है।उसमें ग्रामर की मिस्टेक्स् हैं पर आपने सही का टीक- मार्क कर दिया और उसे मार्क्स भी दे दिये हैं।’’
‘‘हो गया होगा, भाईसाहब। पैंतीस कॉपियां जांचनी होती हैं। किसी-किसी में एकाध गलती छूट जाती है... कभी-कभार।”
‘‘कभी-कभार नहीं मैडम। मैंने कई बार देखा है, तब आया हूं । कई बार तो इतनी ‘सिली’ मिस्टेक्स होती हैं कि क्या कहें...! लगता ही नहीं कि बीए,बी-एड पढ़े टीचर्स पढ़ाते होंगे यहां...?’’
‘‘देखिये, आप बहुत ज्यादा बोले जा रहे हैं। हम कितने पढ़े हैं और कैसे पढ़ाते हैं, यह हमारा मैनेजमेंट देखता है। आप कोई नहीं होते यह सब कहने वाले।...एक बात और सुन लीजिये। जो बीए,बी-एड करके यहां ज्वाइन होता हैं न, वह यहां पढ़ाता नहीं है।’’
‘‘क्यों...वह पढ़ाता क्यों नहीं है?’’
‘‘भाईसाहब, बीस-पच्चीस लाख देने होते हैं मैनेजमेंट को तब नौकरी मिलती है। इतने पैसे भी दो और पढ़ाओ भी, यह कौन करें। पढ़ाते हम जरूरतमंद लोग हैं जो उनसे पांच- दस हजार लेकर दिनभर यहां खटते रहते हैं।’’
‘‘अरे, ये हाल है! तब तो मुझे हेडमास्टर साहब से ही मिलना पड़ेगा।’’
‘‘जी हां, जाइए और मिल लीजिये हेडमास्तर से । ...इतना और सुनते जाइये कि वे भी ओरिजनल नही हैं। हमें पांच -छह हजार मिलते हैं तो उन्हें दस हजार मिलते होंगे । जो ओरिजनल हैं, वे अपनी खेती -बाड़ी देखते हैं, व्यवसाय, राजनीति करते हैं...। उनसे मिलना हो तो बस, एक तारीख को आइएगा और जो करनी है, वह शिकायत कीजिएगा।’’ ।” *****
7. मूल्यांकन
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‘‘देखिए, मेरे पास ए, बी, सी, डी- इन चारों ग्रेड्स का कपास रखा है। मैं उससे मिलान करके मूल्यांकन करता हूं। आपका कपास इन में से किसी में भी नहीं बैठता।... अजीब किस्म का है। इस कारण उसे ‘ई’ ग्रेड दे दिया गया है। आपको ‘ई’ ग्रेड के ही दाम मिलेंगे।’’
‘‘आप समझने की कोशिश कीजिए, श्रीमान। मैंने काफी परिश्रम और धन खर्च करके इसे हासिल किया है...। मैं चाहता हूं, इसका सही मूल्यांकन हो।’’
जब परीक्षक और किसान के बीच बात नहीं बनीं तो व्यवस्थापकों ने दूसरी मण्डी के परीक्षक को बुला लिया। दूसरी मण्डी का परीक्षक किसान का कपास देखकर अभिभूत हो गया। बोला, ‘‘यह चायना का ब्लू-कॉटन है, लंबे रेशे वाला। इसे हासिल करने के लिए हमारे यहां खेतों में काफी मशक्कत करनी पड़ती है और खर्च भी बहुत आता है...।’’
‘‘तो क्या कपास खेत में पैदा होता है?’’ पहले वाले परीक्षक ने दूसरे परीक्षक को एक ओर ले जाकर प्रश्न किया।
‘‘तो आप क्या समझ रहे थे?’’
‘‘मैं तो समझ रहा था, चीनी या थर्माकोल की तरह इसके भी कारखाने होंगे!’’ | *****
8. आघात
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“सुनों, तुमने कल जो दूध के पैकेट दिये, उनमें से एक का दूध फट गया। शायद बासी था।”
“जी, हो सकता है, बरतन ठीक से धोया न गया हो या किसी खट्टी चीज हा हाथ लग गया हो। आपने चार पैकेट लिये और चारों ताजा दूध के ही थे।”
“वो सब हम नहीं जानते। एक पैकेट का दूध फट गया। बाईस रुपये का नुकसान हो गया। उसके बारेमें तुम्हारा क्या कहना है, बोलो।”
“आप क्या चाहते हैं?”
“आज एक पैकेट के पैसे नहीं दूंगा।”
“जी, मुझे एक पैकेट पर सिर्फ पचास पैसे मिलते हैं। बाईस रुपये यानी चौआलीस पैकेट की कमाई मारी जाएगी...।”
“इससे मुझे क्या? नहीं तो मैं कल से दूसरे के पास से लेना शुरू करूंगा...बोलो...!”
दूधवाले ने हिसाब लगाया, साल के चौदा-सौ चालीस पैकेट यानी सात-सौ बीस रुपये का ग्राहक छूट जायेगा!
“ठीक है, सेठ जी । आप जैसा चाहते हैं ...।”
सेठ जी ने तीन पैकेट के पैसे देकर चार पैकेट उठा लिये और विजयी मुसकान के साथ अपनी कोठी की ओर मुड़ गये। दूधवाला अभी रुका हुआ था। उसने आंसू पोंछने के लिए जेब से रुमाल निकाल लिया था। ****
9. रिटायर्ड
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“चाचाजी, मुझे दो लाख रुपयों की सख्त जरूरत है। दो-एक साल में लौटा दूंगा।”
“एकदम ऐसी भी क्या जरूरत आन पड़ी, बकाराम ?”
“जरूरत के लिए आपकी बहू अर्थात रोहा, मेरी पत्नी जिम्मेवार है, चाचाजी। मैं तो वास्तु-पूजन करके मकान में शिफ्ट हो जाना चाहता हूं। लेकिन वो कहती है, पूरा काम हुए बिना घर में प्रवेश नहीं करेगी। सब हो गया है। बस, किचन का काम बाकी है। ... मॉड्युलर- किचन चाहिये होता है न , आजकल ! उसी के लिए पैसे कम पड़ गये।”
“लेकिन एकदम मेरा नंबर कैसे लग गया? और भी तो कई लोग हैं तुम्हारे!”
“चाचाजी, जिनसे मांग सकता था, उन रिश्तेदारों से पहले ही ले चुका हूं। मेरे जैसे नौकरीपेशा के लिए मकान बनाना भारी मामला है। एक मित्र से मांगे तो उसने भी हाथ ऊपर कर दिये। कह रहा था, उसने अभी-अभी एक फ़्लैट बुक किया है।”
इस बीच चाय आ गयी। बकाराम चाय पीने लगा। उसके पारिवारिक संबंध है, सिसोदिया(चाचाजी) जी से।उनकी सिफारिश के कारण ही मौजूदा नौकरी मिली थी उनके विभाग में, बकाराम को। रिटायरमेंट के बाद भी बकाराम ने संबंध बनाये रखे थे, सिसोदिया जी से।
“आपकी कार नहीं दिखायी दे रही है?” चाय पीते-पीते बकाराम बोला।
“उसमें कुछ प्रॉब्लेम चल रहा था। ड्राइवर गैरेज में छोड़ आया है। ...चौदह साल हो गये खरीदने को। रिटायरमेंट को दो साल बाकी थे तब खरीदी थी।”
“लेकिन अब भी चल रही है!”
“हां...इमरजंसी के लिए रख छोड़ी है। कहीं जाना हो तो ड्राइवर बुला लेता हूं।... मैंने तो कब का चलाना छोड़ दिया है, तुम जानते ही हो!”
“जी...। वो क्या है कि तीस लाख बैंक से कर्ज मिला था।”- बकाराम फिर अपने मुद्दे पर आ गया। “पंदरह इधर-उधर से जुटाये। ...बस, किचन बन गया कि शिफ्ट हो जाता हूं।... किराया बच जायेगा।”
“हां, वही ठीक ही रहेगा।”
“वो आपके यहां ऊपरी माले पर अब कोई किरायेदार नहीं है क्या? बंद-बंद दिखायी देता है, ऊपर ।”
“हां, ऊपर तीन किरायेदार थे । तीनों से खाली करवा लिया। इधर नीचे स्टेशनरी की दुकान थी । उन्होंने भी चौक में बड़ी -सी दुकान ले ली। यहां जगह कम पड़ रही थी उनको। ...मकान पुराना हो चुका है। ऊपर का पिछला हिस्सा इतना जर्जर हो चुका है कि किसी भी समय गिर सकता है।"
“दो साल बाद फिर इमरजेंसी लोन ले पाऊंगा सोसायटी से । तब सबसे पहले आपके चुका दूंगा।”
“बकाराम, एक किस्सा सुनाता हूं, सुनों।...हमारे गांव से कुछ दूरी पर एक बड़ा पुराना तालाब था। नाम था, ‘बड़ा तालाब।’ था भी बहुत बड़ा। विशाल ! किनारे पहाड़ियां थीं। जंगल था। चारों ओर से बहकर पानी आता था, उसमें। कुछ बड़े नाले भी आकर मिलते थे। पूरे साल लबालब रहता था। गांव की दिशा में लंबी-चौड़ी दीवार बना दी गयी थी ताकि गांव में कभी उसका पानी न घुसे। कई सालों बाद, मैं अभी छह माह पहले गया था गांव। ‘बड़ा तालाब’ के किनारे से गुजरा। पानी देखने का मन हुआ तो उसकी दीवार पर चढ़ गया। तालाब में नाममात्र के लिए पानी था। लगा, विशाल आंगन में किसी ने तश्तरी भरकर रख दी है । ... देखकर रोना आ गया। ...अब न जंगल रहा, न नाले । पत्थर और मुरुम निकालने के कारण पहाड़ियां उजड़ गयीं। तालाब के जल-भराव के सारे सोर्सेस ही बंद हो गये ! लेकिन गांव के लोग हैं कि अब भी उसे ‘बड़ा तालाब’ ही कहते हैं। ...रिटायर्ड व्यक्ति की स्थिति उस ‘बड़ा तालाब’ के समान होती है बकाराम ...।” कहकर सिसोदिया जी बकाराम की ओर हताश नजरों से देखने लगे।
चाय समाप्त हो चुकी थी । बकाराम ने कप एक ओर रख दिया। वह उठा, सिसोदिया जी के पांव छुए और चुपचाप बाहर निकल गया। ****
10. चमत्कार
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बैरागी जी मृत्युशैया पर पड़े थे। अपना अंतिम समय निकट जान उन्होंने अपने सेवक से कहा, ‘जाकर मेरे शिष्यों को बुला लाओ।’
सेवक उठकर बाहर चला गया।
बैरागी जी को मृत्यु शैया पर पड़े-पड़े चालीस साल पहले का ‘घुमक्कड़’ याद आया। घुमक्कड़ कभी-कभार किसी गांव में दो-एक दिन टिक जाता। फिर अगला कोई गांव। एक दिन शाम को वह अपने मुकाम पर लौट रहा था कि उसने देखा, एक स्थान पर भीड़ इकट्ठा है। घुमक्कड़ करीब पहुँचा। एक छात्र रास्ता चलते किसी वाहन की चपेट में आकर बुरी तरह जख्मी हो गया था। इसके पूर्व कि कोई उपचार किया जाए, छात्र की मृत्यु हो गयी। पूरा गांव शोक-संतप्त था। घुमक्कड़ को यह जानकर हैरानी हुई कि गांव में कोई स्कूल नहीं है। बच्चों को पढ़ने के लिए बारह-पंदरह किलोमीटर पैदल चलकर पड़ोस के गांव में जाना पड़ता हैं। स्कूल आते-जाते में अक्सर ऐसे हादसे होते रहते हैं।
घुमक्कड़ ने गांव वालों से कहा, ‘आपके गांव में अपना स्कूल होना चाहिए।’
‘स्कूल की इमारत के लिए जमीन कौन देगा?’
‘खरीदेंगे...’
‘खरीदने के लिए पैसे कहाँ से आएंगे...?’
‘दान...चंदा मांगकर जुटाएंगें।’
‘कौन देगा... और क्यों दें? स्कूल बनवाना सरकार का काम है।’
-‘शिक्षकों को वेतन कहाँ से मिलेगा?’ –अगला प्रश्न।
-‘स्कूल कौन चलायेगा? हम लोग अपनी खेती-बाड़ी, काम-धंधें करें कि स्कूल चलाएँ...!’ –फिर प्रश्न।
घुमक्कड़ ने कहा, ‘इस विषय में, मैं सब जानता हूँ। आप लोग केवल सहयोग करिए। मैं यहीं रहकर सब संभाल लूंगा।’
लेकिन गांव वालों के प्रश्नों का अंत न था।
उसके बावजूद घुमक्कड़ ने स्कूल आरंभ करने के लिए खूब प्रयत्न किये पर, उसे निराशा ही हाथ लगी। आखिर एक दिन वह गांव छोड़कर चला गया।
कुछ वर्षों बाद गांव में एक बैरागी आया। उसने एक पेड़ के नीचे अपना आसन जमा लिया। गांव के लोग उसकी वेष-भूषा देखकर उसकी ओर आकर्षित होने लगे। सुबह-शाम महिला-पुरुषों की भीड़ इकट्ठी होने लगी, बैरागी के इर्द-गिर्द। बैरागी ने एक कुटिया बना ली, अपने लिए।
गांव में नवरात्रि का उत्सव धूमधाम से मनाया जाता था। बैरागी को इसकी भनक लग गयी। उसने अपनी कुटिया में एक अनुष्ठान आरंभ किया । गांव वालों को अपने अनुष्ठान की जानकारी दे दी। कुटिया में सुबह-शाम भजन-कीर्तन की आवाजें गूँजने लगीं। पास-पड़ोस के गांव के लोग भी बैरागी जी के दर्शन के लिए आने लगे। दर्शनार्थियों का तांता लग गया।
अनुष्ठान संपन्न होने को कुछ ही दिन बाकी थे कि एक चमत्कार हो गया। बैरागी जी की कुटिया में जहाँ तुलसी-चौरा था उसके पड़ोस की जमीन में से तीन फीट ऊँची देवी की मूर्ति ‘प्रगट’ हो गयी। चमत्कार की खबर पास-पड़ोस के गावों में आग की तरह फैल गयी।
बैरागी जी के कुटिया-स्थल पर मेला-सा लग गया। गांव-गांव से लोग दर्शनार्थ आने लगे।
बैरागी जी ने प्रस्ताव रखा, ‘देवी का भव्य-मंदिर बनना चाहिए।’
मंदिर-निर्माण के लिए भक्त-जन दान देने लगे। हजार, पांच हजार, दस हजार, इक्कीस हजार, एक लाख...आभूषण...चांदी...सोना...हीरे...जवाहरात... !
दो साल में भव्य मंदिर बनकर तैयार हो गया।
मंदिर में दान की कोई सीमा न रही। बैरागी जी ने दान में प्राप्त रकम से बड़ी-सी जगह खरीदकर उस पर एक स्कूल का निर्माण करवाया। फिर कॉलेज... इंजीनियरिंग, फॉर्मेसी, बी-एड्...। अच्छी खासी शिक्षण- संस्थाएँ खड़ी हो गयीं।
शिष्य उपस्थित हो चुके थे। बैरागी जी ने शिष्यों से कहा, ‘जरा करीब आ कर बैठ जाओ, वत्स। अधिक जोर से न बोल पाऊँगा।’
शिष्य घेरा बनाकर बैरागी जी के इर्दगिर्द बैठ गये। बैरागी जी बोले, ‘मेरी अंतिम घड़ी निकट है। एक राज की बात बतलाकर अपना बोझ हलका करना चाहता हूँ। ...देवी का कोई चमत्कार नहीं हुआ था। मैंने ही जमीन खोदकर उसमें दो बोरे चने बिछाए और उस पर मूर्ति रख दी थी। रोज जमीन में जल छोड़ता रहा। चने फूलकर मूर्ति ऊपर आ गयी। मैंने इसे चमत्कार के रूप में प्रचारित कर दिया।
उसके बाद मंदिर बनते देर न लगी और उसके बाद स्कूल...कॉलेज...।
पहले गांव में स्कूल बनवाने का सपना जिसने देखा था, वह घुमक्कड़ मैं ही था...।’ ****
11. कर्जदार
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‘‘अधिरथ जी, मैं खुशाल बोल रहा हूं।’’
‘‘जी, बोलिए ...आपका नंबर ‘सेव’ है मेरे पास।’’
‘‘जी, शुक्रिया।... वो मैंने पापाजी के लिए प्लाज्मा डोनर की आवश्यकता के लिए मेसेज डाला था, वैट्स-ऐप पर। तो मैं यह बतलाना चाहता हूं कि प्लाज्मा मिल गया है।’’
‘‘अरे वाह...कौन है डोनर?’’
‘‘एक बुधना रहमकर नामक युवक है...दूसरी मर्तवा डोनेट कर रहा है।’’
‘‘वाह, क्या बात है!’’
बुधना रहमकर ...! ऐसा ही कुछ नाम तो था उस युवक का ...! मेरी एट्टी-प्लस ताईजी कोरोना के उपचार के लिए अडमिट थी, सुपर-स्पेशलिटी अस्पताल में। अर्थराइटिस के कारण वे वैसे भी चल-फिर नहीं सकती थीं।उस पर कोरोना! अस्पताल में घर के किसी को प्रवेश न था ! हमारी चिंता यह थी क्या वहां ताईजी की देखभाल ठीक से हो पाएगी। चाहते थे, कोई नर्स ही परिचित निकल जाए!
तभी ताईजी के पड़ोस के पेशंट ने एक ‘स्वयंसेवक’ के बारेमें जानकारी दी।
‘‘आप बिल्कुल चिंता मत कीजिए। मैं आपकी ताईजी की खूब अच्छे से देखभाल करूंगा। आप गेट पर जो देंगे, मैं उन तक पहुंचा दूंगा, फोन लगाकर आपसे बात करवा दूंगा। हर प्रकार से देखभाल करूंगा उनकी।आपकी ताईजी अब मेरी ताईजी हैं।’’
‘‘तुम्हें ये लोग यहां भीतर कैसे अलाऊ करते हैं?’’
‘‘जी, मैं उनकी भी तो सहायता करता हूं।’’
‘‘तुम्हें कोरोना से डर नहीं लगता?’’
‘‘जी नहीं। मेरे शरीर पर कवच -कुण्डल हैं। वे मुझे सुरक्षित रखते हैं।’’
‘‘कवच -कुण्डल? ’’ *****
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जन्मतिथि : 20 मार्च 1961
पति : श्री प्रदीप गुप्ता (रिटायर्ड सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर)
शैक्षणिक योग्यता : बी.एससी., एम.ए.(अंग्रेजी), सी.लिब., बी.एड.
लेखन विधा : लेख, लघुकथा, कहानी, व्यंग्य, ब्लॉग
संप्रति : जयपुर के प्रतिष्ठित पब्लिक स्कूल में 17 वर्षों के कार्यकाल के उपरांत प्रधानाध्यापिका के पद से सेवानिवृत।
लेखन विधा : -
लेख, लघुकथा, कहानी, व्यंग्य, ब्लॉग
विशेष -
- अनेक पत्र पत्रिकाओं तथा प्रतिष्ठित समाचारपत्रों
में लघुकथाओं, कहानियों तथा लेखों का निरंतर प्रकाशन।
- प्रतिलिपि, स्टोरी मिरर, मातृभारती पर लघुकथाएँ एवं कहानियां प्रकाशित।
- dusbus.com पर 120 से अधिक लेखों एवं कहानियों का प्रकाशन।
- कुछ लघुकथा संकलनों यथा समय की दस्तक, बाल मन की लघुकथाएँ, स्वरांजली में कुछ लघुकथाएँ प्रकाशित।
- कई वार्ताएं आकाशवाणी, गुवाहाटी से प्रसारित
- संगीत सुनना एवं लेखन
पता : जी-2, प्लाट नंबर - 61, रघु विहार, महारानी फार्म, दुर्गापुरा, जयपुर - राजस्थान
1. ट्रैक रिकार्ड
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थानेदार देवेन अपनी ड्यूटी के लिए निकल ही रहा था कि पीछे से उसकी नवविवाहिता पत्नी ने अपनी घंटी की खनक सी मीठी आवाज में कहा, " देवेन, आज मेरे भाई का जन्म दिन है। शाम को हजार डेढ़ हजार रुपये दे दीजिएगा मुझे उसकी गिफ्ट के लिए प्लीज़।" सुनकर देवेन की पेशानी तन गई थी तनाव से। जेब में मात्र एक सौ का पत्ता बचा था। माह का आखिरी दिन था। किसी से उधार भी नहीं ले सकता था क्योंकि अभी परसों ही इस शहर में नया नया आया था। बैंक भी बंद थे ये दो दिन। ए. टी. एम कार्ड भी नहीं था उसके पास। शाम तक रुपयों का किसी तरह जुगाड़ करने की जुगत सोचते हुए वह चला जारहा था। लेकिन कोई राह नहीं सूझ रही थी। कि तभी सामने फुटपाथ पर बीचों बीच एक फल वाले का ठेला देख कर एक आइडिया कोंधा था उसके दिमाग में। पुलिस जैसे महकमे में अपने ईमानदार स्वाभाव के चलते उसका अभी तक का पाँच वर्षों का ट्रैक रिकार्ड बेदाग था। लेकिन आज जरूरत ऐसी थी कि उससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता था। सो किसी अज्ञात प्रेरणा के वशीभूत हो कर वह तेज कदमों से उस निरीह से दिखने वाले डेढ़ पसली के फलवाले के पास पहुंचा और गरजा, "ये सारा रास्ता जाम कर अपना ठेला ऐसे क्यू खड़ा कर रखा है? चल एक दिन हवालात में बंद रहेगा तो सारी अक्ल ठिकाने आजाएगी।" और वह उसे हड़काता हुआ थाने की ओर ले चला लेकिन दूसरी ओर उसके जेहन में विचारों का भीषण बवंडर उठ खड़ा हुआ था। उसकी अंतरात्मा उससे कह रही थी, जो वह कर रहा है, वह गलत है। कानों में रह रह कर उसकी माँ के शब्द गूंज रहे थे, "बेटा, कुछ भी हो जाए, सच्चाई का दामन कभी न छोड़ना।" यूं घोर ऊहापोह की मनःस्थिति में वह थाने पहुंचा और उसे हवालात में बंद कर दिया। उधर दीन हीन सा दिखने वाला वह फल वाला घिघियाता हुआ उससे गुहार कर रहा था, "मालिक आगे से ऐसी गलती कभी नहीं होगी। मुझे छोड़ दीजिये," और उसने अपनी अंटी से एक दो हजार का नोट निकाल कर चुपके से देवेन की मुट्ठी में सरका दिया। अगले ही क्षण देवेन ने उसे एक चेतावनी के साथ मुक्त कर दिया। कि तभी उसकी पत्नी का फोन आया," देवेन, दीदी आईं थीं, मैं उनके साथ मम्मी के घर आगई हूँ। गिफ्ट भी खरीद ली है। आप शाम को यहीं आजाइएगा।" दूसरे ही क्षण देवेन एक लंबा निःश्वास लेते हुए तेज कदमों से थाने के बाहर निकल पड़ा अपनी अंतरात्मा का बोझ कम करने।****
2. शस्य श्यामला
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बसंत न्यूयॉर्क में अपने होटल के बाहर निकल वहाँ के प्रसिद्ध टाइम्स स्क्वैयर घूमने जाने के लिए किसी कैब की तलाश में खड़ा था, कि तभी उसे सामने से गुजरती एक कैब को ड्राइव करते एक सरदारजी का चेहरा दिखा। इस पराई धरती पर उस नितांत अजनबी को देख कर यह सोच कर उसका चेहरा खिल उठा, कि चलो इतने दिनों बाद कोई तो हमवतन मिला जिससे वह अपनी भाषा में बातचीत कर पाएगा।
वह ऑफिस के काम के सिलसिले में पिछले एक माह से न्यूयॉर्क में था और वहाँ अनवरत सबसे अँग्रेजी में बातें करके बेहद ऊब गया था। उसने सरदारजी को रुकने का इशारा किया, और कैब रुक गई।
“सरदारजी, टाइम्स स्क्वैयर चलना है।”
“अपनी ही गड्डी समझो जी, चलो बैठो आराम से।”
कैब में घुसते ही हवा में तैरती एक सौंधी सी महक उसके नथुनों से टकराई और तभी उसकी नज़रें सामने डैशबोर्ड पर पड़ीं, और वह बेहद चौंक गया। वहाँ एक छोटा सा गमला रखा था और उसमें चटक सब्ज़ नन्हें नन्हें पौधे लहरा रहे थे।
“अरे सरदारजी, ये जंगल में मंगल कैसे कर रखा है आपने? क्या उगा रखा है आपने इस गमले में?”
“अरे बादशाहो, मक्का उगा रखी है मैंने। इसे देख कर मुझे लगता है, मैं अपनी धरती पर अपने खेतों में ही हूँ। किसान का बेटा हूँ जी, यूं समझो, हरे भरे खेतों में ही आँखें खोली मैने। वो तो सात सात बुआओं की शादी में दादाजी पर बेहिसाब कर्जा चढ़ गया और हमारा खेत कुर्क हो गया। मजबूरी में इस पापी पेट की खातिर डालर कमाने वास्ते रिश्तेदारों के पास इस परदेस में आना पड़ा। आते वक़्त थोड़ी सी अपने देश की मिट्टी किसी तरह छिपा कर ले आया था अपने साथ। उसे ही यहाँ की मिट्टी में मिला कर ये मक्का उगा रखी है जी मैंने। इन्हें देख कर एहसास होता है, मैं अब भी अपने वतन में अपनी पुरानी दुनिया में हूँ, उससे दूर नहीं। कोई ठीक नहीं कब अपनी जमीं पर वापसी होगी। जब भी वतन की याद सताती है, अपनी इस पुरसुकून दुनिया को नज़र भर कर देख लेता हूँ, दिल को बेहद सुकून मिल जाता है।”
“बहुत अच्छा सरदारजी, सलाम आपकी वतन परस्ती को।”
टाइम्स स्क्वैयर आ पहुंचा था। मैंने एक बार फिर सरदारजी के उस सब्ज़ सपने पर निगाह डाली, मुझे भी उसमें अपनी शस्य श्यामला भूमि की प्रतिच्छाया दिखी। उसे देख सात समंदर पार इस परदेस में न जाने क्यूँ मेरा गला भर सा आया और कैब का अगला दरवाजा खोल मैंने उस गमले से थोड़ी सी मिट्टी ले उससे अपने तिलक लगाते हुए नम आँखों से सरदारजी से विदा ली। ****
3. लक्ष्य
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लगभग एक महीने से देख रही थी, मेरे घर के ठीक सामने वाले बंगले में एक अस्सी पिच्यासी वर्ष की वृदधा आ गईं थी रहने। मेरे दालान और बेड रूम से उनका आंगन और उसके पास के दो तीन कमरे साफ दिखते थे।
मैं अक्सर ही देखती, वह वृदधा हर वक़्त किसी न किसी काम में मसरूफ़ रहतीं। कभी गमलों में पानी देतीं, तो कभी पास पड़ौस के बच्चों को बड़े ही लुभावने अंदाज़ में कहानियाँ सुनाती या फिर उन्हें पढ़ाई करातीं। कभी मैं उन्हें योगा करते देखती। अधिकतर तो वह किताबों से पटे पड़े अपने अध्ययन कक्ष में अपनी टेबल पर बैठी लिखती नजर आतीं। कौतूहलवश मैंने एक दिन उनसे पूछ ही लिया, "आप घंटों क्या लिखती हैं?" वह बोलीं, मैं एक लेखिका हूँ। आजकल एक उपन्यास लिख रही हूँ।" मैंने फिर पूछा, "आप इस उम्र में भी दिन भर व्यस्त रहती हैं, आपको कभी खाली बैठे नहीं देखा।" उन्होंने जवाब दिया, "मुझे जीवन की सार्थकता एक उद्देश्यपूर्ण व्यस्त जीवन जीने में नज़र आती है। एक बेमकसद ज़िंदगी जीने से मुझे सख्त नफ़रत है।" उनके जवाब ने मेरे अन्तर्मन में गहरी उथलपुथल मचा दी। मेरे जेहन में रहरह कर एक प्रश्न कौंधने लगा, क्या महज़ खाना पीना, टीवी, किटी पार्टीज़, सहेलियों के साथ गप्पबाजी और सैर सपाटे, सिनेमा, व्हाट्स ऐप्प और फेसबुक में व्यस्त रह कर मैं अपनी जिंदगी जाया नहीं कर रही? पति की मोटी कमाई की नौकरी के दम पर मैंने ऐशो आराम को ही ज़िंदगी का पर्याय समझ लिया था। मैंने स्वयं से पूछा, "आखिर मेरी ज़िंदगी का उद्देश्य क्या है? और मैं बहुत सोचने पर भी इसका कोई जवाब नहीं ढूंढ पाई।
इस प्रश्न ने मुझे झिंझोड़ कर रख दिया। अगले ही क्षण मैंने अपनी एक अर्से से धूल खाती पेंटिंग्स की किताबें आदि निकालीं और बाज़ार चल पडी पेंट ब्रश लाने, एक बार फिर से गुज़रे दिनों की तरह कला साधना को अपने जीवन का ध्येय बनाने जब पेंटिंग मेरा ज़ुनून हुआ करती थी।****
4. मुक्ति
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मणि की दूसरी बेटी की डिलीवरी हुए आज तीसरा दिन था, लेकिन उसका रक्तचाप बहुत बढ़ा हुआ था। तीन बहनों में सबसे बड़ी वह, बचपन से ही एक के बाद एक बेटी जनने के अक्षम्य अपराध में अपनी माँ को दादू दादी के हाथों तिल तिल प्रताड़ित होते देखती रही थी। रही सही कसर पिता माँ और उन तीनों बहनों पर ताने और व्यंगबाण चला कर निकाल देते। उसने माँ को हमेशा एक गहन अपराध भावना से ग्रस्त देखा कि वह परिवार की आकांक्षा के अनुरूप उन्हें एक वारिस नहीं दे पाई और डूबते हृदय से उसने सोचा, एक बार फिर शायद वही कहानी उसके साथ दोहराई जाने वाली थी।
उसके पति उसकी इस मानसिकता से परिचित थे। सो उन्होने उसे लाख समझाने की कोशिश की, कि वह दूसरी बेटी पैदा होने पर भी बेहद खुश हैं। उन्हें बेटे की तनिक भी चाह नहीं, लेकिन वह स्वयं पुरानी स्मृतियों का क्या करे? रह रह कर दादी, दादू और पिता के तानों, उलाहनों पर अपने आँसू पोंछती माँ का चेहरा उसके मानस चक्षुओं के सामने सजीव हो उठता, और वह अशेष निराशा के मकड़जाल में घिर जाती।
आज उसे अस्पताल से छुट्टी मिल रही थी। आशंकित धड़कते दिल से वह ससुराल के गेट तक पहुंची थी कि एक सुखद आश्चर्य से अभिभूत हो गई। गेट के बाहर से भीतर तक घर महकते, गमकते फूलों, मालाओं और रंगोलियों से बेहद खूबसूरती से सजा हुआ था। उसके घर पहुँचते ही सास और ननद ने हँसते मुस्कुराते उसकी और नवजात शिशु की आरती करी, तिलक लगाया और नज़र उतारी। सास ने उसके हाथ से नन्ही बेटी को लेते हुए उसे अपने कलेजे से लगाया और उसे आशीर्वाद दिया।
पार्श्व में पड़ौस की औरतें ढोलक की थाप पर बधावा गा रहीं थीं। कुछ महिलाएं नृत्य कर रहीं थीं। सास ने उसके और नन्ही बिटिया का हाथ लगवा कर सवा मन गेहूं गरीबों में बांटने के लिए रखवाया था।
आशा के विपरीत अपना और बिटिया का इतना शानदार, आत्मीयतापूर्ण स्वागत देख उसके धुक धुक करते, आशंकित हृदय को बेहद सुकून मिला, और नम हो आई आँखों से उसने अपनी सास और श्वसुर से कहा , "थैंकयू माँजी, पापाजी, आप बहुत अच्छे हैं।"
"बेटा, तुम भी तो बहुत अच्छी हो। याद रखना बेटा, तुम हमारे घर की लक्ष्मी हो, इस घर की रौनक हो और तुम्हारी दोनों बेटियाँ हमारी दो आँखें। बस अब इन्हें अच्छा और नेक इंसान बनाना है और अपने पैरों पर खड़ा कर ऐसे मुकाम तक पहुंचाना है कि हम सब इन पर फ़ख्र करें। बेटा, एक बात और ध्यान में रखना, हमें कोई पोते वोते की चाह नहीं है। ये दोनों सलामत रहें, बस हमारा परिवार पूरा हो गया।"
भर आए गले से मणि माँजी के गले लग गई। उसे अपने बनाए मकड़जाल से आखिरकार मुक्ति मिल ही गई थी। ****
5.पांखी लौट आई
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"पांखी, तेरी तो किस्मत ही खुल गई। लड़का तो लाखों में एक है। बढ़िया नौकरी, हर साल फॉरेन टूर करता है। फिर तेरे होने वाले श्वसुर मानवजी, इतने नामचीन लेखक हैं। क्या धांसू कहानियाँ लिखते हैं नारी मुक्ति पर। तू तो राज करेगी, राज।" शहनाई बजी और पांखी दुल्हन बन सुर्ख जोड़े में पायल छनकाती मानवजी के घर आगई। श्वसुरजी के लाड़ की इंतिहा न थी। एक बरस बाद खुशियों ने पांखी के द्वारे दस्तक दी। मुदित मन उसने पति से कहा,"तुम पापा बनने वाले हो।" सारा घर झूम उठा। मानवजी ने श्रद्धा भाव से पूजा उपासना की। बहू के हाथों दरिद्रों को दान दिलवाया। अगले ही दिन पति ने सूखे मुंह उससे कहा, "तैयार हो जाना, कल सबेरे ही अस्पताल चलना है।" "क्यों?" "एक टेस्ट करवाना है।". "टेस्ट, कैसा टेस्ट?" "अरे बाबा, तुम तो पीछे पड़ जाती हो। सोनोग्राफ़ी।" सुन कर पांखी जैसे आसमान से गिरी । फिर उसने पूछा, "पापा ने कहा है?" "हाँ"। पांखी ने बहुत सोचा। फिर बिना किसी को बताए अपने मायके के लिए रवाना हो गई। सोच के समंदर में तूफ़ान आया हुआ था। रह रह कर श्वसुरजी की कहानियों के शीर्षक बिजली की भांति उसके जेहन में कौंधने लगे, "बेटी से उजियारा" "बेटियाँ हमारी आन" "बेटी घर की शान"। *****
6. जंगलराज
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मैं कुहु को स्कूल तक छोड़ने घर से निकली ही थी कि आज फिर से किसी की एक जोडी आखें उस खिड़की के पार दिखीं थीं। पर आज उस मौन, पर बहुत कुछ बोलती हुई निगाहों को नजरंदाज करना मेरे बस में नहीं था और बरबस मेरे पांव उस खिड़की वाली गैरेज की ओर चल पड़े। मैंने गैरेज के गेट पर दस्तक दी। गेट खुलने पर मैं भीतर घुसी। एक दस बारह वर्ष की लड़की ने मुझसे पूछा था, "आंटी, क्या काम है?" "बेटा, आप सारा दिन यहाँ अकेले रहते हो? स्कूल नहीं जाते?" "माँ तड़के ही मजदूरी करने निकल जाती है। बापू भी फैक्ट्री के लिये सुबहसवेरे निकल जाते हैं। छोटा भाई भी स्कूल जाता है। माँ के पीछे मैं ही सबका खाना बनाती हूँ। भाई दो बजे लौट कर आता है। उसे खाना खिलाना होता है। मैं स्कूल चली गई तो सबकी रोटियाँ कौन बनाएगा?" "बेटा आपकी स्कूल जाने की इच्छा नहीं होती?" "आंटी, इच्छा तो बहुत होती है। बहुत पहले जब मैं छोटी थी, माँ ने तब मुझे स्कूल भेजा था। लेकिन स्कूल के नाम पर बापू क्लेश करते थे। कहते थे इसे तो दूसरे घर जाना है, इसकी पढ़ाई पर मैं पैसे खर्च नहीं कर सकता। सो मेरी पढ़ाई बापू ने रोक दी।" "आपको पढना है तो आप मेरे साथ मेरे घर चलो। एक बार मेरा घर देख लो, फिर रोज़ाना मेरे घर आजाया करना। मैं रोज आपको पढ़ा दिया करूंगी।" "नहीं, नहीं आंटी, उसकी आँखों में भय की स्पष्ट परछाई तैर आई और उसने कहा, "नहीं नहीं, आंटी, बापू मुझे चीर कर रख देंगे अगर मैं आपके साथ गई तो। बापू रोज मुझ से कहते हैं, कभी किसी के लिए गेट मत खोलना, नहीं तो कोई भी तुझे उठा कर ले जाएगा। वह कहते हैं, हम गरीबों के लिए जंगलराज है बाहर की दुनिया में। सो मैं कभी किसी के लिए गेट नहीं खोलती। जाओ आंटी, बापू ने आपको देख लिया तो भोत मारेंगे मुझे। यह देखो, कल मैंने अपनी सहेली के लिए गेट खोल दिया था तो बापू ने कितना मारा। उसके हाथों पर पड़े नील देख कर मैं सिहर उठी। मन बोझिल हो आया था। और मैं सोच में पड़ गई, आखिर हमारी बेटियाँ कब खुली हवा में सांस ले पाएँगी ? आज जो कुछ हो रहा है वो जंगल राज से कम तो नहीं। *****
7. मिलियन डालर स्माइल
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"हैपी बर्थडे टू यू माँ, मे गॉड ब्लेस यू…"
पार्श्व में बजते संगीत के मध्य आभा अपनी अस्सी वर्षीय वयोवृद्धा माँ को सहारा देते हुए लंदन के फाइव स्टार होटल में लाल गुलाबों, जलती हुई सुगंधित मोमबत्तियों और माँ पापा के बड़े बड़े पोस्टरों से सजे डाइनिंग हाल में पकड़ कर ले जारही थी। अपने अस्सीवें जन्मदिन पर विदेशी धरती पर इतने खुशनुमा इंतज़ामों को देख माँ की आँखों में एक अद्भुत चमक और चेहरे पर असीम खुशी की लहर तिर आई, जिसे देख आभा अवर्चनीय खुशी से उमग उठी। आज माँ का इस पकी उम्र में विदेश यात्रा का सपना पूरा हुआ। और यह कमाल हुआ था उसकी अपनी बेटियों, अन्विति और अनुकृति के प्रयासों से।
वह स्वयं तो अपनी दोनों बेटियों के पास लंदन पिछले तीन वर्षों से आती रही है। एक दिन बातों बातों में माँ ने उससे कहा था, "मैं अब बहुत बूढ़ी हो गई, अनुकृति, अन्विति लंदन दस सालों पहले गई होतीं तो मैं भी परदेस घूम लेती। तेरे पापा ने तो इंडिया के इंडिया में ताजमहल तक नहीं दिखाया, कहती रह गई मैं।"
बस तभी से आभा के दिमाग में यह बात रह रह कर कुलबुला रही थी। क्या अस्सी वर्ष की उम्र में हर वक़्त जोड़ों के दर्द से कराहती माँ आठ नौ घंटों की लंबी हवाई यात्रा की परेशानी झेल पाएँगी? लेकिन जब उसने माँ की इस इच्छा के बारे में एम.एन.सी में उच्च पदों पर कार्यरत अपनी दोनों बेटियों को बताया, उन्होनें तपाक से कहा, "बस इतनी सी बात? नानी बिजनेस क्लास में लेटे लेटे बड़े आराम से इतना लंबा सफर तय कर लेंगी।" उन दोनों ने मिल कर माह भर में तो उसकी इकॉनॉमी क्लास और माँ की बिज़नेस क्लास में टिकट करवा दी।
बेटियों को अपनी और माँ की टिकटों पर एक बहुत बड़ी रकम खर्च करते देख एकबारगी को तो वह गहन अपराध भावना से भर गई, कि बेटियों का बहुत पैसा नाहक ही घूमने फिरने जैसी गैर जरूरी बातों में खर्च हो जाएगा। अपनी बेटियों से यह कहने पर अन्विति बोली, "मम्मा, नानी ने सारी जिंदगी आप बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए होम कर दी। नानाजी की सीमित आय में अपनी अपनी हर छोटी बड़ी इच्छाओं का गला घौंट उन्होंने आप पांचों भाई बहनों को अच्छी से अच्छी शिक्षा दी। आज आप और हम जिस मुकाम तक पहुँचें हैं, उसमें उनका भी महत योगदान है। तो आप यह गिल्ट मत पालो कि हमारा बहुत पैसा नानी पर खर्च हो जाएगा। बल्कि आप तो यह सोचो कि यह विदेश यात्रा उन्हें कितनी बेहिसाब खुशी देगी। अपनी इच्छा पूरी होने पर उनके चेहरे पर जो मिलियन डालर स्माइल आएगी, उसकी तुलना में ये रुपये कुछ भी नहीं।"
बेटी की ये बातें सुन आभा की आँखें नम हो आईं, और भर आए गले से वह बोली, "सदा सुखी रहो मेरी बच्चियों, ईश्वर तुम्हें हर खुशी दे।" ****
8.गुब्बारे लेलो गुब्बारे
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ट्रैफिक सिग्नल पर गुब्बारे बेचने वाली दस बरस की चनिया की मां मर गई थी आज तड़के फुटपाथ पर। पूस की कड़कड़ाती ठंड में एक फटी पुरानी तार तार हो आई गुदड़ी ओढ़े दाँत कटकटाते और कंपकंपाते उसके प्राण निकले थे। श्मशान घाट पर एक रईस सेठ की मदद से उसकी माँ का क्रिया करम हुआ था। चनिया बापू और धार धार बिलखती दो छोटी बहनों के साथ माँ की देह को चिता की आग में भस्म होते देखती रही थी।अभी चिता की आग ठंडी भी नहीं हुई थी कि उसे फिक्र हो आई थी छोटी बहनों को क्या खिलाएगी। आखिरी सांस लेती माँ की शक्ल आँखों के सामने आगाई थी, "चनिया अब तू ही इन छोरियों की माँ है। इनके सुख दुख, भूख, प्यास सब तेरे जिम्मे। इन्हें कभी न छोड़ना, कभी नहीं।" चनिया अपनी आँखों से झर झर बहते आँसू पोंछ कर चल पड़ी थी ट्रैफिक सिग्नल पर गुब्बारे बेचने। कि तभी सामने से दो बच्चे अपनी माँ के साथ आते हुए दिखे थे उसे। और आँसू पोंछ सायास हंसने का उपक्रम करते हुए वह उन बच्चों के पीछे पीछे उनका ध्यान खींचने चिल्लाती हुई भागी थी, गुब्बारे लेलो भैया, गुब्बारे लेलो, रंग बिरंगे, लाल पीले,हरे नीले गुब्बारे। ****
9.चटनी अचार
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बारिश की मंद मंद फुहारों से हुए खुशगवार मौसम में दीनू धोबी के मुंह में कड़ाही से उतरती गर्मागर्म प्याज की पकौड़ियों का स्वाद आ रहा था, कि तभी पत्नी मन्नो ने उसे रसोई के खाली डिब्बे दिखाते हुए कहा, “कुछ पैसों का जुगाड़ करो जी, आज सारी दालें खत्म हैं। बस आज भर लायक आटा बचा है। शाम को चटनी और अचार से रोटी खानी पड़ेगी।”
चटनी और अचार के साथ रूखे फुलकों की कल्पना से ही दिनू के मुंह का स्वाद बदमज़ा हो आया और वह मन ही मन गरियाया, ‘तेरा नाश हो कोरोना। अच्छी भली गुज़र रही थी। सब रेड़ पीट दी तूने। कोरोना के पहले सब कुछ इतना बढ़िया चल रहा था। कपड़ों की इस्त्री की कमाई से कोई कमी न रही थी। भरपेट खाने पीने के साथ-साथ कभी कभार मन्नो की नज़र बचा अपने गुटके और जर्दे का शौक भी पूरा कर लेता था, लेकिन इस मुए कोरोना की वजह से तो दाल सब्जी खरीदना भारी हो गया है। ये स्कूल, कॉलेज, ऑफिस बंद हो जाने की वजह से इस्त्री का धंधा तो एकदम चौपट हो गया है।’
तभी मन्नो उस पर झुंझलाई, “उठो जी, जाओ घरों से इस्त्री के कपड़े ले आओ, जो थोड़े बहुत मिल जायें। चाय की पत्ती और गुड़ भी खत्म है। इस्त्री के पैसे आएं तो ही शाम की चाय भी बन पाएगी।”
कि तभी उन की खोली के टीन का दरवाजा खड़का।
दरवाजे पर एक नंबर की कोठी का हरिया था।
“ओ दीनू, मालकिन ने कहा है, ये पैंतिस कपड़े हैं। अभी घंटे भर में इन्हें इस्त्री करके घर भिजवा दे। आज मालकिन के नाती का जन्म दिन है। सो घर कुटुंब के सब लोग सज धज कर तैयार हो कर वो कंप्यूटर पर भिडियो पार्टी करेंगे”, कहते हुए उसने दीनू को कपड़ों का पोटला थमाया।
ढेर सारे कपड़े देख दीनू की बांछें खिल गई। अपूर्व खुशी से उमगते हुए उसने मन ही मन संकट मोचन हनुमानजी को स्मरण किया और बिजली की इस्त्री गर्म करने रख दी और मन्नो से बोला, “री मन्नो, भगवान ने अपनी सुन ली। घर बैठे पैसों का जुगाड़ हो गया।”
एक डेढ़ घंटों में सारे कपड़े इस्त्री कर वह एक नंबर से इस्त्री के पैसे लेकर प्रसन्न मन घर का दो तीन दिनों का राशन और सब्जी ले आया था।
घर में घुसते ही उसने पत्नी को हांक लगाई, "ले री मन्नो, सब्जी, दाल, आटा, तेल सब ले आया हूं। थोड़ा अदरक और पाँच रुपये की इलाइची का पैकेट भी ले आया हूं। चल जल्दी से भजिया बना दे, और साथ में इलायची अदरक की गुड़ वाली चाय।”
फिर मगन मन होठों को गोल कर सीटी बजाते हुए वह बुदबुदाया, “आज तो दिन बन गया अपना।”
“छुटकी, अम्मा भजिए बना रही है, चल मां का हाथ बंटा।”
“अरे वाह बापू, आज तो आप इतनी सारी सब्जी भी ले आए। आज तो रोटी चटनी के साथ नहीं खानी पड़ेगी,” कहते हुए छुटकी खुशी से खिल उठी थी।
बेटी का हँसता हुआ हुआ मगन चेहरा देख दीनू के मन में सतरंगा इंद्रधनुष उतर आया था। ****
10.काश
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देवेन को एक पूरा कैप्सिकम टमेटो पीत्ज़ा ब्रेकफ़ास्ट में अपनी प्लेट में लाते हुए देख न जाने कितनी पुरानी स्मृतियाँ सरयू के जेहन में ताज़ी हो आईं। गुजरे जमाने में तलाक से पहले वह देवेन के जंक फूड खाने पर बहुत शोर मचाया करती। लगभग हर छुट्टी के दिन वह अपने और उसके लिए पीत्ज़ा आर्डर करता और और फिर वह उसे शाम को वेजीटेबल सूप और बॉयल्ड ग्रीन वेजीटेबल्स की डाइट पर जबर्दस्ती रखती। स्वाभाव से अति केयरिंग, हेल्थ फ्रीक वह देवेन की हेल्थ को लेकर शुरू से बेहद सजग थी। उसे आज भी याद है, जब भी वह पीत्ज़ा या बर्गर आर्डर करता, उनके बीच मीठी, तल्ख तकरार जरूर होती... “पैंतीस के होने आए, अब तो थोड़ा हेल्दी खाना खाया करो, नहीं तो ब्लड प्रेशर, डायबिटीज़ होते देर नहीं लगेगी। बुढ़ापे में कितनी सेवा करवाओगे मुझसे? छोड़ छाड़ कर चली जाऊँगी तुम्हें, फिर रोते रहना,” और अपना पुराना डायलौग याद कर न जाने क्यों बरबस उसकी आँखों की कोरें गीली हो आईं। फिर भी उससे बिना कहे नहीं रुका गया, “अभी तक जंक फूड खाने की तुम्हारी आदत छूटी नहीं? हैल्थ कैसी रहती है तुम्हारी?
“तुम्हारी भविष्यवाणी सच हुई। ब्लड प्रेशर, डायबिटीज़, कोलेस्टरौल, थायरोयड सभी गले पड़ गए हैं”, देवेन ने एक खोखली सी मुस्कुराहट के साथ कहा।
देवेन और सरयू पाँच साल पहले लिए गए तलाक के बाद आज पहली बार मिले थे। दोनों ने ही तलाक के बाद पुनर्विवाह नहीं किया। दोनों ही देश की नामचीन यूनिवर्सिटीज़ के विजिटिंग प्रोफेसर्स थे। आज एक सेमिनार में भाग लेने आए थे, एक ही होटल में ठहरे हुए थे और अचानक दोनों का आमना सामना उनके होटल के डायनिंग हाल में हो गया। “काश सरयू उसकी जिंदगी से हमेशा के लिए नहीं गई होती तो आज उसकी जिंदगी यूं उजाड़ वीरान न होती”, देवेन सोच रहा था। उसे एक मुद्दत बाद अपने सामने देख उसे हमेशा के लिए खो देने की कसक टीस मारने लगी। सरयू भी शायद इसी मनःस्थिति से गुजर रही थी।
वह सोच रही थी, कैसे दोनों का रिश्ता दोनों के बड़े से अहम और मनमौजी गर्म स्वाभाव की भेंट चढ़ गया। ऊंची तनख़्वाह वाली यूनिवर्सिटी की नौकरी के दम पर बंधनमुक्त मनमौजी स्वच्छंद जीवन जीने की चाहत के चलते दोनों का संबंध तीन बरस से अधिक नहीं चल पाया।
दोनों मौन, अपने आप में गुम ब्रेकफ़स्ट कर रहे थे। वक़्त मानो ठहर सा गया था दोनों के बीच।
तभी अपना पीत्ज़ा खत्म कर देवेन ने कई सारी गोलियां गटक लीं। “ओह, तुम्हें देख कर याद आया, मैं भी मेडिसिन्स ले ही लूँ, कहते हुए सरयू ने भी खूब सारी गोलियां निगल लीं।
“ये किस लिए”?
“वही डायबिटीज़ और ब्लडप्रेशर,”सरयू ने कहा।
“तुम्हें भी, बॉयल्ड वेजीटेबल्स और सूप खाते पीते”?
दोनों सूखे उतरे मुंह ठठा कर हंस पड़े। ****
11. प्यार का जादू
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मनु और हनु का रो रो कर बुरा हाल था। उनकी पिचहत्तर वर्षीय वृदधा माँ नीनाजी का एक बड़ा ऑपरेशन हुआ था जिसमें अनेस्थेटिक ड्रग की मात्रा में अधिकता की वजह से उनकी सांस फूलने लगी थी और उनका ऑक्सीज़न लेवल खतरनाक ढंग से कम हो गया था। वह संज्ञाशून्य थीं। डाक्टरों ने उनकी हालत क्रिटिकल बताई थी और बेटों से कह दिया था,"अब आप लोगों के प्यार की ताकत और दुआएं ही उनको बचा सकती हैं।"
दोनों बेटे उनका हाथ थामे उनकी उखड़ती साँसो को देख अनहोनी की आशंका से आंसुओं के समंदर में डूबे हुए थे।
नीनाजी की हालत पल पल बिगड़ती जा रही थी। बेटे बहू उनसे बात करते तो अर्धचेतनावस्था में उनकी आवाजें उन्हें उनके पास लौट आने को उद्वेलित करतीं और उनका ऑक्सीज़न लेवल तनिक बढ़ जाता, लेकिन दूसरे ही क्षण उनका क्लांत शिथिल तन अपने आप को बेहोशी की गोद में सौंप देता। चैतन्यावस्था और मूर्छावस्था की यह रस्साकशी निरंतर चल रही थी।
कि तभी बड़े बेटे की इकलौती बेटी, नीनाजी की लाड़ली पोती डाक्टर जीवा सुदूर मुंबई से आ पहुंची। उसमें अम्मा की जान थी। अपनी एक बेटी को तरसती, स्वयं तीन भाइयों की इकलौती बहन और दो बेटों की माँ, नीनाजी को अपनी प्रतिकृति, एक बेटी पैदा करने की अदम्य तमन्ना थी। लेकिन पति और सास ने दो बेटों के होते उन्हें एक बेटी के लिए तीसरा चांस नहीं लेने दिया जिसका उन्हें ताउम्र अफ़सोस रहा। बड़े बेटे की प्रथम संतान, एक प्यारी सी गदबदी गुड़िया होने पर वह मानो बेइंतिहा खुशी से बौरा गई थीं।
कि तभी जीवा ने उनके हाथ को अपने हाथों में लेते हुए उनके कानों में कहा, "अम्मा , मैं आगई हूँ, आपकी जीवा, आँखें खोलिए अम्मा, अभी तो आपको मेरे साथ मुंबई जा कर रहना है, मेरी शादी देखनी है, मेरी गृहस्थी संभालनी है, वापिस आइये अम्मा, अपनी जीवा के पास।" और उनकी दुलारी जीवा की आवाज मानो उनकी बेहोशी की अभेद्य दीवार भेदती उनके सुप्त अन्तर्मन पर आघात कर उठी थी और अम्मा अपनी लाड़ली की इस मनुहार को नजरंदाज नहीं कर सकीं। तभी डाक्टरों ने बेहद अचंभे से देखा, उनका बेहद कम ऑक्सीज़न लेवल जीवा की आवाज सुनकर आश्चर्यजनक रूप से निरंतर बढ़ने लगा।
जीवा अम्मा का हाथ थामे करीबन एक घंटे तक उनसे सामान्य होने की चिरौरी करती रही और तभी अम्मा की बंद पलकों में हरकत हुई और वह क्षीण स्वरों में बोल उठीं, "जीवा..., मेरी बिटिया, तू आ गई।"
प्यार का जादू चल गया था। पोती का मुंह देख पल पल मौत के मुंह में जाती अम्मा हिरण हो उठीं थीं।
================================== क्रमांक - 047
जन्मतिथि : 25 मई 1975
जन्मस्थान : गांव पाकरडाँड़ ( बस्ती ) उत्तर प्रदेश
सम्प्रति - बेसिक शिक्षा परिषद, उत्तर प्रदेश में शिक्षक।
लेखन : कहानियां, कविताएं एवं लघुकथाएं आदि
प्रकाशित कृति : -
बाल उपन्यास : मंतुरिया
सम्मान : -
डॉ. परशुराम शुक्ल पुरस्कार - 2018
विशेष : -
- जुलाई 1993 में भारतीय वायु सेना में शामिल मिल। 2012 में सेवा निवृत्त
- कथादेश राष्ट्रीय लघुकथा प्रतियोगिता 2019 में प्रथम पुरस्कार।
- कैनाडा हिंदी प्रचारिणी सभा द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता 2020 में प्रथम स्थान।
पता :
अपरा सिटी फेज - 4 ,ग्राम व पोस्ट - मिश्रौलिया ,जनपद - बस्ती - 272124 उत्तर प्रदेश
1. प्यादे उदास थे
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शतरंज के राजा बीच में थे। उनके दोनो तरफ सामन्त और ओहदेदार थे। हाथी सीधा और ऊँट तिरछा चलता था। घोड़े की चाल किसी को जल्दी समझ नही आती थी। मंत्री तो हरफनमौला था। जिधर दुश्मन दिखाई पड़ते, चल पड़ता। जहाँ पहुंचता तबाही मचा देता। लेकिन इन सबकी सुरक्षा के लिए एक अग्रिम पंक्ति थी - प्यादों की। जब तक प्यादे थे, किसी की जान को खतरा न था। बल्कि होता यह कि जब भी किसी क्षत्रप पर खतरा आता तो प्यादे सामने आ जाते। वे अपना जान देकर भी क्षत्रपों को बचाते। ऐसा करने से राजा और सामन्त से अधिक खुशी प्यादों को होता। प्यादे खानदानी स्वामिभक्त थे। वे इसी बात से खुश थे कि उनके महाराज उनपर भरोसा करते है। भले ही भरोसेमंद का मतलब कम लोग समझते हों, किन्तु प्यादे इसी में लहालोट थे।
युद्ध के मैदान में मोहरे अपना स्थान ग्रहण कर चुके थे और मारकाट जारी था। विपक्षी ने कई महत्वपूर्ण सामन्तों को धराशायी कर दिया था। राजा मुश्किलों से घिरा था। प्यादे ही दौड़-भाग कर उसे बचा रहे थे। जैसा छोटा उनका पद था, वैसी ही धीमी चाल। फिर भी जब तक एक भी प्यादा बचा था, राजा सुरक्षित था। लेकिन जब राजा यह समझ रहा था कि उसका सब खत्म होने वाला है, तभी एक प्यादे ने कमाल कर दिया। वह दुश्मन की नजरों से बचता हुआ मैदान के सभी खाने पार कर गया और उसका इनाम राजा को मिला। राजा को अपने पक्ष के एक धराशायी योद्धा को जीवित करने का मौका मिला। राजा ने तुरंत मंत्री को बुला लिया। मंत्री के आते ही नजारा ही बदल गया। एक दूसरा प्यादा आखिरी खाने में पहुँचा तो राजा ने घोड़े को जीवित कर लिया। इस तरह से एक एककर कई सामन्त युद्ध क्षेत्र में वापस आ गये। परन्तु इस दौरान अधिकतर प्यादे बाहर हो गये। वे बहुत खुश थे कि उन्होंने हारी बाजी पलट दी थी। वे एकदूसरे को इसकी बधाई भी दे रहे थे कि हमेशा की तरह उन्होंने इस बार भी राजभक्ति (देशभक्ति) सिद्ध कर दी थी। उनकी नजर अपने बचे एक प्यादे पर थी। प्यादों ने कहा - अगर यह आखिरी खाने तक पहुंचा तो राजा इस बार हममे से किसी को वापस बुलाएंगे। अवश्य ही वे हम प्यादों को सम्मान देंगे।“ सब ने उसके साथ हामी भरी। वे आखिरी बचे प्यादे को प्रोत्साहित कर रहे थे। तालियां बजा रहे थे। जैसे-जैसे वह अंत के नजदीक पहुंच रहा था, उनकी धड़कन बढ़ती जा रही थी। सबको आशा थी कि राजा न जाने उनमें से किसको बुलाये! यह बहुत बड़ा सम्मान होगा। देखते देखते प्यादा आखिरी खाने में पहुंच गया। सबकी साँसे रुक गई। सब एकटक राजा को देखने लगे - सभी प्यादे तैयार थे। पर राजा ने उनकी तरफ देखा भी नही और हाथी को जीवित कर लिया। सारे प्यादे उदास हो गये। राजा ने मैदान मार लिया था। वह सामन्तों के साथ जश्न मना रहा था। प्यादे मंच के नीचे से उन्हे देख रहे थे। ***
2. काँटा
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बारहों महीने वे व्यस्त रहते। मै सुबह उन्हें खेत में जाते देखता और शाम को खेत से आते। कभी वे खुरपा-खुरपी, कभी हंसिया, कभी कुदाल, कभी फावड़ा आदि लेकर जाते। एक दिन मैने पूछ लिया -“कितना जोतते हैं?“
“पाँच... पांच बीघे,“ वे बोले।
“तब तो खाने की कमी नही होती होगी,“ मैने पूछा।
“हाँ, नही होती,“ वे बोले।
“बेचना पड़ता होगा?“ मैने पूछा।
“नही। बेचने भर का नही होता,“ वह सहजता से बोले।
लेकिन मैं चकित था। मैने पूछा -“पाँच बीघे का अनाज खा जाते हैं?“
वे बोले -“अरे गल्ले पर है। खेत मेरा नही है।“
“आपका कितना बीघा है?
उन्होंने ने हाथ से कुछ नही का इशारा किया। मैने पूछा-“भाई-पाटीदार के पास भी नही होगा?“
वे बोले -“नही, किसी के पास नही है।“
“लेकिन खेती सब करते हैं.... सब किसान हैं,“ मैने कहा।
वे मुस्कराए और बोले -“हाँ।“
“तब तो अनुदान-सहयता कुछ नही मिलता होगा?“
“कहाँ से मिलेगा? जब किसी के नाम पर एक धुर भी नही है।“
“दादा-परदादा से ही ऐसे...“
“हाँ। दादा-परदादा का भी खेत नही था।“
“लेकिन गाँव के दूसरे लोगो के पास तो पाँच-पाँच दस-दस बीघा है।“
“उन्हें भगवान ने दिया है।“
“मतलब आपको भगवान ने नही दिया?“
“हाँ, ऐसा ही है।“
मै उनको और खंगालने लगा। मैने पूछा -“भगवान ने आपको क्यों नही दिया?“
“अब नही दिया तो नही दिया। क्यो नही दिया ये वही जाने,“ वे मुस्कुरा कर बोले।
“अच्छा आपको लगता है कि भगवान ही सबको देता है? देता है तो भेदभाव क्यों?“ मैने उन्हे टटोला।
इस बार वे झल्लाये, “भगवान के नाम पर संतोष तो करने दीजिए...कहाँ सिर फोड़ लूँ...।“ मै समझ गया कि कांटा बहुत गहराई में है। ****
3.चाह
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रमई राम मजदूरी करके लौटा था। उसका पाँच साल का बेटा टीकू दौड़कर उससे लिपट गया। उसने जेब से दो टॉफियाँ निकालीं और टीकू की ओर बढ़ाईं। बेटे ने उसका हाथ दूर हटाते हुए कहा, “मुझे सेब खाना है।"
रमई बोला, “सेब...सेब, तो नहीं है...कल ले आऊँगा।"
“नहीं, मुझे तो अभी चाहिए।" टीकू फर्श पर लोट गया और रोने लगा। रमई उसे गोद में उठाकर घर के अंदर आ गया। बोला, “ बेटा, अब तो रात हो गई है। अभी सेब कहाँ मिलेगा? कल जरूर ले आऊँगा।"
उसने टीकू को फिर से टॉफी पकड़ाई। लेकिन इस बार भी बेटे ने उसका हाथ झटक दिया। टॉफियाँ फर्श पर बिखर गईं। रमई को गुस्सा आ गया। दाँत भींचते हुए ऊँची आवाज में बोला, “समझ में नहीं आता? बोल रहा हूँ कल ले आऊँगा तो..।"
टीकू सहम गया। ’ऊं-ऊं’ कर सुबकने लगा।
"आज दोपहर किसी को सेब खाते देखा है। तभी से सेब की रट लगाए है।" पत्नी बेटे के पास बैठकर उसे चुप कराने लगी।
अगली शाम लौटते हुए रमई बस स्टैंड की तरफ से निकला। फल के ठेले वहीं लगते हैं। एक ठेले वाले से पूछा, “सेब कैसे दिए?"
“दो सौ...एक सौ अस्सी...एक सौ पचास... असली कश्मीरी हैं। कौन-सा दूँ?" ठेले वाला बोला।
रमई का दिल बैठ गया। दो सौ रुपया किलो। बाप रे! कौन-सा अमरफल है! उसने हौले से साइकिल को पैडल मारा और चल दिया। ठेले वाले ने आवाज दी, “अरे, कितने लोगे? कुछ कम कर दूँगा।"
रमई ने जैसे सुना ही नहीं। उसने पलटकर नहीं देखा। आगे किराने की दुकान पर रुका। पूछा, “सेब वाली टॉफी है क्या?"
दुकानदार बोला, “नहीं जी, मैंगो वाली है।"
उसने टॉफियाँ ले लीं। सोचा टीकू अब तक तो सेब को भूल गया होगा। मैंगो टॉफी से खुश हो जाएगा।
टीकू को जैसे ही उसे पता चला कि आज भी सेब नहीं लाए, वह एड़ियाँ रगड़-रगड़कर रोने लगा।
पत्नी ने कहा, “ले आए होते। कितने दिनों बाद तो उसने कुछ माँगा है।"
वह हताशा से देखते हुए बोला, “दो सौ रुपये किलो था...।"
पत्नी बोली, "एक पाव ही ले लेते।"
रमई का दिल कचोटने लगा। उसके दिमाग में तो ये बात आई ही नहीं।
अगले दिन रमई ने भाव नहीं पूछा। आधा किलो सेब ले लिए। आज रमई बहुत खुश था। वह घर पहुँचा। रमई ने सेब बेटे के सामने रख दिये। टीकू ने सेब देखते ही मुँह बना लिया। बोला, “मुझे नहीं खाना।"
रमई प्यार से बोला, "अरे, अभी तक गुस्सा है बेटा!" वह उसे दुलारने लगा।
टीकू बोला, "मुझे केला चाहिए।"
"अरे, दो दिन से तुम कह रहे थे कि सेब चाहिए, और अब केला...।"
टीकू बोला, "हाँ, मुझे केला भी खाना है।"
रमई का माथा भन्ना गया। लेकिन उसने कुछ कहा नहीं।
अगले दिन वह केला लेकर आया। टीकू दौड़कर उससे लिपट गया।
रमई बोला, "आज तुम्हें सेब-केला दोनों खाना पड़ेगा। यह देखो...।" उसने बेटे को गोद में उठा लिया।
टीकू ने केले को देखा भी नहीं और हुलसकर बोला, "बाबा, आज तो मैंने खूब सारे झरबेरी खाए हैं। मुझे झरबेरी बहुत पसंद हैं।"
रमई थोड़े गुस्से से और थोड़ी हैरत से उसे देख रहा था। लेकिन दरवाजे पर खड़ी पत्नी के चेहरे पर हल्की-सी मुस्कान थी। रमई से भी बिना मुस्कराए रहा नहीं गया।****
4.हार
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जेठ की दुपहरी में बीच सड़क पर किसी के सैंडल का तल्ला निकला होगा तो मेरा कष्ट समझ सकता है। लेकिन मेरे साथ अच्छी बात यह थी कि मुझे दूसरी तरफ बैठा मोची दिख गया था। वह एक फल वाले ठेले के बगल में बैठ कर छांव ढूंढ़ने का प्रयास कर रहा था। मैने कहा - ‘‘इसे गोंद से चिपका दो।’’ उसने प्रश्न किया - ‘‘सिल दूँ?’’
मैने कहा, ‘‘नही भाई, लुक बिगड़ जायेगा।’’
उसने अंगुली से इशारा करते हुए कहा - ‘‘वहाँ चले जाइये। हो जायेगा।’’ मै तिलमिलाकर रह गया। जरा सा काम है। जब मै कह रहा हूँ कि चिपका दो तो वह सिलने पर आमादा है। ऐसी हालत में वहां जाना एक सजा था। मैने पूछा - ‘‘क्यों? तुम नही कर सकते?’’
उसने पुनः अंगुली दिखाया - ‘‘बता तो रहा हूँ कि वहाँ चिपक जायेगा।’’
मैने ध्यान से देखा। उसके पास दो पॉलिश की डिब्बी थी - एक काली, दूसरी लाल, एक निहाई, कैंची और कुछ चमरौधे बस। मैने प्रश्न किया -‘‘तुम्हारे पास गोंद नही है क्या?’’
उसने मुझे केवल देखा।
‘‘कितने में मिलेगा?’’
‘‘आप वहीं बनवा लीजिए।’’
‘‘ऐसे ही दुकान लगाए हो? जब सामान नही रहेगा ता कैसे कमाओगे। पचास रूपये में मिल जायेगा?’’
उसने हामी में सिर हिला दिया। मैने उसे पैसे दिए तो वह गोंद लेने चला गया। मेरे अंदर कई सवाल उठ रहे थे। गुस्सा भी आ रहा था। वह आया तो मैने पूछा - ‘‘कितना कमाये आज?’’
‘‘ उन्नीस रूपया।’’
‘‘इतने से घर चल जाता है?’’
‘‘हां।’’
‘‘अनाज कैसे खरीदते हो?’’
‘‘खरीदना नही पड़ता। राशन कार्ड पर मिल जाता है।’’
‘‘सब्जी तो खरीदना पड़ता होगा?’’
‘‘आलू दस रूपये किलो है। एक दिन लाता हूँ दो दिन चलता है।’’
‘बच्चों को पढ़ाते हो या नही? फीस कैसे देते हो?’’
‘‘फीस नही देना पड़ता। सरकारी में हैं। खाना भी मिलता है।’’
वह मुझे हर दांव पर पछाड़ रहा था। उसके पास जरा सा भी गुस्सा या असंतोष नही था। उसे देखकर मै झुंझला रहा था। मैने पूछा - ‘‘कभी फल वगैरह खाते हो?’’ इसबार मै जानता था कि उसका उत्तर नकारात्मक होगा। वह बोला - ‘‘फल तो भाई साहब रोज ही खिलाते हैं।’’ उसने फलवाले को देखा और उसने हामी भरी। उसने कहा - ‘‘हो गया,’’ और सैंडल आगे कर दिया।
वह शांत था और मै उद्विग्न। मैने पूछा - ‘‘कितना दूँ?’’
वह बोला - ‘‘जो मर्जी।’’
मुझे लगा उसने मुझे धोबी पाट दे मारा और मै चित्त था।****
5. उड़ान
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वह शाम को घर पहुंचकर कपड़े बदल रहा था। तभी पत्नी ने कहा -"एक अर्जेंट जरुरत आन पड़ी....चाय पत्ती एक भी चम्मच नही है।"
वह तमतमा गया -"यार समय से बता दिया करो। शाम तक थक जाता हूँ...अब फिर से जाऊँ...?"
तभी बेटी ने आकर कहा - -"पापा आप आराम कर लीजिए। मै ले आती हूँ।"
"अरे नही...तुम नही..।"
"आप थके हैं....आराम कर लेते।"
"अच्छा नही लगेगा...।"
"किसे....आपको?"
"नही...बहुत संकीर्ण विचार के लोग हैं..।"
"ये तो उनकी समस्या है। आप अपनी बताइये।"
"देखो इस लड़की को...," उसने पत्नी को देखा।
"ठीक तो कह रही है," पत्नी बोली।
"आयं...अच्छा जाओ।" उसने पैसे बढ़ाये और बेटी मुस्कराती हुई घर से निकली। पति-पत्नी ने बेटी को जाते हुए देखा तो दोनो वैसे ही खुश हुए जैसे चिड़िया अपने चूजे की पहली बार उड़ान पर खुश होती है।****
6.बाप
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पीं...ई...पीं... ईं! पी.. पी..पी..पी..!!
"रिक्शा हटा! क्या कर रहा है? देखता नही? सिग्नल ग्रीन हो गया!"
पुलिस कांस्टेबल ने डंडा खड़काया - " का रे ! तुझे कुछ दिखता नहीं?"
"चैन उतर गया साब। तुरन्त हटा रहा हूँ।"
"एक डंडा पीठ पर लगेगा, तो पैंट भी उतरेगा।"
सटाक!
रिक्शावान छटपटाता हुआ पीठ सहलाने लगा। सवारी को उसपर दया आई तो नीचे उतर गई। रिक्शावान कुछ बड़बड़ाता हुआ रिक्शे को लेकर बगल में चला गया। ट्रैफिक चली गई। रिक्शावान हाथ से पीठ सहला रहा था और कॉन्स्टेबल को देखे जा रहा था। तभी एक बड़ी सी महंगी गाड़ी वहीं रुक गई। शीशे उतारकर उसमें बैठा शख्श बात करने लगा। पुनः वही - पीं...ई...पीं... ईं! पी.. पी..पी..पी..!!
रिक्शावान पढ़ना नही जानता था। पर वह बहुत कुछ समझता था। उसमें किसी पार्टी का रुआबदार आदमी बैठा था। उसका दर्द मानो आनन्द में बदल गया। हाथ चमका कर कांस्टेबल से बोला - " तुम्हारे बाप हैं! जाओ ..जाओ..।" उसकी आंखें हँस रही थी; उसका सब दर्द चला गया था। लेकिन पुलिस कांस्टेबल नजरें चुराता हुआ दूसरी तरफ चहलकदमी करने लगा। ****
7.हूक
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धीरे धीरे गाड़ी उसके मायके के नजदीक आ रही थी। उसे वहाँ नही रुकना था। आज वह उधर से होकर कहीं और जा रही थी। वह खिड़की से चिपक गई। गर्दन उधर मुड़ गई। सबसे पहले दिखी - कबरी (गाय)। वह नीम के नीचे बैठी थी। बछिया उसके बगल में थी। माँ बेटी एक दूसरे को लाड़ कर रहे थी। तभी कहीं से झबरी कुतिया बीच में आ गई। उसकी नजर उस पर टिक गई। तीन पिल्ले दौड़े-दौड़े आये और लपककर दूध पीने लगे। झबरी उन्हें दूध पिलाने लगी। बाहर और कोई नजर नही आया। उसकी नजरें माँ-बापू और भाई-बहनों को खोज रही थी। वह ख्यालों में खो गई। कभी वह इसी तरह जब पढ़कर स्कूल बस से आती थी। जैसे ही उसका घर आने वाला होता उसकी सहेलियाँ एक साथ चिल्लाती -"रश्मि तुम्हारा घर...।" तब वह उठकर गेट पर आ जाती थी। वह सोंच में खोई थी कि तभी उसके कानों में पति की आवाज पड़ी। वो बेटी को कह रहे थे -"बबली देखो! तुम्हारे मामा का घर।"
उसके अंदर एक हूक सी उठी - उसका घर कहाँ गया!****
8. समानता का अधिकार
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छब्बीस जनवरी आई तो मालती काम से आते समय शाम को नैना के लिए एक झंडा लेती आई। कपड़े उसने पहले से ही साफ कर दिये थे। सुबह उसे जगाना नही पड़ा। बल्कि हुआ यूँ कि नैना ने ही उसे जगाया। बात यह था कि मैडम ने उसे क्लास का मॉनिटर बना दिया था। उसे ही प्रभात फेरी की अगुवाई करनी थी। नारे भी उसे ही बोलना था। दो भाषण उसने तैयार कर लिए थे। इसके अलावा, नृत्य, और वंदना में भी थी। सारांश यह कि पूरे कार्यक्रम के दौरान लोग नैना को टुकुर-टुकुर देखते रहेंगे। पूरे गांव में प्रभात फेरी निकलती है। ऐसे में सभी चाचा-चाची, दादा-दादी और अन्य उसे देखेंगे और मन ही मन कहेंगें, 'वाह नैना, वाह!' यही तमाम बातों के कारण वह बहुत उत्साहित थी।
छब्बीस जनवरी का कार्यक्रम पूरा हुआ। मिष्ठान वितरण में उसे पुरस्कार में कापियाँ और पेंसिल मिले। दो लड्डू भी मिले। वह घर पहुँची तो मम्मी नहीं थी। एक घण्टे बाद आई। उसे बहुत गुस्सा आया। लेकिन मम्मी ने जब उसे गले लगाया तो वह भूल गई। बोली,"मम्मी लड्डू लाई हूँ। एक आप खा लो।" मम्मी ने उसे चिपटा लिया, "नही, तुम खा लो। दो ही तो है।"
पर उसने मम्मी के मुँह में ठूस दिया। दोनो हँस पड़ी। नैना बोली- "मम्मी अब कहीं जाना नही है न?"
मम्मी बोली, "तुम खेलो। मै जाकर जल्दी आ जाऊँगी।"
नैना को रुलाई आ गई। बोली, "देखो मम्मी, आज मैडम ने एक बात बताया है। उन्होंने कहा- हम सब आजाद हैं। सबको समान अधिकार है। कोई किसी का गुलाम नही। उसपर आज तो छब्बीस जनवरी है। सबकी छुट्टी है। तुम तो संडे भी काम पर जाती हो।"
मम्मी बोली, "अभी दो दिन पहले जब बुखार हुआ था, तब छुट्टी ली थी न। रोज-रोज छुट्टी कौन देगा?" मम्मी ने नैना को गोद मे बिठा लिया।
मालती सोंचने लगी - 'कितनी झूठी है ये मैडम! भाषण कुछ देती है, घर मे कुछ कहती हैं।' उसे चिंता होने लगी कि मैडम ने उसे दोपहर में ही बुलाया था। बोली थी, "छब्बीस जनवरी को सुबह नही दोपहर में आ जाना।" जाना तो पड़ेगा, नही तो नाहक ही चिल्लाएंगी।'
वह धीरे-धीरे नैना को थपकी दिये जा रही थी। नैना हाथ में लड्डू लिए ही सो गई थी। ****
9. मंगलम
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उसने पूछा - "आपका नाम?"
"जी, मनोहरलाल।"
"केवल 'मनोहरलाल', या आगे पीछे भी कुछ?"
"जी , केवल मनोहरलाल।"
"पिता ?"
"श्री हरिहर प्रसाद।"
"उनके भी आगे पीछे कुछ नही?"
"जी, कुछ नही।"
"पिताजी क्या करते हैं?"
"जी खेतीबाड़ी।"
वह न जाने क्या जानना चाह रहा था। अभी भी उसकी अन्वेषी आंखे कुछ टटोल रही थी। अचानक उसे मेरी अंगूठी दिखी। उसने कहा- "क्या पहनें हो? दिखाओ।"
मैने दिखाया तो वह फिर निराश हो गया- "यह तो सादी है।"
मैन कहा - "जी मुझे आभूषणों में कोई रुचि नही। पत्नी ने जिद की तो एक सादी अंगूठी बनवा ली।"
"पत्नी का क्या नाम है?"
"जी परी।"
उसे उसमे भी कुछ नही मिला। उसने पूछा -"बच्चे?"
मैन कहा -"दो।"
उसे कुछ तसल्ली हुई, "एक बेटा , एक बेटी?"
"जी नही। दोनो बेटी ही हैं।"
उसकी आंखें चमक उठी। उसे एक काम की चीज पता चल गई, " एक विधि बताता हूँ। इसबार पुत्र रत्न पक्का।"
"अब हम दोनो की इच्छा नही।"
"वंश परम्परा के लिए बेटा जरूरी है। पिंडदान कौन करेगा? पूर्वजो का ऋण उतारना परम् कर्तव्य है।"
"अभी इस बारे में नही सोंचा।"
"तो अभी सोंचो। समय निकल जायेगा।"
"जी नही। मै बेटियों से ही खुश हूँ।"
उसकी भवें धीरे-धीरे तन रही थी। वह बोला "नरक में जाओगे।"
"धन्यवाद! मैं तो सुखी हूँ।"
"ये अंगूठी पहनो कल्याण होगा।" उसने अंगूठी बढ़ाया।
मैंने कहा - "सब मंगलमय चल रहा है।" मैं चल दिया।
वह चिल्लाया -" आगे भी मंगल होगा...।" ****
10. गोल्डी
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''ए गोल्डी, चल चाय दे। इधर-उधर मत झाँक।''
"जी।"
''ए छोकरे, इधर भी देख। नजर दौड़ा। एक ही जगह टेसू बनकर खड़ा मत रह।''
"जी।"
''अरे दौड़ ना। गादर बैल! वो देख साहब क्या माँग रहे हैं?"
"जी साहब बताएँ। क्या लेंगे?"
"अच्छा गोल्डी, सुन। एक काम कर। केतली में दो चाय डाल, दो बालूशाही और पकौड़े लेकर सीधा ऊपर साहब के कमरे पर धावा मार।"
"सेठ मैं कुछ खाकर जाऊँ?"
"कान के जड़ पर एक झन्नाटेदार पड़ेगा न, सब खाऊँ हवा हो जाएगी। चल दौड़।"
गोल्डी सचमुच दौड़ पड़ा।
"साब जी, चाय।"
"अरे गोल्डी, आ जा। केतली टेबल पर रख। ये ले स्टूल। बैठ जा।"
"नहीं साब, मैं जाऊँगा!"
"अरे बैठ। पहले एक कहानी सुना, कल की तरह। फिर जा। तेरे पास तो बहुत कहानियाँ हैं।"
"साब, वो सेठ चिल्लायेगा।"
" सेठ की ऐसी की तैसी। तू बैठ। जब तक मैं नाश्ता करता हूँ, तू कहानी सुना।"
गोल्डी कहानी सुनाने लगा, "एक लड़का था। वह रो रहा था..।"
"कहानी के शुरू में ही रोने लगा?"
"साब, वो क्या है.. कि उसे भूख लगी थी..।" ****
11. बौना
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जब से जंगल को पता चला कि अब पर्यावरण बचाने की मुहिम जोर पकड़ रही है और अब पेंडो को काटना अपराध हो गया है, उसने चैन की सांस ली। लेकिन एक दिन कुल्हाड़ी उधर आई। पेंड़ ने कहा -"अब तुम्हारी मनमानी नही चलेगी। कानून हमारे पक्ष में है।" कुल्हाड़ी ने एक कागज निकाल कर दिखाते हुए कहा -"कानून का एक भाग मेरे साथ है। इससे तुम्हारा कानून बौना हो जाता है। इसे परमिट कहते हैं -ये देखो!"
जंगल सिहर कर रह गया। ***
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क्रमांक - 048
जन्मतिथि : २७ नवम्बर १९७६
जन्मस्थान : गोपालपुर )फैज़ाबाद ) उत्तर प्रदेश
पिता : स्व श्री इन्द्र स्वरूप खरे
माता : श्रीमती विभा खरे
पत्नी : श्रीमती आरती खरे
पुत्री : शांभवी खरे
शिक्षा : एम ए राजनीति, समाजशास्त्र,अंग्रेजी, एल एल बी, डिप्लोमा इन जर्नलिजम, डिप्लोमा इन कंप्यूटर अकाउंटेंसी एंड फाइनेंस एक्जीक्यूटिव
सम्प्रति : विधि व्यवसाय और फिल्म लेखन तथा साहित्य साधना
विधा : गद्य एवम् पद्य
प्रकाशित कृति : -
कारवां लफ्जो का सच का सामना ( काव्य संग्रह )
जीवन के रंग ( काव्य संग्रह )
विशेष : -
- तीस से अधिक सहयोगी संकलन में रचना प्रकाशित
- एसोसिएट मेंबर भाभा इंस्टीट्यूट मैनेजमेंट साइंस उदयपुर - एसोसिएट मेंबर स्क्रीन राइटर एसोसिएशन मुंबई
पता : आद्या वास , ९४६, मोहल्ला सुन गढ़ी , पीलीभीत - २६३००१ उत्तर प्रदेश
1.फादर्स डे
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आज सुबह से ही शर्मा जी तैयार होकर बैठे हुए थे।बार-बार दरवाजे की तरफ देखते कभी दीवार घड़ी की तरफ बेचैनी से देखते,चश्मा साफ करके चेहरे पर हाथ फेरते..ऐसा करते काफी देर हो गई तो रामजी ने पूछा.."अरे शर्मा जी क्या बात है, आज बड़ी बेचैनी दिख रही है चेहरे पे..किसका इंतजार है?"
शर्मा जी ने हल्के से मुस्कुरा कर कहा.."आज बेटा आने वाला है न..वही तो अकेला सहारा है मेरा..आज के दिन जरूर आता है मुझसे मिलने..."।
रामजी ने आश्चर्य से कहा..."आज उसका जन्मदिन है क्या या आपका?"
"नहीं.. नहीं, जन्मदिन नहीं.. आज फादर्स डे है न तो विश करने हर साल आता है और देखना" ...बात हलक में रह गयी और शर्मा जी तेजी से आगे बढ़े। मेन गेट पर एक बड़ी सी कार रूकी और एक युवा के साथ फलों की टोकरी लिए हुए दो लोग उतरे।शर्मा जी ने युवक का कंधा थपथपाया और आँखें साफ करके कुशल क्षेम पूछी।
फलों की टोकरी प्रबंधक को देकर युवक बोला..."मैनेजर साहब, कई सोशल एक्टिविटी में बिजी रहने के कारण आज के दिन यहाँ आ पाना काफी मुश्किल हो जाता है,इसलिए पिताजी को इंटरनेट कनेक्शन के साथ ये लैपटॉप दे जा रहा हूँ जिससे आगे से वीडियो चैट के थ्रू बात करता रहूँगा और इस वृद्धाश्रम के लिए दान सामग्री मेरे सहयोगी दे जाया करेंगे।"
मैनेजर के कमरे से बाहर निकल कर वह शर्मा जी के पास गया,गले मिला और हैप्पी फादर्स डे पापा बोलकर गाड़ी से धूल उड़ाता चला गया। ****
2. ईद
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करीब चार साल का राहुल अपनी बीमार माँ के साथ अस्पताल के बेड पर बैठकर खिड़की से सफेद कुर्ता पायजामा और सफेद टोपी पहने तमाम लोगों को जाते हुए देख रहा था। बालसुलभ जिज्ञासा में पूछ बैठा.."मम्मी ये लोग कहाँ जा रहे हैं?"
"बेटा इज ईद है और ये लोग नमाज पढ़ने जा रहे हैं"।माँ ने समझाया और सब कुछ समझकर वह भी हठ कर बैठा "मुझे भी ईद मनानी है ...मैं भी नमाज पढ़ने जाऊँगा"।।
सब यह सुनकर हँसने लगे,राहुल झेंप गया।तभी एक बुजुर्ग तीमारदार खान साहब बोले"बेटा,ईद और नमाज हम मुसलमानों का काम है ..आप तो हिंदू हैं..आप न ईद मना सकते हैं और न ही नमाज पढ़ सकते हैं।"
थोड़ी देर की खामोशी के बाद राहुल बोला .."क्या भगवान भी अलग होते हैं जो हम सब अलग हैं"? फिर तमाम कोशिशों कुछ बाद उस बच्चे की आवाज फिलहाल दब गई।लेकिन ईद मनाने की कसक जो दिल में उठी वह न दब सकी।
उम्र बढ़ती रही और वक्त के साथ धर्म-मजहब के नाम पर तमाम खून पानी हो गया और राहुल एक सफल कारोबारी बन चुका था।वक्त ने आज फिर शायद करवट ली थी।
ईद के दिन वह अपनी दुकान पर बैठा था।एक मुस्लिम महिला युवती कुछ खरीदारी करनेआयी और अचानक बेहोश होकर गिर पड़ी।अचानक ऐसी हालत में राहुल घबरा गया ...ध्यान से उसे देखा तो लगा शायद वह गर्भवती है।अंजान महिला, बेहोशी का आलम ,जमाने का खौफ ...ये सब अचानक गायब हो गए,जब राहुल ने अपने स्टाफ से गाड़ी मंगवा कर उस युवती को अस्पताल ले जाने का निश्चय किया।
अस्पताल में डाक्टर की पूछताछ पर उसने सारी बात बताई।डाक्टर ने बताया कि शायद प्रसव का समय नजदीक है और इसे खून की जरूरत है।आप इनके किसी परिवार वाले को बुला कर लाइये या यहाँ से ले जाइये।
राहुल ने बहुत समझाया कि वह.इस महिला को या उसके परिवार को नहीं जानता है।लेकिन इसका इलाज बहुत जरूरी है..जो भी खर्चा होगा वह खुद दे देगा।लेकिन कानूनी पचड़े समझाकर डाक्टर ने इलाज से मना कर दिया।तब राहुल बोला..."डाक्टर साहब क्या आप मेरी बहन का इलाज कर सकते हैं?"
"हाँ..बिल्कुल,"
तो इसे आप मेरी बहन समझकर इलाज कीजिए सारा खर्च और खून मैं दूँगा...अब तो आपको कोई आपत्ति नहीं है।" डाक्टर ने कागजी कार्यवाही के बाद उसका इलाज शुरू किया।इसी बीच किसी ने उस युवती को पहचान कर उसके घर सूचित कर दिया।घर वाले जबतक अस्पताल पहुंचे,राहुल का खून उस अंजान युवती की नसों में उतर चुका था और वह युवती लेबर रुम से बाहर एक सुंदर बच्चे के साथ स्ट्रेचर पर आ रही थी।अपनी बहू को पोते के साथ देखकर खुदा का शुक्राना अदा करके खान साहब उस फरिश्ते से मिलने गये,जिसकी बदौलत आज उनके घर का चिराग बच सका था। वेटिंग रूम में बैठे राहुल के पास पहुंचे खानसाहब और उनके परिवार ने राहुल का धन्यवाद दिया...बेटा आज तुमने हमारी ईद सही मायने में मुबारक बना दी...कहो ईदी का क्या तोहफा दें।
राहुल ने ध्यान से उनका चेहरा देखा,मुस्कुराया और बोला..."अंकल ईदी तो मुझे मिल गयी और ईद भी मेरी हो गयी"।
"मतलब"..
अंकल मैंने आपको अभी पहचाना पर शायद आपने नहीं... बरसों पहले आपने हिन्दू होने के कारण मुझे ईद मनाने से मना किया था लेकिन आपकी बहू को बचाकर मैंने अपनी ईद आज मना ही ली और एक बहन को उसके बच्चे के साथ सही सलामत पाकर ईदी भी हासिल कर ली..."
अचानक खानसाहब की आंखों में एक चमक उभरी बोले तुम वो ...अस्पताल... या अल्लाह वो बच्चा आज इतना बड़ा हो गया।बेटा हमें माफ कर दो तुम्हारे सवाल का जवाब आज तुमने खुद ही दे दिया।सही मायने में ईद और इबादत का मतलब आज ही हमें मालूम हुआ है ...बेटा आज तुमने हमें हमारी ईदी और एक सबक दोनों ही दिये हैं",कहकर खानसाहब ने राहुल को गले से लगा लिया। ****
3.नसीहत
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रीमा बड़े ध्यान से टी.वी.पर प्रखर समाजसेवी टंडन जी का इंटरव्यू सुन रही थी।देशहित, नारीचिंतन,समाज हित हर विषय पर क्या गजब की पकड़ थी ..वह इसी में इतनी मग्न हो गयी कि कुछ औरसोचने का ध्यान ही नहीं रहा।तभी उसका नौ साल का बेटा किचन से चीखता हुआ आया..."मम्मा आपने दूध जला दिया..."!
वह भाग कर किचन में गयी और गैस बंद करके वापस आयी,टी.वी.पर नजर डाली।इंटरव्यू के स्थान पर कोई ब्रेकिंग न्यूज चल रही थी।उसके पैर जड़वत हो गये और दिमाग सुन्न हो गया।जब उसने ब्रेकिंग न्यूज की हेडलाइन देखी....."बच्चों की तस्करी के आरोप में समाजसेवी टंडन गिरफ्तार..."।
" ऐसा नहीं हो सकता ..",रीमा स्वयं से बोली। तभी उसका बेटा बोला ..."हा मम्मा! ये अंकल परसों चार बच्चों को अपनी कार में ले गये थे।" ****
4. आश्वासन
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मंत्री जी के कार्यालय में करीब दो घंटे बाद अपना नंबर आने पर हैदर साहब ने मंत्री जी को सलाम किया और बताया जनाब मुहल्ले के शोहदों ने मेरे घर पर एक साल पहले कब्जा किया था और शिकायत करने पर भी कोई अधिकारी सुनवाई करने को तैयार नहीं है।अब इस उम्र में मैं कहाँ जाऊँ सर छुपाने...आपके नाम पर ही मेरा ऐतबार रह गया है चुनाव के वक्त आपने मदद का भरोसा दिया था और मैंने भी...बात अधूरी रह गयी। सेक्रेटरी बोला ओ चचा दख्वास्त दे दो मंत्री जी दिखवा लेंगे ज्यादा वक्त नहीं है तुम्हारी गाथा सुनने का..।अचानक मंत्री जी उठे हैदर साहब के कंधे पर हाथ रखा,हौले से बोले...मियाँ सियासत के तरीके आप नहीं समझेंगे....आपकी दरख्वास्त हमने जाँच के लिए भेज दी है।आप इत्मीनान रखकर आराम से घर जायें..।"इतनी देर में अगला फरियादी हाजिर था और हैदर मियाँ आँखें मलते बाहर निकल पड़े।बाहर आते ही उनकी विकलांग बेटी बोली.."अब्बा क्या हुआ?"
"बेटा मंत्री जी ने आश्वासन दिया है"।
क्या अब्बा तीसरी बार भी आश्वासन..?
हैदर मियाँ हल्के से मुस्कराकर बोले...हाँ पता है ..आखिर अनदेखीकिस्मत भी तो हमें आश्वासन ही देती है और हम अनदेखे रास्तों पर चलते रहते हैं...फिर ये तो मंत्रीजी हैं...सियासत के कायदे हम कहाँ समझ सकेंगे फिर वो चाहे तकदीर की सियासत हो या इंसानी...चल अब सराय चलते हैं। ****
5. देवी - पूजा
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देवी माँ की झाँकी यात्रा लेकर देवधर पूरे परिवार के साथ श्रद्धापूर्वक मंदिर गये थे।ढोल नगाड़े और जोरदार संगीत के बीच कानों पड़ी आवाज सुनाई नहीं दे रही थी।
माता की भेटें गाकर प्रसाद वितरण के समय किसी ने पूछा..पूजा कहाँ है?सब चौंक पड़े।किसी ने कहा,"अभी तो यहीं थी"।तो किसी ने कहा,"बच्ची है कहीं खेल रही होगी"।थोड़ी देर के बाद फिर पूजा की तलाश शुरू हुई।पूजा एक नौ साल की बच्ची थी।
तभी एक सात वर्षीय लड़का बोला ..दीदी उधर बगिया में थी।सब उधर भागे,देखा..एक कोने में पूजा की चप्पलें और थोड़ी दूर पर उसका हेयरबैन्ड पड़ा था।घबराहट बढ़ती गयी..आशंकायें शक्ल बदलती रहीं...अचानक सब शांत हो गया।
एक गहरा सन्नाटा जो आसमां को चीर दे ..ऐसा धारदार सन्नाटा था।पूजा एक कोने में लगभग बेहोश पेड़ के तने से टिकी पड़ी थी और उसके कुछ कपड़े कोई जंगली जानवर शायद धोखे से छोड़ गया था।
पूजा की माँ ने उसे देखा..फिर मंदिर के ऊपर तने त्रिशूल को और सिर्फ दो शब्द उसके मुँह से निकले..."देवी....पूजा",और वह बेहोश हो गई। ****
6. तुलसी
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गेस्ट हाउस में आज चौहान साहब के कोई खास मेहमान ठहरे हुए थे,जिनकी आवभगत की तैयारी सुबह से चल रही थी।
निश्चित समय पर भोजन शुरू हुआ।पहले निवाले से आखिरी निवाले तक हर व्यंजन पर आगंतुक की प्रशंसा ने थमने का नाम ही नहीं लिया।
"वाह मित्र वाह ..आज तो भोजन में अमृत जैसा स्वाद मिल गया ...आत्मा तृप्त हो गयी ..ओम..",लंबी डकार के कारण बात अधूरी रह गई।
चौहान साहब के चेहरे पर संतुष्ट मुस्कान दिखाई देने लगी।आगंतुक ने बड़ा आग्रह किया -"भाई जिसने यह भोजन बनाया है हम उसके दर्शन जरूर करना चाहेंगे।"
अतिथि का आग्रह सर माथे पर..चौहान साहब ने इशारा किया।उनकी पत्नी कुछ ही क्षणों में एक युवती के साथ उपस्थित हुयीं।
आगंतुक ने देखते ही पूछा..बेटा,क्या नाम है तुम्हारा?अमृत जैसा रस तुम्हारे हाथों से बनाये भोजन में मिला ...आहाहह...कुछ शब्द नहीं मिल रहे हैं प्रशंसा को..खैर तुम्हारा नाम क्या है?"
'तुलसी',सुनकर आगंतुक चौंक उठे।उन्होंने ध्यान से तुलसी का चेहरा देखा और झटके से खड़े हो गये..."राम..राम..तू कुलटा..अछूत ..हे भगवान अनर्थ हो गया ..छीछीछी..।
चौहान साहब ने बड़ी धैर्यता से पूछा .."मित्र क्या हुआ?"
"अरे पूछो क्या नही हुआ?ये किसे अपनी रसोई में रखा है...।जीवन नरक हो गया ...जानते हो ये अछूत है..नीच जाति की..हमने ही इसे अपनी सोसायटी से निकाला था ..और आज...राम राम।
शांत मित्र शांत!अभी तो आप इस अनदेखी नीच अछूत कुलटा के बनाये भोजन को अमृत तुल्य बता रहे थे,आपकी आत्मा तृप्त हो गयी थी और अब.इसे देखते ही अमृत विष बन गया और तृप्ति का स्थान क्लेश ने कैसे ले लिया।
अतिथि ने कहा-सच कहा मित्र,तुलसी तो सदा.पवित्र होती.है चाहे वह जमीन पर हो या प्रसाद में पड़ी हो।तुलसी को कोई तूफान ही धूल में मिलाता है...मुझे क्षमा कर दो...तुलसी और आगंतुक के हाथ क्षमा मुद्रा में जुड़ गये।****
7.अभिलाषा
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वर्षों की प्रतीक्षा और अथक प्रयासों के बाद पहली संतान और वह भी पुत्ररत्न के पहले जन्मोत्सव को बड़े धूमधाम से राय साहब अपनी पत्नी के साथ मना रहे थे।
इसी अनुक्रम में राय साहब अपनी पत्नी और पुत्र के साथ पुराने मंदिर के बाहर बैठे भिखारियों को भोजन बाँटने आये थे। स्वादिष्ट पकवान पाकर भिखारियों ने जी भर कर दुआयें लुटानी शुरु कर दीं।
अचिनक एक भिखारिन को भोजन पकड़ाते हुए राय साहब का शरीर काँपने लगा और वह लड़खड़ा कर वहीं भिखारिन के पास पैरों पर गिर पड़े...हडकंप मच गया।लोगों ने झुककर देखा रायसाहब बुदबुदा रहे थे .."अम्मा हमें माफ कर दो",और भिखारिन के काँपते हाथ उनके सिर पर रेंग रहे थे। ****
8. ट्रेनिंग
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राज्य में नयी नवेली सरकार के मुखिया ने आज पहली बार जनता दरबार लगाकर राज्य के युवा बेरोजगारों को रोजगार देने का ऐलान किया था।ऐलान सुनते ही डेंगू के मच्छर से तमाम बेरोजगार अपने हाथों में दरख्वास्त का पुलिंदा लिए लाइन में आकर लग गये।कानों की फुसफुसाहट भी शोर लग रही थी।सब को एक ही चिंता थी कहीं यह मौका हाथ से निकल जाये इसलिए सब जुगाड़ में लगे थे कि किसी तरह मेरा नम्बर पहले आ जाये।इस भीड़ में कुछ तो ऐसे भी थे जिनकी मौजूदगी भी घर के आँगन को बोझ लगती थी वे लोग दो दिन पहले ही डेरा डालकर मुखिया के हवेली की दीवार से टिक गये थे।
खैर, शुभमुहूर्त पर मुखिया जी प्रकट हुए अपने लावलश्कर के साथ...।मुखिया जी जिंदाबाद... मुखिया जी अमर रहें ...हमारा नेता कैसा हो.. मुखिया जी जैसा हो...तमाम नारेबाजी के बीच मुखिया जी ने हाथ जोड़े और माइक से घोषणा की.... "मेरे बेरोजगार युवा साथियों आपको परेशान होने की जरूरत नहीं है, मैं भी पहले आपकी ही तरह बेरोजगार था लेकिन आप लोगों ने मुझे रोजगार दिया है तो मेरा फर्ज बनता है कि आप लोगों के लिए सरकार कुछ करे।आप लोग शिक्षित और अशिक्षित अलग अलग भाग में हो जाइए.. मेरा वादा है कि मैं आप सबको अभी और इसी वक्त यहीं रोजगार और प्रमाण दोनों देकर विदा करूंगा।
फिर जोर से सिंहनाद हुआ.... मुखिया जी जिंदाबाद.. और फिर शिक्षित, अशिक्षित का झुंड बँट गया।
थोड़ी देर लिखापढ़ी के बाद शिक्षित वर्ग के बेरोजगारों को बैंड बाजे का सामान और अशिक्षित वर्ग को पाँच फिट की लाठियाँ बाँटी जाने लगीं।लोगों ने पूछा यह क्या है तो मुखिया जी के कारिंदे बोले भई यही तो आपका रोजगार...शिक्षित बैंड बाजा बजाए धुन सीखकर और अशिक्षित जानवर चराये लाठी पकड़कर....हेंहेंहें...अभी उनकी खींसे अंदर भी नहीं हुयीं थीं कि फटाक की आवाज़ हुयी उनके पीछे और दिन में तारे नजर आने लगे।बेरोजगारों ने अपने प्रमाण पत्र का उपयोग शुरू कर दिया था लाठियां इधर उधर बरसने लगीं और बैंड बाजा वाले एक युवक ने माइक पकड़कर कहा...हम तो सरकार को आभार व्यक्त कर रहे हैंऔर बताना चाहते हैं कि हम जानवरों को चराना और नचाना दोनों भली भाँति जानते हैं और अब इन लाठियों का इस्तेमाल हम उन जानवरों को चराने के लिए करेंगे जो जनता के नाम पर जनता को चरने आयेंगे।
थोड़ी ही देर में न मुखिया थे और न उनके कारिंदे.. बचे तो सिर्फ नाच गाकर अपना भ्रम रखते कुछ साये और उनकी रखवाली में बैठे कुछ लाठीवाले। ****
9.बादल-बदली
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लगभग पंद्रह से अधिक लड़कियाँ युव शक्ति केंद्र में रहकर पढ़ रहीं थीं..और न जाने कितनी यौवन की फुहारों से भीगती हुई अपने परिवारों को सींच रहीं थीं।।
कोई परिचित नहीं..फिर भी एक अनगढ़ संबंध था सबके मध्य...सब राधेजी की बेटियाँ थीं।एक समानता के साथ कि या तो वे बेटियाँ अनाथ थीं या फिर अपने माता पिता की त्याज्य मुसीबतें।ये सभी बेटियाँ राधेजी की मुस्कुराहट का कारण थीं।
उम्र के छठे दशक से साँतवें दशक की ओर बढ़ते हुए भी वह चालीस वय के प्रौढ़ को चुनौती देते प्रतीत होते थे और खुद के स्वालंबन से केंद्र चला रहे थे।
आज केंद्र पर बड़ी चहल पहल थी।तमाम लोग आये थे।
एक युवा उत्साही पत्रकार ने पूछा,"राधेजी,आपके केंद्र में सिर्फ बेटियाँ ही क्यों...बेटे क्यों नहीं..जबकि आप का अपना कोई परिवार नहीं है"?
स्वाभाविक प्रश्न था,सन्नाटा छा गया।
राधेजी की गंभीर आवाज गूँजी.."अच्छी फसल के लिए अच्छी बारिश और अच्छी नस्ल के लिए अच्छी औरत जरुरी होती है।..बेटे उड़ते बादल से बड़े सुहाने लगते हैं,जबकि बेटियाँ घनी बदली सी जमकर बरसती हैं और कड़ी धूप में छाँव भी देतीं हैं...बशर्ते कोई हवा का छोंका उन्हें उड़ा न ले जाये।अब आप क्या संभालते हैं..यह आप सोचिए..। ****
10 .अकिनचन
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कोर्ट रूम फरियादियों और वकीलों से भरा हुआ था। जज साहब एक एक कर मुकदमों की आवाज लगाकर सुनवाई कर रहे थे। अचानक एक युवा अधिवक्ता सामने आया और बोला.." हुजूर इस गरीब की भी सुनवाई हो जाए तो दया हो जाए"।
जज साहब ने नजर उठाकर देखा कि करीब 70 वर्ष का बूढ़ा कमर झुकाए खड़ा था। जज साहब ने वकील से पूछा-" क्या केस है "?
"सर आकिंचन वाद है सरकारी वकील साहब को जिरह करनी है और इसके बाद यह अकिंचन है या नहीं तय हो जाएगा।"
जज साहब मुस्कुराते हुए बोले "पहले और केस सुन ले फिर देखते हैं। अकिंच न वाद तो एक अकिंचनन की ही तरह चलेगा" और फाइल एक तरफ रख दी।
शाम तक वह अकिंचान अपनी बारी का इंतजार करता रहा और फिर वह चार बजे दो अंगुल की पर्ची पर अगली तारीख लेकर चला गया। ****
11.दुआ
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उसने फकीर के कटोरे में दस रुपए का नोट डाला फकीर ने हाथ उठाकर सलाम किया और आगे बढ़ने लगा। "अरे बाबा! दस रुपए के बदले दुआ भी नहीं दोगे" जैसे ही यह शब्द उसके कानों में पड़े वह ठहर गया।हल्की सी आवाज में बोला- "साहब दुआ अगर इतनी ही ताकतवर होती तो अपने बेगाने ना होते",कहकर उसने दस रुपए का नोट वापस उसके हाथ में रख दिया और चला गया। वह दस रुपए का नोट अपलक देखते हुए सोचने लगा सच है दुआ का कोई मोल नहीं हो सकता है। ****
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क्रमांक - 049
पिता: श्री मनमोहन जोशी
माता: ब्रह्मलीन श्रीमती जयंती जोशी
शिक्षा: एम.ए. हिन्दी साहित्य, एम.ए. अंग्रेजी साहित्य, पी.जी.डी.सी.ए.
संप्रति: अध्यापक
विधा: लघुकथा , कविता लेखन
प्रकाशित संग्रह:-
1.आशा के दीप (प्रथम लघुकथा संग्रह)2015
2.ठहराव में सुख कहाँ (द्वितीय लघुकथा संग्रह)2018
सम्मान : -
- जे एम डी पब्लिकेशन दिल्ली से जे एम डी सम्मान पत्र 2015
- महेश्वर से तहसील स्तरीय श्रेष्ठ शिक्षक सम्मान 2016
- हमज़मी संस्था राजपुर जिला बड़वानी '' से ‘कवि काव्य सम्मान 2016
- जिलाधीश खरगोन द्वारा ‘जिला स्तरीय उत्कृष्ट शिक्षक सम्मान 2017
- म.प्र. लेखक संघ भोपाल द्वारा प्रदेशस्तरीय ‘देवकी नंदन माहेश्वरी सम्मान - 2017
- संग्रह ‘आशा के दीप’ पर लघुकथा लहरी सम्मान 2016
- म प्र स्थापना दिवस काव्य सम्मान 2017
- नर्मदा भवन ट्रस्ट इंदौर के द्वारा अखिल भारतीय स्तर का ' नार्मदीय गौरव सम्मान - 2018 प्रदान किया गया।
- अखिल भारतीय साहित्य परिषद मलवाप्रान्ताध्यक्ष द्वारा 28 जुलाई 2019 को लघुकथा भूषण से सम्मानित किया।
- राष्ट्रीय स्तर की संस्था कलामन्दिर भोपाल से 2018-19 में कथा-रत्न सम्मान से अलंकृत किया।
विशेष : -
- सह संपादन : "समय की दस्तक" साझा लघुकथा का सह संपादक कार्य
- सचिव :मध्य प्रदेश लेखक संघ ,
- सचिव: राज्य अध्यापक संघ ,
- संचालक : अनिलोप महेश्वर, खरगोन ,
पता : -
हिंगलाज मंदिर के पास ,सहस्त्रार्जुन मार्ग महेश्वर , तहसील महेश्वर , जिला खरगोन - मध्यप्रदेश
1.ईमानदारी का फल
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तुम आज जल्दी छुट्टी लेकर आ जाना। वैसे भी तीन महीनें से कोई छुट्टी नहीं ली है। आधे स्टॉफ के साथ ड्यूटी देने में ज्यादा ही व्यस्तता हो गई है। देर रात तक तुम आते हो।
आज घर में ही सही सभी मिलकर एक साथ भोजन करेंगे। बच्चों के साथ समय व्यतीत करेंगे। यह अवसर बार बार थोड़े ही आता है।
ठीक है भाग्यवान, कोशिश करता हूँ।
पत्नी रमेश के जन्मदिन की पूरी तैयारी कर इंतजार में बैठी थी। लेकिन रमेश काम से काफी देर तक नहीं लौट पाए। खराब मौसम के कारण नेटवर्क भी फेल हो गया था। संपर्क नहीं हो रहा था।
रमेश आफिस से निकलने के लिए छटपटा रहा था। लेकिन आज भी छुट्टी निरस्त कर दी गई। बॉस के दौरे की खबर एवं रमेश को विशेष रुकने की हदायत दी गई थी।
रमेश मन ही मन बॉस को कोसते हुवे। फाइलें बन्द कर बैठा गया था। 'यदि सरकारी नौकरी होती, तो किसी से पूछने की जरूरत नहीं पड़ती पर निजीकरण के अपने नख़रे हैं।'
बॉस ने आकर सारे स्टॉफ की मीटिंग ली। केवल रमेश को ही मीटिंग से बाहर रखा। उसका गुस्सा सातवें आसमान पर था।
"जब मींटिंग में शामिल ही नहीं करना था, तो मुझे रोका ही क्यों?''
मन ही मन हजार प्रश्न बिना समाधान के खड़े कर लिये थे।
आनन फानन में बॉस से काम छोड़ने की धमकी देने के इरादे से वह अपनी कुर्सी से उठा ही था कि चपरासी ने आवाज लगाई।
"रमेश बाबू आपको साहब बुला रहे हैं।"
'अच्छा हुआ साहब ने स्वयं ही बुलाकर मेरी बात शुरू करने का रास्ता साफ़ कर दिया। वरना गुस्से में कहाँ से क्या बोलना शुरू करता।'
रमेश उठकर बॉस के कमरे की ओर बड़बड़ाता चला।
जैसे ही रमेश ने साहब के चेम्बर में कदम रखा, सारा स्टॉफ एक साथ बोल उठा। ''हैप्पी बर्थ दे, रमेश बाबू''। बॉस हाथ में रमेश के लिए सम्मान पत्र एवं टेबल पर केक सजा कर बैठे थे।
बॉस ने कहा-'रमेश, तुमने विषम समय में कम्पनी को बहुत साथ दिया है। आधे कर्मचारियों के साथ भी समय सीमा में पूर्ण काम तुम्हारे कारण ही सम्भव हुआ हैं।'
'जन्मदिन की बधाई हो।'
किसी कर्मचारी का ऑफिस में पहली बार जन्मदिन मना था।
रमेश निशब्द था। आँखों से अश्रु धारा में सारे मलाल भरे प्रश्न बह गए थे। ****
2.दर्शन
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आज मंदिर के गर्भगृह के दरवाज़े ने मंदिर की प्रतिमा की ओर करुण याचक दृष्टि से देखा।
'प्रभु आप और भक्तों के बीच मैं बाधक बनकर खड़ा हूँ। वह भी आपकी अवज्ञा करते हुए, किसी और के आदेश से अपना मुँह बाँधे खड़ा हूँ।'
'यह कब तक और कैसे चलेगा?'
दिव्य प्रतिमा ने दरवाजे से कहा- 'मेरे बाह्य-अंतर्मुखी सखा! यह तुम्हारी भोली सात्विकता है' जो तुम दोनो दिशाओं के संताप को देख कर दुःखी हो।'
लेकिन मैं अनन्त दिशाओं से उनके मन के याचक भाव, और तेरी शुद्ध आत्मा को देख रहा हूँ।' इस संकट काल तेरे ही आत्मरक्षार्थ मैंने उन्हीं लोगों से तुझे बन्द रखने के आदेश करवा दिए। जिनके आदेश से कभी समय बे समय राजसी, एवं तामसी लोग तुम्हें खोलने का आदेश देकर मेरे वी.आई. पी. दर्शन करते थे। जबकि मैं तो दर्शन के लिए अंतर-बाह्य सर्वव्यक्त हूँ। यह स्थिति उनकी कामनाओं की दुर्गति है। ****
3.अनुमति
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राधा, को उसकी सखी सुषमा छोटे छोटे आयोजनों में भी हर बात पर घर न बुलाने की शिकायत करती थी। उसी सुषमा ने आज बेटे की शादी पर खुश होकर राधा को बधाई दी। न बुलाने पर भी कोई शिकवा- शिकायत नहीं किया। आज
जिसने भी राधा के स्टेट्स पर देखा। राधा और राकेश बाबू जी को बेटे की शादी की बधाई देने लगे। फोन पर बधाई का दौर शुरू हो गया।
दोनों ने बेटे की शादी के अनेक सपने संजोए थे। धूमधाम से शादी करेंगे। राधा, अक्सर कहती थी-'बेटे की ऐसा करुँगी,वैसा करुँगी।' कि दुनिया देखती रह जाएँगी। लेकिन समय बड़ा बलवान होता है।
रिश्तेंदारों से लेकर, इष्ट मित्रों की भी लंबी सूची धरी की धरी रह गई। दो साल से कुछ अच्छा करने के चक्कर में शादी को टाला जा रहा था। । लेकिन अंततः तीन महीने पहले मई की तारीख तय हुई। शासन से अनुमति लेना जरूरी हो गया। शासन ने 200 लोगों की अनुमति दी थी। दो हजार में से 200 लोगों को छांटना राधा व राकेश के लिए एक चुनौती थी। फिर भी दोनों को तसल्ली थी। चलो अनुमति तो मिल गई। जैसे-जैसे विवाह का समय नजदीक आता गया। कोरोना के कारण शहर का माहौल विपरीत होता चला गया। और शासन की अनुमति सिमटती चली गई। सौ से पचास, बीस, और उसके बाद एन वक्त पर 10 लोगों को अनुमति शेष रह गई थी।
जैसे विवाह न हुआ। कोई मंत्रिमंडल की सूची जारी हो रही हो। चिंता की लकीरें बढ़ती जा रही थी।
आज मंडप का शुभ मुहूर्त था। राधा के बेटे का बिना ढोल तासे के घर के बन्द दरवाजे के भीतर मण्डप का आयोजन चल रहा था। कि अचानक शासन का नया फरमान आ गया।
आपकी कल की विवाह अनुमति निरस्त की जाती है।
यही हाल लड़की वालों के भी थे। राधा राकेश के साथ ही दूल्हा-दुल्हन पर भी जैसे वज्रपात हो गया हो। लेकिन माँ तो माँ होती है। बच्चों के लिए कभी हार नहीं मानती है।
सारी व्यवस्था निरस्त कर चुके लड़की वालों को राधा ने फोन पर कहा- 'हल्दी लगे वर- वधु को तो कोई सूतक कर्म भी बाधित नहीं करता है। तो यह क्या चीज है। शासन के नियमों का पालन करते हुवे, आज ही तुम पंडित जी व दुल्हन को तैयार, करो। मैं बेटे को लेकर आ रही हूँ। सारी व्यवस्था रहने दे। हम आपका जल भी ग्रहण नहीं करेंगे। केवल बेटी का पाणी ग्रहण करा दीजिए। घर के बंद दरवाजों के भीतर दोनों पक्षों के कुल सात लोगों की उपस्थिति में सात फेरों के संग विवाह सम्पन्न हो गया।
राधा खुशी थी । न शासन को शिकायत रही , ओर किसी रिश्तेदार को शादी में न आने का मलाल था। ****
4.भरोसा
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'माँ तुम्हारे संस्कार को आज अमल में लाने का समय आया है। तो तुम ही मुझे पीछे कदम लेने के लिए ज़ोर दे रही हो।' तुम्हें तो गर्व महसूस करना चाहिए। विवाहित राधा बेटी ने अपनी माँ को फोन पर समझाया।
लेकिन बेटी अभी तेरी उम्र ही क्या है! आज लिवर डोनेट कर कैसे अपने व बच्चे के भविष्य के सपने साकार करोगी। और वह भी अपने बुजुर्ग ससुर के लिये?
"ससुर नहीं, माँ! पिता जी कहिए। मेरी विदाई के समय यहीं सब तो आपने सिखाया था।" क्या तुम ही अपनी सिखाई बातें भूल गई।"
"माँ, संस्कार में स्वार्थ कहा से उभरने लगा।'
राधा, माँ को समझाए जा रही थी, ओर, माँ के आँसू बन्द होने का नाम नहीं ले रहे थे।
बेटी आज देश के हालत भी विपरीत हैं। ऐसे में ऑपरेशन में कुछ ऊँच-नीच हो गई, तो जान से हाथ धो बैठोगी।
"माँ मुझे आपके भगवान पर जितना भरोसा है, उतना ही अपने चिकित्सा विज्ञान पर भी अथाह भरोसा हैं।'
'कुछ नही होगा?, मेरी चिंता छोड़ दो।'
राधा को माँ की भक्ति, स्वयं की शक्ति, और चिकित्सा विज्ञान प्रगति तीनों पर भरोसा था । तीन माह सतत तारीखों में परिवर्तन के बाद, आज राधा और उसके ससुर का आपरेशन हो ही गया। ऑपरेशन के 36 घण्टे बाद होश आया। तो दोनों खतरे से बाहर थे। राधा के भरोसे की जीत हुई। ****
5.समझदारी
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'सविता तुम आज फिर लौट आई।' अभी तुम्हें अपने घर गए एक सप्ताह भी तो नहीं हुआ था। फिर दामाद जी से या किसी से कोई अनबन हुई है?'
नहीं माँ अनबन का कोई प्रश्न ही नही हैं। वे सभी पढ़े लिखे है। लेकिन नासमझी में सभी का जीवन दाव पर लगाने पर तुले हैं।
कैसी नासमझी बेटी। मैं कुछ समझी नहीं।
न तो तुम्हारा घर छोटा है, न मन। कोई आर्थिक कमी भी नहीं है। न कोई जॉब की दिक्कत हैं। इस संकट में भी दामाद जी को सैलरी मिल तो रही है। सुखी जीवन है। और कौन सी नासमझी की बात है।
माँ इस समय छुट्टी मिलने के बाद भी वे घर में रहने की बजाय घरों घर जाकर लोगों को मदद कर रहे हैं। सेवा कर रहे है।'
'लेकिन बेटा यह तो अच्छा काम है।' इसमें क्या नासमझी हो गई।'
माँ, "नाम किसी ओर का है। काम किसी ओर का है। लोग इन्हें बढा चढ़ा कर फील्ड पर भेजते हैं।' कुछ लोगों द्वारा घर बैठे बैठे
'तुम्हारे दामाद का स्तेमाल किया जा रहा है।'
कल कदार कुछ हो गया तो?
'बेटी तु चिंता छोड़ ऐसा कुछ नहीं होगा।'
इतने में किसी का कॉल आया। 'दीदी जीजाजी की पॉजिटिव रिपोर्ट आई हैं। वे अस्पताल में भर्ती हो रहे है।' लेकिन तुम्हें आने से मना किया है। क्योंकि उनकी माता जी भी संक्रमण की चपेट में है।'
बेटी दुविधा में थी, करे तो क्या करें?
माँ ने बेटी को दृढ़ इच्छा शक्ति का ममतामयी कवच पहनाकर, माता 'सावित्री' की कथा का उदाहरण देकर पति व सांस की सेवा के लिए हाथ में कुछ रुपए देते हुवे विदा किया।
माई की समझदारी व बेटी की सेवा एवं सूझबूझ से वे मौत के मुँह से बचकर स्वस्थ्य होकर दामाद घर लौटे तो घर की खुशियां लौट आई। ****
6.संस्कार की दौलत
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वह बड़ा बेकाबू होकर घर से निकला। शहर भी छोड़ दिया। दुनिया छोड़ने की भी सोच ली थी। जैसे सारे विकल्प बन्द हो गए हो। जाने किस झंझावत, मुसीबत ने यह सब करने को विवश कर दिया हो। आज उसे न पिता का त्याग रोक पाया, न माँ के दुलार में वह ताकत रही, न पत्नी का प्यार रोक सका। इतना क्या मन व्यथित हो गया था, कि मासूम बेटे की तुतलाती वाणी के स्नेह बंधन भी टूट गए थे।
वह कहीं सिद्धार्थ (बुद्ध) की तरह तीन माह के राहुल को छोड़कर मृत्यु पर विजय पाने की तलाश में तो महाभिनिष्क्रमण पर नहीं गया था। वह तो खुद मृत्यु को गले लगाने के लिए गया था।
उसके घर में आर्थिक सम्पन्नता, सामाजिक प्रतिष्ठा, पारिवारिक एकता की भी कोई कमी न थी। तो बताए गुरु जी ऐसा क्या हुआ?
गुरु जी का मौन टूटा, तो वे बिखर गए। 'मैने इस घर को हर वैभव, श्रम, सुख के आशीर्वाद से नवाजा हैं।'
'किन्तु संस्कार तो स्वयं ही जागृत करना होता है। धैर्य, विश्वास,आत्म-समर्पण के संस्कार की दौलत की बड़ी तंगी थी।' इस दौलत के आभाव में वह खुद ही खुद के जीवन को अपने हाथों से लेकर चल बसा। ****
7. सिद्धान्त
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आज दिन उदासी से निकल रहा था। आज से ही जीवन का रूटीन परिवर्तित होने वाला था। आज 10:30 को ऑफिस पहुँचने की न तो जल्दी थी। ना ही शाम 5:30 को घर जल्दी आने की चिंता थी। जीवन भर की भागम्भाग का चार्ज देकर सेवानिवृत हुए, सतीश को आज एक सकून की जगह, अजीब सी बैचेनी का अनुभव हो रहा था। क्या-क्या न सोचा था? सेवा से फ्री होकर यह करूँगा? वहां जाऊँगा। परिवार को समय दूँगा। आदि। आज की आजादी का पहला दिन भी न कट रहा था। रोड किनारे अपने मित्र की दुकान पर बैठे लोगों की आवाजाही देख रहा था। उसी समय एक जैन सन्त का नगर में मंगल प्रवेश हुआ। जीवन का कोई परिग्रह उनके पास नहीं पर चेहरे पर प्रसन्नता झलक रही थी। पर समय परिस्थिति बदलने पर भी सिद्धान्तों से जरा भी विचलित न थे। समाज को ज्ञान का उपदेश निस्वार्थ भाव से देकर चल दिये। उनके कर्म संयम की दृढ़ता को देख सतीश उदासी दूर हो गई। यह काम मैं घर परिवार समाज में रहकर भी कर सकता हूँ। रात्रि भर चिंतन मनन कर अगले दिन से ही सारे मोहल्ले के बच्चों को अपने घर निःशुल्क एवं निस्वार्थ शिक्षा देने का काम शुरू कर दिया। अब वह बिना कोई परिग्रह के अपने सिद्धान्तों पर सेवा पर प्रसन्न रहने लगा। उसे समाज में संत की तरह सम्मान मिलने लगा था। ****
8.देहरी से दीवार तक
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दादी, घर, आँगन और ओटले को गोबर से लीपकर, दीवारों पर चूने से पुताई कर देती। दीपावली से पहले दीवारों पर सुन्दर माढ़ने बनाकर सजा देती। दीपावली के दिन आँगन देहरी पर दीपक लगाकर लक्ष्मी पूजन करती। फिर मोहल्ले के सभी परिचितों को घर बुलाती, भोग लगी प्रसादी, के साथ संजोरी, गूजे, पपड़ी का नाश्ता भी करवाती। और उनके बच्चों के लिए पुड़िया बनाकर घर के लिए दे दिया करती थी। गाँव में दादी की उस परम्परा को 'माँ' ने संभाला तो घर में गोबर की लिपाई की जगह टाइल्स ने ले ली थी।दीपावली दीप द्वार पर लगने लगे। लक्ष्मी पूजा तो घर में होती पर, प्रसाद व नाश्ता प्लेट सजा कर पड़ोसियों के घर भेज देती थी। पड़ोसियों के भी यही व्यवहार हो गए थे। समय ने आधुनिकता का चोला पहना। तो माँ की सत्ता बड़े भैया भाभी के हाथों में आ गई थी। अब कच्चे घर का आधा हिस्सा पक्की छत में बदल गया था। दीपावली पर देहरी का दीप, छत की दीवार पर सजने लगा। लक्ष्मी पूजा भी हुई, लेकिन पूजा का प्रसाद, नीचे कमरे में बेटे से अलग रह रहे, माँ, बाबा को भी नसीब नहीं हुआ, तो मोहल्ले की क्या बिसात? लोगों ने दूर से देहरी का दीप, दीवार की छत पर जलता देखकर मोबाइल से शुभकामनाएँ देना शुरूकर दिया । ****
9. उपहार
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पाँच वर्षो से पति की सेवा, ने उसे दुनिया की हर चीज से दूर कर दिया। उन्हें लकवा बिस्तर से अलग नहीं होने दे रहा था। दोनों बेटे अपनी दुनिया में मस्त थे। और वह सुबह से रात तक उनकी सभी क्रियाकलाप बिस्तर पर ही करवाने को मजबूर थी।
इस माहौल से वह उकता गई थी। एक दिन की भी छुट्टी नहीं। न कहीं शादी, ब्याह न रिश्तेदारी में जाना हो पाता।
एक दिन मैं उधर से गुजर रहा था। मैंने सहसा पुछ ही लिया। "काका जी के क्या हाल हैं?" अस्सी पार काकी फूट फूट कर रो पड़ी। काका जी भी 5-6 वर्ष उनसे बड़े ही होगें।
क्या बताऊ बेटा, अब उनका दुःख देखा नहीं जाता। ओर अश्रु पोछते हुए सामान्य होने की कोशिश करने लगी। किन्तु मुझे काकी की वेदना बड़ी लग रही थी।
मैंने काकी से एक के लिए काकाजी जी जिम्मेदारी लेकर उन्हें अपने घर भोजन के लिए बुलाया। काकी जी दिन भर वे मेरे परिवार के साथ रहें। और मैंने उनके घर काका जी की जिम्मेदार संभाली। एक दिन में वह पुनः जैसे एक वर्ष के लिए आत्मबल से भर गई हो। कहने लगी। बेटा तेरा घर में सरस्वती का मंदिर हैं। और अन्नपूर्णा का वास है। आज मैं तुम्हें उपहार में काका जी की रामायण, भागवत पुराण, व उनका धार्मिक साहित्य तुम्हें उपहार स्वरूप देती हूँ। तुम ही उनकी क़द्र कर सकते हो। वह उपहार लॉक डाउन के छः माही अवकाश में मेरे परिवार के बच्चों में संस्कार घड़ रहे थे। ****
10. ड्यूटी
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एक आदमी रोज अपने कार्यस्थल पर मास्क लगाकर जाता था। रोज कार्य पूर्ण कर घर लौटता तो उसकी पत्नी बिना स्नान किये घर के अन्दर प्रवेश नहीं करने देती थी। अब यह उसका रोज का क्रम बन गया था। लेकिन वह रोज अपने काम पर जाता था। एक दिन किसी कारणवश अपने कार्यस्थल पर नहीं पहुँच पाया। जिसका उसे बहुत अफसोस हुआ। रात्रि भर करवटे बदलता रहा। हालांकि उसने ऐसा जानबूझ कर नहीं किया था। किसी मजबूर का शिकार हो गया।
आज उस पर पूरे शिक्षक कर्मचारियों ने हमला बोल दिया। आपकी लापरवाही से आज सारा काम बिगड़ गया। आप के नहीं रहने से मेरा यह काम पूर्ण न हो सके। आप आ जाते मेरा ... आदि दोषारोपण करने लगे।
उस आदमी ने किसी को कोई जबाब नहीं दिया। और आते से अपने काम में लग गया। जबकि सप्ताह भर का अवकाश मनाने वाले सहकर्मी उस पर रौब झाड़ रहे थे। अचानक एक गाड़ी आकर रुकी। उस आदमी का पता पूछते हुवे, स्कूल में प्रवेश कर गये। उस आदमी को बहुत धन्यवाद देने लगे। "यदि आप कल मेरे बेटी को उन बदमाशों के चुंगल से नहीं बचाते तो, मैं कहीं मुँह दिखने लायक नहीं रहता।" आपने मेरी बेटी को शिक्षादान ही नहीं दिया। उसे अस्मिता, अभयदान देकर बचाया। बदमाशों के हाथों स्वयं चोटिल हुवे। अब आपके पाँव की चोट कैसी हैं? बेटी ने बताया कि सभी लोग कैसे सुनी सड़क पर इस घटना को अनदेखा कर गुजरते चले गये। और अपने मेरी बेटी की रक्षा की।
सुनते ही लापरवाही का आरोप लगने वाले सहकर्मियों को मुँह छुपाने के लिए उनका मास्क छोटा पड रहा था। ****
11.अकेलापन
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प्रभात के जीवन की प्रभात उसके अंशदाता के साथ आरम्भ हुई। प्रभात का समय उनके वात्सल्य में गुजरा। वक्त की रफ्तार ने प्रभात को सुबह और जीवन की दोपहर तक आते आते आत्मनिर्भर बना दिया था। जीवन के दोपहर की तेज रोशनी ने उसके सारे सपने साकार कर दिये थे। उसकी जीवन बगियाँ में हर रंग,रूप, आकार के फल फूल फिल उठे थे। प्रभात उन्हें पाकर बहुत खुश था। लेकिन जीवन की शाम होते होते, उसकी बगियाँ के सारे पुष्प उसे छोड़ वैश्विक बाजारवाद की शिक्षा के साथ उसके जीवन से दूर हो चले गये थे। उसे अपनी व बच्चों की सफलता पर बड़ा गुमान हो रहा था। प्रभात को बड़ी जल्दी थी, जीवन को दौड़ में आगे निकलने की,सो वह निकल भी गया। लेकिन प्रभात जीवन की सांझ व अंधियारी रात से अंजान था। जैसे ही सूरज ने करवट बदली। प्रभात के जीवन की सांझ ढल गई। जल्द ही रात का अंधेरा पसरने लगा। इस काले स्याह अँधेरे से लड़ने के लिए प्रभात अकेला पड गया था। प्रभात के जीवन में संध्या भी साथ छोड़ गई थी। प्रभात को अकेले रात का सन्नाटा असहनीय लगने लगा। प्रभात का अकेलापन प्रभात को ही लील गया। ****
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क्रमांक - 050
जन्म तिथि - 1 जनवरी 1966
जन्म स्थान - ग़ाज़ीपुर (उ.प्र.)
शिक्षा - एम.एस-सी; एम.एड् ; एम.ए. (हिंदी)
संप्रति - अध्यापन ( राजकीय सेवा )
लेखन विधा - लघुकथा, कविता, कहानी, व्यंग्य
प्रकाशित पुस्तक : -
संवेदनाओं के स्वर (लघुकथा संग्रह)
प्रकाशित साझा संग्रह : -
(1) आधुनिक हिंदी साहित्य की चयनित लघुकथाएँ (बोधि प्रकाशन)
(2) सहोदरी कथा - 1 (लघुकथा)
(3) दीप देहरी पर (लघुकथा) - उदीप्त प्रकाशन
(4 )सहोदरी सोपान - 4 (काव्य संग्रह)
(5) यादों के दरीचे ( संस्मरण)
(6) परिंदो के दरमियाँ ( सं. - बलराम अग्रवाल)
(7) कलमकार संकलन - 1, 2, 3 - कलमकार मंच
(8) प्रेम विषयक लघुकथाएँ ( अयन प्रकाशन)
(9) नयी सदी की लघुकथाएँ (सं. - अनिल शूर आजाद)
(10) लघुकथा मंजूषा -2, 3, 5 ( वर्जिन साहित्यपीठ)
(11) चुनिंदा लघुकथाएँ (विचार प्रकाशन)
(12) मेरी रचना (रवीना प्रकाशन )
(13) स्वाभिमान ( मातृभारती )
(14) मिलीभगत (साझा व्यंग्य संकलन)
(15) इन्नर (सं. - विभूति बी.झा)
(16) श्रमिक की व्यथा - काव्य संकलन (प्राची डिजिटल पब्लिकेशन)
(17) लम्हे - लघुकथा संकलन (प्राची डिजिटल पब्लिकेशन)
(18)चलें नीड़ की ओर - लघुकथा संकलन (अपना प्रकाशन)
(19) नयी लेखनी नये सृजन - कहानी संकलन (इंक पब्लिकेशन)
(20) इक्कीसवीं सदी के श्रेष्ठ व्यंग्यकार (सं. लालित्य ललित, राजेश कुमार)
(21) जीवन की प्रथम लघुकथा ( ई- लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
(22) मां ( ई- लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
(23) लोकतंत्र का चुनाव ( ई- लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
(24) नारी के विभिन्न रूप ( ई- लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
(25) लघुकथा - 2020 ( ई- लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
(26) कोरोना वायरस का लॉकडाउन ( ई- लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
(26) कोरोना ( ई- काव्य संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
सम्मान : -
- अखिल भारतीय शब्द निष्ठा सम्मान ( लघुकथा ) - 2017 (राजस्थान)
- प्रेमनाथ खन्ना सम्मान - 2017 (पटना)
- भाषा सहोदरी सम्मान - 2017
- प्रतिलिपि कथा सम्मान - 2018
- साहित्य भूषण सम्मान - 2018(काव्य रंगोली पत्रिका समूह)
- भारतीय लघुकथा विकास मंच , पानीपत - हरियाणा द्वारा " कोरोना योद्घा रत्न सम्मान - 2020 " से सम्मानित
विशेष : -
अतिथि संपादन - देवभूमि समाचार, देहरादून
सह संपादक - राइजिंग बिहार साप्ताहिक, पटना
संपादन, डायमंड बुक्स की बाल साहित्य योजना - 2021
पता : आनंद निकेत , बाजार समिति रोड ,पो. - गजाधरगंज
बक्सर ( बिहार ) - 802103
1.बंधन
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" तुमने मुझसे पूछे बिना इतना बड़ा निर्णय कैसे ले लिया?और...तुमने ये कैसे सोच लिया कि मैं तुम्हें एलाऊ कर दूँगा? " - प्रसून गुस्से में अनिकेत को डाँट रहा था - " अभी एक हफ्ता भी नहीं हुए हैं तुम्हें जॉब ज्वाइन किए हुए, और सोच रहे हो कि तुम सेटल कर जाओगे यहाँ?अपना गाँव और शहर समझ रखा है क्या? ये दिल्ली है। यहाँ पाँव जमाने में अच्छे-अच्छों के पाँव उखड़ जाते हैं। "
अनिकेत चुपचाप सिर झुकाए भैया की डाँट सुन रहा था। गाँव से आकर उसने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी।तबीयत खराब हुई थी,तो गाँव के ही एक भैया उसे अपने पास ले आए थे। जब जॉब लग गयी , तो यह सोचकर कि अब भैया-भाभी के यहाँ रहना ठीक नहीं,उसने अलग फ्लैट की व्यवस्था कर ली थी।
" तुम्हें पता है अनिकेत! " - प्रसून उसे समझा रहा था - " फ्लैट का रेंट,एक महीने का एडवांस, इलेक्ट्रिसिटी बिल,मेंटेनेस चार्ज,गैस कनेक्शन, बेड-बिस्तर, बर्तन, आलमीरा आदि सब मिलाकर पच्चीस-तीस हजार का खर्च है अभी। और तुम्हारी सैलरी है ही कितनी?कहाँ से मेंटेन करोगे यह सब? "
" पापा...। " अनिकेत ने बोलना चाहा,तो प्रसून ने बात काट दी - " पापा क्या ? तुम्हें पता भी है,फरवरी में अधिकांश सैलरी इनकम टैक्स में कट जाती है? फिर उन लोगों का मकान किराया और अन्य खर्चे भी तो हैं ?" प्रसून ने वास्तविकता से अनिकेत को अवगत कराने की कोशिश की।
" मगर हम चार लोगों के लिए यह घर छोटा नहीं पड़ेगा क्या भैया? " अनिकेत ने हिम्मत जुटाते हुए भैया से कहा।
यह सुनकर प्रसून गंभीर हो गया। वह अनिकेत के पास आया और उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा - " अनिकेत! घर छोटा हो, तो हो। दिल बड़ा होना चाहिए। तुम क्या समझते हो,मैं तुम्हें इतने बड़े शहर में अकेला छोड़ दूँगा? फिर मैं चाचा को क्या मुँह दिखाऊँगा? " कहते-कहते प्रसून का गला भर आया था।उसने कसकर अनिकेत को सीने से लगा लिया था। ****
2.खुशी
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स्वच्छता अभियान जोरों पर था। सुबह-सुबह ही नगर निगम की गाड़ी गली,मोहल्ले,सड़क की सारी जूठन व कचरे उठा ले गयी थी। सड़क एकदम साफ थी। चार श्वान-शावक गली से निकलकर सड़क पर आ गये थे और कचरे वाली जगह पर कुछ तलाश रहे थे।
चार-पाँच साल की एक बच्ची पास में ही अपनी स्कूल बस के इंतजार में खड़ी थी। वे शावक चलकर उसके पास आए।थोड़ी देर के लिए उसके सामने बैठे। अपनी छोटी-छोटी पूँछें हिलाईं और वापस उसी कचरे वाली जगह पर चले गये।
बच्ची धीरे से उनके पास गयी। स्कूल बैग से अपना लंच बॉक्स निकाला और अखबार में लिपटी पूड़ी और सब्जी उनके सामने रख दी। एक क्षण को वह रुककर उन्हें देखने लगी। वे चारों खा रहे थे और जोर-जोर से पूँछें हिला रहे थे। खुश थे।
बस का हॉर्न सुनाई पड़ा,तो वह मुड़ी,और दौड़ते हुए बस में चढ़ गयी। आज वह निकिता के साथ लंच करेगी। रोज कहती रहती है वह...! *****
3.दायित्व बोध
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माध्यमिक परीक्षा की कॉपियाँ जाँची जा रही थीं। प्रधान परीक्षक अभी नहीं आए थे। कोने वाली बेंच पर वह आराम से कॉपियाँ देख रहा था। अन्य सह-परीक्षकों में आपस में कानाफूसी हो रही थी - " देखो न, ये महानुभाव कितनी धीमी गति से कॉपी जाँच रहे हैं...जैसे रिसर्च कर रहे हों। ऐसे तो हम प्रतिदिन का कोटा भी पूरा नहीं कर पाएँगे, न ही हमारा टार्गेट पूरा होगा। पक्का हमलोगों को डाँट सुनवाएगा ये...! " वह चुपचाप उनकी बातें सुन रहा था ।
तभी परीक्षा नियंत्रक कमरे में आते हैं,और उसका नाम पुकारते हैं। वह उठकर उनके पास जाता है। वे सबको बताते हैं - " ये आपके प्रधान परीक्षक होंगे । " सभी अचरज से उसकी ओर देखने लगते हैं।
कार्य फिर शुरु हो जाता है। वह, जो आराम और सुस्ती से कॉपियाँ जाँच रहा था, अब प्रधान परीक्षक था। एक-एक सह-परीक्षक के पास जाकर उन्हें दिशा निर्देश दे रहा था। उनकी जाँची हुई कॉपियाँ चेक कर रहा था। उनपर दस्तखत कर रहा था। उनका मार्गदर्शन और उत्साहवर्द्धन कर रहा था।
सभी उसकी प्रशंसा व सराहना करते अब अघा नहीं रहे थे। ****
4. पानी
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भीषण गर्मी की वजह से कुएँ सूखते जा रहे थे। पीने के पानी के लिए एक गाँव की महिलाएँ दूसरे गाँवों तक जाती थीं। प्रचंड धूप और गर्मी की वजह से अहले सुबह वे बर्तन ले गाँव से निकलतीं और धूप निकलने से पहले लौट आतीं। उस दिन कम्मो ने भी जिद कर दी साथ चलने की। देर तक कतार में चलते-चलते कम्मो ने माँ से पूछा - " और कितनी दूर जाना है,माँ? "
" बस,थोड़ी दूर और...। " माँ ने उसे हिम्मत बँधाते हुए कहा।
" थोड़ी दूर...थोड़ी दूर करते-करते तो बहुत दूर आ गये हमलोग। " - कम्मो रुआँसे स्वर में बोली - " ऐसे कितनी देर तक चलते रहेंगे?मुझे आज कॉलेज भी जाना है। "
" बस, वहाँ तक। वह गाँव देख रही हो? " माँ ने उँगली से गाँव की ओर इशारा करते हुए कहा।
" पानी कहीं नहीं मिलेगा, माँ। देख नहीं रही हो?धरती तो खुद ही सूखी और प्यासी है। दूर-दूर तक सिर्फ वीराना, सूनापन और सन्नाटा है। पेड़ और जंगल काटकर हमने धरती पर पानी रहने ही कहाँ दिया है?" कम्मो ने माँ को समझाने की कोशिश की।
" हूँ....। फिर भी,पानी तो चाहिए न, कम्मो....। पीने के लिए,जीने के लिए ? " माँ ने उसकी बात समझते हुए कहा।
" यह पानी तो तलाश भी लें हम। मगर हमारी आँखों का पानी,जो मर गया है, उसका क्या करेंगे,माँ? बताओ? इस पानी से तो सिर्फ जीभ की ही प्यास बुझेगी? मन और आत्मा तो रीते के रीते ही रह जाएँगे न? " कम्मो ने समय की नब्ज पर हाथ रख दिया था।
" तू तो अब बड़ों जैसी बातें करने लगी है रे, कम्मो ...! " माँ ने चौंकते हुए उसकी ओर देखा।
" माँ,कहाँ थी लोगों की आँखों की शर्म,संवेदना और मानवता,जब दिल्ली की उस सर्द रात में निर्भया सड़क पर पड़ी तड़प रही थी...? " कम्मो की पनीली आँखों में निर्भया का सारा दर्द उभर आया था जैसे....!
माँ एक क्षण को रूककर कम्मो के चेहरे को पढ़ने लगी, और खामोश हो गई। और रास्ते.....और लंबे होते जा रहे थे! ****
5.अनुत्तरित प्रश्न
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नीले-पीले अजीबोगरीब-से प्लास्टिकनुमा कपड़े पहने, पूरा सिर और चेहरा ढँके हुए एक व्यक्ति बिल्डिंग से बाहर निकलता है।उसे देखते ही सैकड़ों परिंदे उस पर हमला कर देते हैं।कोई सिर पर बैठ गया, कोई कंधे पर, कोई हाथ पर।उसका पूरा शरीर परिंदों से ढँक गया।उसने थैले में हाथ डाला और दाने निकालकर जमीन पर बिखेर दिए।कई दिनों से भूखे परिंदे उन पर टूट पड़े।
वह कुछ देर तक उन्हें देखता रहा।फिर वापस बिल्डिंग की ओर मुड़ गया।
परिंदे उसके पास आए और पूछा -
- ये अचानक हो क्या गया है इस शहर को ? सड़कों पर कोई इंसान क्यों नहीं दिखाई देता आजकल ?
- हूँ...।एक अदृश्य शत्रु ने दस्तक दी है हमारे दरवाजे पर।उससे बचने के लिए हमने खुद को घरों में बंद कर लिया है।
- अदृश्य शत्रु ? कौन है यह अदृश्य शत्रु, जिसका इतना खौफ है तुमलोगों पर ?
- वह एक पर हमला करता है और धीरे-धीरे उससे जुड़े सभी आक्रांत हो जाते हैं।फिर विनाश...महाविनाश ! साक्षात् मौत है वह !
- मगर तुम तो धरती के सबसे बुद्धिमान और शक्तिशाली जीव हो ? तुम अपने आण्विक-पारमाण्विक अस्त्रों-शस्त्रों से उसका विनाश क्यों नहीं कर देते ?
- नहीं कर सकते हम।
- क्या वह तुम मनुष्यों से भी ज्यादा हिंसक, खतरनाक और खौफनाक है ?
उनका प्रश्न अनुत्तरित रह गया।
वह व्यक्ति अपनी बिल्डिंग में जा चुका था। प्रचंड और तीक्ष्ण धूप शरीर को जलाने लगी थी। गर्म हवा साँय-साँय कर रही थी। परिंदे छाँव तलाश रहेे थे और सोच में पड़ गये थेे।ख़ामोशी फिर से डराने लगी थी। ****
6.चिराग जल रहे हैं
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- डॉ. साहब, मेरी तबीयत ठीक नहीं है।
- कहाँ हो तुम ?
- आजाद चौक पर।
- ठीक है। मैं वहीं आ रही हूँ।
- डॉ. साहब, यहाँ मास्क नहीं है।
- इंतजार करो। गाड़ी जा रही है। सभी जवानों को मास्क भिजवा रही हूँ।
- यहाँ सैनिटाइजर की जरूरत है मैम।
- हाँ जरूर।भेज दिया गया है।
- मैम, यहाँ कुछ लोग दूसरे राज्यों से आए हैं।जाँच नहीं करवा रहे हैं।जबरदस्ती कर रहे हैं।
- उन्हें पकड़कर रखो।मैं आ रही हूँ।
एसपी साहिबा, जो खुद एक डॉक्टर भी हैं, ड्राइवर को आवाज देती हैं - " दवाइयाँ गाड़ी में रखवा दीं ? "
" जी मैम। "- ड्राइवर ने कहा।
" आजाद चौक चलो। " - एसपी साहिबा गाड़ी पर बैठती हैं और, उनकी गाड़ी चल पड़ती है.... रोज की तरह नियमित गश्त पर।
हर मोड़ और चौराहे पर वो रूकती हैं।सिपाहियों से बातें करती हैं।उनका हालचाल लेती हैं।उनकी समस्याएँँ सुनती हैं।आसपास मुआयना करती हैं।जरूरी दवाइयाँ, मास्क और सैनिटाइजर देती हैं, और हिदायतें देते हुए आगे बढ़ जाती हैं।
आजाद चौक पर पहुँचकर वो माईक थाम लेती हैं और एनाउंस करने लगती हैं - " सभी नगरवासियों से अनुरोध है कि वे घरों में ही रहें।साफ-सफाई पर पूरा ध्यान दें।मास्क पहनें।साबुन-सैनिटाइजर से हाथ धोते रहें।दूरी बनाकर रहें।अनावश्यक घर से बाहर न निकलें।वरना सख्त कानूनी कार्रवाई की जाएगी।दवा और राशन के सामानों की कोई कमी नहीं होने दी जाएगी।हास्पिटल चौबीसों घंटे खुले हैं।किसी भी तरह की परेशानी हो, तो हास्पिटल या मुझे फोन करें।अफवाहों पर ध्यान न दें और डरें नहीं। "
रात के आठ बज रहे हैं।उनकी गाड़ी ऑफिसर्स क्वार्टर्स के गेट पर रूकती है।एक बच्ची उनके पास आती है। हाथ का थैला उन्हें देती है और आँखों में आँसू लिए पूछती है - " आप घर कब आओगे मम्मा ? "
" बहुत जल्दी, बेटा। बस, ये सब काम खत्म होते ही आ जाऊँगी। " वे बेटी को छूना,सहलाना,प्यार करना चाहती हैं।पर उसकी ओर बढ़े हाथ रूक जाते हैं। वे पापा और दादी का हालचाल पूछती हैं, बेटी को हाथ हिलाकर " बाय " करती हैं, और उनकी गाड़ी शहर की ओर चल पड़ती है।
माँ-बेटी की आँखों में आँसू देख, ड्राइवर भी अपने आँसू नहीं रोक पाता है।सोच में पड़ जाता है वह, कि ये प्रेम, ममता, करुणा के आँसू हैं या निष्ठा, त्याग और कर्त्तव्य के प्रति समर्पण के ! ****
7.रिक्शावाला
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" किधर जाना है बाबू ? " - रिक्शेवाले ने युवक से पूछा। " कहीं नहीं। " - युवक ने कहा।
रिक्शावाला निराश होकर अपनी सीट से उतर गया और इधर-उधर देखने लगा...शायद कोई और सवारी मिल जाए ! मगर...।
सिर पर बँधा अँगोछा खोलकर वह चेहरे पर उतर आए पसीने को पोंछने लगा।चढ़ते सूरज के साथ धूप भी तीक्ष्ण हो गयी थी, जो शरीर को जला रही थी। वहीं रूककर वह सवारी का इंतजार करने लगा।
कोई भी सवारी आती, तो ऑटो की ही प्रतीक्षा करती। वहाँ रिक्शेवाले भी हैं, इस पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता था।
ऑटो वाले तो इतने हो गये हैं शहर में, कि हर पाँच मिनट में अगला हाजिर। वे आते हैं, सवारियों को बैठाते हैं और फुर्र हो जाते हैं। रिक्शेवाले बेचारे चुपचाप वहीं खड़े निरीह भाव से देखते रह जाते हैं।
इन ऑटो वालों ने तो हमारा जीना मुहाल कर दिया है।बैटरी वाली ऑटो आ जाने से तो और सुविधा हो गयी है लोगों को, और फ़जीहत हो गयी है हमारी।आरामदायक सीट पर बैठो और तुरंत पहुँच जाओ।अब कौन बैठेगा हमारे रिक्शे पर, और क्यों बैठेगा ? जहाँ ऑटो से दस रूपये लगेंगे, वहाँ रिक्शे पर कोई बीस रूपये भला क्यों खर्च करेगा ? एक तो मँहगाई की मार, ऊपर से मंदी की चोट। आखिर रोजी-रोटी कैसे चलेगी हम रिक्शेवालों की....? यही सोचते हुए वह अपने रिक्शे पर बैठ गया और एकटक आने-जाने वालों को देखने लगा।अचानक उसकी नजर सड़क के उस पार गयी।
वही युवक, जो अभी थोड़ी देर पहले उसे मिला था, ऑटो में बैठ रहा था। दोनों की नजरें मिलीं और अगले ही क्षण वो हुआ, जिसकी उसने कल्पना तक नहीं की थी।
" मिठनपुरा चलोगे क्या ? " - उस युवक ने पास आकर उससे पूछा।
" हाँ...हाँ।क्यों नहीं बाबू ! "
" क्या भाड़ा लोगे ? "
" आओ, बैठो न बाबू।जो समझ में आए, दे देना। " - रिक्शेवाले ने कहा और अँगोछा सिर पर बाँधकर अपनी सीट पकड़ ली। वह अब तेजी से रिक्शे की पैडल मारने लगा था, और रिक्शे की रफ्तार के साथ जिंदगी भी चल पड़ी थी....। ****
8.फ़र्ज़
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" आपका फोन आया था सर ! आप घर नहीं गये ? " - कैप्टन अभिमन्यु के साथ चलते हुए लांसनायक हैदर खुद को रोक नहीं पाया पूछने से।
" नहीं।अभी यहाँ रहना ज्यादा जरूरी है।" - कैप्टन ने हैदर की ओर देखते हुए कहा।
" येस सर। मगर, घर पर लोग आपका इंतजार कर रहे होंगे।" - हैदर ने चिंता जताई।
" हूँ...। " - भूकंप में ज़मींदोज़ इमारतों की ओर देखते हुए कैप्टन ने कहा - " हैदर, मैं नहीं भी जाऊँगा, तब भी मेरी माँ को मिट्टी नसीब हो जाएगी।घर में और लोग हैंं। लेकिन इन इमारतों के मलबे में दबी न जाने कितनी ज़िंंदगियाँ अपनी साँसों के लिए हमारा इंतजार कर रही हैं।उन तक पहुँचना माँ से मिलने से ज्यादा जरूरी है अभी।सो...कम ऑन यंग मैन।लेट अस मूव।" - और वह तेजी से सामने की ध्वस्त इमारत की ओर बढ़ गया।
अब तक वह कैप्टन को बहुत कठोर और क्रूर अफसर समझता आया था। मगर आज मन उनके प्रति श्रद्धा और आदर से भर गया। देश और इंसानियत की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का वास्तविक अर्थ उसे समझ में आ गया था। उसका रोम-रोम स्पंदित हो गया। उसने दूर से ही कैप्टन को सैल्यूट किया - " जय हिंद। " ****
9. झूठा सच
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जंगल के सारे जानवर बेचैन हो गये थे। पास के नगर के भयंकर सन्नाटे ने उन्हें परेशान कर दिया था।
नगर का दृश्य देख वे सिहर गये। चारों ओर आग की उठती लपटें...धुआँ....कालिख...राख....जली हुई बस्तियाँ....यत्र-तत्र जले-अधजले शव ! हवाओं में घुली अमानुषिक और दमघोंटू गंध।
" लगता है लोग यहाँ आपस में ही लड़ मरे हैं। " - एक वृद्ध जानवर ने लंबी साँस खींचते हुए कहा।
" क्या ? ऐसा ? मगर वे तो इंसान हैं। सृष्टि के सबसे बुद्धिमान और विवेकशील जीव ! वे ऐसा कैसे कर सकते हैं ? " - एक साथ सभी जानवर बोल पड़े।
" उससे क्या फ़र्क पड़ता है। सुना नहीं है कि जब विचार कलुषित और दूषित हो जाते हैं, तो लोग जानवर से भी बदतर हो जाते हैं ? जाति-धर्म जैसी संकीर्ण विचारधारा के आधार पर जब वे बँट जाते हैं, तो फिर एक-दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। इतने जानवर तो हम भी नहीं !" - एक बुजुर्ग ने तार्किक रूप से समझाने की कोशिश की। सभी जानवर उसकी ओर देखने लगे।
सहसा सबकी नजर सड़क पर खून से लथपथ मरे पड़े एक कुत्ते की ओर जाती है और प्रश्न हवाओं में तैर जाता है - " मगर....इस बेजुबान का धर्म और मज़हब क्या था ? "
किसी के पास इसका कोई जवाब नहीं था। ****
10.बहिष्कृत
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सूर्यास्त होते ही चिड़ियों का एक जोड़ा उसकी बालकनी में कपड़े सुखाने की अलगनी पर आकर बैठ जाता।सुबह होते ही वे दोनोंं उड़ जाते।उसे आश्चर्य होता कि आहट मात्र से उड़ जाने वाली ये चिड़िया हमारे नजदीक आकर इतनी निश्चिंत कैसे रह जाती हैं ! देखा, तो वे दोनों मिलकर रोशनदान में अपना घोंसला बना रहे थे। धीरे-धीरे पूरे परिवार को उनसे लगाव हो गया था।शाम में हम जब तक उन्हें अपनी अलगनी पर बैठे न देख लेते, हमें सुकून नहीं मिलता।
एक दिन शाम को एक ही चिड़िया आई।सबने सोचा कि एक चिड़िया शायद कहीं रह गयी होगी, दूसरे दिन आ जाएगी।मगर जब दो दिन बीत गये, तो सबको चिंता होने लगी।तीसरे दिन शाम में वह बालकनी में ही बैठा हुआ था कि एक चिड़िया आकर अपने घोंसले में बैठ गयी।उसे आज फिर अकेला देख अनायास उसके मुँह से निकल गया - " अरे !आज फिर अकेले ही आ गयी ? "
तभी बगल में गुड्डे-गुड़िया से खेल रही उसकी छ: वर्षीया बेटी ने कहा - " पापा मुझे पता चल गया है कि चिड़िया अकेली क्यों आती है। "
" बताओ बेटी, क्यों ? " - बेटी की ओर मुड़कर उसने उत्सुकता से पूछा।
" चिड़ी ने घोंसले में अंडे दिए होंगे। तो घोंसले में चिड़े के रहने की जगह नहीं होगी।इसलिए वह रात में सोने के लिए चिड़े को बाहर भेज देती है, जिस तरह घर में जगह कम पड़ जाने के कारण हम दादाजी को बाहर बरामदे में सोने भेज देते हैं। " - बेटी ने उसकी ओर देखते हुए कहा।
" छनाक..." किचेन से बर्त्तन के गिरने की आवाज़ सुनाई पड़ी। बच्ची के जवाब ने उसके कलेजे पर हथौड़े की मानिंद चोट की थी।अब वह अपनी बेटी से ही आँखें नहीं मिला पा रहा था। ****
11.नयी दुनिया
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सभी जंगल की बाहरी सीमा पर खड़े थे।
कौतूहल, उत्सुकता और जिज्ञासा चरम पर थी।
सबकी निगाहें दूर पश्चिम दिशा की ओर थीं।
अँधेरों से निकलकर ज्यों-ज्यों वह नजदीक आता जा रहा था, उसकी आकृति स्पष्ट होती जा रही थी।
पास आते ही, अचानक समूह के सबसे वृद्ध कुत्ते की आँखों ने उस आकृति को पहचान लिया और जोर से भौंका - " अरे ! यह तो अपना कलुआ है! "
" कलुआ ?? " - यह सुनते ही कुत्तों के उस झुंड का सन्नाटा आह्लाद भरे नाद में बदल गया।आगंतुक पर हमला करने की बनाई गयी उनकी रणनीति धरी रह गयी थी।
उनका हीरो, उनका लीडर, उनका मुखिया कलुआ वापस आ गया था !
सभी वृद्ध कुत्ते की ओर देखने लगे।
वह कलुआ के पास गया। पास से उसे देखा। कलुआ वैसा नहीं रह गया था, जैसा वह पहले था।
साफ - सुथरा...भरी-पूरी, मांसल, हृष्ट-पुष्ट देहयष्टि और चेहरे पर चमक !
उसने कलुआ से पूछा - " कहाँ थे इतने दिनों तक ? "
" वो...मैं भटकता हुआ जंगल से बहुत दूर निकल गया था। " - कलुआ ने डरते-डरते बताया। सभी कुत्तों की आँखें उसे घूरने लगी थीं।
" भटककर कहाँ और किधर चले गये थे तुम ? " - बुजुर्ग ने कड़कदार आवाज में पूछा।
" इंसानों की बस्ती में। "
" इंसानों की बस्ती में ? अरे बाप रे ! " - सभी कुत्ते चौंककर एक साथ बोल पड़े।
" घोर अनर्थ ! तुम इंसानों के साथ रहकर आ रहे हो ? " - वृद्ध कुत्ते ने कलुआ से पूछा
" हाँ। "
" तुमने उनका अन्न खाया होगा ? "
" हाँ। "
" उनके हाथ का पानी पिया होगा ? "
" हाँ । तो ? "
" उनकी बातेंं भी सुनते होगे तुम ? "
" हाँ...बिल्कुल। "
" तब तो तुम्हारे दिमाग में भी..... ? "
" क्या ? "
" सुना है इंसान के दिल में एक-दूसरे के प्रति वैमनस्य और नफरत का जहर भरा हुआ है। "
" मुझे तो ऐसा नहीं लगा। "
" अच्छा ! "
" भाई, मैं एक ऐसी बस्ती में रहकर आया हूँ, जहाँ दिवाली में मुसलमान दिए जलाते थे। हिंदू ईद पर सेवईयाँ बाँटते थे। दोनों गुरूद्वारे में लंगर लगाते थे और सभी साथ मिलकर गिरजाघर में मोमबत्तियाँँ जलाकर अमन-चैन की दुआएँ माँगते थे। " - कलुआ ने जब दार्शनिक की तरह बताया, तो सबकी आँखें आश्चर्य से फटी-की-फटी रह गयींं।
" वाह ! आ जाओ फिर।स्वागत है तुम्हारा वापस इस जंगल में। हमारे यहाँ भी न तो कोई जाति है, न धर्म, न ही किसी तरह का कोई भेदभाव है ! " - बुजुर्ग ने कलुआ की आँखों में झाँकते हुए कहा और सभी वापस जंगल की ओर मुड़ गये।****
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क्रमांक - 051
पिता का नाम: श्री सी. एस. श्रीवास्तव
माता का नाम: स्व विशालाक्षी श्रीवास्तव
पति का नाम: श्री सुबोध श्रीवास्तव
संतान: मिहिका, मायरा
शिक्षा: पी. एच.डी.(गोल्ड मेडलिस्ट), ट्रेंड कत्थक नृत्यांगना
कार्य क्षेत्र:
- काउंसलर एवं हेड ऑफ ऑपरेशन्स बैंगलोर (वन मिलियन टैलेंट कंपनी)
- पूर्व कंटेंट राइटर सुदीक्षा ई लर्निंग कंपनी, बैंगलोर
- पूर्व अध्यापिका विब्गयोर हाई इंटरनेशनल स्कूल, बैंगलोर
रुचियां: स्वतंत्र लेखन, अध्यन एवं अध्यापन, नृत्य, अभिनय, गायन, पर्यटन
विशेष : -
अनेकों काव्य मंचों, जैसे म ग स म दक्षिण, प्रेरणा साहित्य मंच, गूंज,सत्यम साहित्य सम्मिलन, भाषा साहित्य मंच, कर्नाटक हिंदी भाषी संघ, आदि से सम्बंध
पता : वन बी- अकमे अपार्टमेंट, ब्रुकफील्ड ,बैंगलोर- 560037 कर्नाटक
1.रंग भेद
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डॉक्टर सिन्हा, विश्वविद्यालय के इतिहास प्रभाग से सेवानिवृत हो कर बेटे बहू के साथ आराम का जीवन व्यतीत कर रही थीं।
उनका पोता लक्ष्य दूसरी कक्षा का विद्यार्थी था। अपनी दादी से बहुत बातें करता था। एक दिन लक्ष्य बोला, दादी अंग्रेजो को देश से सब बाहर क्यों निकालना चाहते थे, दादी बोली बेटा वो लोग हम भारतीयों के साथ बहुत बुरा व्यवहार करते थे। कहते थे, तुम हमारी बराबरी के लायक नहीं हो, उतरो ट्रेन से, तुम लोग काले हो, हम गोरे है, हमारे नौकर बन कर रहो, अच्छी जॉब मत करो, ऑफिसर मत बनो।
अच्छा दादी, समझ गया अब तो हम लोग जो चाहे बन सकते हैं, मैं भी बड़ा होकर आर्मी ऑफिसर बनूंगा।
दादी प्यार से बोली, हां मेरा बेटा फिर दादी दूध सी सफेद, गोरी सुंदर राजकुमारी ढूंढ़ लाएगी और तेरा ब्याह कराएगी।
मांजी गोरी ही क्यों, उनकी बहू जो दादी पोते की बातें सुन रही थी बोल पड़ी, देख बहू मैं गोरी, मेरा बेटा गोरा, तू गोरी तेरे बेटा गोरा, हमारे खानदान की यही परंपरा है, बहू तो गोरी ही आएगी इस घर में, समझी की नहीं। ***
2. वेट लॉस
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महक बहुत दुःखी रहने लगी थी, बच्चे होने के बाद उसका वजन बहुत बढ़ गया था, उसकी पड़ोसन जिसकी डिलीवरी भी महक की डिलीवरी के आस पास हुई थी, वो वापस अपने पुराने वेट पर लौट आई थीं और अब बातो बातो में महक के मोटापे का मज़ाक बनाने लगी थीं। महक ने अपना पूरा ध्यान बच्चो को पालने में लगा रखा था। अपनी नौकरी भी छोड़ दी थी महक ने, क्योंकि उसका मानना था कि जैसा लालन पालन एक मां कर सकती है, बेबी सिटर नहीं कर सकती।
उसका पति ऑफिस के काम में इतना व्यस्त रहता था कि चाहते हुए भी उसकी कुछ खास मदद नहीं कर पा रहा था।
महक का पूरा आत्मविश्वास ख़तम हो रहा था, उसको तो ये भी लगने लगा था कि शायद मेरे पति को भी अब मैं पसंद नहीं।
महक जब डिप्रेशन की अोर बढ़ने लगी, तब एक दिन उसके पति ने प्यार से उसको समझाया, कि देखो महक मैंने तुमसे प्यार किया है, तुम्हारे पूरे व्यक्तित्व से ना कि केवल तुम्हारे अच्छे फिगर से, इसलिए मेरी तरफ से तुम बिलकुल निश्चिंत रहो, मुझे तुम कल भी पसंद थीं, आज भी हो और कल भी रहोगी।
रही बात दूसरों से तुलना की, तो महक तुलना करने के पहले क्या तुमने किसी और की और अपनी परिस्थितयों की तुलना की? हम दोनों इस अनजान शहर में अकेले दम पर बच्चो को पाल रहे हैं, जबकि उनके पास बाबा, दादी, नाना, नानी, मौसी, बुआ सबका सहयोग है, उसके पति का जॉब और मेरा जॉब भी अलग तरह का है। फिर भी उनका बच्चा बेबी सिटर के भरोसे पल रहा है, जिसके तुम सख्त खिलाफ हो।
देखो हम ने जैसा चाहा वैसी परवरिश हम बच्चों को दे रहे हैं, कहीं ना कहीं तो समझौता करना पड़ेगा। रही बात वेट लॉस की, तो तुम परेशान ना हो, मैंने अपने बॉस से बात कर ली है, अब मै एक घंटा देर से ऑफिस जाऊंगा, उस एक घंटे तुम घर की चिंता छोड़, रोज़ वॉक करने जाओ फिर देखना कमाल।
बस दुःखी मत रहो, अपने प्यारे बच्चों का बालपन एन्जॉय करो, ये फिर ना मिलेगा।
महक की सारी दुविधा उसके पति ने दूर कर दी, महक पति के गले लग गई और मन ही मन अपने रब का शुक्रिया करने लगी, जो उसने इतना अच्छा जीवन साथी दिया। ***
3. गिरगिट
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सुनती हो जब तुम नहा रही थी, तब आशा का फोन आया था आज काम पर नहीं आएगी, उसकी बेटी को बहुत तेज़ बुखार है।
आरती करती मिसेज कपूर का हाथ ये खबर सुन कर रुक सा गया।
जल्दी जल्दी पूजा समाप्त करके मिसेज कपूर, बैठक में आ कर बड़बड़ाने लगी, जब देखो तब छुट्टी, रोज़ एक नया बहाना, आने दो एक तारीख पैसे काटूंगी तब पता चलेगा। अरे बच्चे तो दिन भर बहाने बनाते रहते हैं तो क्या इंसान अपना काम धंधा छोड़ कर घर बैठ जाए।
तभी मिसेज कपूर की बड़ी बेटी पारुल का फोन आया, पारुल लखनऊ में रहती थीं। वो बोली मां आज सुबह से सिया का पेट थोड़ा दर्द हो रहा है, कुछ घरेलू उपाय हो तो बताओ, मुझे ऑफिस जाना है, और इसके पापा भी नहीं है, टूर पर गए हैं।
मिसेज कपूर बोली बेटा ऐसा करो गुनगुने पानी में जरा सी हींग घोल कर सिया की नाभि में लगा दो अभी आराम मिल जाएगा और सुनो आज ऑफिस ना जाओ, जब बच्चे को कुछ तकलीफ हो तब मां को उसके पास रहना चाहिए। एक दिन ऑफिस नहीं जाओगी तो तुम्हारा ऑफिस बंद नहीं हो जाएगा। ****
4.आदर्श
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मेलाराम, अपने बेटे को रोज रात को सोते समय एक कहानी सुनाते थे। उनका सोचना था कि यदि बच्चे को बचपन से अच्छे आदर्शो की कहानियां सुनाई जाएगी, तो सभी अच्छे गुण बच्चे में स्वत: ही आ जाएंगे।
आज उन्होंने ईमानदार लकड़हारे की कहानी सुनाई, जिसमें गरीब ईमानदार लकड़हारा, वन देवी द्वारा दी गर्इ सोने, चांदी की कुल्हाड़ी नहीं लेता है। कहानी समाप्त होने पर मेलाराम बोले बेटा जैसे वो लकड़हारा ईमानदार था, हमें भी वैसे ही बनना चाहिए। मेलाराम का बेटा कुछ सोचते हुए बोला पिताजी यदि ऐसा है तो आप उस दिन रामू काका को क्यों बोल रहे थे कि दुकान पर चीज़ों का दाम 99 या 199,299 रखना चाहिए, और ग्राहक को बोल देना चाहिए 1 रुपया खुला नहीं है, ज्यादातर लोग एक रुपया छोड़ देते हैं, और अपना फायदा हो जाता है।
मेलाराम स्तब्ध रह गए, और सोचने पर मजबूर हो गए कि कैसे एक रुपए की बेईमानी की वजह से वो अपने बेटे के सामने निरुत्तर हो गए, आज उनके बेटे ने एक रुपए के उदाहरण द्वारा उन्हीं के आदर्शो पर प्रश्चिन्ह लगा दिया। मेलाराम को समझ आ गया कि सिर्फ कहानी सुनाने से कुछ ना होगा, बच्चे के सामने अपने जीवन को ही आदर्श रूप में पेश करना होगा। ****
5. मॉडर्न मां
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दीक्षा ने अपनी सास का फोन काटा, और बड़बड़ाने लगी, अरे , मैं मॉडर्न ज़माने की लड़की हूं, ये बेकार के पुराने रीतिरिवाज़ मैं नहीं मानती। अपनी बेटी की बात सुनकर हर बार, ससुराल की बातो में ना पड़ने वाली शीला जी ने आज अपना काम बीच में छोड़ना उचित समझा।
शीला जी ने बेटी को बुला कर अपने पास बैठाया, और कहा बेटा तुम्हे क्या लगता है कि मै मॉडर्न हूं कि नहीं? मेरे माता पिता ने मुझे उच्च शिक्षा दी, मैंने अपनी योग्यता के बल पर नौकरी पाई।
शादी के समय मैंने पहले ही अपना निर्णय अपने माता पिता को बता दिया था, कि लड़का आप चुने या मैं, परन्तु दहेज एक रुपया भी नहीं दिया जाएगा। जीवन में मैंने जितनी अहमियत अपने पिता जी की सोच को दी, अपनी माता की सोच को भी उतना ही महत्व दिया। आत्मनिर्भर बनने के लिए उस जमाने में गाड़ी चलाना भी सीखा। शादी के बाद भी इस घर का हर फैसला तुम्हारे पापा और मैंने मिल कर किया। तुम्हे और तुम्हारे भाई को पालने में कभी भेद भाव नहीं किया। बचपन से अब तक तुम्हे भी सोचने, समझने और अपना मत रखने की पूरी आजादी दी, अपनी पसंद के हिसाब से जीवन शैली बिताने की पूरी आजादी है तुम्हे। तुम दोनों बच्चों को अपनी पसंद का जीवनसाथी चुनने की आजादी दी।
पर बेटा बिना सोचे समझे किसी बात या किसी परम्परा, या रिवाज़ को सिर्फ इस लिए नकारना उचित नहीं, क्योंकि वो पुराना है। उसको परखो, उसको माने जाने के पीछे के कारण को समझो फिर निर्णय लो, कि वो रिवाज़ या प्रथा तुम्हे अपनाना है और आगे पीढ़ियों में बढ़ाना है कि नहीं।
ये बात सही है कि सभी रीति रिवाज या परंपराएं, आज के समय के हिसाब से उचित नहीं है, हमें लकीर का फकीर नहीं बनना चाहिए, लेकिन बेटा बिना उन्हें समझे, परखे नकारना भी क्या अंधभक्ति नहीं है आधुनिकता के नाम की। क्या सिर्फ कपड़े ही आधुनिकता को नापने का पैमाना है, इंसान की सोच नहीं? सोचो, समझो फिर निर्णय लो।
दीक्षा की आंखो पर चढ़ा झूठी आधुनिकता का चश्मा उतर चुका था।
दीक्षा, आगे बढ़ कर मां के गले लग गई और बोली मेरी मां सबसे मॉडर्न है। ****
6.क्यों नहीं
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क्यों नहीं जा सकती मैं अकेले अपनी सहेलियों के साथ शाम को बाहर जब भैया जाता है तब तो तुम कुछ नहीं बोलती मां, रिया ने जब पूछा तो मां मुस्कराई, बेटा तू तो हमारी राजकुमारी है ना, हां वो तो मैं हूं, रिया बोली।
कहीं राजकुमरियां अकेले महल से बाहर जाती हैं, मां ने पूछा। रिया ने ना में सिर हिलाया, रिया जो थोड़ी देर पहले गुस्से में थी, अब शांत हो कर खेलने लगी।
पर मां के मन में उथलपुथल थी, यही बहाना उनकी मां ने भी बनाया था अपनी दस साल की बेटी से, आज 26 साल बाद भी वो ही बहाना।
आखिर कब तक हम सबको अपनी बेटियों को राजकुमारी बनाना पड़ेगा।। ****
7.अब और नहीं
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रामवती फिर पेट से थी, जैसे ही ये बात उसकी सास कटोरी देवी को पता चली, उन्होंने वही पुराना राग अलापना शुरू कर दिया। सुनो बहू जैसे ही कुंवर लाल शहर से आए पास के कस्बे में जा कर टेस्ट करा लो, जल्दी से जल्दी।
भगवान की कृपा हुई तो देखना इस बार पोता ही होगा।
रामवती की आंखो के सामने पिछले तीनो गर्भपात घूम गए, कैसे इन लोगों ने गर्भ का पता चलते ही, जबरदस्ती टेस्ट करवा कर, तीनो अजन्मी कन्याओं को मरवा दिया।
रामवती ने अपने पेट पर हाथ फेर कर आने वाले बच्चे को प्यार किया और खुद से बोली अब और नहीं, जो तेरी बहनों के साथ हुआ, तेरी मां तेरे साथ वो अन्याय नहीं होने देगी।
इस बार रामवती ने पहले से ही सब सोच लिया था , उसने गैर कानूनी तरीके से टेस्ट करने वाले अल्ट्रासाउंड सेंटर का पता चुपचाप शहर के पुलिस कमिश्नर और लोकल न्यूज चैनल को मैसेज कर सारी बात बता दी। जिस दिन रामवती को टेस्ट के लिए ले गए उसी दिन पुलिस ने वहां छापा मारकर, सेंटर सील कर दिया। न्यूज वालो ने भी लाइव टेलीकास्ट दिखाया, रामवती, उसके पति और सास को भी पुलिस स्टेशन ले गए, रामवती ने वहां मामला संभाला कि वो लोग तो रूटीन टेस्ट करवाने आए थे। पुलिस से रामवती पहले ही आश्वासन ले चुकी थी, कि उसके परिवार को समझा बुझा कर छोड़ दिया जाए।
रामवती की सास और पति बहुत डर गए, आज रामवती ने उनको जेल जाने से बचाया था। दोनों ने भविष्य में ऐसा ना करने की कसम खाई।
रामवती आने वाले बच्चे की कल्पना करके मुस्कुराती हुई उनके साथ घर चल दी। ****
8. रक्तदान
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रोशनी ने जब से कोरोना वायरस भारत में आया था, तभी से सारी कामवालियों को हटा दिया था, सारा सामान जो भी बाज़ार से घर आता, उसको अच्छे से सेनेटाईज करती, घर से बहुत जरूरी होने पर ही बाहर मास्क लगा कर जाती, हाथ बार बार धोती, सनेटाइज करती आदि सभी सावधानियों का पालन स्वयं भी किया और सभी घर वालों से भी कराया था।
जब भी रोशनी किसी परिचित की कोरोना पोजिटिव होने की खबर सुनती, उसके मन में ख्याल आता कि उन्होंने अवश्य गड़बड़ करी होगी, मेरी तरह ध्यान रखते तो ऐसा ना होता। रोशनी का ये अहंकार उसकी फेसबुक पोस्ट पर भी दिखता। एक दिन एक ग्रुप में किसी महिला ने पोस्ट किया कि उसके पति किसी जरूरी कारण वश बाहर गए थे और उनको कोरोना संक्रमण हो गया हैं, प्लीज़ उनके ठीक होने के लिए प्रार्थना करें , क्योंकि प्रार्थना में बहुत शक्ति होती है तो रोशनी ने बहुत बड़ा सा रिप्लाई दिया कि पहले सोचना चाहिए था, क्यों नहीं सारी सावधानियां बरती। ऐसा भी क्या काम, अगर चुपचाप घर बैठते तो ऐसी नौबत ही नही आती। रोशनी ने
अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गयी खेत से अपना कॉमेंट पूरा किया।
ऐसे ही दिन गुजर रहे थे।
रोशनी के पिताजी जो दूसरे शहर में रहते थे, एक दिन कुछ जरूरी सामान लेने जाते समय, एक कार की चपेट में आ गए, वो अस्पताल में जीवन मृत्यु के बीच में झूल रहे थे, उनको ओ नेगेटिव खून चाहिए था, रोशनी दूसरे शहर में थी, क्या करे कुछ सूझ नहीं रहा था, यदि समय रहते खून का इंतज़ाम नहीं हुआ तो पिताजी की जान को खतरा था।
रोशनी ने फेसबुक के ग्रुप्स में मदद की गुहार लगाई, पर कहीं से कुछ मदद नहीं मिल रही थी।
तभी रात को रोशनी की मां का फोन आया कि किसी भले आदमी ने पिताजी को रक्तदान कर दिया, अब वो खतरे से बाहर है। मां ने रोशनी को बताया कि नर्स ने उन्हें बताया कि वो व्यक्ति जबसे कोरोना फैला है, तब से अपनी जान की परवाह ना करते हुए कई बार अपना रक्तदान करके कई लोगो की जान बचा चुका है, क्योंकि इस कोरोना काल में ओ नेगेटिव जैसे रेर ब्लड ग्रुप का मिलना मुश्किल हो रहा है, इसलिए जब भी उसको कहीं से भी पता चलता है कि उसके शहर में किसी व्यक्ति को रक्त की जरूरत है, वो अवश्य रक्तदान करता है। रोशनी के पिताजी के बारे में उन्हें फेसबुक से पता चला था। मां से बात करके रोशनी ने चैन की सांस ली फिर
रोशनी ने फेसबुक खोल कर शुक्रिया करने की सोची, तभी ग्रुप में उसे एडमिन की पोस्ट दिखी। उसमे लिखा था कि कैसे इस ग्रुप से जुड़ी एक महिला मिसेज ज्योति एवम् उनके पति ने कितने लोगों को रक्तदान करके उनकी जान बचाई है, रक्तदान के लिए बार बार हॉस्पिटल जाने से ज्योति जी के पति को कोरोना भी हो गया था, फिर भी पूरी तरह ठीक होने के बाद वह फिर से जरूरतमंदो की मदद को आगे आ जाते हैं।
नीचे एडमिन ने ज्योति जी की फोटो भी पोस्ट करी थी।
फोटो देख कर रोशनी अवाक रह गई, ज्योति कोई और नहीं वहीं थीं जिनके पोस्ट पर रोशनी ने उपदेशों की झड़ी लगाई थी। ****
9.संस्कार
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मिश्रा जी ने अखबार पढ़ कर रखते हुए कहा, आज फिर एक बलात्कार की घटना, क्या हो गया है समाज को
अरे हो क्या गया है, आजकल की लड़कियों में संस्कार नाम की चीज तो है नहीं, छोटे छोटे कपडे पहनना, लडको से बातें करना, देर रात तक घूमेंगी, शराब पिएंगी, तो अब जब ये सब करेंगी तो यही सब तो होगा, मिश्रा जी की मां बोलीं।
मां पहले पूरी बात तो सुन लो, जिसके साथ ये घटना घटी वो ना लड़को से बात करती थीं, ना शराब पीती थी, ना कहीं अकेले जाती थीं,
बड़ी सति सवित्री थीं वो लड़की तुमको बड़ा पता है, तुम तो बस मेरी बात काटो, माता जी चिढ़ कर बोलीं।
मां, वो 6 महीने की बच्ची थी, मिश्रा जी बोले।****
10.दोगला आदमी
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ज्यों ही शर्मा जी शाम को ऑफिस से घर पहुंचे उनके चार बच्चों में सबसे छोटी बेटी दिव्या, जो आठवीं कक्षा में पढ़ती है, लपक कर उनके पास आ कर बोली, पापा पापा पता है आज क्या हुआ। क्या हुआ बेटा, शर्मा जी जूते उतारते हुए बोले, पापा आज मैंने एक बहुत बड़ा एक्सिडेंट देखा, जब मैं बस से स्कूल जा रही थी, तब एक जगह बहुत भीड़ लगी थी, हमारी बस रुक गयी थी, तो मैंने देखा कि वहां एक अंकल ज़मीन पर गिर थे, बहुत सारा खून पड़ा था। मेरे ड्राइवर अंकल ने बताया कि किसी ट्रक ने कुचल दिया, पापा वहां उनका एक छोटा सा बेबी था, किनारे बैठा था उसका स्कूल बैग भी पड़ा था। ड्राइवर अंकल कंडक्टर भैया से बोल रहे थे कि बाप मर गया और ये बच्चा बच गया।
अच्छा अच्छा बेटा चलो अब मुझे चेंज करके आने दो, और देखो जो दुनिया में आया है उसको जाना है ये कोई बड़ी बात नहीं है, रोज़ ही लोग मरते है। चलो जाओ होमवर्क करो फिर हम खाना खाने होटल में चलेंगे।
रात को जब शर्मा फैमिली खाना खा कर लौट रही थी तभी शर्मा जी का फोन बजा, शर्मा जी अपनी बेटी से बोले बेटा स्पीकर ऑन करो मैं ड्राइव कर रहा हूं। अच्छा पापा, बेटी ने फोन उठाया और स्पीकर ऑन किया, उधर से आवाज़ आई, भैया हम बोल रहे हैं छोटे गांव से, हां हां छोटे बोलो, भैया एक बुरी खबर है, पिताजी नहीं रहे, क्या एकदम से शर्मा जी ने ब्रेक लगाया और चिल्लाने लगे अरे भगवान ये क्या अनर्थ कर दिया, हाय हम अनाथ हो गए और शर्मा जी सदमे के कारण बेहोश हो गए। उनके 90 साल के पिताजी का देहांत हो गया था। ****
11. कटघरे में कौन
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जब से मोहित की मां अपने बेटे के पास अमेरिका हो कर आई थी, वहां की तारीफ करते नहीं थकती थीं, पूरे मोहल्ले में बताती फिरती थीं अरे बहनजी इतना साफ है कि क्या बताएं, कहीं कूड़ा पड़ा ही नहीं दिखता, लगता है सड़कों पर दिन भर झाड़ू पोछा होता रहता है। सारी गंदगी तो अपने देश में ही है, निकम्मी सरकार है यहां की।
पर वहीं मोहित की मां, अपने घर के आगे झाड़ू लगा कर कूड़ा बाहर सड़क पर कर देती थीं, कार से कहीं जाते समय कुछ भी खाया, तुरंत शीशा खोल कर छिलका या रैपर सड़क पर फेकती थीं, ट्रेन में जाएंगी तो मूंगफली के छिलके सीट के नीचे या पटरियों पर बड़े आराम से डालेंगी। अमेरिका में जब तक रहीं गीला कूड़ा अलग, सूखा अलग पर यहां आ कर सब मिला कर फेकना।
सोचने वाली बात यह है कि क्या हमारे देश में साधनों की कमी है, हां है पर जितने भी साधन उपलब्ध है क्या हम उनका सदुपयोग करते हैं? माना कि हमारे देश में विदेशों की तरह जगह जगह डस्टबिन नहीं लगे पर क्या जहां डस्टबिन मौजूद हैं हम अपनी जगह से उठ कर वहां तक जाने का कष्ट करते हैं।
क्या हम सिर्फ अपने घर को साफ रखना ही अपनी ज़िम्मेदारी नहीं समझते।
जितने भी बोर्ड क्यों ना लगे हों, क्या जब कोई नहीं देख रहा हम तुरंत नियम का उललघंन नहीं करते।
सिर्फ सरकार को कटघरे में खड़ा करना क्या उचित है, हम स्वयं भी देखें क्या हम सब नागरिक कटघरे में नहीं हैं?
क्या हम अपने नागरिक कर्त्तव्यों का निर्वाह पूरी ईमानदारी से करते हैं। यदि दूसरे देशों की सरकार हमारी सरकार से बेहतर है तो वहां के नागरिक भी अपने कर्तव्य निर्वाहन में हमसे यक़ीनन आगे हैं। ****
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क्रमांक - 052
जन्मतिथि : 28 मार्च 1955
जन्म स्थान : अम्बाला - हरियाणा
शिक्षा: पत्रकारिता एवं जनसंचार तथा गृहविज्ञान में स्नातक, आहार विज्ञान एवं जनस्वास्थ्य पोषण में स्नातकोत्तर डिप्लोमा, समाजशास्त्र में एम.ए., विस्तार शिक्षा में एम.एस.सी.|
सम्पृति: स्वतंत्र लेखन
प्रकाशित कृतियाँ : -
बाल एकांकी: रंग-बिरंगे बादल
बाल कहानियाँ: नन्हा सिपाही, गड़बड़झाला, पिटारा, पर्यावरण सरंक्षण व महिलाएँ(चिल्ड्रेन बुक ट्रस्ट द्वारा पुरस्कृत रचनाएँ), रामू हाथी(हिंदी अकादमी,दिल्ली द्वारा पुरस्कृत पुस्तक), अदला-बदली, रात की बारात, राजा के दो सींग, चाँद और चिंटू, छुटकी आदि|
काव्य संग्रह: नीली नदी, रचो प्रिये रचो, भोर का तारा, नदियाँ हैं मेरी करघा, आवाज़ निकलती है टहलने, रोशनियाँ, रंग और ध्वनियाँ, रंग, चुटकी भर,
रेनू चौहान की श्रेष्ठ प्रेम कविताएँ
पुरुस्कार/ सम्मान: -
बाल एवं किशोर साहित्य सम्मान(हिंदी अकादमी, नई दिल्ली),
बाल साहित्य मार्तण्ड शिरोमणि सम्मान(बाल कल्याण संसथान, खटीमा),
हिंदी साहित्यकार सम्मान(हिंदी साहित्य सेवा समिति, मुरैना),
वरिष्ठ प्रतिभा सम्मान(हम सब साथ-साथ, नई दिल्ली)
सम्पृति: स्वतंत्र लेखन
विशेष : -
- बाल गीत: चंदा मामा का पजामा, अगड़म-बगडम ढम्मक ढू, बारहसिंगा की कहानी, साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित पुस्तक
- ‘प्रतिनिधि बाल कविता-संचयन’ में कविताएँ शामिल|
- अधिकांश कविताएँ नेपाली, बांग्ला, मणिपुरी तथा मलयालम में अनुदित
- नवसाक्षरों हेतु: विश्वास की तलाश(प्रोढ़ शिक्षा निदेशालय द्वारा पुरस्कृत) भोजन और हमारा शरीर, बीमारी में भोजन कैसा हो?, अच्छा भोजन, कम खर्च-अच्छा आहार, भोजन की पौष्टिकता नष्ट न होने दें, गर्भवती की देखभाल, सलोनी हुई सयानी, श्यामा का गाँव, बंधेज की अनूठी कला, काश, छोटी या बड़ी, पूनम, विदाई आदि|
पता : बी-बी/ 6 बी, जनकपुरी, नई दिल्ली-110058
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सुबह-सुबह मेरा नौकर दौड़ता हुआ मेरे पास आया और बेहद प्रसन्न होते हुए बोला, “बीबी जी- बीबी जी, गाँव से खबर आई है, मैं बाप बन गया हूं| कल रात मेरी पत्नी ने बच्ची को जन्म दिया है|”
खबर सुनकर मै बेहद प्रसन्न हुई| पर दूसरे ही पल मैं मूक और अवाक खड़ी रह गयी| हैरानी से मुँह बाये मेरे मुँह से केवल इतना ही निकला, अच्छा...|
मैं कहना तो चाहती थी पर..पर समझ नहीं पा रही थी कि कहूँ या नहीं और यदि कहूँ तो कैसे?
वास्तव में पिछले एक साल से वह गाँव गया ही नहीं था| हाँ, एक साल पहले उसकी पत्नी अवश्य शहर आई थी| दो महीने रह कर गई थी| शादी के तीन साल तक जब उसका कोई बच्चा नहीं हुआ तो मैंने ही उसे इलाज के लिए शहर बुलवा लिया था| डॉक्टर ने इलाज किया| वापिस गाँव जाने से पहले उसकी जाँच करवाने पर पता चला था कि वह गर्भवती है, हम सब बेहद खुश हुए थे| उसके एक महीने के बाद गाँव से खबर आई कि उसका गर्भपात हो गया है| खबर सुन कर हम सबको बहुत दुःख हुआ|
उसके बाद बीच में छुट-पुट कुशल-मंगल के समाचार के बाद आज यह समाचार मिला, जिसे सुनकर मैं केवल मूक दर्शक बनी खड़ी थी|
अचानक मेरे मौन को भंग करते हुए, नज़रें नीचे गडाये वह धीरे-धीरे बोला, “जानता हूँ जी , मेरे छोटे भाई से है पर बच्चा तो मेरा ही कहलायेगा ना?”
“ज़िन्दगी के अनेक रंगों में से एक रंग यह भी सही|” एक लम्बी सांस लेते हुए मैं जैसे स्वयं से बुदबुदा उठी| ***
2. काफ़िर
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“आओ युसूफ पकड़न-पकड़ाई खेलें,” दस वर्षीय नन्दू ने युसूफ की बाजू ठेलते हुए कहा|
कोई उत्तर न पा आश्चर्यचकित होते हुए वह बोला, “तुम मुझसे बात क्यों नहीं कर रहे युसूफ? मैं तुमसे बात कर रहा हूँ और तुम सुन ही नहीं रहे|” नंदू रुआँसा होते हुए बोला|
अनमने भाव से युसूफ ने उत्तर दिया, “माँ कहती है मैं तुमसे बात ना करूं, तुम काफिर हो|
नंदू ने हैरान होते हुए पूछा, “काफ़िर...!काफ़िर क्या होता है? मैं तो वही तुम्हारा पुराना दोस्त नंदू हूँ|
युसूफ कुछ सोचते हुए बोला, “हाँ...यार, यह काफिर क्या होता है, यह तो मुझे भी नहीं मालूम|”
तभी नंदू चिल्लाया, “युसूफ बच...देख, सामने से मोटर आ रही है|”जब तक युसूफ सारी बात समझ कर हटता, नंदू झपट कर युसूफ को अपने साथ लेकर सड़क के दूसरी ओर आ गिरा| नंदू की हथेलियों, कोहनियों और सिर से खून बह रहा था| युसूफ की भी टांग, बाजू आदि में चोटें लगीं|
युसूफ घसीटते हुए नंदू के करीब जा उस पर झुकते हुए बोला, “नंदू तुम्हारे सर से तो बहुत खून बह रहा है|”
नंदू ने कहा,”खून तो तुम्हारे माथे से भी बह रहा है युसूफ|”
अपनी लहुलुहान हथेलियों की ओर देखते हुए, कुछ सोचते हुए युसूफ धीरे-धीरे बोला, “तुम्हारा खून भी तो मेरे खून जैसा लाल है फिर माँ क्यों कह रही थी कि मैं तुमसे बात न करूं क्योंकि तुम्हारा खून गन्दा है?
युसूफ के माथे से टपकता खून नंदू के सिर से बहते खून में धीरे-धीरे मिल रहा था| दोनों एक-दूजे की ओर डबडबाई आँखों से देख रहे थे| *****
3. पूज्यनीय
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वो जब तक जीवित रहा, पत्नी और बच्चों द्वारा कोसा ही जाता रहा|
उसका कसूर?
शराब पीना...
इसकी हानियों में सबसे महत्वपूर्ण –पैसे की बरबादी| बाकी सब कुछ नगण्य| उसका स्वास्थ्य भी|
वह सरकारी नौकर था| नौकरी में रहते हुए ही उसकी मृत्यु हो गयी|
उसकी तस्वीर ढूँढकर मंडवायी गयी| उसपर फूल मालाएँ चढाई गयीं| उसकी शान में कसीदे काढ़े गये|
उसके सारे अवगुण सद्गुण में बदल गए|
उसके बाद तो वो और भी संत, भगवान, पैगम्बर, महान आत्मा और न जाने क्या-क्या हो गया जब उसके स्थान पर उसके पुत्र को सरकारी नौकरी मिल गयी|
इस बार उसकी बरसी पर एनी वस्तुओं के साथ-साथ एक शराब की बोतल भी पंडित जी को दान में देनी चाहिए इस विषय पर पूरे घर में काफी गंभीरता से विचार किया जा रहा है| क्योंकि प्राय: वाही वस्तुएं दान में दी जाती हैं जो व्यक्ति को पसंद होती हैं ताकि स्वर्ग में बैठे उसे किसी प्रकार की कोई परेशानी न हो|
यही नहीं स्वर्गीय पिता की महान आत्मा की शांति के लिये उसके प्रिय बच्चे, पिता की तस्वीर पर रोज़ सवेरे उठकर फूल माला चढ़ाते हैं, धूप-बत्ती आदि करते हैं| वो तो यह भी सोच रहे हैं कि यदि तस्वीर के आगे एक शराब की बोतल भी रख दी जाए तो कैसा रहे?
आखिर आभार प्रकट करने का कोई तो ढंग होना नि चाहिये| पिता के साथ-साथ आखिर वो भी तो पूज्यनीय है जो उनकी मृत्यु का कारण बनी| ****
4. चैन
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उसने एक दिन पत्नी को बुलाया| उसके हाथ में पांच लाख रूपए थमाते हुए कहा, “ देखो यह मेरे पूरे जीवन की जमापूँजी है| बड़ी म्हणत से एक-एक पैसा करके यह धन बचाया है|”
वह अवाक बैठी उन पांच लाख के नोटों को फड़फड़ाते हुए देखती रही| सोचने लगी, “ठीक कहते हो, इसमें कोई शक नहीं कि यह धन बहुत मेहनत से जमा किया गया है| सारी ज़िन्दगी रूखा-सूखा खाकर, फटा-पुराना पहन कर, टूटे-फूटे घर में रहकर, बिना इलाज अथवा आधे-अधूरे इलाज के साथ घिसट-घिसट के जीकर पैसा बचाना वास्तव में बहुत ही कठिन कार्य है|”
उसने आगे कहा,“यह मैं ही हूँ जो इतना पैसा बचा सका| तुम्हारे बस का यह नहीं है| अगर तुम्हें इस धन की खबर होती तो तुमने ना जाने कब का इसे खर्च कर दिया होता| पैसा जमा करना तुम्हारे बस की बात नहीं है|”
खोई-खोई नज़रों से कभी पति तो कभी पैसे को देखते हुए उसने मन ही मन सोचा,”ठीक कह रहे हो| इस प्रकार से पैसे जमा करना मेरे बस की बात नही थी|”
वो फिर बोला,”तुम्हें यह पैसे थमा दिये हैं अब मैं चैन से मर सकूँगा|”
नोटों की ओर देखते हुए भी वो नहीं देख पा रही थी| पूरी ज़िन्दगी चलचित्र की तरह उसकी नज़रों के आगे से घूम रही थी| उसके मुँह से केवल यह निकला, “पता नहीं चैन से मरना था या चैन से जीना था?” ****
5. जाला
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आज दो तारिख है| पता नहीं उसे सुबह से ही रह-रह कर क्रोध क्यों आ रहा है? पहले बच्चों पर झलाई फिर पति पर| उनके ऑफिस जाने पर वो सिर पकड़ कर बैठ गई| सोचने लगी इतनी चिडचिडाहट क्यों हो रही है? आज दो तारिख है का घंटा झनझनाता हुआ दिमाग में बार-बार क्यों बज रहा है|
आज उसकी सबसे प्रिय सखी शोभा का जन्मदिन है| दो साल पहले किसी बात पर उसका और शोभा का मनमुटाव हो गया था| उसके बाद शोभा शहर छोड़ कर कही बाहर चली गई थी| परन्तु अभी पिछले सप्ताह ही उसे पता चला कि वह वापिस इस शहर में लोट आई है| उसे आश्चर्य हुआ कि उसने लोट कर उससे संपर्क क्यों नहीं किया? इसका मतलब है वह उससे अभी नाराज़ है| सारी घटना चलचित्र की तरह उसकी नज़रों के सामने से घूम गई| सारी बात में गलती शोभा की ही थी फिर भी वो ऐंठ रही है| क्रोध का एक और उफान उसके सिर चढ़ गया|
क्रोध में पाँव पटकते, दांत पीसते हुए उसने झाड़ू हाथ में ले लिया और तेज़ी से सारे घर के जाले उतरने लगी| कहीं स्टूल, मोढ़े, तो कही कुर्सी, सोफे पर चढ़ते-उतरते हुए उसने एक-एक कर सारे कमरों के जाले झाड़ू मार-मार कर साफ़ कर दिये| एकदम पस्त होकर वो सोफे पर लुढ़क गई|उसकी नज़र घड़ी पर पड़ी, 12 बज रहे थे| उसने सोचा उसने अपने मस्तिष्क को हरा दिया है| परन्तु नहीं वो गलत सोच रही थी| बैठते ही फिर वाही तारीख, वाही बात उसके सिर में झनझनाने लगी| लेकिन इस बार उसे गुस्सा नहीं आया\ वो ठाठ कर हँस पड़ी| सोचने लगी, सारे घर के इतने सारे जाले साफ़ कर सकती हूँ जो मुझे परेशां भी नहीं कर रहे थे, तो फिर यह दिमाग का नन्हा सा जाला क्यों नहीं साफ़ कर सकती जो मुझे दिन-रात परेशान किये जा रहा है?
वह एक झटके से उठ खड़ी हुई| उसने एक अच्छा सा गिफ्ट निकाला, उसे सुंदर से पेपर में पैक कर वो शोभा के यहाँ जाने के लिये तैयार होने लगी| वह गुनगुना रही थी और उसके होंठों पर मुस्कान थी| उसने शोभा की पसंद की साड़ी पहनी थी| तैयार होकर जाने के लीयर जैसे ही उसने दरवाज़ा खोला, सामने शोभा खड़ी मुस्कुरा रही थी और उसके हाथ में बड़ा सा पैकेट था| खिलखिला कर दोनों गले मिलीं| हाथ का पैकेट पकडाते हुए शोभा ने कहा, “खाना है, जल्दी से लगा दे, बहुत जोर से भूख लगी है, सुबह से कुछ नहीं खाया, सोचा था तेरे साथ ही खाऊँगी|” सारे जाले झड चुके थे| ****
6. निकम्मा
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वो ना ढंग से पढाई कर सका, न खेल-कूद में ही अव्वल आ सका| उसे ना कोई ढंग की नौकरी मिली, न अपना पुश्तैनी धंधा, खेती-बाड़ी ही उसके बस की थी| पिता उस पर बात-बेबात झल्ला उठते और जब-तब उसे निकम्मा कहने से बाज न आते|
एक दिन वो मुँह लटकाये और हाथ जोड़े पिता के सामने खड़ा था| समस्या थी चालीस हज़ार रूपए जो उसे सरकारी नौकरी पाने के लिए रिश्वत के रूप में देने थे| चालीस हज़ार रूपए कहाँ से आयें? यदि मकान, खेत आदि गिरवी रख कर उधर ले भी लिया जाए तो कल को चुकाया कैसे जाएगा? परन्तु उसने पक्का वादा किया कि धीरे-धीरे करके वो सारे पैसे चूका देगा, एक बार किसी तरह से नौकरी मिल जाए बस|
दुनिया भर की अटकलें लगाने के बाद किसी तरह से रो-पीट कर आखिरकार पैसों का बंदोबस्त कर दिया गया| नौकरी मिलने पर उस किस्मत के धनी को पहली पोस्टिंग ट्रैफिक पुलिस में मिली| न केवल शीघ्र ही उधार लिए पैसे चूका दिए गए बल्कि घर की काया पलट भी हो गयी| अब उसके दूसरे पढ़े-लिखे भाई खुद को निकम्मा समझने लगे थे| ***
7. कड़ी
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पेट्रोल पंप के मेनेजर रमेश बाबू ने हरिप्रसाद को अपने कमरे में बुलवाया| हरीप्रसाद कमरे में आया तो काम पर से बिना सिर उठाये उन्होंने कहा, “हरी प्रसाद तुम नौकरी से बर्खास्त किये जाते हो, शाम को अपना हिसाब करते हुए जाना|”
“पर क्यों?” बेसाख्ता हरी के मुँह से निकला|
“क्योंकि तुम जानते ही नहीं हो कि इस पेट्रोल पंप की कार्य प्रणाली की तुम एक महत्वपूर्ण कड़ी हो,” मेनेजर ने हरी को जवाब दिया|
रमेश बाबू काफी कठोर व अनुशासन प्रिय व्यक्ति हैं| उन्हें जवाब देना तो दूर कोई उनके सामने आने का भी प्रयत्न नहीं करता| यूँ व्यक्तिगत तौर पर वो सबकी मदद करने को भी तैयार रहते हैं, परन्तु अनुशासनहीनता सहन करना उनके बस की बात नहीं है|
हरिप्रसाद इस प्रकार की स्थिति के लिए कदापि तैयार नहीं था| वह तपाक से बोला, “मैं हर रोज़ सुबह समय से आता हूँ, शाम को पूरे समय के बाद ही निकलता हूँ, दिनभर जीतोड़ मेहनत करता हूँ|”
“हा, पर यह काफी नहीं है,” रमेश बाबू ने अपनी नज़रें फिर से मेज़ पर बिखरे कागजों पर जमा ली थी|
“क्या मतलब,” लगभग चिल्लाते हुए हरिप्रसाद के मुँह से निकला|
कुर्सी पीछे खिसका कर आराम से बैठते हुए रमेश बाबू बोले, “तुम सोचते हो कि इस पेट्रोल पंप के इतने सारे कर्मचारियों में तुम नगण्य से व्यक्ति हो| तुम गाड़ी में हवा भरवाने आये लोगों से न केवल तमीज से बात नहीं करते अपितु एक-दो रुपये के लालच में टायर के वाल्व के ख़राब होने की झूठी बात भी बनाते हो| इससे हतोत्साहित हो कर लोग दूसरे पेट्रोल पंप पर हवा भरवाने जाते हैं तो साथ ही पेट्रोल भी वहीँ से भरवा लेते हैं| इससे इस पेट्रोल पंप की आमदनी के साथ-साथ उसकी छवि पर भी बुरा असर पड़ रहा है| मैं सोचता हूँ कि तुम्हारा ईमानदार, शालीन और सभ्य होना मुझसे कहीं अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि तुम ग्राहकों के सीधे संपर्क में आते हो|” ****
8. दोहरे मापदण्ड
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“नहीं-नहीं मैं आज बिलकुल ऑफिस नहीं आ सकती|”
“हाँ, ठीक है ज़रूरी काम होगा पर ऑफिस में मेरे अतिरिक्त और भी तो लोग हैं? किसी और से करवा लीजियेगा| मुझे आज घर पर बहुत ज़रूरी काम है|” यह कह रीमा ने फोन पटक दिया| फिर पास ही सोफे पर बैठी अपनी सहेली की ओर मुँह करते हुए बोली, “चल शालू जल्दी चल, शोपिंग के लिए देर हो रही है| सारा मूड ख़राब कर दिया मेरे बॉस ने| ऑफिस-ऑफिस, काम-काम, अरे इसके आलावा भी तो हमारी कोई ज़िन्दगी होगी,” रीमा बुडबुडाई|
जैसे ही रीमा उठने को हुई कि टेलीफोन की घंटी फिर झनझना उठी|
“हेल्लो..”
“हाँ-हाँ, बोलो शांति बाई , क्या हुआ?”
“क्यों? क्यों नहीं आयोगी आज काम पर? क्या मुसीबत हो गई?”
“क्या बेटा बीमार है? अरे सच बोल रही हो या बहाने मार रही हो? तुम्हारे यहाँ तो कोई न कोई मुसीबत पड़ी ही रहती है| बेटा, सास, पति कोई न कोई बीमार रहता है या फिर इतने सारे रिश्तेदार हैं कोई न कोई स्वर्ग सिधारता रहता है|”
“पर कुछ पहले भी तो बता सकती थी? मैं यहाँ बाज़ार जाने को खड़ी हूँ और उधर तुमने फरमान ज़ारी कर दिया कि आज नहीं आ रही हो| अब बताओ मैं बाज़ार जाऊं या घर बैठकर झाड़ू-पोचा करूँ?”
“क्या कहा, फोन कर दिया तो बड़ा एहसान कर दिया मुझ पर? नहीं आयोगी तो क्या फोन भी नहीं करोगी?” रीमा ने फिर गुस्से में फोन पटक दिया|
क्या मुसीबत है जब मर्जी आई, घर बैठे फोन खड़का दिया बस हो गई छुट्टी| जिम्मेदारी वाली तो कोई बात ही नहीं है| अरे भाई तुम यूँ बिना बताये अचानक छुट्टी कर लोगी तो अगले को परेशानी नहीं होगी? पर नहीं इस बात से भला इन्हें क्या मतलब? इन्हें तो बस अपना सुख, अपना स्वार्थ”, रीमा बुडबुडाई|
शालू ने टोका, “अब छोडो भी बुडबुडाना रीमा, जाने भी दो, हो सकता है उसे भी कुछ काम हो| चलो अब तुम घर का काम समेटो, मैं भी घर चलती हूँ| शोपिंग का कार्यक्रम फिर कभी बना लेंगे, कहती हुई शालू अपने घर की ओर चल दी| ***
9. बड़ी
***
पचपन वर्ष की आयु में भी वो खिलंदड थी| दिखने में ३५-४० की लगती परन्तु हरकतें अक्सर छोटे बच्चे की सी होतीं| बात-बेबात चहकना, खिलखिला कर हँसना, ठहाके लगाना उसकी पहचान थी| उसकी इन हरकतों पर यदि कभी कोई कह उठता, “अरे! दो बच्चों की माँ हो....” तो तपाक से जवाब हाज़िर होता, “तुम कहो तो मिस यूनिवर्स की तरह बैनर लगाकर चलूं कि मैं दो बच्चों की माँ हूँ|” और बस फिर एक जोरदार ठहाका| सुनने वाला भी मुस्कुराये बिना न रह पाता|
तरह-तरह की गुड़ियों व स्टफ्ड टॉयज का उसका शौक अभी गया नहीं था| बैठकघर में यदि सोफे पर गुड़िया बैठी होती तो मेज़ पर बैठी गिलहरी आँखें मटका रही होती| एक–दो खिलौने उसके बिस्तर पर लेटे आराम फरमा रहे होते, तो एक-दो उसकी बगल में दबे टी.वी. देख रहे होते| ऐसे में यदि कोई इन खिलौनों को समेट कर कहीं रख देता तो पूरे घर में कोहराम मच जाता, “ अरे! मेरे दोस्त कहाँ छुप कर बैठ गए, निकालो उन्हें बाहर, बस बहुत हो गया आँख-मिचोली का खेल|”
फिर भी इन खिलोनों की बारी बाद में आती, इनसे पहले उसे जबर्दस्त लगाव था अपनी बूढ़ी माँ और बच्चों से| एक दिन बच्चे बड़े हो गये, शादी के बाद दोनों बाहर जा बसे| बूढ़ी माँ और बूढ़ी हो गयी और एक दिन वो भी बहुत दूर जा बसी, चाँद के पास| वो बहुत अकेली, बहुत उदास हो गयी| एक दिन उसने बहुत जोर से, लगभग चीखते हुए आवाज़ लगाई, “बहादुर....”
घबराया हुआ बहादुर लगभग भागता हुआ आया|
खिलौनों को जोर से हाथ से धकेलते हुए उसने कहा, “यह सारे खिलौने हटा दो, नहीं चाहियें मुझे, उलझन मालूम देते हैं| अब मैं बड़ी हो गयी हूँ|” *****
10. आखिरी ख़त
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“ऐसा नहीं कि तुम मुझे अच्छी नहीं लगती, बहुत अच्छी लगती हो| तुम्हारी निश्छलता, सरलता व कर्मठता को देख कर तुम्हारे प्रति उतपन्न हुआ स्नेह कब धीरे-धीरे प्रेम में बदलता चला गया, मुझे मालूम ही ना हुआ| जब एहसास हुआ तो सब उथल-पुथल हो चुका था|
मैं जानता हूँ, मैंने ही नहीं तुमने भी सारा जीवन सामाजिक दायरों में बंधे हुए परिवार व उसके प्रति अपने कर्तव्यों व कार्यों में झोंक दिया| अब उम्र के इस पडाव में आकर विवादास्पद ज़िन्दगी जीना शायद रास ना आये और...और इस शहर में रहकर तुमसे न मिलना, प्यार का इज़हार न करना शायद संभव न हो| हाँ! तुम चाँद से अधिक खूबसूरत हो, मैं तुम्हे दाग देकर चाँद नहीं बनाना चाहता| इसलिए जबतक तुम्हे यह पत्र मिलेगा, मैं..मैं बहुत दूर, तुम्हारे इस शहर से बहुत दूर जा चुका होऊंगा|
यह निर्णय लेना आसन नहीं था, पर शायद.. उचित था| बेशक इज़हार नहीं करूंगा पर प्यार हमेशा करता रहूँगा...
तुम्हारा एक स्नेह भर प्यार! ****
11. गोमेध का कमाल
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“व्यय बहुत होता है पंडित जी, क्या करना चाहिये?” पंडित जी के आगे अपनी हथेली फैलाते हुए उसने पूछा| अपनी धोती और चोटी सँभालते हुए पंडित जी ने तुरंत उत्तर दिया, “सवा चार रत्ती की गोमेध पत्थर की अंगूठी बनवा कर सीधे हाथ की बीच की ऊंगुली में पहनो, खर्चा कम हो जाएगा|
कहे अनुसार उसने पैसा खर्चकर गोमेध खरीदकर झट अंगूठी बनने दे दी|
कुछ दिनों पश्चात् ही मालूम हुआ कार्यालय में कर्मचारी अधिकता के कारण छंटनी होने वाली है| जबतक अंगूठी बनकर आई, नौकरी छूट चुकी थी| आमदनी न होने पर खर्चा कम होना स्वाभाविक था
गोमेध ने क्या किया? अंगूठी प्रवाह दी गई।
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क्रमांक - 053
जन्म तिथि : 02 जुलाई 1944
जन्म स्थान : सेवाड़ी (पाली) राजस्थान
शिक्षा : बी.एससी, बी.एड, एम.ए. (राजनीति शास्त्र व अर्थशास्त्र) तथा एल.एल.बी की
सम्प्राप्ति : केन्द्रीय विद्यालय में अध्यापन करते हुए 2004 में सेवा निवृत होकर अब स्वतन्त्र लेखन में व्यस्त हैं।
मौलिक प्रकाशित पुस्तकें-
‘पेट सबके हैं’ एवं
‘बैसाखियों के पैर’ (लघुकथा संग्रह)।
बाजीगर (कहानी संग्रह),
‘हिंदी लघुकथा के सिद्धांत’ (सैद्धांतिक समालोचना) एवं लघुकथा समीक्षा (समालोचनात्मक समीक्षा).
‘कथा शिल्पी सुकेश साहनी की सृजन संचेतना’ (समीक्षा)
सम्पादित पुस्तकें : -
पंजाब की चर्चित लघुकथाएँ
राजस्थान की चर्चित लघुकथाएँ (2001लघुकथा संकलन)
पड़ाव और पड़ताल: खंड-4 (लघुकथा एवं समालोचना संकलन), ‘
मैदान से वितान की ओर’ (2020) (श्रेष्ठ लघुकथा संकलन)
प्रमुख सम्मान-
दिशा प्रकाशन का ‘दिशा सम्मान’,
पंजाबी की मिन्नी पत्रिका द्वारा ‘माता शरबती देवी सम्मान’, लघुकथा शोध केंद्र भोपाल द्वारा श्री माधवराव सप्रे स्मृति लघुकथा अलंकरण’ से सम्मानित.
अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच, पटना एवं ‘क्षितिज’ संस्था, इंदौर, तथा साहित्य मंडल, नाथद्वारा ने ‘साहित्य सुधाकर’ सम्मान से सम्मानित किया.
विशेष : -
सन 1972 से ही लघुकथा लेखन में सृजनरत. ‘अतिरिक्त’ (1972 फोल्डर पत्रिका) का संपादन तत्पश्चात ‘गुफाओं से मैदान की ओर’(लघुकथा का पहला संकलन 1974 रमेश जैन के साथ सम्पादित),
पता : 228, नया बाजार, रावतभाटा-323 307 राजस्थान
१. आप्रवासी
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मेरी प्यारी रंजना मैं निश्चित ही जर्मनी में रहना चाहूंगी. आई तो यहाँ पढाई के लिए थी लेकिन अब मुझे यहाँ का जीवन रास आ गया है. यहाँ जिंदगी ज्यादा आसान है. आम व्यक्ति के लिए भी एक सुख सुविधा पूर्ण जीवन बिल्कुल संभव है.
भारत में हजारों साल पुराने और व्यर्थ के रीति रिवाजों में पुरातनपंथी लोग फंसे पड़े हैं. और उसे ही अक्लमंदी समझते हैं.. संस्कार कहकर महिमामंडित करते रहते हैं. वैज्ञानिक सोच तो जरा भी नहीं है. पाखण्ड की तो कोई सीमा नहीं है! नवरात्रा में नौ दिन उपवास कर बिना जूते चप्पल रहने से क्या प्राप्त हो जायगा? मंगलवार और नवरात्रि में मीट न खाने से आप क्या अचीव कर लेंगे? दुनिया भर के उपवास करते रहो, अब बताओ उपवास करने से पति या बेटे की उम्र कैसे बढ़ जायगी?
भारत में स्त्री का धार्मिक होना जरुरी है. घर के पूजा पाठ का सारा जिम्मा बहू पर होता है. लोगों का मानना है कि धार्मिक स्त्री परिवार का पूरा ख्याल रखती है. दूसरों के लिए हमेशा त्याग करने को तत्पर रहती है. हमेशा दूसरों के लिए जीती है, और स्वयं के बारे में कभी सोचती ही नहीं. धार्मिकता का सारा ढोंग स्त्री को पालतू बनाने के लिए किया जाता है. धार्मिक प्रवचनों में स्त्रियों को ही टारगेट किया जाता है फिर भी वे वहां जाती है. उस बकवास को सुनती है.उनके आदर्शों की स्त्री बनने की कोशिश करती है.
सास ससुर के साथ रहना, माने जीवन में लगातार इन्टरफियरेंस, अब ये किसे पसंद होगा! जनेरशन गेप बहुत ज्यादा है हमारी जीवन शैली उन्हें पसंद नहीं आती. बेहतर हो एक ही बिल्डिंग के दूसरे अपार्टमेंट में रहे. ताकि वे अपनी और हम अपनी स्वतंत्रता एन्जॉय कर सके.
भारत में स्त्री के लिए विवाहित होना सबसे महतवपूर्ण माना जाता है. बढती उम्र के साथ लोगों के कमेन्ट बढ़ते जाते हैं विवाह में व्यर्थ का पैसा खर्च करना, समय की बर्बादी, सैकड़ों का लेविश खाना, दिखावा और बदले में क्या मिलता है शिकायतें -खाने में फलां चीज अच्छी नहीं बनी, सजावट का तो बुरा हाल था, दुल्हन का मेकअप कोई खास नहीं था, दूल्हा सांवला और ऊपर से कमाई भी कोई खास नहीं फिर भी घरवालों ने इस लंगूर से शादी कर दी रोएगी बिचारी जिंदगी भर.
बच्चे पैदा करना और उन्हें पालना प्राथमिक उद्देश्य है अगर इस मार्ग से थोडा भी हटते हैं तो आपको टारगेट किया जाता है. जनसँख्या वैसे भी ज्यादा है जीवन के और भी उच्चतर उद्देश्य हो सकते हैं यह उन्हें मालूम नहीं.
ज्यादातर स्त्रियाँ ज्वेलरी मेकअप घरेलू कार्य और बच्चों के लालन-पालन में दिलचस्पी लेती है. मैं ऐसा सोच भी नहीं सकती. स्त्रियाँ और चीजों में भी दिलचस्पी ले सकती है.
दूसरों के मामले में टांग अडाना भारतीयों की खास विशेषता है यहाँ फटे में भी कोई टांग नहीं अडाता दूसरों के जीवन में हस्तक्षेप करना यहाँ के लोगों की आदत नहीं है. हरेक की अपनी निजता है, अपना निजी स्पेस है.
अब रंजना तू खुद भी तुलना करके देख ले, स्त्री के लिए पश्चिमी देश ज्यादा अनुकूल है. *****
२. अवसर में आपदा
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‘कहाँ जाने की तैयारी है ?’ ‘हरिद्वार कुम्भ मेले में.’ ‘ऐसे समय जब कोरोना की दूसरी लहर चल रही है?’ ‘मुख्यमंत्री ने सारी तैयारियां कर ली है. लाखों लोग आएंगे गंगा में डुबकी लगायेंगे. सारे पाप धुल जायेंगे, पुण्य मिलेगा अलग से. तुम भी चलो हमारे साथ.’ ‘मैं यह खतरा मोल नहीं ले सकता लाखों की भीड़ में कोरोना फ़ैलने का पूरा अंदेशा है.’ ‘ऐसा होता तो सरकार ही मेले पर रोक नहीं लगा देती. बारह साल बाद ऐसा अवसर आता है.’ ‘मुझे लगता है यह अवसर कहीं आपदा में नहीं बदल जाय.’
‘भाग्य और भगवान के आगे कुछ नहीं है, जितनी साँसे लिखी है उससे पहले तो मरने से रहे फिर गाँव के बहुत से लोग जा रहे हैं ऐसा साथ फिर कब मिलेगा ?’
कुम्भ से आने पर गाँव में जोरदार स्वागत हुआ. सैकड़ों की भीड़ इकठ्ठी हो गई, स्वागत के बाद भंडारा था. इतने में सरकारी लवाजमा आ गया. लॉक डाउन लगा हुआ था, धरपकड की गई, सैंपल लिए गए, घरों में ही क्वारंटाइन कर दिया. बीस लोग पोसिटिव पाए गए. साँस लेने में तकलीफ वालों को जिला अस्पताल भेजा गया. चार दिन बाद खबर आई कि छीतरमल, जीतमल, बदामी बाई और समरथ भाई की कोरोना से मृत्यु हो गई. अब अस्पताल वाले ही क्रिया कर्म करेंगे.
मेरा अंदेशा सही निकला अवसर आपदा में बदल गया. धर्म के प्रचार का यही नुकसान है कि यह हमारी वैज्ञानिक चेतना को भोथरा कर देता है. ****
३. अव्वल
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पुलिस को तफसीस के दौरान एक स्यूसाइड नोट मिला। ‘साला जीने से तो अच्छा है मर जाना। मरे तो सब समस्याएं समाप्त। न फेल होने की चिन्ता, न परसेंटेज की फ़िक्र, न कोचिंग में मरने-खपने की जरुरत।
कोचिंग वालों ने लाखों रूपए डकार कर पेरेन्ट्स को मैसेज किया कि आपका पुत्र स्टडी की तरफ ध्यान नहीं दे रहा है उसकी परफोर्मेंस लगातार गिर रही है। टेस्ट में बहुत कम मार्क्स है। पिता ने परेशान होकर मुझे फोन पर पहले लताड़ा फिर मुलायम स्वर में समझाइश की। स्टडी पर ध्यान दो। हमने तुम्हारे लिए क्या-क्या सपने संजोये हैं, उन्हें इस तरह बिखरने मत दो। और क्या कहें तुम खुद समझदार हो। हमारे पास जमीन-जायदाद, व्यवसाय-उद्यम कुछ भी तो नहीं! एक नौकरी ही तो सहारा है। आज एक ठीक-ठाक नौकरी के बिना जीवन जीना बहुत मुश्किल है। देख रहे हो पढाई पर कितना खर्च हो रहा है। एक बार बीमार हो जाओ तो लाख रूपये खर्च हो जाते है। और एक अदद घर खरीदने जाओ तो इएमआई भरते भरते उम्र निकल जाती है। फिर कई तरह के बीमों का प्रीमियम भरना बिना अच्छी नौकरी के सम्भव है? सोचकर देखो भई अपनी कोशिश तो पूरी करो फिर नही हो पायगा तो कोई बात नहीं। एकबार फिर कोशिश कर के देखेंगे।
लताड तो मुझे स्कूल में भी मिलती रही है। पग पग पर अपमान सहना पड़ता है गुस्सा आता तो बेबात दोस्तों से लड़ पडता, बच्चों के बीच मास्टरों को गाली देता, चुगलखोर चुगली कर देते तो फिर पड़ती लताड़, होता सस्पेंसन, माँ बाप की एक ही हिदायत कि पढ़ाई पर ध्यान दो फालतू चीजों से दूर रहो। अव्वल आओ और अव्वल रहो।
कोचिंग वाले काउन्सलिंग के नाम पर जरा मीठे-मीठे फटकारते ही तो है। अब मैं और जलील नहीं हो सकता।
इस छोटी सी जिन्दगी में कितना अपमान झेला है! हर बार एक ही बात बेटा अव्वल आओ और अव्वल रहो. सो अब अव्वल ही रहना है।
उसने मोबाईल में विडियो चालू कर बोलना शुरू किया- अब किसी में तो अव्वल रहे नहीं सो स्यूसाइड में तो अव्वल हो ही जायेंगे; अलविदा साथियों, अलविदा मम्मी–पापा, ये दुनिया आप लोगों को मुबारक, और लटक गया पंखे से । ऑनलाइन विडिओ खूब वायरल हुआ। ट्विट् और री-ट्विट होते होते सैकड़ों प्रश्न खड़ा कर गया। ****
४. बैकुण्ठ
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तुम स्वर्ग क्यों जाना चाहते हो?
वहाँ अप्सराएँ है, जो हमेशा जवान रहती है वहाँ सोमरस के चश्मे बहते हैं |
अप्सराओं का क्या करोगे ?
इनके साथ किलोल करूँगा और..
और क्या?
जीवन का आनन्द लूँगा |
वही आनंद क्या तुझे धरती पर नहीं मिला?
मिला तो था लेकिन चुटकी भर|
खैर इससे भी सुन्दर जगह जाना चाहोगे ?
कौनसी ?
बैकुण्ठ धाम, जहाँ स्वयं ईश्वर बिराजते है और तमाम बुद्धपुरुष ध्यान में रहकर परम में लीन रहते है|
मैं वहाँ जाकर क्या करूँगा ?
वहाँ आनन्द ही नहीं, परमानंद है| अहर्निश आनन्द| उस आनंद के लिए तुम्हें किसी दूसरे की जरुरत नहीं है| अपने में आत्मलीन, परम शून्य में विश्राम|
ऐसा लगता है मृत्यु के मौन सन्नाटे में और परमानंद में कोई अंतर नहीं है | नहीं मेरे लिए स्वर्ग ही ठीक है| बिना कमाए धमाए, परिवार के पचड़े में पड़े बिना, यहाँ आकर आदमी चिर युवा हो जाता है| यहाँ न जन्म है, न जरा है, न मृत्यु है| स्वर्ग मेरे लिए बिल्कुल मुआफिक है. ****
५. दलदल
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छाती कूटने से कोई हेमा हाथ आती। करम तो खुद के ऐसे थे जो हेमा बिटिया को बाजार के हवाले कर दिया। माथा कूटते बोली –पता नहीं किस हालत में होगी मेरी बेटी? ।
बेटी को तो तूने ही सूली पर चढ़ाया अब स्यापा करने से क्या होगा! करती क्या! मेरी मज़बूरी थी, हेमा के बापू बीमार थे, उसके चलते साहूकार से पैसे एडवांस लेकर दस वर्ष की हेमा को उसके घर काम करने भेज दिया, ब्याज के बदले। घर पर कोई तो चाहिए उनकी देखभाल करने को, सो मैं घर पर रह गई। मैं बंजारन, बस्ती में फेरी कर चूडियाँ बेचकर पेट पालती। ‘माँ मैं नहीं जाऊँगी सेठ के घर काम करने, सेठानी बहुत ख़राब है। बात-बात पर डाँटती- फटकारती और मारती है। खाने को बासी रोटी देती है, मुझे अच्छा नहीं लगता।’ ‘बेटी थोड़े दिन और निकाल, मैं उसके पैसे लौटाने की कोई जुगत करती हूँ।’
कुछ समय बाद माँ ने जीनिंग कॉटन मिल मालिक से और पैसा एडवांस लेकर साहूकार का चुका दिया। हेमा को नयी मिल में काम करने भेज दिया। यह सोचकर कि मिल का काम घरेलू काम से अच्छा है और पगार भी मिलेगी लेकिन पगार तो ब्याज के बराबर ही मिलती। तो फिर एडवांस चुकेगा कैसे? मिल में उसे दस से बारह घंटे खटना पड़ता। छोटी सी बच्ची थक जाती बुरी तरह। पर करती भी तो क्या! इस बीच हेमा के बापू चल बसे। मृतक के पीछे किए जानेवाले कर्मकाण्ड और मृत्यु भोज में उधार चढ़ गया। उसने जुगत बैठाकर दूसरे फैक्ट्री मालिक से पचास हजार एडवांस लेकर उसे वहां काम करने भेज दिया। हर बार एडवांस की राशि बढती गई और दलदल में फंसती गई। इस दलदल से निकलना करीब-करीब असम्भव था। किसी तरह यहाँ दो वर्ष और बीत गए। हेमा अब पन्द्रह की हो गई है। वह छटपटाती कि कब मुक्ति मिलेगी? माँ से लड़ती कि काम पर नहीं जाएगी। मत जा, उसका एडवांस चुका दे। फेक्ट्री मालिक ने एक दिन उससे कहा – चाहो तो एडवांस चुकाकर यहाँ से छूट सकती हो। उसे कहीं से सुनहरी किरण दिखाई दी।
वो तुरन्त बोली, ‘कैसे?’ ‘अब तुम जवान हो रही हो, चाहो तो अतिरिक्त कमाई कर मेरा एडवांस चुका दो। बस मुझे खुश रखना होगा।‘
हेमा करती तो क्या करती ! मदद की कहीं कोई आश-किरण नहीं दिखाई पड़ती। मालिक के लठैत की निगरानी में थी वह।
हरामी उसके ऊपर ख़ूब कूदा और उसे औरत बना दिया। अंततः एक दिन दलाल के हाथों उसे बेच दिया। माँ ने खूब छाती कुटी लेकिन हेमा हाथ नहीं आई। ****
६. कैसी औरत !
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क्या कहती है मेडिकल रिपोर्ट ?
दोनों किडनी बिलकुल ख़राब हो गई है. प्रत्यारोपण करवाना पड़ेगा.
पैसा कहाँ से आएगा? डोनर कहाँ मिलेगा ?
परिवार को टटोला गया और आखिर पत्नी को घेर कर तैयार किया.
अस्पताल में डाक्टर ने अपने चेंबर में बुलाकर उससे पूछा, ‘क्या तुम सोच-समझकर यह निर्णय ले रही हो? किसी तरह का कोई दबाब या इमोशनल ब्लेकमेल तो नहीं?’ वह सुबकने लगी.
‘इनकी मेडिकल हिस्ट्री साफ बताती कि ये लम्बी पारी नहीं खेल पाएँगे.’
‘विधवा होने का डर और उसके बाद की अपमान भरी जिंदगी.’
‘लेकिन ये तो होना ही है. तुम स्वस्थ रही तो दुनिया से मुटभेड कर सकती हो /भिड सकती हो. अपने पांवो पर खड़ी होकर जीवन यापन कर सकती हो या दूसरा जीवन साथी चुनकर जीवन की दूसरी पारी खेल सकती हो.
बाहर आकर उसने परिवार के सब सदस्यों से कह दिया-सोचूंगी.
मेरी बची एक किडनी ख़राब हो गई तो मुझे किडनी कौन देगा? पति वापस मेरी किडनी मुझे दे देगा ?
पागल औरत है क्या उटपटांग बोले जा रही है. कैसी औरत है खुद विधवा होना चाहती है.
और भी इनके प्रियजन है वे क्यों नहीं डोनेट करते?
सन्नाटा. नहीं वह किडनी डोनेट नहीं करेगी. जब भी अंग दान की बात आती है सारा बोझ स्त्री पर ही क्यों?
अगर मेरे साथ ऐसा होता तो देता मेरा पति अपनी किडनी ?
चुप्पी. इसके मरने से मेरा सुहाग मर जाता है लेकिन मेरे मरने से उसका कुछ नहीं जाता.
डॉक्टर ने ठीक ही बताया था कि अगर पति पत्नी के बीच अंग का लेन-देन हो रहा है तो नब्बे फीसदी से ज्यादा मामलों में पत्नी ही अंग देती है. पति आम तौर पर पत्नी को अंग नहीं देता.
सिर्फ महिलाओं पर अंगदान का बोझ क्यों ?****
7. अँधेरे की चीख
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अँधेरे में एक चीख उभरी.
इतने में एक कार रोशनी की लकीर फेंकती निकल गई. चीख सिसक कर थम गई. ‘क्यों इतनी असहाय और भयभीत हो?’ अंतरात्मा की आवाज ने झकझोरा.
‘बचपन से ही डर मेरी धमनियों में ऊंडेल दिया गया था. जो अब तेजी से धमनियों में दौड़ रहा है. युवा होते-होते तो शिकारियों ने घेर लिया. रास्ते में, बस स्टेंड पर, स्कूल, कॉलेज में जहाँ भी मैं हो सकती थी वे उपस्थित मिलते. अन्य उपस्थित लोग अनुस्पस्थित हो जाते. जैसे उनकी नजरों से कुछ गुजरा ही न हो. डर और भी डराने लगा. शिकारी पुरुषों की हिंस्र लाल आँखों, तेज लम्बे दांत और तीखे नाखून, जैसे नोंच डालेंगे. चबा डालेंगे,
डर परिवार से समाज से, माँ से, पिता से, भाई से, और फिर अपने आप से. भयभीत हो मैं अपने में सिमट गई. मैं अवसाद का शिकार हो ही जाती कि एक पुरुष के प्रति मेरा आकर्षण बढ़ गया. वह मुझे बहुत पसंद था. बड़ी हिम्मत कर आँखों ही आँखों में उसकी बात का जबाब दिया. वह मेरा दोस्त बन गया. छुपते-छुपाते हमारा प्रेमालाप चलता रहा. हाथ में हाथ लिए बैठे रहना और चौकन्नी निगाहों से देखते रहना. प्रेम अनजान रास्तों पर चलने की हिम्मत देता है. और उसके प्रेम की फुहार मेरे जीवन को भिगो गई. मैं भीगती ही गई. सम्मोहन में बंधी मैं उसके साथ यहाँ आ गई. प्रेमानंद यौनानंद तक पहुंचना चाहता था. मैंने न चाहते हुए भी उसे मना कर दिया लेकिन भावना के ज्वार में वह बहता गया. इसी कशमकश में हाथापाई हो गई. और गिरफ्त से छूटने के लिए चीखी. खिसियाकर उसने छोड़ दिया. कम से कम जानवर नहीं निकला. मैंने अपने आप को बचा लिया, अपनी अस्मत को बचा लिया, अपने क्वारेपन को बचा लिया. और बच गई अपवित्र होने से, और बच गई प्रेम में पागल होने से. जैसे यही सब मेरा वजूद हो और उसके बिना मेरा कोई अस्तित्व ही न हो. प्रेम के यज्ञ में पूर्णाहुति नहीं हुई. अधूरेपन की कसक लिए दो रूहें एकाकार होने की चाह लिए भटकती रही. ***
8. छोटा कदम
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स्वतंत्रता दिवस समारोह में जिलाधीश ने आज कक्षा आठ में पढ़ने वाली दिव्या जैन को सम्मानित किया. बधाइयों का तांता लग गया. सहेलियां कहने लगी, हमें दिखाओ अपना सम्मान पत्र. वह सम्मान पत्र दिखाने लगी, ऊपर एक तरफ उसका फोटो था, नीचे जिलाधीश के हस्ताक्षर थे. सम्मान पाने वाली सबसे छोटी लडकी वही थी. खुशियां समेटे नहीं सिमट रही थी. जब उसे सम्मानित किया जा रहा था, तब जिलाधीश ने उसके माता-पिता को भी मंच पर बुलवाया और सबके सामने कहा, ‘धन्य हैं ये माँ-बाप जिन्होंने इस बच्ची का हौसला बढ़ाया और इसकी मदद की. दिव्या जैन को सम्मान देते हुए मैं अपने आप को गौरवान्वित अनुभव कर रहा हूँ.”
अखबार ने भी यह खबर प्रमुखता से छापी. सम्मान ग्रहण करते उसका फोटो था. दिव्या का इन्टरव्यू भी अखबार में छपा था.
–अच्छा दिव्या यह बताओ कि यह कार्य करने की प्रेरणा कहाँ से मिली ?
--मेरे पिता से, वे पर्यावरण को प्रदूषण से बचाने की बात अक्सर मुझ से किया करते थे. मैंने एक दिन पिताजी से पूछा, मैं इस दिशा में क्या कर सकती हूँ? पिताजी ने बताया कि पर्यावरण के बारे में जानकारी प्राप्त करो और सोचो कि तुम क्या कर सकती हो. बस फिर मैंने सोच लिया कि मुझे क्या करना है? -क्या करने की सोची? -मैंने प्लास्टिक की थैलियों के बहिष्कार का आन्दोलन चलाने की ठान ली.
–आरम्भ कहाँ से किया?
-- पहले तो स्कूल में प्लास्टिक की थैलियों का बहिष्कार किया गया. इसमें अध्यापकों का भी सहयोग था. प्रार्थना सभा में एक दिन मैंने इन थैलियों से होने वाले नुकसान के बारे में बताया. उनसे अपील की, कि जो मेरा साथ देना चाहें मेरे साथ आ सकते है. हमने पांच लोगों की टीम बना ली. –फिर क्या किया? ---दूसरे दिन से हम लोगों के घर-घर जाकर उनसे प्लास्टिक की थैलियाँ उपयोग न करने का आग्रह करते. --- गलियों की नालियां बंद हो जाती है, झूठे और सड़े पदार्थ प्लास्टिक में फेंक देते है उसके लिये क्या किया?
--हम नालियां साफ करने लगे. लेकिन यह काम बड़ा था. सो हमने नगरपालिका और एस.डी.ओ. को ज्ञापन दिया कि गाय प्लास्टिक में फेंका खाना खाकर बीमार हो जाती है और फिर मर जाती है, ये थैलियाँ हमारी मिट्टी को खराब करती है और शहर में गन्दगी फैलाती है आप कार्यवाही करें.
----एस डी ओ ने कार्यवाही की?
----- हाँ, बिल्कुल की. व्यापारियों को पाबंद किया कि वे कैरी बैग का इस्तेमाल न करें. इसकी जगह कागज या सेल्यूलोज की थैलियाँ उपयोग में लाएं.
---हमने पुराने कपडे माँग-माँग कर इक्कट्ठे किये और थैलियां सिलकर लोगो में वितरित की. रोज नई गली में जाना और अपना सन्देश फैलाना. धीरे-धीरे दूसरे स्कूल के बच्चे भी इस अभियान में शामिल होने लगे. एक साल में यह आन्दोलन उठ खड़ा हुआ और इसे जबरदस्त जनसमर्थन मिला.
--- आपके इस आन्दोलन ने आपको इस शहर की सेलेब्रिटी बना दिया. धन्यवाद.
--ऐसी कोई बात नहीं आज विश्व में पर्यावरण बचाने का एजेंडा प्रमुखता प्राप्त कर रहा है. -धन्यवाद आपको भी. ****
जन्म : 31 जनवरी 1969
शिक्षा : M.A(English
literature) B.ed (English, social),TET, एम.ए (हिंदी) एम.फिल,पीएच.डी, साहित्य रत्न
भाषा ज्ञान : हिंदी, अंग्रेजी, मारवाड़ी, मराठी, गुजराती
लेखन : कविता, आत्मकथा, लेख, आलेख, नाटक, समीक्षा, कहानी , लघुकथा आदि
विशेष : -
- अंतरराष्ट्रीय ब्राह्मण समाज के तेलंगाना प्रकोष्ठ की महिला अध्यक्ष,
- सूत्रधार ग्रुप की कमेटी मेंबर,
- अंतरराष्ट्रीय भाषा अकादमी (न्यूज़ीलैंड) की तेलंगाना ईकाई की कमेटी मेंबर,
- कई लाइव काव्य पाठ व एकल लाइव काव्य पाठ
- स्टोरी मिरर पर कविताएं
- नाटकों का कॉलेज के विद्यार्थियों द्वारा मंचन
पता :
मकान नं. 4-7-156/19 , छोटा शिव हनुमान मंदिर
भानोदया स्कूल के पास , पांडुरंगा नगर, अत्तापुर
हैदराबाद - 500048 तेलंगाना
1.ऐतराज़ नहीं होना चाहिए
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हर्षिता अवाक सी भावशून्य होकर बैठी थी।घर का सारा काम भी पड़ा था पर करने की इच्छा नहीं हो रही थी बस दुखी मन से पलंग पड़े रहने को मन कर रहा था।
इतने में ही रोहित ऑफिस से आ गया और सीधा कमरे में आते ही हर्षिता को दुखी देख पूछा कि आज माजरा क्या है रोज की चिड़िया की तरह चहकने वाली इतनी उदास परेशान सी क्यों लेटी है। यह सुन हर्षिता एकदम बिफर पड़ी।
मैंने सुना है और पुष्टि भी की है कि तुम किसी श्रुति नाम की लड़की के साथ लिव इन रिलेशनशिप में हो।
रोहित ने बड़ी मासूमियत भरी बेशर्मी से कहा तो इसमें क्या बड़ी बात है क्या तो आजकल का ट्रेंड है मैंने तुम्हें तो कोई कमी नहीं होने दी सारी सुख सुविधाएं और पति होने के सारे फर्ज पूरे किए हैं तुम्हें बुरा मानते हुए मेरी पर्सनल लाइफ में दखल नहीं देना चाहिए तुम अपनी जगह वह अपनी जगह।
इस पर हर्षिता बिफर पड़ी कहा स्वर्ग का सुख ही क्यों न मिल जाए पर पत्नी अपने पति को किसी के साथ नहीं बांट सकती।
एक बात बताओ रोहित मैंने भी पत्नी धर्म निभाया घर की देखभाल की सारे फर्ज पूरे किए तो फिर मैं भी किसी के साथ लिव इन रिलेशनशिप में रहूं तो तुम्हें भी कोई एतराज नहीं होना चाहिए तुम अपनी जगह वह अपनी जगह। यह सुनकर रोहित का मानो काटो तो खून न था। *****
2. एक दूसरे का साथ
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जब श्री को होश आया तो पता चला कि उसको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई है। खुशी से मानो हृदय की धड़कन बढ़ गई बाहर खड़े पति के भीतर आकर मुस्कुराते चेहरे को देखने का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रही थी।
इतने में नर्स बच्चे को गोद में लेकर आई और कहने लगी इसकी सांसें बहुत कम चल रही हैं और बहुत कोशिश की पर रो ही नहीं रहा । श्री की सारी खुशियां काफूर हो गई थी।वह रोने लगी और सास बाहर जाकर बेटे को बुला लाई और आते ही पति ने उसे ढांढस बंधाने के बदले सबके सामने उसे डांटते हुए कहा -
यह क्या तमाशा लगा रखा है यह क्या रोना-धोना है देख नहीं रही हो तुम्हारे इस तरह पेश आने से मेरी मां कितनी डर गई हैं तुम्हें अक्ल नहीं है । सुनकर श्री को काटो तो खून ना था कहां तो वह सोच रही थी खुशी से पति उसे गले लगा लेंगे प्यार भरी बातें करेंगे ।और यह सुनने के बाद, बच्चे की हालत पता चलने पर चिंता जताएंगे ,उसे ढाढस बंधाएंगे। पर इस तरह.....क्या खुशी और ग़म में पति इस तरह साथ देते हैं।****
3. अफ्सर बेटा
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पास ही के गांव में पोस्टिंग होने के कारण मोहनलाल अपने माता पिता के पास हर त्योहार मनाने के लिए अपनी पत्नी व बच्चों के साथ जरूर आते, और बड़े खुश होते जब सारा परिवार इकट्ठा होता हैं । उनकी मां भी परिवार को देखकर बहुत खुश होती और तरह-तरह के दौड़ दौड़ कर व्यंजन बनाती सब को खुश रखती पर बहु बहुत क्लेशी होने के कारण सास के मन में हमेशा भय छाया रहता था, बहू कब किस बात पर घर में कलेश छेड़ दे। एक दिन ऐसे ही वे लोग होली मनाने सपरिवार आए सास ने बहुत सारे पकवान बनाए खासकर बेटे की पसंद का दाल का हलवा। खाना खाते वक्त सास ने कहा बहू जा थोड़ा और हलवा मेरे मोनिया को दे आ। वह बड़े प्यार से अपने बेटे मोहन को मोनिया कहती थी इतने में ही बहू बिफर पड़ी कहने लगी देखो इस औरत को बात करने की तमीज नहीं आई .ए.एस. अफसर बेटे को मुनिया कह रही हैं। अदब से नाम पुकारना चाहिए और सारा घर अवाक रह गया यह भी अपने बेटे को प्यार से चिंटू कहती हैं तो क्या बेटा अफसर हो जाए तो मां, मां नहीं रहती उन्हें अपने बच्चों को प्यार करने दुलार करने का या उन्हें प्यार के नाम से पुकारने का हक नहीं होता........! ****
4.कल के आंसू और आज के आंसू
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आज मदर्स डे हैं आज ही तो मोहित का जन्मदिन है और मां के आंसू नहीं थम रहे थे। यही कोई 30 वर्ष से तो गुजरे थे। आज की ही बात लगती है नर्स ने रोते हुए बच्चे को गोद में ला कर दिया और सुनीता उसका रोना सुनकर उसे गोद में ले बहुत हर्षित हुई थी और उसे देख उसकी आंखों खुशी के आंसू आ गए और वह विफल हो उसे चूमने लगी ।
मोहित कुछ बड़ा हुआ और थोड़ा समझने लगा तो वह हर मदर्स डे पर अपनी मां को उनका मनचाहा गिफ्ट और अपनी पसंद का गिफ्ट भी उनसे लेता । चरण स्पर्श करता मां के साथ अपनी फोटो खींचकर उसे फेसबुक पर पोस्ट करता।
इतना ही नहीं वह मां को बहुत प्यार और सम्मान देता।आज मदर्स डे है और आज उसके मोहित की कोरोना से मौत की खबर सुनकर मां का कलेजा फट पड़ा और रोते हुए कहने लगी यह कैसा सम्मान और अपनी मौत की खबर का तोहफा दिया है मोहित तूने, सुनीता के तो मानो आंसू ही नहीं थम रहे थे। कितना फर्क था उसके पैदा होने पर आए खुशी के आंसू और आज के आंसू में....... !
5. अफसर बेटे का फरमान
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हेमंत जयपुर में सरकारी दफ्तर में ऊंचे ओहदे पर है और वहां उसका काफी रौब-दाब है।पास ही के गांव में मां छोटे भाई के साथ रहती हैं।उसके आंखों का ऑपरेशन करवाना है ।इसलिए उसने 4 दिन की अर्जी दे दी और पत्नी को ले गांव पहुंचा। मां का ऑपरेशन करवाया और दोनों पति-पत्नी ने बड़ी सेवा की चौथे दिन लौटते हुए उसने मां के हाथ में ऑपरेशन व दवाईयों का बिल देते हुए कहा मां तुम्हारे तो पेंशन आती है।फालतू में पैसा दूसरे बेटों को दोगी। बिल के पैसे मुझे भिजवा देना।यह कहते हुए अफसर बेटा हेमंत मां के चरण छू कार में बैठ जयपुर की ओर रवाना हुआ।
पति की बीमारी के कारण वॉलिंटरी रिटायरमेंट ले पैतृक गांव में घर बना रहने लगे थे। 2 साल पहले पति की मृत्यु के बाद केवल ₹ 2000 मासिक पेंशन में बमुश्किल गुजारा होता था और यह बिल, बिल के पैसे तो भेजने हीं पड़ेंगे अफसर बेटे का फरमान जो है। ****
6. सरोगेट मदर
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अनु से आज एक अजनबी बेहद खूबसूरत सी जवान लड़की मिलने आई।वय यही कोई 20 वर्ष होगी। उसने इससे पहले उसे कभी नहीं देखा था पर उसे बहुत अच्छा लग रहा था। उसका परिचय जानकर जैसे वह खुद में न रही। उसने अपने परिचय में कहा कि उसका नाम तृप्ति है और उसकी मां का नाम अनु है पिता का नाम सुधीर है और दूसरी मां का नाम राजू है।
याद आया उसे यह खूबसूरत लड़की उसकी ही तो बेटी है,जैसे उसी के नैन नक्श ऊपरवाले नें इस लड़की को चिपका दिए हो।
आर्थिक तंगी के चलते और कोई काम ना मिल सकने के कारण व सरोगेसी का काम करती थी, यानी सरोगेट मदर बनती थी। इस शर्त पर कि उन बच्चों से कभी ना तो मिलेगी ना देखेगी
आज अचानक इतने वर्षों बाद तृप्ति को अपने सामने खड़े होकर कहना कि आप मेरी मां हो उसे अंदर तक भी विह्वल कर गया। जब तृप्ति को पता चला कि सुधीर की पत्नी मां नहीं बन सकती और अच्छी रकम के बदले उसे सरोगेसी का प्रस्ताव मिला तो वह मान गई।जब तृप्ति बड़ी हुई और पता चला की उन्होंने उसे सरोगेसी द्वारा प्राप्त किया। तब से ही वह अपनी मां से मिलने के लिए बेचैन थी और मुश्किल से पता करके यहां पहुंची।अनु ने यह बात किसी को भी नहीं बताई। अनु की दुविधा की पति से इस लड़की से क्या कहकर मिलाएं।आज वह ऐसे दोराहे पर खड़ी थी, एक तरफ यह ममता तो दूसरी तरफ दूसरी ममता। एक को अपनाएं तो दूसरी जुदा दूसरे को अपनाएं तो सब कुछ खत्म............!
7. ऐसे संस्कार
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तीन फ्लोर के केवल तीन फ्लैट वाले नए किराए के मकान में आए अभी वनिता को छह माह ही तो हुए थे। सबसे ऊपर वाले फ्लैट में वह अपने पति और बच्चे के साथ रहती है।
बीच के फ्लैट वाली रेखा जी कभी-कभी उनसे कुछ ना कुछ मांगने आ जाती और घंटो उसका समय बर्बाद करती रेखा जी का आना वनिता को कुछ असहज कर जाता क्योंकि वह दो घंटे तक बातें करती और वनिता का झूंझलाहट होती।
एक दिन तो हद ही हो गई जब रेखा जी उनसे 20000 रू. मांगने आई और कहा कि 15 दिन में लौटा देगी बातों बातों में उसने कहा वनीता जी आप लड़के की शादी क्यों नहीं करते ।तो वनिता ने कहा देख रहे हैं पर कुछ जम नहीं रहा। इस पर छूटते ही रेखा जी ने कहा ढूंढना क्या है नौकरी करता है। उससे कहो कि कोई लड़की पटा ले और आप दोनों की शादी करा दें। वनिता ने कहा मुझे कोई एतराज नहीं यदि वह लव मैरिज करना चाहे पर वह अरेंज मैरिज करना चाहता है। उसके ऐसी कोई बात नहीं।
रेखा जी ने छूटते ही कहा यही तो परेशानी है मेरी दोनों बेटियां घर से भाग गई थी और फिर हमने उनकी शादी करवा दी अब तीसरी लड़की है जो मैंने तो इससे भी कह रखा है कि किसी को लव कर ले। दहेज का और ढूंढने का टेंशन मिटेगा।
यह सुनकर वनिता अवाक रह गई कि क्या ऐसी मांएं भी होती है जो अपनी बेटी को ऐसे संस्कार देने से भी गुरेज न करे। *****
8.समय की करवट
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आज दीपा दूसरी बार ससुराल जा रही थी और विभा भाभी ने उसके साथ कई 5000 से 10000 तक की साड़ियां व सूट और बहुत सारे तोहफे बांध दिए। यह देखकर नंदिनी की आंखों में आंसू आ गए । पति के कम उम्र में गुजरने के बाद , राकेश भाईसाहब व विभा भाभी ने ही उन्हें सम्हाला। उसकी दोनों लड़कियों को पढ़ाया लिखाया ।पैसवाले और बड़े नाम वाले थे और उनके इस कदम से की छोटे भाई की मृत्यु के बाद उसके परिवार को देखना । इससे उनकी इज्जत समाज में और भी बढ़ गई।
परंतु अंदर की बात कुछ और थी। नंदिनी की हैसियत उस घर में रसोई बनाने वाले से मात्र कम न थी।याद आया उसे जब एक बार दीपा का चश्मा टूट गया था और उसकी फाइनल की परीक्षा बहुत नजदीक थी उसने बड़ी मां याने विभा भाभी से कहा था की नया चश्मा बनाने के लिए 1500 रुपए चाहिए और विभा भाभी ने बड़े गुस्से से उन्हें डांटा था और कहा था कि रोज-रोज तुम लोगों पर खर्च करने के लिए पैसे कहां से लाएं और दूसरे ही दिन राकेश भाई साहब के आंखों का ऑपरेशन हुआ जिसमें 75000 के तो केवल आंखों के कैटरेक्ट लगे और फिर लोग क्या कहेंगे यह सोचकर बड़ी मुश्किल से उन्होंने हजार रुपए निकालकर उसे दिया और कहा कि जाओ इतने ही रूपए है। चश्मा बनवा कर लाओ। दीपा गुणवान व बहुत सुंदर होने से उसका विवाह शीघ्र ही बहुत ऊंचे पैसेवाले घराने में हो गया।
दीपा के मना करने पर ,विभा भाभी ने दीपा को गले लगाते हुए कहा इतने बड़े घराने में तुम्हारी शादी हुई है ।हम कुछ न दें तो हमारी क्या इज्जत रहेगी । उन्हें भी तो पता चले की हम भी हैसियत में उनसे कम नहीं।
आज दीपा प्रति उमड़े प्रेम व तोहफे देख नंदिनी की आंखों में आंसू आ गए , वह सोचने लगी की विवाह पैसे वाले घर में होने से उनका रुतबा कैसे बदल गया। दीपा के प्रति उमड़ता प्रेम पैसों की करवट है या समय की करवट। ****
9. गलती सुधार
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कल सरोज के छोटे लड़के सूरज का डिवोर्स हो गया। 10 साल पति पत्नी साथ रहे एक लड़का और लड़की है। बहुत पैसा होने के बावजूद भी पत्नी रमा घर छोड़कर गरीब मां-बाप के पास चली गई । दोनों पति-पत्नी में आए दिन लड़ाई होती ।पति गुस्से में हाथ तक उठा देता।दोनों बच्चों को सूरज ने अपने पास रखा, जाने नहीं दिया जानता था कि गरीब परिवार वाले उसके बच्चों की आज के जमाने में देखभाल नहीं कर पाएंगे।
आज मन बहलाने के लिए रमेश जी अपनी पत्नी अनु के साथ अपनी साली सरोज के घर आए कि थोड़ी देर मन बहल जाएगा । कुछ टेंशन फ्री भी हो जाएंगे ।बातों का सिलसिला चल निकला ।
बातों-बातों में सरोज ने बताया की आए दिन की किरकिरी से बड़े बेटे का देहांत होने के बाद नौकरी कर रही बड़ी बहू को अलग कर दिया। बड़ी बहू नौकरी कर रही हैं ।
उसके एक बेटी भी है बड़ी मुश्किल से अपना गुजारा कर पाती है पर इन्होंने ध्यान ही नहीं दिया । बातों बातों में सरोज ने कहा मेरी बड़ी बहु बहुत अच्छी है कभी जवाब तक नहीं दिया।मेरा हर कहा मानती है।घर का सारा काम भी बहुत अच्छे से सम्हाल लेती है। मैं उसे फिर घर ले आऊंगी।बेटा नहीं हैं तो क्या हुआ, वह भी बेटे के बराबर है उसे भी अपनी जायदाद में समान हिस्सा दूंगी । मैं अपनी गलती सुधारूंगी। यह सुनकर अनु अचंभित रह गई ।मन ही मन सोचने लगी । इतने दिन बहन सरोज को यह ख्याल क्यों नहीं आया।क्या बहन वाकई में अपनी गलती सुधार रही है, उसे बेटा समझ कर घर ला रही हैं या फिर दोनों बच्चों के देखभाल के लिए आया के तौर पर ।क्या बड़ी बहू आएगी उसका अपना
आत्मसम्मान आहत नहीं होगा। ****
10. बदलाव
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केदार जी जब से अपनी बेटी के घर से आए हैं उनका व्यवहार अपनी पत्नी के प्रति काफी बदल गया है ।अब वे अपनी पत्नी रेखा का बहुत ध्यान रखते हैं । रेखा को इस चीज की आदत नहीं थी । बहुत असहज सी महसूस करने लगी।
आखिर एक दिन उसने पति से पूछ लिया कि इस बदलाव का कारण क्या है बताइए तो सही। केदार जी की आंखों में आंसू आ गए । उन्होंने कहा जब मैं अपनी बेटी श्वेता के घर गया तो देखा कि जिस बेटी को हमने नाजों से पाला। वह सारे घर के काम कर रही हैं ।
नौकरानी के छुट्टी पर होने पर सारे घर का काम कर रही है और पति से लड़ाई होने पर भी श्वेता ने सारी बातों को संभाल लिया ।जैसे कुछ हुआ ही नहीं। मुझे यह देखकर बड़ा गुस्सा आया और कहा कि तुम रात दिन खट रही हो इतना काम सम्हाल रही हो पर दामाद को तो इसकी कद्र तक नहीं । तुम्हें यहां रहने की जरूरत नहीं है ।हमने तो तुम्हें बड़े नाज़ों से पाला । फूलों की तरह रखा और दामाद की इतनी मजाल, छोड़ो इन सबको और चलो मेरे साथ। जानती हो श्वेता ने क्या जवाब दिया ।यह सब मैंने मां से सीखा है। आप भी तो मां से बहुत बुरा व्यवहार करते हो। लड़ाई करते हो ।बात - बात पर गंवार कहते हो। तो क्या मां अपने घर को हम सबको छोड़कर चली गई । यदि नहीं तो मैं कैसे जा सकती। किस पति-पत्नी में झगड़े नहीं होते। आपके दामाद मुझे बहुत प्यार करते हैं।अब वह घर मेरा नहीं, मेरा घर यही है।अपना घर छोड़कर मैं आपके साथ नहीं जा सकती।
तब मुझे एहसास हुआ कि इतने सालों से मुझे महसूस ही नहीं हुआ कि मैंने तुम्हारे साथ क्या सलूक किया और तुमने क्या कुछ नहीं सहा होगा। मैंने कभी ध्यान ही नहीं दिया। इस वादे के साथ की भविष्य में वह ऐसा कभी नहीं करेंगे।यह कहते हुए केदार जी ने रेखा को गले लगा लिया। *****
11. वंश वृद्धिका
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सुमेधा जी के तीन बहुएं हैं। बड़ी बहू के दो लड़के और मझली के विवाह को 3 वर्ष हुए पर दो बार मिसकैरेज हो गया ।एक वर्ष पूर्व विवाह हुए देवर रितेश की पत्नी दीपा के लड़का भी हो गया । इसी उपलक्ष्य में छोटा सा कार्यक्रम भी रखा गया ।बधाई देने वालों का तांता लग गया । साथ साथ लोगों के प्रश्नों की झड़ी भी लग गई। पड़ोसन - सुमेधा जी मझली के अभी तक कुछ नहीं हुआ।
सुमेधा - जी नहीं अभी दिन नहीं चढ़े ।
दूसरी पड़ोसन - गर्भ नहीं ठहरा या आप ऐसे ही बात बना रही हो। रिश्तेदार - देखना सुमेधा ऐसे ही कहीं समय न निकल जाए। डॉक्टरी जांच जरूर करवा लेना पता तो चले कि किस में कमी है और फिर सही सही इलाज हो। सुमेधा जी की देवरानी - देखो भाभीजी जमाना अच्छा नहीं है। अगर बहू में कमी हो तो बेटे की वंश बेल कैसे बढ़ेगी। तुरंत डॉक्टरी जांच करवाओ कि वह मां बनने के लायक है या नहीं।सुनकर सुमेधाजी का माथा ठनक गया।ये सब मुझे बधाई देने आई हैं या टेंशन देने और वह बिफर पड़ी।
कहा - क्या मैं झूठ कह रही हूं और आप सब मेरे घर की पंचायत करने वाली कौन होती हो। जब होगा तब हो जाएगा। वह मेरी बहुएं, बहुएं नहीं मेरी बेटियां है। उस पर किसी को इल्जाम लगाने ना दूंगी।वह कोई बांझ नहीं वह तो वंश वृद्धिका है। आप सभी मेरे घर बधाई देने आए हैं। मैं आपका अपमान नहीं करुंगी।पर अपनी बहू के खिलाफ किसी को कुछ भी नहीं कहने दूंगी और उसका मन बहुत खिन्न हो गया।
यह सारी बातें मझली बहु सुन रही थी ।वह उसी वक्त अस्पताल से जांच करवाकर सीधे कार्यक्रम में पहुंची थी। वह यह खुशखबरी सबसे पहले अपनी सास को देना चाहती थी कि वह तीन माह के गर्भ से है।
पर मां बनाने वाली है इस खुशी से भी ज्यादा उसे सास की बातें सुनकर गर्व और खुशी महसूस हुई कि आज उसने अपने मां बनने की खुशी के साथ-साथ
अपनी सास में अपनी मां को पाया। ****
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क्रमांक - 055
जन्मतिथि: 28 अगस्त,1958
जन्मस्थान: अजमेर - राजस्थान
शिक्षा : एम. बी. बी. एस
प्रकाशित पुस्तकें : -
कहानी संग्रह-
1.मन के रिश्ते (1986)
2.सूर्योदय से सूर्यास्त तक (1987)
3.चाहत के रंग (1998)
4.आखिर मन ही तो है (2015)
5.डस्टबिन एवं अन्य कहानियाँ (2018)
6.पुजारिन व अन्य कहानियाँ (2019)
7. चुनिंदा कहानियाँ: डाॅ.अखिलेश पालरिया (2019)
उपन्यास-
1.पराये आँसुओं का दर्द (1996)
2.सच्चे झूठे रिश्ते (2021)
कविता संग्रह-
1.भरी दुपहरी में चाँद की तलाश (2012)
2.कविता बन कर कह दूँ (2017)
लघुकथा संग्रह-
1.पीर पराई (2017)
बाल साहित्य-
1.आँखों का तारा (1991)- लघु उपन्यास
2.बेड़ियां (2012)
विविध विषयों पर-
1.Easy English Learning (1999)
2.ABC of 100 Common Drugs
3.ताकि स्वस्थ रहें (2000 व 2001)
4.कड़वे घूंट,मीठा सच (2010)
संपादित पुस्तकें-
1.आधुनिक हिन्दी साहित्य की उत्कृष्ट कहानियाँ (2015)
2.आधुनिक हिन्दी साहित्य की चयनित कविताएं (2016)
पुरस्कार एवं सम्मान : -
1.नवज्योति कथा सम्मान (1999)
2.कला अंकुर सम्मान (2014)
3.अखिल भारतीय डॉ.कुमुद टिक्का स्मृति सम्मान (2014 व 2016)
4.लाल बहादुर शास्त्री साहित्य रत्न सम्मान (2015)
5.अखिल भारतीय माँ धनपति देवी स्मृति कथा साहित्य सम्मान (2015)
6.अखिल भारतीय ओंकारलाल शास्त्री स्मृति सम्मान (2016)
7.डॉ.महाराज कृष्ण जैन स्मृति सम्मान (2016)
8.सृजन साहित्य सम्मान (2016)
9.शतकवीर सम्मान (2017)
10.शम्भू-शेखर सक्सेना राज्य स्तरीय साहित्य पुरस्कार (2018)
11.साहित्य सुकुमार सम्मान (2018)
12.डॉ.सरोजिनी कुलश्रेष्ठ अखिल भारतीय हिन्दी कहानी संग्रह प्रतियोगिता पुरस्कार (2018)
विशेष-
- संयोजक, शब्द निष्ठा सम्मान
(2015 से निरन्तर हिन्दी की विविध विधाओं पर अखिल भारतीय स्तर की प्रति वर्ष प्रतियोगिता आयोजित कर ₹ 55000 से 80000 तक की सम्मान राशि विजेताओं को देय। साथ ही 600 वर्ग गज भूमि पर 2018 में निर्मित 'कला रत्न भवन' की साहित्यिक समारोहों हेतु नि:शुल्क उपलब्धता।)
- कुछ कहानियों व कविताओं का मराठी/राजस्थानी/उड़िया/उर्दू में अनुवाद।
- आकाशवाणी से भी कहानियों का प्रसारण
- संपादित संग्रहों में कहानियाँ, लघुकथाएं व कविताएँ प्रकाशित।
पता: कला रत्न भवन , पाल बिचला, अजमेर - 305007
राजस्थान
1. निरुत्तर
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ड्राई फ्रूट्स की बड़ी सी दुकान के सामने सड़क पर एक सब्जी वाला नियमित खड़ा रहता था। सर्दी के सीजन में वह केवल मटर बेचा करता। ड्राई फ्रूट्स का मालिक जब भी ठेले के सामने से होकर अपनी दुकान में आता-जाता, उसकी मटर की कुछ फलियों में से दाने निकाल कर मुंह में डाल लेता। ठेले वाले को बुरा तो लगता पर लिहाज में कुछ कहता नहीं था।
एक दिन सब्जी वाला ड्राई फ्रूट्स वाली दुकान में जाकर बोला, 'भैया जी, कुछ बादाम लेने थे, दिखाएंगे?'
ड्राई फ्रूट्स वाला बादाम का एक नमूना दिखाते हुए बोला, 'तुम्हारे लिए ये मीडियम ठीक रहेंगे।'
सब्जी वाले ने दो-चार बादाम उठा कर उन्हें चबाना शुरू कर दिया फिर बोला, 'ठीक है..'
'कितने दूं?' ड्राई फ्रूट्स वाले ने पूछा।
'नहीं-नहीं, रहने दो।' कहते हुए सब्जी वाला जाने को हुआ।
'तो फिर बादाम फोगट में खा लिए..' ड्राई फ्रूट्स वाले का गुस्सा शब्दों में फूट पड़ा था।
'भैया जी, तुम तो रोज मेरे मटर के दाने खाते हो, पर मैं कुछ बोला?'
अब ड्राई फ्रूट्स वाला निरुत्तर था और अवाक् भी। ****
2.नि:शुल्क
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वे बहुत परेशान थे अपने एक्जिमा के कारण। सालों तक कई डाॅक्टर्स से महंगे उपचार के बाद भी एक्जिमा ठीक नहीं हो रहा था। हर बार आशा निराशा में बदल जाती थी।
नगर में एक दिन चर्म रोग विशेषज्ञ आए थे नि:शुल्क परामर्श शिविर में। वे भी शिविर में पहुंच गए थे यद्यपि उन्हें अपने ठीक होने की आशा न थी।
विशेषज्ञ चिकित्सक ने उनके पुराने एक्जिमा को देख कर पर्ची हाथ में थमा दी थी। दवा की दुकान से एक ट्यूब व कुछ गोलियाँ लेते हुए उन्होंने सोचा, 'चलो, एक बार फिर जेब कटा ही लें। '
आश्चर्यजनक रूप से सात दिन में ही उनका पुराना ड्राई एक्जिमा ठीक हो गया था।
आज दो साल बाद फिर उसी एक्जिमा ने सिर उठाया था.. उन्होंने व पत्नी ने सारा घर छान मारा किन्तु पर्ची नहीं मिली। फाइल में बहुत सी पर्चियाँ थीं जो भारी भरकम फीस देकर प्राप्त की थीं किन्तु वह नि:शुल्क पर्ची नदारद थी।
थक हार कर पत्नी ने टिप्पणी की, 'आपने महंगी फीस चुका कर जो भी पर्ची प्राप्त की, सब इस फाइल में हैं, एक वही पर्ची इसमें नहीं है। जानते हो, क्यों? एक उसी पर्ची का आपने कोई शुल्क नहीं दिया था।' ****
3.सजा
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एक सरकारी चिकित्सालय में एक चूहे ने एक नवजात शिशु का हाथ जगह-जगह से काट लिया था। अखबार में खबर छपी तो जिला स्तरीय चिकित्सा प्रशासन हरकत में आ गया..प्रशासन की बैठक में एक चिकित्सा-कर्मी को ए.पी.ओ. कर दिया गया। साथ ही चिकित्सालय प्रशासन ने सारे चूहों को खत्म करने के उपाय युद्ध स्तर पर आरम्भ कर दिए।
'हमें भरपेट खाना और रहने को सुरक्षित स्थान मिल रहा था, फिर क्या जरूरत थी शिशु को काटने की।' चूहों ने अपने ऊपर आए खतरे को भाँप कर काटने वाले चूहे को लताड़ा।
'अब क्या करें?' चूहों ने चिन्ता व्यक्त की।
चूहों ने देखा, जगह-जगह चूहेदानी रख दी गयी जिनमें रोटी रखी हुई थी। शातिर चूहों को पता था कि रोटी के लालच में वे चूहेदानी में पहले भी कहीं और कैद हो चुके थे। शायद इस बार तो मार ही डाले जाएँ!
चूहे यह भी जानते थे कि मनुष्य से पार पाना मुश्किल है। पता नहीं, उन्हें मारने के लिए वह और क्या-क्या उपाय करे!
चूहों के मुखिया ने सबको चौकन्ने रहने को कहा तथा सारे चूहों को दुविधा में डालने के कारण अपराधी चूहे को चूहेदानी में घुसने की सजा दी।
मन मार कर अपराधी चूहे को चूहेदानी में घुसना पड़ा। वह भूखा तो था ही, उसने चूहेदानी में रखी रोटी को तबीयत से खाया। किन्तु उसने देखा कि रात को कमरे में ही रखी कुछ स्वादिष्ट गोलियों को खा-खाकर उसके साथी एक के बाद एक तड़प-तड़प कर मरने लगे। वह अपने भाग्य पर हँसने लगा।
सुबह चिकित्सा प्रशासन को अनगिनत चूहे मरे हुए मिले। चूहेदानी में भी कैद चूहा उसके चारों ओर चक्कर काट रहा था।
प्रभारी ने वार्ड ब्वाॅय को मरे हुए चूहों को बाहर कुछ दूर फेंक कर आने तथा पिंजरे में कैद चूहे को कहीं दूर छोड़ने का आदेश दे दिया। ***
4.कद
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दो भाइयों की इकलौती बहन का बचपन बड़े लाड़-प्यार से बीता था। बाद में बड़ा भाई अफसर बन गया फिर शादी हो गई। छोटा भाई आध्यात्मिक प्रवृत्ति का था; न नौकरी की, न शादी। समाज सेवा में ही जीवन बीता था। एक छोटी सी दुकान थी जिसमें खुद का गुजर बसर करने लायक कमा लेता। दुकान भी खोली तो खोली, न खोली तो न खोली। दूसरों की मदद करना उसकी प्राथमिकता रहती।
बड़े भाई ने सुन्दर सा भव्य दुमंजिला मकान बना लिया। वह अपनी बहन को वार-त्यौहार पर अच्छी सी भेंट देता। बहन दोनों भाइयों की कलाई पर राखी बाँधती तो बड़ा भाई अनमोल उपहार व अच्छी खासी राशि देता। छोटा अपनी हैसियत के अनुसार राशि व ढेर सारा आशीर्वाद देता। बड़े भाई से उपहार व राशि पाकर बहन फूली न समाती। उसकी नजर में छोटे भाई का कद खासा कम हो गया था। वह छोटे भाई के यहाँ कम ही जाती। वहाँ उसे खाना भी खुद ही बनाना पड़ता और विदाई पर केवल आशीर्वाद ही मिलता था।
बहन एक दिन बीमार पड़ गई। ससुराल वालों ने रोग की गंभीरता के कारण अस्पताल में भर्ती करवा दिया। दोनों भाई भी अस्पताल पहुंचे।जाँच में मालूम हुआ कि दोनों गुर्दों ने काम करना बंद कर दिया था। डायलिसिस पर रखना पड़ा। जीवन बचाने के लिए डाॅक्टर्स ने गुर्दा प्रत्यारोपण की सलाह दी। यह खबर अप्रत्याशित व किसी सदमे से कम न थी। सबके चेहरे बुझ गए।छोटे भाई को पता चलते ही वह दौड़े-दौड़े अस्पताल पहुंचा।
उसने बहन के सिर पर हाथ रख कर कहा, 'चिन्ता की कोई बात नहीं, मेरे दोनों गुर्दे स्वस्थ हैं..एक-एक दोनों बाँट लेंगे। यह बड़े संतोष की बात होगी कि ऑपरेशन के बाद हम फिर से पहले की तरह हँसी-खुशी जीवन जी सकेंगे।'
अपने द्वारा उपेक्षित छोटे भाई के मुख से ये उद्गार सुन कर बहन की आँखों से अश्रुधारा बह निकली।
भाई ने हँस कर तनाव कम करने की कोशिश की, 'तुम्हारे लिए मैं कभी कुछ न कर पाया। पहली बार अवसर मिला है कि अपनी बहन को कुछ दे सकूँ..गुर्दा तो मामूली चीज है, तुम्हें बचाने के लिए तो मैं अपना जीवन भी खुशी-खुशी होम कर सकता हूँ।'
बहन ने अश्रुपूर्ण आँखों से भाई की ओर देखा। वह कुछ कहना चाहती थी पर मन के भाव होठों की जगह आँखों से फूट रहे थे।
खास बात यह थी कि छोटे भाई का कद सबकी नजरों में एकाएक बहुत बढ़ गया था। ***
5.संवेदना
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केसर देवी अकेली रहती थीं उस मकान में। उनका इकलौता बेटा उसी शहर में अपनी पत्नी व नन्हे बेटे के साथ सरकारी आवास में निवास करता था। केसर देवी एक तो बहू के रूखे व्यवहार के कारण, दूसरे अपने पति-गृह से लगाव के कारण उस घर को त्यागने को तैयार न थीं।
हर रविवार को केसर देवी को अपने बेटे-पोते की प्रतीक्षा रहती थी। घर का सूनापन कुछ पलों के लिए दूर हो जाता था।
आज उनका बेटा फिर माँ से मिलने जा रहा था कि अचानक उसने कार के ब्रेक लगाए थे।
'क्या हुआ, गाड़ी अचानक क्यों रोक दी?' पत्नी ने पूछा।
'सुनो, सामने से गर्म कचौड़ी ले आओ। रास्ते में खाने का मजा ही कुछ और है।'
'अरे, वाह..' सुन कर बेटा चहका था और फुदकते हुए माँ के पीछे-पीछे हो लिया।
'मम्मी, दादी के लिए भी लो न, उन्हें कचौड़ियाँ बहुत पसंद हैं। '
'चुप...तुम केवल अपना ध्यान रखो, समझे?'
अपनी माँ की कठोरता के आगे बेटा सहम सा गया था।
'तुम भी खाओ न, बेटे।'
'नहीं पापा, बाद में खाऊंगा, भूख जो नहीं है।' बेटा अनमना होकर बोला।
बेटे-बहू व पोते को देख कर केसर देवी के शरीर में ऊर्जा फूट पड़ी थी और उन्होंने उनकी वैसी ही आवभगत की जैसे अतिथियों की करते हैं।
बेटे-बहू वापस जाने के लिए अब कार में बैठ चुके थे।
'बेटे, जल्दी आओ, घर नहीं जाना है क्या?'
'आता हूँ पापा।' फिर दादी से कहा, 'दादी, यह कचौड़ी आपके लिए...खास आप ही के लिए लाया हूँ। '
और केसर देवी डबडबायी आँखों से कार में बैठे बेटे-बहू व पोते को देर तक जाते देखती रही थीं। ****
6.मजबूरी
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एक कुर्सी बेचने वाला गली के नुक्कड़ पर व्याकुलता से खड़ा था। घर पहुंचने में वह कुछ ज्यादा ही लेट हो गया था।
तभी मोबाइल की घंटी बजी- 'अभी तक नहीं लौटे पापा? अब आ भी जाओ, मेरा जन्मदिन है आज..क्या आज भी देर से ही आएंगे आप?'
तभी स्वर बदल गया था, उसकी पत्नी का स्वर- 'अब आ भी जाइये, आपकी बेटी कब से आपकी राह देख रही है..हाँ, गिफ्ट लेकर आना उसके लिए!'
वह संयत होकर बोला, 'हाँ, आता हूँ..शो छूटने वाला है, कुछ बिक्री और हो जाए तो जुगाड़ हो ही जाएगा गिफ्ट का।'मोबाइल रख कर उसकी निगाहें फिर से थियेटर पर टिक गयी थीं। ****
7. ईगो
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मिडिल स्कूल के दो दोस्तों ने बोलना बंद कर दिया। कुछ दिन बिना बोले ही निकल गए। दोनों बोलना तो चाहते थे पर बीच में ईगो आ रहा था। उनमें से एक कुछ समझदार था। बीच रास्ते में दोस्त टकराया तो उसके कंधे पर हाथ रख कर बोला, 'आ ना यार, साथ बैठते हैं..' दूसरा भी बोलना चाहता ही था।
पहले ने कहा, 'यार, बात क्या हुई थी जो हमने बोलना बंद कर दिया था?'
दूसरे ने दिमाग पर जोर डाला, 'हाँ, तूने लाइक नहीं किया था, जब सर ने मेरी क्लास में तारीफ की थी..'
'तो?'
'मैंने सोचा, तुझे जलन हुई थी..'
'चल यार, अब लाइक कर देता हूँ..आइन्दा हम दोनों एक दूसरे की खुशियों को एन्जॉय करेंगे।'
'हाँ, ठीक है..'
दोनों खुशी-खुशी घर आ गए।
बेटे को खुश देखकर उसकी माँ ने पूछा, 'क्या हुआ बबलू, बहुत खुश है आज तो?'
'हाँ मम्मी, वह मेरा दोस्त है ना- महेन्द्र, उससे मेरी सुलह हो गई..अच्छा हुआ न?'
'बहुत अच्छा हुआ। ' माँ ने मुस्करा कर कहा।
'मम्मी, एक बात पूछूं?'
'पूछ, बेटा।'
'आपके व चाची के बीच किस बात पर मनमुटाव है? आप दोनों क्यों बात नहीं करते?'
'बबलू, वे लोग हम सबसे ईर्ष्या रखते हैं। हमारी प्रगति उन्हें सहन नहीं होती। वे तो चाहते हैं कि इनका बबलू फेल हो जाए तो अच्छा। '
'मम्मी, मैं तो हमेशा फर्स्ट ही आऊंगा। वे न चाहें तो भी..'
उधर महेन्द्र के घर में भी हिस्सेदारी को लेकर भाइयों के बीच तनाव पसरा था।
महेन्द्र ने पिता से प्रश्न किया, 'पापा, आप और अंकल 50-50 ले लो, झगड़े की क्या बात है?'
बेटे की बात पर पिता का उत्तर था, 'वे शुरू से हमारा हक मारते रहे..माँ-बाप की कभी सेवा न की पर डींगें मारते थकते नहीं। चाहते हैं, सब-कुछ हड़प लें! सुना, बेटे?'
'जी, पापा ..'
दोनों दोस्त एक हो गए थे..उनके बीच ईगो भी समाप्त हो गया था। बच्चे बड़ों से बेहतर निकले!****
8. दहशत
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मीट शाॅप के बाहर रखे मुर्गियों के एक बड़े से जालीदार पिंजरे में बहुत सी मुर्गियाँ रखी थीं, बिकने के लिए। जब-तब कोई ग्राहक आता, मोल-भाव के बाद उनमें से वांछित संख्या में मुर्गियाँ ग्राहक के हवाले कर दी जातीं। वे दहशतजदा मुर्गियों को बहुत ही अमानवीय ढंग से दुपहिया वाहनों पर उल्टा लटका कर ले जाते। मुर्गियों को भी अपने अन्तिम समय का अहसास हो जाता। आँखें मूंदने के सिवा उनके पास कोई चारा भी न था।
मीट शाॅप में चाकू की धार पर दम तोड़ती अपनी साथी मुर्गियों को अन्तिम साँसें लेती देख कर उनमें खासी दहशत हो जाती।
तभी एक ग्राहक आया। इकट्ठे 20 मुर्गियों का ऑर्डर दिया। सभी एक नए स्थान पर पहुंचा दी गईं, जहाँ दावत का कार्यक्रम था।
देखते-देखते 19 मुर्गियाँ काल कालवित हो गयीं। 20 वीं मुर्गी पर छुरी रखी ही थी कि मालकिन का स्वर उभरा, 'अरे, एक छोड़ देना। दूल्हे का भाई आज बाहर गया है। वह आ जाए, तभी देख लेंगे।
बीसवीं मुर्गी को जीवन-दान मिल गया। वह भागती-चीखती इधर-उधर दुबक गई किन्तु उसका दिल तेजी से धड़क रहा था।
रात भर मुर्गी दहशत में रही। उसे पता था, आज नहीं तो कल, उसका नम्बर आना ही था।
सुबह-सुबह वह ईश्वर को याद कर रही थी, 'प्रभो, बहुत देख ली तेरी दुनिया..इस संसार में मुझ साधारण मुर्गी की तो औकात ही क्या..मैंने मनुष्य को पूरे जीवन में बहुत से अण्डे दिए हैं। अब बूढ़ी हो गई हूँ तो मुझे कैसे दहशत भरे दिन देखने पड़े हैं! जब से मैं बिकने-कटने के लिए लायी गयी हूँ, ऐसा कौन सा पल है जब मैं मरी नहीं हूँ। यह अकेले मेरा दर्द नहीं है, मैंने इन्सान को भी बहुत करीब से देख लिया है..खुद इन्सान का बूढ़ा हो जाना भी बहुत दहशत भरा है..उसे कष्ट देने में सबसे आगे उसकी औलाद ही है! इंसान की औलाद के माँ-बाप घर में रहें या वृद्धाश्रम में; वे हर दिन, हर पल मरते हैं, बिल्कुल मेरी तरह! प्रभु, मैं तो एक साधारण मुर्गी हूँ, मेरा क्या!' ****
9.फैसला
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पति-पत्नी के बीच जबर्दस्त ठन गयी थी। दोनों तलाक चाहते थे लेकिन बच्चे पर अधिकार भी। तलाक पर मुहर लगने से पहले उनके दस वर्षीय बच्चे के महत्वपूर्ण बयान हुए।
'तुम अपनी मम्मी को पसंद करते हो या पापा को?'
'दोनों को बराबर-बराबर।'
-तुम किसके साथ रहना चाहते हो- मम्मी या पापा?'
'दोनों के साथ।'
'मगर उनके बीच मनमुटाव है।'
'मैं सुलह करा दूंगा।'
सब हँस पड़े।
जज ने फिर कहा, 'तुम्हें दोनों में से एक को चुनना पड़ेगा; बोलो, किसके साथ रहना चाहोगे?'
'जज अंकल, जिस तरह खाने में रोटी के साथ सब्जी भी चाहिए; घर में जितनी मेरी मम्मी जरूरी हैं, उतने ही मेरे पापा भी। मैं दोनों को साथ देखना चाहता हूँ। मैं उन दोनों के बिना नहीं रह सकता।' कथन के साथ ही बच्चा फूट-फूट कर रो पड़ा।
कोर्ट में उपस्थित लोगों की आँखें भर आईं। जज को अपना निर्णय बदलना पड़ा। अपने फैसले में उन्होंने कहा, 'यह मामला केवल पति-पत्नी के बीच का नहीं है। इसमें एक बच्चे का जीवन व भावनाएं दांव पर लगी हुई हैं। यदि बच्चे के माता-पिता अपना अहंकार त्याग कर साथ-साथ रहें तो उनके बीच का फासला बच्चे की महत्वपूर्ण उपस्थिति से समाप्त हो सकेगा। उनके तलाक को मंजूर करना बच्चे के भविष्य व कोमल भावनाओं के साथ अन्याय होगा। कोर्ट इसे अमान्य करता है।
आज बहुत दिनों बाद बच्चे के चेहरे पर मुस्कान खिली थी। वह अपने मम्मी-पापा की उंगली पकड़ कर उन्हें शान से घर ले जा रहा था। ****
10. हितैषी
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एक व्यक्ति के दुर्घटनाग्रस्त होने पर उसे तत्काल अस्पताल लाया गया। देखते-देखते ही रोगी के सगे-संबंधियों का अस्पताल में तांता लग गया। ड्यूटी डाॅक्टर शीघ्र रोगी के आवश्यक उपचार में जुट गया किन्तु रोगी के सगे-संबंधी अपने प्रश्नों से चिकित्सक को परेशान करने लगे। वे तरह-तरह के प्रश्न चिकित्सक से पूछते और चिकित्सक को जो ऊर्जा रोगी के उपचार में लगानी थी, उनको उत्तर देने में गंवानी पड़ रही थी।
एक अन्य डाॅक्टर ने ड्यूटी डाॅक्टर की इस परेशानी को समझा फिर रोगी के संबंधियों के बीच आकर कहा, 'आप लोगों को रोगी के लिए अविलम्ब पाँच बोतल खून की व्यवस्था करनी होगी। जो खून देना चाहें, अन्दर आ जाएं।'
देखते-देखते ही सभी सम्बन्धी जो रोगी के निकट परिजनों के समक्ष हितैषी होने का दिखावा कर रहे थे और डाॅक्टर को परेशान भी, एकाएक अदृश्य हो गए।
ड्यूटी डाॅक्टर अपने साथी डाॅक्टर की सूझबूझ पर अब मुस्कुरा रहा था। ****
11. पीर पराई
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पिंजरे में बंद दो पक्षियों में से एक बोला, 'आज हमारी मालकिन रो रही हैं। मैंने उन्हें किसी को फोन पर कहते सुना है कि मालिक को बिना किसी अपराध के जेल में डाल दिया गया है।'
दूसरे पक्षी ने उदास होकर कहा, 'हमारे मालिक बहुत अच्छे हैं पर हमें भी तो बिना किसी अपराध के पिंजरे में बंद किया गया है।'
पहला चिंतित होकर बोला, 'अब क्या होगा..क्या मालिक जेल में ही रहेंगे?'
दूसरे ने संभावना जतायी, 'किसी वकील से मालकिन की बात हो रही थी, शायद मालिक को जमानत पर छोड़ दिया जाएगा।'
पहले ने जिज्ञासा प्रकट की, 'क्या हमारी जमानत नहीं हो सकती?'
दूसरा व्यंग्य से हँस कर बोला, 'बुद्धू, तुमने क्या कोई वकील किया है?'
पहले ने संकेत से समझाया, 'चुप..मालकिन इधर ही आ रही हैं। '
घर की मालकिन ने उदास मन से पिंजरे में दाना डाल कर कहा, 'मैं कोर्ट जा रही हूँ..तुम दोनों घर पर अकेले रहोगे..तुम्हारे पास खाने के लिए पर्याप्त सामान तो है ही।'
मालकिन ने ज्योंही घर के ताला लगाया, 'दोनों पक्षी फिर से बतियाने लगे।
एक ने कहा, 'अपने मालिक वैसे करते क्या हैं?'
दूसरा बोला, 'मालिक बड़े अफसर हैं! देखा नहीं, कितना आलीशान बंगला है..अक्सर हवाई जहाज से इधर-उधर आते-जाते हैं।'
पहले ने भारी मन से कहा, 'काश, मालिक की तरह हम भी उड़ पाते! भगवान ने हमें पंख दिए हैं, फिर भी हम इनका उपयोग नहीं कर पाते..'
दूसरा हताशा में बोला, 'हमारे मालिक को हम पर दया क्यों नहीं आती..खुद तो पंख न होते हुए भी हवाई जहाज में उड़ते हैं!'
पहला सोच में डूब गया, 'इतने बड़े अफसर होने के बावजूद मालिक को जेल क्यों हुई होगी..'
दूसरे ने आशंका प्रकट की, 'हो सकता है, कोई घोटाला किया हो..'
पहले ने टोका, 'जिसका अन्न खाते हैं, उसके बारे में गलत बात कहने से पाप लगता है।'
दूसरे ने कान पकड़ लिए, 'ठीक है बाबा, नहीं कहूँगा।'
दोनों की आँख लग गई थी।
शाम को मालिक को जमानत मिल गई और वे घर भी आ गए। आते ही ऊर्जाविहीन से बैड पर पसर गए थे।
दोनों पक्षियों ने मिलकर 'चीं-चीं' बोलते हुए मालिक का स्वागत किया तो उन्होंने मालिक को उठकर अपने पास आते हुए देखा।
मालिक ने मालकिन को बुला कर कहा, 'मैं तो 24 घंटे में ही जेल की चारदीवारी में रहकर निढाल हो गया तो फिर ये बेजुबान पक्षी..क्या हम इन पर जुल्म नहीं ढा रहे?'
तभी मालिक ने पिंजरा अपने हाथ में उठाया और कमरे से बाहर आकर पिंजरे को खोलते हुए बोले, 'मुझे कोई अधिकार नहीं कि तुम्हें कैद करके रखूं।आज तुम्हें हमेशा के लिए आजाद करता हूँ। सदा खुश रहना..'
पिंजरे का द्वार खुलते ही दोनों पक्षी खुश होकर फुर्र से उड़ गए थे। ***
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क्रमांक - 056
जन्मतिथि : 06 नवम्बर 1944,
जन्मस्थान : बदायूँ - उत्तर प्रदेश
शिक्षा: एम.ए. बी.एड
प्रकाशित कृतियाँ : -
कोने का आकाश,
अब तो सुलग गये गुलमोहर
परछाइयों के अक्स,
टुकड़ा- टुकड़ा इन्द्रधनुष,
आर पार के सच (कहानी संग्रह)
अस्तित्व का हठ,
भोरगंध (कविता संग्रह)
स्वप्न दिशा की ओर,
प्रार्थना झंडों के आगोश में- भूटान (यात्रा संस्मरण)
मन की धूप (उपन्यास)
एमेजॉन किंडल प्रकाशन से प्रकाशित : -
हथेलियों के क्षितिज,
परछाइयाँ,
वह लड़की,
नेह कैसे बंटेगा बाबू जी ( कहानी संग्रह),
बंजारिन मुस्कान (कविता संग्रह),
संतरंग दरीचे ( हाइकु संग्रह)
पुरस्कार व सम्मान-
साहित्य संगम इंदौर,
सतत रचनाशील रचनाकार सम्मान, दिल्ली,
अखिल भारतीय साहित्यकार सम्मान, अलवर,
शब्द निष्ठा सम्मान, सरवाड़ अजमेर,
स्पंदन विशिष्ट साहित्य सम्मान जयपुर 2019
पता : मकान न0 80 -173, मध्यम मार्ग, मानसरोवर, जयपुर 302020 राजस्थान
1.तोहफ़ा
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एक एक करके चारों भाई विदेश जा बसे, वसुधा अपने पति व बच्चों के साथ यहीं अपने वतन में ही थी। कालान्तर में पिता की मृत्यु हो गई। दुख और उम्र से जर्जर माँ को कोई भी अपने साथ न ले जा पाया। माँ बेटों के घर बुढ़ापा काटने और जीवन सार्थक करने का संस्कार लिये इंतज़ार करती वसुधा के घर आ गईं। न जाने बेटी के घर पर कब तक रहना पड़े, सुध आते ही माँ चिड़चिड़ा उठती, गुस्सा करती, रह- रह कर खीजती। अपनी व्यस्तता तथा माँ की दुविधा के बीच फँसी वसुधा पिस रही थी पर उफ़ तक न करती और उनका दुख व अकेलापन दूर करने का यथासम्भव प्रयत्न करती, आख़िर माँ का तो कोई कसूर नहीं था।
इस बार सारे भाई दीवाली पर वसुधा के यहाँ इकठ्ठे हुये। हँसी की किलकारियों से घर अँटा पड़ा था। विदेश की बातों के ढेर लगे थे। बेटों के मँहगे तोहफ़ों से ढकी- छुपी इठलाती- हुलसती माँ जैसे उड़ रही थी। एक गर्व और शान उनकी देह से फूटे पड़ रहे थे। हँसते- हँसते अनायास उनकी नज़र कोने में गुमसुम खड़ी वसुधा पर पड़ी। आँखों से आँखें मिलीं। अनकही नज़र से आहत हुई माँ एकाएक तोहफ़े झटकार उठ खड़ी हुईं । उन्होंने एक आह भरकर वसुधा को गले लगा लिया । ज़िन्दगी में अब यह साथ ही शायद सबसे बड़ा तोहफ़ा था।
2.श्राप
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कड़ी मेहनत से दिन- रात एक करके दीदी नें लॉन तैयार किया। सामने जालीदार – बाउंड्री वॉल- के सहारे- सहारे बीस- पच्चीस किस्म के दुर्लभ गुलाब, जिन्हें वे हर आने- जाने वालों को शौक से दिखातीं। बाँयें किनारे पर बेला की नन्हीं- नन्हीं झाड़ियाँ। फाटक से बंगले तक लाल बजरी वाले रास्ते के दोनों तरफ़ कोचिया के फूले- फूले पौधे। बरामदे में कतार बाँधे गहरे मैरून और हरे रंग के अद्भुत मिश्रण से युक्त- क्रोटन- तथा नाटे – चाइनीज़ पाम- के लाल- पीले गमले। लॉन में रेशमी सी – कारपेट- दूब। कोंनों में मानसरोवर के बड़े- बड़े पत्ते। दीवार के सहारे झुमका बेल लहकती, ख़ुशबू उड़ाती। रात होती तो लॉन- बंगला नशीली सुगंध से भर जाते।
एक दिन सुबह- सुबह लम्बा त्रिपुण्ड लगाये एक पण्डित जी जल्दी- जल्दी मानसरोवर के पत्ते तोड़ रहे थे। उनकी झोली में गुलाब और बेला के फूल भरे थे। लॉन की दुर्दशा देख कर दीदी को मानो आग लग गई।
-किससे पूछ कर तोड़ रहे हैं फूल और पत्ते- चीखने से उनकी आवाज़ भी फट गई।
-नाराज़ न हो देवि, भगवान पर चढ़ाने के लिये पुष्प और भक्तों को प्रसाद बाँटने के लिये पत्ते तोड़ रहे हैं।
-हाँ, हाँ, सब कुछ सहज ही मिला जा रहा है इसीलिये हाथ के साथ ज़बान भी चला रहे हैं। पूजा और भक्तों का इतना ही शौक है तो घर में उगाओ न फूल और पत्ते और खूब बाँटो प्रसाद। ख़बरदार फाटक के भीतर पैर भी रखा तो। पुलिस में दे दूँगी , समझे।
फूल और पत्तों से भरी झोली सम्भालते पण्डित जी बाहर की ओर लपके और लोगों को सुनाते हुये बड़बड़ाये- ज़रा फूल और पत्ते क्या तोड़ लिये आफ़त ही आ गई, उँह, पुलिस में दे दूँगी। राम- राम कैसा कलजुग आ गया है। भगवान की पूजा के लिये फूल और पत्ते भी मन से न दिये गये। भाग्यहीना, जा, तुझे श्राप देता हूँ, तेरे बुरे दिन आ गये।
घर की ओर लौटते हुये पण्डित जी सोच रहे थे- काश, श्राप में बल होता।****
3.प्रतिक्रिया
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हाय, मिसिज़ दवे, बड़ी स्मार्ट हो गई हैं आपकी छोरियाँ। गर्मजोशी से शर्मा ने एक कमैंट उछाला।
बहुत ही कंजूसी से एक दुबली सी मुस्कराहट मिस्टर शर्मा की तरफ़ फेंक कर मिसिज़ दवे ने अपनी दोनों- मॉड- लड़कियों को देखा।
पार्टी धीरे- धीरे रंग में आ रही थी। ड्रिंक और संगीत के बीच खाना भी शुरू हो गया। खाने में मसाले और मिर्च दरियादिली से डाले गये थे। सी- सी करते माहौल में पानी की ज़ोरदार पुकार मची। आठ- दस नौकर- नौकरानियाँ ट्रे में ढेर से गिलास पानी लेकर मुस्तैदी से जुट गये। मिसिज़ दवे की तरफ़ बेहद लम्बी और बेतुकी सी फ्रॉक पहने एक किशोरी पानी लेकर आई। पानी का गिलास थामते हुये हुये मिस्टर शर्मा किशोरी को देख कर स्तब्ध रह गये। बिना किसी मेकअप के सहज- लावण्यमयी। पूरा का पूरा निवाला मुँह में ठुंसा था, फिर भी बेसाख़्ता उनके मुँह से निकल ही गया, वाह, इसे कहते हैं कीचड़ में कमल।
जल कर ख़ाक हो गईं मिसिज़ दवे। बेहिसाब जलते हुये मुँह की पीड़ा को भूल कर ज़ोर से चिनचिना उठीं- चल जा यहाँ से। किसे चाहिये इतनी सर्दी में पानी। ****
4.आभास
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अमेरिका से बेटे सूरज के साथ फ़ोन पर सुनयना का – फ़ेस टाइम- चल रहा था। बातचीत का मधुर माहौल था। दोनों अपनी- अपनी सुना रहे थे । दो बरस की पोती मौनी खेलना छोड़ कर पिता से फ़ोन लेने के लिये मचलने लगी। । सूरज ने फ़ोन नहीं दिया तो मुँह फुला कर कोप भवन यानी बाथरूम के अन्दर चली गई। सुनयना जान गई कि अब पानी खोला जायेगा। भीग- भीग कर गुस्सा दिखाया जायेगा। चीज़ें फेंकी जायेंगी। तब ही बाथरूम के किवाड़ की झिरी खुली और रूठी आँखें दिखलाई दीं।
पीका-बू..., सुनयना ने उत्साह से हँसते हुये छेड़ा।
बिंदास खिल-खिल और दरवाज़ा बंद।
चुपके से फिर झिरी खुली । उत्सुक आँखें झाँकीँ।
ता.s s s s s......,मस्त हँसी के बाद फिर दरवाज़ा बंद हो गया।
ताका- झाँकी व हँसी के हुलकारों का दूर हो कर भी पास होने का मनभावन खेल चल पड़ा। दस- बारह मिनट बीत गये ।
लग नहीं रहा था कि ये व्यापार फ़ोन पर चल रहा था। आमने- सामने का आभास बड़ा तीव्र महसूस हुआ।
- चलो मम्मा, रात बहुत हो रही, अब ये सोयेगी, ओ के, अम्मा को गुड नाइट बोलो।
उदास सी गुड नाइट सुनाई दी, शायद अभी और खेलना था।
फ़ोन बंद हो गया। फ़ोन पर हाथ फेर कर सुनयना मंद- मंद मुस्करा दी। दुहाई नई टैक्नॉलौजी की, चाहे कुछ मिनटों का खेल ही सही पर गुदगुदाती मासूम खिलखिलाहटों ने घर को -घर- बना दिया था।****
5.सजग घेरे
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माँ आज सुबह ही आई थी। सोहा तो मस्त हो गई। स्कूल की छुट्टियाँ थीं और नानी का संग- साथ। दोनों के सारे दिन व्यस्त होने वाले थे। काम पर निकलने की भागमभाग में चेतना माँ से ज्यादा बात नहीं कर पाई, परन्तु मन निश्चिंत था कि वे घर सम्भाल लेंगी। लौटी तो रात होने को थी। सोहा का नानी के साथ इतराना चल रहा था। फ़रमाइशी प्रोग्राम के तहत रूठना- मचलना भी साथ ही हो रहा था।
-माँ, बहुत थक गई हूँ, जल्दी सोऊँगी। आप से तो वीक एंड पर ही ढंग से बात हो पायेगी।
ठीक है , खाना लगाती हूँ।
माँ के हाथ का गर्मागर्म खाना कुछ ज़्यादा ही खा लिया गया। खा- पीकर बिस्तर पर लुढ़क गई।
पता नहीं रात का कौन सा पहर चल रहा था। खटपट सुन कर गहरी नींद पकड़ती आँखें चौंक कर खुल गईं। माँ के कमरे में रोशनी थी।
-क्या कर रही हो माँ इतनी रात गये।
-कुछ ख़ास नहीं, सोहा ने सारी गुड़ियाँ नहला दी हैं...... बिना कपड़ों के ये अच्छी नहीं लग रहीं।
सो जाओ माँ, दिन में सोहा ख़ुद ही सम्भाल लेगी।
-नहीं बेटा, सुबह होते ही नौकर- चाकर आ जायेंगे। उनकी निगाह इन नंग- धड़ंग गुड़ियों पर पड़ेगी।
-तो क्या हुआ माँ , छोड़ दो, गुड़ियाँ ही तो हैं.....उनींदा स्वर झुँझला गया।
ज़माना बड़ा ख़राब है बिटिया, आज गुड़ियों पर निगाह पड़ेगी , कल बेटी पर भी पड़ने लगेगी। ****
6. खुशी के अंकुर
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विद्या का हॉस्टल में मन नहीं लग रहा था। छोटा सा कमरा, दो चारपाइयाँ, दो मेज़- कुर्सियाँ, दीवार में जड़ी दो अलमारियाँ। न चलने की जगह थी, न पैर फैलाने की। खिड़कियाँ बड़ी थी पर उनसे जैसे हवा ही नहीं आती थी। बाहर देखो तो पास बन रही जहाज़ सी बिल्डिंग। रेत- सीमेंट के गुब्बार और मशीनों व मज़दूरों का शोर। धूप- हरियाली का नाम नहीं। पढ़ाई, पढ़ाई और पढ़ाई। बिना संगीत के मन पढ़ाई के टूटे रिकॉर्ड पर कब तक चलेगा। साथ की लड़की भी चुप- चुप- सी। अपने में बंद- बंद रहती है। कैसे कटेंगे दिन। कैसे निकलेंगे कोचिंग के दो साल।
उसने सोचना शुरू किया। क्या करे जो माहौल थोड़ा ठीक हो और मन मुताबिक बने। फ़ोन पर म्यूज़िक स्वयं ही सुनना है तो हैडफ़ोन बढ़िया विकल्प था। खिड़की पर घर से लाई चादर का कामचलाऊ पर्दा डाल दिया। खिड़की खुलते ही मनमोहक दृश्य लगे तो कोचिंग से लौटते हुये फूलों वाले पौधों के छोटे- छोटे गमले ख़रीद लिये और उन्हें खिड़की पर सजा दिया। अपने साइड की दीवार पर दो- चार पोस्टर व परिवार की तस्वीर लगा ली। अब ठीक था पढ़ते- पढ़ते पौधों में पानी देना भला लगा। थके- हारे लौट कर संगीत सुनना। आते- जाते माँ- पापा और भाई बहनों की फ़ोटो पर निगाह पड़ती रहती। दिन सहज गुज़रने की आशा जगी।
एक दिन लौटी तो देखा रूममेट ने अपनी साइड भी वैसी की वैसी ही सजा ली थी। खिड़की में फूल मुस्करा रहे थे। हँसती आँखों से हृदय के बंद कपाट खुल गये। खिलखिला कर दोनों गले लग गईं। हॉस्टल में घर उग आया ****
7.अपशगुन
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अमिता अपने नये घर की टैरेस पर आई तो सामने बिजली के तार पर बैठे उल्लू को देख कर सहम गई।
हे राम... यह क्या अपशगुन हुआ, सामान से लदा ट्रक दरवाज़े पर खड़ा है और मन में व्यापती यह आकुलता, भय...सिहरन..
-अमिता कहाँ हो..सामान उतारने का वक्त हो गया, मज़दूर इंतज़ार कर रहे हैं।
बोलना चाह कर भी कुछ बोल नहीं पाई वह...दुविधा में फँसा अंतस..
-अमिता s s s s s
-आती हूँ...सुमन्त
नीचे आ कर उस ने सुमन्त को तारों की ओर इशारा करके दिखाना चाहा।
-क्या है वहाँ...ओ.. उल्लू, दो—तीन अरे पूरा कुनबा...।
अमिता की आँखें अचरज से फैल गईं, सहमाने को एक ही बहुत था ..अब ये दो..तीन..।
-क्या वहम ले बैठीं, अभी इलाका अच्छे से बसा नहीं है तो ऐसे ही पंछी तो होंगे। बस्ती होते ही उड़ जायेंगे, कहीं और ठिकाना ले लेंगे।
-मनहूस होता है उल्लू, जहाँ रहता है वह इलाका उजाड़ हो जाता है।
-अमिता..पढ़ी- लिखी हो कर कैसी बातें कर रही हो, अन्य पक्षियों जैसे ही तो हैं ये भी। चलो, उतरवाओ सामान, कहाँ क्या- क्या रखना है, बताओ।
सामान कमरों में रख दिया गया, फिर जुट गये उनकी खोला- खाली में। काम देर रात तक चला। सोने से पहले लॉन का गेट चैक करने की नीयत से वे बाहर आये तो तेज़ फड़फड़ाहट से चौंक गये। टॉर्च की रोशनी में देखा कि उल्लू का घायल बच्चा तड़प रहा था।
- च्..च्..बिचारा..बड़ी तकलीफ़ में है। अमिता की आवाज़ में चिंता थी।
-अरे छोड़ो भी...
कुछ देर चुप्पी रही।
-नहीं... नहीं सुमन्त, छोड़ेंगे तो बेचारा मर जायेगा.. मर गया तो पाप लगेगा, कहती हुई अमिता शीघ्र ही गत्ते के टुकड़े ले लाई और सावधानी से बच्चे को उठा कर भीतर ले गई। उसकी मरहम- पट्टी की गई। छोटे से कार्टन में कपड़े की तह लगा कर उसको रख दिया।
सुमन्त देख रहा था कि ममता में डूबी पत्नी में सुबह की बेचैनी और सहम का नामोनिशान तक न था। शगुन- अपशगुन भूल- भाल कर उसकी निगाहें कार्टन को सुरक्षित रखने के लिये लिये उपयुक्त स्थान खोज रही थीं। ****
8.अनकही
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संजीवनी बहुत उदास थी। ज़िन्दगी के छोर मझधार में छूट गये। हरदम प्यार का दम भरते पति का मन कब और कैसे उचाट हो गया। किस छिद्र से नये के मोह ने उन्हें जकड़ लिया कि वे सब कुछ भुला बैठे। किशोर बेटी नव्या तक का ख़्याल न किया।
प्रेम उधारी पर तो नहीं चलता, वह रस बन कर रगों में दौड़ता है, जीवन देता है।
इश्क की दीवानगी के आगे रोना, गिड़गिड़ाना आत्मगौरव ने गवारा न किया।
आख़िर घर टूटना ही था ......टूट गया
पति अपना तर्क लिये दूर हो गये। एक ही शहर, किंतु कोसों दूरी.....।
-अब क्या करोगी मम्मा।
-कुछ नहीं बेटे, नौकरी ढूँढती हूँ। कुछ न कुछ हो ही जायगा, तू चिन्ता मत कर।
वह गुड़हल हो रही आँखें छिपाते हुये ओट में हो गई। कॉरपोरेट जगत में कोई भी नौकरी सारा दिन खा जायेगी, बेटी को कम्पनी देना ज़रूरी है। हाई स्कूल में तय हुआ काम करना ठीक लगा। दिनचर्या बदल गई। अफ़सर का परिवार अब शिक्षक का परिवार हो गया। पैसों का अंतर जीवन शैली का अंतर बन गया। नव्या इस जीवन की अभ्यस्त नहीं थी, जल्दी ही उकता कर चिड़चिड़ा उठी।
-मम्मा, रोज़ पराठे का नाश्ता...
-बिटिया यह हैल्दी होता है, जल्दी भूख भी नहीं लगती।
-मम्मा एक भी नई ड्रैस नहीं ली, जूते भी पुराने फ़ैशन के हुये पड़े हैं।
-थोड़ा इंतज़ार करो नव्या, ले लेंगे।
- मम्मा मेरा पॉकेट मनी...
-मम्मा पिक्चर, आऊटिंग...
-मम्मा यह...
-मम्मा वह...
जवाब चुक गये। अंतर पट न सका। अधीर नव्या अपना सामान पैक करने लगी।
-अब कहाँ चली।
पापा के पास।
बारह साल की बेटी को संजीवनी आत्मसम्मान की बात कैसे समझाती, यह सब कपड़ों- जूतों जैसा तो न था कि शब्दों में बयाँ होता। इतना ही कह सकी- वहाँ मन न लगे नव्या, तो वापिस आ जाना। ****
9. चाह
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उतरती सर्दियों के दिन थे। मंदिर के बाहर मैदान में कचनार के पेड़ पर बहार थी। वह अपना सौंदर्य और यौवन देख कर इठला रहा था।
पास ही नीम का पेड़ पतझड़ से जूझ रहा था। रोज़ झड़ते पत्ते हौल उठा रहे थे। घनी डालियों में पंछियों के बसेरे थे, नन्हें- नन्हें चूज़े और उनके माता- पिता। नीम चिंतित था, कहीं पंछी संकट में न हो जायें। भला शिकारी पक्षी और छोटे- मोटे जानवरों का क्या ठिकाना। नीम ने अपनी चिंता कचनार से कही-
-कचनार भैया, थोड़ी मदद करोगे तो ये पंछी बच जायेंगे। संकट देख कर अपनी डालियां मेरी तरफ़ ज़ोर- ज़ोर से हिला दोगे।
कचनार का पेड़ हँस पड़ा।
-बावले हो क्या, डालियाँ ज़ोर- ज़ोर से हिलाऊँगा तो मेरे इतने सुंदर फूल झड़ न जायेंगे।
- इन बिचारे पंछियों की जान तो बच जायेगी।
- तुम करो सुघड़ भलाई, मुझसे कोई आशा मत रखना।
नीम रुआँसा हो गया।
रात की आँधी में कचनार के फूल झड़ गये। ज़मीन पर फूलों की मलगीजी चादर बिछ गई। नीम की घनी डालियाँ घोंसलों को बचाये रही।
मंदिर के मैदान में मेला भरने लगा। दूर- दूर के गाँवों से आये भक्तों ने अपने लम्बे- लम्बे बाँस वाले झंडों को नीम से टिका कर ऱख दिया। झंडों की फड़क और मेले की धूम- धड़क में कुछ दिन सुरक्षित गुज़र जायेंगे, इस आकस्मिक सहायता के आगे नतमस्तक नीम कोंपलें आने का इंतज़ार करने लगा। ****
10. सद्भाव
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कॉलोनी के पार्क में बैंच अनमनी थी। सारा दिन हो गया, रह- रह कर बेचैनी झलकती। थकान से मुँह मुरझाया था। शीशम ने ग़ौर किया।
-बहना बड़ी उदास हो।
-क्या बताऊँ, शीशम भैया, हॉस्टल के लड़के- लड़कियों के रोज़- रोज़ के जमावड़े से थक गयी हूँ। ये रात- दिन चौगरदा रहते हैं, ऊटपटाँग बातें, बेहूदी हरकतें, अश्लीलता.......
-भला इनकी क्या ग़लती, ज़माने की हवा ही ऐसी है।
-कॉलोनी वाले भी कुछ नहीं कहते, पहले समाज का जो दवाब होता था, वह अब है ही नहीं, किसी को किसी से कोई मतलब ही नहीं।
शीशम हँस दिया-
-किस ख़्याल में हो बहना, दुनियाँ बदल रही है।
- छिछोरी बातें मुझे नही सुहाती।
थोड़ी देर चुप्पी रही। शीशम फिर बोला, इस बार उसका स्वर धीमा और नरम था।
-भावनाएँ चाहे कैसी भी क्यों न हों, उनका दिल से निकलना ज़रूरी है। अच्छा है कि हम पेड़ों की छाँव तले, तुम बहनों की ममता भरी गोद में सुकून से ये हँस- बोल लेते हैं। जी बहला लेते हैं। देखो, सामने केक कट रहा है, जश्न मन रहा है। प्रेम से छलकने दो इन्हें, वरना अवसाद के विस्फोट से तो नाश ही होगा।
बैंच को याद हो आया । पार साल प्रेम में असफल हो कर एक लड़की ने हॉस्टल के तिमंज़िले से छलाँग लगा दी थी।
वह सिहर उठी।****
11.दवा
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टोक्यो एयर पोर्ट पर, विमान की इकोनौमी क्लास में, आगे वाली सीट पर वह महिला ढुलकी पड़ी थीं। लगता था कि बहुत बीमार हैं। देखने में गाँव का सरल व्यक्तित्व, बोली- चाली, पर पहनावा..... अजीब सा फँसा- फँसा ट्रैक- सूट, आगे से खुला बेढंगा स्वेटर, सस्ता पर्स, पाँव में सिर्फ़ बुने हुये जूते, न मोज़े, न असली जूते, न शॉल। धूप में तपा हुआ गहरा रंग, सूजे- सूजे नाक- नक्शे, पतली चोटी में उड़- उड़े बाल, मानो उन्हें प्लेन की सीट पर पटक दिया गया हो। बोली कुछ अस्पष्ट सी। बहुत ग़ौर से सुनने पर यही समझ में आया कि बेटी के जापे में जापान आई थीं, वहां की सर्दी में बीमार हो गईं। अब वापिस भारत अपनी बड़ी बेटी के पास जा रही हैं।
तो दो बेटियों की माँ थीं वे ।
तौर – तरीकों से साधारण महिला लग रही थीं, जो गई तो साड़ी पहन के होंगी पर लौटी हैं तो अजीब से वेश में, हलकान होती हुई।
किसी ने उनसे पूछा- आपकी बेटी वहाँ क्या करती है।
उन्होंने अपनी बोली में समझाया कि बेटी- दामाद दोनों सॉफ़्टवेयर इंजीनीयर हैं।
तो माँ का यह हाल। जाने दिल्ली एयरपोर्ट पर कोई लेने आयेगा भी या नहीं। भाषा के बग़ैर आदमी कितना अनजाना, कितना अकेला। शटलकॉक बनीं माँ, इतनी ठंड में इतनी साधनहीन अवस्था।
आस- पास के लोग, एयर होस्टेस सब कशमकश में थे। दस घंटे की यात्रा में वे न ठीक से खा पाईं, न सो पाईं, बाथरूम तक जाने के लिये एक बार भी नहीं उठीं।
बड़े इंतज़ार के बाद दिल्ली आया। वे फिर व्हील चेयर पर बैगेज- क्लेम में ले जाई गईं। बाहर निकलते ही उन्होंने खोजती नज़रों से इधर- उधर देखा। बेटी- दामाद को पहचानते ही वे खिल उठीं, वे लोग भी दौड़ कर उनके पास आये, सजे- धजे स्मार्ट।
बेटी बिफर गईं- दुर्गा मैया, का हाल किये हैं छोटकी अम्मा के, बिल्कुल फकीरनी बना के भेजे हैं, ई सस्ता- बेढंगा कपड़ा.....अब कौनौ जरूरत नाहीं जापान- उपान जाइबे की।
और अम्मा काँपती देह लिये बिसूरती हुई बड़की के गले लग गईं।
-राम...कित्ता बुखार है तुमका। हाथ- पाँव, माथा- गला छू छू कर न जाने क्या- क्या बड़बड़ाने लगी।
-सुनो मीता, अब घर चलें, दामाद ने पहली बार कुछ कहा। पहुँचते- पहुँचते टाइम लगेगा रास्ते में डॉक्टर साहब को भी दिखाना है। अम्मा अब यहीं रहेंगी, महीनों चलेगी जापान की कथा....आराम से माँ- बेटी बैठ कर बतियाना, बातों से अच्छी कोई दवा नहीं होती। ****
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क्रमांक - 057
जन्म तिथि - 27 दिसम्बर 1950
जन्म स्थान - मुज़फ़्फ़र नगर - उत्तर प्रदेश
शिक्षा - बी .ए , बी .ए.एम . एस ( कानपुर वि वि )
सम्प्रति : -
चिकित्सक - जम्मु कश्मीर राज्य सरकार की स्वास्थ्य सेवा में मैडिकल ऑफीसर के पद पर 28 वर्ष (1980 -2008)
लेखन : -
कहानी, कविता, आलोचना, और लेख आदि
1. प्रश्न तुमसे (कविता संग्रह)
2. एक आयास अनायास (संयुक्त काव्य संग्रह)
3. दस दरवाजे (कहानी संग्रह)
4. अभिव्यक्त होने दो (संयुक्त कहानी संग्रह)
5. चौराहे की आग (काव्य संग्रह)
6. सत्य मार्ग का राही (जीवनी)
7. कथा अनंता (कहानी संग्रह)
8. मुनिवर हँसो, मुनिवर नाचो (जीवनी)
9 रैड वुड जंगल ( कथा संग्रह )
सम्मान / पुरस्कार : -
1. दस दरवाजे (कहानी संग्रह) जम्मू कश्मीर ललित कला अकादमी द्वारा 1998 वर्ष की सर्वोत्तम कृति घोषित एवं पुरस्कृत
2. चौराहे की आग कविता संग्रह, केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा पुरस्कृत 1994
3. कथा अनंता कहानी संग्रह, केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा पुरस्कृत - 2004
विशेष : -
1. वेदराही जी के उपन्यास 'अनन्त' का डोगरी से हिन्दी अनुवाद।
2. केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा हिंदी प्रशासनिक शब्दावली का डोगरी से हिंदी अनुवाद ।
3. टेली फिल्म सी० पी० सी०, द्वारा जमीर के नाम से निर्मित
पता - 25 , एम . आई .जी , हाउसिंग कॉलोनी
उधमपुर - जम्मू कश्मीर - 182101
1.पाषाण भेद
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वह शहर छोड़े चाहे बीस बरस से भी लम्बा अरसा हो चुका था , लेकिन जहाँ वह पैदा हुआ , और जहाँ उसके बचपन का सारा खिलंदडपन गलियों गलियों डोला , वह उससे बाहर कभी भी न आ सका। भाषा , जिसका वह अपने साहित्य लेखन में वह बराबर इस्तेमाल करता है , वह भी तो इसी माटी की देन है । उसकी बनाई साहित्यिक संस्था ‘ उत्सव ‘ फलती -फूलती , एक नन्हें पौधे से बड़ा वट वृक्ष बन चुकी है ।एक अपराध के लिए कुख्यात नगर को ‘ उत्सव ‘ ने साहित्यिक वातावरण दिया है । अनेकों साहित्यकार इस संस्था की छत्र -छाया में पनप कर देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में बराबर छप रहे हैं । जब भी , उसे अवसर मिलता , अपनी व्यस्तताओं से समय निकाल वह अपने नगर आ ही जाता । अपने घनिष्ठता मित्रों से मिलना , संस्था की युवा प्रतिभाओं को सुनना , व इस शहर के अपने बचपन को याद कर बालक हो जाना , सारों काम एक साथ सध जाते ।
हर बार की तरह उसका ठहरना अपने अभिन्न मित्र प्रो नरेश जी के घर ही हुआ था । इस बार पूरे दो बरस बाद उसका आना हुआ था । स्वाभाविक रूप से ‘ उत्सव ‘ ने उसके सम्मान में गोष्ठियाँ का आयोजन किया था । वह दोनों शाम की चाय पीकर गोष्ठि के लिए निकले थे । बाहर चौक पर आकर नरेश जी ने एक रिक्शा रोका ।
“ विकासपुरी चलोगे ?” नरेश जी ने पूछा ।
“ जी ! बैठिए ।”
“ बीस रुप्ए ?”
“ जी , ठीक है ।”
रिक्शा आगे बढ़ चला । पहले तो यह अहसास उसे कम होता था , लेकिन क्योंकि उसके यहाँ रिक्शे नहीं चलते , पहाड़ी शहर जो ठहरा , यहाँ आकर वह रिक्शे पर बैठते अचकचा जाता है । उसने रिक्शे वाले पर नज़र डाली । कोई तीस बरस का नवयुवक था , घुंघराले बालों वाला । उसकी क़मीज़ साफ़ थी लेकिन पसीने से पूरी तरह भीगी हुई । मई का महीना , सांझ चार बजे का वक़्त । पैरों में उसके रबड़ की चप्पल । रिक्शा उसका बड़ा ही सज़ा -धजा , उसकी सुरुचि का परिचय दे रहा था । वह , प्रो नरेश से बातों में व्यस्त हो गया ।
‘ यार , आज कल फ़ेस बुक पर ही छाए हो , या लिखना पढ़ना चल रहा है ?’ डॉ नरेश ने बात छेड़ी ।
‘ नहीं यार , पढ़ना को लत है मेरी , वह कहाँ छूटती है । हाँ , लिखना नियमित नहीं रहता, ‘उसने उत्तर दिया ।
‘ आज कल लघु कहानियाँ अच्छी लिख रहे हो , ‘फलक ‘में , मैंने कमेंट भी लिखा था ।’
‘ हाँ पढ़ा था मैंने । कोफ़्त तब होती है जब कुछ लोग कहानी के भाव को समझे बिना अनर्गल कमेंट करते हैं ।’
हँसे बड़ी ज़ोर से डॉ नरेश । ‘ कुछ लोगों को विद्वान दिखने की खब्त रहती है , कहना है , चाहे बेसिरपैर का हो ।’
‘ तुम्हारी कहनानियां भी तो इधर छपी है , नया ज्ञानोदय और समकालीन में । नया ज्ञानोदय वाली कहानी बड़ी ही मार्मिक थी । लिखा था मैंने तुम्हें । वैसे सोर्सेज पूछना तो अनुचित है , लेकिन थी वह किसी की आपबीती ही । ‘
‘ हाँ , कुछ ऐसा ही था । बस पात्र को जिए बिना , बहुत कठिन होता है उसको पन्नों पर उतारना ।’ डॉ नरेश ने जवाब दिया ।
‘ अच्छा सुनो , एक शेयर सुनो -
‘ अब तो ले दे के वही शख़्स बचा है मुझमें
मुझको मुझसे जुदा करके छुपा है मुझमें । ‘
‘ वाह ! बहुत ख़ूब , किसका है ?’
‘कृष्ण बिहारी नूर साहब का ,’ जवाब दिया मैंने ।
‘ एक और सुनो -
गिरजा में मंदिर में अंजानों में बँट गया
होते ही सुबह आदमी खानों में बँट गया ।’
‘ भई वाह ! यह शायर कौन है ? ‘ डॉ नरेश ने पूछा ।
‘जावेद अख़्तर साहब का है ‘ जवाब दिया मैंने ।
‘ नहीं जनाब , निंदा फ़ाज़ली साहब का है ।’ रिक्शा चलाते उस रिक्शे वाले ने पलट कर कहा ।
‘ क्या ? ‘ उसका मुँह खुला का खुला रह गया ।
‘ हाँ जनाब , निंदा साहब का है । उन्हीं ने तो यह भी कहा है कि ,
‘ इस अंधेरे में तो ठोकर ही उजाला देगी
रात जंगल में कोई शम्अ जलने से रही ।’
‘ भई वाह ! शौक़ रखते हो शायरी का , क्या नाम है तुम्हारा ? ‘ डॉ नरेश जी ने पूछा ।
‘ जी ख़ालिद हुसैन ।’
‘ भई ख़ालिद , कौन कौन से शायर पढ़े हैं ?’
‘ जी , जौक , ग़ालिब , इक़बाल , फ़ैज़ , निंदा फ़ाज़ली , डॉ बशीर बद्र , चकबस्त , ज़फ़र , और जावेद साहब , जो हाथ लगा जनाब । ‘ ख़ालिद ने जवाब दिया ।
‘ पढ़ाई कहाँ तक की है ख़ालिद बेटा ? ‘ उसने पूछा ।
‘ जी , बी .ए किया है । एम .ए की तैयारी कर रहा हूँ । ‘
‘ तो रिक्शा भी चला रहे हो और पढ़ाई भी ? भई वाह । कैसे चलता है सब कुछ ?’ उसने ख़ालिद से पूछा ।
‘ जी शाम 4 बजे से रात 10 बजे तक रिक्शा चलाता हूँ । बाक़ी वक़्त पढ़ाई और काम । ‘
तब तक वह ठिकाने पहुँच लिए थे । ख़ालिद ने पैसे लेने से इन्कार करते हुए , उन दोनों के पैर छू लिए ।
‘ देखो ख़ालिद बेटा ! मैं यहाँ डी .ए . वी कॉलेज में प्रोफ़ेसर हूँ । तुम्हें जिस चीज़ की , या लाइब्रेरी से किसी किताब की जब ज़रूरत पढ़े , बिना हिचक चले आना । जहां से हम बैठे है उस गली का आख़री मकान मेरा ही है , किसी से डॉ नरेश का नाम पूछ कर आ जाना । और हाँ , यह रक्खो , यह आशीर्वाद है तुम्हें हमारा ‘ , एक दो सौ का नोट मोड़कर ज़बरन उन्होंने ख़ालिद की क़मीज़ वाली जेब में डाल ही दिया ।
भरी आँखों से भावुक हुए ख़ालिद ने एक बार फिर झुक कर उन दोनों के पैर छुए , और रिक्शा सरकाता आगे बढ़ लिया ।
वह दोनों अभिभूत से रिक्शा चला कर ले जाते ख़ालिद को तब तक देखते रहे , जब तक वह चौराहे पर मुड़ नहीं गया ।
कितनी उलट फेरों से भरी है दुनिया । कहीं सुविधाएँ हैं तो चाह नहीं , कहीं चाह है तो विषम परिस्थितियाँ हैं ।
उसने नरेश जी से कहा , ‘ नरेश भाई , अपने यहाँ उगता एक पौधा पत्थर चट्ट मुझे याद हो आया , जो पत्थर तोड़ कर ही उगता है ,
तभी उसका संस्कृत नाम पड़ा है पाषाण भेद । यह युवक तो पाषाण भेद के गुण वाला लगता है ।’
‘ हाँ , बंधु ! यह पाषाण भेद ही भारत का नक़्शा बदलें गें ।’ दूर देख रहे थे डॉ नरेश , उसी दिशा में जहाँ से ख़ालिद अभी -अभी ओझल हुआ था । ****
2. अनमोल हैं साँसें
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“ हैलो , डॉ जुत्शी ? मैं धनराज बोल रहा हूँ , लक्ष्मी स्टील ग्रुप का मालिक । क्या आपके हॉस्पिटल में एक बैड मिल सकता है ?”
“ नो सर । वेटिंग में 83 हैं । सॉरी । “ उधर से फ़ोन कट गया ।हर बार , हर कहीं से ऐसा ही कोरा सा जवाब मिलता जा रहा है ।
कैसा वक़्त पड़ा है । परसों से पगलाए से चक्करघिन्नी बने घूमे जा रहे हैं वह । जब से बेटे नमन की कोरोना रिपोर्ट पॉज़िटिव आई , उन्होंने उसे घर में ही कोरैंटाइन कर दिया । जैसा डॉक्टर से सलाह दी , वहीं दवाइयाँ मँगवा लीं । लेकिन रात को उसे साँस लेने में दिक़्क़त होने लगी ।उसका ऑक्सीजन लेवल घटता जाकर 85पर आ गया है ।
सुबह 4 बजे से दिल्ली ही नहीं , आस -पास के सारे शहरों के अस्पतालों की ख़ाक छान ली फ़ोन कर -कर के , उन्होंने ही नहीं , उनकी पत्नी श्रीजा ने भी । आपने दोनों सैकेट्रियों को भी इसी खोज -खबर में लगा रखा है उन्होंने । वह ही नहीं , उनके सभी सगे सम्बंधी और मित्र इसी खोज में लगे हैं कि कहीं ऐसे अस्पताल में एक ख़ाली बैंड मिले जहां ऑक्सीजन फ़ैसिलिटी हो ।
“ डॉ मल्होत्रा ! आप कैसे भी हो , सिर्फ़ एक बैड दिलवादें , पैसे की कोई चिंता न करें , 5, 10, 15लाख जितना भी लगे । मेरे बेटे की ज़िंदगी का सवाल है । “
“ जी सर , मैं समझ सकता हूँ आपकी परेशानी । पैसा तो यहाँ आपसे भी कई गुना लोग लिए खड़े हैं , लेकिन बैड हो तब न ? वैरी सॉरी धनराज जी । “
हताशा घेरने लगी थी धनराज जी को । बेटे के कमरे तक जाने का साहस न बचा था उनमें । तभी मोबाइल की घंटी बजी । जिगरी दोस्त विशाल महाजन का फ़ोन था ,
“ धनराज ! हार गया हर तरफ़ फ़ोन करके , पर किसी अस्पताल ने हामी नहीं भरी । मेरी सलाह मानें तो कहूँ ? “
“ हाँ , क्यों नहीं , तुझे भी पूछने की ज़रूरत है क्या ? “
“ तेरे तो इतने फार्म हाउस हैं । नमन को किसी ऐसे में ले चल जहां पुराने पीपल के पेड़ हों । मेरे एक दोस्त की पत्नी ऐसा करने से मरते -मरते बची है । जब तक बैड नहीं मिलता तब तक यह आज़मा लेते हैं ।” विशाल ने सुझाया ।
सुनते ही श्रीजा को बात लग गई । कहा ,
“ आप सोचते थे कि पैसे में ही सारी ताक़त है । धरा रह गया न सब कुछ । हम नहीं ख़रीद पा रहे पैसे से अपने बेटे के लिए साँसें । “
धनराज चुप रहे । बोलने को कुछ बचा भी तो न था । ****
3. सफलता
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पूरे 3 दिन से लगातार दौड़ -भाग चल रही थी ।
अल्पना , कोरोना की चपेट में आकर अस्पताल में भर्ती थी ।7 दिन पहले उसके पिता राहुल सिधारे थे । अब सबको संदेह हो रहा है कि वह भी कोरोना की चपेट में ही आ चुके होंगे ।
अस्पताल वालों ने बताया प्लाज़्मा थेरेपी की ज़रूरत है । घर पर जो था सब खर्च हो गया तो मिन्नी के गहनों पर बारी आई । रात होते ही ऑक्सीजन संकट आन गहराया । कहाँ से टैक्सी दौड़ा कर एक सिलेंडर मिला और कितने में मिला , अब कहें तो क्या कहें ?
रात 12 बजते -बजते सब को बिलखता छोड़ , छटपटाती अल्पना देह छोड़ गई । रोते रह गए पीछे मिन्नी और अल्पना का छोटा , 12बरस का भाई आकिल ।
अभी समस्याओं का यहीं अंत न हुआ था । ज्ञात हुआ कि अस्पताल वाले डैड बॉडी न देगें । वह अपने तौर पर कोरोना ग्रस्तों का ‘ संस्कार ‘ करेंगे ।
सभी सम्बंधियों की दौड़ अब देह पाने के लिए आरम्भ हुई ।फिर नोटों के पहिए लगाकर , वाया भटिंडा , अल्पना के चालू ताया जी ने , पूरे 2घंटे की जद्दोजहद के बाद मार्ग निकाला ।
एडमिस्ट्रेशन ऑफिस से बाहर निकलते , सबने पाया , सफलता की ‘ख़ुशी ‘ से उनका चेहरा दमक रहा था । अस्पताल में एकत्रित , सभी नाते -रिश्तेदारों के चेहरों पर भी अपार ‘ संतोष ‘ था ।
‘ संस्कार ‘ अब अपनी तरह से होगा । ****
4. नहले पे दहला
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“ पापा ! मम्मी सो रहीं हैं क्या ? “
दिनकर जी के हाथों में बैड टी वाले जूठे कप देख कर , मुस्कुराकर बहू निधि ने पूछा ।
“ नहीं , जगी है। “
“ फिर आप ? “
दिनकर जी के ऐसे छिट-पुट काम न करने की आदत पर कटाक्ष करने का मौक़ा भला क्यों चूकती निधि ।
“ पुष्कर को रोज़ सब्ज़ी बनाते देख , सोचा अपुन को भी थोड़ा बदलना चाहिए । “
दिनकर जी ने बेटे कि ओर मुस्कुराते देख कर कहा ।
अब ज़ोर का ठहाका लगाने की बारी सबकी थी । ****
5. सरकारी सलामी
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नई काली , चमचमाती बी. एम . डब्लू कार ड्रराइव करते रणजीत सिंह किसी दोस्त से बात करते चल रहे थे , कि सहसा उनका ध्यान भंग हुआ ।
एक पुलिस इंस्पेक्टर उनसे गाड़ी साइड पर लगाने का इशारा किए जा रहा था ।
उन्होंने तुरंत गाड़ी रोकी , सीटबेल्ट लगाई , चेहरे पर लटका मास्क ऊपर किया और साइड विंडो खोल बड़ी शान से इंस्पेक्टर की ओर ताका ।
“ कार से बाहर आइए , चालान कटेगा आपका । “ इंस्पेक्टर ने कहा ।
“ भई , मुझे जाने दो , ज़रूरी काम है । अभी -अभी घर से निकला हूँ , कि वाइफ़ का फ़ोन आ गया । “
“ जी , जो भी कहना है आप ड्यूटी मैजिस्ट्रेट जी से कहिए , पहले बाहर निकलिए । “ इंस्पेक्टर ने कहा ।
“ ठहरो पहले एक फ़ोन घुमाने दो । “ रणजीत सिंह ने अपने मोबाइल पर एक नम्बर घुमाते हुए कहा ।
फ़ोन लगते ही उन्होंने इंस्पेक्टर से पूछा , “ मैजिस्ट्रेट साहब का नाम क्या है ? “ शायद दूसरी तरफ़ से जानकारी माँगी गई थी ।
“श्री रघुवीर दयाल सिंह । “ इंस्पेक्टर ने बताया ।
लेकिन शायद वांछित आश्वासन नहीं मिल पाया था रणजीत सिंह को । मोबाइल जेब में डाल वह अनमने से कार से उतर , मैजिस्ट्रेट साहब की जीप की तरफ़ बढ़े ।
वहाँ जीप की बोनट पर कुछ पुलिस अधिकारी पकड़े गए वाहनों का चालान काटने में व्यस्त थे । मैजिस्ट्रेट साहब , वाहन में बैठे सारी कार्यवाही का संचालन कर रहे थे ।
थोड़ी प्रतीक्षा बाद रणजीतसिंह का नम्बर आया ।
“ सर ! न सीटबेल्ट , न मास्क और फ़ोन पर वाहन चलाते समय बात कर रहे थे । “ साथ गए इंस्पेक्टर ने आरोप बताए ।
“ गाड़ी के पेपर्स ? “ अधिकारी ने पूछा ।
“ अच्छा तो वो बी . एम . डब्लू आपकी ही है ? “ अधिकारी ने पूछा ।
“ जी । “ थोड़ी बची अकड़ से रणजीत सिंह ने जवाब दिया ।
अधिकारी ने मैजिस्ट्रेट की तरफ़ देखा ।
“ पाँच हज़ार । “ मैजिस्ट्रेट ने कहा ।
“ पता बोलिए ? “ अधिकारी ने रसीद काटते आदेश दिया ।
“ ऐसा जुर्म न कीजिए । हज़ार -पाँच सौ का जुर्माना कर दीजिए सर । “ घबराए हुए , गिड़गिड़ाते स्वर में रणजीत सिंह ने अनुरोध किया ।
“ ऐसा करके हम आपकी अस्सी - नब्बे लाख की गाड़ी का अपमान थोड़े ही न करेंगे । पाँच हज़ार का दंड आपकी गाड़ी के ही अनुरूप है । सलामी है सरकारी । “
मैजिस्ट्रेट ने समझाया । *****
6. घास और घोड़ा
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“ महावीर भाई ! अच्छा हुआ आप दिख गए । मैं आपको ही ढूँढ रहा था । “
डॉ ऋषि का स्वर दु:ख में डूबा था ।
“ जी डॉक्टर साहब । हुकुम ?”
“ भाई , ये राजीव जी हैं , हमारे ही गाँव के । तीन दिन पहले इनकी माता जी कोविड से चल बसीं , और आज हम इनके पिताजी को भी नहीं बचा पाय । उनकी बॉडी आप अपनी एम्बुलेंस में श्मशान तक पहुँचा दीजिए । “
“ जी पहुँचा तो देंगे , अगर यह हमारा रेंट दे देंगे । “ महावीर ने काइयाँ अंदाज में कहा ।
“ रेट तो वहीं है न 700रुपए । वह तो देंगे ही महावीर भाई । दु:ख से टूट गए हैं , इसीलिए मैं बाहर निकल कर आया हूँ । “ डॉ ऋषि ने कहा ।
“बड़ी पुरानी बात हो गई डॉक्टर जी 700वाली । आज का रेट पता करो पहले , पूरे 10000, का चल रिया है । आप 500कम दिलवा दीजो । “ पूरी सौदेबाज़ी की मुद्रा में उतर आया था ड्राइवर महावीर ।
“ तो ठीक है , आप रहने दें , मैं कुछ और देखता हूँ । “ डॉ ऋषि ने कहा
“ जैसी आपकी मर्ज़ी । लाशों की कमी थोड़ई है । अब घोड़ा घास से यारी करेगा तो खाएगा क्या ? “ यह कहता महावीर निकल लिया था ।
कुछ दिनों बाद डॉ ऋषि कोरोना वार्ड के अपने सुबह के पहले राउंड पर थे । कुछ रोगियों को देखते -देखते जब अपनी पूरी टीम के साथ वह एक बैड पर पहुँचे तो पहले केस शीट पर मरीज़ का नाम पढ़ा - महावीर प्रसाद ।
चंद ही दिनों में कुम्हलाई घास , दयनीय मुद्रा में अपने दोनों हाथ जोड़े कातर नेत्रों से घोड़े को निहार रही थी । *****
7. सहायतार्थी
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पहली कोरोना लहर में पंजाब में किसी ने पुलिस को फ़ोन किया कि कई दिनों से भूखे हैं लॉकडाउन के कारण ।
इससे पहले पुलिस ने कई समाजसेवी संगठनों से मिल कर ऐसी कॉल पर सहायता पहुँचाई थी ।
वह लोग घर के बाहर बैठे पुलिस सहायता की प्रतीक्षा करते मिले , जब पुलिस सामान ले कर पहुँची ।
न जाने कैसे पुलिस को संदेह हुआ और वह उनके घर के भीतर जा घुसी । आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब पाया गया कि मेज़ के नीचे 10-10 किलों की 5गुत्थियां छिपा कर , ऐसे ही सामाजिक सेवा भावी संगठनों से माँग -माँग कर उन्होंने जमा की हुईं थीं । रसोई घर की तलाशी लेने पर सरसों की तेल की बोतलें तथा बोरियों में भरी हुईं कई तरह की दालें भी मिलीं ।
आज के हालात में , व्यवस्था अभाव में , कोरोना की दूसरी लहर में भारत की स्थिति , वेंटीलेटरों सम्बंधी , क्या उन्हीं फ़ोन करने वाले याचकों सी नहीं है ? ****
8. शतरंज का वज़ीर
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“ दादू ! एक बात पूछूँ आपसे ? “
मुकुल जी से 15वर्षीय पोते अक्षर ने कहा ।
“ हाँ हाँ , पूछो । “
“ जो मेरे पापा हैं , आप उनके पापा हो , है न ? “
“ हाँ , बिल्कुल । “ मुकुल जी ने उत्तर दिया ।
“ तो जैसे वो हमें बुरी तरह से डाँटते हैं , तो आप भी उन्हें डॉंट सकते हो ?पर आप तो ऐसा नहीं करते , क्यों ? “
एक बार तो अक्षर की बात सुन सकपका गए मुकुल जी । थोड़ी देर मौन रह सोचते रहे कि क्या जवाब दें अक्षर को , जो लगातार उनकी ओर टकटकी लगाए देखता खड़ा था । फिर कहा ,
“ देखो ऐसा है कि ज्ञानियों ने कहा है कि जब पिता के जूते में पुत्र का पाँव आने लगे , तो उससे मित्रवत् व्यवहार करना चाहिए । और मित्र जिसे मान लिया , उसे हर बात पर डाँटा तो नहीं जा सकता न ? “ मुकुल जी ने कहा ।
“ पर दादू , मेरा पाँव तो उनसे भी 2 नम्बर बड़ा है , पता है आपको ? “ अक्षर ने बताया ।
“ वो तो ठीक है , पर तुम्हारा अपने व्यवहार से यह सिद्ध करना बाक़ी है कि तुम परिपक्व हो चुके हो । जब तुम्हें सुबह जगाना न पड़े , पढ़ने के लिए न कहना पड़े , मोबाइल हर दम देखते रहने के लिए न टोकना पड़े , और टी .वी केवल समाचार देखने तक के लिए तुम सीमित हो जाओ तब निश्चय ही पापा तुमसे मित्रवत् हो जाएँगे । “ मुकुल जी ने प्यार से पोते अक्षरों समझाया ।
“ दादू ! यह तो आप पापा की साइड ले रहे हैं । आप कम से कम उन्हें यदि डॉंट नहीं सकते तो समझा तो सकते हैं कि बात - बात पर वह हमें डाँटा न करें । आप तो हरदम चुप ही रहते हैं । “ अक्षर ने गिला किया ।
“ अक्षर बच्चे ! ज्ञानियों ने एक और क़ीमती बात हमें समझाई है , वह है कि गृहस्थि बेटे के संग सुख से रहना हो तो मौन ही रहना चाहिए । यदि माँगी जाए , तब ही अपनी राय देनी चाहिए । यह भी कि राय देने के बाद यह भुला देना चाहिए कि क्या राय दी थी । पलट कर यह कभी नहीं पूछना चाहिए कि उनकी दी गई राय पर काम किया गया अथवा नहीं ।समझे ?”
“ दादू , आपने तो पापा को शतरंज का वज़ीर बना दिया , जो हर दिशा में दुश्मन को जाकर मार सकता है । “ अक्षर ने अपने मासूम चेहरे पर रोष लाते कहा ।
“ लाओ यार शतरंज ही ले आओ । “
अक्षर की बात सुनते ही ठठा कर हंसें मुकुल जी । ****
9. क्लास फोर्थ
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कुछ तथ्य बहसों से नहीं भुगत कर समझ पड़ते हैं ।
आज मेरा इस अस्पताल में 11वां दिन है ।पहले घर पर ही इलाज चलता रहा , लेकिन बुख़ार कम होकर ही न दिया । फिर खांसी ऐसी छिड़ी कि रुक कर ही न दें । जब स्मैल और खाने में स्वाद आना बंद ही हुआ था , तो मैं बुख़ार के चलते समझ गया था , पकड़ा गया हूँ मैं ।
सच्चे दोस्तों से जुड़ा रहा हूँ मैं , वही सारा इंतज़ाम कर मेरे लिए यहाँ बिस्तर का जुगाड़ कर पाए । 7 दिन तो ऑक्सीजन पर रहना पड़ा , पर बुख़ार उतरते ही मैं अपने आपे में लौटने लगा ।
मैंने यहाँ सभी को अपने फ़र्ज़ में मुस्तैद ही पाया । इस वार्ड में घुसना ही कितना रिस्की है , लेकिन ये सारा स्टाफ़ तब भी अपनी ड्यूटी निभा रहा है ।
सबसे ज़्यादा सम्मान मेरी नज़रों में वार्ड ब्वाएज के प्रति उपजा । हमारे वार्ड में ही कितनी मौतें हमारे देखते -देखते हुईं । कोई उनकी बॉडी लेने तक नहीं आया । यही जाँबाज़ उनकी बॉडी को मिल कर कपड़े और प्लास्टिक थैले में रैप करके , उन्हें ठिकाने पहुँचाते ।
पूरे वार्ड का कचरा यह जब अपने हाथों से उठाते तो मैं शर्म से नज़रें झुका लेता । भले ही ग्लब्स पहने हों , लेकिन मास्क भी हर दम नाक पर टिका भी तो नहीं रह सकता । क्या इनकी जान की क़ीमत कम है ? पर नहीं , ख़तरे से बाखबर यह रोज़ अपनी ड्यूटी निभाते दिखते ।
फिर हर रोज़ हमारे वार्ड की यह धुलाई करते , पौछा लगाकर , फिर संक्रमण नाशक स्प्रे करते । हमारा जीवन बचाने के लिए हर दम इनका जीवन दॉव पर रहता ।
उस दिन राउंड पर आए डॉक्टरों और नर्सों के चेहरों पर नई खिलावट थी । जम्मू -कश्मीर के उपराज्यपाल द्वारा उनकी सेवाओं को रेखांकित करते हुए सरकार द्वारा उन्हें 10,और 7हजार रुप्ए प्रति माह की वृद्धि की गई थी ।
वार्ड ब्वाएज , क्लास फ़ोर्थ में आते हैं । उनका तो काम वही है । करेंगे ही ............ । ****
10.शब्द बलात्कार
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“ समाचारपत्रों की सुर्ख़ियों में आज ज्वालाप्रसाद जी का ही नाम है । सारी फ़ेसबुक उनके प्रति श्रद्धांजलियों से पटी पड़ीं है । आश्चर्य चकित कर रहा है यह आपका मौन । एक पंक्ति तक कहीं भी नहीं लिखी आपने , उलटे किसी के लिखे यशोगान के सामने प्रश्नचिन्ह और लगा दिया । आख़िर कर क्या रहे हैं आप ? “ झल्लाई पत्नी ने साहित्यकार मनमोहन जी की स्टडी में आकर उनसे पूछा ।
“ मैं समझ ही नहीं पाता तन्वी कि हम पवित्र शब्दों से यह बलात्कार कब तक करते रहेंगे ? धिक्कार है ऐसे लेखन और मिथ्या शब्दालंकार पर । “
“ मतलब ? “
“ मतलब ये कि यह व्यक्ति पार्टी समीकरण व लहर के बल पर केंद्रीय मंत्री जैसे ज़िम्मेदार पद का निर्वहन न कर गले -गले तक भ्रष्टाचार में लिप्त रहा , किसको नहीं पता ? फिर प्रदेश में आकर विरोधी दल का होते हुए , क्रॉस वोटिंग कर प्रदेश के सत्ता दल के हाथों बिक गया । भेद उजागर होते ही प्रदेश पार्टी के सभी पदों से व पार्टी से बाहर कर दिया गया ।कुछ बरस बाद में क्षमा याचना कर वापिस लिया गया । ऐसे निर्लज्ज , देशद्रोही ,और धनपिपासु रहे व्यक्ति का महिमागान इस लिए किया जाए कि वह चल बसा है ? “ कहते -कहते , थोड़े उत्तेजित मनमोहन सिंह जी ने , पत्नी तन्वी की ओर देखा ।
“ बात में तो दम है आपकी । “ तन्वी बोली ।
“ तन्वी यह कर्म ही हैं जो हमें जिलाए भी रखते हैं , या जीते जी मार भी डालते हैं । ज्वालाप्रसाद जी तो आज से 13बरस पहले ही तब मर चुके थे जब प्रदेशाध्यक्ष पद से ही नहीं वह पार्टी से ही गंदी मक्खी की तरह निकाल बाहर कर दिए गए थे । “
मनमोहन सिंह जी , सामने खुली खिड़की के दूर पार देख रहे थे ढलते सूरज को ........। *****
11. दोहरे मापदंड
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“ क्या हुआ इशाना ? “ ऑफिस से घर आते ही आनन ने पत्नी को बिस्तर पर सुबकते देख पूछा ।
“ कुछ नहीं , आप बैठिए मैं पानी लाती हूँ आपके लिए । “ हड़बड़ाई सी पलंग से उठते इशाना ने कहा ।
आनन मौन रहा । पानी पीकर उसने अपना बैग अलमारी में टिकाया , हाथ -मुँह धोकर कपड़े बदले । तब तक रोज़ की तरह इशाना ट्रे में चाय लेकर आ गई ।
“ बात क्या है ? परेशान हो ? “ आनन ने पत्नी के उदास चेहरे को गौर से देखते पूछा ।
“ मम्मी -पापा को कोरोना हो गया है , 3दिन से घर में ही कोरेंटाइन हैं । “ कहते -कहते इशाना के गालों पर आंसुओं की धारें बहनें लगीं ।
“ गुल्लू ने आज ही फ़ोन पर बताया । वह भी तब जब मैंने वैसे ही फ़ोन मिलाया । 3 दिन हो गए , क्या खुद मुझे ख़बर नहीं दे सकता था ? जैसे उसके पेरैंट्स है वैसे ही मेरे ।” वह फिरसे फफक पड़ी ।
“ अब क्या किया जा सकता है इशाना ? कितनी भी सावधानी बरतें लेकिन इसकी चपेट में कौन कब आ जाए कुछ कहा नहीं जा सकता । यदि मम्मी -पापा घर में ही कोरेंटाइन है इसका मतलब उनका ऑक्सीजन लेवल ठीक है । हो जांएगे ठीक 10-12 दिन में । “
“ नहीं मुझे जाना होगा उनके पास , मेरी फ़्लाइट ,कल के लिए बुक करवा दो । “ आतुरता से कहा इशाना ने ।
“ ऐसी कोई ऐमरजैंसी तो है नहीं इशाना । वहाँ गुल्लू -रजनी तो कर ही हैं न उनकी देखभाल ? “ आनन ने समझाया ।
“ वैसे तुम तो बेहद घबराती हो न कोरोना से ? पूरा एक साल हो गया है तुम्हें मेरे साथ गाँव गए हुए । पहले हम तीनों हर शनिवार जाकर , इतवार शाम या सोमवार सुबह लौट आते थे उनसे मिल कर । अब मुझे हर शनिवार अकेले ही जाना पड़ता है । वरुण का चेहरा तक देखने को तरस गए अम्मा -बाबूजी , तुमने उसे एक बार नहीं भेजा मेरे संग । तुम्हें मैंने कितना तो समझाया कि गाँवों में कोरोना का भय बिल्कुल नहीं है , लेकिन तुमने मेरी एक न सुनी । लेकिन अब ................?”
“ छोड़िए न यह सब बातें , पहले नेट से सीट का पता लीजिए । “
“ नहीं इशाना , फ़्लाइट भी तो सेफ़ नहीं हैं । अब न तुम्हें भीड़ का डर है न वहाँ कोरोना से ग्रसित मम्मी -पापा वाले घर में संक्रमण ग्रसित होने का । “
“ यह मैं ही जानती हूँ आनन , कि वह दोनों मम्मी -पापा का कैसा और कितना ख़्याल रख सकते हैं , सेवा की तो बात ही दूर रही ?”
“ मैं यही तो समझाना चाह रहा हूँ इशाना , कि जीवन में दोहरे मापदंड अपना कर चल रहे हैं हम । अपनी भाभी से जो अपेक्षाएँ अपने मम्मी -पापा के लिए हैं न तुम्हारी , वैसी ही अपेक्षाएँ अम्मा -बाबूजी के प्रति मैं भी तो चाह सकता हूँ , चाहता रहा हूँ । कोरोना तो बस बहाना है , जिसे पकड़ कर बैठ गईं तुम । “ आनन ने थोड़ा तैश में कहा ।
“ मेरी चिंता में भागीदार न बन कर , अपने गिले -शिकवों की पोटली मेरे सामने खोल कर बैठ गए तुम आनन ? क्या यही अंडरस्टैंडिग बना पाए हम परस्पर ? “ डबडबाई आँखों से इशाना ने सवालिया निगाहों से देखा आनन की तरफ़ ।
“ यही तो , अंडरस्टेंडिंग का ही मसला है इशाना , आज वक़्त ने मम्मी -पापा , और अम्मा -बाबूजी को हमारे फ़र्ज़ के साथ आपने -सामने ला खड़ा किया है ।वक़्त हमें आइना दिखा रहा है , यदि समझें तो “ कहा आनन ने ।
इशाना हट गई वहाँ से , साहस नहीं था उसमें , आइने का सामना कर पाने का । ****
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क्रमांक - 058
जन्म : 28 फरवरी , होशंगाबाद - मध्यप्रदेश
शिक्षा : हिन्दी में उत्तरार्ध
सम्प्रति : शिक्षा विभाग मध्यप्रदेश में प्राथमिक शिक्षक।
विधा : -
कविता, बालकहानी, बाल कविता, लघुकथा, लेख आदि का लेखन
पुस्तक प्रकाशन : -
कविता प्रसून ( काव्य संग्रह )
सम्मान: -
- सरस्वती प्रभा सम्मान,
- डाँ प्रेमलता नीलम पुरस्कार ,
अन्य साहित्यिक संस्थाओं से सम्मानित।
विशेष : -
- अखिल भारतीय साहित्य परिषद् की विभिन्न राष्ट्रीय संगोष्ठियों में शोध आलेख प्रस्तुत । परिषद् से प्रकाशित पुस्तकों में आलेखों का प्रकाशन।
- वर्तमान में अखिल भारतीय साहित्य परिषद् भोपाल ईकाई के सचिव पद पर
- हिन्दी लेखिका संघ में कार्यकारिणी सदस्य के रूप में कार्यरत है।
- झुग्गी बस्तियों के बच्चों को निशुल्क शिक्षा देतीं है।
- शिक्षा के क्षेय में नये नये नवाचार करते हुये शैक्षणिक गतिविधियों को रोचक बनना
पता : 130 , कुंजन नगर फेस -1 , होशंगाबाद रोड़
भोपाल - 462026 मध्यप्रदेश
1. दादी जी से मिलन
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आज बिट्टू के स्कूल से सभी बच्चे व शिक्षक कहानी सुनने के लिए पास के बृद्ध आश्रम गये थे, प्रत्येक शनिवार कक्षाओं को बदल बदल कर कहानी सुनने ले जाया जाता है। आज बिट्टू की कक्षा की बारी थी, बृद्धाश्रम में गंगा दादी आज सबको कहानी सुनाने वाली थी,
सभी बच्चे तय समय पर बृद्धाश्रम पहुँच गये सभी ने आपस में दादा, दादी और नाना,नानी के साथ कुछ समय बिताया और फिर समूह बनाकर बैठ गये कहानी सुनने, गंगा दादी ने कहानी शुरु की प्यासे कौऐ की, और अंत में पूछा ? बताओ बच्चों यदि आप कौऐ की जगह होते तो मटके से पानी कैसे निकालते? बिट्टू छट से बोल पड़ा, दादी मटके में हाथ डालकर ,पत्थर गंदे होते है न ,
दादी ने पूछा यह कहानी आपने पहले सुनी है?
हाँ दादी ,पापा जी सुनाते है,
उनको उनकी मम्मी भी यही कहानी सुनाती थी ,.वो भी रोज , हर बार पापा इसी कहानी को पहले सुनते थे ,फिर दूसरी कहानी सुनते थे, दादी भावुक हो गयी, अतीत के चित्र आँखों में तिरने लगे ,भावनाओं का बाँध जगह जगह से दरक गया, रिसते दर्द ने रिश्तों की टीस बहा दी, फाँस सी मन में कुछ गड़ने लगी।
बिट्टू को पास बुलाया और
गले लगाकर जी भरकर रोई,
बिट्टू भी रोने लगा, पर न बिट्टू को पता कि मेरी दादी यही है, और न दादी को पता कि मेरा पोता यही है, पर एहसासों का तालाब नेह के आँसुओं से भर रहा था। ****
2. करवा चौथ
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पति की फोटो की आरती उतारती, छलनी से चाँद देख लेती थी।चाँद तो वही पहली करवा चौथ पर जो था, दसवी पर भी वही है।
इन दस सालों में बाकी सब बदल गया| रुनझुन करती पायल के घुँघरू की आवाज वह अपने सूने पैरों में ढूँढने लगी।
तभी पैरों की लडखडाने की आवाज आती है, और रुक्ष ध्वनि गूँजती है,
"ला रोटी, ला री, भूख लगी है, कहाँ मर गयी।" अचानक चाँद की लालिमा चेहरे पर पड़ती है|
करवे से घूँट घूँट पानी सा दर्द पीती हुई, व्रत तोड़ लेती है।
वह शराब पीकर औधा पड़ा, आधी रात को उठेगा और रोटी खाकर फिर औधा हो जाएगा।
बच्चों को खाना परोसकर खुद कुछ निवाले निगलने ही वाली रहती है कि, हाथों की मेंहदी ,चूडियाँ और माँग दहकने लगती है| मुंह तक जाकर निवाला फिर थाली में पहुँच जाता है| ये श्रृंगार पड़ोसनों को या रिश्तेदारों को दिखाने के लिए है या घर को घर बना रहने देने के लिए? उसे लगा आसमान में चमकता चाँद अब गलने लगा है| तभी तंद्रा टूटती है| उसने छुटकी की ओर देखा| छुटकी कहती है, "माँ खाओं न ?चाँद तो देख लिया।" *****
3. घर का सुकून
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वह बदहवास सी चली जा रही थी, कदम लटपटा रहे थे, एक बच्चा गोदी में था,एक पल्लू पकड कर पीछे पीछे चल रहा था।
पेट सात माह का, पर इस समय भूल ही गयी कि "डाँ ने चलने फिरने के लिए मना किया है"
चलते चलते एक पत्थर से टकरायी और फिर सँभल गयी, खुद गिरते गिरते बची, तंग आ चुकी थी रोज रोज की किचकिच से, "आज भी उसको तरी वाली सब्जी चाहिए" ,एक तो दारू ऊपर से खाने को माल ,कहाँ से लाऊँ ,इसके चार चार बच्चे पालूँ ,कि इसकी फरमाईस पूरी करूँ ,अब जा रही हूँ तो लौटकर नही आऊँगी," फिर मारना किसको मारता है", बुदबुदाती हुई ,बच्चे को कनिया पे सभाँलती हुई चली जा रही है।
बस चौखट आ ही गयी,
जैसे ही चौखट पर कदम रखा,
अंदर से आवाज आ रही थी, "तुम्हारे पाँच बच्चे पालूँ कि तुम्हें तरी वाली सब्जी खिलाऊँ,
घर के अंदर से आ रही सिसकियाँ उसके अंतस को भेद रही थी।
भाभी रो रही थी,भाई नशे में गालियाँ दे रहा था, बच्चों की रोटी माँगने की आवाज आ रही थी।
उसने एक बार अपने बच्चों को देखा और विना कुंडी खटकाएँ उल्टे पैर अपने ही घर चल दी थी,घर का सुकून पाने को। ****
4. कन्या भोज
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"सुबह से देख रही दस लोग आ गये मोडि़यों को कन्या खिलाने लाने कहवे" दादी बडबडा रही थी,
खुशी पूछ बैठी "क्या हुआ दादी"?
कुछ नही छोरी, वे सामने वाले तिवारी जी की अम्मा ,पीछे वाले चतुर्वेदी जी की पत्नी, यादव जी की बहन, मीना की बिटिया ,सभी तुम चारों को कन्या जीवनें को बुला गयी है,
अच्छा है न दादी पैसे भी मिलेंगें
अहा! बहुत मजा आता है,
मैं दीदी के साथ पलक और चहक को भी ले जाऊँगी।
"आपने मना तो नही किया न दादी"?
"नही री बडबोली " नही किया।
धर्म के काम में मै काहे अडंगा लगाऊँ।
"तो फिर मैं तैयार होती हूँ दादी"।
उछलती कूदती दौड़ कर माँ के गले लग जाती है,
"माँ तैयार कर दो कन्या जीवने जाना है।"
हाँ ,हाँ करती हूँ,
दादी के कान बात पड़ गयी,
दादी फिर बडबडाई ,अपनी बहुओं के तो एक एक छोरे पैदा करवा के बंद करवा दये,
अब कन्या लाने घर खूँदे खाये,
दस -दस ,बारह- बारह , साल हुये इनकी बहुओं को
दो - दो बेटियाँ उनकी भी होती,
यूँ छोरियों के टोटे न पड़ते।
एकही घर भरपेट रोटी खा लेय फिर का झूठों मुँह करनो है और का।
दादी बुदबुदा रही थी,
खुशी मटक मटक कर तैयार हो रही थी,
माँ मान से बेटियों को तैयार करके कन्या जीवने भेजने में मन ही मन मुस्कुरा रही थी। *****
5. कुंभ
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सुबह सुबह साँची कार्नर पर वर्मा जी ने शर्मा जी से पूछ लिया आप आठ दस दिन से दिखे नही शर्मा जी ,कहाँ थे?
शर्मा जी बडे गर्व से बोले कुंभ नहाने गया था। रात में ही लौटा हूँ। कुंभ की महिमा पता है न आपको? और जोश से कहने लगे
-- कि कार्तिक में एक बार गंगा स्नान करने से, माघ में सौ बार गंगा स्नान करने से, और बैशाख में करोड़ बार गंगा स्नान करने से जो फल मिलता है, वह प्रयाग के कुंभ पर्व में केवल एक बार स्नान करने से प्राप्त हो जाता है,
शर्मा जी बडे गर्व के साथ बोलते रहे सुन रहे हो न! मैं तो हर बार कुंभ में स्नान करता हूँ। "पिछली बार उज्जैन भी गया था" और इस बार संक्रांति पर प्रयाग भी होकर आया हूँ। प्रयाग में स्नान का बड़ा महत्व है,
भाई मैंने तो बहुत पुण्य लाभ कमाये है, "इस मनुष्य जीवन में दान पुण्य कर लो और रखा क्या है"?
वर्मा जी व अन्य लोग सुन कर भी अनसुना कर रहे थे, साँची कार्नर वाला जोर से हँसा और बोला, "हाँ !कह तो आप एकदम सही रहे हो शर्मा जी"
तभी बुजुर्ग राजबैध जी जो शर्मा जी के पिताजी के अच्छे मित्र थे, उनसे न रहा गया, वे अभी अभी अपने पोते को स्कूल बस में बैठाकर ,साँची कार्नर पर दूध की थैली लेने आये थे, और शर्मा जी की शेखी भरी बातें सुन रहे थे,
बोले बेटा अच्छा है तुम कुंभ नहाकर पुण्य करके आये हो,
थोड़ा सा जल अपने बृद्धाश्रम में रह रहे माता पिता पर भी छिडक आना , वे तो एक भी कुंभ नही नहाये, हो सकता है कुछ छींटो से ही पुण्य लाभ मिल जाये उन्हें, अब शर्मा जी की गर्दन नीचे थी, और सब एक दूसरे का मुँह देख रहे थे। ****
6.माँ की चेतावनी
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मैं तड़प रही थी, मेरा तन जल रहा था, गला सूख रहा था, मेरे शरीर पर चेचक हो गयी थी तब मैनें ,कहा था- "पुत्र मुझे तकलीफ हो रही है", पर मेरे मानस पुत्र ने मेरी बात पर गौर नही किया था।मेरी रगो में बहते नीर को निकाल लिया,मेरी देह जिन पौधों के जकड़े रहने से बनती है,उन्हें जड़ से उखाड़ दिया,मेरे लौह खनिज को उत्खनन किया,मेरे मोती मानक सब ले लिये,न जल सहेजा न गोद हरी की ,न मेरे आवरण की रक्षा की,इतने पर भी नही रुका,मेरी ही संतानों को कच्चा, पका,अधपका करके खाना भी शुरू कर दिया, कोटि कोटि अन्न मेरे खेतों में उपजे,पर मेरे मानस पुत्रों ने शतुरमुर्ग और मुर्गियों के गर्भ खाने शुरु कर दिये ,और खाते रहे एक सदी तक.. आज भी खा रहे है, चील चमगादड़ ,सुअर , कुत्ता,बिल्ली,बैल ,भैंसा, यहाँ तक की मेरी भगिनी गाय को भी भूनकर खा गये। मैं युगों-युगों से धैर्य रखती रही,पर कब तक रखती,मेरी छाती पर पाप का भार बढ़ने लगा, तब मैनें चेताया,पर मेरा मानस पुत्र तब भी नही चेता, मैनैं अब दुबारा चेतावनी दी है "चेत जा मेरे वत्स! चेत जा! अब भी समय है", हे मूर्ख!"तू पानी बेचने लगा,कोख बेचने लगा,और अब हवा भी....।" ईमान तो कब का बेच चुका, माँ हूँ इसीलिए कुछ अनहोनी से ही चेतावनी दे रही हूँ, सबक सिखा रही हूँ, नही तो मेरी बददुआओं का असर इतना होगा कि बस प्रलय ही आएगा अब ।
मेरी पीड़ा भी समझ और अपना जीवन भी सुखमय बना,बस कर अब सुधर जा रे मनवा! ****
7. कन्या जिमा दें
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"आज दुर्गा अष्टमी का दिन है, कन्या जिमानी थी , पर कोरोना के कारण बच्चियों को कौन हमारे घर आने देगा?" बूढ़ी दादी अपनी बहू से कह रही थी। बहू ने अपनी दोनों बेटियों की तरफ देखकर बोला, " दो देवियाँ तो अपने ही घर में है" बाकी तीन और मिल जायें पाँच कन्या हो जाएँगी, बस ठीक है।
बात बूढ़ी सास को अच्छी लगी ,तीन कन्याओं की जुगाड़ की जुगत शुरु हो गयी, बेटा बोला- माँ ,अपनी काम वाली की तीन बेटियाँ है ,उन्हें ही बुला लीजिएगा, गरीब भी है ,और आसानी से आ भी जाएगी,
हाँ वो तो ठीक है ,पर उसकी दो ही बेटी कन्या है ,तीसरी तो...आपको पता नही क्या? .......बहू ने धीमी आवाज में कहा- "मैं समझाती हूँ, अरे! उसकी तीसरी बेटी जिसे कुछ ही समय पहले शराबी रज्जन ने नशे में .......... फिर उसका मेडिकल हुआ था....... और फिर रज्जन को जेल हो गयी.... अम्मा जी वो लड़की मुनिया अब कन्या थोड़ी ही है..... ये तो कुछ समझते ही नही! पति....अवाक ..."मैं सब समझता हूँ ,पर हम पढ़े- लिखे लोग है ,जानती हो इसमें उस नन्ही बच्ची की क्या गलती है?"औरत होकर .....एक माँ होकर.... तुम ऐसा सोचती हो। तो फिर कन्या जिमाना ही क्यों?
हाँ ! मैं क्या? पूरी दुनियाँ यही सोचेगी, हम अपनी परम्पराओं को तो नही बदल सकते है न......
बहू बड़बड़ करती रसोई में माँ दुर्गा की पूजा के लिए भोग बनाने चली गयी...
बूढ़ी माँ नहाकर आयी ,बेटे और बहू की बातें उसके कान तक भी पहुँच गयी, बोली --- बेटा कामवाली की तीनों बेटियों को ले आ और उस छुटकी को गोदी बिठाकर लाना, माँ दुर्गा का साक्षात् रूप है,
उसके साथ हुये अत्याचार से ........
उस अबोध का क्या दोष है? दोषी तो जेल गया ना।वो कन्या है ...कन्या ही है..... बेटा....पता है न ययाति की पुत्री माधवी भी अनेक राजाओं को पुत्र देकर हमेशा कौमार्य पूर्ण ही रही थी।
तब माधवी का वश नही था.... आज इस अबोध का......जा बेटा बुला ला तीनों बेटियों को शुभ मुहुर्त में कन्या जिमा दें। ***
8. परिवर्तन
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आजकल के बच्चे भी क्या है? समझ नही आता दिन भर वाटसएप ,फेसबुक ,इंस्टाग्राम, ट्विटर, व्लॉग, दिनभर फोन पर टिकटुक लगे रहते है। दादाजी समाचार पत्र हाथ में लिए लिए बड़बड़ा रहे थे।
तभी उनका माचिस नुमा फोन बज हुआ, उधर से आवाज आयी, कैसे हो शर्मा जी? शर्मा जी ने समाचार पत्र मोड़ लिया और झटपट बोल पड़े "ठीक हूँ यार वर्मा", घर में पड़ा- पड़ा वोर हो रहा हूँ।
अब तो कोरोना ने गोष्ठियाँ भी बंद करा दी।
कितना पढ़े और लिखे,
यार दोस्त से आमने सामने मिलने का मजा ही कुछ और होता है यार! शर्मा जी एक श्वास में सब कह गये। वर्मा जी उधर से बोल उठे - यार मैंने अपना फोन बदल लिया है ,नया एण्ड्रॉयड फोन ले लिया है , लाइव फेसबुक कार्यक्रम आजकल बहुत आ रहे है ,देख रहा हूँ और फेसबुक लाइव पर अपनी रचनाओं को विभिन्न समूहों में सुना भी रहा हूँ, मन भी हल्का रहता है ,और समय भी कब निकल जाता पता नही चलता,
सुनते ही
शर्मा जी के फोन की पकड़ ढीली हो गयी, जो व्यक्ति फोन पर वाटसएप और फेसबुक चलाने वालों को वाटसएपिया,फेसबुकिया कहकर उपेक्षित करता था वही आज.........
शर्मा जी ने अंतिम शब्द अपने मित्र वर्मा से फोन पर कहे - " हाँ फिर मिलते है,अब फोन रखो'"
और उठकर चल दिये पोते के पास बेटा मेरे मोबाइल में भी वाटस एप व फेसबुक डाल देना,
फेसबुक लाइव के ख्याल ने चेहरे को चमका दिया था।
पोता दादाजी के परिवर्तन पर विस्मृत मुस्कुरा रहा था। ****
9.नेग वापसी
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चौधरी जी की बगिया में एक फूल खिला है। बधाये गाये जा रहे है, पाँच बेटियों के बाद बेटा हुआ है । चारों बुआएँ फलों व बताशे की टोकनियाँ भर भर कर भतीजे के ऊपर से उतार रही है ।उनका भाई भी तो चार चार बहनों के बीच अकेला है ,खूब लाड प्यार से पला है ,इतना प्यार चारों को नहीं मिला उससे ज्यादा उसे मिला था। सुबह शाम माँ और दादी उसकी बनाए लेती नहीं थकती थी ।अब भतीजे की बलाएँ ले रही है ,भाभी रुनझुन करती सोलह सिंगार से सजी सँवरी घूम रही है पोते के आने से दादी के पैर जमीन पर नहीं है ,आज वह भी सजी सँवरी है ,बधाएँ गाने बालियों की एक-एक थाप पर उसका अंग अंग रोमांचित हो रहा है। बेटे की माँ मिठाई के डिब्बे उठा उठा कर सबकी झोलियाँ भर रही है ।पंडित से पुजारी तक सब दान में पुरे हुए हैं। गाने बजाने नेग लेने किन्नर भी आ गए, दादी ने मुँह माँगी राशि दी ,बहुत देर ढोलक की थाप पर तालियाँ बजी ,कमर मटकी ,और बस वे लौटने लगे ,दरवाजे की ओट में खड़ी थी डरी सहमी पाँचों बेटियाँ उतरे चेहरे ,पुराने कपड़े ,ललचायी आँखे ,तरसे मन, उनके हिस्से का पूरा प्यार आज माँ और दादी उनके भाई पर लुटा रही थी। अभी तक वह सुनती ही आयी थी ,पता नहीं कैसी बेटियाँ हैं एक की किस्मत में भी भाई नहीं है सब की सब एक के बाद एक चली आई यहाँ करम जली ,बड़ी बेटी सोच ही रही थी कि जाते-जाते एक किन्नर ने पूछ लिया मिठाई खाओगे ?बोली हां ,"यह हमारा ही भाईहै' हम बहुत खुश हैं ।
किन्नर के पैर जम से गए पीछे पलटकर देखा तो दादी पोतियों को घूर रही थी बोल पड़ी जाओ अंदर सब की सब यहां भी चली आई, हमारी छाती पर मूंग दलने पैदा हुई, किन्नर खड़े-खड़े सब सुन रहा था उसका कलेजा दादी के व्यवहार से कांप गया मासूम चेहरों के साथ इतना अन्याय क्या किसी के जन्म पर उसका बस है ?लड़का ,लड़की और किन्नर बनकर आने में क्या उनका ही दोष होता है? वह इंसान था ,नेग दादी के हाथ में रख कर दे ताली ,दे ताली ,ठोक चिल्लाने लगा यह पैसे रख दादी इन पैसों से अपनी पोतियों को अच्छे कपड़े व मिठाई खरीदना। तू एक पोते के पीछे इन पाँच पोतियों को घूर रही है। भाग्यशाली समझ अपने आप को ,इन पाँचों की किस्मत से ही यह आया होगा। पोतियों का मुँह पोछकर दिया गया नेग हमें बरकत नहीं देगा ।ले संभाल तेरा नेग और बेटे की माँ को घूरत हुआ निकल गया। ****
10.साथ रहकर भी अनाथ
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बिस्तर पर पड़े पड़े मनोरमा जी को साल भर से ज्यादा हो गए थे । घर में नौकर चाकर सब थे,रोटी वाली, झाड़ू पोछा करने वाली, पानीपोता कर कपड़े बदलने वाली, दवाई से लेकर दलिया व सूप देनेवाली ,समय-समय पर बीपी व शुगर चेक करने वाली ,बैठाकर उठानेे वाली और उठाकर बैठाने वाली उठाकर लेटाने वाली आसपास भीड़ लगी रहती थी ,एक आती तो दूसरी चली जाती है दूसरी आती तो तीसरी चली जाती ह,ै दिन भर में छह सात नर्स उनकी देखभाल व बाकी काम कर दिया करती हैं ,यह सब बहुत लंबे साक्षात्कार के बाद नियुक्त हुई थी सभी की तनखा काफी मोटी थी, मनोरमा के एमडी बेटे के द्वारा इनकी नियुक्ति हुई थी।
मनोरमा जी के बेटे बहू पोते पोती उनके उठने से पहले निकल जाते और सोने के बाद ही घर मे आते कभी कभी वे उनको आते या जाते देख भर लेती थी। जब जब भी आते व जाते वे अपने बेटे व पोते को देखती तो एक उम्मीद आँखों में चमक उठती ,बेटा पास आकर बैठेगा और पूछेगा, माँ कैसी हो, खाना खाया ,पर नही यह आस बस आस ही रह जाती। उन्हें याद आ जाता 30 साल पहले का वह मासूम साल भर का बच्चा जो दूध की बोतल हाथ में लिए दरवाजे पर आया के हाथ में लटका हुआ है, माँ माँ चिल्लाता और रोता हुआ अपने हाथ से अपने आंसू पोंछता । पर माँ अपनी गाड़ी उठा कर ऑफिस की तरफ चल दी थी पीछे छूट जाती उस मासूम की सिसकियाँ और फैली हुई दूध की बोतल ।
मनोरमा रोज आँखें गीली करती और अपने ही हाथों वो अपने आँसू पोछ लेती। ****
11. उपचार
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आज तिवारी जी अस्पताल में बैठे थे ,कि उनके पड़ोसी शर्मा जी भी उनके पास आकर बैठ गये। दोनों की फाइल दोनों के बेटे लिए हुए टोकन नंबर ले रहे है। टोकन नम्बर लेकर दोनों बेटे अपने अपने पिताजी के पास आए, तो एक दूसरे को नमस्कार कर खड़े रहे ।वैसे तो तिवारी जी का इलाज लंदन के जाने-माने अस्पताल में चल रहा है, क्योंकि उनका बेटा लंदन में ही रहता है पर वे यहाँ एक शादी समारोह में आये थे तो महामारी में बंद के दौरान यहीं पर रुक गए है,और अपने इलाज के लिए शहर के जाने-माने हृदय रोग विशेषज्ञ के पास आए है।शर्मा जी ने पूछ ही लिया - "तिवारी जी आप का इलाज तो लंदन के बहुत अच्छे अस्पताल में चल रहा था?" पर आप यहाँ? तिवारी जी बड़ी शान से बोले - हाँ ..हाँ .."मेरा इलाज तो लंदन में चलता है; पर अभी जा नहीं सकते इसीलिए मजबूरी में रूटीन चेकअप के लिए यहाँ पर आया हूँ।"
शर्मा जी - ओह ! तो यह बात है । पर तिवारी जी अभी जो बीमारी फैली उससे तो बहुत लोगों की मृत्यु हुई वहाँ पर , तो क्या वहाँ की स्वास्थ्य सुविधाएँ ठीक नहीं है? तिवारी जी सकपके से बोले - "स्वास्थ्य विभाग तो सब ठीक है; वहाँ पर पैसा बहुत लगता है ।
शर्मा जी- अच्छा अच्छा
"हम जैसे लोग वहाँ उपचार नही करा पाएगें यही कहना चाहते है न आप।"
तिवारी जी - नही मेरा मतलब आपके लिए् नही था।
शर्मा जी - ठीक है ,ठीक है , कह लीजिए ,गलती आपकी नही है ,हमारी सोच ही पश्चिमी हो गयी है, हमें लगता है हमारे यहाँ से बाहर हम जल्दी ठीक हो जाएगें,
पर आप मानों या न मानों ;
इस महामारी ने विदेशी स्वास्थ्य प्रक्रिया की पोल खोल कर रख दी है।तिवारी जी का बेटा बोलने ही वाला था। नही अंकल जी ऐसा नही कि-- तिवारी जी ने उसे रोक दिया ,"तुम शांत रहो, दो बडे़ बात कर रहे है न"
तिवारी जी- कहिये शर्मा जी आप अपनी बात ,
क्या कहे तिवारी जी ? हम भारतीय विदेशी उपचार पर अधिक भरोसा करके करोड़ों रुपये विदेश में दे आते है , और अपने देशी इलाज को छोड़ रहे है,
मेरे ही बेटे ने मुझे यहाँ ले आया, मैनें उससे बैध जी के पास जाने को कहा था। कहने लगा एलोपैथी से आप जल्दी ठीक हो जाएँगे, मै भी शांत रहा, ये आजकल की पीढ़ी।
बस इतना कहा और उसास भरकर नीचे देखने लगे।
आप को भी बेटा ही ले गया होगा लंदन।
तिवारी जी कुछ कहते इसके पहले ही उनका नम्बर आ गया है।वे डॉ ०के पास जाने के लिए उठ खड़े हुये। ****
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क्रमांक - 059
जन्म : 08 अक्टूबर 1959 को बस्ती - उत्तर प्रदेश
लेखन : 1980 से सतत् बाल कहानियाँ, पत्र , गज़लें, कविताएँ, लघुकथाएँ, व्यंग्य, समीक्षा एवं संस्मरण लेखन में सक्रिय।
संप्रति : म.प्र.पश्चिम क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन।
प्रकाशित कृतियाँ :-
‘अंतहीन रिश्ते’ (लघुकथा संग्रह, 2019) ‘
भूख से भरा पेट’ (लघुकथा संग्रह, 2021)
संपादन : 'अनाथ जीवन का दर्द' लघुकथा संकलन -2021
पुरस्कार/सम्मान : -
- अखिल भारतीय माँ शकुंतला कपूर स्मृति लघुकथा प्रतियोगिता – 2019 (फरीदाबाद, हरियाणा) में ‘श्रेष्ठ लघुकथा’ का पुरस्कार।
- सामाजिक आक्रोश , सहारनपुर (उ.प्र.) द्वारा आयोजित अ.भा.लघुकथा प्रतियोगिता – 2020 में द्वितीय पुरस्कार।
- कथादेश अ.भा.लघुकथा प्रतियोगिता -12 (नई दिल्ली) में पुरस्कृत।
- क्षितिज साहित्य मंच, इंदौर व्दारा 2019 में ‘लघुकथा विशेष उपलब्धि सम्मान’।
- विश्व हिन्दी रचनाकार मंच, दिल्ली व्दारा ‘अटल हिन्दी सम्मान’।
- डॉ.एस.एन. तिवारी स्मृति साहित्य सम्मान-2020 । कहानीकार स्व.कमलचन्द वर्मा की स्मृति में ‘मालव मयूर’ सम्मान-2021
विशेष : -
- अनेक लघुकथाएँ अंग्रेजी, पंजाबी, उड़िया, गुजराती, नेपाली, बांग्ला, उर्दू, मालवी बोली एवं मराठी में अनूदित।
- लघुकथा ‘माँ के लिए’ का नेपाली भाषा में, नेपाल में अभिनयात्मक वाचन।
- चार लघुकथा संकलन एवं चार कविता संकलन में साझेदारी
संप्रति : म.प्र.पश्चिम क्षेत्र विद्युत वितरण कंपनी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्त होकर स्वतंत्र लेखन।
संपर्क :
पता :168–बी, सूर्यदेव नगर, इंदौर - 452009 मध्यप्रदेश
1. माँ के लिए
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हम पति-पत्नी मंदिर में दर्शन करके जब बाहर निकले, तो देखा पत्नी की नयी की नयी चप्पल गायब थी। हम परेशान होकर इधर-उधर ढूँढ़ने लगे, तभी मेरी नजर एक गरीब से दिखने वाले पाँच-छह साल के बच्चे पर पड़ी, जो पत्नी की चप्पल लेकर जारहा था।
मैं तेज कदमों से उसके नजदीक पहुँचा, और उसे रोकते हुए पूछा --"बेटा ! आप ये चप्पल लेकर कहाँ जारहे हो ?"
"घर जारहा हूँ।"
"ये चप्पल तुम कहाँ से लाये ?"
"मंदिर के बाहर से ।"
"बेटा ! तुम इस चप्पल का क्या करोगे ?"
"मैं इसे अपनी माँ को दूँगा।"
"माँ को दोगे..."
"हाँ...क्योंकि मेरी माँ के पास चप्पल नहीं है। हम लोग गरीब हैं।"
"लेकिन बेटा ! ये तो चोरी की चप्पल है ।"
"चोरी ! ये चोरी क्या होती है ?"
"बेटा ! किसी से पूछे बिना उसकी कोई चीज़ ले लेना, चोरी कहलाती है। जो बुरी बात है।"
"मुझे तो ये मालूम नहीं था।" इतना कहकर वह बालक कुछ सोचने लगा। फिर कुछ सोचने के बाद वह मुड़ा, और मंदिर की तरफ जाने लगा, तब मैने उसे रोककर पूछा--"बेटा ! तुम कहाँ जारहे हो ?"
"मंदिर।"
"क्यों ?"
"चप्पल रखने।"
"मत जाओ बेटा ! तुम अब ये चप्पल लेजाकर अपनी माँ को दे दो।"
"लेकिन ये तो चोरी की है।"
"अब ये चोरी की नहीं है ।"
"वो कैसे ?"
"क्योंकि ये हमारी चप्पल है, और हम तुम्हें इसे ले जाने की इजाज़त देते हैं।"
यह सुनकर वह बालक बहुत खुश हुआ, और फिर खुशी-खुशी चप्पल लेकर अपने घर की ओर चल दिया।
उसके जाते ही पत्नी आई, और आते ही पूछने लगी --"अरे...आपने उसे चप्पल क्यों ले जाने दिया ?"
"क्योंकि वो अपनी माँ के लिए ले जारहा था। चलो मैं तुम्हें दूसरी दिला देता हूँ।" ****
2. नि:शब्द
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शाम को छह बजे बाद नगरनिगम की गाड़ी हार्न बजाती हुई आई और हाथ ठेले पर सब्जियां बेचने वालों को जोर-जबरदस्ती कर भगाने लगी।
"पापा ! ये हमें सब्जियां बेचने क्यों नहीं दे रहे हैं, भगा क्यों रहे हैं ?" कैलाश के साथ सब्जियां बेचने आए उसके दस वर्षीय पुत्र ने पूछा।
"बेटा ! लॉकडाउन में दी गई छूट का समय ख़त्म हो गया है ना, इसलिए।" कैलाश ने हाथ ठेला आगे बढ़ाते हुए जवाब दिया।
"पापा ! हमारा सब्जियां बेचने का समय ख़त्म हो गया, लेकिन शराब बेचने वालों का क्यों नहीं हुआ ?"
बेटे का सवाल सुनकर कैलाश नि:शब्द होगया। ****
3. बुरे बन जाओ
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"पापा ! आप थोड़े बुरे बन जाओ।" आठ वर्षीय कायरव ने कार्तिक से कहा।
"क्यों बेटा ! बुरा क्यों बन जाऊं ?" कार्तिक ने कायरव के सर पर हाथ फेरते हुए पूछा।
"पापा ! आप बहुत अच्छे हो। न कभी मुझे डॉंटते हो, और ना ही कभी मम्मा को। हमसे कोई गलती हो जाती है, तो आप बड़े प्यार से समझा देते हो। जबकि पड़ोस के चिंटू और उसकी मम्मी को उसके पापा डॉंटते भी और कभी-कभी मारते भी हैं। इसलिए आप बुरे बन जाओ, क्योंकि अच्छे लोगों को भगवान अपने पास बुला लेतें हैं...।"
"तुमसे ये किसने कहा ?"
"मैंने दादी को फोन पर किसी से बात करते हुए सुना था कि अच्छे लोगों को भगवान अपने पास जल्दी बुला लेतें हैं...।"
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4.याद रखना
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"बेटा ! क्या बात है तरबूज ज्यादा बिके नहीं ?" शाम को जब सूरज घर लौटा तो ठेले पर बचे तरबूजों को देखकर गिरधारी लाल ने पूछा।
"हां, पापा ! न जाने क्यों नहीं बिकें ?"
तभी गिरधारी लाल से मिलने आए एक फल विक्रेता ने पूछा -" क्या भाव बेच रहे थे ?"
"दस रुपये किलो।"
"अरे ! मैं और सब लोग पन्द्रह-बीस रुपये बेच रहे हैं, तो तुम दस रुपये किलो क्यों बेच रहे हो ?"
"जी, पापा ने कहा था।"
"अरे गिरधारी लाल ! लड़के को तुमने दस रुपये किलो बेचने को क्यों कहा।"
"यार मोहन ! ईमानदारी से दो-तीन रुपये किलो बच जाएं वहीं बहुत है। इसलिए मैंने कहा था।"
मोहन ने सूरज और गिरधारी लाल की तरफ देखकर कहा -"आज मैं तुम दोनो को एक सलाह दे रहा हूं, गांठ बांध लेना।तुम्हारा तरबूज इसलिए नहीं बिका क्योंकि दस रुपये किलो बेचने से ग्राहकों को लगता है कि तरबूज अच्छी क्वालिटी का नहीं है, सड़ा-गला होगा, तभी नही खरीदा। हम लोग महंगा बेचते हैं तो ग्राहक अच्छी क्वालिटी का समझकर खरीद लेते हैं, भले ही ख़राब क्यों न हो। अब तुम कल से पन्द्रह-बीस रुपये किलो बेचना, देखना सारे बिक जाएंगे।" थोड़ा रुककर मोहन ने गिरधारी की तरह देखकर कहा -"ज्यादा ईमानदार बनोगे तो फायदा तो दूर, उल्टे घाटें में रहोगे, याद रखना।" *****
5. कसाई
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"साब ! ये इंजेक्शन कितने का है ?" मैंने मेडिकल स्टोर वाले से इंजेक्शन लेकर उस पर छपे मूल्य को देखकर पूछा।
"एक हजार का।"
"लेकिन इस पर तो दो सौ बीस रुपये लिखें हैं...!"
"तो...?"
"साब ! मैं गरीब हूँ। कुछ छूट दे दो। पाँच इंजेक्शन लेना है।" मैंने विनती की।
"लेना हो तो लो, नहीं तो जाओ यहाँ से। इससे कम में नहीं आएगा।"
"साब ! मेरी माँ बहुत बीमार है। उन्हें ये इंजेक्शन लगवाना बहुत जरूरी है...नहीं तो उनकी जान जा सकती है।" मैंने हाथ जोड़कर कहा।
"एक बार कह दिया न ! समझ में नहीं आता है क्या ? चलो जाओ यहाँ से।" मेडिकल वाले ने मुझे दुत्कारते हुए कहा।
मैंने जेब से तीन हजार रुपये निकाले और उसे देते हुए कहा -"मेरे पास सिर्फ तीन हजार रुपये हैं। आप तीन इंजेक्शन दे दो।"
उसने तीन इंजेक्शन दिए। लेकर जाते समय मेरे मुँह से अनायास ही निकल पड़ा -"स्साला... कसाई...!" ****
6. दूसरी ओर
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एक बुजुर्ग और एक युवा गधा आपस में बातें कर रहे थे।
युवा गधा बोला - "दादा जी ! मनुष्य जाति के लोग किसी को जब मूर्ख कहना होता है, तो वे उसे गधा कहते हैं, क्या ये हमारी गधा जाति का अपमान नहीं है ?"
"बेटा ! तुम मनुष्यों की बातों पर ध्यान मत दो। वे जहां एक ओर हमारा मज़ाक उड़ाते हैं, तो वहीं दूसरी ओर हमारी तारीफ भी तो करते हैं।"
"तारीफ़ करते हैं ?"
"हां, जब भी कोई मनुष्य काम में जी-जान से जुटा रहता है, तो मनुष्य उसे कहते हैं कि गधे की तरह काम में लगा रहता है। इसका मतलब ये होता है कि हम गधे मेहनती होते हैं। क्या यह हमारी बिरादरी की तारीफ नहीं है ?"
"..."
बुजुर्ग गधे ने पुनः समझाते हुए कहा -"बेटा ! हमें नकारात्मक सोच नहीं रखना चाहिए, सकारात्मक रखना चाहिए, तभी हम दुखी होने के बजाय खुश रह सकेंगे।" ****
7. मेरा तीर्थ
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"सुना है कि तुम तीर्थ पर गये थे ?"
"सही सुना है तुमने।"
"कौन से तीर्थ पर गये थे ?"
"गाँव।"
"गाँव ! गाँव कोई तीर्थ होता है क्या ?"
"हाँ..."
"वो कैसे ?"
"क्योंकि वहाँ मेरे माता-पिता रहते हैं।" *****
8. नपुंसक
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पश्चिमी संस्कृति में रची बसी किरण की शादी, उसके माता-पिता किसी भारतीय लड़के से करना चाहते थे। जब इसी सिलसिले में किरण अपने माता-पिता के साथ अमेरिका से भारत आई और कुछ दिनो बाद जब वह अपनी एक भारतीय सहेली सुधा से मिलने उसके घर गई, तो उसकी सहेली ने उससे पूछा --"किरण ! मुझे आज तेरी मम्मी ने फोन पर बताया था कि तूने अभिषेक के साथ शादी करने से इंकार कर दिया है। तूने ऐसा क्यों किया ? जबकि वह तो बहुत ही अच्छा लड़का है।"
"क्योंकि वह नपुंसक है।"
"नपुंसक है ! तुझे कैसे मालूम पड़ा यार कि वह नपुंसक है ?"
"क्योंकि मैं उसके साथ चार दिन पहले एक गार्डन में घूमने गई थी, तीन दिन पहले नाइट शो मूवी देखने गई थी और दो दिन पहले ही उसके साथ उसके बेडरूम में एक घंटे तक अकेली भी थी। लेकिन उस शख्स ने मेरे साथ इन तीनो जगहों पर ऐसी कोई हरकत नहीं की कि जिससे मुझे ये पता चल सके कि वह मर्द है।"
"किरण ! ये भारत है, तेरा अमेरिका नहीं। भारतीय संस्कृति में शादी से पहले...।" ****
9.रोजी-रोटी
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"भैया रुको !" मैंने घर के सामने से अक्सर निकल कर जाते हुए एक मैले-कुचैले कपड़े और टूटी हुई चप्पल पहने कमजोर से दिखने वाले अधेड़ व्यक्ति से कहा।
मेरी आवाज़ सुनकर वह रुक गया, तब मैंने उसके करीब जाकर पूछा -"मेरे पास दो जोड़ी पेंट-शर्ट पड़े हैं और एक जोड़ी चप्पल। अगर तुम कहो तो मैं लाकर दे देता हूं।"
उसने लेने से साफ इंकार कर दिया। तब मैंने उसके कपड़ों की तरफ़ इशारा करते हुए कहा -"इतने गंदे कपड़े पहने हो, क्या तुम्हें बीमारी नहीं होती है ? ठहरों मैं लाकर देता हूँ।"
उसने रूखी आवाज में कहा -"नहीं बाबूजी ! मुझे कपड़े नहीं चाहिए। मेरे ये गंदे कपड़े और मेरी टूटी चप्पल से ही मेरी रोजी-रोटी चलती है।"
"रोजी-रोटी चलती है ! मैं कुछ समझा नहीं ?"
"बाबूजी ! अच्छे कपड़े और चप्पल पहनने से पेट थोड़े न भर जाएगा। ये पहने रहता हूं, तो लोग मुझ गरीब, बीमार, अनाथ को देखकर, तरस खाकर, पच्चीस-पचास रुपये दे भी देते हैं, अगर अच्छे कपड़े और चप्पल पहनूंगा तो कोई एक रुपया भी नही देगा...।" ****
10.धीरे बोलिए
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किसान आंदोलन में शामिल, काजू-बादाम का घी में तर हलवा खा रहे एक मैले कपड़े पहने अधेड़ को जब मैंने गौर से देखा, तो मुझे ऐसा लगा जैसे पहले भी इसे कहीं देखा है।
मैंने उससे पूछा -"तुम किसान हो ?"
"हाँ" उसने संक्षिप्त-सा जवाब दिया और हलवा खाने में लगा रहा।
"लेकिन तुम किसान तो लगते नहीं हो ?"
"साब ! मैं किसान ही हूँ।" वह दृढ़ता से बोला।
"तुम झूठ बोल रहे हो ? मैंने तुम्हें पहले भी कहीं देखा है। हाँ याद आया... मैंने तुम्हें यहाँ से बीस किलोमीटर दूर स्थित शिव मंदिर के बाहर भीख माँगते हुए देखा था।"
अपनी पोल खुलती देख, वह डरा हुआ मेरे नजदीक आकर धीमी आवाज में बोला -"साब ! थोड़ा धीरे बोलिए, यहाँ टीवी वाले हैं...आप क्यों मेरे पेट पर लात मारने पर तुले हो ?" ****
11. क्या फायदा
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सावित्री बाई ने रात में शराब पीकर आये पति मंशाराम को झोपड़ी से बाहर निकालकर, डंडे से पीटना शुरू किया ही था कि तभी पड़ोसन ने उसे रोकते हुए कहा -"अरे सावित्री ! तू अपने पति को क्यों मार रही है ?"
"दीदी ! इसने मेरी जिंदगी बर्बाद कर के रख दी है। अब मैं इसके अत्याचार और नहीं सह सकती।" सावित्री ने पति को एक थप्पड़ मारते हुए कहा।
"कुछ भी हो, तुझे अपने पति को मारना नहीं चाहिए। पति परमेश्वर होता है।"
सावित्री सिसकते हुए बोली -"दीदी ! ये कैसा परमेश्वर है ? जो खुद तो कमाता नहीं है, उल्टे मेरी कमाई भी मार-पीट कर छीन लेता है, और शराब पी जाता है। इसे अपने बच्चों का जरा-सा भी ख्याल नहीं है। पहले ही कोरोना महामारी की वज़ह से काम-धंधे का ठिकाना नहीं है और खाने के लाले पड़ रहे हैं।" सावित्री बाई थोड़ा रुककर सुबकते हुए बोली -"ऐसे पति परमेश्वर के होने से क्या फायदा ?" ****
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क्रमांक - 060
जन्म : शोलापुर - महाराष्ट्र
शिक्षा : एम ए अर्थशास्त्र, हिन्दी, एमएड, पी एच डी (हिन्दी)
सम्प्रति : महाविद्यालय में प्राचार्य
प्रकाशित पुस्तकें : -
कविता संग्रह –
- मैं बरगद - पहले पहल प्रकाशन ,भोपाल (बरगद पर 131 कविता, गोल्डन बुक ऑफ़ रिकार्ड , इण्डिया बुक ऑफ़ रिकार्ड में शामिल )
- आँचल (माँ पर 111 कविता) मीरा पब्लिकेशन , इलाहाबाद
- सिसकती दास्तान (किन्नरों पर 121 कविता ) विकास पब्लिकेशन कानपुर
- हस्ताक्षर हैं पिता ( पिता पर 1111 कविताएँ ) पहले पहल प्रकाशन भोपाल,
- कहती हैं किताबें (किताबों पर 80 कविताओं ) की ई बुक
बाल साहित्य : -
- असर आपका’, (विभोर ज्ञानमाला प्रकाशन -आगरा )(गद्य काव्य)
- ‘मुझे क्यूँ मारा (जय माँ पब्लिकेशन ,भोपाल) (गद्य काव्य)
- मेरा क्या कुसूर ( जय माँ पब्लिकेशन ,भोपाल ) (गद्य काव्य)
- पुस्तक मित्र महान (मून पब्लिशिग हाऊस ,भोपाल) (काव्य संग्रह)
- मुस्कान ( बाल कल्याण एवं शोध संस्थान भोपाल) (काव्य संग्रह)
- लघुकथा संग्रह :-
तितली फिर आएगी ( विभोर ज्ञानमाला प्रकाशन आगरा )
- लकी हैं हम ( विभोर ज्ञानमाला प्रकाशन आगरा )
- मूल्यहीनता का संत्रास ( जी एस पब्लिकेशन एंड डिस्ट्रीब्यूटर, दिल्ली )
- गांधारी नहीं हूँ मैं ( विकास पब्लिकेशन कानपुर )
- धीमा जहर (वनिका पब्लिकेशन दिल्ली )
- दहलीज का दर्द ( विभोर ज्ञानमाला प्रकाशन आगरा )
साक्षात्कार संग्रह : -
लघुकथा का अंतरंग (लघुकथा पर पहला ऐतिहासिक साक्षात्कार )
उपन्यास : -
मंगलमुखी (किन्नर पर) विकास पब्लिकेशन कानपुर
कहानी संग्रह-
- सिंदूर का सुख ( हरप्रसाद व्यवहार अध्ययन एवं शोध संस्थान आगरा )
- साँझीबेटियाँ ( हरप्रसाद व्यवहार अध्ययन एवं शोध आगरा )
समीक्षा :–
- पयोधि हो जाने का अर्थ (कौशल प्रकाशन, फैजाबाद)
- उत्तर सोमारू ( कौशल प्रकाशन, फैजाबाद )
- मधुकांत की इक्यावन लघुकथाओं का समीक्षात्मक अध्ययन ( मोनिका पब्लिकेशन दिल्ली )
- वनमाली की कहानियों से गुजरते हुए (ई बुक )
- लघुरूपक – 20 पुस्तकें (माँ पब्लिकेशन भोपाल)
विशेष : -
- पिछले 9 वर्षों से आकाशवाणी एवं दूरदर्शन पर संचालन, कहानी तथा कविताओं का प्रसारण
- फिल्मांकन : उपन्यास ‘मंगलामुखी के एक अंश पर पायल फाउन्डेशन लखनऊ द्वारा 30 मिनट की फिल्म का निर्माण ‘यह कैसी सोच’
- पाठ्यक्रम : मध्यप्रदेश बोर्ड में रक पाठ स्कूली शिक्षा में , तथा 5 लघुकथाएं विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल
- मेरे लघुकथा संग्रहों पर महाराष्ट्र की छात्रा द्वारा पीएचडी जारी है |
- हस्ताक्षर हैं पिता - 1145 पृष्ठ , दो खंडों में कविता संग्रह पर राजस्थान की छात्रा द्वारा पीएचडी जारी है
सम्मान : -
- अंतराष्ट्रीय सम्मान – 4
14 राज्यों से सम्मानित - 52 राज्य एवं राष्ट्रीय सम्मान
पता : 30 सीनियर एमआईजी, अप्सरा काम्प्लेक्स, इंद्रपुरी, भेल क्षेत्र ,भोपाल- 462022 मध्यप्रदेश
1. झूठी प्रतिष्ठा
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“मंत्री जी ! आपके प्रान्त के मंत्री राजकीय कोष को खुले हाथों से लुटा रहे हैं ....,उन्हें रोकिए ...यह गलत है |” उसने क्षेत्र के वरिष्ठ मंत्री से शिकायत करते हुए कहा।
“अच्छा ! क्या वह यह धन अपने दुर्व्यसनों पर लुटा रहे हैं ...? नहीं न ? आखिर प्रजा पर ही तो लुटा रहे हैं फिर क्या परेशानी है ?” मंत्री जी ने प्रत्युत्तर में कहा |
“यह गलत है ...महानुभाव ,आखिर जनता की मेहनत की कमाई को इस तरह लुटाना ...”
“अरे ! यह तो हर्ष का विषय है भाई ,कल तक तुम जिस मंत्री को अहंकारी, और निष्ठुर ...जनता पर अत्याचार करने वाला कहकर मीडिया में उछालते थे देखिये वह प्रजा की सेवा कर रहा है । फिर आप ही कह रहे हैं जनता का धन है ..., तो ठीक है न जनता को ही तो समर्पित कर रहे हैं , तब भी परेशानी ...भई चाहते क्या हो ...?”
“धन खर्च का यह समय उपयुक्त नहीं है आदरणीय , चुनावी सरगर्मी है, जनता अपने लिए एक चरित्रवान प्रतिनिधि की तलाश में है आपका यह कदम जनता को बहका देगा |”
“तो तुम यह सब मुझे क्यों सुना रहे हो..?”
“क्योंकि आपके क्षेत्र का मंत्री भोली जनता को बरगलाकर उनके धन से अपनी प्रतिष्ठा मोल ले रहा है |”
“तो आपकी परेशानी का कारण यह है कि हमारी पार्टी प्रतिष्ठा पा रही है , ...किस पार्टी से हो भाई ...?”
“मैं किसी पार्टी का नहीं ...जनता का प्रतिनिधि हूँ ,..., सत्ता में प्रतिष्ठा के महत्व को भली-भांति जानता हूँ | यदि यूँ ही सत्ताधीश झूठी प्रतिष्ठा खरीदते रहे तो देश योग्य शासक को तरसता रहेगा। जैसे - हस्तिनापुर विदुर जैसे प्रतिभाशाली व्यक्तित्व के रहते भी योग्य शासक को तरसता रहा ...जैसे - दुर्योधन राजकीय कोष लुटाकर अपनी प्रतिष्ठा खरीदता रहा | ****
2.यदा - यदा ही धर्मस्य
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“हे सारथी ! अपने अश्वों की लगाम को जरा कसकर थामें रखना |” रथ पर सवार अर्जुन ने अपने सखा कृष्ण से कहा।
“पार्थ ! ऐसा क्यों कह रहे हो ? क्या प्रयोजन है इसका ?”
“वह इसलिए पार्थ कि अब मैं इस रथ को जहाँ ले जाने को कहूँगा वहाँ इन अश्वों को सम्हालने की आवश्यकता है |” अर्जुन ने मुस्कुराते हुए कहा |
“स्पष्ट कहो, मित्र ! पहेलियाँ न बुझाओ ?”
“हाथ कंगन को आरसी क्या , चल ही रहे हैं सखा |” कहते हुए अर्जुन ने रथ को शहर की निचली बस्ती की ओर ले जाने का इशारा किया । जहाँ दोनों ओर गंदगी से भरी नालियाँ हैं, जिनसे उठती दुर्गंध अश्वों के नथुनों को झकझोर रही थी । तंग गलियों में बनी कोठरियों में खुले प्रकाश और हवा का तो मानो प्रवेश ही निषेध था। दीवारों पर लम्बे समय से सीलन के कारण काई ने स्थायी निवास बना लिया था। इन बन्द कोठरियों में बच्चों के सपने गुब्बारे से फूट रहे थे। यौवन आंधी में जलती निरीह मोमबत्ती सा जल - बुझ रहा है। प्रौढ़ जिंदगी की जद्दोजहद से हार अपनी ही कब्र खोद रहे हैं। खांस - खांस कर वृध्दों के ढांचे कुछ इस तरह नजर आ रहे हैं मानो लाशें चल रही हैं घर में ।
“यह तुम मुझे कहाँ ले आये मित्र , देखते नहीं अश्व इस संडाघ को सह नहीं पा रहे|” श्रीकृष्ण को लगाम थामे रहना मुश्किल हो रहा था।
“हे बाल सखा ! जब यह निरीह प्राणी इस वातावरण में स्वयम को असहज महसूस कर रहा है तो भला ये इंसान यहाँ कैसे रह पा रहे हैं तनिक विचारिये प्रभु |”
“यह क्या तिलिस्म का जाल बुन रहे हो पृथा निकाल फैंको इसे और सीधे - सीधे बताओ क्या कहना चाहते हो ?”
“हे त्रिलोकी ! करुणा से दुर्बल मेरे मन को तुमने गीता का संदेश सुना , निष्काम कर्म एवं योग का पाठ पढ़ाकर अपनों के विरुध्द ही हथियार बनाकर आसानी से खड़ा कर दिया। बात तो तब है कि सत्ता के मोहान्ध की ग्रंथियों में लिपटे इन राजनेताओं को कर्तव्यनिष्ठा का पाठ पढ़ाओ ?” ***
3. कुर्सी का खेल
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समय - राजनीति क्या है ?”
दुर्योधन - कुर्सी का खेल है |”
समय - इसे कैसे खेला जाता है ?”
दुर्योधन- छल-बल से |”
समय- इसे खेलने के नियम क्या हैं ?”
दुर्योधन – कोई नियम नहीं | जीतना ही इसका उद्देश्य होता है | और उद्देश्य प्राप्ति के लिए कुछ भी किया जा सकता है |”
समय - मतलब ?”
दुर्योधन – मतलब , जीत के लिए अपने माता-पिता, पत्नी-पुत्र-पुत्री, प्रजा, देश सभी को दांव पर लगा सकते हैं , स्वयं को छोडकर |”
समय - कुर्सी की इसमें क्या भूमिका है ?”
दुर्योधन - कुर्सी बहुत छलना है जी |”
समय -वह क्यों भला ?”
दुर्योधन - इस पर बैठते ही आदमी हल्का हो उछलने लगता है |”
समय -अच्छा तुम भी तो इस पर बैठना चाहते थे ...क्या हुआ ?”
दुर्योधन- नहीं बैठ सका ...|”
समय – क्यों भला ...?”
दुर्योधन – इस पर वही बैठ सकता है जिसके चरित्र में दृढ़ता और चरित्र की गहराई कुर्सी से अधिक गहरी हो ” ***
4. प्रतिशोध का अस्त्र
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“भैया शकुनि ! आखिर क्या मिला तुम्हें यह सब करके...?” द्युत क्रीड़ा में द्रोपदी के वस्त्र हरण की घटना से जब सम्पूर्ण हस्तिनापुर में कुरु वंश की निंदा हुई तो गांधारी ने अपने भाई शकुनि से कहा |
“क्या किया है मैंने बहना, जो किया है अपने प्रिय भांजे को राजगद्दी दिलाने के लिए किया है |”
“राजगद्दी ....! क्या लाभ ऐसी राजगद्दी से जिसमें अपनों के प्रति नफरत हो, परिवार का अनिष्ट हो मुझे तो इसमें प्रतिशोध की ज्वाला दिखाई दे रही है जो बरसों से आपके मन में सुलग रही है |”
“आप मेरी भातृ भक्ति पर लांछन लगा रही हैं बहना |”
“लांछन.. ! आप जानते हैं आपके इस नीच कृत्य ने आने वाली नारी जाति के मन में मेरे और आपके प्रति कितना विष बो दिया है ...?”
“क्या बहना...?”
“आने वाली पीढ़ियाँ कहेंगी अगर शकुनि जैसा भाई है तो इससे अच्छा है भाई ही न हो |”
“यह तुम्हारा व्यर्थ का संशय है बहना ...कहो क्या आधार है तुम्हारे पास इस बात के लिए कि मैं प्रतिशोध के लिए यह सब कर रहा हूँ ?”
“मैं जानती हूँ शकुनि कि प्रतिशोध का अस्त्र सबसे पहले प्रतिशोध लेने वाले पर वार करता है |”
“तो इससे मेरा क्या वास्ता ?”
“भ्राता ! प्रतिशोध की ज्वाला ने आपके चेहरे को जलाकर इतना वीभत्स कर दिया है , कभी निश्चिंतता से अपना चेहरा दर्पण में देखना.... आप स्वयं अपना चेहरा नहीं पहचान पाएंगे |” ****
5. युगबोध
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“कृष्ण ! आप तो समर्थ और सर्वज्ञ हैं, चाहते तो महाभारत होने से रोक सकते थे |” युध्द में भारी तबाही देख व्यथित हो युध्दिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से कहा।
“अवश्य रोक सकता था भ्राता श्री |”
“फिर तुमने ऐसा क्यों नहीं किया कृष्ण , अगर युध्द रोक देते तो इतनी जनहानि तो न होती। हस्तिनापुर की प्रजा यूँ अपनो को न खोती | इतने निर्दोष लोग अकाल मृत्यु को तो न प्राप्त होते |”
“ भ्राता श्री ! यह आपने कैसे सोच लिया की लोग अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए हैं ...,इस संसार में कोई अकाल मृत्यु को प्राप्त नहीं होता...सभी की मृत्यु का समय निर्धारित है |”
“यही सही ...किन्तु भविष्य को हम उपहार स्वरूप महाभारत जैसा कालिमा युक्त इतिहास तो न देते |”
“भ्राता श्री ! यदि महाभारत न होता तो आने वाला युग प्रेरणा कैसे ग्रहण करता ?”
“कैसी प्रेरणा कृष्ण ?”
“यही कि हर युग में मानव जनित दुर्बलता रही हैं और रहेंगी। हर युग में अधर्म अपना साम्राज्य फैलाने का प्रयास करता है और करेगा किन्तु....”
“किन्तु क्या कृष्ण ?”
“किन्तु, अधर्म अपना साम्राज्य चाहे जितना फैला ले वह धर्म से ऊपर कभी नहीं हो सकता । भविष्य को यह आदर्श का सबक तो सिखाना था न ...भ्राता श्री |”
“महज यह एक सबक देने के लिए इतना रक्तपात ...?”
“भ्राताश्री ! आदर्श बनने का मूल्य तो हर युग को चुकाना ही होता है |” ****
6. अंतरात्मा की अदालत
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“ मास्टरजी वैसे तो आप बहुत बड़ी - बड़ी ज्ञान की बातें करते हों , 'क्षमा बड़ेन को चाहिए छोटन को उत्पाद ...’ फिर आपने अपने छात्र की गलती पर उसे क्षमा क्यों नहीं किया ? आखिर छोटी सी चोरी ही तो की थी कौन लाखों का धन चुरा लिया ?” गाँव के मुखिया ने नए - नए आये मास्टर जी से पूछा।
“मेरे भीतर के द्वंद ने इसकी इजाजत नहीं दी |”
“भीतर का द्वंद ....कैसा द्वंद ...?”
“मेरे अंदर के इन्सान ने कहा बच्चा है...गलती से चोरी कर बैठा । इसे क्षमा कर देना चाहिए |”
“ फिर ... क्यों नहीं किया ?”
“यदि मैं अपने छात्र को क्षमा कर देता हूँ तो मेरे भीतर का अध्यापक मुझे कभी क्षमा नहीं करता |”
“ऐसा क्यों मास्टर जी ?”
“ क्योंकि, जो ज्ञान यह कहता है कि क्षमा बड़ा धर्म है वही धर्म यह भी कहता है कि दोषी को सबक मिलना ही चाहिए |
“आप बात को सीधे-सीधे कहिये न |”
“ मेरा अध्यापकीय धर्म कहता है कि एक गुरु अपने छात्र को उसकी इस गलती पर दंड दे ताकि अगली बार वह अपनी गलती सुधार ले |”
“अगर मैं अपने गुरु कर्तव्य का पालन नहीं करता तो यह द्वंद मेरी आत्मा को भेद डालता। मेरे भीतर के युधिष्ठिर ने अंतरात्मा की अदालत में मुजरिम होने से इंकार कर दिया |”
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7.चीर हरण
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“रुक्मणि ..महाभारत को समाप्त हुए अरसा हो गया। सभी पात्र मोक्ष को प्राप्त हो चुके हैं ! फिर पृथ्वी पर यह कैसा क्रंदन का शोर है..? मुझे न जाने क्यों इसमें द्रोपदी के स्वर का आभास हो रहा है, क्या कहीं पुन: द्युत क्रीड़ा का षड्यंत्र तो नहीं हो रहा ... रुक्मणि ?” मधुबन में श्री कृष्ण और रुक्मणि आनन्द के पल व्यतीत कर रहे थे कि अचानक करूण स्वर सुन श्रीकृष्ण बोले ,
“जी मथुरा नरेश ! भारत की राजधानी में पुनः द्युत क्रीड़ा की बिछात बिछी है |”
“तो क्या अब शकुनि वहाँ भी पहुँच गए ?”
“वासुदेव ! वहाँ एक दो नहीं अनेक शकुनि अपनी कूटनीति के पासे लेकर विराजमान हैं |”
“तो परेशानी क्या है ? होने दीजिये षड्यंत्र यदि अपने अतीत से पांडवों ने कुछ नहीं सीखा तो उन्हें खेलने दो ..पुन: हारेंगे वन को जायेंगे | द्रोपदी तो नहीं है इस बार ..मैं तो केवल द्रोपदी के कारण उस द्युत का हिस्सा बना था |”
“महाराज ! चाहे कोई काल हो... शतरंज की मोहरें बदल सकती हैं , राजा और वजीर बदल सकते हैं, पांडव और शकुनि बदल सकते हैं ...मगर द्रोपदी के बिना भला द्युत कैसे पूरा होगा ...?”
“मतलब .!”
“महाराज ! दिल्ली के दरबार में शतरंज की चाल बिछी है सब धृतराष्ट्र बन अपने राजमुकुट को बचाने की जद्दोजहद में लगे हैं |”
“मगर इन सबके बीच द्रोपदी कहाँ है ...?”
“हे महाराज , ये चीखती चिल्लाती , अपने अस्तित्व की भीख मांगती प्रजा द्रोपदी ही तो है | हर दिन उसका चीरहरण होता है बचाने कोई कृष्ण नहीं आता |” ****
8.दहाड़
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बहरी अंधी और साथ में गूँगी द्यूत सभा में सभी शर्मिंदा चेहरे गर्दन झुकाए बैठे थे। हों भी क्यों न आज इतिहास की सबसे कलंकित घटना का चक्रव्यूह रचा जा चुका है। दुर्योधन ने अपने भ्राता दुःशासन को आदेश जारी कर दिया ,
"दुःशासन ! जाओ उस पांच पतियों वाली द्रोपदी को द्युत स्थल पर ले आओ, अगर सीधे से न आये तो घसीटकर ले आओ।"
"जी भ्राता, अभी हाजिर करता हूँ।" दुःशासन द्वारा दुर्योधन का आदेश द्रोपदी को सुनाने पर द्रोपदी ने पहला सवाल किया,
"दुःशासन जिस समय दुर्योधन ने यह आदेश दिया क्या सभा में बैठे कुरुकुल गौरवों ने कोई आपत्ति नहीं जताई। "
" हा ! हा ! वो क्या आपत्ति जताएंगे। जब तुम्हारे पाँच पतियों ने स्वयं तुम्हें दाव पर लगाया है।"
" अच्छा ! तो क्या राजमाता गांधारी, और माताश्री कुंती ने भी दुर्योधन को ऐसा करने से नहीं रोका ?"
" भ्राता दुर्योधन के क्रोध को तो जानती हैं न आप ...! उनके समक्ष किसकी हिम्मत है और बेकार में समय व्यर्थ न करो अन्यथा तुम्हें घसीटकर ले जाने का भी आदेश है मुझे।"
" इसकी आवश्यकता नहीं दुःशासन मैं स्वयं ऐसी नपुंसक सभा को देखना चाहती हूँ।" कहते हुए द्रोपदी द्युत सभा की ओर चल दी।
"किसमें हिम्मत है जो मेरा वस्त्र हरण करे...ये अपनी ही शर्मिन्दी झेलते सभासद या यह दुर्योधन....मैं इस कुल की वधू हूँ कोई देव दासी नहीं।" कहते हुए द्रोपदी की आँखें अंगारे उगलती, और आवाज शेरनी की तरह दहाड़तीसभा में पहुंची | उसकी दहाड़ सुनते ही धृतराष्ट्र की सौ कुलवधुएँ द्रोपदी के समर्थन में उसके साथ आ खड़ी हुई बोलीं,
" राजवंश को लेकर हमारे मत भेद हो सकते हैं, मगर स्त्रीत्व के लाज की बात है तो हम सब एक हैं।" अब दुर्योधन, दुःशासन और कर्ण का बदन पसीने नहा रहा था।****
9.धमाका
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फिर एक धमाका ...!..!!!
‘उफ़ ! लगा जैसे कहीं कुछ टूटा | वैसे कोई नई बात नहीं थी , जिस दिन से क्रोध ने दहलीज़ पर कदम रखा है, कलह ने अपना स्थायी डेरा डाल दिया है घर में | ऐसे धमाके नित ही होते रहते हैं ....मगर आज... रोज से कुछ ज्यादा ऊँचा स्वर था , लगता है कोई भारी टकराहट हुई है |’ सोई हुई चेतना अचानक हुए धमाके का स्वर सुन उठ पड़ी | होले - होले क़दमों से उसने मन की कोठरी के द्वार से झांक कर देखा , अंदेशा सही निकला ....,
“ओह ! आज फिर दो अहंकार आपस में टकरा गये हैं |” टकराहट की गर्जना का शोर इतना तीव्र था कि कुछ पल को स्तब्धता छा गई वातावरण में ...कान सुन्न हो गये | जैसे - विशाल भूकम्प के बाद अचानक शांति छा जाती है | यह क्या ...प्रेम , सद्भावना और अपनत्व कहीं दिखाई नहीं दे रहे ...अभी- अभी तो यहीं थे ...लगता है टकराहट की कालिमा युक्त ऊष्मा में मुस्कान की तरह वे भी भाप बनकर उड़ गये | उनके स्थान पर नफरत, ईर्ष्या और द्वेष ने रौद्र रूप धारण कर प्रवेश कर लिया है ...|
“अरे-अरे ! यह परस्पर कैसे सम्वाद कर रहे हैं आप लोग...कम से कम कुछ तो मर्यादा का ख्याल करो |” सदाचार ने उन्हें समझाने का प्रयास किया | मगर यह प्रयास असफल रहा पल में सर्वत्र भाषायी व्यभिचार का साम्राज्य फैल गया | मर्यादा लहुलुहान हो जमीं पर तड़प रही थी | रिश्तों की हड्डियाँ चरमरा रही थीं |
आनन् – फानन में सदाचार ने उपचार हेतु चिकित्सक विवेक को बुलाया जिन्होंने रिश्तों को उनके बुनियादी प्रेम का प्लास्टर लगाया | प्लास्टर लगते ही अहंकार का चूना धीरे-धीरे झरने लगा था कि फिर एक धमाका हुआ इस बार चेतना ने पलटकर देखा ... अहंकार जमीं पर पड़ा दमतोड़ रहा था ...रिश्ते मुस्कुरा रहे थे | ****
10. वेदना की टीस
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आज बस्ती में अडोस-पडोस में दो युवाओं के शव एक साथ आये ....सर्वत्र कोहराम मचा था । उमंग जो घर से खाना लेकर अपने पिता को अस्पताल देने के लिए निकला था और बस में फिस्फोट का शिकार हो गया। वहीं मोंटी शहर में हुए बम विस्फोट का दोषी पुलिस की गोली का निशाना बना।
"हाय ! मेरा उमंग ...! हमारे कुल का चिराग ..हमें छोड़कर तू कहाँ चला गया मेरे लाल ...?" उमंग की माता बेटे के पार्थिव देह पर पछाड़ खा विलाप कर रही थी।
दूसरी ओर मोन्टी की माता भी इनकाउंटर में मारे गए अपने बेटे के शोक में विलाप करते हुए कह रही थी, जब दोनों का पार्थिव शरीर अंतिम यात्रा को निकला तो मोंटी की माँ ने उमंग की माँ के गले लगते हुए अपना दुःख व्यक्त किया ,
"बहन ! हम दोनों का दुख एक समान है....ईश्वर ने हमें न जाने किस पाप की सजा दी।"
" नहीं ! हम दोनों का दुख एक समान कैसे हो सकता है , बहन !... तुम्हारा दुख दुर्योधन की माता गांधारी का दुख है और मेरा दुख अभिमन्यु की सुभद्रा का दुख है मेरा दुख बड़ा है।" ****
11.ईर्ष्या की ज्वाला
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“पंजाब के भटिंडा शहर से राजबीर आज दुश्मनों से लड़ते हुए शहीद हो गए। अभी तीन माह पूर्व ही उनका विवाह ....” टेलीविजन के न्यूज चेनल में खबर प्रसारित हो रही थी। बैठक में बैठे कामता प्रसाद और उनकी पत्नी अफसोस करने लगे ।
“ओह ! फिर एक जवान की बलि .... आखिर कब बुझेगी यह आग।“ कामताप्रसाद बोले।
“देखो तो तीन माह भी नहीं हुए ब्याह को....हे भगवान ! तू भी जाने क्या -क्या खेल दिखाता रहता है |” उनकी पत्नी ने शोक व्यक्त करते हुए कहा। पास ही बैठा पोता दोनों की प्रतिक्रिया देख-सुन रहा था | बोला ,
“दादाजी ! ये जवान शहीद क्यों होते हैं ?”
“बेटे ! होते नहीं हैं भेंट चढ़ाए जाते हैं |”
“ये भेंट क्यों और किसको चढ़ाए जाते हैं ?”
“भारत माता की रक्षा के लिए ,ईर्ष्या और द्वेष की ज्वाला अपनी भेंट मांग लेती है।
“मगर ज्वाला तो पानी से बुझाई जाती है न दादाजी |”
“मेरे बच्चे जब दो शक्तियों के बीच ईर्ष्या और द्वेष की ज्वाला विकराल रूप धारण कर लेती है तो उस आग को बुझाने के लिए पानी नहीं रक्त की आवश्यकता पड़ती है |”
“अच्छा ! जैसे |”
“जैसे कौरव और पांडवों के बीच की ईर्ष्या ज्वाला को प्रेम के पानी से बुझाने का कितना प्रयास किया भीष्म पितामह और विदुर ने ...यहाँ तक कि भगवान श्रीकृष्ण भी इस ज्वाला को शांत करने में असमर्थ रहे आखिर ... आखिर रक्त से ही बुझ पाई यह ज्वाला |” दादाजी अपनी ही रो में कहे जा रहे थे |
“ओह ! तब तो इसका बड़ा नाम होगा इतिहास में दादाजी ?”
“ हाँ ! बेटे महाभारत नाम है उस विकराल ज्वाला का जो अठारह अक्षौहिणी सेना के रक्त से ही बुझ पाई |” ****
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क्रमांक - 061
जन्म : ग्राम-बलुआ पोस्ट-मलिकपुर,जिला-सुल्तानपुर , उत्तर प्रदेश
पति का नाम : श्री राजेश्वर सिंह
शिक्षा : बी.ए.,एम.ए.(हिन्दी साहित्य),बीएड., पी-एच. डी.
व्यवसाय : शास. शिक्षिका
प्रकाशित पुस्तकें : -
-"जीवनपथ"तथा -"आशादीप"एकल काव्यसंग्रह
- "मेरी कुण्डलियां" एकल कुण्डलिया संग्रह ,
-"जीवन का समर" कहानी संग्रह
-''पौराणिक प्रबंध काव्यों में पात्रों का चरित्र " शोधग्रंथ
विशेष : -
- फेसबुक तथ व्हाट्सएप से जुड़े साहित्यिक
ग्रुपों में नियमित रूप से भेजना ।
- लेखन का उद्देश्य-सामाजिक विसंगतियांं दूर करना
सम्मान : -
- अनुराधा प्रकाशंन द्वारा साहित्य श्रीसम्मान ,
- महिला गौरव सम्मान ,
- साहित्य सागर द्वारा युगसुरभि सम्मान
- माण्डवी प्रकाशंन द्वारा साहित्य रत्न सम्मान आदि ।
पता :
180- ए , पाकेट ए-3 ,मयूर विहार फेस -3 ,
दिल्ली - 110096
1. अपना कौन ?
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आज ही दस बजे से बी.एड का पेपर है और साथ में नन्हे-नन्हे दो बच्चे और बुआ जी ने
घर छोड़ने का अल्टीमेटम दे दिया कि "अभी घर छोड़कर जाओ ,चाहे जहाँ जाओ ।"
बुआ जी शमिता के पति की सगी बुआ थीं । शमिता उनके पास बी.एड करने के लिए आई हुई थी और उन्होंने उसे एक कमरा दे दिया था ।शमिता के दो छोटे बच्चे भी थे एक तीन साल के करीब का और दूसरा लगभग छः
माह का । दोनों बच्चों को संभालना ,अपनी बी.एड की पढ़़ाई करना और साथ में ही बुआ जी की भी तीमारदारी करना । बुआ जी पुराने सोच वाली संकीर्ण सोच वाली महिला थीं । उनके निगाह में पढ़ाई से ज्यादा अहमियत थी
उनकी तीमारदारी । बस तीमारदारी में कमी देखी और आगबबूला हो उठीं ।
"बुआ जी आज ही मेरा पेपर है ,पेपर देने के
बाद मैं खुद चली जाऊँगी,मुझे तो जाना ही है ।"
शमिता ने लगभग गिड़गिड़ाते हुए कहा ।
"नहीं जो कह दिया सो कह दिया अभी मेरे घर से निकल जा । चाहे जहाँ जा मुझे कोई मतलव नहीं ।बड़ी आई कलेक्टर बनने वाली ।"
बुआ जी रौद्ररूप धारण कर चुकी थीं ।
"अगर नहीं निकली तो समान उठाकर फेंक
दूँगी ।"और उन्होने शमिता का सारा सामान घर
के बाहर करवा दिया ।
शमिता रोते हुए दोनों बच्चों को लेकर घर से बाहर खड़ी थी ,उसे कुछ समझ नहीँ आ रहा था कि क्या करे ,क्या ना करे ? अचानक उसे लगा की अभी तो पास के मन्दिर में जाकर ठहर जाये फिर सोचती है कि क्या करना है ?
उसने रिक्शा किया और उसमें अपना सामान रखकर मन्दिर पहुँच गयी । वहाँ उसने पुजारी जी से एक दिन ठहरने की अनुमति माँगी । पुजारी जी ने जब सारी बात सुनी तो तुरन्त बच्चों के खाने पीने की व्यवस्था की और
शमिता से बोले ,"बेटा पहले अपनी परीक्षा दे आओ फिर बात होगी । बच्चों की चिंता मत करो उन्हें मैं संभाल लूँगा ।"
शमिता एक गैर के हाथों में अपने दोनों बच्चों को सौंपकर परीक्षा देने चली गयी । वहाँ वह लगभग आधे घंटे लेट हो गयी थी किन्तु परीक्षा देने की अनुमति मिल ही गयी ।
"आप इतना लेट कैसे ?"शिक्षिका ने पूछा।
"कुछ नहीं मैम अभी मुझे पेपर देने दीजिए बाद
में बताऊँगी ।"शमिता की आवाज़ भर्राई हुई थी। शिक्षिका ने भी आगे कुछ नहीं पूछा पर वे समझ गयीं थीं कि मामला गंभीर है।
किसी तरह परीक्षा देने के बाद वह सीधे मन्दिर आयी । वहाँ पुजारी जी ने बच्चों को दूध पिलाकर सुला दिया था तथा शमिता के लिए भी भोजन बनवाकर रखा था ।
" बेटा पहले कुछ खा लो फिर कुछ बात होगी।"पुजारी जी बोले ।
-शमिता चुपचाप खाना खा रही थी और आँखों से आँसू बहने को बेताब हो रहे थे । आखिर अपना कौन है ? ****
2.उलझन
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शाम का समय ,आकाश में बादल छाये हुए थे, हवा तेज चल रही थी और मौसम भी जाड़े का ।लोग रजाई में दुबके पड़े गर्मचाय का आनन्द ले रहे थे । सरिता चाय के साथ ही
साथ बातें भी कर रही थी तभी बगल वाले अजय जी की बातें होने लगीं।
अजय जी अपने निजी जीवन से न जाने क्यों त्रस्त थे ।अच्छे खासे पढ़ने वाले बच्चे अच्छी सी पत्नी ,पर अजय काल्पनिक लोक में विचरण कर रहे थे ।उन्हे उन सबसे सन्तुष्टि नहींथी, वे न जाने क्या चाहते थे जिसकी खोज़ वे
पूजा पाठ में कर रहे थे । जिसकी पूर्ति पत्नी व बच्चे कर सकते थे उसको दूसरी जगह से कैसे प्राप्त किया जा सकता था ।
इतने में अजय जी की पत्नी आ गयीं।
"आइए ....आइए ...चाय पी लीजिए।"सरिता
श्रीमती अजय से बोली ।
"नही..नहीं .. चाय पीकर आ रही हूँ । मन ही नहीं लग रहा था सो चली आई । "श्रीमती अजय बोली ।
कुछ देर बाद वे फिर बड़े ही मायूसी से बोलीं- "इनको न जाने क्या हो गया है ,हमेशा चुपचाप रहते हैं ,पूजापाठ में ही लगे रहते हैं । कोई गलत लत भी नहीं है पर हमेशा चुपचाप रहते है ।"
कहते कहते श्रीमती अजय की आँखों में आँसू भर आये ।
अजय जी के बच्चे तो अपने दोस्तों में अपना एकाकीपन दूर कर लिया करते थे फिर भी पिता तो पिता ही होते है । उनके मुख से स्नेहासिक्त दो बोल भी अमृततुल्य होते है ।
अजय जी भी स्वयं नहीं समझ पा रहे थे कि गलती कहाँ हो रही है।
एक दिन लगे कहने-कोई मुझे प्यार नहीं करता ,सभी के लिए मै सबकुछ करता हूँ पर मुझे कोई नहीं चाहता ।
आप अपना समय कैसे बिताते है?
मैं काम करके घर आता हूँ और फिर पूजापाठ में स्वयं को लिप्त कर देता हूँ।
शर्मा जी गम्भीर स्वर में बोले
"अजय जी परिवार आपके आने का इन्तजार कर रहा होता है और आप उनसे बात करने व उनके साथ समय बिताने की जगह मन्दिरों में शान्ति तलाशते हैं ।यह मुमकिन ही नही है।असली मन्दिर घर है । परिवार की खुशी ही ईश
भक्ति और उसी से शान्ति मिलती है।
बहुत सारे घरों में संवादहीनता के कारणआपस की दूरी बढ़ती ही जाती है । दोनों ही यह समझने लगते है कि कोई उनसे प्यार नहीं करता। पुरुष बाहर प्यार तलाशने लगता है या भक्ति में स्वयं को डुबो देता है । महिला भी या तो भक्ति में स्वयं को डुबो देती है ,अन्यथा सारा का सारा क्रोध बच्चों पर और वह भी नहीं
हो पाता तो कुंठित होती चली जाती है ।हमें एक दूसरे के लिए वक्त अवश्य निकालना चाहिए।
अजय जी कहाँ खो गये ?शर्मा जी ने पूछा।
" कहीं न कहीं तो गलती तो हुई ।अब उसे सुधारने की कोशिश करूँगा ।"अजय जी बोले।
अजय जी को बात समझ में आ गयी । वे परिवार को समय देने लगे औरपरिवार उनको प्यार करने लगा । सारी की सारी उलझने ही खत्म हो गयीं ।वे अब भी मन्दिर जाते है पर अपनी पत्नी के साथ । उन्हे जिन्दगी में आनन्द आने लगा है और परिवार को भी । ****
3.देशप्रेम
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"निशि मुझे आज ही जाना होगा , जल्दी से तैयारी करा दो ।" समर बोला।
"कैसे ,अभी कल ही तो आते हो और आज फिर जाना है ?" निशि का चेहरा उदास हो गया।
"यही तो हमारी वर्दी का कमाल है ,जब चाहे तब बुलावा आ जाता है । आखिर जिम्मेदारी भी तो बड़ी है । देश की सेवा करने का मौका रोज रोज थोड़े ही मिलता है ,चलो अब हंस भी दो और मेरी तैयारी करा दो।
समर बोल तो रहा था पर एक अन्तर्द्वन्द्व उसके अन्दर भी चल रहा था । छोटे बेटे विवान के साथ अभी एक दिन भी तो नहीं बिता पाया था की उसे दुबारा ड्यूटी ज्वाइन करने के लिए बुलावा आ गया । खैर सैनिकों के लिए हमेशा ही परिवार गौड़ ही रहा है और देश मुख्य ।समर अपनी ड्यूटी पर चला गया ।
रेडियो टीवी हर जगह एक ही खबर प्रसारित किया जा रहा था कि सीमा पर इतने सैनिक शहीद हो गए । निशि की धड़कन तेज़ हो गयी ।समर की ड्यूटी भी बार्डर पर लगी हुई थी । निशि के मन में तरह-तरह के विचार आ जा रहे थे कभी सकारात्मक विचार तो कभी नकारात्मक विचार । तभी छोटा बेटा रोने लगा वह छोटे बेटे को गोद में लेकर टहलाने लगी । समर की मां व पिता जी तो बस फोन पर लगेथे पर फोन लग ही नहीं रहा था ।
अचानक फोन की घंटी बज उठी तीनों ही एक ही समय फोन की ओर बढ़े । पापा को आगे बढ़ते देख निशि थोड़ा पीछे हो गयी। फोन से जो ख़बर मिली उसने पापा जी के पैरों के नीचे से जमीन ही खींच ली । वे वहीं सोफे पर बैठ गए । मां को कुछ अनहोनी का अंदेशा सा हो रहा था पर उनका मन उसे मानने को तैयार नहीं था । अब निशि ने फोन उठाया उसके मन में दुनिया भर के गलत विचार आ रहे थे । फोन पर जो खबर मिली उसने उसका सबकुछ छीन
लिया । कुछ समय तक तो उसे अपना जीवन ही व्यर्थ नजर आने लगा था लेकिन फिर बच्चों तथा बूढ़े मां-बाप का ख्याल आया और वह मां तथा पापा जी की ओर बढ़ चली । इस वक्त उनको संभालना आपने से भी जरूरीथा उन्होंने तो अपने आंखों का तारा,इकलौता बेटा खोया था । उसके लिए भीअब मां और पिताजी ही तो उसके सबकुछ थे ।
सबकुछ निपट जानें के कुछ महीने के बाद निशि ने भी मां और पिता जी की आज्ञा लेकर फ़ौज में भर्ती के लिए आवेदन कर दिया। बच्चों को तों मां ही सम्भालती थीं अतः उसे बच्चों की भी उतनी चिंता नहीं थी । आखिर उसे एक दिन फ़ौज में शामिल होने का अवसर मिल गया । निशि को फौज की वर्दी में देखकर उसके ससुर जी यानी पापाजी का सीना गर्व से फूल गया । उन्हें निशि में ही समर का प्रतिबिंब नजर आ रहा था ।सास यानी मम्मी जी भी कम
गौरर्वान्वित नहीं थी । निशि ने आज सबका सिर ऊंचा कर दिया था। ****
4.अनशन
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"कमली खाना खा ले बेटा ,जिद नहीं करते ।देख खाना नहीं खायेगी तो कमजोर हो जायेगी।"
"ठीक है मां मैं खाना खा लूंगी पर तू भी मेरा एडमिशन करा दे ।"
"नहीं बेटा तेरे पिताजी नहीं मान रहे हैं , कोई अच्छा रिश्ता मिल रहा है ,वे उसे छोड़ना नहीं चाहते हैं । तू भी जिद छोड़ दें ,चल खाना खा ले।
"नहीं मैं नहीं खाऊंगी ।जब तक कि मेरा एडमिशन नहीं कराती ,मैं खाना नहीं खाऊंगी। "
मां हारकर हट गयीं,पर खाना उनके मुंह में भी नहीं गया । वे कमली को बहुत प्यार करती थीं।
कमला को उसकी मां प्यार से कमली बुलाती थीं । कमली एक सीधी-सादी सी ,दुबली पतली और लम्बे कद की लड़की थी । सूरत के साथ ही साथ उसे सीरत भी खूब मिली थी ।मां के घरेलू कामों में हाथ बंटाने के साथ ही साथ वह पढ़ने में भी बहुत ही होशियार थी । हमेशा अव्वल दर्जे से पास होती थी । उसे केवल पढ़ाई से ही मतलब होता था ।कभी भी किसी चीज के लिए जिद नहीं करती थी । मां
तो उसे बहुत ही प्यार करती थी पर पिता के दिमाग में जाने क्या था की वह उन्हें बोझ ही नज़र आती थी ।उनको लगता था कि लड़की को जल्दी से जल्दी ब्याहकर उसके घर भेज देना चाहिए । उनके इस सोच में सहायक थी
उनकी माता जी । उनका हमेशा यही कहना होता की लड़की पराया धन है ,उसे जल्दी से जल्दी ब्याहकर उसके घर भेज देना चाहिए।
बहुत पढ़ाकर क्या फायदा ,जाना तो प्यारे घर ही है ।
अरे कमली की मां , कमली कहां है ?कल कुछ लोग उसे देखने के लिए आ रहे हैं । उससे कहो ये अनशन छोड़ दें और बात मान लें ।
आज तीन दिन से उसने कुछ भी नहीं खाया है ,बस रो रही है और तुम्हें बस अपनी पड़ी है । कैसे कठोर बाप हो ।
फिर क्या करूं ? उन लोगों को कैसे मना करूं ? फिर इतना अच्छा रिश्ता बार - बार थोड़े ही मिलता है ?
मना कर दो कैसे भी । नहीं करनी अभी उसकी शादी । अभी वह पढ़ेगी । फिर मां नाराज़ हो जायेंगी । होने दो ,उनको मना लिया जायेगा ।और अगर अब भी नहीं मानेंगे तो मैं भी अनशन पर बैठ जाऊंगी ।
चलो देखता हूं ,क्या करना है ।बेटी के अनशन ने उनके कठोर हृदय पर अपना प्रभाव डाल दिया था ।
बेटा कमली यहां आओ ,देखो तुम्हारे पिताजी
क्या कह रहे हैं ?
हां बेटा यहां आओ । कमली बेटा मैं कल ही तुम्हारा एडमिशन कराऊंगा ।अब खाना खाओ और अपनी मां को भी खिलाओ । इन्होंने भी दो दिन से खाना नहीं खाया है ।
कमली का मुरझाया चेहरा फूल -सा खिल उठता है , आखिर उसका अनशन जो सफल हुआ था। वह मां से लिपटकर रो पड़ी । ****
5. नया सवेरा
**********
स्टेशन से निकल कर जैसे ही रामू थोड़ा आगे बढ़ा की तेज बारिश चालू हो गयी । पीछे से आ रहे जुगनू ने बिना सोचे समझे अपनी छतरी उसके सिर पर भी कर दी।रामू ने चौंककर उसकी ओर देखा और जुगनू की आँखों में पता नही क्या नजर आया दोनों ही हँसकर साथ साथ चलने लगे ।दोनों में दोस्ती की शुरुआत हो गयी ।
जीवन भी तरह तरह के खेल दिखाता है ,कभी हँसाता है तो कभी रुलाता है । जुगनू कभी एक छोटे से शहर में रहता था ।वहाँ छोटे में ही उसका विवाह भी हो गया और विवाह हो गया तो जल्दी ही चार बच्चों का पिता भी बन गया । पढ़ने की उम्र में ही जिम्मेदारियों का भारी बोझ उसके कंधे पर आ गया । पढ़ाई तो कर नहीं सका क्योंकि उसका मन पढ़ने में कभी लगा ही नहीं ।
"अरे जुगनू कहाँ तक पढ़ाई किये हो ?" रामू ने पूछा । रामू भी उसी की तरह छोटे शहर से निकलकर नौकरी की तलाश में आया था ।
"आठवीं तक भाई फिर नवीं में फेल हो गया तो आगे की पढ़ाई छोड़ दी । "जुगनू ने बताया।
"कोई बात नहीं मैं भी दसवीं फेल ही हूँ ।"रामू नेहँसते हुए बताया मानों अपने गमों,अपने दुखों का ही माखौल उड़ा रहा हो ।
रामू एक मध्मयवर्गीय परिवार का लड़का था ।पिता की भी अच्छी ही तनख्वाह थी ।वे एक विद्यालय में अध्यापक थे ।सब कुछ तो हंसी खुशी गुजर रहा था की अचानक उसके पिता की हार्ट अटैक से मृत्यु हो गयी ।उस समय वह पाँचवी में पढ़ता था और पढ़ने में भी वह अच्छा था । माँ एक अनपढ़ और घरेलू महिला थी । पिता के पैसों से किसीतरह गुजारा हो रहा था ।धीरेधीरे सारे रिश्तेदारों ने भी कन्नी काटनी शुरू कर दी। उनके पास अपना एकमात्र सहारा उनका एक छोटा सा घर था जहाँ वे भूखे भी सो जाते तो कोई देखने वाला नहीं था । आठवीं कक्षा तक उसने खूब मेहनत की परन्तुं नवी कक्षा से घर की स्थिति और भी डावांडोल होने लगी । किसी तरह नवीं किया फिर जब दसवीं कर रहा था माँ की भी तबियत खराब रहने लगी ।एक नन्हीं सी जान और इतनी सारी परेशानियां । माँ तो बीमारी हालत में भी एक कम्पनी में काम करती थी और रामू विद्यालय से घर आने के बाद घर के सारे काम संभाल लेता था ।वह ट्यूशन भी पढ़ाना चाहता था पर लोग नवीं दसवीं के बच्चे को ट्यूशन देने को तैयार नहीं होते थे ।माँ की तबियत खराब होने से वह पढ़ाई में भी ठीक से ध्यान नहीं दे पा रहा था ।दसवीं में फेल होना वह मानसिक रूप से स्वीकार नहीं कर पा रहा था । माँ ने तो उसे दुबारा पढ़ने के लिए भी कहा पर वह बहुत निराश हो चुका था । माँ की परेशानी कम करने के बजाय वह बढ़ा ही रहा था ।आखिर माँ को किसी तरह समझाकर वह नौकरी की खोज में निकल पड़ा ।
रामू की आँखों से आॅसू बहने के लिए आतुर हो रहे थे पर उसने उनको दृढता से रोक रखा था ।
जुगनू ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा,"भाई आज से मैं तेरा भाई हूँ । हम हर एक परेशानी मिलकर सहेंगे । तुम अपनी पढ़ाई भी
पूरी करोगे और अच्छी नौकरी भी करोगे ।आज से मैं तुम्हारा बड़ा भाई हूँ ।
दोनों एक दूसरे का हाथ थामे नयी मंजिल की तलाश में चल पड़े ।सबसे बड़ी बात यह थी की दोनो को एक दूसरे की जाति व प्रांत का अभी तक कुछ भी पता नहीं था । ****
6 . दान
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" माँ बहुत भूख लगी है ।" बच्चे भूख से परेशान थे वे माँ से भोजन की याचना कर रहे थे ।
" बेटा थोड़ा सा और इंतजार कर लो,फिर होटल पहुँचकर ठीक से खाना खाया जायेगा ।"
रास्ते में अगल बगल होटल भी नजर आ रहे
थे किन्तु रास्ते में गाड़ी रोकना संभव नहीं था क्योंकि पहाड़ी रास्ता था और अंधेरा होने से पहले वे अपने गंतव्य तक पहुँच जाना चाहते थे।रास्ते में जहाँ भी होटल या ढाबा नजर आता
वे मनमसोसकर रह जाते ।चाहकर भी वे रुक नहीं सकते थे उन्हें पहले मन्दिर फिर अपने होटल जाना था ।
मन्दिर की आरती पाने के मोह में उनको रात के ग्यारह बज गये । फिर यह तय हुआ की
पहले दर्शन कर लिया जाये फिर कोई होटल
तलाशते हैं । खाना खाकर फिर अपने होटल जायेंगे । आरती और पूजा होते रात के साढ़े ग्यारह बज चुके थे । बच्चों का क्या बड़ों का भी ध्यान भगवान से ज्यादा अब खाने पर था। जल्दी जल्दी पूजा आरती करके वे लोग होटलकी तलाश में निकल पड़े ।
सामने ढाबा देखकर उनकी आँखों में चमक आ गयी । वे जल्दी जल्दी वहाँ पहुँचे पर
यह क्या यहाँ तो भट्टी बुझायी जा रही थी ,खाना
खत्म हो चुका था । बच्चों की भूख अब और भी बढ़ गयी थी वे रो रहे थे । इसी तरह वे लोग तीन चार ढाबे पर गये पर कहीं भी उनको खाना
नहीं मिला ।
आखिर एक ढाबे पर उन्होंने फिर कोशिश
की की शायद यहाँ कुछ मिल जाये ।
बाबू साहब अब तो भट्ठी बुझायी जा चुकी है नहीं तो कुछ बनवा भी देते पर एक काम कर
सकता हूँ । बच्चों को देखकर उसकी आँखों में
दया की भावना तैरने लगी थी ।
"क्या कर सकते हो ,बताओ जल्दी ।"हरीप्रसाद
व्याकुल हो रहे थे ।
"बाबू जी मैने और मेरे तीन कर्मचारियों ने अभी भोजन नहीं किया है,वह भोजन मैं बच्चों
को दे सकता हूँ ।"ढाबे का मालिक बोला।
हाँ ,हाँ दे दो ,पर आप लोग ?
"अरे कोई बात नहीं ,हम लोग समझ लेंगे की आज एक समय का व्रत रखा है।" ढाबे का मालिक बोला और उसके तीनों कर्मचारी सहमति में सिर हिला रहे थे । उनकी सहमति
में किसी भी प्रकार का अफसोस या दबाव नहीं
था ।
भाई साहब आप लोगों के इस उपकार के हम
आजीवन ऋणी रहेंगे । हरीप्रसाद ने भोजन लेकर पहले बच्चों को खिलाया फिर बचे हुए
खाने को ड्राइवर तथा अपनी पत्नी के साथ स्वयं खाया । रात में वे लोग वहीं ठहरे ,सुबह
जाते समय हरीप्रसाद ने ढाबे के मालिक को उस खाने की कीमत लेने की पेशकश की ।
भाई साहब आपके खाने की कीमत तो नहीं अदा कर सकता किन्तु फिर भी कुछ देना चाहता हूँ । उम्मीद है आप मना नहीं करेंगे ।
भाई साहब आप यहाँ ठहरे मैं उसकी कीमत ले सकता हूँ ,पर खाने की कीमत नहीं
क्योंकि वह तो बच्चों को दिया गया 'अन्नदान '
था ,जिसकी कोई कीमत नहीं होती ।
हरीप्रसाद की आँखों में आँसू छलक आये थे । वास्तव में जिस समय लोग दूसरों के आगे की थाली भी खींच लेते हों ,अपने आगे की थाली परोसने वाले तो बिरले ही होते है ।
****
7. प्रेम
***
बाहर तेज बारिश हो रही थी और रह रह के बादल गरज रहे थे । कौशल जी अपने काम जल्दी जल्दी निबटा रहे थे । झाड़ू पोछा लगाने के बाद बर्तन धोया इसके बाद वे खाना बना रहे थे।उनके चेहरे पर शिकन की एक मामूली सी
रेखा भी नहीं थी ।
"क्या खाने का मन है रीना ?,आज क्या बनाऊँ ?" कौशल जी का रोज का ही यह प्रश्न होता और रीना रोज ही कहती "जो शुभम को पसन्द हो ,वही बनाइये ।"
शुभम हँस देता ,"अरे मम्मी मुझे भी आपकी ही पसन्द का खाना पसन्द है ।"
और फिर तीनों ही खिलखिलाकर हँस पड़ते ।
रीना को अपनी भारी लगती जिन्दगी थोड़ी सी हल्की लगने लगती ।तीन साल से वह लगातार बीमार चल रही थी अपना कोई भी काम स्वयं नहीं कर सकती थी । उसे सहारा देकर चलाया जाता था।
कौशल जी शुभम को तैयार करके,बैग तैयार करके ,लंचबॉक्स तथा पानी का बोतल देकर सड़क तक जाकर बस में बिठाकर वापस घर आते । रीना को ब्रश आदि कराकर नाश्ता देते और स्वयं भी उसी के साथ नाश्ता कर लेते फिर रीना को दवा खिलाने के बाद कपड़े धोने बैठ जाते । कपड़े धोकर फैलाकर ,रीना के लिए बेड से लगाकर रखे टेबल पर दोपहर का खाना व पानी रखते फिर अपने ऑफिस चले जाते । शाम को लौटकर फिर घर के काम में
लग जाते ।
रीना बिस्तर पर बैठी अपलक अपने पति कौशल को निहार रही थी , उसे कभी लगता था की वह शायद बोझ बनती जा रही है ,पर पति की मुस्कुराती हुई आँखें उसे एक सुकून प्रदान करती थी ।शायद यही असली प्रेम होता है । ****
8. एक गिलास शर्बत
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"बहिन जी आज़ मेरा मन बहुत ही दुखी है ।"रजनी की सास ने उसकी मां से कहा ।
"क्या बात हो गयी ,आप का मन दुखी क्यों है ?" रजनी की मां ने समधिन जी हंसते हुए थोड़ा चुहलबाज़ी करते हुए पूछा ।समधिन समधिन में तो मज़ाक होता ही है ।
"अरे क्या बतायें, आपकी बेटी बड़ी घमंडिन है ।" रजनी की सास जी थोड़ा गुस्से से लाल होते हुए बोलीं ।बताइए तो सही उसने किया क्या है ? अब रजनी की मां गम्भीर होकर बोली ।
"अब आप ही बताइए कि रसोई से कुछ लिया जाता है तो पूछना चाहिए कि नहीं?"रजनी की सास ने उल्टा प्रश्न कर दिया ।
"हां , हां क्यों नहीं, बिना पूछे नहीं लेना चाहिए ।"रजनी की मां ने कहा । हां और आपकी बेटी ने रसोईघर में जाकर शर्बत बनाकर पी लिया और एक बार पूछा भी नहीं । बताइए गलत है की नहीं ? रजनी की सास बोलती जा रहीं थीं
और उसकी मां चुपचाप सुनती जा रही थी ।
मई का महीना और उस पर तेज दोपहरी का समय था और गर्मी मानों अपनी चरम सीमा छू लेने को उत्सुक हो रही थी ।उस समय हवा भी बन्द-सी थी ।रजनी को पढ़ाई के लिए रोजाना यूनिवर्सिटी जाना आना होता था। प्राय: रजनी चौराहे पर टैम्पो से उतरकर पैदल ही घर की ओर चल देती । रजनी का घर चौराहे से करीब बीस मिनट के रास्ते पर था । फिर भी वह रिक्शे पर पैसा नहीं खर्च करना चाहती थी । उसके पास इतने पैसे थे भी नहीं की रोज रोज रिक्शा करके घर आती ।
घर पहुंचकर वह रसोईघर में पानी लेने के लिए गयी तो उसे वहां पर नींबू रखा हुआ दिखा । अब उसे नींबू का शर्बत पीने का मन हो गया । उसने दो गिलास शर्बत बनाया और पी गयी । थोड़ी देर आराम करने के बाद वह अपनी मां के पास चली गयी । रजनी का मायका और ससुराल चार कदम की दूरी पर ही था । उसकी सारी किताबें मायके में ही थी और पढ़ाई के सिलसिले में वह दिन में मायके में रहती और रात में ससुराल आ जाती ।अभी दो महीने पहले ही उसकी शादी हुई थी विदाई ना होने के कारण उसे रात में ससुराल में ही रुकना पड़ता था । मां विदाई के लिए कहती तो जवाब मिलता कि हमारे यहां एक साल से पहले विदाई नहीं होती ।
" रजनी यह तो गलत बात है , तुम्हारी सास तुम्हारी शिकायत कर रहीं थीं।"रजनी की मां उसे डांटते हुए बोलीं।
" मैंने क्या किया बताओ तो सही । मैंने तो कुछ भी ऐसा नहीं किया की शिक़ायत करतीं।"रजनी बहुत परेशान हो उठी थी ।
"तुम्हें शर्बत ही पीना था तो सास से पूछकर बनाती ,ऐसे बिना पूछे क्यों बना लिया?" मां ने समझाते हुए कहा ।
"उस समय घर में नीचे कोई नहीं था ,सभी ऊपर वाले कमरे में सो रहे थे । फिर मैं किससे पूछती ? मुझे बहुत तेज प्यास लगी थी नींबू देखकर शर्बत पीने का मन हो गया और मैंने शर्बत बनाकर पी लिया ।" रजनी ने कहा । उसे बड़ा अजीब लग रहा था की आखिर इसमें शिकायत की बात क्या है ?
इसी बात की शिकायत रजनी की सास ने उसकी मां से कई बार की । आखिर रजनी की मां के सब्र का बांध टूट ही गया । उन्होंने तुरंत ही पलटवार करते हुए पूछा , "बहिन जी मेरी बेटी कितने नींबू और कितने किलो चीनी का शर्बत पी गई है ,आप बता दीजिए अभी भेजती हूं ।"
अरे नहीं लेकिन बिना पूछे तो कोई काम नहीं करना चाहिए ना । रजनी की सास ने कहा ।
रजनी की मां घर वापस आकर ,पांच किलो चीनी तथा एक दर्जन नींबू रजनी के सास के पास भिजवा देती हैं और उसी दिन से उनकी शिकायत भी बन्द हो जाती है । ****
9. सम्मान
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किसी बड़े नेता जी का आगमन हो रहा है।सभी जोर शोर से तैयारियां कर रहे हैं।रातों रात सड़कें साफ हो गई ,पोस्टर लगा दिये गये । सड़कों के किनारे किनारे चूना छिड़क दिया गया । जिस जिस सड़क से नेता जी का
काफिला गुजरना था उसे सजा दिया गया ।यही नहीं सड़कों के गड्ढे भी गायब हो गये ।
सड़को के किनारे रहने वाले गरीब फुटपाथ के लोग भी भगा दिये गये । आसपास की बिल्डिंग भी देख ली गई ताकि कुछ भी ऐसा न रह जाए कि नेता जी नाराज हो जाएँ । आसपास का सारा एरिया साफ-सुथरा हो गया । पंडाल को सजा दिया गया मानों कोई बहुत ही बड़ा समारोह हो रहा हो और उससे बड़ी बात कि नेता जी और उनकी पार्टी का जय जय कार लगाने के लिए लोग भी किराए पर आ गये । चमचे बड़ी बेसब्री के साथ नेता जी के आने का इन्तजार करने लगे ।
सुमेश की मोबाइल की घण्टी बज उठी ।वह हड़बड़ाते हुए फोन उठाता है ---
"हाँ कहाँ तक आगये,अच्छा अभी आधे घण्टे और, ठीक है।'
और वह फिर बन्दोबस्त में लग जाता है ।
"हाँ, जरा ध्यान रखना ,नेता जी को खुश हो
जाना चाहिए ।"
" पैसा तो मिल जायेगा ना ।"
"हाँ ,हाँ ,उसकी चिन्ता मत करो । सबका पैसा मिल जायेगा । बस अपना काम ठीक से करना
तुम लोग ।"कहते हुए सुमेश दूसरी तरफ के लोगों के पास बढ़ गया ।
पुलिस अपनी व्यवस्था में तैनात थी और नेता जी के चमचे अपनी अपनी व्यवस्था में ।सभी यह दिखाना चाहते थे कि उन्होने अपना काम बहुत ही अच्छे तरीके से किया है।
और इसका इनाम भी तो उन्हे नेताजी की तरफ से मिलना ही था ।
आखिर नेता जी के आने की खबर आ ही गई। नेताजी के साथ-साथ बड़े -बड़ों की भी बड़ी पलटन भी।सभी स्वयं को नेताजी का परम शुभचिंतक साबित करने में लगे हुए थे ।
चारों तरफ से पुलिस ,बीच में नेताजी और उनके चहेते ।सामान्य जनता नेताजी की एक झलक देखना चाह रहे थे, बाकी लोग जय जय कार लगा रहे थे ।
नेता जी जैसे जैसे मंच की ओर बढ़ते है
अनेक लोग उनसे मिलने के लिए आतुर हो उठे। सभी को अपनी समस्याओं का समाधान चाहिए था और उसकी चाभी उन्हें नेता जी के पास नजर आती है। नेता जी की आयु यही पैंतीस चालीस के करीब होगी लेकिन पचास- साठ तक के लोग झुक -झुक कर उनके पैर छू रहे हैं ।और नेता जी भी उनके पैर छूने से खुद को बड़ा गर्वान्वित महसूस कर रहे हैं । अब ये कौन- सी संस्कृति हमारे भारत की हो गई कि बूढ़ा जवान के पैर छुये ।और बुजुर्गों को क्या हो गया है कि वे अपने से छोटों के पैर छूते है । इसे सम्मान कहा जाये या भयवश सम्मान दिखाना ।
समाज में ज्यादातर उन्हीं का सम्मान होते देखाजाता है,जो पैसे वाले होते हैं।जिसके पास आज जितना अधिक पैसा उतनी अधिक इज्जत उसे हासिल है । पैसे के साथ-साथ पद भी मिल गया तो सोने पर सोहागा । फिर तो न कोई बड़ा है न कोई छोटा, एक बूढ़े व्यक्ति पर बेटे के उम्र का नेता पैर चला सकता है। बूढ़ा आदमी जवान नेता जी के पैर छूकर अपना अहोभाग्य समझता है ।और हम अपने को परम
नैतिक भी मान लेते हैं ।
सारी नैतिकता महत्त्वहीन हो जाती हैं जब इस तरह की घटनाएं घटित होती हैं । हम स्वयं को सबसे आदर्श देश का वासी भी कहते हैं और ऐसी ओछी हरकतें भी करते रहते हैं । ऐसा ही कुछ एक फैक्ट्री में भी घटित हुआ था
सुमेर एक बूढ़ा था ।वह आदमी बेचारा मजबूर मजदूर मजदूरी करके अपने परिवार का पेट भर रहा था । कुछ समय से उसकी तबियत भी ठीक नहीं चल रही थी । कार्य स्थल पर उससे कुछ गलती हो जाती है ।अब बेटे के उम्र का फैक्टरी मालिक उसे मारमार कर मरणासन्न अवस्था में पहुँचा देता है ।क्या मात्र पैसे ना होने के कारण उस बुजुर्ग की इज्जत-नहीं थी और पैसे होने के कारण कोई किसी पर हाथ चलाने का हकदार बन गया।
नेता जी ने बड़े बड़े भाषण दिये ,बड़ों बड़ों ने पैर छुये और नेता जी चले गये । नेताजीके वादो पर लोगों की बहस चालू हो गयी ।कहीं बहस में गर्माहट तो कहीं इतनी गम्भीरता मानों सब कुछ सच होने वाला हो । पर किसी को भी
इस बात ने कष्ट नहीं पहुँचाया कि किस का सम्मान हो रहा है, किसका अपमान ।
"राजू देख जरा ,कैसे हरिहर बाबा नेता जी के पैर छू रहे थे ।'
हाँ ,नेता जी तो बाबा के बेटे के उम्र के ही होंगे ना ।"
सोमू को हरिहर बाबा का तथा अन्य बड़ों का नेता जी का पैर छूने का कार्य बड़ा अजीब लगा था ।वह अपने मन में उठ रहे सवालों से परेशान हो रहा था ,कभी राजू से पूछता कभी किसी और से ।उसे यह सम्मान करने का आधुनिक ढंग जंच नहीं रहा था ।राजू ने उसे समझाते हुये कहा--
"भाई परेशान मत हो,ये चाटूकारों द्वारा सम्मान करने का आधुनिक तरीका ढूँढ़ा गया है ,तुझे क्या ?"
सोमू को राजू के उत्तर से सन्तुष्टि तो नहीं मिली, पर वह चुपचाप वहाँ से चला गया । किसी और से उत्तर की तलाश में । ****
10. दीपावली
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" माँ आज भी ज्यादा दीये नही बिके ।"ठेले को किनारे लगाते हुए अशोक उदास होकर बोला ।
माँ ने उसे सांत्वना देते हुए कहा," अरे कल बिक जायेंगे,क्यों परेशान हो रहा है ? देख मेरे भी दीये ज्यादा नहीं बिके हैं।"माँ बेटे को समझा तो रही थी पर मन ही मन बुरे ख्याल भी मन में आ रहे थे । अगर दीये नहीं बिके तो इतने सारे दीये बेकार हो जायेंगे । यह भी दीवाली फीकी पड़ जायेगी ।
बेटा हाथपैर धोकर खाना खा ले ,आज तो यही मूली की सब्जी है,सब्जियों के दाम तो मानों आकाश को छू रहे हैं ।
अशोक वैसे तो हाईस्कूल पास था लेकिन घर की परेशानियों के कारण वह आगे नहीं पढ़ सका । वह ठेले पर सब्जी बैचने का काम करता धा ।त्योहारों में त्योहार के अनुसार अन्य सामान भी बेच लेता था ।
बिजली के झालरों और चाइनीजं बल्बों ने दीये का कारोबार ही बिगाड़कर रख दिया था । लोग अपनी सभ्यता संस्कृति भूलकर पाश्चात्य वस्तुओं की ओर अधिक झुक रहे हैं । कभी कुम्हार मिट्टी के बर्तनों को बेचकर बहुत कुछ
कमा लेते थे ,पर अब तो जैसे उनका कारोबार ही ठप्प पड़ गया है ।
गाँव हो या शहर सभी विदेशी वस्तुओं की ओर ही ज्यादा आकर्षित हो रहे हैं, वास्तव में तो दीपावली ज्योतिपर्व है,दीपों का त्योहार। उजियाला होना चाहिए पर मिट्टी के दीपों का होना चाहिए ताकि मिट्टी से दीपक बनाने वालों का भी कोई नुकसान न हो और हमारी पुरातन
परम्परा भी खंडित न हो ।
" अरे सोनू उठ सवेरा हो गया ,आज
जल्दी ही बाजार भी जाना है ।" माँ ने सोनू को
आवाज लगायी ।
"हाँ माँ उठ रहा हूँ ।" कहकर सोनू भी आँख मीचते उठ गया ।
दोनों ने जल्दी जल्दी घर के काम निपटाये थोड़ा बहुत नाश्ता किया और बाजार की ओर चल दिये । आज फिर दोनों हीमाँ बेटे बाजार में इस उम्मीद के साथ जाने केलिए तैयार हो रहे थे कि शायद आज उनके दीये ज्यादा से ज्यादा बिक जायें ,ताकि वे भी मना सकें अपनी शुभ दीपावली । ****
11. शक
***
नेहा यूनिवर्सिटी से आकर अपना बैग रखकर जैसे ही घूमती है कि उसे ऐसा लगा उसके पिता की क्रोध से धधकती आँखें मानों उसे खा ही जायेंगी । वह कुछ समझ पाती की
चटाक् चटाक् दो चाँटे उसकी गाल पर पड़ गये। वह बदहवास सी खड़ी थी।
माँ दौड़ी हुई वहाँ आयी ,"अरे क्या हुआ,पागल तो नहीं हो गये हो ?लड़की पढ़कर आ रही है और तुम उसे मारने लगे ।"
" इसका दुपट्टा देखो ,नया है ,इसको कहाँ से मिला ?जरूर किसी ने इसे .......।"पिता अपने शक की आग में झुलसे जा रहे थे ।
"चुप रहो ,मेरी लड़कियां ऐसी नहीं है,ना ही कभी होंगी ।मेरे खानदान में ऐसा कभी नहीं हुआ है ।"नेहा की माँ पिता को झिड़कते हुए बोली ।
" माँ मुझे ये दुपट्टा मेरी सहेली ने दिया है ।चाहे ।तो उससे पूछ लो ,उसके पास यह फालतू था और उसने मुझे दे दिया ।"नेहा ने सारी बात माँ को बता दीं ।
घर में पूरे दिन कलह जारी रहा ।दूसरे दिन नेहा ने वह दुपट्टा अपनी सहेली को वापस कर दिया और वही पुराना सिला हुआ दुपट्टा ओढ़कर जाने लगी ।
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क्रमांक - 063
जन्म : १८ सितंबर १९७३ , धामपुर - उत्तर प्रदेश
पिताजी : स्व० श्री सुखपाल सिंह
माता जी : श्रीमति गंगा देवी
पत्नी : श्रीमति निर्देश चौहान
पुत्री : डॉ स्वाति चौहान बी.ए.एम.एस (रूहेलखण्ड)
पुत्र : डॉ अनुज चौहान एम.बी.बी.एस
शिक्षा : एम. ए. (समाज शास्त्र, हिन्दी),
व्यवसायिक शिक्षा : एम. डी. इ.एच. आइरिडोलॉजिस्ट, डिप्लोमा मास्टर हर्बलिस्ट यू के, बी.एन.वाई.एस, सी.एक्यू
मेम्बर आफ ई.आर.डी.ओ (दिल्ली)
अभिरुचि : - औषधियों का बिज़नेस, अध्ययन, संगीत, साहित्य लेखन
साहित्यिक कृतियां - सुधियों की अनुगंध कविता संकलन , सत्यवादी हरिश्चंद्र गीतिका काव्य, अखिल जग में गीत गूंजे कविता संकलन
कलात्मक कार्य - सुन राधा सुन भजन टी सीरीज़, सारे जहां से अच्छा देशभक्ति गीत (गणपति सिने विजन),
साईं प्रकट भए भजन (श्री राम एन्टीटेनमैंट मुम्बई ), क्या पता क्या हो कल सी.डी. फ़िल्म
कार्य स्थल : १. स्वाति होम्यो स्टोर नूरपुर रोड जैतरा, धामपुर बिजनौर उ०प्र०
२. इलेक्ट्रो होम्योपैथिक (नॉन सर्जिकल हैल्थ केयर सेंटर) टीचर्स कालोनी, धामपुर, बिजनौर उ०प्र०)
विशेष उपलब्धि : - सी.एम.डी. यूथ एनर्जी हैल्थ मार्केटिंग प्रा०लि०
सम्मान: - अनेकानेक साहित्यिक, सामाजिक सम्मान
पता : २५७ शहीद शरद मार्ग, टीचर्स कालोनी, धामपुर बिजनौर - २४६७६१ उत्तर प्रदेश
१. क्या कहोगे
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बादलों की आवाजाही देखकर कोई नहीं कह रहा था कि बर्षा नहीं होगी । हाट का दिन था राजू ने सब्ज़ी ख़रीदने की योजना बनाई और साप्ताहिक हाट में चला गया लोग मौसम के मिज़ाज को देखते हुए ख़रीदारी करने में देर नहीं लगा रहे थे राजू हर बार की तरह बाद में दाम कम होंगे और ख़रीद लूँगा सोचकर भाव पूछता और आगे बढ़ जाता ऐसा करते हुए दो चक्कर लगा दिए ।
देखते ही देखते बर्षा शुरू हो गई गाँव वाले लोग चलने लगे । सस्ते के चक्कर में राजू ने कुछ नहीं ख़रीदा और बाद में मौसम ने कुछ ख़रीदने नहीं दिया ।
इसे मितव्ययिता, कंजूसी या लालच कहा जाए क्या कहोगे, ख़ाली हाथ छाता सिर पर लगा कर लौटना पड़ा वो भी शान से भीगते हुए । ****
२. माल पराया पेट तो अपना
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डिग्गी को काम हल्का मज़दूरी अधिक चाहिए थी किसी भी काम पर जाने से पहले मज़दूरी तय करना उसकी आदत में शुमार था वैवाहिक कार्यक्रम में काम करना उसे बहुत ही भाता था क्योंकि उसे खाने पीने का शौक़ था ऐसे में कम मज़दूरी भी ले लेता था । वैवाहिक कार्यक्रम में कारीगरों के साथ काम करने का शौक़ीन डिग्गी पास के गाँव में काम पर गया उसकी आदत को गाँव वाले सब जानते थे इसलिए नज़र भी रखते थे जब रात में काम ख़त्म हुआ तो सोने के लिए डिग्गी उस कमरे में लेट गया जिसमें मिठाई रखी गई थी डिग्गी डिग्गी कई आवाज़ लगाई डिग्गी न बोला
आख़िर उसे कौन जगा सकता है जो जानकर नींद का ढोंग कर रहा हो मौक़ा मिलते ही पेट भरकर मिठाई खाने के कारण पेट ख़राब हो गया सौ रूपये मज़दूरी मिली और ती सौ रुपये डाक्टर ने ले लिए माल पराया हो तो अपने पेट का तो ध्यान रखना ही पड़ेगा । ****
३. पानी
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सर्दी का मौसम आते ही दूध की माँग बढ़ने लगी दूधिया ने कहने पर भी पैसे नहीं बढ़ाए राजेश बड़ी परेशान थी सर्दी के कारण भैंस दूध कम देने लगी दस किलो से आठ किलो पर आ गई बड़ा परिवार, खर्च अधिक होने से पूर्ति मुश्किल रहती,
दूधिया ने कहा आज दूध पतला कैसे पानी मिला दिया क्या, नहीं तो कह राजेश ने मुस्कुराते हुए कहा दुधिया ने सोचा पानी डालते हुए पकड़ लूँगा तो पैसे काट लूँगा लेकिन राजेश भी कुछ कम न थी साइकिल के टियूव में पानी भरकर भैंस के पेट पर चढ़ा देती और सर्दी की बात कहकर उपर से झूल डाल देती दूध निकालते वक़्त बॉल्व बोड़ी को ढीला कर के पानी बाल्टी में दूध में मिला देती, बहुत दिन बाद चालाकी पकड़ी गई दूधिया ने कहा तो राजेश ने साफ कह दिया इस रेट में तो यही मिलेगा, तुम रेट तो पानी के भी नहीं देते मैं तो दूध देती हूँ लेना लो ना लेना मत लो दूधिया को मजबूर होकर रेट बढ़ाने पड़े ****
४. तू तू मैं मैं
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वैक्सीन लगवाने को लेकर लोगों में असमंजस की स्थिति बनी हुई थी वैक्सीन लगवाए या न लगवाए गाँव में चुनाव हुआ ही था अभी लोग पक्ष विपक्ष में बंटे हुए थे विजयी पक्ष ने सरकार की नीतियों का समर्थन करते हुए वैक्सीन लगवा ली विपक्ष ने विरोध प्रदर्शन किया परन्तु विरोध में ये भी भूल गए कि रोग पक्ष विपक्ष दोनों को बराबर मारता है एक गाँव में रहना है ख़तरा तभी टल सकता है जब वैक्सीन लगवाए इस बात को लेकर तू तू मैं मैं हो गई विपक्ष को मनमानी छोड़कर रोग को हार जीत के दायरे से बाहर रख कर सोचना पड़ा, आँखों से न दिखाई देने वाला अपनी पहचान छुपाने वाला वायरस किसी को पहचानता नही है ये भय तू तू मैं मैं से बहुत बड़ा था । ****
५. जूते की कील
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झबरे का जीवन सादा था और विचार ऊँचे सात्विक वह बहुत सादगी से जीवन यापन करता अपने कार्य को पूजा की तरह संयम व नियम के साथ बड़े मन से करता बाज़ार में नीचे बैठकर जूते चप्पल सीलने का काम करके जो मज़दूरी मिलती उससे परिवार का पालन करता एक दिन दरोग़ा का जूता उखड़ गया उस दिन का पहला ग्राहक झबरे ने एक कील ठोंक कर कहा पांच रूपया
तभी एक बच्चे ने कहा अंकल मेरी चप्पल जोड़ दो झबरे ने दो कील ठोंक कर बच्चे को दे दी और पैसे भी नहीं माँगे दरोग़ा ने कहा ऐसा क्यूँ मुझसे एक कील के पाँच रूपये और बच्चे से दो कील का कुछ नही । हाँ साहब पैसे कील के नही जूते उठाने के लेता हूँ वैसे भी बच्चे तो भगवान का रूप होते हैं । दरोग़ा जी की समझ में आ गया अपनी सेवा देकर पहले ग्राहक से पाँच रूपये लेकर झबरे ने बोनी कर ली । ****
६. पसीना
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घर में बड़ी शान्ति, पड़ोसी कहते आपके यहाँ कितनी शान्ति है कोई बोलता तक नहीं है आपके घर से आवाज़ तक नहीं निकलती, हाँ सब बड़े हैं छोटे बच्चे होते हैं तो शोर मचाते रहते हैं ऐसा कह कर मालती बात पूरा कर देती । ये बात पड़ोसियों को हज़म न होती आख़िर कब तक राज राज रहता शारदा ने घर में जाने का निर्णय लिया और किसी बहाने से घर आकर बैठ गई । अपने लक्ष्य पर अडिग शारदा देखती रही कि कुछ अता पता मिले, संयोग से किसी का मौन न टूटा बेचारी निराशा से भरी शारदा लौट गई पड़ोसी महिलाओं में जब शाम को टहलते हुए पुनः चर्चा हुई तो शारदा के मुँह से एक ही बात निकली कि मौन ही घर की शान्ति का रहस्य है जहाँ मौन है वहाँ शान्ति है पसीना बहाना है तो मौन होकर बहाओ तब पता चलेगा की मौन कितना कठिन है बोलने में मेहनत नहीं मेहनत तो चुप रहने में है ।****
७. सुई
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हर चीज़ का अपना महत्व होता है बड़ा अपना और छोटा अपना महत्व रखता है तलवार और सुई में बहस हो गई तलवार बोली मैं बड़ी हूँ लोगों का गला काट सकती हूँ सुई ने कहा आपसे ज़्यादा ज़रूरत लोगों को मेरी पड़ती है मैं अच्छे अच्छे कपड़े सिल देती हूँ और तो और तुम्हारे द्वारा काटा हुआ गला भी सिल सकती हूँ तुम काट तो सकती पर जोड़ नहीं सकती, तलवार निरुत्तर मौन रह गई । ****
८. सिंचोगे किसान
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अचानक बरसात समय से पहले शुरू हो गई किसी को अनुमान न था कि बाढ़ इतनी जल्दी आ सकती है हर बार तो ये समय बरसात से बचने की तैयारी शुरू करने का था हर साल की तरह जयचंद जोशी अपना ज्योतिषी अनुमान बताकर कि *सींचोगे किसान* रटा रटाया वाक्य कह कर फसलाना ले गया था पिछले कई सालो से अनुमान सही माना जाता था गर्मी देर तक रही तो किसान खेत में पानी की सिंचाई करते जयचंद ग्रह नक्षत्रों की बात बताकर अपनी योग्यता का बखान करने से नहीं थकता लेकिन इस बार भविष्यवाणी ग़लत रही किसान नाराज़ हुए किसानों द्वारा दी हुई भेंट अधिक होने से गाँव में पुनः लेने के लिए आना पड़ा किसानों ने पूछा जोशी जी आपका पत्रा फेल हो गया इस बार जयचंद ने कहा नही मैंने कहा था सींचोगे किसान अब आप घर में पानी सींच रहे हो ।बरसात जल्दी होगी या देर से ये मेरे बस में कहाँ । किसान चुप रह गए सच यही है घरों में भी पानी सींचा जाता आख़िर छप्पर व छतों के टपकने से भी तो पानी सींचने जैसी स्थिति रहती है ।****
९. आटा चक्की
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घर में आटा पीसने की चक्की का रोज चलना और उसके साथ शान्ति का गीत गुनगुनाना ‘ताज़ा पीस पीस कर खाऊँगी बालम’ ये शान्ति के स्वास्थ्य का राज था शायद ही कोई जाने । जबसे गाँव में बिजली से चलने वाली आधुनिक चक्की लग गई थी ज़्यादातर लोग वही गेहूं पिसवाने लगे थे लेकिन शान्ति के पास पिसाई के पैसे न रहते तो हाथ से पीसने की मजबूरी । धीरे-धीरे आधुनिक चक्की का आटा खाने से लोगों के पेट का स्वास्थ्य बिगड़ने लगा बिगड़ता भी क्यूँ ना आधुनिक चक्की में कृत्रिम पाट प्लास्टिक के बने होते हैं पत्थर जल्दी घिसता है जिससे आटा किरकिरा हो जाता है ।
पास पड़ोस की महिलाएँ शान्ति से एक ही बात पूछती तू इतनी स्वस्थ कैसे है शान्ति मुस्कुराते हुए कहती बहन ताज़ा ताज़ा खाओ । किसी को अनुमान न था आटा चक्की हाथ से चलाने से स्वास्थ्य का सीधा सम्बन्ध है । ****
१०. कीचड़ और विपक्ष
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चुनाव के बाद भी गाँव का रास्ता जैसा था वैसा ही रहा मोहल्ले के ठेकेदार ने जिसे वोट देने की अपील की थी वो हार गया था जीतने वाले ग्राम प्रधान ने साफ़ कह दिया कि जब आपने वोट ही नहीं दिए तो मैं क्या कर सकता हूँ कीचड़ आपने की है अब आप ही साफ़ भी करो । ये बात सुनकर मोहल्ले के ठेकेदार ने गाँव प्रधान के ख़िलाफ़ दरखास्त लगा दी और कुछ ऐसा लिख दिया, सेवा में श्रीमान महोदय राज बदला है पर लोग नहीं बदले मुझे छूना तो दूर लोग मेरी ओर देखना भी नहीं चाहते जबकि मैंने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा अतः आपसे निवेदन है कि मेरी सुध लेकर छुआ-छूत से छुटकारा दिलाएँ । सबके चरणों की दासी कीचड़ । अधिकारी ने दरखास्त पढ़ी और तुरंत जाँच के लिए आदेश कर दिए । सूचना गाँव प्रधान को दी गई गाँव प्रधान ने अधिकारी के आने के डर से कीचड़ साफ़ करके रास्ता बना दिया । पक्ष को बात समझ नहीं आई विपक्ष ठेकेदार की चतुराई को मान गया । ****
११. मूल्य
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गन्ने की खेती किसानों के मन भा गई मेहनत कम मुनाफ़ा ज़्यादा और जोखिम बहुत कम । ये देखते हुए गोविंद ने अपनी सारी ज़मीन में गन्ना ही बो दिया गेहूं धान या अन्य कोई भी फसल बिलकुल न बोई, गाँव के लगभग सभी किसानों ने ऐसा ही किया इस बार गर्मी अधिक होने के कारण सिंचाई खाद खुदाई की लागत अधिक लगानी पड़ी । गन्ने की पकी फसल घर में रखकर कुछ दिन बाद नहीं बिक सकती, अन्य फसलों का भंडारण संभव है ये किसानों ने सोचा तक नहीं, वैसे भी भूख पेट से ज़्यादा पैसे की दिमाग में रहती है आख़िर मूल्य दिमाग़ ही तो बढ़ाता घटाता है।
सरकारी चुनाव न होने और मिल की क्षमता कम होने से मूल्य वृद्धि भी न हुई जिसके कारण मुनाफ़ा घाटे में बदल गया और तो और मूल्य तब पता लगा जब गेहूं मोल लेना पड़ा इस बार किशन ने मर्ज़ी के रेटों पर गेहूँ चावल को चढ़ते मूल्य में बेच कर गन्ने को घाटे का सौदा सिद्ध कर दिया । ****
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क्रमांक - 064
जन्मतिथि : ०६ अक्टूबर १९५८
जन्म स्थान : राँची - झारखंड
शिक्षा : एम.एस सी,एल.एल.बी
कार्य : -
1977 से1989 तक स्थानीय और राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में कहानी, लेख, कविताएँ , परिचर्चा प्रकाशित।
1982 से 1985 तक आकाशवाणी राँची में कैजुअल अनाउंसर।
1990 से व्यक्तिगत कारण से साहित्य से दूर रही
2019 से फिर से लेखन की शुरुआत।
कई पुस्तकों में लेखन सहभागिता।
एक लघुकथा संग्रह प्रकाशन की प्रक्रिया में।
कई साहित्यिक मंचों पर सैकड़ों रचनाएँ प्रकाशित।
सम्मान : -
प्रतिलिपि के मंच पर दसियों पुरस्कार और ई सर्टिफिकेट
यशपाल साहित्य सम्मान से सम्मानित
पता:
फ्लैट संख्या-एफ -३, कल्लोल सामबेय आबासन,
ए एल/१/एफ/१,ए एल-३७, मार्ग संख्या-१६
एक्शन एरिया १ए, न्यू टाउन,
कोलकाता-७००१५६ पं. बंगाल
1.विरासत
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सुबह के साढ़े आठ बज रहे थे। वृंदा चाय का कप हाथ मे लिए अपने छोटे से गार्डन में टहल रही थी, साथ ही फोन पर अपने बॉस से बातें कर रही थी।
तभी उसके फोन में दूसरा फोन आया। देखा माँ का था। वह बॉस से बातें करती रही कि फिर रिंग हुआ माँ का ही था। वह खीझ गई।
बॉस से कोई महत्वपूर्ण बात कर रही थी वह सो उनसे अपनी बात चालू रखी।
तीसरी बार भी माँ ने रिंग किया और फिर उनका फोन नहीं आया।
करीब आधे घण्टे के बात के बाद वृंदा ने फोन रखा।
माँ का तीन मिस्ड कॉल। माँ भी न! जब देख रही है कि फोन बिजी आ रहा है तो इस तरह बार- बार फोन करने का क्या मतलब है। एक तो मैं औफिस और घर के चक्कर में खुद परेशान रहती हूँ, ऊपर से आए दिन माँ का रोना। कितनी बार कहा है कि खुद को किसी काम में व्यस्त रखो। लेकिन वह सुने तब न।
तभी फिर से एक बार माँ का फोन आ गया।
उसने फोन उठाया तो माँ कहने लगी - "बेटा कल रात भर नींद नही आई , तुम्हारे पापा की याद आती रही। मन ठीक नहीं लग रहा है। अकेलापन काटने को दौड़ रहा है। दो तीन दिनों के लिए ही सही मेरे पास आ जा बेटा।"
"मां आपको कहा है न मैंने काम अभी इतना है कि किसी कीमत पर निकलना सम्भव नहीं है फिर रवि को भी छुट्टी नहीं है। माँ या तो आप ही यहाँ आ जाओ या फिर कहीं व्यस्त करो खुद को ताकि अकेलापन न खले। अब तो ये रोज़ की बात है।"
शायद निराश हो माँ ने फोन रख दिया।
तभी उसकी बाई सीमा आ गई। उसे देख वृंदा का पारा चढ़ गया। उसे समय दिखाते हुए कहने लगी
" यह तुम्हारे आने का टाइम है। कितनी बार कहा है कि सात बजे तक आ जाया करो। लेकिन आजकल देर से आना तुम्हारी आदत बन गई है। मैं अभी अपनी तैयारी करूँ या तुम्हें देखूँ। करना है काम तो ठीक से करो वरना मुझे कोई दूसरी बाई ढूँढनी पड़ेगी।"
"अब आप जैसा ठीक समझें दीदी। मैं क्या कह सकती हूँ।"
सीमा कहने लगी
"असल मे दीदी बात ये है कि मैं हर दो तीन दिन में रात को अपनी माँ के पास चली जाती हूँ। सुबह वहाँ से आने में देर हो जाती है।जबसे बाबू गए हैं माँ एकदम अकेली हो गई हैं। अब उन्हें अपने घर ला कर नहीं रख सकती हूं न दीदी। मेरे आदमी को तो जानती ही हैं, कैसा है। माँ को भी बेइज़्ज़त कर देगा।
माँ कुछ कहती नहीं लेकिन मैं तो उनका दर्द समझती हूँ न। माँ ने आज तक मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ा तो अब मैं उसे अकेले घुटने के लिए कैसे छोड़ दूँ। मैं ही तो उनका सहारा हूँ। मुझे तो हर दूसरे- तीसरे दिन वहाँ जाना ही है दीदी। काम तो कहीं भी कर लूँगी लेकिन माँ को अकेला नहीं छोड़ सकती। अब बाबू तो नहीं हैं लेकिन अब माँ ही तो हमारी सबकुछ है। और मैं ही तो उनका सहारा हूँ। हम गरीब हैं लेकिन ये प्यार ही हमारी पूंजी है और विरासत भी।
सीमा की आँखे गीली हो गई। शायद पिता के लिए या शायद माँ के लिए। भर्राए गले से पूछा " दीदी काम करूँ, या..."
"हॉं ,हाँ जाओ जल्दी-जल्दी काम खत्म करो। मुझे भी जाना है।"
"अभी तो ऑफिस का टाइम नहीं हुआ है दीदी "
"आफिस नहीं पगली अपनी भूल
सुधारने ।"
और कृतज्ञता से उसकी ओर देख वह तैयार होने चल दी। ****
2. मायका
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आज बरसों बाद मानवी अपने मायके जा रही थी।
बड़े उल्लास से भरी। भाई भाभी,भतीजे भतीजी सबके किए कुछ न कुछ उपहार ले ली। बस कसक थी कि माँ पापा अब वहाँ नहीं होंगे।
फिर भी वह बहुत खुश थी। एयरपोर्ट से निकली तो देखा भाई उसके इंतज़ार में खड़ा है। दौड़ कर उसके गले लग गई। दोनों की आंखें नम हो गई।
भाई बहन दोनों गाड़ी में बैठ निकल गए।
धीरे-धीरे वह अपने घर की तरफ बढ़ती जा रही थी। और फिर अपने मुहल्ले में। ढिडकी से बाहर देख रही थी,ढूंढ रही थी। रहा न गया तो पूछ बैठी
भैया लाला जी का दुकान पार हो गया क्या?
अब लाला जी की दुकान है कहाँ। कब के उसके बेटे दुकान बेच यहाँ से चले गए।
और प्रतिभा चाची की किताब की दुकान,और शिवचरण चाचा का आटा का मिल कुछ दिख नहीं रहा।
अरे बहना अब सब बदल गया। दस साल बाद आ रही हो ,अब हमारा मुहल्ला वो मुहल्ला रहा ही नहीं।
बदल गया।मन शंकित हो गया मानवी का। और डर भी गया। बारम्बार अपने इष्ट को याद करने लगी। हे ईश्वर
मायके की जिन गलियों में, जिस घर के कोने कोने में पिछले दस सालों से विचरती रही, जिस कुर्सी जिस बिस्तर का स्पर्श प्रतिपल महसूस करती रही,जिसकी चिरपरिचित सुगन्ध साँसों में बसी है प्लीज वही मायका मुझे मिले। ****
3.कितनी बार हरण
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आज फिर रामलीला में जाने का अवसर मिला राजीव को। बिना किसी तामझाम के,बिना देर किए वह पहुँच गया।
लोगों की भीड़ जमी थी। अब वह कहां जाए। किसी तरह भीड़ को ठेल -ठाल आगे पहुंचा तो कुर्सियों की जगह आ गई। कई नामी गिरामी,अफसर , नेता,व्यापारी सभी बैठे थे।
देखकर मन गदगद हो गया उसका। सोचने लगा आज भी हमारे धर्म हमारी संस्कृति बड़े से बड़े लोगों को भी प्रभावित करती है।धन्य है,धन्य है।
तभी रामलीला शुरू हुई। दृश्य सीता हरण का था। जब रावण सीता माता का हरण कर अपने पुष्पक विमान में लेकर जाता है तो माता रास्ते निशानी के लिए अपने ज़ेवर गिरती जाती हैं।
हृदय विदारक पुकार से श्रीराम प्रभुऔर लक्ष्मण को पुकारती हैं। लेकिन कोई नहीं आते हैं। रावण अट्टहास करता हुआ उन्हें अपनी लंकापुरी ले जाता है।
तालियों की गूँज में आज का अंक समाप्त होता है।
भारी मन से राजीव भी बाहर निकलने लगता है तभी उसने देखा कि उसी भीड़ में सीता बनी नायिका एक समृद्ध सज्जन ने उज़क हाथ पकड़ अपने उड़न खटोले में बैठा रहा है।
इस बार उज़की हृदयविदारक चीख उसके गले में ही अटकी है।
बस जेवरों को फिर एक बार गिराती हुई आगे किसी लंका की ओर बढ़ती जाती है। ***
4.रुख बदल गया
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लोकडॉन का तीसरा दिन। शहर सुनसान। बस दो ही सायरन गूंज रही है।एक एम्बुलेंस की दूसरी पुलिस की।
एक चौराहे पर कुछ पुलिस वाले तैनात थे। उन्होंने देखा एक बाइक चली आ रही है। हवा से बातें करती हुई।
जैसे ही बाईक चौराहे के नज़दीक आई एक पुलिस वाले ने रोका। बाईक साइड करवाई। लड़कों को देख कर कहा-
"एक तो ट्रीपल राईडिंग, हेलमेट नहीं, मास्क नदारद, ऊपर से तेज़ रफ़्तार। "
"खुद को क्या समझते हो तुमलोग। न सुरक्षा की फिक्र, न बीमारी का डर। सारे नियमों की अवहेलना की है तुमलोगों ने।"
कह कर वह चालान बनाने लगा।
तबतक एक लड़के ने पूछा
"कितना दूँ।"
"मतलब" पुलिसवाले का सवाल
"सब जानते हैं अपलोगों की चालाकी।मौका मिला नहीं कि कमाने की तरकीब निकाल लेते हैं आपलोग। इसलिए बताइए कितना दूँ । जो लेना है लेकेर हमें जाने दीजिए।"
पुलिस वाले ने एक क्षण विचार किया। रपुटेशन तो खराब है। लेकिन मौत के तांडव के सामने रपुटेशन क्या चीज़ है।
दूसरे ही पल तीनों बिगड़ैल युवा पुलिस जीप में और उनकी बाइक चलाता सिपाही थाने की ओर जा रहे थे। ****
5.परवरिश
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ममता और सुधा दोनों बचपन की सहेलियाँ थी । स्कूल खत्म हुआ। कॉलेज भी एक था दोनों का। लेकिन दोनों अब साथ कॉलेज नहीं जाती थी।ममता के भाई उसे छोडने जाते और सुधा अकेली ही जाती थी। दोनो कॉलेज में मिलती थी।एक दिन ममता ने सुधा से कहा-
" सुधा अब हम बड़ी हो गई है।तुम्हारा भी इस तरह अकेले आना-जाना ठीक नहीं। पापा कहते हैं, समय बहुत खराब है।
इसीलिए भैया मुझे छोड़ने और लेने आते हैं। तुम भी हमारे साथ चलो या फिर अपने भाई से कहो तुम्हें कॉलेज छोड़ दे और शाम को लेने आए।"
"ये क्या कह रही है तू। मैं उससे बड़ी हूँ। वो मुझे क्या प्रोटेक्सन देगा।वैसे मैं अपनी रक्षा खुद कर सकती हूँ। इसी दिन के लिए पापा ने मुझे कराटे सिखाया और बहुत सी बातें समझाई हैं।तुम्हें भी खुद अपनी सुरक्षा के लिए तैयार रहना चाहिए।"
सुधा ने अपनी बात रखी।
लेकिन ममता को जैसे कुछ और ही सोचे बैठी थी। उसने कहा
"मुझे क्या करना है। माँ- पापा कहते हैं कि जबतक यहाँ हूँ तो भाई साथ जाते हैं और जब शादी हो जाएगी तो पति साथ होंगे मेरी रक्षा के लिए।"
"क्यों? तुम्हारे हाथ पैर टूटे हैं क्या? यदि कभी तुम अकेली हो और ऐसी कुछ मुसीबत आ जाए तो तुम किसी के आने का इंतज़ार करोगी।"
मेरे माँ पापा कहते है कि "हमेशा अपनी मदद हमें स्वयं करनी चाहिए। " सुधा ने कहा।
ऐसी मुसीबत क्यों आएगी, कौन सा मैं अकेले कहीं जाऊँगी।ममता का जवाब था।
"क्यों तुझे जॉब नहीं करनी है। तब हर दिन कौन छोड़ेगा। " सुधा चौंक गई।
"पागल हो गई है क्या। " ममता ने कहा
" मैं क्यों जॉब करूँ। मेरा पति इतना कमाएगा की मैं तो बस घर में बैठ राज़ करूँगी। माँ कहतीं है की तुम्हारी शादी अमीरों में होगी। सोने चाँदी से लाद कर ले जाएँगे तूझे।
मुझे तो बस घर में रहना और मज़े से रहना है।"
अच्छा! सुधा सोचने लगी।मेरी मां कहती है कि पहले पढ़लिख कर आत्मनिर्भर बनो। अपने संस्कार और अपनी परम्पराओ को अपनी ताकत बनाव। अपनी उड़ान भरो। मेहनत से अपना स्थान बनाव ताकि जो भी तुमसे शादी करे उसे तुम पर गर्व हो।
सुधा समझ गई। ममता उस सोने के पिंजरे में खुश और वह खुले आसमान में।
उसने ममता का हाथ पकड़ कर कहा -
"तू जा तेरे भैया आ गए हैं तुझे लेने। जा पिंजरे में जाकर सोने का दाना चुग।" ****
6.हक़
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आधी रात को डॉक्टर विवेक अपने केबिन में बैठे उँघ रहे थे। काम की अधिकता की वजह से महीनों से न ढंग से खा पाते न सो पाते। घर जाना तो दूर की बात थी।
इतने लोग बीमार हैं। कितने लोग इस दुनिया को छोड़ कर जा चुके हैं और अस्पताल में कितने ऐसे हैं जो जाने के कगार पर हैं और वो चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। एक विवशता सी महसूस कर रहे थे।
तभी उन्हें ऐसा लगा जैसे कोई दरवाज़े के बाहर से पार हुआ। वो उठकर बाहर गए तो देखा एक तकरीबन सात आठ साल की बच्ची जा रही है। सुंदर फ्रॉक पहने,लम्बे खुले केश।
किसकी बच्ची है, और इतनी रात गए, आपरेशन थिएटर की ओर क्यों जा रही है।
डॉ विवेक लपकते हुए आगे बढ़े और पुकारा-
"बेबी कहाँ जा रही हो ,और कौन है तुम्हारे साथ।"
"कोई नहीं मैं अकेली हूँ ।" वह रुक गई।
"अकेली फिर OT की तरफ क्यों जा रही हो।"कहते हुए वह बच्ची के सामने आ गए।
आगे से भी चेहरा बालों से ढक था।
"कौन हो तुम,एक तो अकेली आधी रात को इधर- उधर घूम रही हो,ऊपर से चेहरा भी ढक रखा है।"
"इसी OT में तो आपने मुझे मेरी माँ के गर्भ में ही मार दिया था। फिर अपना चेहरा कहाँ से दिखाऊँ। " उसने भरे गले से कहा।
"आज नहीं, लेकिन तब तो आप कुछ कर सकते थे।"
जीवन दे नहीं सकते तो लेने का भी हक़ नहीं।"
कहतीं हुई वह OT में चली गई।
चौंक कर उनकी नींद खुल गई। पसीने से तर ब तर थे डॉ विवेक, ग्लानि से भरे हुए। ****
7. वो ऐसा कर सकती है
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"बहू देखो तुम्हारी बेटी क्या कह रही है। यही सिखाया है कि बाप के सामने चबड़-चबड़ करे। वाह! खूब परवरिश दी है।"
दो मिनट में ही रामदुलारी देवी ने अपनी बहू स्वाति के सारे किये कराए पर पानी फेर दिया।
स्वाति भी ड्राइंग रूम से आती आवाज़ें सुन रही थी। शायद बाप बेटी में किसी बात पर बहस छिड़ी थी।
बात क्या हो सकती है? सोचती हुई स्वाति कमरे में पहुची तो देखा "अविनाश" उसके पति गुस्से में थे और "कृति " उनकी बेटी पिता को अपनी बातें समझने के प्रयास में लगी थी।
मुझे देखते ही वह सुबक पड़ी और कहने लगी "माँ देखो न पापा कह रहे हैं कि ग्रेजुएशन के बाद मैं पढ़ाई छोड़ दूँ और वो मेरी शादी करा देंगे।"
"हाँ, तो क्या गलत कह रहा हूँ। जितना पढ़ना था मैंने पढ़ा दिया।इसकी शादी इससे बड़ी जिम्मेदारी है। शादी के बाद जो जी मे आए करना। चाहे पढ़ना ,चाहे नौकरी करना।फिर तुम समझो और तुम्हारा परिवार।"
कहते हुए अविनाश उठकर बाहर चले गए और स्वाति, कृति को आश्वाशन देती रही कि " चुप हो जा बेटा ऐसा कुछ नहीं होगा ।मैं पापा से बात करूँगी।"
पर बात क्या करना था,उन्होंने तो पहले ही निर्णय ले लिया था कि अब बस इसकी शादी कर गंगा स्नान करना है।माँजी भी अविनाश का पूरा साथ देतीं और लड़कियां पढ़े या न पढ़े उनकी शादी कितनी आवश्यक है इसका पाठ पढ़ाती रहती थी।
पहले पहल तो वह इसे एक पिता की आम चिंता समझ रही थी पर ऐसा कुछ न था।अब तो रोज़ रोज़ ही उसके रिश्ते की बातें होने लगी।
बात गम्भीर हुई जा रही थी सो स्वाति ने अविनाश से बात करने की सोची।
मौका देख उसने कहा " ये आप क्या कर रहे हैं।जरा सोचिए बेटी की उम्र ही क्या है अभी?"
"तो !कौन सा शादी कल ही हुआ जा रहा है।"
" फिर उसकी पढ़ाई क्यो छुड़वा रहे हैं,जब तय होगी तब देखा जायेगा।"
'तुम समझती क्यों नहीं हो।हमें भी तो इसी समाज़ में रहना है।कल को कोई कुछ कहे इससे पहले मैं अपनी ज़िम्मेदारी पूरी करना चाहता हूँ। बाकी उसकी पति की ज़िम्मेदारी।"
"और यदि वह न मानी तो?"
"मेरे बात की अवहेलना,ऐसा नहीं कर सकती है कृति।बेटी है वह मेरी।"
अविनाश ने विफर कर कहा।"
जब हम ही उसके सपनों को पूरा करने में उसकी मदद नहीं करेंगे तो कोई और क्या करेगा!
स्वाति को लगा जैसे ये बातें उसके और अविनाश के बीच नहीं बल्कि उसकी माँ और पिताजी के बीच हो रही हो।
माँ ने भी तब पिताजी को कितना समझाया था।उम्र,पढ़ाई,मेरी ख्वाहिश सब का हवाला दिया था।लेकिन पिताजी ने तय कर लिया था कि इंटर के बाद शादी कर देनी है।बाकी पढ़ना हो तो उसके पति जानें। सो वही किया।
वह भी पढ़ना,आत्मनिर्भर बनना चाहती थी।पर उसकी कौन सुनता,जब माँ ने ही थकहार कर पिताजी के सामने हथियार डाल दिए थे।
तब कितना रोई थी वह।पर सब बेकार।
लेकिन आज वो नहीं दुहराया जाएगा। आज समय बदल गया है। स्वाति ने तय कर लिया कि वह अपनी बेटी के स्वप्नों को खुला आकाश देगी।लड़कियों का आत्मनिर्भर होना उनके स्वाभिमान को जिंदा रखने के लिए कितना आवश्यक है वह जान चुकी है।
सो जाते जाते उसने दृढ़,और सशक्त शब्दों में बस इतना ही कहा--,
"वो ऐसा कर सकती है।" *****
8.लचीलापन
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आज फिर गौरी और ऋषभ की लड़ाई होते-होते रह गई। कारण ऋषभ का वही बेतरतीबी वाला स्वभाव। सुबह जब से वह जागता है तबसे ऑफिस जाने तक पूरा घर जैसे फैला कर रख देता है।
कहीं चाय का कप, कहीं अखबार फैला होता। किसी बिस्तर पर तौलिया तो सोफे पर उसके कपड़े।
डाइनिंग टेबल पर ग्लास में जूस के दो घूंट बचे होते या प्लेट में पराठों के टुकड़े।
गौरी हर बात पर खीझती रहती। सोचती कैसे उज्जड से पाला पड़ा है।
गौरी जितनी सलीके वाली थी ऋषभ उतना ही बेपरवाह। गौरी हर काम को परफेक्टली करती थी और ऋषभ बस कर देता था। शादी के इन तीन सालों में उसे टोकते-टोकते वह थक गई।
पर आज तक कुछ न बदला।
न उसके तौर-तरीके और न ही उसकी मस्त-मौला शख्शियत। यहां तक कि उनके डायलॉग भी नहीं बदले।
उसके टोकने पर वह हँस कर कहता
"तुम हो न परफेक्ट, एक घर में दो परफेक्शनिस्ट नहीं चलेगा। घर कहीं अजायबघर न बन जाए। और तुम भी ज्यादा टेंशन न लिया करो स्किन खराब हो जाएगा।"
इसपर गौरी और चिढ़ कर कहती-
"तुम्हें तो न करने के बहाने चाहिए और बस कुछ भी कहना है।"
आज भी वही सब होता लेकिन गौरी ने कुछ सोचकर खुद को रोक लिया। ऋषभ को नहीं लेकिन वह खुद को तो बदल सकती है।
उसके चेहरे पर तनाव की जगह मुस्कान ने ले ली।
उसे अपना स्किन भी चमकदार रखना है और घर को भी अजायबघर होने से बचाना है। ****
9.नई कुंती
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ऋचा और साहिल कॉलेज के ज़माने से दोस्त हैं। और पिछले दो सालों से प्रेमी-प्रेमिका।
दोनो ही देश के बड़े MNC में काम करते हैं।
ऋचा चाहती थी कि अब दोनों शादी कर लें लेकिन साहिल अभी अपने करियर पर ज्यादा ध्यान देना चाहता था।
ऋचा जब भी इस बाबत पूछती तो उसका एक ही जवाब होता
"हम कहीं भागे थोड़े न जा रहे हैं। पचले खुद को व्यवस्थित कर लें। ताकि शादी के बाद की जिम्मेदारी अच्छी तरह उठा सकें।"
उसका कहना भी गलत न था सो ऋचा चुप हो जाती लेकिन उसकी यही इच्छा रहती की वह शादी कर घर बसा ले और उसके बेटा हो या बेटी, बिल्कुल साहिल की तरह दैदीप्यमान व्यक्तिव वाला हो और कुंती बन इस सत्य को परखना चाहती थी।
आज जब वह हॉस्पिटल से घर आई तो काफी विचलित थी। क्या करे, किससे कहे। आज डॉक्टर ने जो कहा वह उसकी ख्वाहिश का नतीजा था। वह माँ बनने वाली थी।
लेकिन अब हज़ारों विचार आ-जा रहे थे। क्या वह इस अजन्मे से मुक्ति पाए,या जन्म देकर उसे अपनाए?
माँ- पापा से इसका जिक्र करे या साहिल को उसकी जिम्मेदारी बताए?
दिमाग जैसे फटा जा रहा था।
धीरे-धीरे वह संयत हुई। अपनी सोच पर विराम लगाया। निर्णय लिया कि न ही साहिल को उसके ज़िम्मेदारी का एहसास दिलाएगी। न ही माता- पिता पर बोझ बनेगी और सबसे बड़ी बात अपनी ख्वाहिश का त्याग भी नहीं करेगी।
वह अपने तबादले के लिए एप्लिकेशन लिखने बैठ गई। ****
10. चिरप्रतीक्षित
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अभी अभी रेखा ने जो कहा सुन कर सुनन्दा हतप्रभ रह गईं। बस रेखा की ओर देखती रही।
" क्या हुआ दीदी,मैंने कुछ गलत कह दिया क्या?” रेखा ने पूछा।
रेखा, सुनन्दा की कामवाली बाई थी।हलः कि सुनन्दा उसे हमेशा अपने घर का सदस्य ही मानती थी।
“अरे नहीं तूने कुछ गलत नहीं कहा रेखा, बस मुझे ही लगा जैसे कुछ गलत सुन लिया। फिर से कहना तुमने क्या कहा।“
दीदी मैंने कहा " आप नारियल की तरह हैं,बाहर से सख्त और अंदर से बिल्कुल नरम मलाई की तरह।"
और हँसती हुई पगार पर्स में रख चली गई।
पर सुनन्दा को एक झंझावत मे छोड़ गई। सुनन्दा ने सोचा क्या वह सचमुच ऐसी है? बाहर से कठोर और अंदर से कोमल। फिर मेरे घरवाले ऐसा क्यों नहीं सोचते?
बचपन से याद करूँ तो मैं अपने घर की हातिमताई थी।घर मे भाई बहन माँ, चाची किसी के प्रति कोई गलत बात कहता तो मैं उसका विरोध करती,उन्हें बताने की कोशिश करती कि आपने गलत बात कही। नतीजा जिसे सुनाया गया वह तो चुप रहकर सुशील, संस्कारी बन जाता और मैं घर, मुहल्ले में बदनाम।लेकिन कोई परेशानी ,या तकलीफ में होता तो मैं ही आगे बढ़ उसकी मदद भी करती,उनकी सेवा भी करती पर वह मेरे कर्तव्य के खाते में चला जाता।
सिलसिला यहीं थमा नहीं। जब व्याह कर ससुराल आई,बच्चे हुए तभी भी मैं कठोर की कठोर ही रही क्योकि पति की अनर्गल बातों का विरोध करती थी, बच्चो को चाहे पढ़ाई हो या रोज़मर्रा की बातें ,तौर तरीके हों,उन्हें टोकती डांटती,बिगड़ती थी।पर हर क्षण उन्हीं के लिए जीती भी थी।
पर शायद मेरे कठोर आवरण के अंदर की कोमलता किसी ने देखी ही नहीं या देख कर भी अनदेखा किया।
और आज जब रेखा को उसके महीने के पूरे पगार दिए तो वो ख़ुश हो कर ये जुमला कह गई।
कारण पिछले सप्ताह ही उसने सुनन्दा के महँगे डिनर सेट की तीन प्लेटें और एक बाउल गिरा कर तोड़ दिया था और वह उसपर खूब बरसी थी। कहा था कि
"तेरे पगार से इस बार जरूर काटूँगी।वैसे ये पहली बार न था।वह हमेशा कुछ न कुछ तोडती, या हर पांच दिन पर नागा करती ,और एक से बढ़कर एक बहाने बनाती । सुनंदा खीझ कर कहती
“ तुम कभी नहीं सुनती हो मेरी बात रेखा,देखना इस बार तेरा पैसा ज़रूर काटूँगी।“
पर जब पैसा देने की बात आती तो उसे पैसा काटते अच्छा नही लगता और वह पूरी पगार दे देती थी।
आज भी वही हुआ।
पर आज रेखा ने जो कहा वह चिरप्रतीक्षित था। ****
11.डर के आगे जीत है
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सालों से यह सिलसिला लगातार चल रहा था। कभी सप्ताह कभी महीना बाद शिवि और अक्षय में घमासान शुरू हो जाता। घर, बाहर ,परिवार बात कुछ भी हो। लड़ाई छोटी सी बात से शुरू होती और अंत धमकी के साथ होता। यानी अक्षय उसे हमेशा धमकाता कि ऐसा ही रहा तो वह उसे तलाक दे देगा। वह इतने गुस्से में लाल हो चुकी आंखों से देखते हुए कहता कि डर से शिवि के प्राण सुख जाते। वह चुप हो दूसरे कमरे में चली जाती।
ऐसे में वह हमेशा सोचती की यदि अक्षय सचमुच उसे तलाक दे देगा तो वह क्या करेगी। इतनी पढ़ी लिखी भी नहीं है कि अपने पैरों पर खड़ी हो जाए।
और फिर वह जानती थी कि उसके घरवाले भी उसे ही दोषी मानेंगे। इसीलिए अक्षय की गलती होने के बावजूद शिवि ही झुक जाती।
अक्षय , शिवि के इस डर को भलीभाँति समझता था।
आज भी वही हुआ। नाश्ते के बाद शिवि ने अक्षय से कहा कि
" आज फिर स्कूल से रोहन,उनके बेटे की शिकायत आई है। एक तो रिजल्ट खराब किया है, दूसरा दोस्तों से लड़ाई झगड़ा भी करता रहता है।"
"तो इसमें मैं क्या करूँ" अक्षय ने तैश में पूछा
"तुम नहीं तो कौन करेगा। मैने कितनी बार कहा है कि रोहन बडा हो रहा है।उसपर ध्यान दो।यदि वह मेरी नहीं सुनता तो तुम उसे समझाव , उसकी पढ़ाई पर थोड़ा ध्यान दो। उसके जीवन उसके करियर का सवाल है।"
"अब ये सब भी मैं ही करूँ। तुमसे एक लड़का भी नहीं सम्हलता।"
"हाँ नहीं सम्हल रहा है तभी कह रही हूँ। तुम सिर्फ काम देखो और मैं बाकी हर चीज़ के लिए खपती रहूँ। बेटा सिर्फ मेरा नहीं है। तुम्हें भी उसपर ध्यान देने की ज़रूरत है।"
बात आज उसके बेटे के जीवन की थी।
बात से बात निकलती गई। घर रणक्षेत्र बन गया। कि तभी अक्षय ने अपना तुरुप का पत्ता खोला।
"तुमसे घर नहीं सम्हलता, बच्चे को नहीं सम्हाल पाती तो एक काम करो।
आज ही बोरिया बिस्तर बांधो और जहाँ चाहे चली जाओ। मैं सब सम्हाल लूँगा।"
आज शिवि के कानों में यह वाक्य पिघले शीशे की तरह उतरा। उसने एक बार अक्षय को देखा और कमरे में चली गई।
शायद अक्षय मन ही मन अपनी जीत पर खुश हो रहा था कि तभी शिवि कमरे से अपना ट्राली बैग लेकर बाहर निकली।
और अक्षय से कहा कि मैं जा रही हूँ, कहीं भी बस
मुझे ढूंढने की कोशिश मत करना और रोहन का हाथ पकड़ वह दरवाजे से निकल गई। ****
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क्रमांक - 065
बीजेन्द्र जैमिनी
जन्म : 03 जून 1965
शिक्षा : एम ए हिन्दी , पत्रकारिता व जंनसंचार विशारद्
फिल्म पत्रकारिता कोर्स
कार्यक्षेत्र : प्रधान सम्पादक / निदेशक
जैमिनी अकादमी , पानीपत
( फरवरी 1995 से निरन्तर प्रसारण )
मौलिक :-
मुस्करान ( काव्य संग्रह ) -1989
प्रातःकाल ( लघुकथा संग्रह ) -1990
त्रिशूल ( हाईकू संग्रह ) -1991
नई सुबह की तलाश ( लघुकथा संग्रह ) - 1998
इधर उधर से ( लघुकथा संग्रह ) - 2001
धर्म की परिभाषा (कविता का विभिन्न भाषाओं का अनुवाद) - 2001
सम्पादन :-
चांद की चांदनी ( लघुकथा संकलन ) - 1990
पानीपत के हीरे ( काव्य संकलन ) - 1998
शताब्दी रत्न निदेशिका ( परिचित संकलन ) - 2001
प्यारे कवि मंजूल ( अभिनन्दन ग्रंथ ) - 2001
बीसवीं शताब्दी की लघुकथाएं (लघुकथा संकलन ) -2001
बीसवीं शताब्दी की नई कविताएं ( काव्य संकलन ) -2001
संघर्ष का स्वर ( काव्य संकलन ) - 2002
रामवृक्ष बेनीपुरी जन्म शताब्दी ( समारोह संकलन ) -2002
हरियाणा साहित्यकार कोश ( परिचय संकलन ) - 2003
राजभाषा : वर्तमान में हिन्दी या अग्रेजी ? ( परिचर्चा संकलन ) - 2003
ई - बुक : -
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लघुकथा - 2018 (लघुकथा संकलन)
लघुकथा - 2019 ( लघुकथा संकलन )
नारी के विभिन्न रूप ( लघुकथा संकलन ) - जून - 2019
लोकतंत्र का चुनाव ( लघुकथा संकलन ) अप्रैल -2019
मां ( लघुकथा संकलन ) मार्च - 2019
जीवन की प्रथम लघुकथा ( लघुकथा संकलन ) जनवरी - 2019
जय माता दी ( काव्य संकलन ) अप्रैल - 2019
मतदान ( काव्य संकलन ) अप्रैल - 2019
जल ही जीवन है ( काव्य संकलन ) मई - 2019
भारत की शान : नरेन्द्र मोदी के नाम ( काव्य संकलन ) मई - 2019
लघुकथा - 2020 ( लघुकथा का संकलन ) का सम्पादन - 2020
कोरोना ( काव्य संकलन ) का सम्पादन -2020
कोरोना वायरस का लॉकडाउन ( लघुकथा संकलन ) का सम्पादन-2020
पशु पक्षी ( लघुकथा संकलन ) का सम्पादन- 2020
मन की भाषा हिन्दी ( काव्य संकलन ) का सम्पादन -2021
स्वामी विवेकानंद जयंती ( काव्य संकलन )का सम्पादन - 2021
होली (लघुकथा संकलन ) का सम्पादन - 2021
मध्यप्रदेश के प्रमुख लघुकथाकार ( लघुकथा संकलन ) - 2021
हरियाणा के प्रमुख लघुकथाकार ( लघुकथा संकलन ) - 2021
महाराष्ट्र के प्रमुख हिन्दी लघुकथाकार ( लघुकथा संकलन ) - 2021
मुम्बई के प्रमुख हिन्दी लघुकथाकार ( लघुकथा संकलन ) - 2021
हिन्दी की प्रमुख महिला लघुकथाकार ( लघुकथा संकलन ) - 2021
- दिल्ली के प्रमुख लघुकथाकार ( लघुकथा संकलन ) - 2021
- बुजुर्ग ( ई - लघुकथा संकलन ) - 2021
बीजेन्द्र जैमिनी पर विभिन्न शोध कार्य :-
1994 में कु. सुखप्रीत ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. लालचंद गुप्त मंगल के निदेशन में " पानीपत नगर : समकालीन हिन्दी साहित्य का अनुशीलन " शोध में शामिल
1995 में श्री अशोक खजूरिया ने जम्मू विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. राजकुमार शर्मा के निदेशन " लघु कहानियों में जीवन का बहुआयामी एवं बहुपक्षीय समस्याओं का चित्रण " शोध में शामिल
1999 में श्री मदन लाल सैनी ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी के निदेशन में " पानीपत के लघु पत्र - पत्रिकाओं के सम्पादन , प्रंबधन व वितरण " शोध में शामिल
2003 में श्री सुभाष सैनी ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. रामपत यादव के निदेशन में " हिन्दी लघुकथा : विश्लेषण एवं मूल्यांकन " शोध में शामिल
2003 में कु. अनिता छाबड़ा ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. लाल चन्द गुप्त मंगल के निदेशन में " हरियाणा का हिन्दी लघुकथा साहित्य कथ्य एवम् शिल्प " शोध में शामिल
2013 में आशारानी बी.पी ने केरल विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. के. मणिकणठन नायर के निदेशन में " हिन्दी साहित्य के विकास में हिन्दी की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं का योगदान " शोध में शामिल
2018 में सुशील बिजला ने दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा , धारवाड़ ( कर्नाटक ) के अधीन डाँ. राजकुमार नायक के निदेशन में " 1947 के बाद हिन्दी के विकास में हिन्दी प्रचार संस्थाओं का योगदान " शोध में शामिल
सम्मान / पुरस्कार
15 अक्टूबर 1995 को विक्रमशिला हिन्दी विद्मापीठ , गांधी नगर ,ईशीपुर ( भागलपुर ) बिहार ने विद्मावाचस्पति ( पी.एच.डी ) की मानद उपाधि से सम्मानित किया ।
13 दिसम्बर 1999 को महानुभाव विश्वभारती , अमरावती - महाराष्ट्र द्वारा बीजेन्द्र जैमिनी की पुस्तक प्रातःकाल ( लघुकथा संग्रह ) को महानुभाव ग्रंथोत्तेजक पुरस्कार प्रदान किया गया ।
14 दिसम्बर 2002 को सुरभि साहित्य संस्कृति अकादमी , खण्डवा - मध्यप्रदेश द्वारा इक्कीस हजार रुपए का आचार्य सत्यपुरी नाहनवी पुरस्कार से सम्मानित
14 सितम्बर 2012 को साहित्य मण्डल ,श्रीनाथद्वारा - राजस्थान द्वारा " सम्पादक - रत्न " उपाधि से सम्मानित
14 सितम्बर 2014 को हरियाणा प्रदेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन , सिरसा - हरियाणा द्वारा लघुकथा के क्षेत्र में इक्कीस सौ रुपए का श्री रमेशचन्द्र शलिहास स्मृति सम्मान से सम्मानित
14 सितम्बर 2016 को मीडिया क्लब , पानीपत - हरियाणा द्वारा हिन्दी दिवस समारोह में नेपाल , भूटान व बांग्लादेश सहित 14 हिन्दी सेवीयों को सम्मानित किया । जिनमें से बीजेन्द्र जैमिनी भी एक है ।
18 दिसम्बर 2016 को हरियाणा प्रादेशिक लघुकथा मंच , सिरसा - हरियाणा द्वारा लघुकथा सेवी सम्मान से सम्मानित
अभिनन्दन प्रकाशित :-
डाँ. बीजेन्द्र कुमार जैमिनी : बिम्ब - प्रतिबिम्ब
सम्पादक : संगीता रानी ( 25 मई 1999)
डाँ. बीजेन्द्र कुमार जैमिनी : अभिनन्दन मंजूषा
सम्पादक : लाल चंद भोला ( 14 सितम्बर 2000)
विशेष उल्लेख :-
1. जैमिनी अकादमी के माध्यम से 1995 से प्रतिवर्ष अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन
2. जैमिनी अकादमी के माध्यम से 1995 से प्रतिवर्ष अखिल भारतीय हिन्दी हाईकू प्रतियोगिता का आयोजन । फिलहाल ये प्रतियोगिता बन्द कर दी गई है ।
3. हरियाणा के अतिरिक्त दिल्ली , हिमाचल प्रदेश , उत्तर प्रदेश , मध्यप्रदेश , बिहार , महाराष्ट्र , आंध्रप्रदेश , उत्तराखंड , छत्तीसगढ़ , पश्चिमी बंगाल आदि की पंचास से अधिक संस्थाओं से सम्मानित
4. बीजेन्द्र जैमिनी की अनेंक लघुकथाओं का उर्दू , गुजराती , तमिल व पंजाबी में अनुवाद हुआ है । अयूब सौर बाजाखी द्वारा उर्दू में रंग में भंग , गवाही , पार्टी वर्क , शादी का खर्च , चाची से शादी , शर्म , आदि का अनुवाद हुआ है । डाँ. कमल पुंजाणी द्वारा गुजराती में इन्टरव्यू का अनुवाद हुआ है । डाँ. ह. दुर्रस्वामी द्वारा तमिल में गवाही , पार्टी वर्क , आर्दशवाद , प्रमाण-पत्र , भाषणों तक सीमित , पहला वेतन आदि का अनुवाद हुआ है । सतपाल साहलोन द्वारा पंजाबी में कंलक का विरोध , रिश्वत का अनुवाद हुआ है ।
5. blog पर विशेष :-
शुभ दिन - 365 दिन प्रसारित
" आज की चर्चा " प्रतिदिन 22 सितंबर 2019 से प्रसारित हो रहा है ।
6. भारतीय कलाकार संघ का स्टार प्रचारक
7. महाभारत : आज का प्रश्न ( संचालन व सम्पादन )
8. ऑनलाइन साप्ताहिक कार्यक्रम : कवि सम्मेलन व लघुकथा उत्सव ( संचालन व सम्पादन )
9. स्तभ : इनसे मिलिए ( दो सौ से अधिक किस्तें प्रकाशित )
स्तभ : मेरी दृष्टि में ( दो सौ से अधिक किस्तें प्रकशित )
पता : हिन्दी भवन , 554- सी , सैक्टर -6 ,
पानीपत - 132103 हरियाणा
ईमेल : bijender1965@gmail.com
WhatsApp Mobile No. 9355003609
1. मन को शन्ति
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मैं मन्दिर जा रहा हूँ। सामने से मेरा मित्र आहुजा मिल जाता है वह बोला- मन्दिर से आप को क्या मिला ?
मैं सोच में पड़ गया और कुछ सोचने के बाद बोला- मुझे बहुत कुछ मिला है।
- क्या मिला है साफ - साफ बताओ !
- मुझे भगवान तो नहीं मिले है परन्तु मन को शन्ति अवश्य मिलती है जो मेरे मन के तनाव को दूर करती है। **
2. अमीरी – गरीबी का अन्तर
********************
साहब के घर का नौकर अपनी ईमानदारी तथा महेनत के बल पर वह साहब बन जाता है । उस ने बड़ी सी बड़ी कोठी बनवाई है। आज उस कोठी का मुर्हत है मैं भी इसी मुर्हत पर आया हुआ हूँ –
कोठी जितनी बड़ी है उतनी सुन्दर है कोठी का एक-एक कमरा देखने लायक है कोठी में लगा एक-एक समान बहुत कीमत का है। सीविगं पुल में गर्म -ठड़ा पानी का एक साथ आनन्द लिया जा सकता है जो एक बर्टन पर चालू होता है। पार्क तो इतना बड़ा और सुन्दर है। इस के आगे सरकारी पार्क भी फेल नंजर आते है। धुमते-धुमते कोठी के एक कोणें में पहुच जाता हूँ –
कोणें में नौकर के लिए तीन कमरें बने है। उन में ना तो रसोई है ना ही स्नान घर है। दरवाजें भी नाम मात्र के है छत्तें के नाम पर सिमेन्ट की चदरें लगी है। मुझे ऐसा लगा-
नौकर से तो साहब बन गया है फरन्तु इस के मन में भी नौकर के लिए कोई सम्मान नाम की कोई चीज नहीं है। ००
3. वारिस का हक
***********
बैक का मैनेजर खाते चैक कर रहा था। अचानक उस की नंजर एक खाते पर पड़ी। जिस में पिछले तीन साल से कोई लेन देन नहीं हो रहा है। मैनेजर ने उस खाते का नम्बर नोट कर लिया।
पूछताछ करने पर पता चला कि खातेदार मर चुका है। उस का कोई वारिस नहीं है।
मैनेजर ने एक वारिस तथा दो गवाह बना कर उस के खाते से पैसा निकाल लिया और आपस में बांट लिया । ००
4. स्नेंह
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पिता अपने चार-पाँच साल के बच्चे को पढ़ा रहे है - ओ से ओखली , परन्तु बच्चा ओ से नोकली कहता है । पिता बार-बार समझाता है परन्तु बच्चा ओ से नोकली ही कहता है। पिता को गुस्सा आ जाता है। जिस से बच्चे के मुंह पर चार- पाँच थप्पड़ जमा देता है । माँ अन्दर से चिल्लाती है
- ये क्या कर रहे हो ?
- मेरे समझने के बाद भी ओ से नोकली कह रहा है।
- बच्चे को कोई पीटा जाता है बच्चे को स्नेंह से सिखाया जाता है
और अब माँ बच्चे को पढाना शुरु करती है। स्नेंह से ही बच्चा एक दिन में ही ओ से ओखली कहना शुरु कर देता है। ००
5. पढाई
*****
पार्क में बैठा सोच ही रहा था कि मुझे तीन साल हो गए है नोकरी की तलाश करते करते .....। तभी सामने से नरेश आ गया ।
- क्या सोच रहे हो ?
- भाई ! मुझे एम. ए. किए तीन साल हो गए। परन्तु अब तक नोकरी नहीं मिली, न मिलने की उम्मीद है। क्या मिला मुझे पढा़ई कर के.....?
- कुछ नहीं मिला ? यह गलत है पढा़ई से कम से कम बोलना,उठाना-बैठना आदि तो सीख गए हो ।
- नहीं ? बोलना, उठना - बैठना आदि वैसे भी सीखा जा सकता है। पढा़ई से बेरोजगारी मिली है। ००
6. पढे़-लिखे की नौकरी
****************
मैं एक दिन लिमिटेड कम्पनी में काम करने के लिए चला गया। वहाँ पर मैंने एक सफाई कर्मचारी को देखा, जो देखने से लगता था कि पढा़ लिखा है। मुझे से रहा नहीं गया और मैंनें उसे बुला कर पूछ लिया
- आप पढे़-लिखे हो ?
- हाँ बाबू जी, मैं हाई स्कूल व आई. टी. आई पास हूँ।
- फिर आप सफाई कर्मचारी का काम क्यों कर रहे है ? यह नौकरी तो अनपढ़ को नगर पालिका भी दे सकती है जो सरकारी नौकरी है।
- बाबू जी ! आजकल नौकरी कहाँ मिलती है नगर पालिका में काम करने से सब को पता चल जाता है। सफाई कर्मचारी बन गया है परन्तु यहाँ कम्पनी में काम करने से किसी को कुछ पता नहीं चलता है।००
7. दरोगा जी
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कोर्ट में मुकदमा जीतने के बाद जज साहब ने बुजर्ग को बधाई देते हुए कहा- बाबा !आप केस जीत गये ।
बुजर्ग ने कहा- प्रभु जी ! आप को इतनी तरक्की दे, आप " दरोगा जी " बन जाए ।
वकील बोला- बाबा! जज तो " दरोगा " से तो बहुत बड़ा होता है।
बुजुर्ग बोला- ना ही साहब ! मेरी नजर में "दरोगा जी" ही बड़ा है।
वकील बोला- वो कैसे ?
बुजुर्ग – जज साहब ने मुकदमा खत्म करने में दस साल लगा दिये जब कि "दरोगा जी" शुरू में ही कहा था। पांच हजार रुपया दे , दो दिन में मामला रफा दफा कर दूगाँ । मैने तो पांच की जगह पंचास हजार से अधिक तो वकील को दे चुका हूँ और समय दस साल से ऊपर लग गये।
जज साहब और वकील तो बुजुर्ग की तरफ देखते ही रह गये। ००
8.परिवार में बेटी
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"पापा ! दीदी की मृत्यु को एक साल से भी अधिक हो गया है। परन्तु आप ने दीदी की कापीयां - क़िताबें अब तक क्यों संभाल कर रखीं हैं ? दीदी अब जिन्दा होकर आने वाली नहीं है जो आगे पढ़ने के लिए ......! " कहते हुए कालिया रों पड़ता है।
अन्दर से मां आती है। कालिया को चुप करवातीं है और अपने साथ अन्दर ले जाती है।
पापा , बेटी की कापियां-किताबें को देख कर ,अब भी गुम सुम से है। बेटी को स्कूल जाते कुछ लड़कों ने अपहरण कर के बलात्कार के बाद हत्या कर दी थी। पापा अब भी सोच रहा है । अगर बेटी को स्कूल ना भेजता तो बेटी भी जिन्दा होती .....! पापा ने ही बेटी को स्कूल भेजने के लिए परिवार पर दबाव बनाया था। पहले परिवार में बेटी स्कूल नहीं जाती थी । °°
9. स्कूल की फीस
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कालिया स्कूल के बाहर खड़ा रौ रहा है। तभी स्कूल का मास्टर राम केसर आ जाता है। कालिया से पूछते है -
" बेटा ! क्यों रौ रहे हो ? "
" पापा ने स्कूल की फीस नहीं दी ।"
" बेटा ! तेरा पापा एक नम्बर का शराबी है ।"
" नहीं मास्टर जी ! मेरे पापा शराब नहीं पीते है ।"
" बेटा ! तेरा पापा एक नम्बर का जुहारी है ।"
" नहीं मास्टर जी ! मेरे पापा जुआ नहीं खेलते है ।"
तभी एक भिखारी आ जाता है और बच्चे से पूछता है - " बेटा ! क्यों रौ रहें हो ? "
" पापा ने स्कूल की फीस नहीं दी है । "
भिखारी पूछता है - " स्कूल की फीस कितनी है ? "
कालिया - " तीस रुपये "
तुरन्त भिखारी तीस रुपये कालिया को देकर चल देता है। कालिया खुशी - खुशी स्कूल के अन्दर चला जाता है। मास्टर राम केसर तो भिखारी को देखता ही रह जाता है। ००
10. ईमानदारी
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सुभाष की पत्नी बहुत बीमार थी। इस लिए सरकारी हस्पताल ले जाता है। डाक्टर साहब पैन हिलाते हुए बोलता है
- कृपा कर के बाहर बैठ जाए।
और बाहर पड़ी कुर्सि पर बैठ जाता है । तभी नज़र चपड़ासी पर पड़ती है तथा उसके पास चला जाता है और पूछ बैठता है
- डाक्टर साहब ! रिश्वत तो नहीं लेते है?
- बाबू जी ! राम का नाम लो। डा. साहब ईमानदार आदमी है।
तभी घन्टी बजती है और चपड़ासी अन्दर चला जाता है। इतने में सुभाष की पत्नी बाहर आ जाती है। पीछे - पीछे चपड़ासी भी आता है
- बाबू जी ! इस काम की फीस दो सौ रूपये है।
सुभाष सोचता है कि यह ईमानदारी कैसी है
- बाबू जी ! यह रिश्वत नहीं है यह डाक्टर साहब की फीस है।
- हाँ भाई !मुझे मालूम है कि डाक्टर साहब ईमानदार आदमी है।००
11. पति महोदय
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रोजाना की तरह डाकं खोल खोल कर पढ़ रहा हूँ। एक डाकं खोली तो देखा, अपने ही शहर में जन्मी लेखिका का संक्षेप परिचय –
अच्छा लगा! अपने शहर की लेखिका का परिचय पढ़ते-पढ़ते बहुत आनन्द मिला,उस ने अपने माता – पिता का भी उल्लेख किया है परन्तु पति महोदय का नाम कहीं पर भी नंजर नहीं आया । लगा!शायद शादीं ही नहीं हुई होगी…। परन्तु फोटो श्रृंखला देखते- देखते पुरस्कार समारोह में पोते का जिक्र कर रखा है अच्छा लगा कि लेखिका शादींशुद्वा है। लगता है पति महोदय का जिक्र करना कहीं तक उचित नहीं समझा है ? ००
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क्रमांक - 066
जन्म : 19 जून 1969 , धामपुर - उत्तर प्रदेश
पिता : श्री कृष्ण कुमार शर्मा
माता : श्रीमती मुनेश बाला शर्मा
शिक्षा : एम.ए.हिन्दी साहित्य,बी.टी.सी.,
एल -ं बी, आयुर्वेदरत्न,बी.ई.एम.एस.,
डी.एन.वाई.एस.,सी.एक्यू.,कहानी लेखन, पत्रकारिता प्रशिक्षण
मानद उपाधि : विद्यावाचस्पति, विद्यासागर
विधाएं : कविता,गीत, गीतिका, कहानी, आलेख, लघुकथा, व्यंग्य,परिचर्चा,समीक्षा, साक्षात्कार व अन्य विधाएं 1986 - 87 से निरंतर लेखन।
प्रकाशित कृतियां :-
मुझको जग में आने दो,
प्रकृति का ऐसे न शोषण करो,
जिंदगी गीत हो जाएगी ,
शिक्षा जगत की लघुकथाएं,
धामदेव की नगरी धामपुर,
प्राकृतिक रंग-उर्जा चिकित्सा ,
सम्पादन : -
अनुभूतियां,
अभिव्यक्ति,
अन्तर्मन,
अनुगूंज अभिप्राय,
अर्पण,
अनुसंधान (कार्य संकलन),
अविरल प्रवाह (स्मारिका).
संप्रति: - ई पत्रिका अभिव्यक्ति का संपादन प्रकाशन
सम्मान : -
विभिन्न साहित्यिक, सामाजिक संस्थाओं द्वारा शताधिक सम्मान
अन्य : -
विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संकलनों,परिचय ग्रंथों, अभिनन्दन ग्रंथों और सन्दर्भ कोशों में प्रकाशित
पता : 82, मुहल्ला-गुजरातियान,
धामपुर-246761,जिला - बिजनौर ,उत्तर प्रदेश
1. निश्चय
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"तो फिर बात पक्की हो गयी।अब विवाह की तारीख निश्चित की जाए।"समीर ने कहा।
"हां जी, भाई साहब तारीख तो निश्चित करनी ही है। पर एक ध्यान रहे।पहले पूरे परिवार का कोविड वैक्सीनेशन हो जाए।तब कोई कारज हो।" उदित ने उत्तर दिया।
"तो फिर चलो,पहले वैक्सीनेशन की तारीख ही ले ली जाए।" यह कहते हुए समीर जेब से मोबाइल निकाल लिया। ****
2. लापरवाही
********
"यार,तुमने वैक्सीनेशन करा भी लिया और हमें बताया ही नहीं। हम भी करा लेते तुम्हारे साथ ही।"
"अबे, घोंचू यह कोई साझे का काम थोड़े ही है।
दिन रात रेडियो,टी.वी., मोबाइल पर संदेश आ रहे हैं। टीकाकरण कराएं, सुरक्षित रहें। ऐसा कर अपने नजदीकी अस्पताल में जाकर करा लेना।"
"हां यार सही कहा तुमने। लापरवाही तो मैं ही बरत रहा हूं।कल ही जाता हूं अस्पताल।" ****
3. सुरक्षा
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"मां जी, चलो अस्पताल,कोविड वैक्सीनेशन कराने।" नीता ने अपनी अस्सी वर्षीया सास से
कहा।
"अरी बहू , अब पकी उम्र है मेरी।आज तक कभी कोई सूई न लगवाई।अब क्या करुंगी।"
सास ने सहजता से कहा।
"मां जी, लगवानी तो पड़ेगी ही,और लगवानी भी चाहिए। क्योंकि अपने बच्चों की सुरक्षा करने और ध्यान रखने के लिए हमें खुद भी तो सुरक्षित रहना होगा।"
"हां,बहू यह तो तूने सही कहा।"कहते हुए मां जी अपनी धोती बदलने के लिए उठ खड़ी हुई। ****
4.समझदारी
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"पापा आप अस्पताल जा रहे हैं इंजेक्शन लगवाने,मम्मी के साथ। मुझे भी ले चलो साथ में।" चार साल के मोनू ने अपने पापा की पेंट खींचते हुए कहा।
"नहीं बेटा,इतने छोटे बच्चों को अभी घर से बाहर नहीं निकलना है,समझे।"पापा ने उसके गाल को थपथपाया।
"पर पापा..."
मोनू की बात पूरी सुने बिना ही पापा ने कहा,
"पर बेटा तुम्हें यह समझना चाहिए कि बच्चों को बाहर नहीं ले जाया जा सकता। खतरा है अभी बाहर बच्चों के लिए।
"जी पापा.....।"कहते हुए मोनू ने समझदारी से गर्दन हिला दी। ****
5.गुड वर्क
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"गुड वर्क सिस्टर। प्लीज कंटीन्यूटी....।"
सी.एम.ओ. डॉ. भसीन ने टीकाकरण कर रही सुनीता से कहा।
"यह सर।आई विल डू माई बेस्ट।" सुनीता ने बिना उनकी ओर देखे ही विनम्रतापूर्वक उत्तर दिया।
उसका पूरा ध्यान इंजेक्शन की शीशी से सिरिंज भरने पर था।
वैक्सीनेशन के दौरान आज तक सुनीता से एक भी डोज बेकार नहीं हुई थी। इसी कारण उसका नाम पूरे जिले के अधिकारियों को याद हो गया था। ****
6.चुपचाप
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"हां,आप आस्तीन ऊपर कीजिए जरा।
घबराइए मत ,कुछ डरने की बात नहीं,
लीजिए हो गया।अब आप सामने बैठ जाइए थोड़ी देर के लिए।" सुबह से शाम तक हर आने वाले से बस यह तीन वाक्य कहना उसकी
ड्यूटी का अनिवार्य हिस्सा बन गया था।
आज न जाने क्यों उस बुजुर्ग को देखकर,उसने अपना मास्क नाक से ऊपर चढ़ा लिया और बिना कुछ बोले वैक्सीन लगा दी।
साथी स्टॉफ ने उसके इस बदले व्यवहार के बारे में पूछा,तो वह बताने लगी,-" यही मेरे वह ससुर है, जिन्होंने विधवा होने पर मुझे अपने घर से निकाल दिया था। मैं बोलती,यह पहचानते तो शर्मिन्दा होते या डर भी सकते थे।बस इसीलिए कुछ न बोली।" ****
7. जिम्मेदारी
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जिस दिन से गांव में टीकाकरण करने वाली टीम पंचायत भवन पर आने लगी।राघव ने तो मजदूरी करने जाना भी बंद कर दिया।
घर घर जाता, आवाज लगाता, बुलाकर लाता।बड़े बूढ़ों को गोदी में ही उठा लाता या पीठ पर टांग लाता।
बिना किसी लालच के सेवाभाव से यह सब करता राघव।
आज मुखिया जी ने बताया , शहर में मजदूरी करता था यह। वहां पूरा परिवार कोरोना की चपेट में आया और उसकी भेंट चढ़ गया।एक भाई,भाभी,पत्नी और तीन बच्चे।बस यह ही बचा।
अब गांव में किसी को ऐसा दुख न उठाना पड़े, इसीलिए राघव जिम्मेदारी के साथ सबका टीकाकरण कराने में पूरा सहयोग कर रहा है। ****
8.जगा दिया
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बारात तो जाने की पूरी तैयारी थी।पच्चीस लोगों की लिस्ट थामें दीनानाथ ने एक एक चेहरा देख लिस्ट पर निशान लगाना शुरू कर दिया।
अब उसने पूछना शुरू किया,"वैक्सीनेशन किस किसने नहीं कराया अभी?"
ये क्या सात बारातियों के साथ साथ एक उनके जीजा जी भी निकल आए बिना वैक्सीनेशन वाले।
दीनानाथ ने हाथ जोड़कर कहा," आपसे निवेदन है कि अपनी और अन्य लोगों की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए आपका बारात में न जाना और अपने घर को वापस चले जाना बहुत ही आवश्यक है। मैं क्षमा चाहता हूं।"
दीनानाथ के जीजा जी सबसे पहले उठ खड़े हो गये, "तुमने सही कहा दीनानाथ, हम बहुत बड़ा खतरा मोल लेने और खुद खतरा बनने से बच गये भाई।आज तेरी बात ने हमें गहरी नींद से जगा दिया।" ****
9. टीकाकरण
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कविता,लेख, कहानी लिखकर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और सोशल मीडिया पर टीकाकरण अभियान का खूब प्रचार किया राजेश जी ने।
आज खबर मिली, अस्पताल में भर्ती है।
क्या हुआ? जानकारी ली तो पता चला,भाई साहब कोरोना की चपेट में आ गये।
उनको फोन लगाया तो बेटे ने उठाया,बोला
" अंकल पापा ने बार बार कहने पर भी टीका नहीं लगवाया। हमारे समझाने पर हमें ही डॉट देते।अब सब परेशान हैं हम।"
"चिंता मत करो,सब ठीक होगा।"बस इतना ही कह सका मैं। ****
10. नियम से
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लालाजी ने लाकडाउन के नियमों का पालन तो किया ही। सरकारी निर्देश और गाइडलाइन को मानते रहे।
आज अस्पताल में लाइन खड़े देखा। वैक्सीनेशन कराने आए थे। डॉ.गुप्ता ने भीतर से ही आवाज लगायी,"अंदर आ जाइए लालाजी।बाहर मत खड़े रहिए।"
लालाजी ने हवा में हाथ लहरा दिया," ठीक हूं डॉ.साहब यहीं पर हम कोई अलग थोड़े ही है।
हम भी तो अपनी दुकान पर लाइन लगवा देते हैं।" ****
11. गाइडलाइन
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"कभी अट्ठाइस दिन कभी पैंतालीस,कभी चौरासी दिन बाद आखिर माजरा क्या है सर।"
पत्रकार ने डॉ.शुक्ला से वैक्सीन की दूसरी डोज के अंतर की बाबत सवाल किया।
"पत्रकार जी, गाइडलाइन हम तो बनाते नहीं।हम केवल उसको इंप्लीमेंट करते हैं। यह दिनों का अंतर भी मिली गाइडलाइन अनुसार बताया गया है।" डॉ.शुक्ला ने उत्तर दिया।
"सर,फिर भी आपकी निजी राय क्या है?"पत्रकार ने फिर प्रश्न कर दिया।
डॉ.शुक्ला मुस्कुराएं, बोले," आप देख रहे हैं, सरकार के स्तर से कितना बड़ा वैक्सीनेशन अभियान चल रहा है। इसमें सहयोग कीजिए और प्रयास कीजिए कि कोई भी पात्र व्यक्ति इससे वंचित न रहे। बाकी गाइडलाइन के मुताबिक हम काम कर ही रहे हैं। इसमें हमारे स्तर से कुछ कमी हो तो बताना।" ****
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क्रमांक - 068
कल्पना मनोरमा
जन्म : 04 जून 1972 उत्तर प्रदेश
माता : मनोरमा मिश्रा
पिता : श्री प्रकाश नारायण मिश्र
पति : आर. के. बाजपेयी
शिक्षा : कानपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में परास्नातक एवं बी.एड. एवं इग्नू से एम.ए (हिंदी भाषा)
सम्प्रति : अध्यापन व स्वतंत्र लेखन
रुचियाँ : -
ऐसा साहित्य पढ़ना जिसका समय के साथ गाढ़ा रचाव हो, संगीत सुनना, ऐतिहासिक स्थानों पर भ्रमण, पेंटिंग आदि में संलग्न रहना
प्रकाशित कृतियाँ -
प्रथम नवगीत संग्रह -" कब तक सूरजमुखी बनें हम"
विशेष : निज ब्लॉग कस्तूरिया का कुशल संचालन
सम्मान : -
दोहा शिरोमणि 2014 सम्मान
वनिका पब्लिकेशन द्वारा लघुकथा लहरी सम्मान 2016
वैसबरा शोध संस्थान द्वारा नवगीत गौरव सम्मान 2018
सर्व भाषा ट्रस्ट द्वारा सूर्यकान्त निराला 2019 सम्मान
पता :-
बी -24 , ऐश्वर्ययम आपर्टमेंट
प्लाट न.17 , द्वारका सेक्टर - 4 , दिल्ली - 110075
1.शब्द आलोक
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बच्चों ने आज प्रसन्ना से अतरंगी खाना खाने की इच्छा जताई थी। उनकी डिमांड पर पहले तो प्रसन्ना थोड़ी परेशान हुई लेकिन अचानक ही उसके मानस पटल पर हमेशा की तरह एक युक्ति चमक उठी। वह जल्दी से दौड़ती हुई रसोई में जा पहुँची। बर्तनों के ढक्कन उठाकर देखा तो दोपहर के खाने में बनी चने की दाल,केले की सब्जी,भरवाँ भिंडी और चावल,सभी कुछ थोड़ा-थोड़ा डोंगों में पड़ा था। उसने जल्दी से एक कटोरी सूजी को घी में भूना और दो हरी मिर्च, दो प्याज़ और धनियाँ बारीक-बारीक कतरा और सारी सामग्री को एक साथ गूँथकर कटलेट तलने लगी। इतने में बच्चे भी रसोई में दौड़े हुए चले आये।
"क्या कर रही हो मम्मा? बताओ न!"
"कुछ खास नहीं। बस तुम लोगों के लिए कुछ अतरंगी बनाने की कोशिश रही हूँ।"
प्रसन्ना अपनी युक्तिपूर्ण चेष्टाओं पर फ़िदा रहने वाली स्त्री थी। मुस्कुराकर बोली।
"मम्मी, इस डिश का नाम क्या है ?"
प्रसन्ना की मझली बेटी गिन्नी उछलते हुए बोली।
"नाम तो मुझे पता नहीं लेकिन इसका स्वाद जरूर तुम्हारी जुबान पर चढ़ जायेगा।"
कहते हुए अब उसके चेहरे पर थोड़ा अहम-सा उभर आया था।
"मम्मी,आप ये कैसे कह सकती हो …?" बेटी ने कहा।
"क्योंकि ये मेरी क्रियेशन है। इसलिए...।"
"बहुत सुंदर माँ! फिर हमारे लिए हर वक़्त आसमान सिर पर क्यों उठाये रखती हो? क्यों आपको हमारे ऊपर डाउट बना रहता है?"
प्रसन्ना की कम बोलने वाली बड़ी बेटी चटनी बनाते हुए बोली और खिलखिलाकर हँस पड़ी।
"मतलब ?"
प्रसन्ना ने बेटी की ओर घूरते हुए देखा।
"मतलब ये मम्मी !...हम भी तो आपकी ही क्रियेशन हैं न!"
बड़ी बहन की बातों की पुष्टि करते हुए गिन्नी बोल पड़ी।
अवाक प्रसन्ना कढ़ाई में उठते-गिरते तैलीय बुलबोलों में स्वयं के अस्तित्व को खोज रही थी । ****
2.डर से आगे
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“मां,मुझे आये दोपहर से रात हो चली है और आप कहती हैं कि पापा मेरी पसंद की मिठाई लाने गये हैं।”
जो बात माँ छिपा रही थी,वही बात बेटी जान रही थी लेकिन दोनों ही एक दूसरे को झूठी सांत्वना दिए जा रही थीं।
“मैंने तो अपने सिर की कसम भी दी थी।”
तारा मन ही मन दिखावटी हँसी के पीछे पछताई हुई-सी बुदबुदाई।
“कुछ कहा अम्मा?”
“नहीं,तुम खाना खा लो; नौ बजने जा रहे हैं। जब तुम्हारे पापा आयेंगे, हम खा लेंगे।”
अपने डर और घबराहट को एक साथ निगलते हुई वह बोली।
“आपको क्या लगता है…पापा बिना शराब पिए घर आयेंगे?” बेटी ने खुलेआम खुलकर नाराजगी जताई तो तारा के भीतर कुछ छन्न से टूट गया।
“अरे न बिटिया, जब से तुम कॉलेज गयी हो,बिल्कुल सुधर-से गए हैं तुम्हारे पापा।”
चूड़ियों से ताज़ी चिरी कलाई छिपाते हुए उसने सामन्य रहने का गाढ़ा उपक्रम किया।
“रहने दो अम्मा! आपसे ज्यादा आपकी सूरत सही बोल रही है।”
वह कुछ कहती कि धड़ाम-धड़ाम किबाड़ों पर थापें पड़ने लगीं।
“लीजिये आ गये…।”
कहते हुए बेटी बाहर की ओर लपकी।
“तुम अंदर जाओ, मैं खोलती हूँ।”
तारा पसीने से लतपत लड़खड़ाती हुई दरवाजे की ओर लपकी।
मिनट भर की देरी से दरवाज़ा खुला तो पति ने अपनी अंग्रेजी झाड़नी शुरू कर दी- “लो मिठाई, खाओ मिठाई, बनाओ मिठाई, बाँटो मिठाईई|”
कुछ मिनटों के अंतर्गत गालियों के साथ-साथ जूते,बर्तन भी इधर-उधर लुढ़कने लगे।
“जब सम्हाली नहीं जाती तो पीते क्यों हो?”
रुँधे गले से इतना ही फूट सका लेकिन उसके लिए इतना भी सुनना जहर हो गया और घर कुम्भीपाक नर्क में बदल गया। बेटी की संवेदना आहत न हो जाए। तारा उसकी जुगाड़ में लगी थी कि दरवाजे पर ठक ठक ठक की आवाज आने लगी।
“इतनी रात गए कौन होगा?” मां ने सहमकर बेटी की ओर देखा।
“अम्मा डरो मत, दरवाज़ा खोलो।” भीतर से आते हुए बेटी ने ऊँचे स्वर में कहा।
बेटी की निडरता से अचम्भित माँ ने दरवाज़ा खोला तो ख़ाकी बर्दी देख उसकी घिग्घी बंध गयी। वह हक्की-बक्की-सी चीख़ पड़ी।
“आप लोग…क्यों…?”
तारा ने अपने चेहरे पर भद्रता लाने की कोशिश की।
“क्यों...क्या? थाने में फोन इसी पते से गया था।”
एक पुलिस वाले ने तेवर दिखाते हुए कड़ा रुख अपनाया।
“आप किसी इज्जतदार आदमी के घर घुस कर ऐसा नहीं कर सकते।”
“अम्मा, उनको अंदर आकर अपना काम करने दीजिये। इज्जतदार आदमी को पुलिस नहीं पकड़ती और न ही परेशान करती है।”
बेटी की आँखों से चिंगारियाँ निकल रही थीं। कहते हुए उसने माँ को अपनी ओर खींच लिया।
“अच्छाSS तो इन्हें तुमने बुलाया है? ये क्याSS कर डाला बिटियाSS? लोग क्या कहेंगे…?” जिंदगी से हारी हुई तारा ने बेटी के गाल पर अपनी ताकत भर तमाचा जड़ते हुए अपना सिर दीवार पर दे मारा।
“लोगों का पता नहीं लेकिन ये बात अब मैं पूरी तरह से जान चुकी हूँ कि मेरी मां आज से कभी नहीं रोएगी।”
बेटी ने दरवाज़े की कड़ी लगाते हुए सारी बत्तियाँ एक साथ जला दीं। ****
3.महकतीं मुँड़ेरें
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"मां,आज राखी है। भाई को अभी तक आ जाना चाहिए था न! क्या जरूरत थी वाया ससुराल आने की।"
मोहिनी माँ से शिकायती लहजे में बोली।
"जरूरत थी बिटिया! जैसे तुम सब अपने भाई को देखने -मिलने के लिए उतावली हुई जा रही हो वैसे तेरी भाभी के भाई-बहन उससे मिलने के लिए तड़प रहे होंगे।”
"हाँ तो ठीक है न माँ !भाभी के पल्ले से ख़ुद को न बाँधता। मैं इसलिए बच्चों को विदेश भेजना अच्छा नहीं समझती हूँ।"
"अच्छा ठीक है मोहिनी अब चल, माँ का हाथ बाँट लेते हैं फिर बातें…।"
मोहिनी की बड़ी बहन ने कहा तो छोटी दोनों बहनों ने माँ के साथ मिलकर भाई के पसन्द के ढेरों पकवान बनाये। घर की सेटिंग उसकी पसन्द की और ये सब कार्य करते सभी लडकियां बचपन की बातें करके चहकती जा रही थीं। घर गुलजार हो चला साथ में सुबह से दोपहर भी हो चली थी। तीनों बहनें बार -बार मोबाइल देखे जा रही थी। राखी-थाल में जलता हुआ दीया मानो जलते-जलते थक चला था। उसमें घी डालने की बात हो ही रही थी कि अचानक फोन बज उठा। एक साथ सभी बहनें फोन पर झपट पड़ीं।
"मम्मी आप बात कीजिये मोहिनी की बड़ी बहन बोली।"
"हाँ ठीक है। हैलो मुन्ना,कहाँ तक पहुँचा बेटा?"
माँ की बातें और चेहरे की उड़ी रंगत देख सभी का दिल एक साथ धड़क उठा।
"क्या हुआ मम्मी ?" सब ठीक तो है। तीनों ने पूछा।
"कुछ नहीं, मुन्ना आज नहीं कल तक घर आ पायेगा।"
"कल्लSS... राखी तो आज है।अब क्या...?"
"जीवन भर से जो मैं करती आ रही हूँ, वही ।"
"क्या माँ SS...।"
माँ की बातें सुनकर सभी बहनें उदासी के झूले पर एक साथ झूल गईं।
"अरे! क्या ऐसे ही मुँह लटका कर बैठी रहोगी या..?"
चलो मेरे साथ तुम सब भी राखी बाँधो।"अपना दुख ज़ब्त करते हुए माँ फिर बोली।
"लेकिन किसको ..।" तीनों तरफ से आवाज़ें गूँज उठीं ।
"तुलसी की डाली पर और किसको?"
मोहिनी कभी आँगन में लहलहाती तुलसी को देखती तो कभी माँ के अंतस में उठती दर्द की हिलोर को महसूस करने की कोशिश करती लेकिन कोई भी अपनी जगह से हिल नहीं रहा था।
"हेल्लो माय डियर सिस्टर्स !"
एक मर्दाना आवाज़ सन्नाटे में ईको हो उठी।
"अरे मुन्ना तूSS., तूने तो ...।"
"हाँ, माँ कहा था क्योंकि आप सभी को थोड़ा नहीं बहुत ज्यादा खुश देखना चाहता था मैं।"
कहते हुए उसने बाहें फैला दीं। माँ के साथ-साथ बहनों ने भाई को गले से लगा लिया ।
“तुम सबका स्नेह यूँ ही फलता-फूलता रहे ।”
पिता ने दीपक में घी डालते हुए उसकी टिमटिमाती लौ को ऊँचा कर दिया । ****
4. गाय
****
“माँ आपने भगवत गीता मंदिर से हटा कर कहाँ रख दी?”
दस बरस की काव्या ने व्याकुल स्वर में पूछा लेकिन माँ के पास भी कम व्यस्ततायें नहीं रहती थीं सो उसकी माँ नहीं बोली। काव्या ने अब खुद ही पूजा की अलमारी में उथल-पुथल करनी शुरू कर दी। अभी वह ढूंढ ही रही थी कि ठाकुर जी के आगे रखी भोग की कटोरी झन्नाकर फर्श पर गिरी तो माँ दौड़ी-दौड़ी चली आई।
“क्या हुआ...?"
माँ ने उसकी आँखों में घूरते हुए कहा और जाने लगी।
“माँ आप मुझे गीता दे दो। नहीं तो वो मर जाएगी।”
“कौन ?”
“गाय का बेचारी बच्ची?”
काव्य की माँ अपनी बेटी के चेहरे पर तैरते भावों को पढ़ने की कोशिश करने लगी। लेकिन वह समझ नहीं पा रही थी कि उसके इस उपक्रम पर वह कहे क्या सो चुपचाप उसका साथ देने लगी।
“माँ,आप नाराज़ हो?"
"नहीं!"
"आपने ही तो बताया था कि मरने वाले को यदि गीता का अष्टम अध्याय सुनाया जाए तो उसे स्वर्ग मिलता है। मैं उसे सुनाना चाहती हूँ।”
"स्त्री को कभी स्वर्ग नहीं नसीब हो सकता। न यहां न वहां।"
"कुछ कहा मां?"
"...."
“माँ आप गीता ले लो और मैं गंगाजल-तुलसी ले चलती हूँ।"
काव्या ने अधीर होते हुए कहा।
“हाँ हाँ तुम दुखी मत हो। चलो चलते हैं हम।"
माँ ने काव्या के बालमन को समझते हुए कहा।
“माँ कितने दिनों से ये बीमार पड़ी है। बाबा इसकी दवाई क्यों नहीं करवाते। गाय क्या सोचती होगी?”
काव्या की नन्ही सी जान पीड़ा से भर गई।
“सबको गाय के दूध से मतलब होता है, उसकी फीलिंग से नहीं।"
बेटी की बातें माँ को और मां की बातें बेटी को समझ नहीं आ रही थीं किन्तु हृदय की तरलता से दोनों के मन भीगते जा रहे थे।
“माँ आप गीता के श्लोकों को तेज आवाज में पढ़ो मैं गंगाजल इसके मुँह में डालती हूँ।”
दोनों गाय की बिटिया के पास अपना विश्वास लेकर बैठ गयीं।बेटी ने जैसा कहा माँ ने सहमति में सिर हिला दिया।
दोनों अपने-अपने काम में तल्लीन थीं कि अचानक काव्या चिल्ला पड़ी।
“माँ SS बछेरी का कान हिलना बंद हो गया...।”
“चली गई बछेरी।”
माँ ने भावुक स्वर में कहा।
“माँ अब गाय किसे प्यार करेगी ?”
कहते हुए काव्या की आँखें भर आईं ।
“गाय तो सभी से प्यार करेगी लेकिन प्रश्न ये है कि उसको कौन प्रेम करेगा?”
कहते हुए माँ ने बेटी को गले से लगा लिया। ****
5.अप्रत्याशित प्रेम
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पारंपरिक तौर पर रेवा को कल रिटायर होना था लेकिन समय उसको इस तरह से घर भेजेगा, उसने कभी सोचा नहीं था। ऑफिस में सभी वर्गों के लोगों की आँखें नम छोड़ सभी को अलविदा कह रेवा घर की ओर निकल पड़ी थी।
आज घर लौटना उसके कंठ को अवरुद्ध किए जा रहा था।
“कल से शहर में तालाबंदी हो जायेगी इसलिए सड़कें भरी हैं या शहर के लोग एक साथ रिटायर होकर अपने घर लौट रहे हैं ।” कार की खिड़की से झाँकते हुए वह बेसुधी में बुदबुदाई ।
घर में क्या हो रहा होगा? मैंने तो किसीको बताया तक नहीं कि मैं...। मुझे यूँ बोरिया-बिस्तर के साथ घर लौटते देख सब क्या सोचेंगे? कहीं माधुरी कृपलानी जैसा हाल तो नहीं होगा मेरा भी। माधुरी सेवा निवृत्ति के बाद जब भी मुझसे मिली एक ही बात दोहराया करती थी,“दूसरे की जमीन पर फूल नहीं उगाये जाते रेवा।”
"क्या मेरे साथ भी? नहीं नहीं।" रेवा बेख्याली में सोचती जा रही थी और रास्ता घर की ओर चुस्ती से दौड़ता जा रहा था।
“अम्मा आगे मत बढ़ना।”
रेवा के बेटे ने माँ को निर्देश दिया तो सामान से लदी-फंदी रेवा बैठने के लिए इधर-उधर जगह देखने लगी। इतने में उसका मुन्ना, सारिका और भोली अपने हाथों में कुछ-कुछ लिए उसके सामने प्रकट हो गये। बेटे ने आगे बढ़ माँ की आरती उतारी, बहू ने फूल-माला पहनाई और भोली ने अपने उपवन से ही घास, दसबजिया, गुलमुहर और अशोक के पत्तों को तोड़कर बनाये गए गुलदस्ते को ददिया के हाथों में पकड़ा कर बोली," दादी आपका स्वागत है।"
रेवा ने भावुक होकर उसकी नरम हथेली चूमलीं और अपने बेटे से लिपट गई । किन्तु उसकी नज़रें अभी भी अपने पति जयंत को ख़ोज रही थी।
“मुन्ना तेरे पापा नहीं दिख रहे। कहाँ हैं वे ?”
“अपने कमरे में होंगे अम्मा।”
माँ का हाथ पकड़ते हुए बेटा बोला। रेवा कुछ अनमनी हो आई। बेटे ने देखा तो,“आओ आम्मा अपने घर चलो।" परिचित-सा वाक्य सुनकर उसकी आँखों की कोरें गीली हो गईं । यही वाक्य तो वह कहती थी जब उसका मुन्ना स्कूल से घर लौटकर आता था।
“मुन्ना,अगर तू छोटा होता न! तो आज मैं तुझे गोदी में उठा लेती।” सभी भावुक हो गए।
“अच्छा ये बात है ….।” कहते हुए मुन्ना ने माँ के विरोध करने के बाद भी उसे गोद में उठा चौखट पर लाकर खड़ा कर दिया। नातिन और बहू सारिका ने फूल वर्षा दिए।
“रेवा रुक, पहले अपने दाहिने पाँव से कलश में भरे अक्षतों को गिरा फिर इस कुमकुम वाले थाल में खड़ी हो जा।" ये रेवा के पति थे।
"क्यों ?" रेवा ने सकुचाते हुए कहा।
"अरे! तेरे पाँव के छापों का फ्रेम बनवाना है।”
घुटनों पर बैठे पति जयंत ने अपनी रिटायर्ड पत्नी की आँखों में झांकते हुए कहा।
“जयंत तुम लोग मुझे रुलाकर ही मानोगे न!”
कहते हुए रेवा कुमकुम के थाल में खड़ी हुई ही थी कि अचानक गाना बज उठा, “बहारो फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है…।”
“ये क्या किया तुम सबने? मुझे शर्म आ रही है।”
“आपके प्रेमिल अस्तित्व को लॉक किया है माँ !"
ये बहू सारिका का स्वर था।
रेवा की आँखों से ख़ुशी छलक पड़ी। *****
6. मन की बेतुकी भड़ास
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जब से हेमा ने अपनी मित्र सुरभि को पिंक कलर की ऊँची हील की सैंडिल पहने देखा था उसका मन भी उन्हें लेने को ललक उठा था।ये बात घर में सिर्फ़ उसकी माँ जानती थी।
"सावन आने वाला है बोल हेमा तुझे क्या चाहिए ?"
"कुछ नहीं भैया आप सभी मेरा बहुत ख़्याल रखते हो और इतना काफ़ी है मेरे लिए।"
"बोल क्यों नहीं देती बिटिया कि तुझे सुरभि जैसे सैंडिल चाहिए।" पास बैठी उसकी माँ ने कहा।
"नहीं माँ ! वैसे भी रोली की पढ़ाई बहुत मँहगी है और मेरी जैसी बहन जो शादी के बाद भी...।"
हेमा ने अपना मन मसोस लिया।
"अच्छा ठीक है, तू जा अभी मेरे लिए कॉफी बनाकर ला।"
बड़े भाई ने उससे कहा और झुककर माँ से कुछ पूछने लगा।
"जी भैया, अभी लाई ।"
हेमा की आँखों में गुलाबी रंग तैर गया। बात आई गई हो गई।
जल्द ही सावन का दिन आया तो उसके और रोली के लिए ढेर उपहारों के बीच पिंक ऊँची हील के सैंडिल देख हेमा दंग रह गई और उसका मन कुछ देर के लिए अपनी पीड़ा भूल पाखी हो गया।
"ममा, बुआ ने तो मना किया था फिर भी डैडी उनके लिए सैंडिल ले आये हैं। लेकिन बहुत सुंदर हैं।" पास में बैठी रोली बोली।
"रोली तू भी पहन कर दिखा...।"
उसके पिता ने कहा।
रोली ने सैंडिल पहन पिता को चूम लिया और बाहर खेलने चली गई।
"रहेगी तो तू मेरे पाँव की जूती ही न! चाहे कितनी भी सुंदर सैंडिल पहन ले।"
भाभी बुदबुदाते हुए भीतर चली गई।
"क्या हुआ भाभी ?कौन है आपके पाँव की जूती ?अपनी जूतियाँ पहन कर देखिए। भैया आपके लिए कितनी सुंदर जूतियां लाए हैं।"
कहते हुए हेमा ने जूतियों का डिब्बा भाभी के आगे रख दिया।
"अरे!मेरे लिए ...क्या जरुरत थी ?"
"हाँ भाभी, माँ ने मेरे और रोली के साथ-साथ आपके लिए भी आपकी पसंद की जूतियाँ लाने को भैया से बोला था।"
हेमा उपहार देकर चली गई किन्तु भाभी को अपना मन स्वयं की सोच पर थोड़ा ग्लानि से भरता हुआ-सा लगा।
"देखा माँ ! मैं इसीलिए कह रही थी कि मुझे कुछ नहीं चाहिए। दो जोड़ी कपड़े और दो रोटी ही यदि सम्मान से मिलती रहें वही बहुत होगा,मुझ जैसी त्यागी हुई औरत के लिए |"
"हुआ क्या? कहो तो।" कहते-कहते माँ की आँखें भर आईं।
"मां आप भी अंजान बन रही हो।" हेमा सिसक पड़ी।
"नासमझ है वह। कुछ भी कहती रहती है और जो बिना सोचे-समझे बोलता रहता है उसकी बातों का क्या बुरा मानना।"
बेटी को समझकर माँ ने बहू को आवाज लगाई लेकिन सुन बेटे ने ली।
“क्या हुआ माँ ? आप त्यौहार के दिन इतनी उदास क्यों हो?”
“कुछ नहीं तू जा आराम कर मेरा मन थोड़ा खराब है, ठीक हो जाएगा।”
सास की बात सुनकर लज्जित होने के अलावा बहू के पास कुछ नहीं था। ****
7. रँगरेज़ा की थापें
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घर में जब से स्वच्छंद विचारधारा वाली बहू सभ्यता ब्याहकर आई थी। तब से घर की रंगत ऐसी बदली कि अपने भी अपनों को पहचानने से इनकार करने लगे थे। हर छोटी-बड़ी वस्तु में स्वयं को नया बनाने की होड़ पैदा हो गयी थी। पुरखों के हाथ की चीजों को या तो एंटीक बना कर घर के कोनों में सजा दिया गया था या स्टोर-रूम के अँधेरे को सौंप दिया गया था।
सदरद्वार के पाँवदान से लेकर शयनकक्ष के दीये तक सभी अपनी नई मालकिन की ख़िदमत में सौभाग्य मना रहे थे।
ये देखते हुए सास कभी डरते-डराते अपने लाडले बेटे विकास से शिकायत करने का मन बनाती तो वह अति व्यस्त होने का राग सुनाकर माँ को ही शांत करा देता।
निष्कंटक राज्य का सुख परलोकगामी सास की बहू इतना नहीं मनाती... जितना ज़िंदा-लाचार सास की जमी-जमाई गृहस्थी में अपने मन के कँगूरे काढ़ने वाली बहू। इस बहू ने भी घर की हर छोटी-बड़ी परम्पराओं और चाबियों पर अपना आधिपत्य जमाकर सभी को अपनी पाज़ेब की झंकार से झंकृत कर दिया था।
अब हाल ये था कि सास कुछ भी कहने के लिए अपना मुँह खोलती तो बहू आँखों ही आँखों में कुछ ऐसा कह देती की सास सन्न रह जाती। जल्द ही नई दलीलों और न्याय-नीतियों के साथ बहूरानी ने सास की वसीयत उनके हाथों के नीचे से अपने नाम करवाकर उसे दो कोड़ी का बना दिया था।
माता-पिता के उच्च विचारों से सजे-धजे मनबढ़ बच्चों ने भी अपनी दादी और बुआ को गैल में पड़ा कंकड़ ही समझ लिया था। दादी के लाख कहने पर भी बच्चे झुक कर न बड़ों को अभिवादन करते और न वेद-मंत्रों को अपनी जुबान से छूने देते।
अपने जीवन की धज्जियाँ उड़ते देख वह बिलख पड़ती लेकिन कोई कान तक न देता|
पहनावा-ओढ़ावा ऐसा बदला कि दादी तौबा तौबा कर अपनी आँखें मींच लेती। न खाना खाने का समय निश्चित होता और न ही स्थान।
बुआ पवित्रता को तो उसकी माँ के सामने ही सिरे से भुला दिया गया था।
अपनी बनी-बनाई साख़ मिट्टी में मिलते देख सास ने अपनी क्वारी बेटी के साथ इच्छा मृत्यु को याद करना शुरू कर दिया था।
फिर एक दिन अचानक सूरज उन दोनों के मनपसंद रंगों से उनका घर-आँगन रंगने लगा। ऐसी आशा तो उन्होंने कभी की ही नहीं थी सो रंगरेजा की कूँची की थापें माँ-बेटी को सुकून से जब भरने लगी। रंगों की इन्द्रधनुषी आभा में घर के सारे कोने मानवीय शोर से भरने लगे। लोग एक साथ बैठने-उठने के लिए मजबूर हो गए। उनका खाना-पीना ,वाद-व्यवहार, परिधान सब कुछ बदलने लगा। सड़कों पर घूमते अधनंगे दिन-रात ने भी अपने को ठीक से ढंकना शुरू कर दिया। होटलों में ताला पड़ गया। लोग "दाल -रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ" वाली नीति पर चल पड़े ।
ये देखकर बेटा विकास कोमा में चला गया तो बहूरानी सभ्यता,असहनीय पीड़ा से भर कर कराह उठी।
चीख़-चीख़कर उसने अपने बच्चों को पुराना ढर्रा न छोड़ने के लिए खूब-खूब कहा लेकिन आदमी मौके की नज़ाक़त को अच्छी तरह समझता है।
जिस माँ ने अपने बच्चों को कितनी नाज-ओ-नज़ाक़त से पाला था आज वही बच्चे उसको लोभान का धुँआ दिखा रहे थे और ये देख संस्कृति अपनी बेटी पवित्रा के साथ मंद-मंद मुस्कुरा उठी थी। ****
8. मन का मोल
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कुछ समय पहले ही बगीचे में एक नई बेल लगाई गई थी। कुछ जलवायु और कुछ उसकी आगे निकलने की होड़ ने उसे वसंत आते-आते इस काबिल बना दिया था कि उस पर नारंगी आभा लिए हजारों फूल एक साथ खिल पड़े।
जब-जब तेज धूप से बनी अपनी परछाईं पर उसकी नजर पड़ती तो वह आत्ममुग्ध हो नाच उठती। लगाने वाले ने जब उसपर नजरबट्टू बाँधा तब तो उसका दिमाग़ सातवें आसमान पर जा लगा।
अगल-बगल खड़े आम-इमली,अशोक और आँवले के वृक्षों को अपने पाँव की धूल समझ कर उनके बोलने और मुस्कुराने पर भी भाव न देने लगी।
“माना कि हम देर में फलते-फूलते हैं लेकिन एक बगीचे में रहकर हम किसी को हीनता से नहीं देख सकते; है न दद्दू।”
कुछ दिन पहले ही बगीचे का सदस्य बना आम के नवजात पौधे ने बेल की ओर इशारा करते हुए कहा। अपने बच्चे के उदास उवाच पर वृक्षों ने मनुष्यों से सीखी लोकोक्ति “अधजल गगरी छलकत जाय” सअर्थ सुनाकर उसको सांत्वना दी।
बच्चे ने भी बड़ों की बातों पर विश्वास कर आँखें मीचीं ही थीं कि उसको कराहने की तेज-तेज आव़ाज सुनाई देने लगी। उसने इधर-उधर सिर घुमाकर जब ऊपर की ओर देखा; उसके अपने जन मौन तप में लीन थे।
एक बेल ही थी जो ख़ुशी से उछल-उछल कर इतरा रही थी। फिर ये कराहने की आवाज आ कहाँ से रही है? अलसाये हुए पेड़ के बच्चे ने जैसे नीचे की ओर देखा तो उछल पड़ा। उसने देखा बेल देवी के पचास-साठ फूल घायल अवस्था में उसके इर्दगिर्द पड़े कराह रहे हैं। अचम्भित होकर उसके मुँह से निकल पड़ा।
“अरे! तुम सबको इतनी सुंदर अपनी माँ की गोद छोड़कर कूदने की क्या जरूरत थी?” लहलहा कर मुंडेर तक पहुँची बेल की ओर देख ललचाते हुए उसने कहा।
“ठीक कहा भाई, वैसे तुम्हारे दद्दू भी कम ऊंचे नहीं हैं लेकिन उनको भी मैंने तेज हवा में झुकते हुए देखा है। काश! सर्र-सर्र चलती जिद्दी हवा के आगे मेरी माँ ने झुककर हमें बचा लिया होता तो हमारी ऐसी दुर्गति न..।”
घायल पड़े फूलों में से एक फूल ने लरजती आवाज़ में बोलते-बोलते दम तोड़ दिया।
अमोला देख सुनकर सख्ते में आ गया। उसने अपने कुनबे के साथ स्वयं को भावपूर्ण होकर देखा।आज पहली बार वह अपने होने में खुश था । *****
9.पीली चिड़िया
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प्रभा स्त्री विमर्श की कविता पढ़ रही थी। पढ़ते हुए कविता कब उसके जहन से उतरकर शरीर को भारी बनाने लगी उसे भी पता नहीं चला। वह मन ही मन ये सोचकर अकुलाने लगी।
“कवयित्री कैसे जान गई मेरे मन की पीड़ा को? कैसे उसने लिख दिया इसने खुल्लम-खुल्ला मेरे जीवन की हर छिपाने वाली बात को? जिन बातों की परदेदारी में मैंने अपने जीवन की पूरी हुलास को हवन कर दिया उसको यूँ…। कितनी ताकत लगती है बताने वाली बातों को छिपाने में। और एक स्त्री के स्याह पड़ चुके जीवन के उस हिस्से को खोलकर दुनिया के सामने कैसे रख सकती है, एक स्त्री।"
अवसाद ग्रस्त प्रभा क्रोध में तुनक कर बुदबुदाई। उसकी दिमाग़ की नसें तड़कने लगी थीं। दृष्टि किताब से हटकर शून्य में खोती चली गयी। दिमाग़ी द्वंद्व के बीच उसे तेज चुभन का एहसास हुआ। उसके अचेत मन में एक प्रश्न कौंधा,“क्या मेरे जीवन की चुभन इतनी बढ़ गयी है जो मुझे कभी भी महसूस होने लगी है?”
विचारते हुए उसका ध्यान अचानक उस हाथ की ओर चला गया जो कुर्सी के हत्थे पर निष्क्रिय पड़ा था। उसने देखा उसी में एक मच्छर अपना डंक धँसाए आराम से उसका खून पी रहा था। मच्छर का पेट फूलकर लटक चुका था। उसके पेट से खून साफ़-साफ़ झलक रहा था। प्रभा घबराई तो लेकिन हिल न सकी। उसके जेहन में एक प्रश्न फिर कौंधा।
”क्या ये मेरा ही खून पी रहा है?"
“हाँ।“ उसकी अंतस चेतना से झन्न से आवाज़ आई।
"तो मैं इसे पीने क्यों दे रही हूँ?”
“इसका अंदाज तो तुम्हें होना चाहिए।“ रोशनदान पर बैठी पीली चिड़िया उड़ गयी।
“……..”
एक क्षण के लिए प्रभा उस ओर देखती रह गयी, जिधर पीली चिड़िया ने उड़ान भरी थी। और दूसरे ही क्षण उसने किताब वाले हाथ को इतनी सावधानी से उठाया कि उसकी शारीरिक हलचल मच्छर भी नहीं जान सका और पटाक से पटक दिया कलाई पर।
अचानक हुए प्रहार से मच्छर वहीं ढेर हो गया। प्रभा की धमनियों का खून अब कलाई के ऊपर फैल चुका था। चमड़ी पर अपने गाढ़े लाल खून को देख उसे कुछ अजीब-सा महसूस हुआ किन्तु उससे भी ज्यादा अचंभित वह अपनी चुभन शांत होने पर थी। उसने रोशनदान से उस चिड़िया को देखना चाहा लेकिन वह नहीं दिखी। प्रभा ने मुस्कुराते हुए किताब उठा ली,
“स्त्री रहती आई है सदा से हाशिये पर” उसी पंक्ति को फिर से पढ़ा। और कुछ सोचते हुए पेंसिल से उसे काटकर,“स्त्री हाशिये पर नहीं अपितु स्त्री जीवन के केंद्र में रहती आई है।”
अपनी पंक्ति टांक दी।
"हमारी निष्क्रियता ही दूसरों को खून पीने का मौका देती है, प्रभा जी!"
उसने अपनी बाहों में अपने को समेट लिया।***
10.नशा
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“बचपन से पढ़ाई के लिए तेरी आनाकानी सुनती चली आ रही हूँ लेकिन अब तो समझ ले, इस बार बोर्ड की परीक्षा में बैठेगी।"
अपने मानसिक तनाव और जर्जर शारीरिक अभावों में दबी-कुचली रबिया ने एक साँस में अपना दुःख और गुस्सा बेटी के ऊपर उड़ेल दिया।
“तो क्या करूँ बोर्ड है ?”
“अच्छा! साहबज़ादी को अब येSS भी बताना पड़ेगा…?” भड़की हुई उसकी माँ बोली।
“पढ़ाई के अलावा कुछ और भी पूछा-बताया जाता है अपने बच्चों से; अम्मा!”
“तो आज तू ही बता दे…क्या है ? जिससे मैं अंजान हूँ।”
“जिन क़िताबों से आपको खुशबू आती है न! मुझे न वे एक सुहाती हैं और न ही अपनी ज़िंदगी। इस जहुन्नुम में भला कौन पढ़ सकता है।"
कहते हुए अदीबा सिसक पड़ी।
“हाय अब क्या होगा? कितनी आस लगाई थी इस लड़की से। अब तो ये भी...।”
रबिया दहाड़ें मार-मार कर रो ही रही थी कि इतने में अदीबा का पिता आ पहुँचा।
“क्या गुफ़्तगू चल रही है दोनों में?” नशे में धुत्त लड़खड़ाती जुबान से रबिया के पति ने उससे पूछा।
“अम्मा, बताइए इनको कि गुफ़्तगू और सिर पटकने में अंतर होता है। कभी-कभी लगता है ये घर ही छोड़ दूँ या मर जाऊँ।”
हाथों से मुँह दबाये पाँव पटकते हुए अदीबा उठकर रसोई में चली गयी।
“इन्होंने सुन लिया होता तो तेरे सिर पर थोड़े ही सवार रहती सारा दिन, मेरी बच्ची।”
बेटी को डाँटने का अफ़सोस करते और सोफ़े पर फैले पड़े शराबी पति को समेटते हुए रबिया को लग रहा था जैसे वह चारों ओर से कीचड़ में धँस चुकी है। *****
11.सिग्नेचर
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“बैंक में काम करने वालों को देखकर ऐसा लगता है कि जैसे छूने से मैले हो जाएँगे।”
वातानुकूलित बैंक में घुसते हुए गरिमा ने पति का हाथ झटकते हुए कहा।
“बिल्कुल ज़ाहिल हो ? अपना मुँह बंद रखने का क्या लोगी ?”
गरिमा के पति ने उसे झिड़कते हुए इस तरह कहा कि वह झैंप गई।
“मेरा बोलना इतना जहर है; तो लाना ही नहीं था। बैठती हूँ कहीं, जब जरूरत हो बुला लेना।”
“हाँ हाँ हाँ ठीक है। वैसे भी तुम्हारे पास बैठने के अलावा है ही क्या?”
दोनों के बीच खुरफफुसर किन्तु गहमागहमी चल रही थी कि काउंटर नम्बर एक से आवाज आई।
“हेल्लो सर, आइये प्लीज; मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ ?”
गरिमा के पति ने ज़रूरी क़ागज उसको थमाते हुए कुछ कहा। उसने एक फॉर्म निकाला और गरिमा की ओर बढ़ा दिया।
“सर आप मुझे दीजिये।"
पति ने पत्नी को घूरते हुए कहा।
“ओके सर, नो इशू।"
पति ने फॉर्म भर कर जैसे ही काउंटर पर रखा, कर्मचारी ने फिर पूछ लिया।
‘सर, एफ़. डी. किसके नाम की होगी ?”
बिना कुछ कहे उसने गरिमा की ओर इशारा किया।
“तो फ़िर लीजिये मैडम, जहाँ-जहाँ मैंने ब्लैक प्वाइंट लगाये हैं; वहाँ-वहाँ सिग्नेचर कर दीजिये।”
कर्मचारी की भद्र आव़ाज पर गरिमा विनम्रता से भर हस्ताक्षर करने लगी।
“अरेरेरे समझ नहीं आता? लिखो तो ठीक से।”
ऊँची ठस आवाज़ में पति ने कहते हुए उनका कंधा झिंझोड़ दिया।
“कोई बात नहीं सर! गृहस्थी में डूबकर स्त्रियाँ स्वयं को कम ही याद रख पाती हैं; फिर ये तो राइटिंग का मामला है।”
“लीजिये सर फॉर्म का कार्य पूरा हुआ।"
गरिमा के हाथ से पति ने फॉर्म छीनते हुए आगे बढ़ा दिया। वह देखकर रह गई।
“ओके सर मैसेज आपके नम्बर पर आ जाएगा।"
“डन।”
कहते हुए पति ने पत्नी को चलने का इशारा किया।
"ठहरिए। सर आप ब्लैक पैन मुझे दे सकते हैं?
गरिमा ने उस पेन की ओर इशारा किया जिससे उसने सिग्नेचर किए थे।
"क्यों नहीं। इट इज माय प्लेज़र…लेकिन...?”
कर्मचारी विस्मय की मुद्रा में उसको देख रहा।
“सर,इस वर्ष एम. ए. का फॉर्म भरना चाहूंगी किंतु इसी पेन से।”
पति के माथे पर कुछ बूँदें पसीने की झलक आई थीं। ****
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क्रमांक - 069
पिता : स्व. श्री दशरथ झा
माता : श्रीमती सूर्यमुखी झा
जन्म : 20 जूलाई, 1969 , कोलकत्ता
शिक्षा- बी. ए., ग्राफिक्स डिजाइनर, डिप्लोमा इन डेस्कटॉप पब्लिशिंग (MS Office, qwark press, Page maker, Coral graphics)
लेखन की विधाएँ: -
लघुकथा, कहानी, गीत-गज़ल-कविता और आलोचना
सम्प्रति : प्रशासनिक अधिकारी, मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हिंदी भवन भोपाल।
पुस्तक प्रकाशन : -
घाट पर ठहराव कहाँ (एकल लघुकथा संग्रह),
पथ का चुनाव (एकल लघुकथा संग्रह),
अस्तित्व की यात्रा (एकल लघुकथा संग्रह)
सम्पादन पुस्तकें : -
चलें नीड़ की ओर (लघुकथा संकलन)
सहोदरी लघुकथा-(लघुकथा संकलन)
सीप में समुद्र-(लघुकथा संकलन)
बालमन की लघुकथा (लघुकथा संकलन)
दस्तावेज -2017-18 (लघुकथा एवम् विमर्श)
समय की दस्तक (लघुकथा संकलन)
रजत श्रृंखला (लघुकथा संकलन)
भारत की प्रतिनिधि महिला लघुकथाकार (लघुकथा संकलन, प्रेस में)
लघुकथा-महासंकलन (पटियाला, साहित्य कलश का प्रकाशन)
सम्मान : -
साहित्य शिरोमणि सम्मान, भोपाल 2015
इमिनेंट राईटर एंड सोशल एक्टिविस्ट, दिल्ली 2015
श्रीमती धनवती देवी पूरनचन्द्र स्मृति सम्मान,भोपाल 2015
लघुकथा-सम्मान, अखिल भारतीय प्रगतिशील मंच,पटना 2016
क्षितिज लघुकथा सम्मान 2018
तथागत सृजन सम्मान, सिद्धार्थ नगर, उ.प्र. 2016
वागवाधीश सम्मान, अशोक नगर,गुना 2017
गणेश शंकर पत्रकारिता सम्मान.भोपाल 2016
शब्द-शक्ति सम्मान,भोपाल 2016
श्रीमती महादेवी कौशिक सम्मान (पथ का चुनाव, एकल लघुकथा संग्रह) प्रथम पुरस्कार सिरसा, 2017
राष्ट्रीय गौरव सम्मान चित्तौड़गढ़ 2018
श्री आशीष चन्द्र शुल्क (हिंदी मित्र) सम्मान, 2017 गहमर,
तेजस्विनी सम्मान,गहमर. 2017
डॉ.मनुमुक्त 'मानव' लघुकथा गौरव सम्मान 2018
साहित्य शिरोमणि पंजाब कला साहित्य अकादमी सम्मान, जालंधर 2018
क्षितिज लघुकथा समग्र सम्मान, इंदौर 2019
लघुकथा रत्न सम्मान (हेमंत फाउंडेशन, मुम्बई) 2020
सारस्वत सम्मान, श्रीकृष्ण सरल स्मृति सरल काव्यांजलि साहित्यिक संस्था, उज्जैन 2020
अभिनव कला शिल्पी सम्मान 2020
नारी उत्कृष्टता सम्मान 2021, रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय महिला विकास प्रकोष्ठ
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- दून फिल्म फेस्टिवल कहानी सत्र में अतिथि वक्ता के तौर पर सहभगिता।
- अभिव्यक्ति विश्वम, लखनऊ के तहत ‘एक दिन कान्ता रॉय के साथ’ –2018(लघुकथा कार्यशाला)
- विश्वरंग 2019 के तहत वनमाली सृजन पीठ के तत्वावधान में आयोजित लघुकथा शोध केंद्र भोपाल मध्यप्रदेश का वृहत आयोजन
- हिन्दी भवन भोपाल द्वारा लघुकथा प्रसंग 2019 का आयोजन।
- 12 फरवरी 2020 में लघुकथा पर कार्यशाला एवं वक्तत्व, भोपाल स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज, भोपाल।
पता : –
मकान नम्बर-21,सेक्टर-सी, सुभाष कालोनी, नियर हाई टेंशन लाइन, गोविंदपुरा, भोपाल- 462023 मध्यप्रदेश
1. विलुप्तता
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"जोगनिया नदी वाले रास्ते से ही चलना। मुझे नदी देखते हुए जाना है।" रिक्शे पर बैठते ही कौतूहल जगा था।
"अरे,जोगनिया नदी ! कितनी साल बाद आई हो बीबी जी? ऊ तो, कब का मिट गई।"
"क्या? नदी कैसे मिट सकती है भला?" वो तड़प गई।
गाँव की कितनी यादें थी जोगनिया नदी से जुड़ी हुई। बचपन, स्कूल, कुसुमा और गणेशिया। नदी के हिलोर में खेलेने पहुँच जाते जब भी मौका मिलता और पानी के रेले में कागज की कश्ती चलाना। आखिरी बार खेलने तब गई थी जब गणेशिया को जोंक ने धर लिया था। मार भी बहुत पड़ी थी।
फिर तो माई ही स्कूल लेने और छोडने जाने लगी थी।
रिक्शा अचानक चरमरा कर रूक गया। तन्द्रा टूटी।
"हाँ,बहुत साल बाद अबकी लौटी हूँ। कैसी सूखी ये नदी,कुछ बताओगे?"
"अरे, का बताये, भराव होते-होते उथली तो पहले ही हो चुकी थी और फैक्ट्री वालों को भी वहीं बसना था। वो देखो, आपकी जोगनिया नदी पर से उठता धुँआ।"
चिमनी से उठता गहरा काला धुआँ उसकी छाती में आकर जैसे बैठ गया।
"गाँव तो बचा हैै ना?" घुट कर बस इतना ही पूछ पाई।****
2. अस्तित्व की यात्रा
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उसका अपना साथी जो उसके मुकाबले अब अधिक बलिष्ठ था, उसको शिकार करने के उद्देश्य से घूर रहा था। देखकर उसका हृदय काँप गया।
वह सहमती हुई उन दिनों को याद करने लगी जब दोनों एक साथ शिकार करते, साथ मिलकर लकड़ियाँ चुनकर लाते, आग सुलगाते, माँस पकाते, साथ मिल-बांटकर खाते। सहवास के दौरान एक दूसरे का बराबरी से सम्मान भी करते थे।
दरअसल तब वे दोनों असभ्य, अविकसित जीव थे, शिकारी होकर भी सम्बंधों को परिपूर्णता से जिया करते थे।
वह याद करती है उस दिन को जब उसके गर्भवती होते ही दूसरे ने उसके लिए घर बनाने का सोचा था। प्रसवित जीव को केन्द्र में रखकर दोनों ने उस वक्त अपने लिए कार्यक्षेत्र का विभाजन किया था। उसके बाद से वह प्रसवित जीव की देखभाल करने के लिए घर में रहने लगी और शनैः शनैः कोमल शरीर धारण करने लगी थी। उसे कहाँ मालूम था कि समय बीतने पर इन्हीं बातों के कारण वह स्त्री कहलाएगी।
उसके शिकार को उद्दत अपने साथी की बलिष्ठ भुजाओं की ओर उसने पनियाई आँखों से देखा, फिर अपनी कोमल और कमजोर शरीर पर नजर फेरी। वह ठिठकी, दूसरे ही क्षण उसकी आँखों में कठोरता उतर आयी थी।
वह प्रसवित जीव को अपने साथ ले, घर से बाहर शेरनी बनकर फिर से स्वयं के पोषण के लिए शिकार करने निकल पड़ी।
वह अब स्त्री नहीं कहलाना चाहती थी।****
3.बैकग्राउंड
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"ये कहाँ लेकर आये हो मुझे।"
"अपने गाँव, और कहाँ!"
"क्या, ये है तुम्हारा गाँव?"
"हाँ, यही है, ये देखो हमारी बकरी और वो मेरा भतीजा "
"ओह नो, तुम इस बस्ती से बिलाँग करते हो?"
"हाँ, तो?"
"सुनो, मुझे अभी वापिस लौटना है!"
"ऐसे कैसे वापस जाओगी? तुम इस घर की बहू हो, बस माँ अभी खेत से आती ही होगी"
"मै वापस जा रही हूँ! साॅरी, मुझसे भूल हो गई। तुम डाॅक्टर थे इसलिए ...."
"तो ....? इसलिए क्या?"
"इसलिए तुम्हारा बैकग्राउंड नहीं देखा मैने।"****
4. चेहरा
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आधी रात को रोज की ही तरह आज भी नशे में धुत वो गली की तरफ मुड़ा। पोस्ट लाईट के मध्यम उजाले में सहमी-सी लड़की पर जैसे ही नजर पड़ी, वह ठिठका। लड़की शायद उजाले की चाह में पोस्ट लाईट के खंभे से लगभग चिपकी हुई सी थी। करीब जाकर कुछ पूछने ही वाला था कि उसने अंगुली से अपने दाहिने तरफ इशारा किया। उसकी नजर वहां घूमी। चार लडके घूर रहे थे उसे। उनमें से एक को वो जानता था। लडका झेंप गया नजरें मिलते ही। अब चारों जा चुके थे। लड़की अब उससे भी सशंकित हो उठी थी, लेकिन उसकी अधेड़ावस्था के कारण विश्वास ....या अविश्वास ..... शायद!
"तुम इतनी रात को यहाँ कैसे और क्यों?"
"मै अनाथाश्रम से भाग आई हूँ। वो लोग मुझे आज रात के लिए कही भेजने वाले थे।" दबी जुबान से वो बडी़ मुश्किल से कह पायी।
"क्या..... ! अब कहाँ जाओगी?"
"नहीं मालूम!"
"मेरे घर चलोगी?"
".........!"
"अब आखिरी बार पुछता हूँ, मेरे घर चलोगी हमेशा के लिए?"
"जी!" ....मोतियों सी लड़ी गालों पर ढुलक आयी। गहन कुप्प अंधेरे से घबराई हुई थी। उसने झट लड़की का हाथ कसकर थामा और तेज कदमों से लगभग उसे घसीटते हुए घर की तरफ बढ़ चला। नशा हिरण हो चुका था। कुंडी खडकाने की भी जरूरत नहीं पडीं थी। उसके आने भर की आहट से दरवाजा खुल चुका था। वो भौंचक्की-सी खड़ी रही।
"ये लो, सम्भालो इसे! बेटी लेकर आया हूँ हमारे लिए। अब हम बाँझ नहीं कहलायेंगे।" ****
5. कागज़ का गाँव
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जीप में बैठते ही मन प्रसन्नता से भर गया। देश में वर्षों बाद अपने देश में वापसी, बार-बार हाथों में पकडे पेपर को पढ़ रही थी, पढ़ क्या, बार -बार निहार रही थी। सरकार ने पिछले दस साल से इस प्रोजेक्ट पर काम करके रामपुरा की बंज़र भूमि को हरा-भरा बना दिया है। गाँव की फोटो कितनी सुन्दर है, मन आल्हादित हो रहा था। उसका गाँव मॉडल गाँव के तौर पर विदेशों में कौतुहल का विषय जो है!
बस अब कुछ देर में गाँव पहुँचने ही वाली थी। दशकों पहले सूखा और अकाल ने उसके पिता समेत गाँव वालो को विवश कर दिया था गाँव छोड़ने के लिए।
"अरे, ये तो अपने गाँव का रास्ता नहीं मालूम पड़ता," -- मीलों निकल आने के बाद भी दूर -दूर तक सूखा ही सूखा!
"मैडम आप के बताये रास्ते से ही जा रहे है, मुझे तो यहां आस-पास बस्ती दिखाई ही नहीं दे रही। सन्नाटा ही सन्नाटा है, इंसानो की तो क्या, लगता है चील-कौओं की भी यहाँ बस्ती नहीं है।"
"क्या! सामने जरा और आगे चलो, पेपर में तो बहुत तरक्की बताई है गाँव की, इसीलिए तो हम गावं में बसने की चाहत लिए विदेश में सब कुछ बेच आये है!"
"और कितना आगे लेकर जाएँगी मैडम, गाड़ी में पेट्रोल भी सीमित है"
"रुको गूगल सर्च करती हूँ!"- कहते हुए स्मार्टफोन निकाली, ओह! नेटवर्क ही नहीं ......... , बेचैन होकर फिर से गाँव को पेपर में तलाशने लगी।
"मैडम, कागज़ में गाँव था लगता है उड़ गया।" ****
6.टी-20 अनवरत
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वह क्रिकेट की दिवानी थी।जैसे ही क्रिकेट लीग व टूर्नामेंट शुरु होता कि दिन भर की धमाचौकड़ी बंद। फिर तो कहीं और नजर ही नहीं आती, बस बैठ जाती टी वी के आगे। महेंद्र सिंह धोनी ,विराट कोहली और गौतम गम्भीर ,बस ,दूसरा कुछ सूझता ही नहीं था उसे। सोफे पर चिप्स , कुरकुरे के ढेंरो पैकेट और दोस्तों की टोली, कहती क्रिकेट में दोस्तों के साथ हो तभी मजा आता है।
पिछली बार तो कितने सारे पॉपकार्न के पैकेट मंगा कर माँ को थमा दिया था। उफ्फ! यह लड़की भी ना! माँ के पल्ले ना तो क्रिकेट,ना ही इसके तामझाम समझ में आते।
जवानी की दहलीज पर पैर रखते ही बहुत अच्छे घर से रिश्ता आ जाना, वह भी बिना दहेज के, पिता तो मानों जी उठे थे।
"अजी, क्या इतनी सी उम्र में बिट्टो को व्याह दोगे? अभी तो बारहवीं भी पूरी नहीं हुई है। क्या वह पढ़ाई भी पूरी ना करें!" माँ लड़खड़ाती आवाज में कह उठी। अकुलाई-सी माँ बेटी के बचपने को शादी की बलि नहीं चढ़ाना चाहती थी।
"देखती नहीं भागवान, वक्त कितना बुरा चल रहा है, बेटी ब्याह कर, निश्चिंत हो, गंगा नहाऊँ।कल का क्या भरोसा फिर ऐसा रिश्ता मिले ना मिले।" एक क्षण रुक, कहते-कहते पिता के नयन भी भर आये थे। हर बात में लड़ने झगड़ने वाली ऐसी चुप हुई कि आज तक मुँह में सहमी उस जुबान का इस्तेमाल नहीं किया।
बाबुल के घर से विदा होकर आये पिछले एक महीनें में उसने एक बार भी मैच नहीं देखा है। उससे तीन साल बड़ी ननद देखती है क्रिकेट अपने भाईयों के साथ।
और वह क्या करती है? यहाँ तो उसकी जिंदगी क्रिकेट का मैच बनी हुई लग रही थी।
ससुराल का यह चार कमरों का घर बड़ा-सा क्रिकेट का मैदान दिखाई देता है उसे, जहाँ उसकी गलती पर कैच पकड़ने के लिये चारों ओर फिल्डिंग कर रहे परिवार के लोग।
विकेट कीपर जेठानी, सास अंपायर बनी उसके ईर्द गिर्द ही नजर गड़ाये रहती है। ननद, देवर,जेठ और ससुर जी सबके लिये वह बल्ला लेकर पोजिशन पर तैनात।
पति बॉलर की भूमिका में चौकस, और वह! बेबस, लाचार-सी बल्लेबाज की भूमिका में पिच पर, हर बॉल पर, रन बनाने को मजबूर। गलती होने पर कमजोर खिलाड़ी का तमगा और हूटिंग मिलती। आऊट होने पर भी बल्ला पकड़ कर पिच पर बैटिंग करने को मजबूर।
दूर-दूर तक कहीं कोई चीयर्स लीडर नहीं।
कई दफा आँखें रोते-रोते लाल हो जाती है। आज भी नजरें बार-बार पवेलियन (पिता के घर) की ओर उठ जाया करती है, काश इस मैच में भी पवेलियन में लौटना संभव होता! ****
7. खटर-पटर
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ये दोनों पति-पत्नी जब भी बन-ठन कर घूमने निकलते तो कितने सुखी लगते हैं। एक-दूसरे से बेहद जुड़े हुए, बिना कहे एक दूसरे की मन को समझने वाले, फिर भी कभी-कभी इनके घर इतनी लड़ाई शुरू हो जाती है कि पूरे मोहल्ले में आवाज़ गूँजती है। जाने ये कैसे लोग है! अलगनी से सूखे कपड़े उतार, उसपर गीले कपड़े डालने लगी कि तभी सामने से आज वो अकेली आती दिखाई दी।कल रात भी खूब हंगामा मचा था उनके घर, मन में क्या सूझा एकदम से पूछ बैठी, "नमस्ते शीलू जी, कैसी हैं?"
"अच्छी हूँ, आप सब कैसे हैं?"
आँखों में काजल लगाये उनके चेहरे पर रौनक छाई थी। झगड़े के वक्त कल भी इनकी आवाज़ सबसे अधिक थी।
"आप परेशान हैं क्या?" मन को जबर करके पूछा मैंने।
"नहीं तो! मैं तो कभी परेशान नहीं होती हूँ।"
"लेकिन मुझे लगा कि...!"
"क्या लगा, जरा खुलकर कहिए!"
"आप कहती हैं कि आपके पति बहुत अच्छे हैं, तो फिर आप दोनों की लड़ाई क्यों होती है?"
"अरे वो!" कहते-कहते वह जोर-जोर से हँसने लगी। मैं अकबकाई उसको पागलों जैसी हँसते देखती रही। मुझे लगा यह दुख की हँसी है...बस अब जरूर रोयेगी..! लेकिन वह हँसती हुई कह पड़ी, "हम पति-पत्नी कभी नहीं लड़ते हैं, हमारी बॉन्डिंग मजबूत है।"
"लेकिन वो चीख-चिल्लाहट से भरी झगड़े की आवाज़ तो अक्सर सुनती हूँ।
"हाँ, होती है। लेकिन हमारे घर लड़ाई हम पति-पत्नी की नहीं बल्कि मर्द और औरत में होती है।" कहते हुए महकती-सी गुज़र गयी। मेरे सूखे कपड़ों पर गीले कपड़े बिछ जाने की वजह से पूरे कपड़े गीले हो गये। मैंनें अलगनी पर सूखने के लिए सबको छोड़ दिया।
अब मुझे एक नया मेनिया हो गया है, अब जब किसी जोड़े से मिलती हूँ तो उस खुशहाल पति-पत्नी में छुपे मर्द-औरत को तलाशने लगती हूँ।****
8. इंजीनियर बबुआ
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शरबतिया बार बार चिंता से दरवाजे पर झाँक, दूर तक रास्ते को निहार उतरे हुए चेहरे लेकर कमरे में वापस लौट आती। कई घंटे हो गये रामदीन अभी तक नहीं लौटा है।
गाँव के पोस्ट ऑफिस में फोन है जहाँ से वह कभी कभार शहर में बेटे को फोन किया करता है। इतना वक्त तो कभी नहीं लगाया।
खिन्नहृदय लिए रामदीन जैसे ही अंदर आया कि शरबतिया के जान में जान आयी।
"आज इतना देर कहाँ लग गया, कैसे हैं बेटवा- बहू, सब ठीक तो है ना?"
"हाँ, ठीक ही है!"
"बुझे बुझे से क्यों कह रहें हैं?"
"अरे भागवान, ऊ को का होगा, सब ठीक ही है!"
"तुम रूपये भेजने को बोले ऊ से?"
"हाँ, बोले।"
"चलो अच्छा हुआ, बेटवा सब सम्भाल ही लेगा, अब कोई चिंता नहीं!"
"अरे भागवान, उसने मना कर दिया है ,बोला एक भी रूपया हाथ में नहीं है, हाथ खाली है उसका भी।"
"क्याss....! हाथ खाली...वो भला क्यों होगा, पिछली बार जब आय रहा तो बताय रहा कि डेढ़ लाख रूपया महीने की पगार है। विदेशी कम्पनी में बहुत बड़ा इंजीनियर है तो बड़ी पगार तो होना ही है ना!"
"बड़ी पगार है तो खर्चे भी बड़े हैं, कह रहा था कि मकान का लोन, गाड़ी का लोन और बाकि होटल,सिनेमा और कपड़ा-लत्ता की खरीददारी जो करता है ऊ क्रेडिट कॉर्ड से, उसका भी व्याज देना पड़ता है,इसलिए हाथ तंग ही रहता है।"
"बबुआ तो सच में तंगहाली में गुजारा करता है जी!"
"हाँ, भागवान, सुन कर तो मेरा दिल ही डूब गया। सोचे थे कि अपनी बेटी नहीं है तो भाँजी की शादी में मदद कर बेटी के कन्यादान का सुख ले लेंगे, बबुआ कन्यादान का खर्च उठा लेता जो जरा! लेकिन उसको तो खुद के खाने पर लाले हैं।"
"सुनिए, भाँजी के लिए हम कुछ और सोच लेंगे, पिछली साल गाय ने जो बछिया जना था उसको बेच कर व्याह में लगा देते हैं।"
"हाँ, सही कहा तुमने, क्या हुआ एक दो साल दूध-दही नहीं खाएँगे तो! बछिया बेच कर कन्यादान ले लेते हैं।"
"एक बात और है।"
"अब और क्या?"
"इस बार जो अरहर और चना की फसल आई है उसको बेच कर बेटवा को शहर दे आओ, उसका तंगी में रहना ठीक नहीं, हम दोनों का क्या है, इस साल चटनी- रोटी खाकर गुजारा कर लेंगे, फिर अगली फसल तो हाथ में रहेगी ही!"
"हाँ, सही कह रही हो, मैं अभी बनिया से बात करके आता हूँ, इंजीनियर बबुआ का तंगी में रहना ठीक नहीं है।"
माँ
नन्हीं-नन्हीं अँगुलियों में सुई -धागे थामे रंगीन नगों को मोतियों के साथ तारतम्य से उनको पिरोती जा रही थी।
भाव -विभोर हो बार -बार निहारती , मगन होकर परखती , कभी उधेड़ती , कभी गुंथती , फिर से कुंदन के रंगो का तालमेल बिठाती ।
धम्मम ......... से पीठ पर सुमी ने हाथ दिया तो एकदम से चौंक उठी । हाथ से छूटकर मोती ,नग ,कुंदन सब यहाँ -वहाँ बिखर गए।
" सुम्म्मी ........तुम ! देखो ना , तुम्हारे कारण सब बिखर गए , मुझे फिर से सबको गूंथना होगा। " हाथ में उलझी- सी बिखरी हार को देखते हुए वो निराश हो उठी।
" वाह ! कितना खूबसूरत है ये , अपने लिए बना रही हो ? " आधी - अधूरी बनी हार पर नज़र पड़ते ही उसके सौंदर्य से अभिभूत हुई ।
"नहीं "
"तो फिर किसके लिए इतना जतन कर रही हो ? "
"माँ के लिए, उनके लिए दुनिया का सबसे सुन्दर हार बनाना चाहती हूँ "
"क्याsss, माँ के लिए? उस सौतेली माँ के लिए जो बात-बात पर तुम्हें सताती रहती है ! "
"सताती रहती है तो क्या हुआ, वो मेरी माँ तो है!" प्रौढ़ होती बचपन की डबडबाई पनीली आँखों में सहसा हज़ारों नगों की रंगीनियाँ झिलमिला उठी।
मक्खन जैसा हाथ
नई-नवेली दुल्हन-सी आज भी लगती थी। आँखों में उसके जैसे शहद भरा हो,ऐसा सौन्दर्य। पिता की गरीबी नें उसे उम्रदराज़ की पत्नी होने का अभिशाप दिया था। उसका रूप उसके ऊपर लगी समस्त बंदिशों का कारण बना।
उम्रदराज और शक्की पति की पत्नी अब अपने जीवन में कई समझौते करने के कारण कुंठित मन जी रही थी।
आज चूड़ी वाले ने फिर से आवाज लगाई तो उसका दिल धक्क से धड़क गया। वह हमेशा की तरह पर्दे की ओट से धीरे-से उसे पुकार बैठी, "ओ, चूड़ी वाले!"
उसके मक्खन से हाथों की छुअन से होने वाले सिहरन का आभास देने वाले उस चूड़ी वाले का बडी़ शिद्दत से इंतजार किया करती थी। चुड़ीवाला हमेशा की तरह वहीं बाहर बैठ, अपना साजों सामान पसार लिया। उसे मालूम था कि इन हाथों को सिर्फ हरे रंग की चूड़ियाँ ही अच्छी लगती है। पसारे हुए सभी चूडियों में धानी रंग की चूडियों पर पर्दे की ओट से अंगुलियों ने इशारा किया।
अगले ही पल मक्खन जैसे हाथ, चुड़ी वाले के खुरदरे से हाथों में सिमटी हुई बेचैनी और बेख्याली के पल को जी रही थी। ****
9. हड्डी
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अशोक के गैरहाजिरी में वो अचानक से कभी भी सुनिता के घर धमक पडते थे।
सुनिता को ना चाहते हुए भी उनकी खातिर करनी पडती थी। मजाक के रिश्ते का वास्ता देकर बदतमीजी भी कर जाते थे कई बार। बेटी के ससुर जो ठहरे।
अशोक को कई बार चाह कर भी बता नहीं पाती थी। बेटी की खुशियों का ख्याल आ जाता था।
दामाद जी अपने माता पिता के लिए श्रवण कुमार थे। बेटी से भी नहीं बाँट सकती थी अपनी परेशानी। सुनिता के गले में दिन रात हड्डी फँसी रहती थी।
आज जैसे ही दोपहर के नियत समय में घंटी बजी तो सुनिता ने बडे आराम से दरवाजा खोला और उनको सप्रेम अंदर आने के लिए कहा।
घर के अंदर बहुत सारे बच्चे खेल रहे थे। उसने अपने घर में झूला घर खोल लिया था।
सुनिता ने गले में फँसे हड्डी को निकाल फेंका था। ****
10.अनपेक्षित
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सालों तक यह सिलसिला चलता ही रहा था।
कहीं कोई रिश्ते की बात चला देता और माँ मेरे पीछे ही पड़ जाती। नहाने से पहले उबटन लगवाती थी मेरे गोरे होने के लिए।
कोई कैसे समझाये मेरी भोली सी माँ को कि उबटन लगा कर नहाने से कोई गोरा नहीं हो जाता है।
अब तो तीस साल की भी हो गई हूँ।
माँ को भी शायद लगने लगा है कि अब मुश्किल है मेरी शादी।
मै अपराध बोध से घिरी रहती हूँ। कई बार ईश्वर से भी मन ही मन लड लेती थी ।
माँ को बेटी बिदाई की इतनी चिंता थी कि पाई-पाई जोडने के चक्कर में मेरी पढ़ाई पर भी खर्च नहीं किया।
आज जोड़े हुए पैसे भी काम नहीं आये। कोई पसंद ही नहीं करता मुझे। जो देखने आते है नाक भौं चढाते हुए जाते है।
इसी ऊहापोह में अब बत्तीस साल की हो गई। लोग कहते है कि मै मोटी हो रही हूँ।
मै क्या करूं? उम्र की निशानियों को रोकना क्या किसी के वश में है!
कभी मन में सोचती हूँ कि शादी के लिए पैसे बचाने के बजाय माँ मेरी पढ़ाई ही करवा देती! ****
11. मौलिक पहचान
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"आप अपना पता दीजिये, एक पुस्तक भेजना है आपको|"
"मेरा पता नोट कीजिये बताती जा रही हूँ,
रमा सिंह
पत्नी - रामबहादुर सिंह
क-15, 110/ 2
बेलापुर"
"एक बात पुछू, बुरा तो नहीं मानेंगी आप?"
"अरे नहीं, बेझिझक पूछिये|"
"आपने डाक पता में 'पत्नी-रामबहादुर सिंह' क्यों लिखा?"
"पैत्रिक पहचान तो उनकी ही है यहाँ इसलिए|"
"कितने दिन से यहाँ अर्थात इस घर में रह रही हैं आप?"
"जब से शादी हुई तभी से|"
"शादी को कितने साल हुए?"
"अब बच्चों की शादी-व्याह का उम्र भी हो रहा है, मोनू शादी के पहली साल लगते ही हो गया था|"
"अरे, ठीक-ठीक बताइए जरा|"
"ऊँगली पर गिन कर बता रहीं हूँ |.......पूरे 25 साल हो गए शादी को!"
"25 साल तो बहुत होते हैं एक ही जगह रहने के लिए|"
"हाँ, सो तो है|"
"क्या इन 25 सालों में भी लोग यहाँ आपको आपके नाम से नहीं जानते कि साधारण डाक प्राप्त करने के लिए भी आपको पति की पहचान लगाने की जरुरत होती है?"
"जानते तो होंगे, मैंने बिना उनके नाम के कभी कुछ मंगाया ही नहीं|"
"एक बार अपने नाम से, पहचान से डाक मंगवा कर देखिये, अच्छा लगेगा|" ****
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क्रमांक - 070
जन्म तिथि : 18 मई 1971
जन्म स्थान :पटना - बिहार
माता : स्वर्गीय शकुंतला वर्मा
पिता : श्री अर्जुन कुमार वर्मा
शिक्षा : स्नातक प्रतिष्ठा- दर्शनशास्त्र ,पटना विश्वविद्यालय
स्नातकोत्तर हिन्दी , पूना विश्वविद्यालय, N.T.T B.Ed
व्यवसाय : (सेवानिवृत्त अध्यापिका)
रूचि : साहित्य लेखन, अध्ययन, अध्यापन, सिलाई प्रशिक्षण व समस्त गृह कार्य
विधा : कविता, कहानी, लघुकथा , संस्मरण, संवाद लेखन, निबंध,समसामयिक विचार आदि
संस्थाओ से सम्पर्क : -
- साहित्य संगम संस्थान समस्त इकाई,
- जैमिनी अकादमी (कविता, लघुकथा, समसामयिक विचार)
- नवकृति काव्य मंच,
- साहित्य रचना,
- साहित्य आजकल,
- साहित्यिक मित्र मंडल जबलपुर मध्य प्रदेश
सम्मान : -
- गुरु रविंद्र नाथ टैगोर सम्मान,
- उत्तर प्रदेश रत्न सम्मान,
- तिरंगा सम्मान,
- शिक्षक उत्थान रत्न सम्मान,
- आजाद-ए- हिंद सम्मान,
- गोस्वामी तुलसीदास सम्मान,
- कवि रत्न सम्मान,
- काव्य गौरव सम्मान,
- शहीद भगत सिंह सम्मान,
- डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन सम्मान इत्यादि
विशेष : -
- काव्य संग्रह दिल से -फेसबुक पेज, ब्लॉग
- पटना आकाशवाणी केंद्र से विविध कार्यक्रम की प्रस्तुति (सन्1985-88तक)
- एयर फोर्स स्टेशन के अंतर्गत सांस्कृतिक कार्यक्रमों में विविध कार्यक्रमों में सहभागिता
पता : फ्लैट नं : डी - 101 , श्री साईं हेरिटेज,छपरौला ,
गौतम बुद्ध नगर - 201009 उत्तर प्रदेश
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बचपन में ही मां के गुजर जाने के कारण मीनू के पिताजी ने दूसरी शादी कर ली थी। पिताजी पर सौतेली मां का दबदबा था। मीनू की सौतेली मां सारा दिन घर का काम कराती। दूसरे बच्चे को स्कूल जाते देख मीनू को भी बहुत पढ़ने का मन करता पर उसे स्कूल भेजने के नाम पर मां तरह तरह का बहाना बना देती। इसे पढ़ कर क्या करना, आखिर जाना तो है दूसरे घर में, वहां पर भी घर ही संभालना है वगैरह-वगैरह।
समाजसेविकायें उन्हें साक्षरता के महत्व को बताते हुए बच्ची को स्कूल भेजने के लिए प्रोत्साहित करती पर वह किसी का नहीं सुनती।
बहुत कम उम्र में ही मीनू की शादी कर दी गयी। मीनू के ससुराल वाले अच्छे नहीं थे। पति भी शराब पीकर पीटा करता। मीनू असहाय लाचार चुपचाप काम में लगी रहती। इसके दर्द और पीड़ा को देखकर के पड़ोसी बोलते-- तुम अपने पैरों पर खड़ी हो जा। क्यों इतना अत्याचार सहती हो?
पर मीनू जानती थी कि मैं तो पढ़ी लिखी नहीं हूं मैं क्या कर सकती हूं?
उसके दर्द को देखकर उसके पिताजी को भी तरस आने लगा था और उन्हें भी अब बहुत अपने आप पर ग्लानी महसूस होने लगी थी।
वे दुखी थे यह सोच कर कि अगर मैं अपनी बिटिया को साक्षर किया होता तो आज इतना अत्याचार नहीं सहना पड़ता। बचपन में सौतेली मां का अत्याचार झेली और अब अपने ससुराल वालों का।आज अगर यह साक्षर होती तो खुद अपने पैरों पर खड़ी हो सकती थी। काश! मैं समय पर साक्षरता का महत्व समझ पाया होता। ****
2.आत्मरक्षा
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मनीषा अपने गांव से चार किलोमीटर दूर सरकारी विद्यालय में पढ़ने जाया करती थी। गांव की अधिकांश लड़कियां दसवीं पास करने के बाद विद्यालय जाना बंद कर दी थी पर मनीषा के हृदय में पढ़ने के प्रति तीव्र ललक थी जिसके कारण वह पढ़ाई जारी रखी।
उसकी दो सहेलियां मीनू और संध्या ने नियमित रूप से विद्यालय नहीं जाती थी। इस कारण मनीषा को अधिकांश अकेले ही विद्यालय जाना पड़ता था। बीच रास्ते में मनचले उसे छेड़ने का प्रयास करते, पर वह हिम्मत से काम लेती। प्रत्युत्तर देते हुए अपने मंजिल तक पहुंचती।
एक दिन लड़कों ने सुनसान जगह देख छेड़खानी शुरू कर दी। मनीषा अकेले हीं उन लड़कों से भिड़ गई।
मनीषा कराटे के प्रशिक्षण के दौरान आत्मरक्षा का गुढ़ ज्ञान प्राप्त कर ली थी। आज सही समय पर इस्तेमाल करते हुए लड़कों के छक्के छुड़ा दिए। लड़के दुम दबाकर भाग गए।
मनीषा अपनी रक्षा करते हुए विद्यालय पहुंची और अपने शिक्षक और अपनी सहेलियों को घटना के बारे में बताई।
सभी लोग उसकी वीरता की कहानी सुनकर भूरी भूरी प्रशंसा करने लगे। वह भी बहुत ही उत्साहित हो रही थी क्योंकि उसका मनोबल दुगुना बढ़ गया था। वह जान गयी थी कि अब अपनी आत्मरक्षा खुद कर सकती है।****
3.मूलभूत शिक्षा
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प्रखर के माता-पिता ने प्रखर को उच्च शिक्षा देकर योग्य इंसान बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। प्रखर पढ़ाई खत्म कर एक मल्टीनेशनल कंपनी में उच्च पद पर आसीन हो गया था।
अच्छा वेतन, अच्छी सुविधाएं पाते हीं प्रखर के व्यक्तित्व में परिवर्तन आना शुरू हो गया। माता- पिता ने पढ़ाई के साथ-साथ दैनिक दिनचर्या के जो स्वास्थ्यवर्धक मूलभूत दैनिक शिक्षा प्रदान की थी वह प्रखर की अमीरी ने उसके जीवन से धीरे-धीरे विलुप्त कर दिए।
किताबी पढ़ाई के माध्यम से वह अच्छी नौकरी तो पा चुका था पर माता-पिता के द्वारा दिए गए ज्ञानवर्धक शिक्षा को नजरअंदाज कर दिया था। नौकर-चाकर रईसी ठाठ ने मन को स्वच्छंद बना दिया---जिसका नतीजा यह हुआ कि वह धीरे-धीरे अस्वस्थ होने लगा जिसका प्रभाव उसके दफ्तर के कार्यों पर भी पड़ने लगा।
जिस कंपनी के अधिकारी उसके कार्य की प्रशंसा करते नहींं अघाते थे उन्हीं अधिकारियों से अब हर कार्य पर डांट खानी पड़ रही थी। नौकरी छूटने की नौबत आ गई।
अब प्रखर को अपनी गलतियों का आभास होने लगा था। किताबी पढ़ाई के साथ-साथ अनुभवी बड़े बुजुर्गों द्वारा दी गई स्वास्थ्यवर्धक मूलभूत दैनिक शिक्षा जीवन के लिए कितना अहम है--यह गूढ़ मंत्र अच्छी तरह उसके पल्ले पड़ गई थी। ****
4.बदलाव
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माधवपुर गांव में लड़कियों को पढ़ाने में विशेषकर उच्च शिक्षा दिलवाने में ग्रामीण रुचि नहीं दिखाते थे--- कारण-- वहां पर स्कूल- कॉलेज की सुविधा नहीं थी। दूर शहर में लड़कियों को पढ़ने के लिए अकेले भेजना लोग ठीक नहीं समझते थे।
सुमन पहली लड़की थी जिसके पापा ने दूर शहर में होस्टल में रखवा कर मेडिकल की पढ़ाई करवाई थी। सुमन अपने डिग्री का सदुपयोग करते हुए डॉक्टर बनकर अपने गांव-ज्वार में ही लोगों का इलाज करना शुरू कर दिया।
सुमन को डॉक्टर बने हुए देखकर गांव की लड़कियों में भी पढ़ने की जिज्ञासा जाग उठी और उनके अभिभावकों में भी लड़कियों को पढ़ा-लिखा कर आगे बढ़ाने का जज्बा जाग उठा।
एक दूसरे को देख कर धीरे-धीरे लोग अपनी बच्चियों को बेटों की तरह दूर शहर में हॉस्टल या पी.जी में रखकर पढ़ाना शुरू कर दिया।
लड़कियां लड़कों की अपेक्षा अपने काम के प्रति ज्यादा मेहनती और परिश्रमी होती हैं-- यह बात सच साबित हो गई।
लड़कियां सुनहरा अवसर प्राप्त होते हीं उच्च शिक्षा प्राप्त कर अलग-अलग पदों पर कार्यरत होकर अपने अभिभावकों और गांव का नाम रोशन करने लगीं।
लोगों के जीवन में और विचारों में बदलाव आ चुका था। ग्रामीण संकीर्ण विचारों को त्याग कर अपने बच्चियों का भविष्य सुनहरा बनाने के लिए उत्सुकता दिखाने लगे थे। माधवपुर गांव शिक्षित गांव के रूप में भी प्रसिद्ध हो चुका था। ****
5.समय बड़ा बलवान
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शर्मा जी का इकलौता लड़का संदीप अपने घर का बहुत ही लाडला था। शर्मा जी अपने पैसे के घमंड में बहुत अभिमान में रहते थे।
सबसे कहते फिरते अपने बेटे को उच्च शिक्षा दिलवाकर डॉक्टर बनाऊंगा पर संदीप पढ़ाई में मन नहीं लगाता फिर भी वे अहंकार में उसकी तारीफ के पुल बांधते हुए विशेष रूप से अपने पड़ोसी गुप्ता जी को ताना कसने के अंदाज में कुछ न कुछ सुनाया करते।
गुप्ता जी चुपचाप उनकी बात सुन लिया करते कभी जवाब नहीं देते। गुप्ता जी के चार बच्चे थे। उनकी आमदनी कम थी। इस कारण वे अच्छे प्राइवेट स्कूल में अपने बच्चों को न पढ़ाकर सरकारी स्कूल में पढ़ा रहे थे।
गुप्ता जी के बच्चे बहुत ही मेहनती और होनहार थे। हरेक परीक्षा में अच्छे नंबर लाते। बड़े होकर वे सभी प्रतियोगिता की तैयारी करने लगे जबकि शर्मा जी का बेटा संदीप ज्यादा लाड़-प्यार के कारण बिगड़ता चला गया, पढ़ाई से भी विमुख हो गया।
गुप्ता जी के बच्चे पढ़-लिख कर उच्च पद पर आसीन हो गए जबकि संदीप पथ भ्रमित हो गलत रास्ते पर चला गया।
अब गुप्ता जी सभी के सामने अपने बच्चों के संबंध में गर्व से सीना तान कर चर्चा करते और शर्मा जी वहां से नजरें झुका कर चुपचाप खिसक जाते।
अब उन्हें पता कि समय बहुत बलवान होता है कभी अपने धन-दौलत का अभिमान करते हुए किसी के दिल को ठेस नहीं पहुंचाना चाहिए। ****
6. पछतावा
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यह घटना कुछ वर्ष पूर्व उस समय की है जब मैं विद्यालय में कक्षाध्यापिका के रूप में परिणाम पत्र बना रही थी। आये दिन विद्यालय में अध्यापकों द्वारा छात्र छात्राओं के साथ पक्षपात पूर्ण रवैया के समाचार सुनने को मिलते हैं। मैं भी इस स्थिति से गुजरी हूं।
मेरी प्रतिभावान छात्रा जो प्रथम स्थान की हकदार थी, उसे गणित और विज्ञान के अध्यापकों के मिलीभगत द्वारा जानबूझकर Oral Test में कम नंबर देकर तीसरे स्थान पर पहुंचाया गया और तीसरे स्थान की छात्रा को प्रथम स्थान पर। क्यों? क्योंकि वो बच्ची उनसे ट्यूशन नहीं पढ़ती थी।
मैं पूरी हकीकत जानते हुए भी आवाज बुलंद नहीं कर पाई क्योंकि वे दोनों अध्यापक प्रधानाध्यापक के विश्वासपात्र थे और उन्हीं के क्षेत्र के रहने वाले थे।
मैं उस विधालय में नयी थी। मेरी बातों पर कोई विश्वास नहीं करेगा यह सोच कर मैं चुप रह गई। उसी दौरान साजिश के तहत मेरे जरूरी पेपर गायब कर मुझे प्रधानाध्यापक के नज़र में भी हल्का कर दिया गया था। इस वजह से भी अप्सेट होने के वजह से मैं आवाज बुलंद नहीं कर पायी।जिसका आज भी मुझे अफसोस है।
उस बच्ची के साथ हुए अन्याय का दोषी मानकर मैं खुद को अपराध मुक्त नहीं कर पायी। और आज भी वो अफसोस टीस बनकर मेरे मन को सालते रहता है। ****
7. सच्चा रिश्ता कौन-सा?
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मानसी एक सामान्य घरेलू महिला जो पढ़ाई लिखाई में बहुत अधिक रूचि रखती थी। पर समयानुसार पढ़ाई की सुविधा न मिलने के कारण और पारिवारिक जिम्मेदारियों के आ जाने के कारण उसकी इच्छाओं पर पानी फिर गया।
अब वह खुद को नए वातावरण में ढालकर घर के नित्य काम में तन्मयता से लोगों की सेवा करती। लोगों की प्रशंसा सुनने की चाहत में और ज्यादा से ज्यादा मेहनत करती रहती।
समय के साथ-साथ थोड़ी जिम्मेदारियों का बोझ कम होते ही उसने अपनी ख्वाहिशे पूरी करनी शुरू कर दी।
खुद पढ़ती और बच्चों को पढ़ाती। घर के नित्य कार्य के साथ सिलाई, बुनाई, कढ़ाई, बेकरी आदि घरेलू उद्योग भी शुरू कर ली थी।
ब्यूटीशियन का कोर्स कर समय निकाल कर पार्लर का काम भी करती।
अपने बच्चों के बड़े होते हीं उसने विद्यालय जाकर बच्चों को पढ़ाना भी शुरू कर दिया। साथ ही साहित्यिक रचनाएं लिख कर अपने मनोभावों को ब्यां कर अपनी अधूरी इच्छाएं पूर्ण करने लगी।
पारिवारिक जिम्मेदारियों के साथ अपनी इच्छाएं पूर्ण करना ज्यों ही शुरू किया उसे आभास होने लगा कि जितना वो अपनों को अपना समझती थी वह दिल से उसे अपना नहीं समझते थे।
जब उसे अपनों की जरूरत महसूस हुई तब अपने दूरियां बनाने लगे। उसके कार्यों को अनदेखा करने लगे।वह समझ नहीं पा रही थी कि अपने इतने बेगाने-सा व्यवहार क्यों कर रहे हैं?
पराये तारीफ करके अपना-सा व्यवहार करते पर अपनों का व्यवहार पराया-सा महसूस होता।
जीवन की यह कड़वी अनुभूति उसके मन को सालते रहता।
वह सोचने को विवश हो जाती कि वास्तव में रिश्ते कौन से अपने हैं और कौन से पराये?
प्यार से बंधे रिश्ते या खून के रिश्ते?
असली रिश्ते जहां उसे शाबाशी मिलने की उम्मीद थी--वहां पर चुप्पी और शांति छा गई। जहां से उम्मीद नहीं थी वहां से शाबाशी मिलने लगी। आखिर हकीकत में सच्चा रिश्ता कौन-सा?
अपनों का या परायों का।
रिश्तो की पहचान भी समय ही करवाता है --यह बात मानसी अब समझ चुकी थी। ****
8.बुजुर्गों की खामोशी
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अनीता अपने पिता से बहुत प्यार करती थी पर अपनी शादीशुदा जिंदगी को ध्यान में रखते हुए अपने पिता को पूर्ण रूप से मदद नहीं कर पाती थी, मायके में अपने विचारों द्वारा हस्तक्षेप करना भी अच्छा नहीं मानती थी।
पिता जी का भाईयों से किसी बात पर अनबन होता तब भी वह उन्हें ही समझा बुझाकर चुप करा देती। वह खुल कर दिल की बात करना चाहते थे पर वह सुनने के लिए धैर्य नहीं रखती।
आज के परिवेश का उदाहरण देकर हर पल उन्हें ही बदलने का उपदेश देते रहती ताकि वह दुःखी न रहकर खुश रहें।
पिता जी जीवनसंगिनी के गुजर जाने के कारण भी खोए-खोए से और चुप से रहने लगे थे। मन की बात मन में ही दबा रह जाने के कारण घाव अंदर ही अंदर नासूर बन गये। शारीरिक रूप से स्वस्थ रहने वाला व्यक्ति मानसिक रूप से इतना कमजोर होगा --कोई महसूस नहीं कर पाया था।
बुजुर्ग बच्चों की हल्की पीड़ा से तड़प उठते हैं पर बच्चे बुजुर्गों की खामोशी में छुपे दर्द को महसूस नहीं कर पाते।
अचानक एक दिन पिताजी चलते-चलते बैठ गये-- हृदय गति रुक जाने के कारण दुनिया छोड़ दिए। न हीं अपनी तड़प न ही अपनी मन की बात कहे।
अब उनकी खामोशी बच्चों को विशेष कर अनीता को जीवन भर के लिए मन की टीस के रूप में मिल गयी थी। पछताने के सिवा कुछ नहीं बचा था। ****
9. चुनौती
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सरिता के पति का अचानक कार दुर्घटना में देहांत हो जाने के कारण दो छोटे बच्चे और बुजुर्ग सास-ससुर की जिम्मेदारी उसके सिर पर आ गई।
पति का प्राइवेट नौकरी होने के कारण न कोई पेंशन का सहारा था और न ही पुश्तैनी जमीन जायदाद उसके पास थी।
सरिता के जीवन में अचानक आई मुसीबत एक चुनौती बन गई थी। शादी के पहले सिलाई-बुनाई का जो काम वो स्वेच्छा से शौक पूरा करने के लिए करती थी,वहीं अब एक आमदनी का जरिया नजर आ रहा था।
उसने अडिग निर्णय के साथ फैसला लिया कि वह अपने पैरों पर खड़ी होगी और उसने कुछ सालों में कर दिखाया। एक सिलाई मशीन पर सिलाई कार्य शुरू करते हुए धीरे-धीरे कुछ और सिलाई मशीन उसने खरीद ली और लड़कियों को प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया।
उसके बाद उन्हीं लड़कियों के साथ मिलकर सिलाई का बड़े स्तर पर बिजनेस स्टार्ट किया और उसने एक नामी-गिरामी समाज में अपना अस्तित्व को कायम करने में सफलता हासिल कर ली। जीवन में आई चुनौती का सामना उसने डटकर किया जिसके कारण आज वह अपने परिवार को सक्षम बनाते हुए आगे बढ़ने में कामयाब हो पायी। ****
10. अमूल्य दहेज
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रमा देवी खोई-खोई उदास सी रहती थी क्योंकि बेटे की शादी में दहेज नहीं मिला था। बहु साधारण घर से आई थी । सुशिक्षित और सर्वगुण संपन्न थी पर दहेज की कमी उन्हें खटकती रहती।
पड़ोसन जब अपने बहुओं के मायके से लाए हुए चीजों की तारीफ करती तब वह चुप हो जातीं।
रमा देवी के पति समझाने का प्रयास करते तुम्हारी बहू कोहिनूर है पर उनकी समझ में बात नहीं आती।
बहू रीना प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी कर रही थी। घर के कामों में भी हाथ बटाती और अपनी पढ़ाई भी करती जबकि पड़ोसन की बहूएं रईस घराने की होने के कारण सिर्फ फैशन कर इधर- उधर घूमने और पार्टी करने में अपना समय व्यतीत करतीं। घर के कामों में भी हाथ नहीं बटातीं।
रमा देवी को अचानक एक दिन फोन आया --आपका बेटा रमेश का एक्सीडेंट हो गया है।
रमा देवी सुनते हीं बेहोश हो गईं । बहू रीना ने हालात को समझते हुए हिम्मत से काम लिया।
उसने स्कूटी स्टार्ट कर घटनास्थल पर पहुंचकर फटाफट एंबुलेंस बुलाई और तुरंत रमेश को लेकर अस्पताल पहुंची। तत्काल उपचार मिलने के कारण रमेश की जान बच गई।
डॉक्टर ने तत्परता से अस्पताल पहुंचाने के लिए रीना के समझदारी की भूरी-भूरी प्रशंसा की।
रीना दिलों जान से रमेश और घरवालों की भी सेवा-सुश्रुषा करती। अपने सदव्यवहारों से सास के दिल में भी जगह बनाने लगी थी।
कुछ महीने बाद रीना की अच्छी-सी जॉब लग गई । सफल गृहिणी और साथ ही जॉब करने वाली बहू -- सोने पर सुहागा।
उसके ससुर जी तारीफ करते नहीं थकते। अपनी पत्नी को समझाते--देखो! तुम्हारी बहू कोहिनूर निकली।
अपने पड़ोसियों से जाकर कहना --मेरी बहू हीरा है हीरा।अमूल्य दहेज है-- पढ़ी-लिखी समझदार और सफल गृहिणी। बड़ों का मान-सम्मान बनाए हुए घर-बाहर सभी को कुशलतापूर्ण भाव से समेट कर आगे बढ़ रही है। ****
11. चापलूसी
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मधु अपनी मृदुभाषी आवाज से ऑफिस के सीनियर अधिकारियों के साथ-साथ घर परिवार में भी सबकी चहेती थी। वह अपनी मीठी बातों से हर किसी को अपनी ओर आकर्षित कर लेती।
सहयोगी अपने निजी कार्य और मन के भाव को भी मधु से नि:संकोच साझा करते। वह घर में भी सास, देवरानी, जेठानी के साथ ऐसा ही माहौल बनाकर रखा करती। मीठा बनकर वह सभी के व्यक्तिगत विचार और अंतर्मन की बातों को जान लेती।
उसके मृदुल स्वभाव के कारण कभी किसी को शक नहीं होता। परंतु धीरे-धीरे ऑफिस के सहयोगियों का प्रमोशन में अड़चन आने लगा जबकि उसके साथ ऐसा नहीं हुआ।
घर में भी वह लोगों को तरह-तरह के तोहफे देकर प्रसन्न रखती जबकि घर के कार्य में बिल्कुल हाथ नहीं बटाती। परिवार में कुछ दिन बाद ऊपरी प्यार रहते हुए भी आपसी अंदरूनी दूरियां बढ़ने लगी। धीरे-धीरे लोगों को अहसास होने लगा कि मधु दूसरे के व्यक्तिगत विचार को और आगामी योजनाओं को चापलूसी करने के चक्कर में एक दूसरे तक 'मिर्च मसाला लगाकर' पहुंचाती है।
दफ्तर में भी सहयोगियों की बातों को उच्च अधिकारियों तक पहुंचाने वाली धूर्त महिला मधु ही है।
अधिकारियों को भी उसके धूर्त व्यवहार का आभास हो चुका था। अविश्वासी इंसान को वह भी महत्वपूर्ण काम नहीं देते थे। सभी के समक्ष उसकी असलियत मीठी वाणी में छुपी चापलूसी और धूर्तता का पता चल गया था।
घर परिवार में भी उसके धूर्त व्यवहार को सभी लोग महसूस करने लगे थे। इधर की बात उधर कर चापलूसी करते हुए घर में झगड़ा लगवाने वाली मंथरा मधु ही हैं ।
वह सबकी नजरों में छोटी और ओच्छी हो चुकी थी। उसका व्यक्तित्व घर-परिवार से लेकर दफ्तर तक बौना हो चुका था।
चापलूस व्यक्ति घर-परिवार में हो, राजनीति में हो या दफ्तर में एक न एक दिन औंधे मुंह जरूर गिरता है। ****
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क्रमांक - 071
जन्म - 25 अप्रैल, 1958 राँची में
शिक्षा - विज्ञान स्नातिका, राँची महिला महाविद्यालय से।
पुस्तकें :-
पहला लघुकथा संग्रह 'कचोट'
विविध विधा की दस पुस्तकें
विशेष -
- पहली लघुकथा - 1977 में।
नवतारा के ( संपादक-भारत यायावर) लघुकथांक 1979 में प्रकाशित।
- 1991 में अखिल भारतीय लघुकथा पोस्टर प्रदर्शनी आकार ( मधुबनी, बिहार ) में एक लघुकथा पोस्टर प्रदर्शित ।
- 1981 में भोपाल सूद जी द्वारा दिल्ली दूरदर्शन के लिए लघुकथा संबंधी साक्षात्कार। जो स्टिल फोटो के साथ बाद में प्रसारित किया गया था। ( राज की बात कि भूपाल जी के आने के तीन-चार दिन बाद ही मेरा विवाह... )
- लघुकथाओं का - तारिका, लघु आघात, लघुकथा. काम, लघुकथा कलश, कथाक्रम, जनसत्ता सबरंग, राष्ट्रीय सहारा, पायोनियर, दै. हिंदुस्तान, प्रभात खबर, विश्व गाथा, सर्व भाषा, राँची एक्सप्रेस, जागरण आदि में प्रकाशन
प्रमुख पुरस्कार / सम्मान :-
- उपन्यास ' पुकारती जमीं ' को 1990 में नवलेखन पुरस्कार, राजभाषा विभाग, बिहार सरकार से।
- प्रथम स्पेनिन साहित्य गौरव सम्मान ।
- तृतीय शैलप्रिया स्मृति सम्मान।
- रामकृष्ण त्यागी स्मृति कथा सम्मान
पता : -
1 - सी, डी ब्लाॅक, सत्यभामा ग्रैंड, डोरंडा, राँची -834002 झारखण्ड
1. हार
***
वह खत्म होते जंगल और पास के अपने खेतों के बारे में सोच रहा था। बाबा ने मना किया था, फिर भी उसने मेड़ों पर पुरखों द्वारा लगाए गए पेड़ काट डाले थे। फसलों के साथ उसे भी बेच आया था। जंगलों के गाछ भी चुपके-चुपके काटता रहा था अपने लालची मित्रों संग।
जंगल के किनारे रात ढले लाॅरी लगती और गाछों को लाद कर आगे बढ़ जाती। वे मित्र भी व्यापारियों संग बढ़ रहे थे। उनकी मर्जी के बिना पत्ता हिलता भी नहीं, व्यापारी समझते थे। अतः उन सबको खूब खुश रखते।
इधर कुछेक वर्षों से वर्षा दगा दे गई, तो खेती का मुख्य पेशा अब धोखा दे रहा था। सूखे की मार से फेंके गए बीजों को कई एकड़ जमीन खा जाती और डकार भी नहीं लेती।
जानता है, पर मानता कहाँ है वह। पेड़ों को बेरहमी से काटते वक्त उसको रोकनेवाले अंतर्मन ने पूछा अब उससे,
" प्रकृति पर विजय तुम सबकी जीत है कि... ? "
उसका सर तत्काल घुटनों पर झुक आया। ****
2. तुलना
*****
वह अपने टैरेस पर गमलों में लगे फूलों की तुलना अनायास अमर के गमलोंवाले फूलों से करने लगा।
क्या बात है आखिर? हम दोनों ने एक साथ, एक तरह के एक साइज के पौधे खरीदे थे। फिर उसके फूल इतने भरे-भरे, इतने बड़े-बड़े और इतने खूबसूरत कैसे?
वह अपने घर के नन्हें, बेतरतीब बिखरे से पुष्पों को गौर से देखते हुए सोच रहा था। छोटी-नन्हीं कलियाँ, छाटे-छोटे फूल, पीले पत्ते।
आखिर उससे रहा नहीं गया। धमक पड़ा उसी दम अमर के घर। टैरेस में ही चाय-नाश्ता लिया।
" तुम्हारे घर खिले फूलों को देखता हूँ, तो एक ईर्ष्या सी होती है। आखिर ये इतने बड़े, खूबसूरत कैसे ? क्या डालते हो इसमें यार? "
" कुछ भी तो नहीं। बस, थोड़ी सी मेहनत और ढेर सारा प्यार-दुलार! "
बताते हुए फूलों सी मुस्कराहट अमर के होठों पर आ बिराजी। ****
3.चंदन
****
" बाबा रे! इतनी गंदगी। गीली मिट्टी से मेरे पैर गंदे हो
जाएँगे। कीचड़ में फिसलकर पाँव भी मुचक सकता है। "
" अब इतनी नाजुक भी नहीं बनो। "
" तुम्हारे कहने से मैं इन पगडंडियों पर चल रही हूँ। नहीं,
तो... मैं घर में भली। तुम्हारी जिद ना...! "
तब तक वे दोनों उस खेत के पास पहुँच गए थे। बादलों की छाँव तले, धरती की धूसर गोद में अनेक किसान जमे हुए थे। वह फिर बोल उठी -" कैसे इतने कीचड़ में...? "
"... कीचड़ नहीं मेमसाब, चंदन बोलो... धरती मइया का चंदन। "
एक किसान ने प्रतिवाद किया। फिर वह अपने हल के साथ खेत में उतर गया। थोड़ी ही देर में वह पिंडली तक मिट्टी में धँसकर अपने बैलों को टिटकारी मारते हुए मगन हो, हल चला रहा था और उसका वाक्य हवा में तैर रहा था
" इसी चंदन से अन्न देवता मिलते हैं मेमसाब! " ***
4. आज की दुनिया
************
मुश्ताक फिल्म देखकर निकल रहा था। उसके आगे भाई-बहन निकले। उसने लड़के को देखा। लड़कियों को देखने का शौक उसे नहीं था।
एक गुंडा बहन से छेड़छाड़ करने लगा। भाई आपे से बाहर होकर झगड़े के लिए उतारू हो गया। गुंडे ने चाकू से उसका काम तमाम कर दिया। वह लड़की को खींचकर ले जाने लगा।
मुश्ताक ने लड़की को बचाने के लिए सबको साथ देने के लिए कहा। अंत में अकेले ही कूद पड़ा। लोग भाग खड़े हुए। तमाशबीनों की तादाद बढ़ती गई। लोग आते गए, जाते गए। मुश्ताक लड़की को बचाता रहा।
भागते इंसानों से दूसरों ने पूछा,
" क्या बात है भाई ? कैसा हंगामा है ? "
" अरे! क्या बताएँ भाई। दो गुंडे एक लड़की की खातिर लड़ पड़े हैं।... क्या जमाना आ गया है। "
" हाँ, सच! क्या जमाना आ गया है। " ****
5. सेल्फी
*****
वे नामी पशु प्रेमी! अनेक पुरस्कारों से सज्जित, अनेक संस्थाओं से सम्मानित! घर में सम्मान पत्रों से दीवारें अटीं पड़ीं। समाचार पत्रों की कतरनों से कबर्ड भरा-पूरा।
उस दिन रास्ते में कई लोग मिलकर एक व्यक्ति की मरम्मत कर रहे थे। वह चिल्ला रहा था। रिरियाहट, गिड़गिड़ाहट उसकी आवाज़ में -
" छोड़ दो।.... हमको छोड़ दो। अब ऐसा नहीं करेंगे।....मेरा बच्चा भूखा था, इसलिए ब्रेड लिया था। मत मारो। "
सामने ब्रेड कुचला पड़ा था। और भी कुचलनेवाले पाँव उस पर पड़ रहे थे। उन्होंने देखा, आगे बढ़ गए।
बढ़ते गए, आवाजों को अनसुना कर। थोड़ी ही दूर पर बिल्ली का एक बच्चा नाली में गिरा नजर आया। कुछेक क्षणों बाद वे उसे नाली से बाहर निकालते हुए सेल्फी पर सेल्फी ले रहे थे। ***
6.भक्ति
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बात उन दिनों की, जब चारों ओर खबर फैली - " गणेश जी दूध पी रहे हैं। "
कैलेन्डर हो या मूर्ति, लोगों ने चम्मच से गणेश जी के मुँह में दूध उड़ेलना शुरू कर दिया।
अपार भक्ति में डूबे देश के परम भक्तों के श्रद्धावनत सर उधर नहीं देख पा रहे थे, जहाँ चिथड़ों में लिपटा छः महीने का बच्चा पिता की गोद में भूख से बिलख रहा था।
" कोई थोड़ा दूध इधर भी दे दो। इसकी माँ जिन्दा नहीं है। यह मर जाएगा। "
" किसे सुध थी। सब अपार भक्ति में बेसुध। "
गणेश बाबा उनके हाथ से दूध पीने से वंचित न रह जाएँ, सोचकर कोई पंक्ति से बाहर निकलना नहीं चाहता था।
मंदिर के बाहर खड़े एक नास्तिक को एक तरकीब सूझी।
गणेश बाबा को पिलाए गए दूध की बहती नदी से उसने चिथड़े के कोने से थोड़ा दूध समेटा और बच्चे के मुँह में दे, चिल्लाने लगा-
" गणेश जी का अवतार यह शिशु दूध मांग रहा है। यह अवसर मत गंँवाइए। गणेश जी नाराज हो जाएँगे। "
लोगबाग उस अज्ञात व्यक्ति की भक्ति से प्रभावित होकर कटोरियाँ, गिलास थामे उस ओर लपक लिये। *****
7. मिस करता हूँ
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डॉक्टर अनुराग ने दिनभर से पहने भारी पीपीई किट, मास्क
और कैप को उतारकर अपने केबिन के टेबल पर रखा। पसीने से लथपथ डाॅ. हाथ धोकर सेनिटाइज करने के बाद चेयर पर ढह गए।
उनकी आँखों में नमी थी। आँखों की कोरों पर एक-एक बूँद अटकी। असिस्टेंट ने चाय ढालते हुए गौर से उन्हें देखा। दिन भर के भूखे डाॅ. अनुराग ने चाय, बिस्किट लेने से इंकार कर दिया।
- क्या बात है सर?
- नहीं... नहीं! कुछ नहीं।.... वह नंदन नहीं बचेगा।
- कोई बात तो है सर, इस बच्चे से पहले किसी के लिए मैंने आपको इतना विचलित होते नहीं देखा। परिचित ?
- नहीं। पेशेंट की एज का ही मेरा बेटा है, जिससे मैं दस दिनों से नहीं मिला हूँ।
उन्होंने आँखों पर रूमाल रख लिया।
- और उसकी माँ डाॅ. सुधा अभी-अभी आइसोलेशन से घर लौटी है। तो....। *****
8.दिल की बात
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बंशी लाल लाॅकडाउन में फँसे कामगारों के लिए बेहद उदार हो उठे थे। उन्होंने भोजनादि का प्रबंध सहर्ष करना शुरू कर दिया था। उनकी टीम के लोगों का समर्पण भी देखने के काबिल।
इस बार जैसे ही वे भोजन की व्यवस्था देखने पहुँचे, उनकी भौंहें चढ़ गईं। मुखाकृति कठोर। अंततः उन्होंने एक साथी पर चिढ़ निकाली,
" तुम्हें और कोई नहीं मिला? बस यही अकेला बचा था दुनिया में? "
उनके होंठ घृणा से टेढ़े हो गए। उनकी जुबां ने आगे भी जोड़ी,
" ये बना पाएगा? इस छक्के को तो हाथ नचाकर नाचना आता है, बस। कैसे बनाएगा, बोलो? "
" मैं कहा था, सबका खाना मैं अपने हाथों से बनाएगा। मैं शरीर से अधूरा हय, मन से नहीं। मेरे पास भी दिल हय साब। सबके दर्द पर वह भी रोता हय। दूसरे के लिए कुछ करके मेरा आतमा को भी शांति मिलेगा। आखिर मैं भी तो इंसान हय ना साब। "
उसकी बातों में दम था, बंशी लाल के दिल तक पहुँची।
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9.अंतिम संस्कार
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चारों तरफ खबर फैल गई कि पेशेंट के साथ निरंतर सेवारत नर्स शैलजा कोरोना पाॅजिटिव पाई गई है। खबरों के साथ अफवाहों की बन आई।
सिस्टर शैलजा अन्य डाॅक्टरों, चिकित्साकर्मियों संग मुस्कुराहट के साथ पेशेंट का मनोबल बढ़ाने के लिए मशहूर थी। पिछले तीन महीने से और भी हँस-हँसकर आइसोलेशन वार्ड में पेशेंट को सँभाल रही थी।
मेटरनिटी लीव मिली थी। पर उसके जमीर ने इजाजत नहीं दी और वह एक महीने के बाद से नवजात बच्ची को दादी के भरोसे छोड़कर अस्पताल में ही रह रही थी।
शैलजा बच्ची को देखने की लालसा लिये हुए दिवंगत हो गई। कब्रिस्तान में दूर से किट में लिपटी उसकी लाश को जमींदोज़ होते देखता एक श्वान मात्र था, जिसे वह अक्सर अस्पताल के बाहर भोजन देती थी।
थोड़ी देर बाद लाश ठिकाने लगानेवाले भी चले गए। कुत्ता बैठा रहा, कोई आदमजात ना था पास। ***
10. शर्मिंदा
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वह सदा की तरह अपने छोटे से डाॅग को घुमाने निकला। वह भी उन लोगों में से था, जो कुत्तों को बहुत प्यार करते हैं। पेट्स के लिए जान भी दे सकते हैं। दरवाजा खोलते ही उनका शेरू, टफी, बडी साधिकार कार की बगलवाली सीट पर जा बैठता है और वे उसके घने बालों में उँगलियाँ फिराकर, स्नेह से निहारकर अपना ममत्व जाहिर करते हैं। पालक की गोद में बैठना उन सबका जन्मसिद्ध अधिकार!
और तो और वे उन सबको अपने बगल में सोने से भी नहीं रोकते। डाॅग द्वारा मुँह चाटना उन्हें अतिरिक्त खुशी से भर देता है। जगह-जगह रोएँ का बिखरे रहना खूब भाता है उन्हें। उसे लैट्रिन कराने के लिए खुद लेकर बाहर जाना कभी नहीं अखरता, भले मुन्ने की नैप्पी बदलना गुस्से का सबब बन जाए।
हाँ, तो वह अपने डाॅग बडी को पार्क ले गया।
कई दिनों से हसरत से देखता एक गरीब बच्चा आगे बढ़ आया। उसके बडी को छूने के लिए प्यार से हाथ बढ़ाया।
उसने तत्काल उसका हाथ झटका, चिल्लाया,
" क्यों छू रहे हो बडी को? इसे इंफेक्शन हो जाएगा। "
बालक अपने फटे, गंदे कपड़े और मैले हाथ पर बेहद शर्मिंदा हो उठा।
" और आपको इनफिकसन नय हो...? " ****
11. वादा
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विद्यालय के प्रत्येक विद्यार्थी को हेल्पेज इंडिया के लिए अपने घर तथा आस-पड़ोस से पैसे इकट्ठे करने की आज्ञा मिली थी। उन पैसों को बुजुर्गों की संस्था को भेंट किया जाना था।
मोहित भी पापा, मम्मी से पैसे ले चुका था। पड़ोस के लोगों ने भी मदद की थी। काफी रुपये जमा हो गए थे। पर जितना उसने सोचा था, उतने नहीं। वह हौले से उनके कमरे में जा पहुँचा।
" आप भी मदद कर दें। पाँच सौ रुपये दे दें, तो पूरा हो जाएगा। "
" अरे! मैं क्यूँ? मैं भी तो बूढ़ा ही हूँ ना? एक बूढ़े से बूढ़ों के लिए लोगे? "
" हाँ, सच है कि आप भी बुजुर्ग हो। लेकिन आप अंदर हो। वे अपने ही घर के बाहर। वे कभी अपने घर के अंदर नहीं जा पाएँगे दादा जी। "
वह अपने दादा के कँधे से झूल गया। दोनों गालों पर पप्पी ली। आगे जोड़ा,
"...और हमलोग कभी, कभी भी आपको बाहर रहने नहीं देंगे। " ****
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क्रमांक - 072
जन्म : 04 अप्रैल 1951, गांव कयामपुर , ज़िला बागपत - उत्तर प्रदेश
शिक्षा : स्नातकोत्तर ( समाजशास्त्र )
प्रकाशित पुस्तकें : -
खाते बोलते हैं ( लघुकथा संग्रह )
चिंगारी तथा अन्य लघुकथाएं ( लघुकथा संग्रह )
आशा किरण ( उपन्यास )
किसलिए ( उपन्यास )
चाचाजी नमस्ते ( उपन्यास )
मैं अभी मौजूद हूं ( ग़ज़ल संग्रह )
ग़ज़ल बोलती है ( ग़ज़ल संग्रह )
मेरी चुनिन्दा ग़ज़लें ( ग़ज़ल संग्रह )
मुक्ति ( नाटक )
संपादित पुस्तकें : -
अनकहे कथ्य ( लघुकथा संग्रह)
पड़ाव और पड़ताल - खंड 10 ( लघुकथा संग्रह)
अपनी अपनी यात्रा ( कहानी संग्रह)
मांझी के मतले और मक्ते(ग़ज़ल संग्रह)
विशेष : -
- लघुकथा लेखन सन 1978 से
- पहली लघुकथा "गुल्लक" इंदौर की चर्चित पत्रिका " वीणा' में प्रकाशित
- लघुकथा और ग़ज़ल में एक जाना-माना नाम
- आकाशवाणी व दूरदर्शन से अनेक रचनाएँ प्रसारित
- कुछ लघुकथाओं का पंजाबी, गुजराती, मलयालम एवं अंग्रेज़ी में अनुवाद
- अनेकों संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
सम्पर्क :110, लाजवन्ती गार्डन, नई दिल्ली - 110046
1. चाँद मेरे आजा रे
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सुनो, कम से कम आज के दिन तो समय पर आ जाना।
मुझे याद है भई। शादी के बाद आज तुम्हारा पहला करवा चौथ है।
आज कोई नई कहानी मत सुनाना घर आकर। पूरे दिन बोर हो जाती हूँ घर मे अकेली।
मैं सात बजे तक पहुँच जाऊँगा डार्लिंग।
सुनो, तुम परसों जो साड़ी लाये थे न, मैंने उसमें फॉल लगवा लिया है और लो कट ब्लाउज़ भी सिलवा लिया है।
फिर तो जलवा हो जाएगा डिअर।
और हाँ, तुम्हारी पसन्द की केशर की खीर और दही भल्ले भी बनाकर रखूँगी। तुम्हारे हाथों से पानी पीकर व्रत खोलना है मुझे।
मुझे याद है। अच्छा रखता हूँ फोन।
पति राकेश की बातों से आश्वस्त होकर किरण तेजी से रसोईघर में जाकर भोजन की तैयारी में जुट गई। उसके चेहरे पर उल्लास था तथा होठ कोई रोमांटिक गीत गुन गुना रहे थे।
सात बजते बजते किरण ने भोजन तैयार कर लिया था। नई साड़ी में वह एक अप्सरा -सी लग रही थी।अब उसे राकेश की प्रतीक्षा थी।
समय बीतता जा रहा था। झुंझलाहट में उसने कई बार मोबाइल से सम्पर्क करने की कोशिश की। लेकिन हर बार "नॉट रीचिंग" बता रहा था।
तभी डोर बेल बजी। तेजी से उठकर दरवाज़ा खोला तो बदहवास सी हालत में राकेश खड़ा था। उसकी सफेद शर्ट पर जगह जगह खून के धब्बे देखकर वह चौंक उठी,,,,,,
ये क्या हो गया जी। किसी से झगड़ा कर बैठे क्या?
पहले अन्दर चलो, बताता हूँ।
तुम्हें पता है मैं कब से इंतज़ार कर रहीहूँ। मेरी जान सूख गई थी।
रास्ते में एक आदमी का एक्सीडेंट हो गया था। वह खून से लथपथ था। सब तमाशा देख रहे थे। कई तो मोबाइल से फोटो ले रहे थे। वह सड़क पर पड़ा कराह रहा था। मैंने एक मजदूर की सहायता से अपनी बाइक पर बिठाकर उसे अस्पताल पहुँचाया। जब उसके रिश्तेदार वहाँ पहुंचे, तब मैं वहाँ से निकला।
और तुम्हें मेरी परेशानी का ज़रा भी ख्याल नहीं आया।
आया था किरण तुम्हारा खयाल कि तुम सुबह से भूखी बैठी मेरा इंतज़ार कर रही हो। पर ज़रा यह सोचो कि करवा चौथ पर उसका भी तो घर पर उसकी पत्नी इंतज़ार कर रही होगी। उसे कुछ हो जाता तो!
ऐसा न कहो जी।
किरण ने उसके मुँह पर उंगली रखते हुए कहा,,,,,
तुमने बड़ा नेक काम किया है जी।
अच्छा चलो पहले चाँद देख लो। अरे, चांद तो बादलों में छुप गया है किरण।। राकेश ने अपनी शर्ट उतारते हुए कहा।
मेरे चाँद तो आप हैं जी।। किरण लजाते हुए राकेश के सीने से लग गयी।
शरारती चाँद बादलों से निकल बाहर आ गया था। ****
2. मजबूत दीवार
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आखिर अंजलि को उसकी सासू मां शोभना देवी की परेशानी और बेचैनी का कारण पड़ोस की देवकी आंटी ने बता ही दिया----
"अरे अंजलि, तेरी सास की परेशानी का कारण तू ही है बिटिया।"
"वो कैसे आंटी?'" अंजलि ने हैरत से पूछा।
" अरी, पार्क में सुबह-शाम बैठने वाली सारी बूढी-,ठेरी अपनी अपनी बहुओं की जमकर बुराई करती हैं, और तेरी सास,,,,, ।"
"क्या कहती हैं मेरी सासू मां?"
"यही कि मेरी बहू इतनी अच्छी है कि दूसरी औरतों की तरह मैं उसकी बुराई भी नहीं कर सकती।"
"ओह, तो यह कारण है। फिर तो मुझे ही कुछ करना पड़ेगा आंटी।"
"देख ले बेटी,,,,,तू जाने तेरा काम,,,,,,मैं तो चली।"
शाम को पाँच बजे शोभना देवी आँगन में बैठी चाय का इंतज़ार कर रही थी।तभी अंजलि ने जान- बूझकर एक पुराना मर्तबान ज़ोर से फर्श पर पटक दिया।
'भड़ाक' की आवाज़ से पूरा घर गूंज उठा।
'अरी, क्या टूट गया अंजलि?"चौंकते हुए शोभना देवी ने पूछा।
"सॉरी मम्मी, आपका मनपसंद अचार का मर्तबान टूट गया।" अंजलि ने सोच लिया था कि आज तो डांट ज़रूर पड़ेगी ही।
शोभना देवी ने एक पल को मर्तबान के टूटे हुए टुकड़ों को घूरा फिर शान्त स्वर में बोली---"चल छोड़, टूट जाने दे। पुराना ही तो था।"
सासू माँ को क्रोधित मुद्रा में न देखकर अंजलि विस्मय से बोली--"मम्मी, मुझे डांटो तो सही। नुक्सान तो कर ही दिया ना मैंने। मैं भी तरस गयी हूँ आपकी डांट खाने के लिए।"
"अंजलि, तू क्या समझती थी कि मुझे गुस्सा दिलवा देगी और मैं तेरी बुराई का ढिंढोरा पीटकर खुश हो जाऊंगी। तेरी प्लानिंग
मैं पहले ही भाँप चुकी थी। सास हूँ तेरी।"
ओ,,,,मम्मी जी।" इतना ही निकला अंजलि के मुख से।
"चल चाय ले आ,,,,,, इकठ्ठे बैठकर पियेंगी,,,,,,, पगली कहीं की।"
अंजलि को लग रहा था कि वह एक मजबूत दीवार के साये में पूरी तरह महफूज़ है। ****
3. एक पराजित विजय
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यह एकाकीपन उसके लिए कोई नई बात नहीं है। इससे पूर्व भी उसने कई बार ऐसी स्थिति झेली है।
लेकिन आज जब घर के सभी सदस्य किसी विवाहोत्सव में शामिल होने चले गए, तो वह बेचैनी से इस कमरे से उस कमरे में चक्कर लगाता रहा। नहाया-धोया भी नहीं, और पठन-पाठन चाहकर भी नहीं कर सका।
उसे लगा, जैसे यह एकाकीपन उसकी धड़कनों को जकड़े दे रहा है।
तभी एकाएक वह कुछ सोचते हुए बिस्तर से पलटा। मेज़ पर से काँच का खाली गिलास उठाया। उसे एक पल निहारा और फ़र्श पर छोड़ दिया।
चटाख ! एक शोर हुआ बस्स !!
फ़र्श पर बिखरी गिलास की किरचें देख, पहले वह थोड़ा मुस्कुराया और फिर जोरदार ठहाका लगाया----
हा'''''''''''हा'''''''''हा'''''''''हा'''''''''''हा ***
4.कटखना
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शुरू शुरू में ' वर्क फ्रॉम होम' के कारण दिन भर घर में रहना उसे बहुत अच्छा लगता था। पत्नी द्वारा तैयार किया अपनी पसंद का लंच और स्नैक्स देखकर उसकी बाँछें खिल जाती। काम से थकान होने पर बच्चों के साथ हँसी ठिठोली करते समय वह स्वयं बच्चा बन जाता था।
धीरे धीरे पूरे दिन घर में रहना उसे अखरने लगा था। ऑफिस के दोस्तों और महिला सहकर्मियों से मस्ती के पलों को वह ' मिस' कर रहा था। अब वह दिन भर बौखलाया सा रहने लगा था।। पत्नी बाजार का कुछ कम कहती तो उसे झिड़कने लगता। कार की सफाई के लिए चौकीदार पानी मांगता तो उस पर बरस पड़ता। पड़ोस की दुकान पर समान लेने जाता तो दुकानदार से बेवजह उलझने लग पड़ता। यहां तक कि जब कभी बच्चे खाली समय में अपने साथ खेलने को कहते तो उन्हें काट खाने को दौड़ता था।
एकदिन पड़ोस में किसी के यहाँ विवाह समारोह था। शायद घुड़चढ़ी हो रही थी। कुछ ही देर में दूल्हे की घोड़ी और बाराती उसके घर के सामने गली में आ चुके थे। बैंड की धुन पर कुछ महिलाएं औऱ युवक डांस कर रहे थे।
वह घर के आँगन में पत्नी और बच्चों के साथ बैठा था। कई महीनों के सन्नाटे के बाद बारात की रौनक और बैंड की धुन सुनकर उसके बच्चे रोमांच से भर उठे और हँसते हुए डांस करने लगे।
बच्चों को डांस करते देख पत्नी खिलखिलाकर हँस पड़ी तो उसके चेहरे पर भी मुस्कान खिल उठी। वह अचानक कुर्सी से उठा, फिर बैंड और ढोल की धमाकेदार
धुन पर दोनों बच्चों के साथ साथ मस्त होकर नाचने लगा। ****
5. पूर्ववत
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पिछले दिनों सरकार द्वारा भूमिहीन हरिजनों को खेती योग्य ज़मीन आबंटित करने की योजना बनाई गई। कार्यक्रम तेजी से लागू किया गया। गाँव के समस्त भूमिहीन हरिजनों ने आवेदन भी किया।
एक सप्ताह बाद कार्य-समाप्ति की घोषणा के साथ ही भूमि आबंटन के आंकड़े संबंधित विभाग को भिजवा दिए गए।
पहली ही बारिश के बाद रामु, दीनू और भुलिया के साथ अनेक हरिजन अब भी पूर्ववत ग्राम-सरपंच के खेतों में हलों की मूठ पकड़े काम कर रहे थे।
हाँ, सरपंच को अपनी बढ़ी हुई ज़मीन के लिए कुछ और किसानों व मजदूरों की ज़रूरत थी। ****
6. बिग बॉस
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पहाड़गंज चौराहे की रेड लाइट खराब हो जाने से सभी गाड़ियां अपने गंतव्य तक जाने की जल्दी में फंसी पड़ी हैं। ड्राइवर राम सिंह अपने बॉस के साथ पिछले पंद्रह मिनट से जीप में बैठा है। सुबह से ही उसका मूड खराब है। बॉस के कहने पर वह नीचे उतर कर चारों तरफ़ नज़र घुमाता है।जून माह का तपता हुआ सूरज आग बरसा रहा है। राम सिंह भी बॉस को लेकर भीतर ही भीतर उबल रहा है।
-----आज पिताजी को हड्डियों के डॉक्टर को दिखाना था।
पी ए से फोन करा दिया कि ज़रूरी मीटिंग है, छुट्टी मत करना । घटिया कहीं का।
------ दिन भर इधर उधर के काम कराता है। रात दस बजे तक पीछा नहीं छोड़ता। भूतनी का।
------कभी इसकी घर वाली को शॉपिंग कराओ तो कभी बच्चों को। बंधुआ मज़दूर बना दिया हरामी ने।
तभी ट्रैफिक खुल जाता है।रामसिंह जीप में बैठकर जीप स्टार्ट कर देता है।
"जल्दी करो राम सिंह। दो बजे की मीटिंग है। एक बजकर चालीस मिनट हो गए है।" बॉस चिंतित स्वर में कहता है।
राम सिंह तेजी से जीप को निकालता है। अब जीप पहाड़गंज पुल की चढ़ाई चढ़ रही है। उसने जीप को पुल के बीचोबीच रोक दिया है। वह चाहता है कि बॉस से भरी दोपहरी में धक्के लगवाए। वह दिखावे के लिए जीप के पुर्ज़ों के साथ छेड़छाड़ करता है।
बॉस की घबराहट बढ़ रही है।
तभी राम सिंह को अपने पिता की बात याद आती है कि बेटा, ड्यूटी को भगवान की पूजा समझ कर करना और अपने बॉस की हमेशा इज़्ज़त करना।
"जल्दी करो राम सिंह , दस मिनट रह गए हैं , मीटिंग शुरू होने में।" बॉस अधीर हो उठता है।
" चिंता न करो सर, अभी पहुंचाता हूँ। " कह कर राम सिंह तेजी से जीप को गाड़ियों के बीच से निकालकर ठीक दो बजे मीटिंग हाल के बाहर खड़ी कर देता है। बॉस राहत की सांस लेते हुए फुर्ती से भीतर चला जाता है।
दो घण्टे बाद मीटिंग समाप्ति पर बॉस हँसते हुए बाहर निकलता है और संकेत से राम सिंह को बुलाकर कहता है---
" राम सिँह, ये विज़िटिंग कार्ड है। कल इस नर्सिंग होम में पिताजी को ले जाना। डॉ भारद्वाज से मिलना। वे पूरा चैक अप करेंगे। कोई पैसा नही देना उन्हें, वो मेरे फ्रेंड हैं।। और सुनो, जीप ले जाना।"
राम सिंह अपने बॉस का यह रूप देखकर हतप्रभ है। "थैंक्यू सर।" वह होले से कहता है। उसका दायाँ हाथ सेल्यूट की मुद्रा में उठ जाता है। ****
7. मोर
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नाम, इज्ज़त, शोहरत और दौलत यूँ ही उसके हिस्से में नहीं आये हैं-----कड़ी मेहनत की है उसने। कवि हिमकर ने अपने गीतों और मुक्तकों से देश-दुनिया में एक अलग पहचान बनाई है। उसके अनेक मुक्तक श्रोताओं की जुबान पर रहते हैं। उनकी तालियों के बीच जब वह झूम-झूम कर कविता पाठ करता है तो लगता है जैसे कोई मोर नृत्य कर रहा है।
एक बड़ी संस्था ने हिमकर को सम्मानित करने के लिए आमंत्रित किया हुआ है। अपने काव्य गुरु के साथ आज वह अपनी महँगी कार में आयोजन स्थल की ओर जा रहा है।
" तुम खामोश और गुमसुम से क्यों हो हिमकर?" यह गुरुजी का स्वर है।
" एक प्रशंसक के पत्र ने मुझे विचलित कर दिया है गुरुजी।"
"क्या लिखा है?"
" यही कि मेरे चर्चित और बहुप्रशंसित मुक्तक में तकनीकी अशुद्धि है। लेकिन मेरे मित्रों ने मुझे कभी भी इस बारे में नहीं टोका ।"
"शायद इसलिए कि तुम बुरा न मान जाओ और अपने आयोजनों में उन्हें बुलाना ही बन्द न कर दो।"
"लेकिन आप तो अधिकारपूर्वक कह सकते थे गुरुजी।"
"जब तक मेरे संज्ञान में बात आई, तुम्हारा काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका था।" गुरुजी ने अपनी सफाई दी है।
कार आयोजन स्थल पर पहुँच चुकी है। सभागार खचाखच भरा है। हिमकर, गुरुजी और मुख्य अतिथि मंच पर विराजमान हो गए हैं।
प्रशस्ति-पत्र पढ़े जाने के उपरान्त मुख्य अतिथि द्वारा हिमकर को माला,शॉल, स्मृति चिन्ह तथा एक लाख रुपये का चेक दे दिया गया है। सभागार में तालियां बज उठी हैं।
श्रोताओं के अनुरोध पर हिमकर झूम झूम कर अपने कुछ मुक्तक सुनाता है। अब उसके बहुचर्चित मुक्तक को सुनकर समूचा सभागार तालियों और सीटियों से गूँज उठा है। हिमकर ने भी श्रोताओं के अभिवादन में अपना हाथ हवा में लहरा दिया है।
तभी हिमकर का बायां हाथ कोट की जेब में रखे प्रशंसक के पत्र को स्पर्श करता है। उसके चेहरे की रंगत फीकी पड़ गयी है। वह माइक छोड़कर बोझिल कदमों से चलकर कुर्सी पर आ बैठा है। उसकी आँखों की कोरों में नमी-सी ठहर गयी है।
श्रोताओं की तालियाँ रुकने का नाम नहीं ले रहीं हैं। ****
8.देश की बेटी
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गाँव के बीचों बीच खुले प्रांगण में स्वतंत्रता दिवस का उत्सव मनाने की तैयारियाँ चल रही हैं। सामने एक मंच बनाया गया है। उस पर रंगीन कागज़ की झंडियाँ सजी हुई हैं। गांव के सरपंच चौधरी सूरत सिंह के निर्देश पर कुछ युवा आवश्यक तैयारियों में जुटे हैं। मैं मंच के सामने बिछी कुर्सियों पर अपने माँ बापू के साथ बैठी हूँ। कुछ ही देर में राष्ट्रीय ध्वज फहराया जायेगा।
अचानक तीन वर्ष पूर्व की घटना मेरी आँखों के सामने घूमने लगती है। में आठवीं कक्षा में थी। विद्यालय में एक समूह गान हेतुमुझे पहली पंक्ति में खड़ा किया गया था। रिहर्सल के दौरान सरपंच सूरत सिंह ने अध्यापिका को कहा कि इस दूसरी जाति की लड़की को पीछे खड़ा करो और मेरी पोती को अगली पंक्ति में । सचमुच उस घटना ने मुझे भीतर तक छील दिया था।
नौंवीं कक्षा में मेरे बापू ने मुझे कस्बे के स्कूल में दाखिला दिलवा दिया था। मैं खेलो में अच्छी थी। जीत राम नाम के कोच ने मुझे कड़ा प्रशिक्षण दिया। इंटरस्टेट खेलों की प्रतिस्पर्धा में दौड़ के दौरान मैं तीन धावकों से पीछे थी। तभी मुझे कोच की बात समरण हो आई कि प्रत्येक दौड़ यह सोच कर दौड़नी है कि तुम अपने देश के लिए दौड़ रही हो। तभी मेरे सामने लहराता हुआ तिरंगा दिखा और लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मैं सभी धावकों को पछाड़ती हुई सर्व श्रेष्ठ विजेता बन गई। मुझे गोल्ड मेडल पहनाया गया।
अचानक मंच से सरपंच द्वारा मेरे नाम की घोषणा होने पर मेरी तंद्रा टूटती है।
मैं गर्व से मंच पर पहुंच गई हूँ। ग्राम सरपंच चौधरी सूरत सिंह ने मुझे गाँव की बेटी नहीं बल्कि देश की बेटी कहते हुए मेरे गले में बड़ी सी माला पहना दी है और ध्वजारोहण का संकेत किया है।
मैं राष्ट्रीय ध्वज की डोरी खींचती हूँ । गुलाब के फूलों की पत्तियां मुझ पर बिखर रही हैं। गाँव के स्त्री पुरुष तालियाँ बजा रहे हैं। वातावरण में राष्ट्र गान गूँज उठा है। मेरा दायाँ हाथ लहराते हए तिरंगे को सलामी देने के लिये उठ गया है। ****
9. गुरगा
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पिछले कुछ समय से प्रिंसिपल डॉ भान अनुभव कर रहे थे कि समय की पाबंदी को लेकर स्टाफ मेम्बर्स में उनके प्रति रोष पनपता जा रहा है। वे एक ऐसे व्यक्ति की तलाश में थे जो स्टाफ मेम्बर्स के षड्यंत्रों की जानकारी उन तक पहुंचाता रहे। उनकी अनुभवी नज़रों ने नव नियुक्त प्रोफेसर दिनेश कुमार को अपना गुरगा बनाने की ठान ली।
कॉलेज की छुट्टी का समय हो चुका था। अपनी कार स्टार्ट करके डॉ भान कॉलेज गेट से बाहर निकल रहे थे। संयोग से उन्होंने पैदल जाते हुए प्रोफेसर दिनेश कुमार को देखा और कार उसकी बगल में रोक दी।
"आइए, मिस्टर दिनेश, मैं आपको छोड़ देता हूँ। कार में बैठिए।"
"ठीकहै सर, मैं बैठता हूँ। थैंक यू।" अचकचाकर प्रोफेसर ने कहा और कार की पिछली सीट का दरवाजा खोलकर बैठ गया।
" अरे आगे आइए, यहाँ बैठिए।" डॉ भान की वाणी में शहद घुला था।
" मैं यहीं ठीक हूँ सर।" कुछ सकुचाकर प्रोफेसर दिनेश ने कृतार्थ होते हुए कहा।
डॉ भान ने एक बार फिर उसे आगे बैठने को कहा, किन्तु वह संकोचवश----'"ठीक हूँ सर" कहकर पिछली सीट पर ही बैठा रहा।
दरअसल, दूर देहात से पहली बार राजधानी में आये नए नए प्रोफेसर को यह कहाँ पता था कि कार में आगे बैठने वाला ड्राइवर और पीछे वाला मालिक समझा जाता है । डॉ भान कोअपनी यह स्थिति अपमानजनक लगी।वे रास्ते भर कुछ नहीं बोले। एक-दो स्टॉप के बाद उन्होंने प्रोफेसर दिनेश को नीचे उतार दिया।
" थैंक यू सर।' कहकर सीधा सादा प्रोफेसर कार से उतर कर बस स्टॉप की ओर चल दिया।
" इडियट ।" डॉ भान बुदबुदाए । लेकिन तभी उन के मन के कोने से एक आवाज़ उभरी--" किसी गुरगे का थोड़ा इडियट होना भी ज़रूरी है।"
मुस्कुराते हुए डॉ भान ने कार की स्पीड बढ़ा दी थी। गुरगा इतना-भर सम्मान पाकर खुश था। ****
10. दादी के नुस्खे
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"बेटी हल्के हाथों से बालों की जड़ों में लगा तेल।"
"ठीक है दादी लगाती हूँ। एक बात कहनी है दादी आपसे।"
"बोल बेटी।"
"स्कूल आते जाते रास्ते में एक लड़का घूरता रहता मुझे।क्या करूँ?"
" देख बेटी, बड़ी होती जा रही है तू। ऐसी बातों को एक आध बार तो नज़रअंदाज़ कर दिया करते हैं। पानी जब सिर के ऊपर आने लगे तो मुझे बताना।"
"ठीक है दादी।"
"बेटी, इंटर कॉलेज में मुझे भी एक लड़का उल्टा सीधा बोलता था।एक दिन जब बर्दाश्त नहीं हुआ तो सबके सामने उसे ऐसा जोरदार तमाचा मारा कि एक हफ्ते तक शर्म के मारे कॉलेज में दिखाई नहीं दिया। कई बार बोल्ड होना पडता है बेटी।जरा हाथों में तेल लगाके उंगली चटका।"
" ठीक है, लगाती हूँ। अच्छा दादी, ये लिव इन रिलेशन क्या बला है?"
"अरी बला ही तो है। बिना शादी किये मियां बीवी की तरह रहना कोई अच्छी बात है भला। जवान लड़कियों को अपनी इज्ज़त संभाल के रखनी चाहिए। चल तलुओं की मालिश कर मुलायम हाथों से।"
"दादी एक बात बताओ।सुना है आपने दादाजी के साथ घर से भागकर शादी की थी।"
"अरी तुझे किसने बताया मरी?"
"वो मेरी सहेली वीना को उसकी दादी ने बताया था। कानपुर की है ना उसकी दादी भी।"
"हूँ-म। तो ले सुन।तेरे दादाजी और मैं एक दूसरे को पसंद करते थे। परंतु हमारे घरवालों को यह रिश्ता पसंद नहीं था, क्योंकि तेरे दादाजी और हम अलग अलग जाति के थे।"
"फिर क्या हुआ?"
"अचानक तेरे दादाजी की दिल्ली में सरकारी नौकरी लग गयी। ।मुझे अपना भविष्य सुरक्षित लगा। हमने मंदिर में शादी की फिर दिल्ली चले आये। एक दिन भी लिव इन में नहीं रहे।"
"दादी कमाल कर दिया आपने ये फैसला लेकर।"
"हाँ, शुरू में घर वाले नाराज़ रहे। बाद में परिवार के सब लोग मेरे फैसले से खुश हो गए। चल साड़ी बचा के
घुटने तक मालिश कर।"
"वाह दादी आप तो बहुत दिलेर और समझदार निकली।"
" बेटी, औरत ही घर को स्वर्ग बनाती है। उसकी समझदारी से ही घर मजबूत बनता है। इन छुट्टियों में मेरी मान , तू भी सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग ले ले,समझे। चल अब चुन्नी हटा, तेरी भी कर दूं मालिश।"
" ठीक है दादी। ये लो।" ****
11. मुखौटा
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वह नन्हा बालक एक राजनेता का पुत्र था।
रामलीला के दिन थे। माँ को झिंझोड़ते हुए एक दिन वह बोला--" माँ,,,,, माँ, मुझे भी मुखौटा दिलवा दो ना।"
"क्या करेगा तू उसका ?" माँ ने पूछा।
"किसी को डरा दूँगा, किसी को मूर्ख बना दूँगा ।"बालक ने भोलेपन से कहा।
" ख़बरदार, जो ऐसा किया। तेरे पिता से तो मैं पहले ही दुखी हूं ।" कहकर वह फूट पड़ी ।
नन्हा देर तक दीवार पर टंगे पिता के चित्र को घूरता रहा। ****
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क्रमांक - 073
लेखन की विधाएँ - गद्य और पद्य दोनों में
प्रकाशित पुस्तकें -
सांझा संकलन : -
संदल सुगंध,
लम्हों से लफ्ज़ों तक,
सहोदरी सोपान,
अल्फाज़ ए एहसास (काव्य संग्रह)
सफर संवेदनाओं का,
आसपास से गुजरते हुए,
लघुतम-महत्तम,
सहोदरी लघुकथा २,
समकालीन प्रेम विषयक लघुकथाएं
समय की दस्तक ( लघुकथा संग्रह)
दूसरी पारी (आत्मकथात्मक संस्मरण संग्रह)
पुरस्कार/सम्मान : -
"शुभतारिका"पत्रिका में मेरी कहानी "सात वचन" को 2017 में तृतीय पुरस्कार
विशेष : -
वर्तमान में महिला काव्य मंच लुधियाना इकाई में महासचिव
और गृहस्वामिनी में पंजाब एम्बेसडर के रूप में कार्यरत हूँ।
डाक का सम्पूर्ण पता -
445, न्यू किदवई नगर, भाटिया फ्लोर मिल्ज़, गली न. जीरो, लुधियाना 141008 पंजाब
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रसोईघर से आ रही खुशबू से एकदम नींद खुल गई सुहानी की। आज तो रविवार है, उसे स्कूल भी नहीं जाना और न ही पापा को दफ्तर, फिर यह मम्मी क्यों सुबह सुबह रसोई में घुस गई। वैसे तो छुट्टी के दिन दस बजे से पहले कभी नहीं उठती। फिर आज क्या खास बात हो गई, जो सात बजे ही रसोई में घुस गई। आँखे मलते मलते बारह वर्षीय सुहानी कमरे से बाहर आ गई।
"अरे! उठ गई बेटा, चल जल्दी से नहा धो ले। फिर मेरी जरा सी मदद तो कर दे।" सुनीता ने सुहानी की आहट सुनते ही कहा।
" क्या बना रही हो मम्मी सुबह सुबह?"
"आलू और काशीफल की सब्जी बना दी है। बस हलवा भी बनने वाला। तू बस पूरी निकालने में मेरी मदद कर देना। पंडित जी नौ बजे तक आ जाएंगे। आज तेरी दादी माँ का श्राद्ध करना है न। जा जल्दी नहाकर आ जा। तेरे पापा भी आते होंगे फल और मिठाई लेकर बाजार से।"
सुहानी चुपचाप कमरे में आ गई। स्टडी टेबल पर उसकी दादी माँ के साथ एक तस्वीर लगी थी। जिसे देखते ही आँखों में आँसू आ गए। दादी माँ आज से छह महीने पहले उसे छोड़कर इस दुनिया से चली गईं थीं। बहुत रोई थी वह दादी के चले जाने पर। पर मन को संतोष भी था कि दादी को अपनी लम्बी कैंसर की दर्दनाक बीमारी से मुक्ति मिल गई थी। वैसे भी वह कौन सा सुख भोग रही थी? मम्मी को अपनी किट्टी पार्टियों और सहेलियों के साथ घूमने फिरने से ही फुर्सत कहाँ थी? पापा भी बस नाम के लिए दवा दारू करवा रहे थे। महंगे इलाज की वजह से वह भी धीरे धीरे लापरवाह होते जा रहे थे।
"लाडो," दादी उसे प्यार से इसी नाम से पुकारती थी।" मेरी बात तो सुन जरा। आज मम्मी को बोल कि जरा सूजी का हलवा बना दे। देख, मेरा नाम न लेना कि दादी बोल रही। नही तो मेरी तबीयत का बहाना बनाकर मना कर देगी। बस दो चम्मच ला देना मुझे चुपके से। बहुत मन कर रहा कुछ मीठा खाने को।"
बस जाने से दो दिन पहले ही तो कहा था दादी माँ ने। सुहानी ने बोला भी था मम्मी को , पर मम्मी रविवार को बनाने का वादा कर व्यस्त हो गई अपने काम में। पर उससे पहले ही...।
" दादी माँ, मुझे माफ कर दीजिए। मैं आपकी छोटी सी इच्छा भी पूरी नही कर पाई। पर आज आपका श्राद्ध है न। तो जो भी पंडित जी को खिलाएंगे, वह आप तक भी पहुँचेगा। ऐसा सब लोग कहते। तो आज आप जी भर कर खाना दादी माँ।" यह कहते कहते सुहानी तस्वीर को सीने से लगा जोर जोर से रो पड़ी। *****
2. पासपोर्ट
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उससे मेरी दोस्ती फेसबुक पर ही हुई।ऋषभ नाम था उसका। मुझे दीदी ही कहता था। कैसे हुई दोस्ती, अलग किस्सा है। फिर कभी सांझा करूंगी। कहानी कहता था स्टेज शो ज़ में। पर उस दिन उदास था वह। गिटार की धुन भी सुनाई उसने मुझे। फिर कहने लगा "आपने हाल नही पूछा मेरा। पीछा छुड़ा रहे हो क्या?"
"नही तो।" नौकरी करते हो क्या?"
" मुझे कौन देगा नौकरी, पासपोर्ट तो देते नही।"
"क्यों?"
"कहते हैं कि बाल कटवाओ पहले, उग्रवादी लगते हो। भारतीय बनकर आओ।"वह मायूस होकर बोला।," मैंने भी कह दिया कि शेविंग करा के भारतीय बन जाऊंगा तो शूट क्या खाक करूंगा?"
"तो कटवा दो,इसमें क्या परेशानी है? बालों का योग्यता से क्या लेना देना?"
" मेरा काम लोगों का मनोरंजन करना है, तो कुछ अलग दिखना चाहिए न? कैमरे को आकर्षित करने वाले चेहरे चाहिए। पर ये अधिकारी लोग अड़े हुए मेरी शक्ल और बालों को लेकर। अब मैं सलमान खान या शाहरूख खान तो हूँ नही और न ही मेरे पास इतना पैसा कि इनके मुँह मार सकूँ। मैं तो बस एक जार तक सीमित छोटी मछली बन गया हूँ जिसे ये बड़ी मछलियाँ बाहर निकल समुद्र में जाने का मौका कभी नही देंगी।" उसके बाद एक बेचारगी भरी खामोशी छा गई थी। *****
3.दुआ
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" आशीष, लो पकड़ो अपना टिफिन। जल्दी करो देरी हो जाएगी स्कूल के लिए। फिर मैडम अंदर नही घुसने देगी स्कूल में।"
पर सातवीं कक्षा में पढ़ने वाला आशीष तो अभी आराम से जूतों के फीते बाँधने में लगा था। अभी तो कल शाम को दोस्तों के साथ जन्मदिन पर की गई मौज मस्ती उसकी आँखों के आगे घूम रही थी। सब कितने खुश थे। कितने अच्छे से सज संवर कर आए थे। केक काटा, गेम्स खेली और फिर खूब बढ़िया बढ़िया पकवान खाए। गाने और डांस में रात के बारह बज गए। माँ ने हिदायत दी जाकर सोने की और खुद बिखरा समान समेटने में लग गई। पर आशीष की आँखों में नींद कहाँ? उसके सारे मित्र महंगे से महंगा तोहफा देकर गए थे। गेम्स, टिफिन, घड़ी, परफ्यूम और न जाने क्या क्या। ये सब देखने के बाद रात दो बजे सोया तो सुबह उठते हुए सात बज गए।
आज तो कक्षा में गणित का टेस्ट होना था। अरे बाप रे जन्मदिन के उत्साह और भागदौड़ में जरा सी भी तैयारी न हो पाई थी।
"अब तो गया तू बच्चू ! मीना मैडम नही छोड़ेगी। कोई बहाना नही सुनेगी। अब तो किसी की दुआएँ ही तुम्हें बचा सकती।"
बस यह सोचते सोचते भागा गाड़ी की ओर जहाँ ड्राइवर काका उसका इंतजार कर रहे थे माँ के हाथ से टिफिन लगभग छीनते हुए।
"अरे वाह, यह तो निमिष द्वारा दिया गया गिफ्ट वाला नया टिफिन है। और माँ के हाथ के बने गर्मागर्म आलू के परांठे।" तभी लाल बत्ती पर गाड़ी रूक गई।एक तो वैसे ही देरी हो रही, ऊपर से टेस्ट की चिंता। तभी किसी ने गाड़ी का शीशा खटखटाया। बाहर एक दस साल की बच्ची हाथ फैलाए खड़ा था।
"बाबू, एक दस रुपए दे दो, सुबह से कुछ नही खाया , बहुत भूख लगी है । भगवान आपका भला करेंगे ।"
ड्राइवर काका उसे दुत्कार कर भगाने को थे, पर आशीष को न जाने क्या सूझा , हाथ में पकड़ा नया टिफिन उस भिखारी बच्चे को पकड़ा दिया खिड़की खोलकर। हरी बत्ती हो जाने के कारण ड्राइवर काका ने चिल्लाते हुए गाड़ी आगे बढ़ा दी। पर आशीष मंद मंद मुस्कुरा रहा था। किसी की दुआएँ जो उसे मिल गई थीं। ****
4. पदोन्नति
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जैसे ही मिसेज नमिता ने स्टाफ रूम में कदम रखे, सब की व्यंग्य भरी निगाहें उनकी तरफ उठी। चूंकि आज पहला पीरियड खाली था, तो सबको अभिवादन कर चुपचाप बच्चों की कापियाँ जाँचने लगीं। मिसेज सविता ने सुनाने के बहाने मिसेज अमिता को सम्बोधित करते हुए कहा," सुना है कि प्रधानाचार्य जी ने उपप्रधानाचार्या की पदवी के लिए मिस आँचल का नाम चयन समिति के आगे रखा है।"
मिसेज नमिता ने कुछ भी प्रतिक्रिया नही प्रकट की। कुछ कहती भी कैसे , कल ही तो प्रधानाचार्य जी ने उन्हें अपने पास बुलाकर उपप्रधानाचार्या जी के पद के लिए उनका नाम चयन समिति के आगे रखने के लिए उनकी सहमति माँगी थी और उन्होंने खुशी खुशी हाँ भी कह दी थी। इतना ही नही यह बात उन्होंने आधी छुट्टी के समय सारे स्टाफ को भी बताई थी।
पर आज विद्यालय आते ही सारा खेल बदल चुका था। जैसे ही वह मुख्याध्यापक के दफ्तर अभिवादन के लिए पहुँची, दरवाजे पर पहुंचते ही अंदर से आ रही वार्तालाप की आवाज़ से वह बाहर ही रुक गई।
" सर! आप निश्चिंत रहें, आपके भाई साहब का टेंडर अवश्य पास हो जाएगा। वह फाइल मेरे जीजा जी के पास ही गई है। आपका काम निश्चित रूप से हो जाएगा।" यह मिस आँचल की चहकती आवाज़ थी।
" हाहा, हमें पता था कि आप हमारा काम अवश्य करवा देंगी। आखिर हमने भी तो उपप्रधानाचार्या के पद के लिए कल शाम हुई चयन समिति की बैठक में मिसेज़ नमिता का नाम हटाकर आपके नाम का प्रस्ताव रख दिया है। अब मिसेज़ नमिता को कैसे समझाना है , यह आप हम पर छोड़ दीजिए।"
और दोनों की हंसी के ठहाकों में मिसेज़ नमिता को मात मिलती दिखाई दे रही थी। *****
5. प्रतियोगिता
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"हैलो आशना! और सुना भई, कैसी चल रही तेरी अंतरविश्वविद्यालय संगीत प्रतियोगिता की तैयारी? सुना है इस बार प्रथम पुरस्कार पचास हजार रुपए का है और स्कालरशिप भी दे रहे उच्च शिक्षा के लिए विजेताओं को।" रवीना बिना रुके बोले जा रही थी जैसाकि उसकी आदत थी, जब वे दोनों कक्षा की ओर जा रही थीं।
"नही , मैं इस बार प्रतियोगिता में भाग नही ले रही।"
"क्या? पर क्यों? मैंने तो यही सुना था कि हमारे कालेज की तरफ से रवि सर तेरे ही नाम का प्रस्ताव रखने वाले हैं।" बहुत ही हैरान होकर रवीना ने पूछा।
"तुम्हें पता है न रागिनी वर्मा, जिसके पिता जी का पिछले महीने देहांत हो गया था, वह भी इस प्रतियोगिता के लिए एक सशक्त दावेदार है। पर कुछ दिनों तक हालात की वजह से वह प्रेक्टिस पर नही आ सकी, तो रवि सर ने उसका नाम नही सुझाया। पर मुझे लगता है कि उसमें मुझसे ज्यादा काबलियत है और उसे अपने उज्जवल भविष्य के लिए ऐसे ही अवसर की जरुरत है।"आशना ने एक लम्बी साँस छोड़ते हुए कहा।
"तो...क्या मतलब है तुम्हारा...कहीं तुमने....?"
" ठीक समझी तुम। मैंने अपना नाम वापिस ले लिया है और सर को बोल दिया है कि मेरे गले में इनफेक्शन होने के कारण डाक्टर ने गाने से मना कर दिया है।" बड़े ही आत्म संतोष के साथ आशना ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया और कक्षा की ओर कदम बढ़ा दिए। ****
6. सौदा
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दोनों दामाद बैठक में ताश की बाजी में मस्त थे। ससुर की तबीयत ज्यादा खराब होने पर या यूँ कहिए कि अंतिम समय पास जानकर सास ने अपनी दोनों बेटियों को बुला भेजा था। डाक्टर भी जवाब दे चुके थे। बेटा तो कोई था नही, तो अंतिम समय कोई तो पास हो कम से कम गंगाजल मुँह में डालने के लिए।
" मुकेश भाई, यह बाबू जी तो बस एक दो दिन के ही मेहमान हैं।आगे सोचा कैसे करना?
"मतलब क्या है राजेंद्र तुम्हारा?"
"देखो भाई, सीधी सी बात है। इस साल भुवन को किसी बड़े कालेज में इंजीनियरिंग में दाखिला दिलाना है। करीब दस लाख का खर्चा है। मैं तो रेनू से बोलकर बाबू जी को मदद के लिए कहने ही वाला था कि यह अनहोनी हो गई।" राजेंद्र ने मुँह लटका कर कहा।
"यार , सच बताऊँ तो मैं खुद बहुत परेशान हूँ। यह नोटबंदी के बाद तो सारा काम धंधा ही चौपट हो गया है। सविता भी यही कह रही थी कि बाबू जी से बात करेगी। पर अब..।"
"तो अब क्या मुकेश भाई, अब तो अच्छा मौका है। सासुजी कौन सा अकेले रह सकती हैं? और फिर अब वो कौन सा ज्यादा जीने वाली हैं? दमे की मरीज तो हैं ही।ले देकर साल छह महीने की मेहमान हैं। पचास लाख की आसामी तो होंगे ससुर जी। रख लेते हैं बारी बारी। पचास लाख में सौदा बुरा भी नही।" हुकुम का इक्का फैंकते हुए राजेंद्र बाबू बोले और दोनों के चेहरे पर मक्कारी भरी मुस्कान आ गई। ****
7. चुप्पी
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बिल्कुल अकेले बैठे कमरे में घुटन होने लगी थी। बालकनी में आकर खड़ा हो गया पुष्कर। बाहर वैसा ही घनघोर अंधेरा था जैसा उसके मन में व्याप्त था अकेलेपन और पश्चाताप की भावना से भरा हुआ। तीस वर्षों में उसने भी तो नीलू को यही दिया था शादी के पवित्र रिश्ते की एवज में। दो बच्चों और सास ससुर की मौजूदगी के बावजूद भी वह हमेशा अकेली ही रही क्योंकि महरूम थी पुष्कर के प्यार और साथ से। अधिकाधिक धन कमाने की लोलुपता और बस सामाजिक दायरे में अपना रुतबा बनाए रखने की उसकी अदम्य चाह ने बच्चों को भी उससे दूर कर दिया था। युवराज और स्नेहा शादी और करियर में स्थापित हो आस्ट्रेलिया जा चुके थे। बूढ़े माँ बाप का साया भी सिर से उठ चुका था। ऐसे में एक दिन पड़ोसी अमर सिंह के फोन ने उन्हें सकते में डाल दिया था।
"पुष्कर जी,मैं अमर सिंह.. जल्दी से घर आइए। "
"अभी मीटिंग में व्यस्त हूँ। कहिए क्या काम है?"
"अभी अभी मेरी पत्नी रेनू आपके घर किसी काम से गई थी। दरवाजा खुला ही था। अंदर ड्राइंग रूम में भाभी जी औंधे मुंह गिरी पड़ी थी। तुरंत पड़ोस के डाक्टर मिस्टर जुनेजा को बुलाया, तो उन्होंने चेकअप करने के बाद बताया कि भाभी जी ने तनाव खत्म करने वाली और नींद की गोलियां ज्यादा मात्रा में ले ली हैं जिसकी वजह से....।" उसके बाद गहरी लम्बी चुप्पी छा गई थी...हमेशा के लिए।****
8.सहूलियत
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"अरे भाई, दो किलो आलू, दो किलो प्याज, एक किलो मटर और एक किलो गोभी तोल दो। साफ साफ डालना सब्जी और भाव भी जरा ठीक ठीक लगाना ,पिछले सप्ताह बहुत महंगी लगाई थी तुमने । सब पता है मुझे, समझे न?" मिसेज कोठारी साप्ताहिक सब्जी मंडी में चीख चीख कर बोल रही थीं।
"अरे आप भी यहीं आती सब्जी लेने मिसेज़ कोठारी!"अचानक पीछे से आकर मिसेज़ शर्मा ने पूछा तो सकपका गई मिसेज़ कोठारी आखिर पिछली किट्टी में ही तो बहुत बड़ी बड़ी हाँकते हुए बता रही थी सबको " हमारा तो एक हजार एकड़ तक फैला हुआ फार्महाउस है शहर के बाहरी हिस्से में और उसमें आर्गेनिक खेती होती है। वहीं से लाते और इस्तेमाल करते हैं हम। हम नहीं खाते ये साप्ताहिक बाजार में बिकने वाली सस्ती दूषित सब्जियाँ। हमारे जानू और बच्चे तो एक बार खाते ही बीमार हो जाते इनको।" ****
9. वफादारी
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आँख खुली तो खुद को हस्पताल के बिस्तर पर पाया राजेंद्र प्रसाद ने। सिर दर्द से फटा जा रहा था। दिमाग पर बहुत जोर डालने पर भी कुछ याद नहीं आ रहा था। तभी एक नर्स वहाँ आई।
"कैसे हैं अब आप?"
"मैं यहाँ कैसे..?"
" घबराइए नहीं, थोड़ी देर पहले स्कूटर से जाते हुए शायद गर्मी में चक्कर आ जाने की वजह से आप संतुलन खो बैठे थे और कोई आपको न केवल यहाँ छोड़ गया, बल्कि खून देकर आप की जान भी बचाई। आपके परिवार को भी सूचित कर दिया है उसने।"
अब कुछ कुछ याद आ रहा था राजेंद्र प्रसाद को । शुक्र है भगवान् का वरना सारा परिवार तो शादी के सिलसिले में बंगलौर गया हुआ था।
" पर कौन है वो? "
नर्स बाहर जाकर उस शख्स को बुला कर लाई तो राजेंद्र प्रसाद की आँखें शर्म से जमीन में ही धंस गई। यह उनकी दुकान पर ही काम करने वाला आनंद था, जिससे पिछले महीने ही ग्राहक से हिसाब किताब में भूल हो जाने पर मात्र एक सौ रुपये का नुकसान होने पर यह कह नौकरी से निकाल दिया था," तुम साले अँगूठाछाप लोग इसीलिए आगे नहीं बढ़ सकते जिंदगी में कभी भी। नाली के कीड़े हो तुम जैसे लोग जो कभी सड़क पर चलने के भी काबिल नहीं हो।" ****
10.अंधेरों तले रोशनी
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आज दफ्तर में अजीब सी हलचल रही सारा दिन। नए बॉस सुधांशु जी जब से आए थे, सभी उनकी तारीफों के पुल बाँधने में लगे थे, पर सुहानी को तो बड़ा असहज सा लग रहा था। दरअसल सुबह से जितनी बार सुहानी का उनसे सामना हुआ था, बहुत अजीब नजरों से अपनी तरफ देखते महसूस किया था बॉस को। खैर जैसे तैसे काम निपटा दफ्तर से बाहर निकली, तो बूँदाबाँदी शुरू हो गई। एकदम से अंधेरा भी हो गया शाम के छह बजे ही। उफ्फ कोई आटो भी नजर नहीं आ रहा था।
"मिस सुहानी, कहाँ जाना है आपको? बैठ जाइए मेरी गाड़ी में, मैं छोड़ देता हूँ आपको घर तक।"सुधांशु जी ने एकदम से गाड़ी सामने लाकर खड़ी कर दी।
"हुँह, पहले दिन ही बुरी नजर रख रहे मुझ पर.. ।"अभी सोच ही रही थी कि बॉस ने वही बात दोहरा दी। कोई रास्ता न देख सिमटकर गाड़ी में बैठ गई। जल्दी में गाड़ी का दरवाजा भी ढंग से बंद नहीं किया। सुधांशु जी ने जैसे ही गाड़ी का दरवाजा बंद करना चाहा, कमीज की जेब से पर्स नीचे गिर पड़ा। सुहानी ने जैसे ही पर्स उठा कर पकड़ाने की कोशिश की, एक तस्वीर हाथ में आ गई।
"यह क्या, यह मेरी तस्वीर सर के पास कैसे? पर मैंने ऐसे आधुनिक कपडों में कोई तस्वीर कब खिंचवाई..?"अभी यह उथल पुथल चल ही रही थी मन में कि सुधांशु जी की बात ने चौंका दिया," यह हिना है, मेरी छोटी बहन। आज से दो महीने पहले देर रात को पब से लौटते हुए कुछ गुंडों के हाथों बलात्कार की शिकार हो गई और ...।"इसके बाद गला रूंध गया बॉस का," आज दफ्तर में तुम्हें देखा, तो यकीन ही नहीं हुआ एक पल के लिए भी कि तुम कोई और हो..क्या मैं तुम्हें बहन कह सकता हूँ?" आकाश में बादल गहरे हो रहे थे, पर सुहानी के मन का अँधेरा छंट चुका था। ****
11.अनोखा स्वाद
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जैसे ही रेनू बिस्तर से उठी, अचानक सिर में तीव्र दर्द महसूस होने लगा। हिम्मत कर रसोई में जाकर चाय बनाकर पी और दवाई गटक ली। आज बहुत काम था क्योंकि शादी की दसवीं वर्षगांठ के उपलक्ष्य में पति मुकेश ने अपने अभिन्न मित्र नीरज और उसके परिवार को दोपहर के खाने पर बुला रखा था। उफ्फ कैसे होगा सब..लगता है नाक कट जाएगी। फिर पता नहीं क्या हुआ कि नींद सी गहराने लगी और फिर से सो गई।
दोपहर के बारह बज रहे थे घड़ी में।"ओह ! यह क्या हुआ, मैं दवा लेकर फिर से सो गई। हड़बड़ाहट में बाहर आई , तो सुखद आश्चर्य हुआ कि मुकेश ने बच्चों अंश और रूचि के साथ मिलकर सारा घर संवार दिया था। रसोई घर से पकवानों की महक आ रही थी। ," मम्मा, शादी की सालगिरह मुबारक हो। आपकी तबीयत ठीक नहीं थी शायद तो आप सो गई थी।"अंश ने प्यार से कहा।
"अरे मेमसाब, चिंता काहे करती हो? बाबू जी के साथ मिलकर छोले, भरवाँ भिंडी और पनीर बना दिए हैं। बस भठूरे कच्चे निकाल दिए हैं। मेहमानों के आने पर तल लेना। अच्छा अब मैं जाती हूं, रीटा मैडम इंतजार कर रही होगी।"
तारा बाई कहकर निकल गई, तो मुकेश ने पास आकर कहा, " इतना हैरान क्यों हो रही डियर?सब कुछ तैयार है। अरे हम भी कम थोड़ी किसी से? अच्छा तुम तैयार हो जाओ। वो लोग आते होंगे। मैं बाजार से केक और मिठाई ले आऊँ तब तक।" प्यार से रेनू के चेहरे पर हल्की चपत लगाकर मुकेश निकल गए और रेनू आज के खाने के अनोखे स्वाद के बारे सोचकर मुस्कुरा दी। ****
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क्रमांक - 074
जन्म : 11 जुलाई 1953 , अलीगढ़ - उत्तर प्रदेश
शिक्षा : एम. कॉम , पत्रकारिता में उपाधि
प्रकाशित पुस्तकें : -
लघुकथा संग्रह : मेरी सौ लघुकथाएं
सम्पादित लघुकथा संकलन : पड़ाव और पड़ताल ( आठ भाग )
उपन्यास: देहाश्रम का मनजोगी, बेस्वाद मांस का टुकड़ा, वंश, रेत होते रिश्ते, सेज गगन में चांद की, आखेट महल, अकाब, जल तू जलाल तू, राय साहब की चौथी बेटी, ज़बाने यार मनतुर्की।
कहानी संग्रह: अंत्यास्त, थोड़ी देर और ठहर, ख़ाली हाथ वाली अम्मा, सत्ताघर की कंदराएं, प्रोटोकॉल।
आत्मकथा (तीन खंड): इज्तिरार, लेडी ऑन द मून, तेरे शहर के मेरे लोग।
सम्प्राप्ति : पूर्व प्रोफ़ेसर(पत्रकारिता व जनसंचार) एवं निदेशक, ज्योति विद्यापीठ महिला विश्वविद्यालय, जयपुर (राजस्थान)
पता : बी -301 , मंगलम जाग्रति रेसीडेंसी, 447 कृपलानी मार्ग, आदर्श नगर, जयपुर-302004 - राजस्थान
जन्म : 2 अगस्त सन् 1942 को पाकिस्तान के रावलपिण्डी के एक गाँव अस्मानखट्टड़
पिता -स्व. श्री विशेशर नाथ ढल
माता -श्रीमती वीरांवाली ढल
पति - स्व श्री मोहन लाल
शिक्षा : -
प्रारम्भिक शिक्षाप्रा.विद्यालय बरेली रोड, हल्द्वानी
ललित महिला विद्यालय से हाईस्कूल और विद्या विनोदिनी
पत्रकारिता- पत्रकारिता महाविद्यालय लाजपत नगर दिल्ली
कहानी लेखन- कहानी लेखन महाविद्यालय अम्बाला छावनी
साहित्यक यात्रा : -
biography of asha shailee
पहली रचना-छटी कक्षा में पहली प्रकाशित रचना एक उर्दू ग़ज़ल सन् 1960 में दिल्ली से निकलने वाले हिन्दी मिलाप में प्रकाशित हुई।
सम्प्रतिः-
आरती प्रकाशन की गतिविधियों में संलग्न,
प्रधान सम्पादक, हिन्दी पत्रिका शैलसूत्र (त्रै.)
प्रकाशित पुस्तकें : -
1.काँटों का नीड़ (काव्य संग्रह ) 1992
2. एक और द्रौपदी (काव्य संग्रह 1993)
3. सागर से पर्वत तक (ओड़िया से हिन्दी में काव्यानुवाद) प्रकाशन वर्ष (2001)
4.शजर-ए-तन्हा (उर्दू ग़ज़ल संग्रह-2001)
5.एक और द्रौपदी का बांग्ला में अनुवाद ( एक द्रौपदी नाम से 2001),
6.प्रभात की उर्मियाँ (लघुकथा संग्रह-2005) 7.दादी कहो कहानी (लोककथा संग्रह,) 2006
8.गर्द के नीचे (हिमाचल के स्वतन्त्रता सेनानियों की जीवनियाँ) 2007
9. हमारी लोक कथाएँ, छ: भाग -2007
10.हिमाचल बोलता है (हिमाचल कला-संस्कृति पर लेख-2009
11.सूरज चाचा (बाल कविता संकलन-2010)
12.पीर पर्वत (गीत संग्रह-2011)
13.आधुनिक नारी कहाँ जीती कहाँ हारी (नारी विषयक लेख-2011)
14.ढलते सूरज की उदासियाँ (कहानी संग्रह-2013)अमेज़न पर
15..छाया देवदार की (उपन्यास-2014) अमेज़न पर
16.द्वन्द्व के शिखर, (कहानी संग्रह 2016) अमेज़न पर
17. ‘हण मैं लिक्खा करनी’ (पहाड़ी कविता संग्रह) 2017
18.चीड़ के वनों में लगी आग (संस्मरण-2018) उपन्यास छाया देवदार की अमेज़न पर।
19. कोलकाता से अण्डमान तक (2019) बाल उपन्यास अमेजन
20. इस पार से उस पार (बाल उपन्यास) डायमण्ड बुक्स द्वारा स्वीकृत
21.नर्गिस मुस्कुराती है (ग़ज़ल संग्रह अमेज़न पर)
22. मैं हिमाचल हूँ (शोध लेख अमेज़न पर)
23. भविष्य प्रश्न (कविता संग्रह अमेज़न पर)
सम्मानः-
- उत्तराखण्ड सरकार द्वारा (21 हज़ार की राशि सहित) सम्मानित तीलू रौतेली पुरस्कार 2016
- पत्रकारिता द्वारा दलित गतिविधियों के लिए अ.भा. दलित साहित्य अकादमी द्वारा अम्बेदकर फैलोशिप -1992,
- साहित्य शिक्षा कला संस्कृति अकादमी परियाँवां -प्रतापगढ़ द्वारा साहित्यश्री’ 1994,
- अ.भा. दलित साहित्य अकादमी दिल्ली द्वारा अम्बेदकर ‘विशिष्ट सेवा पुरस्कार’ 1994,
पानीपत साहित्य अकादमी द्वारा आचार्य की उपाधि 1997,
- साहित्य शिक्षा कला संस्कृति अकादमी परियाँवां से आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी’ सम्मान 1998,
- हिन्दी भाषा भूषण सम्मान , साहित्य मण्डल ,श्रीनाथद्वारा राजस्थान 2006,
- हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग द्वारा महादेवी वर्मा सम्मान, 2007 में।
- हिन्दी भाषा सम्मेलन पटियाला द्वारा हज़ारी प्रसाद द्विवेदी सम्मान 2008,
- साहित्य मण्डल श्रीनाथद्वारा (राज) सम्पादक रत्न 2009,
- विक्रमशिला हिन्दीविद्यापीठ द्वारा भारतीय भाषा रत्न 2011,
- विक्रमशिला विद्यापीठ द्वारा राष्ट्रगौरव सम्मान 2013,
- विश्व हिन्दी रचनाकार मंच द्वारा शहीद स्मृति सम्मान 2019।
वर्तमान पताः-
साहित्य सदन, इंदिरा नगर-2, पो. ऑ. लालकुआँ, जिला नैनीताल - 262402 उत्तराखण्ड
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दूर से चलकर आने के बाद पैरों में फफोले भी थे और जलन भी। थकान से शरीर भी टूट रहा था और धैर्य भी जवाब दे रहा था लेकिन मंजिल अभी दूर थी, बहुत दूर। अथवा यूँ कहें कि अदृश्य थी, आँखों से ओझल थी फिर भी अपरिचित नहीं थी। वह जानता था कि उसकी मंजिल अभी बहुत दूर है और रास्ता भी-----?
घबरा कर उसने आँखें बंद कर लीं और वहीं उबड़-खाबड़ धरती पर बैठ गया। अभी उसे बैठे थोड़ी देर ही हुई थी कि उसने सुना, ‘‘आँखें खोलो पथिक, देखो! मैं क्या लाई हूँ तुम्हारे लिए।“
उसने चौंक कर आँखें खोलीं, सामने एक कुर्सी थी और उस पर रखा था चमकता-दमकता एक पात्र। बोलने वाला कौन था, यह समझने से पहले ही आवाज फिर आई, ‘‘क्या देखते हो, मेरे पीछे देखो। रास्ते में फूल ही फूल हैं। बस मुझे तुमसे जो चाहिए, उसकी कीमत बहुत छोटी-सी है।“ उसने देखा, आवाज़ कुर्सी से आ रही थी क्योंकि कुर्सी के पीछे मखमली कालीन पर फूल बिछा थे। जहाँ फूल समाप्त हुए थे, वहाँ उसकी मंजिल मुस्कुरा रही थी। तभी उसने देखा, एक दूसरा रास्ता भी था जो कुर्सी को बचाकर मंजिल तक पहुँच रहा था, लेकिन वह उसके अब तक के रास्ते की तरह कंकर-पत्थरों से भरा और लम्बा भी था।
वह पलटकर फिर कुर्सी की तरफ देखने लगा, ‘‘क्या कीमत चाहिए तुम्हें अदृश्य?“ उसने पूछा।
‘‘तुम्हारा स्वाभिमान! मुझे तुम्हारा स्वाभिमान चाहिए पथिक। यदि तुम इस पात्र को अपने स्वाभिमान से भर दो तो आओ! मेरी गोद में बैठ जाओ। तुम्हें एक पग भी नहीं चलना पड़ेगा। मंजिल स्वयं तुम्हारे पास आएगी।“
उसने देखा, फूलों का रंग लहू की तरह था, अचानक उसे उन फूलों से दुर्गंध आने लगी। वह चुपचाप उठा और अपने जाने पहचाने रास्ते पर चल पड़ा। ****
2. अपना अधिकार
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‘‘बेटी, कोई बात थी तो हम से कहा होता।’’ सरपंच बड़े प्यार से बोला।’’
‘‘क्यों चाचा, क्या बाप की सम्पत्ति में मेरा हिस्सा नहीं बनता?’’
‘‘बनता है बेटी, बिल्कुल बनता है, पर अपने भाइयों के बच्चों के बारे में भी तो सोच। इनके पास बहुत ज्यादा तो है नहीं, बस गुज़र-बसर लायक ही है।’’
‘‘इन्होंने मेरे बच्चों के बारे कितना सोचा है? क्या इन्होंने सोचा कि इसका पति नहीं रहा और इसके पास आमदनी का कोई दूसरा रास्ता नहीं तो यह बच्चे कैसे पालेगी? सोचा क्या इन्होंने?? उल्टा मेरा पैसा दबाकर बैठ गए।’’ शीला का आक्रोश दबाए नहीं दब रहा था,
‘‘बाप के मरने के बाद मैंने इनके घर में नौकरी ही तो की है, क्या अपना फर्ज़ समझकर इन्होंने पढ़ाया मुझे? वरना आज शायद मेरी कहीं नौकरी लगी होती और मैं अपने बच्चों का पेट भरने लायक तो होती। जहाँ ब्याह दिया, मैंने निभा लिया। आज जब मेरा पति नहीं रहा और इनकी चिकनी-चुपड़ी बातों में आकर मैंने बीमे की रकम इन्हें सौंप दी तो यह मेरे पैसे ही मारने के चक्कर में पड़ गए हैं? एक महीने में पैसे लौटाने की बात कहकर आज पाँच साल से मुझे घुमाए जा रहे हैं। बोलती हूँ तो कहते हैं कि हमने कब लिए पैसे, तेरे पास क्या सबूत है? मैं भाइयों को क्या अस्टाम पर लिखवा कर पैसा देती? पैसे लेते हुए तो ये मेरे भाई थे न??’’ शीला दम लेने के लिए रुकी, सारे पंच बड़े ग़ौर से उसकी बात सुन रहे थे।
‘‘जब इन्होंने बेईमानी की बातें कीं तो मैं क्यों न माँगू अपने बाप की सम्पत्ति में हिस्सा? मैं बेईमानी तो नहीं कर रही, बस अपना हक माँग रही हूँ।’’
‘‘अगर ये तेरा पैसा लौटा दें तो?’’ सरपंच ने पूछा
‘‘समेत ब्याज के! पूरे पाँच साल के ब्याज समेत। बैंक में रखे पैसे पर मुझे ब्याज मिलता और तीन लाख के ब्याज से मेरा घर चल जाता। अब मैं इन्हें बिना ब्याज नहीं छोड़ूँगी।’’
‘‘हम ब्याज समेत शीला का सारा रुपया वापस लौटा देंगे। हमें समय दिया जाए।’’ बड़े भाई ने लाखों की सम्पत्ति हाथ से निकलती देख पैंतरा बदला।
‘‘ठीक है, 15 दिन के भीतर रकम का प्रबंध करो। रकम तुम्हें पंचायत में जमा करनी है और तुम यह भी याद रखना कि अब शीला के पास तुम्हें पैसा उधार देने का सुबूत भी है। हम सब इसके पक्ष में गवाही देंगे, क्योंकि तुमने पंचायत में पैसा उधार लेने की बात को स्वीकारा है। तुम लोगों के बेईमानी करने पर अब वह अपना पैसा और पिता की सम्पत्ति दोनों ही ले सकती है।’’ पंचायत प्रधान का उत्तर था। ****
3. पराई बकरी
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अपनी सहकर्मी के खिलापफ़ जब वह बहन को खूब भड़का चुका तो विजयी अंदाज़ में छाती पफुलाता बाहर निकल गया।
हालाँकि उसे पता था कि अब उसकी बहन के घर में खूब महाभरत मचेगा और इससे बहन के स्वस्थ्य पर भी प्रभाव पड़ सकता है क्योंकि उसकी बहन पहले ही डिप्रेशन की रोगी थी परन्तु इस बात से उसे क्या लेना-देना। उसे तो आग लगानी थी सो...
उसकी बात का असर वही हुआ जो वह चाहता था। भला ऐसी कौन स्त्रा होगी जो अपने पति को हाथ से निकलता देख सकती थी?
दूसरे दिन उसका बहनोई उसके सामने भरा बैठा था, ‘‘तुमने ऐसा क्यों किया?’’
‘‘जीजा जी.......’’ बह हड़बड़ा गया।
‘‘क्या जीजा जी? तुम अच्छी तरह जानते हो कि तुमने सरासर झूठ बोला है। एक तो रिष्ते में वह मेरी बहन लगती है दूसरे वह मेरी गुरु भी है। जानते हो मैं उसकी कितनी इज़्ज़त करता हूँ और तुमने कितना घिनौना आरोप लगाया है। आखि़र तुम्हें क्या मिला इस सपफ़ेद झूठ से?’’
‘‘आप को पता है कि मेरी तरपफ़ उसके तीन हज़ार रुपए निकलते हैं। वह माँगती ही रहती है, उस दिन हम लोग जान-बूझ कर वृन्दावन चले गए ताकि वह झख मार कर लौट जाए और साल-दो साल बाद जब पिफर आएगी तो कुछ और बहाना बनाकर टाल दूँगा, पर वह तो गली में खड़ी होकर गालियाँ देने लगी। इससे मेरी छवि बिगड़ी और मुझे लोगों के सामने शर्मिंदा होना पड़ा।’’
‘‘और उसके लिए तुमने उसकी छवि बिगाड़ी। चलो यह तो मान लिया, पर साथ ही मेरी जो छवि बिगाड़ी है तुमने उसका क्या? अरे मूर्ख, तुमने तो अपनी बीमार बहन के बारे में भी नहीं सोचा। अदि वह डिप्रेशन में चली गई तो?’’
‘‘उसे तो आप मना ही लेंगे।’’ वह बेशरमों की तरह हँस दिया।
‘‘वाह रे मेरे वीर बहादुर। क्या सूरमाओं का काम किया है? उस विध्वा और बेरोजगार औरत के तीन हज़ार रुपए मार कर तुमको बहादुरी का स्वर्ण पदक तो मिलना ही चाहिए न? पड़ौसी की बकरी मारने के लिए अपनी दीवार गिराना तो कोई तुमसे सीखे।’’
‘‘तो आप ही दे दो उसे तीन हज़ार रुपए।’’ कहकर वह उठकर दूसरे कमरे में चला गया। ****
4. संस्कार
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पटना से दिल्ली लौटने के लिए राजधनी ट्रेन में हमारी सीटें बुक थीं। मैं और मेरी बड़ी दीदी जब सीट नम्बर देखते हुए अपनी सीटों की ओर बढ़े तो हमने देखा, मेरी सीट पर लगभग तीन-चार वर्ष का एक प्यारा-सा छोटा बच्चा बैठा हुआ था।
पूरी सीट पर उस परिवार का सामान पफैला हुआ था। मैंने सामान एक ओर सरका कर बैठने के लिए थोड़ी सी जगह बनाई तो बच्चा अचानक चिल्ला उठा, ‘‘दिखाई नहीं देता? वहाँ पर हमारा सामान है।’’
मैंने हँसी-हँसी में बच्चे के एक खिलौने पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘इसे तो हम ले जाएँगे। क्यों, दोगे न?’’
बच्चा पिफर से चिल्ला उठा, ‘‘बुढ़ियों की समझ में नहीं आता क्या? मैं क्या कह रहा हूँ?’’
मैं हक्की-बक्की होकर बच्चे को और कभी उसके पढ़े-लिखे दिखाई देने वाले माता-पिता के चेहरे देखने लगी, जो बच्चे की बात सुनकर बेशर्मी से हँस रहे थे।****
5. कारगिल और काया
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कारगिल को थोड़ा ही समय बीता था। लोगों में उसी को लेकर अक्सर चर्चा रहती थी। हमारे घर परिवार में भी चर्चा का विषय रहता कारगिल। ऐसे में यह एक शब्द सबके मुँह पर ऐसा चढ़ गया था कि तकिया कलाम ही लगने लगा था।
उस दिन हम कुछ मित्र किसी आवश्यक कार्य से जा रहे थे, हमने टैक्सी तय की और अपने सफ़र पर रवाना हो गए। टैक्सी का चालक एक नितांत दुबला-पतला, सूखे से चेहरे वाला, जवानी में ही बुढ़ाया हुआ लड़का था। हिमाचल प्रदेश का आन्तरिक पिछड़ा क्षेत्र, कच्ची और ऊबड़-खाबड़ सड़क। उस सड़क पर टैक्सी धचक्के खाती चल रही थी। टैक्सी की गति अधिक होने के कारण धचक्के अधिक लग रहे थे। थोड़ी देर तक तो हम अपनी बातों में व्यस्त रहे परन्तु टैक्सी के धक्कों ने हमें तुरन्त ही सावधान रहने को विवश कर दिया। लड़का टैक्सी बहुत तेज़ गति से चला रहा था।
‘‘अरे बेटा, थोड़ा धीरे चलो।’’ एक मित्र ने कहा तो उसने गति कुछ हल्की कर दी किन्तु दस मिनट बाद ही गति फिर वहीं आ गई। सम्भवतया उसे तेज़ चलने की आदत थी। दोबारा टोकने पर दस-पन्द्रह मिनट टैक्सी की गति फिर नियन्त्रित रही, फिर वही ढाक के तीन पात।
टैक्सी की गति के कारण हम लोगों के सिर-बाजू इधर-उधर टकरा रहे थे। बार-बार टोकने पर भी जब टैक्सी की गति तीव्र होती रही तो मैं खीज कर बोली, ‘‘क्या बात है, कहीं कारगिल के यु( में जा रहे हो जो इतनी जल्दी हो रही है........?’’
मैं अभी कुछ और कहती कि लड़का बड़े ही दुखित अंदाज़ में ‘‘मैं अगर जाना भी चाहूँ तो मुझे कौन फ़ौज में भर्ती कर लेगा?’’ कहकर अपनी दुबली-पतली काया को निहारने लगा। हम सब एक दूसरे का चेहरा तक रहे थे। ****
6. ज़रूरत
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पिछले बीस वर्षों से सोमनाथ जी अपनी संतान से अलग रह कर अपना जीवन गुज़ार रहे थे। पत्नी के देहान्त के बाद घर में बात-बात पर होने वाले अपने अपमान को वह झेल नहीं पाए और अपने स्वयं के बनाए मकानों का मोह छोड़ दूसरे नगर में जाकर किराए के मकान में रहने लगे। किसी दुकान में मुनीमी करके गुज़ारा कर रहे थे।
अचानक एक दिन बड़े बेटे का पफ़ोन आया, ‘‘पापा, घर लौट आइए। हमें आपकी बड़ी याद आती है।’’
‘‘अच्छा! यह बीस साल बाद सूरज किध्र से उग आया है?’’ सोमनाथ के स्वर में व्यंग्य स्पष्ट था।
‘‘नहीं पापा, हम याद तो रोज़ करते थे, पर डर लगता था कि आप नाराज़ होंगे......’’
‘‘हाँ, यह बात तो है, तुम लोग मुझ से बहुत डरते हो। चलो, हो गया। अब असल बात कहो।’’
‘‘वो पापा, आप के पोते की सगाई की जहाँ बात चल रही है, वह लोग आपके अलग रहने पर ऐतराज़ कर रहे हैं। हमारी इज़्ज़त का सवाल है। आप लौट आइए।’’
‘‘अच्छा! तो यह बात है। मैं भी कहूँ यह सूरज किध्र से उग आया? अब अपनी इज़्ज़त अपने आप सम्भालो। मुझे दोबारा अपना अपमान नहीं करवाना है, समझे।’’ कहकर उन्होंने पफोन काट दिया। ****
7. फैसला
*****
रमेश अपने पीछे तीन बच्चे गोमती की गोद में छोड़ गया था। रमेश नौकरी पर जाते हुए मात्रा तीस वर्ष की आयु में एक दुर्घटना का शिकार हुआ और अस्पताल ले जाने से पहले ही चल बसा था।
वह एक बहुत बड़ी पेपर मिल में नौकरी करता था। गोमती का बड़ा भाई वकील का मुन्शी था और गोमती के साथ लगातार मिल के चक्कर लगाता रहा था, इसलिए गोमती को मुआवजे़ की रकम मिलने में अधिक कठिनाई नहीं हुई।
गोमती के हाथ में चैक आते ही तीनों भाई अपनी-अपनी झोली उसके सामने पफैलाए खड़े थे। वह असमंजस में थी कि वह किसे हाँ कहे और किसे ना। उसके लिए तीनों बराबर थे और उनकी पफरमाइश इतनी अध्कि थी कि तीनों को पैसा बाँट देने के बाद उसके पास कुछ भी शेष नहीं बचता। सारी रात वह इसी उधेड़-बुन में सो भी नहीं सकी।
दूसरे दिन, दस बजते ही वह बैंक चली गई। तीनों भाई अभी नहा-धो ही रहे थे।
बैंक से लौटते ही भाइयों ने उसे घेर लिया, ‘‘कहाँ चली गई थी, सुबह ही सुबह?’’ बड़े ने पूछा
‘‘बैंक गई थी।’’ गोमती ठंडे और उदास स्वर में बोली।
‘‘क्यों?’’ मंझले ने पूछा
‘‘अरे यहीं चैक पर दसखत कर देती, हम खुद ही निकलवा लेते। तुम क्यों कष्ट कर रही हो?’’ छोटा बोल उठा।
‘‘मैं पैसे लेने नहीं गई थी।’’
‘‘तो?’’ बड़े का स्वर गले में अटक गया।
‘‘मैं तो पैसा पिफक्स करने गई थी। पैसा तुम्हें देने के बाद मैं बच्चे कैसे पालूँगी, यही सोचकर।’’ और वह चुपचाप उठकर भीतर चली गई। तीनों भाई एक दूसरे का मुँह ताक रहे थे।
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8. मानदण्ड
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वह कलाकारों का विश्रामगृह था। विश्रामगृह के जिस कक्ष में वह चालीस वर्षीय महिला कलाकार ठहरी हुई थी उसके साथ वाले कक्ष में से अचानक हारमोनियम की स्वर लहरी के साथ ही साथ तबले पर थाप भी पड़ने लगी। वह अभी-अभी दूरदर्शन के कार्यक्रम में भाग लेकर वापस लौटी थी। उसके चेहरे पर दूरदर्शन का मेकअप और कलाई में ढेर सारी रंग बिरंगी चूड़ियाँ ज्यों की त्यों थीं। स्वयं को उन मोहक स्वरों में बंध पाकर वह बिना हाथ-मुँह धेए ही साथ के कमरे में चली गई।
दूसरे कमरे में कुछ गायक कलाकार थे जो कल होने वाले कार्यक्रम के लिए रिहर्सल कर रहे थे। उन्होंने महिला कलाकार का स्वागत किया परस्पर परिचय हुआ, तभी महिला का पफोन बज उठा,
बात करने के बाद उसने कहा, ‘‘मेरे बेटे का पफोन था’’,
एक नब्बे वर्षीय कलाकार ने पूछा,
‘‘बेटी तुम्हारे पति......?’’
‘‘वे नहीं हैं।’’ महिला कलाकार के मुख पर एक छाया सी आकर निकल गई।
‘‘तो पिफर ये चूड़ियाँ....?’’
अब तक महिला उन सब से भली भान्ति परिचित हो चुकी थी और उसे पता चल चुका था कि वे सज्जन भी विध्ुर हैं अतः सहज हँसी बिखराती कहने लगी, ‘‘अंकल जी! जहाँ तक मैं जान पाई हूँ, आप की पत्नी भी नहीं हैंऋ क्या मैं ठीक कह रही हूँ?’’
‘‘हाँ बेटी....’’ वृ( की आँखें नम हो आईं।
‘‘तो पिफर क्या मैं पूछने की ध्ृष्ठता कर सकती हूँ कि आपने किस वस्तु का परित्याग किया है?’’
वृ( झक्क सपफ़ेद वस्त्रों में तो थे ही, उनके बाल भी रंगे हुए थे और बदन भी इत्रा से महक रहा था।*****
9. यथार्थ
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भरी बैठी थी जैसे रेशमा। देर से बोले जा रही थी और पंच हक्के-बके उसके तमतमाए हुए चेहरे को तके जा रहे थे। आखिर सरपंच को बोलना ही पड़ा,
‘‘पर रेशमा, तुम यह क्यों भूल रही हो कि औरत ध्रती होती है और उसमें ध्ैर्य की कमी नहीं होती। ध्रती में हल चलाए जाते हैं। बारूद से उसके भीतर के पत्थर तोड़कर उसे उपजाऊ बनाया जाता है और वह अपने पुत्रों को भरपूर अन्न-पफल देती है। भूल जाती है वह कि ध्रती पुत्रा यानि किसान ने हल से उसका सीना चीरा था, वह उसे अन्न क्यों दे।’’
‘‘ठीक कहते हैं सरपंच साहब आप। पर आप भी भूल रहे हैं कि वही ध्रती खाद और पानी की माँग करती है। हमें पफसलों पर कीट नाशक भी छिड़कने पड़ते हैं। हर पफसल के बाद गोबर-पानी से उसे भरपूर करना होता है और अगर किसान लगातार उससे लेता ही लेता रहे तो वह एक दिन बंजर हो जाती है। उसकी गोद में काँटेदार झाड़ियाँ उग आती है और वहाँ जंगली जानवर, साँप-बिच्छू आदि बसेरा कर लेते हैं जो आदमी के लिए नुकसान देने वाले होते हैं। इसी तरह औरत भी होती है, परन्तु औरत ध्रती से कुछ ज्यादा चाहती है। वह अन्न-पानी के इलावा मान-सम्मान और प्यार भी चाहती है।
अब अगर मैं ध्रती हूँ तो मैं भी बिना खाद-पानी और ठीक तरह की देख-भाल के बंजर हो गई हूँ। मुझे भी अन्न-ध्न चाहिए। इसके अलावा छत भी चाहिए।’’
दर असल रेशमा ने बेटे बहू के व्यवहार से दुखी होकर पंचायत में खर्चे का दावा किया था। जिसके कारण सारे पंच उसे समझाने में लगे हुए थे कि वह अपनी हठ छोड़ दे और घर में जाकर बहू के साथ समझौता कर ले। सरपंच का कहना था कि यह तो घर-घर की कहानी है और घर की बात चौराहे पर नहीं लानी चाहिए। जिसके उत्तर में रेशमा बिपफर गई थी। ****
10. परम्परा
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‘‘देखिए चाचा जी, आप ही समझाइए न बाबू जी को। हर रोज़ कामना से किसी न किसी बात पर ठान लेते हैं और निपटना मुझे पड़ता है। दफ्ऱतर से लौटते ही उसका रोना झेला नहीं जाता।’’
‘‘बेटा, कामना को भी तो समझाओ कि वह बड़ों से सभ्यता से बात किया करे।’’
‘‘चाचा जी, कामना नए ज़माने की लड़की है, उसे पुरानी परम्पराएँ रास नहीं आतीं तो बाबू जी को ही समझौता करना पड़ेगा न? आज हर युवा पुरानी परम्पराएँ तोड़ रहा है, अगर कामना भी कुछ ऐसा ही करती है तो.....’’ कमल ने बात अधूरी छोड़ दी।
‘‘ठीक है मैं भाई साहब से बात करूँगा, लेकिन मैं गारन्टी नहीं दे सकता कि वह मेरी बात मान ही लें।’’
‘‘देखिए चाचा जी, कामना को तो मैं नाराज़ कर नहीं सकता। आखिर मुझे उसके साथ जिन्दगी गुजारनी है। बाबूजी तो वैसे भी अब बूढ़े हो चुके हैं। दो नहीं तो चार-छः साल और हैं। आप उन्हें समझाइए, आखिर बिना पुत्रा के उनको अग्नि कौन देगा?’’
‘‘कहते तो तुम ठीक हो, देखो, कोशिश करता हूँ।’’ कहकर रामदास खाट से उठ गए। वैसे उन्हें इस हल्की सर्दी में ध्ूप में बैठना अच्छा लग रहा था। इशारा समझकर कमल भी उठ गया और मूछों पर ताव देता हुआ घर की ओर हो लिया। भीतर जाकर उन्होंने बहू से भोजन माँगा तो बहू ने दूसरे कमरे से ही उन्हें सुनाते हुए कहा, ‘‘कोल्हू का बैल समझते हैं, जब इन को जरूरत पड़े तभी भोजन-पानी चाहिए।’’ पिफर जोर से चिल्लाते हुए बोली, ‘‘लाती हूँ,’’ और थाली जोर से मेज पर पटक कर पिफर वापस चली गई। रामदास सोच रहे थे कि वह भाई से क्या कहेंगे। उन्हें भी तो मुखाग्नि चाहिए।
थोड़ी देर बाद जब दोनों भाई इस समस्या पर बात करने बैठे तो बड़े भाई ने कहा, ‘‘राम! यदि परम्परा बदलने की ही बात है तो चलो अस्पताल चलते हैं।’’
‘‘क्यों भइया?’’
‘‘अरे तुम चलो तो सही।’’ और दोनों भाई रिक्शा पर बैठकर जिला अस्पताल चल दिए। वहाँ जाकर बड़े भइया ने अध्किरी से बात करके देहदान के दो पफार्म भरवाए और दोनों भाइयों ने उन पर हस्ताक्षर करके अस्पताल को अपने शरीर दान कर दिए। घर लौटते समय दोनों भाई अपने को बहुत हल्का अनुभव कर रहे थे। ***
11. शेष बचा
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शान्ता को ये कटोरियाँ बहुत पसन्द थीं। विवाह के बाद जब पहली दीपावली से पहले राकेश उसे बाज़ार ले गए तो रिवाज के अनुसार धन-तेरस को कोई बर्तन तो खरीदना ही था।
शान्ता ने वे कटोरियाँ देखीं तो राकेश ने पूरी बारह कटोरियाँ बंध्वा लीं। शान्ता ने कहा भी, ‘छः कापफी हैं।’ लेकिन राकेश ने जवाब दिया, ‘अब तो बंध् गईं।’
बड़े बेटे के विवाह के तुरन्त बाद ही राकेश चल बसे और बेटे ने अलग होने का खटराग लगा दिया। दो छोटे भाइयों का दायित्व वह क्यों सँभालता। पंचायत बुलाई गई, सारे सामान के साथ रसोई घर के बर्तन भी बंटे तो कटोरियों को भी बंटना ही था। चार कटोरियाँ बहू की रसोई में चली गईं।
छोटे का विवाह कर दिया गया, तो छः महीने बाद ही वह भी अलग हो गया, रसोई के बर्तन और कम हो गए, कटोरियाँ भी चार बच गईं और बचा शान्ता के पास एक बेटा और कुछ गिने-चुने बर्तन। शान्ता का स्वास्थ्य गिरने लगा तो शान्ता ने तीसरे बेटे से शादी कर लेने को कहा। बेटा चुपचाप उसका मुँह देख ही रहा था कि शान्ता ने उठकर रसोई के बर्तन गिने और आध्े बर्तन एक ओर निकालकर रख दिए। शेष बची दो कटोरियाँ। बेटा अचकचा गया, ‘‘यह क्या कर रही हो माँ?’’
‘‘यह तुम्हारे हिस्से के बर्तन हैं। शेष बचे हुए बर्तनों से मेरा काम चल जाएगा।’’
‘‘कैसी बातें कर रही हो तुम? मैं किससे अलग होने जा रहा हूँ? अपनी माँ से? नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है?’’
‘‘हो तो रहा है, जब तक वे दोनों बेटे थे तब तक सब ठीक था। जब वे पति बन गए तो अपना भाग लेकर अलग हो गए। शेष बचे में मैंने काम चलाया, अब भी चला लूँगी। बस मुझे एक ही बात कहनी है।’’
‘‘क्या?’’
‘‘जितना शेष बचा है तुम ले जा सकते हो लेकिन मुझे कभी शेष बचा मत समझना। मैं अपने आप में पूर्ण हूँ।’’ ****
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क्रमांक - 076
शिक्षा :एम.ए. हिंदी बी.एड , साहित्य रतन ,आयुर्वेद रतन
संप्रति :स्वतंत्र लेखन व अध्यापन 34 वर्ष बाद सेवानिवृत्त
प्रकाशित पुस्तकें :-
लुटेरे छोटे-छोटे ( लघुकथा संग्रह )
आशा की किरण (लघुकथा संग्रह)
(दोनों लघुकथा संग्रहों पर एम. फील हुई )
मैं हूं साक्षी (काव्य संग्रह )
70 से अधिक सांझा लघुकथा संकलनों में लघुकथाएं प्रकाशित
सम्मान :-
1.सर्वश्रेष्ठ अध्यापक व समाज सेवी सम्मान रोटरी क्लब सिरसा (2004 से 2005) 2.हिंदी सेवी सम्मान हरियाणा प्रादेशिक हिंदी साहित्य सम्मेलन सिरसा (2005) 3.सर्व श्रेष्ठ अध्यापक सम्मान बाबा बिहारी चैरिटेबल ट्रस्ट नेत्रालय (2004)
4.कृष्ण मुरारी गोयल सम्मान जगमग दीप ज्योति (2010)
5.स्वतंत्रता दिवस 2011 हरियाणा के मंत्री के अजय यादव द्वारा सम्मानित
6.डॉ सुरेंद्र वर्मा अवार्ड (मई 2016)
7.सिरसा नगर के लगभग 40 संस्थाओं द्वारा सम्मानित
विशेष: -
- आकाशवाणी रोहतक दूरदर्शन जालंधर मधुबन रेडियो
- अनेक कवि सम्मेलन और लघुकथा सम्मेलनों के आयोजन में सक्रिय योगदान
पता : मकान नंबर 615 गांव डाकघर बांकनेर
न्यू दिल्ली - 110040
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उस राज्य के किसानों ने इतना अनाज पैदा किया कि मंडियों में रखने के लिए स्थान न रहा आरती का कर्जा बच्चों की पढ़ाई विवाह शादी के लिए पैसा चाहिए था लेकिन आज का खरीददार ने व्यापारी थाना सरकार पुरानी गोदाम अनाज से भरे पड़े थे मंडियों से अनाज घरों में वापस आने लगे कई किसानों ने गरीबी से तंग आकर आत्महत्या कर ली जब सरकार को हमारी बातें नहीं सुनती तो हम गरीबों का क्या होगा रोते हुए एक किसान ने कहा नेता व अधिकारी सहानुभूति के लिए आ जुटे राहत का आश्वासन दिया गया विपक्ष भी पीछे नहीं रहा एक विपक्षी नेता कह रहा था जो किसान अन्नदाता है वही भूखा मर रहा है इससे बड़ी दुर्दशा क्या होगी गोदामों में अनाज सड़ रहा था गरीब जनता के लिए राशन की दुकानें बंद कर दी थी गरीब किसान मजदूर सभी दुखी थे सत्ताधारी सत्ता सुख के नशे में चूर थे ****
2.घर वापसी
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डॉ सुधा दिल्ली विश्वविद्यालय में फिजिक्स की प्राध्यापिका थी उसके पति राकेश शर्मा केंद्र सरकार के एक्साइज एंड टैक्स में भाग में इंस्पेक्टर थे दोनों ने माता-पिता की सहमति से शादी कर ली थी शादी के पश्चात सुदा लखनऊ में अपने ससुराल में पहुंची तो देखा राकेश के माता-पिता मकान में अकेले रहते हैं वह रिटायर्ड प्राध्यापक थे राकेश की बड़ी बहन की शादी हो चुकी थी राकेश उनका अकेला बेटा था डॉक्टर सुधा ने घर के हालात देखकर मन ही मन मैंने कर लिया था अब वह लखनऊ में ही अध्यापन का कार्य करेगी उसने एक प्राइवेट कॉलेज में प्रतिवेदन दिया कालेज मैनेजमेंट ने साक्षात्कार के लिए अगले दिन बुला लिया उसका 1 वर्ष का विश्वविद्यालय का अनुभव था वह फिजिक्स की पोस्ट पर सेलेक्ट हो गई नियुक्ति पत्र भी उसे मिल गया आप कल से ही ज्वाइन कर सकती है उसने 15 दिन का जोइनिंग समय मांगा पहले वाली कॉलेज का चार्ज तथा त्याग पत्र देकर आऊंगी कालेज के प्राचार्य ने उसकी शर्त मान ली सुधा ने राकेश को सभी बातें बताइए यह क्या कर रही हो सरकारी कालेज की नौकरी छोड़कर कहां प्राइवेट कॉलेज में धक्के खा रही हो तुमने माता-पिता की हालत देखी कितने बीमार में बूढ़े हो गए हैं क्या हमारा फर्ज नहीं बनता इनकी सेवा करने का तुम भी रीजनल ऑफिस में अपना स्थानांतरण करवा लो यह निर्णय सुनकर राकेश उसका मुंह देखता रह गया 15 दिन बाद डॉ सुधा ने डिग्री कॉलेज में फिजिक्स विभाग में विभागाध्यक्ष के पद पर ज्वाइन कर लिया था राकेश ने भी एक महीने बाद रीजनल ऑफिस में ज्वाइन कर लिया 1 दिन केदारनाथ की पत्नी पति से कह रही थी-,, "बहुएँ बेटो को माता-पिता से अलग कर देती है लेकिन यहां तो हमारी बहू ही हमारे बेटे को घर ले आई "दोनों की आंखों में खुशी के आंसू थे सुधा को भी सास-ससुर में अपने माता-पिता का अक्स दिखाई दे रहा था *****
3.उसका संघ
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श्री नकुल वर्मा को साहित्य के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिए श्रीमती विमला मोहन स्मृति पुरस्कार सम्मानित करते हुए हमें अपार हर्ष हो रहा है हम स्वर्गीय विमला जी के पति श्री प्रकाश मोहन जी से अनुरोध करते हैं कि वह अपने कर कमलों से श्री नकुल वर्मा जी को सम्मानित करें सम्मान समारोह की संचालिका अपर्णा ने घोषणा की प्रकाश मोहन ने साहित्यकार नकुल वर्मा को शाल उड़ाया प्रशस्ति पत्र और ₹11000 का चेक प्रदान किया सभागार तालियों से गूंज उठा संचालिका अपर्णा स्वर्गीय विमला मोहन की विनम्रता साहित्यिक रुचि आदि का परिचय देती रही श्री प्रकाश मोहन पत्नी के संघर्ष में दिनों का सम्मान करते रहे परिवार के लिए जी जान होम करने के पल पल उनके सामने आ गए जब उन्हें बोलने के लिए कहा गया तो उनका घंटा विरुद्ध हो गया उन्होंने हाथ जोड़ दिया और मंच से उतर कर आए उन्हें लगा विमला हाथ पकड़ कर उनके संग सीढ़ियों से उतर रही थी ****
4.एयर टिकट
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वीरेन और उसकी पत्नी वीना ने अपनी इच्छाओं को मारकर पुत्र निखिल और पुत्री अनुपमा को पढ़ाया लिखाया है निखिल बीटेक करके गुरुग्राम में सॉफ्टवेयर इंजीनियर लग गया पुत्री अनुपमा एमबीए करके चंडीगढ़ में नौकरी करने लगे उनकी नौकरियां लगने पर घर परिवार की आर्थिक स्थिति बदल गई अब दोनों बच्चे सेट हो गए हैं अब दक्षिण भारत की यात्रा पर आते हैं वीरेन ने पत्नी से कहा तभी फोन की घंटी बजी निखिल का फोन था कह रहा था पापा आपके विवाह की वर्षगांठ 25 सितंबर को है मैंने गोवा में होटल बुक करा दिया है आपकी एयर टिकट मेल कर दी है प्रिंटआउट निकलवा लेना 24 सितंबर की फ्लाइट है इसकी क्या जरूरत थी बेटे कहते-कहते वीरेंद्र की आंखें छलछला आई उसे लगा उसकी तपस्या पूरी हो गई थी ****
5. जोंक
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सरकारी नौकरी के 35 वर्ष बीत जाने पर विपुल अपनी निस्वार्थ समाज सेवा से संतुष्ट था पत्नी के देहांत के पश्चात उसने बेटों को पढ़ाया लिखाया बड़े बेटे की नौकरी मेडिकल लाइन में लग गई थी दोनों बच्चों को स्वावलंबी बना दिया था घर का सभी कार्य करते हुए नौकरी तथा बच्चों की पढ़ाई में कोई गतिरोध नहीं आने दिया बड़े बेटे की शादी गांव के पुश्तैनी मकान में करने का निश्चय किया गया घर को खूब सजाया था शादी बड़ी धूमधाम से की गई सभी रिश्तेदारों को विपुल ने उपहार देकर विदा किया था शादी के दूसरे दिन भाइयों तथा बहनों ने कहा हमारे और हमारे बच्चों के लिए कपड़े क्यों नहीं लाए विपुल यह सब सुनकर सोचने लगा मैंने भाइयों तथा बहनों को दिया ही दिया है लिया तो कुछ भी नहीं फिर भी यह लोग व्यंग्य कर रहे हैं उसे व्यंग्य बिच्छू डंक की तरह कचोट रहे थे उसे याद आ रहा था बीमार पत्नी मृत्यु से जूझ रही थी इन भाई-बहनों ने ₹1 की सहायता तक नहीं की थी उसने अपनी इच्छाएं मारकर इनकी वर्षों तक सहायता की थी उसे लगा वे भाई बहन नहीं खून चूसने वाली जोंक थे ****
6. स्वतंत्रता का मूल्य
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दादा खेमकरण के सामने समाचार पत्र खुला पड़ा था मुख्य पृष्ठ पर समाचार प्रकाशित हुआ था देश के गुप्त रहस्य बेचने के आरोप में राजनेता गिरफ्तार दादा खेमकरण शब्द से शून्य में देख रहे थे स्वतंत्रता प्राप्ति के आंदोलन में अंग्रेज पुलिस अधिकारी की गोली उनकी टांग चीर गई थी लाठियों की मार से उनका सिर फूट गया था उनके गांव भरने में वर्षों लग गए थे आज उनके वह घाव भरने मे वर्षो लग गए थे उन्हें लगा उनके सिर से फिर रक्त बहने लगा था उनकी टांग फिर से लहूलुहान हो गई है उनके मुंह से केवल इतना ही निकला- "आह! मेरे स्वतंत्र देश के राजनेताओं| " ****
7.लोकतंत्र
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चुनाव प्रचार अभी जोर नहीं पकड़ पाया था न हीं पोस्टर दिखाई देते थे कहीं-कहीं इक्का दुक्का रिक्शा लाउडस्पीकर वाला पार्टी चुनाव प्रचार कर रहा था यह आजादी की स्वर्ण जयंती का और बीसवीं शताब्दी का अंतिम चुनाव है लोकतंत्र की रक्षा के लिए वोट के अधिकार का प्रयोग करें आपका कीमती वोट भारत का भविष्य निर्माण करेगा फिर फिल्मी गीत बजे उठा अपनी आजादी को हम हरगिज भुला सकते नहीं रामू काका अपने मित्र रहीम मियां से कह रहे थे देखो मियां 50 वर्षों बीत गए जैसे कल की बात इस दौरान गरीब और गरीब बन गए अमीर और अमीर क्या गरीबों के वोट बटोर कर उन्हें गुमराह करके अमीर हुकूमत चलाएं यही हमारे शहीदों के लोकतंत्र का प्रतीक है ठीक कह रहे हो भाई रामू जैसा आजादी के लिए सभी भारतवासी एक झंडे के नीचे लड़े आज बनी उन्हें ही अपमान का घूंट पीना पड़ रहा है प्रशासन को अफसरशाही व गुंडा तंत्र ने जकड रखा है लोकतंत्र चलता रहा तो जनता भी इनके पैतरे समझ जाएगी फिर देखना कुछ दिनों के बाद चुनावी नतीजे चौंकाने वाले थे घोटाले में संलिप्त नेता बुरी तरह हारे थे लोकतंत्र पुन अपनी मौजूदगी दर्ज करवा रहा था ****
8. उनको किसी ने नहीं देखा
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नेताजी घूम घूम कर बंधुआ मजदूरों की मुक्ति करा रहे थे जमीदारों के चंगुल से निकलकर मजदूर बेरोजगारी के भंवर में फंस कर दो वक्त की रोटी को तरसने लगे नेताजी का अभियान जारी था एक स्थान पर नेता जी अपने भाषण में कह रहे थे हमने देश से बंधुआ मजदूरी के शोषण को समाप्त करना है तभी इस समस्या का समाधान हो सकता है इस देश से बंधुआ मजदूरी समाप्त करके रहेंगे नेता जी ने बंधुआ मजदूरों को अपने नए कारखानों में नौकरी दी कारखाने की दीवारें ऊंची करवाकर उन पर कटीली तारे लगवा दी तब से उन मजदूरों को किसी ने नहीं देखा ***
9.रोटी का स्वाद
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जेल के सीखचों में बंद उसे जल्दी जल्दी रोटी खाते देख हवलदार जोर से चिल्लाया कैसे खा रहा है जानवर क्या भूखा मर रहा है अरे हवलदार साहब इस रोटी के लिए दर-दर भटकना पड़ता है यह कोई रोटी है इसे तो कुत्ते भी नहीं खाते ऐसा मत कहो इंसान और कुत्ते में अंतर ही कहां रह गया है रोटी कैसी भी हो भूख से पूछो उसका स्वाद कैसा होता है इस रोटी के लिए ही मजदूरी कर रहा था कि ठेकेदार ने दिहाड़ी देने से इनकार कर दिया था झगड़ा यहां तक बड़ा की जेल की हवा खानी पड़ रही है उसकी आंखों में उनके भाव उभरते चले गए ****
10. उपेक्षा
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मुकुल शर्मा ने तीनों के विवाह कर दिए थे सबको मकान बनवा दिए थे रिटायरमेंट के बाद धार्मिक कार्यों में लग गए थे पत्नी बीमार रहती थी कामकाज नहीं कर पाती थी नौकरानी रखनी पड़ी थी बेटे बहूएं अपनी अपनी गृहस्थी में व्यस्त थे उनकी सुध लेने का अवकाश किसी के पास न था नेता मुकुल शर्मा ने जमाना देखा था उन्होंने बेटों से आशा रखी ही नहीं थी इसलिए उन्हें बेटों बहुओं के व्यवहार से पीड़ा नहीं होती थी आप तो पक्के दिल के हो आदमी और औरत में फर्क होता है मैंने इन तीनों को जन्म दिया है पाल पोस कर बड़ा किया है पैसे जोड़ जोड़ कर इन्हें पढ़ाया लिखाया है उनकी बहुओं के बच्चे हुए तो उनकी सेवा में दिन रात एक कर दिया था आज मैं बिस्तर पर पड़ी हूं तो तीनों में से एक को भी मां की सेवा करने की फुर्सत नहीं है पत्नी ने कहा क्यों कलपती है हमारे साथ नया तो हो नहीं रहा है कुछ हां तीनों में से कोई एक ही बहू तेरी सेवा करने आ जाती तो लगता कि जमाना अभी बदला नहीं है भगवान तीनों को सुखी रखे जब तक मैं हूं चिंता मत कर तेरी सेवा में कोई कसर नहीं छोडूंगा तू क्यों बेटों को लेकर चिंता करती है मुकुल शर्मा पत्नी को समझा कर दरवाजे की ओर बढ़ गए उनकी आंखों में आसू भर आए आंसुओं को चुपचाप पोछ डाला ****
11. कर्तव्य बोध
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प्रोफेसर शांत की नियुक्ति इस शहर के राजकीय महाविद्यालय में हिंदी अध्यापक की हुई थी युवावस्था में भी शांत गंभीर प्रकृति के व्यक्ति थे कॉलेज की m.a. की छात्राएं उनके निवास पढ़ने आया करती थी वह कई दिनों से देख रहे थे पढ़ाते समय सीमा पढ़ाई के अतिरिक्त उनकी ओर निहारती रहती थी आखिर युवा मन में एक दूसरे को आकर्षित कर लिया आज सीमा अन्य छात्राओं से काफी पहले आ गई थी दोनों ने एक दूसरे को प्यार भरी नजरों से देखा सीमा जी सर क्या तुम्हें मुझसे हां सर मुझे भी सीमा उनके काफी नजदीक आकर खड़ी हो गई थी दिल में अनेक प्रकार के द्वंद उठ खड़े हुए थे नहीं नहीं यह नहीं हो सकता तुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए चंद पलों के सुकून के लिए अपनी तपस्या नहीं बंद करनी चाहिए क्या नहीं सोचना चाहिए सर कुछ नहीं आज नहीं पढा़ पाऊंगा सिर्फ चकरा रहा है सिर में दर्द भी है क्या दबा दूं सर उसके हाथ उनकी सिर और बड़े नहीं तुम जाओ मैं दवाई लेकर आराम करना चाहता हूं और प्रोफेसर शांत मन को संयमित करने ऊपर के कमरे में चले गए तभी विचारों ने अंगड़ाई ली उन्हें लगा जैसे दीवार पर टंगा डॉक्टर राधा कृष्ण का चित्र उनकी ओर देख कर मुस्कुरा रहा है वे स्वयं को तनावमुक्त महसूस करने लगे ****
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क्रमांक - 077
जन्मतिथि : 15 मार्च 1963
जन्म स्थान: मिर्ज़ापुर, उत्तर प्रदेश
शिक्षा : स्नातक विज्ञान
लेखन : कहानी, लघुकथा और कविता लेखन
संग्रह : -
सहोदरी सोपान
सहोदरी लघुकथा
समय की दस्तक,
अक्षरा
ई-बुक :-
चिकीर्षा
संगिनी
हिंदी चेतना
पुरवाई
लघुकथा - 2019
सम्मान : -
- दिल्ली लघुकथा अधिवेशन में लघुकथा श्री सम्मान
- ब्लॉग बुलेटिन द्वारा आयोजित ब्लॉग साहित्य प्रतियोगिता के कहानी वर्ग में ब्लॉग रत्न सम्मान
- स्टोरी मिरर द्वारा लिटररी कर्नल
- पटना पुस्तक मेला में लेख्य मंजूषा की ओर से कविता पाठ के लिये प्रथम पुरस्कार
- प्रतिलिपि की ओर से ऑडियो कथा वाचन में प्रथम पुरस्कार
विशेष : -
- लेखकीय सफर ऑल इंडिया रेडियो के युवा-वाणी प्रोग्राम में अपनी रचना पढ़ने से हुआ।
- पिछले कुछ वर्षों में फेसबुक पर लघुकथाओं के कई ग्रुप से सक्रिय जुड़ाव
- हिंदी कहानियों के कई ऐप पर भी रचनाएँ हैं जिसमें पाठकों की संख्या चार लाख से ऊपर जा चुकी है।
- कई संपादकों ने अपनी ई-बुक में लघुकथा ,कहानी , कविता संकलन में रचनाएँ संग्रहित की हैं
- एक लघुकथा 'अकल्पित' का चुनाव कर, मातृभारती ने उस पर शार्ट फिल्म बनवाई तथा द्वितीय पुरस्कार से नवाज़ा, फिर गली इंटरनैशनल फिल्म फेस्टिवल में कई देशों की प्रस्तुतियों के बीच, इस फिल्म ने 'बेस्ट स्टोरी' का अवार्ड भी जीता।
- दूरदर्शन बिहार के 'खुला आकाश' और 'बेस्ट माॅम' जैसे प्रोग्राम में उपस्थिति।
पता : अचल, जस्टिस नारायण पथ , नागेश्वर कालोनी,
बोरिंग रोड , पटना- 800001 बिहार
1.दो घूँट जिंदगी के
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अजब गुत्थियाँ हैं इस मन की कि जिस उच्च पदासीन बहू के घर में आने की बात से उनके घर के सब लोग खुशी से झूम रहे थे, उनका अपना मन बैठा जा रहा था। पूरी जिंदगी का सरमाया, सजी-सँवरी किफायती गृहस्थी, नाते-रिश्तेदारों से तारतम्य, बच्चों का उत्तम पालन-पोषण... सब बहू की ऊँची तनख्वाह के समक्ष बौने हुए जा रहे थे। डर सा लग रहा था कि चंद पैसों के लिये जिस तरह पति पर निर्भर रहने की स्थिति रही है, कहीं बहू के सामने भी तो नहीँ हो जाएगी? कहीं हर समय स्वाभिमान से समझौता तो नहीँ करना पड़ेगा? बाहरी दुनिया और पैसे कमाने के बारे में, ज्यादा दिलचस्पी न लेने की अपनी आदत पर अफसोस सा होने लगा था।
शादी की गहमा-गहमी.. जिंदगी सामान्य होने में डेढ़-दो महीने बीत गए। आज बेटे-बहू दोनों को ऑफिस जाना था और वह निर्णय ही नहीं ले पा रही थीं कि उठकर सबके लिए चाय-नाश्ता बनाएँ या चादर लपेट कर पड़ी रहें? यह भी तो अच्छा नहीं लगता था कि बस अपने लिये कुछ पकाकर हट जाएँ! पर फिर कौन करेगा? चिंता तो यह भी थी कि कमाऊ बहू के मान-सम्मान के लिये अपना हर समय का साथी, यह रसोईघर, किसी दाई-नौकर को सौंप, अपने सात्विक खान-पान की आदतों से समझौता ही न करना पड़े अब?
अचानक दरवाजा खटखटाकर उनको पुकारती, किसी तूफान की तरह बहू ने कमरे में प्रवेश किया और चाय की ट्रे लेकर उनके पास पालथी मारकर बैठ गई। "माँ, चाय पी लीजिये। मैंने गोभी के परांठे बना लिये हैं, खाकर बताइयेगा!"
वे अचकचा कर उठ बैठीं, "तुझे आता है यह सब?"
"हाँ, हम तीन फ्रेंड्स एक रूम शेयर करते थे न, मैनेज करके खाना खुद ही बनाते थे। रोज कुछ झटपट वाली डिशेज़ और छुट्टियों में स्पेशल! ठीक है न?"
बच्चों सी सरलता थी बातों में, तो दुलार सा आने लगा था उनको! फिर एक नई ऊर्जा के साथ वह उठ खड़ी हुईं, "जल्दी कर, देर नहीं होनी चाहिए पहले दिन! चिंता मत करना, मैं हूँ यहाँ! हम दोनों मिलकर सब काम निबटा लेंगे। बता तो तुझे क्या पसंद है, शाम को वही बनाकर रखूँगी!" ****
2. नई पीढ़ी की नई सोंच
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स्नेहा के पापा की तबियत खराब होने की खबर न आती तो वो येन केन प्रकारेण, अभी कुछ दिन और यहीं रुके रहने का जतन कर ही लेतीं। कहाँ तो दो महीने की इस नन्ही सी जान को छोड़ कर जाने की उनकी हिम्मत ही नहीं हो रही थी ऊपर से स्नेहा ने बताया कि उसकी छुट्टियाँ समाप्त हो गई हैं और अगले महीने से वह अपने ऑफिस जाना भी शुरू कर देगी। कलेजा मुँह में आ गया। पिछले छः महीने से बेटी के प्रसव के चक्कर में यहीं हैं वह और बच्चे के लिये रखी गई उस प्रौढ़ दाई के रंग-ढंग देख रही हैं। उस औरत पर फूल जैसे बच्चे को छोड़ा जा सकता है क्या? तो क्या बेटी को पढ़ा-लिखा कर समर्थ बनाने और अपने पैरों पर खड़े होने की प्रेरणा देने का यह खामियाजा भुगतना पड़ेगा कि अगली पीढ़ी बेरहम दाई-नौकरों के हाथ पलेगी?
पर उनकी दुश्चिंताओं को तो स्नेहा ने हवा में उड़ा दिया। "अमर रहेंगें न घर में! उन्होंने अपने ऑफिस में बात कर ली है, अब वह 'वर्क फ्राॅम होम' करेंगें और वीक में एक-दो दिन ही ऑफिस जाना होगा।"
भौंचक्की थीं वह, "दामाद जी? भला वह कैसे सँभालेंगें बच्चा?"
"पिता हैं वह, मुझसे कम प्यार थोड़े ही करते हैं इससे! हम मैनेज कर लेंगें माँ, आप बिल्कुल निश्चिंत हो कर जाइये!"
थोड़ी हैरत तो जरूर थी पर तनाव छँटने लगा था। नई पीढ़ी की नई सोंच, पर सक्षम हैं ये लोग! अपने रास्ते बना ही लेंगें। ****
3.आजादी
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जैसे-जैसे रात गहरा रही थी, कमला की छटपटाहट बढती ही जा रही थीं! रम्मा भाभी, कोठी वाली मैडम, बंगाली आंटी... सब की सब उसे घेर कर एक साथ चिल्ला रही थीं... कैंची चुरा लिया, लड्डू चुरा लिया... पिंटू चोर है... बाबू का खिलौना उठा ले गया... वो रोक रही थी सबको... बता रही थी पिंटुआ चोर नहीं है, उसने समझा दिया है उसको... अपनी कसम खिलाई है, अब वह किसी का सामना नहीं छूता। ऐसा कोई काम नहीं करेगा अब वो, पर कोई मानता क्यों नहीं? जब मैडम की फिरिज से लड्डू निकाल कर खाया था, चार बरस का बच्चा था। भूखा रहा होगा... समझ नहीं सका होगा या लड्डू देख कर ललचा गया होगा पर ये बात तो पाँच बरस पुरानी है न? अब बड़ा हो गया है, समझने लगा है, पर बदनामी है कि पीछा छोड़ने को तैयार ही नहीं!
इतनी छोटी सी बात सबको पता भी चल गई और सबने बच्चे के सिर पर मानों लिख ही दिया कि वो चोर है। जिसके भी घर में कुछ खोता है, वो पिंटू का नाम लेने लगता है... फिर वही थुक्का-फजीहत शुरू हो जाती है भले बाद में वो सामान उन्हीं के घर में निकल आए। वो लड़ती है, काम छोड़ कर दूसरे के घर का चौका बरतन पकड़ लेती है पर ये बदनामी वहाँ भी पँहुचने में वक्त नहीं लगाती। बस चले तो मुहल्ला ही छोड़ दे वो, पर फिर काम कैसे चलेगा? दूसरे मुहल्ले में आने जाने के समय में तो एक घर का काम निबटा ले वो।
सुबह से रात होने तक पिंटू को साथ लिए, डाँग-डाँग घूमती रहती है। बाकी दाईयाँ जितने समय में चार घर निबटाती हैं वो सात घर का काम कर लेती है, इसी से जलती हैं उससे वो लोग! ये नहीं दिखाई पड़ता किसी को, कि दो पैसे की लालच में अपने शरीर की तरफ तो देखना ही छोड़ दिया है उसने... पर पैसे का ही कौन सा सुख मिल रहा है उसे.. वह उदास होकर सोंच रही थी, सारा तो पिंटू का बाप ही छीन ले जाता है...
" पोछा मारने में इतना समय लगता है? बता क्या कर रहा था उस रूम में इतनी देर? अलमारी तो नहीं खोली थी?"
"बचपन से चोर है, बड़ा होकर डाकू बनेगा।"
"पलक, उसके साथ मत खेलो। कहीं वैसी ही बन गई तो मैं तो घर से ही निकाल दूँगी तुम्हें!"
आवाज़ें पीछा ही नहीं छोड़ रही थीं उसका! दम घुट जा रहा था तो वह छाती पकड़ कर उठ बैठी, सारा बदन पसीने से तर-बतर था... क्या बन कर तैयार होगा पिंटुआ? थोड़े से पैसों की लालच में क्या बना रही है वो अपने बेटे को?
तो क्या आँगनबाड़ी वाली दीदी की बात ही सही है? उस समय क्यों नहीं समझ में आया था उसे? कल से पिंटू को लेकर कहीं नहीं जाएगी वह, पढ़ाएगी उसको! कल ही सबेरे स्कूल में दाखिला कराएगी उसका। कोने वाला स्कूल सुना है बहुत अच्छा है, वो वहाँ के फादर को जानती भी है। जाकर पैर पकड़ लेगी उनका! तनख्वाह मिलते ही पहले स्कूल में जमा कर आएगी... पल्ले में पैसा बचेगा ही नहीं तो क्या छीनेगा पिंटू का बाप? चमड़ी? तो खींच ले चमड़ी, पर करेगी अब वो अपने ही मन का! मेहनत करती है, कमाती है तो खर्च करने की आज़ादी अगर कोई नहीं देता तो छीन कर ही सही, वह खुद लेगी! इसके लिए अंगारों पर भी चलना पड़े तो चलेगी वह! ****
4. बेटी
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रास्ता चलते-चलते, एकाएक सोना पर नजर पड़ी तो बाँछें खिल गईं उनकी। क्या मस्त बॉडी है! फँस जाए ये लड़की तो लाइफ़ में कलर आ जाएँ! जाने कबसे ख्वाब सजाए बैठे हैं इसके, पर ऐसे केवल मन में सोचते रहने से क्या होगा? चलो, उसके साथ बातें-वातें करके देखते हैं कि किस टाइप की लड़की है ये...
"इतनी सुबह-सुबह कहाँ जा रही हो सोना?"
सोना अपने इस पड़ोसी को पहचानती थी, अतः निःसंकोच साथ चलने लगी।
"बीमारी की वजह से मेरी कई क्लासेज छूट गई थीं। सर के पास रिक्वेस्ट करने जा रही हूँ, शायद कुछ दिन वे मुझे ट्यूशन देने को तैयार हो जाए!"
"अरे, पहले क्यों नहीं बताया? कंपनी में जॉब करने से पहले मैं भी तो स्कूल में ही पढ़ाया करता था। आ जाना घर पर, सारी तैयारी करा दूँगा।"
"सच्ची..?"
सोना खुश हो गई थी। कब खाली हैं आप?"
मछली तो कांटे में फँसने को तैयार ही बैठी थी। उनका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। चिर अभीप्सित पूरा करने के लिए परिस्थितियाँ भी साथ दे रही थी मानों, कि पत्नी और बच्चे भी कुछ दिनों के लिए बाहर गए हैं और वह घर में बिल्कुल अकेले हैं।
दिमाग उधेड़-बुन में व्यस्त हो गया। कब बुलाएँ इसे? अभी? पर नहीं, सड़क पर इसके साथ चलते हुए अभी तो पता नहीँ किसने-किसने उन्हें देख लिया होगा! फिर कामवाली के आने का झंझट रहेगा... बारह-एक का समय सबसे बढ़िया है, जब सब लोग काम पर चले जाते हैं और सड़कें सूनी रहती हैं! ज्यादा से ज्यादा ऑफिस से छुट्टी लेनी पड़ेगी, तो ले लेंगे!
निकले तो थे नाश्ते के लिए ब्रेड और अंडे लेने, पर मिठाई और चॉकलेट भी बँधवा लिया। मुदित मन घर लौट रहे थे, जैसे हवा में विचर रहे हों... कि आज तो इस लड़की को शीशे में उतार कर ही रहेंगे! अचानक बगल से गुजरते ऑटो रिक्शा ने इतनी तेज ठोकर मारी की उछलकर वह मुँह के बल दूर जा गिरे और हाथ का सारा सामान इधर-उधर बिखर गया। होश था अभी, शक्ति भर लोगों से अनुरोध भी किया, पर जो कोई मदद को आगे नहीं आया तो समझ गए, यहीं तक थी जिंदगी! फिर वाकई सब कुछ समाप्त हो गया।
पता नहीं कब चेतना लौटी। शरीर दर्द कर रहा था, कमजोरी भी बहुत थी पर गफलत में भी लोगों की बातचीत के स्वर कानों में प्रवेश कर रहे थे...
"बेटा आप इन्हें बहुत सही समय पर ले आईं वरना इनका बचना मुमकिन नहीं था। खून बहुत बह चुका है।"
"डॉक्टर अंकल, ठीक तो हो जाएँगे न ये?"
अरे, ये तो सोना की आवाज थी। उन्होंने धीरे से आंखें खोली...
"अब कोई खतरा नहीं है! देखिये, उन्हें होश भी आ रहा है!"
डॉक्टर ने कहा तो जल्दी से उनके पास आ, सोना अपने नर्म हाथों से उनका सर सहलाने लगी।
"कैसे हैं अंकल आप?"
पता नहीं क्यों, अपने वजूद से घृणा सी हुई। फिर कुछ सोंचकर उन्होंने धीरे से अपना हाथ उठाकर सोना के हाथ पर रख दिया।
"ठीक हूँ बेटी!" ****
5. नर्क
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रामानुज का पार्थिव शरीर घर आया तो एक बार फिर से चीख पुकार मच गई। उसकी बीबी की बेहोशी, बच्चों का बिलबिलाना, उनसे देखा नहीं जा रहा था। मन चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था, इसके जिम्मेदार वह है.... और कोई नही, बस वही हैं... वो एक ऐसा राक्षस निकले जो अपने भाई को ही लील गया, कि क्या उनको पता नहीं था कि उसका मकान और खेत सबकुछ गिरवी पड़ा है और इस बार की उसकी खड़ी फसल, बारिश नहीं होने से बर्बाद हो गई है? पर वह ऐसा कदम उठा लेगा, कब सोंच सकते थे वह?
आत्मग्लानि फाँस बन कर गले में अटकी हुई थी। कल ही तो रामानुज उनसे कर्जा चुकाने के लिए, दो लाख रुपये माँगने आया था। उन्होंने कह दिया, उनके पास है ही कहाँ इतना रुपया, जो दे दें? सारा पैसा तो बेटे राकेश की पढ़ाई में पहले ही लगा चुके हैं। क्या करते, रामानुज के प्रति शिकायतें भी तो बहुत थीं मन में! अब सोंचते हैं तो लगता है, बँटवारे के पहले वाला समय कितना अच्छा था जब दोनों भाई मिलजुल कर खेती करते थे। कितना प्यार था आपस में, फिर पता नहीं कब, दिलों के बीच दूरियाँ ऐसी बढ़ीं कि एक- दूसरे की हर बात खराब ही लगने लगी। शिकायतें बढ़ी और रंजिशों में बदल गईं। अपने पाँच बच्चों का हवाला देकर, उसने आधे से ज्यादा खेत हथियाने की कोशिश की, उनके दुश्मनों के साथ उठक-बैठक की... पास में पैसे नहीं थे तो कर्जा लेकर अपनी तरफ का मकान पक्का कराने की क्या जल्दी थी उसको?
पर अब ये सारी बातें, सारी सोंच, बेबुनियाद क्यों लग रही है? दे ही दिया होता दो लाख.. तो उनका भाई फांसी लगाकर यूँ तो न लटक गया होता! हत्या का ये पाप तो नहीं आता उनके सर पर? कितनी बड़ी गलती हो गई है उनसे! वो जानते हैं कि अगर चाहते तो बचा सकते थे उसे... कि राकेश से पैसा मंगाया जा सकता था, या कहीं से और से, कुछ न कुछ इंतजाम तो हो ही जाता! पर क्यों नहीं किया? अपने हाथों मार दिया छोटे भाई को, एक बार उसके चेहरे की तरफ ध्यान से देखा भी होता उस समय, तो उसके मन की बात पढ़ ही लेते!
याद आने लगा था बचपन का वह सारा प्यार-दुलार! आत्मग्लानि अब क्रोध में बदल रही थी, सिर को दीवार पर दे मारें या वह भी फाँसी लगाकर रामानुज के बगल मे लेट जाए? क्या करें? कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा, ऐसे नहीं जिया जा सकता...
तीन-चार घंटे से कड़ी धूप में घूमते- घूमते अब उबकाइयाँ और चक्कर से आने लगे थे उनको। वह जानते हैं, बाहर शव के पास उनका उपस्थित न होना, उठकर बाहर चले आना, भाइयों की दुश्मनी की दास्तान को और भी ज्यादा हवा दे रहा होगा पर फिर भी, रामानुज के निर्जीव शरीर की तरफ देखने की हिम्मत ही नहीं थी अंदर में! क्या करें? कैसे वापस ले आएँ अपने रामानुज को?
प्रायश्चित करेंगे अब वह! घर या जीवन त्याग कर नहीं, यहीं पर रह कर! मन ढेर सारे निर्णय लेने में व्यस्त था... रामानुज का खेत-मकान छुड़ाकर, उसके परिवार का लालन-पालन और बच्चों को उनके पैर पर खड़ा कराना अब उनकी जिम्मेदारी है। राकेश को भी विदेश से वापस बुलाना पड़ेगा। बताना होगा कि बड़े इंजीनियर हो तो अपनी विद्या गाँव के दुख-कष्ट दूर करने पर खरचो, विदेशियों को समृद्ध बनाने में नहीं! रामानुज, तुम्हारी शहादत बर्बाद नहीं जाएगी... देखना इस गांव का कोई रामानुज अब आत्महत्या नहीं करेगा। ****
6. मत होना सावित्री
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वही बारिश में धुले धुले, ताजगी भरे पेड़ हैं, वैसा ही जिंदगी से भरा हुआ एक मोर अपने परों को फैला कर नाच रहा है और घर के पीछे स्थित पार्क की ये वही बेंच है, जिस पर बैठ कर कुछ समय मौसम की खूबसूरती का रसास्वादन करने के लिए, पिछले साल, उनकी सावित्री उन्हें खींच कर ले आई थी और वह आदतानुसार उसके इस पागलपन, बुढ़ापे में भी पीछा न छोड़ने वाले इस बचपने पर बुरी तरह से खीझ उठे थे।
अजीब सी बात है, उस समय उनके पास कितने सारे जरूरी काम हुआ करते थे पर एक सावित्री के जाते ही सब कुछ कैसा उल्टा-पुल्टा हो गया है... कि उनका काम, मेहनत से कमाए हुए पैसे, उनके मित्रगण, उनका बेटा और यहाँ तक कि उनकी अपनी आदतें... हर वो चीज जिससे जीवन भर उन्होने बहुत प्यार किया था, अब नीरस लगने लगी है और हर वो चीज जिसे कभी किसी गिनती में ही नहीं लिया, मसलन सावित्री का सुबह-सबेरे से उठ कर न जाने कितने कामों में स्वयं को झोंक देना, उसका बनाया वो खाना, उसका सुरीला स्वर, दस बार उनकी डाँट सुनने के बाद भी उनकी हर सुविधा की ध्यान रखना, उसकी सादगी, रात में थक-हार कर बगल में आकर सो जाना... और उसका वो पूरा का पूरा व्यक्तित्व ही, जिसको उन्होंने उसके जीते-जी अक्सर गौण समझ, नकारा ही था आज मुठ्ठी से फिसलते ही उनको कंगाल क्यों बना गया है? यहाँ तक कि यह खूबसूरत मंजर, पिछले साल उन्होने इसको ठुकराया था न, आज पता नहीं क्यों, बर्दाश्त ही नहीं हो रहा है कि आँसुओं से धुँधलाई आँखों को सँभालते, घर के पिछले दरवाजे से वह वापस अपने कमरे में लौट आए।
आस्था और अभिषेक, उनके बेटे बहू को शायद उनके घर लौटने की आहट नहीं मिली थी, तभी तो तेज-तेज आवाज में होती उनकी बहस, दरवाजों-दीवारों को भेदती, उनके कानों तक पँहुच रही थी। जल्दी ही वह समझ गए कि परसों जो दोपहर में आस्था कार लेकर निकली थी, उसके लिये उसने पहले से अभिषेक की इजाजत नहीं ली थी। इससे नाराज अभिषेक दो दिनों से कार की चाभी छुपाकर आफिस जाने लगा था। आस्था गुस्से से कह रही थी, "हम दोनों पढ़े-लिखे लोग हैं। अगर हमें एक दूसरे का कोई भी ऐक्ट पसंद नहीं आता तो बातें करेंगें आपस में, कनविंस करेंगें एक दूसरे को... पर जबरदस्ती लाद नहीं सकते हैं आप मुझ पर अपना निर्णय! आपको मेरी इस तरह बेइज्जती करने का कोई हक नहीं है।"
सीने में गड़ते शूल की तरह फिर सावित्री याद आ गई उनको... शुरु-शुरु में जब वह कपड़े सुखाने छत पर जाती थी तो एक समवयस्क पड़ोसन भी उसी समय छत पर आ जाती थी। जैसे ही माँ ने उनसे शिकायत की कि बहू छत पर रोज पड़ोसन से गप्पें मारने जाती है, उन्होंने इस सिलसिले को रोकने के लिए छत पर ताला बंद कर दिया था और कपड़ों को बालकनी में सुखाने का हुक्म दे दिया था। कुछ भी तो नहीं कहा था सावित्री ने पर उसकी आँखों में वो जो एक दर्द था, जो उनको उस दिन नहीं दिखाई पड़ा था... आज क्यों इतनी तकलीफ दे रहा है? क्या सावित्री के साथ थोड़ा बेहतर व्यवहार हो सकता था? या उसने ही कभी खुलकर बात की होती? कभी विरोध ही करती?
तुम ही सही हो आस्था ! हमेशा इसी समझदारी से अपने अधिकारों के लिये जागरूक रहना...
तुम सावित्री मत होना। ***
7. स्वभाषा
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"व्हेयर आर यू फ्राॅम?"
" मैं टर्की से आया हूँ।"
"व्हाओ, कैन यू स्पीक हिंदी?"
"हाँ, मैं आपके देश का भाषा सीखकर, तब इधर आया।"
"व्हाट अ प्लेजेंट सरप्राइज़! इट्स रियली य ग्रेट गेश्चर।"
"मैं हिंदी समझ भी सकता हूँ।" ****
8.लाड़ो
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लाड़ दिखाते हुए, लेटी हुई अम्माँ के गले में बाँहें डालती हुई वह भी चिपक कर लेट गई।
"कुछ कहना है गुड़िया?
अम्मा ने बाँहों में भरते हुए पूछा तो पता नहीं क्या सोचती, वह पहले तो मुकर गई...
"ऊँहुक्क!"
फिर बोली, "अच्छा अम्माँ, जब तुम छोटी थीं, कौन सी पिक्चर पसंद आती थी तुमको? मतलब ऐक्शन, हॉरर या फिर लव-स्टोरी?"
अम्माँ समझ गईं कि बात कुछ और है, कि कल तक कार्टून और डॉल्स की बातें करने वाली उनकी लाड़ो के प्रश्न आज कुछ बदल से गए हैं। उसका मन टटोलने को कहा, "मुझे तो सिर्फ लव-स्टोरी ही भाती थी।"
आँखें चमक उठी लाड़ो की! "तुमने कभी लव किया था अम्माँ?"
"हाँ क्यों नहीं? बहुत बार हुआ मुझे लव!"
ठठाकर हँस पड़ी वह... "वो वाला नहीं, सच्चा वाला! जो किसी स्पेशल को देखते ही होता है और जिंदगी भर वैसा ही बना रहता है।"
"तुझको हुआ है क्या?" खोजती नजरों से उसकी आँखों में झाँकती अम्मा पूछ रही थीं।
"धत्त्!" पता नहीं क्यों वह शरमा गई।
"कैसा है वह देखने में?" किसी गहरी सहेली की तरह अम्माँ ने पूछा।
"बिल्कुल रणबीर कपूर जैसा!"
अम्मा ने आश्चर्य से देखा, आँखों में दूधिया सपने झिलमिला रहे थे।
"कहाँ मिली थी उससे?"
"स्टेज प्रोग्राम में! बहुत अच्छा गाता है। फिर लाइब्रेरी में भी, अब वह रोज स्कूल जाते समय मोटर-साइकिल लेकर पीछे-पीछे आता है। पहले सोंचा डाँट दूँगी पर अम्माँ, अच्छा लड़का है वह!"
"कैसे पता? कभी बात की है उससे?"
"अभी तक तो नहीं! वही कुछ-कुछ बोलता रहता है, पर मैंने कभी जवाब नहीं दिया।"
"क्या लगता है, सच्चा वाला लव हो गया है तुझे?"
"लगता तो है..."
"फिर तो ठीक है, कल चलती हूँ तेरे साथ। उसके मम्मी-पापा का पता पूछकर शादी की बात चलाऊँ?"
हड़बड़ा कर उठ बैठी लाड़ो... "अरे नहीं! शादी थोड़े न करूँगी! अभी तो मुझे डॉक्टर बनना है।"
उँगली पर जोड़ते हुए अम्माँ ने कहा, " इसमें तो आठ-दस साल और लगेंगे! तब तक पीछे-पीछे घुमाती रहेगी उसे?"
"नहीं, ऐसा तो नहीं!" वह कुछ सोंच में पड़ गई थी।
"वैसे यह कोई बुरी बात भी नहीं! जब तेरी सहेलियाँ अपने हस्बैंड की क्वालिफिकेशन की बात करेंगी, तू बताएगी कि आठ साल से पीछे-पीछे घूमने वाला हस्बैंड कितनों को मिलता है?"
"क्यों फालतू बातें करती हो अम्माँ! मेरा हस्बैंड भी पढ़ा-लिखा होगा।" लाड़ो गुस्सा हो गई थी।
"तो पढ़ाई-लिखाई करने दे न उसे, मना कर पीछा करने से! ये लड़के लोग न, थोड़े कमअक्ल होते हैं। प्यार से बोलेगी तो और घूमेगा, डाँट कर कहना अभी कैरियर बनाए! लव वगैरह के लिए बहुत टाइम है अभी।"
"हाँ, यही ठीक रहेगा, उसके लिए भी और मेरे लिए भी!" लाड़ो ने गहराई से सोंचा और अब अपना निर्णय उसे बिल्कुल सही लग रहा था।****
9.पैसा ये पैसा
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फोन कान में लगाए-लगाए रंजन के पैर काँपने लगे और वो धम्म से जमीन पर बैठ गया । दोनों आँखों से आँसू बह रहे थे और बचपन से लेकर अभी तक की जाने कितनी घटनाएँ आपस में गड्ड-मड्ड होकर मन को मथ रही थीं । मम्मी पापा का वो प्यार, उनकी वो मेहनत और उसके लिये किये गए उनके संघर्ष और त्याग ! पर वो भी तो उनका अच्छा बेटा था, सो पता नहीं कब, उसके उनके सपनों को शिरोधार्य ही कर लिया, कि जी जान लगाकर पढ़ाई लिखाई की, अच्छे नंबरों से परीक्षाएँ पास कीं और विदेश में नौकरी पाने के लिये भी जी जान ही लगा दिया ।
जब विदेश में एक अदद अच्छी नौकरी का कोई हिसाब नहीं बैठा तो उसकी ये कोशिशें जिद में बदल गई । लगता था बस, एकबार वहाँ चला भर जाय .... कि उसके पास योग्यता है जिसकी वहाँ पर बहुत कद्र है ! पैसे भी बहुत मिलेंगें तो सारा दुःख दारिद्य एकबारगी समाप्त हो जायगा ! इस जिद के एवज में अच्छा खासा पैसा लिया बिचौलियों ने, फिर वीज़ा के चक्कर, मँहगे टिकट .... यूँ एक दिन अभीष्ट पर पँहुच तो गया वो, मगर वहाँ कोई हाथ फैलाए उसकी योग्यताओं का इन्तजार करता नहीं मिला । जिंदा रहने के लिये एक हाॅस्पिटल में ग्राउंड ड्यूटी स्टाफ का काम किया । रहने- खाने, हर चीज पर न्यूनतम खर्च कर बैंक में कुछ डाॅलर भी जमा कर लिये । हाँ, इस जद्दोजहद में पाँच साल का समय जरूर बीत गया ।
फिर मम्मी पापा के दबाव के चलते इन्डिया आया था । विदेश में नौकरी करने के कारण उन कुछ दिनों में वो वी आई पी खातिरदारी मिली कि लगा मानों सारा संघर्ष सफल हो गया है पर यह भी समझ में आ गया कि अब तो इस इज्जत को बनाए रखने के लिये वहीं रहना पड़ेगा और वापसी के सारे रास्ते अब बंद हो चुके हैं । उधर कितने ही लड़की वाले घात लगाकर उसकी आमद का इन्तजार कर रहे थे, सो आनन फानन में शादी भी हो गई । पत्नी को साथ रख पाने की प्रक्रिया में भी भारी जद्दोजहद थी, पर वो भी पूरी हुई और विदेशी धरती पर बेटे नमन ने जन्म लेकर उसको पूरी तरह 'सैटल' कर दिया । सब ठीक ही था, बस अब बचत के नाम पर बैंक एकाउंट में महीने के शुरुआती दिनों में ही कुछ डाॅलर्स के दर्शन होते थे बाकी दिनों को यूँ ही काटना अब किस्मत बन गई थी ।
अभी पापा का ये फोन, कि मम्मी इन्तजार करते करते ही गुजर गईं.... कि मृत शरीर की आँखें अभी तक खुली हैं मानों उसका इन्तजार कर रही हों .... चाहा तो जी जान से था उसने, पर पता नहीं क्यों वो आपका अच्छा बेटा नहीं बन सका पापा !
स्वयं को किसी तरह सँभाल, उसने मोबाइल पर अपने बैंक एकाउंट को खँगाला.... बारह सौ डाॅलर थे अभी ! पापा के एकाउंट में उन्हें ट्रांसफर कर, उसकी उँगलियाँ मैसेज बनाने में तल्लीन हो गईं .. "व्यस्तता बहुत ज्यादा है । अभी आना तो नहीं हो सकेगा । आपके एकाउंट में कुछ पैसे भेजे हैं, जरूरत होने पर निकाल लीजियेगा !" ****
10. दर्द का उत्कर्ष
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मैं एक लौकी हूँ। अब ये आपकी इच्छा है कि आप मुझे कितना प्यार करें .... कि मेरा रस तक निकाल कर पी जाएँ या कभी मेरी सब्जी बनाने पर पति या बच्चों से झगड़ा ही हो जाए।
दस से पंद्रह दिनों की जिंदगी होती है हमारी पर इस छोटी सी उमर में ही दुनिया को पहचान लिया है मैंने। आँखें खोली थीं मैंने एक तोतली सी आवाज से ... "अम्मा देखो मेरी लगाई बेल में लौकी आ गई।" मैं उस नन्हीं सी कली को देख कर मुस्कुराने ही वाली थी कि एक साँवला, झुर्रियों से भरा कुरूप चेहरा मेरे सामने आ गया। "लंबी लौकी की बतिया है। जतन करेगी तो खूब बड़ा फल आएगा ।"
"तो क्या रहमत काका इसके ज्यादा पैसे देंगें?"
"नहीं, इस बार टोकरा में सब्जी भर सिर पर लेकर रेल से सहर चलते हैं, वहाँ मुहल्ले मुहल्ले घूम कर कुछ ज्यादा पैसे मिल जाएँगें।"
नन्ही कली ने जरा शर्माते हुए पूछा..."तब क्या तुम हमको मीठी गोली खाने के लिये दो रूपया दोगी?"
अम्मा इसका कोई जवाब देतीं इसके पहले ही अंदर से एक ११-१२ बरस की लड़की निकली जो शायद इसकी बड़ी बहन होगी "शरमन नहीं आती मीठी गोली माँगते? न भइया की दवा बची है न दद्दा की। अम्मा तीन दिन से खेसारी का साग खा के रह रही हैं। हम लोग को खाली नमक और भात मिलता है उहो कल के लिये नहीं बचा है। इहाँ बात बनाने की जगह जा कर लकड़ी सब भीतर करो ... कहीं जो बरसात हो गई रात में तो चूल्हा तक नहीं जलेगा, फिर कच्चा साग खा कर रहना।"
नन्हीं कली का उतरा हुआ मुँह देखकर अम्मा को दया आ गई तो वो उसका मुँह अपनी छाती में दबा कर प्यार करने लगीं.... "अरे मेरी लाड़ो..... कैसी किस्मत ले के आई है। दो बीघा जमीन थी तेरे बाबू के पास। इतनी उपजाऊ कि साल में दो फसल तक हो जाती थी। हमारे घर में इतना धान सत्तू होता था कि कभी कोई भूखा न सोए। वो तो तेरे भाई का मोटर लारी में पैर आ गया तो तेरे बाबू को कर्जा उठाना पड़ा। देवता आदमी थे तेरे बाबू कि हम लोगों की तकलीफ नहीं देख सकते थे। फसल बिगड़ गई और कर्जा चुका नहीं सके तो जहर खा के प्रान ही त्याग दिये। उसका मरने के बाद भी ऊ लोग नहीं सोंचा कि खेत ही छीन लेंगें तो ई छः प्राणी के परिवार का क्या होगा। उधर तेरे भाई का पैर काटना पड़ा इधर तेरा छोटका भाई जो मेरे पेट में था बेसमय मरा पैदा हुआ। जभी से न, पेट में एतना दरद होता है कि बदन सीधा नहीं होता है।"
"इतना दरद रहता है तो बार बार भारी टोकरा उठा के सहर मत न जाया करो।"
"कैसे काम चलेगा? ऊ लोग तुम्हारी बहन के पीछे पड़े हैं। बाकी का कर्जा जल्दी चुक जाए तो ही अच्छा है।" मैने देखा कि उस कुरूप चेहरे की झुर्रियाँ और गहरा गई थीं।
दो नन्हे, दुलार भरे हाथों के स्पर्श से मुदित मैं जल्दी जल्दी बड़ी हो रही थी और फिर वो दिन भी आ गया जब भिंडी, बैंगन और तरोई के साथ टोकरे में लदी मैं एक महलनुमा मकान के सामने खड़ी थी। मुझे लगा शायद सही जगह आ गई हूँ मैं, कि आज मेरा इतना दाम लग जाए .... अम्मा खुश हो कर दो रूपयों की मीठी गोली खरीद ही लें।
"बीस रूपया किलो का भाव चल रहा है मलकिन्नी" अम्मा गिड़गिड़ा रही थी।
"दिमाग चढ गया है ज्यादा ? साठ रूपया एक लौकी का माँग रही हो ? वैसे ही इन्जेक्शन दे देकर तुम लोग इसको फुला देते हो नहीं तो इसमें है ही क्या?"
लम्बे चले भाव ताव के बाद मैं पैंतीस रूपये में खरीद ली गई और उदासी स उन दो जोड़ी कदमों को दूर जाते देखती रही। ****
11. नीम चढ़ा करेला
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गहरे काले रंग की उस मरगिल्ली सी लड़की को किसी ने जब उनसे नौकरी देने की सिफारिश की थी तब हिकारत से उसे देखते हुए उन्होंने सोंचा था कि इससे भला उनका कौन सा काम निकल सकेगा पर महज खाने कपड़े की तनख्वाह पर उसे रख लेना ऐसा कोई मँहगा सौदा भी नहीं था। तब क्या पता था कि बुटीक का झाड़ू पोंछा करते-करते मालती का मन इस काम में ऐसा रमेगा कि तीन-चार साल बीतते-बीतते वो उनके सबसे अच्छे दर्जी का हाथ पकड़ने लगेगी। एक समय ऐसा भी आया था कि एक से एक नये कट के कपड़े को काटने सिलने का काम हो या डिज़ाइनिंग, इम्ब्राॅयडरी का... मालती की बराबरी करना सभी के लिये असंभव होने लगा।
वो उनकी दूकान के सबसे सुनहरे दिन थे पर पता नहीं कैसे, उनकी वो सस्ती-मद्दी कर्मचारी, उनको धोखा दे कर, शहर के नामी-गिरामी बुटीक में जा, सीधा ग्राहकों को डील करने लगी। तिलमिला उठी थीं वह इस चोट से कि एक मालती के जाते ही उनकी दूकान के काम का स्तर ही गिर गया और जाने कितने पुराने-पुराने ग्राहक टूट कर इधर-उधर होने लगे। फिर जब थोड़े दिनों बाद ये खबर आई कि वहाँ भी नहींं टिकी मालती, तो कलेजे को ठंढक सी मिली... जो लोग कहते थे कि उसे नाममात्र के पैसे देकर उन्होंने उससे बेहिसाब काम लिया था और इसीसे वह काम छोड़ कर भाग गई... अब उनको जवाब मिल जायगा। वह स्वभाव से ही धोखेबाज थी, उसे न पैसे रोक सकते थे व्यवहार!
उस दिन शहर की महिला उद्यमी संघ का सालाना जलसा था। घर के बहुत जरूरी कामों से समझौता करके, सबके मना करने पर भी वह वहाँ गई थीं क्योंकि जब से इस संघ की स्थापना हुई है, वह इसके बोर्ड में हैं और डायरेक्टर की हैसियत से यहाँ उनका काफी मान-सम्मान भी है।
उस समय वह मंच पर ही सुशोभित थीं जब मुख्य अतिथि के आने की उद्घोषणा हुई थी। पर दंग रह गईं वह, जब देखा कि इतने बड़े फैशन डिजाइनिंग इंस्टीट्यूट की प्रिंसिपल के नाम पर, संघ की प्रेसिडेंट और सेक्रेटरी से घिरी... वही मालती मंच की ओर चली आ रही है।
एक अव्यक्त ईर्ष्या से कसैला हो गया मुँह.. फिर अचानक वह उठीं, और भीड़ में छिपते-छिपाते मंच के पीछे से निकल कर बाहर आ गईं। ****
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क्रमांक - 078
पुस्तकें : -
1. बगुलाभगत एवम
2. नमस्कार प्रजातंत्र प्रकाशित।
विशेष : -
- 1983से पहले कविता,कहानियाँ लिखी । फिर लघुकथा और लघुव्यंग्य पर कार्य
- दस से अधिक साझा संकलन में लघुकथाऐं प्रकाशित
- रचनाएं गुजराती, छतीसगढ़ी, पंजाबी, अंग्रेजी,मलयालम और मराठी,उडिय़ा में अनुदित।
- पचपन लघुकथाऐं रविशंकर विश्व विद्यालय के शोध प्रबंध में शामिल।
- कनाडा से वसुधा पत्रिका में निरंतर प्रकाशन।
- भारत की हर छोटी,बड़ी पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लेखन और प्रकाशन।
- आकाशवाणी रायपुर और दूरदर्शन से प्रसारण।
पता:
वसंत - 51, कालेज रोड़ ,
महासमुंद - छत्तीसगढ़ - 493445
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बारिश हो रही थी।तालाब मे पानी भरने लगा था।शाम होते ही मेंढ़कों ने टर्राना शुरु कर दिया था।
मेंढ़की ने अपने मेंढ़क से कहा,क्यों जी।यदि अपने तालाब में चुनाव होने लगे तो क्या तुम चुनाव लडोगे?
मेंढ़क संयत स्वर मे बोला-डियर?साँपों के रहते हुए मुझे कौन टिकट देगा?.***
2.याददाश्त
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भाई साहब कह रहे थे,-"क्या बात है,आजकल कुछ याद नहीं रहता..बात करते-करते भूल जाता हूंँ....किसी को बहुत दिनों बाद देखता हूं या मिलता हूं तो पहचानने में मुश्किल होती है।"
मैने उन्हें समझाया कि ऐसा थकान या बेवजह तनाव के कारण होता है।साथ ही वह बात जो दिल पर घाव या चुभन नहीं छोड जाती,हमारी याददाश्त से बाहर हो जाती है।
भाई साहब उम्र मे मुझसे काफी बड़े है।76 वर्ष पार कर चुके है लेकिन मुझसे मित्र वत व्यवहार करते है।
मैंने कहा-"सुबह शाम दूध के साथ बादाम लिजिए.... याददाश्त के लिये फायदेमंद होगा।"
भाई साहब दार्शनिक अंदाज मे हंसे,फिर बोले,-"दूध बादाम से कुछ नहीं होने वाला।मैं तो यह सोच रहा था कि ईंसान की पूरी याददाश्त ही खो जाये तो कितना अच्छा हो....जिन्दगी की सारी कटुता इस याददाश्त की वजह से ही तो हैं।"
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3. मौन
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-"क्या बात है,आज बिल्कुल चुप हो।"
-"कुछ नहीं।बस ऐसे ही।"
-"नहीं. नहीं. कोई बात तो है।मुझे नहीं बताओगी।"
-"कुछ बात हो तो बताऊं न।"
-"नहीं, मुझे तुम्हारा मौन रहना खल रहा है।"
*कभी कभी मौन रहना भी जरूरी है जीवन में*
*अठखेलियाँ बातों की हर वक्त जरूरी तो नहीं*।
-"तुम टाल रही हो?क्या मेरी किसी बात से खफा हो?"
-"नहीं..।"
-"देखो,मैं तुम्हारी खामोशी सहन नहीं कर सकता।"
-"पुरूष हो इसलिये न।क्या नारी अपनी मरजी से चुप भी नहीं रह सकती।"
-"यह मैं नहीं जानता।पर,तुम मौन रहो यह मंजूर नहीं मुझे।"
-"अनादि काल से यह होते आ रहा है।नारी जब छोटी होती है तो माँ चुप रहने को कहती है,फिर शिक्षक और विवाह के बाद पति।उसके बाद बेटा-बहू।यह नारी की नियति है।"पुरूष नारी पर अपना अधिकार समझता है।उसके मौन के मनोविज्ञान को वह क्या समझेगा?क्योंकि मौन होता ही बड़ा विकट है।जिस दिन पुरूष मौन रहने का अर्थ या मौन रहना सीख जायेगी;उस दिन से समाज में क्रांति आ जायेगी और कभी न कभी यह दिन अवश्य आयेगा।"
-"परंतु आज मुझे मौन रहकर अपने नारी होने का अर्थ समझना है,तो कृपा कर आज मुझे अकेला छोड़ दो।"
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4. ईमानदार नागरिक
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प्रायः मुझे हर दूसरे दिन बस से शहर जाना होता था।
बहुत पहले की बात है,तब किराया होता था,तीन रूपये चालीस पैसे।परिवाहन निगम की टिकीट खिडकी पर जो आदमी बैठता था,वह मुझे साठ पैसे कभी नहीं लौटाता था।वह हर बार कहता,चिल्हर नहीं है।या झल्लाता चिल्हर लेकर आओ।मेरी तरह दूसरे यात्रियों से भी वह इसी तरह से व्यवहार करता।इस तरह शाम तक वह पंद्रह बीस रूपये बना देता।उन दिनो इतने पैसे का भी बडा महत्व था।तब वेतन 260रुपये हुआ करता था।
मैं जानता था कि उसका यह कार्य अनुचित है,लेकिन मैंनै कभी चिल्हर पैसे नहीं मांगे।मैं अक्सर दस रूपये की नोट देता और वह मुझे छह रूपये लौटाता।
यह क्रम बना रहा।आज मैने संयोग से उसे पांच रूपये का नोट दिया।उसने मुझे टिकीट दिया औरक्षछह रूपये वापस किये।मै विन्डो पर ही खडा रहा।उसने मेरी तरफ देखा और आदतन झल्ला कर कहा,छुट्टे पैसे नहीं है।आपको पैसों का इतना ही मोह है तो खुले पैसे लाया करे...।चलिए भीड मत बढाईये।आगे बढिये।
मैंने कहा ,बाबूसाहब सुन तो लिजिये,मैंनै पांच रूपये का नोट दिया था ....आपने मुझे ज्यादा लौटा दिये..।
वह बोला,ज्यादा लौटा दिये है तो देश के ईमानदार नागरिक की तरह वापस कर दिजिये....दूसरोँ के पैसे पर नियत खराब करना अच्छी बात नहीं है।
मैंनै पांच रूपये वापस कर दिये।उसने उसे मेज की दराज मे डाला और दूसरे यात्री का टिकीट काटने लगा। ****
5.टेढ़ी पूँछ वाला कुत्ता
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एक टेढ़ी पूंँछ वाले कुत्ते ने सीधी पूंँछ वाले कुत्ते से पूछा,"क्यों पार्टनर!तुम्हारी दूम सीधी कैसे हो गयी?क्या तुम्हारे मालिक ने इसे पोंगली मे डाल दिया था"?
सीधी पूंँछ वाला कुत्ता पहले हीन भावना से ग्रसित हुआ फिर साहस बटोर कर उसने कहा,"बात दरअसल यह है कि मैं अपनी पूंँछ सीधी करने की प्रेक्टिस कर रहा हूं।"
टेढ़ी पूंँछ वाला कुत्ता बोला," कुत्ते की पहचान को क्यों संकट में डाल रहे हो।अभी हम कुत्ते इतने स्थापित नहीं हुए है कि चुनाव मे खडे हो सके।जब तक हमारी पूंँछ टेढ़ीरहेगी,आदमी हमेंशा हम कुत्तों से डरेगा।" ****
6. जंजीर की विवशता
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पहले कुत्ते ने दूसरे कुते की तरफ देख कर कहा,-"यार,इस तरह दूसरों की जंजीर मे बंध कर अपना जीवन क्योँ बरबाद कर रहे हो?मेरी तरह आजाद रहो...कब तक अपनी वफादारी दूसरो के टुकड़ों पर बेचते रहोगे?"
दूसरा कुत्ता बैला-"पार्टनर, मैं तो अपने मालिक को छोडना चाह रहा हूं, पर मालिक ही मुझे नहीं छोडता।कल कह रहा था,अब तुम ट्रैंड हो गये हो...याद है न तुम्हें, मैंने जिन लोगो की लिस्ट तुम्हें दी है,उन पर तुम्हें मुझसे पूछे बिना ही भौकना है।"
पहला कुता फिर बोला,"यानि कि तुम आदमी के ईशारों पर जी रहे हो?भौंकना तो हमारा जातीय संस्कार है बास....लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि आदमी हमेँ सिखाये कि हमे किस पर भौंकना है।"
दूसरा कुत्ता संयत स्वर मे बोला,"सही कहते हो भाई....जंजीर की विवशता वही समझ सकता है,जिसके गले मे जंजीर होती है।अपने मालिक की रोटी पर पलने पर भी मैं तुम पर भौंक नहीं रहा हूं, यही क्या कम है।" ****
7.बन्द आँखें
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बस छूटने ही वाली थी।दरवाजे की तरफ से अजीब सा शोर उठा,जैसे कोई कुत्ता हकाल रहा हो।परेशानी और उत्सुकता के मिले जुले भाव लिये मैंने उस ओर देखा तो पता चला कोई बूढा व्यक्ति है,जो शहर जाना चाह रहा है।वह गिडगिडा रहा था,'"तोर पांव परथ ऊं बाबू.मोला रायपुर ले चल।मैंगरीब टिकीस के पैसा ला कहां ले लाववुं।"उसका शरीर कांँप रहा था।
-"अरे चल चल।मुफ्त में कौन शहर ले जायेगा।चल उतर।तेरे बाप की गाडी है न।कंडक्टर की जुबान कैंची की तरह चल रही थी।"।किसी गाडी के नीचे आजा,शहर क्या सीधे ऊपर पहुंच जायेगा."एक जोरदार ठहाका गुंँज उठा।
एक सज्जन जिन्हें ड्यूटी पहुंँच ने के लिये देर हो रही थी बोले,इनका तो रोज का है।इनके कारण हमारा समय मत खराब करो।निकालो बाहर"।
एक अन्य साहब ने चश्मे के भीतर से कहा,और क्या।धक्के मार कर गिरा दो।तुम भी उससे ऐसे बात कर रहे हो.जैसे वह भिखारी न हो कोई राजा हो।
और सचमुच।!एक तरह से उसे धक्के मार कर ही उतारा गया।यात्रियों ने राहत की सांस ली।डा्ईवर ने मनपसंद गाना लगाया।बस चल पडी।
मेरी सर्विस शहर में थी।रोज बस या ट्रेन से अपडाउन।अपने कान और आंखे बंद कर लिये थे।नहीं तो और भी जाने क्या क्या सुनना पडता।
पर साथ ही पिछले सप्ताह की एक घटना याद हो आयी।इसी बस में एक सज्जन जल्दबाजी में चढे।बाद में जनाब को याद आया कि बटुआ वे घर पर ही भूल आये है।।मुझे अच्छे से याद है,चार चार लोग आगे बढे उनकी सहायता करने को,उनकी टिकीट कटाने को।अंत में कंडक्टर स्वयं, यह रोज के ग्राहक है।कल ले लूंगा कह कर अपने रिस्क पर उन्हें शहर ले जाने को तैयार हो गये।
सोचना बंद कर एक बार पीछे मूडकर देखा।सभी अबतक वही बात कर रहे थे।जल्दी से आगे की तरफ नजर धूमा लेता हूँ।तभी मेरी नजर सामने की तरफ लगे,दर्पण पर पडी।उसमें मुझे अन्य लोगों के साथ अपना भी चेहरा साफ नजर आया। धबरा कर मैंने अपनी आंखेँ बंद कर ली। ****
8. साहब,भूख और मूड
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डिनर चल रहा था।लाउडस्पीकर पर पाप धुन बज रही थी।रात के ग्यारह बजे थे।
एक बड़े अफसर ने अपने प्रमोशन अवसर पर यह पार्टी का आयोजन किया था।जलाराम केटरर को हायर किया गया था।
बंँगले के बाहर कुछ गरीब प्रतीक्षा मे थे कि कब झूठन बाहर फेंकी जायेगी।
एक ने अपने साथी से कहा,"क्यों यार,ये साहब लोग खाने में इतनी देर क्यों लगाते है?"
दूसरेने जवाब दिया,"अरे,वो साहब लोग है...अपनी तरह नहीं कि जो मिला,भकोस लिया।..अरे भ ई खाने के पहले उन्हे मूड बनाना पडता है,समझा? ****
9. साहित्यिक पक्षधरता
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वह प्रगतिशील विचारधारा के पक्षधर है।शोषण के खिलाफ ही लिखते थे।अपनी रचनाओं में पूंजीवाद को नकारते थे।
एक रोज मेरे घर पधारे।मैंनै दरवाजे पर उनका स्वागत किया।रिक्शेवाले को उन्होंने दस रूपये का नोट दिया।
रिक्शे वाले ने कहा,साहबजी!महंगाई बहुत बढ गयी है।गरमी भी सखत पड रही है।एक सवारी का यहां तक बीस रूपया होता है,दस और दे दिजिये।
इस पर वे नाराज होक्षगये।गुस्से से काँपने लगे,अरे लूट मचा रखी है।तुम लोगों के लिये हम कितना संधर्ष कर रहे हो जानते हो।
रिक्शेवाले ने सिर से टपक रहे पसीने को गंदे गमछे से पोंछा, अपनी मेहनत का पैसा ही तो मांग रहे है,बाबुजी!इस तरह से हमारा शोषण मत किजिये।दस रूपये दे दिजिये।देर हो रही है।
इस बार उनका गुस्सा सांतवे आसमान पहुंच गया।बोले ,मजदूर होकर हम साहित्यकारों से जबान लडाते हो,शोषण की बात करते हो?सीधी तरह से दस रू.लो और चलते बनो।
रिक्शे वाले ने दस रूपये का नोट लौटाते हुए कहा,बाबू जी हम गरीब मजदूर है ,एक दिन भूखे रह लेंगे।
उन्होंने दस का नोट वापस जेब मे रख लिया,एक गंँदी गाली दी और बडबडाये,सबकी चमड़ी मोटी हो गयी है,सब सिर पर चढ गये है। ****
10. भूख तो रोज ही लगती है
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अंतिम नजर बच्चों के टिफिन पर डालकर सुरेखा ने उनकी बेग मे रखे।पानी की बाटल भरदी।अब वे बाहर तक आकर बच्चो के स्कूल बस का ईंतजार करने लगी।
बहुत छोटा और प्यारा परिवार था।दिलों जान से चाहने वाले पति जो एट आफिस मे अफसर थे।दोप्यारे बच्चे बिट्टू और मीनल।वह अपने भाग्य पर ईतरा उठी।
स्कूल बस आ गयी।मेड ने उसे अभिवादन किया।बच्चे बैठ गये।टा...टा कह कर वह भीतर बढने लगी कि अब पति का टिफिन तैयार करेगी।वह खुश थी।
तभी गेट पर दो बच्चे, एक लडका और एक लडकी मैले कुचेले कपडो मे,हाथ जोड कर कुछ खाने को मांग रहे थे।
..सुरेखा ने जल्दी से कहा,तुम लोग...।।फिर आ गये।देखो आज शुक्रवार है।और हम भिक्षा सोमवार को ही देते है।
.दोनो मे से बडी लडकी ने करूणा भरे स्वर मे कहा-"पर दीदी,भूख तो रोज ही लगती है न।" **
11. असल धनवान
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रीमा को सप्ताह में दो बार मुख्य बाजार तक आना ही पड़ता है।
नेहरू चौक पर बहुत सारी दुकानों के साथ खाली जगहों पर फलवाले मोची और अन्य लोग बैठकर दुकानदारी करते।
वहीं कोने पर एक ग्रामीण महिला मिट्टी के घडे,गुल्लक और अन्य सामान लेकर बैठती।वह हमेंशा हँस कर बात करती।उम्र ज्यादा न थी।पर,वक्त के थपेडों ने असमय उसे वृद्धा बना दिया था।चेहरे पर की झुर्रियाँ अनुभवों की आँच से तप कर निकलने का दावा कर रही थी।
रीमा हमेंशा कुछ न कुछ खरीदी करती।कभी भी मोल भाव न करती।वापसी में आज भी वह रूकी एक घड़ा और दो सकोरे लिये।माँजी ने कीमत सौ रूपये बतायी।रीमा के मुँह से निकलने ही वाला था कि हमेंशा तो आप बीस रूपये लगाती है।एन वक्त पर उसने स्वयं को रोका और चुपचाप सौ रूपये दे दिये।
घड़ेवाली महिला ने उसके चेहरे के भाव पढ़ लिये थे।गाड़ी में घड़ा और सकोरा रखते हुए उसने रीमा को दस रूपये लौटाये,बेटी,तुम कभी कुछ नहीं कहती।आज मेरा मन है।यह रख लो।
रीमा मन में आये विचारों के कारण आत्मग्लानि से ग्रस्त थी।रीमा ने मन ही मन संकल्प किया भविष्य में वह मेहनतकश लोगों से कभी मोलभाव नहीं करेगी।वे जो कहेंगे वही देगी।
रीमा की आँखों से आँसू टपक पड़े।उक्त महिला को भी भाव पढ़कर रोना आ गया।
दोनों काफी देर तक मौन खड़े रहे। ****
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क्रमांक - 079
जन्म तिथि - 5 मई 1963
पिता का नाम - डॉ ब्रज बल्लभ सहाय
माता का नाम - श्रीमती माधुरी सहाय
पति का नाम - श्री गिरिजेश प्रसाद श्रीवास्तव
निवास स्थान - पटना (बिहार)
पेशा - गृहणी , स्व रुचि लेखन
शिक्षा - एम.ए. (अर्थशास्त्र)
पुस्तकें : -
'निहारती आँखें' काव्य संग्रह,
'वर्तमान सृजन' साझा काव्य संकलन,
'श्रद्धांजलि से तर्पण तक' एकल कहानी संग्रह ।
'नदी चैतन्य हिन्द धन्य',
'अमृत अभिरक्षा', 'नसैनी',
'जागो अभय', 'समय की
दस्तक',साझा संकलन,
बासंती अंदाज़' साझा काव्य संग्रह
सम्मान -
भोजपुरी बाल कहानी प्रतियोगिता में पुरष्कार प्राप्त
उन्वान प्रकाशन एवं लेख्य मंजूषा साहित्यिक संस्थान
द्वारा "सम्मान प्रतीक" की प्राप्ति,
story mirror एवं फेसबुक के कई ग्रुप द्वारा प्रशस्ति पत्र प्रदान,
पता : -
305, इंद्रलोक अपार्टमेंट, न्यू पाटलिपुत्र कॉलनी, पटना - बिहार 800013
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शाम थी, मगर अंधियारा फैल चुका था। अभी मिन्नी के पापा ऑफिस से आकर चाय भी नहीं पी पाए थे कि किसी ने दरवाजा खटखटाया। कुत्तों के भूँकने की आवाज भी तेज हो रही थी। मिन्नी ज्यों ही, दरवाजा खोलने को लपकी की पापा ने रोक दिया और खुद जाकर दरवाजा खोला। रमेश बाबू झट-पट अंदर आकर दरवाजा सटाया और कहने लगे - "अगले चौक पर बहुत भीड़ लगी है। कुछ लोग कह रहे हैं सड़क के किनारे ही एक बच्चा शॉल में लिपटा है। शॉल के रंग से लोग उसे मुसलमान बस्ती का बता रहे हैं पर मंडल मियां ने कहा उन्होंने बच्चे को देखा है, बिल्कुल हिन्दू का बच्चा है। उसके गले में काला धागा डाला हुआ है। कोई उसे छू भी नहीं रहा। भीड़ में से ही किसी ने पुलिस को खबर कर दिया है।
एक दो नेता जैसे लोग दोनों ही दल से सामने आ उलझ रहे हैं और एक दूसरे के कॉम का श्रृंगार गंदी गालियों से कर रहे हैं। मण्डल मियाँ उसमें कुछ ज्यादा ही बढ़ कर बोल रहे हैं। अब उनका मुँह बंद करना बहुत जरूरी है।
मिन्नी अंकल की बात सुन कर गुस्से में उबल पड़ी -" अजीब लोग हैं किसका बच्चा है फैसला करते रहें, वो बच्चा ठंड से मर भी जाए। मैं जा रही हूँ उस इंसान के बच्चे को बचाने और वो किसी की बात सुने बिना लपक कर सड़क पर आ गई।
तेज हवा के उल्टी दिशा में पैदल बढ़ना कष्टप्रद था। उसने अपने शॉल को कस कर लपेटा और क्षण में वहाँ पहुँच गई। पन्द्रह- बीस व्यक्ति के भीड़ को भेद उसे अंदर पहुँचते देर न लगी। वो हदप्रद रह गई ये देख कर कि एक कुतिया उस बच्चे के निकट उसे अपने पैरों में दबाए बैठी थी और वहीं पर अन्य दो चार कुत्ते खड़े थे जो रह-रह कर भीड़ पर भौंक रहे थे। भीड़ में काना-फूसी के अलावे अन्य कोई हलचल नहीं थी।
जब वो उस नन्हे को उठाने आगे बढ़ी तो कुतिया वहाँ से उठ कर खड़ी हो गई और उसे सूंघने लगी। बाकी कुत्ते भी भौंकना बंद कर दिए।
आश्वस्त हो भीड़ दो भागों में बट गई मगर काना-फूसी जारी थी। ****
2.बिटिया की शादी और शौचालय
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अरे लखिया की माँ! कहाँ हो, मिठाई खाओ।
“ कौन बात का ?”
इ मिठाई से ना समझी का। अपनी कमली राज करेगी...राज। अरे वो पसौनी वाले सेठाराम अपने बेटे के लिए अपनी कमली का हाथ मांग रहे हैं।
“सठिया गए हो का.. अभी बियाह दोगे छोरी को। अभी तो सतरहो पूरा नहीं हुआ है।”
इ सतरह अठारह क्या लगा रखी हो..
“का जी .. टीवी नहीं देखते हो का.. सरकार भी कहती है अठारह साल से पहले लड़की का शादी नहीं करना है। कच्चा घड़ा है अभी।”
अरे अइसा लड़का बार-बार नहीं मिलेगा। अपने आगे बढ़ के सेठाराम हाथ मांग रहे हैं। पूरा खेती बाड़ी है। लड़का तो हीरा है..हीरा। एकदम गौ जैसा स्वभाव है माँ-बाप का।
“त बात पक्का कर दिए ? उ लोग लड़की देखने को नहीं बोला ?”
लड़की का देखना है। हमरी कमली जइसन सुंदर सुशील पढ़ी-लिखी लड़की मिलेगी का उनको।
“अरे तो भी आजकल बिना लड़का-लड़की देखे कोई शादी बियाह करता है का।”
लड़िका खुद देखे हुए है हमर कमली को। उ स्कूल जाती है न जाते-आते पूरा परिवरवे न देखा है कमली को। तबे न सब लट्टू था। स्कूल के बगल में ही न ब्लॉक ऑफिस है वहीं न लड़िका काम करता है।
“ ऑफिस में का करता है ?”
का करता है..कौनो का अफसरी करने वाला तुमरी कमली को बियाह के ले जाएगा। बात करती है ....का करता है। अरे किरानी बाबू के साथे रहता है। कुछ कमाई हो जाता है, कुछ किरानी बाबू उसको दे देते हैं और अपना खेती-बाड़ी है सो अलगे। अकेला है घर में सब जायदाद तो उसी का है।
“तइयो ई कौनो नौकरी नहीं न हुआ। महीना का बंधा तनख्वाह नहीं न है।”
त दानों दहेज कहाँ मांग रहा है। एक जोड़ा बैल, दू थान गहना और लड़िका को एगो मोटरसाइकिल। बस अतने देने को कहा है।
“त एगो बात सुन लीजिए। दहेज देना अपराध है। हम दहेज नहीं देंगे।”
त उ मांग कहाँ रहा है। कह रहा था हमको दान-दहेज नहीं चाहिए पढ़ी-लिखी सुंदर सुशील लड़की चाहिए। हमरी कमली स्कूल में फसट (फस्ट) करती है ई त सारा गाँव जानता है। और पन्द्रह अगस्त को खेल-कूद में अव्वल आई थी, उसी दिन त पूरा परिवार इसको देखा था।
“आप उसका घर परिवार अपने से देखे हैं ?”
ओफ्फ, उसको के नहीं जानता है। पसौनी के मुखिया और सरपंच जी के बाद, रामलाल का परिवार ही नामी है। आ ई लड़िका, रामलाल का पोता है। सेठाराम उनका बड़ा बेटा है।
“देखिए उ पसौनी गाँव में हम अपन बेटी का बियाह नहीं करेंगे।”
अब लीजिए अभी उमर नहीं था, अब गाँव पसंद नहीं। चाहती का हो ? तुमरी बेटी देखने में निमन है; हूर की परी नहीं है।
“आप चाहे जो कहिए, उ पसौनी में बियाह नहीं होगा। पसौनी में केकरो घर में शौचालय नहीं है। मुखिया जी का परिवार भी, खेते में जाता है। जहाँ शौचालय नहीं, वहाँ बेटी नहीं देना।”
अब ई शौचालय का बखेरा कहाँ से आ गया?
“सगरो त पोस्टर लगा है जहाँ सोच वहाँ शौचालय। टी.वी. के सब चैनल पे, रेडियो में एके बात कहता है। और आप त अमिताभ बच्चन के फैन हैं। सब पिक्चर देखते हैं उसका। उ भी त कहता है 'दरवाजा बन्द..'।”
अरे पगली, सरकार शौचालय बनवा रही है न। अपना त उसी में बना। उसके यहाँ भी साल दो साल में बन ही जाएगा।
“त साल दो साल बाद बेटी का बियाह कर देंगे। तब-तक अठारह साल की हो भी जाएगी और कालेज के पढाईयो पूरा हो जाएगा। समझे…” ****
3.कर्म और वाचन
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माँ.. ओ ..माँ..
"क्या हुआ...?"
वाश बेसिन में पानी नहीं आ रहा?
"नीचे से बंद होगा।"
अरी! सुनती हो..रिया बाथरूम से बुला रही है। शायद पानी नहीं आ रहा।
"अजीब हाल है, तो मैं क्या कर सकती हूँ!"
अरी भाग्यवान ! थोड़ा सुन तो लो, मुँह में साबुन लगा हुआ है और पानी नहीं आ रहा।
"ये लड़की भी न, कितनी बार कही हूँ कि बाल्टी में पानी निकाल लो फिर कुछ करो, पर मेरी कोई सुनेगा तब तो। हर मर्ज की दवा है माँ, आवाज लगा दो। वो तो बेकार बैठी हुई है। सुलझाती रहे सभी की समस्याओं को..."
" कल ही सबसे कह दी थी कि मुझे तंग मत करना, एक लेख लिखनी है। इतना सुबह उठ कर जल्दी-जल्दी चाय बनाई और मूड फ्रेस कर लिखने बैठी। मगर शांति मिले तब तो कलम आगे बढ़े। कितने विश्वास से ग्रुप वालों ने कहा था - सलोनी ये लेख तुम्हीं लिखना। पिछले बार तुम्हारे ही लेख से ग्रुप विजयी हुआ था। तुम इतने अच्छे भाव पिरोती हो कि एक एक शब्द सीधे दिल में उतरती है। पर घर में कोई समझे तब न….."
माँ! परेशान मत हो, पापा ने बॉटल का पानी दे दिया था। हम दोनों भाई-बहन स्कूल के लिए तैयार हो गए। आज स्पोर्ट्स है न जल्दी स्कूल जाना था। टिफिन में बिस्किट और फल रख ली हूँ। तुम परेशान मत हो।
अरे मेरी जान! आप छोटी सी बात पर क्यों परेशान हो गईं। आप अपनी लेखनी चलाइए। देखिए पूरा घर आपके साथ है। बच्चे भी आपको जरा भी तंग नहीं किए और तैयार होकर स्कूल चले भी गए। सभी की इच्छा है इस बार जल बचाओ अभियान का पुरस्कार भी आपको ही मिले और मिलेगा भी। जब सबों को मालूम होगा कि इस लेख को लिखने में आप इतनी खो गई थी कि ध्यान ही नहीं रहा कि किचेन और वाश बेसिन का नल खुला रह गया। इस छोटी सी भूल के लिए आप आज चार घंटा बिना पानी के गुजारी हैं तो सभी को आप पर गर्व होगा।
सलोनी ने सर पकड़ लिया।
" उफ़्फ़ अब क्या करूँ.. सच लिखने की धुन में ऐसे खो गई कि ध्यान ही नहीं रहा, मैंने नल खुला छोड़ दिया है। पानी गिरने की आवाज तो कानों से टकरा रही थी पर हर पल दूसरे को ही गलत समझती रही। पानी के हर बून्द की आवाज पर मेरी लेखनी दोगुने वेग से यह सोच चल पड़ती कि बाजू वाली मीता का यही हाल है। जब न तब नल खुला छोड़ देती है। आज पानी मांगने आएगी तो उसे अपना लेख जरूर पढाऊँगी।"
उसकी गलती से नल तो सूख गई पर नयन टपक टपक कर पूरे लेखनी को धो रहे थे।***
4.तैयारी
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अरे रितु ! आजकल दिखती नहीं हो? कहाँ इतना व्यस्त रहती हो ?
“ तैयारी कर रही हूँ।”
किस चीज की? कोई डिपार्टमेंटल परीक्षा है क्या?
“अरे नहीं, बहू लाने की तैयारी।”
अरे वाह! बेटा की शादी तय कर ली क्या ? कब कर रही हो? कुछ बताई नहीं।
“नहीं नहीं.. अभी शादी तय नहीं की हूँ। एक दो साल बाद करूँगी। एक दो साल तो लग ही जाएँगे तैयारी में।”
तुम तो पहेली बुझाने लगी। मकान-वकान बना रही हो क्या ?
“ अरे कुछ नहीं।”
तो ?
“अरे! आजकल जिससे मिलती हूँ वो ही मेरे स्वभाव, रहन-सहन, खान-पान की बातें कर शिक्षा देने लगता है। कहता है ये पुरानी आदतों को छोड़ो। नए जमाने की लडकियाँ ये सब बर्दास्त नहीं करेंगी। ये रोज-रोज, रोटी-चावल खाना, घर में सिलाई कढ़ाई करना, पुराने सामानों को सहेज कर रखना, बात-बात पर शिक्षा देना। अब तुम्हीं बताओ एक दिन में तो ये आदतें छूटेगी नहीं। इन पुरानी आदतों को छोड़ने की कोशिश कर रही हूँ। बस ”
अरे हाँ! इन बातों में तो दम है। तब तो मुझे भी अब सोचना पड़ेगा। दो तीन साल बाद मुझे भी तो बहू लानी है। अच्छा, तुम एक काम क्यों नहीं करती रितु! तुम्हारी तो अभी सास और माँ दोनों हैं। उनसे क्यों नहीं पूछती कि उन्होंने बहू लाने की तैयारी कैसे और क्या की थी?
“ मैंने पूछा था। दोनों ही हँस दी और कहा हमने सिर्फ बेटा को योग्य बनाया और तुमलोग अपने आप ही घर में घर के अनुसार ढल गई। तुमलोग कम से कम तीन चार भाई-बहन होते थे, अतः आपस में ही बड़े छोटे को देख बहुत कुछ सीख लेते थे। अब तुमलोगों ने नए जमाने से होड़ लेने के लिए एक या दो ही बच्चे लाए और उनपर अति लाढ़ टपकाए। हमलोग भी बेटा और बेटी दोनों को पढ़ाया और दोनों को ही पढ़ने के साथ-साथ घरेलू काम भी सिखाया। ताकि कभी अकेले रहना पड़े तो किसी को कोई कठिनाई नहीं हो। तुमलोग बच्चों की पढ़ाई को हौआ बना बच्चों के पीछे पर गए। उन्हें कोल्हू के बैल के समान मुँह बांध पढ़ने के लिए जोत दिया। जब देखने और सीखने की उम्र थी तब तो तुमलोगों ने कुछ सिखाया नहीं या ये कहें सीखने नहीं दिया, तो अब फल भोगो।”
तो तुमने निदान क्या ढूंढा?
“ इसलिए तो आजकल मैं आत्मचिंतन ज्यादा करती हूँ।” और वो मुस्कुरा दी। ****
5.अपनी पीड़ा
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देश जल रहा है पर किसे फर्क पड़ता। सभी अपनी भेड़ चाल में व्यस्त.. उस शहर में हुआ, उस मुहल्ले में हुआ उसकी बेटी..आदि कहते हुए कभी शहर में कमी, कभी मुहल्ले और कभी लड़की की गलतियाँ गिना सभी बढ़ते जा रहे हैं….बस में बैठे लोगों के बीच इस तरह की बातें जिसे फालतू ही कहें समय काटने के लिए हो रही थी।
रमाकांत और उनके पड़ोसी अदीब भी इसमें शामिल थे। दोनों ही एक ही बात कह रहे थे बच्चों को बचपन से ही अच्छे संस्कार देने चाहिए... और फिर दोनों ही अपने परवरिश की तारीफ कर रहे थे। तभी झटके से बस रुकी और उनके गप्प को विराम लगा।
दोनों बस से उतर घर की तरफ बढ़े। रमाकांत का घर दिख रहा था। घर के सामने भीड़ लगी थी। उन्हें देख सेवक राम दौड़ता आया -" भैया..! अच्छा हुआ आपलोग आ गए। आप दोनों के बेटवा को पुलिस ले गई।"
रमाकांत ने उसे झकझोड़ दिया - " मगर क्यों..?"
अब सेवक राम के शब्द गले में ही दबने लगे। वो..वो..ह..म का.. जाने…
"अरे जनाब! बोलिए तो क्या हुआ?" अदीब ने भी उसके कंधे को झकझोड़ दिया।
भैया..भैया..! उ सब लोग कह रहा था..बकुरगंज में चेन खींचने में धराया है..लहरिया कट लेकर मोटरसाइकिल भगा रहा था, उसी में पुलिस पकड़ ली है।
"अरे! ऐसे कैसे पकड़ लेगी पुलिस। लड़का सब तो लहेरिया काटता ही है।" अदीब फिर बोल पड़े।
पीछे से महेंद्र, असगर, जहीन सभी आ पहुँचे। पुलिस ऐसे ही नहीं पकड़ी है। दोनों के पास से चेन भी बरामद हुआ है और पूरा पैसा भी। बात अपने पर आई तो ..कैसे..कैसे…
वे लोग बोले जा रहे थे और अदीब एवं रमाकांत नजरें झुकाए एक दूसरे को देखे बिना बढ़ गए। *****
6.पिंजड़ा
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बचपन से शहर में रहने वाली निवेदिता, पहली बार अपने ससुराल के गाँव आई। दादा ससुर ने आशीर्वाद देते हुए बडे प्यार से कहा -" बहू! अब गाँव और शहर में कोई अंतर नहीं। यहाँ भी शहर की हर सुविधा उपलब्ध है। किसी चीज की कमी नहीं होगी।"
शहर के बड़े घर की तुलना में कई गुणा बड़ा सुविधा सम्पन्न घर को देख, निवेदिता को लगा ही नहीं कि वह गाँव है या शहर। पर कमरे की खिड़की खोलते ही, हरियाली भरे खेत से आती ठंढी हवाओं ने गाँव और शहर का अंतर स्पष्ट कर दिया।
छोटी ननद रागिनी, उसे घर घुमाते हुए आँगन में लगे अमरूद के पेड़ से एक दो पका अमरूद तोड़ कर बोली- "भाभी! ये आपके मीठू के लिए।"
"भाभी! जानती हैं दादाजी ने मीठू के लिए बहुत बड़ा सुनहरा पिंजरा मंगवाया है। उन्हें मीठू के बारे में पता था। चलिए मीठू को नए पिंजरे में डाल अमरूद खिलाएँगे।"
ड्राइंगरूम में सबके साथ बैठ चाय पीते हुए रागिनी ने कहा- "दादाजी! हमलोग गाँव घूमेंगे।"
दादाजी भी हँसते हुए कहे -"ठीक है, कल दिन में घूम लेना आज तो शाम हो गई ।"
रागिनी उत्साहित हो निवेदिता को कहने लगी -" भाभी! गाँव घुमने के बाद आप यहाँ के बारे में जरूर लिखिएगा। उसकी बात सुनते ही दादाजी बोल पड़े - " तुम रमाकांत के साथ चली जाना। बहू कहा जाएगी..."
तत्क्षण रागिनी और दादाजी में वाक युद्ध प्रारम्भ हो गए कि आपलोग अपने को प्रगतिशील विचारधारा वाला कहते हो और आज भी बहू बेटी में अंतर ? आपकी बहू पत्रकार है। गॉंव को जब अपनी नजर से देखेगी तभी तो सच लिखेगी।
रागिनी के अकाट्य सत्य को सुन दादाजी थोड़ा उग्र हो, बोले - " मुझे तो बहू का पत्रकारिता करना ही पसंद नहीं था। पत्रकारिता करनी है तो दूसरे जिला के किसी गाँव में जाए। यहाँ ये सब सम्भव नहीं।"
अंदर आ रागिनी अपना क्रोध मम्मी पर उतारने लगी और निवेदिता सुनहरे पिंजरे को खोल अपने प्रिय तोता को बाहर निकाल खुली हवा में उड़ा दिया। तोता अमरूद की डाल पर बैठ निवेदिता को देख गुटूर गूँ.. गुटूर गूँ.. बोल पड़ा और निवेदिता छलकते नयन से हाथ हिलाते हुए कहा - "जा उड़ जा उन्मुक्त गगन में पर फैला उड़ जा अपने आसमान में…"
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7. हीनता
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एक लंबे समयंतराल के बाद रिंकी और अनामिका एक दिन अचानक टकड़ा गई। दोनों एक दूसरे को देखती रह गई। फिर दोनों, लपक कर एक दूसरे के गले मिली। दोनों का रोम-रोम पुलक रहा था। इतनी बातें ज़ुबान पर आ रही थी, जिसे पल में सम्भालना मुश्किल हो रहा था। दोनों ने इधर-उधर नजर दौड़ाया और एक बैठने की जगह ढूंढ निकाली। इंटर से लेकर आज तक की कहानी दोनों ने सुना डाली। अनामिका अपने डॉक्टर होने पर गर्व कर रही थी। वह बार-बार रिंकी को कह रही थी तूने बड़ी गलती की, जो अपने दिल की न सुन माता-पिता की बातों में आकर मेडिकल इंट्रेंस के लिए समय नहीं दिया। बी.ए., एम.ए. कर, बैंक की नौकरी की और झट-पट शादी। पता है मैं पूरे तीन साल तक लगी रही तब जाकर मेडिकल में दाखिला हुआ। तू कितनी जल्दी बच्चों के चक्कर में पर गई। मैंने तो अपनी जिंदगी को पूरा इंजॉय किया। आज एक मशहूर स्त्री रोग विशेषज्ञ हूँ।
रिंकी ने मुस्कुरा कर कहा मैं भी अपनी दुनिया में मगन हूँ, डॉक्टर नहीं बनी तो क्या हुआ, जो कर रही हूँ बहुत अच्छा लगता है। जानती है, अपनी नौकरी के साथ-साथ मैंने अपनी लेखन रुचि को जिंदा रखा।
अपनी-अपनी कहानियों के साथ-साथ पति और बच्चों की चर्चाएं भी निकल पड़ी। बातों का अंतहीन सिलसिला देख दोनों ने एक दूसरे के घर का पता लिखा और जल्द ही मिलने की आतुरता को प्रदर्शित कर ही रही थी कि अनामिका की एक दूसरी सहेली 'सोमना' आ मिली। रिंकी का परिचय पा चहक उठी क्योंकि मशहूर लेखिका रिंकी 'रिंकिता' की वो फैन थी। उसकी हर पुस्तक उसके आलमीरा में सजी थी। वह पुलक कर रिंकी से उसकी निजी जिंदगी पर बातें करने लगी।
रिंकी अनामिका की सहेली से मिल पुलक रही थी और अनामिका उसके समक्ष रिंकी को बचपन की सहेली बताने में झिझक रही थी। वो झट रिंकी का हाथ पकड़ कार में बैठ गई - “ओ दादी अम्मा जब पोता-पोती साथ नहीं तो क्या काम है हर जगह ये कहने की, कि मैं तो दादी नानी भी बन गई हूँ। मेरा रानू अभी दसवीं में है और पिका तो आठवीं में ही है।”
रिंकी हतप्रभ हो उसे देख रही थी इसे एकाएक क्या हो गया। बच्चे छोटे बड़ें हैं इससे क्या। हम तो वही हैं….. ***
8.अधकिली कली
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'संरिक्षिका वर्किंग वूमेनस हॉस्टल' के तृतीय वार्षिकोत्सव में चीफ गेस्ट के रुप में आमंत्रित आमंत्रण पत्र को देख, मेरे सामने सिमटी, सिकुची देविना आ खड़ी हो गई, जो कुछ वर्ष पूर्व मेरी स्टेनो बन कर आई थी। हर दूसरे दिन लेटर गलत टाइप कर ले आती। डांट खाती फिर ठीक करती।
एक दिन मुझसे नहीं रहा गया तो उसे संग ले कैफेटेरिया में कॉफी पीने आ गई। बातों ही बातों में मैंने उससे हर दूसरे दिन की गलती का कारण पूछा। पहले तो वो सकुचाई पर सर पर प्यार का हाथ पा लाज के पर्दा को नीचे उतार रख दिया ।
"मैम! एक अधखिली कली को जब जबरदस्ती खोला जाता है तो पंखुरियों में दर्द स्वाभाविक है। मैम ! मै अपने अंकल की शिकायत करना नहीं चाहती पर परेशान हूँ ।"
मेरे कान गर्म हो लाल हो गए। मुझे दाई माँ और उनकी नसीहत याद आ गई। बचपन में जब मैं अधखिले फूल की कली को दबा कर खोलने का प्रयास करती तो दाई माँ ऐसा करने से मना करती और कहती -' बेटा जबरदस्ती करने से कली को दर्द होता है।'
देविना की बात समझते देर न लगी। मेरी आँखों में रोष उभर आया, मैं मुट्ठियाँ भींचने लगी।
मेरी प्रतिक्रिया पर देविना घबड़ा गई।
"मैम…! प्लीज आप उन्हें कुछ नहीं कहेंगी। नहीं तो वो मुझ पर दस इल्जाम लगा घर से निकाल देंगे, तो फिर कोई मुझे घर भी नहीं देगा।"
मैंने उठ कर उसे सीने से लगाया और कहा - "आज के बाद ऐसा नहीं होगा। इस कोमल कली को मैं दूसरे गमले में उगाऊँगी।"
उसी शाम उसे बैचलर हॉस्टल में पहुँचा, उसे सुरक्षित किया । मैं अतिप्रसन्न हूँ, उस दिन बचाई एक कली से आज अनेक कलियाँ संरक्षित हो रहीं हैं। ****
9. छत्रछाँह
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रामलाल मुखिया जी के साथ आकर डॉक्टर साहब के समक्ष सर झुकाए चुपचाप खड़ा रहा तो मुखिया जी ही बोल पड़े -" डॉक्टर साहब इसे माफ कर दें, अंजाने में इसने आपकी बहुत बेइज्जती की। अपने किए पर ये इतना शर्मिंदा है कि अकेले आपके पास आने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहा था।"
कोई बात नहीं रामलाल, इंसान अकसर गलतफहमी का शिकार हो जाता है। तुम्हारी बाछी अब स्वस्थ्य है न..?
"जी..जी… " रामलाल के कंठ से बोल नहीं फूट रहे थे।
"डॉक्टर साहब! एक बात पूंछू ..?" मुखिया जी बोल पड़े।
हाँ.. हाँ.. अवश्य पूछिए..
"डॉक्टर साहब ! मुझे एक बात समझ में नहीं आई कि जब सामने कोई नहीं था, बछिया भी सड़क के किनारे गिरी थी और आप परिवार के साथ थे, फिर भी आप रात के अंधेरे में आगे बढ़ अपने को सुरक्षित करने की जगह वहाँ रुक कर किसी के आने का इंतजार क्यों कर रहे थे? जबकि आपको पता था कि इस गाँव के लोग जाहिल हैं। "
मुखिया जी ! ब्रेक लगाना तो तत्क्षण स्वाभाविक प्रक्रिया है। हाँ ! मैं पुनः तुरत आगे बढ़ सकता था। रात का अंधेरा अवश्य था पर ईमान सफेद था। जीप की रौशनी में सब साफ नज़र आ रही थी। जीप की रौशनी पड़ते ही बाछी पगहा समेत ऊपर से कूद पड़ी। उसके पगहा के साथ खूंटा भी उखड़ गया था। यही कारण था कि वो बच गई। वरना वो जीप से टकड़ा जाती।
मुझे लगा कि गिरने से उसे चोट अवश्य लगी होगी। जब कभी ऐसी कोई घटना होती है तो मुझे मेरे पिताजी याद आ जाते हैं। वो कहते थे -'बेटा किसी को मुसीबत में नहीं छोड़ना चाहिए, खास कर जानवर को तो कभी नहीं।' पिताजी के स्वर कानों में गूंजते रहे और मैं वहाँ रुक कर डॉक्टर के साथ एक इंसान की भी भूमिका निभाता रहा।
मैं जीप रोक किसी सज्जन का इंतजार कर रहा था। पर वहाँ तो उलटा ही हुआ। वो लोग आकर मारो...पकड़ो...भागने न पाए...आदि हल्ला करने लगे। एक दो तो जीप पर डंडा से प्रहार भी किया। तत्क्षण आप देवदूत से प्रकट हो गए।
"यदि मैं उस वक्त नहीं आता तो क्या होता..?कभी सोचा भी..? ये लोग ऐसे जाहिल हैं कि इन्हें आपको और आपके परिवार को चोट पहुँचाते तनिक देर न लगती।"
डॉक्टर साहब मुस्कुरा कर बोल पड़े - "जो सदा अपने पिता की छत्रछाँह में रहता हो उसे स्वतः हर दरिया पार करना आ जाता है चाहे वो कितनी भी बड़ी या गहरी हो।
अब तक चुप रामलाल अपने को संयत कर चुका था। उसके मुख से माफ़ी के अल्फ़ाज़ निकल पड़े और वह डॉक्टर साहब के चरणों में झुक गया। डॉक्टर साहब भी तत्क्षण उसके झुके हाथों को पकड़ लिए, अरे! ये क्या कर रहे हैं।
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10. संवेदना
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विम्मी और रमोला दोनों सखियाँ एक ही अपार्टमेंट में रहती थी, अतः दोनों अपनी रचनाधर्मिता बड़ी जतन से निभाते हुए साथ-साथ ही ऑन लाइन काव्य सम्मेलन भी करती थी।
आज एक ऑन लाइन काव्य सम्मेलन का निमंत्रण था। रमोला को अध्यक्षता करने को आमंत्रित किया गया तो उसने माफी मांगते हुए कहा कि फिर कभी इस कार्यभार को निभाऊंगी, आज मुझे एक बीमार बूढ़ी दादीमाँ को देखने जाना अनिवार्य है। मैं उनसे मिलने का वादा कर उनकी बहू से मिलने का समय निर्धारित कर चुकी हूँ। साहित्य के प्रति कर्तव्य है पर उससे पहले समाज के प्रति भी कुछ कर्तव्य हैं।
फोन पर उधर से आवाज आई - "क्या वहाँ जाने के समय में बदलाव नहीं कर सकती? अध्यक्षता करने का सुअवसर था। एक अच्छी साहित्यकार बनने के लिए इस तरह के कार्य का बहुत महत्व है। इसलिए मैं कह रहा था। आज मंच पर बहुत बड़े-बड़े कवि आ रहे हैं। वरिष्ठ कवियों के बीच अपनी रचना सुनाने का मतलब समझती हैं आप ! कल के समचार पत्र में तस्वीर के साथ नाम छपेंगे! वहाँ तो कल भी जा सकती हैं। अवसर अच्छा था, ऐसे आप सोच लीजिए।"
" जी मैं सोच कर ही कह रही हूँ। संवेदनशील व्यक्ति ही साहित्यकार हो सकते हैं। जब संवेदना ही मर जाएगी तो रचना कहाँ से रची जाएगी। कृपया आप मुझे माफ कर दें।"
विम्मी की भी इच्छा थी कि रमोला उधर वाले की बात मान ले पर रमोला के चेहरे पर उभरे संतोष की झलक देख वो शांत रह गई। दोनों बूढ़ी दादीमाँ के घर की ओर बढ़ गई।****
11.लॉक डाउन फाइव
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अब किसी भी तरह से लॉक डाउन फाइव नहीं आने वाला सोच-सोच लीलापति हाँ ठीक पढ़ा आपने लीलावती नहीं लीलापति परेशान हो उठता। अब जल्द ही लॉक डाउन फोर भी समाप्त होने वाला है और उसे कोई नया बहाना सूझ नहीं रहा। अब वो क्या करेगा। अभी तक तो लीलावती किसी तरह बच बचाकर काम पर जाती और मालकीनियों की कृपा से कुछ न कुछ घर में आ ही जाता जिससे बैठे-बैठे बिना किसी नए बहाना के पेट चल रहा था। अब क्या होगा..अब कौन देगा उस आलसी को काम..और अब वो क्या कह कर पत्नी पर धौंस जमाएगा, चिंता में उसे रात भर नींद नहीं आती। पत्नी जब सुबह रात भर जागे रहने का कारण पूछती तो कह देता दिन भर बेकार बैठे-बैठे ऊब गया है, अब इस उबन से उसे रात भर नींद नहीं आती।
आज सुबह तो हद हो गई । लीलावती उसके हर पैतरे को जानते थी । जैसे ही वो मुँह खोल कुछ नया बहाना करता लीलावती कह पड़ी - "अच्छा...त रात भर नींद ना आया । त दिन में सोएगा । सोने से पहिले सभे बरतन बासन धो के नहा फींच के सो जाना।
बेचारा लीलापति… अत .. अत...अतना.. ..कर रह गया। अब क्या होगा…? ***
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क्रमांक - 080
जन्म : 10 जुलाई, 1964
जन्म स्थान : मैनपुरी - उत्तर प्रदेश
शिक्षा : एम. ए. (अंग्रेजी-हिन्दी) ’सत्तरोत्तरी हिन्दी कहानियों में नारी’ विषय पर पी.एच.डी
प्रकाशन : लगभग सभी छोटी, बड़ी और स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां, लघुकथाएं, कविताएं, लेख आदि प्रकाशित।
मौलिक पुस्तकें : 4 कहानी संग्रह-पथराई आंखों के सपने, साजिश, मजबूर और रिश्ते तथा 6 लघुकथा संग्रह - महावर, वचन, सुराही, दिदिया, इंतजार,100 लघुकथाओं का संग्रह तथा 64 दलित लघुकथाएं एवं कविता संग्रह - विद्रोह प्रकाशित।
सम्पादन : कविता संग्रह-वृंदा तथा कहानी संग्रह 18 कहानियां 18 कहानीकार
विशेष : -
1. विभिन्न रचनाएँ पुरष्कृत एवं आकाशवाणी से प्रसारण
2. एक हजार से अधिक लघुकथाएं 180 से अधिक कहानियां और 300 से अधिक कविताएं लिखीं।
3. उड़िया/मराठी/पंजाबी/बंगला/उर्दू/अंग्रेजी आदि में विभिन्न रचनाओं का अनुवाद प्रकाशित।
4. पुरस्कार/सम्मान : विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थाओं द्वारा अनेक सम्मान और पुरस्कार।
5. हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा कहानी नरेशा की अम्मा उर्फ भजोरिया पर श्रीराम सेंटर दिल्ली में नाट्य मंचन का आयोजन
संप्रति : भारत सरकार में प्रथम श्रेणी अधिकारी
संपर्क 240, बाबा फरीदपुरी, वेस्ट पटेल नगर,नई दिल्ली-110008 फोन : 9868846388
नाम- प्रज्ञा गुप्ता
जन्म तारीख- 13 जुलाई1959
जन्म स्थान- सीहोर - मध्यप्रदेश
पति का नाम- दिलीप कुमार गुप्ता
पिता का नाम- गोपीवल्लभ नेमा
माता का नाम- त्रिवेणी नेमा
शिक्षा- एम.एस-सी.(रसायन शास्त्र),एम.एड.
व्यवसाय- 26 वर्षों तक विभिन्न केंद्रीय विद्यालयों में अध्यापन कार्य ,केन्द्रीय वि. लेक्चरर (रसायन शास्त्र)
2013 में ऐच्छिक सेवानिवृत्ति
प्रकाशित पुस्तकें:-
1. बाल काव्य-संग्रह- ‘आओ बच्चों याद करें’
2. काव्य संग्रह- ‛प्रेरणा’
3. पर्यावरण कविताऐं- ‛धरोहर’
4. क्षणिकाओं का संग्रह- ‘क्या यही सच है?’
5. कहानी संग्रह- ‘अपराजिता’
6. लेख संग्रह- ‘बच्चों को सशक्त बनाएं’ ।
7. लघुकथा संग्रह- ‛दुर्गा'
विशेष : -
1991 से 2002 तक आकाशवाणी बाँसवाड़ा(राज)से ‛वातायन' कार्यक्रम में 25 कहानियों का प्रसारण।
अतिथि सम्पादक: 2007 में जगमग दीपज्योति,अलवर के जून-जुलाई बाल-विशेषांक की अतिथि संपादक
पता : -
म. न. 14, प्रकाशपुंज, श्रीमाधव विला कॉलोनी,
मयूर नगर , मेन गेट के सामने, गाँव-लोधा,
बाँसवाड़ा - 327001राजस्थान
1- जवान तुझे सलाम
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प्रतिमा का विवाह सेना में तैनात जवान मृत्युंजय से हुआ। शादी के बाद वे हनीमून पर गए और कई धार्मिक स्थलों पर भी दर्शन करने गए। विवाह के 5 महीने व्यतीत हुए तभी मृत्युंजय की तैनाती कश्मीर के पुंछ जिले में हुई। कश्मीर के पुंछ जिले में नियंत्रण रेखा के पास अग्रिम ठिकानों पर पाकिस्तानी सेना द्वारा गोलाबारी की गई जिसमें भारतीय सेना की तरफ से गोलाबारी का करारा जवाब देते हुए मृत्युंजय शहीद हो गये। एक रक्षा प्रवक्ता ने बताया कि “मृत्युंजय बहादुर और ईमानदार जवान थे। राष्ट्र उनके सर्वोच्च बलिदान और कर्तव्य के प्रति समर्पण के लिए उनका ऋणी रहेगा।” मृत्युंजय का शव जब उनके गांव में पहुँचा तो सड़क के दोनों और 3 किलोमीटर तक जनता मृत्युंजय को अश्रुपूरित विदाई देने के लिए फूल मालायें लेकर उमड़ पड़ी थी। मृत्युंजय का शव उनके घर पहुँचा तो प्रतिमा रो पड़ी। उसने अपने को संयत किया और सास-ससुर को संभाला। वे अपने इकलौते बेटे की मौत से टूट चुके थे। प्रतिमा के ससुर ने बताया कि “प्रतिभा गर्भवती है।” यह सुनकर सभी के रोंगटे खड़े हो गए थे। प्रतिमा मृत्युंजय के दाह संस्कार के समय वहाँ खड़ी थी। वह अग्नि की उठती हुई लपटों को देखकर मन ही मन संकल्प कर रही थी कि वह होने वाले बच्चे को भी सेना में भर्ती करेगी। वह धीरे-धीरे बोल रही थी “मृत्युंजय तुम शहीद हुये देश की खातिर, तुम अमर हो गये हो। मेरी कोख में पल रहा बच्चा लड़का हो या लड़की उस रुप में तुम्ही पैदा होगे, तुम्हें मेरा सलाम और तुम्हारे होने वाले बच्चे का भी सलाम।” ****
2- भेंट
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श्याम गांव से लौटा तो पके हुए दशहरी आम की पेटी लेकर बॉस के घर पहुंचा । बॉस ने मुँह बिदकाते हुए कहा “आम ही तो हैं बहुत खाए सारी गर्मी । ले जाओ इन्हें ।”
श्याम आम की पेटी लेकर खिन्न मन से लौट रहा था और सोच रहा था कि आमों की एक पेटी उसने बाजार में नहीं जाने दी क्योंकि वह बॉस को आम खिलाना चाहता था । तभी उसका ध्यान एक कोढ़ी की दर्द और कराहती आवाज के कारण बंटा जो छोटी सी लकड़ी की गाड़ी को अपने हाथों से धकेलते हुए उसकी तरफ आ रहा था । श्याम ने आम की पेटी खोली और सारे आम उसकी गाड़ी में रख दिये । उसके दोनों हाथ ऊपर उठे जिनमें उंगलियां नहीं थी ,आँखें चमक उठीं , म्लान चेहरे पर खुशी झलक उठी । श्याम खुश था उसकी शिथिलता और खिन्नता काफूर हो चुकी थी । उसके कदम तेजी से घर की ओर बढ़ने लगे थे ।
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3- प्यार
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दिग्विजय के पिता प्रतिष्ठित उद्योगपति थे। दिग्विजय वैभव में पला बढ़ा था। उसका विवाह हो चुका था। पिता की मृत्यु के बाद से पिता का कारोबार वही संभाल रहा था। गर्मी की छुट्टियां शुरु हो गईं थीं। बच्चे बाहर घूमने का प्रोग्राम बना चुके थे । बच्चों के कारण दिग्विजय ने बड़ा कॉन्ट्रेक्ट छोड़ दिया था। पत्नी ने कारण पूछा तो दिग्विजय ने कहा कि "माता-पिता का बच्चों की खुशियों में साथ होना जरूरी है। मेरे पिता ने पैसा तो बहुत कमाया पर प्यार के दो बोल सुनने के लिए हम तरस गए। हम जब ₹10 मांगते तो सौ का नोट हवा में लहरा देते शायद उनके प्यार की परिभाषा इतनी ही थी।" बच्चे भी बातें सुन रहे थे, वे पापा को अपलक निहारते हुये कह रहे थे "यू आर रियली ग्रेट पापा।" ****
4- प्रतीक्षा
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श्याम सुंदर का जन्मदिन उनके पडौसी बड़े उत्साह से मना रहे थे। फिर भी उनकी आंखें दरवाजे पर लगीं थीं। शायद उनका बेटा आ जाए पर उन्हें निराशा ही हाथ लगी। सब लोग जा चुके थे। वह दरवाजे बंद कर अपने कमरे में पहुंच गए थे। वे थकान महसूस कर रहे थे इसलिये लेट गए। सोचते- सोचते वे अतीत की स्मृतियों में खो गए थे। उनकी पत्नी का निधन 5 वर्ष पहले हो गया था। ईशान उनका इकलौता बेटा था। उन्होंने बेटे के विवाह के सपने संजोए थे कि बहू आ जाने के बाद उनका जीवन व्यवस्थित हो जाएगा। विवाह हो जाने के बाद ईशान प्रिया को दिल्ली ले आया था। तीन माह बीत जाने के बाद ईशान प्रिया के कहने पर पिता को दिल्ली ले आया था। जब वह ईशान के घर पहुंचे तो बड़े खुश थे पर दो-तीन दिन में ही हकीकत से वाकिफ हो गये थे। प्रिया ईशान का ध्यान नहीं रखती थी वह सुबह 8:00 बजे घर से निकल जाता था और रात के 8:00 बजे घर आता था। उसके कपड़े गंदे और पसीने से भरे होते थे। श्यामसुंदर को लगा कि प्रिया का व्यवहार ईशान और उसके प्रति ठीक नहीं है। प्रिया अपने ससुर से घर का काम करवाने लगी, उन्हें बाजार सामान भी लाने के लिये भेजने लगी और कहने लगी "बैठे-बैठे रोटियां तोड़ते रहते हो ,काम करोगे तो स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा।" वे अपना काम भी स्वयं ही करते थे। उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा। एक दिन ईशान ने कहा-" मैं बाऊजी को कुछ समय के लिये गांव छोड़ आता हूं।" इस पर प्रिया ने कहा- "यहां का काम कौन करेगा? नौकर भी बड़ी मुश्किल से मिलते हैं।" ये बातें श्यामसुन्दर ने सुन लीं थीं। वे उसी रात बिना किसी को बताये अपने गांव के लिये निकल पड़े थे।
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5- अभिशप्त
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सदानंद जी हीरे के प्रतिष्ठित व्यापारी हैं। उनकी पत्नी सुमन का स्वास्थ्य बिगड़ा तो उन्हें अस्पताल ले गए। चेकअप में सुमन कोरोना पॉजिटिव निकलीं। अस्पताल में एडमिट रहने के दौरान उनकी मृत्यु हो गई। अस्पताल से डॉक्टर का फोन आया कि, “सदानंद जी आपकी पत्नी सुमन की मृत्यु हो गई है।” सदानंद जी ने सुना तो सन्न रह गए। वे निढ़ाल हो गये और उनका शरीर काँपने लगा। उन्होंने पूरी कोशिश की, कि पत्नी का शव उन्हें मिल जाये पर ऐसा नहीं हो सका। उन्हें याद आया कि सुमन अक्सर कहा करती थीं कि, “अगर मैं पहले मरूं तो तुलसी और गंगाजल मेरे मुँह में डालना, शादी का जोड़ा पहनाना और सोलह श्रृंगार भी तुम ही अपने हाथों से करना।”
सदानंद करुण विलाप करते हुये कहे जा रहे थे, “सुमन मैं कितना अभागा हूं? कितना अभिशप्त हूं कि मैं तुम्हारा पति होते हुये भी तुम्हारी अंतिम इच्छा पूरी नही कर सका। मुझे माफ कर दो। सुमन मुझे माफ कर दो।" ****
6- विधाता की कैसी यह लीला?
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विवाह के मंडप में फेरे चल रहे थे तभी दूल्हे के पिता ने लड़की वालों से केश मांग लिया था नाराज होकर लड़की वालों ने बारातियों की पिटाई कर दी और एक ट्रक में भरकर उन्हें जंगल में छोड़ दिया। बारातियों ने जैसे-तैसे जंगल में रात काटी और पैदल चलकर मुख्य सड़क पर आकर एक गाड़ी ली और अपनी पहचान के दूसरे शहर पहुंचे। दूल्हे के पिता समाज के अध्यक्ष से मिले और अपनी आपबीती सुनाई और बोले “हमें एक लड़की बहू के रूप में चाहिए, हमारी इज्जत का सवाल है। बिना बहू के बारात हम अपने शहर कैसे ले जाएं? ”समाज के अध्यक्ष श्री रामप्रसाद जी लड़के के पिता व लड़के को लेकर लड़की के घर पहुंचे और लड़की के पिता से बोले “आप की लड़की विवाह के योग्य है, आपके सामने लड़का और उसके पिता हैं आप बात कर लें।” लड़की के पिता बोले “अभी तो हम सुबह की चाय पी कर उठे हैं। हमारी हेसियत कहां कि हम आज के आज शादी कर दें?” रामप्रसाद जी बोले “आप लड़का पसंद कर लो, शादी का खर्च हम उठाएंगे।” लड़के के पिता भी बोले “आप तो बस लड़की को एक साड़ी में विदा कर दो। 2:00 बजे हम शादी के फेरे करवाने पहुंच जाएंगे।” रामप्रसाद जी ने समाज के अन्य व्यापारियों से संपर्क किया, मंडप बनवाया बारातियों के खाने की व्यवस्था करवाई और बैंड बाजे की व्यवस्था करवाई। मंडप में लड़के और लड़की ने सात फेरे लिए। लड़की की विदाई हो गई। विधाता की कैसी यह लीला थी? कि अच्छी भली शादी हो रही थी वह तो टूट गई और जिस घर में शादी कराने के लिए फूटी कोड़ी भी नही थी उस घर की लड़की की शादी हो गई। यह शादी संपूर्ण समाज में ही नहीं वरन पूरे शहर में कई महीनों तक चर्चा का विषय बनी रही। ****
7- राजी
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आंधी और तूफान के साथ हुई बारिश के समय वह कच्ची बस्ती में ही थी। जब वह घर आ रही थी तो रमाबाई के कच्चे मकान की दीवार उस पर गिर गई थी। उसका पैर दब गया था। कच्ची बस्ती के लोग उसे अस्पताल ले गए थे। उसके एक हाथ और एक पैर में फ्रैक्चर था। रमाबाई अस्पताल पहुँची और राजी से क्षमा माँगने लगी। राजी ने कहा “रमाबाई मैं तुम्हें इतनी आसानी से माफ नहीं करूंगी,तुम्हारी सजा अभी बाकी है तुम अपने मकान में अकेली हो और मैं भी अकेले ही रहती हूँ। तुम मेरे घर आकर रहो और मेरे काम में मेरी सहायता करो।" राजी,रमा के साथ घर आ गई थी। उसने बैठे-बैठे इशारों से रमा को काम करने का तरीका समझा दिया था।
वह बिस्तर पर लेट गयी थी और अतीत की स्मृतियों में खो गई थी। वह किन्नर थी पर उसके माता-पिता ने उसका मनोबल सदैव बढ़ाया। उसे पढ़ाया लिखाया। वह अपने माता पिता की एकमात्र संतान थी। उसके पिता उससे अक्सर कहते “समाज तुम्हें नहीं अपनाता कोई बात नहीं तुम समाज को अपना लो।" बस इसी वाक्य को राजी ने अपने जीवन का ध्येय बना लिया था। माता-पिता कार दुर्घटना में चल बसे थे। अब वही उस मकान की मालिक थी। मकान का एक हिस्सा उसने किराए पर दे दिया था और शेष हिस्से में कंप्यूटर लेब चलाती थी। बहुत से विद्यार्थी कम्प्यूटर सीखने आते थे। उसने समाज सेवा के लिए स्वयं को समर्पित कर दिया था। कच्ची बस्ती में प्रौढ़ शिक्षा केंद्र पर भी वह पढ़ाने जाती थी। बस्ती की लड़कियों को इकट्ठा कर उनका मनोबल बढ़ाती उन्हें स्कूल जाने की प्रेरणा देती। कोरोना का कहर टूटा, लॉकडाउन हुआ तो उसने कच्ची बस्ती में जाकर राशन बांटा,मास्क बांटे और लोगों को साफ-सफाई के तौर-तरीके सिखाए। तभी 'दीदी -दीदी' बोलते हुये रमाबाई ने उसके कमरे में प्रवेश किया। उसकी विचार तंद्रा टूटी। राजी ने पूछा “क्या बात है रमाबाई ?" रमाबाई बोली “कोई टीवी चैनल से आये हैं आपका इंटरव्यू लेने।आप समाज सेवा करती हो इसलिए।"राजी ने कहा "उन्हें अंदर बुलाओ।" ****
8- ट्रेनिंग
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कॉलोनी में एक नया सब्जी वाला आने लगा था। उसका नाम नारायण था। वह अपाहिज था । लॉकडाउन काल में घर बैठे ताजी सब्जियां मिल जातीं।सभी लोग उसी से सब्जियां ले लेते। यह क्रम चलता रहा उसके साथ उसकी पत्नी भी आती थी। वह उसे सब्जी बेचना और तोलना सिखाता था। एक दिन जेठ की तपती दुपहरी में उसने पानी पीने के लिए मांगा। मैंने उसे पानी दिया उसने धन्यवाद दिया और बताया कि उसे कैंसर है और डॉक्टर ने उसे बताया है कि वह 6 महीने का ही मेहमान है। वह उसकी बीवी को सब्जी बेचना सिखा रहा है ताकि उसकी मृत्यु के बाद वह सब्जी बेचकर पेट भर सके।उसकी जोश भरी बातों से नहीं लगता था कि वह 6 महीने का मेहमान है क्योंकि उसे उसकी पत्नी को सब्जी बेचने की ट्रेनिंग जो देनी थी। ****
9-मां के प्यार से भी ऊंचा ?
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मोबाइल की रिंग बजी, विमला ने देखा जतिन का फोन है । जतिन बोला “ मां आप कल 10:00 बजे एयरपोर्ट पहुंच जाना मैं यू. एस. ए. जा रहा हूं ।” विमला अपनी बात कह पाती उससे पहले ही जतिन ने मोबाइल बंद कर दिया। वह अक्सर जतिन से कहा करती “बेटा जिंदगी में कितनी ही ऊँचाई क्यों न छू लो पर मां के दिल की गहराई में न उतरे तो व्यर्थ हैं ऊँचाईंयां ।” विमला सोच रही थी कि काश जतिन ने दोपहर में सूचना दी होती तो उसके घर जाकर उसे बधाई दे आती । फिर सोचने लगी कि उसे तैयारी भी तो करनी थी ।इसलिए उसने नहीं बताया होगा । विमला ने घड़ी की तरफ नजरें फैलायीं रात के ग्यारह बज रहे थे । अतएव दिसंबर की ठंड में उसने नींद लेना ही बेहतर समझा । विमला दूसरे दिन सवेरे 10:00 बजे एयरपोर्ट पर अटेंडेंट के साथ उपस्थिति थी । उसने देखा जतिन कार में बहू के साथ आया है । जतिन मां के पास आकर बोला “हाय मॉम” बड़ी कठिनता से झुकने का प्रयास करते हुए अचानक सीधा खड़ा हो गया । विमला का हाथ आशीर्वाद के लिए उठा पर मौन के साथ । थोड़ी देर बाद जतिन आसमान में उड़ रहा था। एरोप्लेन के ओझल होने तक वह उसे अपलक निहारती रही ।विमला की अटेंडेंट ने कहा “ मां जी अब चलें ?बेटे के दूर जाने का बहुत दुख है ना आपको?”विमला अपनी आंखों की तरलता को सप्रयास छुपाते हुए बोली “पास रहकर ही वह इतना दूर हो गया है तो दूर जाने के बाद क्या आस करुं?” बहू की तरफ देख उसके पास जाकर बोली- “लीना जब भी तुम मेरे घर आना चाहो आ सकती हो मैं हूं तुम्हारे साथ।" लीना सास की बात सुनकर द्रवित हो गयी थी और सास के पैरों में झुकते हुये बोली-“मां मुझे आज एहसास हुआ कि ,मां के प्यार से ऊंचा इस जहां में कुछ भी नही है।"इतना सुनते ही विमला ने उसे सीने से लगा लिया था। ****
10. देशभक्ति
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पाकिस्तानी बॉर्डर के पास आतंकी हमले में एक जवान बुरी तरह जख्मी हो गया था। मूर्छित अवस्था में पड़ा हुआ जवान बीच-बीच में कराह भी रहा था। तभी एक विदेशी नस्ल का बाज वहां मंडराते हुआ आया और जवान पर टूट पड़ा। उसे अपनी चोंच एवं पंजों से नोंचने लगा। दृश्य इतना भयावह था कि बाज जैसे जवान की आंखें फोड़ उसका सारा मांस नोच लेगा। हमारे देश के पक्षियों ने इस दृश्य को देखा तो वे संकट की घड़ी से जवान को बचाने के लिए जोर-जोर से शोर करते हुए अन्य पक्षियों को बुलाने लगे। देखते-देखते वहां पक्षियों का समूह आ गया, उन्होंने उस बाज को घेरकर कर मूर्छित कर दिया था। सभी पक्षियों ने जवान के चारों ओर सुरक्षा घेरा बना लिया था। तभी आर्मी के कुछ जवान वहां आ गए थे। जवानों ने देखा कि पक्षियों का समूह जवान की सुरक्षा में तैनात है एवं एक विदेशी नस्ल का बाज मूर्छित पड़ा हुआ है। उनके रोंगटे खड़े हो गए थे प्रकृति का अद्भुत नजारा देखकर। वे सारी स्थिति समझ गए थे। उन्होंने सभी पक्षियों को सलामी दी क्योंकि उन्होंने एक जवान को मरने से बचा लिया था। ****
11-आउटडेटेड
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मैं ड्राइंग रुम में बैठा, दबी सी आवाज में बेटे और उसकी मां का वार्तालाप सुन रहा था। बेटा बोला “तुम और पापा मेरे नये मकान में आना चाहते हो तो सारा सामान बेंच दो क्योंकि यह आउटडेटेड हो गया है।" मां सोच में पड़ गई थी कि क्या यही उनका बेटा है जिसे एक महीने पहले मकान की किश्त पूरी करने के लियेे अपनी गाढ़ी कमाई दी है। बेटा बोला “माँ मुझे तुम्हारे निर्णय का इंतजार रहेगा।” बेटा बोलते-बोलते ड्राइंग रूम से गुजर रहा था तो भी मुझसे बगैर आंखें मिलाये धड़ाधड़ सीढ़ियां उतर गया। मैं अंदर पहुंचा तो देखा पत्नी की आंखों से अश्रु की अविरल धारा बह रही थी। मैंने पूछा “क्या हुआ ?” पत्नी बोली “आपका बेटा जिस सामान को उपयोग में लाकर पला-बढ़ा उसको हीे आउटडेटेड बोल रहा है। फिर जब हम सामान बेचकर उसके घर रहने जाएंगे तो हमको भी आउटडेटेड बोलेगा और बिना सामान के हम लौटेंगे कहां ?” पत्नी का यह प्रश्न त्रिशूल की तरह मेरी छाती में धंसता जा रहा था ।****
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क्रमांक - 082
जन्म तिथि : 15 अप्रैल, 1959
स्थान : बालाघाट - मध्यप्रदेश
शिक्षा:-
1- एम.ए.(प्राचीन भारतीय इतिहास,संस्कृति एवं पुरातत्व), सागर (मध्यप्रदेश) से
2- एम.ए. (अर्थशास्त्र), बालाघाट (मध्यप्रदेश) से
3- एल.एल.बी.,वारासिवनी (मध्यप्रदेश) से
4- कम्प्यूटर डिप्लोमा, ई-दक्ष बालाघाट (मध्यप्रदेश) से
5- वास्तु, पुरातत्व, सागर (मध्यप्रदेश) से
6- पी.एच.डी., पूना (महाराष्ट्र) से
सम्पत्ति : -
पुरातत्व संग्रहालय, बालाघाट - मध्यप्रदेश
विद्या : गद्य और पद्य
प्रकाशन : -
1- वैनगंगा घाटी का इतिहास, पुरातत्व, साहित्य, संस्कृति वैभव (शोध ग्रंथ)
2- वीर के तीर (हास्य-व्यंग्य)
3- अन्य गद्य और पद्य 18 हजार के ऊपर
सम्मान:-
राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर साहित्यिक एवं पुरातात्विक क्षेत्रों में
2000 से अधिक अंलकृत
पता:-
गहरवार भवन वार्ड नंबर 19, रामगली,
महाराणा प्रताप न्यू मार्केट रोड़, बालाघाट - 481001 मध्यप्रदेश
1- अनहोनी
काँलेज में देवेंद्र बी.ए. का छात्र था, उसे अपनी पढ़ाई-लिखाई और अपने काम से मतलब था, होनहार, साहित्य में काफी रुचि होने के कारण प्रोफेसर, अन्यों के बीच हौसले बुलंद थे। इसी दौरान काँलेज के छात्र संघ चुनाव में कक्षा प्रतिनिधि भी चुन लिए गये थे, यह भी आश्चर्य की बात थी, कक्षा में छात्राओं की संख्या भी अधिक थी, दो छात्र, एक छात्रा को भारी वोटों से हराकर, अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल हो गये। लेकिन एक गुट को देवेन्द्र के इस तरक्की से नफरत होने लगी थी, इसलिए उसे नीचा दिखाने के लिए छात्रों की टोली ने रचना रची, देवेन्द्र से कहा इस लड़की को पत्र देकर आ जायेगा तो, तुझे मान लेयेगें, तू मर्द हैं, नहीं तो ना मर्द? देवेन्द्र के सामने इस प्रश्न ने दुविधाओं में डाल दिया था, क्या करें, बहुत मुश्किल से तैयार हुआ, न चाहते हुए भी झुकना पड़ा और पत्र लेकर चले गए, उस लड़की के पास बहुत हिम्मत से गये और पत्र फैकर आ गये। उन लोगों के सामने तो शर्त तो जीत गये। लेकिन उस लड़की ने दूसरे दिन देवेंद्र का ऐसा बाजा बजाया, जो देखते बनता था, देवेन्द्र ने वास्तविकता बताने का भरपूर प्रयास किया, लेकिन उस लड़की ने सुनना पसंद नहीं किया। इस तरह देवेन्द्र अनहोनी घटना की शर्मिंदी के मारे अपने जीवन की दिशा ही बदल ली।
2- परिवार
शंकर अपने माता-पिता की एक ही संतान था, परिवार की अनेकों जिम्मेदारियों के कारण अनेकों कठिनाईयों का सामना करना पड़ता था, उसे भविष्य की भी चिंता थी, जैसे-तैसे शिक्षा-दीक्षा पूरी की और नौकरी की तलाश करते-करते नौकरी मिल गयी। शादी-विवाह उपरान्त अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होते गया। फिर वह इतना आगे बढ़ गया, किसी ने सोचा भी नहीं था। जिसे उसकी गरीबी का मजाक उड़ाते थे, आज उसके आगे पीछे घूमते थे।
3- पुनर्विवाह
आज रामलाल की हवेली की विभिन्न विधुत साज-सज्जा, रंग-बिरंगी झालरो से जगमगा उठी थी, जिसे देखकर कर रामलाल के गुणों का बखान करते नजर आ रहे थे। क्योंकि रामलाल अपनी बहू की शादी करने जा रहे थे। रामलाल का एक ही पुत्र था, शादी उपरान्त अल्पायु में ही उसके पुत्र का निधन हो गया था, बहू होनहार, सुशील, संस्कारी, पढ़ी लिखी थी। रामलाल को रास नहीं आ रहा था, क्या किया जाये, क्या नहीं किया जाये? समय बीतता गया, कई साल हो गये। रामलाल की पत्नी का तो पूर्व में ही निधन हो गया था, इसलिए काफी सोच समझकर बहू के परिवार जनों से बहू की शादी करने का प्रस्ताव रखा, पहले तो उन्होंने मना किया, अंत में मान ही गये। रामलाल ने अपनी बहू की शादी, अपनी बेटी जैसे कर, जैसे गंगा नहा लिये हो। रिश्ता भी ऐसा, लड़का भी अपने माता-पिता का अकेला पुत्र था, जिसके माता-पिता का भी निधन बचपन में ही हो गया था। वह भी रामलाल के घर ही रहने लगा।
4- दिशा
गाँव में अचानक बाढ़ आई, सम्पूर्ण गांव तहस-नहस, जानवरों, पुरुष, महिला, बच्चों का परिदृश्य देखतें बनता था। कई-कई दिनों तक वीरान गाँव रहा था, जो शेष थे, उन्होंने अन्य गाँवोंमें शरण लेकर जीवन यापन कर जीवित अवस्था में पहुँच कर सफलता अर्जित कर ली थी। उन्हीं में से दिनेशकुमार ने अपने साथियों से विचार विमर्श कर अपने गाँव का निरीक्षण किया, उस गाँव के पुनर्वास योजना बनाई, सब तैयार हो गये और शहर जाकर शासन-प्रशासन का ध्यानाकर्षण करवाया। फिर क्या था,
गाँव का पुनर्वास हुआ, देखते-देखते यह गाँव का इस तरह चमक गया, जिसे देखकर कर सब आश्चर्यचकित हो गये। अगर दिनेशकुमार के मन मस्तिष्क में विचार नहीं आता और साथियों को गाँव की दिशा नहीं बताते तो दिशा ही नहीं बदलती।
5- अस्पताल
शहरों का विकास हो चुका था, लेकिन ग्रामों के विकास की ओर किसी का भी ध्यान नहीं था, जब भी कोई बीमारियों से ग्रसित होता तो शहर की ओर जाता, कई चिकित्सा के अभाव में वही दम तौड़ देते थे। समय बीतता गया। सबको अपने से ही मतलब था, उस ग्राम की ओर ध्यान नहीं था। वर्तमान परिदृश्य में बदलने कोई सक्षम नहीं हो पा रहा था। ग्रामीणजनों की सहनशीलता भी समाप्त हो रही थी, जैसे ही चुनाव आया, चुनाव में सभी ग्रामीणजनों ने बहिस्कार कर दिया और शत-प्रतिशत सफलता मिली। चुनाव परिणाम के बाद चुनाव आयोग ने जानकारी बुलवाई, तब शासन-प्रशासन जागा और बड़ी तत्परता के साथ अस्पताल का निर्माण देखते हो गया, इतना ही नहीं जो ग्राम में कार्य नहीं हुए थे, सभी का विकास हो गया।
6- जल योजना
एक शहर नदी के तट पर बसा हुआ था, वहां एक घर के बाद कुओं की संख्या बहुत थी। शहर स्वच्छ एवं सुन्दर था, सभी प्रकार का विकास हो चुका था। वहीं उस शहर में एक व्यक्ति का आगमन हुआ, उन्होंने उस शहर की भौगोलिक स्थिति का अवलोकन किया और अपनी योजना के बारे में अवगत कराया। सभी उस नदी के तट पर गये और नदी के जल को, शहर वासियों को उपलब्ध वृहद स्तर पर विभिन्न प्रकार से कराये। फिर क्या था, नदी के जल निकासी की योजना तैयार हुई और शहर वासियों को घर-घर जल पहुँचने लगा। जिससे नगर पालिका के आय का साधन बन गया।
7- एकता
चार दोस्त हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई जिनकी दोस्ती के अनेकों किस्से सुनने को मिलते थे। हमेशा साथ-साथ उठना, बैठना, रहता था। इतना ही नहीं चारों को एक ही शौक, नौकरियां, शादी-विवाह भी साथ-साथ, जिनकी अनेकता में एकता को परिदृश्य करता था। चारों ने एक योजना बनाई, क्यों न चारों के धर्मों का एक ही जगह पर एक लाईन से मंदिर, मज्जिद, गुरुद्वारा, चर्च का निर्माण किया जायें। जिस पर अनेकों समुदायों ने विरोध बहुत किया लेकिन चारों के परिवार जनों ने सभी को समझाया। तब जाकर सभी तैयार हुए। विश्वास के साथ एकाग्रचित्त होकर एक तरंग उत्पन्न हुई और विशाल रुप में तैयार हो गया।
8- जागृति
विशाल रुप में परिवार की संरचना थी, जहाँ वास्तविकता की झलकियां दिखाई देती थी। लेकिन एक समय ऐसा भी आया, जहाँ शनैः-शनैः परिवार देखते-देखते तहस-नहस हो गया, परिवार बट गया, जमीन जायदाद आदि का समुचित बंटवारा देखते-देखते हो ही गया। उस परिवार को टूटते सभी ने देखा। आज उस जमीन पर, उस परिवार की जागृति हुआ करती थी, आज काम्पलैक्स का निर्माण हो चुका था।
9- अनुभव
श्याम लाल एक ईमानदार व्यक्ति थे, जिन्होंने पूरी सेवा को सम्पादित करने में अहम भूमिका निभाई थी। अपने अधीनस्थों को प्रेरणा स्वरुप, सब कुछ दिया। सभी के कार्यों को नि:स्वार्थ भाव करते थे। परन्तु उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था, उनकी सेवा निवृत्त पश्चात उन्हीं के पेंशन प्रकरणों को उनके ही अधीनस्थ रिश्वत लिये एक भी काम नहीं करेंगे, यहाँ तक कि वे जब सेवा निवृत्त हुए तो, कार्यालय परिवार द्वारा भी किसी भी तरह की बिदाई समारोह भी नहीं रखा, जिसका उन्हें कटु अनुभव भी हुआ।
10- विश्वास घात
गणेश कभी भी शादी नहीं करना चाहता था, माता-पिता के कहने पर शादी कर लिया। पत्नी के घर आने से गणेश को अहसास ही नहीं हुआ कि उसकी शादी हुई हैं। क्योंकि उसकी पत्नी अभी भी अपने परिवार के मोहमाया के विचारधारा में ग्रसित थीं। जब भी गणेश अपनी पत्नी के साथ कहीं जाने का सोचते, वहां उन दोनों के बीच तीसरा मोर्चा साथ-साथ रहता। गणेश ने अपनी पत्नी को काफी हद तक समझाने की कोशिश और अपनी सार्थकता को बताया, लेकिन कुछ लोग स्वार्थ के विश्वास घात करने प्रयत्नशील रहते। गणेश काफी विचलित हो गये और एक दिन स्वयं आत्महत्या कर ली।
11- अनुभव
साहित्य में काफी रुचि होने के कारण योगेन्द्र कुमार के हौसले बुलंद थे। परिस्थितियों के विपरीत दिशा से अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हुए, अपने साहित्य को अपने वेतनों से प्रकाशित करवाते थे, कई-कई पुस्तकें तो सप्रेम भेंट में ही निछावर हो गई थी, घर-घर जाकर भेंट करते, स्वयं ही अपनी प्रशंसा में स्वयं लिखकर, लेकर जाते थे, फिर अगली पुस्तकों में प्रकाशित करवाते थे, इस तरह उनका जीवन यापन हो रहा था और एक दिन उनका निधन हो गया। उनके निधन पश्चात अलमारी में शेष बची पुस्तकों को उनके परिवार जनों ने रद्दी वाले को बेच दी। ऐसा भी साहित्य का अनुभव होता हैं। ****
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क्रमांक - 083
जन्म : 26 जून 1965 , रेवाड़ी - हरियाणा
माता जी : श्रीमती पुष्पा शूर
पिता जी : श्री सुखदेवराज शूर
शिक्षा : एम.ए. ( इतिहास , हिन्दी ) , एम.एड , एल एल बी , पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर
सम्प्रति : दिल्ली शिक्षा निदेशालय के तहत इतिहास के लेक्चरार
विधा : लघुकथा , कविता , व्यग्य , कहानी आदि लेखन
एंकल प्रकशित पुस्तकें :-
लघुकथा : सरहद के इस ओर , क्रान्ति मर गया , मेरी प्रिय लघुकथाएं
अन्य : मेरी सात कहानियां , मेरे प्रिय हास्य व्यंग्य , पत्थर पर खुदे नाम , रोटी के लिए जिद मत कर , हृदय राग , अपना सौर परिवार , आपदा प्रबंधन एक परिचय , मेरा लेखन तथा जीवन आदि
सम्पादित प्रकाशित पुस्तकें : -
लघुकथा : दूसरी पहल , शिक्षा जगत की लघुकथाएँ , हरियाणा की लघुकथाएँ , दिल्ली की लघुकथाएँ , राजस्थान की लघुकथाएँ , मध्यप्रदेश की लघुकथाएँ , नई सदी की लघुकथाएँ , देश - विदेश से लघुवादी लघुकथाएं आदि
विशेष प्रकाशित पुस्तकें : -
लघुकथाकार अनिल शूर आजाद ( सम्पादक : इन्दु वर्मा )
अनिल शूर आजाद : प्रतिनिधि लघुकथाएं ( सम्पादक : इन्दु वर्मा )
अनिल शूर आजाद की कृतियां : एक अवलोकन ( रेखा पूनिया ' स्नेहल ' )
सम्मान : -
हरियाणा प्रदेश साहित्य सम्मेलन , सिरसा - हरियाणा द्वारा रमेशचंद्र शालिहास स्मृति साहित्य सम्मान
युवा साहित्य मण्डल , गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश द्वारा श्रेष्ठ सम्पादक सम्मान
दिल्ली साहित्य समाज द्वारा साहित्य गौरव सम्मान
स्वतंत्र लेखक मंच , दिल्ली द्वारा विशेष रचनाकार सम्मान
पता : -
ए जी - 1 / 33 बी , विकासपुरी , दिल्ली - 110018
जन्मतिथि : 29 अगस्त 1960
जन्मस्थान : सीवान - बिहार
शिक्षा : बी.ए , बी. एड् , एल.एल. बी
सम्प्रति : 2016 से 'साहित्यिक स्पंदन' त्रैमासिक पत्रिका का सम्पादन
विशेष : -
- 2011 में ब्लॉग जगत से जुड़ी
–2012 से हाइकु और लघुकथा लेखन
–2014 में अपना हाइकु समूह बनायी और हाइकु पुस्तक हेतु इवेंट कराया
–2014 में ही वेब जय विजय पर लेखन शुरू किया
–हस्ताक्षर वेब पत्रिका में हाइकु चयन शुरू किया
- 2015 में *साझा नभ का कोना* हाइकु साझा संग्रह और *कलरव* सेदोका - तानका साझा संग्रह का सम्पादन किया
- 2016 में लेख्य-मंजूषा की स्थापना और लघुकथा पुस्तक का सम्पादन शुरू किया
- 2016 में हाइकु शताब्दी वर्ष में लगभग 125 हाइकुकार को शामिल कर .. *साल शताब्दी , शत हाइकुकार, साझा संग्रह* और *अथ से इति : वर्ण पिरामिड* 51 प्रतिभागियों का साझा संग्रह सम्पादित किया –छोटी-छोटी कोशिश है..
–2016 में लगभग 125-130 प्रतिभागियों की हाइकु की दूसरी पुस्तक
साल शताब्दी
शत हाइकुकार
साझा संग्रह
का सम्पादन किया
पता : -
104–मंत्र भारती अपार्टमेंट ,रुकनपुरा , बरेली रोड ,
पटना – 800014 बिहार
01. निदान
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भारत और वेस्टइंडीज के मध्य क्रिकेट का मैच चल रहा था और ऋत्विक जो कि क्रिकेट का ना मात्र शौकीन था अपितु अपने महाविद्यालय की क्रिकेट टीम का एक खिलाड़ी भी की आँखें टी.वी. स्क्रीन पर गड़ी हुई थी। वह भारत की वॉलिंग एवं वेस्टइंडीज की बैटिंग बड़े गौर से देख रहा था...। भारत की बॉलिंग और फील्डिंग पर वह बार-बार मोहित हुआ जा रहा था। उसे टीम के प्रत्येक सदस्य का तालमेल लुभा रहा था तो वेस्टइंडीज की बिखरी–बिखरी बैटिंग पर वह भीतर ही भीतर क्रोधित हो रहा था...।
वेस्टइंडीज के लगातार चार खिलाड़ियों के आउट होते ही उसके मुँह से अकस्मात् निकला,-"इस टीम का हार तो निश्चित है।"
बगल में बैठे उसके छोटे भाई ने कहा,-"अभी तो बैटिंग हेतु उनके खिलाड़ी बाकी हैं..। अभी से ही भैया आप ऐसा कैसे कह सकते हैं..?"
"छोटे! तू नहीं समझेगा... जहाँ बिखराव हो वहाँ हार निश्चित है... भारत ने बॉलिंग एवं फील्डिंग की तरह ही यदि आपसी तालमेल से बैटिंग की तो उनकी जीत निश्चित है।"
"हूँह.. ये.. तो है भैया!"
अपनी बात के साथ ही ऋत्विक के मन–मस्तिष्क में अंकित होने लगे नित्य प्रतिदिन के आपसी लड़ाई-झगड़े... अभी वह इन मानसिक उलझनों में उलझ सुलझ ही रह था कि बाहर से सबसे छोटा भाई रोते हुए दाखिल हुआ,-"भैया! मोहल्ले के हातिम और उसके भाई ने मिलकर मुझे पीटा है...।" इतना कहते हुए वह अपने कमरे में चला गया।
उसके मुँह से अकस्मात् निकला,-"अब मेरा कोई भाई या किसी और का भी भाई ऐसे रोता नहीं आएगा.. हम सब भाई आपस में प्यार-मोहब्बत से मिलकर उदाहरण बनकर रहेंगे और किसी भी समस्या का समाधान मिलकर करेंगे।" ***
02. जागृत समाज
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पुस्तक मेला में लघुकथा-काव्य पाठ समाप्त होते ही वे बुदबुदाये-"ईश्वर तूने आज सबकी प्रतिष्ठा रख ली।"
बगल में बैठे मुख्य अतिथि उनके मित्र के कानों में जैसे ये शब्द पड़े उन्होंने पूछा,-"क्यों क्या हुआ?"
"अरे! तुम नहीं जानते... मैं आयोज में अध्यक्षता तो जरूर कर रहा था परंतु मन में एक अजीब सा डर भी समाया हुआ था.. बकरे की अम्मा सी.. कहीं यहाँ कोई घमासान हुआ तो...!"
"क्यों?"
"ओह्ह! आज सुबह तुमने सुना नहीं क्या अयोध्या राम मंदिर के विषय में, उच्च न्यायालय का क्या निर्णय आया है..?"
"हाँ! सुना तो है... पर ऐसा आपने क्यों सोचा...?"
"तुम समझ तो सब रहे हो फिर भी पूछ रहे हो...!"
"भाई जान! आज समय काफी बदल गया है... ख़ुदा का शुक्र है। सभी समुदाय के लोग पूर्व की अपेक्षा साक्षर ही नहीं अब सुशिक्षित भी हो रहे हैं... वे जानते हैं... सम्प्रदायों की क्षति किसमें है और लाभ किसे है। फूट डालो राज करो अब सफल नहीं होने वाला।"
संध्या हो चुकी थी... एकाएक पूरा मैदान बत्तियों से जगमगा उठा। ****
03.अक्षम्य
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"सुनो! तुम जबाब क्यों नहीं दे रही हो? मैं तुमसे कई बार पूछ चुका हूँ, क्या ऐसा हो सकता है कि किसी भारतीय को गोबर का पता नहीं हो ?"
"क्या जबाब दूँ मेरे घर में ही ऐसा हो सकेगा.. मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी..!"
"आप दोनों आपस में ही बात कर रहे हैं और मुझे मेरे ही कमरे में कैद कर तथा मुझे ही कुछ बता नहीं रहे हैं। क्या मुझे कोई कुछ बतायेंगे?"
"क्या तुम कुछ ऑर्डर पर मंगवाए थे?"अंततः पिता ने पुत्र से ही पूछा।
"हाँ! मैं अमेजन से 'काऊ डंग केक' मंगवाया था। 50% डिस्काउंट पर दो सौ में लगभग पाँच इंच के गोलाकार 12 पीस आया था। परन्तु उसका स्वाद बहुत अजीब था और मेरा पेट भी खराब हो गया। मैं अमेजन के फीड बैक में बताते हुए लिखा भी है कि अगली बार थोड़ा करारा भी बनाकर बेचे।"बेटे की आवाज सुन पिता को अपनी माँ की याद बहुत आने लगी।
"जब से तुम पिता बने हो मेरे पास अकेले आते हो.. इच्छा होती है मेरा पोता गाय का ताजा दूध पीता। तुम जिस तरह गाय को दुहते समय ही फौव्वारे से पी लेते थे। बछड़े से खेलता।"
अपनी माँ के कहने पर हर बार वह कहता," यह हाइजेनिक नहीं है।"
"आप कहाँ खो गए? मैं अपनी गलती स्वीकार तो करती हूँ। लेकिन उन एक सौ पैतालीस लोगों को क्या कहूँ जिन्होंने एमोजन को दिए इसके फीडबैक को पसन्द किया और इसे सही ठहराते हुए शाबासी दिया..।****
04. पश्चाताप
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"माता-पिता के सामने जाकर केवल खड़ा हो जाने से, रिश्तों पर इतने समय से जम रही धूल साफ हो जाएगी..!" मीता ने अपने पति अमित से कहा।
"सामने जाकर खड़ा होने का ही तो हिम्मत जुटा रहा हूँ, जैसे उनसे दूर जाने की तुम्हारे हठ ठानने पर हिम्मत जुटाया था।"
"मेरे हठ का फल निकला कि हमारी बेटी हमें छोड़ गयी और बेटा को हम मरघट में छोड़ कर आ रहे ड्रग्स की वजह से..। संयुक्त परिवार के चौके से आजादी लेकर किट्टी पार्टी और कुत्तों को पालने का शौक पूरा करना था।"
"उसी संयुक्त चौके से बाकी और आठ बच्चों का सुनहला संसार बस गया..।"
"हाँ! अब मेरे भी समझ में आ गया है, शरीर से शरीर टकराने वाली भीड़ वाले घर में एच डी सी सी टी वी कैमरा दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ की आँखें होती हैं..,"
"अब पछतात होत क्या...,"
"आगे कोई बागी ना हो... उदाहरण अनुभव के सामने रहना चाहिए...!" ****
05. इंसाफ
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"अपना बदला पूरा करो, तोड़ दो इसका गर्दन। कोई साबित नहीं कर पायेगा कि हत्या के इरादे से तुमने इसका गर्दन तोड़ा है। तुम मार्शल आर्ट में ब्लैक बेल्ट धारी विशेषज्ञ बनी ही इसलिए थी।" मन ने सचेत किया।
"तुम इसकी बातों को नजरअंदाज कर दो। यह मत भूलो कि बदला में किये हत्या से तुम्हें सुकून नहीं मिल जाएगा। तुम्हारे साथ जो हुआ वो गलत था तो यह गुनाह हो जाएगा।"आत्मा मन की बातों का पुरजोर विरोध कर रही थी।
"आत्मा की आवाज सही है। इसकी हत्या होने से इसके बच्चे अनाथ हो जाएंगे, जिनसे मित्रता कर इसके विरुद्ध सफल जासूसी हुआ।"समझाती बुद्धि आत्मा की पक्षधर थी।
"इसके बच्चे आज भी बिन बाप के पल रहे हैं। खुद डॉक्टर बना पत्नी डॉक्टर है। खूबसूरत है । घर के कामों में दक्ष है। यह घर के बाहर की औरतों के संग..।" मन बदला ले लेने के ही पक्ष में था।
"ना तो तुम जज हो और ना भगवान/ख़ुदा।"आत्मा-बुद्धि का पलड़ा भारी था।
तब कक्षा प्रथम की विद्यार्थी थी। एक दिन तितलियों का पीछा करती मनीषा लड़कों के शौचालय की तरफ बढ़ गयी थी और वहीं उसके साथ दुर्घटना घट गयी थी। जिसका जिक्र वो किसी से नहीं कर पायी। मगर वह सामान्य बच्ची नहीं रह गयी। आक्रोशित मनीषा आज खुश हो रही थी, जब वर्षों बाद उसे बदला लेने का मौका मिल गया। दिमाग यादों में उलझा हुआ था। मनीषा अपने दुश्मन को जिन्दा छोड़ने का निर्णय ले चुकी थी। ****
06. पंच परमेश्वर
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"यह क्या है बबलू.. यहाँ पर मंदिर बन रहा है..?" विक्की ने पूछा।
"हाँ! वक्त का न्याय है।" बबलू ने कहा।
"अगर आप घर में से अपना हिस्सा छोड़ दें तो हम खेत में से अपना हिस्सा छोड़ देंगे।" बबलू ने विक्की से कहा था।
लगभग अस्सी-इक्यासी साल पुराना मिट्टी का घर मिट्टी में मिल रहा था। दो भाइयों के सम्मिलात घर के आँगन में दीवाल उठे भी लगभग सत्तर-बहत्तर साल हो गए होंगे। तभी ज़मीन-ज़ायदाद भी बँटा होगा। ना जाने उस ज़माने में किस हिसाब से बँटवारा हुआ था कि बड़े भाई के हिस्से में दो बड़े-बड़े खेतों के बीचोबीच दस फीट की डगर सी भूमि छोटे भाई के हिस्से में आयी थी। जो अब चौथी पीढ़ी के युवाओं को चिढ़ाती सी लगने लगी थी। बबलू छोटे भाई का परपोता और विक्की बड़े भाई का परपोता थे..। बबलू गाँव में ही रहता था और विक्की महानगर में नौकरी करता था।
'ठीक है तुम्हें जैसा उचित लगे।' विक्की ने कहा था।
घर से मिली भूमि के बराबर खेत के पिछले हिस्से की भूमि बबलू ने विक्की को दिया। आगे से भूमि नहीं मिलने के कारण एक कसक थी विक्की के दिल में , जो आज दूर हो गयी। ****
07. खुले पँख
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"मैं आज शाम से ही देख रहा हूँ.. आप बहुत गुमसुम हो अम्मी! कहिए ना क्या मामला है?"
"हाँ! बेटे मैं भी ऐसा ही महसूस कर रहा हूँ.. बेगम! बेटा सच कह रहा है। तुम्हारी उदासी पूरे घर को उदास कर रही है.. अब बताओ न।" शौकत मलिक ने अपनी बीवी से पूछा।
"कल रविवार है.. हमारे विद्यालय में बाहरी परीक्षा है। आन्तरिक(इन्टर्नल) में जिसकी नियुक्ति थी उसकी तबीयत अचानक नासाज हो गई है। उनका और प्रधानाध्यापिका दोनों का फोन था कि मैं जिम्मेदारी लेकर अपनी उपस्थिति सुनिश्चित करूँ।"
"यह जिम्मेदारी आपको ही क्यों .. और शिक्षिका तो आपके विद्यालय में होंगी?" बेटे ने तर्क देते हुए पूछा।
"ज्यातर बिहारी शिक्षिका हैं। आंध्रा में बिहार निवासी दीवाली से पूर्णिमा तक पर्व में रहते कहाँ हैं।" मिसेज मलिक की उदासी और गहरी हो रही थी।
"चिंता नहीं करो, सब ठीक हो जाएगा।"बेटे ने कहा।
"हाँ! चिंता किस बात की। अपने आने में असमर्थता बता दो कि माँ का देखभाल करने वाली सहायिका रविवार की सुबह चर्च चली जाती है तुम्हारा घर में होना जरूरी है।" पति मलिक महोदय का फरमान जारी हुआ। सहमी सहायिका भी लम्बी सांस छोड़ी।
"कैसी बात कर रहे हैं पापा आप भी? अगर आपके ऑफिस में ऐसे कुछ हालात होते तो आप क्या करते?"
"मैं पुरुष हूँ पुरुषों का काम बाहर का ही होता है।"
"समय बहुत बदल चुका है। बदले समय के साथ हम भी बदल जाएं। कल माँ अपने विद्यालय जाकर जिम्मेदारी निभायेंगी। सहायिका के चर्च से लौटने तक घर और दादी को हम सम्भाल लेंगे।"
"बेटा! तुम ठीक कहते हो... घर चलाना है तो आपस में एक दूसरे की मुश्किलों को देख समझकर ही चलाना होगा.. तभी जिंदगी मज़े में बीतेगी...।"
इतने में उनकी नज़र पिंजरे में बंद पक्षी पर जा पड़ी जो शायद बाहर निकलने को छटपटा रहा था.. पिंजड़ा को खोलकर पक्षी को नभ में उड़ाता बेटे ने कहा,-"सबको आज़ादी मिलनी ही चाहिए।" ****
08. सेतु
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चारों तरफ मैरी किसमस सैंटा सांता क्लॉज का शोर मचा हुआ था..। इस अवसर पर मिलने वाले उपहारों का शैली को भी बेसब्री से प्रतीक्षा थी। कॉल बेल बजा और एक उपहार उसे घर के दरवाजे पर मिल गया। चार-पाँच साल की नन्हीं शैली खुशियों से उछलने लगी,-"मम्मा! मम्मा मैं अभी इसे खोल कर देखूँगी। सैंटा ने मेरे लिए क्या उपहार भेजा है?"
"अपने डैडी को घर आ जाने दो .. ! सैंटा का उपहार कल यानी 25 दिसम्बर को खोल कर देखना। " शैली की माँ ने समझाने की कोशिश किया।
शैली ज़िद करने लगी कि अभी उपहार मिल गया तो अभी क्यों नहीं खोल कर देख ले। माँ बेटी की बातें हो ही रही थी कि शैली के डैडी भी आ गए। वे भी अपनी बिटिया हेतु सैंटा सिद्ध होने के लिए दो-तीन पैकेट उपहारों का लेकर आये थे।
जब तक छिपाकर रखते शैली की नजर पड़ गयी। कुछ ही देर में शैली सारे उपहारों का पैकेट खोलकर बिखरा दी।
"जब तुम जानती थी कि हम उपहार रात में इसके बिस्तर पर रखेंगे, जिसे एमेजॉन पर ऑर्डर किया और कुछ लाने मैं स्वयं बाजार गया था। मेरे वापसी पर शैली को किसी अन्य कमरे में खेलने में व्यस्त रख सकती थी न तुम?" शैली के पिता शैली की माँ पर बरस पड़े।
"इसे आप बाहर नहीं ले गए। कुछ देर तक रोती रही। बहुत फुसलाने पर बाहर से अन्दर आयी। डोर बेल बजने पर यह दौड़ कर दरवाजे तक पहुँच गयी।"शैली की माँ ने कहा।
"ना काम की ना काज.., बहाने जितने बनवा लो..!" शैली के पिता बुदबुदाने लगे । शैली की माँ सुनते भड़क गयी। दोनों में गृह युद्ध हो गया और अबोला स्थिति हो गयी।
शैली के समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर हुआ तो हुआ क्या...?
रात्रि भोजन के समय भी अपने माता-पिता की चुप्पी उसे कुछ ज्यादा परेशान कर दी। शैली अपने पिता के पास जाकर बोली, -"डैडी! मुझे आपसे बात करनी है।"
परन्तु उसके पिता चुप ही रहे।
"क्या मैं आपसे घर की शान्ति की भीख मांग सकती हूँ?" शैली ने कहा। ****
09. पितृ - ऋण
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"बाबूजी!"
"आइये बाबूजी!"
"आ जाइए न बाबा.." मंच से बच्चों के बार-बार आवाज लगाने पर बेहद झिझके व सकुचाये नारायण गोस्वामी मंच पर पहुँच गए।
मंच पर नारायण गोस्वामी के पाँच बच्चें जिनमें चार बेटियाँ , स्वीकृति, संप्रीति स्मृति, स्वाति और एक बेटा साकेत उपस्थित थे।
"मैं बड़ी बिटिया स्वीकृति महिला महाविद्यालय में प्रख्याता हूँ।"
"मैं संप्रीति चार्टर्ड एकाउंटेंड हूँ।"
"मैं स्मृति नौसेना में हूँ।"
"मैं स्वाति बायोटेक इंजीनियर हूँ।
"मैं अपने घर में सबसे छोटा तथा सबका लाड़ला साकेत आपके शहर का सेवक हूँ जिला कलेक्टर।
आप सबके सामने और हमारे बीच हमारे बाबूजी हैं 'श्री नारायण गोस्वामी'।"
"आपलोगों के बाबूजी क्या कार्य करते थे ? यह जानने के लिए हम सभी उत्सुक हैं।" दर्शक दीर्घा के उपस्थिति में से किसी ने कहा।
"हमारे बाबूजी कब उठते थे यह हम भाई बहनों में से किसी को नहीं पता चला। पौ फटते घर-घर जाकर दूध-अखबार बाँटते थे। दिन भर राजमिस्त्री साहब के साथ, लोहा मोड़ना, गिट्टी फोड़ना, सीमेंट बालू का सही-सही मात्रा मिलाना और शाम में पार्क के सामने ठेला पर साफ-सुथरे ढ़ंग से झाल-मुढ़ी, कचरी-पकौड़े बेचते थे।"
दर्शक दीर्घा में सात पँक्तियों में कुर्सियाँ लगी थीं.. पाँच पँक्तियों में पाँचों बच्चों के सहकर्मी, छठवीं में इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया -प्रिंट मीडिया केे पत्रकार व रिश्तेदारों के लिए स्थान सुरक्षित था तो सातवीं पँक्ति में नारायण गोस्वामी बाबूजी के मित्रगण उपस्थित थे।
पिन भी गिरता तो शोर कर देता...। ****
10. रोष
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"क्या हाल है ?" माया ने सुसी को व्हाट्सएप्प पर सन्देश भेजा।
"कोरोना के साथ जीने की कोशिश कर रही हूँ। हा हा हा हा हा..!सुसी ने अनेक हा, हा लिखते हुए कई हँसता हुआ इमोजी भी लगा कर जबाबी सन्देश भेजा।
"अरे मेरी दोस्त! हमसब कोरोना के साथ ही जीने की कोशिश कर रहे हैं..., थैंक्सगिविंग सप्ताह की छुट्टियों में क्या तुम दो घण्टे का समय निकाल सकती हो, या शहर से बाहर जा रही हो?" माया ने सुसी को पुनः व्हाट्सएप्प सन्देश भेजा।
"कोरोना के साथ जीने की कोशिश कर रही हूँ...यानी मुझे सच में कोरोना हुआ है और मुझे पूरे चौदह दिनों का क्वारंटाइन होने का सुख मिल गया है... हा हा हा हा हा..! सुसी ने अनेक हा, हा लिखते हुए कई हँसता हुआ इमोजी भी लगाकर पुनः जबाबी सन्देश भेजा।
"अरे! तुम्हें कैसे हो सकता है? तुम तो कमरे से बाहर नहीं निकलती हो..। इतने महीनों से तुम अपने घर चीन नहीं गयी...,"माया ने सन्देश भेजा।
"बाहर से जो पका भोजन आता है उसे गरम करने किचन तक जाती हूँ। कुछ दिनों पहले मकान मालकिन का प्रेमी शिकागो से आये थे।"
"अरे! शिकागो से कैलिफोर्निया.. हो सकता है कोई ऑफ्फिसियल टूर हो?"
"नहीं केवल प्रेमिका का चेहरा देखने... उन्हें बेहद चिंता लगी हुई थी... रह नहीं पा रहे थे... कुशलता पर विश्वास नहीं कर पा रहे थे...!"
"उनदोनों की उम्र कितनी होगी?"
"लगभग 65-70 की प्रेमिका और 62-72 के प्रेमी!"
"वे दोनों गाये होंगे, 'तुझ में रब दिखता है'..! मैं स्तब्ध हूँ!"
"इसलिए तो हमलोगों में कोरोना दिख रहा है..,"
"किस सोच में डूबी हो?" माया के कन्धे पर हाथ रखती हुई उसकी माँ ने पूछा।
"सामान्य कोरोना होने के बाद जीवित रह जाना भी चिन्ता से मुक्ति नहीं है माँ..! स्वस्थ्य होने के कई महीनों के बाद यादाश्त खो जाना, उच्च रक्तचाप..,"
"क्यों क्या हुआ?"
"सुसी को कोरोना हुआ है और वह मुझे हा हा हा हा हा अनेक हा, हा लिखते हुए कई हँसता हुआ इमोजी भी लगाकर जबाबी सन्देश भेजा।"
"बहादुर बच्ची है उसका हौसला बढ़ाने में तुम भी सहायक होना।" ****
11.रोमहर्षक
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"यह क्या किया तूने?" अस्पताल में मिलने आयी तनुजा ने अनुजा से सवाल किया। अनुजा का पूरा शरीर पट्टी से ढ़ंका हुआ था उनRपर दिख रहे रक्त सिहरन पैदा कर रहे थे। समीप खड़ा बेटा ने बताया कि उसके घर में होती रही बातों से अवसाद में होकर पहले शरीर को घायल करने की कोशिश की फिर ढ़ेर सारे नींद की दवा खा ली.. वह तो संजोग था कि इकलौता बेटा छुट्टियों में घर आया हुआ था।
"तितलियों की बेड़ियाँ कब कटेगी दी?"
"क्या बेटे को अमरबेल बनाना चाहती हो या नट की रस्सी पर संतुलन करना सिखलाना चाह रही हो?"
"सभी सीख केवल स्त्रियों के लिए क्यों बना दी?"
"वो सृजक है.. स्त्री है तो सृष्टि है..! अब भूमि से पूछो वह क्यों नहीं नभ से हिसाब माँगती है..!"
"कोई तो सीमांत होगा न ?"
"एक बूँद शहद के लिए कितने फूलों का पराग चाहिए होता है क्या है मधुमक्खी ने बताया कभी तितली को? पागलपन छोड़ बेटे को विश्वास दिलाने की बातकर कि आगे बुरे हादसे नहीं होंगे..!" अनुजा के बेटे को गले लगाते हुए तनुजा ने कहा। ****
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क्रमांक - 086
जन्म स्थान :जगाधरी (यमुना नगर - हरियाणा )
पिता : स्वर्गीय श्री मोहन लाल
माता : स्वर्गीय श्रीमति धर्मवन्ती ( जमनी बाई )
गुरुदेव : स्वर्गीय श्री सेवक वात्स्यायन ( कानपुर विश्वविद्यालय )
पत्नी : श्रीमती कृष्णा कुमारी
शिक्षा : स्नातकोत्तर ( प्राणी - विज्ञान ) कानपुर
बी . एड . ( हिसार - हरियाणा )
लेखन विधा : -
लघुकथा , कहानी , बाल - कथा , कविता , बाल - कविता , पत्र - लेखन , डायरी - लेखन , सामयिक विषय आदि
आजीविका :
शिक्षा निदेशालय , दिल्ली के अंतर्गत 32 वर्ष तक जीव - विज्ञानं के प्रवक्ता पद पर कार्य करने के पश्चात नवम्बर 2013 में अवकाश प्राप्ति : (अब तक के लेखन से सन्तोष )
पुस्तकें : -
- आज़ादी ( लघुकथा - संगृह – 1999 )
- विष - कन्या ( लघुकथा – संगृह 2008 )
- तीसरा पैग ( लघुकथा – संगृह 2014)
- बन्धन - मुक्त तथा अन्य कहानियां ( कहानी – संगृह 2006)
- मेरे देश कि बात ( कविता - संगृह 2006)
- सपने और पेड़ से टूटे पत्ते ( कविता - संगृह 2019)
- बर्थ - डे , नन्हें चाचा का ( बाल - कथा - संगृह 2014) - उतरन ( लघुकथा – संगृह 2019 ) ,
- सफर एक यात्रा ( लघुकथा – संगृह 2020 )
- मुमताज तथा अन्य कहानियां ( कहानी – संगृह 2021) - रुखसाना ( इ - लघुकथा – संग्रह 2019 )
- शंकर की वापसी ( इ - लघुकथा – संग्रह 2019 )
सम्पादन पुस्तकें : -
- तैरते - पत्थर डूबते कागज़ (लघुकथा - संगृह - 2001)
- दरकते किनारे ( लघुकथा - संगृह – 2002 ) ,
- अपूर्णा तथा अन्य कहानियां ( कहानी - संगृह - 2004)
- इकरा एक संघर्ष ( लघुकथा - संगृह – 2021 )
पुरूस्कार : -
1 . हिंदी अकादमी ( दिल्ली ) , दैनिक हिंदुस्तान ( दिल्ली ) से पुरुस्कृत
2 . भगवती - प्रसाद न्यास , गाज़ियाबाद से कहानी बिटिया पुरुस्कृत
3 . " अनुराग सेवा संस्थान " लाल - सोट ( दौसा - राजस्थान ) द्वारा लघुकथा – संगृह ”विष कन्या“ को वर्ष – 2009 में सम्मान
4. स्वर्गीय गोपाल प्रसाद पाखंला स्मृति - साहित्य सम्मान
विशेष : -
- प्रथम प्रकाशित रचना : कहानी " लाखों रूपये " क्राईस चर्च कालेज पत्रिका - कानपुर ( वर्ष –1971 ) में प्रकाशित
- मृग मरीचिका ( लघुकथा एवं काव्य पर आधारित अनियमित पत्रिका वर्ष 2015 से सम्पादन )
पता : डी-184, श्याम आर्क एक्सटेंशन,
साहिबाबाद -201005 उत्तरप्रदेश
1.भटकाव******
" थोड़ी देर रुक कर जाना। " जैसे ही वो आफिस से निकलने को हुआ , कविता ने टोक दिया।
" मैं फ्री हो चुका हुँ , अब रुकने की क्या जरुरत है ? " फिर उसने कुछ सोचते हुए कहा , " आज कुछ काम है . मुझे थोड़ा जल्दी घर पहुंचना है ।"
" हाँ ! जानती हूँ , बड़ा काम है और तुम्हें जल्दी घर पहुंचना है , मैं भी फ़्री होने को हूँ , थोड़ा रुक जाते तो मैं भी तुम्हारे साथ हो लेती । रास्ते में ड्रॉप कर देना । " कविता के शब्दों में आग्रह से अधिक अधिकार का भाव था ।
वह उसके चेहरे को पढ़ने की कोशिश करने लगा। वहाँ शोखी के साथ आँखों में चंचलता भी थी ।
उसने मन ही मन सोचा ," इतने अधिकार से कह रही है । रख लेता हूँ इसकी बात ," ठीक है रूक जाता हूँ । गाड़ी तो है ही , रास्ते में छोड़ दूंगा . " वह स्वीकृति में अपना सिर हिलाना ही चाहता था कि उसके दिमाग में लगा उसके अनुभवों का बेरियर धीरे से उभर उठा , " उन शुरूआती दिनों को याद कर जब पहली बार सड़क पर आटो की इन्तजार में खड़ी कविता से अचानक मिला था और तेरा उससे ढंग का परिचय भी नहीं था , तब इंसानियत के नाते तपती दोपहरी में तूने कविता को लिफ्ट दे दी थी ।कविता के तेरी गाड़ी में बैठते ही तू अपने जाने - बूझे रास्तों को ही भूल गया था। उस भटकाव में तुझे यही नहीं सूझ रहा था कि आखिर जाना कहाँ है ? तब कविता ने कहा था , " जिस रास्ते पर चलना है , चलने से पहले उसकी पड़ताल तो कर लिया कीजिये। इस तरह भटकना तो अच्छी बात नहीं है ." इतना कहकर वह जोर से हँस पड़ी थी। उस दिन के बाद उसने कई बार कविता को लिफ्ट देने की मंशा जाहिर की पर कविता ने कभी बहाना बनाते हुए इंकार कर दिया तो कभी - कभी , लिफ्ट ले भी लेती थी । फिर आज अचानक उसी की ओर यह आग्रह ? "
इस उलझन में उसने कोई भी प्रतिक्रिया देने में स्वयं को असमर्थ पाया। उसकी जबान में शब्दों का अभाव हो गया ।
कुछ देर चुप रहने के बाद वह इतना ही कह पाया , " प्लीज कविता हठ न करो , और अधिक भटकाव अब मेरे लिए सम्भव नहीं है . मैं चलता हूँ .तुम ऑटो कर लेना ।" ***
2.डील
****
" सर ! आज लिस्ट डिक्लेयर हो ही जायेगी । "
" हाँ ! मिठाई का डिब्बा तैयार रखो । "
" इसका मतलब उसमें मेरा नाम है । "
" सबकुछ खुल के नहीं बता सकता । "
" फिर तो पार्टी भी पक्की ।"
" सिर्फ पार्टी ? "
" नहीं ! आप चाहें तो कुछ और भी हो सकता है । इस बार मुझे अपना नाम हर हाल में लिस्ट में चाहिये । "
" वो तो ठीक है ! पर इतनी बेताबी क्यों ? "
" चित्रा बहुत भाव खाती है , प्रमोशन लेकर । इस बार मुझे उसे उसकी औकात दिखानी ही है । " उसने मन ही मन कहा पर प्रत्यक्ष बोली , " सर ! आपकी फेयर नेस पर पूरा भरोसा है मुझे ।"
" तो बताओ , पार्टी कब और कहाँ होगी ।"
" सर ! सब कुछ खोलने की क्या जरुरत है ? जब और जहाँ आपको अच्छा लगेगा वहीँ हो जाएगी । "
" गुड ।कल किसने देखा है । लिस्ट तो आती रहेगी , पार्टी आज ही रख लेते हैं । "
" सारी सर ! लिस्ट पहले तीन बार टल चुकी है । आज का काम कल पर नहीं । पहले लिस्ट फिर पार्टी ।"
" ठीक है । डील पक्की न । "
" सर , कह तो दिया ,जब और जैसी आप चाहें। "
उन्होंने अगला दिन तय कर दिया। ****
3. चॉकलेट
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उसने जब से होश संभाला उसका बाप जिसे वो बापू कहता था , उसके लिए हर शाम दफ्तर से लौटते हुए एक चॉकलेट लाता और उसे अपनी गोद में भरकर भरपूर प्यार करता ।
उसके बाद अपनी पतलून की जेब से दारू की बोतल निकालता , जो अक्सर अंग्रेजी होती और उसकी माँ को एक भद्दी सी गाली देते हुए पानी और गिलास मंगवाकर घर की बैठक में ही पीने बैठ जाता । माँ को हिदायत होती कि जब तक उसकी व्हिस्की की बोतल खत्म न हो जाय , वो वहां से हिलेगी नहीं ।
बीच - बीच में बापू माँ के गालों को थपियाता भी रहता ।
उसके प्यार करने का यही तरीका था । सोने से पहले बापू नाम का वो शख्स माँ को जेब से निकाल कर ढेर सारे नारंगी नोट देते हुए कहता , " बापू की मूरत से सजे ये नोट न होते तो न दारू की ये बोतल होती , न तेरा शबाब होता और न ही मेरा ये चॉकलेटी बेटा ही होता । "
माँ चुपचाप उसकी बातें सुनती और घिसे हुए गालों को सहला कर , उसके दिए हुए नोट अपने ब्लाउज के ऊपरी हिस्से में खोंच लेती ।
वो जब कुछ बड़ा हुआ तो उसकी समझ आने लगा कि बापू हरदिन इतने सारे नोट आखिर लाता कहाँ से है ।
समझने के बाद एक दिन वो बोला , " बापू मैं न तो तुम्हारा लाया चॉकलेट खाऊंगा और न ही माँ को तुम्हारे सामने बैठने दूँगा । तुम्हें जितनी भी दारू पीनी है ,पी लिया करो । "
जवान होते बेटे की बात सुन बापू का दिमाग ठनक गया ।
वो बोला , " अबे हराम की औलाद , तुझे चॉकलेट नहीं लेनी तो न ले पर ये औरत मेरी बीबी है , मैं इसे जहां चाहूं , बिठाऊँ । तू कौन होता है मेरी जिंदगी में दखल देने वाला ? "
बेटे ने कहा , " ये तुम्हार बीबी ही नहीं , मेरी माँ भी है । इसके साथ कोई जोर जबरदस्ती करे ,यह मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता । "
बापू ने अब तक बोतल खोलकर उसके कुछ हिस्से को खाली भी कर लिया था । उसने कहा , ऐसा मैं फ्री में नहीं करता ," गांधी जी की मूरत वाले नोट भी इसे हर रोज़ देता हूँ ।"
बेटा भी पूरी तैश में था , मैं जानता हूँ बापू , तू इन नोटों को किन लोगों की जेब से जबरन निकालता है । अब या तो वो नोट इस घर में आयेंगें या फिर तेरा इस घर में आना बन्द होगा । तेरा भला इसी में है कि तू कोई एक रास्ता चुन ले । "
" मैं ऐसा कुछ भी न करूं तो तू क्या कर लेगा ?" बोतल उसके सर चढ़ कर बोल रही थी ।
" करना क्या है , तुझसे वो सारे हक़ छीन लूंगा जिनके चलते तू मुझे चॉकलेट खिलाता है या मेरी माँ के गाल सहलाता है । " बेटे ने दो टूक कहा ।
उसने पाया कि वो औरत जो उसके लिए गिलास लाती थी और फिर देर तक वहीं बैठी रहती थी , अपने बेटे की छाया में सिमट कर खड़ी हो गयी । *****
4.आखिरी सफर
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तमतमाए चेहरे के साथ , वो धढ़धढ़ाता हुआ उनकी दरसील लाँघ गया । दोपहर होने की वजह वहां इक्का - दुक्का लोग ही थे । वो बेसब्री से इधर - उधर देखने लगा ।
तभी अन्दर खाने से ईदरीस मियां आते दिखाई दिये । उसने अपनी तैश पर बिना कोई लगाम लगाये सवाल किया , " मियां ! मौलवी साहब कहाँ हैं ? "
" अमां वक्त देख लो ? तीन बजे हैं । सुबह से यहीं थे , अभी थोड़ी देर पहले ही अपने आराम - गाह में गये हैं । आप चार बजे आइये ।"
" मुझे उनसे अभी मिलना है ।"
" ये क्या बचपना है ? सुबह पांच बजे जग जाते हैं उनको आराम की मोहलत का हक़ है या नहीं है । शाम की नमाज भी अता करवानी है । "
" मियां , मेरे भाईजान की जिंदगी और मौत का सवाल है । मेरा उनसे मिलना निहायत जरुरी है ।भाईजान को कुछ हो गया तो सिर्फ उनके चार - चार छोटे - छोटे बच्चे ही नहीं ,हम सब यतीम हो जायेंगें ।"
" तसल्ली के साथ ईमान पर यकीन रखो ,उन्हें कुछ नहीं होगा । इंशाअल्लाह बड़ी जल्दी ठीक हो जायेंगें । हैं तो डाक्टरों की निगरानी में ही न ? "
" डाक्टरों की निगरानी क्या करेगी ? मौलवी साहब ने आसमान की तरफ निगाहें फ़रमाकर जो तावीज दिया था ,भाईजान ने उसे अपनी बाहँ में मुक़्क़मल बाँध रखा है । तावीज देते वक्त उन्होंने कहा था कि ये तावीज उन्हें शैतान की हर नजर से बचा लेगा । अब किसी दवा की जरुरत नहीं है ,वो किसी डाक्टर के पास नहीं गए । भाईजान की हालत सुधरने की जगह आज बेहद बिगड़ गयी है ।"
" मियां ! आप तो बिला वजह घबरा रहे हैं। आपके भाई को कुछ नहीं होगा।बहरहाल अभी आप जाइये। तबियत न सुलझे तो शाम को आइये। "
"……………………. !" बातचीत का सिलसिला अभी चल ही रहा था कि एक बच्चा हांफता हुआ आया और रोता हुआ बोला " चाचू , । अम्मी बुला रही हैं ,अब्बू मर गए।"
" ये तो बहुत बुरा हुआ मियां।पर अल्लाह की मर्जी के आगे हम सब बेबस हैं। जाइये अपने भाई की मैयत के आखिरी सफर का इंतजाम कीजिये। जन्नत की तरफ उनका सफर आप सब को मुबारक। " ****
5.सफर
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" आपने लिखना बंद कर दिया है क्या ? "
" जी नहीं ! परन्तु आप कौन ? "
" एक पाठिका हूँ आपकी . बहुत अच्छा लिखते हैं आप . जब भी आपका लिखा पढ़ती हूँ तो लगता है , शब्दों में दर्द उतर आया हैं। लगता है जैसे वे घटनाएं नहीं हैं , खुद पर बीत रही आपबीती है। "
" नहीं ऐसा तो कुछ नहीं . बस कभी - कभी ऐसे किरदारों से सामना हो जाता है जो अपने आप शब्द बनकर पन्नो पर उभर आते हैं ! वैसे किस रचना की बात कर रहीं हैं आप ? "
" कोई एक हो तो बताऊँ . आपकी लगभग हर कहानी में भावनाओं की अभिव्यक्ति इतनी जीवंत होती है , संवाद इतने ह्रदयस्पर्शी होते हैं कि लगता है कल्पनाएं , किरदारों में समा गयी हैं। युवा ह्रदयों में हिलोरें लेती लहरों के विलोड़ने में तो महारत हासिल है आपको ! कैसे छू लेते हैं आप उनके मन में लहराती कोमल पंखुडिओं को ? "
" ऐसा कुछ भी नहीं है , मुझे नहीं लगता कि मैं ऐसा कुछ लिखता हूँ। "
" ये क्या कहा आपने . लेखक के रूप में परिचय तो हर बार आपका ही होता है ?"
" हाँ अनु जी ! मैं सच कह रहा हूँ। जब भी कुछ लिखने बैठता हूँ तो मुझे लगता है , मैं नहीं लिख रहा , कोई कहीं दूर बैठा है और वही , मुझसे लिखवा रहा है , मुझे कल्पनाएं वही देता है और उन कल्पनाओं को मैं तो बस शब्दों में पिरो देता हूँ। "
" आप तो यहां भी कविता करने लगे . वैसे बताएंगे कि कौन है वो जिसकी कल्पनाएं आपको शब्द देती हैं और क्या अब वो नहीं है , जो इतने दिनों से आपकी कल्पनाओं का कोई दर्द पढ़ने को नहीं मिला ? "
" क्या करेंगी जानकर . बस इतना जरूर कहूंगा कि जब भी उससे नई कल्पनाये कभी नसीब हुईं तो दर्द के नए फलसफे जरूर आएंगे आपके पास। "
" चलिए मान ली आपकी बात पर इतना याद रखियेगा कि सफर कभी खत्म नहीं होता . हम होते हैं सफर तब भी चलता है और हम किसी वजह से नहीं होते , तब भी सफर रूकता नहीं है , भले ही राही जरूर बदल जाते हों। "
" राही टकरने का यह मतलब नहीं होता कि हमसफर भी टकर जाय। साथ चलना सबके बस में नहीं होता। "
" कोशिश करने से तो वह भी हो हो ही जाता है। "
" ठीक है मैं फिर से लिखना शुरू कर देता हूँ , आप पढेंगीं उसे ? "
" सिर्फ पढूंगी ही नहीं , समझूंगी भी। आप लिखिए तो सही। "
उसकी कलम फिर से चल पड़ी। *****
6. बेस्ट फ्रेंड
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कार्तिक चलो बेटा , पहले खाना खा लो .बचा हुआ होम वर्क बाद में कर लेना। अपने पापा को भी बुला लो। मम्मी ने कार्तिक की नोट बुक को एक ओर खिसकाते हुए कहा , " अरे यह क्या , तूने अभी तक एक भी सम साल्व नहीं किया। मेरे जाते ही इस ड्राइंग को बनाने में मस्त हो गया। तेरी पढ़ाई हो या घर का कामकाज , सारी जिम्मेदारी मेरी ही है , तेरे पापा को तो आफिस से आकर लेपटॉप पर चेस खेलने में ही खो जाते हैं , कभी नहीं सोचते कि मैं भी तो सारा दिन आफिस में खटकर ही आती हूँ । यह क्या बात हुई कि तेरी पढ़ाई भी मेरे जिम्मे। कम से कम शाम को तो देख लिया करें। " अन्नू झुंझला भी रही थी और खाना परोसने की तैयारी भी करती जा रही थी।
" मम्मी प्लीज़ गुस्सा मत करो। पहले ये बताओ कि इसकी फ्राक में कौन सा रंग भरूं ? " कार्तिक ने जैसे मम्मी की कोई बात सुनी ही नहीं।
" बातें मत बना , चल पहले खाना खा ले . "
" खाना बाद मम्मी , पहले बताओ कि इस गुड़िया की फ्राक में कौन सा रंग अच्छा लगेगा ?" कार्तिक अपनी धुन में मस्त था।
" कोई भी भर दे . लाल , पीला , हरा , नीला कुछ भी। पर अब जल्दी से बाप - बेटा खाना खा लो तो मुझे भी फुर्सत मिले। "
" कोई भी कैसे ? नीति पर तो ऑरेंज कलर का फ्राक अच्छा लगता है। मैं तो वही भरूंगा। मम्मी आप तो यह बताइये की डार्क अच्छा लगेगा या लाइट ? " कार्तिक अपनी ड्राइंग को सम्भालते हुए बोला। अन्नू ने कार्तिक पर नजर डाली। वह ध्यान से अपनी बनाई हुई गुड़िया की ड्राइंग को बड़ी तन्मयता से देखे जा रहा था।
" यह नीति है कौन कानू ?" अन्नू , प्यार से कार्तिक को कानू बुलाती थी ।
" मम्मी ! नीति क्लास की मेरी बेस्ट फ्रेंड है। कल मैं उसे यह ड्राइंग गिफ्ट करूंगा। वो इसे देख कर बहुत खुश होगी। "
छोटी सी उम्र में बेटे से उसे , इस बड़प्पन की उम्मीद नहीं थी। उसने बेटे को दुलारते हुए कहा , " कल नीति का हैप्पी - बर्थ - डे है क्या ? "
कार्तिक ने मम्मी का हाथ पकड़ कर उसे लगभग चूमते हुए कहा , " मम्मी ! शायद आप भूल गयी . कल रक्षा - बन्धन है . टीचर कहती हैं , रक्षा बन्धन भाई - बहन के प्यार का सबसे बेस्ट त्यौहार होता है। इस अवसर पर हर भाई , अपनी बहन के हर सुख - दुःख में उसका साथ देने का वचन देता है। मेरी तो कोई बहन नहीं न मम्मी ? आप भगवान जी से मेरे लिए मेरी बहन लाये ही नहीं। इस बात को लेकर आदी हमेशा मेरी खिल्ली उडाता है। कल मैं उसका मुहँ हमेशा के लिए बन्द कर दूंगा। नीति को मैं यह ड्राइंग दूंगा और वो मुझे राखी बांधेगी। मम्मी , बेस्ट - फ्रेंड बहन भी तो हो सकती है न। "
अन्नू को लगा उसका बेटा बहुत बड़ा हो गया है। उसने बेटे को अपनी बाहों में भरते हुए कहा , " बेटे , वही रंग भरो जो नीति को पसन्द है . नीति को यहां हमसे मिलवाने अपने घर भी लेकर आना। मैं उसे ढेर सारा प्यार करूंगी। "
कार्तिक ने देखा , मम्मी की आँखें भीगी हुई थी . ****
7.कुछ भी
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" यह तूने अच्छा नहीं किया ."
" हो सकता है तू ठीक कहती हो पर मैं बेबस हो गयी थी . खुद को रोक नहीं पायी ."
" तू तो खुद को रोक नहीं पायी और अगले की जान पर बन आयी . वे किसी वीरान दुनिया का परिंदा बनने की तमन्ना रखने लगे है। उन्हें लगने लगा है कि उसका सब कुछ लूट गया है। वो जिंदगी के हर नूर से खाली हो गए है। "
" क्या कह रही है ? तुझे कैसे पता ? "
" तुझे कैसे पता की बच्ची आज उनका एक दोस्त , उन्हें मेरे क्लिनिक पर लेकर आया था। उनसे बात करने पर लगा कि वे सोचते है कि उनकी जिंदगी की हर कीमती चीज उनसे छिन चुकी है। उन्हें लगता है कि जो कुछ भी उनके पास है ,उसके कोई मायने नहीं हैं। यहां तक कि उनकी किताबें भी उनकी नहीं हैं। "
" मुझे उनकी इस दर्दनाक हालत का बेहद अफ़सोस है , शुक्रइस बात का है कि समय रहते मैंने अपने कदम पीछे खींच लिए . इससे पहले कि पानी सर से ऊपर चला जाता मैं और मेरी ग्रहस्थी भी बच गयी। "
" सिर्फ अपने बारे में सोचे जा रही है। तुझे अंदाजा नहीं है कि तेरी इस नादानी ने उनको कितना नुक्सान पहुंचाया है ? "
'' जानती हूँ पर अब मैं कुछ नहीं कर सकती। हाँ उनके लिए एक डर जरूर है कि वे भले ही मुझे माफ़ न करे पर कहीँ कोई उल्टा - सीधा कदम न उठा लें। "
" यह तो तब सोचती जब तू उनके इमोशन्स के साथ खेल रही थी। "
" क्या करूं यार , वो पहली नजर में ही इतने भा गए थे कि मैं सब कुछ भूल गयी। मैं आस्तिक को भूल गयी ,बेटा कार्तिक भी मेरी नजरों से ओझल हो गया। मुझे लगा मेरी जिदगी की हर कमी उनसे पूरी हो सकती है ."
" फिर वही बात कहूँगी कि उनके साथ तूने ठीक नहीं किया। "
" देख तू मेरी सबसे प्यारी सखी है , मेरे हर सुख , हर दुःख की हमराज भी है। प्लीज मेरी मद्दत कर। "
" तू कुछ भी कह . तेरी इस हरकत से मद्दत तो मैं उस शख्स की करना चाहती हूँ जिसे तूने वहां ले जा कर छोड़ दिया है , जहां से वापसी का कोई रास्ता नहीं होता ."
" मतलब ? "
" देख मैं एक डॉक्टर होने के साथ एक इंसान भी हूँ .उनसे बात करके मुझे लगा कि वे जिंदगी से भरपूर एक बेहद संजीदा इंसान है। ऐसे लोगों के कारण ही न जाने कितने लोगों को जिंदगी में जीने का सलीका मिलता है। मैं उनका इलाज करूंगी और तब तक करूंगी जब तक तेरे दिए हुए उनके घाव भर नहीं जाते। इसके लिए मैं वह सब करूंगीं जो कुछ भी मुझे करना पड़े। "
" कुछ भी मतलब ! "
" तू मेरी सखी है , समझ ले कि कुछ भी का मतलब सिर्फ और सिर्फ कुछ भी ही होता है। मैं एक जिंदादिल इंसान कि जिंदादिली को मरने नहीं दूंगीं। " ****
8. धोखा
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" हमें दो ही तरह के लोग याद रहते हैं .......एक वे जिन्होंने किसी भी कारण से हमारे साथ कभी कोई धोखा नहीं किया और दूसरे वे जिन्होंने अकारण न जाने क्यों हमें धोखा दिया। "
" लगता है किसी की किसी बात से परेशान हो। "
" नहीं ऐसा तो कुछ नहीं है। बस एक ख्याल आया तो कहे बिना रह नहीं पायी। "
" वही तो पूछ रहा हुँ कि ख्याल धोखा देने वाले का आया या उसका जिसने कभी धोखा नहीं दिया। "
" इस वक्त यह सब रहने दो , बस इतना ही कहूँगी कि कष्ट कारी दोनों ही होते हैं। "
" वह कैसे ? धोखा देने वाले की बात तो समझ में आती है पर न देने वाले कैसे कष्टकारी हो गए ?"
" उन पर तरस आता है कि इस फरेबी दुनिया में वे इतने भोले क्यों हैं ? उनके विशवास को जब कोई ठगेगा तो उन्हें कितना बुरा लगेगा ? वे उस तकलीफ से कैसे उबरेंगे ? "
उसकी इच्छा हुई कि उससे कुछ और पूछे पर उसकी हिम्मत नहीं हुई। उसे पता था कि कुछ और कहा तो वह रो देगी। वह असमंजस से बाहर आता कि उससे पहले ही वह अपनी जगह से उठी। उसके करीब आयी और उसमें लगभग सिमटते हुए बोली , " देखो मेरे साथ कुछ भी करना पर कभी मुझे धोखा मत देना। याद रखना , मैं सहन नहीं कर पाऊंगीं ." ****
9. ट्रेन
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" तू तो निखर आयी री ! "
" कमी तो तुझमें भी नहीं है , तुझ पर तो पहले भी कुदरत फ़िदा थी और अब तो पहले से भी ज्यादा भरी - भरी सी लग रही है। "
बहुत दिन बाद दोनों अचानक रेलवे के वेटिंग हाल में मिली तो उन्हें सुखद आश्चर्य हुआ। दोनों एक दूसरे पर वही पुराने आत्मीय कटाक्छ करने से नहीं चूकी।
" कहीं जा रही है या कहीं से आ रही है ?"
" हसबेंड नार्थ ईस्ट के ऑफिशियल टूर पर जा रहे हैं। इतने लम्बे समय तक मेरे बिना अकेले रहने के आदी नहीं है , बोले होमसिकनेस फील होगी साथ चली चलो। ट्रेन लेट है , तो वेट करने यहां आ गए। "
" तब तो वे भी ही होंगें। दिख तो रहे नहीं ? "
" बस केंटीन तक गए हैं , आते ही होंगें। "
" ओह तो वाईफ की सेवा में हैं। वैसे होमसिकनेस या वाइफ सिकनेस ? " उसने शरारत की।
" कुछ भी कह ले . हसबेंड की मर्जी है तो मना करना ठीक नहीं लगा। "
" वेरी लक्की .हाँ भई इतना लम्बा समय भला कैसे .... वो भी जब वाइफ इतनी सुंदर हो ?"
"तेरी शैतानी वाली आदते अभी गयी नहीं ! पर तू यहाँ कैसे ? तेरे मिस्टर भी कहीं जा रहे हैं क्या ? " वह प्रश्न के साथ मुस्कुराई।
" अरे कौन से मिस्टर ?" उसने बिना किसी झिझक के कहा।
" क्यों शादी तो की थी तूने भी ? "
" हाँ ! शादी ही तो की थी . हम जिंदगी में करते तो बहुत सारे काम हैं। तो क्या सारे काम पूरे भी करते हैं क्या ?"
" मतलब निभी नहीं। न निभने की वजह ? कोई ऐब - शेब या कोई चक्कर - शक्कर ?'
" बहुत सारे काम बेवजह भी होते हैं , पर मुझे कोई रन्ज नहीं। जिंदगी में आजादी से बढ़कर कोई मंजिल नहीं। "
" और ...और ..?
" और - वौर जाने दे यार ."
" उसके लिए सारा जहाँ है ."
" मतलब ............! "
" जो कुछ तुझे नसीब है , वही सब कुछ मेरे पास भी है सिर्फ एक फर्क के साथ। "
" वो क्या ?"
" तेरी मर्जी हो या न हो , तेरी मंजिल हर दिन एक ही होती है और मेरे साथ ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। "
"................................................! " उसे ऐसे उत्तर की उम्मीद नहीं थी।
" मेरी ट्रेन आ गयी है। मुझे चलना चाहिए। मुझे हर हाल में हास्टल में रह रही अपनी बेटी से कल मिलना है . ओ. के . बाय . किस्मत ने मिलवाया तो फिर मिलेंगे ." ****
10. रुखसाना
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" सर ! आप मुझे बहुत अच्छे लगते हैं क्योंकि आप हमें बहुत अच्छे से पढ़ाते हैं। मन करता है आपका पीरियड कभी खत्म न हो। "
" थेंक्यु बेटा . मैं चाहता हूँ कि जिस लगन और मंशा से मैं आप सब बच्चों को पढ़ा रहा हूँ , मैं अपने उद्देश्य में सफल होऊं। इसके लिए जरूरी है कि आप बच्चे भी मुझे कॉपरेट करो , रेस्पॉन्ड करो। "
" जी सर . हम पूरी कोशिश करेंगे। यहां ही नही घर में भी पूरी मेहनत करेंगे ."
" मुझे आप बच्चों का यही डिवोशन चाहिए। मैं चाहता हूँ कि जीव विज्ञानं आपके रक्त - संचार का हिस्सा बन जाये और भविष्य में आपका कॅरियर भी बने। "
" सर !आपकी बातें सुनती हुँ तो तो मुझे अपने दादा जी की बहुत याद आती है क्योंकि आप बिलकुल मेरे दादा जी की तरह ही बात करते हैं और हर बात को समझाते भी हैं। सर मेरे सिर पर हाथ रखिये कि मैं आपकी उम्मीदों पर खरी उतरूं। "
" बड़ों का हाथ हमेशा , बच्चों के सिर पर होता है बिटिया। खासतौर से टीचर और माँ - बाप तो हमेशा अपने स्टूडेंट्स के अच्छे की ही सोचते है। क्या आपके दादा जी भी रिटायर हो चुके हैं ? " उन्होंने आशीर्वाद स्वरूप अपना हाथ बढ़ाया।
" नहीं सर , उनका इंतकाल हुए चार साल हो चुके हैं। " लड़की के चेहरे पर मायूसी पसर गयी।
" और तुम्हारा नाम ? "
" मैं रुखसाना बी हूँ सर ! "
" उनका उठा हुआ हाथ रूक गया। नजरों में हिकारत आ गयी। मन में ख्याल आया उनके हाथ रुखसाना के लिए कैसे प्रार्थना कर सकते हैं ?
" क्या हुआ सर ? क्या मेरा नाम अच्छा नहीं है ? मेरे दादा जी तो बड़े प्यार से मेरा नाम पुकारा करते थे , उन्हें यह नाम बेहद पसन्द था। "
वे थोड़ी देर के लिए रुके। उन्हें अपनी रूबी याद आ गयी जिसे विधर्मी दरिंदों ने फुसलाकर बेइज्जत करने के बाद बेरहमी से मार डाला था।
" सर ! प्लीज़ , मुझे आशर्वाद दीजिये न सर। मैं अपना स्लेबस अच्छे से कवर करना चाहती हूँ। मैं इस सब्जेक्ट को अपना कॅरियर भी बनाऊंगी सर। मैं आपकी और अपने दादा जी दोनों की इच्छा पूरी करना चाहती हूँ , सर। " मासूमियत उनके सामने खड़ी थी।
" पल भर की ख़ामोशी में हुए उनके आत्ममंथन ने अपना निर्णय ले लिया था। उनकी आँखों की कोरे भीग चुकी थीं। उन्होंने रुखसाना के सिर पर अपना दायाँ हाथ रखते हुए मन ही मन कहा , " तुम्हारा हश्र मेरी रूबी जैसा कभी न हो बेटा। " प्रत्यक्ष वे इतना ही कह पाए , " बेटा जो भी काम अपने हाथ में लो , उसे पूरी शिद्दत से करो ,ख्याल रहे तुम्हारे उस काम से किसी का बेजा नुक्सान न हो। मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है। मुझे यकीन है कि जो वादा तुम मुझसे कर रही हो , उसे जरूर पूरा भी करोगी। "
उन्होंने पाया कि रुखसाना एक नए आत्मविश्वास से लबरेज थी . वह बोली , " थैक्यू दादा जी। " ****
11. प्रेम
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सांस ने दो - चार सीडियां चढ़ने के बाद ही फूलना शुरू कर दिया। उन्हें तबियत थोड़ी खराब सी लगी। पत्नी ने व्यंग भरा उलाहना दिया , " सारी उम्र दूसरों पर खर्च करते रहोगे। कभी खुद का भी ख्याल रख लिया करो। तुम्हे कुछ हो गया तो मैं मूरख कहीं की न रहूँगी। "
उनसे पत्नी की आँखों की नमीं सहन नहीं हुई वह शहर के बड़े अस्पताल में जा खड़े हुए। . रिसेप्शनिस्ट ने बताया ,'" आपको सामने के ओ. पी.डी .काउंटर से फीस की रसीद कटवानी होगी तभी आपको डाक्टर देख पायेंगें। " वह पीछे मुड़कर पत्नी को ढूंढने लगे। पत्नी अस्पताल परिसर में बने छोटे से मंदिर में प्रार्थना कर रही है। उन्होंने मन ही मन कहा ," लो ! इसने तो यहां भी अपने भगवान को ढूंढ लिया। " थोड़ी देर इन्तजार के बाद बोले , " अरे इधर आओ . देर हो रही है जल्दी से पर्ची बनवाओ। "
" आइये आप भी मत्था टेक लीजिये। " पत्नी ने उनकी बात पर ध्यान दिए बिना ही कहा।
वे सबके सामने पत्नी पर बिगड़ने की हिम्मत नहीं कर सके और उसने तेज कदमों से आकर अनमने ढंग से मूर्ति को प्रणाम कर दिया।
" अरे चप्पलें तो उतार लेते ! पत्नी बोली तो वे खीझ पड़े , ' टाइम कम है चलो पेमेंट करो और जल्दी से पर्ची बनवाओ ,कहीं डाक्टर साहब चले न जायें। "
डाक्टर के पास नंबर आया तो उन्होंने चेकअप किया। थोड़ी देर के लिए गंभीर हुए पर जल्द ही नार्मल होकर बोले , " मिस्टर आनंद !आपकी शुरूआती जांच से लगता है कि आपको ह्रदय से संबंधित रोग है जो गंभीर भी है। आपको चाहिए कि आप ऐंजिओग्राफी करवा लें जिससे मेरे अनुमान की कन्फर्मेशन हो सके। तभी आगे का इलाज हो सकेगा। " यह सुनते ही उसके पावों के तले से सब कुछ खिसकता सा लगने लगा . उसके माथे पर पसीने की बूंदें तैर गयीं . उन्हें लगा सब तरफ अँधेरा फ़ैल रहा है।
" ठीक है डाक्टर साहब ! क्या ऐंजिओग्राफी भी आज ही होगी ?" पत्नी के स्वर में कोई विचलन नहीं था।
" नहीं मैडम ! इसके लिए आपको कल सुबह मिस्टर आनंद को खाली पेट लेकर आना होगा। "
दोनों ने डाक्टर का धन्यवाद किया और उनके चेंबर से बाहर आ गये तो पत्नी बोली , " चलो घर चलें , कल सुबह जल्दी आना है। "
बाहर निकलने को ही थे कि दृष्टि फिर से छोटे से मंदिर पर जा पड़ी। वह पत्नी से बिना कुछ बोले वहीं रुक गए। चप्पल उतार कर एक तरफ रख दी और मंदिर में रखे भगवन जी के आगे सिर नवा दिया। पीछे खड़ी पत्नी आत्मीयतापूर्वक उन्हें देखती रही।
उसकी दृष्टि में प्रेम कम , वातसल्य अधिक था . ***
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क्रमांक - 087
जन्म तिथि: 12नवम्बर 1960
जन्म स्थान: बुढ़लाड़ा - पंजाब
पति: डॉ. एस एल गर्ग
शिक्षा: बी ए, फैशन डिजाइनिंग कोर्स
सम्प्रप्ति : -
मैनेजिंग डायरेक्टर
एन जी डायग्नोस्टिक,पंचकूला - हरियाणा
लेखन : -
हिन्दी व पंजाबी
सेवा:- उपाध्यक्षा
अ.भा.सा.परिषद, हरियाणा प्रांत
प्रकाशित पुस्तकें :-
सूख गए नैनन के आँसू (काव्य संग्रह)
मनांजलि (डायरी के पन्ने) हरियाणा साहित्य अकादमी के सौजन्य से प्रकाशित।
'दिल मुट्ठी में' काव्य संग्रह,
‘अपनी-अपनी सोच’, 'लघुता कुछ कहती है' (2 लघुकथा संग्रह),
‘नानी, निक्की और कुंभ’(बाल उपन्यास),
'कागज़ की नाव' (बाल काव्य संग्रह),
‘आध्यात्मिक चिंतन 6 पुस्तकें:-
'संवाद', ‘सनातन-वार्ता’, ‘मानस मोती’, ‘सहस्त्र मानक’, ‘यात्रा गुरू के गाँव की’ व ‘पंचामृत’।
हरियाणा की स्वर्ण जयंती पर प्रकाशित 'दुनिया गोल मटोल'(बाल काव्य संकलन)
कोरोना काल कवियों के झरोखे से (दो संपादित पुस्तकें)
सम्मान पुरस्कार :-
हरियाणा साहित्य अकादमी, पंचकूला की ओर से श्रेष्ठ कृति पुरस्कार
श्री टेक चंद गोरखपुरिया सम्मान-2000 (अखिल भारतीय साहित्य परिषद, हिसार हरियाणा द्वारा)
वूमैन एम्पावरमैंटअवार्ड-2017 चंडीगढ़
लघुकथा सेवी सम्मान- वर्ष 2018' सिरसा
लघुकथा स्वर्ण सम्मान- 2017,गुरूग्राम
श्री विजय कृष्ण राठी समृति साहित्य सम्मान- 2017'कैथल
महादेवी वर्मा कविता गौरव सम्मान-2019' सिरसा
कायाकल्प साहित्य श्री सम्मान-2019,नोएडा
साहित्य सम्मेलन शताब्दी सम्मान'-2019' पटना में गोवा की गवर्नर दीदी श्रीमती मृदला सिन्हा के करकमलों द्वारा
शब्द कोविद सम्मान-2020'नागपुर महाराष्ट्र
अग्नि शिखा साहित्य गौरव सम्मान'- 2020,मुंबई महाराष्ट्र आचार्य’ की मानद उपाधि-1998 में
आदि- आदि उपस्थित रहकर प्राप्त किए।
डिजिटल सम्मान:-
गुरु रविंद्र नाथ टैगोर सम्मान- 2020
गोस्वामी तुलसीदास सम्मान- 2020,
मोहाली रत्न सम्मान- 2020
कबीर सम्मान- 2020,
अटल रत्न सम्मान- 2020
साहित्य श्री सम्मान-2020,
कला कौशल साहित्य संगम छत्तीसगढ़ द्वारा,
कोरोना योद्धा सम्मान- 2020
विशेष :-
अ.भा.सा.परिषद के अनेक साहित्यिक सम्मेलनों में भाग लिया।
कोरोना के दिनों आरंभ से अब तक 12-12 घंटे की ड्यूटी क्लीनिक में।
अध्यक्षा:- राष्ट्रीय कवि संगम, इकाई चंडीगढ
संयोजिका:- मनांजलि मंच।
स्वयं बनवाए गए शिव मंदिर की, शिव मंदिर महिला समिति की 21 वर्ष अध्यक्षा रही।
मातृशक्ति समिति, संयोजिका
भारत माता मंदिर, हिसार।
यात्राएं: चारों कुंभ, चारों धाम, कैलाश मानसरोवर, देश-विदेश आदि- आदि
संपर्क :-
एन जी डायग्नोस्टिकस
SCF: 59, सेक्टर-6 , पंचकूला - हरियाणा
1. छोटी सी बात
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जैसे ही सुमन समाचार पत्र पढ़ने बैठी तो नजर एक विज्ञापन पर जा अटकी।
उस विज्ञापन में एक छोटी बच्ची अपने दादा की उंगली पकड़े हुए चल रही थी। सुमन ने कैंची उठाई और तुरंत उस चित्र को समाचार पत्र में से निकाल लिया।
पतिदेव ने देखा तो पूछा, 'यह तो विज्ञापन है इसका क्या करोगी?' 'करना क्या है.. सीढी की दीवार पर लगाऊंगी। इस बिल्डिंग में हम 15 परिवार रह रहे हैं। लोग देखेंगे और पढ़ेंगे..।'
'..तो उससे क्या होगा?'
'होना क्या है...सुनो! यदि इसे देखकर किसी एक व्यक्ति को अपने पिता की याद आ गई और उन्हें फोन कर लिया तो मेरा चित्र लगाना सफल हो जाएगा या फिर किसी को अपनी बुड्ढी मां याद आ गई, उससे मिलने चले गए अथवा 4 दिन रहने के लिए अपने पास बुला लिया... बस... मेरा चित्र लगाना सफल हो जाएगा...।' ****
2. उपहार
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छोटे-छोटे उपहार याद दिलाते हैं हमें बीते दिनों की। उन्हीं से प्रेरणा मिलती है कि हम भी आने वाली पीढ़ी को कुछ देकर जाएं। कोई ऐसी वस्तु जिसे वह सहेज कर रख सकें। भले ही वह भाव हों, विचार हों, शब्द हों अथवा ज्ञान हो।
सीता भी शादी के कुछ दिन पश्चात जब मां के घर गई तो उसकी दादी ने उसे अपने संदूक से निकाल कर दादा जी की पुरानी चांदी की गोल- गोल अनमोल घड़ी दी, जिसे वह अपने गले में डाल कर रखा करते।
यूँ तो कहने मात्र को वह छोटी सी वस्तु थी परंतु अब वह जब भी कभी अपनी अलमारी में रखी उस घड़ी को देखती है तो दादा जी का चेहरा आंखों के सामने आ जाता है।
सोच रही थी.. दादी का दिया हुआ यह छोटा सा उपहार कितना आनंद देता है। दरअसल देने की परंपरा हमें जोड़ कर रखती है।
यही सोच कर सीता ने भी अपनी आठ महीने की नन्ही सी पोती पवित्रा के लिए, हाथ के सूई धागे से सिलाई कर के नाईट सूट पहनाया। ****
3. जज की विनम्रता
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प्रिया के घर में छोटी सी समारोह पार्टी थी। पति के दोस्तों में एक श्री गुरूकिरण जज भी थे। परिवार में सभी को ऐसा लग रहा था कि जज आएंगे ठीक से व्यवस्था होनी चाहिए क्योंकि वह अभी तक कभी घर नहीं आए थे। पता नहीं वह कैसे होंगे... कितना लेट आएँगे।
खैर! वह ठीक समय पर सपत्नीक पहुँच गए। बहुत ही सरल-सहज स्वभाव। जैसे ही मम्मी- सास ने रूहअफ़जा बनाकर उन्हें गिलास पकड़ाया तो उन्होंने गिलास की ओर देखा और ऊँगली से कुछ निकाल कर बाहर फैंक दिया।
मम्मी ने पूछा, “क्या हुआ कुछ पड़ गया था क्या?”
“नहीं-नहीं आँटी! कुछ नहीं... मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता।”
“कुछ तो होगा... क्या था उसमें?”
“नहीं आँटी! ज़रा सी कीड़ी थी... मैंने निकाल दी.. (जज ने रूहअफ़जा पी लिया और कहने लगे).. मेरा फेवरेट है- रूहअफ़जा। मुझे तो एक गिलास और भी चाहिए।” ***
3.शहीद की पत्नी
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आज व्हाट्एप्प पर तोष ने एक चित्र देखा जिसमें एक माँ अपने छह सात साल के बेटे को फौजी ड्रेस पहनाकर, बाहर आँगन में शहीद पति के हैंगर में टँगे हुए लंबे ओवर-कोट की दाँई बाजू में हाथ डाले उसके संग खड़ी है।
न जाने क्यूँ वह बार-बार थोड़ी देर बाद उस चित्र को देख लेती है और फिर रो पड़ती है।
रात को भी लेटे हुए यही चित्र उसके दिमाग में घूमता रहा।
इस चित्र को तोष ने कई और ग्रुप्स में भी भेजा। कई कवियों ने श्रद्धांजलि रूप में कविताएं भी लिखीं। जब शाम को ड्यूटी से घर आई बेटी को दिखाया तो देखते ही वह ठंडी-साँस भरते हुए बोली, “मम्मी! वह तो एक बार शहीद हुआ..यह तो जीते-जी रोज़ शहीद होगी..।”****
5. विचार बदल गया
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शिखा को बहुत गुस्सा आया हुआ था । न जाने क्यूँ उसने सोचा - "व्हाट्स एप, फेसबुक व फोन पर बहुत बातें हो ली... इस बार हाथों से पत्र लिखती हूँ ...सारी बात क्लीयर हो जाएगी।
मुझे उसके साथ रहना ही नहीं है.. अपने आप को समझता क्या है... जब उसे मेरी चिंता नहीं मैं क्यूं करूँ? शर्म नहीं आती उसे... एक साल से माँ के घर बैठी हूँ ...लेने नहीं आया मुझे। सहज स्वभाव में ही तो राखी पर आई थी। मुझमें कमियां गिनवाता है.. वह भी और उसकी माँ भी । कहते हैं कि मैं डिप्रेशन की दवा खाती हूँ ..। अरे! यदि उसमें कोई कमी होती ...अथवा शादी के दूसरे दिन ही किसी भी एक्सीडेंट में कोई भी कारण बन जाता तो क्या मैं उसे छोड़ कर चली आती ? नहीं.. बिल्कुल न आती... सारी उम्र निभाती...जी जान लगाकर सेवा करती.. । बस... बहुत हो गया। मैं पढ़ी लिखी हूँ.. कमाती हूँ... ।"
बहुत कुछ सोचा उसने लिखने के लिए लेकिन बस इतना ही लिख पाई.. "तुम यह मत सोचो कि मैं तुम्हारे बिन नहीं रह सकती ...हां ! यह मत सोचो.... ( बस इतना ही लिखा था कि विचार बदल गया । शिखा का अहम टप-टप करते आँसूओं में टूटने लगा...।)....नहीं रह सकती.........
शायद... नहीं रह सकती.... नहीं रह सकती... तभी तो लिख रही हूँ ... ..कब आओगे.. ?"
आंसुओं से भीगा वह पन्ना उसने पोस्ट कर दिया था।
तीन दिन के बाद... . शिखा की खुशी का वह सबसे बड़ा दिन था... छोटे से सच्चे विचार ने उसकी दुनिया ही बदल दी.. । ****
6 . मेरे पापा
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सुबह नौ बजते ही नरेंद्र ड्यूटी पर निकल जाता है। उसकी माँ सारा दिन घर के काम में जुटी रहती हैं । सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त पापा रोज़ घर में उसकी माँ के साथ छोटे-मोटे कामों में हाथ बँटाते हुए अक्सर एक ही बात कहते हैं 'मैं तो कुछ भी नहीं करता।'
नरेंद्र को पापा की यह बात बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगती । सोच रहा था..'पापा ने अपनी प्रत्येक जिम्मेदारी को अच्छे से निभाया है और निभा रहे हैं । मुझे कमाने योग्य बनाया । थोड़ी सी तनख्वाह में छोटी बहन को पढ़ा -लिखा कर डाक्टर बना दिया । इससे भी बढ़कर उनकी स्वयं की आवश्यकताएँ ना-मात्र हैं । सर्वसम्पन्न घर में.... कड़कती ठंड में उन्हें ब्लोयर नहीं चाहिए..।
न ही उन्हें गीजर का गर्म पानी चाहिए...नल के पानी से ही नहा लेते हैं और ऊपर से कहते हैं कि ऐसे नहाने से शरीर बीमारियों से बचा रहता है।
गरम कपड़े भी कई-कई दिन तक पहन लेते हैं ...कहते हैं रोज़-रोज़ धोने से कपड़े खराब हो जाते हैं और फिर पानी भी ज्यादा लगता है... कितने गिनाऊँ मैं उनके काम.. ।
घर में कोई टूटी खुली देखते हैं तो तुरंत कसकर बंद कर देते हैं।
गर्मी में बैठे रहते हैं पेड़ की ठंडी-ठंडी छाँव में... घर के छोटे-मोटे काम साइकिल पर ही निपटा आते हैं .. कितना करते हैं मेरे पापा... ।
बिजली, पानी,पैट्रोल....हर छोटी- छोटी बात का ध्यान रखते हैं और फिर भी कहते हैं कि मैं कुछ नहीं करता । आप ही बताइए - क्या ठीक कहते हैं मेरे पापा ?' ***
7. घरेलू औरत
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जैसे ही पाँच बजे अलार्म की घंटी बजी तो सुकन्या जल्दी से उठ कर बैठ गई। फिर याद आया 'आज तो कोरोना के कारण कर्फ्यू है। किसी को भी काम पर नहीं जाना। तुम इतनी जल्दी उठ कर क्या करोगी.. थोड़ा सा और सो जाओ' वह स्वयं से कहने लगी। आखिर वह लेट गई परंतु चैन नहीं पड़ा फिर से उठ कर बैठ गई और सोचने लगी, 'यह तो आज कोरोना के कारण थोड़ा सा चैन है.. वर्ना तो लगता है कि घर में रहने वाली औरत मशीन बन गई है .. सुबह जल्दी उठना और देर रात्रि तक सुबह की तैयारी करके सारा काम निपटा कर सोना... कामकाजी महिलाएँ तो ड्यूटी से लौटकर घंटा भर चैन भी पाती होंगी परंतु घरेलू औरत तो यह भूल ही गई है कि आराम नाम की कोई चीज़ भी होती है...।'****
8 .रिटायर आदमी
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जगदीशचन्द्र को रिटायर हुए साल भर हो गया। पिछले साल जनवरी के महीने में तो रिटायर हुआ था। पूरे सात साल प्रोफेसर एण्ड हैडॅ रहा। छह- छह कोटपैंट जो उस समय कम लगते थे, अब पहनने का मौका ही नहीं मिलता। पत्नी है, जो पहले भाग-भागकर उसका सारा काम करती थी, अब कई बार कहने पर भी नहीं सुनती।
आज ही की बात है कि वह सुबह से कह रहा था कि मेरे कपड़े प्रेस कर दो। परन्तु वह उलटा जवाब देते हुए कहने लगी, “क्या प्रेस-प्रेस लगा रखी है, आपको कहीं जाना तो है नहीं।”
उसने कहा, “अरे! मैं एक सप्ताह से यही पैंट पहन रहा हूँ।”
तो कहने लगी, “फिर क्या हुआ।”
“परसों मेरा लंच है कहीं, कोट-पैंट पहनूँगा....।”
“अच्छा...! आप कोट-पैंट पहनोगे। कितना खुश हो रहे हो जैसे कभी कोट-पैंट पहना ही नहीं हो....।”
दोनों हँसने लगे.. ****
9. काव्य संग्रह
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शशी जी के नव-प्रकाशित काव्य संग्रह का विमोचन था। वह बहुत ही प्रसन्न थे क्योंकि यह उनकी पहली पुस्तक थी।
बधाईयां देने वालों का ताँता लगा हुआ था। समारोह की समाप्ति पर जब उसके करीबी दोस्त सुनील ने गले लगाकर शुभकामनाएँ दी, तब उसकी आँखों में खुशी के आँसू भर आए.... चिंतन करने लगा... 'यह संग्रह मेरा कैसे हो सकता है... ये कविताऍं किनकी देन हैं... दोस्तों की... बहन-भाईयों की...। किन लोगों की देन हैं..। कुछ कविताएं मां और पिता की ... कुछ प्रकृति की... कुछ जंग में लड़ते फौजी वीरों ने दी हैं। कुछ सपनों की देन हैं, कुछ संतों और फकीरों ने दी हैं। ये कविताएं मेरी कैसे हो सकती हैं...? कुछ रातों ने दी हैं तो कुछ चढ़ते सूरज की लाली ने लिखवाई। कुछ कविताओं में ढलती शाम का भी ज़िक्र रहा, कुछ भरी दोपहरी ने लिखीं और काली स्याह रातों ने भी। फिर ये काव्य संग्रह मेरा कैसे हो सकता है...? जब इस संग्रह में पेड़, पौधे, धरा, गगन, पृथ्वी, जल, आकाश, चारपाई, कुर्सी कलम, दवात, कागज आदि सभी का सहयोग है। मैं मूर्ख! फिर क्यों कहता हूँ- यह संग्रह मेरा है..यह मेरा कैसे हो सकता है...? ****
10. प्रबंधन
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सुबह होते ही जैसे ही बाहर निकली तो एक वृद्धा से राम राम हुई और बातों का सिलसिला शुरू हो गया।
मैंने कहा - मैं जब भी सैर करने जाती हूँ तब कोशिश करती हूँ कि एक ही लकीर पर चलूं । जब तक सही चलती हूँ तब तक विचार भी भूत भविष्य की ओर नहीं भागते परन्तु जैसे ही लकीर से हट जाती हूँ तब विचार भी भूत भविष्य की ओर भाग रहे होते हैं । मैंने देखा है वर्तमान में रहने के लिए अनुशासन आवश्यक है। यदि स्वयं पर ही शासन नहीं, प्रबंधन नहीं तो मन संकल्प-विकल्प में उलझेगा ही.... मैं हर काम का प्रबंधन करके चलती हूँ .....
" क्या आप वक्त का प्रबंधन जानती हैं?" मेरी बात को बीच में काटते हुए उस मां ने कहा ।
वक्त का प्रबंधन.... जीअअ... ओ.. एक घंटा हो गया बात करते हुए...पता ही नहीं चला। क्षमा करना जी । वह वृद्धा मुस्करा कर चल दी।
ऐसा लगा जैसे उसने मुझे नसीहत भरा थप्पड़ मारा हो कि उपदेश देने की वस्तु नहीं ...ग्रहण करने की है। ****
11.बरसात का दिन
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सुबह से ही बरसात हो रही थी । शिखा छोटी बेटी के संग बरामदे में खड़ी सोच रही थी कि पहले सभी घरों में गेट बरामदे के बाद अंदर लगा होता था। जब भी कभी बरसात होती तो आते-जाते राही कुछ देर बरामदों में रूक जाते और बरसात से बच जाया करते लेकिन आजकल हर बरामदे के बाहर बड़ा सा लोहे का गेट लगा होने के कारण कोई भी प्राणी बरसात से बच नहीं सकता.. .। यही सोच सोचते हुए शिखा छाता लेकर. .... बेटी के संग गेट पर जा खड़ी हुई । उसने जब बेटी से कहा- "देखो ! पेड़ के नीचे खड़ी हुई वह गाय कैसे भीग रही है... उस किनारे दीवार से सटा हुआ कुत्ता भी कांप रहा है ।"
तब छोटी सी बेटी बड़ी मासूमियत से बोली, मम्मी! यदि हम सामने छत बनवा दें तो सा... री गाएँ व कुत्ते उसके नीचे बैठ सकते हैं..। ***
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क्रमांक - 088
जन्म स्थान : धामपुर , जिला बिजनौर (उत्तर प्रदेश)
शिक्षा : स्नातक
व्यवसाय : राष्ट्रीय दृष्टि दिव्यांगजन सशक्तिकरण संस्थान, (NIVH) में अनुदेशक
विधा :-
दोहे, रोला छंद, कुंडलिया, मुक्तक, छंदबद्ध एवं छंदमुक्त कवितायें एवं लघुकथा लेखन
साहित्यिक विवरण :-
तीन साझा काव्य संग्रह और अनेक समाचार पत्रों एवं पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित
लेखन विधा :-
प्राप्त सम्मान : -
(१) भारतीय लघुकथा विकास मंच एवं जैमिनी अकादमी, पानीपत (हरियाणा) द्वारा अनेक सम्मान-पत्र प्रदान किये गये।
(१) साहित्य साधक सम्मान - - द्वारा इन्द्रधनुष साहित्यिक संस्था, धामपुर (बिजनौर)
(२) श्रेष्ठ कवि सम्मान - - द्वारा एन आई वी एच, देहरादून।
(3) अन्य विभिन्न संस्थाओं द्वारा सम्मान पत्र प्रदान किये गये हैं।
विशेष : -
- राष्ट्रीय दृष्टि दिव्यांगजन सशक्तिकरण संस्थान (एन0 आई0वी0एच0) देहरादून की वार्षिक पत्रिका "दिगाँश" के लिए "सह सम्पादक" का दायित्व-निर्वहन
सदस्य - राष्ट्रीय कवि संगम, उत्तराखण्ड, देहरादून।
सदस्य - धामपुर के साहित्यकार समूह, धामपुर।
सदस्य - बिजनौरी काव्य मंच, (बिजनौर)
सह संयोजक - काव्यमय परिवार - "मैं और मेरी कलम" नयी दिल्ली।
वर्तमान निवास :
116, राजपुर मार्ग, देहरादून - उत्तराखंड
1. हिन्दी की विजय************
रामबाबू की पुत्री शालिनी के हिन्दी माध्यम से शासकीय सेवा में चयन के समाचार से घर में खुशी की लहर दौड़ गयी।
रामबाबू भावातिरेक में शालिनी को सीने से लगाये बड़बड़ा रहे थे... "आज हिन्दी की विजय हुई है...बेटी! तूने उन सबका मुंह बन्द कर दिया जो मुझे ताना देते थे कि हिन्दी माध्यम से बेटी को शासकीय सेवा में भेजने का स्वप्न कभी साकार नहीं होगा।"
शालिनी ने पूछा, "बापू आप धीरे-धीरे क्या कह रहे हैं"।
एक सरकारी कार्यालय में मुख्य लिपिक के पद पर कार्यरत रामबाबू को वर्षों पहले बीता हुआ कुछ याद आ गया।
बेटी शालिनी...." तुम्हें पहली कक्षा में हिन्दी माध्यम के विद्यालय में प्रवेश दिलाते समय मुझे इस बात का खेद हो रहा था कि मेरी आर्थिक स्थिति तुम्हें अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में प्रवेश नहीं करा पायी"... रामबाबू ने कहा।
रामबाबू के समक्ष यादें तैरने लगीं, परन्तु मैंने तुम्हारी योग्यता को देखकर तुम्हारे लिए शासकीय सेवा का स्वप्न देखा। मेरे सहकर्मी मेरी हंसी उड़ाते, ताने मारते कि हिन्दी माध्यम से पढ़कर भी भला कोई शासकीय सेवा में जा सकता है।"
कोई कहता कि रामबाबू मुंगेरीलाल की तरह हसीन सपने देखता है। दुनिया की बातें सुनकर कभी-कभी मुझे भी लगता कि मैं ख्याली पुलाव पका रहा हूं।
रामबाबू भावुक स्वर में कहे जा रहे थे," बेटी शालिनी आज तुमने सिद्ध कर दिया कि 'हिन्दी की शिक्षा' भी बड़ा पद दिला सकती है"।
"तुमने मुझे और उन सभी को करारा जवाब दिया है जिन्हें अपनी मातृभाषा पर विश्वास नहीं है।"
शालिनी ने तब अपने बापू से कहा.... "पिताजी! मातृभाषा हमारे लिए गौरव और सम्मान का प्रतीक है। मातृभाषा हिन्दी हमारी शक्ति है। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं अपनी मातृभाषा हिन्दी की शिक्षा के कारण ही इस पद पर आसीन हुई हूं। ****
2. स्वाभिमान
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राजीव एक कम्पनी में मैनेजर के पद पर कार्यरत था। उसकी कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी की वजह से मालिक उस पर आंख मूंदकर विश्वास करते थे। राजीव के संस्कार ऐसे थे कि वह स्वप्न में भी मालिक के साथ विश्वासघात करने की नहीं सोच सकता था।
हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी कम्पनी के हिसाब-किताब का समय पर आडिट कराने के लिए राजीव ने आडिटर को बुलाया। आडिटर ने अपना कार्य शुरू किया और कुछ समय पश्चात विराम लेते हुए चाय की चुस्कियों के संग उसने राजीव और उसके परिवार के विषय में बात छेड़ दी।
राजीव अपने परिवार में अकेला कमाने वाला था। अपने पिता का इकलौता पुत्र था। पिताजी-माताजी उसके साथ ही रहते थे। पिता प्राईवेट नौकरी से सेवानिवृत्त हो चुके थे। विगत कुछ समय से अपने बीमार पिता के इलाज और दो बच्चों की मंहगी शिक्षा एवं बढ़ती महंगाई के कारण वह आर्थिक तंगी से जूझ रहा था।
उसकी वर्तमान आर्थिक स्थिति को जानकर आडिटर की आंखों में चमक आ गयी। उसने तत्काल ही राजीव को कम्पनी के खातों में दो लाख रुपये के हेरफेर करने की बात कही। उसके अनुसार वह अपनी आडिट रिपोर्ट इस तरह बनायेगा कि बात छुप जायेगी और रकम दोनों के मध्य आधी-आधी बंट जायेगी।
कमजोर आर्थिक स्थिति मनुष्य के विवेक पर पर्दा डाल देती है। यही राजीव के साथ हुआ और उसके मन ने इस विश्वासघात की इजाजत दे दी।
आडिटर अगले दिन रिपोर्ट देने के लिए कहकर चला गया। राजीव भी अपने घर को चला। परन्तु आज राजीव का मन-मस्तिष्क इस बात से बाहर आने के लिए तैयार नहीं था। बच्चों से, पिता से, घर के किसी भी सदस्य से बात करने में उसका मन नहीं लगा। चेहरे पर तनाव की रेखायें स्पष्ट नजर आ रही थीं, रात करवटें बदलते हुए बीती। जैसे-तैसे सुबह हुई और आफिस में पहुंचकर जब आडिटर ने उसके सामने रिपोर्ट रखी और कहा, "राजीव जी! आपके हस्ताक्षर करते ही आप एक लाख के मालिक बन जायेंगे।"
कल से तनावपूर्ण चेहरे पर स्वाभिमान की एक मुस्कराहट आयी और राजीव ने रिपोर्ट फाड़कर फेंक दी और कहा - "मैं ऐसा विश्वासघात नहीं करना चाहता कि मैं दिन में जी ना सकूं और रात में सो ना सकूं।" ****
3. उपहार
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मध्यमवर्गीय मां-बाप ने जितनी खुशी से बेटे का नाम वेदान्त रखा उससे कहीं अधिक वेदान्त की उच्च शिक्षा के लिए दिन-रात मेहनत की।
आज वेदान्त ने माता-पिता के सामने अपने सुनहरे भविष्य के लिए विदेश जाकर नौकरी करने की बात कही तो दोनों का कलेजा मुंह को आ गया। अपने इकलौते पुत्र के सात समन्दर पार जाने और सुनी-सुनाई कहानियां कि..... "अधिकतर लोग विदेश जाने के बाद वहीं शादी करके कभी स्वदेश वापस नहीं आते"....जैसी बातों को सोचकर उन्होंने अपनी बढ़ती उम्र का हवाला देते हुए वेदान्त को अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए कहा।
"बाबूजी बस चार वर्ष की बात है....मैं खूब सारा पैसा कमाकर अपने देश में कम्पनी खोलूंगा और आपके साथ ही रहूंगा। चार वर्ष तो यूं ही बीत जायेंगे, मां।"
इसी प्रकार के अनेक तर्कों से उसने अपनी बात मनवा ली।
मां-बाप कह ही ना पाये कि....तेरे लिए यूं ही बीत जाने वाले चार वर्ष हमारे लिए चार युगों के समान हैं बेटा! अन्ततः वेदान्त विदेश चला ही गया।
एक-एक दिन गिन-गिनकर काटने वाले मां-बाप की आस पर भीषण कुठाराघात दो वर्ष बाद उस दिन हुआ जब वेदान्त ने कहा...."बाबूजी यहां की नागरिकता लेने के लिए मुझे यहीं की लड़की से शादी करनी पड़ी".... इससे आगे सुनने की क्षमता बाबूजी में नहीं थी। फोन का रिसीवर हाथ से छूट गया। पत्नी की आंखों के प्रश्नचिन्ह का सामना नहीं कर सके बाबूजी।
पत्नी के झकझोरने पर निराशा में डूबे बस इतना ही कह पाये.... "शारदा हमारा बेटा पराया हो गया"।
समय गुजरना कठिन हो गया क्योंकि एक आशा के सहारे दिन हवा की तरह उड़ते जाते हैं परन्तु जब जीवन में कोई आस ही ना हो.... तो?
उस दिन वेदान्त का जन्मदिन था और सुबह पांच बजे सूरज अपनी किरण के साथ स्वयं चलकर श्यामाप्रसाद जी के घर आया।
द्वार खोलते ही चरणस्पर्श को झुके वेदान्त और उसकी पत्नी को देखकर श्यामाप्रसाद और शारदा भावातिरेक में नि:शब्द हो गये परन्तु दोनों की अश्रु धारा ने उनके हृदय में उपजी प्रसन्नता को व्यक्त कर दिया।
मां-बाबूजी! मुझे क्षमा कर दीजिए। रूंधे गले से वेदान्त कह रहा था "मैं अपने जीवन को विलासिता से जीने के लिए यह भूल बैठा कि यह जीवन और संस्कारित शिक्षा रूपी 'उपहार' जिन मां-बाप ने मुझे दिया है.....उनसे दूर होकर मैं कितना बड़ा पाप कर रहा हूं।"
बेटा! हम तो निराश हो चुके थे! परन्तु यह तो बताओ कि यह आत्मबोध तुम्हें कैसे हुआ?"..... सामान्य होते हुए शारदा ने पूछा।
मां! मुझे यह अहसास कराने वाली आपकी बहु है। उसी ने मुझे मां-बाप की महत्ता समझाते हुए मेरे इस जन्मदिन पर आप दोनों को बहु-बेटे का 'उपहार' देने के लिए कहा। हम अब यहीं आपके साथ रहेंगे।
क्रिस्टीना को आपसे एक भारतीय नाम की चाह है मां!
मां ने तत्काल बहु को आलिंगनबद्ध करते हुए कहा...."गोमती! तुम दोनों हमारे लिए अनमोल रत्न हो। हम दोनों को इस वृद्धावस्था में अमूल्य 'उपहार' देने के लिए कोटि-कोटि शुभाशीष हम दोनों की ओर से । ****
4. अन्नदाता
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रघुनाथ बड़े किसान थे। पैदावार बहुत थी और उसी हिसाब से आमदनी भी थी। ईश्वर की कृपा उन पर बरस रही थी। परन्तु यह सब अनायास ही नहीं हुआ था। खेतों में अपना खून-पसीना बहाकर उन्होंने यह सब हासिल किया था।
जब तक रघुनाथ स्वयं मेहनत करते थे तब तक उनके अन्दर अंहकार, लालच जैसे अवगुण नहीं थे परन्तु रुपयों की बरसात ने उन्हें घमंडी बना दिया। जो छोटे किसान उनके खेत में अन्न उगाते थे, उनको मानसिक - शारीरिक कष्ट देने की उन्हें आदत सी हो गयी थी।
किसान उनसे कहते.... "मालिक हम भी किसान हैं और आपकी सम्पन्नता तभी तक है जब हम किसान अन्न उगाते हैं।"
परन्तु रघुनाथ उनसे कहते कि.... "अन्न तुम नहीं, मेरी जमीन उगाती है।"
आखिरकार उन्हें शिक्षा देने के लिए एक दिन सभी किसानों ने खेती से इन्कार कर दिया। समय पर खेत में बुवाई न होने से उस वर्ष फसल नहीं हुई।
तब रघुनाथ को अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने सभी किसानों से क्षमा मांगते हुए कहा.... कि मुझे समझ आ गया है कि किसान की मेहनत से ही फसल पैदा होती है और यथार्थ यही है कि "किसान ही अन्न उगाता है और सच्चे अर्थों में किसान अन्नदाता है।" ****
5. आशीर्वाद
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राजकुमार युवावस्था की उस सीढ़ी पर खड़ा था जहां पर मन के अन्दर आकाश में उड़ने की इच्छा बलवती होती है। पिता का व्यवसाय उसकी आर्थिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त था जिसमें वह स्वयं भी पारंगत हो चुका था।
परन्तु राजकुमार का मन कुछ अशांत रहता था। वह ऐसा कुछ करना चाहता था कि उसके मन में संतुष्टि का भाव बना रहे।
एक दिन उसने पिता से कहा..... "पिताजी! हमारी आर्थिक स्थिति भी बहुत अच्छी है और व्यवसाय में भी सुदृढ़ता है। परन्तु मेरा मन अशांत क्यों रहता है?"
पिता ने उससे कहा, "बेटा! ईश्वर की कृपा से मैंने अपनी मेहनत से ऐसा व्यवसाय स्थापित कर दिया है कि तुम आर्थिक परेशानियों से बचे रहोगे परन्तु मन की शांति के लिए तुम्हें आशीर्वाद रूपी पूंजी की आवश्यकता है और यह पूंजी तुम्हें स्वयं अर्जित करनी होगी, इसमें मैं, तुम्हारी कोई मदद नहीं कर सकता।"
पिता ने आगे कहा कि बेटे! जीवन-यापन हेतु अपने दायित्वों के निर्वहन के साथ-साथ अपनी क्षमतानुसार दीन-दुखियों की मदद करो तो उनके द्वारा जो आशीर्वाद तुम्हें मिलेगा तब तुम्हारे मन को असीम शांति का अनुभव होगा। इसलिए भौतिक पूंजी के साथ ही आशीर्वाद की पूंजी भी अर्जित करो बेटा।" *****
6. मेरी पाठशाला
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चिन्मय का जन्म वर्ष 2015 में हुआ था। वह बहुत मेधावी बालक था। उसके माता-पिता ने तीन साल की आयु के पश्चात उसको पाठशाला में प्रवेश दिला दिया था। अन्य बच्चों के साथ पढ़ना - खेलना चिन्मय को बहुत अच्छा लगता था।
पाठशाला जाने के लिए वह प्रतिदिन सुबह स्वयं ही उठ जाता था और बड़े उत्साह में रहता था।
परन्तु एक दिन जब उसकी आंख खुली तो उसकी माताजी ने कहा "बेटा! आज पाठशाला नहीं जाना है।"
क्यों मां?
प्रत्युत्तर में जो शब्द "लाॅकडाउन" उसे मां के मुख से सुनने को मिला, उसका बालमन नहीं समझ पाया।
कुछ दिन बाद मां ने कहा कि "चिन्मय! आज तुमने कक्षा में पढ़ना है"।
सुनते ही वह खुशी के कारण उछल पड़ा।
मां ने उसको पाठशाला की वेशभूषा पहनाई।
चिन्मय ने अपने पिता से कहा "पापा! चलो, मुझे स्कूल छोड़कर आइये।
परन्तु मां ने उसका हाथ पकड़ा और लैपटॉप के सामने बैठा दिया और कहा कि "यही है तुम्हारी पाठशाला चिन्मय!"
उस दिन चिन्मय ने जिज्ञासावश नयी तकनीक की पाठशाला में पढ़ाई की।
परन्तु दो-तीन के बाद वह इस आभासी पाठशाला से ऊब गया और मां से बोला.... "मां! यह "मेरी पाठशाला" नहीं है।
मेरी पाठशाला में बच्चों के साथ-साथ शिक्षक-शिक्षिका, पुस्तकें, मेज-कुर्सी, दीवारें, फूल-पौधे सब मुस्कराते, खिलखिलाते रहते थे जिससे मुझे बहुत खुशी मिलती थी।
मां! इस पाठशाला में मेरा मन पढ़ाई में नहीं लगता।
मां! यह पाठशाला मेरी नही है।
मां! मुझे "मेरी पाठशाला" चाहिए।
मां निरुत्तर हो गयीं। उन्हें प्रतीत हुआ कि इस तकनीकी आभासी पाठशाला में चिन्मय जैसे बच्चों की भावनायें और मानवीय संवेदनायें कैसे साकार रूप लेंगी।
कोरोना काल में तकनीक की पाठशाला में पढ़ रहे बच्चे जीवन के यथार्थ को कितना समझ पायेंगे?
उत्तर में बस......... मौन था।
मां के अन्तर्मन में एक सन्नाटा सा बिखर गया।
इस सन्नाटे में उन्हें केवल चिन्मय की आवाज सुनाई दे रही थी.....
मां! यह पाठशाला मेरी नही है।
मां! मुझे "मेरी पाठशाला" चाहिए। ****
7. सफाई का महत्व
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देहरादून में अधिकाँश इलाकों में लेन (गली) होती हैं। इसी प्रकार की एक लेन में दस घर थे। लेन के प्रवेश द्वार पर गेट लगा था।
वर्तमान में, कोरोना का लाॅकडाउन चल रहा था। बच्चों का बचपन मुरझा रहा था। उन्हें अपनी उर्जा व्यय करने का मार्ग नहीं सूझ रहा था।
लेन के मध्य में एक खाली प्लाॅट था। जैसा कि प्राय: होता है कि ऐसी खाली जगहों पर जंगली पौधे उग जाया करते हैं और उनके मध्य लोग कूड़ा फेंक देते थे। वैसा ही हाल इस प्लाट का था।
लेन के लगभग दस बच्चों ने आपस में, मोबाइल से बातचीत की और निर्णय लिया कि चार-चार बच्चे क्रमानुसार उस प्लाट की झाड़ियों को साफ करेंगे।
अगले दिन प्रात: ही कोरोन के नियमों, यथा - मास्क का प्रयोग और आवश्यक दूरी बनाकर कार्य शुरु कर दिया गया। शुरु में घर वालों ने बच्चों को रोका परन्तु धीरे-धीरे सफाई देखकर इस कार्य में बड़ों ने भी सहयोग करना प्रारंभ कर दिया।
इस प्रकार कुछ ही दिन में उस कूड़े वाले प्लाट में फूलों के पौधे खुशबु बिखेर रहे थे और उनकी देखभाल करने में बच्चों के समय का भी सदुपयोग हो रहा था।
इस प्रकार जो सफाई के महत्व की बात बड़ों को नहीं सूझी थी, वह बच्चों ने उन्हें समझा दी थी। ****
8. घर छिनने की पीड़ा
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सेठ अनुभवीलाल की अनुभवी दृष्टि ने भांप लिया था कि यदि छ: लेन सड़क उनके बाग के बीच से निकले तो उनके वारे-न्यारे हो जायेंगे। उन्होंने अपने पैसों की ताकत से बाग के बीच से सड़क के गुजरने की मंजूरी सरकारी महकमों से ले ली। पेड़ काटने की अनुमति जैसे दुष्कर कार्य को भी वन विभाग के कुछ भ्रष्ट अधिकारियों ने रिश्वत लेकर सरल बना दिया।
निश्चित दिन को पेड़ों को काटने का कार्य करने वाली टीम आ गयी। बाग में चहल-पहल देखकर पेड़ों पर रहने वाले पक्षियों में व्याकुलता उत्पन्न हो गयी। ईश्वर ने जो बौद्धिक क्षमता उन्हें दी थी, उससे पक्षी समझ गये कि उनका बसेरा छिनने वाला है। बाग की वह धरती, जो इन पक्षियों के कलरव से चहचहाती थी, कराहने लगी और पक्षियों का रुदन न्याय की भीख मांग रहा था। पर इन सबसे निष्ठुर लालची सेठ और भ्रष्ट अधिकारियों को कुछ सरोकार नहीं था।
परन्तु वन्यजीव प्रेमियों तक पक्षियों की कराहट और रुदन पहुंच गया। तत्काल ही न्यायालय में उचित तर्कों के साथ गुहार लगाई गयी। न्यायालय से भेजी गयी समिति ने पाया कि इस सड़क को बाग के पास की शुष्क जमीन से होकर बनाने में कोई बाधा नहीं है।
माननीय न्यायालय ने तत्काल आदेश जारी कर सड़क के कार्य को प्रारम्भ होने से पहले ही रोक दिया। इस प्रकार वन्यजीव प्रेमियों की सक्रियता से बाग में रहने वाले पक्षियों को समय रहते 'घर छिनने की पीड़ा' से छुटकारा मिल गया। *****
9. प्रार्थना की शक्ति
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शुभम के मन में अक्सर प्रश्न उठता कि जब कर्म प्रधान है तो फिर प्रार्थना करने से क्या लाभ। उसकी माताजी धर्म-परायण स्त्री थीं और प्रार्थना की शक्ति के विभिन्न उदाहरण देकर शुभम को समझाती थीं, परन्तु शुभम कहता कि... यदि मैं पढ़ूंगा नहीं तो क्या प्रार्थना करके उत्तीर्ण हो जाऊंगा। आखिरकार माताजी चुप हो जातीं।
एक दिन शुभम की माताजी गम्भीर रूप से बीमार हो गयीं। अच्छे अस्पताल में उन्हें भर्ती कराया गया। योग्य चिकित्सक द्वारा उनकी चिकित्सा की जा रही थी। शुभम अपनी माताजी से बहुत प्यार करता था। वह अत्याधिक परेशान हो गया। उसकी बेचैनी खत्म ही नहीं हो रही थी।
शाम को जब शुभम अस्पताल से घर आया तो स्वयं ही पूजा कक्ष में जाकर प्रभु के सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा।
धीरे-धीरे उसके मन को सांत्वना मिलती जा रही थी और उसके मन में अपनी माताजी के स्वस्थ होने का विश्वास उत्पन्न होता जा रहा था। प्रार्थना करने के उपरांत वह एक अदृश्य शान्ति का अनुभव कर रहा था।
कुछ दिन बाद जब उसकी माताजी पूर्ण रूप से स्वस्थ होकर घर आ गयीं तो उसने यह बात उन्हें बतायी।
माताजी ने कहा... "बेटा! मुझे स्वस्थ करने के लिए चिकित्सक ने तो अपना कर्म किया ही.... परन्तु प्रार्थना से मुझे अपनी बीमारी से लड़ने के लिए शक्ति और विश्वास प्राप्त हुआ और तुझे इस विषम परिस्थिति में धैर्य और शान्ति प्राप्त हुई।
तब शुभम बोला... "हां मां! मैं समझ गया कि कर्म तो प्रधान है ही, परन्तु कर्म करने की शक्ति और कर्म की सफलता का विश्वास हमें प्रार्थना से ही मिलता है। ****
10. पिता की शैली
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'पिता' शब्द जब भी आशुतोष के मन-मस्तिष्क के समक्ष आता है, तो जो छवि उभरती है, वह अपने सन्देशों को कर्म-पथ पर क्रियान्वित करके समझाने वाले अपने पिता की होती है।
उसके पिता ने कभी भी उसे उपदेशात्मक शैली में जीवन-पथ पर चलना नहीं सिखाया। बल्कि स्वयं कार्य करके शिक्षाप्रद शैली थी, उनकी।
उसे याद आता है कि उसके मितव्ययी पिताजी कहा करते थे कि..... "खूब कमाओ..... खूब खर्च करो"। एक दिन आशुतोष ने पूछ लिया.... "पिताजी! यह" खूब खर्च करो" का पालन तो आप करते नहीं। तब उन्होंने कहा, बेटा! मैं खर्च करने के लिए कहता हूँ.... व्यर्थ खर्च करने के लिए नहीं कहता। मेरा आशय है कि खूब मेहनत करो परन्तु खर्च करते समय तो व्यक्ति को अपने विवेक से सोचना ही चाहिए।"
इसी प्रकार जब घर में गेहूँ की बोरी आती और उसमें से कुछ दाने बिखर जाते, तो पिता का एक-एक दाना चुगना आशुतोष को जीवन भर के लिए 'बचत' का सन्देश दे गया।
पिता ने उससे कभी पढ़ने के लिए नहीं कहा, परन्तु हर समय पिता को अध्ययन-अध्यापन करते हुए देख-देखकर वह एक स्वयं ही उत्तम विद्यार्थी बन गया।
पिता अक्सर कहते थे कि...."मनुष्य के चेहरे की पूजा नहीं होती, कर्म पूजे जाते हैं। इसीलिए आशुतोष ने कभी भी अपने कर्मों की दिशा को भटकने नहीं दिया।
पिता के कर्म प्रधान जीवन के सन्देशों का अनुपालन कर आशुतोष ने जीवन में बहुत सम्मान पाया। जब भी वह सम्मानित होता, उसे अपने पिता और उनकी कर्मशीलता युक्त सन्देशप्रद शैली बहुत याद आती। ****
11. भीड़-भीड़ में अन्तर
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चार पुत्र, पुत्र-वधुओं और आठ पोते-पोतियों से भरे हुए घर की भीड़ में रामावतार जी के मन को बहुत शान्ति मिलती थी। धर्मपत्नी के स्वर्गवासी हो जाने के बाद इस परिवार के कोलाहल में भी सुखद अनुभूति होती थी उन्हें।
जिस सुखी सामूहिक परिवार को देखकर दुनिया को आश्चर्यमिश्रित जलन होती थी उसी परिवार में वक्त के परिंदे ने शान्ति की शाख से उड़कर अलगाव की ओर प्रस्थान करना शुरू किया तो जिस भीड़ में रामावतार जी को शान्ति मिलती थी उसके बिखराव के भय ने उन्हें अशांत करना शुरू कर दिया।
एक दिन चारों पुत्र एकमत होकर आये और बड़े बेटे रमेश ने कहा, "पिताजी! हम सभी अलग-अलग होना चाहते हैं। हमारी गृहस्थी की मजबूती के लिए आप हमारा हिस्सा दे दीजिए।"
लाख समझाने के बाद वृद्ध पिता हार मान गये। सबका हिस्सा अलग होने के बाद दूसरे बेटे सोमेश ने प्रश्न किया कि पिताजी किसके पास रहेंगे?
कृतघ्न बेटों के मध्य सहमति बनी कि पिताजी वृद्धाश्रम में रहेंगे।
रामावतार जी ने लाख कहा कि बेटों! मुझे इस पारिवारिक भीड़ में आनन्द और चैन मिलता है। परन्तु वृद्धाश्रम के द्वार पर बेटों ने उन्हें पहुंचाकर ही दम लिया।
वृद्ध स्त्री-पुरूषों की भीड़ को दिखाते हुए रमेश ने कहा, "पिताजी! देखिये, यहां पर भी कितनी भीड़ है।
रामावतार जी बेटों को समझा नहीं पाये कि परिवार की भीड़ और वृद्धाश्रम की भीड़ में जमीन-आसमान का अन्तर है। ***
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क्रमांक - 089
जन्म तिथि - 12 जून 1964
माता - शशिप्रभा अग्रवाल
पिता - स्व0 हीरा लाल अग्रवाल
पति का नाम- श्री प्रभात कुमार गोविल
शिक्षा - बी0 एस सी0, कंप्यूटर साईन्स, डी0सी0एच0
कार्य क्षेत्र - अपना विद्यालय का संचालन
विधा - लघुकथा, कविता, हाइकु, आलेख
साझा संकलन : -
मुट्ठी में आकाश
सृष्टि में प्रकाश
लघुकथा साझा संकलन है
विशेष : -
- आ0 मधुकांत जी ने 'नमिता सिंह' की लघुकथा के साथ
जुड़ना
- आ0 बीजेन्द्र जैमिनी जी के विभिन्न ब्लॉग पन्नों पर विभिन्न विषयों पर लघुकथा देने का अवसर प्राप्त हुआ है।
- समाज में हिन्दी के उत्थान के लिए
- गरीब बच्चों की पढ़ाई
- सप्तरंग सेवा संस्थान का संचालन
- लेख्य-मन्जूषा के अन्तर्गत हिन्दी को बढावा देना
पता : -
201, महेश्वरीकुंज अपार्टमेंट ,रोड न0 6,
पूर्वी पटेल नगर , पटना - 23 बिहार
शिक्षा: एम.ए . हिन्दी, एमएड , पीएचडी
प्रेरणा: मात-पिता-गुरु-मित्र और परिवार
सम्प्रति : प्रधानाचार्य , शिक्षा विभाग, राजस्थान
विधा : गीत, कविता, लेख और लघुकथा
रूचि:
1) लेखन
2) चित्रकारी
3) नृत्य-संगीत
सम्मान: -
1) राज्य स्तरीय शिक्षक सम्मान, राजस्थान सरकार, सत्र -2017
2) प्रशस्ति पत्र : उत्कृष्ट शिक्षक एवं सराहनीय जन-सेवा पर शिक्षा विभाग, राजस्थान सरकार सत्र -2017
3) प्रशंसा पत्र: आदर्श विद्यालय में संस्थाप्रधान के कार्यो का श्रेष्ठ संपादन एवं सराहनीय सेवा पर शासन सचिव, स्कूल शिक्षा एवं भाषा विभाग, राजस्थान सरकार, सत्र -2017
4) अनेक ब्लॉक स्तरीय सम्मान, शिक्षा विभाग, अजमेर, राजस्थान
5) विभिन्न साहित्यिक सम्मान
विशेष : -
1) साहिल वृद्धाश्रम अजमेर, अपना घर वृद्धाश्रम अजमेर में सेवा कार्य
2) बालिका शिक्षा प्रसार
3) बेटी बचाओ अभियान
4) अंध्विश्वास दूर भगाओ
5) घूँघट प्रथा उन्मूलन
6) राष्ट्रीय कार्यक्रम- "एक पेड़ सात ज़िन्दगी" अभियान
7) 200+ घरों में विशेष हस्त लिखित पाती द्वारा जागृति संदेश।
8) स्वयं 151 वृक्ष लगा कर जन जन को संरक्षण का उत्तरदायित्व सौंपा गया|
9) शिक्षा में नवाचार का प्रयोग
10) भामाशाह को प्रेरित कर विद्यालय में विकास कार्य
11) जिलाध्यक्ष: अजमेर महिला प्रकोष्ठ
12) रेडियो प्रसारित कार्यक्रम : शिक्षक दिवस, 2019 को आकाशवाणी केंद्र जोधपुर द्वारा वार्ता प्रसारण
13) लेखनी उद्देश्य : सामाजिक समरसता एवं आत्म सम्मान के साथ निर्भीक लेखक
प्रकाशन: -
1) भरतपुर हिंदी साहित्य समिति से डुगडुगी में समय समय पर लेख प्रकाशित
2) माँ की पाती, बेटी के नाम पुस्तक में पाती का प्रकाशन
3) शिविरा प्रत्रिका और विभिन्न समाचार पत्रों में समय समय पर रचना प्रकाशन
पता : -
528/22 बालूपुरा रोड,आदर्श नगर,
देवनारायण गली नंबर -8 , अजमेर - 305001 राजस्थान
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कल्पना ने उच्च शिक्षण हेतु अरुण को अमेरिका भेजा, वहीं उसकी नौकरी लग गयी l वहीं उसने कैटरीना से शादी कर ली और उसके दो बच्चे हुए जो वहीं पले और बढे l कभी कभी वहबच्चों के साथ गाँव भी आता थाl
इस बार लॉकडाउन के कारण सभी हवाई यात्राएँ केंसिल हो गयी l इस परिस्थिति में वह परिवार के साथ ही रहा l उसके बच्चों को पिजा, बर्गर आदि पसंद थे, गाँव में ये सब कहाँ? उनकी दादी ने पूछा, ये क्या कह रहे हैं? बालक दादी के पास गये और मोबाईल पर खाका खींचा जिसे देख, दादी ने कहा, बस l अगले दिन चूल्हे पर सिकी बाजरे की रोटी, उस पर खूब सारा मक्खन लगा, प्याज़, टमाटर आदि से सजा और गुड़, खांड के साथ पेश किया, बड़े चाव से बालकों ने खाया और दादी के गले में गलबहियां डाल झूलने लगे l ****
2. पड़ोसी
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रामचंद्र और उसकी बीबी छोटी छोटी बातों पर मोहल्ले में झगड़ते थे,फलस्वरूप कोई भी उनके पास फटकता भी नहीं था l यही आदत उनके दोनों बच्चों में अा गयी l
एक बार रामचंद्र बहुत बीमार हुआ l उसकी बीबी परेशान, कैसे क्या करूँ...?ओटो ले उसे हॉस्पिटल ले गई l गेट पर ही उसका पड़ोसी नारायण मिला l उसे बेदहवास घबराया देख बोल उठा, भाभी जी क्या बात है, घबराई हुई क्यों हो, उसे देखते ही उसकी रुलाई फूट पड़ी l नारायण ने उसे ढाढ़स बँधाया और उसकी मदद की l उस दिन का दिन और आज का दिन,रामचंद्र अब किसी से झगड़ा नहीं करता l ****
3.माँ
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रूचि ने सदा माँ को घर और स्कूल के कार्यो को बखूबी संभालते देखा है l कैसे जल्दी उठकर घर के सारे कार्य पूर्ण कर स्कूल जाती और स्कूल से आते ही घर के कार्यो में पुनः जुट जातीl
रूचि को गुस्सा आता,माँ हमसे बात नहीं करती, उनके पास हमारे लिए समय नहीं l मेरी सहेलियों की मम्मी कितनी अच्छी हैं उन्हें पीजा, बर्गर, सेंडवीच आदि तरह तरह की चीजें टिफिन में बनाकर देती हैं और उसकी माँ प्रतिदिन परांठा- सब्जी ही देती
है l
अब रूचि बड़ी हो गयी l उसका भी अपना परिवार है l वह भी माँ की तरह अपना घर का कार्य निपटाकर ऑफिस संभालती है l आज उसे अहसास हुआ कि माँ ये सब कैसे मैनेज़ करती थी l
बिना कुछ कहे सुने सबकी ख़ुशी का ध्यान रखना और ऊपर से हमारे नखरे भी हँसते हँसते पूरे करती l आज मातृ दिवस पर माँ की याद से उसकी आँखों में आँसू छलछला आये l माँ, तुम कितनी अच्छी हो l ****
4.खेत
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रतन लाल बड़े शहर में गार्ड की नौकरी करता था l कोरोना काल में नौकरी छूट गई l जैसे तैसे अपने गाँव पहुंचा l जमा पूंजी उसकी खर्च होती गई l इसी उधेड़ बुन में वह अपने खेत पर पहुंचा l
उसकी नज़र एक गिलहरी पर गई l वह खेत में से एक एक दाना अपने बच्चों को खिला रही थी l जिसे देख उसके मन में विचार
कोंधा, क्यों न मैं भी इस खाली खेत का उपयोग अपने बच्चों के लिए करूँ l बस, फिर क्या था, वह बाज़ार में बीज की दुकान पर गया और नकद की फ़सल के बीज ले आया l खेत में छोटी छोटी क्यारी बना कर, उसमें उसने गोबर की खाद के साथ बीज डाल दिये l आठ से दस दिन में बीज अंकुरित हो गये l धीरे धीरे वह बढ़ने लगे l
इन्हें देख उसके मुख पर संतोष का भाव छाने लगा l टमाटर, मिर्ची, भिंडी, बेंगन लोकी, काशीफल, पालक, धनिया, आदि
को शहर की ओर जाने वाली सड़क पर बेचने लगा l धीरे धीरे उसके घर में समृद्धि आने लगी l
जिस खेत से मुँह मोड़ वह चला गया था आज वही उसका सबसे बड़ा सहारा था l ****
5. उदाहरण
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राकेश के पापा की आदत थी कि जो काम उन्हें दूसरों से करवाना होता था तो स्वयं उस कार्य को प्रारम्भ करने लगते l तब परिवार के सदस्य उनके हाथ से कार्य लेकर खुद करने लगते l
एक बार की बात है कि रसोई के सिंक में चार पानी के गिलास झूँठे पड़े थे l वे रसोई में पानी पीने गये, सिंक में झूँठे गिलास देखते ही स्वयं साफ करने लगते l
इसी प्रकार घर से थोड़ी दूर पर सड़क पर एक बड़ा पत्थर पड़ा था जो काफी समय से राह में बाधा उत्पन्न कर रहा था, किसी ने भी उसे हटाने का प्रयास नहीं किया l
एक दिन उनके पोते ने देखा बाबा गेंतीं लेकर उसको ढलकाने की कोशिश कर रहें हैं फिर क्या था पोता और बाल वानर सेना के साथ नौजवान राहगीर साथ में जुट गये और कुछ ही मिनटों में वह पत्थर जो राह की बाधा था सड़क से हट चुका था l सबके चेहरे पर मुस्कराहट खिल उठी l
उनकी यह आदत परिवार में परम्परा या संस्कार के रूप में( काम तुरंत करने का )उदाहरण आज भी नज़र आता है l
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6. स्वच्छता
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सोमेश अपने मम्मी डैडी और छोटे भाई मोनू के साथ गुजरात भ्रमण पर निकला l रास्ते में दर्शनीय स्थल देखते हुए आगे बढ़ते जा रहे थे l गुजरात की चौड़ी -चौड़ी स्वच्छ सडकें देख मन खुश हो रहा था l एकाएक मोनू ने वेपर्स खाये हुए रेपर्स और फल के छिलके फेंकने के लिए जैसे ही विंडो खोला l सोमेश ने कहा, मोनू भाई तुमको ये साफ सड़कें अच्छी नहीं लग रहीं l जहाँ कचरा पात्र मिलेगा वहीं रुक कर डाल देंगें l यदि हम ही शुरुआत नहीं करेंगे तो देश कैसे स्वच्छ रहेगा l आने वाली जेनरेशन का ध्यान स्वच्छता पर कैसे जायेगा l ये देश भी अपना घर है l ***
7. विरहाग्नि
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सीमा और राजू की शादी को तीन महीने हुए कि राजू को जीविकोपार्जन हेतु बाहर जाना पड़ा l सीमा परिवार में ख़ुशी ख़ुशी काम करने के बाद भी अपनेआप को अकेली महसूस करती l रात को नींद नहीं आ रही थी, वह चाँद से बतिया रही थी और उसकी आँख से झर झर पानी बहने लगा l
ए चाँद, तुम मन ही मन मेरी दशा देख क्यों इतरा रहे हो l मुझे लगता है इस संसार ने तुम्हारे विषय में झूँठ ही कहा है कि तुम शीतलता देते हो पर सच्चाई कुछ और ही है l तुम मुझ जैसी कितनी विरहा की तड़पन पर मुस्करा रहे हो तुमने कितनों के जग जीवन में आग लगाई है l मत इतराओ मन में और उसे नींद आ गई l ****
8. शिक्षा और स्वाभिमान
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संगीता के पिता मजदूर हैं l वह चार भाई -बहन हैं l किसी तरह से दो जून की रोटी मिल जाती है लेकिन मजदूर पिता रतन पढ़ाई की अहमियत को भली -भाँति समझते हैं l स्वाभिमान के साथ कड़ी मेहनत करके हर बच्चे को शिक्षा दिला रहे हैं l सभी भाई -बहन पढ़ाई में होशियार हैं l शिक्षा के क्षेत्र में अव्वल आने पर शिक्षा बोर्ड द्वारा लेपटॉप प्राप्त कर चुके हैं l संगीता उनकी बड़ी बहन है l वह पैरों पर खड़े होकर पापा का हाथ बटांना चाहती है l उसका प्राइवेट बी एड कॉलेज में दाखिला हो गया है l वह पूर्ण आत्मविश्वास के साथ पढ़ाई में जुटी है l
परीक्षा का समय नजदीक आया l संगीता की तीस हजार रूपये फीस बकाया थी l कॉलेज वालों ने सख्त हिदायत दी कि कल तक यदि बकाया राशि नहीं जमा कराई गई तो बच्ची को प्रवेश कार्ड नहीं दिया जायेगा l उनके ह्रदय पर चोट पहुँची l बेचारे उसके पिता, जहाँ से बच्ची ने स्कूली शिक्षा प्राप्त की वहाँ की प्रधानाचार्य के पास कुछ विश्वास के साथ गये l हाथ जोड़ विनती करी -मैडम जी, बच्ची का साल बिगड़ जायेगा l भविष्य अंधकारमय हो जायेगा, आँखों में आँसू भर लाये, उनका कंठ अवरुद्ध होने लगा l
प्रधानाचार्य को समझते देर न लगी l जहाँ सरकार बालिकाओं को शिक्षित कर रही है वहाँ ऐसी दयनीय स्थिति देख उन्होंने कहा -आप चिंता न करें, आपकी बेटी होनहार है l जैसी आपकी बेटी, वैसी मेरी बेटी l मैं व्यवस्था करती हूँ l तत्काल उन्होंने अपने पति को बैंक भेजकर तीस हजार रूपये निकलवाए और हाथ जोड़कर कहा -आप कॉलेज की बकाया राशि जमा कराये और प्रवेश -पत्र
लेकर बच्ची को परीक्षा में बैठाये l रूपये वापस लौटाने की जल्दी नहीं है l
जब संगीता के पिताजी कॉलेज में फीस जमा कराने पहुँचे तो वहाँ के बाबू ने पूछा -आपने इतनी जल्दी व्यवस्था कैसे की? किससे लेकर आये हो? जब उन्हें यह सब ज्ञात हुआ और स्थिति से प्राचार्या को अवगत कराया तो उन्होंने मानवता के नाम पर अपने अहंकार को टूटते देखा और क्षमा याचना की l
संगीता ने अपने पिताजी से आत्मविश्वास से कहा -पापा, मैं आपके स्वाभिमान को टूटने नहीं दूँगी l दोनों के नयन छलक उठे l ****
9. कोरोना महामारी और मानवता
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चारों ओर दहकती चितायें, लाशों का नंबर,एक के बाद एक l शांति से अंतिम संस्कार करता हुआ एक प्राणी शंभू अपने कर्तव्य को करता हुआ, रात -दिन श्मशान में खड़ा है l
शंभू के माता- पिता बचपन में ही उसे छोड़ चले गये l अकेला वह अनगिनत लाशों का, जिनका कोई नहीं है,अंतिम क्रिया कर्म कर चुका है l
आज कोरोना महामारी में जब अपने भी साथ छोड़ कर चल दिये वह प्रभु से सभी के स्वास्थ्य की मंगल कामना करता हुआ, डटा हैl भूख प्यास की चिंता नहीं है l उस जीवट इंसान को देख मन सिर झुकाने को हो गया l उसके जज़्बे को सलाम l ****
10. रक्त- दान
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गुड्डी का विवाह मध्यमवर्गीय परिवार में तय हुआ l विवाह से पूर्व ही कुवंर साहब का जन्म दिन आया तो उसके मम्मी पापा जन्म दिवस पर उपहार लेकर बधाई देने गुड्डी की ससुराल पहुँचे l वहाँ पहुँचने पर ज्ञात हुआ कि कुंवर साहब घर पर नहीं हैं,खैर.. l इंतजार किया l
जब कुंवर साहब आये ढेरों बधाई दी और पता चला कि वह अपने प्रत्येक जन्म दिन पर रक्त दान किया करते हैं l गुड्डी के मम्मी पापा का सीना गर्व से भर गया l
जब गुड्डी को घर आकर बताया तो वह भी बहुत प्रसन्न हुई कि जिनसे उसका विवाह होने जा रहा है,उसका जीवन साथी कितने बड़े व्यक्तित्व का धनी हैं l वह फूली न समाई l
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11. ममता का सागर
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दामोदर लाल दिल्ली रेलवे में सर्विस करते हैं l उनकी पत्नी ब्यूटी पार्लर चलाती है l उनके दो बेटे और एक लड़की है l
एक दिन जब वह रेलवे क्रोसिंग से गुजर रहे थे कि कहीं से उन्हें नवजात शिशु के रोने की आवाज़ सुनाई दी l वह उस दिशा की ओर उन्मुख हो चले l वहाँ जाकर कचरे के ढेर पर एक नवजात बालिका को देखा l उनका दिल पसीजा और उसे गोदी में उठाकर घर ले आये l घर आ,सारी कथा कह सुनाई l
उनकी पत्नी सरोज ने उसे बहुत ही प्यार से उठाया और कहा, ये मेरी बेटी रिया है l तीनों भाई -बहनों ने भी कभी उसे अपने से अलग नहीं समझा l धीरे -धीरे रिया बड़ी होने लगी l लेकिन किसी ने भी उसे यह अहसास नहीं होने दिया कि वह कचरे के ढेर पर मिली l
जब भी चर्चा होती, उनके दो बेटे और दो बेटी हैं, कहकर की जाती l सरोज की तो वह आँखों का तारा थी l धीरे धीरे रिया ने ब्यूटी पार्लर का काम सीख लिया और मम्मी के कार्य में हाथ बंटाने लगी l आज उसकी शादी हो गई,वह अपने पैरों पर खड़ी है और सुखी जीवन व्यतीत कर रही है l
एक बच्ची का जीवन संवर गया l ****
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क्रमांक - 091
नाम - कल्याणी झा 'कनक'
जन्म तिथि - 07 जुलाई ,राँची, झारखंड
पति का नाम - सुभाष चन्द्र मिश्र
शिक्षा - एम. ए. हिन्दी (इग्नू)
व्यवसाय - शिक्षिका
लेखन : कहानी, कविता, लघुकथा, संस्मरण, लेख, समीक्षा
प्रकाशित पुस्तक - "और भी है राहें" कथा संग्रह
प्रकाशित साझा संकलन : -
नीलाम्बरा,
विचार विथिका,
कथादीप,
लघुकथा संकलन - 2019
चित्रगंधा
साहित्य प्रसंग
साहित्योदय
विशेष : -
- महिला काव्य मंच राँची की सक्रिय सदस्य।
- प्रेरणा दर्पण साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मंच झारखंड इकाई अध्यक्ष।
प्राप्त सम्मान : -
- भारतीय लघुकथा विकास मंच द्वारा विभिन्न सम्मान से सम्मानित
- आदिशक्ति फाउंडेशन द्वारा सशक्त नारी सम्मान
- बाल नारी जागृति युवा मंडल द्वारा नारी रत्न सम्मान
- अखिल भारतीय प्रसंग मंच द्वारा कथा शिल्पी सम्मान
- साहित्य संवेद मंच से पाठक पुरस्कार
पता : - फ्लैट नं बी 304, ईश्वरी इन्कलेव , विद्यापति नगर,
काॅके रोड ,राँची - 834008 झारखंड
1. हम हिन्दुस्तानी
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आज अर्चना वर्मा को अमेरिका के एक शहर में हिन्दी दिवस पर सम्मानित किया जा रहा था।
संस्था "हम हिन्दुस्तानी" के संरक्षक ने अपने उद्बोधन में कहा कि "हम हिन्दुस्तानी संस्था की नींव नौ साल पहले अर्चना जी ने रखी थी। वे हम प्रवासी भारतीयों के बच्चों को हिन्दी की महत्ता बड़े ही लगन से बताया करती थी। कई लेखकों की किताबों को लेकर उन्होंने एक लाइब्रेरी बनायी थी। जहाँ हफ्ते में एक बार बच्चों को लेखक के परिचय के साथ किताबें पढ़ने को देती थी।वे रामायण के पात्रों का परिचय, गीता के उपदेश और अपने देश भारत की गौरव गाथा भी बच्चों को बताया और समझाया करती थी।
सभी बच्चों के माता-पिता भी उनके इस कार्य की खूब सराहना करते थे। उन्हें इस बात की खुशी होती थी कि विदेश में रहकर भी हमारे बच्चे अपनी संस्कृति और मिट्टी की खुश्बू से जुड़े हुए हैं।"
अर्चना वर्मा जी ने बताया कि उनके पति को कंपनी ने दस साल के लिए यहाँ भेजा था। समय पूरा होने पर अब मैं अपने पति के साथ वापस भारत जा रही हूँ । अब "हम हिन्दुस्तानी" की बागडोर शिखा गुप्ता को सौंप दी है।
उन्होंने उपस्थित सभी सुधिजनों को सम्बोधित करते हुए कहा - " मुझे इस बात का पूरा भरोसा है कि मेरे द्वारा रखे गए " हम हिन्दुस्तानी "की लौ अब मशाल बन कर सभी बच्चों का मार्गदर्शन करेगी।"
पूरे हाॅल में तालियों की गड़गड़ाहट के साथ नई कमेटी ने उन्हें सम्मानित किया।
अंत में उन्होंने कहा "मैं यहाँ रहते हुये भी भारत में जीती थी और वहां की खुशबू बिखेरती थी जिससे यहाँ पैदा हुए बच्चे उस सौंधी खुशबू से वंचित न रहें।" ****
2.स्कूल बस
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स्कूल बस अचानक चौराहे से पहले ही रुक गयी। एक शिक्षिका ने उत्सुकतावश पूछा - " क्या हुआ ड्राइवर भइया?" ड्राइवर ने चिंतित होते हुए कहा - " मैडम जी, लगता है कि चौराहे पर दुर्घटना हो गयी है। अब बच्चे शाम तक भूखे - प्यासे, थके हारे बैठे रहेंगे।"
बस में दो ही शिक्षिका थी। रूपाली और मीना, दोनों आस - पास ही रहती थी। भीड़ अब बेकाबू होकर बस की तरफ आ रही थी। दोनों शिक्षिकाओं ने सबसे पहले स्कूल के आफिस में खबर कर दी कि नौ नं की बस हंगामें में फंस गई है। जिससे सभी अभिभावकों को खबर मिल गई। उसके बाद इंटरनेट की मदद से पास के थाने में फोन किया। फिर तुरंत ही एंबुलेंस को आकस्मिक सेवा के लिए फोन किया।
बच्चों को बस में बंद करके निडरता के साथ भीड़ के सामने खड़ी हो गई। भीड़ को धिक्कारते हुए कहा - "आप सभी हंगामा करने से पहले थाना और पुलिस को फोन करते तो दुर्घटनाग्रस्त इंसान की जान बच सकती है। फिर विडियो लेते हुए एक लड़के को देखकर कहा कि -" ऐसे ही किसी दिन चौराहे पर आपके घर के बच्चे भी स्कूल बस में हो सकते है।" सामने से आती एंबुलेंस की आवाज़ से भीड़ छंटने लगी। घायल को एंबुलेंस में बिठा कर ले गई। पुलिस ने भी आकर स्थिति को सम्हाल लिया।
उन्होंने वीडियो बनाने बालों से कहा, "वीडियो पर लाइक और कमेन्ट ही मिलते हैं। अगर इस मोबाइल का सही उपयोग करते तो लोगों की जान बच सकती है।" ****
3. शिक्षा
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मेडिकल की परीक्षा का परिणाम घोषित होते ही मोहल्ले में हंगामा हो गया था। नीतू डाक्टर बन गई, पर घर सूना था ,माँ बिस्तर पर तप रही थी। पिताजी दिल का दौरा पड़ने से पिछले साल ही चल बसे थे। दोनों भाई उनकी कोई सुधि नहीं लेते थे।
उसकी नयी माँ उसका मेडिकल में दाखिला करवाना ही नहीं चाहती थी। दोनों छोटे भाई उसे घर की नौकरानी ही समझते, क्योंकि वह सारा दिन काम करती थी। परंतु वह समय निकाल कर रसोईघर में ही अपनी पढ़ाई कर लेती थी। दो साल की उम्र में ही माँ उसे अलविदा कह गई थी। घर वालों के दबाव में पिता ने दूसरी शादी कर ली। नीतू जब मेडीकल की प्रवेश परीक्षा पास कर चुकी थी तब पिता ने उससे कहा था - "जिंदगी ने तुझसे बचपन की मासूमियत और प्यार छीन लिया। पर ये ज्ञान तुझसे कोई नहीं छीन सकता। खूब मन लगाकर पढ़ो।" और पिता ने मेडिकल कॉलेज में नीतू का दाखिला करवा दिया था।दिन बीतते गए।
नीतू को सामने से आती देखकर माँ ने आवाज दी - " बेटी मुझे माफ कर देना।" नीतू ने एक इन्जेक्शन लगा कर दवाई हाथ में थमाते हुए कहा - " ये गोली सुबह - शाम खा लीजियेगा। ठीक हो जाएगा।"
नीतू उन्हें टूटते हुए देख रही थी। कल जहाँ नीतू की जिंदगी थी, आज वहीं पर उसकी नयी माँ खड़ी थी।
नीतू ने उनके माथे पर हाथ रख कहा,
"माँ चिंता मत करो, मैं हूँ न।" ****
4. सहारा
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कामिनी आज सुबह से ही उस कमरे में बैठी थी। जहाँ उनके पति घंटों समय बिताया करते थे। रिटायर होने के बाद उनका ज्यादा समय पढ़ने-लिखने में ही व्यतीत होता था। पूरा कमरा सतीश की मनपसंद किताबों से सजा हुआ था। सतीश हमेशा उनसे कहते - "आओ मेरे साथ इस कमरे में बैठो। बहुत सुकून मिलेगा।"... "आपने गाजर लाकर रख दिया है। हलवा कौन बनाएगा। शाम को घर पर साहित्यिक चर्चा भी रख ली है, फिर चाय - नाश्ता का इंतजाम करना। ये सब क्या इतना आसान है। कल महिला मंडल की मीटिंग है। मुझे उसकी भी तैयारी करनी है।". सतीश मुस्कुराते हुए कहते- "अच्छा ठीक है, कामिनी सहाय जी, आप मुझे गाजर का हलवा ही खिला दीजिए।"
यह सब सोचते हुए कामिनी बाहर निकलकर सोफे पर बैठ गई। सोचने लगी, जब तक सतीश का साथ था। कितना व्यस्त रहती थी। उनके जाने के बाद जिंदगी जैसे रूक सी गयी है । चारों तरफ एक खालीपन पसर गया है । बेटी ब्याह के बाद विदेश में ही बस गयी। अभी दो महीना बेटा के पास रह कर आयी थी। इससे ज्यादा दखलअंदाजी बहू को पसंद नहीं था।
तभी सुखिया (खुशी की दादी) हाँफते हुए आयी - " मालकिन, आज खुशी काम करने नहीं आएगी। मुन्ना का एक्सीडेंट हो गया है। फटफटिया चला रहा था। आज सुबह उठते ही मुन्ना ने उस मनहूस का मुँह देख लिया था। हो गया सत्यानाश। हे भगवान! न जाने क्या होगा, इस बिन माँ - बाप की बच्ची का"। कहते हुए चली गई।
शाम हो चली थी कामिनी दरवाजा बंद करने गयी, तो देखा कि खुशी सीढ़ी पर बैठकर रो रही थी। उसके हाथ - पैर और चेहरे पर कई जगह चोट के निशान थे। कामिनी ने पूछा - "क्या हुआ।"... " मुन्ना फटफटिया से गिर गया। बहुत तेज चला रहा था। छोटी माँ ने बहुत मारा, और घर से निकाल दिया। बोली कि तू मनहूस है। घर में रहती है। इसलिए ये सब हुआ।"
कामिनी उसे अंदर लेकर आयी। जख्मों को गरम पानी से पोंछकर दवाई लगायी, और पट्टी बाँध दी। फिर कामिनी ने खुशी का चेहरा अपने हाथ में लेते हुए कहा - " मेरी बेटी बनोगी। मैं बहुत अकेली हूँ। मुझे सहारा चाहिए।" इतना सुनते ही खुशी फफफ कर रोने लगी। कामिनी के अश्रू भी अविरल बह रहे थे। ऐसा लग रहा था, जैसे नियति ने स्वयं ही दोनों को मिला दिया था। ****
5. सुबह की चाय
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कामिनी सुबह छ:बजे चाय लेकर बरामदे में आकर बैठ गई। कामिनी जब भी अहमदाबाद आती थी, तो उसका ज्यादा समय इसी बरामदे में बीतता था। बरामदे के सामने एक छोटे से बगीचे में आम के चार पेड़ और फूलों की क्यारियाँ थी । बीच में लगे घास पर मिट्टी के दो पात्र में पानी भरा रहता और दो पात्र में अनाज रखा रहता था । गिलहरी पेड़ से उतरती और कभी पात्र से अनाज खाती तो कभी पानी पीती और तुरंत पेड़ पर चढ़ जाती। चिड़ियों की चहचहाहट से पूरा वातावरण खुशनुमा बना रहता। वो सभी एक डाल से दूसरे डाल पर फुदकती रहती । कभी पानी में अपना चोंच डुबाती तो कभी अपने चोंच में अनाज उठाती, फिर फुर्र से उड़ जाती। पार्क के एक कोने में बुजुर्गो के बैठने की व्यवस्था की गई थी, जहाँ पाँच से छ: बुजुर्ग मास्क पहने हुए दूरी बनाकर बैठे थे।
ऊपर टीन के शेड पर लगे पंखे नहीं चल रहे थे। कामिनी भी बिना पंखे के ही बैठी थी। पेड़ों के पत्ते जोर- जोर से हिल रहे थे। शीतल मंद सुगंध पवन बह रही थी। सुबह चाय की चुस्कियों के साथ एक ताजगी का अनुभव हो रहा था। जो दिल और दिमाग दोनों को तरोताजा कर रहा था। दो साल पहले कामिनी यहाँ आई थी तो अहमदाबाद की भीषण गर्मी में सुबह दस से ग्यारह बजे तक बिना पंखे के बैठना असंभव था। कामिनी अब सोचने पर मजबूर हो गई कि यह बदलाव रात के आठ बजे से सुबह के आठ बजे तक लगे कर्फ्यू के कारण तो नहीं है? शायद यही सच है कि अब प्रकृति भी अब हमसे कुछ कहना चाहती है। ****
6. प्रथम पाठशाला
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सतीश अपने पिता (मुखिया) के साथ खड़े होकर रावण दहन की तैयारी देख रहा था। गगन ने सतीश को अपने पास बुलाकर कहा - " तुम्हें याद है न, हमारे मास्टर जी, अगर हम नहा कर नहीं जाते थे। तो कक्षा में बैठने नहीं देते थे। रोज हमसे पहाड़ा सुनते थे। जिसकी लिखावट खराब होती थी। उसकी काॅपी में हस्ताक्षर नहीं करते थे।..." हाँ, कैसे भूल सकता हूँ। उनकी प्रथम पाठशाला ने हमारी जड़ों को इतना मजबूत बनाया है।"... "इस बार की दशहरा में हम सब उनके द्वारा रावण दहन करवाना चाहते है।"... "ये तो अच्छी बात है, पर लोगों की चाकरी ने मेरे पिता में दंभ भर दिया है। फिर भी मैं कोशिश करता हूँ। "
आज मुखिया जी ने स्वयं मास्टर साहब को सम्मान के साथ बुलाते हुए रावण के पुतला दहन के लिए पहला तीर चलाने का आग्रह किया। मास्टर जी ने जैसे ही हाथ में तीर - धनुष उठाया। तालियों की गड़गड़ाहट से वातावरण गूंज उठा। इधर रावण का पुतला धूँ - धूँ कर जल रहा था। उधर गगन, पवन, सतीश और उनके सभी मित्र खुशी-खुशी एक - दूसरे को देखकर मुस्कुरा रहे थे। ****
7. रपट
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आज रविवार का दिन था । बारिश का महीना होने के कारण पाँच दिन बाद धूप निकली थी । पुरुष वर्ग खेत का जायजा लेने निकले थे । बच्चे बाहर निकल कर खेल रहे थे। बच्चों में आज होड़ लगी थी, कि कौन कितना ऊँचा कूद सकता है। मुन्नू, गुड्डू, पप्पू, सोमू, चेतू, और उनके साथ सोमू की छोटी बहन मुनिया भी खेल रही थी । मुनिया गेंद से खेल रही थी। इस बार उसकी गेंद दूर चली गई, तो मुनिया भी गेंद के पीछे- पीछे भागी।
सांझ होते ही सभी बच्चे घर की तरफ जाने लगे। पर उन्हें मुनिया कहीं दिखाई नहीं दी। मुनिया घर पर भी नहीं थी। सभी परेशान हो उसे ढूँढने लगे। पूरे गाँव में शोर मच गया। धीरे-धीरे रात हो चली थी। अभी तक मुनिया की कोई खबर नहीं थी। तभी एक झाड़ी के पास मुनिया के कराहने की आवाज सुनाई दी। वहाँ जाकर देखा तो मुनिया बेसुध पड़ी थी। पूरा शरीर लहू - लूहान था। माँ ने चीखते हुए उसे गोद में ले लिया, और अस्पताल की तरफ भागी। नर्स ने बताया किसी शंकर का नाम ले रही है।
पूरा गाँव शंकर के घर के बाहर खड़ा था। शंकर की माँ शीला भीड़ को चीरती हुई सीधे थाने पहुँची। वहाँ पहले से ही शंकर के पिता एक वकील के साथ बैठे थे।
शीला ने थानेदार की तरफ देखते हुए कहा - "साहब मेरे बेटा ने जघन्य अपराध किया है। उसकी रपट लिखिए।" फिर अपने पति को धिक्कारते हुए बोली - "हमारी बेटी और मुनिया एक ही कक्षा में पढ़ते है। तुम्हें मुनिया में, अपनी बेटी नजर नहीं आयी?" उसके बाद वकील को निशाना बनाते हुए - "वकील बाबू,क्या इन दरिंदों को बचाने के लिए ही आपने वकालत की डिग्री ली थी? इससे तो अच्छा होता आप अनपढ़ ही रह जाते।"
थाने से वापस आकर शीला ने मुनिया की माँ से इतना ही कहा - "मैं तुम्हारा घाव तो नहीं भर सकती। पर मुनिया को इंसाफ जरूर मिलेगा।" ****
8. मासूम
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साकेत हाइटेक सोसाइटी में रहता है। स्कूल से आने के बाद वो अपनी आया दीदी के साथ था। उसने आज ठीक से खाना नहीं खाया और खेलने भी नहीं गया। आठ बजे पापा- मम्मी के आते ही, साकेत दौड़ कर अपनी मम्मी के
पास जाकर कहने लगा - " मम्मी मेरी तबीयत ठीक नहीं
लग रही है। सर में दर्द है, और सर्दी भी हो गई है।" ... अरे!
बेटा, मेरी कल मीटिंग है। मुझे पेपर तैयार करना है। "
" पुष्पा ऽऽऽऽ... देख, साकेत क्या बोल रहा है। " साकेत
वहाँ से दौड़कर अपने पापा के पास दूसरे कमरे में गया।
उसके पापा महँगी मशीनों के साथ कसरत कर रहे थे, और
जोर का संगीत बज रहा था। साकेत वहाँ से भागते हुए वापस अपनी मम्मी के पास आकर बोला - " मम्मी दादी को बुला दो ना, वो बहुत प्यार करती है। बाल में तेल की मालिश भी कर देती है।" इतना सुनते ही रीमा तुनकते हुए
संदीप के पास आयी, और जोर - जोर से बोलने लगी - "तुमने ही इसे सिखाया होगा। तभी साकेत मुझसे कह रहा है कि दादी को बुलाओ। मुझे नहीं सुनना उनका लेक्चर -
" तुम लोग साकेत को प्यार नहीं करते हो। समय नहीं देते हो। तुम लोग का सोने और उठने का कोई समय नहीं है।
उन्हें तो हमारी लाइफस्टाइल पसंद ही नहीं आती है। "
रीमा को इतना नाराज देखकर साकेत डर गया और अपने कमरे में जाकर कीमती खिलौनों के बीच रोते-रोते सो गया। रीमा ने अपना गुस्सा उतारने के लिए साकेत के लिए छोटी कार पच्चीस हजार जो हाॅल में चला सकता था। आर्डर कर दिया। ****
9. ससुराल
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पंजाब के एक छोटे से गाँव में परमिंदर दुल्हन बन कर आयी थी। शादी में आए सारे मेहमान अब जा चुके थे। पति सुखविंदर सिंह भी आज काम पर चला गया था। परमिंदर की सासु माँ ने उसे रात के खाने के लिए मक्के की रोटी, सरसों का साग और बड़े से पीतल के गिलास में भर कर छाछ बनाने को कहा था।
सबसे पहले उसने रसोईघर को साफ - सुथरा कर के सभी सामानों को व्यवस्थित किया। सासु माँ के घुटने में दर्द होने के कारण किसी तरह से खाना बना लिया करती थी। इसलिए पूरा कमरा अस्त - व्यस्त था। उसके बाद उसने सबसे पहले छाछ बना कर रख दिया। अब एक चूल्हे पर साग पक रहा था। दूसरे चूल्हे पर मक्के की रोटी बना रही थी। नए रेशमी परिधान और सिर पर करीने से चुन्नी रख कर सजी संवरी परमिंदर हर आहट पर चौखट की तरफ देखती कि कहीं उसका सुखी ( सुखविंदर) तो नहीं आया। आज से ही तो उसने गृहस्थी सम्हाली थी। इसके साथ ही नयी जिंदगी बाँहें फैलाए उसका इंतजार कर रही थी। ****
10. धूप और छाँव
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सुमित्रा देवी अपने पति की फोटो के सामने खड़ी होकर बातें कर रही थी। उन्होंने अपने सफेद और काले बार्डर वाली साड़ी के तह को ठीक करते हुए इधर-उधर देखा। उसने पति की ओर देखते हुए कहा _ "तुम ठीक ही कहते थे कि सुख और दुःख दोनों साथ चलते है। मालूम है? आज आकाश ने जब बहू से चाय माँगी ,तो बहू ने बड़े प्यार से चाय बना कर दिया। मुझे वह दिन याद आ गऐ ,जब तुम मुझे आवाज लगा कर कहते थे _ ‘सुमित्रा ssss एक प्याली चाय पिलाना। मैं रसोईघर में कई कामों के बीच भी तुम्हें चाय बना कर देती थी। आज वही भाव मैंने शगुन के चेहरे पर महसूस किया।
"अब अपनी लाड़ली श्रुति का चिड़चिड़ापन भी कम हो गया है। माँ के कामों में हाथ बटाती है ,और खूब मन लगाकर पढ़ाई भी करती है। आकाश भी दिन में एक -दो बार मुझसे हाल -चाल पूछ लेता है।" आज उनके चेहरे पर उदासी की जगह एक चमक थी ,और पहले से ज्यादा खुश नज़र आ रही थी। मुझे तो लगता है ,बच्चों की कोई गलती नहीं थी। भाग दौड़ में जीवन शैली ही बदल गई थी। आकाश और बहू का ऑफिस में बेहतर प्रदर्शन के लिए परेशान रहना। श्रुति का स्कूल के बाद कोचिंग और ट्युशन में लगे रहना। आधुनिकता की अंधी दौड़ में भागते - भागते सब की मासूमियत जैसे छूट गई थी। अचानक कोरोना वायरस ने आकर सबको रोक दिया। अब रुक जाओ! बहुत दौड़ लिए! थोड़ा सुस्ता लो!आजकल दूरदर्शन पर रामायण की गंगा बहती है। जिसे हम साथ बैठकर देखते है।"
" मैंने सौ के करीब मास्क बनाये हैं। संस्था वाले अभी लेने आ रहे है,गरीबों को बांटने के लिए सुनिये! हमारे मजदूर बहुत दुखी और बेहाल है। उनकी बातें कल करुँगी,पहले उनके लिए कुछ कर तो लूँ।" ****
11. क्राफ्ट
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सुमन आज स्कूल से आने के बाद उदास बैठी थी। दो दिन की छुट्टी के बाद क्राफ्ट जमा करना था ।नीतू उसे क्राफ्ट का सामान लेने के लिए बुलाने आयी। उसने बहाना बनाते हुए कहा कि - "मैं कल जाऊँगी ।" फिर बैठकर सोचने लगी कि कल भी उसके पास पैसे कहाँ से आयेंगे । उसके पिता रिक्शा चलाते थे। लू लग जाने के कारण महीने भर से घर में आराम कर रहे थे। उसकी माँ दो घरों में खाना बनाती थी। उसी से घर का खर्चा किसी तरह से चल रहा था। शाम को घर में आते ही माँ ने पूछा -" तू इतनी उदास क्यों है? क्या बात है?"... "स्कूल में क्राफ्ट जमा करना है। डिब्बे में सिर्फ 60 रू है। आपकी तनख्वाह आने में सात दिन बाकी है। मैं क्या करूं, यही सोच रही हूँ।"... "ठीक है। चिंता मत कर। कल सोचते है।"
दूसरे दिन कमला ने कपड़े की एक गठरी निकाली। जो उसे मालती मेमसाहब ने दिया था। जिसमें पुराने और टिकाऊ शर्ट - पैंट थे। फिर सुमन को समझाते हुए कहा -" क्राफ्ट घर में पड़े पुराने और बेकार वस्तुओं से भी बनायी जाती है। तू इस शर्ट से थैला बना ले। बीच में एक छोटा सा फूल टांक देना। अच्छा क्राफ्ट बन जाएगा।"।
सुमन ने माँ के कहने के अनुसार ही किया। स्कूल में शिक्षिका ने उसके क्राफ्ट की खूब तारीफ की। उसके द्वारा बनाए गए थैला को दस सर्वश्रेष्ट क्राफ्ट में स्थान मिला। ****
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क्रमांक - 094
जन्मतिथि : 8 जनवरी 1966 , मुम्बई - महाराष्ट्र
पिता का नाम : स्व. श्री एन. पी. शास्त्री
माता का नाम: सुमन .एन. शास्त्री
पति का नाम : प्रमोद भट्ट
शिक्षा : बी.कॉम ,एम. ए., बी.एड., एल.एल.बी.
सम्प्रति: सेवा निवृत्त शिक्षिका
लेखन विधा: हिंदी तथा अंग्रेजी में कविता , लघुकथा, समीक्षा, लेख आदि .
प्रकाशित पुस्तकें : -
प्रकाशित : लघुकथा संवाद (साक्षात्कार)
किरचों की विच्ची: वक़्त ने उलीची (लघुकथा संग्रह) द्वे लघुकथाकार कल्पना भट्ट, विभा रानी श्रीवास्तव
कई साझा संकलनों में लघुकथाएँ प्रकाशित
पड़ाव और पड़ताल खण्ड 29 में 11 लघुकथाएँ प्रकाशित
सम्मान : -
- 2016 - अंतरा शब्द शक्ति सम्मान (भोपाल)
- प्रतिलिपी .कॉम की प्रतियोगिता -तस्वीरें बोलतीं है में द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ ।(कहानी के लिए)
- ओपन बुक्स ऑनलाइन - साहित्य रत्न सम्मान - 2017 (देहरादून)
- प्रतिलिपी .कॉम में कथा सम्मान 2017 में 9व स्थान
- अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच से लघुकथा वरिष्ठ सम्मान -2017(पटना)
- मातृभाषा उन्नयन संस्थान (इंदौर) द्वारा अंतरा शब्द शक्ति सम्मान -2018
- साहित्य कला मंच (सिहोर,मध्य प्रदेश) द्वारा व्यग्र साहित्य सम्मान -2017
भागीदारी /सह प्रदर्शन: -
हिन्दी लेखिका संघ(भोपाल)
साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था कला मन्दिर (भोपाल) ओपन बुक्स ऑनलाइन(भोपाल शाखा)
अनुवाद कार्य :-
- लघुकथा का भावानुवाद: अब तक करीब 160 लघुकथाओं का अंग्रेजी में भावानुवाद। विभिन्न लघुकथाकारों के।।
- करीब बीस हिन्दी लघुकथाओं का गुजराती में भावानुवाद। मेरे द्वारा हुआ है।
विशेष : -
- साहित्यिक कला मंच(सिहोर,मध्य प्रदेश) द्वारा आयोजित मासिक गोष्ठियों में कविता एवं लघुकथा पाठ
- कुछ लघुकथाओं का पाठ सोशल मीडिया पर लाइव
- हाल ही में डॉ पुष्कर भाटा जी द्वारा मेरी तीन लघुकथा का नेपाली भाषा में भावानुवाद।
पता : मकान नं -3 श्री द्वारकाधीश मन्दिर,चौक बाज़ार, भोपाल -462001 मध्यप्रदेश
१. निर्जीव वेदना
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“ओह माँ! मेरी तो हड्डी पसली तोड़ दी इस लड़के ने! नासपीटा अबजो व्यसक भी नहीं हुआ है और इसके बाप ने मुझे इसको सौंप दिया | अब तुम ही कुछ करो मेकेनिक भाई...ओह माँ...|”
गैरेज में सब तरफ मोटर बाइक थी, कुछ तो टूटी-टाटी और कुछ में छोटी-मोटी रिपयेरिंग के लिए| आरिफ के अलावा वहाँ और कोई न था, फिर ये किसने कहा? आरिफ ने चारों नज़र घुमाई पर उसको कोई नज़र नहीं आया | उसे लगा कोई भ्रम हुआ है और वह दुबारा अपने कार्य में लग गया |
कराहने की आवाज़ और तेज हो गयी, आरिफ ने इधर-उधर देखा तो करीब ही रखी हई एक बाइक से उसने आवाज़ सुनी, “ अरे भाई! मैं ही बुला रहा हूँ, देखो न मुझे, कितनी बेरहमी से मुझसे बर्ताव किया है, मैं तो पूरी तरह से टूट गयी हूँ...|”
“तुम को दर्द हो रहा है...? पर...तुम तो निर्जीव हो...नहीं! नहीं ! तुम बोल नहीं सकतीं, जरूर मुझे ही कुछ हुआ है...और आरिफ ने पास ही रखे मटके से एक मग्गे से पानी निकाला और मुँह पर मारा और उसने पानी पीया|
पर करहाने की आवाज़ ने उसका पीछा नहीं छोड़ा, “पहले मुझको देखो न, बहुत दर्द हो रहा है...|”
अब तो आरिफ के माथे पर से पसीना बहने लगा, पर हिम्मत से वह उस बाइक के पास गया और पूछा, “आखिर तुम्हारी यह दशा कैसे हुई...”
उस बाइक ने कहा, “दस वर्ष का बच्चा था, खुली सड़क पर मुझे लेकर दौड़ रहा था, आगे टैंकर था, पर वह तो बच्चा ही था न...घुस गया टैंकर के नीचे...|”
“उस बच्चे का क्या हुआ....?”
“मर गया बेचारा...पर मैं...तुमने सच कहा में तो निर्जीव हूँ...मेरी मौत...|”
अब आरिफ के हाथ औजार लिए बाइक को पुनर्जीवन देने हेतु सक्रिय हो उठे थे| ****
२. एक ही रंग
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दंगों के बाद असलम मियाँ ने जगह-जगह टूटी-फूटी चीजें, सड़कों पर अनगिनत ज़ख्मी और लोगों की लाशें देखीं | मोहल्ले के हर गली का यही मंजर देख उनको कुछ याद आया, वे तुरंत घर गए और अपनी पुरानी संदूक में कुछ ढूँढने लगे| उनका बेटा उसी कमरे में बैठा अखबार पढ़ रहा था| उसने अपने अब्बू को इस तरह से संदूक खोलकर जब कुछ तलाशते हुए देखा, जिज्ञासावश उसने पूछा, “ अब्बू ! क्या तलाश रहे हो?”
असलम अपनी ही धुन में संदूक में हाथ फेर रहा था, तभी उसके हाथ में एक तस्वीर आ गयी, उसने उस तस्वीर को अपने बेटे के सामने रख दी और धम्म करके करीब रखे बेड पर बैठ गया|
बेटा तस्वीर को बहुत ही ध्यान से देख रहा था, वह अपने पिता के चेहरे को पढने का प्रयास कर रहा था, और हाथ में पकड़ी हुई तस्वीर को गौर से देख ही रहा था की उसके मुख से निकला, “ अब्बू! यह तो आपके साथ श्याम चचा हैं न? श्याम चाचा को देखे जमाना हो गया,मुझे याद आ रहा है कि जब हम गाँव में रहते थे, जब वहाँ मेला लगा था, आप दोनों मुझे लेकर मेला घुमाने ले गए थे...|” यह कहते हुए वह बचपन की उन स्मृतियों में खो गया...
“ह्म्म्म... क्या तुझे याद है बेटा...” रुंधे हुए गले से असलम ने अपने बेटे से पूछा |
अपने अब्बू की आवाज़ से उसकी तुन्द्रा भंग हुई, और उसने हाँ में सर हिलाया |
असलम ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “ तुझे याद है? उस दिन घर लौटते हुए मेरा एक्सीडेंट हो गया था... तेरे श्याम चाचा ने मुझको अस्पताल पहुँचाया... फिर तुमको घर पहुँचाया...|”
“हाँ ! अम्मी ने जब ये समाचार सुना था, वह धडाम से जमीन पर गिर गयी थीं...और मैं रोने लगा था, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था...”
“बेटा ! उस एक्सीडेंट में मेरा बहुत खून बह गया था, डॉक्टरों ने कहा था कि मुझे खून की आवश्यकता पड़ेगी... तब तेरे उसी श्याम चाचा ने अपना खून दिया था| बाद में मुझे पता चला था कि उनके घर में इसका विरोध हुआ था और अपने घर-परिवार में और मोहल्ले में भी कई तरह की बातें हुई थी...|”
“कैसी बातें अब्बू?”
“यही कि वह बामन था, और हम मुसलमान...फिर खून...|”
“अरे पर! खून तो सभी का एक सा होता है, इसमें मजहब...|”
“यही बात श्याम ने कही थी... उसने किसी की न सुनी और...|”कहते हुए असलम ने उस तस्वीर को अपने छाती से लगा ली|
“पर आज अचानक यह क्यों....अब्बू...”
“उस हादसे के बाद, हम लोग तो यहाँ आ गए, और तब से श्याम की कोई खबर भी नहीं ली...|”
“ओह ....!”
“बेटा ! आज जो बाहर हालात हैं, उसमें कई घायल भी होंगे... क्या पता वहाँ कोई...| उसका क़र्ज़....|”
बेटे कुछ कह पाए उसके पहले ही असलम घर से बाहर निकल चुका था... ****
३.कठपुतली
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“हुँह...कठपुतली...” मीना ने व्यंग्य और पीड़ामिश्रित स्वर में कहा और मेज पर रखे अपने निजी सचिव के मोबाइल में चल रहे वीडियो को देखने लगी | स्क्रीन के मंच पर कठपुतली का तमाशा चल रहा था |
एक छोटी बच्ची-सी कठपुतली मंच पर आई और नाचते हुए कहने लगी, “बापू ! मैं आगे पढूँगी और उसके बाद नौकरी भी करूँगी...”
नेपथ्य से पुरुष की भारी आवाज आई, “अरी छोरी ! पढ़-लिखकर का करेगी ? आखिर तो तुझे चौका-चूल्हा ही देखना है | हमारे घरों की लड़कियाँ इत्ता ना पढ़तीं, तूने तो फिर भी दस पास कर लिया है...| अब अपनी माँ के कामों में हाथ बँटा |”
थोड़ी देर में ही वह कठपुतली फिर मंच पर अवतरित हुई | अब वह एक हाथ में बेलन और दूसरे हाथ में झाडू लिए नाच रही थी |
“मैं अभी बहुत छोटी हूँ...अभी मेरी शादी मत कराओ...” वह कठपुतली नाचते हुए गुहार लगा रही थी |
इस बार नेपथ्य से एक पुरुष का प्रेमभरा स्वर आया, “मैं खुद पढ़ा-लिखा हूँ और मेरा अच्छा-ख़ासा व्यापार है...मैं शादी के बाद तुझे खूब पढ़ने की इजाजत दूँगा...खूब पढ़ना...”
इतना सुनते ही कठपुतली हर्ष से नाचने लगी | उसके मुख से हर्ष और आल्हाद के स्वर निकल रहे थे | नाचते-नाचते वह ऊपर उठी और नेपथ्य में चली गई |
इस बार वह नाचते हुए मंच पर आई तो उसके पहनावे पर लिखा था---पढ़ी-लिखी घरेलु स्त्री और वह नाचते-गाते घर के कार्य कर रही थी |
कुछ समय तक वह कठपुतली मंच पर आती रही और अलग-अलग तरीके से नाच दिखाकर नेपथ्य में जाती रही | लेकिन यह क्या ! इस बार वह कठपुतली मंच पर आई तो उसके शरीर पर विधवा का सफेद लिबास था | वह जमीन पर सिर पटक-पटककर रो रही थी | नेपथ्य से भी रुदन के स्वर आ रहे थे |
कुछ समय तक वह विलाप करती रही लेकिन तभी नेपथ्य से एक नारी स्वर उभरा, “खुद को सँभाल पगली, अब सब कुछ तुझे ही देखना और करना है...तू एक पढ़ी-लिखी स्त्री है...तू स्वयंसिद्धा है...तुझे इस भँवर से निकलना है...”
कठपुतली के नेपथ्य में जाते ही खेल समाप्त हो गया |
“मैम, आपने जो स्क्रिप्ट लिखकर दी थी, क्या उसके अनुसार यह फिल्म सही बनी है ?” निजी सचिव पूछ रहा था |
“हाँ, बिलकुल सही बनी है |” मीना ने कहा और सोफे से उठकर अपने पति की कुर्सी पर बैठ गई | ****
४.दौराहा
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सड़क पर एक बच्चा अपने दोनों हाथों में पत्थर लिए जा रहा है | मासूम के हाथों में पत्थर देखकर एक राहगीर पूछता है, “बेटे, हाथों में पत्थर लेकर कहाँ जा रहे हो ?”
“उनको मारने |” उस मासूम ने उत्तर दिया |
“किन्हें मारने ?” राहगीर ने आश्चर्यचकित होकर पूछा |
“जिन्होंने हम पर हमला किया है |” मासूम-सा उत्तर |
“तुम पर किसने हमला किया है ?” एक और सवाल |
“मैं नहीं जानता लेकिन उन्होंने हम पर हमला किया है |” बच्चा उलझन में है |
“अच्छा यह बताओ, तुम उनका क्या करोगे ?”
“मैं उन्हें मार दूँगा |”
“पर क्यों ?”
“क्योंकि वे हमें मार रहे हैं |”
“अच्छा छोड़ो, यह बताओ कि तुम यहाँ किसके साथ आए हो और क्यों आए हो ?”
“मैं अपने बाबा के साथ आया हूँ और बापू के दर्शन करने आया हूँ |”
“तुम बापू को जानते हो ?”
“हाँ, बाबा ने मुझे बताया है कि वे हमारे राष्ट्रपिता हैं |”
“क्या तुम्हें पता है कि बापू अहिंसा के पुजारी थे ?”
“मुझे पता है, मैंने अपनी इतिहास की किताब में पढ़ा है |”
“लेकिन तुम तो पत्थर हाथ में लेकर घूम रहे हो और किसी को मारने की बात भी कर रहे हो ?”
“बाबा ने कहा है कि अब समय बदल रहा है और हमें अपनी रक्षा खुद करनी है |”
और वह बच्चा अपने बाबा के साथ वहाँ से चला गया | एक व्यक्ति जो राहगीर और बच्चे की सारी बातें सुन रहा था वह तेजी से राहगीर की बगल में आया और फुसफुसाहट भरे स्वर में बोला, “बच्चा सही कह रहा है | अब समय बदल रहा है और हमें अपनी रक्षा खुद करनी है |”
आगे दौराहा था | ****
५. दृष्टिभ्रम
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शाम का धुंधलका गांधी पार्क पर उतरने लगा था | कोने की बेंच पर बैठे एक बूढ़े व्यक्ति को वे तीनों लेखक पहचानने का प्रयास कर रहे थे | मैले कपड़े, बेतरतीब बढ़ी हुई दाढ़ी, झुकी हुई पीठ और उलझे-रूखे बाल | बहुत प्रयास करने पर आखिर उनमें से एक ने उन्हें पहचान ही लिया |
“अरे ! ये तो हमारे गुरुदेव आनन्द हैं !” उसके मुँह से निकला तो वे तीनों उनकी तरफ लपके |
अपने समय के जाने-माने साहित्यकार आनन्द जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था--- नवोदित लेखकों को प्रोत्साहन देकर आगे बढ़ाना | कितने ही नवोदितों ने उनसे लेखन की बारीकियाँ सीखी थीं | उनका एकमात्र ध्येय था कि जब तक उनके शिष्य अपने-अपने क्षेत्र में स्थापित नहीं हो जायेंगे, वे चैन से नहीं बैठेंगे | लेकिन एक दिन अचानक वे सब-कुछ छोड़कर इस शहर से न जाने क्यों और कहाँ गायब हो गए | सब यही कह रहे थे कि गुरुदेव अज्ञातवास में चले गए हैं |
“गुरुदेव आप ! आप कहाँ चले गए थे ?” उनके पाँव छूते हुए तीनों ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी |
“आपकी यह हालत गुरुदेव ?” तीनों चकित थे |
“अरे, आओ-आओ, कैसे हो तुम सब ! यह बताओ, आप तीनों ने लेखन में अब तक क्या प्रगति की है ? साहित्य के क्षेत्र में नया क्या हो रहा है ?” उन्होंने उन तीनों की बात का उत्तर न देते हुए मुस्कुराकर अपने प्रश्न छोड़ दिए |
“मेरा उपन्यास बी.ए. के कोर्स में शामिल हो गया है गुरुदेव | एक ने उत्साह से कहा |
“मुझे अपने कहानी-संग्रह पर राज्य की अकादमी का पुरस्कार मिला है गुरुदेव |” दूसरे ने गर्व से अपनी उपलब्धि बताई |
“मेरी लिखी ग़जलों के तीन एल्बम आ गए हैं और वे दूरदर्शन तथा आकाशवाणी पर निरन्तर प्रसारित होती रहती हैं |” तीसरा क्यों पीछे रहता !
“वाह वाह ! सुनकर मन तृप्त हो गया |” आनन्दजी की आँखें चमक उठीं |
“गुरुदेव, आपने हम सब पर जो मेहनत की थी यह सब उसीका परिणाम है |”
“यह सब तो बहुत अच्छा हुआ, अब एक बात बताओ ! आप सब ने कितने नवोदित साहित्यकार तैयार किये हैं ? मैं उनसे मिलना चाहता हूँ |” आनन्दजी सोच रहे थे कि उन द्वारा रोपितों ने कुछ तो अवश्य ही रोपित किये होंगे |
एकाएक चुप्पी छा गई | तीनों को बगलें झाँकते देख आनन्दजी के चेहरे से प्रसन्नता के भाव गायब होने लगे थे |
“शायद मैंने आप सबसे कुछ अधिक ही उम्मीद लगा ली थी, लेकिन यह मात्र मेरा दृष्टिभ्रम था...” बुदबुदाते हुए आनन्दजी उठकर अब दूसरी तरफ जा रहे थे | ****
६.पेट का तमाशा
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“उठ कलमूँही, जल्दी उठ | तमाशे का टैम हो गया है और तू है कि अभी तलक सोई पड़ी है | सूरज सिर पर चढ़ आया है |” माँ ने अपनी दस साल की बेटी को झिंझोड़ते हुए कहा तो बेटी ने चादर सिर पर खींच ली |
“आज छुट्टी का दिन है नासपीटी, दो पैसे कमाने का आज ही मौका है और तू सिर पर चादर ओढ़ रही है |” उसने चादर खींचते हुए कहा |
“उफ्फ माँ, सोने दो ना | तनी हुई रस्सी पर रोज-रोज चलते हुए पैरों में दरद होने लगे है |” कहते हुए बेटी ने चादर फिर से सिर पर खींच ली |
इतना सुनते ही माँ का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुँचा, “लाट साहब के घर में जनम लिया है ना जो सूरज चढ़े तक सोती रहेगी ! “
“तेरा बाप कोई खजाना नहीं छोड़ गया है जिसके ऊपर तेरे नखरे चलते रहेंगे | उठ जा, नहीं तो सोंटी लानी पड़ेगी |” कहते हुए उसने एक झटके से चादर खींच ली |
“ओह माँ, अभी तो ठीक से दिन भी ना निकला !” वह अलसाई-सी उठी और आँखों को मसलती हुई माँ से लिपट गई |
“बेटी, जब तमाशे से दो पैसे मिलेंगे तभी तो अपना दिन निकलेगा !” माँ बाहर झाँक रही थी |
“अच्छा , चल अब कुछ खाने को दे, बहुत भूख लगी है |” बेटी जमीन पर ही बैठ गई |
“अभी कल रात ही तो तूने भरपेट रोटी खाई थी !”
“वह तो कल रात थी माँ, अब तो सुबह हो गई है | अब क्या खाने को कुछ ना देगी ?”
“कनस्तर खाली है बेटी और उसमें आटा तभी आयेगा जब तू भरे बाजार में तमाशा करेगी | हमारा पेट और कनस्तर तो इसी तमाशे से जुड़े हैं बेटी | तू उठेगी, मैं ढोल बजाऊँगी और तू रस्सी पर चलेगी तभी तो कनस्तर में आटा आयेगा |” माँ दीवार पर टंगे ढोल को देख रही थी और बेटी अपने खाली पेट को |
“चल बेटी, आज मैं बहुत जोर से ढोल बजाऊँगी, तू बहुत ऊँची रस्सी पर खेल दिखाना, मैं आज तुझे चुन्नू हलवाई की दूकान से भरपेट जलेबी खिलाऊँगी |”
माँ ढोलक हाथ में लिए झोंपड़ी से बाहर निकल रही थी और बेटी भरपेट जलेबी के सपने से बंधी पीछे-पीछे खिंची आ रही थी | ****
७.एक और रत्नाकर
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शहर का कालीदास थियेटर खचाखच भरा हुआ है | सबकी निगाहें स्टेज पर जमी हैं |
भटककर जंगल मे आ गए ब्राह्मण वेशधारी नारद को रत्नाकर डाकू लूट रहा है |
“ठीक है, मैं अपना सब-कुछ तुम्हें सौंपने के लिए तैयार हूँ मगर इससे पहले तुम्हें मेरे एक प्रश्न का उत्तर देना होगा |” ब्राह्मण निर्भीक भाव से रत्नाकर को कह रहा है |
“पूछो, क्या पूछना है |” रत्नाकर उसके साहस से आश्चर्यचकित है |
“यह तो तुम जानते ही हो कि जो कुछ तुम कर रहे हो वह पाप है | मुझे यह बताओ, तुम यह पाप किसके लिए कर रहे हो ?
ब्राह्मण के प्रश्न ने डाकू को उलझन में डाल दिया है |
“मैं अपने परिवार के लिए ही यह कृत्य करता हूँ |”
“अपने परिवार के लिए ! तो क्या तुम्हारा परिवार इस पाप के फल में तुम्हारा भागीदार होगा ?”
“निश्चित तौर पर भागीदार होगा | मैं सब-कुछ उन्हीं के लिए तो कर रहा हूँ |” रत्नाकर की आवाज में दृढ़ विश्वास है |
“नहीं वत्स ! वे चाहकर भी तुम्हारे इस पाप के फल में भागीदार नहीं हो सकते क्योंकि हर मनुष्य को अपने किये पाप-पुण्य का फल स्वयं ही भोगना होता है |” ब्राह्मण ओज भरे स्वर में उसे समझा रहा है |
नाटक द्रुत गति से आगे बढ़ रहा है | दर्शक दत्तचित्त हैं लेकिन उन दर्शकों में एक दर्शक ऐसा भी है जिसकी निगाहें सामने स्टेज की बजाय पासवाले दर्शक की जेब पर टिकी हैं |
“इस नाटक के रत्नाकर तुम्हीं तो नहीं हो ?” पासवाला दर्शक फुसफुसाता है |
“अब वो रत्नाकर कहाँ जो बाल्मीकि बन जाये | इस शहर में तो बाल्मीकि भी रत्नाकर बन रहे हैं |” वह व्यक्ति हाल छोड़कर जा रहा है |
पूरा हाल अन्धकार में डूबा हुआ है | सामने स्टेज पर रत्नाकर बाल्मीकि बनकर रामायण लिखने की तैयारी कर रहा है | नाटक की समाप्ति पर हाल से निकल रहे कई दर्शकों की जेबें खाली हो चुकी हैं | ****
८. पक्का घड़ा
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सारे गाँव में एक ही चर्चा थी---सुखिया कुम्हार का बेटा डाकू बन गया है |
किसी ने कहा, “घोर कलयुग है भैया, किसी का कोई भरोसा नहीं |”
दूसरे ने कहा, “मुझे तो इसमें सारा कसूर सुखिया का ही लगे है | मिट्टी के घड़े तो इतने सुन्दर बनाता है लेकिन अपने बेटे को ...| ऐसे बाप को क्या कहा जाए जो अपनी औलाद की सही से परवरिश न कर सके !”
गाँव के मास्टरजी अपना उपदेश दे रहे थे, “भाइयो ! मिट्टी को चाक पर आकार तो कोई भी दे सकता है मगर असली बात तो उसे सही से पकाने की होती है | जो घड़ा सही से तप जाए वही काम का होता है |”
पास खड़े वृद्ध ने मास्टरजी की बात को आगे बढ़ाया, “कच्चा घड़ा किस काम का ! पानी भरो तो तभी टूट जाए |”
सुखिया चाक के पास उदास बैठा था | उसकी आँखों से बेबसी झलक रही थी | उसका छोटा बेटा सामने अलाव लगा रहा था |
“बेटा, मेरी बूढ़ी आँखों ने मुझे धोखा दे दिया | घड़ा कच्चा रह जाए तो किसी काम का नहीं होता |” सुखिया के हाथ धीरे-धीरे चाक को चला रहे थे | छोटा बेटा बाप की ओर देखने लगा |
“बेटा, तुझे अनुभव नहीं है इसलिए कह रहा हूँ, घड़ों को सही आँच पर और पूरी तरह पकाना नहीं तो वे किसी के काम नहीं आ सकेंगे |”
“बापू ! तू बेफिक्र रह | घड़े पूरी तरह पकेंगे भी और लोगों के काम भी आयेंगे |” छोटे बेटे के विश्वास से सुखिया उत्साह से भर उठा और उसके हाथ तेजी से चाक को घुमाने लगे | ****
९.नदी, पुल और आदमी
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नीचे बहती नदी और ऊपर उसके दोनों किनारों को जोड़ता हुआ पुल | पुल पर से रात और दिन धड़धड़ाते हुए गुजरते तरह-तरह के वाहनों को देखकर एक दिन नदी पूछ ही बैठी, “दिन भर तुम पर इतना वजन लदा रहता है, तुम्हें परेशानी नहीं होती ?”
“पागल हो तुम, यह भी कोई बात हुई ! मुझ पर से वाहन नहीं गुजरेंगे तो लोग तुम्हें पार कैसे करेंगे ? मेरा तो निर्माण ही इसलिए हुआ है बहन |” पुल ने सहजता से कहा |
पुल की इस बात पर नदी खिलखिलाकर हँस पड़ी |
उसकी हँसी से खिन्न पुल ने कहा, “इसमें हँसने की क्या बात है बहन ! तुम वर्षों से बहती आ रही हो | यहाँ पर तुम्हारा पाट विशाल है और प्रवाह अति तीव्र | और हाँ, जब तुम हँसती हो तो मुझे कभी-कभी बहुत डर लगता है |”
“डर और मुझसे, लेकिन क्यों ?”
“बरसात में जब तुम अपना पाट फैलाकर विकराल रूप धारण करती हो तो मुझे लगता है कि न जाने कब तुम मुझे अपने में समाकर बहा ले जाओ |” पुल की आवाज में आशंका थी |
“डरो मत, ऐसा नहीं होगा | लेकिन जितनी संख्या में और जिस गति में गाड़ियाँ तुम पर से गुजरती हैं मुझे तो उससे भय लगता है कि कहीं तुम मुझ पर ही न गिर पड़ो | भीड़ कितनी बढ़ गई है, तुम कब तक सहन करोगे ? कभी ऐसा हुआ तो गाड़ियों के साथ ही न जाने कितने आदमी मुझमें समाकर अपनी इहलीला समाप्त कर जायेंगे |” नदी ने आशंका प्रगट की |
धड़धड़ाकर गुजरते एक ट्रक से पुल सचमुच ही काँप उठा |
“बहन, यदि कभी ऐसा हुआ तो इसमें दोष तो मानव का होगा मगर कसूरवार मैं ठहरा दिया जाऊँगा | मैं कमजोर नहीं हूँ मगर मेरी भी सहने की एक सीमा तो है ना !”
“मानव का लालच बढ़ता ही जा रहा है और उसी लालच के वशीभूत वह तेज गति से दौड़ता जा रहा है | मैं चाहती हूँ कि वह कुछ पल के लिए अपनी अन्धी दौड़ को छोड़कर मेरे किनारों पर बैठकर मेरे शीतल जल से अपनी आँखों पर छींटे मारे |” नदी ने अपनी इच्छा व्यक्त की |
“मैं भी चाहता हूँ बहन, मनुष्य कुछ देर के लिए अपनी रफ्तार भूलकर मुझ पर खड़ा हो जाए और तुझे और नीले आसमान को निहारने का आनन्द ले |” नदी की इच्छा सुनकर पुल ने भी अपने मन की बात कह दी |
उन दोनों ने एक-दूसरे की इच्छा पूरी होने के लिए ‘आमीन’ तो कहा लेकिन पुल पर तेज गति से दौड़ते वाहनों के शोर में उसे किसी ने न सुना | ****
१०.धरती पुत्र
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सुखविंदर जी को सोचमग्न अवस्था में देख उनकी पत्नी ने उनसे पूछा," क्या सोच रहे हो जी?"
"ख़ास कुछ नही...... बस कल अपने खेत पर जो सिपाही आया था उसी के बारे में सोच रहा हूँ.......।"
"सिपाही..... और अपने खेत में.........! कब और क्यों....?"
"कह रहा था कि अपना खेत उसको बेच दूँ.... ।"
"हैं.........! ये क्यों भला......?"
"वह सिपाही न था पर ......सिपाही के खाल में भेड़िया था........ उसका चेहरा ढका हुआ था... पर उसकी आवाज़ कुछ जानी... इतना ही कह पाये कि बाहर से चिल्लाने की आवाज़ आयी।
'अरे बाहर आओ सब ...... एक सिपाही पकड़ा गया.....उसके पास बारूद बरामद हुए .......।'
"कहीं यह वही तो नहीं.....।" सुखविंदर बाहर की ओर दौड़ पड़े।
बाहर देखा तो सच में वही था। उसने सुखविंदर की तरफ देखकर कहा," आप मुझे ज़मीन दे देते तो ......"
"अच्छा हुआ जो तुझे न दी.... तुझे तो हथकड़ी लग गयी पर मेरी माँ को जो बेड़िया तू पहनता उसका बोज़ कोई बेटा सहन न कर पाता।"
आसपास लोग खड़े थे,उसमें से एक ने सुखविंदर से पूछा," यह क्या बोले जा रहे हो...?"
" अजी कुछ नहीं यह सिपाही के रूप में है जरूर पर सिपाही नहीं.... यह मेरी माँ ... मेरी ज़मीन को खरीदने आया था..... बारूद बिछाना चाहता था.... मैंने इनकार कर दिया.....तो धमकी ......"
सुखविंदर अपनी बात पूरी भी न कर पाया था कि फिर एक शोर हुआ.....'अरे देखो देखो उसके मुँह से तो झाग निकल रहा है...।'
आवाज़ सुनकर सुखविंदर उस ओर दौड़ पड़ा। बाहर आकर देखा तो वह सिपाही जमीन पर था।
उसके गिरते ही उसके सिर से टोपी गिर गयी और जब उसके चहरे से कपड़ा हटाया तो सुखविंदर की चीख़ निकल गयी.... " पुत्तर जोगी..... " और वह भी धराशाही हो गया।
"एक किसान का बेटा और आतंकवादी.....?" बाहर भीड़ में चर्चा का विषय बन गयी।"****
११.पार्षदवाली गली
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“क्यों कमलाबाई, आज तूने उस गली में सफाई नहीं की ?” सफाई दरोगा ने पूछा |
“मैंने तो अपनी सभी गलियों में झाडू लगाईं है साब ! आप कौनसी गली की बात कर रहे हो साब ?” कमला ने हैरानी से पूछा |
“कल ही तो तुम्हें वो गली दिखाई थी, वो अपने पार्षद के पासवाली गली |” दरोगा के स्वर में झुंझलाहट आ गई |
“पर वो तो मेरे हिस्से की गली ना है साब, वहाँ तो पीछे साल से ही सोहन जाता है |”
“मैंने कल बताया तो था, तेरा तबादला उस तरफ के इलाके में कर दिया है |”
“पर क्यों साब ?”
“पार्षद साब तेरे काम से भोत खुश हैं, उनके कहने पर ही तेरा तबादला वहाँ किया है |”
“अच्छा, अब समझ में आया | कल ही तो मैंने उनके चौकीदार को चप्पल मारी थी, साला हरामजादा ! मुझसे बेतमीजी कर रहा था |”
दरोगा हो-हो करके हँसने लगा |
“साब ! सफाईवाली हूँ, आपके और सबके इशारे खूब समझती हूँ | पर याद रखना साब ! मेरा नाम कमला है, किसीकी बलि न चढ़ जाए !” उसके चेहरे की गर्मी और आँखों के अंगारों ने दरोगा को सिर से पाँव तक पसीने से तर-बतर कर दिया | ****
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क्रमांक - 095
जन्म तिथि : 05 फरवरी 1961
जन्मस्थान : राजस्थान - भारत
शिक्षा : स्नातक संगीत
कार्य क्षेत्र : साहित्य, संगीत, अध्यात्म और समाज सेवा
विधा: लघुकथा, कहानी, कविता एवं संस्मरण
संप्रति : स्वतंत्र लेखन
प्रकाशित कृतियाँ –
विभिन्न लघुकथा संकलन में प्रकाशित
लघुकथा यात्रा : -
लघुकथा कलश, लघुकथा डॉट कॉम, अविराम सहित्यिकी, दैनिक भास्कर, दृष्टि, चिकीर्षा, अपने-अपने क्षितिज,अभिव्यक्ति के स्वर, सफ़र संवेदनाओं का, संरचना, आसपास से गुजरते हुए, समकालीन प्रेम विषयक लघुकथाएँ, लघुत्तम महत्तम - २०१८, बालमन की कथाएँ, सहोदरी लघुकथा, परिंदों के दरमियाँ, चलें नीड़ की ओर, समय की दस्तक - २०१९, मां , लघुकथा - 2019 , नई सदी की धमक, नए तेवर की लघुकथाएँ, हमारा साहित्य २०१९- २०२०, साहित्य कलश, उर्वशी, समकालीन लघुकथा का सौन्दर्यशास्त्र, मिन्नी पंजाबी पत्रिका, क़लमकार - २०२०, शलसूत्र, सत्य की मशाल, संगिनी, साहित्य विमर्श, हस्ताक्षर, महिला अधिकार अभियान, सर्व भाषा, अटूट बंधन, मरु नवकिरण, अरुणोदय, श्री सुदार्शनिका, सामाजिक आक्रोश, शाश्वत सृजन, शुभ तरीक़ा, क्षितिज, नई दुनिया पत्रिका इंदौर, लघुकथा वृत्त।
सम्मान : -
- कोरोना योद्धा रत्न सम्मान - 2020
- गायन मंच पर
पता : एस. के. टेक्सटाइल, 50/28, नौघड़ा,
कानपुर- उत्तर प्रदेश 208001
1. नीम की छाँह
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आज वह पूरे बीस साल बाद, अपनी नानी के गाँव आया था। सब कुछ कितना बदल-सा गया था।
जब वह माँ के साथ यहाँ रहने आता था, तब नानी अक्सर उसे शिष्टाचार की बातें सिखाया करती थी, जिसे सुनकर वह चिढ़ जाता था।
समय के साथ वह अपनी पढ़ाई में इतना व्यस्त हो गया कि फिर कभी उसका इधर आना ही नहीं हुआ।
मगर आज वह नानी की तेरहवीं पर गाँव आया था, दिन भर लोगों से मिलता-जुलता रहा, मगर बहुत बेचैन था। उसके मन में बचपन की यादें हिलोरे मार रहीं थी। न तो अब नानी थी और न ही बचपन का वह प्रेम।
खुली हवा में वह मन बदलने के लिए, बगीचे में चला गया, जहाँ कभी उसके नन्हें हाथों ने नीम के एक छोटे-से पौधे को रोपा था | जब कभी वह मामा से उसका हाल पूछता तो वह हँसकर कहते, “नानी से ही पूछो, वह रोज उसे दुलराने जाती हैं |" तभी उसने नानी के प्यार को महसूस किया था।
बगीचे में अभी भी सब कुछ वैसा ही था, वही कुआँ, आम के ढेर सारे पेड़। नहीं थी तो बस नानी नहीं थी।
वह ठिठक गया, अरे! ये तो वही नीम का पेड़ था, जिसे उसने रोपा था। उसने नीम को ऊपर से नीचे तक देखा, अब वह बहुत बड़ा हो गया था। उसके तने को सहलाता हुआ वह बोला, “लो मैं आ गया। हर दिन मैंने तुम्हें याद किया है।”
नीम की टहनियाँ हवा में यूँ लहरा उठीं, मानो उसे देखकर उसे दुलरा रही हों। देर तक वह उसकी छाँह में बैठा रहा।
अचानक वह उठकर मिटटी में पड़ी निमकौरियाँ बीनता कह उठा, “नानी, जब तुम डाँटती थी, तब सचमुच नीम की तरह कड़वी लगती थी, लेकिन आज जब तुम नहीं हो तो तुम्हारी यादों के बीज अपने साथ लिए जा रहा हूँ।” ****
2. भावनाओं का सम्बल
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कमरे में अचानक अँधेरा छा गया। अरुँधती ने खिड़की से बाहर झाँककर देखा, आसमान में काले बादल घिर आए थे। वह तेजी से बालकनी की ओर चल दी। मुँडेर पर से कपड़े उठाते हुए उसकी निगाह कार्निस की ओर चली गयी। आज लगभग इक्कीस दिन हो चले थे और कबूतरी ज्यों की त्यों अपने अंडों को से रही थी। थोड़ी ही दूर पर बैठा कबूतर उनकी रखवाली कर रहा था।
वह सोच में पड़ गयी, आखिर कब तक ये दोनों अपने अंडों की रक्षा कर पाएंगे? कल की ही तो बात है, जब नेवला अंडों को सूँघते हुए वहाँ आ पहुँचा था और अगर अभी जोर की बारिश आ गयी तो ...!" उसका जी उमड़ने-घुमड़ने लगा।
सिया के भी तो नौ महीने पूरे हो चुके हैं, किसी भी वक्त उसे अस्पताल ले जाना पड़ सकता है। एक तो महामारी के चलते घर में कैद, दूसरे ऐसे में अस्पताल ले जाना खतरे से खाली नहीं।
आँखों के सामने अँधेरा-सा छाने लगा। इन्हीं सब आशंकाओं के चलते घर के अन्य सदस्य भी चिंताग्रस्त थे और सिया का उदास चेहरा ...। तभी पंखों की फड़फड़ाहट सुनकर उसकी चेतना लौट आई। उसने चौंककर कार्निस की ओर देखा और आवाज देती तेजी से कमरे की ओर दौड़ गई, "सिया! देख तो सही, अंडा फूट गया है और उसमें बच्चा भी हिलता-डुलता दिखाई दे रहा है।"
"सच माँ!" सिया उसका हाथ थामकर कबूतर के नवजात शिशु को देखने चल दी। तब तक दूसरा अंडा भी फूट चुका था। हर्षोल्लास से तलियाँ बजाती सिया खिलखिला पड़ी।
अरुंधती की आँखें छलक आईं। ओह! यही उल्लास तो वह कब से, सिया के चेहरे पर देखना चाह रही थी। उसने झट कबूतर के बच्चों की बलैया ली और फिर सिया की बलैया लेती बुदबुदा उठी, “भला आने वाले को कोई रोक सका है क्या? कृष्ण ने भी तो जन्म लिया था सलाखों के पीछे!” ****
3. वसुधैव कुटुम्बकम
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बहुत दिनों बाद दोनों दोस्त आज कॉफी हाउस में मिले। बातें जो शुरु हुईं, ख़त्म होने का नाम ही न ले रही थीं । ठहाके पर ठहाके, वातावरण खुशनुमा हो गया था।
इधर दोनों के पैरों में जूते महाराज एक ही जगह रुके रहने से बोरियत महसूस करने लगे। रह-रह कर दोनों एक दूसरे की ओर देखते, अचानक ब्राउन जूता बोरियत मिटाने के लिए ब्लैक वाले जूते की ओर देखते हुए बोला, “क्यों रे कालू ! तू कौन-सी कम्पनी का बना हुआ है। वैसे, मुझे तो तू अफ्रीकन लगे है।”
ब्लैक वाले की मूछों पर ताव आ गया, "ओ रे भूरे! है तो तू समझदार साहेब के पाँव का जूता, मगर बोल कैसे रहा है। आँय! ये कम्पनी-वम्पनी से क्या लेना-देना। तू जूता और मैं भी जूता, क्या समझे, बस्स!”
ब्राउन जूते की भृकुटि तन गयी, खुद को जब्त करके बोला, “और तू जो मुझको भूरे बोल रहा तो उसका क्या?”
“देख, शुरुआत तो तूने ही की थी। हमारे साहब लोग तो कभी भी रंगभेद-जातिभेद में विश्वास रक्खे ना हैं तो फिर हम लोगों को भी तो उनका मान रखना चाहिए न।”
अब साहब लोगों के साथ, जूते भी आपस में हँसते-बतियाते ठहाके लगा रहे थे।****
4. चमगादड़
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अहा! मजा आ गया, लगता है, आज फिर चमगादड़ घुस आया। चीख-पुकार मची हुई थी।
वह भी एक जमाना था, जब वह जानती भी न थी कि, ‘डर’ नाम की चिड़िया होती क्या है? अकेले यात्रा करना, अँधेरे में कहीं भी चले जाना।
विवाह के बाद ससुराल में सबकी डराती हुई आँखे, तेज आवाजों का सामना करते-करते, न जाने कब उसके अन्दर ‘डर की चिड़िया’ ने बसेरा कर लिया था।
एक दिन, उसका पति तेज आवाज के साथ आँखें निकालकर उसे डरा-धमका रहा था, तभी घर के बाहर पीपल के पेड़ से एक चमगादड़ उड़ता हुआ कमरे में आ घुसा और चारों ओर चक्कर काटता अपने जलवे दिखाने लगा। उसे सिर पर मँडराता हुआ देखकर पति की आँखें भयभीत होकर सिकुड़ गईं और वह दहशत से हाय-तौबा मचाने लगा। उसका यह हाल देखकर, वह ख़ुशी से बोल पड़ी, “वाह! एक इंसान को डरा कर अपनी वीरता का प्रदर्शन करने चले थे, एक चमगादड़ भी न भगा पाए!”
फिर उसने चमगादड़ को खदेड़ कर ही दम लिया था। मगर चमगादड़ के साथ उसके अन्दर बसी, डर वाली चिड़िया भी भाग निकली थी।
आज फिर चमगादड़ अपने जलवे दिखा रहा था, और वह अपना मुँह ढांपे, खिलखिलाती हुई मन ही मन उसे धन्यवाद दे रही थी, “हे चमगादड़! तू ऐसे ही आते रहियो और डराने वालों पर अपनी दहशत फैलाते रहियो।” ****
5. धुएँ की लकीरें
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बबिता आकर बैठी थी कि उसकी काम वाली की ग्यारह वर्षीया बेटी दिव्या आ खड़ी हुई, जो कभी-कभी बबिता से पढ़ाई में आई कठनाई समझने आ जाया करती थी।
बबिता उसे देखकर मुस्कुरा पड़ी, “हाँ तो बोल, क्या सोचा है तूने?”
“आंटी जी, मैं तो वही डलिया बनाऊँगी।”
“डलिया के लिए क्या-क्या सामान चाहिए और कितने का आएगा, मालूम है?”
“सौ रुपए का आयेगा, आइसक्रीम वाली डंडियाँ, लाल रिबन, फेविकोल और किरची वाली रंगबिरंगी चमकी।” बताते हुए उसकी आँखें चमक उठीं।
“लेकिन डलिया बनाने से फायदा क्या? किसी काम में तो आएगी नहीं।"
उसका चेहरा दप्प से बुझ गया, “पर मेरा तो यही मन है।” उसकी आवाज में अब बालहठ छलक रहा था।
“सब कुछ मन का थोड़ी न होता है। देख दिव्या, तेरी माँ किसी तरह से पैसे जोड़कर तुझे ट्यूशन पढ़ाती है, पिछली बार तूने चूड़ी रखने का डिब्बा बनाया था, जिसे तेरी माँ ने तेरे ब्याह के लिए सहेज रखा है, वैसा ही कुछ बना।”
“ऊँहूँ, मुझे ब्याह तो करना ही नहीं।”
“क्यों?”
“जी घुटता है।"
“अच्छा! मगर तुझे कैसे मालूम?” इतनी छोटी बच्ची के मुख से यह सब सुनकर वह अचंभित हो उठी!
“मुझे सब मालूम है। दिदिया का ब्याह हुआ, तब से उसका सब कुछ बंद हो गया। हँसना-गाना भी बंद।”
“वो क्यों?”
“ससुराल वालों ने साफ-साफ कह दिया कि शादी के पहले जो करती थी, वह अब नहीं चलेगा। यहाँ तो सिर्फ चौका-चूल्हा और घर का काम। अब वह मेरी तरह न तो कुछ अपने मन का बनाती है, न पढ़ती-लिखती है।"
बबिता ने एक गहरी साँस ली, उसे भी वही घुटन महसूस होने लगी थी, पर दिव्या कमरे की छत को ताकती, अपनी किरची वाली रंगबिरंगी चमकी की कल्पना में तैर रही थी।****
6. साँझ ढले
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धूप-छाँव के बीच जीवन का उत्सव मनाते पल्लवी के माँ और बाबूजी कब उम्रदराज़ हो गए, पता ही न चला। दोनों लगभग पच्चासी वर्ष के हो चले थे। अनुशासन, विनम्रता और कर्मठता उनके जीवन के अंग थे। बाबूजी को गुस्सा आता तो माँ चुप रहती, माँ को गुस्सा आता तो बाबूजी। बाद मे ‘सॉरी’ बोल दोनों हँस देते। बाबूजी माँ को बहुत प्यार करते थे; माँ भी दिलोजान से बाबूजी को चाहती थी।
एक महीने से माँ बहुत बीमार चल रही थी। उनके फेफड़ों ने काम करना बंद किया था। चौबीसों घंटे ऑक्सीजन पर थीं। बीमारी के चलते उनका कमरा अलग कर दिया गया था।
बाबूजी का कमरा थोड़ा दूर हो गया था। छड़ी के सहारे चलने में भी उन्हें कष्ट होता था। फिर भी जैसे-तैसे वे एक बार माँ से मिलने अवश्य जाते थे। बाबूजी माँ के पास जाते समय कमरे का दरवाजा ढाल देते थे और किसी और को अंदर नहीं आने देते थे।
आज पल्लवी के मन में आया कि देखे तो सही कि बाबूजी अंदर करते क्या हैं? वह थोड़ा-सा दरवाजा खोल भीतर देखने लगी - बाबूजी “आई लव यू डीयर!…आई लव यू डीयर!…” कहते हुए माँ की ठुड़ी व गालों को सहला रहे थे। फिर उन्होंने झुकते हुए माँ के माथे को चूमा। माँ की आँखे छत की ओर टिकी थीं। वे कोई प्रतिक्रिया भी नहीं दे रही थीं। “तुम मुझे छोड़ कर नहीं जा सकती!” कहते हुए बाबूजी काँपे और माँ की छाती पर गिर पड़े।
पल्लवी एकदम से घबरा गयी। भागकर कमरे में पहुँची तो एकदम से जैसे साँस ही अटक गयी। न वहाँ माँ थी, न बाबूजी। ****
7. एंटी रिंकल
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चीनू अपनी दादी माँ के साथ बैठा, फोटो-एलबम देख रहा था।
“दादी माँ! ये फोटो किसकी है?”
“ये, मेरे मम्मी-पापा की है।"
“वह आश्चर्य से भर उठा, “आपके मम्मी-पापा! हमने तो उन्हें कभी देखा नहीं!”
“हाँ चीनू, तुम्हारे पैदा होने के बहुत पहले ही, वे दोनों भगवान के पास चले गये।”
“भगवान के पास! ओह! इसका मतलब कि वे मर गये?” और वह मन ही मन कुछ सोचने लगा।
इधर दादी माँ भी परेशान हो उठी, वह उसके मासूम सवालों का जवाब क्या दे? और कैसे दे? अचानक वह बोल पड़ी, “हाँ बेटू, वे दोनों बहुत बूढ़े हो गये थे। उनके बाल सफेद हो गये थे और स्किन में झुर्रियाँ भी पड़ गई थीं।”
अब वह बड़े ध्यान से अपनी दादी माँ को देखने लगा और खिलखिलाते हुए बोला, “अच्छाs! तो अब तुम्हारा नम्बर भी आ रहा है! तुम भी तो अपने बालों को कलर करती हो और देखो, स्किन में थोड़ी-थोड़ी झुर्रियाँ भी दिखाई पड़ रही हैं।"
उसकी भोली बातें सुनकर वह मुस्कुरा उठी। मगर चीनू अचानक गुमसुम हो गया और अपनी दादी माँ से लिपट कर बोला, “लेकिन दादी माँ, मैं तुम्हें मरने थोड़ी न दूँगा। मैं अभी मम्मी की एंटी रिंकल क्रीम लेकर आता हूँ।" कहकर वह दौड़ता हुआ लेने चला गया। ****
8 .अविश्वास की गंध
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रामप्यारी झाड़ू-पोछा करके बर्तन माँजने बैठी ही थी, तभी कमरे में से मालकिन निकल कर आई, "ऐ रामप्यारी, ये बादाम लेती जाना।"
वह चौंक पड़ी, बादाम!
इतना बरस हो गया काम करते, जब देखो मलकिन पिस्ता-मूँगफली खा-खाकर छिलका डस्टविन में भरती जाती हैं। भूले से भी ना कहतीं कभी कि ले रामपियारी, थोड़ी-सी मूँगफली ही खा ले।
सिर घुमाकर उसने बादाम की थैली पर एक नजर डाली।
हूँSS अच्छा! तभी हम कहें कि आज रामपियारी से इतना परेम काहे को जागा है। पल भर में ही उसकी जासूसी आँखों ने सारी जाँच पड़ताल भी कर ली। बादाम के ऊपर ढेर सारे घुन मटरगश्ती कर रहे थे।
"चच्च ! बताओ, इतने सारे बादाम ... !"
"तो बता, ले जाएगी न? देख, अपने मुनुआ को खिला देना। बादाम खाने से दिमाग तेज हो जाता है।"
"अरे मलकिन, ये आप अपने बंटी को ही खिला देना। हम गरीबन का दिमाग बादाम खाए से नाहीं, धोखा खई-खई के ही तेज हो जावत है।" ****
9. एप्पल - शेप्प्ल
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घंटी बजते ही दौड़कर चुनमुन ने दरवाजा खोला। फलों से भरा झोला थामे दादी खड़ी हुई थी।
“एप्पल लाई हो न!”
“हाँ बाबा लाई हूँ, लो सम्हालो अपने एप्पल! अब तो सड़क पर चलना भी दुश्वार हो गया है!”
“क्यों दादी?” झोला सम्हालते हुए चुनमुन ने पूछा।
“अरे! धक्का देते हुए लोग निकल जाते हैं, बस चले उनका तो सिर पर से रौंदते निकल जायें।”
“तो डांट देती न उन्हें तुम!”
“डांट-वांट कौन सुनता है चुनमुन!”
थकी-मांदी दादी अन्दर सोफे में आकर धँस गईं।
“हमारे जमाने में इतनी आबादी थोड़ी न थी, अब तो जिधर देखो बस सिर ही सिर उगे दिखाई पड़ते हैं।”
“कहाँ से आ गये इतने सारे लोग?”
“जैसे तुम आए न इस धरती पर, बस वैसे ही।”
“हम्म! मगर आए कैसे धरती पर?”
“हे भगवान! कितना सवाल पर सवाल करते हो!”
“बताओ दादी बताओ! अब तो तुम्हें बताना ही पड़ेगा।” वह मचल उठा |
“तुम बहुत परेशान करते हो चुनमुन, लो सुनो ...।”
चुनमुन घ्यान से सुनने बैठ गया।
“कहा जाता है कि किसी जमाने में परमेश्वर यानी भगवान ने अपने बगीचे की देखभाल के लिए दो इंसान बनाये। एक आदमी और एक औरत, जिनका नाम था आदम और हव्वा।”
“अच्छा!”
“परमेश्वर ने उनको वहाँ लगे एप्पल खाने से मना कर रक्खा था।”
“क्यों दादी?”
“आगे तो सुनो! मगर इतने सुन्दर और चमकते एप्पल देखकर उनका मन ललचा गया और उन्होंने चुपके से तोड़कर खा लिया।”
“फिर?”
“खाते ही हव्वा के पेट में बेबी पलने लगा और एक दिन उसने धरती पर जन्म ले लिया। फिर इसी तरह संसार में लोग आने लगे।”
चुनमुन की आँखें फैलकर चौड़ी हो गईं। अगले ही पल वह बोल उठा, “तो फेंक दो ये सारे एप्पल-शेप्प्ल दादी! कहीं तुमने और माँ ने खा लिए तो फिर घर में ढ़ेर सारे बच्चे पैदा हो जाएँगे!" कहता हुआ वह डस्टबिन की ओर दौड़ पड़ा ****
10. धुआँ
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विनोद के जाते ही, दीदी रसोईघर में घुस आईं। पटरे पर बैठी विमल तरोई सुधार रही थी, चूल्हे पर बटलोई चढ़ी हुई थी। समझ में नहीं आ रहा था कि बात कहाँ से शुरू करें, “तरोई कितनी ताज़ी है न!”
“हाँ दीदी, मौसम की नई तरोई पहली बार आई है, लेकिन इन्हें पसंद नहीं, इनके लिए आलू की सब्जी बनाऊँगी।”
बटलोई गरम हो चुकी थी, उसने सब्जी छौंकने के लिए उसमें घी डाल दिया।
“विमल! एक बात बता, तू कितनी मुरझा गयी है, शादी में कितनी खिली-खिली थी।"
“ऐसी बात नहीं है दीदी!” घी में जीरा डालते हुए उसने हँसने का उपक्रम किया।
“देख विमल, मुझसे कुछ भी छुपा नहीं है, अब सच-सच बता दे, विनोद तुझसे बोलता नहीं न!"
तरोई छौंकने की छन्न के साथ उसका घाव भी हरा हो गया। वह सिर झुकाए बैठी रही।
“वह मेरा भाई जरूर है, पर तुझे जरा भी तकलीफ दी तो मैं उसके कान खींच लूँगी।”
अंदर भाप बनने के साथ सब्जी खदकने लगी थी, उसके अन्दर जमा हुआ सैलाब भी अब पिघलने लगा था।
“कुछ बोलेगी नहीं तो मुझे पता कैसे चलेगा?”
तरोई गलकर सिकुड़ने लगी थी और उसके अंदर भी कुछ सिकुड़ रहा था।
“बोल विमल बोल! तुझे मेरी कसम, अब बताना ही पड़ेगा।”
तेजी से बनती भाप रुक न सकी, अपने साथ सब्जी के रसे को भी छनछनाती हुई बाहर बहा लाई। दीदी ने जल्दी से बटलोई पर ढकी तश्तरी खोलने के लिए अपने हाथ बढ़ा दिए। उसकी पलकों में छुपे आँसू भी भरभराकर बह निकले, वह काँपती आवाज में बोली, “मैं उन्हें पसंद नहीं।”
दीदी फट पड़ीं, “पसन्द नहीं? तू क्या सब्जी भाजी है, जो पसन्द नहीं, तो फिर उसने फेरे ही क्यों डाले? कहती हुई वह अपनी जली उँगलियों को सहलाने लगीं।
बटलोई में सब्जी जलकर चिपक गयी थी और धुआँ चारों तरफ फैलने लगा था। ****
11. उड़ान बाकी है
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“वाह आंटी जी वाह! आप भी कमाल की हो! लचर-फचर करती कोई भी चीज हो, ठिकाने लगा कर ही दम लेती हो!” पटरे पर निकली कील पर रुक्मणी को हथौड़ी से दनादन वार करते देख देवकी खिलखिला कर हँस पड़ी।
अचानक रुक्मणी ने अपना हाथ रोक लिया, “एक बात बता देवकी, तेरी माँ कह रही थी कि तू वापिस ससुराल जाना चाहती है?”
"क्या करूँ? माँ मुझे अपने पास रखने को तैयार नहीं। कहती है भौजाइयों के साथ गुजर-बसर न हो पायेगी। दूजा ब्याह रचाने की बात कहती है।”
“दूजा ब्याह ...! अगर वह भी मारने-कूटने वाला निकला तो ...! यह भी तो सोच, क्या तेरे साथ तेरे बच्चे को भी अपनाएगा वह?”
उसने एक गहरी साँस भरी और धीरे से बोली, "तभी तो ससुराल वापिस जाने की सोच रही हूँ।”
“ज़िंदगी भर सूअर की तरह गंध में ही लोटना है तो जा, चली जा।”
“फिर आप ही बताइए न आंटीजी, हम करें तो क्या करें?”
“अरी, अपने पैरों पर खड़ी हो जा, मेहनत करके चार पैसे कमा। बच्चे को अच्छी शिक्षा दे। वहाँ रहकर वह भी अपने बाप के पदचिन्हों पर चल पड़ा तब ...?”
देवकी की आँखों से टप-टप आँसू बह चले। रुँधे गले से बोली, "मुन्ना को उसके बाप का नाम ...।"
“अच्छा, अब रो मत। ये बता कि तू उसकी मार खाती ही क्यों है?”
“अरे आँटीजी, वह मरद की जात और हम औरत, आँख निकालकर, दांत भींचकर मारने दौड़ता है हमको तो हम बहुत डर जाते हैं।”
“काहे! क्या तेरे पास आँखें नहीं हैं या फिर दांत भी नहीं ...! वह तुझे मारने दौड़ता है और तू भीगी बिल्ली बन जाती है!”
“हमारे भाग्य में यही लिखा है, तो क्या करें?”
“सही कह रही है। भगवान ने कुछ सोचकर ही जानवर जैसा मरद तेरे पल्ले बाँधा है |”
देवकी की आँखों में निराशा उतरने लगी और वह तेजी से सिसकियाँ भरने लगी |
“तू चाहे तो अपना भाग्य बदल भी सकती है |”
चौंक कर वह रुक्मणी की ओर देखने लगी, “वह कैसे?”
“पहले तो अपने अन्दर के शेर को जगा, अपनी आवाज को बुलंद कर | आँखों में वही खौफ पैदाकर जो तेरे मरद की आँखों में मंडराया करता है | और ये झुके कंधे, इन्हें भी तानकर रख |"
“फिर ... !“
“और फिर ऐSSSस्सेSS ... !” कहते हुए उसने पूरी ताकत से हथौड़ी को कील पर दे मारा |
देवकी की आँखें तेजी से चमक उठीं |
इस बार कील सही से अपनी जगह पर जा बैठी थी । ****
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क्रमांक - 096
पिता : शचिपतिनाथ मित्रा
जन्मतिथि : बुद्व पूर्णिमा
जन्मभूमि : जामसर
शिक्षा : एम.ए., बीएड
प्रकाशाधीन कृति -
बदलते रिश्ते ( कहानी संग्रह )
तिस (लघुकथा संग्रह)
संपादन -
- तैतीस जिलो के राजस्थानी लघुकथा का संग्रह
- राजस्थानी महिला गद्यकारों का संकलन
सम्मान : -
- कल्याणी टीवी कार्यक्रम में दो बार।
- शुभ तारिका से लघुकथा लेखन में
- भा .वि. परिषद से दो बार काव्य प्रस्तुति के कारण प्रशस्तिपत्र ।
- मैत्रेयी सम्मान, प्रेरणा परिवार , उ.प्र.
- गैर राजस्थानी होने के वावजूद राजस्थानी भाषा के प्रचार प्रसार व लेखन के लिये मायड भाषा सम्मान
विशेष : -
- गैर सांगीतिक परिवार की होने के वावजूद शास्त्रीय कलाकारों का साक्षातकारों का प्रकाशन।
- बंगाली मूल की पहली राजस्थानी लेखिका व अनुवादिका
- साझा संकलन -करीब छह
- आकाशवाणी से कहानियों व वार्ताओं का प्रसारण
पता-ए५९ करणी नगर , नागानेचीजी रोड, बीकानेर - राजस्थान
1. डेडीकेट
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सरस्वती मंदिर में नीलांजनाजी की पहली काव्य कृति का लोकार्पण होने वाला था ।वे अपने पति के साथ मेहमानों का स्वागत कर रही थी। अचानक उनकी सखी सोनिया बोली," किसको डेडीकेट की है यह कृति?"
"पापा को।" कहते ही उनके आंखो के सामने दशकों पुराने दृश्य रील की तरह घूमने लगे। कानों में पापा की स्नेह पगी आवाज गूंजने लगी, " इस किताब की लेखिका की तरह , मेरी लाडों किसको समर्पित करेगी अपनी लिखीपहली किताब?"
वे इठलाते हुये बोली , " मैं आपको ही डेडीकेट करुगी डैड आपको?"
"पर बेटा डेडीकेट तो डेड पर्सन को किया जाता है।" पापा के चेहरे पर उदासी तैर गयी।उस घटना को लम्बा अरसा बीत गया। गृहस्थी व नौकरी से फुरसत के प ल
चुरा कर उन्होनेंरच डाली यह कृति।पर आज उनके पास उनके पापा मम्मी कोईनहीं ।
उनकी पनियाली आंखे देखकर सोनिया बोली, जहां भी अंकलआंटी हो, वो आपको हंसता ही देखना चाहेगें।" कहकर सोनिया ने उन्हे स्मृति के भंवर से उबार लिया। ****
2. त्यौहार
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शाम का समय था । पार्क में बैठे रमेशचन्द्र जी अपने चार धाम की यात्रा का वर्णन कर रहे थे ।
तभी सडक पर चलते विक्षिप्त सुरेश को देखकर वे
कांईपने से बोले," इस पगलेट से मैंने पूरे पांच हजार की सब्जी मंगाई थी।अब इसे कौनसा बकाया लेना याद होगा। मैं तो कहता हूं आप लोग भी----।"
" अगर सुरेश का दिमाग खराब हो गया तो क्या हम अपनी नीयत बिगाड ले!"
दीपचंद ने तमक कर कहा।
" आप तो बेकार में सेंटी हो रहे है।उसने भी तो हमें चूना लगाया होगा। क्या फर्क पडता है अगर हम ---।" राधेश्याम जी बीडी का कश लेकर बोले।
" उधर सुरेश की बीवी राधा दो वक्त की रोटी के जुगाड में लगी ।इधर आप लोग--।" दीपचन्द्र जी क्रोधित होकर बोले।" क्या इस पगले के लियेहम दीवाली मनाना छोड दें?" रमेशचन्द्र जी दहाडे।
" नकली मिठाईयां खाकर बीमार पडने और बच्चों को पटाखे दिलाकर प्रदूषण फैलाना ठीक है या किसी केघर खुशी के दीप जलाना।
मैंने तो पौत्रो को दीपाली कुछ न दिलाकर राधा के घर एक महीने का राशन डलवा दिया।
उसके बच्चों को फ्री में पढने के लिये सरकारी स्कूल में भर्ती कर दिया।"
दीपचन्द्र जी के भावभीने स्वर को सुनकर रमेश चन्द्रजी को अपने स्वार्थी पुत्रपौत्रो की याद आ गयी। ****
3. गुरुर
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जी, आप मालविकाजी बोल रहीहै?" विनीता ने विनीत स्वर में पूछा।
" फटाफट काम बताइयें। मैं अभी लेपटॉप पर बैठी थी कि आपमे मुझे ----।" मालविकाजी के स्वर में सेवानिवृति के भी अफसरशाही झलक उठी।
" जी ।हम एक साझा संकलन निकाल रहे है।" विनीता ने मुस्कराकर उत्तर दिया।
"| यूं नो ।मैं अपनी किताब का मैटर ही टाइपकरने में लगीथी। वैसे मैं हमेशा हाई पोस्ट पर रही। दूसरे मुझे खाना बनाने का शौक रहा।" मालविका जी ने अपनी बहू को सुनाते हुये कहा।
" दरअसल मुझे आप से आपकी सहेली नीलांजना का मोबाइल नंबर लेना था। मुझे पता नहीं था कि मैं एक साहित्यकार की जगह एक एक रिटायर अफसर और पाक कला पटु महिला से बात कर रही हूं।इसीलिये पुरुष लोग कहते है के लेखिकाओं को घरेलू बातों के सिवा कुछ नहीं आता।"
यह सुनते ही मंच पर नारी जाग्रति की मशाल कही जाने मालविका का सिर शर्म से झुक गया। ****
4.नूर
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भगवान इन्द्र रंभा के नृत्य देखने में लीन थे । अचानक पृथ्वी से स्वर्ग लोग तक आती आवाजें सुनकर बोले, "क्या बात है? यह कैसा शोर ?"
कुत्तों की भीड़ में से एक कुतिया बोली," भगवान
हम इन इंसानों से उकता गये हैं। बात बात पर ये लोग , हमारे नाम का बेजा इस्तेमाल करते हैं। जैसे कुत्ते की तरह मत भौंक या कुत्ते की औलाद या फिर कुतिया कहीं की।"
इन्द्र उसे मस्का लगाते हुये बोले," संसार का सबसे बुद्विमान प्राणी तुम्हारी तुलना अपनी नस्ल से कर रहा है। यह तो तुम्हारा सौभाग्य है।"
इंसान बोला," यही तो इन्हें एहसास नहीं है।"
कुतिया खींजते हुये बोली," और तुम इंसानों को बहुत एहसास है, तुम लोग हर समस्या को हमारे सिर पर मढ़कर बरी हो जाते हो। तुम्हारी करनी का फल हम सभी को भुगतना पड़ रहा है।"
यह सुनते ही इंसानों के चेहरे का नूर उतर गया। ****
5. सुधार
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" अब अपन लोग कितनी भी कोशिश करलें ।ये अनपढ औरते सुधरेगी नहीं।अब इस विमला को ही लो । कितनी बार कहा , छोड उस मुकेश को।मेरे यहां रह लें।पर नही यह तो कमा २ कर खिलाती रहेगी उसे और उसकी औलादों को।" समोसे से भरी प्लेट लाती हुयी विमला को देखकर मिसेज अग्रवाल इठलाई।
किट्टी पार्टी की मुखर सदस्या मिसेज गुप्ता बोल पडी," इन औरतों के भेजे में तो कोई बात पडती ही नहीं।"
विमला ,प्लेट मिसेज अग्रवाल को थमाते हुये बोली," माताजी डॉ साहब आपको भी तो शराब के नशे में अंटशंट बोलते है ।आप तो उन्हे छोडकर नहीं जाती।"
" अरे वो तो अपनी थकान मिटाने के लिये--।" मिसेज अग्रवाल खिसियाते हुये बोली।
" दोनो में फर्क ही क्या है ? एक मंहगी पीता है , दूसरी सस्ती। चलिये हम दोनो मिलकर इन्हे नशा मुक्तिकेन्द्र ले चलते है। शायद वे लोग इन लोगो का नशा छुडवा दे।"
कहकर विमला तो भीतर चली गयी।पर किट्टी में शामिल औरतों के चेहरे को देखकर मिसेज अग्रवाल का सारा गरुर कर्पूर की तरह उड गया। ****
6. रुचि
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" मिली बेटी शादी मुबारक । लेकिन तुम्हारा कन्यादान कौन करेगा?" दूध की दुकान में खडी मिली को देख श्रीमती सपना ने पूछा।
" पापा ।और कौन ? मम्मा के देहांत के बाद पापा ने ही तो मुझे मम्मापापा दोनो का प्यार दिया है।" मिली ने पुलकित स्वर में कहा।
" लेकिन बेटा, शादी जैसे मांगलिक कार्यो मेंविधुर या विधवा को शुभ नहीं माना जाता ।" सपना जी मिली को चेताते हुयेआगे बोली," धर्म शास्त्रों में लिखा है कि --।"
" ऐसे धर्म शास्त्र की बातें में क्यों मानू जो मैंने पढी ही नहीं। फिर मांबाप बच्चों के लिये मांबाप होते है । विधवा विधुर नहीं।" कह कर मिली ने अपने पर्स से दूधवाले को देने के लिये रुपये निकालने लगी। ****
7. तस्वीर का दूसरा रुख
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लंच के समय डॉ . अभिलाष को घर पहुंचे। घर छाये सन्नाटे से आशंकित होकर उन्होने पूछा," मधु क्या बात है? सब ठीक है ना?"
" रीतिका अब तक स्कूल से नहीं लौटी। आपको औरउसके स्कूल में कई बार फोन किया था।पर--।" आगे के शब्द सिसकारियों में दब गये।
" तो स्कूल के प्रिंसीपल को फोन करना था। दो दो औरतों के रहते---।" वे उलाहना देते हुये बोले ।
" किया था बेटा। हर बार उनका फोन बिजी आ रहा था।" इस बार उन मां ने रुंआसे स्वर में जबाव दिया।
उनका सिर चकराने लगा। तभी कॉलिग बेल बजी ।सामने बहादूर खडा था।
" अरे तुम! तुम्हे कहा था हस्पताल में बारी आने पर तुम्हारी बेटी का भी इलाज हो जायेगा । तुम यहां भी पहुंच गये उसे लेकर!" वे उस पर बरस पडे।
" उसे नहीं आपकी बेटी को लेकर आया हूं। बाहर ओटो में रो रही है।" कहकर बहादूर ओटो की तरफ चल पडा।
"बेटा तू ठीक तो है ना? तुझे कुछ हो जाता तो---।" वे बेटी को ओटो से उतारते हुये बोले।
" छुट्टी के बाद यह मेरे क्वार्टर के बाहर पेड से बेर तोडने में मगन थी।स्कूल बस का हॉर्न सुनायी नहीं दिया होगा।" बहादूर उनके चेहरे पर छायी चिंता की लकीरें पढता हुया बोला और ओटो पर सवार हो गया।
औटो वाला उन्हें सुनाकर बोला," भाई डॉ . साहब से आने जाने का किराया तो ले लें। तू इनकी बेटी सकुशल ले आया पर इनके तेरे को थैंक्यू तक नहीं बोला गया। "
यह सुनते ही वे क्रोध से दांत पीसते हुये ,ओटो वाले को सौ रुपये का नोट देने के लिये पर्स टटोलने लगे। ****
8. परम्परा
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अपने चचेरे भाई दिनेश की शादी में, अपने दोस्त सायमन से राजेश बोला," हमारे यहां सात फेरो के बाद
पतिपत्नि जन्मजन्मातंरो के साथी बन जाते है। जबकि तुम लोग---।"
राजेश के दादाजी रोबीले स्वर में बोले ," हमारे यहां भारतीय संस्कृति का पालन हो ।इसलिये में शुरु से सावचेत रहा।"
तभी मानो रंग में भंग घोलते हुये दिनेश के पिता चीखे," यह क्या----एसी कार की जगह मामूली खटारा!दहेज का सामान भी दो कोडी का।"
" यह कौनसी रस्म है?" साइमन ने कौतुहल से पूछा।
राजेश झेपता हुया बोला,"चल ना खाना खाते है। यह बडो की आपसी बातचीत है ।हमें क्या?"
" यार हम जैसे भी हो। हमारे यहां दहेज को लेकर लडकी के घरवालों को जलील नहीं किया जाता।जहां ऐसा हो वहां में खाना नहीं खा सकता। " कहकर साइमन खिन्न होकर चला गया ****
9. संतोष की लहर
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दीनू की सातवीं पुण्यतिथि पर उनकी पत्नी प्रीतो ने अखंड रामायण का पाठ और भोज का आयोजन किया।
शाम को पार्क में कुछ औरते इकट्ठी हुयी तो सेठ नंदगोपाल की पत्नी रामरती बोली," मुझे तो दाल में कुछ काला सा लगता है।दो दो छोरियों के ब्याव के बाद प्रीतो के पास इतना पैसा आया कहा से?"
गुटका फांकते तारा बोली," जो भी कहो खाना था टेस्टी।"
यह सुनकर रामरती मुंह सिकोडकर बोली," काहे का टेस्टी ।दो सब्जी, दो मिठाई और रोटी में निपटा दिया।हम तो ससुर जी की बरसी पर छज्जू हलवाई को बुलबायेगे। तम्बू भी आलीशान रखेगें।"
" अब समाज में रहते है तो यह सब तामझाम तो करना ही पडता है।हमने तो ससुरे के श्राद्व में पूरा गांव बुलाया था ।पर कुछ लोग तो बाप के--।" थौडी दूर बैठी शिखा को देख रामरती व्यंग्य से मुस्कुराई। ****
10. सबक
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बस से उतरते ही एक युवा साहित्यकार के स्टेट्स को पढकर , एक शिक्षिका बोली, " क्या गजब का लिखा है?"
साथ में उतरने वाली अधेड मीनाक्षी जी को देखकर वे मुंह बिचकाकर बोली," नदी किसी क्वांरी कन्या सी चुलबुली सी गैरजिम्मेवार और समुद्र किसी विवाहिता की तरह कर्तव्य और मर्यादा की श्रृंखला से बंधीहुयी।
उनके साथ उतरे एक सज्जन बोले ," अगर सब विवाहितायेंऐसी होती तो आज समाज में इतना नैतिक पतन नहीं होता। दहेज प्रताडना, दहेजकम लानेपर हत्या, कन्याभ्रूण हत्या , घूसखोरी को बढावा, साससुर को बुढापे में दर दर की ठोकर खाने देने में किसका हाथ होता है? किसी पूतों वाली विवाहिता का ही ना।"
यह सुनकर मीनाक्षी जी कृतज्ञ नजरों से उनकी तरफ देखते हुये बोली, " नदी को हम जीवात्मा और समुद्र को हम परमात्मा के पास पहुंचे भी तो मान सकते है।जब तक जीवात्मा को परमात्मा के पास पहुंचने का अवसर नहीं मिलता तो वह ऐसे कलकल छलछल करती है । जिसे मिल जाता है, वह समुद्र की तरह अपने आप में समाये शांत गंभार हो जाता है।"
" क्या करें आम विवाहिता की बात पतिबच्चों तक सीमित रहती है , चाहे को अनपढ को के , दूसरों को पढाने वाली।"
वे सज्जन हंसने लगे। आज पहली बार शिक्षिका जी को कोई सही सबक सीखने को मिला था। ****
11. कीचड
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ड्राईवर के वक्त पर न पहुंचने पर| डॉ. राशि झुंझलाते हु़ये बस स्टैंड की तरफ चल पडी।अभी वह थोडी दूर पहुंची थी, कि पीछे से आती हुयी कार , उसके सफेद कपडो पर कीचड उछालकर सर्र से निकल गयी।
वाटर बॉटल से पानी निकालकर उसने दाग साफ किये। फिर फुर्ती से बस स्टैंड पर पहुंच गयी।
गन्तव्य पहुंचाने वाली बस नजर आते ही वह लपक कर उसपर चढ गयी।उसके बस में बस चल पडी। चंद पलों में ही बीडी केधुंवै और यात्रियों की भीडभाड से उसका जी मिचलाने लगा। उसे लगा भाड में जाये फ्री मेडीकल कैम्प में रोगी देखना।लेकिन दूसरे ही क्षण उसे अपने इस सोच पर ग्लानि महसूस हु़ुयी।
एक स्टोपेज पक जैसे ही कुछ यात्री उतरे तो उसने राहत की सांस ली।खाली सीट देखने के लिये उसने इधर उधर निगाहे दौडाई ।तो उसे लगा कि काफी लोग उसे ताड रहे है। उसे लगा शायद उसके कपडों पर कोई दाग रह गया हो।
पर जैसे ही उसकी नजर पसीने से तरबतर कपडों से झांकते शरीर पर पडी।उसे सारा माजरा समझ में आ गया वह सोचने लगी काश इन नजरों के कीचड को ठीक करने का कोई इलाज उसके पास होता। ****
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क्रमांक - 097
2 मई को कोटा (राजस्थान ) में जन्म
नारी अभिव्यक्ति मंच " पहचान " ' की संस्थापक / अध्यक्ष हैं।
■इनका सृजन ~~● 2 उपन्यास ● 11 कहानी-संग्रह ●3 लघुकथा-संग्रह ●1 बाल-गीत -संग्रह ● 7 कविता - संग्रह ● 1 स्मृति -ग्रंथ एवं शताधिक संयुक्त संकलनों में सहभागिता है।
■ संपादन ~~● जगमग दीप ज्योति- नारी विशेषांक एवं बाल विशेषांक के अतिथि-संपादन ● अमर भारती की पुस्तकों का संपादन एवं ● " पहचान " पत्रिका का संपादन ।
■ पुरस्कार \ सम्मान ~~ 10 राज्यों से मिले अनेकानेक सम्मानों में उल्लेखनीय ~~● हरियाणा साहित्य अकादमी से-सर्वश्रेष्ठ महिला साहित्यकार सम्मान ● 3 कहानी-संग्रह को सर्वश्रेष्ठ कृति सम्मान ●2 कहानियों को अखिल हरियाणा प्रथम पुरस्कार ● 2 कहानियों को द्वितीय पुरस्कार ।
■ राजस्थान साहित्य अकादमी ~~प्रभा खेतान प्रवासी सम्मान ।
■ ' राष्ट्रधर्म ' , लखनऊ से ● 4 कहानियों को क्मश: प्रथभ द्वितीय पुरस्कार ● कहानी-संग्रह " नीम अब भी हरा है " को अ. भारतीय प्रधान पुरस्कार ।
■ राष्ट्र भाषा पीठ , इलाहाबाद से 2 बार पद्म सम्मान ।
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यू • ऐस• संस्थान, गाज़ियाबाद - ● हिन्दी साहित्य शिखर सम्मान ● महादेवी वर्मा साहित्य -सम्मान ।
■ कथाबिम्ब , मुंबई से 2 कहानियों को ●कमलेश्वर स्मृति-सम्मान ।
■ प्रज्ञा साहित्य समिति , रोहयक से- श्रेष्ठ हरियाणा महिला साहित्यकार सम्मान ।
■ अनुराग संस्थान , लालसोट राजस्थानी से नीम अब भी हरा है को श्रेष्ठ कृति सम्मान ।
■ कोटा ( राजस्थान ) -● भारतेंदु समिति से श्रेष्ठ हिन्दी साहित्यकार सम्मान ● वीना दीप द्वारा-शिखरचंद स्मृति-सम्मान ● जे डी बी महा विद्यालय , कोटा द्वारा -भूतपूर्व श्रेष्ठ छात्रा सम्मान ।
■ अंतरराष्ट्रीय मंच " जागृति " , कैलेफोरनिया से-श्रेष्ठ हिन्दी साहित्यकार सम्मान।
■ शोभनाथ शुक्ला कथा-संस्थान, सुल्तानपुर द्वारा 2 कहानियों को" धनपति देवी स्मृति-कहानी प्रतियोगिता " के अंतर्गत अखिल भारतीय स्तर पर द्वितीय पुरस्कार।
■फरीदाबाद - उर्दू दोस्त द्वारा- सुभद्रा कुमारी चौहान सम्मान ● मार्था काॅनवेंट ' श्रेष्ठ नगर-नारी सम्मान ● मदन मोहन मालवीय साहित्य-सम्मान।
■ हिन्दी साहित्य प्रचारिणी समिति , बिहार - काव्य- संग्रह " ज़िन्दगी के मोड़ " को यशपाल स्मृति-सम्मान ● कहानी-संग्रह " छाँव " को सुभद्रा कुमारी चौहान साहित्य-सम्मान।
■ शोध -कार्य ~~ P H.D.एवं M. FIL शोधकर्ता अनेक छात्रों द्वारा कृतियों / संपूर्ण साहित्य पर शोध
■~~ विदेश-यात्रा -● अमेरिका●कनाडा ●मैक्सिको ●चीन ●ब्रिटेन।
पता : -
कमल कपूर
2144 /9सेक्टर
फरीदाबाद-121006 (हरियाणा )
जन्मतिथि: 04 फरवरी1960
जन्मस्थान: बिहार
सम्प्रति : गृहिणी
शिक्षा: स्नातकोत्तर, बीएड, पटना विश्वविद्यालय, पटना(बिहार)
प्रकाशित पुस्तक : -
1. अनकही कथाएँ ( एकल लघुकथा संग्रह )
2. आठ साझा संग्रह
सम्मान : -
कुछ फेसबुक पर प्राप्त सम्मान पत्र
Address: -
A /57, MECON cooperative colony , Katahal mod, Ranchi - 835303 Jharkhand
1. विद्या
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बट सावित्री का व्रत विद्या ने उसी तरह करना चाहा जैसे पिछले पाँच सालों से करती आ रही थी।शाम को सभी महिलाएँ पूजा के लिये बरगद के वृक्ष के पास इक्कठा हुई तो वहाँ विद्या को देखकर सभी के पाँव ठिठक गये।
"अरे ये तो विधवा है और इस सुहागिनों की पूजा में शामिल होने आयी है? "
सभी एक-दूसरे की तरफ देखकर मानों कुछ मन-ही-मन मनसूबे तैयार कर रही हों।
"अरे विद्या!तुम पूजा कैसे कर सकती हो?"
उसी समूह की एक उम्र दराज महिला ने कहा। पहले तो विद्या सकपका गयी,फिर साहस और अन्दर की पीड़ा को समेट कर बोली।
"क्यों भाभी? मेरा पति आज भी मेरे लिये जिन्दा है।भले ही दुनिया मृत मान ले।"
"सुनो, ये सब बेकार की बातें मत करो।तुम हम सुहागिनों के साथ पूजा नहीं कर सकती हो। हम अपना अशुभ नहीं होने देंगे।"
उसी समूह की दूसरी महिला ने कहा।एक साथ सभी महिलाओं ने उसका समर्थन किया। तब-तक पंडित जी भी आ गये।
"पंडित जी!हम सब इसके साथ कैसे पूजा कर सकते है?"
पंडित जी ने भी विद्या की तरफ रुख कर कहा।
"विद्या जी, आप यहाँ पूजा नहीं कर सकती हैं।भगवान की मर्जी को आप स्वीकार कीजिये। विधवाओं के लिये ये व्रत नहीं है।"
"पंडित जी !मैं विधवा कहाँ हूँ? सुहागन नहीं तो विधवा भी नहीं हूँ। भले ही दुनिया मान ले कि मेरे पति की मौत हो गयी है, लेकिन मैं नहीं मानती।"
"देखिये, आपके मानने या नहीं मानने से क्या होगा?"
विद्या अब आगे बात बढ़ाना नहीं चाहती थी। बरगद की एक टहनी तोड़ कर लौट आयी।उसे गमले में लगाकर वाॅलकनी में ही पूजा सम्पन्न की।पूजा तो समाप्त हो गयी ,लेकिन विद्या की समाधि लग गयी।अतीत के गलियारे में उलझ गयी।.......
दो साल से पति गायब थे।सभी ने मृत मान लिया।यहाँ तक कि पुलिस ने भी फाइल बंद कर दिया, लेकिन विद्या का दिल कभी नहीं माना।
जब कानून सात साल तक इंतजार कर सकती है तो ये लोग .......
तीन साल की बेटी के साथ वह आज भी पति का इंतजार कर रही थी।
बेटी की आवाज ने उसे अन्दर बुला लिया। ****
2. रामायण पढ़ते है
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पंडित जी बस पर चढ़ गये और अपनी सीट पर जाकर आराम से बैठ गये। पंडिताईन बेचारी अपना बैग लिये भीड़ में चढ़ने की कोशिश कर ही रही थी कि तब-तक बस चल पड़ी।
"रुको-रूको ड्राइवर भाई।"
कहते हुए जोर से चिल्लायी।अन्दर से पंडित जी ने भी बस रुकवायी।खैर बस की गति धीमी हुई और पंडिताईन किसी तरह दौड़ कर बस पर चढ़ गयी। इसी आपाधापी में उनकी साड़ी एक कील में लगकर फट गयी।परेशानी में क्रोधित हो उठी।सीधे पंडित जी की सीट के पास जाकर तेज आवाज में बोली।
"हम्हीं को हमेशा पत्नी धर्म की शिक्षा देते रहते हैं, क्या पति का धर्म कुछ नहीं होता है? पेट भर खाना और पाँच गज वस्त्र देना ही पति-धर्म है? रात-दिन रामायण, महाभारत पढ़ा करते हैं, क्या उसमें राम जी पहले जाकर रथ या नाँव पर सवार हो गये थे?" तभी कुछ यात्री की करतल ध्वनि सुनाई देने लगी।कुछ ने तो मुस्कुरा कर बोल भी दिया ।
"क्यों पंडित जी, अब जवाब दीजिये।" पंडित जी आँखे तरेर कर देखने लगे।अचानक पंडिताईन के इस रूप को देखकर स्तब्ध थे।थोड़ी देर बाद जब पंडिताईन का क्रोध कम हुआ तो वह सोचने लगी-कैसे मैंने पंडित जी को इतना कुछ सुना दिया?आज पहली बार पंडिताईन ने पंडित जी के सामने अपना मुँह खोला था।जीवन भर पति सेवा के अतिरिक्त कुछ करने ही नहीं दिया गया। तीस साल से तो कभी कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई।खूँटे से बंधी गाय की तरह हमेशा सिर झुकाए खड़ी रही और आज------थोड़ी मन में ग्लानि भी हुई , लेकिन---सहमी नहीं, भीड़ में बोलने पर डर भी नहीं लगा।अन्दर-ही-अन्दर स्वयं को हल्का महसूस कर रही थी। जब गंतव्य आया तो पंडित जी ने पहले अपनी पत्नी को उतरने को कहा, तभी पीछे से एक आवाज आई।
"पंडित जी उतरना पहले आप को है, तभी तो इनका हाथ थाम पायेंगे।"
पंडित जी का चेहरा देखने लायक था।शायद उस चेहरे के पीछे पछतावे का भाव छूपा था। ****
झ ग्रुप का है।"
"क्या? तुम्हें याद नहीं है? यही दिवाकर तुम्हारा फोन नहीं उठाया था और तुम विधवा हो गयी, फिर भी------।यदि वह समय पर आकर खून दे देता तो शायद मेरा बच्चा-----"
उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।आँसू तो रिया की आँखों में थे।,लेकिन रिया माँ को समझाने लगी।
"माँ, जो हुआ वो होनी थी। किसी को कैसे दोष दिया जा सकता है?"
माँ बिफर पड़ी।
"नहीं, तुमने एक तरह से अपने पति के कातिल को खून देकर आई हो।"
माँ रोती हुई अपने कमरे में जाकर दरवाजा अन्दर से बंद कर देती है।अब रिया परेशान हो गयी। माँ को कैसे समझाया जाये? माँ का गुस्सा और दुख भी जायज है।एक माँ के लिये अपना बच्चा ही सबकुछ होता है। उन्हें लगता है कि यदि दिवाकर समय पर आ जाता तो रवि को खून मिल जाता और रवि आज हमारे बीच रहता। रवि की भी तो दुर्घटना में काफी खून बह गया था और उसे तत्काल खून की जरूरत थी।मैं डाँक्टर होकर भी रवि को बचा न सकी। रिया उस समय माँ बनने वाली थी।उसकी हालत बहुत खराब थी। बाद में उसे गर्भपात के दर्द से गुजरना पड़ा।उसके ग्रुप का खून अस्पताल के बैंक में नहीं था।मैं जानती थी कि रवि और उसके दोस्त दिवाकर का ग्रुप एक ही है।कितनी बेचैनी से फोन किया था मैने। उसे क्या पता था कि एक जिन्दगी उसका इंतजार कर रही है।उसी समय से माँ दिवाकर के नाम से भी नफरत करती हैं। मुझे भी गुस्सा था, लेकिन इस गुस्से के कारण एक जिन्दगी और चली जाती तो क्या रवि की आत्मा खुश होती? उसका भी मिनी जैसी एक बेटी है, पत्नी है, माँ है। रिया फिर माँ से बात करने कमरे तक गयी।
"माँ! एक बार तो ठंढ़े दिमाग से सोचिये। बचाने वाला तो ऊपर वाला है। इंसान तो सिर्फ माध्यम है। मान लिजिये खून की कमी के कारण उसकी मौत हो जाती तो क्या आपका रवि लौट आता? उसकी भी माँ है।उस माँ के बारे में सोचिये।"
इतना कहकर रिया दरवाजे के बाहर बैठ गयी और स्वयं भी भावुक हो गयी। माँ ने दरवाजा खोला और रिया के आँसू पोछते हुए उसे गले लगा लिया। ****
3.बांस की टोकरी
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"अरे लक्ष्मी! इस बार हमारे घर शादी है, कम-से-कम दस-बारह दउरा (बांस की टोकरी) देना। रंगीन वाला ही देना।"
"ठीक है चाची। मुखिया जी के घर से भी खबर आई थी दउरा के लिये।"
"आज-कल तो सभी तुम्हारे बनाये दउरा में ही शादी की मिठाई आदि सभी भेजना चाहते हैं। कार्टून से अब यही सबको अच्छा लगने लगा।"
"हाँ चाची ,मेरी भी अच्छी कमाई हो जाती है।"
उसी समय लक्ष्मी की बेटी स्कूल से आ गयी।उसे स्कूल-ड्रेस में देखकर चाची को बहुत आश्चर्य हुआ ।
"अरे, क्या इसे शहरी-स्कूल में भेजती हो?"
"हाँ चाची। इसी की पढ़ाई पूरी करवाने के लिये तो रात-दिन मेहनत करती हूँ। इसे मास्टरनी जो बनाना है।"
गाँव में ही एक नया स्कूल खुला था जो अंग्रेजी-स्कूल के नाम से जाना जाता था,पर आंशिक रूप से ही अंग्रेजी स्कूल कहा जा सकता था।उस स्कूल का नाम ही शहरी स्कूल पड़ गया था।वहाँ का खर्चा थोड़ा अधिक था।
"लक्ष्मी, इसका बाप फिर कभी नहीं आया?"
"आना होता तो छोड़ कर जाता ही क्यों चाची?"
चाची तो चली गयी और लक्ष्मी अपनी पिछली जिन्दगी का अवलोकन करने लगी।---------
माता-पिता की मर्जी के खिलाफ मदन से शादी कर इस घर में आई थी।मदन अच्छा कमाता था।दोनों खुश थे, लेकिन न जाने किसकी नजर लग गयी?चार साल बाद ही मदन की जिन्दगी में दूसरी औरत आ गयी।वह दो साल की बेटी के साथ लक्ष्मी को हमेशा के लिये छोड़ कर गाँव से चला गया। बचपन में जिस काम को लक्ष्मी ने खेल-खेल में सिखा था,सभी डाँटते थे कि ये काम छोटे लोगों का है। आज वही उसके जीने का सहारा बना। शुरू-शुरू में तो यहाँ भी सबके विरोध का सामना करना पड़ा। ------
हिम्मत और धैर्य के साथ धीरे-धीरे इस काम में लक्ष्मी पारंगत होती गयी और अब उसका यह एक अच्छा व्यवसाय बन गया। हँसमुख स्वभाव की लक्ष्मी का सम्बन्ध गाँव के सभी लोगों के साथ मधुर था। अब तो लक्ष्मी का एक-मात्र सपना है बेटी को मास्टरनी बनाने का।
"माँ! रोटी बना दी हो?"
बेटी की आवाज से तंद्रा भंग हुई और दोनों रसोई-घर की तरफ चल पड़ी। ****
4. बिता जमाना
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रूपा ने पूजा की सारी तैयारी कर लिया था, सिर्फ दूब लाना बाकी था।
"अरे बहू!बाहर से थोड़ा दूब ला देना।पूजा की थाली तैयार कर लूँ। पंडित जी अभी आते ही होंगे।"
"अभी जा रही हूँ माँ जी।"
कहकर रागिनी फोन पर ही लगी रही। रूपा मन-ही-मन भुनभुनाने लगी- अभी दो घंटे पहले गया और न जाने कौन-सी बात रह गयी थी कि इतनी देर से फोन पर लगी है।एक हमारा जमाना था जब मुश्किल से महीने में एक चिट्ठी आ पाती थी। चिट्ठी.....हाँ चिट्ठी....और खो गयी अपनी चिट्ठी में।
"भाभी! कहाँ हो? भैया की चिट्ठी आई है।"
रजनी चिल्लाती हुई बाहर से आ रही थी।रजनी के हाथ में पोस्टकार्ड देख रूपा फिर से खीझ के साथ थोड़ी शरमा गयी।पत्र पाने की खुशी के साथ प्यार भरा गुस्सा भी था।
"क्यों भाभी? आप की चिट्ठी मैंने पढ़ी नहीं। अब तुम्हीं बता देना भैया क्या लिखे हैं ?"
"पता नहीं तुम्हारे भैया क्यों पोस्टकार्ड में लिखकर भेजते हैं? मेरे मायके में तो चाचा अंतर्देशीय में चिट्ठी भेजते थे।चाची अकेले में जाकर पढ़ती थी।"
"भाभी! मेरे भैया बहुत सीधे हैं। समाचार चाहिए, भेज देते हैं। उन्हें क्या पता कि आप क्या पढ़ना चाहती हैं?"
भाभी को चिढ़ाती हुई रजनी चली गयी। रूपा भुनभुनाने लगी-
आजकल कौन अपनी पत्नी को पोस्टकार्ड भेजता है?इतना भी इस भोले को समझ में नहीं आता है।अरे कुछ नहीं भी लिखा रहता तो भी कम-से-कम सभी ये तो समझते कि कुछ प्यार-मुहब्बत की बातें लिखी होगी।
उधर से आती जेठानी ने भी चुटकी ली।
"अरे रुपा! पोस्टकार्ड देखकर भड़क गयी? इस बार आने पर कान खींचना।"वो भी हँस कर चली गयी और रूपा शरमा कर सिर पर आँचल ठीक करते हुए चिट्ठी पढ़ने कमरे में चली गयी।
"रूपा! तुम नाराज मत होना।जो बात पोस्टकार्ड में लिखता हूँ वही तो अंतर्देशीय में लिखता।तुम्हारी कुशलता जानने के लिए आतुर रहता हूँ, उसे तो किसी पर भी लिखा जा सकता है। जानती हो ,क्यों पोस्टकार्ड पर लिखता हूँ? पोस्टकार्ड हमारे साहब के दफ्तर से मुफ्त मिलता है, तो क्यों अंतर्देशीय में पैसा खर्च करूँ? हाँ तुम्हें जो चाहिए लिख देना, आऊँगा तो लेते आऊँगा।"
रूपा पत्र पढ़कर सोचने लगी-पति घर छोड़ कर परदेश कमाने गया है, दो पैसा संग्रह करना गलत तो नहीं।मैं बेकार नाराज हो रही थी।साधारण शब्दों के पोछे उनके छिपे प्यार को मैं समझ नहीं पायी।
"माँ जी,लीजिये ।पंडित जी भी आ गये।क्या सोच रही हैं माँ?"
"अरे हाँ, दो।कुछ नहीं।ऐसे ही कुछ भूली-बिसरी बातें याद आ गयी थी।"
और फिर तो पूजा में व्यस्त हो गयी। ****
5. कलेक्टर
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नित्या दफ्तर जाने से पहले सीधे चाची से मिलने गयी।
"चाची! मैं आप का आशीर्वाद लेने आई हूँ। आज नौकरी का पहला दिन है।मुझे आशीर्वाद दीजिये कि मैं अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से निभा सकूँ।"
"अरे नित्या! मेरा आशीर्वाद तो हमेशा तेरे साथ है ।आखिर तुमने प्रशासनिक परीक्षा उत्तीर्ण कर ही लिया। बैठो, अभी समय है, चाय पीकर जाना।"
चाची रसोई-घर में चाय लाने चली गयी। नित्या चाची से आशीर्वाद लेने के साथ ये भी याद दिलाना चाह रही थी कि आखिर मेरी माँ का विश्वास जीत ही गया, लेकिन वहाँ जाकर नित्या की सोच बदलने लगी।वो सोचने लगी-शायद आज मैं जो कुछ भी हूँ, चाची के तानों की वजह से ही तो हूँ। आज-तक चाची के प्रति जो मेरी कड़वाहट थी आज अचानक एहसान लगने लगा। चाची ने तो मेरे ऊपर एहसान किया और उसे अपराध बोध-सा होने लगा।वो चाय बनाने को मना कर जल्दी वहाँ से निकल गयी। रास्ते भर उस धटना को याद करती रही।------
स्नातक के बाद प्रशासनिक परीक्षा देना चाहती थी।घर के सभी चाहते थे कि शादी कर एक जिम्मेदारी पूरी की जाये।नित्या कि माँ ने इसका विरोध किया।
"जब नित्या चाहती है आगे पढ़ना तो उसे मौका मिलना चाहिए।"
इसपर चाची ने करारा जवाब दिया था।"
"तो क्या नित्या कलक्टर बन जायेगी?"
"नहीं बनेगी,पर मौका तो देना चाहिए।"
उस बार परीक्षा में नाकामयाब रही। चाची के कटाक्ष को न जाने माँ कितनी बार सुन चुकी थी।इसी बीच पापा चल बसे।चाची ने माँ से कहा-
"बेटी को समझाने के बजाय बढ़ावा देना ठीक नहीं है। कोई और नौकरी भी तो कर सकती है।"
माँ खामोश ही रहती थी।मैं पढ़ायी करने के बजाय तनाव में रहने लगी, लेकिन चाची की बातें हथौड़े की तरह दिल पर चोट करती थी।अपने को सम्भाला और परिणाम सामने है।
"मैडम! ऑफिस आ गया।"
नित्या चुपचाप दफ्तर के अन्दर ये सोचती हुई गयी कि शाम को मिठाई लेकर चाची के पास जाऊँगी। और मन-ही-मन से माफी भी तो मांगनी है। *****
6. पापा
****
फोन की घंटी बजी तो मुस्कान झुंझला उठी।पापा से बात करने के बाद वह चिढ़ी हुई थी।
"हेलो, कौन बोल रहा है?"
"मै किरण।"
" मुझे कोई बात नहीं करनी है।"
कहकर वह फोन रखने ही वाली थी कि हार्ट अटैक की बात सुनकर रुक गयी।
"तुम्हारे पिता को माइनर अटेक आया है।"
"तुम झूठ बोल रही हो।"
"ठीक है, लेकिन इतना तो जान लो कि जिस पिता ने पूरी जवानी इसलिये अकेले बिता दिया कि मेरी बेटी पर सौतेली माँ की छाया न पड़े। रिश्तेदारों के दबाव के बाद भी अपनी जिद्द पर अड़े रहे। मैंने भी विश्वास दिलाया, लेकिन मुझे इंतजार करने को कह कर बात हमेशा के लिये टाल दिये। जब तुम थी तो तुम्हारा साथ था।अब वो बहुत अकेलापन महसूस कर रहे थे।यदि इस उम्र में उन्होंने साथी की इच्छा जाहिर की तो क्या गलत किया? अब तो तुम उनके साथ हमेशा नहीं रहोगी। उनके बारे में कभी सोचा नहीं। तुम्हारी कड़वी बातें फोन पर सुनकर उन्हें बहुत आघात पहुँचा। वो अस्पताल में हैं। आगे तुम्हारी मर्जी ।"इतना कहकर किरण ने फोन रख दिया।
मुस्कान सोचने लगी-
किरण आँटी पड़ोस में ही रहती थी। उनके पति फौज में थे।शादी के कुछ साल बाद ही किरण आँटी विधवा हो गयी थी। जब भी पापा बाहर निकलते थे वह खिड़की पर खड़ी रहती थीं, लेकिन कभी हमें ये एहसास भी नहीं हुआ कि वो पापा के इशारों का इंतजार कर रहीं हैं । क्या पापा को ये डर था कि कहीं मेरे ओठों की मुस्कान छिन न जाये?और उन्होंने माँ-बाप दोनों बनकर मेरी परवरिश की। शायद मैंने फोन पर कुछ ज्यादा ही रूखेपन से बात की।
"पापा! ये मैं क्या सुन रही हूँ? आप किरण आँटी से शादी कर रहे है?इस उम्र में------लोग क्या कहेंगे? मुझे तो सोच कर ही शर्म आती है।आपने मेरे बारे में नहीं सोचा।"
कहकर मैने फोन रख दिया था।आज-तक तो पापा ने मेरे ही बारे में सोचा।झटके से उठी और चल पड़ी एयरपोर्ट।--------
"पापा! मुझे माफ कर दीजिये।मैं आपको समझ नहीं पायी ।अब-तक आपने मेरे लिये जीते रहे अब अपने लिये जियेंगे। "
मुस्कान फूट- फूट कर रोने लगी।
"मुस्कान!रोना बंद करो बेटा। तुम्हारी माँ को एक वचन दिया था कि तुम्हें विमाता से दूर रखूँगा, सो निभाया।अब एक दूसरा वादा पूरा करना चाह रहा था।"
"क्या पापा?"
"किरण से वादा किया था कि इंतजार कर सकती हो तो करो,जब बेटी विदा हो जायेगी तभी तुम इस घर में आ सकती हो।"
"आपका वादा हम सब मिलकर पूरा करेंगे।"
बाप-बेटी दोनों मिलकर एक-दूसरे के हाथ थामें आँसू बहा रहे थे और किरण वहीं खड़ी खुशी के आँसू को निहार रही थी। ****
7. कुछ दूरी
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पति की सेवा-निवृत्ति के बाद तो जैसे बन्ध-सी गयी थी।आदमी वही दो था।काम भी उतना ही था।फिर भी------।अपने मन का कुछ करो तो पति की नजर पड़ ही जाती है।फिर टीका-टिप्पणी--- अपना क्षेत्र नहीं होने पर भी सुझाव तो देना ही था। शाम को चाय लेकर गयी और धीरे से बात छेड़ी।
"सभी सेवा-निवृत्ति के बाद कहीं-न-कहीं प्राइवेट कम्पनी में काम करने जाते हैं।"
"हाँ, जाते हैं।"
"आप क्यों नहीं कहीं नौकरी ढूँढते?"
"मुझे अब नौकरी नहीं करनी है।जितना पैसा है ,दो आदमी के लिये काफी है।बच्चों के पास अपना ही काफी है, फिर क्यों बुढ़ापे में नौकरी करनी है।"
"थोड़ी आउटिंग हो जाती है।"
"घूमने जाने से भी तो आउटिंग हो जाती है।"
"मेरे कहने का मतलब था कि निर्धारित समय पर बाहर जाने से जीवन अनुशासित रहता है।"
"हमेशा मुझे देखकर बोर तो नहीं हो जाती हो,जो ऐसा कह रही हो?"
"अरे नहीं।"
कहने को तो मैंने कह दिया, लेकिन चाहती तो यही थी कि घर से कुछ घंटों के लिये बाहर जाते।वह समय सिर्फ और सिर्फ मेरा होता, जैसे पहले होता था। कुछ देर अलग रहना भी अच्छा लगता था।कभी पड़ोस में जाकर एक घंटा गप्पें मार लेती थी तो कभी पड़ोसन मेरे घर आ जाती थी। दो पहर में कभी तम्बोला तो कभी किटी
पार्टी हो जाती थी।वैसे पति देव ये सब के लिये मना नहीं करते हैं, लेकिन घर पर रहने से पूरी आजादी-----कहीं गलती से भी मुँह से सास-ननद की बात निकल गयी तो घर में आफत आ जायेगी -------।
चाय का कप रखने रसोई-घर गयी तभी फोन की घंटी बजी।"
मिसेस वर्मा! सोचती हूँ कल तम्बोला खेला जाये।पति कल देर से घर लौटेंगे।"
"देखती हूँ, पर पक्का नहीं बोल सकती।"
मन को समझाती हुई पति के साथ संध्या-सैर पर निकल गयी। ****
8. सर जी
*****
सुबह चाय के साथ अखबार हाथ में लेते ही आरती अन्दर तक हिल गयी। चाय का कप हाथ से छूट कर जमीन पर बिखर गया। मन का मंदिर जो सूना हो गया था।
"तो क्या नवीन सर अब नहीं रहे?"
और अतीत का पन्ना फड़फड़ाने लगा।--------
"आरती !तुम्हारी कविता बहुत अच्छी है। मैं हमेशा इसे अपने पास सम्भाल कर रखूँगा।"
आरती का संकोच जाता रहा और बहुत खुश हो गयी।आरती गरीब घर की लड़की थी। सभी नवीन सर को उनके जन्मदिन पर अच्छे-अच्छे उपहार दे रहे थे।आरती कुछ खरीद तो नहीं सकती थी, इसलिये उसने एक कार्ड पर सुन्दर-सी कविता लिखकर शर्माती हुई उन उपहारों के बीच रख दिया था। नवीन सर को उसकी कविता बहुत पसंद आई। आरती प्रतिभासंपन्न लड़की थी। नवीन सर का प्रोत्साहन पाकर नित्य नयी-नयी कविताओं का सृजन करने लगी।ये सिलसिला आठवीं कक्षा से शुरू हुआ था।नवीन सर आरती की प्रतिभा के बीच गरीबी को नहीं आने देना चाहते थे। उन्होंने आरती की कविताओं का संग्रह प्रकाशित करवाया। सभी पत्र-पत्रिकाओं में उसकी रचना छपने लगी। ये सब नवीन सर की मदद से ही हुआ। कालेज में जाने के बाद भी आरती नवीन सर के सम्पर्क में हमेशा रहती थी।एक दिन उसे पता चला कि नवीन सर गाँव जा रहे हैं अपना परिवार लाने। बच्चा अब स्कूल जाने लायक हो गया है। सुनते ही आरती जैसे चक्कर खाकर गिर जायेगी।सम्भलने के बाद चुपचाप घर लौट आयी।नवीन सर की मदद को प्यार समझ आजीवन उनके साथ जीने का सपना देख चुकी थी। पहले तो बहुत कोशिश की भूलने की,पर दिल तो पराया हो चुका था।------
अब जीवन भर अविवाहित रहकर साहित्य-सृजन का संकल्प लिया। दूसरे शहर में जाकर नौकरी करने लगी और नवीन सर की मूरत दिल के मंदिर में विद्यमान रही। अभी आठ साल ही तो हुए थे कि आज ये खबर-
"प्रसिद्ध उपन्यासकार की दुर्घटना मे मौत।"
फोन की घंटी से वर्तमान का आभास हुआ।वहाँ से उठकर भारी कदमों से नवीन सर की तस्वीर के पास गयी और माली द्वारा लाये पूजा के फूल को नवीन सर को समर्पित कर दिया। समर्पित कर दिया। सोचने लगी- अभी तो बच्चे बहुत छोटे-छोटे हैं।आमदनी का कोई जरिया तो रहा नहीं। क्या उनकी पत्नी नवीन सर के बच्चों का बंटवारा कर सकती है? ****
9. मजबूरी
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आँगन में भीड़ लगी थी।वहीं पास में गिरिजा मूर्ति बनी बैठी थी। अपने पति की मौत से स्तब्ध थी। उसे समझ में ही नहीं आ रहा था कि आखिर मेरे साथ ऐसा क्यों हुआ?पिता तो थे नहीं माँ ने अपनी फूल-सी बच्ची को इसे सौप दिया था। अभी एक साल ही तो हुई थी मेरी शादी की। तभी भीड़ से एक हल्की आवाज आई।
"कैसा माँ-बाप था? बाप की उम्र के आदमी से अपनी इस बेटी को सौप दिया।"
दूसरी आवाज भी गिरिजा को स्पष्ट सुनाई पड़ी।
"माँ-बाप नहीं होगा,तभी ठाकुर अपना घर चलाने के लिये मंदिर से ब्याह कर लाया था।"
वैसे अब ठाकुर नाम भर का ही था। अब-तक तो गिरिजा बूत बनी हुई थी, लेकिन इन लोगों की बात सुन फफक कर रो पड़ी और अपने कमरे में आ गयी। गिरिजा तड़प कर रह गयी। कुछ जबाव नहीं दे सकी। कैसे कहती कि तुम क्या जानो मेरी और मेरे माता-पिता की मजबूरी? ये भूख सबकुछ करने पर मजबूर कर देती है। फिर तो गिरिजा उस अतीत में खो गयी।-------
पिता की बीमारी ने पैसा के साथ पिता को भी अपने साथ ले गयी।पूरी जमापूंजि लगाकर भी माँ पिता जी को बचा न सकी। नौवत यहाँ तक आ गयी कि माँ घर-घर जाकर खाना बनाने का काम करने लगी।उससे घर का किराया और पेट तो कम- से-कम भर जाता था। मेरी पढ़ाई छूट गयी।माँ के साथ मैं भी काम पर जाने लगी, तो लोगों की नजरों की शिकार होने लगी।इन्हीं नजरों में एक इस ठाकुर की भी नजरें थी।एक दिन माँ के सामने आकर मुझे मांग लिया।माँ के सामने कोई बिकल्प नहीं था। कम-से-कम बेटी को इज्जत की भरपेट रोटी तो नसीब होगी।कहाँ मिलता उसे राजकुमार?-----
कुछ औरतों की आवाज सुनकर वह मायके से ससुराल में वापस आ गयी।कुछ बुढ़ी महिलाएँ मिलकर गिरिजा के सुहाग चिन्हों को मिटाने में लग गयी और बाहर अर्थी ले जाने की तैयारी हो रही थी। ****
10.विधवा
"माँ!अभी तक पार्लर वाली आई नहीं। दीदी को तैयार करने में देर हो जायेगी।"
"आती ही होगी, अभी तो समय हो ही रहा है।"
तभी ज्योति आ गयी।
"अरे ज्योति जी हमलोग आप की ही बातें कर रहे थे। चलिये अपना काम शुरू कीजिये।"
छोटा शहर था इसलिये शादी में दुल्हन को सजाने के लिये घर पर ही ब्यूटीशियन आती थी। पारूल को भी तैयार करने के लिये एक महीना पहले से ही ज्योति को सुरक्षित कर लिया गया था।ज्योति का यह व्यवसाय बहुत अच्छा चल रहा था। उसकी हुनर की सभी महिलाएँ बहुत तारीफ करती थीं। काम अच्छा और ईमानदारी से करती थी।पति की मौत के बाद तो वह अपने को भूल ही गयी थी, लेकिन ये हुनर उसका साथी बन गया। दस साल की बेटी थी तभी बीमारी ने पति को छीन लिया। तब से आज-तक यह पार्लर ही उसके जीने का आधार बना। आर्थिक सुदृढ़ता के साथ खाली समय का हमसफर बन गया। पाँच साल में ही यह पार्लर शहर का सबसे चहेता पार्लर बन गया। लड़कियाँ इसकी दीवानी बन गयी। न जाने क्या जादू था ज्योति के हाथों में।अभी ज्योति अपना काम कर ही रही थी कि दादी ने पारूल को सुपारी (कसईली) देने कमरे में प्रवेश किया। एक अधेड़ उम्र की औरत को सुहाग चिन्हों से रहित हल्के रंग की साड़ी पहनी पारूल को तैयार करते देखा। देखते ही उसका माथा ठनका। सीधे बहू के पास गयी।
"बहू ! क्या पारूल को सजाने वाली विधवा है?"
"ये कौन पूछता है माँ,लेकिन हाँ विधवा ही है। लोग कहते है कि पति की मौत के बाद समय गुजारने और साथ ही आर्थिक मदद के लिये ये व्यवसाय शुरू किया था और देखते-ही-देखते शहर की मशहूर ब्यूटीशियन बन गयी।"
"क्या? तुम अपनी बेटी की दुश्मन हो? कैसी माँ हो तुम? एक विधवा से अपनी बेटी को सुहागा जोड़ा पहनवा रही हो?"
"माँ जी, धीरे बोलिये ।सुन लेगी। सभी इसी से करवाते हैं।"
"हमें सभी से क्या लेना-देना? विधवा की परछाई भी दुल्हन पर नहीं पड़नी चाहिए और तुम अपनी ही बेटी को उसे सौप दी हो?"
"अरे माँ जी, कुछ नहीं होगा। ये सब सिर्फ बहम है।"
तब-तक रिश्तेदारी की आई हुई दो-चार औरतें वहाँ पहुँच गयी। सभी पारूल की माँ को ही नसीहत देने लगी। तभी ज्योति कमरे से बाहर आई। आँखें नम हो चुकी थी। पारूल की माँ से कहा।
"मिसेज शर्मा! मैं ने मेकअप कर दिया है, लहंगे भी पहना दिये हैं।अब सिर्फ जेवर पहनाना बाकी है।उसे तो कोई भी पहना सकता है।"
इतना कह कर एक झटके से बाहर निकल गयी।पारूल की माँ को कुछ कहने का मौका ही नहीं मिला। सभी एक-दूसरे का मुह देखते रह गये ,लेकिन दादी ने राहत की सांस ली। ****
11. दुर्घटना
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रिया को घर आते ही सासु माँ के कई सवालों का सामना करना पड़ा।
"आज तो तुम्हारी छुट्टी थी, फिर कहाँ गई थी? मिनी बोल रही थी कि मम्मी अस्पताल गयी है।"
"हाँ माँ जी, आप पूजा-घर में थीं, इसलिए आपको बता नहीं पायी।"
"क्यों,कुछ काम था?"
"हाँ, दिवाकर दुर्घटना का शिकार हो गया था।उसे बहुत चोट आयी थी। यथा शीघ्र खून की जरूरत थी उसके ग्रुप का खून मिलना मुश्किल था, इसलिए मैंने दिया।मेरा भी उसी ग्रुप का है।"
"क्या? तुम्हें याद नहीं है? यही दिवाकर तुम्हारा फोन नहीं उठाया था और तुम विधवा हो गयी, फिर भी------।यदि वह समय पर आकर खून दे देता तो शायद मेरा बच्चा-----"
उनकी आँखों से आँसू बहने लगे।आँसू तो रिया की आँखों में थे।,लेकिन रिया माँ को समझाने लगी।
"माँ, जो हुआ वो होनी थी। किसी को कैसे दोष दिया जा सकता है?"
माँ बिफर पड़ी।
"नहीं, तुमने एक तरह से अपने पति के कातिल को खून देकर आई हो।"
माँ रोती हुई अपने कमरे में जाकर दरवाजा अन्दर से बंद कर देती है।अब रिया परेशान हो गयी। माँ को कैसे समझाया जाये? माँ का गुस्सा और दुख भी जायज है।एक माँ के लिये अपना बच्चा ही सबकुछ होता है। उन्हें लगता है कि यदि दिवाकर समय पर आ जाता तो रवि को खून मिल जाता और रवि आज हमारे बीच रहता। रवि की भी तो दुर्घटना में काफी खून बह गया था और उसे तत्काल खून की जरूरत थी।मैं डाँक्टर होकर भी रवि को बचा न सकी। रिया उस समय माँ बनने वाली थी।उसकी हालत बहुत खराब थी। बाद में उसे गर्भपात के दर्द से गुजरना पड़ा।उसके ग्रुप का खून अस्पताल के बैंक में नहीं था।मैं जानती थी कि रवि और उसके दोस्त दिवाकर का ग्रुप एक ही है।कितनी बेचैनी से फोन किया था मैने। उसे क्या पता था कि एक जिन्दगी उसका इंतजार कर रही है।उसी समय से माँ दिवाकर के नाम से भी नफरत करती हैं। मुझे भी गुस्सा था, लेकिन इस गुस्से के कारण एक जिन्दगी और चली जाती तो क्या रवि की आत्मा खुश होती? उसका भी मिनी जैसी एक बेटी है, पत्नी है, माँ है। रिया फिर माँ से बात करने कमरे तक गयी।
"माँ! एक बार तो ठंढ़े दिमाग से सोचिये। बचाने वाला तो ऊपर वाला है। इंसान तो सिर्फ माध्यम है। मान लिजिये खून की कमी के कारण उसकी मौत हो जाती तो क्या आपका रवि लौट आता? उसकी भी माँ है।उस माँ के बारे में सोचिये।"
इतना कहकर रिया दरवाजे के बाहर बैठ गयी और स्वयं भी भावुक हो गयी। माँ ने दरवाजा खोला और रिया के आँसू पोछते हुए उसे गले लगा लिया। ****
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👏👏👏👏अद्भुत अद्भुत अद्भुत 👏👏👏👏
ReplyDeleteआदरणीय जैमिनी जी आपके द्वारा लघुकथा के इस संकलन द्वारा लेखकों और पाठकों जो सौगात दी गयी है वह अनुपम है।
इस कार्य हेतु आपका हृदय से आभार व्यक्त करता करते हुए आपकी साहित्यिक साधना को नमन करता हूँ।
लघुकथा विधा में यह संकलन निश्चित रूप से एक मील का पत्थर है।
🙏🙏सादर प्रणाम ।
- सतेन्द्र शर्मा ' तरंग '
देहरादून - उत्तराखंड
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बीजेंद्र भाई..ई-संकलन "हिंदी के प्रमुख लघुकथाकार" का सफल प्रकाशन निश्चय ही आपके एक बड़े कार्य के रूप में गिना जाएगा। इसके लिए आपको तथा शामिल हुए सभी साथियों को भी, बहुत बधाई!👍
ReplyDelete- अनिल शूर आजाद
विकासपुरी - दिल्ली
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यह ऐतिहासिक प्रयास है...इस विशेष संपादन के लिए आपको बधाई व शुभकामनाएं ।
ReplyDeleteआपने अपने संकलन में मेरी रचनाओं को स्थान दिया इसके लिए आत्मीय अभिनंदन आपका
- राजकुमार निजात
सिरसा - हरियाणा
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आपका अनथक प्रयास सराहनीय है इस ऐतिहासिक कार्य के लिए हार्दिक 🎊 🎊 🎊 🎊 बधाई एवं शुभकामनाएं जी 🙏 🙏 🙏 🙏 ।आपने हमें शामिल किया इसके लिए आपका आभार जी 🙏 🙏 🙏
ReplyDelete- हीरा सिंह कौशल
मण्डी - हिमाचल प्रदेश
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बिजेंद्र जी आपके अथक प्रयास का फल इतने बडे़ ई - संकलन की सफलता के लिए अनेकानेक बधाई एवं शुभकामनाएं 🌹🌹
ReplyDeleteसभी रचनाकारों को उनकी इस उपलब्धि के लिए हार्दिक बधाई 🌹🌹
- चन्द्रिका व्यास
मुम्बई - महाराष्ट्र
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आदरणीय आप ने नया कीर्तिमान स्थापित किया है इतना बड़ा ई संकलन निकाल कर। आप का यह प्रयास बहुत सराहनीय है। आप को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं ।इस संकलन में शामिल सभी रचनाकारों को बहुत बहुत मुबारकें और शुभकामनाएं।
ReplyDelete- कैलाश ठाकुर
नंगल टाऊनशिप - पंजाब
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आपकी हिम्मत, मेहनत और जज़बे को सलाम। इस महान कार्य की उपलब्धि के लिए आप को बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएं आदरणीय।यह आने वाली पीढ़ियों के लिए महान दस्तावेज होगा।🙏🏻🙏🏻🙏🏻🌹🌹🌹🌹
Delete- कैलाश ठाकुर
नंगल टाऊनशिप - पंजाब
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भाई बीजेंद्र जैमिनी जी आपको बधाई। लघुकथा के विकास में आपका योगदान अविस्मरणीय। सभी लेखक साथियों को बधाई और अनंत शुभकामनाएं! 🙏🙏🌹🌹🙏🙏
ReplyDelete- डॉ. योगेन्द्र नाथ शुक्ल
इन्दौर - मध्यप्रदेश
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नमन है आपको और आपके इस प्रयास को सर। यह संकलन एक इतिहास बनेगा। मुझे बहुत गर्व और खुशी है कि मेरी रचनाएँ इसका एक पन्ना है।
ReplyDeleteमेरी रचनाओं को स्थान देने के लिए हृदयतल से धन्यवाद आदरणीय 🙏🏻🙏🏻
- मधुलिका सिन्हा
कोलकाता - प. बंगाल
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प्रिय भाई जैमिनी जी
ReplyDeleteबहुत ही लगन और समर्पण के साथ लघुकथा विधा को लेकर आपने इतना बड़ा और महत्वपूर्ण काम किया है। 1100 से अधिक पृष्ठों की यह ई पुस्तक एक रिकॉर्ड के रूप में सामने आई है। मेरे विचार में इतना बड़ा लघुकथा को लेकर काम अभी तक किसी ने नहीं किया है। तकनीक का उपयोग कर इतना बड़ा काम करना अपने आप में महत्वपूर्ण है। यह विश्व रिकार्ड के रुप में सामने आया है। आपको एवं इसमें शामिल समस्त लघुकथाकारों को मेरी हार्दिक बधाई।
आपका
सतीश राठी
इन्दौर - मध्यप्रदेश
( (WhatsApp से साभार )
101 लघुकथा लेखकों का परिचय और 1111 लघुकथाओं का संकलन, बहुत बड़ा काम हुआ है। मेरी आयोजक जैमिनी जी को सलाह है कि आप गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में इसे दर्ज कराने के लिए आवेदन करें।
ReplyDelete- रजनीश दीक्षित
वडोदरा - गुजरात
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वाह बन्धुवर,एक विशाल कार्य आपने संपादित और संपन्न कर दिखाया। अभिनन्दन। लघुकथा-संग्रहों मैं एक मील का पत्थर!अभिनव और अभूतपूर्व!पुनश्च बधाई। मुझे इसमें सम्मिलित करने केलिए आभार।
ReplyDelete- भगवान वैद्य 'प्रखर'
अमरावती - महाराष्ट्र
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आपके सार्थक प्रयास के लिए हार्दिक बधाई व अनंत शुभ कामनाएं। वास्तव में यह विशेषांक साहित्यिक कुम्भ है,जिसमें देश के विभिन्न कथाकारों ने आहुति डाली है।पुन:आभार।
ReplyDelete- डॉ. मुक्ता
पूर्व निदेशक : हरियाणा साहित्य अकादमी
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आपका अनंत आभार । आपकी हिन्दी साहित्य के प्रति समर्पण के लिए नमन ।मेरी लघुकथाओं को शामिल करने के लिए मैं आपका हार्दिक अभिनंदन करते हुए आपके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ । हिन्दी साहित्य जगत को आप धुव्र तारे की तरह अपने प्रकाश से आलोकित करते रहें ।
ReplyDelete- निहाल चन्द्र शिवहरे
झांसी - उत्तर प्रदेश
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आदरणीय जैमिनी जी,
ReplyDeleteसादर नमस्कार,
लघुकथा के प्रति आपका समर्पण सचमुच अद्वितीय हैं। आपने हिंदी लघुकथाकारों की लघु कथाओं का संकलन कर हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है। हिंदी साहित्य के वर्धन के प्रति आपका जुनून स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा है। हिंदी लघुकथाओं के प्रति आपका सर्जनात्मक कार्य प्रशंसनीय है। आपको और आपकी टीम को हार्दिक बधाई व अनंत शुभकामनाएं।
- प्रज्ञा गुप्ता
बाँसवाड़ा (राज.)
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काम करते हुए खुला मन रखने वाले ही सही मायने में अच्छा प्रदर्शन कर पाते हैं।
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई आदरणीय बीजेन्द्र जी को।
अपनी तरह से आपके सभी कार्य अनूठे हैं।
- कान्ता रॉय
भोपाल - मध्यप्रदेश
( फेसबुक से साभार )
आपका अनंत आभार । आपकी हिन्दी साहित्य के प्रति समर्पण के लिए नमन ।मेरी लघुकथाओं को शामिल करने के लिए मैं आपका हार्दिक अभिनंदन करते हुए आपके उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ । हिन्दी साहित्य जगत को आप धुव्र तारे की तरह अपने प्रकाश से आलोकित करते रहें । आपका लेखकों की संख्या 101 व लघुकथा की संख्या 1111 एक आध्यात्मिक सांकेतिक दृष्टिकोण की ओर भी ध्यानाकर्षित करता है। इसे करवाने वाले गोड पार्टिकल का भी आशीर्वाद है।
ReplyDeleteबहुत बहुत बधाई।
- विजय जोशी ' हिमांशु '
महेश्वर - खरगौन - मध्यप्रदेश
( फेसबुक से साभार )
*लघुकथा इतिहास के विशालतम ई-संकलन "हिंदी के प्रमुख लघुकथाकार" के बहाने चंद बातें*
ReplyDelete*अनिल शूर आज़ाद*
गत चार दशक से हिंदी लघुकथा के साथ जुड़ाव के नाते मेरा अनुभव है कि वर्ष 1960-65 से आरंभ हुई 'आधुनिक हिंदी लघुकथा' विकास के कई सोपान पार कर अब, एक अपेक्षाकृत 'कम्फर्टेबल जोन' को अंगीकृत कर चुकी है। विशेषतया हाल के सात-आठ वर्षों में आई 'सोशल मीडिया क्रांति' ने इसमें विशिष्ट भूमिका निभाई है। नित्य नए फेसबुक व व्हाट्सएप समूहों, ऑनलाइन गोष्ठियों, एकल प्रस्तुतियों एवं प्रतियोगिताओं आदि ने इसमें सराहनीय योगदान दिया है। गत तीन-चार वर्ष से तो एक नई शुरुआत के रूप में ई-लघुकथा संकलन भी सामने आने लगे हैं। इस संदर्भ में हरियाणा के पानीपत निवासी बीजेंद्र जैमिनी का नाम विशेष उल्लेखनीय है जो वर्ष 2018 से सतत इस कार्य में जुटे हैं तथा अबतक हरियाणा, राजस्थान, मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, झारखंड जैसे राज्यों के अतिरिक्त दिल्ली, भोपाल जैसे नगरों तथा महिला लघुकथाकारों पर केंद्रित ई-लघुकथा संकलन सामने ला चुके हैं। इनके संपादन में आए दर्जनाधिक ई-संकलनों में सर्वाधिक अहम ई-संकलन "हिंदी के प्रमुख लघुकथाकार" है। यह महत्वपूर्ण इसलिए है कि इसमें देशभर से चयनित एक सौ एक लेखकों की ग्यारह-ग्यारह अर्थात कुल एक हजार एक सौ ग्यारह लघुकथाएं - रचनाकारों के चित्र तथा विस्तृत परिचय सहित शामिल की गई हैं। यद्यपि पचास-साठ प्रतिशत लघुकथाओं के स्तर पर सवाल उठ सकते हैं। लेकिन अपनी श्रेणी ई-संकलन तथा छपी पुस्तकों में यह अबतक का सर्वाधिक विशाल संग्रह अवश्य है - इसका श्रेय बीजेंद्र भाई को जरूर दिया जाना चाहिए। (क्रमांक 84 पर, मेरी भी ग्यारह लघुकथाएं इसका हिस्सा बनी हैं, एतदर्थ आभार!)
इसी क्रम में 'विश्व भाषा अकादमी' संस्था से जुड़े राजस्थान के उदयपुर निवासी डॉ चंद्रेश कुमार छतलानी द्वारा संपादित ई-संकलन भी सामने आया है। इसकी अधिकांश लघुकथाएं सशक्त भी हैं। लेकिन इसका कोई शीर्षक न रखा जाना जरूर अखरता है। बीस-पच्चीस वर्षों के बाद ऐसे 'अनाम' संकलनों को रेखांकित करने में कठिनाई हो सकती है। अतः इसे ध्यान में रखते हुए इनका शीर्षक, वर्ष, लेखक/संपादक, पूरा पता आदि अवश्य इनपर अंकित होने जरूरी हैं। ऐसा ही एक सदप्रयास सम्पदकद्वय सुकेश साहनी एवं रामेश्वर कांबोज हिमांशु अपनी उच्चस्तरीय ई-पत्रिका मासिक 'लघुकथा डॉट कॉम' के माध्यम से जारी रखे हुए हैं।
हाल के वर्षों में लघुकथा परिदृश्य पर जिस तरह भाई योगराज प्रभाकर के संपादन में पंजाब के पटियाला से निकलने वाली लघुकथा कलश, डॉ कमल चोपड़ा के संपादन में संरचना, डॉ उमेश महादोषी के संपादन में 'अविराम सहित्यिकी' तथा कांता राय के संपादन में 'लघुकथा वृत' जैसी पत्रिकाएं तेजी से उभरी हैं। इनपर विहंगम दृष्टि डालने से सुखद अहसास होता है कि विधा के प्रतिष्ठित केंद्रों से इतर नए केंद्र एवं नायक भी सामने आ रहे हैं। यह सुखद है कि नेतृत्व अब पुरानी से नई पीढ़ी तथा अभिजात्य से साधारण की ओर हस्तांतरित होता प्रतीत हो रहा है जो आश्वस्त करता है कि नए और सक्षम नेतृत्व में जनसाधारण के बीच लघुकथा विधा की स्वीकार्यता "और अधिक बढ़ना" भी तय है। सुस्वागतम!■
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*आधुनिक हिंदी लघुकथा शोधपीठ, नई दिल्ली के सौजन्य से प्रस्तुत।*
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हालांकि यह पहली बार नहीं है कि Bijender Gemini जी ने कोई 'ई लघुकथा संकलन' निकाला हो। इससे पहले भी वे शांत भाव से इस पावन कार्य में लगे हुए हैं और निंरतर भिन्न-भिन्न विषयों पर संकलन सामने ले कर आते रहे हैं। हाँ यह अवश्य है कि इस संकलन में शामिल लघुकथाओं की संख्या सहज ही रिकॉर्ड स्तर की है। ये मेरे लिए प्रसन्न्ता की बात है कि उनके पिछले कई संकलन की तरह इस बार भी मैं इसका हिस्सा बना हूँ। इसके लिए मेरी ओर से बिजेंद्र जी को हार्दिक धन्यवाद।
Deleteप्रकाशित पुस्तकों की घटती संख्या और आधुनिक तकनीक के चलते यह निश्चित है कि आने वाला समय 'ई बुक्स' के लिए ही अधिक जाना जाएगा। इसलिए ऐसे में जरूरत है कि विधा के सम्रग विकास के लिए ऐसे प्रयासों को सामूहिक रूप से प्रोत्साहन दिया जाए।
- विरेंदर ' वीर ' मेहता
लक्ष्मी नगर - दिल्ली
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जहाँ तक मेरा अनुभव है 'बिजेंद्र सर' बहुत सहज, सरल हैं और पूरी तन्मयता के साथ इस कार्य में लगे हुए हैं।
Delete2-एक-दूसरे के कार्यों की सराहना करना ही सच्ची साहित्यिक धर्म है।
- डॉ. क्षमा सिसोदिया
उज्जैन - मध्यप्रदेश
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अनिल शूर आजाद जी ,
Deleteक्या आपने दो दिन में 2310 लघुकथा पढ ली थी ? कृपया स्पष्ट करें।
- बीजेन्द्र जैमिनी
सम्पादक : ई- लघुकथा संकलन
हिन्दी के प्रमुख लघुकथाकार
नहीं भाईजी, सभी लघुकथाएं (101×11=1111) पढ़ने की आवश्यकता भी नहीं थी। सौ के लगभग पढ़ने तथा अन्य सरसरी तौर पर देखने से यह निष्कर्ष निकला है।
Delete- अनिल शूर आजाद
विकासपुरी - दिल्ली
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गजब की मेहनत की है आपने। लघुकथा के प्रति आपका समर्पण अद्वितीय है, स्तुत्य है। पूरे देश से इतने सारे लघुकथाकारों को समेटकर अपने संग्रह में गुलदस्ते जैसा सजाया आपने, बहुत बहुत बधाई आपको।आभार।
ReplyDelete👌🌷🌹💐🙏🏻
- गोकुल सोनी
भोपाल - मध्यप्रदेश
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इस अभिनव कार्य हेतु आप बधाई के पात्र तो ही साथ ही लिम्का बुक में आपका यह कार्य दर्ज होना चाहिये।
ReplyDelete- पूर्णिमा मित्रा
बीकानेर - राजस्थान
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*बीजेन्द्र भाई, यह संकलन आपका बहुत ही सुंदर प्रयास है जो सदैव याद किया जाएगा। 'क्रमांक 84' पर मुझे आपने शामिल किया, एतदर्थ पुनः आभार।*
ReplyDelete- अनिल शूर आज़ाद
विकासपुरी - दिल्ली
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