लघुकथा - 2019

सम्पादकीय                                                           
हम सब की एक - एक लघुकथा
लघुकथा - 2018 की अपार सफलता के बाद अब लघुकथा - 2019 की तरफ कदम रखा जा रहा है । आज के समय में लघुकथा साहित्य बहुत विशाल हो गया है । जिस का एक - एक मोती बहुत महत्वपूर्ण है । सभी का सम्मान भी होना चाहिए । इसी अभिलाषा  के साथ आप सब के बीच उपस्थित हुआ हूँ । अतः सभी लघुकथाकारों का स्वागत है । सिर्फ एक बात का ध्यान अवश्य रखें कि लघुकथा 2019 में ही लिखी गई होनी चाहिए । यह मापदंड सभी के लिए है । इस बारें में कोई समझोता नहीं है । अगर किसी कारण से 2019 से पहलें लिखी लघुकथा ब्लॉग पर आ जाती है तो पता चलने पर तुरंत हटा दिया जाऐगा । शेष आप सबके सहयोग पर निर्भर हैं ।
                                     - बीजेन्द्र जैमिनी
                                      लघुकथा - 2019

क्रमांक - 001                                                           
                                पालक                                      
                                               - महेश राजा
                                         महासमुंद - छत्तीसगढ़
                                         
रविवार की सुबह।छुट्टी का दिवस।पर,सौदा सुलफ के लिये उचित दिवस।अन्य दिन तो भागमभाग, अपडाउन मे ही निकल जाता है।चाय नाश्ता निबटा कर पत्नी जी ने एक लंबी फेहरिस्त एवम थैला थमा दिया।मैंने पूछा,सब्जी क्या लाऊ?इस पर पत्नी ने कहा,आज आपकी छुट्टी है.कुछ बढिया बनाते है।जैसे पालक पनीर,मटर पुलाव।यह सब ले आईये और हां,ताजी धनिया पती एवम हरा लहसुन लाना न भूलियेगा।
मै थैला लेकर बाजार की तरफ चल पडा।राह मे साहुजी मिल गये तो गपशप करते टी स्टाल की तरफ मुड गये।
वहां से निकल कर नुक्कड पर पहुंचा तो देखा,एक छोटा बालक व एक बालिका एक किनारे पर बोरी बिछा कर ताजी सब्जी लेकर बैठे हुए थे।
मैंने बच्चे से पूछा,"पालक है क्या ,बेटा?"
बच्चा अपलक मुझे देखता रहा।कुछ कह न पाया।तभी बालिका जो शायद उसकी बडी बहन थी,आ पहुंची।मैने उससे भी यही सवाल किया।अन्यमनस्क वह बुदबुदाई,बाबूजी पालक होते तो यह सब थोडे ही करना पडता।उसके मासूम चेहरे पर एक अनोखा दर्द था।साथ ही उसकी भीगी आवाज मन को छू गयी।
पूछने पर बालिका ने बताया, उसकी मां का एक एक्सीडेंट मे निधन हो गया था।पिता को तो कभी देखा ही नहीं।
मैंने पूछा,पढने जाते हो?"
-"कहां,साहब,ले देकर तो दो जून की रोटी नसीब है।पडौस की एक टीचर दीदी ने एट खोली और यह काम दिलाया है।जैसे तैसे काम चल रहा है।
घर काम करोगी पूछने पर उसने ना कही,भाई छोटा है।हां मेहनत कर उसे पढाना है।
फिर बोली-"क्या क्या लेंगे।सारी सब्जी ताजी है,यह टमाटर लिजिये,देशी है।
मैंने जरूरत से ज्यादा सब्जी ली और सौ का नोट दिया।कहा,चिल्हर रख लो।
वह बोली ,,नहीं साहब जो वाजिब है ,वही लेंगे।
शेष रुपये वापस कर वह दूसरे ग्राहक की सब्जी तौलने लगी।
मै भरे मन से घर की तरफ लौटा।पत्नी को सबकुछ बता कर उन मासूमों के लिये कुछ करने की बात सोचने लगा। ००
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क्रमांक - 002                                                       
                         धरती माँ                                
                                             - डॉ पूनम गुजरानी
                                                    सूरत - गुजरात
                                      
      रात को खाना खाकर मैं अभी बैठा ही था कि  कुछ सकुचाया सा संजय प्रकट हुआ - बाबूजी वो....।
हाँ बोलो संजय,क्या बात है मैनें पूछा।
वो गाँव पैसे भिजवाने है।
कितने..?
चालीस हजार....उसने धीरे. से कहा।
चालीस हजार.... मगर इतने तो तुम्हारे जमा भी नहीं हुए ..फिर तुम तो कहते थे अपनी शादी के लिए इक्कठा कर रहे हो ।क्या हुआ किसी लङकी का बुलावा आया ,क्या मैनें चुटकी लेते हुए कहा।
नहीं बाबूजी, ऐसा नहीं है।वो शरमा गया था।
तो फिर...?
बाबा का फोन आया है ।खेत रेहन पर है छुङाने है संजय ने बताया।
पर तुम तो बाबा से लङकर आए थे ।कहते थे कभी गाँव नहीं जाऊँगा मैनें उसे कुरेदा।
बाबूजी बाप से लङना भी कोई लङना होता है फिर माँ भी तो नहीं है मेरे ... वैसे धरती भी तो माँ ही तो है उसे भी तो बचाना है । अब आप जो भी .....बाबा को पैसे भिजवा दीजिए .... मेहरबानी होगी, उसके दोनों हाथ जुड़ गये और आँखें नम  हो गई।
पर तुम्हारी शादी...?
शादी का क्या है... साल दो साल बाद हो जाएगी .....खेत हाथ से गये तो वापस नहीं मिलेंगें।
पर तुम्हारा हिसाब तो अभी पैतीस कि ही बन रहा है संजय, मैनें कहा।
बाबूजी चालीस हजार के बिना खेत नहीं मिलेंगें बाबा को ।आप पैसे भेज दें मैं तो यहीं हूँ आपके पास ,संजय ने दयनीयता से कहा।
ठीक है  संजय कल पैसे भेज दूँगा  , कहते हुए वीरेंद्र बाबू उठ गये।
कल दो एकाउंट में पैसे डलवाएंगे एक संजय के बाबा के एकाउंट में दूसरे अपने पिताजी के एकाउंट में... .।
पहले जब पिताजी ने खेतों की बुआई, सिंचाई के लिए पैसे भेजने को कहा तो वे उन्हें गाँव के खेत बेचने को कह चुके थे पर आज समझे कि धरती भी तो माँ ही होती है।
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क्रमांक - 003                                                        
  दरवाजे की मिट्टी

                                                  - कनक हरलालका
                                                      धुबरी -असम

 " ट्रिंग...ट्रिंग... ट्रिंग..।"

फोन की घंटी लगातार बजे जा रही थी। पंडित जी सोच रहे थे क्या करें? क्या फोन उठा लें ? पर कामकाजी लड़की का फोन था। कहीं नाराज न हो जाए। वैसे भी जब से लड़की ने काम शुरू किया था घर में अच्छे से रोटी तो मिलने लगी थी। वरना तो उनका काम बन्द होने के बाद भूखों मरने की नौबत आ गई थी। आज के जमाने में पूजा पाठ कौन करता कराता है। दोनों छोटे बच्चों की पढ़ाई भी शुरू हो गई है। जबसे लड़की ने काम शुरू किया है भले ही नाईट शिफ्ट करनी पड़े उनके भी दिन फिरने लगे हैं। मुहल्ले की सार्वजनिक दुर्गा पूजा में उन्हें बुलावा आया है। सारा सामान उन्हें ही इकट्ठा करना है। सारी तैयारी तो हो गई थी बस वेश्या के दरवाजे की मिट्टी ही नहीं मिल रही थी। कहाँ से लाएं उसे । उसके बिना तो पूजा पूर्णतः सफल नहीं होगी। उन्हें इसीलिए तो बुलाया गया था कि वे हर काम पूरी तरह विधि विधान से करते थे।
"ट्रिंग...ट्रिंग... ट्रिंग..."
ओह्ह बिटिया कहीं गई है शायद और उन्होंने फोन उठा लिया "हैलो.. कामिनी... कहाँ हो तुम? कितनी देर से रिंग कर रहा हूँ। आज के मेहमान दुर्गा पूजा की छुट्टियां इन्जॉय करने आए हैं।उन्हें लड़की नहीं मिली तो नाराज हो जाएंगे। तुम ठीक नौ बजे होटल पंहुच जाना। देखना बिल्कुल गफलत न हो।" कहते हुए फोन कट गया।
पंडित जी स्तब्ध से बैठे सोच रहे थे कि अब उन्हें मिट्टी खोजने के लिए कहीं और जाने की जरूरत नहीं है उनके अपने दरवाजे की मिट्टी ही काफी होगी।
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क्रमांक - 004                                                      
                        वर्त्तमान का सुख                     
                                                    - गीता चौबे
                                                 रांची - झारखण्ड

     'मटरुआ... अरे ओ मटरुआ.... कहाँ है तू? ऐ बच्चा लोगन मटरुआ को देखा क्या?'
'अभी तो यहीं खेल रहा था.. ' कह के बच्चे पुनः अपने खेल में मशगूल हो गए। 'ये बच्चा भी न.. कुछ समझता ही नहीं कि माँ कितनी परेशान हो जाती है अगर थोड़ी देर भी ओझल हो जाय आँखों से तो..' झल्लाती हुई मटरुआ की माँ परबतिया उसे खोजने लगी। 
     मटरुआ का असली नाम मटरू कुमार था और उसकी माँ का नाम पार्वती। पर गाँव में सब ऐसे ही नामकरण कर बुलाया करते थे। मटरुआ सात साल का एक बड़ा ही प्यारा बच्चा था, भोली  सी आँखें और मासूम चेहरा। परंतु बड़ा सयाना और चपल था। उसके पिता को जंगल में लकड़ी लाते हुए सांप ने डंस दिया था जिससे उसकी मौत हो गई थी। इस घटना के बाद से परबतिया मटरुआ को लेकर बहुत चिंतित रहा करती थी। उसके जीने का सहारा वही तो था।
      मटरुआ के दल में सात-आठ बच्चे थे जिसमें मटरुआ सबसे छोटा, पर सबसे समझदार भी था। कल इस गाँव में सरकार की ओर से कुछ कपड़े बांटे गए थे कुछ नए थे तो कुछ पुराने कपड़े भी थे। गाँव क्या था.. .. झारखंड के सुदूर क्षेत्र में एक छोटा सा टोला था जिसमें बीस - पच्चीस  परिवार रहते थे। आजीविका का कोई साधन नहीं था... कुछ खेत थे जिसमें थोड़ी बहुत फसल होती थी। गरीबी तो थी, पर सभी एक दूसरे के सुख-दुख में काम आते थे।
              सरकारी  कर्मचारी कपड़ों को गाँववालों में बांट कर चला गया। मटरुआ के हिस्से में एक पुरानी हाफ पैंट आयी। पैंट उसके नाप से थोड़ी बड़ी थी। दुबले-पतले मटरुआ की कमर से बार बार सरक जा रही थी। पर फिर भी उसकी आँखों में खुशी की चमक थी और उस  ' नयी पैंट ' को जो उसके लिए नयी थी, पहन कर दोस्तों के साथ खेलने आया था।
      पैंट ढीली होने की वजह से उसे एक हाथ से बराबर पकड़े रहना पड़ता था। फिर भी वह खुश था। उस ढीली पैंट से उसके खेलने के उत्साह में कोई कमी नहीं आयी। वह उस क्षण का बखूबी आनंद ले रहा था। न अतीत की सोच और न भविष्य की चिंता... सिर्फ़ वर्त्तमान में जीना... बालमन होता ही है सारी चिंताओं से परे। खेलते-खेलते वह एक पेड़ के पास पहुंच गया।
उस पेड़ पर बहुत सारे अमरूद लगे हुए थे। अमरूद देख उसे याद आया कि आज तो सुबह से कुछ खाया भी नहीं। माँ ने आज कुछ बनाया नहीं था। परबतिया बनाती भी कैसे, क्यूँकि कुछ था नहीं बनाने को। उसी का इंतजाम करने वह निकली थी तो मटरुआ खेलने निकल गया ' अपनी नयी पैंट' पहन कर। दोस्तों को भी दिखाना था।
        मटरुआ ने पैंट पकड़े-पकड़े पत्थर मार कर कुछ अमरूद तोड़ लिए। अब वह जल्दी से जल्दी घर जाना चाहता था ; क्यूँकि माँ भी तो भूखी होगी... पर एक हाथ में वह ज्यादा अमरूद नहीं ले जा सकता था। उस छोटे से बालक ने तीक्ष्ण बुद्धि का परिचय दिया। उसने पहले पेट भर अमरूद खुद खा लिए फिर एक हाथ में जितना आ सकता था अमरूद माँ के लिए लेकर चल पड़ा।
         इधर परबतिया भी कहीं से कुछ खाने का इंतजाम कर मटरुआ को खिलाने के लिए खोज रही थी। तभी एक हाथ से पैंट और दूसरे हाथ में किसी तरह दो - तीन अमरूद पकड़े हुए मटरुआ माँ के पास आया और बोला, माँ ये लो अमरूद खा लो, सुबह से तुमने भी कुछ नहीं खाया। परबतिया जो उसे देखते ही जोरदार डांट लगानेवाली थी... अपनी ओर अमरूद से भरा हुआ हाथ देखकर भावविह्वल हो उठी.... उसे कलेजे से लगाती हुई बोली... '' बेटा पहले तू भर पेट खा ले... देख मैं भी तेरे लिए कुछ खाने को लायी हूँ। '' मटरुआ बड़े भोलेपन से बोला, '' माँ ये सिर्फ़ तुम्हारे लिए लाया। .. आज तो मेरा पेट भर गया, पहले मैंने खा लिया फिर तुम्हारे लिए ले आया। ''
  परबतिया निहाल हो गयी अपने छोटे से बच्चे की समझदारी पर।दोनों माँ - बेटे गरीब थे, पर संतोषी जीवन जी रहे थे। 
      सच भी तो है.... जिसके पास वर्त्तमान  में जीने का जज़्बा हो वह असंतुष्ट नहीं हो सकता। गरीबी में भी संतुष्टि का भाव उसी के पास हो सकता है जो सिर्फ़ आज में जीता है। मटरुआ और परबतिया गरीब होते हुए भी संतुष्ट थे, क्योंकि वे वर्तमान में जीने की कला सीख चुके थे। **
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क्रमांक - 005                                                     
                             अनशन                                 
                                                - डॉ.सरला सिंह
                                                        दिल्ली
                                                        
             "कमली खाना खा ले बेटा ,जिद नहीं करते ।देख खाना नहीं खायेगी तो कमजोर हो जायेगी।"
"ठीक है मां मैं खाना खा लूंगी पर तू भी मेरा 
एडमिशन करा दे ।"
"नहीं बेटा तेरे पिताजी नहीं मान रहे हैं , कोई
अच्छा रिश्ता मिल रहा है ,वे उसे छोड़ना नहीं चाहते हैं । तू भी जिद छोड़ दें ,चल खाना खा ले।
       "नहीं मैं नहीं खाऊंगी ।जब तक कि मेरा एडमिशन नहीं कराती ,मैं खाना नहीं खाऊंगी।
मां हारकर हट गयीं,पर खाना उनके मुंह में भी 
नहीं गया । वे कमली को बहुत प्यार करती थीं।
              कमला को उसकी मां प्यार से कमली बुलाती थीं । कमली एक सीधी-सादी सी ,दुबली पतली और लम्बे कद की लड़की थी । सूरत के साथ ही साथ  उसे सीरत भी खूब मिली थी  ।मां के घरेलू कामों में हाथ बंटाने के साथ ही साथ वह पढ़ने में भी बहुत ही होशियार थी । हमेशा अव्वल दर्जे से पास होती थी । उसे
केवल पढ़ाई से ही मतलब होता था ।कभी भी
किसी चीज के लिए जिद नहीं करती थी । मां
तो उसे बहुत ही प्यार करती थी पर पिता के
दिमाग में जाने क्या था की वह उन्हें बोझ ही
नज़र आती थी ।उनको लगता था कि लड़की को जल्दी से जल्दी ब्याहकर उसके घर भेज देना चाहिए । उनके इस सोच में सहायक थी
उनकी माता जी । उनका हमेशा यही कहना होता की लड़की पराया धन है ,उसे जल्दी से जल्दी ब्याहकर उसके घर भेज देना चाहिए।
बहुत पढ़ाकर क्या फायदा ,जाना तो प्यारे घर
ही है ।
      अरे कमली की मां , कमली कहां है ?कल कुछ लोग उसे देखने के लिए आ रहे हैं । उससे
कहो ये अनशन छोड़ दें और बात मान लें ।
     आज तीन दिन से उसने कुछ भी नहीं खाया है ,बस रो रही है और तुम्हें बस अपनी पड़ी है ।
कैसे कठोर बाप हो ।
     फिर क्या करूं ? उन लोगों को कैसे मना
करूं ? फिर इतना अच्छा रिश्ता बार थोड़े ही मिलता है ?
     मना कर दो कैसे भी । नहीं करनी अभी उसकी शादी । अभी वह पढ़ेगी ।
फिर मां नाराज़ हो जायेंगी ।
होने दो ,उनको मना लिया जायेगा ।और अगर
अब भी नहीं मानेंगे तो मैं भी अनशन पर बैठ
जाऊंगी ।
चलो देखता हूं ,क्या करना है ।बेटी के अनशन ने उनके कठोर हृदय पर अपना प्रभाव डाल दिया था ।
   बेटा कमली यहां आओ ,देखो तुम्हारे पिताजी
क्या कह रहे हैं ?
हां बेटा यहां आओ । कमली बेटा मैं कल ही तुम्हारा एडमिशन कराऊंगा ।अब खाना खाओ और अपनी मां को भी खिलाओ । इन्होंने भी दो दिन से खाना नहीं खाया है ।
    कमली का मुरझाया चेहरा  फूल -सा खिल उठता है , आखिर उसका अनशन जो सफल हुआ था। वह मां से लिपटकर रो पड़ी । ००
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क्रमांक - 006                                                         

स्वच्छता से भारत महान 
                                               - डॉ मंजु गुप्ता 
                                                 मुंबई - महाराष्ट्र

सुबह के समय  समाज सेवी ,स्वच्छता प्रेमी सरला बालकॉनी में बैठी चाय की चुस्की  के बाद मोबाइल पर उगते सूरज को कैद कर रही थी ।तभी उसने देखा कि उसके पड़ोसी संजय ने अपनी आलीशान मर्सिडीज कार सोसाइटी के मुख्य द्वार से बाहर निकाल के कार  की खिड़की का शीशा नीचे कर के मुँह से ऐसी पान की  पीक मारी ।जो वहीं से गुजर रही पूजा की थाली लिए विधवा की सफेद साड़ी को रंगीन कर गयी । 
   उसी क्षण  सरला ने इस नजारे  का वीडियो बना लिया और   ये पीक के दागों का कलंक सरला को सार्वजनिक इमारतों  का स्मरण करा रहा था । जहाँ ये दाग आसानी से दिख  जाते हैं ।
    हक्की -बक्की विधवा के हाथ से थाली गिर गयी और अप्रत्याशित  पीक की दिशा की ओर देखने लगी । कार उसकी निगाहों से ओझल हो गयी ।
  मायूस विधवा ने ऐसा महसूस किया कि पीक की गंदी झूठन   पर्यावरण , परिवेश , सड़क और साड़ी को प्रदूषित कर के संक्रामक बीमारी को बुलावा दे रही हो और देश के स्वच्छता अभियान को अँगूठा दिखा 
रही हो ।
      संजय की ऐसी ओछी आदत  ,गन्दी हरकत भविष्य में  फिर न हो , सबक सिखाने के लिए नैतिक उत्साह के संग  सरला शाम को  संजय के घर गयी ।
कॉलबेल बजाते ही संजय ने सरला का मुस्कुराते हुए स्वागत कर सौफे पर बिठा के पूछा , "  भाभी जी , आज अचानक कैसे  आना हुआ ?" 
"  संजय , आपने सुबह अपनी आदत से मजबूर जो गलत काम किया है । उसी  आदत को सुधारने के लिए  आयी हूँ ।"
" अरे भाभी जी ! मैंने कुछ भी गलत नहीं किया है । आप यह कैसा इल्जाम लगा रही हो । "
गंभीरता से सरला ने कहा , "   देखिए यह आपकी वीडियो ।"
" ओह !  सो सॉरी ।"
" संजय अभी आपको स्वच्छता के प्रति संकल्प लेना होगा । जिससे पीक मारने की आदत से छुटकारा पा सकें । पर्यावरण , परिवेश स्वच्छ , साफ - सुथरा रहेगा । जिससे स्वच्छ रहेगा भारत और स्वस्थ रहेंगे हम ।
स्वच्छ भारत से ही भारत महान है ।
स्वच्छता ईश का स्वरूप है । " 
    " हाँ !, भाभी जी आपने तो मेरे तन - मन की आँखें खोल के अंतस - बाहर की सफाई कर दी । "
तभी दूरदर्शन से 
  " स्वच्छता की ज्योत जलानी है "   गाना  वातावरण में गूँज रहा था । **
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क्रमांक - 007                                                         
                            पांच हाथ                              

                                               - रुबी प्रसाद
                                       सिलीगुड़ी  - पश्चिम बंगाल

"राजेश तुम दूसरी शादी कर लो" , हम्म !
"तुम मुझे छोड़ दो" ,हम्म !
"मुझे मेरे माता पिता के पास छोड़ आओ और तुम एक नई जिन्दगी शुरु करो" हम्म !
"  तुम सुन भी रहे हो मैं क्या कह रही हूँ  " ?
अरे हाँ बाबा हाँ , सब सुन रहा हूँ एक मिनट ! लो बन गये तुम्हारे बाल जरा देखो आइने में फिर बताओ कैसे बनाये मैनें ।
नहीं देखना मुझे तुम रोज ही मेरी बात टालते हो मैं क्या बोलती हूँ क्या चाहती हूँ तुम्हें कोई फर्क नहीं पड़ता । इतना कहते नीतू की आँखो से झड़ झड़ आँसू गिरने लगे । जिन्हें देख राजेश पहले तो मुस्कुराया फिर बोला "नीतू देखो " हम्म!
आँसू तो ना रुके पर उसकी इस चिढ़ाने वाली अदा पर प्यार जरुर आ गया उसे । थोड़ा करीब जाकर राजेश ने नीतू के चेहरे को दोनों हाथों से थाम ललाट को चूम कर लिया और कहा _
"चलो मान ली तुम्हारी बात ,चलो करते है फिर से शादी बहुत दिन हुए तुम्हें लाल सुर्ख जोड़े में देखे" । 
धततततत् कह शरमा सी गयी नीतू । 
फिर थोडी देर बाद बोली "तुम समझते क्यों नहीं राजेश ,मेरे साथ रहकर तुम्हें क्या मिलेगा" ?  उस ट्रेन हादसे के बाद मैनें अपना एक हाथ गंवा दिया । मैं अपाहिज हूँ मैं तुमपर सिर्फ एक बोझ हूँ और कुछ नहीं ।
कहकर सिसकने लगी । रोते रोते बोली,
"मैंने तुम्हें कोई सुख नहीं दिया उल्टा तुम्हारा बोझ बढा दिया । " मौत भी तो नहीं आती मुझे " ।
हो गया, बोल लिया तुमने । मैं कभी दूसरी शादी नहीं करुंगा क्योंकि तुम ही मेरा जीवन हो । जहाँ तक रही सुख की बात तो तुमने मुझे वो सुख दिया हैं जिसका मैं कर्जदार हूँ । तुमने मुझे पिता बनने का सुख दिया है पगली । उस हादसे को तीन साल हो गये भूल जाओ वो सब । बस याद रखो मैं तुम और हमारा आने वाला मेहमान ।
खुश रहा करो क्योंकि तुम्हारे गर्भ में एक फूल पनप रहा हैं ।
गर्भ में भले ये तुम्हारे हैं पर ये हर पल मेरे मस्तिस्क में रह रहा हैं बहुत कुछ सोचा हैं इसके लिए जानती हो मैं तो रोज ही खेलता हूँ अभी से इसके साथ सपनों में ।
"क्यों सोचती हो तुम्हारे बस एक हाथ हैं तुम अपाहिज हो " ?
अरे पगली हमारे तीन_तीन हाथ है । हम मिलकर पालेंगे अपने आनेवाले बच्चे को । फिर कभी दूसरी शदी की बात ना करना वरना भगा ले जाऊंगा समझी ।
प्यार ही प्यार घुल गया माहौल में फिर धीरे से राजेश ने नीतू को उठाया और शाम की ताजा हवा लेने निकल पड़े दोनों । बाहर निकलते वक्त पूजा घर की तरफ देख नीतू ने मन ही मन माता की प्रतिमा को नमन करने लगी । इतनी ढेर सारी  खुशियों और उस आने वाले नये जीवन के लिए जो उसके गर्भ और राजेश के मनोमस्तिष्क में पल बढ़ रहा था जिसके आने से नीतू के पांच हाथ हो जाएंगे । **
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क्रमांक - 008                                                          
                    उधार का दुख                             
                                                  - मधु जैन
                                             जबलपुर - मध्यप्रदेश

शशांक आफिस से दोस्त रमन के घर चला गया था। घर आते ही उसने आवाज लगाई "रंजना एक गिलास पानी देना।"
"तेरे बाजू में ही पानी रखा है खुद लेकर पी लो उसे क्यों आवाज दे रहा है ?"माँ ने लगभग डाँटते हुए कहा।
आज फिर उसे माँ की यह बात बुरी लगी। पानी पीकर कपड़ें बदले और चुपचाप लेट गया 
"खाना लगा दूँ।"रंजना ने पूछा
"नहीं, मुझे भूख नहीं है।" कहकर टीवी देखने लगा पर भूखे पेट भी भला किसी चीज मेंं मन लगता है। मन भटकने लगा जब से उसकी शादी हुई है माँ बदल गई है। अब वह उसकी नहीं रंजना की माँ बन गई है। रमन के यहाँ ही देखो रमन बीबी को कैसे आर्डर देता है। और उसकी माँ भी हमेशा रमन का पक्ष लेकर बहु को डाँटती रहती है।और एक मेरी माँ......मन खट्टा हो गया।
वह अपना गुस्सा बेवजह रंजना पर ही निकालता।
"शशांक.. "माँ ने आवाज दी।
"क्यों बुलाया ? कुछ काम है।" रुखे स्वर में पूछा
"हाँ, बैठ यहाँ। एक बात बता, तूँ इतना उखड़ा- उखड़ा क्यों रहता है? बहुत बदल गया है आजकल।"
"मैं नहीं, माँ आप बदल गयी हो। आप मेरी नहीं उस पराई रंजना की माँ बन गई हो।"
"ओह! तो ये बात है। बेटा वह पराई नहीं इस घर का हिस्सा और तेरी जिन्दगी हैं।"
शशांक का हाथ अपने हाथ में लेकर "तुझे बहुत बुरा लगता है मैं रंजना को प्यार करती हूँ।"वह सिर्फ तेरे लिए अपनी माँ, पिता, भाई-बहिन को छोड़कर आई है।"
"सभी आते हैं।"
"तूने तो बॉटनी पढ़ी हैं। एक पौधे को जब दूसरी जगह रोपा जाता हैं तो उसे पनपने के लिए विशेष देखरेख की जरूरत होती है।"
अचानक शशांक लगा जैसे कमरे में रोशनी बढ़ गयी हो।
"तेरी तो माँ हूँ ही ,उसकी माँ बनने की कोशिश कर रही हूँ, ताकि मेरे बारे में बात करते समय यह न कहे तुम्हारी माँ,बल्कि कहे हमारी माँ।"
खाने की थाली लाते हुए "चल अब खाना खा ले।"
खुश होते हुए "अरे! यह तो सब मेरी पसंद का है।"
"रंजना ने बनाया है।"
"लेकिन उसने तो कुछ नहीं कहा।" 
"तूने मनाकर दिया खाने को और तू रमन के यहाँ से आया है तो समझी होगी खाकर आए हो।"
"पर आप माँ.."
सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए "माँ अपने बच्चे के पेट और दिल को बहुत अच्छे से पहचानती है। कहकर एक कौर उसके मुँह की और बढ़ाया। 
मैं भी जानता हूँ, आपने भी अभी तक खाना नहीं खाया होगा।" कहकर कौर माँ की ओर बढ़ाया।
अब दोनों एक दूसरे को खिला रहे थे भीगे हुए आँखों के
कोरों से। 
उधार का दुख दूर खड़ा मुस्कुरा रहा था। **
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क्रमांक -009                                                     
                           "एक घूंट जिन्दगी "                                
                                            - अपर्णा गुप्ता 
                                         लखनऊ  - उत्तर प्रदेश

 हेलो अंकल "कैसे है आप देखिये आपकी किताब छप चुकी है" 
 किताब विनम्र जी के हाथ में रखी तो खुशी के मारे उनका गोरा रंग लाल हो गयाऔर आँखे नम ।
सुरेन्द्र अंकल  ,अन्ना काका  ,गीता आंटी  ,दादू और दादी सबने मिलकर तालियां बजाई तो अभिभूत होकर विनम्र जी ने सबको सैल्यूट किया "आज तो पार्टी पक्की रमन  बताओ कंहा खाना खाओगे आज" तारिका रेस्टोरेन्ट " दादु दादी ने एक साथ कहा तो सब ठटाकर हंस पड़े
 तभी रमन का मोबाइल बजा........
 पत्नी मनीषा ने कहा ........"कहाँ हो रमन बहुत देर से फोन लगा रही हूँ ।"
 "अरे यार एक पैग लगा रहा हूँ जिन्दगी का"
क्या ?........ ।तुमने पीना शुरू कर दिया वो भी दिन में..........?
"हाँ जानेमन अगर तुम्हे भी पीना हो तो आज शाम आना मेरे साथ यंहा...... ओके बाय"..... आ रहा हूं...  ..
कहकर उसने सबके पैर छुयें और वृद्धाश्रम से बाहर निकल गया । **
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क्रमांक - 010                                                         
   हिस्सा 
                                                  - अमृता सिन्हा 
                                                    पटना - बिहार 

       बड़े भईया ने तार देकर छोटे को गाँव बुलाया था। वैसे तो दोनों भाईयों में ज्यादा पटती नहीं थी, पर आज मामला कुछ अलग हीं था। विधवा बहन ने जमीन-जायदाद में हिस्सा जो माँग लिया था। 
सुबह सुबह हीं दालान में बैठकी लग गयी। चाय की चुस्की के साथ घर के सभी मर्द गहन मंत्रणा में जुट गए। 
"जीजाजी जब जिन्दा थे, तब तो खूब ऐश किये उलोग। जेतना कमाये सब खा-पी के उड़ा दिये। उनके बीमारी में पहिले हीं केतना खर्चा हो गया। अब का पाँच-पाँच बेटी के ब्याह-शादी का भी बोझ हम्हीं लोग उठाएं।" बड़े भइया ऊँची आवाज में बोले जा रहे थे।
"मँझली का चिठ्ठी आया है बाबूजी के पास। लिखती है कि बाप-दादा का एतना जमीन-जायदाद है, अगर कुछ बीघा जमीन उसके नाम कर देंगे तो किसी के आगे हाथ फैलाने का जरूरत नहीं पड़ेगा।" 
भईया ने पोस्टकार्ड छोटे को दिखाते हुए कहा।
"अब तुम हीं बताओ, अगर मँझली को हिस्सा देंगे तो क्या बाकी दोनों चुप रहेगी। पुरखों के जमीन का बंदरबाट ना हो जाएगा।"
"भईया, हम तो कहेंगे कि सबसे बातचीत कर के मँझली दीदी को हिस्सा दे हीं देते हैं। बार बार की किच-किच से तो यही अच्छा है। रहा बड़की दीदी और छोटकी दीदी का बात तो उलोग को तो कोई दिक्कत है नहीं, तो उलोग काहे मांगेगी हिस्सा।" 
तभी दरवाजे की ओट से सबकी बातें सुन रही बड़े भईया की पत्नी तपाक से बोल पड़ी, "ना-ना, अइसन गजऽब मत करीं लोग। गाँव में पटिदारन के कौनो कमी बा का जे एगो अउर पटिदार खड़ा करे के चाहताऽनी। अरे हम त कहब कि बेरा बखत उनका अनाज-पानी भेज दिहल करीं। रहल बेटीयन के बियाह त ओइमें दुनो भाई मिल के पईसा-कौड़ी से मदद कर देऽब। ना त आज जे हाथ जोड़ के मांगता आगे उनका आँख तरेरे में देर ना लागी।"
"दुल्हिन ठीके कहऽतारी, जमीन में से हिस्सा देबे के कौनो जरूरत नईखे।" अभी तक चुप बैठे बाबूजी ने अपना फैसला सुना दिया। **
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क्रमांक - 011                                                     

आशीर्वाद          
                                 - डा०भारती वर्मा बौड़ाई
                                     देहरादून- उत्तराखण्ड

         वेदांत का  घर बन कर तैयार हो चुका था। पंडित जी ने गृहप्रवेश की तिथि भी बता दी थी।
          वेदांत के माता-पिता एक कार-दुर्घटना में  मारे गए थे इसलिए वेदांत ने अनाथालय में रहने वाली पूर्वा से विवाह किया था। दोनों को सादगी से रहना बहुत पसंद था। एक प्यारा सा बेटा और एक बेटी थी। सब कुछ था, पर घर में किसी बड़े का न होना दोनों के दिल को कचोटता था। इसीलिए दोनों अधिकतर बच्चों को लेकर स्मृति कुंज और प्रेमधाम में जाया करते थे। एक वृद्धा और एक वृद्ध से तो इतनी आत्मीयता हो गयी थी कि वे उन्हें अपने माता-पिता सरीखे लगने लगे थे।
               निर्धारित तिथि आ पहुँची। पंडित जी भी आ चुके थे। तभी चार बड़ी गाड़ियाँ आईँ जिनमें स्मृति कुक और प्रेमधाम के सभी वृद्ध और वृद्धाएँ उतरें। वेदांत और पूर्वा दोनों ने बड़े आदर से उन्हें  घर में  बैठाया। पूजा सम्पन्न हुई। सबको आदर से भोजन करवाया, सबको उपहार,फल, मिठाई दी। सबने जी भर आशीष दिया। इतना मन-सम्मान तो उन्हें अपने घर में भी नहीं मिला था। 
             सबको वापस छोड़ने के बाद वो उन आई-बाबा  के पास पहुँचे और कहा....” आई! बाबा! चलिए अपने घर चलें।”
         घर पर दोनों बच्चे माला लिए खड़े थे। माला पहना कर.... आज से आप ही हमारे दादा-दादी और नाना-नानी दोनों”... कहते हुए उन्हें अंदर ले गए।
            आई-बाबा के आशीर्वाद और साथ से आज वास्तविक गृहप्रवेश हुआ था। **
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क्रमांक -012                                                      
बेबस 
                                                 - डॉ आदर्श
                                            उधमपुर - जम्मू कश्मीर

     सावन लग गया था । सुनीता ने कितनी चिट्ठियाँ लिखीं , फ़ोन करवाए लेकिन मनु को ससुराल वालों ने मायके न भेजने की क़सम सी खा रक्खी थी ।शादी को दो बरस होने को हो आय , लेकिन उनका दिल न पसीजा । 
उसे पता है मनु सुखी नहीं है । कितना रोका था मनु के बापू को उसने । शादी से पहले ही खटक गया था उसे यह रिश्ता ।शुरुआत ही लालच से हुई थी । पूरे दस लाख माँगे थे उन्होंने नक़द । लड़का पोस्ट ऑफ़िस में क्लर्क था ।उन्होंने तो टाल ही दिया था , लेकिन मनु पसंद आ गई थी दिवाकर को , सुंदर जो थी ।पढ़ी थी एम .ए , बी एड ।लेकिन वह दोनों हाथों में लड्डू चाहते थे । पैसा भी , अच्छी शादी भी और पढ़ी लिखी सुंदर लड़की भी ।आख़िर तय यह पाया गया कि पाँच लाख नक़द देंगे और दो लाख ब्याह में ख़र्च कर देंगे ।
बारात आ लगी । ख़ूब ख़ातिर तवज्जो हुई । लेकिन योजनानुसार लड़का मंडप में पसर गया मोटरसाइकिल चाहिए । इतने पैसे कहाँ थे मनु के बापू राजन के पास । फ़ौज से नायक के पद से पैंशन आया था । थोड़ी बहुत ज़मीन और पैंशन से गुज़र -बसर चल रही थी । अभी छोटी लड़की राधा और बेटा मनोज , थे जो पढ़ाई कर रहे थे । वह इस ब्याह में अपनी सारी जमा पूँजी लगा चुका था । नाते रिश्तेदारों के सामने उसकी नज़रें नीचीं हुई जा रहीं थीं । राजन , दिवाकर और उसके पिता को बिचौलियों के साथ एक तरफ़ एकांत में ले गया और उन्हें अपनी मजबूरी का वास्ता दिया , रोया गिड़गिड़ाया । आख़िर जब वह नहीं माने तो थक -हार उसने वायदा कर लिया कि एक बरस के अंदर ही अंदर वह मोटरसाइकिल दिवाकर के दरवाज़े पर लाकर खड़ी कर देगा । 
बारात तो लड़की के साथ विदा हुई , लेकिन राजन अपना वायदा पूरा न कर सका । करता भी कैसे ? फ़सल ही न हुई । बारिश पहले तो हो के न दी , और जब हुई तो इतनी कि सब बह गया । पेंशन से पूरे घर का अपना ही गुज़ारा न चल पा रहा था । राजन ने दिवाकर को जाकर और फ़ोन पर हालात बतलाते हुए समझाया भी कि अगली फ़सल पर वह अपना वायदा पूरा कर देगा , लेकिन वहाँ से जवाब में एक चुप्पी ही मिलती चली गई । 
उधर सुनीता बेटी के लिए छटपटाने लगी । वह समझ नहीं पा रही थी कि कैसे बेटी को घर बुलाय । रोते रहने के अलावा उसे कुछ सुझाई ही न देता ।उसका स्वास्थ्य गिरने लगा था । भूख लगती ही न थी । मुहल्ले कि सब औरतें मनु के बारे में जब लगातार पूछतीं , तो उसको कोई सही उत्तर न सूझता । बच्चों की सुध भी वह ठीक से न ले पा रही थी । 
 उस दिन सुबह -सुबह वह आँगन बुहारती दरवाज़े तक आई , तो एक टक देखती ही चली गई ।धवली गैय्या अपनी बेटी को चुंघा रही थी । बेटी भी छोटी नहीं , उसके आगे तीन बरस में तीन बछड़े हो चुके थे । लेकिन माँ का दूध चूंघने में उसे पूरा आनंद आ रहा था । उसके थनों से दूध निकल -निकल कर धरती पर भी टपक रहा था । धवली पूरे मनोयोग से अपनी बेटी को चाटे चली जा रही थी । **
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क्रमांक - 013                                                       
   परम्परा

                                                   - नेहा शर्मा
                                              अलवर - राजस्थान

         गांव के बच्चों की एक टोली काफी देर से बस स्टैंड पर टकटकी लगाए हुए बैठी हुई थी। तभी एक बस जो दिखने में बहुत अच्छी तो नहीं लेकिन लोगों को यातायात की सुविधा मुहैया करवा सके बस स्टैंड पर आकर रूकती है। सभी सवारियों के उतरने के बाद लाल रंग की साड़ी पहने हुए माथे पर एक बड़ी- सी बिंदी लगाए हुए रज्जो बुआ बस से नीचे उतरती है। घंटों से पलके बिछाए हुए बैठी बच्चों की टोली दौड़ती हुई रज्जो बुआ के पास आती है और एक के बाद एक सभी बच्चे रज्जो बुआ के चरणस्पर्श करते हुए आशीर्वाद लेते हैं।
रज्जू बुआ अपने मुंह में चबा रही पान का आखिरी निवाला गले से नीचे उतारती हुई बोल पड़ती है- "जुग जुग जियो मेरे बच्चों। हमेशा की तरह मुझे लेने सबसे पहले आए हो मेरे नटखटों।"
यह कहते हुए रज्जो बुआ सभी के माथे को बड़े प्यार से सहलाती है।
बच्चे रज्जो बुआ का सामान उठाकर घर की तरफ बढ़ चलते हैं।
रज्जो बुआ घर की कुंडी को जोर से खटखटाती है और बाहर डल रही चारपाई पर जाकर बैठ जाती है। रज्जो बुआ अपने बैग को खोलकर उसमें से कुछ मिठाईयां निकालकर सभी बच्चों को बांटती है। इतने में नीरू पानी का गिलास लेकर आती है और रज्जो बुआ के पैर छूती है। भतीजा रोहन बुआ के सामान को अंदर रखता है।
बुआ घर की दहलीज पार करते हुए थोड़ी भावुक हो जाती है। क्योंकि यह पहला सावन होगा जब बुआ बिना मां के अपने मायके पहुंची है। हर सावन रज्जो बुआ बचपन की यादें ताजा करने अपने मायके आ जाती है। लेकिन बुआ मन में थोड़ा धीरज रख कर घर के अंदर प्रवेश करती है।
दो दिन रहने के बाद बुआ बाहर चारपाई पर बैठी पान चबा रही थी कि तभी उन्हें कुछ जोर- जोर की आवाज सुनाई देती है। बुआ अंदर की ओर झाँकती है, तो सुनती है कि नीरू रोहन से कह रही थी कि- "आखिर बुलाया किसने था रज्जो बुआ को। दो दिन से यही है जाने का नाम ही नहीं ले रही है। जब उनकी मां ही नहीं है तो उनका यहां आने का क्या फायदा।"
यह शब्द बुआ के हृदय में किसी कांटे की तरह चुभ गए। बुआ चारपाई पर धम्म से गिर जाती है और उनकी आंखों से आंसू की धारा लगातार बहती रहती है।
बुआ मन ही मन सोचती है कि -"मैं तो यहां माँ की परंपरा को निभाने आई थी। माँ ने हमेशा मुझसे हर सावन गांव आने का वादा जो लिया था। उनके मुताबिक तो घर की रौनक बहन- बेटियों से ही बढ़ती है। लेकिन यहां तो कुछ और ही है। सहसा रज्जो बुआ चारपाई पर से उठ खड़ी होती है और अपना सामान उठाकर चल पड़ती है। तभी अचानक पीछे से बुआ की साड़ी के पल्लू को कोई खींचता है। बुआ पीछे मुड़ती है, तो देखती है कि बच्चों की टोली बुआ का पल्लू थाम कर खड़ी हुई थी।
और बच्चों की यह टोली समवेत स्वर में बोल पड़ती है -"अरे बुआ सावन से पहले ही चली जाओगी क्या। माँ की परंपरा निभानी है या नहीं। देखो तुम्हारे लिए झूला डलवाया है।"
रज्जो बुआ और बच्चे झूले को एकटक निहारते हैं। और बुआ बच्चे के सिर पर हाथ फेरती हुई आगे बढ़ती है।
रज्जो बुआ और बच्चे झूला झूलते हुए सावन के सूखद सपने में कहीं खो जाते हैं। **
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क्रमांक -014                                                            
                         कालिया का चुनाव                        

                                              - बीजेन्द्र जैमिनी
                                              पानीपत - हरियाणा

        मां अपने मकान में घुसती है । तभी लड़का दौड़ता हुआ आता है -

     " मम्मी - मम्मी ! कालिया अकंल आये थे । जो चुनाव में खड़े है । दो हजार रुपये दे गये है । कहँ रहे थे । वोट मुझे ही देना । नहीं तो जिन्दा नहीं रहोगे ।"

     " नहीं बेटा ! कालिया को वोट नहीं देगें । इसने चार - पांच हत्या कर रखीं हैं । अब तो पुलिस पकड़ भी लेती है । चुनाव जीतने के बाद तो पुलिस भी नहीं पकड़ेगी । नहीं बेटा ! किसी कीमत पर कालिया को वोट नहीं देगें । चाहे कुछ भी हो जायें । " 

     देखते - देखते कालिया चुनाव हार जाता है । अगले दिन हत्या के अपराध में पुलिस , कालिया को पकड़ लेती है। परन्तु हाई कोर्ट से जमानत मिल जाती है । हर कोई कालिया से घबराया हुआ है । चुपचाप एकत्रित हो कर जीतने वाले नेता से मिलते हैं । नेता आश्वासन देता है कि इस समस्या को समाधान शीध्र निकाल लिया जाऐगा । परन्तु आप सब इतने  सावधान रहें ।

     कालिया की कोर्ट की तारीख टूट जाती है । कोर्ट के आदेश पर पुलिस छापेमारी शुरू कर देती है । परन्तु कालिया पुलिस की गिरफ्त में नहीं आता है। एक दिन पता चलता है कि पुलिस की मुटभेड़ में कालिया मारा जाता है। **
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जानवर और इंसान
                                              - प्रेरणा गुप्ता 
                                           कानपुर- उत्तर प्रदेश

    आज सुबह से ही घर में मातम छाया हुआ था। बर्तन की उठा-पटक से साफ पता चल रहा था कि घर वाले अभी भी दुखी और नाराज हैं। बिचारा मैंडी, च्च ...!
     अचानक छत के ऊपर से गप्पू बंदर कूदता-फाँदता पेड़ की डाल पर आ बैठा । मैंडी को जंजीर से बँधा देखकर वह चौंक पड़ा। पहले तो उसने अपने कान खुजलाए, फिर पेट। और फिर जोर-जोर से पेड़ की डालियाँ हिलाने लगा।
     झड़ती हुई पत्तियाँ खुद पर गिरते देख, मैंडी ने निगाह उठाकर ऊपर की ओर देखा, जहाँ डाल पर बैठा, गप्पू भी उसी को देख रहा था।
उसके मुख से एक दुख से भरी गुर्राहट निकाल पड़ी । और गहरी-गहरी साँसें भरने लगा।
गप्पू से अब रहा न गया। उसने इधर-उधर देखा और टहनियों पर झूला झूलता, सर्र से नीचे उतर आया।
"ऐ मैंडी, सुनो, आज तुम्हें इस तरह से बाँधकर क्यों रखा गया है?"
उसकी आँखें नम हो गयीं । 
"अरे ! कुछ तो बोलो दोस्त, तुम्हें इस तरह दुखी देखकर मुझे जरा भी अच्छा नहीं लग रहा। आखिर हुआ क्या?"
मैंडी ने अपने कान हिलाए और पूँछ में भी हल्की-सी हरकत की। 
"क्या कहूँ? मैं इंसानों की नजर में कुत्ता जरूर हूँ, मगर सच बताऊँ, हमारा वो पड़ोसी है न, असली कुत्ता तो वही है।"
"ओह ! मुझे भी उसकी हरकतें कभी भी सही नहीं लगीं। वैसे किया क्या उसने?"
"उसकी वजह से आज सोना दीदी भी मुझसे नाराज हैं। उन्हें तो मेरी बात समझ में ही नहीं आती .. । मालूम, ये पड़ोसी का बच्चा, हमारी सोना दीदी को गंदी नजरों से देख रहा था।"
"उसकी ये मजाल ! मैं अभी उसे खों-खों करके डरा कर आता हूँ।"
"अरे, अभी तो वह अस्पताल गया हुआ है । दरअसल मैंने उसे काट लिया था न, इसीलिए तो ये सजा मिली है मुझे।"
"हा हा, ये तो तूने बहुत ही अच्छा किया यार ! मेरा तो मन हो रहा कि मैं भी काट खाऊँ। ताकि आदमी की इस औलाद को एक नहीं, दो-दो तरह के इंजेक्शन लगवाने पड़ें। एक कुत्ता काटे का, दूसरा बंदर काटे का।"
"मगर एक बात कहूँ, जब से मैंने उसे काटा है, मेरे दाँत में बहुत तेज दर्द हो रहा ।"
"अरे दिखा तो सही, खोल अपना मुँह। देखूँ, क्या बात हुई?"
और वह किसी डेंटिस्ट की तरह उसके दाँतों की जाँच-पड़ताल में लग गया।
"हम्म तो ये बात है ! तेरे दाँत में तो उसका खून लगा दिखाई पड़ रहा है। लगे है कि तुझे उसका इंफेक्शन लग गया। हम सबके काटे का तो खूब इंजेक्शन बनाया इंसानों ने और इंसान के दिए इंफेक्शन का क्या?"
"तुम सच कहते हो ! मैं तो सोचता था कि, काश ! मैं सोना दीदी का भाई बन कर पैदा हुआ होता। लेकिन भगवान ने मुझे कुत्ता बनाकर उसके पास भेजा।"
"अरे, पगला गया है क्या रे? हम कुत्ते, बंदर ही अच्छे, इंसान होते तो हमें भी उनकी तरह कानून के दायरे में रहना पड़ता।”
“तू सही कहता है यार ! वाकई ! ये इंसान कितने जटिल होते हैं ! वर्ना, जंगलों में भी कभी जानवरों के लिए कोई कानून बना है क्या आज तक?" **
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क्रमांक - 016                                                             
                                नियम                                 
                                              - वन्दना पुणतांबेकर
                                               इन्दौर - मध्यप्रदेश
                                          
आज मेघा पूरी रात सो न सकी।उसने सारी रात करवट बदलते काटी।सुबह का अलार्म अपने समय पर बज उठा।अनमने मन से मॉर्निंग वॉक पर निकल पड़ी।बारिश की हल्की फुहारे मौसम को खुशनुमा बना रही थी।रास्ते मे आज खामोशी पसरी हुई थी।कोई भी नजर नही आ रहा था।
मेधा ने देखा। कि सामने से गुप्ता जी की पत्नी अपने वजनी शरीर के साथ धीरे-धीरे चली आ रही है।हमेशा की तरह आज भी वही बात-"मेघा तुम तो कभी मोर्निंग वॉक करना नही भूलती,नियमो के अनुसार ही चलती हो,चाहे कोई भी मौसम हो।मेघा हँसकर बोली,जीवन मे नियमो का पालन ही स्वस्थ और सही राह दिखता है।वह मुँह बनाकर बोली,-"मेरा तो कोई नियम वियम नही है जब मन चाहता है, तब वॉक कर लेती हूं।चेहरे पर एक सवालिया मुस्कान बिखेरकर मेघा बोली,-"हमारे यहां नियमो का ही तो उल्लंघन होता हैं।तभी तो अनियमित रूपरेखा से देश के किसी भी कार्य मे प्रगति समयनुसार नही हो पाती।आखिर वह एक सरकारी मुलाजिम की बीवी जो ठहरी। मेघा की बात सुन निरुत्तर हो आगे बढ़ गई। **
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क्रमांक - 017                                                          
                        तमसो माँ ज्योतिरगमय                         
                                            - ज्योत्स्ना ' कपिल '
                                               हापुड़ - उत्तर प्रदेश

        घने अंधकार में अवसाद की अवस्था में वह रेल की पटरी के बीच चलता जा रहा था। एक-एक पल मुश्किल से गुज़र रहा था। कभी घड़ी देखता, तो कभी पटरी के दोनों ओर। कब से किसी ट्रेन के गुजरने का इंतज़ार कर रहा था, पर न जाने क्यों कोई ट्रेन आ ही नहीं रही थी। सुबह होने से पहले ही कोई ट्रेन आ जाये। नहीं तो प्लेटफार्म पर भीड़ बढ़ जाएगी। फिर शायद अपने मक़सद में कामयाब न हो पाये। 
      मन में बेचैनी लिए अपने संकल्प को दोहराता हुआ वह आगे बढ़ता जा रहा था। जीवन के प्रति मायूसी के बादल इस कदर गहरा गए थे कि अब उसे ज़िंदगी का कोई अर्थ नजर नहीं आ रहा था। उसके पाँच वर्ष पुराने प्रेम सम्बन्ध का समापन हो गया था। धन का पलड़ा सच्चे प्रेम से भारी हो गया था। 
      उसने पुनः घड़ी देखी। तभी दूर से उसे ट्रेन आती नज़र आयी। पल भर को वह काँप उठा, फिर जी कड़ा करके ट्रेन के आने की दिशा में मन्थर गति से चल दिया। बस कुछ ही पल की दूरी... फिर सब समाप्त हो जाएगा।
     ‘‘...अरे!’’ वह चौंका, एक सात-आठ वर्ष का छोटा बच्चा बेपरवाह होकर पटरियों पर चला जा रहा था।
      ‘‘ए बच्चे, हट जाओ, ट्रेन आ रही है।’’ वह पूरी ताकत से चिल्लाया। पर बच्चे ने नहीं सुना, वह न जाने किस धुन में था।
      अब उसके दिल की धड़कनें तेज हो गईं। 
     ‘‘इसे बचाऊँ या अपनी जीवनलीला समाप्त करूँ।’’ उसने स्वयम् से प्रश्न किया।
     ‘‘बहुत इन्तज़ार के बाद तो वह पल आ रहा है जिसका मैं बेचैनी से इंतज़ार कर रहा था। इसे यूँ ही नहीं जाया कर सकता। पर वह बच्चा? कैसे माँ बाप हैं, अपने बच्चों का ध्यान भी नहीं रख सकते।’’ ट्रेन पास आती जा रही थी। वह बेचैनी से इधर-उधर देख रहा था। बच्चे का नामो निशान अब मिटने ही वाला था...
     वह चीते की फुर्ती से लपका, और बच्चे को लिए हुए पटरी के पार लुढ़क गया। धड़धड़ाती हुई ट्रेन वहाँ से गुज़र गई। अपनी बिफरी हुई साँसों को काबू में करते हुए उसने बच्चे को सीने से लगा लिया। बच्चा भी सहमकर उससे बुरी तरह चिपक गया था। धाड़-धाड़, दोनों की तेजी से चलती धड़कनें उसे साफ़ सुनाई दे रही थीं।
      ‘‘आज नया जन्म हुआ है इस बच्चे का।’’ वहाँ एकत्रित हो गए दो-चार लोगों में से किसी की आवाज़ आयी।
      ‘‘बच्चे का या मेरा?’’ वह हौले से बड़बड़ाया। दूर आसमान में सूरज ने आभा बिखेर दी थी। **
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क्रमांक -  018                                                               
                        न्यूनतम-समर्थन-मूल्य                            
                                                        - अनिल अयान
                                                      सतना - मध्यप्रदेश

कलुआ धान की फसल बेंचकर घर लौटा तो उसकी मेहरारू ने लोटा भर पानी देते हुए पूंछ बैठी 
"का रमुआ के बापू बिक गयी फसल? कितना मिला मंड़ी से" 
"अब तुम्हे का बताएं चार दिन बिताय के  तौल मिली। ससुरा कौनो सुनतै नहीं रहा। तीन दिन हांँथ पैड़ जोडे हम। " कलुआ ने पानी गटकते हुए कहा।
"तब तौ जो रूपिया कौडी तुम लिए रहे वहौ खरच दिये हुइहौ।" मेहरारू ने कहा 
"कुछू फायदा न भया तो एक पल्लेदार का 100 रूपैया देन पड़ा। तब जाकर तौली गयी धान! ५० रूपिया के हिसाब से बिकी है थस क्विंटल।" कलुआ ने कहा
"तुम तौ कहत रहो कि 175 के हिसाब से बिकी। न्यूनतम समर्थन मूल्य सरकार लागू करिस ही। या कैसन हिसाब आय।" मेहरारू निराश हुई गयी।
"अब का बताई इ फसल मा इतना खर्चा है कि या तो चुकावैं मा लग जई। बनिया के यहां तो कुछ ज्यादै मिल जात।" कलुआ को रूलाई छूट गई।
"अब ता चना बोवा तुम और बनिया का बेंचा। मंड़ी ता ससुरी लूट लिहिस हमका। या मंडी नासकाटी पढ़े लिखें वाले के खातिर आय। हमरे खातिर नहीं।" मेहरारू ने समझाया।
" अब हमै समझ आय गा बनिया तो हम पंचन का समझत है और तुरंत फसलौ लेत है। मंडी मा मूल्य तो कछु नहीं। समर्थन भी नहीं मिलत आय। काहे का न्यूनतस समर्थन मूल्य।" कलुआ ने मेहरारू को ढाँढ़स बंँधाया। **
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क्रमांक - 019                                                                 
                      E=(MC)xशून्य                           
                      
                                      - डॉ. चंद्रेश कुमार छतलानी
                                             उदयपुर - राजस्थान

      एक टीवी चैनल पर दो राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं में बहस हो रही थी। बातों की गर्माहट दर्शकों के दिमागों तक पहुँच रही थी। वहाँ बैठे दर्शक यूनिफॉर्म पहने हुए कुछ विद्यार्थी थे।
एक दल का वज़नी प्रवक्ता ‘अ’ विषय से हट कर बोला, "हम देशभक्त हैं, लेकिन ये जो सामने बैठे हैं वो देशद्रोही हैं।"
सुनकर दर्शकों ने तालियाँ बजाईं।
दूसरे दल का प्रवक्ता ‘ब’ भी नारा लगाने की शैली में बोला, "झूठे लोग हैं ये। ये सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम के बीच कबड्डी खिलवा कर देश को बांटने में लगे हुए हैं।"
दर्शकों की तालियों की ऊर्जा बढ़ गयी।
‘अ’ ने जोशीले स्वर में प्रत्युत्तर दिया, "इन मगरमच्छों ने पिछले कितने ही सालों से देश की जनता को मछली समझ कर निगला है, इनको तो देश से बाहर फैंक देना चाहिए।"
‘ब’ उत्तेजित होकर बोला "तुम लोग तो देश की सेना को भी राजनीति के पिंजरे का तोता समझते हो।"
दोनों की टकराहट से दर्शकों के मस्तिष्क की गर्मी और तालियों की ऊर्जा बढ़ती जा रही थी।
चैनल के ऐंकर के चेहरे पर गजब की गंभीरता थी। वह दोनों की बातों का विश्लेषण कर रहा था, उसका काम एन-वक्त पर टोकना था।
उसी समय वहाँ सेना की वर्दी पहने एक व्यक्ति और दो बच्चों ने प्रवेश किया। दोनों बच्चों ने तिरंगे के रंगों की टोपी और भारत-माँ का मुखौटा पहना हुआ था। वह व्यक्ति मंच पर चढ़ा और प्रवक्ताओं को घूरते हुए बोला, "जात-धर्म-राजनीति हमारी सेना के दरवाजे के बाहर खड़े रहते हैं, हम ही मरने का जज़्बा रखते हुए जनता की रक्षा करते हैं। तुम दोनों ने जो कहा वो सच है तो खाओ हमारे इन भावी सैनिकों, भारत-माँ के बच्चों की कसम..."
दोनों प्रवक्ता खड़े हो गए और उन बच्चों के सिर पर हाथ रख कर कहने लगे, "क्यों नहीं, हम कसम खाते हैं..."
इतना ही कह पाए थे कि दोनों ने झटके से उन बच्चों के सिर से अपना हाथ हटा दिया। बच्चों ने अपना मुखौटा उतार दिया था, वे उन प्रवक्ताओं के ही बच्चे थे।
और दर्शक जाने क्यों ताली नहीं बजा पा रहे थे। **
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क्रमांक - 020                                                         

                        कसम की गांठ                             
                                                     - दर्शना जैन
                                                 खंडवा - मध्यप्रदेश

     सरकारी वकील मि. कैलाश के घर पुलिस आयी और उनके बेटे हरीश के बारे में पूछताछ करने लगी कि वह कहाँ है? उन्होंने पुलिस से पूछा,"आप मेरे बेटे को क्यों तलाश रहे हैं? क्या आपके पास सर्च वारंट है? और फिर किया क्या है मेरे बेटे ने?" पुलिस ने कहा," सॉरी सर, पर शहर के मशहूर बिल्डर मि. रोशन की बेटी ने आरोप लगाया है कि आपके बेटे ने उसके साथ बलात्कार किया है, जाँच तो हमें करना ही पड़ेगी।" हरीश उस समय घर पर नहीं था इसलिये पुलिस यह कहकर वहाँ से चली गयी कि जैसे ही हरीश आये, हमें खबर करियेगा।
     रात नौ बजे हरीश आया तो माँ ने पुलिस के आने की बात बताते हुए पूछा," क्या तुमने ऐसा कुछ किया है?" हरीश चुप था, मौन में ही स्वीकृति होती है, माँ समझ गयी कि पुलिस सही कह रही है, वह बेटे से बोली," इतनी ओछी हरकत करते तुम्हे शर्म नहीं आयी, तुम्हे ऐसे संस्कार दिये हैं मैंने।" हरीश पछताये स्वर में बोला," माँ, मानता हूँ कि मुझसे गलती हो गयी, मुझे भी अपने इस कृत्य पर अफसोस है।" माँ ने कहा," तुमने यह जो हरकत की है उससे किसी लड़की को जीवन भर का घाव मिल जाता है और तुम्हारा कोई अफसोस उस घाव को नहीं भर सकता।" अब वकील मि. कैलाश बोले," देखो मैं एक वकील हूँ, बलात्कार के कई मुकदमे लड़ चुका हूँ, जानता हूँ कि युवाओ से बहकावे में आकर कभीकभार ऐसी गलती हो जाती है। हरीश ऐसा नहीं है, फिर उसे गलती का अहसास भी तो है।" बेटे को बचाने के लिए अपने वकील पति द्वारा दिया गया तर्क मि. कैलाश की पत्नी के गले नहीं उतरा। खैर, मामला कोर्ट में पहुँचा, लड़की के वकील ने दमदार सबूत पेश किये पर मि. कैलाश के पास भी हर सबूत का तोड़ मौजूद था, मुकदमे का फैसला उनके हक में आया, हरीश बरी हो गया। पत्नी ने मि. कैलाश से कहा," बधाई हो, आपका पुरूषत्व तो जीत गया पर अफसोस कि पौरुष हार गया।" यह कहकर उन्होंने तीखी नजरों से पिता व पुत्र को देखा। दोनों की नजरें झुक गयी।
     कुछ दिनों बाद रक्षाबंधन था, हरीश की बहन साधना जो हर साल रक्षाबंधन से चार पाँच दिन पहले ही आ जाती थी इस बार नहीं आयी, दो दिन बाद रक्षाबंधन था तो हरीश खुद बहन को लेने पहुँच गया, राखी पर बहन न आये तो भाई का मन कहाँ लगता है। हरीश ने साधना से पूछा," इस बार तुम आयी क्यों नहीं, तबीयत तो ठीक है ना, कोई और समस्या हो तो बताओ।" साधना बोली," कोई समस्या या बात नहीं है, पर जिस भाई को रक्षाबंधन का महत्व ही न पता हो उसे राखी बांधने से क्या मतलब।" हरीश बोला," क्या बात करती हो, मुझे रक्षाबंधन का महत्व बराबर पता है। साधना, यह सिर्फ एक पर्व ही नहीं बल्कि एक वचन है जो भाई अपनी बहन को देता है।" साधना गुस्से में बोली," सिर्फ अपनी बहन की रक्षा, दूसरों की बहन व बेटियों का क्या, उनकी रक्षा का क्या? जिन हाथों ने गंदे इरादे से एक बहन को छुआ वे हाथ दूसरी बहन से राखी बंधवाने का हक नहीं रखते।" 
     हरीश समझ गया कि उसके किये की खबर बहन को लग गयी है, फिर ऐसी बात को कोई कैद करके रख भी तो नहीं सकता, उसे अपनी कलाई पर इतने सालों तक बंधवाई राखियाँ दिखाई देने लगी और उन राखियों में उस लड़की का चेहरा भी दिख रहा था जिसकी जिंदगी वह बर्बाद कर चुका था, वह बहन के पैरों में गिर पड़ा, शब्द तो कुछ निकल नहीं पा रहे थे पर कभी कभी आँसू ही शब्दों का रूप लेकर अपनी बात कह जाते हैं, साधना ने भाई को उठाया और फिर उसने भाई की कलाई पर राखी का पवित्र धागा, दुबारा कभी ऐसी हरकत न करने की कसम की गांठ लगाते हुए,बांध दिया। **
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क्रमांक - 021                                                               
                             अकेली लड़की                                
                                                - अजय गोयल 
                                         गंगापुर सिटी - राजस्थान

      "आज मौका अच्छा है। आज इसका बॉयफ्रेंड भी इसके साथ नहीं है। आज तो इसे लपेटे में ले ही लूँगा।" उस अकेली लड़की को प्लैटफॉर्म की बेंच पर बैठे देख उसके मन में विचार उमड़े।
हाथ मसलते हुए उसने एक कदम आगे बढ़ाया ही था कि उसके मन में दूसरा विचार कौंधा, "ये स्..साली रोज़ तो फोन से चिपक- चिपककर इतना चपर-चपर करती थी। पर आज यह सर झुकाकर उदास क्यों बैठी हुई है?" इस विचार ने उसके कदमों को रोक लिया।
तभी उसने एक तरफ से आते उसके बॉयफ्रेंड को देखा, जिसने आते ही उस लड़की को भला-बुरा कहना शुरू कर दिया। 
बगल की चाय की केबिन पर चलती टी.वी से एक फ़िल्म का डायलॉग उसके कानों में पड़ा,"अकेली लड़की मौका नहीं जिम्मेदारी होती है।" और उसकी मुट्ठीयाँ तन गयी। **
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क्रमांक -  022                                                               
                                 शर्मिंदा                                   
                                                    - अनिता रश्मि 
                                                    रांची - झारखण्ड

वह सदा की तरह अपने छोटे से डाॅग को घुमाने निकला। वह भी उन लोगों में से था, जो कुत्तों को बहुत प्यार करते हैं। पेट्स के लिए जान भी दे सकते हैं। दरवाजा खोलते ही उनका शेरू, टफी, बडी साधिकार कार की बगलवाली सीट पर जा बैठता है और वे उसके घने बालों में उँगलियाँ फिराकर, स्नेह से निहारकर अपना ममत्व जाहिर करते हैं। पालक की गोद में बैठना उन सबका जन्मसिद्ध अधिकार! 
     और तो और वे उन सबको अपने बगल में सोने से भी नहीं रोकते। डाॅग द्वारा मुँह चाटना उन्हें अतिरिक्त खुशी से भर देता है। जगह-जगह रोएँ का बिखरे रहना खूब भाता है उन्हें। उसे लैट्रिन कराने के लिए खुद लेकर बाहर जाना कभी नहीं अखरता, भले मुन्ने की नैप्पी बदलना गुस्से का सबब बन जाए। 
    हाँ, तो वह अपने डाॅग बडी को पार्क ले गया।
   कई दिनों से हसरत से देखता एक गरीब बच्चा आगे बढ़ आया। उसके बडी को छूने के लिए प्यार से हाथ बढ़ाया। 
उसने तत्काल उसका हाथ झटका, चिल्लाया, 
- क्यों छू रहे हो बडी को?  इसे इंफेक्शन हो जाएगा। 
बालक अपने फटे, गंदे कपड़े और मैले हाथ पर बेहद शर्मिंदा हो उठा। **
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क्रमांक - 023                                                           
                                  विकास                                     
                                               - मनोरमा जैन पाखी
                                                  भिण्ड - मध्यप्रदेश

     "अरे करतारै,मोहना चल जल्दी ।तीन महीने के लैं पेट की भूख को इंतजाम है गयो। न कछु तैं कछु तो भलो।"हाँफते हुये सुरेश एक साँस में बोल गया।
"तनिक साँस तो लेले,फिर ठीक से बताव।"राजू बोला
"अरे ,अभी देख के आ रहा उधर झोंपड पट्टी टोला है न  !ऊ कि कायाकल्प होय रहा। मोटर ,गाडियाँ और कोऊ नेता ऊ आओ है ऊहाँ।रेल पुल बन रहो।हमाये ऊ दिन फिर जेंहें।"
"ई तो नीकी खबर है सुरेशवा।पर फिर हमार झोपडियाँ भी तोड़ी जैहैं का ?"अनाम आशंका से करतार का मुँह पीला पड़ा।
"अरे नाही ...तुम सब चलो तो ।काम तो मिलिहै ही ,जिनगी भी सुधर जैहे।पुल बन जैहे तो रेल निकरेगी ,सवारिन को घर तक पहुँचावो,सामान ढोयवो....अरे बाबा ..चलो तो ।"
सुरेश सुखद भविष्य के सपने देख रहा था।नीचे उनका झोंपड टोला ऊपर से गुजरती मेट्रो गाड़ी।विकास की राह जनमानस के सपनों पर । **
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क्रमांक - 024                                                           
                                पगली                                 
                                                    - रंजना वर्मा
                                                   राँची - झारखंड 
                                                   
अन्ना उसी छोटे से स्टेशन के एक बेंच पर बैठी ट्रेन का इंतजार कर रही थी।एक बार फिर वो प॔द्रह साल पुरानी घटना चलचित्र की भांति उसके आँखों के सामने आ गयी।वह करीब पांच वर्ष की रही होगी,कुछ बदमाशों ने उसका अपहरण कर ,इसी स्टेशन पर ,आने वाली ट्रेन का इंतजार कर रहे थे।उस समय इस स्टेशन पर उतनी चहल -पहल नहीं रहती थी।लोग यहाँ आने से  कतराते थे।
      अन्ना बहुत ही डरी और सहमी हुई थी।कुछ दूरी पर एक ग॔दी विक्षिप्त सी औरत बैठी उसे घूर रही थी।अन्ना ने अपनी छोटी बांहे उसकी ओर मदद के लिए बढ़ा दिया ।विक्षिप्त औरत चुपचाप उसे देखती रही।जैसे ही दोनों बदमाश थोड़े बेखबर हुए, वह बिजली की गति से आयी और उसे अपने कंबल में छिपा कर सीढ़ी के बगल में लेट गयी।उस औरत के शरीर से भयानक दुर्गन्ध आ रही थी।फिर भी अन्ना उसके शरीर से चिपक कर सोयी रही।
         दोनों बदमाश पागलों की तरह पूरे स्टेशन में अन्ना को ढ़ूँढ़ते रहे।पर अन्ना उन्हें नहीं मिली।थक कर वे वहाँ से चले गयें । दिन भर दहशत के शिकंजे में  रहने के बाद वात्सल्य का स्पर्श पाते ही अन्ना सो गयी ।जब उसकी आँखे खुली तो देखा , पगली उसे निहार रही है ।उसे भूख लगी होगी ,सोचकर उसने अपनी पोटली खोली।उसमें कुछ ब्रेड के टुकड़े थे,उसे वह अपनी हाथों से  प्रेम पुर्वक खिलाने लगी।
        तब तक पुलिस उन बदमाशों को पकड़ चुकी थी और उसके माँ बाप के साथ वहाँ पहुँच गयी थी।उसकी माँ ने झटके से उसे गोद में उठा कर गले से  लगा लिया ।पगली टकटकी बांधे उन्हें देख रही थी।
       अन्ना अभी ये सब याद ही कर रही थी कि उसे कुछ शोर सुनाई दिया ।उसने देखा कुछ शरारती लड़के एक बुढ़ी विक्षिप्त औरत को पत्थरों से मार रहे हैं ।वह औरत दौड़ती हुई आयी और उससे टकरायी।एक चिर-परिचित दुर्गन्ध उसके नाकों में समा गयी।उसने उस विक्षिप्त औरत को अपने बांहों में थाम लिया । **
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क्रमांक - 025                                                         
                             भूख                                 
                                                  - राम मूरत 'राही'
                                                  इंदौर - मध्यप्रदेश

''साब...कुछ खाने को मिलेगा ? जोरों की भूख लगी है।''
"हूँ...मिलेगा। लेकिन मेरी एक शर्त है ?" उसने उस गरीब औरत को ऊपर से नीचे तक  घूरते हुए कहा।
"कैसी शर्त ?" 
"मै तुम्हारे पेट की भूख मिटाऊंगा और तुम मेरे श...समझ गई ना ?"
"हाँ साब।" वह कुछ सोचकर बोली।
थोड़ी देर बाद खाना खाने के बाद जब वह उठकर जाने लगी, तो उसने उसका रास्ता रोकते पूछा --"कहाँ जारही है ? चल अब मेरी भूख मिटा।"
"साब...मैं आपको एक बात सच-सच बताना चाहती हूँ, ताकि आप परेशानी में न पड़े।"
"कैसी बात ?"
"यही कि मुझे एड्स है।"
"तो तूने मुझे पहले क्यों नही बताया ?" उसने गुस्से से पूछा।
"साब...मै पहले बता देती, तो क्या आप मुझे खाना खिलाते ?"
"चल आ जा, रहने दे एड्स, बहुत किस्से सुनें हैं एड्स के, मैं नहीं डरता।"
अब वह सकुचाते हुए और कोई बहाना बनाने को सोच - मग्न दिख रही थी।
"वो क्या है न साब..."
"हाँ, हाँ, बोलो।"
"मेरी छः महीने की बेटी घर में भूखी रो रही है..."
"अच्छा जा, मैं तो यही देख रहा था कि तू दूसरों की भूख मिटा कर अपनी भूख मिटाती है, या सच में मजबूर है।" **
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क्रमांक - 026                                                          
आओ बहु रंग लगाओ
                                                - मनीषा नारायण
                                            अम्बाला शहर - हरियाणा

      मेरे मायके में होली खेलने का ज़्यादा प्रचलन नहीं था परंतु ठीक इसके विपरीत ससुराल में होली तरह-तरह के पकवानों और रंग खेलकर ख़ूब हर्षो-उल्लास से मनायी जाती। सासु माँ के कहने पर शादी के बाद की होली में बहु मायके जाती है, इस बात का विधान था, सो मैंने ऐसा ही किया।  
      जब दूसरे साल होली आयी तो मेरे पति और ननद ने मुझे रंगों से सराबोर कर दिया। जैसे ही मैं रंग लेकर सासु माँ के कमरे में गयी तो मुझे देखते ही उनका स्वर थोड़ा कड़क हो गया और बोली,”हमारे यहाँ सास को रंग नहीं लगाया जाता,सिर्फ़ चरणों में डाला जाता है”। ये सुनकर मैंने वैसा ही किया और अनमने मन से बाहर आ गयी।  
           थोड़ी देर बाद मेरी ननद ने धीरे से आकर मेरे कान में कहा,”भाभी, मम्मी सिर्फ़ रंगों से बचना चाहती हैं, ऐसा कोई रिवाज नहीं है”। मेरा इतना सुनना था बस। मैंने ढेर सारा रंग लिया और चली गयी सासु माँ के कमरे में रंग लगाने। मुट्ठी भरकर रंग मैंने उनके ऊपर डाल दिया और कहा, बुरा ना मानो होली है”। कमरे में पूरी तरह सन्नाटा छा गया, मैं भी थोड़ा डर गयी।  फिर एकदम से मेरी सासु माँ बोली,”हैपी होली, ख़ुश रहो बहु।”
   अब जब भी होली का त्योहार आता है, मेरी सासु माँ अनकहे एहसासों को पढ़ लेती हैं और कहती हैं,”आओ बहु, रंग लगाओ।” **
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क्रमांक - 027                                                             
बेरुखी    
                                       - महेश गुप्ता जौनपुरी
                                           मुम्बई - महाराष्ट्र

रवि अपने परिवार में इकलौता लड़का हैं हर रोज कि तरह सुबह उठकर नित्य काम करके अपने कालेज चला जाता हैं आज उसके ग्रेजुएशन का अंतिम पेपर हैं | मन में ढेर सारी उम्मीद लिए घर की तरफ अग्रसर होता हैं अपने मन से ही सवाल करता समझता अपने घर को पहुँच जाता हैं उसके आते ही उसके पिताजी बोल पड़ते हैं बेटा अब कुछ जॉब ढुढ़ लो हमारे पढ़ाने की सामर्थ्य अब नहीं रहा | इतना सुनते ही रवि के ऑखो से ऑसू की धार टपक पड़ता हैं उसके सारे सपने ऑखो के सामने टुटते हुए दिखयी देते हैं |
वह चुपचाप घर के कमरे में जाकर बैठ जाता हैं और मन की गहराई में डूब कर अपने आप से सवाल जबाब करने लगता हैं जैसे तैसे दिन बितता रहता हैं आखिर वह दिन आ ही जाता हैं जिस दिन उसके पढ़ाई का परिणाम आने वाला हैं वह बहुत खुश नजर आता हैं वह रिज़ल्ट लेकर घर जैसे ही वापस होता हैं | उसके पिता जी बोल पड़ते हैं बेटा अब पढ़ाई लिखाई बहुत हो गया अब अपना सामान पैक करो और चलो मेरे साथ मुम्बई कमाने के लिए रवि कुछ समझ पाता उससे पहले ही उसकी माँ उसको उसका कपड़ो से भरा बैग पकड़ा देती हैं| रबि अपने अन्दर की सारी पढ़ाई कि उम्मीद झोड़कर अपने पिता जी के साथ मुम्बई के लिए रवाना हो जाता हैं | मुम्बई पहुँचते ही वह अपने लिए एक प्राइवेट सेक्टर में जॉब ढुढ लेता हैं और मन लगाकर काम करने लगता हैं कुछ दिन बितने के बाद वह अपने पूरे परिवार को मुम्बई में बुला लेता हैं और परिवार के साथ खुशी से रहने लगता हैं | लेकिन उसके घर में आये दिन पैसे को लेकर लफड़ा होता रहता हैं जैसे तैसे दिन कट रहा था कि रवि के पिताजी रवि की शादी के लिए रिश्ता तय कर देते हैं ना चाहते हुए रवि अपने परिवार के खुशी के लिए शादी कर लेता हैं कुछ दिन तो जिन्दगी बड़े खुशी से कटता हैं | घर में एक छोटी सी बेटी जन्म लेती हैं रवि बहुत खुश रहने लगता हैं अपने परिवार के साथ कुछ दिन बितते ही उसके परिवार के लोग और उसकी पत्नी औसत से ज्यादा पैसे कि डिमांड करने लगती हैं रवि डिप्रेशन में आ जाता हैं पैसे कमाने के चक्कर में जॉब भी झोड़कर दुसरी कम्पनी में जाता हैं फिर तीसरी कम्पनी में जाता हैं लेकिन उसके घर में आये दिन  लड़ाई झगड़ा होता रहता था कभी सॉस बहु में तो कभी बेटे बहू में तो कभी बाप को समझाते हुए रवि दिखता था | एक दिन रवि सुबह उठ कर भगवान का पुजा करके जॉब पर जाता हैं तभी उसको घर से फोन आता हैं कि घर में बहुत तेजी से झगड़ा हुआ हैं पैसे को लेकर रवि पुरी तरह घबरा जाता हैं और शिथिल पड़ जाता हैं अचानक जमीन पर रवि गिर जाता हैं और हाथ पैर तेजी से मारने लगता हैं ऑफिस के लोग उसे हास्पिटल लेकर पहुँचने हैं लेकिन डाक्टर बोलता हैं माफी चाहता हूँ मैं कुछ कर नहीं सकता रवि का हृदयघात से मौत हो गया | रवि घर परिवार आफिस की लड़ाई लड़ते लड़ते दम तोड़ देता हैं दस दिन बीतने के बाद कम्पनी का एक वर्कर घर पर पॉच पॉच लाख का दो चेक लेकर आता हैं और कहता हैं ये लो माँजी और भाभी जी पूरे पाँच लाख के चेक हैं अब तो खुश हो ना पैसे को पाकर रवि तो इस दुनिया से चला गया पैसा कमाने के चक्कर में लेकिन आप लोगो को मरने के बाद भी पैसा दे गया | शर्म से रवि के परिवार वालो का सर झुक जाता हैं........ संजय इतना बोल कर वापस चले जाता हैं |
चाहत इंसान की होनी चाहिए पैसो की नहीं
नहीं तो ना जाने कितने रवि हमसे बिझड जायेंगे । **
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क्रमांक - 028                                                              
                            मंगलू                              
                                                - मनोज सेवलकर 
                                                इन्दौर - मध्यप्रदेश

         राजपूर थाना प्रभारी रघुवीरसिह  को बार बार वरिष्ठ कार्यालय से क्षेत्र में हो रहे अपराधों की वृध्दि के कारण सख्त दिशा-निर्देश प्राप्त हो रहे थे ।  वे अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप सफलता न मिलने से बहुत खिन्न थे ।  
एक दिन  उन्हे भेदिये से ज्ञात हुआ था कि राजपूर थाना क्षेत्र के जंगल में कुछेक संदिग्ध गतिविधियां संचालित हो रही है तो वे अपने लवाजमे के साथ जंगल की ओर दौड पडे़ । 
जंगल से अपराधी तो भाग चूके थे लेकिन यूं खाली हाथ जाने के बजाये  चरवाहे मंगलू  को अपराधी बना गिरफ्तार कर लिया गया । वह गिडगिडाता रहा पर उसकी एक न सुनी गई।
आखिरकार उसे न्यायालयीन प्रक्रिया में पेश किया गया जहां प्रस्तुत साक्ष्यों के आधार पर वह अपराधी घोषित कर दिया गया ।
न्यायाधीश महोदय ने उसे सात वर्ष के सश्रम कारावास की सज़ा सुना दी ।
समय बितता गया आज वही मासूम मंगलू  अपराधियों के प्रशिक्षण स्थल से लौटने के बाद, मंगलू  न  होकर  मंगल नाथ  बनकर बस्ती ही नहीं अपितु क्षेत्र विशेष का पैरोकार हो गया । **
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क्रमांक - 029                                                          

                       माँ" की अभिलाषा                            
                                                    - कुमार जितेन्द्र  
                                                   बाड़मेर - राजस्थान 
                             
        अभी कुछ दिनो पहले दुनिया भर में सोशल मीडिया पर जबर्दस्त तरीके से " मदरस डे " मनाया गया है l पर वास्तविकता से परे था l कुछ दिनो पहले शाम के वक्त सफर दौरान बस जैसे ही एक शहर के बस स्टैंड पर रुकी तो... बस मे बैठे सवारी जैसे ही नीचे उतरे...... एक लगभग सत्तार वर्षीय बूढ़ी  महिला (किसी इंसान की माँ ) बस के दरवाजे पर आकर शाम के वक्त के लिए पेट भरने के लिए पांच रुपए, दस रुपए की पुकार लगा रही थी l रुपए देने वालों को दुआ भी दे रही थी कि ईश्वर आपका भला करे l इतनी भीषण गर्मी के मौसम में धनाढ्य लोगो की" माँ"  ए .सी. और कूलर के सामने सो रही होगी l दूसरी ओर गरीब तबके के लोगों की मां बस स्टैंड पर भीख मांगने को मजबूर हैं l इस माँ ने भी अपने बेटों के लिए बहुत कुछ किया होगा l जब इस माँ ने कई कठिनाईया देख कर बेटो को पाल कर बड़ा किया..... तो कहा गए वो बेटे जो आज मां को इस हालत में छोड़ दिया l जो पेट के लिए दर दर भटक रही है l....... मदरस डे.... एक दिन न होकर हर दिन होगा... जब कोई इस तरह की भटकती माँ को एक पल के लिए सांत्वना देंगा.... अन्यथा सोशल नेटवर्किंग पर मदरस डे मनाने से कोई औचित्य नहीं है...एक माँ की अभिलाषा है कि उनके बेटे बुढ़ापे में जरुरत बने... उनकी आवश्यकताओ की पूर्ति करे... .... किसी ने सच कहा है कि.... " भगवान हर जगह नहीं होता है इसलिए उन्होंने माँ को बनाया है........ । **
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क्रमांक - 030                                                             

                               पेंशन                                   
                                                 -वन्दना श्रीवास्तव
                                                  मुम्बई - महाराष्ट्र

    'लीजिए साहब' कहते हुए दुकानदार ने कुछ नोट मेरी तरफ बढ़ा दिए, मैंने चुपचाप लेकर मुट्ठी में भींच लिए।
    पिता जी को रिटायर हुए दो वर्ष बीत चुके हैं। भइया अपनी पढ़ाई खत्म करके नौकरी की असफल तलाश कर रहे हैं। मेरी पढ़ाई अभी जारी है। एक लम्बी यातनापूर्ण बीमारी के बाद पिछले वर्ष माँ का स्वर्गवास हो गया।
    पिता जी को मिलने वाली पेंशन के पन्द्रह हज़ार रूपयों से जैसे-तैसे घर का खर्च चल रहा था कि अचानक  हृदयगति के रुक जाने से पिता जी भी चल बसे। भइया जैसे संज्ञाशून्य से किंकर्तव्यविमूढ बैठे रह गए। एक भी आँसू उनकी आँख से नहीं निकला।
     हमारे घर में दो कमरे हैं। एक में हम दोनों भाई और दूसरे में पिता जी एवम् घर का अन्य अनुपयोगी सामान रहता है। पिता जी के देहान्त के बाद उनकी पेंशन बंद हो जाने की स्थिति में निर्वाह की समस्या बहुत विकराल हो चली थी। सारी जमा-पूँजी तो माँ के इलाज पर खर्च हो गई थी। बहुत सोचने के बाद राह सूझी कि पिता जी का कमरा किराए पर दे दिया जाए। किराया पन्द्रह हज़ार रूपये तय हुआ। कल किराए दार आ जाएंगे, सो कमरे को खाली करके उसकी सफाई करनी थी। कमरे का सारा सामान छत पर निकाल कर डाला जा चुका था, बस पिता जी की चारपाई बची थी। मैं उसे लेने के लिए कमरे में गया तो देखा, अब तक स्तब्ध और पाषाण बने भइया पिता जी की चारपाई पर सिर रखे फूट-फूट कर रो रहे थे। **
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क्रमांक - 031                                                         

                              लिफ्ट                                      
                                           - नरेन्द्र श्रीवास्तव 
                                        गाडरवारा - मध्यप्रदेश
       
वे उनके एक परिचित की अस्थि- विसर्जन के कार्यक्रम में आये थे।अस्थियाँ विसर्जन के पश्चात सब वापिस होने लगे। वे एक कार के नज़दीक पहुँचे और कुछ कह पाते कि उसमें बैठे नवयुवकों में से एक उनसे बोलने लगा-"अंकल जी,आप पीछे वाली कार में बैठ जाईये,इसमें जगह नहीं है।"
वे पीछे वाली कार  के नज़दीक पहुँचे तो चालक सीट पर बैठा लड़का बोला- "आप पीछे जो बोलेरो खड़ी है न,उसमें जगह है,वहाँ चले जाईये।
वे बोलेरो के नज़दीक पहुँचे तो बोलेरो में से एक ने उन्हें आवाज दी-" अंकल! इसमें जगह नहीं है,आप पीछे जो कार खड़ी है,उसमें बैठ जाईये।"
"आप सही कह रहे हैं।मैं उसी कार से जाऊँगा।वह कार मेरी ही है और मैं ही लेकर आया हूं।मैं तो यह कहने के लिये आप सभी के पास आया था कि किसी को परेशानी हो रही हो तो मेरी कार से चल सकते हैं। परंतु आप लोग तो जगह होते हुये भी मुझे ही न बिठालने के लिये बहाना बना रहे हैं।"
"नहीं... नहीं ...ऐसी बात नहीं है  मैं आपकी कार में आ जाता हूं " ... कहते हुये वही व्यक्ति जो अभी उनसे पीछे की कार में बैठने के लिये कह रहे थे,बोलेरो से उतरने ही वाले थे कि उन्होंने मना करते हुये कहा- " क्षमा करें, मेरी कार में भी जगह नहीं है"... कहते हुये वे अपनी कार में बैठे और कार को रिवर्स कर बाजू से आगे बढ़ गये।
 जो... उनसे ... "उसमें बैठ जाओ ... उसमें बैठ जाओ " कह रहे थे,मुँह ताकते रह गये।  **
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 क्रमांक - 032                                                              
                           टच वाली चाची                             
                           
                                        - भुवनेश्वर चौरसिया "भुनेश"
                                                गुरुग्राम - हरियाणा


बड़े गुमसुम से और उदास रहने वाले 'चाचा' बहुत खुश दिखाई दे रहे थे।
"चाचा पर नजर पड़ी तो पूछ लिया क्या बात है? चाचा जी आज बड़े खुश लग रहे हो कोई लाटरी वाटरी लग गई क्या?"
"चाचा नहीं रे वो बात नहीं है!"
फिर क्या बात है चाचा जी?
चाचा वोले इधर आ मैं अपनी खुशी का राज बताता हूॅं‌।
मैं उत्सुकतावश बस चाचा के पास गया तो वे अपनी जेब से मोबाइल फोन निकाले और स्क्रीन को टच किया सीधे फोटो गैलरी में गए।
चाची कि तस्वीर दिखाते हुए, वोले ये देख मेरी खुशी का राज चाची की तस्वीर मोबाइल स्क्रीन पर सामने थी। मैं वोला इसमें तो आपकी खुशी दिखती नहीं।
चाचा वोले अरे जब से ये मोबाइल मेरे हाथ आई है तबसे तेरी चाची हमेशा मेरे साथ रहती है । जब भी मोबाइल के स्क्रीन पर हाथ जाती है स्क्रीन सेवर पर तेरी चाची सामने आ जाती है। तो ऐसे में बेलन का डर सताता है। और सभी बूरे एब मुझसे दूर हो गए हैं। तो ऐसे में खुश न होऊं तो दुःखी होऊं।
मैंने कहा अच्छा तो ये है आपके खुशी का राज तभी चाची सामने आ गयी और डांटते हुए वोली क्या खुसुर फुसुर कर रहे हो तनिक मैं भी तो देखूं कैसी है तेरी टच वाली चाची। **
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क्रमाकं - 033                                                               
                              डर                            
                                              - सारिका भूषण
                                                रांची - झारखंड
                                                
" देखो ! अब मेरे गुलाबजामुन भी तैयार हो गए । जल्दी से बता कि कैसे बने हैं " राधिका की खुशी का ठिकाना नहीं था ।
" माँ ....अब बस भी करो । मैं अब इतना नहीं खा सकती । कितना खाना बनाओगी ...चलो न बातें करना है तुमसे । " हॉस्टल से छुट्टियों में घर आयी निशा को माँ की थकान नहीं अच्छी लग रही थी ।
" इसलिए इतनी दुबली हो गई है । साल में एक बार तो आती है । पूरी ज़िन्दगी तो यहां सबको खाना ही बनाकर खिलाती रही हूँ । आज इतने दिनों बाद अपनी बेटी के लिए बना रही हूँ । दिल को बहुत  सुकून मिल रहा है । " बोलते - बोलते राधिका का गला रुंध गया । अब बस आँखें बोल रही थी । 
" अब शुरू हो गई तुम्हारी राम कहानी । जब देखो शिकायत करने को आतुर रहती हो । ज़रा खुश रहने की कोशिश किया करो । " किचेन के बाहर से ही निशा के पिता का गुस्सा उबल पड़ा ।
" पापा ! आप माँ को ऐसे क्यों बोल रहे हैं । क्या वह अपने मन की बात बोल भी नहीं सकती । इसलिए मुझे माँ की बहुत चिंता लगी रहती है । " आज पहली बार घर में किसी ने राधिका के लिए दो शब्द बोला था ।
" अच्छा तो बेटी को मेरे खिलाफ भड़काना शुरू हो गया । " पुरुष अहं को किसी भी नारी की उठी आवाज़ नहीं बर्दाश्त होती है । 
तभी मेज के कोने से टकराकर लड़खड़ाते हुए अशोक ने गुस्से में राधिका की ओर देखा । 
राधिका बिल्कुल शांत खड़ी थी और यह भलीभांति समझ रही थी कि अशोक उसकी आँखों में पहले वाला डर देखना चाह रहा है । **
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क्रमांक - 034                                                               
                              'स्टेटस'                                    

                                   - लज्जा राम राघव "तरुण"
                               बल्लबगढ- (फरीदाबाद) हरियाणा  

         सेवानिवृत्ति के बाद, प्रोफेसर रमाकांत, अपने पुत्र के साथ ही रह रहे थे। अपने सेवाकाल में, उन्होंने अपने छात्रों को उत्तम शिक्षा दी थी, और अपने इस कार्य में सफल भी हुए थे। उनकी ख्याति एक कर्तव्यनिष्ठ व कुशल शिक्षक के रूप में की जाती थी। शिक्षण उनकी जिंदगी का ध्येय बन चुका था। अपनी इसी भूख को शांत करने के लिए, अब वे अपने पोतियों को पढ़ा कर ही संतुष्ट हो लिया करते थे। 
                      आज भी वे, बच्चों को हिंदी पहाड़े का ज्ञान करा रहे थे। पहले वे स्वयं सस्वर उच्चारण करते, फिर बच्चे उनका अनुसरण कर रहे थे। बच्चेखेल- खेल में हीं पहाड़े सीखने का आनंद ले रहे थे। 
                     उसी समय उनका पुत्र, जो एक विदेशी कंपनी में आई.टी. सैल का प्रबंधक था, कमरे में आया और बच्चों को हिंदी के पहाड़े याद करते देख, भड़क गया। 
        "डैड! ये आप क्या कर रहे हो?" 
         "क्या कर रहा हूं?...... दिखता नहीं बच्चों को पहाड़े सिखा रहा हूं।"
           "पहाड़े!....,  और वो भी हिंदी में?"........ अगर कुछ सिखाना ही है तो, इंग्लिश में "टेबल" सिखाइए।'..... इससे तो....?" 
             "इससे तो क्या...?" 
              "ड़ैड़!....,  'ये कंफ्यूज हो जाएंगे'....... और कंफ्यूज ही नहीं,.... "ऐसे तो आप इनका "फ्यूचर" खराब कर दोगे?....... ''और डै़ड़!... ये सब करने से पहले मेरे "स्टेटस" का कुछ तो ख्याल कर लिया होता!" 
               "भविष्य....! 'स्टेटस....!!" 
                 "हाँ डै़ड़'....'स्टेटस',....... 'स्टेटस' ऐसे     ही 'मेंटेन' नहीं होता, बड़ी मेहनत करनी पड़ती है।"
                 "और तुम..!... 'चलो उठो!        क्या इसीलिए,..... 'तुम्हें इंग्लिश........?" 
                   पुत्र का ऐसा व्यवहार उन्हें अन्दर तक बेध गया। ग्लानिवश उनकी आंखों की कोर से  तप्त जल की दो बूँदे टप से फर्श पर गिर कर बिखर गईं। **
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क्रमांक -  035                                                              
                              मायाजाल                                  

                                            - डा.साधना तोमर
                                      बडौत (बागपत) उत्तर प्रदेश
                                      
          शिवांश एम.ए. प्रथम वर्ष का  होनहार छात्र था। दोस्तों के कहने पर उसे राजनीति का चस्का लग गया। छात्र संघ के चुनाव में अध्यक्ष पद के लिए नामांकन कर दिया। अब पढा़ई से कोई मतलब नहीं था। सारा दिन चुनाव प्रचार में घूमना, शाम को दोस्तों के साथ शराब पीना, माता पिता से पैसों के लिए झगड़ना बस यही दिनचर्या रह गयी थी। माता पिता ने पैसे देने से मना कर दिया तो ब्याज पर पैसे ले लिये। कालेज में प्रचार के साथ साथ गाँव गाँव छात्रों के घर जाकर चुनाव का प्रचार करता। कक्षाओं में भी चुनाव प्रचार के लिए जाता। शीला मैडम बहुत परेशान थी कि एक होनहार छात्र किस मायाजाल में फंस गया। 
"बेटे! तुमने  सेमेस्टर परीक्षा का फार्म भर दिया, परसो अन्तिम तारीख है फार्म भरने की। "
"मैड़म !मेरा दोस्त बोल रहा है भर देगा। "
"बेटे !ऐसा नहीं होता है। अपना काम खुद करो। तुमने पढ़ना-लिखना बिल्कुल छोड़ दिया, कहाँ राजनीति में घुस गये। इसमें कुछ नही रखा, अपना कैरियर चौपट मत करो।"
"मैडम! पढ़कर भी क्या करना है? पढ़ लिखकर नौकरी भी लग गयी तो कितना कमा लेंगे? यहाँ तो  ऐश ही ऐश है। पहले कालेज का चुनाव जीतूंगा फिर चैयरमैन का, फिर विधायक का और फिर सांसद का। इसके बाद मन्त्री बनकर वारे न्यारे हो जायेंगे, इतनी कमाई होगी कि सात पीढ़ी बैठकर खाएगी। "
"बेटा! यह मायाजाल है, तुम्हे कहीं का नहीं छोड़ेगा। लौट आओ वापस अपनी सीधी  सच्ची परिश्रम और ईमानदारी की दुनिया में वरना वह धोखे और फरेब की दुनिया तुम्हे बर्बाद कर देगी। "
"नहीं मैडम देखना एक दिन आपको करोड़पति बनकर दिखाऊंगा। " 
"यह कहकर शिवांश बाहर निकल गया। शीला समझ नहीं पा रही थी कि ऐसे बच्चों को इस मृगमरीचिका के मायाजाल से बाहर निकालें। **
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क्रमांक - 036                                                              
                                   संस्कार                                    
                                                  - नीलम नारंग
                                               हिसार - हरियाणा

मीरा को मुम्बई आए पन्द्रह दिन हो गए थे। बेटा बहु दोनों नौ बजे घर से चले जाते थे । शाम को नौ बजे पहुँचते आने के बाद खाना खाकर इधर उधर की बात करते और अपने कमरे में चले जाते। मीरा अपने आप को ख़ुश रखने वाली और सकारात्मक सोच वाली महिला थी। उसे पता था अब वह वापिस गाँव जाकर रह नहीं सकती । रहना तो यहीं पड़ेगा। बेटा बहु की सख़्त हिदायत थी दरवाज़ा बन्द ही रखना माहौल बहुत ख़राब है यहाँ । आज अपने आप को रोक नहीं पाई और फ़्लैट का दरवाज़ा खोलकर बाहर झाँकने लगी। उसे लगा साथ वाले फ़्लैट से भी कोई दो आँखें उसी की ओर देख रही है । हिम्मत करके दरवाज़ा खटखटाया उधर से एक औरत आई जो शायद साउथ साईड की थी । मुस्कुराहट दोनों के बीच भाषा बन गई । जैसे ही दोनों के बच्चे आफिस के लिए निकलते दोनों इककठे बैठती इशारों से आधी अधूरी बातें करती अपनी बनाई हुई खाने की चीज़ों को एक दूसरे को खिलाती। एक दूसरे की आँखों में मुस्कुराते हुए देखती मानों कह रही हो हमें अपनी भारतीय संस्कृति को ऐसे ही न सिर्फ़ बचाए रखना है वरन बच्चों तक भी पहुँचाना है । **
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क्रमांक - 037                                                              कमजोर नब्ज
                              
                                          - डॉ विनीता राहुरीकर
                                             भोपाल - मध्यप्रदेश 

       "ये तो बड़ा बुरा हुआ सर, ऐन चुनाव के समय....रमेश बाबू को थोड़ा तो सम्भलकर...." आगे डर के मारे निजी सचिव से भी बोला नहीं गया।
"ये सब तो जीवन में लगा ही रहता है। इसमें नया क्या है।" नेता जी इत्मीनान से बोले।
"मगर सर! जनता भड़क जाएगी तो इतने सालों से बनी साख मिट्टी में मिल जाएगी। उस पर चुनाव सर पर है।" सचिव चिंताग्रस्त था।
"अरे कुछ नहीं होगा। चुनाव भी आराम से होंगे और जीतेंगे भी हम। उस बच्ची के पिता को बड़ी रकम दे दो उसके बाकी बच्चों की परवरिश अच्छे से हो जाएगी। " नेताजी मुस्कुराकर बोले।
"मगर ये खबर तेज़ी से सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है कि रमेश बाबू ने एक लड़की...बच्ची की...फिर उसकी हत्या भी..." सचिव से आगे बोला नहीं गया।
"तो उसी सोशल मीडिया पर किसी सेलिब्रिटी अभिनेत्री का कोई विवादास्पद बयान तैयार करके पोस्ट कर दो और किसी न्यूज़ चैनल पर भी चला दो जनता पिछला सब भूल जाएगी" नेताजी ने एक सिगरेट सुलगाई और आरामकुर्सी पर पैर पसारकर बैठ गए।
सचिव मुस्कुरा कर एक नम्बर डायल करने लगा। नेताजी जनता की कमजोर नब्ज को ठीक पहचानते हैं। **
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क्रमांक - 038                                                          
                               होम ! हैप्पी होम                           
                                                     - अंजू खरबंदा 
                                                            दिल्ली

जब मन उदास होता मां की फोटो पर्स से निकल मां से घंटो बाते करती । कभी समस्या का हल मिल जाता कभी नही भी मिलता । पर उनसे बात करके मन हल्का हो जाता । 
एक दिन बच्चों को पढ़ा रही थी । एक कविता मे दादा दादी नाना नानी की बात आई । रैनेसां ने मेरी ओर प्रश्न सूचक निगाहो से देखते हुये कहा - "मम्मा घर मे दादा दादी की फोटो तो है पर नाना नानी की क्यो नही !" 
उसकी बात सुनकर रोहन जोर जोर से हंसने लगा और बोला - "बुद्धु तुझे इतना भी नही पता ! ये घर तो पापा का है ना .... तो पापा के मम्मी पापा की फोटो ही तो लगेगी ना ! क्यूं पापा ! "
पास ही बैठे पति देव ने मेरी ओर देखते हुये कहा - "जितना ये घर मेरा है उतना ही तुम्हारी मम्मी का ।" 
इतना कहकर वे उठकर जाने लगे । मैने पूछा कहां चल दिये एकदम से । "बच्चों का सवाल वाजिब है तो जवाब भी तो वाजिब ही होना चाहिए ना ! तुम मम्मी पापा की अच्छी सी फोटो निकाल दो, मै आज ही फ्रेम करवा लाता हूं ! अब दीवार पर सिर्फ दादा दादी नही नाना नानी की फोटो भी होगी ।" उन्होंने जवाब दिया ।
सुनते ही रैनेसां रोहन को चिढ़ाकर बोली - " भाई ये घर पापा का नही मम्मी पापा दोनो का है, समझा ना !!! **
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क्रमांक - 039                                                                
                  क़ैद, आज़ाद या ज़िंदाबाद!                   

                                           - शेख़ शहज़ाद उस्मानी
                                             शिवपुरी - मध्यप्रदेश

मीडिया पर हिंदी भाषा और नेताओं के बड़बोलेपन में हिंदी वाक्यों या रचनाओं में अभद्र शब्दों के प्रयोग चलन पर आज कुछ भाषा-प्रेमी-लेखकगण चर्चा कर रहे थे।
"अब तो हद हो गई! सभाओं में, सदनों में भी हिंदी में अभद्र टिप्पणियाँ बुद्धिजीवी नेताओं द्वारा की जा रही हैं! शेरो-शायरी और काव्य-रचनाओं से नोंकझोंक हो रही है!... बड़ी शर्म सी आ रही है हिंदी भाषी होने पर, हिंदी लेखक होने पर!" एक चर्चित लेखक महोदय बोले।
"हिंदी में लगभग हर विधा में बहुत कुछ लिखा जा रहा है; लेकिन हिंदी का मान बढ़ाने वाला सार्थक कम, अनापशनाप अधिक! बड़बोलेपन, जयकारों और धर्म-सम्प्रदाय संबंधी अभद्र टिप्पणियों में हिंदी के इस्तेमाल से बहुत आहत हुआ हूँ!" यह कहते हुए एक मशहूर लेखक भावुकता में बोल पड़े, "मुझे इस भाषा में लिखने का बहुत अफसोस है।  काश मैं इस भाषा में पैदा नहीं होता!"
उपस्थित सज्जनों में माहौल गर्म हो गया।
"शर्म तो आपको आनी चाहिए आपकी टिप्पणी की अंतिम पंक्ति पर!" एक हिंदी-प्रेमी लेखक ने उग्र हो कर कहा।
तभी एक उभरते लेखक ने खड़े होकर शांति बनाये रखने का निवेदन करते हुए कहा, "आप लोग उनकी बात की गंभीरता को समझिये। सांकेतिक दुख को समझिए, सांकेतिक आह्वान व अपील को समझिए। ... मैं स्वयं  हिंदी मीडियम में विज्ञान स्नातक हूं। अंग्रेजी साहित्य  में स्नातकोत्तर और  हिंदी मीडियम में बीएड हूँ! विद्यालय में कई सालों  से अंग्रेजी विषय पढ़ा रहा  हूँ। ... हिंदी में साहित्यिक विधायें सीख रहा हूं। हिंदी में गद्य एवं पद्य विधाओं में लेखन का अपना शौक पूरा कर रहा हूँ। हिंदी में रचनायें लिखने के कारण ही  मुझे चारों तरफ से हतोत्साहित करने वाले ताने/व्यंग्य ही नहीं, गालियाँ भी हिंदी और अंग्रेजी में सुनाई व सुनवाई जा रही  हैं! आश्चर्य होता है कि मुझे हिंदी लेखन और वार्तालाप करने  से व्यंग्य या अपमान सहना पड़ता है और अंग्रेजी से प्रशंसा और मान मिलता है रिश्तेदारों, परिचितों, सहकर्मियों और विद्यार्थियों से!"
माहौल फ़िर से गंभीर हो गया।
तभी एक प्रतिष्ठित लेखक महोदय ने उस उभरते लेखक के कंधे पर हाथ रखकर उसकी हौसला अफ़ज़ाई करते हुए व  लोगों की मानसिकता समझने की हिदायत देते हुए कहा, "मुझे कोई आत्मग्लानि नहीं कि मैं हिन्दी में क्यों लिखता हूं। इस भाषा में पैदा होकर मैं शर्मसार नहीं हूं। बल्कि मुझे इस भाषा में पैदा होकर और इसमें लिखकर गर्व की अनुभूति होती है। ... हिन्दी मेरी शान! हिन्दी मेरी जान!"
माहौल तालियों से गूँज उठा।
तभी एक बुज़ुर्ग लेखक महोदय खड़े होकर बोले, "मीडियाई-भाषाई-संक्रमण काल में अगर हिंदी दुनिया में विकास कर रही है, तो उसे सीमित और क़ैद में रखने की या प्रदूषित करने की भरसक कोशिशें भी हो रही हैं भाईयो! ... विदेशी भाषाओं और अभद्र लोगों की शब्दावली और अशुद्ध व्याकरण की सलाखों से घिरी हुई है हिंदी! ... हमें ही बीड़ा उठाना है इन सलाखों को तोड़ने हेतु!"
माहौल जोश से भर गया। **
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क्रमांक - 040                                                             

                    प्रतिबंधित परिवार                    

                                         - डॉ.विभा रजंन " कनक "
                                                     नई दिल्ली
       
रमा घर में घुसते ही अपनी छोटी बहन से बोली
" कैसे रहती है तू इस घर में? दम नहीं घुटता तेरा यहां?
"क्या हुआ ?क्या दिक्कत है यहां ?"
" इतनी बंदिशों में तेरा दम नहीं घुटता! तेरी शादी के दस साल हो गये ,अभी भी सर पे पल्लू लिये फिरती है! बिना पुछे कोई काम नहीं कर सकती! यह कोई जीवन है? जेल है जेल! "
"पर! मैं तो यहां बहुत खुश हूं !"
" तू पागल है ? मुझे देख! तूझसे पाँच साल पहले ही तो हुई थी मेरी शादी! सबसे अलग होते , आज मेरे पास आलिशान बंगला है। मेरे दोनों बच्चे आराम से दून स्कूल में पढ़ रहे हैं। मैं जब चाहूं ,जहां चाहूं, गाडी़ उठा़ती हूं चली जाती हूं! तेरे यहां? जब तक चार आदमी न हो तब तक गाड़ी नहीं निकलती !स्कूटर पर जाओ! इतनी कंजूसी! बाप रे!मैं तो नहीं रह सकती!"
°दीदी ! प्रतिबंधित परिवार सबसे सुखी होता है। यहां हर ब्यक्ति एक दुसरे के प्रति उत्तरदायी होता है। इससे भटकाव का ड़र नहीं होता है। " तभी छोटी की जेठानी नास्ता लेकर अंदर आई,
" कैसी हो बहन रमा !"
" नमस्ते !मैं ठीक हूं भाभी !आप कैसी है?"
" मैं भी भली चंगी हूं। तुम अकेली आई हो? विभोर भाई नहीं आये?"
" नहीं! वह शहर में नहीं है! टूअर पर गये हैं! दो-तीन बाद आयेगे!°
"अच्छा! अजीब बात है!"
" जी क्या? क्या अजीब बात है?"
" कुछ नहीं!"
"नहीं कोई तो बात है! प्लीज! मुझे बताईये!" "कल ही छोटी के जेठ से विभोर भाई की मुलाकात माल में एक ट्रेवल एजेंसी  में हुई । बातें भी हुई थी। मैने यह बात छोटी को भी बताई थी।" 
छोटी चुपचाप खड़ी थी ।रमा जो थोडी़ देर पहले, परिवार के परपंराओं पर  तंज कर रही थी, उसका तो मुंह ही उतर गया। वह चुपचाप वहां से निकल आई। अपनी गाडी़ में बैठी सोचने लगी, छोटी सही कहती है ,प्रतिबंधित परिवार ही सुखी परिवार होता है। **
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क्रमांक -  041                                                             
                            आक्रामक भय                           
                            
                                                   - चन्द्रिका व्यास 
                                                     मुंबई - महाराष्ट्र
           
हर खेतिहार बारिश के आने पर अपनी फसलों को लहलहाते देख आनंद विभोर हो इन्द्र देव का आभार करता है! 
हमेशा की तरह इस बार भी समय से बीज बो दिये गये ---बादल बनते आशा बंधती किंतु माटी गिली न होती! 
हाय री किस्मत! लगातार 2-3 वर्ष बारिश न होने से जमीन बंजर हो गई! 
कर्ज पे कर्ज ---- साहूकार के पास सब तो गिरवी चढ़ चुका था! पति ने भी चिंता कर्ज और बीमारी से मुक्त हो ईश्वर की शरण ले ली थी! परिवार बिखर चुका था! 
पेट की आग और बेटी रामिया के मोह में ममता की बेडी से जकड़ी एक मां को आखिर अजगर बन साहूकार ने लील ही लिया! 
 आज उसकी बेटी रामिया अपने शराबी पति का त्यागकर अपनी मां के पास आई है! 
 साहूकार ने उसे अपने घर काम देने को बुलाया है! सुन झुमकी का मन दहल उठता है !
 रामिया ने अपनी मां को आश्वस्त किया! मैं अपना रक्षण कर सकती हूं! 
 साहूकार रामिया के रुप लावण्य को देख सोच में पड गया! यह हीरा कहां छुपा था ?
 रामिया ने कहा --- मैं अपने शराबी पति को छोड़कर हमेशा के लिए यहां आ गई हूं! गांव में
 मेरी और मां की दाल-रोटी की अब कोई चिंता नहीं! 
 साहूकार धीरी-धीरे उसके करीब आने की कोशिश करता है ! रामिया लगातार बोले जा रही थी! मेरा मरद रोज औरतों को मुंह मारकर आता था --- अच्छा हुआ साला बीमारी से ग्रस्त हो गया! 
 साहूकार ने घबराते हुए कहा कैसी बिमारी? 
 अरे वही क्या कहते हैं --- हां एड्स! 
 साहूकार ने कहा वह तुम्हारे पास भी आता होगा?
 रामिया ने कहा हां! 
 पर अब मैं यहां आ गई हूं !
 साहूकार को भय से उल्टी आने लगी!  वह गुस्से से बोला --- निकल यहां से..... 
 दोबारा तु यहां दिखाई मत देना !
रामिया को मजा तो तब आता है जब साहूकार
को वह कहीं दिख  भी जाती है तो वह एैसे भागता है मानो उसने जीती  जागती डायन देख ली हो! 
रामिया चेहरे पर विजय भरी मुस्कान बिखेरती  हुई कहती है -----देखा मां 
"शेर की खाल में भेडिये को लोमड़ी से डरते हुये" **
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क्रमांक - 042                                                            
                                   मुद्दा                              
                                                     - मिनाक्षी सिंह 
                                                     पटना - बिहार
                                                
मीडिया कर्मी रवि ने अगली चुनावी सभा में जाने से पहले एक कप चाय का आर्डर देकर नजर इधर उधर घुमाई तो उनकी नजर एक शख्स पर पड़ी , जो अपने बेटे से कह रहा था  ‘चलो गली की दूसरे नुक्ककर पर एक और नेता का भाषण है और वहांँ खाने का भी इंतजाम है यह लोग तो सिर्फ चाय बिस्कुट पर ही भाषण सुना कर चले गए ।’
         रवि को याद आया कि इस सभा में वे दोनों बाप बेटे बहुत ही बढ़ चढ़कर नेता जी जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे जिससे खुश हो नेता जी ने उनकी पीठ थपथपाई थी रवि ने जब उससे पूछा,‘अभी तो तुमने इन नेताजी की जोर शोर से नारेबाजी की और अब विपक्षी पार्टी में जाने और खाने की बात कर रहे हो’, तो वह बोला ‘बाबूजी सवाल नारे का नहीं सवाल है हम गरीबों के गरीबी का और भूखे पेट का जब-जब चुनाव होते हैं नेताजी के तरफ से वादे और खाने का इंतजाम होता है वादे जो नेता जी कर कर भूल जाते हैं और खाना जिसे हम खा कर भूल जाते है, इस चुनावी माहौल में ही बाबूजी हम गरीबों को कुछ अच्छा खाने को मिल जाता है और फिर बाबू जी जिन्होंने मेरी पीठ थपथपाई थी वह मेरी नहीं गरीबी की पीठ थपथपाते हैं ।’इस देश का सबसे अहम मुद्दा है गरीबी आप ही बताइए बाबू जी क्या यह नेता इस मुद्दे को खत्म होने देंगे ,कभी नही।’ ‘तो फिर क्या करोगे विपक्षी नेता को वोट दोगे  ’वह बोला बाबूजी वोट तो इस बार हम पूरे होशो हवास में ही देंगे पर ऐसा लगता है कि आपको भी अखर गया मेरा यहाँं से वहाँं जाना अब हम आपसे पूछते हैं कि क्या आपने नेताजी को कुछ कहा ,जो पिछले चुनाव में दूसरी पार्टी से चुनाव लड़े थे और इस बार दूसरी पार्टी से लड़ रहे हैं अगर पार्टी कमजोर थी तो उसे मजबूत करते पर सवाल तो सिर्फ गरीबों से ही होती है और वह रवि का जवाब सुने बगैर वहांँ से कसमे वादे प्यार वफा सब वादे हैं वादों का क्या गाता हुआ गली के दूसरे नुक्कड़ की ओर बढ़ चला ।’ **
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 क्रमांक - 043                                                                 
                            माँ का बंटवारा                             
                            
                                                       - मीरा जैन
                                                  उज्जैन - मध्यप्रदेश
     
पिता के देहांत के साथ ही दोनों भाइयों ने फैसला कर लिया कि माँको वे बारी बारी 6-6 माह अपने अपने साथ रखेंगे . इतना सुनते ही छोटी बहू उमा के माथे पर सल पड़ गये फिर भी कुछ सोच समझ कर लोक लाज मे उसने कहा -
' ठीक है एक जनवरी से तीस जून तक माँ जी मेरे यहाँ रहेंगी '
इस पर सावित्री ने ही अपने मन की इच्छा जाहिर की -
' उमा बेटी ! मै चाहती हूँ शुरू के छ: माह मै बड़े के पास शिमला मे ही रहूँ वहां ठंडक रहती है '
उमा ने जिद मे आ कहा-
' नहीं , आपको पहले हमारे यहाँ ही रहना होगा मै बाद मे नहीं रख सकती हूँ '
उसकी इस जिद से परेशान नितिन उसका हाथ पकड़ कमरे मे जा प्रश्न किया -
' उमा ! ये बे सिर पैर की क्या जिद है तुम्हारी '
उमा ने कुटिल मुस्कान के साथ जवाब दिया-
' निरे बुद्धु हो तुम , अरे ! एक तो फरवरी का महिना छोटा होता है और गर्मियों मे मै आराम से दो महिने मायके मे रुक सकती हूँ आपके के खाने पीने की भी कोई चिंता नहीं रहेगी '
आश्चर्य मिश्रित स्वर मे नितिन ने चहकते हुए जवाब दिया -
'  ओ - हो! ऐसा तो मैंने सोचा ही नहीं '
और  दोनों खुशी खुशी कमरे से बाहर आये और बाहर आते ही नितिन ने ऐलान कर दिया-
' मै जब तक बाहर पढ़ने नहीं गया माँ अपनी आँखों से ओझल नहीं होने देती थी मुझे खिलाये बगैर कभी खाना नहीं खाया अब माँ हमेशा के लिए मेरे साथ ही रहेगी '
              उमा के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी वहीं सावित्रीकी आँखों से ममता के आँसू टपक पड़े . **
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क्रमांक - 044                                                            
                                मृगनयनी                                 
                                                  - संगीता सहाय
                                                  रांची - झारखण्ड

"ओह! मैडम ज़रा ढंग से चलो रास्ते पर,इतनी बड़ी बड़ी आंखें हैं और सामने से आती गाड़ी नज़र नहीं आई।खुदकुशी करने का इरादा है क्या?"इनोवा से झांकते हुए तरुण ने जोर से मीरा को डांटा।मीरा भी ठिठक सी गई,तभी शायना दौड़ती हुई आई और मीरा को खिंचती हुई बोली "सॉरी दी  मैं आइसक्रीम लेने रुक गई थी,पर तुम्हे भी तो रुकना चाहिए था न" "हाँ...
रुकना तो चाहिए था पर क्या करूँ बिना सहारे चलने की आदत तो डालनी होगी न"।अचानक तरुण ने गाड़ी रोकी और बोला अरे...मृगनयनी
मृगनयनी...तू यहां...इनोवा से उतर कर वो चालक उनकी तरफ आने लगा मीरा ने कहा ये तो हमारे साथ कॉलेज में पढ़ता था,आवाज़ तो उसी की है।ये सभी मुझे मृगनयनी कहते थे पर किसे पता था कि एक दिन इस मृगनयनी के लिए दिन भी रात हो जाएगी,उसे दिन के उजाले में भी अंधेरा ही दिखेगा।मृगनयनी,हाँ इसी नाम से लोग मीरा को बुलाते थे बड़ी खूबसूरत आंखें थी उसकी।एकदम बोलती हुई।लेकिन न जाने किसकी नज़र लगी कि एक भयानक दुर्घटना में उसकी आँखें चली गई।लंबे इलाज के बाद जान तो बच गई पर उसकी आँखों की रोशनी चली गई।अब उसकी आंखें खूबसूरत तो थीं पर भाग्य की विडंबना ऐसी कि वो देख नहीं सकती थी।मृगनयनी आंखों निर्जीव हो चुकी थीं। **
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क्रमांक - 045                                                          

                             नई शुरुआत                                   
                                                   - अंजली खेर 
                                                 भोपाल - मध्यप्रदेश
                                          
सिमी रोजाना पति -पत्नी पर बनाए गए चुटकुलों के मजे लेते हुए व्हाट्सऍप पर दूसरे समूहो के साथ शेयर किया करती और कभी कभार चुटकिया लेकर अपने पति समीर को भी सुनाया करती !  इन चुटकुलों में पत्नियों की गप्पबाजी करने की आदतों, ek-दूसरों की बुराइयां करना,  शॉपिंग के प्रति दीवानगी, गाहे -बगाहे ब्यूटी पार्लर जाने की आदत,  हमेशा दूसरों के कामों में नुस्ख निकालने और पतियों का शादी के बाद पछताना आदि कई तरह के जुमलों से पत्नियों का मज़ाक बनाया जाता ! एक बार समीर ने उससे पूछा  कि ऐसे मेसेज रोज रोज कौन भेजता हैं तो सिमी ने बताया - कौन भेजेगा, मेरी सहेली नमिता ही व्हाट्सऍप के "सखी -सहेली" ग्रूप में भेजती हैं, इस ग्रूप में यही सब चलता रहता हैं  !
एक दिन समीर के ऑफिस से घर आते ही सिमी बताने लगी -"समीर पता हैं, आज क्या हुआ, वो नमिता हैं ना, आज उसके पति से उसकी बहुत ज्यादा झड़प हो गयी !
कौन नमिता, वही तुमको व्हाट्सऍप मेसेज भेजने वाली ना - समीर ने पूछा 
अरे हां, पता हैं उसके पति ने किसी बात को लेकर काम वाली बाई के सामने उसे जम के डांट लगाई ! मुझे बताते हुए वो बहुत रो रही थी ! अब बताओ तो ज़रा कि दूसरों के सामने अपनी पत्नी को डांटना  सरेआम उसकी बेइज्जती नहीं हैं क्या - सिमि समीर से पूछने लगी !
सिमि, एक  बात कहूँ, बुरा मत मानना, जो अपनी इज्जत खुद ही  नहीं करता, उसकी कैसी बेइज्जती -समीर बोला 
क्या मतलब हैं तुम्हारा -सिमि तीखे शब्दों में बोली !
पति -पत्नी के जिन चुटकुलों को पढ़कर तुम लोग हँसते और एक -दूसरे को शेयर करते हो जिनमे पति को पत्नी पीड़ित बताया गया हो, क्या ये तुम लोगों के लिए बहुत गर्व की बात हैं !  एक बात याद रखना सिमि, दूसरों से मान पाने के अधिकारी वो ही होते हैं जो खुद का सम्मान करना जानते हो !
विचारों में खोई सी सिमि ने अपना मोबाइल उठाकर तुरंत "सखी -सहेली" समूह से अपना नामा अग्झिट कर लिया ! **
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क्रमांक - 046                                                      
                                गुजरे लम्हे                         

                                                     - अर्चना राय
                                                जबलपुर - मध्यप्रदेश

 "हे भगवान! इतना शोर,  बच्चों ने सारे कमरे को महाभारत का मैदान बना रखा है, देखो तो सारा सामान कैसे बिखरा पड़ा है, और आप चुपचाप बैठ कर देख रहे हैं" पत्नी ने कमरे में आते ही कहा।
 "तुम भी आकर बैठो और देखो,  हमारा अतुल बिल्कुल हीरो की तरह एक्टिंग कर रहा है" "अच्छा, उन्हें रोकने, मना करने की बजाय, मुझे भी देखने कह रहे हैं, जैसे कोई टीवी पर फिल्म चल रही है"
" अरे क्यों बेकार में अपना माथा गर्म कर रही हो?"
 "रोज तो मैं अकेले ही  संभालती हूँ,  कम से कम छुट्टी वाले दिन तो बच्चों को देख लिया कीजिए"
" खेलने दो न यही तो उनकी खेलने, शरारत कर  सीखने की उम्र है"
" आप तो बस रहने ही दीजिए अपना ज्ञान"
" सही तो कह रहा हूँ,  अभी यह बच्चे छोटे हैं, तो घर इनकी शोर से चहक रहा है, कल को जब यह बड़े हो जाएंगे, तो यही शोर सुनने के लिए तरस जाओगी"
आज अपने अतीत को याद करते वह वृद्ध दंपत्ति, नितांत अकेले,  फोटो एलबम में बच्चों की तस्वीरें देखकर सोचते हैं,काश! फिर वही दिन वापिस आ जाएं, पर कहां, गया वक्त भी कभी लौटकर आया है।**
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क्रमांक - 047                                                       
                                 छतरी                                

                                                - अनीता मिश्रा सिद्धि 
                                               हजारीबाग - झारखण्ड

आसमान पर काले-काले बादल छा रहे थे,राम -प्रसाद जी बाहर निकलकर पास ही मैं एक मंदिर था , छोटी सी पहाड़ीनुमा शिला पर जा बैठे । उन्हें मेघ - पेड़ -पौधे से बहुत प्यार था । बैठते ही रिमझिम फुहारें पड़ने लगी ।
वो उठकर चलने लगे-धीरे-धीरे उम्र के साथ चाल में भी वो तेजी नहीं रह गयी थी । टिंकू दौड़कर हाथ में छतरी लिए उनके पास ही दौड़ा चला आ रहा था ।
"अरे तुम कब आये स्कुल से " ।
"अभी आया दादाजी "।
आप नहीं मिले घर में मम्मा बोली पास ही गये होंगे मंदिर पर दादाजी ,मैं आपको लेने चला आया । आप बारिश में भींग जाओगे ।
"जल्दी आओ दादू मेरे छतरी में"।
ये छतरी तो बहू की है ,उसके अमेरिका वाले चाचाजी ने गिफ्ट में दिया था ,बहुत महँगी है क्यों ले आये गन्दी हो जायेगी छतरी ? बहु नाराज हो जायेगी तो?
रामप्रसादजी टिंकू से बोले ।
बालमन क्या जाने दुनियादारी टिंकू बोला "पर दादाजी पापा तो कहते हैं यहाँ की सारी चीजें दादाजी का ही है ,मैं भी उन्हीं का हिस्सा हूँ ,तो------- फिर ये छतरी मम्मी की कैसे? ।
रामप्रसाद की आँखे भींग रही थी ,क्या उत्तर दे इस अबोध बालक को । काले बादलों से प्रश्न भी अंदर ही घुमड़ रहे थे। **
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क्रमांक - 048                                                   
                                     सुख                                 

                                                   - शालिनी खरे 
                                               भोपाल - मध्यप्रदेश

"खालाजान कहाँ हैं आप, वाह बड़ी अच्छी महक आ रही हैं बिरयानी की "नजमा नुसरत बी को आवाज देती हुई बावर्ची खाने में पहुंच गई।
"अरे खालाजान आप आज खाना क्यों बना रही हैं ?भाभीजान कहाँ हैं ,और बाई वो कहाँ हैं"।
खालाजान - "अरे एक साथ इतने सवाल , सास तो ले नजमा, पहले ये बता तू यहां कैसे?"
नजमा- "मुझे भाभीजान से कुछ काम था, उन्होंने शरारे के लिये नई लैसे मगंबाई  थी पंसद करने के लिए"।
"वो तो कई दिनों से बुटिक आई नहीं, तो मैंने सोचा मैं ही चल कर उन्हें बता देती हूँ "।
इस बहाने आप से भी मुलाकात हो जाएगी 
खालाजान- "रूबीना अपने मायके चली गई हैं और हमारे साहेबजादे को नौकरों के हाथ की बिरयानी पंसद नहीं आती ,अब इस उम्र में भी हमें ही लगना पढ़ता हैं "
नजमा- तो भाभीजान को बुलवा लिजिए न ।
खालाजान- "अब तुम्हारी भाभीजान बुलाने से नहीं आएँगी ,तुम्हारे  सलीम भाईजान से झगड़ कर गई हैं"।
ये आजकल के बच्चे जरा -जरा सी बातों में इतना झगड़ा करते हैं, किसी को किसी की बात बरदाश्त ही नहीं ।
नजमा- "तो सुलह करवा दिजिए न"
खालाजान- "नहीं नजमा सुलह की अब गुजाईश ही नहीं हैं , 
नजमा- "या अल्लाह ये क्या कह रही हैं आप ,पर ये तो सलीमभाई की दूसरी शादी थी"।
खालाजान- " हाँ उसे तो जरा सी गलती भी बरदाश्त नहीं और रूबीना , वो क्यों सहे ,अब इस उम्र में बेटे के लिये खाना बनाओं और इनके लिए रिश्ते ढूढों पर कब तक?
अल्लाहमियां बीबी का सुख दे ,बीबियां न दे" । **
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क्रमांक - 049                                                          
                               समझौता                           

                                                       - प्रतिभा सिंह
                                                   रांची - झारखण्ड
                       
आज सुबह से ही निशा ने पढ़ने का मूड बना लिया था। सुबह जल्दी-जल्दी अपने पति को ऑफिस भेजने के बाद उसने अपने नौ महीने के बच्चे को तैयार किया। उसके बाद वह पढ़ने के लिए बैठ गई। चार दिन के बाद उसकी एम.काम की परीक्षा थी। पिछले साल उसे एक विषय में क्रास लगा था जिसके कारण उसे फिर से परीक्षा देनी थी। कितनी बार टाइम-मैनेजमेंट के बाद भी वह पढ़ नहीं पा रही थी।
      आज उसे लगा कि वह कुछ पढ़ पायेगी। किताब खोलकर पढ़ना शुरू किया ही था कि नीचे से सब्जीवाले की दमदार हरयाणवी आवाज सीधे उसके कानों में पड़ी। झट किताब को छोड़ सीढ़ियों से नीचे उतर गई सब्जी लेने के लिए। सब्जी रखकर पढ़ना शुरू किया। मुश्किल से दस मिनट ही हुए थे कि उसे याद आया कि आज उसने अपने बच्चे के लिए कुछ भी नहीं बनाया।वह फिर किताब को खुला छोड़ बच्चे के लिए दलिया कूकर में चढ़ा कर पढ़ने बैठ गई। अभी दूसरे प्रश्न का उत्तर पढ़ ही रही थी कि बच्चे की नींद खुल गई और निशा की किताब बंद। **
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क्रमांक - 050                                                              
                           कसमसाती हथेलियां                          

                                               - डा अंजु लता सिंह 
                                                        दिल्ली

आज फिर सुबह से ही गँगा मैया वैसे ही उफ़न रही थी जैसे बीते वर्ष। गाँव भर में खौफ़ था और चौधरी साहब के घर में हमेशा की तरह सन्नाटा पसरा हुआ था। जीवन  के चौथे पहर में पहुँच चुके असहाय चौधरी साहब कभी आर्मी के रौबीले कर्नल हुआ करते थे। लेकिन आज वे अपने घर के निपट खामोश परिवेश में अपनी दोनों हथेलियों से खिड़की की सलाखों को जोरों से भींचकर अपना आक्रोश खुद पर ही निकाल रहे थे। लगभग अर्धविक्षिप्त सी हो चुकी विधवा बहू की लाचारी पर  दुःखद अतीत की यादों में बिलख रहे थे।
       . . . . बीते वर्ष ही सेना से प्री मैच्योर रिटायरमैंट लेकर उन्होंने गांव में एक स्कूल खोला था तो उसकी बागडोर के लिए, अपनी सर्वगुणसम्पन्न,साक्षर,सुंदर बहू से अधिक उन्हें कोई नहीं लगा। लेकिन वह नहीं जानते थे कि होनी उनके साथ क्या करने वाली है?  गंगा जी में आई बाढ़ ने गाँव में ऐसा कहर बरसाया। सुबह शुरू हुई तेज बौछारों ने दोपहर होने तक भयानक रूप ले लिया था और एकाएक बादल फटने के तेज धमाके के साथ ही स्कूल बिल्डिंग धराशायी हो गई थी। साथ ही स्कूल में पढ़ने वाले कई बच्चें और बहू की आँखों के सामने चार वर्षीय बेटा और पति भी लहरों की चपेट में आकर  'बचाओ-बचाओ' की पुकार लगाते हुए आंखों से सदा के लिये ओझल हो गए थे। जल के तेज बहाव ने गांव की आधी आबादी को लील लिया था। लेकिन उनका तो जैसे सब कुछ ही खत्म हो गया था। लकवे के त्वरित अटैक ने बहू को जैसे सीमा चलती फिरती लाश ही बना दिया था। और. . . !
"अरे बाबा! थारी वा पागल बहू नहर के धोरे देक्खी हमने...आई ना रही। वहीं किनारे पै बैट्ठी है। गंगाजी का पानी भी बढ़ता जा रहा है बाबा।" किसी खेतिहर कारीगर की आवाज ने उन्हें अतीत से बाहर निकाला। अभी वह कुछ और समझ पाते कि पड़ोस की कल्लो किसी तरह 'बहू' को संभालती हुई दरवाजे पर आ खड़ी हुई। "काका जी! एक और हादसा हो जाता आज गँगा जी के पास... वो तो मैंने देख लिया भौजी को, खींच लाई जबर्दस्ती।"
. . . सलाखों पर चौधरी साब की दोनों हथेलियां  धीरे-धीरे शिथिल पड़ने लगी थीं, आज उन्हें लग रहा था, अब समय रोने का नहीं घर की लाज को बचाए रखने का है.. बचे हुए को संभालने का है। **
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क्रमांक - 051                                                              

                                यहाँ नहीं है                                  
                                                                                                                      - कोमल वाधवानी ' प्रेरणा '
                                            उज्जैन - मध्यप्रदेश

" आंटी ,आप आज फिर उदास हैं ।"उतरे चेहरे पर नजर गड़ाए पूर्वी उत्तर की प्रतीक्षा करने लगी ।
" कुछ नहीं ।"
" कुछ कैसे नहीं ? बताएँगी तो दिल हल्का होगा ।"
"तू कहेगी, आंटी भी छोटी - छोटी बातों को दिल से लगा लेती है।"
"नहीं आंटी ,दिल में सँभालने से शरीर और दिमाग दोनों को ही भोगना पड़ता है। "
"ठीक है, बताती हूँ । है तो मामूली-सी बात।कल मैं बाहर जा रही थी।सीढ़ियाँ उतरकर नीचे पहुँची, तो विचार आया लौटने में न जाने कितना समय लगे ,ऊपर के अपने कमरे की चाबी नीचे सँभलवा दूँ ।भीतर से तीन -चार सदस्यों की आपसी बातचीत की आवाज बाहर तक आ रही थीं।चाबी देने के लिए पोती के नाम से खूब आवाजें दीं ।ऐसा नहीं कि किसी ने नहीं सुना ,बल्कि मेरी आवाज़ सुनकर भीतर सन्नाटा पसर गया ।यही बात मन को चुभ रही है।"
"ओह ! आंटी, आजकल सब दूर यही चल रहा है।एक दिन मैंने किसी काम से पड़ोस में रहने वाली दीदी को आवाज़ लगाई , " तारा दी ,ओ तारा दी ! "
जवाब न मिलने पर मुझे लगा शायद घर के अंदर आवाज़ नहीं पहुँची । यही सोचकर और ज़ोर-ज़ोर से पुकारा।खामोशी देख मैं घर के भीतर चली गई। कमरे में बच्चे मोबाइल पर गेम खेल रहे थे।तुम यहाँ पास में ही बैठे हो ,फिर भी जवाब नहीं दिया ?"
"आपने तारा दीदी के नाम से आवाज़ दी थी, हमारे नाम से नहीं और दीदी यहाँ नहीं है.....। बच्चे जवाब देकर फिर से मोबाइल पर बिज़ी हो गए ।उस दिन मुझे भी आपकी तरह बुरा लगा था।"
"इस संक्रमण का तो एक ही इलाज है कि जब पुकारने पर जवाब न मिले तो उस घर के जितने सदस्य हैं, बारी-बारी से सबका नाम लेकर पुकारा जाय ।"
हँसी का ऐसा फव्वारा फूट पड़ा कि उदासी न जाने कहाँ तिरोहित हो गई। ***
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क्रमांक - 052                                                             
                                  उबाल                                

                                                    - मधुकांत       
                                                रोहतक - हरियाणा

पत्नी कपड़े धोने लगी ,परंतु अभी तक वह रात वाली घटना को अपने जहन से उतार नहीं पाई थी ।पति ने उस पर क्यों हाथ उठाया,,,, एक तो बैठकर घर में शराब पियो,,,, उल्टा सीधा बोलो,,, गाली गलौज करो,,, सही बात बोल दो तो बेकसूर पत्नी को पीटो,,,, यह कौन सा न्याय है,,, तनिक घर की इज्जत का ख्याल कर लिया, नहीं तो मुझे भी दो हाथ दे रखे हैं । 
अचानक वह पति की कमीज को जोर जोर से पीटने लगी ।धीरे धीरे उसका क्रोध बहने लगा ।पानी में डालते हुए उसने देखा थापी द्वारा पीटने के कारण पति की कमीज पीठ से फट गई है ।
उसे तनिक भी पश्चाताप में हुआ बल्कि इस नुकसान के बावजूद उसे बहुत संतोष हुआ । **
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क्रमांक - 053                                                     

                        जन्म दिन की ख़ुशी                        

                                                    - शारदा गुप्ता 
                                                  इंदौर - मध्यप्रदेश

    आज विनी के बेटे का दसवाँ जन्म दिन था । तैयारियाँ ज़ोर शोर से चल रही थी।बहुत सारे मेहमान आने वाले थे । 
    “मैडम मैंने सारा काम कर दिया है। सफ़ाई हो गई है। टेबल लग गया है। बैठक में फूल सज़ा दिए है। दरवाज़े पर बल्बों की झालर लटका दी है। बस फुग्गे फुला कर बाँधने है, वो मई चार बजे आकर बाँध दूँगा ।”
कहकर रामशरण जाने के लिए मुड़ा ही था कि मलाकिन ने आवाज़ दी “सुनो रामशरण शाम को तुम्हारे बेटे रघु को भी साथ ले आना । बच्चों के साथ उसे अच्छा लगेगा।”
  “नहीं मैडम, वह नहीं आएगा।”
  “क्यों भाई उन बच्चों को कब ऐसी पार्टियों में जाने को मिलता है।”
   “ऐसा है मैडमजी, रघु तो अपना जनम दिन बस्ती के बच्चों के साथ खेल कर मनाता है ।उस दिन के लिए एक नई ड्रेस ही उसके लिए काफ़ी है।
   मैं नहीं चाहता मैडमजी, आपके बेटे का जनम दिन देखकर उसकी अपने जनम दिन की ख़ुशियाँ कम हो जाय।” **
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क्रमांक - 054                                                              

                                 औरत                                   

                                          - चन्द्रकान्ता अग्निहोत्री 
                                             पंचकूला  - हरियाणा
                                      
‘.......चलो जो हुआ अच्छा हुआ । ’....पर क्या सच में इतना अच्छा हुआ था |.... यह सोचते ही रमा का मन क्षोभ से भर गया | क्योंकि जब किसी को आघात पहुंचता है तो वह वही नहीं रह जाता जो वह था |
वह तो नहीं गयी थी अमित के पास |उन्हीं का फोन आया था | उन्होंने कहा कि  कुछ छंदों का अन्वेषण करना है |जैसे किसी प्रदेश विशेष के छंदों पर लेख लिखना है  |पहले तो उसने मना कर दिया लेकिन अमित जी के बार -बार आग्रह करने पर वह मान गयी वह काम पूरा हुआ तो फिर दोहे लिखने को कहा |दोहों का प्रकाशन सहयोग राशि पर आधारित था |पता नहीं क्यों स्वास्थ्य के ठीक न होने पर भी वह उन्हें मना नहीं कर पायी |क्योंकि  उन्हें छंदों पर शोध -कार्य बहुत पसंद आया था और उन्होंने उसे अपने सम्पादक मंडल में भी रख लिया था |क्षअक्सर फोन पर ही रचनाओं के विषय में बात होती |इस सिलसिले में उनसे  फोन पर काफी बात होती थी  |वे काम की बात भी करते | कई बार तो चुटकुलों में बातें होती तो रमा को भी अच्छा लगता वह भी कभी -कभी फोन कर देती |कुछ समय बाद वे धीरे -धीरे उसे प्रेम कवितायें भेजने लगे |प्रतिक्रिया में उन कविताओं पर इतनी ही टिप्पणी देती कि बहुत अच्छी लिखी हैं| .....उनकी प्रेम कविताओं से वह तंग आ चुकी थी |न जाने उन्हें ऐसा क्यों लगा की वह उनसे प्रेम करने लगी है  |.......क्या वह किसी से हंस कर बात नहीं कर सकती ?.....क्यों नहीं कर सकती ?... अपने हिसाब से उत्तर न मिलने पर शायद  वे तिलमिला गए थे |
 औरतें शायद इसलिए खुलकर बात नहीं करतीं क्योंकि अधिकतर लोगों को किसी को पसंद करने और प्रेम करने का अंतर स्पष्ट नहीं है |रमा को बहुत गहरा धक्का लगा |इसलिए नहीं कि  अब उनसे कभी बात नहीं होगी बल्कि इसलिए कि अधिकतर  पुरुषों की दृष्टि में औरत बचपन से बुढ़ापे तक  सिर्फ औरत ही होती है शायद इसीलिए उन्होंने उसे सम्पादक मंडल से निकाल दिया था । **
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क्रमांक - 055                                                               
                            निर्भया का भय                             

                                                   -  डा.चंद्रा सायता 
                                                    इंदौर - मध्यप्रदेश

   रंजन, सुलेमान, महेश और मनजीत चारों दोस्त किसी सुनसान जगह पर बनी टूटी -फूटी झोपड़ी के बाहर आकर.रुक गये।चारों दो बाइक पर आये थे।बाइकेंं एक ओर खड़ी करके चारों उस झोपड़ी के पास ही किसी विषय को लेकर मंत्रणा कर रहे थे।
    तीन दोस्तों ने आंखों के संकेत से महेश को झोपड़ी के अंदर जाने को.कहा। थोड़ी बहुत ना नुकुर कै बाद वह अंदर जाने को राजी हो गया।
    अंदर जाने पर.उसने जिस युवती को देखा,उसके दोनों हाथ बंधे थे ।मुहं कपड़े से सील.किया हुआ था। दुप्पटे के दोनों छोर गर्दन को लपेटते  हुए पीछे की दीवार पर लगी खूंटी से बंधे हुए थे।
   युवती विवश दृष्टि से याचना कर रही थी। कुछ बोलने की कोशिश भी करना चाह रही थी। महेश कुछ पल रुककर पीछे की खिड़की से कूदकर बाहर निकल गया।
    पंद्रह बीस.मिनिट के बाद.भी जब महेश नहीं लोटा तो सुलेमान को अंदर भेजा गया।उसे अंदर के सुनियोजित दृश्य मे ंंकोई परिवर्तन नहीं दिखा ।  "बेवकूफ कहीं का। " वह बड़बड़ाया।। ..हाथ लगा मौका गंवाकर भाग गया।
   इतने में सुलेमान की निगा़ह युवती की देह पर पड़े एक मुड़ेतुड़ेत्रकाग़ज के टुकड़े पर जा टिकी। सुलेमान .ने उसे खोलकर सीधा किया ।उस पर लिखे को पढ़ा...।
          " मैं फ़ांंसी नहीं चढ़ना चाहता। कुछ क्षणों का सुख और उसकी इतनी बड़ी. कीमत देना सरासर बेवकूफी. है।" सुलेमान के सामने मामला एकदम साफ था।
   काफी़ समय बाद जब महेश और सुलेमान बाहर नहीं. आए  तो बाहर इंतजार कर रहे रंजन और मनजीत मुस्कराए....
            "साले दोनों"
     दोनों एकसाथ.अंदर.गये ।वही कागज़ का टुकड़ा खुलकर युवती के चेहरे पर पहरा दे रहा था। मनजीत.ने उसे उठाया और दोनों ने एकसाथ पढ़ा । न जाने क्या सोचकर दोनों बाहर आ गये।
...मामले कीत्रगम्भीरता ने दोनों कीऔखें खोल दी।उनके सामने कल के अखबार में छपा समाचार आ गया।
   ".उच्चतम न्यायालय ने  निर्भया के बलात्कारियों और कातिलों को  उच्च .न्यायालय से मिली फांसी की सजा 
बरकरार रखी।" **
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क्रमांक - 056                                                            
                                 सुझाव                                  
                                             - राजकुमारी रैकवार  राज 
                                                 जबलपुर - मध्यप्रदेश
                                 
       एक  परिवार नया नया आया  क्यों  कि  उन लोगों  ने उस  जगह नया  मकान ख़रीदा था  l  दो  बेटी एक  बेटा l  नई  जगह थोड़ा सबको जानने कि आवश्यकता  होती है आस पास  के लोग  सभी  अच्छे  थे l रामनारायण  और राजश्री इनके अच्छा स्वभाव  के कारण जल्दी वहाँ  सबसे  घुल मिल गये  l  वहीं  पास के सभी  बच्चे रोज खेलने और जिनको पढ़ने  में  कोई  दिक्कत होती राजश्री  पढ़ा दी करती l  सातवीं कक्षा  की  एक लड़की प्रिया रोज आती l  मातापिता  ने बचपन में ही विवाह  कर दिया 10वीं  के बाद ससुराल गई  मजदूरी करता पति क्या करती l  प्रिया  ने सोचा मायके में ही रहेंगे  किराये  से कुछ  मदद घर  से हो जाया करेगी  क्यों  की इनके बच्चे भी तीन  हो गये l अब प्रिया के मातापिता  त्यौहार  में बस प्रिया और बच्चों  को बुलाते वो सबको बनाती  खिलाती  न उसके पति को खाना पानी  न ही बुलाते  बहुत दुःख होता प्रिया के पति को खरी खोटी भी सुनाते  l  एक दिन प्रिया  का पति राजश्री आंटी  के पास  आया बोला ये ससुराल वाले ऐसा  कर रहें हैं  क्या करें l  प्रिया ने भी यही कहा प्रिया को एक सुझाव  दिया l राजश्री आंटी  ने की तुम अपने माता  पिता से कहो कि  मेरे  पति  मेरे हैं  मेरी जिन्दगी  उन्ही  से है त्यौहार में  वो खुद बनायें  खाएं  या भूखे  रहें  ये मुझे  अच्छा नहीं लगता l  तब से वो अच्छे से त्यौहार मनाते  प्रिया के माता  पिता  भी कुछ नहीं  बोले l **
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क्रमांक - 057                                                            

                             धूल हटते ही                                

                                                      - पूनम झा 
                                                कोटा - राजस्थान 

दो साल बाद घर आये थे रवि कांत पत्नी  शीला भी साथ थी । घर के लोग  अनमने से उससे मिल रहे थे । मिल क्या रहे थे अनदेखा करने की कोशिश कर रहे थे । शीला अपने कमरे में गई । सभी सामानों के ऊपर धूल-मिट्टी भरा हुआ था, जिससे उसका रंग भी समझ में नहीं आ रहा था । पूरा कमरा जाले,  धूल-मिट्टी से भरा हुआ और  बिस्तर पर ही झाड़ू, कुर्सी-टेबल,तगारी आदि रखा हुआ था, मानो सोने का कमरा न हो कबारखाना हो ।  शीला मन ही मन--"पच्चीस वर्ष हो गए ।  शादी करके इस घर में आये हुए । जब से आयी, कभी किसी को पराया नहीं समझी । लेकिन यहाँ के लोगों में मेरे लिए कभी अपनापन नहीं देखी । दूर रहने की वजह से ससुराल आना तो  साल में एक बार ही होता रहा, पर मैं अपने कमरे या सामानों को सबको उपयोग करने के लिए छोड़ती रही । कभी किसी को रोका नहीं क्योंकि सब मेरे लिए अपने थे । सबने उपयोग तो किया किन्तु पराये की तरह । खैर ..... ।"--एक लम्बी सांस ली । 
रवि कांत आंगन में एक कुर्सी पर बैठ गए । तभी रवि कांत के बचपन के मित्र ( देवेन्द्र ) आंगन में प्रवेश किया । बीस साल बाद मिले थे दोनों दोस्त, क्योंकि दोनों नौकरी बहुत दूर-दूर  करते थे । एक घर आते तो दूसरे नहीं । इस बार  संयोग से मुलाक़ात हो गयी । दोनों गले मिले एक दूसरे की कुशलक्षेम पूछी ।  बैठकर बातें करने लगे । 
देवेन्द्र--"कहो कहीं मकान वगैरह लिया या नहीं  ?"
रवि कांत--"नहीं लिया है । पैसे कहाँ बचते हैं ।"
तभी घर के एक कमरे से आवाज आयी ।--"भविष्य के लिए बचाते तब बचते न ।"
ये आवाज रवि कांत की भाभी की थी ।
रवि कांत स्तब्ध हो गया और अतीत में खो गया--"नौकरी लगने के बाद से ही हमेशा जो भी पैसे बचते अपने बड़े भईया को भेज देते थे । बचते क्या थे,  खुद और अपने परिवार कष्ट में रह कर भी उन्हें भेज देते थे, क्योंकि भैया की चिट्ठी जो आ जाती थी कि कभी  छत बनवाना है, तो कभी दीवार टूट रही है, तो कभी किसी की शादी है तो,  किसी का मुण्डन । हमारे लिए तो सब अपने थे । हमने तो हमेशा सबकी मदद की है, बिना किसी से कोई अपेक्षा किये । शीला मुझे आगाह करती रही कि पैसे  भेजो मगर अपने  भविष्य के लिए भी कुछ  बचाया करो । तुम अपने भविष्य के लिए  नहीं बचाकर बहुत बड़ी गलती कर रहे हो ।  पर मैं था कि ......।  किन्तु ये उम्मीद नहीं थी कि मेरे अपनेपन के बदले मुझे ही नीचा दिखाने की कोशिश की जाएगी । मुझे मालूम है सभी भाईयों ने कहीं मकान, फ्लैट, प्लाॅट ले लिया है मगर सब मुझसे छिपाते हैं ।" 
दोस्त ने हिलाकर कहा--"अच्छा अभी मैं चलता हूँ । फिर शाम को मिलते हैं ।"
रवि कांत ने जबरदस्ती हंसने की कोशिश की । फिर उठकर अपने कमरे में गए जहाँ शीला कमरे की सफाई में व्यस्त थी ।
रवि कांत--"शीला तुम बिल्कुल सही थी । तुम्हारा ये कहना कि तुम अपने भविष्य के लिए जो कुछ नहीं  बचा रहे हो, तो देख  लेना जब सबके काम निकल जाएंगें तब  यही लोग तुम्हें  'मूर्ख' कहेंगे ।"
शीला ने एक नजर सामानों को देखा और हांफते हुए बुदबुदायी-- "चलो, अब कमरे से धूल हटते ही सामानों का रंग साफ-साफ दिखाई देने लगा।" **
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क्रमांक - 058                                                            

                            हाय,मेरी बेटी                                
                                              - राहुल लोहट
                                             जीन्द - हरियाणा
                                             
"आखिर दिया क्या है तेरे बुढ़े बाप ने हमें दहेज में,तुझ बिमारी को हमारे गले डाल दिया,आज मैं तुझे मार के ही दम लूंगी और अपने बेटे को किसी बड़े से घर में ब्याहूंगी"शन्नो ने अपने बेटे की बहू सिमरन को रस्सी से बांधते हुए कहा।
"माँ जी,मुझे मत मारो,मत मारो",सिमरन चिल्ला रही थी।
शन्नो ने मेज पर रखी मिट्टी के तेल की बोतल का ढक्कन खोलना शुरू किया तो मेज पर रखा फोन बजने लगा।
"कौन बोल रहा है",शन्नो ने चिड़चिड़े स्वर में फोन उठाकर पूछा।
"माँ,माँ!मैं बोल रही हूँ माँ,मुझे बचा लो माँ,आपका जमाई दहेज के लिये मुझे मारने की कोशिश कर रहा है,मुझे बचा लो माँ",दूसरी तरफ से आवाज सुनते ही तेल की बोतल शन्नो के हाथ से नीचे गिर गई और "हाय,मेरी बेट्टी,हाय,मेरी बेटी", बोलती हुई फोन को फैंक जल्दी से बाहर की तरफ दौड़ी। **
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क्रमांक - 059                                                              
                            विशुद्ध प्रेम                           

                                             - डा. नीना छिब्बर
                                            जोधपुर - राजस्थान
                  
     जेठ माह की गर्मी ,सडक किनारे खडा नीम का पेड भी सूर्य भगवान से कम तपिश की प्रार्थना कर रहा था। भरी दुपहरी मे सडक पर  इक्का दुक्का जीव ही दिख रहे थे। मानव तो पंखे, कूलर,ए.सी,की ठंडक में त्राण पा रहा था पर पेड -पौधे, जीव जंतु अत्याधिक परेशान थे। ऐसे मे नीम की जड़े जो बाहर निकली थीं ,ठीक उसके थोड़ा ऊपर तना थोडा -थोडा थरथराया ।ऐसा लगा जैसे नरम हाथों की  मुलायम उंगलियों की पोरो से कोई नामालूम तरीकें  से उसे जकड रहा है।यह एहसास एक साथ ही आंनद और भय उत्पन्न कर रहा था।
        पेड की डालो ने हरी -हरी पतियों के बीच मे से झांका तो एक टूटा हुआ मिट्टी का गमला जिस मे मनी प्लांट की बेल लगी थी कोई वहाँ पटक गया था।बेल अपनी नरम जडों से पेड के 
भीतर अवलंब पाने का प्रयास कर रही थी।बेल अपने अस्तित्व की रक्षार्थ विनम्रता से पेड को समर्पण की मुद्रा मे देख रही थी और पेड ने भी निमोली की बरखा करके संकेत  दे दिया।
            यूँ तो नीम की पतियाँ ,निमोली, शाखाएं कडवी होती हैं पर हृदय मिठास से भरा होता है। कुछ ही सप्ताहो मे ही टूटे गमले की हदको तोडकर  बेल पेड से एकाकार हो गई।पेड के संरक्षण,प्रेम विश्वास से परित्यक्त बेल  सुंदर ,मजबूत ,उद्दर्वगामी हो फैलने लगी।नीम और मनीप्लान्ट के नवरूप को देख कर सभी प्रसन्न होते । प्रकृति ने भी बर्षा का उपहार दिया। 
           मानव चाहे कमजोर ,बीमार, अनुपयोगी समझ वस्तुओ को बाहर फैंक देता है पर विशुद्ध प्रेम की  प्रतीक प्रकृति सदा बाँहें फैलाये ,जीवों,, वनस्पतियों को पोषित करती है। दोनों एकदूसरे के स्नेहाशीष से अभिभूत थे। **
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क्रमांक - 060                                                        
                             अधूरा सपना                            

                                              - सीमा भाटिया
                                           लुधियाना - पंजाब

"कितना समझाया था उस वक्त भी कि शादी ब्याह का मामला है, जरा सोच समझकर फैसला लो। पर नहीं, यह इश्क का भूत जो न कराए, सो कम है। क्या हासिल हुआ आखिर?"संयोगिता की माँ परेशानी से चक्कर लगाते हुए बड़बड़ाए जा रही थी । 
"जरा धीरे बोलो सुभद्रा, सुन लेगी वो। अभी चार महीने पहले सब कुछ खो दिया है उसने। क्या बीत रही होगी उस पर?" कैलाश नाथ ने शांत करते हुए कहा उसे।
"अरे, अब इस नवजात बेटी के साथ कैसे बिताएगी जिंदगी? ससुराल वाले तो अपनाने से रहे, पहले ही नाराज चल रहे थे इस प्रेम विवाह से। मैं तो खुद चीखती रही, पर मेरी सुनता कौन है इस घर में? बड़े शौक चढ़ा था तुम बाप बेटी को ही, देशभक्त बने फिरते हो सारे, बोला था मैंने इन लोगों की जिंदगी का कुछ भरोसा नहीं.. मर गया न अपने पीछे...।"आगे के शब्द मुँह में ही रह गए। सामने संयोगिता खड़ी थी।
"बस करो माँ। आनंद के साथ रिश्ता जोड़ना मेरी खुद की मर्जी थी और वह मरे नहीं हैं, देश के लिए शहीद हुए हैं। ससुराल वालों की तरह अगर आपके लिए भी मैं एक बोझ हूँ, तो मैं खुशी को लेकर चली जाऊँगी यहां से। मेरी  अध्यापिका की नौकरी काफी है मेरे और खुशी के जीवनयापन के लिए। किसी की मोहताज नहीं रहना है मुझे। और हाँ, आनंद के अधूरे सपनों को मुझे ही पूरा करना है। खुशी को वायुसेना में भेजने का और एक सफल पायलट बनाने का।"एक ठोस फैसला सुनाते हुए संयोगिता ने कमरे की ओर कदम बढ़ा दिए। **
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क्रमांक - 061                                                        
                        जनता,तू नहीं जानती                         
                                                     -  कृष्ण मनु 
                                             धनबाद - झारखण्ड

वे तीन थे । 
गांधी मैदान में किसी बड़े नेता का जोरदार भाषण चल रहा था। उन दिनो चुनाव का मौसम था। आये दिन ऐसे दृश्य दिख जाते थे।
भाषण समाप्त होते ही तीनों चल दिये।
रास्ते में एक  ने पूछा- " देखा, कितनी भीड़ थी। मानो जन सैलाब  उतर आया हो।" 
दूसरे ने कहा-" मैं कैसे देख सकता हूँ । मैं अंधा हूँ। 
फिर वह कहने लगा-" कितना बड़ा वक्ता था। तुमने उस नेता का भाषण सुना। गजब का सम्मोहन था उसकी आवाज में!"
पहले वाले के तरफ से कोई रिएक्शन नहीं पाकर वह थोड़ा नाराज हुआ-" कुछ बोलता क्यों नहीं? बहरा है क्या?" उसने कान के तरफ इशारा भी किया।
-" हाँ, मैं बहरा हूँ।"
दोनों ने तीसरे की ओर देखा-" तुम तो न अंधे हो, न बहरे। बताओ हमें , वह बड़ा नेता भाषण में बड़ी-बडी बातें कर रहा था, आश्वासन दे रहा था।"
तीसरे ने हाथ के इशारे के साथ गले से गों-गों  की आवाज निकालते हुए बोलना शुरु ही किया था कि दोनों ने रोक दिया-" रहने दो, रहने दो। तुम तो गूंगे हो।"
वे चुप हो गए। 
दो दिनो बाद उन्हें वोट देना था। एक ने कहा-" तुम किसे वोट दोगे?"
दूसरे ने,जो अंधा था, जवाब दिया-" उसे, जो मुझे रोशनी देगा। और तुम?" उसने हाथ से इशारा किया।
-" मैं उसे वोट दूंगा, जो मुझे सुनने की शक्ति देगा।"
फिर दोनों ने तीसरे से पूछा-" तुम किसे वोट दोगे?"
-" जो मुझे आवाज देगा ।" उसने हाथ के इशारे से और गों-गों की आवाज के साथ समझाया।
 आगे रास्ता तीन भागों में बंटा था। उनके सामने  जाति,धर्म और राष्ट्रवाद के झंडे लहरा रहे थे। वे अपने-अपने रास्ते चल दिये। **
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क्रमांक - 062                                                        
                                  बदला                                      

                                      - सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा 
                                     साहिबाबाद - उत्तर प्रदेश
         
" कब तक नफ़रत का बोझ ढोते रहोगे ? "
" ये मुझे विरासत में मिली है । इसे ढोना मेरी जरूरत कम , मजबूरी ज्यादा है । ये मेरा फर्ज भी है ।"
" पर इससे तो तुम्हारी देह समय से पहले बूढ़ी दिखने लगी है । तुम्हे पता है न कि  नफ़रत का बोझ ढोते - ढोते अपनी ही  हड्डियों खुद ब खुद गलने लगती हैं ।"
" हड्डियों को जाने दो , गलती हैं तो गल जाएँ ।मन और आत्मा भी तो कोई मायने रखती हैं या नहीं  रखती ।"
" तुम्हारे मन या आत्मा को किसने धिक्कारा है ? "
" मेरी न सही ।मेरे अपनों की , मेरे मजबूर बुजुर्गों की कहानी  तो यही  है । "
" क्या हर कहानी का अंत हर बार एक जैसा ही होना चाहिए ? "
" मुझे बर्गलाओ मत । मैं उनसे बदला लेकर रहूंगा । ये मेरा फर्ज भी है ।"
" फर्ज को अपने अहम का हथियार बनाकर ,  जीते जी अपनी हड्डियों को गलाकर बदला लेने का  आडम्बर करोगे , यही न । "
" जब गलने को होंगी , तब देखा जायेगा । अभी तो इनमें दम  है और जब तक इनमें दम है , ये बदला लेने की बात करती रहेंगीं ।"
" अच्छा ये बताओ इनमें वो दम आया कहाँ से जो ये बदला लेने का दम भरने की बात सोचने के काबिल हुईं ? "
" देखो मुझे अपनी बातों में मत उलझाओ । मैं तो बदला लेकर रहूंगा । "
" बदला - बदला और फिर बदला ।किसी की  बातों में मत उलझो । इस बदले को ही बदल दो । अगर यह हो गया तो मन और हड्डियां दोनों ही एक - दूसरे की मजबूती बन जायेंगे । "
" लगता है तुम आज मुझे बदल कर रहोगे ।"
"मैं तुम्हें क्या बदलूंगा ! लगता है  तुमने तो खुद ही  उस राह को पकड़ लिया  है  । " **
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क्रमांक - 063                                                             
                             आत्म हत्या                                   

                                          - दिव्या भसीन कोचर
                                            कुरुक्षेत्र - हरियाणा

कुछ ही देर पहले भड़के दंगों में विध्वंसक आगजनी के बाद अब सड़क पर मृत्युनाद बजाती भयानक चुप्पी पसरी थी।उस टूटे टीन के छप्पर में छिपा रामदीन स्थिति का जायजा लेने के लिए होले होले कदम बढ़ाते हुए बाहर निकल आया।सामने का नजारा जितना भयावह था उतना ही उसके लिए दर्दनाक भी।उसका अपना रिक्शा सड़क के दूसरी ओर धूं धूं करके जल रहा था। रामदीन को गांव से शहर आए लगभग आठ साल हो चुके थे।कर्ज में खेत बिक गए तो क्या हुआ आत्महत्या तो बुजदिलो का काम है वो ऐसा कोई कदम नहीं उठाना चाहता था जिसका भुगतान उसके परिवार वालों को करना पड़े।सो मजदूरी करने शहर चला आया।किराए का एक रिक्शा लिया और जी तोड़ मेहनत करने के बाद भी एक तिहाई हिस्सा तो किराया देने में चला जाता बाकी तिहाई वह अपने गांव भेजा करता और बाकी बचे तिहाई से अपना रहना खाना और नाम नाममत्र बचत ही कर पाता। सात साल हर महीने थोड़ी-थोड़ी बचत कर आखिर बीते माह उसने अपना खुद का रिक्शा खरीद ही लिया। अब उसकी मेहनत की पाई-पाई उसकी अपनी होगी।घर वालों को भी संदेशा भेज दिया था कि वह जल्दी ही सबको अपने साथ शहर ले आएगा।एक खोली भी थी उसकी नजर में,सभी कितने खुश थे। किसकी नजर लग गई ये कैसा ग्रहण लग गया उनकी खुशियों पर,उसकी आंखों के सामने उसके अरमानों की चिता जल रही थी और वो जड़वत वहीं खड़ा था।दंगों ने उसके वर्तमान को 8 साल पीछे फिर अतीत में धकेल दिया था।कुछ सोचते हुए वह सिर पर हाथ रख जमीन पर उकड़ू बैठ गया।जाने क्या उधेड़बुन चलती रही उसके भीतर। अचानक खड़ा हुआ और जोर से चिल्लाया नहीं मैं आत्महत्या नहीं करूंगा। **
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क्रमांक - 064                                                        
                           राह ही नहीं सूझती                        

                                              - सुदर्शन रत्नाकर
                                            फ़रीदाबाद - हरियाणा

         मौसा की तेरहवीं पर नहीं जा पाया था। इस बार घर आया तो इजा ने ज़ोर देकर कहा कि मौसी को मिलने गाँव में जरूर जाना है। मैं भी यही सोच कर आया था। पिछले माह ही मौसा जब खेत में काम कर रहे थे कि एक भेड़िया जो पता नहीं कहाँ छुप कर बैठा था,,एक दम उछल कर आया  और मौसा पर झपट्टा मारा। वह सम्भलते, इससे पहले ही वह भेड़िये की पकड़ में आ गए।वह उन्हें घसीटता हुआ पहाड़ी पर चढ़ गया। जब तक घर के लोगों को पता चलता, तब तक बहुत देर हो चुकी थी।गाँव वालों ने छुड़ाने की कोशिश भी की पर भेड़िये ने उनको मुँह की ओर से दबोचा था सो साँस घुटने से उनकी मौत हो गई।अधखायी लाश ही लोग भेड़िये के मुँह से छुड़ा पाए थे। ऐसी दर्दनाक मौत की सूचना पाकर ही दिल दहल गया था।
                 मौसी से मिला तो वह बुक्का मार कर रोने लगी। उनको चुप कराते कराते मेरी आँखों से भी दो बूँदें आज़ाद होकर गाल पर आ गईं जिन्हें ऊँगलियों की पोरों से पोंछते हुए मैंने कहा," मौसी धैर्य रखो, अनहोनी को कौन टाल सकता है।"
        थोड़ा सम्भलते हुए वह बोली ," वही तो बात है बेटा, पर अनहोनी अभी टली कहाँ है! भेड़िये ने रास्ता देख लिया है। आदमी का ख़ून उसके मुँह लग चुका है। वह फिर ताक लगा कर आएगा। डर के साये में जी रहें हैं हम लोग।सब जानते है जंगल और जानवर हमारे जीवन के लिए बहुत ज़रूरी हैं। हम इनके बिना आधे -अधूरे हैं फिर भी आए दिन ज़रूरतों के लिए जंगल काटे जा रहे हैं,  जब जंगल ही नहीं तो जानवर कहाँ जाएँ। भूख से पागल होकर आबादी की ओर आकर गाँव वालों को ही तो खाएँगे।पेड़ न रहने से बंजर धरती, न कोई काम धंधा, हम कहाँ से और क्या खाएँगे। जवान होती बेटियों को लेकर कहाँ जाऊँ  जतिन बेटा, कोई राह ही नहीं सूझती।"
           मौसी फिर रोने लगी थी, दोनों बेटियाँ भी  उनके दाएँ-बाएँ कंधों पर सिर रख कर फफक कर रो पड़ीं । मैं निरुत्तर हो कर बैठा रहा,क्या कहता ! पर मेरे भीतर बर्फ की कई कई परतें जमने लगी थीं। **
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क्रमांक - 065                                                   
                                बेवाइयाँ                                   
                                             - प्रतिमा त्रिपाठी
                                             राँची - झारखण्ड
                                             
डोर वेल की आवाज सुन डॉ शोभना मनु को आवाज़ देते हुये कहती है...बेटा देखो तो इस समय दरवाज़े पर कौन है।
मनु दरवाजा खोलती है, दरवाज़े पर सामने खड़े बेतरीब कपड़े पहने एक अधेड़ आदमी को देख चौकते हुए उससे कहती है। 
आप कौन है? यहाँ क्यों आये है? मनु के अचानक इतने सवालों से झिझकते हुए वह आदमी थोड़े संकोच से बोलता। शोभना बिटिया है, उनसे ही मिलना है।
उस आदमी के मुँह से माँ के लिए बिटिया सुनकर मनु सम्भलते हुए नर्म लहजे में कहती है। आप यही रुकिए मै उनको बुलाती हूँ।
तभी शोभना फिर से आवाज़ लगाती है। मनु बेटा कौन है। कुछ जबाब क्यों नही दे रही हो....मनु माँ से कहती है माँ आपसे कोई मिलने आया है। मुझे तो कोई मजदुर लगता है।
शोभना आँचल से हाथ पोछते पोछते दरवाज़े पर आती है, उस व्यक्ति पर नजर पड़ते ही मुँह से निकल पड़ता है। काका जी आप, इस समय कैसे आना हुआ। 
तभी उसे ख्याल आता है जाने कब से खड़े होंगे। माफ़ी माँगते हुए कहती है माफ़ किजियेगा काका अचानक आपको यहाँ देखकर भीतर बुलाना भूल गयी। आइये सोफे की तरफ इशारा करके बैठने के लिए कहती है।
जैसे ही वह आदमी भीतर आता है। घर की साज सज्जा देखकर हिचकते हुए सोफे के पास जमीन पर बैठने लगता है, तभी शोभना हाथ पकड़ कर सोफे पर बिठाते हुए कहती है। काका ये आपका ही घर है, इतना सोचने की जरूरत नही है। अब बताइए कैसे आना हुआ।
दरअसल बिटिया तुम्हें तो पता ही है, इधर कई सालों से बारिश समय पर नही हो रही है। सिंचाई विभाग को चिट्ठियां लिख लिख कर थक चुके है। कोई सुनवाही नही हो रही है। इस साल भी मानसून की कोई खबर नही है, कोई उम्मीद भी नही लग रहा है। धान के पौधे अब रोपने लायक हो गये है, अब तक तो बोरिंग का पानी खीचकर काम चल गया। लेकिन रोपनी नही हो पाएगी। एक तो डीजल इतना महँगा हो गया है दूसरे बिजली भी हफ्ते हफ्ते भर गायब रह रही है।
शहर आया तो सेक्रेटरी साहब से पता चला, तुम हमारे जिले की कलक्टर बन गयी हो। बिटिया इसी उम्मीद में चला आया की कम से कम हम मजबूरों की आवाज़ तुम तो सुनोगी।
हाँ हाँ क्यों नही काका अवश्य हम इस पर विचार करेंगे। हम कल ही सिंचाई विभाग से जबाब तलब करते है। आप निश्चिन्त होकर जाय, बहुत जल्द ही आपके क्षेत्र को पानी और बिजली दोनों मुहैया कराई जाएगी।
इतना कहकर शोभना रामदीन को आवाज़ लगती है कि काका के लिए भोजन की व्यवस्था करे। वो मना करते हुए कहते है नही बिटिया, इसकी क्या आवश्यक्ता है हमे भूख नही है और कहते हुए उठकर चलने लगते है। तभी उनकी एड़ियां कालीन में फँस जाती है, और उसको छुड़ाते हुए कालीन के धागे खींच जाते है।
ये देखकर मनु मुँह बनाते हुए हँसने लगती है और कहती है, छी आपके पैर कितने गंदे है, कम से कम ऐसी जगहों पर आने से पहले इसे साफ तो कर लेते।
उसकी इस बत्तमीजी पर शोभना डांटते हुए कहती है। चुप रहो, और इनसे माफ़ी मांगो। आज इनके पैर जो तुम्हे गंदे लग रहे है न, इन बिवाइयों पर तुम्हे घिन आ रही है। शुक्र मनाओ हमारे देश के किसान का। यदि ये मिटटी से इतना प्रेम नही करते, इतने मुश्किलों पर भी अन्न  नही उगाते, तो एक एक दाने के लिए तरस जाती, ये साफ सुथरी आबादी। किसान ही असली में इस देश के कर्णधार है, इस धरती के भगवान है। **
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क्रमांक - 066                                                    

                     एहसास                 
                     
                                                     - नीरू तनेजा                                                           समालखा - हरियाणा
                                             
                 मीशा विवाह पश्चात पहली बार पीहर कुछ दिन रहने के लिए आई तो दादी ने उत्सुक होकर पूछा-  “ क्यों बिटिया ! सास का स्वभाव कैसा है !”
               “ बिल्कुल आप के जैसा !” मीशा ने सरलता से कहा तो दादी मुस्कुरा कर बोली –“ प्यार करती है न तुझसे !”
    “  क्यों, आपने मेरी मम्मी से कब प्यार किया ! बात-बात पर ताने मारती हो या झगड़ा करती हो फिर मेरी सास कैसे प्यार करेगी मुझसे !” 
    सुनते ही दादी का दिल धक से रह गया ! वह समझ गई कि यह सास-बहू के रिश्ते की बात कर रही है पर फिर एकदम संभलकर बोली –“ सास ज्यादा परेशान करें तो तू भी चुप मत रहा कर ! एक दो तू भी सुना दिया कर.!”
    “    एक दो की दस करके उसने भी आप की तरह अपने बेटे को कह दिया तो मैं तो पिट जाऊंगी न !”
   अब दादी और अधिक न सुन सकी ! इतने वर्षों से जो जुल्म अपनी बहू पर करती आई थी आज उसका एहसास दर्द बनकर उसे ही चुभ रहा था ! पोती मन ही मन मुस्कुरा रही थी ! इतने वर्षों से मां पर जुल्म होते देखती रही मगर दादी के खौफ के कारण कुछ कर न सकी मगर अब दादी को उसके खौफ व  मां के दर्द का एहसास तो करवा ही दिया ! **
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क्रमांक - 067                                                  

सच का लोकतंत्र      
                                            - शशांक मिश्र भारती  
                                         शाहजहांपुर - उत्तर प्रदेश

लम्बे समय के बाद जब लोकतंत्र की आंखें खुली तो देखा चारों ओर हल्ला है ।तीर पर तीर चल रहे हैं ।
बयान वीर बयानों की वीरता से आगे जाने की होड़ में हैं ।आंखों में आंसू भरे एक महिला से आगे बढ़कर पूंछा
यह क्या हो रहा है सबके सब क्या कर रहे हैं ॽ
आपको नहीं पता लोकतंत्र का महापर्व है ।चुनाव हो रहे हैं ।जल्दी नयी सरकार बनेगी ।उसी के लिए यह सब कुछ है ।महिला ने आंसू पोंछते हुए बताया ।
उसकी भी आंखों में आंसू आ गये और सोचने लगा क्या यही मेरी सच्चाई है ।यह कैसे मेरे पहरेदार हैं ।जो अपने व अपनों के लिए सरेआम मर्यादाएं और राजनैतिक मूल्यों को तोड़ रहे हैं ।
काश। मेरा मतदाता अब भी जाग पाता, तो मैं सच का लोकतंत्र बन जाता । **
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क्रमांक - 068                                                         
                              लुप्त होती संस्कृति                          

                                                     - नीरू देवी
                                                करनाल - हरियाणा
                                    
सुबह से ही पापा के फोन पर हैप्पी तीज के मैसेज आ रहे थे। कभी कोई रिश्तेदार कर देता तो कभी पापा के दोस्त कर देते। मैंने सब मैसेजों को पापा के फोन में देखा था। कहीं किसी फोटो पर झूला था तो कहीं वीडियो में। मै सभी मैसेज देख कर सोच रहा था कि आखिर आज सब लोग झूले वाले मैसेज क्यों कर रहे है। कुछ देर बाद जब मैंने टीवी ऑन किया तो उसमें भी झूले और तीज के बारे में बताया जा रहा था। अब मुझसे रहा नहीं गया। मैंने पापा से पूछ ही लिया कि आज सब जगह झूले ही क्यों दिखा रहे है। तो पापा ने मुझे बताया बेटा ये त्योहार होता है। जिसे हरियाली तीज कहते है। यह त्योहार श्रावन में बनाया जाता है। क्योंकि इस महीने पार्वती ने तपस्या करके शिवजी को वर के रूप में पाया था। श्रावण महीने में चारों तरफ हरियाली ही हरियाली होती है और वर्षा उसे और भी अधिक सुंदर बना देती है।बेटा जब हम आपकी तरह छोटे बच्चे थे। तब पन्द्रह दिन पहले ही ये झूले डाल लिए जाते थे। और तीज के काफी दिनों बाद तक ऐसे ही ढले रहा करते थे। तीज वाले दिन सभी इकट्ठे होकर झूले झूला करते थे। और आपस में मिठाई भी खाया करते थे। तब मैंने पापा से पूछा पाप अब क्यों नही झूले ढलते, तो पापा ने कहा बेटा अब सभी लोग अपने-अपने कामों में इतने व्यस्त हो गए है कि उन्हें त्योहार भी नही याद रहते।और दूसरा बेटा जब हम छोटे हुआ करते थे।तब हर एक घर मे पेड़ हुआ करते थे। जिन पर हम झूले डाला करते थे।अब सभी के घर पक्के हो गए है। और सभी ने अपने घरों से पेड़ों को काट दिया है। अब जब पेड़ ही नही रहे तो झूले कहा से ढलेंगे बेटा।पापा की बात सुनकर मैंने पापा को कहा पापा मैं आज पेड़ लगाऊंगा। वह पेड़ कितने दिन में बडा हो जाएगा। बेटा चार से पांच साल में बडा हो जाएगा। मैंने पापा को कहा कोई बात नही पापा हम चार से पांच साल इन्तजार कर लेंगे। फिर झूले डालेंगे, जिससे आगे जो छोटे बच्चे होगे उन्हें तो तीज के बारे में पता होगा। और इसी बहाने सभी एक साथ इक्ट्ठे भी हो जाया करेंगे। **
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क्रमांक - 069                                                          

    मोहभंग
    
                                              - सेवा सदन प्रसाद
                                                 मुम्बई - महाराष्ट्र
          
ऑफिस से लौटते वक्त श्यामलाल नुक्कड़ पे बैठी औरत से सब्जी खरीदना नहीं भूलते।औरत की गली हुई बदन ही उसके आकर्षण का केन्द्र था।वह बिना मोल भाव किये सब्जियाँ लेता और मुंहमांगी कीमत दे देता पर प्रतिदिन एक सवाल अवश्य पूछता।
          अब तक उस औरत के बारे में मालूम हो चुका था कि उसकी एक बेटी भी है जिसे वह पढ़ा लिखा कर काबिल बनाना चाहती है।पर उसके पति के बारे में तो कभी पूछा ही नहीं।दिखने में तो विधवा जैसी दीखती पर चेहरे पर कोई भी शिकन नहीं।
       पर आज श्यामलाल अपनी जिज्ञासा पूरा कर लेना चाहता था ,अतः आते ही बोला -- " क्या बात है , आज तो ताजी सब्जियों की तरह तुम भी नही ताजी लग रही हो ।नई साड़ी खूब फब रही है।"
" हाँ साहब साड़ी फट गई थी - - लोग घूर् -घूर् कर देखते थे।समझ नहीं पाती कि लोग मेरी गरीबी को निहार रहे हैं या कुछ और ।"
" तुम अकेले इतना सब करती हो ? तुम्हारा पति ?"
"यही तो रोना है साहब - - "
" अरे ! माफ करना , मैंने तुम्हारी दुखती रग को छू दिया।मुझे क्या पता कि तुम्हारा पति अब इस दुनिया में - - - "
" मेरा पति जिंदा हैं साहब ।"
श्यामलाल जी को एक जबर्दस्त झटका लगा।
" जिंदा हैं ? "
" हाँ , पर जेल में बंद है ।"
" क्यों ? "
" क्या हैं न साहब , पहले मैं एक बहुत बड़े साहब के यहां काम करती थी और मेरा पति उसका ड्राइवर था पर एक रात शराब के नशे में वह कमीना साहब मेरी इज्जत लूटने की कोशिश की।तब मेरा पति आपा खो बैठा।काफी रोकने की कोशिश की पर वह उसे मार ही डाला।"
श्यामलाल तब बिना सब्जी लिये तेज कदमों से घर की ओर चल पड़ा । **
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क्रमांक - 070                                                            
                                  नकाबपोश                               

                                        - डाॅ.क्षमा सिसोदिया
                                       उज्जैन - मध्यप्रदेश
         
      "दरबान के आवाज लगाते ही,फरियादी विद्युत गति से इस तरह अदालत में हाजिर हुई,जैसे वह आज अपने नेत्रों से फूटती हुई ज्वाला से ही अपराधी को भस्म कर देना चाहती हो।"
       आज उसके केस की अंतिम तारिख है।कोर्ट के फैसले को सुनने के लिए भीड़ बेताब हो रही थी।अदालत खचाखच भरा होने से कुछ लोग बाहर ही जोंक की तरह चिपके हुए थे।
               वह अपनी-अपनी श्रवण शक्ति के साथ ही अपने कानों को बड़ा कर लेना चाहते थे।और अंदर की हर बात को सुन लेने की नाकाम कोशिश करने में लगे हुए थे। 
    अपराधी पक्ष का अधिवक्ता  इस तरह से जिरह पर जिरह किए जा रहा था,जैसे वह प्रश्नों की बौछार से ही उसके वस्त्रों को भी तार-तार कर देगा।
         तभी फरियादी ने जज  साहब से निवेदन कर विनम्रता के साथ अपनी बात रखी-
     "जज साहब मैं स्वीकारती हूँ कि-अपने फायदे के लिए मैं गलत रास्ते को चुनी थी।लेकिन अब मेरी मंशा कुछ और है।"
      "तभी बीच में विपक्षी वकील ने फिर से टर्र...टर्र... करते हुए अपने कानून का बेसुरा घंटा बजाया।" 
    फरियादी फिर हाथ जोड़ते हुए-  "जज साहब मेरी बात  अभी पूरी नहीं हुई है,मुझे पता था कि- मुझे न्याय नहीं सिर्फ बदनामी ही मिलेगी।फिर भी मैं यह कदम सिर्फ़ इसलिए उठाई,ताकि विगत कई वर्षों से नकाब के अंदर जो खेल चल रहा है,उस पर से अब तो पर्दा उठे।
            महिलाओं की मजबूरी का फायदा उठाते हुए,जो यौन शोषण कर्ता हैं,उन सफेद नकाबपोशों को मुझे बस  बेनकाब करना था। **
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क्रमांक - 071                                                            

                 बॉयफ्रेंड                     
                                                 - शराफ़त अली ख़ान
                                                 बरेली - उत्तर प्रदेश

        फिनिक्स मॉल के कैश काउंटर पर बिल भुगतान करने के बाद लड़की एकाएक तनाव में आ गई," मॉम, आपने साढ़े चार हज़ार रूपये तो डेली नीड्स पर ही खर्च करवा दिए ,अब मैं अमन से क्या कहूंगी ? उसने पांच हजार रुपये मुझे ब्रांडेड टॉप खरीदने के लिए दिए थे।
       मां का चेहरा अकस्मात असहज होकर फीका सा पड़ गया। शुष्क हो चुके होठों से वह कुछ बुदबुदाई। लड़की ने मां के चेहरे की बेचारगी को पढ़ा और फिर सहज होकर बोली," डोंट वरी मॉम! कह दूंगी उससे मुझे कोई टॉप पसंद नहीं आया और पैसे खाने पीने में खर्च हो गए ,वैसे भी वह बहुत भुलक्कड़ है।"
      सामान का पैकेट उठाते हुए लड़की ने मां की तरफ देखा। वह अब मॉल की कैंटीन की तरफ बढ़ी जा रही थीं, सांत्वना के मुलायम शब्दों ने उनके पेट की भूख जैसे जगा दी थी। **
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क्रमांक - 072                                                            
    स्याह रातों की सुबह

                                               - श्रुत कीर्ति अग्रवाल 
                                                   पटना - बिहार

काॅफी हाउस के एक टेबल पर वे दोनों आमने-सामने की कुर्सियों पर बैठे हुए थे। ध्यान से देखा तो मासूम बच्चे जैसे चेहरे पर ढेर सारी गम्भीरता लिये बैठी वह लड़की अमित को पसंद आ गई थी।
"आप क्या बहुत कम बोलतीं हैं?"
बात शुरू करने के लिए उसने पूछा तो एकाएक उधर से एक सुझाव आया...
"आप न, इस शादी से इनकार कर दीजिए!"
चौंक उठा था वह,
"क्यों भला?"
"मैं शादी करना ही नहीं चाहती"
लड़की की आवाज़ काँप रही थी। 
"आप इतनी नर्वस क्यों हैं? छोड़िये शादी-वादी की बातें! काॅफी अच्छी है न यहाँ की?"
अमित ने उसे सामान्य करने के लिए विषयांतर करने का प्रयास किया।
"किस क्लास में पढ़ती हैं आप?"
"मैं नहीं पढ़ती। ट्वेल्व्थ के बाद मेरी पढ़ाई छूट गई है।"
फिर चौंका था वह। बायोडाटा के अनुसार तो इसे बी काॅम सेकेन्ड ईयर में होना चाहिए।
"फिर क्या करती हैं आप सारा दिन?"
"घर में रहती हूँ। घर के काम सीख रही हूँ।"
अमित को लगा मानों उसका धैर्य जवाब दे रहा है।
"क्या बात कर रही हैं? आप बड़े शहर में रहने वाले, माडर्न परिवार के लोग हैं। आपके पापा इतने बड़े आॅफिसर हैं!"
वह चुप ही रही तो मन को मथता हुआ एक प्रश्न अमित के होंठों पर आ ही गया।
"तो क्या आप किसी से प्यार करती हैं?"
"हाँ, करती हूँ! बहुत ज्यादा करती हूँ।"
जैसे सब्र का बाँध टूट गया हो, लड़की की उदास आँखें अब आँसुओं से सराबोर थीं।
"किससे?"
लगा, जैसे मूर्ख बनाने के लिए इन लोगों ने उसे इतनी दूर बुला लिया है। 
"अपनी दीदी, सुधा से!'
कोई ज्वालामुखी फूट पड़ने को तैयार था उधर! अमित चुपचाप उमड़ते आँसुओं की उस बरसात को देखता रहा। फिर साँसें नियंत्रित होने पर वही बोली...
"मम्मी ने आपको कुछ भी बताने को मना किया है पर बताना जरुरी है। आपके पहले दो लड़के मुझे रिजेक्ट भी कर चुके हैं। आप भी कर दीजिए, पर मैं झूठ बोलकर शादी नहीं करना चाहती।"
इस बार अमित ने प्यार से उसके दोनों हाथों को पकड़ लिया।
"मत करना शादी! दोस्ती तो कर सकती हो न? बताओ, तुम इतनी परेशान क्यों हो?"
"आपको बहुत सारी बातों का पता नहीं है। सुधा मेरी सगी बहन है। वो पिछले साल एक लड़के के साथ भाग गई थी। उसके बाद से हमारे घर में कोई उसका नाम तक नहीं लेता।  माँ बीमार रहने लगी है, पापा और दादी मेरी शादी करके मुझे घर से निकाल देना चाहते हैं क्योंकि लोग कहते हैं, मैं भी सुधा जैसी ही निकलूँगी।"
उसके दर्द की लपटों से अमित का मन पिघल गया।
"लोगों को छोड़ो, तुम क्या चाहती हो मेधा?"
वह कुछ अचकचा सी गई। फिर कुछ सोंचकर बोली,
"पैसे कमाने हैं मुझे, बहुत सारे पैसे!"
अपनी हर बात से वह अमित को चौंकने पर मजबूर कर रही थी।
"किसी को नहीं पता, पर मैं रोज़ बात करती हूँ सुधा से! वो अच्छा लड़का नहीं था। उसके दोस्त भी दीदी को परेशान करते थे तो वह छिप कर भाग निकली पर अब उसकी हालत बहुत खराब है। न रहने की जगह है, न कोई नौकरी ही। मैं घर में किसी को ये बात नहीं बता सकती। पापा को मिल जाए तो वह उसका मर्डर ही कर देंगे। पर विश्वास कीजिये, वह बुरी लड़की नहीं है। बस, उससे गलती हो गई है। अब मैं क्या करूँ? उसे जिंदा रहने के लिए पैसे चाहिए।"
मदद माँगती  हुई, आँसुओं से तर बतर वे ईमानदार आँखें... इतनी खूबसूरत थीं कि उन्हें चूम ही लेने को दिल चाह रहा था। मेधा के हाथों पर उसकी पकड़ थोड़ी और मजबूत हो गई थी!
"सब ठीक हो जाएगा, मैं आ गया हूँ न!" **
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क्रमांक - 073                                                         
                                  सावन                                 
                                                  - कल्याणी झा
                                                   रांची - झारखंड

              काॅलेज से निकलते ही सावन की फुहारें शुरू हो गई थी। कुछ दूर जाते ही फुहारें थोड़ी तेज हो गई।
नैना एक दुकान के बाहर खड़ी हो गई।जहाॅऺ पहले से ही कुछ लोग खड़े थे।सावन की रिमझिम फुहार कम होने का नाम ही नहीं ले रही थी। नैना ने घड़ी की तरफ देखा। फिर भींगते हुए आगे निकलने लगी। कुछ दूरी पर जाकर उसे बस पकड़नी थी। तभी पीछे से आकर किसी ने कहा- "आप इसी काॅलेज से (हाथ का इशारा करते)
आ रही है ना,आप ये छाता ले लीजिए।कल मुझे काॅलेज में लौटा दीजिएगा । नैना उसकी वेश-भूषा देखने लगी।वो स्पोर्ट्स वाली पोशाक पहने हुआ था। पंकज ने स्थिति को भांप लिया। उसने कहा- "मैं काॅलेज में पढ़ता नहीं हूॅऺ।कोच हूॅऺ। काॅलेज में फुटबॉल टूर्नामेंट होने वाला है। लड़कों को ट्रेनिंग देने आता हूॅऺ।
                 नैना छाता लेकर निकल गई ‌।बस खड़ी थी।घर पहुॅऺचते ही उसने सारी बातें अपनी मम्मी को बताई। मम्मी ने कहा- "ठीक है।कल छाता वापस कर देना। ज्यादा बातें मत करना"। नैना हॅऺसते हुए अपनी मम्मी से लिपट गई।
                 काॅलेज पहुॅऺचते ही नैना क्लास में चली गई। क्लास शुरू हो गया था।दो क्लास के बाद खाली समय था। वो पंकज (कोच)को ढूंढने लगी।पर उसे कहीं नहीं दिखा।बाद में पता चला कि आज कोच नहीं आए है।वो रोज छाता लेकर आती।पर कोच दिखाई नहीं देते।
                     हफ्ते भर बाद काॅलेज के गेट से बाहर निकलते हुए,नैना की नजर कोच पर पड़ी।
अनायास ही नैना के मुॅऺह से निकल गया - "आज मैं छाता नहीं लायी हूॅऺ।
          कोच ने अपने अंदाज में कहा- "मैं लड़कों को लेकर बाहर गया था।मेरे बच्चे ट्रॉफ़ी जीत कर आए है। प्रिंसीपल
साहब को खबर देने स्टेशन से ही आ गया। बाइक नहीं है। मुझे भी बस से ही जाना है। चलिए साथ में चलते  है।"
           दोनों साथ में चलते हुए जाने लगे। फिर सावन की फुहार शुरू हो गई।बस का इंतजार करते हुए दोनों चुपचाप खड़े थे। तभी पंकज ने कहा- "आपको बारिश में भीऺगना पसंद है।" नैना ने चहकते हुए कहा- "आपने मुझे उस दिन छाता दे दिया।भीऺगने कहाॅऺ दिया।" दोनों जोर से हॅऺसने लगे।
            सावन की फुहारें अब थोड़ी कम हो चुकी थी। पंकज ने नैना की तरफ देखते हुए धीरे से कहा- "मुझे उस दुकान की चाय और पकौड़े बहुत पसंद है। क्या आप साथ चलना चाहेंगी"।
                 बारिश का महीना था।उस छोटी सी दुकान में बहुत भीड़ थी।चाय का प्याला लेकर नैना बेंच पर बैठ गई। पंकज भी सामने बैठ गया। जाने कितनी बातें होने लगी। नैना को पंकज से बातें करना अच्छा लग रहा था।अभी तक बस नहीं आयी थी। नैना पंकज की तरफ देख कर बोली- "चलिए आगे की स्टैंड में देखते है।" नैना मन ही मन अपना मनपसंद गाना गुनगुना रही थी...... "रिमझिम घिरे सावन,सुलग-सुलग जाए मन....।"
पंकज ने धीरे से कहा- "मुझे भी ये गाना बहुत पसंद है।" सावन की फुहारों के साथ दोनों चलते जा रहे थे।तभी पंकज के मुॅऺह से अचानक निकला- "मेरे माता-पिता नहीं है। मैं अपनी मौसी के साथ रहता हूॅऺ। उनसे मिलोगी। यहीं बगल में रहती है।"
नैना को अपनी मम्मी की हिदायत याद आ गई। उसने कहा- "आज मेरी मम्मी से मिल लीजिए। फिर कभी मौसी के यहाॅऺ जाएॅऺगे।"
                घर पहुॅऺचते ही पंकज ने नैना की  मम्मी के पैर छुए,और कहने लगा- "मुझे नैना बहुत पसंद है"। इतना सुनते ही मम्मी बिफर गयी- "तुम कौन हो?, क्या करते हो?, कहाॅऺ रहते हो?, नैना तुम्हें दो-तीन दिन से जानती है।फिर मैं कैसे विश्वाश कर लूॅऺ।" मम्मी ने नैना की तरफ देखा। तो नैना ने शरमा कर सिर झुका लिया।
                 दूसरे दिन पंकज अपने मौसी-मौसा को लेकर आया। कुछ औपचारिक बातें हुई। नैना की मम्मी अच्छे से आश्वस्त हो गई। पंकज ने नैना को अॅऺगूठी 
पहना दी।
               आज सात बरस बाद भी नैना का मन ,सावन की फुहारों के साथ उस चाय की दुकान पर पहुॅऺच जाता है ।जहाॅऺ प्यार के अंकुर फूटे थे। आज भी दोनों एक-दूसरे का हाथ पकड़े हुए ये गाना गुनगुना लेते है..... "रिमझिम घिरे सावन,सुलग-सुलग जाए मन.........।" **
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क्रमांक - 074                                                       

                                   सन्देश                                      
                                              - विजय कुमार
                                 अम्बाला छावनी - हरियाणा
                    
        स्वतंत्रता दिवस अर्थात 15 अगस्त को जैसे ही प्रातः उसने अपने मोबाइल पर व्हाट्सएप्प खोला, स्वतंत्रता दिवस की बधाई और शुभकामनाओं के तरह-तरह के संदेश आने आरंभ हो गए। उसने एक-एक कर सभी को देखा और उत्तर देने में लग गया। उसे व्यस्त देखकर पत्नी उठी और बोली, “आप मोबाइल चलाइए, मैं चाय बना कर लाती हूं।” 
थोड़ी ही देर में पत्नी चाय लेकर आ गई। 
“अरे, बड़ी जल्दी फुर्सत पा ली मुए मोबाइल से”, पत्नी ने मजाक में कहा। 
“तुम्हें पता तो है सुलोचना, मैं कितना मोबाइल चलाता हूं। आवश्यक होता है, तभी प्रयोग करता हूं।” दर्शन ने कहा। 
“हां, पर आज स्वतंत्रता दिवस है, तो मैंने सोचा खूब सारे बधाई संदेश आए होंगे, तो जवाब देते-देते देर तो लग ही जाएगी।” सुलोचना ने चाय पकड़ाते हुए कहा। 
“आए तो बहुत हैं, पर मैंने सभी को उत्तर नहीं दिया।” दर्शन चाय की चुस्की लेता हुआ बोला। 
“क्यों? किसको दिया और किसको नहीं दिया?” सुलोचना सोचते हुए बोली। 
“जिन्होंने हिंदी में बधाई और शुभकामनाएं दीं, उनको किया है, और जिन्होंने अंग्रेजी में संदेश भेजे हैं, उनको नहीं किया।” दर्शन ने खुलासा किया। 
“ऐसा क्यों?” सुलोचना ने पूछा। 
“अब तुम ही बताओ सुलोचना कि आज ‘स्वतंत्रता दिवस’ है या ‘इंडिपेंडेंस डे’? जिन अंग्रेजों के हम गुलाम रहे, जिनकी दी गयी यातनाएं और प्रताड़नाएँ सहन कीं, जिनके खिलाफ लड़ कर हमारे लाखों वीरों और नौजवानों ने अपना खून बहाकर स्वतंत्रता प्राप्त की; भारत में रहकर भारतवासी होकर अपने स्वतंत्रता दिवस पर उन्हीं की बोली यानी अंग्रेजी में संदेश भेजकर कौन सी स्वतंत्रता मना रहे हैं लोग”, दर्शन आक्रोश से भर कर बोला, “भारत को इंडिया बना दिया है सभी ने मिलकर। और तो और, त्योहारों पर भी हैप्पी होली, हैप्पी दिवाली, हैप्पी ईद, हैप्पी फलाना, हैप्पी ढिमकाना के संदेश आते रहते हैं। यह बधाई, शुभकामनाएं, मुबारकें या विशुद्ध क्षेत्रीय या मातृभाषा में सन्देश भेजना तो भूलते ही जा रहे हैं लोग। यह हैप्पी कब हमारी संस्कृति से चिपक गया, हमें पता ही नहीं चला। अफसोस की बात यह है कि लोग अपनी संस्कृति, अपनी विरासत को भूल कर आंखें बंद कर यह सब अपना रहे हैं। इस तरह अपने हाथों, अपने ही घर में अपनी ही बेकद्री करवा रहे हैं लोग।” 
“बात तो आपकी सोलह आने सही है जी”, सुलोचना ने हामी भरी, “पारंपरिक तौर से अपने देश के तीज- त्यौहार और पर्व मनाने में जो उत्साह, जो आनंद आता है, वह पश्चिमी तौर तरीकों में कहां है। पर आजकल की पीढ़ी यह सब समझे और माने तब ना।” 
“कोई माने या ना माने पर समझाना तो हमारा कर्तव्य है। कम से कम मैं तो हर वर्ष इन मूल्यों और उच्च आदर्शों का पालन अवश्य करता रहूंगा। हो सकता है देर-सवेर अपने आप या ठोकर खाकर दूसरों को भी समझ आ ही जाए, और वह इन बातों को मानना शुरू कर दें।” दर्शन ने स्वर में दृढ़ता लाते हुए कहा। 
“चलो अब मेरी तरफ से स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं तो ले लो।” सुलोचना ने कहा तो दर्शन के मुख पर भी मुस्कुराहट छा गई, “तुम्हें भी...।” **
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क्रमांक - 075                                                             
                                  बरतना                                    

                                                - नंदिता बाली
                                               सोलन - हिमाचल प्रदेश

""चार साड़ियां  , दो पर्स  , एक  जोड़ी  सोने  के टॉप्स  , इतना  तो सामान  मैने  तैयार  कर लिया है , अगर  कोई  कमी  नज़र  आये  तो बता  दो "' .
एक वयस्क  महिला  , श्रीमती  लाल  , श्रीमती वर्मा  से  पूछ  रही थी  .  संयोगवश  मैं उन  दोनों  को जानती थी और  उन दोनों का वार्तालाप  सुनने  का सौभाग्य  प्राप्त  हुआ  .
इस वार्तालाप  को सुन  , मैं भी उत्सुकतावश  मैं भी भागीदार  बनने चली  गयी  .मैने पूछा -
" श्रीमती लाल  , आपने  इतना सामान  अपनी  बेटी  की शादी  के लिए तैयार किया  है ?
"  नहीं बहनजी  , ये सामान तो मैं अपनी होने वाली  बहू के लिए तैयार कर रही हूँ  . दो महीने  पहले  मैने एक अमीर खानदान की लड़की  से किया था  . फिर  वह  महिला विजयी  मुद्रा  में मुझे  वो  सामान गिनवाने  लगी  , जो  उसे  लड़की वालों  ने  शगुन  के तौर  पर दिया  था  .
फिर वह बोली  -  "  मेरा  बेटा , अपनी  होने वाली ससुराल  में , होने वाली बहू से मिलने  जा  रहा है ."  मैं उसे खाली हाथ नहीं भेजना  चाहती  " .
"  लेकिन  , आप  लड़के वाले हैं  , आप इतना खर्च  क्यों  कर  रही  हैं  ?"
तो पाठको  जो उत्तर  सुना , उसे सुनकर  मैं हतप्रभ  रह  गयी .
" बहनजी  , इसे हम  बरतना सिखा रहे हैं .बरतना यानी  कि इन्वेस्टमेंट  !! **
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क्रमांक - 076                                                      

                               सच्चा सौदा                              
                                                     - पंकज शर्मा
                         अम्बाला शहर- हरियाणा

                भयंकर बाढ़..., हर तरफ पानी ही पानी था। 
'ऐसे में मैं घर कैसे जाऊँगा? अगर पानी में उतर भी जाता हूँ, तो भी चार किलोमीटर तक कहाँ पानी में पैदल चलता रहूँगा? ...पानी में तो जोर भी ज्यादा लगता है और समय भी, ...फिर कहाँ कोई गटर खुला हो या गड्ढा हो क्या पता? और नहीं तो कोई सांप वगैहरा काट ले...? कहीं कोई बस या ऑटो-रिक्शा भी ऐसे में नहीं चल रहा है...। रिक्शा तो खैर क्या ही मिलेगा..., चलेगा भी नहीं...। कोई साधन मिल भी गया आज तो मुंह-मांगे रुपए देने पड़ेंगे।' मैं इसी उधेड़बुन में था कि अचानक एक रिक्शावाला देवदूत की तरह पास आ खड़ा हुआ, "चलोगे बाबूजी...? चलो छोड़ देता हूँ...?" 
"ले चलोगे...? कितने लोगे?" मैंने आदतन कहा। 
"दे देना बाबूजी जो देना हो," उसने वैसा ही जवाब दिया जैसे उसकी आदत थी।
मैं झट से रिक्शे में बैठ गया। उसने रिक्शा खींचना शुरू कर दिया। 
थोड़ी ही दूर चलने पर मुझे कुछ महसूस हुआ, "अरे तुम्हारा तो टायर पंचर हो गया लगता है?" 
"हाँ बाबूजी...," वह जोर से रिक्शा खींचते हुए बोला। 
"तो तुम्हें परेशानी नहीं होगी, जोर ज्यादा लगेगा..., और सारी ट्यूब भी तो खराब हो जाएगी?" मैंने चिंतित स्वर में कहा। 
"कोई बात नहीं बाबूजी, अब क्या करूंगा? वैसे भी अब पंचर तो लग नहीं सकता और अपने घर भी पहुंचना है, तो मैंने सोचा क्यूं न एकाध सवारी ही ले लूं, कम से कम कुछ...," वह बोल रहा था।
  ....गंतव्य तक पहुँचने के बाद जब मैंने उसे रुपए दिए तो नयी ट्यूब मेरे ख़याल में थी...। **
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क्रमांक - 077                                                   

                             नेह की पूँजी                            

                                                  - अर्चना मिश्र
                                              भोपाल - मध्यप्रदेश
        
     बाहर मूसलाधार बारिश हो रही है। लगता है कहीं बादल फटा है, और बिजली भी गिरी होगी।
     अमिता को अचानक अम्मा की याद आयी। इतनी बारिश में ना जाने कहाँ होंगी अम्मा।
        सुबह खुशनुमा मौसम देख  अमिता चाय लेकर बाहर बालकनी में आकर बैठ गयी। चाय की चुस्की के साथ पेपर पढ़ते समय अचानक लावारिस लाश का चित्र देखकर वह चौंक गयी। यह तो अम्मा है। 
       मन मे एक हूक सी उठी। और सब याद आने लगा।
     कुछ महीने पहले उसके फ्लैट की सीढ़ियों पर एक भद्र, गौर वर्ण  महिला, सत्तर के आसपास की रही होगी बैठी मिली। 
      अमिता ने बहुत पूछा।
  "अम्मा कहाँ से आयी हो?" आपका घर कहाँ है? लेकिन वह कुछ नही बता पायीं। 
     इसमें क्या है? उनकी गठरी  की तरफ ऊँगली कर पूछते ही उन्होंने गठरी उठा अपने सीने से लगा ली और "नहीं- नहीं "  कह गिड़गिड़ाने लगी। 
        लगा जैसे पहले भी किसी ने छीनने की कोशिश की हो। अमिता ने फिर नही पूछा। सुबह अमिता ने देखा सामने मंदिर में अम्मा फूल चढ़ा रही थी। अमिता ने मौका देख
उत्सुकता वश उनकी गठरी खोल कर देखा। एक फटी चादर, एक गंदी सी गुदड़ी, दो चार रंग उतरी साड़ी, और बहुत सारे अलग- अलग आकार के  पत्थर थे। अमिता ने जल्दी से देख उसे वैसे ही रख दिया।
        जरूर किसी अच्छे घर की महिला है। एक अपनेपन का भाव उमड़ आया अमिता के मन में।
        अगली सुबह शोर से उसकी नींद खुल गयी। देखा एक लड़का अम्मा को जबर्दस्ती खींचकर ले जाने का प्रयत्न कर रहा है और अम्मा  अपना हाथ छुड़ा रही है।  भीड़ इकट्ठा होते देख वह लड़का भाग गया। उसी शाम अमिता के घर का दरवाजा खुला देख अम्मा एक टूटा  कप लेकर आ गयी।      
       चाय चाहिये ? पूछते ही अम्मा ने सर हिला दिया। उस दिन के बाद अम्मा कभी- कभी दरवाजा खटखटा उससे  खाना भी माँग लेती। बहुत- बहुत देर वह अमिता के दरवाजे पर बैठी रहती। पैसे की जगह वो अमिता को अपना अमूल्य पत्थर दे जाती। उनके लिये वही पूँजी थी। 
      एक दिन रौ में  अम्मा ने बताया कि उनके  एक बेटी है। जिसे उनके दामाद ने मार डाला। जो जबरदस्ती लेने आया था उस दिन, वह दामाद है। अब वह  मुझे मार डालेगा। 
           क्यों अम्मा ?  अम्मा सहम गयीं। आँखोँ में दामाद का खौफ़ उतर आया।
      आपके पति कहाँ है ? वो चले गये। कहाँ ? पता नही।
      पैसा है मेरे पास। कहाँ अम्मा किस बैंक में ? 
     "मैं अपना पैसा किसी को नहीं दूंगी।"  कहकर अम्मा दौड़ अपनी   गठरी पकड़ कर बैठ गयी। लगता, उन्हें इतना त्रास दिया गया था कि वो अर्धविक्षिप्त सी हो गयी थीं। उन्हें कुछ याद नही। कभी कुछ कहती और कभी कुछ।  उसे अनजाना लगाव सा होने लगा था अम्मा से।     
       उस रात  ऐसी ही बारिश हो रही थी। किसी ने कई बार बेल बजायी। जैसे ही अमिता ने 'आइडोर ' से झाँका दो लड़के खड़े दिखे । उसने डरकर दरवाजा नही खोला। जैसे- तैसे रात काटी।  सुबह उठकर अमिता ने देखा कि उसके घर के बाहर अम्मा के पत्थर रखे हैं। लेकिन अम्मा और उनके सामान का कोई नामों निशान तक नही । अगर यह पूँजी अम्मा ने रखी  है तो इसका मतलब अम्मा को पता चल गया था कि कोई उन्हें बलात ले जानेवाला है। पता नही अम्मा भागकर कहाँ गयी होंगी । हो सकता है वो लड़के रात अम्मा का पता करने ही आये हो। जो भी हो ,अमिता का मन रुआँसा हो गया।
          अब उसे देर नही करनी है। सीधा पुलिस स्टेशन पँहुच उसने सारी कार्रवाई कर अम्मा का दाह- संस्कार करवाने का इंतज़ाम स्वयं किया। आखिरी विदा देते समय 
 "अम्मा! आप लावारिस नही हो। " कह वह फफक- फफक कर रो पड़ी। **
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क्रमांक - 078                                                     

                               मिसकाल                                    
                                                 -सविता इन्द्र गुप्ता 
                                                 गुरुग्राम - हरियाणा 

लाल जी के घर के बाहर भीड़ लगी है। उन्हें जमीन पर लिटा दिया गया है। एक फोन अभी भी उनकी मुठ्ठी में कस कर बन्द है। सब खुसपुसा रहे हैं, "बेटा दोपहर बाद आ पाएगा, अंतिम संस्कार तभी होगा।" आस-पड़ोस वाले बेटे को तरह-तरह की लानत भेज रहे हैं, नालायक ... खुदगर्ज़  ... बेगैरत ...    
दूर शहर में रह रहे बेटे ने एक बार स्मार्ट फोन ला दिया था, जो लाल जी को किसी बड़े चमत्कार- सा लगा था। जब-तब वीडिओ चैट कर बच्चों को देखते तो आत्मा तृप्त हो जाती। सारी कायनात इस फोन में सिमट कर रह गयी थी।  
दिन कटने तब मुश्किल हो गए थे, जब कुछ दिन बाद बेटे की तरफ से फोन काट दिया जाने लगा, -  "पिताजी, तुम्हे तो फुरसत है लेकिन हमें दस काम रहते हैं। आगे से डिस्टर्ब न करना, मैं खुद फोन कर लिया करूँगा।"
वे जागते हुए सदा फोन हाथ में और सोते हुए सिरहाने रखते। रात में ठीक से सो न पाते- ' कभी फोन आ जाए और वे सोते रह जाएँ।' महीनों तक जब फोन नहीं आया तब वे अवसाद की गहरी खाइयों में उतरते चले गए। 
एक दिन अपनी दिवंगत पत्नी के दीवार पर फोटो के सामने खड़े हो कर वीडियो चैट की तरह बात शुरू कर दीं -
"हैल्लो, कैसी हो ? सुना तुमने, अब तुम्हारा बेटा बहुत बड़ा आदमी हो गया है। बहुत व्यस्त है। फुरसत नहीं मिली होगी, तभी तो अपने पिताजी को फोन नहीं किया। हैल्लो, सुन रही हो न ? तुम्ही कभी अपने लाल जी को फोन कर लिया करो। तुम्हारे बिना बहुत अकेला हो गया है ये लाल जी।" गला रुध गया।  अचानक जी बहुत घबराने लगा। बेटे को फोन लगाया, लगातार मिलाते रहे। अंततः फोन की बैटरी समाप्त हो गयी थी और उनकी भी। **
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क्रमांक - 079                                                        
                            बात नहीं करूंगी                           
                                                     - सरला मेहता 
                                                    इन्दौर - मध्यप्रदेश

            रितु छुट्टियों में अपने दोनों बच्चों के साथ मायके आई हुई हैं । भाभी नीना ननद जी की तीमारदारी में दिन भर जुटी रहती है।ऊपर से अपने बेटे की फरमाइश कि नानी के घर कब चलेंगे। सासु माँ अनुसूया जी का आदेश सुन उसकी तन्द्रा टूटी," बहु आज आमरस व सिवइयां बना लेना।और हां रात को दाल भिगोना तथा दही ज़माना मत भूलना,कल दही बड़े बना लेना।"थकी हारी नीना 'जी माजी' कहते हुए अपने कमरे में आ निढाल हो लेट जाती है। याद आया मम्मी से बात करना है।यही तो समय है उसका अपना माँ से बतियाने का।अनुसूया बेटी से शिकायत करती है,"समय मिला नहीं कि महारानी लगी मैया से शिकायत करने।जब तक उगलेगी नहीं खाना हज़म नहीं होगा।"
माँ का व्यवहार देख रितु सोचती है,"मैं एक दिन भी माँ से बात ना करूँ तो आसमान सर पर उठा लेती है।कई हिदायते,,,,थोड़ा आराम भी करा कर।ननद आए तो कोल्हू के बैल की तरह मत जुट जाना।" रितु सोचने लगी की इतनी सुयोग्य भाभी में भी माँ जब तब नुस्ख निकालने लगती है। पापा से सलाह लेकर वह अकेले में माँ को समझाती है,"माँ , आपको लाखों में एक बहु मिली है।हां , आपको यदि भाभी का अपनी माँ से बात करना अच्छा नहीं लगता तो आगे से मैं भी आपसे रोज बात नहीं करूंगी।" अनुसूया जी के पास बेटी को कहने के लिए कोई शब्द नहीं थे । **
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 क्रमांक - 080                                                             

                         अगली दुनिया                                

                                          -  लखविन्दर सिंह बाजवा
                                                सिरसा - हरियाणा

       देव नहर की पटरी पर जा रहा था तो उसकी नजर नहर में गिरते गंदे पानी पर पड़ी ।उसे याद आया कि जब वे स्कूल में पढ़ता था तो इसी नहर से पानी पीया करता था ।आज तो शायद कुत्ते भी इस पानी को पीना पसंद न करें ।    
             उसको याद आया कि एक बार जब वे दस बरस का था तो इसी नहर की पटरी पर अपने पिता के साथ जाते वक्त उसने नहर की तरफ मूत्र  कर दिया था ।यह देखकर उसके पिता ने कहा था कि, "बेटा नहर में पेशाब नही करते ।"
" क्यों " उस ने अज्ञानता वश पूछा था ।
 " पानी गंदा हो जाता है , सभी लोग व पशु पक्षी पीते हैं ।जल पवित्र होता है लोग इसे देवता मानते हैं ।शास्त्रों में भी लिखा है जो पानी की तरफ या पानी में पेशाब करता है वे अगले जन्म में कुत्ता बनता है , "उसके पिता ने कहा ।
पानी खराब होता है इसीलिए नही पर अगले जन्म में  कुत्ता न बन जाऊं इस लिए उसने फिर कभी पानी की तरफ पेशाब नही किया था। जब बड़ा हुआ तो ये बात वहम लगने लगी थी ।
           परंतु आज वे सोच रहा था कई बार अंधविश्वास भी कितना कारगर नुस्खा होते हैं ।
फिर वे सोचने लगा अगर शास्त्रों की बात सच्च हो जाए तो - - - -अगली दुनिया - - -या आने वाली दुनिया तो इस हिसाब से कुत्तों की ही होगी ।और वे दुखी मन से भी मुस्करा दिया क्योकि इस बात में उसे सचाई की झलक पड़ रही थी । **
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क्रमांक - 081                                                          

                           दाना- पानी                                   
                                                  - रशीद ग़ौरी 
                                              पाली  - राजस्थान

' अब तेरा यहाँ से दाना-पानी उठ गया है। अब तुझे यह घर छोड़कर जाना होगा । जल्दी से अपने बोरिया- बिस्तर समेट लो प्रकाश । ' 
      पति के मुख से अपने भाई और साले साब के लिए ये कड़वे शब्द सुनकर पत्नी सदमे में आ गयी। 
      ' यह आप क्या कह रहें हैं ? होश भी है आपको ! मेरे छोटे भाई के बारे में क्या अनाप-शनाप बोल रहे हो। रिश्ते का कोई लिहाज़ भी है आपको... ! ' पत्नी की नाराजगी उसकी पैशानी पर साफ झलक रही थी। माहौल में अवांछित सन्नाटा उभर आया था। जिसने उसके भीतर आग सी लगा ड़ाली थी। 
      ' अरे... अरे... सुनो तो...!'  पति ने पत्नी के कान में कुछ फुसफुसाया। 
      यह सुनते ही बहिन खुशी से झूम उठी और दौड़कर वहीं पत्थर की मूर्ति बनकर खड़े भाई प्रकाश को अपनी स्नेहिल आगौश में भींच लिया। आँखें आँसूओं से लबालब हो गयीं। प्रकाश की सरकारी नौकरी में सलेक्शन जो हो गया था। 
      ख़ुशी से आनंदित प्रकाश मिठाई लेने दौड़ गया। उसे ऐसा लग रहा था जैसे वो हवा में तैर रहा हो। असीम आनंद के अकल्पनीय अहसास की परवाज़ के बीच उसके पैर ज़मीन पर ही नहीं पड़ रहे हैं। अब वो इस घर से अपना दाना-पानी उठने की ख़बर से नाराज़ नहीं बल्कि बेहद खुश था।
     उसका उज्ज्वल भविष्य जो उसके इंतज़ार में बाँहें फैलाए खड़ा था। **
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क्रमांक - 082                                                       

                                  अपवित्र                             

                                          -  डा. राजकुमार निजत
                                                 सिरसा - हरियाणा
                       
          मीनू का पतंग कट कर मंदिर के गुम्बद पर जा गिरा और पतंग की डोर गुम्बद के शिखर में उलझ गई । 
          मीनू ने देखा तो वह तुरंत दौड़ पड़ा और अपना पतंग लेने के लिए उस गुम्बद पर जा चढ़ा । लोगों ने देखा तो हो -- हल्ला मच गया । 
           मंदिर के पुजारी  व आसपास के दूसरे लोग इकट्ठे हो गए । 
          पूजारी बोला -- " इस नीच को उतारो यहाँ से जल्दी  , मंदिर अपवित्र हो गया है । "
          तत्काल एक मीटिंग हुई और मीनू के बाप शिखर भगत को मंदिर की साफ-सफाई करने हेतु पाँच सौ रूपए का जुर्माना भरने के लिए कहा गया ।
          शिखर भगत बोला -- " दो साल पहले इस गुम्बद पर चढ़कर जब उसने सिंदूरी रंग पेंट किया था तो रंग की चमक देखकर सब ने उसकी खूब तारीफ की थी और मुझे सम्मानित भी किया था । तब मंदिर अपवित्र नहीं हुआ था  ? आज मीनू अपना पतंग लेने इस पर चढ़ गया तो मंदिर अपवित्र हो गया ?
          वह पुनः बोला -- "  सफाई ही करनी है तो मैं खुद कर दूंगा लेकिन जुर्माना  नहीं दूंगा । " **
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क्रमांक - 083                                                          
                                  अन्यथा                                     
                                                    - डा• मुक्ता
                                             गुरुग्राम - हरियाणा
                                      
तंग आ गई हूं, तुम्हारे लिए जुमले सुनते- सुनते ...क्या सिखाया है तुम्हारे माता-पिता ने,पति का सामना करना,उसे पलट कर जवाब देना,उसकी बराबरी करना,व्यर्थ ज़ुबान चलाना?
 हां -हां नहीं बनना चाहती वह सती सावित्री या सीता, ना ही उर्मिला या यशोधरा, न ही यशोधरा या गांधारी,न ही अहिल्या..सब ने अपने पति का आंख मूंदकर साथ दिया,अनुसरण किया... परंतु क्या मिला उन्हें... उपेक्षा,एक लंबी प्रतीक्षा वअग्नि परीक्षा।वे मूक होकर हर सितम सहती रहीं,आजीवन दुःख व कष्ट झेलती रहीं और पुरुष वर्ग उनके उदाहरण धरोहर सम सहेज कर रखे हुए है...क्योंकि इसमें निहित है उनका व्यक्तिगत स्वार्थ,जिसके आधार पर वह कर सकता है ...नारी की अवमानना, तिरस्कार व प्रताड़ना, जो उसे मंज़ूर नही।
तो क्या चाहती हो तुम?
समानाधिकार... जीवनसंगिनी होने का,सुख-दुःख में साथ निभाने का उपक्रम,अपनी अलग पहचान,या अपना अस्तित्व। नहीं चाहिए,मुझे यह चुटकी भर 
सिंदूर, यह मंगलसूत्र,यह चूड़ियां,यह पायल...जो मेरे विवाहिता नहीं, गुलाम होने का सामान है,पहचान है।मैं तुम्हारे साथ जीवन के कर्मक्षेत्र में कदम से कदम मिलाकर चलना चाहती हूं। यदि मंज़ूर है तो उत्तर दो।अन्यथा…
 अन्यथा क्या?
जानना चाहते हो...इससे पहले कि तुम मुझे घर छोड़ कर जाने को कहो या तलाक़ की धमकी दो,मैं तुम्हें स्वतंत्र करती हूं,सात फेरों के बंधन से।
 यह सुनकर उसके पांव तले से ज़मीन खिसक गई और  उसने तुरंत अपना पेंतरा बदल लिया। **
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क्रमांक - 084                                                                     
                                 अधिकार                             
                                 
                                       - डॉ .आशासिंह सिकरवार 
                                             अहमदाबाद-गुजरात

घर में सन्नाटा पसरा था ,सब अपनी जगह बुत बने खड़े थे जैसे सबको साँप सूंघ गया था ।सबसे ज्यादा सुगंधा के प्राण सूखे जा रहे थे ।काटो तो खून की जगह पानी निकले ।पंखुडी के घर से भाग जाने पर सुबोधसिंह पूरी तरह से गिननाए हुए थे, दोनों बेटे आग में घी डालने का का काम कर रहे थे । 
"मैं जानता था पंखुडी एक दिन उसी लड़के के साथ भाग जाएंगी ।किसी ने मेरी बात सुनी नहीं अब भुगतो ।"
एक मुसलमान के साथ !! हमारी सात पुश्तों में ऐसा नहीं हुआ । प्रतीक बोलकर चुप हो जाता है ।आखिर मौन टूटा ।सुबोधसिंह ने क्रौध में कहा- "प्रतीक अपने चाचा को फोन लगाओ ।और गाड़ी तैयार रखो ।हमें अभी आधी रात निकलना होगा । "प्रताप आग बबूला हो रहा था उसके ससुराल वालों को पता लगते ही उसकी शादी टूट जाएगी ।और फिर बिना दहेज के उसे शादी करने पड़ेगी ।दहेज़ में मिलनेवाली बीएमडब्ल्यू का उसका सपना टूट गया था । " प्रताप ने कहा -पिताजी क्या सोच रहे हैं ?"
छोटे के आते ही हम निकलते हैं ।जाओ सारे औजार गाड़ी में रख दो ।हमारी नाक काट कर रख दी ।किसी को मुँह दिखाने लायक नहीं छोड़ा ।इस लड़की में इतनी हिम्मत आई कहाँ से ? सुगंधा की तरफ घूर कर देखते हुए सुबोधसिंह दांत मीसता है । "प्रताप बोला - चाचाजी आ गए पिताजी "। "छोटे ने कहा भाई साहब अब देर मत करिए कि जल्दी चलिए । वे शहर छोड़ दे इससे पहले उन्हें पकड़ना होगा । "प्रताप तुम हमारे साथ चलो प्रतीक तुम अपनी माँ के पास रुको ।गाड़ी तेजी से निकालते हुए ।वे घर से बाहर हो जाते हैं ।प्रतीक पुलिस स्टेशन फोन लगाकर इंस्पेक्टर से बात करता है हमारी बहन का अपहरण हुआ है ।वकील है इसलिए सारे दाँवपेच जानता है ।इतने में सुबोधसिंह का फोन आता है ।प्रतीक का चेहरा देख कर सुगंधा समझ जाती है ।प्रतीक पूछता है पिताजी !!
" काम हो गया । "यह सुनते ही जैसे सुगंधा के कदमों से जमीन खिसक गई ।फूट-फूटकर रो पड़ी । सुगंधा मन ही मन बुदबुदाती , 'मेरी बच्ची ' "मुझे माफ़ कर दे ! " "हमारे यहाँ बेटियों को प्रेम का अधिकार नहीं है ..."
"उन्हें मारने का हक़ है "। भ्रूण से बच गई तो प्रेम करते हुए मारी जाएँगी । **
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क्रमांक - 085                                                                  

                            गाय - गाय                       

                                                  - सतीश राठी
                                               इंदौर - मध्यप्रदेश

-सुनो! क्या कर रहे हो ?
-कुछ नहीं।
- एक खेल खेलोगे?
-कौन सा खेल?
 -गाय -गाय ।
-क्या होता है इस खेल में? 
-कुछ नहीं एक बिजनेस करते हैं बस। 
 -कैसा बिजनेस ?
-गाय का नाम लेकर विकास को रोक देते हैं ।
-तो विकास को क्यों रोक देते हो ?
-इसलिए कि लोग गाय में उलझ जाएं और हम अपने काम में लग जाएं।  व्यवसाय तो आखिर फायदा कमाने के लिए ही किया जाता है।
-फिर गाय का क्या होता है?
-क्या होना है। या तो खुद मरती है या उसके नाम पर लोग मरते हैं।और अधिक उलझन हो तो हम गाय को दान कर देते हैं।
-तो फिर विकास?
-उसे फिर कौन पूछता है ? **
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क्रमांक - 086                                                         
                           कभी नही                                

                                                 - अलका पाण्डेय 
                                                   मुम्बई - महाराष्ट्र

बारिश अपने पुरे शबाब पर थी । सुनिता ने खिड़की खोली और बारिश की बूँदें उसके चेहरे पर अठखेलियाँ करने लगी 
वह आंखे बंद कर बूँदों के स्पर्श क सुखद अनुभव लेते हुये कही खो गई । जब राकेश ने आवाज़ दी आज चाय नही मिलेगी क्या मेडम 
तब सुनिता ख़्वाबों से जागी लाती हू मैं बारिश देखने में मग्न हो गई थी , 
चलो तुम बारिश का आन्नद लो चाय में ही बना देता हूँ 
तुम बालकनी में कुर्सी लगाव में आता हू चाय लेकर दोनो साथ में बारिश का आन्नद लेंगे राकेश ने कहाँ तो सुनिता बहुत खुश हो गई 
राकेश चाय बना कर ले आया तब सुनिता बोली आज छुट्टी कर देते है मौसम आलस्य वाला हो रहा है , आज हम दोनो घर पर रहते है बारिश का मज़ा लेंगे , राकेश कहता है चलो आंफिस फोन कर के देखता हूँ कुछ जरुरी काम नही है तो छुट्टी कर देता हूँ तभी राकेश का फोन बज उठता है उधर से सुरीली आवाज़ हाय डार्लिंग क्या कर रहे हो 
आज पिक्चर चले छुट्टी कर लो बारिश में भीगेंगे 
नही आज नही सुनिता का मन है मैं आज घर पर रहूँ 
मैं नही जानती आज तुम नही आये तो मैं कभी नही मिलूँगी 
तुम्हे मेरा साथ पंसद है या अपनी बीबी का तय कर लो ....कट 
राकेश असमंजस में क्या करे ? 
उधर सुनिता ने आफिस में फोन लगाया सर बहुत बारिश हो रही 
मैं आज नही आ पाऊँगी सारे साधन बंद है आने के .....
बाँस , सुनिता तैयार रहो में लेने आ रहा हू । आज छुट्टी नही मिल सकती विदेशी क्लायंट के साथ मिंटीग है 
नही सर मैं नही आऊगी मेरे पति ने आज मेरे लिये छुट्टी ली है 
मैं उनके साथ समय बिताना चाहती हूँ , पति की खुशी के आगे कुछ नही सर , मैं तो कहती हूँ सर आज आप भी मेडम के साथ घर पर रहे काम तो कल हो जायेगा ....
राकेश जो तैयार होकर बहार निकलने के पहले कहने आया था कि मैं जा रहा हूँ , सुनिता की बाते सुन कर आत्म  ग्लानी से भर गया और मेसेज लिखा - मैं आज नही आ पाऊगां 
और शायद कभी नही .... !  **
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क्रमांक - 087                                                      
                            फरमान                                

                                         - छाया सक्सेना ' प्रभु '
                                           जबलपुर - मध्यप्रदेश
            

कई पीढ़ियों से बूढ़े बरगद की छाँव में बैठ कर सज्जनपुर गाँव के पंच न्याय करते चले आ रहे  थे । समय बदला लोगों की सोच बदली  और तो और   वेश परिवेश दोनों ही बदल गए । अब तो जातिगत आरक्षण , महिला सीटों का निर्धारण भी हो गया है ,  प्रकृतिमयी   बदलाव तो चल  ही  रहा है ।  इस बार  सरपंच  सुनीता देवी बनी  तो उनके घर का दबदबा बढ़ गया , पति, बच्चे, देवर, जेठ यहाँ तक कि पड़ोसी भी अपने आप को सरपंच मानते । एक दिन बातों ही बातों में सुनीता देवी के परिवार के सभी सदस्यों ने मिलकर तय किया कि हमारे घर की बहू  बरगद  के नीचे खुले में नहीं बैठेगी  उसके लिए यहाँ एक कमरा बनना चाहिए । आनन फानन में निर्णय हुआ कि इस वृक्ष को काट दिया जावे ।  वैसे भी यहाँ  बीच में लगा  जगह ही घेर रहा है ।

किसी चीज़ के विनाश की बात हो तो लोगों की सहमति मिलते देर नहीं लगती ,जैसे ही प्रस्ताव रखा रहा सहर्ष सहमति मिल गयी अब तो पेड़ की कटाई शुरू हो गयी । जिसको जो भी हिस्सा मिलता वो उठा - उठा कर ले जाने लगा ।
अस्सी बर्ष के बुजुर्ग ये दृश्य  देखकर रो पड़े  कहने लगे यहाँ मेरा सच्चा मित्र तो यही था इसी की छाँव में खेल- कूद कर, जीवन के सुख दुख सहे आज तुम लोगों ने इसे ही कटवा दिया , इसके होने से कभी कोई महामारी नहीं  फैली , सभी लोग  यहीं एकत्र होकर सद्भाव से  जी रहे थे  , आज अचानक से सबने मिलकर अनीति का साथ दिया,  तुम लोगों पर प्रकृति का जो कर्ज़ है क्या उसे कभी चुका सकते हो,  एक पेड़ सौ पुत्रों के समान होता है । जीवन तो माँ देती है लेकिन परवरिश ये प्रकृतिमयी माँ करती है । वो हमें जीने के लिए न केवल स्वच्छ वायु देती है वरन सम्पूर्ण सुखमय जीवन का आधार भी निर्मित करती है । खैर मुझे क्या तुम लोग जिस डाल पर बैठे हो उसे काटते रहो ..... और जब कभी चेतो तो पौधे जरूर लगाना । **
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क्रमांक - 88                                                              
त्रासदी
                                            - ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'
                                           सिरसा  - हरियाणा

चंद्रप्रकाश ठेकेदार कुछ समय पहले अपने आप को बड़ा खुशनसीब समझता था ।ऊंची पहुंच के कारण उसे बिल्डिंग निर्माण का बड़ा कॉन्ट्रैक्ट मिल गया था। काम प्रगति पर चल रहा था। सब कुछ ठीक-ठाक था। अधिकारी से मंत्री तक सभी उसकी कार्यप्रणाली से संतुष्ट थे। किसी को कोई आपत्ति नहीं थी, परंतु दो दिन की लगातार बारिश ने उसका बना बनाया सारा खेल बिगाड़ दिया। जिस बिल्डिंग के निर्माण का कार्य चल रहा था, उसके आगे का हिस्सा छत सहित नीचे काम कर रही लेबर पर गिर पड़ा। चारों तरफ हाहाकार मच गया । भीड़ इकट्ठी हो गई ।तरह-तरह के स्वर उभरने लगे-" घटिया निर्माण-सामग्री लगाई गई है, उचित अनुपात में सीमेंट का प्रयोग नहीं किया गया ,ऊपर तक मोटी रकम पहुँचाई गई होगी।आदि आदि ।
ऐसे ठेकेदार की जगह जेल में होनी चाहिए जो पैसे के लालच में मनुष्य की जिंदगी के साथ खिलवाड़ करता है,  धिक्कार है उसे, वह तो मानवता पर कलंक है। पकड़ लो उसे,बाहर मत निकलने दो।"
बढ़ते हुए जन-आक्रोश को देख चंद्रप्रकाश-
घबरा गया। वह पिछले दरवाजे से चुपचाप बाहर निकलने की सोचने लगा। अब भी उसे लेबर की नहीं,अपनी सुरक्षा की चिंता सताए जा रही थी। **
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क्रमांक - 089

                                ड्रेस

                                          - सुनीता पाण्डेय ' सुरभि '
                                             प्रयागराज - उत्तर प्रदेश

सुमन मेरी सहेली । सुमन की बैचलर पार्टी में राजू भी आए थे , सुमन के भाई जो विदेश में अपनी बीवी और दो बच्चों के साथ रहते हैं । एक सप्ताह पहले ही परिवार वहीं छोड कर अपने मम्मी पापा के पास इन्डिया आये हैं । सुमन के घर पर ही हमारा परिचय हुआ  , वो बहुत ही रिच लोग हैं और मैं समान्य से परिवार में पली - बढ़ी जो एक आदर्श और और उसूलों वाला परिवार जिसकी सोच स्वतंत्रता बहुत ही सीमित रही ।
      लेकिन सुमन के यहाँ सभी मस्त आजाद ख्यालों के । हम एक दूसरे के घर रोज ही आते जाते थे , पास में ही था । हमारी और राजू की अब रोज खूब बातें होतीं । वो मुझे जब देखते बोलते 'तुम तो मेरा सपना हो ।' और मैं मुस्कुरा देती ।
         मन्दम रोशनी (डिम लाइट) जल रही थी सभी अपने -अपने पेयर के साथ डांस करने लगे मैं बैठी चुपचाप देख रही थी , लेकिन मन ही मन मचल रही थी कि काश मैं भी किसी की बाँहों में झूमती ।तभी राजू मेरे पास आये और हाथ बढ़ा कर बोले- 'आपकी ड्रेस बहुत अच्छी है क्या आप मेरे साथ डांस करना पसंद करेंगी ।'  मैंने मूक स्वीकृति दे दी । 
           मैंने लोगों को हमेशा ही दिखाया कि मैं पूर्ण हूँ , किसी को भी करीब नहीं आने दिया हालांकि कोशिश बहुतों ने की ।हाँ एक बात और न ही अपनी किसी चीज को इतना जरूरी ही बनाया कि उसके लिए अपना इमान या यूँ कहो कि सम्मान से हटकर कोई स्वीकृति स्वीकार्य रही हो शायद यही वजह थी कि हमेशा सीमा में बंधी रही और लोगों को कुछ हद तक की सीमा के आगे बढने की इजाजत नहीं दी कभी भी । 
       लेकिन तुमने मेरे अहसासों का स्पर्श किया बगैर इजाजत के या ऐसे समझ लो मैं खुद को समर्पित करती गयी , क्यों नहीं मालूम ?
        कुछ तो था जो बांध रहा था हमें , न चाह कर भी चाहती जा रही थी । ये कोई कशिश थी या जरूरत ।जरूरत  थी तो कैसी ? किस अपूर्णता के पूर्णता की ? जबकि इस अहसास का कोई भविष्य नहीं, यह हम दोनों ही बखूबी जानते हैं ।
         तुम मुझे सपना कहते हो , कैसा सपना ? सपने तो हमेशा ऊँचे देखे जाते हैं और मैं तो कुछ भी नहीं कहाँ तुम गगन और मैं धरा का कण । ये कैसा मेल हो रहा है ।
        यही सब कुछ सोच रही थी कि तभी लाइट ऑन हो गयी  । सभी ताली बजाने लगे वहाँ हम स्पेशल कपल थे क्योंकि राजू पर सैंकडों लडकियाँ जान छिड़कती थी और मैं खुद को उनके बगल खडे देख आकाश में मानो उड रही थी । लगा वाकई मेरी ड्रेस सुन्दर है । **
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क्रमांक - 090                                                     
                            भूख की आग                                

                                                     - रेणु झा
                                                रांची - झारखंड 

        घर से बाजार जाने के दरम्यान मोङ पर खड़ा एक कूङादान ।अचानक मेरी नजर कूड़ेदान के अंदर हो रही हलचल पर पड़ी ।मैंने करीब जाकर देखा तो दंग रह गई, एक इंसान उस कचरे में कुछ ढूंढ रहा था, बहुत जल्दी में ।जैसे खो गई हो उसकी कोई मंहगी चीज! तभी मैंने देखा कि उसकी आंखे चमक उठी और उसी कचरे में से कुछ निकाल कर हाथ में लिए बहुत खुश था , उसके हाथो में खाने का सामान था और फिर वो वहीं बैठकर सङे गले भोजन को, खाने लगा ।मैं आवाक! हो उसे देखे जा रही थी ।मैले, कुचैले कपड़े, आंखे धसी हुई, पेट पीठ मिलकर एक हुए थे, अति दयनीय स्थिति ।मैं सोच रही थी, , , , , , , , , , , , , "पेट की आग जब धधकती है तब वह कुछ नहीं देखती, न गंदगी न कचरे ।"वह ढूंढती है सिर्फ निवाला ।वह भूखा इंसान भूख की ज्वाला को शांत कर, वहीं विश्राम कर निकला और चला गया ।मैं घर लौट आई थी, लेकिन मेरे मन मष्तिष्क में 'उस इंसान की भूख की तङप अभी भी दिखाई दे रही थी '। **
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क्रमांक - 091                                                             
                           विदाई                               
                                                - ऊषा भदौरिया
                                                       यू . के .

बैग कधे पर संभालते हुये वह गेट तक आ पहुंची थी. हमेशा की तरह छोटी बहने उसके साथ व पतिदेव पापा के साथ सामान कार में रखवा रहे थे. मां हमेशा अन्त में ही बाहर आती थी. खाने का सामान, पानी की बोतल और कुछ रुपये शगुन के जरूर हाथ में पकड़ाती  ,जो शादी से पहले कॉलेज टाइम में हॉस्टल जाने के समय उसके लिये चांदी का काम करते और शादी के बाद भी उसके काफी मना करने पर भी मां हाथ में पकड़ा ही देती थीं. काफी सारी बातों के साथ ससुराल में अच्छे से रहने की हिदायते देती जिन्हें वह अपनी बहनों के साथ मजाक में उड़ा देती और फिर शुरु होता था रोकने की नाकामयाब कोशिश के बाद  मां के आँसूओ का बहना जो पूरे माहौल को गमगीन कर देते थे.
आज बहुत देर तक भी मां घर के अन्दर से बाहर नहीं आयी. सब बाहर खड़े थे. पर उसे बस मां का इन्तजार था. सारा सामान कार में रखा जा चुका था. पति चलने का इशारा कर रहे थे.
तभी पापा ने अपनी जेब से कुछ रुपये निकाल उसके हाथ में थमाते हुये कहा,” बेटा ,अपना ध्यान रखना.”
पापा के गले लग वह खूब ज़ोर जोर से रोये जा रही थी. मां के गुजरने के बाद घर से उसकी यह पहली विदाई थी.  **
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क्रमांक - 092                                                                  

                                  ममता                                 
                                               - राजश्री गौड़
                                              सोनीपत - हरियाणा

        घर के काम से निवृत हो वह जल्दी जल्दी कोठियों में काम के लिये जा रही थी । सड़क पार कर जैसे ही वह थोड़ा आगे गई दो आवारा लडकों ने उसका रास्ता रोक लिया।वह बच कर निकलने लगी तभी एक ने उसका हाथ पकड़ लिया । एक झटके से हाथ छुडा कर उसने झन्नाटेदार ऐसा थप्पड़ मारा कि लड़के भाग खड़े हुये।मन में उथल-पुथल लिये वह कोठी पंहुची और काम में जुट गई ।काम करते करते उसने कोठी- मालकिन को अपने साथ हुई घटना को बताया। 
               दोपहर का समय था वह कोठियों का काम कर वह घर जा रही थी। सड़क सुनसान थी । सामने से वही लड़के आते दिखाई दिेये, वह कन्नी काट कर निकलने ही वाली थी कि एक ने आकर जोरों से टक्कर मारी वह गिरते गिरते बची। दूसरे ही पल ममता की चीखों से सुनसान सड़क कांप उठी। टक्कर से जब तक वह संभलती दूसरे ने उसके चेहरे पर तेज़ाब फैंक दिया था और हंसते हुए --" साली बड़ी बनती थी,अब भुगत।" कहते हुए भाग गये।चीख़ की आवाजें सुन कोठियों से लोग निकल आये। वह बेहोश हो चुकी थी । लोगों ने उसे सरकारी अस्पताल पहुंचाया। होशआने पर पुलिस भी बयान लेने आ पंहुची थी । होना तो कुछ नहीं था ये सरकारी तन्त्र हैं,पर औपचारिकतायें तो निभानी ही थी । गरीब विधवा औरत के लिये मसक्कत कौन करे।दो दिन बाद ममता अपनी बूढ़ी विधवा सास को तीन बेटों के साथ छोड़ इस संसार से कूच कर गई, अमीरों के समाज को एक बूढ़ी नौकरानी व तीन मजदूर दे गई। **
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क्रमांक - 093                                                      
                                 इतिहास                                     
                                                     
                                        -  डॉ. वीरेंद्र कुमार भारद्वाज
                                               पटना - बिहार
                                               
  “शेर को किसने और कब पकड़ा था?”
  “भरत राजा ने, जब वे बालक ही थे ।” शिक्षक के प्रश्न का बच्चों ने उत्तर दिया ।
 “सर ! सर ! मैं कुछ कहना चाहता हूँ ?” एक गरीब-सा बच्चा हाथ उठाए था ।
 “हाँ बोलो, क्या कहना चाहते हो?” शिक्षक ने आज्ञा दी ।
  भरत ने तो पकड़ा ही, मेरे बापू ने तो मार भी डाला था । वह उस समय चौदह साल के ही थे । बच्चे की इस बात पर सभी तगड़े झटके में हिल गए थे ।
  “क्या कहना चाहते हो, स्पष्ट कहो ?” शिक्षक भी अवाक्ता दूर करना चाहते थे ।
 “जंगल में लकड़ी काटते वक्त सामने एक शेर आ गया । बस क्या था, ज्योंहि बापू पर पंजा मारना चाहा, उस पर दी कुल्हाड़ी, पंजा अलग । दूसरे पंजे को भी इसी प्रकार काट डाला । फिर तो मार कुल्हाड़ी, मार कुल्हाड़ी के जान ही निकाल दी । हाँ, उनका भी एक हाथ गायब हो गया था । शिक्षक और छात्र डर-भय की काँपती आँखों से उसे देख-सुन रहे थे । खुद को कुछ काबू में कर शिक्षक बोले, “ नाम क्या है तुम्हारे बापू का?”
 “जी पहले गंगू था,  अब कुछ लोग शेरमरवा तो कुछ लोग हथकट्टा कहते हैं ।” 
  शिक्षक तो शून्य में डूब गए । पर, उनके सामने एक चुनौती खड़ी हो गई- ‘सच है इतिहास में ये लोग क्यों नहीं आते…?’ **
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  क्रमांक - 094                                                         
                                  कफ़न                               
                                                - इन्दु सिन्हा
                                             रतलाम - मध्यप्रदेश
       
         सुबह ग्यारह बजे लाला रामलाल ने लक्ष्मी जी के चित्र पर फूल चढ़ाकर अगरबत्ती जलाई ओर आँखे बंद करके लक्ष्मी जी को प्रसन्न करने में लग गए !
जैसे ही उनकी आँखें खुली तो नजर महंगू के नौ वर्षीय लड़के मिन्नू पर पडी, जो नया नकोर सफेद कपड़ा ओढ़कर कूद फांद रहा था ! वो पूजा छोड़कर बाहर आये,एक हाथ से कान पकड़ा  दूसरे हाथ से दो झापड़ रसीद किये चिल्लाकर बोले ,मेरी दुकान से कपड़ा चुराता है ? बोल कब चुराया, ग्रामीणों की भीड़ इकट्ठी हो गयी! सभी लाला का साथ देने लगे, मिन्नू डर के मारे रोने लगा,
तभी महंगू भीड़ चीरकर आया ,घिघियाता बोला,तेरी दुकान से नही चुराया,कल शाम शिवा की लुगाई का क्रियाकर्म हुआ था,उसका कफ़न है ,ठंड भोत है इसलिये ! **
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क्रमांक - 095                                                                      
                                 विस्मृति                           
                                                 - डॉ वन्दना गुप्ता
                                                 उज्जैन - मध्यप्रदेश

"मम्मा! दुनिया में दो ही लोग खुश हैं, पहला बच्चा और दूसरा पागल..."
"मैं दोनों नहीं हूँ, क्या इसीलिए दुखी हूँ..?"
चैरी की बात सुनकर सुमन सोच में पड़ गई।
माता पिता ने लाडली बेटी के लिए खूब अच्छा और पैसे वाला दामाद ढूँढा था, किन्तु किस्मत का लिखा किसने देखा... विदेश में बसे पति के साथ विदेशी मेम थी और घर पर दहेज के साथ सास ससुर की सेवा में भारतीय पत्नी... असलियत उजागर होते ही वह ससुराल की देहरी लांघ आयी, दुःखद वैवाहिक जीवन की कड़वी यादें और गर्भ में पलती बच्ची लेकर। माता पिता के जाते ही भाई भाभी भी पराए हो गए। एक दिन यह देहरी भी लांघ दी। प्राइवेट नौकरी के साथ बेटी को पढ़ा लिखा कर काबिल बनाया। आज वह मल्टीनेशनल कंपनी में जॉब कर रही है। उसके लिए एक से बढ़कर एक रिश्ते आए, परन्तु कहते हैं न कि दूध का जला छाछ भी फूँककर पीता है... एक डर समाया था उसके मन में.... पुरानी यादें बोझ बनी बैठी थीं जो जिंदगी के सोपान पर आगे बढ़ने ही नहीं दे रही थीं।
"बच्चों की यादों की पोटली खाली रहती है और पागल उसे लाद कर नहीं चलते... इसीलिए वे खुश रहते हैं..!" चैरी की बात ने उसे झकझोर दिया। 
"बेटा! समीर को बुला ले, तुझे पसन्द है न... हर कोई तेरे पापा जैसा हो, जरूरी तो नहीं......." कहते हुए उसने खुद को बहुत हल्का महसूस किया। **
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क्रमांक - 96                                                          
                              जीवन-मृत्यु                     

                                               - हरीश कुमार ‘अमित’
                                                  गुरूग्राम - हरियाणा

टी.वी. पर ख़बर आ रही थी - अप्रैल के महीने में बेमौसम हो रही बारिशों से बहुत सारी फसलें तबाह हो गई हैं. इस वजह से कुछ किसानों ने आत्महत्या भी कर ली है. 
मगर यह ख़बर सुनकर मुझे जीवनदान मिलता दीख रहा था, पिछले कुछ दिनों से पड़ रही भयंकर गर्मी में सिर्फ पंखे के सहारे जीना मुश्‍किल हो गया था. हमारे इकलौते ए.सी. में इतनी ख़राबी आ गई थी कि उसके बदले नया ए.सी. ही ख़रीदना ज़रूरी बन गया था. मगर इस बारिश के कारण मौसम काफ़ी ठण्डा हो गया था. मौसम विभाग के पूर्वानुमान के अनुसार अगले कई दिनों तक ज़ोरदार बारिशें होने और मौसम ठण्डा रहने की सम्भावना थी. ए.सी. ख़रीदने का काम अगले महीने द़फ्तर से लोन मिल जाने तक आराम से टाला जा सकता था. **
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क्रमांक - 097                                                      
                                             
                            सफाई अभियान                        
                                                     - सरोजकृषण 
                                                  पंचकूला - हरियाणा 
                       
           बुआजी और फूफा जी अपने बेटे के ईलाज के लिए शहर आये ।बेटे को कुछ दिनों के लिए अस्पताल में दाखिल करवाना  पड़ा तो  उस का हाल जानने के लिए और उन का खाना-नाश्ता पहुँचाना हमारी दिनचर्या में शामिल हो गया ।
उस रात करीब दस बजे हम उन्हे खाना खिला कर घर की तरफ लौट रहे थे तो मुख्य  सड़क पर एक साथ पांच छः सफाई कर्मचारियों को झाडू लगाते देख कर सुखद आश्चर्य हुआ ।
'लगता है,मोदी जी के सफाई अभियान का आह्वान कारगर साबित हो रहा है ।सड़क  तो  चकाचक हो रही है ।'
मेरी बात सुनकर पति देव मुस्कराये ।शायद उन को भी बहुत अच्छा लग रहा था ।
अगली सुबह लगभग सात बजे हम नाश्ता ले कर उसी सड़क से गुजर रहे थे ।लगभग उसी जगह पर कुछ लोगों का जमावड़ा दिखाई दिया । चार युवक गमलों में पानी डालने वाले फव्वारों से सड़क पर छिड़काव कर रहे थे ।
   पूरे वातावरण में गुलाबों की महक थी।शायद पानी में खूब गुलाब जल मिलाया हुआ था ।
सड़क के दोनों तरफ पचासों व्यकित खड़े जैसे किसी की प्रतीक्षा में थे।बहुत से लोगों के हाथों में फूल मालायें थी।
मीडिया वाले कैमरे गले में डाले तत्पर थे।किसी  के  स्वागत  की तैयारियां चल रही थी ।
हमे रोक कर रास्ता बदलने का  आदेश दिया गया ।गाड़ी मोड़ने से पहले पति देव ने पूछ लिया,
'कोई आने वाला है क्या ? '
'जी हां,सफाई अभियान चल रहा है न , मंत्री जी यहाँ झाडू लगाने आने वाले है ।'
   तभी एक गाड़ी वहां आ कर रुकी,जिस में से एक आदमी निकला,जिस के हाथों में एक बड़ा सा  थैला था।वह थैले से साफ अखबार के मुड़े तुडे टुकडेऔर थरमाकोल के टुकड़े निकाल कर इधर-उधर बिखेरने लगा ।और दूसरे आदमी ने  गाड़ी  से पांच छः नये झाडू निकाले और उन पर गुलाब जल छिडकने लगा ।
पति देव से रहा  नहीं गया ,
'यह सफाई अभियान है या टी वी शो------'
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क्रमांक - 098                                                          
                               जीवनसाथी                            
                                                - सीमा गर्ग मंजरी 
                                                मेरठ - उत्तर प्रदेश

वीनू जी की किडनी खराब हो जाने के कारण चिकित्सक ने उन्हें पानी कम पीने की सलाह दी | साथ ही भोजन में नमक का उपयोग न ही करें तो बहुत अच्छा होगा |
जब उनकी पत्नी परहेजी भोजन अपने हाथों से उन्हें खिलाती | तब वे झिकझिक करते पचास तरह की बात अपनी पत्नि को सुना देते |
 आँखें दिखाते हुए रोषपूर्वक कहते ~ " तुम सब लोग स्वयं तो बढिया भोजन करते हो किंतु मुझे यह अलूना खाना खाने के लिए देते हो" | 
" ऐसा बेस्वाद खाना खाने से अच्छा तो मेरा मर जाना होगा"
किंतु उनकी पत्नी न जाने कौन सी मिट्टी की बनी थी कि दस गालियाँ खाकर डाँट फटकार सुनकर भी अनसुना कर जाती | और उनकी सेवा में कोई कमी नही छोड़ती थी | 
लगातार उसके परिश्रमशील सेवा भाव से वीनू जी की टैस्ट तालिका में बहुत सुधार आने लगा था | अब धीरे,धीरे वे बिस्तर से उठकर चलने फिरने लगे थे | 
स्वास्थ्य लाभ के कारण उनका चिड़चिडा स्वभाव कम हो गया था | 
अब वह पत्नि बच्चों के साथ हँसते, बोलते प्रसन्न रहते थे | एकदिन अपनी पत्नि का हाथ पकडकर प्यार से करीब बिठा कर बोले कि ~ 
" सुनो निर्मला !
 मैं जानता हूँ कि तुमने मुझे ठीक करने की खातिर मेरा दुर्व्यवहार भी सहा है | "
" तुम पूरे तनमन से मेरी सेवा में लगी रही | यह तुम्हारे पुण्य प्रताप का ही फल है कि आज मैं मृत्यु के मुँह से बाहर निकल आया हूँ "| 
" तुम जैसा जीवनसाथी पाकर मैं धन्य हो गया हूँ" | 
कहते, कहते वीनू जी का गला भर्राने लगा | उन्होंने निर्मला के काँधें पर सिर को टिका दिया | और किसी नन्हें शिशु की भाँति बिलखकर रोने लगे ।
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क्रमांक - 099                                                         

अनोखा उपहार
                                                 - ईशानी सरकार
                                                    पटना - बिहार
                        
पूरा नाम "मीनाकुमारी" प्यार से मै उसे 'मीनू' कहकर पुकारती। विगत दस साल से वह मेरे घर के काम को संभाल रही है, इसलिए उसे 'बाई'   कहना मुझे अच्छा नहीं लगता । मीनू के बैगेर मुझे चाय पीना भी अच्छा नहीं लगता, मीनू भी मेरे साथ कुछ ऐसे ही बंध चुकी थी। गृहप्रवेश की सारी तैयारी में मीनू मेरे साथ खड़ी थी। पूजा की तैयारी, मेहमानों का आवभगत, मैं बहुत घबड़ाई हुई थी पर मीनू का साथ  मुझे साहस दिला रहा था।"  चल मीनू  गाड़ी में बैठ", "आती हूँ दीदी"  कह कर मीनू झोला संभालने लगी। इसमें क्या है मैंने पूछा, "कपड़े है दीदी शाम में पहनूँगी" मीनू ने उत्तर दिया। मेहमानों का आना और उपहार लाना शुरू हुआ, मैं मीनू को ढूंढती, कहां है तू और बार - बार झोले में क्या ढूंढ रही है। मैं खीर बनाते हुए उससे सवाल करते जा रही थी, तभी झिझकते हुए एक डिब्बा मीनू ने मेरे हथेली पर रख दिया," क्या है इसमें " मैंने पूछा, "  चूड़ियां है दी, बहुत क़ीमती तो नहीं मगर आप पर खूब अच्छी लगेंगी" कहते हुए उसकी आंखें कई अंजान पश्नों से घिरी हुईं थी। मैने तुरंत डब्बा खोला, चुड़ियों को पहनकर मैंने उसके आगे खनका दिया, उसकी मीठी मुस्कान और मेरी चुड़ियों की खनक ने हमारे रिश्ते के अंतरंगता को साफ कर दिया था। **
===================================क्रक्रमांक - 100                                                      

पाप पुण्य अलग - अलग

                                               - आर के पटेल
                                            रायगढ़ - छत्तीसगढ़
                                            
एक किसान के दो नौकर थे।दोनों कुछ महीने काम करने के बाद किसान से रूपये उधार लेकर एक सप्ताह बाद अपने घर भाग गये ।इसके कुछ वर्ष पूर्व किसान भी उनसे कर्ज लिया था ।   संयोग वश दोनों नौकर बैल जन्म लिए और किसान उन्हें बाजार से खरीद लाया । पांच वर्ष बाद एक बैल का किसान से लिया कर्जा का चुकता हो गया और खेत जोतते समय बैल के कंधा में घाव हो गया, ।   अब किसान बैल से कर्जा लेने के एवज में पन्द्रह दिनों तक उसका ईलाज कराया और घाव को धो धोकर प्रतिदिन उसका सेवा किया ।और जिस दिन कर्ज समाप्त हुआ,वह बैल मर गया ।                                                अब किसान दूसरे बैल का सेवा किया,खिलाया पिलाया ।जब किसान का दूसरे बैल से लिया कर्ज चुकता हुआ,तब किसान बैल को किसी दूसरे के पास बेच दिया ।
      इस प्रकार किसान और बैलों का एक दूसरे से लिया कर्ज कटौति न होकर अलग - अलग चुकता करना पड़ा ।यही ईश्वर का नियम है । **
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क्रमांक - 101                                                  
                             मन की बात                         
                                             - विरेंदर 'वीर' मेहता
                                                     दिल्ली

             वह ऐसे समय में एक वरदान बनकर आई थी, जब हर शख्स देश के खोए हुए स्वाभिमान को बरकरार रखने के लिए पुनः किसी 'जादूगर' को तलाश कर रहा था। उसके जबर्दस्त प्रदर्शन ने खेल जगत में  चारों ओर उसकी धूम मचा दी थी।
हाथों में सम्मान का पदक थामे दो शब्द कहते हुए उसकी आँखें भर आईं। 
"आज आप देश वासियों ने मुझे देश की बेटी और बहन कहकर मान दिया है, आप सभी की दिल से शुक्रगुज़ार हूँ। एक बात कहना चाहती हूँ मैं, यहाँ ये कहने वाले तो बहुत होंगें कि भारत माता हमारी माँ है, ये देश हमारा परिवार है लेकिन इस परिवार में नारी को सच्चे मायनों में माँ,बहन,बेटी मान उसे उसका अधिकार देने वाले शायद कम ही हो। बस यही चाहती हूं कि घर की बेटी को उसका अधिकार जरूर  . . . !" अपने शब्दों को अधूरा ही छोड़, हाथ जोड़े वह मंच से उतर गई।  शब्दों को पूरा कहती भी कैसे? कैसे कहती वह मन की बात कि परिवार में उसे मात्र 'नमक' समझने वाला उसका पिता, अपार भीड़ के बीच आज भले ही उसकी चमक पर गर्व कर रहा है लेकिन उसकी आँखों में शर्मिंदगी का भाव आज भी नहीं था कि उसने कभी इसी बेटी को जमीन पर न आने देने के लिये हर संभव प्रयास किये थे। **
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Comments

  1. आदरणीय सर,
    लघुकथा साहित्य सागर से मोतियों को चुन एक जगह एकत्र करने का आपका यह प्रयास अत्यंत सराहनीय है। मुझ जैसे नये लघुकथाकार की रचना को भी इसमें स्थान देने के लिए हृदय से आभार।

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  2. बहुत अच्छा प्रयास बीजेन्दर जी

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  3. ब्रिजेंद्र जी आप बहुत मेहनत से बड़ा अच्छा काम कर रहे है आपको बहुत बहुत बधाई देती हूँ ईश्वर आपको दीर्घायु करे मेरी प्रभु से दुआ है
    - सुदेश मोदगिल " नूर
    यू एस
    ( WhatsApp से साभार )

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  4. आदरणीय बिजेन्द्र जी बहुत बहुत धन्यवाद मेरे रचना को उचित स्थान देने के लिए आप ऐसे ही सदैव आगे बढ़ते रहें कलमकारो को भी आगे बढ़ाते रहें | साहित्य में आपका अमुल्य योगदान हैं ईश्वर आपको सुखी खुशी समृध्द रखे यही कामना करता हूँ |

    महेश गुप्ता जौनपुरी
    ( WhatsApp से साभार )

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  5. बहुत ही सार्थक प्रयास आदरणीय। इतने सारे लेखकों को एक साथ एक जगह पढ़ पाना सचमुच अद्भुत है।

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  6. जेमिनी सर ...अनुपम पहल के लिए आपका अभिनंदन

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  7. । वाह ,अभिनन्दन मैडम अंजलि जी

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    Replies
    1. ब्षुत बहुत धन्यवाद जी

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  8. वंदन अभिनन्दन आदरणीय जैमिनी जी

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  9. अंजलि मैडम, बेहद सार्थक संदेश , बधाई

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  10. काफी अच्छा कार्य। लघुकथा को ऊँचाई प्रदान करेगा लघुकथा - 19
    काफी लघुकथाकार सक्रिय। उन्हें मंच देकर सार्थक कर्म कर रहे हैं। यह मंच इस क्षेत्र में और भी उल्लेखनीय काम करे, इसके लिए हार्दिक शुभकामनाएँ।
    - अनिता रश्मि
    ( WhatsApp से साभार )

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  12. आ. बीजेन्द्र जैमिनी जी सादर अभिवादन ।
    लघुकथा चयन के लिए हार्दिक आभार।

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  13. बहुत बढ़िया एक साथ सभी अच्छी लघुकथाओं को पढ़ना सुखद अनुभव ।

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  14. बिजेन्द्र जी लघुकथा - साहित्य के विकास में आपका यह प्रयास बेहद प्रशंसनीय है। ईश्वर आपके इन नेक इरादों में सफलता प्रदान करें।हमारा भी शुभ आशीर्वाद💐✋✋

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  15. लघुकथा 19 में मेरी रचना को स्थान देने के लिए बहुत बहुत आभार। चुनिंदा लघुकथाओं को एक स्थान पर पढ़ना बहुत ही सराहनीय प्रयास है। आपका यह कार्य प्रशंसनीय है।

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  16. लघुकथा 19 में मेरी रचना को भी स्थान देने के लिए हार्दिक आभार। बेहतरीन लघुकथाओं को एक साथ पढ़ने के लिए उपलब्ध करवाने का ये एक सुंदर प्रयास है। शामिल रचनाएँ प्रयास की सफलता स्वयं ही सुना रही हैं। सादर।।💐

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