इंसान अपनी परछाईं से क्यों डरता है ?

आज सुबह की बात है। मैं ताऊ देवी लाल पार्क घुमने जा रहा था । अचानक रास्ते में कच्च पड़ा नज़र आया । मैं पांव से एक तरफ़ा करना लगा । तभी मैं एक दम  घबरा गया । घुमने कर देखने पर स्पष्ट हुआ कि ये मेरी परछाईं है। तभी तय कर लिया गया कि जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय रखा जाऐगा । अब आये विचारों को देखते हैं : -
सत्य को स्वीकार करना सहज नहीं होता है । परछाईं उसका अपना ही अक्स होती है, जो प्रकाश किस ओर से कितनी मात्रा पर पड़ रहा है, इस अनुसार निर्मित होती है । उसे देखकर विचलित होना स्वाभाविक ही है ।
बदलते हुए स्वरूप को देकर डरना मानव प्रवृत्ति । जो हिम्मती होते हैं वो हर परछाईं का स्वागत करते हैं । मनुष्य सबको तो बुद्धू बना सकता है किंतु अपनी परछाईं से बच पाना आसान नहीं होता है ।
यही कारण है कि मनुष्य अपनी परछाईं से डरता है ।
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
हर इंसान में "डरे काम" भावना है।यह नकारात्मक रूप में हमारे अंदर मौजूद रहती है। किसी को अज्ञात में उतरने का डर, किसी को पानी से फोबिया किसी को ऊंचाई का फोबिया होता है और किसी को बात करने में डर लगता है यहां तक कई लोगों को अपने परछाई से भी डरते हैं। यह सब  नकारात्मक भावना का मुख्य कारण होता है। डर हमारे दिमाग की उपज है या फिर इसके पीछे सचमुच कोई रहस्य छिपा है।यह एक तरह का फोबिया है। फोबिया और डर दोनों में अंतर है फोबिया डर का एक खतरनाक लेबल है। मनोवैज्ञानिक अध्ययन करके यह बताने की कोशिश किए हैं यह एक मनोरोग है, दुख और दर्द का कारण और भय  औरअधिक सेक्स की मनोवृति होना होता है।
लेखक का विचार:--दुनिया में विचित्र किस्म के लोग हैं जिनका डर भी विचित्र किस्म का होता है । हर व्यक्ति का फोबिया और उसकी परिस्थितियां अलग अलग होती है।
*जो डर गया समझो मर गया* यह फिल्मी डायलॉग नहीं है, बल्कि जिंदगी की हकीकत भी है।
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखंड
सर्व प्रथम यह जानना जरूरी है कि डर क्या है और डर मनुष्य को कैसे त्रस्त करता है। --डर मनुष्य के मन में पैदा हुआ एक आंतरिक भाव है जिसके लक्षण बाहरी शारीरिक चेष्टाओं से पता चलता है। आज की चर्चा का विषय है- "इंसान अपनी परछाई से क्यों डरता है" इस विषय को लेकर मेरी राय है -आत्मविश्वास और साहस की कमी व्यक्ति की सबसे बड़ी कमजोरी मानी जा सकती है यही कमजोरी डर का भाव पैदा करती है। डर  काल्पनिक भी हो सकता है और  वास्तविक भी । डर एक नकारात्मक भावना है जो लंबे समय तक  स्थिर नहीं रह सकती।  जैसे-जैसे  परिस्थितियां भी बदलती है, मनोभाव बदलते हैं,यदि परिस्थितियां सहज है और अनुकूल है तो मनुष्य साहस और दृढ़ इच्छाशक्ति के बल पर डर पर नियंत्रण पा लेता है । नकारात्मकता को त्याग सकारात्मक सोच ग्रहण कर लेता है। 
- शीला सिंह
 बिलासपुर -  हिमाचल प्रदेश
इंसान अपनी परछाई से इसलिए डरता है ताकि उसकी चोरी ना पकड़ी जाए असली बात यह है कि जो उसके अंदर बैठा हुआ आत्मा है वह उसको बखूबी जानता है यह कितना झूठ है कितना सच्चा है कितना ईमानदार है कितना कपटी है कितना दिखावा करता है जो है नहीं वह अपने आपको बताता है अपनी उम्र को छुपाने की पूरी कोशिश करता है अब ऐसे में उसकी परछाई उसका प्रतिरूप ही होती है हां देखने में बात दूसरी है कोई-कोई छाया मात्र होती है लेकिन पृथ्वी रूप होती है अब आदमी अपने प्रतिरूप से कितना डरता है इस बात के हम अपने अंदर बैठे हुए आत्मा से बखूबी समझ सकते हैं और जो कुछ भी हमारी यह सारी सोच है हमारी मानसिकता है यह आत्मा अपने साथ लेकर चली जाती है क्योंकि अगले जीवन का निर्धारण जब आत्मा ने दूसरा शरीर रूप लेना होता है तो उसमें उसी प्रकार के गुण निर्धारित हो जाते हैं समग्र रूप से तो नहीं लेकिन गुणवत्ता के आधार पर उसकी सोच उसके काम करने की शायरी उसके विचार उसके कथित उसका प्रावधान आदि इन्हीं विचारों के साथ में सेटल होता है सेटल बोले तो अंग्रेजी में स्थापित होता है तो समझने की बात है कि हमारी जो छाया है हमारी जो परछाई इसी कारण से हमारे को डराती रहती है आदमी 100% एक सा विचार नहीं रख पाता है घड़ी में तोला घड़ी में माशा उसको हर समय अपने स्वार्थ की चिंता रहती है मेरा यह नहीं हुआ मेरा वह नहीं हुआ दूसरे के लिए उसके पास सोचने का बहुत कम समय होता है मरे देखा अधिकतर दान कर्मी जितने भी हैं वह अपने धन का 10 परसेंट दान में देते रहते हैं लेकिन देखने की बात यह है कि वह धन उनके पास किस रास्ते से आया है इस पर विचार अगर करा जाए तो वह उनकी ईमानदारी ने कमाई का धन नहीं होता है कमाई से किया हुआ धन इतना पैदा ही नहीं हो पाता जितना उसको हम दान कर सकें यश व्हात्सप्प पर लागू नहीं होती है लेकिन फिर भी दूसरों के लिए काम करने वाला मनुष्य अपने पास से अपने दान के रूप में अपने पर लोग को सुधारने के लिए जो भी दूसरों के ऊपर खर्च करता है वह हमेशा ईमानदारी का धन नहीं होता है राजनीति क्षेत्र में देख लीजिएगा धार्मिक क्षेत्र में देख लीजिएगा अरबों रुपया दिल्ली मंदिर में चढ़ता है इतना मंदिर में जो पैसा चढ़ता है वह सारा का सारा ईमानदारी में नहीं लगता दूसरा जो पैसा चढ़ाया जाता है वह भी इमानदारी का नहीं होता है आदमी की परछाई हमेशा उसको डराती रहती है इसीलिए उसके कर्म सही हो तो आदमी को किसी से भी डरने की जरूरत नहीं अपनी परछाई तो छोड़ दीजिए साहब
- डॉ. अरुण कुमार शास्त्री
दिल्ली
      ड़र एक मूल प्रवृत्ति है जो जीवमात्र में होती है ।
ईश्वर ने मानव को अन्य प्राणियों से मानसिक, बौद्धिक और सामाजिक  स्तर पर श्रेष्ठ बनाया है।हमारे ड़र भी उसी स्तर के हैं।ड़र हमे अनेक कारणों से लगता है । बाह्य परिस्थितियाँ और आतंरिक उहापोह भी ड़र को जन्म देती है। परछाई हमारे भीतर का नंगा सच है । वो बातें जो हम किसी को भी बताना नहीं चाहत। यहाँ तक कि अपने आप से भी छुपाना चाहते हैं। परछाई हमारे बीच का हम हैं । पानी की तरह पारदर्शी।  इंसान इसीलिए अपनी परछाईं से भी ड़रता है। 
  -  नीना छिब्बर
    जोधपुर - राजस्थान
     परछाईयां के कारण विचारधारा को रोचक बनाने प्रयत्नशील रहते हैं, हमेशा इसके माध्यम आमजनों को डराने का प्रयास किया जाता हैं, लेकिन हमें भी परछाईयों से प्यार हो जा हैं और स्वयं को डर अहसास भी होता हैं। परछाईयों की कहावतों और मुहावरों को ग्रामीण कस्बे में तो अधिकांशतः देखने को मिलता हैं, जहाँ बच्चे खेल खेल मे, उसी का उपयोग प्रायः करते हैं। बंद कमरों में तो परिवार जन भी डराने सफल प्रयास करने में सार्थक भूमिका होती हैं। कभी-कभी तो अपनी ही परछाईयों से घबरा जाता हैं।
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
इंसान की परछाईं सिर्फ उसके शरीर की परछाईं ही नहीं होती, उसके विचारों की परछाईं भी होती है. अगर उसके विचार नकारात्मक होंगे, तो उसमें डर की भावना प्रबल होने से वह अपनी परछाईं से भी डरता है. अगर उसके विचार सकारात्मक होंगे, तो उसमें डर की भावना प्रबल न होने से वह अपनी परछाईं से कतई नहीं डरेगा. उसमें हिम्मत का संचार होता है. ऐसे में प्रकाश के अनुरूप हिलती-डुलती, आगे-पीछे जाती हुई उसकी अपनी परछाईं उसे कतई नहीं डरा सकती. ख्यालातों के बदलने से भी नया दिन निकलता है, सिर्फ़ सूरज के चमकने से ही सवेरा नहीं होता.
- लीला तिवानी 
दिल्ली
 इंसान अपनी परछाई से इसलिए डरता है। चूंकि वह अज्ञान रूपी अंधेरे का शिकार होता है अर्थात अपनी अज्ञानता के डर से डरता है? जबकि सत्य यह है कि डर के आगे जीत होती है। चूंकि सत्य का प्रकाश समस्त अज्ञानता के अंधेरे को दूर करते हुए आत्मनिर्भरता का साहस उत्पन्न करता है।
       उदाहरणार्थ मैंने अपने जीवन चक्र में विभागीय भ्रष्ट एवं क्रूर अधिकारियों द्वारा मनोवैज्ञानिक ढंग से डराने/धमकाने के बावजूद डरा नहीं और अपने भीतरी मनोबल से हमेशा उस डर का सामना किया। उनके असहनीय अत्याचार की पीड़ा के कारण 45 से 60 प्रतिशत झुकाव भी हुआ। परंतु मैंने हार नहीं मानी। 
         हालांकि उसका सामना करते-करते मैं मानसिक तनाव एवं "तपेदिक रोग" से भी ग्रसित हुआ। जिसके लिए विभाग को गूढ़ शडयंत्र रचने पड़े। जिनमें उन्हें डाक्टरों, अधिवक्ताओं और न्यायधीशों का भी सहारा लेना पड़ा। परंतु इसके बावजूद वह जीत नहीं पाए और मुझे 7 बार मनोवैज्ञानिक बोर्ड की जटिल प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ा। 
       उल्लेखनीय है कि वर्तमान में भी मैं अपने ज्ञान के प्रकाश से आलोकित हो न्यायिक युद्ध लड़ रहा हूं और बिना डरे "विजयश्री" प्राप्ति हेतु शनिदेव जी का आशीर्वाद प्राप्त कर रहा हूं। 
      चूंकि कलयुग के न्यायकर्ता वही हैं और वही मुझे भ्रष्टाचारी समाज के "तिरस्कार" से मुक्ति प्रदान करेंगे। यह मेरा अटल विश्वास है। चूंकि मैं अपनी परछाई से डरने वाला "व्यक्तित्व" नहीं हूं।
- इन्दु भूषण बाली
जम्म् - जम्म् कश्मीर
ज़मीर/आत्मा नाम की चीज हर इन्सानों में होती है। जो उसकी आवाज को सुनकर काम करते हैं वे बेखौफ़ जीवन गुजारते हैं। लेकिन जो उसकी आवाज़ को अनदेखा कर काम करते हैं और कार्य के परिणाम को जब भुगतने का वक्त आता है तो अपनी परछाई भी डराने लगती है।
आतंकवादी, जमाखोरी, ईर्ष्यालु, दुराचारी, रिश्वतखोरी, भय दिखाकर पैसा ऐंठना (ब्लैकमेलिंग) आत्मा को मार कर ही किया जा सकता है।
एक चिन्ताजनक बीमारी भी है, 'दुर्भीति या फोबिया (Phobia)' । यह एक प्रकार का मनोविकार है। उसमें व्यक्ति को विशेष वस्तुओं, परिस्थितियों या क्रियाओं से डर लगने लगता है। यानि उनकी उपस्थिति में घबराहट होती है जबकि वे चीजें उस वक्त खतरनाक नहीं होती है या हो सकता है कि उन चीजों की उपस्थिति ही ना हो।
- विभा रानी श्रीवास्तव
पटना - बिहार
डर,एक ऐसी भावना है जो हर मानव में पाई जाती है। इसके पीछे विभिन्न भावनाएं छिपी होती है प्यार,बिछोह,स्वार्थ आदि। हमें यहां विचार करना है अपनी ही परछाई से डर का। परछाई से डर तभी लगता है जब वह हमारे दाएं, बाएं या आगे की ओर बने।अपने पीछे की ओर बनी परछाई से कोई नहीं डरता,क्योंकि उस पर तो ध्यान जाता ही नहीं।इस पर ध्यान न जाने का कारण होता है, सामने की रोशनी।जिसकी वजह से परछाई पीछे बनती है।जब यही रोशनी सामने न हो यानी हमारे पीछे या अगर बगल साइड में हो तो, इससे बनी परछाई डराएगी ही। क्योंकि आकार भी बड़ा ही होता है। सीधी सी बात है जीवन में जब आशा का प्रकाश सामने नहीं होता या साइड में और पीछे की ओर ही होता है,तब आशंका इस कदर भयभीत कर देती है कि मन अनहोनी की कल्पनाओं में खो जाता है,डर जाता है।ऐसी स्थिति में उसकी खुद की परछाई भी डराने में पीछे नहीं रहती और मानव अपनी ही परछाई से डर जाता है।
-  डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
 इंसान अपने ही परछाई से इसलिए डरता है कि परछाई अंध कार है। अंधकार अज्ञानता का प्रतीक है। इंसान स्वंम की अज्ञानता से डरता है ।क्योंकि अज्ञानता से कोई भी कार्य करने से या व्यवहार करने से सफलता नहीं मिलती है। इसीलिए मनुष्य स्वंम की परछाई अर्थात स्वयं की अज्ञानता से डरता है। अपने अंदर विश्वास नहीं होता अर्थात ज्ञान नहीं होता और अज्ञानता वश कोई भी कार्य करने जाते हैं तो गलतियां होने का भय बना रहता है यही कारण है । इंसान अपने ही परछाई से डरता है ।इस्पष्टता से परछाई नहीं देख पाते ।अंधकार दिखता है। यही वजह से हर मनुष्य अपनी परछाई रुपी अधंकार अपनी अज्ञानता से डरता है।
- उर्मिला सिदार 
रायगढ़ -  छत्तीसगढ़
इन्सान का व्यक्तित्व ही उसकी परछाई होता है। यह परछाई कदम-कदम पर इन्सान के साथ चलती है। अपने व्यक्तित्व के अनुरूप इन्सान जैसे कर्म करता है उन्हीं के अनुसार उसका मन भयभीत अथवा निर्भीक होता है। व्यक्तित्व की निकृष्टता काली परछाई के समान होती है, जो उसे भयभीत करती है। मनुष्य अपने व्यक्तित्व रूपी परछाई से तभी डरता है जब उस परछाई में उसे अपने ऐसे कर्म दिखाई देते हैं जो उसने मानवीय व्यवहार के विपरीत किए हैं। 
उत्कृष्ट मानवीय व्यक्तित्व सदैव सद्कर्म करता है इसलिए वह अपनी परछाई देखकर निर्भीक रहता है। 
निष्कर्षत: चूंकि हमारी परछाई हमारे सद्गुणों अथवा अवगुणों के कारण श्वेत अथवा श्याम होती है और इसीलिए सद्कर्मों के प्रकाश-पुंज में निर्भीकता अथवा निकृष्ट कर्मों के स्याह अंधकार में भयभीत होने का कारण बनती है। 
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
डर सबको लगता है। इंसान के अंदर डर ही एक ऐसी चीज है जिससे वह बचना चाहता है। आपका दोस्त आपको डराने की कोशिश क्यों करता है क्योंकि उसे पता है कि आपको इस चीज से डर लगता है लेकिन इस खबर को पढ़ने के बाद आपको डर नहीं लगेगा ऐसी कोई गारंटी तो नहीं है लेकिन यह जरूर है कि आप जान जाएंगे कि इंसान को डर क्यों लगता है और इसे भगाने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। सबसे पहले बात करते हैं की आवाजों जो इंसान को सबसे ज्यादा डरा देती है। यह आवाजाही होती है जिसे इंसान के अंदर एक खौफ हो जाता है कि पता नहीं किस चीज की आवाज है। अपने कई बार कुछ ऐसा सुना होगा कि जो आपको डराने के लिए काफी होगा।लेकिन गौर करें तो वह हवा या हवाओं की वजह से होने वाली आवाजों से ज्यादा कुछ भी नहीं होता।आपने देखा होगा कि फिल्मों में आवाजों से डराना एक आम बात है और यही आवाज आपके दिमाग में बैठ जाती है तो डराने का काम करती है। यदि आपके ज्यादा डरावनी फिल्मों को देखने का नतीजा है
हमारा दिमाग कई बार ऐसा कुछ करता है जो उसने पहले कभी नहीं देखा या सुना हो जिसे आंखें खुद एक तस्वीर तैयार करती है और आपको भूत देखने का एहसास होता है। आप में से कितने ऐसे लोग होंगे जिसने सोने के आज किसी को अपने आसपास होने का एहसास किया होगा। दरअसल होता कुछ यूं है कि जब आप सोते हैं तो कई बार आपका दिमाग आपको शांति स्थिति में पहुंचा देता है ऐसी स्थिति में आपका दिमाग खुद को एक तस्वीर तैयार करता है और उसे हम बहुत समझ लेते है। यह भी सच है कि जब इंसान बहुत परेशान हो जाता है तो हर बात पर डर जाता है। इन परिस्थितियों में हमें अपने परछाई से भी डर लगने लगता है।
- अंकिता सिन्हा
 जमशेदपुर - झारखंड
इंसान चाहे जितना भी खूबसूरत हो, रंगीला हो, उसकी परछाईं काली ही होगी, अंधेरे का स्वरूप होगी जिससे इंसान डरता है। यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है।
- सुदर्शन खन्ना 
 दिल्ली 
हर इंसान में कहीं न कहीं थोड़ा बहुत भय का भूत समाया रहता है। अनायास जब  परछाई पर नजर पड़ती है तो उस अनजाने भय की वजह से ऐसा लगता है जैसे कोई उसका पीछा कर रहा हो। बहुत बार विभिन्न प्रकार की परेशानियों से जूझता हुआ इंसान हर किसी को शंकालु नजरों से देखने लगता है उस स्थिति में उसे स्वयं की परछाई से भी डर महसूस होता है। बहुत लोग हॉरर पिक्चर देखकर भी अपने अंदर भय  का भाव महसूस करके अपनी परछाई को देखकर डर जाते हैं। कुछ में वंशानुगत और कुछ परिस्थिति के मारे हुए विक्षिप्त लोग भी अपनी परछाई से डरने लगते हैं।
- गायत्री ठाकुर "सक्षम" 
नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
परछाईं को लेकर बहुत कुछ लिखा-कहा गया है। बहुत भ्रांतियां, किंवदंतियां हैं। मर्म भी हैं, प्रतीक भी हैं। किस्से-कहानियां, शे'र-शायरियां, कविताएं भी हैं। 
परछाईं का स्वरूप असल में रंगीन नहीं होता, इसीलिए उसमें छुपे कथ्य और तथ्य प्रतीक बनकर अनेक रूपों में परिभाषित तो किए जा सकते हैं परंतु त्वरित दृष्टि में उसका मनोवैज्ञानिक असर नकारात्मक लिए ही होता है जो डरावना ही लगता है। क्योंकि बचपन से ही हममें जो भूत,चोर,डाकू,दैत्य आदि की छवि मन में बिठाई गई है वह परछाईं से मिलती-जुलती ही है। इसीलिए परछाईं को देखते ही हमें इन्हीं के अचानक प्रगट होने का आभास हो जाता है और हम डर जाते हैं। हमें तब यह बिल्कुल भी भान नहीं रहता कि यह परछाईं है। वह भी अपनी, खुद की। खुद की परछाईं हो या अन्य की हो, तत्समय हमें वह किसकी परछाईं हैं, ये अंदाज नहीं होता। हमने तो परछाईं देखी और डर गए। हमारे साथ में और भी हैं तो सबकी परछाईं एक साथ देखकर तत्समय ऐसा लगता है कि भूत, दैत्य वगैरह समूह में आ गए।
सारांश यह है कि परछाईं से डरना या डर जाना एक सामान्य मनोविज्ञान है।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
यदि भौगोलिक प्रक्रिया की दृष्टि से क्षितिज से सूर्य की लम्बाई के अनुसार बनी लंबी परछाई और सूर्यास्त होने पर परछाई छोटी होती है  और वह हमारे साथ साथ चलती है यदि इस परछाई का  डर है तो यह डर नहीं अपितु हमारी जिज्ञासा है ! 
मनोवैज्ञानिक दृष्टि से  किसी भी प्रकार के भयानक दृष्य या
छबि या नकारात्मक विचार हमारे अपने दिमाग में बैठाल लेने से वह डर बनकर हमारी परछाई की तरह साथ-साथ चलता है !
आध्यात्मिक दष्ष्टि कोण से देखा जाय तो हम अपने किये गये बुरे कर्मो से डरते है जो परछाईं की तरह हमारा पीछा नहीं छोड़ती ! सदा हमारे द्वारा किये गए बुरे कर्म हमें अपने काले करतूतों को याद कर हमारे पाप गिनाती है !
यही बुरी परछाईं उसे डराती है ! 
यही परम सत्य  है ! परछाई ही हमारा प्रतिरुप बन हमें हमारे अच्छे  बुरे कर्म को हमारे सम्मुख लाती है ! अपनी परछाईं से डरकर हम भाग नहीं सकते !
आध्यात्मिक रुप में हमारे अच्छे कर्म ही हमें परछाई के डर से मुक्ति दे सकते हैं !
            - चंद्रिका व्यास
         मुंबई - महाराष्ट्र
परछाई का भय एक प्रकार का मनोविकार है l हमारी परछाई की लम्बाई क्षितिज से सूर्य की लम्बाई के अनुसार होती है l सूर्योदय पर सबसे लम्बी, दिन ढलने पर सबसे छोटी होती है l यह घटना ही हमारे मन में भय पैदा करती है लेकिन हमें प्रतिच्छाया से नहीं डरना है l यह एक भौगोलिक प्रक्रिया है l हमारे अंदर के भय को हमें डराना है, डरना नहीं हैं l
    मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखें तो डर जैसी चीज दुनियाँ में होती ही नहीं है l हम जिस चीज की छवि हमारे दिमाग़ में बैठा लेते हैं उसी अनुरूप अच्छाई या बुराई होती है और जब हमारा भ्रम जब दूर हो जाता है तो डर जैसी कोई बात हमारे दिमाग़ में नहीं रहती l
      डर की अवस्था में सांसे तेज चलना , पसीना आना, हृदय गति बढ़ जाना, रक्त में ग्लूकोज का बढ़ जाना आदि लक्षण होते हैं क्योंकि हमारे मन में परछाई का डर जो बैठा लिया हमने l
   डर से बचने के लिए हथेली के मध्य इष्ट देव की प्रार्थना, अर्चना करें, इसका सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा l भागते मन पर लगाम कसे, हकीकत का मुकाबला करें l स्वपनों पर विश्वास नहीं करें l
    परिवेश आज का हमारा इस तरह का हो गया है -
"हाँ, मुझे डर लगता है,
कभी कभी अपनी परछाई से
पास अाती हर तन्हाई से,
परछाई से l
परछाई से डरिये मत, सत्य तो यह है कि परछाई तो तब बनती है जब रोशनी के बीच कोई वस्तु आ जाती है l सूर्य के पूरब से पश्चिम की तरफ ढलने में परछाई शून्य की तरफ बढ़ती जाती है l
   ------चलते चलते
चाँद तन्हा है, आसमां तन्हा
डर मत परछाई से तू
साँझ ढले तेरी छाया भी
तेरा साथ छोड़ देती है l
   - डॉ छाया शर्मा
 अजमेर - राजस्थान
      यह बात सही है कि बहुत सारे इन्सान अपनी परछाई से ही डरते हैं। इन के पीछे नकारात्मक सोच का होना है।कुछ बाते बचपन की हमारे मन में इस कद्र गहरे बैठ जाती हैं कि हम चाहते हुए भी उन को मन से नहीं निकाल सकते।बचपन में परछाई को वैज्ञानिक नजरिये से नहीं, डर भय की नजर से समझाया जाता है। बड़े होकर सब समझते हुए भी वही डर भय बना रहता है कि परछाई को देखना अशुभ होता है। यह सिर्फ अंधविश्वास होता है।
        दूसरी तरफ ऐसे लोग भी अपनी परछाई से डरते हैं जिन्होंने  छल -कपट से लोगों को दुख दिये होते हैं और लूटा होता है।अपनी आत्मा के आगे गिरे होते हैं। ऐसे लोग शीशे में भी परछाई देखने से डरते हैं। अच्छे काम करने वाले कभी नहीं डरते।हमें हमेशा सकारात्मक सोच और वैज्ञानिक नजरिये को अपनाना चाहिए  तभी हम समय के साथ तालमेल बैठा सकें गे। 
- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब
आपके संग- संग चलती हैं आपकी परछाइयां। यह बात  अक्षरशः सत्य है और इसमें जीवन का  गूढ अर्थ भी छिपा हुआ है।     हमारे कर्म और धर्म सब हमारे संग होते हैं परछाई स्वरूप।  कहा जाता है दर्पण कभी झूठ नहीं बोलता है, हमारा सही अक्स या रूप उसमें दिखता है, ठीक उसी प्रकार परछाई भी हमारा हीं प्रारूप होता है। व्यक्ति यह सच्चाई अच्छी तरह से जानता और मानता है । इसीलिए  यदि वह कोई भी गलत कार्य करता है तो वह अपनी परछाई से हीं डर जाता है, जो एक स्वभाविक मानसिक प्रकिया है। इसलिए हम कह सकते हैं कि व्यक्ति जब अपने परछाई से भी डरने लगे तो कहीं ना कहीं कुछ  गडबड बात हीं है, और यह स्वतः ही  हो जाता है। सच्चाई और सही कर्म  करने वाला व्यक्ति अपनी परछाई से नहीं डरेगा क्यूंकि सच की लाठी उसके संग  सदैव रहती है।
- डाॅ पूनम देवा
पटना - बिहार
इंसान अपनी परछाई से क्यों डरता है ,,,यह एक ऐसा प्रश्न है जिसे दो आधारों से सिद्ध कर सकते हैं ।
जिसमें दार्शनिक दृष्टिकोण से अगर इसे सिद्ध करना है तो यह कहना गलत ना होगा कि व्यक्ति की इमेज अथवा उसकी परछाई जिसमें उसका केवल बाहय रूप ही  दिखता है ,जैसी उसकी छवि परिवार में ,समाज में बनी है क्या वह वास्तव में वैसा ही है ।अगर नहीं है तो वह निश्चय ही अपनी छवि से डरेगा ,कि कुछ ऐसा पोल ना खुल जाए या कुछ ऐसी गलती ना हो जाए जिससे कि उसकी जो वास्तविक छवि है वह दिख जाए, और जो उसकी बनावटी छवि है वह उजागर हो जाए। तो इस प्रकार वह भयभीत रहता है।
 अगर वह इंसान जैसा वास्तव में है और उसी प्रकार उसकी छवि समाज में बनी है तो वह अपनी छवि से क्यों डरेगा ,कभी नहीं डरेगा ।
 इसी का एक दूसरा पहलू,मैं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से सिद्ध करना चाहती हूं कि इंसान अपनी परछाई से क्यों डरता है ।
अगर इसे वैज्ञानिक तौर पर देखा जाए तो किसी भी व्यक्ति का प्रतिबिंब उसके वास्तविक आकर से  बड़ा बनता है ।तो कुछ व्यक्तियों को फोबिया नाम का मानसिक रोग होता है इस वजह से वह अपनी परछाई को देखकर घबराते हैं ।जिसमें वह उसे स्वयं की परछाई न समझ कर कोई भयानक इंसान समझते हैं और देख कर घबरा कर अजीबोगरीब प्रतिक्रिया करते हैं ।
और परछाई से डर जाते हैं ।
- सुषमा दीक्षित शुक्ला
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
"परछाई से डरना" मुहावरे के रूप में प्रयुक्त होता है, जिसका अर्थ है बहुत भयभीत होना। मेरे विचार में, वही व्यक्ति अपनी परछाई से डरता है, जो दुराचारी हो ।यदि कोई व्यक्ति सत्यवादी, ईमानदार, कर्मठ, सहनशील, धैर्यवान, परोपकारी, संतोषी हैं तो वह अपनी परछाई से तो क्या, किसी से भी नहीं डरेगा।
-अंजु बहल
चंडीगढ़
डर हमारे अंदर की भावना है, जो समय समय पर हमें आतंकित करता है। हर मनुष्य अपने अनुसार सही काम ही करता  है। यदि वो किसी को मारता भी है तो उसे लगता है कि उस वक्त यही कार्य सही था और उसने सही कार्य ही किया है। समय के साथ यदि कभी उसके कर्मो पर किसी के भी प्रभावपूर्ण वाणी का प्रकाश पड़ता है तो अपने कर्म की परछाई उसी प्रकार नजर आने लगती है जिस प्रकार प्रकाश की किरण के शरीर पर पड़ने से शरीर की  परछाई विपरीत दिशा में दिखाई देती  है। 
डर जो हमारे अंदर की भावना है, वो समय पाते ही हमें आतंकित करने को सर उठा लेता है।  जब कर्मो की परछाई सामने नजर आती है तो यही अंदरूनी भावना मनुष्य को हिला देती है और मनुष्य हर वक्त डरा-डरा सा महसूस करता है। उसे अपनी उस गलती में अपना भविष्य हिलता नजर आता है। अपनी छोटी-छोटी गलतियों के कारण  उत्पन्न परछाई  भविष्य पर पड़ती दिखती है और अपनी परछाई से हम डर जाते हैं।
- प्रियंका श्रीवास्तव 'शुभ्र'
पटना - बिहार
कहते हैं इंसान की परछाई उसका पीछा करती है। वो कही भी रहे, कुछ भी करे, परछाई उसके पीछे-पीछे चलती है या यूं कहें कि हमेशा उसके साथ बनी रहती है।इसको अगर दूसरे तरीके से समझना चाहें तो इंसान के कर्म चाहे अच्छे हो या बुरे उसके साथ रहते हैं परिणाम के रूप में। अगर कर्म अच्छे हो तो फलस्वरूप उसे लोगों से सराहना और सम्मान मिलता है और मानसिक संतुष्टि।पर यदि इंसान ग़लत कार्यो में लिप्त रहता है तो उसे अपनों का और समाज की उदासीनता और तिरस्कार झेलना पड़ता है।उसे कानून का भी डर सताता रहता है जिसके कारण वह खुद भी असंतोष,डर और मानसिक तनाव से गुजरता है।वो कभी खुश नहीं रह पाता।ऐसे में ही ये कहा जा सकता है कि इंसान के  अच्छे या बुरे कर्मों के परिणाम परछाई की तरह उसका पीछा किया करती है और वो चाहकर भी उससे पीछा नही छुड़ा पाता।
 - संगीता राय
पंचकुला - हरियाणा
यह एक मुहावरा है जिसका अर्थ होता है आप अपने बुरे कर्मों से खुद डरते हैं जो परछाई की तरह आपका पीछा करते रहती है इंसान जीवन में हर प्रकार के कर्म को कर ही लेता है इसीलिए हमेशा यह शिक्षा दी जाती है कि अच्छा बोलो अच्छे से रहो किसी का नुकसान नहीं करो इसका मुख्य उद्देश्य यही है कि अपने आत्मविश्वास को बढ़ाओ अगर आप दूसरे का अहित करते रहिएगा दुख देते रहिएगा कड़वा बोलते रहेगा तो यह बुरे कर्म कहलाएंगे और इन बुरे कर्मों का परछाई जो है इंसान को डराता रहता है हमने ऐसा किया है कहीं इसका मुझे कष्ट ना हो तो भौगोलिक दृष्टि से जो परछाई बनती है उसका अर्थ बिल्कुल अलग है लेकिन मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जो परछाई का प्रयोग किया जाता है उसका अर्थ है अपने किए गए कर्मों से खुद  डरना
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
" अजीब सानेहा मुझ पर गुजर गया यारो, 
मैं अपनी परछाई से कल रात डर गया यारो" । 
 डर की बात करें तो डर  मानव जीवन  चक्र में फ्री में मिला एक उपहार है, डर हमारे मन की ऐसी उपज है जो हम समझ नहीं पाते, जब कभी मानसिक पीड़ा में होते हैं तो सोचते हैं कभी ठीक नहीं होंगे, या कभी किसी चीज की तलाश में होते हैं तो सोचते हैं यह हमें कभी नहीं मिलेगी ऐसी ही अनेक बातें हैं जो हमारे जहन में डर पैदा करती हैं, हमें इतना डर क्यों लगता है डर की वजाए साहस क्यों  नहीं है, यहां तक की कभी कभी इन्सान  अपनी परछाई से डरने लगता है, 
तो आईये आज की चर्चा इसी बात पर करते हैं कि, इन्सान अपनी परछाई से क्यों डरता है? 
मेरा मानना है जितने नाकारात्मक विचार हमारे अन्दर होंगे उतना ही हमें डर  महसूस होगा, डर मनुष्य का स्वभाव है  इसको हम कोशिश करके  दूर कर सकते हैं, 
सोचा जाए इंसान का डर उसकी परछाई है जिसे  वह कुछ देर तो छुपा सकता है लेकिन पूर्णतया अपने से अलग नहीं कर सकता, निसन्देह डर सब की कमजोरी है जो किसी में कम और किसी में ज्यादा होता है, 
देखा जाए तो डर उपजता हमारी अंदरूनी कमजोरी के साथ  कई बार कुछ ऐसी बातें होती ह१ं जो हम मन ही मन मे़ छुपाए रखते हैं और किसी को सुनाने से परहेज करते हैं और वो बातें बार बार हमारे मन और दिमाग में तनाव पैदा करके डर को पैदा करती हैं जिससे हमारे मन में नेगटिव विचार उतपन्न होते रहते हैं बात  यहां तक पहुंच जाती है कि हमें अपने आप से भी डर लगने लगता है, यहां तक की कईबार हमारे अपने ही कर्म हमें अपना छाया बनकर डराने लगते हैं कहने का मतलब हम अपनी ही परछाई से डरने लगते हैं, 
क्योंकी कभी कभी हमारे मन में जो हमने गल्त कार्य किए होते हैं उनका डर भी सताने लगता है ताकि हमारा राज न खुल जाए यही  नहीं कई बार हम मानसिक पीड़ा में होते हैं या हमें कोई  ऐसा रोग लग जाता है तो हम सोचते हैं हम कभी ठीक नहीं होंगे  या किसी होनी अनहोनी की आशंका  से भी डर जाते हैं, 
कहते हैं जो डर गया वो मर गया हमें अपने मन में पाजिटिव  विचार लाने होंगे तभी जा कर हम  ऐसे रोग से मुक्त हो सकते हैं, 
देखा जाए डर ही होनी अनहोनी को आमंत्रित करता है जिस के कारण व्यक्ति के व्यवहार में तब्दीली आने लगती है, वह अनावश्यक सोचता रहता है, 
सोच सोच कर वह सोच का पहाड़ बना लेता है अंत में अपने आप में दुखी हो जाता है यहां तक की उसे अपनी परछाई भी अपनी नहीं लगती  और वो  मरने से पहले ही मर जाता है, 
देखा जाए  डर कई तरह के होते हैं, किसी को अंधेरे से किसी को ऊंचाी उड़ान से किसी को टनल से व किसी को ऊंचाई से गहराई में देखने से डर लगता है और यह सभी डर अलग अलग किस्म के फोविया से होते हैं, 
फोविया की मतलब अनावश्यक डर लेकिन  डर एक इमोशनल रिस्पांस है जो डांट व धमकी मिलने से लगता है और फोविया में नहीं आता और यह कोई विमारी नहीं है  इसे हम खुद अपने आप को पाजिटिव सोच में रखकर दूर कर सकते हैं, 
अन्त में यही कहुंगा कि अगर ़आप के अंदर किसी बात का डर है तो उस डर को आप अपने आत्मविश्वास से दूर कर सकते हैं, 
इसलिए इन्सान को अपनी क्षमता के अनुसार अच्छे कर्म करते रहना चाहिए विना हार जीत की चिन्ता किए, कोई चाहे कुछ भी कहे  जब आपके कर्म अच्छे होंगे तो आप में पाजिटिव विचार ही आयेंगे आपको  किसी से भी डर नहीं लगेगा व आपकी सहनशक्ति  व उच्चविचार  अपने आप से प्रेम करेंगे  आपकी छाया कभी भी आपको डरा नहीं पायेगी, 
सच कहा है, 
"जिगर वालों को डर नहीं होता, 
हम वहां कदम रखते हैं यहां रास्ता नहीं होता"। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
'परछांई से डरना' मनुष्य की मानसिक अवस्था को दर्शाता है। बचपन या अधवयस्क अवस्था में परछाईं का खेल खेला जाता है। तरह-तरह की आकृति बनाई जाती है। यह सब आदिकाल से चल आ रहा है। अतः परछाईं तो शरीर के साथ ही रहती है। इस पर कुछ कविताएँ भी लिखी गईं हैं।
 इसके साथ ही मुहावरा भी बना है, जो नकारात्मकता का संकेत है। मानव का जीवन जब चारों ओर से अंधेरे में घिर जाता है। तभी वह परछाईं से डरने लगता है।
- संगीता गोविल
पटना - बिहार
मुझे पता नहीं कि इंसान अपनी परछाई से क्यों डरता है। शायद इसलिए डरता है कि कहीं उसकी कमियां न उजागर हो जाय। 
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश" 
कलकत्ता - पं. बंगाल

" मेरी दृष्टि में " अपनी परछाईं से दिल का दौरा यानि दिल फेल हो जाती है और मौत तक हो जाती है । ऐसा अक्सर देखा जाता है । इससे ही परछाईं की करामात कहते हैं ।
- बीजेन्द्र जैमिनी

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