नारी के विभिन्न रूप ( लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी

सम्पादकीय                                                              
    नारी के बिना जीवन असमभव
                  
    नारी प्राकृतिक की देन है । जो संसार को गति प्रदान करती है । यही नारी परिवार में , समाज में , व देश म़े विभिन्न रूप में अपनी भूमिका निभाती है । यही रूप नारी का कोई सा भी हो सकता है । परन्तु नारी को आज तक कोई नहीं पहचान यानि जान सका हैं और ना ही मैं जानने का प्रयास कर रहा हूँ ।
    1995 के आसपास की बात है ।  उस समय " नारी के विभिन्न रूप " पर परिचर्चा का आयोजन किया था । उस समय ना इटरनेट , ना ईमेल , ना WhatsApp नहीं था । उस समय सिर्फ डांक सेवा से ही गुजारा करना पड़ता था । फिर भी उस समय लगभग दो सौ के विचार आये थे । परन्तु समय की कमी के कारण सम्पादन नहीं पाया । और समय के अन्तराल के कारण सामग्री फाईल भी गुम हो गई । समय बीतने के कारण परिचर्चा में भाग लेने वालें भी अधिकतर दुनिया से चलें गयें हैं  ।
अब फिर से " नारी के विभिन्न रूप " को लघुकथा के माध्यम से पेश करने का प्रयास कर रहा हूँ । बाकि सब कुछ लघुकथा लेखकों पर छोड़ रहा हूँ । आये अब लघुकथा पेश करते हैं :-

क्रमांक - 01                                                            

अन्तर
                                                            - सरिता रानी
                                                            पटना - बिहार

        बछिया के पैदा होते ही पूरे घर में खुशी के सूर्य चारों ओर चमकने लगे । पापा  ! बछिया को खुला छोड़ देते और वह सारा दूध चट कर जाती है ।
           परन्तु जब छोटी ने जन्म लिया । सारे घर में मातम सा वातावरण बन गया ।  माँ को हल्दी दूध तक नहीं मिला । जब कि मैं देख रही हूँ  गाय को दाना पानी सब कुछ समय पर मिल रहा है । पापा कहते है बड़ी होकर जब ब्याही जायेगी तो बछिया देगी और खुब दूध देगी । यह अन्तर देखकर मुझसे नहीं रहा गया । तो माँ से पुछा - क्या छोटी का ब्याह नहीं होगा ? क्या वह बच्चों को जन्म नहीं देगी  ?  यदि छोटी को लड़की हुयी तो फिर मातम ही.....  ! नहीं बेटे ! बात दरअसल यह है कि.... इससे पूर्व माँ अपनी बात पूरी कर पाती, मेरे मुँह से अकस्मात् निकल गया, ''तब तो माँ मनुष्यों से अच्छे तो जानवर ही हैं । जो नर मादा में अन्तर नहीं जानते है । ***
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क्रमांक - 02                                                            

भूख तो रोज ही लगती है न
                                             - महेश राजा
                                      महासमुंद - छत्तीसगढ़
                                      
            अंतिम नजर बच्चों के टिफिन पर डालकर सुरेखा ने उनकी बेग मे रखे।पानी की बाँटल भर दी। अब वे बाहर तक आकर बच्चो के स्कूल बस का ईंतजार करने लगी।
         बहुत छोटा और प्यारा परिवार था। दिलों जान से चाहने वाले पति जो एक आफिस मे अफसर थे। दो प्यारे बच्चे बिट्टू और मीनल। वह अपने भाग्य पर ईतरा उठी।
          स्कूल बस आ गयी। मेड ने उसे अभिवादन किया।बच्चे बैठ गये। टा...टा कह कर वह भीतर बढने लगी कि अब पति का टिफिन तैयार करेगी।वह खुश थी।
         तभी गेट पर दो बच्चे, एक लडका और एक लडकी मैले कुचेले कपडो में हाथ जोड कर कुछ खाने को मांग रहे थे।
        ..सुरेखा ने जल्दी से कहा,तुम लोग...। फिर आ गये।देखो आज शुक्रवार है। और हम  दान सोमवार को ही देते है।
         .दोनो मे से बडी लडकी ने करूणा भरे स्वर मे कहा- " पर दीदी,भूख तो रोज ही लगती है न। "
         उसके कदम ठिठक गये। छोटी सी बात थी,पर भीतर तक झझकोर गयी। तेज चाल से किचन मे गयी,अपने लिये रखी दो रोटियों पर अचार की फांक रखी। सामने ही रखे कबाट से पारले जी का पैकेट लिया। और बच्चों को दिया।दोनो ने आभार मुद्रा मेंहाथ जोडे और आगे बढ गयी।सुरेखा दरवाजे पर खडी काफी देर तक उन्हें जाते देखती रही। ***
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 क्रमांक - 03                                                            

पत्थर 
                                                   - अनिता रश्मि 
                                                    रांची - झारखण्ड

      कोमल हाथों ने पत्थर पर हथौड़े से पहला वार किया। कोई फर्क नहीं पड़ा। उन्होंने फिर वार किया। एकदम अंतर नहीं आया। वे चूड़ियों वाले हाथ बार-बार चोट करते रहे। 
   अंततः हथौड़े की लगातार चोट से थरथरा उठे पत्थर। हथौड़े पूरी ताकत से चलाए जाते रहे। कठोर पत्थरों में थरथराहट भरती गई । 
पहले वे हिले, फिर दरके, फिर टूटे, और फिर टुकड़े - टुकड़े होकर बिखर गए। वह हथौड़े का नहीं, उसके हाथों और हौसले का कमाल था। 
घाम में कर्मरत महिला को देख महाकवि निराला की कलम मचली थी। उनकी कलम से निकली कालजयी कविता - वह तोड़ती पत्थर ...!
  महिला के पास शब्दों की ताकत न थी। यदि होती, वह स्वयं लिखती अपने सामर्थ्य की अनकही, अद्भुत कविता 
 - अबला नहीं, सबला हूँ मैं। ***
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क्रमांक - 04

सात सहेलियां - सात रंग

                                        - शेख़ शहज़ाद उस्मानी
                                            शिवपुरी - मध्यप्रदेश

"बार-बार मुझसे एक ही सवाल मत पूछो। पहले सात सहेलियों की यह तस्वीर देखो, फिर बताता हूँ तुम्हें कि मैं कल से अपसेट सा क्यों हूँ?" - बेडरूम में जाते हुए योगेन्द्र ने अपनी पत्नी से कहा।

"ये तो छह-सात लड़कियाँ हैं माँ दुर्गा मुद्रा में नृत्य करती हुई!"- पत्नी ने आश्चर्य से कहा।

"हाँ, ये वे सात सहेलियां हैं जो एक साथ मिलकर मेरे ग्रुप के लिए मंचीय कार्यक्रम प्रस्तुत किया करती थीं!"

"तो इनका तुम्हारे मूड से क्या संबंध है?"

"सम्बंध है न.. इनमें से एक लड़की बलात्कार पीड़िता थी, दूसरी ग़रीबी से पीड़ित, तीसरी अत्यंत आधुनिक और रईस परिवार से संबंधित थी और चौथी एक बड़े अफ़सर की बेटी!"

"और बाक़ी तीन?"

"पाँचवीं बड़े नेता की बिगड़ैल बेटी थी, और छटवीं एक जाने-माने पंडित जी की धार्मिक प्रवृत्ति की बेटी थी"

"....और तस्वीर में जो सबसे आगे माँ दुर्गा की उग्र नृत्य मुद्रा में है , वह कौन है?"

"वह एक बहुमुखी प्रतिभा की धनी, क्रांतिकारी विचारधारा वाली सक्रिय समाजसेविका है, एक मामूली से शिक्षक की बेटी जो दुर्गा नाम से चर्चित रही है!"

"दुर्गा!"

"हाँ, उसने महिला अत्याचारों के ख़िलाफ़ एक "दुर्गा मण्डली" बना रखी थी, जो समय-समय पर मेरे ग्रुप के लिए नुक्कड़ नाटक, और मंचीय कार्यक्रम दिया करती थी !"

"लेकिन तुम्हारे अपसेट होने का कारण आख़िर है क्या?"

"यह प्रतिभाशाली लड़की कल मुझे एक बड़े मंचीय कार्यक्रम में मिली, उसकी सभी छह सहेलियां सफल वैवाहिक जीवन जी रही हैं, लेकिन वह अविवाहित रह गई!"

"लेकिन क्यों? कहीं तुम ... ?"- योगेन्द्र की पत्नी ने व्यंगात्मक लहज़े में पूछा।

"वह लड़की यानी शबाना मुझे बहुत चाहती थी, लेकिन मज़हब आड़े आ गया। कल उसने मुझे बताया कि उसकी चार बार सगाई टूटी!"

"चार बार?"

"हाँ, पहली सगाई दहेज़ की माँग के कारण, दूसरी सगाई उसके दुर्गा के नाम से लोकप्रिय होने के कारण, तीसरी मंगेतर से विचार न मिलने के कारण और चौथी कट्टर मुसलमान मंगेतर की इस्लामी तौर-तरीक़ों और बुरके में रहने की माँग के कारण!" ***
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क्रमांक - 05                                                           

ममता का रंग 

                                                       - मिन्नी मिश्रा 
                                                       पटना - बिहार

   रमा सुबह से ही  गुमसुम थी,अपने  सारे सर्टिफ़िकेट्स  को आलमीरा से निकाल कर लैपटॉप वाले बैग में रख रही थी | 

 माँ का कलेजा एकलौती बेटी को देखकर फटे जा रहा था । मन में ढाढ़स बांधते हुए बोली, “बेटी, तुम  ससुराल जा रही हो, वहां सभी को समझने में  वक्त लगेगा |   यहाँ जैसा कुछ भी नहीं होगा ...सबकुछ अलग दिखेगा ।  पर, घबराना नहीं, तुम्हारी सास बहुत अच्छी है, तुम्हें बेटी बनाकर रखेगी। 


 हाँ ... एक बात का हमेशा ध्यान रखना ,  दोपहर को   तुम फोन से  दिल की बातें मुझे बता दिया करना...कुछ छिपाना नहीं  | मेरा ध्यान हमेशा तुम पर ही टंगा रहेगा। ”

“हूँ....।”   कहकर रमा चुप हो गई |  शायद,  वो माँ के सामने अपनी चिंता व्यक्त करना नहीं चाहती थी |

विदाई का वक्त हो गया,  चहल-पहल बढ गई  ।आखिर... वर-वधु के विदाई की  रस्मअदायगी भी  पूरी हुई ..। कार में सवार होकर रमा अपने पति के साथ  ससुराल के लिए विदा भी हो गई |

“   कार की अधखुली खिड़की से,   रमा की  डबडबाई आँखें .. रोती-बिलखती  माँ से बार-बार  एक सवाल पूछ रही थी,  "   बेटी धन क्यों परायी होती है? "

ठगी  , शून्य आँखो से माँ  बेटी को अपने से दूर जाते देख सोच रही थी ,    एक दिन... मैं भी इसीतरह परायी ...! 

    कार ने  गति पकड़ ली .. देखते-देखते रमा नजरों से  ओझल हो गई। 

ससुराल से कभी-कभार ही रमा का  फ़ोन आता ...वो भी बीच में कट जाता ।   फोन पर बेटी से अधिक  गप्प नहीं होने के कारण माँ बेचैन रहती  |

“एक दिन शाम में जैसे ही बेटी का फ़ोन आया, माँ अधीर होकर  बोली, ”बेटी, सच-सच बता तू वहाँ ठीक से तो है ...? कभी दोपहर को तू मुझसे बात ही नहीं करती !!”

“ओह ! माँ... बात करने का फुर्सत  कहाँ रहता है!  जल्दी-जल्दी घर का काम निपट कर ,दोपहर को मैं  कंप्यूटर-क्लास लेने चली जाती हूँ ..और शाम को आते ही फिर वही किचन! 

 सासू-माँ  हमेशा ताना देती है, “   पढी लिखी हो इसका मतलब ये नहीं कि मर्द के समान केवल बाहर के कामकाज से ही मतलब रखो ।बहू हो , घर का काम भी तुम्हें ही करना है ।  तुमने कहा था..."

 ”   तुम  रो रही हो !  क्या हुआ ? बोलो माँ |”

“  हाँ  सब समझ गई .. जमाना  कितना भी बदल जाय, बेटी को ससुराल में ...बहू जैसा ही सब देखना पसंद करते हैं । 

 'हमें बहू नहीं बेटी चाहिए'....ये मात्र जुमले हैं, जिसे कहकर  बेटे वाले बेटी के साथ साथ माँ -बाप का दिल भी खरीद लेते हैं ।  ” 

  फोन ऑफ़ करते हुए  ... मोबाइल को  अपने छाती  से लगाकर, माँ  बुदबुदायी  ” हम औरतों को सास  बनते ही माँ की ममता का रंग अचानक क्यों गायब हो  जाता है  !” ***
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क्रमांक - 06                                                           

बुढिया 

                                          - महेश गुप्ता जौनपुरी
                                            गनापुर - उत्तर प्रदेश

रात के दो बजे एक बुढ़िया खट् खट् कि आवाज से अपने लाठी के सहारे ट्रेन में चढ़ती हैं चारो तरफ सन्नाटा छाया था सहसा लाठी का आवाज सुनकर सभी ने बुढिया की तरफ ध्यान एकाग्ररित किए बुढिया की अवस्था को देखकर सभी दंग रह गये बुढिया करीब सौ बरस की हो गयी थी और उसकी दोनो ऑखे चली गयी थी | उम्र के साथ - साथ उसकी आँखें उससे अलग हो गयी थी यह देख कर सभी ने बुढिया को बड़े  स्नेह से लोग दो, चार, दस रुपये उसके हाथो में पकड़ाने लगे मैं एक दम से शांत होकर बुढिया को देखने लगा | बुढिया जिधर जाती उधर हमारी निगाहे बुढिया का पीछा कर रहा था | मैं काफी सोच में पड़ गया कि बुढिया के पास बेटे नहीं हैं क्या जो ऑंधी रात को भीख मांग रही हैं मैं सोच में उधेड़बुन ही कर रहा था कि मेरा स्टेशन आ गया और मैं उतरने के लिए दरवाजे पर खड़ा हो गया तभी बुढिया भी लाठी लेकर खट् खट् करती गेट के पास अंदाज से चलते हुए मेरे पास आयी और बोली बेटा मेरा हाथ पकड़ कर उतार दो | मैं बोला ठीक हैं माई उतार देता हूँ बोलकर मैंने बुढ़िया से पूछा माई आधी रात को आप अकेले स्टेशन पर घूम रही हैं कही गिर जायेंगी तो चोट लग जायेगा | बुढ़िया रोते हुए मुझसे बोली अब क्या भगवान चोट देगें जब हमारा बेटा ही हमें चोट मारकर निकाल दिया | यह  कहकर मुझसे अपने आप को छुड़ा कर दुआ देकर जाने लगी और मैं एक टकटकी लगा कर देखने लगा और सोचने लगा इंसान अपने मर्यादा को क्यों लांग कर भीख मांगता हैं अच्छी तरह समझ गया था | ***
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क्रमांक - 07

मोनिका
                                                 - प्रेमलता सिंह 
                                                   पटना - बिहार
                                                   
         बाजार मे रामबाबू का एक छोटा सा दवाखाना था। रामबाबू की पत्नी मेनका तीखे नयन- नक्सवाली बेहद खूबसूरत थी। मेनका जितनी सुंदर थी रामबाबू उतना ही बदसूरत था। मेनका रामबाबू से पंद्रह -बीस साल छोटी थी।
सुबह -सुबह मेनका अपनी खिड़की से झाँक रही थी , पर उसके चेहरे पर अजीब सी उदासी थी। लग रहा जैसे कभी भी रो पड़ेगी। रामबाबू खटिया पर अभी भी खराटे ले रहा था।
आकाश थोड़ा साफ होने लगा था। तभी मेनका की नजर दो नौजवानों पर टिक गया। जिसके साथ एक छोटा लड़का भी था। दवाखाना के पास आकर मेनका से बोला- भाभीजी देखिए न भतीजा नल पास गिर गया और इसके सिर से खून निकल रहा है। आप जल्दी से दवा लगाकर पट्टी बांध दीजिए। पट्टी बंधवाकर लड़के को लेकर जाने लगे। मेनका दोनो नौजवानों को एकटक निहारती रही , जब तक कि वो आँखों से ओझल नही हो गए।
अगले दिन मेनका खिड़की से झाँक ही रही थी। ठंढी. ठंढी हवा चल रही थी। तभी दूर से वो दोनों नौजवान आते दिखे। नजदीक आकर एक बोलै भाभीजी इसके सिर में दर्द है कोई गोली हो तो कृपया कर दीजिए। मेनका गोली निकालने लगी। दोनों आपस मे धीरे -धीरे बोले जा रहे थे। "बेचारी की किस्मत ही खराब है"। 
भाभी कितनी खूबसूरत है और वो रामबाबू कितना बदसूरत हैं। उस पर से आगे में भी कितना बड़ा है।
        यार, ऐसा बदसूरत इंसान से मेनका भाभी सच मे प्यार करती होगी?
फिर दवा लेकर  दोनों एक पद के नीचे खड़ा होकर मेनका को निहारने लगे। मेनका भी चोर नजर से दोनो को देखती रही।
         रामबाबू दवाखाना खोलकर किसी बच्चे का बुखार माप रहा था। मेनका खिड़की पर  चाय पीते हुए झाँक रही थी।
तभी दोनों नौजवान को आते देखी। रामबाबू को देखकर दोनो लौटने लगे। फिर दूर से ही मेनका को एकटक निहारने लगे। मेनका भी दोनों को लगातार बिन पालक झुकाएं निहार रही थी। अनायास ही मेनका के आँखों से आँसू टपकने लगा। ***
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    क्रमांक - 08                                                            

मियाद
                                            - राजेन्द्र पुरोहित
                                            जोधपुर - राजस्थान

"अम्माँ, ट्रेन में खाना खा लेना। पानी भी रखा है…. अच्छा मैं अब चलूँगा, दफ्तर पहुंचना है।" 
हाथ हिला कर बेटे को विदा करते करते भुवनेश्वरी की आँखें भर आईं। ट्रेन चल पड़ी। सामने की सीट पर एक पुलिस वाला बैठा था। साथ मे हथकड़ी में एक कैदी भी था।
भुवनेश्वरी को विव्हल देख कर पुलिस वाले के चेहरे पर हल्की मुस्कान आ गयी।
भुवनेश्वरी ने पूछा, "इस बेटे ने क्या अपराध किया जो जेल ले जाते हो?"
पुलिसवाला बोला, "माँ जी, ये पैरोल पर घर गया था, इसकी मियाद पूरी हो गयी है, सो जेल लिए जाता हूँ। आप भी बरेली जा रही हैं?"
भुवनेश्वरी के चेहरे पर फीकी मुस्कान आ गयी, "हाँ बेटा। वहाँ मेरा छोटा बेटा रहता है। ये मंझला वाला था। साल में तीनों बेटों के यहाँ चार-चार महीने रहती हूँ। कल इसके चार महीने पूरे हुए, तो अब छोटे वाले के पास…." कहते कहते उसकी आँखें फिर भीग गईं।
चेहरे पर कृत्रिम हँसी ला कर बोली, " बेटा, मेरी भी मियाद पूरी हो गयी है, इसलिये जा रही हूँ।" ***
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क्रमांक - 09                                                            

वात्सल्य  की ताकत  
                                             - डॉ . मंजु गुप्ता 
                                               मुंबई - महाराष्ट्र

    दो पड़ोसी  हिंदू परिवार की बीस वर्षीय नवयौवना पत्नी  गीता अपने पति गौरव  के साथ रहती थी और मुस्लिम परिवार की विधवा शबाना अपने सास - ससुर और पांच वर्षीय पुत्र के साथ रहती थी .  दोनों पड़ोसियों का आपस में घरोबा था .
एक बार शबाना के  पुत्र इकबाल ने खेल - खेल में गीता के घर  की मेज पर रखा कीमती  कांच का   फूलदान तोड़ दिया था . यह देख कर  गौरव उस नादान  बच्चे पर  क्रोधित हुआ और    उसे कहा - ' आगे से यहाँ  नहीं आना . ' रोते  हुए  इकबाल ने सारी बात अपनी माँ को बताई .  इस कारण  उन दोनों परिवारों में मनमुटाव और  दूरियां बढती चली गई   . 

   दिसंबर माह की  कड़कड़ाती ठंड में गीता की पहली संतान कन्या हुई . गीता ने प्रसव के कुछ दिनों बाद  सुबह की गुनगुनाती धूप में  बिटिया की  मालिश कर कपड़े में लपेट कर धूप लेने के लिए आँगन में बिछी खाट पर सुलाकर काम में लग गई . 

  तभी तंदूर लगाते  शबाना ने देखा , कि   एक मोटा बंदर उसकी बेटी को खाने की पोटली समझ  उठाकर छत की मुंडेर पर जाकर बैठ गया . मुंडेर की बाएं  ओर छत थी और दाएं ओर खाईं . भयावह दृश्य देख शबाना का मातृत्व प्रेम जागा, अपना काम छोड़  और अल्लाह से उसकी  सुरक्षा , बचाने की इबादत करने लगी .शंका और कुविचारों ने उसे घेर लिया . सोचने लगी कि  बंदर के हाथों उस नन्हीं जान की मृत्यु निश्चित है .कहीं  उसे काट न ले,या फिर   उसे दाएं तरफ छोड़ दे तो खाईं में गिर जाएगी .
 तभी   उसे इन अँधेरे क्षणों में उजाले की  किरण  दिखी  , वहीं पास में रखी तंदूरी रोटियां  और लकड़ी लेकर छत पर आई और बंदर की ओर रोटियां फेंकने लगी .  बंदर उसे छत पर छोड़ रोटी खाने में तल्लीन हो गया . 
तभी फुर्ती से  उसने लकड़ी  से यम रूपी बंदर को भगाया . बिटिया को छाती से लगा  अल्लाह का  शुक्रिया किया . मौत  और जीवन के इन संघर्षों में ईश बनी कर्त्तव्यपरायण शबाना ने जीवनदान दे गीता को उसकी अमूल्य निधि सौंपी .  ऋणी गीता  और गौरव  के आँखों में खुशी के  आँसू छलछलाए , उसके वात्सल्य प्रेम के तप से मौत भी हार के स्वाहा हो गई .

शबाना ने मजहब  , जाति ,  भेदभाव , धर्म की दीवारों  को  ढह दिया .   मनों की दूरियां मिट गईं . अच्छाई के धर्म ने  कड़वड़ाहट  को मैत्री में बदल दिया  . दुर्गा की शक्ति बन , सृष्टि की निपूर्णता , वात्सल्य प्रेम की मन्दाकिनी - सी शबाना मानवता   की प्रेरणास्रोत बन गई . ***
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क्रमांक - 10                                                            

बड़ी बहन 
                                                 - प्रदीप गुप्ता
                                                 अजेमर - राजस्थान
                                                 
ऑपरेशन थियेटर के बाहर रमाकांत औऱ उनकी पत्नी सुषमा बेचैनी के साथ चहलकदमी कर रहे थें । अन्दर उनके पुत्र राहुल का किडनी ट्रांसप्लांट का ऑपरेशन चल रहा था । साथ मेंं उनकी बेटी प्रियंका भी अन्दर थी जिसकी एक किडनी उसके छोटे भाई को ट्रांसप्लांट की जा रही थी । प्रियंका राहुल से दस साल बड़ी थी । चार वर्ष पूर्व उसकी शादी हो चुकी थी एंव उसके भी एक पुत्र था । जब प्रियंका का जन्म हुआ तब रमाकांत को बिल्कुल भी खुशी नही हुई थी क्योंकि वे बेटी नही  बेटा चाहते थें । उसके दस साल बाद राहुल का जन्म हुआ ।  उन्होंने हमेशा प्रियंका को उपेक्षित रखा एंव राहुल को बहुत लाड़ प्यार से पाला । प्रियंका   खुद अपने छोटे भाई को बहुत प्यार करती थी । वो रक्षाबंधन पर उससे मजाक मेंं कहा करती थी कि तू तो मुझसे छोटा है तू मेरी रक्षा कैसे करेगा मेंं तुझसे बड़ी हूँ मेंं हमेशा तेरी रक्षा करूंगी इसलिये तू मुझे राखी बांध । औऱ राहुल सचमुच उसे राखी बांध देता था । 
राहुल अचानक बीमार रहने लगा था फ़िर जांच करवाने पर पता चला कि उसकी दोनों किडनी खराब हो चुकी हैं । डॉक्टरों के अनुसार किडनी ट्रांसप्लांट के अलावा औऱ कोई विकल्प नही है । माता -पिता की जांच करवाने पर पता चला कि उनकी किडनी राहुल को नही दी जा सकती । आखिर प्रियंका   ने छोटे भाई को किडनी देने का निश्चय किया  औऱ जांच के बाद डॉक्टरों ने पाया कि उसकी किडनी राहुल को ट्रांसप्लांट के लिये उपयुक्त है । प्रियंका  अपने पति औऱ ससुराल वालों के घोर विरोध औऱ नाराजगी के बावजूद अपने निर्णय पर अडिग रही । औऱ आज वही ऑपरेशन चल रहा था । रमाकांत जी के मस्तिष्क मेंं सारी घटनाऐं चलचित्र की भांति घूम रही थीं । प्रियंका का पति  नाराजगी के कारण आज इतने बड़े ऑपरेशन के बावजूद यहाँ नही आया था । 
अचानक ऑपरेशन थियेटर का दरवाजा खुला तो रमाकांत की तंद्रा भंग हुई । डॉक्टर ने बाहर आकर घोषणा की कि ऑपरेशन पूर्णतया सफल रहा औऱ आप लोग दोनों को बाहर कांच की दीवार से देख सकते हैं । पति पत्नी अन्दर की तरफ भागे । रमाकांत जी ने देखा कि दोनों अभी भी बेहोश थे । प्रियंका के होंठों  पर बेहोशी के बावजूद एक स्नेहिल औऱ पवित्र सी मुस्कान थी । रमाकांत की आँखो मेंं खुशी औऱ पश्चाताप के आंसू थे ।  बड़ी बहन ने  राखी का फर्ज निभा दिया था । वे जान चुके थे कि नारी हर रूप मेंं महान है । ***
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क्रमांक - 11                                                           

अस्तित्व

                                                 - आभा दवे
                                                मुम्बई - महाराष्ट्र

        रीना को अस्पताल से एक फोन आया कि तुम्हारी उन्नीस वर्षीय बेटी ने आत्महत्या करने की कोशिश की है ।रीना घबराई सी अस्पताल पहुँची ,उसने देखा उसकी बेटी बेहोशी की हालत में अस्पताल में पड़ी हुई है और उसके हाथ में पट्टी बंधी हुई है । रीना की बेटी की सहेली भी अस्पताल में उसी कमरे में बैठी हुई थी उसने रीना को बताया कि कॉलेज में कुछ लड़कों ने उनकी बेटी मधु  को छेड़ा था और इसी से दुखी होकर उसने यह कोशिश की थी । रीना इस बात से खुश थी कि उसकी बेटी बच गई है।
            थोड़ी ही देर में रीना की बेटी मधु को होश आ गया उसने प्यार से अपनी बेटी के सिर पर हाथ फेरा और उसे समझाना शुरू किया "जीवन में इतनी जल्दी हार नहीं मानते अपने *अस्तित्व* की लड़ाई हमेशा लड़ना पड़ती है। यह जीवन बहुत कीमती है इसका सम्मान करो ।" मन की कमजोरी इंसान को अंदर तक हिला देती है इसलिए तुम ने ऐसा कदम उठाया है। जीवन में इस तरह की गलती दोबारा ना हो इसका हमेशा ध्यान रखना।
माँ की स्नेह भरी बात सुनकर मधु की आँखों में आँसू आ गए, उसे अपनी गलती का एहसास हो गया। उसने माँ के गले लगते हुए कहा "माँ मैं अपने *अस्तित्व* की लड़ाई लड़ सकती हूँ आप जो मेरे साथ हो ।" कमरे में विश्वास की एक रोशनी सी फैल गई। ***
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क्रमांक - 12                                                               

मंगलसूत्र
                                                    - राम मूरत ' राही '
                                                    इन्दौर  - मध्यप्रदेश

मेरी कामवाली बाई कांता ने अपने शराबी पति से बचाकर दस हजार रुपये मेरे पास रखे थे, ताकि वह अपने लिए एक छोटा-सा सोने का मंगलसूत्र ले सके। 

एक दिन वह सुबह-सुबह मेरे पास घबराई-सी आई और बोली--"मालकिन ! मैने जो आपके पास मंगलसूत्र लेने के लिए दस हजार रुपये जमा कर रखें है, वो मुझे दे दो।"

"क्या बात है कांता ! तू घबराई हुई क्यों है ?" मैने पूछा।

वह सिसकते हुए बोली --"मालकिन ! कल रात मेरा पति शराब पीकर आया था और मेरे को मार रहा था, तभी झूमा-झटकी में दीवार से उसका सिर टकरा गया। उसके सिर में गहरी चोट आई है। रात में ही उसे अस्पताल में भर्ती किया था। उसके इलाज के लिए मुझे रुपये की जरुरत है।"

"लेकिन तूने तो बड़ी मुश्किल से ये रुपये जोड़े है। वो तुझे मारता-पीटता है, तो तू क्यों ये मंगलसूत्र के लिए रखे रुपये उस के इलाज में लगाने जारही है ?''

"मालकिन ! जब पति ही नहीं रहेगा, तो मै मंगलसूत्र लेकर क्या करुँगी।"  ***
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क्रमांक - 13                                                           

प्रतिदान
                                            - कनक हरलालका
                                                 दूबरी - असम 

        "नहीं सिद्धार्थ... वहीं रुकिए... आपको मेरे कक्ष में प्रवेश की अनुमति नहीं है..। मैं वहीं आपके पास द्वार पर आ रही हूँ..। आपसे मिलने..।"
दासी ने संदेशद्वार पर खड़े सिद्धार्थ से जाकर कहा।
"दीदी चाय...।" बाई ने आवाज दी।
सिद्धार्थ यशोधरा की कहानी पढ़ती हुई रमा जैसे चौंक कर कपिलवस्तु से लौट आई हो।

उसे स्कूल भी तो जाना है।अक्षय होस्टल में था और विकास को तो उसे छोड़कर गए एक अरसा बीत गया था।आज स्कूल से उसने छुट्टी ली हुई है तभी तो सुबह सुबह वह यशोधरा की कहानी पढ़ रही थी। कल विकास का फोन आया था। वह मिलने आने वाला था। सिद्धार्थ की तरह वह भी किसी अदृश्य की खोज में उसे और अक्षय को छोड़ कर चला ही तो गया था।

"यशोधरा, मुझे तुम्हारे कक्ष में प्रवेश की अनुमति क्यों नहीं मिल सकती है?"
"आप तथागत हैं, बुद्ध हैं। मेरा कक्ष मेरे प्यार का प्रतीक है,उस अक्षुण्ण प्यार का जो मैंने आपसे किया है। जिसे आप अपनी ज्ञान पिपासा में कभी समझ ही न सके।
आप अपने ज्ञान में संतुष्ट रहें मैं अपने प्यार में खुश हूँ। आपने मुझे तब छोड़ा जब मुझे और राहुल को आपकी सबसे अधिक कामना थी।"
"मांगों यशोधरा..।मैं तुम्हारे प्यार के बदले  में तुम्हें मोक्ष दिलवा सकता हूं ।आओ आज मैं तुम्हें ज्ञान की दीक्षा देता हूं। आज मैं समर्थ हूं तुम्हारे प्यार का प्रतिदान देने के लिए।"
"तथागत, आज मैं भी समर्थ हूं आपके ज्ञान के स्थान पर अपने प्रेम के साथ अपना जीवन व्यतीत करने में। आप कृपया अपने क्षेत्र में लौट जाएं मुझे अपने क्षेत्र में रहने के लिए स्वतंत्र करके। क्योंकि प्यार परतंत्रता में नहीं स्वतंत्र होकर ही किया जा सकता है। प्रतिदान की आकांक्षा वाला प्यार सच्चा प्यार नहीं हो सकता है।" और यशोधरा पुनः अपने कक्ष में लौट गई।
"बाई, जरा मेरा टिफिन लगा देना। मुझे स्कूल जाना है।"
"पर दीदी आपने तो आज छुट्टी ली हुई थी न..!"
"नहीं पगली, बेकार में कर्तव्य में नुकसान करना प्यार नहीं है न..!"
बाई अचंभित सी रमा के चेहरे का दृढ़ निश्चय देख रसोई की तरफ चल दी रमा का टिफिन बनाने। ***
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क्रमांक - 14

करवा चौथ 

                                           - अजय गोयल
                                    गंगापुर सिटीजन - राजस्थान           

"स्नेहा, तुम समझती क्यों नहीं? यह सब मुझे बदनाम करने की साजिश है। मैं महज एक बार उससे मिला भर था... वो भी उसकी मर्ज़ी से।" 
"रजत, जिस औरत का आप दो बार अबाॅर्शन करवा चुके है, उसे आप महज मिलना कहते है।" 

"स्नेहा, वो सरासर झूठ बोल रही है।" 
"यह झूठ-सच काश मैं उस समय समझ पाती, जब तुम्‍हारे कई अफ़ेयर होने की बात मेरे सामने आई थी पर तुम्‍हारे प्यार में पागल मैं सिर्फ तुमसे ही शादी की जिद पर अड़ी रही। रजत, अब वक़्त आ गया है आठ साल पुराने इस बंधन से मुक्ति पाने का।"

"स्नेहा, स्नेहा... कहाँ खो गई? मैं तुमसे कुछ पूछ रही हूँ।" उसकी सखी गुंजन ने उसे झींझोड़ा जो उसे छत पर अर्घ्य के लिए आया देख कई बार पूछ चुकी थी कि बताओ 'तुम तो मना कर रही थी कि तुम करवा चौथ का व्रत नहीं करोगी। उस आदमी की अब तुम्‍हारी जिन्दगी में कोई जगह नहीं... फिर...?"

"तो मैंने कब कहा कि मैंने उस आदमी के लिए व्रत किया है, मैंने तो अपने अंदर की उस औरत की लंबी उम्र के लिए व्रत किया है जो वर्षों की कैद के बाद अपने लिए लड़ने की हिम्मत जुटा पाई है।" पेड़ की ओट से दिखते चाँद को अर्घ्य देते हुए स्नेहा ने कहा। ***
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क्रमांक - 15

मैं जानती थी 
                                              - डॉ वन्दना गुप्ता
                                              उज्जैन - मध्यप्रदेश


"आई लव यू..." 

रोज की तरह रोहित एक गुलाब लेकर प्राची के सामने था।

".............." 

रोज ही की तरह प्राची फूल लेकर मुस्कुराई और किचन में जाने लगी।

"जरा बैठो तो सही... अब कौन सा बच्चों को स्कूल-कॉलेज या मुझे ऑफिस जाना होता है, जो तुम घड़ी की सुई को जरा इधर उधर नहीं होने देतीं।"

यूँ तो जिंदगी के कैनवास पर इंद्रधनुषी रंग बिखरे थे। पैंतीस साल की वैवाहिक जिंदगी में प्राची ने न कभी शिकायत की और न ही रोहित को शिकायत का मौका दिया, फिर भी कभी कभी उसे लगता जिंदगी के रंगीन चित्र पर आँसू की एक बूंद ने उसे बदरंग कर दिया है। प्राची उसके माता पिता की पसन्द थी। उसे तो मीता पसन्द थी। 

"जी कहिए..!" प्राची कॉफ़ी के दो मग लेकर आयी और पास बैठ गयी।

"तुमसे कुछ कहना है.."

"..............................."

"तुम्हें अजीब लगता होगा न कि इतने साल हो गए फिर भी मैं रोज ये गुलाब देकर तुम्हें "लव यू" क्यों बोलता हूँ.."

"..........….................."

"क्या तुम मुझसे प्यार नहीं करतीं?"

"करती हूँ.."

"फिर कहती क्यों नहीं?"

"प्यार कहने की नहीं महसूस करने की चीज है... क्या आपको महसूस नहीं होता..?"

"होता है... मैं तुम्हारा गुनहगार हूँ, क्या मुझे माफ़ कर पाओगी? मुझे मीता पसन्द थी और इसीलिए मैं तुम्हें अपने दिल में वो जगह नहीं दे पाया जिसकी तुम हकदार थीं।"

"..................."

"मीता का सपना था कि शादी के बाद मैं रोज सुबह उसे गुलाब दूँ, जिसकी खुशबू से उसका दिन महकता रहे, मैं जिंदगी भर तुममें मीता को खोजता रहा, भूल गया था कि अतीत की परछाइयाँ, वर्तमान और भविष्य को स्याह कर सकती थीं। तुमने मुझे, घर को और बच्चों को संवारने में उम्र बिता दी। मैंने कभी तुम्हारी पसन्द-नापसंद जानने की कोशिश ही नहीं की, कभी सोचा ही नहीं कि गुलाब की सुर्खी तुम्हारे गालों पर क्यों नहीं उतरती..? गुलाब की महक को हमारी जिंदगी में बिखेर कर तुम खुश हो या नहीं..? बस यंत्रवत सा कहता रहा.... प्यार का अर्थ जाने बिना ही जताता रहा... और तुमसे वो तीन शब्द सुनने का इंतेज़ार करता रहा... मुझे माफ़ कर दो.."

"मैं जानती थी.."

प्राची के इन तीन शब्दों को सुनकर रोहित को अपना कद उसके समक्ष बौना महसूस हुआ और उसकी आँखों ने आज पहली बार प्राची की आँखों में पलते प्यार को अपने दिल में पनपते प्यार से देखा। ***
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क्रमांक - 16

बेटी पर गर्व 

                                                    -  मधुकांत   
                                                रोहतक - हरियाणा

रविवार का अवकाश होने के कारण परिवार के सभी सदस्य मौज मस्ती के साथ नाश्ता कर रहे थे। पिताजी को खुश देखकर मुकुल ने अपना प्रस्ताव रख दिया ,"डेडी इस बार मुझे अपना बर्थडे अपने दोस्तों के साथ  मनाना है इसलिए मुझे दो हजार रूपये चाहिए ।"
"ठीक है बेटे ले लेना ,"डेडी के बोलने से पहले मां ने उसे स्वीकृति प्रदान कर दी । 
मुकुल और माल्या दोनों जुड़वा भाई बहन हैं इसलिए डैडी ने माल्या से भी पूछ लिया ",बेटी तुम अपना जन्मदिन कैसे मनाना चाहती हो ?"
 "डैडी इस जन्मदिन पर  मैं अठारह वर्ष की हो जाऊंगी आप कहें तो मैं अपने जन्मदिन पर साथियों के साथ मिलकर घर पर एक रक्तदान शिविर लगा लू",  उत्साह और संकोच के साथ माल्या ने अपना प्रस्ताव रखा ।     
 माल्या का आत्मविश्वास देखकर डैडी आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगे। अठारह वर्ष की होने के साथ साथ हमारी माल्या समझदार भी हो गई है ।,"आई एम प्राउड ऑफ यू माय चाइल्ड" ,,,कहते हुए डैडी ने आशीर्वाद स्वरुप अपना हाथ उसके सिर पर रख दिया। ***
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क्रमांक - 17

कामवाली बाई 

                                                  - चन्द्रिका व्यास
                                                   मुंबई - महाराष्ट्र


         सुबह  का समय  ----पक्षी कल्लोल कर रहे थे  लोग मॉर्निंग वॉक को जा रहे थे  कुछ जा कर आ रहे थे
मैं  अपनी बाल्कनी  से खड़े-खड़े यह सब गुलाबी ठंडी का आनंद  लेते हुए देख रहा था   बाल्कनी में झूले पर बैठ सुबह-सुबह चाय की चुस्की के साथ पेपर पढ़ना यह मेरी दिनचर्या थी----अभी पेपर पर नजर मारी  ही  थी तभी श्री मतीजी की आवाज आई -----अजी सुनते हो ?------दुनिया की खबरें लेने का ठेका क्या आप ने ही लिया है ?--------अगर खबर ले ली हो तो एक खबर और ले लो ----आज सायरा नहीं आने वाली है----सो जल्दी-जल्दी काम निपटावो------मुझे भी तो फुर्सत मिले------
सायरा-----  हमारी कामवाली बाई
            महीने में दो छुट्टी तो लेती ही है उसके अलावा दो तीन दिन और नहीं आती------ उसके न आने पर श्री मतीजी के कोप का भाजन  मैं ही होता हूँ----- खैर ----मैं  तो जल्दी-जल्दी अपना काम निपटाकर ऑफिस के लिए निकल रहा था---- तभी ! बगल वाली नें आवाज लगाई--आंटी क्या आज बाई नहीं आई है ? यह सुनते ही श्री मतीजी आक्रोश में आ गई-----मौका देख मै  तो निकल पड़ा ---एक लम्बी श्वास  ले शांति का अनुभव हुआ ---
         आंटी क्या बाई बोलकर गई थी की आज नहीं आयेगी ? नहीं !-----बोल के जाती तो पहले ही हम समय से काम कर लेते न !-------कल उसने कुछ भूमिका तो बांधी थी ----कितना भी दो रोहिड़ी इनको ये कभी भी अपने नहीं होते --हाँ आंटी दूध से भी नहलाओ पर ये किसी की नहीं होती---इन सभी बातों  के साथ-साथ मैं  अपना काम करती रही--------- सुबह से काम करते-करते थकान महसूस होने लगी--हाँ ! मेहनत करने से रात में नींद अच्छी आई  ----
दूसरे दिन ---
             श्री मतीजी ने उसी तरह जल्दी-जल्दी काम निपटाने  को कहा-----घर में शांति रहे  इसलिए मैं भी उसके आदेश का पालन करने में लग  गया ---तभी डोर बेल बजी----दरवाजा खुलते ही---सायरा यानि की बाई ने कदम रखा ----
       रोज की तरह वह अपना काम करने लगी-----मैंने धीरे से पूछा----कल क्यों नहीं आई थी ? मेरा इतना पूछना ही था कि वो बिलख-बिलख कर रोने लगी------आंटी कल मेरा मरद दारू पीकर आया था --मेरे गुस्सा करने पर मुझे और मेरे बेटे को खूब मारा----और फिर कहता है आज खाने में क्या बनाया है ? मैंने जो बनाया था दे दिया------तभी पीछे से आकर मेरी पीठ पर एक मुक्का मारा और कहने लगा साली--------रोजाना डिम(अंडा) , मच्छी नहीं बनाया--?  मारपीट गालियों की बौछार  ----आंटी मैंने कल से कुछ नहीं खाया मेरे पुरे शरीर में दर्द हो रहा है------ मैंने पूछा कुछ खाओगी ? नहीं आंटी मन नहीं है-----शांत मन से खाने को कहा !!!!---क्षुधा शांत होते ही वह कहने लगी ,आंटी वो मेरी सौत के पास रहता है  ----जब मन होता है आता है और अपना अंश छोड़  जाता है ----आंटी मैं मेहनत  कर अपना और बच्चे का पेट पालती  हूँ ---खर्चा भी नहीं देता ---------और फिर रोज की तरह वह अपना काम करने लगी--------उसकी वेदना और विवशता देख मैं कुछ कह ही न पाई ------मैं सोचने पर मजबूर हो गई ------क्या स्त्री केवल एक भोग की वस्तु बनकर रह गई है  ?-----क्या स्त्री का यही जीवन है ?
दूसरे दिन प्रातः डोर-बेल बजी---दरवाजा खोलते ही सामने सायरा मुस्कुराते हुए खड़ी  थी-----मानो  कल कुछ हुआ ही न हो !!!!!! अंदर आते ही अपना काम करने लगी ----मैंने पूछा---कैसी है सायरा ? ठीक हूँ आंटी---रात  मेरा मर्द मच्छी लेकर आया और खुद ने बनाया  ----बहुत स्वाद था-----मैंने कहा अच्छा !----वो दो दिन मेरे पास और रुकेगा-----मैंने पूछा तुम खुश हो न ? वह शरमाई----और मुस्कुराते हुए अपने काम में लग गई
         मैं फिर स्त्री का यह रूप  देख सोचने पर मजबूर हो गई--------स्त्री प्रेम की मूर्ति है----- ममता और दया के साथ-साथ इसमें समर्पण का भी भाव है -------फिर भी, अभाव में रहने वाली इन स्त्रियों के जब मैं दो रूप देखती हूँ तो खुद ही प्रश्न कर उठती हूँ-------" नारी तू अबला है या सबला" ***
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क्रमांक - 18

चबूतरे का नीम 

                                          - विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
                                            गंगापुर सिटी - राजस्थान

            जब कान्ती बहू बनकर इस घर में आई,  तब उसकी सास ने बताया कि ये बाहर चबूतरे पर नीम का पौधा,  तेरे पति ने ही लगाया है । तब से कान्ती ने उसकी देख-रेख व सुरक्षा का जिम्मा ले रखा था । कान्ती बहू ,  अब कान्ती दादी का रूप ले चुकी थी । उसके पति भी इस दुनिया से कई वर्ष पहले जा चुके थे । कान्ती दादी अब सुबह से शाम तक चबूतरे के उस नीम के नीचे टाट बिछाकर बैठी रहती । शायद इस रहस्य को वो स्वयं कान्ती ही जानती थी कि उस नीम से उसका क्या रिश्ता है ?

              कुछ महीनों बाद कान्ती के बड़े पोते का विवाह होने वाला था । इस कारण घर में  एक चर्चा होने लगी कि नीम को कटवाकर चबूतरे पर एक बड़ा कमरा बनवा दिया जाये । ये चर्चा जब कान्ती के कानों तक पहुँची तो उसे धक्का लगा और वह उस दिन से अनमनी सी रहने लगी । कुछ दिनों बाद तो उसका खाना-पीना भी लगभग छूट गया । अचानक,  माँ की तबियत खराब देख, बेटे चिंतित होने लगे । उन्होंने उसे डाॅक्टरों को बताया पर उसकी बीमारी,  किसी के पकड़ में नहीं आ रही थी । एक दिन उसने,  अपने बेटों से कहा,  बेटों  ! "मुझे बाहर चबूतरे पर ले चलो, मैं कुछ पल वहाँ बिताना चाहती हूँ " बेटे-बहुओं ने उसकी खाट चबूतरे पर जाके रख दी और सब आश्चर्य से उसे देखने लगे । वो कान्ती दादी अपलक उस नीम को देखे जा रही थी । किसी को पता भी नहीं चला कि कब उसके प्राण पखेरू उड़ गये । ***
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क्रमांक - 19                                                              

भेद

                                              - वन्दना पुणतांबेकर
                                                 इन्दौर - मध्यप्रदेश
                                                 
दीवार से सटी अलमारी ऊपर से नीचे तक जर्जर हालत में पड़ी उस अलमीरा को रोहिणी ने जब खोला तो उसमें से सीलन की बदबू आ रही थी।तभी नंदिनी की पुकार उसके कानों पर पड़ी,"चाची आपको कुछ चाहिए क्या मेरी अलमारी से..?नही तो अचानक उसकी आवाज मे घबराहट आ गई।आज सौम्या होस्टल से छुट्टीयां मानने घर आ रही थी। वह नंदिनी से बहुत प्यार करती ।मगर रोहिणी ने कभी उसे अपनाया नही था।रोहिणी के देवर देवरानी एक एक्सीडेंट में चल बसे थे।जब नंदिनी महज 6 साल की थी।उसने  नंदिनी को हमेशा से ही पराया समझा। उसे पढ़ने लिखने भी नही दिया।सिर्फ दो वक्त का खाना ओर काम,अरविंद ने भी हमेशा रोहिणी का ही साथ दिया।सौम्या को जब पता चलेगा कि घर मे नंदिनी के साथ ऐसा वर्ताव हो रहा है।यही सोच कर रोहिणी नंदिनी से बोली,"तुम कुछ दिनों के लिए अपने कपड़े दूसरी अलमारी में रख लो,नंदिनी सब जानती थी।उसने खामोशी से हामी भर दी। सौम्या के आते ही घर खुशियों से भर उठा,सबसे पहले सौम्या ने नंदिनी को गले लगाया और उसके लिए लाये महंगे कपड़े उसे देने लगी।यह सब रोहणी को पसंद नही आया।देखते ही बोली ...,इसके लिए इतने पैसे बिगाड़ ने की क्या जरूरत थी।सौम्या सब जानती थी, की घर में क्या चल रहा है, उसने माँ को एक छोटा सा रुमाल भेट किया बोली माँ ये आपके लिए, ये क्या मजाक है..?क्यो माँ तुम भी तो हम दोनों में भेद करती हो।चाची की सारी प्रोपर्टी रख ली।और इसके साथ ऐसा  वर्ताव ,कैसी माँ हो तुम,अपने प्रति जब अपनी बेटी का रूखा वर्ताव देखा तो उसे अपने किये पर शर्मिन्दगी महसूस हुई।उसने पर्दे के पीछे खड़ी नंदनी को पास बुलाकर गले लगाया।अब रोहणी के आँखों से पश्यताप के आँसू बह रहे थे। ***
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क्रमांक - 20                                                     

वह लड़की 

                                       - ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
                                             रतनगढ़ - मध्यप्रदेश

           वे त्याग की मूर्तियां थी. दो में से एक का त्याग करती गई.
पहली निडरता से आई और उसी का त्याग कर दिया.
दूसरी को शालीनता पसंद आई और उसी को ग्रहण कर लिया.
तीसरी ने भाई की पसंदीदा दुराव-छुपाव उसी को दे दिया.
चौथी ने माँ से दया-ममता ग्रहण कर ली व कठोरता त्याग दी.
पाचवीं ने बंधन रूपी पायल पिता व पति से प्राप्त कर पैर में पहन ली.
छटी को उड़ान पसंद नहीं थी. 
सातवीं रोशनी से डर गई और अपनी ऑंखें बंद कर अँधेरे से प्यार करने लगी.
इस तरह वे निडरता, अश्लीलता, दुराव-छुपाव, कठोरता, उन्मुक्तता, स्वछंदता और उजाले को मातापिता के कहने पर भाई को दे दिया और स्वयं संस्कार के मन्दिर में प्रतिष्ठित हो गई. ***
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क्रमांक - 21

दम लगाके होइशा
                                                      - सरला मेहता
                                                    इन्दौर - मध्यप्रदेश

सूखा पुरा,,, हां यही नाम है इस गाँव का।यह छोटा सा गाँव एक बड़े से तालाब के चारों तरफ बसा था। एक जमाने में यह गाँव अन्न जल से भरपूर था। परंतु गाँववालों की अज्ञानतावश तालाब में कूड़ा करकट भरता गया व पानी का नामोनिशान नहीं रहा। गाँव की रामी काकी बड़ी समझदार महिला थी।उसने सबको इकठ्ठा कर समझाया ," देखो सरकारी मदद की बाट जोवोगा तो भूखा प्यासा मरी जावगा।बरसात के पेला सब जुटी जाव तलाव की सपाई करवा में। सब जवान गेती लाइ ने खोदवा लागो ने बूढ़ा होण तगारी भरी भरी ने लुगायां के पक्डॉओ।फेर बखेर दो मलबो बंजर जमीनां पे।" 
जुट गए सब काम में,,वृद्धाएं कहाँ पीछे रहने वाली थी।कंडों का जगरा जला ,दाल पका गोल गोल बाटियाँ सेक
गरम राख में दबा देती और हो जाती सबकी गोट।
देखते देखते सारा तालाब खुद गया और बारिश के आते ही पानी से लबालब भर गया। 
पानी कमी तो दूर हो ही गई ,काकी ने लोगों को दुश्मनी भुला सहयोग का पाठ भी पढ़ा दिया। गाँव की उन्नति के और भी रास्ते खोल दिए और मौके पर चौका भी लगा दिया," अब तम अपना 
कुआ बावड़ी बी साप कर लो ने उनी बंजर जमीन पे फल फूल वाला छांवलादार झाड़म लगानो मत भूल जो।अपणो हाथ ने जगन्नाथ।"
सब गांववाले काकी को कांधों पर उठा नाचने गाने लगे,"दम लगाके होइशा" ***
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क्रमांक - 22                                                           

 धुँधलका छँटता हुआ

                                               - विजयानंद विजय
                                               मुजफ्फरपुर - बिहार 
                                                 
           बहुत दिनों बाद आज उसने बड़े मन से श्रृंगार किया था।उसके पसंद की चूड़ी, बिंदी, बालियाँ व साड़ी पहनी थी।बालों का जूड़ा बनाया था और गजरा सजाया था। चेहरा खुशी से  दमक रहा था।एकदम नयी-नवेली दुल्हन-सी लग रही थी वह।" साहेब " ने आज बुलाया था उसे !
हाँ...। " साहेब " ही तो कहा करती थी उसे।होगा सेठ या बाबू कहीं का ! मगर उसके दिल में तो उसी दिन बस गया था, जब वह पहली बार उसकी चौखट पर आया था..... अस्त-व्यस्त, परेशान, हताश, निराश, टूटा - बिखरा-सा... और सहसा पूछ बैठा था - " तुम टूटे दिल को जोड़ना जानती हो ? " 
चौंक गयी थी वह। ज़िस्म के बाजार में कोई ऐसे प्रश्न थोड़े न पूछता है ! बाद में वह जान पाई थी कि जिससे उसने जान से भी ज्यादा प्यार किया था, वो किसी और को उससे भी ज्यादा चाहती थी और शादी के चंद महीने बाद ही उसी के साथ....।
         नारी-हृदय ने उसके दर्द को उसकी आँखों में ही पढ़ लिया था।पढ़ लिया था उसकी टूटी-बिखरी संवेदनाओं और भावनाओं को, जिसे जोड़ने-समेटने की कोशिश में वह उसके पास आया था। उसने सुना था कि स्त्री के हृदय के अंदर प्यार का दरिया बहता है....।
पिघल गयी थी वह भी, उसकी निश्छलता और मासूमियत पर।और....अपने स्नेह की शीतल छाँव दे उसके वज़ूद को अपने आप में समेट लिया था उसने। और फिर..... धीरे-धीरे उसे भी तो प्यार हो आया था " साहेब " पर ! भले ही वो एक वैश्या थी, पर उसके अंदर भी एक कोमल नारी-हृदय धड़कता था, जो न जाने कब से किसी के लिए तड़पने को बेचैन  था ! 
सोचती हुई, ख्यालों में खोई-खोई-सी वह सड़क पर जा रही थी।शाम का धुँधलका बढ़ने लगा था।बीच का रास्ता काफी सुनसान था।मगर वह बेफिक्र थी। 
                       अचानक सन्नाटे को चीरती हुई चीखने की एक आवाज उसे सुनाई पड़ी।उसने अगल-बगल देखा। मगर कहीं कोई नजर नहीं आया। वो तेजी से आवाज की दिशा में भागी।आवाज झाड़ियों की ओर से आ रही थी।
" कौन है बे....? स्साले......!" चिल्लाती हुई वह झाड़ियों के उस पार पहुँची, तो देखा, तीन-चार लड़के एक बच्ची के कपड़े तार-तार कर रहे थे। 
वह चीख पड़ी - " अरे कमीनों, हराम के पिल्लों ! क्या कर रहे हो बे, इस मासूम के साथ ? "  
वह बेखौफ उन शैतानों के सामने खड़ी हो गयी थी - " इतनी ही गरमी चढ़ी है, तो आओ मेरे साथ।पूरी कर लो अपनी हसरत। " - कहते हुए उसने सीने से अपना पल्लू हटा दिया।बचपन में अपने साथ हुआ हादसा जैसे साक्षात् एक बार फिर उसकी आँखों के सामने कौंध गया था। उसकी आँखें आग उगल रही थीं और वह साक्षात रणचंडी बन गयी थी।उसका रौद्ररूप देख, हवस के दरिंदे भाग खड़े हुए।और....उसने आगे बढ़कर उस मासूम को अपने आँचल में छुपा लिया था।
                          
        शाम का धुँधलका छँट चुका था और चतुर्दिक स्निग्ध चाँदनी बिखर गयी थी। सशक्त और प्रबल प्रतिरोध  के समक्ष शैतान का वहशीपन परास्त हो गया था। ***
       
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क्रमांक - 23                                                             

                                   सास बहू
                                                    - डा.अंजु लता सिंह
                                                           नई दिल्ली
                                                    
          सासु मां की दूसरी किडनी भी परेशानी का सबब बन रही थी उनकी सेहत के लिये.एक आंख से तो दीखना बंद सा ही हो गया था.इस बात से सबसे ज्यादा दु:खी थी उनकी बहू कलाकृति यानि कला.सुबह-सुबह छै:बजे स्कूल जाते वक्त  हड़बड़ी में फैली हुई किचन छोड़ना,दोनों बच्चों के लंच पैक करना, मांजी की और बाउजी की दवाइयां मेज पर रख छोड़ना...अधूरे पड़े  सारे ही काम उसकी अनुपस्थिति में मांजी सलीके से निपटाती थीं. हर समय कितनी दुआएं देतीं रहतीं ... गिनती ही नहीं कर सकता कोई ...
काॅलोनी की ममतालु दादीमां के खिताब से नवाजा गया था रेजीडेशियल मीटिंग में उसकी सासु मां को.. उन्हें दोनों बच्चों ने मदर टेरेसा ग्रैंड मां कहना शुरू कर दिया था.
स्कूल में जब भी स्टाॅफ रूम में सास-बहू झगड़ों पर बे सिरपैर की बहस होती तो कला बोर होकर कहती-बंद भी करो बकवास अब यार...टाॅपिक चेंज करो..
कुछ ईर्ष्यालु  बहसबाज टीचर्स उठकर चल देते.
आज दुर्गा दी बता रही थीं उसे -हमने तो दधीचि समिति में परसों देहदान का फार्म भर दिया है भई.
क्या पता बच्चे पास हों ना हों मरते समय.
बेटा अमेरिका  में और बेटी केनेडा में सपरिवार सैटल्ड हैं.भारत आने में समय  भी तो लगता है ना..
-नेक काम है बेट्टी...सबमें ना होता ऐसा साहस...पास ही बैठी कला की सासु मां बोली,जो काफी  ध्यान से उन दोनों की बातचीत सुन रही थीं.
मांजी विव्हल सी हो गई  थीं, जब नैना ने आकर उनके कानों में कहा - दादी! आज आपकी एक आंख और किडनी बदली जाएंगी ...अब आप मम्मी की आंख से देखोगी..आपका ऑपरेशन है.
माॅम की अंतिम इच्छा थी यह..
ओह!कल सुबह ही तो कला ने कहा था-मां बस आप ही तो मेरा सहारा हो...ये तो बरसों पहले ही
हमें छोड़कर लापता क्या हुए वापस मुड़कर  ही नहीं आए.
काश!आपके किसी काम आ सकूं मैं.. आप संबल हो हमारा वरना  ये परिवार तो कबका बिखर जाता.
क्या हार्ट अटैक इतना निर्मोही होता है ? कब सोचा उसने देहदान का..सोचकर बूढ़ी  आंखों से भरभराकर ढेर सारे आंसू बह निकले.
चलो दादी...चलो ग्रैंड मां..टीचर पोती और डाॅक्टर पोता उन्हें सहारा देकर वैन की ओर बढ़ रहे थे.उन्हें तो अभी चलना ही होगा अविराम..
बहू के ऐसे अनोखे त्याग की महिमा उनके व्याकुल और तप्त बूढ़े शरीर को रोमांचित  कर रही थी.काॅलोनी के लोग चर्चा जो कर रहे थे गजब सास की अजब बहू थी. ***
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क्रमांक - 24

कटोरियाँ हाथों की      

                                      - सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
                                     साहिबाबाद -  उत्तर प्रदेश    


" मैं अगर तेरी जगह होती तो उसे थप्पड़ मारते देर न लगाती । "
" यार ! एकबारगी इच्छा तो मेरी भी हुई थी । "
" एक कहानी क्या छप गयी , खुद को कमलेश्वर मान बैठा है । "
" फिर तूने मारा क्यों नहीं , बद्द्त्मीजी की हद है  कि  सबके सामने इतनी बेशर्मी से उसने तेरे गालों को छू लिया। छी,कितनी  गन्दी सोच ।"
" बस रोक लिया खुद को कि भरी सभा में हंगामा न हो जाये । "
" तेरे पतिदेव भी तो थे वहां  । उनको भी तो गुस्सा ही आया होगा । "
" उस वक्त वो शायद वॉशरूम में गये थे । "
" वो वहां होते तो बात बढ़ जाती । "
" हाँ ! तब अस्मित  के जन्मदिन का सारा मजा स्वाहा हो जाता , इस घटना  की वजह से । " 
" पर यार मैंने जब उसे तेरा गाल सहलाते हुए देखा तो मुझे बुरा तो लगा ही शर्म भी  महसूस हुई । "
" अब जाने दे न यार ।  उसे ,बता तो दिया था कि ये बात गलत है और उन्होंने अपनी गलती मान भी ली  थी। " 
" पर ये क्या बात हुई , पहले गलत काम करो और बात न बने तो गलती मान लो ।'
" क्या कहूँ यार कभी - कभी फोन पर उसके साथ साहित्य से इतर बिंदास वार्तालाप भी  हो जाता था ।  हमने  अपनी - अपनी जिंदगी के कुछ अनसुलझे पन्ने आपस में शेयर भी किए थे । हो सकता है इसलिए गलतफहमी में पड़ गया हो  बेचारा  "
" अरे ये वो लोग हैं जो  मौका मिलते ही शुरू हो जाते हैं । "
" क्या कर सकते हैं यार । इसके लिए जान लेना या जान देना जरूरी है क्या ? मुझे विश्वास है अब कभी नहीं होगा ऐसा । " 
"वो देख , सरप्राइज  आइटम ,अनुज जी आ रहे हैं । एक्सपर्ट हैं अपनी फील्ड के और ऊपर तक पहुंच में भी कमी  नहीं है । "
" वा ऊ । अनुज जी और यहां । रूक जरा । "
               इससे पहले कि अकादमी  के सर्वे - सर्वा अनुज जी , किसी और से मुखातिब होते , वे तपाक से उनके सामने जा खड़ी हुई ,  
    " अनुज जी  ! मी , आयुषी !  नावल 'अल्पज्ञ ' की उपन्यासकार  , आपने इस उपन्यास को नोटिस में भी लिया है । स्वागत है एक पारखी का इस पार्टी में । "
         अनुज जी ने मुस्कुरा कर अपना  हाथ आगे कर  दिया ।
        इसके पहले कि अनुज जी कुछ कहते , उन्हीने उन हाथों को मजबूती से अपने हाथों की कटोरिओं में जकड़  लिया और तब तक जकड़े  रहीं जब तक अनुज जी ने आग्रह नहीं किया , " चलिए अब कार्क्रम की ओर चलें ।  बाकी बातें कभी घर आइये ,वहां आराम से बैठकर करेंगें । "
        उन्होंने मुस्कुराकर सहमति की मुद्रा में  सिर हिलाया और उनके साथ मंच की ओर चल पड़ीं ।
         तालियां , पूरे हाल मेंअपने - अपने अंदाज में  बज रहीं थीं  । ***
================================= क्रमांक - 25                                                        

समझौता

                                          - विमला नागला
                                       अजमेर - राजस्थान
                                       
      रानू की असाध्य बीमारी की सुन उसकी बचपन की सहेली शालू उससे मिलने पहुंची। बरसों बाद सखियों का मिलन, जैसे    बचपन ही पुनः लौट आया हो। लगता है, इस सुखद अहसास से रानू कुछ पल अपनी बीमारी की पीड़ा भुला बैठी हो।
      दोनों बचपन की यादों पर खुलकर ठहाके लगाने लगी। तभी अचानक उसके पति का एक महिला के साथ हाथ में हाथ डाले खिलखिलाते हुए घर में प्रवेश हुआ। शालू स्तब्ध रह गई, यह सब देखकर ।परंतु रानू ने उनका मुस्कुरा कर स्वागत किया। दोनों अंदर चले गए ।शालू अभी भी पत्थर सी बूत  बनी बैठी थी  रानू उसकी मनःस्थिति को , भाँपकर बोली..
 "शालू!वो रीमा है,इनकी प्रेमिका"।
  क्या......?शालू चीख सी पडी।
इस तरह...यह सब...गलत...तुम... शब्द का उफान ज्वालामुखी सा फूटने लगा।
    रानू ने स्नेह से उसके कंधे पर प्यार से हाथ रखा...प्यारी शालू,शांत हो जा बहिन, अब मुझे इस बात से कुछ फरक नही पड़ता।आँखों से आँसू बह निकले...देख मैं तो कुछ ही दिनों की मेहमान हूँ..पर.....
   पर.....परन्तु क्या शालू ने आवेशित हो बोली।
  देख शालू!भावुकता अपनी जगह है परन्तु पति की आवश्यकता अपनी जगह.....मेरे बाद..............।
  स्थायी ठिकाने की परिभाषा व उसके दूरदर्शी समझौते पर शालू ठगी सी रह गई। ***
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क्रमांक - 26

समझदारी

                                           -प्रो.शरद नारायण खरे
                                              मंडला - मध्यप्रदेश

"मेम साब,कल तो बहुत बुरा हुआ,मेरा घरवाला दारू पीकर घर में बहुत हुल्लड़ कर रहा था,मेरे साथ बहुत मारपीट कर रहा था, तो किसी पड़ोसी ने थाने फोन कर दिया, तो पुलिस आई और उसे पकड़कर ले गई। रात भर बंद रखा और उसकी ख़ूब पिटाई की। कितना ख़राब हुआ न ? " कामवाली बाई ने वर्तन मलते हुए घर-मालकिन से कहा। 

"क्या,ख़ाक बुरा हुआ। जब वो दारू पीकर हुड़दंग कर रहा था,और तेरी मारकुटाई कर रहा था, तो यह तो अच्छा ही हुआ। अब वो बिलकुल सुधर ही जाएगा ।पुलिस ने बढ़िया ही पिटाई की उसकी ।" घर-मालकिन ने कहा। 

" नहीं,मेम साब! ऐसा मत कहिए ।अगर उसने मारपीट की तो क्या हुआ, वह मुझे प्यार भी तो बहुत करता है,और मेरी ज़िन्दगी की डोर भी तो उसके साथ बंधी हुई है।जब मैंने उसके साथ शादी की है,तो निभाना भी तो ज़रूरी है। और फिर आपस में काहे की ऐंठ और कैसी अकड़ ? " बाई ने अपनी बात कही। 

अनपढ़ बाई का जवाब सुनकर ऊंचे पद पर नौकरी करने वाली तलाकशुदा मेम साहिबा दंग रह गईं । ***
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क्रमांक - 27                                                         

मद्यपान बनाम मदपान

                                       -  डॉ. बीना राघव
                                       गुरुग्राम - हरियाणा
                                       
         श्रीमती विमलेश देवी अपने पति की मद्यपान की लत से आजिज़ आ गईं थीं। बहुत उपाय किए मगर सब फेल...लत है कि सुरसा की तरह मुख फैलाए जा रही थी। एक दिन वो सिप-सिप कर पीते पति से अपने घर रूपी 'शिप' को डूबने से बचाने के लिए बोलीं- तुम यह क्यों पीते हो? क्या छोड़ नहीं सकते? क्या तुम इसे बुरी आदत नहीं समझते?... मिस्टर वर्मा गरम हो उठे मगर तनिक मिठास घोल बोले, "डार्लिंग पीना मेरी आदत है, खुद के पैसे की पीता हूँ, इसमें अच्छा बुरा क्या है!" श्रीमती ने फिर कहा, "अच्छा ये बताओ कि तुम अपने बेटे को दारू पीने की सलाह दोगे या नहीं?" मिस्टर वर्मा अब बहुत आगबबूला हो गए- "अरे! मैं क्यों दूँगा भई। मैं किसी को पीने के लिए राय नहीं दूँगा मगर पीना छोड़ूँगा भी नहीं...। ये मेरी ज़िंदगी है। सबको अपनी जिंदगी अपनी मर्ज़ी से जीने का हक है।"
विमलेश जी चुपचाप मेज के पास आईं। मेज पर एक विहस्की बोतल और दो गिलास रखे थे। श्रीमती विमलेश ने एक उठा लिया और बोली, "जरा मुझे भी डालना।" 
मिस्टर वर्मा का नशा काफ़ूर हो चुका था। ***
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क्रमांक -28                                                           

लॉ ग्रेजुएट

                                                       - काजल खत्री
                                                     अजमेर - राजस्थान
                                                     
        सुबह जब काम वाली बाई मैना अाई तो बहुत चुप चुप सी काम करती रही। मैना की तरह चहचाहती सी बातें करने वाली,आज इतनी चुप्पी साधे काम कर रही थी तो बात मुझे हज़म नहीं हो रही थी।चलते हुए भी थोड़ा सा पैर लचक रहा था।
अब मुझसे रहा नहीं गया पूछ ही लिया, तबियत ठीक नहीं क्या?मेरी सहानुभूति पाते ही उसकी  आंखों के आंसू झर झर बहने लगे और रोते हुए उसने  बताया कि कल मुआ अमिताभ की पिक्चर देख ली पिंक कह रहा था पति को भी मना कर सके हैं,और मेमसाब कल रात को हमने भी मना कर दी,बस उसीको नतीजों है ये हमार साथ देने कोनसो अमिताभ आने वालो है।
अब क्या कहती उसे की मै खुद लॉ ग्रेजुएट हूं.....पर खुद की ना की वकालत भी कर पाऊंगी कभी.....नहीं जानती? ***
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क्रमांक - 29                                                            

 पाप का सर्फ
                                                 - नीरू तनेजा 
                                             समालखा - हरियाणा
                                             
                   बहन सुमित्रा के तीर्थस्थल से घूम कर वापिस आने की बात सुनकर शान्ता उसे मिलने चली गई ! उसे तो यह भी खबर मिली थी कि उसकी बहू बिमार है लेकिन वह ये सोचकर नही गई कि उसके जाने से बहू और परेशान हो जाएगी मगर अब तो सुमित्रा आ ही गई है तो बहू को भी आराम मिल जाएगा और उसके साथ भी वह कुछ समय बैठ जाएगी !
                 जब से शांता बहन के घर गई है तब से उसे अपनी बहू से झगड़ते व बीमारी में भी उससे घर का पूरा काम करवाते हुए देख रही थी ! जब उससे रहा नही गया तो बोल ही दिया –“ दीदी, क्यूं परेशान कर रही हो बहू को ! इतने तीर्थ स्थानों पर जाती हो, सत्संग में भी जाती हो फिर घर पर बहू पर इतने जुल्म ! कुछ तो भगवान से डरा करो ! “
               सुनते ही सुमित्रा बिफर उठी –“ मुझे क्यों डर लगेगा भगवान से ! डर तो तेरे जैसों को लगना चाहिए जो न कभी तीर्थस्थान जाती है न ही सत्संग में ! बस घर बैठकर बहुओं की चाकरी करती रहेगी ! कभी सत्संग में जाएगी तो पता चलेगा कि वहां जाने से पाप मिटते हैं ! तीर्थस्थान पर जाकर तो कई जन्मों के पाप मिटते हैं ! ऐसे ही नही मैं रौबदाब से रहती ! पाप लगने से पहले ही जाकर धो लेती हूं --------”
              शांता आगे कुछ न सुन पाई ! लेकिन वह समझ गई कि ऐसे धर्म -कर्म कोई भक्ति नही बल्कि पापकर्म धोने के लिए सर्फ की तरह इस्तेमाल किये  जाने वाले साधन हैं जिन्हें प्रयोग करके अपने जानबूझ कर किये पापों को धोया जाता है! ***
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क्रमांक - 30                                                          

हस्तक्षेप

                                              - डाँ. इन्दिरा तिवारी
                                              रायपुर - छत्तीसगढ़
                                              
कौमुदी अपने सूखे कपड़े घड़ी कर रही थीं उसी समय रीना ने प्रवेश किया-
"मम्मी मैं आपसे खास बात करने आई हूँ!"कहती हुई वह पास रखी कुर्सी खींच कर बैठ गयी।कौमुदी बड़े ध्यान से उसे देख रही थीं।रीना के चेहरे पर कुछ क्रोध झलक रहा था।उन्होंने पूछा-
"हाँ बेटा बोलो क्या बात है!तुम कुछ परेशान सी लग रही हो!"
"मम्मी जब मैं घर की पूरी जिम्मेदारी निभा रही हूँ तो बीच में आप क्यों हस्तक्षेप कर रही हैं!"झल्लाते हुए रीना ने पूछा।
"कैसा हस्तक्षेप!मैं समझी नहीं!"
कौमुदी ने आश्चर्य से पूछा।
"आपने मुझे बताए बिना खाना बनाने वाली और कपड़े धोने वाली को तीन तीन सौ देने का वादा कर लिया!"कौमुदी की आवाज़ कुछ तेज़ हो उठी थी।
कौमुदी जी मुस्कुरा उठीं। उन्होने बहु को समझाते हुए कहा 
"बेटा पहले मैं अपना काम खुद कर लिया करती थी पर अब वृद्धावस्था के कारण असमर्थ हूँ।पाचन शक्ति भी कमजोर हो गयी है।जब मैं तुमसे कहती कि आज दलिया बनवा दो या खिचड़ी बनवा दो तो तुम ध्यान ही नहीं देती थीं।मेरे कहने से बाई समय न होने का बहाना बना देती थी।मेरे कपड़े ठीक से न धुलते मठ मैले रह जाते।मुझे माजरा समझ में आ गया कि उन दोनों को अधिक पैसे चाहिए और मैंने यह कदम उठाया।जीवन के चतुर्थ पड़ाव में संतुलन बनाये रखने के लिए हमें भी कुछ निर्णय लेने पड़ते हैं।अब तुमसे एक अनुरोध है कि जब मैं तुम्हारे किसी काम मे हस्तक्षेप नहीं करती तो तुम्हें भी मेरे किसी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।"
रीना निःस्तब्ध हो कर बैठी रह गयी। ***
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क्रमांक - 31                                                               

शक्ति रूपा नारी 

                                                 - अंजली खेर 
                                              भोपाल - मध्यप्रदेश

       छुट्टी का दिन था तो श्रुति ने सोचा कि सुबह सुबह अलमारी साफ कर ली जाए ! पुरानी किताबों को बाहर निकालते समय एक गुलाबी डायरी नीचे गिर पड़ी और उसमें रखें पत्र भी हवा से यहां वहां बिखर पड़े थे !
पत्रों को समेटते हुये जाने अनजाने पुराने यादें चल चित्र की भाँती आंखों के समक्ष गतिमान हो उठी थी !
कॉलेज के दिनों से हीं श्रुति और आनंद का प्यार परवान चढ़ा था ! कॉलेज की हर गतिविधि में दोनोँ बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया करते थे   ! 
फिर आनंद पी जी करने पुणे चला गया और श्रुति को इस बीच रेलवे में नौकरी लग गयी ! दोनोँ का संपर्क बराबर बना रहा ! तैयारी करके आनंद बेंक में अधिकारी बन गया ! 
दोनोँ परिवारों की सहमती से आनंद और श्रुति का विवाह हो गया !
एक दूजे के साथ प्यार में साल भर कैसे गुजर गया पता ही नहीं चला ! शादी की पहली ही सालगिरह पर उनकी बगिया में गुल के रूप में कली खिल गयी ! 
आनंद गुल को सर आंखों पर बिठाए रखता ! पूरा घर गुल के मन पसन्द खिलौनों से सजा रखा था  उसने !
गुल का पहला जनमदिन बहुत ही धूमधाम से मनाया आनंद और श्रुति ने ! समय गुजरता गया, गुल स्कूल जानै लगी ! आनंद ही शां को ऑफिस से आने के बाद गुल को पढाया करता तो पढाई कम, पापा -बेटी की मस्ती ही ज्यादा हुआ करती ! श्रूति कई बार कहती कि "आनंद तुमने गुल को बिगाड़ रखा हैं, थोड़ा डांट ही लगाया करो !"
"मेरी परी हैं मेरी गुल, मैं उसको कभी डांट ही नहीं सकता !"
फिर एक बार आनंद को उसकी बेहतरीन सेवाओं के कारण विदेश जाने का अवसर प्राप्त हुआ वो भी पूरे एक साल के लिए ! आनंद का मन तो श्रुति और गुल में ही लगा था पर श्रुति ने ही जबरदस्ती कर उसे विदेश जाने के लिए तैयार किया ! 
जाते जाते आनंद ने वादा किया कि वो रोज शाम वीडियो कॉल करेगा ! 
आनंद के बिना घर तो जैसे नीरस हो चला था ! पर फिर भी मन लगाने के लिए श्रूति ने गुल के साथ डांस क्लास जॉइन कर ली थी ! 
दो तीन माह तो आनंद नियमित वीडियो कॉल किया करता था पर बाद में ना जाने क्यूँ, सप्ताह में एखाद बार ही फ़ोन लगाता वो भी अच्छे से बात किए बिना ही फ़ोन काट देता ! 
श्रुति सोचती कि शायद आनंद को बहुत ज़्यादा काम हैं इसीलिए समय नहीं निकाल पा रहा हैं !
इसी उहां पोह में एक साल गुजर गया ! आनंद के वापसी पर स्वागत में श्रुति ने उसके मन पसंद लाल पीले गुलाबों से घर सजा रखा था ! टेक्सी से उतरकर अंदर आते ही गुल "पापा आ गए, पापा आ गए" कहकर उसके पैरों से लिपटकर बोली -"अमेरिका से क्या लाए मेरे लिए "
तो आनंद ने झिडकते हुए कहा -पूरा घर खिलौनों से भर हैं फिर भी तुम्हारा मन नहीं भरता !"
और ये रोनी सूरत क्यूँ बना रखी हैं श्रुति, ज्यादा  इमोशनल होने की जरूरत नहीं हैं, जाओ चाय बना लाओ फटाफट !
पापा की डांट से सहमी गुल को गोद में लेकर श्रुति बोली -"आनंद तुम श्रुति से ऐसे कैसे बात कर सकते हो, वो तुम्हारा कितना इंतजार कर रही थी, तुम तो कहते थे कि तुम गुल को कभी डांट नहीं सकते, अब क्या हुआ तुमको"
     अब तुम मुझे सिखाओगी किससे किस तरह बात करनी चाहिए, तुम चाय बनाओ ! मैं फ्रेश होने जा रहा हूँ !
उदास मन से श्रुति रसोई की ओर जाकर चाय बनाती हैं ! चाय पीते हुए भी आनंद मोबाइल में ही व्यस्त था ! श्रुति ही चुप्पी तोड़ते हुए पूछती हैं -" आनंद खाने में क्या बनाऊं !"
कुछ भी बना लेना,वैसे मुझे ज्यादा भूख नहीं हैं ! मैं एक घंटे में आता हूँ -  कहकर आनंद निकल गया !
मम्मा पापा को क्या हो गया हैं, उन्होने मुझे प्यार भी नहीं किया -गुल पूछती हैं 
बेटा, पापा थक गए हैं ना इसीलिए -  गुल के साथ खुद को समझाने का प्रयास करती श्रुति बोली !
     श्रुति खाना बनाकर टेबल पर रख ही रही थी कि हाथ में फाईल लेकर  आनंद आया और श्रुति को कहने लगा - "सारा काम छोड़कर यहां आओ, मुझे तुमसे जरूरी बात करनी हैं!" 
"आनंद, पहले खाना खा लो, थक गए हो तुम !" -श्रुति बोली 
नहीं, मुझे खाना नहीं खाना ! ये देखो मैंने गुल के नाम बहुत सी  पॉलिसी ले रखी हैं और कुछ fd भी कराई हैं ! इससे गुल की पढाई और शादी का खर्चा हो जायेगा 
ठीक हैं ना, ये सारी बातें तो बाद में भी की जा सकती हैं ना, इतनी क्या जल्दी हैं, अब तो तुम यही हो ना -श्रुति बोली 

नहीं श्रुति, अमेरिका में मुझे अपने स्कूल के दिनों की दोस्त रिया मिल गयी थी, जिसे मैं दिलोजान से प्यार किया करता था ! हमने फ़ैसला किया हैं कि अब हम साथ रहेंगे -आनंद ने गुत्थी सुलझाते हुए कहा !
आनंद, प्यार तो तुमने मुझसे भी किया था, फिर .....श्रुति की आंखे  नम हो चली थी !
     ये मेरे स्कूल के दिनों का प्यार हैं जिसे मैं कभी नहीं भुला पाया था पर उस समय घरवालों का विरोध करने की ताकत नहीं थी, हा डिवोर्स की कार्यवाही हो जाए कुछ ही दिनों में ! फिर मैं पुणे शिफ्ट हो जाऊंगा -आनंद दबंगाई से बोला ! 
     तत्क्षण अपनी आंखों से आंसू पोंछकर फाईल आनंद को थमाते हुए बोली -"ये आपके इंवेस्टमेंट आपको मुबारक हो ! अपनी बेटी की अच्छी परवरिश करने की ताकत हैं मुझमें ! आपको चिंता करने की बिल्कुल जरूरत नहीं !  आपको आपके पहले प्यार की ढ़ेर सारी बधाइयाँ !  बस एक रिक्वेस्ट करना चाहती हूँ कि इस प्यार के विश्वास टूटने मत देना ! कहीं ऐसा ना हो कि तुमको किसी मोड़ पर तुम्हारी  नर्सरी वाली प्रेयसी मिल जाए और तुम मेरी तरह इसे भी भूल जाओ ! मुझे जो कहना था मैंने कह दिया और अपने चार जोड़ी कपड़े लेकर इस घर से अभी, इसी क्षण निकल जाओ, ये घर मेरे नाम का हैं ! इस पर तुम्हारा कोई हक नहीं ! फिर आगे से पलटकर इधर देखने की कोशिश भी मत करना ! 
      आनंद दहलीज पार कर निकला ही था कि श्रुति ने गुल को  थाम "धडाम" से दरवाजा बंद कर दिया । ***
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क्रमांक - 32                                                      

बड़ी दीदी 
                                                   -  रेणु झा 
                                                रांची - झारखण्ड

बारात आने के एक दिन पहले ही चाचा जी को दिल का दौरा पड़ा, और वो चल बसे ।"खुशी मातम में तब्दील हो गई "।चाचा जी के गम में चाची जी को भी लकवा मार गया ।वेदिका दीदी सन्न रह गई, सोच रही थी, , , , , , , , , , , कि " व्याह के नाम पर ढेरो दुख ने मेरे दामन को थाम लिया जैसे जकड़ रखा हो दुख ने मुझे "।"वक्त के आगे लाचार "। आखिरकार बङी दीदी ने फैसला लिया कि वो व्याह नहीं करेंगी ।रूचि और सनी दोनो भाई-बहन की और बिमार माँ की देखभाल ही जीवन का मकसद होगा ।वक्त के साथ बड़ी दीदी ने रूचि को विदा किया ।छोटे भाई को सेहरा बंधवा कर निश्चिंत हो गई ।"दीदी सबसे कहतीं अब थोड़ी आराम करूंगी, नई बहू रसोई सम्हाल लेगी ।"अभी सप्ताह दिन ही बीते थे बड़ी दीदी माँ को नित्य क्रिया से निवृत्त करवाकर ऑफिस जाने को तैयार हो रही थी तभी नई बहू आकर बोली, "सुबह रसोई में सहयोग किया करें, अकेले मुझसे नही होगा "।बड़ी दीदी आवाक रह गई! सोचने लगी, , , , , , , , , "कहां कमी रह गई घर संवारने -सहेजने में , कि ऐसी स्थिति हो गई "। उम्र के पचासों सावन कब बीते सोच भी कहाँ पाई? "धीरे-धीरे ताने बढ़ते गए और एक दिन "नई बहू तमतमाती हुई बोली, 'दीदी आप अपना इंतजाम कहीं और कर लें और सासू मां को भी साथ ले जाएं "।वेदिका को लगा कि , " हजारों बिच्छू एक साथ डंक मार गए "।लगभग गरजती हुई बोली, "जाना है तो बहु तुम जाओ, मैने पचास वसंत दिया है इस घर को,रही बात माँ की "ये घर माँ का है, वो क्यों जाएगी ।चाची के देहांत के बाद बङी दीदी ने पचपन वर्ष की उम्र में एक सेना के अधिकारी से व्याह कर लिया जिसका एक पैर युद्ध मे कट चुका था ।"घर के शांति व्यवस्था बनाए रखने के लिए बड़ी दीदी ने ये फैसला लिया "। ***
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क्रमांक - 33                                                           

नीलम 
                                              - वीना वर्मा राधे
                                             हांसी - हरियाणा

नीलम की शादी बहुत ही कम आयु में अर्थात दस वर्ष में कर दी गई थी। शादी के बाद वो अपनी तीन बेटियों के साथ व अपने पति के साथ एक छोटे से मकान में रहती थी। नीलम का बस एक ही सपना रहा है कि वो अपनी बेटियों को खूब पढ़ाए लिखाए और उन्हें कामयाब होता देख सके। नीलम बहुत ही मेहनती व बहादुर स्त्री है। अपने घर की आर्थिक दशा को सुधारने के लिए नीलम ऐसे काम करने लगी जिससे उसे आमदनी हो जैसे लिफाफे बनाना, पापड़ बनाना आदि। इन कामों में उसकी बेटियां भी मदद करने लगी। ये काम करके उसे जितने भी पैसे मिलते वो उसे अपनी बेटियों की पढ़ाई पर व घर के खर्चों को पूरा करने के लिए उन पर खर्च करती।  ओऱ, वो दिन भी आ गया जिसका उसे इंतज़ार था।  बहुत मेहनत करने के बाद आखिर उसकी दो बेटियों को सरकारी नोकरी भी मिल गई। धीरे धीरे उसने अपने घर को बनाना शुरू किया जिसमें उसकी छोटी बेटी ने बहुत साथ दिया। नीलम का पति जो उनकी बिलकुल मदद नहीं करता वो भी नीलम के धैर्य व साहस के आगे चुप था।
एक दिन नीलम के भाई की मौत हो गई जिससे नीलम को बहुत ठेस पहुँची क्योंकि नीलम का केवल एक ही भाई था जिसका सपना था कि वो अपनी भांजियों के लिए उनकी शादी में चूड़ा लाए लेकिन  उसके भाई का सपना पूरा होने से पहले ही वह मर गया। लेकिन नीलम अपनी पूरी हिम्मत के साथ आगे बढ़ती रही व उसने अपने दोनों बेटियों की शादी बड़े धूमधाम से की और अपनी छोटी बेटी को प्रोफेसर बनाने के लिए उसका मार्गदर्शन करती रही। ***
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क्रमांक - 34                                                       

गालियाँ 
                                                  - अलका पाण्डेय 
                                                  मुम्बई - महाराष्ट्र

मेरी शादी एक प्रतिष्ठित परिवार में हुई ,मेरे बाबूजी 
(ससुरजी ) बहूत ही क्रोधी स्वभाव के थे। वों मेरी सासू माँ को सुबह शाम गालियाँ , और गंदे शब्द बोलते ही रहते थे ,सबके सामने ज़लील करना डांटना अपशब्द कहना उनकी दिनचर्या का एक हिस्सा था। मुझसे यह सब बर्दाश्त नहीं होता था ,मुझे काफ़ी पीडा होती थी इन बातों से ,मैंने साँस को कहा कि माज़ी आप क्यों बाबू जी की गंदी गंदी बातें सुनती है और फिर भी हसंती  रहती हैं कभी भी पलटकर जवाब नहीं देती क्यों शायद आप जवाब देगी तो बाबू जी आपसे इस तरह से बात नहीं करेंगे तब मां जी सिर्फ  मुस्कराकर रह गई! और बोली बहू क्या तुम काजल की कोठरी में जाकर काला होना पसंद करोगी नहीं ना इसी तरह मैं उनके गंदे शब्दों को धारण नहीं करती हूँ मैं यदि उन बातो को धारण करने लगूंगी तो मेरा यह शरीर भी गंदा हो जाएगा , यदि कोई बिना वजह हम पर क्रोध करता है हमें गालियां देता है , तो वह अपना शरीर अपनी आत्मा को कलुषित करता है उसके फेंके हुए अपशब्द को यदि क्रोध वश हम  धारण करते हैं तो हमारी साफ़ सुथरी आत्मा व शरीर कलुषित    हो जाती है ।इसलिए हमें कभी भी दूसरों के द्वारा दिये हुए अपशब्दों को अपनाना नहीं चाहिए यही कारण है कि सिर्फ़ में मुस्कराकर रह जाती हूँ व उस वक्त कान्हा का ध्यान करती हूँ ।बाबू जी के कहें शब्दों  में मन नहीं लगाती और मुझे उनकी गालियां बिचलीत नही करती ।  पर बेटा  समझाया उनको जाता है जिनको कुछ समझ में आए जो विवेकहीन हो जाए उसे  समझाया नहीं जाता मेरा चुप रहना ही इस घर के हित में है मैंने माज़ी की बात सुनी उनको प्रणाम किया और काम में लग गयी , मन में ही सोच रही थी क्या मैं भी मां जी के चरित्र को आत्मसात कर  पाऊँगी? गालियाँ हज़म कर पाऊँगी । फिर सोचने लगी नही में सामने वाले की ग़लती  तो बताऊँगी सुधारने की कोशिश करुगी ।आज में बाबू जी से इस विषयमें बात करुगी । शाम को बाबू जी की चाय के साथ मैंने ख़राब वाला नमकीन भेज दिया बाबू जी ने मुझे बुलाया और कहा देख कर काम नहीं करती हो सड़ा हुआ नमकीन भेज दिया है मैंने बहुत सादगी से माँ जी की बात को दोहराया कहा बाबूजी आप जिस तरह सारा दिन मां ज़ी को दी गालियां देते रहते हैं और वो हज़म करती है वो इस नमकीन से भी बदबू दार है ,  ख़राब हुआ नमकीन आप नही खा सकते ! और माँझी ने पूरी ज़िंदगी आपकी गालियाँ खाई है वह भी हँसते  हुयें  , आप सोचिए पूरी ज़िंदगी माँ जी  ने किस तरह आपकी ज्यादतियों को बर्दास्त किया है आज के बाद आप वचन दें कि आप मां जी को गंदी गालियां नहीं देंगे बाबूजी ने कहा बेटा तुमने बहुत बड़ी बात कह दी , मैं माफ़ी माँगकर प्रायश्चित करूँगा ।    ***
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क्रमांक - 35                                                       

एक माँ ऐसी भी  

                                       - डा० भारती वर्मा बौड़ाई
                                           देहरादून - उत्तराखंड
                                           
      माँ के जिस ममतामयी रूप की कल्पना भोली किया करती थी उसकी माँ बिलकुल भी वैसी नहीं थी। पिता बीमारी से चल बसे।माँ कभी मजदूरी करती कभी नहीं।जो कमाती शराब में उड़ा देती। अपने पुरुष मित्रों के साथ घूमती।भोली भूखी है...इसकी कोई चिंता न करती।
        अपने पुरुष मित्रों के कहने में आकर भोली से मुक्ति पाने के लिए माँ उसे अनाथालय में छोड़ आई।
      भोली का भाग्य... वहाँ प्यार, देखभाल, शिक्षा सब मिली। 
        एक दिन उसकी माँ मिलने आई। मुँह से शराब की गंध....भोली को उसने नये कपड़े और मिठाई दी। 
        भोली ने कपड़े और मिठाई सब फेंक दिए और चिल्लाते हुए बोली....”तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई यहाँ आने की? किसने तुम्हें यहाँ आने दिया? मुझे लेने आई हो अपने जैसी उच्शृंखल, उदंड बनाने के लिए! चली जाओ यहाँ से....कभी मत आना यहाँ।”
         भोली सोच रही थी वह अपनी माँ जैसी कभी नहीं बनेगी। ***
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क्रमांक - 36                                                            

दोगली  नीति

                                      -  नंदिता बाली
                              सोलन   -   हिमाचल प्रदान
                              
नहीं नहीं मैडम  !  आप  किसी  व्यक्ति  को चाय   न पिलाया  करो , अपने  काम  के  लिए  ! इस तरह दफ्तर  के लोगों  की आदतें  बिगड़  जाएंगी  ! चंद्रकांता  ने  अपनी  सहयोगी  वीणा  से कहा  . दोनों  एक ही दफ्तर मैं काम  करती  थीं  . वीणा का लोन  केस  लटका  हुआ  था  .
उसने  इन लोगों को , जिनसे  लोन पास  होना  था , चाय पिलाई  थी  और  चंद्रकांता ने बवंडर  खड़ा  कर  दिया था .
देखो  चंद्रकांता , मेरा  काम फंसा  था , मैने  पीला  दी .
क्यों पिलाई , इन लोगों की आदतें बिगड़ती  हैं . दफ्तर के सभी  कर्मचारियों  के सामने  , वीणा को बहुत  बेइज़्ज़ती  महसूस हुई  . उसे  इसलिए ज़्यादा  बुरा  लगा  क्योंकि  वह  चापलूस  न थी .वीणा ने भी पूरी  जासूसी  की और एक दिन  उसके  हाथ  मसाला  , लग  ही गया .हुआ भी सब कुछ  उस  दिन , जब  वीणा छूटी  पर थी . सवेरे  आते  ही वीणा ने चंद्रकांता से कहा ..मैडम, दफ्तर मैं सब आपकी  तारीफ़  करते हैं . कहते  हैं की चंद्रकांता जैसी कोई मैडम नहीं .अपनी तारीफ़ सुन  , वह प्रसन्न  हो गयी  .फिर बोली  , क्यों तारीफ  करते हैं सब ? वीणा बोली , वे  कहते हैं कि चंद्रकांता मैडम बहुत अच्छी  है .जबभी कोई काम होता  है तो चाय भी पिलाती  हैं , और मीठा  भी खिलाती  हैं चंद्रकांता का माथा  ठनका  .वीणा तो नहीं आयी  थी कल  , तो उसे मेरी कल की दी हुई पार्टी  का कसीसे  पता  चला   ? वे कहते हैं , वीणा मैडम , आप बहुत ख़राब  हो !!
आप तो केवल चाय पिलाती हो , पर चंद्रकांता मैडम तो पार्टी देती  हैं !! चंद्रकांता ने चारों  ओर  नज़र  घुमाई  .
उसकी दोगली  नीति का भन्दा  फूट चूका  था , और उसकी असलियत  सामने आ  चुकी थी. फिर  चंद्रकांता बहुत रोई   . वीणा के पास पहुँच  कर कहने  लगी -
मैडम, गलती  हो गयी .आपने तो फील  कर लिया  ,सॉरी  !
              वीणा बोली , मैडम , अगर  आपके  सीने  मैं दिल  है , तो मेरे  सीने में भी दिल है , पत्थर  का टुकड़ा नहीं , इसलिए फील किया  !! ***
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क्रमांक - 37                                                          

वसीयत

                                                      - नेहा शर्मा
                                                 अलवर -  राजस्थान

         सोफे पर चुपचाप बैठी हुई मोहिनी अपने परिवारवालों की हर एक बात को बड़े ही गौर से सुन रही थी। मोहिनी के पति के गुजर जाने के बाद परिवारवालें मोहिनी को अपने साथ रखने की ओट में मोहिनी की पति की सारी ज्यादात पर अपना हाथ साफ करने के लिए एक-दूसरे से बहस कर रहे थे। तभी वकील साहब अंदर आते हैं। और मोहिनी को वो सारे कागजात दे देते हैं। जिसमें सारी संपत्ति मोहिनी की बेटी के नाम थी। यह देखकर परिवारवालों के सपनों पर मानो पानी- सा फिर जाता है। वे सभी आश्चर्यचकित होकर कभी मोहिनी को तो कभी संपत्ति के उन सभी पेपरों को देख रहे थे। परिवारवालों को यह  आभास हो गया था कि मोहिनी पर अब उनकी किसी बात का कोई असर नहीं होगा। इसीलिए मोहिनी को अपने साथ रखने वाले परिवारवाले चुपचाप वहां से खिसक लेते हैं। और मोहिनी बिना किसी पर निर्भर हुए अपनी बेटी के साथ आत्मसम्मान से जी ती है। ***
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क्रमांक - 38                                                           

शक्ति 
                                                    - डिम्पल गौड़ 
                                                अहमदाबाद - गुजरात
                                      
कठोर खुरदरे हाथों से पत्थर तोड़ रही थी वह । कितने ही समय से पहनी, मैली कुचैली बैंगनी साड़ी, स्याह काले रंग में परिवर्तित हो चुकी थी ।  ठोड़ी का वो खूबसूरत सा काला तिल, चेहरे के गहरे सांवले रंग में कहीं छुप सा गया था । पीली गड्ढे में धँसी आँखें जिन में कहीं कोई गुलाबी डोरे नहीं तैरते थे अब ! हाँ ! ऐसी ही तो थी चन्दा..आकर्षण के नाम पर एकदम शून्य !
माँ-बापू ने कम उमर में ब्याह दिया था। कुछ समय गाँव में रहने के बाद पति हरिया के साथ शहर आ बसी । 
तब से तेज धूप में जलना ही उसका नसीब बन गया  । पत्थर तोड़ते -तोड़ते अचानक तेज हवा से उसका मैला आँचल नीचे गिर पड़ा।. उठाने को जैसे ही झुकी सामने सुरेश को खड़ा पाया । उसे मजदूरों पर नज़र रखने के लिए नियुक्त किया गया था । वह आँचल को सम्भालने लगी तभी सुगना ने दूर से आवाज़ लगाई।
"ओ री चन्दा आ जा टिफिन ले आ , खाने का वखत हो चला है "
वह मुड़ी , पास रखा डब्बा हाथ में लिए , नीम के पेड़ की छाँव में चल दी । जहाँ से सुगना ने उसे पुकारा था ।
दोनों ने 
जैसे ही अपना डब्बा खोलना शुरू किया , सुरेश वहीं आ कर खड़ा हो गया ।
" क्या लाई चन्दा , वही सूखी रोटी और चटनी !" कहते हुए सुरेश की वहशी नज़रें उसी के तन को घूरे जा रही थीं । 
" बाऊजी वो का है , सूखी रोटी और चटनी तो हमEe लावत ही  हैं !  ऊके साथ डब्बा भर लाल मिरच भी लावत हैं जाने कब जरूरत पड़ जाए इनकी !! "  पीली निस्तेज आँखें अब लाल मिरच सी सुर्ख हो चली थीं । ***
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क्रमांक - 39                                                               

खुली किताब 

                                                    - सतीश राठी
                                                  इंदौर - मध्यप्रदेश

वह सदैव अपनी पत्नी से कहता रहता कि , ‘’ जानेमन ! मेरी जिन्दगी तो एक खुली किताब की तरह है ...जो चाहे सो पढ़ ले। ’’ इसी खुली किताब के बहाने कभी वह उसे अपने कॉलेज में किए गए फ्लर्ट के किस्से सुनाता , तो कभी उस जमाने की किसी प्रेमिका का चित्र दिखाकर कहता – ‘’ ये शीला ...उस जमाने में जान छिड़कती थी हम पर....हालाँकि अब तो दो बच्चों की अम्मा बन गई होगी । ‘’

पत्नी सदैव उसकी बातों पर मौन मुस्कुराती रहती । इस मौन मुस्कुराहट को निरखते हुए एक दिन वह पत्नी से प्रश्न कर ही बैठा --- यार सुमि ! हम तो हमेशा अपनी जिन्दगी की किताब खोलकर तुम्हारे सामने रख देते हैं , और तुम हो कि बस मौन मुस्कुराती रहती हो। कभी अपनी जिन्दगी की किताब खोलकर हमें भी तो उसके किस्से सुनाओ । ’’

मौन मुस्कुराती हुई पत्नी एकाएक गम्भीर हो गई , फिर उससे बोली ---‘’ मैं तो तुम्हारे जीवन की किताब पढ़ – सुनकर सदैव मुस्कुराती रही हूँ , लेकिन एक बात बताओ ....मेरी जिन्दगी की किताब में भी यदि ऐसे ही कुछ पन्ने निकल गए तो क्या तुम भी ऐसे ही मुस्कुरा सकोगे ? ‘’

वह सिर झुकाकर निरुत्तर और मौन रह गया। ***
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क्रमांक - 40                                                             

आदमी का बच्चा

                                               - वन्दना श्रीवास्तव
                                                  मुम्बई - महाराष्ट्र

सुमन(मेरी गृहकार्य सहायिका) दो महीने की छुट्टी पर गाँव जा रही है। अपने स्थान पर कार्य करने के लिए किसी को  लेकर आई है। चालीस - पतालीस उम्र, नाम था सकीना बी। सकीना बी के साथ एक पांच - छ: वर्ष की एक बच्ची भी थी। सुमन सकीना बी को काम समझा कर चली गई। सकीना बी ने काम शुरू किया। उनके साथ आई बच्ची भी झाड़ू लेकर काम करने को उद्धत हुई, जिसका क़द झाड़ू से कुछ कम ही था। झाड़ू उसके हाथ में क्रिकेट के बैट सी लग रही थी। मुझे इतनी छोटी बच्ची का काम करना बुरा लगा। मैंने सकीना बी से अपना विरोध जताया तो पसीना पोछते हुए बड़बड़ती हुई आकर बैठ गईं "मनती ही नई, अरे यहै करै का है जिनगी भर, तनि गम खाव" पतली-दुबली कृशकाय उस गरीब औरत को देख मन दृवित हो गया। मैंने उससे कहा- "बैठो सकीना बी, चाय पीने का मन हो रहा है, आप भी चाय पी लीजिए, उसके बाद काम करिये। सांत्वना और सहानुभूति पाकर वह थोड़ी सहज होकर बैठ गई। चाय गैस पर  रख कर मैं भी बैठ गई। यूँ ही उससे परिवार के बारे में बातें करने लगी। सकीना बी भी थोड़ी निश्चिंत सी होकर बताने लगी, "का बताई, किस्मतै दुश्मन हो तौ का कही। पन्द्रह बरस की उमिर में माँ-बाप बियाह करके फुरसत पा लिए।बियाहे के पांच बरस बादै दुई ठौ बिटिया गोदी में डारि के हमार मनई पड़ोस की एक विधवा के साथ कहूं चला गवा। सास-ससुर सबै किनारा कर लिए। ऊपर वाले की मर्जी.... जैसे-तैसे बिटियन का ही जिनगी मानि के बर्तन-कपड़ा करि के दुई रोटी मिल जाती रहीं।" मैं भी फुरसत में थी, उसकी बातों में रस ले रही थी। मैं दो कप में चाय छान कर ले आई। बच्ची को कुछ बिस्किट देकर अपना कप ले कर मैं बैठ गई। वह आगे बोली, "बिटियाँ ब्याह लायक हुई गई। अचानक एक दिन हमार आदमी तीन बरिस की बिटिया लै के वापिस आइ गवा। बिटिया को हमरी गोदी मे डारि के हाथ जोड़ के खूब माफी माँगी। माफ न करती तो का करती।  ये 'दुसरी' की बिटिया हती। लेकिन ई मर्द जात..त.. वो फिर किसी के साथ भाग गवा" कहते हुए उसके चेहरे पर बार बार छले जाने का दुख, बेबसी, वितृष्णा,क्षोभ जैसे तमाम भाव उभर रहे थे। "और तुम उस 'दुसरी' की बच्ची को भी पाल रही हो?"  मैंने किंचित आश्चर्य से पूछा। अचानक सकीना बी उठीं और कोने में मासूम, निर्दोष  उस निर्लिप्त सी बैठी बच्ची को सीने से लगा कर बोलीं "कौनों पशु-जनावर का बच्चा थोड़े है, जो हांक देई। आदमी का बच्चा है। जैसे उई दुउनौ पलि गईं यहौ पलि जइहै।" उनकी चाय खत्म हो गई थी। वह बिल्कुल निश्चिंत आश्वस्त भाव से अपने काम में लग गईं। ***
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क्रमांक - 41                                                           

  बेशर्मी 

                                                 - सेवा सदन प्रसाद
                                                    मुम्बई - महाराष्ट्र
         
अचानक तेज बारिश होने लगी ।लोग बारिश से बचने के लिए एक चाय की पटरी में घुस गये।जगह कम थी फिर भी सब बारिश से बचने का प्रयास कर रहे थे।
           थोड़ी देर बाद एक नवयुवती भी आकर खड़ी हो गई।भींगने की वजह से उसके कपड़े बदन से चिपक गये थे।सीने पे दुपट्टा भी नहीं था ।सबों की नजरें उसके भींगे बदन पे रेंगने लगीं।नवयुवती तब असहज महसूस करने लगी।अपने दोनों हाथों को दुपट्टा बना कर वक्ष को ढकने का असफल प्रयास की।तब तेज बारिश के झोंके से कमर का नग्न भाग कामुक नजरों का शिकार हो गया।बारिश इतनी तेज हो गई कि नवयुवती चाह कर भी जाना नहीं चाही।
           एक अधेड़ उम्र की महिला सब की नजरों की हरकतें देख रही थी।लोगों की कामुक मानसिकता पे बहुत गुस्सा भी आ रहा था।स्थिति जब असहनीय   हो गई तब वह अधेड़ औरत उस नवयुवती के आगे दीवार बन कर खड़ी हो गई और आंखें तरेर कर एक - एक को घूरने लगी।पराजित नजरें तब शर्म से झुक गईं। ***
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क्रमांक - 42                                                               

आत्मसम्मान 

                                              - सुदेश मोदगिल नूर
                                                पंचकूला - हरियाणा
                                     
मेरे छोटे बेटे के लिए मैंने एक आया रखी जो बेबी के साथ बहुत प्यार करती थी यहाँ तक कि कभी बैबू को बुखार होता तो उसके पास बैठी रहती और कुछ भी खाती नहीं जब मै खाने को मजबूर करती तो कहती जब मुन्ना दूध पियेगा तो मै खाना खाऊँगी। उसका प्यार बड़ा अनोखा था , पड़ोसी मुझे अकसर कहते इसकी आया जितना प्यार तो नानी दादी भी नहीं कर सकती । एक दिन मैंने आया को पूछा तुम ख़ूब अच्छे से शिंगार करती हो माँग भरती हो तुम्हारे पति कहाँ रहते है क्या तुम्हारे बच्चे भी है ? उसने मुझे बताना शुरू किया कि उसकी शादी हुई थी जब वह १८ साल की थी और उसके घर एक बच्ची हुई थी जो दो दिन के बाद मर गई अगले दिन उसके पति ने उस पर  हाथ उठाया , उसने हाथ पकड़ लिया और कहाँ मै तुम्हारे घर मे नहीं रहूँगी तुमने मुझपे हाथ उठाया है, अगले दिन वह मज़दूरी के लिए चली गई, आज वह ५०-५५ साल की थी, उसका पति कई बार उसे लेने आया पर उसने जाने से मना कर दिया और उसे कहा तुम्हारे साथ नहीं जाऊँगी शादी भी नहीं करूँगी तेरे नाम की चूड़ी पहनी है तेरे मरने पर आकर तेरे घर में तोड़ूँगी लेकिन जो आदमी औरत पर हाथ उठाता है उसके साथ कभी नहीं रहूँगी । मै उसकी बात सुनकर हैरान थी कि वह पढ़ी लिखी नहीं थी फिर भी इसकदर आत्मसम्मान की भावना।मुन्ना ही मेरा बच्चा है मैमसाब मुझे आप निकालना नहीं , मेरे पास वह रहती रही दस साल तक, फिर मुझे कहने लगी अब मुझसे काम नहीं हो पा रहा और बिना काम किये मै यहाँ नहीं रहूँगी मैंने उसे बहुत कहा कि तुम रहो काम करने वाले तो है तुम सबसे काम करवाया करो लेकिन वो ऐसी स्वाभिमानी कि बिना काम किए रह नहीं सकती बस एक दिन अपने गाँव मे मिलने गई फिर वही रह गई उस को मिलने कभी कभी हम उसके गाँव जाते मिलकर आते । ***
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क्रमांक - 43                                                                

माँ की हार

                                                 - अम्बिका हेड़ा 
                                               अजमेर - राजस्थान


बूढ़ी माँ को नया नया मोबाइल प्रकाश ने दिलाया 
कावेरी ख़ुश बेटा फ़ोन ले  आया .... । व्हाट्सएप्प पर सबकी बातें पढ़ रही थी तस्वीरें देख ख़ुश हो रही थी लेकिन अपनी बात नहीं  लिख पा रही .......। टाइप करना नहीं आता ........। सबकी आवाज़ सुन रही पर ख़ुद की आवाज़ नहीं  भेज सकती ..........। बेटा प्रकाश इसपर आवाज़ कैसे भेजते हैं ? मम्मी कितना आसान है देखो वहाँ एक बटन है ......दबाना ही तो है ......। बेटा थोड़ा बता दे ....... ।
प्रकाश ने फ़ोन हाथ में लिया ओर बस जल्दी से बताया ओर चला गया ...... । कावेरी दिन भर प्रयास करती रही .....।डरते डरते रात को प्रकाश को पूछ ही लिया ।बेटा मुझ से नहीं हो रहा एक बार बता देगा ...........। प्रकाश हर दम की तरह कह कर निकल गया।
" मम्मी आप रहने दो आप कुछ नहीं जानते "
सही कहा है किसी ने एक माँ अपने बच्चों के आगे ही हार जाती हैं । ***
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क्रमांक - 44                                                                

नारी तेरे कितने रूप

                                                   - गीता चौबे
                                                 रांची - झारखंड
                                      
        '' क्या... ? क्या कह रही हो... ऐसा कैसे हो सकता है? हे ईश्वर! यह क्या हो गया ? '' फोन का रिसीवर छुट कर गिर पड़ा... सकते में आ गयी सरिता जब गाँव से फोन आया कि उर्मिला का एक्सिडेंट हो गया और घटनास्थल पर ही मौत हो गयी।
      उर्मिला सरिता की रिश्ते की देवरानी थी।
'अभी उम्र ही क्या थी उसकी... कितने सपने देखे थे उसने जो पूरे होने बाकी रह गए...' सोचते हुए सरिता उन दिनों को याद करने लगी जब उर्मिला ब्याह कर आयी थी...।
     दहेज मन मुताबिक न मिलने के कारण सासू माँ थोड़ी नाराज रहती थी पर उर्मिला ने अपने मृदु व्यवहार और सेवा से उनका दिल जीत लिया और पूरे परिवार की चहेती बन गयी।
    उर्मिला के पति बेरोज़गारी का दंश झेल रहे थे पर विचलित न होते हुए पति का संबल बनी। सदा चेहरे पर मुस्कान लिए घर का सारा काम करती और थोड़ी भागदौड़ के साथ गाँव की आँगन बाड़ी सेविका के रूप में कार्य कर गृहस्थी में हाथ बंटाने लगी।
   समय के साथ तीन बच्चे हुए जिन्हें अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाने के लिए जी तोड़ मेहनत करने लगी।
उर्मिला का परिवार गाँव में रहता था, पर अपने बच्चों का एडमिशन शहर में कराया था और उनकी खातिर रोज आना-जाना करती थी। इतनी परेशानियों के बावजूद भी गज़ब का धैर्य था उसमें... हँसते-हँसते सारे फ़र्ज पूरा करती थी।
   एक औरत के इतने रूप उर्मिला के अंदर देख सारे गाँववाले दंग थे।
  आज उसी उर्मिला को रोज़ की तरह शहर से गाँव आने के क्रम में एक ट्रकवाले ने टक्कर मार दी जिससे वह बुरी तरह कुचली गयी...।
    सरिता की आंखों से अश्रु  की धार बहने लगी...। ***
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 क्रमांक - 45                                                              

आराधना 

                                       - डॉ .आशा सिंह सिकरवार 
                                           अहमदाबाद - गुजरात 

आराधना रोजाना की तरह सुबह अपने बेटे सूरज को विधालय के लिए बस स्टाप पर पहुंचाने निकली थी
उसे एकदम से याद आता है । कि सूरज आज पैंसिल भूल गया है ।तभी वहाँ एक बूढ़ी काकी दिखाई दी ।आराधना ने बटुए से सौ का नोट निकाल कर काकी की ओर बढ़ाया ।काकी की आँखों में मानो जूगनु चमक उठे ।पहला ग्राहक भगवान के समान होता है ।उसी पर दिन भर की कमाई निर्भर होती आम इंसान इसी अंधविश्वास के इर्द-गिर्द रहता है।काकी के पास खुले रूपये की समस्या थी । इसलिए
काकी एक पैंसिल देने को तैयार न हुई ।आराधना का मन केवल सूरज की बस की फिक्र में था ।उसने आगे बढ़ कर पैंसिल की खोज शुरू की । अनवरत कानों में शब्द पड़ते रहे ।काकी का पहला ग्राहक लौट चुका था काकी क्रौध में खरीखोटी सुना रही थी ।सुनकर आराधना का मन उद्वेलित हो जाता है । इतने में सूरज की बस आ जाती है । खिन्न मन पर फिकी-सी हँसी रख कर सूरज को विदा करती है जैसे कुछ हुआ ही नहीं ।मुझे काकी से पुनः मिलना होगा सोचते हुए आराधना काकी के पास जा पहुँचती है। काकी मुझे क्षमा कर दो!मन पर बोझ लेकर मैं घर नहीं लौट सकती ।लाइए मैं आपकी सारी पैंसिल खरीद लेती हूँ । आराधना ने कहा - ये सुनकर काकी मोम की तरह पिघल गई ।आँखों से झरने लगा दुख ।स्त्री को पश्चाताप करने में कितनी देर लगती है भला !काकी को अपनी गलती का अहसास होता है और वह आराधना से क्षमायाचना करने लगती है ।कई दिनों से घर का चूल्हा नहीं जला इसलिए उसने गुस्से में बुरा भला कहा था । काकी ने आराधना को बताया । यह सुनकर आराधना ने काकी की सभी पैंसिल खरीद ली ।काकी ने प्रसन्न मन से आराधना को दुआएं दी ।आराधना भी खुश होकर घर लौटी । ***
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क्रमांक - 46                                                             

हरी चूड़ियाँ

                                                 - अर्चना मिश्र
                                              भोपाल - मध्यप्रदेश

              सोनल के पति को गुजरे चार महीने हो गये। रिवाज़ के अनुसार पहले त्यौहार पर उसे मायके जाना है। सोनल के मायके आने पर सभी रिश्तेदार और पड़ोसी उससे मिलने के लिये आये।
        उन्हीं में से किसी रिश्तेदार ने उसके गले में पहने मंगलसूत्र को देख कर कहा। 
    "सोनल अब ये मंगलसूत्र क्यों पहनी हो ? " 
      सुनकर ,सोनल की मम्मी जो वहाँ नारी उत्थान केंद्र की संचालिका हैं; तुरंत बोली।
     " मैं इन सब दकियानूसी रस्मों पर विश्वास नहीं करती। मेरी बेटी जैसी रहना चाहे वैसी रहे।"
       मम्मी की बात सुन रिश्तेदारों का मुँह बंद हो गया। कम से कम उसकी मम्मी रूढ़िवादी परंपरा का विरोध करना जानती हैं।  
             मम्मी की परिपक्व सोच पर सोनल को बेहद गर्व हुआ।
          शाम को सोनल मम्मी के साथ मंदिर गयी। पुजारी ने उसे प्रसाद के साथ कुछ हरी चूड़ियाँ दी। जिसे उसने खुशी-खुशी अपने हाथों में थामा ही था, कि मम्मी ने उसके हाथों से चूड़ियाँ  छीनते हुए कहा कि बस कर सोनल। 
       "विधवा को चूड़ियाँ नही   पहननी चाहिये।"
            मम्मी का कौन सा रूप    "असली" है ?  सुबह चट्टान सी दृढ़ता लिये नारी उत्थान केंद्र की संचालिका का या इस समय रूढ़िवादी  परंपराओं का निर्वाह करने वाली साधारण औरत का।
      सोनल सोचती रह गयी। ***
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क्रमांक - 47                                                             

आग का साम्राज्य

                                      - श्रुत कीर्ति  अग्रवाल
                                             पटना - बिहार

"आज बाईस तारीख हो गई, अभी तक तुम्हारा किराया नहीं पँहुचा है| क्या मुझे सेक्रेटरी रखा है जो मैं हर महीने फोन कर कर के याद कराऊँगी? अगर पैसे नहीं हैं तो कमरा खाली क्यों नहीं कर देतीं?

मकान मालकिन रोहिणी जी फोन पर इतनी जोर जोर से चीख रही थीं कि सरिता ने घबरा कर फोन काट दिया| अब क्या करेगी वह? इस महीने की उसकी पूरी तनख्वाह तो पहले ही बेेटे सनी की बीमारी पर खर्च हो चुकी है|  इस बार का राशन, दूध, गैस... सनी की फीस.. पति अंकित की डेथ के बाद अब सब कुछ उसको अकेले सँभालना है....मगर कैसे? समझ में ही नहीं आता कि कैसे होगा सब कुछ...मगर जो भी हो, रोहिणी जी के पैसे तो पहुँचाने ही पड़ेंगें अन्यथा वो कहीं उसे बीमार बेटे और सामान के साथ सड़क पर ही न ला पटकें|

हाथ जोड़ कर, रो रो कर....बड़ी मुश्किल से अपने साथ काम करने  वाली रमा से पैसे उधार ले कर शाम को रोहिणी जी के घर पहुँची थी सरिता| बाहर में कई गाड़ियाँ लगी हुई थीं और माहौल में गहमा गहमी थी| अंदर जाने पर पता चला कि वे अपनी सहेलियों के साथ ताश पार्टी में व्यस्त हैं| सकुचाते शर्माते वहीं जाना पड़ा था सरिता को.... पैसे हाथों में पकड़ते हुए रोहिणी जी ने उसे कड़ी नजरों से घूरा और गुर्राईं...."आगे से दस तारीख पार नहीं होनी चाहिये|" और फिर अपनी सहेलियों की तरफ घूम कर मुस्कुराते हुए बोलीं "और ये छ हजार की चाल मेरी तरफ से"...... सरिता के दिये हुए रूपयों को उन्होंने टेबल के बीच में लगे नोटों के ढ़ेर में फेंंक दिया था। ***
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क्रमांक - 48                                                           

रिश्तों में स्पेस

                                             -  पम्मी सिंह 'तृप्ति'
                                                        दिल्ली

पूजा चैत्र  की सुनी दोपहर को आंगन से कपड़े उठाने लगी, सहसा तभी, नज़र झाडियों के छाए में सुस्ताते, कियारा पालतू बिल्ली और उसके बच्चों पर पड़ी, जो बड़े सकून के साथ बैठे थे । साथ  ही वो  एक सुखद ख्यालों के झोंके के साथ उसकी नजर खुद के  परछाइयों पर पड़ी ।
‘कितनी अजीब बात है, मैं वहीं.. पर ये छाया भी बदलते माहौल, समय, धूपों के रुख  के साथ अलग-अलग ही सूरत अख्तियार करता जाता... उसी तरह सोच के साथ भावनाएं भी बदल जाती है।‘
“माँ”
“क्या हुआ ?”
“मैं, देख सकती हूँ, कि आप क्या सोच रही हैं “. सर पर पड़ती सिकन के राज बताओ न.. आपकी ही छोटी परछाई हूँ।“
“आप बोलों.. बोलों ना..”
“रिद्धि,..  मेरे मन में एक फांस सी अटक गई है..”
 “ वह क्या ? “
“आजकल सब को रिश्तों में स्पेस चाहिए, एक दूसरे की जिंदगी में दखल नहीं देते । पर, मैं, तुम्हारे हर काम में शामिल हूँ। क्या कहीं गलत तो नहीं कर रही ? 
क्या, मैं अपनी बड़ी परछाई से छोटे परछाई यानि, तुम्हें  ढक तो नहीं रही हूँ।“
“ ओह! नो .. मॉम, इस तरह की  नेगेटिव बातों को मन में कभी आने भी नहीं देना। माँ- बाप से कैसा स्पेस ?”
“आप मेरे लिए बट वृक्ष की छाया हो ..जिसके तले नमी है , उम्मीद की बीज है, संस्कार है, जो बहुत सशक्त है। इन सब से उपर भावनाओं का सुरक्षात्मक ढाल है।“
“ हाँ,.. तो ये विचार है मेरे रिद्धि के.. तू तो बहुत बड़ी हो गई.. “
 पूजा सोचने लगी हम स्त्रियों के भीतर अकेलेपन में अक्सर उग आती है एक और स्त्री । छोटी छाया की बड़ी प्रतिछाया ..
“है न.. मेरी बेटी।“ ***
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क्रमांक - 49                                                         

माँ का प्रतिरूप

                                                  - डॉ लता अग्रवाल 
                                                   भोपाल - मध्यप्रदेश
                                       
आज नवेली रूपल का रसोई में पहला दिन है। सभी ने अपने - अपने पसन्दीदा व्यंजन की लंबी लिस्ट उसे थाम दी । यूँ ससुराल में उसके पढ़े लिखे होने की तारीफ तो सभी ने दिल खोलकर की मगर रसोई...वह तो हमेशा बचती रही है रसोई से । सब्जी वगैरह तो फिर भी वह नेट से देखकर कभी -कभार शौकिया बना लेती थी मगर रोटी..! दादी हमेशा माँ से कहती -
“अरी कृष्णा! चाहे कितना ही पढ़ा ले बेटी को मगर बनाना तो उसे रोटी ही है।  कभी रसोई के दर्शन भी करादे कर।“
“ वक्त आएगा तो सीख लेगी मांजी ।“
कभी दादी चेलेंज करती - ,
“चल री रूपल आज मैं तेरे हाथ की ही रोटी खाऊँगी, देखूं कैसी बनाती है ।'
रूपल कितनी कोशिश करती मगर गोल की जगह कोई न कोई नक्शा ही बनता , जब थक जाती तो माँ धीरे से आकर उसके हाथ पर हाथ रख बेलन चलाती और गोल रोटी तैयार हो जाती। मगर आज वह क्या करेगी ? उसने दाल- चावल, खीर, पनीर कोफ्ता, सब नेट की सहायता से बना लिए मगर रोटी की बारी ...वही वह बार- बार लोई बनाती , बेलती फिर तोड़ती होंसला छोड़ रही थी माँ की याद कर आँखों में आंसू भर आये।
अचानक रूपल ने अपने दोनों हाथों पर किसी का स्पर्श महसूस किया  और उसके हाथ चकोटे बेलन पर गोल- गोल घूमने लगे। सब कह उठे,
' वाह! बहू  ने तो बिलकुल चाँद सी गोल रोटी बनाई है।'
रूपल आँखों में खुशी के आंसू लिए सासु माँ को निहार रही थी । ***
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लघुकथा - 50                                                             

माँ दुर्गा

                                      -  लता तेजेश्वर ' रेणुका '
                                            मुम्बई - महाराष्ट्र

माँ भवानी के मंदिर में देवी माँ के सामने खड़े, मन ही मन प्रार्थना करने लगी आराधना। उसके साथ चुपचाप खड़े उसका पति सुमन आँखे बंद कर कुछ बुदबुदा रहा था। मंदिर से लौट कर भवानी और सुमन सीढ़ियों पर बैठे। भवानी ने सुमन से पूछा, "आप माँ से प्रार्थना में क्या माँगा?"
"पहले तुम बोलो कि तुमने क्या माँगा।"सुमन ने कहा।
भवानी ने कहा, "मैंने माँ दुर्गा से मेरे गोद में दुर्गा अंश के साथ बेटी देने के लिए विनती की।" 
" मैं अभी तक बेटी को माँगने को डर रहा था भवानी, पर अगर तुम्हारी गोद में स्वयं दूर्गा ही जन्म ले तो मुझे क्या आपत्ती हो सकती है। तुम्हारी गोद में एक बेटी हो ये बात मेरे मन में उसकी सुरक्षा से जुड़ी भय पैदा कर रहा था। फिर भी मैंने तुम्हारी ही इच्छापूर्ति की माँग की थी। अब मैं संतुष्ट हूँ कि स्वयं जगत जननी दुर्गा की अंश अगर मेरे घर पैदा हो तो बेटी की अस्तित्व से क्यों डरूँ। जो दुनिया की रक्षा कर सकती है वह खुद की रक्षा तो जरूर कर सकती है।" कहते हुए सुमन ने माँ दुर्गा को स्मरण कर माथा टेका। ***
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लघुकथा - 51                                                             

दीपिका

                                      - शशांक मिश्र भारती 
                                     शाहजहांपुर - उत्तर प्रदेश
                                     
बड़े साहब के घर वर्षों से काम करती दीपिका को महीने के तीन हजार रुपये बहुत कम पड़ते ।उसे जब अपने शराबी पति की लापरवाही से हुए छ छ बच्चों को पालना करना पड़ता ।
  उधर मेमसाब अपने कुत्ते पर महीने में तीस पैंतीस हजार लुटा देतीं ।परन्तु दीपिका को एक पैसा अधिक नहीं  ॽ घण्टों रिरियाकर दुखड़ा सुना सुनाकर थक चुकी थी ।
  जब दीपिका कुत्ते को देखती तो यही सोंचती कि भगवान अगले जनम मोहि कुत्ता बनइयो और साहब के घर ही भेजियो । ***
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क्रमांक - 52                                                                

बेबस बच्ची और सौतेली मां

                                     - भुवनेश्वर चौरसिया " भुनेश "
                                          गुड़गांव - हरियाणा
                                             
"सर्दियों के दिन थे, और आसमान धूंध से घिरा हुआ था‌ वहीं वो बच्ची सूरज निकलने की प्रतीक्षा में छत पर बैठी थी। 
"ठंड से बचने की चिंता उसे सताए जा रही थी, उसके तन पे मुक्कमल वस्त्र नहीं थे। 
"सौतेली" मां अरे ओ करमजली यहां क्या कर रही है?
 'मां' ठंड अधिक लग रही है, तो थोड़ी धूप सेंक रही हूॅं‌, 
"मां" पर धूप तो अभी है नहीं? 
"कामचोर कहीं की,वो अभी अभी तो घर के सारे काम झाड़ू पोंछा बर्तन सबकुछ तो कर आई थी"। 
"दालान भी उसकी नन्ही हाथों से झाडू लगने के कारण चमक उठी थी।
"दालान में बरामदे से बाहर अलाव जलाकर कुछ लोग हाथ सेंक रहे थे।
"उसको मनाही थी,उसका बाप गूंगा था, जिसके कारण फूल सी बच्ची को निरपराध सौतेली मां के हाथों से पीटने से नहीं बचा पाता था। 
"तभी चिखने की आवाज आई, अरी ओ "करमजली" बेचारी को इतनी ठंड में भी दो चपत लगा दिया उसकी सौतेली मां ने! 
"वह अपनी सगी मां को याद करते हुए सुबक पड़ी। 
"ए मां किसके हवाले छोड़ गई" मुझे भी अपने साथ ले जाती।
"अब सूर्य देव अपनी गर्मी साथ लिए प्रकट हो चुके थे।वो नन्ही जान खुश हो गई थी।
"तन पर वस्त्र भले कम हो पर ठंड में धूप की रौशनी मिल जाए तो फिर सर्दी नहीं लगती।
"वह दुबक कर धूप सेंकने बैठी रही, सौतेली मां ढ़िठ कहीं की! 
"चल नीचे जा रोटी सेंक धूप सेंकने से पेट नहीं भरता।
"वो बच्ची सौतेली मां को एक नजर देखती सीढ़ियों से नीचे उतरने लगी। 
"सौतेली मां छत पर पसर कर कम्बल ओढ़े धूप सेंक रही थी।
"अभी वो फूल सी बच्ची घर में भूखी-प्यासी रोटी सेंक रही थी।  
"उसका बाप और सौतेले भाई बहन ठूंस ठूंस कर खा रहे थे। 
"पढ़ने लिखने की उम्र में इतनी विपत्ति, वो अब भी अपनी रोटी के इंतजार में बस रोटियां बनाए जा रही थी।
"वो अब सारी रोटियां सेंक चुकीं थीं। 
"तभी आहें भरती हुई सौतेली मां नीचे आ गई रौब से चल खाना लगा पसर कर रोटी खाने लग गई।
"सौतेले मां भूखी शेरनी की भांति एक ही झटके में सारी की सारी रोटियां चट कर गई। 
"वो फूल सी बच्ची भूखी रह गई अपनी रोटी के इंतजार में! 
अब वह दुःखी मन से पुनः घर के छत पर जाकर गुमसुम सी बैठ गई सूर्य की तेज धूप इस बर्बरता को देख कर मंद पड़ गई थी। ***
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क्रमांक - 53                                                             

  अधिकार

                                                 - डा. चंद्रा सायता
                                                  इंदौर - मध्यप्रदेश

  "आप विगत दो वर्षों से मि. शान्तनु के साथ रह रही हैं।" जज साहब ने कठघड़े में खड़ी अनीता से कहा ।

" जी मिलार्ड ‌"

" दो वर्षों बाद आप मि. शान्तनु पर आरोप लगा रही हैं कि उन्होंने आप के साथ बलात्कार किया है और अपने पक्ष में फैसला चाहती हैं- यह कैसा विरोधाभास है?" 

            अनीता स्थिर भाव तथा दृढ़तापूर्वक अपना बयान दे रही थी ।

   " मिलार्ड।आजकल लिव-इन रिलेशनशिप  किसी भी वैवाहिक संकल्पना से कम नहीं है। शान्तनु का व्यवहार मेरे प्रति अत्यधिक कटु हो चला था। मैंने उससे अलग रहना शुरू कर दिया था।अलग रहते हुए मैंने इन्हें एक पत्र भी लिखा था कि अब मुझसे सम्पर्क करना बेकार है।अब तुम्हारे साथ मेरा रहना नामुमकिन है। पत्र में मैंने अन्य कारणों का भी उल्लेख किया था।" कहते-कहते अनीता ने उस पत्र की फोटोकॉपी जज साहब की ओर ‌बढ़ा दी।

       जज साहब भी सोचने को मजबूर हो गए कि विवाहोपरांन्त तलाक की प्रक्रिया जटिल ही सही, किन्तु है तो, पर लिव-इन रिलेशनशिप में स्त्री-पुरुष के बीच एक अलिखित समझौता होता है। इसमें साथ रहते-रहतेअचानकक किन्हीं कारणों से संबंध- विच्छेद भी परस्पर रजामंदी से हो जाते हैं।

 शान्तनु पहले ही अपने बयान में स्वीकार कर चुका है कि अनीता के साथ उसके संबंध पति-पत्नी के नहीं रह गए थे। किन्तु बलातकार  की धटना पिछले तीन महिनों के दौरान ही हुई थी, जब से अनीता शन्तनु से अलग रहने लगी थी।।

        बलात्कार की पुष्टि तथा शान्तनु के मौन को मद्देनज़र रखते हुए जज साहब ने अनीता के पक्ष में फैसला देते हुए मि. शान्तनु को यथानियम कारावास तथा अर्थदण्ड की सज़ा सुनाई । ***
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क्रमांक - 54                                                               

बाई की चप्पल

                                                -  मिनाक्षी सिंह 
                                                    पटना - बिहार


 रसोई में झूठे बर्तनों का अंबार देखकर रश्मि चिंटू को बुला कर पूछती है, 'बेटा आज काम वाली बाई नहीं आई थी तो तुम फोन कर बता देते ना! मैं बाहर से कुछ खाने को ले आती | खैर, अब काम लाइक बर्तन धोकर खिचड़ी बना लेती हूँ |'

                              ऑफिस का भी बहुत काम करना है ,वह सोचती है | उसे सोते-सोते रात के बारह बज गए | सुबह ब्रेड -मक्खन का नाश्ता देकर वह चिंटू को बोली, 'सविता आएगी तो वह दोपहर का खाना बना देगी | आज इसी से काम चला लो'| फिर खुद तैयार होकर ऑफिस जाने के लिए नीचे आई तो वॉचमैन ने बताया, 'मैडम, आप की कामवाली नहीं आएगी | वह काम छोड़ चुकी है'| 'पर क्यों'? तब वॉचमैन ने कहा, 'परसों जब वह आपके घर से काम कर के जा रही थी तो उसकी चप्पल नहीं मिल रही थी | आपके सामने वाले फ्लैट में शादी थी तो उसने सोचा कि शायद कोई मेरी चप्पल पहन कर अंदर चला गया होगा | अंदर जाकर एक बार खोज लेती हूंँ | पर उस फ्लैट की मालकिन ने उसे बहुत डांटा कि तुम ऐसा कैसे सोच ली कि हमारे मेहमान तुम्हारी चप्पल पहनेंगे? एक काम वाली बाई की चप्पल और उसको बहुत जलील की | सामने वाली फ्लैट की मालकिन बोल रही थी कि शादी का घर है, हजारों सामान बिखरे पड़े रहते हैं, कुछ चुरा कर ले जाने की नियत से आई होगी और पकड़े जाने चप्पल का बहाना बना रही है |' वॉचमैन बोला, 'वह बेचारी बहुत रो रही थी | कह रही थी कि इतने दिनों से मेम साहब के यहांँ काम कर रही हूँ, पर उनका तो कुछ भी चोरी नहीं हुआ और यह हम पर चोरी का इल्जाम लगा रही है | क्या हम गरीबों की कोई इज्जत नहीं है? अब मैं यहांँ काम नहीं करूंगी |'

                                     रश्मि सोचती है , कि काश मैं घर पर होती और उसे अपनी एक पुरानी चप्पल दे देती ! फिर तो यह बखेड़ा ही नहीं होता अब फिर से नई कामवाली ढूंढो ! ***
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क्रमांक - 55                                                             

लड़की के जन्म पर मिठाई

                                   - गिरधारी लाल चौहान
                                       चाम्बा - छत्तीसगढ़

मैं सुबह आंगन में बैठा था ।अचानक फटाके की आवाज सुना। एक बार नहीं दो तीन बार ।फटाके फूटने का कारण मुझे मालूम नहीं था । मैं पास में बैठी पत्नी से पूछा क्या बात है आज गली में फटाके फूंट रहे है ।उसने मुझे बताया की बीच बस्ती में सोहन लाल के घर लड़की पैदा हुई है । उसकी खुशी में फटाके फोड़ रहे है । अचानक मेरे मुंह से निकला वाह सोहनलाल दादा बन गया । सोहनलाल के दो लड़के पैदा हुये कभी फटाका नहीं फोड़ा लड़कों के भी लड़के हुये फटाका नहीं फोड़ा ।
अचानक कैसे उसमें परिवर्तन आ गया जो आदमी दीपावली में भी एक फूलझड़ी नहीं खरीदता आज 
बम फोड़वा दिया ।
मैं मन ही मन सोच रहा था ।उतने में हमारे घर सोहनलाल आ गया ।हाथ में थैली रखा हुआ था ।
बाहर के दरवाजे से ही चिल्लाने लगा ।मेरे बचपन का यार कहां है ।मैं बैठे ही बैठे  आवाज दिया तुम्हारा यार यहां बैठा है । मेरे पास आने लगा मैं पत्नी को बोला जल्दी से एक कुर्सी लाओ ।पत्नी बोली आप दोनों बैठिये मैं चाय बनाके लाती हूं ।इतने में मेरे करीब पहुंच गया  ।मैं अपने कुर्सी से उठ खड़ा हुआ दोनों हाथ मिलाये एक दूसरे को नमस्ते किये ।कुर्सी में बैठने का इशारा किया । दोनों अपने अपने कुर्सी में बैठ गये ।
बैठने के बाद बोला यार नहीं बैठूंगा पूरे गांव में हर घर जाना है ।अपने थैली से एक डिब्बा निकाला और मेरे हाथ में दे दिया । कहने लगा बड़े वाले लड़का जो पोस्ट आफिस में नौकरी करता है उसका लड़की हुआ है ।इस खुशी में यह मिठाई । उठकर जाने लगा मैने कहा यार तुम्हारी भाभी के हाथ का कड़ी मिट्ठी चाय तो पिलो ।
उतने में पत्नी चाय और पानी लेकर आ गई ।बहुत आग्रह करने पर वह चाय पीया । वह काफी खुश था ।
दोनों एक साथ चाय लिये।कहने लगा रविवार को एक छोटा सा पार्टी का इंतजाम किया हूं।सपरिवार आना है । भाभीजी सुन रहे हो ना ।
मैं मन ही मन सोचन .......?    ***
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क्रमांक - 56                                                         

नारी शोंषण

                                             - बीजेन्द्र जैमिनी
                                             पानीपत - हरियाणा

            नारी शोंषण के खिलाफ समाज सेवा करने वाली सरोंज जोंर जोंर एक समारोह में भाषण दे रही है – हर आदमी नारी का शोंषण करता है….। 
             कुछ बुर्जग पीछें बैठे आपस में कह रहे है। इस औरत को हम बहुत अच्छी तरह से जानते है। यह अपने पति महोदय को बोलने तक नहीं देती है। पुत्र वघु को इतना पीटा ,उस का गर्भ तक गिर गया। बेटी ने प्रेम विवाह क्या किया,उसे घर में घुसने नहीं देती है। अपनी सास को घर की नौकरानी बना रखा है। कोठी में नौकर की तरह एक टूटा-फूटा कमरा दे रखा है। सुसर को तो कोठी में धुसने नहीं देती है। क्या इसे नारी शोंषण के खिलाफ समाज सेवा कहँ सकते है ?
          वह समाज सेवी नारी शोषण पर जोर-जोर से भाषण दे रही है।  ***
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क्रमांक - 57                                                             

मीरा 

                                         - राजकुमारी रैकवार राज
                                             जबलपुर - मध्यप्रदेश

बचपन में विवाह हो गया । माता पिता भी अशिक्षित थे तो उसे क्या पता , वह घर  के  काम काज तक ही सब सीमित  थी । ऊपर से कम उम्र .... ।  लेकिन उसे आभास हुआ कि शिक्षित होना भी बहुत जरूरी है । पति उसके मोहन छोटा मोटा रोजगार  कर लेता और घर का खर्च चल ही जाता।बच्चे  हुए तो उस महिला जिसका  नाम था मीरा चिंता करने लगी अब कैसे चलेगा  घर का और भी खर्च बढ़ गया । वो घर पर ही  पापड़  ,बड़ी चिप्स   बनाने लगी । मन बना लिया कि मैं अपने बच्चो को शिक्षित जरूर करूँगी । इस प्रकार से दोनो पति ,पत्नी ज्यादा से ज्यादा मेहनत  करते ।सपना तो हर कोई देख लेता है पूरा हो न हो । कुछ अच्छा ही अफसर या शिक्षक बनाऊँगी जो औरों को भी शिक्षित करे।उसने बच्चों को  पढ़ाया और जीवन में एक बात का ध्यान रखना ।जो बहुत ही जरूरत  मंद  हो उसे तुम स्वयं अपना समय दे कर शिक्षित करना । चाहे एक घंटे या आधे घंटे। इससे बड़ा न कोई पुन्य  न  ही पूजा ।  उसके दोनो बेटे राम, श्याम शिक्षित होकर शिक्षक बने । समय निकाल कर वे गरीब  बच्चों मदद भी करते और पढ़ाते भी । ***
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क्रमांक - 58                                                   -         

पूज्या

                                           - डाॅ. रेखा सक्सेना
                                         मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
            

 पिछले साल गर्मियों की छुट्टियों में हम लोग आसाम घूमने गए। चाय के बागान देख मन प्रफुल्लित हो उठा।सीढ़ियाँ बना कर ढ़लानों पर की गई खेती के बीच असमिया पहनावे में महिलाएं अपने रोजमर्रा के कार्य में जुटी थी। एक जगह धूप का शेड लगाकर एक अधेड़ उम्र महिला चाय बना रही थी। हम लोगों ने रुक कर वहां कुल्हड़ में कड़क चाय पी। चलते पर पूछा कितने रुपए देने हैं?" उसने 5 चाय के 10रू दे दीजिए" ऐसा कहा। मैंने कहा- इतना कम रेट......,।  उसने कहा- साहब " इतना तो काफी है; बहुत बरकत है ।    इस कमाई से बेसहारे बुडढ़े, बुढ़ियों की हम सेवा के लिए एक वृद्ध आश्रम खोले बैठे हैं   बच्चों की पढ़ाई के लिए एक पाठशाला इस नीम के पेड़ के नीचे ही लगा रखी है। कुछ अपनी मर्जी से कोई सहायता करता है; तो ठीक है साहब! हम तो 25 साल से यह काम कर रहे हैं। इस काम में मेरे बच्चे पति और गांव की दूसरी महिलाएं भी हाथ बटाती हैं। हमे गांव को विकास के रास्ते पर ले जाना है।" वह बोले जा रही थी। हम सुन रहे थे।       
       हमने  कहा- "तुम थकती  नहीं"। अरे साहब- "यह तो हमने चाय वाले मोदी जी, जो हमारे प्रधानमंत्री बने हैं, उनसे सीख ली है, वो देश का विकास कर सकते हैं, तो क्या हम गांव का नहीं कर सकते। मेहनत करना कोई बुरी बात थोड़ी है साहब।" आप 5 किलोमीटर बायें जाओगे, तो देखोगे, कि मैंने अपने लड़का बच्चों को इसी मेहनत और ईमानदारी की कमाई में कितनी बड़ी बड़ी 4 चाय की दुकाने खुलवादी  हैं। हम 20 घंटे काम करत हैं साहब। मेरा बेटा एक तो कलेक्टर है। इसी कमाई से मैंने गांव के सभी लोगों को यही शिक्षा दी है- कि "चाय ही हमारे लिए छप्पन भोग हैं" हमारे लिए तो उसकी इस बात में उसकी कर्मठता, ईमानदारी , निस्वार्थता,स्वजन हिताय सभी कुछ गुण झलक रहे थे इसी काम को सार्थक करता एक स्वर गूंजता दिखाई  दिया।मैंने देखा की एक समूह उसकी ओर आ रहा है और वह पूज्या दीदी की जय हो। जय हो। इते आवो, हमार साथ गावो न। पूज्या तुरन्त  उठकर उनके साथ थकान उतारने बड़े उत्साह से यह गाने  लगी --       
           
 "चा बागाने जन्म हम देर,  
  चा   बागाने   करम   गो,    
  करम हामरा रोजेय करि , 
  श्रम   हाम  देर  पूजा गो,     
  ओ दादा धनिराम.........।"
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क्रमांक - 59                                                        

दोहरा व्यक्तित्व

                                                 - संगीता सहाय
                                                रांची - झारखण्ड
                                                
मनीषा आँखें बंद किए मुस्कुरा रही थी।खुशी से उसका मन झूम रहा था।वो बहुत खुश थी,आज वृद्धाश्रम में सभी नें उसकी खूब तारीफ की आखिर उसने सब को मिठाईयाँ खिलाई सब का हाल समाचार  पूछा।आश्रम में रह रही हर महिला को बडे़ प्यार और अदब से पूछ पूछ कर रसगुल्ला,लड्डू और बालुशाही खिलाया था उसने। भला आज के ज़मानें में इतनी नेकदिल औरतें भला कहाँ मिलती हैं। माँ की प्रशंसा सुन कर दिव्या बहुत खुश थी।घर पहुँच कर मुन्नी नें बची हुई मिठाईयाँ मेंज़ पर रख दी।
अचानक मनीषा जो़र से चीखी "इस उम्र में भी इतनी लालच,कितनी बार कहा है आपसे अपनी जीभ को ज़रा रोकिये,कुछ दिखा नहीं कि खानें को तैयार।बीमार होंगी फिर करो इनकी सेवा।दवाईयों का खर्च अलग!"दादी जी सहम सी गयीं दिव्या और मुन्नी हतप्रद एक दूसरे की तरफ देख रही थीं दोनों की आँखों में एक सवाल था कोई कैसे इतना दोहरा व्यक्तित्व जी सकता है।नारी के इस रूप से दोनों अचंभित थीं। ***
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  क्रमांक - 60                                                             

नारी के कितने रूप

                                                - इंदु भूषण बाली
                                               जम्मू - जम्मू कश्मीर

     सास के हस्तक्षेप के कारण पत्नी से हुए न्यायिक विवाह विच्छेद के बाद पूर्ण की सोच में एक प्रश्न बार-बार बिजली की भांति कोंध रहा था कि नारी के कितने रूप होते हैं? जिसका प्रत्येक रूप विभिन्न एवम विचित्र होता है। 
     पूर्ण भूतकाल में खोकर विचारमग्न हो गया। वह सोच रहा था कि उसने जन्म के बाद अभी आंखें भी नहीं खोली थीं कि स्तनपान से जीवन मिला। जिसे मां के रूप में देखा। स्वर्ग से भी सुंदर उसने अपनी मां की गोद की छत्रछाया में रहते हुए नारी के विभिन्न रूप देखे। जिन्हें समाज ने बहन, प्रेमिका, पत्नी, भाभी, भाईयों की सास-सालियां इत्यादि का नाम दिया हुआ है।
      पूर्ण जैसे स्वपन में फुसफुसा रहा हो। जिसमें वह कह रहा था कि नारी भले ही एक है। मगर उसके रूप अनेक हैं। जिनमें उसकी अमिट ममता, दयालुता, क्रूरता, छल-कपट, धोखा इत्यादि सब सामने आते हैं। जिसका अनुभव नारी स्वयं भी कभी नहीं कर सकती। 
    क्योंकि कभी वह अजन्मी निर्दोष कन्याओं (भ्रूण) को मारते हुए कसाई का रूप ले लेती है और कभी न्यायालयों में पुरुषों पर बलात्कार की झूठी याचिका करके न्यायालयों में तथाकथित अवला का रूप ले लेती है।
     पूर्ण की कल्पनाओं के चलचित्र में एक तरफ महाकाली के तांडव का रूप और दूसरी ओर झांसी की रानी द्वारा ब्रिटिश सिपाहियों का संहार करते हुए देशभक्ति का अनुपम रूप सामने आ रहा था। 
     जबकि विडम्बना यह भी है कि उसके उसी चलचित्र में नारी के वह रूप भी उभर रहे थे, जो नारी की पवित्रता को कलंकित एवम अभिशापित कर देते हैं। 
     पूर्ण अपने विचारों के तंत्र को समेटते हुए विचार कर रह था कि शायद इक्कीसवीं सदी में भी नारी को नारी के उन घृणित रूपों का स्वयं भी ज्ञान नहीं है। पूर्ण ठंड के मौसम में भी पसीने से तरबतर था। ***
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क्रमांक - 61                                                           

एक रूप ऐसा भी
      
                                                 - रंजना वर्मा 
                                                 राँची - झारखंड
                                       
         मेधा जल्दी जल्दी काॅलेज जाने के लिए तैयार हो रही थी।आज काॅलेज में उसका नारी सशक्तिकरण पर भाषण था।तैयार होकर जैसे ही उसने अपना पर्स उठाया, उसका शराबी पति ने उसका पर्स छिन लिया ।"मुझे पैसा चाहिए ।"कहकर वह पर्स खोलने लगा ।मेधा ने उससे अपना पर्स छीनते हुए कहा कि " शराब पीने के लिए एक पैसा नहीं मिलेगा ।"
   " कैसे  नहीं मिलेगा? "यह कहते हुए उसके पति ने उसकी लम्बी चोटी को खींचा ।फिर उसके हाथों से पर्स छिन कर पर्स खोलकर पैसे निकाल लिये।
       मेधा को देर हो रही थी ।इसलिए वह पर्स लेकर अपने काॅलेज के लिए चल पड़ी।काॅलेज में उसके भाषण में खूब तालियाँ बजी।सबकी नजरों में वह नारी सशक्तिकरण की साक्षात नमूना थी।घर बाहर सम्हालते हुए अपना काम कर रही थी।वह सोच रही थी कि वह हर दिन  अपने निकम्मे शराबी पति से बेवजह पिटती है और गाली खाती है ।क्या वह वास्तव में एक सशक्त नारी है? वह यही सोचते हुए घर की ओर चल पड़ी।रास्ते में फल सब्जी खरीदते हुए जब वह घर पहुँची,तब तक अंधेरा हो चुका था।बाहर उसका बेटा मिन्कू खड़ा था। वह बोला,"माँ रीमा दीदी अभी  तक घर नहीं आयी है ।"मेधा परेशान हो उठी।रीमा पास में ही ट्यूशन पढ़ने जाती थी।उसे कभी भी इतनी देरी नहीं होती थी।मेधा तुरंत तेज कदमों से उसके सर के घर की तरफ चल पड़ी।अंधेरी रात ,चारों ओर सन्नाटा,पर वह बेटी की चिंता में निर्भीक होकर चली जा रही  थी।उसने देखा,उसकी बेटी को कुछ आवारा किस्म के लड़के घेर कर खड़े हैं और अश्लील हरक़त कर रहे हैं ।सुबह वह भाषण में बोल रही थी कि जब औलाद मुसीबत में होती है तो माँ शेरनी बन जाती है ।उसके अपने ही शब्द कानों में  गुॅज रहे थे और वह शेरनी की तरह गुर्राती हुई उन लड़कों  पर टूट पड़ी।इस अप्रत्याशित हमले के लिए वे लड़के तैयार नहीं थे।वे घबरा कर वहाँ से भाग खड़े हुए ।मेधा बेटी को बाहों में समेटे घर की ओर चल पड़ी।
     उसे अपनी शक्ति का अंदाजा हो गया ।अब वह हकीकत में  सशक्त नारी की मिसाल बनेगी।उसे एक और कार्य को अंजाम देना था, अपने शराबी पति को सही रास्ते पर लाना। ***
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क्रमांक -62                                                              

कोख का सौदा
                                                - अमृता सिन्हा 
                                                 पटना - बिहार

"नहीं-नहीं, हम ना देंगे अपने बच्चे को" कम्मो नींद में बड़बड़ाती एक झटके से जाग उठी। 
"अरे क्या करती है, मारेगी क्या बच्चे को" डाॅर्मेट्री के रिसेप्शन पर बैठी नर्स चिल्ला पड़ी।
कम्मो को जैसे तब होश आया हो। फफक-फफक कर रो पड़ी,"वो हमरा बच्चा हमसे छीन ले जाएंगे।" 
"हुंह, छीन ले जाएंगे" कठोर चेहरे वाली उस नर्स की आवाज में भी उतनी हीं कठोरता थी। बुरा सा मुँह बना बोली, "जब लाखों रुपये लिए तब तो बड़ा अच्छा लगा, अब कहती है बच्चा नहीं देगी। अरे ये तो अपनी कोख का सौदा करने से पहले सोचना चाहिए था।"
नर्स की बात कम्मो के मन में जैसे तीर सी जा लगी। वह रो-रो कर खुद को कोसने लगी,"हाँ हमरी हीं मत मारी गई थी जो हमने हरिया के बापू की बात मान ली।" 
पिछले नौ महीने किसी बायोस्कोप की तरह उसकी आँखों के आगे घूमने लगे थे। कितनी खुशी से कहा था उस दिन हरिया के बापू ने, "कम्मो, अब हमारे दु:ख के दिन समझो खतम। हमें अब कभी भूखा नहीं सोना पड़ेगा और तो और अब हरिया, दीपू और लाली भी स्कूल जा सकेंगे।"
"ऐसा का हो गया, कौनो लाॅटरी लगा है का?"
"लाॅटरी हीं समझो। आज खेत पर कम्पाउण्डर साहेब आए थे, बोले कि शहर के एक बहुत बड़े साहेब और मेमसाहेब के अपना कोई बच्चा नहीं है, सो उलोग एक बच्चा चाहते हैं।
"तो का उ हमरा बच्चा ले जाएंगे?"
"नहीं रे पगली, उन्हें अपना बच्चा जनने के लिए एक औरत चाहिए बस।"
"छी-छी, ई का बक रहे हो....."
"अरे बुड़बक, पहिले पूरी बात तो सुन ले, सिर्फ एक सुई लगाते हैं, और बच्चा ठहर जाता है।" 
"ई कौनो जादु है का"
"समझ ले जादु हीं है"
"कुछो कहो, पर हमसे न होगा ई काम"
"काहे ना होगा, पता भी है हमें इसके लिए कितने पैसे मिलेंगे, पूरे पाँच लाख। सोच इतने में तो हम बाजार में एक दुकान कर लेंगे। दिन भर खेत पर जल कर भी तो दो वक़्त की रोटी नहीं मिल पाती।और तू भी तो चाहती थी ना कि बच्चे पढ़ लिख कर कुछ बन जाएं। और इसमें करना भी का है तुझे, सिर्फ नौ महीने कोख में पालना हीं तो है। उस पर तेरे रहने-सहने का ध्यान भी अस्पताल वाले हीं रखेंगे। अब सोच मत, सो जा।"
कम्मो के मन में रात भर उथल-पुथल मची रही। केतना होता होगा पाँच लाख? का सच में सबकुछ इतना आसान होगा जैसा हरिया के बापू कह रहे थे?
तड़के उठ कर कम्पाउण्डर साहेब उन्हें शहर ले जाने आ गए। अस्पताल पहुँच कर उस मेमसाहेब का परिचय कराते हुए बोले, "इन मैडमजी के लिए तुम्हें बच्चा जनना है बस, बदले में देखना तुम्हारे पूरे परिवार की जिदंगी बदल देंगी मैडमजी।"
फिर तो दिन भर जाने कितने जाँच होते रहे। कम्मो सब यंत्रवत करती जा रही थी, वह बस इतना हीं समझ पायी थी कि हरिया के बापू को आज हीं पचास हजार मिल गए थे। हरे-हरे नोटों की चमक उसकी आँखों में साफ झलक रही थी।
फिर क्या था, उस दिन के बाद उसे अस्पताल से छुट्टी नहीं मिली। बीच-बीच में हरिया के बापू बच्चों को ले कर मिलने आ जाया करते थे। उनके खुश चेहरे देख कम्मो खुद को समझा लिया करती।
पर जैसे जैसे महीने बीते और पेट में पलते बच्चे ने अपने अस्तित्व का एहसास दिलाना शुरु किया, माँ का मन बगावत करने लगा।
"अरे उठो, फ़्रेश हो जाओ। डाक्टर के आने का वक़्त हो रहा है," एक नर्स की आवाज़ से कम्मो की तंद्रा टूटी।
कम्मो की बेचैनी बढ़ रही थी। उसने फैसला किया कि वह अभी गुसलखाने जाने के बहाने यहाँ से भाग निकलेगी। कहीं और जाकर अपने बच्चे को जन्म देगी ताकि वो मेमसाहेब उसके बच्चे को उससे अलग ना कर सके। 
सोच में डूबी वह जैसे हीं बाहर निकली, दीपू और लाली आकर लिपट गए। "अम्मा! बापू कह रहे हैं कि आज के बाद तुम घर वापस आ जाओगी" लाली चहकती हुई बोली। लाली खुशी से माँ को अपने नये कपड़े दिखा रही थी, तो दीपू अपने नये खिलौने। हरिया और उसके बापू थोड़ी दूर खड़े मुस्कुरा रहे थे।
थोड़ी देर बाद, कम्मो चुपचाप कभी अपने बच्चों को निहारती, तो कभी पेट में पल रहे बच्चे की धडकनों को महसूस करती, स्ट्रेचर पर ऑपरेशन थियेटर की ओर जा रही थी। उसकी आँखों से आँसू लगातार बहे जा रहे थे। ***
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क्रमांक - 63                                                         

मापदंड

                                           - विभा रानी श्रीवास्तव 
                                              पटना - बिहार

"आज वह आई. ए. एस. बन गयी है। अब तो उसकी अपनी भी एक स्वतंत्र पहचान बन गई है... और नामी गिरामी पिता की बेटी तो पहले से ही है...  समझ में नहीं आ रहा है कि शादी क्यों नहीं कर लेती है!" सुरूचि ने कहा.. उसकी आवाज में चिंता और अफसोस घुलनशील था।
"अच्छी-खासी नौकरी हो गयी है... अब तो और उसे पैसों की कमी नहीं...।" सुरूचि की सखी रोमा ने कहा।"
"हद है! क्या पैसा ही सबकुछ है...? मैं शादी की बात कर रही हूँ.., हवाई-जहाज खरीदने की नहीं..।
      "शादी की जरूरत नहीं होगी... सब पूरा हो जाता होगा..! उसे किसी सहारे की क्या ज़रूरत है ?" कुटिल मुस्कान चेहरे पर बिखरते हुए रोमा ने बुदबुदाया।
"ज़रूरत तो स्त्री हो या पुरुष दोनों को होती है.. दोनों एक दुसरे के पूरक हैं... सृष्टि तो दोनों के मिलने से ही चलेगी न?" सुरुचि ने और अधिक चिन्तित स्वर में कहा।
"ज़रा अपनी सोच में बदलाव लाओ!"
        "हद है! तुम अपने दोचित्ते सोच पर लगाम लगाओ...!"
"अरे! इसमें मेरे दोचित्ते सोच की बात कहाँ से आ गई?"
"कल की ही बात है..., जब मैं बोली कि किरण को सुरेश, तुम्हारे पति की रखैल बोला जा रहा है तो तुम कैसे तमक कर बोली थी...कि यह सब बेबुनियाद बात है... तुम  औरत और मर्द के लिए दो अलग-अलग दृष्टियाँ रखती हो.."
"मैं भी अक्सर समझाते रहती हूँ कि नारी को हमेशा नारी के पक्ष में खड़ा रहना चाहिए पर यह गिरगिट समझे तो न.. शायद आज यह संकल्प ले...!" कमरे में आती रोमा की सास ने कहा।
"नहीं! नारी को नारी या पुरुष को पुरुष के पक्ष में खड़े होने की बात नहीं होनी चाहिए, घर और संसार प्रेम पूर्वक चलाने की बात होनी चाहिए। पक्षपात नहीं... सदैव न्याय के पक्ष में खड़ा होना चाहिए।"
"तुम सही बोल रही हो! इन्हीं गलत सोचों ने तो पुरुष सत्ता को मजबूत कर रखी है..। और मम्मी आपने कहा था कि पापा के जाने से सारा घर बर्बाद हो गया... वो थे तो किसी की मजाल नहीं थी कि कोई इस घर की और टेढ़ी नजर कर के देखे... ।" रोमा की बात सुनकर उसकी सास फफक पड़ी...। ***
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क्रमांक - 64                                                             

बदलती जिंदगी

                                            - संगीता गोविल
                                               पटना - बिहार
                                               
सरिया अपनी जिंदगी से बहुत खुश थी । छोटा-सा एक कमरे का घर, दो बच्चे और मनोहर की छोटी-सी दुकान जीवन के लिए पर्याप्त था ।घर को संभालना, बाल-बच्चों की देख-रेख, इसी में समय किधर गुजर जाता पता हीं नहीं चलता था । अड़ोस-पड़ोस की औरतें टोकतीं, "अरे सरिया। क्या घर में घुसी रहती हो। कभी हमारे साथ भी बैठ जाया करो।"
"समय कहाँ मिलता है बच्चों के पीछे। फिर घर का काम । चलती हूँ, मुन्ना आ गया होगा, उसे नाश्ता देना है ।" हड़बड़ा कर सरिया आगे बढ़ गई।
"अजीब औरत है, घर के बाहर की दुनिया से एकदम अनजान ।" झुंड में से एक ने अचरज से कहा ।
लेकिन विपत्ति भी राह ढूंढती रहती है। एक दिन कोई दौड़ कर सरिया को बता गया कि दुकान में शार्ट सर्किट होने से आग लग गई है । सरिया और बच्चे दुकान की ओर दौड़ पड़े । देखा मनोहर बाल-बाल बच गया है । सभी ने राहत की सांस ली । मनोहर परिवार को देख कर हताशा भरे स्वर में बोला, " सब जल गया । हाय, हम बरबाद हो गए।"
"कोई बात नहीं । हम साथ हैं तो सब ठीक हो जाएगा । अच्छी बात है कि तुम को कुछ नहीं हुआ।" अपनी आँखों के आंसू रोक कर सरिया ने दिलासा दिया।
"अब हम क्या करेंगे? बबुआ और सोनी की पढ़ाई का सपना कैसे पूरा होगा?" मनोहर रोये जा रहा था।
"घबराओ मत । आप-हम साथ हैं, तो इस मुसीबत से निकल जाएंगे। खुद को संभालो। " भरे गले से सरिया ने कहा ।
सभी कुछ निबटा कर वे घर लौटे । बच्चों को खाना खिला कर सरिया और मनोहर ने सारी रात आंखों हीं आंखों में गुजार दी ।
सुबह सबने देखा सरिया सड़क किनारे फल बेच रही थी और मनोहर फिर से दुकान लगाने के जुगाड़ में लग गया था । ***
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क्रमांक - 65                                                             

छोटा सुख बड़ा सुख

                                                 - आशा शैली
                                              नैनीताल - उत्तराखण्ड

 टीटू, शामो की बुआ का बेटा था  और उससे तीन महीने छोटा था। इन दिनों वह अपने भुवाली वाले घर में आया हुआ था। हर साल गर्मियों के चार महीने अपने बच्चों के साथ वहीं गुज़ारता था। हर बार की तरह इस बार भी उसने शामो को फोन किया, "आ जा न!"
  अपने जरूरी कामों में उलझी शामो ने सोचा, 'सत्तर साल पार करने के बाद भी वे एक-दूसरे के साथ नहीं बैठ पाए तो कब बैठेंगे?' सो उसने हल्द्वानी से बस पकड़ी और दो घण्टे बाद वह टीटू के घर में थी। टीटू उसे लेने बस अड्डे पर आ गया था।

  "टीटू" कार की पिछली सीट से झांकता सफेद बालों वाला सिर देखकर वह चिल्लाई थी। उसने भी हँसकर गाड़ी का पिछला दरवाजा खोल दिया था। पाँच मिनट बाद ही वे सुमन और बच्चों के पास थे।
  "क्या प्रोग्राम लेकर आई है मेरी बहुत ही व्यस्त बहन?" टीटू ने उसे कुर्सी की तरफ बैठने का इशारा करते हुए पूछा। 
  "अरे, दम तो ले लें दीदी। बैठने तो दीजिए, पहले ही पूछने लग गए।" सुमन ने बीच में टांग अडाई। 
  तो शामो ने हँसते हुए कहा, "तुम नहीं जानती भाभी। हम कभी सुधरने वाले हैं क्या, जो यह सुधर जायेगा?"     "मैं जानना चाह रहा था कि यह मुसीबत मुझे कब तक झेलनी पडेगी?" टीटू की बूढी आँखों में चमक थी।      " अरे ओ!" शामो ने बनावटी गुस्से से उसे घूरा, "ओ अमरीकन गधे । क्या सोच रहा है, मैं क्यों जाऊँ यहाँ से? अभी तो तेरा भेजा मैंने बहुत दिनों से नहीं चाट रखा।"         "रुक तो अमरीकन बिल्ली! टीटू ने आगे बढकर पहले तो शामो के मंहदी रंगे लम्बे बालों वाली चुटिया पकड ली, फिर अपनी ओर घुमाकर दूसरे ही पल गले लगा लिया। सुमन की आँखें भी गीली हो गई थीं । ***
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क्रमांक - 66                                                             

        बदलते रंग

                                                 - ड़ा नीना छिब्बर
                                                 जोधपुर - राजस्थान
   
              कार एक्सीडेंट में  सुनील की मौत ने माँ रमा और पत्नी रक्षा का जीवन एक पल मे ही रंगहीन, स्वासहीन बना दिया,लगा जैसे आसमान से कोई उल्कापिंड गिरा और सब कुछ लील गया। विधवा माँ ने बेटे की अंतिम बिदाई तक खुद को व बहू को   संभाले रखा ।माहौल को रिश्तेदार, पड़ोसी, मित्रगण कतिपय बातो एवं संकेतों से अधिक   दुखद ,बेचारगी भरा बना रहे थे।बेचारी, बदकिस्मत, कर्महीन, ना जाने क्या क्या ।
           रमा सब देख सुन रही थी और.अपनी पूरी कोशिश कर रही थी कि रक्षा को इस आँच से दूर रखे। रक्षा घायल हिरनी सी नये परिवर्तन को समझने की नाकाम कोशिश कर रही थी।हैरानी सिर्फ माँ को देखकर हो रही थी जो उसे परिंदों की तरह परों में सुरक्षा देने के लिए चाक चौबंद रहती।बारहवें की बैठक रक्षा का भाई रीतिनुसार सोग की सफेद साड़ी लाया। जैसे ही वह भरी सभा में आगे बड़ा ,रमा जी ने खड़े होकर दृढ आवाज मे ,सधे शब्दों में जोर से कहा," रक्षा सोग की सफेद साड़ी नहीं पहनेंगी। हम दोनो ने जो खोया है वह सफेद या कोई अन्य रंग पहनने से नही आएगा। सुगबुगाहट बड़ी पर  रमा ने रक्षा का हाथ पकड़ कर कहा, मैं भुक्तभोगी हूँ। रंग की आड़ मे विसंगतियां, लोलुपता एवं छद्म सहानुभूतियाँ देखी हैं पर  आज समाज की  रीतियो के नाम पर  इतिहास नहीं दोहराने दूँगी।
          रक्षा कपड़ो का रंग ही नही, वैधव्य जीवन के किसी भी अंधविश्वासों को नहीं मानेगी । तभी रक्षा ने अपनी सासूमाँ की ओर.भरपूर स्नेह से देखा और कहा माँ  आप की आज्ञा सर आँखों पर ,परंतु आज मेरी एक और इच्छा भी मान लें। आज से नही अभी से हम दोनों का जीवनरंग एक समान होगा।  चलिए अंदर कमरे में कह कर अचम्भित लोगों को मनरूप बातें बनाने के लिए छोड़ गयीं। थोड़ी देर बाद दोनों हल्के रंग की फूलों वाली साड़ी मे पंड़ाल मे आई और शेष कार्य पूरे किए। ***
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क्रमांक - 67                                                                

 क्या कहूँ तुम्हे

                                                  - दर्शना जैन
                                               खंडवा - मध्यप्रदेश

    पंद्रह दिन पहले ही नया मोबाइल खरीदा था रोहित ने, सेजल ने जिद करके दिलाया था। एक रोज रोहित ने सेजल से पूछा," इस मोबाइल में किसी का दूसरा नंबर कैसे डालेंगे या डाला हुआ नंबर बदलना हो तो कैसे बदलेंगे?" सेजल बोली," कल ही तो बताया था, दो बार पहले भी बता चुकी हूँ।" रोहित चिड़कर  बोला," भूल जाता है यार इंसान, याद नहीं आ रहा कि तुमने कैसे बताया था।" सेजल बोली," याद करने की कोशिश करो, ध्यान आ जायेगा।" रोहित बोला," सेजल, तुम मुझे दोस्त मानती हो पर अपने दोस्त की इतनी सी मदद नहीं कर सकते, कैसी दोस्ती है तुम्हारी।" सेजल ने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी और अपने काम पर चली गयी, रोहित भी कुछ जरूरी काम करने बाहर चला गया।
    शाम को सात बजे सेजल लौटी और रोहित से बोली," मुँह क्यों लटका हुआ है, भूख लगी है क्या, फ्रिज में तुम्हारे पसंद का केक व आइसक्रीम रखी है, खायी क्यों नहीं, सुबह वाली बात से अब तक नाराज हो क्या? अच्छा, नंबर डला या नहीं?" रोहित बोला कि डाल लिया। सेजल बोली," मुझे पता था कि तुम डाल लोगे।" सेजल के विश्वास व ममत्व भरे शब्दों से सारी नाराजगी हवा हो गयी और वह सोचने लगा कि जिसकी दोस्ती पर मैने सवाल खड़ा किया था वह जवाब में मुझे इतनी ममता दे रही है, कितना गलत था मैं। 
     खाना खाकर रोहित जब हाथ धोने जा रहा था तभी उसका पैर फिसल गया, वह चिल्लाया, सेजल तुरंत आइस पैक ले आयी और जहाँ दर्द था वहाँ बर्फ से सेक करने लगी, आधे घंटे तक भी जब दर्द में कोई फर्क नहीं पड़ा तो वह रोहित को डॉक्टर के पास ले गयी, डॉक्टर ने ऐक्सरे करवाया, मामूली सा फ्रेक्चर था, डॉक्टर ने कच्चा प्लास्टर लगाकर आराम करने को कहा। अब सेजल पहले से अधिक ख्याल रखने लगी रोहित का, उसके साथ खेलती, पढ़ने के लिए रोहित की पसंद की कई किताबें ले आयी ताकि वह बोर न हो, उसे नया मोबाइल चलाना सिखाती। रोहित को जरा भी नहीं हिलने की हिदायत दे रखी थी सेजल ने। फिर भी एक दिन रोहित खड़े होने की कोशिश करते हुए गिरने को हुआ तो सेजल दौड़कर आयी, उसे पकड़ा और गुस्से से बोली," भूल गये क्या कि डॉक्टर ने आराम करने को कहा है, कुछ काम था तो आवाज नहीं लगा सकते थे, गिर जाते तो।" रोहित चुपचाप बैठ गया, सेजल की चिंतित डांट ने बचपन में ऐसी ही एक बार पड़ी मम्मी की मीठी डांट की याद ताजा कर दी। रोहित को चुप देख सेजल बोली," सॉरी रोहित, मुझे ऐसे जोर से नहीं बोलना चाहिये था।" सेजल के सॉरी बोलते ही रोहित की आँखें छलक आयी, वह बोला," सेजल, क्या कहूँ तुम्हे, अपनी पत्नी, दोस्त, केयर टेकर, गुरू या माँ। कैसे ढाल लेती हो खुद को इतने साँचों में।" फिर खुद ही जवाब देते हुए रोहित बोला," इसलिये खुद को इतने रूपों में ढाल पाती हो क्योंकि ऐसा करते हुए तुम स्वयं को भूल जाती हो, अपने 'मैं' को भूल जाती हो।" ***
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क्रमांक - 68                                                             

माँ
                                           - डा.साधना तोमर
                                           बड़ौत - उत्तर प्रदेश
                                           
        समय की धारा में कितना परिवर्तन आ गया है। रिश्ते आज बौद्धिक स्तर पर मापे जा रहे हैं। वर्तमान पीढ़ी  संवेदना -शून्य हो गयी है। जिस सन्तान को माँ हर समय अपने हृदय -आसन पर बिठाये रखती है वही माँ को शिक्षा का पाठ पढ़ाने लगी है, बुद्धि हीन समझने लगी है। अशिक्षित माँ उसके  समाज में बैठने योग्य नहीं है।उसके दोस्तों के सामने आने से भी माँ कतराती है, कहीं बेटे को बुरा न लगे। 
"माँ! आप कहाँ थी? मेरे दोस्त पूछ रहें थे। "
"बेटे! वे सब पढे़-लिखे थे, मैं ठहरी अनपढ़, बुद्धि हीन, मेरे आने से तुम्हारी  बेइज्जती होती इसलिए मैं नहीं आयी। "
"हाँ,  माँ!  सही किया आपने। न तो आपको अंग्रेजी आती और न ही दुनिया में क्या हो रहा इसका ज्ञान। मेरे दोस्तों के सामने मेरी नाक कट जाती। "
"ठीक है बेटा, मेरे वापसी के टिकट करा दे। मैं वापिस गाँव जा रही हूँ। तेरी दुनिया तुझे मुबारक हो। इन हाथों में अभी इतनी ताकत है कि अपने पेट लायक कमा सके। जिस माँ ने तुझे  बोलना सिखाया, चलना सिखाया आज वही तेरे समाज में बैठने योग्य नहीं।  माँ बच्चे को बुद्धि से नहीं हृदय से प्यार करती है। 
भगवान से प्रार्थना करुंगी कि कल तुम्हारा बेटा यह कहानी न दोहराए। सदैव खुश रहो। " ***
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क्रमांक - 69                                                             

परदा
                                          - दिव्या राकेश शर्मा
                                            गुरुग्राम - हरियाणा

आज मन बहुत प्रसन्न था मेरा।हो भी क्यों नहीं आज उनसे मिलने जा रही थी जिनकी कहानियों से हौसला मिला मुझे।मेरे जीवन को दिशा उनके शब्दों ने ही थी।
कब से मिलना चाह रही थी उनसे लेकिन कोई नहीं जानता था उनका असली नाम और पहचान।पर मुझे तो जैसे जनून था उनके दर्शन करने का।पूरे एक साल की मेहनत के बाद यह दिन आया था।रास्ते से सफेद गुलाब लिए।उनकी कहानियों में अक्सर इनका ही जिक्र ज्यादा है तो पसंद तो होंगे ही।ऑटो से उतर कर सीढियां चढने लगी।एक एक सीढी मुझे सौ सीढियों के बराबर लग रही थी।इतने सारे फ्लैट्स में से किसी एक फ्लैट में उनका बसेरा है।पता नहीं कैसा लगेगा उन्हें अपनी इस पागल दिवानी प्रशंसिका से मिल कर!यूँ बिना बताए किसी के घर जाना शिष्टाचार तो नहीं है पर वह मेरे लिए अनजान नहीं।मेरी मार्गदर्शक है।उस समय संभाला जब मरने के लिए तैयार थी मैं।उनके शब्दों ने जैसे मुझमें उत्साह भर दिया।अभी तो तीन मंजिल तक ही पहुंची हूँ बस अब वह मेरे करीब होंगी।सोच कर रोमांचित महसूस हो रहा था।अभी कुछ सीढियां बाकी थी कि कुछ चिल्लाने की आवाजें सुनाई देने लगी।मैं उस आवाज के नजदीक पहुंचती जा रही थी।
फ्लैट नंबर तेरह.....कमीनी.... फ्लैट नंबर..... चौदह........जुबान पर ताले लग गए तेरे........ तुझे ही बोल रहा हूँ.....पंद्रह......
....नीच...औरत....फोन..पर किसके साथ लगी रहती है रात दिन.....सोलह.....रण्डी........ सोलह......"यहाँ तो....!!कहीं गलत ऐड्रेस पर तो नहीं आ गई मैं!"गालियों और चिल्लाने की आवाज बढती जा रही थी।मैंने दोबारा पर्स से पते वाला कागज निकाला,"डी,सोलह"पता तो सही था।पर यहाँ... ये सब...तभी... एक आवाज आई.."सिर्फ एक ही सहारा है मेरे जीवन का,मेरे जीने की वजह ,मेरा लेखन।वरना मर गई होती अब तक।क्यों ऐसे इल्जाम देते हो मुझे।"तो...तो..इसका मतलब...मेरा सर चक्कराने लगा।दीवार से सर टिकाए मैं खड़ी हो गई।मेरी हिम्मत टूट गई थी... चिल्ला कर रोने का मन हुआ।पर जैसे दिमाग सुन्न हो गया।
अब तक जिन्हें एक आयरन लेड़ी की तरह मानती आई वे भी खुद को झूठे परदे में छिपाए थी।कुछ देर में अंदर शांति छा गई।मन किया भाग जाऊं और रहने दूँ इस परदे को यूँही पड़ा।
पर हाथों ने पता नहीं क्यों दरवाजा खटखटा दिया।
कुछ देर बाद वह मेरे सामने खड़ी थी।सौम्य सरल सी,चेहरे पर एक मुस्कुराहट लिए।आश्चर्य से मुझे देखने लगी।
"किससे मिलना है बेटा?"उन्होंने पूछा।आवाज में एक वात्सल्य था।
मैंने तुरंत उनके पाँव छूए और कहा"आपसे।"कहकर वह गुलाब मैंने उनके पैरों के पास रख दिए।
"लेकिन मैंने पहचाना नहीं आपको!कौन हो आप?"वह आश्चर्यचकित हो मुझे देख रही थी।
"हिम्मत!"इतना कह कर मैं तेजी से सीढियां उतरने लगी।उनके उस पर्दे को हटाने का हौसला मुझमें न था। जो न जाने कितनो की जिंदगी संवार रहा था। ***
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क्रमांक - 70                                                             

समाधान

                                          - अर्विना गहलोत
                                          इलाहाबाद - उत्तर प्रदेश


          इंजीनियर के पद पर कार्यरत सोनल सोसायटी के पार्क‌ की बैंच पर बैठी हुई बच्चों को खेलते हुए देख रही थी । दुर्गा पार्क में घुसी तो सामने सोनल बैठी दिखाई दी ।उस और चलदी 
सोनल क्या बात है तुम कुछ उदास लग रही हो ?
हाँ ! दुर्गा काम का बोझ अधिक होने से सीसीटीवी चैक नहीं कर पाई रात में समय मिलते ही चेक किया तो मेरी बच्ची को नौकरानी पीटती हुई दिखाई दी ।मेरे होश उड़ गए  निकाल दिया उसे । 
लेकिन बेबी को रखने की समस्या वहीं की वहीं
दुर्गा तुम्हें तो पता है हम दोनों में से किसी के भी पेरेंट जीवित नहीं है । बच्ची को संस्कारित देखना चाहती हूँ।
 दुर्गा क्या  एक दादी कहीं से  गोद मिल सकती है।

सोनल तुम चाहो तो वृद्धाश्रम चलो वहां की संचालिका मेरी परिचित हैं।
ठीक है मैं घर में कुनाल को फोन पर बता देती हूँ
हेलो कुनाल !

तुम बेबी का ध्यान रखना में दुर्गा के साथ वृद्धाश्रम जा रही हूं लौटने पर विस्तार से बताती हूं। सोनल पार्क से निकल कर दुर्गा की गाड़ी में बैठ गई । दुर्गा ने गाड़ी स्टार्ट की और दोनों वृद्धाश्रम की ओर चल दी।
वहां पहुंच कर गाड़ी पार्किंग में खड़ी कर दोनों आफिस में पहुँची।संचालिका ने कहा आईये दुर्गा मेडम बैठिए और बताएं मुझसे क्या काम है।
सोनल एक वृद्धा को एडाप्ट करना चाहती हैं ।
क्या ये संभव है ?
हां जरुर एडाप्ट कर सकती है ।
नीलू ने रूपल को भेज कर अंदर से एक वृद्धा को बुलाया और सोनल से मिलवाया ।
माँजी आप मेरे बच्चे की दादी बनेगी ।
वृद्धा की आँखों में आंसू आ गए गला रुध गया बेटी तुम ने मेरे मानसिक और शारीरिक कष्टों का समाधान कर दिया । ***
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क्रमांक - 71                                                         

 दर्द 

                                               - रुबी प्रसाद
                                          सिलीगुड़ी - पश्चिम बंगाल

आज सम्मान समारोह से वापस आ सभी परिचीतों से मिलने के पश्चात आराम कुर्सी पर बैठी सुधा न चाहते हुए भी अतीत में खो गयी ।

कांटों से भरा था उसके जीवन का अनुभव पर उन्हीं कांटों ने उसे एक पहचान दी थी ।

याद आने लगे उसे वो दिन जब आंखों में सपने लिए ससुराल में उसे आये दिन ज्यादा पढ़ी लिखी व अंग्रेजी से स्नातक होने का ताना दिया जाता था । बात बात पर पति राजेश अंग्रेजी के बोले गये शब्दों में कोई न कोई कमी निकाल उसे नीचा दिखाने की कोशिश करते । बहस से बचने व नयी नयी शादी का मान रखने के लिए सुधा चुप्पी साध लेती । पर सही होते हुए भी अपनी बात न रखने व गलत को सर झुका कर मानने का नतीजा कुछ यूं हुआ कि सुधा धीरे-धीरे अपना आत्मविश्वास खोने लगी थी । अंग्रेजी क्या अपने हर गुण को भूल गयी थी ।

पर वो अपने दर्द को न किसी से कुछ कह सकती थी न सह सकती थी । न जाने कब उसका रूझान हिंदी की तरफ हो गया । वो अपने दर्द को डायरी में कब कविताओं में उकेड़ने लगी उसे पता भी न चला । शादी के बीस साल उसने परिवार को दिये लाख कोशिशें की राजेश के दिल में जगह बनाने की पर कम पढ़े लिखे राजेश ने अपनी हीनभावना व पौरुष अहं के कारण कभी भी सर्वगुण सम्पन्न सुधा को मान सम्मान व प्यार नहीं दिया जिसकी वो हकदार थी । अब तो बस मशीन ही बन गयी थी वो, जो चल तो सकती थी पर भावनाओं से विहीन थी ।

यूं ही दिन गुजर रहे थे कि एक दिन दोपहर को फोन की घंटी बजी __

ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग ट्रिंग ~~~~

दूसरी तरफ से आवाज आयी __हैलो, सुधा जी । हम आपके हिंदी के प्रति लगाव व दर्द भरी कविताओं की बेहद सराहना करते है और ये बताते हुए हमें बेहद हर्ष हो रहा है कि आपकी कविताओं के संग्रह "दर्द ही जीवन" को हम सम्मानित कर आपको सादर निमंत्रण दे रहे है । आप सम्मान समारोह में अवश्य आये विनम्र निवेदन है ।

इसके बाद दूसरी तरफ से फोन तो कट गया पर अवाक थी सुधा । लेकिन 19 वर्षीय बेटी के एक हाथ में अपनी डायरी व एक हाथ में प्रकाशित पुस्तक देख सब समझते देर न लगी । बेटी को गले लगा लिया कहना तो बहुत कुछ था पर आंखों के आंसू सब कह गये । 

राजेश तो न गया पर बेटी की तालियों की आवाज भरी महफिल में भी उसे प्रोत्साहित कर रहे थे ।

क्या हुआ मैडम हिंदी में कदम बढ़ ही गये बड़ी आयी अंग्रेजी बोलने वाली । जानीपहचानी तानों की आवाज से उसकी तंन्द्रा टूटी । पर आज उसकी आंखों में आंसू की बजाय आत्मविश्वास था पर आज भी वो बहस से बचती मन में सोचने लगी मेरी सफलता का असली हकदार तो राजेश ही है गर वो न होते तो अंग्रेजी से मैं दूर न होती व हिंदी के प्रति मेरा रुझान न हो पाता ।

पर अपने "अनुभव जिसने हिंदी के प्रति उसका लगाव बढ़ा दिया था ", को चाह कर भी राजेश से बोल नहीं सकती थी क्योंकि राजेश उसे सुन अपना अपमान बर्दास्त नहीं कर पाता ।  इसलिए मन में हिंदी प्रेम को कुछ क्षणों को दबा सबके लिए खाना बनाने चली गयी, खाने का समय जो हो चला था और फिर बेटी को थैंक्स कहने के लिए उसकी पसंद का कुछ स्पेशल भी तो बनाना था । ***
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क्रमांक - 72                                                           

बहाना

                                               - अंजलि ' सिफ़र '
                                              अम्बाला - हरियाणा

"अरे मां , चाय तुम बना रही हो ? भाभी कहाँ है ? " ऋचा ने किचेन में घुसते ही पूछा। 
" मायके गई है । कह रही थी कि माँ बीमार है। इसके तो रोज़ के बहाने हैं। तू बता तेरा कैसे चक्कर लगा आज। तेरी सास कहीं गयी है क्या ? आज आने कैसे दिया तुझे ? "
"अरे नहीं माँ , वो कहां आने देती हैं। आने के नाम पे ही उनका तो मुँह बन जाता है।हमने तो राशन खरीदने का बहाना मारा और  इधर निकल आये " 
"अच्छा किया , तेरी बड़ी याद आती है।",और दोनों खिलखिलाकर हँस दीं । ***
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क्रमांक - 73                                                             

ट्रेनिंग

                                           - सुशीला जोशी 
                                       मुजफ्फरनगर - उत्तर प्रदेश

    आज सुबह उठते ही जैसे ही चाय का कप मुँह से लगाया कि दरवाजे की घण्टी बज उठी ।लपक कर जैसे ही दरवाजा खोला तो बहु रानी के रिश्ते के चाचा से मुलाकात हुई । उन्होंने बताया कि बहु के मामा का निधन हो गया है । कह कर वह बाहर से लौट गए लेकिन चाय का घूँट गले मे ही अटका रह गया । मामा का निधन सुन कर बहु रानी ने कोहराम मचा दिया । पूरा वतावरण मातम में बदल गया ।
     जल्दी जल्दी कपड़े बदल बहु के मामा के घर रवाना हुए । दो घण्टे में सब वहां थे । रास्ते में पूरी मस्ती ,खाने पीने का माहौल बना रहा । कहीं ताजे अमरूद दिखाई दिए तो गाड़ी रुकवा उन्हें खरीद कर कटवा कर मसाला भरवाया और चलते चलते चटखारे ले ले कर हँसते बोलते आगे बढ़े । आधे घण्टे में चाय की तलब लगी तो रुक कर चाय भी पी कर ताजा हो कर आगे बढ़े और पूरे दोघन्टे में मामा के घर पर थे । 
      घर के दरवाजे में पैर रखते ही बहु रानी अपनी माँ से मिली और कंधे से लग कर दोनो विलाप कर करके 10 मिनट तक तब तक  रोटी रही जब किसी औरत ने उन्हें आ कर अलग नही किया । रोते समय बहु रानी की माँ ने कान में कहा -'
",मुझसे नही अपनी मामी से लिपट जोर जोर से रो "। अब बहु रानी आँखे पौछती हुई मामी के पास गई और मामी को बाहों में ले कर दहाड़ मार मार कर रोने लगी । बहु की माता जी धीरे धीरे वहां पहुँची और दोनो के कंधे अलटने पलटने लगी और फिर धीरे से बहु के कान में अपने शब्द सरका दिए -"तेरी मामी की बहन और भाभी भी आई हुई है ।उनसे भी मिल कर ऐसी ही रो ले "।अब बहु रानी मामी की कभी बहन से तो कभी भाभी से लिपट मामा अच्छाइयों का बखान कर करके रोटी रही। 
     बहु रानी की सास ये सब कौतुक जहां खड़ी थी वहीँ से सब देखती रही और हैरान व  परेशान होती रही। अचानक बहु की माता जी फिर प्रकट हुई और बेटी के सिर पर पल्लू ढकते हुए उसके कान से मुँह सटा के बोली -
"अपनी सास को कह की वह मामी से लिपट कर ऊँचे सुर में  रोये "। 
 अब बहु जी सम्हली और सिर पर पल्लू रख सास के पास गई और बोली -
",चलो आपको मामी से मिलवा दूँ "। सास आज्ञाकारी बच्चे की तरह उसके पीछे पीछे चल दी । जैसे ही सासू जी ने आगे पैर बढ़ाया की मामी अपनी जगह से उठ सास को लिपट किलकारी मार मार कर रोने लगी। लेकिन सासू जी की तो आवाज सुनाई नही दे रही थी । दोनो की लिपटे लगभग 8 मिनट हो गए थे । सासू जी परेशान हो गयी थी । उन्होंने स्वयं को अलग करते हुए कंधे पर हाथ रख कर बोली -
"बहन जी ,सबर करो । भगवान की मर्जी के सामने किस की चलती है । एक न एक दिन सभी को जाना है कोई आगे कोई पीछे "। बहु की माता जी की आँखे वहीं गड़ी थी ।अतः वह लपक कर बहुरानी के पास गई और धीरे से बोली -
"अपनी सास को यहां ला कर बैठा दे  ।वह तो उपदेश देने लगी ।"
बहु चुपके से आई और सास का हाथ पकड़ कर बोली-
"अब ऐसे समय भी इंसान न रोयेगा तो कब रोयेगा ?आप यहां आ जाओ "।
सासू बहु रानी के पीछे पीछे चल दी । ***
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क्रमांक - 74                                                     

नारी का रूप
                                                - अलका जैन
                                               मुम्बई - महाराष्ट्र

        डिंपल पचपन बसंत देख चुकी है । आज जिंदगी में हुए अपने सभी फैसलों के लिए वह खुश है। यह सब उसके और उसके पति की सकारात्मक सोच के कारण ही संभव हो सका। डिम्पल चाय पीते हुए जब अठारह साल की थी कल्पना में खो गई ,अठारह साल की उम्र में फिल्मी दुनिया में गई और एक साल के अंदर अच्छा मकान बना लिया था । वही रवि से मुलाकात हुई। दो साल बाद  माता-पिता की मर्जी से शादी हुई थी । जुड़वा बच्चे स्कूल चले जाते ।ऑनलाइन कविता देखी और लिखना शुरू किया उसकी आवाज अच्छी थी उसकी कई किताबें जल्द ही प्रकाशित हो गई । उसने ख्याति प्राप्त की । बच्चों की शादी का समय होता जा रहा था ।  रवि उसे पहले से ज्यादा आकर्षक पाता और उसके गुणों पर मोहित रहता।  डिंपल भी मां के रूप में ममता की मूरत थी तो दाम्पत्य जीवन भी सफल था। चाय खत्म हुई और वास्तविकता में आ गई । दोनों बेटों की शादी हो चुकी है जो साथ रहते हैं। डिंपल नारी के सभी रूपों में ...... ।  ***
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क्रमांक - 75                                                           

कसक
                                               - सरिता गुप्ता
                                                     दिल्ली

          अचानक सुरभि के पति का देहांत हो जाने से सारे परिवार का रो रो कर बुरा हाल हो गया था। सभी मित्र बंधु, रिश्तेदार उसे और उसके बच्चों को ढांढस बंधाने का पुरजोर प्रयास कर रहे थे। सुरभि की ससुराल में कोई करीबी रिश्तेदार नहीं था। उसके पति अकेली संतान थे।सास ससुर को गुज़रे तीन साल हो गए। अड़ोस-पड़ोस के लोग ही अंतिम संस्कार की व्यवस्था करने में लगे हुए थे। कुछ ही देर में उसके मायके से भैया भाभी, मां बाप और बहन भी आ गई।एक बार फिर ह्रदय विदारक चीख से घर की दीवारें कांप उठी। दोपहर तक सभी काम संपन्न हो गये। रोते रोते मां ने कहा ऐसे में मायके वालों का रुकना वर्जित माना जाता है, हमें जाना ही होगा। सुरभि मां के सीने से चिपककर फिर रो पड़ी। मां ने समझाते हुए कहा मैं ही तो नहीं रुक सकती, तेरी बहन यहीं रुकेगी। सुरभि ने आस भरी दृष्टि से बहन को देखा और एक तरफ को लुढ़क गई। धीरे धीरे सभी विदा हो गए। पड़ोस से मिसैज शर्मा चाय बनाकर लाई तो अचानक बहन ने खूब जोर जोर से चीखना शुरू कर दिया,मेरा दम घुट रहा है, मैं यहां नहीं रह सकती, सुरभि भी एक पल को अपनी बहन की हालत देख कर घबरा गई, कि बहन को क्या हो गया। दवाई पानी सब देकर उसे संभालने की कोशिश की गई।पर हर मिनट में बहन का एक ही राग मैं नहीं रुक सकती,मेरा दम घुट रहा है, ...... नीचे के तल पर रहने वाले डाक्टर साहब को बुलाया .... उन्होंने कहा कुछ नहीं थोड़ी देर सोने से आराम आ जाएगा ,मगर बहन की एक ही रट , मुझे घर जाना है... ‌‌।समय की नाजुकता को समझते हुए एक पड़ोसी के साथ बस स्टेशन तक छुड़वाने का सुरभि ने फैसला किया। रात तक सभी जा चुके थे, सुरभि अपने बच्चों के साथ अकेली सोच रही थी क्या शिवम की मौत का दुख उसकी बहन को उससे अधिक था क्या..जो वह इस तरह ..........या उसे अपने घर और बच्चों की चिंता थी जिसके कारण  वह यहां नहीं रुकी ? सोचते सोचते उसकी आंखों से अविरल अश्रु धारा बहने लगी, उसने अपने मन को समझाया ,अब तो सारा जीवन इसी कसक के साथ ही  बिताना है,किसी से क्या शिकवा शिकायत .... ??? ***
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क्रमांक - 76                                                                

महिला सशक्तिकरण

                                             - अर्चना राय
                                            जबलपुर - मध्यप्रदेश
                                            
 ठंड की सुबह बालकनी की कुनकुनी धूप में चाय के साथ, अखबार पढ़ने बैठी ही थी, कि एक तेज आवाज ने ध्यान भंग कर दिया। देखा सड़क पर एक स्कूटी सवार लड़की को कार ने टक्कर मार दी थी। सहानुभूति जताने या कहें तमाशा देखने वाले लोगों का जमावड़ा लग गया।
" मारो साले को, कार में बैठकर हवा से बातें करना ,यही काम रह गया है इन अमीर जादो का "-भीड़ में से एक स्वर सुनाई दिया।
 सुनकर लोगों ने कार का दरवाजा खोलकर ड्राइवर को बाहर निकाल कर मारने को हाथ उठाया ही था कि
" अरे! रुको भाई, यह तो लड़की है"- भीड़ में से एक आदमी ने देख कर कहा।
" क्या? मैडम जी"
 तब तक स्कूटी वाली लड़की भी अपने आप को संभालती हुई,  वहां आ खड़ी हो गई।
" यह क्या? देवियों अगर आप सब हाथ में बेलन की जगह गाड़ियों की स्टेरिंग थाम लेंगी तो ऐसा ही होगा न"- भीड़ में से एक अधेड़ सज्जन ने दांत निपोरते हुए कहा।
" आपसे किसने कहा कि लड़कियों के हाथ में केवल बेलन ही अच्छे लगते हैं" अब तक शांत होकर सब की बातें सुन रही कार चालक लड़की शेरनी की तरह दहाड़ी।
"इसमें बताना क्या, यही सही समाज और दुनिया का नियम है"
साथ खडे लोगों ने भी हां में हां मिलाई।
" अगर आपके तर्क सही होते, तो क्या बछेंद्री पाल एवरेस्ट फतह करती, सुनीता विलियम्स अंतरिक्ष यात्री होती, गीता, सानिया आदि महिला खेलो मैं देश का नाम रौशन कर पाती"- अब तक चुप चाप खड़ी स्कूटी वाली लड़की ने कहा।
"और मेरी बहन पायलट बन पाती, जिसे एयरपोर्ट छोडकर मैं वापस आ रही हूँ, वह तो बीच रास्ते में कुत्ते का बच्चा आ गया था इसलिए उसको बचाने के चक्कर में दुर्घटना हो गई"- कार वाली लड़की ने अपने आप को संयमित करते हुए कहा।
उनकी बात सुनकर भीड़ में सन्नाटा छा गया।दोनों लड़कियां अपने अपने गंतव्य की ओर धुआं उड़ाती हुई बढ़ गई और उडते धुएँ ने भीड की पुरुषवादी सोच को धूमिल कर दिया। ***
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क्रमांक - 77                                                             

 मन में श्रद्धा 

                                              - रूणा रश्मि
                                             राँची - झारखंड
                                             
कल सुलोचना का कालेज में आखिरी दिन है।कल वो सेवानिवृत्त हो जाएगी। बच्चे भी छुट्टियाँ लेकर अपनी माँ के जीवन के इन महत्वपूर्ण क्षणों के सहभागी बनने आ गए हैं।
                   बहुत दिनों बाद सब एक साथ इस तरह मिले थे।बातों का सिलसिला चल निकला। बातें घूमफिरकर माँ के जीवन पर ही केन्द्रित हो गईं। सभी को पता था कि बहुत कम उम्र में ही शादी हो जाने के कारण माँ की पढ़ाई बीच में ही छूट गई थी।शादी और घर की जिम्मेदारियों को ही प्राथमिकता दिया था माँ ने। बाद में पापा के प्रोत्साहन से ही उन्होंने अपनी पढ़ाई फिर से आरंभ की और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। अपने बच्चों की जिम्मेदारियां और सभी तरह की रिश्तेदारियों को बखूबी निभाते हुए उन्होंने अपनी पढ़ाई निरंतर जारी रखी ।कभी भी घर में किसी को शिकायत का मौका नहीं दिया।और फिर वो खुशी का दिन भी आया जब वो कालेज में लेक्चरर बन गईं। अपने बच्चों के लिए तो वही सबसे बड़ी प्रेरणास्रोत थीं। नेहा के लिए तो वो उसकी जीवन आदर्श हैं।
                    अब जब नेहा भी घर और नौकरी दोनों की जिम्मेदारियां सम्भाल रही है तब उसे अपनी माँ के संघर्षपूर्ण जीवन का एहसास और भी गहराई से होने लगा और अपनी माँ के लिए उसके मन में श्रद्धा और भी बढ़ गई है। बच्चे अपनी माँ का गुणगान करते हुए तारीफों के पुल बाँधे जा रहे थे और सिन्हा जी वहीं बैठे मन ही मन सोच रहे थे कि वास्तव में उन्होंने एक सुलोचना में ही नारी कितने स्वरूप के दर्शन कर लिए हैं। कल कालेज की जिम्मेदारियों से तो उसे अवश्य मुक्ति मिल जाएगी किन्तु घर की और मेरी जिम्मेदारी तो जीवनभर उसके कंधों पर ही रहेगी। ***
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क्रमांक - 78                                                       

दूसरी सास
                                            - नरेन्द्र श्रीवास्तव
                                          गाडरवारा - मध्यप्रदेश
                                          
 लड़की के माता-पिता को उनके एक रिश्तेदार ने बतलाया कि आपने लड़की को कहाँ ब्याह दिया? मुझसे तो पूछा होता। लड़के की माँ बहुत तेज है। कैसे निभेगी?
यह जानकर लड़की के माता-पिता को बहुत चिंता हुई।
      शादी के बाद जब लड़की पहली बार ससुराल से लौटी तो माता-पिता ने चिंता जताई।
लड़की ने बतलाया-" मम्मी बहुत अच्छी हैं।मुझे बेटी की तरह रखती हैं। पूरे घर की चाबियाँ मुझे सौंप दी हैं और वे भजन-पूजन करती हैं।"
यह सुनकर वे रिश्तेदार बहुत शर्मिंदा हुये और बात संभालते हुये बोले-"ऐसा नहीं हो सकता।जरूर ,सास बदलकर दिखलाई गई है।  ***
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क्रमांक - 79                                                     

संकल्प 

                                                 - प्रतिभा सिंह
                                                राँची - झारखंड

मुन्नी का शरीर बुखार से तप रहा था फिर भी वह निकल पड़ी अपने दोनों बच्चों को घर पर  छोडकर पास वाली मेमसाब के घर बर्तन-बासन करने। यह सोचते हुए कि अगर वह नहीं गई तो उसके बच्चे भूखे रह जाएंगे। पति का रहना न रहना बराबर था उसके लिए । शराब की ऐसी लत लगी थी ,जिसे लेने के लिए हरदम मुन्नी से मार-पीट करता रहता ।
           मेमसाब के घर पहुंची तो वहां भीड़ लगी थी। वहां उपस्थित लोगों की बातचीत से मालूम पड़ा कि शुभम (मेमसाब का बेटा) ने बारहवीं की परीक्षा में पूरे राज्य में टॉप किया है। मेमसाब बेटे के साथ तस्वीर खिंचवाने में व्यस्त थी। मुन्नी को देखते ही ........."आज तुम्हारी वज़ह से मेरा बेटा राज्य में अव्वल आया है। हर परिस्थिति में चाहे मौसम का  बिगड़ैल मिजाज हो या तुम्हारे घर का कलह, तुमने हर वक्त आकर अपना काम किया जिसके कारण  मैं अपने बच्चे को समय दे पायी। मेरे बेटे की सफलता में तुम्हारा बहुत बड़ा योगदान है।" यह कहते हुए मिठाई का डिब्बा मुन्नी को पकड़ाया।
       घर लौटते समय कुछ सोचते हुए एक संकल्प रास्ते में ही उसने ले लिया। रात-भर चटाई पर लेटे-लेटे झुग्गी में हुए सुराख से तारों को गिन रही थी। सुबह जल्दी उठकर अपने दोनों बच्चों को नहलाया-धुलाया और साफ कपड़े पहनाकर अविलंब चल पड़ी स्कूल की ओर। वहां उसने दोनों का दाखिला स्कूल में करवाया। उसने बच्चों के सिर पर हाथ फेरते हुए समझाया .. "शिक्षा के अभाव के कारण ही आज मेरी और तुम्हारे पिता की यह स्थिति है। शिक्षा के द्वारा ही तुमलोग यह नारकीय जीवन जीने से बच सकते हो। "
      बच्चों को शिक्षित करने के लिए उसनेे एक और घर में काम पकड़ लिया है। आज भी मुन्नी लगी हुई है अपने बच्चों का भविष्य संवारने में। ***
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क्रमांक - 80                                                             

नवासे का मोह 

                                    - डां अंजुल कंसल " कनुप्रिया "
                                               इंदौर - मध्यप्रदेश

रघु और रानी अपनी बेटी से मिलने उसके  शहर जा रहे थे क्योंकि उनकी बेटीआरती के बेटा हुआ था।उनके पास सामान्य डिब्बे का टिकट था लेकिन  अत्यधिक भीड के कारण वे जनरल डिब्बे में चढ नहीं पाए ,अतः आरक्षित डिब्बे में ही बैठ गए।इतने में टी टी आ गया उसाने कहा-"पर्ची कटवाओ,आरक्षित डिब्बे की टिकट  नहीं है तुम्हारे पास। दो सौ - दो सौ रुपए की पर्ची कटेगी"। रानी धीरे से बोली,"भैया एक ही पर्ची बना दीजिए,हमारे पास इतने पैसे नहीं हैं।"टी टी नहीं माना और चार सौ रु लेकर माना
       " मुनिया के बापू इतना उदास मत।हो।हम लोग शाम का खाना नहीं खांएगे और पैदल ही स्टेशन से मुनिया के घर चले जाएंगे कुछ पैसे हमने बचा कर रखे हैं करीब दो सौ रु वह भी साथ लाई हूं।""वह तो ठीक है पर तीन सौ रु में क्या कर पाएंगे।"रानी ने समाझाया-"अरे मुनिया जब आपने घर आएगी तब ज्यादा दे देंगे।अपना मन छोटा न करो " रानी फिर बोली-"मैं मोदी जी को पत्र लिखूंगी-आपने आयुष्मान योजना और नजाने कितनी योजना चलाई है पर गाडी में सामान्य दर्जे के चार - चार डिब्बे और लगवा दें ताकि हम गरीब अपने नवासे का मुंह खुश होकर देख तो सकें।मोदी जी मैट्रो ट्रेन चलवा रहे हैं,इसमें करोडों लग जाएंगे,ये तो अमीरों के चोंचले हैं। हमने भी तो वोट दिया है।"
  " अरी भाग्यवान हमारा वोट देने का अधिकार तो है पर सलाह देने का नहीं, समझीं "। रानी हँस दी। ***
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क्रमांक - 81                                                        

पद का सौपान

                                             - मीरा जैन
                                      उज्जैन - मध्यप्रदेश

बीच राह मे घेरा बनाकर खड़ी भीड़ देखकर  इंस्पेक्टर नंदनी ने अपनी गाड़ी ब्रेक लगा कारण जानने की चाह उतरी वहां का नजारा देख उसके पैरों तले की जमीन खिसक गई एक ही बाइक मे सवार तीनो नाबालिग बच्चे डिवाइडर से टकरा कर गंभीर रूप 

से घायल हो गये थे  नंदनी ने उन्हें तुरंत अस्पताल पहुंचाया और रास्ते भर स्वयं

को कोसती रही -

इस चौदह वर्षीय बालक धवल को  बाइक चलाते हुए जब यातायात पुलिस ने पकड़ा  तब उसने ही बिना किसी कार्रवाही के छोड़ने  का आदेश फोन पर ही दे दिया था  और

अपनी खास सहेली रीना से वाहवाही बटोर बहुत खुश हुई थी और शेखी बघारते हुए कहा था -

' आखिर दोस्त होते ही है मुसीबत मे काम आने के लिए मेरे रहते किसी की मजाल है जो तेरे बेटे पर कार्यवाही करे  '

उसके बाद तो धवल की स्वच्छंदता मे जैसे पंख लग गये पुलिस का भय समाप्त हो चुका था पहले अकेले ही इधर उधर से छिप कर निकल जाता था आज खुलेआम तीन तीन'

उसे महसूस हो रहा था वास्तव मे यह हादसा उसकी ड्यूटी मे त्रुटि की वजह से हुआ है नंदनी ने मन ही मन कसम खायी-

' आज के बाद कोई भी कार्य नियम व कानून को ताक पर रख नहीं करेगी चाहे उसका अपना बेटा ही क्यों ना हो ' ***
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क्रमांक - 82                                                             

आत्मविश्वास 

                                                 - नीलम नारंग 
                                                हिसार - हरियाणा 
                                                
काकी ओ काकी कहाँ हो हम बाज़ार जा रही हैं ज़रा बच्चों को तो सम्भालें । रेवा और रीना का रोज़ का काम था जैसे ही घर के काम से फ़ारिग़ हुई निकल पड़ी घुमने चाट पकौड़ी खाने। काकी बेचारी बच्चों को सम्भालते सम्भालते हाँफने लगती थक कर चूर हो जाती । इधर कुछ दिनों से काकी अपने अतीत और वर्तमान को लेकर बहुत सोचने लगी थी ।कभी कभी सोचती मै ही ग़लत चल रही हूँ । क़िस्मत को दोष देकर हाथ पर हाथ रख कर बैठने से क्या होगा ? सोलह साल की रही होगी जब उसकी शादी हुई । कामना   यही नाम था उसका । घर गृहस्थी क्या  होती है उसका सुख जान भी नही पाई कि वैधवय का जीवन शुरू हो गया । ससुराल वालों को बोझ लगी तो मायके मे छोड़ गए । यहाँ भी क्या भतीजे भतीजियों का पालन पोषण मे ज़िन्दगी गुज़रने लगी।घर में बहुएँ आ गई । हर दम एक ही आवाज़  काकी क्या कर रही हो ये काम रह गया वो काम रह गया ।आज तक वो ज़िम्मेदारी समझ कर सब काम करती आई । अब वो थकने लगी थी शरीर से कम और मन से ज़्यादा । लगता उसका सम्मान आत्मसम्मान सब खो गया है । पड़ोस में कामवालियों को देखती हँसते हुए काम करती हैं पगार पाती है और कम से कम मनपसंद खाती पीती तो है। यहाँ तो हर चीज़ के लिए दूसरों का मुँह ताकना पड़ता है । जब हम अपने वर्तमान से ख़ुश नही होते और भविष्य के लिए कुछ सपने देखते है तो कई बार रास्ते भी अपने आप बन जाते है । काकी जब बच्चों को स्कूल छोड़ने गई तो वहाँ एक मास्टरनी को अपनी बूढ़ी सास की देखभाल के लिए एक औरत की ज़रूरत थी जो रात को वहाँ रह सके । मन ही मन कुछ फ़ैसला लिया और पहुँच गई बात करने और काम करने के लिए हाँ कह आई । पचास साल ज़िन्दगी के दूसरों के फ़ैसलों पर गुज़ार दिए । आज लिए गए अपने फ़ैसले से जितनी वो ख़ुश थी उससे ज़्यादा डरी हुई । घर मे उठने वाले बवडर से अनजान नही थी लेकिन उसने मन ही मन सोच लिया था कि उसका निश्चय भी किसी चट्टान से कम नही है जिसे कोई नही डिगा सकेगा । आज कितने सालों बाद अपना नाम सुना था —- कामना कल से ठीक समय पर काम पर आ जाना और चेहरे पर मुसकान आ गई । ***
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क्रमांक - 83                                                         

तृप्ति

                                           - सीमा जैन ' भारत '
                                          ग्वालियर - मध्यप्रदेश
                                              

             शीला मेम साहब के घर कई सालों से काम कर रही हूँ। सान्या बिटिया दूसरे शहर में पढ़ती हैं। इसबार दीपावली की छुट्टियों में घर आई। आज हम मेम साहब के कमरे की सफाई कर रहे थे। 
उनकी अलमारी जमाते हुए सान्या बिटिया बोली-“माँ, कितने पुराने सूट रखें हैं! शांति को दे दो ना!” अलमारी जमाते-जमाते बिटिया ने कई सलवार-सूट एक थैले में अलग कर दिए।
 इतने सारे सुंदर सूट आज घर ले जाऊँगी ये सोचकर मन ख़ुश हो गया।
जब थैला भर गया तो मेम साहब बोली-“ शांति, ज़रा एक बार दे तो मैं देख लेती हूँ। कोई सूट पसन्द हो तो रख लेती हूँ।“ बुझे मन से मैंने थैला उनको दे दिया।
एक लाल कुर्ता देखकर वो बोली-“ सान्या, इसकी कड़ाई तो बहुत सुंदर और महंगी है। मैं इसकी कड़ाई को ट्रांसफर करवा लूँगी।“ ये कहकर उन्होंने वो कुर्ता अपने पास रख लिया।

 दूसरा कुर्ता हाथ में लेकर बोली-“ मेहंदी या डाई लगाते समय भी तो कुछ चाहिए होता है ना!” दूसरा कुर्ता भी थैले से बाहर हो गया और मेम साहब की गोदी में जा बैठा। 
एक सफ़ेद कुर्ता फैला कर देखा फिर बोली-“ ये तो होली के लिए काम आ जायेगा। अभी सफाई बाकी है दो-तीन कुर्ते  तो अभी काम आ जायेंगे। शांति ये कुर्ते तू बाद में ले लेना।“ थैला लगभग खाली हो चुका था।
 मेरे चेहरे से ख़ुशी चली गई और सान्या बिटिया के चेहरे पर आश्चर्य आ गया था। 
जैसे ही मेमसाहब बाहर गई, बिटिया ने मेरा हाथ पकड़ा और बोली-“शांति उठ, मेरे पास सूट तो नहीं हैं; पर जींस-शर्ट बहुत सारे हैं। तेरी बेटी के काम आ जायेंगे।“
  बिटिया मुझे कितना और कैसा देगी इसकी चिंता नहीं, उनके हाथों के प्यार की गर्मी ने मेरा मन भर दिया। ***
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क्रमांक - 84                                                              

पराया धन
    
                                                   -  शारदा गुप्ता 
                                                 इंदौर - मध्यप्रदेश

पुरूषोत्तमजी व उनकी पत्नी यशोदा अपनी वासियत लिखकर व सारा काम dhanda तीनों बेटों को सौंपकर चैन की ज़िंदगी जीना चाहते थे । उन्होंने यह कभी नहीं सोचा था कि कभी उनकी स्थिति एक गेंद की तरह हो जाएगी जब उनकी तीनों बहुओं ने मिल कर निर्णय लिया कि सास ससुर छः छः माह एक एक बहू के पास रहेंगे । स्वाभिमानी पुरुषोत्तमजी को यह व्यवस्था नागवार लगने  लगी। हर बहू सोचती मैं अकेली ही क्यों इनकी सेवा करूँ? जब कि तीनों भाइयों को बराबर का हिस्सा मिला है।
    बेटी अपर्णा को जब ये बात पता चली तो उसी समय वह मम्मी पापा से मिलने मैके आ पहुँची। मैके में भाभियों की तू तू मैं मैं देखकर मम्मी पापा को आपने साथ ले जाने की ज़िद पर अड़ गई। 
     बेटी के घर जाकर रहने के लिए दोनो पति पत्नी तैयार नहीं थे। अपर्णा का सवाल था उनसे “माँ क्या आपने मुझे जन्म नहीं दिया? कभी आपने भाइयों में व मुझमे कोई भेद किया? पापा क्या आपने मुझे भी उच्च शिक्षा दिलवाकर आत्म निर्भर नहीं बनाया? तो फिर मेरे घर चलने में संकोच कैसा? “कहते हुए उन दोनों का समान समेटने अंदर उनके कमरे में  चली गई । पुरुषोत्तमजी सोचने लगे । बहुएँ बेटियों जैसी क्यों नहीं बन सकती है । ***
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क्रमांक - 85                                                       

सहेली

                                       - मनोरमा जैन पाखी
                                         भिण्ड - मध्यप्रदेश
                                         
"अब तो गया तेरा दोस्त।ढूंढती रह जाएगी।"हँसते हुये बोली
"कौन,कहाँ गया?क्या मतलव है तेरा?"आवाज में सवाल था
"वही तेरा पुराना दोस्त।यार सच में बहुत समझदार है ।तेरी केयर भी करता है ।और तेरी इतनी तारीफ,उफ्फ!जलन होने लगी है अब।और अब मैं उसे तुझसे छीन ने वाली हूँ।"खिलखिला रही थी फोन के दूसरी तरफ की आवाज।
"ना, बहुत मैच्योर है वो ।और बेस्ट फ्रेंड भी ।बेवकूफ नहीं है। छीन नहीं सकती तू।"आवाज में अजब सा कांफिडेंस था पर कहीं कोई डर भी लरज गया।
कुछ दिन बीते ।वो अब न तो खुद फोन करता न रिसीव करता।अक्सर व्यस्त बताने लगा खुद को ।मैसेज भी इग्नोर।शायद बिजनेस की व्यस्तता होगी।सोच कर मन शांत करने की कोशिश करती ।
"कहो मैडम,कैसी हो?एक महीने बाद फिर से फोन पर व्यंग भरी खिलखिलाहट सुनी।
"ठीक हूँ ,मुझे क्या होना है?"कुछ परेशान थी वह 
"और बता कैसा है तेरा दोस्त?बात होती है या नहीं?"तंज गहरा था
"हा,हाँ हाँ ,होती है ।जस्ट अभी तो फोन बंद किया और तेरा आ गया।"आवाज में दम न था।पर झूठ क्यों बोला खुद ही न समझी।
"हाहाहाहा,झूठ ..वो मेरे साथ है ।प्लेन से आया है मिलने।मैडम भूल जा अब उसे।"दो मिली जुली खिलखिलाहट साथ सुनाई दीं ।
बचपन की सहेली का स्वभाव अभी तक न बदला था।तब भी वो उसे आगे बढ़ते जल जाती थी और आज भी....!
दो आँसू नारी के हजारों रुपों में एक ये रुप देख कर बह गये । ***
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क्रमांक - 86                                                               

आधी पगार 

                                         - अनीता मिश्रा " सिद्धि "
                                          हजारीबाग - झारखण्ड 

"आ गयी महारानी , छुट्टियाँ मनाकर " रीता ने काम वाली बाई के देखते ही कहा ।
अब खड़े-खड़े मुँह क्या देख रही है , जा  जल्दी से बर्तन- कपड़े और पोछा कर मुझे "किटी-पार्टी" में शाम को जाना है ।
कामवाली बाई चुचाप सारे काम निबटा कर वहीँ नीचे फर्श पर बैठ गयी।
रीता पास वाले कमरे से तैयार हो निकली ।
कामवाली बाई बोली " मालकिन मेरे पगार मिल जाते तो अच्छा होता घर में---- अभी आगे कुछ बोलती रीता कड़क आवाज में बोली " एक तो पन्द्रह दिन नागा करके आयी हो आते ही पैसे की जरूरत पड़ गयी ।
कामचोर  हो गयी हो तुमतो? उसने महीने के हिसाब से आधा पैसा काट लिया और पकड़ा दिए पैसे बोली लो ये पगार ।
पैसे लेकर कामवाली बाई ने सिसकते हुए बोला " मालकिन आपने पूछा तक नहीं ?और आधे पैसे काट लिए मैंने क्यों इतने दिन काम पर नहीं आयी " ।
" लो कर लो बात अब ये ही बाकी रह ना , तुम लोगों से बात करती फिरूँ " । जरूरत नहीँ जानने की ?।
कामवाली बाई चली गयी ।फिर वापस नहीँ आयी । रीता ने पता लगाया तो जानकर उसे अपने किये पर पश्चाताप हो रहा था , उसका पति कैंसर से पीड़ित था । दवा महँगी होने के कारण पूर्ण-इलाज न हो सका और चल बसा । ***
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क्रमांक - 87                                                             

 शकुन-अपशगुन

                                            - जगद्वीप कौर 
                                          अजमेर - राजस्थान
                                       
सुबह से ही बहुत जोश के साथ अपना सारा काम निपटा कर स्कूल के लिए निकल गई ।शाम की सारी तैयारी पहले ही कर ली थी ।कपड़े क्या पहनने है, साथ में गहने क्या पहनने है, सब निकाल कर रख दिया था ।आज बहुत खुशी हो रही थी और हो भी क्यों नहीं आज मेरी भांजी केरोके के लिए मेहंदी जो लगाई जानी थी ।कल सुबह उसका रोका होगा ।अभी कल की ही बात लगती है जब वो खेलती थी अब उसकी शादी होगी ।समय कैसे पंख लगाकर उड़ जाता है ।आज थोड़ी चिंता भी होने लगी कयोंकि मेरी बेटी भी बड़ी हो  रही है थोड़े समय के बादवो भी मुझे छोड़कर चली जाएगी ।स्कूल से आने के बाद जब मैंने मम्मी से पूछा कि कब चलना है तब उन्होंने कहा कि अभी उनसे बात हुई है और वो तैयारी करने के लिये बाजार गए हैं आने के बाद जब मेहंदी और गीत का कार्यक्रम शुरु करना होगा तब फोन कर देंगे ।मैं अपने दैनिक कार्यों मे व्यस्त  हो गई ,और इंतजार करने लगी ।एक  दो नही कई घंटे बीत जाने पर भी जब कोई फोन नही आया तो मैंने फोन किया तब दीदी ने फोन नही उठाया ।मैंने सोचा कि चल कर मम्मी से ही पूछ लेती हूँ यह सोच कर जब मम्मी के कमरे की तरफ जाते हुऐ मैंने मम्मी की आवाज सुनी तो ठिठक गई, मम्मी दीदी से ही बात कर रही थी,  "हाँ हाँ मैंने उसे कह दिया है तुम अपनी बेटी के शकुन-अपशगुन का पूरा ध्यान रखों ।तुम्हारा कहना सही है उसका इस समय नही रहना ही सही है ।कोई बात नहीं वो नही आयेगी ।" मुझे इस बात ने हिला कर रख दिया था ।क्या एक औरत का सौभाग्य केवल उसके पति से ही है, क्या औरत एक इंसान नही है हजार गुण होने पर भी,उसके अपनों के लिए वह अपशगुन कैसे हो सकती है? और जिन अपनों के लिए मैं जान भी दे सकती हूँ उनके लिए मेरी उपस्थिति वजित कैसे हो सकती है? उनकी खुशियों में शामिल करने केलिए उन्हे सोचना पड़ता है यही सोचते हुए न जाने कब सो गई ...........। ***
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क्रमांक - 88                                                           

आधुनिक बहू

                                             - सीमा गर्ग मंजरी 
                                             मेरठ - उत्तर प्रदेश

माँ जी खाना लगा दिया है | आइये, खाना खा लीजिए | सुनन्दा ने रसोईघर में से थाली लगाकर डायनिंग टेबल पर रखते हुये अपनी सासु माँ से कहा | 
हाँ आती हूँ अभी! 
कहती हुई सासु माँ डयनिंग टेबल पर आकर बैठी ही थी कि रोटी की शक्ल देखकर उनका माथा ठनक गया | 
कुछ कहना न चाहते हुए भी बोल ही गईं ~
सुनन्दा यह तुमने रोटी बनाई है या भारत का नक्शा | साल भर तुम्हारी शादी होने को हो आया अभी तक तुम्हें ढंग से रोटी बेलनी, बनानी भी नहीं आई | 
क्या सिखाया तुम्हारी माँ ने ? कभी दाल जल जाती है | कभी नमक जहर जैसा ज्यादा भर जाता है | 
कभी खाना ढंग से ,मन से भी बना लिया करो | 
आखिर, क्या सीख कर आई हो तुम अपने घर से? 
आफिस से दौड़ती, भागती सुनन्दा फुरसत के दो पल बैठी भी नहीं थी | तुरन्त आफिस से लौटकर रसोईघर में घुसी और खाना बनाने लगी थी | यह सोचकर कि ज्यादा देर से खाना खाने से माँ जी की छाती में जलन होने लगती है | 
फिर घर में सब मुझे ही दोषी ठहरा देते हैं | जब देखो, तब सब कुछ न कुछ कहते सुनते रहते हैं | 
माँ जी की यह छींटाकशी सुनन्दा को जरा भी पसन्द नही आई | 
आज पहली बार सुनन्दा ने अपनी सासु माँ के सामने मुँह खोला |
माँ जी, यह तो आप लोगों को पहले ही देखना चाहिए था कि मुझमें क्या गुण हैं और क्या अवगुण हैं | 
तब तो आप लोगों को मेरी नौकरी दिखाई दे रही थी |
मेरी तनख्वाह दिख रही थी |
मैं नोटों की मशीन नहीं हूँ कि नौकरी करके पैसे भी कमा कर लाऊँ और फिर नौकरों की तरह आपका घर बार भी सम्भालूँ |
इतना ही आपको कष्ट है तो एक नौकरानी रख लीजिए |
सुनन्दा के यूँ मुँह की मुँह पर जबाब दे देने से सासु माँ का मुँह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया | ***
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क्रमांक - 89                                                           

लकीरें

                                            - मनोज सेवलकर
                                            इन्दौर  - मध्यप्रदेश
                                            
    डायनिंग टेबल पर छितरे पानी के चारों ओर लकीरें बनाकर अनुषा ऐसे फैला रही थी मानो जिंदगी के किसी कठिन परिस्थितियों से निकलने का मार्ग ख़ोज रही हो। 
उसने देखा चारों ओर खींची लकीरों  में से उसकी ओर खींची लकीर में ही पानी का बहाव अधिक था ।  अचानक उसके आत्मचिंतन को मानो पंख लग गए । वह वहां से उठ कर आईने के सामने खड़ी हो गई और स्वयं को निहारने लगी । उसने महसूस किया वह किसी से भी किसी भी मायने में कम नहीं है, वह सुंदर है, हाथ-पांव से सक्षम, सोसायटी में स्वयं  की एक सशक्त पहचान रखती है । उसकी पर्सनल लाइफ, एक अच्छा जाॅब सब कुछ तो है उसके पास ।  फिर क्यों कोई उसकी भावनाओं को ऊंचाई देने के बजाय अपनी नियंत्रण रेखा में कैद करना चाहता है । आखिर क्यों ? इसी उधेड़बुन का जवाब उसे अपनी ओर बहकर आए पानी की उस लकीर से मिला जिसने उसे आत्मावलोकन करने पर मजबूर किया । अब वह इतनी स्वावलंबी है कि पुरुषों से कंधे से कंधा मिलाकर सारी कायनात को अपनी मुट्ठी में भींच सकती है । 
उसने अपने मोबाईल से हर्ष को काॅल लगाया तथा अपने मन के आक्रोश को शब्दों का जामा पहनाते हुए वह उखड़ पड़ी -" हैलो, हर्ष हमारे बीच आज रेस्टोरेंट में लंच के दौरान जो कुछ घटा वह अच्छा नहीं हुआ ।  अभी तो हम केवल मुलाकातें कर रिंग सेरेमनी तक ही पहुंच रहे थे और तुम्हारा सेल्फ ईगो मुझे कैद करने को लालायित हो गया । जबकि मेरा सेल्फ काॅन्शस इस बात को गवारा नहीं करता कि मैं किसी नियंत्रण रेखा में रहूं ।  मेरी भी कोई ज़िन्दगी है, वजूद है जिस तरह से तुमने मुझे अपनी लकीरों में कैद करने की कोशिश की है उससे प्रतीत होता है कि भविष्य में तुम मेरी भावनाओं को कभी तवज्जो नहीं दोगे । मुझे ऐसा जीवन साथी चाहिए जो मुझे समझे, मेरी भावनाओं की कद्र करे ।  बस्स ऽ ऽ !  अब हमारे बीच अगले सम्बन्धों की कोई बात नहीं होगी ।  यदि दोस्त बने रहना चाहते हो तो तुम्हारा स्वागत है ।"
    हर्ष मोबाइल पर उसके अचानक उबल जाने के कारणों को जांचने के लिए कोई माकूल कारण पूछा पाता उसके पहले अनुषा का अंगूठा मोबाइल के लाल बटन को दबाएं चुका था । ***
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 क्रमांक - 90                                                              
घाटे का सौदा

                                                - अंजु गुप्ता
                                              हिसार - हरियाणा
                                              
लाटरी लग गयी थी रानी की । एकदम खरा सौदा ।  कोई नीच काम भी नहीं था कि उसकी आत्मा उसको कोसती। करना ही क्या था... बस अपनी कोख किराए पर ही तो देनी थी, वो भी बस नौ महीने के लिए और बदले में सब दुःख-ग़रीबी खत्म। 

सब यंत्रवत चल रहा था, पर जबसे पेट में पलते बच्चे ने अपने अस्तित्व का एहसास दिलाना शुरु किया था, क्यों उसका मन बगावत करने लगा था? क्यों उसकी बेचैनी बढ़ने लगी थी और क्यों उसे उस अजन्मे बच्चे पर वैसे ही ममता लुटाने का मन हो रहा था जैसे वह अपने बच्चों रधिया और बाबू पर लुटाती थी। पांच सितारा अस्पताल की सुविधाएं भी ना जाने क्यों अब उसे कैद जैसी लग रहीं थीं ।

हाँ, खुश है वो कि अब उसके परिवार को कभी भूखा नहीं सोना पड़ेगा, रधिया और बाबू स्कूल जा सकेंगे, उसके पति पूरन को काम के लिए दूजे शहर नहीं जाना पड़ेगा और पूरा परिवार साथ रहेगा।  पर... पर उसका ये बच्चा? अपने पेट में पल रहे बच्चे की धडकनों को महसूस करते हुए उसे ये सौदा.., बहुत ही घाटे का सौदा लग रहा था ? ***
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क्रमांक - 91                                                         

प्रेम प्रयाग

                                            - रतन राठौड़
                                         जयपुर - राजस्थान
                                         
एक छोटा पैग बनाया और सीधा एक ही घूंट में गटक गया। 'उफ्फ...कलेजा चीरती हुई गई है अंदर तक', मयंक बड़बड़ाया। उसने फिर से अबकी बार एक बड़ा पैग बनाया और एक एक घूंट गले से नीचे उतरने लगा। आज पहली दफ़ा उसे महसूस हुआ कि यह सोमरस, विष नहीं अमृत है। शून्य में ताकते हुए उसके होठों पर मुस्कान और आँखों में नमी थी। 
'और चीर मेरा कलेजा, जितनी जलन, तकलीफ देनी है दे...और..दे..देती रहना, तब तक तू खत्म न हो जाये, मेरे सपनों की तरह' वह फिर बड़बड़ाया।
'क्या बोला था उसने...तुम मूर्ख...स्वार्थी हो, हम्मम्म... सभी पुरुष ऐसे ही होते है' उसे सपना के कहे शब्द कलेजा चीरती हुई शराब की तरह लग रहे थे। सब कुछ उसकी याददाश्त में तरोताज़ा होने लगा।
इस चार सालों में उसे कितना लगाव और प्रेम हो गया था सपना से। क्या क्या नहीं किया उसने, किस किस की नाराजगी, झगड़े मोल नहीं लिए। पहली दफ़ा उसकी मदद की अपना लहू बेचकर...शायद अंतस से निकला पहला प्रेम था। धीरे धीरे प्रेम-प्रयाग तीर्थ सा बन गया। कितना सब कुछ अच्छा था। दुःख सुख में साथ, वस्त्रादि, धनादि से मदद...सब कुछ। 
'आज से मैं एक भी शब्द या प्रतीक प्यार का नहीं कहूंगी। मुझे अपने हिसाब से जीना है, मेरा पीछा छोड़ो, आज के बाद कोई बातचीत नहीं होगी...तुम भी खुश रहो और मैं भी। तुम्हारे लिए मैं अपने सपनों की बलि नहीं दूंगी। तुम मूर्ख और स्वार्थी हो', अपनी बात कह कर सपना ने कॉल काट दी। 
उसके हाथ से फोन छूटकर गिर गया। उसके कानों में जैसे गर्म तेल डाल दिया हो। 
'दो पति नाम के पुरुषों से सम्बंध विच्छेद करके तुमने मेरा हाथ थामा। क्या वे पूर्वर्ती अभागे पुरुष भी मूर्ख और स्वार्थी थे? अब...तीसरा मैं!!!...हा हा हा..' शेष बची शराब को एक घूंट में उसने नीचे उतारा और अगला पैग बनाने लगा। अपने कलेजे में बसे प्यार के लावा को उसे राख करना था। 
मयंक ने अंतिम पैग को प्रेम-प्रयाग की तरह अपने होठों से  लगाया। आंखों में उभरे हुए सपनों की एक बूंद उसके पैग में मिलकर विलीन हो चुकी थी। वह फर्श पर लुढ़का पड़ा था। ***
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क्रमांक - 92                                                               

बहु

                                                   - इन्दु सिन्हा 
                                              रतलाम - मध्यप्रदेश
                                              
अक्सर ही मिसेज गुप्ता और मिस्टर गुप्ता मुख्य दरवाजे को इंटरलॉक करके ऑफिस जाते थे ! कुछ समय पहले ही मिस्टर गुप्ता के इकलौते बेटे की शादी भी हुई थी ! बहु भी साथ ही थी,लेकिन सुबह हलचल सिर्फ मिसेज गुप्ता की दिखती थी,काम करने की ! अब महिला प्रवर्ति समझ लो या कुछ और,मन बना रखा था कि मोका आने पर जरूर पूछुंगी !
एक दिन मिसेज गुप्ता सीढ़ियों पर टकरा ही गयी ,मेने पूछ लिया सुबह सुबह आप काम मे लगी रहती है बहु जल्दी नही उठती ?
मिसेज गुप्ता ने कहा करेगी क्या जल्दी उठकर,वो 10,11 बजे उठती है ! में सुबह की चाय और नाश्ता ओर दोपहर की सब्जी बनाकर जाती हूँ ! वो रात को किचन संभालती है !
जैसा हम बेटियों को आराम देते है बहुओं को क्यो नही ?
मिसेज गुप्ता ये कहकर आगे बढ़ गयी ! ***
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क्रमांक - 93                                                                

ब्लात्कार 

                                                       - रूबी सिन्हा 
                                                      राँची - झारखंड 
                    
मै अपने मोबाइल चोरी की रिपोर्ट लिखाने पुलिस स्टेशन गया था ।तभी मेरी आवाज़ चिखती हुई लड़की पर पड़ी ।
हाँ हाँ मेरे साथ ब्लात्कार हूआ है ।
उसके कपड़े पर ख़ून के निशान थे ।
वो बड़ी निडरता से कह रही थी, 
मेरे साथ अन्याय करने वालों को मैं नहीं छोडूगी ।
जब तक आरोपी को सजा नहीं मिलता मैं लडूगी ।
उसके चेहरे पर शर्म नहीं बल्कि अजब सा तेज़ था,और आवाज़ में शक्ती ।
महिलाओं के कई रूप देखें थें लेकिन ऐ कुछ अलग था ।
उस लड़की के हिम्मत के आगे मैं भी नतमस्तक हो गया । ***
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क्रमांक - 94                                                           

करतब अपना-अपना

                                                   - रानी कुमारी
                                                    पटना- बिहार

"ऐ.., सुन इधर। यह ले रूपया और समेत अपना बाजार।" नेताजी का आदमी उसकी थाली में एक रूपया डाल दुरदुरा पड़ा। यह महिला करतब दिखानेवाली की माँ थी।
   "काहे साहब, काहे हटें हम?" महिला के स्वर में निडरता थी।
"ज्यादा सवाल-जवाब नहीं। नेताजी को तुम्हारे इस गाजे-बाजे से बोलने में परेशानी हो रही है।" आदमी पुनः बिगड़ा।
            "साहब, आप नेताजी का भाषण नहीं सुन रहे। हमको तो साफ सुनाई दे रहा कि वह महिलाओं के विकास की बात कर रहे हैं। और साहब क्या हम महिला नहीं हैं!" इतना कह वह लंबी साँस लेती है-
                     "जाइए साहब यह पैसे नेताजी को ही दे दीजिएगा। चुनाव में काम आएगा। रही बात परेशानी की तो यह उन्हें हो रही है, मुझे नहीं।" वह महिला अपने फटे आँचल को हवा में लहराती पुनः थाली पीटकर अपनी बच्ची का हौसला बढ़ाने लगती है। ***
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क्रमांक - 95                                                         

प्रबंधन

                                                    - संतोष गर्ग
                                                  मोहाली - पंजाब

सुबह होते ही जैसे ही बाहर निकली तो एक वृद्धा से राम राम हुई और बातों का सिलसिला शुरू हो गया।
मैंने कहा - मैं जब भी सैर करने जाती हूँ तब कोशिश करती हूँ कि एक ही लकीर पर चलूं । जब तक सही चलती हूँ तब तक विचार भी भूत भविष्य की ओर नहीं भागते परन्तु जैसे ही लकीर से हट जाती हूँ तब विचार भी भूत भविष्य की ओर भाग रहे होते हैं । मैंने देखा है वर्तमान में रहने के लिए अनुशासन आवश्यक है। यदि स्वयं पर ही शासन नहीं, प्रबंधन नहीं तो मन संकल्प-विकल्प में उलझेगा ही.... मैं हर काम का प्रबंधन करके चलती हूँ .....
" क्या आप वक्त का प्रबंधन जानती हैं?" मेरी बात को बीच में काटते हुए उस मां ने कहा ।
वक्त  का प्रबंधन.... जीअअ...  ओ.. एक घंटा हो गया बात करते हुए...पता ही नहीं चला। क्षमा करना जी । वह वृद्धा मुस्करा कर चल दी।
ऐसा लगा जैसे उसने मुझे नसीहत भरा थप्पड़ मारा हो कि उपदेश देने की वस्तु नहीं ...ग्रहण करने की है। ***
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क्रमांक - 96                                                             

आक्रोश

                                            - अपर्णा गुप्ता
                                         लखनऊ - उत्तर प्रदेश

लेडीज पुलिस एक औरत को पकड़ कर लाई और जुर्म कबुलवाने के लिये  उसको टार्चर किया l
पर वो जुर्म नही कबूली बस यही कहती रही " कुत्तवा रहिन  कुत्वे की मौत मर गवा रस्साला...."......l
" कौन था वो तुम्हारा?"
 "कोइन नही हमरा ,भड़वा था कमीना "कह कर थूक दिया उसने..............।
क्या करता था?
"कुछो नही अहसान करता रहा हम पर मर दुआ"

तुमने उसे क्यो मारा ?
"हम नही मारे उसको अपने करमो से मर गवा   ."..............
झूठ बोलती हो तुमने नही मारा तो किसने मारा?
देखो साब हम सब कुछ सहन कर लैब पर ये हम कभी सहन न करिबै कि हमरी बेटी को कोई बुरी नजर से देखे
करि । ***
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क्रमांक - 97                                                     

लडके की मां

                                                 - डॉ. छाया शर्मा
                                                अजमेर - राजस्थान

पूजा और नेहा मध्यम परिवार में रहने वाली साधारण सी लड़की हैं. उनके पिता सीमेंट फैक्ट्री में प्रोडेक्सन मैनेजर हैं. पिता को सीमेंट फैक्ट्री के प्रदूषण से समय से पूर्व ही सेवा -निवृति लेनी पड़ी, क्योंकि डॉक्टर ने उन्हें सख्त हिदायत दी कि उनके फेफड़े तीस प्रतिशत ही कार्य कर रहे हैं. नेहा की शादी उन्होंने समय रहते कर दी. 
आज अक्सीजन सिलेंडर पर उनका जीवन चल रहा है. लाखों रूपये दवा और ऑक्सीजन मशीन पर खर्च हो गए. उन्हें पूजा की शादी की चिंता सताने लगी. 
अचानक उनके पास एक रिश्ता आया. लड़का बी. टेक. इंजीनियर है, परिवार में इकलौता है. बातचीत शुरू हुई और संबंध तय हो गया. पूजा की माता जी ने कहा -आपकी कोई डिमांड हो तो बता दीजिये. लड़के की माँ ने कहा -हमें किसी भी प्रकार की भौतिक चीजों की आवश्यकता नहीं है. आप अपने कलेजे का टुकड़ा, अपनी पूँजी संस्कारों की सम्पत्ति सौंप रहें है हमारी डिमांड आपकी बेटी पूजा है हमें बेटी चाहिए. आप दाता हैं, हम दान लेने वाले हैं. दान लेने वाले से देने वाला बड़ा होता है. अतः आप किसी प्रकार की चिंता नहीं करें. 
राजा जनक ने अपनी पुत्री का कन्या -दान किया और राजा दशरथ ने वह दान जिस रूप में ग्रहण किया, दान करते वक़्त उनकी मनः सिथ्ति, भाव - भंगिमा जिस रूप में थी उसी को उन्होंने जीवन के अंतिम क्षणों तक निभाया. यह कह कर उन्होंने दोनों हाथ जोड़ दिए 
हम सभी की आँख से आँसू झर -झर बहने लगे. वह दिन और आज का दिन पूजा अपने परिवार में प्रसन्न है. ***
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Comments

  1. .विषयांतर्गत बेहतरीन संकलन।.मेरी रचना को क्रमांक 04 पर प्रतिस्थापित कर मुझे प्रोत्साहित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद और.ई़द-उल-फ़ित्र की आप सभी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।
    शेख़.शहज़ाद उस्मानी, शिवपुरी (मध्यप्रदेश)
    (05-06-2019 जय पर्यावरण)

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  2. मेरी लघुकथा को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार । सभी लघुकथाकारों को हार्दिक बधाई ।

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  3. बहुत शुक्रिया सर मेरी लघुकथा को संग्रह में स्थान देने के लिए।उम्मीद है
    भविष्य में भी अवसर देंगे

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  4. नमस्कार सर, मेरी लघुकथा को स्थान देने के लिए बहुत-बहुत आभार ।

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  5. आपका हार्दिक आभार एवं सभी रचनाकारों को बधाई

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  6. आपका हार्दिक आभार एवं सभी रचनाकारों को बधाई

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  7. आपका हार्दिक आभार एवं सभी रचनाकारों को बधाई

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  8. अभिवादन सहित
    जैमिनी अकादमी के ब्लाग पे "नारी के विभिन्न रूप " शीर्षक के तहत साहित्य सफर / खारघर चौपाल के निम्न सदस्यों की लघुकथाएं प्रकाशित हुई है जो एक से बढ़कर एक है ----
    क्रम सं 2) -- महासमुद्र - महेश राजा
    9) वात्सल्य की ताकत - मंजू गुप्ता
    11) अस्तित्व -- आभा दवे
    17) कामवाली बाई -- चंद्रिका व्यास
    34) गालियां -- अलका पांडेय
    38) शक्ति -- डिम्पल गौण
    ----------
    खारघर चौपाल / आई टी एम काव्योत्सव / साहित्य सफर के तमाम सदस्यों के तरफ से बसों को बहुत बहुत बधाई एवं बीजेन्द्र जैमिनी जी का आभार।
    - सेवा सदन प्रसाद
    मुम्बई - महाराष्ट्र
    ( WhatsApp Mobile से साभार )

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  9. नारी के विविध रूपों में लघुकथाएं निकलवाना उन्हें एक संकलन का रूप देना बडा श्रमसाध्य कार्य है ।विविध रंग रूपों में लघुकथाएं पढकर नारी के भूत वर्तमान और भविष्य को समझना आसान हो रहा है ।लघुकथा विधा के लिए महत्वपूर्ण प्रयास तो है ही ।संयोजक जैमिनी जी व इस आयोजन के सभी सहभागी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई व यशस्वी जीवन के लिए अनंत शुभकामनाएं

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  10. बहुत सुंदर संकलन सभी रचनाकारों को बहुत बहुत बधाई

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  11. नारी के विविध रूपों पर लघुकथाओं के इस बेहतरीन संकलन में मेरी रचना को भी स्थान देने के लिए सादर आभार

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  12. सभी रचनाएँ अलग अलग स्तर पर नारियों के हर रुप को स्पष्ट करती ।कुछ वर्ष पहले नारी का एक ही रूप होता था ममतामयी देवी का ।आज हर रुप शामिल है उसमें।समय की बलिहारी या प्रकृति संदेश ?

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  13. लघुकथा के विकास के लिए किया जानेवाला आपका सतत प्रयास बेहद सराहनीय।
    नारी के विविध रूप हैं... सकारात्मक भी, नकारात्मक भी। ऐसे में यह अंक उपयोगी है। रचनात्मकता के द्वारा उन रूपों को उजागर करती अच्छी लघुकथाएँ!
    सभी को हार्दिक बधाई! सभी को धन्यवाद !!
    - अनिता रश्मि
    रांची - झारखण्ड
    ( WhatsApp Mobile से साभार )

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  14. बहुत सुन्दर एवं सार्थक प्रयास.
    मेरी रचना को स्थान देने के लिए ह्रादिक धन्यवाद |

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  15. बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय बिजेंद्र कुमार जैमिनी जी 🙏आप बहुत बढ़िया काम कर रहे हैं इससे नए पुराने प्रत्येक लघुकथाकार को समता के स्तर पर अनुभूतियों को व्यक्त करने का विशेष स्थान मिल रहा है। बहुत से ऐसे रचनाकार भी हैं जो यहाँ तक पहुंच ही नहीं पाते परंतु व्हाट्स अप के माध्यम से
    आपने इसे सरल कर दिया है। आपके परिश्रम से हमारी बात राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचेगी। सधन्यवाद :- संतोष गर्ग मोहाली (चंडीगढ़ )

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  16. आदरणीय सर जी सादर प्रणाम
    आप हम सभी के लिये प्रेरक हैं .आप से प्रेरित होकर लेखनी मचलती है .प्रेरणा के स्रोत आपकी अलख जलती रहे .शुभ -कामना .
    डॉ. छाया शर्मा, अजमेर .

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  17. बेहद खूबसूरत संकलन ,नारी मन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाती ,उजागर करती ये सारी लघु कथाये सराहनीय है ,सबकी बाते मन को छूती है ,नारी पर मै भी बहुत कुछ लिख चुकी हूँ और लिखती रहती हूं ,
    माँ के सीने की हर सांस तपस्या है
    आती जाती हल करती हर एक समस्या है ।आपकी कोशिशें तारीफे काबिल है ,आपको ढेरों बधाई हो ,आपकी वजह से यहां आने का अवसर मिला ,इसके लिए हृदय से आभारी हूँ साथ ही आपको धन्यवाद भी देती हूँ मैं ।

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  18. अच्छा प्रयास बधाई

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