वर्तमान में अहिंसा का अस्तित्व

       जैमिनी अकादमी द्वारा महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के अवसर पर परिचर्चा " वर्तमान में अहिंसा का अस्तित्व " का आयोजन रखा है ।
        अहिंसा के पुजारी महात्मा गांधी के जीवन का अन्त हत्या से हुआ है । यह अहिंसा की सच्चाई है जिससे कभी भुलाया नहीं जा सकता है । फिर भी हम वर्तमान में अहिंसा का अस्तित्व खोज रहें हैं । क्योंकि यही महात्मा गांधी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी । 
    उम्मीद पर दुनियां कायम है । उम्मीद से ही हर कार्य सफल होता है । जो अहिंसा की उम्मीद तोड़ देता है । वह एक ना एक दिन हत्यारा बन जाता है । यह जीवन की असफलता है ।
       अब कुछ विद्वानों के विचारों पर भी प्रकाश डालते हैं :- 
दिल्ली से सुदर्शन खन्ना लिखते है कि  बात-बात में जान ले ली जाती है ।  क्रोध और धैर्यहीनता सीमा के बाहर हो रहे हैं ।  कोई भी ज्ञान इन्हें नियंत्रित नहीं कर पा रहा ।  जहाँ राजनीति हिंसा के निशाने पर है, वहीं समाज भी हिंसा के निशाने पर है । समाज को सही दिशा दिखाने वाले भी हिंसा के शिकार हो रहे हैं ।  कन्याएँ और महिलाएँ शारीरिक हिंसा का शिकार हो रही हैं ।  शांतिप्रिय लोग भी इससे अछूते नहीं रह गये हैं ।  अपनी लालसाएँ पूरी करने के लिए उन्हें भी हिंसा का शिकार बनाया जा रहा है ।  अहिंसा वर्तमान में अपना अस्तित्व खोती जा रही है ।  जरूरत है विस्तृत स्तर पर जन-जागृति लाने की और गम्भीर विश्लेषण करने की .......।
 उज्जैन - मध्यप्रदेश से मीरा जैन ने स्पष्ट किया है कि  हिंसा शब्द  मे ही क्रूरता , द्वेष , बैर, क्रोध आदि समस्त दुर्गुणो का समावेश स्वयं मेव ही उपस्थित है और इन दुर्गुणों को अपनत्व का दुश्मन और मानवता विनाशक कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी और जिस समाज मे सदगुणों का अभाव व दुर्गुणो का प्रभाव हो उस समाज मे  दुरावस्था सहज ही पैर पसारने लगती है  इन सब के साथ जीवों की हिंसा तो पर्यावरण को भी दूषित तथा असंतुलित करती है और इन्हीं सब कारणों के मद्देनजर भारतीय संस्कृति भी हमेशा से अहिंसा की पक्षधर रही है इतना ही नहीं कोई भी धर्म हिंसा का हिमायती नहीं है.
                वर्तमान के इस दौर मे निहित स्वार्थों के चलते दिन ब दिन अनवरत जो हिंसा का फैलाव हो रहा है उस पर अंकुश बेहद जरुरी हैअहिंसा के साथ जिया जाने वाला जीवन प्राणी मात्र प्रेम दर्शाता है अहिंसात्मक आचरण को श्रेष्ठ समाज की संजीवनी कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.
पानीपत - हरियाणा  से डाँ. महेन्द्र शर्मा ' महेश ' लिखते है कि अहिंसा शब्द में बहुत महान व्यापकता समाई हुई है।अक्सर लोग अहिंसा शब्द का संकीर्ण  दृष्टि से अवलोकन करते हैं कि यदि किसी ने हमारे एक गाल पर थप्पड़ रसीद किया है तो क्या हम दूसरा गाल भी आगे कर दें, अहिंसा का यह अर्थ नहीं है।हम पराधीनता के राष्ट्रीय आंदोलन में अक्सर दो महान राष्ट्र वीरों के शब्दों को आज भी सुनते हैं। पण्डित श्री जवाहर लाल नेहरू जी ने बड़े साफ शब्दों में कहा है कि यदि शान्ति चाहते हो तो युद्ध के लिए तैयार रहो।इस वाक्य में अत्यन्त गम्भीर रहस्य की ओर शायद विचार नहीं किया जाता कि आप किसी भी तरह से दुर्बल या निर्बल न रहें अपितु सबल बनें।यदि सबल होंगे तभी तो कोई यह विचार करने पर मजबूर हो जाएगा कि यहां पंगा लेना भारी पड़ सकता है।श्री राम चरित मानस में भी श्री सुन्दर कांड पाठ की चौपाई नंबर 58 में यही कहा गया है " *भय बिनु होई न प्रीत*"...नेता जी पण्डित सुभाष चन्द्र बोस ने भी यही कहा कि सबल बनें *तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा।* यदि आप मानसिक और शारीरिक रूप  सक्षम होंगे तभी तो अपने अधिकारों की प्राप्ति कर सकेंगे।परम पूज्य गांधी जी का आज़ादी का आंदोलन पूर्ण रूपेण अहिंसात्मक रहा।उन्होंने अपने अहिंसा के नियमन से सारे देश को दीवाना बना रखा था।कुछ ऐसी बात तो अवश्य थी कि जहां भी गांधी जी जाते वहीं पर जन मानस ऐसे महा पुरुष के दर्शन करने उमड़ पड़ता।गांधी जी ने अनेक आंदोलन किए असहयोग आंदोलन, अंग्रेज़ो भारत छोड़ो, दांडी यात्रा ऐसे ऐसे असंख्य आंदोलन जो देश वासियों को प्रोत्साहित करते थे , हमें एकात्मकता के सूत्र में पिरोते थे।गांधी जी ने निश्चित तौर पर भारत को बिना खड़क बिना ढाल के आज़ाद करवाया।गांधी जी ने सदैव यही किया *सत्याग्रह*.
आप अपनी बात को प्रोजेक्ट तो सही तरह से करें ,देख लेंगे कि सामने वाला ज़ालिम कितना और कहां तक है। आंदोलनकारियों ने स्वेच्छा पूर्वक आज़ादी के आन्दोलन में लाठियां खाई, जेल गए।लेकिन किसी भी आज़ादी के आन्दोलन में भाग लेने वाले दीवाने ने यह शिकायत नहीं कि इस बाबे ने हमें पिटवा दिया। आज़ादी के आंदोलन के परिपेक्ष में यह आज तक कहीं भी पढ़ा, लिखा या सुना नहीं गया कि पूज्य गांधी जी ने कभी गरम दल के राष्ट्र वीरों के राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम में पूज्य श्री बाल गंगा धर तिलक, सुभाष चन्द्र बोस या सरदार भगत सिंह का कोई विरोध किया हो। उल्टे पण्डित सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द सेना की एक बटालियन का नाम नेहरू ब्रिगेड के नाम पर था। इन सब राष्ट्र वीरों ने आज़ादी के लिए हर ओर से दबाव बना कर रखा हुआ था।यदि मानसिक स्तर पर इनके हृदय में अहिंसा और परस्पर सद्भाव के भाव न होते तो अंग्रेज इनको एक दूसरे से लड़वा कर  मरवा देते लेकिन अंग्रेजों ने ऐसा नहीं किया क्यों कि यद्यपि बिजली के दो तारों में एक तार सुचालक होती है दूसरी कुचालक लेकिन दोनों तारों में मानो बिजली का करंट समान रूप से बह रहा था। आज के राजनैतिक परिदृश्य में कोई भी राजनैतिक दल ज़हर उगलता रहे, चाहे कोई और कितने लांछन क्यों न लगाए कि यदि ऐसा करते तो ऐसा होता।यह सब इनके मानसिक और व्यक्तिगत आंकलन है जो गांधी जी की छवि को लेशमात्र भी धूमिल नहीं कर सके।वहीं लोग जो देश में वोटों के ध्रुवीकरण के राजनीतिक लाभ लेने का प्रयास करते हैं ,जब यह विदेशों में जाते हैं तो उस देश में गांधी स्क्वायर को तलाशने और वहां जाने की अवश्य कोशिश  करते हैं कि कहीं उनका यह दौरा फ्लॉप न हो जाए।यही विरोध करने वाली राष्ट्रीय राजनैतिक पार्टी ने नोटों पर श्री गांधी जी की चित्र लगाया है अन्यथा गांधी जी के चित्र से पूर्व सभी नोटों पर अशोक चक्र ही हुआ करता था।और इसी दल के लोग नोटों पर कभी किसी का कभी किसी का चित्र लगा कर यह व्यकतव्य देते हैं कि गांधी जी का चित्र क्यों? और यह लोग यह भूल जाते है कि भाई! यह पता तो करो पूज्य श्री पण्डित अटल बिहारी वाजपेई जी  ने ऐसा क्यों किया था और गांधी जी पर एक कविता भी लिखी गांधी जी भारतीय राजनीति आप के बिना दूषित हो गई है।यह आज़ादी अधूरी है। इस का मूल कारण यह है कि हम शारीरिक रूप से भले ही हिंसक न लगते हों लेकिन मानसिक और अंतर्मन से पशुत्व की ओर बढ़ रहे हैं। यदि आज भी देश पराधीन होता है और गांधी जी न होते तो हम खंड खंड खंडित हो जाते और हमारा देश अफ्रीका और अमेरिकन कोंटिनेंट्स की तरह छोटे छोटे राज्यों में बिखरा हुआ होता।इस अहिंसा के आंदोलन के माध्यम से को श्री वल्लभ भाई पटेल ने देश की रियासतों को एकत्र कर भारत को अहिंसा का सपूत बनाया । आज आज़ाद भारत हिन्दी हिन्दू मुसलमान हो रहा है।एक शांतिप्रिय और अहिंसा के वातावरण को केवल सता के रस्वादन के लिए हिंसात्मक मार्ग की ओर धकेला जा रहा है।आज इसी राजनीति के एक हल्के परिदृश्य में अहिंसा के अर्थ बहुत मायने रखते हैं।
देहरादून - उत्तराखंड से डाँ.  भारती वर्मा लिखती है कि निसंदेह वर्तमान युग में अहिंसा और शक्ति संतुलन नितांत आवश्यक है। संपूर्ण विश्व आज आणविक हथियारों के एक ढेर पर बैठा है। थोड़ा भी सक्षम राष्ट्र आणविक शस्त्र सम्पन्न बनना चाहता है। जो आणविक शक्ति सम्पन्न है वे औरों को इससे वंचित रखना चाहते हैं। पूरी खींचतानी का वातावरण है। एक छोटी सी लापरवाही, क्रोध, अहंकार कोई भी कारण इस बारूद में आग लगा सकता है। विश्व में अनेक हिरोशिमा और नागासाकी बन सकते हैं। अहिंसा का भाव ही विश्व को इस संकट से बचा सकता है।
          दूसरे दृष्टिकोण से सोचें तो विश्व का शायद ही कोई देश ऐसा हो जिसमें विभिन्नता (डाईवर्सिटी) ना हो। मानव समाज अनेक नस्लों, धर्म, जाति में बँटा होता है। अहिंसा, सहिष्णुता तथा जियो और जीने दो का सिद्धांत ही विभिन्न प्रकार के मानवों को एक साथ शांति से रहने के लिए प्रेरित करता है। हिंसा अनेक संघर्ष, युद्धों  तथा टकरावों को जन्म देती है। ऐसे में अहिंसा ही इस संसार को आणविक विस्फोट और मानवीय घृणा से उत्पन्न संघर्षों से बचा सकती है।
सोलन - हिमाचल प्रदेश से  आचार्य मदन हिमाँचली लिखते है कि महात्मा गांधी ने अहिंसा का आँदोलन फिरँगियोँ के खिलाफ किया था और काफी हद तक इसमें सफलता भी प्राप्त हुई लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अन्य लोगों का योगदान नहीं है। अनेक लोगों ने अपना बलिदान दिया। नेता सुभाष चन्द्र बोस ने 60हजार लोगों की सेना तैयार की थी जिसमें 26 हजार लोगों ने बलिदान दिया था। इसके ईलावा वीर भगत सिंह -चन्द्र शेखर-इत्यादि शहीदों के बलिदान को भूलाया नही जा सकता। आज उसी आजदी कोआज सुरक्षित रखने के लिए प्रयास होने चाहिए जिस बेहूदे ढंग से गत क ई वर्षों से अचानक आन्दोलन करके अपने देश की सँपदा को नष्ट किया जाता है और उसकी भरपाई लोकतांत्रिक सरकारों को क ई वर्ष़ो मे करनी पडती है ऐसे में गांधी जी का अहिँसा आन्दोलन की प्रासंगिकता ओर भी बढ जाती है। अतः आज के दिन देश वासियों को यह शपथ लेनी चाहिए कि हमें निजी और निहित स्वार्थ को दर किनार करके देश हित मे चिँतन करना चाहिए।यदि हमें किन्हीं कारणों से आन्दोलन भी करना पडे तो बिना किसी सम्पत्ति को को नुकसान पहुँचाए बिना होना चाहिए जैसा कि गाँधी जी ने आजादी प्राप्त करने के लिए किया था। 
रायगढ़ - छत्तीसगढ़ से डाँ. माधुरी त्रिपाठी लिखती है कि  अंहिसा  के पुजारी महात्मा गाँधी की सोच दूसरों को कष्ट  न देना किसी का प्राण न लेना है जिस प्रकार सत्य दया परोपकार इत्यादि से ह्रदय परम  उज्जवल होता हैं उसी प्रकार अहिंसा से आत्मा का विकास होता है मनुष्य के मन मे दूसरो को  दुख न पहुचाने का भाव उदय होता है वह दिन दूर नही आज के मनुष्य को अहिंसा के मह्त्व को स्वीकार करना ही पड़ेगा विश्व के सभी धर्मों ने एक स्वर से अंहिसा के महत्व को स्वीकार किया है  अहिंसा से आत्मा के उत्थान में सहयता मिलती है जब आत्मा  अहिंसा के महत्व को समझेगा तो उसके ह्रदय में  करुणा एवं दया की भावना जागेगी अहिंसावादी विचारो से मनुष्य जीवन में अमृतमय वाणी परोपकार वात्सलय  के भाव जागृत होंगे  अहिंसा की शक्ति महान शक्ति होती है इसका अस्तित्व भी अथाह सागर है आज के मानव जीवन में अंहिसा को त्यागकर को ऐसा साधन नहीं जो आज के जगत का दुख दूर कर सकें मानव जीवन में  द्वेष नाम का जो भयानक रोग फेला हुआ है उसका एक मात्र औषधि अहिंसा ही है
शिवपुरी - मध्यप्रदेश से शेख़ शहज़ाद उस्मानी लिखते है कि*संज्ञा* के सभी रूपों जातिवाचक/व्यक्तिवाचक/ समूहबोधक/पदार्थवाचक/भाववाचक यानि मूर्त-अमूर्त/सजीव-निर्जीव सभी के विभिन्न रूपों व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक, राजनीतिक, पर्यावर्णीय, व्यापारिक, औद्योगिक आदि सभी के क्षेत्र में  *हिंसा* का बोलबाला है; *अहिंसा* अस्तित्व में है, लेकिन अहिंसा के पक्षधरों के साथ अभूतपूर्व संघर्षशील! गांधीवाद और गांधी-दर्शन पुस्तकों, शोधों, आयोजनों, आश्रमों और असली समाजसेवियों तक सीमित है। आज की पीढ़ी इनसे संबंधित पाठ्यक्रमों के प्रश्नोत्तर, असाइनमेंट, प्रोजेक्ट तैयार कर अंकसूचियां और प्रमाण-पत्र हासिल कर रोज़गार और धन-दौलत के साथ नये फैशन के दलदल में फंस जाती है, हिंसा के उपरोक्त इस्तेमाल से दो-चार होकर गांधी, गांधीवाद,गांधी-दर्शन को न सिर्फ़ भूल जाती है, बल्कि गांधीगीरी पर हास्य के मज़े लेकर अपने भारतीय होने पर सवाल उठवाती है। 
अहिंसा का अस्तित्व है, रहेगा; बुद्धिजीवियों, माता-पिताओं व शिक्षकों के साथ धर्म-गुरुओं के  सतत् दायित्व निर्वहन पर ही सवाल उठते है।
भिंड - मध्यप्रदेश से  मनोरमा जैन पाखी लिखती है कि किसी को चुभने वाले वाक्य कहना ,मर्मांतक शब्द बोलना ,आत्मघात को प्रेरित करना ये भी हिंसा ही है।
अहिंसा अति सूक्ष्म से स्थूल तक की प्रक्रिया है।
वर्तमान दौर में जब उपरोक्त हर प्रकार की हिंसा समाज  ,देश के हर तबके में विद्यमान है ऐसे में अहिंसा का महत्व बढ़ जाता है। धन ,पद,लोभ ,लालच ,तृष्णा ,स्वैच्छाचारिता ,अनैतिकता के चलते अहिंसा को अपनाना बहुत जरुरी है ।भाषागत अश्लीलता को छोड़ना होगा ।टिट फोर टैट को छोड ,यथा स्थिति को समझ तथ्य की गहराई तक पहुँच नर्मी से समाधान खोजना ही अहिंसा है। आज का दौर वह है जब ईंट का जबाब पत्थर से दिया जाता है ।पर हिंसा से समाधान नहीं निकलते। जहाँ जरुरत है वहाँ हिंसा की जा सकती है लेकिन वहाँ भी विवेक से ।
वर्तमान में अहिंसा के रुप ही तो हैं कैंडिल मार्च ,मौन रैली ,धरना आदि ।रुप बदल गया है पर अहिंसा जिंदा है।गाँधी जी की अहिंसा कोई एक गाल पर मारे तो दूसरा कर दो आज के माहौल में ठीक नहीं ।पर परवर्तित रुप में अहिंसा जिंदा थी ,है और रहेगी।
मुम्बई से अलका पाण्डेय लिखती है कि अहिंसा से हिंसा को पराजित करने की सारी दुनिया को सीख देने वाले गांधीजी स्वयं गीता से प्रेरणा लेते थे। हालांकि वे गीता को एक अध्यात्मिक ग्रन्थ स्वीकार करते थे। परन्तु श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए संदेश में कर्म के सिद्घान्त का जो उल्लेख किया गया है, उससे वे अत्यधिक प्रभावित थे। गांधीजी जिस ढंग से गीता के इस अति प्रचलित वाक्यङक्त -'कर्म किए जा, फल की चिंता मत कर' की व्याख्या करते थे, वास्तव में आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसी व्याख्या की प्रासंगिकता महसूस की जा रही है। 
रायगढ़ - छत्तीसगढ़ से राम कुमार पटेल ने अपने विचार कविता के पेश किये हैं :- 
🌹अहिंसा का अस्तित्व 🌹
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बीते समय की बात निराली
कैसा था हमारा अस्तित्व ।
कहाँ चल दिये आज हम सब
छोड़कर अपना अस्तित्व ।।

अस्तित्व की पहचान कभी
होती नहीं हिंसा से 
जन जन को हम समझें
जीत सकें हम अहिंसा से ।।

सत्य की पराकाष्ठा संग
रहता सदा हमारा धर्म ।
इसी से तो कहा जाता है
यह, अहिंसा परमोधर्म ।।

वर्तमान जीवन जीना है तो
सुधारें हम अपना व्यक्तित्व ।
हर व्यक्ति की महानता से
बना रहेगा हमारा अस्तित्व ।।
मुम्बई - महाराष्ट्र से आभा दवे लिखती है कि अहिंसा शब्द का अर्थ बहुत ही व्यापक है । अहिंसा मन, वचन और कर्म से होती है । जो आज के समय में लुप्त होती जा रही है । बहुत ही कम लोग हैं जो पूर्णतः अहिंसा अपना रहें हैं नहीं तो अधिकतर तो अहिंसा का अर्थ ही भूल बैठे हैं । सिर्फ जीव की हत्या न करना ही अहिंसा नहीं है बल्कि क्रोध में आकर किसी का दिल दुखा देना भी अहिंसा के अंतर्गत ही आता है ऐसा मेरा मानना है ।हम अपने विचारों , वाणी द्वारा भी हिंसक हो रहें हैं । आज लोगों में धैर्य की कमी दिखाई देती है और लोग हिसंक रुप धारण कर लेते हैं । टीवी, मोबाइल , फेसबुक भी इस से अछूते नहीं रहे हैं 
 गंगापुर सिटी - राजस्थान से विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र' जी लिखते है :-
ओ गाँधी बाबा...

गाथा मेरे देश की, गाँधी बिगड़ी आज

मन बिगड़े हैं लोगों के, बिगड़े हैं अंदाज़ 

बिगड़े हैं अंदाज़, शान्ति की बातें नहीं सुहाती

नित अहिंसा गोली खाती, हिंसा उत्पात मचाती

स्वार्थ बना देश से ऊपर, घृणा बना घर बैठी

बुद्धि में शुद्धि ना रही, झूँठ रही अब ऐंठी

सच में ना रही क्षमता, झूँठ के सामने आये

पानी को पानी करें, और दूध को दूध दर्शाये

अगर सुनो ओ गाँधी बाबा आओ फिर एक बार

भूले हैं सब आदर्श तुम्हारे, आकर करो विचार 

                        - विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'

                           गंगापुर सिटी (राज.)

डाँ. रूपचन्द्र शास्त्री लिखते है कि अहिंसा के अस्तित्व पर कुछ दोहे-


अपना भारतवर्ष है, गाँधी जी का देश।
सत्य-अहिंसा के यहाँ, मिलते हैं सन्देश।। 

चाहे काल भविष्य हो, वर्तमान या भूत।
सत्य-अहिंसा का किला, रहे सदा मजबूत।।

चाहे कोई खण्ड हो, या कोई हो काल।
जहाँ अहिंसा हो वहाँ, रहते अच्छे हाल।।

पूरब-पश्चिम, मध्य हो, या उत्तर-कशमीर।
सत्य-अहिंसा का सदा, बहता रहे समीर।।

सत्य-अहिंसा, प्रेम का, रहता जहाँ घनत्व।
कलम और तलवार का, होता अलग महत्व।।

देता सबको सीख है, गान्धी का निर्वाण। 
हिंसा का परिवेश तो, ले लेता है प्राण।।

सत्य-अहिंसा से बना, भारत का गणतन्त्र।
पग-पग पर सद-भाव के, यहाँ गूँजते मन्त्र।

नवादा - बिहार से डाँ. राशि सिन्हा लिखती है कि 'बुद्ध', 'महावीर' से निर्गत अहिंसा के उपदेशों को व्यावहारिक रुप प्रदान कर राष्ट्रपिता ने संपूर्ण मानव ह्रदय आत्मिक चेतना की जो लौ जलाई थी वह आज के इस दौर में अतिप्रासंगिक होते हुए भी अपना मूल्य खोता चला जा रहा हैं.सत्य है, आज की नई पीढ़ी नफरत,द्वेष  की लपटों में जलकर नैतिक मूल्यों से दूर होता चला जा रहा है.परिणामत:वैयक्तिक व वैश्विक स्तर पर उदात्त चरित्र ,संवेदनशील ह्रदय व नि:स्वार्थ मन के अभाव में वर्तमान युग का मानव स्वतंत्र होने के बाद भी स्व-निहित व्यभिचारी प्रक्रति का गुलाम होता जा रहा है.वर्तमान युग का दुर्भाग्य ही है कि अहिंसा के शाश्वत रुप की व्यावहारिक आवश्यक्ता को समझने के बाद भी 'अहिंसा  के अस्तित्व को इन्कार' कर रखा है. अस्तित्वविहीन होते अहिंसा का ही प्रतिफल है कि वर्तमान युग की युवापीढ़ी में भटकाव की प्रव्रत्ति जनित हो गई है, जिससे धर,परिवार,समाज, राष्ट्र व संपूर्ण विश्व अपनी राह से  विचलित हो दिशाहीन हो गया है.
     आज के इस दौर में ,आवश्यकता है कि संपूर्ण मानव जगत पुन: अहिंसा के अस्तित्व को स्वीकारे,उसकी व्यावहारिकता को समझे , एक बार फिर पूरे मन से साधन और साध्य के मध्य की बुनियादी कड़ी को जोड़कर 'शुद्ध', 'पुनीत' हो मानवीय मूल्यों में छिपी नैतिकता को अपनाये ताकि 'वसुधैव कुट्ंबकम्' को मूर्त रुप मिल सके और संपूर्ण मानव सच में मानव कहलाने योग्य हो सके.किंत, इस हेतु की पूर्ति के लिए अहिंसा रुपी एकादशी व्रत के शाश्वत रुप को समझना और पूर्ण अस्तित्व प्रदान कर आज भी उसका अनुकरण करना होगा.
नीमच - मध्यप्रदेश से ओमप्रकाश क्षत्रिय ' प्रकाश ' लिखतें हैं कि हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं हैं । यह सोचे बिना रमेश मोहन को धौंसधमकी दी, " तू अपने को समझता क्या हैं ?  मुझे जानता नहीं हैं । मुझ से उलझन मत ।अन्यथा गोली से उड़ा दूंगा ।" यह धमकी उस ने खुले आम 15-20 लोगों के सामने दी।
लोगों ने कहा, " 100 नम्बर बुला कर पुलिस में बुक करवा दो । यह पहले भी अवैध हथियार व नकली नोट में पकड़ा चुका हैं ।"
मोहन ने कहा, " मेरी उस से कोई दुश्मनी नहीं हैं । मैं उस की नौकरी और बच्चों के जीवन पर लात नहीं मारना चाहता हूं ।" यह कह कर मोहन ने कोई कारवाई नहीं कीं ।
इस से रमेश के भाव बढ़ गए। उस ने मोहन को फोन पर धमकी दे दी। मजबूर मोहन ने विभाग को लिख दिया कि मोहन जी विभाग के कार्य में बाधा पहुंचा रहे हैं तथा आदेश निकालने पर मुझे जान से मारने की धमकी दे रहे हैं । इन्हों पूर्व में इस तरह का गैरकानुनी कार्य किया था ।इसलिए विभागीयतौर पर मुझे कानुनी सुरक्षा प्रदान की जाए ।
यह लिखते ही रमेश को खलबली मच गई ।वह विभागीयतौर पर अपनी शिकायत का हल करने को दौड़भाग करने लगा और हिंसा करना भूल गया ।
*इस तरह आज के युग में भी अहिंसा का बोलबाला बना हुआ हैं ।इस का उपयोग कर के हम सुखचेन की जिन्दगी जी सकते हैं ।
जबलपुर - मध्यप्रदेश से अनन्तराम चौबे लिखते है कि अहिंसा से  धरना प्रर्दशन आन्दोलन हो सकते है युद्ध ,लड़ाई की हार जीत अहिंसा से नहीं जीती जा सकतीं है ।देश को आजादी  अहिंसा से नही मिली है महारानी लक्ष्मीवाई ने अग्रेजों से लड़ाई लड़ी थी युद्ध किये थे आजादी का शंखनाद किया था अग्रेजो के छक्के छुड़ाये थे कितने वीरो ने जान गवाई थी मगर अग्रेजों को भय पैदा कर दिया था अपनी जान देकर भी कभी झुकीं नही ।सुभाषचंद्र बोस चन्द्रशेखर आजाद ,भगतसिंह, सुखदेव,राजगुरू इत्यादि वीरों ने अपनी जान गवाई थी तभी देश को आजादी मिली है अहिंसा के बल पर नही मिली हाँ श्रेय जरूर अहिंसा वादियों को मिल गया । आज भी पड़ोसी देशों को अहिंसा का पाठ पढाओ आतंकवादियों को अहिंसा की राह दिखाओवही हाल होगा भैस के आगे वीन बजाने जैसा ताकत से ही सफलताये मिलती है जीत होती है अहिंसा से नही ।
       पहले के समय में तीर तलवार बल्लम भाला से युद्ध ,लड़ाई लड़ते थे अब वैज्ञानिक युग है तोपों ,अणु बम परमाणु बम मिशायलों से लड़ाई होती है  आतंकवादियों से सारा विश्व परेशान है उनके सामने अहिंसा की बात करना ही बेमानी लगती है  । एक तरफ शांत वार्ता की बात करते है दूसरी तरफ तोपें मिशायले चली है । वर्तमान में अहिंसा बस कहने को रह गई है ।
दिल्ली से सलिल सरोज लिखते है कि मानव प्राकृतिक रूप से अहिंसा का ही द्योतक है वर्ना इस सृष्टि के विनाश न होने की अब तक कोई दूसरी वजह नज़र नहीं आती। आज जब संसार विज्ञान और तकनीक की पीठ पर सवार होकर प्रकृति की हर ताकत को चुनौती दे रहा है एवं हर संपदा को अपना गुलाम बनाने को आतुर है तब हमें सुनामी,भीष्ण गर्मी,असहनीय ठण्ड और बेरहम तूफानों का सामना करना पड़ रहा है। भारतीय संस्कृति के मूल वाक्य में कहा गया है -अहिंसा परमो धर्म: और महात्मा गाँधी ने इसकी शक्ति का प्रदर्शन करते हुए अंग्रेजों के भीमकाय चंगुल से देश को आज़ाद कराया और नव नूतन भारत को अहिंसा के मार्ग पर प्रशस्त किया। दुनिया के तमाम बड़े नेता मार्टिन लूथर किंग, दलाई लामा, नेल्सन मंडेला ने इस ताकत को अपना हथियार बनाया और हिंसा के रास्ते को अवरूद्ध किया। आज जब पूरी दुनिया शक्ति प्रदर्शन के होड़ में नाभिकीय हथियार से युद्ध करने को तैयार है,तब सबसे बड़ी क्षति का परिणाम मानव जाति को ही भुगतना पडेगा। हिंसा ने महाभारत से लेकर हिरोशिमा और नागासाकी तक को अंजाम दिया है। अतः वर्तमान में अहिंसा की सार्थकता और उपयोगिता इस बात पर निर्भर है कि मानव अपनी अगली पीढ़ी को क्या देना चाहता है-शांत और सुंदर भविष्य या झुलसा हुआ कल।
गाडरवारा - मध्यप्रदेश से  नरेन्द्र श्रीवास्तव लिखते है कि समय की गति सदैव समान होती है परंतु स्थिति अलग-अलग हो सकती हैं।यह मैं इसलिये कह रहा हूं कि कहते हैं "समय तेजी से बदल रहा है " जबकि बदल ,  स्थतियां, मनःस्थतियां और परिस्थितियां रहीं हैं।ऐसा होना कोई आश्चर्य नहीं है,अस्वाभाविक भी नहीं है।हाँ,चिंतनीय कह सकते हैं क्योंकि वर्तमान में हमारा जीवन सरल,सहज और सरसता लिये नजर नहीं आता।सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक और सूर्यास्त से सूर्योदय तक हमारा हर समय संघर्ष के साथ बीतता नजर आ रहा है।दैनिक जीवन के पलों में हम जिस परिचित या अपरिचित के बीच होते हैं,उसके और हमारे संघर्ष अलग-अलग भले ही हों पर साथ-साथ चलते नजर आते हैं।जिसकी वज़ह से हमारे परस्पर संबंध महज औपचारिक -रह गये हैं।कहते हैं न,जब स्थिति अच्छी न हों तो हमारा दिल और दिमाग स्थिर नहीं होता।व्यथित और बोझिल मन से न तो हम किसी को उसे वांछित सहयोग दे पाते हैं और न ही उससे ले पाते हैं।जबकि ऐसी स्थिति में हमें इसकी अत्यंत आवश्यकता होती है।जो हम पाना चाहते हैं ,वह मिल नहीं रहा है... और यही सबसे बड़ी मनोवैज्ञानिक घटना हमारे बीच घट रही है जिसका अदृश्य विषैलापन हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक सरोकारों को छलनी कर रहा है।हमारे सद्गुणों,हमारी सांस्कृतिकता पर प्रहार कर हमारे संबंधो हमारी मानसिकता और मानवीयता को कमजोर कर रहा है।
मुम्बई - महाराष्ट्र से डाँ. अर्चना दुबे लिखती है कि अहिंसा का सामान्य अर्थ है *'हिंसा न करना'* अर्थात किसी भी प्राणी का 'हिंसा' न करना ही 'अहिंसा' है ।
     अहिंसा से हिंसा को पराजित करने की सारी दुनिया को सीख देने वाले गांधी जी स्वयं गीता से प्रेरणा लेते थे *"कर्म किये जा फल की चिंता मत कर"* की व्याख्या करते थे, वास्तव में आज जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में इसी व्याख्या की प्रासंगिकता महसूस की जा रही है ।
       आज राजनीति में सक्रिय लोग अधिकांशत: सत्ता को हासिल करने के लक्ष्य को केंद्र में रखकर अपनी राजनैतिक विसात बिछाते है । अशिक्षा व बेरोजगारी दूर करने के नाम पर स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने, सड़क बिजली व पानी जैसी मनुष्य की बुनियादी जरूरतो को पूरा करने के नाम पर मतदाताओं के बीच जाकर उनसे समर्थन की दरकार करें तथा अपने किये गए कार्यों के नाम पर जनसमर्थन जुटाने की कोशिश करें । ठीक इसके विपरीत अब बिना कर्म किये ही फल प्राप्त करने अर्थात राजसत्ता को दबोचने का प्रयास किया जाने लगा है ।
    इसी कारण आज पूरे भारत में साम्प्रदायिकता फल -फूल रही है । आज दुनिया के किसी भी देश में अत्याचार व हिंसा का विरोध किया जाना हो, या हिंसा का जवाब अहिंसा से दिया जाना हो ऐसे सभी अवसरों पर पूरी दुनिया को गांधी जी की याद आज भी आती है और हमेशा आती रहेगी ।
लखनऊ - उत्तर प्रदेश से डाँ. मिथिलेश दीक्षित लिखती है कि महात्मा गान्धी जी ने 'अहिंसा' को जीवन के प्रत्येक पक्ष से जोड़ने का प्रयास किया था।मन,वचन,कर्म-तीनो के द्वारा 
अहिंसा का पालन करना ही उनके  अनुसार पूर्ण अहिंसा व्रत माना गया ।किसी भी प्राणी को मानसिक रूप में भी 
पीड़ा नहीं पहुँचाना अहिंसा का भावात्मक पक्ष है । प्रयोगात्मक पक्ष में अहिंसा में अनाचार, अनीति आदि के प्रति असहयोग निहित है। गान्धीजी के अनुसार अहिंसा के मार्ग का अनुगमन कर ही सत्य का साक्षात्कार हो सकता  है। अहिंसा सत्य का प्रकाशक है । अहिंसा की ढाल निर्भयता है  और प्रेम उसका कवच है। अत्याचार या अनीति 
को रोकने के लिए  असहयोग आवश्यक है ,परन्तु सत्याग्रही 
दोष से असहयोग करता है,दोषी से नहीं । वे मानते थे कि 
शरीर मात्र साधन है ,साध्य है मानवता ।एक  साधारण शरीर 
में इसीलिए अपरिमित शक्ति  बसी हुई थी। विभिन्न प्रकार की विसंगतियों के इस युग में ,अतिभौतिकता वादी परिवेश में उनका चिन्तन प्रेम,सेवा,सहयोग,एकता और शान्ति के लिए  प्रेरणा का स्रोत बन सकता है ।
   आज सर्वत्र स्वार्थपरता,द्वेष,अत्याचार,लूट ,बेईमानी, गुट बाज़ी,भेदभाव,वैमनस्य का वातावरण है।आन्तरिक और 
बाह्य वातावरण अनेक प्रकार के  प्रदूषण से ग्रस्त है ।ये सभी  विसंगतियाँ हिंसक मनोवृत्ति के कारण फैलती जा रही हैं ।
   हमारी प्राचीन संस्कृति में अहिंसा पर सर्वाधिक बल दिया जाता था ,क्योंकि जितने भी मानवीय  नैतिक मूल्य हैं,वे 
सभी अहिंसा बोध से जुड़े हुए हैं ।वर्तमान राष्ट्रीय परिवेश में 
अहिंसा का मार्ग ही सर्वाधिक श्रेयस्कर है ।  
                 
पानीपत - हरियाणा से राममोहन राय जी ने अपने परिवारिक अनुभव को लिखा है। उसी के कुछ अंश यहां पेश करना उचित समझता हूँ :- 
महात्मा गांधी जी 10 नवम्बर ,1947 को पानीपत आए । किला ग्राउंड पर स्टेज लगी जिसमे बापू के साथ  मौलाना आज़ाद ,गोपी चन्द भार्गव व दूसरे नेता आए । पानीपत में गांधी जी के इस जलसे में हजारो लोगो की भीड़ थी और वहाँ 'महात्मा गांधी की जय' के नारे बुलंदी पर थे पर यह क्या गांधी जी ज्यो ही बोलने शुरू हुए वहाँ मौजूद कुछ उपद्रवी भीड़ जो अधिकांश स्थानीय व शरणार्थी संघ कार्यकर्ता थे , ने शोर मचा कर उनकी तकरीर में व्यवधान करना शुरू कर दिया और यहाँ तक की उन्मादी लोग बापू को स्टेज पर मारने के लिये भी चढ़ गए । इसी बीच एक नवयुवक बीच बचाव करता हुआ आया और वह गांधी जी को दबोच कर स्टेज के साथ ही लगती लायब्ररी के कमरे में ले गया।,उसने बाहर से चिटकनी लगा दी और फिर उस नौजवान ने तकरीबन आधे घंटे तक जलसे में उपस्थित भीड़ को सम्बोधित किया । पिता ( मास्टर सीता राम जी ) जी ने बताया कि उनकी तकरीर ने आग पर पानी डालने का काम किया ,माहौल बिलकुल शांत होने पर गांधी जी व दूसरे नेतागण बाहर आये फिर  गांधी जी ने लोगो को सम्बोधित किया तथा लोगो से अपील कि वे मुसलमानो को पाकिस्तान न जाने दे ,वे अच्छे कारीगर है ,बुद्धिजीवी है । बापू के विचारो को लोगो ने बहुत ही शांति से सुना था उन अमल करने का उन्हें आश्वाशन भी दिया । पिता जी ने बताया जलसे के बाद सब में उस नौजवान के बारे में जानने की आतुरता बनी रही जिसकी वजह से गांधी जी की जान बची व जलसा कामयाब हुआ ।पिता जी ने बताया कि बाद में पता चला कि वह नौजवान पंजाब प्रोविंस कांग्रेस के सेक्रेटरी 'टीका राम सुखन' थे । फिर तो सुखन साहब ने करनाल -पानीपत में अपना मुकाम बना कर साम्प्रदायिक सदभाव व विस्थापितों के बसाने का काम किया । पिता जी बताते थे कि  टीका राम सुखन,श0 भगत सिंह के साथी थे .............. उनकी पत्नी श्रीमती शकुंतला सुखन भी एक क्रांतिकारी स्वतन्त्रता सेनानी थी व मेरी माता श्रीमती सीता रानी के साथ उनकी गहरी दोस्ती थी ........... मेरे पिता अक्सर कहते यदि का0  टीका राम सुखन न होते तो गांधी जी 30 जनवरी को दिल्ली में नही ,10  नवम्बर को पानीपत में ही  कत्ल हो जाते पर पानीपत को इस पाप से का0 टीका राम सुखन ने ही बचाया । 

             परिचर्चा के अन्त में कहना चाहता हूँ कि अहिंसा से ही दुनिया में शान्ति कायम हो सकती है । फिर भी अहिंसा पर चलने वालों की सख्या बहुत कम है ।
                                      - बीजेन्द्र जैमिनी
                                         (आलेख व सम्पादन )

Comments

  1. सार्थक बेहतरीन परिचर्चा आयोजन व यूं प्रकाशन हेतु व मेरे विचार शामिल करने हेतु हार्दिक धन्यवाद और बधाई।

    शेख़ शहज़ाद उस्मानी
    शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

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  2. उत्तम परिचर्चा👏👏👏👏👏

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  3. उत्तम परिचर्चा👏👏👏👏👏

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    1. सार्थक प्रस्तुति।
      मुझे शामिल करने के लिए आभार।

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  4. ​आदरणीय बिजेंदर जैमिनी जी सादर प्रणाम। इस परिचर्चा में आमंत्रित करने के लिए हार्दिक धन्यवाद करता हूं आप से जुड़ कर गौरवान्वित महसूस कर रहा हूं।

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  5. सस्ता साहित्य मंडल द्वारा प्रकाशित महात्मा गांधी के संस्मरणों की पुस्तक माला से पेश है :-
    मैं पक्का मुसलमान भी हूं ,
    पक्का ईसाई भी , पक्का जैन भी और पक्का बौद्ध भी !
    मैं ऐसा पक्का मुसलमान हूं , जो मानता है कि मुहम्मदसाहब आखिरी पैगंबर नहीं हैं और कुरान आखिरी किताब नहीं है !
    मैं ऐसा पक्का ईसाई हूं , जो मानता है कि ईसा प्रभु का इकलौता बेटा नहीं है , जो चर्च को गैरजरूरी मानता है ।
    जो मानता है कि चर्च द्वारा कराया जाने वाला धर्मान्तरण महापाप है ।
    जो मानता है कि ईसाइयों ने दुनियां में जो युद्ध किये हैं , वह शैतानियत है ।

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    Replies
    1. आदरणीय जैमिनी साहिब, इस जानकारी के लिए हार्दिक धन्यवाद।

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  6. हाइकु में मेरी बात :

    **

    स्वार्थ बाधित
    अहिंसा का अस्तित्व
    पशुतावाद

    **


    हिंसा सिखाती
    है स्वार्थलोलुपता-
    वेदनाहीन

    **

    हिंसा की धाक
    गांधीगीरी मज़ाक
    व्यापारिकता

    **

    सह-अस्तित्व
    हिंसा-आधुनिकता
    धन-प्रभुत्व

    **
    लुप्त अस्तित्व
    अहिंसात्मक तत्व
    स्वार्थी मंतव्य

    **

    बहुरूपिया
    जीव-निर्जीव-हिंसा
    क्षुब्ध अहिंसा

    **
    हिंसा के वार
    येन-केन-प्रकार
    स्वार्थ-उद्धार

    **
    सदा सार्थक
    गांधीवादी विचार
    विश्व-उद्धार

    (मौलिक/स्वरचित)
    शेख़ शहज़ाद उस्मानी
    शिवपुरी (मध्यप्रदेश)
    (29-01-2019)

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