मां ( लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी

     सम्पादकीय                                                  
                  मां के बिना जन्म सम्भव नहीं है । प्रथम गुरु भी मां है । मां जीवन का सत्य है । जिसकी मां नहीं होती है यानि बचपन में बिछडे जाती है कारण कुछ भी हो सकता है । उसका जीवन संधर्ष से भर होता है । 
        ऐसे ही जीवन के संधर्ष की लघुकथाओं को पेश किया जा रहा है । अनुभव व संधर्ष सभी के अपने अपने है । इसलिए लघुकथा की विषय वस्तु अलग - अलग होना निश्चित है । भाषा शैली भी अलग अलग होगी । यही स्थिति ही लघुकथा की पहचान होती है । जो लेखक की मौलिक पहचान होती है ।     
====================================       क्रमांक -01                                                              

                                       वो माँ है
                                                 - डा. बीना राघव
                                                गुरुग्राम - हरियाणा

शेफाली जंगल की सफारी से लौट तो आई मगर वहाँ की एक घटना उस पर अमिट छाप छोड़ गई....।सन्नाटे भी दिमाग में बतिया रहे थे कि बिटिया की बात भी उसे सुनाई नहीं दे रही थी। बेटी सोनल मासूम आवाज़ में  पूछ रही थी-" मम्मी, क्या पापा अब यहाँ नहीं रहेंगे? पुलिस उन्हें यहाँ से जाने को कह रही है। " मगर वह मंजर मानो अभी भी उसकी आँखों के सामने चलचित्र सा घूम रहा था...
भयावह जंगल....शेर की गर्जना से और भी भयावना लग रहा था। लोग दूर- दूर से प्राकृतिक परिवेश में पलते जीवों को देखने वहाँ आते, भले ही सफारी के आनंद को दूरबीन का सहारा होता क्योंकि लक्ष्य यदि बाघ-बाघिन देखना हुआ तो वे तो दूर- दूर तक दिखने से रहे; अल्पसंख्यक ज़ो हो गए हैं। अचानक उनकी गाड़ी रुकी..पेड़ों के झुरमुटों में हलचल दिखी। एक शेरनी शावकों को दूध पिला रही थी। हालांकि शावक कुछ बड़े हो चले थे परंतु मातृसुलभ सुख का मोह नहीं त्याग पा रहे थे। माँ के सानिध्य में परम सुख का आनंद जो मिलता है। न कोई असुरक्षा की भावना और न भोजन के जुगाड़ की जद्दोज़हद....। सब मातृ कृपास्वरूप सहज ही उपलब्ध.... मगर उसने देखा तभी शावकों का पिता शेर वहाँ आया और क्षुधा शांत कर चहल-कदमी करते एक नर शावक संग क्रीड़ा करने लगा। वह उसे जिह्वा से, मुख से परे धकेलता और फिर पंजे से अपने समीप ले आता। बहुत देर तक उठा-पटक चलती रही। दूसरा शावक तभी वहाँ आया, वह उसको भी खेल -खेल में सताने लगा...हिंसक पशु क्या जाने कि उसी का रक्त वह स्वयं बहाने चला है। पेड़ों, झाड़ियों और झुरमुटों से होते हुए खेलते-खेलते वे पोखर किनारे कब पहुँचे, उन्हें पता ही नहीं चला। शेरनी गुर्रा उठी। वह तेजी से उस ओर ही भागी मगर तब तक एक शावक पिता के आकस्मिक आतंक से बचते-बचाते छिटककर पोखर में गिर ही पड़ा।दूसरा खेल-खेल में ही खूनी पंजों और जबड़ों का शिकार हो गया। शेरनी से सहन नहीं हुआ।उसने तत्काल पूरा जोर लगाकर  शेर पर हमला कर दिया। उसे बुरी तरह घायल कर दूसरे जंगल तक खदेड़ आई। अब उसके घरौंदे में उस शेर की कोई जगह नहीं थी....। 
जंगल के मंजर ने मानो उसकी आँखें खोल दीं। वह और उसके दोनों मासूम बच्चे इस खूनी खेल के आगे स्वयं बिलखते नजर आए। बस शेर की जगह आधा इंसान,  आधा जानवर था जिसे शराब पूरा जानवर बना देती थी।
क्या वह इस पशु से भी निरीह है...इतनी कमजोर वो माँ है.....??
तभी दीपू बेटे ने सोनल को गोद में उठाते हुए कहा, "हाँ सोनू, अब हमें कोई नहीं मारेगा। "
उसके मुँह से निकला,  "हाँ बच्चो, हिंसक 'शेर' खदेड़ा जा चुका है।"   ***
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 क्रमांक - 02

                                  सॉरी माँ
                                                 -राम मूरत 'राही'
                                                  इंदौर - मध्यप्रदेश


"बेटा ! अपने साथ छत्री या रेनकोट लेते जाओ, क्या भरोसा कब बारिश शुरु हो जाए ।" माँ ने बेटे से कहा।

"नहीं माँ ! मौसम साफ है। इनकी जरुरत नहीं है।"

"बेटा ! तुम्हारा बस स्टाॅप यहाँ से एक किलोमीटर की दूरी पर है।अभी तो ठीक है, जब तुम वापस शाम को ऑफिस से लौटोगे, तब हो सकता है कि बारिश आजाए। मेरा कहा मानो..."

माँ की बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि बेटे ने बीच में ही माँ को डपटते हुए कहा -- "माँ ! मैने आप से एक बार कह दिया कि मै छत्री या रेनकोट नहीं ले जाऊँगा, तो क्यों मेरे पीछे हाथ धोकर पड़ी हुई हो।" इतना कह कर बेटा चला गया। 

माँ चुपचाप बेटे को जाता हुआ देखती रह गई। 

शाम को जब बेटा बस से वापस घर लौट रहा था, तब बहुत तेज बारिश हो रही थी। तब उसे अपनी भूल का अहसास हुआ कि उसने सुबह माँ की बातें ना मानकर गलती की थी और ऊपर से उसने उन्हें डपट भी दिया था। यही सोचता हुआ जब वह बस स्टाॅप पर उतरा, तो उसने देखा माँ छत्री लेकर उसका बस स्टाॅप पर इंतजार कर रही थी।यह देखकर उसकी आँखे नम होगई। उसने माँ से छत्री लेते हुए सिर्फ इतना कहा --'' सॉरी माँ !" ***

                 
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 क्रमांक - 03
 माँ         
                                  - डा .साधना तोमर
                               बडौ़त(बागपत) उत्तर प्रदेश

सुधा राष्ट्रीय सेवा योजना के विशेष सात दिवसीय शिविर के प्रथम दिन स्वयं सेविकाओं को शिविर के कार्यक्रम  के विषय में विस्तार से बता रही थी साथ ही उन्हें अनुशासन में रहने का आदेश दे रही थी, "देखो  बच्चों ! तुम्हें शिविर में मेरे अनुसार अनुशासन में रहकर कार्य करना है बिना मेरी अनुमति के कोई भी शिविर स्थल  छोड़कर नहीं  जाएगा। यहां मैं ही तुम्हारी शिक्षिका और मैं ही तुम्हारी माँ हूँ जिसको जो समस्या  हो मुझे बताये।"सभी लड़कियां  निर्देश अनुसार अपने-अपने कार्य में लग गई। मोनिका एक तरफ चुपचाप खड़ी थी।"क्या बात है मोनिका ,तुम यहां क्यों खड़ी हो?" मैम आपसे कुछ बात करनी थी।"  
"बोलो क्या बात है?"
" मैम आप मुझसे नाराज तो नहीं होंगी।"
"नहीं बेटा!बोलो क्या बात है?"
"मैम!मेरी मम्मी मुझे बिल्कुल भी प्यार नहीं करती, मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती, हर समय डांटती रहती है।"
"तुम कोई गलती करती होंगी।कोई माँ ऐसी नहीं होती जो अपने बच्चों को प्यार न करे।"
"मैम सुबह जब मैं उनके बार- बार आवाज लगाने पर भी नहीं उठती,उनके कार्य बताने पर भी नहीं करती तो चिल्लाने लगती है, मुझे गुस्सा आ जाता है फिर मैं जो वे कहती हैं उसे उल्टा करती हूँ।बात-बात पर तेरा अगले घर क्या होगा ,कहती हैं तो मैं चिढ़ जाती हूँ।"
सुधा को सब समझ आ गया था कि मोनिका  की समस्या क्या है?वह मोनिका से बोली-"बेटे!जो मै कहूँ तुम मानोगी!" "हाँ जी,मैम ! मैं आपका बहुत सम्मान करती हूँ, आपकी सारी बात मानूंगी।"
"बेटे!कल तुम मम्मी से पहले उठकर मम्मी के लिए चाय बनाकर ले जाकर उन्हे उठाओगी,फिर सबके लिए  नाश्ता भी तुम ही बनाओगी। शाम को शिविर से जाने के बाद थोड़ी देर मम्मी के साथ बात करोगी,अपनी बाते उन्हें बताओगी उनकी दिन भर की बातें पूछोगी।मम्मी के साथ खाना बनाने में उनकी मदद करोगी। उनके साथ बैठकर खाना खाओगी। पाँच दिन तक यही करना है परन्तु इन दिनों में मम्मी से प्यार से ही बोलना है जरा भी गुस्सा नहीं करना है।"  "ठीक है मैम!  मैं ऐसा ही करुंगी ।"
पांच दिन बाद मोनिका दौड़ कर सुधा के पास आयी और बोली-"मेरी माँ दुनिया की सबसे अच्छी माँ है मैम! "
"अरे नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है, तुम्हारी माँ तो तुम्हे बिल्कुल भी प्यार नहीं करती, तुम्हें बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगती।" 
"नहीं मैम ! मैं ही गलत थी, मैं उनके प्यार को समझ नहीं पायी।हम बच्चे जब माता-पिता के साथ बुरा बर्ताव करते हैं तो उन्हें भी तो बुरा लगता होगा।जब मैंने मम्मी के साथ अच्छा व्यवहार किया तो मम्मी मुझे बहुत प्यार करने लगी।" 
"बेटे! मैं तुम्हे यही बताना चाहती थी कि माँ कभी अपने बच्चों का बुरा नहीं चाहती अगर उन्हें  डांटती है तो उनके भले  के लिए।मुझे खुशी है कि तुम समझ गयी हो।"कहकर सुधा ने मोनिका को गले से लगा लिया। ***
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 क्रमांक -04
  "माँ ने कहा था"               
                                               - इन्दु सिन्हा 
                                              रतलाम - मध्यप्रदेश
मई में ही गर्मी का आलम ऐसा था, मानो आग बरस रही हो, लंच टाइम चल रहा था,सरकारी बंगलो में सन्नाटा पसरा हुआ था,कमर्चारी लंच करके एयर कंडीशनर घरों में ठंडक में आराम फरमा  रहे थे,मिसेज मेहरा भी  शानदार पलँग पर लेटी थी,ठंडी हवा में उनकी झपकी लग गयी थी शायद,अचानक ध्यान टूटा उनका,तीन बज रहे थे,मि मेहरा ने लंच किया ,? उन्होंने लेटे लेटे ही काम वाली बाई को आवाज दी,वो बोली मेम साब, साहब ने कब का लंच कर लिया वो माधव के यहाँ गए है,माधव मतलब सर्वेंट जो बाहर आउट हाउस में रहता है, मेम साहब तुरंत उठकर बंगले के बाहर बरामदे में गयी  तो माधव की पत्नी बाहर ही बैठी थी,मेम साब को देखकर हड़बड़ा उठी ,साब आये थे,? वो जबाब नही दे पायी,मेम साब तुरंत ही छोटे से रूम में अन्दर  घुस गई,देखा तो मि मेहरा पसीने से लथपथ पलँग के किनारे कपड़े पहन रहे थे,15 वर्षीय माधव की बेटी पलँग पर एक तरफ पड़ी थी,पत्नी को देखकर साहब बोले गर्मी बहुत थी चेक करने आया था, कहकर तुरन्त गाड़ी में बैठकर ऑफिस निकल गए, मेम साब ने पूछा, क्यो री क्या मुँह काला कर रही थी ? इतने में माधव की पत्नी भी अंदर आ गई, बेटी डर गई थी,
बोली माँ ने कहा था,साब जो करना चाहे करने दो,कूलर दिलवा देंगे,गर्मी है ना ! बस इसलिये ---!   ***
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 क्रमांक - 05
 मूक साथी                  
                                          - सत्या शर्मा ' कीर्ति '
                                                रांची - झारखंड

आज  फिर जब कहा बेटे ने-- " माँ अब और फालतू का इमोशन मत दिखलाइये कल से इस घर को तुड़वा कर नए स्टाइल का बनवाऊंगा । अब इस पुराने से घर में मेरा दम घुटता है ।" 

पर ! आज वीणा जी ने कोई प्रतिरोध नही किया बस अपनी नम आँखों और काँपते हाथों से घर की दीवारों को यूँ सहलाया जैसे अंतिम बार अपने इस मूक सहभागी के अहसानो का सारा कर्ज उतार देना चाहती हों ।

लोगों से अकसर सूना है " दीवारों के भी  कान होते हैं " लेकिन उन्होंने तो इसे खुद के साथ जीते हुए देखा है ।

आज भी याद है शादी के प्रथम आगमन पर कोहबर से सनी दीवारें हँस - हँस कर उसका स्वागत कर रही थी और जब उन्होंने हल्दी - अरपन लगे हाथों से अपने गृहप्रवेश की छाप इन दीवारों पर लगाईं थी तो जैसे इनकी आँखें ख़ुशी से छलक ही पड़ी थी ।

बच्चों की छठी , शादी पर जब शुभ स्वास्तिक युक्त आशीर्वाद जब इन दीवारों पर बनाया गया तो ये यूँ चमक उठी जैसे अपना स्नेह आशीष बच्चों पर लुटा रही हो।

और फिर जीवन का वो कारुणिक झण जब जीवन साथी उन्हें अकेला छोड़ चले गए तब इन्ही दीवारों से लग  वो घण्टों फुट - फुट रोती थी तब भी लगता था ये उनकी करुण रुदन सुन उनकी वेदना की सहभागी बन मन ही मन रोतें रहती है । फिर इन्हीं दीवारों की गोद में पति की तस्वीर लगा अकसर उन्हें निहारा करती थी ।

जाने कितनी अकेली सुनसान रातों में उन्होंने अपने बचपन से लेकर आज तक की कितनी ही कही - अनकही , सुख - दुख की बातें इन्ही दीवारों को सुनाया है ।

इसलिए आज इस घर से जाने के पहले वो अपने हाथों से इसकी आँखे, मुँह और कान सब बन्द कर देना चाहती हैं ताकि कल जब हथौड़े की चोट इन पर पड़े तो इनकी दुःखद रुदन उन तक न पहुँच सके ।  ***
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 क्रमांक - 06
                                     जिंदगी                               
                                              - महेश राजा
                                          महासमुंद - छत्तीसगढ़

बच्चों के ईम्तहान का आज आखिरी दिन था।बच्चे खुश थे,कल से दिपावली की छुट्टियां आरंभ होने वाली थी।दुःखी थी तो स्कूल की आया;ममता।वह एक कोने मे बैठी बच्चों को खेलते हुए देख रही थी।कल से स्कूल मे विरानीयत छा जायेगी।
यह बात नहीं थी कि उसका कोई सगावाला न था।उसके दो बेटे थे,जो अलग अलग शहरों मे अपने परिवार के साथ रहते थे।जब किसी को पैसोँ की जरूरत होती या कभी मां की याद आती।नहीं तो कोई मां को त्यौहार पर भी न बुलाते थे।पति की मृत्यु के बाद उसने मेहनत मजदूरी कर बच्चों को पढाया लिखाया और छोटी मोटी नौकरी तलाश कर सामान्य परिवार मे शादी कर दी।सभी को वह खुश देखना चाहती थी।उसे किसी से कोई शिकायत न थी।वह जानती थी.आज का जमाना ऐसा ही है।बहुएं साथ रहना नहीं चाहती।सब घर का यही किस्सा है।अपने नसीब का दोष मान कर नगर के एक प्रतिष्ठित स्कूल मे आया की नौकरी करती,इन बच्चों के बीच अपना मन बहला लेती।कभी पोते पोतियों की याद आती कि वह उन्हें ठीक से गोद मे खिला न पायी।इन्हीं बच्चों को अपना मान खुश रहती।
तभी एक बच्चे के रोने की आवाज से उसकी तंद्रा भंग हुई।वह उस बच्चे को गोद मे बिठाकर चुप कराने लग गयी।सब बच्चे उसे बहुत चाहते थे।उसके साथ घुलमिल गये थे।उसे रोना आ रहा था।दिन भर बच्चों की देखभाल, उनका खाना पीना,साफ सफाई मे मन बहल जाता।।अब कल से वह क्या करेगी...यह सोच उसे सता रही थी।
मैडम ने आवाज दी।कि छुट्टी का समय हो गया।बच्चों को भरी नजरों से निहार कर बेल बजाने चली गयी।आंखो से आंसू अविरल बह रहे थे।मैडम ने यह देखा,उसके भाव समझ कर कंधों पर हाथ रख कर सांत्वना दी।गेट खोल कर वह यह ध्यान रख रही थी कि किस बच्चे का रिक्शा अब तक नहीं आया।इतने मे देखती है कि बच्चों की टोली ने उसे घेर लिया,उनके हाथों मे एक पैकेट था।सब बच्चे एक स्वर मे चिल्ला रहे थे,बाई मां इस बार दिपावली मनाने वह उनके ही घर आये,हमने अपने पापा मम्मी से पूछ लिया है।वे भी यही चाहते है।उसने सब बच्चों को अपनी ममतामयी बांहों के घेरे मे ले लिया।भरे गले से कहा,आऊंगी,बच्चों, जरूर आऊंगी।उसका गला रूंध गया था।बच्चे जिद करने लगे,नहीं..।अभी चलो ,हमारे साथ।उसने बच्चों को समझाया,स्कूल की रखवाली, सफाई का काम उसके जिम्मे है।समय निकाल कर वह एक एक कर सबके घर आयेगी।बच्चों ने उससे प्रामिस लिया।सबसे छोटी सिद्धि ने जब उसके हाथ मे पैकेट दिया,तब वह बोली,यह क्या है बच्चों।ईस बार सिक्स क्लास का विकी बोला,यह साडी है।हम सबने अपने जेब खर्च से पैसे बचा कर ली है।ना मत कहना।
उसने ना कही।यह मै कैसे ले सकती हूँ।इस पर मैडम बोली,ले लो बाई.बच्चे इतने प्यार से लाये है।उसने एक एक बच्चे को चूमा।जाते समय सिद्धि ने कहा,देख लो बाई अगर तुम घर नहीं आयी तो मै पटाखे नहीं चलाउंगी।
"'नहीं नहीं, मेरे बच्चों मै जरूर आऊंगी।अत्यधिक खुशी से छलक आये आंसुओं को उसने छलक जाने दिया।
सब बच्चे चले गये।गेट पर खडी दूर उडती धूल को वह देख रही थी।जीवन मे पहली बार उसे लगा कि वह अकेली नहीं है।। ***
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 क्रमांक - 07
                              स्मृति होली                                    
                                        -  डाँ.  राजकुमार निजात 
                                             सिरसा - हरियाणा

          सासु माँ की बड़ी दीदी को गुजरे अभी महीना भर ही हुआ था कि होली आ गई । फाल्गुनी की शादी के बाद उसकी यह पहली होली थी । अब यह बात बहस की नहीं थी कि यह होली नहीं खेली जाए । दिनकर जानता था की माँ बहुत भावनात्मक महिला है अतः उसने फाल्गुनी से कह दिया कि हम विवाह के बाद की यह पहली होली नहीं मनाएंगे । 
          घर में होली पूजन बिना दिखावे के हुआ मगर आज फाग़  ( दुल्हैंडी ) का दिन था । दिनकर के बड़े भैया दिवाकर का बेटा दस महीने का हो गया था अतः बेटे की पहली होली की खुशी पर भी ताला लग गया ।
           फाल्गुनी बोली , " घर में कोई भी रंग गुलाल नहीं लगाएगा । हम सब माँ जी के पास बैठ कर बतियाकर    होली मनाएँगे । "
          बड़ी बहू श्वेता ने कहा , " बच्चे होली खेलें तो खेलें , उन्हें नहीं रोका जा सकता  ? क्योंकि वह दुख-सुख को नहीं समझते  । " 
          दिवाकर की आठ साल की छोटी बेटी बोली , " मम्मी  ! मैं भैया को लेकर ऊपर चली जाती हूँ । मैं और भैया बैठकर कार्टून फिल्में देखेंगे । " 
           लगभग घंटा भर दोनों बेटे और बहुएँ  माँ के पास बैठकर बतियाते रहे ताकि मौसी जी के जाने का दुख हल्का किया जा सके । माँ समझ गई।  श्वेता ने पनीर के कुछ पकोड़े बना लिए थे । सब बैठकर बतिया रहे थे और पकोड़ों का स्वाद ले रहे थे । 
          तभी माँ ने अपने अलमारी खोली और उसमें से पिछली होली का बचा हुआ कुछ अबीर गुलाल निकाल कर ले आई । 
          बोली , " सुख और दुख तो मन के होते हैं । तुमने दो घंटे बैठकर मेरा मन हल्का कर दिया है । इधर आओ फाल्गुनी  ! तुम्हारे माथे पर लाल रंग का टीका लगा दूँ । बच्चों को भी बुला लो । मौसी जी को प्रणाम करके हम सब टीका होली मनाएँगे । सुबह जो फूल मंदिर में चढ़ाए थे वो सब ले आओ । " 
          दिवाकर फूल ले आया तो माँ दोनों बहुओं पर फूल बरसाती हुई बोली , " होली , प्यार और भाईचारे का त्यौहार है । दीदी की स्मृति में यह फूल सारे घर - आँगन में बिखेर दो । "  ***
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 क्रमांक - 08
                              एक खत माँ को           
                                                 - सारिका भूषण
                                                  राची - झारखंड

माँ ! मेरा यह खत पाकर शायद आपको अजीब लगे , कि जो डेली फ़ोन पर बात करती है , व्हाट्सएप्प पर मैसेज भेजती है वह बेटी आज खत ... लिख रही है ।

माँ ! मुझे भी अजीब लग रहा है । माँ ! परंतु मुझे लगा कि अपनी जकड़ी भावनाओं को , अपनी आत्मा को , अपनी ज़िन्दगी को खोलने के लिए , दूर रहकर भी आपके और करीब आने के लिए मेरी अंतरात्मा को कुछ गुफ्तगूं करने की ज़रूरत है । और मेरे लिए एक कलम और कागज़ से बड़ा सहारा और भला क्या हो सकता है ।

सादे पन्ने पर मुझे अपनी भावनाओं को उतारने में जो सुकून मिल रहा है ,वह चौबीसों घंटे हाथ में मोबाइल रहने पर या व्हाट्सएप्प और फेसबुक से नहीं मिलता । ज़िन्दगी और पराधीन सी लगने लगती हैं ।

माँ ,मैं अपनी दुनिया में , अपने घर - परिवार में बहुत व्यस्त हूँ । खुश हूँ । संतुष्ट हूँ । पर आप बहुत याद आती हैं । मुझे घर के छोटे - बड़े बच्चों के बचपन में मेरा बचपन , मेरे नखरे , मेरा किचकिचाना , मेरा रूठना सब याद आता है । बड़ी थाली में खाना , आपसे छिपाकर अपना खाना दूसरी थाली में डालना , डाइनिंग टेबल पर साग और हरी सब्जियों को देखकर भौंह सिकोड़ना  सब याद आता है । 

माँ , मैं बहुत स्वादिष्ट खाना बनाती हूँ , बहुत सलीके से घर रखती हूं ......शायद ।पर पापा की हर बार दाद देने की आदत ने मुझे बिगाड़ दिया है । मैं यहाँ भी हर पल उम्मीद करती हूँ ,शायद इस बार दाद दे । डाइनिंग टेबल पर वेराइटी बना कर रखती हूं । सभी अच्छे से खाते हैं । खाते वक़्त बहुत सारी बातें होती हैं पर खाना कैसा बना है यह बताना कोई ज़रूरी नहीं समझता ।शायद जिह्वा से होते हुए स्वाद और उसकी याद दोनों पेट में चली जाती है ।

हाँ , मनपसंद खाना न रहने पर बच्चे - बड़े सब शिकायत ज़रूर करते हैं ।हर समय बड़ी - बड़ी बातें होती हैं पर उन बातों में मेरी छोटी सी जगह भी नहीं होती । सभी गुस्सा कर सकते हैं , चिड़चिड़ा सकते हैं और काम करने के बाद थक भी जाते हैं । पर माँ आपकी परवरिश ने तो मुझे थकना सिखाया ही नहीं । मुझे भी गुस्सा आता है। पर जब आपने कभी गुस्सा करके कोई काम करना नहीं छोड़ा तो मैं कैसे ? 

मेरे अकेलेपन में , मेरे रूठने पर , मेरे खामोश रहने पर , मेरे पास कोई नहीं होता ।हां गैजेट्स बहुत हैं , मगर अपने नहीं लगते । तब माँ आप बहुत याद आती हैं ।पहले आपका हर समय टोकना या लगातार प्रश्न करना जितना खटकता था आज तरस जाती हूँ कि कोई मुझसे , मेरे बारे में प्रश्न करे ।

माँ , मुझे पता है आपके आंसू इस खत में लिखे मेरे अक्षरों को नरम कर रहे हैं । मगर मेरी इच्छा आपको रुलाना नहीं है । बस कुछ पल आपसे अपनी बातें करना है , जिसे मैं और किसी से नहीं कर सकती ।क्योंकि मुझसे " मैं " सुनने के लिए घर में किसी के पास वक़्त नहीं होता न ही कोई कभी इसकी ज़रूरत समझता है । वक़्त तो सिर्फ एक माँ के पास होता है अपने बच्चों के लिए और  उसकी भावनाओं को समझने के लिए और उसे दाद देने के लिए ।और वो भी एक बार नहीं..... बार - बार ...........। "
आपकी बेटी  ***
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     क्रमांक - 09                                                                                                                                               
                                   विडम्बना                                     
                                                   -  अर्चना राय 
                                                जबलपुर - मध्यप्रदेश
                            
" मां, पेट में बडी जलन मच रही है"
हाँ बेटा रुक जा, अभी घडे का ठंडा पानी देती हूँ "
नहीं, पानी नहीं पीना, कुछ खाने को चाहिए है"
हाँ, अभी तेरे बापू कुछ लेकर आते होंगे"
काशी की तबियत बिगड़ती जा रही है, घर में भी अनाज का दाना नहीं है, काशी के बापू कब आएंगे" आगे से तपे बेटे को गोद में लिए वह मन ही मन उधेड़बुन में लगी थी।
" ओ काशी की अम्मा, ई देखो अखबार में हमारी फोटो छपा है, वह भी मंत्री जी के साथ"- घर में घुसते ही अखबार दिखाते हुए हल्कू खुशी से बोला।
" हमारा सभी के साथ चुनाव प्रचार मे जाना बड़ा काम आया, मंत्री जी ने हम मजदूरों के साथ खड़े होकर फोटो खिंचवाई और आज वही फोटो अखबार में भी छप गई"- हल्कू अपनी  ही धुन में बोले जा रहा था।
" अब हम भी बड़ा फेमस हो गया हूं, सब लोग हमऊ पहचान रहे और बधाई दे रहे हैं, आज हम बहुत खुश हैं"
" काश! तुम्हारी  ई पहचान , हमारे काशी के पेट की जलन शांत कर देती"-  सूने चूल्हे की ओर देखते हुए वह बोली। ***
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क्रमांक - 10 

                               खिंचाव                                                        
                                         - विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'
                                         गंगापुर सिटी - राजस्थान


समाजसेवी मित्र के साथ एक दिन मुझे वृद्धाश्रम जाना हुआ जैसे ही हमारी कार उस परिसर में जाकर ठहरी, सभी वृद्धाएं एक साथ अपने-अपने कमरों से बाहर आकर, हाथ जोड़कर खड़ी हो गईं। मुझे, ये अच्छा नहीं लगा। मैंने एक वृद्धा के पास जाकर, नमस्कार करके कहा-माँ, हमें हाथ मत जोड़ों! हमसब तो आपके बेटों जैसे हैं। ये सुनकर एक वृद्धा ने कहा-अरे, आप अपने को बेटों जैसा मत कहो, आपसब तो अच्छे इंसान हैं। आप सबने हमें कम से कम आश्रय तो दे रखा है हम सब पर बहुत बड़ा उपकार है आप सभी का। बताओ, बताओ फिर आप हमारे बेटों जैसे कैसे हो सकते हैं?


अचानक उस बूढ़ी अम्मा ने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे अपने कमरे में ले गई फिर अपने तख्ते पर बिठाकर, कुछ चावल के फूलें खाने को देने लगी। वह मेरे चेहरे, मेरी आँखों में कुछ ढूँढ़ने का प्रयास कर रही थी पर मैं समझ नहीं पा रहा था। जब हम वापस चलने को हुए तो ना जाने क्यों मेरा मन पीछे मुड़-मुड़कर उसे देखना चाह रहा था और मैं एक खिंचाव-सा अनुभव कर रहा था... ।  ***
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क्रमांक - 11

  माँ                 
                                  - विवेक रंजन श्रीवास्तव
                                     जबलपुर - मध्यप्रदेश


   दीपावली आने को थी . हमारे घर में पुताई  सफाई की जा रही थी .  मेरा बेटा उन दिनो कक्षा २ का विद्यार्थी था . वह मेरी माँ मतलब उसकी दादी के साथ प्रति दिन  गौरैया के लिये आंगन में चावल डाला करता था .परैया में पानी भरकर रखा करता था चिड़िया के लिये .  स्कूल से लौटते ही  गौरैया की खबर लेना जैसे उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया था . सुबह सूर्योदय के साथ ही चिड़िया की चहचहाहट से हमारी नींद खुलती थी . माँ को भी एक शगल मिल गया था।

    दरअसल हमारे ड्राइंग रूम में लगे फोटो फ्रेम के पीछे गौरैया ने अपना घोंसला बना लिया था ... गौरैया का अपना घर . घोंसले में  गौरैया के बच्चे थे , जिनके अभी पर नही निकले थे . उनकी खड़बड़ से तिनके गिरते थे और ड्राइंग रूम में कचरा फैल जाता था . चिड़िया की काली सफेद पाटी (बीट)से घोंसले के नीचे रखे फर्नीचर पर दाग पड़ जाते थे . श्रीमती जी मां और बेटे के गौरेया प्रेम पर झल्लाती .  
        मेरे बेटे ने गौरेया के प्रति अनुराग और चिंता करते हुये एक पुट्ठे के डब्बे में मुलायम घास और रुई का बिछौना लगाकर गौरेया के लिये एक बढ़िया सा घर बना दिया . और अब वह चाहता था कि किसी तरह गौरेया सपरिवार उसके बनाये आरामदेह घोंसले में शिफ्ट हो जाये . उसने वह पुट्ठे का डब्बाा बार बार फोटो फ्रेम के पास रखा . उसके भीतर चावल के दाने डालकर चिड़िया को लालच भी दी .. पर गौरेया को उसमें नही जाना था वह उसमें  नही ही गई . 
        हम  बेटे की सारी कारगुजारी देख रहे थे . वह हताश था . उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्यो चिड़िया अधिक आरामदेह , सुरक्षित घोंसले में शिफ्ट नही हो रही थी . दादी ने उसे समझाया , कुछ दिन रुक जावो , चिड़िया के बच्चो के पर निकल आयेंगे और वे उड़ जायेंगे . तब हम फोटो फ्रेम के पीछे बना घोंसला हटा देंगे . 
      पता नहीं चिड़िया को कितना क्या समझ आया और कितना क्या मेरे बेटे को , पर मैं समझ गया कि क्यों मुझे अलाट हुये सर्व सुविधा युक्त सरकारी बंगले में शिफ्ट होने की अपेक्षा माँ अपने इसी पुश्तैनी घर में ही रहना चाहती थी ! 
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 क्रमांक - 12

               माँ है ना !                       
                                    - मनोरमा जैन पाखी
                                       भिण्ड - मध्यप्रदेश

"तुम नहीं सुधरोगी,कितनी बार कहा मेरी चीजों को हाथ मत लगाया करो।"हमेशा की तरह विवेक गला फाड़ के चिल्लाया 
"वो बेटा.... जमीन पर ..।"
"जो जहाँ पड़ा है पड़ा रहने दो ।कहा न ?समझ नहीं आता?"
आँखों में आँसू लिए प्रभा हट गयी ।बहुत देर तक बडबडाता रहा विवेक ..।
ये वही विवेक था जो अपना सामान करीने से लगा देख कहता था 
"माँ, तुम सबसे अच्छी माँ हो ।यू आर द बेस्ट।"
बिजनेस में घाटा होने पर पति पत्नी विवेक के पास रहने आये थे। विवेक एक प्राइवेट कंपनी में जॉब कर रहा था तीन साल से। उसके बचपन में जो उसे न दे पाई उस घुटन के चलते प्रभा ने उसे छूट दे रखी थी।मनमाफिक घूमनेफिरने,खाने,पीने ,पहनने की ।।        प्रभा सारा काम खुद करती जिससे बेटे पर अतिरिक्त बोझ न पड़े।पर विवेक हमेशा झल्लाता रहता। 
"तुम कहाँ मानने वाली हो। जब वो मना करता है क्यों करती हो ।गालियाँ खाने की आदत हो गयी है तुम्हें।"पतिदेव मौका कैसे छोड देते सुनाने का
दो पाटों के बीच पिस रही थी प्रभा। 
 पड़ौस के फ्लैट में रहने वाली ममता ने टोका -"क्या बात है आजकल विवेक कुछ ज्यादा परेशान है क्या?रोज गुस्से से चिल्लाने की आवाज आती है।"
"न , वो गुस्सा नहीं होता। काम को मना करता है न ।"माँ थी बच्चे की बुराई कैसे करती ।पर मन में खटक गया। 
पर जब बेटे को फोन पर कहते सुना तो आँसू न रुके "अरे यार ,माँ पापा आये हुये हैं ।रोज का कलेश मचा के रखा हुआ है ।न चैन से रहती हैं न रहने देती हैं ।...."  ***
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 क्रमांक - 13

                      माँ                                              
                              - ओमप्रकाश क्षत्रिय “प्रकाश”
                                  रतनगढ़ - मध्यप्रदेश

मन और आत्मा में अंतर्द्वंद्व चल रहा था. 
मन ने हल्का होने के लिए आत्मा से कहा, “ मुझे पेन मिला था. माँ से कहा. वह कुछ नहीं बोली. मै ने पेन अपने पास रख लिया. मगर जब रास्ते में माँ के साथ जा रहा था, तब मुझे कीमती आभूषण व रूपए से भरा पर्स मिला था. उसे देख कर माँ बड़ी खुश हुई, ‘ ऊपर वाला जब भी देता है छपरफाड़ कर देता है.’ माँ ने यह कहते हुए उस अमानत को अपने पास रखा लिया था.” 
“ यह तो गलत बात थी. क्या, भगवान इस तरह छप्परफाड़ कर धन देता है ?”
“ मुझे क्या पता. मै उस वक्त छोटासा बच्चा था. बस चीज़े उठाना सीख गया. और बड़ा हुआ तो छोटेछोटे अपराध करने लगा. मगर, मैं ने उस लड़की की हत्या नहीं की हैं.”
“ गले से चैन किस ने खीची थी ? उसी चैन से उस लड़की का गला कटा था और वह मर गई, ” आत्मा ने जवाब दिया.
“ मगर एक छोटीसी गलती के लिए हत्या, छेडछाड जैसे आरोप और जेल की सजा ? यह तो सरासर गलत व नाइंसाफी है. यदि मै पैसेवाला होता तो जेल से छुट गया होता ?” मन ने कहा तो आत्मा ने जवाब दिया, “ तुम ने गलती तो की है. सजा तो मिलेगी ही. चाहे शारीरिक हो या मानसिक ?” तभी अँधेरी कालकोठारी में गन्दगी में पनपने वाले मच्छर ने उस के एक हाथ पर काट खाया. दूसरा हाथ तब तक उस मच्छर को मौत की सजा दे चूका था, “ गलती की सजा देना तो कुदरत का भी कानून है.”
आत्मा ने कहा तो मन पश्चाताप की आग में जलते हुए बोला, “ सजा केवल मुझे ही मिलेगी ?”
“ नहीं. सभी को."
तभी अंधेरे को चीरती हुई प्रहरी की आवाज़ आई. “राजन ! तुम्हारी माँ मिलने आई है.”  जिसे सुन कर मन चीत्कार उठा, “ गलत आदत सिखाने वाली मेरी माँ नहीं हो सकती है ?” और वह कालकोठरी की अँधेरी राह को चुपचाप निहारने लगा.
तभी आत्मा ने कहा, “ माँ ! माँ होती है. अन्यथा वो यहाँ नहीं आती,”  और वह खामोश हो गई. ***
               ====================================         क्रमांक - 14                                                         
         
                      " तेवर  "                                
                                        - मीरा जैन
                                        उज्जैन - मध्यप्रदेश
                                        
आज तो नीरज ने भी नाराजगी भरे स्वर मे कह ही दिया-
' माँ ! खाने के स्वाद मे उन्नीस बीस तो चलता है मुझे तो पुनिता के हाथ
का बनाया खाना नाश्ता सभी स्वादिष्ट लगता है  इस तहर मीन मेख निकालती रहोगी तो कैसे काम चलेगा अभी तो आप खुद बना लेती हैं बुढ़ापे मे क्या होगा ?'
' जब की जब सोचूँगी तू अभी से मेरे बुढ़ापे की क्यों चिंता कर रहा है '
इतना कह गीता दूसरे कमरे मे चली गई. पुनिता की इच्छा हुई कि सासुमाँ को खरी खरी सुना दे लेकिन हर बार की तरह इस बार भी मन मामोस कर  रह गई कुछ दिनों पश्चात पुनिता किसी काम से बाहर गई थी किंतु समय से पहले लौट आई और घर के अंदर प्रवेश करने से पूर्व अंदर से आती आवाज सुन उसके कदम वहीं ठिठक गये सासुमाँ पड़ौसन से कह रही थी -
' नहीं नहीं ऐसी कोई बात नहीं है पुनीता नाश्ता खाना सभी अच्छा बनाती
है पर मे उसकी तारीफ न करते हुए मीन मेख केवल इसीलिये निकालती 
रहती हूँ कम से कम मै भी किचन मे काम कर सकूँ सोचती हूँ साल भर तो
वह घर और बच्चों मे खटती रहती है जब तक मेरे हाथ पैर चल रहे है महिने दो महिने कोमैं यहाँ आती हूँ तो उसे थोड़ा आराम मिल जाये वक्त बेवक्त आराम से निश्चिंत हो बाहर आ जा सके आखिर अभी बच्ची ही तो है उसकी भी कुछ इच्छाएं होंगी मायके मे भीउसका सगा कोई नहीं है जहाँ वह महिने पंद्रह दिन जाकर रह सके '
इतना सुनते ही पुनिता के होश उड़ गये और उन्हें मन ही मन नमन कर सोचने लगी-
' क्या सासुमाँएं ऐसी भी होती हैं ' ***
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 क्रमांक - 15

                     मां फिर भी मां                                          
                                     - शशांक मिश्र भारती   
                                  शाहजहांपुर - उत्तर प्रदेश
                                  
बचपन कंगाली में बीता ।विवाह हुआ ।कुछ साल सबकुछ ठीक तीन छोटे छोटे बच्चों को छोड़कर पति चल बसा ।
  जैसे तैसे मेहनत मजदूरी कर बच्चों को समाज के ताने सुने ।मेहनत रंग लाई ।बच्चे कामयाब हुए ।एक डाक्टर दूसरा इंजीनियर और तीसरा खण्ड विकास अधिकारी ।सबके अपने अपने परिवार बड़े बड़े शहरों में ।
मां अपनी जगह अपने ही गांव में ।घुट घुट कर दिन काट कभी कभार फोन आ जाता है ।आने की फुरसत नहीं ।
 पर मां हर सांस के साथ अपने बच्चों की सलामती चाहती है । ***
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क्रमांक - 16                                                         

                          माँ प्लस माँ = दुर्गा                                      
                                       - ड़ा नीना छिब्बर
                                      जोधपुर - राजस्थान
        
  बैंक की कर्मठ  उच्च अधिकारी रजनी आज चार साल बाद उसी अस्पताल के उसी कमरे मे ,उसी नंबर के पलंग पर आराम कर रही थी पर तब और अब में कितना अंतर था। उसे आज भी याद है जब उम्मीद की पहली उल्टी आते ही सासू माँ ने नजर उतारी थी। रजनी भी खूब खुश थी,पर रात को कमरे मे आते ही राजन ने उसकी खुशी पर कुठाराघात किया।अपनी अस्थायी नौकरी ,बच्चे की अच्छी परवरिश ,भविष्य की कठिनाइयों का ऐसा भावनात्मक मोहजाल बिछाया कि सारे सपने चकनाचूर हो गए। 
     ,"क्या रजनी कुछ समय दो मुझे तुम्हारे बराबर कमाने का,अरे माँ तो पुराने जमाने की हैं , तुम तो समझदार हो।फिर बच्चे तो अपने हाथ में हैं।  आगे ध्यान रखना। शब्दों की चिंगारियों ने जीव लील लिया। आज फिर जब दुबारा नयी आस जगी तो रजनी ने राजन को फोन पर खुशखबरी सुनाई। दूसरी ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं। फिर रात को शयनकक्ष मे राजन समझा रहा था,"तुम्हारी पदोन्नति की तारीख करीब है, मातृत्व अवकाश तो ठीक पर, नये घर की किशते, कार लोन  ए.सी. ओह कभी सोचा कितने रूपयो का नुकसान होगा एक पदोन्नति आगे बढने से। तुम तो खुद समझदार हो।रजनी आश्चर्य चकित थी सारे आंकड़े तैयार थे राजन के पास ,नही थी तो आत्मियता। सोच लो जीवन तो समझौते से चलता है।अपनी बात कह सो गया ।
       रजनी का शरीर, आत्मा ,दिमाग सब शून्य। गहरे अंधेरे मे किस जुगनू का हाथ थामे ,क्या माँ जी।. बाहर आयी माँ कमरे मे सो रही थी। हिम्मत न हुँई जगाने की ,निढाल कदमों से लौट गई। अनुभवी माँ बिस्तर पर लेटी  सब भाँप गई। प्रातःकाल राजन ने माँ से कहा कि आज रजनी को अस्पताल ले जा रहा हूँ  ,नार्मल चेकअप के लिए तभी माँ ने भी दृढता से रजनी का हाथ थामा
और आँखों की चमक से दुलराते हुए कहा कि मैं ले जाती हूँ। तू अपने काम पर जा। बहू की चिंता मुझ पर छोड़। 
           राजन ने लाख तर्क दिए पर माँ ने माँ का हाथ थामा और रजनी को वह जुगनू दिख गया। चिंता काहे की!औरतों का काम औरतें संभाल लेंगी। आप तो आफिस जाइए।रजनी माँजी के गले लग कर रो पड़ी। माँ बोली, "पगली आराम कर,खुश रह, बधाई ले व दे । " ***
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क्रमांक -17

                           इन्तजार                            
                                        - नेहा शर्मा
                                   अलवर - राजस्थान
     
        आज रविवार को मीना फिर से मंदिर जाने का बहाना करके अपनी सासू माँ के लिए उनकी मनपसंद भरवा भिंडी और नरम-नरम चपाती लेकर चल पड़ी। यह पहली बार नहीं था। बल्कि पिछले 6 महीनों से मीना ऐसा ही कर रही थी। वृद्धाश्रम जाते ही  मीना को पता चला कि उसकी सासू माँ की तबीयत खराब है। और वो  हॉस्पिटल में है। मीना जल्दी से हॉस्पिटल गई ।और पलंग पर लेटी हुई सासू माँ के पास चुपचाप जाकर बैठ गई। कस्तूरी और मीना दोनो की आखों में आंसू थे। कस्तूरी को इस उम्र में अपने परिवार से अलग रहने का दुख था, तो मीना अपने आप को लाचार महसूस कर रही थी। क्योंकि महेश अपनी ही माँ को अपने साथ रखने को तैयार नहीं था। लेकिन मीना अचानक खड़ी हुई। और अस्पताल का बिल भर कर सासूमाँ को अपने साथ स्कूटी पर बिठाकर चल पड़ी। जब स्कूटी कस्तूरी के घर के सामने जाकर रुकी, तो कस्तूरी कभी अपने घर को तो कभी अपनी बहू को हैरानी से देख रही थी। मीना अपनी सासू माँ को अंदर लेकर गई ,तो सोफे पर बैठे हुए महेश ने अपनी भौहे चढ़ा ली। लेकिन महेश के बोलने से पहले ही मीना ने कहा कि-- बचपन में मैंने अपनी माँ को खो दिया था। शादी के बाद मुझको सासू माँ जैसी माँ मिली। सासू माँ अस्पताल में भर्ती थी। उनकी तबीयत बहुत खराब थी ।इसीलिए मैं नहीं चाहती थी कि ईश्वर ने जो मुझे माँ की कमी पूरी करने के लिए सासू माँ दी है। उन्हें मैं खो दूं। इसीलिए मैं इन्हें अपने साथ ले आई। मीन अपनी सास कस्तूरी को उनके कमरे में लेकर चल पड़ी। जिसे वो पिछले 6 महीनों से सासू माँ के इंतजार में रोज साफ करती थी। महेश अपनी माँ के लिए मीना का इतना प्रेम देखकर अपने आप को शर्मिंदा महसूस कर रहा था। ***
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क्रमांक - 18

              कर्मठ हाथ                             
                                    - मधु जैन
                            जबलपुर - मध्यप्रदेश

रमा ने कभी सोचा भी न था। किसी एक के न रहने पर उसका हँसता खिलखिलाता परिवार यूँ बिखर जाएगा।पति की असमय मृत्यु,दो बच्चों की जिम्मेदारी,कम पढ़ी लिखी होने से अनुकंपा नियुक्ति भी न मिल सकी। लेकिन हिम्मत न हारने वाली रमा ने ने ठान लिया था। पति का सपना पूरा करने की, बेटे को इंजीनियर और बेटी कंचन को डाॅ बनाना है।
बच्चे मेधावी थे। पढ़ाई का खर्चा स्वयं की स्कॉलरशिप से पूरा कर रहे थे। लेकिन खाली पेट तो कुछ होता नहीं।रमा घर पर रहकर बड़ी, पापड़ और अचार बनाती। बेटे के स्कूल जाते ही दूसरों के घरों में काम करने निकल जाती।
दुख के दिन बीतने ही वाले थे। बेटा इंजीनियर के अंतिम दौर की परीक्षा दे रहा है । बेटी पी.एम.टी. की तैयारी कर रही है।
"कंचन,भाई आ गया है। चल उसे खाना परोस दे।"
"आज तू ही परोस दे न माँ,मुझे बहुत पढ़ाई करनी है।"
"तुझसे एक ही काम तो कहती हूँ बाकी तो सब मैं कर ही लेती हूँ।" प्यार से "जा बेटा भूख लगी होगी उसे।"
माथे पर बल देते हुए "समझ नहीं आता आखिर माँ भाई को खाना क्यों नहीं परोसती? जबकि उसके खाने का पूरा ध्यान रखती है, आज तो मैं पूंछ कर रहूँगी।"
भाई को खाना खिलाने के बाद 
"माँ आज एक बात तुम्हें बताना ही पड़ेगी, कि तुम भाई को खाना क्यों नहीं परोसती।"
बेटी की जिद देखकर माँ ने कहा 
"मेहनत की वजह से देख मेरे हाथ की सारी रेखाएं कट पिट गई हैं।हाथ कितने खुरदरे हो गये हैं।कहीं इन हाथों को देखकर उसका मन पढ़ाई से उचट न जाये।" ***

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क्रमांक -19                                                          

            भाग्यवान                                
                           -सविता इन्द्र गुप्ता 
                           गुरुग्राम - हरियाणा

नब्बे वर्ष की उम्र में भी उनकी याददाश्त गज़ब की थी। किस्से-कहानियों का पिटारा और स्नेह  का अथाह समुद् थीं वे। देश के लिए कभी खेल में लगातार चार मैडल्स जीते थे।  
मौक़ा देख, व्हील चेयर पर किसी तरह बालकोनी में आ जाती हैं। सोलहवीं मंजिल का फ़्लैट था यह। नीचे निगाह गयी तब सिहर उठी। जैसे चक्कर आ जाएगा। लेकिन हिम्मत की और किसी तरह रेलिंग पर कोहनी टिका कर, एक टाँग दूसरी ओर कर शरीर को नीचे गिरा, अपनी इहलीला समाप्त करनी चाही थी। लेकिन टाँग टकरा कर रह गयी और वे वापिस बालकोनी पर आ गिरी। आवाज सुन उनकी सहायिका दौड़ी आई। कोहराम मच गया। बेटा क्रोध से चीख उठा,"माँ के पास कोई क्यों न था ?"

बेटे ने घर में सब को उनके कमरे में एकत्र किया और बोला,
"माँ, आपको कुछ हो जाता तब मैं खुद को उम्र भर माफ़ ना कर पाता। हम से कहाँ चूक हो गयी, क्या कारण था जो आप ने खुद को मुक्ति देने की सोची ?"
"बेटा, यूँ तो घर में सब मुझे प्यार करते हैं और तू तो सारे दिन जितना हो सकता है मेरे आराम का ख्याल रखता है। लेकिन मुझे खुद ही एक अपराधबोध-सा घेरे रहता है कि एक एथलीट के आख़िरी दिन इतने परबस क्यों ? तू अपने सारे काम छोड़ कर मेरी सेवा में हाज़िर रहता है और मैं जिए जा रही हूँ ... बोझ नहीं तो क्या हूँ मैं ?"
"माँ ! यह आपने क्या कहा दिया आप और बोझ ? ये सुनने से पहले मैं मर क्यों नहीं गया ?" बेटा रो पड़ा और साथ में माँ भी।  
बड़ी बहू ने रुंधे गले से कहा," आप का ध्यान रखने से तकलीफ नहीं बल्कि सच्चा आनंद आता है। कुछ वैसा सुख जैसे मंदिर में भगवान की पूजा-अर्चना में।"
"माँ, मेरे सिर पर हाथ रख कर कसम खाओ, फिर ऐसा कभी न सोचोगी।" बड़े बेटे ने उनके पैर पकड़ लिए।  
"सचमुच मेरी मति मारी गयी थी। भगवान का दिया मेरा सबसे सुंदर उपहार हो तुम। बड़ी भाग्यवान हूँ मैं।" माँ की आँखों से ममता बह रही थी। ****
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क्रमांक - 20


         आधी रोटी                               
                             - दर्शना जैन
                          खंडवा - मध्यप्रदेश

    सब खाना खा रहे थे, राधिका परोस रही थी। पारूल मम्मी से बोली," मुझे आधी रोटी दे दो।" राधिका बोली," रोटी के डिब्बे में जितनी रोटियाँ हैं उनकी आधी दे दूँ।" पारूल बोली," क्या मम्मी आप भी मजाक करती हैं, मेरा मतलब है मुझे आधा फलका चाहिये।" राधिका ने रोटी का एक टुकड़ा तोड़ा और बाकी रोटी पारूल के प्लेट में रख दी। पारूल गुस्से से बोली," मुझे आधी चाहिये, आप हमेशा ऐसे ही आधी करके क्यों देती हैं, क्या आपको आधा करना नहीं आता है।" राधिका भी बनावटी गुस्से से बोली," चुपचाप खा लो, मेरे पास कोई तराजू तो है नहीं जो पहले रोटी तोलूँ फिर तुम्हे दूँ।" 
    किशन ने कहा," मिंटू, तुमसे आधा फलका देने को बोल रहा है, देते देते कहाँ खो गयी।" किशन के यह कहने पर पारूल वर्तमान में लौटी और बोली," वो मैं माँ से रोटी आधी करना सीख रही थी।" किशन बोला," क्या मतलब, क्या अजीब बात कर रही हो, तबियत तो ठीक है तुम्हारी।" पारूल बोली," कुछ नहीं, जाने दीजिये, मैं ठीक हूँ।" ऐसा कहकर उसने रोटी का थोड़ा टुकड़ा तोड़ा और बचा हुआ मिंटू की प्लेट में रख दिया। मिंटू पापा से बोला," मम्मी को आधा करना सिखाइये, जब भी मैं आधा फलका माँगता हूँ ऐसे ही आधा करती है।" 
    पारूल भी माँ बनने के बाद आधी रोटी करना सीख गयी थी और माँ को याद करते हुए खुद से कहने लगी," कोई माँ को आधा करना क्या सिखायेगा क्योंकि उसका आधा तो ऐसा ही होता है।" ***
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क्रमांक -21

                    परवाह                                        
                                 -  मिथिलेश दीक्षित 
                                 लखनऊ - उत्तर प्रदेश
                                 
" अरे भई, अब और कितनी देर लगाओगी । जयमाल  पड़ जायेगी,तब पहुँचोगी ?"
"बस,पाँच मिनट। प्रज्ञा को भी तो तैयार करना था। इसीलिए कुछ देर लग गयी ।"
"प्रज्ञान तैयार हो चुका?"
"अब पूरी फौज-पलटन नहीं जायेगी । वह अपनी बुआ के पास बना रहेगा ।"
"अरे,ऐसा न करो । वह भी तो अभी छोटा है। 
उसका भी मन हो रहा होगा शादी में जाने का ।"
           अमरेन्द्र और मीरा बात कर रहे थे ।प्रज्ञान दरवाज़े के पीछे खड़ा सुन  रहा था । हिम्मत कर वह अपने पापा के पास आकर जाने के लिए  कहने लगा ,लेकिन मीरा ने उसका हाथ 
झटक कर दूर कर दिया और साफ मना कर दिया । भारी मन  से अमरेन्द्र मीरा के पीछे  चलते हुए बोल पड़ा,"लोग कहेंगे कि सौतेला है,
इसीलिए साथ नहीं लायी हो ।"
मीरा ने मुँह बनाते हुए कहा,"कहें तो कहते रहें। 
मैं लोगों की परवाह नहीं करती ।"
    मैरेज होम पहुँचने पर कार से जब वे उतरे,
तब गिफ्ट पैकेट नदेखकरउसको लेने के लिए  घर लौटे ।प्रज्ञान सुबक रहा था ।प्रज्ञा ने प्रज्ञान को देखकर हाथ फैला दिये और प्रज्ञान प्रज्ञा से लिपट कर रोने लगा ।दोनो फूट-फूट कर रो रहे 
थे ।मीरा के भी आँसू बहने लगे ।प्रज्ञान को अपनी बाँहों में भर कर वह उसे चूमने लगी ।
         उसे भी तैयार कर जब वे सब कार में बैठे,दोनो बच्चे एक दूसरे को छू रहे,धक्का मार रहे थे और खिलखिला कर हँस रहे थे । ***
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क्रमांक - 22

                            बहन की चिठ्ठी                              
                                     - नरेन्द्र श्रीवास्तव
                                           गाडरवारा - मध्यप्रदेश

शहर के एक सार्वजनिक बगीचे के एक कोने में तीनों भाई लगभग दो घंटे से विमर्श कर रहे थे और अभी तक तय नहीं कर पाये थे।अपनी-अपनी परेशानी बतलाकर तीनों भाई एक-दूसरे से यही कह रहे थे कि माँ को वह रख लें।आखिर कोई निर्णय नहीं निकला तब तय यह हुआ कि आज रातभर चिंतन कर कोई रास्ता निकालें अन्यथा कल पर्ची निकालकर तय होगाऔर जिसके नाम की पर्ची निकलेगी उसे माँ को रखना होगा।
    घर आये तो माँ नहीं मिली। एक पड़ोसी ने आकर बतलाया -"आपकी बहन और बहनोई आये थे। माँ को वे ही साथ में ले गये हैं। यह चिठ्ठी दे गये हैं।चिठ्ठी पढ़ी।लिखा था-"भैया!माँ जी को हम साथ में ले जा रहे हैं।मेरे ससुर जी तो पहले ही गुथर गये थे अब सासू माँ भी नहीं रहीं।बुजुर्ग के बिना घर सूना-सूना लगता है। बच्चे भी दादी को बहुत याद करते हैं। माँ जी के साथ में होने से हमें बुजुर्ग की कमी नहीं खलेगी और बच्चों को दादी के बदले नानी का प्यार मिल जायेगा।।  ***
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क्रमांक - 23

         पहले मेरी माँ है                               
                                     - रेखा श्रीवास्तव
                                   कानपुर - उत्तर प्रदेश

        रानू जब सोकर उठा तो माँ वहाँ नहीं थी । आज माँ उसको जगाने भी नहीं आई । वह खोजता हुआ गया तो बाहर बरामदे में माँ लेटी थी और वहाँ सब लोग इकट्ठे थे । वो दादी जो कभी माँ से सीधे मुँह बात नहीं करती थी , माँ के सिर पर हाथ फिरा रहीं थी । बुआ माँ को सुंदर साड़ी पहना चुकी थी । लाल-लाल चूड़ियाँ , बाल भी अच्छे से बँधे थे ।
       रानू को समझ न आया कि आज माँ को ये लोग क्या कर रहीं हैं । कभी अच्छी साड़ी नानी के यहाँ से लाईं तो बुआ ने छीन ली । रात दिन काम में लगी रहने वाली माँ आज लेटी क्यों है? 
पापा को लोग घेर कर बैठे थे । हर बात में माँ को झिड़कने वाले पापा चुप कैसे हैं ? वह माँ के पास जाकर हिलाने लगा - "उठो माँ तुम सोई क्यों हो?"
          बुआ ने हाथ पकड़ कर खींच लिया - "दूर रहो , तेरी माँ भगवान के घर चली गई है ।"
   "किसने भेजा है? पापा ने , दादी ने या आपने ?"
"बेटा कोई भेजता नहीं , अपने आप चला जाता है आदमी ।"
"झूठ , झूठ , सब झूठ कह रहे हो ।" वह आठ साल का बच्चा अपनी माँ को तिरस्कृत ही देखता आ रहा था । माँ कुछ कहती तो पापा कहते -"पहले मेरी माँ है , उनके विषय में कुछ न सुनूँगा ।"
           वह दौड़कर पापा के पास गया और झकझोरते हुए बोला - " पापा आपने मेरी माँ को क्यों भगवान के पास भेज दिया ? माँ से हमेशा कहते थे कि पहले मेरी माँ है , तो अपनी माँ को पहले क्यों नहीं भेजा ?" 
           वापस दौड़कर माँ के पास आया और शव के ऊपर गिर कर चीख चीख कर रोने लगा । ***
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क्रमांक -24

                          माता                                       
                                     - सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा 
                                         साहिबाबाद - उत्तर प्रदेश

              " क्यों रे तू मेरा ही गुणगान क्यूँ करता हुआ , वापस आकर  मेरी ही गोद में क्यों  बैठ जाता है ? " माँ ने बेटे से कहा । उसके शब्दों में मीठी सी डांट भी थी ।
               " माँ , तुमने नौ महीने मुझे अपनी कोख में रखा । अपने रक्त - मज्जा से मेरे अस्तित्व को आकार दिया । बेपनाह दर्द सहकर मुझे इस दुनिया से अवगत करवाया । इतना ही नहीं अस्तित्व देने के बाद अपनी छाती से न केवल लगाये रखा , उस छाती का सबकुछ निचोड़ कर मुझे इस काबिल बना दिया कि मैं इस दुनिया में इस धरती पर खड़ा हो सकूं तो बता तेरे आँचल को छोड़कर कहाँ जा सकता हूँ ? माँ मुझे क्या पता कि मेरा बापू कौन है ! तूने ही तो बताया न कि वो शख्स जो हमें छोड़कर न जाने कहाँ भाग गया , वही मेरा बापू था । तूने तो मुझे नहीं छोड़ा न माँ  ! तो बता मैं तेरी गोद में क्यों न आऊं । तेरा गुणगान क्यों न करूं ? तेरे सिवा कौन है जो मुझे ममता से भरा आँचल दे सकती है ? तू है तो मैं हूँ न  माँ ! बाप तो कोई भी बन जाता । बता मेरी माँ कोई और बन सकता था क्या ? क्या तू नहीं जानती कि तेरे ही रक्त ने उस अंडज का निर्माण किया था और जो मेरी उतपत्ति का कारण बना , वो  मेरा  पहला घर था । मैं उस घर को छोड़कर कहाँ जा सकता हूँ माँ ! तुझ पर कोई  आंच आये , यह मेरी सहनशक्ति से परे है । तेरी ख़ुशी के लिए  मैं  फ़ना भी  हो जाऊं , वह भी कम है  माँ। तेरी कोख , तेरी गोद ही मेरे होने की वजह है और वो कोख वो गोद कोई और कैसे हो सकती है माँ ? इसलिए मैं तेरी गोद में आता हूँ माँ । इसीलिए तुझ पर मेरी जान कुर्बान है माँ । "
            " तेरी जगह कोई और नहीं  ले सकता है माँ । तेरी नदियां , तेरा पानी , तेरे पहाड़  , तेरे मैदानों में उगी हुई वनस्पतियों की खुशबु ने मेरे बचपन को मेरी जवानी की राह पर डाला। मेरी रगों में तेरे आँचल  का दूध है  ! तो बता मैं तेरी गोद में न आऊं और इसके सिवा  कहाँ जाऊं माँ ! "
" ------- अब मुझसे ये सवाल कभी मत करना कि मैं तेरी ही गोद में क्यों आ जाता हूँ !   मैं शरणार्थी की संज्ञा नहीं झेल सकता माँ । शरणार्थी हो जाने से पहले माँ की गोद को छोड़ना पड़ता है और  वो बहुत तकलीफदेह होता  है । "
 माँ के नेत्रों में सिर्फ अश्रुधार थी ।
" इसलिए मुझसे ये कभी मत पूछना  कि मैं बार - बार तेरी गोद में ही क्यों लौट आता हूँ माँ ।" वह फिर से  माँ के आँचल से लिपट गया । ***
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क्रमांक -25

                     “माँ तो माँ है “                       
                                      - शारदा गुप्ता 
                                       इन्दौर - मध्यप्रदेश

      सुबह से काम की तलाश में निकला प्रणव रात को थक कर चूर जब घर पहुँचा तो सभी की आँखों में एक प्रश्न था व साथ में एक उम्मीद भी ।  
    पापा ने थकी थकी आवाज़ में पूछा  बेटा कुछ काम बना कि 
नहीं ?”
     पत्नी ने आवाज में मिश्री घोलते हुए उत्सुकता से पूछा  “इंटरव्यू कैसा हुआ?”
     युवा होते राहुल ने पूछा 
“पापा कितने का पैकेज मिला?”
    नन्ही रही
    रानी ने पूछा  “पापा इस साल छुट्टियों में शिमला ले जाओगे ना ?”
   बूढ़े दादाजी ने प्रणव को अपने पास बिठा कर सिर पर प्यार से हाथ फेरा ।मानो कह रहे हो “
   “बेटा सब कुछ ठीक हो जाएगा ।”
      लेकिन माँ ने पानी का ग्लास पकड़ाते हुए पूछा 
   “बेटा सुबह से कुछ खाया पिया कि नहीं?”
    प्रणव।माँ की तरफ़ देखते हुए सोचने लगा “माँ , तो माँ ही होती है ।” ***
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क्रमांक - 26

माँ
                                 - सतीश राठी
                              इंदौर - मध्यप्रदेश
                              
बच्चा सुबह विद्यालय के लिए निकला और पढ़ाई के बाद खेल के पीरियड में ऐसा रमा कि दोपहर के तीन बज गए । मां डाटेगी डरता- डरता घर आया। मां चौके में बैठी थी । उसके लिए खाना लेकर । देरी पर नाराजगी जताई पर तुरंत थाली लगा कर भोजन कराया। भूखा बच्चा जब पेट भर भोजन कर तृप्त हो गया तो मां ने अपने लिए भी दो रोटी और सब्जी उसी थाली में लगा ली।
" यह क्या माँ तू भूखी थी अब तक ! "
" तो क्या तेरे पहले ही खा लेती तेरी राह तकते तो बैठी थी। "
अपराध बोध से ग्रस्त बच्चे ने पहली बार जाना कि माँ सबसे आखरी में ही भोजन करती है। ***

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क्रमांक - 27                                                           

नयी पहचान                    
                                   - डा० भारती वर्मा बौड़ाई
                                       देहरादून - उतराखंड
                                       
          बेटी जब मायके आती तो इधर -उधर की बहुत सी बातें करने के बाद अपनी रौ में शुरू हो जाती।
       “माँ! तुमने अपनी अलमारी का क्या हाल बना रखा है? उस दिन मैं सब ठीक करके गई थी। तुमने फिर वैसा ही कर दिया।”
        “ और ये डिब्बा खाली क्यों? बिंदी के सब पत्ते, नेलपॉलिश, हेयर बैंड कहाँ गये? पता है मुझे सब इधर-उधर रखे होंगे तुमने!” 
            “अपनी मेज देखी तुमने? सब किताबें एक के ऊपर एक। जब पढ़ना चाहोगी कोई तो ढूँढोगी कैसे?”
            माँ हँसती जाती और बेटी कहती जाती 
          “ अब हँस कर मेरी बात को उड़ाओ मत”
            अब थोड़ी देर में बेटी आने वाली थी। माँ तैयार थी उससे सब सुनने के लिए।
            बेटी आई। थोड़ी देर बैठी।
         “माँ! तुम बैठो, चाय मैं बना कर लाती हूँ।”
          “अरे! माँ! सारे कपड़े कहाँ गये? एक भी नहीं मिल रहा पकड़ने के लिए।”
          “लो, पहले चाय पियो तुम।”
          “ अब ये वाला सूट पहनना छोड़ो माँ! नये जो सिलवाये हैं उन्हें कब निकालोगी? तुम भी मेरी कोई बात मानती नहीं हो।”
           “ हाँ! हाँ... जब अगली बार आयेगी न तब नया वाला सूट पहने ही मिलूँगी, चैन से चाय तो पाई ले”...... कहते हुए माँ हँसने लगी।
           “ सदा हँस कर मेरी बात यूँ ही टाल देती हो। देखूँगी अगली बार, क्या करके रखोगी।”
              बेटी की बातें सुनते हुए माँ सोच रही थी कि हर बेटी विवाह के बाद अपने घर जाकर नयी पहचान करते हुए उसमें इतना रच-बस जाती है कि नये को अपनाने में उसकी सारी पुरानी आदतें बदल जाती हैं।फिर जब- जब वो मायके आती है तो नयी और पुरानी पहचान के बीच ऐसे ही जीती है 
            वह भी तो इसी तरह माँ की नाक में दम कर देती थी, आज बेटी कर रही है....सोचते हुए माँ मन ही मन बेटी को देख कर मंद-मंद मुस्कुराने लगी। ***
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 क्रमांक - 28

मां
                              - चन्द्रिका व्यास
                               नवीमुंबई - महाराष्ट्र
                               
मां... मां करती हुई रश्मि रोते हुए घर में प्रवेश करती है! रश्मि की रोने की आवाज सुनते ही सावित्री रसोईघर से पल्लू से हाथ पोंछते हुए बाहर आती है! अरे क्या बात हुई बेटा... क्यों रो रही हो ?

आठ - नौ वर्ष की रश्मि न ज्यादा समझदार थी और ना ही नासमझ! सावित्री ने कहा! क्या हुआ बेटा आज फिर नीता से कट्टी हो गई! 
नहीं मां आज नीता ने मुझे कहा क्या मां मां गाय के बछडे की तरह करती है, मम्मी नहीं  कह सकती! पढी लिखी       गंवार ..
सावित्री हसते हुए कहती है बस इतनी सी बात! 

मां क्या अंग्रेजी पढने वाले , पैसे वाले मां को मम्मी कहने से समझदार कहलाते हैं ? 
 नहीं बेटा... 
 बछडा जब भी गाय से बिछुडता है तो क्यों  मां मां करता है ?

सावित्री ने कहा बेटी मां शब्द इतना पावन, अनमोल और मीठी होने के साथ साथ उसमे इतनी शक्ति होती है की कितनी भी कठिनाईयां आये पल में उसका समाधान कर देती है ! प्रभु द्वारा निर्मित मां की यह महत्वपूर्ण रचना इंसान, जानवर, पक्षी सभी रूप में कठिन परिस्थितियों में अपने बच्चों के लिये  संजीवनी का काम करती है! 
मां अपने सभी बच्चों को बराबर प्यार करती है! 

तभी रश्मि ने कहा हां मां नीचे जो डोगी है वो अपने सभी बच्चों को चाट रही थी और दूध भी पिला रही थी !
मां की ममता को बच्चे न समझे पर मां की ममता उनके रक्षण के लिये परछाई बनकर उसके इर्द गिर्द घूमती रहती है! 
कहना यही है बेटा ठोकर खाते हुए  भी मां  अपने बच्चों को खमा खमा कहती है! 

आखिर मां तो मां है

और मम्मी ? रश्मि ने भोलेपन से पूछा ...सावित्री हस पडी! ***

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 क्रमांक - 29

  छाती                       
                             - डॉ.वीरेंद्र कुमार भारद्वाज 
                                        पटना - बिहार
                                        
मैडम पति-पत्नी ड्यूटी पर गए थे  । नौकरानी रधिया उनके कपड़े धोने बैठी थी । अन्य दिनों की अपेक्षा आज वह धोने से पूर्व मैडम के चेस्टर और ब्लाउज को बार-बार सूँघ रही थी । इससे भी उसका मन न भरा तो अपनी दोनों छतियाँ दाबकर अपने चेस्टर- ब्लाउज गीले किए । फिर उन्हें खोलकर सूँघा । उसका वहम सच में बदलता गया । बावजूद इसके और पक्का होने के लिए उसने क्रमशः कई बार उनके तथा अपने कपड़ों को सूँघा । नतीजा निकला- मैडम को दूध अवश्य होता है ।
         पर वह घोर सोच में डूब गई - 'अरे जब मैडम को दूध होता है , तो अपने बच्चे को दूसरा दूध क्यों पिलाती हैं ? कई बार उनका बच्चा उनकी  छातियाँ पीने की कोशिश करता है, पर वे रोते हुए बच्चे के मुँह में बोतल ठूँस देती हैं । कोई सौतेला भी तो नहीं ।  शुरू के बाद इधर कभी भी उन्हें छाती पिलाते नहीं देखा ।' और, इसकी वजह लाख दिमाग मारने पर भी रधिया की समझ में नहीं आई ।
    इतने में उसने बच्चे के रोने की आवाज सुनी । वह दौड़ी-दौड़ी वहाँ पहुँची । पर आज बोतल उठाने से पूर्व उसका हाथ रुक गया । उसने एक-एक पल के लिए इधर-उधर देखा और अपनी छाती निकाल कर उसके मुँह में दे डाली । वह बच्चा यों पी रहा था, यों पी रहा था, जैसा उसका अपना बेटा भी न पीता था । रधिया कई गुणा अधिक प्यार से उसके माथे पर हाथ फेर रही थी । ***
   
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 क्रमांक - 30

मां की खुशी             
                                      -  नीलम नांरग 
                                      हिसार -हरियाणा
                                      
बचपन से लेकर अब तक सीमा ने जब भी मां को अकेले बैठे देखा उनकी आंखों में नमी ही देखी । लेकिन हम भाई बहनों को हौसला देने
में उनका कोई सानी नहीं था। अपनी हर इच्छा  को मारकर दूसरों के लिए जीने में माहिर थी। क्या बनना चाहती थीं और क्या बन गई। आकाश में निर्विघ्न उड़ने वाले पंछी की तरह आकांक्षाएं और कहां यह बेड़ियों वाला जीवन ? वाह क्या जीवन ! कैसा सामंजस्य था दोनों में। लेकिन फिर भी न कोई शिकवा न शिकायत । दूसरों के लिए हरदम लबालब प्यार। हम सब भाई बहनों को हौसला देती आकाश छूने के सपने दिखाती। वो आकाश जिसे वह स्वयं साफ देख भी नहीं पाई थी। सीमा को तो फिर भी अपने पिता की धुंधली सी याद थी छोटे भाई बहनों को तो वह भी याद नहीं थीं। घर की बड़ी बेटी होने के नाते वह शायद अपनी उम्र से पहले ही बड़ी वजह कुछ ज्यादा ही समझदार थी। समय बीतता गया और अब मां अपनी जिम्मेदारियों से मुक्त हो गई थी छोटी उम्र में ही शादी होने के कारण अभी भी वो बहुत कम उम्र की थी । लेकिन अकेले पन से बीमार रहने लगी थी। तीनों बच्चों को सारी खुशियां दी थी सब अपनी घर गृहस्थी में व्यस्त थे। लेकिन सीमा को लगता था उसे अभी बड़ी बेटी होने का फर्ज निभाना है । उसने मां के जन्मदिन पर सबको बुलाया और कहा कि वह मां की ख़ुशी चाहती है । 
जब सब खाना खा कर उठने लगे तो सीमा ने कहा _ मम्मी हम जानते है आपको भी जीवन साथी की जरूरत है आपको भी अपने हिस्से की खुशियां मिलनी चाहिए। 
मेरे ससुर के दोस्त आपसे शादी करना चाहते हैं। और मैं उनको वचन देकर आई हूं । बहन और बहनोई ने तो रजामंदी दे दी लेकिन भाई और भाभी तो ऐसे घूर रहे थे ज्
मानो आज तो सीमा को कच्चा ही खा जाएंगे । घर में महाभारत का माहौल बन गया । लेकिन सीमा ने तो अपनी मां के दुःख को न सिर्फ देखा था से बल्कि भुगता भी था। वो आज सोचकर ही आईं थीं कि मां को भी खुश रहने का अधिकार है और वो मां को उसके हिस्से की ख़ुशियाँ देकर रहेगी चाहे उसे भाई का विरोध सहना पड़े या पुरे समाज का। ***

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 क्रमांक - 31

                               स्नेंह                                       
                                          - बीजेन्द्र जैमिनी
                                         पानीपत - हरियाणा
                             
           पिता अपने चार-पाँच साल के बच्चे को पढ़ा रहे है - ओ से ओखली , परन्तु बच्चा ओ से नोकली कहता है । पिता बार-बार समझाता है परन्तु बच्चा ओ से नोकली ही कहता है। पिता को गुस्सा आ जाता है। जिस से बच्चे के मुंह पर चार- पाँच थप्पड़ जमा देता है । माँ अन्दर से चिल्लाती है - ये क्या कर रहे हो ?
           - मेरे समझने के बाद भी ओ से नोकली कह रहा है।
           - बच्चे को कोई पीटा जाता है बच्चे को स्नेंह से सिखाया जाता है
            और अब माँ बच्चे को पढाना शुरु करती है। स्नेंह से ही बच्चा एक दिन में ही ओ से ओखली कहना शुरु कर देता है। ०००
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क्रमांक - 32                                                             


    शहीद  की मां 
              
                           - डॉ . चंद्रा  सायता 
                             इंदौर - मध्यप्रदेश

    कश्मीर घाटी में हुए आतंकी  हमले में अन्य  जवानों के साथ सबीना  का इकलौता बेटा आबिद भी शहीद  हुआ था।
     घर के बाहर मोहल्ले की औरतें    सबीना को तस्सली देने   इकठ्ठा   थीं ।उनके बीच बैठी सबीना का गाम   मानों देश द्रोहियों की नापाक हरकत के प्रति  नफरत से गुस्से में तब्दील हो गया था। फिर  भी बेटे की शहादत के कारण  चेहरे पर  गजब का नूर था ।
     इतने में कुछ  खास लोगों के साथ एक  सियासी नेता वहां पहुचे।
      "अत  सलाम्मलेकुम सबीना बी।"
उन्होंने आंखों पर काला चश्मा चडा  रखा था। ताकि  कोई दिल की  असलियत न पढ़  सके। 
  " वालेकुम  सलाम " दबी जुबां मे सबीना का जवाब था ।
   आस-पास बैठी औरतें पीछे को हट गईँ।
   "  हमें बेहद अफसोस है  आपके बेटे के लिए।अल्ला उसे जन्नत बक्षे। "
    सबीना ने  लगभग नेता जी की आखों में  आखें डालकर देखा--
   "जन्नत तो उसे उसी  दिन ही मिल गई  थी,जिस दिन वो वतन के नाम  पर  कुरबान हो गया।"
   नेताजी  ने   सौ-सौ के नोटों  का  बड़ा   सा  बण्डल  अपने एक  चमचे के हाथ से लेकर सबीना की ओर बढाया ---
 " अभी ये  रख लो।काम  आयेंगे।"
   "आप  मदद ही करना  चाटे हैं,तो एक काम कीजिये --ये नोट आप अपनें पास रख लीजिए ।आपका जो इकलौता बेटा है, उसे मुझे  गोद दे  दीजिये।"
  नेता जी का पारा सातवे  आसमां को छूने लगा।
" ला होल बिला कूबत। क्या बक रहीहै ये औरत!"कहते हुए नेताजी अपने साथ आये चमचों की और देखने लगे।
   उन्ही के बीच से  आवाज  सुनाई दी---
'  सर इससे पूछिये क्या  आपके बेटे के जरिये   से  क्या ये आपकी  वसीयत की  हकदार बनना चाहती है।'
    नेता जी की  बुद्धि काम  नहीं  कर रही थी।उन्होने सबीना को अंगारों भरी आखों से देखा--
"तू  चाहती  क्या है।क्या करेगी मेरा बेटा लेकर? सबीना  खुद को अब सीने में ठंडक पहुंचनें  से नदी की गहराई सा महसूस  कर रही थी।
   "साहब मेरा बेटा तो रहा नहीं, आपका बेटा गोद लेकर उसे भी फौज में भर्ती  करवा दूंगी।" ***

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क्रमांक - 33

        एहसास                     
                        -  वंदना पुणतांबेकर
                            इंदौर - मध्यप्रदेश
दनदनाती हुई, एक लाल बत्ती की मर्सिडीज उस गली के कोने से गुजरी उसी मोड़ पर कांता बाई अपने टूटे-फूटे मकान में रहती थी।उसने देखा कि दो श्वान के बच्चे अपनी माँ के साथ खेल रहे थे।अचानक उसके चीखने की आवाज कांता बाई के कानों में पड़ी।उसने पर्दे से बाहर झांक कर देखा,तो वह सामने का दृश्य देखकर घबरा गई। उस श्वान को गाड़ी वाला रौंध कर चला गया था।उसकी खून से सनी लाश को देख उसके बच्चे बिलखने लगे।गरीब कांता बाई उन श्वान के दोनों बच्चों को अपनी गोद मे उठा लाई।अभी उसके मन मे एक ममता मयी माँ का एहसास जो जीवंत था।जो उसे बरसो से अपनो के करीब रहकर भी नही मिला था।वह एहसास वह उन श्वान के बच्चों को अपने आँचल में रखकर महसूस कर रही थी।सोच रही थी,की समय आने पर हमारी गरीबी को ढाल बनाकर इस्तेमाल किया जाता है, यह तो बिचारे निर्दोष श्वान है। उसकी आँखों से ममत्त्व के आंसू झलक पड़े। ***

       
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क्रमांक - 34

माँ की रक्षा

                                         -डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी
                                            उदयपुर - राजस्थान 


वो नया-नया सेना में भर्ती हुआ था कि पडौसी देश के साथ युद्ध शुरू हो गया। वो जैसे-तैसे सीमा पर चला तो गया, लेकिन जैसे ही गोलीबारी शुरू होने वाली थी, वो उठ कर भागा। नेतृत्व कर रहे मेजर ने उसे भाग कर पकड़ा और पूछा, "कहाँ भाग रहे हो?"


"सर, मेरी माँ अकेली है, मुझे कुछ हो गया तो माँ मर जायेगी।"


मेजर ने उसकी बात सुनकर कुछ क्षण सोचा, फिर एक हाथ में थमा हुआ उसका कॉलर और दूसरे हाथ में थमा हुआ उसका हाथ छोड़ दिया, और वहां सबको सम्बोधित कर चिल्ला कर कहा, "जवानों, तुम सब किसके लिये लड़ रहे हो?"


सबने अपने-अपने स्थानों से ही उत्तर दिया, "अपनी माँ के लिये"


"जीतोगे तो कौन बचेगा?"

एक ने कहा, "मेरा परिवार"


"जीतने पर क्या कहलाओगे?"

दूसरे ने कहा, "माँ का वीरपुत्र"


"और मरने पर..."

तीसरे ने कहा, "माँ का रखवाला"


"कहाँ मरने की इच्छा है?"

चौथे ने कहा, "माँ की गोद में"


"मरोगे कि हारोगे?"

अब उसने उत्तर दिया, "हारने पर माँ मर जायेगी सर...." ***
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क्रमांक - 35

        पछतावा
                                                - सन्तोष सुपेकर
                                                   उज्जैन - मध्यप्रदेश
                                    
        ट्रेन अभी 50- 60 किलोमीटर ही चली होगी कि उसे भूख सताने लगी। टिफिन खोला तो स्वादिष्ट भोजन की खुशबू के साथ-साथ घर की यादें भी  जैसे टिफिन से बाहर आने लगीं।सिलसिलेवार उसे याद आने लगा कि कैसे शरीर मे ताकत न होते  हुए भी बूढ़ी माँ ने बड़े शौक से उसके लिए खाना तैयार किया था । माँ के काँपते हाथों से जब टिफिन पैक नही हो पा रहा था तो कैसे वह समय का रोना रोते हुए माँ पर झल्ला  पड़ा था,और   कैसे कड़वा सा मुँह बनाकर बिना माँ की ओर देखे घर से निकल पड़ा था।अब उसे लग रहा था कि बावजूद इसके , खिडकी में से, माँ कातर आँखों से उसे ही देख रही थी,जाते हुए---            ये सब याद करते-करते पहला कौर खाने को तत्तपर उसके हाथ काँपने लगे ,आँखे आंसुओ से धुँधला गई ,मुँह खुला का खुला रह गया,मन भावुकता और पछतावे  के मिले-जुले भावों से भर आया और रुँधे गले से सिर्फ़ एक ही शब्द बार -बार निकलने लगा,माँ---माँ---माँ--- ***
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क्रमांक - 36

माँ
                                          - डॉ दीपा संजय दीप
                                             बरेली - उत्तर प्रदेश

नन्दा आज खुशी के मारे फूली नहीं समा रही थी।वह सुबह से ही कठपुतली की तरह नाच रही थी आज
नीहित अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी करके वापस आ रहा था।
  रोज तीन -चार लडक़ी वाले चक्कर काट रहे थे।दर्जन भर लड़कियों के फोटो  नन्दा ने सहेज कर रखे थे जिससे नीहित के आने के बाद  लड़की का चयन  करने मेंआसानी हो।
  निश्चित समय पर नीहित ने घर में प्रवेश किया। लेकिन वह अकेला नहीं था उसके साथ उसके कॉलेज की सहगामिनी निशा भी थी।
   नीहित ने उसका परिचय कराते हुए  
कहा मां ये निशा है इसने भी मेरे साथ ही अपनी पढ़ाई पूरी की है हम दोनों
विवाह करना चाहते हैं मैं ही इसे अपने साथ आपसे मिलाने ले आया।आप इसे मेरी जीवन साथी बनने का आशीर्वाद दें।
   नन्दा उन्हें वहीं रोककर अंदर जाती है  और जब वापस आती है  तो थाली में फूल, दीपक ,शगुन और एक प्यारी सी मुस्कान के साथ।
   आज उसकी बहु की तलाश पूरी हो चुकी थी वह प्यार से निशा को अपने गले लगा लेती है।
    एक परिपक्व निर्णय से परिवार में खुशियां छा जाती हैं
  माँ का ऐसा दिव्य रूप देखकर वह मंत्र मुग्ध  उसके चेहरे से नज़र नहीं हटा पा रहा था। ***
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क्रमांक - 37
                                      विस्तार      
                                                   - मधुकांत     
                                               रोहतक - हरियाणा

 "मैं तो तंग आ गई हूं घर का धंधा पीटते पीटते" पति के ऑफिस से आते ही मालती बिखर गई।
  "मा की कीमत का पता लग गया। तब तो तुम्हें मां की दवाइयां ,खाना ,दान करना ,बहुत दुखता था। अब रखो नौकरानी ! मां से ज्यादा महंगी पड़ेगी ",पति भी  झुंझलाया !
"सुनो क्या हम मां को अनाथालय से वापस नहीं ला सकते ",मालती नरम पड़ गई।
 "चार महीने में नानी याद आ गई "!
"क्या बात करते हो ,आखिर वह हमारी मां है हम उनसे माफी मांग लेंगे !उनके बिना तो घर का काम ही नहीं चल सकता !"
"किस मुंह से जाएंगे ,तुमने  उनको बहुत सताया है"! 
"कहा-सुनी किस घर में नहीं होती !देखो तुम कल मां से मिल आओ ।कहना मां तुम्हारे हाथ की रोटी खाए बिना कुछ भी स्वाद नहीं लगता !"
"ठीक है देखता हूं"  -अंदर से तो वह भी यही चाहता था कि मां घर में आ जाए !
 वह सुबह सवेरे अनाथालय में मां से मिलने चला गया ।मां का चेहरा खिला हुआ था और वह आश्रम के बच्चों के बीच में बैठी हंस-हंसकर सब को खाना खिला रही थी ।सबको खिला पिलाकर मां उसके पास आई ।
"मां घर चलो ,आपके बिना घर सूना सूना हो गया ।मालती भी अपनी गलतियों के लिए रो रही है !"
"बेटे, अब तो  यही  मेरा घर है इस घर को सुना करके मैं तुम्हारे साथ कैसे चल सकती हूं !"
"मां ,मुझे तो तुम्हारे हाथ की रोटी ही अच्छी लगती है !"बेटे ने दूसरा पासा फेंका !
"बेटे, तुम्हारी रोटी पकाने के लिए तो तुम्हारी पत्नी है परंतु इनअनाथ बच्चों को खाना खिलाने वाला कोई नहीं है ।"
"मां ,मालती भी तुमसे माफी मांगने के लिए आना चाहती है "!
"माफी किस बात की तुमने तो यहां भेजकर मुझ पर उपकार ही किया है !वहां तो मैं केवल तुम्हारी मां थी परंतु यहां तो बीस बच्चों की मां हूं ।आश्रम के स्वामी जी तथा सभी सेवक मुझे भरपूर सम्मान देते हैं !अब तो यह आश्रम ही मुझे अपना घर लगने लगा है,,,!" 
सारे पासे असफल होते देख बेटा उदास हो गया! परंतु कमरे की खिड़कियों से झांकती नन्ही नन्ही आंखों में चमक भर गई ! ***
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क्रमांक - 38
एक घूँट की प्यास
                                        -प्रेरणा गुप्ता 
                                     कानपुर - उत्तर प्रदेश

पल्लवी जल्दी-जल्दी सूप तैयार करने में लग गयी। माँ को ठीक ग्यारह बजे सूप के साथ, दवाई भी देनी थी।
आज चालीस दिन हो चले थे। डाॅक्टरों ने जवाब दे दिया था । इसलिए वह उसे अस्पताल से घर ले आई थी। और आनन फानन घर को ही उसने आई सी यू बना डाला।
सोचा ही न था कि माँ कभी इतनी गम्भीर रूप से बीमार भी पड़ सकती है। अब वह एक-एक पल माँ के साथ गुजारना चाहती थी। अगर माँ को कुछ हो गया तो … ! वह फफक कर रो पड़ी। कभी माँ के कहे शब्द आज उसके कानों में गूँजने लगे। बचपन में जब भी वह दूध पीने से इंकार करती। माँ यही कहती, “मैं न रहूँगी तब तुझे माँ की कदर मालूम पड़ेगी। मुझे तो कोई पूछने वाला ही नहीं था कि तूने दूध पिया या नहीं।”

आँसू पोंछ कर वह सूप का कप लिए माँ के कमरे की ओर चल दी। जैसे ही आवाज दी, “माँ !”
 माँ ने आँखें खोल दीं।

“उठो माँ, सूप लाई हूँ।”

देखकर वह मुस्कुरा दी, “तूने नाश्ता कर लिया?”

“हाँ, कर लिया।”

“सच-सच बता !”

“हाँ सच। मेरा कोई भी झूठ, आजतक तुमसे छुप सका है क्या?”

माँ ने उठने के लिए अपने हाथ आगे बढ़ा दिए।
उसने झट उसका हाथ थामकर उसे अपने सहारे से उठा कर बिठाल दिया और उसके पीछे गाव तकिया लगा दिया। सूप का एक घूँट भरते ही माँ ने अपना चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया।

“क्या हुआ?”

“कड़वा है।”

“माँ, ये सूप नहीं, बल्कि दवाई की वजह से तुम्हारा स्वाद बिगड़ गया है।”

“देख, तू मेरे पीछे मत पड़ । चैन से अब मुझे सोने दे।”

“क्यों ना पड़ूँ? तुम भी तो मुझे बचपन में, पीछे पड़-पड़ कर दूध पिलाया करती थी । सूप पी लो, फिर सो जाना।”

“अच्छा तो तू उसका बदला ले रही है अब मुझसे !” हाँफते हुए माँ ने दवाई के साथ सूप का एक घूँट और मुँह में भर लिया।

“बदला थोड़ी न ले रही हूँ माँ। तब तुम मेरी माँ थी और अब, मैं तुम्हारी माँ हूँ।” वह दुलार करते हुए बोली।

माँ की आँखों में प्यार का सागर लहरा उठा। और उसका गाल पर चूमते हुए बोली, ”सचमुच ! अब इस उम्र में जान पाई हूँ, कि माँ क्या होती है? मेरी माँ तो बचपन में ही मुझे छोड़ कर चली गयी थी।”

पल्लवी ने अपनी रुलाई रोकते हुए, माँ को गले से लगा लिया। और उसकी पीठ पर थपकती रही।

माँ थककर सो गई थी। उसने धीरे से उसके पीछे का गाव तकिया हटा कर, उसे उसके तकिये पर लिटा दिया । उसके गालों को चूमने के लिए झुकी ही थी कि धक्क से रह गयी! माँ सचमुच में सो गयी थी, हमेशा के लिए ...।

वह माँ से लिपट कर बिलख-बिलख कर रो पड़ी और रोते हुए बोली, “भगवान ! अगर मेरी माँ को अगला जनम देना, तो फिर उसे उसकी माँ से कभी बिछुड़ने मत देना ...।” ***
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 क्रमांक - 39
                                         माँ
                                                   - मृणाल आशुतोष
                                                     समस्तीपुर - बिहार

सत्यम और राहुल दोनों में दाँत कटी रोटी थी।दोनों एक ही स्कूल में पढ़ते भी थे। राहुल सातवीं में पढ़ता था और सत्यम उससे एक क्लास आगे।
टिफ़िन की घन्टी बजते ही सारे बच्चे कैंटीन की ओर भागे।
"सत्यम, ओ सत्यम।" पीछे से आयी दोस्त की आवाज़ ने उस रूकने पर मजबूर कर दिया।
" बोल राहुल, कैसा रहा आज का दिन!"
"एकदम मस्त! एक बात कहूँ।"
"हाँ भाई! बोल न!"
"रक्षा मेम, मुझसे प्यार करती है।"
"ये तो अच्छी बात है, यार!"
"अरे यार!वह मुझसे प्यार करती है। प्यार।"
"भाई, तू पढ़ने में तेज है तो तुझसे हर मेम प्यार करती होगी।"
"अरे नहीं यार। तू समझ नहीं रहा है। कल तो मिस ने मुझे किस भी किया।"
"ऐसा क्या?"
"हाँ यार। वह मुझसे सचमुच प्यार करती है। कल कहीं मिस के साथ घूमने की भी सोच रहा हूँ।" उसके चेहरे से खुशी ज्यादा ही झलक रही थी।
.....
"ऐ!तू किधर खो गया?"
"कहीं नहीं।पर तू...तू यह  नहीं समझ पायेगा!"
"क्यों नहीं समझूँगा? बोल! बोल न!"
"क्योंकि......क्योंकि तेरी माँ नहीं है न!" ***
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 क्रमांक - 40
                                      सर्दी
                                             - दिव्या राकेश शर्मा
                                               देहरादून - उत्तराखंड
                                  
"देखो माँ मोय जूता दिला देना..
सारा टूटा पडा हैं .
एडी भी निकल गई हैं ,सारे दोस्तन के पास सही जूता हैं एक हमऊं हैं जे टूटा जूता पहन कर सकूल नहीं जाऊँगा।"

"देख लल्ला दिमाग तो खाओ ना ...
मोरे पैसा हतो ना अगले महीने बापू आयेंगे तो ले लियो।"

"हमेशा ऐसा ही कह देत ........
मै कल सकूल नहीं जाऊंगा बस।"वह चिढकर बोला।

"ठीक है ना जाओ हमें का,कल से मजूरी पर जाना।चार पैईसा हमऊ भी कमा कर देना।"

ऐ दिमाग खराब हो गया है बहू!लल्ला काहे मजूरी करेगा?...कुछो दिमाग नहीं लगाती....।"

"तो का करें....जिद्द करें बईठा हैं कहाँ से लाकर दे जूता ...
कह दिये हैं अगले महीने दिला देंगे सुनतो नहीं।"

"तुम ठईरो आवत हैं।"कहकर अम्मा ने खाट से पैर नीचें रखा तो  सर्दी से जम गई।
"अरे मोरी मैय्या!कितनो जाडो हैं।"

"तो काहे खाट से उठ रही हो का चाहिए हमको बोलो।"

"हमरा लाल थैली लाकर दे।"अम्मा ने कहा।

थैली में से तुडे  मुडे दस बीस के नोट निकालकर
बोली ....
"लल्ला गिन जरा कितने हैं?"

"चार सौ रुपये हैं।"

"जा अपनी माँ के साथ जूता ले आओ।"

"अरे  काहे अम्मा...रखिए अपने पास।"

"तुमको  का परेशानी हैं चुप रहो और सीधा जाओ।"


बाजार से लौटकर लल्ला सीधा दादी के पास गया और जूता दादी के रख दिया।
"देखो दादी जूता!" चहकता हुआ लल्ला बोला।

"अरी मोरी मईया… जे  लरकिन का काहे ले आयो?"

“लक्ष्मी जे का कर दी ….पैसईन का नाश कर दियो।"

“जे जूता पहनेगा लल्ला”तोय दिखो हतो!"

"अरी अम्मा जे तुम्हारे लिए लाये हैं।"
“काहे हमको कहाँ जाना है ….
बिटवा सकूल जे पहन कर जायेगा ?”

"दादी चिंता काहे करती हो ….देखो जे जूता मोंची ने जोड़ दिया …..
अगले महीने ले लेंगे लेकिन दादी" …
"इतो सर्दी में जमीन में पैर रख कर तोई तबियत बिगड़ जायेगी...।"
जे खातिर ….माँ आपके लिए जूता ले आई।
"मोढी चैन से बिस्तर में बैठन नहीं देना चात जे खातिर लाई है…."
और स्नेह से मुस्कुरा पड़ी … **
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 क्रमांक - 41
                                 नई माँ

                                                 - सन्दीप तोमर 
                                                    नई दिल्ली

रोहित के कानों में बेटी के कहे शब्द बार-बार गूँजते-"पापा आपने इस औरत से शादी क्यों की, जो बात बिना बात मुझे मारती-पीटती है।"

तब रोहित उसे कहता था-"न बेटा भला इतनी प्यारी बिटिया अपनी ममा के लिए ऐसे बोलती है?"
बिटिया फिर मुँह फुला कर कहती-"आप ममा की तरफदारी करते हुए मुझे बिलकुल भी अच्छे नहीं लगते।एक तो ममा का स्टेप मॉम की तरह का व्यवहार, ऊपर से आपका भी उनका ही पक्ष लेना।"
कितना समझाया करता था वह रश्मि को, बच्चो को यूं मारने से उनके मन में ग्रंथियाँ पैदा हो जाती हैं, उनकी पढ़ाई और फ्यूचर सब प्रभावित होता है। पर रश्मि पर तो जैसे असर ही नहीं होता था। उनके तलाक का आधार भी यही सब बातें बनी थी।

आज जब रोहित ऑफिस से लौटा तो बिना बेल बजाए चाबी से लॉक खोलकर सीधा बेटी के कमरे में गया था। बेटी को वहां न पाकर अपने कमरे का रुख किया। देखा तो बिटिया रानी नई माँ के बाल संवार रही हैं।

उसने पूछा-"क्या बात है माँ-बेटी बड़ा प्यार जता रही हैं एक-दूसरे पर? इस प्यार में हमें तो दोनों ही भूल गए।"

बिटिया ने तुरंत जवाब दिया-"पापा, हर स्टेप मॉम बुरी नहीं होती, ये तो मेरे जन्म देने वाली माँ से कहीं ज्यादा प्यार करती हैं।"

वह मात्र मुस्कुरा दिया था।

एक मुकदमा"

ऐतिहासिक मुकदमा था। कोर्ट परिसर लोगो से अटा पड़ा था। न्यायाधीश ने कहा-“सानन्द जी, आपने जो केस फाइल किया, उसमें आपने अपनी माँ की मृत्यु अस्थमा से बताई है, लेकिन साथ ही आपका कहना है कि आपकी माँ की हत्या हुई है, आप क्या कहना चाहते हैं स्पष्ट कहिये।”  
“माता जी दीवाली पर सदा परेशान रहती थी। मेरा घर कालोनी के ऊपर के माले पर है, नीचे बमों की लड़ी, और बम पटाखों का धुआं सीधा ऊपर आता था। जज साहब यकीन करिये , माँ का  दम घुटने लगता था। वो  80 वर्ष की थी, मेरी माता जी का क्या हाल होता होगा, आप अंदाजा लगा सकते है। वो तड़पती थी।“
लेकिन आप जाकर बोल सकते थे, पुलिस के पास जा सकते थे।“-न्यायधीश ने कहा।
“दीवाली पर किसे नीचे जाकर बोलता जज साहब कि बंद करो ये सब, मेरी माँ को तकलीफ है और नीचे ही क्यो? धुंआ तो पूरे इलाके में है, पूरे शहर में ये ही आलम है, माँ चद्दर लेकर मुँह ढक लेती थी, लेकिन राहत कहाँ मिलती उसे?"
“एक आपकी माँ ही बुजुर्ग नहीं शहर में बहुत बुजुर्ग हैं।“
“शायद दुनिया के सारे बुजुगों को ऐसा महसूस नहीं होता होगा, पर मेरी माँ को होता था।  पूरी रात बैचैन रहती थी माँ।“
“ठीक है, लेकिन बिमारी के चलते उनकी मृत्यु हुई आप उसे हत्या कैसे कह सकते हैं?”
“जज साहब वो रात बड़ी भयानक थी, लोग दीपावली की खुशियाँ मना रहे थे, जैसे-जैसे पटाखों का धुआं और शोर बढ़ता जाता था, उसकी साँस फूलती जाती थी, वो तकलीफ अपने आँखों से देखी थी,  मैं बार-बार बालकनी तक आता था, माँ को नुबेलाइज करता और सोचता था अब बंद हो पटाखें, लेकिन रात जैसे-जैसे सबाब पर आती गयी आतिशबाजी बढती गयी, माँ ने आँखें बंद कर ली, वो चली गयी जज साहब, वो चली गयी।“
लेकिन ये एक धर्म पर आरोप का मामला हुआ।“
“नहीं जज साहब, वो सब्बेबारात , गुरुपरब, गुड फ्राइडे सब दिन ऐसे ही जीती-मरती रहती थी।“
“हाँ सानन्द आपने अब मेरी मुस्किल आसान कर दी,  कोर्ट के फैसले का इन्तजार कीजिये।“
“जी जज साहब, आप इन्साफ करेगे इसका मुझे विश्वास है लेकिन मेरे भारत में मायलार्ड को गाली देने वालो की कमी नहीं है। कोर्ट में बैठे मेरे कई साथी मुझसे असहमत होंगे, मुझे उनसे कोई शिकायत नहीं, मैं स्वार्थी हूँ, मुझे आज भी अपनी माँ की वो तस्वीर, उसका चेहरा याद आता है तो तकलीफ होती है, किसी भी धर्म का मेरी बात से लेना-देना नहीं है। मैंने तो बम-पटाखों से फैलते धुंए की वजह से अपनी माँ की तकलीफ से, कोर्ट को अवगत कराया है। निस्वार्थी और बम पटाखों के प्रबल समर्थकों और धर्म के रखवालों से माफी चाहूँगा, आज मेरी माँ नहीं है, मुझे उसकी तकलीफें हैं,  कल आपको भी होगी।“
सानन्द बोले जा रहे थे।
 जज साहब ने टाइपिस्ट को फैसला टाइप करने का इशारा किया। ***
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 क्रमांक - 42

माँ 
                                       - कनक हरलालका
                                            धुबरी - असम 

 वह रात भर सो न सका था। माँ को अचानक ही कल रात दिल का दौरा पड़ा था। सारी रात अस्पताल का चक्कर काटते कटी थी। रूपयों का इन्तजाम, डॉक्टर की व्यवस्था....।तुरन्त ही एम्बुलेंस को फोन कर माँ को अस्पताल लेकर आया।उन्हें आईसीयू में रखा गया। छोटे भाई को फोन किया।इसी चक्कर में सुबह हो गई थी। चिन्तित सा आईसीयू कमरे के बाहर बैठा था। माँ उसके जीवन का सब कुछ थी। पिता की मृत्यु के बाद अकेले उसे पालपोस कर पढ़ाया लिखाया और आज वह एक बड़े टीवी चैनल पर समाचार संवाददाता था। इस आक्समिक खर्च की चिंता भी उसके सामने विशालमुख लिए खड़ी थी। सुबह नौ बजे उसे खयाल आया कि दफ्तर में फोन कर परिस्थिति और छुट्टी की सूचना दूं । कहीं उसकी छुट्टी ही न हो जाए।
"पागल हो क्या ? आज तो आना ही पड़ेगा। इम्पोर्टेन्ट न्यूज है। इस प्रतिस्पर्धा के युग में जब सभी चैनल यह खबर दिखा रहे हैं हम कैसे पीछे रह सकते हैं। आज प्रधान मंत्री जी अपनी उस माँ को अपने हाथों से दूध पिलाएंगे जिन्होंने उन्हें बचपन में दूध पिलाया था। उन्हें व्हील चेयर पर बैठाकर बगीचे की सैर करवाई है ।उनका हालचाल पूछने की पिक्चर भी ट्वीटर पर डाली है। हमें यह खबर कवर करनी ही है। तुम अभी तुरंत आओ।" कह कर फोन काट दिया।
  वह क्या करता। नौकरी खो नहीं सकता था। माँ को छोटे भाई को संभला कर,आंखों में पानी दिल में चिंता लेकर घर रवाना हो गया कैमरा लेकर प्रधानमंत्री की माँ की न्यूज कवर करने....।। ***
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क्रमांक - 43

                              मां                                
                                       
                                - नीरू तनेजा
                                     समालखा - हरियाणा    
                                                                          
        सुमन मेरे घर काम पर आती तो बचा-खुचा खाना व  पकवान मिष्ठान्न उसे खाने के लिए दे देती ! लेकिन वह स्वयं खाने की बजाय घर पर ही ले जाती ! दूसरे घरों से भी जो कुछ मिलता, वह घर पर ले जाती ! एक दिन मैने उसे कहा –“तू भी कुछ खा लिया कर !.सारा दिन घर पर भी और बाहर का काम करती है, अपना ध्यान भी रख लिया कर ! “
              वह बोली –“ जीजी! मेरे बच्चे खा लेते हैं तो मुझे भी तसल्ली हो जाती हैं कि मैंने ही खा लिया ! मेरा क्या है मेरा पेट तो दो रोटी से ही तसल्ली कर लेता है! “ 
            मैं समझ गई कि मां की ममता के आगे मेरी नही चलने वाली ! कुछ दिन पश्चात सुमन काफी बिमार हो गई व लगभग बीस दिन तक काम पर नहीं आई ! जब ठीक हो कर वापिस आई तो उसमें एक बदलाव आ चुका था ! अब वह घरों से मिलने वाला खाना वहीं खा लेती थी ! कुछ घर पर ले जाती! एक दिन कुछ हलुआ रखा था तो मैने उससे पूछा –“ हलुआ रखा है, यहीं गरम कर दूं या घर पर ले जाएगी !”
    “गरम करके दे दो ,यहीं खा लूंगी !”
         बस मौका पाकर मैने भी पूछ लिया –“अब तुम बच्चों के लिए नहीं लेकर जाती ! “ 
 सुन कर आंखे नम हो गई सुमन की और बोली-“ लेकर जाती रही तो उनकी मां बनी रही, जैसे ही बीमार होकर घर बैठ गई तो सबने परवाह करनी ही छोड़ दी! बीमार होने पर दो दिन तो सभी सेवा करते रहे, पर फिर मांगने पर कोई पानी भी नहीं देता था ,जैसे अब मैं उनकी मां ही नहीं रही ! मैं समझ गई कि काम से आने पर बच्चे मेरे पास मेरे लिए नहीं बल्कि खाने के लिए भाग कर आते थे ! मैं सोचनी लगी कि अभी तो इन्हें कमा कर खिला रही हूं, जब इस काबिल भी न रहूंगी तो क्या करेंगे ये! आखिरकार यही समझ में आया कि गलती मेरी है जो अपना ध्यान नहीं रखा !पर अब सोच लिया है कि आगे ठीकठाक रहना है तो अपना ध्यान भी रखना पड़ेगा ! ठीक रहूंगी तो काम करके बच्चों को खिला सकूंगी और मां भी बनी रहूंगी !”
      मैं निरूतर सी मां बनने के लिए आवश्यक शर्तों के बारे में सोचती रह गई.! अब मैने भी अपनी सेहत के लिए सोचना आरम्भ कर दिया था  ! ***
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    क्रमांक - 44                                                                    

मां
                                               - हरिन्दर सिंह गोगना
                                                   पटियाला - पंजाब
                   
    बेटों की आपसी लड़ाई से तंग आये पिता ने आखिरकार एक दिन दोनों विवाहित बेटों को घर से निकाल दिया ।
    मां उदास थी । एक रोज पति से बोली - " बेटों के कमरें कितने दिनों से वीरान है । सब कुछ सूना - सूना लग रहा है । अब तो कबूतर भी आकर यहां बैठने लगे हैं ।कुछ भी तो अच्छा नहीं लग रहा ....। "
    " उन नालायकों से यह कबूतर अच्छे है । कम से कम शान्ति तो बनाये रखते है । हमारा कुछ नहीं लेते । कुछ समय बिताते है और फिर उड़ जाते हैं । " थोड़ा आवेश में आ कर पति ने अपनी कड़वाहट द्वारा पत्नी को समझने की कौशिक की तो वह एक पल के लिए कड़वा घूंट भर कर रह गई । ***
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 क्रमांक - 45

                                  मुट्ठी भर बादाम
                                                        - रुबी प्रसाद
                                                   सिलीगुड़ी - प. बंगाल

"क्या माँ जी" ! 

आपको भी कुछ याद नहीं रहता  ! जो चीजें जहां हैं वही रहने दे । एक तो उठा लेती हैं फिर याद नहीं रहता आपको ! अरे कितना करुं मैं , घर सम्भालूं या चीजें ढ़ूढ़ू । 

       " आप तो बस एक ही जगह बैठे रहा किजिए" !

 वहीं सबसे बड़ी मदद होगी मेरे लिए ।  आँसू भर आये आँखों में , मूक बन रोज ही जली कटी सुनती थी बहू की । पर करती भी क्या,  वो काम न करती कुछ तो भी सुनाती शोभा करती तो भी ।   वो तो बस उसकी मदद ही करना चाहती थी पर हो उल्टा जाता था उसकी कमजोर होती याददाश्त की वजह से ।  बोझिल मन से अपने कमरे की तरफ जाने लगी तभी बेटे ने हाथ पकड़ लिये व डब्बे से मुट्ठी भर बादाम निकाल कर एक मुट्ठी  मां के हाथ में दिया व दूसरी मुट्ठी शोभा के हाथ में । 

 ये देख मां ने सवाल तो न किया पर प्रश्नभरी निगाहों से देखा जरुर ! "उधर उल्टा शोभा भड़क उठी" पति की इस हरकत पर  ।  

 ये क्या हैं ? क्यों बादाम बर्बाद कर रहे हो ?

 रोज बच्चों को देती हूं खाने ! मां व मैं लेकर क्या करेंगे अपने बादामों को डब्बें में रख ज्यों ही मां के हाथों से बादाम छीनने गयी सुधीर ने कठोरता से हाथ पकड़ लिये शोभा के व कहा तुम नहीं समझी अब तक। 

 एक मुट्ठी मां को दिये ताकि जो गलती उसने कि वो अब न दोहराये। " मतलब "शोभा गुस्से से बोली । 

"मतलब ये "पिता के गुजरने के बाद जिन संघर्षों को अकेले झेल मां ने अपना ख्याल न रख मेरी शिक्षा व परवरिश में रात व दिन झोंक दिया कभी खुद की परवाह नहीं की खुद न खाती पर मेरे खाने, पीने, पढ़ाई, विशेष कर रोज वो चार बादाम जरुर देती ताकि मेरी स्मरण शक्ति तेज हो सके आज शायद उसी गलती की वजह से वो खुद की स्मरण शक्ति कमजोर कर बैठी हैं पर अब से मां रोज खायेगी बादाम बस सुबह ही नहीं शाम को भी । 

और हां तुम्हें इसलिए दिये बादाम ताकि मां का बुढ़ापा तो आ चुका कुछ सालों बाद तुम्हारी बारी हैं " फिर" अब शायद कुछ कहने की जरुरत नहीं तुम्हें । 

इतना कह व्यंग्य भरी दृष्टि से शोभा को देखा और नजरें फेर ली सुधीर ने  ! फिर माँ के चरणस्पर्श कर सुधीर शोभा को सवाल व जबाब के घेरे में छोड आफिस़ चला गया ! शोभा के माथे पर सास के भुलक्कड़पन के लिए  गुस्से की सिलवट अब शर्मिंदगी में बदल गयी थी ! इधर हाथों में लिये हुए बादामों  को सुधीर की मां ने डब्बे में वापस रख दिया और थके मन से अपने कमरे की तरफ आराम करने बढ़ गयी क्योंकि उनके हाथों में बादाम कैसे आये उन्हें याद नहीं था । ***
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 क्रमांक - 46

                                      पगली
                                                       - अजय गोयल
                                               गंगापुर सिटी - राजस्थान

"ले ... ये ले, यह रहा तेरा बच्चा|" रेलवे प्लेटफाॅर्म  पर खड़े उन मनचलों में से एक ने कपड़े के गट्ठर को उछालते हुए कहा|
"म.. मेरा बच्चा दे दो| मैं तुम्हारे हाथ जोड़ती हूँ|" उस औरत ने रोते हुए हाथ जोड़कर कहा, जो न जाने जिंदगी के किस मोड़ पर अपना बच्चा खो कर इस हालत में पहुँच गई थी|

"अरे! उधर नहीं, देख तेरा बच्चा तो मेरे पास है... इधर आ|" दूसरे मनचले ने हाथ झुलाते हुए हँसते हुए कहा|

"दे... दे मेरा बच्चा हरा... |" पगली औरत ने एक गंदी सी गाली दी|
तभी प्लेटफाॅर्म के दूसरे छोर से आवाज़ गूंजी,  "बचाओ... बचाओ, कोई मेरे बच्चे को बचाओ|"
पगली औरत सहित सभी उसी ओर भागे|

सामने से आती ट्रेन और पटरियों के बीच पड़े उस बच्चे को बचाने की गुज़ारिश करते लोगों की भीड़ के बीच  वो पगली औरत एकदम से कूद पड़ी और सैकंडों के अंतर से बच्चे को गोदी में उठा छाती से चिपका बोली, "नहीं, मेरे बच्चे| मैं तुझे कुछ नहीं होने दूंगी| तेरी माँ है न|"

प्लेटफ़ॉर्म पर चढ़ते ही नये तैनात हुए कांस्टेबल ने बच्चा छीनकर उसे तमाचा मारते हुए कहा, "पगली है क्या? अभी मर जाती तो...|"

"हाँ साहब, पगली ही तो है| हर माँ पगली होती हैं|" बच्चे को गोद में लेते हुए अवाक् खड़े निष्प्राण लोगों की ओर देखते हुए आँसू भरी आँखों से बच्चे की माँ ने दूर जाती पगली को देखकर कहा । ***

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 क्रमांक - 47

                                             मां
      
                                           - डॉ. विभा रजंन 'कनक '
                                                      दिल्ली
            
मैं आठवीं पास कर गई थी।  नौवीं में मेरे बाबुजी ने, अपने बडे भाई के कहने पर, मेरा  दाखिला स्कूल में नहीं कराया। माँ ने पुछा, तो उन्होंने कहा, कि अब यह अंग्रेजी मिडियम से पढ़ेगी। माँ ने विश्वास कर लिया। पर, जब दो महीना हो गया, मेरी माँ ने पुछा तब  बाबुजी चुप्पी साध गए। माँ को पता चल गया था कि, मेरा नाम स्कूल से कटवा दिया गया है। वह गुस्सा हो गई। इस बात को लेकर हमेशा दोनों झगडा होता था, मुझे बुरा लगता था। मुझे घर में बैठे दो साल हो गए, माँ की तबियत भी ठीक नहीं रहती थी। उसे मेरे पढ़ाई की चिंता रहती थी। जब उसने देखा कि, मेरी पढाई को लेकर, बाबुजी गंभीर नहीं है, तब उसने खाना छोड़ दिया। पहले तो, बाबुजी ने उनका इसे उपवास समझा। पर एक दिन, जब वह बेहोश होकर गिर पडी, तब उनको लगा कि माँ सच में खाना नहीं खा रही हैं। तब, उन्होंने मुझे प्राइवेट मैट्रिक की परीक्षा के लिए फार्म भरवा दिया। मैं बहुत डरी हुई थी, तीन कक्षा पार कर परीक्षा देना था। स्कूल में होती तो ग्यारहवीं में होती। मास्टर घर आकर पढ़ाते थे। मुझे इस बात का डर था कि पता नहीं मैं पास भी हो पाऊंगी या नहीं । मैने जब माँ को कहा, कि अगर मैं फेल हो गई तब, मेरी माँ ने मुझसे कहा, तुम फेल नहीं हो सकती। तुममे पढ़ने की तीव्र इच्छाशक्ति है, और मेरा आर्शीवाद भी तुम्हारे साथ है। अब तुमको कोई रोक नहीं पाएगा। तुम अपने खानदान की सबसे पढी लिखी लड़की बनोगी।मुझे लगा माँ मुझे हिम्मत दे रही हैं। पढ़ने में मुझे रुची थी तो, मैं भी तैयारी में जुट गई। इस बीच माँ की तबियत कभी ठीक रहती कभी बिगड़ जाती। अगर मैं घबडा़ती तो, माँ मेरा मनोबल बढ़ाती। 
               मार्च के दुसरे सप्ताह में बोर्ड की परीक्षा थी, और दो फरवरी को माँ मुझे छोड़ कर परलोक चली गई। मेरी हिम्मत टूट गई ।लगता था, छोड दूं परीक्षा, पर उसकी बात, उसकी इच्छा याद आती थी। मेरा मन, पढ़ने में नहीं लगता था। हर घडी़,  सूरत, आँखों के सामने घुमती रहती थी। मैं किताब के अंदर मुंह छुपा कर रोती थी। पर परीक्षा तो देना ही था। परीक्षा हो गई। मैं डर रही थी कहीं मैं फेल न हो जाऊं।  माँ के आर्शीवाद से, मैने द्वितीय श्रेणी से पास कर लिया था । फिर मेरी पढ़ाई कभी नहीं रुकी मैने हिन्दी साहित्य में एम.ए.करने के बाद हिन्दी साहित्य में डॉक्टरेट किया माँ का कथन सत्य हुआ। यह सब उसके  ही आर्शीवाद का फल है।
                मैं ईश्वर से प्रार्थना करती हूं, कि किसी भी बच्चे को माँ से बिछडने का दुख ना मिले। ***
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  क्रमांक - 48

                                       "मॉ"           

                                  - लज्जा राम  राघव "तरुण"
                                        फरीदाबाद - हरियाणा
                               
           जंगल में अपनी मां के साथ किलोल करते हुए हिरण शावक बहुत दूर चला गया था। हिरनी जितना उसका पीछा करती वह उतना ही आगे बढ़ता जाता। अंत में वह एक ऐसे स्थान पर पहुंच गया जहां पर एक शेरनी अपने शावकों को दूध पिला रही थी और ममता वश उन्हें चाटे जा रही थी। 
             अबोध हिरण शावक को क्या पता था, कि शेर और हिरण का कोई मेल नहीं होता,..... यदि मेल होता भी है तो,... "बस भूख और भोजन का!" 
          जब हिरनी उसका पीछा करते-करते वहां पहुंची तो यह दृश्य देख वह आतंकित हो गई। शेरनी कुछ ही कदमों के फासले पर थी जहां हिरण शावक खड़ा था। हिरणी को समझते देर ना लगी कि "अब तो उसके बच्चे की जीवन लीला कुछ ही क्षणों में समाप्त होने वाली है।" यह सोच वह अंदर तक हिल गई थी, तथा उसकी आंखों से झर झर आंसू बहने लगे थे।..... "परंतु..! कर भी क्या सकती थी?" वह अपने बच्चे के पास जाने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रही थी।....." क्यों कि सामने साक्षात मौत दिखाई दे रही थी।" 
              इतने में ही हिरण- शावक शेरनी के बिल्कुल पास ही जा पहुंचा था। आहट पाकर शेरनी ने आंखें खोली,.... शावक को देखा झुर झुरी ली और तुरंत खड़ी हो गई। 
            शेरनी की दहाड़ से सारा जंगल गूंज उठा था। एक बारगी तो उसके दिल में आया कि "शिकार खुद चल कर उसके पास आ गया है।" वह शावक पर झपटने ही वाली थी, कि अचानक उसकी नजर दूर खड़ी हिरणी पर गई।.... जो थरथर कांप रही थी तथा उसकी आंखों से निरन्तर आंसू बह रहे थे। यह दृश्य देख शेरनी का ममत्व जागृत हो गया। ...और ममत्व भरी एक नजर हिरण शावक पर डाल वह अपने बच्चों को ले, विपरीत दिशा में चल दी। 
      क्योंकि, "आखिर वह भी तो एक "मां" ही तो थी।" ***
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 क्रमांक - 49
                                        माँ 
                                               -  सेवा सदन प्रसाद
                                                   मुम्बई - महाराष्ट्र
                                      
" माँ , मैंने एक फ्लैट किराए पे ले लिया है।यहां से ऑफिस काफी दूर पड़ता है।नीलू भी ऑफिस से घर आते -आते थक जाती है।बस संडे के संडे आकर मिल लूंगा।" विनय ने अपना फैसला सुना दिया।माँ कलेजे पर पत्थर रखकर फैसले को स्वीकार कर ली।माँ सोची - बेटे को खुशी देना ही तो एक मां की नियति होती है।
कुछ महीने तो बहुत मजे से गुजरे।अपनी मर्जी से रहना , होटलों में खाना और मौज -मस्ती करना।ऐसे में संडे को मां से मिलने की सुध भी नहीं रही।
पर जैसे ही नीलू माँ बनी ,बच्ची को संभालना भारी पड़ने लगा।कभी विनय छुट्टी लेता तो कभी नीलू।इतनी परेशानी के बावजूद विनय की हिम्मत नहीं हुई कि माँ को बुला ले या खुद सपरिवार चले जाये।
पर माँ तो माँ होती है।एक महीने तक मूक दर्शक बनी सब देखती रही।अंततः बेटे से बोली --"विनय , आ जाओ यहां।यह तुम्हारा ही घर है।मैं सिर्फ तुमलोगों की ही नहीं तुम्हारी बेटी को भी संभाल लूंगी।" ***
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 क्रमांक - 50
                                 मुक्तिधाम
                                              -  रूबी सिन्हा 
                                               राँची - झारखंड 
                 
एक माँ दर्द से कहर रही थी, उसे प्रसव पीड़ा हो रही थी ।लेकिन उस दर्द के बाद उसे माँ बनने का गौरव मिलेगा,ये सोच कर उसका मन गदगद हो रहा था ।उस असहनीय पीड़ा के बाद शिशु के रोने की आवाज सुन वो मुस्कुरा उठीं, सारा दर्द उड़न छू हो गया ।सारी पीड़ा समाप्त हो गई ।
आज वो बेटा 42 वर्ष का हो गया है, आज वो माँ फिर दर्द से कहर रही थी ।आज उसी बेटे की चिखने की आवाज ने माँ को स्तंभ कर दिया है ।कल तुम्हे वृध्दाश्रम जाना है ।
आज फिर असहनीय दर्द है, उस माँ को, लेकिन इस दर्द के बाद खुशी की कोई उम्मीद नहीं है ।आँसु भी नहीं बहा सकती क्योकि उसने अपने सारे आँसु भी अपने बेटे पर खर्च कर दिऐ थे ।
उसकी हर खुशी में भीगे माँ के पलक, हर तकलिफ में छलके माँ के आँसु ।अपने लिए तो आँसु भी नहीं बचाया था उस माँ ने.........।
सुबह हुई ......पर वो नहीं जागी ।
शायद उसे मुक्तिधाम जाना अच्छा लगा ।
वृध्दाश्रम जाने से ...........। ***
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क्रमांक - 51

                     संधि                           
                                     - गोविंद भारद्वाज
                                     अजमेर - राजस्थान

"मम्मा देखो ना इतिहास विषय में मुझे कुछ समझ में  आता ही नहीं। कभी युद्ध के कारण पढो तो कभी घटनाएं और फिर संधियां। मम्मा ये बताओ कि ये संधि क्या होती है?" हर्ष ने किताब एक तरफ रखते हुए अपनी मम्मी लता से पूछा। लता ने कीचन से निकलते हुए कहा,"बेटा जब किन्हीं दो के मध्य लडा़ई हो जाए तो बाद में हारने वाले और जीतने वाले के बीच कोई समझौता हो जाता है, उसे संधि कहते हैं।" "इसका मतलब लडा़ई कितनी भी भयंकर हो,संधि हो जाती है?" ₹हर्ष ने पूछा। "हां बेटा... दोनों के बीच यदि आपसी सहमति हो जाए तो या फिर कोई तीसरा मध्यस्थता करा दे तो।" लता ने बडे़ प्यार से समझाते हुए कहा। हर्ष थोडा़ सोचने के बाद बोला, "एक बात पूछूं मम्मा। नाराज तो नहीं हो जाओगी?" "अपनों से कोई नाराज हुआ जाता है क्या। और तुम तो मेरे लाड़ले बेटे हो। कहो क्या पूछना है।" लता ने बेटे के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा।
हर्ष बोला,"आप कहती हो ना कि आपका और पापा का झगड़ा हो गया था।" "हां बेटा।" लता ने धीरे से जवाब दिया। "तो फिर आप ने उनसे संधि क्यों नहीं की?" हर्ष ने एकाएक पूछ लिया। लता की आंखें नम हो गयी। वह धीरे से बोली,"उन्होंने कभी पहल ही नहीं की।" "तो आप ही कर लेती।" हर्ष ने कहा। "हां कर लेती... लेकिन ।" वह बोलती -बोलती रूक गयी। "लेकिन क्या मम्मा?" हर्ष ने गंभीरता से पूछा। "हम दोनों के बीच ईगो यानि कि अहम आडे़ आ गया था।" लता ने आंसू टपकने से बचाते हुए कहा। "कोई संधि कराने वाला नहीं था? हर्ष ने पूछा। " बेटा एकल परिवार में कहाँ मिलता है संधि करवाने वाला।" लता ने उत्तर दिया। ***
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क्रमांक - 52
परछाई
                                   - संगीता सहाय
                                   राँची - झारखंड 
                                   
सुनैना के ससुर ने थैला थमाते हुए सुनैना से कहा"बेटा आज मैंने किसी को खाने पर बुलाया है और हाँ जो लोग आ रहे हैं वो तुम्हारे परिवार को जानते हैं,तुम्हारी माँ के हाथ के खाने की तारीफ अक्सर सुनी है उनके मुँह से।आज तुम्हारी बारी है ,मैनें भी कह दिया उनसे "मेरी बहु बिल्कुल अपनी माँ की परछाई है,बहुत अच्छा खाना बनाती है और बहुत प्यार से खिलाती भी है।देखना बेटा मेरी नाक नहीं कटे"।"बाबूजी आप निश्चिंत रहिए"।सुनैना ने बड़ी मेहनत से खाना बनाया,साथ साथ माँ को याद करते जा रही थी और प्रार्थना कर रही थी कि खाना स्वादिष्ट बने,भला माँ की बराबरी कैसे कर सकता है कोई?सुनैना ने कई पकवान बनाए,टेबल सजाया।उसके मन मे लगातार एक सवाल चल रहा था पता नहीं कौन आने वाले हैं,जिन्हें माँ के हाथ का खाना इतना पसंद है,।उसने ससुर जी से पूछा "पापा जी कौन लोग आ रहे हैं,क्या मैं उनसे पहले मिली हूँ ?" "आएंगे तो खुद ही देख लेना",पापा जी ने मुसकुरा कर कहा, सुनैना पापा जी के जवाब से संतुष्ट तो नही थी पर सोंचा  "मुझे क्या करना है जान कर जो भी हों मुझे तो अच्छा से अच्छा खाना बनाना है ताकि मेरे बाबूजी(ससुर) को खुशी मिले और उनकी इज़्ज़त बनी रहे।" "पापा जी खाना तो बन गया है कब तक आएंगे वो लोग?"तभी घंटी बजी"लगता है वो आ गए,कहते हुए उन्होंने दरवाज़ा खोला"आइये आइये हमलोग इंतज़ार ही कर रहे थे"। "माफ कीजीए ट्रैफिक में फस गए थे।"आवाज़ सुनकर सुनैना चौंक गई"पापा जी..माँ.. आपलोग!!कैसे? इस वक़्त?।"अरे ,भई बिन बुलाए मेहमान नहीं हैं हमें तो समधी साहब ने खाने पर बुलाया है"।आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी से माँ से लिपट गई।सबने खाना खाया खूब बातें हुईं फिर सुनैना के माता पिता जाने को तैयार हुए।"अब बताइये भाई साहब मेरी बहु ज़्यादा अच्छा खाना बनाती है या आपकी पत्नी"ससुर जी ने प्यार से बहु के सिर पर हाथ फेरते हुए उसके पिता से पूछा।सुनैना के पिता ने कहा "मैं न कहता था मेरी बिटिया बिल्कुल माँ की परछाई है,पिताजी की आवाज़ में गर्व और प्यार दोनों झलक रहा था।सुनैना ने भी हंस कर कहा चलो मैं पास हो गई,मां ने सुनैना को गले लगा कर कहा "सिर्फ तू नहीं मैं भी पास हो गई वो भी अव्वल नम्बरों से,हहहह हहहहह"!!! ***
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क्रमांक - 53
नृतांगना 
                                     - अलका पाण्डेय 
                                   नवी मुम्बई - महाराष्ट्र

नींद में बार बार पैर पटक रही थी दामनी कसमसा रही थी  नींद नही आ रही थी , माँ ने देखा तो समझ गई दर्द हो रहा है टाँगो में सारा दिन हिरणी की तरह उछलती कूदती रहती है एक मिनट भी  आराम न करती है न करने देती है!
न ढंग से खाती पीती है आज भी खाना बराबर नही खाया है   ,बस नाचने को कह दो मोर की तरह नाचती रहेगी कभी यहाँ कभी वहाँ,
माँ मन ही मन यह सब बाते बुदबुदाती रही व उसके पैर दबाती रही दामनी को आराम मिला वउसको नींद आ गई !
माँ ने माथा चुमा सिर पर प्यार से हाथ फेरा व चादर ओढ़ा दी ,
आज दामनी के नाना , नानी आये थे उन्हें सारा दिन अपने खिलौने . किताबें दोस्तों के क़िस्से बताती रही थी , खेलती रही डाँस किया सबने मना किया दामनी बस करो पैर दर्द करेगे पर वह कहाँ मानने वाली थी एक के बाद एक उसकी सहेली बिंदिया शाम को आ गई फिर क्या था दोनो नाना नानी को दर्शक बना डाँस करती रही और बोली माँ अभी मामू आयेंगे न उनको भी दिखाऊँगी मेरा डाँस नही बेटा बहुत थक गई हो अपनी पढ़ाई की किताबे दिखाओ और उनसे कुछपढ लो यह डाँस अब बंद , नही मम्मा मे दिखाऊँगी नही बेटा मेरी रानी मेरी लाडो मां का कहना मानती है न माँ  ने प्यारे उसे गोद में भर कर कहाँ,  माँ के प्यार के आगे दामनी हार गई व माँ की बात मान ली ,
थोड़ी देर में मामू आये और आवाज़ लगाई कहा है मेरी राजकुमारी आज चहक नही रही है अरे बिटिया आओ अपना डाँस दिखाओ अंदर से दामनी मूंह फुलाये हुये बहार आई मम्मा ने मना किया है में डाँस नही दिखाऊँगी बडी मायूसी से जवाब दियामामू तो क्या हुआ हम कार्टून देँखेगे पापकार्न खायेगे , नही मुझे नही देखना न पापकार्न ख़ाना है और वहरुठ कर अंदर जाने लगी तभी नानी ने गाना बजाया और बोली नाच बेटी देखती हूँ तेरी माँ कैसे मना करती है मेरी लाड़ों को और दामनी खुश हो नाचने लगी तभी नानी ने इशारा किया की कोई कुछ नही बोलेगा और मूहं दबा कर हँसने लगी तब दामनी की माँ बोली हाँ  हाँ आप मेरी बेटी को बिगाड़ दो सारा दिन डाँस करना बुरा है ! नानी ने ज़ोर से कहाँ खामोश यह लड़की एक दिन बहुत बडी नृतागना बनेगी देश विदेश में इसका नाम होगा मैने इसकी ललक डाँस के प्रति देखी है इसकी उड़ान को रोको मत इसके क़दमों को थिरकने दो 
थिरकनमें ही इसकी जान बसती है , यही लगन इसे कामयाबी दिलायेगी ! यह जन्मजात कलाकार है इसे तराशने की जरुरत है !
हाँ नानी माँ को समझा दो मुझे रोके न दामनी झट बोल पड़ी 
तब नानी ने अपनी बेटी को बहार लाकर समझाया बेटी है तो क्या हुआ  ,तुम उसके पर काटोगी नही , में ऐसा नही करने दूँगी , दामनी जरुर नृत्य करेंगी , 
हाँ माँ आप ठीक कह रही हो में नाहक उसे मना करतीथी ! 
आपने मेरी आंखे खोल दी मेरी बेटी की इच्छा जरुर पूरी करुगी 
माँ ने आवाज़ लगाई दामनी तैयार रहना शाम को तुम्हे डाँस क्लास चलना है मेरे साथ , दामनी सच माँ - हाँ बेटे 
तेरा आकाश तुझे मिलना ही चाहिये - दामनी माँ से लिपट गई माँ तुमबहुत प्यारी हो दोनो की आंखो में खुशी के आँसु थे । ***

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क्रमांक - 54

देवी मां का आर्शीवाद
                             -  विमला नागला
                             अजेमर - राजस्थान
                             
बहू!ओ बहू! जरा जल्दी जल्दी जाकर मोहल्लेकी कन्याओं को न्यौता दे आओ  जीमण का।
   पता ही नही धीरे-धीरे क्या करती रहती है...दूसरे लोग न्योता दे देंगें कन्याओं को।नवरात्रि में तो नौ कन्यायें भी मोहल्ले में ढूंढने से भी मुश्किल से मिलती है,हमारे जमाने मे तो पूरी की पूरी फौज मिल जाती.....रमादेवी अनवरत बोले जा रही थी।
   नीरा सिर पर पल्लू डाले जल्दी जल्दी सीढियां उतर चल दी, कन्याओं के घर परन्तु उसका मन  बहुत अशांत था।उसकी सास के प्रतिपल,प्रतिदिन के कर्कश शब्द उसके मन उद्देलित कर रहे थे।अरी!ओ री नीरा! तूने भी तेरी मिँ की तरह छोरिया जनने की फेक्ट्री खोल दी है क्या..कितनी ओर जनेगी।दूसरी बार में गर्भ मे कन्या भ्रूण होने और गर्भपात से इन्कार करने पर दोनों माँ-बेटे ने उसका जीना दुश्वार कर दिया और आज उसका डाक्टर पति व सासुमां नवरात्रि मेंदेवी माँ का आशीर्वाद पाने हेतु न केवल कन्याओं को प्यार भरा निमन्त्रण भेज रहे है बल्कि अच्छे उपहार भी लाये ताकि कन्यायें हमारे घर जरूर आयें....
   इन्हीं दोहरेपन के आचरण मे उलझी रमा अचानक कार से दुर्घटना ग्रस्त होते होते बची।
  रमा ने आसमान में सिर उठाकर मातारानी को धन्यवाद दिया और करबद्ध प्रार्थना कि..."हे देवी स्वरूपा जगतजननी, हर स्त्री को मेरे जितना संबल देना कि वह अपनी अजन्मी अबला को जन्म दे ताकि हम नवरात्रि में आपके इह साक्षात स्वरूप को भोग लगा सके।चाहे हमें कितनी भी प्रताडऩा क्यों न मिले, पर इन मासूम देवियों की हँसी के झडते फूलो से हमें कटु वाणी के शूल कभी नही चुभेंगे।
   आंचल से आँसू पोछकर ,नीरा माँ का भोग बनाने में जुट गई... । ***
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क्रमांक - 55

बिखरी पंखुड़ियाँ 
                                    - ज्योत्सना सिंह 
                                 लखनऊ - उत्तर प्रदेश
    
“साईं मंदिर का फूल है।मोहन के सिरहाने रख देना। कुछ तो पीड़ा हरेंगे प्रभु!”
फूल देते हुए उसने अपनी सहेली से कहा।तो वह निराशा भरी आवाज़ में बोली।
“न जाने कितने फूल-पत्ती,पीर-फ़क़ीर दवा-दारू सब तो कर चुकी पर न मोहन, को आराम हुआ न मुझे चैन मिला।” 
“सब होगा सखि, उसके घर देर है अंधेर नहीं।”
कहते हुए उसने ऑफ़िस की टेबल पर रक्खे भगवान को प्रणाम किया और पेपर उठा उसे पलटने लगी।पेपर में रक्ख़ा एक पर्चा देख वह उसे पढ़ने लगी।जिस पर किसी संत का चमत्कारी तरह से रोग हरण का गुणगान था।वह अपनी सहेली से बोली।
“लो पढ़ो, बस पाँच सौ का चऊढ़ावा और कुछ फूल ले कर जाना है।और संत उन फूलों में पढ़ कर मंत्र फूँक देंगे।फिर वे फूल मरीज़ के सर के पास रख देना है। जैसे-जैसे फूल सूखेगा वैसे-वैसे मरीज़ का मर्ज़ सूख कर ठीक हो जायेगा।”
सहेली की बात सुन वह फीकी सी हँसी हँस बोली।
“सब बकवास है।”
“पर एक बार प्रयास करने में क्या बुराई है? कभी-कभी मिट्टी भी दुआ बन लग जाती है।”
शाम को जब लम्बी क़तार पार कर वे दोनो वहाँ पहुँची तो वह फूल फेंक चीख़ उठी।
“ये संत! ये क्या किसी को किसी भी मंत्र से ठीक करेगा।यह तो ख़ुद के अपंग जन्मे बच्चे को अभिशाप समझ घर से भाग गया था।जिसे अपने बच्चे के राहों में फूल बिछाने थे वह उन्ही फूलों को रौंदता हुआ घर से भाग गया।और अब संत बन मंत्र के सहारे लोगों को रोग मुक्त करने का ढोंग कर रहा है।”
और वह फूल फेंक उन बिखरी पंखुड़ियों को रौंदती हुई अपने बेटे मोहन के पास दौड़ती चली जा रही थी। ***

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क्रमांक - 56

माँ 
                                         -  योगध्यानम
                                        राँची - झारखण्ड 
                                        
रेलगाड़ी आपनी रफ़्तार से चल रही थी ।मैं पैरो को फेलाये आपनी बर्थ पर लेटा था । तभी गाड़ी की रफ़्तार कूछ कम होती है ।मैं समझ गया कोई स्टेशन आने वाला है । मैं उठ कर खिडकी की तरफ़ सरक गया ।गाड़ी धीरे-धीरे स्टेशन पे रूकती है ।प्लेटफार्म पे खड़े लोग अपनी रफ़्तार बढ़ा कर गाड़ी पर चढ़ने लगे तभी मेरी नजर, उस औरत पर पड़ी जो भीड़ में आगे आकर गाड़ी में चढ़ने की जगह बना रही थी ।पीठ पर गंदे गम्छे से बधा एक बच्चा। सर पर चने की टोकरी । एक हाथ से टोकरी एक हाथ पीठ पर बधे बच्चे को सभालते हूए, जैसे तैसे वो गाड़ी में सवार हुई । सभी से चने लेने की आग्रह करने लगी । मेरा मन चने खाने का नहीं था, लेकिन रोटी के लिए उस माँ की मेहनत ने मुझे चने लेने पर मजबूर किया ।मैंने भी दस का नोट निकाल और चने ले लिया ।वो माँ पसीने से लथपथ हो गई थी ।बार-बार आपने जीभ से होठों को चाट रही थी ।शायद उसे प्यास लगी थी । तभी पीठ पर बधा बच्चा भी रोने लगा ।सिटी की आवाज सुन वो जल्दी से दरवाजे को तरफ़ लपकी ।चने की टोकरी सभालती हुई,नीचे उतर गई । मैं खिडक़ी से उसे छाकने लगा।प्लेटफार्म के एक खाली बेन्च पर बैठकर पीठ से बधे बच्चे को खोलती है ।अपनी प्यास और पसीने को भूल कर,अपने बच्चे को छाती से अमृत पिलाने लगी । गाड़ी धीरे-धीरे रफ़्तार पकड़ती रही,और वो माँ मेरे नजरों से ओछ्ल हो गई । मैंने अपने पैरो को अपनी सीट पर फिर से फैलाया और आँखे बंद कर के माँ के विशाल स्वरूप में खो गया । ***
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क्रमांक - 57

विदाई
                  - ऊषा भदौरिया
                     लन्दन - यू के 

बैग कधे पर संभालते हुये वह गेट तक आ पहुंची थी. हमेशा की तरह छोटी बहने उसके साथ व पतिदेव पापा के साथ सामान कार में रखवा रहे थे. मां हमेशा अन्त में ही बाहर आती थी. खाने का सामान, पानी की बोतल और कुछ रुपये शगुन के जरूर हाथ में पकड़ाती  ,जो शादी से पहले कॉलेज टाइम में हॉस्टल जाने के समय उसके लिये चांदी का काम करते और शादी के बाद भी उसके काफी मना करने पर भी मां हाथ में पकड़ा ही देती थीं. काफी सारी बातों के साथ ससुराल में अच्छे से रहने की हिदायते देती जिन्हें वह अपनी बहनों के साथ मजाक में उड़ा देती और फिर शुरु होता था रोकने की नाकामयाब कोशिश के बाद  मां के आँसूओ का बहना जो पूरे माहौल को गमगीन कर देते थे.
आज बहुत देर तक भी मां घर के अन्दर से बाहर नहीं आयी. सब बाहर खड़े थे. पर उसे बस मां का इन्तजार था. सारा सामान कार में रखा जा चुका था. पति चलने का इशारा कर रहे थे.
तभी पापा ने अपनी जेब से कुछ रुपये निकाल उसके हाथ में थमाते हुये कहा,” बेटा ,अपना ध्यान रखना.”
पापा के गले लग वह खूब ज़ोर जोर से रोये जा रही थी. मां के गुजरने के बाद घर से उसकी यह पहली विदाई थी.  ***
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क्रमांक - 58

वो मां 
                             - रेणु झा
                             रांची - झारखंड
                  
मंदिर से लौटते वक्त रात हो चुकी थी, तभी मेरी नजर मंदिर के किनारे बैठी एक बृद्ध महिला पर पड़ी, उसके चेहरे पर एक नूर था ।करीब जाकर मैं बोली, "रात हो गई है यहाँ क्यों बैठी हो आप "!सुबह बेटा बैठाकर गया है, इंतजार कर रही हूँ, आता ही होगा! परसो ही गांव से आई हूँ, सारे जमीन बेचकर बेटा को दिया है, 'अब हम सब साथ ही रहेंगे ।उम्मीद की खुशी से उनका चेहरा चमक रहा था ।ठंड की रात है,ठिठुर जाएंगी, चलिए हमारे घर नजदीक ही है, वो बूढ़ी मां बोली , कैसे चली जाऊं! वो यहीं आकर ढूंढेगा मुझे! आशंका जताई, कहीं कुछ बुरा न हुआ हो ।फिर मंदिर की चौखट को छूकर बेटे के लिए दुआ मांगी, और मेरे साथ घर आई ।
     सुबह नहा धोकर तैयार हो गई बोली, बेटी मंदिर चलो ना मेरा बेटा आ गया होगा! मैने उन्हे मंदिर छोड़ दी, साथ ही हिदायत दी कि, वो यहाँ से कहीं न जाए और दोपहर तक घर लौट आएं ।शाम हो गई, मैं सोच रही थी, , , , , कि शायद उनका बेटा आकर उन्हें ले गया!दिल को तसल्ली करने के लिए मैं मंदिर गई देख कर दंग रह गई, वो मां बेटा के इंतजार में टकटकी लगाए राह देखे जा रही थी ।ना भूख ना ठंड लग रही थी, 'बस! बेटा से मिलने की धुन '।मुझे देखते ही बोली, चल घर चलते हैं, फिर सुबह आऊंगी ।आज भी वो बूढ़ी मां मेरे साथ रहती है और नित मंदिर जाती है , बेटा के इंतजार में "एक ही धुन लिए दिल में, वो मुझे वहीं मिलेगा, उसने कहा है " । ***
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क्रमांक - 59                                                                

माटी की बन्नो
                                          - कल्पना भट्ट
                                      भोपाल - मध्यप्रदेश

"अम्मा, तुम बहुत गन्दी हो , रोज़ तड़के ही उठा देती हो फिर पढ़ने बिठा देती हो| घर के कार्यों में भी तुम मुझे लगा देती हो| पता है! मेरी संगिनियाँ कहतीं हैं उनकी माँ तो घर का सारा काम करतीं हैं और वह कुछ नहीं करतीं| बस एक तुम ही हो जो मुझे प्यार नहीं करतीं | पापा भी घर पर नहीं रहते, जब देखो टूर पर रहते हैं , आने दो उनको सब बता दूंगी तुम कितना परेशान करती हो|"

" अब चुप हो जाओ , पापा की बेटी , वरना मारूंगी, और जाओ पढ़ने बैठो|"
  
" आने दो पापा को शाम को सब बता दूंगी |"

"ऐ जी , सुनती हो , क्या कह रही है बिटिया की तुम इससे काम करवाती हो! एकलौती संतान है यह अपनी क्यों अभी से इसके साथ ऐसा व्यवहार करती हो? पता नहीं किस मिट्टी की बनी हो तुम| घर आते से ही सारा मूड खराब कर देती हो|"

"सुनो जी, बेटी अब सायानी होती जा रही है ,मैं नहीं चाहती की कल को कोई अपनी लाडो से यह कह दे की कैसी ' माटी की बन्नो' है यह| मैं माँ हूँ कोई कसाई नहीं |" ***
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क्रमांक - 60                                                          

फट पड़ा आसमान
                                      - कृष्ण मनु
                                  धनबाद - झारखण्ड

पहली तनख्वाह मिलते ही उसने चिर संचित अभिलाषा पूरी की। एक सफेद रंग की रेशमी साड़ी का गिफ्ट पैक बनवाकर स्टीकर सटवाया - प्यारी माई को।

घर आकर वह गिफ्ट पैकेट और गुलदस्ता फूल माला से आच्छादित माई की बड़ी सी तस्वीर के सामने रख कर हाथ जोड़ लिए।

-' माई, बाबू जी का साया मैंने कभी महसूसा नहीं लेकिन तेरा साया मेरे सिर पर हमेशा बना रहा। मुझे अच्छी तरह याद है, तू मुझे स्कूल भेजकर ईंट, गारे ढोया करती थी। देख माई देख, तेरा रमुआ अब रामू मांझी, आइ पी एस बन गया। सब तेरा आशीर्वाद और लगन का प्रतिफल है माई। सोचा था, पहली तनख्वाह के पैसे से तेरे लिए रेशमी साड़ी तेरे कदमों पर रख दूंगा। बहुत दुख झेली थी माई मेरे लिए। फटी पुरानी साड़ी सी- सी कर बदन ढकती थी। दुनिया भर की खुशियाँ लुटाना चाहता था तेरे चरणों में माई लेकिन जब सुख का समय आया तो तू मुझे छोड़कर चली गई । नितांत अकेला झोड़कर। किसके भरोसे माई? जरा सा सिर दर्द होता था तो तू पागल  हो जाया करती थी। मुझे अकेला झोड़ते दया नहीें आई  माई?'

विलाप कर उठा वह। उसके रूदन से आसमान जैसे फट फड़ा हो। जोर से बिजली कड़की और देखते देखते बारिश की मोटी धार बहने लगी। 

दुनिया के लिए बेशक यह संयोग था लेकिन रामू ने महसूस किया- माई आज भी उसके लिए आंसुओं की धार बहा रही है ।  ***
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क्रमांक - 61                                                         

कैसे माँ 
                                 - प्रतिभा सिंह
                                   राँची - झारखंड

"  जाओ मैं नहीं बनाती......तुम्हारी माँ ने तो आदत खराब कर दिया है खुद तो चली गयीं   पर मुझे झेलना पड़ रहा है । गरमा गरम  रोटियां और तरह तरह की सब्जियाँ ....मैं नहीं परोस सकती । आँफिस और घर के चक्कर लगाते  मेरी जिंदगी तो ट्रैफिक  पुलिस - सी हो गयी है जो बिना आराम किए कभी दायें देखता है कभी बायें, कभी आगे देखता है तो कभी पीछे और उपर से तुम्हारी फरमाइश उफफफ........।"  रीमा बौखलाते हुए बोली ।
    दिनेश ने सुमी से गरमागरम कुछ बनाने का आग्रह किया था पर थोड़ी देर पहले ही सुमी ने खाना बनाकर मेज पर रख दिया था । क्योंकि उसे और भी काम निपटाने थे ।,
   सुमी की बातें सुनकर चुपचाप  दिनेश धीरे से आपने कमरे में आ गया ।  वहाँ माँ की टंगी तस्वीर की ओर टकटकी लगाये देखे जा रहा था और जैसे माँ से पूछ रहा - हो , ..माँ  ! ....... तुम कैसे कर लेती थी इतने काम , तुम भी तो एक शिक्षिका थी पर ...कैसे बना लेती थी प्यार से भरी फुली रोटियां और मेरीे पसंद का खाना  । कैसे माँ......कैसे ? ***
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क्रमांक - 62

मां दुर्गा की तस्वीर
                                       - भुवनेश्वर चौरसिया "भुनेश"
                                     गुड़गांव - हरियाणा
                                     
नवरात्र नजदीक आ चुकी थी। घर के मंदिरों में सजी मां दुर्गा की पुरानी तस्वीर हटाई जा रही थी, और साथ ही यह भी सोचा जा रहा था, कि इसे प्रवाहित कहां किया जाए? दूसरी तरफ भक्ति में लीन पुरूषों स्त्रियों से बाजार पट चुके थे, बिल्कुल अलग ही अफरा तफरी का माहौल बन गया था; सभी मां दुर्गा की तस्वीर, फूलमाला, प्रसाद, नारियल चुनरी इत्यादि खरीदने में व्यस्त थे। शहर में रहते किसी नदी का दर्शन नहीं हुआ था, और थी भी नहीं। तस्वीर कहां फेंकी जाए या प्रवाहित किया जाए? यह पूछने के लिए गांव में मां से फोन पर बातचीत की, तो वो वोली यहां तो लोग नदी में पुरानी तस्वीरें फेंक आते हैं। एक काम करो तुम्हारे आसपास कोई पीपल के वृक्ष हों तो वहां रख आओ! तस्वीर लेकर पीपल का पेड़ ढूंढने निकल पड़ा। तभी शहर के चौराहे पर एक पीपल का पेड़ दिख गया जहां पहले से बहुत सारी तस्वीरें फेंक दी गई थी, या फिर रख दी गई थी। मैं भी रखकर चलने लगा,कि अचानक बारिश शुरू हो गई। मेरी तस्वीर के साथ ही अन्य तस्वीरें भी बारिश की पानी में बहने लगी उनके साथ साथ शहरी कूड़े कचड़े भी। एक तस्वीर तो मेरे पास बहती हुई मेरे पांवों को छूने वाली थी। मुझे लगा कि मां दुर्गा कुछ कहना चाहती हों। उस मूर्ति का स्वरूप ऐसा था, जिसमें मां दुर्गा हाथ उठाकर आशीर्वाद दे रही हैं।पैर लगते ही एकदम से पीछे हट गया। बिना देर किए उठा कर माथे से लगाते हुए मां को प्रणाम किया ।अब लोगों के प्रति मेरे मन में बहुत क्रोध आ रहा था,कि कैसे कैसे लोग हैं जिसे वर्षों से पूजते हैं उन्हीं तस्वीरों को कूड़े कचड़े में फेंक देते हैं।तभी किसी ने आवाज दिया तुम भी तो वही कर रहे हो जो सब लोगों ने किया है। तभी मां दुर्गा का स्मरण हो आया तो शांत मन से मैं कुछ सोचने लगा। ध्यान सामने खड़े पीपल के वृक्ष की तरफ चली गई, और एक उपाय सूझ गया। मां दुर्गा की तस्वीर अभी मेरे हाथ में ही थी। कचड़े में पड़ी कोई रस्सी ढूंढने लगा और मिल भी गई। तब मैंने उन तस्वीरों को पेड़ के सहारे रस्सी से बांध दिया।अब मैं चलने को हुआ तो एक दृष्टि मां दुर्गा की मुझपर पड़ गई ऐसा लग रहा था कि मां दुर्गा कह रही हों अब मुझे तुम्हारे हाथों सद्गति मिल गई है। ***
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क्रमांक - 63

भूमिका
                                          - विभा रानी श्रीवास्तव
                                             पटना - बिहार

“आज तो तुम बहुत खुश होगी...? माँ-बाबूजी गाँव लौट रहे हैं..!”

“खुश! पर क्यों?”

“गुनाह करके मासूमियत से पूछ रही.. क्यों?”

“गुनाह?”

“हाँ! आज तुमने भोलू के गाल पर चाँटा जड़ दिया क्यों...?”

“भोलू मेरा भी बेटा है...! उसका भला-बुरा देखना मेरा काम है..., वह बतमीजी कर रहा था।”

“तो क्या हुआ? हमारा इकलौता बेटा है..! माँ-बाबूजी तुम्हारे इस चाँटे को अपने गाल पर महसूस किया है..., बाबूजी का कहना है, बहू के ऐसे चाँटे खाने से अच्छा है हमलोग गाँव में रहें... तुम भी शायद यही चाहती हो न!”

“क्या बात कर रहे हैं... मैं ऐसा क्यों चाहूँगी?”

“ताकि तुमको उनकी सेवा न करनी पड़े...,”

“यह आपकी गलत सोच है... कल यदि गोलू बिगड़ गया तो सारा दोष मुझ पर आ जायेगा... 

(चोर वाली कहानी याद है न जो जेल में अपनी माँ से मिलने की इच्छा रखता है) ... 

बन गया बेटा लायक तो सारा श्रेय आपलोग ले जायेंगे... मुझे श्रेय की नहीं, बेटे के भविष्य की चिंता है..., इकलौते बेटों का भविष्य मैंने अन्य कई घरों में देखा है...!”

“तो...!”

“देखिये! आप माँ-बाबूजी को समझाइए... मैं आखिर उसकी माँ हूँ...!”

मैं उसकी माँ हूँ... यह संवाद भोलू की दादी के कानों में पड़ा तो उन्हें अतीत के दिन याद हो आये जब वह भोलू के पिता के संग अपने अन्य बच्चों की गलतियों पर उनको एक चाँटा तो क्या डंडो से पीटने में गुरेज नहीं करती थी... वह सामने आयी और बोली “यह माँ है... इसकी यही भूमिका है... हमलोग दादा-दादी हैं हमलोगों की अपनी भूमिका है..., जब बहू भी दादी बनेगी तो इसे भी ऐसे ही बुरा लगेगा.. जैसे हमलोगों को लगा है...!” इसके बाद सास ने बहू को गले से लगा लिया! ***
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क्रमांक - 64

माँ..प्लीज कॉल करना
                                          - अंकिता कुलश्रेष्ठ
                                             आगरा - उत्तर प्रदेश

ऑफिस में घुसते ही रंजना का मोबाइल बज उठा। सहकर्मी सुजाता चुटकी लेते हुए बोली," कौन याद कर रहा है"?"
सीमा ने लपककर कहा,"और कौन होगा.. इसकी माँ के अलावा..इसकी माँ दिन में पाँच-सात बार इसे फोन करती हैं।नन्ही बच्ची समझती हैं इसे"सब खिलखिला उठे।
सचमुच माँ का ही फोन था।
"हाँ मम्मी बोलिए...।" रंजना बैग टेबल पर रखते हुए बोली।
"कुछ नहीं बेटा, बस पूछ रही थी कि पहुंच गयी कि नहीं, आज थोड़ा लेट थी घर से ही ..कहीं बॉस ने कुछ कहा तो नहीं.. चिंता लग रही थी।" माँ ने स्नेह भरे स्वर में कहा।
रंजना ने कुछ झुंझलाते हुए जवाब दिया, मम्मी, पहुंच गयी समय से..आप हर एक घंटे में फोन करोगी तो काम कैसे करूंगी।जब जरूरी लगे तब किया करिए।" कहकर बात खत्म कर दी।
लंच टाइम में टिफिन खोले बैठी रंजना ने अपने मनपसंद कोफ्ते देखते ही फोन पर नजर डाली..माँ रोजाना लंच टाइम में जरूर फोन करती हैं।कोई कॉल नहीं थी। लंच करते-करते रंजना की बार-बार फोन पर जा रही थी। काम से मन उचटता रहा।छुट्टी का समय आ गया। माँ का कॉल न आया।
   ऑफिस से निकलते ही रंजना ने माँ को खुद ही फोन लगा लिया.."हेलो..हाँ..मम्मी.. आज फोन ही नहीं किया आपने..लंच मेंं कितना इंतजार किया..।" लगभग गुस्से में बोली।
माँ की आवाज़ आई,"अरे बेटा,तुझे कामकाज में परेशानी.." बात काटकर रंजना बोली," सौरी मम्मी...मुझे किसी की बातों में आकर आपसे ऐसे नहीं कहना चाहिए था।आपकी आवाज ही तो  तो घर-बाहर मेरी हिम्मत और ऊर्जा है।मम्मी... प्लीज..कॉल कर लिया करिए.."ग्लानि और स्नेह सिक्त रंजना माँ से कहकर मुस्कराते हुए वैन की ओर चल दी। ***
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क्रमांक - 65                                                     

माँ-एक मिथक का अंत
                                          - गोकुल सोनी
                                        भोपाल - मध्यप्रदेश

     पड़ौस में रहती तीन बच्चो की माँ को दिन-रात काम मे खटते देख, उसके फटेहाल वस्त्रों को निहार, करूणा से विगलित कहानीकार सरस्वती चंद्र ने माँ की महानता और आधुनिक पीढ़ी के क्षरण होते संस्कारों पर पूरा कहानी-संग्रह “बेचारी माँ” लिख डाला. आज उसको प्रकाशित करने की योजना बनाते बरामदे में टहल रहे थे. जब उन्होंने उन तीनों बच्चों द्वारा माँ को डाँटते देखा तो सब्र करना मुश्किल हो गया, और वे बच्चों को समझाने पहुंच ही गये.बच्चे उनको तुरंत अंदर ले गये. कपड़ों से भरी माँ की अलमारी दिखाते हुए बोले- देखिये ये नये कपड़ों से भरी अलमारी, फिर भी ये फटे कपड़े पहनती हैं. घर मे किसी बात की कमी नहीं, फिर भी ये रूखा-सूखा, बासा खाना खाती हैं. शांता बाई को सभी कामो के लिये रखा है, परंतु ये बर्तन, झाडू, पोंछा करने लग जाती हैं. खुद भी ढंग से नहीं रहती और हम लोगों के क्रीम पावडर भी छुपा कर रख देती हैं. कहती हैं फिजूलखर्ची मत करो. माना हम लोगों के पालन-पोषण मे इन्होने बहुत कष्ट उठाये, पर अब तो हम तीनों कमा रहे हैं ना, फिर ऐसा क्यों? हम लोग तो समझाकर हार गये, अब आप ही समझाइये, कि अब ये बेचारी, पीड़ित, गरीब माँ की छबि से बाहर आयें, खुद भी ढंग से रहें और हम लोगों को भी बे-इज्ज्त और दुखी ना करें. 
     माँ अपराधी की तरह सिर झुकाये सब कुछ सुन रहीं थी. बच्चे यह सब कहते हुए बहुत दुखी थे, पर उन से अधिक दुखी सरस्वती चंद्र थे कि वे देश, काल, और परिस्थिति को भाँपते हुए अपने लेखन में बदलाव क्यों नहीं ला पाये. घर जाकर उन्होंने अपनी कहानियों की पांडुलिपि फाडकर फेंक दी. ***
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क्रमांक - 66

माँ की ममता
                                    - उर्मिला सिदार
                                    रायगढ़ - छत्तीसगढ़
                                    
 और बेटा जी आपकी मम्मी आई है आपको बुला रही हैं कहते हुए गुरुजी बरामदे की ओर चले गए ।उरु कक्षा छठी के बरामदे से निकल  कर देसी उसकी मां कुछ दूर बरामदे में खंभे से सटकर खड़ी उरु का इंतजार करते हुए एकटक कक्षा छठवी के कमरे की ओर निहार रही थी।उरु मां को देख कर अब आप आ गई है। आप यहां कैसे माजी आप यहां क्यों आई हो मां गुरु का प्रश्नों का उत्तर का जवाब ना दे शुरू को पास बुलाकर उसके चेहरे में आई पसीने को आंचल से पहुंचते बड़ी प्यार से बोली बेटा जी मैं आपके लिए खाना लेकर आई हूं आप खाना खाकर नहीं आई है आपको भूख लगी होगी मैं गरम गरम खाना लेकर आई हूं चलो खा लो बेटा जी मैं आप बोली थी ना कि आज आपको स्कूल नहीं जाना है आपको रात में बुखार आया था आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं था और आप बिना बताए बिना खाए पैदल चलकर स्कूल आ गई । मैं नहा कर आई आपको बिस्तर पर ना देखकर शंका होने लगे मैं सूची नहीं स्कूल तो नहीं चली गई फिर पता लगाई तो आप स्कूल आए हैं। अगर इतना जरूरी था आपका स्कूल आना तो पिताजी आप को साइकिल से स्कूल पहुंचा देते ।उरु मां की बातों का कोई जवाब नहीं दी । माँ  उरु के चेहरे निहार रही थी। उरु अपनी गलती का एहसास कर रही थी मां बोली बेटा जी जाओ सर जी से छुट्टी मांग लो खाना खा लेना उसके बाद पुनः क्लास चले जाना उरु बोली माँ जी मैं यहां स्कूल में खाना नहीं खाऊंगी। मां घर चले जाओ मैं छुट्टी होते ही घर चली जाऊंगी। बेटा जी आप भूखी हो ,देखो मैं आपके लिए लाई की बड़ी ,आम का अचार ,टमाटर की चटनी ,आमलेट बना कर लाई हूं गरम पानी और दवा भी लाई हूं ।चलो जल्दी छुट्टी मांग लोऔर खाना खा कर पढ़ाई करना नहीं मां जी, मैं नहीं खाऊंगी उरु बोली। खाने का मेरा मन नहीं हो रहा है । डीटीजी मैं जान रहे हूं कि आप खाना क्यों नहीं खाना चाहते आप स्कूल में खाना खाने के लिए शर्मा रही हो ,कोई बात नहीं चलो ,मैं ही छुट्टी मांग लेती हूं सर से ,वह बोली नहीं मां छुट्टी मत मागो मैं बोली ना घर आ कर खा लूंगी ।बेटी की जिद्दी  से मां का दिल आंदोलित होने लगा ,क्या करूं बेटी अभी बच्ची है ,समझ नहीं है ,कल से खाना नहीं खाई है । ऊपर से ऊपर से बुखार ठीक नहीं हुआ है 3 किलोमीटर पैदल चल पर भारी बस्ता लेकर कड़कती धूप में घर जाएगी तो और तबियत खराब हो सकता है मैं क्या करूं बच्ची को कैसे समझाऊं मां की दिल को तसल्ली नहीं हो रही थी ।उदास मन से मां ऊरु से बोली ठीक है, बेटा जी आपकी मर्जी ,खाना की पोटली उठाते हुए, थके मन से मां स्कूल से बाहर निकलीे उसका मन भारी लग रहा था । उरु के लिए यह बात सहज लग रहा था लेकिन मां के लिए बहुत भारी पड़ रहा था ।मां की ममता तृप्त नहीं हो पा रही थी ।मन ही मन माँ सोचने लगी ,बेटा जी भूखे पेट भारी बस्ता ,तिलमिलाती धूप ,तीन किलोमीटर की रास्ता  कैसे तय कर पायेगी । मां का मन   उद्वेलित हो उठी और स्कूल के रास्ते में एक पेड़ के नीचे बैठकर बेटी की प्रतीक्षा करने लगी। मां बार-बार स्कूल की गेट की तरफ आंख गड़ाए ,बेटी की इंतजार कर रही थी। यह है मां की ममता। ***
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क्रमांक - 67

आने वाला समय
                                       - अनीता मिश्रा सिद्धि
                                        हजारी बाग - झारखण्ड 

"माँ जल्दी करो ना , देर हो रही है मुझे "।मीनू बोली।
हां ले टिफिन हो गया खा लेना माँ ने टिफिन दिया मीनू को ।
मीनू  एक ब्यूटी-पार्लर में काम करती थी, और रात को अपनी पढ़ाई । माँ घर में ही सिलाई करती थी ।
दोनों माँ - बेटी का गुजारा हो जाता था ।
मीनू अब बड़ी हो रही थी ,अब इसकी शादी भी तो ---
करनी पड़ेगी सीता देवी सोच रही थी दहेज़ का जुगाड़ कैसे कँरु ? बिना दहेज क्या शादी हो जायेगी मीनू की ?।
 मेरी मीनू इतनी गुणी और सुन्दर है । मीनू
ने जल्दी से ऑटो पकड़ा और ब्यूटी-पार्लर पहुँच गयी ।

पार्लर को खोला साफ-सफाई की ।
तभी पार्लर की मालकिन कार से आ गयी , "नमस्ते मैम "
मीनू बोली । 
" मीनू देखो आज एक नेता की बेटी की शादी में जाना है ,दुल्हन सजाने । तुम उसे ठीक से सजा देना बस मेरा काम हो जायेगा ' " मैम बोली ।
चलो तुम्हे छोड़ देती हूँ उसके बंगले पर मेक अप किट ले लो । 
" जी" मीनू बोली।
बंगले पर कार रुकी मीनू सुन्दर से कमरे में बैठी नेता जी 
के बेटी को देखा , जिसे सजाना था।

"इसे कैसे खूबसूरत बनाऊँ मैं ,  मोटी-नाक-नक्श भी ठीक नहीं रंग भो साँवला सोच में पड़ गयी मीनू।
, पर सजाना तो पड़ेगा ही "। "मेरी माँ ठीक कहती थी पैसे के आगे रूप-औरअव- गुण छिप जाते है '"। समय बदल रहा है आज लड़के वाले रूप के साथ गुण भी देखते है , पढ़ी-लिखी तेज लड़कियाँ पहली पसंद है आजकल ।मीनू खूद से ही वार्ता कर रही थी और सोच रही थी  मैं तो उसी  से शादी करुँगी जो मेरे गुण को दहेज़ समझेगा या की पैसे को ?। ***
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क्रमांक - 68

'मैं' है न!  
                                    - शेख़ शहज़ाद उस्मानी
                                         शिवपुरी - मध्यप्रदेश
               

प्रार्थना-सभागार में टंगे नीले-काले से बैनर में लिखा एक मात्र शब्द 'मैं' को  देखकर वह अपनी 'माँ' में खो गया। अपने दादाजी और पिताजी के रास्तों का अनुकरण करते हुए वह भी अपनी माँ पर अपने 'मैं' का भार डाला करता था, जबकि उनमें उसने कभी 'मैं' को नहीं पाया। सब रिश्तों में उसे 'मैं' नज़र आता था, जिससे 'माँ' सदैव जूझती रही। 

उसे याद आया कि माँ कहा करती थी- "कोई किसी का नहीं होता। अपनी लड़ाई ख़ुद लड़ते हुये, अपना रास्ता ख़ुद चुनकर अपनी मंज़िल हासिल करो, लेकिन 'मैं' को कभी ख़ुद पर हावी मत होने देना।" 

अपने आज के सफल जीवन और वजूद से उसे अहसास हुआ कि 'माँ' की जिस  'ममता' में उसे कभी कोई कमी या कटौती महसूस नहीं होती थी, वास्तव में उसी 'ममता' ने आज उसे इस मुकाम पर पहुँचाया है। फिर वह अतीत से लौट कर वर्तमान के बारे  में , अपनी पत्नि व बच्चे के बारे में सोचने लगा। अपने वैवाहिक जीवन में  स्वयं पिता बनने के बाद आज की आधुनिक माँ में पाई जाने वाली 'माँ' और 'ममता' के बीच उसे 'मैं' नज़र आ रहा  था। अपनी पत्नि के साथ स्वयं अपनी जीवन शैली पर जब उसका ध्यान गया, तो बड़बड़ाता सा स्वयं से बोला- "माँ से मैंने भी कुछ न सीखा। आज भी मुझमें भी 'मैं' है न! ***
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क्रमांक - 69

कोमल है कमजोर नहीं 
                                               - श्रुत कीर्ति अग्रवाल 
                                                पटना - बिहार

सुबह के आठ-दस बजते-बजते अपने कपड़ो और शक्लों से बिल्कुल बेपरवाह वो सब अपने-अपने कमरों से निकल, आँगन में आ बैठती थीं। बालों को रँगने, चेहरे की मालिश और नाखूनों की पालिश जैसे बहुत से काम यहाँ साझे में, खुले हँसी-मजाक और खाने-नाश्ते के साथ हो जाया करते। अनारो को पता था कि ये सब लगभग शाम होने तक यहीं पड़ी रहेंगी और ये गोष्ठी ऐसे ही चलती रहेगी। उसने अपनी लोटा भर चाय में तीन चार चम्मच चीनी और डालकर पारले जी के एक पैकेट बिस्कुट के साथ गटक लिया कि अब इसी पर उसे पूरा दिन काटना था। फिर एक पुरानी सूती साड़ी लपेटकर उसने अपने आपको बुरके से ढाँका और छिपती-छिपाती बाहर निकलने ही वाली थी कि दरवाजे पर से नीली की आवाज सुनाई दी.. 
"कहाँ छुपी हो अनारो? दिखाई ही नहीं देती आजकल तो?"

कलेजा जैसे निकल कर गले में आ अटका। बस एक-दो मिनट की गड़बड़ी हो गई वर्ना वह तो गायब ही हो चुकी होती अबतक!  इसकी बातों में फँस कर तो अस्पताल पँहुचने में देरी हो जायगी। लेट होने पर वो लोग कुछ नहीं सुनते, सीधे पैसे ही काट लेते हैं! पर कोई उपाय नहीं सूझने पर जवाब देना ही पड़ा.. 
"कहाँ छुपूँगी बहना, आजकल तबियत कुछ ठीक नहीं रहती सो यहीं बिस्तर में पड़ी रहती हूँ।"
नीली अविश्वास से उसे देख रही थी
"बुरका पहन कर सोती हो?"
"नहीं नहीं, वो तो थोड़ा साबुन तेल खत्म हो गया था तो बगल की दुकान तक जा रही थी।"
"साबुन तेल लेने तुम क्यों जा रही हो? आंटी से माँगो!"
"सोंचा, थोड़ा सेब संतरा भी ले आती, तबियत ठीक नहीं रहती न आजकल!"
वो थोड़ा झल्ला सी गयी थी। ये नीली की बच्ची  भी पूरी अय्यारी पर उतरी हुई है आज तो! एक झूठ बोलो तो उसे सँभालने पीछे सौ झूठ बोलने पड़ते हैं। अनारो परेशान थी पर नीली आज उसको छोड़ने के मूड में कतई नहीं थी।
"कितने पैसे दे गया तेरा गाहक कल रात जो आंटी को देने के बाद भी सेब संतरा खा रही है?"
अविश्वास से नीली उसका चेहरा देख रही थी तो अचानक अनारो के सब्र का बाँध टूट गया 
"मुझे जाने दे नीली, परेशान मत कर। मैं बहुत जल्दी में हूँ।"
नीली को उसकी यह परेशानी जरा भी समझ में नहीं आई। ये अनारो कभी उसकी बड़ी अच्छी सहेली हुआ करती थी पर पिछले कुछ समय से पता नहीं क्या हुआ है कि सबसे मुँह छिपाए बैठी रहती है! फिर कुछ सोंचकर उसने अनारो के दोनों हाथ कसकर पकड़ लिये... "नहीं जाने दूँगी तुझे, पहले बता क्यों गुस्सा है तू मुझसे? क्या गलती की है मैंने?"
आँखों में आँसू आ गए अनारो के.. 
"तुझसे गुस्सा क्यों होऊँगी गुइयाँ, मेरे पास तो उसके लिए भी वक्त नहीं है। सब बताती हूँ तुझे, पर मेरी कसम खा कि किसीको नहीं बताएगी?"
"बहन कहती है पर साथ में शक भी करती है?"
नीली ने उसकी आँखों में आँखें डालकर कहा तो अनारो उसके कान के पास मुँह ले जाकर बुदबुदाई
"पास वाले अस्पताल में सफाई सुथरा करने की नौकरी पकड़ ली है दिन की। आठ घंटे की ड्यूटी होती है,  वहीं जा रही हूँ।"
भौंचक्की थी नीली 
"क्यों भला? वहाँ तो बहुत ज्यादा खटनी है। थकेगी नहीं तू? ऐसे रात दिन मेहनत कितने दिन कर पाएगी?"
नीली क्या जानती नहीं है अपने पेशे को? पूरी-पूरी रात नाचना-गाना, अलग-अलग ग्राहकों की अनर्गल माँगों को पूरा करने की मजबूरी शरीर को थका कर चूर कर देती है।
"क्या करूँ, तू तो जानती ही है कि रात वाली सारी कमाई तो आंटी रख लेती है, हाथ में कुछ बचता ही नहीं। पर मुझे अभी पैसों की बहुत जरूरत है।"
"क्यों जरूरत है? खाना कपड़ा सब आंटी के जिम्मे है, घर परिवार बचा नहीं! कौन सी ऐसी नायाब चीज़ खरीदनी है तुझे?"
अचकचा सी गई अनारो! इसी एक प्रश्न से बचने को तो छिपी फिरती है वह! 

नीली उसके कंधे पकड़ कर झकझोर रही थी।"बोल अनारो बोल, सच बता। क्या छिपा रही है मुझसे? किसी को नहीं बताऊँगी, तेरी कसम"
जाने कब से दबाई हुई शारीरिक और मानसिक थकान एकाएक तेज रुदन बनकर फूट पड़ी... 

"मेरी एक बेटी भी है नीली! मुझे घर से निकालने के दो बरस बाद जब मेरे मरद ने दूसरी शादी की तो मैं उसे चुपके से अपने पास ले आई थी। मेरी जिंदगी तो बरबाद हो चुकी है पर उसे सबसे बचाने के लिए उसी अस्पताल की एक डाक्टर के कहने पर होस्टल में रखा है। पैसा भेजना होता है हर महीने! मत बताना किसी को ये बात... मर जाऊँगी अगर उसके साथ कुछ बुरा हुआ! डाक्टर बनाना है उसे!"

रोते-रोतै अनारो की हिचकियाँ बँध गई थीं पर उससे बेखबर नीली मुग्ध सी, उस कमज़ोर काया से झाँकती उस माँ के अक्स को देख रही थी जो शायद बिल्कुल भी कमज़ोर नहीं थी। ***
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क्रमांक - 70                                                            

विश्वास
                                    - कंचन अपराजिता
                                      चैन्नई - तामिलनाडु

"अम्मा अम्मा ,देखो राजेश्वर काका आये है" कहते हुए फूलो झोपड़े मे घुसी।
"फूलो ,काका को बैठने के लिए जरा कुर्सी बढ़ा देना और हाँ , मटके से पानी भी दे देना कहते हुए खाट से उठने का प्रयास किया अम्मा ने।
ये श्याम भी परसों रात से घर ही नही आया
मन ही मन बड़बड़ाई अम्मा ।
"कुर्सी और पानी की जरूरत नही है ,६ माह से तेरे बेटे ने किराया नही दिया है । मैने दीन समझकर किराया बहुत कम लिया ,अब ये भी नहीं होता है तो झोपड़ा खाली कर दो" 
जब तक फूलो पानी लाती तब तक चाचा जा चुके थे। 
"अम्मा, मै कब से कह रही हूँ  तेरा बेटा जुआ खेलता है ,शराब पीता है ,उसे मना कर गलत काम न किया करे ,पर तुने कभी उसे कुछ कहा ही नही"
"नही, मेरा श्याम ऐसा नही है"
"अरे अम्मा, मै यही तो कहने आई हूँ परसों रात तेरे बेटे के साथ तीन और लड़कों को पुलिस पकड़ कर ले गई, इमली के पेड़ के नीचे चारों जुआ खेल रहे थे ,रामू चाचा बता रहे थे।"
"तू गलत सुनी होगी, मेरा श्याम जरूर समान  लाने शहर गया होगा आज सुबह की बस से आकर दुकान पर ही होगा ।
"अरे अम्मा , दुकान तो कब का बेच चुका है  और तुझे बताया भी नही" फूलो ने अम्मा के कंधे पर प्यार से हाथ रखते हुये कहा ।
"तू नही जानती, मेरा श्याम बहुत अच्छा है ,वो ऐसा कर ही नही सकता ।"
"अरे अम्मा ! तू कहाँ चल दी ,तू कभी नही मानेगी तेरा बेटा गलत है"
फूलो ने देखा अम्मा बड़ी मुश्किल से डंटे के सहारे सड़क पर पहुँच चुकी थी उसे विश्वास था उसका बेटा दुकान पर मिल जायेगा । ***
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क्रमांक - 71

माँ का प्रतिरूप
                                    - डॉ लता अग्रवाल
                                    भोपाल - मध्यप्रदेश
                                    
आज नवेली रूपल का रसोई में पहला दिन है। सभी ने अपने - अपने पसन्दीदा व्यंजन की लंबी लिस्ट उसे थाम दी । यूँ ससुराल में उसके पढ़े लिखे होने की तारीफ तो सभी ने दिल खोलकर की मगर रसोई...वह तो हमेशा बचती रही है रसोई से । सब्जी वगैरह तो फिर भी वह नेट से देखकर कभी -कभार शौकिया बना लेती थी मगर रोटी..! दादी हमेशा माँ से कहती -
“अरी कृष्णा ! चाहे कितना ही पढ़ा ले बेटी को मगर बनाना तो उसे रोटी ही है।  कभी रसोई के दर्शन भी करादे कर।“
“ वक्त आएगा तो सीख लेगी मांजी ।“
कभी दादी चेलेंज करती - ,
“चल री रूपल आज मैं तेरे हाथ की ही रोटी खाऊँगी, देखूं कैसी बनाती है ।'
रूपल कितनी कोशिश करती मगर गोल की जगह कोई न कोई नक्शा ही बनता , जब थक जाती तो माँ धीरे से आकर उसके हाथ पर हाथ रख बेलन चलाती और गोल रोटी तैयार हो जाती। मगर आज ... वह क्या करेगी ? उसने दाल- चावल, खीर, पनीर कोफ्ता, सब नेट की सहायता से बना लिए मगर रोटी की बारी ...वही वह बार- बार लोई बनाती , बेलती फिर तोड़ती होंसला छोड़ रही थी माँ की याद कर आँखों में आँसू भर आये।
अचानक रूपल ने अपने दोनों हाथों पर किसी का स्पर्श महसूस किया  और उसके हाथ चकोटे बेलन पर गोल- गोल घूमने लगे। सब कह उठे,
' वाह ! बहू  ने तो बिलकुल चाँद सी गोल रोटी बनाई है।'
रूपल आँखों में खुशी के आँसू लिए सासु माँ को निहार रही थी। ***
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क्रमांक - 72

माँ की तस्वीर
                                      - सविता गुप्ता
                                     राँची - झारखंड


पापा इधर आइए..दीपक ने हाँथ पकड़कर बड़े प्यार से गेट के अंदर प्रवेश कराया।बेटे के नए घर में प्रवेश करते हुए मन बाग़ -बाग़ हो रहा था।अपने परवरिश पर गर्व हो रहा था।इतने कम उम्र मे मेरा बेटा चीफ़ इन्जीनियर के पद पर आसीन जो, हो गया था।आज कविता कि बहुत याद आ रही थी कितने मन्नत ,व्रत किए थे बेटे को आइ आइ टी मे प्रवेश दिलाने के लिए।पहली बार हॉस्टल जाते वक़्त माँ का आँचल पकड़ कर घंटों रोया था।कविता हमेशा उसे दीपक के बजाए”कुलदीपक “कह कर पुकारती थी।आज बेटे के शानदार घर को देख फुली न समाती।
          कविता की तस्वीर लिए मै बेटे के ड्राइंग रुम मे गृह प्रवेश किया।चारों तरफ़ नज़र घुमा रहा था ,जिस चीज़ की तलाश थी मिल गया ,मन प्रफुल्लित हो गया रंगीन काग़ज़ मे लिपटी तस्वीर को उस कील पर टाँगने लगा कि..दीपक झल्लाते हुए तेज़ क़दमों से मेरे हाँथों से कविता कि तस्वीर को छिनते हुए कहा-ये यहाँ क्यों लगा रहे हैं ?दिखाई नहीं दे रहा ये ड्राइंग रुम है।रखिए अपने पास देखा जाएगा बाद में कहाँ रखना है।
       कोरों पर नमी सी महसूस हुई।आज मुझे अपने भविष्य का रुप साफ़ -साफ़ नज़र आ रहा था। ***
              
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क्रमांक - 73                                                             


माँ की सीख
                                               -मंजु गुप्ता
                                           मुम्बई - महाराष्ट्र

        डोली में विदा होते हुए आधुनिकता में रंगी  बेटी माँ से गले मिलकर यूँ बोली -  " माँ  ! इन कीमती आंसुओं को छलका कर  दुखी न हो .मैं तो २१ वीं सदी में पली - बढ़ी हुई हूँ . तेरे ही संस्कारों का प्रतिरूप  हूँ . "

माँ  बेटी के तसल्लीपूर्ण मीठे वचनों को सुनकर खुश हुई . बेटी पुनः माँ से बोली , "  ससुरालवालों की ख़ुशी में  मैं अपनी ख़ुशी समझूँगी .  अगर वे दिन को रात कहेंगे तो मैं रात कहूँगी. ' सिसकते हुए माँ बोली , '  बेटी ! यह सहिष्णुता , सहने और धैर्य का धर्म का बड़ा कठिन  तप है .  "बेटी माँ के आँसू पौंछते हुए  बोली , "  माँ ! चिंता न कर. तुमने ही तो सीख दी है कि पति- पत्नी का मिलन  आत्मा - परमात्मा का मिलन  होता है . पति को मैं परमात्मा मानूँगी . पति घर को स्वर्ग बनाऊँगी . सास - ससुर , जेठ - देवर और नंदों को प्रेम की गंगा में नहलाकर उन्हें स्वर्ग का रास्ता दिखाऊँगी ." यह सुन के  निपुण  माँ ने समझाते हुए लाडली से कहा  , " मेरी लाडो  ! ससुराल ही तुम्हारा अपना घर है. संस्कारों की नींव पर ही स्वर्ग -सा सुंदर  घर बनाना है . जिस प्रेम , स्नेह , त्याग से सीप में अनमोल , कीमती , गुणकारी मोती पलता है . उसी तरह तुम  अपने  सास - ससुर , देवर - जेठ , ननदों पर सीप - सा अगाध स्नेह बरसा के सबके दिलों में कीमती मोती बन के कान्तिमान होना . "  आँसुओं को ढुल्काते  हुए  बेटी ने माँ को हाँ में अपनी गर्दन हिला के   डोली में विदा हो गयी . ***
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क्रमांक - 74                                                         

 " मां "
                              - डाॅ सुरिन्दर कौर ' नीलम '
                                     रांची - झारखंड

आंखों में मोटा- मोटा फैला हुआ - सा काजल और माथे पर बड़ा -सा गोल काला टीका लगा कर रखती थी वह मां, कि कहीं मेरे मुन्ने को किसी की बुरी नज़र न लग जाए। 
जब प्यार से उसे चूमती तो मुन्ना भी खिलखिलाकर मां के चेहरे पर जहां -तहां अपने माथे के टीके के छाप छोड़ देता कि मेरी "मां " को भी कोई बला छू न पाए। 

"अपने लाल के माथे के सारे दाग अपने ऊपर ले कर वह "मां "होने पर गर्व करती "

थोड़ा बड़ा हो जाने के बाद भी वह किसी बहाने मुन्ने के कानों के पीछे या पैरों के नीचे नज़र का टीका लगा ही देती कि कहीं..... 

पर टीके के कालेपन से भी गहरे अंधविश्वास और अशिक्षा के अंधेरे में डूबी हुई थी उसकी बस्ती। उसके सामने ही डायन होने के शक् में, आरोप लगा कर कुछ महिलाओं की हत्या कर दी गई थी या उन्हें निर्वस्त्र घुमा कर बस्ती के बाहर निकाल दिया गया... 

उसे बहुत बुरा लगता था ये अत्याचार। वह नहीं मानती थी ऐसे अंधविश्वासों को... 

" वह खत्म करना चाहती थी ऐसे अंधेरों को परंतु उसकी सोच की रोशनी, फैलने के पहले ही इस अंधेरे में गुम हो जाती "

उसके मुन्ने की सुरक्षा का हवाला दे कर दकियानूसी परिवार वाले उसकी आवाज को दबा देते। 

आज वह मां " दादी " बन गई है। बस्ती के बाहर दूर एक घास -फूस की झोपड़ी में रह कर जीवन के अंधेरे से अकेली जूझ रही है... 

उसका मुन्ना, जो बाप बन गया है...
कहता है कि " तुम डायन हो, तुम्हारी वजह से मेरा मुन्ना हमेशा बीमार रहने लगा है..... "। ***
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क्रमांक - 75

पश्चाताप के आँसू
                                      
                                                - मीरा प्रकाश
                                                पटना - बिहार

शीला अपनी माँ के कामों में कुछ भी मदद नहीं करती थी। दिन भर अपने दोस्तों के साथ समय बिताती और बाकी समय मोबाइल पर। उसकी माँ उसे समझाती कि थोड़ा बहुत कुछ काम सीख लो, शादी होगी तो दिक्कत नहीं होगी। मगर उसे अपनी माँ की बातें अच्छी नहीं लगती। 

समय बीतते गए और फिर उसकी शादी हो गई। अब ससुराल में उसे हर काम समय पर करना पड़ता था। उसकी माँ की तरह अब उसे अपने घर का ध्यान रखना पड़ता था। तब उसे माँ की बातों का अर्थ समझ में आने लगा। दिन बीतने लगे, वह माँ बनने वाली थी। 9 महीने उसे बहुत कष्ट हुआ, नवे महीने में उसने एक पुत्र को जन्म दिया। अब उसे अपने बच्चे की देखभाल करनी पड़ती थी। उसका काम अब ज्यादा ही बढ़ गया था। अब वह समय पर न ही सो पाती थी, न ही खा पाती, ना ही मोबाइल पर समय दे पाती थी। 

उसे अपनी माँ की बहुत याद आने लगी और उसे बहुत ही पछतावा हो रहा था कि उसने अपनी माँ की कभी इज्जत नहीं कि, उनको सम्मान नहीं दिया। जबकि उसके जन्म में भी उसकी माँ ने इतना ही कष्ट झेला होगा। यह सब सोचकर वह माँ से लिपट कर रोने लगी। यह आँसू उसके पश्चाताप के आँसू थे। ***
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क्रमांक - 76

मां कभी नहीं हारती
                                            - गीता चौबे
                                                   रांची - झारखंड               
           फूलमनी का जन्म एक आदिवासी मजदूर परिवार में हुआ था। पन्द्रह साल की फूलमनी को प्यार हो गया । एक ऐसे लड़के से जो ऊंची जाति का था, पर बेरोजगार था। आदिवासियों में एक बात अच्छी होती है कि वहाँ लड़कियों को वर चुनने की पूरी आज़ादी होती है। फूलमनी की शादी राजेश के साथ बिना किसी बाधा के हो गयी। एक साल के अंदर ही फूलमनी माँ भी बन गयी। 
       राजेश कोई काम धंधा नहीं करता था और एक बच्ची के जन्म के बाद तो उसने पीना भी शुरू कर दिया था। बेचारी फूलमनी प्रसव के एक सप्ताह बाद ही काम पे लौट आई। वह मेरी दीदी के यहाँ चौका-बर्तन करती थी। एक बार मैं वहाँ बैठी हुई थी। फूलमनी रोते हुए आयी और कहने लगी कि आज फिर से उसके पति ने नशे की हालत में उसके साथ मार पीट की। 
          मैंने जब उससे कहा कि तुम इतनी मार खाती हो फिर भी उसके साथ रहती हो, अलग क्यूँ नहीं हो जाती। उसने कहा, 'दीदी पहले की बात होती तो मैं अलग हो जाती, पर अब मैं माँ हूँ... बिन बाप की बच्ची को समाज अच्छी नज़रों से नहीं देखता।''
     अब फूलमनी पहले से भी ज्यादा मेहनत करने लगी। इसी बीच एक और बच्चे की भी माँ बन गयी। परंतु उसके पति अभी भी गैरजिम्मेवार बना रहा। कितने कष्ट झेल कर उसने अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ाया। वह चाहती थी कि उसके बच्चे पढ़ लिख कर बड़ा आदमी बन जाएं। 
     जिसदिन उसकी बेटी का रिज़ल्ट निकला वह खुशी से चहकते हुई दीदी के घर आई और बोली, '' आज मैं बहुत खुश हूं दीदी, आज बेटी अंजलि का रिज़ल्ट आ गया और वह अच्छे नम्बरों से पास हो गयी। दीदी ने भी कहा कि तेरी ममता रंग लायी। आज एक माँ की जीत हुई। 
         सच में एक माँ अपने बच्चों के लिए कोई भी कष्ट उठाने को तैयार रहती है। एक औरत भले ही हार सकती है, पर एक माँ कभी नहीं हारती। ***
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क्रमांक - 77                                                               

माँ के कंगन
                                             -  विनीता चैल
                                             रांची - झारखंड 


     नन्हा बालक  ईश्वर प्रतिदिन अपने विद्यालय पढ़ने जाता था | उसकी घर में अपने बेेटे पर प्राण न्योछावर करनेवाली एक प्यारी और सरल हृदयवाली एक माँ थी , जो अपने प्यारे बेटे की हर मांग पूरी करने में बहुत ही आनंद का अनुभव करती थी | उसका पुत्र भी अपनी माता का बहुत ही आज्ञाकारी था और पढ़ने-लिखने बड़ा ही परिश्रमी था | एक दिन दरवाजे पर एक बूढ़ी
भिखारिन भीख मांगने के लिए 'माई ! ओ माई !'कहकर पुकारते हुए आवाज लगाई तो वह बालक हाथ में पुस्तक पकड़े हुए ही अपने घर के द्वार पर आ
गया | द्वार पर आते ही उसने देखा कि एक फटेहाल बुढ़िया भिखारिन अपने कांपते हुए हाथ फैलाये खड़ी थी | बालक को देख बुढ़िया ने कहा , 'बेटा ! कुछ भीख दे दे |' बुढ़िया के मुंह से बेटा शब्द सुनकर वह बालक भावुक होकर अपने माँ के पास गया और कहने लगा , 'माँ ! एक गरीब बेटा कहकर मुझसे कुछ मांग रही है |' उस समय उसके घर में उसके घर में खाने की कोई वस्तु न थी इसलिए माँ ने कहा, ' बेटा ! घर में पके हुए चावल या रोटी कुछ बचा नहीं है , चाहे तो उसे थोड़ा चावल दे दो |' 
                 इस पर बालक ने हठ करे हुए कहा , 'माँ मुट्ठी भर चावल से क्या होगा ? तूने जो सोने के कंगन अपने हाथों में पहने हैं , वही उसे दे दो | मैं बड़ा होकर तुम्हें एेसे ही कंकन बनवा￰ दूंगा |' माँ ने अपे बेटे का मन रखने के लिए वही किया | अपने कंगन उतार कर अपने बेटे को दे दिया | बेटा ख़ुशी -ख़ुशी उस बुढ़िया भिखारिन को कंगन दे आया | भिखारिन की ख़ुशी का ठिकाना न रहा | कंगन लेकर भिखारिन उसे बेचकर  अपने परिवार के भोजन के सामान और वस्त्र खरीद लायी | अपने अंधे पति की चिकित्सा करायी | उधर वह बालक भी धीरे -धीरे बड़ा हुआ और ज्ञान अर्जित  कर के एक बड़ा विद्वान हुआ और काफ़ी नाम कमाया |  बड़ा होने पर अब भी उसे अपने माँ को दिये हुए वचन याद थे | इसलिए उसने अपनी माँ से उसके हाथों का नाप माँगा ताकि वो उनके लिए सोने के कंगन बना सके | इस माँ ने कहा , 'मेरी चिंता छोड़ बेटा अब मैं बूढ़ी हो गई हूँ अब मुझे कंगन शोभा नहीं देंगे | कलकत्ता के बहुत सारे ग़रीब बालक शिक्षा के इधर - उधर भटकते हैं तुम इन पैसों से उनके लिए विद्यालय की स्थापना करो | गरीब - दुखियों के लिए चिकित्सा की व्यवस्था करो |' बेटे ने वैसा ही किया  | ***
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 क्रमांक - 78

माँ का सकून
                                               - रतन राठौड़
                                                 जयपुर - राजस्थान
                                      
सोने जाने से पूर्व जीवनलाल ने लकवाग्रस्त माँ के कमरे में प्रवेश किया।
"माँ, आज की दवा खा ली?"
"हाँ बेटा.."
"...आज कुछ उदास क्यूँ लग रही हो माँ...क्या बात है?"
"कुछ नहीं..थोडा पाँव में दर्द हो रहा है।" 
"कोई बात नहीं...थोडा दबा देता हूँ...ठीक हो जायेगा।" कहते हुए वह माँ की सेवा करने लगा।
"माँ..इन्ही चरणों का मैं स्पर्श करते हुए और आपका आशीर्वाद प्राप्त कर.... आज इस मुकाम तक पहुँचा हूँ..."
"हाँ..बेटा।... मेरे पोते-पोती भी तेरे ही नक्शेकदम चल रहे है....बड़ा सकून मिलता है..." माँ ने आत्मविश्वास से कहा।
"सच कहती हो आप।...आपकी गोद में पले-बढे है...अगर आपका स्नेह और स्पर्श न मिलता तो यह संस्कार कहॉं से आते।" जीवनलाल ने कहा।
"ठीक कहा बेटा...आजकल की माँएं तो दूसरों के भरोसे बच्चे पाल रही है...अब वो अपनेपन का स्पर्श कैसे..और..कहाँ..से मिलेगा?" कहते कहते माँ उनींदी हो गई थी।
माँ अब सकून से सो चुकी थी। जीवनलाल आत्मगर्व से अपने कमरे की ओर सोने चले गए थे। ***
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 क्रमांक - 79

माँ 
                                             - रंजना वर्मा 
                                           राँची - झारखंड

'मेरी तबियत ठीक नहीं है ।एक बार तुम्हे देखना चाहती हूँ ।' सौरभ के हाथ में माँ का खत लहरा रहा था।आँखे आँसू से धुंधली हो गई ।'मीरा मैं गाँव जा रहा हूँ ।माँ की तबियत बहुत खराब है ।'उसने अपनी पत्नी से  कहा ।'उन्हें तो बहाना चाहिए तुम्हे अपने पास बुलाने का।कोई जरूरत नहीं है वहाँ जाने की।'मीरा बोली।
सौरभ निकला तो ऑफिस जाने के लिए लेकिन उसके कदम स्टेशन की ओर मुड़ गये।
उसने अपने गाँव का टिकट लिया और ट्रेन में बैठ गया ।उसका मन अतीत की ओर जाने लगा ।बिता हुआ समय चलचित्र की तरह उसके आंखो के सामने चलने लगा ।उसे याद आया पिता की मृत्यु के पश्चात माँ ने उसे गोद में लिए कैसे दर दर की ठोकर खाया था।कभी  इस रिश्तेदार के यहाँ कभी उस रिश्तेदार के यहाँ ।सभी रिश्तेदार बहाना करके उन्हें घर से निकाल ही देते थे।अंत में उन्हें एक बड़े घर के आउट हाउस में रहने की जगह मिली ।शर्त थी उन्हें वहां झाड़ू पोछा और खाना बनाने का काम करना होगा ।माँ खुश थी उन्हें सर छुपाने की जगह मिल गया था।उस घर से उन्हें बचा खुचा खाना भी मिल जाता था ।जो उनके लिए काफी था।
  माँ उसे पढ़ाने और स्कूल की फीस भरने के लिए दो जगह और काम पकड़ लिया ।जब पहली तनख्वाह मिली तो माँ की आंखो से खुशी के आँसू बहने लगे।उसने उसे गोद में उठाया और बाजार जाकर सबसे पहले उसके लिए आइसक्रीम खरीदी।बहुत दिनों से वह आइसक्रीम खाने की जिद कर रहा था।उसे आइसक्रीम खाते देख उसका चेहरा खुशी से दमक रहा था।याद करके सौरभ की आंखों से आंसू लूढ़क पड़े।माँ मैं जब नौकरी करूँगा तुम्हे रानी की तरह रखूंगा।तुम्हे कोई काम नहीं करने दूँगा ।माँ उसका मुख चूम लेती थी।
लेकिन उसका अरमान पूरा न हो सका।उसकी पत्नी बहुत ही दुष्ट,कर्कश एवं चंडी की रूप थी।उसके प्रकोप एवं बेटे के पारिवारिक शांति के लिए माँ अपने गाँव चली गयी।सौरभ की आंखों से आंसू रूकने का नाम नहीं ले रहे थे।उसका जी उड़ कर माँ के पास पहुँच जाना चाह रहा था ।
     'अरे सौरभ आ गया ,सौरभ आ गया ।'माँ की लाश  सारी तकलीफें और वेदनाओं को समेटे हुए लावारिश सी घर के बाहर पड़ी थी ।उसकी आँखें उसके इंतजार में अभी भी खुली हुई थी।लोग चंदा इकट्ठा कर उसके कफन का इंतजाम कर रहे थे । ***
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 क्रमांक - 80

दयालु माँ
                                       - ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'
                                           सिरसा - हरियाणा

माँ  कई दिनों से पालतू कुतिया  की गतिविधियों पर नजर रख रही थी। रोटी डालते समय वह पहले की तरह उछल-कूद नहीं करती, माँ के हाथों की रोटी की तरफ देखती रहती,  जमीन में डालने पर वह उसे सूंघती और मुंह में रखकर घर के पिछवाड़े की तरफ एकांत कोने में ले जाती तथा जमीन को अपने पंजों से थोड़ी गहराई तक खोदती और उसमें रोटी रखकर मिट्टी से दबा देती, फिर मां के पास लौट आती और मां के हाथों की तरफ ललचाई नजरों से देखती,मां के रोटी डालने पर वह धीरे-धीरे खाती और  चली जाती, फिर दिन-भर दिखाई नहीं देती।
शाम होने पर रोटी के समय चौक में आकर बैठ जाती ,मां के रोटी डालने पर वह खाकर धीरे-धीरे चली जाती,पहले से वह भारी होगई थी। 
मां ने अपनी अनुभवी नजरों से भांप लिया कि कुतिया का प्रसव-काल अति निकट है।  
भोजन के समय तक कुतिया के नहीं आने पर मां को कुछ शंका हुई ,उसने झटपट गुड़ की लापसी
बनाई और मिट्टी के पात्र में डाल कर घर के पिछवाड़े में जहां कुतिया रोटी दबाकर आती थी
वहां पहुंची,देखा, कुतिया दीवार की आड़ में घुसकाल बनाकर लेटी हुई थी।आहट होने पर कुतिया ने बाहर देखा। मां खड़ी हुई थी।कुतिया लेटे-लेटे ही पूंछ हिलाने लगी,मां ने उसकी विवशता को समझा और लापसी का पात्र उसके पास रख कर चली आई।
मां शाम को पुनः लापसी बनाकर कुतिया की घुसकाल के पास पहुंची देखा पहले वाला लापसी  का पात्र खाली पड़ा था और चार-पांच नन्हें-नन्हें पिल्ले जिनकी आंखें अभी तक पूरी तरह नहीं खुली थी, कुतिया के स्तनों के पास हलचल कर रहे थे।मां की आखों में एक अनुभव-भरी खुशी की चमक उभरी,उसने खाली पड़े लापसी के पात्र में ताजा बना कर लाई हुई लापसी डाली । लापसी के डालते ही कुतिया एकदम उठी,और पलक झपकते ही लापसी को चट कर गई तथा आत्मतृप्त कृतज्ञता के भाव से मां की तरफ निहारने लगी,उसकी पूंछ भी हिलती हुई मानो मां की दयालुता की प्रवृति पर प्रसन्नता प्रकट कर रही थी। ***
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क्रमांक - 81                                                               

फूलों वाली शॉल
                                               - सीमा भाटिया
                                            लुधियाना - पंजाब

आज माँ की अल्मारी खोलकर उसके सामान का बंटवारा किया जाना था। तेरहवीं समाप्त होने के बाद ही सब रिश्तेदार वापस जा चुके थे। पीछे रह गए थे दो बेटे, बहुएँ और बेटी  और दामाद । दोनों बहुएँ ज्योति और वीना चौधरी बनी हुई सब कुछ निकाल कर उनके बिस्तर पर रखे जा रही थीं। सामान में था भी क्या कुछ घिसे पिटे सूट, तीन चार स्वेटर, दो जोड़ी चप्पल, जो किसी के साइज की नहीं थे, तो सब कुछ भिखारियों को दान कर देने की बात तय हुई। हाथ में डाली हुई एक जोड़ी कंगन और कानों की बालियो़ पर बहुएँ दाह संस्कार के समय ही कब्जा कर बैठी थी।

"हाँ तो शुभा, देख ले, ये कपड़े और जूते तो तेरे भी किसी काम के नहीं। माँ को नए कपड़ों, जूतों का कभी शौक ही नहीं था, तुझे भी पता। फिर भी देख ले, कुछ ले जाना है निशानी के लिए तो ले जा।"बड़े भाई विवेक ने बड़प्पन जताते हुए कहा।

शुभा जानती थी कि पाँच साल पहले बाबूजी के चले जाने के बाद से माँ की कपड़े और जूतों की ख्वाहिशों को उनकी दवाओं और जरूरतों के खर्च की दुहाई देकर दबा दिया गया था। उसे याद आ रहा था कि तीन साल पहले विनोद के साथ हनीमून पर कश्मीर घूमकर आने के बाद भाई भाभियों के लिए लाए तोहफों के साथ वह माँ के लिए एक फूलों की कढ़ाई वाली शॉल लाई थी, तो सरला देवी ने कितना गुस्सा किया था,"अरी बावरी हो गई क्या? बेटी दामाद से तोहफा लेते अच्छा लगे है क्या?" पर जिद्द करने पर माँ ने शॉल रख ली थी और दो बार बड़े दिनों की छुट्टियों में आने पर माँ उसे दिखाने के लिए वही शॉल ओढ़े रखती थी।

"क्या ढूँढ रही शुभा?" छोटे भाई सलिल की निगाहों ने शायद भाँप लिया था उसके मन के भावों को।

"भईया, बस वो फूलों वाली शॉल देख रही थी माँ की, कहीं दिखाई नहीं दे रही। माँ को मैंने बस एक ही तोहफा दिया सारी जिंदगी में, बस उसके एहसास को लपेट कर ओढ़ना चाहती हूँ उस शॉल में।" रूलाई निकल गई यह कहते हुए शुभा की और ज्योति के इशारा करने पर शर्मिंदा हो वीना पहले से अपने कमरे में छिपा रखी वो फूलों वाली शॉल लेने चली गई। ***
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क्रमांक - 82                                                       

अब और नहीं 
                                                 - मिनाक्षी सिंह 
                                                   पटना - बिहार

 हवलदार जब अजय कुमार को थाने लेकर आया तो वह आते ही बेटी के पास गए और पूछने लगे ,‘क्या हुआ बेटा दामाद जी से झगड़ा हुआ क्या ?’
 हाँ पापा ,अब मैं और बर्दाश्त नहीं कर सकती |
 क्यों क्या हुआ ? तुमने तो फोन पर बताया था ,‘सब ठीक है ’ माँ बोली |
 यही तो बात है माँ ,दूसरे के लिए सब ठीक है पर मेरे लिए नहीं |
 मैं अब उसके साथ नहीं रह सकती | मैं भी कमाती हूंँ | अनपढ़ गवार नहीं हूँ |अपना और अपने परिवार की देखभाल कर सकती हूँ, वह हमेशा ज्यादा कमाने का और अपने शरीफ होने का धौंस जमाते रहते हैं | कल तो उन्होंने मुझ पर हाथ भी उठाया | किसी का गुस्सा किसी पर निकालते हैं | रिना अपनी माँ के सुजे गाल के तरफ देखती हुई बोली |
 पापा आप उस पेपर पर अपने हस्ताक्षर कर दीजिए |
 अजय बाबू पेपर पढ़ने लगे और आश्चर्य से बेटी की ओर देखें और बोले ‘पर बेटा इसमें थोड़ी गलती है इसमें मेरा नाम लिखा है |’
नही पापा इसमे कोई गलती नहीं है, अाप जो देख रहे है वो सही है क्योंकि अब, माँ आपकी ज्यादस्ती नहीं सहेगी उसका कोई बेटा नहीं है तो क्या हुआ मैं हूँ ना ,अब उसे आपकी मार खाने की जरूरत नहीं |आप शरीफ है आपने जो कुछ भी किया अपने बलबूते पर किया, बहुत अच्छी बात है,पर इसका भी आपको नशेड़ियों जैसा नशा है | जिसके कारण आपने अपने आगे कभी किसी को तरजीह नहीं दी और माँ आपके इस नशे का आसानी से शिकार होती रही | पर अब और नहीं | और हाँ पापा जरूरी नहीं कि हमेशा दामाद ही गलत हो कभी अपने गिरेबान में भी झाँक कर देखना चाहिए , इतना कह वह माँ का हाथ पकड़ थाने से बाहर निकल गई और उसके मन में बचपन मैं माँ के द्वारा गाया गया वह लोरी गूंजने लगा जिसके बोल आज जरा भिन्न थे | ***
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 क्रमांक - 83

शब्द असर करते हैं
                                            - पम्मी सिंह ‘तृप्ति’
                                                     दिल्ली

रीता, चाय की कप लिए बरामदे में, पड़ती कच्ची धूप का आनंद को संजोए ज्यो ही कुर्सी पर बैठी कि.. आवाज आयी “दीदी.. दीदी..”।
ये तो विभा की आवाज है ..नीचें झाकते हुए “हाँ बोलों क्या हुआँ ?” आपके पास समय हो तो.. “मैं, कुछ बातें करना चाहती हूँ.”
 “हाँ.. हाँ.. क्यों नहीं..”
‘ तुम आओ ‘ दरवाजे खोल रीता एक कप और चाय के लिए गैस जला दी।
 “ क्या बात है ? उसकी माथे पर पड़ती बल को देख मैं, रुक न सकी “
धीरे-धीरे चाय की चुस्कियों के साथ बातों की सिलसिले बढ़ते गए, अतीत के पन्नों को पलटती, उसकी आँखें नम हो गई, ये बतातें हुए कि किस तरह विनोद की अकस्मात मृत्यु के बाद उस पर दुखों का पहाड़  टूट पड़ा,अकेली बच्चों के साथ उसका भी भविष्य सवालों के घेरो मैं था..अब क्या होगा? कैसे होगा?
“ दो बच्चों की देखरेख और माकूल भविष्य के लिए अपने मातृत्व के तप को कठोर कर अपने बड़े बेटे को, उसके ताऊ जी के घर मुंबई भेज दी, ये सोचकर कि मुझसे अच्छा, उसे सही माहौल अपने ताऊ जी के अनुशासन में मिलेगी।  दूसरें बेटे को मैंने अपनी देख-रेख में रखा। मुंबई में दो-तीन साल तो पढ़ाई में वो अव्वल रहा पर अब ..,फेल होने लगा मेडिकल तो दूर, वह 12वीं भी ठीक से नहीं पास कर सका, पर छोटा मेरे पास रहा पढ़ाई में सामान्य श्रेणी का छात्र, लगातार हौसला -अफजाई , प्यार मनुहार, आत्मसम्मान को बढ़ावा देने से परीक्षा में सफल हो मेडिकल में दाखिला हो गया, पर बड़े बेटे के व्यक्तित्व में आए बदलाव से चिंतित हूँ।“
“क्या बोलू..अब तो लग रहा जैसे नाव एक तरफ झूका जा रहा..
जानती हो, रीता दी,  बड़े बेटे के इस स्थिति के लिए मैं खुद को  ही जिम्मेदार मानने लगी  हूँ..माँ हूँ और उसे इस तरह हतोत्साहित नहीं देख सकती। अब चिंता हो रही है। इसलिए आपसे साझा करने चली आई।“
‘कोई बात नहीं, बड़े बेटे से बातें तो हुई होगी? अभी भी देरी नहीं हुई है। माँएं कब से हारने लगी?”
हाँ..उससें काफी जिरह की जो इस निष्कर्ष पर पहुंची कि..
“किशोरावस्था में जब वह  गलती करता, तो सब मिलकर उसकी माखौल बनाते कि बुद्धू हो, दिमाग घुटने  में है,तू कुछ भी नहीं कर सकता, तुम पर पैसा बर्बाद हो रहा है, जिस वजह से वह कुंठित,अवसाद से ग्रसित हो गया.. अपनी माँ की परेशानियाँ न बढ़े, ये सोच वो मुझसे आँसू छुपाने लगा”
वहीं छोटा, मेरे सन्निध्य में रहने के कारण, जब वो गलती करता तो मैं कहती, “तू मेरा राजा बेटा है, मेरा नाक है, मेहनत करों तुम कर सकते हो ..लगातार हौसले, आत्म सम्मान की तुष्टि से वह समान्य छात्र होकर भी सफल हो गया ”
“ अभी भी समय है रीता,आँचल तले बच्चे खिलते हैं। बच्चों के कोमल मनोभावों पर तानों, व्यवहारों का उनके सोच और विचारों पर बहुत प्रभाव पड़ता है..”
“दीदी,  अब मैं चलती हूँ, ऑफिस जाने की भी समय हो गया,आपसे बात कर थोड़ा मन हल्का हो जाता है।“
 “ क्यों नहीं, तुम्हारे कुछ काम आ सकी, तो मुझे भी खुशी होगी।“

 अंतर्मन को सुनते कि “मातृत्व एक जिम्मेदारी है, और जिंदगी, बहुत सारी कच्ची राहों से गुजर ,एक माकूल किनारे पर पहुँचती है..मैं भी जरूर पहुँच जाओगी।क्यूँ कि शब्द असर करते हैं । ***
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क्रमांक - 84

तुम्हें चोट तो नहीं लगी? 
                                                     -  अनिता रश्मि 
                                                     रांची - झारखण्ड

वह शाम तक हरिद्वार पहुँच गया। माँ भी साथ। बहुत दिनों से कह रहीं थीं, 
- गंगा जी में स्नान करा दे। पापा के जाने के बाद एक बार भी नहीं गए। वे थे, तो हर साल हरिद्वार की यात्रा... चल बेटा, इस बार। 
वह हर बार टाल जाता। दो बच्चे, एक पत्नी का खर्च सँभाले नहीं सँभलता था उससे। उस पर ' माँ ' का अतिरिक्त ' बोझ '....। अस्सी की उम्र तक जीकर कोई क्या करेगा, यह चिंता खाए जाती। ईश्वर भी अन्याय करते हैं। हाथ-पैर चल नहीं रहा और....। ना जाने कितनी लंबी जिंदगी दे दी।
 वह खुद से कहता रहता - और कितना ढोएँ? 

इस बार तो पत्नी से भी कह डाला। बीवी ज्यादा समझदार। उपाय बताया और वह माँ के सामने।
 - चलो अम्मा हरिद्वार, तुम हमेशा जाने की सोचती है ना।.... वहीं रहना, जीवन के आखरी वक्त में भजन-कीर्तन गंगा जी के किनारे....सवेरे स्नान-पूजा, शाम को गंगा आरती। है ना? 
   माँ चुप! चोट सीधे मन पर। 

हरिद्वार में रिक्शा से उतरते वक्त जोर की ठेस लगी। झिड़क दिया - अम्मा, तुम भी ना। देखकर नहीं उतर सकती? 
आश्रम में सारी व्यवस्था कर वह लौटने लगा। माँ को आस, एक बार पलटे। नहीं पलटा। मन-तन की चोट गहराई। वह बाहर गेट की ओर बढ़ रहा था। उसने गर्दन एक तरफ़ घुमाई कि जोरदार ठोकर लगी। 
- अरे बेटा, सँभल.... तुम्हें चोट तो नहीं लगी? *****
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क्रमांक - 85

             माँ बोलो ना
                                           - प्रियंका श्रीवास्तव"शुभ्र"
                                                  पटना - बिहार
                                                  
माँ...माँ कुछ बोलो ना...क्यों चुप हो गई, क्यों बोलती नहीं...माँ…  कुछ बोलो ना.. कहते कहते रमा माँ के सीने पर सर रख रो पड़ी। आज कोई नहीं आया उसे उठा कर अलग करने। वह रोती रही और बोलती रही - “माँ पहले तो तुम बहुत बोलती थी, आज क्या हो गया जो किसी बात पर कुछ नहीं कह रही। माँ ...कुछ बोलो ना..
  माँ ! याद है तुम्हें, बचपन में तुम मुझे हर छोटी-छोटी गलतियों पर कितना डांटती थी। आज भी डाँटों ना। तुम्हारी डाँट भरी आवाज सुनने को जी कर रहा है। मुझे याद है शाम में खेल कर लौटने में थोड़ी देर होते ही तुम्हारी डांट पहले सुनती बाद में कदम घर के अंदर आते। तब तो मैं बच्ची थी कुछ पूछ नहीं पाती पर आज तुम सोच कर बोलो माँ क्या खेल की धुन में समय का अंदाज रह सकता है भला ? गुस्सा में दूसरे दिन मैं खेलने नहीं जाती फिर भी तुम्हारी डांट मिलती। बताओ ना माँ बच्चे क्या करें ? बताओ..बताओ ना...
       माँ याद है तुम्हें, जब मैं पहली बार रोटी बनाने के लिए आंटा गूँथी थी..कभी सुनी थी कि तुम्हारी रोटी बहुत मुलायम बनती है क्योंकि तुम खूब गीला आंटा से रोटी बनाती हो। तुम्हारे जैसी रोटी बनाने के लालच में मैंने आंटा इतना गीला कर दिया कि  उसका पूआ बन गया। सभी हँसने लगे थे। तुम भी तो मुँह दाब कर हँस दी थी। इस बात को याद कर आज तुम्हें जरा भी हँसी नहीं आई…?
माँ कुछ बोलो ना...मैं इतनी देर से बोले जा रही हूँ और तुम कुछ बोल नहीं रही। पहले कितना डांटती थी कि ज्यादा बकबक मत करो। आज मेरे बोलने से तुम्हारा सर भी दर्द नहीं कर रहा? माँ….माँ..कुछ बोलो न…
     रमा हर थोड़ी देर पर माँ के सीने पर सर रख मन हल्का कर लेती फिर शुरू हो जाती माँ कुछ बोलो ना…
   माँ का हाथ उठा अपने सर पर रख लिया और कहने लगी माँ सर भारी हो गया। सर में तेल लगा दोगी? खूब देर तक वाला चम्पी करवाने का मन कर रहा है।
  माँ.. पहले हमेशा अपने मन से चम्पी कर देती थी आज तो कहने पर भी कुछ नहीं करती। आओ.. मैं ही तुम्हारी चम्पी कर देती हूँ। 
  कोई फायदा नहीं...उफ़्फ़ क्या करूँ, माँ को तो कुछ हो ही नहीं रहा..
  आओ माँ ! अमरूद खाते हैं। देखो कितना बढ़िया अमरूद लायी हूँ। माँ इसे देख कुछ याद आया.. ? जब मैं छोटी थी तो हर दिन पेड़ पर चढ़ ऐसे ही अमरूद तोड़ लाती थी न ?
     माँ की चुप्पी नहीं टूटी तो उसने माँ के गाल मसल दिए। उसे लगा माँ मुस्कुरा दी। फिर अमरूद आगे बढ़ा दी और कहा - “माँ देखो! पेड़ से मैं अपने तोड़ कर लाई हूँ , तुम्हारे लिए।”
    बेटी के पुराने करतूत से परिचित मृतप्राय सी माँ घबड़ा गई। घबड़ाहट  से आँखे छलछला गई। हड़बड़ा कर बोल उठी - “इस उम्र में तुम पेड़ पर चढ़ गई? बचपन में बचपना ठीक था। पेड़ की एक डाल पर बैठ ऊपर के डाल को एक हाथ से थाम, दूसरे हाथों से डंटा पकड़ आगे की डाल को खींच उसे पैर बढ़ा कर पकड़ लेती। फिर हाथ के डंटा को दूसरे डाल में फंसा हाथों से अमरूद तोड़ने लगती। कौन माँ होगी जो ऐसे दृश्य देख घबड़ाएगी नहीं ?” 
      माँ … रमा के चेहरे पर खुशी स्पष्ट झलकने लगी। माँ.. तुम बोली तो सही.. तुम्हारे चुप्पी से तो मैं उससे भी ज्यादा घबड़ा जाती हूँ जितना तुम मुझे अमरूद तोड़ते देख घबड़ाती थी। यूँ ही बोलती रहो माँ। तुम्हें क्या हो गया जो तुम चुप हो गई..?
   रमा को कौन समझाए उसकी माँ को कोई बीमारी नहीं अकेलापन ने उसे चुप करा दिया और धीरे-धीरे वो हर्ष-विषाद से भी दूर होती जा रही है। आज के मशीनीयुग में हर बूढ़े का यही हश्र होगा क्योंकि उससे कुशलक्षेम पूछने वाला कोई नहीं। केवल दवा के समान समय-समय पर खाना मिलता रहे तो मनुष्य भी यंत्रवत  ही हो जाएगा।भावनाओं से दूर बहुत दूर पहुँच बोलना भी भूल जाएगा।***
         
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क्रमांक - 86                                                         

तेरे... मेरे सपने
                                      -  डाॅ अम्बुजा एन मलखेडकर
                                           गुलबर्गा - कर्नाटक
                                           
शालिनी कोर्ट में टाइपिस्ट का कार्य करती थी। उसका वेतन दस हज़ार था जिससे उसका घर खर्च जैसे तैसे चल रहा था। उसकी बेटी आठवी कक्षा में पढ़ रही थी। पति अपाहिज था जो घर बैठे एक छोटी सी दुकान चलाता था।
जब भी शालिनी को फुर्सत के पल मिलते वह कविता, कहानियां लिखती और उसे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशनार्थ भिजवा दिया करती थी। उसकी दो पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी थी।
फेसबुक, वाट्सअप जैसे अनेक सोशियल ग्रुप के साहित्यिक मंचों पर पोस्ट भी भेजकर अपनी उपस्थिति दर्ज करती थी। उसका भी सपना था कि उसकी रचनाओं को पुरस्कार मिले, सम्मान मिले। जब भी इस प्रकार के कोई आयोजन होते, तो वह विषयानुसार अपनी रचनाएं भेजती थी। कई बार आयोजको के आमंत्रण आये लेकिन अपनी आर्थिक स्थिति ठीक न होने के कारण वह नहीं जा पा रही थी।
इस बार उसकी एक किताब के लिए दिल्ली की एक संस्था से बडा सम्मान घोषित हुआ। उसका बहुत मन था कि वह जाए लेकिन व्यय लगभग तीस हजार हो रहा था। उसने कांट छांट भी की तो व्यय दस हजार के आसपास बैठ रहा था पर सबसे ज्यादा परेशानी थी कि उसे भाग लेने में छ:दिन लग रहे थे। पति से बात कर वह जाने के लिए तैयार हो जाती है कि वह जाएगी ट्रेन से और आएगी फ्लाइट से।
आज शालिनी आफिस से आते ही अपने पति के साथ बैठकर मोबाइल मे टिकिट बुक कर लेती है। अब उसका मन दिल्ली में था, वह गगन में उडने लगी। वर्षों पूर्व देखे उसके सपने पूरे हो रहे थे। इस सफलता में उसे यह अहसास भी था कि वह बहुत संघर्ष  करके बेटी को पढ़ा रही थी और पति भी घर के कामों में मदद कर रहे थे। 
शालिनी ने अपनी यात्रा के लिए आफिस में लोन के लिए आवेदन दे दिया ताकि बेटी की फीस भरने में कोई रुकावट न आये। अभी यात्रा में एक महिना शेष था लेकिन खुशी के कारण उसके पैर जमीन पर टिक नहीं रहे थे। सोशियल मीडिया पर सब से अपनी खुशी साझा की, बधाइयों का तांता लग गया। कुछ देर बाद बेटी ने स्कूल से आते ही शालिनी से कहा,   " माँ, सोमवार से डांस कॉम्पिटिशन है। आज गुरूवार है, तब तक तुम मेरी रजिस्ट्रेशन करवा दो। ड्रेस आभूषण मिलाकर दस हजार हो जायेंगे।  अगर नहीं किया तो मैं भाग नहीं ले पाउंगी। इस बार भी मैं ही फस्ट आऊँगी माँ "
तभी मोबाईल की रिंग बजने लगी। उसने रिसीव किया। एक पुरुष ध्वनि ने सूचित किया, "मैडम नमस्ते.. आपने जो लोन अप्लाई किया था वह अप्रुव नहीं हुआ है"
सुनकर उसके  पैर लड़खड़ाने लगे। वह वही बैठ गई। यह देख बेटी ने उसे हिलाकर पूछा, "माँ इस बार तेरे मेरे यानी हम दोनों के सपने पूर्ण होंगे न? माँ ओ माँ, सुन रही हो न...चुप क्यों हो?"
शालनी की नम आँखों ने बेटी को अपने सीने से लगाकर कहा, " माँ के सपने नहीं पर तेरे सपने जरूर पूरे होंगे आखिर तेरी माँ हूँ न" ***
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क्रमांक - 87                                                       

सह्रदयता
                                               - मधुरेश नारायण
                                                  पटना - बिहार

   मेरे पड़ोस में हमारे ही जैसा निम्न आय वर्ग का एक परिवार रहता है।पर हमारे और उनके परिवार में फर्क सिर्फ इतना है कि उनके घर कमाने वाला एक और खाने वाला सात जन है,जबकि हम कुल जमा तीन जन है।हमलोगो का एक- दूसरे के घर आना-जाना लगा रहता है।
          आज मैंने देखा,मेरी पड़ोसन जिसके पति के कमाई पर पूरा घर चलता है,को घबराई हुई साथ ही बहुत कमजोर दिख रही थी।मुझ से रहा न गया,मैं उसके पास जा कर पूछा-क्या बात है,क्यूँ इतना घबराई हुई लग रही हो।
उसने कहा-"क्या कहूँ बहना-पिछले कुछ दिनों से मेरी तबीयत ठीक नही चल रही।कमजोरी के साथ जी मचलाना,उल्टी आना,लगा रहता है।
मैंने कहा-क्या तुम किसी चिकित्सक को नही दिखाया।ये सारे लक्षण तो माँ बनने के है।चूंकि मैं भी एक माँ हूँ, इस दौर से गुजर चुकी हूं।अतः मुझे लग रहा है कि हो न हो तुम माँ बनने वाली हो।
उसने कहा-मुझे तो कुछ समझ नही आ रहा।रही बात चिकित्सक  को दिखलाने की ,तो एक तो इनको समय नही है,दूसरा की वे बोले कि डॉक्टर को देने की फी नही है।जब वेतन मिलेगा तो डॉक्टर को दिखलाने ले जाएंगे।
मैंने कहा-तुम्हारी तबीयत औऱ ज्यादा खराब न हो जाये,चलो किसी अच्छे डॉक्टर को दिखलाते है।
उसने कहा-बहना मेरे पास तो एक फूटी कौड़ी भी नही है।
मैंने कहा-चलो तो सही।
मैंने अपने घर में दो-दो,चार-चार रुपये जोड़ कर आपात समय के लिए कुछ पैसे बचाये थे,उन्हें समेट कर ,अपनी पड़ोसन को डॉक्टर के पास ले गयी।डॉक्टर ने बहुत देर तक उसको देखा,जाँच कर कहा-बहुत सही समय पर आप इनको ले कर आई है,एक -दो दिन की भी देरी इनके लिए प्राणघातक हो सकता था,फिर तो जच्चा-बच्चा दोनों को बचाना मुश्किल था।ये माँ बनने वाली है,पर इनका हेमोग्लोबिन बहुत ही कम है, ऐसे में इन्हें यहाँ भर्ती कराना होगा और जल्द-से-जल्द खून चढ़ाना होगा।बेहतर है आप इनके पति को खबर कर दे,
मैंने कहा-आप इनका इलाज जल्द -से-जल्द  शुरू करे,खून चढ़ावे, मैं हूँ न। ***
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           क्रमांक - 88                                                     

भारत माता
                                            - इन्दु भूषण बाली 
                                           जम्मू - जम्मू कश्मीर 
    
    बीजेन्द्र अक्सर अपना मनपसंद गीत 'मेरा रंग दे बसंती चोला, मां रंग दे बसंती चोला' गुणगुनाया करता था।
       वह  भ्रष्टाचार और नशाखोरी के विरुद्ध संघर्ष करता और छोटी-छोटी सफलताओं को भी प्राप्त करता था।
      वह 28 वर्ष की आयु में देश के ग्रह मंत्रालय के  विभाग में भर्ती हो गया। जिसमें 2-3 वर्ष के कार्यकाल तक उसे कोई कठिनाई नहीं आई। मगर जैसे ही उसने अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अपने भ्रष्ट अधिकारी के भ्रष्टाचार के विरुद्ध आवाज़ उठाई, तो उसे ईमानदारी और देशभक्ति का दण्ड देते हुए पागलखाने पहुंचा दिया गया।  यही नहीं उसकी देशभक्ति को देशद्रोह का नाम देकर बदनाम किया गया। सरकार द्वारा बनाए गये नियमों का खुलकर उल्लंघन किया गया। सम्माननीय उच्च न्यायालय के माननीय न्यायधीशों ने भी उसके तपेदिक रोग को मानसिक रोग का दर्जा देते हुए मानसिक उपचार कराने का निर्देश दिया और उसे अपमानित करते हुए मानसिक दिव्यांग की पेंशन दे दी। जिससे उसको विभागीय भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा दी गई पीड़ा-प्रताड़ना पर पर्दा पड़ गया।
     मगर उसने साहस व धेर्य नहीं छोड़ा और  उसने दिवयांगजन मुख्य आयुक्त के कार्यालय की न्यायालय में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान नई दिल्ली के मनोविषेज्ञयों द्वार दिए स्वष्थ प्रमाणपत्र के आधार पर प्रमाणित कर दिया है कि वह ना तो पागल है और ना ही दिव्यांग है।
      इसके बावजूद केंद्र सरकार उसे उसकी नौकरी के स्थान पर आज भी दिव्यांजन पेंशन देकर भारत माता का अपमान कर रही है। बीजेन्द्र ने अपने विभाग से लेकर देश के राष्ट्रपति तक, सम्माननीय उच्चतम न्यायालय से लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ तक गुहार लगा चुका है। ***
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क्रमांक -89                                                         

 आसमां 
                                                - सरला मेहता
                                              इन्दौर - मध्यप्रदेश

वसुधा का छोटा सा घरौंदा,सारा दिन पति विकास के साथ नितांत अकेले गुजरता है। बस वृक्षों के झुरमुठ से पंछियों का कलरव ही सुकून देता है। शामें अक्सर आंगन के बगीचे में ही गुजरती है। आज ची ची की चहचहाहट कुछ अधिक ही सुनाई दे रही है। इतने में ही दो चूजे फुदकते हुए आंगन में आए,,
मानो किसी को पुकार रहे हो। यह क्या चिड़ा चिड़ी आगए, अपनी चोंच में भरे दाने चूजों को खिलाने लगे। घोंसले के बिखरे तिनकों को संवारकर फिर चले अपने काम पर। और एक दिन पंख आने पर दोनों चूजे फुर्र से उड़ गए।
वसुधा को याद आने लगे वे दिन जब पंखुरी व अबीर की धमाचौकड़ियों से घर आबाद रहता था।दिन रात पलक झपकते ही बीत जाते थे,,
स्कूल क्लासेस ऊपर से नई नई फरमाइशें ।वह दिन भी आया जब बारी बारी से दोनों बच्चे भी चूजों की तरह अपनी अपनी उड़ान पर चले गए।
परन्तु दूर रहकर भी माँ का दिल है कि मानता ही नहीं।वसुधा अचार पापड़ बड़ी मसाले और त्यौहारी गुजियां
आदि मिठाइयां बनाने में जुटी रहती। विकास टोंकते, "क्यों इतनी माथाफोड़ी करती हो,कौन खाता है इन्हें ? फिर पता नहीं कब आएंगे तुम्हारे बच्चे ? " वसुधा जवाब देती, " आप भी बस,,,घर की बनाई चीज़े मिलती कहाँ है भला।अरे भिजवा देगें किसी के साथ।" विकास चिल्लाते हुए कहते हैं," याद है दिवाली पर हमारी भेजी मिठाइयां दोस्तों में बाँट दी थी और ड्रेसेस तो उन्हें पसंद ही नहीं आई।अब तुम भी भूल जाओ उन्हें , आसमां जो मिल गया है,,माँ को भूल गए हैं।
वसुधा आह भर कर कहती है, " चलो कोई तो माँ मिली।" ***
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क्रमांक - 90                                                         

मैं भूखी हूँ  
                                            - डाँ. पुनम देवा
                                                पटना - बिहार

लम्बी बीमारी से जूझती माँ अब और भी बेबस लाचार हो गयी थीं ।बेटा  बहू भी अब लगभग पूरी तरह से ऊब चुके थे ।अचानक फोन की घंटी बजी तो माँ के सोये कांन भी जग गये ।बाते सुनने को आतुर हो गयी ।बेटा बता रहा था कि  कल दीपा माँ  से मिलने आने वाली है ।सुनकर माँ  आत्मविभोर  हो गयी कि अब कुछ दिन उन्हें बेटी दीपा सम्भाल लेगी । माँ बेसब्री से दीपा की राह देख रही थी  ।दीपा आते ही  माँ की जर्जर   अवस्था देख कर सिहर उठी । माँ  बहुत ही बेबस एवं कमजोर लग रही थी । माँ बहुत हीं बेबस एवं कमजोर लग रही थी ।माँ  ने दीपा से फुस-फुसाते  स्वर में  कहा,------ मैं भूखी हूँ ___ ।
दीपा लपक कर खाने का थाल सजाने लगी । तभी भया -भाभी दोनों  बोल उठे,  " इतना  खाना माँ को दोगी तो उतने ही  जादा साड़ियां,कपडे भी लगेंगे क्योंकि माँ का हाजमा  खराब  हो गया है  , 'अत: हम उन्हें अब बस एक ही रोटी खिलाते हैं ताकि ज्यादा सफाई की परेशानी  ही ना हो ।'
दीपा अंदर से पूरी पूरी तरह सिहर  उठी,,, माँ का करुणा-करंदन मयूस चेहरा  पुन: चीत्कार उठा-----"मैं  भूखी हूँ " । ***
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क्रमांक - 91                                                             

ममता
                                         - सत्य प्रकाश भारद्वाज
                                                 दिल्ली

          महिला कल्याण समिति की सभा में श्रीमती जॉर्ज ने अध्यक्षीय भाषण में विशेष जोर देते हुए कहा--- "बच्चों को पाउडर वाला दूध पिलाना चाहिए अपना' गाय या भैंस का दूध नहीं पिलाया जाए। इससे अनेक शारीरिक रोग उत्पन्न हो सकते हैं। विदेशों में महिलाओं ने इस ओर विशेष ध्यान देकर अपनी जवानी तथा सुंदरता को बनाए रखा है।"
              इसके प्रभाव से उन धनाढ्य कालोनी में महिलाओं ने बच्चों को अपना दूध पिलाना बंद कर दिया। 
            श्रीमती कपूर ने अपनी आया को कहा, 'देखो!.. मुन्ने को आज से यह पाउडर का दूध पिलाना है। मैं इसे अपना दूध नहीं    पिलाउंगी ।'
            'यह आप क्या कह रही हैं?.... ''बीबीजी मां का दूध तो बच्चे के लिए बहुत फायदेमंद होता है। 'मैं तो अपने लल्ला को अपना ही दूध पिलाती हूं।' 
               'बहस ना करो! जैसा मैं कहती हूं वैसा ही करो।' बच्चा डिब्बाबंद पाउडर का दूध पीने लगा। दूध पीते ही वह उल्टी कर देता था। एक दिन नौकरानी ने कह ही दिया।...'बीबी जी मुन्ने ने आज फिर दूध नहीं पिया। अब तो इसका चेहरा भी पीला पड़ता जा रहा है।' 
            बच्चे की हालत देखकर श्रीमती कपूर को रोना आ गया। उसने मुन्ने को उठाकर छाती से लगा लिया। मां की ममता जाग उठी और गलती का एहसास हो गया। उसके स्तनों से दूध झर-झर बहने लगा। 
               'मुन्ना दो ही दिनों में किलकारियां भरने लगा।' ***
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क्रमांक - 92                                                         

माँ हूँ ना
                                               - अमृता सिन्हा 
                                              पटना - बिहार
                                     
आरती कार्यालय से निकल कर सड़क पर ऑटो के लिए खडी थी। तभी पीछे से आवाज़ आई, "मैडम जी"। आरती ने मुड़ कर देखा, हल्के हरे रंग की साधारण सी साड़ी पहने एक दुबली-पतली सी औरत सात-आठ साल के बच्चे का हाथ पकड़े खड़ी थी। 
"नमस्ते मैडमजी ! पहचाना मुझे? मैं सोनी।" 
"ओ हो सोनी !"आरती ने ध्यान से देखा "कहो कैसी हो? कहाँ हो आजकल?"
"जी आपके आशीर्वाद और ऊपरवाले की कृपा से बिल्कुल ठीक हूँ। एक शापिंग मॉल में सेल्स गर्ल की नौकरी मिल गयी है, एक साल से वहीं काम कर रही हूँ।"
आरती का ध्यान उसके बच्चे की ओर खींच गया जो बड़े कौतूहल से उन दोनों की बातें सुन रहा था। "ये तुम्हारा बेटा है?" उसने पूछा।
"हाँ मैडमजी, यही तो है भोलू, मेरा छोटा बेटा। याद है आपको, इसी की बीमारी में तो आपने मेरी मदद की थी जिससे इसकी जान बच सकी थी।"
सोनी की बात सुन आरती को दो साल पहले की वो घटना याद आ गई। रोज की तरह आरती सुबह दस बजे अपने कार्यालय पहुंच गई थी। अपने टेबल पर पड़ी फाइलों को पलटना शुरु हीं किया था, तभी कार्यालय में साफ-सफाई का काम करने वाली सोनी घबराई हुई आयी और बोली, "मैडमजी मुझे अभी छुट्टी चाहिए।"
"अरे अभी अभी तो कार्यालय खुला है, अभी हीं तुम्हें छुट्टी चाहिए।"
"मेरे बेटे की तबियत अचानक बहुत खराब हो गयी है, कृपया मुझे जाने दें।" कहते हुए उसकी आँखों में आँसू छलक आए। 
आरती को दया आ गयी, उसने जाने की इजाज़त दे दी ।
दूसरे दिन सुबह जब आरती कार्यालय पहुंची तो सोनी कुछ उदास सी अपने काम में लगी थी। मानवीय संवेदनावश आरती ने पूछ लिया, "अब कैसी तबियत है तुम्हारे बेटे की?" 
"डाक्टर ने दवा दी है," इतना कह वो फफक पड़ी।
"अरे घबराती क्यों हो, बेटा जल्द हीं ठीक हो जाएगा।" आरती ने सांत्वना देने की कोशिश की।
"उसके दिल में छेद है मैडमजी, डाक्टर ने कहा है इलाज़ में काफी खर्च आएगा।"
"ओह ! तुम्हारे पति क्या करते हैं?" आरती ने जिज्ञासावश पूछ लिया।
सोनी के चेहरे के भाव कठोर हो गए। मुँह बनाते हुए उसने कहा, "अगर पति ठीक होता तो मुझे तीन-तीन छोटे बच्चों की परवरिश के लिए यहाँ झाडू-पोछा ना करना पड़ता।"
"क्या वो कुछ नहीं करता?"
"करता क्यों नहीं ! पर एक साल हुए, उसने मुझे मेरे बच्चों के साथ घर से निकाल दिया। इसी शहर में अपने बाप-दादा के मकान में ठाठ से रह रहा है। आज तक एक बार भी उसने हमारी सुध नहीं ली।"
"तो तुम अकेले तीन-तीन बच्चों की परवरिश कैसे करोगी, पति को कहो बच्चों की देखभाल करने के लिए,"आरती ने गुस्सा दिखाया।
सोनी गहरी सांस भरते हुए बोली, "वो मर्द जात है, भूल सकता है अपने बाल बच्चे को। मै माँ हूँ ना, भला कैसे छोड़ दूँ अपने हीं कोख के जने को। चाहे जैसे भी हो, अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा कर इस लायक तो बनाऊँगी ताकि मेरी तरह उन्हें दु:ख ना उठाना पड़े। "
आरती मन हीं मन उसके हौसले की तारीफ करते 
हुए उसे बच्चे के इलाज के लिए कुछ रुपये दे, अपने किसी परिचित डाक्टर के पास जाने की सलाह दी।
आज दो साल बाद वही सोनी ज्यादा मजबूत एवं प्रसन्न दिखाई दे रही थी। वह खुशी से बताए जा रही थी कि किस तरह उसका बड़ा बेटा हमेशा अपनी कक्षा में प्रथम आता है, बेटी भी चौथी कक्षा में है, और तो और अब ये भोलू भी स्कूल जाने लगा है।
सोनी के चेहरे पर आत्मसंतुष्टी के भाव साफ झलक रहे थे। आरती मन हीं मन मुस्कुरायी, "एक औरत भले हीं कमजोर हो सकती है, पर एक माँ हरगिज़ नहीं।" ***
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क्रमांक - 93                                                          

माँ तो माँ होतीं
                                           -  डॉ रचनासिंह "रश्मि"
                                              आगरा - उत्तर प्रदेश


अजय के घर में प्रवेश करते ही काव्या का गुस्सा फूट पड़ा ।
पूरे दिन कहाँ रहे? आफिस में पता किया, वहाँ भी नहीं पहुँचे! मामला क्या है?
वो-वो... मैं..."
अजय की हकलाहट पर झल्लाते हुए काव्या फिर बरसी, "बोलते नही? कहां चले गये थे। ये गन्दा बक्सा और कपड़ों की पोटली किसकी उठा लाये"
वो मैं माँ को लाने गाँव चला गया था। अजय ने  हिम्मत करके बोला।
क्या कहा? तुमने सासु जी को यहां ले आये? शर्म नहीं आई तुम्हें? तुम्हारे भाईयों के पास इन्हें क्या तकलीफ है। आग बबूला थी काव्या ने एक बार भी
साड़ी के पल्लू से आँखें पोंछती बीमार वृद्धा की तरफ देखा तक नहीं  ।
काव्या ने इन्हें मेरे भाईयों के पास नहीं छोड़ा जा सकता। तुम समझ क्यों नहीं रहीं।"अजय ने दबी जुबान से कहा क्यों, यहाँ कोई कुबेर का खजाना रखा है? बच्चों की पढ़ाई,राशन बिजली के बिल और घर खर्च इतनी मंहगाई में कैसे घर चला रही मैं ही जानती हूँ! काव्या अब ये हमारे साथ ही रहेगी। अजय ने कठोरता से कहा।
मैं कहती हूँ, इन्हें इसी वक्त वापिस छोड़ कर आओ वर्ना मैं इस घर में एक पल भी नहीं रहूंगी  सासु माँ आप को यहाँ आते जरा भी लाज नहीं आई?" रामादेवी से अब और बर्दाश्त ना हुआ।
काव्या ।बेटी मेरी बात तो सुनो आवाज जानी पहचानी थी काव्या को मानो झटका सा लगा रामादेवी की तरफ देखा, तो पाँव तले से जमीन ही  खिसक गयी! माँ तुम? झेंपते हुए बोली।
हाँ काव्या ! तुम्हारे भाई और भाभी ने मुझे घर से निकाल दिया। दामाद जी को फोन किया, तो ये मुझे यहां ले आये मैं कहाँ जाती मैंने कहा मुझे वृद्धाश्रम छोड दो पर अजय जिद करके मुझे अपने साथ ले आये।
काव्या तुम क्यों चुप हो सामान फेंको। अब यही मैं तुम्हारी माँ के साथ करुँ तब जवाब दो।
काव्या सहमकर अजय को देखकर गिडगिडाने लगी माँ बीमार है कहाँ जायेगी बेबस सी अजय को देखे जा रही थी।
काव्या तुम परेशान मत हो माँ जी जब तक चाहे यहाँ रह सकती है मेरी माँ ने मुझे अच्छे संस्कार दिये है कहते कहते अजय की आँखें भर आई.
काव्या माँ तो माँ होती है! क्या मेरी क्या तेरी     ***       =====================================
क्रमांक - 94                                                             
मां का दिल
                                         - संगीता गोविल
                                           पटना - बिहार
                                           
आज सुबह हीं दिशा की बेटी स्निग्धा के साथ अनबन हो गई। बात कुछ भी नहीं थी। स्निग्धा ने सिने पॉलिस में सिनेमा देखने की जिद पकड़ ली थी। 
"मुझे आज बहुत सारे काम निबटाने हैं। फिर किसी दिन चलेंगे।"
"नहीं मुझे आज हीं जाना है। "
" बेटा, काम बहुत जरुरी है। जिद अच्छी नहीं है।" थोडा बिगड़ते हुए दिशा ने कहा ।
" काम!काम!काम! कितना काम करोगी माँ! अपने लिए भी कुछ समय निकालो। "
" नहीं! अभी मेरा दिमाग मत खाओ। जाओ, पढ़ाई करो।"
स्निग्धा पैर पटक कर चिल्लाई, " ठीक है मत जाएँ। मेरी दोस्त सब ठीक करती है ; दोस्तों के साथ चली जाती हैं ।"
दिशा के हाथ का काम हाथ में ही रह गया । वह स्निग्धा के बन्द कमरे के दरवाजे को देखने लगी ।
बेटी के अन्तिम वाक्य ने उसे झकझोर दिया था। उसने तुरंत निर्णय किया और बेटे को आवाज दी, "साढें सात बजे की फिल्म के चार टिकट बुक करवाओ। हम सभी चलेंगे ।"
स्निग्धा के कमरे का दरवाजा खुला और दोनों माँ- बेटी एक-दुसरे से दिल का प्रेम बाँट रहीं थी। ***
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क्रमांक - 95                                                           

माँ
                                     - डॉ सतीशराज पुष्करणा
                                     पटना -  बिहार

बबलू को शरारत करने पर उसकी मम्मी ने दो चाँटे लगा दिए। वह रोता-रोता स्कूल गया। कक्षा में जाकर वह चुपचाप उदास-सा पीछे बैंच पर बैठ गया।

               मैम जैसे ही क्लास में आई, सभी बच्चे खड़े हो गए। बबलू भी खड़ा हुआ और सबके साथ वह भी बैठ गया।

               मैम ने पूछा, ‘‘क्या बात है बबलू! तुम बहुत उदास लग रहे हो?’’

               ‘‘स्कूल आने से पूर्व मम्मी ने मुझे पीटा था।’’

               ‘‘क्यों?’’

               ‘‘मैं शैतानी कर रहा था।’’

               ‘‘अब शैतानी न करना।’’

               मैम ने आज ‘माँ’ एवं ‘शिक्षिका’ के विषय में कुछ कहना चाहा पर इससे पूर्व उसने सोचा बच्चों से प्रश्नोत्तर के माध्यम से ही विषय पर आया जाए।

               ‘‘बच्चो ! एक-एक करके बताओ। तुम्हें इस संसार में सबसे अच्छी कौन-सी औरत लगती है?’’

               ‘‘एक-एक करके सभी ने बताना शुरू किया, किसी ने ऐश्वर्या राय का नाम लिया तो किसी ने किसी अभिनेत्री का। किन्तु अधिकाँश लोगों ने अपनी मैम का नाम लिया।

               अन्त में मैम ने बबलू से पूछा, ‘‘तुमने कुछ नहीं बताया, तुम भी बोलो!’’

               ‘‘आप नाराज तो नहीं हो जाएँगी?’’

               ‘‘नहीं! तुम अपनी पसंद की औरत का नाम बेखौफ बताओ!’’

               ‘‘मुझे मेरी मम्मी सबसे अच्छी लगती है।’’

               ‘‘अभी सुबह तो पिटकर आए हो, तो भी?’’ मैम ने हँसते हुए कहा।

               ‘‘हाँ! तब भी! पीटा तो मुझे सुधारने के लिए ही था। मेरी मम्मी सेे अच्छा कोई नहीं है।’’ **
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  क्रमांक - 96                                                                                 

दूसरे की माँ
                                                      - सीमा जैन 
                                             ग्वालियर - मध्यप्रदेश
                          
"अजब इंसान है तू! तुझमें थोड़ी-बहुत इंसानियत भी बची है या नही? …तुझे अपनी अपाहिज़, बीमार माँ से मंदिर और पूजा की ज़्यादा चिंता है। माँ का ज़रा भी ख़्याल नही…?" मेरा दोस्त श्याम एक साँस में सब कुछ कह गया।

 मैंने थकी-सी आवाज़ में कहा,  "माँ की चिंता है तभी तो एक पुजारी का इंतज़ाम करने के लिए भटक रहा हूँ। जो मेरे पीछे त्यौहार के समय मंदिर को संभाल ले।”

 अपने आँसू पीते हुए मैंने बात आगे बढ़ाई, “ ये मंदिर की नौकरी ही तो हमारी रोज़ी-रोटी है। ये चली गई तो मैं माँ के साथ सड़क पर आ जाऊँगा…मुझे अपने कैंसर के इलाज़ के लिए शहर जाना है।”

दोस्त को सोच में पड़ा देख मैंने  आगे कहा, “और ये सलाह माँ ने ही दी है दोस्त, कि कोई मंदिर संभालने को मिल जाये तो तू शहर चला जा…एक बार नंबर चला गया तो फिर पता नही कब लगे? 

“हाँ यार, ये समस्या तो है। तुम अकेले ही हो माँ की देखभाल करने वाले।” श्याम बोला।

 “…और यदि मैं भी न रहा तो..." 

श्याम ने मुझे रोककर मेरा हाथ थाम लिया, "तुम चिंता न करो, मैं घर और मंदिर दोनों संभाल लूंगा…हमारे मंदिर को पिताजी देख लेंगें।"

मैंने खुश होते हुए कहा, "अपनी माँ को तो सभी संभालते  हैं, पर दूसरों की माँ को संभालने वाले बहुत कम हैं। तुमने मेरा बहुत बड़ा बोझ उतार दिया श्याम।" 

एक दर्द भरी मुस्कान के साथ वह बोला- "अब तो अपनी माँ को संभालने वाले भी कम हो रहे हैं दोस्त!" ***
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क्रमांक - 97

   मेरी माँ
                                            - जगदीश प्रसाद रघुवंशी 
                                                 रायसेन - मध्यप्रदेश

        अजय मल्होत्रा शहर की एक नामी कंपनी में मैनेजर थे। जब वे ऑफिस से बपिस घर लौट रहे थे तब उनकी नजर एक पागल बूढ़ी औरत पर  पड़ी ।उसे देखते ही उनके होश उड़ गए ।उन्होंने तुरंत अपने ड्राइवर से गाड़ी रोकने को कहा और गाड़ी से उतर कर देखा कि वह पागल बुढ़िया होटल से फेंका हुआ जूठा भोजन बड़े प्रेम से खा रही थी ।और उसके आसपास कुछ लावारिस गाये व कुत्ते भोजन खत्म करने में  सहयोग कर रहे थे। वहीं पास से लोगों का आना-जाना लगा था ।लेकिन सड़े हुए खाने की दुर्गंध के कारण सभी मुंह फेर कर निकल रहे थे। यह पूरा दृश्य मानवता को शर्मसार करने वाला था। यह सब देख कर मल्होत्रा के हाथ से चश्मा और फाईल छूट कर नीचे गिर गएे। आंखों से आंसू बहने लगे क्योंकि वह बूढ़ी औरत और कोई नहीं मल्होत्रा की 5 साल पहले खोई हुई मां थी। मल्होत्रा के चेहरे पर खुशी और दुख के भाव एक साथ दिख रहे थे। सुध-बुध खोकर दौड़ते हुए वह अपनी मां से ऐसे लिपट गया जैसे कोई भूखा  बछड़ा गाय के पास पहुंच गया हो और विलाप करते हुए बोलता है कि मां तू मुझे छोड़ कर कहां चली गई थी, मैंने तुझे कहां-कहां नहीं खोजा ।मां मुझे धिक्कार है कि मे तेरा ध्यान ना रख सका। बचपन में तूने मेरे लिए कितनी तकलीफ सही मेहनत मजदूरी करके मुझे पढ़ाया लिखाया और इस लायक बनाया। तू घर चल अब मैं तुझे कोई तकलीफ नहीं होने दूंगा ।जीवन भर तेरी सेवा करूंगा। पर इन सब बातों का एक पागल पर क्या असर होता है?
               वह तो कभी बेटे के गले लग जाती ,कभी हंसने लगती, कभी रोने लगती।
       यह सब देख कर वहां खड़े लोगों की आंखों में आंसू आ गएे मानो उनके अन्दर भी प्रेम और आनंद का सागर उमढ़ आया हो । अब मल्होत्रा अपनी मां को अपने हाथों से उठाकर गाड़ी में बैठाता है ,उसे पानी पिलाता है।
   कुछ समय बाद गाड़ी वहां से चली जाती है और सभी लोग भी अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं। 
        इस कहानी से शिक्षा मिलती है कि हमें अपने माता पिता की सच्चे मन से सेवा करनी चाहिए क्योंकि आज हम जो भी है अपने माता पिता की वजह से है। हम उनका उपकार कभी नहीं चुका सकते। ***
   
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क्रमांक - 98

तुम्ही हो माता पिता तुम्ही हो 
                                                   - अंजली खेर
                                                 भोपाल - मध्यप्रदेश

नन्हीं विधी क़ा स्कूल में दाखिला कराने पहुंची  उत्तरा फॉर्म भर रही थी ! पहले कॉलम में "छात्रा का naam" कॉलम भरना था ! बरबस हीं पाँच वर्ष पुरानी मस्तिष्क को थरथरा देने वाली यादों के जेहन में आते ही उसके सारे शरीर में अजीब सी चुभन महसूस हुई  ! 
प्रखर आस्थाना के प्यार को पाने के लिए अपने सगे संबंधियों से रिश्ता तोड़ने के बदले में क्या मिला था उसे..मात्र उपभोग की वस्तु समझ सुबह -शाम शराब के नशे में चूर प्रखर द्वारा किए अपमान की घूँट पीना और सम्पूर्ण शरीर पर प्रखर के हीं हाथों वक्त की मरहम से भी कभी ना भरने वाले हरे -.नीले पड़ चुके अत्यंत पीड़ादायक घाव ...बस्स्स ......
घर हो यां  कार्यस्थल, यदि अपनी जिम्मेदारियों को शिद्दत से निबाहना और अपनी काबिलियत से हर जगह वाहवाही पाना  कोई अवगुण हैं तो हां ...ये अवगुण उत्तरा में कूट कूट कर भरा था !  फिर उत्तरा का ऐसा स्वभाव कोई नयी बात तो नही थी प्रखर के लिये ...दोनों ने मिलकर अच्छे केरियर के साथ हंसती खेलती गृहस्थी का सपना साथ हीं तो संजोया था !
सच तो यह हैं कि केरियर में उत्तरा ऊंचाइयों को पाते देख प्रखर हीं भावना से ग्रस्त हो अपना थोथा पौरूषत्व जताकर उत्तरा को प्रखर को समझाने के सारे प्रयास विफल होने के बाद एकल अभिभावक बनने का निर्णय लेकर उत्तरा ने घर छोड़ दिया और अलग रहकर दो माह की नन्हीं विधी को माता -पिता दोनों  का प्यार दिया ! इतना सब होने के बाद अब विधी के नाम के आगे आस्थाना .....नहीं ...बिल्कुल भी नहीं ....मैं ही विधी की माँ हूँ और पिता भी ...
फॉर्म के "छात्रा का पूरा नाम " कॉलम में "विधी उत्तरा " लिखकर उत्तरा ने बाकी पूरा फॉर्म भरकर काउण्टर पर जमा कर दिया ! ***
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क्रमांक - 99

मां और ममता
                                                   - अलका जैन
                                                 इन्दौर - मध्यप्रदेश
                                                 
        मेरी मां ने आज फिर मुझे मारा। कौन चुगली कर रहा है मेरी? मुझे अच्छा लगता है गुटखा खाना। इसलिए मैं खाता हूं।मैं कोई शराब तौ नहीं पीता।ना चोरी करता हूं बस गुटखा खाता हूं उस पर भी मेरी मां मेरे को पीटती है।दुसरो की मां कितना लाभ करती है लडको कौ।बड़ी मोसी के तो पांच लड़कियों है वो तो तरह रही है लड़के के लिए।मन्नत तक मांग रही है। मेरी मां लगता है मुझसे परमार नहीं करती। वरना सिर्फ गुटखा खाने पर वो मुझे नहीं मारती।
   समय पंख लगा कर उड़ता गया। मैं कौलेज की पढ़ाई के लिए शहर आ गया।मगर गुटखा खाना नहीं छोड़ा। रोज गुटखा खाता। फिर एक दिन मां ने खबर की तेरे लिए लड़की देखी है , अच्छी लग रही है तू आ कर देख जा। मैं गांव पहुंचा।मुंह में गुटखा चबाता हुआ। मां बोली तू छोटा था मैं तुझे गुटखा खाने पर पीटती थी अब तू बड़ा हो गया है। मैं तुझे पीट तो सकती नहीं, मगर तू अपनी अक्ल से सोच ,  गुटखा खाना स्वास्थ्य के लिए बता हानीकारक नहीं होता?  अरे मां तू मुझे इरीटेट मत कर ।अब मेरी आदत पड़ गई है। चार दिन के लिए आया हूं।अच्छा छोड़ । बता कब चलना है लड़की देखने। फोटो मैं तो अच्छी लग रही है।
   
       फिर शादी हो गई। में रोजी रोटी की तलाश में शहर आ गया। मां जब गांव से शहर आती तो  सांस बहू में किट किट होती। मां कहती बचत करो। फिजूलखर्ची मत करो।आये दिन झगड़े होते। ओफिस से आता तो घर में महाभारत चल रही होती। मैं मन ही मन सोचता मां शहर ना आते तो अच्छा हो। बहुत कंजूस है मेरी मां। मां बिना बोले ही समझ गई , मुझे उनका आना अब रास नहीं आता।  वो गांव में अकेली रहने लगी। पिताजी की मोत के बाद भी वह मेरे साथ नहीं रही। मेने कहा भी अब अकेली केसे रहोगी? वो नहीं मानी। फिर एक दिन गांव से किसी ने सूचना दी कि मां की तबीयत बिगड़ी गई है। मैं भागा भागा गांव पहुंचा।वो अस्पताल में भर्ती थी, मैं उनकी हालत देख समझ गया था कि वो अब थोड़े दिन की मेहमान है। मैं  दुखी हुआ। मां के को खून चढ़ाया  जा रहा था। उन्होंने मेरे सर पर हाथ रखा प्यार से नंगीआंख से मेरी ओर देखा और बोली जा तू १३ नंम्बर वार्ड में हो आ। मैं पूछना चाहता था काहे को फिर ये सोच कर उनकी तबीयत बिगड़ी हुई है ।मैं चुपचाप १३ नंम्बर वार्ड में चला गया।  वो वार्ड केंसर के मरीजों का था। सारे मरिज दर्द से बेहाल। मरीजों के परिजन पैसे से परेशान। किसी मरीज का मूंह सिला हुआ था किसी का कुछ। एक मरीज कह रहा था मेरे को पता होता कि गुटखा खाने से केंसर होता है तो मैं कभी गुटखा नही खाता डाक्टर । किसी ने मुझे रोका भी नहीं। मुझे जहर दे दो। सारे के सारे
पैसे मेरे इलाज में लग जायेगे। फेरे बाद मेरे बीबी बच्चे क्या
गायेंगे? बीबी पड़ी लिखी भी नहीं है।। कोई कह रहा था दर्द कम करो। सहन नहीं होता। मेरी मां मोत से लड़ रही हैं मगर उसे अपनी चिंता नहीं है वो इस चिंता में है केसे में अपने बच्चे कौ बुरी आदत  से बचा लूं। कभी मेरी ओलांद को केंसर ना हो जाये इस चिंता में डुबी है।वो अस्पताल मैं कुछ दिनों से भर्ती हैं उसे सब पता है कोन सा वार्ड कहा है। कुछ देर मैं उलझन मैं रहा फिर समझ गया कि मेरी मां मुझे गुटखा नही खाने का संदेश दे रही है। मैं वापस मां के वार्ड में पहूचा तब तक मां दुनिया छोड़ चुकी थी। मैंने जेब से गुटखा निकाला और हमेशा हमेशा के लिए फेंक दिया। मैं बहुत देर तक औरत की तरह रोया। फिर अपने आप से कहा मेरी मां दुनिया की सबसे अच्छी मां  थी
कभी कभी मै सोचता हूं बस यूंही मां के सामने गुटखा छोड दिया हो या तो अच्छा होता। कौन जाने वह भगवान के घर में चिंता करती होगी ।मेरा बेटा गुटखा खाता है जब कभी बरसी आती हैं मां की में लोगों को  शपथ दिलाता हूं कोई भी नशा नहीं करें लोग मानते हैं जब  मैं उन्हें अपनी सत्य कथा सुनाता हूं । मेरी मां को यही सच्ची ‌श्रद्वांजलि है। ***
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क्रमांक - 100

ममता का बटवारा
                                                   - शाईस्ता अंजुम 
                                                   पटना - बिहार
                                                   
अम्मी अम्मी रजिया की बेटी आवाज लगा रही थी रजिया सुबह की नमाज़ अदा कर कुसी पर बैठी न जाने किया सोच रही थी जब रजिया की बेटी आईशा ने रजिया के कंधे पर हाथ रखा और बोली कया बात है अम्मी आज खुदा से कुछ जादा माग लिया
रजिया ने आईशा के सिर पर हाथ रखते हुए कहा अब मुझे खुदा से कोई शिकायत नही बस वो दिन याद आ गए आईशा बोली छोडों अम्मी वक्त बीत चुका है रजिया ने चाय का कप लिया और बोली मै वो अपने औलाद का बटवारा कैसे भुल जाऊ दोनों माँ बेटी बातें कर ही रहे थे कि हरिया चाचा आ गए   
हरिया चाचा कोई नही थे हमारे बस हमारे खेतीबाड़ी की  देख भाल करते थे हरिया चाचा ने जो हम लोगों के लिए किया है शायद कोई अपना भी नही करेगा चाचा बोले कया बात हो रही मालकिन माँ बेटी मे रजिया एक ठंडी साँस ली एक घुट चाय पी और बोली वही बात याद आ गई हरिया 
चाचा बोले ऊपरवाला ने सब ठीक कर दिया अब तो बच्चा लोग बडा हो गया नौकरी कर रहा आईशा बेटी की शादी हो रही है रजिया बोली हाँ हरिया खुदा ने सब ठीक कर दिया पर मै वो वक्त नही भुल सकती हूं
बात उस समय की है जब रजिया की शादी एक अच्छे परिवार में हुआ खाता पीते लोग खेतीबाड़ी घर मकान नौकर चाकर हँसता हुआ परिवार रजिया ने अपने पहले बच्चे को जन्म दिया बेटी जो आईशा है फीर बेटे को जन्म दिया रजिया ने चार बच्चों की मँ बनी घर आगन बच्चे की आवाज से गुज रहा था सब बहुत खुश थे पर कहते है न बुरा वक्त कब आ जाऐ पता नही चलता आईशा के अबू गाड़ी चला कर गाँव जा रहे थे खेल देखने रास्ते में दुर्घटना हो गई आईशा के अबु को होश आया तो उनकी दुनिया पलट चुकी थी सिर पर चोट के कारण एक हाथ और पौर मे लकवा का थोड़ा असर हो गया था आँखों से धुधंला दिखाई पडने लगा ईलाज मे बहुत पैसा खर्च हो चुका था रजिया के जेवर कुछ जमीन बीक गए पर आईशा के अबू पुरी तरह ठीक नहीं हो पाए धीरे धीरे घर की हालत खराब होती चली गई अपने लोग भी साथ छोड़ ने लगे अकेली रजिया चार बच्चे एक बच्चा गोद में आईशा के अबू की ऐसी स्थिति मानो चारों तरफ अंधेरा रात दिन आँसू मे बीतने लगे बस नमाज मे खुदा से शिकायत करती 
एक दिन आईशा के अबू के कुछ रिशतेदार घर आए मिलने  
सब लोग आईशा के अबू के पास बैठ गए रजिया ने आईशा को इशारा किया चाय लाने को
रजिया वहीं पर बैठी रही सब लोग आपस मे बातें कर रहे थे कैसे पालेगी बच्चों को तुम जवान हो उतनी पढी भी नही हो पुरी जिन्दगी कैसे गुजारुगी बेटी भी बडी हो रही है बेटा छोटा है और न जाने कितनी बातें रजिया चुपचाप सुन रही थी बस आँखों से आँसू बह रहा था तभी एक रिश्तेदार ने कहा देखो रजिया हम लोग ने सोचा कि तुम्हारी बच्चों को हम लोग अपने घर ले जाऐंगे वहीं रहेगा काम सिखा देगे दो वक्त का खाना खा लेगा 
बस आप अपनी जमीन और खेत हम लोगों के नाम कर दे आप को भी कुछ देगें 
इतना सुनना था अम्मी ने अपने आँसू पोछें और गुस्सा से जो बोलना शुरू किया आईशा ने अम्मी की चीख और गुस्सा पहले बार सुनी
आप लोग मेरी ममता को बाटने आऐ है माँ से बच्चों को अलग करना चाहते है बच्चे के साथ मेरी जमीन लेना चाहते है
मै अपने शौहर की आँख बनुगी बच्चों को भी पालूंगी मै कमजोर नही हू मुझे अपने खूदा पर पुरा यकीन है ऐसे रिशतेदार नही चाहिए आप लोग मेरे घर न आऐ अम्मी का चेहरा गुस्सा से दहक रहा था
उस दिन हम सब भाई बहन  अम्मी का एक नया रुप देखा जो हमेशा शंत रहने वाली कम बोलने वाली चार दिवारों मे रहना पसंद करनेवाली आज एक शक्तिशाली मँ बन एवम पत्नी बन चकी थी
रजिया अपने बच्चों को पालने के लिए से घरेलू सिलाई बुनाई 
अखबार से ठोगा बनाती छोटे बच्चों को ऊदू कुरान पढाती
अपने बच्चों को सकूल मे पढाने के लिए खूब मेहनत करने लगी हरिया चाचा ने अबू की बहुत मदद की वो खेती देखते और अनाज घर पंहुचा देते कभी कभी सब्जिय भी ला कर देते बुरे वक्त में हरिया चाचा ने अम्मी का साथ नही छोडा अपने ने तो
वक्त अपनी रफ्तार से आगे बढता रहा 
बच्चे बडे हो गए बेटी नौकरी करने लगी 
वहीं रिशतेदारा रजिया से अपने बच्चे के लिए रिशता माग रहे 
रजिया ने कहा औरत जब मँ बन जाती है तो खुदा भी उसकी दुआ टाल नही सकता मँ के पैरों की निचे ऐसे ही खुदा ने जन्नत नही दिया
रजिया का चेहरा चमक रहा था मानो जिन्दगी की जंग जीत कर संकून से खुदा का शुक्रिया अदा कर रही थी । ***
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क्रमांक - 101                                                        

अम्मा
                                             -शराफ़त अली ख़ान
                                              बरेली - उत्तर प्रदेश

  अम्मा को पान खाने का बेहद शौक था. उन्हें देसी पान बहुत पसंद थे .नौकरी में आने के बाद मैं जब भी अम्मा से मिलने गांव जाता तो शहर से देसी पान खरीद कर जरूर ले जाता.
    जब अम्मा काफी बीमार रहने लगीं तो मैं हर माह  दो तीन बार उनसे मिलने गांव जाता. वह भी मेरा बेताबी से इंतजार किया करतीं. मेरे गांव पहुंचने पर मुझसे लिपट जातीं और आंखों में आंसू भरकर कहतीं," तेरा इंतजार करते करते आंखें थक गई, छोड़ दी नौकरी हमारे घर किस चीज की कमी है." मगर मैं अम्मा को मना लेता और दो-तीन दिन रह कर फिर वापस नौकरी पर चल देता.
     आज शहर से गांव जाते समय बाजार पान दरीबा पहुंचते ही मैंने रिक्शे वाले को रुकने का आदेश दिया और मुझे देखते ही दुकानदार ने सदैव की भांति पान बांधना शुरू कर दिए. पान लेकर दुकानदार को पैसे देते समय मुझे अनायास याद आया की अम्मा को तो मैं एक माह पूर्व ही अपने हाथों से कब्र में लिटा आया हूं, अब पानों का क्या होगा? मुझे बेवजह रुका देखकर रिक्शा वाले ने टोंका," साब , चलेंगे नही?"
      मैंने चौंक कर रिक्शेवाले को देखा और तेजी से रिक्शा में बैठ गया .गांव पहुंचकर मैं सीधा बाग में अम्मा की कब्र की तरफ चल दिया .मैंने पान मां की कब्र के सिरहाने  रख दिए और वापस आते समय मुझे ऐसा लगा जैसे अम्मा कह रही हैं," तेरा इंतजार करते-करते आंखें थक गई , छोड़ दे नौकरी......" मैंने पीछे घूम कर अम्मा की कब्र की तरफ देखा. अब अम्मा  को मनाने की जरूरत नहीं रही थी. वह अब हमेशा के लिए मान चुकी थी. ***
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क्रमांक - 102                                                       
 एक माँ की वसीयत
                                                 - मंजुला भूतड़ा
                                                इन्दौर - मध्यप्रदेश

     पिता को गुज़रे लगभग तेरह वर्ष बीत चुके।माँ का वक्त अनेक मुश्किलों का सामना करते हुए व्यतीत हो रहा था। पिता के जाने के बाद बेटा बहू कुछ महीने तो बहुत अच्छी तरह रहे,माँ का पूरा ध्यान रखते रहे। जब पिता की वसीयत के कागज़ात सामने आए तब ज्ञात हुआ कि पिताजी सारी जायदाद माँ के नाम  लिखकर
  गए हैं। अतः बेटा बहू इस बात से असंतुष्ट थे। उन्हें लगता है कि माँ के बाद भी तो सभी कुछ उनका होने वाला है तो जायदाद पिता ज़ी ने उनके नाम ही क्यों न लिख दी?
         माँ अब बीमार रहने लगी थी। एक सेविका माँ की देखभाल करती, उनके मन की हर बात समझती। उन्हें हर तरह सहारा देती। बेटा बहू माँ को समझाते,"माँ अब आपको सब हमारे नाम करके आराम से रहना चाहिए" माँ कहती," हां, मुझे सब ध्यान है।" इसी तरह वक्त निकलता रहा।
        बेटा बहू को अब माँ से अधिक बस पैसा जायदाद की चिंता थी। माँ ने मौका और समय देखकर हालात को समझते हुए वकील को बुलाया,उसे एकांत में मन की सब बातें कही। मन मुताबिक वसीयत लिखवाई। यह भी कहा कि उनके मरने के बाद यह वसीयत परिवार जनों के सामने पढ़ी जाए।
          माँ का इन दिनों अब चलना फिरना भी दूभर हो गया था। शारीरिक और मानसिक क्षमताएं क्षीण होने लगीं। इन्हीं तकलीफों के बीच आज माँ सुबह सोकर ही नहीं उठीं। बेटा बहू रोज़ की तरह काम पर जा चुके थे। सेविका ने उन्हें सूचना दी।तब सब लोग एकत्र हुए और अन्तिम संस्कार किया गया।
          माँ के जाने के बाद तीसरे दिन वकील साहब आए, उन्होंने वसीयत पढ़कर सुनाने की माँ की इच्छा बताई। बेटा बहू तो निश्चिंत थे कि अब सब हमारा ही है, और कोई है भी तो नहीं। वकील साहब ने कहा " माँ की इच्छा के अनुसार,जिस घर में रहते हो यह आपका है। सारी सम्पत्ति में से आधी सम्पत्ति जीवन पर्यन्त सेवा करने वाली सेविका की है और बची हुई सम्पत्ति उस विकलांग बेटे के लिए, विकलांग आश्रम को दान दी जाए , जहां वह रहता है।"
बेटे बहू की अपेक्षाओं पर इस तरह पानी फिर गया। ***
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क्रमांक - 103                                                     

 माँ
                                              - वन्दना श्रीवास्तव
                                                मुम्बई - महाराष्ट्र
                                             
         मेरी गृहकार्य सहायिका सुमन बाई काम समाप्त करके थोड़ा सुस्ता रही थी। उसका पीला पड़ा काँति हीन चेहरा और उदास-निराश भाव भीतर तक मुझे व्यथित कर रहा था। मैंने उसके लिए चाय बनाई। बेचारी पिछले पाँच वर्षों से बच्चा न हो पाने की वजह से ससुराल वालों गालियाँ-लानतें और पति की उपेक्षा झेल रही थी। जाने कौन से डाक्टर की दवा या ओझा-पंडित के गंडे-तावीज का प्रताप था कि उसके गर्भ में जीवन ने अंगड़ाई ली। लेकिन उसका दुर्भाग्य ने पीछा नहीं छोड़ा, उस अभागिन का गर्भ चार माह में ही नष्ट हो गया। जैसे पागल ही हो गई थी वह। अब थोड़ा सम्हली है, तो पिछले हफ्ते से काम पर आना शुरू किया है।
       मैं द्रवित हृदय से उसके निराश और दुखी चेहरे को ताक रही थी, तभी बाहर कुछ शोर सुनाई दिया। मैं भी उत्सुकता वश बाहर आई। पता चला कि सामने नहर के किनारे एक नवजात बच्ची पड़ी है, जो लगातार रो रही है। कुछ लोग पुलिस को फोन लगा रहे थे। कुछ उस बच्ची के अज्ञात माँ-बाप को कोस रहे थे तो कुछ पतन की ओर तेजी से बढ़ती युवा पीढ़ी को।
    तभी सबने देखा कि भीड़ को चीरती सुमन पागलों की तरह दौड़ती हुई उस बच्ची के पास पहुँची और लपक कर बच्ची को सीने से चिपका लिया। उसके स्तनों से दूध और आँखों से आँसुओं की धारा एक साथ फूट पड़ी थी। ***
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क्रमांक - 104                                                           

ईमानदारी का ईनाम
                                                     -  मिन्नी मिश्रा
                                                     पटना - बिहार

"मम्मी, तुम घर में सारा दिन काम करती रहती हो ।न अपने कपड़े  पर और न ही अपनी स्वास्थ्य पर  ध्यान देती ..इसलिए इतनी दुबली हो।

देखो, बर्मा आंटी को कितने खाते-पीते घर की लगती है।    सच में... आंटी बर्मा अंकल की कमाई का बहुत यश देती  है और तुम ! पापा भी तो बर्मा अंकल  के साथ एक ही आफिस में और एक ही पद पर  काम करते हैं।  "

"अरे ...बेटा , काम में तो कभी हाथ बंटाता नहीं और ऊपर से नसीहत देता ! चल हट , जा अपने कमरे में , अभी मुझे बहुत  काम करने हैं  । "

"मम्मी , तुमको देखकर सोसाइटी के  लोग क्या सोचते होंगे  , इतने बड़े आफिसर की पत्नी होकर कोई पर्सनैलिटी नहीं है।  ज़रा पापा की प्रतिष्ठा का भी ख्याल रखा करो..इस सोसाइटी के कल्चर को मेनटेन करना सीखो । "

किशोर बेटे की बात सुनकर  मम्मी गंभीर और रूआंसी  हो गई...उफफफ, आजकल के बच्चे ! इतना भी नहीं सोचते, मैं किसके लिए दिनभर बेहाल रहती हूँ !

बगल के रूम से माँ -बेटे की सारी बातें  सुनकर उसके   पिता तुरंत उठकर दोनों के पास पहुंचे ।

अपनी पत्नी का उदास चेहरा देख,  जोर से ठहाका लगाते हुए  बोले,  "बेटा , तुझको आफिस के अंदर का हाल पता नहीं है... मैं ईमानदारी से पैसा कमाता हूँ और बर्मा अंकल ईमानदारी से रिश्वत  । इसतरह से तुलना करके तुमने मम्मी के मन को ठेस पहुँचाई  है।"

"क्या पापा? "

"अरे हाँ  , तुम्हारी मम्मी पतली जरूर  है, पर ...ये तो मेरे ईमानदारी का ईनाम है । वरना बर्मा आंटी की तरह इसे भी मोटापे का इलाज कराने हमेशा डाक्टर का चक्कर लगाना पड़ता। " इतना कहकर उसने अपनी पत्नी को गले से लगा लिया।

      बेटा की आँखें खुली की खुली रह गई । वो जिस पर्सनैलिटी की तारीफ़ कर रहा था.. वह अब उसे खोखली नजर आने लगी । ***
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क्रमांक - 105                                                     

माँ की तड़प
                                                - अर्विना गहलोत
                                             प्रयागराज - उत्तर प्रदेश

    प्रभा रोज की तरह आज भी अपनी बेटी को ढूंढने निकली तपती सड़क पर आते जाते लोगों को बेटी का मुडा तुड़ा फोटो दिखाकर पूछती है किसीने मेरी बेटी को देखा है ।

 जिस दिन से उसकी बेटी लापता हुई है ।प्रभा इस ग़म को बर्दाश्त नहीं कर पाई और दिमाग का संतुलन बिगड़ गया है ।यू ही सड़कों पर मारी मारी फिरती है ।

तन पर फटी साड़ी हाथ में एक गुड़िया लिए एक पेड़ के नीचे प्रभा ने बैठ कर पेड़ से सर टिका लिया है ।चेहरे पर विशाद की रेखाएं उभर आई हैं ।

  गर्मी में सूखे होंठ पपडा गए हैं ।  कहीं कहीं फटे होठों से रक्त की बूंद छलक आई है।

सड़क से गुजरते राहगीरों ने देखा तो उनकी आँखो में नमी तैर गई मां की दुर्दशा देखकर  बच्चे के वियोग ने उसे पागल कर दिया है ।

प्रभा को  खाने का होश न शरीर का होश है ।

"  दिल में तड़प है। "  कुछ नहीं चाहती बस अपनी बेटी का पता चाहती है इतने मे सामने से एक महिल पुलिस वाली आई  और प्रभा को झकझोर दिया ।
चल ! देख एक लड़की मिली है पहचान के लिए चल उधर अस्पताल में उठ खड़ी हुई प्रभा ।

"पुलिस वाली के पीछे प्रभा सम्मोहित सी चल दी ।"

अस्पताल में पहुँच कर देखा तो पछाड़ खा कर गिर गई जिसका पता ढूंढ़ती फिर रही थी वो इस हाल में  कितनी दुर्दशा करी हे इन वहशीयों ने मेरी मासूम बच्ची की  ।

धरती पर  बोझ है ऐसे वहशी  इनके बोझ से धरती को हल्का करो ।  लटका दो इन्हें   लटका  दो इन्हें । ***
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क्रमांक - 106                                                       
माँ झूठ बोलती है

                                           - पूनम रानी
                                         कैथल - हरियाणा
                                         
         सुनीता का पति मजदूरी करता था।एक दिन उसका एक्सीडेंट हो गया।मुन्ना व् स्वीटी की जिम्मेवारी सुनीता पर आ गयी।पढ़ी लिखी न होने के कारण किसी के घर में काम करने जाने लगी।
"माँ आपको बुखार है मत जाओ। आज काम करने मै चली जाती हूं।"
" नहीं ,स्वीटी  तुम कहीं नही जाओगी यही रहो मुन्ना के साथ।"
ऐसे कहकर सुनीता बाहर जाने लगी व स्वीटी मुन्ना को रोटी खिलाने लगी जो उसकी माँ काम करके रात को लेकर आई थी।फिर उसे तैयार करके स्कूल छोड़ आयी व् घर के कामों में लग गयी। दोपहर के 12 ही बजे थे उसे दरवाजे की खट खट सुनाई दी।जब खोला तो सुनीता बाहर खड़ी थी।
"माँ ,आज जल्दी आ गयी आप और तबियत भी ठीक नही लग रही।"
"हाँ ,बुखार ज्यादा था।तुम्हारे लिए लिफाफे में चार रोटियां लायी हूं। खा ले मेरी बच्ची।"
"माँ ,आप भी खा लो ।"
"नही ,स्वीटी तुम खाओ।"
स्वीटी ने खाना खाया और मुन्ना को स्कूल से लाकर उसे भी खिलाया।शाम को फिर सुनीता जाने लगी तब स्वीटी ने कहा,"माँ मान जाओ मुझे जाने दो।"
सुनीता में वैसे भी काम करने की हिम्मत नही थी।अगर काम न करने गयी तो रात में बच्चों को भूखा सोना पड़ेगा ऐसा सोचकर उसने स्वीटी को काम पर भेज दिया।
स्वीटी उनके यहाँ गयी । रसोई में जाकर आटा गूंथ कर रोटी बनाई ।वे साथ साथ खाते रहे। फिर बर्तन साफ किये।जैसे ही स्वीटी अपने घर रोटियों का लिफाफा लेकर जाने लगी तो एक आंटी ने कहा,"इतनी रोटियाँ क्यों ले जा रही हो ,कोई आया है क्या तुम्हारे घर।"
उसने कहा "नहीं ,आंटी जी आठ ही तो हैं।आज माँ नही आयी तो उनकी घर ले जा रही हूँ।"
"पर तेरी माँ तो सुबह चाय व् दोपहर को ही खाना खाती है ,शाम का नहीं।"
"आंटी जी कब से।"
"हमारे घर लगी है शुरू से ही।"
स्वीटी के आगे उसकी माँ का झूठ आ जाता है।
स्वीटी घर आई,आकर भाई को एक रोटी खिलाई ,दो आप खायी।मुन्ना को सुला दिया और अपनी माँ के पास चार रोटियाँ ले जाकर कहा ,"खा लो माँ।"
"नही, मुझे भूख नही है। वैसे कितनी हैं।"
"चार हैं माँ"
स्वीटी समझ चुकी थी कि माँ झूठ बोल रही है आज माँ जल्दी आयी थी तो अब तक भूख नही लगी।
"कोई नही कल खा लेंगें।डिब्बे में रख के सो जा,थक गयी होगी मेरी बच्ची।"
स्वीटी  रोटियों को डिब्बे में रख कर लेट जाती है ।आज उसे नींद नही आ रही।वह सोचती है कि पापा तो इस दुनिया में है नही।सब  लोगों ने हमसे रिश्ता तोड़ लिया।अब माँ ही मेरा व मुन्ना का सहारा है लेकिन माँ झूठ क्यों बोलती है?
ऐसे सोचते सोचते स्वीटी सो गई।
        माँ गरीब हो या अमीर अपने बच्चों की ख़ुशी के लिए जो कर सकती है। ***
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क्रमांक -107                                                       
हमसफर
                                         - कल्याणी झा
                                        रांची - झारखण्ड

             बात उन दिनों की है, जब मैं अपनी मम्मी से मिलने भिलाई गई थी। पापा को गुजरे दो साल हो चुके थे। तब से मम्मी इतने बड़े घर में अकेली रहती थी। भाई ने प्रेम विवाह किया था। वहाँ उनका मन नहीं लगता था। बेटियों के पास मम्मी रहना नहीं चाहती थी। ये उनके अपने पुराने ख्यालात थे, और उन्हें समझाने का कोई फायदा नहीं था। मैंने महसूस किया था, कि मम्मी बहुत कमजोर हो गई थी। उनकी आँखो में एक सूनापन नजर आता था। मैंने उनको मनाने की बहुत कोशिश की। मेरे साथ चलें, पर वो नहीं मानी।
              एक दिन मैं और मम्मी बरामदे में बैठकर चाय पी रहे थे, तभी मम्मी ने मुझसे कहा-  "जानती हो इस दिवाली पर पापा आए थे।  मेरे सामने खड़े होकर बोले, आप अकेली हो। सबने आपको अकेला छोड़ दिया।"  उसके बाद मेरी ओर देख कर हाथ का इशारा करते हुए बोली - "और इधर से चले गए।" मैं एकटक उनकी ओर देख रही थी। मेरे पास कोई जवाब नहीं था।  
                   एक हफ्ते वहाँ  रह कर मैं वापस चली आई। लौटते वक्त एक अजीब सी अनुभूति हो रही थी। दिल बैठा जा रहा था। पर उस वक्त मैं भगवान के इशारे को समझ नही पायी। अगली दिवाली आने के पहले मम्मी, पापा के पास जा चुकी थी।***
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Comments

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  2. आदाब।
    यही है असली //मदर्स डे//
    //राइटर्स-वे//
    //मदर्स-लॉग-राइटर्स-ब्लॉग//
    जय जैमिनी अकादमी!
    विजय माता-अव्यक्त-अभिव्यक्ति!

    मेरी भेजी रचनाओं में से मेरी इस प्रिय लघुकथा को चयनित कर इस बेहतरीन माला में 68 वें क्रम पर पिरोकर यहां स्थापित करने हेतु बहुत-बहुत शुक्रिया।

    शेख़ शहज़ाद उस्मानी,
    शिवपुरी (मध्यप्रदेश)
    [07/04/2019]

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  4. बहुत सुन्दर ब्लॉग है ।मां का एक ही रूप जगत विख्यात है ममता भरा रूप ।पर उसके भी कितने विभिन्न रूपों का प्रत्यक्ष दर्शन करवा देता है 'मां ' की कहानियों से भरा यह ब्लॉग । मेरी कहानी को स्थान देने के लिए आ विजेन्द्र जैमिनी जी का हार्दिक आभार ।

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  5. सादर वंदन ।
    आपका यह प्रयास "मां" को उचित सम्मान देने वाला पावन कृत्य है ।यह ब्लाग "मां एक, रूप अनेक "को चित्रित करते हुए, "मां" को सच्चे श्रद्धा सुमन अर्पित करता है ।
    मेरी रचना को इस पावन श्रृंखला में 48वें क्रमांक पर समाहित कर जो सम्मान दिया है, मैं आपका सदैव हृदयतल की गहराराईयों से आभारी रहूंगा ।
    यही है पुणीत व पावन "मदर्स डे "
    एल. आर. राघव "तरुण"

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  6. माँ समग्र रूपों में परिभाषित हुई, इतने सुंदर प्रयास हेतु बधाई जैमिनी जी।

    गोकुल सोनी , भोपाल

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  7. शुक्रिया सर आप ने मेरी रचना को 100 वें न0 पर स्थान देकर मुझे सम्मानित किया

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  8. बहुत हीं सराहनीय प्रयास आदरणीय। माँ पर आधारित इतनी अच्छी अच्छी रचनाएँ एक साथ पढ़ने को मिली तथा इनमें मेरी रचना को भी आपने स्थान दिया, आपका सादर आभार 🙏।

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  9. माँ पर बहुत सारी लघुकथा एक ही जगह होने से लघुकथाकार को भी बहुत लाभ मिलता है. साथ ही बहुत सारी रचनाओं को पढ़ कर नई संवेदनाएं मन में उठने लगती है. आप का यह प्रयास प्रशंसनीय है. हार्दिक बधाई आप को इस सराहनीय कार्य के लिए.

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  10. बहुत ही उम्दा सराहनीय सार्थक प्रयास
    माँ पर एक ही स्थान पर वरिष्ठ लघुकथाकारों की बेहतरीन लघुकथाओं का संग्रह । आपके इस अविस्मरणीय पुनीत कार्य के लिएआत्मीय शुभकामना एवं हार्दिक बधाई ।

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