बिना संवाद के सार्थक लघुकथा सम्भव है क्या ?

           
       बिना संवाद के सार्थक लघुकथा सम्भव है क्या ?               
         लघुकथा अपने आप मे सम्पूर्ण विधा है । जो हिन्दी साहित्य की वर्तमान में महत्वपूर्ण विधा मानीं जाती है । 
         लघुकथा साहित्य मे संवाद की बहुत बडी भूमिका होती है । मैं अक्सर इसको तीन भागों में बाटता हूँ :-
         1. जो सिर्फ संवाद में लघुकथा लिखी जाती है । बाकि कुछ भी नहीं होता है । अब ऐसी लघुकथा बहुत कम लिखी जाती है ।
         2. जिसमें संवाद होते ही नहीं है । ऐसी लघुकथा भी कई बार प्रभावशाली  देखीं गई हैं।
         3. संवाद के साथ बहुत कुछ ओर भी होता है । ऐसी लघुकथा आजकल बहुत लिखी जा रही हैं । इसी विषय को लेकर ये परिचर्चा रखी गई है। आओ देखते है विद्वानों के विचारों को :-

        शाहजहांपुर - उत्तर प्रदेश से शशांक मिश्र भारती लिखते है कि लघुकथा संक्षेप में होने के साथ-साथ संक्षिप्त कथानक पात्र व उद्देश्य को लेकर आगे बढ़ती है ।संवाद न होना पात्रों के न होने के बराबर है ।उनका विकास न होगा केवल लघुकथाकार प्रस्तुतीकरण देगा । ऐसे में कोई लघुकथा सार्थक कैसे हो सकती है ।अपने प्रभाव को कैसे स्थापित करेगी ।
          पटना - बिहार से अनीता मिश्रा सिद्धि से लिखती है कि आज के दौर में बिना संवाद के भी अच्छी लघुकथाएँ आ रहीं है। किसी घटना-क्रम को परिभाषित कर आज बहुत से लघुकथाकारों ने अच्छी रचनाएँ दीं है। किसी भी कथा में कथ्य और चरित्र को अगर लेखक सशक्त रूप में परिभाषित करता है तो संवाद वहाँ गौण हो जातें हैं।कितनी ही लघुकथाएँ  , संस्मरण ,और बिती हुयी घटनाओं पर बिना संवाद के लिखी गयी हैं। कथा की पृष्ठ-भूमि , कथ्य की कसावट , अगर सही और पैनी हो तो बिना संवाद के भी अच्छी लघुकथाएँ लिखी जा सकतीं है।
           महासमुंद - छत्तीसगढ़ से महेश राजा लिखते है कि बहुत ही सामयिक एवम शानदार विषय है यह। आजकल लघुकथाऐं ज्यादा लिखी जा रही है,और पढी भी जा रही है । साथ ही लघुकथाओ के लिये कुछ नियम भी बनाये गये है। चूंकि लघुकथा क्षणिक घटनाओं पर आधारित होती है ,और यह अति लोकप्रिय विधा है,तो हमें क ई मानक पर खरा उतर कर लघुकथाए लिखनी होती है। मेरे अनुसार लघुकथा भूमिका विहीन हो और इसमें शब्दों की मितव्ययता  पहली शर्त है।यह इकहरी विधा है ,तो अनेक पात्रों का उलझाऊ एवम बोझ यह सहन नहीं कर सकती।लघुकथा क्षणविशेष के भावों की अभिव्यक्ति है ,तो इसमें संवाद अदायगी कतई जरूरी नहीं। कथ्य अच्छा हो,चिंतन को जन्म दे,और अंत ऐसा हो कि कोई संदेश प्रस्तुत हो। हां बीच में कुछ लघुव्यंग्य लिखे गये,जिसमें संवाद द्वारा बात कही गयी ।कहने की गरज है,यह कतई जरूरी नहीं कि संवाद हो।इसके बिना भी सार्थक लघुकथा लिखी जा सकती है।
          उज्जैन - मध्यप्रदेश से मीरा जैन लिखती है कि जी बिल्कुल संभव है ये सत्य है कि लघुकथा के क्षेत्र मे अधिकांशत: कथ्यात्मक शैली को ही प्राथमिकता दी जाती है और इसका मुख्य कारण है पात्रों के माध्यम से कथन का प्रादुर्भाव निश्चित ही कथा मे जीवटता का आभास कराता है लगता है सब कुछ आंखों के सामने ही घटित हो रहा है वहीं संवाद विहीन लघुकथा अर्थात केवल वर्णनात्मक लघुकथा भी उतनी ही प्रभावी हो सकती है बशर्ते लेखक पूर्ण मनोयोग से कथा के पात्रों की जगह मन ही मन स्वयं ही संवाद कर उनके भावपूर्ण सार को हूबहू लिखे वैसे बाल साहित्य हेतु मै संवाद हीन लघुकथा को ही बेहतर मानती हूँ ।
           रांची - झारखण्ड से सविता गुप्ता लिखती है कि आज के मशीनी युग में जहाँ हर हांथ में मोबाइल ,लैंप टॉप आदि ऐसी उपयोगी साधन आ गए है;जो हमें अल्प समय में बहुत कुछ करने को प्रेरित करता ,इसी कड़ी में लघुकथा को हमने आसानी से अपना लिया | कम समय में एक कहानी को पढ़ कर आनंदित होकर दूसरे कार्यों को कर सकें ,लेकिन जहाँ तक लघुकथा के बिना संवाद के सार्थक होने का या रुचिकर होने का है ;तो ये वैसी ही प्रतीत होगी जैसे बिना नमक की सब्ज़ी या बिना चीनी की खीर इसलिए बिना संवाद के सार्थक लघुकथा स्वाद विहीन लगेगी ।
       हिसार - हरियाणा से नीलम नारंग लिखती है कि लघुकथा एक सदेंशपरक छोटी कहानी होती है। जो बिना संवाद के भी सभंव होती है । ये हमारी सोच , नज़रिये , प्रेरक प्रसंग , आस पास की घटना पर आधारित होती है। जिनसे हमें कोई शिक्षा , एक गहरी सोच या समाज में व्याप्त बुराई से निकलने का रास्ता सुझाया जाता है । कई बार ऐसी घटनाएँ कथा के रूप में सामने आती है तो समाज में बदलाव की प्यार भी बहने लगती है ।
        खरगोन - मध्यप्रदेश से विजय जोशी शीतांशु  लिखते है कि लघुकथा का जन्म विसंगतियों और परिस्थितियों के आधार पर होता है।  यह तो स्वयं सिद्ध है। किंतु उन परिस्थितियों को अभिव्यक्त करने के लिए एक संवाद का निर्माण, उत्कृष्ट भाषा शैली के माध्यम से किया जाना अति आवश्यक है। संवाद ही पात्र की भूमिका को अभिव्यक्त करता है।  कथानक को विस्तार देता है। और संवाद  लघुकथा मुख्य तत्व है जो की  निष्कर्ष को पाठकों के जेहन तक पहुंचाने का कार्य करता है।  पात्रों के बीच का संवाद ही पात्र की उस पीड़ा या दर्द को अभिव्यक्त करने का काम करता है, जो कथा को विस्तार देते हुवे, अंत में एक पंच के माध्यम से लघुकथा की पूर्णता को अभिव्यक्त करता है। संवाद तत्व के बिना लघुकथा हो या कहानी अधूरी है।  लघुकथा तत्क्षण में उपजे घटनाक्रम के अच्छे या बुरे संदेश को अभिव्यक्त करने का साधन है।  तो उसका आधार संवाद ही है।   जिस पर संवाद के माध्यम से लेखक मर्मस्पर्शी ह्रदय विदारक या अत्यंत खुशी दायक क्षण को अभिव्यक्त कर सकता है।
        महोदय संवाद ही तो कथा का मूल आधार है।  विशेषकर लेखक अपने लेखन  को शिल्प शैली में डालकर पत्रों के संवाद के माध्यम से ही अपने सारे उद्गार भाव और कथानक को पाठक तक पहुंचाता है। तो फिर संवाद की सार्थकता को कैसे इन्कार किया जा सकता है।  किसी लघुकथा के लिए संवाद का होना नितांत आवश्यक है।
         रांची - झारखण्ड से अनिता रश्मि लिखती है कि हाँ! बिना संवाद के ' भी ' लघुकथा संभव है। खलील ज़िब्रान सहित कई मूर्धन्य लघुकथाकारों ने बिना संवाद के भी कसौटी पर खरी उतरनेवाली लघुकथाएँ लिखीं हैं। सजग, सार्थक लघुकथाएँ अपना रूप - रंग, आकार सब खुद भी ग्रहण कर लेती है, अन्य विधाओं की तरह। दिल को छूकर बल्कि कहें- झकझोरकर जो रख दे, सही राह दिखा दे, वही लघुकथा सच्ची। भले वह संवादहीन हो। वैसे संवाद से इसकी मारक क्षमता और विकसित हो जाती है।
          अहमदाबाद - गुजरात से डॉ .आशासिंह सिकरवार लिखती है  कि संवाद के बिना भी एक सार्थक लघुकथा लिखी जा सकती है, क्यों कि इसका फलक इतना छोटा है कि संवाद जगह घेरते है ।जो बात एक पात्र या संकेत द्वारा कही जा सकती है वह दो पात्रों में बंट कर लम्बी हो जाती है ।जबकि कथा को संक्षेप में समेटना होता है,वह भी उद्देश्यपूर्ण । मैं समझती हूँ संवादों की अनिवार्यता लम्बी कहानियों में होती है ।
          गुरुग्राम - हरियाणा से भुवनेश्वर चौरसिया "भुनेश" लिखते है कि  मेरे विचार से बिना संवाद के सार्थक लघुकथा लिखना कतई संभव नहीं है। उदाहरण के लिए क्या आप मकान बनाते है? तो बिना नीब के ही मकान खड़ा कर देते हैं। आप कहेंगे बिल्कुल नहीं जैसे मकान बनाने के लिए हमें ईंट,गारे, सीमेंट,बालू,बजड़ी,क्रेसर और लोहे की छड़ अथवा सरिया की आवश्यकता होती है। ठीक वैसे ही "लघुकथा" लेखन में भी बहुत सारे अथवा कुछेक पात्रों की आवश्यकता होती है। तब जाकर कहीं एक सार्थक लघुकथा का जन्म होता है। इसलिए लघुकथा में सार्थक संवाद का होना बहुत जरूरी है।
         जबलपुर - मध्यप्रदेश से  राजकुमारी रैकवार  राज  लिखती है कि मेरे विचार से  बिना  संवाद के  लघुकथा  सम्भव  हो  ही नहीं  सकती, क्यों  कि  किसी  स्थान  किसीसमूह, पर एक  से अधिक  व्यक्तियों  का होना  जरूरी है , तभी  कोई  संवाद  होगा, और कोई  बात आगे  बढ़ेगी  l  किसी खास  बात पर जा कर पूरी होगी  l जहाँ  से आगे और सोचने पर मजबूर कर देना  l  कहा जाता है  एक अकेला चना भाड़ नहीं  फोड़ता l अतः  बिना संवाद के  लघुकथा  सम्भव  ही नहीं l
          अजमेर - राजस्थान से विमला नागला लिखती है कि इस पर मेरा व्यक्तिगत  रुप से यह मानना है कि बिना संवादों के लिखी लघुकथा की अपेक्षा ,संवादों पर आधारित लघुकथा अधिक प्रभावी व सार्थक होती है।इसमें दोनों पक्षों के मुख्य प्रभावी संवादको इन्वर्टेड कामा में लिखा जाये तो उसकी प्रभाव शीलता में और सार्थकता परिलक्षित होती है             
              भिण्ड - मध्यप्रदेश से मनोरमा जैन पाखी लिखती है कि सांकेतिक भाषा शैली में बिना कथोपकथन या संवाद के लघुकथा कही जा सकती है ।बशर्ते विषय को शैली या घटनाओं से प्रभावी बना दिया जाये।या संकेत में बताया जाए।इसके लिए भाषा पर पकड़, प्रभावी विषय व घटना तत्कालीन प्रभाव छोड़ने में समर्थ हो।  रचनाकार स्वयं को अलग रखते हुए घटनाक्रम प्रस्तुत करने में सफल हो ।
अन्यथा संवाद बेहतर माध्यम है लघुकथा के लिए।
            दिल्ली से विरेंदर 'वीर' मेहता लिखते है कि  प्रश्न वास्तव में विचारणीय है क्योंकि लघुकथा विधा में इस पर कोई एक मत हो सकेगा, इसमें संदेह है। वस्तुतः लघुकथा में संवाद हो या नहीं, इसका इस विधा के मानकों से तो कोई संबंध ही नहीं है। यह बिंदु पूरी तरह लघुकथा के कथ्य पर निर्भर है। यदि प्रचलित लघुकथा का संदर्भ देखा जाए, तो मुख्यतः तीन भागों में बांटा गया है। प्रथम, विवरणात्मक यानि पूर्णतयः संवाद रहित। द्वितीय, संवादात्मक यानि पूरी तरह संवादों में लिखी गई तथा तृतीय, मिश्रित शैली यानि विवरण और संवादों; दोनों से परिपूर्ण। 
गौरतलब है कि इनमें से मिश्रित शैली में ही सर्वाधिक लेखन होता आया है, लेकिन वस्तुतः यदि देखा जाए, किसी कथ्य में पात्र, परिस्थितियां या विषय की विसंगति कोई ऐसी विशेषता लिए हुए है जिसे बिना संवादों के उभारा नहीं जा सकता अथवा लेखक द्वारा दी गई भूमिका से प्रभाव पैदा नहीं किया जा सकता, तो ऐसी स्थिति में वहां लघुकथा में संवाद को अति आवश्यक माना जा सकता है, वर्ना मात्र विवरणात्मक भूमिका और लेखक के माध्यम से भी एक प्रभावी लघुकथा कही जा सकती है। लेकिन इस खूबी के लिए भी लघुकथाकार में गहन समझ का होना बहुत आवश्यक है कि वह कथ्य विशेष को समझ सके और उसके लिए उपयुक्त शैली का चुनाव कर सके।
         यू एस से सुदेश मोदगिल नूर लिखती है कि लघुकथा हम लिखते है जब कभी कोई ख़ास घटना हमारे मन को छू लेती है या कभी कुछ असम्भव लगने वाली बात सम्भव हो जाती है । हम अपने विचारों मे अपने ढंग से उस घटना को लिखते है इसलिए संवाद के बिना भी लिखना सम्भव है 
        इंदौर - मध्यप्रदेश से   डां अंजुल कंसल "कनुप्रिया" लिखती है कि बिना संवाद के सार्थक लघुकथा संभव है। लघुकथा में शब्द विन्यास असरकारक हो। छोटे धारदार वाक्य हों।भावनाओं को संवेदनाओं को भली प्रकार से पिरोया गया हो तो लघुकथा अवश्य सार्थक हो सकती है।लघुकथा में एक या दो पँच अवश्य होने चाहिये ताकि वह पाठक को अंदर तक झकझोर दे और पाठक कह उठे-वाह! लघुकथा में अनावश्यक विस्तार न हो। सटीक शब्दों एवं वाक्यों का प्रयोग हो।"देखन में छोटे लगे घाव करे गम्भीर "वाली कहावत चरितार्थ हो।    
         राँची -  झारखंड से रूणा रश्मि लिखती है कि कम से कम शब्दों में एक कथा के द्वारा अपने विचारों की सुंदर और सटीक अभिव्यक्ति ही एक  लघुकथा का उद्देश्य होता है।लेकिन लघुकथा में संवाद का होना न होना उस कथाविशेष के पात्रों और कथानक पर निर्भर करता है। कभी कभी भावनाओं को व्यक्त करने में संवाद का अत्यंत ही महत्वपूर्ण योगदान होता है तो कभी कभी पात्रों के मध्य संवाद के बिना भी रचनाकार उत्तम अभिव्यक्ति कर लेता है और कथा के माध्यम से पाठकों तक अपना संदेश पहुँचाने में पूर्णतया सफल होता है। अतः ये कह सकते हैं कि पात्रों के मध्य संवाद लघुकथा को रोचकता प्रदान करते हैं किन्तु संवाद के बिना भी उद्देश्यपूर्ण और सफल लघुकथा की रचना संभव है।
           दिल्ली से डा.अंजु लता सिंह लिखती है कि बिना संवाद के सार्थक तो क्या सरल साधारण सी लघुकथा लिखना भी असम्भव है. तुक्केबाजी और सतही लेखन-सामग्री परोसने  से लघुकथा का वास्तविक स्वरूप धूमिल हो रहा है.संवाद या कथोपकथन किसी भी कथा के प्राण-तत्व  होते हैं.जब तक पात्रों,वैकल्पिक माध्यमों या फिर मावीयकरण करते हुए प्रकृति के उपादानों से ही सही..संवाद (सार्थक,छोटे या मध्यम आकार के)बुलवाए जाते हैं,तभी तक कथा में जीवंतता बनी रहती है.संवाद लघुकाय,रोचक और अनुकूल होने चाहिये.काल्पनिक आवाजें संवाद का बाना पहने पाठक-वृंद को मोहपाश में बांधकर अपनी सार्थकता साबित कर देंगी.लालित्यपूर्ण शैली का समाहार संवादों की सशक्त अभिव्यक्ति  में ही निहित है.अंततः मेरा यही मानना है, कि देशकाल और कथा परिवेश में समेटे संवाद ही लघुकथा  की सफलता सिद्ध करने में सक्षम साबित हो सकते हैं.
           बाडमेर - राजस्थान से कुमार जितेन्द्र लिखते है कि बिना संवाद के सार्थक लघुकथा सम्भव है क्या ?......नहीं.... लघुकथा संवाद के बिना सार्थक नहीं है l किसी भी लघुकथा को एक पूर्ण रूप देने के लिए संवाद का होना जरूरी है l एक अच्छा और उचित संवाद लघुकथा को एक अच्छी पहचान दिलाता है l तथा संवाद से परिपूर्ण लघुकथा एक वास्तविक परिदृश्य को सजाने का कार्य करती है l जितनी गहराई के साथ लघुकथाओं में संवाद होता है, उतनी गहराई से वह अपनी अमिट छाप छोड़ देती है l परन्तु वर्तमान में बहोत सी लघुकथाओं में संवाद की कमी खिलती नजर आ रही है l जिससे उसका संरचनात्मक रूप जो मिलना चाहिए था वो नहीं मिल पाता है l और एक अलग ही अर्थ निकल कर सामने आता है l जिससे वास्तविकता कोसो दूर चली जाती है और एक काल्पनिक रूप  नजर आने लगता है l वर्तमान में अगर लघुकथा को उचित मंच, अच्छी पहचान और दीर्घकालिक तक जीवित रखना है तो संवाद होना जरूरी है l संवाद के बिना लघुकथा का कोई औचित्य नहीं है l    
                          
          इन्दौर - मध्यप्रदेश से डा. चंद्रा सायता लिखती है कि
इस विषय पर  मेरा मत सकारात्मक है। संवादयुक्त लघुकथा रचनाकार के लिए जितनी सहज होती है, उतनी ही पाठक के लिए भी । किन्तु यह बात  ध्यान देने योग्य है कि संवादयुक्त लघुकथा को इस विधा  की उपविधा माना जा सकता है, अनिवार्यता कदापि नहीं। अतः इस मान से संवादहीन लघुकथा लिखी जाती हैं। इनके लिए रचनाकार मेंइन तीन विशेषताओं का होना अपेक्षित है एक कनेक्टिविटी  दुसरा कलम का पैनापन,जो सीधा पाठक के  ह्दय तल का स्पर्श कर सके ।  तीसरा विभिन्न प्रकार की  लघुकथाओं के सृजन का अनुभव।इन्ही विशेषताओं के रहते रचनाकार की कलम में संवादहीन लघुकथा की सृजनक्षमता संभव है।ऐसी लघकथाओं में संवाद के स्थान पर स्वगत कथन तथा अप्रत्यक्ष कथन ,वो कह रहा था कि  जैसे वाक्यों का प्रयोग किया जाता है।                             
            इन्दौर - मध्यप्रदेश से देवेंद्रसिंह सिसौदिया लिखते है कि मेरे विचार से बगैर संवाद के भी लघुकथा लिखी जा सकती है । लघुकथा, संदेशात्मक होना चाहिए फिर वो बगैर संवाद की ही क्यों नहीं हो । कईं लघुकथाएँ पढ़ने में आई है जो बगैर संवाद की थी किन्तु इतनी भावनात्मक, मर्मस्पर्शी और प्रभावशाली रही कि पाठकों के जहन में स्थायी स्थान बना गईं । 
       रायपुर - छत्तीसगढ़ से डाँ. इन्दिरा तिवारी लिखती है कि कहानी और लघुकथा लेखन में बहुत अंतर है। लघुकथा किसी भी घटना या कहानी को पात्रों के बीच होते हुए वार्तालाप के जरिये आगे बढ़ाया जाता है।जितने पात्र होते हैं वार्तालाप से ही उनके मनोभाव प्रकट होते हैं।मैं इस संदर्भ में मुरारी लाल जी की लघु कथा"पिता की चिता"का उल्लेख कर रही हूँ।उसमें मृत्य शैय्या पर पड़े हुए पिता की देखभाल दो कमाते हुए बेटे नहीं कर पाते न ही प्रेम व्यक्त करने वाला उनका सगा भाई ही कुछ कर पाता हैं।ऐसी स्थिति में विवाहिता कन्या अपना सब कुछ न्यौछावर कर सेवा करने के लिए तैयार हो जाती है।यह पूरी लघु कथा बड़ी ही भावना प्रधान है।यह पाठकों के हृदय में गहराई से उतर जाती है।इन भावों का उठना वार्तालाप से ही संभव हो सका है।अतः संक्षिप्त में मैं यही कहूँगी कि लघु कथा की सार्थकता संवाद में ही है।
         रतनगढ़ (नीमच )- मध्यप्रदेश से ओमप्रकाश क्षत्रिय 'प्रकाश' लिखते है कि बिना संवाद के भी लघुकथा संभव है। मगर जो प्रभाव संवाद के साथ लघुकथा में उत्पन्न किया जा सकता है वह प्रभाव बिना संवाद वाली लघुकथा में उतने प्रभावी ढंग से व्यक्त नहीं होता है जिस तरह हम करना चाहते हैं । कई साहित्यकार साथियों ने बिना संवाद की भी लघुकथाएं लिखी है और उन में अपने हिसाब से बहुत बेहतरीन प्रभाव उत्पन्न किया है । यह लघुकथाकार, लघुकथा की पृष्ठभूमि पर और लिखने के ढंग पर निर्भर करता है कि वह किस तरह की लघुकथा लिखकर प्रभाव उत्पन्न कर सकता है ।इसलिए लघुकथा बिना संवाद और सँवाद वाली- दोनों तरह से लिखी जा सकती है।
            मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश से डाँ. रेखा सक्सैना लिखती है कि संवाद जीवंतता के प्रतीक होते हैं। किसी भी लघुकथा की रोचकता, जीवंतता, कथ्य का विकास क्रम,पात्र का वर्ग प्रतिनिधित्व, स्वभावगत चारित्रिक विशेषता की  स्थिति के दिग्दर्शन में संवाद की उपस्थिति आवश्यक प्रतीत होती है।
 आजकल संवादहीन लघुकथाएं भी पढ़ने में आ रही हैं। कभी-कभी तो वह या तो समाचार की झलकियां लगती हैं या फिर दादी - नानी के युग की कहानी।जहां दादी कहती हैं कि "एक था राजा एक थी रानी, दोनों मर गए खत्म कहानी।" यह संवादहीनता श्रोता और पाठक की जिज्ञासा को शांत नहीं कर पाती। अतः लघुकथा की सार्थकता उसके संक्षिप्त, सटीक एवं रोचक संवादों की मांग करती है।
           गाडरवारा - मध्यप्रदेश से नरेन्द्र श्रीवास्तव लिखते है कि रचनाकार अपने आसपास जब भी कुछ असाधारण देखता और अनुभूत करता है,उसका अंतर्मन व्यथित तो हो ही जाता है,अभिव्यक्ति  के लिये छटपटाने भी लगता है। तब वह इस स्थिति से उबरने के लिये उस प्रसंग को लेकर एक रचना लिखता है। वह रचना किस विधा में होगी, यह तत्समय ही तय होता है ।  जो कि तत्समय के अनुभूत पलों या यूँ कहें कि तात्कालिक मनःस्थिति या घटना की स्थिति पर  निर्भर करता है। ऐसे में यदि अभिव्यक्ति लघुकथा के रूप में हो रही है तो वह पूरी तरह कथानक पर निर्भर  है कि उसमें संवाद होने हैं या नहीं? क्योंकि कथाकार की आँखों में उस कथानक को लेकर एक काल्पनिक दृश्य उभर आता है,जिसे वह शब्दों के माध्यम से उतारता चलता है।
तात्पर्य यह कि लघुकथा संवाद के साथ या बिना संवाद के भी लिखी जा सकती है और दोनों ही स्थिति में सार्थक लघुकथा लिखना सम्भव  है। बिना संवाद वाली लघुकथाएं भी रोचक और सार्थक सिद्ध हुई हैं और उद्देश्य में सफल रही हैं। ये कथाकार के अनुभूत पलों की कल्पना से बने स्वरूप की प्रस्तुति की शैली और शिल्प पर निर्भर है।
                इंदौर - मध्यप्रदेश से वन्दना पुणतांबेकर लिखती है कि लघुकथा लेखन में संवादों का होना आवश्यक नही होता।क्योंकि आप अपनी बात को लघुकथा के रूप में किसी विषय को केंद्रित कर कहने का प्रयास करते है।जरूरी नही की हम जो लिखना चाहते है।उसमें संवाद का होना भी जरूरी हो।यदि लघुकथा का पात्र संवाद करता हैं तो लघुकथा में जीवन्तता प्रतित होती है।यदि संवाद नही है।तो भी लघुकथा में अपनी बात उतनी ही सार्थकता से कही जा सकती है।सार्थकता के आधार पर बात करे।तो संवादित लघुकथा अपना प्रभाव  गहरा डालती हैं।लेकिन बिना संवाद के भी लघुकथा में सार्थकता सम्भव है।ऐसा मेरा विचार हैं।
          राँची - झारखण्ड से प्रतिमा त्रिपाठी लिखती है कि बहुत ही सटीक विषय है। चुकी लघुकथा क्षणिक घटनाक्रम को आधार बना कर बुनी जाती है। इसमें लेखक की योग्यता उसकी शब्दों के प्रति मितव्यतिता और अपनी बात को कथ्यात्म बोध के साथ प्रस्तुत करने पर निर्भर करती है। संवाद विहीन लघुकथा भी उतनी ही प्रभावशाली बन सकती है, और एक सार्थक कथा रची जा सकती है। यदि लेखक मनोयोग के साथ विचारपूर्ण ढंग से प्रस्तुत कर सके। स्वंग के साथ संवाद भी कथा की एक शैली है। जो अधिकतर हम किसी विचार या घटनाक्रम पर स्वंग, से मंथन कर निष्कर्ष पर पहुँचते है।
          जोधपुर - राजस्थान से बसन्ती पंवार लिखती है कि यूं  तो  लघुकथाएं  कई प्रकार  की, अनेक  विषयों  से संबंधित   होती  है  तथा  कई  प्रकार  से  लिखी  जाती  है  व  लिखी  जा  रही  है,  जो  पाठकों  को अलग- अलग  रसों  का  आस्वादन  कराती  हैं  ।  लेकिन  मेरे  विचार  से   बिना  संवाद  की  लघुकथा  को सार्थक  लघुकथा  नहीं  कहा  जा  सकता  क्योंकि  संवाद  के  बिना  ये  नीरस  प्रतीत  होती  है, जबकि  संवाद  रचना  में  जान डालते  हैं .... पाठक  को  अपनी  ओर  आकर्षित  करते हैं .....पढ़ने  के  लिए  रूचि जागृत  करते  हैं  ।  संवाद  के  माध्यम  से  कही  गई  बात  जल्दी  समझ  में  आती  है  ।  संवाद  संप्रेषण  का  सशक्त  माध्यम  है  ।  अतः लघुकथा  में  संवाद  की  महत्ती भूमिका  है  ।  
              देहरादून - उत्तराखंड से डा० भारती वर्मा बौड़ाई लिखती है कि  बिना संवाद के सार्थक लघुकथा संभव है क्या? यह अत्यंत विचारणीय प्रश्न है और इस पर सबके अपने अपने मत होंगे, इसलिए एकमत हो पाना तो नितांत असंभव है।
         लघुकथा के क्षेत्र में मैं तो अभी विद्यार्थी ही हूँ। बिना संवादों के भी अच्छी लघकथाएँ लिखी जा रही हैं। लघुकथा का कथ्य, विषय स्वयं लेखक के द्वारा अपने लिए शैली का चुनाव करवा लेता है, ऐसा मेरा मानना है।
कथ्य और विषय की माँग के अनुरूप संवाद न हों वहाँ वह लघुकथा प्रभावहीन होगी। लेखक कथ्य के अनुसार उसे विकसित करने के लिए संवाद या संवाद के बिना लघुकथा लिखने के लिए स्वत्रंत है ।
         उदयपुर - राजस्थान से डाँ. चन्द्रेश कुमार छतलानी लिखते है कि संवाद लघुकथा का अनिवार्य तत्व नहीं है। हालाँकि यह भी सत्य है कि तीक्ष्ण कथोपकथन द्वारा लघुकथा का कसाव, प्रवाह और सन्देश अधिक आसानी से सम्प्रेषित किया जा सकता है, इसका एक कारण यह भी है कि वार्तालाप मानवीय गुण है अतः पाठकों को अधिक आसानी से रचना का मर्म समझ में आ जाता है लेकिन इसके विपरीत लघुकथा लेखन में इस तरह की शैलियाँ भी हैं जिनमें लघुकथा सार्थक रहते हुए भी संवाद न होने की पूरी गुंजाइश है, उदहारणस्वरुप पत्र शैली और केवल पत्र शैली ही नहीं कितनी ही सार्थक और प्रभावी सामान्य स्वरूप की लघुकथाएं ऐसी रची गयी हैं जिनमें संवाद नहीं है। खलील जिब्रान की लघुकथा "औरत और मर्द",  रामेश्वर काम्बोज हिंमाशु की "धर्म–निरपेक्ष " आदि इसके उदाहरण हैं।  
हालाँकि लघुकथा में कथोपकथन हो अथवा नहीं, इसका निर्णय रचना की सहजता को बरकरार रखते हुए ही करना चाहिए। रचना का सहज स्वरूप कलात्मक तरीके से अनावृत्त होना भी लघुकथा की सार्थकता ही है।
       पंचकूला - हरियाणा से चन्द्रकान्ता अग्निहोत्री लिखती है कि लघुकथा का कलेवर जितना संक्षिप्त होता है उतनी ही अपेक्षाएं अधिक हैं।लघुकथा लिखने से पहले लेखक के समक्ष युगबोध की स्पष्टता,अनुभवों का विस्तार और गहन अनुभूतियों की समझ होनी आवश्यक है ।लघुकथा मे कथ्य के अनुरूप सम्प्रेषणीयता, भाषा-शैली में सांकेतिकता व संक्षिप्तता का गुण होना आवश्यक है ।यूँ तो केवल घटना के आधार पर लघुकथा नहीं  लिखी जा सकती।लेकिन कहानी का कथ्य,चिंगारी  के समान विस्फोटित होता लक्ष्य कथा को बल प्रदान करते हैं। मेरे विचार में घटना प्रधान लघुकथा में कोई तो इस तथ्य होता होगा जो लेखक को लिखने के लिए प्रेरित करता है ।अतः संक्षेप में लघुकथा कथ्य के  अनुसार भावप्रवण भाषाशैली, घटना की सूक्ष्मता व सांकेतिकता लघुकथा के चिंतन को आधार बना कर संवाद की  अनिवार्यता को नगण्य करते हुए घटना को सजीव धरातल पर प्रस्तुत करती है।
      रांची - झारखण्ड से कल्याणी झा लिखती है कि हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में लघुकथा एक नवीनतम विधा है। अन्य विधा की तुलना में अधिक लघुआकार होने के कारण पाठकगण के ज्यादा करीब है। संवाद के माध्यम से हम किसी भी परिवेश को स्पष्ट रूप से चित्रित कर सकते हैं। कभी दो परिवेश के पात्रों का एक जगह संवाद हो सकता है। जैसे कि (शहरी /ग्रामीण)  दोनों के संवाद अपनी- अपनी भाषा में होंगे, तो ज्यादा प्रभावित करेंगे । इसे हम दो से ढाई पेज तक लिख सकते है। पर जब संवाद के बिना लिखना हो, तो एक पात्र के कथन ही लिखे जायेंगे, और दूसरे पात्र के मन के विचार और उसके हाव - भाव को इंगित किया जाएगा। इसे एक से डेढ़ पेज तक ही सीमित रखने पर इसकी धारा - प्रवाह बनी रहेगी। तथा पढ़ने में रोचक लगेगी।
        पटना - बिहार से डाँ पूनम देवा लिखती है कि मेरे विचार से लघुकथा बिना संवाद के सम्भव  तो है लेकिन  संवाद के साथ  लघुकथा ज्यादा सजीव, संजीदा हो जाती है । लघुकथा बिना संवाद के मानों फीकी चाय सरीखा लगती है और संवाद जैसे किसी भोज्य पदार्थ में छौका डालने से स्वाद का इजाफा हो जाता है उसी सरीखा प्रभाव डालते हैं । संवादो के साथ लघुकथा से हम बहुत ज्यादा रू ब रू  होते हैं । अतः हम कह सकते हैं कि संवाद के साथ लघुकथा ज्यादा सार्थक है ।  मानों आकाश में चांद और तारों का समूह ।
              रांची - झारखण्ड से संगीता सहाय  लिखती है कि संवाद से किसी भी विषय को चित्रित करना आसान होता है।किसी भी लेखन में जीवंतता लाने में संम्वाद बहुत सहायक होता है,अतः मेरे विचार से लघु कथा बिना संम्वाद के बहुत अच्छी लिखना संभव नहीं।संवाद के सहारे किसी भी घटना चक्र को जीवंत रूप से चित्रित किया जा सकता है,और विषय को स्पष्ट रूप से पेश किया जा सकता है।संवाद का लघुकथा में वही स्थान है जो सब्ज़ी में नमक और मसले 
दिल्ली से पम्मी सिंह 'तृप्ति' लिखती है कि क्षण विशेष में अभिव्यक्ति लघुकथा की विशेषता है। संदेशात्मक, प्रतिकात्मक शैली संवाद से सशक्त बनती है। संवादहीन लघुकथा भी संम्भव है पर संवाद से लघुकथा और भी प्रभावी रूप से सामने आता है. संवाद से पाठक सीधे तरीके से खुद से जुड़ा होता है। यह भी सत्य है कि लेखनी की कोई निश्चित परिधि नहीं होती पर मेरे विचार से संवाद लघुकथा को पूर्णता प्रदान करती  है।

निष्कर्ष :-                                                                    
                  परिचर्चा के अन्त में संवाद में लिखी लघुकथा की अलग पहचान है । परन्तु लघुकथा साहित्य से अलग नहीं है ।
      " मेरी दृष्टि में " संवाद में लिखी लघुकथा , सार्थक लघुकथा कह सकते है । यही परिचर्चा का उदेश्य भी है । परन्तु सब कुछ लेखक की लेखन क्षमता पर निर्भर करता है । 
                                              - बीजेन्द्र जैमिनी
                                           ( आलेख व सम्पादन )


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