अक्टूबर - 2019

- हिंदुओं को एकजूट करने का अर्थ इस्लाम का विरोध नहीं है : मोहन भागवत
- अमेरिका ने चीन की 28 इकाइयों को काली सूची में डाला
- नरेन्द्र मोदी ने बनाया ओबीसी आयोग : अमित शाह 
- भारतीय उपमहाद्वीप में अलकायदा का प्रमुख असिम उमर मारा गया 
- ब्रिटेन का पहला मून रोवर 2021 में चांद की सतह पर उतरने की घोषणा
- कर्नाटक के पूर्व सीएम जी .परमेश्वर के तीस ठिकानों पर आयकर विभाग का छापा 
- उत्तर प्रदेश की आयश बनीं  एक दिन की ब्रिटिश उच्चायुक्त 
- 2019 का साहित्य के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार के विजेता आस्ट्रेलिया के उपन्यासकार व पटकथा लेखक पीटर हैंडके 
- इजराइल में मिला पांच हजार साल पुराना मिला शहर 
- कुर्दों को आतंकी मानते हैं तुर्की के राष्ट्रपति एर्दोगन 
- हांगकांग में हाईकोर्टके सामने लगे आजादी के नारें 
- हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हड्डा को प्रदेश की राजनीति में खुद को फिर से साबित करने की चुनौती
- कांग्रेस में 14 टिकट बिके : अशोक तंवर का आरोप
- कुलदीप बिश्नोई के सामने परिवार की प्रतिष्ठा का सवाल 
- 21अक्टूबर को मतदान के दिन हरियाणा में रहेगा अवकाश 
- गुरुग्राम में चेकिंग के दौरान कार से मिले 75 लाख रुपये
- हिसार में कृषि दर्शन किसान मेला 12 अक्टूबर से 
- संजीव चतुर्वेदी मामलें में एडवोकेट जनरल की हरियाणा सरकार को सलाह 
लघुकथा                                                           
                    सुखी जीवनःएक रहस्य                    
                                                      - महेश राजा
                                               महासमुंद - छत्तीसगढ़

  पति फीचर राईटर थे और पत्नी बैंक में कार्य रत।एक शाम को छोटी सी बात में दोनों में बहस हो गयी।
    पत्नी बडबडा कर बोली-'"शादी को दस बरस हो गये,सुख का एक पल नसीब नहीं हुआ।"पैर पटक कर वे कोप भवन में चली गयी।पतिदेव ने सिर झटका,यह तो रोज का है।
     वे लेखन कक्ष की ओर बढ गये।अचानक उन्हें याद आया कि एक महिला पत्रिका के दाम्पत्य जीवन विशेषांक हेतू सुखी जीवन के पचास टिप्स विषय पर लेख लिख कर भेजना है।
    वे राईटिंग टेबल पर बैठ कर कम्प्यूटर आन कर रहे थे।
   थोडी देर बाद पत्नी ने कमरे में झांका फिर वे किचन की ओर बढ गयी,काफी बनाने हेतू। ***
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लघुकथा                                                             
                          शील का जल                                
                                                  - अलका पाण्डेय 
                                                   मुम्बई - महाराष्ट्र

घर में वंदन वार बँधे थे सब लोग बरात के अगवानी की तैयारी में लगे थे सशुन की सहेलिया सगुन को तैयार कर रही थी और  माँ कह रही थी बहुत सुंदर श्रृगांर करना  मेरी लाडो का , सगुन माँ मैं इतने गहने नहीं पहनूँगी व आँखों में काजल लगाने को मत कहना न न लाडो आज तो तुझे काजल लगाना पड़ेगा ताकी शील का जल तेरी आँखों में हमेशा रहे अब तुम पराई हो रही हो बहुत सी आदतें बदली होगी जैसे , माँ बताओ हम लडकीयों को सारी बंदीशे  , लड़कों को क्यों नहीं ? 
लाडो नाराज़ मत हो , हम औरते घर की लाज होती है 
बेदी लगाई है इसका मतलब होता है आज से शरारत बंद और सूर्य की तरह प्रकाशवान बनना होगा !माँ यह नथ क्यो ? 
बेटा नथ का मतलब आज से किसी की बुराई नहीं मन को लगाम लगाकर रखना है !
लाडो यह टीका तुम्हारे यश का प्रतिक है तुम्हें  दो घरों की मान मर्यादा का ख़्याल करना है पति व पिता के घर की लाज तुम्ही से है । 
हाँ हाँ सारी इज़्ज़त मेरे सर माँ तो वे नवाब क्या करेंगे उनकी कोई जवाब दारी नही । लड़की के हर गहने हर श्रृगार में घर की मर्यादा व त्याग की सिख है । तो लड़कों का क्या माँ ? 
माँ क्या यह हार में भी संदेश है 
हाँ। लाडो यह नौलखा हार का मतलब पति से हमेशा हार स्वीकारना , कड़े का अर्थ की कठोर नहीं बोलना , 
माँ बस न ये हार पहना है न ये कड़े मैं किसी की ग़ुलाम नहीं आधीन नही , मैं मेरे अस्तित्व के साथ ज़िंदा रहूँगी , 
माँ क्या सुहागन का कोई श्रृगार अपने लिये भी समाज ने बनाया है , या सब पति की कामना के लिये .....लाडो उल्टी बातें न कर आज से तुम पति की परछाई हो हमेशा उनके सुख दुख में साथ रहना है तुम उनकी अर्धागनि  हो 
उनके बिना तुम अधूरी हो 
बस माँ बंद करो यह उपदेश मुझे शादी नहीं करनी ....
लाडो क्या अशुभ बोले है दरवाज़े पर बरात आ गई है , लोग क्या कहेंगे .....
माँ तुम पहले वचन दो यदी  मेरे पति व ससुराल वालो नेमुझे सताया तो मैं बेकार की बातें सहन नहीं करुगी ......वापस आ जाऊगी 
हाँ बेटा मैं मेरे बेटे को निकाल दूगी घर से अरे सासू माँ आप 
यहाँ 
हाँ मैंने सोचा तुम्हें मिल लू यहाँ आई तो तुम्हारी माता जी की कुछ बातें मेरे कानों में पड़ी और छिप कर सुनने लगी 
ये सारी बातें तो मुझे भी पता नहीं थी जिस घर में माँ बेटी को इतनी बारीकी से हर बात समझाये उस घर की बेटी कभी ग़लत न करेगी न ग़लत बर्दाश्त करेगी । 
मैं बहुत ख़ुश हूँ तुम मेरी बहू नहीं बेटी बन रही हो । मुझे आज सारे जहां की ख़ुशी मिल गई ...। ***
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लघुकथा                                                               

                           अंगद का पांव                              
                           
                                           - सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा 
                                          साहिबाबाद - उत्तर - प्रदेश 

       उसे अपने बन रहे घर की चौखट के लिये लकड़ी चाहिये थी । वह लकड़ीयों के बाजार में आ गया । दुकानों की लम्बी कतार थी जिन पर लकड़ीयां ही लकड़ीयां सलीके से  सजी थी । उसे एक  दुकान ठीक - ठाक सी लगी जहां एक बुजुर्ग सज्जन दुकान की आरामदायी सीट पर विराजमान थे और  उनके सामने दो - तीन नौ जवान किस्म के लोग   बैठे थे । वह दुकान के अन्दर जाने से पहले तो झिझका । उसे लगा कि दुकान और उसमें रखा माल उसकी आर्थिक  पहुँच  से बाहर है पर उसे लकड़ी तो हर हाल में लेनी ही थी । नहीं तो बन रहे मकान का काम रुक जाता । फिर  उसने सोचा ये नव युवक भी ग्राहक ही  होंगे और उनको इस बुजुर्ग दूकानदार ने कितनी इज्जत से बिठा रखा है और कितनी संजीदगी से अपने माल की खूबियों से अवगत करवा  रहा है । 
वो हिम्मत बटोर कर दुकान में प्रवेश कर गया  । प्रवेश करते ही उसके कानों में बुजुर्ग दूकानदार के शब्द पड़े । वे नौजवान ग्राह्को को कह रहे थे , "  ग्राहक मेरे लिये मेरे भगवान से कम नहीं है । इसी सोच के कारण हमारी दुकान पिछ्ले पचास  साल से इस बाजार में अंगद के पांव की तरह जमी  हुई है जबकि बहुत से सूरमा आये , बैठे पर  उखड़कर जमीन पर बिखर गये । "
" सर जी , आपका माल भी आपके व्यवहार जैसा ही होगा । हमें यकीन है । " एक नव युवक बीच में बोल पड़ा ।
" कहा न  बेटा कि बहुत कमा भी लिया और खा भी लिया । अब इस ऊमर में झूठ बोलने की क्या जरुरत है , मेरे लिये दूकानदारी अब एक पूजा बन चुकी है जहां ग्राहक हमारे लिये हमारे भगवान की तरह है । " 
उसे लगा वो बिल्कुल ठीक जगह पर आ गया है। वो निश्चिंत होकर अपने घर की चौखट के लिये यहां से लकड़ी के लट्ठे ले जा सकता है । यहां उसे उसकी पसंद का माल वाजिब कीमत पर ही मिलेगा ।
इस बीच दूकानदार महोदय उससे मुखातिब हो कर बोले , " जी ! आपको क्या चाहिये ? "
" जी , दो चौख्टों के लिये लकड़ी चाहिये । " उसने भी अदब से ही अपनी जरुरत बताई ।
" हाँ - हां ! क्यों नहीं । आइये बैठिये और बताईये , हम आपको  किस तरह की लकड़ी दें ? " 
" मजबूत और टिकाऊ जिसे दीमक वगैरह न लगे । और कीमत भी वाजिब हो ।" उसमें अब तक बात करने की हिम्मत आ चुकी थी ।
" समझ गया , जरुर मिलेगी । " 
" अकबर , जा इन साहब को पक्की और लाल  शीशम का माल दिखा ।" उन्होनें नौकर को आवाज लगायी ।
अकबर उसे साथ लेकर गोदाम में अन्दर चल पड़ा । वे अकबर के साथ अन्दर गये ही थे कि अकबर उनसे बोला , " सर जी आप इन लट्ठों में अपने हिसाब का कोई लट्ठ देख लें , मैं अभी आया । " 
इतना कहकर वह गोदाम से निकल कर अपने मालिक के  पास जाकर बोला , " साब जी , शीशम की कटाई और बिकवाली तो कब की बन्द हो चुकी है , इस ग्राहक को शीशम की लकड़ी  दिखाने के लिये कौन से गोदाम में ले जाउँ ? " 
यह सुनते ही बुजुर्ग दुकानदार का दिमाग क्रोध से भन्ना गया , " अबे नाजायज टाईम की औलाद जो कुछ भी गोदाम में पड़ा है , हरेक को शीशम की  बता और जितने पैसे देने की  उसकी औकात हो उसके हिसाब से किसी लट्ठ को  इम्पोर्टेड शीशम बताकर पेल दे । जानता है न कि तुझे जो  पगार देता हूँ वो इसी काम के बदले में देता हूँ । जा अपना काम कर । " 
उनकी अपने नौकर को ये हिदायत उस नौजवान के कानों से भी जा टकराई जो थोड़ी देर पहले तक उनसे जान चुका था कि उनके लिये ग्राहक ही भगवान होता है पर ये क्या ये तो अपने ग्राहक को ही ठग रहे हैं । 
नौजवान का दिमाग चकरा गया । वह स्वयं पर नियन्त्रण खो बैठा , " बाबू जी ,  क्या आप  अपने भगवान को भी इसी तरह ठगते  हैं ? और  इसी वजह से इस बाजार में आपका पांव लंका में  अंगद के पांव की तरह टिका हुआ है ? " 
" बरखुरदार , हमेशा बाल की खाल नहीं निकाला  करते । ग्राहक को संतुष्ट करना दूकानदारी का उसूल है ।" एक बेशर्म हंसीं के साथ उन्होनें अपनी लिखी इबारत पढ़ी  और फिर अकबर को लगभग  डाटते हुए बोले , " अबे तू यहां कौन सी तकरीर सुन रहा है ? जा ग्राहक को उसकी जरुरत का  माल दिखा । ***
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कविता                                                                   
                            जन्मदिन का दर्द                               
                                                     -  डा चंद्रा सायता
                                                      इंदौर - मध्यप्रदेश

आज' मैं 'मैं हीं हूं,
पर तब की स्मृतियां
आज भी जीवित हैं।

मना रहे हैं लोग
जन्मदिन मेरा ,यह सोच
छलक आईं हैं आँखें मेरी।

मेरा भारत क्या था
आज क्या हो गया है?
मैने जन जन के मानस पर,
अहिंसा का जल छिड़ककर,
पैधा किया था सहिष्णुता का शस्त्र,
जिससे खदेड़ा था
विदेशी ताकतों को
वापससात समंदर
पार तक।

आज कैसे खदेड़ूं
अहिंसा के दुश्मनों को।
किससे कहूं अब वैष्णव?
सब अपनी  अपनी पीर कै रोते हैं।

हिंसा के मैं आज भी
खिरलाफ होता
कितना लड़ोगे परस्पर
मेरे नाम को लेकर?.
मेरा जन्मदिन मनाना
बंद करो अब
यही मेरी मुक्ति होगी।

मारना ही चाहते हो, तो
अपने अंदर के दुश्मन को मारो
फिर से भारत को 
अहिंसा से सवारोउसब वैष्णव बन जाएंगे।
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                              त्याग                                       
                                         - अनन्तराम चौबे अनन्त
                                            जबलपुर - मध्यप्रदेश


त्याग करो बलिदान करो
फिर भी सबका सम्मान करो ।
मान करो सम्मान मिलेगा
जीवन में सुख चैन मिलेगा ।

जीवन में अच्छा कर्म करो
फल भी उसका पाओगे ।
सच का कभी साथ न छोड़ो
जीवन सफल बनाओगे।

श्रीराम का जब वनवास हुआ
त्याग और बलिदान किया था ।
सीता ने पति का साथ निभाया था
महलों का सुख त्याग दिया था ।

त्याग बलिदान लक्ष्मण ने किया
भैया भाभी का  साथ दिया ।
चौदह वर्ष जंगलों में भटके
सुख सविधा का त्याग किया ।

पत्नी उर्मिला का त्याग देखिये
पति की आज्ञा का पालन किया ।
सास ससुर की सेवा करके
पति के सुख का बलिदान किया ।

मां कैकई ने बेटे भरत के खातिर
अयोध्या की गद्दी पाने बचन मांगा था ।
माँ के उस बचन को ठुकरा कर भरत ने
उस राजा की गद्दी को ही त्याग दिया था ।

त्याग और बलिदान की देखो वहां
एक से बढ़कर एक मिशाल हुई ।
श्रीराम लक्ष्मण भरत ने और उर्मिला 
सीता, त्याग बलिदान की मिशाल हुई ।
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