गणेश शंकर विद्यार्थी

आज गणेश शंकर विद्यार्थी का बलिदान दिवस है। वे भीड़ से घबराते नहीं थे। पत्रकारिता जगत में भी उनका नाम सम्मानपूर्वक लिया जाता है। उनका जन्म 26 अक्टूबर 1890 को अतरसुइया में हुआ था। उन्होंने 16 वर्ष की उम्र में पहली किताब 'हमारी आत्मोसर्गता' लिखी थी। अपनी पूरी जिंदगी में 5 बार जेल गए। उन्होंने किसानों एवं मजदूरों को हक दिलाने के लिए जीवनपर्यंत संघर्ष किया तथा आजादी के आंदोलन में भी सक्रिय रहे थे।
जब अंग्रेजों द्वारा भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दिए जाने की देशभर में तीखी प्रतिक्रिया हुई। इससे घबराकर अंग्रेजों ने देश में सांप्रदायिक दंगे भड़का दिए। 1931 में कानपुर में दंगे हो रहे थे। सैकड़ों निर्दोषों की जान चली गई। कानपुर में लोकप्रिय अखबार 'प्रताप' के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी दिन भर दंगाग्रस्त क्षेत्रों में घूमकर निर्दोषों की जान बचाते रहे। क्योंकि उस समय पत्रकारिता की नहीं, मानवता की जरूरत थी। उन्होंने बंगाली मोहल्ले में फंसे दो सौ मुस्लिमों को निकालकर सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया। बुजुर्ग मुस्लिम ने उनका हाथ चूमकर उन्हें 'फरिश्ता' बताया। दोपहर के तीन बजे घनी मुस्लिम आबादी से घिरे चौबे गोला मोहल्ले में दो सौ हिन्दुओं के फंसे होने की खबर आई। वे तुरंत वहां जा पहुंचे। वे निर्दोषों को जैसे-तैसे निकालकर लॉरी में बिठा ही रहे थे कि तभी हिंसक भीड़ वहां आ पहुंची। एक भाला विद्यार्थीजी के शरीर में घोंप दिया। साथ ही उनके सिर पर लाठियों के कुछ प्रहार हुए और मानवता का पुजारी इंसानियत की रक्षा के लिए, शांति स्थापना के लिए शहीद हो गया। 25 मार्च 1931 को कानपुर में लाशों के ढेर में उनकी लाश मिली, उनकी लाश इतनी फूल गई थी कि लोग पहचान भी नहीं पा रहे थे। 29 मार्च को उनको अंतिम विदाई दी गई।
जैमिनी अकादमी द्वारा पुनः तिथि पर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं ।
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