हरियाणा की विशेष लघुकथाएँ

लघुकथा -  01                                                            
                               हिरन और शेर                          
                                                       - डॉ मधुकांत 
                                                            रोहतक 

       वर्षो से जंगल में एक ही शेर का साम्राज्य था। प्रजा तंत्र का ढिंढोरा बजा तो इक शेर और खड़ा हो गया। दोनों एक दूसरे पर गुर्राते सारे जानवर मिलकर कभी एक को राजा  बना देते    जब उससे दुखी होते तो दूसरे का चुनाव कर देते।
      दोनों शेर .....फिर उनकी औलाद क्रमशः शासन चलाते रहे। अचानक एक हिरन को ख्याल आया वोट तो हमारी सबसे अधिक, फिर भी शासन करे शेर....ये कैसा प्रजातंत्र है? 
       सारे जंगल की पंचायत बैठ गयी, चुनाव हुए और शासक इस बार नया आ गया। सबने मिलकर हिरन को अपना नेता बना लिया। 
       जहर बुझे दोनों शेर अपनी मांद में टाक लगाये बैठे हैं की कब कोई हिरन अलग हो और हम आक्रमण करें। ००
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लघुकथा - 02                                                         
                            प्रस्तावित मॉल                             
                                               - ज्ञानप्रकाश ' पीयूष '
                                                       सिरसा 
झुग्गी-झोंपड़ियों को अवैध रूप से बसी हुई मान कर खाली करने के अनेक बार नोटिस जारी किए जा चुके थे।यह अंतिम नोटिस था ।तीन दिन का समय दिया गया था क्योंकि मॉल बनना प्रस्तावित था ।
       नोटिस जारी होते ही सबमें खलबली मच गई। जिनके पास  रहने की वैकल्पिक व्यवस्था थी, वे दिल पर पत्थर रख कर,मोह त्याग कर अन्यत्र चले गए,कुछ रेलवे स्टेशन के आसपास फुटपाथों पर अस्थाई तंबू-सा तान कर रहने को विवश हो गए,,परन्तु कुछ अत्यंत अशक्त-जन, दिव्यांग और गर्भवती माताएँ, अंतिम समय तक इंतजार करने के लिए विवश हो गए।
          क्या पता कोई चमत्कार हो जाए ? राम-सा पीर की मेहर होजाए, कोर्ट से कोई स्टे मिल जाए, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।बुलडोजर ने आकर समस्त झुग्गी-झोपड़ियों को ध्वस्त कर दिया।
जिन्होंने कुछ दिन के लिए और मौहलत माँगने की गुहार लगाई,उन पर डंडे बरसाए गए, बाल नोचे  गए और उन्हें घसीटते हुए रद्दी सामान की भाँति जबरन झुग्गियों से बाहर खदेड़ दिया गया।गरीब की सुनने वाला  वहाँ था कौन ?
          यहाँ तो सभी कानून के रखवाले,कर्तव्यनिष्ठ और तथाकथित ईमानदार थे ।मुस्तैदी से कानून की अनुपालना के लिए अवैध निर्माण को डहाने  के लिए बेचैन। ००
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लघुकथा - 03                                                             बेटी बचाओ,बेटी पढाओ  
                                                  - रेखा राणा
                                                     करनाल 

            "चल जल्दी जा ,पानी भर कर ला ......!" वंश ने लगभग आदेश देते हुए कहा !
            "पर भाई ......मेरे पैर में दर्द है ....पता है ना आपको कल मोच आ गई थी !" शगुन ने घिघियाते हुए कहा !
             "सुन नहीं रहा क्या ?भाई क्या कह रहा है ,लड़की जात हो ,लड़की बन कर रह ,जबान मत चलाओ !" अंदर रसोई से कमला की आवाज आई थी !
              लंगड़ाते हुए चल दी थी शगुन बाल्टी उठा कर !
             "रुको .......,बैठो यहां दादी के पास ,और तुम ......लाट साब उठो ,और जाओ पानी तुम भर कर लाओ !" ये विश्वास की आवाज थी !
              "पर मैं क्यों .........?" वंश घिघियाया !
              "दर्द है उसे ...सुना नहीं तूने ,और क्या तू टाँग पे टाँग रख हुक्म चलाता रहता है....!"
              "अरे लड़का है वो .....!".कमला ने अपनी बात रखी !
              "तो क्या खाट तोड़ेगा सारा दिन ?" विश्वास चिल्लाया !
              "अभी छोटा है ........!"अबके अम्मा बोली !
               "और वो शगुन तीन बरस छोटी है ,तुम्हारे इस छोटू से !"
               सुन लो सब आज से पानी तो यही भर कर लाएगा ,जिम्मेदारी का अहसास  कराना जरूरी है ,वरना सारी उम्र औरतों पे हुकुम चलाने को ही अपना काम समझेगा ,अपने दादा की तरह ...........!"
      अम्मा का दिल नहीं दुखाना चाहता था पर उनकी सोच को आइना दिखाना जरूरी था !
       "और हाँ अम्मा.....कल से ये स्कूल भी जायेगी ।"
       "क्या करेगी स्कूल जा कर...?...क्या कलक्टर बनाना है.....अरे ज्यादा सर मत चढा़ओ.....नहीं तो कल सर पर चढ़ कर नाचेगी ।" अम्मा ने दलील दी ।
         "ना...अम्मा तुम्हें कुछ नहीं पता ,मैं तो फौजी सिपाही हूँ........पर मैं चाहता हूँ.....मेरी शगुन फौज में बड़ी अफसर बने......कहते-कहते  सुबह अखबार में छपी  फाईटर प्लेन चलाती अवनि चतुर्वेदी की तस्वीर आँखों में तैर गयी । ००
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लघुकथा - 04                                                       
                          दरोगा जी                         
                                                - बीजेन्द्र जैमिनी
                                                       पानीपत

             कोर्ट में मुकदमा जीतने के बाद जज साहब ने बुजर्ग को बधाई देते हुए कहा- बाबा !आप केस जीत गये ।
        बुजर्ग ने कहा- प्रभु जी ! आप को इतनी तरक्की दे, आप " दरोगा जी " बन जाए ।
        वकील बोला- बाबा! जज तो " दरोगा " से तो बहुत बड़ा होता है।
          बुजुर्ग बोला- ना ही साहब ! मेरी नजर में "दरोगा जी" ही बड़ा है।
           वकील बोला- वो कैसे ?
            बुजुर्ग – जज साहब ने मुकदमा खत्म करने में दस साल लगा दिये जब कि "दरोगा जी" शुरू में ही कहा था। पांच हजार रुपया दे , दो दिन में मामला रफा दफा कर दूगाँ । मैने तो पांच की जगह पंचास हजार से अधिक तो वकील को दे चुका हूँ और समय दस साल से ऊपर लग गये।
         जज साहब और वकील तो बुजुर्ग की तरफ देखते ही रह गये। ००
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लघुकथा - 05                                                       
                            जात-भाई                          
                                           - शोभना श्याम 
                                                गुरुग्राम

     "अरे सरला ये किसको पकड़ लाई? ये तो नीची जाति की है | देख ! मैंने तुझे पहले ही कहा था कि झाड़ू-पोछे की बात और है, लेकिन खाना बनाने के लिए तो हमे ठीक-ठाक जात वाली ही चाहिए |"
    "भाभी आप जात-वात पर न जाओ, देखो कितनी साफ-सुथरी रहती है और खाना तो इतना बढ़िया बनती है कि आपको लगेगा  कि आप ने ही बनाया है| बहुत ढूँढ-ढांढ के लाये है आपके लिए | हमें मालूम  है कि आपको ऐसा वैसा खाना नहीं भाता |"
       "न भई! अच्छे खाने का तो ये है कि हम खुद सिखा लेंगे दो चार दिन में | लेकिन ये छोटी जात वालों से सफाई-सुथराई पर कौन माथा पच्ची करेगा |" 
     "मगर आपको तो बहुत ज़रूरत है न भाभी ? डाक्टर ने आपको आराम करने को कहा है|"
      "सो तो है सरला ! लेकिन कोई नहीं, चलो दो चार दिन और उस चौक वाली दुकान से मँगा लेंगे | जहां से तीन दिन से मँगा रहे है, बिल्कुल घर जैसा खाना बनता है वहाँ | मगर खाना बनाने वाली तो ऊंची जात की ही रखूंगी  "  
      "कौन सी दुकान भाभी? वो पोस्ट ऑफिस के बराबर वाली ?"
       "हाँ हाँ वही, एकदम सा ....फ-सुथरी ,अपने जात-भाई की दुकान है |"
        "मगर उसका खानसामा तो हमारा मरद ही है !"
अब तक चुपचाप दोनों की बात सुनती खाना बनाने वाली बोल पड़ी । ००
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लघुकथा - 06                                                           
                                शराफत                                    

                                            - राजेन्द्र शर्मा "निष्पक्ष "
                                                     पानीपत
                                
वह मुझे कोर्ट के पास
बनी कैन्टीन के पास खङा मिला था।वह एक लेखक था,इस नाते मैं उससे पूर्वपरिचित था। "कैसे हैं,
बहुत दिनों बाद मिले हो?कहाँ व्यस्त हैं?किसी गोष्ठी में भी नहीं
मिले?"लगातार सवालों की बौछार करते हुए, उसने
हाथ मिलाया था। 
"बस,कार्य की अधिकता के
कारण........कचहरी में कुछ काम था,इसलिए आना
पङा ।" मैंने संक्षिप्त सा जवाब दिया।
 "सेवा बताईए, मेरे लायक।
बहुत जानकार हैं अदालत में,मैं भी गाँधी आवास योजना के लिए इनकी मदद में आया हूँ, शारीरिक विकलांग है......समय समय
पर थोड़ी बहुत समाजसेवा करता हूँ बन्धुवर।"
"जी।"मैंने कहा। "आप चाय लेंगे?"उसने पूछा तो मैंने मना कर दिया। 
"नहीं ऐसे कैसे चलेगा।ए बेटा,
तीन दूधपत्ती और मठ्ठी
ले आओ।वहीं खङे खङे उसने चाय वाले को इशारा किया और इधर उधर की बातें करने लगा।कुछ देर में चाय आ गयी।वहीं बातों बातों में हमने
चाय पी ली,इसके बाद उसने मुझसे हाथ मिलाया और स्कूटर चला कर चला गया।मैं उसकी
सह्रदयता एवं सामाजिक मूल्यों के प्रति कर्मठता से बहुत
प्रभावित हुआ। मैं भी लौटने लगा कि तभी चाय वाले ने आवाज दी।मैं उसके पास गया तो वह बोला,"सर तीन दूध
पत्ती मठ्ठियों के पैसे?" 
"वे देकर नहीं गए?मैंने पूछा तो उसने नकारात्मक सिर हिला दिया। 
"कितने
हुए?"मैंने कहा।
 "सर,चालीस रुपए। "वह बोला।
मैंने पर्स से चालीस रुपए निकालकर चाय वाले को दिए
और चुपचाप चल पङा।उस समाजसेवी एवं संवेदनशील लेखक की शराफत भरी बातें, मुझे बार बार याद आ रही
थीं। ००
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लघुकथा - 07                                                          
                                     शौक                                          
                                             - कमलेश भारतीय 
                                                     सिरसा 
                                              
-सुनो यार , हर समय बगल में कैसी डायरी दबाए रखते हो ? 
-यह ,,,यह मेरा शौक है । 
-यह कैसा अजीब शौक हुआ ? 
-मेरे इस शौक से कितने जरूरतमंदों का भला होता है । 
-वह कैसे ? 
-इस डायरी में  सरकारी अफसरों के नाम , पते , फोन नम्बरों के साथ साथ उनके शौक भी दर्ज हैं । 
-इससे क्या होता हैं ? 
-इससे यह होता हैं कि जैसा अफसर होता हैं वैसा जाल डाला जाता हैं । जिससे जरूरतमंद का काम आसानी से हो जाता हैं । 
-तुम कैसे आदमी हो ? 
-आदमी नहीं । दलाल । 
और वह अपने शौक पर खुद ही बडी बेशर्मी से हंसने लगा । ००
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लघुकथा - 08                                                     
                            बाबुल का घर                              
                                                 - सुभाष सलूजा
                                                       रानियां 
                            
" पापा ! आज फिर उन लोगों ने मेरे साथ मार पीट की ।कब तक सहती रहूं उनके जुल्म ?
आपने तो बङा घर देख कर ब्याह दिया मुझे कि बेटी सुखी रहेगी ।यहां उलटा हॆ सब , बात बात पर ओकात बताते हैं । सारा दिन घर का काम करो ,उस पर सासू मां की डांट । ये तो कभी मेरे हक में बोलते ही नहीं ।" रोते रोते बेटी सब कह गयी  ।
" बेटा ! थो़ङा धीरज से काम लो ।"
" नहीं पापा अब सहन नहीं हो रहा । मॆं घर आ रही हूँ ।"
पापा पर जॆसे वज्रपात हो गया । घर आने के परिणाम सोच कर जॆसे लक्वा मार गया हो‌ ।अपने आप को थोङा सम्भालते हुए रुंधे गले से बोल पाया 
" बेटी यह घर अब तेरे बचपन के अधिकार वाला नहीं रहा । समझने का प्रयास करो । हर चीज जिद्द से मनवा लेना । ' यह घर मेरा हॆ ' वाली बात अब नहीं रही बेटा! ब्याह के बाद लङकियां पराई हो जाती हैं। अब इस घर में तेरा भाई हॆ , भाभी हॆ उनका बच्चा भी । मॆं भी उन के अधीन .......। यह अब तेरे बाबुल का घर नहीं ।" पापा के स्वर मे मजबूरी झलक रही थी।
 बेटी अधूरा सा वाक्य बोल पायी 
" पा.....पा ! बेटी किस घर को अपना कहे ।"
फोन चुप हो गया । ००
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लघुकथा - 09                                                         
                                 छाँव                                  
                                                   - कुणाल शर्मा
                                                        अम्बाला

        चेहरे पर चिंता की लकीरें लिए वह अस्पताल के बाहर चहलकदमी कर रहा था । जैसे ही कमरे से निकलती नर्स का चेहरा दीखता उसके सवालों की बौछार शुरू हो जाती :
" क्या कह रही है डॉक्टर ? अब दर्द कैसा हैं ? कितना वक़्त लगेगा डिलीवरी होने में ?
नर्स का फिर से दो टूक जवाब मिल जाता :
" भईया , अभी वक़्त है  "
आख़िरकार नर्स ने बधाई दे ही दी इस बार लड़की हुई थी ।पर उसके लिए असली अग्निपरीक्षा अभी शुरू होनी थी क्योंकि अनजान शहर में अकेले पति-पत्नी , कोई खास जान पहचान भी नहीं थी । उसका एक पाँव घर पर बेटे के साथ तो दूसरा अस्पताल में पड़ी पत्नी के साथ था । कभी नवजात के लिए छोटे कपडे तो कभी जच्चा के लिए दाल-खिचड़ी । आस-पड़ोस वाले भी अस्पताल में औपचारिकता पूरी कर अंततः बच्ची को उसकी गोद में थमा जाते । बेबसी और थकावट हावी हो चली थी कि यकायक माँ का चेहरा आँखों के सामने उभर आया पर अतीत के पन्नें पलटते ही याद आया कि कैसे माँ से झगड़कर शहर आ गया था और कितने विश्वास से कह दिया था :
    " हम अब अपने पाँव पर खड़े हो गए है और सब संभाल सकते है "
      तो उधर माँ ने भी मानों शहर ना जाने की कसम उठा ली थी । पर आज विश्वास डगमगा चूका था । बड़ी हिम्मत कर फोन उठाया और नंबर मिलाते  उंगलियां हिचकिचा रही थी :
       "  माँ , कैसी है तू ? पोती हुई है , अगर तू कुछ दिन यहाँ आकर........?" बड़ी मुश्किल से शब्द उसकी जुबान से निकल रहे थे ।
       "  बहुत बड़ा अफसर बन गया है तू , मुझे खबर तक नहीं की ,  अच्छा बहू कैसी है ....?  तू चिंता ना कर , सुबह वाली ट्रेन से पहुँच जाऊँगी , बस तू अपना ख्याल रख......"
     उसकी भीगी आँखे नवजात पर पड़ी जिसको बिस्तर पर पड़ी माँ ने अपनी छाती से सटा रखा था..... ००
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 लघुकथा - 10                                                          

                          क्यों न जड़ जलायें ?                             
                                                 - मनोज कर्ण 
                                                     फरीदाबाद

      कॉलेज भर के सभी छात्र - छात्राएँ एकजुट होकर प्रीति की आत्मा की शांति के लिये कैण्डिल मार्च पर जा रहे थे. दर असल प्रीति का कुछ दिनो पहले कुछ लड़कों ने बलात्कार और फिर हत्या कर दिया था.
      -- अरे ! रीतिका तू ,घर मे घुसी पड़ी है .डरपोक कहीं के ! चलो....चलो हम सभी जा रहे इण्डिया गेट पर कैण्डिल मार्च और प्रीति की आत्मा को श्रद्धाञ्जलि देने. - रिया अपने सहपाठी रितिका को हाथ पकड़ हॉस्टल के कमरे से बाहर लाते हुए बोली.
      -- तुम लोग एक चीज बताओ कि देश भर मे इतने शोर शराबे हुए कोइ पकड़ा भी गया क्या ? रितिका ने उपस्थित भीड़ से जिज्ञासा की .
      -- हाँ...हाँ , वो कमीना रोहित तो था.अपने कैम्पस के साथ वाले हॉस्टल का कमरा नं. - ३१९ वाला.नेहा ने आत्मविश्वास के साथ कही.
       -- तो फिर उतने दूर इण्डिया गेट क्यों जायें हम ? चलो यहीं चलते हैं साथ वाले कैम्पस मे .रितिका आक्रामक स्वर मे व्यक्त की.
       -- उससे डरकर उसका चरणस्पर्श करने जायेगी क्या ? कि कहीं कल को हमारा नं. न आ जाय !
सभी समवेत में हा.....हा...हा !
       -- नही, वह यहाँ अकेला एक श्रेष्ठ मर्द है  न चलो आज  उसका आरती उतारूंगी.रितिका पुरे आत्मविश्वास के संग सबको साथ चलने को मजबूर किया.
        अब रितिका और उसके सहपाठी घी का डब्बा, फूल की माला एवं माचिस थाल मे लिए छात्रावास के द्वार पर पहुँच कर-- गार्ड भइया हमें रोहित से मिलना है .
         -- रोहित, जो जमानत पर जेल से छुटकर आया है.ओह! मै तो परेशान हुँ इस बलात्कारी के विजिटर से.मन करता है किसी दिन इसका भी....गार्ड़ भइया खुद ही बुदबुदाया .
          गार्ड लौह द्वार खोलते हुए-- जाओ, तीसरी मंजिल के क्रीड़ा कक्ष मे होगा.
       -- अहा...! आज तो परीयाँ साक्षात् तेरे दर्शन को आ गई रे ! रोहित के साथियों ने फब्तियाँ  कसे.
       -- तो आज आपकी बारी है मुझे संतुष्ट करने की.तो इतनी मिहनत की क्या जरूरत थी, मोहतरमा !वहाँ से पुकारती , आपका हीरो हाजिर ! .रोहित ऐंठते हुए बोला. 
      -- भइया , पुरे ब्रह्माण्ड मे अपने जैसा एक अकेला मर्द हो आप ! इसलिए पहले आपकी आरती उतारना चाहती हुँ .घी के डब्बे हाथ मे लिये अपने अन्तराग्नि को रोक  सहमति चाही.
       -- हाँ...हाँ , क्यों नही, लो जहाँ जहाँ लेपनी हो लेप डालो.अहा...क्या कोमल हाथ है मोहतरमा आपका.
       -- रोहित जी, कृपया नीचे चलिये न ताकि आपके मर्दानगी भरे हिम्मत को पास पड़ोस के लोग भी देख सके और हमारे टीम द्वारा बुलाये मीडिया भी आपके चेहरे को दुनिया के सामने दिखा पाये.
       -- हां...हाँ  क्यों नही .रोहित दंभ के साथ मिनटों मे सीढ़ियाँ पार कर नीचे द्वार के बाहर हाजिर हो गया.
        गेट से बाहर आते ही रितिका ने रोहित को माला पहनाई.तालियों की गड़गड़ाहट के बीच माचिस जलाई और रोहित के उपर फेंक चलती बनी.
      मीडिया के पूछे जाने पर बस! कहते हुए बढती रही कि -" किसी की स्मृति मे केण्डिल जलाने से बेहतर उस कारण को ही क्यों न जला दें ताकि भविष्य मे फिर कैण्डल मार्च की  जरूरत ही न पड़े . !" ००
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लघुकथा - 11                                                        
                          आँसुओं की महक                        
                                                  - कमल कपूर
                                                      फरीदाबाद

   आज बहुत दिनों के बाद वसुधा को फुर्सत के पल मिले थे, जो उसे बिल्कुल अच्छे नह् लग रहे थे। एक लंबी ठंडी साँस ले कर उसने पलंग की पीठ से सिर टिका दिया और आँखों मूंद लीं तो वह दिन सामने आ कर खड़ा हो गया, जब उसका इकलौता लाडला ध्रुव बिना खबर किये तीन बरस बाद न्यूजर्सी से लौटा था और नये पत्ते -सी नाज़ुक और फूल -सी सुंदर एक लड़की का हाथ थामे देहरी पर  खड़ा था।खुशी से बौराई -सी वह आगे बढ़ी उसे गले लगाने के लिए कि उससे पहले उन  दोनों ने ही आगे बढ़ कर उसके पाँव छू लिए और ध्रुव ने मुस्कराते हुए कहा," मम्मा ! यह आलिया है•••आपकी बहू ।"
    " मेरी बहू?" सिर पर जैसे आसमान टूट पड़ा और पैरों के नीचे से जैसे जमीन खिसक गई।कुछ पल पाषाण-प्रतिमा -सी मौन  खड़ी रही वह कि पति ने उसके कंधे पर हाथ धरते हुए धीमे स्वर में कहा," वसु ! आगे बढ़ो और बच्चों का स्वागत करो ।" पर वह बजाय आगे बढ़ने के पीछे मुड़ी और लगभग भागते हुए अपने कमरे में चली गयी।
      कुछ देर बाद पति  उढका हुआ द्वार खोल कर भीतर आये और उसका हाथ थाम कर मुलायम स्वर में बोले ," जो होना था हो चुका वसु ! तुम्हारा दर्द मैं समझता हूँ पर यह वक्त नहीं है गुस्सा दिखाने का। तुम्हारा यही रवैया रहा तो अपनी इकलौती संतान से हाथ धो बैठोगी इसलिए चलो और बेटे-बहू को आशीर्वाद दे कर आदर के साथ गृह-प्रवेश कराओ।"
     रूखे-सूखे मन से उसने सब रस्में निभाईं पर उसने एक कदम  बढ़ाया तो आलिया ने चार कदम बढ़ाये। धीरे-धीरे दूरियाँ सिमटती गईं और दोनों प्याज़ की पर्तों -सी एक-दूसरे के साथ खुलती गईं और घर हंसी-खुशी की फुलवारी बन गया। किसी जादूगर के सुंदर खेल-तमाशे से वे सात सप्ताह कैसे गुज़र गये , पता ही नहीं चला और आज सुबह एयरपोर्ट पर बिदाई की बेला में जब उसके गले लग कर आलिया बच्चों की तरह बिलख रही थी तो उसे भी रोना आ गया।
     " ये घड़ियाँ रोने की नहीं खुश होने की हैं वसु ! आलिया बेटी के कीमती आँसू संभाल कर रख लो, " सामने मुस्कान बिखेरते हुए  पतिदेव खड़े थे। उसने भीगी हुई सवालिया नजरों से उन्हें देखा तो वह फिर मुस्कुराए " आलिया बहू बन कर हमारे घर आई थी पर अब बेटी बन कर बिदा हो रही है क्योंकि घर से बिदा होते हुए बेटी रोती है , बहू नहीं।"
    वसुधा  ने पलकों के बंद किवाड़ खोले और अपने आँचल  के उस कोर को दुलार से चूम लिया, जिसमें उसकी बेटी आलिया के खारे आँसुओं की मीठी महक बसी थी। ००
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लघुकथा - 12                                                         
                          माँ और माँ                       
                                                    - राजकुमार निजात  
                                                           सिरसा  
                                                    
          अखिलेश ने अपनी बूढ़ी माँ को रोटी की थाली देते हुए कहा - " लो माँ खाना खा लो ..... गरमा-गरम है ...? "
         "  भूख नहीं है ..रहने दे ...." कह कर माँ  लेट गई । अखिलेश कुछ छन खड़ा रहा फिर पुनः बोला-- "  खा लो माँ जितनी भूख है , खालो ... ? "
          माँ कुछ नहीं बोली बस लेटी रही ,  लेकिन अखिलेश कह कर चला गया ।
          अखिलेश की पत्नी यह सब देख रही थी । अखिलेश के चले जाने के बाद वह माँ के पास आकर बोली -- " खा लो माँ जी खालो लो..... जितनी इच्छा है खालो  ? " 
          माँ बोली -- " थाली ले जा बहु ...... सचमुच ही भूख नहीं है । " कह कर माँ फिर लेट गई ।
          " उठो ...... । " बहु ने माँ का हाथ पकड़ा तो माँ चारपाई पर बैठ गई ।
         " .... लो माँ जी खाओ । "  कहकर बहु ने एक ग्रास  माँ के मुँह में रख ही दिया । फिर दूसरा ग्रास ....फिर तीसरा ...चौथा....  और देखते ही देखते माँ दो चपाती खा गई । खाना खिलाकर बहु संगीता आत्मीयता से भर उठी ।
          अखिलेश खिड़की से यह सब देख रहा था ।
           माँ बोली -- " तुम माँ हो ना ,खिलाना जानती हो । अखिलेश भी बचपन में जब खाना नहीं खाता था तो मैं उसे ऐसे ही खिलाती थी और वह खा लेता था । "
          संगीता ने खाने से चिकनी हो आई अपनी उंगलियों को देखा और अपनी माँ की यादों में खो गई ।
          वह ममता से तृप्त हो उठी थी । " ००
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लघुकथा - 13                                                              
मन का बोझ 

                                         -  लखविन्दर सिंह बाजवा
                                                सिरसा - हरियाणा

       बेटी ने स्कूल से आते ही दर्शना से कहा, "मम्मी मम्मी मैं उस स्कूल में नही पढूंगी ।"
" कयों ? " दर्शना ने कौतूहल वश पूछा ।
" वहां पापा माली हैं न ।"
" तो क्या हुआ ? तुम्हें तो फायदा है ।इसी कारन तेरी आधी फीस भी तो माफ है ।
" मम्मी मुझे सभी माली की बेटी कह कर चिढ़ाते हैं ।"
" बेटा हम गरीब हैं तो क्या हुआ, हम किसी से मांग कर थोड़ा खाते हैं ।"
" पर वे मेरा मजाक उड़ाती हैं ।"
"अच्छा ये बता उन के बाप क्या करते हैं ?"
" एक का बाप नेता है , वे चिढ़ाने लगी तो सभी उसके पीछे चिढ़ाने लगी ।"
" ठीक है अगर तुझे अब कहे तो उसे कहना हम मेहनत का खाते हैं, तेरे बाप की तरह लूट कर नही । "और बात जारी रखते बोली ।
" लोग कहते नही सुने कि नेता लोग कितना लूटते है ?" 
" ठीक है मम्मी ।"कह कर वे खुशी से बाहर दौड़ गई ।अपनी सखी को बताने कि उसका बाप हमारे बाप से कितना छोटा है ।वे अभी मन का बोझ हल्का जो करना चाहती थी । **
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लघुकथा -14                                                          
                              कोहराम                                   
                                                - डॉ. मुक्ता
                                            गुरुग्राम - हरियाणा
                                            
रेवती के पति का देहांत हो गया था।अर्थी उठाने की तैयारियां हो रहीं थीं।उसके तीनों बेटे गहन चिंतन में मग्न
थे।वे परेशान थे कि अब मां को कौन ले जायेगा?उसका बोझ कौन ढोयेगा?उसकी देखभाल कौन करेगा?इसी विचार-विमर्श में उलझे वे भूल गये कि लोग अर्थी को कांधा देने के लिये उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।श्मशान से लौटने के बाद रात को ही तीनों ने मां को अपनी-अपनी मजबूरी
बताई कि उनके लिये वापिस जाना बहुत ज़रूरी है।उन्होंने मां को आश्वस्त किया कि वे सपरिवार तेरहवीं पर अवश्य
लौट आयेंगे। उनके चेहरे के भाव देख कोई भी उनकी मनःस्थिति का अनुमान लगा सकता था। उन्हें देख ऐसा लगता था मानो एक-दूसरे से पूछ रहे हों 'क्या इंसान इसी दिन के लिये बच्चों को पाल-पोस कर बड़ा करता है?क्या माता पिता के प्रति बच्चों का कोई कर्त्तव्य नहीं है?वे आंखों मे आंसू लिये हैरान,परेशान चिंतित एक- दूसरे का मुंह ताक रहे थे।उनके भीतर का कोहराम थमने का नाम नहीं ले रहा था। ऐसी स्थिति में रेवती को लगा,सिर्फ पति ही नहीं,शेष संबंधों की डोरी भी खिंच गयी है। उसके टूटने की आशंका बलवती होने लगी है। **
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लघुकथा - 15                                                          
                         यार की टॉफी                                

                                        - हरीश कुमार 'अमित '
                                                 गुरुग्राम

द़फ्तर के एक सहकर्मी मुझे पितृवत स्नेह देते थे. उन्हें कार्यालय के काम का बहुत अनुभव होने के कारण मैं अपने काम की अनेक समस्याओं की चर्चा अक्सर उनसे किया करती थी, जिनके समाधान वे प्रायः सुझा दिया करते थे.
     पिछले दिनों वे सहकर्मी द़फ्तर के टूर पर विदेश गए, तो वापिस आकर उन्होंने मुझे टॉफियों का एक ख़ूबसूरत डिब्बा दिया जो वे मेरे दो वर्षीय बेटे, चीनू, के लिए लाए थे.
       टॉफियों का डिब्बा मैंने घर आकर अपने पति, प्रदीप, और चीनू को दिखाया. फिर हाथ-मुँह धोकर चाय-वाय बनाने के लिए मैं किचन मैं चली गई. 
      कुछ देर बाद मुझे चीनू के ज़ोर-ज़ोर से रोने की आवाज़ सुनाई दी. कुछ देर तो मैं किचन में काम करती रही, लेकिन जब चीनू का रोना बन्द नहीं हुआ, तो मैं घबराकर उस कमरे की ओर चली गई, जिसमें चीनू और प्रदीप थे.
          चीनू न जाने किस बात पर लगातार रोए जा रहा था. मैंने पास ही पड़ा टॉफियों का वही डिब्बा खोला और उसमे से एक टॉफी निकालकर चीनू को दे दी. टॉफी मिलते ही चीनू चुप हो गया और टॉफी चूसने में मग्न हो गया.
        तभी प्रदीप बोल उठे, ‘‘देखा, यार की टॉफी का कमाल!’’ **
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लघुकथा - 16                                                           
                     विशाल -हृदय                     
                                            - राजश्री गौड़ 
                                         सोनीपत - हरियाणा
                                         
          स्टेज सजा हुआ था। पंड़ाल मे बड़ी संख्या में भीड़ जमा थी अपने प्रिय नेता को देखने के लिये, उपस्थित जन अपने अपने स्थान पर जमे हुये थे। वैसे तो नेता जी का मिलना बहुत कठिन है किंतु चुनाव के समय अपने छुटभैये नेताओ के साथ सपरिवार घर घर अलख़ जगा निज के दर्शन सुलभ कराते हैं। जनता जनार्दन बन याचक बने नेता जी की झोली को खाली नहीं जाने देते और अत्तरसिह जैसे ढ़ोंगी नेताओं की तो पो -बारह , झोली में वोटों का अम्बार लग जाता है । आश्चर्य की बात ये कि नेता जी सिर्फ आधा घंटा ही लेट हुये निर्धारित समय से।
      आते ही लगे अपने सद्विचारों का पिटारा खोलने " आजकल हर राजनीतिक पार्टी जातिगत
राजनीति करती है किंतु मैं ऐसी राजनीति में विश्वास नहीं करता। मेरे लिये हिंदु मुस्लिम,सिख ईसाइ , और ऊंच नीच कोई मायने नहीं रखता हम सब भारतीय व भाई भाई हैं।" अपने धर्मनिर्पेक्षता का प्रमाण देने के लिये उनके बीच से ही एक युवक को बुला गले लगाया नेता जी की घाघ़ नजरों ने पहचान लिया था कि यह इसी दलित बस्ती का है। युवक को साथ लिये नेता जी बस्ती के मंदिर में दर्शनार्थ गये। लोगों में चर्चा थी कि नेता हो तो ऐसा ही, जो हम गरीब दलितों का उद्धार कर सके। चुनाव में नेता जी भारी बहुमत से जीतकर मंत्री बन गये।
               एक दिन पुत्री को एक लड़के के साथ घूमते देख, पुत्री को अपने कक्ष में बुलाया और लड़के के विषय में पूछा। बेटी ने बताया कि "पापा ये सुमित है।"  "कौन सुमित? " पिता के प्रश्न  के उत्तर में बेटी ने बताया कि" वही पापा,जो इलैक्शन ड़ेज में आपके साथ घूमा व मन्दिर गया था। बहुत होनहार है हम विवाह करना चाहते हैं ।" नेता जी के क्रोध की सीमा नहीं थी । बेटी की आँखों में दृढ़निश्चय पढ लिया था ।आँखों पें पड़े ला डोरों को छुपाते हुये बोेले " जाओ अपने कमरे में जा कर सो जाओ बाद में बात करेंगे।" 
                अगले दिन नेता जी के बंगले के सामने भीड़ जमा थी, लोगों में कानाफूसी हो रही थी। कह रहे थे "पता नहीं कल तक तो ठीक थी ,कहते हैं रात को पेट में दर्द उठा ,जब तक फैमिली डाक्टर आता तब तक तो बेचारी चल बसी।नेता जी शोक-सभा में गरदन झुकाये पुत्री के गम में बैठे थे। इतने अच्छे विशाल -हृदय नेता.....बेचारे के साथ बहुत बुरा हुअा। भगवान भी अच्छे लोगों को ही दुख देता है । **
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लघुकथा - 17                                                        
संस्कृति
                                                      - सरोजकृषण                                                        पंचकूला - हरियाणा 

 नहा कर तौलिये से पोंछते हुए कोमलागों पर उभर  आये नीले-बैंगनी  असंख्य धब्बों  और खरोंचों  से  रिसते हुए खून की  लाली  को देख कर उस कामन टीस उठा।आंखें नम हो  आई।
पीड़ा  के आवेग को सहने  के लिए लंबी  सांस खींच कर आंखें मंद ली।
तभी  द्वार पर दस्तक  ने चौंका दिया ।जल्दी-जल्दी कपड़े पहन कर द्वार खोला ।
चाय की ट्रे लिए,ममता का आवरण ओढ़े रौद्ररूपा खड़ी थी।उस की आंखों में कैसे भाव थे,वह समझ नहीं सकी ।मगर सहम जरूर गई।उस ने  अचकचा कर आंचल से सिर ढका और चरण स्पर्श करने के लिए झुक गई।
  चाय की ट्रे मेज पर  रख कर उस ने एक नजर अपनी   सुहागसेज पर  डाली।मसले-कुचले-मुरझाए फूलों और टूटी हुई कांच की  चूड़ियों के  टुकड़ों पर लंबी  चौड़ी काया पसरी थी।जिस की सांसों और  खर्राटों का मिलाजुला स्वर कक्ष में जैसे आंधी तूफान के बाद की कहानी सुना रहा था ।
    वह सोचने लगी,'क्या इसी रात की प्रतीक्षा में उस का बेलास यौवन उमगने लगता था?क्या  इसी समर्पण के लिए वह बरसों से बेताब थी ?क्या  इन्ही लम्हों के लिए लड़कियां  अपने अरमानों को सींचती हैं ?
  सिर से दुपट्टे के  सरकते हुए कोने को संभालने के प्रयास में गोटा-किनारी कलाइयों की खरोंचों को सहला गई। दर्द की एक लहर विद्युत लहर  की तरंह पूरे शरीर को झनझना गई।
   पति परमेश्वर  संसकृति में  पली-बढी सुसंस्कृत कोमलांगी झुक कर चूडियों के  टुकड़े  चुन कर  मेहंदी रची हथेली पर रखने  लगी तो अनायास ही सजल नेत्रों  में  सुहागरात का  दृश्य चित्रपट की तरंह उभरने  लगा।
   उस के  सपनों के  अजनबी राजकुमार ने  लडखडाते कदमों से कक्ष में घुसते ही झपट कर छुईमुई  कली दबोच लिया ।
  वह बाघ के  पंजों में हिरणी के  मासूम बच्चे की तरंह थरथर कांपने  लगी।
   शराब की गंध के  भभूकों से पूरा वातावरण दहशत  से भर गया ।नशे में  धुत इरा,नैना, सुरभि,बडबडाते  हुए उस के कुंआरे बदन को प्यार  के नाम पर कुचलते-मसलते समय तड़ातड़ सुहाग की चूड़ियों को टूटते देख कर  औसे ऐसा लग रहा था जैसे सुहागन होने  की अपेक्षा विधवा हो रही है ।उस के  अरमानो का खून हो रहा है ।
     गुर्राते बाघ जैसे गहरी सांसों की  सडांध को झेलते हुए,दांतों तले होंठ दबाए,आंखें भींचे  असह पीड़ा को झेलते हुए पुष्प सज्जित शैय्या पर लाश की तरह पड़ गई ।
  आत्मा  चीत्कार  करती रही मगर वह उफ तक न कर सकी।प्रतिरोध  करती भी कैसे,पति नाम के इस शराबी जीव के पास  समाज द्वारा हस्ताक्षरित उस के  पति होने का लाईसेंस जो था।
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लघुकथा - 18                                                          
छूटा हुआ सामान

                                           - डाँ. शील कौशिक
                                               सिरसा - हरियाणा

    विवाह के बाद ससुराल से पहली बार मायके लौटी तनुजा का मन उड़ा जा रहा था I पहले दिन वह माँ-बाबूजी के ढ़ेरों प्रश्नों के उत्तर देती रही, कुछ छुपाती रही, कुछ मन खोल कर बताती रही I आस-पड़ौस की ताई-चाची से आसीसें बटोरती रही I दूसरे दिन सुबह उठते ही माँ शुरू हो गई, “तनु बेटा! आज दामाद जी आने वाले हैं, अपने बैग में सामान जमा लो, जल्दी में कुछ छूट जायेगा I”
तनुजा को शीघ्रता से दरवाजे से बाहर निकलते देख माँ ने टोका, “ कहाँ जा रही है तनु?”
“अभी आई माँ,” यह कह कर वह निकल गई, मोहल्ले में रह रही अपनी सहेली मीना के घर की तरफ I रास्ते में पड़ोस की ताई ने रोक लिया, “बिटिया कल तो तू ससुराल चली जाएगी...आ...मैंने खीर बनाई है...तुझे तो बहुत पसंद है ना...”कहते हुए ताई हाथ पकड़ कर ले गई I 
मीना तनु को देखते ही फूल सी खिल उठी I खट्टी-मीठी बातें करते कब में दो घंटे बीत गये, पता ही न चला I घर वापिस आई तो माँ रसोई में उसकी पसंद की हरी मैथी वाली मट्ठियाँ बना रही थी I  
“बेटी अपना सामान इकठ्ठा कर लो, कुछ छूट गया तो तुम्हें ही परेशानी होगी I”
“माँ एक बार बाजार से जरूरी सामान लेने जा रही हूँ ।" बाजार में वह काका की दुकान पर पहूंची जहाँ से वह हेयर पिन , क्लिप, रबर बैण्ड, रिबन, चूड़ियाँ आदि खरीदती थी I 
“अरी बिटिया! बहुत दिन बाद दिखाई पड़ी हो, बताओ तुम्हें क्या चाहिए?”  
“काका! मेरी शादी हो गई है इसलिए। दो क्लिप, हेयर बैण्ड दे दीजिए I” “बस यही, यह लो I और ये चूड़ियाँ हमारी तरफ से शादी का तोहफ़ा समझो बिटिया I” उसके बाद तनुजा ने सामने वाली दुकान से वही पेन खरीदा जो वह कॉपी-किताबों के साथ यहाँ से अक्सर खरीदा करती थी I 
वापिस लौटी तो माँ ने फिर याद दिलाया, “बेटी अपना सामान अटेची में जमा लो, दामाद जी ज्यादा देर नहीं रुकने वाले I” 
“अच्छा माँ!” कह कर वह तुरंत पलटी और फिर दरवाजे से बाहर हो गई I उन गलियों से गुजरती  जहाँ वह छुपम-छुपाई व उछल-कूद करती थी, नीम के पेड़ के पास पहूंची I यहाँ वह सहेलियों संग झुला झूलती और सबसे ऊँची पींघ लेने के लिए मचल जाया करती थी I कितनी ही देर तक निहारती रही उस खामोश खड़े पेड़ को और यादों के झूलों में झूलती रही तनुजा I माँ के कठोर चेहरा याद आते ही वह घर की तरफ भागी I 
 रसोई से उठती हुई खुशबू से पता चल रहा था  कि माँ   दामाद के लिए  कोई स्वादिष्ट पकवान बना रही है I वह चुपके से रसोई में गई I माँ साड़ी के पल्लू से आँखें पोंछ रही थी I उसे देखते ही माथे पर त्योंरियां चढ़ा कर बोली, “तेरे पाँव में टिकाव ना हैं छोरी! यहाँ-वहाँ उड़ती फिरे है I” 
फिर भर्राई आवाज में बोली, 
“कितनी बार कहा है तुझे, अपना सामान समेट ले बेटी!”
“माँ सुबह से छूटा हुआ सामान ही तो बटोर रही हूँ,” वह फफक-फफक कर रो पड़ी और माँ के गले में झूल गई I ०००
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लघुकथा - 19                                                           

 सूफी
***

                                                - भारती कुमारी
                                                   गुरुग्राम 

'सूफी समझते हो?' वो जो खुदा से इश्क करते हैं और इश्क को खुदा बना लेते हैं। जब होगा न तो कृष्ण-राधा का रिश्ता समझ जाओगे, मीरा की पीर और भ्रमर-गीत का सार भी। जानते हो मुट्ठी भर सही, इश्क सभी करते हैं,पर ज्यादातर न जाने क्यूं उफनते दूध की तरह होते हैं जो पानी के एक छींट से शांत पड़ जाते हैं। पर मेरा इश्क धीमी आंच पर उबलता है और गाढ़ा होता जाता है।मेरे लिए प्रेम करने का अर्थ उम्र भर साथ रहना नहीं है, बल्कि आत्माओं का बंधन है। उम्र भर साथ रहने के लिए समाज के नियमों पर खरा उतरना पड़ता है,रूह को किसी नियम की दरकार नहीं। मेरी रूह जुड़ गई है तुमसे। एकदम 'प्लेटानिक'। जानते हो मुझे लगता है, हर इंसान चाहे वो किसी भी उम्र या अवस्था में हो, एक 'सोलमेट' की तलाश चलती रहती है।जब तक वो मिल नहीं जाता , मन विचलित रहता है,सागर की तरह हिलोरें उठती हैं। मिल जाने पर झील वाली शांति, तुम मेरे वही 'सोलमेट' हो। जीवन में प्यार, इश्क-मोहब्बत एक से ज्यादा बार हो सकता है, पर रूह किसी एक से ही मिलती है। मेरी तुमसे जा मिली, इससे पाक कोई रिश्ता नहीं। सब सरल हो गया जीवन में।
पर जानते हो कठिन क्या है? जिससे ये रूहानी रिश्ता जुड़ा है, उसे बता पाना। अगर तुम सांसारिक हो गए तो?
रोज की तरह आज भी डायरी का एक पन्ना 'सूफियाना इश्क' की बलि चढ़ गया।***
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               अभी कार्य जारी है                 

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