फिल्म शोले

         रमेश सिप्पी के निर्देशन में बनी फिल्म 'शोले' 15 अगस्त 1975 को रिलीज हुई थी ।  'शोले' बॉलीवुड की पहली ऐसी फिल्म थी जो 100 दिनों तक सिल्वर स्क्रीन पर बनी रही । पहले फिल्म का नाम 'एक दो तीन' और 'मेजर साब' रखने की बात चल रही थी । लेकिन जब फिल्म आधे से ज्यादा बन गई तब इसका नाम 'शोले' रखा गया। फिल्म में दो अपराधी, जय और वीरू को एक सेवानिवृत्त पुलिसकर्मी, ठाकुर बलदेव सिंह, एक कुख्यात डकैत, गब्बर सिंह को पकड़ने का काम सौंपता है, जिसने रामगढ़  में आतंक मचाया है। इस फिल्म के लिए विदेश से टेकनिशियन और स्टंटमैन बुलाए थे। फिल्म में अमजद खान का गब्बर सिंह का किरदार किसी कलम से नहीं बल्कि वास्तविक जिंदगी से  आया था। गब्बर नाम के एक डकैत जिसकी बोली और व्यवहार को फिल्म में उतरा गया ।निर्देशक की पहली पसंद अमजद खान नहीं बल्कि डैनी थे। वो काफी समय तक डैनी के डेट्स का इंतजार करते रहे लेकिन डैनी उन दिनों अन्य फिल्मों में व्यस्त थे जिसके बाद रमेश सिप्पी ने अमजद खान को ये रोल ऑफर किया।फिल्म में अमिताभ बच्चन, जया बच्चन, धर्मेंद्र, हेमा मालिनी, संजीव कुमार और अमजद खान लीड रोल में थे । 'शोले' फिल्म इंडस्ट्री की ऐतिहासिक फिल्मों में एक है । आज भी ये फिल्म लोगों के बीच अपनी सार्थकता साबित करती है । आओ देखते हैं कुछ लोगों का दृष्टिकोण :-
    "शोले" फिल्म अपने जमाने की अनूठी फिल्म थी। इसे देखनेवाले भारत की 80%जनता तो आवश्य ही रही होगी। फिल्म की कहानी, चरित्र, संवाद, संगीत, इत्यादि सभी अपने आप में एक मिशाल थी।पात्र -असरानी जी द्वारा निभाया गया "जेलर" का चरित्र मुझे बहुत प्रभावित किया।डायलॉग - "मेरे जासूस जेल के कोने - कोने में फैले हुए हैं"। सीन- मंदिर में जब बसंती पूजा करने आती है और वीरू शिव जी के पीछे छुप कर भगवान की आवाज़ निकालता है और बसंती को वीरू से शादी करने की बात करता है।
                                                   - ईशानी सरकार
                                                   पटना - बिहार
शोले का सबसे शानदार दिल को छूने वाला सीन
अनवर*सचिन*की मौत पर इमाम साहब *ए के हंगल**का आना और कहना
ये इतना सन्नाटा क्यूँ है भाई?
ये ख़ामोशी क्यूँ है यहाँ?
कोन ये बोझ नहीं उठा सकता ,जानते हो, दुनिया का सबसे भारी बोझ क्या है?
बाप के कंधे पर बेटे का जनाजा।
इससे भारी बोझ कोई नहीं।
मै बूढ़ा यह बोझ उठा सकता हूँ।और तुम लोग एक मुसीबत का बोझ नहीं उठा सकते।
भाई मैं एक ही बात जानता हूँ, इज्जत की मौत, जिल्लत की जिंदगी से कही अच्छी है।
बेटा मैंने खोया है फिर भी मैं चाहूंगा ये दोनों यहीं रहें, आगे आपकी मर्जी।
मेरी नमाज का वक्त हो गया
आज पूछुंगा खुदा से मुझे दो चार बेटे और क्यों नहीं दिए इस गावं पर शहीद होने के लिए।
कोई मुझे मस्जिद तक
                                           - आलोक शुक्ला अनूप
                                              इटारसी - मध्यप्रदेश
गब्बर सिंह-  कितने आदमी थे रे सांभा?
सांबा-दो 
 ग.-वो दो और तुम तीन..फिर भी वापस आ गए..
क्या सोचा सरदार साब्बाशी देगा.
वो दो और तुम तीन
कितनी बेइंसाफी है रे
पात्र- गब्बर सिंह (सशक्त  खलनायक)
भय का परिवेश बनाने में सक्षम संवाद ही सफल पात्र और चरित्र  को उभारने में  सफल साबित होते हैं.
शोले मूवी संवाद योजना के कारण ही आज तक लोकप्रिय  है
                                          - डा.अंजु लता सिंह 
                                            नई दिल्ली
     फिल्म "शोले " तत्समय के युवा, बुजुर्ग, महिला-पुरुष ऐसा कोई नहीं होगा,जिसने यह फिल्म न देखी हो। उस समयकी यह सबसे अधिक पसंद की जाने वाली फिल्म रही है।कहानी,संवाद,गाने,  पात्र, दृश्य के साथ-साथ दोस्ती की मिसाल के लिये भी यह फिल्म जानी जाती है।
इस फिल्म की खूबी यही है कि इसके किसी को कोई संवाद अच्छा लगा तो किसी को कोई दूसरा संवाद।
   किसी को कोई पात्र अच्छा
लगा तो किसी कोई दूसरा पात्र।।   
    किसी को कोई दृश्य अच्छा लगा तो किसी को कोई दूसरा।
       इस तरह  पूरी फिल्म  पसंद की गई ... और इतनी पसंद आई कि सभी के दिलोदिमाग में सदा के लिये अंकित हो गई। 
   आज भी जब भी कोई वाक्या आता है तो फिल्म "शोले " का  किसी न किसी रूप में जिक्र कर ही लिया जाता हैं। 
   मुझे भी यह फिल्म बहुत पसंद है।यूँ तो इस फिल्म के अनेक दृश्य, संवाद मुझे अच्छे लगते हैं लेकिन जो सबसे.ज्यादा अच्छा लगा है वह है जय(अमिताभ बच्चन जी) का मौसी(लीला मिश्रा जी) से बीरू(धर्मेंद्र जी) के लिये शादी का प्रस्ताव लेकर जाना।
इस दृश्य में हास्य व्यंग्य का पुट इतने चुलबुले ढंग से पेश किया गया है कि दर्शक हँसे बिना नहीं रह पाते।
दोस्त में लाख बुराईयां हों लेकिन उन बुराइयों को भी  बड़ी चतुराई से प्रस्तुत किया जा सकता है। इसे दोस्ती निभाना भी कह सकते हैं।
 और मौसी के पात्र की अपनी एक अलग विशेषता है।वह इतनी समझ और पकड़ रखती हैं कि कौन ,क्या, कैसा है,पल में समझ लेती हैं और बातों में नहीं फंसती, न बहकावे में आतीं है ।  इस तरह इस दृश्य और संवाद में मनोरंजन के अलावा ,अनेक सामाजिक मूल्यों का चित्रण और संदेश छुपा हुआ है,जो प्रशंसनीय है। चिंतन और मनन करने योग्य है,शिक्षाप्रद है और यही कुशलता मुझे पसंद आयी है।
                                          - नरेन्द्र श्रीवास्तव
                                    गाडरवारा - मध्यप्रदेश
शोले मैने फिल्म देखी थी 
शोले १९७५ में निर्मित एक हिंदी भाषा की फिल्म है। रामगड के ठाकुर बलदेव सिंह एक इंसपेक्टर था, जिसने एक क्रूर डाकू गब्बर सिंह को पकड़कर जेल में डलवा दिया था जिसके पश्चात् गब्बर जेल से भाग निकलता है और ठाकुर के परिवार को बर्बाद कर देता है। इसका बदला लेने के लिए ठाकुर जय (अमिताभ बच्चन) तथा वीरू (धर्मेन्द्र) नामक दो चोरों की मदद लेता है।
निर्देशक - रमेश सिप्पी, लेखक - सलीम-जावेद।
संवाद देखे 
गब्बर सिंह के इस डायलॉग को ना जाने कितनी बार हमने दोहराया होगा। याद है ना फिल्म ‘शोले’? जिसके ज्यादातर किरदार आज भी हमारी यादों में कैद हैं। चाहे बात जय-वीरू की दोस्ती की हो या फिर बसंती की। इस फिल्म में सबकुछ फुल टू था। खैर, शोले’ के खलनायक गब्बर सिंह यानी अभिनेता अमजद खान ..... कितने आदमी थे 
इसके कई डायलांग बहुत चर्चित हुये थे जन जन की ज़ुबान पर थे 
गब्बर सिंह का किरदार 
तेरा क्या होगा कलिया 
कितने आदमी थे 
यहाँ से पचास-पचास कोस दूर जब बच्चा रात को रोता है तो माँ कहती है सो जा बेटे नहीं तो गब्बर आ जाएगा. (गब्बर सिंह)
सुअर के बच्चो तुमने मेरा नाम मिट्टी मे मिला दिया ( गँब्बर सिंह ) 
ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर ( गब्बर सिंह ) 
जब तक तेरे पैर चलेंगे 
तब तक इसकी सांसे चलेगी 
"तुम्हारा नाम क्या है बसंती?"(जय)
-बसंती इन कुत्तों के सामने मत नाचना. (वीरु)
 इतना सन्नाटा क्यों है भाई. (इमाम साहब)
सरदार मैंने आपका नमक खाया है (कालिया). तो अब गोली खा (गब्बर सिंह)
- हमें ज़्यादा बात करने की आदत तो है नहीं. (बसंती)
- हम अंग्रेज़ों के ज़माने के जेलर हैं. (जेलर)
- बहुत कटीली नचनिया है. (गब्बर)
- जेल में चक्की पीसिंग, एंड पीसिंग, एंड पीसिंग. (वीरू)
पूरा सुन कुछ इसतरह ...
गब्बर: हम्म... कितने आदमी थे?
कालिया: सरदार... दो आदमी थे।
गब्बर: हम्म... दो आदमी? ... सूअर के बच्चों... वो दो थे, और तुम तीन... फिर भी वापस आ गये। खाली हाथ... क्या समझ कर आये थे?... सरदार बहुत खुस होगा, साबासी देगा क्योँ? धिक्कार है... अरे ओ साँभा... कितना इनाम रखे है सरकार हम पर?
साँभा: पूरे पचास हज़ार...
गब्बर: सूना? पूरे पचास हज़ार... और ये इनाम इसलिए है कि यहाँ से पचास पचास कोस दूर गाँवों में जब बच्चा रात को रोता है तो माँ कहती है - "बेटा सो जा... सो जा नहीं तो गब्बर सिंह आ जाएगा।" और ये तीन हराम ज़ादे... ये गब्बर सिंह का नाम पूरा मिट्टी में मिलाये दिये... इसकी सज़ा मिलेगी... बराबर मिलेगी...
(एक आदमी से पिस्तौल लेता है और उससे पूछता है) कितनी गोली है इसके अंदर?
(वो आदमी चौंक जाता है)
गब्बर: कितनी गोली है?
आदमी: छः सरदार
गब्बर: (खुद से) छ:? (ऊँचे स्वर में) छः गोली... छः गोली है इसके अंदर... छः गोली और आदमी तीन... बहुत नाइंसाफी है ये।
(तीन गोली हवा में उडा देता है) अब ठीक है। हाँ अब ठीक है... अब इसके तीन ख़ानों में गोली है, तीन खाली... अब हम इसको घुमाएगें... अब कहाँ गोली है कहाँ नहीं?... हमको नहीं पता... हमको कुछ नहीं पता। इस पिस्तौल में तीन ज़िंदगी तीन मौत बंद है... देखें किसे क्या मिलता है? 
(पहले आदमी की तरफ जा कर उसके सिर पर पिस्तौल चलाता है लेकिन गोली नहीं चलती) बच गया साला...
(दूसरे के सिर पे पिस्तौल चलाता है, वह भी बच जाता है) ये भी बच गया...
(तीसरे की ओर जाकर) अब तेरा क्या होगा कालिया?
गब्बर ...... 
ये हाथ हमको दे दे, ठाकुर।
गब्बर के ताप से तुम्हें एक ही आदमी बचा सकता है।.. खुद गब्बर।
जय
तुम्हारा नाम क्या है, बसंती?
जेलर
आधे इधर जाओ, आधे उधर जाओ, बाकी मेरे पीछे आओ।
हम अंग्रेर्जों के जमाने के जेलर है! ह हा।
हमारे जेल में सुरंग?
हमारे जेल में पिस्तौल?
ठाकुर
ये हाथ नहीं फाँसी का फंदा है, गब्बर।
बसंती
भाग धन्नो भाग! आज तेरी बसंती की इज्जत का सवाल है।
यूँ तो हमें ज्यादा बोलने कि आदत तो है नहीं।
क्योंकि… ये कौन बोला?
वीरू
बसंती, इन कुत्तों के सामने मत नाचना।
रहीम चाचा
इतना सन्नाटा क्यों है, भाई?
सूरमा भोपाली
ऐसे कैसे पैसे मांग रिये हो।
प्रसिद्ध वाक्य
जो डर गया समझो मर गया।
                                                  - अलका पाण्डेय 
                                                    मुम्बई - महाराष्ट्र


हां मैंने भी शोले फिल्म देखी है।
मेरे पसंद के डायलॉग हैं
१.इतना सन्नाटा क्यों है भाई (इमाम साहब)
२.कयोंकि मुझे ज्यादा बोलने की आदत तो है नहीं
(बसंती)
३.अरे ओ सांभा तनिक देख तो जोरू के पांव ये रामगढ़ वाले अपने बहू बेटियों को कौनसी चक्की का आटा खिलाते हैं रे।
सरदार गंगा पुर वाले जमुना दास की बेटी की शादी में छुप छुपा कर गए थे। बहुत जोर की नाची थी।
अरे ओ छमिया तनिक दो चार ठुमका हमका भी दिखाय दियो।
४.लो लग गया निसाना साला नौटंकी बाज।
                                      - भुवनेश्वर चौरसिया "भुनेश"
                                      गुड़गांव - हरियाणा
        मुझे शोले फ़िल्म में सबसे अच्छा किरदार जय और वीरू की दोस्ती का लगा। इस फ़िल्म से हम दोस्ती निभाना सीखते हैं, जो आज के समय में हम सब भूलते जा रहे हैं। यह फ़िल्म हमें दोस्ती निभाने की शिक्षा देती है, कि किस प्रकार अपने दोस्त की जान बचाने की लिए वीरू ने अपनी जान गवां दी। दोस्ती हो तो ऐसी। एक दूसरे के लिए जान भी न्यौछावर कर दें। 
   दोस्त है तो जहान है,
   बस दोस्ती ही महान है।
                                          - राधे ज्योति महत्ता
                                           हांसी - हरियाणा
            " शोले " फिल्म भारतीय फिल्म के इतिहास में मील का एक पत्थर है, जो मानवीय, सामाजिक, नैतिक मूल्यों की स्थापना पर जोर तो देती ही है, जीवन और समाज के हर पक्ष का तार्किक, समांगी  चित्रण कर, समग्र मनोरंजन करते हुए, बुराई पर अच्छाई की जीत का संदेश भी बड़े प्रभावशाली ढंग से देती है।इसीलिए इसे सर्वकालिक सफल फिल्म भी कहा जाता है। अपनी गंभीर, जिम्मेदार और संवेदनशील छवि के कारण इस फिल्म में चित्रित " जय " का चरित्र मुझे सबसे अलग और प्रभावशाली लगता है। चाहे वो इंस्पेक्टर के घायल होने पर उसे बचाने का क्षण हो, चाहे ठाकुर के सामने गब्बर का चैलेंज स्वीकार करने की बात हो, चाहे बुरी तरह घायल होने के बाद वीरू को बसंती के साथ भेजने का दृश्य हो, उसका सिक्का हमेशा इंसान को नेक और सही रास्ते पर चलने की सीख देता है। सिक्का प्रतीक बन गया है उस विचार का, उस दोस्ती का,  जो वीरू को कभी गलत सलाह नहीं देता। उस सिक्के में सिर्फ सकारात्मकता है, नकारात्मकता नहीं।आशा है, निराशा नहीं।अच्छाई है, बुराई नहीं।चुनौतियों को स्वीकार कर आगे बढ़ने का हौसला है, हार मानकर बैठ जाने की कायरता नहीं। विपरीत परिस्थितियों का सामना कर उससे जूझने का कौशल है, जीवटता है, साहस है, मनोरथ है। यह कथाकार, पटकथा लेखक, फिल्मकार की कुशलता है कि वे मिलकर एक ऐसा चरित्र गढ़ पाए, जो इंसान को जीवन पथ पर उत्कर्ष की ओर बढ़ने को प्रेरित करता है।
                                                 - विजयानंद विजय
                                                    मुजफ्फरपुर - बिहार
           अपने समय की एक शानदार चलचित्र थी ,,"शोले " या यूं कहा जाए कि आज भी सिनेमा प्रेमियों के लिए शोले एक  "आल टाइम" सुपर हिट  रहेगी । इसके हर पात्र अपने अभिनय को बखूबी निभाया है । इस फिल्म  में बोले गये  सारे डायलॉग इतने मशहूर हैं कि आज भी लोगों की जुबान पर रहती है । इस फिल्म की खासियत बहुत हद तक जानदार डायलॉग भी है। डायलॉग  नायक, नायिका,सहनायक ,,,, यहां तक कि  खलनायक,, गब्बर सिंह द्वारा बोला गया आज भी लोगों को जुबां पर है ।" सो जा नहीं तो गब्बर आ जाएगा " ।  यूं तो इस फिल्म के हर पात्र ,और डायलॉग नायाब हैं । 
स्वर्गीय संजीव कुमार  जी के पूरे परिवार को बदला लेने हेतु खलनायक मार डालता है,तब संजीव कुमार जो एक जांबाज पुलिस अफ़सर था,, गब्बर के अड्डे पर पहुंच जाता है उसे सबक सिखाने,,मगर गब्बर सिंह के आदमी मिल कर उसे पकड़ कर बांध देते हैं,,उस वक्त गब्बर कहता है,,,,,,,,, "ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर, इसमें बहुत जान है " उस वक्त खलनायक की दरिंदगी चरम सीमा पर देखने को मिलती है और एक इतने बहादुर पुलिस अफसर की बेबसी भी दिखती है । खलनायक ठाकुर साहब की दोनों बाजूओ को काट कर अलग कर देता है । यह दृश्य बड़ा ही मार्मिक है , रोंगटे खड़े कर देने वाला भी है । इसलिए मुझे यह दृश्य , खलनायक का डायलॉग, ओर ठाकुर साहब के रूप में एक रिटायर्ड जांबाज पुलिस अफ़सर की बेबसी का अद्भुत नमूना है जिस पर लगभग पूरी फिल्म का ताना-बाना बुना गया है । 
                                                    - डॉ पूनम देवा
                                                     पटना - बिहार 
गब्बर सिंह-अमज़द खान
         अरे ओ सांभा सरदार हम पे कितना इनाम रखे है। तुम तीन और वो दो। अब आदमी भी तीन और गोलियां भी तीन।हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा हा। ढिच्कयूं ढिच्कयूं ढिच्कयूं।थू। जो डर गया सो मर गया।।
                                                 - देवेन्द्र दत्त तूफान
                                                पानीपत - हरियाणा  
                                
         फिल्म शोले की बंसन्ती    मुझे सदैव ही आकर्षित करती रही है। बसंती जीवन की जिजीविषा,खिलंदड़पन से भरी,लापरवाह सौंदर्य की स्वामिनी ।जीवन के बेहद सहज 
मूल्यों को आत्मसात करते हुए जीवन जी लेती है। अपने जीवकोपार्जन हेतु टांगा चलाने जैसा श्रमसाध्य काम भी बखूबी करती है।उसे जीवन के सारे रंग चाहिये।फिर चाहे वीरू का प्यार हो या फिर मूक पशु के प्रति स्नेह
  सामान्य स्त्री सौंदर्य का बोध उसके व्यक्तित्व के सबसे उजले
पारस रहें हैं ।बालों में गुंथे रंग बिरंगे फुंदरे,चटक पोशाक उसके लापरवाह सौंदर्य पर शालीन लुभावने  स्वरूप को सामने ला ही देता है।तीखी जुबान उसके आत्मरक्षा का परिचय है।
                                                        -  रजनी शर्मा
                                                      रायपुर - छत्तीसगढ़
          शोले फिल्म में सबसे अच्छा पात्र गब्बर सिंह का था । सबसे अच्छा सीन भी गब्बर सिंह का था । जिसमें वह बोलता है कितने आदमी थेअमजद खान में फिल्म शोले में गब्बर सिंह का रोल किया था । जोकि बहुत ही अच्छा था
                                                           - नरेन्द्र गर्ग 
                                                    पानीपत - हरियाणा
     बहुत कम ही लोग होंगे जिन्होंने ‘शोले’ फिल्म नहीं देखी होगी और जिन्होंने देखी उन्होंने कई-कई बार देखी। मैं अपनी ही बात कहूँ तो सिनेमा हॉल में तो मैंने ‘शोले’ एक ही बार देखी,पर टेलीविजन में जब-जब यह फिल्म आई मैंने देखी। आज भी अगर टेलीविजन में यह फिल्म आती है तो मैं अवश्य देखती हूँ। इसके सभी पात्र जैसे आज भी मन में छाये हुए हैं। गब्बर सिंह के चरित्र ने तो उस समय जैसे धूम ही मचा दी थी। जय और वीरू की दोस्ती के तो लोग आज भी उदाहरण देते हैं और वीरू को बचाने के लिए जय के जान देने के दृश्य ने तो सभी दर्शकों की आँखें नम की होंगी।
        जहाँ तक किसी पात्र के अच्छे लगने की बात है तो मुझे धीर-गम्भीर जय और वाचाल बसंती पात्र बहुत अच्छे लगे हैं। जय की गम्भीरता ओढ़े हुए कॉमेडी के दृश्य, बातूनी बसंती के स्वयं सवाल करने और स्वयं जवाब देने के दृश्य बहुत अच्छे लगते हैं।
          संवाद... संवादों के लिए यह बहुत प्रसिद्ध हुई।
          “कितने आदमी थे?”
           “ वो दो और तुम तीन!”
           “हम अंग्रेजों के जमाने के जेलर हैं।”
           “तुम्हारा नाम क्या है बसंती?”
     आज भी अगर यह फिल्म आये तो मैं अवश्य देखूँगी और देखती रहूँगी।
                                           - डा० भारती वर्मा बौड़ाई
                                          देहरादून - उत्तराखंड 

         मैंने शोले फिल्म अनेक बार देखी है| इसमें बसंती की भूमिका हेमा मालिनी ने निभाई है, जो मुझे बहुत अच्छी लगी| उसने अपनी भूमिका तांगा चलाकर अपना व अपने परिवार का पेट पालने वाली बसंती नामक वाचाल युवती की निभाई है|
जो नारी सशक्तिकरण की अनुपम मिशाल है| बसंती का अधिक बोलना, यह इंगित कर रहा है कि महिलाएं अब चुपचाप सब कुछ सहने वाली नहीं| वे जुल्म के खिलाफ बोलेंगी| खूब बोलेंगी| बसंती की बहादुरी ने भारत की महिलाओं को भयमुक्त करने का प्रयास किया| फिल्म में बसंती और वीरू का प्रेम-प्रसंग अपना मनपसंद जीवन-साथी चुनने के अधिकार का प्रबल समर्थन है| 
यह फिल्म अनेक विशेषता के साथ सारगर्भित, नारी अधिकारों की प्रबल समर्थक, सर्वाधिक फिल्मों में से एक, विख्यात फिल्म है|
पसंदीदा डायलोग:- "चल धन्नो, बसंती की इज्जत का सवाल है"
                                                - विनोद सिल्ला
                                      टोहाना- (फतेहाबाद ) हरियाणा
 गब्बर सिंह- कितने आदमी थे ।
सांबा - सरदार दो आदमी।
गब्बर सिंह - दो आदमी और तुम तीन। फिर भी वापस आ गए , खाली हाथ। क्या  समझ कर आए थे की, सरदार बहुत खुश होगा, शाबाशी देगा। क्यों.. धिक्कार है....
अरे ओ सांबा.. कितने इनाम रखे है सरकार हम पर
 सांबा- पुरे पचास हज़ार
 गब्बर - सुना ...पूरे पचास हजार।
और यह इनाम इसलिए है की यहां से पचास- पचास कोस दूर रात में बच्चा रोता है ,तो मां कहती है बेटा सो जा, सो जा, नहीं तो गब्बर सिंह आ जाएगा।
 और यह तीन हरामजादे गब्बर सिंह का नाम पूरे मिट्टी में मिला दिये । इसकी सजा मिलेगी, बरब्बर मिलेगी।
विचार-- गब्बर सिंह अपने रुतबे को कायम रखना चाहता था। उसे अपनी टीम पर पूरा भरोसा था। पूरे इलाके में वह अपना वर्चस्व बनाए रखना चाहता था और दहशत भी फैलाए हुए था। इसीलिए जब उसके साथी गांव से हार कर वापस लौट आए, तो वह तिलमिला गया। और तीनों साथी को गोली से मार दिया। इसीलिए, कि फिर कोई साथी इस तरह की
 घटना को अंजाम नहीं दे, दोबारा करने की हिमाकत ना करें । सरदार से डरा हुआ रहे।
                                                  - मीरा प्रकाश
                                                पटना - बिहार
      मैने शोले फिल्म एकाधिक बार देखी है, अभी कल ही टी. व्ही. पर पुन: देखी . मुझे फिल्म का होली वाला सीन सबसे  अच्छा लगा, जिसमें अमिताभ और जया द्वारा निभाई जा रही भूमिका वाले दो पात्र होली न खेलते हुए भी अपनी देह भाषा तथा मूक संवाद से अपने भावों की सुंदर तथा सशक्त अभिव्यक्ति दे रहे थे।
             इसी दृश्य को ध्यान में रखते हुए मैंने फिल्म रिलीज होने के लगभग तीन साल बाद एक गीत का सृजन किया था, जिसे मैंने अमिताभ जी को भेजने का कई बार मन बनाया, किन्तु संभव न हो सका।आज वही प्रसंग आपके द्वारा उठाए गए प्रश्न के जरिए पुन:सामने आ गया। मैं वह गीत भी आपको भेज रही हूं :-

                                 गीत                              

अखिंयों ने अखिंयों संग किन्ही बरजोरी।
पलकन चिक डारी पकड़ी न जाए चोरी।

अखिंयों ने अबीर भरी नज़रें जो डारी ।
सुर्खु भया गात गात, सुर्ख भई सारी ।
गोरी भई श्याम और श्याम भए गोरी।
अखिंयों ने.....।

फाग खेले अखियां अखियन संग।
चहुं ओर उड़े बादल गुलाल रंग।
इत उत बरसाए नेह अखिंयां हमजोली।
अखिंयों ने.....।

आ पहुंची चपके से हिरदे के द्वार तक।
होने न दी तनिक आने की आहट तक।
भीग गये द्वार सब, भीगी कुठरिया कोरी।
अखिंयों ने.....।

रंगों की धार चली, जल की फुहार भी।
ठगे ठगे रहे बाग भी , बहार भी।
भूल गईं अखिंयां सब, याद रही होली।
अखिंयों ने.....।
                                                   - डा. चंद्रा सायता
                                                     इंदौर - मध्यप्रदेश

          फिल्म 'शोले' में मुझे गब्बर सिंह नामक पात्र पसंद आया क्योंकि डाकू का यह पात्र आमतौर पर भारतीय फिल्मों में दिखाए जाने वाले डाकू के पात्रों से बिल्कुल भिन्न था। सर्वप्रथम तो उसकी वेशभूषा दूसरी फिल्मों में दर्शाये गए डाकू के सरदार की पारंपरिक पहनावे(धोती-कुर्ता) से अलग 
थी ।  इस फिल्म का डाकू अन्य फिल्मी डाकू की तरह साफ- सुथरा नहीं दिखता बल्कि यह गंदा दिखता है, इसके दांत गंदे हैं चेहरे पर उसकी क्रूरता जीवंत दिखाई पड़ती है। फिल्म के हर फ्रेम में  यह पात्र अन्य पात्रों से ज्यादा प्रभावित करता है।
                                              - प्रतिभा सिंह
                                               राँची - झारखण्ड
        शोले  फ़िल्म दोस्ती की मिसाल थी । वास्तविक जीवन से जुड़ी घटनाओं पर आधारित दृश्य दो अलग- अलग प्रकृति के व्यक्ति को एक साथ तालमेल बैठा कर चलने का ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करती है । दोस्त से बात मनवाने का माध्यम एक सिक्के को बनाया गया है । यह अनोखी बात थी । जिसने फ़िल्म को जानदार बनाया था । सिक्के की असलियत मालूम नहीं होने से हर व्यक्ति उस वक्त सिक्के के पहलुओं से जुड़ जाता था। जब असलियत पता चली तो हर शख्स शोक में डूबा था ।
सभी संवाद अपनी पहचान बनाते हैं । उसके लिए संवाद लेखक की तारीफ की जानी चाहिए। संवाद "तुम्हारा नाम क्या है बसंती?" , "मैंने तो अपनी आंखें पहले हीं बंद कर ली है" , बहुत मशहूर हुआ । "चल धन्नो, आज तेरी बसंती की इज्जत का सवाल है " ये सारे सम्वाद हर तरह से चुहजबाजी के साथ-साथ एक स्वस्थ्य समाज का निर्माण करने के सर्वथा उपयुक्त थे ।साथ हीं गब्बर का संवाद " तुमने सोचा था गब्बर शाबासी देगा", "तुम तीनों ने मेरा नाम पूरा का पूरा मिट्टी में मिला दिया" आज भी प्रासंगिक हैं । 
इस फ़िल्म में सभी की अदाकारी उच्च कोटि की है । जया भादुड़ी के संवाद एक-दो हीं हैं । लेकिन उनके चेहरे के हाव-भाव उनकी मनःस्थिति को बखूबी बयान करते हैं । धर्मेंद्र और अभिताभ बच्चन ने अपने पात्र के साथ पूरा-पूरा न्याय किया है । लेकिन गब्बर की भयानकता के बिना सब अधूरा रहता । जिस तरह की बर्बरता उस पात्र के रूप में अमजद खान ने दिखाई है वह काबिले तारीफ है । एक-एक संवाद क्रूरता से भरा हुआ । हर हरकत ऐसी की दर्शक भी सहम कर सांस रोके सोचते थे कि न जाने आगे यह क्या करेगा? उनकी शारीरिक भाषा (बॉडी लैंग्वेज) चम्बल के डाकू को भी शायद मात कर देती है । वह डाकू था, परंतु चरित्रहीनता नहीं थी । फ़िल्म में उसे क़त्ल करते दिखाया गया है, लेकिन किसी की इज्जत लूटते नहीं । यह चारित्रिक विशेषता निश्चय हीं एक संदेश देती है ।यह फ़िल्म सभी किरदार के लिए कालजयी फ़िल्म की गिनती में आती है ।आज भी यह फ़िल्म उतनी हीं प्रासंगिक है जितना वह 19 के दशक में थी । 
                                           - संगीता गोविल
                                             पटना - बिहार
        शोले फिल्म एक बेहतरीन फिल्म हैं जो फिल्म जगत का मजबूत स्तभ हैं । हर दृष्टि से उत्कृष्ट हैं पटकथा, डायलॉग, अभिनय, पात्र ,निदेशक, तकनीकी हर पक्ष बहुत ही मजबूत हैं सभी ने अपना काम पूरी ईमानदारी से किया हैं ये मेरी पंसदीदा फिल्मों में से  एक है जो मैंने कई बार देखी हैं हर बार देखने पर नई ही लगी हैं शोले फिल्म देखकर ही फिल्म देखने का शौक जागा ।फिल्म में दोस्ती ,प्यार, त्याग, अच्छाई सभी कुछ हैं ।इस फिल्म की सफलता का राज ही यह हैं कि इसका हर पात्र आज भी सभी को बखूबी याद हैं छोटे से छोटा पात्र भी लोगों के जहन में आज भी ताजा हैं मुझे इसके सभी पात्र ,डायलॉग पंसद हैं सीन में मुझे सबसे ज्यादा हेमामालिनी ए.के.हेगल व सचिन का वह सीन जिसमें डाकुओं द्वारा सचिन को मार दिये जाने पर सारा गांव मौन हो जाता हैं और ए.के हेगल के पूछने पर भी बहुत बोलने वाली बंसती भी निशब्द हो जाती हैं ,सच बहुत मार्मिक दृश्य था, बहुत कुछ कहने वाली लड़की के पास कहने को शब्द नहीं थे ।
                                                  - शालिनी खरे
                                                भोपाल - मध्यप्रदेश
          शोले फिल्म मैंने देखी है। कहानी बहुत साधारण है। पर रमेश सिप्पी के निर्देशन ने इसमें कमाल कर दिया था। यह फिल्म मुंबई य के  मिनरवा टाॅकीज में  286 सप्ताह तक चलती रही। शोले ने भारत के सभी बड़े शहरों में रजत जयंती मनाई।  इस फिल्म के सभी पात्र और डायलॉग ने अपनी अमिट छाप छोड़ी है। इस फिल्म का एक पात्र है," ठाकुर
 बलदेव सिंह" (संजीव कुमार) जो एक रिटायर्ड पुलिस आॅफिसर है। वे एकईमानदार और साहसी आॅफिसर थे। उन्होंने इलाके के कुख्यात "डाकू गब्बर सिंह"(अमजद खान) को पकड़कर जेल में डाल दिया था। डाकू जेल तोड़कर भाग जाता है, और बदले की भावना से आफिसर के पूरे परिवार को गोलियों से भून देता है। जय (अमिताभ बच्चन) और वीरू (धर्मेंद्र) को ठाकुर बलदेव सिंह, " रामगढ़" गाँव, डाकू को जिंदा पकड़ने के लिए ले कर आते है। दोनों मुफलिसी में  रहते है, और चोरी करना उनका धंधा है। ठाकुर बलदेव सिंह यह संदेश दे जाते हैं कि देश के नौजवानों पर यदिविश्वास किया जाए तो विषम परिस्थितियों में भी सफल हो कर दिखा सकते है। दूसरी बात ये भी सिखा जाते है कि हमें अपनी कमजोरी और विवशता को कभी उजागर नहीं करना चाहिए। वे हमेशा एक शाल ओढ़े रहते है। फिल्म के अंतिम क्लाइमेक्स में यह बात उजागर होती है कि उनके दोनों हाथ नहीं है, और सारा गाँव हक्का - बक्का रह जाता है। इतना लाचार होते हुए, सबके ताने सुनते हुए भी वे परिस्थिति से मुड़कर नहीं भागते है, और डाकू को दुबारा पकड़ कर ही दम लेते हैं । बांका जवान वीरू और तांगे वाली चुलबुल बसंती की प्रेम कहानी फिल्म को तरोताजा बनाए रखती है। उन पर फिल्माया होली का गीत आज भी सब की जुबान पर है। जय और विधवा बहू की कहानी आँखों ही आँखों में एक - दूसरे को देखते हुए दम तोड़ देती है।  जेलर (असरानी) का हास्य भी लोगों को लुभाता है। गब्बर सिंह का दमदार डायलॉग तो फिल्म की जान है। 
 कुल मिलाकर यह फिल्म तो युगों युगों की पहचान है। 
                                                           - कल्याणी झा 
                                                        राँची - झारखंड

       अन्त में स्पष्ट करने का प्रयास करता हूँ कि फिल्म शोले जैसी बनाने का प्रयास अनेकों ने किया है । परन्तु सफलता आजतक किसी को नहीं मिली है । कारण भी स्पष्ट है कि पात्रों के संवाद । जो बेजोड़ संवाद है । छोटे से लेकर बड़े पात्रों के संवाद तक बहुत ही बरीकी से लिखें गयें हैं । यही फिल्म की सफलता का मूल मंन्त्र है । जो लोगों के सिर चढ़ कर बोला । बात बहुत पुरानी है । जब मैं शायद आठवीं कक्षा में पढता था । हमें यानि मैं , मेरी मम्मी श्रीमती रामरती  तथा छोटे भाई नरेन्द्र , राजेन्द्र  आदि को मेरी दादी श्रीमती कलावती फिल्म दिखा कर वापिस घर की ओर जा रहें थे तो रास्तें में दादा  श्री रती राम जी मिलें गयें । दादा जी ने पूछ लिया - बच्चों को कहाँ ले गई थी । दादी ने जबाब दे दिया - बच्चों को बंसन्ती दिखा कर लाई हूँ । मैं सोचने लगा कि फिल्म तो शोले है फिर बंसन्ती क्यों बता रही है । मै सोचता चल गया । इससे स्पष्ट हुआ कि शोले फिल्म का जादू लोगों के सिर चढ कर बोला रहा था और आज भी बोला रहा है ।
                                             - बीजेन्द्र जैमिनी
                                        ( आलेख व सम्पादन )

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