भोपाल के प्रमुख लघुकथाकार ( ई - लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी

भारतीय लघुकथा विकास मंच द्वारा " एक लेखक की ग्यारह लघुकथाएं श्रृंखला " में  सातवां ई - लघुकथा संकलन का सम्पादन किया है । जिस का शीर्षक " भोपाल के प्रमुख लघुकथाकार " है । भोपाल शहर को साहित्य की राजधानी कहाँ जाता है । इस शहर से बड़े - बड़े साहित्यकारों ने देश - प्रदेश का नाम रौशन किया है । 
      वर्तमान में लघुकथा के क्षेत्र में भोपाल का बोल - बाला है । अच्छे - अच्छे लघुकथाकार है । जो लघुकथा साहित्य के लिए जी - जान से लग हुए हैं ।  उन में एक नाम है कान्ता रॉय । जो लघुकथा क्षेत्र के लिए बहुत बड़ा नाम है । वह  प्रधान सम्पादक: लघुकथा वृत्त , निदेशक : लघुकथा शोध-केंद्र , लघुकथा के परिंदे फेसबुक मंच का संचालन कर रही है । यह लघुकथा साहित्य के लिए बहुत बड़ा कार्य है । जो भविष्य की नीव तैयार हो रही है । 
     " एक लेखक की ग्यारह लघुकथाएं श्रृंखला " के अन्तगर्त , अभी तक अनेक ई - लघुकथा संकलन तैयार हुए हैं । भविष्य में भी अनेक ई- लघुकथा संकलन आने की सम्भावना है । पाठकों व लघुकथाकार के सहयोग से , यह कार्य सम्भव हो रहा है । उम्मीद करता हूँ कि भविष्य में भी ऐसा सहयोग मिलता रहेगा ।
क्रमांक - 01

जन्मतिथि : 26 जनवरी,1963
जन्मस्थान : ग्राम-सेवनियाँ (भोपाल) मध्यप्रदेश
पिता : श्री अमृत लाल मैथिल
माता :  श्रीमती राम बाई
शिक्षा : एम.ए. (हिंदी साहित्य,समाज-शास्त्र,अर्थशास्त्र,राजनीति-विज्ञान) एल-एल.बी, आयुर्वेद-रत्न,तकनीकी डिप्लोमा (आई.टी.आई.)

सम्प्रति : वरिष्ठ तकनीशियन,सवारी डिब्बा मरम्मत कारखाना,पश्चिम-मध्य रेल भोपाल

पुस्तक प्रकाशन-

हंसिये (व्यंग्य क्षणिका सँग्रह)
सुबह का भूला ( कहानी सँग्रह)
एक लोहार की .( लघुकथा सँग्रह)
जहाँ काम सुई ( लघुकथा सँग्रह)
रचना के साथ - साथ (समीक्षा-आलोचना )

सम्मान /पुरस्कार : -

- रेल मंत्रालय (रेलवे बोर्ड) भारत सरकार,हिंदी निबन्ध प्रतियोगिता सम्मान-2012
- अखिल भारतीय व्यंग्य लेख प्रतियोगिता -2012 राष्ट्रधर्म लखनऊ द्वारा पुरस्कृत
- राज्य संसाधन केंद्र ‘रिसोर्स सेंटर फॉर एलडल्ट एंड कँटीनुइंग एजुकेशन’ द्वारा “साक्षरता मित्र”सम्मान
- अखिल भारतीय “गीतिका रत्न” सम्मान,मुक्तक.लोक लखनऊ द्वारा
- कला मंदिर,भोपाल वर्ष-2008 निबन्ध सँग्रह ‘प्रश्नों के बियावान में ‘पांडुलिपि हेतु पवैया पुरस्कार
- मध्य-प्रदेश तुलसी साहित्य अकादमी,भोपाल द्वारा ‘अवध बिहारी-लक्ष्मी देवी सम्मान ‘ वर्ष-2010
- अखिल भारतीय गीतिका समारोह में “पंडित गीतकार रामानुज त्रिपाठी स्मृति काव्य श्री सम्मान ,वर्ष-2016
- प्रभात साहित्य परिषद ,भोपाल द्वारा,”सरस्वती प्रभा सम्मान” वर्ष-2013
- मुक्तक।लोक,लखनऊ द्वारा,नई दिली में”मुक्तक-रत्न सम्मान “ वर्ष-2016
- शोध साहित्य एवम सँस्कृति की त्रैमासिक पत्रिका उर्वशी द्वारा “उर्वशी सम्मान”वर्ष-2016
- राजकुमार जैन’राजन” फाउंडेशन अकोला,द्वारा चित्तौड़ (राजस्थान) में “शांति लाल हींगड स्मृति बालसाहित्य सम्मान वर्ष -2017
- कादम्बरी साहित्य संस्थान जबलपुर द्वारा "गायत्री तिवारी लघुकथा सम्मान "-2019
- मध्यप्रदेश लेखक संघ भोपाल द्वारा "अरविंद चतुर्वेदी स्मृति साहित्य सेवी सम्मान " वर्ष -2020

विशेष : -
- दूरदर्शन मध्य-प्रदेश एवं आकाशवाणी भोपाल से कविता, वार्ता, समीक्षाओं का नियमित प्रसारण
- संस्थापक/अध्यक्ष- करवट कला परिषद, भोपाल
- संयोजक-पाठक मंच, साहित्य अकादमी,सँस्कृति परिषद,मध्यप्रदेश
- सचिव -लघुकथा शोध केंद्र भोपाल
- सह-सम्पादक-लघुकथा वृत्त (मासिक)

पता : -
प्रणाम , जी/एल-434 , अयोध्या नगर,फेस-|| ,
भोपाल - 462041 मध्यप्रदेश

1.कागज़ी घोड़े

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जब से उन्होंने वन विभाग के मुखिया का दायित्व संभाला उनके मुंह से एक ही सूत्र वाक्य, सदैव सुनने को मिलता 'तन,मन,धन,सबसे ऊपर वन|

हर विभगीय बैठक में वे सिमटते हुए जंगलों की चिंता करते| वनों के विनाश को रोकने के उपाय पर सार्थक कदम उठाना उनकी प्राथमिकता सूची में पहले नम्बर पर था|

सरकार ने वनों के प्रति उनके गहरे लगाव को देखते हुए,इस वर्ष पांच करोड़ की धनराशि वनों के विकास हेतु उपलब्ध करवाई|

राशि मिलने के बाद,देश ही नहीं दुनियां भर से जल,जंगल और जमीन से जुड़े पर्यावरणविद,विषय-विशेषज्ञ,देश की राजधानी में इकट्ठे हुए| एक वातानुकूलित होटल के सभागृह में सम्पन्न हुई इस कांफ्रेंस में अतिथि हवाई सफर करके राजधानी पहुंचे,उनके आतिथ्य में किसी प्रकार की कमी न रहे,इसकी मुखिया जी ने पूरी व्यवस्था की थी| वन संरक्षण पर गम्भीर चर्चा के पश्चात मसौदे को लिखित रूप दिया गया|

वन संरक्षण के लिए स्वीकृत धनराशि अतिथियों के सत्कार ,आने-जाने के किराए,होटल,भोजन ,गाड़ियों आदि पर खर्च हो चुकी थी,अब वनों को इंतज़ार था अपने संरक्षण के लिए फिर से धनराशि स्वीकृत होने का| ****

2.अपने-अपने झंडे

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"यह भगवा झंडा हमारी शान है ,हमारा अभिमान और पहचान है , हमें अपने घरों पर यह झंडा अनिवार्य रूप से फहराना चाहिए |" उन्होंने कहा |

"हाँ-हाँ,आप सत्य कह रहे हैं, हम अपने घरों पर यह झंडा अवश्य फहराएंगे|" वहां उपस्थित लोगों ने कहा| और बस्ती के घर-घर पर भगवा झंडे लहराने लगा|

"भाईयों यह हरा झंडा नहीं तो कुछ नहीं ,इसकी खातिर हम जान लड़ा सकते हैं ,इसे अपने घर पर फहराना फक्र की बात है,यह हमारी कौम की ताकत है|"

"जी जनाब,आप सच फरमा रहे हैं|" भीड़ में जोश था|

 मोहल्ला अब हरे झंडों से अटा पड़ा था|

इसी प्रकार सफेद,नीले,पीले और भी रंगों के अपने-अपने झंडे ,लोग शान से अपने-अपने घरों पर ऊंचे से ऊंचा फहरा कर खुश हो रहे थे|

इन्हीं रंग-विरंगे झंडों के बीच बस्ती के एक जर्जर सरकारी स्कूल पर ,पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को एक छोटा सा तिरंगा झंडा भी कुछ देर के लिए फहराया जाता जो बेशुमार रंग-बिरंगे झंडों के बीच इन दिनों कहीं गुम सा हो रहा था| ****

3.जिंदगी की शुरुआत

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"हेलो,पुलिस हंड्रेड नम्बर,जी यहां हाई-वे पर एक खतरनाक एक्सीडेंट हो गया है,आप जल्दी से पहुंचिए,आपकी मदद की तुरन्त ज़रूरत है|" एक राहगीर ने अपने मोबाइल से सूचना दी|

"अरे! यह दोनों लड़के तो लहूलुहान और गम्भीर अवस्था में हैं,यदि इन्हें उठाकर हमने गाड़ी में पटका तो,हमारी गाड़ी गन्दी हो जाएगी,और फिर हमारी ड्रेस में दाग लग जाएंगे उसका क्या|" पुलिस वाला गाड़ी से उतर कर बोला|

"साहब जो भी हो,समय नहीं है देखो तो बेचारे कैसे तड़प रहे हैं,आपको इन्हें अस्पताल ले कर जाना ही पड़ेगा|" राहगीर हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाया |

"अबे तू कौन होता है ,हमें आदेश देने वाला,वैसे भी हमारे पास और भी बहुत से काम हैं और यह घटना हमारे क्षेत्र में भी नहीं आती, तूने नाहक हमें परेशान किया|" पुलिस वाले ने राहगीर को फटकार लगाई और गाड़ी की और बढ़ा|

"अरे साहब,रहम करो बेचारों पर|"

"अब अगर मुंह खोला तो तुझे ज़रूर गाड़ी में पटक कर थाने ले जाएंगे|" कहते हुए वे वहां से चलते बने|

उसी समय वहां फूलों से सजी चकाचक एक कार गुजरी |वहां भीड़ देख ड्राइवर ने गाड़ी रोकी| उसमें एक दूल्हे राजा अपनी नई नवेली दुल्हन के साथ शादी के बाद ससुराल से लौट रहे थे| एक्सीडेंट को देख दूल्हा तुरन्त गाड़ी से नीचे उतरा|

"अरे,इन लड़कों को तुरंत अस्पताल पहुंचाना होगा ,इनकी हालत तो गम्भीर है, चलो इन्हें उठाओ और मेरी गाड़ी में डालो|" वह वहां उपस्तिथित लोगों और ड्राइवर से बोला|

"परन्तु बेटा,तुम्हारे कपड़ों में खून के दाग लग जाएंगे तो...और आज तुम्हारी ज़िंदगी की शुरुआत का पहला दिन है,तुम जाओ ,हम किसी और गाड़ी को रुकवाते हैं|" राहगीर बोला|

"भाई साहब,कपड़ों में लगे दाग तो कभी भी छूट जाएंगे,परन्तु किसी के घर के इन लाड़लों को कुछ हो गया तो जो दाग मेरे मन पर लगेगा उसे जीवन भर नहीं छुड़ा पाऊंगा| और रही बात ज़िंदगी की शुरआत की तो, किसी की ज़िंदगी बचाने से अच्छी और शुभ शुरुआत इससे अच्छी क्या हो सकती है|"

राहगीर और दुर्घटना स्थल पर उपस्थित लोगों की आंखों से नवयुवक की बातें सुन प्रेम,करुणा और नेह के आंसू झर-झर बहने लगे| ****

4.कथनी-करनी

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"मुझे कभी भी तंत्र-मंत्र,जादू-टोने में विश्वास नहीं रहा|"वह बोले|

"होना भी नहीं चाहिए,यह अशिक्षा-अज्ञानता की निशानी है|" दूसरे ने जबाव दिया|

"यह विज्ञान का युग है,हर चीज आज प्रैक्टिकल होना चाहिए|"

"सही कह रहे हैं आप,इसमें कोई शक नहीं|"

"फिर भी आम भारतीय नागरिक को जागरूक करने के लिए बहुत काम करने की आवश्यकता है,अभी हमारे समाज में बहुत पिछड़ापन है|"

"इसीलिए मैंने अपने अध्ययन के लिए विज्ञान विषय चुना और इसमें ग्रेजुएशन करके,यह साइंस रिसर्च सेंटर खोला है| हम यहां आने वालों को खेल-खेल में बहुत ही सहज ढंग से, विभिन्न उपकरणों और सूत्रों की सहायता से विज्ञान के सिद्धांतों को समझाते हैं,वो भी बहुत कम शुल्क पर...|"

"यह तो बड़ा महत्वपूर्ण काम कर रहे हैं आप,यह बताएं आपका यह नया काम चल कैसा रहा है|"

"शुरुआत में तो ठीक-ठाक चला,लोगों ने अच्छी रुचि दिखाई,परन्तु आजकल हालत कुछ पतली है|" उन्होंने उदास हो कर जबाव दिया|

"ऐसा क्या हुआ|"

"लोग कहते हैं आपके बिजनेस को किसी की नज़र लग गयी|"

मैँ उनका उत्तर सुनकर चौंका,तभी मेरी नज़र उनके गले में पड़े तावीज़ पर गई,उनके साइंस सेंटर के प्रवेश द्वार पर टोटके के लिए लटकाई गई ताजी हरी मिर्चियां और नींबू बहुत कुछ अनकहा बयान कर रहे थे| ****

5.अपना और पराया दर्द

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छोटे से कस्बे के बस-स्टैंड पर रविदास की जूते मरम्मत की दुकान थी| वे सुबह से शाम जी तोड़ मेहनत करते तब जा कर बच्चों का पालन-पोषण हो पाता|

उनका बेटा रामू पढ़ने लिखने में बड़ा होशियार था| वह स्कूल से जब भी छुट्टी मिलती,पिता जी की दुकान पर अपना बस्ता रख पिता के लाख मना करने पर भी घण्टे दो घण्टे रुक कर अपने पिता को जूतों की सिलाई पॉलिश आदि के कामों में मदद करवाता|

दुकान पर आने वाले ग्राहक कई बार उसके पिता से बड़ी बुरी तरह पेश आते| वह मन मसोस कर रह जाता| दलित होने के कारण स्कूल में भी उसके मित्र उससे छुआ-छूत का व्यवहार करते थे| जब एक दो बार उसने इस बारे में अपने पिता से शिकायत की तो वह बोले -"हमारे साथ ऊपर वाले ने न्याय नहीं किया,परन्तु हम कर भी क्या सकते हैं,हमसे घृणा करने वाले ऊंची जाति के लोग हमारा दर्द क्या जानें|"

रामू को उच्च शिक्षा और अच्छी नौकरी में ही इस भेदभाव से मुक्ति का मार्ग दिखाई देता था| आखिर उसे अपनी मेहनत और दृढ़ संकल्प का फल मिला और वह प्रशासनिक सेवा में चयनित हो कर कलेक्टर के पद पर नियुक्त हो गया|

"पिताजी, यह है मेरी बैच मेट अंजली मेरे साथ ट्रेनिंग कर रही है मैं इससे विवाह करना चाहता हूँ,कृपया आशीर्वाद दीजिये|"

"आशीर्वाद तो दे ही देंगे,पहले यह तो पता चले,यह किस समाज और खानदान की बेटी है|"

"पिता जी,यह अपने बगल के गांव के जमादार परसा की बेटी है ,इनके पिता नगरपालिका में सफाईकर्मी थे,अब नौकरी छोड़ दी है,घर पर ही रहते हैं ,कहो तो बात करवाऊं?"

"बस रहने दे,रहने दे ,तुझे शादी का फैसला करने से पहले शर्म नहीं आयी,तुझे इसी दिन के लिए पढ़ाया लिखाया था| हम समाज वालों को क्या मुंह दिखाएंगे,एक सफाई वाले की बिटिया ही मिली थी तुझे शादी को...|"

"मैं अपने साथ-साथ दूसरों के दर्द को भी समझता हूं पिताजी,इसीलिए मैं अपने निर्णय पर अडिग हूँ| मगर अफसोस पिता जी आपने अपना दर्द तो समझा मगर अफसोस अंजली का नहीं|" ****

6.आराधना अपनी-अपनी

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"चलो भाई, जल्दी-जल्दी चंदा दो ,आज वसन्त-पंचमी है,मां सरस्वती की झांकी स्थापित करना है,पाटी पूजन, भजन-आरती का आयोजन है ,और भी बहुत से काम करने हैं जरा जल्दी करो|" युवकों की टोली का नेतृत्व करने वाला युवक बोला|

"शाबाश बेटा ,नई पीढ़ी में ऐंसे संस्कार अब कहाँ ,ज्ञान की देवी वीणापाणि मां हंसवाहिनी का दरबार सजाओ,यह लो 500 रुपये|" उन्होंने प्रसन्न हो कर कहा|

"धन्यवाद,ताऊ जी ,कृपया आप सपरिवार आयोजन में पधारियेगा ज़रूर|"कह कर,मां सरस्वती का जयकारा लगाती हुई टोली चंदा लेने आगे बढ़ गई|

"हाँ भाई जी,आपकी कितने की रसीद काट दें|"

"क्षमा करें,मैँ रसीद नहीं कटवा पाऊंगा|"

"घर में तस्वीर तो सरस्वती जी की लगा रखी है और उन्हीं की पूजा-पाठ, झांकी के लिए मना कर रहे हो|"

"छोड़ो-छोड़ों इन जैसे ढोंगियों ने ही समाज और धर्म को बदनाम किया है , कंजूस कहीं के,चलो समय क्यों खराब करते हो आगे बढ़ते हैं ,भाई समय मिले तो प्रसाद लेने ज़रूर पधारना|" कहते हुये वे उसकी खिल्ली उड़ाते हुए आगे बढ़ गए|

लगभग घण्टे भर बाद मां सरस्वती की झांकी बैठाने वाली युवकों की टोली मोहल्ले से कुछ दूर बसी गरीब,मलिन,मजदूरों की झुग्गी-बस्ती के पास से गुजरी तो उन्होंने देखा ,उन्हें चंदे के लिए मना करने वाला युवक अपने दो-तीन साथियों के साथ गरीब बच्चों को घर-घर, कॉपी-पेन-किताबे  और स्कूली बस्ते,बांट रहा था| *****

7.प्यासों से उम्मीद

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आज नगर की भीषण पेयजल समस्या को ध्यान में रखते हुए सत्ता एवम विपक्ष के नेताओं की बड़े अफसरों के साथ एक आपातकालीन महत्वपूर्ण बैठक हो रही थी|

"नगर में पीने के पानी का भारी संकट है जनता त्राहि-त्राहि कर रही है और आप हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं|" विपक्ष के नेता गरजे|

"हम जनता की समस्या से अच्छी तरह वाकिफ हैं कृपया आप आग में घी डालने का काम ना करें|" सत्ता पक्ष की तरफ से पार्टी प्रमुख बोले|

"केवल वाकिफ होने से काम नहीं चलेगा, काम कीजिये काम|"

"हम घर-घर तक पानी पहुंचाने और हर प्यासे कंठ की प्यास बुझाने के लिए एड़ी से लेकर चोटी तक का जोर लगा देंगे|"

"यह जोर केवल कागजों पर ही लगाएंगे या ज़मीन पर भी|" एक अन्य विपक्षी नेता ने उपहास करते हुए कहा|

तभी सभा-कक्ष के अंदर से घण्टी बजी दरवाजे पर बाहर तैनात चपरासी दौड़कर अंदर गया| जब वह थोड़ी देर बाद बाहर आया तो बड़े रहस्यमय ढंग से मुस्करा रहा था|

बैठक कक्ष के बाहर इस मीटिंग को कवर करने पत्रकारों का भारी जमावड़ा था| चपरासी को 'अर्थ-पूर्ण' ढंग से मुस्कराता देखपत्रकार चौंके|

"क्यों भैया, मीटिंग में अंदर क्या चल रहा है, मीटिंग कब तक चलेगी? पेयजल समस्या का कोई निदान हुआ क्या?" पत्रकार बन्धु चपरासी पर प्रश्न दागने लगे|

"मुझे क्या मालूम भैया, मैं भी तो तुम्हारे साथ मीटिंग हाल के बाहर बैठा था, हाँ, मैं इतना कह सकता हूँ नगर की प्यास बुझाने वाले यह नेता और अफसर अपनी खुद प्यास नहीं बुझा सकते टेबिल पर सबके सामने पानी की बोतल और ग्लास रखें है यह अपने हाथों से अपनी आंखों के सामने मौजूद पानी की बोतल से ग्लास में पानी लेकर अपनी प्यास बुझाने लायक नहीं फिर यह नगर वासियों की प्यास...?" ****

8.कचरे वाला लड़का

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जैसे ही सुबह के लगभग दस-ग्यारह बजते नियमित रूप से नगर-निगम से 'डोर टू डोर' कचरा कलेक्शन करने वाली एक गाड़ी आती और माइक पर एक सुरीला गाना बजता 'कचरा वाला आया घर से कचरा निकाल|’

सब लोग पहले से तैय्यार रहते और अपनी-अपनी 'डस्ट-बिन' दरबाजे पर ले जाकर रख देते | गाड़ी के साथ एक पैदल चलता हुआ लड़का आता और वह इन डस्ट-बिन्स को उठा-उठा कर यथा सूखा-कचरा ,गीला कचरा अथवा ' हेज़र्ड-वेस्ट' वाले हिस्सों में अलग-अलग डालता और खाली 'डस्ट-बिन' वापिस ज़मीन पर रख देता | जिस घर से कोई कचरा लेकर बाहर नहीं निकलता वहां वह 'कचरा ले आओ आंटी जी|' की जोरदार आवाज लगाना भी न भूलता|

वह पसीने से तर-बतर मुंह पर गन्दा सा गमछा लपेटे फटे हुए दस्ताने पहने सैकड़ों घर की गन्दगी बजबजाता हुआ बदबूदार कचरा कैसे दिनभर समेटते रहता है | एक दिन मुझ से रहा नहीं गया|

"क्यों बेटा यह क्या..! तुम्हारा 'मास्क' कहाँ हैं?"

"कैसा मास्क साहब महीने में जब कोई साहब बगैरह आते है तब एकाध बार दे देते हैं ,कब तक चलेगा, वैसे भी बिल्कुल घटिया रहता है कुछ दिनों में ही गन्दा हो जाता है फेंकना पड़ता है|"

"कम से कम दास्ताने तो साबुत और साफ-सुथरे पहना करो|"

"अब कुछ न पूछे साहब, जो फटे-पुराने पहिन रखें है वो ही क्या कम है|"वह उदास भाव से बोला| ****

9.पराया-दर्द

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रमन और सुरेखा जब भी शॉपिंग के लिये मार्केट निकलते तो अपने पांच वर्षीय बेटे आर्यन के साथ अपने बंगले पर काम करने वाली बाई धनियां और उसके बेटे छोटू को भी अपने साथ ले जाते|

जब पति-पत्नी दोनों शॉपिंग में व्यस्त हो जाते तो धनियां और उसका बेटा छोटू आर्यन को संभालते तथा शॉपिंग हो जाने के बाद खरीदी गई चीजों के पैकिट लदवा कर पार्किंग में खड़ी गाड़ी तक लाते|

"पापा-पापा, यह रोबोट दिलवाओ ना|" आर्यन खिलौने की दुकान की तरफ इशारा करके बोलता|

"हाँ-हाँ, क्यों नहीं, ज़रूर|"

"मम्मा-मम्मा, वो वाली गन चाहिए|"

"ठीक है बाबा, दिलवा देते हैं|"

"पापा, मुझे आइसक्रीम खानी है|"

"हाँ, जरूर खाएंगे|"

''मम्मा-मम्मा वो उड़ने वाला गुब्बारा दिलवाओ ना|"

"भैय्या, एक गुब्बारा देना जरा|"

"मम्मा-मम्मा, एक बात पूछू ..?"

"हाँ, पूछो|"

"यह छोटूअपनी मम्मा से कुछ मांगता क्योंनहीं?"

"बेटू, वो काम वाली बाई का बेटा है ना|" ****

10. प्रतिबद्धता 

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जैसे ही शहर के व्यस्त चौराहे पर ट्रैफिक की बत्ती लाल हुई और मैने अपनी गाड़ी रोकी तभी 8-10 साल का एक बच्चा अपने नन्हे-नन्हे हाथों में अखबारों के भारी बंडल का बोझ सम्हाले मेरे पास आया और बोला--

"बाबू जी,बाबू जी,आज दिन भर की ताजा खबरें, शाम का अखबार ले लो|"

"नहीं बेटा,नहीं चाहिए|"

"ले लो न बाबू जी, सिर्फ दो रुपये का है|" वह लगभग गिड़गिड़ाते हुये बोला|

मैंने न चाहते हुए भी, उसकी बाल सुलभ मनुहार को मानते हुए,दो रुपये दे कर अखबार खरीद लिया| तब तक सिग्नल हरा हो गया| मैं आगे बढ़ा और वह तेजी से दौड़ती गाड़ियों के बीच से भागता हुआ,रेड सिग्नल की तरफ अखबार बेचने भाग गया|

घर आ कर मैंने अखबार पलटा| सबसे ऊपर ही मुखपृष्ठ पर छपा था "बाल श्रम कानूनी अपराध है| पढ़ना और खेलना बच्चों का मौलिक अधिकार| कहीं भी यदि आप बच्चों को काम करते देखें तुरन्त हमें सूचित करें,बाल अधिकारों के लिए प्रतिबद्ध,लड़ने वाला एक मात्र अखबार|" ****

11. आदमी की जड़ें

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    आदमी ने एक दिन गुस्से में अपने आंगन में लहलहाते हुए हरे-भरे वृक्ष के सारे फूल- फल और पत्तियां नोंच डाले |

  पेड़ ने उन्हें हंसते हुए फिर उगा दिया |

  अब आदमी ने फुफकारते हुए उस पेड़ की सारी डालियों और टहनियों को ही काट डाला |

  पेड़ ने मुस्कराते हुए कुछ दिनों बाद उन्हें फिर से हरा-भरा कर दिया |

   अब आदमी आपे से बाहर था और उसने अपनी कुल्हाड़ी से पेड़ को तने सहित काट डाला |

    पेड़ इस बार भी कराहते हुए आदमी की सांसों की खातिर  नई कोंपलें ले फिर उठ खड़ा हुआ |

    इस बार आदमी का गुस्सा सातवें आसमान पर था और उसने पेड़ को कुदाली से खोद जड़ सहित उखाड़ फेंका |

  अब आदमी ने पेड़ को नहीं खुद को जड़ से उखाड़ फेंका था | *****

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क्रमांक - 02

जन्म : 13 सितंबर 1972 , मन्दसौर - मध्यप्रदेश
शैक्षणिक योग्यता : बी. एस.सी., एम. ए . (सोशियोलॉजी, हिन्दी ), बी.एड. , कत्थक नृत्य में प्रभाकर ( प्रयाग संगीत समिति इलाहाबाद )
शैक्षणिक अनुभव : 19 वर्ष हिन्दी व्याख्याता के रूप में
( वर्तमान में अवकाश प्राप्त )

विशेष : -

कम्पीयर : आल इंडिया रेडियो ( वर्तमान में कार्यरत )
समाचार वाचिका : आई पी एन न्यूज़ चैनल
- ऑनलाइन वेबसाईट - मातृभारती , प्रतिलिपि , ओपनबुक्स ऑनलाइन में रचनाएँ प्रकाशित।
- सात साझा लघुकथा संग्रह में शामिल
- बोल हरियाणा बोल – रेडियो पर स्वलिखित लघुकथा प्रसारित ।
- आल इंडिया रेडियो से कविताओं का प्रसारण।
- मंच संचालन - विद्यालय एवम अनेक साहित्यिक मंचों पर

सम्मान -

- आलेख प्रतियोगिता - फेमिना ( अंतरराष्ट्रीय ) - प्रथम पुरस्कार
- कादम्बिनी कहानी प्रतियोगिता - विशेषपुरस्कार - 1995
- शिक्षक वादविवाद प्रतियोगिता - म. प्र. वनविभाग - तृतीय पुरस्कार 2013
- आलेख प्रतियोगिता ( बेटी बचाओ ) – सरोकार समूह – द्वितीय पुरस्कार - 2014
- आलेख प्रतियोगिता ( बेटी बचाओ ) –सरोकार समूह – सांत्वना पुरस्कार - 2015
- साहित्यकार सम्मान – सत्य की मशाल ( राष्ट्रीय मासिक पत्रिका )- 2016
- राष्ट्रीय पत्र लेखन प्रतियोगिता – साहित्य सागर एवम रोटरी क्लब द्वारा – सांत्वना पुरस्कार - 2018
- निबंध प्रतियोगिता – हिन्दी लेखिका संघ - प्रथम पुरस्कार - 2018
- साहित्यकार सम्मान – विश्वमैत्री मंच - 2018
- राष्ट्रीय लेखन प्रतियोगिता – साहित्य सागर एवम रोटरी क्लब द्वारा – द्वितीय पुरस्कार - 2019
- पत्र प्रतियोगिता - अप्रैल 2020 द्वितीय पुरस्कार (कोरोना योद्धाओं पर ) महिला काव्य मंच द्वारा आयोजित
- सोशल मीडिया पर चल रहे साहित्यिक समूह नया लेखन नया दस्तख़त में अनेक बार प्रथम लघुकथा विजेता।

सस्थाओं में भूमिका : -

प्रसार सचिव - हिन्दी लेखिका संघ मध्य प्रदेश भोपाल
अध्यक्ष - महिला काव्य मंच " भोपाल ईकाई "
कार्यकारिणी सदस्य – "लघुकथा वृत्त"
प्रवक्ता - अंतर्राष्ट्रीय वैश्य समाज

पता :-
जे - 61 , गोकुलधाम , सेण्ट्रल जेल के सामने भोपाल - 462038 मध्यप्रदेश

1. लहू
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रात का अंतिम प्रहर था । उसका प्यास से हलक़ सूख रहा था । वह उठा और पास पड़ी टेबिल से पानी की बोतल उठाई और गटागट पी गया । तभी टेबिल पर रखे मोबाइल की रोशनी चमकी । उसने उत्सुकता से मोबाइल उठाया । सन्देश था जो एक समूह में आया था ।
" सरकारी अस्पताल में भर्ती मरीज़ को बी नेगेटिव ब्लड ग्रुप की तुरन्त आवश्यकता है । कृपया ..."
उसे आगे की पंक्ति पढ़ना समय बर्बाद करना लगा । वह धीरे से उठा , ताकि बग़ल में सोई पत्नी की नींद ख़राब न हो । फिर बाहर से ताला लगाकर अस्पताल की ओर तेज़ी से निकल पड़ा । उसके हाथ स्टेयरिंग पर थे , लेकिन 'आँखें फ्रंट ग्लास' पर मंचित हो रहे दृश्य देख रही थीं । मुख्य पात्र उसका अपना पुत्र था , जो भीषण दुर्घटना के बाद अस्पताल के पलंग पर अंतिम साँसें गिन रहा है , और वह स्वयं बेसुध हो कभी इस अस्पताल में भाग रहा है तो कभी उस अस्पताल में ... रिश्ते-नातेदारों को फ़ोन तो लग रहे हैं लेकिन सबका एक ही ज़वाब , 'हमारा रक्त समूह ये नहीं है' मिल रहा है । अंततः सब ओर से निराश हो वह बेटे के समीप आकर खड़ा हो गया । तभी उसका पैर अचानक तेज़ी से ब्रेक पर पड़ा और गाड़ी खच्च की आवाज़ के साथ अस्पताल के सामने रूक गई । आँखों में तिर आये आँसुओं को पौंछकर मोबाइल निकाला और सन्देश भेजने वाले को नम्बर मिला दिया ।
डॉक्टर ने ज़रूरी चेकअप किये और लगभग आधे घण्टे में रक्तदान की समस्त प्रक्रिया पूरी हो गई । वह जाने लगा तो रक्तग्राही परिवार का सदस्य उसके पास आकर बोला , "
आज आप मेरी बेटी के लिए भगवान का रूप लेकर आये हैं । क्षमा चाहता हूँ , अत्यधिक तनाव में आपसे परिचय लेना तो भूल ही गया । "
" इस घड़ी वो इतना महत्वपूर्ण नहीं था साहब ...'बाय द वे' मेरा नाम राकेश बज़ाज़ है और मेरा कपड़ों का व्यवसाय है । " कहते हुए उसने अपना हाथ शेक हैंड के लिए बढ़ा दिया ।
" राकेश बज़ाज़ ???" शेष शब्द गले में फँस गए । शेक हैंड के लिए बढ़े हाथ को उसने अनदेखा कर दिया ।
" हाँ तो इसमें इतने चौंकने वाली बात क्या है ? आपको ख़ून की ज़रूरत थी । इत्तेफ़ाक़न मेरा ख़ून भी वही था तो मानवता के नाते..."
" मानवता ... हूं sss वह व्यंग्य से मुस्कुराया । ये मानवता उस दिन कहाँ गई थी जब आपने बिना देखे - जाने ही मेरी बेटी को छोटी जाति का कहकर अपने पुत्र को इस विवाह के लिए इनकार कर दिया था ।" उसकी बात को काटकर पिता तैश में बोला ।
सुनते ही राकेश बज़ाज़ एकदम से चौंके और तेज़ी से मरीज़ के पलंग के पास गए । गहरी निद्रा में सोई युवती को गौर से देखा । बेटे के मरने से पूर्व कहे गए शब्दों ने उसे एक रात चैन से नहीं सोने दिया था, " मैं आपको बिना बताए उसी लड़की से शादी कर चुका हूँ , प्लीज़ आप..." पुत्र की बात अधूरी रह गई थी और साँसें पूरी । उसे लड़की और पिता के नाम के अतिरिक्त और कोई जानकारी नहीं थी । इसलिए वह उन्हें खोज नहीं पाया था । राकेश बज़ाज़ की साँसें तेज़-तेज़ चल रही थीं । वह पसीना पौंछते हुए पास रखी कुर्सी पर बैठ गए। तभी नर्स आई और एक नवजात को उनकी गोदी में डालते हुए बोली, " ये संभालिये अपना पोता , और सुबह पूरे वार्ड का मुँह मीठा कराना मत भूलिएगा ।" अचानक मिली इस सूचना की उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी । उन्होंने लड़की के पिता की ओर देखा , जो परेशान सा उसे ही देख रहा था । राकेश बज़ाज़ ने काँपते हाथों से बच्चे को ऊपर उठाया और अपने चेहरे के पास ले आया और कुछ क्षण गौर से देखता रहा । धीरे-धीरे नवजात में उसे अपना मरता पुत्र दिखाई देने लगा , जिसे वह अपनी बाँहों में समेटे हैं और वह अंतिम साँस से पहले कह रहा हो , " थैंक्यू पापा ..." ***

2. लिंग भेद
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बेचैनी से राह तक रही दो आँखें पुत्र अमित को आते देख तेजी से चमकीं , परंतु उसके हाथ में कोई पैकेट न देख उसी पल बुझ भी गईं ।
" आज भी दवा नहीं लाया मेरी ?" निर्जीव से वृद्ध शरीर को बमुश्किल पलंग से उठाकर बैठाते हुए उस बुझी आँखों के स्वामी ने निराश हो पूछा ।
" क्षमा चाहता हूँ पिताजी ।चार-पाँच रोज में वेतन मिलते ही ले आऊँगा।" 'लंच बॉक्स' और पानी की 'बॉटल' साइड टेबिल पर रख अमित पिता के बगल में पलंग पर ही बैठ गया ।"आपके ऑपरेशन के लिए पिछले माह जो पैसा 'ऑफिस फंड' से निकाला था , उसकी क़िस्त इस माह से कटने से हाथ ज्यादा ही तंग हो गया पिताजी ।"
" अगले माह से मुन्नी की परीक्षाएँ शुरू हो रही हैं , उसकी अतिरिक्त फीस भी भरनी होगी ।नहीं तो परीक्षा में नहीं बैठ पायेगी वह " चाय का कप अमित के हाथ में पकड़ाते हुए पत्नी ने चेतावनी भरे स्वर में कहा ।
" फिर कैसे ला पायेगा तू मेरी दवा ...? " बहू का इशारा समझ बाऊजी बच्चों की तरह रूठ फिर पलंग पर आड़े हो गए ।
" पिताजी , मैं सोच रहा था... सोच रहा था कि... कि क्यों न आप दीदी से कुछ मदद माँग लें ..." अमित ने कह तो दिया पर एक-एक शब्द कहने में उसे हज़ार बार खुद से ही नज़रें चुरानी पड़ीं ।
जैसा कि अनुमान था , बाऊजी आपा खो बैठे ।" वसुधा से... मति मारी गई है तेरी... तूने ऐसा सोचा भी कैसे ? " इस बार उन्हें पलंग से उठने में ताकत नहीं लगानी पड़ी ।क्रोध के आवेग में खुद ब खुद उठ गए ।
" ...... " अमित ने नज़रें झुका लीं ।
" बेटी के आगे हाथ फैलाकर नरक में नहीं जाना हमें ।" पिता और पुत्र के वार्तालाप को रसोई के दरवाजे की आड़ से सुन रहीं अमित की माँ पति की तेज आवाज से बाहर आईं और टेबिल से चश्मा उठा सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ गईं और आँखों पर चश्मा चढ़ा लिया मानो बेटे के भाव पढ़ने में कहीं चूक न हो जाये ।
" मैं भी तो कई लोगों के आगे हाथ फैला चुका हूँ ।" इस बार अमित के स्वर में तल्ख़ी थी ।
" बेटी-दामाद से मदद की बात तो दिमाग से निकाल ही दे तू ।" पत्नी को समर्थन में आता देख बाऊजी का हौसला बढ़ गया ।
" पर क्यों ? वह अच्छा कमाती है , सक्षम है ..."
"सक्षम है तो क्या ? हम उसकी नहीं तेरी जिम्मेदारी हैं ।" अमित की बात काटते हुए बाऊजी बोले ।
" सिर्फ मेरी ही जिम्मेदारी क्यों पिताजी ? पढ़ाया-लिखाया तो आपने उसे भी है ।विवाह में भी हैसियत से बढ़कर खर्च किया । मकान से लेकर गहने आदि में भी बराबर ही हिस्सा दिया ।" अमित ने भी जैसे ज़िरह करने की ठान ली थी ।
" दुनिया की यही रीत है । बेटी से लिया नहीं , दिया जाता है और ये रीत हमने नहीं पुरखों ने बनाई है " दार्शनिकता भाव से माँ ने कहा ।
" ये कैसी रीत है माँ , जो जिम्मेदारी में भी लिंग भेद करती है ।" निःश्वास छोड़  अमित बाहर निकल गया । अम्माजी ने भी अपना चश्मा उतार कर टेबिल पर रख दिया । ****

3. ठहरा हुआ स्वप्न
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रक्षा का दिल बहुत बेचैन था । पसीने से तरबतर वह कभी बाहर भागती , कभी भीतर । वह समझ ही नहीं पा रही थी , क्या करे , क्या न करे ...प्रतीक्षा की एक-एक घड़ी युगों समान लग रही थी । जीवन में प्रतीक्षा की अनेक घड़ियाँ आईं थीं , लेकिन आज जैसी कभी नहीं । दिल बार - बार हलक से आकर चिपका जा रहा था । तभी चार पहिया वाहन ने हॉर्न की आवाज़ दी । उसके अम्मा-बाऊजी ही थे , वह इन्हीं की प्रतीक्षा कर रही थी । नौकर को गाड़ी से सामान उतारने को कह रक्षा भीगे नयनों से भीतर आ गई । माँ अपने आने की सूचना सुबह ही दे चुकी थीं , तभी से उसके गीले घाव एक - एक कर रिस रहे थे...
" ओफ्फो माँ ! एक ही तो बेटा है तुम्हारा ,वह भी कुँआरा । फिर क्यों रसोई में इतना सामान ठूँस रखा है ?" हाथों से  तैयार किये अनाज, मसालों, पापड़ , तरह- तरह के अचार , जैम-जैली , अनगिनत डिब्बों के ढेर और अनेक प्रकार के उपकरणों -क्रॉकरी आदि को सुंदर करीने से सजा देख मायके आने पर वह अक्सर माँ के रसोई प्रेम पर खीज़ उठती ।
" कितनी बार कहा है तुझसे ,भरी रसोई बरकत की निशानी होती है  , रहा सवाल बहू का ... तो तीन-चार साल में वह भी आ ही जायेगी ।"
" बस माँ..." रक्षा हाथ जोड़कर हँस देती ।
 समय बीतते देर कहाँ लगती है । बेटा भी ब्याह योग्य हो गया । बहू लाने की माँ की इच्छा और बलवती हो गई , " बहुत खट लिया रसोई में ... बहू आ जाये तो सब उसे सौंप सिर्फ राम - राम भजूँगी ।" ऐसा कहते हुए अक़्सर उनके हाथ अपने घुटनों पर पहुँच जाते और वह उन्हें दबाने लगतीं ।
" तुम भी न माँ , ना जाने कौन से युग में जी रही हो ? आज की लड़की और चौका-चूल्हा ? हूँ...।" रक्षा भी माँ को चिढ़ाते हुए कहती ।
" खबरदार ! जो मेरी बहू के लिए कुछ कहा तो " प्यार भरी झिड़की देकर माँ भी रक्षा को चुप करा देतीं ।
 आज उसी बेटे को इस दुनिया से गए पूरा माह हो गया । एक सड़क दुर्घटना और उसी के साथ माँ के सारे स्वप्न ख़त्म । सुबह माँ ने आने का कारण बताते हुए कहा था ," अब कोई वज़ह शेष नहीं है बेटी मेरे पास ,  इस गृहस्थी को सजाने - सहेजने की । बहुत सारा सामान जरूरतमन्दों में बाँट चुकी हूँ । कुछ महँगे सामान जो तुम्हारे काम आ सकते हैं ,  लेकर आ रही हूँ ..." उन्होंने रक्षा के उत्तर और प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा किये बिना ही फ़ोन काट दिया था ।
" बेटी , ये कुछ डिब्बे और क्रॉकरी वगैरह हैं किधर रखवा दूँ ? " माँ की आवाज़ सुन रक्षा की तंद्रा टूटी । देखा नौकर चादरों से बँधी पोटली लेकर पिताजी के साथ भीतर चला आ रहा था । ना चाहते हुए भी वह आँसूओं के सैलाब को रोक नहीं पाई और फूट-फूट कर रोने लगी । उसे लगा एक बार फिर भाई का शव घर के भीतर लाया जा रहा है । ****

4. सवाल
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" खोंss खों ssss...।" सविता खाँसती हुई रसोई के काम में जुटी थी। 
" माँ, आपसे मना किया था न.... जब तक तबीयत ठीक नहीं हो जाती आप रसोई में नहीं आएँगी। जाइये, जाकर आराम करिये...पापा के लिए चाय-नाश्ता मैं बना दूँगी।" साक्षी ने माँ का हाथ पकड़कर रोकते हुए कहा।
" मैं ठीक हूँ बेटी। तू जा, कल की परीक्षा की तैयारी कर। यह तो रोज का काम है , होता रहेगा। इस मुई खाँसी की तो आदत हो गई अब।" साक्षी माँ की काम करने की आदत जानती थी , इसलिए बगैर कुछ बोले चली गई ।
सविता चाय-नाश्ता लेकर 'ड्राइंग-रूम' में पहुँची तो सोफ़े पर पति अमित को अधलेटे हो टी.वी. पर राजनीतिक बहस देखने में तल्लीन पाया। उँगलियों में सदा की तरह ही सिगरेट दबी थी। वह एक-एक कश खींचता जाता और आनंद लेकर नाक व मुँह से धुएँ के छल्ले बनाकर छोड़ता जाता। सिगरेट के कश बहस की गति के साथ तीव्र और मंद होते रहते। पूरा कमरा ही धुएँ से अंधिया जाता। इसकी आदी सविता चाय का प्याला ले पास ही बैठ गई। मुश्किल से दो घूँट भी न भरे थे कि अचानक जोर से आये ठसके ने मुँह की सारी चाय बाहर कर दी।
" जब देखो खोंsss खोंsss करती रहती है ...मुँह पर हाथ नहीं रख सकती थी क्या ? कपड़े और मूड दोनों ख़राब कर दिए साली ने । " अमित का चेहरा गुस्से से लाल हो गया था ।
तेज़ आवाज सुनकर साक्षी भी अपने कमरे से दौड़ी चली आई थी । माँ की पीठ सहलाते हुए बोली, " वाह पापा ! चाय के दो-चार छीटें क्या गिरे, आप चिल्लाने लगे.., और आपका आनंद ले-लेकर उगला ये जहरीला धुआँ माँ और हम बरसों से निगल रहे हैं उसका क्या ? " ****

5..स्नेहाधार 
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" भागवान सुन ! थोड़े से पकोड़े तो तल ले चाय के साथ । दोनों साथ बैठकर खाएँगे ।" बाहर हो रही बारिश ने रघु के स्वर में मानों मिश्री घोल दी थी ।
" ख़ाक पकोड़े तल दूँ ? घर में न तेल है न बेसन ..." बादलों की तीव्र गर्जना कृष्णा के स्वर से एकाकार हो गई ।
" तेल नहीं है ? हफ्ता भर पहले ही तो आधा किलो लाया था ।" बारिश का वेग और बढ़ गया था ।
" लाये थे तो क्या मैं पी गई ?" आकाश में बिजली इतनी तेज चमकी कि उसका प्रकाश भीतर तक आ गया ।
" ओफ्फो... तुम भी न बात का बतंगड़ बना देती हो ।लाओ छाता दो ... कुछ रुपये भी दे दो । बनिए का पिछला उधार भी तो बाकी है न ।बिना चुकाए और सौदा नहीं देगा वो ।" बिजली का चमकना बूझना जारी था ।
" ये पकड़ो छाता और ये रूपये भी , लेकिन पगार मिलते ही लौटाना मत..." जलते हुए शेष शब्द होठों के बीच फँसकर रह गए ।रघु शरारती मुस्कान लिए कमरे से बाहर निकल गया ।
" पापा... पापा... देखो मेरी नाव ।कितनी तेज़ बारिश है फिर भी नहीं डूबी ।"  बारिश में खेलती छः वर्षीया मुन्नी पापा को बाहर आता देख ख़ुशी से चिल्लाई ।
 रघु ने पलटकर देखा , द्वार पर कृष्णा लजीली मुस्कान लिए नज़रें झुकाए खड़ी थी ।
" डूबेगी भी नहीं बेटी । इसके नीचे स्नेहाधार जो है ।" बेटी के सिर पर हाथ फेरते हुए छाता खोल रघु दुकान की दिशा में बढ़ गया । ****


6.आसन्नमृत्यु

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टन्न... टन्न...घड़ी के काँटे ने रात के नौ बजने की सूचना दी । "पिताजी को दवा देने का समय हो गया ..." सुधा रिमोट टेबिल पर रख ससुर के कमरे में पहुँची । स्ट्रीप से कैप्सूल निकाले फ़िर जग से पानी का गिलास भरने लगी । रमाकांत जाग ही रहे थे । उनकी नज़रें सुधा पर ही थीं । 

" उठिए पिताजी ! दवा खा लीजिए ।" दोपहर से ही असहज होने के कारण सुधा के शब्द आज कुछ दबे हुए से थे । 

दवाई लेकर खड़ी सुधा को मानो रमाकांत ने अनसुना कर दिया हो । अबकि दृष्टि और तेज़ी से गढ़ा दीं । सुधा अचकचा गई । 'आज दोपहर से क्या हो गया इन्हें । पहले तो कभी ऐसे नहीं देखा ।' उसने एक ओर के कंधे से पल्लू उठाया और दूसरे कंधे पर डालकर हल्की तेज़ आवाज़ में बोली , " पिताजी... दवा का समय हो गया है ।" 

"हूँ..." रमाकांत पलंग पर एक हाथ की कोहनी टिकाकर उठने का प्रयास करने लगे । वैसे तो सुधा ही रोज़ उन्हें सहारा देकर उठाती थी , लेकिन इस क्षण वह असमंजस में थी । आती-जाती सुधबुध वाली बीमारी से ग्रस्त रमाकांत जैसे-तैसे उठकर बैठे और दवा के लिए हथेली बढ़ा दी । दवा निगलकर गिलास सुधा को पकड़ाते हुए बोले , " अगर एक गिलास दूध पीने को मिल जाता तो ..."

" अभी आपके दस्त ठीक नहीं हुए हैं पिताजी । ठीक होते ही फ़िर शुरू कर दूँगी ।" कहते हुए वह मुड़ गई ।

" अगर दे देतीं तो , बहुत इच्छा हो रही है आज ..." शब्द कातर थे या कुछ और ... सुधा अपनी मनःस्थिति में समझ नहीं पाई और झुंझलाती हुई रसोई में जा फ्रिज़ से दूध की भगोनी निकालकर गैस पर चढ़ा दी । उसकी साँसें भी तेज़ हो चुकी थीं । सास के ख़त्म होने के कुछ दिन बाद दीपक ने हाथ जोड़कर कहा था , " सुधा , भले मेरे लिए कुछ न करना , लेकिन मेरे पिता की सेवा में कोई कमी न रखना । बहुत संघर्ष से पाला है उन्होंने मुझे । कभी किसी इच्छा पर 'ना' नहीं कहा । मैं भी चाहता हूँ कि उन्हें हमसे कभी 'ना' नहीं सुनना पड़े । " तब सुधा ने पूर्ण विश्वास दिलाया था दीपक को कि वह से कभी शिक़ायत का मौका नहीं देगी । वैसे भी बचपन में ही पिता के स्नेह छाँव से वंचित होने के कारण वह ससुर में सदा पिता को ही देखती आई थी । रमाकांत ने भी उसे कभी बहू नहीं समझा । जब तक स्वस्थ रहे , दिनभर बेटी... बेटी... ही पुकारते रहते । पत्नी की मृत्यु के बाद तो पूरी तरह उस पर आश्रित भी हो गए । सुधा भी अपनी सेवा भाव से बेटी की परिभाषा पर पूरी तरह खरी उतरी थी । "सससss..."  दूध के उबाल की आवाज़ से वह चौंकी , ' काश ! आज दीपक टूर पर ना होते । बच्चों को भी आज ही नानी के यहाँ रात रुकना था ।' सुधा ये जानते हुए भी कि ससुर की शारीरिक और मानसिक स्थिति निर्बल है , अपने स्त्री मन को समझा नहीं पा रही थी । 

ससुर के कमरे में पहुँच दूध का गिलास उन्हें हाथ में न पकड़ाकर टेबिल पर ही रख दिया । 

"दूध पी लीजिये पिताजी " कहकर वह मुड़ी ही थी कि रमाकांत ने सुधा का हाथ इस तरह खींचा कि वह उनके बग़ल में धम्म से गिर गई। सब कुछ इतनी शीघ्रता और अप्रत्याशित ढंग से हुआ कि सुधा कुछ समझ ही नहीं पाई , तो तुरन्त प्रतिकार भी कैसे करती ? जब तक समझकर उठने का प्रयास किया , तब तक ससुर उसकी गोदी में सिर रख उसके आँचल में सिर छिपा चुके थे । सुधा ने उनका सिर गोदी से दूर पटकने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि उनके अस्फुट शब्दों ने उसे धम्म से पाताल की ओर धकेल दिया , " माँ , तुम मुझे छोड़कर तो कभी नहीं जाओग..." शब्द पूरे होते इसके पहले ही रमाकांत का हाथ टेबिल पर रखे दूध के गिलास को गिराते हुए पलंग के नीचे झूल गया । *****


7. प्रेयसी

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" ओफ्फो... ये बारिश भी न , पता नहीं क्या बैर है मुझसे कि एन दफ़्तर जाने के समय ही शुरू हो जाती है । आज इतनी जरूरी मीटिंग है कि अवकाश भी नहीं ले सकती ।" बड़बड़ाते हुए दीपा बालकनी में  खड़े होकर वर्षा रुकने की प्रतीक्षा करने लगी । 

तभी भीतर से अमित का आदेशात्मक स्वर दीपा के कानों से टकराया , " दीपा ! समय है , तो एक प्याला चाय ही बना दो ।" 

" जी ! समय ही समय है मुझे... बना देती हूँ ।" कुढ़ते हुए दीपा रसोई में घुस गई । " बस , जब देखो अपनी पड़ी रहती है ... ये नहीं कि जरा सोच लेते , इतनी बारिश में कैसे जाएगी बेचारी , और खुद गाड़ी से छोड़ आते । पर नहीं , ज़नाब ठहरे लेखक ,  कलम बीच में छोड़ कैसे उठ सकते हैं ? आग लगे मुई इनकी कलम को ।" 

"ये लीजिये चाय" पैर पटकते हुए दीपा कमरे में घुसी तो देखा पति आईने के सामने खड़े बाल संवार रहे हैं ।  " अरे , आप तैयार ... कहीं जा रहे हैं क्या ?" 

" हाँ ..." 

" अच्छा ! मेरी सौतन ने इज़ाज़त दे दी  ? " 

" अरे , क्यों नहीं देती , वज़ह ही कुछ ऐसी बताई हमने कि वो ना न कर सकी ।" अमित ने शरारत से उसके गले में बाहें डालते हुए कहा । 

" क्या वज़ह है मैं भी तो जानूँ ?"  दीपा का मूड भी कुछ हल्का हो गया था । 

" मैंने उससे कहा ...मुझे अपनी कहानी की पात्रा यानी अपनी प्रेयसी को दफ़्तर छोड़ने जाना है । बस वो मान गई । अब कहो चलना है या ..." कहकर अमित जोर से खिलखिला दिया । ****

8.रावण अमर है 

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रामलीला के मंचन की समाप्ति के पश्चात् राम का रूप धरा हुआ पात्र हाथों में धनुष बाण लिए मंच से उतरकर रावण के पुतला दहन के लिए धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था । उसके पास आते ही लोग " जय श्री राम " के जयकारे लगाने लगे ।भीड़ में खड़ी जानकी के हाथ भी श्रद्धावश जुड़ गए ।वह भी जयकारे लगाने ही वाली थी कि उसकी दृष्टि और समीप आ चुके पात्र राम पर पड़ी ।अब वह उसे स्पष्ट पहचान पा रही थी । पहचानते ही उसके होठों पर विद्रूप हँसी आ गई और उसकी आँखों के सामने उस दिन का दृश्य आ खड़ा हुआ ।

" मेरी बात का विश्वास क्यों नहीं करते आप ? मेरी कोख़ में पल रहा बच्चा आपका ही है ।आप बेवज़ह ही मुझ पर शक कर रहे हैं ।" जानकी पति राघव को समझाने की भरपूर कोशिश कर रही थी ।

" मैं तीन महीने का दौरा पूरा कर आज ही घर लौटा हूँ , और इस बीच तुमने मुझे एक बार भी पेट में बच्चा होने की खबर नहीं दी , तो फिर मैं कैसे इसे अपना बच्चा मान लूँ ?" शक में अंधे राघव को जानकी का न सच  सुनाई दे रहा था , न दिखाई । वह अपनी बात मनवाने की जिद पर अड़ा हुआ था ।

" वो... मैं आपको घर आने पर एकदम से ख़ुशी देना चाहती थी इसलिए इस विषय में कुछ नहीं बताया ।" जानकी रुआँसी होकर बोली ।

" सबूत क्या है कि ये मेरा ही बच्चा है ?" शक के प्रभाव से शब्द भी जल उठे थे ।

" मतलब आपको मेरे चरित्र पर शक है ?" अपने प्रश्न का उत्तर तलाशने के लिए जानकी ने अपनी नज़रें राघव पर गढ़ा दीं  ।

" हाँ, बिल्कुल ।" 

" ठीक है फिर ... आप भी लंबे अंतराल के बाद घर लौटे हैं तो आपको भी सिद्ध करना होगा कि आप राम हो ।" जानकी ने कठोर और दृढ़ स्वर में कहा ।

अपने पौरुष पर आँच आते ही राघव ने एक झन्नाटेदार तमाचा जानकी के गाल पर दे मारा ।

" राम अवतारी होकर भी पुरुषोचित प्रवृत्ति का त्याग नहीं कर पाये थे बहू , और न ही उन्होंने कोई परीक्षा ही दी थी । फिर राघव तो साधारण पुरुष है ।वह कैसे तेरी बात मानेगा ? " पति-पत्नी के झगड़े की आवाज़ सुन सास अपने कमरे से बाहर आ गई और जानकी को अपनी ओर खींच गले लगाते हुए बोली ।

" तो ठीक है माँ ! मैं भी सती सीता बनकर अपनी बेगुनाही का सुबूत नहीं दूँगी।" आँसूं पौंछते हुए जानकी उसी समय राघव का घर सदा के लिए छोड़कर निकल आई थी ।

दहन के प्रकाश और पटाखों की तेज़ आवाज़ से जानकी वर्तमान में लौट आई ।उसने महसूस किया , दहन के लिए आगे बढ़ रहे राम रूप धारी पात्र को देखकर ' स्पीकर्स' पर रावण की तेज़ मर्माहक गूँज चीखते हुए कह रही है...

"स्त्री स्वाभिमान के दोषी तो तुम भी हो राम ! फिर तुम्हारे हाथों से पूर्ण मुक्ति कैसे मिलेगी मुझे ? " जानकी के होठों पर रहस्यात्मक मुस्कान फैल गई । ****


9. इंतज़ार 

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जैसा कि अनुमान था वह आज भी उसी स्थान पर खड़ा था , जहाँ पिछले पंद्रह वर्षों से हो रहा था ।पानी-पताशे का वह स्टॉल इला की कमज़ोरी है , और वह भोजन की शुरुआत पानी पताशे खाकर ही करती है।ये बात धवल भली-भाँति जान गया था ।इला भी हर बार उसे एक निगाह भर देख लेती और अपनी सखियों संग बातों में व्यस्त हो उसे भूल जाती ।परन्तु आज वह ऐसा नहीं कर पाई ।उसे कॉलेज़ का वह अंतिम वर्ष याद आ गया जब एक दिन कक्षा से बाहर निकलते हुए उसने इला को एक तरफ़ बुलाकर कहा था , 

" मैं तुम्हें दिल की गहराइयों से चाहता हूँ । क्या तुम मेरी जीवन संगिनी बनना चाहोगी ?" 

" नहीं..." 

" बताओगी नहीं मुझमे क्या कमी है ? हमारे बीच तो जाति बंधन भी नहीं है फिर ?" 

" इसलिए कि मेरे दिल में तुम्हें लेकर ऐसी कोई फीलिंग्स नहीं है , बेहतर होगा कि तुम मुझे भूल जाओ ।" इला सपाट सा उत्तर देकर आगे बड़ गई थी । 

इस घटना के बाद इला न उससे कभी मिली और न ही फ़ोन पर ही बात की ।परन्तु हर वर्ष होली मिलन उत्सव में समजाति होने के कारण एक क्षण को ही सही आँखें चार होती रहीं । 

लेकिन ऐसा प्रथम बार हुआ जब इला के भीतर एक कसक पैदा हुई ।उसके कदम खुद-ब-खुद धवल की ओर बड़ गए ।इला को अपनी ओर आता देख धवल आश्चर्य चकित हो बात करते मित्रों से थोड़ा अलग हटकर रुक गया । 

" कैसे हो ?" साहस बटोरते हुए दबी जुबान में इला ने कहा । 

" बस जिन्दा हूँ ।" वर्षों बाद इला को अपने करीब पाकर वह द्रवित हो गया । 

इला निरुत्तर खड़ी रही । 

" एक बात पूछूँ इला , माना तुम्हारी पसंद तुम्हें बहुत प्यार करती होगी , परंतु क्या इतना इंतज़ार भी कर सकती है ?" 

' क्या करती हो इला ? कितनी देर लगा दी टेबिल लगाने में ? तुम्हें पता है न , मुझे इंतज़ार करने की जरा भी आदत नहीं ।'  कल डिनर तैयार करने में हुई देरी पर पति तमस के कहे शब्द इला के कानों से आकर बार बार टकरा रहे थे । ****

10. विरासत 

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भोजन की पुकार लगते ही देवकीप्रसाद और पुत्र अंकित ' डायनिंग टेबिल ' पर आकर बैठ गए । नवब्याहता वधू त्रिशा की ये पहली रसोई थी । वह सबकी थाली में भोजन परोस रही थी । सास बनने की ख़ुशी और गर्व से भरी लक्ष्मीदेवी बहू के कुशलता पूर्वक चलते हाथों को देखकर गदगद हो रही थीं । तभी उनकी नज़र पुत्र अंकित पर आकर टिक गईं , जो बड़ी बैचेनी और अन्मयस्कता का भाव लिए पत्नी त्रिशा की ओर एकटक देख रहा था । लक्ष्मीदेवी ने अपनी दृष्टि त्रिशा की ओर घूमा दीं । उसकी आँखों में भी  बेबसी के लक्षण स्पष्ट दिख रहे थे । अनायास ही लक्ष्मीदेवी के ओठों पर मुस्कान तिर आई । 

" बहू ! मुझे तुम्हारे बाबूजी से अकेले में कुछ ज़रुरी बात करनी है , तो तुम ऐसा करो कि अपनी और अंकित की थाली अपने कमरे में ही ले जाओ ।"  

लक्ष्मीदेवी के इतना कहते ही बेटे - बहू के चेहरे मुँह माँगी मुराद से खिल गए । दोनों के जाते ही देवकीप्रसाद लक्ष्मीदेवी पर झल्ला पड़े , " ओफ्फो , ऐसी भी क्या ज़रुरी बात थी जो भोजन के बाद नहीं हो सकती थी , कितना प्रसन्न था मैं कि , आज बहू के साथ बहू के हाथ का पका खाऊँगा , लेकिन तुमने ..." 

" अजी , आप भी न ससुर बनते ही सठिया गए हैं । भूल गए वे दिन जब हमारा ब्याह हुआ था और आप रोज़ नए - नए बहाने बनाकर ख़ुद तो देर तक भूखे रहते थे , साथ में मुझे भी रखते थे , केवल इसलिए कि हम एकांत में एक-दूसरे को अपने हाथों से खिला सकें ? " लक्ष्मीदेवी ने पति की बात काटते हुए शरारत से मुस्कुराते हुए कहा । 

"हाँ , सच कहती हो लच्छू , उन दिनों की हर बात का आनन्द ही कुछ और था ।" अब देवकीप्रसाद के चेहरे पर भी एक रूमानी मुस्कान छा गई थी । 

" जी , फिर तो ये भी याद होगा कि सासु माँ आपकी चाल समझ गई थीं , और उन्होंने पूरे परिवार के एक साथ भोजन करने की परम्परा के विरुद्ध जाकर अंकित के होने तक भोजन की थाली हमारे कमरे में ही पहुँचवाई थी ? " 

" ओह्ह ! अब समझा ।" पत्नी की ओर प्रशंसात्मक नज़रों से देखते हुए कहा । 

" जी ... मैं चाहती थी कि रिश्तों में एक - दूसरे की भावनाओं को समझने और निभाने की कला की स्नेह रूपी चाबी जो मुझे विरासत में मिली है , उस विरासत को मैं अपनी बहू को हस्तांतरित कर दूँ । जिसके आगे कमर में खौंसी लोहे की चाबियों का कोई मूल्य नहीं है ।" लक्ष्मीदेवी ने हाथ जोड़ मृत सास को स्मरण करते हुए कहा । ****

11. राहत 

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ऊ sss... ऊ sss... ऊ sss...

तीव्र क्रंदन सुन तनु की नींद खुल गई । उसने तेज़ी से मुँह से रज़ाई हटाई और सामने दीवार पर लगी घड़ी की ओर देखा । अनुमान के मुताबिक़ रात के बारह ही बज़े थे । क्षण भर में ही अज्ञात भय ने दिसम्बर की सर्दी में भी उसे पसीने से तरबतर कर दिया । रात के अँधेरे में हिम्मत न हुई कि दरवाज़ा खोल कर बाहर जाये और रोते हुए कुत्तों को चुप कराए । उसने बग़ल में सो रहे पति विजय को धीरे से हिलाया , "विजू... विजू सुनो न ..."

" क्या हुआ ? " गहरी नींद में ही विजय बुदबुदाया । 

" विजू उठो न प्लीज़... देखो न ... आज फ़िर कुत्ते रो रहे हैं । मुझे बहुत डर लग रहा है , कहीं..." इस बार तनु ने विजय को इतनी तेज़ी से हिलाया कि वह उठ बैठा । 

" ओफ्फो ! हद करती हो तनु । पिछले पंद्रह रोज़ से तुम मुझे गहरी नींद से जगा रही हो । न ख़ुद चैन से सोती हो और न मुझे सोने देती हो । "

"लेकिन..."

"लेकिन-वेकिन कुछ नहीं । बेकार का वहम और अंधविश्वास पाले बैठी हो । काटने के भय से उन्हें कोई भोजन नहीं देता । ऊपर से इतनी सर्दी... वे रोयेंगे नहीं तो क्या हँसेंगे ? " तनु की बात काटकर विजय गुस्से से उसकी ओर पीठ करके दोबारा सो गया । 

और तनु ? उसे अब कहाँ नींद आने वाली थी । पिछले बरस छोटे भाई की मृत्यु से पहले भी तो पूरे दो महीने ऐसे ही रात-रात भर कुत्ते रोते रहे थे । तब भी उसकी किसी अनहोनी की आशंका और डर को विजय और बच्चों ने हँसी में उड़ा दिया था । अब पंद्रह दिनों से दोबारा कुत्तों का क्रंदन उसे बहुत बेचैन किये हुए था । उच्च शिक्षित होकर भी पिछला अनुभव , अपनों का मोह और अज्ञात भय उसे असहज कर रहा था , न चाहते हुए भी वह अंधविश्वास की ग़लत राह पर चल पड़ी थी । रह - रहकर उसकी आँखों के सामने रोज़ की तरह कभी बीमार माँ का चेहरा घूमता तो कभी हाई बीo पीo झेल रहे बड़े भाई का । कभी सोचती , बेटा घर से इतनी दूर होस्टल में रहकर पढ़ाई कर रहा है , कहीं उसके साथ तो ... " हे भगवान ! कैसी माँ हूँ मैं ... अपने ही बेटे के लिए अनाप-शनाप सोच रही हूँ । " वह सिर हिलाकर झटके से सारे अनहोनी के विचार झटक देती , लेकिन अगले ही पल नया कुविचार जन्म ले लेता , " विजय आये दिन 'टूर' पर जाते हैं । कितनी बार कहा कि ख़ुद इतनी लंबी गाड़ी मत चलाया करो । ड्राइवर रख लो , पर मेरी सुने तब न ..."

विचारों के भंवर में घूमते-घूमते सुबह हो जाती और वह उठकर काम में लग जाती । व्यस्तताएँ उसे कुछ समय के लिए सब भुला देतीं । 

सुबह के नौ बजे होंगे । तनु 'डाईनिंग टेबिल' पर नाश्ता तैयार करके रखती जा रही थी , तभी बाहर से तेज़-तेज़ रोने की आवाज़ें सुनाई दीं । तनु का दिल एकदम से धक्क रह गया । वह बाहर की ओर दौड़ी । उसने देखा सामने से कॉलोनी में रहने वाली मिसेज़ मेहता उसके घर की ओर ही तेज़ चाल से आ रही थीं । 

" तनु ! तुझे पता चला वो दो घर आगे जो खन्ना साहब रहते हैं  न , उनकी बेटी की आज सुबह मृत्यु हो गई । ? "

" कैसे ? " अप्रत्याशित समाचार पाकर वह हतप्रभ हो गई ।

" ये तो पता नहीं , पर सुना है कि कई रोज़ से अस्पताल में भर्ती थी । " साड़ी के आँचल से आँखें पौंछती हुई मिसेज़ मेहता भावुक हो गईं । 

" हे भगवान ... अभी उम्र ही क्या थी बेचारी की ..." कहते हुए तनु के स्वर करुणा से भर गए और आँखें पनीली हो आईं , तभी अचानक उसकी नज़र सामने कोने में दुबके कुत्तों पर गई । 

" ओह्ह... तो ये इसलिए रो रहे थे इतने दिनों से और मैं पागल समझ रही थी कि ..." उसने एक लंबी गहरी साँस ली और राहत से दोनों हथेली अपने सीने पर इस तरह रखीं , मानो कोई बहुत बड़ा बोझ सीने से उतर गया हो । ****

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क्रमांक - 03

जन्म : 17 मई

शिक्षा : तमिल भाषी अंग्रेज़ी में एम. ए

संप्रति : ग्रेड 1 ,हिंदी उदघोषक आकाशवाणी मुम्बई, जगदलपुर और भोपाल में कार्यरत।

विदेशी यात्रा :-
यू के, यू एस ए, थाईलैंड , रशिया और यूरोप।

लेखन :-
लघुकथा और काव्य लेखन

प्रकाशित पुस्तकें : -
लघुकथा शतक
गुनगुनाते बोल

सम्मान : -

- 1986 में अहिन्दी भाषी हिंदी सेवी सम्मान मप्र के राज्यपाल डॉ के एम चांडी द्वारा
- 1992 में समाज सेवी सम्मान त्रिपुरा के राज्यपाल द्वारा।
- 1995 में सुनामी पीड़ितों के लिए कार्य करने पर राज्यपाल डॉ बलराम जाखड़ द्वारा सम्मानित।
- 2006 में रोटरी क्लब डिस्ट्रिक्ट 3040 द्वारा बेस्ट सेक्रेटरी अवार्ड।
- जेल मंत्री से सम्मानित
- 2009 में रोटरी क्लब डिस्ट्रिक्ट 3040 की बेस्ट प्रेजिडेंट अवार्ड।
- बुडापेस्ट हंगरी में विश्व हिंदी सहित्यपरिषद की ओर से लेखन कार्य के लिए साहित्य सरोवर सम्मान।

- 2019 में राष्ट्र भाषा प्रचार समिति की ओर से लघुकथा शतक के लिए हरिहर निवास द्विवेदी पुरस्कार।

विशेष : -

- प्रख्यात उद्घोषिका होते हुए उभरते हुए उदघोषकों को प्रशिक्षित किया।

- अध्यक्ष शांतिनिकेतन महिला कल्याण समिति -महिलाओं, बच्चों और नशे से पीड़ित युवकों का शिक्षण प्राशिक्षण और पुनर्वास का कार्य किया।

- भोपाल के दो झुग्गी इलाकों में 950 महिलाओं और बच्चो को साक्षर किया।
- मध्यप्रदेश के जेलों में साक्षर हो रहे कैदियों को राष्ट्रभाषा परीक्षाओं में बैठाकर प्रमाण पत्र दिलवाया। प्रत्येक परीक्षा उत्तीर्ण होने पर सज़ा में दो माह की छूट मिली।
- महिलाओं को व्यावसायिक प्रशिक्षण देकर स्वावलंबी बनाया।
- दस वर्ष तक शांतिनिकेतन नशा मुक्ति एवं पुनर्वास केंद्र 15 बिस्तरों वाले अस्पताल का संचालन किया।
- गरीब लड़कियों के लिए होस्टल संचालित किया। यू एस में सीनियर सीज़न होम में सेवाएं प्रदान की।
- सेवा निवृत्त होकर जी ई आई इंडस्ट्री मे मैनेजर ट्रेनिंग और एच आर हेड का कार्य किया। इंडस्ट्री के वर्कर्स के लिए विशेष कार्य सम्पन्न।
- 60 वर्ष के बाद अपनी शैक्षणिक योग्यता बढ़ाई।
- Cedpa Washington से कोच की ट्रेनिंग ली।
- American institute TESOL से ट्रेनर्स ट्रेनिंग कोर्स किया।
- मुम्बई पॉलिटेक्निक से एच आर, सॉफ्ट स्किल पर्सनालिटी डेवलोपमेन्ट, हेल्थ इंवॉरमेन्ट सेफ्टी और ISO 9001-2008 में डिप्लोमा कोर्स किया।
- बैंक और कॉलेज में सॉफ्ट स्किल ट्रेनिंग दी, मोटिवेशनल स्पीकर हूं।वौइस् एंड एक्सेंट ट्रेनर।
- रोटरी क्लब द्वारा वल्लभ नगर की झुग्गियों को गोद लेकर 20 सिलाई सेंटर , कंप्यूटर सेंटर, डस्ट बिन , पानी की टंकी बेंचेस लगवाये।
- अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन-1992 में भारतीय प्रौढ़ शिक्षा संघ की ओर से आयरलैंड में,2009 में रोटरी इंटरनेशनल की ओर से बैंकॉक में और 2017 में विश्व हिंदी साहित्य परिषद की ओर से हंगरी यूरोप में प्रतिभागिता की।

पता : -
डी - 4 शालीमार गार्डन,  कोलार रोड , भोपाल 462042 मध्यप्रदेश

  1.श्रध्दा सुमन 

हरीश- "हे  भगवान  मेरी निशा और मेरा बबलू ठीक तो होंगे। चार महिने बाद मिलने जा रहा हूं।" (कोझीकोड के बेबी  मेमोरियल हॉस्पिटल जाते हुए वो सोच रहा था।)

हॉस्पिटल पहुंचते ही उसने निशा को बाहों मे लेना चाहा पर नर्स ने रोक दिया, 

नर्स- "अभी कमजोर हैं और सदमे में हैं।"

हरीश पास की कुर्सो  पर बैठ गया।

हरीश - "निशा लो गरम गरम दूध पीयो। मेरे सहारे से उठो, ठीक तो हो ना।"

निशा- "हाँ जी ठीक हूं आप आ गये हैं तो और ठीक हो जाऊंगी।"

हरीश-" कोचीन से आते हुए मुझे रास्ते  मे ही पता चल गया था कि कोझिकोड  एयर पोर्ट पर एयर क्रश  हो गया। दिल तेज़ धड़क गया, फिर ये भी पता चल गया कि  सब यात्री बच गये हैं। मैं तुम से मिलने के लिये और बेचैन हो गया। बबलू कहाँ है  कैसा है? खूब नाना  नानी के साथ दुबई घूमा।"

निशा- " हाँ जी,वो देखो झूले में है अभी दूध पीकर सोया है। छाती  से चिपटा  रहा पूरे समय, कह रहा था पापा से मिलना है।"

हरीश- "बदमाश लड़की ( चपत)चार  महिने का बच्चा क्या बोलेगा?"

निशा- (हँसते हुए) "ये लोग तो दो दिन और ओब्सर्वेशन मे रखेंगे। अम्मा अप्पा कैसे हैं?"

हरीश- "सब ठीक है। तुम्हारे और राज दुलारे के इन्तजार मे हैं। मैने बता दिया कि दोनों ठीक है।"

निशा- "कोविड के लम्बे लाकडाऊन  के बाद सभी भारतीय  अपने वतन आने के लिये उतावले थे। मोदी जी ने एयर इण्डिया की ये स्पेशल फ्लाइट वन्दे भारत तय की पर----"

हरीश- "पर क्या अब अफसोस मत करो ऊपर वाले ने बचा लिया।"

निशा-"सुनो जी मेरी एक बात मानोगे?"

हरीश-" बोलो तो, एक बात क्या दस बात मानूँगा।"

निशा- "सुनो, यहाँ  से सीधे घर नहीं जाएँगे।"

हरीश-"क्यों निशा घर क्यों नहीं जाएंगे ?"

निशा-"हरीश, यहाँ से पहले अखिलेश जी के घर जाना है।"

हरीश- "अखिलेश कौन?"

निशा- "ये वही पायलट है जो हमें वन्दे भारत फ्लाइट से लाया। अपनी जान कुरबान कर हमें बचाया। उसकी पत्नी और होने वाले बच्चे की माँ  से मिलना है।"

" तुम्हे पता हरीश उनके  साथ सीनियर पायलट दीपक साठे जी ने तो वहाँ हवा मे बहुत चक्कर काटे हमे चेतावनी दी गई थी कि  सीट  बेल्ट  बांधे  रहें। इतनी सतर्कता के बावजूद उस टेबल टॉप एयर पोर्ट पर हार  गये।जान गंवा बैठे।"(सिसकी)

हरीश - "चलो सम्हल जाओ और मेरे बबलू को मुझे दे दो। देखो तो हंस रहा है।"

हरीश - "निशा हम अखिलेश जी के घर ज़रूर चलेंगे। श्रद्धा सुमन अर्पित करेंगे।"

निशा - "मुझे अपने गोद में सुला लो हरीश।" निशा सिमट कर हरीश के गोद में सर रख लेती है। ****

2.थका सूरज, खिलता गुलाब

सलमा आज सुबह से ही थकी थकी थी, उखड़ी उखड़ी थी, उदास थी वह इनकम टैक्स कमिशनर थी पति विवेक डी आई जी पुलिस थे। घर के बाहर सन्नाटा, भीतर सन्नाटा, दिल के भीतर भी सन्नाटे के तार झनझना रहे थे। उसने सोचा चलो ज़रा तैयार हो जाते है मूड अच्छा हो जाएगा, चेहरे पर पाउडर ,लिपस्टिक आइब्रो पेंसिल से रौनक आ गई। चेहरा खिल गया तो मन मे भी ताज़गी महसूस हुई, पड़ोस के कमरे से विवेक के खांसी की आवाज़ आई। उसे मालूम था करोना के वायरस आते है और टकराकर निकल जाते है। खांसी सर्दी बुखार देते है और रफ़ा दफा हो जाते हैं।

पर टी वी में करोना, पेपर में करोना, मन विचलित तो करता ही है।

टी वी बन्द कर बाहर झांका तो देखा बोगनविला के फूल झड़ रहे थे। 

उसने सीखा जब भी मन उदास हो उचाट हो तो ऐसे लोगो के पास जाओ जो तुमसे ज़्यादा उदास हों उन्हें हौसला दो अपने आप मजबूत महसूस करोगे। वह पास के 85 वर्ष के अंकल आंटी के पास कुछ बिस्किट कुछ मखाने और मास्क लेकर चल पड़ी।

बाहर की हवा उसे सहलाने लगी।

अंकल आँटी बाहर निकल आये और खुश होकर कहने लगे-" ऐसे खयाल रखती हो तो अच्छा लगता है।" 

तभी एक बच्ची की आवाज़ आई  "आंटी ये देखो पूरा बगीचा सूख रहा है, पर एक गुलाब खिला है मैं आपके लिए लाई हूं।" 

सलमा ने मन मे सोचा खुशी दो तो खुशी मिलती है, "सुंदर है ना?"

" हॉ बेटा बहुत सुंदर है।"

"आंटी कल ईद है ईदी दोगी ना।"

" हां बेटा ज़रूर दूंगी अपने दोस्त और भाई बहनों को ज़रूर लाना। "

पतिदेव खांसते हुए खिड़की से कह रहे थे "अरे कहाँ सबको बुला रही हो?"

"जी यहीं बाहर आएंगे कुछ सपने ले जाएंगे। अगर सपने नहीं देखेंगे या दिखाएंगे तो पूरे कैसे करेंगे? "

"ठीक है रानी बेटा ज़रूर आना।" असमान पर सूरज मुस्कुरा रहा था। ****

3. यशोदा मां

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चेन्नई के गवर्नमेंट हॉस्पिटल में विजया ने करोना काल में बच्ची को जन्म दिया वह खुद करोना से पीड़ित थी, पति एक हफ्ते पहले करोना की चपेट में आकर चल बसे।

मन में पीड़ा तन में दर्द जीवनदायिनी मां के दिल पर जख्म रिस रहे थे, वह सिसक पड़ी दर्द के बीच कराह उठी, क्या होगा इस बिन बाप की बच्ची का, कौन सहारा देगा, तभी अचानक ऑक्सीजन लेवल कम हो गया, हिचकी आने लगी और सांस थम गई, रिश्ते नातेदार कहीं नजर नहीं आए,

बच्ची रोने लगी, तभी  नर्स ने आवाज़ लगाई, "कोई है इस बच्ची को दूध पिलाने वाला," फौरन चार माएँ सामने आई  नर्स ने राहत की सांस ली, दूध की कमी तो नहीं होगी।

फिर एक महिला ने अपना आंचल फैला कर कहा "मेरा बच्चा अभी करोना के हवाले हो गया मैं पागल हो जाऊंगी मेरी छाती में गांठ बन गई है मेरे आंचल में इसे दे दो, इस बच्ची को जना नहीं है तो क्या यशोदा मां बनकर दूध पिलाऊंगी भरपूर प्यार दूंगी। जना नहीं तो क्या यशोदा मां तो बन सकती हूं।' पति पास में हाथ जोड़े खड़े थे। ****

4.नेतागिरी

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 ऑफिस का पंडित अचानक अस्पताल में भर्ती हो गया उसे कोविड हो गया हम सब ने कहा कि यह इतना घूमता है और इतना बोलता है नेतागिरी करता है कि इसे तो होना ही था मास्क भी नहीं लगाता है, बड़ा गुस्सा आता था, और फिर कहता था कि "मैं तो मुख्यमंत्री के यहां जाता हूं वहां पूजा पाठ करवाता हूं मुझे इन सब की कोई जरूरत नहीं है।"

 चलिए उसने अपने दिन काटे चिरायु अस्पताल में और वापस आया फिर हमने पूछा "देखो तुमसे कहते थे न मास्क लगाओ नहीं लगाया तो बीमार पड़े ना" तो उसने कहा "प्रभु मेरे साथ है मैं बीमार नहीं पड़ सकता वह तो मुख्यमंत्री वहां भर्ती थे तो मुझे वहां हवन करने रोज अपना पाठ सुनाने के लिए जाना पड़ता था इसलिए रोज आना जाना करने के बदले में भर्ती कर दिया और सरकार ने उनको पैसा दिया क्योंकि हर पेशेंट के लिए सरकार पैसा देती है ना! ऑक्सीजन नहीं लगा वरना अस्पताल को और पैसे मिल जाते, आप लोग मास्क लगाकर रहिए!"

"वाह रे पंडित की नेतागिरी।" ****

5.चिठ्ठी

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आज बाहर से पोस्टमैन की आवाज आई "पोस्टमैन चिट्ठी," 5 साल की मुनिया दौड़ कर गई और हाथ से चिट्ठी लेकर चिल्लाई "दादी दादी चिट्ठी आई है।"

"अरे मुनिया अम्मा को बुला कर ला पीछे कपड़े धो रही है फिर कंडे थापने चली जाएगी, क्या लिखा है देख तो,"

 सुनीता आई हाथ पोंछते हुए लिफाफा खोला, अम्मा बोल पड़ी "बबुआ ठीक तो है ना कब से लद्दाख में है फौजी बनने का बड़ा शौक था अब हमेशा दूर रहत हैं।"

 सुनीता ने चिट्ठी खोली "प्रिय सुनीता मैं 18 अप्रैल को डिंडोरी आ रहा हूं तुम्हारा फोन नहीं लगता स्विच ऑफ है, आउट ऑफ कवरेज आता है, और ईमेल व्हाट्सएप से तो तुम्हें मतलब ही नहीं है, पता नहीं कौन सी दुनिया में रहती हो तुम। मैं आकर एक नया फोन दिला दूंगा और सब कुछ सिखा कर जाऊंगा और हां मुनिया को करोना से बचा के रखना 15 दिन की छुट्टी मिली है घर बार सब ठीक करवा दूंगा फिर चला जाऊंगा अपने देश की रक्षा के लिए तुम लोग अपना ख्याल रखना बहुत याद आती है।"

 "अम्मा वे आ रहे हैं 15 दिन रहेंगे फिर चले जाएंगे"

 "आकर फिर चले जाएंगे ।"

"ठीक है घर ठीक कर लो पकवान बना लो हमारे देश की रखवाली करत है वह, ला दे दे लल्ला की चिट्ठी  मैं संभाल के रख लेती हूं।" ***

6. एक तारा टूटा

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 छत पर लेटे लेटे मोना अपनी मां से कह रही थी "मां आप ने बताया कि आसमान से तारा टूटे तो आप कोई इच्छा मांग सकते हैं?"

 मां ने कहा "हां बेटा मांग सकते हैं, ईश्वर सबकी मनोकामना पूरी करते हैं।"

" आपने  यह भी कहा था कि पापा एक तारा बन गए हैं, उन्हें वापस बुला लेते हैं ना ?"

 "बेटा वह तो तारा बनकर हमें देख रहे हैं, मुस्कुरा रहे हैं, हमें रोशनी देते हैं हमें जीने की ताकत देते हैं।"

" तो मां  कुछ और मांग लूं?"

" हां बेटा कुछ भी मांग लो।"

"मां तो टूटे तारे से कहते हैं कि दुनिया से करोना हटा दो पड़ोस के दादाजी को भी करोना हो गया।  कितने लोग मर गए हैं।"

 मां ने कहा " हां बेटे ये बात ठीक है,

 करोना जरूर हटेगा, अब किसी के दादाजी को कुछ नहीं होगा, पड़ोस के दादा जी ने  भी वैक्सीन लगा लिया है।"

  बेटा टूटते तारे ने कहा "मास्क जरूर पहनना एक दूसरे से दूर दूर रहना और अपने मम्मी का कहना मानना यही सब सुनते सुनते मोना को नींद आ गई।" ****

7.माके नाटे माका राज

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दशहरे के दूसरे दिन नसीम के घुटनों का ऑपरेशन जगदलपुर के महारानी अस्पताल में होने वाला था तभी बैलाडीला से मुगरोइराम 300 महिलाओं को दशहरे पर तांत्रिक अनुष्ठान करते हुए ग्यारह बकरों की बलि देकर हवन का प्रसाद कांवर में लेकर पहुंचे। ताकि उन पर कोई विपदा न आये। वे जड़ी बूटी का लेप लगाकर ठीक करना चाहते थे।

नसीम बैला डीला में टीचर थी। वहाँ स्कूल के बाद स्वीपर के बच्चों को पढ़ाती थी उसे आदिवासियों के घर घर की कहानी मालूम होती थी। एक बार एक बच्चा पेज के लिए रो रहा था, अरे चावल का पानी तक नसीब नहीं है पीने के लिए ? वह आंगन बाड़ी गई, जब वह बन्द मिला तो कलेक्टर ब्रह्मदेव शर्मा के पास पहुंची, ये कैसा कुशासन है कि बच्चा अपनी ही ज़मीन पर भूखा है? कलेक्टर ने कहा सुनिए भोजन पानी सब है , यहाँ के खदानों में हज़ारों करोड़ का लोहा है जो शासन ने अडानी को दे दिया। वे कम से कम पच्चीस प्रतिशत के हकदार हैं । जागरूक करिये इन्हें और लड़ाई लड़िये । श्री ब्रह्मदेव शर्मा कलेक्टर केवल  एक रुपये तनख्वाह लेते थे। आदिवासियो के लिए समर्पित थे। उनके साथ भी साहूकारों नेताओं ने अन्याय किया उनके कपड़े फाड़ दिए और तबादला भी करवा दिया।

पर अब आदिवासी जागरूक हुए । वे सब महिलाएं जिनके पति को सुरक्षा बल जंगलों में भगाकर यौन शोषण करते थे, अपने औजार ले खड़े हुए। इन्ही में से कई महिलाओं को देवी को खुश करने के नाम पर नंगा घुमाया गया। 

नसीम जानती थी कि आदिवासी अमीर हैं इनके जल ज़मीन और जंगल पर कब्ज़ा किया जा रहा है। बैला डीला के नंदराज पहाड़ी पर जब देवी के स्थान को तोड़ा जा रहा था तो आंदोलन शुरू हुआ , जब उनके पेड़ काटे जा रहे थे तो आंदोलन हुआ, क्योंकि एक पेड़ मुरुक्कु मरकाम का था, दूसरा पुंड्रयू शीशम का था। अब संगठन बनते गए , जुलूस निकले बस, रेल रोके गए, किसी राजनीतिक पार्टी का सहयोग नहीं मिला, पर आदिवासी समझ गए कि वे सिर्फ नाचने गाने के लिए नहीं है। बस्तर में अब आदिवासियों को अपना हक मांगना आ गया , अब बैलाडीला में, झारखंड, विशाखापटनम से लोग भर्ती होने नहीं आएंगे, सुकमा, बीजापुर, दंतेवाड़ा, कोंडागांव के आदिवासी काम करेंगे। उन्होंने भी मोटरसाइकिल ले ली , वे भी आम लोगों की तरह पहनने ओढ़ने लगे, शासन प्रशासन का ध्यान भी उनकी तरफ जाने लगा। कब तक उन्हें दबाएंगे। कलेक्टर को तो हटाया पर अब अदिवासी नेता मजबूत हुए उनके साथ नसीम  की सखी सुरेखा मरकाम अधिवक्ता जुड़ गई। बाबूराम मरकाम न्यूज़ रीडर जुड़ गए । एन. एम. डी. सी. हो या न हो आंदोलन जारी था, बलिराम कश्यप और अरविन्द नेताम के नाम से बल ज़रूर मिला, पर काम ? 

अब नसीम के घुटने का दर्द भी जड़ीबूटी के लेप से ही ठीक होगा। अरे सोनवती, मलयारी कुमरी तुम भी आई हो ?

सब मुरगू के साथ कह उठे "हमारे गाँव  में हमारा राज होगा।" नसीम मुस्कुरा दी। उसका सपना पूरा होने की कगार पर है।  इनमें ही नेता बने जो इनके लिये लड़ें इनके लिए जिएं और कहें: "माके नाटे माका राज ।" ****

8.वंडरफुल इंडिया

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  जेनिफर हॉर्टिकल्चरिस्ट थी,जापान से भारत आकर अपना शोध कार्य करने के लिए सुहाना मुखर्जी के साथ घूम रही थी। बस्तर के धमतरी इलाके में घूमते हुए आश्चर्य चकित थी कि कैसे सल्फी का पेड़ एक दिन में 20 लीटर सल्फी देता है। सुहाना ने बताया कि  "ये देसी बियर है मैडम महुआ और ताड़ी के पेड़ भी हैं।"

 तभी महिलाओं और पुरुषों को कमर में हाथ डालकर नाचते हुए देखा,छोटी लिपटी हुई साड़ी बिना ब्लाउज के कसी हुई थी,पुरुष भी लंगोट झांझ और ढोल लिए एक दूसरे के कमर में हाथ डालकर घुंघरू की खनक के साथ थिरक रहे थे । सभी महिलाओं के चेहरे चिकने सांवले और कसे हुए बालों में कंघी पिन खोंचे हुए खिले हुए थे। सारे जोड़े खुशहाल दिख रहे थे। पास ही उनकी बांस की टुकनिया रखे हुए थे, उनकी थिरकन और आवाज़ों के बीच जेनिफर को दार्जीलिंग की याद आई जहाँ लाल गालों वाली पहाड़ी महिलाएं पीठ पर बांस का टोकरा लादे चाय के बागान में पत्तियां तोड़ रही थी, मुस्कुराहट बिखेर रही थी । वहां पर ओक, छोटी बेल, बादाम के पेड़ थे। जेनिफर आखिर गाड़ी की ओर जाते हुए सुहाना से पूछ ही बैठी 

"सुहाना यहाँ बारिश के पानी पर सब डिपेंड होते हैं  जंगल मे कोई सिंचाई नहीं फिर ये पेड़ कैसे ज़िंदा हैं ?" 

सुहाना बोली "मैडम यहाँ  पेड़ों के जड़ एक दूसरे से उलझे हुए एक दूसरे को पोषित करते रहते है।"

"ओह लाइक एम्ब्रियु कॉर्ड, मां से सब पोषक आहार बच्चा गर्भ में लेता है।"

"जी मैडम"

"तभी इतने ट्राइब्स जाति, जनजाति, जनसंख्या सभी एक दूसरे में उलझे हुए पालते पोसते बढ़ते है, गज़ब, रियली

वन्डरफुल इंडिया    *****

9.इंसानियत ज़िंदा है

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कॅरोना काल में घर घर में दहशत है, लॉक डाउन की दहशत,बीमारी की दहशत, मौत की दहशत,पूरे पूरे घर खाली हो गए,अस्पताल भर गए,रेमडिसीवर नहीं, ऑक्सिजन नहीं, श्मशान घाट भर गए,सभी नीले कपड़ों में। किसी का किसी से कोई रिश्ता नहीं, रेल बन्द, बस बन्द, सड़क बन्द स्कूल बंद कालेज बन्द, होटल बंद कोई अंतिम विदाई देने वाला कोई नहीं, शव ही शव,श्मशान घाट में आग ही आग, किसकी चिता जल रही पता नहीं,

ऐसे में एक महिला कातर आवाज़ में रोती चिल्लाती आई नगर निगम की गाड़ी से सात लाशें रखी गई, महिला ने कहा " वे मेरे पति हैं, भैया वे मेरे पति हैं मुझे अंतिम दर्शन करा दो मैं उनके बिना जी नहीं सकूंगी इतनी किरपा कर दो भैया।"

दीनानाथ मन ही मन रो पड़ा कब तक ये काम करना पड़ेगा घर पर बीवी बच्चे मचल रहे हैं ।

"ये लो बहन मुहं खोल दिया देख लो अंतिम दर्शन कर लो।" वह ठिठक गया। उस अनजान महिला ने चिल्ला कर कहा "ऐसे कैसे मुझे छोड़ कर जा सकते हो जी, तुमको तो मेरे साथ जीना था।" ज़ोर ज़ोर से रोते हुए उसने दीनानाथ के हाथ में 3000 रु  थमा दिए और पैर छूकर रुलाई रोकते हुए कहा "तुमको मेरी उमर लग जाये भैया।" 

"रोले बहना ये रोने का ही मामला है, जी भर के रो ले।" ***

10. चम्मच और करछुल 

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सुरेश :"अरे क्या हुआ किसके घर में सीबीआई की रेड पड़ी है? सुयश के घर में ऐसा कैसे हो गया है, उसे तो हम कहा करते थे तुम तो चांदी की चम्मच लेकर पैदा हुए हो।"

महेश: "अरे यार वह चांदी के चम्मच नहीं वह पीतल की भी नहीं थी लोहे की भी नहीं थी यहां  वहां से पैसे मार, यहां वहां से पैसे खाते हैं ना जो ऐसे चम्मच वालों को ऐसा ही नतीजा मिलता है।"

सुरेश:" ऐसा क्या? बिल्डर थे ना उनके पापा ?"

" बिल्डरों का काम क्या है, इसके चम्मच बन जाओ उसके चम्मच बन जाओ, यहां पैसे खिलाओ वहां पैसे खिलाओ गलत पेपर पास करवा दो और अपनी सारी बिल्डिंग आम जनता को बेचो। आम जनता टूटी फूटी कच्ची पक्की बिल्डिंग खरीद लेता है और अपने पैसे लगा देता है, पर कभी ना कभी तो ऐसे लोगों के बुरे दिन आते हैं रेड पड़ गई ना अब।"

महेश: " अरे भाई अपनी चम्मच से खुद ही खाना खाओ अपने चम्मच से अपने लिए परसो फिर अपनी चम्मच अपने करछुल की कमाई रास आएगी। उसके लिए मेहनत करो, तब वह चम्मच चांदी की हो सोने की हो या पीतल की हो, हमें हज़म हो जाएगी, वरना तो हर चम्मच का यही हाल होगा।"

सुरेश "अब देखो जेल जा रहे हैं ना वहां जाने किस के चम्मच बनेंगे?" 

महेश: "अरे वहां जेलर की करछुल से अपनी रोटी सेंकेंगे और अलमुनियम के बर्तन में खाएंगे। भूल जाएंगे चांदी के चम्मच।"

 दोनों " हा हा हा बुरे काम का बुरा नतीजा सुन भाई चाचा हां भतीजा।" ***

11. पेड़ तले

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पीपल के पेड़ के नीचे सुनहरी ने इतराते हुए कहा तुम तो कितने शान से खड़ी हो। लहरा रही हो

तुमको मालूम है हम तुम्हारे नीचे बैठकर हम लूडो खेलते थे, पिट्ठू खेलते थे, तुम्हारे ऊपर चढ़ जाते थे, फिर कूद जाते थे, रहीम के साथ छुपा छुप्पी खेलते थे, अम्मा के साथ पूजा करते थे, भगवान जी को बैठाते थे, गुड्डी गुडडा की शादी भी करते थे। कहां गये वो दिन तुम तो अब भी वैसे ही खड़े हो सबको छाया देते हो पर तुम्हे याद नहीं आता कुछ? रोना नहीं आता ? तभी ज़ोर की बारिश हुई। सुनहरी भाग गई और पानी पोछकर घर में पढ्ने बैठ गई। गरम गरम चाय के साथ। ****

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क्रमांक - 04

जन्म: 23 नवम्बर जबलपुर - मध्य प्रदेश
शिक्षा : एम ए (हिन्दी) एम ए (इतिहास) बी ए (पत्रकारिता) बी एड
लेखन : 1978 में धर्मयुग में पहली रचना "शंख और सीपियाँ" प्रकाशित। तब से अब तक 100 कहानियाँ तथा 1000 लेख स्त्री विमर्श,धर्म,पर्यटन पर प्रकाशित

सम्प्रति : स्वतँत्र पत्रकारिता

पुस्तकें : -

 कथा सँग्रह :-
1) बहके बसँत तुम
2) बहते ग्लेशियर
3) प्रेम सम्बन्धों की कहानियाँ
4) आसमानी आँखों का मौसम
5)अमलतास तुम फूले क्यों

उपन्यास :-
1) मालवगढ की मालविका
2) दबे पाँव प्यार
3) टेम्स की सरगम
4) ख्वाबों के पैरहन ( संयुक्त उपन्यास)
5) लौट आओ दीपशिखा
6) कैथरीन और नागाओं का रहस्य       
 
अन्य
1) फागुन का मन (ललित निबँध सँग्रह)
2) मुझे जन्म दो माँ (स्त्री विमर्श)
3) नीले पानियों की शायराना हरारत(यात्रा सँस्मरण)
6) करवट बदलती सदी आमची मुंबई (मुम्बई का परिवेश)                                 
 7)तुमसे मिलकर (कविता संग्रह)
8) पथिक तुम फिर आना (यात्रा संस्मरण)
9) रूबरू हम तुम(साक्षात्कार संग्रह)
10) मेरे घर आना जिंदगी (आत्मकथा)
11) मुस्कुराती चोट( लघुकथा संग्रह) 

अन्य भाषाओं में अनूदित पुस्तकें :-
 1) बहके बसँत तुम मराठी में
2) बहते ग्लेशियर ओडिया में
3) टेम्स की सरगम अँग्रेज़ी में Romancing The Thams
4) ख्वाबों के पैरहन उर्दू में
5) अन्य कहानियों के अँग्रेज़ी,तमिल, गुजराती, बंगाली में अनुवाद
6) मुझे जन्म दो माँ अँग्रेज़ी में let me born mother
7) करवट बदलती सदी आमची मुंबई मराठी में अनुवाद

सम्मान / पुरस्कार : -

1) कालिदास पुरस्कार(1990)
2) महाराष्ट्र राज्य साहित्य अकादमी द्वारा मुंशी प्रेमचँद पुरस्कार(1997)          
3) साहित्य शिरोमणी पुरस्कार(2001)       
4) प्रियदर्शिनी अकादमी पुरस्कार(2004)
5) महाराष्ट्र दलित साहित्य अकादमी पुरस्कार(2004)
6) बसँतराव नाईक लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड(2004)
7) कथाबिम्ब पुरस्कार(2004)
8) कमलेश्वर स्मृति पुरस्कार(2008)
9) प्रियँका साहित्य सम्मान(2011)
10) अँतरराष्ट्रीय सृजन श्री सम्मान थाइलैंड(2011)
11) अँतरराष्ट्रीय सृजन गाथा सम्मान ताशकँद(2012)
12) सारथी साहित्य शिरोमणी पुरस्कार (2012)
13) लघुकथा रत्न सम्मान पटना(2012)
14) मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति द्वारा नारी लेखन पुरस्कार भोपाल (2014)                
15) महाराष्ट्र साहित्य अकादमी द्वारा राज्य स्तर का हिन्दी सेवा सम्मान(2014)                        
 16) लघुकथा सारस्वत सम्मान राँची (2014)
17) अभियान संस्था लखनऊ द्वारा उत्तर साहित्यश्री सम्मान(2014)
18) काशी हिन्दू विश्व विद्यालय द्वारा दलित साहित्य सम्मान (2011)
19) अंतरराष्ट्रीय पत्रकारिता पुरस्कार मॉरिशस (2001)
20) अंतरराष्ट्रीय कथा सम्मान कम्बोडिया (2013)
21) साहित्य समर्था पत्रिका जयपुर द्वारा शिक्षाविद पृथ्वीनाथ भान साहित्य सम्मान 2019 टेम्स की सरगम पर
22) शिल्पी चड्ढा स्मृति साहित्यकार सम्मान वर्ष 2019 दिल्ली

 विशेष
1)देश भर के विभिन्न संकलनों में दो दर्जन कहानियाँ सँकलित
2) कहानी सैलाब तथा गलत पता पर बनी टेलीफिल्म का दूरदर्शन से प्रसारण
3) 1977 से आकाशवाणी और विविध भारती से रचनाओं का प्रसारण
4) एस एन डी टी महिला महाविद्यालय मुम्बई तथा मुम्बई विश्वविद्यालय से बहके बसंत तुम,
मुझे जन्म दो माँ, लौट आओ दीपशिखा  तथा टेम्स की सरगम पर एम फिल
5) डॉ अम्बेडकर कॉलेज आगरा से मालवगढ की मालविका तथा आसमानी आँखों का मौसम पर एम फिल,
6)शाहजहाँपुर से संतोष श्रीवास्तव के रचना सँसार में प्रतीक और प्रयोगवाद
एक आधुनिक दृष्टिकोण विषय पर पी एच डी
7)राज ऋषि भर्तहरि मत्स्य विश्वविद्यालय अलवर राजस्थान से कहानी और उपन्यास दोनों पर संयुक्त रूप से पीएचडी
8)लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ से संतोष की आत्मकथा "मेरे घर आना जिंदगी" के कथ्य एवं शिल्प का विवेचनात्मक अध्ययन : विशेष संदर्भ- 1990 ई. से अब तक की महिला साहित्यकारों की आत्म कथाएं
9)यवतमाल से संत गाडगे बाबा अमरावती विश्वविद्यालय से कहानियों में नारी चेतना विषय पर पीएचडी हो रही है।

10) धर्मयुग में प्रति सप्ताह दो वर्ष तक अंतरंग स्तंभ का लेखन, समरलोक में
11) समरलोक में स्त्री विमर्श पर आधारित स्तँभ अँगना का लेखन वर्ष 2000 से जारी तथा नवभारत टाइम्स के साहित्यिक पृष्ठ में मानुषी स्तंभ का दो वर्षों तक लेखन
12) मसि कागद के नारी विशेषाँक का सँपादन,सँझा लोकस्वामी के साहित्यिक पृष्ठ का तीन वर्षों तक सँपादन
13) विज्ञापन एजेंसी लिंटाज़ तथा आर टी वी सी में कापी राईटिंग,जिंगल राईटिग
14) SRM विश्वविद्यालय चेन्नई के बीए के कोर्स में कहानी एक मुट्ठी आकाश सम्मिलित तथा लघुकथाएं महाराष्ट्र राज्य बोर्ड के 11वीं की बालभारती में
15) राही सहयोग संस्थान रैंकिंग 2018,2019 तथा 2020 में वर्तमान में विश्व के टॉप 100 हिंदी लेखक लेखिकाओं  में  नाम शामिल।
16)द संडे इंडियन द्वारा प्रसारित  21वीं  सदी की 111 हिंदी लेखिकाओं में नाम शामिल।
17)भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा  विश्व भर के प्रकाशन संस्थानों को शोध एवं तकनीकी प्रयोग( इलेक्ट्रॉनिक्स )हेतु देश की  उच्चस्तरीय पुस्तकों के अंतर्गत "मालवगढ़ की मालविका " उपन्यास का चयन

 
अन्य गतिविधियाँ : -

 1) हेमंत फाउँडेशन की स्थापना जिसके अँतर्गत पिछले 1998 से विजय वर्मा कथा सम्मान एवं हेमँत स्मृति कविता  का आयोजन
2) हेमंत फाउँडेशन के द्वारा पुस्तकों का लोकार्पण,कवि सम्मेलन,कहानी पाठ का समय समय पर आयोजन
3) आदिवासी महिलाओं को साक्षर बनाने तथा उन्हें उनके अधिकारों के प्रति जागरुक करने के लिये भारत के विभिन्नआदिवासी क्षेत्रों का दौरा,विभिन्न सामाजिक सँस्थाओं तथा राज्य सरकार के सहयोग सहित
4) समाज कल्याण बोर्ड एवँ वुमन नेटवर्क लिमिटेड दिल्ली द्वारा आयोजित महिला पत्रकारो के  राष्ट्रीय  सम्मेलन में महाराष्ट्र की ओर से प्रतिनिधित्व                
5) मारीशस में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय समकालीन साहित्य सम्मेलन भारत की ओर से शिरकत
6)  अंतर्राष्ट्रीय विश्व मैत्री मँच संस्था की संस्थापक ,अध्यक्ष जिसके अंतरगत राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों का वर्ष 2013 से आयोजन
7) भारत सरकार की ओर से अंतर्राष्ट्रीय पत्रकार मित्रता सँघ की सदस्य मनोनीत जिसके अंतर्गत जर्मनी, आस्ट्रेलिया, नीदरलैंड, बेल्जियम, स्काटलैंड, इंग्लैंड, फ्राँस, इटली, रोम, मारिशस, न्यूज़ीलैंड, स्विटज़रलैंड, जापान, थाईलैंड, उजबेकिस्तान, वियतनाम, ऑस्ट्रिया, कँबोडिया, दुबई, रूस, मिस्र, भूटान की साहित्यिक यात्रा।
8)वर्ल्ड लिटरेरी फोरम फॉर पीस एंड ह्यूमन राइट्स, भूटान  के द्वारा 
इंटरनेशनल एंबेसेडर ऑफ पीस का स्टेटस प्रदान किया गया।

पता : -
505 सुरेन्द्र रेज़िडेंसी , दाना पानी रेस्टारेंट के सामने ,
बावड़ियां कलां , भोपाल - 462039 मध्य प्रदेश

1.अपने पराए
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सुखविंदर कौर आग्रह सहित मेहमानों की प्लेट में व्यंजन परोस रही हैं ।
"खाओ जी, खुशी का मौका है। बेटा हरभजन दुश्मन की कैद से छूटकर आया है।"
 सरदार जी अपने मित्र राय साहब की पीठ पर हाथ रखते हुए कहते हैं
" रात ज्यादा होने की फिकर न करना यार, गाड़ी से तुम्हारे होटल छुड़वा देंगे। वैसे दुबई में रात बड़ी रौनक रहती है। मुझे तो मुंबई खूब याद आता है। पर क्या करें कारोबार के चक्कर में दुबई आ बसे।"
  रात तीन बजे पार्टी समाप्त हुई ।दुबई की सड़कें वाकई चहल-पहल भरी हैं
" क्या नाम है ड्राइवर साब आपका?" "वही जो आपके देश के महान कॉमेडियन का था..... महमूद ,बहुत बड़ा फैन हूं मैं उनका।"
"आप यहीं दुबई से हैं।"
"नहीं मुल्तान यानी कि पाकिस्तानी। आपके देश का सबसे बड़ा दुश्मन।" 
वह हो हो कर हंसने लगा ।
"बताइए जनाब ,क्या मैं आपको दुश्मन लगता हूँ ? क्या आपको नहीं लगता कि सरहदें मिट जाएँ ? खून खराबा बंद हो ?कब तक हम अपनों को जमीन के टुकड़ों के लिए खोते रहेंगे?"
राय साहब उस आम आदमी की बड़ी सी सोच पर दंग थे ।
"हाँ महमूद, हम भी यही चाहते हैं। तुम पाकिस्तानी हम हिंदुस्तानी। पर खून तो हमारा एक ही है न । कभी मुल्क भी हमारे एक ही थे ।पर बुरा हो इन अंग्रेजों का......"
महमूद ने सहसा गाड़ी रोक दी। "जनाब, अंग्रेज तो पराए देश के थे। उनका काम ही फूट डालने का था ।पर हम तो पराए नहीं थे ।फिर ??? ****

2. औरंगजेब
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गाइड बता रहा था --"इस छोटे से झरोखे से शाहजहाँ ताजमहल का दीदार करते थे। गद्दी पाने की चाह में औरंगजेब ने चालाकी से उन्हें इस महल में ताउम्र नजरकैद रखा था ।उसका कहना था कि अपने प्रेम को जीवित रखने के लिए शाहजहाँ ने ताजमहल बनवा कर करोड़ों रुपए बर्बाद किए, शाही खजाना खाली कर दिया ।मुगल हुकूमत का अस्तित्व संकट में आ गया।"
उसके साथी आपस में कहने लगे कि कितना अत्याचारी था औरंगजेब अपने ही पिता को कैद कर लिया।
रजत जहाँ के तहाँ मूर्तिवत खड़ा था । साथियों के इस वाक्य ने उसे बेचैन कर दिया था ।
उसके पिता शहर के करोड़पति व्यापारी उमेश राय..... पांच सितारा होटलों की चेन पूरे उत्तर प्रदेश में फैली है उनकी। उमेश राय साहित्यकारों की बहुत मदद करते हैं। साहित्यिक आयोजनों के लिए होटल का कॉन्फ्रेंस रूम और चाय नाश्ता स्पॉन्सर करते हैं। शहर के  बुद्धिजीवी वर्ग ने उन्हें दानवीर ,खुले हाथों मदद करने वाले आदि विशेषणों से नवाजा है। पिता के खर्च को धन लुटाना समझ कर रजत ने चालाकी से उनकी संपूर्ण संपत्ति अपने नाम करवा कर उनसे कहा
"आप तो दोनों हाथों से धन लुटाते हैं पिताजी, इस तरह तो व्यापार ठप्प हो जाएगा। वैसे भी अब आपकी भजन पूजन की उम्र है। मैं संभालता हूँ व्यापार।"
उन्हें अब अपने घर में बेबस सा रहना पड़ रहा था। रजत ने मानो उनके हाथ बांध दिए थे।
उसके साथी उसे आवाज दे रहे थे
" चलो रजत ,अभी तो पूरा किला घूमना बाकी है।"
लेकिन कहाँ है रजत वहाँ तो औरंगजेब खड़ा है। ****

3. जोखिम
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ईट के भट्टों से उठते धुएं के गुबार में वह आँखें मिचमिचाती देख रही है। मंजर जानलेवा है। पुलिस की जीप उसके निर्दोष पति को जीप में बैठाकर ले जा रही है। भीड़ के मजमे में पैरों तले खिसकती जमीन पर वह लड़खड़ाती भागी अंधाधुंध ......कि बंदूक चलने की आवाज ने उसे पथरा दिया ।पुलिस ने उसके पति को दौड़ा-दौड़ा कर मार डाला ।जैसे अक्स हो गया है उसकी डबडबाई आंखों में पति का दौड़ता, गिरता, तड़पता और पथराता हुआ जिस्म..... एक चीख कुचली नागिन सी बिलबिलाई..." नहीं मत मारो उसे " लेकिन चीख ने दम तोड़ दिया। रोते कलपते बच्चों को छाती से चिपकाए उसने अपना सर दीवार पर पटका और माथे के लहू को हथेलियों पर रगड़ने लगी ।
ज्यादा दिन शोक नहीं मना पाई वह पति का। ठंडे चूल्हे ,खाली बर्तनों ने उसे ईंट के भट्टे की ओर जाने को मजबूर कर दिया।
" इनकाउंटर हुआ है तेरे पति का।"
ठेकेदार ने लार टपकाते हुए उसके जिस्म के उभारों को घूरा और खैनी मलने लगा ।
"हम जानते हैं वह निर्दोष था ।उसे फंसाया गया था ।पुलिस को अपनी वर्दी में बिल्ला बढ़ाने के लिए किसी को तो मारना था ना।"
खैनी गाल में दबाते हुए उसने हाथ झटका।
"तू चिंता मत कर, हम हैं ना"
कानून के रखवालों की साजिश और सत्ता के वहशी खेल की शिकार थी वह ।उसका सर्वांग हाहाकार कर उठा ।कहां से लाएगी वह अपने बच्चों की थाली में भात?? कैसे बचाएगी अपने घर के टूटे छप्पर को मौसम की मार से?? तो क्या ठेकेदार के आगे समर्पण करना होगा?? रात भर वह अपने मासूम निर्दोष पति को याद करते हुए चिंता के बवंडर से घिरी रही। पौ फटने को है। फैसला अभी करना होगा। अभी नहीं तो फिर कभी नहीं ।
उसने सोते बच्चों को कंधे पर उठाया और अंधकार में गांव से बाहर जाती पगडंडी पर उतर गई। ****

4. डाली से टूटा पत्ता
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  मेडिकल रिपोर्ट विनय के हाथोँ मे थरथरा रही थी। मोटर न्यूरान डिज़ीज़ .....यानी अब कभी सुजाता चित्र नही बना पायेगी।कभी ब्रश और रँगो की दुनिया मे नही लौट पायेगी....मशहूर चित्रकार सुजाता दास ....कई एकल प्रदर्शनियो और 15 नेशनल अवार्ड की विजेता सुजाता दास अपाहिज होकर बिस्तर पर सारी उम्र गुजारेगी? “नही वह ऐसा नही होने देगा,वह अपनी मेहबूबा के लिये ज़मीन आसमान एक कर देगा।“
बरसो इलाज चला।महँगी दवाईयाँ,महँगी फिजियोथेरेपी,आयुर्वेदिक इलाज भी,योगकेन्द्र भी। कोशिश ,आश्वासन और इस सबके बीच सुजाता के जिस्म की बेहिसाब पीडा...अब उसके हाथ उसके इशारो पर चलने से इँकार करते है। पैर उठ्ने और सेंडिल पहनने से इँकार करते है और धीरे धीरे इस इंकारी ने ज़बान पर भी कब्जा करना शुरू कर दिया है। लेकिन सुजाता की जिजीविषा कम नही हो रही है,वह इस इंकारी से कठिन संघर्ष कर रही है। उसे जीना है ,मुस्कुराना है,अपँगता को हराना है। संघर्ष कठिन है...थाली से एक निवाला उठाकर मुँह तक पहुँचाने मे पूरा दिन गुजर जाता है।....लेकिन आज पूरी शक्ति से वह उठी है...अपने लुँज पुँज हाथो से दीवार का सहारा लिया है...धरती थरथराई है....धरती या वह स्वयँ...या वह कैनवास जहाँ तक रेंगने मे उसे एक घँटा लगा...पेंसिल उठाने मे पँद्र्ह मिनिट...रेखाएँ बनाने मे दो घँटे, रंग भरने मे एक घंटा। विनय जब ये खुशखबरी लेकर घर आया कि स्टेट गव्हमेंट उसे इलाज के लिये अमेरिका भेजने का खर्च उठा रही है तो वह दंग रह गया....सुजाता फर्श पर गिरी हुई थी लेकिन आँखो मे सौ सौ दीपको की चमक थी ...गिरी हुई हालत मे ही उसने कैनवास की ओर इशारा किया.. वहाँ डूबते सूरज के पीले उजास में गुलमोहर के झड़े हुए फूलों के बीच से एक हरा पत्ता अपने कोमल डंठल पर मुँह उठाए झांक रहा था ।
पतझड़ की विदाई का वासंती उत्सव पूरे दृश्य को मानो केनवास में समेटे था। सुजाता की आँखें चमक रही थीं।  उसने विनय से कहा 
"देखो मैं कर सकती हूँ। मैंने बना लिया चित्र  विनय।"
 विनय ने उसके सूजे हुए हाथों को अपने हाथ में लेकर थपथपाया " हाँ तुम कर सकती हो।  तुमने बेहद खूबसूरत चित्र बनाया है।  तुम सक्षम हो सुजाता ।"और उसकी आँखों से दो बूँद आँसू सुजाता की हथेलियों पर चू पड़े।****

 5. झूठ का सच
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जॉगिंग पार्क में सुबह की सैर के दौरान  वटवृक्ष के नीचे बने चबूतरे पर तीनों बुजुर्ग  बतिया रहे थे।
" जब रिटायर नहीं हुआ था तो बेड टी ,नाश्ता, लंच बॉक्स ,आयरन किये कपड़े ,पॉलिश किए जूते समय पर मिल जाते थे और मैं पत्नी के सेवा भाव से गदगद उस पर कुर्बान था पर अब!!!!"
"पूछिए मत, अब तो चाय के साथ अखबार भी 11 बजे तक मिलता है जब पूरा परिवार पढ़ लेता है।"
" मेरी बहू तो मुझे घर में टिकने ही नहीं देती सुबह 10 बजे रोटी सब्जी का टिफिन थमाकर रवाना कर देती है। महीने भर का लोकल रेलवे पास बेटे ने बनवा दिया है। दिन भर चर्चगेट से विरार अप डाउन करते रहो। रात 8 बजे ही घर लौटने की परमीशन है।" 
"वर्मा जी तो मज़े में हैं, मिसेज़ वर्मा नहीं है तो क्या हुआ, बेटा बहू खूब ध्यान रखते हैं।"
वर्मा जी की आंखें 6 साल के बच्चे के पीछे दौड़ते व्यक्ति पर पड़ी उनका बेटा भी उन्हें ऐसे ही दौड़ाता था ।यह बेटे के प्रति मोह ही तो है जो उनसे झूठ बुलवाता है कि वह मज़े में हैं। क्या फर्क पड़ता है ऐसा करने में ?
उनकी तो उम्र बीत गई। बेटे को क्यों बदनाम करें।****

6. नकाब
    ******

स्वात घाटी...... उनके हाथों की चाबुक बरस रही हैं कोमल बदन की किसी सलमा, नजमा, रेहाना पर क्योंकि उनके चेहरों से नकाब जरा से सरक गए हैं और उनके हाथों ने थाम रखी है किताबें कॉपियां पेन .....सदियों की जहालत के खिलाफ .....
सिलाई मशीन के साथ साथ वह भी थरथराती है। टीवी पर फिल्म ब्रेक के विज्ञापनों से गुजर रही है। अम्मी से उसका भी सवाल था कि
सिर से पैर तक नकाब क्यों??
क्यों हमारे हिस्से पढ़ाई नहीं?? 
क्यों हम महज़ एक वस्तु ??
या नकाब में छिपी महज़ एक जिंदा लाश?? अम्मी के पास इन सवालों का कोई जवाब नहीं था। वह प्रतिदिन सिलाई मशीन पर नकाब सीने का काम ही तो करती है। हर बार यह मानकर कि उसने सिल चुके नकाबो के अंदर एक शोला दबा दिया है ।कभी तो भड़केगा ।शोले की आग अब भड़कती नज़र आ रही है। ******

7.नया मोड़
   ********

मां, बाबा उसे पिछले 15 दिन से घर में कैद किए हैं ।
क्यों माँ, क्यों नहीं मुझे कॉलेज जाने दे रही हो? सहेलियों से मिलने नहीं दे रही हो?"
"नासमझ मत बन। दुनिया की निगाहों का सामना कर पाएगी ?"
" मैंने किया क्या है आखिर ?"
अब की बार उसकी आंखों में मां को डरावने बादल घुमड़ते नज़र आए ।उन्होंने आहिस्ते से कहा 
"बलात्कार हुआ है तेरा। समाज के डर से ही तो बाबा ने रपट दर्ज नहीं कराई। मैं तो तेरे भविष्य को लेकर चिंतित हूं। अब कौन करेगा तुझसे शादी?"
" जो इंसानियत से भरा होगा वही करेगा शादी। बीमार मानसिकता वाले इस खबर को चटखारे लेकर एक दूसरे को सुना रहे होंगे।"
उसकी आंखों के बादल सहसा आंधी में बदल गए ।
"बलात्कार मेरे शरीर का हुआ है मेरा नहीं। मेरे भीतर की लड़की पूरे मान सम्मान से अभी भी जिंदा है ।लज्जित तो मां तुझे तब होना था अगर मैं अपनी हवस मिटाने को, या रुपयों के लिए अपने शरीर को बेचती ।उस नाली के कीड़े को तो मैं कब का दफन कर चुकी कीचड़ में ।तुमने बदनामी के डर से fir दर्ज़ नहीं की,फिर मुझ बेगुनाह को ये कैद क्यों ? "
उसने तेज़ी से मोबाइल पर अपनी सहेली को फोन लगाया कि जैसे तेज आंधी में घर के दरवाजे खिड़कियां शोर करने लगे।
" आधे घंटे में हम सिटी मॉल में मिल रहे हैं। बाजीराव मस्तानी देखेंगे और महाराजा में लंच लेंगे।" *****

8. बारिश
    ******

मुंबई की धुआंधार बारिश की चपेट में था महानगर ।निचले भागों में तो घुटने घुटने पानी भर चुका था। विवेकी बाबू का चार मंजिल की बिल्डिंग में पहली मंजिल पर टेरेस फ्लेट था। टेरेस से पानी सीधा कमरों में घुसने लगा ।थोड़ी ही देर में हल्का फुल्का सामान कमरों में भरे पानी में तैरने लगा। घर के सभी प्राणी पानी उलीचने में लग गए। पर वे जितना उलीचते पानी  लौट लौट कर उतना ही भरता जाता।
" अरे, फोन करो घसीटाराम को। समझ में नहीं आ रहा पानी लौट लौट कर क्यों आ रहा है।"
आवाज मोहिनी की थी ।जो  घसीटाराम मेहतर को घर की दहलीज तक पर खड़े नहीं  होने देती थीं। वह दरवाजे पर आ भी जाता तो बाल्टी भर पानी डाल जगह पवित्र करती थीं। कभी कंपाउंड की सफाई कर उनके दरवाजे पीने को पानी या चाय मांगता तो पैसे टिका देतीं।
" जा  होटल में पी ले जाकर ।"
उसके जाते ही दरवाजे पर अगरबत्ती लगा देतीं। कमरों में अगरबत्ती की खुशबू भरने लगती।
"मुआ ,नालियां साफ कर खुद भी नाली जैसी बदबू मारता है । गांधी जी ने वैष्णव जन कहकर इन्हें सर चढ़ा लिया। वरना क्या मजाल कि ये ड्योढ़ी चढ़ें। "
मगर आज ........
विवेकी बाबू ने फोन लगाकर उसे बुलाया ।इतनी भारी बारिश में भी वह दौड़ता हुआ आया। घुटनों तक पैंट चढ़ाए, तवे जैसा काला, पीली आँखों वाला घसीटाराम दरवाजे से कमरों में भरे पानी में  पैर डुबोता रसोई घर से होता हुआ टेरेस तक गया। घुटने के बल बैठ कमीज की बाँहे चढ़ाईं और नाली में हाथ डालकर ढेर सारा कचरा निकाला । नाली खुलते ही पानी तेजी से बह चला। कमरों में रह गई कीचड़ जिसे साफ कर पूरे घर को कपड़े से पोछ कर सुखा डाला । घर चमक उठा। घसीटाराम विवेकी बाबू के दिए हुए मेहनताने के रूपए गिन ही रहा था कि मोहनी की रसोई घर से आवाज आई 
"सुनते हो ,चाय बिस्किट दे दो उसे। बेचारा इतनी बारिश में आया। नहीं आता तो हमें तो पानी बर्बाद ही कर डालता।"
बारिश थम चुकी थी ।पानी उतर गया था। ****

9. फैसला
    ******

आज फैसला सुनाया जाना था।वे अदालत की सबसे आगे की पँक्ति में बेहद गमगीन बैठी थीं। उनके तीस वर्षीय पुत्र नवीन को मृणाल के दोनो भाईयों विशाल और विवेक ने चाकुओं से गोद डाला था और खून से लथपथ लाश झाडियों में फेंककर फरार हो गये थे।लेकिन नवीन कोई मामूली घर का लडका नहीं था,उसके पिता आई ए एस ऑफीसर थे।इसलिए हत्यारे पकडे गये और तीन साल तक चलने वाले केस का नतीजा आज कुछ ही पलों में आने वाला है। अचानक उन्होंने अपना बुझा हुआ चेहरा पास बैठी मृणाल की ओर उठाया,जिसकी वजह से नवीन आज दुनिया में नहीं है लेकिन उसी की गवाही ने उनके मन को धोकर निर्मल कर दिया।
”मैं ब्राम्हण हूँ और नवीन दलित था। हमारे सम्बन्ध को परिवार वाले अपनी इज़्ज़त पर धब्बा समझते थे। घटना की शाम मेरे दोनो भाईयों ने पीट पीट कर मुझे बेहोश कर दिया। उन्हें लगा मैं मर चुकी हूँ और वे नवीन का खून करने उसके ऑफिस से लौटने का इंतज़ार गली के मोड पर करने लगे।“ और वह फूट फूट कर रो पडी थी।
न्यायाधीश का फैसला था....”गवाहों और साक्ष्य के आधार पर यहाँ पूरा मामला “ऑनर किलिंग” का है। गवाहों को पेश करने में ज़्यादा वक्त लगा,अपराधियों ने सबूत मिटाए,गवाह तोडे, मृणाल जी पर प्राणघातक हमला किया अत; अदालत विशाल और विवेक के लिए फाँसी की सज़ा मुकर्रर करती है।“
अदालत से बाहर आते ही उन्होंने मृणाल को गले से लगा लिया...”शुक्रिया बेटी।“
मृणाल ने झुककर उनके कदम छुए। धर्म निरपेक्ष देश में धर्म और जाति के नाम पर अपनी अपनी ज़िन्दगियाँ खोकर दोनो ने सूने रास्तों की ओर एक साथ कदम बढाए। ****

10. सती 
      ****

दस वर्ष की असीम पीड़ा का अंत। आज उसके प्रति सरजू प्रसाद की तेरहवीं है। घर में मेहमानों का तांता लगा है। सब उसके उदास चेहरे को देख तसल्ली बंधा रहे हैं 
,"शोक न करें ।उन्हें अपनी पीड़ा से मुक्ति मिल गई ।ऐसा सोचेंगी तो आप को शांति मिलेगी ।"
10 वर्ष से उसके पति पहले ब्रेन हेमरेज फिर गुर्दों की बीमारी से बिस्तर भोग रहे थे। आखिरी महीनों में तो बोल भी नहीं पा रहे थे ।पैर निष्क्रिय सब कुछ बिस्तर पर ही।
उसका बैंक अकाउंट शून्य हो गया। बीमारी का भारी खर्च। गहने बेचने पड़े। घर गिरवी रखना पड़ा।
10 वर्ष वह भी उनकी तरह ही रही उनके जैसा ही परहेज वाला भोजन खिचड़ी ,दलिया,सूप। बाहर की दुनिया उसके लिए दिवास्वप्न हो गई।
एक वह भी समय था जब सहेलियों के साथ सिनेमा, थिएटर, मॉल, पिकनिक ।अभी उम्र ही कितनी थी। सहेलियां फोन पर बतातीं।
" आज मॉल गए थे हम लोग ।बहुत बढ़िया डिजाइन के कपड़े आए हैं। बाहर ही खाना खाया ।तुम्हारी पसंद का ।तुम्हें याद करके ।पिज़्ज़ा बर्गर लीची का जूस। "
शुरू शुरू में तो सब उसके पति की तबीयत का हाल चाल पूछने घर आती थीं, तबीयत के बहाने रिश्तेदार भी कई कई दिन घर में जमे रहते। शहर घूमते मजा करते।
लेकिन अब न सहेलियाँ घर आतीं न कोई रिश्तेदार। बस वह थी और बीमारी से जूझते सरजू प्रसाद ।मेहमान एक-एक कर विदा हो गए आखरी में डॉक्टर आए ।वह उनके सामने हाथ जोड़े रो पड़ी।
" अरे रोती क्यों है आपने तो पति की सेवा का अद्भुत उदाहरण पेश किया है। 10 वर्ष तक आप तिल तिल  जलती रहीं। आप तो सती हैं ।केवल पति के साथ चिता में जलने से ही सती नहीं होती।" ***

11. भेंट क्वार्टर

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दयालबाग में अब सन्नाटा है उनके संगी साथी लगभग सभी दुनिया से विदा हो चुके हैं। मौत का भय उन्हें भी सताने लगा है ।न जाने कैसे निकलेगी जान ।अकेली हैं। कोई पानी देने वाला भी नहीं ।ऊपर से इस घर की माया....... दीवारें, किवाड़, आंगन मानो पुकार पुकार कर कहते हैं हमें छोड़कर न जाना। बहुत प्यार करती हैं वे अपने घर को।मगर खाली-खाली जिंदगी ..खाली घर.... जैसे भी वीरानियों को और बढ़ा देता है।

उनकी नजर अपने पलंग से होती हुई कमरों को लांघती आंगन में लगे अनार के पेड़ पर जाकर ठिठक जाती है। अनार फलों से लदा है। दिनभर उन पर चिड़ियाँ फुदकती हैं। छूटता नहीं इस घर का मोह। बड़े बेटे रघु ने उनके लिए यह घर खरीदा था। पर वह खुद सत्संगी नहीं है। बेच भी तो सकते नहीं किसी को ।परिवार में कोई सत्संगी हो उसे ही मिलता है घर। वरना मरणोपरांत दान कोष में चला जाता है। यही नियम है दयालबाग का।

हाय, उनके बाद यह घर दान हो जाएगा ?जाने कौन आकर रहेगा ? वे व्याकुला जाती हैं।

"चलिए माता जी, सत्संग का समय हो गया ।आज तो इंजीनियरिंग कॉलेज के विद्यार्थी नाटक भी खेलेंगे । गुरु महाराज जी नेपाल से लौटे हैं। दरी चादरों की सेल होगी।"

अब शरीर साथ नहीं देता ,पर सत्संग में बिला नागा जाती है वे।

सुमन बहन जी का हाथ पकड़ वे रिक्शा में जा बैठीं।

"सुमन अब तो ज्यादा दिन की जिंदगी बची नहीं । घर की चिंता सताती है।मेरे बाद यह घर रघु को तो मिलने से रहा ।वह सत्संगी नहीं है न।"

"भेंट कर दो माताजी ।"

"भेंट कर दूं ?इतनी मुश्किलों से रघु ने खरीदा ।कह कह कर थक गई कि सत्संगी हो जा ।पर सुनता नहीं। अब जिंदगी का क्या भरोसा। हम आज है कल नहीं।"

"जीते जी भेंट कर देंगी तो आपका नाम दान कर्ता की लिस्ट में हमेशा याद रखा जाएगा और नहीं करेंगी तो मृत्यु के बाद इस पर दयालबाग का अधिकार तो होना ही है।"

सत्संग हॉल आ गया था।

उनका मन न सत्संग में लगा ,न सेल में। सत्संग के बाद सुमन ने थरमस में से चाय और बिस्किट दिए 

"एक घंटे का नाटक है। पूरा देख कर चलेंगे। आप दवाई ले लो ब्लड प्रेशर की।"

" अब दवाई भी काम कहां करती है। पता नहीं जान किस मोह में अटकी है।"

नाटक जैसे उनकी अंतरात्मा के लिए सबक था। नाटक में दिखाया गया। मर कर आत्मा भटक रही है। बड़े चाव से बनवाए अपने घर के आस-पास ही मंडरा रही है ।हाय मेरा घर ,हाय मेरा घर । 

चौंक पड़ीं वे।उनकी आत्मा मर कर इसी तरह भटकती रही तो!!!! वे सिहर उठीं। फिर उनका मन नाटक देखने में नहीं लगा। कोई पीछे से बोल रहा था ।

"छोड़ दो मोह। राधास्वामी दयाल के चरणों में लौ लगाओ ।"

" मुझे कल ही ले चलो सुमन ट्रस्ट के ऑफिस। फॉर्म भरवा दो मेरा। भेंट कर दूंगी अपना घर।"

उन्होंने कसकर सुमन का हाथ पकड़ा। हाथ बर्फ सा ठंडा था।

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क्रमांक - 05

पिता : स्व. श्री दशरथ झा
माता : श्रीमती सूर्यमुखी झा
जन्म : 20 जूलाई, 1969 , कोलकत्ता
शिक्षा- बी. ए., ग्राफिक्स डिजाइनर, डिप्लोमा इन डेस्कटॉप पब्लिशिंग (MS Office, qwark press, Page maker, Coral graphics)

लेखन की विधाएँ: -
लघुकथा, कहानी, गीत-गज़ल-कविता और आलोचना

सम्प्रति : प्रशासनिक अधिकारी, मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, हिंदी भवन भोपाल।

पुस्तक प्रकाशन : -

घाट पर ठहराव कहाँ (एकल लघुकथा संग्रह),
पथ का चुनाव (एकल लघुकथा संग्रह),
अस्तित्व की यात्रा (एकल लघुकथा संग्रह)

सम्पादन पुस्तकें : -

चलें नीड़ की ओर (लघुकथा संकलन)
सहोदरी लघुकथा-(लघुकथा संकलन)
सीप में समुद्र-(लघुकथा संकलन)
बालमन की लघुकथा (लघुकथा संकलन)
दस्तावेज -2017-18 (लघुकथा एवम् विमर्श)
समय की दस्तक (लघुकथा संकलन)
रजत श्रृंखला (लघुकथा संकलन)
भारत की प्रतिनिधि महिला लघुकथाकार (लघुकथा संकलन, प्रेस में)
लघुकथा-महासंकलन (पटियाला, साहित्य कलश का प्रकाशन)

सम्मान : -

साहित्य शिरोमणि सम्मान, भोपाल 2015
इमिनेंट राईटर एंड सोशल एक्टिविस्ट, दिल्ली 2015
श्रीमती धनवती देवी पूरनचन्द्र स्मृति सम्मान,भोपाल 2015
लघुकथा-सम्मान, अखिल भारतीय प्रगतिशील मंच,पटना 2016
क्षितिज लघुकथा सम्मान 2018
तथागत सृजन सम्मान, सिद्धार्थ नगर, उ.प्र. 2016
वागवाधीश सम्मान, अशोक नगर,गुना 2017
गणेश शंकर पत्रकारिता सम्मान.भोपाल 2016
शब्द-शक्ति सम्मान,भोपाल 2016
श्रीमती महादेवी कौशिक सम्मान (पथ का चुनाव, एकल लघुकथा संग्रह) प्रथम पुरस्कार सिरसा, 2017
राष्ट्रीय गौरव सम्मान चित्तौड़गढ़ 2018
श्री आशीष चन्द्र शुल्क (हिंदी मित्र) सम्मान, 2017 गहमर,
तेजस्विनी सम्मान,गहमर.  2017
डॉ.मनुमुक्त 'मानव' लघुकथा गौरव सम्मान 2018
साहित्य शिरोमणि पंजाब कला साहित्य अकादमी सम्मान, जालंधर 2018
क्षितिज लघुकथा समग्र सम्मान, इंदौर 2019
लघुकथा रत्न सम्मान (हेमंत फाउंडेशन, मुम्बई) 2020
सारस्वत सम्मान, श्रीकृष्ण सरल स्मृति सरल काव्यांजलि साहित्यिक संस्था, उज्जैन 2020
अभिनव कला शिल्पी सम्मान 2020
नारी उत्कृष्टता सम्मान 2021, रबीन्द्रनाथ टैगोर विश्वविद्यालय महिला विकास प्रकोष्ठ
डॉ. सूबेदार सिंह 'अवनिज' स्मृति' किस्सा कोताह 'लघुकथा' पुरस्कार 2020, ग्वालियर

संस्थापक : -

1. लघुकथा कोश डॉट कॉम,
2. लघुकथा वृत्त डॉट पेज
3. 'लघुकथा के परिंदे' फेसबुक मंच
4. अपना प्रकाशन

विशेष : -

- प्रधान सम्पादक: लघुकथा वृत्त
- निदेशक : लघुकथा शोध-केंद्र भोपाल, मध्यप्रदेश
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कलामंदिर कला परिषद संस्थान में कार्यकारिणी सदस्य
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-  उर्वशी, (लघुकथा विशेषांक, मासिक पत्रिका, भोपाल)
- एकल लघुकथा-पाठ : निराला सृजन पीठ, भारत भवन, भोपाल।
- आकाशवाणी भोपाल से कहानी, लघुकथाएँ प्रसारित, दूरदर्शन से कविताओं का प्रसारण.
-  सेतु हिंदी द्वारा प्रायोजित लघुकथा प्रतियोगिता में|
- राज्य स्तरीय कहानी प्रतियोगिता, मध्यप्रदेश
- स्टोरी मिरर,  कांटेस्ट में बतौर निर्णायक
-  ग्लोबल लिटरेरी फेस्टिवल फिल्म सिटी नोयडा, उ.प्र. में लघुकथा वर्कशॉप में |
-  लघुकथा कार्यशाला करवाया : हिन्दी लेखिका संघ मध्यप्रदेश भोपाल में 2016 |
- दून फिल्म फेस्टिवल कहानी सत्र में अतिथि वक्ता के तौर पर सहभगिता।
-  अभिव्यक्ति विश्वम, लखनऊ के तहत ‘एक दिन कान्ता रॉय के साथ’ –2018(लघुकथा कार्यशाला)
- विश्वरंग 2019 के तहत वनमाली सृजन पीठ के तत्वावधान में आयोजित लघुकथा शोध केंद्र भोपाल मध्यप्रदेश का वृहत आयोजन
-  हिन्दी भवन भोपाल द्वारा लघुकथा प्रसंग 2019 का आयोजन।
- 12 फरवरी 2020 में लघुकथा पर कार्यशाला एवं वक्तत्व, भोपाल स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज, भोपाल।

पता : –
मकान नम्बर-21,सेक्टर-सी, सुभाष कालोनी, नियर हाई टेंशन लाइन, गोविंदपुरा, भोपाल- 462023 मध्यप्रदेश

1. विलुप्तता

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"जोगनिया नदी वाले रास्ते से ही चलना। मुझे नदी देखते हुए जाना है।" रिक्शे पर बैठते ही कौतूहल जगा था।

"अरे,जोगनिया नदी ! कितनी साल बाद आई हो बीबी जी? ऊ तो, कब का मिट गई।"

"क्या? नदी कैसे मिट सकती है भला?" वो तड़प गई।

गाँव की कितनी यादें थी जोगनिया नदी से जुड़ी हुई। बचपन, स्कूल, कुसुमा और गणेशिया। नदी के हिलोर में खेलेने पहुँच जाते जब भी मौका मिलता और पानी के रेले में कागज की कश्ती चलाना। आखिरी बार खेलने तब गई थी जब गणेशिया को जोंक ने धर लिया था। मार भी बहुत पड़ी थी।

फिर तो माई ही स्कूल लेने और छोडने जाने लगी थी।

रिक्शा अचानक चरमरा कर रूक गया। तन्द्रा टूटी।

"हाँ,बहुत साल बाद अबकी लौटी हूँ। कैसी सूखी ये नदी,कुछ बताओगे?"

"अरे, का बताये, भराव होते-होते उथली तो पहले ही हो चुकी थी और फैक्ट्री वालों को भी वहीं बसना था। वो देखो, आपकी जोगनिया नदी पर से उठता धुँआ।"

चिमनी से उठता गहरा काला धुआँ उसकी छाती में आकर जैसे बैठ गया।

"गाँव तो बचा हैै ना?" घुट कर बस इतना ही पूछ पाई।****


2. अस्तित्व की यात्रा

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उसका अपना साथी जो उसके मुकाबले अब अधिक बलिष्ठ था, उसको शिकार करने के उद्देश्य से घूर रहा था। देखकर उसका हृदय काँप गया।

वह सहमती हुई उन दिनों को याद करने लगी जब दोनों एक साथ शिकार करते, साथ मिलकर लकड़ियाँ चुनकर लाते, आग सुलगाते, माँस पकाते, साथ मिल-बांटकर खाते। सहवास के दौरान एक दूसरे का बराबरी से सम्मान भी करते थे।

दरअसल तब वे दोनों असभ्य, अविकसित जीव थे, शिकारी होकर भी सम्बंधों को परिपूर्णता से जिया करते थे।

वह याद करती है उस दिन को जब उसके गर्भवती होते ही दूसरे ने उसके लिए घर बनाने का सोचा था। प्रसवित जीव को केन्द्र में रखकर दोनों ने उस वक्त अपने लिए कार्यक्षेत्र का विभाजन किया था। उसके बाद से वह प्रसवित जीव की देखभाल करने के लिए घर में रहने लगी और शनैः शनैः कोमल शरीर धारण करने लगी थी। उसे कहाँ मालूम था कि समय बीतने पर इन्हीं बातों के कारण वह स्त्री कहलाएगी।

उसके शिकार को उद्दत अपने साथी की बलिष्ठ भुजाओं की ओर उसने पनियाई आँखों से देखा, फिर अपनी कोमल और कमजोर शरीर पर नजर फेरी। वह ठिठकी, दूसरे ही क्षण उसकी आँखों में कठोरता उतर आयी थी।

वह प्रसवित जीव को अपने साथ ले, घर से बाहर शेरनी बनकर फिर से स्वयं के पोषण के लिए शिकार करने निकल पड़ी।

वह अब स्त्री नहीं कहलाना चाहती थी।****


3.बैकग्राउंड

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"ये कहाँ लेकर आये हो मुझे।"

"अपने गाँव, और कहाँ!"

"क्या, ये है तुम्हारा गाँव?"

"हाँ, यही है, ये देखो हमारी बकरी और वो मेरा भतीजा "

"ओह नो, तुम इस बस्ती से बिलाँग करते हो?"

"हाँ, तो?"

"सुनो, मुझे अभी वापिस लौटना है!"

"ऐसे कैसे वापस जाओगी? तुम इस घर की बहू हो, बस माँ अभी खेत से आती ही होगी"

"मै वापस जा रही हूँ! साॅरी, मुझसे भूल हो गई। तुम डाॅक्टर थे इसलिए ...."

"तो ....? इसलिए क्या?"

"इसलिए तुम्हारा बैकग्राउंड नहीं देखा मैने।"****


4. चेहरा

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आधी रात को रोज की ही तरह आज भी नशे में धुत वो गली की तरफ मुड़ा। पोस्ट लाईट के मध्यम उजाले में सहमी-सी लड़की पर जैसे ही नजर पड़ी, वह ठिठका। लड़की शायद उजाले की चाह में पोस्ट लाईट के खंभे से लगभग चिपकी हुई सी थी। करीब जाकर कुछ पूछने ही वाला था कि उसने अंगुली से अपने दाहिने तरफ इशारा किया। उसकी नजर वहां घूमी। चार लडके घूर रहे थे उसे। उनमें से एक को वो जानता था। लडका झेंप गया नजरें मिलते ही। अब चारों जा चुके थे। लड़की अब उससे भी सशंकित हो उठी थी, लेकिन उसकी अधेड़ावस्था के कारण विश्वास ....या अविश्वास ..... शायद!

"तुम इतनी रात को यहाँ कैसे और क्यों?"

"मै अनाथाश्रम से भाग आई हूँ। वो लोग मुझे आज रात के लिए कही भेजने वाले थे।" दबी जुबान से वो बडी़ मुश्किल से कह पायी।

"क्या..... ! अब कहाँ जाओगी?"

"नहीं मालूम!"

"मेरे घर चलोगी?"

".........!"

"अब आखिरी बार पुछता हूँ, मेरे घर चलोगी हमेशा के लिए?"

"जी!" ....मोतियों सी लड़ी गालों पर ढुलक आयी। गहन कुप्प अंधेरे से घबराई हुई थी। उसने झट लड़की का हाथ कसकर थामा और तेज कदमों से लगभग उसे घसीटते हुए घर की तरफ बढ़ चला। नशा हिरण हो चुका था। कुंडी खडकाने की भी जरूरत नहीं पडीं थी। उसके आने भर की आहट से दरवाजा खुल चुका था। वो भौंचक्की-सी खड़ी रही।

"ये लो, सम्भालो इसे! बेटी लेकर आया हूँ हमारे लिए। अब हम बाँझ नहीं कहलायेंगे।" ****


5. कागज़ का गाँव

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जीप में बैठते ही मन प्रसन्नता से भर गया। देश में वर्षों बाद अपने देश  में वापसी, बार-बार हाथों में पकडे पेपर को पढ़ रही थी, पढ़ क्या, बार -बार निहार रही थी। सरकार ने पिछले दस साल से इस प्रोजेक्ट पर काम करके रामपुरा की बंज़र भूमि को हरा-भरा बना दिया है। गाँव की फोटो कितनी सुन्दर है, मन आल्हादित हो रहा था। उसका गाँव मॉडल गाँव के तौर पर विदेशों में कौतुहल का विषय जो है!

बस अब कुछ देर में गाँव पहुँचने ही वाली थी। दशकों पहले सूखा और अकाल ने उसके पिता समेत गाँव वालो को विवश कर दिया था गाँव  छोड़ने के लिए।

"अरे, ये तो अपने  गाँव  का  रास्ता  नहीं  मालूम  पड़ता," -- मीलों निकल आने के बाद भी दूर -दूर तक सूखा ही सूखा!

"मैडम आप के बताये रास्ते से ही जा रहे है, मुझे तो यहां आस-पास बस्ती दिखाई ही नहीं दे रही। सन्नाटा ही सन्नाटा है, इंसानो की तो क्या, लगता है चील-कौओं  की भी यहाँ  बस्ती नहीं है।"

"क्या! सामने जरा और आगे चलो, पेपर में तो बहुत तरक्की बताई है गाँव की, इसीलिए तो हम गावं में बसने की चाहत लिए विदेश में सब कुछ बेच आये है!"

"और कितना आगे लेकर जाएँगी मैडम, गाड़ी में पेट्रोल भी सीमित है"

"रुको गूगल सर्च करती हूँ!"- कहते हुए स्मार्टफोन निकाली, ओह! नेटवर्क ही नहीं ......... , बेचैन होकर फिर से गाँव को पेपर में तलाशने लगी।

"मैडम, कागज़ में गाँव था लगता है उड़ गया।" ****


6.टी-20 अनवरत

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वह क्रिकेट की दिवानी थी।जैसे ही क्रिकेट लीग व टूर्नामेंट शुरु होता कि दिन भर की धमाचौकड़ी बंद। फिर तो कहीं और नजर ही नहीं आती, बस बैठ जाती टी वी के आगे। महेंद्र सिंह धोनी ,विराट कोहली और गौतम गम्भीर ,बस ,दूसरा कुछ सूझता ही नहीं था उसे। सोफे पर चिप्स , कुरकुरे के ढेंरो पैकेट और दोस्तों की टोली, कहती क्रिकेट में दोस्तों के साथ हो तभी मजा आता है।

पिछली बार तो कितने सारे पॉपकार्न के पैकेट मंगा कर माँ को थमा दिया था। उफ्फ! यह लड़की भी ना! माँ के पल्ले ना तो क्रिकेट,ना ही इसके तामझाम समझ में आते।

जवानी की दहलीज पर पैर रखते ही बहुत अच्छे घर से रिश्ता आ जाना, वह भी बिना दहेज के, पिता तो मानों जी उठे थे।

"अजी, क्या इतनी सी उम्र में बिट्टो को व्याह दोगे? अभी तो बारहवीं भी पूरी नहीं हुई है। क्या वह पढ़ाई भी पूरी ना करें!" माँ लड़खड़ाती आवाज में कह उठी। अकुलाई-सी माँ बेटी के बचपने को शादी की बलि नहीं चढ़ाना चाहती थी।

"देखती नहीं भागवान, वक्त कितना बुरा चल रहा है, बेटी ब्याह कर, निश्चिंत हो, गंगा नहाऊँ।कल का क्या भरोसा फिर ऐसा रिश्ता मिले ना मिले।" एक क्षण रुक, कहते-कहते पिता के नयन भी भर आये थे। हर बात में लड़ने झगड़ने वाली ऐसी चुप हुई कि आज तक मुँह में सहमी उस जुबान का इस्तेमाल नहीं किया।

बाबुल के घर से विदा होकर आये पिछले एक महीनें में उसने एक बार भी मैच नहीं देखा है। उससे तीन साल बड़ी ननद देखती है क्रिकेट अपने भाईयों के साथ।

और वह क्या करती है? यहाँ तो उसकी जिंदगी क्रिकेट का मैच बनी हुई लग रही थी।

ससुराल का यह चार कमरों का घर बड़ा-सा क्रिकेट का मैदान दिखाई देता है उसे, जहाँ उसकी गलती पर कैच पकड़ने के लिये चारों ओर फिल्डिंग कर रहे परिवार के लोग।

विकेट कीपर जेठानी, सास अंपायर बनी उसके ईर्द गिर्द ही नजर गड़ाये रहती है। ननद, देवर,जेठ और ससुर जी सबके लिये वह बल्ला लेकर पोजिशन पर तैनात।

पति बॉलर की भूमिका में चौकस, और वह! बेबस, लाचार-सी बल्लेबाज की भूमिका में पिच पर, हर बॉल पर, रन बनाने को मजबूर। गलती होने पर कमजोर खिलाड़ी का तमगा और हूटिंग मिलती। आऊट होने पर भी बल्ला पकड़ कर पिच पर बैटिंग करने को मजबूर।

दूर-दूर तक कहीं कोई चीयर्स लीडर नहीं।

कई दफा आँखें रोते-रोते लाल हो जाती है। आज भी नजरें बार-बार पवेलियन (पिता के घर) की ओर उठ जाया करती है, काश इस मैच में भी पवेलियन में लौटना संभव होता! ****


7. खटर-पटर

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ये दोनों पति-पत्नी जब भी बन-ठन कर घूमने निकलते तो कितने सुखी लगते हैं। एक-दूसरे से बेहद जुड़े हुए, बिना कहे एक दूसरे की मन को समझने वाले, फिर भी कभी-कभी इनके घर इतनी लड़ाई शुरू हो जाती है कि पूरे मोहल्ले में आवाज़ गूँजती है। जाने ये कैसे लोग है! अलगनी से सूखे कपड़े उतार, उसपर गीले कपड़े डालने लगी कि तभी सामने से आज वो अकेली आती दिखाई दी।कल रात भी खूब हंगामा मचा था उनके घर,  मन में क्या सूझा एकदम से पूछ बैठी, "नमस्ते शीलू जी, कैसी हैं?"

"अच्छी हूँ, आप सब कैसे हैं?"

आँखों में काजल लगाये उनके चेहरे पर रौनक छाई थी। झगड़े के वक्त कल भी इनकी आवाज़ सबसे अधिक थी।

"आप परेशान हैं क्या?" मन को जबर करके पूछा मैंने।

"नहीं तो! मैं तो कभी परेशान नहीं होती हूँ।"

"लेकिन मुझे लगा कि...!"

"क्या लगा, जरा खुलकर कहिए!"

"आप कहती हैं कि आपके पति बहुत अच्छे हैं, तो फिर आप दोनों की लड़ाई क्यों होती है?"

"अरे वो!" कहते-कहते वह जोर-जोर से हँसने लगी। मैं अकबकाई उसको पागलों जैसी हँसते देखती रही। मुझे लगा यह दुख की हँसी है...बस अब जरूर रोयेगी..! लेकिन वह हँसती हुई कह पड़ी, "हम पति-पत्नी कभी नहीं लड़ते हैं, हमारी बॉन्डिंग मजबूत है।"

"लेकिन वो चीख-चिल्लाहट से भरी झगड़े की आवाज़ तो अक्सर सुनती हूँ।

"हाँ, होती है। लेकिन हमारे घर लड़ाई हम पति-पत्नी की नहीं बल्कि मर्द और औरत में होती है।" कहते हुए महकती-सी गुज़र गयी। मेरे सूखे कपड़ों पर गीले कपड़े बिछ जाने की वजह से पूरे कपड़े गीले हो गये। मैंनें अलगनी पर सूखने के लिए सबको छोड़ दिया।

अब मुझे एक नया मेनिया हो गया है, अब जब किसी जोड़े से मिलती हूँ तो उस खुशहाल पति-पत्नी में छुपे मर्द-औरत को तलाशने लगती हूँ।****


8. इंजीनियर बबुआ

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शरबतिया बार बार चिंता से दरवाजे पर झाँक, दूर तक रास्ते को निहार उतरे हुए चेहरे लेकर कमरे में वापस लौट आती। कई घंटे हो गये रामदीन अभी तक नहीं लौटा है।

गाँव के पोस्ट ऑफिस में फोन है जहाँ से वह कभी कभार शहर में बेटे को फोन किया करता है। इतना वक्त तो कभी नहीं लगाया।

खिन्नहृदय लिए रामदीन जैसे ही अंदर आया कि शरबतिया के जान में जान आयी।

"आज इतना देर कहाँ लग गया, कैसे हैं बेटवा- बहू, सब ठीक तो है ना?"

"हाँ, ठीक ही है!"

"बुझे बुझे से क्यों कह रहें हैं?"

"अरे भागवान, ऊ को का होगा, सब ठीक ही है!"

"तुम रूपये भेजने को बोले ऊ से?"

"हाँ, बोले।"

"चलो अच्छा हुआ, बेटवा सब सम्भाल ही लेगा, अब कोई चिंता नहीं!"

"अरे भागवान, उसने मना कर दिया है ,बोला एक भी रूपया हाथ में नहीं है, हाथ खाली है उसका भी।"

"क्याss....! हाथ खाली...वो भला क्यों होगा, पिछली बार जब आय रहा तो बताय रहा कि डेढ़ लाख रूपया महीने की पगार है। विदेशी कम्पनी में बहुत बड़ा इंजीनियर है तो बड़ी पगार तो होना ही है ना!"

"बड़ी पगार है तो खर्चे भी बड़े हैं, कह रहा था कि मकान का लोन, गाड़ी का लोन और बाकि होटल,सिनेमा और कपड़ा-लत्ता की खरीददारी जो करता है ऊ क्रेडिट कॉर्ड से, उसका भी व्याज देना पड़ता है,इसलिए हाथ तंग ही रहता है।"

"बबुआ तो सच में तंगहाली में गुजारा करता है जी!"

"हाँ, भागवान, सुन कर तो मेरा दिल ही डूब गया। सोचे थे कि अपनी बेटी नहीं है तो भाँजी की शादी में मदद कर बेटी के कन्यादान का सुख ले लेंगे, बबुआ कन्यादान का खर्च उठा लेता जो जरा! लेकिन उसको तो खुद के खाने पर लाले हैं।"

"सुनिए, भाँजी के लिए हम कुछ और सोच लेंगे, पिछली साल गाय ने जो बछिया जना था उसको बेच कर व्याह में लगा देते हैं।"

"हाँ, सही कहा तुमने, क्या हुआ एक दो साल दूध-दही नहीं खाएँगे तो! बछिया बेच कर कन्यादान ले लेते हैं।"

"एक बात और है।"

"अब और क्या?"

"इस बार जो अरहर और चना की फसल आई है उसको बेच कर बेटवा को शहर दे आओ, उसका तंगी में रहना ठीक नहीं, हम दोनों का क्या है, इस साल चटनी- रोटी खाकर गुजारा कर लेंगे, फिर अगली फसल तो हाथ में रहेगी ही!"

"हाँ, सही कह रही हो, मैं अभी बनिया से बात करके आता हूँ, इंजीनियर बबुआ का तंगी में रहना ठीक नहीं है।"

माँ

नन्हीं-नन्हीं अँगुलियों में सुई -धागे थामे रंगीन नगों को मोतियों के साथ तारतम्य से उनको पिरोती जा रही थी।

भाव -विभोर हो बार -बार निहारती , मगन होकर परखती , कभी उधेड़ती , कभी गुंथती , फिर से कुंदन के रंगो का तालमेल बिठाती ।

धम्मम ......... से पीठ पर सुमी ने हाथ दिया तो एकदम से चौंक उठी । हाथ से छूटकर मोती ,नग ,कुंदन सब यहाँ -वहाँ बिखर गए।

" सुम्म्मी ........तुम ! देखो ना , तुम्हारे कारण सब बिखर गए , मुझे फिर से सबको गूंथना होगा। " हाथ में उलझी- सी बिखरी हार को देखते हुए वो निराश हो उठी।

" वाह ! कितना खूबसूरत है ये , अपने लिए बना रही हो ? " आधी - अधूरी बनी हार पर नज़र पड़ते ही उसके सौंदर्य से अभिभूत हुई ।

"नहीं "

"तो फिर किसके लिए इतना जतन कर रही हो ? "

"माँ के लिए, उनके लिए दुनिया का सबसे सुन्दर हार बनाना चाहती हूँ "

"क्याsss, माँ के लिए? उस सौतेली माँ के लिए जो बात-बात पर तुम्हें सताती रहती है ! "

"सताती रहती है तो क्या हुआ, वो मेरी माँ तो है!" प्रौढ़ होती बचपन की डबडबाई पनीली आँखों में सहसा हज़ारों नगों की रंगीनियाँ झिलमिला उठी।

मक्खन जैसा हाथ

नई-नवेली दुल्हन-सी आज भी लगती थी। आँखों में उसके जैसे शहद भरा हो,ऐसा सौन्दर्य। पिता की गरीबी नें उसे उम्रदराज़ की पत्नी होने का अभिशाप दिया था। उसका रूप उसके ऊपर लगी समस्त बंदिशों का कारण बना।

उम्रदराज और शक्की पति की पत्नी अब अपने जीवन में कई समझौते करने के कारण कुंठित मन जी रही थी।

आज चूड़ी वाले ने फिर से आवाज लगाई तो उसका दिल धक्क से धड़क गया। वह हमेशा की तरह पर्दे की ओट से धीरे-से उसे पुकार बैठी, "ओ, चूड़ी वाले!"

उसके मक्खन से हाथों की छुअन से होने वाले सिहरन का आभास देने वाले उस चूड़ी वाले का बडी़ शिद्दत से इंतजार किया करती थी। चुड़ीवाला  हमेशा की तरह वहीं बाहर बैठ, अपना साजों सामान पसार लिया। उसे मालूम था कि इन हाथों को सिर्फ हरे रंग की चूड़ियाँ ही अच्छी लगती है। पसारे हुए सभी चूडियों में धानी रंग की चूडियों पर पर्दे की ओट से अंगुलियों ने इशारा किया।

अगले ही पल मक्खन जैसे हाथ, चुड़ी वाले के खुरदरे से हाथों में सिमटी हुई बेचैनी और बेख्याली के पल को जी रही थी। ****


9. हड्डी

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अशोक के गैरहाजिरी में वो अचानक से  कभी भी  सुनिता के  घर धमक पडते थे।

सुनिता को ना चाहते हुए भी उनकी खातिर करनी पडती थी। मजाक  के  रिश्ते का वास्ता देकर बदतमीजी भी कर जाते थे कई बार। बेटी के ससुर जो ठहरे।

अशोक को कई बार चाह कर भी बता नहीं पाती थी। बेटी की खुशियों का ख्याल आ जाता था।

दामाद जी अपने माता पिता के लिए श्रवण कुमार थे। बेटी से भी नहीं बाँट सकती थी अपनी परेशानी।  सुनिता के  गले में दिन रात हड्डी फँसी रहती थी।

आज जैसे ही दोपहर के नियत समय में घंटी बजी तो सुनिता ने बडे आराम से दरवाजा  खोला और उनको सप्रेम अंदर आने के लिए कहा।

घर के अंदर बहुत सारे बच्चे खेल रहे थे।  उसने अपने घर में झूला घर खोल लिया था।

सुनिता ने गले में फँसे हड्डी को निकाल फेंका था। ****


10.अनपेक्षित

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सालों तक यह सिलसिला चलता ही रहा था।

कहीं कोई रिश्ते की बात चला देता और माँ  मेरे पीछे ही पड़ जाती। नहाने से पहले उबटन लगवाती थी मेरे गोरे होने के लिए।

कोई  कैसे  समझाये मेरी भोली सी माँ को कि उबटन लगा कर नहाने से कोई गोरा नहीं हो जाता है।

अब तो तीस साल की भी हो गई हूँ।

माँ को भी शायद  लगने लगा है कि अब मुश्किल है मेरी शादी।

मै  अपराध बोध से घिरी रहती हूँ। कई बार ईश्वर से भी मन ही मन लड लेती थी ।

माँ को बेटी बिदाई की इतनी चिंता थी कि पाई-पाई जोडने के चक्कर में मेरी पढ़ाई पर भी खर्च नहीं किया।

आज जोड़े हुए पैसे भी काम नहीं आये। कोई पसंद ही नहीं करता मुझे। जो देखने आते है नाक भौं  चढाते हुए जाते है।

इसी ऊहापोह में अब बत्तीस साल की हो गई। लोग कहते है कि मै मोटी हो रही हूँ।

मै क्या करूं? उम्र की निशानियों को रोकना क्या किसी के वश में है!

कभी मन में सोचती हूँ कि  शादी के लिए  पैसे  बचाने के बजाय माँ मेरी पढ़ाई ही करवा  देती! ****

 

11. मौलिक पहचान

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"आप अपना पता दीजिये, एक पुस्तक भेजना है आपको|"

"मेरा पता नोट कीजिये बताती जा रही हूँ,

रमा सिंह

पत्नी - रामबहादुर सिंह

क-15, 110/ 2

बेलापुर"

"एक बात पुछू, बुरा तो नहीं मानेंगी आप?"

"अरे नहीं, बेझिझक पूछिये|"

"आपने डाक पता में 'पत्नी-रामबहादुर सिंह' क्यों लिखा?"

"पैत्रिक पहचान तो उनकी ही है यहाँ इसलिए|"

"कितने दिन से यहाँ अर्थात इस घर में रह रही हैं आप?"

"जब से शादी हुई तभी से|"

"शादी को कितने साल हुए?"

"अब बच्चों की शादी-व्याह का उम्र भी हो रहा है, मोनू शादी के पहली साल लगते ही हो गया था|"

"अरे, ठीक-ठीक बताइए जरा|"

"ऊँगली पर गिन कर बता रहीं हूँ |.......पूरे 25 साल हो गए शादी को!"

"25 साल तो बहुत होते हैं एक ही जगह रहने के लिए|"

"हाँ, सो तो है|"

"क्या इन 25 सालों में भी लोग यहाँ आपको आपके नाम से नहीं जानते कि साधारण डाक प्राप्त करने के लिए भी आपको पति की पहचान लगाने की जरुरत होती है?"

"जानते तो होंगे, मैंने बिना उनके नाम के कभी कुछ मंगाया ही नहीं|"

"एक बार अपने नाम से, पहचान से डाक मंगवा कर देखिये, अच्छा लगेगा|" ****

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क्रमांक - 06

जन्मतिथि : 8 जनवरी 1966 , मुम्बई - महाराष्ट्र
पिता का नाम : स्व. श्री एन. पी. शास्त्री
माता का नाम: सुमन .एन. शास्त्री
पति का नाम : प्रमोद भट्ट
शिक्षा : बी.कॉम ,एम. ए., बी.एड., एल.एल.बी.
सम्प्रति:  सेवा निवृत्त शिक्षिका

लेखन विधा: हिंदी तथा अंग्रेजी में कविता , लघुकथा, समीक्षा, लेख आदि .

प्रकाशित पुस्तकें : -

प्रकाशित : लघुकथा संवाद (साक्षात्कार)
किरचों की विच्ची: वक़्त ने उलीची (लघुकथा संग्रह) द्वे लघुकथाकार कल्पना भट्ट, विभा रानी श्रीवास्तव
कई साझा संकलनों में लघुकथाएँ प्रकाशित
पड़ाव और पड़ताल खण्ड 29 में 11 लघुकथाएँ प्रकाशित

सम्मान : -

- 2016 - अंतरा शब्द शक्ति सम्मान (भोपाल)
- प्रतिलिपी .कॉम की प्रतियोगिता -तस्वीरें बोलतीं है में द्वितीय स्थान प्राप्त हुआ ।(कहानी के लिए)
- ओपन बुक्स ऑनलाइन - साहित्य रत्न सम्मान - 2017 (देहरादून)
- प्रतिलिपी .कॉम में कथा सम्मान 2017 में 9व स्थान
- अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच से लघुकथा वरिष्ठ सम्मान -2017(पटना)
- मातृभाषा उन्नयन संस्थान (इंदौर) द्वारा अंतरा शब्द शक्ति सम्मान -2018
- साहित्य कला मंच (सिहोर,मध्य प्रदेश) द्वारा व्यग्र साहित्य सम्मान -2017

भागीदारी /सह प्रदर्शन: -

हिन्दी लेखिका संघ(भोपाल)
साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था कला मन्दिर (भोपाल)  ओपन बुक्स ऑनलाइन(भोपाल शाखा)

अनुवाद कार्य :-

- लघुकथा का भावानुवाद: अब तक करीब 160  लघुकथाओं का अंग्रेजी में भावानुवाद। विभिन्न लघुकथाकारों के।।
- करीब बीस हिन्दी लघुकथाओं का गुजराती में भावानुवाद। मेरे द्वारा हुआ है।

विशेष : -

- साहित्यिक कला मंच(सिहोर,मध्य प्रदेश) द्वारा आयोजित मासिक गोष्ठियों में कविता एवं लघुकथा पाठ
- कुछ लघुकथाओं का पाठ सोशल मीडिया पर लाइव
- हाल ही में डॉ पुष्कर भाटा जी द्वारा मेरी तीन लघुकथा का नेपाली भाषा में भावानुवाद।

पता : मकान नं -3 श्री द्वारकाधीश मन्दिर,चौक बाज़ार, भोपाल -462001 मध्यप्रदेश

१. निर्जीव वेदना
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“ओह माँ! मेरी तो हड्डी पसली तोड़ दी इस लड़के ने! नासपीटा अबजो व्यसक भी नहीं हुआ है और इसके बाप ने मुझे इसको सौंप दिया | अब तुम ही कुछ करो मेकेनिक भाई...ओह माँ...|”
गैरेज में सब तरफ मोटर बाइक थी, कुछ तो टूटी-टाटी और कुछ में छोटी-मोटी रिपयेरिंग के लिए| आरिफ के अलावा वहाँ और कोई न था, फिर ये किसने कहा? आरिफ ने चारों नज़र घुमाई पर उसको कोई नज़र नहीं आया | उसे लगा कोई भ्रम हुआ है और वह दुबारा अपने कार्य में लग गया |
कराहने की आवाज़ और तेज हो गयी, आरिफ ने इधर-उधर देखा तो करीब ही रखी हई एक बाइक से उसने आवाज़ सुनी, “ अरे भाई! मैं ही बुला रहा हूँ, देखो न मुझे, कितनी बेरहमी से मुझसे बर्ताव किया है, मैं तो पूरी तरह से टूट गयी हूँ...|”
“तुम को दर्द हो रहा है...? पर...तुम तो निर्जीव हो...नहीं! नहीं ! तुम बोल नहीं सकतीं, जरूर मुझे ही कुछ हुआ है...और आरिफ ने पास ही रखे मटके से एक मग्गे से पानी निकाला और मुँह पर मारा और उसने पानी पीया|
पर करहाने की आवाज़ ने उसका पीछा नहीं छोड़ा, “पहले मुझको देखो न, बहुत दर्द हो रहा है...|”
अब तो आरिफ के माथे पर से पसीना बहने लगा, पर हिम्मत से वह उस बाइक के पास गया और पूछा, “आखिर तुम्हारी यह दशा कैसे हुई...”
उस बाइक ने कहा, “दस वर्ष का बच्चा था, खुली सड़क पर मुझे लेकर दौड़ रहा था, आगे टैंकर था, पर वह तो बच्चा ही था न...घुस गया टैंकर के नीचे...|”
“उस बच्चे का क्या हुआ....?”
“मर गया बेचारा...पर मैं...तुमने सच कहा में तो निर्जीव हूँ...मेरी मौत...|”
अब आरिफ के हाथ औजार लिए बाइक को पुनर्जीवन देने हेतु सक्रिय हो उठे थे| ****

२. एक ही रंग
     ********

दंगों के बाद असलम मियाँ ने जगह-जगह टूटी-फूटी चीजें,  सड़कों पर अनगिनत ज़ख्मी और लोगों  की लाशें देखीं | मोहल्ले के हर गली का यही मंजर देख उनको कुछ याद आया, वे तुरंत घर गए और अपनी पुरानी संदूक में कुछ ढूँढने लगे| उनका बेटा उसी कमरे में बैठा अखबार पढ़ रहा था| उसने अपने अब्बू को इस तरह से संदूक खोलकर जब कुछ तलाशते हुए देखा, जिज्ञासावश उसने पूछा, “ अब्बू ! क्या तलाश रहे हो?”
असलम अपनी ही धुन में संदूक में हाथ फेर रहा था, तभी उसके हाथ में एक तस्वीर आ गयी, उसने उस तस्वीर को अपने बेटे के सामने रख दी और धम्म करके करीब रखे बेड पर बैठ गया|
बेटा तस्वीर को बहुत ही ध्यान से देख रहा था, वह अपने पिता के चेहरे को पढने का प्रयास कर रहा था, और हाथ में पकड़ी हुई तस्वीर को गौर से देख ही रहा था की उसके मुख से निकला, “ अब्बू! यह तो आपके साथ श्याम चचा हैं न? श्याम चाचा को देखे जमाना हो गया,मुझे याद आ रहा है कि जब हम गाँव में रहते थे, जब वहाँ मेला लगा था, आप दोनों मुझे लेकर मेला घुमाने ले गए थे...|” यह कहते हुए वह बचपन की उन स्मृतियों में खो गया...
“ह्म्म्म... क्या तुझे याद है बेटा...” रुंधे हुए गले से असलम ने अपने बेटे से पूछा |
अपने अब्बू की आवाज़ से उसकी तुन्द्रा भंग हुई, और उसने हाँ में सर हिलाया |
असलम ने अपनी बात जारी रखते हुए कहा, “ तुझे याद है? उस दिन घर लौटते हुए मेरा एक्सीडेंट हो गया था... तेरे श्याम चाचा ने मुझको अस्पताल पहुँचाया... फिर तुमको घर पहुँचाया...|”
“हाँ ! अम्मी ने जब ये समाचार सुना था, वह धडाम से जमीन पर गिर गयी थीं...और मैं रोने लगा था, मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था...”
“बेटा ! उस एक्सीडेंट में मेरा बहुत खून बह गया था, डॉक्टरों ने कहा था कि मुझे खून की आवश्यकता पड़ेगी... तब तेरे उसी श्याम चाचा ने अपना खून दिया था| बाद में मुझे पता चला था कि उनके घर में इसका विरोध हुआ था और अपने घर-परिवार में और मोहल्ले में भी कई तरह की बातें हुई थी...|”
“कैसी बातें अब्बू?”
“यही कि वह बामन था, और हम मुसलमान...फिर खून...|”
“अरे पर! खून तो सभी का एक सा होता है, इसमें मजहब...|”
“यही बात श्याम ने कही थी... उसने किसी की न सुनी और...|”कहते हुए असलम ने उस तस्वीर को अपने छाती से लगा ली|
“पर आज अचानक यह क्यों....अब्बू...”
“उस हादसे के बाद, हम लोग तो यहाँ आ गए, और तब से श्याम की कोई खबर भी नहीं ली...|”
“ओह ....!”
“बेटा ! आज जो बाहर हालात हैं, उसमें कई घायल भी होंगे... क्या पता वहाँ कोई...| उसका क़र्ज़....|”
बेटे कुछ कह पाए उसके पहले ही असलम घर से बाहर निकल चुका था... ****

३.कठपुतली
   ********

“हुँह...कठपुतली...” मीना ने व्यंग्य और पीड़ामिश्रित स्वर में कहा और मेज पर रखे अपने निजी सचिव के मोबाइल में चल रहे वीडियो को देखने लगी | स्क्रीन के मंच पर कठपुतली का तमाशा चल रहा था |
     एक छोटी बच्ची-सी कठपुतली मंच पर आई और नाचते हुए कहने लगी, “बापू ! मैं आगे पढूँगी और उसके बाद नौकरी भी करूँगी...”
     नेपथ्य से पुरुष की भारी आवाज आई, “अरी छोरी ! पढ़-लिखकर का करेगी ? आखिर तो तुझे चौका-चूल्हा ही देखना है | हमारे घरों की लड़कियाँ इत्ता ना पढ़तीं, तूने तो फिर भी दस पास कर लिया है...| अब अपनी माँ के कामों में हाथ बँटा |”
     थोड़ी देर में ही वह कठपुतली फिर मंच पर अवतरित हुई | अब वह एक हाथ में बेलन और दूसरे हाथ में झाडू लिए नाच रही थी |
     “मैं अभी बहुत छोटी हूँ...अभी मेरी शादी मत कराओ...” वह कठपुतली नाचते हुए गुहार लगा रही थी |
    इस बार नेपथ्य से एक पुरुष का प्रेमभरा स्वर आया, “मैं खुद पढ़ा-लिखा हूँ और मेरा अच्छा-ख़ासा व्यापार है...मैं शादी के बाद तुझे खूब पढ़ने की इजाजत दूँगा...खूब पढ़ना...”
     इतना सुनते ही कठपुतली हर्ष से नाचने लगी | उसके मुख से हर्ष और आल्हाद के स्वर निकल रहे थे | नाचते-नाचते वह ऊपर उठी और नेपथ्य में चली गई |
     इस बार वह नाचते हुए मंच पर आई तो उसके पहनावे पर लिखा था---पढ़ी-लिखी घरेलु स्त्री और वह नाचते-गाते घर के कार्य कर रही थी |
     कुछ समय तक वह कठपुतली मंच पर आती रही और अलग-अलग तरीके से नाच दिखाकर नेपथ्य में जाती रही | लेकिन यह क्या ! इस बार वह कठपुतली मंच पर आई तो उसके शरीर पर विधवा का सफेद लिबास था | वह जमीन पर सिर पटक-पटककर रो रही थी | नेपथ्य से भी रुदन के स्वर आ रहे थे |
     कुछ समय तक वह विलाप करती रही लेकिन तभी नेपथ्य से एक नारी स्वर उभरा, “खुद को सँभाल पगली, अब सब कुछ तुझे ही देखना और करना है...तू एक पढ़ी-लिखी स्त्री है...तू स्वयंसिद्धा है...तुझे इस भँवर से निकलना है...”
     कठपुतली के नेपथ्य में जाते ही  खेल समाप्त हो गया |
     “मैम, आपने जो स्क्रिप्ट लिखकर दी थी, क्या उसके अनुसार यह फिल्म सही बनी है ?” निजी सचिव पूछ रहा था |
     “हाँ, बिलकुल सही बनी है |” मीना ने कहा और सोफे से उठकर अपने पति की कुर्सी पर बैठ गई | ****
    
४.दौराहा 
    *****

सड़क पर एक बच्चा अपने दोनों हाथों में पत्थर लिए जा रहा है | मासूम के हाथों में पत्थर देखकर एक राहगीर पूछता है, “बेटे, हाथों में पत्थर लेकर कहाँ जा रहे हो ?”
     “उनको मारने |” उस मासूम ने उत्तर दिया |
     “किन्हें मारने ?” राहगीर ने आश्चर्यचकित होकर पूछा |
     “जिन्होंने हम पर हमला किया है |”  मासूम-सा उत्तर |
     “तुम पर किसने हमला किया है ?” एक और सवाल |
     “मैं नहीं जानता लेकिन उन्होंने हम पर हमला किया है |” बच्चा उलझन में है |
     “अच्छा यह बताओ, तुम उनका क्या करोगे ?”
     “मैं उन्हें मार दूँगा |”
     “पर क्यों ?”
     “क्योंकि वे हमें मार रहे हैं |”
     “अच्छा छोड़ो, यह बताओ कि तुम यहाँ किसके साथ आए हो और क्यों आए हो ?”
     “मैं अपने बाबा के साथ आया हूँ और बापू के दर्शन करने आया हूँ |”
     “तुम बापू को जानते हो ?”
     “हाँ, बाबा ने मुझे बताया है कि वे हमारे राष्ट्रपिता हैं |”
     “क्या तुम्हें पता है कि बापू अहिंसा के पुजारी थे ?”
     “मुझे पता है, मैंने अपनी इतिहास की किताब में पढ़ा है |”
     “लेकिन तुम तो पत्थर हाथ में लेकर घूम रहे हो और किसी को मारने की बात भी कर रहे हो ?”
     “बाबा ने कहा है कि अब समय बदल रहा है और हमें अपनी रक्षा खुद करनी है |”
     और वह बच्चा अपने बाबा के साथ वहाँ से चला गया | एक व्यक्ति जो राहगीर और बच्चे की सारी बातें सुन रहा था वह तेजी से राहगीर की बगल में आया और फुसफुसाहट भरे स्वर में बोला, “बच्चा सही कह रहा है | अब समय बदल रहा है और हमें अपनी रक्षा खुद करनी है |”
     आगे दौराहा था | ****
    
५. दृष्टिभ्रम
     ******

शाम का धुंधलका गांधी पार्क पर उतरने लगा था | कोने की बेंच पर बैठे एक बूढ़े व्यक्ति को वे तीनों लेखक पहचानने का प्रयास कर  रहे थे | मैले कपड़े, बेतरतीब बढ़ी हुई दाढ़ी, झुकी हुई पीठ और उलझे-रूखे बाल | बहुत प्रयास करने पर आखिर उनमें से एक ने उन्हें पहचान ही लिया |
     “अरे ! ये तो हमारे गुरुदेव आनन्द हैं !” उसके मुँह से निकला तो वे तीनों उनकी तरफ लपके |
     अपने समय के जाने-माने साहित्यकार आनन्द जिनके जीवन का एकमात्र उद्देश्य था---  नवोदित लेखकों को प्रोत्साहन देकर आगे बढ़ाना | कितने ही नवोदितों ने उनसे लेखन की बारीकियाँ सीखी थीं | उनका एकमात्र ध्येय था कि जब तक उनके शिष्य अपने-अपने क्षेत्र  में स्थापित नहीं हो जायेंगे, वे चैन से नहीं बैठेंगे | लेकिन एक दिन अचानक वे सब-कुछ छोड़कर इस शहर से न जाने क्यों और कहाँ गायब हो गए | सब यही कह रहे थे कि गुरुदेव अज्ञातवास में चले गए हैं |
     “गुरुदेव आप ! आप कहाँ चले गए थे ?” उनके पाँव छूते  हुए तीनों ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी |
     “आपकी यह हालत गुरुदेव ?” तीनों चकित थे |
     “अरे, आओ-आओ, कैसे हो तुम सब ! यह बताओ, आप तीनों ने लेखन में अब तक क्या प्रगति की है ? साहित्य के क्षेत्र में नया क्या हो रहा है ?” उन्होंने उन तीनों की बात का उत्तर न देते हुए मुस्कुराकर अपने प्रश्न छोड़ दिए |
     “मेरा उपन्यास बी.ए. के कोर्स में शामिल हो गया है गुरुदेव | एक ने उत्साह से कहा |
     “मुझे अपने कहानी-संग्रह पर राज्य की अकादमी का पुरस्कार मिला है गुरुदेव |” दूसरे ने गर्व से अपनी उपलब्धि बताई |
     “मेरी लिखी ग़जलों के तीन एल्बम आ गए हैं और वे दूरदर्शन तथा आकाशवाणी पर निरन्तर प्रसारित होती रहती हैं |” तीसरा  क्यों पीछे रहता !
     “वाह वाह ! सुनकर मन तृप्त हो गया |” आनन्दजी की आँखें चमक उठीं |
     “गुरुदेव, आपने हम सब पर जो मेहनत की थी यह सब उसीका परिणाम है |”
     “यह सब तो बहुत अच्छा हुआ, अब एक बात बताओ ! आप सब ने कितने नवोदित साहित्यकार तैयार किये हैं ? मैं उनसे मिलना चाहता हूँ |” आनन्दजी सोच रहे थे कि उन द्वारा रोपितों ने कुछ तो अवश्य ही रोपित किये होंगे |
     एकाएक चुप्पी छा गई | तीनों को बगलें झाँकते देख आनन्दजी के चेहरे से प्रसन्नता के भाव गायब होने लगे थे |
     “शायद मैंने आप सबसे कुछ अधिक ही उम्मीद लगा ली थी, लेकिन यह मात्र मेरा दृष्टिभ्रम था...” बुदबुदाते हुए आनन्दजी उठकर अब दूसरी तरफ जा रहे थे | ****

६.पेट का तमाशा  

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“उठ कलमूँही, जल्दी उठ | तमाशे का टैम हो गया है और तू है कि अभी तलक सोई पड़ी है | सूरज सिर पर चढ़ आया है |” माँ ने अपनी दस साल की बेटी को झिंझोड़ते हुए कहा तो बेटी ने चादर सिर पर खींच ली | 

     “आज छुट्टी का दिन है नासपीटी, दो पैसे कमाने का आज ही मौका है और तू सिर पर चादर ओढ़ रही है |” उसने चादर खींचते हुए कहा | 

    “उफ्फ माँ, सोने दो ना | तनी हुई रस्सी पर रोज-रोज चलते हुए पैरों में दरद होने लगे है |” कहते हुए बेटी ने चादर फिर से सिर पर खींच ली | 

     इतना सुनते ही माँ का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुँचा, “लाट साहब के घर में जनम लिया है ना जो सूरज चढ़े तक सोती रहेगी ! “

     “तेरा बाप कोई खजाना नहीं छोड़ गया है जिसके ऊपर तेरे नखरे चलते रहेंगे | उठ जा, नहीं तो सोंटी लानी पड़ेगी |” कहते हुए उसने एक झटके से चादर खींच ली | 

     “ओह माँ, अभी तो ठीक से दिन भी ना निकला !” वह अलसाई-सी उठी और आँखों को मसलती हुई माँ से लिपट गई |

     “बेटी, जब तमाशे से दो पैसे मिलेंगे तभी तो अपना दिन निकलेगा !” माँ बाहर झाँक रही थी |

     “अच्छा , चल अब कुछ खाने को दे, बहुत भूख लगी है |” बेटी जमीन पर ही बैठ गई |

     “अभी कल रात ही तो तूने भरपेट रोटी खाई थी !”

     “वह तो कल रात थी माँ, अब तो सुबह हो गई है | अब क्या खाने को कुछ ना देगी ?” 

     “कनस्तर खाली है बेटी और उसमें आटा तभी आयेगा  जब तू भरे बाजार में तमाशा करेगी | हमारा पेट और कनस्तर तो इसी तमाशे से जुड़े हैं बेटी | तू उठेगी, मैं ढोल बजाऊँगी और तू रस्सी पर चलेगी तभी तो कनस्तर में आटा आयेगा |” माँ दीवार पर टंगे ढोल को देख रही थी और बेटी अपने खाली पेट को | 

    “चल बेटी, आज मैं बहुत जोर से ढोल बजाऊँगी, तू बहुत ऊँची रस्सी पर खेल दिखाना, मैं आज तुझे चुन्नू हलवाई की दूकान से भरपेट जलेबी खिलाऊँगी |”

     माँ ढोलक हाथ में लिए झोंपड़ी से बाहर निकल रही थी और बेटी भरपेट जलेबी के सपने से बंधी पीछे-पीछे खिंची आ रही थी | ****

७.एक और रत्नाकर 

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शहर का कालीदास थियेटर खचाखच भरा हुआ है | सबकी निगाहें स्टेज पर जमी हैं |

     भटककर जंगल मे आ गए ब्राह्मण वेशधारी नारद को रत्नाकर डाकू लूट रहा है | 

     “ठीक है, मैं अपना सब-कुछ तुम्हें सौंपने के लिए तैयार हूँ मगर इससे पहले तुम्हें मेरे   एक प्रश्न का उत्तर देना होगा |” ब्राह्मण निर्भीक भाव से रत्नाकर को कह रहा है |

     “पूछो, क्या पूछना है |” रत्नाकर उसके साहस से आश्चर्यचकित है |

     “यह तो तुम जानते ही हो कि जो कुछ तुम कर रहे हो वह पाप है | मुझे यह बताओ, तुम यह पाप किसके लिए कर रहे हो ?

     ब्राह्मण के प्रश्न ने डाकू को उलझन में डाल दिया है |

     “मैं अपने परिवार के लिए ही यह कृत्य करता हूँ |” 

     “अपने परिवार के लिए ! तो क्या तुम्हारा परिवार इस पाप के फल में तुम्हारा भागीदार होगा ?”

     “निश्चित तौर पर भागीदार होगा  | मैं सब-कुछ उन्हीं के लिए तो कर रहा हूँ |” रत्नाकर की आवाज में दृढ़ विश्वास है |

     “नहीं वत्स ! वे चाहकर भी तुम्हारे इस पाप के फल में भागीदार नहीं हो सकते क्योंकि हर मनुष्य को अपने किये पाप-पुण्य का फल स्वयं ही भोगना होता है |” ब्राह्मण ओज भरे स्वर में उसे समझा रहा है |

     नाटक द्रुत गति से आगे बढ़ रहा है | दर्शक दत्तचित्त हैं लेकिन उन दर्शकों में एक दर्शक ऐसा भी है जिसकी निगाहें सामने स्टेज की बजाय पासवाले दर्शक की जेब पर टिकी हैं |

     “इस नाटक के रत्नाकर तुम्हीं तो नहीं हो ?” पासवाला दर्शक फुसफुसाता है |

     “अब वो रत्नाकर कहाँ जो बाल्मीकि बन जाये | इस शहर में तो बाल्मीकि भी रत्नाकर बन रहे हैं |” वह व्यक्ति हाल छोड़कर जा रहा है |

     पूरा हाल अन्धकार में डूबा हुआ है | सामने स्टेज पर रत्नाकर बाल्मीकि  बनकर रामायण लिखने की तैयारी कर रहा है | नाटक की समाप्ति पर हाल से निकल रहे कई दर्शकों की जेबें  खाली हो चुकी हैं | ****

८. पक्का घड़ा 

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सारे गाँव में एक ही चर्चा थी---सुखिया कुम्हार का बेटा डाकू बन गया है |

     किसी ने कहा, “घोर कलयुग है भैया,  किसी का कोई भरोसा नहीं |”

     दूसरे ने कहा, “मुझे तो इसमें सारा  कसूर सुखिया का ही लगे है | मिट्टी के घड़े तो इतने सुन्दर बनाता है लेकिन अपने बेटे को ...| ऐसे बाप को क्या कहा जाए जो अपनी औलाद की सही से परवरिश न कर सके !”

     गाँव के मास्टरजी अपना उपदेश दे रहे थे, “भाइयो ! मिट्टी को चाक पर आकार तो कोई भी दे सकता है मगर असली बात तो उसे सही से पकाने की होती है | जो घड़ा सही से तप जाए वही काम का होता है |”

     पास खड़े वृद्ध ने मास्टरजी की बात को आगे बढ़ाया, “कच्चा घड़ा किस काम का ! पानी भरो तो तभी टूट जाए |”

     सुखिया चाक के पास उदास बैठा था | उसकी आँखों से बेबसी झलक रही थी | उसका छोटा बेटा सामने अलाव लगा रहा था |

     “बेटा, मेरी बूढ़ी आँखों ने मुझे धोखा दे दिया | घड़ा कच्चा रह जाए तो किसी काम का नहीं होता |” सुखिया के हाथ धीरे-धीरे चाक को चला रहे थे | छोटा बेटा बाप की ओर देखने लगा |

     “बेटा, तुझे अनुभव नहीं है इसलिए कह रहा हूँ, घड़ों को सही आँच पर और पूरी तरह पकाना नहीं तो वे किसी के काम नहीं आ सकेंगे |”

     “बापू ! तू बेफिक्र रह | घड़े पूरी तरह पकेंगे भी और लोगों के काम भी आयेंगे |” छोटे बेटे के विश्वास से सुखिया उत्साह से भर उठा और उसके हाथ तेजी से चाक को घुमाने लगे | ****

९.नदी, पुल और आदमी  

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नीचे बहती नदी और ऊपर उसके दोनों किनारों को जोड़ता हुआ पुल | पुल पर से रात और दिन धड़धड़ाते हुए गुजरते तरह-तरह के वाहनों को देखकर एक दिन नदी पूछ ही बैठी, “दिन भर तुम पर इतना वजन लदा रहता है, तुम्हें परेशानी नहीं होती ?”

     “पागल हो तुम, यह भी कोई बात हुई ! मुझ पर से वाहन नहीं गुजरेंगे तो लोग तुम्हें पार कैसे करेंगे ? मेरा तो निर्माण ही इसलिए हुआ है बहन |” पुल ने सहजता से कहा |

     पुल की इस बात पर नदी खिलखिलाकर हँस पड़ी |

     उसकी हँसी से खिन्न पुल ने कहा, “इसमें हँसने की क्या बात है बहन ! तुम वर्षों से बहती आ रही हो | यहाँ पर तुम्हारा पाट विशाल है और प्रवाह अति तीव्र | और हाँ, जब तुम हँसती हो तो मुझे कभी-कभी बहुत डर लगता है |”

     “डर और मुझसे, लेकिन क्यों ?”

     “बरसात में जब तुम अपना पाट फैलाकर विकराल रूप धारण करती हो तो मुझे लगता है कि न जाने कब तुम मुझे अपने में समाकर बहा ले जाओ |” पुल की आवाज में आशंका थी |

     “डरो मत, ऐसा नहीं होगा | लेकिन जितनी संख्या में और जिस गति में गाड़ियाँ तुम पर से गुजरती हैं मुझे तो उससे भय लगता है कि कहीं तुम मुझ पर ही न गिर पड़ो | भीड़ कितनी बढ़ गई है, तुम कब तक सहन करोगे ? कभी ऐसा हुआ तो गाड़ियों के साथ ही न जाने कितने आदमी मुझमें समाकर अपनी इहलीला  समाप्त कर जायेंगे |” नदी ने आशंका प्रगट की |

     धड़धड़ाकर गुजरते एक ट्रक से पुल सचमुच ही काँप उठा |

     “बहन, यदि कभी ऐसा हुआ तो इसमें दोष तो मानव का होगा मगर कसूरवार मैं ठहरा दिया जाऊँगा | मैं कमजोर नहीं हूँ मगर मेरी भी सहने की एक सीमा तो है ना !”

     “मानव का लालच बढ़ता ही जा रहा है और उसी लालच के वशीभूत वह तेज गति से दौड़ता जा रहा है | मैं चाहती हूँ कि वह कुछ पल के लिए अपनी अन्धी दौड़ को छोड़कर मेरे किनारों पर बैठकर मेरे शीतल जल से अपनी आँखों पर छींटे मारे |” नदी ने अपनी इच्छा व्यक्त की |

     “मैं भी चाहता हूँ बहन, मनुष्य कुछ देर के लिए अपनी रफ्तार भूलकर मुझ पर खड़ा हो जाए और तुझे और नीले आसमान को निहारने का आनन्द ले |” नदी की इच्छा सुनकर पुल ने भी अपने मन की बात कह दी |

     उन दोनों ने एक-दूसरे की इच्छा पूरी होने के लिए ‘आमीन’ तो कहा लेकिन पुल पर तेज गति से दौड़ते वाहनों के शोर में उसे किसी ने न सुना | ****

१०.धरती पुत्र 

      *******

सुखविंदर जी को सोचमग्न अवस्था में देख उनकी पत्नी ने उनसे पूछा," क्या सोच रहे हो जी?"

"ख़ास कुछ नही...... बस कल अपने खेत पर जो सिपाही आया था उसी के बारे में सोच रहा हूँ.......।"

"सिपाही..... और अपने खेत में.........! कब और क्यों....?"

"कह रहा था कि अपना खेत उसको बेच दूँ.... ।"

"हैं.........! ये क्यों भला......?"

"वह सिपाही न था पर ......सिपाही के खाल में भेड़िया था........ उसका चेहरा ढका हुआ था... पर उसकी आवाज़ कुछ जानी... इतना ही कह पाये कि बाहर से चिल्लाने की आवाज़ आयी। 

'अरे बाहर आओ सब ...... एक सिपाही पकड़ा गया.....उसके पास बारूद बरामद हुए .......।'

"कहीं यह वही तो नहीं.....।" सुखविंदर बाहर की ओर दौड़ पड़े।

बाहर देखा तो सच में वही था। उसने सुखविंदर की तरफ देखकर कहा," आप मुझे ज़मीन दे देते तो ......"

"अच्छा हुआ जो तुझे न दी.... तुझे तो हथकड़ी लग गयी पर मेरी माँ को जो बेड़िया तू पहनता उसका बोज़ कोई बेटा सहन न कर पाता।"

आसपास लोग खड़े थे,उसमें से एक ने सुखविंदर से पूछा," यह क्या बोले जा रहे हो...?"

" अजी कुछ नहीं यह सिपाही के रूप में है जरूर पर सिपाही नहीं.... यह मेरी माँ ... मेरी ज़मीन को खरीदने आया था..... बारूद बिछाना चाहता था.... मैंने इनकार कर दिया.....तो धमकी ......"

सुखविंदर अपनी बात पूरी भी न कर पाया था कि फिर एक शोर हुआ.....'अरे देखो देखो उसके मुँह से तो झाग निकल रहा है...।'

आवाज़ सुनकर सुखविंदर उस ओर दौड़ पड़ा। बाहर आकर देखा तो वह सिपाही जमीन पर था।

उसके गिरते ही उसके सिर से टोपी गिर गयी और जब उसके चहरे से कपड़ा हटाया तो सुखविंदर की चीख़ निकल गयी.... " पुत्तर जोगी..... " और वह भी धराशाही हो गया।

"एक किसान का बेटा और आतंकवादी.....?" बाहर भीड़ में चर्चा का विषय बन गयी।"****

११.पार्षदवाली गली 

      *************

“क्यों कमलाबाई, आज तूने उस गली में सफाई नहीं की ?” सफाई दरोगा ने पूछा |

     “मैंने तो अपनी सभी गलियों में झाडू लगाईं है साब ! आप कौनसी गली की बात कर रहे हो साब ?” कमला ने हैरानी से पूछा |

     “कल ही तो तुम्हें वो गली दिखाई थी, वो अपने पार्षद के पासवाली गली |” दरोगा के स्वर में झुंझलाहट आ गई |

     “पर वो तो मेरे हिस्से की गली ना है साब, वहाँ तो पीछे साल से ही सोहन जाता है |”

     “मैंने कल बताया तो था, तेरा तबादला उस तरफ के इलाके में कर दिया है |”

     “पर क्यों साब ?”

     “पार्षद साब तेरे काम से भोत खुश हैं, उनके कहने पर ही तेरा तबादला वहाँ किया है |”

     “अच्छा, अब समझ में आया | कल ही तो मैंने उनके चौकीदार को चप्पल मारी थी, साला हरामजादा ! मुझसे बेतमीजी कर रहा था |”

     दरोगा हो-हो करके हँसने लगा |

     “साब ! सफाईवाली हूँ, आपके और सबके इशारे खूब समझती हूँ | पर याद रखना साब ! मेरा नाम कमला है, किसीकी बलि न चढ़ जाए !” उसके चेहरे की गर्मी और आँखों के अंगारों ने दरोगा को सिर से पाँव तक पसीने से तर-बतर कर दिया | ****

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क्रमांक - 07

जन्म तिथि : 14 जुलाई 1954 , ग्वालियर - मध्यप्रदेश
शिक्षा : एम. ए. हिन्दी , एम. एड् , पीएचडी , डी सी एच इग्नू

विधा : लघुकथा , कहानी , हास्य व्यंग, कविता

सम्प्रति : शासकीय सेवा के बाद स्वतन्त्र लेखन व समाज सेवा

प्रकाशित पुस्तकें : -

अतीत का प्रश्न ( लघुकथा संग्रह ) - 1991
बुढ़ापे की दौलत ( लघुकथा संग्रह ) - 2004
शिक्षा और संस्कार ( लघुकथा संग्रह ) - 2006
         व विभिन्न विधाओं की 26 पुस्तकें

सम्पादन पुस्तक : -
नारी संवेदना की लघुकथाएं

सम्मान : -
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार
मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी का पुरस्कार
राष्ट्रीय साहित्य पुरस्कार ( भारत सरकार )

पता : ९२, सुरेन्द्र माणिक , (विद्या सागर कालेज के सामने )
अवध पुरी , भोपाल -४६२०२२ मध्य प्रदेश

1. अतीत का प्रश्न
    ***********

"मैंने तुमसे प्रेम किया है और मैं तुमसे शादी करना चाहता मैं तुम्हारे अतीत के विषय में कुछ जानना नहीं चाहता।”
“पर मेरा तो कोई अतीत नहीं है, मेरे जीवन में पहली बार
आने वाले सिर्फ तुम हो"
कुछ दिनों में उसे पता चला कि उसका प्रेमी विवाहित है, दो बच्चों का बाप।
“अच्छा तो यह बात थी कि तुम मेरा अतीत इसलिये नहीं पूछना चाहते थे ताकि मैं तुम्हारा न पूछ बैठूं ? लेकिन मैं उन लड़कियों में से नहीं हूँ, जो प्रेम को अधिक महत्व देती है, मेरे लिये प्रेम से अधिक नैतिकता महत्वपूर्ण है।
हमारी शादी हो चुकी है, पति, पत्नी के जीवन में कोई बात छिपी नहीं रहना चाहिये, इसलिये वैवाहिक जीवन में विश्वास बनाये रखने के लिये एक दूसरे के अतीत का ज्ञान होना चाहिए” उसके पति ने उसकी तरफ प्रश्न वाचक दृष्टि से देखा ।
वह सोच रही थी जब उसका कोई अतीत था ही नहीं तब उसे अतीत न पूछने वाला प्रेमी मिला और आज जब उसका अतीत है तो उसे ऐसा पति मिला जो उसके अतीत को जानना चाहता है ? वह समझ नहीं पा रही थी कि पति के इन प्रश्नों का वह क्या उत्तर दे ? ****

2. मूढ़े
    ***

आज भी वह कार में पिछली सीट पर बैठी उधर से गुजरती है, तो उसे वे मूढ़े वाले कतारबद्ध दिखाई देते हैं। तब भी वह रोज सुबह अपने पति के साथ मॉर्निंग वॉक पर जाया करती थी। फुटपाथ पर बेंत के सुंदर कलात्मक मूढ़े देखती तो सोचा करती थी कि कितने हल्के-फुल्के हैं, जहाँ कहीं बैठना हो, उठा कर रख लो !
वह जब भी उन्हें खरीदने की बात करती तो पति हमेशा टाल दिया करते थे। "अभी सुबह बोहनी करने के लिए महँगे बेच रहा है, शाम को उठते बाजार में ले जाऊँगा, तब वह सस्ते मिल जायेंगे।" वह चुप रह जाया करती।
पति अब वृद्ध हो गए हैं। अब बेटे के साथ कार में आते-जाते हैं। कोई कोई मूढ़े वाला
अब भी फुटपाथ पर बैठा दिखाई देता है। अब पति बेटे से कहते हैं, “गाड़ी रोको
जरा, एक मूढ़ा खरीदना है, बैठने के लिए बड़े
सुविधाजनक होते हैं।'' 'बेकार हैं, पापा!" कहकर बेटा कभी कार वहाँ नहीं रोकता।
वह कार के पीछे वाली सीट पर बैठी कुछ ना कहती, पर यह विचार आता बेचारे मूढ़े,
ना तब खरीदे गए, ना अब ! ****

3. कुंवारा मातृत्व
    ***********

रमा ने दीपावली पूजन में लगने वाली लगभग सभी सामग्री खरीद ली थी।सिर्फ लक्ष्मी जी कार्यक्रम पन्ना रह गया था| थैलों से लदी-फदी हांफती हुई, कैलेंडर वाली दुकान के सामने वह खड़ी हो गई। दुकान में सभी तरह के चित्र केलेन्डर  मौजूद थे| उसकी नजर एक ऐसे चित्र पर पड़ी जिसमें एक बच्चा शरारत पूर्ण ढंग से मुस्कुरा रहा था। वह उस चित्र को देखती रह गई। यह देख दुकानदार ने उत्साहित हो उसके सामने बच्चों के चित्रों के ढेर लगा दिये।
एक से बढ़कर एक मनमोहक चित्र थे। रमा से कोई भी चित्र छोड़ते नहीं बन रहा था| उसने सभी चित्र खरीद लिए। दोनों थैले उठाये और घर की ओर चल दी| तेज कदमों के साथ - साथ उसके विचारों की गति भी बढ़ रही थी।वह कुंवारी है तो क्या? उसके हृदय में मातृत्व की भावना तो है| जब वह युवा थी तो उसका भी सामान्य लड़की की तरह सपना था बच्चों से किलकते घर का । पर पिता की अचानक मृत्यु से उसके सारे सपने बिखर गए। उसने पढ़ाई छोड़ कर नौकरी कर ली और अपने भाई -बहनों की पढ़ाई नहीं छूटने नहीं दी और समय पर अपने भाई-बहनों के  विवाह भी किये।उसके ओढ़े कर्तव्य पूरे हुए तो उसकी उम्र चालीस पार कर चुकी थी।
सब भाई-बहन अपने-अपने परिवार में मग्न हो गये|
रमा को अब अपना घर सामने दिखाई देने लगा था|  उसके पैरों की गति धीमी हो गई । उसने यह क्या पागलपन कर डाला? लक्ष्मी जी कार्यक्रम पन्ना तो वह भूल ही गई और बच्चों के ढेर सारे चित्र ले आई| इन चित्रों को वह कहां लगायेगी?  इन चित्रों को देख मां क्या सोचेगी? भाभियां उसकी हंसी नहीं उड़ायेगी?
अब वह क्या करे? लक्ष्मी जी कार्यक्रम पन्ना ले आये और बच्चों के चित्र लौटा दें? दुकानदार भी उसे पागल समझेगा, हो सकता है वह चित्र वापस ही न ले?  उसका चित्त डवांडोल हो रहा था। वह कोई निर्णय नहीं ले पाई।घर आ चुका था| उसने देखा मां और भाभियां रसोईघर में हैं| भाई लोग घर पर न थे परिस्थिति उसके अनुकूल थीं| यह देख उसने संतोष की सांस ली।वह दबे पांव चित्रों को  लेकर छत पर आ गई|  दिये रखें जा चुके थे । तभी कुछ आहट हुई, उसने घबरा कर देखा,  एक बिल्ली दूसरी छत पर कूदी , शीघ्रता में उन  चित्रों को दिये की लौ छुआ दी। चित्र जलने लगे । बच्चों के चित्र जलते देख अपने कुंवारे मातृत्व भावना की विवशता पर आंसू भर गये| ****

4.आत्मविस्मृति
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एक स्कूल के अध्यापक रिटायर हो रहे थे| विद्यालय में उनकी विदाई समारोह आयोजित किया गया था| प्रधान अध्यापक और सभी अध्यापक कुर्सियों पर विराजमान थे| हमेशा की तरह लड़कों का शोर-गुल जारी था| शिक्षकों के चुप कराने के बावजूद लड़के चुप नहीं हो रहे थे| समय की कमी को देखते हुए प्रधान अध्यापक महोदय ने उसी स्थिति में कार्यक्रम प्रारम्भ करने का आदेश दे दिया|
एक छात्र ने उन रिटायर अध्यापक की प्रशंसा में एक तोता रटंत भाषण दिया| उसके पश्चात दो छात्राओं ने मिलकर कागज पर नजरें गड़ाए विदाई गीत गाया| विद्यालय के एक शिक्षक ने उनको माला पहनायी, जब कैमरा सामने आया| फिर विद्यालय के प्रधान अध्यापक ने मगरमच्छी आँसू बहाते हुए स्कूल के सूने होने का दुःख प्रकट किया| कार्यक्रम के अंत में रिटायर होने वाले अध्यापक महोदय ने बच्चों को आशीष वचन देना शुरू किया|
“बच्चों! मैं इस विद्यालय में पच्चीस वर्षों से जुडा रहा हूँ. मुझे इस बात का बड़ा दुःख होता है, कि शिक्षा का स्तर दिन-व्-दिन गिरता जा रहा है| अनुशासनहीनता-हीनता बढती जा रही है| लेकिन इस विद्यालय ने जिले में अपनी पढ़ाई और अनुशासन के मामले में नाम कमाया है|
मेरा आशीर्वाद है, कि तुम लोग खूब उन्नति करो| डॉक्टर, इंजीनियर बनो इसके लिए तुम्हें खूब मेहनत से पढना होगा| यदि तुम लोग पढ़ाई-लिखाई नहीं करोगे तो क्या बनोगे? सिर्फ मास्टर| इससे ज्यादा कुछ नहीं| इसलिए बड़ा आदमी बनना है तो मेहनत करनी पड़ेगी|
तालियों की गडगडाहट में भाषण समाप्त हो गया| कार्यक्रम के खत्म होते ही उस ओर भगदड़ मच गयी जिस ओर नाश्ते की प्लेटे राखी थी| उसी भगदड़ में एक लड़के को कहते सुना, “खुद ने तो कभी पढ़ाई में मेहनत नहीं की, तभी तो मास्टर बने और हम लोगों को उपदेश झाड गए|" ****

5. रिश्तों की पहचान
    **************

एक बार मुझे मंद बुद्धि बच्चों के आश्रम में जाने का अवसर मिला । मैं ने देखा  आश्रम के प्रांगण में बच्चे खेल रहे थे , कोई झूला झूल रहा था, कोई गेंद उछाल रहा था ।
एक मंद बुद्धि बालक चुपचाप खड़ा था । मुझे देखते ही "मम्मी आई, मम्मी आई"कहते हुए मेरी तरफ दौड़ा और मुझसे लिपट गया ।
दूसरा बच्चा  जो खेल देख रहा था , मुझसे पूछने लगा "आप किसकी मम्मी हो?"
एक बच्चा स्वयं खेल रहा था , दूसरे बच्चों से अधिक समझदार लग रहा था दौड़ कर मुझे देख कहने लगा
"अरे! यह मम्मी नहीं ये तो आंटी है " ।
"हां, बेटे। मैं तुम्हारी आंटी ही हूं "
मैं उन्हें , प्यार से थपथपा कर आश्रम के कार्यालय में चली गई ।
पर बच्चों के अलग-अलग संबोधन से मेरे में उथल-पुथल मची थी । एक प्रश्न मेरे मन बार-बार मेरी अन्तर आत्मा को झकझोर रहा था -क्या वास्तव में मनुष्य में बुद्धि की उपस्थिति , मनुष्यों के बीच रिश्तों की पहचान में भावनात्मक दूरी बढ़ा देती है ? ****

6. तोता रटंत
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परीक्षा कक्ष में , मैं निरीक्षण कार्य कर रही थी ।उस दिन नैतिक शिक्षा का प्रश्न पत्र था । अपने एक छात्र को नकल करते देख  मैं ने उसकी उत्तर पुस्तिका छीन ली और वह पर्ची भी ले ली जिससे वह नकल कर रहा था ।
उस नकल पर्ची को मैं ने पढ़ा , उसमें लिखा था.'मनुष्य एक सर्वश्रेष्ठ प्राणी है , इसलिए उसे कोई ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए,जो मानवता के विरुद्ध हो ।छिपकर कोई काम करना  , परीक्षा में नकल करना, दूसरों  धोखा देना  भी एक प्रकार की चोरी है ।'
पढ़ कर मैं आत्म ग्लानि से भर गई ।किसे दोष दूं ? इस छात्र को ? एक शिक्षिका होने के नाते स्वयं को ?या इस शिक्षा पद्धति को ? जिसमें केवल अंक लेने के लिए  नैतिक शिक्षा एक विषय भरहै? व्यवहार से दूर दूर तक नाता नहीं ।****

7. गिरगिट
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एक आफिस में किसी काम से जाना हुआ , तो देखा अफसर से अधिक नौकर  का रुतबा है ,भृत्य हो कर भी  किसी को पानी  तक नहीं पिलाया ।उसका रुतबा देख जिज्ञासा हुई  जिसका उत्तर मिला  कि भृत्य का पिता किसी मंत्री के यहां नौकर है ।
अफसर तक उससे चापलूसी कर कहता  तुम तो बहुत योग्य हो , तुम्हें तो बाबू बनाना पड़ेगा ।
भृत्य यह सुनकर फूल कर हो जाता ।
कुछ समय बाद उसी आफिस में फिर जाना हुआ तो वहां का बदला स्वरुप देखा ।
अफसर को उसी भृत्य को डांटते  सुना  तुम किसी काम के नहीं हो तुम्हें तो नौकरी से निकालना पड़ेगा । पता चला उन मंत्री जी का कार्य काल समाप्त हो गया है ****

8.अदला -बदली
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"क्या आप मुझे गोद ले सकते हैं ?"
यह सुनकर एक प्रौढ़ सज्जन जो अनुसूचित जाति के थे , चौंक गए । उन्होंने उस नवयुवक की ओर देखकर कहा-"मुझे इसकी क्या जरूरत ? मेरा पुत्र भी लगभग तुम्हारी उम्र का है ।"
"नहीं , मेरा मतलब यह था कि कि आप सिर्फ सरकारी कागज पर मुझे अपना बेटा बना लें। मैं जाति से ब्राह्मण हूं ।बी.ए की परीक्षा में मुझे अच्छे अंक नहीं मिले,इस कारण मुझे नौकरी नहीं मिल रही है  ,आपका बेटा बनने से मुझे नौकरी में आरक्षण का लाभ मिल जायेगा ।"
"मेरा पुत्र पढ़ने में बहुत होशियार है, उसे बीए में प्रथम श्रेणी में भी प्रथम स्थान मिला है , अपनी योग्यता से ही उसे नौकरी मिली है , पर सब यह समझते हैं कि उसे यह नौकरी आरक्षण के कारण मिली है । यह बात उसके स्वाभिमान को ठेस पहुंचाती है , तुम अपने पिताजी से पूछकर आओ कि क्या वे मेरे लड़के को गोद लेंगे ? ****

9.बुढ़ापे का सहारा
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प्रियंका स्कूल से आई तो उसने देखा उसकी मां पलंग पर लेटी हैं।
"क्या हुआ मां , तबीयत ख़राब है?"
हां  बेटी, सिर में बहुत दर्द है  बुखार सा भी लग रहा है " ।
प्रियंका ने अपना बस्ता टेबल पर रखा और मां का सिर दबाने बैठ गई ।जब उसने देखा कि मां को नींद आ रही है , तो उसने उनको चादर चढ़ा दी  और स्वयं हाथ-मुंह धोने चली गई । फिर मां के पलंग के पास ही बैठ कर  शाम के लिए सब्जी काटने लगी । तभी उसका भाई उदय भी स्कूल से आ गया , उसने जोर से बस्ता एक तरफ फेंक दिया, जिसकी आवाज से मां की नींद खुल गई ।वह मां की तरफ लापरवाही से देखता हुआ , रसोईघर में गया  उसने एक सेबफल उठाया  मुंह से कतरा हुआ दीवार पर टंगे अपने बैंक को उठाया और खेलने चला दिया । मां के मन में क ई भाव आ जा रहे थे वह बेटे और बेटी के स्वभाव के अंतर को समझ रही थी । उसने अपने दिल से पूछा -मेरे बुढ़ापे का सहारा कौन होगा ?
बेटा या बेटी ? ****

10. अपना अपना दुःख
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वर्षों बाद आपस में मिली दोनों बहनों के बीच  सुख-दुख की चर्चा स्वाभाविक थी। 
छोटी बहन ने रो रो कर बताया कि "उसका पति घर में  क ई क ई दिन राशन नहीं जुटा पाता  , जबकि घर में  हमारे दो बच्चे ,सास ससुर और हम दोनों हैं ।"
बड़ी बहन से भी रहा नहीं गया ,वह भी अपनी व्यथा सुनाने लगी "उसका पति खाने-पीने का सामान इतना  लेकर आता है कि घर में रखने को जगह तक नहीं मिलती  और खाने वाले  बस हम दो प्राणी हैं ।"यह कहते कहते उसकी भी आंखें भर आईं।***

11. दर्द की दवा
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ओह आह ऊ ऊ करता हुआ तीन साल का बच्चा कराहती आवाज में रो रहा था । अनाथालय में नियुक्त डाक्टर  उसका मुआयना करने लगा "कहां है दर्द है बेटे बताओ "
तो बच्चे ने आंखें खोल कर  इधर उधर देखा ।
डॉक्टर ने फिर से पूछा "क्या चाहिए ? क्यों रो रहे हो ? "
"मां-मां"बच्चा मुंह फाड़कर कर रोने लगा । बच्चे  के दर्द की दवा डाक्टर के पास न थी । ****
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क्रमांक - 08


जन्म तिथि : 15अगस्त 1949 , भोपाल
शिक्षा : स्नातकोत्तर मनोविज्ञान

सम्प्रति : सेवा निवृत प्रचार्य,शा उ मा वि कन्या विद्यालय ग्वालियर

लेखन :-
आलेख,व्यंग्य,संस्मरण ,नुक्कड़ ,नाटक,कहानियाँ,लघुकथा ,कवितायें आदि का लेखन 

पुस्तक : -
दोराहा ( लघुकथा संग्रह )

सम्मान : -
- भोपाल की समाजिक संस्था "उड़ान"तथा "समाज कल्याण समिति" द्वारा "भोपाल रत्न"से सम्मानित
- लेखिका संघ म प्र द्वारा "दोराहा" लघुकथा संग्रह के लिये     नव लेखन पुरस्कार से सम्मानित
- विश्व हिंदी लेखिका मंच द्वारा साहित्य लेखन के लिये सम्मानित।

पता :-
140 - सी-सेक्टर,सर्व धर्म कॉलोनी, कोलार रोड,
भोपाल - मध्यप्रदेश 
   
1. माँ 
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मै ब्याह कर ससुराल आई ।घर की साज सज्जा बनावट बता रही थी की लब्ध प्रतिष्ठित परिवार है।मैं नई दुलहन सिमटी सिकुड़ी ,घबराई आँगन मे महिलाओं से घिरी थी कि किसी ने लगभग पांच साल का बच्चा मेरी गोद में जबरजस्ती लाकर बिठा दिया "ये माँ है तुम्हारी।माँ बोलो इनको ।"
अचकचा उठी मैं ।मैं पाँच साल के बच्चे की माँ हूँ और मुझे पता नहीं ।मै तो अभी सोलह की भी पूरी नहीं हुई।
ये तो पता था कि छह बेटियों के माँ बाप ने रईस,सुन्दर, बिना दहेज लेने वाला मगर दुहाजू वर देखा है मेरे लिये।पर---
विवाह मे एक बेटा मुझे मिलेगा ,इसका संज्ञान जरा न था।लगा बच्चे को गोद से धक्का दे दूँ ।मन कसैला हो गया।
मरा मराया सा,पिद्दी मिट्टी के रंग सा,पीली निरीह आँखे,सूखे पपडियाए होठ,प्यार कहाँ से उमड़े ।
अभी तो मेरे ही खेलने खाने के दिन है।कैसे अम्माँ बन जाऊँ ।
जड़ाऊ गहने गुरियों के साथ  एक बच्चा भी मुफ्त मे मिला।
धीरे धीरे आँगन खाली होने लगा। शादी के साथ फ़्री मिला बच्चा अब भी मेरी गोद मे बैठा था।अचानक मेरी आँख उससे मिली,वही निरीहता आँखो में।
थोड़ा मुस्कराया,बोला--"मै तुमको माँ नहीं बोलूंगा,तब मुझे प्यार करोगी न।यहाँ ताई,चाची कोई मुझे प्यार नहीं करता ।सब मुझे कालू कहते है"
अबकी मैने उसे गौर से देखा।सुन्दर नैन-नक्श का सलोना बच्चा।
लड़की जब जन्म लेती है,तभी उसके अंदर एक माँ भी जन्म ले लेती है।
"मै तुम्हे बहुत प्यार करूँगी।तुम मुझे माँ बोलोगे न।" ****

2. बड़ी हो गई खनक
     *************

कई दिनों से वे घर मे होती सुगबुगाहट को महसूस कर रहीं थीं ।
खनक बोर्ड परीक्षा देगी।प्रतियोगी परीक्षाएँ देगी।उसे एक अलग कमरा तो चाहिये।स्पेस चाहिये।
कहाँ बरेली का बड़ा सा घर,और कहाँ कलकत्ते का ये दो कमरों का फ्लेट।
आठ साल हुए होंगें,बेटा बरेली आया था।
बोला"अम्माँ,बाबू ! आप दोनो यहाँ अकेले रहते हैं,चिंता लगी रहती है आप लोगों की।खनक भी आप लोगो को याद करती है। हमारे साथ कलकत्ता में रहिये।"
खनक सात साल की थी।
बहू ने कोई जॉब जौइन किया था।
तबसे कलकत्ता और बरेली का आना जाना लगा रहा।
तीन साल हुए खनक के दादा जी नहीं रहे।
इन तीन सालों मे बरेली जाना न हो पाया।बरेली के घर के दो कमरे अनाथ भतीजे सिद्दू और उसकी नयी दुल्हन के हवाले कर बाकी कमरों में ताला डाल दिया।
एक नज़र उन्होनें अपने सामान पर डाली।एक सूटकेस ,एक बैग।
"मम्मीजी!तैयारी हो गई आपकी ।इतनी जल्दी क्या,थोड़े दिन और रुक जातीं।"बहू की आवाज से उनकी विचार- -तंद्रा भंग हुई,आँखों के कटोरों में खारा पानी और होठों पर मुस्कान,अभिनय सरल नहीं होता ,स्वयं को संयत कर --बोली"बहू सिद्दू की दुल्हन की पहिली डिलीवरी  है,अकेले हैं दोनों,उन्हें मेरी जरुरत है -----और यहाँ अब  खनक बड़ी हो गई है------- ।" ****
  
3.भगवान के रूप 
    ************

"दीदी !मैं अब बचूँगी नहीं।गोविंद को तुम्हारी गोद में दे रही हूँ ।"महाप्रयाण से पहिले मेरी देवरानी ने अपना छै माह का बच्चा मुझे सौंप दिया।
मैने गोविंद को अपने दो बेटों के साथ तीसरा बेटा मान लिया।
सुन्दर, गोल मटोल, गोविंद मेरे प्यार और देखरेख में बढ़ने लगा।
जैसे जैसे गोविंद बड़ा होने लगा,उसका व्यवहार  साधारण बच्चों से अलग लगने लगा।कभी गुमसुम,कभी छोटी सी बात मे चीखना चिल्लाना,किसी चीज को घंटो एकटक देखते रहना,वाक्य अधूरे से,अस्फुट बोलना।एकांत रहना।
डॉ ने कहा ऑटिज्म का शिकार है गोविंद।दवाईयाँ, धैर्य,प्रेम,  गोविंद के लिये ,मेरी जिन्दगी में शामिल हो गये।
दस साल का हो गया है गोविंद।उसकी दैनिक क्रियाओं मे भी,उसे मेरी जरुरत होती है।
गोविंद को नहला,कपड़े पहिना ,उसके बाल संवार रही थी कि नन्दा आ गई।
 नन्दा मेरी पड़ोसन,हमउम्र सखी।
आते ही मुझ्से बोली---"भाभी!शिवरात्रि है,मंदिर 
 चलोगी मेरे साथ ?"
"नहीं, मै नहीं जा पाऊँगी।तुम जानती तो हो ,गोविंद मेरे बिना नहीं रहता।
"भाभी! कभी भगवान की भी पूजाअर्चना कर लिया करो।हमेशा गोविंद की सेवा मे लगी रहती हो।"
"भगवान  के कई रूप होते है नन्दा।उसमे से गोविंद भी उनका  एक रूप है।" ****

4.एफ डी 
   ******

"सुनिये!कल बिटिया का फोन आया था,वो अपने नये घर मे  इंटीरियर करवा रही है,उसे कुछ पैसों की जरुरत है।"
"उसे मना कर दो रजनी ।हम उसकी कोई हेल्प नहीं कर सकते।"
"क्या कह रहें है आप।दामाद जी और उसके सास ससुर क्या कहेंगें। "
"कोई कुछ नहीं कहेगा।बिटिया की शादी को दस साल हो गये,उन लोगों ने कभी कुछ नहीं मांगा।बिटिया ही जब तब तुमसे डिमांड करती रहती है,तुम उसे पूरा करती हो।"
"अरे!बेटी है ।फर्ज़ बनता है अपना।"
"देखो रजनी !हमने अपने दोनो बेटे,और बिटिया को पढ़ाया,विवाह किया,समय समय पर आर्थिक सहायता भी की।अब सब अपने घर मे संपन्न है। अब मै रिटायर भी हो गया हूँ ।"
"आप नाराज न हों।,तो एक बात कहें।"
"क्या?"
"वो जो हमारी एफ डी है  ,उसे ---------।"
"भूल के एफ डी की तरफ देखना भी नहीं ।रजनी!भविष्य किसने देखा।ईश्वर न करे,हम दोनो मे से कोई असाध्य रोग से घिर जाय तो ?बच्चे भी हमें चिकत्सीय सुविधा उपलब्ध कराने  में असमर्थ हों,ये एफ डी ही हमारा संबल होगी।" ****

5. यूरेका
     ****

मुन्ना बाबू ,शाला जाने के लिये निकल पड़े।रास्ते में कभी पैरों से छोटा सा पत्थर उछालते,कभी हवा मे कल्पनीय बॉल उछाल क्रिकेट खेलते ।
कल रात ही उन्होने अपनी माँ से लिपट,गलबहिंयाँ डाल,पूछा था --अम्माँ ,मै कैसे पैदा हुआ?"
"डॉ ने हमारे पेट का ओप्रेशन किया,और पेट से तुम्हे बाहर निकाल लिया"अम्माँ ने समाधान किया।
"सब बच्चें ऐसे ही पैदा होते है?"
"हाँ-----अब सो जा।"दिन भर की थकी हारी,उनींदी माँ ने मुन्ना बाबू को अपने से चिपटा लिया।
सूरज आसमान मे लाल गोला बनकर उभर आया था।पहिली कक्षा के छात्र,मुन्ना बाबू के छोटे से भेजे मे कई दिनों से कुलबुलाती समस्या का समाधान माँ ने कर दिया था।
हल्की सी सूरज की रोशनीऔर फैली।मुन्ना बाबू के मस्त कदम थोड़ा ठिठक गये।
झाड़ियों का जंगल,गली मुहल्ले का कूड़ा करकट जहाँ
पर पड़ा रहता है,कुछ लोग इकठ्ठा हैं। एक आदमी की गोद मे,कपड़े मे लिपटा कुछ है।मुन्ना बाबू ने उनकी आवाज सुनी,---बच्ची है---लड़की है--।
घर की ओर अबाउट टर्न,कुछ बिजली सी कौंधी,तेजी से भागे-----
यूरेका----------
"अम्माँ ---अम्माँ"
"अरे,छुट्टी हो गई क्या स्कूल में"माँ के प्रश्न्ं को अनसुना कर बोले मुन्ना बाबू-"अम्माँ ,तुम तो कल कह रहीं थीं बच्चे माँ के पेट से पैदा होते हैं"
"हाँ "
"नहीं--ऐसा नहीं होता।"
"तो कैसा होता है,--तुम्ही बताओ?"
"सिर्फ लड़के मां के पेट से पैदा होते है।लड़कियाँ तो कचरे के ढ़ेर  से-------' ****

6. स्वीमिंग सूट
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"अरे भाभी !हम लोग नाश्ते पराठे नही खाते ।कॉर्न फ्लेक्स,मूसली,ब्रेड बटर लेते है।"
"आपको मालूम तो है ,आपके जीजाजी 
अफसर है।हेल्थ कोन्सस है,सुबह हम दोनो स्विमिंग पुल जाते है ।पता है हमे तो स्वीमिंग मे बहुत प्राइज़ मिले।"
शहर से मायके आई ननद कस्बे की अपनी छोटी भाभी
पर आपन मुख आपन करनी बखान रही थी।
शाम को घूमते हुए  ,खेत से होते,तलैया की तरफ , ननद भाभी पहुंची कि शोर सुना"अरे बचाओ रे कोई ,मोर लल्ला तलैया मे डूब रओ ।"
भाभी ने मौके की नजाकत को समझा,साड़ी का पल्ला खोंस कूद कर बच्चे को किनारे ले आई।
"हम भी बच्चे को बचा लेते पर वो क्या,स्वीमिंग सूट नहीं था न हमारे पास"ननद  रानी बोली। ****

7. बैर बाँधने से पहिले
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"अम्माँ!अब घर की रसोई अलग अलग कर दें।जीजी अपना अलग रसोई रांधे।हम अपनी अलग।रोज रोज की किट किट तो न रहेगी"छोटी बहू ने सास के सिर पर तेल लगाते हुए अपनी बात रखी।
"बेटा , बड़े की तबियत ठीक नहीं है, उसे डॉ ने मिर्च मसाले वाले खाने से परहेज बताया,और बड़ी बहू भी कई दिनो से बीमार चल रही है।"
"बीमार है तो हम क्या करे।आज ही बोली की मै जानबूझकर रम्मा से(खाना बनाने वाली) मसालेदार सब्जी बनवाती हूँ ।मै नहीं चाहती की बड़े भईय्या का स्वास्थ अच्छा हो।उन्होने क्या क्या  नही सुनाया,अब सहन नहीं होता।आप रसोई अलग कर दो बस।"
"ठीक है,तुम्हारी ही सही।छोटी तुम्हे याद है।विजातीय होने के कारण इस घर मे कोई नही चाहता था ,की तुम्हारी शादी छोटे से हो ।पर बड़ी बहू ज़िद पर अड़ गई तुम और छोटे एक दूसरे को चाहते हो तो शादी यही होगी।कितने उत्साह से तुम्हारा ब्याह रचाया उसने समाज के दहेज,और विजातीय होने के तानों से तुम्हे दूर रखा।है न?"
छोटी चुप।
"मुनिया के जन्म के समय पूरे नौ महिने डॉ ने बेड रेस्ट कहा था।तब बड़ी ने कितनी सेवा की थी तुम्हारी।की थी न?"
"हाँ "
"और जब छोटे की कंपनी मे छंटनी हुई थी।तब साल भर घर का पूरा खर्च बड़े ने उठाया।उफ़ तक नही की उसने।तुम मानती  हो न ये सब"
"हाँ अम्माँ ,जीजी और बड़े भईय्या ने समय समय पर हमे सहारा तो दिया"
"मै यही कह रही हूँ मेरी छोटी रानी,बैर बाँधने से पहिले अतीत का प्रेम झाँक लेना चाहिये।---अब तुम्हारी मरजी।" ****
8. हमेशा कृष्ण ही क्यों ?
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गोपाल जी आज छ माह बाद अपनी फेक्टरी मे आये।पुश्तैनी मसालो के कारोबार को गोपाल जी की लगन और मेहनत ने इस क्षेत्र मे शीर्ष पर खड़ा कर दिया था।
इधर साल भर से स्वास्थ ने साथ देना छोड़ सा दिया था।मेडिकल टेस्ट से पता चला उनकी किडनी खराब हो गई है।डोनर मिलने,और मैच होने पर एक किडनी ट्रांसप्लांट हुई।अब  वे स्वस्थ है।
फेक्टरी पहुँचने पर पता चला फेक्टरी का मैनेजर  हरीश ,जो उनका बचपन का दोस्त भी है,अस्वस्थता के कारण अवकाश पर है।गोपाल जी ने उसी समय ड्राईवर को बुला कर हरीश के घर पहुँचे ।
"गोपाल जी,आपने क्यों तकलीफ की।साधारण सा सर्दी जुकाम है।एक दो दिन में ठीक हो जायेगा।"
"कितनी बार कहा हरीश,मुझे आप और जी कहना बंद करो।कब सुधरोगे तुम।------तुमने जो मेरे लिये किया,कोई करता है भला।जीवन दान दिया है मुझे।"
"और गोपाल तुमने,----मुझ अनाथ को तुम्हारे परिवार ने पढ़ाया लिखाया,इतनी अच्छी नौकरी तुमने मुझे फेक्टरी मे दी,कैसे भूल सकता हूँ मै।"
"तुम्हारे लिये,मैने,मेरे माँ,बाबू ने जो किया उसमे हमारी आर्थिक सम्पन्नता थी।पर तुमने तो अपना अंगदान कर मेरे मृतप्राय शरीर मे प्राण डाले है दोस्त।"
"गोपाल ,मेरे भाई ।ये बताओ हमेशा कृष्ण ही क्यों  दें ,क्या सुदामा अपने मित्र को  कुछ नहीं दे सकता?" ****

9. ये मुर्दो का गाँव
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जब भी मन बेचैन होता है,मेरे पैर अनायास ही अस्सी घाट की  तरफ बढ़ जाते है।गज़ब का सुकून मिलता 
 है वहाँ ।मानो गंगा का शीतल जल अपने स्पर्श से सारी व्यथा को हर लेता  हो ।
आज भी कुछ ऐसा हुआ।वीतरागी मन मे अभी भी पिछले वर्ष इकलौते बेटे की मृत्यु,और उसके दुख  मे व्यथित दो माह पूर्व पत्नी का निधन,अभी भी उनकी यादें कचोटती हैं।
घाट पर साधू गा रहा था तन्मय होकर ,कबीर का पद---
साधो ये मुरदों का गाँव
मरिहैं पीर पैगम्बर मरिहैं 
मरिहैं  जिंदा जोगी---
मै उससे दूर मंदिर के चबूतरे पर जाकर बैठ गया।यहाँ इसी घाट पर तुलसी बाबा ने अपनी अन्तिम रचना "विनय पत्रिका"लिखी।और अपनी  अन्तिम यात्रा भी इसी घाट से की।
तुलसी बाबा के  विचारों मे तल्लीन मै एकदम चौंक पड़ा।
"का हो रामजी,आज का एही घाट मा रात बिताय का है"
सामने वो साधु खड़ा था।उसकी आँखो मे विचित्र सा वैराग्य मिश्रित प्रेम दिख रहा था।
मैने आसपास देखा,सच रात गहरा गई थी।मेरी चेतना जागी,मै सांसारिक अवसाद मे डूबता उतराता बोला--
"महराज,जाना तो है मुझे,लेकिन क्या करूंगा  जाकर, 
मेरा परिवार तो मुझे छोड़ गया।"बोलते हुए हुए गला रुंध गया मेरा।
"यहाँ तो सबै जाय के काजे आत  है रामजी।ये संसार ही मुरदों का गाँव है।"
मुझे जगाकर वो चल दिया।उसकी आवाज सुनाई पड़ रही थी मेरे कानो में--
राजा मरिहैं ,परजा मरिहैं 
मरिहैं वैद औ रोगी
साधो-----ये मुरदो का गाँव। ****

10. कज़िन 
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शोभा जी का घर चहक रहाथा।बेंगलूर से बड़े बेटे का परिवार और मुंबई से छोटे बेटे का परिवार आया था।भरे हुए घर की रौनक ही कुछ और होती है
बड़े बेटे की पत्नी और दस साल की इकलौती बिटिया जुही ।जब तक जुही पांच साल की रही,शोभा जी जब भी बेंगलूर जाती बच्चो से यही कहती--बेटा कम से कम दो बच्चे तो होने चाहिये ,जुही को भी साथ चाहिये,चाहे भाई या बहिन ।अभी तो ठीक है,बाद मे उसे अकेलापन बहुत अखरेगा"
"मां आजकल एक बच्चा पालना मुश्किल है।कितनी महंगी पढाई हो गई है।ऐसे मे क्या दूसरे बच्चे से न्याय कर पायेंगे"
फिर शोभा जी ने कहना छोड़ दिया।बच्चों के विचारों मे जबरजस्ती अपनी भावनाएँ भरना उन्हे उचित नही लगा।
छोटे बेटे की दो बेटियाँ,क्रमशः तीन और चार साल की ।
मीठी और पीहू।
घर की चहल-पहल के बीच,पोतियो के साथ बैठी जीवन के परम सुख का आनन्द ले रही थी कि तीन साल की मीठी ने पूछा---दादी ,ताऊजी आपको मां क्यों कहते है।आप तो मेरे पापा की मां हो।"
हँस पड़ी शोभा जी,प्यार से मीठी को गले लगा कर बोली"तेरा पापा,और तेरे ताऊ दोनो ही मेरे बेटे है,तोमुझे मां बोलेंगे न"इसी समय चार साल की पीहू ज्ञानी की तरह बोली---हाँ--जैसे मै और मीठी सगी बहिने है न"
सामने ही दस साल की जुही का चेहरा मुर्झा गया,उसे देखते ही शोभा जी ने कहा---अरे जुही दीदी भी तो तुम दोनो की बहिन है"
"हाँ है "पीहू ने कहा----"पर कज़िन "
शोभा जी का मन जाने कैसा हो गया उनकी कोख से जन्मे बेटों की दूसरी पीढी कज़िन हो गई। ****

11. लिस्ट 
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"आज फिर यही शर्ट ।चार दिन पहिले ही पहिनी थी।तुम्हे पता नहीं  मैं कपड़े जल्दी रिपीट नही करता ।
"दो महिने हुए होँगे जब आपने इसे पहिना था "
"अच्छा डायरी मे नोट करती हो क्या?"
"नाश्ते मे आमलेट?बताया था न मेरा पेट ठीक नहीं है, कुछ हल्का बनाना"
"पर आपने ही कहा था की नाश्ते में----"
"कान साफ रखा करो अपने"
"ये सिर पर पल्ला लिये क्यों घूमती हो।दस साल बड़ी लगती हो मुझसे"
"अम्माजी कहती है"
"जैसे सारी बात अम्माँ  की मानती हो"
"अम्माँ को चाय के साथ टोस्ट क्यों दे दिया,उनको एसिडिटी होती है"
"मारी बिस्किट उन्हे अच्छे नही लगते।टोस्ट उनने ही माँगा "
"तुम्हे तो अकल है न, --है की नहीं "
"यार तुम भी न।फिर ये हरी साड़ी पहिन ली,बन गईं  तोता परी"
"आप ही कहते है मुझ पर ये साड़ी अच्छी लगती है"
"कभी कहा होगा।अब नहीं अच्छी लगती"
"अखबार दे दो।खबर देख लूँ ।फिर तैयार होता हूँ "
"बाबूजी पढ़ रहे हैं"
"वो बाद मे भी देख सकते हैं "
"अरे आप ही तो कहते है की पेपर पहिले बाबूजी को दिया करो।अब हमे क्या पता था की आज आपको पहिले पढ़ना है"
"बहस करना तो कोई तुमसे सीखे,आखिर वकील की बेटी जो हो"
       अब इसमे मेरे बाबूजी कहाँ से आ गये।
"क्या बात है,आज चाय नाश्ते की हड़ताल है क्या आठ बज गये"
"सब मिलेगा।पर पहिले एक काम करें।ये पेन,और ये कागज लीजिये । एक लिस्ट बनायें,उस पर लिखकर बतायें  कि ---मुझे कौन कौन सा काम करना चाहिये और कौन सा नहीं करना चाहिए।पूरी लिस्ट तैयार कर अपने हस्ताक्षर सहित इस दिवार पर चस्पा कर दें।ताकि भविष्य में  आप सबको मुझसे कोई शिकायत न रहे" ****
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क्रमांक - 09
                                                                     
नाम : गोकुल प्रसाद सोनी  
साहित्यिक नाम :  गोकुल सोनी
माता का नाम-- स्मृति शेष- श्रीमति लक्ष्मी  
                      देवी सोनी 
पिता का नाम-- स्मृति शेष- श्री हीरा लाल   
                      सोनी 
पत्नि का नाम-- श्रीमति राधेश्री सोनी 
जन्मतिथि--      १६ मई १९५५ 
जन्म स्थान--     खिमलासा (जिला सागर)    
                       मध्य प्रदेश 
शिक्षा--            बी.एस सी, एल एल बी,  
                      सी.ए.आई.आई.बी. (बैंकिंग)
लेखकीय विधा: -
 कविता-छंद युक्त, छंद-  मुक्त, व्यंग्य-गद्य एवं पद्य,      मुक्तक, गीत, बुंदेली कवितायेँ, लघुकथा, कहानी, समीक्षा आदि                       
विशेष--          मंचीय कवि-सम्मलेन, मंच-संचालन आदि.
प्रकाशन--       नवभारत अखवार के    
                     साप्ताहिक व्यंग्य कालम    
   “ख़बरों पर निशाना” के पूर्व स्तंभकार,    
    संपादन-“स्वर्ण शिखा” (पत्रिका), 
    उप-संपादन–इन्द्रधनुष-१ (पत्रिका)                         

प्रबंध संपादक- सत्य की मशाल (मासिक पत्रिका) भोपाल   
संपादकीय सदस्य- पत्रिका देवभारती
उप संपादक- मासिक पत्र "लघुकथा वृत्त"

प्रकाशित कृतियाँ:-   
१. फोल्डर- छींटे और बौछार.  
२. सारे बगुले संत हो गये (व्यंग्य-कविता-संग्रह)
 ३. कठघरे में हम सब (कहानी संग्रह)
 ४. अपने अपने समीकरण (लघुकथा संग्रह)

शीघ्र प्रकाश्य   
५. गीत को गीता बना लो (गीत संग्रह)
६. आह कोरोना वाह कोरोना (कहानी संग्रह)

सम्मान एवं अलंकरण-
(१) गिरधर गोपाल गट्टानी स्मृति सम्मान.  (म.प्र. लेखक संघ वर्ष अगस्त २०१०) 
(२) अलंकरण-“मनु श्री” (इन्द्रधनुष साहित्यिक संस्था-बैरसिया वर्ष नवम्बर १९९५)                                            (३) अलंकरण-“सत्य श्री” (सार्वदेशिक सत्य समाज बोरगांव, वर्धा वर्ष अक्टूबर २००१) 
(४) अलंकरण-“भावना भूषण” (सार्वदेशिक सत्य स. बोरगांव वर्धा महाराष्ट्र
(५) राजभाषा शिखर अलंकरण वर्ष-२०१९ (मध्य प्रदेश नवलेखक संघ भोपाल) 
(६)   शांति-गया स्मृति सम्मान (व्यंग्य हेतु)  
(७) व्यंग्यश्री सम्मान वर्ष-२०१८ (शिव संकल्प साहित्य परिषद् होशंगाबाद)
 (८) अमित रमेश शर्मा मंचीय कवि सम्मान- २०१८ (म.प्र लेखक संघ, भोपाल)
  (9) तुलसी सम्मान वर्ष-2020  
(तुलसी साहित्य अकादमी, भोपाल)    
(10) साहित्य श्री सम्मान वर्ष-2020
(तूलिका बहुविधा मंच, एटा, उ.प्र.)
(11) पर्यावरण प्रहरी सम्मान वर्ष-2020
(तूलिका बहुविधा मंच, एटा, उ.प्र.)
(12) अतुकांत काव्य गौरव सम्मान
(तूलिका बहुविधा मंच, एटा, उ.प्र.)   
(13)  श्री जितेंद्र लालवानी स्मृति प्रथम राष्ट्रीय पुरस्कार वर्ष 2020      
(14)   "प्रखर प्रज्ञा" राष्ट्रीय सम्मान द्वारा- साहित्य संगम उत्तर प्रदेश  2021                            
और भी कई साहित्यक, सामाजिक, बैंक एवं  रक्षा सेवा, संस्थाओ द्वारा सम्मान एवं पुरस्कार. 

रचनाएँ कई अख़बारों, पत्र-पत्रिकाओं, में प्रचारित, प्रसारित. 'आकाशवाणी' तथा  'दूरदर्शन' पर कविताओं एवं गीतों का सतत प्रसारण   
     
अन्य उप्लब्धियाँ      
पू. अध्यक्ष ‘इन्द्रधनुष’ साहित्यिक संस्था, बैरसिया.
पू. अध्यक्ष मध्य प्रदेश लेखक संघ,जिला इकाई, विदिशा.
पू. अध्यक्ष सार्वदेशिक सत्य समाज, जिला भोपाल.  
पू. संरक्षक स्वर्णकार समाज, विदिशा.
पू. सचिव नगर राष्ट्रभाषा कार्यान्वयन समिति, जिला विदिशा. (गृह-मंत्रालय दिल्ली से नियुक्त)

वर्तमान-- सचिव-  “कला मंदिर” साहित्यिक एवं सांस्कृतिक संस्था, भोपाल 
कार्यकारिणी सदस्य- मध्य प्रदेश लेखक संघ, प्रांतीय कार्यालय भोपाल.

वर्तमान पता--    
82/1, सी-सेक्टर, साईंनाथ नगर
कोलार रोड, भोपाल - मध्यप्रदेश
1. कैरियर 
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     आज मिसेज भल्ला के घर पार्टी थी, मोंटू को वे डांट भी रही थी, और समझा भी रही थी. देखो मोंटू, आज की किटी पार्टी विशेष है. आज की थीम है, "बच्चे और उनका कैरियर" तुमको तो पता ही है. आज सभी आंटियां आपने-अपने बच्चों को लेकर अपने घर आयेंगी. सभी बच्चों का स्केटिंग, डांसिंग, पेंटिंग, सिंगिंग, म्यूजिक, और पोएट्री काम्पिटीशन रखा गया है. उस में जो बच्चा ओवर आल विनर होगा, उस बच्चे और उसकी मम्मी को बड़ा सा प्राइज मिलेगा. तुम अपने कमरे में खिलौनों से खेलने में मस्त रहते हो, आज कोई खेल नहीं. दिन भर तैयारी करो. फिर हाथ पकड़कर, जोर से  भम्भोड़कर बोली- याद रखना, शाम को मुझे प्राइज चाहिए, समझे. देखो मेरी नाक मत कटवा देना. चिंटू डरा-डरा सा बोला जी मम्मी, पर मुझे नींद आ रही है. मम्मी बोली- कोई नींद नहीं जाओ, कमरे में और तैयारी करो.
     थोड़ी देर बाद जब मिसेज भल्ला चुपचाप चिंटू को देखने गईं तो चिंटू एक बन्दर के खिलौने के गले में रस्सी बाँध कर उसे खूब उछाल रहा था, उसको गुलाटी खिला रहा था और पटक रहा था पर उसके चेहरे पर सहज आनंद न होकर गुस्सा और तनाव था और कुछ बडबडा रहा था. उसने ध्यान से सुनने की कोशिश की तो वह बन्दर को रस्सी से उछाल कर गुलाटी खिलाते हुए डांट रहा था. ए बंदर...जल्दी नाच.. तुझे फर्स्ट आना है. देखो सो मत जाना. तुझे आर्टिस्ट बनना है, सिंगर बनना है, म्यूजीशियन बनना है, डांसर बनना है, और हाँ खिलाड़ी और पोएट भी बनना है. अभी.. इसी वक्त... सब कुछ बनना है और याद रखना, तुझे गणित, इंग्लिश, जी.के., ड्राइंग हिंदी, साइंस, सभी में 'ए प्लस' भी लाना है. नाच बन्दर नाच, नहीं तो बहुत मारूंगा.. बहुत मारूंगा और बन्दर को बार बार जमीन पर पटक कर सुबक-सुबक कर रोने लगा. मिसेज भल्ला किंकर्तव्य विमूढ़ सी खडी उसे देख रही थी. उनको कुछ भी  समझ में नहीं आ रहा था. वे चिंटू को गले से लगाकर खुद सुबक-सुबक कर रोने लगीं ***

                     
2. अंधविश्वास 
    *********

     उनका एन.जी.ओ. गाँव-गाँव में जाकर लोगों को शिक्षित करता और डायन प्रथा, काला जादू तथा अंधविश्वास को दूर करने का कार्य करता है. सरकार से भी उनको इस कार्य के लिए काफी आर्थिक अनुदान मिलता है. वे “अंधविश्वास मिटाओ समिति” के अध्यक्ष भी हैं. उन्होंने आज शाम को इसी विषय पर कार्य-योजना बनाने हेतु अपने घर पर एक बैठक रखी है, ताकि गाँव-गाँव जाकर अंधविश्वास पर गहरी चोट की जा सके. मुझे उनका घर खोजने में असुविधा हो रही थी. एक पान की गुमटी वाले से मैंने उनके घर का पता पूछा तो उसने बताया- आप ये सामने वाले  रोड पर चले जाइए, आगे जाकर दायें मुड जाइयेगा. वहाँ ग्रीन कलर के नये, दो सुंदर आलीशान मकान बने हैं. उनमे से जिस मकान के उपर ‘काली हाँडी’ टंगी है और सामने की तरफ एक “फटा हुआ काला जूता” टंगा है वही मकान उनका है. सुनकर मैंने कुछ सोचा और वापस घर लौट आया.****

                  
3.  अवांछित  
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     सत्यांश का मन आज बेहद दुखी था. आज फिर बड़े साहब ने उसको डाँटा. वो भी पूरे स्टाफ के सामने. उसके समझ में नहीं आ रहा था, कि यहाँ इस आफिस मैं उसको  स्थानांतरित हुए छ्ह महीने भी नहीं हुए थे. फिर भी पूरा स्टाफ दुश्मन क्यों बन गया? जबकि वह पूरी लगन, निष्ठा और ईमानदारी से अपना काम करता है.
     आफिस के सब लोग जा चुके थे. चपरासी ने डाक लाकर दी. उसने बड़े दुखी मन से सुखीराम से पूछा- अच्छा सुखीराम, तुम ही बताओ, मेरे काम मे क्या कमी है, जो आफिस का हर आदमी मुझसे नाराज है. बड़े साहब तो सदैव ही नाराज रह्ते हैं.
     सुखीराम बोला- बड़े बाबू, आप बहुत भोले हैं. जमाने का चलन नहीं समझ पाते. पिछ्ले बड़े बाबू सब को कमाई का परसेंटेज देते थे. सभी को पार्टियाँ भी दिया करते थे. इस आफिस में आये दिन पार्टियाँ हुआ करती थी, जो आपके आने के बाद बंद हो गई. आप  भी बिलों की हेराफेरी मे जब तक पारंगत नहीं बनेंगे,  तब तक कष्ट भोगते रहेंगे. वास्तव मे कोई नहीं चाह्ता कि आप इस आफिस में रहें.
     डाक को रजिस्टर में चढ़ाते समय जब उसने एक लिफाफा खोला तो अपना स्थानांतर आदेश देखकर दंग रह गया. उस में लिखा था, आपका आवेदन-पत्र स्वीकार करते हुए आपका स्थानांतर झाबुआ जिले में किया जाता है. उसे बहुत आश्चर्य हुआ. उसने तो आवेदन दिया ही नहीं था! आदेश के साथ आवेदन की फोटोकापी से पता चला. किसी  ने जाली हस्ताक्षर बनाकर उसकी ओर से स्थानांतर हेतु आवेदन भेज दिया था. ****

                      
4. अर्थ का अनर्थ 
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     सुबोध का व्यक्तित्व अर्थात सोने पर सुहागा. सुंदर, उच्च पद पर आसीन होने के साथ ही, व्यवहार कुशल. आदर्श विचारों से युक्त. और सम्वेदनशील भी. आज वह परिवार के साथ विवाह के लिये लडकी देख्नेने आया है. लड़की थोड़ी साँवली होने के कारण एकदम पसंद तो नहीं आई, पर वह सोच रहा था कि, लड़की कोई दिखाऊ वस्तु तो नहीं है, फिर रूप से गुण अधिक महत्वपूर्ण होते हैं. यदि वह न कर देगा, तो लडकी को कितना दुख होगा. दोनो परिवार भी कितने उत्साहित हैं. यह सब सोचते हुए उसने अपनी स्वीकृति दे दी.
     वापस लौटने से पूर्व वह वाशरूम गया तो पीछे के कमरे से आती आवाजों पर उसका ध्यान गया. लडकी के पिता कह रहे थे- बात कुछ समझ में नहीं आई, लड़का सुंदर है, पैकेज भी अच्छा खासा है, पर अपनी साँवली 'बिट्टो' को भी कैसे जल्दी हाँ कर दी, वो भी बगैर दहेज के. मुझे तो कुछ “दाल मे काला” नजर आ रहा है. लडकी की माँ बोली- सही कह्ते हो आप, जरूर लड़के में कोई खोट होगा, वरना आज के जमाने में ऐसा होता है क्या? सर्वगुण संपन्न लड़का, दहेज़ भी ना मांगे, और साँवली लड़की को हाँ भी कर दे. मुझे तो कोई बड़ा एब लगता है.  देखो जी, आप तो कोई बहाना बना कर उन लोगों को ना कर दो.
   सुबोध माँ का हाथ पकड़कर बोला- चलो माँ, हमें किसी को धर्मसंकट में नहीं डालना चाहिए.****


                              
5. इलाज  
    *****

     बहुत तनावग्रस्त, दुखी, गर्वित को उदास देखकर नम्रता ने पूछा- क्या बात है? तबीयत तो ठीक है ना?
     गर्वित की उदास आंखों में नमी उतर आई. बोला- नम्रता, इस नए बॉस ने तो परेशान कर दिया. इसका कोई इलाज समझ में नहीं आ रहा. सोचता हूं इस्तीफा दे दूं.
     नम्रता बोली- आखिर ऐसी क्या बात हो गई?
     बात क्या, तुम को तो पता है, मैं अपना हर काम, पूरी मेहनत और दक्षता से करता हूँ. पुराने बॉस तो मेरे काम की खूब तारीफ़ करते थे, पर यह उल्लू का पट्ठा जब से आया है, जरा-जरा सी गलती पर डांटता तो खूब है, पर कितना भी अच्छा काम करूँ, इसके मुँह से कभी प्रशंसा के दो शब्द भी नहीं निकलते. आखिर कौन नहीं चाहता कि उसके अच्छे काम को, महत्त्व मिले,  प्रोत्साहन के दो शब्द मिलें.  
     नम्रता बोली- इसका इलाज है मेरे पास. आप उनसे प्रसंशा की बिल्कुल अपेक्षा रखना छोड़ दीजिये, अपनी भावनाओं को दरकिनार कर मशीनी ढंग से अपना काम करते जाइये. मैंने भी ऐसे ही किया.
     जब मायके में थी तो मैंने "कुकिंग-कोर्स" किया था. बड़ी मेहनत से कोई 'स्पेशल डिश' बनाती, तो पापा-मम्मी बहुत तारीफ करते. उनके चेहरे पर खुशी देकर मुझे भी बड़ी  संतुष्टि मिलती, पर शादी के बाद मैंने पूरी मेहनत, पूरी लगन और प्यार से तरह-तरह की डिशेस बनाई पर मेरे कान आपके मुंह से प्रशंसा के दो शब्द सुनने को तरस गये. पूछने पर आपका उत्तर "हाँ, ठीक ही है" मन को चीर जाता था. अब शादी के पाँच साल गुजरने के बाद, मैंने तो अपेक्षा रखना ही छोड़ दिया. जो कुछ बनाती हूँ , अपना फ़र्ज़ समझ कर यांत्रिक ढंग से बना देती हूँ. कभी तारीफ़ कि अपेक्षा नहीं रखती. आप भी ऐसा ही कीजियेगा.
     गर्वित बड़े ग्लानिभाव से लगातार उसकी और देखे जा रहा था. उसके मुँह से एक ही शब्द निकला-सॉरी.****

                       
6.एरिया
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     सुन्दर, पीली-पीली, स्वादिष्ट दूध से भरी 'खिरनी' का ठेला उसने लगाया ही था, कि एक आदमी रसीद कट्टा लेकर सामने खड़ा हो गया.  उसने पचास रूपये की रसीद काटते हुए कहा- "बैठकी फीस" हम नगर पालिका से हैं उसने कहा- भाई साहब अभी तो बोहनी भी नहीं हुई.  वो बोला- यह तो देना ही पड़ेगी. इस नगर-पालिका के 'एरिये' में जो भी दूकान लगाता है, उसे देना ही पड़ती है और रूपये लेकर, रसीद देकर चलता बना. तब तक काफी ग्राहक आ गए. सभी लोग जल्दी-जल्दी की रट लगा  रहे थे. अचानक एक पुलिस वाला ठेले पर डंडा मारकर बोला- क्यों रे कहाँ का रहने वाला है. उसने एक मुट्ठी खिरनी उठाई और खाते हुए बोला- निकाल सौ रूपये. वह कुछ न-नुकुर करता इसके पहले ही वह ठेले पर डंडा मारते हुए बोला- यह मेरे थाने का 'एरिया' है, निकाल जल्दी. घबराकर उसने सौ का नोट उसके हाथ पर रख दिया और ग्राहकों को खिरनी तौलने लगा. अंत में भीड़ छटने पर उसका ध्यान उस ग्राहक पर गया, जो बिलकुल शांत भाव से पीछे खडा था, गंभीरता से और धैर्य-पूर्वक. उसने भी मन ही मन उसकी प्रशंसा की, कि कितना शांत और अच्छा है यह आदमी. अपने से बाद में भी आये दूसरे ग्राहकों को फल लेने दे रहा है और कोई जल्दी नहीं कर रहा. जब सभी ग्राहक चले गये तो उसने बड़ी विनम्रता से पूछा आपको कितनी चाहिए? वह गुस्से से बोला ”खिरनी नहीं चाहिए मूर्ख, हफ्ता चाहिए हफ्ता, ला निकाल बिक्री का दस परसेंट, नहीं तो इतने जूते मारूंगा कि गिन भी नहीं पायेगा. मैं इस एरिये का गुंडा हूँ. ये “एरिया हमारा है”. बगैर मुझे हफ्ता दिए कोई यहाँ धंधा नहीं कर सकता, हफ्ता बसूली पर निकला हूँ. लगता है इस एरिये में तू नया है. फल वाला एक दम डर  गया और उसने मिमियाते हुए कमजोर सा प्रतिवाद किया- भाई साहब अभी थोड़ी देर पहले भी दो लोग यही कह रहे थे, कि “एरिया हमारा है” और रूपये भी ले गये थे? फिर घबराते हुए कुछ रूपये निकालकर उसके हाथ पर रख दिए और सोचने लगा- आखिर यह एरिया है किसका?****

                    
7. एकलव्य  
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    गुरु द्रोणाचार्य और एकलव्य, दोनों ने अपनी-अपनी 'निष्ठाओं' का पालन किया था, अत: उनको पुनर्जन्म मिला.
     कालेज के अंतिम दिन, “डिग्री वितरण समारोह” में, एकलव्य मन में आशंकित और अत्यंत डरा हुआ था, कि आज फिर गुरूजी अंगूठा ना मांग लें. एकाएक उसकी आशंका, उसका डर, आनंद में परिवर्तित हो गया. गुरूजी अत्यंत 'कातर' वाणी में एकलव्य से ‘गुरुदाक्षिणा’ मांग रहे थे. बेटा एकलव्य- इस बार मैंने तुम को भरसक अच्छी शिक्षा दी है. तुम जिस कोटे से आते हो. निश्चित है, कि एक-दो वर्ष में तुम कलेक्टर या अन्य कोई ऊंचे पद पर पहुँच जाओगे. हे वत्स- मेरे बेटे का ध्यान रखना. प्रथम श्रेणी से पास होने के बाद भी, कई दिनों से नौकरी के लिए भटक रहा है. हो सके तो कहीं उसकी कोई छोटी-मोटी  नौकरी लगवा देना. एकलव्य ने हाथ उठाकर ‘तथास्तु’ कहा और प्रशन्नता पूर्वक आगे बढ़ गया. ****

                   
8. कड़वा इलाज 
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     लड़कियों को सदा झिड़कने और डांट-डपट करने वाली दादी, रीना को बड़े प्यार से पुचकारकर कर बुला रही थी, आजा बेटा आजा, मैं तुझे 'जलेबी' लाई हूं. बच्ची पास आने से डर रही थी. आवाज से परिवार वाले भी इकट्ठे होकर आश्चर्य से देखने लगे, क्योंकि जब से दादी जी की, लड़के की बहुत चाह के बावजूद, जुड़वा लड़कियों का जन्म हुआ था, दादी अपनी बहू को दिन-रात  कोसती रहती थी. लड़कियों से तो उनको जन्मजात बैर था. इतनी चिढ़ थी, कि पास भी नहीं फटकने देती. अब अबोध बच्चियां भी इस बात को समझने लगी थी और डर के मारे दादी से दूर भागती थी.
     आखिर पड़ोसन चाची ने पूछ ही लिया, क्या बात है? आज तो सूरज पश्चिम से निकल रहा है, वो भी जलेबी लेकर. दादी मुश्किल से इतना ही कह पाई- अरे वह सामने वाला गुंडा, सोनू. लड़का घबराकर बोला वह तो पक्का गुंडा है. उसने आपको कुछ कहा तो नहीं? दादी सिर नीचा करके बोली- उसी ने तो कहा. मैं मंदिर से आ रही थी, कि गली में मिल गया और गर्दन पकड़ कर बोला- क्योंकि री बुढ़िया, तू दिन रात बच्चियों को डांटती रहती है, तुझे इतनी प्यारी बच्चियाँ दुश्मन नजर आती हैं क्या? जब तू पैदा हुई थी, तू भी तो एक बेटी थी. कोई तेरी गर्दन मरोड़ देता तो कैसा रहता? पहले तो मैं बहुत घबरा गई, पर अब मैं सोच रही हूं, कि लड़का गुंडा जरूर है, पर बात तो सही कह रहा था. सभी के चेहरों पर मुस्कुराहट फैल गई. ****

                   
9. चीटर 
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     सुमेधा हनुमान जी को चना-चिरोंजी का प्रसाद चढ़ा कर लौटी तो दालान की एक मात्र टूटी बेंच पर एक सूट-बूट पहने भद्र पुरुष को बैठे पाया. नमस्ते करके जैसे ही वह घर के अंदर जाने लगी, तो उन्होंने रोका, बेटी- ‘सुमेधा’ तुम्हारा ही नाम है? बोली- जी अंकल. वे तपाक से बोले- बेटा, बहुत बहुत बधाई, तुमने रिक्शा वाले की बेटी होकर भी हायर सेकेंडरी बोर्ड में राज्य में प्रथम स्थान प्राप्त किया है, यह तुमको ही नहीं हम सब को गौरव की बात है.
     बेटी, मैं “प्रतिभा कोचिंग इंस्टिट्यूट” से आया हूँ, तुम्हारी भलाई करने. सुमेधा को अचानक याद आया कि उसके पापा कितने गिडगिडाये थे कि मेरी बेटी को कोचिंग में एडमिशन दे दीजिये, वह अपने सपने पूरे करना चाहती है. जैसे तैसे बड़ी मेहनत से मैं आधी फीस ही जोड़ पाया हूँ, तब डायरेक्टर साहब ने कितने बुरे तरीके से डांटकर भगाया था, चलो भागो यहाँ से, हम लोग यहाँ कोई चैरिटी करने नहीं बैठे हैं. जब पूरी फीस हो तभी आना. पिताजी की बेइज्जती, आज भी वह भूली नहीं है. पिताजी की आँखों में आंसू भर आये थे, तब उसने पिताजी से वायदा किया था, कि आप दुखी ना हों, मैं आपको अच्छे नंबर लाकर दिखाउंगी. आज ये अचानक मेरी कौन सी भलाई करने आ गये?
     उसका ध्यान भंग करते हुए वे बोले- बेटी, मैं एक प्रस्ताव लेकर आया हूँ. हम तुम्हारी फोटो अखबार में देंगे और लिखेंगे कि तुमने अपनी परीक्षा की पूरी तैयारी हमारी "“प्रतिभा कोचिंग इंस्टिट्यूट”" की मदद से की है, तुम भी प्रेस वालों को यही बयान देना. इसके बदले में हम तुमको एक लाख रूपये देंगे. सुनकर अनपढ़ माँ खुश, पिता उदासीन पर किंकर्त्तव्य विमूढ़ थे, पर उसने दृढ़ता से कहा- नहीं अंकल, हम लोग गरीब जरूर हैं, पर झूठे और चीटर नहीं हैं.****

                  
10.जीत का दुःख  
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     छोटी ‘त्वरा’ दादी माँ की बहुत लाडली थी. मात्र चौदह वर्ष की उम्र में ही वह एक सफल धाविका बन चुकी थी. कई मैडल उसने अपने नाम कर लिए थे. अब उसकी राष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा की तैयारी चल रही थी. बस इसी बात की चिंता उसे खाए जा रही थी, कि अभी कुछ दिनों पूर्व से हमेशा द्वितीय स्थान पाने वाली रंजना उस से बेहतर परफार्मेंस में आ गई थी और प्रेक्टिस में वह आगे निकल जाती थी. उसको ख़तरा था, कि अखिल भारतीय प्रतियोगिता में रंजना प्रथम ना आ जाए. त्वरा की दादी भी बहुत बड़ी धाविका रह चुकी थी और एशियाई खेलों में उन्होंने खूब नाम कमाया था. त्वरा उन्ही के मार्गदर्शन में आगे बढ़ रही थी.
     रात में अपनी दादी के साथ सोते समय उसने दादी के गले में बाहें डालकर दादी से कहा- दादी-  यह प्रतिस्पर्द्धा मैं हर हाल में जीतना चाहती हूँ. मैं बिलकुल सहन नहीं कर पाउंगी, कि रंजना या अन्य कोई मुझसे आगे निकल जाए. दादी आप तो स्वयं खिलाड़ी रही हैं. जीत के मायने क्या होते हैं, ये तो आप अच्छी तरह से समझती हैं. जीत इंसान को कितनी ख़ुशी देती है.
     दादी ठंडी सांस लेते हुए बोली– बेटी जरूरी नहीं है, कि जीत हमेशा ख़ुशी ही दे. कभी-कभी जीत दुःख भी दे जाती है. ऐसा दुःख जिसकी काली  परछाईं जीवन भर पीछा नहीं छोडती. त्वरा आश्चर्य से दादी का मुंह देखते हुए बोली- ऐसा कैसे हो सकता है? फिर जिद करते हुए बोली- दादी आप मुझे जरूर बताएं, कि जीत दुःख कैसे देती है. दादी कुछ मिनट मौन रहने के बाद बोली- बेटी, मुझे गलत मत समझना, पर बचपन की उम्र ही ऐसी होती है कि इंसान कभी-कभी ऐसी भूल कर बैठता है जिसका पछतावा उसे उम्र भर रहता है. बेटी, तुम जो मेरा गोल्ड मैडल देखती हो वह ऐसा ही है. मैं जब-जब उसे देखती हूँ, आत्मग्लानि से भर जाती हूँ.
     मैं भी तुम्हारी तरह हर हाल में जीतना चाहती थी. परन्तु दूसरी धाविका मुझसे बहुत आगे रहती थी. हमारी टीम को एक बड़े हाल में ठहराया गया था. मैंने पहले से ही योजना बना ली थी. जब सब सो गए तो मैंने रात में चुपके से उठ कर उसकी पानी की बाटल में ‘स्टेराइड’ मिला दिया. सुबह सभी खिलाड़ियों के “डोप-टेस्ट” हुए जिसमे वह दोषी पाई गई और दौड़ में उसे भाग लेने से रोक दिया गया. जाहिर था, कि मैं प्रथम आ गई, पर आज भी उस लड़की का दहाड़ें मार-मार कर रोना और उसके माता-पिता तक के बहते आंसू, उस लड़की का डिप्रेशन में चले जाना, मुझे जब-जब याद आते हैं, मैं अपने आप को कभी माफ़ नहीं कर पाती. बेटी- ऐसी जीत से तो हार भली. त्वरा अवाक होकर दादी की स्वीकारोक्ति सुन रही थी.
     थोड़ी देर बाद जब दादी को नींद आ गई तब त्वरा चुपचाप उठी और अपने स्टडी-रूम में जाकर कम्पास में से दो पैनी लोहे की कीलें निकाली, जो वह मौक़ा पाते ही रंजना के जूतों में लगाने वाली थी. उन कीलों को हिकारत से देखा और नाली में फेंक दिया. अब उसके मष्तिष्क का सारा बोझ उतर चुका था और वह बहुत हल्का अनुभव कर रही थी. ****

               
11. जिज्ञासा  
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     बेटा- अब्बू, बाजार में झगड़ा क्यों होता रहता है. आज तो तलवारें निकल आई थी. आप न समझाते तो मारकाट हो जाती.

     अब्बू- होता है बेटा. वो लोग हिन्दू हैं, हम लोग मुसलमान. धर्म में अंतर है न, इसीलिये.
     बेटा- धर्म में अंतर से क्या होता है? 
     अब्बू- बेटा, हम लोग अल्लाह की बताई राह पर चलते हैं, पर काफ़िर हिन्दू लोग बुतपरस्त होते हैं. वे राम को मानते हैं.
     बेटा- तो क्या अल्लाह और राम की भी लड़ाई होती है? 
     अब्बू- नहीं बेटा, ऐसी कोई लड़ाई नहीं होती.
     बेटा- फिर हम लोगों की क्यों होती है?
     अब्बू- होती है बेटा, हम लोगों के धर्म, रस्मो-रिवाज़ और खून में अंतर होता है. खून का भी गुण होता है. उसी से स्वभाव व आदतें बनती हैं.
     बेटा- अच्छा! अब समझ में आया। तभी अपनी आदत 'अल्ला-अल्ला' कहने की है और पड़ौस के पंडित चाचा 'राम-राम' कहते हैं.
     अब्बू- हाँ बेटा, यही बात है.
     बेटा- अम्मी राम-राम कब बोलेंगी?
     अब्बू- पागल तो नहीं हो गया? अम्मी राम राम क्यों बोलेंगी.
     बेटा- वाह अब्बू! भूल गए क्या? एक दिन अम्मी जब बीमार थी, तो अस्पताल में पंडित चाची ने उनको खून दिया था. पंडित चाची का खून भी है उनके अंदर. कितना मजा आएगा, जब वो कभी अल्ला अल्ला बोलेंगी, कभी राम राम बोलेंगी. 
     अब्बू- बेटा ऐसा दिन कभी नहीं आयेगा. 
     बेटा- (कुछ मायूस होकर) ऐसा होता तो कितना अच्छा होता? कम से कम झगड़े तो न होते और मैं भी बंटी के साथ अच्छी तरह खेल पाता.   ****
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क्रमांक - 10
शिक्षा : M.Sc. botany, M.A. drawing painting, हिंदी , D.C.H., 

अब तक विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में 200 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन। जिसमे से 70 कहानियां। 

प्रकाशित पुस्तकें : -

 पराई ज़मीन पर उगे पेड़- कहानी संग्रह,
ऊँचे दरख्तों की छाँव में- कविता संग्रह
घर-आँगन, पुस्तक मित्र  बाल कथा संग्रह
Two loves of my life- अंग्रेजी उपन्यास

कविता संग्रह "रौशनी का पेड़" बोधि प्रकाशन से प्रकाशित।

उपन्यास "कर्म चक्र" विदेशी प्रकाशक द्वारा प्रकाशित।

सम्मान / पुरस्कार : 
 राष्ट्र भाषा गौरव, साहित्य श्री, साहित्य शिरोमणि, साहित्य वाचस्पति, मध्य प्रदेश भूषण, ब्रह्मदत्त तिवारी स्मृति पुरस्कार, डॉ उमा गौतम तथाश्रीमती लक्ष्मी देवी स्मृति बाल साहित्यकार पुरस्कार, शब्द निष्ठा लघुकथा सम्मान, सतीश मेहता महिला लेखन पुरस्कार, पंडित हरप्रसाद पाठक स्मृति पुरस्कार।

 यूके, यू एस ए स्थित रिकॉर्ड होल्डर रिपब्लिक संस्था द्वारा हिंदी लेखन के क्षेत्र में किये गए उल्लेखनीय योगदान हेतु एक्सीलेंस सर्टिफिकेट

भारतीय सेना पर लिखे गए उपन्यास हेतु भी अन्तर्राष्ट्रीय संस्था द्वारा एक्सीलेंस सर्टिफिकेट।

कन्हैयालाल नंदन स्मृति बाल साहित्यकार सम्मान
कहानी 'पाप' तथा "फौजी की पत्नी "को पायोनियर बुक कम्पनी का सर्वश्रेष्ठ कहानी पुरस्कार।
कहानी 'पराई जमीन पर ऊगे पेड़' तथा 'तुम्हारी मंजूषा' भी पुरुस्कृत।

विशेष : 
राष्ट्रीय, अंतर्राष्ट्रीय मंच का संचालन। आकाशवाणी, दूरदर्शन से रचनाओं का प्रसारण।
अंग्रेजी सहित 10-12 भारतीय भाषाओं में अनुवाद। 

पता- श्री गोल्डन सिटी
28, फेस-2 , होशंगाबाद रोड , जाटखेड़ी , भोपाल - मध्यप्रदेश
                   1. रेखाओं के भीतर
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ट्रेन अपनी पूरी गति के साथ आगे बढ़ रही थी। बहुत लंबा सफर था। कम्पार्टमेंट में बैठे चार- पाँच व्यक्ति आपस में विविध मुद्दों पर बात कर रहे थे। बात अलग-अलग विषयों से होती हुई अपने-अपने क्षेत्र की श्रेष्ठता पर आ गई और बहस में तब्दील हो गई। छठवां व्यक्ति चुपचाप बैठा सबको सुन रहा था।
जल्द ही बहस ने तीखा रूप ले लिया। पाँचों व्यक्ति अपने-अपने क्षेत्र की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए इतिहास और वर्तमान के जाने कितने ही उदाहरण प्रस्तुत कर रहे थे। कोई किसी से कम नही, कोई झुकने को तैयार नहीं। छँटवा अब भी चुप था। कुछ देर बाद बहस लड़ाई में बदलने की कगार पर खड़ी हो गई तभी एक व्यक्ति ने अपनी बाजू मजबूत करने के लिए अब तक चुप बैठे छँटवे व्यक्ति से कहा-
"आप किस राज्य के है भाई साहब। अब आप ही बताओ हम में से कौन सही है।"
चुप बैठे व्यक्ति ने एक नजर सब पर डाली और कहा "किसी भी राज्य का नहीं हूँ।"
"है? ऐसा कैसे हो सकता है। भाई बंगाल, महाराष्ट्र, पंजाब कहीं से तो होंगे?" पाँचों में से एक ने पूछा।
"मैं सैनिक हूँ और सैनिक पूरे देश का होता है। हम भारत माता की सीमा की सुरक्षा के लिए दुश्मन से लड़ते हैं। किसी एक राज्य के लिए नहीं। सैनिक सिर्फ भारतीय होता है, बंगाली, मराठी, तमिल या पंजाबी नहीं।" छँटवां शांति से बोला।
पाँचों के मुँह पर शर्मिंदगी सी छा गई।
"दुश्मन देश के जिस भी हिस्से पर बुरी नजर डालता है हम सब उसकी सुरक्षा के लिए चल पड़ते हैं। हम देश को लकीरों में नहीं बाँटते। याद रखिए जिस दिन कोई सैनिक बंगाली, मद्रासी, पंजाबी हो जाएगा उस दिन देश नहीं बचेगा। हम सिर्फ और सिर्फ भारतीय है तभी बाहरी दुश्मन से देश सुरक्षित है। अच्छा है आप लोग भी सिर्फ भारतीय बन जाओ तो देश भीतर से भी मजबूत बना रहेगा। वरना..."
सैनिक का गंतव्य आ चुका था। ट्रेन के रुकते ही वह नीचे उतर गया। कम्पार्टमेंट में अब एक थरथराती खामोशी थी।****

                      2.ठंड का सौदा
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"दीदी एक स्वेटर मेरी बच्ची को भी दिला दो, ठंड से कांप रही है बेचारी। भगवान तुम्हारा भला करे"
अपने पीछे एक पहचानी हुई आवाज और संवाद सुनकर मीता ने चौंक कर पीछे देखा।
"तुम, तुम्हारी बच्ची के लिए तो कल ही मैंने स्वेटर खरीद दिया था तो तुमने उसे पहनाया क्यों नहीं। ठंड में खुला क्यों रखा है। वो स्वेटर कहाँ गया?" मीता ने उस मांगने वाली पर नजर पड़ते ही पूछा। कल  भी बच्ची ठंड से ठिठुर कर रो रही थी आज भी बहती नाक के साथ आँसू बहाती हुई रो रही थी।
मीता को देख वह सकपका गयी। कुछ जवाब नहीं देते बना। 
"अरे मैडम ये तो इसका धंधा ही है। पैसे मांगे तो लोग दया करके दो-पाँच रुपये दे देते हैं इसलिए बच्ची को बिना कपड़ों के रखकर लोगों से स्वेटर माँगती है और फिर उन्ही स्वेटरों को दुबारा दुकान पर बेच देती है तो इसको इकठ्ठे ही सौ-डेढ़ सौ मिल  जाते हैं।" पास के एक दुकानदार ने बताया।
"तुम्हे शर्म नहीं आती पैसों के लिए बेचारी बच्ची को ठंड में ठिठुरा रही हो। उसे कुछ हो गया तो।" बच्ची की दशा देखकर मीता का हृदय रो पड़ा। अब उसे दुबारा स्वेटर खरीद भी दे तो उसे पहनाया तो जाएगा नहीं।
"कुछ हो भी जाए तो इसे क्या अगले साल दूसरा आ जाएगा इन लोगों की भूख का इंतज़ाम करने।" पास खड़ी एक भुक्तभोगी बोली।
"नहीं देना तो जाओ न अपने काम से।" वह उपेक्षा से बोलकर बिलखती हुई बच्ची को लेकर आगे दूसरी औरतों के पास चली गयी।
"क्या कहें ऐसे लोगों से जिनके लिए संतान बस लोगों की संवेदनाओं को ठगने का सौदा करके अपनी भूख मिटाने का जरिया भर होती है।" 
मीता का मन अभी भी उस बच्ची की ठंड से ठिठुर रहा था।*****

              3. सजा तो अब शुरू हुई है
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बच्ची के माँ-बाप न्याय के लिए गिड़गिड़ाते रह गए। लेकिन जब अपराधी की न्याय के रक्षक से गहरी दोस्ती थी तो भला मजबूर माँ-बाप न्याय तक कैसी पहुँच पाते।
लिहाजा मासूम, अबोध बच्ची से और फिर न्याय तो था ही अँधा। रक्षक हाथ पकड़कर उसे जिस ओर ले गया, न्याय उस ओर ही चल दिया।बलात्कार करने वाला बाइज़्ज़त बरी हो गया।
अपराधी और न्याय के रक्षक दोस्त ने जश्न मनाया सजा से मुक्ति का। अपराधी फिर घर की ओर चल दिया। घरवाले एक बार भी उससे मिलने नहीं आये थे। लेकिन उसे परवाह नहीं थी। जब उसने कानून की आँखों में धूल झौंक दी तो उन लोगों को भी किसी तरह मना ही लेगा।
घर का हुलिया लेकिन बदला हुआ था। बीवी बच्चे सामान बाँधकर जाने की तैयारी में थे। 
"तुम्हे सजा हो जाती तो हमारे पाप कुछ तो कट जाते। लेकिन तुम जैसे घिनोने, गिरे हुए इंसान के साथ रहना नामुमकिन है। हम कहीं मुँह दिखाने लायक नहीं रहे। अड़ोस-पडौस सबने रिश्ते तोड़ लिए। मैं अपने बच्चों को लेकर दूर जा रही हूँ।" पत्नी उसकी सूरत तक नहीं देख रही थी। बेटे ने उसे देखते ही नफरत से थूक दिया।
बारह साल की बेटी उसकी शक्ल देखते ही भय से सहम गयी। वह बेटी को पुचकारने आगे बढ़ा तो बीवी ने गरजकर उसे वहीं रोक दिया-
"खबरदार जो मेरी बेटी को हाथ भी लगाया।" 
"मैं बाप हूँ उसका" उसने प्रतिकार किया।
"तुम बाप नहीं बलात्कारी हो। अगर बाप होते तो किसी भी बेटी का बलात्कार कर ही नहीं सकते थे। बाप कभी किसी भी बेटी का बलात्कार नहीं कर सकता। और जो बलात्कारी है वो कभी भी किसी का बाप हो ही नहीं सकता।" 
उसके हाथ ठिठक गए। जेल से बच जाने की ख़ुशी काफूर हो चुकी थी। कानून की सजा से तो वह बच गया लेकिन बेटे, पत्नी के चेहरे की नफरत और बेटी के चेहरे के डर से कोई न्याय का रक्षक उसे बचा नहीं पायेगा।
सजा तो अब शुरू हुई थी....! ****

                      4. कांपते पत्ते
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"सुनो शैली ये शर्ट काम वाली बाई को दे देना।" ऋषित ने अलमारी में से तह किया हुआ शर्ट निकालकर शैली को पकड़ा दिया।
"लेकिन क्यों? यह तो बिलकुल नया का नया है" शैली ने आश्चर्य से पूछा।
"अरे पहन लिया बहुत बस अब नहीं पहनूंगा। इसे आज ही बाई को दे देना।" ऋषित अलमारी में से दूसरा शर्ट निकालकर पहनते हुए बोला।
"अभी छः महीने भी नहीं हुए हैं तुमने कितने चाव से ख़रीदा था इसे। कितना पसन्द आया था ये शर्ट तुम्हे। तुम्हारे नाप का नहीं था तो तुमने पूरा स्टोर और गोदाम ढुंढ़वा लिया था लेकिन इसे खरीदकर ही माने थे और अब चार- छह बार पहनकर ही इसे दे देने की बात कर रहे हो।" शैली ऋषित की बात जैसे समझ ही नहीं पा रही थी। कोई कैसे इतने जतन और चाव से खरीदी अपनी पसन्द की चीज़ किसी को दे सकता है वो भी बिलकुल नयी की नयी। 
"अरे तो इसमें इतना आश्चर्य क्यों हो रहा है तुम्हे। तब पसन्द आयी थी तो ले ली। मैं तो ऐसा ही हूँ डियर" ऋषित शैली के कन्धों पर अपने हाथ रखकर बोला"जब कोई चीज़ मुझे पसन्द आ जाती है तो उसे हासिल करने का एक जूनून सवार हो जाता है मुझ पर और मैं उसे किसी भी कीमत पर हासिल करके ही दम लेता हूँ। लेकिन बहुत जल्दी मैं अपनी ही पसन्द से चिढ़ कर ऊब भी जाता हूँ और फिर उस चीज़ को अपने से दूर कर देता हूँ।" 
और ऋषित शैली के गाल थपथपाता हुआ अपना लंच बॉक्स उठाकर ऑफिस चला गया।
शर्ट हाथ में पकड़े शैली कांपते पत्ते सी थरथराती खड़ी रह गयी। कहीं ऐसा तो नहीं वह भी ऋषित का बस जूनून ही है, प्यार नहीं। वह ऋषित के अंधे मोह में बंधी अपना घर-परिवार, पति, सब कुछ छोड़ने की गलती तो कर बैठी और उसके साथ लिव इन रिलेशन में रह रही है। कल को क्या ऋषित उसे भी इस शर्ट की तरह..... ! ****

                    5.रंगविहीन
                       ********

पति की मृत्यु के महिने भर बाद शकुन ने सासु माँ और अपने दोनों बच्चों के भविष्य को देखते हुए जैसे -तैसे खुद को संभाला और पुनः ऑफिस जाने के लिए खुद को तैयार किया।
बाल गूँथने के लिए ज्यों ही आईने के सामने खड़ी हुई, बिंदी विहीन माथा, सूना गला और सफेद साड़ी में खुद को देख आँसू फिर बह निकले। कितना शौक था शशांक को उसे सजा सँवरा देखने का। चुन-चुन कर कपड़ों के खिले-खिले रँग और प्रिंट लाता था और उन्ही की मैचिंग के कड़े, चूड़ियाँ, बिंदियाँ। पिछले अठारह वर्षों के रँग एकाएक धुल गए। रंगहीन हो गया था जीवन अनायास।
तभी किसी काम से सासु माँ अंदर आयीं तो शकुन को देखकर उनकी भी आँखे भर आयी। उन्होंने तुरंत शकुन की अलमारी खोली और एक सुंदर सी, शशांक की पसन्द की साड़ी निकाली और शकुन को देते हुए बोली--- 
"मेरा बेटा तो चला गया। पर जब जब मैं तुम्हारा रंगहीन रूप देखती हूँ तो मुझे अपने बेटे के न रहने का अहसास ज्यादा होता है। इसलिये तू जैसे सजकर इस घर मे आयी थी, हमेशा वैसे ही सजी रह। तुझे पहले की तरह सजा सँवरा हँसता खेलता देखूंगी तो मुझे लगेगा मेरा बेटा अब भी तेरे साथ ही है। और तुझे भी उसकी नजदीकी का अहसास बना रहेगा।" 
ड्रेसिंग टेबल से एक बिंदी लेकर उन्होंने उसके माथे पर लगा दी। 
साड़ी को अपने सीने में भींचे आँखों मे आँसू होने के बाद भी दिल मे एक तसल्ली का भाव तैर गया, शशांक के साथ होने का अहसास भर गया। रँगविहीन नहीं है उसका जीवन , शशांक की यादों का रंग हमेशा उसके अस्तित्व में खिला रहेगा। 
वह सासु माँ के गले लग गयी। बहुत कम उम्र से ही सफेद रंग में कैद सासु माँ ने लेकिन शकुन के जीवन को रँगहीन नहीं होने दिया।****

               6. इतिहास दोहरा रहा है
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"इतना सब देने की क्या जरूरत है। बेकार फिजूलखर्ची क्यों करना। और आ रही है तो कहो कि टैक्सी करके आ जाये स्टेशन से।" बहन के आने की बात सुनकर अश्विन भुनभुनाया।
"जब घर में दो-दो गाड़ियाँ हैं तो टैक्सी करके क्यों आएगी मेरी बेटी। और दामाद जी का कोई मान सम्मान है कि नहीं। ससुराल में उसे कुछ सुनना न पड़े। मैं खुद चला जाऊंगा उसे लेने, तुम्हे तकलीफ है तो रहने दो।" पिता गुस्से से बोले।
"और ये इतना सारा सामान का खर्चा क्यों? शादी में दे दिया न। अब और पैसा फूँकने से क्या मतलब।" अश्विन ने बहन बहनोई के लिए आये कीमती उपहारों की ओर देखकर ताना कसा।
"तुमसे तो नहीं माँग रहे हैं। मेरा पैसा है, मैं अपनी बेटी को चाहे जो  दूँ। तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है क्या जो ऐसी बातें कर रहे हो।" पिता गुस्से में बोले।
"चाहे जब चली आती है मुँह उठाये।" 
"क्यों न आएगी। इस घर की बेटी है वो। ये उसका भी घर है। जब चाहे जितने दिन के लिए चाहे वह रह सकती हैं। बराबरी का हक है उसका। तुम्हे हो क्या गया है जो ऐसा अनाप-शनाप बोल रहे हो।" 
"मुझे कुछ नही हुआ है पिताजी। आज मैं बस वही बोल रहा हूँ जो आप हमेशा बुआ के लिए बोलते थे। अपनी बेटी के लिए आज आपको बड़ा दर्द हो रहा है लेकिन कभी दादाजी के दर्द के बारे में नहीं सोचा। कभी बुआ की ससुराल और फूफाजी के मान-सम्मान की बात नहीं सोची। "
पिता आवाक रह गए।
"दादाजी ने कभी आपसे एक ढेला नहीं मांगा वो खुद आपसे ज्यादा सक्षम थे फिर भी आपको बुआ का आना, दादाजी का उन्हें कुछ देना नहीं सुहाया। बराबरी का हक तो आपकी बेटी से भी पहले बुआ का है इस घर पर।" अश्विन अफसोस भरे स्वर में बोला।
पिता की गर्दन नीची हो गयी।
"आपके खुदगर्ज स्वभाव के कारण बुआ ने यहाँ आना ही छोड़ दिया। दादाजी इसी गम में घुलकर मर गए। जा रहा हूँ स्टेशन। मुझे खुशी है कि मैं आपके जैसा खुदगर्ज भाई नहीं हूँ।" कहते हुए अश्विन कार की चाबी उठाकर स्टेशन जाने के लिए निकल गया।
पिता आसूँ पौंछते हुए अपनी बहन को फोन लगाने लगे।
दीवार पर लगी दादाजी की तसवीर जैसे मुस्कुरा रही थी।
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                   7. बर्फी की मिठास
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"ये तिल लाया हूँ। बर्फी बना लेना।" अरविंद ने तिल का पैकेट रखते हुए कहा।
"मुझे कहाँ आती है बर्फी बनाना। प्रसाद के लिए बाजार से बनी बनाई ले आते, झंझट खत्म।" मीरा खीज कर बोली।
"क्या करूँ दुकानदार ने जबरन पकड़ा दिए। इंटरनेट पर देख लेना बहुत सी विधियाँ मिल जाएँगी बर्फी बनाने की। इंटरनेट सबका गुरु है।" अरविंद बोला और ऑफिस के लिए निकल गया।
मीरा ने तीन-चार विधियाँ देख लीं लेकिन कुछ समझ नहीं आया। ठीक नहीं बनी या बिगड़ गई तो तिल बेकार हो जाएंगे। तभी पड़ोस की काकी का ध्यान आया। काकी से पूछकर बनाउंगी तो बिगड़ने पर पूछ तो पाऊँगी कि अब क्या करूँ। पर आज तक तो कभी उनके पास जाकर बैठी नहीं अब अपने काम के लिए जाना क्या अच्छा लगेगा। लेकिन कोई चारा नहीं था तो पहुँच गयी।
"अरी बिटिया आओ-आओ।" काकी उसे देखते ही खिल उठी।
"वो काकी मुझे तिल की बर्फी बनानी थी। क्या आपके पास समय होगा जरा सा" मीरा ने संकोच से पूछा।
"हाँ क्यों नहीं बिटिया अभई चलकर बनवा देत हैं। उ मा कौन बड़ी बात है।" 
काकी सर पर पल्लू देती हुई तुरंत चली आयी मीरा के साथ। तिल की बर्फी बनाते हुए तिल के और भी न जाने कितने व्यंजन और यादें सुना दी काकी ने। मीरा देख रही थी कि काकी अनुभव और ज्ञान का जैसे खजाना है और वो अब तक पड़ोस में रहते हुए भी इस खजाने से वंचित रही। काकी से बात करते हुए कितना कुछ सीख सकती थी वो अब तक। 
 जरा सा अपनापन और मान देते ही स्नेह का झरना फूट पड़ा उनके हृदय से। आभासी गुरु में यह स्नेह, यह आत्मीयता कहाँ मिलती है भला। 
"ये लो बिटिया। बन गई तोहार तिल की बर्फी।" उनके पोपले मुँह पर प्रसन्नता और संतुष्टि थी। 
मीरा चकित थी दूसरे की मदद करके इतनी खुशी भी हो सकती है किसी को। 
"अब आप आराम से बैठिए काकी। मैं चाय बनाती हूँ। कितना कुछ सीखना है आपसे अभी।" 
काकी के पोपले मुख पर छाए स्नेह के भावों की मिठास ने मीरा को तृप्त कर दिया। ****

                       8. दो मीठे बोल
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ज्योति रसोईघर में गयी तो देखा छोटी ने मेथी काटकर रखी थी। और दिन होता तो वो उपेक्षा से मुँह फेर लेती। छोटी का कोई काम उसे पसन्द नहीं आता। देवरानी नहीं वो प्रतिद्वंद्वी लगती थी ज्योति को। लेकिन आज अम्मा की थोड़ी देर पहले कही बात याद आ गई
"मीठे बोल बोलने में कानी कौड़ी खर्च नहीं होती लेकिन बदले में स्नेह, सम्मान की अनमोल दौलत मिल जाती है। क्या जाता है अगर छोटी की कभी तारीफ कर दो काम की।" 
ज्योति ने व्यंग्य से मुँह तिरछा किया "समुंदर में कितनी भी चीनी घोल दो तब भी वो रहेगा खारा ही। छोटी क्या कम है ताने मारने में" लेकिन क्या फर्क पड़ता है आज देखती हूँ, अम्मा को भी तसल्ली हो जाएगी कि छोटी खारा सागर है, मीठी नदी नहीं।
"अरे वाह, कितनी बारीक और एक जैसी मेथी काटी है तुमने छोटी। मैं तो इतनी बारीकी से काट ही नहीं पाती।" ज्योति स्वर में ऊपरी मिठास भर कर बोली।
क्षण भर छोटी सोचती रही कि आज उल्टी गंगा कैसे बह रही है लेकिन प्रत्युत्तर तो देना ही था "काटने में कौन खूबी है जीजी, सब्जी में स्वाद तो आपके ही हाथ से आता है। मैं तो इतनी स्वादिष्ट सब्जी बना ही नहीं पाती।" 
छोटी से अपनी तारीफ सुनकर ज्योति का मन जरा नरम हुआ "अरे नहीं, बेसन गट्टे की सब्जी में तो तुम्हारे जैसा स्वाद और कहीं नहीं मिलता।"
छोटी भी भला कहाँ पीछे रहने वाली थी "वो तो आपके हाथों की बनी मिस्सी रोटी का कमाल होता है जीजी।" 
और दो मीठे बोल हंडिया भर खीर की मिठास भर गए दोनों के मन में।
अंदर के कमरे में बैठी अम्मा दोनों की बातें सुनकर मुस्कुरा दी "चम्मच भर शक्कर से सागर भले ही मीठा न हो पाए, लेकिन मन जरूर मीठा हो जाता है।" ****

                         9. रंगमंच
                             ******

हाथ-पैर जोड़ती दीपा रोते हुए गिड़गिड़ाते जा रही थी लेकिन रमेश का हाथ नहीं रुक रहा था। धुंआधार गालियाँ देता हुआ वह उस पर लगातार डंडे बरसाए जा रहा था।बस्ती के सभी लोग अपने अपने काम में व्यस्त थे। वहाँ के रंगमंच पर यह तो आये दिन का दृश्य था। दो-एक लोगों ने दबी जबान से एखाद बार रमेश को -
'अरे अब बस भी कर'
'जाने दे अब...' जैसे जुमले कहे और इधर-उधर हो लिए।
औरतें क्या कहती, वे भी पिटती रहती हैं अपने पतियों से। पुरुष क्या कहते कल को वो भी शराब पीकर, शराब के लिए और पैसों की मांग करके अपनी औरतों को पीटेंगे।
कि तभी रमेश का डंडा गलती से पास में सोए कुत्ते भूरे पर पड़ गया। नींद में पहले तो दर्द के मारे भूरा बिलबिलाकर जोर से किंकियाया, फिर रमेश के हाथ मे डंडा देख, सारा माजरा समझ कर दाँत निपोरकर गुर्राया और रमेश के पैर में जोर से काट खाया।
दर्द से कराहते रमेश के हाथ से डंडा छूट गया। दीपा कभी रमेश को देखती कभी भूरे को।दीपा भले ही भूरे को कितना ही डांट ले मार ले लेकिन आज तक भूरे ने उसपर कभी पलटवार तो क्या गुर्राया तक नहीं। वह उसकी खिलाई रोटियों का मान रखते हुए पूँछ दबाए चुपचाप खड़ा रहता। जानवर भी अपना पेट भरने वाले से स्वाभाविक प्रेम रखता है। लेकिन रमेश जैसे मनुष्य.....
दीपा ने डंडा हाथ में उठाया और तड़ातड़ रमेश पर बरसाने लगी- 
"तेरे से तो एक जानवर ज्यादा वफादार है। कान खोलकर सुन ले मैं अपना कमाती हूँ तेरा दिया नहीं खाती कि मार सहूँ। आज के बाद हाथ उठाया तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा। चुपचाप पड़ा रह नहीं तो अपना रास्ता नाप। मुझे तेरी गरज नहीं है।" 
बस्ती के लोग अपना काम छोड़कर आसपास जमा हो गए। उस रंगमंच पर यह एक नया औऱ अप्रत्याशित दृश्य विधान था। 
पुरुषों के माथे पर पसीना छलछला आया, वहीं स्त्रियों के कसे हुए जबड़े और तनी मुठ्ठियाँ उनमें एक नए आत्मविश्वास का संचार कर रही थीं।****

                   10.शौक और पेट
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आज गाड़ी जैसे ही चौराहे तक पहुँची सिग्नल लाल हो गया। अब पूरे पचहत्तर सेकंड रुके रहो। तुरन्त ही आसपास छोटा-मोटा सामान बेचने वाले इकठ्ठा हो गए। कोई अखबार, कोई गुब्बारे, कोई की रिंग, पेन बेच रहा था। दुनिया भर का बाजार सिग्नल पर खड़ी गाड़ियों के आसपास सज हो गया। विभा की कार की खिड़की पर एक वेणी बेचने वाली ने दस्तक दी। ताजे मोगरे की सुवास से गाड़ी महमहा गयी। 
"एक वेणी ले लो दीदी, बस बीस रुपये की है। एकदम ताजे फूल हैं दो दिन तक खराब नहीं होंगे।" एक वेणी आगे करके वह बोली।
विभा ने अक्सर देखा था उसे चौराहे पर वेणी बेचते हुए। लम्बे, घने, काले बाल थे उसके जो बेतरतीब चोटी में बंधे रहते। विभा को ईर्ष्या होती उसके बाल देखकर। यहॉँ तो इतना तेल, शैम्पू, स्पा करवाकर भी बाल कँधे से आगे बढ़ ही नहीं रहे। वेणी लगाने को तो ऐसे बाल होने चाहिए।
बीस रुपये देकर वेणी लेते हुए विभा से रहा नहीं गया पूछ बैठी- 
"तुम्हे कभी वेणी लगाए नहीं देखा। इतने सुंदर बाल हैं तुम्हारे। तुम्हे शौक नहीं है वेणी लगाने का?" 
"शौक तो पैसे वालों के होते हैं दीदी, हमारे पास तो बस पेट होता है।" कहते हुए वह तेजी से दूसरी कार की ओर बढ़ गई। ****

                    11. माई का नेटवर्क
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अपनी कोठरी में लेटी माई करवटें बदल रही थी लेकिन आँखों में नींद आ ही नहीं रही थी। आए भी तो कैसे। बबुआ कब से रोए जा रहा था। यूँ तो घर और जगह बदल जाने पर बच्चों को नींद नहीं आती। लेकिन दिन भर तो अच्छा रहा बबुआ। जरा नहीं रोया। 
इधर रीमा और राकेश परेशान थे। डेढ़ साल के आदी को रोज सोते समय यू ट्यूब पर गाने सुनने की आदत थी। गाने सुनते, वीडियो देखते हुए ही सोता था वो रोज। अब गाँव मे अभी नेटवर्क ही नहीं है तो इंटरनेट बंद है। राकेश घर के कोने-कोने में घूमकर देख रहा था कि कहीं तो नेटवर्क मिल जाए। लेकिन न नेटवर्क मिल रहा था न आदी का रोना बंद हो रहा था। रीमा और राकेश उसे सम्हालने में पसीना-पसीना हो गए थे।
माई से अब रहा नहीं गया। उठकर बाहर आ गईं।
"का हुआ बचुआ, बबुआ काहे इतना रोवत है? नई जगह पर नींद नहीं आ रही का?"
"नहीं माई। बबुआ को गाने सुनते हुए सोने की आदत है। अब इहाँ नेटवर्क ही नहीं तो..." राकेश ने बताया।
"अरे तो सुना दो गाना, सो जाएगा।" माई बोली।
"माई इसे मोबाइल पर ही सुनने की आदत है। आप सो जाइये, परेशान मत होइए। कुछ देर में आ जाएगा नेटवर्क।" रीमा बोली।
"मुझे दे, अभी लोरी गाकर सुला देती हूँ।" माई ने हाथ बढ़ाया। पहली बार तो पोता गाँव आया है उस पर भी नींद न आने से इतना रो रहा। माई का मन भावुक हो गया।
रीमा, राकेश ने बहुतेरा समझाया कि आदी नहीं मानेगा पर माई नहीं मानी और उसे लेकर अपनी कोठरी में चली गयी।
कुछ ही देर में आदी के रोने की तेज आवाज शांत हो गई। रीमा-राकेश ने उत्सुकतावश कोठरी में झांककर देखा। माई लोरी गुनगुनाते हुए आदी को थपक रही थी और वह माई के झुर्रीदार हाथों की लटकी त्वचा से खेलते हुए उनींदा हो रहा था। थोड़ी ही देर में वह सो गया।
"भले ही सारे नेटवर्क चलें जाए लेकिन माई की ममत्व भरी लोरी कभी ऑउट ऑफ नेटवर्क नहीं हो सकती" राकेश ने धीमे से रीमा से कहा। 
"मैं भी माई से यह लोरी सीख लूँगी ताकि आगे कभी भी आदी की नींद को नेटवर्क के भरोसे न रहना पड़े" रीमा ने मुस्कुराते हुए कहा।****
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क्रमांक - 11

जन्म : 19 जनवरी 1961,  भोपाल - मध्यप्रदेश
शिक्षा : हायर सेकेंडरी

सम्प्रति : मध्यप्रदेश वन मुख्यालय भोपाल मे  सहायक

लघुकथा यात्रा :
विभिन्न पत्र - पत्रिकाओं तथा कुछ साझा लघुकथा संकलन में लघुकथाएं प्रकाशित

पता : एच ए 118/71 , शिवाजी नगर , भोपाल - 462016 मध्यप्रदेश

1.नीला गुलाब
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विजेता , वीरेंद्र के बगलवाली सीट पर आकर बैठी , वीरेंद्र ने गाडी स्टार्ट की और चल पड़ी होटल मधु विहार ! वीरेंद्र गुन गुना रहा था , ये शाम मस्तानी .......
विजेता मंद - मंद मुस्करा रही थी !
पार्टी पुरे शबाब पर थी, रात के ११ बज चुके थे ! विजेता ने कहा : वीरेन्द चलो अब घर ! आज पहली बार विजेता को वीरेंद्र ऐसी पार्टी में लाया था ! वे दोनो बाहर आकर कार में बैठ गए ! विजेता ने अपना पर्स पीछेवाली सीट पर उछाल दिया ! उसमे रखा नीला गुलाब का फूल भी बाहर उछल पड़ा और मुस्कराने लगा !
वीरेंद्र की नजर उस पर पड़ी !
वीरेंद्र ने पूछा : विजेता ये नीला गुलाब तुम्हारे पास कैसे आया !
ये मुझे आपके परिचित मनीष ने दिया है ! विजेता ने सहज कहा !
वीरेंद्र का पारावार नहीं रहा ! तू भी हराम ......... ! उसने दिया , और तुमने ले के रखा लिया ? फेक देती उसके मुंह पर !
देख लूंगा उस साले मनीष को भी !
अब सिर्फ कार की आवाज आ रही थी ! 15 मिनिट बाद कार पोर्च में शांत हुई ! वे दोनों फ्लेट में दाखिल हुए !
विजेता बड़ बड़ाई : अब मेरी क्या गलती है !
वीरेंद्र के कानो में पारा घुल गया ! उसका हाथ लहराया, विजेता के शरीर पर पड़ने ही वाला था कि न जाने कहा से विजेता के हाथो में बल आ गया और उसने कस कर वीरेंद्र का हाथ पकड़ा और पूरी ताकत से उसे दूर धकेल दिया !
पास में पड़े स्टूल पर वीरेंद्र जा कर बैठ गया !
कमरा नीले गुलाब कि खुशबु से महक रहा था ! ****

2.असमंजस
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" ताजा खबर , अख़बार ले लो सेठ जी ! "
" ठीक है एक रुपया दूंगा ! "
" दो रूपये का है ! "
" मै जानता हूँ , तुझे तो ये कंपनी से मुफ़्त मिलते है ! "
" तू कामचोरी तो नहीं कर रहा सो ले लेता हूँ , वार्ना लेता भी नहीं ! "
" एक रुपया लेकर , अख़बार देकर लड़का चलता बना "
अख़बार लिया है तो पढ़ना भी चाहिए .... ....... न !
पहला पेज उप चुनाव में सत्ता पक्ष की करारी हार !
दूसरा पेज असहिष्णुता पर प्रदर्शन !
तीसरा पेज एटीएम से गिरोह ने रूपये निकाल लिए !
चौथा पेज महिला का मंगलसूत्र ले कर भागे लुटेरे !
सेठ का मन कसेला हो गया ,अख़बार को मोड़कर वह बुदबुदाया क्यों ले लिया मैने यह अखबार ! ****

3.संवेदना
    ******

सिटी मॉल के करीब गाड़ी पार्क कर , अपना झोला लिए , उन्मुक्त मैं आगे बढ़ जाता हूँ !
मैं जानता हूँ ! मॉल के गार्ड की नजरें मेरा पीछा कर रही है !
आगे एक सब्जी की दुकान है , विभिन्न सब्जियाँ सजाकर रखी गई है ! पानी का छिड़काव हो रहा है !
एक आवाज मेरे कानो से टकराती है ' आइये सर !'
मैं अनसुना कर आगे बढ़ जाता हूँ !
बिल्डिंग के छज्जे के नीचे एक महिला सब्जी का ठेला लिए खड़ी है ! पास ही प्लास्टिक के स्टूल पर एक वृद्ध बैठा है !
मैं ठेले पर रखी सब्जियों का मुआयना करता हूँ !
महिला और वृद्ध की आँखों में झाँकता हूँ !
उनकी आँखो में मुझे उल्लास और आशा परिलक्षित होती है !
अपनी ज़रूरत के मुताबिक़ सब्जियाँ तुलवाकर मैं अपने झोले में भरवा लेता हूँ !
फिर रूपये गिनकर वृद्ध की हथेली पर रख देता हूँ !
मैं देख रहा हूँ ! वृद्ध का हाथ ऐसे उठ रहा है , जैसे आशीर्वाद दे रहा हो ! ****

4.हृदय परिवर्तन
    ***********

अरे ! वीरू की माँ , काहे फ़िकर करे हो ! तेरे पेट से जन्मा है, भरोसा रख बेटे पर !
सज्जन सिंह ने अपनी पत्नी से कहा !
ना ! अब न बचूंगी !
वह पेट दर्द से कराह रही थी !
माता - पिता ने अपने बेटे का व्यवसाय ज़माने के लिए ,पूरी ज़मीन बेच कर , राशि अपने बेटे को दे दी थी ! अब उनका आय को कोई साधन नहीं था !
कुछ दिनों तक बेटे ने परवरिश की फिर न जाने क्या सूझी की मंदिर के पास एक झोपडी बना कर उन्हें वहां छोड़ आया !
तब से वीरू की माँ की नींद उड़ गयी थी !
सज्जन सिंह की बात का उनकी पत्नी पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा !
पेट का दर्द मेरी जान ले के ही छोड़ेगा ! खैराती अस्पताल वाले क्या समझे है ?
गैराज से बाईक निकलते हुए , वीरू ने माँ की आवाज सुन ली , उसके " हृदय में हलचल " हुई !
वह झोपड़ी में आया और माँ से बोला " तैयार हो जा माँ , आयुष्मान अस्पताल में डॉक्टर श्रवण से चेकअप कराना है ! " ****

5.संतोष
    *****

रात्रि में घडी ने आठ घंटे बजाये !
बद्री प्रसाद जी ,डाइनिंग टेबल के करीब रखी कुर्सी पर विराजमान हो गए !
बहु सुनीति ने भोजन की थाली परोस दी !
बद्री प्रसाद जी ने रोटी का कोर सब्जी में डुबोया , अब मुँह में डालने ही वाले थे की सहसा रुक गए !
बद्री प्रसाद जी को बचपन से आदत है , वे भोजन की थाली में मीठा लेकर ही भोजन करते है !
" बहु ! आज थाली में मीठा रखना भूल गई ? "
" बाबूजी ! अब आठ हजार रूपये पेंशन से , थाली में रोज गुलाब जामुन रखना सम्भव नहीं है ! "
" क्यों भला ? मुझे तो अठ्ठाइस हजार रूपये पेंशन मिलती है ! "
तभी कार की रोशनी से मकान जगमगा उठा ! कार की हेड लाईट भोजन की थाली पर पड़ी ,प्रकाश परावर्तित हो कर बद्री प्रसाद जी के चेहरे पर आया !
पल भर के लिए उनकी आँखे रोशनी से चुंधिया गई !
अब गाड़ी की लाईट बंद कर दी गई थी !
ठक . ठक .ठक . ठक . पद चाप सुनाई दे रही थी !
संतोष कमरे में दाखिल हुआ !
सुनीति कमर पर हाथ रखे खडी थी !
संतोष सारा मामला समझ गया !
" आप आ गए ! अब आप ही समझा दीजिये , बाबूजी को ! "
" बाबूजी ! मैंने आपको बताया तो था , हमने जो नई कार खरीदी है ! उसकी इजी मंथली इंस्टालमेंट इस माह से आपके पेंशन अकाउंट से कटना है ! सो बीस हजार रुपये कट गए है ! "
बद्री प्रसाद जी ने चीनी के डब्बे मे से चुटकी भर शक़्क़र निकालकर अपनी थाली में रखी !
सब्जी में भीगा हुआ रोटी का निवाला मुँह में रखकर वे चबाने लगे !  ****

6.मितव्ययता
    ********

बाबूजी ने डाक में आया लिफाफा खोल कर पत्र पढ़ा !
पत्र पढ़कर बाबूजी ने कागज का नीचे का कोरा हिस्सा काट लिया !
यह देखकर पास में बैठा उनका बालक कौतुहल वश पूछ बैठा " बाबूजी ये कागज का आधा हिस्सा आपने क्यों काट लिया ? "
बाबूजी ने बताया " इस कोरे बचे हुए कागज पर अब मै पत्र का उत्तर लिखूंगा !
बालक समझ गया कि बाबूजी उसकी किताब - कापियों का खर्च कैसे चलाते है ! ****

7.उधार
   *****

           उसने बताया था। "वह इन दिनो तंगहाली मे जीवन बसर कर रहा है ! बिटिया की स्कूल  फीस जमा करना है।  2000 रुपयो की सख्त जरूरत है !"
        मेरा मन  बहुत व्यथित हुआ था।  मैंने  उसके चाहे अनुसार रुपये उसके खाते मे स्थानांतरित कर दिये थे !
           किसी समय वह मुझे रास्ते चलते मिल गया था !
आदर सहित उसने मेरा अभिवादन किया था!
         मैंने भी प्र्त्युत्तर दिया था!
आज फिर वह मुझे मिल गया ! नमस्कार का आदान - प्रदान हुआ ! 
          वह आगे बढ़ गया !
          मै उससे कुछ कहना चाह रहा था, किन्तु......... ! ***

8.ज़ज्बा 
   *****

       मैं आज काफी अन्तराल के बाद सुमन के साथ बैठकर नाश्ता कर  रहा था। बीमारी और जीवन की आपाधापी में साथ रहते हुए भी ऐसे अवसर कम ही होते हैं।
          नाश्ता करते हुए सुमन रुक गई। उसने डॉक्टर  की दी हुई शुगर की टेबलेट मुँह में रखी और पानी का ग्लास उठाकर चार घुट पानी पी लिया। 
            मैं उसके चेहरे के उतार चढाव को नापने में लगा था।  थरथराहट  भरे हाथों से प्लेट उठाकर सुमन फिर नाश्ता करने में जुट गई थी।
         मै  अपने प्रश्न के उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था। 
      "सुमन : तुमने सुहास के सुझाव पर क्या निर्णय लिया?"
     " देखिए ! संतोष जी, सुहास और उसका परिवार जहां रहना चाहे रहे। हम भारत मे ही रहेंगे।"
हम आत्मनिर्भर थे, आत्मनिर्भर ही रहेंगे।  ****

9.वृद्धा आश्रम
    **********

अरे नालायक !
कुछ लायकी रख |
हांडा जी ने अपने इकलोते बेटे आशीष को डाँटा |
किन्तु बेटे आशीष पर इसका कुछ असर दिखाई नहीं दिया |
वह अपनी दुनिया मे मस्त रहता |
जैसे तैसे जुगाड़ लगाकर पिता ने बेटे को सरकारी नौकरी मे लगा दिया , और सदा के लिया अपनी आँखे मूंद ली |
पिता के गुजरते ही बेटा सर्वेसर्वा हो गया |
माता सुमन देवी ने सोचा बेटे की शादी कर दु तो उसकी आदत मे कुछ सुधार हो, और उसकी धूम धाम से शादी कर दी गयी |
बहू आशा ने घर मे आते ही अपने पति पर लगाम कसना शुरू किया ,
और इतनी लगाम कसी की एक दिन बेटा आशीष न चाहते हुये भी अपनी जन्मदायिनी मा को वृद्धा आश्रम मे छोड़ आया | ***?

10.हेल्प प्लीज़
     **********

राकेश बाइक पर सवार हो कर अपने गंतव्य की ओर जा रहा था ।
उसे सड़क के किनारे लाल सलवार सूट पहने एक युवती दिखाई पड़ी ।
राकेश के पास आते ही उस युवती ने हाथ उठा कर कहा - लिफ़्ट प्लीज़ ।
राकेश ने गाड़ी का ब्रेक दबाते हुए कहा - जरूर , बैठिये ।
गाड़ी रुकी , युवती गाड़ी पर बैठी , राकेश ने गाड़ी का एक्सीलेटर घुमाया , गाड़ी चल दी ।
कुछ ही दूर जाते ही दो बलिष्ठ युवक बाइक पर सवार आये और उन्होंने अपनी - अपनी बाइक राकेश की बाइक के सामने अड़ा दी ।
राकेश ने तुरंत ब्रेक दबाया किन्तु , गाड़ी का बेलेन्स संभल नहीं पाया और वह गाड़ी के साथ ही गिर पड़ा , साथ ही पीछे बैठी वह युवती भी गिर पड़ी ।
राकेश उठकर खड़ा हुआ तो उसने देखा , वे दोनों युवक उस युवती के पीछे लपके । राकेश को माज़रा समझते देर नहीं लगी । पास ही पुलिस स्टेशन था । राकेश ने गाड़ी स्टार्ट की और सरपट पुलिस स्टेशन की और दौड़ा दी । पुलिस स्टेशन के गेट पर पहुँचते ही राकेश के कानो में पुलिस कर्मियों के ठहाके सुनाई पड़े । राकेश के दिमाग में पुलिस के उलटे -सुलटे सवालो का ख़याल आया । राकेश ने गाड़ी स्टार्ट की और मुड़कर अपने गंतव्य की ओर चल पड़ा । ****

11.अद्भुत
     *****

       कर्मवीर जी लंबे समय से  ला इलाज  बीमारी से जूझ रहे थे।
जनसेवा में नाम तो भरपूर कमाया।
स्वस्थ्य थे तब जनसेवा में समय व्यतीत हो जाता था, पता ही  नहीं चलता था।
       जब भी उन्हें थोड़ा सा आराम मिलता, वह पत्नी से पूछ  ही लेते थे,  "किसी हितेषी का समाचार या  फोन आया ?"
       पत्नी  का हर बार  "ना" में ही उत्तर होता था।
      किसी समय कर्मवीर जी के शरीर ने सांसे छोड़ दी। वे देवलोक को  गमन कर गए।
      अब फोन की रिंग टोन बार बार बजती थी।
      संवेदना संदेश की भरमार थी। पत्नी फोन काल रिसीव  करते करते निढ़ाल हो जाती थी। ****
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जन्म : 03 जून 1965
शिक्षा : एम ए हिन्दी , पत्रकारिता व जंनसंचार विशारद्
             फिल्म पत्रकारिता कोर्स
            
कार्यक्षेत्र : प्रधान सम्पादक / निदेशक
               जैमिनी अकादमी , पानीपत
               ( फरवरी 1995 से निरन्तर प्रसारण )

मौलिक :-

मुस्करान ( काव्य संग्रह ) -1989
प्रातःकाल ( लघुकथा संग्रह ) -1990
त्रिशूल ( हाईकू संग्रह ) -1991
नई सुबह की तलाश ( लघुकथा संग्रह ) - 1998
इधर उधर से ( लघुकथा संग्रह ) - 2001
धर्म की परिभाषा (कविता का विभिन्न भाषाओं का अनुवाद) - 2001

सम्पादन :-

चांद की चांदनी ( लघुकथा संकलन ) - 1990
पानीपत के हीरे ( काव्य संकलन ) - 1998
शताब्दी रत्न निदेशिका ( परिचित संकलन ) - 2001
प्यारे कवि मंजूल ( अभिनन्दन ग्रंथ ) - 2001
बीसवीं शताब्दी की लघुकथाएं (लघुकथा संकलन ) -2001
बीसवीं शताब्दी की नई कविताएं ( काव्य संकलन ) -2001
संघर्ष का स्वर ( काव्य संकलन ) - 2002
रामवृक्ष बेनीपुरी जन्म शताब्दी ( समारोह संकलन ) -2002
हरियाणा साहित्यकार कोश ( परिचय संकलन ) - 2003
राजभाषा : वर्तमान में हिन्दी या अग्रेजी ? ( परिचर्चा संकलन ) - 2003

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होली (लघुकथा संकलन ) का सम्पादन - 2021
मध्यप्रदेश के प्रमुख लघुकथाकार ( ई - लघुकथा संकलन ) - 2021
हरियाणा के प्रमुख लघुकथाकार (ई - लघुकथा संकलन ) -
2021
मुम्बई के प्रमुख हिन्दी महिला लघुकथाकार (ई लघुकथा संकलन ) - 2021
दिल्ली के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021

बीजेन्द्र जैमिनी पर विभिन्न शोध कार्य :-

1994 में कु. सुखप्रीत ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. लालचंद गुप्त मंगल के निदेशन में " पानीपत नगर : समकालीन हिन्दी साहित्य का अनुशीलन " शोध में शामिल

1995 में श्री अशोक खजूरिया ने जम्मू विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. राजकुमार शर्मा के निदेशन " लघु कहानियों में जीवन का बहुआयामी एवं बहुपक्षीय समस्याओं का चित्रण " शोध में शामिल

1999 में श्री मदन लाल सैनी ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी के निदेशन में " पानीपत के लघु पत्र - पत्रिकाओं के सम्पादन , प्रंबधन व वितरण " शोध में शामिल

2003 में श्री सुभाष सैनी ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. रामपत यादव के निदेशन में " हिन्दी लघुकथा : विश्लेषण एवं मूल्यांकन " शोध में शामिल

2003 में कु. अनिता छाबड़ा ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. लाल चन्द गुप्त मंगल के निदेशन में " हरियाणा का हिन्दी लघुकथा साहित्य कथ्य एवम् शिल्प " शोध में शामिल

2013 में आशारानी बी.पी ने केरल विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. के. मणिकणठन नायर के निदेशन में " हिन्दी साहित्य के विकास में हिन्दी की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं का योगदान " शोध में शामिल

2018 में सुशील बिजला ने दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा , धारवाड़ ( कर्नाटक ) के अधीन डाँ. राजकुमार नायक के निदेशन में " 1947 के बाद हिन्दी के विकास में हिन्दी प्रचार संस्थाओं का योगदान " शोध में शामिल

सम्मान / पुरस्कार

15 अक्टूबर 1995 को  विक्रमशिला हिन्दी विद्मापीठ , गांधी नगर ,ईशीपुर ( भागलपुर ) बिहार ने विद्मावाचस्पति ( पी.एच.डी ) की मानद उपाधि से सम्मानित किया ।

13 दिसम्बर 1999 को महानुभाव विश्वभारती , अमरावती - महाराष्ट्र द्वारा बीजेन्द्र जैमिनी की पुस्तक प्रातःकाल ( लघुकथा संग्रह ) को महानुभाव ग्रंथोत्तेजक पुरस्कार प्रदान किया गया ।

14 दिसम्बर 2002 को सुरभि साहित्य संस्कृति अकादमी , खण्डवा - मध्यप्रदेश द्वारा इक्कीस हजार रुपए का आचार्य सत्यपुरी नाहनवी पुरस्कार से सम्मानित

14 सितम्बर 2012 को साहित्य मण्डल ,श्रीनाथद्वारा - राजस्थान द्वारा " सम्पादक - रत्न " उपाधि से सम्मानित

14 सितम्बर 2014 को हरियाणा प्रदेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन , सिरसा - हरियाणा द्वारा लघुकथा के क्षेत्र में इक्कीस सौ रुपए का श्री रमेशचन्द्र शलिहास स्मृति सम्मान से सम्मानित

14 सितम्बर 2016 को मीडिया क्लब , पानीपत - हरियाणा द्वारा हिन्दी दिवस समारोह में नेपाल , भूटान व बांग्लादेश सहित 14 हिन्दी सेवीयों को सम्मानित किया । जिनमें से बीजेन्द्र जैमिनी भी एक है ।

18 दिसम्बर 2016 को हरियाणा प्रादेशिक लघुकथा मंच , सिरसा - हरियाणा द्वारा लघुकथा सेवी सम्मान से सम्मानित

अभिनन्दन प्रकाशित :-

डाँ. बीजेन्द्र कुमार जैमिनी : बिम्ब - प्रतिबिम्ब
सम्पादक : संगीता रानी ( 25 मई 1999)

डाँ. बीजेन्द्र कुमार जैमिनी : अभिनन्दन मंजूषा
सम्पादक : लाल चंद भोला ( 14 सितम्बर 2000)

विशेष उल्लेख :-

1. जैमिनी अकादमी के माध्यम से 1995 से प्रतिवर्ष अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन

2. जैमिनी अकादमी के माध्यम से 1995 से प्रतिवर्ष अखिल भारतीय हिन्दी हाईकू प्रतियोगिता का आयोजन । फिलहाल ये प्रतियोगिता बन्द कर दी गई है ।

3. हरियाणा के अतिरिक्त दिल्ली , हिमाचल प्रदेश , उत्तर प्रदेश , मध्यप्रदेश , बिहार , महाराष्ट्र , आंध्रप्रदेश , उत्तराखंड , छत्तीसगढ़ , पश्चिमी बंगाल आदि की पंचास से अधिक संस्थाओं से सम्मानित

4. बीजेन्द्र जैमिनी की अनेंक लघुकथाओं का उर्दू , गुजराती , तमिल व पंजाबी में अनुवाद हुआ है । अयूब सौर बाजाखी द्वारा उर्दू में रंग में भंग , गवाही , पार्टी वर्क , शादी का खर्च , चाची से शादी , शर्म , आदि का अनुवाद हुआ है । डाँ. कमल पुंजाणी द्वारा गुजराती में इन्टरव्यू का अनुवाद हुआ है । डाँ. ह. दुर्रस्वामी द्वारा तमिल में गवाही , पार्टी वर्क , आर्दशवाद , प्रमाण-पत्र , भाषणों तक सीमित , पहला वेतन आदि का अनुवाद हुआ है । सतपाल साहलोन द्वारा पंजाबी में कंलक का विरोध , रिश्वत का अनुवाद हुआ है ।
5. blog पर विशेष :-
            शुभ दिन - 365 दिन प्रसारित
            " आज की चर्चा " प्रतिदिन 22 सितंबर 2019 से प्रसारित हो रहा है ।
6. भारतीय कलाकार संघ का स्टार प्रचारक
7. महाभारत : आज का प्रश्न ( संचालन व सम्पादन )
8. ऑनलाइन साप्ताहिक कार्यक्रम : कवि सम्मेलन व लघुकथा उत्सव ( संचालन व सम्पादन )
9. भारतीय लघुकथा विकास मंच के माध्यम से लघुकथा मैराथन - 2020 का आयोजन
10. #SixWorldStories की एक सौ एक किस्तों के रचनाकार ( फेसबुक व blog पर आज भी सुरक्षित )

पता : हिन्दी भवन , 554- सी , सैक्टर -6 ,
          पानीपत - 132103 हरियाणा
          ईमेल : bijender1965@gmail.com
          WhatsApp Mobile No. 9355003609
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Comments

  1. एक अनूठा, अनुपम, अतुलनीय, प्रशसनीय संकलन,,,
    - विपिन बिहारी वाजपेयी
    मुम्बई - महाराष्ट्र
    ( फेसबुक से साभार )

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