दिल्ली के प्रमुख लघुकथाकार ( ई - लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी

भारतीय लघुकथा विकास मंच द्वारा " एक लघुकथाकार की ग्यारह लघुकथाएं श्रृंखला " चला रखीं है । जिसके अन्तर्गत ई - लघुकथा संकलन का सम्पादन किया जा रहा है । इस बार " दिल्ली के प्रमुख लघुकथाकार " ई - लघुकथा संकलन का सम्पादन किया है । जिसमें ग्यारह लघुकथाकारों की ग्यारह - ग्यारह लघुकथा शामिल की गई है । इस प्रकार ग्यारह परिचयों के साथ एक सौ इक्कीस लघुकथाओं का सम्पादन किया है । जिसमें पुराने से पुराने लघुकथाकार व नये नये लघुकथाकारों को शामिल किया है । जैसे पुरानों में अशोक वर्मा , अनिल शूर आजाद , डॉ. पूरन सिंह आदि हैं इस प्रकार नयें में  शिवानी खन्ना , बबिता कंसल , नूतन गर्ग आदि हैं । ये वास्तव में दिल्ली की शान है ।
      उक्त ई - लघुकथा संकलन के अतिरिक्त महाराष्ट्र के प्रमुख हिन्दी लघुकथाकार , मुम्बई की प्रमुख हिन्दी महिला लघुकथाकार , मध्यप्रदेश के प्रमुख लघुकथाकार , हिन्दी की प्रमुख महिला लघुकथाकार , हरियाणा के प्रमुख लघुकथाकार , आदि का सम्पादन हो चुका है ।  और आगे भी होता रहेगा । 
        मेरे अतिरिक्त ब्लॉग पर ई - लघुकथा संकलन का सम्पादन का प्रयास किसी ने नहीं किया है । अब तो यह स्पष्ट हो गया है । फिर भी उम्मीद करता हूँ कि ई - संकलन को अपनाये । लघुकथा में  नये - नये प्रयोग होते रहते हैं । जिससे लघुकथा का भविष्य उज्ज्वल माना जा सकता है ।
        इस प्रयास की सार्थकता क्या है। अपने विचारों के माध्यम से अवश्य बताये ।


क्रमांक - 01

जन्म : 04 अप्रैल 1951, गांव कयामपुर , ज़िला बागपत -  उत्तर प्रदेश
शिक्षा : स्नातकोत्तर ( समाजशास्त्र )

प्रकाशित पुस्तकें : -

खाते बोलते हैं ( लघुकथा संग्रह )
चिंगारी तथा अन्य लघुकथाएं ( लघुकथा संग्रह )
आशा किरण ( उपन्यास )
किसलिए ( उपन्यास )
चाचाजी नमस्ते ( उपन्यास )
मैं अभी मौजूद हूं ( ग़ज़ल संग्रह )
ग़ज़ल बोलती है ( ग़ज़ल संग्रह )
मेरी चुनिन्दा ग़ज़लें ( ग़ज़ल संग्रह )
मुक्ति ( नाटक )

संपादित पुस्तकें : -

अनकहे कथ्य ( लघुकथा संग्रह)
पड़ाव और पड़ताल - खंड 10 ( लघुकथा संग्रह)
अपनी अपनी यात्रा ( कहानी संग्रह)
मांझी के मतले और मक्ते(ग़ज़ल संग्रह)

विशेष : -

- लघुकथा लेखन  सन 1978 से
- पहली लघुकथा  "गुल्लक"   इंदौर की चर्चित पत्रिका " वीणा' में प्रकाशित
- लघुकथा और ग़ज़ल में एक जाना-माना नाम
- आकाशवाणी व दूरदर्शन से अनेक रचनाएँ प्रसारित
- कुछ लघुकथाओं का पंजाबी, गुजराती, मलयालम एवं अंग्रेज़ी में अनुवाद
- अनेकों संस्थाओं  द्वारा सम्मानित।

सम्पर्क :110, लाजवन्ती गार्डन, नई दिल्ली - 110046

1. चाँद मेरे आजा रे
    **************

सुनो, कम से कम आज के दिन तो समय पर आ जाना।
मुझे याद है भई। शादी के बाद आज तुम्हारा पहला करवा चौथ है।
आज कोई नई कहानी मत सुनाना घर आकर। पूरे दिन बोर हो जाती  हूँ घर मे अकेली।
मैं सात बजे तक पहुँच जाऊँगा डार्लिंग।
सुनो, तुम परसों जो साड़ी लाये थे न, मैंने उसमें फॉल लगवा लिया है और लो कट  ब्लाउज़ भी सिलवा लिया है।
फिर तो जलवा हो जाएगा डिअर।
और हाँ, तुम्हारी पसन्द की केशर की खीर और दही भल्ले भी बनाकर रखूँगी। तुम्हारे हाथों से पानी पीकर व्रत खोलना है मुझे।
मुझे याद है। अच्छा रखता हूँ फोन।
            पति राकेश की बातों से आश्वस्त होकर किरण तेजी से रसोईघर में जाकर भोजन की तैयारी में जुट गई। उसके चेहरे पर उल्लास  था तथा होठ कोई रोमांटिक गीत गुन गुना  रहे थे।
        सात बजते बजते  किरण ने भोजन तैयार कर लिया था। नई साड़ी में वह एक अप्सरा -सी लग रही थी।अब उसे राकेश की प्रतीक्षा थी।               
             समय बीतता जा रहा था। झुंझलाहट में उसने कई बार मोबाइल से सम्पर्क करने की कोशिश की। लेकिन हर बार "नॉट रीचिंग"  बता रहा था।
           तभी डोर बेल बजी। तेजी से उठकर  दरवाज़ा खोला तो बदहवास सी हालत में राकेश खड़ा था। उसकी सफेद शर्ट पर जगह जगह खून के धब्बे देखकर वह चौंक उठी,,,,,,
ये क्या हो गया जी। किसी से झगड़ा कर बैठे क्या?
पहले अन्दर चलो, बताता हूँ।
तुम्हें पता है मैं कब से इंतज़ार कर रहीहूँ। मेरी जान सूख गई थी।
रास्ते में एक आदमी का एक्सीडेंट हो गया था। वह खून से लथपथ था। सब तमाशा देख रहे थे। कई तो मोबाइल से फोटो ले रहे थे।  वह सड़क पर पड़ा कराह रहा था। मैंने एक मजदूर की सहायता से अपनी बाइक पर बिठाकर उसे अस्पताल पहुँचाया। जब उसके रिश्तेदार वहाँ पहुंचे, तब मैं वहाँ से निकला।
और तुम्हें मेरी परेशानी का ज़रा भी ख्याल नहीं आया।
आया था  किरण तुम्हारा खयाल कि तुम सुबह से भूखी बैठी मेरा इंतज़ार कर रही हो। पर ज़रा यह सोचो कि करवा चौथ पर उसका भी तो घर पर उसकी पत्नी इंतज़ार कर रही होगी। उसे  कुछ हो जाता तो!
ऐसा न कहो जी। 
किरण ने उसके मुँह पर उंगली रखते हुए कहा,,,,,
तुमने बड़ा नेक काम किया है जी।
अच्छा चलो पहले चाँद देख लो। अरे, चांद तो बादलों में छुप गया है किरण।।    राकेश ने अपनी शर्ट उतारते हुए कहा।
मेरे चाँद तो आप हैं जी।।   किरण लजाते हुए राकेश के सीने से लग गयी।
शरारती चाँद बादलों से निकल बाहर आ गया था। ****

2. मजबूत दीवार
    ***********

  आखिर अंजलि को उसकी सासू मां शोभना देवी की परेशानी और बेचैनी का कारण पड़ोस की देवकी आंटी ने बता ही दिया----
"अरे अंजलि, तेरी सास की परेशानी का कारण तू ही है  बिटिया।"
"वो कैसे आंटी?'"  अंजलि ने हैरत से पूछा। 
" अरी, पार्क में सुबह-शाम बैठने वाली सारी बूढी-,ठेरी अपनी अपनी बहुओं की जमकर बुराई करती  हैं, और तेरी सास,,,,, ।"
"क्या कहती हैं मेरी सासू मां?"
"यही कि मेरी बहू इतनी अच्छी है कि दूसरी औरतों की तरह मैं उसकी बुराई भी नहीं कर सकती।"
"ओह, तो यह कारण है। फिर तो मुझे ही कुछ करना पड़ेगा आंटी।"
"देख ले बेटी,,,,,तू जाने तेरा काम,,,,,,मैं तो चली।"
     शाम को पाँच बजे शोभना देवी आँगन में बैठी चाय का इंतज़ार कर रही थी।तभी अंजलि ने जान- बूझकर एक पुराना मर्तबान ज़ोर से फर्श पर पटक दिया।
'भड़ाक' की आवाज़ से पूरा घर गूंज उठा।
'अरी, क्या टूट गया अंजलि?"चौंकते  हुए शोभना देवी ने पूछा।
"सॉरी मम्मी, आपका मनपसंद अचार का मर्तबान टूट गया।" अंजलि ने सोच लिया था कि आज तो डांट ज़रूर पड़ेगी ही।        
           शोभना देवी ने एक पल को मर्तबान के टूटे हुए टुकड़ों को घूरा फिर शान्त स्वर में बोली---"चल छोड़, टूट जाने दे। पुराना ही तो था।"
            सासू माँ को क्रोधित मुद्रा में न देखकर अंजलि विस्मय से बोली--"मम्मी, मुझे डांटो तो सही। नुक्सान तो कर ही दिया ना मैंने।  मैं भी तरस गयी हूँ आपकी डांट खाने के लिए।"
"अंजलि, तू क्या समझती थी कि मुझे गुस्सा दिलवा देगी और मैं तेरी बुराई का ढिंढोरा पीटकर खुश हो जाऊंगी। तेरी प्लानिंग
मैं पहले ही भाँप चुकी थी। सास हूँ तेरी।"
ओ,,,,मम्मी जी।" इतना ही निकला अंजलि के मुख से।
"चल चाय ले आ,,,,,, इकठ्ठे बैठकर पियेंगी,,,,,,, पगली कहीं की।"
     अंजलि को लग रहा था कि वह एक मजबूत दीवार के साये में पूरी तरह महफूज़ है। ****     
    
3. एक पराजित विजय
    **************

          यह एकाकीपन उसके लिए कोई नई बात नहीं है। इससे पूर्व भी उसने कई बार ऐसी स्थिति झेली है।
              लेकिन आज जब घर के सभी सदस्य किसी विवाहोत्सव में शामिल होने चले गए, तो वह बेचैनी से इस कमरे से उस कमरे में चक्कर लगाता रहा। नहाया-धोया भी नहीं, और पठन-पाठन चाहकर भी नहीं कर सका।
                उसे लगा, जैसे यह एकाकीपन  उसकी धड़कनों को जकड़े दे रहा है।
    तभी एकाएक वह कुछ सोचते हुए बिस्तर से पलटा। मेज़ पर से काँच का खाली गिलास उठाया। उसे एक पल निहारा और फ़र्श पर छोड़ दिया।
         चटाख !  एक  शोर हुआ बस्स !! 
         फ़र्श पर बिखरी गिलास की किरचें देख, पहले वह थोड़ा मुस्कुराया और फिर जोरदार ठहाका लगाया----
            हा'''''''''''हा'''''''''हा'''''''''हा'''''''''''हा ***

4.कटखना
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शुरू शुरू में ' वर्क फ्रॉम होम'  के कारण  दिन भर घर में रहना उसे बहुत अच्छा लगता था। पत्नी द्वारा तैयार किया अपनी पसंद का लंच और स्नैक्स देखकर उसकी बाँछें खिल जाती। काम से थकान  होने पर बच्चों के साथ हँसी ठिठोली करते समय वह स्वयं बच्चा बन जाता था।
           धीरे धीरे पूरे दिन घर में रहना उसे अखरने लगा था। ऑफिस के दोस्तों और महिला सहकर्मियों से मस्ती के पलों को वह ' मिस'  कर रहा था। अब वह दिन भर बौखलाया सा रहने लगा था।। पत्नी बाजार का कुछ कम कहती तो उसे झिड़कने लगता। कार की सफाई के लिए चौकीदार पानी मांगता तो उस पर बरस पड़ता। पड़ोस की दुकान पर समान लेने जाता तो दुकानदार से बेवजह उलझने लग पड़ता। यहां तक कि जब कभी बच्चे खाली समय में अपने साथ खेलने को कहते तो उन्हें काट खाने को दौड़ता था।
               एकदिन पड़ोस में किसी के यहाँ विवाह समारोह था। शायद घुड़चढ़ी हो रही थी। कुछ ही देर में दूल्हे की घोड़ी और बाराती उसके घर के सामने गली में आ चुके थे। बैंड की धुन पर कुछ महिलाएं औऱ युवक डांस कर रहे थे।
               वह घर के आँगन में पत्नी और बच्चों के साथ बैठा था। कई महीनों के सन्नाटे के बाद बारात की रौनक और बैंड की धुन सुनकर उसके बच्चे रोमांच से भर उठे और हँसते हुए डांस करने लगे।
        बच्चों को डांस करते देख पत्नी खिलखिलाकर हँस पड़ी तो उसके चेहरे पर भी मुस्कान खिल उठी। वह अचानक कुर्सी से उठा, फिर बैंड और ढोल की धमाकेदार
धुन पर  दोनों बच्चों के साथ साथ मस्त होकर  नाचने लगा। ****

5. पूर्ववत
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      पिछले दिनों सरकार द्वारा भूमिहीन हरिजनों को खेती योग्य ज़मीन आबंटित करने की योजना बनाई गई। कार्यक्रम तेजी से लागू किया गया। गाँव के समस्त भूमिहीन हरिजनों ने आवेदन भी किया।
          एक सप्ताह बाद कार्य-समाप्ति की घोषणा के साथ ही भूमि आबंटन के आंकड़े संबंधित विभाग को भिजवा दिए गए।
             पहली ही बारिश के बाद रामु, दीनू और भुलिया के साथ अनेक हरिजन अब भी पूर्ववत ग्राम-सरपंच के खेतों में हलों की मूठ पकड़े काम कर रहे थे।
             हाँ, सरपंच को अपनी बढ़ी हुई ज़मीन के लिए कुछ और किसानों व मजदूरों की ज़रूरत थी। ****

6. बिग बॉस
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                पहाड़गंज चौराहे की रेड लाइट खराब हो जाने से सभी गाड़ियां अपने गंतव्य तक जाने की जल्दी में फंसी पड़ी हैं। ड्राइवर राम सिंह अपने बॉस के साथ पिछले  पंद्रह मिनट से जीप में बैठा है। सुबह से ही उसका मूड खराब है। बॉस के कहने पर  वह नीचे उतर कर चारों तरफ़ नज़र घुमाता है।जून माह का तपता हुआ सूरज आग बरसा रहा है। राम सिंह भी बॉस को लेकर भीतर ही भीतर उबल रहा है।
-----आज पिताजी को हड्डियों के डॉक्टर को दिखाना था।
पी ए से फोन करा दिया कि ज़रूरी मीटिंग है, छुट्टी मत करना । घटिया कहीं का।
------ दिन भर इधर उधर के काम कराता है। रात दस बजे तक पीछा नहीं छोड़ता। भूतनी का।
------कभी इसकी  घर वाली को शॉपिंग कराओ तो कभी बच्चों को। बंधुआ मज़दूर बना दिया हरामी ने।
                तभी ट्रैफिक खुल जाता है।रामसिंह जीप में बैठकर जीप स्टार्ट कर देता है।
"जल्दी करो राम सिंह। दो बजे की मीटिंग है। एक बजकर चालीस मिनट हो गए है।"  बॉस चिंतित स्वर में कहता है।                  
                        राम सिंह तेजी से जीप को निकालता है। अब जीप पहाड़गंज पुल की चढ़ाई  चढ़ रही है।  उसने जीप को पुल के बीचोबीच रोक  दिया  है। वह चाहता है कि बॉस  से भरी दोपहरी में धक्के लगवाए। वह दिखावे के लिए जीप के पुर्ज़ों के साथ छेड़छाड़ करता है।
बॉस की घबराहट बढ़ रही है।
                       तभी राम सिंह को अपने पिता की बात याद आती है कि बेटा, ड्यूटी को भगवान की पूजा समझ कर करना और अपने बॉस की हमेशा इज़्ज़त करना।
"जल्दी करो राम सिंह , दस मिनट रह गए हैं , मीटिंग शुरू होने में।" बॉस अधीर हो उठता है।
                 " चिंता न करो सर, अभी पहुंचाता हूँ। "  कह कर राम सिंह तेजी से जीप को गाड़ियों के बीच से निकालकर ठीक दो बजे मीटिंग  हाल के बाहर  खड़ी कर देता है। बॉस राहत की  सांस लेते हुए फुर्ती से भीतर चला जाता है।
               दो घण्टे बाद मीटिंग समाप्ति पर बॉस हँसते हुए  बाहर  निकलता है और संकेत से राम सिंह को बुलाकर कहता है---
         " राम सिँह, ये विज़िटिंग कार्ड है। कल इस नर्सिंग  होम में पिताजी को ले जाना। डॉ भारद्वाज से मिलना। वे पूरा चैक अप करेंगे। कोई पैसा नही देना उन्हें, वो मेरे फ्रेंड हैं।। और सुनो, जीप ले जाना।"
            राम सिंह अपने बॉस का यह रूप देखकर हतप्रभ है। "थैंक्यू सर।" वह होले से कहता है। उसका दायाँ हाथ सेल्यूट  की मुद्रा में उठ जाता है। ****

7. मोर
    ***
                     
                  नाम, इज्ज़त, शोहरत और दौलत यूँ ही उसके हिस्से में नहीं आये हैं-----कड़ी मेहनत की है उसने। कवि हिमकर ने अपने गीतों और मुक्तकों से देश-दुनिया में एक अलग पहचान बनाई है। उसके अनेक मुक्तक  श्रोताओं की जुबान पर रहते हैं। उनकी तालियों के बीच जब वह झूम-झूम कर कविता पाठ करता है तो लगता है जैसे कोई मोर नृत्य कर रहा है।
                 एक बड़ी संस्था ने हिमकर को सम्मानित करने के लिए आमंत्रित किया हुआ है। अपने काव्य गुरु के साथ आज वह अपनी महँगी कार में आयोजन स्थल की ओर जा रहा है।
   " तुम खामोश और गुमसुम से क्यों हो हिमकर?"  यह गुरुजी  का स्वर है।
"  एक प्रशंसक के पत्र ने  मुझे विचलित कर दिया है गुरुजी।"
"क्या लिखा है?"
" यही कि मेरे चर्चित और बहुप्रशंसित मुक्तक में तकनीकी अशुद्धि है। लेकिन मेरे मित्रों ने  मुझे कभी भी इस बारे में नहीं टोका ।"
"शायद इसलिए कि तुम बुरा न मान जाओ और अपने आयोजनों में उन्हें बुलाना ही बन्द न कर दो।"
"लेकिन आप तो अधिकारपूर्वक कह सकते  थे गुरुजी।"
"जब तक मेरे संज्ञान में बात आई, तुम्हारा काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका था।" गुरुजी ने अपनी सफाई दी है।
            कार आयोजन स्थल पर पहुँच चुकी है। सभागार  खचाखच भरा है।  हिमकर, गुरुजी और मुख्य अतिथि मंच पर विराजमान हो गए हैं।
           प्रशस्ति-पत्र पढ़े जाने के उपरान्त मुख्य अतिथि द्वारा हिमकर को  माला,शॉल,  स्मृति चिन्ह  तथा एक लाख रुपये का चेक दे दिया गया है। सभागार में तालियां बज उठी हैं।
             श्रोताओं के अनुरोध पर हिमकर झूम झूम कर अपने कुछ मुक्तक सुनाता है। अब उसके बहुचर्चित मुक्तक को सुनकर समूचा सभागार तालियों और सीटियों से गूँज उठा है। हिमकर ने भी श्रोताओं के अभिवादन में अपना हाथ हवा में लहरा  दिया है।
           तभी हिमकर का बायां हाथ कोट की जेब में रखे प्रशंसक के पत्र को स्पर्श करता है। उसके चेहरे की रंगत फीकी पड़ गयी है। वह माइक छोड़कर बोझिल कदमों से चलकर कुर्सी पर आ  बैठा है।  उसकी आँखों की कोरों में नमी-सी ठहर गयी है।
   श्रोताओं की तालियाँ रुकने का नाम नहीं ले रहीं हैं। ****
                       
8.देश की बेटी
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                 गाँव के बीचों बीच खुले प्रांगण में स्वतंत्रता दिवस का उत्सव मनाने की तैयारियाँ चल रही हैं। सामने एक मंच बनाया गया है। उस पर रंगीन कागज़ की झंडियाँ सजी हुई हैं। गांव के सरपंच चौधरी सूरत सिंह के निर्देश पर कुछ युवा आवश्यक तैयारियों में जुटे हैं।  मैं मंच के सामने बिछी कुर्सियों पर अपने माँ बापू के साथ बैठी हूँ। कुछ ही देर में राष्ट्रीय ध्वज फहराया जायेगा।
       अचानक तीन वर्ष पूर्व की घटना मेरी आँखों के सामने घूमने लगती है। में आठवीं कक्षा में थी। विद्यालय में एक समूह गान हेतुमुझे पहली पंक्ति में खड़ा किया गया था। रिहर्सल के दौरान सरपंच सूरत सिंह ने  अध्यापिका को कहा कि इस दूसरी जाति की लड़की को  पीछे खड़ा करो और मेरी पोती को अगली  पंक्ति में  । सचमुच उस घटना ने मुझे भीतर तक छील दिया था।
          नौंवीं कक्षा में मेरे बापू ने मुझे  कस्बे के स्कूल में दाखिला दिलवा दिया था। मैं खेलो में अच्छी थी।  जीत राम नाम के कोच ने मुझे  कड़ा प्रशिक्षण दिया। इंटरस्टेट खेलों की प्रतिस्पर्धा में  दौड़ के दौरान मैं तीन धावकों से पीछे थी। तभी  मुझे कोच की बात समरण हो आई कि प्रत्येक दौड़ यह सोच कर दौड़नी है कि तुम अपने देश के लिए दौड़ रही हो। तभी मेरे सामने लहराता हुआ  तिरंगा  दिखा और लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मैं सभी धावकों को पछाड़ती हुई सर्व श्रेष्ठ विजेता बन गई।  मुझे गोल्ड मेडल पहनाया गया।
           अचानक मंच से सरपंच द्वारा मेरे नाम की  घोषणा  होने पर मेरी तंद्रा टूटती है।
                मैं गर्व से मंच पर पहुंच गई हूँ। ग्राम सरपंच चौधरी सूरत सिंह ने मुझे गाँव की बेटी नहीं बल्कि देश की बेटी कहते हुए  मेरे गले में बड़ी सी माला पहना दी है और ध्वजारोहण का संकेत किया है।
               मैं राष्ट्रीय ध्वज की डोरी खींचती हूँ । गुलाब के फूलों की पत्तियां मुझ पर बिखर रही हैं। गाँव के स्त्री पुरुष तालियाँ बजा रहे हैं। वातावरण में राष्ट्र गान गूँज उठा है।  मेरा दायाँ हाथ लहराते हए तिरंगे को सलामी देने के लिये उठ गया है। ****
                         
9. गुरगा
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      पिछले कुछ समय से प्रिंसिपल डॉ भान अनुभव कर रहे थे कि समय की पाबंदी को लेकर स्टाफ मेम्बर्स में उनके प्रति रोष पनपता जा रहा है। वे एक ऐसे व्यक्ति की तलाश में थे जो स्टाफ मेम्बर्स के षड्यंत्रों की जानकारी उन तक पहुंचाता रहे। उनकी अनुभवी नज़रों ने नव नियुक्त प्रोफेसर दिनेश कुमार को अपना गुरगा बनाने की ठान ली।
               कॉलेज की छुट्टी का समय हो चुका था। अपनी कार स्टार्ट करके डॉ भान  कॉलेज गेट से बाहर निकल रहे थे। संयोग से उन्होंने पैदल जाते हुए प्रोफेसर  दिनेश कुमार को देखा और कार उसकी बगल में रोक दी।
  "आइए, मिस्टर दिनेश, मैं आपको छोड़ देता हूँ। कार में बैठिए।"
"ठीकहै सर, मैं बैठता हूँ। थैंक यू।" अचकचाकर प्रोफेसर ने कहा और कार की पिछली सीट का दरवाजा खोलकर बैठ गया।
" अरे आगे आइए, यहाँ बैठिए।" डॉ  भान की वाणी में शहद घुला था।
" मैं यहीं  ठीक हूँ सर।" कुछ सकुचाकर प्रोफेसर दिनेश ने कृतार्थ होते हुए कहा।
                डॉ भान ने एक बार फिर उसे आगे बैठने को कहा, किन्तु वह संकोचवश----'"ठीक हूँ सर" कहकर पिछली सीट पर ही बैठा रहा।
          दरअसल, दूर देहात से पहली बार राजधानी में आये नए नए प्रोफेसर को यह कहाँ पता था कि कार में आगे बैठने वाला  ड्राइवर और पीछे वाला मालिक समझा जाता है ।  डॉ भान कोअपनी यह स्थिति अपमानजनक लगी।वे रास्ते भर कुछ नहीं बोले। एक-दो स्टॉप के बाद उन्होंने प्रोफेसर दिनेश को नीचे उतार दिया।
        " थैंक यू सर।' कहकर सीधा सादा प्रोफेसर कार से उतर कर बस स्टॉप की ओर चल दिया।
           " इडियट ।"  डॉ भान बुदबुदाए । लेकिन तभी उन के मन के कोने से एक आवाज़ उभरी--" किसी गुरगे का थोड़ा  इडियट होना भी ज़रूरी है।"
                मुस्कुराते हुए डॉ भान ने कार की स्पीड बढ़ा दी थी।  गुरगा इतना-भर सम्मान पाकर खुश था। ****

10. दादी के नुस्खे
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"बेटी हल्के हाथों से बालों की जड़ों में लगा तेल।"
"ठीक है दादी लगाती हूँ। एक बात कहनी है दादी आपसे।"
"बोल बेटी।"
"स्कूल आते जाते रास्ते में एक लड़का घूरता रहता मुझे।क्या करूँ?"
" देख बेटी, बड़ी होती जा रही है तू। ऐसी बातों को एक आध बार तो नज़रअंदाज़ कर दिया करते हैं। पानी जब सिर के ऊपर आने लगे तो मुझे बताना।"
"ठीक है दादी।"
"बेटी, इंटर कॉलेज में मुझे भी एक लड़का उल्टा सीधा बोलता था।एक दिन जब बर्दाश्त नहीं हुआ तो सबके  सामने उसे ऐसा जोरदार तमाचा मारा कि  एक हफ्ते तक शर्म के मारे कॉलेज में दिखाई नहीं दिया। कई बार बोल्ड होना पडता है बेटी।जरा हाथों में तेल लगाके उंगली चटका।"
" ठीक है, लगाती हूँ।  अच्छा दादी, ये लिव इन  रिलेशन क्या बला है?"
"अरी बला ही तो है। बिना शादी किये मियां बीवी की तरह रहना कोई अच्छी बात है भला। जवान लड़कियों को अपनी इज्ज़त संभाल के रखनी चाहिए। चल  तलुओं  की मालिश कर मुलायम हाथों से।"
"दादी एक बात बताओ।सुना है आपने दादाजी के साथ घर से भागकर शादी  की थी।"
"अरी तुझे किसने बताया मरी?"
"वो मेरी सहेली वीना  को उसकी दादी ने  बताया था।  कानपुर की है ना उसकी दादी भी।"
"हूँ-म। तो ले सुन।तेरे दादाजी और मैं  एक दूसरे को पसंद करते थे। परंतु हमारे घरवालों को यह रिश्ता पसंद नहीं था, क्योंकि तेरे दादाजी और हम अलग  अलग जाति के थे।"
"फिर क्या हुआ?"
"अचानक तेरे दादाजी की दिल्ली में सरकारी नौकरी लग गयी। ।मुझे अपना  भविष्य सुरक्षित लगा। हमने मंदिर में शादी की फिर दिल्ली चले आये। एक दिन भी लिव इन में  नहीं रहे।"
"दादी कमाल कर दिया आपने ये फैसला लेकर।"
"हाँ, शुरू में घर वाले नाराज़ रहे। बाद में परिवार के सब  लोग  मेरे फैसले से खुश हो गए। चल साड़ी बचा के
घुटने तक मालिश कर।"
"वाह दादी आप तो बहुत दिलेर और समझदार निकली।"
" बेटी, औरत ही घर को स्वर्ग बनाती है। उसकी समझदारी से ही घर मजबूत  बनता है। इन छुट्टियों  में मेरी मान , तू भी सेल्फ  डिफेंस की  ट्रेनिंग ले ले,समझे। चल अब चुन्नी हटा,  तेरी भी कर दूं मालिश।"
" ठीक है दादी।  ये लो।" ****

11. मुखौटा
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    वह  नन्हा  बालक एक राजनेता का पुत्र था।
   रामलीला के दिन थे। माँ को झिंझोड़ते हुए एक दिन  वह बोला--" माँ,,,,, माँ, मुझे भी मुखौटा  दिलवा दो ना।"
"क्या करेगा तू उसका ?" माँ ने पूछा।
"किसी को डरा दूँगा, किसी को मूर्ख बना दूँगा ।"बालक  ने भोलेपन से कहा।
" ख़बरदार, जो ऐसा किया। तेरे पिता से तो मैं पहले ही दुखी हूं ।" कहकर वह  फूट पड़ी ।
     नन्हा देर तक दीवार पर टंगे पिता के  चित्र को घूरता रहा। ****
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क्रमांक - 02

जन्म : 26 जून 1965 , रेवाड़ी - हरियाणा
माता जी : श्रीमती पुष्पा शूर
पिता जी : श्री सुखदेवराज शूर
शिक्षा : एम.ए. ( इतिहास , हिन्दी ) , एम.एड , एल एल बी ,  पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर
सम्प्रति : दिल्ली शिक्षा निदेशालय के तहत इतिहास के लेक्चरार

विधा : लघुकथा , कविता , व्यग्य , कहानी आदि लेखन

एंकल प्रकशित पुस्तकें :-
लघुकथा : सरहद के इस ओर , क्रान्ति मर गया , मेरी प्रिय लघुकथाएं
अन्य : मेरी सात कहानियां , मेरे प्रिय हास्य व्यंग्य , पत्थर पर खुदे नाम , रोटी के लिए जिद मत कर , हृदय राग , अपना सौर परिवार , आपदा प्रबंधन एक परिचय , मेरा लेखन तथा जीवन आदि

सम्पादित प्रकाशित पुस्तकें : -
लघुकथा : दूसरी पहल , शिक्षा जगत की लघुकथाएँ , हरियाणा की लघुकथाएँ , दिल्ली की लघुकथाएँ , राजस्थान की लघुकथाएँ , मध्यप्रदेश की लघुकथाएँ , नई सदी की लघुकथाएँ , देश - विदेश से लघुवादी लघुकथाएं आदि

विशेष प्रकाशित पुस्तकें : -
लघुकथाकार अनिल शूर आजाद ( सम्पादक : इन्दु वर्मा )
अनिल शूर आजाद : प्रतिनिधि लघुकथाएं ( सम्पादक : इन्दु वर्मा )
अनिल शूर आजाद की कृतियां : एक अवलोकन ( रेखा पूनिया ' स्नेहल ' )

सम्मान : -
हरियाणा प्रदेश साहित्य सम्मेलन , सिरसा - हरियाणा द्वारा रमेशचंद्र शालिहास स्मृति साहित्य सम्मान
युवा साहित्य मण्डल , गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश द्वारा श्रेष्ठ सम्पादक सम्मान
दिल्ली साहित्य समाज द्वारा साहित्य गौरव सम्मान
स्वतंत्र लेखक मंच , दिल्ली द्वारा विशेष रचनाकार सम्मान

पता : -
ए जी - 1 / 33 बी , विकासपुरी , दिल्ली - 110018


1.बाली उम्र
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स्कूटर से अपने रास्ते जाते हुए अनायास किसी बॉलकनी में उसकी हमउम्र सामान्य चेहरे-मोहरे की एक अपरिचित युवती उसे दिखी। एकाएक शरारत से भरकर उसने स्कूटर का हार्न बजा दिया। चौंककर लड़की ने उसे देखा और मुंह बिचकाकर सामने से हट गई। उसे बहुत मजा आया।
     अगले दिन वहां से गुज़रते फिर उसने बॉलकनी की ओर ताका। वहां कोई नहीं था। उसे कुछ अच्छा सा नहीं लगा। तीसरे दिन वहां से गुज़रते उसे वही लड़की दिख गई। शरारत से भरकर उसने फिर हार्न बजा दिया। लेकिन इसबार लड़की ने मुंह नहीं बिचकाया, बल्कि मुस्कराई और मुड़कर अंदर चली गई। वह खुश हो गया। कुछ दिन ऐसे ही व्यतीत हुए।
      मां की अस्वस्थता के चलते दो दिन छुट्टी पर रहने से उधर जाना नहीं हो पाया। मगर अगली सुबह उधर से निकलना हुआ तो वही लड़की बॉलकनी में जैसे उसके लिए प्रतीक्षारत थी। उसने हार्न बजाया तो वह हैरान हो गया। लड़की न केवल मुस्कराई, बल्कि हाथ हिलाकर विश भी किया। 
      उस सारे दिन वह एक ताज़गी और स्फूर्ति सी अनुभव करता रहा। ****

2.स्वाभिमान
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एक विवाह समारोह अपने शबाब पर था। हॉल में लगी टेबल्स पर लोग खाने-पीने में मग्न थे। एक तरफ डीजे की तेज धुन पर कुछ युवा थिरक रहे थे। इन सबसे अलग कुछ बच्चे अपनी ही धुन में मस्ती काट रहे थे। हॉल के एक सिरे से दूसरे तक जाना और फिर वापस दौड़ लगाना ही जैसे उनका शग़ल था।
      एकाएक धड़ाम की आवाज हुई! देखा, दौड़ते हुए चार-पांच वर्षीय एक बालक पक्के फर्श पर गिर पड़ा था। अविलंब जाकर उसे उठाया। सबके बीच इस तरह गिरने से, बच्चा सकपकाया तथा कुछ अपमानित भी अनुभव कर रहा था। उठाए जाने पर उसने कहा,"अंकल, मुझे चोट बिल्कुल नहीं लगी!" अपनी टेबल पर लौटते मैंने इतना कहा, "नहीं लगी है तो अच्छा है, पर..अब जरा ध्यान से खेलो।"
     तभी बच्चे की आंखें सामने की टेबल पर मौजूद अपनी मां से मिली। अगले ही पल..मां के पल्लू को थाम, दहाड़ मारकर वह रो उठा।" ****

3. प्यास
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छोटे से उस स्टेशन पर पैसेंजर ट्रेनें ही बस - कुछ मिनट के लिए रुकती थी। मई-जून की बरसती आग में वहां पारा पचास के आसपास जा पहुंचता था। वहां की परंपरा थी कि तब, नजदीकी गांव के युवकों की एक टोली रेल यात्रियों को पानी पिलाने के अभियान में जुट जाती थी। राजू सदैव इसमें बढ़चढ़कर हिस्सा लेता। प्यासों को पानी पिलाने का उसे इतना जुनून था कि ट्रेन चलने के बाद भी दौड़ दौड़कर यात्रियों को पानी पहुंचाने की कोशिश में कई बार वह गिरकर चोटिल हो जाता था।
      आज फिर वह, लाइन के पास बिछे पत्थरों पर गिरकर कई जगह से बुरी तरह छिल गया था। उसके भाई ने दवा लगाते हुए उससे पूछा - "ट्रेन की खिड़की से खाली बर्तन लिए बढ़ा हुआ हाथ देखकर आखिर तुम्हें हो क्या जाता है, जो तुम अपनाआपा भूल जाते हो?"
       राजू एकाएक गम्भीर हो गया। खोई सी उदास आवाज़ में बुदबुदाया - "मां का चेहरा मेरे सामने आ जाता है, भैया! शहर के अस्पताल में जब मां की मृत्यु हुई थी उससे पहली शाम आइसीयू में मां ने इशारे से मुझसे पानी मांगा था। पानी लेकर मैं आगे बढ़ा था कि नर्स ने मुझे रोक दिया। बमुश्किल गीला कॉटन ही मां के होठों पर फेरने दिया था। फिर, अगली सुबह मां की मृत्यु हो गई थी। मुझे अक्सर लगता है कि आख़िरी समय मां को.. मैं पानी तक नहीं पिला सका था।" कहते राजू फफक पड़ा।
       परिवेश में सहसा एक मातमी ख़ामोशी पसर गई थी।****

4. गुरुघर
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इस बार अमृतसर आना हुआ तो, गुरुद्वारा साहब आकर मत्था टेकने का समय उसने निकाल ही लिया। गुरुद्वारे के प्रवेशद्वार के साथ बने जूताघर के सेवादार को, अपने फटकर बदहाल हो रहे जूते सौंपते उसे बहुत संकोच हुआ।
      पवित्र-सरोवर के शीतल जल में स्नान कर वह एकदम तरोताज़ा हो गया। वाकई इस स्थान में  कुछ ऐसा है कि थोड़े समय के लिए ही सही, अपने तमाम रंजोगम वह भूल गया था। गुरु साहब के हुजूर में शीश नवाकर उसने स्वयं में एक स्फूर्ति सी महसूस की। स्वादिष्ट लंगर प्रशाद छककर खाने के बाद बड़ी देर तक वह, शब्दकीर्तन का रसास्वादन भी करता रहा।
      समय का भास होने पर वह उठा। जूताघर से अपने जूते वापिस लिए। नईनई हुई पालिश से इन्हें चमचमाते देखकर एकबार तो पहचान ही नहीं पाया था। फिर..थोड़ी दूरी पर बैठकर जूते पहनते हुए उसने, एक कागज की उपस्थिति अनुभव की। किंचित हैरान होकर उसने मुड़ातुड़ा कागज बाहर निकाला। उसे खोला तो पांच-पांच सौ के दो नोट उसमें से निकल आए।
      कागज पर एक संदेश भी लिखा था - 'बेटा, अपने लिए नए जूते खरीद लेना।' ****

5. अपने अपने टापू
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अपनी मातृभूमि से हजारों किलोमीटर दूर अमेरिका के डेनवर में अपनी नातिन के स्कूल-फंक्शन में वह आया हुआ था।
      सहसा सामने की कुर्सी पर, एक देखे से चेहरे से उसकी नज़रों का सामना हुआ। वह चौंका कि पहली बार वह यहां आया है, यहां उसका परिचित कौन हो सकता है। लेकिन नहीं, दिल ने कहा - वह उसकी चालीस वर्ष पहले की फ्रेंड लूसी ही है। उसने फिर गौर से देखा - वाकई वह लूसी ही थी। उसने भी शायद उसे पहचान लिया था।
      उसे धक्का सा लगा। वक़्त ने उसकी प्रेयसी को कितना बदल डाला था। वह मन ही मन स्वयं पर हंसा। वह स्वयं भी तो कितना बदल गया था। एकाएक लूसी के साथ गुज़रे पल, कितनी ही अंतरंग यादें उसे पुलकित कर गई। फिर अपने कमीनेपन पर उसे क्रोध आया - वह गम्भीरता से कौशिश करता तो वे विवाह कर सकते थे। लूसी ने कितनी बार उसे कहा भी, पर वही उसे टाल जाता रहा। उसे याद आया वह अपने किसी दूर के रिश्तेदार के यहां अमेरिका चली आई थी। फिर वह उसे भूल ही गया। लूसी ने भी कभी सम्पर्क नहीं किया।
     कार्यक्रम की समाप्ति पर आडिटोरियम में मौजूद सभी उठने लगे थे। उसकी नातिन सोफिया के आने में अभी देर थी। जरूर लूसी भी अपने ग्रैंडसन या ग्रैंडडॉटर के साथ आई होगी। फिर भी भावनाओं के वश होकर वह आगे बढ़ा - 'हेलो, आप लूसी ही हो ना..माय लव!'
      'वह लव नहीं, हमारा लस्ट था। मुझसे मिलने की अब कौशिश मत करना' - कहते लूसी एक ओर को बढ़ गई। आगे बढ़ा हुआ उसका हाथ खाली ही रह गया। इतनी हिम्मत उसमें नहीं बची थी कि आगे बढ़कर उसे रोक लेता। 
      बस, खामोश रहते..सूनी-बूढाई आंखों से उसे जाते हुए देखता रहा। ****

6.आत्मीय पल
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गंगटोक भी गज़ब जगह है। अभी कुछ देर पहले तक गुनगुनी धूप खिली हुई थी कि मौसम ने अचानक करवट ले ली। मिनटों में बादल घिर आए और झमाझम बारिश भी शुरू हो गई। अंदर आती फुहारें कहीं टेबल पर रखी चीजें खराब न कर दें, यह ख़्याल आते ही उसने शीघ्र जाकर खुली खिड़की बंद की। 
     बहू-बेटा के बाहर गए होने से, यहां गेस्टहाउस में बस वह और पत्नी ही थे। एक नए विचार ने सहसा उसे रोमांच से भर दिया। पत्नी को सदैव उससे एक ही शिकायत रही कि किचन में हाथ बंटाना उसने कभी पसंद नहीं किया। पर..आज वह कुछ नया करेगा। बस, पत्नी कुछ देर और यों ही सोयी रहे तो अच्छा है। बारिश की इस खूबसूरत शाम चाय-पकोड़े का सरप्राइज पाकर, वह कितनी खुश हो जाएगी! 
     रसोई सम्बन्धी कार्यों की आदत न होने से, समय भी उसे कुछ अधिक ही लगा। देर तक वह जुटा रहा था। पकोड़े तश्तरी में रखने के बाद वह चाय छान रहा था कि पत्नी को किचन में आते देखकर वह हड़बड़ा सा गया, "अरे तुम बालकनी में जाकर बैठो ना, वही मैं तुम्हारे फेवरेट चाय-पकोड़े लेकर आता हूं।"
     "जी, मगर..बारिश तो बंद हो गई।" पत्नी को कहते उसने सुना। एकबारगी वह बुझ गया। लेकिन तभी.. "हाउ स्वीट" कहते पत्नी ने उसे बाहों में भर लिया।****

7.व्यवस्था
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एक बड़ा रेलवे जंक्शन, कई बड़े प्लेटफार्म, दर्जनों ट्रेनें प्रतिदिन वहां से गुजरती थी। हजारों यात्रियों की चहल पहल भी लगातार बनी रहती। यात्रियों की खानेपीने व अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए अनेक रेहड़ियां तथा दुकानें भी थी। लेकिन इनके मालिकों को, व्यवस्था से जैसे एक शिकायत सी बनी रहती।
     भीषण गर्मियों में वहां एक नए स्टेशन अधीक्षक की नियुक्ति हुई।  दुकानदारों के एक प्रतिनिधिमंडल ने पहले ही दिन उसका विशेष स्वागत सत्कार किया। फिर स्टेशन तो बहुत चमकाया गया। पर..जाने क्या हुआ कि सभी वाटरकूलर एकएक कर खराब हो गए। प्लेटफार्मों पर बनी पानी की टूटियां सूखी रहने लगी। गरीब यात्री पानी के लिए इधरउधर भटकने पर विवश हो गए।
      साथ ही, दुकानों पर पैकेज्ड पानी की छोटी-बड़ी बोतलें खूब सजने लगीं। उनकी बिक्री रिकार्ड तेजी से बढ़ी। दुकानदारों को अब कोई शिकायत न थी। ****

8. स्थिति
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बिना मास्क पहने दिहाड़ी की तलाश में निकले उस मरियल मजदूर को सुबह-सवेरे ही धर लिया गया। बेचारा बहुतेरी मिन्नते भी करता रहा कि साहब, देरी हो गई तो दिहाड़ी मिलने की रही-सही संभावना भी जाती रहेगी। लेकिन किसी ने उसे नहीं सुना। उसे चालान कटवाने के लिए कहा गया। जवाब में उसने अपनी खाली जेबें बाहर उलटते हुए हाथ खड़े कर दिए। अंततः उसे जेल भेज दिया गया।
     विडंबना देखिए कि जेल में उसे वह सब मिला जो बाहर हासिल नहीं था। एक मास्क नहीं पहनने के 'अपराध' में जेल भेजे गए उसे न केवल मास्क, बल्कि सेनिटाइजर, ग्लव्स, साबुन..सब फ्री दिया गया। यहां तक कि तीन समय भोजन, चाय और करने के लिए काम भी।****

9. पीढ़ियों की दरकन
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उसके पिता और चाचा दो ही भाई थे। उनमें इतना प्रेम-अपनत्व उसने देखा था जैसे साक्षात राम-लक्ष्मण की जोड़ी हों। पिता के गोलोकवासी होने के बाद भी चाचा का स्नेह पितातुल्य ही बना रहा। इसी प्रेम की डोर के बूते उसकी बिटिया, चाचा के बेटे-बहू के शहर उनके घर में दो सप्ताह रहकर, अपनी एमए की परीक्षाएं भी दे आई थी। बिटिया के लौटने पर भाई को धन्यवाद का फोन किया। बहुत बातें हुईं, मगर..बारम्बार आग्रह के बावजूद 'बहू' फोन पर नहीं आई।
       बिटिया अच्छे अंकों से पास भी हो गई। इस बीच चाचा-चाची से, भाई से.. स्वयं उसकी, पत्नी की, बिटिया की भी, कितनी ही बार बात हुई। पर चाचा की 'बहू' से एकबार भी फोन पर आते नहीं बना। यों ही कई वर्ष व्यतीत हो गए।       
          इस बीच चाचाजी का अनुग्रहपूर्ण संदेश भी कई बार आया कि कभी सपरिवार छोटे चचेरे भाई के शहर भी हो आया करो। इसके पीछे निहित - परिवार को जोड़े रखने की पावन मंशा को वह समझता है। इसके प्रति बहुत सम्मान भी रखता है। मगर चाचाजी की बहू! परिवार से जुड़ाव के प्रति उसकी अनिच्छा को कैसे अनदेखा किया जाए? इसी सप्ताह चाचाजी ने वही नेह-संदेश फिर भेजा है।
        लेकिन बुजुर्ग हो चले प्रिय चाचा का हृदय भी वह नहीं तोड़ सकता। अतः हरबार की तरह उसने यही कहा - जी चाचाजी, जरूर। ****

10. बसेसर बाबू
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टिक..टिक..टिक..टिक..।
घड़ी की सुइयां रात्रि के मौन को भंग करती हुई आगे बढ़ रही हैं। रात्रि के लगभग साढ़े ग्यारह बजे हैं, लेकिन नींद बसेसर बाबू से अभी कोसों दूर है। इस बीच उनकी बूढ़ी हो रही आंखें अंधेरे की कुछ-कुछ अभ्यस्त हो चली हैं। अंधकार के बावजूद कमरे में एक मद्धम सी रौशनी भी है। इसमें वे कमरे में मौजूद एक-एक चीज़ को देख सकते हैं।
      कुछ ऐसी ही रौशनी उनके स्मृति-पटल पर भी कार्य कर रही है। बसेसर बाबू का नौकरी के लिए शहर चले आना..फिर नीरू, मोहन और विजय। पहले माता और फिर वृद्ध पिता का गांव में स्वर्गवास..और उसके बाद तो उन्होने गांव से बिल्कुल ही सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया। गांव की हवेली बेचकर शहर में इस डेढ़ कमरे का जो जुगाड़ बिठाया तो तबसे डेढ़ कमरा ही चला आ रहा है।
       अब तो बच्चे भी बड़े हो चले हैं। नीरू और मोहन तो कालेज जाते हैं। विजय अभी मैट्रिक पढ़ रहा है। और परबतिया..सहसा बसेसर बाबू कोहनियों के बल जरा उठकर, अधलेटे-अधबैठे से होकर बड़ी हसरत से परबतिया को निहारते हैं। नून-तेल के झंझटों ने ऐसा उलझाया कि कब उनके और परबतिया के बीच दो-तीन खाटें और आ बिछी, इसका उन्हें पता ही नहीं चला।
        वे..नीरू,मोहन और  विजय की चारपाईयों के पीछे, दूर कोने में ढीली सी खटिया पर सोई परबतिया को बड़े ध्यान से देखते हैं। क्या यही उनकी बरसों की साथिन है! अचानक कई मधुर यादें उन्हें पुलकित कर जाती हैं। किन्तु अगले ही पल वे उदास हो जाते हैं। वक्त कितना निर्मम है। इंसान को कितना बदल देता है यह। आदमी चाहे लाख शक्तिमान होने का दम भर ले, वक्त के आगे वह खिलौना ही है।
       अचानक वह अपने बैड के साथ लगा स्विच 'आन' कर देते हैं। सारा कमरा दूधिया प्रकाश से नहा उठा है। किसी अजानी आशंका के वश वे तुरंत स्विच 'ऑफ' भी कर देते हैं। शीघ्र ही वे पुन: स्विच 'आन' करते हैं। सोई हुई परबतिया दूधिया प्रकाश में कितनी भली लग रही है। वे एक नजर अपने बच्चों पर डालते हैं। दुनिया मानती है बच्चे वृद्ध माता-पिता का सहारा बनते हैं। हुंह, बकते हैं सबके सब। स्वयं वे कितना सहारा बने अपने मां-बाप का!
      सहसा उनका मन कसैला होने लगा है। उनके हृदय में एकाएक विरक्ति के भाव उमड़ने लगते हैं। फरेब है यह दुनिया। तभी उनकी विचार-शृंखला टूटती है। नीरू ने उन्हे टोका है - 'पापा, आप सोये नहीं अब तक?'
       'बस, सो ही रहा था।' कहते स्विच 'ऑफ' कर वे पुनः सोने का असफल-सा उपक्रम करने लगते हैं। घड़ी की सुइयां अभी भी मंथर गति  से आगे बढ़ रही हैं।
        टिक..टिक..टिक..टिक..। ****

11.जात
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बाजार से लौटा तो कामवाली बाई 'सोना' काम करने आ गई थी। उसकी छह वर्षीय प्यारी सी बिटिया भी आज साथ थी। यों ही ख्याल आया तो झोले से एक आम निकाल कर उसकी ओर बढाते हुए कहा, "लो बच्चे..क्या नाम है तुम्हारा?"
       जाने क्या हुआ उसे कि "मम्मी!" चिल्लाकर दूसरे कमरे में अपनी मां की ओर उसने दौड़ लगा दी। बहुत हैरान-परेशान सा होकर मैंने सोना से पूछा, "अचानक क्या हुआ इसे! यह इस बुरी तरह डरकर कांप क्यों रही है?"
      "वो..साब जी..महीना भर हुआ, इसे अकेली देख कोई झुग्गी में घुस आया था। मुश्किल से बची ये। तबसे मरद जात को देखकर डर जाती! ****
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क्रमांक - 03

जन्म : 05 सितम्बर 1979 रामपुर - उत्तर प्रदेश
माता:श्रीमती सरोज शर्मा
पिता:श्री राम निवास शर्मा
शिक्षा : बी एस सी ,  बी.डी.एस
संप्रति :दंत चिकित्सक

लेखन की विधाएँ :  लघुकथा, कहानी, कविता, यात्रा वृतांत, हाइकु

विशेष : -
अनेक सांझा संकलनों में लघुकथाएं संकलित
अनेक लघुकथा की आडियो रिकार्डिंग

सम्मान : -

सत्य की मशाल द्वारा साहित्य शिरोमणि सम्मान
हरियाणा प्रादेशिक लघुकथा मंच , गुरुग्राम द्वारा लघुकथा मणि सम्मान
लघुकथा शोधकेंद्र भोपाल के दिल्ली अधिवेशन में लघुकथा श्री सम्मान
प्रतिलिपि सम्मान

संपर्क : बी-1/248, यमुना विहार, दिल्ली-110053

1.तलाश
   *****

"क्या कर रहा है यहाँ ?"बंद सीलन भरी गली में उस बूढ़े को देख वो चिल्लाया।
"अपनी बेटी की ओढ़नी ढूँढ रहा हूँ।"बूढ़े ने आँखें और गड़ा दीं।
"यहाँ क्यों?"
" वो कह रही है इसी गली में खोई है ।"
"फिर मिली ?"
"अब तक तो नहीं।सुना है तार-तार कर दी।"
"तू भी पागल है !खोई हुई चीज भी मिलती है कभी।अच्छा बता बेटी यहाँ भेजी ही क्यों थी तूने ?"
"भूख से लड़ने।"
"कौन थे वो ? पता चला कुछ ?"
"हाँ चल गया पता।"
"कौन ! उसने राजदराना अंदाज में पूछा।
"थे इंसानियत के दुश्मन।"
"किसी ने देखा तो होगा ये सब।"
" नहीं ।सब मुर्दा थे।"
"फिर अब क्या ढूँढ रहा है ?टुकड़े हो चुकी होगी।"
"अब इंसानियत ढूँढ रहा हूँ।"
"हा हा हा !अब उसका क्या करेगा?"
"दूसरी बेटी की ओढ़नी बचाऊँगा।पर तू यहाँ क्या कर रहा है ?"
"मैं भी बरसों से वही तलाश रहा हूँ।चल मिल कर ढूँढते हैं।***

2. बदलते दृष्टिकोण
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सुबह-सुबह पूजा के लिए फूल तोड़ती मीनू माँ की आवाज पर रुक गई। वह गुस्से में जोर-ज़ोर से चिल्ला रही थीं। सदा की तरह निशाना भाभी थीं। जल्दी से गुलाब तोड़ अन्दर भागी मीनू।
"क्या हुआ माँ?  इतनी गुस्सा क्यों हो रही हो ?"
"तो और क्या करूँ?बता! इतने दिनों में घर के तौर-तरीके नहीं सीख पाई ये। कोई काम ढंग से नहीं होता इससे। एक तो महारानी जी चाय अब लाई हैं, उसमें भी चीनी कम।" माँ ने गुस्से में ही जबाब दिया।
"माँ मेरी चाय में तो चीनी सही थी, फिर तुम्हें क्यों कम लगी?" मीनू ने प्रश्नवाचक नजरों से भाभी को देखा। "वो दीदी!माँ जी की चाय में ज्यादा चीनी डालने पर आपके भाई नाराज होते हैं। माँ को शुगर है न।" भाभी ने सहमे स्वर में ननद को जबाब दिया।
"बस!सुन लो इसका नया झूठ। अब मुझे मेरे बेटे के खिलाफ भड़का रही है। वो मना करता है इसे!" माँ जी का गुस्सा और बढ़ गया।
"माँ!भाभी ठीक ही तो कह रही हैं। आप डायबिटिक हो। ज्यादा मीठी चाय पीओगी तो आपको ही दिक्कत होगी।"
"अच्छा जी!तो अब ये भी बता दे कि मेरे लिए सब्जी में नमक, मसाले और तेल क्यों नाम का डालती है ? उसमें किसने मना किया है इसे ?" माँ ने व्यंग्य के स्वर में पूछा बेटी से।
"माँ!आप भी जानती हो।हृदय रोगी हो आप और ये सब नुकसान देता है आपको।"
"अच्छा देर तक भी इसीलिए सोती होगी कि जल्दी उठने से मेरी बीमारी बढ़ जायेगी।"
"माँ!क्या देर से उठती हैं भाभी? आजकल कौन उठता है सुबह पाँच बजे! फिर रितु कितनी छोटी है। रातभर जगाती होगी भाभी को।" मीनू ने माँ को समझाना चाहा।
"और क्या दुख हैं इसे!यह भी बता… और तू कब से इसकी इतनी तरफदारी करने लगी! कल तक तो मेरी हाँ में हाँ मिलाती थी!!"माँ ने आश्चर्य से बेटी को देखते हुए कहा।
हाथ में पकड़े गुलाब का काँटा जोर से चुभ गया मीनू के हाथ में। नजरें झुकाकर जबाब दिया, "तब मैं किसी की भाभी नहीं थी माँ।" ****

3. हिजड़ा
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आईने पर नज़र पड़ी तो मैं अचकचा गया।विभिन्न मुखमुद्राओं में सुबह वाला हिजड़ा हर दुकान के आगे नाच गा रहा था। लोग उसके नाचने पर पैसे फेंक कर हँस रहे थे।और वो लोगों से बेपरवाह ताली बजाकर नाच  रहा था।एक घृणा की लहर मेरे चेहरे पर छा गई और मैं पीछे हट गया। "साला हिजड़ा !थू ।"
मैं पीछे मुड़ा तो अब आइने में वो पगली घूमने लगी। फटे चीथड़ों में लोगों की भूखी नजरों से बेपरवाह यहाँ वहाँ घूमती।
"उफ !पूरे बाजार का क्या हाल बना दिया है ?कहीं हिजड़ा ,कहीं पगली।कुछ कपड़े उठाकर मैंने उसके तन पर डाल दिये और दुकान के बाहर की जगह में एक फटी चादर डाल दी उसके सोने को।"
अब मैं आइने से नजर हटाकर आँखें बंद कर सोने की कोशिश करने लगा कि नजर फिर आईने पर चली गई। वो गुंडे टाइप लड़के मेरे सामने चले आये उस निरीह पगली को खींचते हुए।मुझसे रूका नहीं गया।
"अरे कहाँ ले जा रहे हो इसे ?इसे बख्श दो पागल है ये।"
"देखो चाचा! सबने दुकान बंद कर दी।बेहतर है तुम भी करो और चलते बनो।"
"नहीं ! मैं तुम्हें ये पाप नहीं करने दूँगा।"
"देखो तुम्हें चाचा कहते हैं हम।दिन रात का आना जाना है बाजार में।नहीं चाहते खून खराबा हो।"उनमें से एक ने चाकू लहराया।
"नहीं बेटा!मेरे बच्चे बहुत छोटे हैं अभी।लेकिन बेटा पाप है ये ।"मरीमरी सी आवाज निकली
"फिर चुपचाप दुकान में चले जाओ।हमें जो करना है करने दो।पाप-पुण्य हम देख लेंगे।लेकिन हमारे हाथ बहक गये तो तुम कल का सूरज नहीं देख पाओगे।"
मैं डर से दुकान का शटर गिरा अंदर बैठ गया।दिल को समझाया क्या लगती है ये पगली मेरी?ऐसी कितनी ही पगली इन लोगों की भेंट चढ़ती होंगी।
और पगली की कातर चीखों से वो सुनसान रात गूँज उठी।
एक झुरझुरी सी आ गई। ठंड में माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहाई। चीखों की गूँज बढ़ती जा रही थी।गला सूख रहा था। मैंने तेजी से  उठाकर पानी पिया। चीखें बढ़ती ही जा रही थीं। मैंने पानी का  गिलास फेंक कर आईने पर दे मारा।आईना टुकड़े-टुकड़े हो गया।मैं चैन की साँस ले आँखें बंद कर सोने की कोशिश करने लगा कि नजर फिर आईने पर चली गई।अब हर टुकड़े में मेरा अक्स विभिन्न मुख मुद्राओं के साथ ताली बजा बजाकर नाचने लगा।मैंने घृणा से मुँह फेर लिया और जोर से चिल्लाया "साला हिजड़ा!थू।" ***

4. अहल्या
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एक बार फिर अहिल्या इंद्र से छली गई थी।इस बार इंद्र को गौतम ऋषि का चोला ओढ़ने की आवश्यकता नहीं थी।न चंद्रमा को इस बार इस कुकृत्य में भागीदार होना पड़ा।इस युग का इंद्र घर में ही था और अवसर मिलते ही अपनी कुटिल चाल में कामयाब हो गया था।गौतम ऋषि ने एक बार फिर श्राप के लिए मुख खोला कि अहिल्या ने अपने को शीशे की पारदर्शी दीवारों में बंद कर लिया।गौतम ऋषि को ज्ञात हुआ ये अहिल्या भी निर्दोष थी।
अब वो शीशे की दीवार के पार से उसे सिर्फ देख सकते थे।स्पर्श के द्वार इस बार अहिल्या ने बंद किये थे।ऋषि की कोई भी पुकार शीशे के पार से लौट जाती।ऐसे ही समय बीतता रहा। इस बार सजा ऋषि को मिली थी एक निर्दोष को शापमुक्त न करा पाने की।ऐसे ही सालों बीत गये। ऋषि को अपनी अहिल्या को इस शाप से मुक्ति दिलानी थी।उनकी करुन पुकार पर धरती माता प्रकट हुईं।एक कोमल स्नेहिल स्पर्श से अहिल्या की मृगनयनी आँखों से वर्षों से रूकी अश्रुधारा बहने लगी।
"बेटी, तूने अपने को सजा क्यों दे दी?तू पत्थर क्यों बन गई ? बाहर आ बेटी।देख !तेरा गौतम तुझे पुकार रहा। "
"माँ!मैंने सजा मैंने कहाँ दी ?विश्वास की डोर टूटने से हर नारी पत्थर हो जाती है।कितने ही इंद्र आज भी बिना सजा घूम रहे।और पत्थर युग युगान्तर से नारी।ऋषि ने इंद्र को सहस्र आँखों का श्राप न दे सजा दी होती तो पुरुष के रोम रोम में बिंधी ये आँखें आज भी स्त्री को न बेध रही होती और कोई पुरुष उसे पत्थर न बना पाता। " ****

5. आकांक्षा 

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“नन्हीं रूचिका का अभिनय बहुत दमदार रहा। फिल्म में बड़े-बड़े कलाकारों के रहते भी उसने अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी। दर्शकों का मन मोह लिया। उसके नाम की बड़ी चर्चा है। आपको कैसा लग रहा है?” एक टी.वी चैनल का संवाददाता रुचिका की माँ से पूछ रहा था। 

“बेटी की कामयाबी से जो खुशी मिली, उसे बयाँ करना कठिन है। माता-पिता जब बेटा-बेटी के नाम से पहचाने जाते हैं तो उन्हें बहुत गर्व होता है।” शैली ने खुश होते हुए जवाब दिया।  

“अभी रुचिका बहुत छोटी है। वह अपना ध्यान पढ़ाई में लगाएगी या फिर अभिनय जारी रखेगी?”

“पढ़ाई भी करेगी, लेकिन अगर कहीं अच्छी फिल्म में रोल मिला तो जरूर करेगी।”

“शैली जी, क्या मैं रुचिका से बात कर सकता हूँ?”

“हाँ, क्यों नहीं…रुचिका बेटे, जरा इधर आना।”

दूसरे कमरे से रुचिका आई तो संवाददाता बोला, “रुचिका बेटे, कैसी हो?”

“ठीक हूँ अंकल।”

“अच्छा यह बताओ, आपको क्या-क्या अच्छा लगता है?”

“मुझे…रिया, दिया के साथ खेलना, पार्क में जाना और साइकिल चलाना…और खूब सारा पिज्जा खाना बहुत अच्छा लगता है।”

“और आप बड़ी होकर क्या बनना चाहती हो?” संवाददाता ने मुस्कराते हुए पूछा।

“मैं तो टीचर बनूंगी, टीचर न सबको डाँट सकती है…” बोलते हुए उसकी नज़र अपनी माँ की ओर गई तो वह सकपका गई, “…नहीं अंकल…मैं तो न…बड़ी कलाकार बनूँगी, दीपिका जैसी।” घबराते हुए रुचिका अटक-अटक कर बोली।


6. गिद्ध

    *****


"छोड़ो मेरी मम्मी को ।कोई हाथ नहीं लगायेगा मेरी माँ को।"कहते हुए निधि माँ के शरीर से लिपट रोने लगी। 

"निधि बेटी रो मत।होनी को कौन टाल सकता है ?"बड़ी बुआ ने निधि को गले से लगा लिया। निधि के रोने में तेजी आ गई। 

"बेटी!जा कोई नई साड़ी ले आ और नई न हो तो जो  सबसे ज्यादा पसंद थी भाभी को वो साड़ी ले आ। कीमती हो तो संकोच मत करना आखिरी श्रंगार है ये इनका।"बड़ी बुआ  कहती हुई रो पड़ी। 

"लो भाभी अलमारी की चाबी लो। मुझसे ये नहीं होगा।"बड़ी ननद भीगी आँखों से चाबी भाभी को थमाने लगी। 

"दीदी !मुझसे भी नहीं होगा।" 

अचानक छोटी बहू छवि ननद से चाबी छीन कर बोली "मुझे दो चाबी। मुझे पता है वो कहाँ क्या रखती थीं ? मैं निकालूंगी मम्मीजी की पसंद की साड़ी।" 

"ये क्या कर रही है छवि ?अन्दर आकर देख न लें बुआ।"बड़ी बहू प्रीति बोली 

"देखने दो दीदी ।देखने की फिक्र की तो सारा जेवर हाथ से निकल जाना है। ये दोनों बहनें कुछ हाथ नहीं लगने देंगी हमारे।" 

"कह तो तू ठीक रही है। फिर कुछ नहीं मिलेगा हमें।" 

"बहू तुम मम्मी के नहलाने को पानी ले आओ।बाहर ये कौवे इतना शोर क्यों मचा रहे हैं ?" 

"कोई जानवर बाहर मरा पड़ा है बुआ।" 

"ओह ये कौवे और गिद्ध भी न मरा व्यक्ति दौड़े चले आते हैं ।छवि साड़ी जल्दी ला बेटा।"बुआ बोली 

"ये लीजिए बुआजी ।" 

"ये क्या ?जीजी पर इतनी साड़ियाँ थीं ।ये इतनी पुरानी और फीके रंग की क्यों लाई हो ?" 

"ये मम्मी को बहुत पसंद थी।" 

"अभी कुछ दिन पहले जो शादी पहन कर आई थीं वो साड़ी कहाँ है ?वो ही दे दो।अब ये कब इन्हें पहनने आयेंगी प्रीति ?" 

"छवि ।बाहर सब शोर मचा रहे हैं। कोई दूसरी साड़ी दे।"प्रीति बोली 

"दीदी पता है कितनी मँहगी है वो।कह दीजिए नहीं मिल रही ।पता नहीं कहाँ रखी होगी मम्मी ने।" 

"वो नहीं मिल रही बुआ।" प्रीति ने अचकचाते हुए कहा। 

"अच्छा!सोने का टुकड़ा दो मुँह में डालने को और गंगाजल,दही भी साथ ही ले आना। 

"बुआ जी ये लीजिए।" 

"बहू!ये इतना छोटा तार दिखाई भी दे रहा है। जीजी की नाक की नथनी कहाँ है? वही डालते हैं मुँह में।"अब बड़ी चाची थोड़े गुस्से में बोली। 

"लाती हूँ।" 

"छवि ,वो मम्मी की नथ तो दे जो मम्मी के ऊपर से उतारी थी।" 

"दिमाग खराब हो गया है बुआ का दीदी।इतनी भारी नथ मुँह में डाल दें ।और आप भी दीदी क्या आपको नहीं चाहिए जेवर ?" 

"छवि ,चूडियाँ तो मैं ही लूँगी मम्मी की।जा उतार जल्दी मम्मी के हाथ से।कहीं बुआ वही न तोड़ कर डाल दें मुँह में।"अब प्रीति अधीर हुई। 

"कानों के मेरे हुए ।कहे देती हूँ दीदी।वैसे भी वो मुझे बहुत पसंद हैं।"छोटी बहू जल्दी से बोली। 

"ये जेवर हार रखे तो मेरी शादी के लिए थे मम्मी ने।लेकिन आप दोनों को को ज्यादा जरूरत है भाभी।अब साड़ियों का भी बता दो ।"छोटी ननद व्यंग्य से बोली। 

"मम्मी की साड़ियाँ मेरी पसंद की हैं। तो मेरी ही हुई।वैसे भी तुम क्या करोगी ?आजकल की लड़कियाँ कहाँ पहनती हैं साड़ी।" 

"छवि !कुछ मुझे  भी देगी।" 

"हाँ हाँ। सब बाँट लेंगे दीदी आधा आधा।" 

"कहाँ रह गई तुम सब ?देर हो रही है ले जाने में।फिर रात में दाह-संस्कार नहीं होता।"बाहर से बुआ की आवाज आई। 

"छवि!जल्दी कर।" 

"हाँ रूको।देखने तो दे मुझे।कौन सी साड़ी देने से नुकसान कम होगा अपना।" 

बाहर कौवों को शोर बढ़ता जा रहा था।और अन्दर बुआ की आवाज दबती जा रही थी। ****


7.बंद मर्तबान

    *********


आफिस से वापस आ सूरज  दरवाजे पर लगा ताला दूसरी चाबी से  खोल अंदर आया। मेज पर चाय की कैटल रोज के जैसे रखी हुई थी।खोलकर कप में चाय डाली तो साथ में रखी पर्ची पर नजर चली गई।"ये क्या ? खाली चाय पी रहे हो।तुम्हें एसीडिटी हो जाती है  स्नैक्स साथ वाले डब्बे में हैं।"

"ओह धरा कितना ख्याल रखती हो मेरा।" कहते हुए अलमारी खोली।सामने ही एक चिट रखी थी  "डिनर किचिन में रखा है। गर्म करके खा लेना।मेरा इंतजार मत करना।"

"कहाँ चली गई ये आज फिर ? अब घर पर मिलती ही नहीं।"बड़बड़ाते हुए सूरज ने नाइट सूट खींचा कि एक और चिठ्ठी गिर पड़ी।

"वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी के कैंप में  जा रही हूँ ।वापसी कुछ दिनों में ही हो पायेगी।तुम्हें बताना तो चाहा ,लेकिन तुम काफी व्यस्त थे। बताने को मौका ही नहीं मिला।तुम मेरे मैसेज देखते ही नहीं या देख लो तो रिप्लाई नहीं करते इसीलिए चिठ्ठी छोड़कर जा रही हूँ।"

सूरज ने फोन उठाकर धरा का नम्बर डायल किया

"कहाँ हो धरा ?"

"बताया तो सूरज।कैंप में।"

"मेरा सोचा ?"

"हाँ। खाना बाई बना देगी।कपड़े भी धो देगी।"

"खाना,कपड़े !बस यही है क्या जिंदगी में।मैं जो अकेला रह जाऊँगा यहाँ ,उसका क्या ?"

"तुम और अकेले !अकेले कहाँ हो सूरज ? तुम्हारी पूरा आफिस तुम्हारा कम्यूटर सब तो वहीं हैं।समय होता ही कहाँ है तुम्हारे पास ?"

"बंद करो ये कैंप शैंप सब धरा।और घर वापस आ जाओ।"

"बंद ! तुम्हारे कहने पर ही तो शुरू किया है। तुम्हीं कहते थे कि मैं खाली हूँ इसलिए हर वक्त तुम्हें परेशान करती हूँ।"

"ये क्या कह रही हो धरा ?"

"वही जो सच है सूरज।सुबह से शाम तक तुम्हारे लम्बे इंतजार के बाद शाम को मैं सोचती थी अब जरूर कुछ वक्त हम साथ गुजारेंगे ।कई-कई दिन गुजर जाते हैं तुमसे बात किये हुए।

 मेरे मैसेज मेरे फोन मेरा प्यार तुम्हें बँधन लगता है।खैर!तुम्हारे सारे कपड़े अलमारी में लगा दिये हैं।स्नैक्स किचिन में रख दिये हैं ,कुछ दिन चल जायेंगे।चाबियाँ ड्राअर में रखी हैं।और अब आदत डाल लो।मेरी ऐसी ट्रिप होती ही रहेंगी।"

"और तुम्हारी तबियत खराब हो गई वहाँ फिर ? तुम अकसर कहती हो तुम्हें सपने में दिखता है तुम एक बंद मर्तबान में हो और तुम्हारा दम घुट रहा है।कौन सम्हालेगा धरा ?"

"हाँ सूरज ! यह तो मैं बताना ही भूल गई वो सपना अब कब से नहीं आया।"चहकते हुए बोली धरा ।

"उफ धरा ! मुझे चक्कर आ रहे हैं और ऐसा लग रहा है जैसे मैं एक बंद जार में फँस गया हूँ ,मेरा दम घुट रहा है।"और फोन सूरज के हाथ से गिर पड़ा। ****


8.प्रेम-प्यार

   ********


सर्दियों की अलशाम दो जोड़े पाँव समुद्र किनारे रेत पर दौड़े जा रहे थे। लड़की  आगे थी और पीछे भाग   रहा लड़का उसे पकड़ने का प्रयास कर रहा था।

"रूक जाओ रश्मि! इतनी तेज मत भागो, गिर जाओगी।" 

"गिरती हूँ तो गिर जाऊँ, तुम्हें क्या? मैं न भी रहूँगी तो तुम्हें क्या फर्क पड़ेगा? तुम्हें कौनसा मुझसे प्यार है?”" 

"मुझे न सही, तुम्हें तो मुझसे प्यार है। उसी के लिए रूक जाओ।" लड़के ने रश्मि के पास पहुँच उसका हाथ पकड़ते हुए कहा। 

"तुम्हें मुझसे बिलकुल प्यार नहीं है।" लड़की ने अपना हाथ से छुड़ाते हुए कहा।

"ऐसा क्यों कहती हो रश्मि…तुम्हें ऐसा क्यों लगता है?" लड़के ने उसका चेहरा अपने हाथो के प्याले में भरते हुए कहा।

लड़की अपने चेहरे को लड़के के हाथों से आजाद करवाते हुए बोली, "तुमने कभी मेरी तारीफ की है? कभी कहा कि तुम बहुत सुंदर हो, चाँद जैसी लगती हो। कभी कहा कि तुम्हारी नीली आँखें झील-सी गहरी हैं। प्यार होता तो कहते न कि तुम्हारे होंठ गुलाब की पंखुड़ियों-से नाजुक हैं…।”

“रश्मि ऐसी बात नहीं है, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ।” लड़के ने अपनी बात कहनी चाही।

“…मैं तुम्हे अच्छी नहीं लगती हूँ...या फिर कोई और बात है?" कह कर रश्मि लड़के की आँखों को पढ़ने की कोशिश करने लगी। 

लड़के ने इधऱ-उधऱ देखा। फिर लड़की को अपने पास खींचा और उसके चेहरे को हाथों में भरकर निहारने लगा। लड़की जैसे ही कुछ बोलने को हुई उसने अपने होठ उसके होठों पर रख दिये। लड़की कसमसाई। खुद को अलग करती हुई बोली, "मुझे बहलाओ मत।”

लड़की के दोनों हाथों को अपने हाथ में लेते हुए लड़का बोला, "मुझे नहीं पता किन्हें चाँद में महबूब दिखता है या फिर महबूब में चाँद…मुझे तो तुम्हारे सिवाय कहीं कुछ नजर ही नहीं आता... तुम्हारे जैसा कोई नहीं दिखता। जब भी तुम्हे देखता हूँ रश्मि, मेरी साँसे रुकने लगती हैं…शब्द खो जाते हैं। इसीलिए तुमसे कभी कुछ कह नहीं पाता। बस इतना जानता हूँ कि तुम हो तो मैं हूँ, तुम्हारे बिन मैं कुछ नहीं हूँ...!" लड़के की आँखों से खारा पानी बह चला था। ****


9. ममता

    *****


"न जाने कितनी देर में खुलेगा ये फाटक।एक गाड़ी निकल गई लगता है अब  दूसरी आ रही है।"

"हाँ ,लग तो ऐसा ही रहा है।"

ये डुग्गू इतना क्यों रो रहा है तन्वी ?आस -पास वाले सब इधर ही देखने लगे हैं।एक बच्चा नहीं सम्हलता तुमसे।"स्वर में झुँझलाहट स्पष्ट दिख रही थी पीयूष के।

"भूखा है।जो दूध साथ में लाई थी गर्मी से खराब हो गया है।"पत्नी के स्वर में दुख और बेबसी की स्पष्ट झलक थी

"ये रेलवे फाटक भी ऐसी जगह है जहाँ दूर -दूर तक दूध मिलने की सम्भावना नहीं।और फाटक बंद से ये जाम।तुम भी दूध अच्छी तरह गर्म करके नहीं रख सकती थीं जब जानती हो तुम्हारे आँचल में कुदरत ने दूध दिया ही  नहीं तुम्हारे बच्चे के लिए।" सारी खीझ तनु पर उतार दी पीयूष ने।

"रखा तो सही से ही था पीयूष।रास्ते में जाम में ज्यादा ही देर हो गई है।"

"इसको भी भूख से इसी जंगल में रोना था।और तुम क्या यहाँ खिड़की पर खड़ी हो ?जाओ यहाँ से।चले आते हैं न जाने कहाँ से भिखारी ।"

"कुछ मेरे बच्चे को दे दो बाबूजी।भगवान तुम्हारा भला करेंगे।"कार की खिड़की पर बच्चे को गोद में लिए वो भिखारन अब भी रिरिया रही थी।

"चलो हटो।वैसे ही दिमाग खराब हो रहा है।जाओ आगे बढ़ो।"पीयूष गुस्से में बोला।

"बीबीजी ये मुन्ना क्यों रो रहा है इतना ? शायद भूख से।"बुरी तरह फटकार खाकर भी कदम ठिठक गये उस भिखारिन के।

"हा भूखा ही है।"पीयूष के गुस्से से डरती हुई तनु ने जबाब दिया

"तुम गयी नहीं अब तक।और ये क्या कर लेगी तनु जो तुम इसको बता रही हो।खुद भीख माँग रही है ,तुम्हारी क्या मदद करेगी ?"हिकारत से बोला पीयूष।

भिखारिन अब तिरस्कार से भर उठी फिर भी अनसुनी कर बोली "बहन मुन्ने को मुझे दे दो।मैने आपकी बातें सुन ली हैं।मेरे आँचल में दूध है इसके लिए।"

"ये इस भिखारिन का दूध पियेगा तनु ?"पीयूष गुस्से से बोला

तनु ने अनसुनी कर कार का दरवाजा खोल उसे बुला लिया।संतृप्ति के भाव से अब मुन्ना मुस्कुरा दिया।भिखारिन कार से उतर चुपचाप आगे चल दी।

"सुनो ये लो ।"

"ये क्या साहब ? पैसे पर एक दृष्टि डालते हुए उस भिखारिन ने कहा

"रख लो ,तुम्हारे काम आयेंगे।"

"साहब किसी दूसरे गरीब को दे दीजिए। माँ की ममता का कोई मोल नहीं होता।" ****


10. पूजा

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नये साल की वह पहली सुबह जैसे बर्फानी पानी में नहा कर आई थी ।10 बज चुके थे पर सूर्यदेव अब तक धुंध का धवल कंबल ओढ़े आराम फरमा रहे थे ।अनु ने पूजा की थाली तैयार की और ननद  के कमरे में झांक कर कहा," नेहा! प्लीज नोनू सो रहा है ,उसका ध्यान  रखना।मैं मंदिर जा कर आती हूँ ।"

  शीत लहर के तमाचे खाते और ठिठुरते हुए  उसने मंदिर  वाले पथ पर पग धरे ही थे कि  उसके पैरों को जैसे जकड़ लिया  एक बच्चे ने।उम्र में उसके नोनू से कुछ ही बड़ा था।शीत की इस कंपकंपाती सर्दी में जहाँ इस उम्र के संभ्रांत घरानों के बच्चे रजाइयों में दुबके ब्लोअर की गरमाहट ले रहे थे वहीं ये कमजोर सा बच्चा तन पर नाममात्र के कपड़े पहने हुए अनु की पूजा की थाली से  कुछ खाने को माँग रहा था।देखकर ही प्रतीत हो रहा था उस बच्चे को कई दिनों से पेटभर कर कुछ खाने को नहीं मिला है।पूजा की थाली में रंग-बिरंगे फल ,मिठाइयाँ और लोटे में रखा दूध वो ललचाई नजरों से देख रहा था।सामने से संभ्रांत घराने की एक महिला लगभग धक्का देकर उस बच्चे को अनु से दूर करने लगी।

"अरे हट।न जात का पता न बिरादरी का।सारा दिन आने जाने वालों को तंग करता है।जाइये बहिनजी पूजा कीजिए ,भगवान को झूठा चढायेंगी क्या ? आप शायद पहली बार आयी हैं इस मंदिर में। इसका रोज का काम है पूजा करने वाले व्यक्तियों को परेशान करना।"

अनु ने सामने मन्दिर में भगवान को देखा फिर उस निरीह बालक को।पूजा की थाली से सारा प्रसाद बच्चे को दे दिया।

"आराम से खाओ बेटा।"अनु के मुख पर स्नेह के भाव उमड़ आये

"ये क्या किया आपने ? भगवान को भोग लगाये बिना पुजारी के स्थान पर इसे खाना।पाप लगेगा आपको।"वो महिला अनु से बोली

"कोई बात नहीं।ये पाप है तो ये पाप मैं रोज करने को तैयार हूँ।आप जाइये कहीं देरी से पूजा पर आपके भगवान न रूठ जाये।"अनु मुस्कुराते हुये बोली ! ****

11. स्त्रीत्व

       *****

वह  अकेली  उदास  अपने कमरे में  बैठी एकटक बाहर निहार रही थी। परिवार के दबाब में पति ब्याह तो लाया था उसे, पर शादी की रात ही उसे छोड़ प्रेमिका के साथ रहने चला गया था। 

सास ने नसीहत की  पोटली उसके  दामन से बाँध  दी थी— ‘पति छोड़ गया तो  क्या, तू  ब्याहता  औरत  है, मर्यादा में रहना होगा।’ 

तब से आज तक अपनी स्त्रियोचित इच्छाओं  और संवेदनाओं  को मार सबकी सेवा कर रही थी। बाहर लाल फूलों से परिपूर्ण टेसू की डालियाँ जैसे एक-दूसरे के साथ आलिंगनबद्ध हो मुस्कुरा रही थीं।  भँवरे कलियों पर डोल रहे थे। हवा में फूलों की मादकता बिखर रही थी। पास के कमरे से देवर-देवरानी  की  चुहुल  की आवाजों से उसके चेहरे पर उदासी के रंग गहरा रहे थे। 

देवर के मित्र एक बार फिर से सवाली बन बाहर आँगन में आ खड़े हुए थे। सासु-माँ ने गुस्से  में लाल  हो उन पर अपने व्यंग्य-बाण बरसाने शुरू कर दिए।  उसने हिम्मत की और  कमरे से बाहर निकल आई। अमित का  हाथ थाम उसने घर की देहरी तक कदम बढ़ाए ही थे कि  सासु-माँ की गुस्से भरी आवाज गूँजी,  "रूक जा बहू! शर्म कर, किसी की ब्याहता है…?" 

"किस बात की शर्म? अमित ने तो हाथ माँगा है मेरा आपसे…और किसकी  ब्याहता बता रही हैं मुझे? उसकी, जो पहली रात ही अपनी प्रेमिका के साथ रहने चला गया।" 

"वो  पुरुष है  और तू  स्त्री!  मर्यादा और  पवित्रता का पालन करना तेरा धर्म है।" सास की  रौबीली  आवाज गूँजी।" 

"माँ जी! एक उमीद के साथ बहुत दिनों तक कर लिया मर्यादा का पालन। अब तो मेरे लिए अपने स्त्रीत्व की रक्षा ही सब से बड़ा धर्म है। मर्यादा का पाठ अपने बेटे को पढ़ाना था।" 

और वह अमित का हाथ पकड़ देहरी पार कर गई। ***

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क्रमांक - 04

जन्म : 10 जुलाई, 1964
जन्म स्थान : मैनपुरी - उत्तर प्रदेश

शिक्षा : एम. ए. (अंग्रेजी-हिन्दी) ’सत्तरोत्तरी हिन्दी कहानियों में नारी’ विषय पर पी.एच.डी

प्रकाशन : लगभग सभी छोटी, बड़ी और स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां, लघुकथाएं, कविताएं, लेख आदि प्रकाशित।

मौलिक पुस्तकें : 4 कहानी संग्रह-पथराई आंखों के सपने, साजिश, मजबूर और रिश्ते तथा 6 लघुकथा संग्रह - महावर, वचन, सुराही, दिदिया, इंतजार,100 लघुकथाओं का संग्रह तथा 64 दलित लघुकथाएं एवं कविता संग्रह - विद्रोह प्रकाशित।

सम्पादन : कविता संग्रह-वृंदा तथा कहानी संग्रह 18 कहानियां 18 कहानीकार

विशेष : -
1. विभिन्न रचनाएँ पुरष्कृत एवं आकाशवाणी से प्रसारण

2. एक हजार से अधिक लघुकथाएं 180 से अधिक कहानियां और 300 से अधिक कविताएं लिखीं।

3.  उड़िया/मराठी/पंजाबी/बंगला/उर्दू/अंग्रेजी आदि में विभिन्न रचनाओं का अनुवाद प्रकाशित।
 
4. पुरस्कार/सम्मान : विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थाओं द्वारा अनेक सम्मान और पुरस्कार।

5. हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा कहानी नरेशा की अम्मा उर्फ भजोरिया पर श्रीराम सेंटर दिल्ली में नाट्य मंचन का आयोजन

संप्रति : भारत सरकार में प्रथम श्रेणी अधिकारी

संपर्क  240, बाबा फरीदपुरी, वेस्ट पटेल नगर,नई दिल्ली-110008

1.कांवड़िया
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       बद्री का इस दुनियां में उसकी मां के अलावा और कोई नहीं था। और वही मां बहुत बीमार थी आज। अपनी मां को बीमार देख बद्री बिलबिलाने लगा था, ‘‘मां तुम थोड़ी सी हिम्मत करो। तुम साइकिल के कैरियर पर बैठ जाना। मैं तुम्हें अच्छे डाक्टर के पास दिखाने ले चलूँगा.........शहर।’’ इतना कहकर उसने अपनी मां को साइकिल के कैरियर पर बैठा लिया था और अपने गांव से शहर की ओर चल दिया था।
       जैसे ही गांव के कच्चे रास्ते से शहर की सड़क पर आया तो सन्न रह गया था बद्री। सड़क बंद थी। महादेव भोले के भक्त कांवड़ लिए जा रहे थे इसलिए समाजसेवियों और धर्मावलम्बियों ने रास्ता बंद कर दिया था ताकि कांवड़ियों को किसी भी तरह की असुविधा न हो। इतना ही नहीं उनके लिए रास्ते में ही उनके खाने-पीने ठहरने के लिए शिविर भी लगाए गए थे। बद्री परेशान होने लगा था। उसने मां को साइकिल पर बैठाकर धीरे-धीरे चलना शुरू किया ही था कि................................एक कांवड़िया से बीमार मां का पैर छू गया था दरअसल हुआ यह था कि उस कांवड़ियाँ ने शिविर से लेकर थोड़ी सी भांग चख ली थी इसलिए उसके पैर लड़खड़ा रहे थे और वह बीमार मां के पैर से छू गया था।
       ‘‘तूने मुझे अपवित्र कर दिया नीच.......।’’ कांवड़िया बीमार मां को लिए जा रहे उसके बेटे से बोला था।
       ‘‘मुझसे गलती हो गई क्षमा कर दीजिए’’ मां की बीमारी से व्यथित बद्री बोला था।
       ‘‘क्षमा कैसी। जब तुझे पता है कि यह रास्ता हम लोगों के लिए है तो तू इससे आया ही क्यों?’’ दूसरा कांवड़िया बोला था -
       ‘‘मां बहुत बीमार है........डाक्टर के पास ले जाना था.........जल्दी थी................मुझसे गलती हो गई।’’ वह गिड़गिड़ाया था।
       ‘‘तेरी गलती तो मैं निकालता हूँ........।’’ इतना कहकर कांवड़ियों के साथ चल रहा एक अन्य कांवड़िया अपनी कांवड़, वहीं कांवड़ रखने के लिए सुरक्षित स्थान पर रखकर ,बद्री पर पिल पड़ा था।  फिर क्या था जो भी भगवान महादेव का भक्त निकलता बद्री पर लात घूँसा बरसाने लगता था। बद्री को पिटते देख मां अपनी बीमारी भूलकर उसके पास पहुँचना चाह रही थी कि किसी ने उसे एक तरफ फेंक दिया था। तभी किसी कावंड़िया ने बद्री के मुंह पर लात दे मारी थी। लात के लगते ही बद्री के मंुह से खून की धारा बहने लगी थी। फड़फड़ाने लगा था बद्री। तभी ताण्डव करते कांवड़ियाँ अपनी-अपनी कांवड़ उठाकर चलने लगे थे। मां बद्री के पास घिसट-घिसट कर पहुंच गई थी। बद्री का शरीर उसका साथ छोड़ने लगा था। मां ने अपने बेटे का सिर अपनी गोद में रख लिया था कि बद्री ने आंखे खोल दी थी, ‘‘मां.....मैं......तेरे....लिए..मां मैं तुझे..............डाक्टर..............के पास नहीं...............। मां मुझे मां...........फ..........क........।’’ एक बार खुली आंखे फिर बंद नहीं हुई थी।
       मंा रोई नहीं थी। अपलक अपने बेटे को निहारती रही थी और देखते ही देखते उसी के ऊपर ही झुक गई थी।
       कांवड़ियों के पांव में बंधे घुंघुरूओं और ‘जय भोले....जय भोले’ की आवाज अब भी हवाओं में गूंज रही थी। ***

2. महाकाली
     ********

       भव्य मंदिर और मंदिर में भगवानों की साक्षात् प्रतिमाएं और उन प्रतिमाओं में स्वयं को लीन किए पुजारी सच्चिदानंद महाराज­­, लोगों की आस्था और विश्वास के प्रतीक, धर्म का प्रतिबिम्ब।
       बड़े-बड़े नेता, अभिनेता, दानवीर और डाॅन, तो माफिया से लेकर धनी और निर्धन, भगवानों में कितनी श्रद्धा कोई नहीं जानता लेकिन पुजारी के लिए अपना सर्वस्व अर्पण करने वाले लोगों का तांता लगा रहता था।
       पुजारी जी का वरदहस्त जिस पर उठता मानो धन्य हो जाता था। पुजारी जी थूकते तो उनके थूक को लोग अंजुली में भर लेते मानो स्वर्ग से अमृत वर्षा हो रही हो।
       सोमवार से शनिवार तक पुजारी जी अपने भक्तों के लिए आशीर्वाद देने को तत्पर रहते थे लेकिन...............लेकिन।
       रविवार के दिन मंदिर बंद रहता। मंदिर के गर्भगृह में ही पुजारी जी की लीलाएं होतीं। मांस, मदिरा के साथ-साथ कन्या या लड़की लायी जाती लगता मानो कन्या को वरदान मिल रहा हो। कन्या अपने को धन्य मानती।
       यह क्रम अविरल चल रहा था।
   उस दिन दुर्भाग्यवश, कन्या का प्रबंधन न हो सका था तो भक्त अत्यंत गरीब ,निर्धन की कन्या को पकड़ लाए थे। पुजारी जी के चहेतों ने उसे परोस दिया था उनके सामने। गिड़गिड़ाती रही थी बेचारी लेकिन पुजारी जी तो पुजारी ठहरे आशीर्वाद दिए बिना कहा मांनते । तभी न जाने क्या सूझी उस कन्या को कि उसने मां की प्रतिमा के हाथों में लगी तलवार खींच ली थी और एक ही वार में वासना की आग में अंधे पुजारी जी का लिंग काट लिया था। पुजारी जी फड़फड़ाने लगे थे और उनके मुंह से चीख निकल गई थी। तभी उनके चहेते भागते हुए चले आए थे।
       बेबस लड़की के हाथ में तलवार देखकर भौचक्के रह गए थे सभी। उसकी आंखों में क्रोध था, विद्रोह था और बदला लेने का इरादा । सभी एक साथ चिल्लाए थे ‘देखो यह तो महाकाली है।........................नहीं..............नहीं इस पर महाकाली की सवारी आ गई है।
       लड़की चकित थी। एक ही पल में पीड़ा से फड़फड़ाते पुजारी जी को न जाने कहां गायब कर दिया गया था। सभी लड़की को महाकाली-महाकाली पुकारे चले जा रहे थे। ***
       

3. भूत
   ****

       बाबा बहुत मेहनत करते थे लेकिन जमींदार बेगार तो करवाता था, पैसे नहीं देता था। कभी-कभार दे दिए तो ठीक नहीं तो नहीं। उन्हीं पैसों से किसी तरह गुजर होती थी।
       एक दिन दोपहर को मैंने मां से कहा,‘‘बहुत भूख लगी है।’’
       मां कुछ नहीं बोली उसने मिट्टी के बरतन उलट कर दिखा दिए थे।
       मेरी भूख और तेज हो गई थी। भूख के तेज होते ही मस्तिष्क भी तेज हो गया था। पास ही श्मशान घाट था जहां बड़े .बडे लोग अपने बच्चों को भूत-पे्रत से बचाने के लिए नारियल, सूखा गोला पूरी-खीर कई बार मिष्ठान भी रख आते थे। यह सब काम दोपहर में होता था या फिर आधी रात को।
       मैं श्मशान घाट चल दिया था। संयोग से वहां खीर पूरी और सूखा गोला रखा था। गोले पर सिंदूर और रोली लगी थी। मैंने इधर-उधर देखा। कोई नहीं था। मैंने जल्दी-जल्दी आधी खीर पूरी खा ली थी और गोला झाड़ पोंछकर अपनी जेब में रख लिया। आधी खीर पूरी लेकर मैं घर आया था। मेरा चेहरा चमक रहा था।
       चमकते चेहरे को देखकर मां ने पूछा, ‘भूख से भी चेहरा चमकता है क्या­। तू इतना खुश क्यों हैं?
       मैंने बची हुई आधी खीर-पूरी मां के आगे कर दी थी। मां सब कुछ समझ गई थी। मां की आंखें छलक गई थी और उसने मुझे अपने आंचल में छिपा लिया था मानो भूत से बचा रही हो कि उसके होंठ फड़फड़ाने लगे थे, ‘भूत, भूख से बड़ा थोड़े ही होता है।’
       मैं कुछ नहीं समझा था। मैं मां के आंचल में और छिपता चला गया था। ***
       
4. इंतजार
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             राजकुमार का बहुत  बडा घर है जिसमें दस कमरें हैं जिन्हें उसने किराए पर उठा दिया है । एक कमरे में उसका बेटा दूसरे में बेटी और उसके साथ वाले में वह और उसकी पत्नी रहते हैं । नीचे ड्राइंग रुम है और उसके ठीक पास वाले कमरे में बाबूजी अर्थात राजकुमार के पिताजी रहते हैं पिताजी बुजुर्ग हैं और कभी भी भगवान को प्यारे हो  सकते हैं ।
              आज सुवह एक आदमी आया था राजकुमार के घर । आपके यहां कोई कमरा खाली है । आपकी बड़ी तारीफ सुनी है। सुना है आप किराएदारों को घर के सदस्यों की तरह रखते हैं। आपके यहां कमरा मिल जाता तो बडी मुश्किल टल जाती । वह आदमी बोला था ।
             राजकुमार ने अपने बाबूजी वाले कमरे की ओर देखकर उस आदमी से कहा था, देखो पास वाला कमरा खाली हो सकता है । बाबूजी की तवियत ठीक नहीं ंरहती । उम्र भी ज्यादा है। जैसे ही वे . . . . . हम आपको यह कमरा दे देंगे । आप चाहें तो एडवांस दे दें।
            बाबूजी ने पास वाले कमरे से अपने बेटे की बातें  सुन ली थी  जो उनकी मृत्यु का इंतजार कर रहा था । उनकी आखें झर झर कर झरने लगीं थीं । ****


5.भिखारिन    
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    आज की  क्लासेज अब  समाप्त की जाती हैं और कल सभी एक भिखारिन का चित्र बनाएंगे । यह निर्देश देते हुए कादरी साहव ने क्लास समाप्त कर दी थी और चले गए थे । दरअसल बैचलर आफ फाइन आर्ट के अंतिम वर्ष के छात्रों की क्लासेज थीं । पलाश भी इसी क्लास का छात्र है । अपनी पिछली कक्षाओं में सर्वोत्तम आने वाले पलाश की दुनियां में सिर्फ मां ही है जो लोगों के घरों में झाडू पोंछा करके उसे पढा रही है । पलाश अपने हास्टल आया और कुछ देर आराम करने के पश्चात किसी भिखारिन की तलाश में निकल गया था  । संयोग से  , उसे चैराहे से आती हुई एक भिखारिन दिखाई दी थी।
        आप मेरे हास्टल चलेंगी । मैं आपका चित्र बनाउंगा । अपना उददेश्य पलाश ने  भिखारिन के समक्ष रख दिया था । हां, भिखारिन ने कहा और  फिर उसकी तरफ देखते हुए बोली थी ,तीन दिन से भूखी हूं । बहू बेटे ने घर से निकाल दिया है , खाना खिला दोगे । पलाश बोला था, खाना भी खिलाएंगे और पैसे भी देगें ।
      भिखारिन खुश हो गयी थी और उसके पीछे-पीछे चलने लगी थी । हाॅस्टल आकर पलाश ने केनवास,कागज और पेन्सिल लेकर भिखारिन का चित्र बनाना शुरू कर दिया था ।
      भिखारिन एक हाथ में कटोरा लिए दूसरे हाथ में लाठी थामे खड़ी थी । पूरे तीन घन्टे में चित्र पूरा कर पाया था, पलाश । अपना चित्र पूरा बना लेने के बाद, पलाश खुश था और उसके मुंह से अनायस ही निकल गया था .,डन , द बेस्ट ।
      फिर उसने भिखारिन की ओर देखा तो सन्न रह गया था । भिखारिन के हाथ में पकड़ा हुआ कटोरा उसकी अगुलियों में भिंच गया था । दूसरे हाथ में पकड़ी हुई लाठी पर अंगुलियों की पकड़ बहुत मजबूत हो गयी थी ! आंखे खुली की खुली रह गयी थी । पलाश ने उस भिखारिन को छुआ तो वह पलाश पर ही हर हराकर गिर पड़ी थी । शायद भिखारिन मर गयी थी । उसके मुहं से चीख निकल गई थी , मां   - - ।
      केनवास पर पलाश की बनाई गयी भिखारिन, अब भी भीख मांग रही थी ! ****



6.ज्ञानाश्रय
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        शहर के बीचों बीच मेें सत्संग स्थल था । अरबों खरबों की जगह में सुसज्जित सत्संग स्थल ज्ञान ,धर्म और प्रज्ञा की मानेा त्रिवेणी थी। इस सत्संग स्थल पर श्री श्री 108 श्री परमानंद जी महाराज रोज प्रवचन दिया करते थे । लोग उनके प्रवचन सुनकर अपना इहिलोक और परलोक संवारने में लगे हुए थे ।
         मैं भी अपनों का ठुकराया हुआ सत्संग स्थल पर पहुंच गया था । श्री श्री 108 श्री परमानंद जी महाराज का प्रवचन चल रहा था । मैं भी वहीं पीछे बैठकर सुनने लगा था ।
        जब प्रवचन समाप्त हुआ तो सभी लोग अपने - अपने घरेंा को चले गए थे । मैं कहां जाता मेरा तो कोई घर ही नहीं था ।
          तूं यहां क्यों बैठा है , सत्संग तो समाप्त हुआ । जा - जा अपने घर । एक बहुत ही सभ्य दिखने वाले व्यक्ति ने मुझे दुत्कारा था ।
           मेरा कोई घर नहीं है ंअपनों का ठुकराया हुआ हूं । मुझे कुछ काम दे दो। यहीं पडा रहूंगा महात्मा जी के चरणों में जीवन व्यतीत करने की इच्छा है । मैंने याचना की थी ।
          उस व्यक्ति को मुझ पर दया आ गई थी और मुझे शौचालय साफ करने का काम मिल गया था। मैं खुश था ।
          अगले दिन  , सुबह ही।
           मैं महिला शौचालय साफ कर रहा था कि मेरी आंखें खुली की खुली रह र्गइं थीं । पूरा शौचालय उपयोग किए गए कंडोमों से पटा पडा था । ****

 
7.ब्लेकमेल
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              मैं और परमानंद चैबे साथ-साथ ंस्कूल जाते ,साथ -साथ खेलते और साथ -साथ पढ़ते थे । इतना ही नहीे साथ -साथ खाते भी थे । परमानंद अच्छी - अच्छी सब्जी रोज लाता  और मैं भी रोज नई - नई सब्जियां लाता,फर्क सिर्फ इतना होता कि परमानंद की सब्जी रोज ताजी होती और मेरी बासी क्योंकि मेरी मां जिन लोगों के  घरेां में पाखाने साफ किया करती वही लोग बासी या रखी हुई सब्जी मेरी मां को दे देते थे और मां वही सब्जी मेरे टिफिन में रख देती थी । परमानंद मेरी सब्जी खाते समय हमेशा यही कहता , यार मलघोटा, मैं तेरी सब्जी खाता हूं ,तूं यह बात मेरी मां से कभी मत कहना, नहीं तो वह मुझे बहुत मारेगी ।
          मैंने सब्जी वाली बात उसकी मां से कभी नहीं कही।
 तभी एक दिन , हम दोनों में किसी बात पर लड़ाई हो गई । परमानंद शरीर से हृष्ट-पुष्ट था सो उसने मुझे खूब उधेड़ा । मैं बिलबिलाता रहा । अचाानक मुझे ज्ञान प्राप्त हो गया , साले मार ले ,आज तेरी अम्मा से कहूंगा कि तूं रोज मेरी सब्जी खाता है फिर देखना............ हां।
   बस फिर क्या था , परमानंद चैबे पीठ खेाले मेरे सामने खड़ा था । ****


8. काका  ! मेरा मोबाइल खो गया है
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      अम्मा और पिताजी , बड़े भइया के पास ही रहते थे । मैं अपने घर से बहुत दूर नौकरी पर आ गया था । अम्मा तो बड़ी बहू और उसके बच्चोें में समा गई थी । पिताजी को बाहर वाली कुठरिया दे दी गई थी । घर छोटा नहीं था । हम दोनों भाइयों का घर था । मेरे हिस्से के घर में किराएदार बसा दिए गए थे । किराएदारों से जो पैसा आता था अम्मा उस पैसे से अपनी गांठ पक्की करती थीं । पिताजी बाहरवाली कुठरिया में ही रहते थे । अम्मा को उनकी कोई चिंता नहीं थी । बच्चे खाना दे आतेे तो ठीक और नहीं दे आते तो और ठीक ।  
       मुझे पिताजी बहुत याद आतेे । वह मेरे लिए आज भी आदर्श पिता हैं और तब भी थे जब मैं पढ़ता था । अम्मा उनसे कब प्यार से बोली होंगीं, मुझे ज्ञात नहीं ,हमेशा यही कहतीं , ................हाय राम बड़े जिद्दी थे तेरे बापू जो ठान लेते वही करके मानते , एैसी भी जिद किस काम की । मंै अम्मा को देखता रहता और गुस्सा भी होता था ।
       अपने घर से कोसों दूर , अपने पिता के जीवन संघर्ष को याद करता तो मन होता कि फोन पर बात करूं । फोन मिलाता और पूछता .........पिताजी से बात करना चाहता हंू।
       कभी- कभी अम्मा से भी बात कर लिया कर । कोख में तो मैंने ही रखा है तुझे । अम्मा खिसियाती ।
       आप से तो बात कर ही रहा हूं ........पिताजी से बात करा दो न । मानो कोई अबोध बालक खिलौना मांगने की जिद कर हो ।
       उन्हें क्या हुआ.......और उन्हें होगा भी क्या .......खूब खाते हैं .......सांड़ पड़ रहे हैं... होंगे यहीं कहीं .......देख रहे होंगे किसी को । फिर मुझसे कहतीं ,रूक अभी कराती हूं बात तेरे बापू से .......। और फिर मैं होल्ड किए रहता । कभी बात होती - कभी नहीं । मैं तड़प जाता था।              
       फिर एक दिन मैं छुट्टी लेकर घर चला गया था । अम्मा ने पिताजी की बुराइयों का ढेर मेरे सामने लगा दिया था । बड़े भइया अम्मा का साथ देते और पिताजी अकेले, बिल्कुल अकेले ।
       मैंने पिताजी से कहा था , चलो ...... आप मेरे साथ रहना .....।
       उन्होंने मेरे माथे को चूमते हुए कहा था , नहीं राघव , मैं यहां पैदा हुआ हूं यहीं मरना चाहूंगा । हां इतना जरूर है मेरे मरने पर तूं आना जरूर .......। और कहते- कहते उनकी आंखों से दो मोती गिरे थे और मेरे माथे पर बहने लगे थे  ।
       क्या पिताजी आप भी न.............। बस इतना ही तो कह पाया था म्ंौं और उनके दामन में अपना सिर छिपाकर खूब रोया था । तभी न जाने कहां से अम्मा आ गई थीं , क्यों रूला रहे हो उसे .......दो एक दिन के लिए आया है ........सारी झूठी- सांची लगा रहे होंगे .......... कतई शर्म नहीं है ............ वह घर से बाहर रहता है , यह तो नहीं कि उसे प्यार देते- रूलाने बैठ गए ........ प्यार .....प्यार तो इनके पास था ही कब जो यह दे पाते ..........। अम्मा और न जाने क्या -  क्या कहती रहीं थीं । बाद में चली गई थीं ।
       मां के चले जाने के बाद  पिताजी स्वयं को अपराधी की तरह मान रहे थे ।
       पिताजी मेरी एक बात सुनो । मैने उनकी तरफ देखा था ।
       ............... कुछ नहीं बोले थे पिताजी ।
           मेरा यह मोबाइल रख लो । कुछ पैसे मैं दिए जा रहा हूं और हर महीने भेज दिया करूंगा । आप से बात हो जाया करेगी । और मैने उन्हें अपना मोबाइल दे दिया था ।  
                  पिताजी मोबाइल से किसी खिलौने की तरह खेलने लगे थे मानो कोई बच्चा खिलौना मिलने से खुश हो गया हो ।
      मैं वापिस अपनी ड्यूटी पर आ गया था, मेरा जब भी मन होता , मैं फोन पर बात कर लेता।
      पिताजी खुश हो - होकर बातें करते थे । बातें भी जाने कहां कहां  की- बेटा ये बात ....बेटा वो बात ..........। मजे की बात यह थी कि अपनी बातों में पिताजी कभी किसी की बुराई नहीं करते थे ......बस हमेशा अपने अतीत की पूरी कहानी बताते थे । मैं अब उन्हें और अधिक पैसे भेजने लगा था ।
    एक दिन मैने उन्हें फोन किया था । उनका मोबाइल लगातार बजे जा रहा था । मैंने कई बार मिलाया ...............बजता ही रहा । मेरे मन में शंका घनी होने लगी थी । मैंने घर पर फोन मिलाया । फोन पर अम्मा थीं । अम्मा हमेशा फोन पर ही रहती थीं मानेा उनकी ड्यूटी ही फोन पर हो ।
        अम्मा घण्टे भर से पिताजी को मोबाइल लगा रहा हूं फोन बजता है और कट जाता है..............सब ठीक तो है ........पिताजी ठीक तो हैं । मैं बिलबिला रहा था ।
         ठीक तो हैं से क्या मतलब .......मर थेाड़े ही गए हैं तेरे पिताजी.....बैठे हांेगे गप्पों में अपने यार दोस्तों के साथ । अम्मा बोली थीं ।
          मुझे अम्मा पर गुस्सा आया था और पहली बार उन पर पर चीखा था , जाओ अभी .......और पिताजी को देखेा ......सब ठीक तो है ।
       अम्मा शायद सहम गई थीं । फोन बंद हो गया था ।
      ठीक पंन्द्रह मिनट बाद फोन आया था ............ पिताजी नहीं रहे ।
   बाद में पता चला कि पिताजी तो रात में ही भगवान को प्यारे हो गए थे जबकि मैंने तो दोपहर में फोन किया था ।
         मैंने अपने कुछ कपड़े समेटे और चलने को हुआ तो मेरे नौकर दीनू काका ने पूछा था  ,......साहव धीरज रखना ...... और हां ..........आपके पास आपका एक मोबाइल था, बड़े दिनों से दिखाई नहीं देता ......।
      काका , ...........मेरा मोबाइल हमेशा- हमेशा के लिए  खेा गया है । मेरे होंठ फड़फड़ाए थे । दीनू काका क्या समझे क्या नहीं -मैं नहीं जानता ।
     हां - मैं आज भी अपने मोबाइल को ढूढता हूं , मिलता ही नहीं ।  ****

9.बाजरे की रोटी
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   लंच शुरू हो गया था । रणवीर ठाकुर, जितेन्द्र मिश्रा और राजीव गुप्ता साथ-साथ खाना खा रहे थे । ये सभी लोग मेरे असिस्टेंट हैं ।
  यार पालक पनीर तो बहुत सुंदर बना है । बड़ा टेस्टी है । राजीव गुप्ता खाने में बहुत माहिर है ।
  पनीर असल में , पालक के साथ थेाड़ा और होना चाहिए था तब मजा आता । जितेन्द्र मिश्रा  को हर चीज थेाड़ी और चाहिए होती है ।
  पालक के साथ मक्का की रोटी बहुत अच्छी लगती है । जब गांव में था ......... लेकिन अब क्या इस शहर में आकर सबकुछ ...........। रणवीर ठाकुर रह जरूर दिल्ली में रहा है लेकिन उसका मन हमेशा उसके गांव में , अतीत में ही डूबा रहता है ।
   मैं सभी की बातें सुन रहा थाकि अम्मा पिताजी याद आ गए थे । , कैसे अम्मा लोगों के खेतों से मांगकर लाए गए पालक , मैथी , बथुआ और सरसों को मिलाकर साग बनाया करती थी और शाम को पिताजी पूरे दिन मजदूरी करके बाजरा खरीदकर अपनी कमीज के दामन में लाते थे और अम्मा उसे छांट -फटककर पीसती थी तब बाजरे की रोटी के साथ साग खाया जाता था । सोचते -सोचते ही मुंह से निकल गया था , अच्छी आप सभी एक बात बताओ , आपमें से किसी ने बाजरे की रोटी  के साथ मिक्स साग  खाया है ।
    बाजरे की रोटी ।  जितेन्द्र मिश्रा बोला था ।
    हां -हां,बाजरे की रोटी ।
    सर हम जानते हैं बाजरा ....... सर ,बाजरा हमारे यहां जानवरों के लिए बोया जाता था ......सर बाजरा तो जानवर  खाते थे । एक ही सांस में तो बोल गया था जितेन्द्र मिश्रा ।
     इतना सुनते ही मेरी आंखेंा से फल्ल से आंसू निकले और मेरी सब्जी में मिक्स हो गए थे। उस दिन कोई नहीं जान पाया था कि मन से निकली पीड़ा आंसुओं से होती हुर्ह बिखर गई थी । ****

10.प्लीज , सेव मी
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           मैं लोगों को देखती कि कैसे वे असहाय और बूढे मां बाप को मार पीटकर घर से निकाल देते हैं। तभी से मन में लडकों और धीरे धीरे पुरुषों से नफरत करने   लगी । मेरी शादी हुई तो पति बहुत प्यार करने वाला मिला । धीरे धीरे पुरुषों के प्रति मन     में बनी धारणा मोम बनकर पिघलने लगी थी । बस फिर क्या था पहुंच गयी मंदिर , हे भोलेनाथ ! मुझे बेटी दे दो । भगवान  ने आशीर्वाद दे दिया था ।  मैेंने अपनी बेटी को बडे लाड प्यार से पाला । मेरे पति ने मेरा पूरा साथ दिया तो मैं आसमान में उडने लगी थी । धीरे धीरे बेटी पांच साल की हो गई । मैंने उसे स्कूल भेजना शुरु कर दिया था। वह स्कूल से आती तो मैं उसे अपनी बाहों मंे लेकर स्वर्ग में उतर जाती थी ।
     मम्मी आज मैंने एक पाइम याद की है । बहुत प्यारी सी . . . सुनोगी. . .टिवंकल , टिवंकल. . . लिटिल स्टार , हाउ आ. . . .। इसके आगे बेटी क्या सुनाती रही  ,मैं नहीं जानती । मैं तो उसकी पाइम के साथ ही दूसरी दुनियां में उतरती चली गई थी । भगवान से अपने लिए मांगे गए आशीर्वाद पर मैं गर्व करती ।
      तभी एक दिन
     बेटी स्कूल से आयी । चेहरा उतरा हुआ । डरी सहमी सी । मैंने उसका चेहरा अपने हाथों में लेकर पूछा, व्हाट हैपिंड, माई स्वीट डाल
      मम्मा हेल्पर आफ माइ स्कूल ,टच मी हियर । और मेरी मासूम सी लाडो ने अपनी छोटी छोटी दानों जाघों के बीच में हाथ रख दिया था । मम्मा, आइ आफ्रेड हिम ,प्लीज सेव मी । और इतना कहकर वह नन्ही सी जान रोने लगी थी । साथ ही मेरी गोद में ,बचने के लिए आश्रय तलाश रही थी । ***

11. सुराही
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           फूलपुर का मवेशियों का मेला पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध है । गाय , भैंस से लेकर उुंट ,भेड ़तक की खरीद -फरोख्त होती है । मेले में खेतिहर किसान से लेकर जमींदार तक आते हैं । अब  जब सभी लोग इसमे आते हैं तो उनके मनोरंजन का भी ध्यान रखा जाता है । इस बार मुन्नी बेड़िन की नौटंकी आई है । पूरे क्षे़त्र में हंगामा हो गया। कुछ लोग सिर्फ उसकी नौटंकी देखने ही मेले में जाते हैं ।
        म्ुान्नी में बला की सुंदरता है तो गजब की अदा भी। नाचने से लेकर कोई किरदार हो वह जान डाल देती है । पंडित रघुनंदन उसकी अदाओं के दीवाने हैं । वे जब नौटंकी देखने जाते हैं तो बहुत से लोग उनकी छत्रछाया मेें उनके साथ ही रहते हैं । बड़े धर्मी -कर्मी हैं पण्डित जी । पूजा- पाठ में पूरी आस्था है तो विश्वास भी है लेकिन मनोरंजन तो मनोरंजन ठहरा उसका पूजा- पाठ से क्या सम्बन्ध ।
        एक दिन तो गजब ही हो गया जब मुन्नी ने कूल्हे मटका - मटकाकर छाती उघाड़ -उघाड़कर नाच दिखाया तो पंडितजी मानेा पागल हो गए हों । बस , फिर क्या था बुला लिया मुन्नी के कंपनी मैनेजर को ।
       केदार , मुझे मुन्नी अच्छी लगती है । दिल आ गया है मेरा उस पर । बस एक बार के लिए ...............। पंडित जी ने अपना हुक्म सुना दिया था ।
        पहले तो कंपनी के मैनेजर ने नानुकुर की लेकिन जब पंडितजी ने धमकाया तो मैनेजरका पाजामा गीला हो गया था ।                          
         मुन्नी रात में नौटंकी में काम करती और दिन में आराम करती थी लेकिन जब से पंडितजी का दिल उस पर आया है वह दिन में सो नहीं पाती ।
       उस दिन पंडितजी उसके साथ रति क्रिया में डूबे हुए थे । बहुत खुश थे । वे कभी मुन्नी के तलवे चाटते तो कभी नाभि से होते हुए होठों तक पहुंच जाते थे । सच बताएं तो पंडितजी से कुछ उखड़ता तो था नहीं सिर्फ चाटा-चूटी ही कर पाते थे । बड़ी देर तक चाटने-चूटने के बाद पंडितजी थक गए थे जिससे उन्हें प्यास लग आई थी । उनके पास ही उनकी पानी से भरी सुराही रखी थी जिसे वह कहीं भी जाते अपने साथ ही ले जाते थे । .........पानी...... इतना ही कह पाए थे वह।
        मुन्नी उठी और अपनेे लिए रखे पानी के घड़े से पानी निकालकर देने लगी  थी ।
        नहीं मुन्नी...नहीं ......... इतना भी नहीं .....। हम ब्राह्मण हैं .......वर्णश्रेष्ठ ...... हम तुम्हारे हाथ से तुम्हारा पानी कैसे पी सकते हैं ........ हम पानी तो अपनी सुराही से ही पिएंगे ........और पंडितजी ने स्वयं उठकर अपनी पीतल की सुराही से पानी पी लिया    था । ****
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क्रमांक - 05
पति : अशोक खरबंदा  
 पिता का नाम : श्री ताराचंद भाटिया
 जन्म दिनांक : 31 अक्टूबर 
 शिक्षा - स्नातक (कला)

लेखन :-
 लघुकथा, कहानी, संस्मरण व कविता

रुचियां :-
साहित्य, पर्यटन, पाककला 

 संप्रति - अध्यापिका, लेखिका, रेडियो आर्टिस्ट 
ऑल इंडिया रेडियो स्टेशन दिल्ली, रेडियो आर्टिस्ट
 मुल्तानी फिल्म में चीफ गेस्ट का रोल

संस्थाओं में भूमिका : -
 लघुकथा शोध केंद्र भोपाल की दिल्ली शाखा की संचालिका
 विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर की दिल्ली शाखा की शाखा प्रमुख
 विश्व भाषा अकादमी (रजि0) भारत की उत्तरी दिल्ली की अध्यक्ष

रचनाएं : -
हिन्दुस्तान, सांध्य टाईम्स, लोकमत, गोस्वामी एक्सप्रेस, डैनिक नव समाचार ,दृष्टि, क्षितिज, लघुकथा कलश, किस्सा कोताह, लघुकथा डॉट कॉम, पुष्पंजलि, पलाश, अविराम साहित्यिकी, साहित्य सिलसिला, महिला अधिकार अभियान, बाल कहानियाँ, सत्य की मशाल आदि में  प्रकाशित

साझा लघुकथा संकलन :- 
 समय की दस्तक, 
महानगरीय लघुकथाएं, 
हिन्दीतर लघुकथाएं, 
साझा कहानी संग्रह: बारहबाना 
साझा काव्य संकलन : शुभारंभ, किसलय,

अनुवाद : 
पंजाबी, सिरायकी, मराठी, अंग्रेजी, मैथिली व नेपाली भाषाओं में रचनाओं का अनुवाद

ब्लॉगर : -
मातृभारती, स्टोरी मिरर, प्रतिलिपि, मॉम्सप्रेसो आदि पर ब्लॉग्स

पता - 
 207, द्वितीय तल , भाई परमानंद कालोनी, दिल्ली 110009
1. सौ बटा सौ 
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रामू बगिया में पिता के साथ पौधे रोपने और गुड़ाई करने में मदद कर रहा था ।
"क्यूं रे रामू, पेपर मिल गये क्या!" 
बड़ी मालकिन ने अचानक आकर पूछा तो रामू सकपका गया ।
"जी...जी... मिल गये!" 
हकलाते हुए उसने जवाब दिया ।
"कितने नम्बर आए !" 
रोबीली आवाज में पूछा गया ।
"35..."
"सिर्फ 35... कुछ शर्म हया है कि नहीं! देखता भी है कि सारा दिन तेरा बाप खटता है! क्या जरा भी दया नही तेरे मन में!"
जोरदार डांट पड़ी और अभी जाने कितनी ही देर पड़ती रहती कि अचानक से बापू बीच में आ गये ।
"मालकिन! सारा दिन ये भी तो खटता है मेरे साथ! स्कूल से आते ही कपड़े बदल जल्दी जल्दी खाना खा, मेरे लिये खाना लेकर आता है और फिर मेरे साथ ही काम पर जुट जाता है और फिर घर पहुंच कर देर रात तक पढ़ता भी है ।"
"पढ़ाई के बिना आजकल कुछ नहीं । इसके भले के लिये ही समझाती हूँ!" 
बड़ी मालकिन ने समझाने के लहजे में कहा ।
"जो बच्चा अपने पिता के प्रति दयाभाव रखे, उससे बड़ी बात और क्या होगी मालकिन!"
"और नम्बर....!"
"भले ही इसके पढ़ाई में 35 नम्बर आये... पर मेरी तरफ से तो सौ बटा सौ ही हैं ।" *****

2.  सोलमेट 
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"रमा क्या हुआ उदास क्यूं बैठी हो!" राकेश कुमार जी ने टीवी से नजरें हटा कर पूछा तो सर्द आवाज में उत्तर मिला-
"नहीं तो !"
"अरे जैसे मैं तुम्हारा चेहरा पढ़ना नहीं जानता! देखो तो आँखों मे कैसे मोती झिलमिला रहे हैं!"
"अरे वो तो अभी प्याज काटे न! तभी !"
"प्याज ! दो घंटे पहले सब्जी बनायी थी तुमने! अब मुझसे भी झूठ बोलने लगी । बोलो क्या बात है!"
"बस माँ की याद .. !"
"अरे इतनी सी बात! चलो इसी रविवार मिल आते हैं उनसे!"
"नहीं! रहने दीजिये !"
"पर क्यूं!"
"वापिस आकर माँ की याद और सताती है, मन और अधिक उचाट हो उठता हैं, उथल-पुथल और गहरी हो जाती है!" 
दीर्घ श्वास के साथ भर्राई आवाज़ ने वातावरण को और उदासी से भर दिया । राकेश कुमार जी रमा के करीब जाकर उसके कंधे पर हाथ रखते हुए बोले-
"रमा! बाबूजी के जाने के बाद वे बहुत अकेली हो गयी है तो तुम बीच बीच में जाकर मिल आया करो ।"
"इतना आसान कहाँ है सब! आपको, बच्चों और मांजी को किसके सहारे छोड़कर जाऊँ!"
"...तो उन्हें ही यहाँ लिवा लाओ!"
" यहाँ ! लेकिन.. !
" बाबूजी के जाने के बाद से तुम्हारा शरीर तो यहाँ है पर मन ... माँ की ओर!"
"...वो अकेली न होती तो शायद इतनी चिंता न होती मुझे !"
"तभी तो कह रहा हूँ कि उन्हें यही ले आते हैं ! यूँ आधी अधूरी बेटी होने की दुविधा से निकलकर तुम पूरी पत्नी, बहू, बेटी और माँ का दायित्व तो निभा पाओगी और यूँ पल पल खुद को कोसोगी तो नहीं!"
"पर क्या ये कह देने भर जितना आसान होगा!"
"ठान लो तो सब आसान होगा ! और फिर मैं हूँ न तुम्हारे साथ! तुम्हारा सोलमेट!" 
कहते हुए राकेश कुमार जी ने रमा के चेहरे को अपने दोनों हाथों में भर लिया । ****

3. दाह संस्कार 
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"पापा! मत जाओ पापा! हमें आपकी बेहद जरुरत है ।" 
शिखा बिलखती रही पर होनी को जरा भी दया न आई । सब कुछ इतना अचानक हुआ कि आस्ट्रेलिया में नौकरी करने वाला भाई भी पापा के अन्तिम दर्शन करने नहीं आ पाया ।
महामारी के चलते हवाई सेवा बन्द है । उधर बेटा तड़प रहा है और यहाँ माँ बेटी इस अनहोनी के आगे बेबस ।
"अब दाह संस्कार कौन करेगा?"
बिरादरी में बैठे लोगों के चेहरों पर प्रश्नचिंह लटक रहा था । 
"मैं!"
दामाद बाबू ने सिर्फ एक शब्द कहा और अर्थी को कंधा देने को आगे बढ़ गये । 
बेटे दामाद के बीच का अंतर मिट चुका था । माँ ने बेटी की ओर देखा, गहरी साँस लेते हुए उसका हाथ थाम लिया । उनके मन की कोठरी में छाया अन्धेरा धीरे-धीरे छंटने लगा । *****

4. मिथ्याभिमान 
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नई बनी बहुमंजिला आसमान छूती आलीशान भव्य इमारत खुद पर इतराती !
मुझ सा कौन भला! 
आसपास की नन्हीं नन्हीं एक दो मंजिला नाटी नाटी सी इमारतों को देख वह ठठ्ठा मार हँस पड़ी और अभिमान से अपनी उँचाई को निहारने लगी ।
अचानक तेज शोरगुल से उसकी तंद्रा भंग हुई । 
अकस्मात् तकनीकी खराबी के चलते लिफ्ट बन्द हो गई थी।
लोग बहुमंजिला इमारत को कोसते हुए हाँफते गिरते पड़ते सीढ़ियों से ऊपर चढ़ रहे थे । 
शोरगुल तो साथ की नाटी इमारतों से भी आ रहा था ।
वहाँ के बच्चे हँसते खेलते सीढ़ियों पर धमाचौकड़ी मचा जिन्दगी का आनंद जो ले रहे थे । *****

5. गुब्बारे वाला 
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आज भी कितनी देर से रोहिणी दरवाजे पर खड़ी बाट देख रही है । उसके आने का समय तो कब का बीत चुका पर रोहिणी का इंतजार अभी भी कायम है । रह रह कर उसे उस दिन का वाकया याद आ रहा है । 
गुब्बारे वाला रोज उसके दरवाजे पर आकर अपनी चिर परिचित आवाज निकाल भोंपू बजाता जिसे सुनते ही नन्हीं चीनू दरवाजे की ओर दौड़ पड़ती और गुब्बारे वाले से कुछ न कुछ लेकर ही दम लेती।
उस दिन रोहिणी गुब्बारे वाले पर बिफर ही पड़ी 
"यहीं हमारे दरवाजे पर ही क्यों रोज रोज भोंपू बजाते हो। तुम्हारी वजह से रोज ये मुझे परेशान करती है!"
गुब्बारे वाले ने कातर दृष्टि से रोहिणी की ओर देखा और धीरे से फुसफुसाया
"दीदी ! मेरे बच्चे घर पर खाने की राह देखते हैं, कुछ  कमाऊंगा तो उनका पेट भर पाऊंगा ।"
"मेरा ही घर मिलता है रोज तुम्हें?"
"इस गली में आपके घर ही छोटा बच्चा है इसी के लिये इस गली का फेरा लगाता हूँ । मुझे नहीं पता था कि आप नाराज होती होंगी!"
कहते हुए गुब्बारे वाले ने चीनू को गुब्बारा पकड़ाया और चल दिया।
रोहिणी ने पैसे देने के लिये हाथ बढ़ाया पर वह नजरें झुकाए निकल गया 
रोहिणी ने सोचा 
"चलो कल आयेगा तो पकड़ा दूँगी ।" 
पर वह फिर कभी न दिखा । रोहिणी इस बात को ले ग्लानि से भरी रहती कि अचानक एक दिन बाजार में गुब्बारे वाला दिखलाई पड़ा । रोहिणी लपक कर उसकी ओर बढ़ी ही थी कि उसने देखा कि एक बच्ची उसके कुर्ते का कोना खींचते हुए लाड़ से कह रही थी- 
"बाबा कल मेरा जन्मदिन है वो लाल वाली फ्रॉक दिलवा दो न !"
"हाँ हाँ दिलवा दूँगा बिटिया!" 
फिर साथ खड़ी स्त्री की ओर मुखातिब होते हुए बोला- "लक्ष्मी ! तुम इसे अपने साथ क्यों लाई! जाओ अब घर जाओ ।"
इतने में रोहिणी गुब्बारे वाले के पास पहुँच उसकी ओर सजल आँखों से देखने लगी । तत्क्षण उसके दिमाग में विचार कौंधा और वह साथ खड़ी पत्नी व बिटिया का हाथ थाम फ्रॉक की दुकान की ओर बढ़ गई । ****

6. बरगद की छाँव 
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"उफ्फ आज फिर देर हो गई उठते उठते ।" 
"आज ऑफिस में पहुंचते ही बॉस से झिकझिक होगी ।"
खुद से बातें करते हुए रागिनी थोड़े ऊंचे स्वर में बोली-
"झिलमिल ओ झिलमिल! जल्दी उठ बेटा नहीं तो स्कूल बस निकल जाएगी ।"
"मम्मा! सोने दो न थोड़ी देर और!"
"बेटा छह बज चुके है और 6.40 पर तुम्हारी बस आ जाएगी । आज तुम्हारा टेस्ट भी तो है । जल्दी उठो, टाईम वेस्ट मत करो ।"
झिलमिल को उठा रागिनी रसोई मे आ गई । 
"अरे! आज तो झिलमिल ने ब्रेड रोल लेकर जाने है । 
रात को आलू उबालना ही भूल गई । अभी उबाले तो बहुत समय लगेगा । अभी सब्जी भी बनानी है और तैयार होकर ऑफिस के लिये भी निकलना है! दिमाग कुछ काम नही कर रहा! क्या करुँ ! क्या बनाऊं !"
"रागिनी !"
"राम राम मांजी ! बस अभी चाय रख रही हूँ ।" 
सासु जी की आवाज से उसकी तंद्रा टूटी ।
"कोई नहीं बेटा, तुम पहले झिलमिल के लिये टिफ़िन बना लो । कल रात भी तुम उसे पढ़ाते पढ़ाते देर से सोई ।"
"मांजी इस चक्कर में रात को आलू उबालना भी भूल गई । अब झिलमिल को टिफ़िन में क्या दूँ कुछ समझ नहीं आ रहा!"
"अरे चिंता मत करो ।" मांजी ने मुस्करा कर कहा ।
"आज सुबह चार बजे ही मेरी नींद खुल गई । रसोई में पानी पीने आई तो याद आया कि झिलमिल तुमसे जिद कर रही थी ब्रेड रोल लेकर जाने की तो मैंने आलू उबाल दिये । तुम जल्दी से कड़ाही रखो तब तक मैं आलू छीलकर मैश कर देती हूँ ।"
"मांजी! आप मेरे लिये बरगद की घनी छाँव की तरह हैं शीतल और सुखद !"
कहते हुए रागिनी ने माँजी को गलबहियाँ डाल दी।****

7. मुखिया 
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"भैया टूर से आ गये क्या!"
"नहीं अभी नहीं आये ।" 
सुलभा ने धीरे से जवाब दिया । 
"फिर बाहर गैलरी में मर्दाना कपड़े किसके सूख रहे हैं!" कौतूहल से रीटा ने पूछा ।
"लोगों की नजरों से बचने के लिये गाहे बगाहे पति के कपड़े बाहर गैलरी में सूखने डाल देती हूँ!
"क्यूं !"
"इससे लोगो को लगता है कोई मर्द घर पर है 
"मतलब !"
"नही तो वे सोचते हैं अकेली औरत जात... छोटे बच्चों के साथ हमारा क्या बिगाड़ लेगी !" *****

8. संस्कार के बीज 
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"मम्मा आज तो बड़ा ठंडा मौसम है । घर जाकर पनीर के पकौड़े बनाना!" 
पीटीएम से लौटते हुए कपिल ने मीनाक्षी को कहा जो रिक्शा में बैठते ही सर्द हवा से खुद को बचाते हुए शॉल को और भी अच्छे से जकड़ रही थी ।
"अरे वाह! गुड आइडिया ! साथ में गर्मा गर्म अदरक वाली चाय!"
"सोच कर ही मुँह में पानी आ गया!" 
कपिल की इस बाल सुलभ अदा पर मीनाक्षी को हँसी आ गई । 
"भैया ! दो मिनट रिक्शा साईड पर रोक दीजिये, सामने दुकान से पनीर ले लूँ!"
पनीर लेकर मीनाक्षी वापिस आई तो उसके हाथ में एक दोना था जिस में पनीर के छोटे छोटे टुकड़े थे और उस पर चाट मसाला छिड़का हुआ था!
"मम्मा ये क्या ! अच्छा लगता है ऐसे रिक्शा में खाना!"
"बुद्धू ये तेरे लिये नहीं! रिक्शा वाले भैया के लिये है!"
कपिल जोर से हँस पड़ा! 
"क्या मम्मा आप भी !"
मीनाक्षी ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा- 
"पता है कपिल! जब मैं अपने पापा को ऐसा करते देखती थी तो मैं भी यूँ ही हँसा करती थी ! उन्हें देखते देखते मुझे पता ही नहीं चला कि कब मुझे भी ये आदत पड़ गई ।"
"पर मम्मा....!"
"सच बताऊँ बेटा ! मुझे बहुत खुशी मिलती है इससे!"
कहकर मीनाक्षी ने दुबारा कपिल की ओर देखा । 
अब हँसी की जगह वहाँ चमक थी! ****

9. खुला आसमान 
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"क्या सूझी तुम्हें इस उम्र में स्कूटी सीखने की !" शेखर ने श्रेया को स्कूटी सीखते देख कहा ।
"कुछ सीखने की कोई उम्र होती है क्या ! और फिर मेरी कौन सी उम्र निकल गई !" श्रेया ने हँसकर कहा ।
"एक बार मुझसे पूछा तो होता कि स्कूटी चलाना सीख लूं !" शेखर थोड़े तैश से बोले ।
"पूछने से कौन सा आप हाँ कर देते ! और एक बात बताइए जब आप कुछ करते है तो क्या हम औरतों से पूछ कर करते हैं ! " श्रेया ने भी तुनक कर जवाब दिया ।
"तुम्हारा कुछ जाना नही और सामने वाले का रहना नहीं ! मार मूर दोगी दो चार को !" शेखर तंज कसते हुये बोले ।
"मेरा स्कूटी सीखना इतना नागवर लग रहा है तो सीधा कह दीजिये कि मत सीखो !" श्रेया थोडा रुंआसी सी हो आई ।
"मेरे मना करने से कौन सा तुम मान जाओगी ! ठान लिया है सीखने का तो सीख कर ही रहोगी !" शेखर ने श्रेया को घूरते हुये कहा ।
"अरे वाह ! आप तो खूब जानते है मेरे बारे में !" श्रेया ने हाथ नचाते हुये तल्खी से जचाब दिया ।
"किसी को मार आओगी तो भरना तो मुझे ही पडे़गा ना !" 
शेखर ने ऐसे कहा मानो कोई कांड कर आई हो श्रेया ।
"ये जो सारी औरतें स्कूटी चलाती है वो क्या एक्सीडेंट करती फिरती हैं !" अब श्रेया का पारा भी हाई हो चला ।
"हाँ तुम खुद ही देख लो ! ज्यादातर एक्सीडेंट औरतें ही करती है । लेफ्ट राइट कुछ देखती नही ! बस हर काम की जल्दी होती है इन्हें ! " लगा शेखर आज सारी भड़ास निकाल कर ही छोड़ेगें ।
"एक्सीडेंट किसी की लापरवाही से होता है ना कि इससे कि वाहन आदमी चला रहा है या औरत !" श्रेया ने स्वयं को संयत करते हुये शेखर को समझाने की कोशिश की ।
"तुमसे कौन उलझे सुबह सुबह ! जाओ अब और सीखो जाकर स्कूटी चलाना !" शेखर जाने किस रौ में बोले ही चले जा रहे थे ।
श्रेया ने नकारात्मक विचारो को तेजी से झटका, अपने सपनों की उड़ान को पूरा करने का दृढ़ निश्चय कर स्कूटी उठाई और खुली हवा मे निकल गई ! *****

10.थप्पड़ 
     *****

मंदिर का प्रांगण ! 
"अब आप सभी तीन बार गायत्री मंत्र का जाप करें और दिवंगत आत्मा के लिये प्रार्थना करें !" 
पण्डित जी की आवाज माईक में गूंजी। 
मंत्र समाप्ति के बाद दीनानाथ जी और उनकी पत्नी अपनी जगह से उठे और पूरी पंचायत के सामने हाथ जोड़ खड़े हो गए । लरजती आवाज में दीनानाथ जी ने कहना शुरु किया- 
"आज विमलेश की तेहरवीं है...हमारी बहू... जो अभी केवल 26 साल की है! अभी इसके सामने पूरी जिंदगी पड़ी है । सिर्फ दो ही साल तो हुए शादी को... इतनी छोटी उम्र में ये विधवा हो गयी है... इसमें भला इसकी क्या गलती !"
शोक सभा में नीम सन्नाटा छा गया ।
"अत: मैंने और मेरी पत्नी ने ये निर्णय लिया है कि हम अपनी बहू की दूसरी शादी करवाएंगे... क्योंकि अब ये हमारी बहू नहीं... बेटी है !
दीनानाथ जी के शब्द थप्पड़ की तरह लोगों के मुँह पर पड़े और हवा में खुसुर पुसुर की आवाजें मंदिर की दीवारों से टकराने लगी ।
आज तक न कभी ऐसा देखा न कभी सुना ! कुछ ने दीनानाथ जी व उनकी पत्नी की दूरदर्शिता की तारीफ की तो कुछ ने इसे उनकी नासमझी नादानी कह मुँह बिसूर लिया । सभी अपना अपना राग अलापने लगे । 
" लगता है भाई साहब सठिया गये लगते हैं !"
"बहनजी भी लगता है उनके साथ पगला गई हैं !"
"पहली बार ऐसी अनूठी बात सुनी... क्या संदेश जाएगा समाज को !"
"इन्होने तो नयी रीत ही शुरु कर दी !"
खुसुर पुसुर की आवाजें दीवारें लाँघने लगी तो दीनानाथ जी की पत्नी पंडित जी से माईक हाथ में लेती हुई बोली- 
"आप सभी से निवेदन है कि चाय पीकर जाईएगा! 
और हाँ ! जिन्हें भी हमारे परिवार के इस निर्णय से एतराज़ है उन्हें हमारी आखिरी राम राम !"किसकी भूल ! 
"तू भूल गई शायद कि तू बेटी है बेटा नहीं!" दादाजी ने गरजती आवाज़ में कहा । 
"नहीं दादाजी! मुझे याद है और मुझे बेटा बनने का कोई शौक भी नहीं है । आपके बेटे ने जो किया….!" 
"बहू ! चुप करवा इस लड़की को! कहीं ये न हो कि मैं गुस्से में ….. !" 
"बाबूजी ! मैंने आपसे कभी कुछ नहीं मांगा ! आज झोली फैला कर अपनी बेटी की खुशियों की विनती करती हूँ आपसे । आपका बेटा मुझे छोड़ दूसरी ब्याहा लाया, मैं चुप रही। वे दोनों अपनी अलग दुनिया बसाने शहर चले गए, मैं चुप रही । लड़ झगड़ कर उन्होंने अपने हिस्से की जायदाद मांगी, आपने वो भी दे दी, भले ही बेमन से! मैं तब भी कुछ नहीं बोली । पर बाबूजी आज नही! आप मुझसे बड़े है मेरे शिरोधार्य है इसलिए आपके सामने झोली फैलाई पर फिर भी आपने मना किया तो आज आवाज भी उठाऊँगी । मैं नहीं चाहती कि मेरी बेटी मेरी तरह घुट घुट कर कायरो की जिन्दगी जिये । वह पढ़ लिख कर अपने पैरों पर खड़ी हो ताकि मुसीबत के समय उसे किसी के आगे अपना सिर न झुकाना पड़े बाबूजी….. अपना सिर न झुकाना पड़े!" कहते कहते रमिया फूट फूट कर रो पड़ी । 
लाला रामप्रकाश जी जैसे किसी गहरी तंद्रा से जागे । 
"ओ रे हरिया ! भाग कर जा तांगा बुला कर ला । आज हम खुद जाएँगे शहर के कॉलेज में... अपनी बिटिया का एडमिशन करवाने !" ****

11. होम ! हैप्पी होम 
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एक दिन नेहा बच्चों को पढ़ा रही थी । एक कविता में दादा दादी नाना नानी की बात आई । रैनेसां ने नेहा की ओर प्रश्न सूचक निगाहों से देखते हुए कहा - "मम्मा घर में दादा दादी की फोटो तो है पर नाना नानी की क्यों नहीं !" 
उसकी बात सुनकर रोहन जोर-जोर से हँसने लगा और बोला - "बुद्धु तुझे इतना भी नही पता ! ये घर तो पापा का है न ... तो पापा के मम्मी पापा की फोटो ही तो लगेगी न ! क्यूं पापा !"
पास ही बैठे पति देव ने नेहा की ओर देखते हुए कहा - "जितना ये घर मेरा है उतना ही तुम्हारी मम्मी का ।" 
इतना कहकर वे उठकर जाने लगे । नेहा ने पूछा- "कहाँ चल दिए एकदम से ।" 
"बच्चों का सवाल वाजिब है तो जवाब भी तो वाजिब ही होना चाहिए न ! तुम मम्मी पापा की अच्छी सी फोटो निकाल दो, मैं आज ही फ्रेम करवा कर लाता हूँ ।" ****
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क्रमांक - 06
पिता का नाम : डा.विजयपाल सिंह (सेवानिवृत्त प्राचार्य)  
माता का नाम : सरस्वती देवी सिंह                
शिक्षा : एम.ए,पी एच.डी(हिंदी) , बी.एड 

अनुभव : चौंतीस ( 2+ 32) वर्षों का हिंदी व्याख्याता पद पर  अध्यापनानुभव क्रमशः हरि सिंह गौर वि.वि.,सागर,म.प्र. में दो वर्ष एवं केंद्रीय विद्यालय संगठन, नई दिल्ली में 

चार पुस्तकें प्रकाशित : -

1.शोध प्रबंध-"आंचलिक उपन्यासों के परिप्रेक्ष्य में फणीश्वरनाथरेणु का विशेष अध्ययन"-2004
सूर्यभारती प्रकाशन,नई सड़क,नई दिल्ली 
2.काव्यांजलि-( प्रेरक कविता संग्रह)2010
सूर्यभारती प्रकाशन,नई सड़क,नई दिल्ली 
3."सारे जमीन पर"(बाल कविता संग्रह)
सूर्यभारती प्रकाशन,नई सड़क,नई दिल्ली, 2014
4."महकता हरसिंगार" (लघुकथा संग्रह)
अयन प्रकाशन,महरौली,नई दिल्ली,2021

विशेष : -

चार बैस्ट टीचर्स अवार्ड्स से सम्मानित 
 केंद्रीय विद्यालय संगठन, नई दिल्ली द्वारा कारगिल विजय पर रचित नाटिका 'उजाले की ओर' पर पुरस्कृत एवं सम्मानित, 
 राजभाषा समिति,भारत सरकार द्वारा राजभाषा शील्ड से सम्मानित.
साहित्य लेखन और पत्रकारिता के क्षेत्र  में व्यास पुरस्कार से सम्मानित.
अनेक पत्र-पत्रिकाओं में  लगभग आठ सौ साठ रचनाएं प्रकाशित.
जल मंत्रालय, भारत सरकार,दिल्ली  द्वारा मेरी स्वरचित नाटिका "बिन पानी सब सून" के लेखन और मंचन हेतु पुरस्कृत एवं सम्मानित (2015) 
मानव संसाधन विकास मंत्रालय की वार्षिक पत्रिका "शिक्षायण" में  दो दीर्घकाय लेख प्रकाशित एवं सम्मानित .
नगर राजभाषा समिति,फरीदाबाद की पत्रिका "नगर सौरभ" में सात बार रचना प्रकाशन पर सम्मान पत्र प्राप्त .

संप्रति : - 

गैर सरकारी समाज सेवी संस्था "प्रतिभा विकास मिशन" की  मुख्य  संचालिका पद पर कार्यरत.
अंतर्राष्ट्रीय  महिला काव्य मंच (रजि.) दक्षिणी दिल्ली इकाई में  वरिष्ठ उपाध्यक्ष पद पर सक्रिय.

सम्पर्क : -
सी-211,212
पर्यावरण (ट्री)काम्पलेक्स , समीपस्थ-नगर निगम स्कूल ,
सैदुलाजाब , नई  दिल्ली-30
1.साथ
   ****

सुबोध मेरा कोविड-19 टेस्ट कराते हुए चेस्ट परीक्षण कराने पुन: लैब में पहुँचे,तो सामने ही एक युवा दंपति  जल्दी- जल्दी  मास्क,कवर कोट और सुरक्षा शील्ड लगाकर टैस्ट के लिये बेचैन और उत्साहित दिखे।
मैंने अचानक ही पूछ लिया-
-बेटा!आप दोनों...
-जी आंटी!हमें कोरोना पोजिटिव है,लेकिन अभी और भी टेस्ट कराने हैं। 
-ठीक हो जाओगे।इच्छा शक्ति मजबूत रखो।
-आंटी!हमारा दो साल का बेबी है,उसका ही डर है बस।
-मम्मी,पापा भी नहीं हैं हमारे।हमने  कोर्ट मैरिज की थी।किसके पास छोड़ें अपने बच्चे को?नन्ही जान को कोई रख ले,तो हम दोनों किसी तरह ..
-"आप पता दीजियेगा अपना"कहते हुए मैं स्वयं अपने कोरोना को कुछ पल के लिये भूल जाना चाहती थी।
शाम को उनके दिये गए पते पर पहुँचकर "पालना" संस्था में हमने बेबी को सुरक्षित पहुँचा दिया और उन्हें आश्वस्त किया।
दोनों के नीले पड़ते हाथों में धीरे-धीरे स्वास्थ्य  की लालिमा हिलोरें मारने लगी थी। ****

2.रच गई  महावर
    ************

 घर में होली की रौनक थी। शुभि की पहली होली थी। फौज में नौकरी होने के कारण पति की सीमा पर इमरजेन्सी ड्यूटी लग गई थी,इसलिये देवर जी लेकर आए थे। 
सादगी दीदी के देवर सौरभ को कनखियों से देखकर कभी तो उसपर रीझती तो कभी उसके निठल्ले बैठे रहने पर खीझती।
- हट्टे कट्टे नौजवानों को कामचोरी जाने कैसे रास आती है?हम कुशल लड़कियां तो घर और बाहर दोनों ही बखूबी संभालती हैं।
सादगी के ऐसे संवाद को सुनकर उसके तेज तर्रार स्वभाव को भांपते हुए सौरभ ने चुटकी ली-
-अरे आजकल की सुंदरियां तो बस रात दिन चेहरे की लीपा पोती करती रहती हैं ,फैशन में डूबी रहती हैं।
पर्व त्योहार मनाना तो बहुत दूर की बात है इनके लिये।रंगों से डरकर घर से बाहर तक नहीं निकलती,बस डी जे पर होली डांस करा लो इनसे।किचन में जाकर तो झांकती तक नहीं।महाआलसी हो गई  हैं। 
गुझिया,पापड़,दही बड़े सब मार्किट से आते हैं अब तो घरों में। 
-खाना लग गया है। आ जाइये खाने के लिये दीदी सबको लेकर।
-इतना सब तूने बनाया सादगी?बहुत स्वादिष्ट...वाह..
-ये क्या है जी इस जार में?
-चुकंदर का जूस.. ये टेसू का जूस...इधर हल्दी का घोल...सब मेहमानों के लिये...होली पर प्राकृतिक रंगों  से खेलने की योजना है।
-सौरभ का हाथ लगने से जग का जूस रोटी पकड़ाती हुई सादगी के दोनों पैरों  पर गिरता हुआ देखकर शरारत से शुभि बोली-
अब तो कसौटी पर खरी उतरी है हमारी छुटकी बहन.देवर जी!
-रचा दी महावर खुद ही...बड़ी जल्दी है।
-धत्!ऐसा भी कोई करता है क्या?
कहते हुए सादगी किचन की ओर भागी।
-उधर साॅरी यार!ओह आई एम ...आई...आई लाइक यू...हैप्पी होली।
कहते हुए सौरभ अपनी खुशी को असमंजस की स्थिति में महसूस कर रहा था। ****

3.कटु मुस्कान
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विनोद और अनु सौरभ और तनु  को शहर में साथ ही रहने के लिये ले आए थे।साथ रहकर परस्पर स्नेह-बंधन मजबूत और मधुर बन गए। 
पड़ोसी भी उनकी प्रशंसा भरी चर्चा करते नहीं थकते थे।
कई बार सासु मां कहती भी थीं...दोनों  बहनों की तरह रहती हो,किसी की बुरी नजर न लग जाए रे मेरी बहुओं को।
-मां!इतना कमजोर नहीं है हमारा प्यार..
अनु दृढ़तापूर्वक मुस्कुराकर तनु को अपनी ओर खींचकर प्यार जताते हुए कहती.
गांव से सासु मां को चिंताजनक हालत में ही शहर लाया गया था। नियमित रूप से रात में नौकरीपेशा अनु और दिन में देवरानी तनु ने अपनी सेवाओं से अपनी सासु मां को जल्दी ही ठीक भी कर लिया था। 
आज स्कूल से वापस आकर अनु जैसे ही कार से उतरी, घर से पड़ोसन कमली को निकलते देखकर उसका माथा ठनका।
वह चुगलखोर और लड़ाकू प्रवृत्ति की बदनाम युवती थी,जिसके कारनामें अक्सर गली मुहल्ले के लोग देखते और नापसंद करते थे।कुछ दिनों  से तनु अपने बेटे टीनू को उसके पास ट्यूशन के लिये भी भेजने लगी थी।
धीरे-धीरे तनु कभी बाजार जाने, कभी मूवी देखने, गरमी की दोपहरी में गप्पे लड़ाने उसके पास पहुँचने लगी थी।अनु को ठीक  सा नहीं लगताथा,पर वह चुप ही रहती।
अचानक देवर द्वारा अगले महीने नए फ्लैट में  शिफ्ट करने की बात सुनकर अनु और विनोद असमंजस में पड़ गए थे।
-मां को तो साथ ले जाओगे फिर?
-आप भी रखिये कुछ समय भैया!मां तो आपकी भी हैं। 
बेचारी तनु खपती रहती हैअकेली।कोई मेहमान आए,तो नीचे वही देखे, उनकी खातिर तवज्जा करे,पानी की मोटर चलाए,बंद भी करे, बैल बजते ही गेट खोले,बंद करे,बंदरों को भगाए,बागवानी का ध्यान रखे...कितने काम हैं बेचारी के सिर पर.एम.ए,बी.एड है वो भी..अब सोच रही है ट्यूशन पढ़ाएगी घर पर ही।
-क्या हुआ सौरभ?ये सब...पहले तो कभी...
आगे जेठ जी कुछ कहते,तभी तनु वहाँ आकर ऊंचे स्वर में बोली-
-दीदी तो टिप-टाॅप होकर चल देती हैं स्कूल,लेकिन हम ही हैं पागल हैं  भैया जी!सबका हुकुम बजाते फिरते हैं। 
-ये मेरा देवर नहीं है,बेटा है तनु!मैं बहुत प्यार करती हूँ तुम सबसे।ऐसा सोचा भी कैसे तुमने?
-दूर से भी होवे है प्यार।कोई बात ना बालकों!रह लूँगी मैं कहीं भी..
पास ही बैठी बुजुर्ग सासु जी फैसले के अंदाज में  बुदबुदाईं। 
विनोद और अनु भी उनके फैसले से हतप्रभ थे।
हंसते खेलते परिवार को नजर लग गई थी। 
अपनी बालकनी से झांकती हुई तनु की ओर थम्स अप का संकेत करते हुए उस पड़ोसिन दुष्टा के चेहरे पर बेहयाई की कटु- मुस्कान तैरने लगी थी। ****

          
4.जब जागो तभी सवेरा
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रश्मि ने सेवानिवृत्त होने के बाद धीरे-धीरे यह महसूस किया कि अब तो पति देव के साथ काफी भ्रमण भी कर लिया,रिश्तेदारों से भी मिलना-जुलना भी काफी हो गया है .अब बोरियत सी होने लगी है ..बिना कुछ काम किये.
 वह अपने पैंतीस वर्षों के लंबे अध्यापन-अनुभव को कहीं किसी सामाजिक सेवा-कार्य  में लगाना चाहती थी.उसकी चेतना जागी और पति से मशविरा करके उसने पास पड़ोस की बुजुर्ग महिलाओं से संपर्क किया.उनकी सुप्त भावनाओं को जगा कर उन्हें चैतन्य किया.
आनन फानन में अपनी सासु मां  शारदा देवी जी के नेतृत्व में उनकी रजामन्दी लेकर घर की छत पर ही प्रत्येक  शनिवार  और रविवार  को "संगम संध्या"नाम से एक प्रशिक्षण संस्था शुरू कर दी.  काॅलोनी की सभी चयनित  सदस्याओं को एकत्रित किया.उनकी योग्यता एवं प्रतिभा के आधार पर उनके द्वारा भजन और गीत गायन, वाद्य यंत्र वादन, हंसी मजाक, कथा वाचन,नुस्खे, किस्से,लोकगीत,नृत्य प्रदर्शन जैसे अनेक रोचक कार्यक्रमों का शुभारंभ  करने की ठोस योजना बना डाली. .खुशी इस बात की कि पति राजेश ने भी स्वीकृति देकर पत्नी को प्रोत्साहित किया और कहा
-'अरे!यह तो नेक कार्य है. वैसे भी समय बदल गया है. आजकल घर घर में बुजुर्ग एकाकी से हो गए हैं.. कहीं बच्चे परदेसी हो गए  हैं और पास रहने वाले बच्चों के पास उनसे बात करने का वक्त ही नहीं है..
--जरूर करो शुरूआत जी ...मैं तुम्हारे साथ हूं'.
स्कूल में भी वर्षों से मनाए जाने वाले बुजुर्ग दिवस समारोहों का सुखद अनुभव उसे था ही.पिताजी की सीख उसे हमेशा ही ऐसे सेवाकार्यों के लक्ष्य तक पहुंचने हेतु हमेशा से ही प्रेरित करती रही है. काॅलोनी की सभी ताई,काकी,दादीऔर नानी जैसी सदस्याएं रूचि लेकर नियत समय पर वहां आकर 
पाक-कला,गायन,वादन,कथा किस्सों की  मौखिकअभिव्यक्ति,सिलाई,कढ़ाई,बुनाई
मेंहदी सज्जा,रंगोली सज्जा जैसे कार्यों में  बढ़ चढ़कर अपने-अपने कौशल दिखातीं और सबको  प्रभावित करतीं.
पड़ोसी वर्मा जी ने  रश्मि से स्वीकृति लेकर कार्यक्रमों की  रिकार्डिग करके दूरदर्शन  पर "संध्या संगम"के सौजन्य से नाम से अपने  लोकल चैनल पर ही प्रसारित कराना शुरू किया तो काॅलोनी की किस्मत ही चमक उठी.धीरे-धीरे अन्य चैनलों और मीडिया माध्यमों पर भी कार्यक्रम सराहे जाने लगे थे.
दूर तलक अब रश्मि का लक्ष्यप्राप्ति का  सत्प्रयास  और सुखद जीवन का आगाज  हो चुका था.
रश्मि की सासु मां पड़ोसन से बहू की तारीफ करते हुए अपनी खुशी जाहिर कर रही थीं-
--सच है री!"जब जागो तभी सबेरा".****


5.ढाई आखर प्रेम का
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कृति को, सोते हुए डेढ़  वर्षीय भोले और मासूम बेटेअभि के गालों और माथे को चूमते हुए देखकर,समीर के मन में एक टीस सी उठी पर वह कुछ बोला नहीं.उसकी मां ने भी उसे ऐसे ही चूमा होगा कभी...
 अरे आज मदर्स डे भी तो है.
-- कल उसने भी अपनी 'माॅम को, अभि को गोद में लिये उनकी रंगीन फोटो वाली कुशन उपहार स्वरूप कोरियर से भेजी है शायद दोपहर तक जरूर मिल जाएगी उन्हें.फेसबुक पर माॅम के लिये प्यारे प्यारे मैसेज भी पोस्ट कर दिये हैं.अब तक तो देखकर खुश हो गई  होंगी. पापा को भी अभि की कुछ वी डी ओ क्लिप्स भेज देता हूं.बहुत याद आ रहे हैं आज तो मम्मी पापा...समीर सोचे जा रहा था.कितना लंबा समय हो गया उनसे मिले..
माॅम डैड  सुनते  ही आ पहुंचे थे यहां. अभि की प्रीमैच्योर डिलीवरी की खबर सुनकर भला कैसे रूक सकते थे वो? सुपौत्र का जन्म उनके सपनों में रंग भरने के लिये काफी था.कितने खुश थे दोनों.. पूरे सात साल बाद घर के आंगन में नन्ही किलकारियां गूंजी थीं..इतना लंबा इंतजार..पोते का नाम अभिनंदन  रखकर कितने खुश थे पापा..
मम्मी पापा दोनों ही रिटायर हो गए हैं अब तो...यहीं रहना चाहिये था उन्हें...अभि को भी जरूरत थी उनकी..मगर कृति...ओफ्फ!
बुलाना चाहता हूं, लेकिन कृति के अवमानना वाले व्यवहार से आहत दोनों की यहां से वापसी, पिछले साल भर से नाराजगी,उनकी खुद्दारी उन्हें यहां कभी नहीं आने देगी. दूर से ही स्काइप पर अभि की शैतानियों और मोहक क्रियाकलापों को देख-सुनकर संतुष्ट हो जाना अब उनके लिये काफी था.वो कभी नहीं आएंगे यहां...कैसी बेबसी है...उफ्फ़...समीर का सिर भन्ना रहा था बीती बातें याद कर.
--जरा डिस्प्रिन तो देना...बहुत दर्द हो रहा है सिर में..
--जल्दी लो ये गोली और मुझे स्कूल छोड़  दो.क्लीनिक जरा लेट चले जाना सुम्मू!आज मदर्स  डे स्पेशल इवेंट है मुझे ही को-आर्डिनेट करना है सब. बेबू!जल्दी करो ...प्लीज
--अभि ज्यादातर बिल्ली के उसी सोफ्ट ट्वाय से खेलता है,जिसे उसकी दादी बड़े प्यार से उसके लिये लाई थीं और हमेशा म्याऊं म्याऊं की आवाज करते हुए अभि को बहलाती थीं...कितनी बुरी तरह सोफ्ट ट्वाय को माॅम के हाथों से छीन कर दूर फेंककर  कृति कैसे चीखी थी-
--क्या लगा रक्खा है ये मेरे बच्चे के साथ...जानवरों की बोली सीखेगा अब ये..यही सिखाना बाकी था बस... 
मम्मी कितना रोईं थीं तब...
यदा-कदा अभि को खाना खिलाते समय भी मम्मी  के लिये परेशानी का सबब बन गई थी कृति.
एक बार तो हद ही कर दी थी उसने, जब चम्मच के बजाय अपनी उंगली की पोर से अभि को  माॅम पालक का साग चटा रही थीं ..कटोरी फेंककर फुफकार उठी थी वो मम्मी पर...सारे  जर्म्स लपेट  रखे हैं कटी फटी गंदी उंगलियों  में ..पता नहीं समझ क्यों नहीं आता यहां किसी को भी.. मेरे बेटे को कुछ हो गया तो..
उसके ऐसे ही कटु व्यवहार से दुःखी होकर मम्मी पापा उदासीन से होकर वापस चले गए थे बैंगलोर.
तभी फोन बजने से समीर की तंद्रा टूटी-
-बेटा!हम दोपहर दो बजे तक पहुंच जाएंगे एयर पोर्ट पर.. लेने आ जाना हमें...
--जी ..जी ..माॅम बिल्कुल..उसे अपने कानों पर भरोसा नहीं हो पा रहा था.
--ये..ये..क.. क.. कैसे हुआ माॅम?
--बहू ने बताया नहीं...अरे कल तो खूब देर तक बातें हुईं थीं  हमारी...उसने बहुत साॅरी फील किया .. हमारे टिकट वीजा सबके इंतजाम भी करा दिये हैं.बच्चे तो गलती करते ही हैं बेटा! मां बाप का बड़प्पन तो उन्हें माफ करने में ही है.
कनखियों से देखते हुए कृति  मुस्कुरा रही थी.
समीर कार की चाबी थामे अभि को गोद में उठाए कृति का हाथ थामे कोई फिल्मी गीत गुनगुनाते हुए मेन गेट की ओर मुड़ गया था. ****

6.खाई कसम
   *********

         लाड़ले देवर किशोर की हालत एकाएक बिगड़ गई, उल्टियां रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी। अफरातफरी में पति ने किशोर को अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड में एडमिट करा दिया गया। आने वाली टेस्ट रिपोर्ट हाथ में आते ही पति के चेहरे पर आते जाते भाव ने मुझे डरा दिया, घबराकर मैंने पूछ ही लिया... 
-अजी क्या हुआ?
-कुछ नहीं ध्यान रखना होगा अब किशोर का,  इसको गांव नहीं भेजेंगे... वहां दोस्तों में इसकी संगत ठीक नहीं लगती मुझे।
-- आखिर हुआ क्या? 
--टी बी का अटैक है, फेफड़ों में इन्फैक्शन है। जनाब खूब सिगरेट पीते रहे हैं। हम सोच रहे हैं कि मां बाबा के साथ है मेहनत से पढ़ रहा है।
". . . . !"
--एक साल तक ट्रीटमैंट चलेगा, दिमाग घूम रहा है मेरा तो। किसी ने भीआज तक बीड़ी,तंबाकू, हुक्के,सिगरेट को हाथ नहीं लगाया है हमारे घर में आजतक। अब हम भुगतेंगे इसकी करतूत को... पता नहीं कबसे इस दुर्व्यसन का शिकार है नालायक?
--ज्यादा मत सोचो, गुस्सा मत  करना। आजकल जवान बच्चों को डांटते हुए भी डर लगता है, कहीं कुछ कर ही ना बैठे?  आप तो कितना चाहते हो किशोर को, और मेरे लिये भी वह देवर नहीं बेटा है मेरा। मैं समझाऊंगी उसे, उसका खूब ख्याल रखूंगी। ठीक हो जाएगा वह.. आप परेशान ना होओ अब।
   कमरे में एकांत मिलने पर अपराधबोध से ग्रस्त किशोर फुसफुसाया।
 -भाभी मां!मैं बहुत शर्मिंदा हूं, आपने मुझे
बचा लिया भैया के गुस्से से। कितना समझाती रहीं आप. . . मैं ही झूठ बोलता रहा.
--हां केशू!याद है एक बार तुम्हारे जले हुए गद्दे को देखकर मैंने तुमसे पूछा भी था तो तुमने अपने मेहमान दोस्त पर जलती सिगरेट छिपाने का दोष मढ़ दिया था। मैं मान भी गई  थी।
--फिर एक बार तुम्हारी कमीज धोती बार मैंने तेज बदबू की शिकायत की थी तो तुमने....
--बस...बस करो भाभी ये लो आज मैं एक- एक करके पैकेट की सारी सिगरेट तोड़ तोड़कर लाखों बार शपथ लेता हूं कि भविष्य में अब  कभी भी नशा नहीं करूंगा.
 दरवाजे पर भाई के आने की जैसे ही दस्तक हुई, किशोर ने शरारत से कहा-भाभी!प्लीज!आप भी शपथ लो न कि भैया को कुछ नहीं बताओगी..प्लीज!
मैं भी मुस्कुरा दी।
-- अच्छा, खाई कसम।" ****

7.संकल्प की रोशनी
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-भानु!याद है..कितनी मिन्नतें की थीं मैंने तुमसे दूसरी औलाद के लिये.तुमने तो स्वीकृति दी ही नहीं थी,लेकिन मुस्कान को तो आना ही था हमारी जिंदगी में.
पता चलने पर तुम कितना झुंझलाएथे.किसी तरह मैंने तुम्हें मना ही लिया था आखिर.बस मैंने तो मन में संकल्प कर लिया था,कि दो बच्चे तो होने ही चाहियें.
अनु पति से बोली.
-ठीक कहती हो अनु!रोशन ने तो शादी होने के बाद अपने ही देश में, करीब के शहर में रहकर भी हमें अनदेखा कर दिया था.यहाँ तक कि तुम्हारे बीमार पड़ने पर बस एक दिन ही रूका.कुछ पैसों और नर्स का इंतजाम करके अपनी व्यस्तता बताकर उलटे पैर वापस लौट गया था.
-हुं अं अं...भारत से यहाँ केनेडा में तो मुस्कान ही हमें ले आई थी,वरना हम तो कबके...
-चलो अंदर!ठंड बहुत है.
-जी भरकर देखने दो जी मुझे आज इस चमकते सूरज की किरणों को..यहाँ तो कम ही दीखती है गर्माहट की रोशनी.बिल्कुल पराई हो जाने वाली बेटी की तरह. 
-तुम्हारे संकल्प की रोशनी ही काफी है अनु. हमारी बेटी ने बीमारी और बुढ़ापे में हमारी सेवा करके कर्तव्यनिष्ठा का उपहार देकर हमारा सिर गर्व से ऊंचा कर दिया है.
  -मम्मा!पापा!अंदर आइये...रोशनी बुला रही है नानू नानी को. ****

8.अनवरत सफर
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वसुंधरा की कोख में निरंतर बहने वाला जल विभिन्न रूप धरकर अपने अस्तित्व  की रक्षा करने हेतु हमेशा सचेत रहता. अब उसे कुछ दंभ हो चला था इस बात का,कि वह तो जीवन के लिये अपरिहार्य  बन चुका है.भला कोई होड़ कर सकेगा भला उसकी.
कूप,झील,ताल-तलैया,बावड़ी,जोहड़,नदी,समन्दरऔर बर्फीले पर्वतों से पिघलती शिलाएं सभी उसकी आन बान और शान बनकर उसके अस्तित्व के साथ- साथ चलते रहे. मीठा और खारा जल मानव मन में अपना अपना खास स्थान बनाने में पूर्णतः सफल रहा.पर हाय री किस्मत!धरा के अंतःस्थल-मार्ग से बाहर निकलकर अनवरत चलने वाला मुसाफिर सा जल दीर्घ नि:श्वासें भरने लगा था.उसे सभी नीर और जल से पानी कहने लगे. नाम की तरह वह भी कुछ बदल सा रहा था.
थककर चूर हुए निश्चेष्ट से धीरे -धीरे मंथर गति से डगमगाते कदमों पर चलता, रूकता, हांफता, फिसलता,कभी कभी दुर्गन्धयुक्त , कभी दर्पण सा चमकदार और पारदर्शी ,कभी मटमैला सा,धरती के भीतर घुटते से पानी को कंकरीला,पथरीला,माटी से सना,हरियाला और जलजीवजंतुओं की पनाहगार वाला रास्ता अब बुरी तरह थकाने लगा था.
लहरों की चंचलता,नमक निर्मिति का पुनीत सेवा-कर्म,पारदर्शी चमक वाला रूतबा, द्रव्य खनिजों की बहुलता, पर्वतीय गहन गुफाओं  में नवाकार धरकर मोहित करता हुआ शिलारूप (बर्फीले शिवलिंग)जैसे उसके सहज गुण तिरोहित हो रहे थे.
नेत्र बंद किये हुए ही जल ने अपने पालक वरूण देव को याद किया.अपनी विशिष्टताओं का हवाला देकर शपथ ली, कि धरा गगन से जुड़े  उस मानव का अंत तक साथ देगा,जो सदियों से उसे हरदम ही तवज्जो देकर सजाता,संवारता,पूजता और उपयोग में लाता रहा है.
अपनी खूबियों की गठरी लिये फिर चल पड़ा 'जल'..अपनी नई सुखद रवानी के साथ...
पर हाय री किस्मत!  अब भी  उसे कैद करने के नाम पर पालकों द्वारा बलपूर्वक ऊंचे पक्के बांधों में बांधा जाने लगा था,नलों,पाइपों और वाटर हार्वेस्टिंग यंत्रों में कसकर रोका गया,बोतलों एवं थैलियों  में पैक भी किया गया,पर्वतों को काटकर वृक्षों को धराशायी कर नन्ही छिटपुट धाराओं में झलक दिखाने भर का अवसर देकर  मानव अपनी खुशफहमी कायम रखकर उसके अस्तित्व  के होने मात्र का प्रमाण देने लगा .
उसे कहीं छायादार पेड़ मिलते तो दो पल आराम ही कर लेता..तपती धूप में बेहाल अब तो वह खुद को ही ढूंढने का  प्रयास कर रहा था.कहीं कोई माटी का घड़ा या प्याऊ भी नहीं...कहीं कोई आश्रय.. ओफ्फ!मूर्च्छित हालत में देर तक उसांसे भरता हुआ वह कुछ संभला तो खेतिहर किसान के घर के पुराने टुटड़े जंग खाए  हैंड पंप से टप टप कर फिसलते हुए कनखियों से उसकी ओर देख कान उधर ही लगा दिये.
किसान चार पांच पियक्कड़ों से घिरा जुआ खेलता हुआ बीवी पर चीख रहा था-'जा! पानी भर ला..टैंकर आ गओ है.चार दिन हो गए बिन न्हाए सबने.पानी की कमी से सारे गांव में मानस दुःखी हो रए हैं.जा जल्दी..
-कुएं,बावड़ी,ताल,जोहड़ सारे पाट राखे हैं तम मानुसों ने...के करै धरती मैया वा भी...मजबूर है.
धरती मैया की कोख से बाहर  निकालके तमनै बड़े जुलुम करे हैं इस पवित्तर जल पै.. रहम करो इब.. नई तो कहर बरसैगा..योई पानी बहाके ले जागा सारी दुनिया नै ...हमनै.. तमनै.. सबन नै.
-बूंद बूंद भर लो इसै अंजुरी में अपनी...जे हाथ ही हैं म्हारे जो अच्छे करम कर सकै हैं...
यो बहता पानी थक लिया अब...इसनै हाथों से संभाल लो बस.
मत करो इसका दोहन...नई पीढ़ी नै भी साथ चलन दो इसके.
वार्तालाप सुनता हुआ ,दरवज्जे पै खड़ी बरफ के गोले की ठेली को देखकर जल कुछ पल के लिये ठिठक गया था ...ठेली वाला लपककर हैंडपंप के एक हत्थे  को खींचता हुआ दूसरे से चुल्लू  से टपकता पानी पीता हुआ उसे अहसास दिला रहा था मानो उसके थके हारे तपते तन पर किसी भले मानस ने ठंडे छींटे मार दिये हों अपनी कोमल हथेलियों की अंजुरी में भरकर... ! ****

9.व्यापार और व्यवहार
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 कानपुर की मशहूर दुकान पर खड़ी नीरूअपनी सखियों के साथ काफी उत्साहित सी होकर काउंटर पर जाकर जोरदार स्वर में बोली-
भैया जी!हमको लड्डू लेकर जाने हैं अपने गांव..अपनी दादी दादू को खिलाने हैं। क्या चखा सकते हैं?
-काहे नहीं!जे लो एक लड्डू धरके दे रए हैं पलेट में सो सबरी चाख लो तनिक तनिक सा।
सुस्वादु लड्डू चखकर सबके मुख पर सुखद अहसास जगा और एक एक किलो लड्डू पैक होने लगे।
सभी डिब्बों में  समाकार के बीस बीस लड्डू देखकर नीरू खुश थी,लेकिन पेमेंट करते समय अपने डिब्बे में कुल उन्नीस लड्डू देखकर परेशान सी होकर वह बोली-भैया!ये क्या ? एक लड्डू कम क्यों?
-बोर्ड पर पढ़िये फिरसे।
-"ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं"
-आपने जो चखने को मांगा था,वो लड्डू भी तो गिनेंगे बहनजी।
दुकानदार की हाजिरजवाबी सुनकर नीरू ठगी सी रह गई थी। 
गांव में आज सरसों ताई की दुकान पर खड़ी वह आटा,चावल और दाल लेकर जैसे ही घर की ओर मुड़ने लगी,तो पीछे से ममतासे भरी पुकार गूंज उठी-अरी बिटिया!लुभाव तो लेई जाओ.
-वो क्या होता है?
-लाड़-प्यार का एक्स्ट्रा गिफ्ट.
नीरू शहर और गांव में जन-व्यवहार के अंतर को भांपते हुएऔर दस दिन की छुट्टियाँ लेकर गांव के जरूरतमंद  बच्चों को लेकर "व्यापार और व्यवहार" नामक नुक्कड़ नाटिका का प्रदर्शन कराने की योजना मन ही बनाने लगी थी। ****
             
 10.माॅम
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 - माॅम!क्या हुआ?ये लो पानी पी लो.
-नहीं..अभी परांठे बनवाती हूँ तुम दोनों  के लिये गाजर गोभी के.जाकर दही ले आना बेटा सामने हलवाई की दुकान से.
-ओहो माम! अभी तो खाकर बैठे हैं हम तीनों नाश्ता.दही की तो पूरी मटकी भरी हुई है अभी.
-आॅफिस जाना है बेटा मुझे ..जल्दी तैयार हो जाती हूँ..देर होती है,तो प्रिंसिपल डांटती है.
माला मैडम बेटी से बोलीं.
-अरे भाग्यवान!आज इतवार है.सबकी छुट्टी है.
सुमि के पापा पत्नी पर झुंझलाए.
-ओफ्फ!क्या करूँ?कहाँ जाकर मरूं अब?पागल हो चुका हूँ मैं तो इस औरत के चक्कर में ...
-पापा! प्लीज मत कहिये ऐसा.आप भी ऐसा कहेंगे तो फिर कौन संभालेगा मम्मा को. बीमारी है ना भूलने की...किसी को भी हो सकती है पापा बीमारी तो...
अब चल तो रहा है इलाज माॅम का ..आपने तो सात फेरे लेकर वादा किया है पापा मम्मी का जीवन भर साथ देने का...भूलियेगा नहीं  डैड.
सुमि पापा को प्यार से समझा रही थी.
-अरे नहीं बेटा..वो तो बस...अब ये बेबात ही गुस्सा दिलाती रहती हैं , क्या करूँ? और हाँ, इनके काॅलेज से फोन आया है ...त्यागपत्र दिलवाने के लिये कहा है इनका.हो गया न नुकसान.अब कौन कौन झेलेगा भला ऐसी मरीज को?
-ठीक है पापा..मम्मा ने तीस साल तक इज्ज़त की नौकरी की है.खूब कमाया भी है.माॅम को पेंशन भी काफी मिलेगी. फिर क्या कमी छोड़ी है भला आपकी जीवन-संगिनी ने?
-बेटा!तू तो भावुक हो गई .
-डैड!मैं आप दोनों का टूर पैकेज बुक करा रही हूँ यूरोप का..माॅम की तबीयत संभलेगी कुछ.
 -नहीं मैं कहीं नहीं जाऊँगी.तुझे जाना है ना यूरोप पढ़ने तू जा . बस तभी वहाँ  आकर घूमूंगी.
पीछे से आकर सुमि की माॅम बोलीं.
-माॅम! मैं  कहीं पढ़ने वढ़ने नहीं जा रही हूँ.यहीं रूढ़की में रहकर ही एम.टैक पूरी करूँगी.आपको इस हालत में  छोड़कर जाने का सवाल ही नहीं उठता है.
-मेरे कारण तुम सब परेशान हो.मैं भी काफी चिड़चिड़ी हो गई  हूँ.अब क्या करूँ मैं?कई बार तो सोचती हूँ  जाकर कहीं मर ही जाऊँ .....
-अरे नहीं मम्मा.ऐसी गलत बात सोचना भी मत.आपको मेरी कसम.पापा तो बहुत अच्छे हैं,आपका हमेशा ख्याल रखते हैं.कभी-कभी उन्हें गुस्सा आ जाता है बस..
रात के घुप्प अंधेरे में चुपचाप ही डबडबाती आंखों से सुमि की मम्मी उठीं और कमरे से बाहर आकर सड़क पर दूर निकल गई थीं, शायद सब कुछ भुला देने के लिये यही ठीक लगा उन्हें ...
काॅलोनी में भीड़ जमा हो चुकी थी.सभी  खुसुर फुसुर कर रहे थे
- अरे!अभी तो रिटायरमेंट भी नहीं  हुआ था  उनका. बेचारी इतनी जल्दी चली गई.इतनी पढ़ी लिखी,हंसमुख और समझदार प्रोफेसर भला आधी रात को सड़क पर करने क्या गई थी?वो भी अकेली?
माला के निष्प्राण शरीर को निर्निमेष देखते हुए बाप बेटी दोनों का मार्मिक मौन अंदर ही अंदर चीखें मार रहा था.****
      
 11. उत्कर्ष 
      ******

शहर जाकर रोजगार ढूंढकर रामू के सिर पर रात-दिन मेहनत करने की धुन सवार थी.पिछले महीने गांव जाते हुए सतपाल  से चाक भिजवाकर वह बहुत संतुष्ट  हुआ था.इस महीने रूपया पैसा जोड़कर छुटकी का ब्याह जो कराना था. 
घर से निकलते हुए भरोसे से कहकर आया था बाबू जी से.
--लौटेगा तो सहारा लगाएगा.  
अब तो माॅडर्न तरीके के माटी के बर्तनों का प्रयोग भी होने लगा है जैसे कुल्हड़,गिलास,प्लेट,कटोरी
वगैरा. बैटरी से चलने वाला चाक..  जरूर लेकर आऊंगा बाबा..फिर देखना कैसे दिन फिरेंगे अपने..
मालिक ने उसे आज गांव जाने की मंजूरी दे दी थी.साथ ही दयालु मालकिन ने भी लिफाफे में शगुन के इक्कीस हजार रूपये,बहन के लिये सिंदूर,बिंदी, मंगलसूत्र,पायल,चुटकीऔर दो रेशमी साड़ियां कन्यादान  के नाम से चमकीली सूटकेस  में धरवाकर असीस देकर साथ टिका दीं थीं.
-बहन के हाथ पीले हो जाएं, पवित्र अग्नि  के सात फेरे लगवाय दें सुसमा और राकेस के, बस अम्मां बाबू जी को भी तसल्ली मिल जाए बजरंगबली .
मन में बुदबुदाते हुए हाथ  जोड़े वह मंदिर की सीढ़ियों से उतरा.
बस में भीड़ और दिनों से कुछ ज्यादा थी.. रात का  अंधेरा अब गहराने लगा था .खड़खड़ाती बस में दो तीन बल्ब ही जल रहे थे. उनपे भी धूल अटी पड़ी होने से धुंधलाई रोशनी में साफ नजर नहीं आ रहा था.
झटके से बस रूकी.एक युवक तेजी से सूटकेस लिये उतरा अब तो रामू भी अपने गांव के बस अड्डे पहुंचने का बेसब्री  से इंतजार करने लगा.
दरवाजे पर भाई कोआया देख बहन खुशी से लिपट गई ..अम्मा बाबूजी  पनियाली आंखों से मुस्कुराए .
ज्योंही सूटकेस खोला गया सबके चेहरे चमक उठे.सुषमा ने नोटों की गड्डियां दुपट्टे  में भर लीं..ढेर सारी दवाईयां,इंजेक्शन भी सूटकेस की जेब में भरे दिखे बाबूजी विस्फारित नेत्रों से देखते रह गए ...
-कोनों गलत काम कर रए हो का?जे इतना सब..का है?
-जे हमाइ सूटकेस नाही...अरे रे...जे तो
लागत है..कहते हुए वह तेजी से बस अड्डे  की ओर भागा.. बस ड्राइवर और कंडक्टर  ढाबे पर खड़े होकर चाय नाश्ता करने में मशगूल थे.
मालूम करने पर उस युवक का पता ठिकाना भी मिल गया और फोन नंबर भी.
वह रोज ही उस बस से आने जाने वाला एक ईमानदार 
नौकरी पेशा भला युवक था... उसके छोटे भाई का ब्रेन ट्यूमर का बड़ा आपरेशन होना था उस रोज शाम को... 
दोनों मिलकर खुशी और दर्द के आंसू आंखों में लिये परस्पर  शुभकामनाएं दे रहे थे.
हवनकुंड में उठती हुई पवित्र अग्नि की लपटें बाबूजी और अम्मा जी के दर्द से तपते दिल को अब शीतल चंदन के लेपन का अहसास करा रही थीं.सात फेरे पूरे हो रहे थे.बेटी दामाद अग्नि  को साक्षी मानकर नए रास्ते  पर आगे बढ़ रहे थे ।
उधर युवक के भाई काऑपरेशन  भी सफल रहा.
गर्व महसूस हो रहा था अपने
बेटे पर मां बाबा को आज.
दिल की गहराई ऊंचाई छूने में देर नहीं करती. ****
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क्रमांक - 07
जन्मतिथि 24 मई 1975
पिता - श्री अशोक खन्ना
पति - श्री हरीश बाबू
शिक्षा :  बी कॉम ( हॉन)

प्रकाशित पुस्तकें :-
1.  नर्सरी पाठ्यक्रम
2. साँझा संकलन - महानगरिए  लघुकथाएँ

सम्मान : -

कलम शिरोमणि २०२०
लघुकथा भूषण सम्मान
लघुकथा श्रेष्ठ समीक्षक सम्मान

विशेष : -
फ़ेसबुक पर सुहाना सफ़र
अनु कपूर की गेम शो की मुख्य संचालिका

पता : -
333 , डॉ मुखर्जी नगर , दिल्ली 110009

1. वंश 
    ***

शादी वाला घर था। इधर उधर की बातों में अब अगली शादी किसके घर होगी का ज़िक्र चल पड़ा ।
“ बस अब गौतमी के बेटे वंश की शादी रह गयी है ।”बड़ी बुआ ने कहा ।
“ अरे कुंतो जीजी आहिस्ता बोलो तुम्हें नहीं पता गौतमी का बेटा ‘ गे’ (समलैंगिक )है ।
“ हे भगवान ये कौनसी बीमारी लगा दी “ बड़ी बुआ ने हमदर्दी से कहा ।
चाची को मौक़ा मिला आँखे मटकाते ,चटकारे लेती बोली “ सुना है अमरीका में किसी अंग्रेज आशिक़ के साथ रहता है “।
“गौतमी को तब भी समझ कम थी और अब भी ;किसी गरीब लड़की को बहू बना ले , शादी हो गयी बच्चा हो गया ,फिर यह जवानी की नादानी ख़त्म हो जाएगी “।बड़ी बुआ ने हल बता दिया ।
अब शालू से रहा न गया “ यह प्राकृतिक स्वभाव है वंश की अपनी चौइस है “
“यह नए ज़माने का उलजलूल ज्ञान न बाँट “ बड़ी बुआ ने डाँटते हुए कहा ।
“ चलो आपके ज़माने की भाषा में कहती हूँ , शालू ने उत्तेजित स्वर में कहा , “ ताई जी और आप सबने गौतमी भाभी की जान खा रखी थी , २ बेटियाँ के बाद 4 अबॉर्शन करवाए , यह उन कन्या भ्रूणो का श्राप है  ।
“अब चला लो वंश “ ****


2. निर्जीव लटकी गौरैया
    *****************

फेरों पर बैठने से पहले घर के लोगों के लिए खाना की टेबल सज रही थी  । समधन रेवा की निगाह दाल मखनी पर पड़ी । त्यौरियाँ चढ़ाती बोली “ सुरेंद्र जी यह क्या मेन्यू रखा है मेरी नाक कटवा दी “ यू नो आई हैव अ स्टैट्स टू मैंटैन “ जो भी खाना खा कर गया होगा उसने घर जाकर बोला होगा , “रेवा के स्टैट्स का रिश्ता नहीं “ 
“ रेवा जी आपके हिसाब से ही कॉंटिनेंटल , मेक्सिकन , इटालीयन चायनीज़ टर्किश फ़्रेंच रखा था बस २ मुग़लई डिशेज़ रखी थीं । “ सुरेंद्र के चेहरे पर पसीना आ रहा था । 
बातें सुन 5 सितारा होटेल का मैनेजर भी आ गया “ मैम वी हैव मेड़ द बेस्ट इंटरनैशनल क्विज़ीन “ 
“ ओ लीव इट , इट कैनॉट बी उनडन “ 
सुरेंद्र पगड़ी के बोझ के तले कुर्सी पर बैठ गया । 
अपनी बेटी तमन्ना की भरी आँखे देख सुमन 25 साल पीछे चली गयी । 
“सुमन के बाऊजी हमारा घर देखने आए थे नज़र नहीं आया मरून क़ालीन हमारे ड्रॉइंग रूम से मैच नहीं करता , कहते थे 5 महीने में कश्मीर के कारीगर ने बनाया । बाहर रखो इसे मेरे घर में जगह नहीं । 
आपको भी पता नहीं क्या सूझा भटिंडा की लड़की बॉम्बे ले आए । एक 5 स्टार होटेल नहीं था , देहाती गिफ़्ट्स दिए। होंगे रईस पर हमारे स्टैट्स के नहीं ।सुमन की सास सुमन के ससुर से शिकायत कर रही थीं।नौकर बाहर क़ालीन कर रहे थे कि बारिश शुरू हो गयी “ मैडम अंदर कर दें “ नहीं पड़ा रहने दो मेरे लिए वेस्ट है “ सुमन की सास ने फ़रमान सुनाया । 
सुमन की भरी आँखें सुरेंद्र से कुछ सुनना चाहती थी पर सुरेंद्र ने कुछ न कहा ।
कमरे में आने पर भी नहीं ।उसे  (सुरेंद्र को )पति होने की मोहर लगाने की जल्दी थीं ।उस रात 18  वर्षीय सुमन की छलकती आँखों ने माँगा ईश्वर इसे लड़की का पिता बनाना तब यह बेटी की भरी आँखो का दर्द समझेगा ।
“ सज़ा” सुरेंद्र के लिए माँगी थी पर आज तमन्ना की भरी आँखें देख उस फंदे पर वह खुद लटकी हुई थी । ****

3.कटौती
   *****

बाल्कनी में निर्मला कपड़े सूखने डाल रही थी ।सड़क पर खड़ी सत्तो कमली से बोली “ अब इस कोठी में काम नहीं करती ? “ 
“नहीं ... ३ घर छूट गए हाय पड़े करोना को “ कमली ने आह भरी 
दूसरे की भूख से पहले अपनी भूख की चिंता सबको सताती है 
जर्मन एअरलाइन ने पाइलट बेटे को पिंक स्लिप दे दी 
प्राइवट फ़र्म में कार्यरत पति को आधी तनख़्वाह ही मिलती 
लोन की किश्तें चुकाने के लिए २ चूड़ियाँ बिक चुकी थी 
हर बड़ा अपने से छोटे पर कटौती  की कैंची चला रहा था ।
श्रीमती आरती राय की माँड़ और भात से प्रेरित ! ****

4. रेडियो
    *****

माँ और माँ का पाकेट रेडियो जैसे शरीर और छाया ।
माँ को आवाज़ नहीं देनी पड़ती थी ,जहाँ से रेडियो की आवाज़ आ रही होती माँ वही होती।
किचन से ,छत से ,कमरे से यहाँ तक कि बाथरूम से भी रेडियो ही माँ का पता बताता था।
आज माँ बाथरूम की टाइल धो रही थी और गाने के बोल सुनाई दिए ...
“ इस अंजुमन में आपको आना है बारबार , ‘दीवारों दर को गौर से पहचान लीजिय ‘
बाहर मेरी हंसी नहीं रुक पाई और पूछ ही लिया 
“ माँ रेडियो से इतना प्रेम क्यों ? “
अपने प्रेम की पहरवी करती , एक दार्शनिक समान बोली “रेडियो ने मुझे  जीना सिखाया ...
तब एक ही रेडियो स्टेशन आता था गाना पसंद हो या नापसंद तुम बदल नहीं सकते थे ।उस आवाज़ वाले की ही मर्ज़ी चलेगी ।
कभी कभी फ़रमाइशी प्रोग्राम में चिट्ठी डालते थे कभी मिल जाती कभी नहीं । 
बार बार अपनी पसंद का गाना नही सुन सकते ।
क्या पुराना हो गया ,क्या नया है अब लोगों की क्या पसंद है । 
और जब सुन सुन के कान पक गए रेडियो ऑफ़ कर दो ।
समझी ये जीवन ज्ञान है ।
ले तेरी बातों में ३ गाने ख़त्म हो गए कुकर की गैस बंद करनी थी “कहती माँ किचन की ओर चल दी । ***

5.समझौता
    *******

‘तुम किसी को नहीं बदल सकती ‘।
“ तुम्हें ही बदलना पड़ेगा “ ।
“यह बात कितनी बार बोली है पर तुम्हें समझ नहीं आती “।
“युगों से यही होता है “
फिर एक स्त्री ने दूसरी को समझौते की धारा में खींचा ।
धारा के किनारे बैठी एक ने फिर वही सवाल दोहराए  “ वो हमें  ही क्यों बदलना चाहते है “?
“वो हमें  यूँही  क्यों नहीं अपनाते “ ?
तुम एक स्त्री को ही क्यों खींचती हो ?
क्या समझौता स्त्री का पर्यायवाची  है ? ****

6.बूढ़ा या बुज़ुर्ग
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“ क्या हुआ बस दो ही चक्कर” पूछते हुए कर्नल वर्मा कमलेश बाबू के पास बेंच पर बैठ गए ।
“हाँ हिम्मत नहीं होती और मन भी उदास है “कमलेश बाबू ने दुःखी मन से कहा 
“क्यों घर परिवार सब है बेटा बहू पोता पोती सब बहुत सभ्य प्यार करने वाले है “कर्नल वर्मा बोले
“अब कुछ ग़लत होगा तब बोलूँ नहीं 
कामवाली ने पोछा नहीं लगाया मैंने बोला तो बहू बोली ठंड बहुत है भला ये कैसे सफ़ाई हुई .. बच्चे देर रात तक जागते है देर   से उठते है ,बूढ़ा हो गया हुँ मेरी बात का कोई मोल नहीं “ कमलेश बाबू ने उलहाने भरे स्वर में कहा ।
“कभी समझा है बूढ़ा क्यों कहते हैं 
बूढ़ा जिसके सब अंग धीरे धीरे अपनी क्षमता से कम काम करते हैं आँखे , जोड़ पाचन इत्यादि पर एक ज़ुबान ज़्यादा चलती है सारा दिन बुढ बुढ तभी बूढ़ा “ कहते हुए कर्नल वर्मा ने ज़ोर से ठहाका लगाया
कमलेश बाबू बुज़ुर्ग बनो, जिसके पास 
ब से बहुत , ज़ से ज़िंदगी का तज़ुर्बा है और ग से गर्व है की वो आनेवाली पीढ़ी को दे रहे है 
जिस दिन ये समझ जाओगे ख़ुश रहोगे.. तुम्हें उन्हें सही दिशा दिखानी है उपदेश नहीं देना ,उठो एक चक्कर और लगाते है हाथ बढ़ा कमलेश बाबू को सही दिशा पर ले कर्नल वर्मा चल पड़े। ****

7.दुआ
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सभी पड़ोसी वर्मा आंटी के घर पर थे आज उनके पोते की षष्ठी पूजा थी ।
मिनी दरवाज़े पर खड़ी धोबी से कपड़े ले अंदर जाने लगी थी तभी वर्मा आंटी के घर से किन्नर बाहर आ रहे थे।
सबसे आगे जो थी मिनी को देख मुस्कुराई और  मिनी को रुकने को कहा 
मिनी रुक गयी ... क्या हुआ मेरी लाडो क्यों नहीं आइ ... इससे पहले मिनी कुछ कहती वो अपने अन्दाज़ में बोली ... चिंता ना कर मेरी लाडो ये दुर्गा का बोल है तू भी जल्दी माँ बनेगी तब तेरे से सोने का छल्ला लूँगी उसका इतना कहना था मिनी की आँखो से झमाझम अश्रुधारा बहने लगी
शादी के १० साल बाद भी उसने माँ शब्द नहीं सुना था ...किन्नरों को शायद सरकारी जणगणना वालों से ज़्यादा जानकारी होती है ।
दुर्गा और उसके पीछे जाती सभी उसके सिर पर हाथ रख आगे बढ़ गयी।
मिनी को अपने बचपन की बात याद आ गयी ...
बुआ के बेटे की शादी पर १० वर्षीय मिनी उन्हें देख डर गयी थी और अपने पापा के पीछे छिप गयी थी ।उसे डरा सहमा देख पापा ने उसके बालमन को समझाने के लिय कहा था “इनसे डरना नहीं चाहिय भगवान ने इन्हें ऐसा इसलिए बनाया है की जीवन में लगे कोई कमी है तब इनकी दुआ से वो पूरी हो जाती है । “
एक साल बाद मेडिकल साइंस का कमाल था या जिसने जिस दिन आना है तभी आना है या दुर्गा की दुआ थी मिनी ने जुड़वा बच्चो ,एक  बेटी एक बेटे को जन्म दिया ।
बच्चों को पहली बार देख मिनी सोच रही थी दुर्गा  को २ सोने के छल्ले देगी । ****

8. समझाना
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मुझे नहीं पसन्द ये इलॉजिकल रिचूअल्ज़ पाश्चात्य रंग ढंग में पली बढ़ी जेसिका सारांश से  बोल रही थी।
इसमें इलॉजिकल क्या है .. शादी से पहले तुम्हें पता था की मेरी जोईँट फ़ैमिली है ...फिर भी दादी ने तुम्हारी ख़ुशी के लिए हमारी किचन अलग कर दी ।
हाँ संडे को ,फ़ेस्टिवल्ज़ को नीचे सब के साथ डिनर करने की शर्त पर... जेसिका बोली।
सैटर्डे को हम डाइन आउट करते है ये सब जानते है सारांश ने अपना तर्क रखा ...
पर मैं अभी भी अंकम्फ़्टर्बल हूँ   ।
तभी बेल बजी और दोनो बहस छोड़ पूजा के लिय नीचे चले गए।
आज की पूजा जेसिका करेगी पंडितजी दादी ने कहा।
मैं .. पर मुझे नहीं आती जेसिका ने कहा
जैसे पंडितजी करेंगे तुम  बस वैसे ही करना  दादी ने समस्या का हल दिया ।
लक्ष्मी नारायण की तस्वीर की ओर इशारा करते पंडितजी बोले तुम दोनो ऐसे ही साथ रहो
तस्वीर देखते ही जेसिका को बुरा लगा .. तस्वीर में नारायण शेषनाग पर लेटे थे और लक्ष्मी उनके चरणो पर हाथ रख बैठी है जैसे दबा रही हो 
जेसिका के मन के भाव को पढ़ते दादी बोली
जेसिका इस तस्वीर का अर्थ समझो 
नारायण पालनकर्ता है , लक्ष्मी धन स्मृधि वैभव का प्रतीक है .. जो व्यक्ति अपने परिवार के साथ साथ किसी ज़रूरतमंद का पालनपोषण , संरक्षण करता है उसे जीवन में धन स्मृधि वैभव सब मिलता है ... क्योंकि तुम दोनो ही कमाते हो परिवार के पालनकर्ता हो इसलिए दोनो नारायण हो ।
बराबरी की बात सुन जेसिका ख़ुश थी और ख़ुशी ख़ुशी दान की थालियों पर हाथ रख रही थी ।
आज दसवीं पास दादी के तर्क ने एंजिनिएर ऐम बी ऐ बहू को कनविन्स कर  दिया था। ****

9.ख़िदमतगार अपराधी
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सुनैना के जाने के बाद सब अपनी ज़िंदगीमें व्यस्त हो गए .. मेज़ का दराज़ खोला तो अशोक की निगाह सुनैना के चाबियों के छले पर गयी .. एक छोटी चाबी पर लाल धागा बँधा था। उत्सुकतावश अशोक ने सारी अलमारियाँ खोल दी दराज़खोल दिये पर धागे वाली चाबी किसी की नहीं थी 
इसी उधेड़बुन में सारा समान बाहर निकालदिया तभी उसकी शॉल से ढकी एक संदूकचि मिली जैसे ही चाबीलगायीताला खुलगया
खोलते ही अशोक अवाक् रहगया ४  जोड़े सोने के कंगन २ सोने की चेन .. ५ सोने के सिक्के और १०  १२ चाँदी के सिक्के और एक चिट्ठी
प्रिय अशोक 
जब तुम्हें ये चिट्ठी मिलेगी तब मैं इस दुनिया में नहीं होंगी ... ये सब मैंने चोरी से बनवाया था हाँ चोरी से 
तुम हमेशा कहते मैं १९४० की पैदैयाश ...इन्वेस्टमेंट फ़्यूचर प्लैनिंग क्या जानु ..... तो ये समझना ये मेरी पफ का कट था और ये ग्रटूयटी है जो मेरे बच्चों में बाँट देना 
तुम्हारी ख़िदमतगार अपराधी 
पढ़ते अशोक की आँख से आँसू की बूँद  गिरी और अपराधी शब्द धो दिया ! ****

10.मटर पनीर
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अमित की तेहरवी पर अमिता के आगे थाली में जब मटर पनीर परोसा गया तो बचपन की बातें याद आ गयी 
अमित मटर पहले खाता क्योंकि उसे पनीर पसंद था और मटर नहीं । पूरी ज़िंदगी वह मटर खाता रहा की बाद मे पनीर खाएगा ... पर ज़िंदगी मटर खाने के बाद पनीर खाने का मौक़ा दे ये ज़रूरी नहीं ।
ज़िंदगी भर पैसे जोड़ता रहा ... गिन कर चार जोड़े कपड़े ही रहते ... भाभी को कड़ी हिदायत थी की जब तक रफ़ू हो सके चलाओ 
१० रुपए बचाने के चक्कर में दूर फल सब्ज़ी ख़रीदने जाता पैदल आता जाता। एक चप्पल कई बार जुड़वाता ..... बच्चे देखते थाली में पनीर है पर उन्हें भी खाने की मनाही थी इसलिए वे भी चिढ़ते 
एक दिन बीमारी ने दस्तक दी ... नीम हकीम से इलाज कराया ... 
आज अमित नहीं था पर उसके हिस्से का पनीर वैसे ही था काश थोड़ा पनीर चख लिया होता .... ! *****

11.गणित 
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आज ना तो नया साल , न दिवाली ,न मेरा जन्मदिन फिर रूपेश का फ़ोन ...
मोबाइल पर रूपेश कॉलिंग देख , सरला जी ने फ़ोन उठाया ।
“ हेलो माँ एक ख़ुशख़बरी देनी थी अनमोल का सिलेक्शन एस॰पी॰ए॰ भोपाल में हो गया है मैं सोच रहा था वह आपके पास रह लेता ... इससे पहले रूपेश बात पूरी करता ,सरला जी बोली
“ अब बँटी ( प्रॉपर्टी डीलर) ही पी जी का काम देखता है उसे कह दूँगी वो तुम से समझ के रेंट डीड बना देगा , खाने के ५००० एक्स्ट्रा है ,बच्चे कमरे में ,कॉलेज में क्या करते है मेरी कोई ज़िम्मेदारी नहीं ।
आख़िर मुझे भी २+२ = ४ करने है २-२ शून्य नहीं ।”
यह गणित १४ साल पहले रूपेश ने ही माँ को सिखाया था ।
“माँ मैं गुड़गाँव शिफ़्ट हो रहा हूँ यहाँ सी॰ ए॰ का कोई स्कोप नहीं 
माँ ज़िन्दगी का गणित समझो मुझे २+२ = ४ करने है  २-२ शून्य नहीं ।
आप पी जी रख लेना साथ भी हो जाएगा और पापा की पेन्शन के साथ थोड़ी कमाई 2 में 1/2  जमा ढाई हो जाएगा , आपके लिए काफ़ी है ...
और हाँ कह देना बच्चे कमरे में ,कॉलेज में क्या करते है मेरी ज़िम्मेदारी नहीं , सिम्पल फ़ॉर्म्युला।”
गुड़गाँव जाने के बाद ,साल में केवल 3 ही बार फ़ोन करता ।
शुरू शुरू में कहता अनमोल   छोटा है , फिर खेल रहा है ,सो रहा है आख़िर एक दिन कह ही दिया  वो आपसे  क्या बात करे ,आपकी कोई बात याद नहीं , मिला नहीं ऑक्वर्ड फ़ील करेगा । “
बेटे के सिखाए गणित की पुनरावृति माँ कर ही रही थी कि फ़ोन कट गया ! ****
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क्रमांक - 08
पति का नाम : श्री मुदित गर्ग
पिता का नाम : श्री विधासागर
माता का नाम : श्रीमती कौशल रानी
शिक्षा : एम० ए० (अर्थशास्त्र), ‌बी एड०

विधा : -
लघुकथा, कविता, गीत, मुक्तक, दोहा, हाइकु, कहानी, संस्मरण आदि ज्यादातर सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है।

व्यवसाय: -
अध्यापिका, लेखिका कम गृहणी,  महिला काव्य मंच दिल्ली की कार्यकारिणी सदस्या, समाज सेवा में संलग्न।

सांझा संकलन : -
जागो अभया, काव्यस्पंदन, समाज ज्योति, अविरल प्रवाह, समय की दस्तक, भाषा सहोदरी, आरूषि, साहित्य अर्पण, प्राज्ञ साहित्य, कोरोना काल में साहित्य आदि।

सम्मान: -
'हिंदी योद्धा' सम्मान  2020, उत्तराखंड में प्राज्ञ साहित्य सम्मान,  जय विजय पत्रिका द्वारा 'सर्वश्रेष्ठ लघुकथाकार 2019' ,लघुकथा श्री, भाषा सहोदरी, 'हिन्दी साहित्य कर्नल' स्टोरी मिरर, गुरु वशिष्ठ सम्मान, जागो अभया सम्मान, नदी चैतन्य हिंद गौरव सम्मान, गीत गौरव सम्मान, मां वीणापाणि साहित्य सम्मान - 2020 ,स्वामी विवेकानन्द साहित्य सम्मान, श्रेष्ठ श्रोता सम्मान, देश में जल बचाने हेतु जागरूकता सम्मान, पृकति प्रहरी सम्मान, काव्य भूषण सम्मान, जैमिनी अकादमी हरियाणा द्वारा स्वामी विवेकानंद सम्मान 2021, भारत गौरव सम्मान 2021, टेकचंद गुलाटी स्मृति सम्मान, उत्तम चंद स्मृति सम्मान ,हिन्दी साहित्य संस्थान द्वारा भिन्न-भिन्न सम्मानों से नवाजा गया है। आदि अनेक सम्मान प्राप्त हुए हैं।

पता : -                                  
ई-708, नरवाना अपार्टमेंट, 89 आई०पी०एक्सटैंशन,
दिल्ली -110092

1.एक हाथ से ताली नहीं बजती
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फसल खेतों में लहलहा रही थी। दोनों बाप-बेटे की ज़िंदगी में जैसे फिर से बहार आ गई हो, दोनों को देखकर तो ऐसा ही प्रतीत हो रहा था। खेत भी कई सालों बाद आज खिलखिलाकर हँसे थे, मानो बंजर भूमि उपजाऊ होने लगी हो।
बेटा मुन्ना अपने पिता को मुस्कुराते हुए देखकर अपनी पिछली ज़िंदगी में खो जाता है…. कैसे सुबह तड़के वह फावड़ा और तसला लेकर अपने बाबूजी के साथ खेतों में पहुँच जाता था। पूरे दिन वहीं पर दोनों मिलकर खेतों में काम करते, दोपहर को माँ दोनों को खाना खिलाने आती और वह कैसे माँ की गोद में सर रखकर सो जाया करता। धीरे-धीरे माँ सर में ऊँगलियां फेरती और कुछ गुनगुनाने लगती।
बड़ा होने पर रंक की बातों में आकर शहर में जाना और ज़्यादा पैसे कमाने का लालच। शहर में दूसरे की चाकरी करना, अगर काम में जरा सी कमी रह जाए तो तनख़्वाह काटकर गाली-गलौज सुनना।  कभी-कभी तो भूखे पेट ही सो जाना, कितनी गंदी जगह थी जहां वह रहा करता था, चारों ओर धूल-धक्कड़। उफ़! कितने प्रदूषण से भरा था वह शहर। 
सोचते-सोचते काँपने लगता है, तभी रामू जो उसके बाबू जी थे उसे हिलाते हैं। वह सामने बाबू जी को देखकर उनके गले लगकर खूब रोता है। बाबू जी मुझे माफ़ कर दीजिए, मैं पैसों की खनक से इतना व्याकुल हो गया था, जो यह भी न समझ सका कि ताली एक हाथ से बजाओगे तो तकलीफ़ देगी और दो हाथों से बजाओगे तो आनंद का अनुभव कराएगी।
बाबू जी उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए कहते हैं जो हुआ उसे बुरा सपना समझ भट्टी में डाल और हमेशा के लिए गाँठ बाँध ले कि आनन्दमय ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती। दोनों फिर से लहलहाते खेतों का आनंद लेने लग जाते हैं। ****

2.मानव बना बोर्ड 
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ठिठुरन भरी सुबह, एक दुकान के सामने, गले में फंदा लटकाए एक वृद्ध व्यक्ति, फंदे में बंधा एक बोर्ड, जिस पर लिखा था- “विंटर सेल-सेल-सेल...सिर्फ़ दो दिन बाकि, पहले आओ-पहले पाओ, फिर मत कहना हमने सस्ता दिया नहीं।”
यह सब एक दुकान के आगे खड़े एक मानव की उपस्थिति और दुकानदार की मानसिकता को दर्शा रही थी। जिसको देखने के बाद सीमा का मन विचलित हो जाता है, वह वहाँ से गुजर रही थी। सीधे दुकानदार के पास पहुँचती है और सवालों की बरसात शुरू कर देती है, परंतु सामने से कोई ज़वाब नहीं आ रहा था।
थोड़ी देर शांत रहने के बाद एक आवाज़ “मैम को पानी दो।” 
“पानी नहीं ज़वाब चाहिए।” सीमा बोलती है
“दीदी हमने मना किया फिर भी यह नहीं माना, रोज़ बाहर खड़ा हो जाता है, जबकि यह काम सिर्फ़ बोर्ड लगाने मात्र से भी हो सकता है।” दुकानदार बोलता है
“बाबा आप ऐसा क्यों कर रहे हैं? विनम्रतापूर्वक सीमा ने बाहर खड़े व्यक्ति से प्रश्न किया?
“मेरे पेट पर लात मत मारिए मेमसाहब! पेट की भूख इंसान से वह कार्य भी कराती है जिसका कोई ज़वाब उसके पास नहीं होता।” हाथ जोड़ वह व्यक्ति सीमा के सामने गड़गड़ाने लगता है।
सीमा चुप्पी साध लेती है और मन में चल रहे कौतुहल को समझाने में लग जाती है। वह एक सवाल अपनेआप से पूछती है? क्या यह मेरा वही प्यारा भारतवर्ष है जहाँ भूखे पेट की ख़ातिर एक व्यक्ति बोर्ड बना खड़ा है? ****

3.आओ हाथ बढ़ाएँ 
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नवीन गुप्ता जी हर साल कनागतों में आने वाली अमावस्या को बहुत बड़ा भंडारा रखते। आज़ भी उन्होंने  भंडारा रक्खा हुआ था। पूरे शहर से ग़रीबों की लाईन लगी थी। वे सबको खाने के साथ कपड़े और उनकी ज़रूरत का सारा सामान दे रहे थे। सब बहुत ख़ुश नज़र आ रहे थे और लगातार दुआओं का सिलसिला ज़ारी था।
वे सब आपस में बुदबुदा रहे थे कि बहुत नेकदिल इंसान हैं हर साल ऐसे ही करते हैं और पूरे साल जब भी किसी को किसी चीज़ की ज़रूरत होती है तब भी वह उनकी सहायता करते हैं। पता नहीं भगवान ने इन्हें औलाद क्यों नहीं दी और इनके तो अभी माता-पिता भी हैं फिर भी! हर साल यह परिवार ऐसा करता है। पता नहीं इसके पीछे क्या कारण हो सकता है?
एक व्यक्ति उनकी बाँतें सुन रहा था। जब उसकी बारी आयी तो उसने पूछ ही लिया? “श्रीमान जी कृपया मेरी शंका का निवारण कीजिये कि आप ऐसा हर साल क्यों करते हैं?”
जो ज़वाब आया वह सुनकर उसकी आँखें खुली की खुली ही रह गईं, मस्तक झुक गया और हाथ आदर से जुड़ गये।
वे शब्द आप भी सुनिये “इस देश में कितने लोग ऐसे हैं जिनका श्राद्ध नहीं हो पाता है चाहे कुछ भी कारण रहा हो जैसे- सड़क दुर्घटना या फिर किनारे पर सो रहे लोग आदि ऐसे व्यक्ति जिनकी पहचान नहीं हो पाती। उन सब लोगों के लिये मैंने यह दिन चुना है। कहते हैं कि जिनकी मरण की तारीख़ याद ना हो तो उनके लिये इस दिन तर्पण किया जाता है।” शायद अब आप सभी की शंका का निवारण हो गया होगा। ****

4.दवा से ज़्यादा दुआओं का असर 
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चीना एक मरीज़ को देखकर कुछ अनकहे लमहों में चली जाती है और आँखों से निरंतर ना रूकने वाले आँसू बहने लगते हैं…..
माँ बहुत बीमार थी दवा ने भी धीरे-धीरे अपना असर दिखाना बंद कर दिया था। सब डा० जवाब दे चुके थे। पापा के हाथ का स्पर्श जैसे ही माँ को हुआ उन्होंने आँखें खोल दीं और तरसती निगाहों से पापा की तरफ़ देखा! लग रहा था मानो! कुछ कहना चाह रहीं थीं। 
परंतु मैं उस समय बहुत छोटी थी समझ नहीं पाई क्या हो सकता है? पापा समझ गए उन्होंने मम्मी से पूछा तुम्हारे मंदिर में चलें! वे तुरंत चैतन्य अवस्था में आ जाती हैं। फिर हम तीनों एक ऐसी जगह पहुँच गए जहाँ एक महिला उन सब मरीज़ों की सेवा कर रही थी जिनको डाक्टर जवाब दे चुके थे।
अब मेरी समझ में कुछ-कुछ आने लगा था क्योंकि माँ की आदत थी कि वो किसी बीमार को अगर गल्ती से भी देख लेतीं तो जब तक वह ठीक ना हो जाए, तब तक उसकी सेवा करती थीं। अब माँ के चेहरे पर वही पुरानी मुस्कान दौड़ आई थी और उन्होंने अपने मन रूपी पूजा थाल में सेवा रूपी बाती लगाकर उसके बुझने तक वहीं पर रहना पसंद किया।
मैं और पापा नम आँखों से माँ को निहार रहे थे। आज मेरी समझ में आ गया था कि माँ मुझे बरसों से क्या समझाना चाहती थीं? ****

5.नमक का मूल्य
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टेलीविज़न पर ख़बर आती है कि एक ही घर के चार लोगों ने आत्महत्या कर ली! बस फिर क्या था रोज़ यही ख़बर और सब आँख गड़ाये सोचते रहते कि आख़िर ऐसा किया क्यों? मीडिया वालों को भी काम मिल गया और लोगों को भी।
मीडिया वालों की बातें सुनकर सब अपने घरों में यही अनुमान लगा रहे थे कि किसी ने ज़हर दिया है नहीं तो ऐसा होना मुश्किल है। भला अपनेआप को कोई बिना वजह कैसे ख़त्म करेगा? अब जितने मुँह उतनी बाँतें। ख़ैर कुछ दिन सिलसिला चलता रहा.. पुलिस काम में मुस्तैद रही।
एक दिन ख़बर आती है कि किसी ने बहला-फुसला कर दौलत के लालच में ऐसा किया है। यह ख़बर हरि के कानों तक भी पड़ी। जो उस घर में ड्राइवर की नौकरी करता था। अब उससे चुप ना रहा गया क्योंकि वह जानता था कि इस परिघटना के पीछे किसका हाथ है!
उसने पुलिस को बताया कि “यह आत्महत्या नहीं बल्कि हत्या है, जो एक रची-रचाई साज़िश है, जिसे घर के मालिक ने प्रेमजाल में पड़कर रची है।”
“फिर तुम इतने दिन से चुप क्यों थे?” पुलिस का सवाल
“क्योंकि मैनें मालिक का भी नमक खाया है और मालकिन का भी। एक का इतने दिन चुप रहकर चुका दिया और एक का अब बताकर।” कहते-कहते गमहीन हो जाता है
“बहुत अच्छा परिवार था! पर पता नहीं किसकी नज़र लग गई।” वह फिर जोर से चिल्लाता है कि हे भगवान सबको सद्बुद्धी दो! उसकी आँखों से अश्रुधारा बह निकलती है जो रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी... *****

6.प्यार के भूखे
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घर में आगमन होते ही वह कभी इस पायदान पर तो कभी उस पायदान पर डरा सहमा सा बैठ जाता। आज़ उसका नामकरण भी होना था तो पूज़ा के बाद नाम भी रखा गया ‘ब्रूनो’। घर में सब उसके आने से बहुत ख़ुश थे। कभी कोई उसे गोदी में लेता तो कभी कोई। बस सबसे छोटी बेटी जिज्ञासा जिसको बहुत डर लगता था, उसके इसी डर को ख़त्म करने के लिये यह निर्णय लेना पड़ा था। दूर से खड़ी सब तमाशा देख रही थी और मन ही मन प्रसन्न भी हो रही थी। पर पास आने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी। विनोद और नीरा यह सब देख रहे थे पर उन्हें उम्मीद थी कि एक ना एक दिन परिवर्तन ज़रूर होगा। ख़ैर! ऐसे ही कई दिन बीत गये!
धीरे-धीरे दोनों में दोस्ती हो जाती है और इतनी गहरी कि खाना भी जिज्ञासा के हाथ से ही खाते हैं महाशय! सब काम दीदी से ही करवाने हैं जैसे हम तो कुछ ठीक करते ही नहीं थे। 
अब तो आलम यह है ज़नाब कि अगर कोई उसे भूल से भी ‘कुत्ता’ कह दे तो उसको पूरा भाषण मिल जाता है “ये भी तो प्यार के भूखे होते हैं अगर हम इन्हें नहीं अपनायेंगें तो ये कहाँ जायेंगें? सरकार को हर घर में एक जानवर होना अनिवार्य कर देना चाहिये! ताकि इन्हें भी घर में होने का अहसास हो सके। ये भी तो हमारी तरह चलते-फिरते हैं फिर इन्हें घर क्यों नहीं?”
कल की डरने वाली मासूम सी लड़की आज़ एक “एन०जी०ओ०” के माध्यम से सबको इन मासूमों की अपनी ज़िंदगी में अहमियत बताती हुई उनकी सेवा में दिन-रात लगी हुई है। यह सब देखकर नीरा और विनोद को अपने लिये हुए फ़ैसले पर गर्व का अनुभव हो रहा है। ****

7.बोझ बना सहारा
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मज़दूरी करके पेट भरने वाले रामू के यहाँ एक बच्चे का जन्म होता है और वह भी लड़का। पर! यह क्या? ख़ुश होने की बजाय सब ख़ामोश हो जाते हैं। जब डा० साहिबा बताती हैं कि लड़का तो है पर उसकी दोनों भुजाएँ नहीं हैं। चारों ओर सन्नाटा पसर जाता है।
ख़ामोशी को चीरती हुई बस एक ही आवाज़ आ रही थी “डा० साहिबा इसको मार डालो नहीं तो पूरी ज़िंदगी का बोझ बन जायेगा।” फिर सहसा! विलाप करने की आवाज़ से सारा वातावरण गूँज जाता है। हर किसी की आँखों में आँसू झलक पड़ते हैं।
रीमा के कानों तक भी यह आवाज़ पहुँच जाती है जिसने बच्चे को लेकर बहुत से सपने संजोये थे! एक पल में सब सपने चकनाचूर हो जाते हैं। थोड़ी सी हिम्मत जुटाकर अपने दुलारे को आँचल में छिपा लेती है जिससे किसी की बुरी नज़र उस पर ना पड़े! और उसे लेकर वहाँ से भाग खड़ी होती है।
बर्तन माँज़कर, झाड़ू-पोचा लगाकर बड़ी मेहनत करके अपने बच्चे को बड़ा करती है। एक दिन वह देखती है कि बेटा सारा काम अपने पैरों से कर रहा है। वह प्यार से उसको अपने गले लगाती है और यह निर्णय करती है कि इसको अपने पैरों पर खड़ा कर देती हूँ ताकि किसी के आगे कभी बेचारा ना बने। 
उसका सोचना सही रहा और मेहनत रंग लाई। अब वह बूढ़ी हो चली थी। आज़ वह बच्चा इतना क़ाबिल बन गया कि पैरों से ही सिलाई मशीन चलाकर अपनी माँ और अपना पेट भरता है। आज उसने साबित कर दिया है कि अंग न होना कोई अपराध नहीं है और न ही किसी पर बोझ। ****

8.फ़िज़ूल खर्ची 
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गाँव में सफ़ाई का काम ज़ोरों पर चल रहा था। पिछले एक महीने से प्रचार जो इतना हो रहा था और हो भी क्यों नहीं? आख़िर प्रचार का ज़माना जो है आज़कल। फिर भला मंत्री जी कैसे पीछे रह जाते?
पूरे गाँव को दुल्हन की तरह सज़ाया जाता है। लगता है जैसे किसी बहुत बड़े आदमी के यहाँ शादी हो रही हो! जगह- जगह पेड़ लगाये जाते हैं, सफ़ेद चूने को सड़क के दोंनों ओर पट्टी की तरह बिछाया जाता है, फूलों की सुगंध से सारा वातावरण सुगन्धित हो चला था, गाजे-बाजे वालों को भी बुलाया जाता है और बहुत कुछ किया जाता है जिससे गाँव का नक़्शा ही बदल गया था।
उसी गाँव का युवक श्याम जिसकी उम्र तक़रीबन २० की होगी यह सब देख रहा था। जिसके दोनों हाथ कारख़ाने में काम करते हुए कट गये थे और घर का एकमात्र सहारा होने की वजह से चैन से बैठ भी नहीं पा रहा था। दिमाग से काफ़ी तेज़ था इसलिये अपने दिमाग से जितना बन पड़ता कमा लेता था परंतु भीख नहीं माँगता था। घर के हालात बेकार हो चले थे। 
मंत्री जी का आगमन होता है और गाज़े-बाज़े से स्वागत किया जाता है, गले में ढेर सारी फूलों की मालायें पहनाई जाती हैं। बाद में वे चीख़-चीख़ कर भाषण देने लगते हैं। तालियाँ बज़ाई जाती हैं, सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था।
तभी भीड़ में से वह युवक निकल कर आता है। मंत्री जी से यकायक सवाल पूछ बैठता है,
“क्या यह सब बिना पैसा खर्च करे नहीं हो सकता था?”
मंत्री जी एकदम शांत हो जाते हैं! लग रहा था मानों मुँह सिल गया हो! एक मूकदर्शक की तरह उसे देखने लग जाते हैं। ****

9.दूर एक नाव
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नीरू जिस घर में किराये पर रहती थी वहाँ सिर्फ़ एक बुज़ुर्ग महिला थीं। कभी–कभी कोई दूर का रिश्तेदार आ जाया करता था। बच्चे विदेश में जाकर बस गये थे। पति का देहांत हो गया था । घर और बाहर की सारी ज़िम्मेदारी सभी कुछ उन्हीं के काँधों पर थी। जब उन्हें बाहर कुछ काम के लिये जाना होता था तो वे अक्सर नीरू को बुला लिया करतीं थीं क्योंकि उसे गाड़ी चलानी आती थी । 
वह भी ख़ुशी–ख़ुशी ले जाती क्योंकि वह उनकी किसी न किसी रूप में सहायता तो करना चाहती ही थी। 
एक साल बीत गया इसी प्रकार चलता रहा। एक दिन नीरू ने हिम्मत करके पूछ ही लिया? “आंटी जी बच्चे बिल्कुल नहीं आते क्या?”
“नहीं बेटा वे बहुत दूर हैं। पैसे भी काफ़ी लगते हैं आने में और वे अपने काम में व्यस्त भी तो बहुत रहते है। पोता-पोती तो काफ़ी बड़े हो गये होंगे मिलने का मन करता है पर “कुछ और कहते-कहते रूक जातीं हैं।
“फिर आप ही चली जाइये वहाँ पर यूँ इस तरह यहाँ अकेले…कुछ समझ नहीं आया आंटी जी “नीरू संकोची होते हुए पूछती है।”
उनके चेहरे पर उदासीनता की लकीरें खिंच गईं थीं। थोड़ा ठहरकर वे कहती हैं बेटा क्या करूँ! “मुझे दूर एक नाव तो दिखाई दे रही है पर कोई केवट दिखाई नहीं दे रहा है जिसके साथ वहाँ तक पहुँचा जाये?”
इसके बाद नीरू के मुख से एक शब्द भी नहीं निकला और दोनों की आँखें नम हो जाती हैं। कुछ देर ठहरकर वह उनसे कहती है कि नाव भी यहीं है और किनारा भी यहीं है, मुझे आप अपना केवट बनाये रखिये। आंटी उसे अपने गले से लगा लेतीं हैं . ****

10.परवरिश
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आज अपनी सेवानिव्रत्ति लेकर लौटे भानुप्रसाद जी बड़े सोच में थेl दरवाज़ा खोलकर वहीं सोफे पर पसर जाते हैंl अब आगे कैसे होगा? अभी तो दो बच्चों की शादी भी नहीं हुई है और मैं सेवानिवृत्त!
तभी उनकी पत्नी विमला कमरे में आ जाती हैं और कहती हैं “आज तो ख़ुशी का दिन है फिर मुँह क्यों लटका हुआ है साहब का? हमें भी तो पता चले। आपको किसी ने कुछ कहा” .....बीच में बात काटते हुए वे कहते हैं” नहीं कुछ नहीं बस यूँ हीं!” अपने चेहरे पर बनावटी मुस्कान लेते हुए।
बच्चों को आवाज़ लगाती है “चीना, मुकुन्द ज़रा यहाँ तो आओ, आज शाम को बाहर खाना खाने ज़ाना हैं। पापा आज़ सेवानिवृत्त हो गये हैं अब रोज़ हमारे साथ रहेंगें।”
“अरे वाह मज़े आ गये तब तो आयोजन होना चाहिये! “बच्चे ख़ुश होते हुए कमरे में प्रवेश करते हैं और पापा से लिपट जाते हैं। पापा …...पर वो तो अंदर से रो रहे थे।
बच्चे बड़े थे सब समझ गये माज़रा क्या है? दोनों पास बैठते हैं और पापा को समझाते हैं “पापा पहले आपके सिर्फ़ दो हाथ कमाने वाले थे, पर अब हम दोनों भी तो कमाते हैं, तो बताओ कितने हाथ हो गये? सब मिलकर करेंगें तो सब काम सहज़ता से निबटा लेंगें। अब आप आराम करेंगें और हम काम फिर चिंता कैसी?”
यह सुनकर भानुप्रसाद जी की आँखों में ख़ुशी के आँसूं आ जाते हैं वे दोनों बच्चों को गले से लगा लेते हैं और कहते हैं कि “मैं तो भूल ही गया था कि मेरे चार हाथ और भी हैं।” 
यह परवरिश का ही नतीजा था। ****

11.स्नेह बना अभिशाप
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अलका अपने बच्चों से बहुत स्नेह करती थी ख़ासतौर से लड़कों से। बच्चे ज़रा सी मीठी बात करते और उससे जो चाहे वो मनवा लेते थे। पति रमन हमेशा समझाते कि इतना भावुक होना ठीक नहीं! कभी भी कोई भी तुमको मूर्ख बना सकता है। परन्तु वह हमेशा हँसकर टाल देती थी कि नहीं ऐसा कुछ नहीं है।
आज़ दीवाली पर पति की मृत्यु को कई साल हो गए थे। अपने शरीर से लाचार… चारपाई पर अकेली बैठी.... आँखों में आँसू लबालब भरे हुए, सोच में डूब जाती है.... कितने अच्छे दिन थे उनके सामने! फिर अचानक………..फ़फ़क–फ़फ़क कर रोने लगती है …
दूसरी महिला जो पास बैठी थी उसको सांत्वना देती हुई समझाने लगती है, बीता समय कभी लौटकर नहीं आता। हमारे भाग्य में यही लिखा था इसीलिए तो आज़ हम त्योहार पर अकेले बैठे हैं इस व्रद्धाश्रम में! दो – दो बच्चों के होते हुए भी …. कहते–कहते रूक ज़ाती है! यह क्या? अलका की तरफ़ मुड़कर देखती है!
वह उसको हिलाती है पर! कोई ज़वाब नहीं आता। पता नहीं किस क्षण बैठी हुई अलका मौन हो गई थी। 
वह महिला उसको पकड़कर ज़ोर से झकझोर कर चिल्लाती है कि हे भगवान! कब तक? आख़िर कब तक? यह सिलसिला चलता रहेगा? हमने माँ–बाप बनकर क्या कोई गुनाह किया है? सारा वातावरण शोकमग्न हो जाता है! ***
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क्रमांक - 09
जन्म : 10 दिसंबर 1967 , शाहदरा - दिल्ली
शिक्षा : स्नातक
सम्प्रति : एक निजी कंपनी में कनिष्ठ प्रबंधक

लेखन विधा : लघुकथा, कहानी, आलेख, समीक्षा

प्रकाशित संग्रह :-

एक लघु संग्रह 'दिन अभी ढला नहीं' (2021,जन लघुकथा साहित्य समूह, नवीन शाहदरा दिल्ली द्वारा)

भागीदारी के स्तर पर कुछ प्रमुख संकलन :-
'बूँद बूँद सागर’ 2016,
‘अपने अपने क्षितिज’ 2017,
‘लघुकथा अनवरत सत्र 2’ 2017,
‘सपने बुनते हुये’ 2017,
‘भाषा सहोदरी लघुकथा’ 2017,
'स्त्री–पुरुषों की संबंधों की लघुकथाएं’ 2018,
‘नई सदी की धमक’ 2018,
'लघुकथा मंजूषा’ 2019,
‘समकालीन लघुकथा का सौंदर्यशस्त्र’ 2019

साहित्य क्षेत्र में पुरस्कार / सम्मान :-
पहचान समूह  द्वारा आयोजित ‘अखिल भारतीय शकुन्तला कपूर स्मृति लघुकथा’ प्रतियोगिता (२०१६) में प्रथम स्थान।
हरियाणा प्रादेशिक लघुकथ मंच द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता (२०१७) में ‘लघुकथा स्वर्ण सम्मान’।
मातृभारती डॉट कॉम  द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता (२०१८) ‘जेम्स ऑफ इंडिया’ में प्रथम विजेता। 
प्रणेता साहित्य संस्थान एवं के बी एस प्रकाशन द्वारा आयोजित “श्रीमति एवं श्री खुशहाल सिंह पयाल स्मृति सम्मान” 2018 (कहानी प्रतियोगिता) और 2019 (लघुकथा प्रतियोगिता) में प्रथम विजेता।

पता :
एफ - 62 , फ्लैट नं - 8 , गली नं - 7, मंगल बाजार के पास , लक्ष्मी नगर , दिल्ली - 110092

01. देवी

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परिवार में सब उत्साहित थे, इस बार नवरात्रों में दुर्गा माँ की स्थापना के लिये शिवा स्वयं माँ की प्रतिमा बना रहा था। आखिरकार जब दुर्गा माँ की प्रतिमा तैयार हो गयी और अपने सधे हाथों से शिवा, प्रतिमा को ‘अन्तिम टच' देने मे लगा हुआ था तभी उसकी पत्नी उमा ने उसे 'जो' कहा उसे सुनकर ही वह काठ हो गया था। और अब, जब प्रतिमा स्थापना की पूजा के लिये उसका पुत्र उसे बुलाने आया।
"पिताजी, पूजा प्रारम्भ हो रही है और आप अभी तक तैयार. . .।"
उसकी बात बीच मेँ ही काटते हुये शिवा बोल उठा था। "बेटा, हम पति-पत्नी तो पूजा मेँ नहीं आ पायेगेँ।" बेटे सहित पुरे परिवार के प्रश्नचिन्ह बने चेहरों की ओर देखता हुआ शिवा दु:खद स्वर में अपनी बात कहता चला गया। "बेटा, पंडाल में जिस देवी की पूजा होने जा रही है, वह तो मेरी बनायी मात्र मिट्टी की प्रतिमा है। लेकिन, हमारे परिवार मेँ खुशियाँ लेकर जो जीती जागती 'देवी’ आने वाली थी, उस देवी माँ को तो 'तुम दोनो' (पुत्र और पुत्रवधू) ने पूजा से पहले ही 'विसर्जित' कर दिया है। ****

02. जवान बच्चे
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"कम्मो। जरा इधर तो आ, तूने अचानक काम पर आना कयों बंद कर दिया?" मिसेज माधवी ने बालकनी की खिड़की से ही गली में गुजरती अपनी काम वाली बाई को आवाज लगाई।
"जी मेम साहब। वो क्या है कि अब हम आप के यहाँ काम नही करेगें।" कम्मो भी गली से ही लगभग चिल्लाती हुयी बोली।
"क्यों कहीं और ज्यादा पैसें मिलने लगे या पैसों की जरूरत नहीं रही।" मिसेज माधवी की आवाज में कटाक्ष था।
इस बार कम्मो कुछ आराम से बोली। " नहीं-नहीं मेमसाहब, बस ऐसे ही।  वो. . . वो. . . बच्चे जवान हो गये ना।"
मिसेज माधवी कुछ हैरान सी। "तेरे बच्चे!"
कम्मो गली में आगे जाते-जाते बोल गयी। " नहीं-नहीं मेमसाहब, बच्चे आपके जवान हो गये हैं न।"
मिसेज माधवी की खिड़की खटाक से बंद हो चुकी थी। ***

03. श्राद्ध
      *****

कार शहर को पीछे छोड़ अब बाहरी रास्ते पर दौड़ रही थी। सुबह बेटे से हुयी बहस के बाद उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि उससे पूछे कि वह उन्हें कहाँ लेकर जा रहा है। सुबह की बातें एक बार फिर उनके कानों में गूँजने लगी थी।
. . . . "ओह बाऊजी, आप समझ क्यों नहीं रहें हैं? ये फ़ॉरेन है, यहाँ श्राद्ध जैसे ढकोसले करने का लोगों के पास समय नहीं है।" बेटा झुँझलाहट में था।
"लेकिन बेटा अपने पितरों की मुक्ति के लिए यह जरूरी है।"
"आप भी वर्षों से कैसे आडंबरों को ढोए चले जा रहे हैं बाऊजी। अब यहाँ के लोग यह सब नहीं करते तो क्या उनके पूर्वजों की मुक्ति नहीं होती।"
"पर बेटा, यह सब हमारी आस्था और परंपरा...!"
“बस बाऊजी!" बेटे ने उनकी बात बीच में ही काट दी थी। "रहने दीजिए, सुबह-सुबह ये बहस। मुझे और भी कई जरूरी काम हैं।" . . . .
"बाऊजी, बाहर आईए।" कार एक ऊँची आलीशान इमारत के बाहर खड़ी थी और बेटा उन्हें बाहर बुला रहा था।
"वृद्धाश्रम!"  बेटे-बहू से जुड़े जीवन के सारे लम्हे एक क्षण में उनकी आँखों के सामने से गुजर गए। सुबह हुयी बहस के बाद बहू का बेटे को अंदर बुलाकर बहुत कुछ समझाने का रहस्य अब उनकी समझ में आ गया था, उनकी आँखें नम होने लगी थी।
"लगता है, आप अभी तक नाराज हैं।" बेटा कह रहा था और वे विचारमग्न थे।
"बाऊजी! इस इमारत की ओर देखिये जरा। यह 'पैराळाइसिस होम' है, और इस बार हम अपने पूर्वजों का श्राद्ध यहाँ रहने वाले लाचार लोगों की सेवा करके मनाएंगे। बाऊजी, आपकी बहू का कहना है कि जरूरतमंदों और बीमारों की सेवा करना भी तो एक तरह का धर्म और पुण्य. . . .।" बेटा अपनी बात कहे जा रहा था और उनकी नम आँखों में कुछ देर पहले अपनी बहू को गलत
समझ बैठने के प्रायच्छित-स्वरूप कुछ आँसू आशीर्वाद के ढलक आये थे। ****

04. नफ़रत
       *****

वह नाराज हो जाती थी अगर मित्रों में से कोई उसे दो बातों के लिये टोकता था। एक; स्वयं को दर्पण मेँ निहारना और दूसरा 'रसायन’ (केमेस्ट्री) के विषय को पढ़ना। लेकिन अब नहीं!. . .
अब तो वह नफरत करती है।. . . . 'दर्पण' से, 'रसायन' से, और उन्हीं मित्रों में से एक मित्र से भी। ****

05. जवाब
       *****

वह ‘वरिष्ठ नागरिक सीट’ पर बैठी हेडफोन लगाए अपने आप में मस्त थी, जब मैंने मेट्रो में प्रवेश किया। बहुत सुंदर तो नहीं कह सकता था, पर भारतीय परिवेश की दृष्टि से बेहतर ही थी। पहनावा भी सभ्य और आकर्षक था। लेकिन एक बात, जो मैं नहीं समझ पाया था, वह थी उसके सिर्फ एक पैर में ‘पायल’ का होना। उसके दूसरे सूने पैर का कारण जानने की कोशिश तो मैं नहीं कर सकता था, लिहाजा कोच में एक तरफ खड़ा होकर मैं भी अपने मोबाइल में मस्त हो गया। मेट्रो में भीड़ कम ही थी। साकेत से एक पचपन-छप्पन वर्षीय सज्जन चढ़े और सीधे उस सीट की ओर पहुँचकर उसे सीट छोड़ने को कहने लगे।
लड़की विनम्र भाव से बोली, ‘‘अंकल! बस ‘एम्स’ पर उतर जाऊँगी।’’
सज्जन कुछ उपदेश देने की मुद्रा में थे शायद। ‘‘ठीक है, पर इस उम्र में तो तुम खड़ी होकर भी यात्रा कर सकती हो।’’
‘‘यह लेडिज कोच में भी तो जा सकती थी।’’ पीछे से एक आवाज आई।
‘‘जानबूझकर आती हैं ये और फिर सीट भी नहीं छोड़ती।’’ एक और शख्स की आवाज थी यह।
न जानें क्यों मैं चुप न रह सका। ‘‘भाई आपके भी तो बेटी होगी, ऐसी ही. . . .!’’
‘‘नहीं अंकल! ईश्वर न करे इनकी बेटी मेरे जैसी हो।’’ उस लड़की ने मेरी बात काट दी।
एम्स आ चुका था। वह कुछ सँभलते हुई उठी और धीरे-धीरे कदम बढ़ाती हुई कोच से बाहर चली गई। चलते समय मेट्रो के फर्श पर लगभग घिसटता हुआ उसका कृत्रिम पैर हम सबकी बातों का सही जवाब दे गया था। ****

06. विसर्जन
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"गणपति भप्पा मौर्या... अगले बरस तू जल्दी आ....।"
हर प्रतिमा विसर्जन के साथ कई आवाजें उठती और इन्हीं आवाजों के साथ उसके चेहरे पर कभी बच्चों जैसी खुशी झलकने लगती तो कभी चेहरा गंभीरता का आवरण ओढ़, वह न जाने क्या सोचने लगता?
धुंधली शाम अब रात में ढलने लगी थी लेकिन उसे अभी तक वहीं टहलते देख 'नाव वाले' से रहा नहीं गया। "विसर्जन तो कब का हो गया बाबा? रात हो गयी है, अब घर जाओ।"
"घर. . .! कौन से घर?" बुजुर्ग ने एक गहरी सांस ली और ग॔गाजी की लहरों को देख, बुदबुदाने लगा। "विसर्जन तो मेरा भी हो गया है। बस, मैं ही गंगाजी में उतरने की हिम्मत नहीं कर पाया अभी तक। ****

07. रिश्तों की भाषा
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"नहीं समीर, इतना आसान कहां होता है सब कुछ भूल पाना।" वर्षो पहले एक रात अचानक उसे छोड़ कर चले जाने वाला पति आज फिर सामने खड़ा सब भूलने की बात कर रहा था।
"तान्या! मैं मानता हूँ कि मैं तुम्हारे प्रेम को नकारकर 'उसके' साथ चला गया था लेकिन अब मेरा उससे अलगाव हो चुका है और मैं हमेशा के लिए तुम्हारे पास लौट आना चाहता हूँ।" उसकी आवाज और आँखें दोनों में अधिकार भरी याचना नज़र आ रही थी।
"आज तुम लौटना चाहते हो लेकिन उस समय तुमने एक बार भी नहीं सोचा कि मेरा क्या होगा? अगर मेरे मित्र ने साथ नहीं दिया होता तो मैं ऐसे समय में जीवन का सामना कभी नहीं कर पाती।"
"तान्या! अब तुम्हे उसका अहसान लेने की कोई जरूरत नहीं, हम फिर एक साथ रह सकते हैं।" उसने आगे बढ़कर तान्या के हाथ थाम लिए।
"समीर! मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ।" जाने क्यों उसे समीर के हाथों में पति-प्रेम की अपेक्षा एक पुरुष-प्रेम का अहसास अधिक लगा। "तुम्हारे पीछे मुझे कुछ समय अपने मित्र के साथ भी रहना पड़ा और. . . ." समीर का चेहरे पढ़ते हुए तान्या ने सवालियां नजरे उस पर टिका दी। ". . . हमारे बीच इसे लेकर कभी कोई दुविधा नहीं होगी !"
"तान्या! तुम कैसे भूल गयी कि तुम एक 'ब्याहता' थी!" बदलते भावो के साथ उसकी आवाज भी तल्ख़ होने लगी। ".......ये मेरी ही गलती थी जो मैं लौट कर चला आया।" और उसकी प्रतिक्रिया जाने बिना बात पूरी करते करते वह मुँह फेर चुका था।
वह खामोश खड़ी उसे दूर तक जाते देखती रही, देखती रही। दिल बार-बार कह रहा था। "तान्या, उसे बताओ कि तुम सदा उसकी ही रही हो।" लेकिन जहन दिल को नकार एक ही बात कह रहा था। "जिस्म की देहरी पर खत्म होने वाले संबंध निस्वार्थ रिश्तों की भाषा नहीं पढ़ पाते।" ****

08. मोह-जाल
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सुबह से ही कशमकश में था बिप्ति। आखिरकार उसने 'अखबार' को होटल के फर्श पर फेंक दिया और मन में बढ़ते तनाव से मुक्त होने के लिए कमरे की खिड़की को खोल दिया। एक ठंडी हवा के झोंके के साथ कुछ दूर पर हो रहे कोलाहल के बीच नदी पर फैले अपार जनसमूह ने उसके मन को थोडा शांत किया।
"क्या देख रहे हो साहबजी?" होटल के वेटर बन्नू ने कमरे में घुसते हुए उसका ध्यान आकर्षित किया। "छठी मैया का उत्सव है, बहुत धूम धाम से मनाया जाता है इस नदी पर।"
"अच्छा! सुना तो बहुत है इसके बारें में।"
"हाँ साहब, यह लोक आस्था और सूर्योपासना का पर्व है जिसे चार दिन तक मनाया जाना जाता है।" बन्नू अपना ज्ञान बांचने लगा। "यूँ तो इसे स्त्री-पुरुष सभी करते है लेकिन स्त्रियां विशेष तौर पर इसे पुत्र की प्राप्ति या पुत्र की कुशलता के लिए रखती है। इसमें व्रती सुबह स्नान कर सूर्य को जल अर्पित करने के बाद शुद्ध भोजन का प्रसाद ग्रहण करती है और उसके बाद 36 घंटे का निर्जला व्रत जिसमें पानी भी नहीं पीते, रखती हैं। और साहब जी अपने पुत्र की कुशलता के लिए ये माताएं इतना कठोर व्रत......।" बन्नू अपनी बात कहता जा रहा था और बिप्ति एक बार फिर से अपने तनाव में घिरने लगा था लेकिन इस बार उसका मन एक निर्णय पर पहुँचने लगा था।
"बन्नू एक काम करो, मैनेजर से कहो मेरा 'चेक-आउट' कर के बिल तैयार करे। मुझे जल्दी लौटना है।" कहते हुए बिप्ति, बन्नू की कथा बीच में ही छोड़ अपना सामान समेटने लगा।
चलते-चलते उसने फर्श पर पड़े अखबार को उठा दिल से लगा लिया जिस पर उसके नाम के साथ उसके पिता का संदेश छपा था। "बेटा ! मेरे लिए न सही अपनी माँ के लिए नाराजगी छोड़ कर घर लौट आओ जो पिछले तीन दिन से भोजन, बिछौना सब छोड़, तुम्हे देखने के लिये निर्जला व्रत रखे हुए है।" ****

09. आदर्श एक जुनून
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"मैं मानती हूँ डॉक्टर, कि ये उन पत्थरबाजों के परिवार का ही हिस्सा है जिनका शिकार हमारे फ़ौजी आये दिन होते हैं लेकिन सिर्फ इसी वज़ह से इन्हें अपने 'पढ़ाई-कढ़ाई सेंटर' में न रखना, क्या इनके साथ ज्यादती नहीं होगी?" हजारों मील दूर से 'घाटी' में आकर अशिक्षित और आर्थिक रूप से कमजोर औरतों के लिये 'हेल्प सेंटर' चलाने वाली समायरा, 'आर्मी डॉक्टर' की बात पर अपनी असहमति जता रही थी।
"ये तुम्हारा फ़ालतू का आदर्शवाद है समायरा, और कुछ नहीं।" डॉक्टर मुस्कराने लगा। "तुमने शायद देखा नहीं है पत्थरबाजों की चोट से ज़ख़्मी जवानों और उनके दर्द को, अगर देखा होता तो. . .!"
"हाँ, नहीं देखा मैंने!" समायरा ने उनकी बात बीच में काट दी। "क्योंकि देखना सिर्फ आक्रोश पैदा करता है, बदले की भावना भरता है मन में।"
"तो तुम्हें क्या लगता है कि हमारे फ़ौजी जख्मी होते रहे और हम माफ़ी देकर उनका दुस्साहस बढ़ाते रहे।"
"नहीं, मैं भी चाहती हूँ कि उन्हें सख्त सजा मिले ताकि वे आइंदा ऐसा करने की हिम्मत न करें। लेकिन ये सब तो क़ानून के दायरे की बातें हैं और मैं नहीं समझती कि इस सजा में उनके परिवार को भागीदार बना देना उचित है डॉक्टर।" समायरा की नजरों में एक चमक उभरी आई।
"यानि कि आप दुश्मनों का साथ देना चाहती हैं!" डॉक्टर की बात में एक व्यंग झलक आया।
"डॉक्टर, हमारे दुश्मन ये भटके हुए लोग या इनके परिवार वाले नहीं हैं। हमारी दुश्मन तो सदियों से इनके विचारों में पैठ बनाये बैठी नफरत और निरक्षरता की अँधेरी रातें हैं, हमें इसी रात को सुबह में बदलना है।" वह गंभीर हो गयी।
"तो इस फ़ालतू आदर्शवाद को अपना जुनून मानती हैं आप!" डॉक्टर के चेहरे की व्यंग्यात्मक मुस्कान गहरी हो गयी।
"नहीं! ये फ़ालतू आदर्शवाद नहीं, जीवन का सच है जो हर युग में और भी अधिक प्रखर हो कर सामने आता है।"
"अच्छा! और कौन था वह जिसने ये आदर्श दिया तुम्हे।" सहसा डॉक्टर खिलखिला उठा।
"एक फ़ौजी था डॉक्टर साहब!" अनायास ही समायरा भावुक हो गयी। "जिसने अपनी मोहब्बत भरी अंगूठी तो मुझे पहना दी थी लेकिन ऐसे ही कुछ पत्थरबाजों के कारण अपनी क़समों का सिन्दूर मेरी मांग में भरने कभी नहीँ लौट सका था।"
डॉक्टर की मुस्कराहट चुप्पी में बदल गयी लेकिन समायरा की आँखें अभी भी चमक रही थी। *****

10. एक और एक ग्यारह
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"नहीं समीर नहीं। ये नहीं हो सकता, तुम इस बात को यहीं खत्म कर दो।" तनु के जवाब ने उसको थोड़ा निराश कर दिया।
       बहुत अधिक समय नहीं हुआ था उनकी पहचान को। लगभग वर्ष भर पहले ही वह दोनों एक विशेष भर्ती अभियान के तहत एक निजि संस्थान में भर्ती हुए थे। जहां समीर का एक बाजू और एक पांव से लगभग लाचार होना और तनु का आकर्षक होते हुये भी 'मर्दाना' लक्षणों के कारण सहज ही बाकी स्टाफ से अलग-थलग सा हो जाना, उनकी नियति बन गयी थी। ऐसे में कब वे एक दूसरे के करीब आ गए, पता ही नहीं लगा था। लेकिन आज विवाह के प्रश्न पर तनु के इंकार ने समीर को उसकी शारीरिक अक्षमता का तीव्रता से अहसास दिला दिया।
"सॉरी तनु! मुझे लगा कि हमारा रिश्ता विवाह-बंधन में बदल सकता है, लेकिन मैं भूल गया था कि एक अधूरे इंसान को तुम्हारे जैसी योग्य और अच्छी लड़की के बारें में नहीं सोचना चाहिए।" उसकी आँखें नम हो गई।
"ऐसा मत कहो समीर, ख़ुद को अधूरा कह कर अपना मूल्य कम मत करो। अधूरापन तो मेरे जीवन में है, जो न पूर्ण रूप से स्त्री बन सकी और न पुरुष। ऐसा लगता है, जैसे गीली लकड़ी बन कर जी रहीं हूँ जो न जल पा रही है और न बुझ पा रही है।" अपनी बात कहती हुई तनु उठ खड़ी हुई। "समीर, एक 'किन्नर' ही तो हूँ मैं! एक मित्र तो बन सकती हूँ पर किसी की पत्नी नहीं।"
"नहीं तनु।" समीर ने उठ कर जाती तनु का हाथ पकड़ लिया। "तुम एक अच्छी मित्र ही नहीं पत्नी भी बन सकती हो, क्योंकि ये जरूरी तो नहीं कि हमारा संबंध केवल दैहिक रिश्तों पर ही आधारित हो।"
"और ये समाज...!"
"हां तनु। ये समाज हमारी 'फिजिकली डिसमिल्रिटीज' (प्राकृतिक विषमताओं) पर प्रश्न उठाता रहा है, तो ज़ाहिर है कि हमारे संबंधों को भी आसानी से स्वीकार नहीं करेगा।"
"हाँ समीर, और बात इतनी भी नहीं है। एक विवाह का अर्थ शारीरिक जरूरतों के साथ वंश वृद्धि से भी जुलड़ा होता है, क्या तुम इसे स्वीकार. . .?"
"बस और कुछ मत कहो तनु।" समीर ने उसकी बात काट दी थी। "मैं तुम्हारे हर प्रश्न का उत्तर बनने के लिए तैयार हूं, यदि तुम मेरा साथ दे सको। रही बात समाज की, तो जब हम अकेले समाज से संघर्ष करके यहाँ तक पहुंच सकते हैं तो क्या दोनों मिलकर समाज के हर प्रश्न का उत्तर नहीं बन सकते?" उसकी आँखों में झलकते विश्वास को देख, अनायास ही तनु मुस्करा उठी और उसने आगे बढ़ समीर का हाथ थाम लिया। ****

11. अपोस्ट्टाइज एक पहचान
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"कहीं ये सब सपना तो नहीं!" ढलती शाम के साये में आँखें बंद किये वह स्वयं से ही बुदबुदा रहा था। "एक ही दिन में इतना पैसा, कच्ची छत की जगह पक्की छत का मकान और सुंदर कपड़ो सहित कई उपहार। ये सब तो शायद वर्षों तक नहीं बना पाता मैं।"
"हाँ नहीं बना सकता था तू लेकिन..." अचानक ही उसके अंतर्मन से आवाज आई। "इतना सब पाने के लिये जो तूने अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया, उसका क्या?"
"नहीं, मैंने कुछ गलत नहीं किया। मेरे लिए सबसे बढ़कर है मेरा परिवार, जिसके लिये मैं सब कुछ कर सकता हूँ।"
"क्या मेरा त्याग भी. . .?" सहसा कहीं से एक स्वर गूंजा।
"हाँ...हाँ...।" वह चिल्ला उठा। अनायास ही तीव्र प्रकाश से उसकी आँखें खुल गई और साक्षात् ईश्वर को सामने अनुभव कर उसका सर्वांग कांप गया। सर्वशक्तिमान की अवधारणा भय बनकर उसके मन-मस्तिष्क पर इस कदर छाई कि वह डर से काँपने लगा। "क्षमा प्रभु, क्षमा. . . मेरे अपराध के लिये मुझे क्षमा करना प्रभु! मैं अपने दुःखों से हार गया था बस इसलिए अपनी पहचान भी. . .।"
"नहीं पुत्र तुमने कोई अपराध नहीं  किया है।" सामने खड़े प्रभु मुस्करा रहे थे। "तुमने मेरा त्याग कब किया पुत्र? तुमने तो केवल मेरे कुछ चिन्हों और प्रतीकों का अपने जीवन में स्थान परिवर्तन कर लिया है। पुत्र, मुझे पाने के लिए तो इन सब की आवश्यकता ही नहीं है। मैं तो सदा ही तुम्हारे अंदर हूँ, इसलिए मुझे पाने के लिए तो केवल तुम्हें स्वयं को ही पाना है पुत्र।"
दूर कहीं सूरज बादलों में ढलने लगा था लेकिन उसके भीतर एक नया सूरज उदय होने लगा था। "हाँ, मैं तो वस्तुतः एक मनुष्य हूँ, मुझे और किसी पहचान की आवश्यकता ही कहाँ है?" कहते हुये वह अनायास ही अपनी बाहरी पहचान के चिन्हों से मुक्त होने लगा था। ****
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क्रमांक - 10

जन्मतिथी -27 फरवरी 1965
जन्म स्थान :जानसठ (मुजफ्फर नगर ) उत्तर प्रदेश
माता : प्रतिभा  रानी
पिता : धर्मेंद्र मोहन  गुप्ता
शिक्षा :  एम.ए. इक्नोमिकस,इतिहास

साझा संकलन : -
अन्तरा शब्द शक्ति ,
अन्तरा शब्द शक्ति होली रंगारंग
रत्नावली
स्वच्छ भारत
चमकते कलमकार

विशेष : -
अनेक राष्ट्रीय समाचार पत्रों व अनेक ई - पत्रिकाओं मे लघुकथा प्रकाशित ।
जैमिनी अकादमी से अनेक डिजीटल सम्मान और अनेक ई - पुस्तको मे प्रकाशित।

Address:-
Pankaj Consul, S-469/10,
4th floor, School Block, Shakarpur, Delhi-110092.

1. महिला सशक्तिकरण

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महिला सशक्तिकरण पर बोल रही  नेता ने आखिर में कहा...
"बहनो मैं आप सबसे यही कहना चाहती हूँ ......।
कि बहू को भी बेटी ही समझ कर प्यार और सम्मान देना होगा"!
हम सबको ये पहल अपने घर से ही करनी होगी, यह महिला सशक्तिकरण की पहली सीढी है "।
सभा में आयी बहुत समय बाद मिली सखी कमला ने सविता से पूछा
"सविता जब से तुम्हारे बेटे की शादी हुई है तुमने मिलना ही छोड़ दिया है।
नयी बहू कैसी है ?  अब तो समय ही समय है तुम्हारे पास! सब काम बहू ही करती होगी "।
क्या बताऊँ बहू क्या आयी है किसी रानी से कम नही समझती है अपने को, दिन चढे सोकर उठती है। काम क्या खाक करेगी
सुबह की चाय भी बेटा ही बिस्तर पर बना कर देता है !
मन किया तो काम करती है "।
"ओहो तुम्हारी तो किस्मत ही खराब है "।
बात सुनकर कमला बोली
"अच्छा अब तुम बताओ तुम्हारी बेटी तो मजे मे है ससुराल में"।
सविता ने कमला की बेटी के लिए पूछा ।
"सविता क्या बताऊँ मेरी राजकुमारी की तरह पली  बेटी को तो राजमहल ही मिल गया है ।देखो सुबह  दिन चढे तक सोकर  उठती है!
दामाद इतना अच्छा मिला है कि सुबह  उसके लिए चाय बनाता है ।
घर का काम मन करता है तो करती है। सब काम सास  ही कर लेती है "।
"ओहो तुम तो किस्मत वाली हो जो बेटी को इतना अच्छा ससुराल मिला "।
बात सुनकर सविता ने कमला से कहा। ****

2.कुर्बानी
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"भारत माता की जय "
एक महीना हो गया आज ही के दिन वह  तिरंगेमे लिपट कर आ, हम सब की जिन्दगी मे ना खत्म होने वाला  आँखो मे आसुओं का  सैलाब दे गया ।
उसके वापस आये सामान मे उस की हाथ की लिखी चिट्ठी भी थी ।
जिस को उसने लगभग देश पर कुर्बान होने  के दो दिन पहले ही लिखी थी।उसने लिखा था ..माँ सादर प्रणाम,
"घर की याद आती है ।दुश्मन के कितनी ही चौकियाँ उड़ा जब आगे बढेंतो ,दुश्मन नें हमे चारो ओर से घेर लिया  है। जब तक साँस रहेगी मातृभूमि की रक्षा के लिए डटे हैं ।शायद अब मातृभूमि का कर्ज निभाने का" ..।
हर जन्म मे मैं तुम्हारा ही बेटा  बन  जन्म लूँ ,जिसने मुझे बचपन से ही देश भक्ति की सीख दी । हर जन्म मेंआप ही मेरी माँ बनो ।नविता बहुत मन की कच्ची है  मै नही आ पाया तो ना जाने मेरे जाने के बाद क्या कर बैठे"? उसकी कोख मे पल रहे मेरे अंश को भी, आप देश पर मर मिटनें का पाठ पढाना ।मैं तो  मां ,घर के प्रति फर्ज नही निभा पाऊगा ।बापू अब कैसे है? ,बिस्तर से उठ पाते है या नही "।
अब आपको ही उस घर को सम्भालना होगा ।चाहे खेतों  मे हल जोतना हो या घर के कार्य हों आपने हमेशा ,सभी चुनौतियों को बखुबी निभाया है। शायद ये पत्र पहुचने से पहले ....
पत्र पढ कर उसे लगा वह अब कभी उठ नही पाएगी...उस का दिल बैठने लगा । दूर रेडीयो पर बजते गाने की आवाज उसके कानो मे पड़ी. ।
"तुझको चलना होगा ....
जीवन कभी भी ठहरता नही है ।
आधी से तूफा से डरता नही है पार हुआ जो चला सफर मे .....
गाने के बोल सुन ,वो बुदबुदायी हा गर्वहै  "मुझे  बेटे तुम पर "... जिसने देश के लिए जान दी.........।हर जन्म मे तुम ही मेरे बेटे बनो .....।
उठी और रसोई की तरफ बढ चली । ****

3.फूलवारी 
     *******       
         
  दरवाज़ा खोलते ही ठंडी बारिश की कुछ बूँदें उसके मुँह पर गिरी ! गर्मी में पानी पड़ने पर ठंडक से मौसम बहुत ही ख़ुशगवार हो गया था। बालकनी में लगे सभी पौधे पानी की बूँदों से नहाकर नयी ताजगी से भर उठे थे।
लीली के पौधे पर रात भर बारिश की बूँदें पडनेे से उसमें प्राण भर गएे थे और पूरा गमला गुलाबी फूलों से भर गया था। गुलाबी फूल ठंडी हवा में झूम रहे थे जैसे ख़ुशी से हँस रहे हो। उनको देख उसका मुस्कुराता चेहरा उसके सामने आ गया था जैसे कह रहा हो "देखो माँ इस पर इस बार कितने फूल खिले है"। उसे याद आया! जब वह लीली के नन्हे पौधे को घर लाया था। चहकते हुए उसने कहा था। "माँ  आप कहती थी ना पेड़, पौधों में प्राण होते है इनको नहीं तोड़ना चाहिएँ ,आज स्कूल में भी हमारी मैडम ने बताया !"पेड़ हमे आक्सीजन देते है और हमारे जीवन के रक्षक है"। "हाबेटा मैंम ने ठीक बताया ये हमें फल, फूल और अनेक उपयोगी चीज़ें देते है! "हम मानव स्वार्थी है जो उनको काट देते है !
पर्यावरण की सुरक्षा के लिए इन का होना बहुत ज़रूरी है"। उसने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था
जैसे उन से  उसकी दोस्ती हो चली थी! अपने जेब ख़र्च से पैसे बचाकर पौधे ले आता था, बालकनी अनेक पौधों से भर गयी। पढ़ाई से समय मिलने पर उन में उसके संग पानी देता और उनके पत्तों और फूलों को ध्यान से देखता। पहली बार जब लीली पर फूल आये तो कितना चहक रहा था आज भी उसे याद है उसका वो चहकता और हँसता चेहरा !
"अरे पानी में क्यों भीग रही हो "?
"आज चाय नहीं मिलेगी क्या"?
तभी सुरेश ने आवाज़ दी।
"देखो सुरेश उसका मुस्कुराता चेहरा, इन पौधों में से  कैसे झाँक रहा है !
"वो इनके साथ कैसे हँस रहा है, ये सच है कि उसने देश के लिए जान दे दी! पर वो आज भी इनके रूप में हमारे साथ है "।भरी आँखों से उस के  मुँह से सिसकियाँ निकल पड़ी ।
***

4. पानी
    ****

"चाय बन गयी हैं आ जाओ पी?!! लो"
रंजना ने चाय के प्याले मेज पर रखते हुए कहा ।
"रंजना देखो बारिश की बूँदों से आज मौसम कितना सुहाना हो गया है ।  आज इतवार की छुट्टी है हम दोनों को ऑफिस तो जाना नही है ।
हम चाय टेरेस पर चल कर पीते है ।तुम को तो बहुत अच्छा लगता है ना रिमझिम फूहारें मे  बैठ कर चाय पीना" !
रमेश ने  चाय का  प्याला उठा कर चलते हुए कहा ।
"अरे  बहुत काम करने है, मीना चार दिन से काम पर नही आ रही है ।सारा घर गन्दा हो रहा है , कपड़ों को भी धोना है, ऑफिस भी जाना है और बच्चोंको पढाने का समय ही नही मिला ।आज  घर के सब  काम करने हैं "।
रंजना ने एक  ठंडी सांस भरते हुए कहा ।
चलो  देखो परेशान मत हो !आज हम  दोनों  मिलकर करेंगे सब काम !कभी तो सहज रूप से समय बिताना चाहिए ।कितना समय हो गया है साथ बैठे"!
तभी  घन्टी बजती है ।
"अरे अब कौन आ गया "?
"तुम मीना!   आज इतनी सुबह ,रोज़ तुमको कहते -कहते थक गयी थी ,हमेशा लेट आती हो............
मै  रोज ऑफिस को लेट हो जाती हूँ ।चार दिन की छुट्टी भी कर ली बिना बताये ,फोन भी तुम्हारा स्विचऑफ आ रहा है "।"
ये माथे पर कैसी पट्टी बँधी है तुम्हारे" ?
" भाभी आप को बताया तो था !
कि हमारी बस्ती  मे पानी एक समय आता है वो भी टैंकर से ,और पानी के लिए बस एक सरकारी नल है जिससे हम सब पानी भरते थे ।उसी  मे लाईन लगती है रोज सुबह उठकर  नम्बर से पानी भरने मे कभी देर भी हो जाती है "।
"वो तो ठीक है पर अब ये चार दिन से बिना बतायें नही आरही हो "।
भाभी अब तक तो किसी तरह काम चल रहा था ! पर अब टैंकर आना बन्द हो गया  है ।तो और भी परेशानी बढ गयी है ,और  सब नल से ही पानी लेने लगें हैं ।
ये वही बात हो गयी भाभी कि "एक अनार सौ बीमार "
रोज सभी अपने बड़े -बड़े बर्तन लेकर नल पर लाईन लगा लेते है ।
और दूसरे का नम्बर बहुत देर बाद आता हैं ।  जब नम्बर आता हैं तो पानी आना बन्द हो जाता हैं ।
खाना तक बनाने को पानी नही था उस दिन ...
ऐसा चार दिन पहले भी हुआ  ।मेरी बेटी  लाईन मे लगी थी मैने  खाना बनानें  के लिए पानी  मँगाया था उससे ।
समय ज्यादा लगता देख ,क्योंकि उस को स्कूल भी जाना था ।
जिन का नम्बर था बस थोड़ा पानी पहले लेने को कहा तो  उस को बहुत बुरी तरह से झिड़क दिया ,तब मेरे आदमी ने कहा हमें थोड़ा पानी भर लेने दो काम पर जाना है ।
बस उसी बात पर तू तू मैं मैं उन के साथ हो गयी फिर उन लोगो नें मेरे आदमी को  इतना पीटा की  अब वो अस्पताल में हैं. उनको छुड़ाने में मुझे और मेरी बेटी को  चोट आयी है। अभी वही से आ रही हूँ आप को बताने कि मै कुछ दिन नही आ पाऊँगी !"
उसी लड़ाई में  जेब से गिरकर फोन भी टूट गया हैं" ।
आप सही कहती थी भाभी !कि बर्तन साफ करने में और सफाई में पानी व्यर्थ ना कर !ए.सी से निकला पानी सफाई करने में लेलो "!
पौचे से बचा पानी  पेड़ पौधों मे डाल दिया कर  !
  पानी पीनें को  नही हैं ,लोगों के पास और तुम उस को व्यर्थ गवाँती हो ।
मैं हमेशा इस बात की उपयोगिता जाने बिना आपकी इस बात को हँसी मे टालती थी और पानी को खुला छोड़ती थी ।
मीना सच कहा तुम ने "एक अनार सौ बीमार " बढती जनसंख्या और
पानी की बढती कमी को अगर हम समय रहते नही समझ पाये कि पानी ही जीवन है .........उसे हमे समझ कर व्यर्थ बहाने  से बचाना होगा ।सभ्यता नष्ट भी हो सकती है ।
नही तो आगे आने वाले समय में
ये मुमकिन है ,कि  पानी को लेकर  ही विश्व  युद्ध हो ....।
और जिसके पास पानी है वही राजा होगा ..............। ****

5. जिज्ञासा
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शर्मा जी, देखियें ये उदय के दादा जी आये है।
ये बता रहे है कि हिन्दी के अध्यापक बहुत डाँटतें है, और कुछ पूछनें पर चिल्लाकर  सजा भी दे देते है। कल सारा दिन उदय  को बेंच पर खड़ा रखा, उदय की तबियत भी खराब हो गयी थी।
प्रिंसिपल साहब ने कहा कि उदय बहुत ही
असहनीय है, पाठ पढनें से पहले ही प्रशन पूछनें लगता है।" ये क्या है"? "कैसे होता है"?
"क्यों होता है" ?
"अपनें आप तो पढता ही नही और दूसरें बच्चों को भी  पढनें नही देता ....
  इसी कारण उसको सजा दी थी"।
"शर्मा जी, ये बात ठीक नही! बच्चों का बाल सुलभ मन जिज्ञासा से भरा होता है
और बच्चों में  जिज्ञासा ही उनका आगे का मार्ग प्रशस्त करती है।
क्या एक गुरु होनें के नाते आप बालक नचिकेता की कहानी नही जानते ?
अपनें पिता के क्रोधित होनें पर, यमराज के पास जाकर और
जिज्ञासा के कारण यमराज से  प्रशन पूछकर, नचिकेता जन्म और मृत्यु के रहस्य के बारे में जान गये थे। ****

6. खुशी के रंग
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"जरा सोचो मेघना !
अपनी नाजो से पली चिरैया..... जिसे हमने सब सुख सुविधाओं के साथ पाला ,अभी आगे भी तो पढना चाहती है ....."।
इतने बड़े संयुक्त परिवार मे रह पाएगी......"।
"वो भी बड़ी बहू ...... सोचा है ।कितनी जिम्मेदारी निभानी पड़ेगी.....ना कर पायी तो ...।
"चिरैया से भी पूछो ...."।
"क्यों नही निभा पाएगी "?
"इतना अच्छा  परिवार ,इतना पढा लिखा संस्कारी लड़का ,इतना बड़ा  कारोबार , रूपया पैसा सब ही तो है ।और  उसे पढाने को वो राजी है ।अपनी शिक्षा आगे ले सकती है"।
"रही जिम्मेदारी तो  प्यार और अपनत्व से वो भी उठा लेगी मेरी बेटी ....।
"संयुक्त परिवार मे सब का साथ और प्यार भी मिलता है । जिम्मेदारी ही होती है ऐसी सोच ठीक नही "।
बिटिया  तुम्हारी कभी हां
और कभी ना सुन कर
दुविधा मे थी मै ....
कही मै गलत तो नही कर रही" । दिल को मजबूत कर ये कड़ा फैसला ले लिया था।
ये सोचकर ,#कभी किसी को मुकम्मल  जहाँ नही मिलता ।
लेकिन आज जब देखती हूँ ।"प्यार, अपनत्व से
उन को अपनाया तुमने ....
जिम्मेदारी निभाते अपने  पति के  साथ  सास ,नन्द पूरे परिवार  से भरपूर प्यार ,आदर पाते मन बावरा खुशी से झुमने लगता है" ।
"खुश रहो ......मेरी चिरैया" । ****

7. अपशगुन
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"बहू कुत्तों का रोना अच्छा नहीं होता .....आज भी देखो कितने कुत्ते रो रहें है "।
जब से ये कोरोना का शोर मचा है, कोई भी घर से बाहर नही निकलता। कुत्तों का रोना अपशगुन माना जाता है, कितना खराब समय है चारों तरफ बस हर व्यक्ति डरा हुआ है।  कोरोना के चलते .....
ना कही जा सकतें हैं, ना कामवाली बाई को बुला सकते हैं । बच्चें पहलें ही घर से बाहर खेलनें नही जाते थे, अब तो स्कूल भी जाना बन्द हो गया है।
"जी, माँजी !
ये बेचारे भूखे हैं.......।
सब लोग बाहर निकलनें से डरतें है, कोई भी इनको रोटी नही डालता है। सुना है पक्षी भी काफी भूख से मर रहे हैं।
कोरोना के कारण लोगों ने अपनें आप को घर मे कैद कर लिया है, तभी से ही पिछले दस दिन से  सास की यही बातें बहू सुनती आ रही  है।
आज उसने अपनी सभी पडो़सन सखियों को मैसेज किया ।
सभी पडो़सन सखियों ने आज से रोज दो रोटियाँ अपनें भोजन में ज्यादा बनानें कि सहमति दे दी है।
सभी अपने काम से निमटकर नियत समय पर अपनी घर की देहरी पर खड़े होकर कर कुत्तों को रोटियाँ खिला रही थी।
उस दिन से कुत्तों के रोने की आवाज कभी नहीं आयी । ***

8. आरती का थाल
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"लो  कविता तुम आरती उतारो '!
आरती का थाल रेणु से ले भाभी ने कविता को थमा दिया ।
रेणु रूआसी सी हो अपने मनोभाव  को चुपचाप  छिपा गयी।
शादी मे सब रस्मे निभायी जा रही थी । रेणु भी बहुत उमंग के साथ आगे बढ सब नेकचार करने को उतावली हो जैसे ही आगे आती
भाभी  किसी ना किसी अंदाज़ मे
उसे पीछे कर उसे अनदेखा कर अपने मयके वालो से सब रस्मे करा  रही थी ।
आरती का थाल  यूहं अपने हाथ  से लेते देख एकबारगी को तो उसे लगा था वह रो ही पड़ेगी ।
उस को रह रह कर याद आ रहा था ।जब भतीजे की शादी के रिश्ते का पता चला था ।
उस ने कितनी चाव  से शादी मे आने की तैयारी की थी ।
नये कपड़े ,गहनें सब नये लिये थे ।
शादी के सप्ताह पहले ही आने के लिए रमेश से जिद्द भी की थी ।
रमेश ने उसे समझाया था कि इतनी जल्दी जा कर क्या करोगी पर वह नही मानी थी उसने कहा था अगर मै ही अपने घर की शादी मे नही जाऊगी तो कौन जायेगा।पता है जब भाई की शादी हुई थी ।बुआ महीना भर पहले आ गयी थी,सब रस्मे भी तो मुझे ही करानी होगी ।मै हुआ जो ठहरी । और रमेश से यह कह कि तुम दो दिन पहले आ जाना  ।मयके चली आयी थी ।जब से आयी भाभी की हर बात मे उस की अनदेखी से वह बहुत दुखी थी ।
तभी उसके कन्धे पर हाथ रख किसी ने कहा रेणु क्या सोचने लगी ।
उसने पलट कर देखा रमेश उस का हाथ हिला रहे थे ।
रेणु की आखें गीली देख सब समझ गये ।
"रेणु तुम को कहा था ना ज्यादा उपेक्षा रखना ठीक नही "।
"हा सही कहां था अपने ....!
"भगवान शिव ने मना किया फिर भी मां पार्वती  ने नही माना औरअपमानित हुई ।फिर मै तो इन्सान हूँ ।" यह कह रेणु  नेकचार पर ध्यान न देते हुए ,रमेश के साथ बैठ कर बातें करनें लगी । ****

9.ट्रैफिक
    *****

"अरे देखकर नही चलता !अन्धा है क्या ?"
क्या कहाँ तूने?"अरे अन्धा होगा तेरा बाप !
"चल गाड़ी से निकल !अभी देखता हूँ तुझे सा..!
गाली किसे देता है!
सड़क के बीच में कार ,मोटर साईकिल वाहक के बीच झगड़ा देख ट्रफिक मे इर्द गिर्द तमाशबीनो की भीड़ इकट्ठा हो गयी ।बात इतनी बढ़ गयी ।तभी दोनों ने एक दुसरे को लात घुसे से मारना शुरु कर दिया !
एक बुज़ुर्ग उन दोनों को बीच से हटाने की कोशिश करने लगे ।
"कोई पुलिस को बुलाओ !
भीड़ देख मीडिया के लोग आ पहुँचे और लाइव रिपोर्टिंग करने लगे ।"हटिये ज़रा कैमरे के सामने से "लोगों को हटाते हुए बोले !लाईव रिपोर्टिग  चल रही है !
बुज़ुर्ग ने बीच बचाव करने के उद्देश्य से समझाने की कोशिश की !"अरे लड़ाई से कुछ हासिल नहीं होगा ।केवल दोनों पक्षों का नुक़सान ही होता है ।चलो ख़त्म करो झगड़ा ।क्या जानते नही रोडरेज के कारण समाचारों में कितनो की जान चली गयी । पढ़ें लिखें समझदार हो ।"
एक दुसरे से हाथ मिलाओ ।"और तुम सब तमाशबीनो  तुम्हारा कोई फ़र्ज़ नही झगड़ा बढ़ाने में आग में घी का काम कर रहे हो "हम सब को झगड़ा ख़त्म कराना चाहिए !"
"मीडिया वालों लाईव  कवरेज दे रहे हो क्या साबित करना चाहते हो! कहाँ मर गयी तुम्हारी संवेदना क्या ख़बर बेचने तक ही सिमित  है "।
अब तक दोनों सवार उनकी बातें सुन कुछ सम्भल कर !दोनो  आपसी ताल मेल से बातें करने लगे ।
"सुबह ऑफिस के समय जल्दी के कारण ...।दुसरे ने कहाँ
तभी हा...।
ऐ हटो सब चलो सब अपनी मंज़िल ! इस बीच सिपाही ने आ कर सारी भीड़ को वहाँ से हटाया !
और झगड़ा ख़त्म होते देख !
बुज़ुर्ग की आँखें भर आयी ।
भर्रायी आवाज़ में उन के मुँह से बस यही निकला दो साल पहले यदि कोई झगड़ा ख़त्म करा देता तो मेरा पच्चीस साल का बेटा भी आज जीवित होता ।" ****

10. तुलसी का बिरवा
       *************

जब मैनेजर को पता चला कि सुनीता  तुम्हारी नर्सरी  है ,तो बहुत खुश हुए और बोले कि कुछ पौधें यहाँ कार्यालय मे भी लगवा दो ।
"समय रहते तुमने ये काम शुरू कर दिया "!वर्ना तो .....।
रवि ने उसको देखते हुए कहा।
"हो जायेगा,"कढाई में सब्जी भूनते हुए  बोली ।
  सुनीता को याद आया वह दिन जब उसने इस घर मे शिफ्ट किया था ।
ये लो बेटा तुलसी का बिरवा" "कल जब तुम माली से बात कर रही थी तुलसी को घर में लगाने के लिये, मैने सुना ,जान गयी कि तुमको भी पेड़ पौधौं से प्यार है "।
"आखिर तुमने नये जीवन की शुरुआत की है ,मैने सोचा इससे अच्छा  उपहार तो कोई हो नही सकता "।
"अब तुम इसकी देख भाल करना"।
बगल के फ्लैट मे रहने वाली ,,आँटी हाथ मे पौधा लिये मेरे पास आयी थी ।
"जी आँटी ,माँ कहती थी ,हर  स्त्री को तुलसी मे रोज जल देना चाहिए, सीचने पर सुख और सौभाग्य वृद्धि होती है ।और अनेक रोगो मे भी इसका सेवन लाभकारी है ,पर्यावरण की सुरक्षा अलग होगी ..।
उसने अपनी बालकनी से देखा था आँटी ने अनेक पौधें लगा रखे थे ।
एक नर्सरी बना रखी थी, उसमे वो हमेशा उन पौधों की देखभाल करती नजर आती थी ।
खाली समय जब भी मिलता उसके लिये एक पौधा ले आती,और बताती इसमे इतनी खाद डालनी है कैसे देखभाल करनी है  उसके पास भी अनेक पौधे हो गये थे।
"क्या बात है ?"आज तुम बहुत उदास लग रही हो ,मुझे बताओ मै क्या कर सकती हूँ तुम्हारे लिए?" आँटी ने सोफे पर बैठते हुए उससे पूछा ।
"अभी तक अनू की ही फीस भरनी होती थी ,अब रानू की भी भरनी होगी हमारी तो सीमित आय है। दोनो का कैसे होगा ,मै भी नौकरी नही कर पाऊँगी ,बच्चे छोटे हैं। उसने धीमी आवाज मे कहा।
बेटा मेरे ,दोनो बेटों के यहाँ से चले जाने पर ,मै और तुम्हारे अंकल अकेले रह गये थे, समय तो कटता नही था  ।तब मैने इन पौधों मे अपने बच्चे तलाशने शुरू किये ।
और फिर कुछ पौधों से ही धीरे -धीरे एक नर्सरी  बना ली उससे होने वाली आमदनी से मै गरीब बच्चों की पढाई पर खर्च करती हूँ।जिससे मुझे आत्मिक सुख मिलता है ।
"अब तुम भी मेरे  साथ जुड़  जाओ
नर्सरी से जो आमदनी होगी तुम अपनी गृहस्थी पर खर्च करना "
इस तरह तुम्हारी घर बैठे ही आमदनी हो जायेगी,शुद्ध हवा और उन को देख आँखों को भी सुख मिलेगा ।
आँटी की दी शिक्षा इतनी कारगर होगी ये सोचा नही था ।
"अरे क्या सोचने लगी ,देर हो रही है
नाश्ता  बन गया ,?"
रवि ने तैयार होते हुए उस से पूछा ..।
अभी परोसती हूँ ..कह कर नाश्ता लगाने लगी । ***

11.परिणाम
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"पगली ये तुम क्या करने जा रही थी,माँ बापू के बारे में नहीं सोचा,क्या हाल होता उनका,?
"दीदी क्या  मुँह दिखाऊँगी .....? कितनी उम्मीदें थी उनको....!
"पगली तुम ने पूरी महनत के साथ पढ़ाई की,प्रतियोगिता के युग में सफलता के शीर्ष पर सब पहुँचना चाहते है ,पर ज़रूरी नहीं सफल हो ही जाए जिन्दगी की राहें अनन्त है ।
और अवसर भी बहुत मिलेंगे ।जिन पर आगे बढा जा सकता है ।
निराश ना हो ।धैर्य और परिश्रम के साथ आगे बढ़ो।और पराई करो ,आने वाले समय में सफलता ज़रूर मिलेगी।जिसके तुमने सपने देखें थे ।
जीवन बार बार नहीं मिलेगा।प्रकृति हमें जीवन प्रदान करती है ,जीवन जीने के लिएँ ।कुछ निश्चित समय के लिए ।उसको समाप्त करना प्रकृति के नियम के विरूद्ध है"।
रीता ने उसे समझाते हुए कहां
"बेटी सविता "!माँ बापू की आवाज़ सुन सिसकती सविता माँ से लिपट गयी ।"बेटी रीता ने फ़ोन कर हमे बताया है ,बेटी हम उन माँ,
बाप में से नहीं है जो अपने बच्चों को समझ नहीं पाते ,और उनको ग़लत ठहरा कर उन का साथ नहीं दे पाते ,।उम्मीदों को उन पर थोपतें है ।
"हाँबेटी निराशा छोड़ दो "हम तुम्हारे साथ है"। दुबारा महनत से पढ़ना !
मां ने उसको बाहों में भरते हुए कहां
उसके निराश मन को जैसे दो ओस की बूँदें मिल गयी हो।और उसकी सारी निराशा को धो दिया हो । ****
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क्रमांक - 11

          जन्म  : 27 जून, 1956 इन्दौर - मध्यप्रदेश
पिता : श्री कृष्ण कुमार खन्ना
माता : श्रीमती राजरानी खन्ना

निवासी : 1962 से दिल्ली का निवासी

शिक्षा : -
दिल्ली स्थिति धनपतमल डी.ए.एस. से हायर सैकेण्डरी स्कूल में हुई। ग्यारहवीं के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य में स्नातक की डिग्री हासिल की।

व्यसाय : -
पिताजी के व्यवसाय में अनुभव प्राप्त करता रहा। पिताजी विद्यार्थियों को टाइप और शाॅर्टहैण्ड में पारंगत किया करते थे।बाद में इसी व्यवसाय को अपनाया।

लेखन : -
स्नातक शिक्षण के दौरान लेखन में रुचि हुई और आरम्भ में कुछ छोटे-मोटे लेख नवभारत टाइम्स में छपे। पारिश्रमिक मिला तो हैरत हुई और उत्साह बढ़ा।एक लम्बे अन्तराल के बाद जुलाई, 2018 में कविता और कथा लेखन में रुचि पुनर्जाग्रत हुई। कविताएं आदि लिखीं यह सिलसिला अभी जारी है

अनुभव : -
दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं की विभिन्न विषयों पर अनेक पीएचडी थीसिस  सम्पादित कीं है । कई  पुस्तकों का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया और वे प्रकाशित भी हुईं। अंग्रेजी की दो वैबसाइट्स का हिन्दी में अनुवाद किया।

पता : -
ए-38, फर्स्ट फ्लोर, डबल स्टोरी 
मेन रोड, मलका गंज, उत्तरी दिल्ली 
दिल्ली-110007

1. कागज़ का नोट
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‘दूल्हे का सेहरा सुहाना लगता है, दुल्हन का तो दिल दीवाना लगता है’ की धुन पर बाराती नाच रहे थे।  कुछ होश में थे, कुछ मदहोश थे।  अमीर घराने की शादी की बारात थी ।  शहर के नामी बैंड वालों के कारिंदे चमकती हुई पोशाकों में चमचमाते बैंड-बाजों पर एक से एक बढ़िया धुन बजा रहे थे।  बाराती झूम रहे थे। जैसाकि अक्सर होता है नाचने वालों का एक झुंड सा बन जाता है और बैंड-बाजे वालों का ध्यान भी उन्हीं पर बना रहता है।  आधुनिकतम फैशन की नुमाइश करते अमीरजादों और अमीरजादियों को दिल खोलकर नाचने में बहुत मज़ा आ रहा था। कुछ चुनिंदा फिल्मी धुनें बैंड वाले अपनी ओर से पेश कर रहे थे और कुछ बारातियों की फरमाईश पर बजाई जा रही थीं।  जब-जब फरमाईशी धुनें बजतीं उन बारातियों के हाथों और मुँह में चमचमाते मोटे नोट लहराने लगते और बैंड बाजे वाले अपनी सारी ताकत झोंक कर धुनें पेश करते पर निगाहें उनकी नोटों पर इस तरह से रहतीं कि कब वे उनके मुँह और हाथ से छूटें और वे कटी पतंग को लूटने की भाँति उन पर लपकें।  म्यूज़िक डायरेक्टर के इशारे पर सभी नोट उसके पास जमा किये जा रहे थे।  इस बारात से थोड़ी दूरी बनाते हुए गरीब बच्चों का एक दल भी गानों पर अपनी ही मस्ती में थिरक रहा था। निगाहें उन बच्चों की भी नोटों पर थीं जो बारातियों के मुँह और हाथ से छूट कर गिरते।  बच्चे इस इंतज़ार में थे कि कभी तो बैंड-बाजे वालों की निगाह से कोई नोट बच जायेगा और उड़कर उनकी तरफ आ जायेगा।  जिस किसी बच्चे के हाथ कोई नोट लगता वह लपक कर उड़न-छू हो जाता था इस डर से कि अगर किसी ने पकड़ लिया तो वापिस करना पड़ेगा।  गिरते उड़ते लहराते नोटों पर नज़र बैंड बाजे वालों और इधर उधर से घुस आते बच्चों के साथ साथ झाड़-फानूस उठाकर चलने वाले मज़दूरों की भी थी पर वे मज़बूर थे, लाचार थे क्योंकि कंधों और सिर पर बोझा बने फानूसों को वह नीचे भी नहीं रख सकते थे क्योंकि वे सब एक कड़ी में जुड़े हुए थे।  शायद वे अपनी किस्मत को कोस रहे थे कि काश वे भी कुछ हुनर जानते तो बैंड वालों का हिस्सा बनते और नोट चुनते।  दो सौ, पांच सौ और दो हजार के नोट बरस रहे थे।  बच्चों की आंखें बड़े-बड़े नोट देख कर फट रही थीं ।  कुछ भोले बच्चे कह रहे थे अरे ये तो चूरन वाले नकली नोट हैं तभी तो लुटा रहे हैं।  पर कुछ कम ही उम्र में समझदार हो गये बच्चे उन्हें समझा रहे थे कि नोट असली हैं इनसे हम बहुत सारी चीज़ें खरीद सकते हैं।  तभी एक बच्चे की निगाह बारात में से उड़ कर आये एक नोट पर पड़ी।  वह तेज़ी से लपका और उसने उठा लिया और देखा कि गुलाबी रंग के नोट पर दो के आगे तीन ज़ीरो लगे थे।  उसने समझा कि यह दो रुपये का नोट है।  अभी वह देख ही रहा था कि अचानक एक बड़ा भिखारी उसकी ओर झपटा क्योंकि उसने जान लिया था कि वह दो हजार का नोट है।  पर बच्चा चुस्त था वह उसके हाथ नहीं आया और उसे चकमा देकर भागने लगा पर रास्ते में तेज़ी से आते स्कूटर से टकरा कर गिर गया।  उसे बहुत चोट लगी।  उसके साथियों ने उसे उठाया और उसे लेकर डाॅक्टर के पास ले जाने लगे थे ।  बच्चा घबराकर लगभग बेहोश सा हो गया था।  पर उसकी मुट्ठी में मज़बूती से बंद थी उसकी मेहनत की कमाई वह दो हज़ार का काग़ज़ का नोट ।  ****

2. हम ऐसे क्यों हैं
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‘पापा, मुझे स्कूल से मिले होमवर्क में 10 कलर प्रिंट आऊट चाहिएं। सौ रुपये दे दो साइबर कैफे से निकलवा लाऊंगा।’  ‘अरे चिन्ता क्यों करता है बेटे, मुझे पैन ड्राइव में दे दे या ईमेल कर दे मैं ऑफिस में निकालता आऊंगा। फ्री में काम हो जायेगा, तू क्यों परेशान होता है?’ नयी पीढ़ी का बेटा एक बार झिझका।  ‘अरे सोच क्या रहा है? जल्दी दे मुझे देर हो रही है, आजकल सरकारी आफिसों में हाज़िरी की मशीनें लग गई हैं, लेट हो जाने पर पैसे वेतन में से खुद ही कट जाते हैं’।  अनमने मन से बेटे ने पैन ड्राइव पकड़ा दी।  पापा जाते जाते बेटे की माँ की ओर इशारा करते हुए बोले ‘ज़रा तुम इसे समझाओ, मैंने पूरे सौ रुपये बचाये हैं, न मालूम यह क्या सोच रहा था।’ 
‘मम्मी, आपके पर्स में खूब सारे नए नए पैन, पैंसिल और रबड़ रखे हैं, आज क्या बात है?’ पिंकी बोली ।  ‘अरे बेटी, आज ही आॅफिस में स्टेशनरी वाला आर्डर सप्लाई कर गया था, अब हमारे ही तो काम आने थे, इसलिए मैं ले आई।  तुम्हें जो चाहिए ले लो।’ ‘मम्मी, क्या आॅफिस में सस्ते दामों पर मिलते हैं?’ ‘अरे पगली, सरकारी दफ्तरों में काम करने वालों के लिए ये चीजें फ्री में मिलती हैं।  अब हम सरकारी कर्मचारी हो गये तो ये चीजें भी तो हमारे लिये ही आती हैं। देख देख, बिल्कुल लेटेस्ट हैं।’  15 वर्षीय पिंकी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था।  बोली ‘मम्मी, मेरी सहेलियों की मम्मियों को भी ऐसे ही मिल जाता होगा।’ मम्मी ‘हां, पिंकी, जो सरकारी दफ्रतरों में काम करती हैं वे ये ला सकती हैं।’  ‘मगर मम्मी, राधा तो कहती थी कि उसकी मम्मी तो नहीं लातीं। वह भी सरकारी दफ्तर में काम करती हैं।  कहती हैं ये तो सरासर चोरी है।’  पिंकी की मम्मी को गुस्सा आ गया ‘तू अपना काम कर, औरों की बात पर ध्यान मत दे।’
‘अरे सुनना ज़रा, मांजी के लिए डाॅक्टर ने बहुत सारी दवाइयां लिख दी हैं, हजारों रुपये लग जायेंगे।  यह पर्चा ले लो, देखो कहीं से रिबेट मिल जाये तो दवाइयां लेते आना ।’  ‘अच्छा’ कहते हुए वे आफिस चले गये।  शाम को लौटे तो दवाइयों का पैकेट थमाते हुए बोले, पर्चा संभाल रखना।  मम्मी ने दवाइयां चैक करनी शुरू कीं तो देखा रिबेट के बाद सोलह सौ रुपये बनते थे पर कैमिस्ट का बिल तीन हज़ार रुपये का था।  वहीं से ही बोलीं ‘सुनो जी, आप गलत बिल ले आये हैं।  सोलह सौ की जगह तीन हज़ार का बिल ले आये हैं।  कहीं ज्यादा पैसे तो नहीं दे आये?’  ‘अरे नहीं, तू भी कमाल करती है।  दफ्तर में बिल जमा करूंगा तो मुझे तीन हज़ार रुपये मिल जायेंगे, थोड़ा कैमिस्ट फालतू ले लेगा।  फिर भी काफी पैसे बचेंगे।  किसी काम आ जायेंगे।’ 
ज़रा सोचें आखिर हम ऐसे क्यों हैं ?  *****

3.सैकेंड हैंड
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‘भैया यह किताब कितने की है ?’ पूछ रहा था ग्राहकों से भरी दुकान के काऊंटर पर एक बालक।  बड़े-बड़े लोगों की भीड़ में उसकी कोमल आवाज़ दब कर रह जाती थी।  आधे घंटे बाद काऊंटर पर भीड़ छंटी तो दुकानदार का ध्यान उस बालक की ओर गया।  बिना सोचे समझे उसे झिड़क कर बोला, ‘तूने इस किताब के पैसे दे दिये हैं क्या?’ जोर से बोले जाने के कारण बालक सहम गया था।  कुछ देर शून्य में ताकने के बाद बोला, ‘भैया मैं तो आधे घण्टे से इस किताब के दाम पूछ रहा हूँ।  आप मेरी तरफ देख ही नहीं रहे थे।’  बालक की कोमलता से प्रभावित दुकानदार अब थोड़ा नरम पड़ गया था, बोला ‘बच्चे, इस किताब का मोल 190 रुपये है।’ बालक हैरान हो गया उसने सोचा नहीं था कि किताब का इतना मोल होगा।  बोला ‘भैया कुछ कम हो जायेंगे ।’ दुकानदार बोला ’चलो तुम 180 रुपये दे देना।’  बालक उदास हो गया था उसके पास तो 180 रुपये भी नहीं थे। 
यह सब माजरा वहाँ अपने पिता के साथ आया एक बालक देख रहा था जो दुकानदार को किताबें बेचने आये थे।  वह बालक दोनों के बीच हो रही बातचीत को सुन रहा था और किताब की ओर भी उचक उचक कर देख रहा था।  उसे इतना जरूर समझ में आ गया था कि जो बालक वह किताब खरीदना चाह रहा है वह किताब तो उन किताबों में से एक है जो वह पापा के साथ बेचने आया है।  चूँकि वह भी बालक था अतः बालक की दुविधा को समझ रहा था।  उसने पापा के कान में कुछ कहा।  पापा मुस्कुराए।  वह बालक भी खुश हो गया था।  तुरन्त वह उस बालक के पास गया और बोला, ‘भाई, अगर तुम्हें एतराज न हो तो तुम मेरे से यह किताब ले लो, सैकंड हैंड जरूर है पर साफ सुथरी है।’  बालक सकपका गया। दुकानदार से नज़रें हटा कर बोला ’भैया, कितने की दे दोगे।’  दूसरे बालक को बरबस हँसी आ गई फिर मुस्कुरा कर बोला ‘भाई, यह किताब मैं तुम्हें ऐसे ही दे रहा हूँ, इसके कोई पैसे नहीं लगेंगे।  मेरे पास और भी किताबें हैं अगर तुम्हारे काम आ जाएँ तो वो भी ले लो।’  बालक के उदास चेहरे पर हल्की सी मुस्कान छाने लगी थी।  वह उस बालक द्वारा लाई गई किताबों के बंडल को तेजी से देख रहा था।  उसमें से उसे दो किताबें और मिल गईं।  बालक की खुशी का ठिकाना न था।  दुकानदार भी बालकों के बीच हो रहे इस व्यवहार से स्तब्ध था।  उधर बालक किताबें वापस लेकर चलने लगा तो दुकानदार ने उसे 6 कापियाँ और 2 नई पेंसिलें दे दीं और उसके पैसे नहीं लिये।  बालक हैरान था और दुकानदार दूसरे बालक को धन्यवाद दे रहा था कि उसने दुकानदार को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित कर लिया।  दुकानदार हंस कर बोला ‘लो भाई, अब तो सैकंड हैंड के साथ फर्स्ट हैंड भी हो गया।’ बालक के पापा अभी भी मुस्कुरा रहे थे।  उधर बालक ने निश्चय कर लिया था कि वह अपने सभी साथियों से कहेगा कि वे पुरानी किताबें बेचें नहीं और उन बच्चों को बाँट दें जिन्हें उनकी जरूरत है पर उनके पास खरीदने के लिए पैसे नहीं है।  वापिस जाते समय उसके पिता गर्व से उसकी ओर देख रहे थे।  सैकंड हैंड का मूल्य फर्स्ट हैंड से कहीं अधिक हो गया था। ****

4.चुपके से
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‘आहा ... आहा ... बहुत मज़ा आ गया ... बहुत ही स्वादिष्ट थाली थी’ कहते हुए  कार में अपने पति और बच्चों के साथ बैठी गृहिणी बाज़ार की एक मशहूर दुकान से लिया खाना चटकारे लेकर खा रही थी। ठंडे पानी की बोतल भी साथ में थी।  अब जब कार में बैठ के खाना खाया था तो ज़ाहिर है खाने की पैकिंग का सामान, थर्मोकोल की प्लेटें अभी गाड़ी में ही थीं।  इतने में पिछली सीट पर बैठे बच्चों ने गाड़ी का दरवाज़ा खोला और खाली प्लेटें बाहर फेंक दीं।  माँ ने देखा तो तुरन्त बच्चों को आदेश दिया ‘ऐसे नहीं फेंकते, चलो वापिस उठाओ।‘ बच्चों ने सकपकाते हुए थालियां वापिस उठा लीं।  मुझे देखकर प्रसन्नता हुई।  मुझे लगा कि ‘स्वच्छ भारत अभियान’ असर दिखाने लगा है।  अभी मैं इस पर गर्व महसूस कर ही रहा था कि गाड़ी की दरवाजा फिर खुला।  अबकी बार उस गृहिणी वाली साइड का दरवाजा खुला।  उस गृहिणी ने एक थैला दरवाजा खोल के ‘चुपके से’ नीचे सरका दिया था और ऊपर से बोतल में बचे पानी से हाथ धो लिया था।  यानि गाड़ी बिल्कुल साफ हो चुकी थी ।  सुघड़ और कुशल गृहिणी ने अपना गृहस्थ धर्म निभा लिया था।  गाड़ी के दरवाजे बंद हो चुके थे और गाड़ी धीरे धीरे बैक होती हुई अपना रास्ता बना रही थी ।  इतने में बाहर से कोई बोला ‘बहन जी, आपका थैला गिर गया।’ बहन जी सुनकर भी अनजान बनी रहीं और गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली थी।  इतने में कूड़ा बीन रहे एक दो बच्चे उस थैले पर लपके।  आनन फानन में खोल दिया।  मिली तो केवल खाली थालियाँ जो बहन जी ने बच्चों से वापिस उठवाई थीं।  कमाल हो गया।  ‘चुपके से’ कमाल हो गया।  वाह रे मेरे देशवासी।  बच्चों को भी शानदार सीख मिली थी।  पति को धर्मपत्नी की बुद्धि पर गर्व था। प्रधानमंत्री जी का ’स्वच्छ भारत अभियान’ शुरू होता है डंके की चोट से।  कुछ लोग डंके की आवाज़ को दबा देते हैं ‘चुपके से’। ****

5.कुरूप चूजा
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‘विद्यार्थियो ! आज हमारे पाठ का शीर्षक है ‘कुरूप चूजा’।’ हिन्दी की अध्यापिका की बात सुन वि़द्यार्थी व्यवस्थित होकर बैठ गए थे और एकाग्रता से अध्यापिका के सम्बोधन को सुन रहे थे। ‘कुरूप चूजा कथा है एक सफेद रंग की बत्तख और उसके चूजों की।  उस बत्तख द्वारा दिये गये पाँच अंडों में से समय आने पर चूजे जन्म लेते हैं।  पाँच में से चार चूजे सफेद रंग के होते हैं जबकि पाँचवां चूजा श्याम वर्ण का होता है।  समय बढ़ने के साथ साथ चूजे अपनी आँखें खोलते हैं और प्रकृति को देखते हैं।  गिरते-पड़ते चूजे धीरे धीरे चलना सीख गये थे। माँ बत्तख जहाँ जहाँ जाती चूजे उसके पीछे पीछे कतार में चलते।  बड़े होने पर समझना शुरू किया कि उनमें से चार चूजे तो धवल सफेद वर्ण के हैं और पाँचवां चूजा कुरूप है उसका वर्ण अलग है।  उनमें अहम भाव जाग्रत होने लगता है।  वे पाँचवे चूजे से दूर दूर रहने लगते हैं।  जब बत्तख माँ के पीछे कतार में चलते हैं तो पाँचवे चूजे को सबसे पीछे चलना पड़ता है।  पाँचवा चूजे में हीन भावना जन्म लेने लगती है।  चूजे बत्तख माँ के साथ तैरना सीखने लगते हैं।  तैरते समय जब पाँचवा चूजा जब उनसे आगे निकल जाता है तो वे चिढ़ कर उसे पीछे धकेलने का प्रयास करते हैं।  पाँचवें चूजे को दुःख होता है।  बत्तख माँ इन सब हरकतों को देख रही होती है।  उसके लिये तो पाँचों चूजे ही उसके अपने अंश थे।  वह अन्य चूजों को कुछ कहती तो नहीं पर पाँचवें चूजे के प्रति कुछ गलत न हो जाये और वह हीन भावना से ग्रस्त न हो जाये, इस बारे में सतर्क रहने लग गयी थी।  बत्तख माँ को अपने प्रति अधिक संवेदनशील देखकर पाँचवें चूजे में आत्मविश्वास भरने लगा था।  उसके कुरूप चेहरे पर भी मुस्कुराहट के फूल खिलने लगे थे। बत्तख माँ सावधान थी कि कुरूप चूजे को किसी प्रकार का नुकसान न हो।  वह सोचने लगी कि उसके बाद कुरूप चूजे का क्या होगा।  बत्तख माँ जिस नदी के पास रहती थी वहाँ कुछ हँस आया करते थे जो धीरे धीरे उसके मित्र बन गये थे और जब भी वे उस नदी में प्रवास करने आते तो बत्तख माँ से अवश्य मिलकर जाते।  बत्तख माँ हँसों के प्रवास का इन्तज़ार कर रही थी।  समय आने पर हँस आये और बत्तख माँ ने उन्हें अपनी व्यथा सुनाई।  हँसों ने बहुत ध्यान से बत्तख माँ की बातें सुनीं।  फिर उन्होंने एक निर्णय लिया और कहा कि वे उस चूजे को अपने साथ ले जायेंगे।  बत्तख माँ यह सुनकर थोड़ी विचलित तो हुई पर कुरूप चूजे के भविष्य को देखते हुए उसने अनमने मन से हामी भर दी।  प्रवास के दौरान हँस कुरूप चूजे के साथ अपना समय बिताते और उससे अठखेलियाँ करते।  कुरूप चूजे ने एक दिन हिम्मत करके हँसों से जानना चाहा ‘वह ऐसे रंग का क्यों है जिससे अन्य चूजे उससे नफरत करते हैं।’  हँसों ने कहा ’जो तुमसे नफरत करते हैं भले ही वह कितने सुन्दर क्यों न हों, उनके मन कलुषित हैं, उनके मन कुरूप हैं।  तुम भले ही वर्ण से सुन्दर न दिखो, किन्तु तुम्हारा मन निर्मल है, सुन्दर है।  असल में तुम उन सभी से अधिक सुन्दर हो।’ देखते ही देखते हँसों के प्रवास का समय समाप्त हो गया और जब वे जाने लगे तो उन्होंने उस चूजे को अपने साथ ले लिया और ले गये अपनी उस दुनिया में जहाँ ऊपरी सुन्दरता से आंतरिक सुन्दरता अपनी छटाएं बिखेरती थी।  अब वह चूजा बत्तख बन चुका था और ऐसी दुनिया में रह रहा था जहाँ गुणों का मूल्य समझा जाता था।  अब वह बहुत प्रसन्न था और उसे देखकर हँस भी प्रसन्न थे । तो बच्चो, यह थी आज की कहानी।  अब कक्षा का समय समाप्त हो रहा है ।  कल एक नए पाठ का आरम्भ होगा।’ हिन्दी की अध्यापिका उठ गई थीं। 
रिश्ता जोड़ने की कवायद में आजकल ऐसी अनेक घटनाएँ देखने को मिलती हैं जहाँ बाहरी सौन्दर्य के आगे आन्तरिक सौन्दर्य हार जाता है।  समय के साथ बूढ़े होने वाले सौन्दर्य के आगे हमेशा ही युवा रहने वाले आन्तरिक गुण हार जाते हैं।  ऐसे में साथ मिलता है उन लोगों का जो आन्तरिक गुणों के महत्व को परखने की समझ रखते हैं और वे लोग उन हँसों के समान हैं जिन्हें कुरूप चूजे के आन्तरिक गुणों का महत्व मालूम होता है और वे उसका सम्मान करते हैं।  कुछ घटनाओं में तेज़ाबी हमलों में अनेक कन्याएँ बदसूरत बना दी जाती हैं।  किन्तु ऐसा कायर हमला चाहे उनके बाहरी सौन्दर्य को खराब कर दे पर किसी भी सूरत में वह उनके आन्तरिक गुणों को नष्ट नहीं कर सकता।  वे हमेशा ही बरकरार रहेंगे।  हमला करने वाले ऐसे कायरों को जिस दिन यह बात समझ आ जायेगी तो वे ऐसी कायराना हरकतें करना बन्द कर देंगे क्योंकि उन्हें मालूम पड़ जायेगा कि इस दुनिया में ऐसे हँस भी हैं जो दूध का दूध और पानी का पानी कर देते हैं। ****

6.मैं ऐसा क्यों हूँ
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‘सुन, तेरे बैग में चाकू है ना, हम फल काटने के लिए लाये थे ?’ शादी के बाद पहली बार हनीमून मनाने आये नवविवाहित जोड़े में पति ने पत्नी से पूछा।  दोनों ही हिमाचल प्रदेश के सुप्रसिद्ध हिडिम्बा मन्दिर के पास देवदार के ऊँचे ऊँचे वृक्षों के साथ अपनी फोटो खिंचवाने के लिए आये हुए थे।  ‘हाँ, है।’ पत्नी ने उत्साहित होकर कहा। वेशभूषा से दोनों ही पढ़े लिखे और संभ्रांत परिवार के प्रतीत होते थे।  पत्नी ने अभी बैग से नया चमचमाता चाकू निकाला ही था कि उनकी फोटो खींचने वाले स्थानीय फोटोग्राफर ने पूछ ही लिया, ‘भाईसाहब, यह चाकू किसलिए, इसकी क्या ज़रूरत है?’  ‘अरे भाई, शादी के बाद पहली बार हनीमून पर आये हैं।  जिस पेड़ के साथ खड़े होकर अपना फोटो खिंचवा रहे हैं कम से कम उस पर चाकू से अपना नाम तो गोद लें ताकि हमें यह याद रहे कि हम भी पहली बार यहाँ आये थे और फोटो खिंचवाई थी।’  स्थानीय फोटोग्राफर की आँखों में आँसू आ गये और वह रुदन सा करने लगा।  यह देखकर नवविवाहित जोड़ा चौंक कर सकपका गया और पूछने लगा ’अरे भाई, क्या बात हो गई, हम तुम्हें थोड़े ही कुछ कह रहे हैं?’  फोटोग्राफर बोला, ‘आपने मेरा रुदन और मेरे आँसू देख लिये तो आप परेशान हो गये, काश आपने इन पेड़ों के आँसू देखे होते और इनका रुदन सुना होता।  जब जब आप जैसे महानुभाव ऐसी हरकत करते हैं तो इनके आँसू बह निकलते हैं और ये रुदन करते हैं और सोचते हैं कि हमने क्या बिगाड़ा है जो हमारी खाल को ही कुरेद दिया जाता है।’ इतना कह कर फोटोग्राफर ने विनम्र होकर कहा, ‘क्षमा चाहता हूँ, इस कार्य में मैं आपका भागीदार नहीं बन सकूँगा।  मैं पहाड़ों का रहने वाला हूँ, मैं पेड़ों की व्यथा जानता हूँ।  पहले मैं इस बारे में नहीं सोचता था।  पर अब परिपक्व हो गया हूँ, इन्हीं पेड़ों की छाँव तले खेला हूँ, पढ़ा हूँ, बढ़ा हूँ।  ऐसे ही कितने पेड़ों ने अपने फल खिलाकर मुझे पाला है।  आप भी इन्हीं पेड़ों के द्वारा दिये गये फल को काटने के लिए वो चाकू लाये हैं।  आप खुद ही सोचिए क्या इन दरख्तों की छाल को चाकू से कुरेदने पर उन्हें तकलीफ़ नहीं होती होगी।  आपके लिए वे खामोश हैं, मूक हैं पर मेरे तो बचपन के साथी हैं।  मैंने और मेरे अन्य कई फोटोग्राफर साथियों ने यह निर्णय ले लिया है कि चाहे कुछ भी हो हम उन लोगों के फोटो नहीं खीचेंगे जो पेड़ों को तकलीफ पहुँचायेंगे।  इसलिए मुझे क्षमा करें।’  फोटोग्राफर की बात सुनकर नवविवाहित जोड़ा हतप्रभ रह गया, कुछ पल सोचा और आँखों ही आँखों में बात करके वे दोनों उस पेड़ से लिपट गये और बोले, ‘फोटोग्राफर जी, अब तो ठीक है, अब तो फोटो खींचोगे।’ फोटोग्राफर इस प्रतिक्रिया की अपेक्षा नहीं कर रहा था।  वह बहुत ही आश्चर्यचकित हुआ और मुस्कुरा कर बोला, ‘साहब, अब तो मैं अनगिनत फोटो खींचूंगा और मैं आपसे कोई पैसे भी नहीं लूँगा।’ उसकी आँखों में एक बार फिर आँसू थे पर अब वे खुशी के थे। अक्सर देखा गया है कि हम लोग बिना सोचे समझे ऐसी ओछी हरकतें कर जाते हंै और फिर खुश होते हैं।  पेड़ हों या पुरातत्वकाल की ऐतिहासिक इमारतें हों उन पर अपना नाम कुरेदने से बाज नहीं आते।  नाम कमाना है तो ऐसे काम करो कि तुम्हारा नाम और तुम्हारा काम मील का पत्थर बन जाये।  सुन्दरता को बिगाड़ने में हमें आनन्द की अनुभूति होती है।  क्योंकि ऐसी हरकतों की शुरुआत अकेले ‘मैं’ से होती है जो बढ़ते बढ़ते ‘हम’ का दर्जा हासिल कर लेती हैं इसलिए इन सबका प्रतिनिधि होने के नाते ‘मैं’ को बताना होगा कि ‘मैं’ ऐसा क्यों हूँ’।  ****

7. सोच

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बार-बार अपने माथे पर आई पसीने की बूँदें पोंछता प्रौढ़ आयु का रिक्शा वाला सामान ढोकर फ्लाईओवर की चढ़ाई चढ़ रहा था।  उसकी बेबसी बता रही थी कि कितनी मजबूरी में वह माल ढोने का काम कर रहा है।  उसे अपने परिवार का पेट जो पालना था।  दूर गाँव में घर पर बूढ़ी माँ, पत्नी और बेटी सभी तो उस पर आश्रित थे।  चढ़ाई चढ़ते चढ़ते जब पैरों की ताकत जवाब दे देती थी तो वह उतर कर रिक्शा धकेलने लगता था।  पर ऐसा करते समय वह किसी की ओर मदद के लिए नहीं देख रहा था।  इस ज़माने में किस के पास समय है जो रुक कर उसकी मदद करता।  उसके आस पास से इंसानों को ढोते हुए तिपहिए, बसें, कारें, मोटरसाइकिलें, स्कूटर और साइकिल सवार जा रहे थे।  एक तो भार ढोते ढोते परेशान और ऊपर से वाहनों का धुआँ और शोर मचाते हाॅर्न।  सामान के बोझ के अलावा वह इन सबका बोझ भी सहन कर रहा था जो उसकी मज़बूरी थी।  वह काफी दूर आ गया था और हाँफने लगा था।  पैदल धकेलते धकेलते वह फिर से रिक्शा पर बैठ गया था और पैरों की ताकत का इस्तेमाल करने लगा था।  पर यह क्या? अचानक ही रिक्शे पर लदे सामान का भार उसे हलका लगने लग गया था और रिक्शे के पहियों में गति भी आ गई थी।  इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता उसने एक आवाज़ सुनी ‘आगे देखो भइया, हैंडल सम्भालो।’ रिक्शे के पीछे से एक स्कूटर वाले ने अपनी एक टांग उसके रिक्शे पर टिका दी थी और स्कूटर तथा अपने पैरों की ताकत से वह रिक्शा को धकेल रहा था।  इस घटना से हतप्रभ रिक्शा वाले को अपना पसीना पोंछने का वक्त ही नहीं मिला और पसीना उसके माथे से बहकर उसके चेहरे पर अपनी धाराएँ बना रहा था और न जाने कब स्कूटर वाले की इंसानियत के प्रति उसकी कृतज्ञता चुपके से उसकी आँखों से बहती अश्रुओं की धाराओं के रूप में पसीने की धाराओं के आ मिली थी।  चढ़ाई समाप्त हो गई थी।  यूँ तो जीवन में चढ़ना ही प्रगति की निशानी माना जाता है और ढलान को ह्रास।  पर फ्लाईओवर की यह ढलान उसकी गति में प्रगति का द्योतक थी और उसकी मंज़िल अब दूर नहीं थी।  रिक्शा वाले ने स्कूटर वाले को धन्यवाद करने के लिये गर्दन घुमायी तो वह तो कहीं का कहीं जा चुका था।  ढलान पर बिना पैडल मारे रिक्शा वाला सोचता जा रहा था कि ना जाने कब किस रूप में फरिश्ते आ जाते हैं पता ही नहीं चलता।  अब वह पूर्ण ऊर्जा प्राप्त हो चुका था और उसमें एक नयी शक्ति का संचार हो गया था। जी हाँ, ऐसे इंसानी फरिश्ते हमें अक्सर ही मिल जाया करते हैं।  ऐसा नहीं कि जो इंसानियत का काम वे करते हैं वह हम नहीं कर सकते   पर न जाने क्यों हम ऐसा सोच ही नहीं पाते।  यह सोच का ही तो अन्तर होता है कि कोई वृद्ध सड़क पार करने के लिए खड़ा है, वाहनों की आवाजाही से घबरा रहा होता है।  पर सैंकड़ों लोगों की भीड़ में से एक फरिश्ता तो निकल ही आता है जो उसे सड़क पार करने में मदद करवा देता है।  क्योंकि उसकी सोच ही इंसानियत से भरी होती है।  इंसानियत की सोच से भरपूर इंसानी फरिश्ते आम आदमी ही होते हैं जो सब की भाँति अपना उद्देश्य प्राप्त करने के लिए जीवन के पथ पर अग्रसर तो होते ही हैं पर वे अपने मार्ग पर चलते हुए अपनों को ही ज़रूरत पड़ने पर मदद देने के लिए रुक जाते हैं बिना यह चिन्ता किए कि अपनों की मदद करने में उनका समय नष्ट हो जायेगा।  कहाँ से आते हैं ये इंसानी फरिश्ते?  ये कोई अलग नहीं होते बल्कि हम में से ही होते हैं।  संभवतः उनमें सोच का अन्तर होता है, वे मानवता के संस्कारों से, इंसानियत की नीयत से लबरेज होते हैं।  आइए हम भी ऐसा सोच कर कुछ ऐसा कर दिखायें जिससे कि इंसानी फरिश्तों की तादाद बढ़ सके।***

8.पटाखे

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दीपावली की संध्या हो चुकी थी।  कोठियों में रहने वाले संभ्रांत परिवारों के बच्चे और किशोर वय के नौजवान पटाखे लिये दीपावली मनाने के लिए घर से बाहर निकल आये।  कोठियों के नज़दीक बाग की दीवार के आसपास कपड़े प्रेस करने वाले धोबियों के  बच्चों के पास पटाखे नहीं थे।  कुछ कोठी वालों ने उन्हें मिठाई दे दी थी जिसका वे आनन्द उठा रहे थे।  एक बालक ने अपने मुँह में मिठाई का टुकड़ा डाला ही था कि ‘फट ... फटाक ... भम्म ... धम्म... धमाक’ की ज़ोर से आवाज़ आई और बालक के हाथ से मिठाई का टुकड़ा जमीन पर गिर गया।  अचानक हुए धमाके से वह घबरा गया था।  लेकिन इस धमाके के साथ ही सब बच्चे मिठाई खाना छोड़ उठ खड़े हुए।  उन्हें पता चल गया था कि पटाखे छूटने शुरू हो गये हंै।  वे कोठियों की ओर दौड़ पड़े जलती फुलझड़ियों और रंग-बिरंगे अनारों का आनन्द लेने।  वे पटाखे चला कर खुश हो रहे थे और ये चलते पटाखों को देख कर खुश हो रहे थे ।  

कोठियों में रहने वाले लोगों के छोटे बच्चों को उनके माँ-बाप फुलझड़ियाँ जला कर पकड़ा रहे थे और वे हाथ को सीधा कर अपने से दूरी बनाते हुए उनका आनन्द ले रहे थे।  जब फुलझड़ी खत्म होने लगती तो उसकी रंग-बिरंगी छटा कम होने लगती और अमीरों के बच्चे थाली में छोड़ दिये गये भोजन की भाँति उन अधजली फुलझड़ियों को भी फेंक देते थे।  

पटाखों के शोरगुल में घड़ी ने कब रात के 10 बजा दिये पता ही नहीं चला।  इतने में मोटरसाइकिल पर गश्त कर रहे पुलिस वालों ने सायरन बजाते हुए काॅलोनी में प्रवेश किया जो जैसे सभी पटाखों का दम निकल गया हो।  कुछ देर तक विश्वस्त होने के बाद पुलिस वाले चले गये।  जिस तरह से रात्रि में उल्लू विचरण करते हैं वे बच्चे भी रात के अंधियारे में वापिस आये क्योंकि पुलिस वालों के आने पर वे भी चले गये थे।  बच्चों की आँखें उल्लू की आँखों की भाँति अन्धकार को चीर सकती थीं और उल्लू की गर्दन की भाँति बच्चों की गर्दन भी लगभग चारों ओर घूम सकती थी।  वे अपने इन्हीं गुणों का प्रयोग करते हुए जले अधजले पटाखे, फुलझड़ियां इकट्ठे कर रहे थे।  कुछ फुलझड़ियों की सलाइयाँ अभी गर्म थीं जो इन बालकों के हाथों को तपा रही थीं।  पर रोज़ाना ताप से खेलने वाले बच्चों के आगे हार मान रही थीं।  बड़ा सा ढेर लग गया था।  सब बच्चों ने ढेर के चारों ओर खड़े होकर अपनी सफलता पर ताल ठोंकी और एक बच्चा घर से माचिस ले आया।  डर तो उन्हें किसी से था ही नहीं।  एक बालक ने ढेरी के पास पहुँच कर पलीते में आग लगा दी।  बाकी बच्चे भी दूर नहीं खड़े थे।  पटाखों के खोल वाले काग़जों ने आग पकड़ ली थी।  बीच बीच में ज्वाला कभी रंग-बिरंगी आभा बिखेरती तो समझ में आ जाता कि अधजली फिरकनी का मसाला जल उठा है।  इसी प्रकार कभी फुस्स बम धीमे से बोल उठते तो समझ में आता कि फुस्स बम में भी थोड़ी जान थी।  आधा घंटे तक बच्चे झूठे पटाखों से दीपावली मनाते रहे और खुश होते रहे कि उन्होंने मुफ्त में दीपावली का त्योहार मना लिया।  पटाखे जलाने के साथ ही त्योहार का मनाना मुकम्मल हो गया था और इंतज़ार था अगली दीपावली का कि शायद उनके माँ-बाप अगली दीपावली पर अन्य चीजों के साथ अपने साथ ले आयें ‘पटाखे’। ****

9. वेल्ला

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‘लाला चेतनदास जी से मैं विनम्र अनुरोध करता हूँ कि वे स्टेज पर आयें’।  65 वर्ष के ऊँची कद-काठी और एकदम सीधी रीढ़ रखे, काली टोपी पहने, मूँछों पर सदैव ताव बनाये रखने वाले लाला चेतनदास जी जब सीट से उठे तो हाल तालियों से गड़गड़ा उठा।  पाकिस्तान से विस्थापित होकर बिखरने के बाद व्यापार जगत में फिर से ऊँचाई हासिल करने के लिए लाला जी को आज व्यापार मण्डल द्वारा उनकी उपलब्धियों के लिए सम्मान दिया जाना था।  पाकिस्तान में सब कुछ गंवा कर आने के बाद लाला जी ने जी जान से दिन रात एक करके अपने व्यापार को धीरे-धीरे फिर से खड़ा किया था।  इस साधना में उनकी सहधर्मिणी और उनके परिवार का पूरा सहयोग था।  लाला जी ईमानदारी और मेहनत की मिसाल थे।  व्यापारी भाइयों की हर मुसीबत में आगे खड़े होते थे।  संवेदनाओं की प्रतिमूर्ति थे।  गोपनीय तरीके से जरूरतमंदों की मदद करते और पता तक नहीं चलने देते।  धार्मिक कार्यक्रमों में अपनी उपस्थिति का एहसास कराते।  लाला जी को अधिकारियों ने लाला जी को एक प्रशस्ति पत्र और एक बहुत खूबसूरत कला का नमूना सम्मान स्वरूप दिया जिसमें सारथी बने श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ को संभाले हुए थे।  लाला जी भाव विभोर हो माइक पर आए ’आज मैं कहना चाहूँगा कि ज़िन्दगी वास्तव में एक महाभारत है।  इस महाभारत को जीतने के लिए कड़ा परिश्रम और त्याग करना पड़ता है।  लोगों का हृदय जीतना पड़ता है।  ईमानदारी निभानी पड़ती है।  और जब आप ज़िन्दगी में बहुत कुछ कमा चुके होते हैं तो समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए।  हमारे आपके जीवन में अनेक ऐसी बातें होती हैं जब लगता है कि हम किसी की मदद कर सकते हैं। ऐसे अवसरों पर किसी से पूछने की जरूरत नहीं होती।  खुद ही आगे बढ़कर मदद करनी चाहिए।  भगवान जिन्हें मदद करने का मौका देते हैं वे सौभाग्यशाली होते हैं।  मैं अपने परिवार के प्रति भी कृतज्ञ हूँ जिन्होंने हर हाल में मेरा साथ दिया।  उन्हीें के त्याग की बदौलत आज मैं यहाँ पहुँचा हूँ ।  इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देता हूँ’ कहकर लाला जी मंच पर लगे सोफे पर बैठ गए। कुछ ने उनके बेटों को यह कह दिया ‘लाला जी को अब तो आराम करने।’ सायंकाल दुकान से लौटने के बाद खाने की मेज पर बैठे बेटों ने अपनी मंशा ज़ाहिर करते हुए कहा ‘पिताजी, आप कल से आराम करें।  आगे की मेहनत हम करेंगे।’  ‘अरे भई, मुझे क्या हुआ है, मैं अभी तंदुरुस्त हूँ और मुझे दुकान पर जाकर बैठना ही तो होता है।  काम तो तुम्हीं करते हो’ लाला जी ने प्रतिरोध किया।  ‘नहीं, हम आपकी नहीं सुनेंगे।  दुकान जाने के लिये आपको तड़के उठना पड़ता है।  आप कल आराम से उठिये और आराम से दिन बिताइए।  जब चाहें दुकान पर आ जायें।  लेकिन ये सुबह वाली पाबंदी खत्म।’ बेटों के सामने लाला जी की एक नहीं चली। फिर सुबह हुई ।  लाला जी उठ गये पर अचानक याद आया कि आज तो काम पर नहीं जाना।  समझ में नहीं आया कि इतना समय कैसे गुजारें।  थोड़ी देर बाद लालाईन से बोले ‘भई ऐसे तो मैं कामचोर हो जाऊँगा।  खाली तो मैं बैठ नहीं सकता। कुछ बताओ।’  लालाईन ने कहा ‘अच्छा आप ऐसे करो कि बाजार जाकर दूध, डबलरोटी ले आओ।  कुछ मन बहल जायेगा।’  लाला जी बाजार निकल गये।  कुछ देर टहलने के बाद सामान लेते हुए घर वापिस आ गये।  थोड़ी देर बाद लाला जी के पास आकर बोलीं ‘बहुत थक गए होगे, आराम कर लो।’ लाला जी हैरान, कुछ सोचते ही जा रहे थे।  ‘अच्छा, आप कहो तो एक कप चाय बना देती हूँ।’ लाला जी ने सिर हिला दिया और लगातार कुछ सोचे ही जा रहे थे।  लालाईन चाय का प्याला लेकर आ गईं और लाला जी को पकड़ा दिया।  जाने ही लगी थीं कि बोलीं ‘बिस्कुट भी लोगे।’ लाला जी बोले ‘हाँ, दे दो।  आज तो मैंने नाश्ता भी नहीं किया है।  भूख लग रही है।’  ‘हाय मैं मर जावाँ, तुसी नाश्ता वी नहीं कित्ता, हाय हाय ऐ मैनूँ की हो गया है, मैं मर जावाँ।’ लालाईन अपने आप पर बौखला उठी थीं।  लाला जी मुस्कुराये और बोले ‘तैन्नूँ कुछ वी नहीं होया, मैं ही वेल्ला हो गया हां’। ****

10. रिटर्न गिफ्ट

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‘बाबू, सुबह से भूखे हैं, कुछ नहीं खाया।’ कहते हुए हाथ फैला दिये।  पति-पत्नी दोनों ही फटेहाल हालत में लोगों से उम्मीद लगाये बैठे थे।  लोग आ रहे थे, जा रहे थे, कुछ उनकी ओर देखते और यह सोचते हुए बढ़ जाते कि इन लोगों का तो यही काम है। शाम होने को थी।  जिस बाज़ार में दोनों पति पत्नी खड़े थे उस बाज़ार में शाम के हलके अंधियारें में जगमगाते रेस्तराओं की भीड़ थी।  और उन रेस्तराओं के बाहर थी पैसे वालों की भीड़ जो वहाँ खाना खाने आये थे।  पति-पत्नी और धनाढ्य परिवार दोनों ही भूखे थे, एक रेस्तराँ के अन्दर जाने के लिये अनुनय विनय कर रहा था तो दूसरा सड़क पर लोगों से कुछ मिलने की अनुनय विनय कर रहा था।  रेस्तराओं के बाहर की भीड़ बदलती जा रही थी।  मन्दिरों में शाम की आरती का समय हो गया था।  घंटियां मधुर संगीत सुना रही थीं।  बाजार के एक किनारे में मन्दिर था।  घंटियों की आवाज़ सुनकर भिखारी जोड़ा उस ओर चल पड़ा।  यह सोचकर कि भगवान के अपने घर से तो जरूर कुछ मिल जायेगा।  भक्तजन आने लगे थे।  भिखारी जोड़ा मन्दिर के द्वार तक पहुँच गया था पर अन्दर जाने की हिम्मत नहीं थी और अन्दर जाकर करना भी क्या था।  मन्दिर में जाने वाले लोग खूब जोर शोर से भगवान की पूजा कर रहे थे और अपने लिये खुशियाँ माँग रहे थे।  बाहर निकलते तो मन्दिर के पुजारी उन्हें हाथ में प्रसाद दे देते।  बाहर निकल कर वे प्रसाद का एक हिस्सा उस जोड़े को भी दे देते।  पर प्रसाद मुँह में जाते ही वह ऐसे ही खत्म हो जाता जैसे गर्म तवे पर पड़ी पानी की एक बूँद।  इतने में एक बालिका अपने पिता के साथ वहाँ से गुजरी ।  भिखारी जोड़े ने उस बालिका से भी भीख माँगने के लिए हाथ फैलाया।  बालिका ने पिता का हाथ खींच कर रोका।  पिता ने मुड़ कर देखा तो बालिका उस भिखारी जोड़े की ओर इशारा कर कह रही थी ‘पापा, ये भूखे हैं इन्हें कुछ दे दो।’ ‘बेटी, देर हो रही है।  हमें तेरे जन्म दिन का केक लेते हुए वापिस जाना है।  चल इधर आ।  जल्दी कर।’ बालिका ने पिता से कहा ‘पापा आज मेरा जन्मदिन है, आज तो मेरी चलेगी न।  फिर आपको मेरी बात माननी पड़ेगी।’  पिता बोले ‘क्या चाहती है, जल्दी बता।’  ‘पिताजी इन्हें सामने वाले होटल में ले चलो।  वहां इनको खाना मिल जायेगा। आप घर में भी आने वालों को आज खाना खिलाओगे न तो इनको भी खिला दो।’  उन्होंने भिखारी जोड़े को अपने साथ चलने के लिए कहा।  होटल में जाकर उन्होंने कहा कि इन दोनों को जितना खाना चाहें खिलाओ।  पैसे मैं दूँगा।’  दोनों होटल के बाहर बने बैंच पर बैठ गये और उन्हें खाना परोस दिया।  वे खाना खाते जा रहे थे।  उनके मुर्झाये चेहरों पर मुस्कान खिल उठी थी।  अश्रु धार बह चली थी जिसे रोकने या पोंछने का वे कोई प्रयत्न नहीं कर रहे थे।  अश्रुधार भोजन के साथ ही उनके मुख में जा रही थी ऐसे जैसे कि गंगाजल।’  उनकी खुशी और उनके चेहरों पर आई मुस्कान ने पिता-पुत्री को भी भावुक कर दिया था ।  पिता कह रहे थे ‘ले बेटी तेरी पार्टी की शुरुआत हो गई।’  बेटी बोली ‘और हाँ पापा, मुझे रिटर्न गिफ्ट भी मिल गया।’ पिता बोले ‘वह कैसे’?  बेटी फिर बोली ‘पापा, इनके चेहरों पर जो मुस्कान है वह मेरे लिये सबसे बड़ा रिटर्न गिफ्ट है।’ बेटी की समझ भरी बातों से गर्व महसूस करते पिता बेटी को लेकर आगे बढ़ गये थे।  ऐसा लगा कि भगवान भी मुस्कुरा उठा है।  उधर मन्दिर में भक्त भगवान से पूछ रहे थे ‘कैसे करूं तेरी पूजा।’ भगवान समझा रहे थे, ‘तू खुद भी मुस्करा औरों को भी मुस्कुराने की वजह दे बस हो गयी मेरी पूजा।’ *****

11. सद्गति

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‘भाई साहब ज़रा रास्ता दीजिए ... अरे ... अरे ... ऐसे नहीं ... सिर उधर की ओर रखिए ... ज़रा ध्यान से ... आप लोग इधर से आइए ।’ ग़मगीन और गम्भीर मुद्रा में एक सज्जन, अर्थी उठाये हुए संबंधियों और मित्रों को दिशा निर्देश दे रहे थे ।  श्मशान भूमि के प्रवेश द्वार से लेकर अन्दर की दीवारों पर आध्यात्मिक ज्ञान की बातें अंकित थीं।  कर्मकाण्डी पण्डितों का यह व्यवसाय था ।  ग्राहक रूपी अर्थी के आते ही वे सजग हो जाते थे और आरम्भ हो जाती थी अन्तिम कर्मकाण्ड की कार्यवाही। चार पाँच सौ के लगभग सगे-संबंधियों और मित्रों का नेतृत्व कर रही एक अर्थी को ले जाया जा रहा था वी.आई.पी. प्लेटफाॅर्म पर।  सीढ़ियाँ चढ़ते चढ़ते अर्थी उठाने वालों का भी दम फूल रहा था।  ऊपर ले जाकर अर्थी पर से शव को उतार कर चिता पर रख दिया गया।  साथ आई भीड़ स्पष्ट कर रही थी कि जाने वाला कोई लोकप्रिय या धनाढ्य या कोई नेता या कोई बड़े सम्पर्क वाला था।  सन्नाटा सा पसरा हुआ था।  लोग आपस में बातें कर भी रहे थे तो भी सन्नाटा था।  इस सन्नाटे को तोड़ते चूं-चूं करता आया लकड़ी को ढोए हुए एक ठेला।  सीढ़ियों की एक ओर लकड़ियाँ उतार दीं।  चिता के आसपास खड़े सम्बन्धियों से चांडालनुमा व्यक्ति कहने लगा ‘पहले मोटी मोटी तना नुमा लकड़ी के गठ्ठे दीजिए’। पच्चीस सीढ़ियों के हरेक पायदान पर लोग डट गये और साथी हाथ बढ़ाना की लय पर मोटे कटे तने आनन फानन में ऊपर पहुँचने लगे।  कब बड़े लट्ठे पहुँच गये और कब छोटी लकड़ियाँ जाने लगीं चुपचापियत में कुछ पता ही नहीं चला ।  मूक आवाज़ में दरख्त के टुकड़े मानो कह रहे हों ‘जीते हुए भी तुमने हमें काटा, मरने के बाद भी तुमने हमें काटा, फिर भी हम तुम्हारे साथ हैं तुम्हारे हर सुख दुख में’। पर शायद इन्सान दरख्तों की आवाज़ नहीं सुन पाते हैं।  चिता सजनी शुरू हो गयी थी।  लकड़ियों का अंबार लग गया था।  चंदन की लकड़ियां भी सामान्य लकड़ियों के साथ मिलजुल गई थीं।  दरख्तों ने कभी अमीरी गरीबी में फर्क नहीं किया।  सामान्य पेड़ और इंसान की नज़र में चंदन के बहुमूल्य पेड़ एक ही साथ बढ़ते हैं।  श्मशान भूमि में भी अमीरी गरीबी का फर्क नज़र आ रहा था।  ‘मरने वाले की गति बहुत बढ़िया होगी’ भीड़ में कोई बोला था।  ऐसा लगा जैसे बासी तेल में तले पकवान की तुलना देसी घी में पके पकवान से हो रही हो।  भई बंदे को सुपुर्दे खाक करना है।  अब दस क्विंटल लकड़ी से करे या सौ क्विंटल लकड़ी से, पचास किलो सामग्री से करे या पांच किलो से, एक किलो घी से काम चला लें या दस कनस्तर भी कम पड़ जायें।  इसका गति से क्या लेना देना।  जाने वाले को मुखाग्नि दे दी गई थी।  एक घंटा हो गया था।  कोई घड़ी देख रहा था तो कोई ऊँघ रहा था, कोई मोबाइल में व्यस्त था। आखिर में संस्कार कराने वालाएक नया बाँस का लम्बा सा डण्डा लेकर आता दिखाई दिया।  पुराने हो चुके अमीर शरीर के लिए सब कुछ नया लाया गया था तो बाँस का डण्डा भी पुराना क्यों हो?  कपाल क्रिया के लिए भी नया बाँस।  क्या यह सभी बातें सद्गति के लिए आवश्यक हैं?  गति सद्गति कैसे हो?  कोई ज्ञानी बुजुर्ग कह रहे थे, ‘भई इन सब बातों से क्या होता है?  गति कर्मों से होती है।  किसी को दुःख न दो बल्कि किसी के दुःख में भागी बनो।  किसी के चेहरे पर मुस्कान लाओ।  अनपढ़ को पढ़ाओ । गरीब के ईलाज में मदद करो।  भूखे को खाना खिलाओ।  फटेहाल को कपड़े दो।  आदि आदि।  सद्गति के ये साधारण नियम हैं।  जीवन में ऐसा करेंगे तो पायेंगे ‘सद्गति’। ****

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                            बीजेन्द्र जैमिनी 

                        जन्म : 03 जून 1965

शिक्षा : एम ए हिन्दी , पत्रकारिता व जंनसंचार विशारद्
             फिल्म पत्रकारिता कोर्स
            
कार्यक्षेत्र : प्रधान सम्पादक / निदेशक
               जैमिनी अकादमी , पानीपत
               ( फरवरी 1995 से निरन्तर प्रसारण )

मौलिक :-

मुस्करान ( काव्य संग्रह ) -1989
प्रातःकाल ( लघुकथा संग्रह ) -1990
त्रिशूल ( हाईकू संग्रह ) -1991
नई सुबह की तलाश ( लघुकथा संग्रह ) - 1998
इधर उधर से ( लघुकथा संग्रह ) - 2001
धर्म की परिभाषा (कविता का विभिन्न भाषाओं का अनुवाद) - 2001

सम्पादन :-

चांद की चांदनी ( लघुकथा संकलन ) - 1990
पानीपत के हीरे ( काव्य संकलन ) - 1998
शताब्दी रत्न निदेशिका ( परिचित संकलन ) - 2001
प्यारे कवि मंजूल ( अभिनन्दन ग्रंथ ) - 2001
बीसवीं शताब्दी की लघुकथाएं (लघुकथा संकलन ) -2001
बीसवीं शताब्दी की नई कविताएं ( काव्य संकलन ) -2001
संघर्ष का स्वर ( काव्य संकलन ) - 2002
रामवृक्ष बेनीपुरी जन्म शताब्दी ( समारोह संकलन ) -2002
हरियाणा साहित्यकार कोश ( परिचय संकलन ) - 2003
राजभाषा : वर्तमान में हिन्दी या अग्रेजी ? ( परिचर्चा संकलन ) - 2003

ई - बुक : -
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लघुकथा - 2018  (लघुकथा संकलन)
लघुकथा - 2019   ( लघुकथा संकलन )
नारी के विभिन्न रूप ( लघुकथा संकलन ) - जून - 2019
लोकतंत्र का चुनाव ( लघुकथा संकलन ) अप्रैल -2019
मां ( लघुकथा संकलन )  मार्च - 2019
जीवन की प्रथम लघुकथा ( लघुकथा संकलन )  जनवरी - 2019
जय माता दी ( काव्य संकलन )  अप्रैल - 2019
मतदान ( काव्य संकलन )  अप्रैल - 2019
जल ही जीवन है ( काव्य संकलन ) मई - 2019
भारत की शान : नरेन्द्र मोदी के नाम ( काव्य संकलन )  मई - 2019
लघुकथा - 2020 ( लघुकथा का संकलन ) का सम्पादन - 2020
कोरोना ( काव्य संकलन ) का सम्पादन -2020
कोरोना वायरस का लॉकडाउन ( लघुकथा संकलन ) का सम्पादन-2020
पशु पक्षी ( लघुकथा संकलन ) का सम्पादन- 2020
मन की भाषा हिन्दी ( काव्य संकलन ) का सम्पादन -2021
स्वामी विवेकानंद जयंती ( काव्य संकलन )का सम्पादन - 2021
होली (लघुकथा संकलन ) का सम्पादन - 2021
मध्यप्रदेश के प्रमुख लघुकथाकार ( लघुकथा संकलन ) - 2021
हरियाणा के प्रमुख लघुकथाकार ( लघुकथा संकलन ) - 2021
महाराष्ट्र के प्रमुख हिन्दी लघुकथाकार ( लघुकथा संकलन ) - 2021
मुम्बई के प्रमुख हिन्दी लघुकथाकार ( लघुकथा संकलन ) - 2021
हिन्दी की प्रमुख महिला लघुकथाकार ( लघुकथा संकलन ) - 2021
- बुजुर्ग ( ई - लघुकथा संकलन ) - 2021
बीजेन्द्र जैमिनी पर विभिन्न शोध कार्य :-

1994 में कु. सुखप्रीत ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. लालचंद गुप्त मंगल के निदेशन में " पानीपत नगर : समकालीन हिन्दी साहित्य का अनुशीलन " शोध में शामिल

1995 में श्री अशोक खजूरिया ने जम्मू विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. राजकुमार शर्मा के निदेशन " लघु कहानियों में जीवन का बहुआयामी एवं बहुपक्षीय समस्याओं का चित्रण " शोध में शामिल

1999 में श्री मदन लाल सैनी ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी के निदेशन में " पानीपत के लघु पत्र - पत्रिकाओं के सम्पादन , प्रंबधन व वितरण " शोध में शामिल

2003 में श्री सुभाष सैनी ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. रामपत यादव के निदेशन में " हिन्दी लघुकथा : विश्लेषण एवं मूल्यांकन " शोध में शामिल

2003 में कु. अनिता छाबड़ा ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. लाल चन्द गुप्त मंगल के निदेशन में " हरियाणा का हिन्दी लघुकथा साहित्य कथ्य एवम् शिल्प " शोध में शामिल

2013 में आशारानी बी.पी ने केरल विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. के. मणिकणठन नायर के निदेशन में " हिन्दी साहित्य के विकास में हिन्दी की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं का योगदान " शोध में शामिल

2018 में सुशील बिजला ने दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा , धारवाड़ ( कर्नाटक ) के अधीन डाँ. राजकुमार नायक के निदेशन में " 1947 के बाद हिन्दी के विकास में हिन्दी प्रचार संस्थाओं का योगदान " शोध में शामिल

सम्मान / पुरस्कार

15 अक्टूबर 1995 को  विक्रमशिला हिन्दी विद्मापीठ , गांधी नगर ,ईशीपुर ( भागलपुर ) बिहार ने विद्मावाचस्पति ( पी.एच.डी ) की मानद उपाधि से सम्मानित किया ।

13 दिसम्बर 1999 को महानुभाव विश्वभारती , अमरावती - महाराष्ट्र द्वारा बीजेन्द्र जैमिनी की पुस्तक प्रातःकाल ( लघुकथा संग्रह ) को महानुभाव ग्रंथोत्तेजक पुरस्कार प्रदान किया गया ।

14 दिसम्बर 2002 को सुरभि साहित्य संस्कृति अकादमी , खण्डवा - मध्यप्रदेश द्वारा इक्कीस हजार रुपए का आचार्य सत्यपुरी नाहनवी पुरस्कार से सम्मानित

14 सितम्बर 2012 को साहित्य मण्डल ,श्रीनाथद्वारा - राजस्थान द्वारा " सम्पादक - रत्न " उपाधि से सम्मानित

14 सितम्बर 2014 को हरियाणा प्रदेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन , सिरसा - हरियाणा द्वारा लघुकथा के क्षेत्र में इक्कीस सौ रुपए का श्री रमेशचन्द्र शलिहास स्मृति सम्मान से सम्मानित

14 सितम्बर 2016 को मीडिया क्लब , पानीपत - हरियाणा द्वारा हिन्दी दिवस समारोह में नेपाल , भूटान व बांग्लादेश सहित 14 हिन्दी सेवीयों को सम्मानित किया । जिनमें से बीजेन्द्र जैमिनी भी एक है ।

18 दिसम्बर 2016 को हरियाणा प्रादेशिक लघुकथा मंच , सिरसा - हरियाणा द्वारा लघुकथा सेवी सम्मान से सम्मानित

अभिनन्दन प्रकाशित :-

डाँ. बीजेन्द्र कुमार जैमिनी : बिम्ब - प्रतिबिम्ब
सम्पादक : संगीता रानी ( 25 मई 1999)

डाँ. बीजेन्द्र कुमार जैमिनी : अभिनन्दन मंजूषा
सम्पादक : लाल चंद भोला ( 14 सितम्बर 2000)

विशेष उल्लेख :-

1. जैमिनी अकादमी के माध्यम से 1995 से प्रतिवर्ष अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन

2. जैमिनी अकादमी के माध्यम से 1995 से प्रतिवर्ष अखिल भारतीय हिन्दी हाईकू प्रतियोगिता का आयोजन । फिलहाल ये प्रतियोगिता बन्द कर दी गई है ।

3. हरियाणा के अतिरिक्त दिल्ली , हिमाचल प्रदेश , उत्तर प्रदेश , मध्यप्रदेश , बिहार , महाराष्ट्र , आंध्रप्रदेश , उत्तराखंड , छत्तीसगढ़ , पश्चिमी बंगाल आदि की पंचास से अधिक संस्थाओं से सम्मानित

4. बीजेन्द्र जैमिनी की अनेंक लघुकथाओं का उर्दू , गुजराती , तमिल व पंजाबी में अनुवाद हुआ है । अयूब सौर बाजाखी द्वारा उर्दू में रंग में भंग , गवाही , पार्टी वर्क , शादी का खर्च , चाची से शादी , शर्म , आदि का अनुवाद हुआ है । डाँ. कमल पुंजाणी द्वारा गुजराती में इन्टरव्यू का अनुवाद हुआ है । डाँ. ह. दुर्रस्वामी द्वारा तमिल में गवाही , पार्टी वर्क , आर्दशवाद , प्रमाण-पत्र , भाषणों तक सीमित , पहला वेतन आदि का अनुवाद हुआ है । सतपाल साहलोन द्वारा पंजाबी में कंलक का विरोध , रिश्वत का अनुवाद हुआ है ।
5. blog पर विशेष :-
            शुभ दिन - 365 दिन प्रसारित
            " आज की चर्चा " प्रतिदिन 22 सितंबर 2019 से प्रसारित हो रहा है ।
6. भारतीय कलाकार संघ का स्टार प्रचारक
7. महाभारत : आज का प्रश्न ( संचालन व सम्पादन )
8. ऑनलाइन साप्ताहिक कार्यक्रम : कवि सम्मेलन व लघुकथा उत्सव ( संचालन व सम्पादन )
9. स्तभ : इनसे मिलिए ( दो सौ से अधिक किस्तें प्रकाशित )
     स्तभ : मेरी दृष्टि में ( दो सौ से अधिक किस्तें प्रकशित )

पता : हिन्दी भवन , 554- सी , सैक्टर -6 ,
          पानीपत - 132103 हरियाणा
          ईमेल : bijender1965@gmail.com
          WhatsApp Mobile No. 9355003609
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https://bijendergemini.blogspot.com/2021/06/blog-post_9.html

http://bijendergemini.blogspot.com/2021/08/blog-post_29.html

Comments

  1. आदरणीय बिजेंद्र जी, सादर प्रणाम. आपकी सुन्दर सोच का विलक्षण उदाहरण. इस आयोजन में मुझे और मेरी रचनाओं को शामिल कर सम्मानित किया है. मैं हृदय से आपका आभारी हूं. इस अंक में शामिल अन्य सभी रचनाकारों को भी बधाई देता हूं.
    - सुदर्शन खन्ना
    दिल्ली
    ( फेसबुक से साभार )

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  2. आपके इस सुन्दर प्रस्तुतिकरण की मैं भरपूर प्रशंसा करता हूँ। आपका यह प्रयास लघुकथा के विकास में एक अलग पहचान है । आपको और आपके सभी सहयोगियों को बधाई एवं शुभकामनाएं।
    - अशोक वर्मा
    दिल्ली
    ( WhatsApp से साभार )

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