लघुकथा - 2022

यह सफर लघुकथा - 2018 से शुरू हुआ । जो लघुकथा - 2019 , लघुकथा - 2020 , लघुकथा - 2021 व लघुकथा - 2022 आपके सामने ई - लघुकथा संकलन के रूप में है । लघुकथाकारों का साथ मिलता चला गया और ये श्रृंखला कामयाबी के शिखर पर पहुंच गई । सफलता के चरण विभिन्न हो सकते हैं । परन्तु सफलता तो सफलता है । कुछ का साथ टूटा है कुछ का साथ नये - नये लघुकथाकारों के रूप में बढता चला गया । समय ने बहुत कुछ बदला है । कुछ खट्टे - मीठे अनुभव ने बहुत कुछ सिखा दिया । परन्तु कर्म से कभी पीछे नहीं हटा..। स्थिति कुछ भी रही हो । यही कुछ जीवन में सिखा है । 
       लघुकथाकारों के साथ पाठकों का भी स्वागत है । अपनी राय अवश्य दे । भविष्य के लिए ये आवश्यक है । आप के प्रतिक्रिया की  प्रतिक्षा में ......।

                                               आप का मित्र 
                                                   बीजेन्द्र जैमिनी                                                         सम्पादक
                                            ई - लघुकथा संकलन
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क्रमांक - 001



                        रफ कापी




हताश सी वह घर आकर जमीन पर बैठ गई। टेबिल के नीचे से कापी उठाते हुए "गुड्डो तेरी यह कापी हमेशा इधर उधर पड़ी रहती है काम की नहीं है तो अलग कर। "
अम्मा के हाथ से कापी लेते हुए "बहुत काम की है सारे विषयों का बोझ यही तो उठाती है।"
"फिर इसमें भी कवर क्यों नहीं चढ़ाती।"
"अरे अम्मा, यह रफ कापी है फेयर थोड़ी न है।"
 "अम्मा बहुत थकी लग रही हो, क्या आज काम ज्यादा था?"
"न रे! थकी तो न हूँ, वो नीलिमा दीदी.."
"वही न तुम्हारी फेवरेट दीदी।" 
"वो है ही इतनी अच्छी उसने कभी मुझे काम वाली नहीं समझा। हमेशा घर का एक सदस्य ही माना।"
"क्या हुआ उन्हें?"
"तेज बुखार में भी दीदी अकेले काम कर रहीं थीं।"
"दीदी आप आराम कीजिए काम मैं करती हूँ कहकर बिस्तर पर जबरन लिटाया और क्रोसिन  खिलाई। फिर मैंने माँ जी  को चाय दी, तो बोली।"
"नीलू कहाँ है? जो तू चाय लाई।"
 "दीदी को बुखार है वो सो रहीं हैं।"
 चाय देकर बाहर आई तो बेबी दी "भाभी भाभी" चिल्ला रही थी
"बेबी दी, दीदी को तेज बुखार है सो रही है।"
"उठ जाए तो कहना मेरा गुलाबी सूट प्रेस कर दे।" 
"और मेरी नीली शर्ट भी" बबलू ने कहा।
"घर में किसी ने भी दीदी को जाकर नहीं देखा कि कैसी तबियत है।" मन कड़वाहट से भर गया।
"ओह !!"
"पर अम्मा उनकी देवरानी भी तो है न।"
"वह नौकरी करती है इसलिए वह उस घर की फेयर कापी है और दीदी रफ कापी।" कहते हुए चेहरा गुस्से और बेबसी से भर उठा। 

- मधु जैन
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 002



                     उत्तराधिकारी

    

      वह साधु कहीं जा रहा था । रास्ता सुनसान था । रास्ते में उसे एक वृक्ष के नीचे कमण्डल पड़ा दिखाई दिया । वह आश्चर्य से उस कमण्डल के पास गया और उसे गौर से देखने लगा । वह समझ गया कि यह कमंडल निश्चित तौर पर किसी साधु का है । लेकिन इस वृक्ष के नीचे जंगल में सुनसान जगह पर इस कमंडल के यहाँ होने का क्या अर्थ है ? 
      वह चिंतित हुआ । वह अनुमान लगाने लगा कि आखिर यह कमंडल यहाँ आया कैसे ? कुछ देर वह सोचता रहा लेकिन उसका चिंतन किसी निर्णय तक नहीं पहुँचा । उसने वहीं बैठ जाना उचित समझा । और वह कमण्डल के मालिक की प्रतीक्षा करने के लिए वहाँ बैठ गया । 
      सारा दिन गुजर गया , शाम हो गई मगर कमण्डल लेने कोई नहीं आया । साधु की चिंता बढ़ गई । ऐसे कोई कमण्डल इस सुनसान रास्ते पर कौन छोड़कर जाएगा ? उसकी चिंता अभी भी बरकरार थी । 
      अभी शाम होने ही वाली थी कि वहाँ से चार-पाँच साधुओं का एक टोला गुजरा । उनके हाथों में अपना-अपना कमंडल था । उस नए साधु को एक वृक्ष के नीचे बैठा देखकर वे साधु वहाँ रुक गए । एक दूसरे का अभिवादन किया और पूछा , " तुम यहाँ अकेले इस वृक्ष के नीचे ? " 
      " हाँ  ! मैं अकेला ही इस वृक्ष के नीचे किसी की प्रतीक्षा कर रहा हूँ ।" 
      " किसकी प्रतीक्षा ? "
      " उसी की जिसका कमण्डल यहाँ पड़ा है ।"
      " किसका है यह ? "
      " यह तो उसके आने पर ही पता चलेगा जो इसे यहाँ पर छोड़ गया है ।"
       साधु ने पूछा , " पहेली मत बुझाओ । साफ-साफ बताओ कमंडल किसका है ? " 
       साधु ने सारी बात बता दी । 
       उन्होंने पूछा , " तुम्हारे पास कमंडल नहीं है तो तुम इस कमण्डल को लेकर चले क्यों नहीं गए ?"
       "साधु बोला , " जब यह कमंडल मेरा है ही नहीं तो मैं इसे क्यों ले जाऊँ ? मेरा कमण्डल तो मेरे गुरुजी के पास पड़ा है । मैं यहाँ से जब आश्रम में जाऊँगा तो उनसे अपना कमण्डल ले लूंगा ।"
       " तो फिर तुम यहाँ किसकी प्रतीक्षा में खड़े हो ? "
       " वह बोला , " जिसका यह मंडल है । यदि वह भूल से यहाँ छोड़ गया है तो वह वापस आएगा । तब तक मैं इस कमंडल की रक्षा करने के लिए यहाँ बैठा हूँ ।" 
       " यदि तुम चले गए और कमंडल को यहाँ पड़ा रहने दिया तो इसे भला कौन उठाएगा ? "
       अगर कोई अन्य साधु उठाएगा तो वह अधर्मी होगा । और अगर सच्चा साधु इस कमंडल को देखेगा तो वह इसे उठाएगा नहीं । वह इस पर विचार करेगा । तुम एक सच्चे साधु प्रतीत होते हैं । बेहतर होगा तुम यह कमंडल ले जाकर अपने गुरु जी को दे दो । "
       साधु ने कहा , " नहीं जिसका यह कमंडल है उसे कैसे पता चलेगा कि उसका कमंडल मेरे गुरुजी के पास पहुँच गया है । उसकी तो प्रतीक्षा ही करनी पड़ेगी ।"
       यह कहकर साधुओं की वह टोली आगे निकल गई और वह साधु वहीं बैठ कर उसकी प्रतीक्षा करने लगा । रात गुजर गई । दूसरा दिन गुजर गया , दूसरी रात भी गुजर गई । तीसरे दिन की सुबह जब हुई तो उसने देखा एक साधु उधर से चला आ रहा था । उसके हाथ खाली थे उसके पास कमण्डल नहीं था । प्रतीक्षा कर रहे साधु ने उसे देखा तो वह स्वयं से ही बोला कि निश्चय ही यह कमण्डल इसका ही है । 
       जब वह साधु नजदीक आया तो उसने पूछा , " क्या तुम अपना यह कमण्डल लेने के लिए आए हो ? "
       उस साधु ने कहा , " नहीं मैं कोई कमंडल लेने नहीं आया और यह मेरा कमंडल नहीं है ।"
       " अरे  ! आपका कमण्डल नहीं है और आपके पास कमण्डल भी नहीं है तो फिर यह किसका कमंडल है ? "
       " मैं क्या जानूं किसका कमण्डल है ।"
       " लेकिन तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? " 
       " मैं इस कमण्डल की रक्षा कर रहा हूँ । जिसका यह कमंडल है वह आएगा और ले जाएगा । कहीं यह कमंडल किसी और के हाथ न लग जाए इसलिए इसकी रक्षा करना मेरा साधु धर्म है ।"
       वह साधु उसकी बात सुनकर बहुत प्रसन्न हुआ और बोला , " तुमने ठीक कहा जिसका कमंडल है वह आएगा और ले जाएगा । "
       " महात्मन !  यह मेरा ही कमंडल है । मेरा यहाँ कुछ दूरी पर आश्रम है । मैंने अपने शिष्यों की परीक्षा लेने के लिए यह कमंडल यहाँ रखवाया था ताकि मेरे ही आश्रम का कोई साधु यदि इस कमण्डल को उठा ले तो मैं जान जाऊँगा कि वह साधु सच्चा साधु नहीं है । मैं अपने शिष्यों की परीक्षा लेना चाहता था कि कमणडल कभी चुराए नहीं जाते , गुरुवर द्वारा भेंट किए जाते हैं । आप कोई बड़े  महात्मा लगते हैं । आप मेरे साथ मेरे आश्रम में चलिए और वहाँ मेरे शिष्यों को अपना आशीर्वाद दीजिए । यदि मेरे शिष्य सहमत हुए तो मैं आपको अपने आश्रम का उत्तराधिकारी बनाना चाहूँगा ।" 
       यह कहकर वह महात्मा उस साधु महात्मा को अपने साथ लेकर चल पड़े ।

- राजकुमार निजात 
सिरसा - हरियाणा

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क्रमांक - 003



                        वाहवाही



-- कितनी मिन्नते कर रहा था वह दीया वाला, क्यों नहीं खरीदा तुमने?
-- अरे राकेश! अभी अभी तो हमने इतने सारे दीए खरीदे हैं और मैं सोच रही हूँ कि कुछ लाइट्स भी खरीद लूँ, जिससे घर ज्यादा रौशन रहेगा हमारा और मेहनत भी थोड़ी कम लगेगी। ये दीया-बाती और तेल की मेहनत, मुझसे नहीं होता इतना सब कुछ।
-- १अरे ले लो! बेचारा इतनी विनती कर रहा है। मैं भी तुम्हारी मदद कर दूँगा इन दीयों को सजाने में। 
-- नहीं-नहीं, मुझे और नहीं लेना है। ये लोग ऐसे ही मिन्नतें करते रहते हैं। उनका काम ही यही है।
-- सोचो स्नेहा! हम दिवाली की इतनी तैयारियाँ कर रहे हैं, इस बेचारे के घर में भी तो दिवाली के दीए जलने चाहिए। जब हम इनके दीए खरीदेंगे तभी तो इनके घर भी दिवाली मनेगी।
-- अरे! तो क्या मैंने इन सब का ठेका ले रखा है?
-- नहीं-नहीं मेरा एक आईडिया है, तुम इसके बहुत सारे दिए खरीद लो और तुम्हें जो दिवाली में गिफ्ट बाँटने होते हैं न! इन दीयों को ही बाँट देना। तुम्हारा भी काम हो जाएगा और इनका भी हो जाएगा। इसके दीयों से कितने सारे घर रोशन हो जाएँगे और इसकी दिवाली भी खुशहाल हो जाएगी। तुम्हारी  वाहवाही हो जाएगी वो अलग।
-- हाँ!!! येबात तुम सही कह रहे हो....
       स्नेहा की आँखों में चमक आ गई थी अपनी वाहवाही की आवाज उसके कानों में गूँजने लगी....
फौरन वापस दीए वाले के पास पहुँच गई और उसके ढेर सारे दीए खरीद लिए।

- रूणा रश्मि 'दीप्त'
राँची - झारखंड
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क्रमांक - 004



                          घुटन


                             

बहुत आरजू -मिन्नत करने बाद उसे सिर्फ तीन दिनों की छुट्टी मिली थी। घर पर माँ छठ ब्रत कर रही थी। चाहे जैसे भी हो, घर पहुंचना ही था। दिल्ली स्टेशन आया तो प्लेटफार्म पर जन-शैलाव देखकर उसके होश उड़ गए। सामने गया शहर जानेवाली ट्रैन खड़ी थी। दो अनारक्षित डब्बे में जन-शैलाव समाने के लिए भगीरथ प्रयास कर रहा था। चिल्ल पों , भाग दौड़, धक्का मुक्की से वहाँ महाभारत युद्ध का सा दृश्य उपस्थित हो रहा था।
उसे भी जंग की आग में कूदना ही था वरना माँ के हाथ का प्रसाद सपना बन कर रह जाना था।  भीड़ ने उसे ठेलकर गेट तक पहुंचा दिया। किसी तरह एक पैर पावदान में फँसाकर उसने दोनों हाथों से हैंडल पकड़ लिया। डब्बे के अंदर की भीड़ और बाहर की भीड़ के बीच वह खुद को पिसता हुआ महसूस किया। दम घुटता हुआ-सा लगा उसे लेकिन युवा शरीर और छठ पूजा में शरीक होने का जनून के कारण उसे इसकी परवाह कहा थी!
भीड़ के बीच वह अंदर बाहर के बीच हिचकोले खा रहा था कि बाहर से एक रेला उठा और उसे डब्बे के अंदर ढकेल दिया। उसका शरीर बाथरूम की दीवार से टकराया और स्थिर हो गया। एक ही पैर पर खड़ा होकर वह संतुलन बनाकर खड़ा होने की कोशिश करने लगा। लेकिन भीड़ थी कि बढ़ती ही जा रही थी। गर्मी उमस और हवा की कमी के कारण उसका दम घुटने लगा।
उसे महसूस हुआ कि वह  बुलेट ट्रेन के किसी आरामदेह डिब्बे में चढ़कर  बुलेट की गति से किसी अंधेरी सुरंग के भीतर  घुसा चला जा रहा है। फिर उसकी आँखें  धीरे-धीरे मूंदती चली गईं।
अचानक उसकी नींद खुली। वह उठने का प्रयास करते हुए बड़बड़ाया- " देर हो गई। मुझे शीघ्र घर जाना चाहिए। माँ छठ पूजा  की.......।"
तभी एक नर्स उसकी तरफ बढ़ती हुई बोली-" थैंक गॉड, बच गए आप। पूरे 72 घंटे के बाद आपको होश आया है। "
उसने सामने देखा, माँ और बाबूजी बदहवास-सा हॉल में  दाखिल हो रहे थे।#

-  कृष्ण मनु
 धनबाद - झारखंड
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क्रमांक - 005



                        सतोलिया

                            

गर्मी की भर दोपहरी में पीपल की विशाल जड़ों में "सतोलिया " के सात पत्थर एक दूसरे से सटे पड़े थे।बच्चे  उन्हें शामको यहाँ से उठाकर मैदान में खेलते और फिर यहीं अपनी ओर से छिपाकर रख जाते कि कोई और टीम उन्हें ले ना जाए। पर पिछले तीन चार दिनों से कोई नहीं आया। सबसे नीचे रखा बड़ा चोकोर पत्थर बोला मुझे तो गोलू -मोलू की खूब याद आ रही है।बीच में रखा टुकड़ा हँसते हुए बोला ,"बड़के मुझे तो लंबी चोटी वाली गौरी याद आ रही है। वो इतने प्यार से मुझे सहलाती कि मेरा दिल भी धड़कने लगता। इसी बीच सबसे छोटे वाले  पत्थर ने कहा और मुझे तो निशाने बाज लंबू याद आ रहा है। इनके हाथों से गेंद की मार भी फूलों की मार  लगती है। जब सतोलिया कहकर चिल्लाते हैं तो चारों और संगीत बजता है। पर आये क्यों नहीं? तभी मिठठु हरिया ने आकर बताया कि सभी बड़ो ने बच्चों को पत्थरों से दूर रहने को कहा है क्योंकि मनुष्य जाति ने तुम्हे हथियार बना कर बदनाम कर दिया है। सभी सातों एक साथ बोले पर हम तो सतोलिया हैं।

       - ड़ा.नीना छिब्बर
         जोधपुर - राजस्थान
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क्रमांक - 006



                         बेनकाब


                             

काँफ्रेंस हॉल में डीएम साहब शहर के गणमान्य नागरिकों और जनप्रतिनिधियों को संबोधित कर रहे थे - 
" आप सभी इस शहर के प्रबुद्ध लोग हैं। आपको आज एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी देने जा रहा हूँ। कल रामनवमी है। पिछले वर्ष की अप्रिय घटनाएँँ अभी भी हमारे जेहन में ताजा हैं। उसकी पुनरावृत्ति न हो, हमें ये सुनिश्चित करना है।हम सभी मिलकर सामाजिक सौहार्द्र और सांप्रदायिक सद्भाव का ऐसा माहौल बनाएँ कि हमारा शहर प्रेम, एकता, समरसता, अमन-चैन और भाईचारे की मिसाल बन जाए।  हम मिल-जुलकर अपने पर्व-त्योहार मनाएँ और एक रहें।मैं हाथ जोड़कर आप सबसे विनती करता हूँ और उम्मीद करता हूँ कि आप सभी शांति - व्यवस्था बनाये रखने के इस कार्य में प्रशासन को पूरा-पूरा सहयोग देंगे.....। " डीएम साहब ने गंभीर होते हुए कहा। 
तालियाँ बजाकर जब सबने सहमति जताई, तो डीएम साहब का भी आत्मविश्वास बढ़ गया। उन्होंने एक और अनुरोध करना जरूरी समझा - 
" ...साथ ही, आपलोग ये भी सुनिश्चित  करेंगे कि जुलूस में किसी प्रकार के आपत्तिजनक नारे नहीं लगें। " बोलते-बोलते वे रूक गये।
" क्यों नहीं लगेंगे नारे...?  " - आदर्शनगर के विधायक धर्मपाल नेगी अचानक आपा खो बैठे और तैश में आकर अपनी कुर्सी से उठ खड़े हुए।
सभी की नजरें उनकी ओर उठ गयीं।
अप्रकट, क्षणांश में ही प्रकट हो गया था। 
विधायक नेगी अपनी ही घिनौनी सोच और राजनीति के दलदल में धँसने लगे थे। 
" ये देखो....! हमारा शक सही निकला। " हॉल से आक्रोश भरा समवेत स्वर उभरा और सभी अपनी-अपनी कुर्सियों से उठ खड़े हुए। 
            पिछले साल दंगे में  हुई तबाही और बर्बादी का खौफनाक और हृदयविदारक मंजर सबकी आँखों के सामने तैर गया और...जाति, धर्म, संप्रदाय की राजनीतिक - वैचारिक चिता पर जलती इंसानियत की लाश की चिराईंध गंध हवा में फैल गयी थी...। 

- विजयानंद विजय
   बक्सर - बिहार 
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क्रमांक - 007



                       अपने लिए


                           

  "अरे! सेल्फ में इतने सारे सुंदर टी-सेट रखे हुए हैं।फिर भी तुम रोज इसी पुराने कप में चाय पिलाती हो ।इन पुराने कप से मेरा मन ऊब गया है।"... सुबह-सुबह अपनी पत्नी राधा को उन्ही पुराने कप में चाय लाते हुए देखकर राजन बोले ।
   "नए टी- सेट को अगर रोजाना इस्तेमाल करने लगे तो वह पुराने हो जाएँगे। मेहमान आएँगे या घर में कोई पार्टी होगी तभी मैं उन्हें निकालूँगी।"... राधा बोली।
    " नयें टी-सेट में चाय पीने का सौभाग्य हमें भी तो मिलना चाहिए ।"...राजन हंस पड़े।
   राधा सोच में पड़ गई। राजन ठीक ही तो कह रहे हैं ।बात में गहराई है। वह सोचने लगी, उसका ध्यान इस ओर क्यों नहीं गया था । अचानक उसे अपनी मौसी की याद आ गई। मौसी को साड़ियों का बेहद शौक था ।उनके अलमीरा में एक से बढ़कर एक खूबसूरत साड़ियों का अंबार था। लेकिन वह घर में बेहद साधारण सी साड़ी पहनकर रहती थी। वह उनको अक्सर टोकती रहती ,"मौसी आपके पास तो इतनी अच्छी-अच्छी साड़ियाँ हैं ।फिर आप ऐसी साड़ियाँ क्यों पहनती हैं ।"
  "अरे !महंगी साड़ियाँ घर में थोड़े ना पहनी जाती है। जब कोई मेहमान आएँगे या किसी शादी या उत्सव में बाहर जाना होगा तभी उन्हें पहनूँगी।"... मौसी उससे बोलती ।
    उनको याद करके राधा का मन पीड़ा से भर उठा। मौसी बहुत बीमार पड़ी। वह इतनी कमजोर हो गई थी कि उठकर खुद साड़ी भी नहीं पहन पाती थी।तब उन्हें नाइटी पहना दिया गया था ।खूबसूरत साड़ियों से उनका अलमीरा भरा हुआ था लेकिन वह अब उसे पहन नहीं सकती थीं ।
   रात में डाइनिंग टेबल पर खूबसूरत डिनर सेट में रात खाना सजा हुआ था। खाने आए पतिदेव और बच्चों की आंखें आश्चर्य से चकाचौंध थी ।
  "कोई मेहमान आने वाला है ?" ...वे सब एक साथ पूछ बैठे ।
  "नहीं ,खूबसूरत डिनर सेट केवल मेहमानों के लिए ही क्यों ? हम भी तो उसमें खा सकते हैं।"... राधा ने हँसते हुए कहा। बच्चे खुशी से उछल पड़े और पति उसे भेदभरी निगाहों से निहार रहे थे।

            - रंजना वर्मा उन्मुक्त 
             रांची - झारखण्ड
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क्रमांक - 008 



                        रद्दीवाला

                       

    यह उसका नाम भी था और काम भी। काॅलोनी- दर -काॅलोनी , अपनी चार चक्कों की गाड़ी , जिस पर एक तराजू व एक थैला लिए -वह कबाड़ी " ,रद्दी..,-पुराना.,.सामान..रद्दी.." की आवाज लगाता घूमता  रहता । अक्सर महिलाएं या कुछ महिला जैसे पुरुष इन्हे बुलाकर घर के पुराने  अखबार या कभी-कभी कोई टूटा-फूटा भंगार मोल-भाव कर बेच देते। इनकी शक्ल, हालात व इनकी करतूतों की वजह से इन्हें हर कोई चोर-उचक्का,उठाईगिरा समझ हेय दृष्टि से देखता हैं। छ: किलो की रद्दी चार किलो में तोलना इनका बायें हाथ का काम है। अगर गृहणी खुद भी तोल कर दे तो भी एका-ध किलो मार लेना इनका दायें हाथ का काम होता है।कभी-कभार एका-ध छोटा-मोटा सामान उठा लेना,बस पेट के लिए इतनी भर बेईमानी करते हैं । रद्दी के पैसे मिल जाने के बाद भी, जब तक वह गेट से बाहर नहीं जाता, उसे श॔कित नजरों से देखा जाता है। कुल मिलाकर वह इस बात का प्रमाण है कि उपेक्षित होने पर सिर्फ अखबार व किताबें ही नहीं आदमी भी रद्दी हो जाता है।
    उस दिन पत्नी रद्दीवाले को रद्दी दे रही थी, जैसे ही मै पहुँचा, उसने कहा-" मै बाहर जा,रही हूँ ,  इससे तीस रूपये ले लेना । " कह वह चली गई।
मैंने पहली बार उसे गौर से देखा। रद्दीवाला मुझ जैसा ही आदमी दिखाई पड़ा । पसीने से लथपथ वह जेब से पैसे निकाल रहा था, मैंने कहा-" कोई जल्दी नहीं,  आराम से देना,  थोड़ा सुस्ता लो। " वह कमीज से पसीना पोंछने लगा। " पानी पीओगे ? " मेरे पूछने पर उसने गर्दन से हाँ कहा।
मेरे पानी देने पर , पानी पीकर उसने बिना आँसू के रोती हुई आँखों से गिलास वापिस करते हुए कहा- " शुक्रिया "
    " अरे, पानी के लिए कैसा शुक्रिया ?  "
   " पानी के लिए नहीं साब! आज तक माँगने पर पानी मिला है, पहिली बार कोई पूछकर पिला रहा है । " 
      मुझे उसका ऐसा बोलना अच्छा  लगा। पुराने ही सही,  बरसों अखबार व किताबों को छू-छूकर शायद वह कुछ पढ़ा-लिखा हो गया था। फिर उर्दू जुबान ही ऐसी है कि बेपढ़ा भी बोले तो उसके बोलने में एक शऊर आ जाता है। मैं  उससे बतियाने लगा। उसकी जिन्दगी उसकी जुबान तक आ गई।
    " इन दिनो हालत बड़े खस्ता है साब। कम्पीटशन बढ़ गई है। जबसे टीवी आया लोग अखबार जरूरत से नहीं, सिर्फ आदतन खरीदते हैं। रिसाले महँगे हो गए। रद्दी कम हो गई तो मोल-भाव ज्यादा हो गया। रद्दी खरीदते हम जान जाते हैं,कि ये अमीर है या गरीब। कंजूस है या दिलदार। शक्की है, झिकझिक वाला  है , या सीधा-साधा। हम सबको जानते है पर लोग हमें हिकारत  देखते हैं। पहले जैसा मजा नहीं रहा धन्धे में। "दो पल अपनी विवशता को अनदेखा कर, आंँखों  में एक चमक भरते बोला-" फिर भी जैसे-तैसै गुजारा हो ही जाता है। और फिर कभी-कभी जब आप और उस दो माले जैसे दिलदार, शानदार, शायर नुमा, साहब, आदमी मिल जाते हैं , तो लगता है ज़िन्दगी सुहानी हो गई। इसमेँ जीया जा सकता है।"
    " दो माले जैसे....? " मेरे पूछने पर उसने बताया, तब मैं समझा। हुआ यूँ कि....,
        रद्दीवाला जब " रद्दी...रद्दी..." की आवाज लगा रहा था, तो उस दो माले के शख्स ने उसे ऊपर बुलाया। वह अपना तराजू और थैला लेकर   ऊपर गया। कमरे में कुछ अखबार और रिसाले इधर-उधर बिखरे पड़े थे। " ये सब उठा लो " सुनते ही उसने रद्दी जमा की। तौलने के लिए तराजू निकालने लगा की...,  " तौलने की जरुरत नहीं, ऐसे ही ले जा। '  सुनकर वह तेजी से रद्दी थैले में भरने लगा। आज कुछ ज्यादा कमाने की खुशी में वह पैसे देने के लिए जेब में हाथ डाल ही रहा था कि...."  रहने दे। पैसे मत दे। ऐसे ही ले जा। "
बिना तौले तो इसके पहले भी उसने रद्दी खरीदी थी, पर आज तो मुफ्त में..., आश्चर्य और प्रसन्नता  है उसने उसकी और देखा। वह मुस्कराते हुए बुदबुदा रहा था;- " मैंने कौन-सा स्साला 
पैसे देकर खरीदी है ? शायर बनने में और कुछ मिले न मिले, पर मुफ्त के कुछ रिसाले जरूर घर आ जाते हैं।"  रद्दीवाला आँखों से शुक्रिया कहते और हाथों से सलाम करता हुआ सीढियाँ उतरने लगा। उतरने क्या, सीढियाँ दौड़ने लगा। बीस-पच्चीस की मुफ्त की कमाई जो हो चुकी थी । उसने गाड़ी पर थैला रखा, एक पल फिर से दो माले की ओर देखा, जहाँ उसका दिलदार, शानदार, शायरनुमा,  साहब आदमी रहता है। दो माले को सलाम करते हाथों से गाड़ी ढकेलने लगा।
    अब जब भी वह दो माले से गुजरता उसकी    " रद्दी- रद्दी " की आवाज तेज हो जाती। दो-एक महीने में जब भी दो माले से आवाज आती, वह लपककर, उछलता-सा सीढ़ियाँ चढ़ता, बिना तोले, बिना पैसे दिए, मुफ्त की रद्दी लेकर शुक्रिया व सलाम करते सीढ़ियाँ उतरता, गाड़ी पर थैला रखता, दो माले को देखता और सलाम करता गाड़ी ढकेलने लगता।
    आज भी सब कुछ वैसा ही हुआ। लेकिन जैसे ही वह सलाम करते सीढ़ियाँ उतर ही रहा था कि उसे एक तल्ख व तेज आवाज सुनाई पड़ी ,:- -ऐ..., जाता कहाँ..,?,... पैसे...,? "  
    वह चौंककर, हतप्रभ, हक्का बक्का -सा उस बेबस आँखों और फैली हुई हथेली को देखता भर रहा । उसमेँ इतनी भी हिम्मत नहीं रही कि वो अपनी सफाई में इतना भी कह सके कि " साब आपने इसके पहले कभी पैसे नहीं लिए इसलिए....- । "  उसने चुपचाप जेब में हाथ डाले और बीस का एक नोट उसकी फैली हुई हथेली पर रख दिया। सलाम करता वह सीढ़ियों से ऐसे उतर रहा था मानो पहाड़ चढ़ रहा हो। दो किलो का बोझ चालीस किलो का लगने लगा। वह भरे मन और भरे क़दमों से एक-एक पग बढ़ाता हुआ अपनी गाड़ी तक आया। थैला रखा।आदतन, उसने दो माले की ओर देखा। सलाम किया। गाड़ी सरकाया।  फिर रुक गया। उसे वो तल्ख व तेज आवाज़ " ऐ..., जाता कहाँ...?... पैसे...?"  अब भी सुनाई दे रही थी। बेबस आँखें और फैली हुई हथेली अब भी दिखाई दे रही थी। उसने बिना आँसू के रोती हुई आँखों से पुनः दो माले को देखा।और सलाम करता हुआ बेमन से गाड़ी ढकेलने लगा।
     इसलिए नहीं, कि आज उसे मुफ्त की रद्दी नहीं मिली। उसे बीस रुपए देने पड़े। यह तो उसका रोज का धन्धा है। बल्कि इसलिए कि आज उसका दिलदार, शानदार, शायरनुमा, साहब आदमी गरीब हो गया था।

- घनश्याम अग्रवाल 
अकोला - महाराष्ट्र 
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क्रमांक - 009



                         औकात

 

रामधन शहर का जाना-माना प्लंबर था। हाथों में ऐसा जादू कि जिस काम को हाथ लगा दे, मजाल कि कोई कमी रह जाए ; लेकिन पैसों का खरा-करारा--तय रेट से कम  न ज्यादा। कई दिनों से टूंटियाॅ खराब पड़ी थी, उन्हे ठीक कराने के लिए जब उसे फोन किया, तो कहने लगा, "बीबी जी!आज ही दो दिन का काम पकड़ा है,उसे पूरा करके ही आऊंगा। " 'ठीक है ' कहकर मैने फोन रख दिया। अगले ही दिन क्या देखती हूं  कि बाहर दरवाजे पर रामधन, अपने औजारों और सहायक के साथ, खड़ा है।मैने उसे अन्दर आने दिया और जो-जो टूंटिया खराब थी,समझाकर रसोई मे चली गई। थोड़ी देर में जब मैं उनके लिए चाय लेकर गई, तो मेरी ओर देख रामधन ने, बिना पूछे ही,बताना शुरु कर दिया‐- "बीबी जी! मैं वो काम बीच में ही छोड़ आया हूं। " मैंने हैरान होते हुए पूछा, 'क्यो ?" कहने लगा, "उनके यहाँ  दूसरे मजदूर भी लगे हुए थे। उन- सबके लिए  तो चाय बनकर आ गई, लेकिन  हमारे लिए नही आयी। जब मैंने पूछा, तो कहने लगे,कि "पहले ही रेट इतने ज्यादा हैं  फिर तुम लोग टूटी-टूंटियां, और भी न जाने क्या-क्या, समेट कर ले जाते हो ।"मैं सन्न, हताश-निराश! जल्दी- से काम खत्म किया और घर आ गया। पूरी रात परेशान। सवेरे उठते ही मैंने उन्हे फोन कर आने से मना कर दिया। पूछने लगे 'क्यों, क्या हुआ?' "साहब!आप जैसे लोग ही ईमानदार आदमी को झूठे केसों में फंसवाकर कमाने-खाने लायक नही छोड़ते। "मैं फोन काट ही रहा था कि कहने लगे, "दिखा दी न अपनी औकात। " तभी पीछे से उनकी पत्नि की आवाज सुनाई पड़ी---उसने या आपने। 

                   - उषालाल 
           कुरूक्षेत्र - हरियाणा
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क्रमांक - 010



                गलती का एहसास



                   

शर्मा जी, उस वार्ड के पार्षद हैं। सुबह-सुबह वे  सफाईकर्मी से वार्ड की एक गली का  कचरा उठवा रहे थे। तभी एक सज्जन आकर उनसे कहने लगे- ' मैं मेरे पड़ोसी को समझा- समझाकर थक गया हूं। वे उनके मकान के सामने बहुत कचरा फैलाते हैं।मेरा मकान उनके बाजू में है। वह कचरा हवा में उड़कर मेरे आँगन में आ जाता है। आप समझायेंगे तो मान जायेंगे।' - यह कहते हुए उन्होंने जेब से तमाखू का गुटखा पाउच निकाला और तमाखू खाकर खाली रेपर वहीं फेंक दी।
  शर्मा जी,उन्हें टोंकते हुए बोले- ' आप देख रहे हैं, उस सफाईकर्मी  ने अभी यहाँ से कचरा उठाया है और आपने यहाँ पाउच फेंककर कचरा फैला दिया। मैं आपके पड़ोसी की जरूर समझाऊँगा मगर आप भी तो इस तरह कचरा फैलाना बंद कीजिये।'
' माफ करना।गलती हुई।'- कहकर उन्होंने वह रेपर उठाया और पास की कचरा पेटी में डाल दिया।
               
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
नरसिंहपुर - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 011



                   इंसाफ चाहिए

             

                        
        शाम ढल रही थी। हर पार्टी के नेताओं का आना-जाना लगा हुआ था। सहानुभूति भरे शब्द सुन कर राम गोपाल को तसल्ली हो गई थी कि बिटिया को इंसाफ जरूर मिलेगा--- पर 6 महीने हो गए -- उनकी बेटी का दोषी बलात्कारी अभी भी फरार चल रह था।
       वह जब भी टीवी खोलता---किसी एक गायक के हत्यारे की खबर हर चैनल पर छाई रहती --कहां-कहां से हत्यारों को ढूंढ लाया गया था, पुलिस की कामयाबी की गाथा--- इसके अलावा राजनीतिक उठापटक या धार्मिक चर्चाओं का बाजार गर्म रहता। 
बड़े चर्चित लोगों के हत्यारे पकड़े जा रहे थे लेकिन उसे अपनी बिटिया के लिए कोई आशा की किरण नहीं दिखाई पड़ रही थी।
   नेताओं का आना-जाना-- मीडिया का चार दिन की तत्परता दिखाना--- सिर्फ एक समाचार बनकर रह गया था ---अतीत की बातों को सोचते ही राम गोपाल का मन व्यथित हो जाता।
    बिटिया बेबसी भरी नजरों से पूछती ---बाबूजी दो-दो दिन पर थाने का चक्कर लगा रहे हैं ---थानेदार ने क्या कहा?
    बेबस लाचार रामगोपाल के मुंह से निकलता-- बस उम्मीद लगाये दौड़ रहा हूं बिटिया-- इंसाफ मिल जाए ---काश! गरीबों का भी भगवान सुन ले---।

- सुनीता रानी राठौर
ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक - 012



                  जहाँ चाह, वहाँ राह



" माँ ! तुम क्यों चली गई, हम सबको छोड़कर। दादी भी थक जाती है, दादू की सेवा टहल करते। पापा हम सबके ख़ातिर नई  बिंदु माँ ले आए हैं। पर उन्हें अपनी बेटी कुहू से ही फ़ुर्सत नहीं। तुम्हीं बताओं मैं क्या करूँ ? " यूँ ही माँ से अपना दुखड़ा सुनाते कुणाल सो गया। उसे सपने ने याद दिलाया कक्षा में पढ़ाया पाठ,कैसे नेत्रहीन पृथ्वीराज चौहान, " चार बाँस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण; ता पीछे सुल्तान है, मत चूको चौहान " सुनकर ही अपना लक्ष्य साध लेते हैं। उसे भी हौंसला रखना चाहिए।
सुबह दादी ने उठाया तो एक नई आशा से भरा हुआ था।  उसके सपनों को और उड़ान मिल गई जब उसने माँ के लगाए गुलमोहर को देखा। कुछ वर्षों में ही वह पूरे घर को सुकून भरी छाँव देने लगा। बारह साल का बच्चा एक ज़िम्मेदार व्यक्ति बन गया।
जल्दी से सबके लिए अदरक की चाय बना वही घन्टी दबा दी जो कभी माँ बजाया करती थी। दादी की पूजा सामग्री सजा महाराजिन को नाश्ते का समझा स्कूल की तैयारी में जुट गया। नन्हीं कुहू, मम्मा से छुपती छुपाती अपने भय्यू से मिलने आ गई, चॉकलेट जो चाहिए थी 
        कुणाल स्कूल से सीधा पापा की मदद को दुकान पर पहुँच गया। पापा ने आश्चर्य से पूछा, "बेटा, इस समय,,,।" कुणाल हँसते हुए बोला, "आज बाप बेटे एक साथ लंच करेंगे।" तभी भोला काका टिफ़िन ले आए।
कुणाल पापा का हाथ बटाने लगा है। अपनी व कुहू की पढ़ाई की ओर भी ध्यान देता है। अब तो सी ए कर रहा है।
      घर आया तो दादी को उदास देख सोचने लगा कि माँ ने फ़िर कुछ कहा होगा। वे आए दिन दिन सबको परेशान करती रहती। सास ससुर के लिए पापा से कह चुकी हैं, " इन्हें किसी आश्रम में भेज दो, चैन मिले।" पापा के पैसे से ही उन्हें मतलब था। भुआ आदि किसी रिश्तेदार से सीधे मुँह बात नहीं करती। कुणाल ने ठान लिया वह विमाता को माता बना कर ही रहेगा। पापा समझाते, "बेटा, तुम अपनी पढ़ाई पर ध्यान दो। कुत्ते की पूँछ कभी सीधी नहीं होती।" कुणाल का जवाब था, " पापा, कोई कार्य असम्भव हो सकता है, नामुमकिन नहीं। आप  मेरे लिए पीछे की खाली ज़मीन पर एक हॉल लेट बाथ सहित बनवा दीजिए।" पापा बोले , "बस इतनी सी बात, आज से ही श्रीगणेश कर देते हैं। क्या अपना ऑफिस खोलने का विचार है। फर्नीचर भी पसन्द कर लेना।"
हॉल बनकर तैयार है। बस सामान वगैरह सेट करना है। 
एक दिन कुणाल पापा से पूछता है, "क्यों न हम बिंदु माँ के माँ बाबा को वृद्धाश्रम से अपने घर ले आएं।"
और सचमुच कुणाल उन्हें  सादर घर ले आया। हॉल में चार व्यक्तियों के सोने रहने के लिए सब सामान कुणाल ने कब सजा लिया, किसी को कानोकान खबर नहीं।  बिंदु भाव विभोर हो रोने लगी, " अरे आप यहॉं, कैसे हैं आप दोनों ? "
वे बोले, " हमारा तो तुम्हारे बेटे ने उद्धार कर दिया। लेकिन तुम क्या करने जा रही थी ?"

- सरला मेहता
इंदौर - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 013 



                         बेलदार




मकान की चिनाई का कार्य बस अब कुछ ही बचा था ।
पुराने बेलदार के छुट्टी पर जाने पर,वह उस की जगह आया,
वो  पसीनें से तरबतर था ।आते ही बताये  काम को करनें लगा ।पर काम में जैसे उस के हाथ उठ नहीं रहे थे।
 बार बार मिस्त्री की आवाज आ रही थी ।
 "अरे तेरे हाथों में जान नहीं क्या?"
"बार बार बैठ जाता हैं ,जल्दी से मसाला बना!"
वह फिर हाथ जल्दी जल्दी चलानें की भरसक कोशिश करता हुआ मसाला बनानें लगता हैं।
राज मिस्त्री इस बार लगभग चिघाड़ते से अंदाज में उस  बरस पड़ा,"अबे !आज खाना खाकर नहीं आया हैं क्या?"
 यह सुन रही अन्दर बैठी अनिता से रहा नहीं गया ।और वह भाग कर इस बार उसे देखने कमरे से बाहर आ गयी ।
 वह 19-20साल का दुबला पतला नौजवान था । बिखरें बाल 
फटे कपड़ें पहने,उसकी ऑखों में 
पानी देख ,अनिता भाग कर रसोई  से  अपनें खानें से 
थाली में कुछ रोटी , सब्जी लाकर उस को देते हुए बोली 
"लो पहले तुम कुछ खा लो,
फिर काम करना"...।उसने पहले  ना  करनें की मुद्रा में खानें की तरफ देखा ।
फिर छपटते से अंदाज में थाली ली और जल्दी जल्दी खानें लगा ,
 खाना खानें के बाद उस ने अनिता की ओर हाथ जोड़े और 
  अब फुर्ती के साथ काम में जुट गया ।

- बबिता कंसल 
शकरपुर - दिल्ली
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क्रमांक - 014 



                           टार्गेट





    इंजीनियर ने ठेकेदार से कहा कि मुझे मिट्टी का बाँध बनाने का पूरा काम जल्दी चाहिए। बरसात आने वाली है यह काम एक माह में हो जाना चाहिए,लेकिन साहब यह पूरा होने में कम से कम  दो माह लगेगे और अधिक लेबर भी नहीं मिल रही है। मैं कुछ नहीं जानता यदि तुमने यह काम जल्दी करा दिया तो तुम्हारे बोनस मिलेगा और एक नये काम का ठेका भी मिल सकता है।  
              अब ठेकेदार ने रात में सोचा कि क्या किया जाये कि काम जल्दी हो जाये। अचानक उसके दिमाग में एक उपाय आया दूसरे दिन सुबह काम शुरू होने के पहले ही उसने सभी आये हुए मजदूरों को बुलाकर बताया कि देखो हमें अपना टार्गेट पूरा करना है, समय कम है इसलिए काम बहुत जल्दी करना है। 
          आप लोगों के लिए हमने आज से हर दिन एक इनाम देना शुरू किया जो सबसे अधिक काम करेगा उसे आज से  ईनाम के रूप में उस दिन की दूगनी मजदूरी मिलेगी आप लोगों को चार लोगों का एक समूह बनाकर काम करना होगा। खंती खोदना तथा तसले से मिट्टी बताये स्थान पर आपको डालना है। शाम को आपकी मिट्टी खुदाई की नपाई कि जायेगी जिसकी कुल खोदी गयी मिट्टी का क्षेत्रफल सबसे अधिक होगा उस समूह को उस दिन दुगनी मजदूरी मिलेगी।
           बस फिर क्या था सभी समूह दुगनी मजदूरी के चक्कर में अधिक से अधिक काम करने लगे, और उनका टार्गेट 25 दिन में ही पूरा हो गया।
         इंजीनियर खुश, ठेकेदार खुश और मजदूर भी खुश सभी खुश और संतुष्टि थे। सभी के टार्गेट पूरे हो गए थे।

- राजीव नामदेव "राना लिधौरी"            
        टीकमगढ़ - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 015



                     परिन्दों का दर्द 




दो चिडियाँ एक_दूसरे को अपनी पीड़ा का,बखान कर रही थीं। पहली बोली"बहन इतनी भीषण गर्मी पड़ रही है। एक बूंद पानी भी नहीं मिलता, जिससे हमारी प्यास कुछ तो मिट सके।इंसान अपने नलों की टोटी भी ,मजबूती से लगाते हैं। उससे भी पानी का रिसाव नहीं होता। सभी घरों में यही हाल है। गढ्ढे ,पोखर भी सूख गए हैं  "
   दूसरी चिडिया बोली"पहले तो घर घर में, मिट्टी का पात्र पानी से भरकर रखा जाता था। जिससे परिन्दे अपनी प्यास बुझा सकते थे,अब वह भी मयस्सर नहीं। इंसान का दिल भी ,सूखे कुएं की तरह सूख गया है। उसके दिल में किंचित भी, नमी नहीं है। "
   पहली चिडिया ने कहा"इंसान की इंसानियत कैसे लुप्त हो गयी है, इसका उदाहरण सुनो।मेरे पड़ोस की एक बहन का आंखों देखा हाल बताती हूँ, उसे विद्युत पोल का करंट लगा। वह एक घर के सामने गिर गयी और तड़पने लगी।सुबह का वक्त था।उस घर की महिला आई तथा घर के सामने,झाडू लगाने लगी।उसने चिडिया को भी कचरे के साथ झाड़ती रही, यह सोचकर कि वह मर चुकी है, उसने पड़पकर अपनी जान दे दी।महिला चाहती तो पानी के छींटे मारकर ,जीवन देने का प्रयास कर सकती थी। क्रूरता की भी हद हो गई, यह तो।ऐसा व्यवहार ऐक मरणासन्न परिन्दे के साथ,क्या इंसान की मृत्यु के समय ,उसके मुख में डाले जाने वाला ,गंगाजल इसका इंसाफ दिला पायेगा?क्या यही सेवाधर्म है।"

- डाॅ.मधुकर राव लारोकर 
      नाशिक - महाराष्ट्र
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क्रमांक - 016



                       मार्गदर्शन




"आप क्या सोच रहे हैं पिताजी?" पिता को बड़े गम्भीर मुद्रा में घर के बाहर बैठा देखकर पुत्र ने पूछा।
"देखिए काले बादल ने रवि को छुपाकर दिन को ही रात में बदल डाला है। घर के अन्दर चलकर बातें करते हैं। आप मुझे बताएँ कि आख़िर क्या बात है?" पुत्र ने पुनः पूछा।
"तुम्हारी माँ को किसी संस्था ने वाचस्पति पुरस्कार देने की बात किया है..," पिता ने कहा।
"अरे वाह! यह तो बेहद हर्ष और गर्व की बात है। और आप हैं कि यूँ चिंताग्रस्त बैठे हैं कि न जाने कौन सी बड़ी आपदा आन पड़ी। कोई पकी फसल में आग लग गयी या किसी फैक्ट्री गोदाम में...। मैं भी नाहक घबरा रहा था कि ना जाने क्या बात हो गयी।" पुत्र ने कहा।
"वाचस्पति पुरस्कार पाने के लिए तुम्हारी माँ को पन्द्रह से बीस हजार तक खर्च करने होंगे।" पिता ने कहा।
"बस! इतनी छोटी रकम! इतनी तो माँ घर के किसी कोने में रख छोड़ा होगा...। आपको घबराहट इस बात कि तो नहीं कि माँ अपने नाम में डॉक्टर लगाने लगेगी!" पुत्र ने कहा।
"इस पुराने अमलतास वृक्ष के कोटर में हवा के झोंके या खग-विष्ठा से उग आए बड़-पीपल को देखकर रहे हो! क्या बता सकते हो कि इससे प्रकृति को कितना लाभ होगा ?" पिता ने पुत्र से पूछा।
"..." निःशब्दता। पुत्र की चुप्पी ।

विभा रानी श्रीवास्तव
पटना - बिहार
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क्रमांक - 017



                        ताई जी 




           “किटी पार्टी भी इन्हें आज मकर संक्रान्ति के दिन ही रखनी थी”..उठते ही अवनि बड़बड़ाने लगी।
           “क्या हो गया भई…..आज सुबह से ही गरज के साथ धुआँधार बैटिंग?”
             “तो क्या करूँ? इलाज के नाम पर जमे हुए हैं तुम्हारे गाँव से आए ताऊ-ताई जी। अब इन्हें भी झेलूँ और किटी पार्टी की तैयारी भी करूँ यह तो नहीं होगा। छोड़ो, तुमसे कह कर फायदा भी क्या? जौमेटो से ही मँगवा कर चलाऊँगी काम। इतना ही तो होगा दुगुना-तिगुना बैठ जाएगा खर्च।”
             बात कमरे में बैठी ताई जी के कानों में पड़ी तो वे उठ कर बहू के पास गई और बोली…” मेरी बिटिया इतनी छोटी सी बात से परेशान है। तू ऐसा कर, बबुआ को भेज कर तिल, गुड, मूँगफली आदि मँगवा दे जल्दी से बस।”
             “अब बोल रहीं हैं तो मँगवा ही देती हूँ, मेरे कहने से भी ये मानने वाली तो हैं नहीं।”…सोचते हुए विहान को उसने सामान लाने भेज दिया।
                नाश्ता निबटने के बाद ताई जी ने रसोई संभाली और पूरा काम निबटा कर ही दम लिया।
               बैठक से किटियों के चहचहाने की आवाजें  आ रही थीं…..वाओ! तिल के लड्डू, तिलकुट, तिलपट्टी, मूँगफली वाली गुड़ पट्टी!  बहुत ही मजेदार! मकर संक्रान्ति मनाने का आनंद आ गया।बाजार की तो नहीं लग रही। घर पर बनाई तुमने?
                “हाँ, पर मैंने नहीं, गाँव से आई मेरी ताई जी ने। अभी मिलवाती हूँ उनसे”…कहती हुई वह ताई जी के कमरे की ओर 
दौड़ गई।

- डा० भारती वर्मा बौड़ाई
     देहरादून - उत्तराखंड 
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क्रमांक - 018



                    सिमटती दूरियां 


                    
                  
        अपोलो अस्पताल के इमरजेंसी वार्ड के बाहर, एक औरत  फूट-फूट कर रो रही थी l उसके ससुर कोरोना के शिकार होकर, जिंदगी की बाजी हार गए थे !
             जब रो धोकर  उसने अपने मन को मना लिया कि ससुर अब मृत्युलोक से वापस नहीं आ पाएंगे, तब वह मृत लाश को अस्पताल के हवाले सौंप दी !
                अस्पताल की एक नर्स आशा,  उस औरत की यह दयनीय स्थिति देखकर पूछ बैठी -
"  इनका कोई बेटा नहीं है क्या, जो इनके  दाह-संस्कार के लिए  अस्पताल को सौंप दिया ? "
"  एक बेटा है, लेकिन वह विदेश में इंजीनियर है ! जब मैंने उनके पापा के बीमार होने की खबर दी, तब  उसने बहाना बना दिया और कहा -
"  मैं स्वयं कोरोना पॉजिटिव  हूँ और घर पर ही कोरोटाइन  हो गया हूं ! भाभी जी, आप मेरे पिताजी को संभाल लीजिएगा और अस्पताल तक जरूर पहुंचा दीजिएगा ! "-सुबकते हुए उस महिला ने कहा !
" अरी बेटी !आजकल के बेटे होते ही ऐसे हैं !घर से दूर- दराज नौकरी में जाकर , घर-परिवार को तो एकदम भूल जाते हैं! "
          थोड़ी रुककर नर्स ने आश्चर्यचकित होते हुए पूछा-
"  लेकिन कल तुम जब  उन्हें अस्पताल लेकर आई  थी,  तब भी अकेली थी ? घर में कोई और सदस्य.... !"
"  साथ में पोता-पोती, भतीजा-भतीजी, चाचा,...  सब लोग थे l...लेकिन.,मेरे ससुर को कोरोना  होने के बाद से ही,  सभी लोग,घर  छोड़कर गांव भाग गए  l...... 
              .......... मेरे पति तो दस साल पहले ही स्कूटर एक्सीडेंट में  स्वर्ग सिधार गए थे !...  और इधर  75 वर्षीय ससुर जी इतने कमजोर और लाचार थे कि खड़े तक नहीं हो पा रहे थे !..... "  सुबकते हुए वह फिर आगे बोली -
"  जब मुझसे रहा नहीं गया, तब मैंने अस्पताल ले जाने का मन बना लिया ! आस- पड़ोस, कहां नहीं गुहार लगायी मैंने ! मगर मदद करने को कोई सामने नहीं आया ! सभी अपने-अपने दरवाजे बंद कर लिए !.... मैं  अकेली औरत, एंबुलेंस या टैंपो खोजने निकल पड़ी, दो  किलोमीटर दूर,  मेन रोड पर ! एंबुलेंस या टेंपो कोई भी  उबड़-खाबड रास्ते पर चलकर, मेरे घर तक आने के लिए तैयार नहीं हुआ !.....
                .........  मैं क्या करती ! थक हार कर मैं किसी तरह, दो  किलोमीटर तक अपने पीठ  पर लादकर , ससुर जी को, मेन रोड तक लाई !"
"  मगर वह तो तेरे ससुर थे बेटी ! तेरे पिताजी तो थे नहीं ? जो तूने इतना कष्ट उठाया, जिसके लिए  तूने इतना रिस्क लिया !"
"  कैसी बात कर रही है आप ? मेरे ससुर जी, दर्द और पीड़ा से तड़प रहे थे ! क्या ससुर जी के जगह पर, मेरे पिताजी होते, तो ऐसे ही तरपते -बिलखते छोड़ देती मैं ? शादी के बाद, जब  ससुराल ही मेरा घर है, तो क्या ससुर जी भी मेरे पिताजी नहीं हुए ? उन्होंने भी तो, कभी मुझे अपनी संतान से कम नहीं समझा, अपने संतान से कम प्यार नहीं दिया !  दिल में प्यार हो, अपनापन हो, तो रिश्तो की दूरियां  सिमट आती है, सिस्टर !"

-  सिद्धेश्वर
पटना - बिहार
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क्रमांक - 019



                    अप्रतिम कफन




            
       "नेहा जल्दी से मेरा सामान तैयार कर दो। तुरंत सरहद पर जाने का आर्डर आ गया है," नेहा को आवाज लगाते हुए विकास जोर से बोला।
"यह क्या कह रहे हो विकास ?अभी दो दिन पहले ही तो तुम आए हो और फिर चल दिए ।अभी तो हम ठीक से मिल भी नहीं पाए", विकास का बैग जमाते हुए नेहा बोली।
"देश को मेरी जरूरत है, मुझे जाना ही होगा नेहा। अभी तो दमखम दिखाने का वक्त है। इसी दिन का तो वीर सैनिक इंतजार करते हैं। चिंता मत करो मैं शत्रुओं को हराकर शीघ्र ही वापस लौटूंगा", कहता हुआ विकास बाहर निकल गया।
      हतप्रभ नेहा आंखों में आंसू लिए विचार करती रह गई।
    आज सुबह से ही उसकी दाईं आंख फड़क रही थी। रह रहकर नेहा को घबराहट होने लगती थी और वह सोच में पड़ जाती थी।
     दोपहर का समय था।सन्नाटे को चीरती हुई अचानक एक गाड़ी आकर उसके घर के सामने रुकी। सैनिक वर्दी में चार व्यक्ति गाड़ी से नीचे उतरे और उन्होंने तिरंगे में लिपटा हुआ विकास का शव आंगन में रख कर उसे सैल्यूट दिया।
     देखते ही नेहा चिल्ला उठी," आखिर तुमने इस अप्रतिम कफन को ओढ़ ही लिया विकास", कहते कहते नेहा वहीं जमीन पर गिर गई।

गायत्री ठाकुर 'सक्षम' 
नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
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क्रमांक - 020 



                      बरसों बाद



ट्रिन- ट्रिन घण्टी बज रही थी । मोबाइल उठाते हुए रीमा ने कहा हेलो... 
उधर से आवाज आयी, "रीमा जी, मैं संतोष बोल रहा हूँ । आज मेरी पुस्तकों का विमोचन है, आप अवश्य आइयेगा । नेहा जी आयी हुईं हैं । उन्होंने खासतौर पर आपको आमंत्रित करने के लिए कहा है । हम सभी आपका इंतजार करेंगे।" 
रीमा ने कहा, "सर्वप्रथम पुस्तकों के विमोचन हेतु आपको हार्दिक बधाई। नेहा से मिलने मैं जरूर आऊँगी।" 
मन ही मन बुदबुदाते हुए रीमा ने कहा आज तो बच्चों को लेकर बाजार जाना था । अब क्या करूँ? कोई बात नहीं अगले रविवार को चली जाऊँगी, आखिर पाँच वर्षों बाद नेहा से मुलाकात होगी । पुरानी बातों को याद करते हुए वो तेजी से काम निपटाने लगी । 
कुछ ही देर में लाल बार्डर की साड़ी पहन कर बड़ी सी बिंदी माथे पर सजाए पूरी मैचिंग के साथ वो मिलने की खुशी समेटे हुए चल दी। 
तभी नेहा का फोन उनके पास आया दीदी आप जल्दी आ जाना क्योंकि कार्यक्रम शुरू होने पर बातचीत नहीं हो पाएगी ।
हाँ नेहा मैं पहुँचने बाली हूँ, तुम समय पर आ जाना ।
हाँ दीदी मैं पहुँच जाऊँगी, मीठे स्वर से नेहा ने कहा ।
15 मिनट बाद रीमा कार्यक्रम स्थल में पहुँच चुकी थी । वहाँ से उत्सुकता पूर्वक उसने फोन लगाया । बदले में नेहा ने कहा दीदी कुछ लोग आ गए हैं, बस थोड़ी देर में आती हूँ । 
लगभग 2 घण्टे बीत जाने के बाद भी जब नेहा नहीं आयी तो रीमा सोचने लगी देखो मैं तो अपना जरूरी कार्य एक हफ्ते के लिए छोड़कर इससे मिलने आयीं हूँ और इसे समय की कोई कद्र नहीं । 
कार्यक्रम में सभी लोग नेहा जी...नेह जी, करते हुए उनका गुणगान कर रहे थे और रीमा बार -बार अपने हाथों की घड़ी देखे जा रही थी । तभी नेहा ने मुस्कुराते हुए हॉल में कदम रखा, सभी लोग नेहा जी आ गयीं कहते हुए फूल माला लेकर दौड़ पड़े । 
नेहा ने आगे आकर रीमा के पैर छुए और कहा, "दीदी सबके आने के कारण देर हो गयी है । 
मुस्कुराते हुए रीमा ने कहा, "कोई बात नहीं । 
नेहा कभी इधर, कभी उधर देखते हुए ऐसा प्रदर्शित करने लगी मानो यहाँ बैठे सभी लोग उसकी विद्वता के कायल हों । तभी आयोजकों ने उसे आदर के साथ बुलाते हुए कहा " नेहा जी इन बच्चों को अपने हाथों से सम्मानित कर दीजिए ।" 
गर्व पूर्ण मुस्कान के साथ नेहा ने कहा"यहाँ मैं श्रोता के रूप में आने के लिए राजी हुई हूँ इसलिए नहीं । 
बार - बार माइक से तारीफ सुनकर नेहा ऐसा दिखाने लगी मानो ये तो आम बात है ।
तब तक वो मन ही मन  समझ चुकी थी कि नेहा अब नेहा जी बन चुकीं हैं, उससे भूल हो गयी, जो वो  बरसो पुरानी नेहा से मिलने आ गयी । 

- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 021 



                  चलो, माफ़ किया



चायपती का खाली डब्बा देखकर शालू सासूमॉं से बोली - माँ जी, आज अगर कोई मेहमान आ गये तो?
शालू की बात अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि दरवाजे पर दस्तक हुई। 
दूर के एक चाचाजी सामने खड़े थे। 
आते ही बोले - बहू, एक कप चाय पिलाओ, जल्दी निकलूँगा। 
तबतक सासूमॉं शालू के मन की उलझन को समझ चूकी थी। झट से बोली - क्या भाई साहब, इतने दिनों बाद आए हैं। बगैर नास्ता किये बिना तो जाने ना दूंगी। वो शालू से बोली - बहू, जा... जल्दी से पुरी-हलवा बना कर ला। 
शालू, जल्दी- जल्दी पुरी - हलवा बना कर चाचाजी के सामने परोस कर ले आयी।
चाचाजी के डकार लेने के बाद सासूमॉं बोली - बहू, अब जाकर चाय बनाकर ले आओ।
 चाचाजी झट से उठ खड़े हुए। नहीं - नहीं भाभीजी, अब बहुत देर हो गयी। अब चाय के लिए माफ कर दे। 
सासूमॉं,चेहरे पर एक मधुर मुस्कान लेकर बोली - जायें, भाई साहब! आपको माफ कर दिया। 
उनके जाने के बाद दोनों सास - बहू ठहाके मारकर हंसने लगी।

- सीमा रानी
पटना - बिहार
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क्रमांक - 022



                  मॉं, तुम्हें कैसे कहूॅं?



 
                      सुशील, सुनैना और मॉं तीनों का छोटा-सा परिवार। सुशील सुनैना को घर के हर काम में स्त्रियों की तरह हाथ बॅंटाता। लेकिन उसने कभी सुनैना के मुॅंह से अहोभाव के दो शब्द भी नहीं सुने। आज़ दोनों पति- पत्नी के बीच घर के ऊपर वाले कमरे में बहस हो हुई।
सुनैना- "आपकी मॉं की दिन-रात देखभाल करती हूॅं। गुस्सा बहुत आता है जब बच्चों जैसी हरकतें करती हैं।"
सुशील- "क्या कहा? आपकी मॉं? बात कुछ हज़म नहीं हुई! क्या मेरी मॉं तुम्हारी मॉं नहीं? तुमने मॉं को अपनाया ही नहीं। इसीलिए हमेशा अपनी मॉं की प्रशंसा करती हो और बात-बात पर पीहर की दुहाई देती हो।"
सुनैना- "मेरे पीहर के बारे में कुछ भी मत बोलिए। मुझे कुछ दिनों के लिए पीहर जाना है। आप पॉंच भाई हैं। सभी का कर्तव्य बनता है मॉं को रखने का।"
सुशील- "मैंने शादी से पहले तीन बार तुम्हारे साथ मीटिंग की थी। तुम्हें साफ-साफ कह दिया था कि मॉं ज़िंदगी भर हमारे साथ रहेगी।"
सुनैना- "जब खाना खाने बैठती है तब थाली में कितनी गंदगी करती है!"
सुशील- "मॉं की उम्र पचासी साल की है। दॉंतों के बिना खाने और चबाने में बहुत तकलीफ़ होती है। बुढ़ापा और बचपना एक जैसा होता है। ये समझने वाली बात है।"
सुनैना- "कुछ भी कीजिए। मैं रोजमर्रा की ज़िंदगी से तंग आ गई हूॅं। मुझे कुछ दिनों के लिए पीहर जाना है।"
सुशील- "ठीक है। जैसी तुम्हारी मर्जी। तुम पीहर जाओ और आराम से रहो। मॉं की व्यवस्था हो जाएगी।"
          दिल पर पत्थर रखकर सुशील नीचे वाले कमरे में आया। मॉं बोली- "बेटे, अच्छा हुआ तूने शादी कर ली। कल तुम्हारी बुआ मिलने के लिए आई थी। बहू की बड़ी प्रशंसा कर रही थी। हमारे तो भाग्य खुल गएं। वरना आज़ के जमाने में बूढों का हाल बेहाल है।बहू के आने से हम दोनों की ज़िंदगी सॅंवर गई।"
                 सुशील की ऑंखों में ऑंसू देख कर मॉं बोली- "अरे! तेरी ऑंखों में ये ऑंसू?"
सुशील- "कुछ नहीं मॉं। ये तो ख़ुशी के ऑंसू हैं। तुमने कहा न कि हम दोनों की ज़िंदगी सॅंवर गई यह सुनकर ख़ुशी के ऑंसू आ गएं।"
                 सुशील अपनी व्यथा को दिल में दबा कर मन ही मन बोला- "मॉं, तुम्हें कैसे कहूॅं? अब तुम बोझ बन गई हो।"

 - उपाध्याय 'ललित' 
  सुरेंद्रनगर - गुजरात 
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क्रमांक - 023 



                           क्रमशः

 


काफी समय पहले जब वह गाँव छोड़ कर इस शहर में आ बसा था तो कोई था जो उसे धीरे-धीरे खुदकुशी करने पर मजबूर कर रहा था।
सबसे पहले उसने अपनी जुबान काट ली थी ,  जिससे अब वह किसी भी अन्याय का विरोध नहीं कर सकता था।
फिर कुछ सालों बाद उसने अपनी अंतड़ियां निकालकर फेंक दी और अब उसे कई-कई दिनों तक भूख बैचेन नहीं करती थी।
फिर एक दिन उसने अपने पाँव ही काट डाले जिसके फलस्वरूप अब वह काम की तलाश में कितना भी चल ले उसे थकान बिल्कुल भी नहीं होती थी।
इसी प्रकार किसी दिन उसने अपने हाथ भी काट डाले । उसके किये किसी भी काम से उसकी गृहस्थी चल सकने लायक बरकत ही नहीं होती थी।
और आज...
आज तो उसने अपने दिल को भी मार डाला जब उसने अपना चूल्हा जलाने के लिए पड़ोसी के आँगन से वे लकड़ियां भी उठा ली जिन पर उसका पड़ोसी अपना भात पकाने वाला था।
अब वह पूरी तरह मृत है। जिसे इस शहर ने कभी आत्महत्या के लिए उकसाया था।

- कनक हरलालका
   धूबरी - असम
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क्रमांक - 024



                         मूलमंत्र

                
  

"उद्यान बेटे , क्या बात आज तुम्हारे चेहरे पर प्रसन्नता और परेशानी के मिले- जुले भाव ?
" हाँ सर  आप को तो पता ही है पी  एस सी की परीक्षा में मैंने तेरहवें अंक प्राप्त किया , आज इन्टरव्यू भी क्लीयर हो गया इसीलिए खुश हूँ "
" और परेशानी क्यों?"
"सर परेशानी, प्रसन्नता से बढ़कर है ,जितना ऊंचा ओहदा , उससे भी बढ़कर जिम्मेदारी , आप ने भी इसी ओहदे के साथ  अपना जीवन बिताया है  ,आपके अनुभव और पद की गरिमा को बनाये रखने का मूलमंत्र आप से प्राप्त करना चाहता हूँ ।
उद्यान की बात सुनकर कपूर साहब के चेहरे पर ग्लानि के भाव उभर आए उन्हें लगा जैसे उनकी आत्मा किसी अपराध बोझ से पाताल में  धसती जा रही है , कैसे उन्होंने अपने पद का दुरुपयोग करके अपने जीवन की बगिया को अँगारों के हवाले कर दिया उनका एक ही बेटा----जो हमेशा के लिए नशे की दुनियां में-----
" क्या हुआ सर ?"
" कुछ नहीं " आँखो में आँसुओ और खुद को संभालते हुए बोले - " बहुत कम व्यक्ति ही ओहदे को सम्मानित करते है अधिकतर लोग अपनी असीमित इच्छाओं को पूरा करने के लिए स्वयं को बिकने के लिए छोङ देते है तुम जीवन में  सदैव एक बात याद रखना कि तुम बिकाऊ नहीं हो तभी तुम अपने कार्यों से अपनी ही आत्मा के पन्नों पर स्वर्णिम इतिहास की रचना करने में सक्षम हो सकोगे , गुण किसी परिचय के मोहताज नहीं होते , रिश्तो को निभाने के लिए अपने ओहदे से बेईमानी मत करना , परिवार की उन्नति की अपेक्षा देश की उन्नति को महत्व देना कहते कहते कपूर साहब का गला रूँधनें  लगा और वो बोझिल कदमों से अपने मकान की तरफ चल दिए ।

- गौरी
 जगाधरी  - हरियाणा
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क्रमांक - 025



                      मैं जा रही हूं 




" कमली, सुना है तेरा ब्याह होने वाला है ?" कमला से उसकी सहेली ने पूछा  ।
" हां, बड़ा मज़ा आएगा  ।"
" मज़ा आएगा  ! वो कैसे  ?"
" अरे, नये-नये कपड़े पहनने को मिलेंगे, जीमण बनेगा, मैं घूंघट निकाल कर ससुराल जाऊंगी, खेलने के लिए दो-दो घर हो जाएंगे  ।"
        और कमली का बारह वर्ष की उम्र में ब्याह हो गया । वह ससुराल पहुंची फिर वहां के बच्चों के साथ खेलने लगी । उन बच्चों में उसका पति भी था । खेल-खेल में वह कमली से हारने लगा तो चिटिंग करने लगा, कमली ने उसका विरोध किया तो वह उसे पीटने लगा । कमली ने भी उसकी जमकर पिटाई कर दी । वह रोते हुए अपनी माँ के पास पहुंचा और कमली की शिकायत कर दी । कमली भी उसकी शिकायत लेकर आई मगर सास ने अपने बेटे की बात सुनकर कमली को डांटते हुए कहा-
" अपने पति को मारते हुए तुझे शर्म नही आती ।"
" पति है तो क्या हुआ चिटिंग करेगा ? हार गया तो मारेगा ? और मैं मार खाती रहूंगी ? 
       ऐसा सोचना भी मत । नहीं चाहिए मुझे ऐसा पति जो झूठा हो और हारने पर अपनी पत्नी को पीटने लगे । 
       मैं जा रही हूं....... ।" 

             - बसन्ती पंवार 
      जोधपुर - राजस्थान
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क्रमांक - 026



             छोटा पैकिट बड़ा धमाका



आज हड्डी की  विशेषज्ञ डॉक्टर माही अपने पति डॉक्टर महेश के साथ अपने चार साल के जुड़वा बच्चो कृषव और  कृष्ण की उपलब्धि पर  बड़ी खुश थी क्योंकि उन के नन्हें बच्चों ने दो  मिनट  में  मानव कंकाल की हर हड्डी पर उंगली रख कर  मनुष्य की सारी हड्डियों के नाम  गिनीज  वर्ल्ड ऑफ रिकार्ड के मैनेजर को बता के यह रिकॉर्ड अपने नाम हासिल कर लिया था।
मैनेजर ने बारी - बारी से दोनों बच्चों से पूछा ," मनुष्य
के शरीर  में कितनी हड्डी होती है ?"
"  जन्म के समय शरीर में तीन सौ हड्डियाँ होती हैं लेकिन मौत के समय दो सौ छह रह जाती हैं  ।"
"  दोनों का सही जवाब।"
  ताली बजाते हुए होठों पर मुस्कान लिए  छोटे भाई  ने  बड़े भैया से कहा , " कृषव भैया ! हमारा  सही उत्तर...  ।" 
" इन सब हड्डियों के नाम किसने बताए , कृषव ?"
"हमारे मम्मी - पापा ने।  पापा - मम्मी जब हॉस्पिटल से आते थे , तब हम  दोनों भाई स्लाइड में हड्डियों के चित्र उत्सुकता से देखते थे। हमारी जिज्ञासा को देख के  माता -पिता हमें इसके बारे में नाम  बताते थे । "
" अच्छा ! कृष्ण तुमने कैसे सीखा ?"
" बड़ा भाई के संग मेरी रुचि नए - नए चित्र देखने की हो गयी , इसलिए मैं भी सीखता गया।"
मैनेजर ने माता -पिता को होनहार कृषव - कृष्ण की स्मृति क्षमता , हुनर  की तारीफ कर कहा , " इतनी कम उम्र में आपके बच्चो ने ' गिनीज  वर्ल्ड ऑफ रिकार्ड ' अपने नाम  करके  देश - विश्व में आपका नाम रौशन कर दिया।
 खुशी से डॉक्टर दंपति ने कहा ,"जी ! हमारे लिए गर्व की बात है ।  हम अपने बच्चों की सही परवरिश करें ,  उन पर ध्यान दें , उनकी क्षमता , योग्यता , रुचि को पहचाने तो आज की पीढ़ी असंभव को संभव कर देगी।"
 मैनेजर  ने बच्चो को शाबाशी देते हुए कहा ,"  सच में तुमने  अपने देश  और संसार में मिसाल कायम की है।"

- डॉ. मंजु गुप्ता
  मुंबई - महाराष्ट्र
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क्रमांक - 027 



                          मुराद




निमिया लाड़ी सुबह का कितना  काम पड़ा हुआ है ।
"घड़ी देखो !  सात बज गए हैं ।" अभी तो जीतू के लिए टिफिन भी बनाना है । हेमंत भी आता ही होगा जोगिंग करके   ।
माँ सा , मैं पढ़ाई कर रही थी । 
 अच्छा, आप परेशान ना हों मैं अभी बना देती हूं टिफिन 
निमिया ने अपनी साड़ी का पल्लू कमर में खोसा और अपने देवर जीतू के लिए टिफिन बनाने में जुट गई।  हेमंत के लिए जूस निकालते हुए सोच में पड़ गई सुबह ही तो मन लगता है पढ़ाई में लेकिन ये काम ...........करु तो क्या करु ? ...........जूस टेबल पर रखकर फिर से आ बैठी    पढ़ाई करने ।   
 हिंदी लिटरेचर का पेपर सर पर है लेकिन  घर गृहस्थी की चक्की .........। शादी से पहले  मां ने बापू सा से कहा भी था कि छोरी की पढ़ाई पूरी होने के बाद ही परणाना । 
तब बापू बोले निमिया की माँ तुम चिंता मत करो मेरी लड़के वालों से  बात हो गई है ।  वे पढ़ने पे रोक नहीं लगावेंगे । 
"मेरे ससुराल  आने पर पढ़ने पर रोक तो किसी ने नहीं लगाई ....... पर काम काज तो  करना ही पड़ेगा  ।"
काम और पढ़ाई के बीच मुझे  ही सामंजस्य स्थापित करना होगा  । 
ओ ! लाड़ी तुम क्या सोच रही हो ? 
"तुम्हारे पेपर कब से है ।"
"माँ जी ,  अगले हफ्ते से शुरू है।"
 लाड़ो चिंता छोड़ो पहले नाश्ता करो  जब तक तुम्हारी परिक्षा चलेगी तुम काम की चिंता मत करना मैं कर लूंगी तुम तो अपना ध्यान पढ़ाई में लगाओ । 
निमिया की आँखे इतना प्यार देखकर सजल हो उठी उसे  लगा  जैसे केयर करने वाली माँ   मिल गई ।

- अर्विना गहलोत
 प्रयागराज - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक - 028 



                 ढाई दिन की हुकूमत 





"सुनती हो... आवाज लगाते हुए शैलेंद्र जी ने पत्नी से कहा...
"अपने लाडले को जरा समझाओ ".!
"क्या हुआ...? क्या कह दिया तुमने रवि जो तुम्हारे पापा नाराज हो रहे हैं" !
"कुछ नहीं मम्मी.. रोज की वही घीसी पीटी बातें! पापा से आप क्यों नहीं कह देती कि मुझे राजनीति में रस नहीं है "!
" इसमें क्या गलत है तेरे पापा तेरे भविष्य के लिए ही तो कर रहे हैं"!
"आप भी माँ...! आपने कभी पापा को सुकून से सोते देखा है ?नहीं...किंतु मैने उनकी आँखों में ढाई दिन की हुकूमत को खोने का भय देखा है "!
"मंगला इसे कह दो जब तक मेरी हुकूमत है किसी भी विभाग में डाल सकता हूँ! वर्ना जिंदगी भर एडि़यां रगड़ते रहना " !
"पापा मैं पढ़ाई कर अपने दम पर जिंदगी भर का सुकून चाहता हूँ! आपकी तरह ढा़ई दिन की हुकूमत लेकर नहीं "...!

  - चंद्रिका व्यास 
 मुंबई - महाराष्ट्र
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क्रमांक - 029



                   राष्ट्रपति अवार्ड     



   हरीश की गाड़ी रेड लाइट के पास आकर रुक गयी। बहुत लंबा जाम था । जल्दी-जल्दी में वह बैग में पानी की बोतल रखना भूल गया था । घबराहट और प्यास से उसका गला सूख रहा था। उसने इधर-- उधर देखा। हाथ में पानी की बोतलें लिए एक लड़का उसी की ओर आ रहा था और उसी के पीछे पानी की बोतल लिये एक बूढ़ा भी ।हरीश ने उस बूढ़े को इशारा किया । कांपते हाथों से बूढ़े ने बोतल पकड़ा दी। हरीश ने 50 का नोट उसे दिया । वह बाकी पैसे वापस करने लगा तो हरीश ने कहा ---
     "कोई बात नहीं रख लो ।"
   "अपनी मेहनत की कमाई खाई है साहब ! खैरात कभी      नहीं ली ।" कह्ते हुए तीस रुपए वापिस कर दिए। 
    बूढ़े के ये शब्द सुनकर हरीश की जिज्ञासा बढ़ी और वह अपना मोबाइल ऑन कर के उसका वीडियो बनाने लगा। उससे प्रश्न किया ----
     "बाबा कब से लोगों को पानी पिलाने का काम कर रहे हो?"
   "जब 15 बरस का था तभी से । तब सेठ जी की चलाई प्याऊ पर लोगों को पानी पिलाता था । फिर प्याऊ चलाने का रिवाज बंद हो गया । सरकार ने जगह-जगह ठंडे पानी की टंकियां रखवाये दयीं । तबसे से बसों और गाड़ियों में चलने वाले लोगों को ठंडी बोतलों का पानी पिलाए रहा हूं। अब तो उमर निकल गई ।" हरीश ने जवाब में कहा ----
    "मैंने तुम्हारा वीडियो बनाया है इसे यूट्यूब पर डालूंगा।"  "इस वीडियो से का होगा साहब ? आप तो यूट्यूब क्या टीवी पर भी खबर चलवा देंगे कि इस वीडियो को लाखों-करोड़ों लोगों ने देखा और पसंद किया । तो मुझे कोनो राष्ट्रपति अवार्ड मिल जाएगा?"
   " हो सकता है मिल भी जाए ।" हरीश ने हंसकर कहा। "अरे साहब राष्ट्रपति अवार्ड बड़े लोगन को मिले हैं । पहुंच वाले लोगन को मिले हैं ।और काहे मिले मुझे ? मैंने कोनों  किसी पर एहसान किया है ?अपना और अपने बच्चों का पेट पालने खातिर काम किया है ,जैसे सब करते हैं ।" 
   यह कहकर वह आगे बढ़ गया। सीधे सरल जीवन की निस्पृह्यता का दिग्दर्शन  का आईना वह कर्म योगी दिखा ।
  
- डॉ. कमलेश मलिक
    सोनीपत - हरियाणा
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क्रमांक - 030



                       अमृतपान




आखिर ,बस रवाना हुई।मैं काफी देर से बस स्टैंड पर खड़ी थी। गर्मी और उमस के कारण जी घबराने लगा था। इतने लोगों के बस में होने पर भी सन्नाटा सा था बस में। बात करने की आवाजें बहुत कम आ रही थीं। ऐसा लग रहा था कि अभी 2 दिन पूर्व हुए हिंदू-मुस्लिम दंगों का प्रभाव उन पर हावी है, इसलिए बाहर की ठंडी हवा अंदर आने पर भी घुटन सी महसूस हो रही थी।
              बस द्रुतगति से अपने गंतव्य की ओर जा रही थी, तभी एक बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी। यह पंडिताइन के सबसे छोटे बच्चे की आवाज थी, जो प्यास लगने के कारण रो रहा था। माँ उसे लगातार चुप कराने का प्रयास कर रही थी। लेकिन बच्चे की प्यास इतनी प्रबल थी कि किसी तरह चुप नहीं हो पा रहा था। जिस इलाके से बस गुजर रही थी, बिल्कुल निर्जन था। अतः बस रुकवाने का कोई लाभ नहीं था । बच्चे का गला रो-रो पर सूख गया था।
 तभी एक बुर्के वाली महिला जो अपने कई बच्चों के साथ सफर कर रही थी, उससे रहा न गया ।अब तक वह संकोच कर रही थी कि पंडिताइन मेरी सुराही का पानी बच्चे को पिलाएगी या नहीं । उसने पंडिताइन को संबोधित करते हुए कहा ,"मेरे पास सुराही है बच्चे को पानी पिला दो।"
 पंडिताइन ने सोचने में एक पल भी नहीं लगाया।......... अगर बच्चे को पानी नहीं मिलता तो वह रोते-रोते बेहोश हो जाता। ......और पता नहीं जीवित भी.. इसके आगे वह न सोच सकी। प्यास पानी से ही बुझ सकती थी। यह हिंदू या मुसलमान सोचने का वक्त नहीं था। पंडिताइन ने पानी का गिलास लिया और बेटा एक सांस में ही गट गट सारा पानी पी गया। मां की आंखें तरल थीं,कृतज्ञता से बुर्के वाली महिला को देख रही थीं।बच्चे को जीवनदान मिल गया था।

- डॉ अलका अग्रवाल
    जयपुर - राजस्थान
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क्रमांक - 031



                         पैसा




कालिया - मैं , तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ ।
लक्ष्मी - पैसे ! तुम कमाते नहीं हो , बाकी का क्या .... ? 
कालिया - पैसा साथ नहीं जाता है । प्यार तो जन्मों - जन्मों का सम्बंध है ।
लक्ष्मी - मै, तुम्हारे साथ जाने वाली नहीं हूँ । पैसे बिना कोई जीवन सम्भव है क्या ?
कालिया - ये तुम्हारा अन्तिम फैसला है ? 
लक्ष्मी - एक दम अन्तिम ..... ।
कालिया घर से निकल लेता है । कहाँ गया है । किसी को आजतक पता चला नहीं है ।
                                          - बीजेन्द्र जैमिनी
                                         पानीपत - हरियाणा 
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क्रमांक - 032



                           जमीर


        
   
_ चोपड़ा जनरेटर की मरम्मत में तूने भी खूब चांदी कूटी।
_ जांच कमेटी में तूने लीपा पोती करने की काफी कोशिश की , पर कमेटी को तेरे खिलाफ साक्ष्य मिल ही गए।
_ सारे सबूत तेरे को अपराधी ठहरा रहे हैं।अब कमेटी ने दंड देने का फैसला मेरे ऊपर छोड़ा है। आखिर मैं इस सरकारी कंपनी का  कार्यकारी निदेशक जो ठहरा। सारी जवाबदेही तो मेरी ही बनती है।
_ जी 
_ अरे रानी, यदि साकी इतनी दूर बैठेगी,तो अंगूर की बेटी अपना रंग कैसे दिखाएगी? रानी इधर आकर बैठो हमारे पास। ताकि शराब और शबाब दोनो सिर चढ़ कर बोलें और मुझे फैसला लेने में आसानी हो! 
      साहब की आंखों के डोरे लाल होने शुरु हो गए थे। रानी को लगा कि साले हरामी का अब शिकार किया जा सकता है।
_ डियर लो अब आपके बिलकुल पास हूं, अब आपको अपने हाथ से ही पिलाऊंगी।
_ वाह अब आया मजा! शबाब के हाथ से शराब पीने का जायका ही कुछ और है!
_ वैसे एक बात कहूं डियर! 
_ कहो ।
_ अपने चोपड़ा साहब भी एकदम घोंचू है। अगर कुछ करना ही था  ,तो आपसे सलाह कर लेते । आप तो दिलवर जानी हैं ,आप मना थोड़े ही कर देते! 
_  तुमने सही कहा जानूं! 
_ तो डियर ऐसा करो ,अब इस केस को संदेह का लाभ देकर खत्म कर दो ।
   खुद ही फैसला सुनाते हुए रानी ने जाम साहब के होठों से लगा दिया।
_ जानूं , तुम्हारी बात तो माननी ही पड़ेगी! चोपड़ा तुम जाकर खाने की तैयारी करवाओ, हम दोनों अभी आते हैं।
     पीने पिलाने तक तो  सब चलता है, पर मिसेज चोपड़ा ऐसी स्थिति के लिए तैयार नहीं थीं । उन्होंने चोपड़ा की ओर देखा? चोपड़ा को भी करंट लगा। उसका सोया जमीर जाग उठा। उसने घायल शेर की तरह तड़प कर कहा, " सर, खाना तो सब साथ मिल कर ही खायेंगे। आपने जो फैसला लेना हो , कल आराम से ले लेना ।" 

   - विष्णु सक्सेना
गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक - 033



                          समर्पण




हर रोज की तरह प्रवेश द्वार पर रजिस्टर में एंट्री करते हुए ड्राइवर  राम स्वरूप को टाइम कीपर रूलदु ने कहा:" रामे, आज तुम्हारे रूट के दो ड्राइवर छुट्टी पर हैं। लाॅकडाउन में घर गये थे, लौटे नहीं। हो सकता है आज तुम्हारा रूट लंबा करना पड़े।"
" मेरा फायदा क्या?"
" डबल ड्यूटी और सौ रुपये अलग से, अगर बस सही सलामत डिपो में ले आया तो!"
" ठीक है। जैसा आप ठीक समझो।"
 वह समय पर बस लेकर निकल गया।सीट पर बैठे हुए सामने शीशे में अपनी छाती पर लगे बैज़ के धुंधले अक्स को देख रहा था ड्राइवर रामस्वरूप।  बस अपने स्टाप पर रोक दी थी उसने।कुछ  सवारियाँ चढ़ उतर रही थीं।  तभी कंडक्टर की सीटी सुनाई दी और उसने बस चला दी। आखिरी स्टाप पर पहुँच कर बस खाली हो गई। 
" रामे, एक फेरा और ले लें? अभी समय पड़ा है थोड़ा।" 
" देख लो।"
" लिखवाकर आता हूँ, तभी तो पेमेण्ट मिलेगी!"
उसने अपनी कलाई घड़ी देखी।शाम के 6 बज रहे थे।-- एक फेरा, यानि एक घंटा और, यानि 80/- अतिरिक्त मिलेंगे!--
शाम देर गये घर पहुंचा। छाती से बैज़ उतारकर थैले में रखा, और थैला मेज पर रखकर माँ को आवाज़ लगाई। 
"आ गया रामे? देर कर दी आज?"
" हाँ, एक फेरा और लगाना पड़ा।" रामस्वरूप ने जवाब दिया।
" हाथ मुँह धो ले  खाना लगा देती हूँ।"
" तूने खा लिया होगा माँ!"
" साथ ही खायेंगे।  लाती हूँ।"
दोनों खाना खाने बैठ गये। 
" माँ  छोटे का कोई खत नहीं आया। कई दिन हो गये !"
" आज ही आया है  रामे।उसे कुछ पैसे चाहिए।  फीस भरनी है और हाथ घड़ी लेनी है।"
" भिजवा देते हैं। कितने भिजवाने हैं?" रामस्वरूप ने पूछा।
" ले, चिट्ठी ही पढ़ ले।" माँ ने उसे चिट्ठी ही पकड़ा दी।
चिट्ठी पढ़ते समय रामस्वरूप सहज ही बना रहा।
" कल भिजवा देता हूँ, माँ। आप खत लिख देना।"
" अपने बारे में कब सोचेगा, रामे?" माँ ने आखिर पूछ ही लिया।
" अभी जल्दी क्या है ,माँ? एक बार छोटा सैट हो जाये  फिर सोचेंगे।
"---" माँ उसकी ओर देखती भर रही।
सुबह डिपो जाते समय उसने तय कर लिया था कि वह दो फेरे अतिरिक्त लगायेगा रोज।

- अशोक जैन
गुरुग्राम - हरियाणा

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क्रमांक - 034



                       असली मदद



"मां, आज मेरे सभी क्रिसमस ट्री हाथों-हाथ बिक गए और साथ ही सबने शाबाशी दी वो अलग। "
 -खुशी से चहकते प्रतीक ने मां के हाथों में पैसे थमाते हुए कहा। "बहुत बढ़िया प्रतीक, तुमने काम ही ऐसा किया है कि, वाह- वाही तो मिलनी ही थी।"
शान्ता ने कहा। "लेकिन मां बस एक बात का दु:ख है, सोहम का एक भी क्रिसमस ट्री आज नहीं बिका, जबकि उसने तो क्रिसमस ट्री पर मुझसे भी अधिक सुंदर सजावट की थी। आज वह उदासी को पहनकर, मुझसे मिले बिना ही घर चला गया। मां क्या हम उसकी कुछ मदद कर सकते हैं?" -प्रतीक ने पूछा।
"जरूर प्रतीक इस बार हम सौ नहीं वरन दो सौ क्रिसमस ट्री के पौधे खरीदकर उसे भी इसमें से देंगे ताकि, वह कृत्रिम पेड़ न बेंचे और अभी से पौधों का रखरखाव कर अगले पच्चीस दिसंबर के लिए बड़े पौधे बनाकर, बाजार में बेचकर, पर्यावरण में ऑक्सीजन का स्तर बढ़ाने में अपना सहयोग दे सके।" -शांता ने कहा। "बहुत बढ़िया मां आपने उसकी सबसे अच्छी मदद की है। वह बहुत स्वाभिमानी हैं, हम उसकी पैसे देकर मदद करते तो वह कभी नहीं लेता लेकिन, पौधे वह जरूर ले लेगा।" प्रतीक ने बताया।

- डॉ. शैलजा एन भट्टड़
   बैंगलोर - कर्नाटक
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क्रमांक - 035



                          केंचुली




            सुबह उठते ही सेवानिवृत्ति के बरसों बाद पहली बार उसे एहसास हुआ जैसे उसके भीतर बचपन का शरारती मन जाग उठा है।अँगड़ाई लेकर वह फिर से सो गई।उसके प्रतिदिन के उठने का समय निकल गया और वह नियत समय से दो घंटा देर से उठी। रोज़ की तरह किचन में नहीं गई।न ही उसने नाश्ता बनाया न खाना। पोता-पोती को स्कूल बस में छोड़ने नहीं गई। बाई से किचकिच नहीं की ।इसके साथ ही उसकी दिनचर्या ही बदल गई।वह बालकनी  में आकर बैठ गई।चाय पीकर समाचारपत्र और फिर अपनी पसंद  की मैगज़ीन पढ़ने लगी।आराम से नहाई- धोई, दोपहर में  टी.वी पर सीरियल देखा। शाम को पार्क में घूमने गई।सोसाइटी की हम उम्र  महिलाओं के साथ गप्प -शप्प लगाई। रात को सब के साथ बैठ कर खाना खाया।
             प्रणभ और प्रनीति के स्कूल से आने के बाद उनसे ख़ूब मस्ती की। अपने बचपन की बहुत सारी बातें साँझा कीं। वे दोनों ख़ुश भी थे और हैरान भी। घर का वातावरण कितना शांत बना रहा। अनुशासन के सारे नियम उसने ताक पर रख दिए।
रात सोने से पहले उसका मन हल्का था। चिंता रहित। उसने ज़बरदस्ती ओढ़ी जिम्मेवारियों की केंचुली को उतार फेंका था और अब वह बंधनमुक्त थी।घर के सारे काम दिन भर सुचारू रूप से होते रहे थे।
         रात उसे बेहद गहरी नींद आई।
     
- सुदर्शन रत्नाकर 
फ़रीदाबाद - हरियाणा
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क्रमांक - 036



                          धुआं



कमरे में पैर रखते ही विनय ठिठक गया।दीवार की तरफ मुंह कर के बैठा हुआ अजय धुएं के छल्ले में न जाने कहां उलझा हुआ गुम था और कमरे में धुआं ही धुआं भरा हुआ था।
 " ये क्या हाल बना रखा है", विनय ने अजय से कहा। तब वह घूमा और सुर्ख आंखों की फीकी हँसी के साथ बोला," आओ देखो ये छल्ले भी तो मेरे ख्यालों से लगते हैं।"
 "नहीं,ये तुम्हारे मन का गुबार है जो अंदर बाहर नाच रहा है।ये धुआं तुम्हें भी ऐसे ही बेवजूद कर देगा।"विनय ने कहा।
 "तू जा यार, मुझे यहीं रहने दे।ये धुआं ही अब मेरी पहचान है"।अजय ने झीकते हुए निराशा के साथ कहा।
  "नहीं दोस्त..." कहते हुए विनय ने उसके मुंह में दबी हुई सिगरेट निकाल कर ऐश ट्रे में मसल दी और बंद खिड़की के दरवाजे भी खोल दिए।कुछ ही देर मे उसने अजय से कहा"अब बता कहां है धुआं....तेरी पहचान तो उड़ गई।"
अचानक अजय उठा और ऐश ट्रे के साथ ही सिगरेट की डिब्बी भी डस्टबिन में डाल कर विनय के गले लग गया और अंदर का धुआं आंसू की शक्ल में बाहर निकलने लगा।

- पी एस खरे "आकाश"
पीलीभीत - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक - 037



                         सम्मान



सभागार पूरी तरह से भरा हुआ था। "फादर्स डे" के अवसर पर कोरोना काल में दिवंगत हुए समाजसेवियों के सम्मान में हो रहे कवि सम्मेलन में उनके परिजनों को भी सादर आमंत्रित किया गया था। उनको सम्मान स्वरूप प्रतीक चिन्ह देकर सबसे आगे की पंक्ति में सोफे पर बैठाया गया था। पिता को केंद्र में रखकर कवियों द्वारा कविताएं सुनाई जा रही थीं। एक ने पढ़ा, "बच्चों का साहस पिता, माता का शृंगार..." ख़ूब वाह-वाह हुई। दूसरे ने पढ़ा, "पिता हैं तो बच्चों के सब खिलौने हैं...." पुनः तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल गूँज गया। तीसरे ने पढ़ा, "पिता न हो तो जीवन व्यर्थ है...."। पाठ के बीच में ही कवि को माला पहनाई गई। फिर चौथे, पाँचवें, छठे, सबने एक से बढ़ कर एक रचनाएँ सुनाईं। श्रोताओं की तालियाँ बता रही थीं कि  कवि सम्मेलन बहुत सफल रहा। आयोजक भी इस सफलता पर इतरा रहे थे। आगे की पंक्ति में अपनी माँ और दस वर्षीया बड़ी बहन निधि के साथ बैठा शोभित ज़ोर-ज़ोर से तालियाँ बजा रहा था। निधि और उसकी माँ के आँसू निरंतर बहे जा रहे थे। 

- मनीष श्रीवास्तव 'बादल'
     भोपाल - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 038 



                      कल का सच



मम्मी  मै जा रही हूँ  आपकी दवा  लेती आऊँगी ,आप आज की खुराक  ले लीजियेगा वही पर रखी है....।
मिन्नी ने बैग टांगते हुए  कहा
और बाहर जाने लगी
"अरे बेटा  मै ले लूँगी तुम  अपना ध्यान  रखना ।
स्कूटी धीरे चलाना..........
और हाँ बैंक  होते हुए  आंफिस जाना,
पिंकू की फीस जमा होगी आज..."......
"ओके मम्मा लव यू .......बाय बाय."....कहकर बाहर निकल  गई.......
बाहर आकर स्कूटी  स्टार्ट  ही की थी कि पीछे से सासूमां हाथ में  स्प्रे लेकर  आई ............."अरे ये तेरा मिर्ची स्प्रे  तो रह ही गया इसे तो बैग से बाहर निकाला ही मत कर बहु."......।

  - अपर्णा गुप्ता
 लखनऊ - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक - 039



                      अब पछताए





प्रिय शैल, 
 मैंने तुम्हें बहुत दुख दिए। तुम कभी टूटी, कभी बिखरी पर हम सबको सहेजती रही चुपचाप। 
तुमने पूरे घर को अपना सर्वश्रेष्ठ दिया। छोटे भाइयों को आदमी बनाया। अम्मा, बावजी की सेवा में कोई कसर न छोड़ी। बहनों की शादी में भी एक पाँव पर खड़ी रही। बदले में मैंने...! कैसे करती थी तुम इतना सब? 
 मौत ने अल्टीमेटम दे दिया है। आज कैंसर की छटपटाहट में सब स्पष्ट नजर आ रहा है। यह भी कि तुम होती तो मेरे असहनीय दर्द और भय को बाँट लेती। 
एक करबद्ध प्रार्थना है, लौट आओ। बची जिंदगी तुम्हारी कर्जदार रहेगी। 
तुम्हारा ही निवेश
चिट्ठी को आहिस्ते से लिफाफे में डालते हुए शैल के मुँह से आह निकल गई।
'आपने समझने में बहुत देर कर दी। दिल से पुकारने में और ज्यादा। आज आपकी आँखें खुलीं? मरते वक्त सबकी आँखें खुल ही जाती हैं शायद।' 
जेनरल वार्ड में बेटे द्वारा लाए गए पत्र को मेज पर रख शैल ने  सोचा। फिर आँखें बंद कर लीं। 
"बेटा! मना कर दो। मौत ने मुझे भी...डाॅक्टर ने बस दो-चार दिन कहा है। अब कैसा मोह।"
उसके सामने तलाक के पेपर लहराए, जो उसे असुंदर और गँवार मानकर झूठ से भरे गए थे। 

- अनिता रश्मि 
 राँची - झारखण्ड 
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क्रमांक - 040



                        मूल्यांकन



आर्ट गैलरी में लगी अनगिनत पेंटिग्स की भीड़ में वो पेंटिंग बरबस ही अपना ध्यान खींच रही थी।चित्रकार की कल्पना के अनूठे भाव उस चित्र में दिख रहे थे।आसमान से गिरती हुई बूँदें   अपनी नियति के अनुसार अलग-अलग स्थान पर गिर रहीं थीं। कुछ चातक की प्यास बुझा रहीं थीं।कुछ धरती पर गिर उसे हरीतिमा प्रदान करने के उपक्रम में लगी थीं।प्रकृति के अनुपम रंगो की छटा उस चित्र में अलग ही खूबसूरती बिखेर रही थी। लेकिन अन्य चित्रों पर जहाँ भीड़ लगी हुई थी यह चित्र अकेला !
क्या एक भी दर्शक को इसकी कला समझ नहीं आई?सलौनी के कदम भीड़ से इतर उस चित्र की ओर मुड़ गये। 
"वाह! अनुपम, अद्वितीय। प्रकृति के कितने रूप। और हर रूप अनूप।"
"जी शुक्रिया। " चित्रकार ने निर्विकार भाव से कहा। 
"कलर स्कीम बहुत सटीक और सुंदर है। ऐसा लगता है ये नदियाँ बह रही हैं। ये पंछी बस बोलने ही वाले हैं।" चित्रकार अभी भी शांत था। 
"आपने बूँदों के संकेत से संगत के असर का बहुत सार्थक चित्र बनाया है।"
 चित्रकार के अधरों पर स्मित नेअब  अपनी जगह बना ली। वो कुछ बोलता उससे पहले ही सलौनी बोल पड़ी। 
"लेकिन आश्चर्य! इतने सार्थक और सुंदर चित्र पर एक भी दर्शक नहीं।जबकि हर जगह भीड़ ही भीड़ है।तुम पहली बार यहाँ आये हो क्या? "
"जी! मैं पहली बार ही आया हूँ। अभी नवोदित कलाकार हूँ। "
"तुम्हें अपनी कला की उपेक्षा देख बुरा नहीं लग रहा चित्रकार! "
"बिल्कुल नहीं! "चित्रकार के चेहरे पर अब भी वही चिरपरिचित स्मित खेल रही थी।
"ऐसा कैसे हो सकता है ? यह तो ह्यूमन विहेवियर है। "
" क्योंकि मेरे गुरू ने मुझे सच्चे प्रशंसक और प्रपंच का अर्थ भली-भाँति समझाकर ही मुझे इस जगत की आँच में पकने के लिए छोड़़ा है। वो कहते हैं अगर तुम्हारी कला का एक ही सच्चा प्रशंसक हो तो समझना तुम्हारी कला सार्थक हो गई। "
चित्र में बहती हुई बूँद सीपी के अंदर गिरी पड़ी थी जो मोती बनने की प्रक्रिया में थी।

- डॉक्टर उपमा शर्मा
यमुना विहार - दिल्ली
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क्रमांक - 041



                         छूमंतर




रेस्तरां का संगीत बदला तो चंदा
का ध्यान गाने से हटकर काउंटर की और गया।
सामने एक पुरुष बिल अदा कर रहा था ।
रोमा ने तो मुझे पहचान कर मेरी तरफ आयी, "अरे दीदी आप! क्या हाल है?"
"मैं ठीक हूं बेटा कैसा है?"
एकदम ठीक है दीदी, "उसके चेहरे का तनाव बेटे के जिक्र से गायब हो गया था वह बोली हमने उससे नैनीताल मैं बोर्डिंग स्कूल में डाल दिया है।"
"हां दीदी अचानक जैसे कुछ याद आ गया आप मेरे हस्बैंड से मिलना चाहती थी ना आइए मैं आज मिलवाती हूं।"
कहकर वह पीछे पलटी तब तक उसका साथी बिल अदा कर   उसके पास खड़ा हुआ।
मुस्कुरा कर बोली, "ये मेरे पति मिस्टर वर्मा है।"
मैं एकदम जड़ हो गई ,सामने सोमेश जी खड़े थे ।
वह भी मुझे पहचान गए थे। उनका चेहरा सफेद पड़ गया था। वह मुझे नमस्ते करते हुए तेजी से बाहर की ओर बढ़ गए। नीता ने मेरा हाथ बड़े प्यार से पकड़ कर बोली , "दीदी कभी आइए ना हमारे घर, आपके पास मेरा नंबर है,"
फिर बाय करती हुई वह कैफे से बाहर चली गयी।
मैं कांपते हुए पैरों से कुर्सी पर धम्म से बैठ गयी।
पानी पीकर अपने आप को संभाला तभी सोमेश मेरे पास आकर बैठ गया। 
"आप!" मेरे मुंह से निकला ।आज मुझे इस आदमी से बेहद नफरत हो रही थी।
जी मैं वही सोमेश हूं।
आप ऐसा क्यों कर रहे हो मेरी सखी के साथ आप शादीशुदा हैं और ऐसा नाजायज संबंध रखना आपको अच्छा लगता है क्या?
यदि आप मेरे पड़ोस में नहीं रहते और  नीता के पति न होते तो मैं आप को जेल भिजवा देती।
अब मेरे समझ में नहीं आ रहा है कि मैं पड़ोसी धर्म निभाओ या अपने सहेली का।
  तुम पहले से शादीशुदा हो अब यहां से तुम चुपचाप चले जाओ ? 
दो जिंदगी के साथ तुम खिलवाड़ कर रहे हो कैसे आदमी हो मैं जानती हूं कि आप शादीशुदा हो क्या आप की दोनों पत्नी यह जानती हैं?
"मैं समझ ही नहीं पा रही हूं कि आप किस तरह के इंसान हैं?" 
क्या करूं ? प्रश्नात्मक निगाहों से मैंने उसकी ओर देखा ।
न जाने क्या था उन निगाहों में  वह थरथरा उठा और वह स्वयं से बड़़बढ़ाते हुए उठ कर भाग खड़ा हुआ।
मुझे तो मानो सांप सूंघ गया हो...... और वह पल भर में छूमंतर हो गया। 

- उमा मिश्रा प्रीति 
जबलपुर - मध्य प्रदेश
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क्रमांक - 042 



                    सत्ता का खंजर

       


' रोटी दे दो,रोटी दे दो, कई दिन से हम भूखे हैं। एटीएम भी खाली पड़े हैं। क्या करूं, बीमार बच्चों के लिए दवाइयां कहां से कराऊँ, न पैसा है और न दवाइयां '। सिर धुनते हुए विजयवर्धन अपने मकान के बाहर चिल्ला रहा था।
      तभी पीछे से आई भीड़ भी उसकी हर आवश्यक आवश्यकता की होती हुई अनदेखियों के स्वर में स्वर मिला रही थी।
                'घंटों हो गए लाइन में खड़े- खड़े ,पेट्रोल का भाव आसमान छूने के बाद भी नहीं मिला ।शहर में सब अंधेरा ही अंधेरा है।   बीस घंटे से लाइट नहीं है । मोबाइल भी कैसे चार्ज हो'। भीड़ का धैर्य जवाब दे रहा था ।तभी कुछ लोग आगजनी करने लगे। बसें, वाहन फूंक दिए। 'सत्ता के मठाधीशों सिंहासन जल्दी खाली करो', 'जनता आती है', के नारों से बेहद गंभीर स्थिति होने लगी ।
      शंकर सिंधवे और उनके कई साथी कई दिनों तक चलने वाली इस स्थिति की चर्चा कर रहे थे तब उनमें से एक बोला-- 'जनता को तो सब कुछ फ्री में ही चाहिए । जब सरकार जनता की जवाबदेही के लिए आकंठ विदेशी कर्ज में डूब गई तो नतीजे तो हम ही भुगतेगें'।  
इसी चर्चा के दौरान दौड़ा-दौड़ा वहां हर्षवर्धन आया और बोला- 'अरे तुम लोगों को पता है, मुखिया तो भाग खड़ा हुआ और तो और आपातकालीन घोषणा भी हो गई। झेलो- झेलो, कितना दंश झेलोगे??? अब इसकी मार और सहो।

 - डॉ. रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक - 043



                      चेट - युद्ध


 


एक साहित्यिक कार्यक्रम की प्रकाशित रिपोर्ट को वाट्सएप पर फॉरवर्ड किया गया।यही रिपोर्ट समूह दर समूह वायरल होती रही । मि. रतनलाल की निगाहों में भी वह रिपोर्ट आ गई।
   रिपोर्ट पढ़ते-पढ़ते रतनलाल की दृष्टि अचानक थम गई और जुबान ने अपना काम शुरू कर दिया...
 " अरे। यह जग्गू कब से साहित्यकार बन गया, वो भी  नगर का वरिष्ठ साहित्यकार!" 
 समाचार इतना वायरल हो चला था कि बैठे - बिठाए  वाट्सएप पर दो समूह बन गए और घमासान चेट शुरू हो गई।
 एक समूह था जिसे  तथाकथित "जग्गू" को साहित्यकार मानना गंवारा न था, क्योंकि वह इस सयूह के साहित्यकारों के सामने ही मंच पर फूहड़ अधकचरी कविताएं सुनाया करता था और दर्शक उसका मजाक बनाया करते थे।इस बात को कोई ज्यादा समय नहीं हुआ।
  इस बात में झूठ की रत्ती भर भी गुंजाइश न थी कि आयु से वह वरिष्ठ था, पर साहित्य की उसे जरा भी सयझ नहीं थी।
  भला.हो प्रिंट मीडिया का जिसने इस पर कभी गौर नहीं किया।शायद समाचार किसी गणमान्य व्यक्ति की पहुँच के माध्यम से उन तक पहुंचता था।
इस चेट- युद्द के दौरान अचानक
किसी सज्जन की ओर से  रोज से हटकर एक पोस्ट दिखाई दी।
  " अरे भाई साहब।आप या आपका विपक्ष कोई भी यदि यह बताने का कष्ट करे कि एक साहित्यकार के क्या - क्या मानदण्ड होते. हैं,तभी न मैं साहित्यकार बनने का प्रयास करूं।मैं नहीं चाहता कि मेरे नाम पर.भी ऐसा बवाल हो।"
 
 - डॉ. चंद्रा सायता
       इंदौर - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 044



                            फंदे




मां! बताओ कैसा लग रहा है? चौदह साल की रीना ने आंगन में बैठी मां को स्वेटर पर एक टेडी बेयर की डिजाइन बनाकर दिखाते हुए कहा।
वाह! मेरी लाडो तो होशियार हो गई है। कम से कम तेरे सासरे वाले ताने तो नहीं मारेंगे मुझे। मां ने हंसते हुए कहा।
अचानक रीना के स्वेटर बुनते हाथ रुक गए।
क्या हुआ छोरी? कैसे रुक गई? मां ने पूछा।
कुछ नहीं मां, कुछ फंदे उलझ गए। उन्हें सुलझा रही हूं। रीना ने मुस्कुराते हुए कहा।
सुन, रीना की मां! कल छोरी को स्कूल मत भेजना। छोरे वाले देखने आ रहे है इसे। रीना के बापू ने आंगन में आते हुए कहा।
नहीं बापू, मुझे अभी शादी नहीं करनी। अभी से इस फंदे में उलझ गई तो भविष्य के सपने कैसे बुनूंगी। स्वेटर के फंदे सुलझाते हुए रीना ने कहा और अंदर चली गई।

- अजय गोयल
गंगापुर सिटी - राजस्थान
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क्रमांक - 045



                      नीवं के पत्थर 




प्रोफेसर मैनन प्रिया से बात करके बड़े खुश व उत्साहित नजर आ रहे थे ।
" आज तुम दोनों को यहाँ देख कर बहुत अच्छा लग रहा है," मैनन बोले । 
"दुनिया में लोग अपने माता पिता के लिए कुछ नहीं कर पा रहे और तुम लोगों ने इतना सोचा तो अच्छा लगा," मैनन संतुष्ट स्वर में बोले ।
प्रिया और सुमित माँ की बरसी पर वृद्धाश्रम में दान पुण्य हेतु गए थे ।
प्रोफेसर साहब अपनी आपबीती बताने लगे वह आई.आई.टी. कानपुर में एक वैज्ञानिक हुआ करते थे उन्होंने बहुत सारे सिद्धांतों का प्रतिपादन किया जब तक हाथ पैर चले रिसर्च वर्क से जुड़े रहे । वह अपने कार्य क्षेत्र के विषय में एक लय में बताते जा रहे थे ।
" आपके परिवार में और कोई नहीं है क्या," प्रिया ने पूछा ।
"नहीं.. नहीं.. मेरे दो बेटे हैं.. बहुत बड़ी-बड़ी पोस्ट पर हैं ..दोनों विदेश में है ,"मैनन साहब की बूढ़ी आँखों में चमक आ गई वह गर्व से बता रहे थे ।
" हमारा घर मकान सब रिश्ते नातेदारों ने छीन लिया और मैं यहाँ आ गया.. अकेला जाता भी कहाँ,"मैनन साहब बोले ।
"आपके बेटे आप को साथ नहीं ले गए ,"प्रिया ने दबी जबान में पूछा ।
"अरे !बेटा वह सब अपनी जिंदगी में बहुत व्यस्त है.. किसके पास समय है कि वह मेरी देखरेख कर सके.. वह भी सब मजबूर हैं ,"मैनन साहब बच्चों का पक्ष लेते हुए बोले ।
प्रिया सुमित चलने लगे तो मैनन साहब कहने लगे," अरे! आप लोग कुछ देर और रुकते.. अच्छा लग रहा था बात करके ।
" जल्दी ही आते ..अभी कहीं आवश्यक कार्य से जाना है ,"प्रिया ने कहा और नमस्कार करके बाहर निकल आयी ।
"कैसे बच्चे होते हैं जो जीते जी माता-पिता को इस हाल में छोड़ देते हैं । वह भी उनको जो नींव के पत्थर हैं जिन पर आज उनकी हैसियत की इमारत खड़ी है.. समझ नहीं आता," प्रिया भारी मन से बोली ।
" यह दुनियादारी है ..तुम ज्यादा न सोचो..कल किसने देखा है ,"सुमित ने गाड़ी स्टार्ट करते हुए कहा ।
वृद्धाश्रम बहुत पीछे छूट गया था और बातें दिमाग में जगह बना रही थीं। 

- सीमा वर्णिका 
कानपुर - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक - 046



                     बी प्रेक्टिकल

              

         
  "क्या रोता है  बे,  बच्चों जैसा?"विवेक को  समझाता हुआ मैं बोला,"देख ,तेरे साथ बहुत बुरा हुआ पर क्या किया जाए अब?भाभी वापस तो आ नही सकती अब?आगे की देख। बी प्रेक्टिकल यार।चल बड़े साब के यहाँ चलते हैं उनका आज बर्डे है।कम ऑन।बी प्रेक्टिकल।"
   "क्या करूँ यार ,दो महीने हो गए हैं उसे गए पर रोज़ ही..."
" अरे फिर,फिर...कहा न भूल जा अब वो पुरानी बातें,चल उठ,बी प्रेक्टिकल यार ।"
   सहमति में गर्दन हिलाते हुए विवेक ने आँसू पोंछे ,कपड़े बदले  और हम हार -फूल लेकर चल दिये अपने एच. ओ. डी. साहब के यहाँ।
   पर ये क्या?हमें देख साहब रोने लगे ,तीन वर्ष पूर्व स्वर्गवासी हुई अपनी पत्नी की याद में।
  "क्या करूँ यार ,मन ही नही लगता कहीं मेरा ।"हमारे कंधों पर हाथ रखते हुए वे रो पड़े।,"वो होती आज तो..."
  "बिल्कुल सही सर।"बोलते हुए मेरा भी गला भर आया,,"आपकी पीड़ा,आपका दुःख देखा नही जाता हमसे ..."कहते-कहते मैंने  जोरों से हिचकी ली और चेहरा छिपाने के लिए रुमाल में पनाह ली।
   वापसी में विवेक सहज ही मेरी ओर देखने लगा तो उसकी नज़रें मुझे आरोपी सी लगीं,और मैं अनायास ही सफाई पेश करने लगा," क्या करूं यार?यूँ तो हँसी आ रही थी कि ...तीन साल हो गये ,अब क्या रोना धोना... पर क्या करें?दिखावा तो करना पड़ता है रोने का,दुःख का। वो साहब हैं यार अपने। वो हँसे तो अपने को हँसना है वो रोए तो अपने को भी रोना ......."
   "अरे!तो मैंने कुछ कहा क्या तुझे?"विवेक हँसता हुआ बोला,"चलता है यार,बी प्रेक्टिकल।"

    -सन्तोष सुपेकर
      उज्जैन - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 047



                       मैं मां हूं मां

        

        
          बिशेसर लाल पिछले तीस सालों से एक कारखाने में बारह घंटे की ड्यूटी करता आ रहा था।
          छुट्टी के नाम पर कभी होली-दीवाली थी।
          अब उसके बच्चे भी बड़े हो गए थे। उनका बड़ा बेटा सरकार नौकरी में एक अधिकारी के तौर पर उसी शहर में लग गया था, जिस शहर में बिशेसर लाल अपने परिवार के साथ रहता था। अभी उनके बेटे को ड्यूटी पर जाते दो चार दिन ही हुए थे। 
           रात को जब सभी खाना खा रहे थे, बिशेसर लाल की पत्नी ने कहा बेटा आठ घंटे की ड्यूटी में काम करते करते थक जाता होगा। यह सुनकर उसके पति ने कहा मैं पिछले पच्चीस साल से तुम्हारे सामने बारह घण्टे ड्यूटी करता आ रहा हूं, तुमने मुझे से तो कभी नहीं पूछा।
          इस पर बिशेसर लाल की पत्नी ने कहा "मैं मां हूं मां"।
                  -   शुभकरण गौड़
                    हिसार -हरियाणा
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क्रमांक - 048 



                          मंगरी




“इस बार महीना मिली ना छौवी त बतइबे..”
“माई ,फिर छौवी बोली कितना बार बोली हूँ मेरा नाम लेकर पुकारा कर।”मंगरी हमेशा की तरह अपनी माँ पर नाराज़गी जताई ।उसे छौवी पुकारा जाना ज़रा भी नहीं सुहाता था।
“अच्छा बताओ पैसा क्यों चाहिए?”मंगरी ने अपनी माँ से पूछा।
उउउउउ …”
“बता क्या छुपा रही है माई”
“कुछो नहीं रे अगिला  ऐतवार को बाबू तोरे वास्ते लड़का वाला को बुलाए हैं…अउर देख न दू महीना से सिलेंडर ख़ाली पड़ल हऊ।बरसात भर गैस ही जलावे  के पड़ी…।लकड़ी का दाम भी तो आसमान छू रहा है।
बेस छौवा है…इंटर लिख रहा है।”मंगरी की माँ ने कहा।
मंगरी, एक लोटा पानी लाव…बाबू की आवाज़ को अनसुना कर मंगरी माई पर बरस पड़ी।
“का हल्ला गुल्ला मचावत हव मंगरी? पानी माँग रहल हई  सुनावत नाही…?”
“आप भी तो आँख कान बंद किए हो बाबू !
हम रात दिन घर में जूठा माँज कर चार अक्षर पढ़ना चाह रहे हैं और आप मेरी शादी करवा रहे हैं।बड़की दीदीया का बियाह किए थे न जल्दी …दू साल से घर पर बैठी है ना !दू गो को गोदी में लेकर…?मंगरी ने बाबू को रोते हुए कहा।
बड़की ने भी मंगरी का पक्ष लिया।
मंगरी के बाबू पर अपनी बड़ी बेटी के समझाने का असर हुआ।
दृढ़ संकल्प से मंगरी ने सिलेंडर भी भरवाया और साथ ही मैट्रिक का फार्म भी भरा।फार्म में मोटे -मोटे अक्षर में अपना नाम ‘मंगला ‘लिख कर मंगरी ने सब मंगल करने की धुन में अपना आसमान अपने ढंग से नापने के लिये पंख फैला दिए थे।

- सविता गुप्ता
राँची - झारखंड
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क्रमांक - 049



                         आपत्ति


         
     
कोहरा के कारण अभी भी रात प्रतीत हो रही थी। राजाराम की नींद खुल चुकी थी , किंतु उसे उठने की इच्छा नहीं हो रही थी। कुछ गर्माहट- सी महसूस हुई तो उसने आँखें खोल। बदन पर नया कंबल देख, वह चौंक गया। उसे कल की बात याद आने लगी  गुदड़ी में लिपटे रहने पर भी  ठंढ  में  कांप रहा था। टायर के टुकड़े और बची हुई लकड़ी को जला कर  अलाव सेंक रहा था। तभी लखिया ने लिहाफ की चर्चा की तो वह ताना मारते हुए कह दिया -" रानी बनने का ख़्वाब मत देख, मैं नाम का राजा हूँ, कोनों सच्चो का राजा नहीं हूँ जो तुझे लिहाफ लाकर दे दूँगा।"      
लाखिया कुछ कहना चाह रही थी पर वह इतना कुछ कह गया कि वह चुप रह कर खाना निकालने लगी थी। 
खाना क्या था दिन की रोटी और मालकिन के यहाँ की बची सब्जी जो लखिया काम पर से आते वक्त ले कर आई थी। सब्जी बड़ी ही स्वादिष्ट थी। खा कर मन तृप्त हो गया था उसका। खा कर अलाव में हाथ पैर सेंक कर वह उसी गुदड़ी में लिपट सो गया था। 
       अभी बदन पर इस नई कंबल को देखते ही वह चौंक गया और आँखें तरेर कर लाखिया की ओर देखा। क्रोध में मुख खुला ही था कि लखिया ने उसे चुप कर दिया यह कह कर कि जिस मालिक के यहाँ उसे अगले सप्ताह से डराइवरी के लिए जाना है उन्होंने ही कल रात यह कंबल उसे खुद अपने हाथों से ओढ़ाया है।
लाखिया की यह बात सुन वह और भी भड़क गया कि रात के अंधेरे में चुपचाप वह कंबल उनसे क्यों ले ली। उसे क्यों नहीं उठाया ?
             प्रश्न पर प्रश्न के बौछार पर जवाब सुनने को मन तैयार नहीं। हर प्रश्न पर सशंकित जवाब खुद ही तैयार कर  भड़क उठता। लखिया अपमानित सा महसूस कर सामने से हट जाना चाह रही थी। लपक कर उसका हाथ पकड़ लगभग चिल्लाते हुए बोल पड़ा -" फेक दे ई कंबल। जोन दिन खरीदे के औकात होई ओहि दिन ओढ़िहे। श्यामलाल के बीबी से बहिनपा मत बढ़ाव। अइसन भीख ना चाही। "
इस बार हिम्मत कर लखिया उसका हाथ झटक कर भरसक चिल्लाते हुए बोली - " का जी रात में मलकिनी के घर के सब्जी साथ रोटी चटकारा दे के खा लिए। खाली दू फांक आलू  हमरे लिए छोड़े और अब हमरे गाली देते हो..?"
" ओहि श्याम लाल के बीबी के कहे से  नौकरी मिलल , औ ओकरे सौ गो गाली। रात में जा के एक पौवा चढ़ा लिए थे का?"
राजाराम सर झुका शर्मिंदा सा थोड़ी देर खड़ा रहा, फिर निढाल हो वहीं धम्म से बैठ गया और धीरे से बोला -
" का रे पगली ! गरीब का कोनो इज्जत नहीं है का ?  कोइयो दान पुण्य कर के रात में इज्जत उघाड़ देगा और हम सर झुकाए खड़े रहेंगे। बोरिया बिस्तर बांध और गाँव चल। "  
लखिया का कोई दलील उसे नहीं भाया। क्षण में उसकी झुग्गी उजड़ गई।

- प्रियंका श्रीवास्तव 'शुभ्र '
    पटना - बिहार
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क्रमांक - 50 



                      जीवंत प्राणी 




स्वतंत्र विचारों वाली मासूम सी ख्वाहिश, जो अभी-अभी बाल्यावस्था से किशोरावस्था में पंहुची थी। एक दिन वह जैसे ही बिल्ली घर लेकर आयी,मां उसे आड़े हाथों लिया_
"बिल्ली घर में नहीं पालते!" 
"पर! क्यों मां?"
"पुराने जमाने से यही कहते आ रहे हैं कि कुत्ते वफादार होते हैं, बिल्ली नहीं।"
"किसी ने बिल्ली पालकर देखा है कभी! महज़ अंधविश्वास है यह!"
"फ़ालतू बहस न कर, इसे जहां से लाई है वहीं छोड़ आ।"
"नहीं ,मैं इस अंधविश्वास के चक्कर में नहीं फंसती। इस नन्ही सी जान को देखो मां, इसका कसूर बस इतना है कि यह एक बिल्ली है। इसमें भी तो प्राण बसते हैं, इसके भी तो पेट लगा है, फिर इतना वैर-भाव क्यूं?
इतना कह रीमा अपनी प्यारी बिल्ली को गोद में उठा बहुत प्यार करने लगी। "यह भी तो भगवान की बनाई जीवंत प्राणी है आखिर!"
मां के पास अब उसकी बात काटने हेतु शब्द नहीं थे।

- नूतन गर्ग
   देहली
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क्रमांक - 051 



                         धूमकेतु



ध्रुव का रिपोर्ट कार्ड पत्नी को थमाते हुए पतिदेव ने कहा ९०% मार्क्स आये हैं । किस कालेज में और कहाँ एडमिशन कराना है 
ये ध्रुव से विचार विमर्श कर बता देना । 
पत्नी ने पुछा - और धूमकेतु के मार्क्स? वो इस बार भी फ़ेल हो गया , अब उसे किसी अच्छे कालेज में एडमिशन नही मिलेगा  उसे अब से नानी के घर ही रहने दो , वहीं प्राईवेट परीक्षा देगा । केवल ध्रुव को वापस बुला लो ।
 धूमकेतु को अपने रिज़ल्ट का अहसास तो पहले से ही था । पढ़ाई की वजह से हीन भावना से ग्रसित अपने आप में खोया रहता । माँ का प्यार भी उसकी कमियों को ढाँक नहीं पाता । 
वो अक्सर छुट्टियों में नानी के गाँव आ जाता , नानी ही उसका प्यार भरा सम्बल थी । नानी ने अपनी गायों का नाम कारी, गोरी मोहनी और डागी का नाम शेरू, ब्लेक़ी रखा था । 
धूमकेतु ने इन्हें ही अपने रोज़गार का ज़रिया बना लिया था । उधर माता पिता ने अपनी सारी पूँजी ध्रुव की उच्च शिक्षा के लिए विदेश  भेजने में लगा दी । नानी के बीमार होने पर जब माता पिता नानी को देखने आये तो धूमकेतु में अदम्य साहस विश्वास देख माँ ने नानी से कहा - अम्माँ हमारे धूमकेतु की चमक को तो आपने ही निखारा है । नानी ने हँसते हुए कहा - ये  बीमारी तो एक बहाना है ।
ताकि तुम्हें यहाँ बुला कर धूमकेतु के छोटे से साम्राज्य की चमक दिखाने दे सकूँ।  वरना तुम दोनो अपने कामों में डूबे कहाँ आते, अब बताओ , इस धूमकेतु की चमक किसी सितारे से कम है क्या?  

- अनिता शरद झा 
   रायपुर - छत्तीसगढ़
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क्रमांक - 052 



                           गिद्ध



प्रज्ञा अपने कक्ष में बैठी अपने मातहतों की कानाफूसी सुन रही थी।
"अरे आज तो रिकॉर्ड ही टूट गया भाई। अखबार की पूरी बीस हज़ार प्रतियाँ बिक गईं।"
"छापते तो रोज़ इतनी ही थे, लेकिन तीन-चार हज़ार से ज़्यादा कभी बिकी हो, याद नहीं पड़ता।"
"ऐसे ही बिक्री होती रही तो सबको पुराना वेतन भी मिल जायेगा और शायद बोनस भी मिले।"
"प्रज्ञा मैडम का कर्ज़ भी चुकता हो जायेगा और हालत भी सुधर जायेगी। दो ही सलवार-सूट में देखते महीनों बीत गये यार।"
"अरे अब तो मैडम शादी भी कर लेंगी, देखना।"
तभी एक आवाज़ बड़े जोर से आई, "ये सब हुआ किसकी वजह से? न आपका सेवक शर्मा वह फ़ोटो खींच के लाता, न वह छपती और न ही सारी प्रतियाँ बिक पातीं।" 
सब ने हिप-हिप-हुर्रे कह कर खुशी जाहिर की।
प्रज्ञा ने एक नज़र मेज पर पड़े अख़बार को देखा और घण्टी बजा कर चपरासी के हाथों शर्मा जी को बुलवा भेजा।
शर्मा जी खींसे निपोरते हुए कक्ष में दाख़िल हुए। प्रज्ञा ने कहा, "क्यों शर्मा जी, एक दिन मैं बीमार क्या पड़ी, आपने तो अख़बार की बिक्री दोगुनी कर दी?"
शर्मा जी ने मुस्कुरा कर कहा, "मैडम, हम जानते हैं आपने हमें क्यों बुलवाया है। बताइये, पदोन्नति दे रहीं हैं या वेतन-वृद्धि?"
प्रज्ञा की आँखों में अंगारे उभर आये, "शर्मा जी, जब आपने यह तस्वीर खींची, तो कमरे में आप और वह लड़की दो ही लोग थे न?"
शर्मा जी ने तुरन्त उत्तर दिया, "बिल्कुल मैडम। सबसे पहले हम ही पहुँचे थे। वरना फ़ोटो कोई और न खींच लेता?"
प्रज्ञा ने अगला प्रश्न दाग़ा, "जब फ़ोटो खींची गई तो लड़की को पानी व तन ढँकने के लिये एक चादर की ज़रूरत थी न?"
शर्मा जी ने थूक निगलते हुए कहा, "पर मैडम, वो सब देते तो इतनी सनसनीखेज फ़ोटो नहीं आती न?"
प्रज्ञा की आँखों में मानो खून उतर आया,  "अखबार की बिक्री और अपनी उन्नति के लिये आपने उन भेड़ियों से भी जघन्य अपराध किया है शर्मा जी। मैं आपको इसी क्षण नौकरी से बर्ख़ास्त करती हूँ।" 

- राजेन्द्र पुरोहित
जोधपुर - राजस्थान
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क्रमांक - 053 



                    डोंगा भर मटर


           
सुखदा वरामदे में चौकी में बैठी मटर छील रही  थी। पारस वर्दी पहन तैयार हो वहाँ आया। उसने एक नजर मटर छीलती बडी बहन सुखदा पर डाली,फिर  अपनी पत्नी राधा को आवाज लगाई,
 "जल्दी से मुझे कुछ खाने को दे दो..इस माह की नई पत्रिकायें आ गई है.. वितरण को जाना है..!"
 "ला रही हूँ..मेरे कोई चार हाथ नहीं है..!"
 राधा थाली में रोटी और आलू मटर की सब्जी लाती झनझनाती हुई बोली। फिर उसने सुखदा को देखकर तनतनाते हुये कहा,
"दीदी, आपने अभी तक एक डोंगा मटर भी नहीं छीले..जरा जल्दी हाथ चलाया करें..!"
पारस ने सुखदा की ओर देखा, सुखदा ने एक डोंगा मटर छील रखा था डोगा भरने में कुछ ही कमी थी। सुखदा का भावहीन चेहरा निरुत्तर मटर छीलने में गतिशील था मानों राधा के कटाक्ष का अब असर होना बंद हो गया हो।
"वो आपकी लाडली बेटी रिया कह रही थी.. उसे अपने विषय में कुछ परेशानी हो रही है.. वह उसके लिये अलग से ट्यूशन.. नहीं..ट्यूशन नहीं.. कुछ और बोली थी.. को..हाँ.. कोचिंग.. लेना चाहती है.. लेकिन कह रही थी ..कोचिंग थोडा मँहगा पडेगा..मैने कहा पहले अपने पापा से पुछ ले..!
राधा ने रोटी डालते हुये कहा
"इसमें पुछना क्या.. दिक्कत हो रही है तब कोचिंग लेना ही पडेगा..उसे कहना अच्छी तरह देख भाल कर.. सही जगह से कोचिंग ले ले..पैसे की फिकर ना करे..!"
पारस ने खाना समाप्त करते हुये कहा। 
"पैसे की फिकर क्यों ना करे..पैसे कहाँ से आयेगे.. आपको तो बस हुकुम चलाना आता है..मैं कैसे घर चलाती हूँ..मैं ही जानती हूँ..!"
राधा थाली उठाती पैर पटकती रसोई में जाती हुई बोली।
"पारस..इतने अच्छे और महँगे कॉलेज में बेटी को पढा़ रहा है..किताब कापी का खर्चा अलग ..अब अलग से कोचिंग भी करायेगा.. इसका खर्चा अलग..राधा  गलत नहीं बोल रही है.. खर्चा बढ़ जायेगा..फिर लडकियों को कितना भी पढा़ लिखा लो..आखिर में तो रसोई के ही काम तो करने है..!"
सुखदा ने पारस से कहा,
"हाँ दीदी..काम तो रसोई के करने पडेगे..पर इज्ज़त से..वह भी अपने घर में.. और अगर कभी बदकिस्मती से.. जीवन अकेले गुजारना भी पडे.. तब वह आत्मनिर्भर बनी रहे..किसी के घर डोंगा भर मटर छीलने पर.. कोई यह  ना कह सके .. अभी तक पुरे मटर नहीं छीले.. जरा जल्दी हाथ चलाया करे..!"
इतना कह पारस साइकिल में सवार हो निकल गया सुखदा अपने भाई के कहे गये वाक्यों में अपने जीवन को तौलने लगी.......!

-  डॉ.विभा रजंन कनक
     दिल्ली
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क्रमांक - 054



                      नौसेना दिवस




आज फिर मिसेज आहूजा मुंबई में समंदर किनारे जाकर बैठ गई थीं। वहां नियमित सैर को आने वाले, खोमचे लगाने वाले और अन्य लोग उन्हें वहां पिछले कई दिनों से नियमित आते देख रहे थे। वे आतीं और यहां दरिया किनारे घंटों बैठी रहतीं। न वे किसी से बोलतीं, न बात करतीं और न ही कोई सैर सपाटा करतीं। वे तो बस शांति से बैठ कर समंदर में दूर तक देखती रहतीं जहां तक उनकी नज़र जा सकती थी। जब भी दरिया में दूर कोई जहाज दिखाई पड़ता तो उनकी आंखों में एक प्रकार का इंतजार और प्रसन्नता झलकने लगती थी। उनको यूं बैठा देख कर लगता था जैसे कि वे किसी का बेसब्री से इंतज़ार कर रही हों। वहीं नियमित सैर को आने वाली एक लड़की सोनम, पिछले कुछ दिनों से इन वयोवृद्ध महिला को वहां आते और घंटे बैठते देख रही थी। जब उससे एक दिन नहीं रहा गया तो उसने मिसेज आहूजा से पूछ ही लिया कि आखिर वह यहां इस तरह आकर घंटों क्यूं बैठी रहती हैं। पहले तो मिसेज आहूजा ने कुछ ध्यान नहीं दिया मगर कुछ देर बाद उन्होंने सोनम को बताया कि उनका एकमात्र लड़का सुमित नौसेना में बड़ा अधिकारी है और नौकरी के सिलसिले में उसे महीनों घर से बाहर दरिया में रहना पड़ता है। वैसे तो वह साल में एक बार उनसे मिलने आता है मगर इस बार नहीं आया। एक मर्तबा जब फोन पर बात हुई तो सुमित ने बताया कि मां मैं तुमसे नौसेना दिवस मनाने के बाद ही मिलने आ पाऊंगा क्यूंकि इस बार हम नौसेना दिवस भारत में ही मनाने वाले हैं। मिसेज आहूजा को यह पता नहीं था कि नौसेना दिवस कब आता है। जब सोनम ने बताया कि नौसेना दिवस तो कल ही है तो यह सुनकर मिसेज आहूजा की आंखों में चमक आ गई और वे दरिया में इस तरह देखने लगीं मानो कि सुमित अभी उनसे मिलने आ रहा हो।

- प्रो डॉ दिवाकर दिनेश गौड़
      गोधरा  - गुजरात
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क्रमांक - 055 



                          विभत्स




टीवी चल रहा था, कोई समाचार चैनल लगातार आवाज की आक्रमकता के साथ  दुखद समाचार चटपटे चाट मसाले सा परस रहा था,, मैं अपने   घरेलू कार्यों में लगी थी।कुछ सुनती सी और कुछ अनसुना अनदेखा सा करती मैं अपने काम कर रही थी,
 न्यूज़ के बाद कार्टुन चैनल के वादे की आस में लगभग आठ बरस की मेरी छोटी भतीजी आंखे गड़ाये बैठी थी। भोली भाली सी किन्तु बड़ी पैरी मोहक सी भतीजी जल्दी ही सबका ध्यान आकर्षित कर लेती है।
अचानक उसने पूछा!  बड़ी माँ ये बलात्कार क्या होता है? क्यों होता है?
मैंने तुरन्त पलट कर उसकी तरफ़ देखा! उसके हाथ में रिमोड था और वह बड़ी तल्लीनता के साथ उस न्यूज़ चैनल पर आ रहे समाचार को देख रही थी स्क्रीन पर दिखाए जा रहे एक बालिका शव के क्षत विक्षत शरीर के धुंधलाये चित्र को गौर से देखने का प्रयास कर रही थी। मैं मानो हड़बड़ा गयी और तुरन्त उसके हाथ से रिमोड लेने का प्रयास किया किन्तु इसी बीच बच्ची ने दुबारा वही प्रश्न किया। यक्ष प्रश्न!
मैं चुप.....
बच्ची इतनी भी बड़ी नही की इस शब्द की वीभत्सता उसे व्यक्त कर सकूँ, की इस विभत्स कृत का सच आंक सके वह।
और वह इतनी छोटी भी नही की इस शब्द और उसको व्यक्त किये जा रहे समाचार की वीभत्सता को वो ना समझ सके.... और प्रत्येक चेनल जिस तरह जोर शोर से चींख चींख कर शव के दृश्य दुहराता हुआ मृत बालिका शरीर का बार-बार बलात्कार कर रहा था वह मुझे अंदर तक हिलाने को काफी था।
रिमोड ले मैं चैनल बदलने का प्रयास करती हूं, किन्तु टीवी पर ढेरों चैनलों के हुजूम में आज होड़ सी मची है कौन कितनी बार उस पीड़िता के साथ शब्दों से बलात्कार कर सकता है। और उस शव बन चुकी आत्मा को और कितनी बार छलनी कर सकता है।
आज कल न्यूज़ चैनलों के बीच प्रतिस्पर्धा चलती है कि कौन कितने चटखारे लगा कर और कितने बाज़ारीकरण के साथ समाचार परोस सकता है।
अब मैं समाचार ध्यान से देखने और समझने का उपक्रम करती हूं।
हां उस बालिका के साथ उसके ही किसी करीबी किसी अपने ने दुष्कर्म किया तथा अपने कृत को छुपाने के प्रयास में जघन्य हत्या कर दी। 
 मैं कहीं गहरे तक आहत हुई,
बहुत पीछे कहीं बचपन की तरफ मेरा दिल मुड़ता सा गया और एक ख़ास रिश्ते से जुड़ा सफेदपोश सा भयावह चेहरा याद कर कांप जाती हूँ।
मैं प्यार से अपनी भतीजी को गले से लगा लेती हूं उसके माथे पर सुरक्षा का चुम्बन अंकित करती हूं।  काश यह चुम्बन कभी किसी ने  मेरे माथे पर अंकित किया होता मुझे सुरक्षित महसूस कराने को।
प्रत्यक्ष में बस इतना ही कहती हूँ,
बेटा बलात्कार एक गन्दा खेल है जिसे कुछ कमजोर लोग खेलते है क्योंकि वे अपने अंदर के सच अपनी कमजोरी से डरते हैं। इस लिये अपने से कमज़ोर पर अपनी जबरदस्ती थोपते हैं।
मेरी बच्ची तुम कभी कमज़ोर मत बनना। सच्चा इंसान कभी कमज़ोर नहीं होता, भतीजी असहजता से मुझे देखती है। मुस्कुराते हुए मैंने रिमोड से चैनल बदल दिया, 
 हम दोनों अब साथ बैठ कर टीवी देख रहे थे क्योंकि अब वहां पर मेरा भी फेवरेट कार्टुन आ रहा था और मन ही मन मैं दृढ़ विचार गढ़ रही थी कि अब समय आ गया है इसे बैड टच और गूड टच के बीच अंतर सिखाने का। समय आ गया है इसके स्वाभिमान की उम्र बढ़ाने का।
मैंने कार्टून के साथ प्रति पल सहज होती प्यारी सी लाडली के पेट मे गुदगुदी सी की और हम खिलखिलाते है 'ऑगी एंड द कॉकरोचेस' देखने मे व्यस्त हो गए।।
         
- सारिका चौरसिया
मिर्ज़ापुर -उत्तर प्रदेश
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क्रमांक - 056



                           बीजक



 हरीनाम एक प्रसिद्ध कबीर पंथी थे अपने काम में पारंगत भी तीन बेटी दो बेटो का पालन पोषण शिक्षा , शादी, विवाह करते करते अब उम्र अधिक हो चली थी ।अशक्त होने के कारण काम बन्द कर दिया था, पत्नी के मरने पर वह परिवार को बोझ लगने लगे थे । खाना पीना भी ठीक से नहीं हो पा रहा था । बड़ा बेटा बाहर रहता था उसने घर आकर जब पिता को देखा तो साथ ले गया ,बहू के सेवा करने से हरीनाम जब एक दम स्वस्थ हो गये तो बेटे से कहा समय काटने के लिए एक दुकान कर ले ,मै देख लूंगा बेटे ने विचार करके घरेलू सामान की दुकान खोल ली। कुछ समय में ही दुकान बहुत अच्छी चलने लगी जब यह बात छोटे बेटे को पता चली तो उसे अपनी करनी पर पछतावा हुआ। अब हरीनाम का जीवन बहुत आराम से बीत रहा था दुकान पर जब खाली समय मिलता तो वह बीजक का अध्ययन करते हुए बीतता, हरीनाम बहुत खुश थे ।वह प्रभु से प्रार्थना करते कि सभी का बुजुर्गो का जीवन खुशी से व्यतीत हो! 

- डॉ. प्रमोद शर्मा प्रेम 
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक - 057



           टुकुर- टुकुर ताकती दादी




जब निर्मला दादी बनी तो वह बहुत खुश थी | कथा- कहानी बहुत आती थी निर्मला को |          
   जब पिंकू कुछ बड़ा हुआ तो उसकी दादी उसे कहानी सुनाने का प्रयास करती थी |
     निर्मला चाहती थी कि पिंकू उसके गोदी में बैठकर उनसे कहानी सुने |
      लेकिन पिंकू टी. वी. के निकट जाकर कार्टून देखने में मशगूल हो जाता था |
     जब पिंकू चार वर्ष का हुआ तो वह स्कूल जाने लगा था | वह सुबह से स्कूल जाने की तैयारी में लग जाता था | स्कूल बस में मस्ती करते हुए वह स्कूल में पहुँच जाता था | स्कूल से आने के बाद थोड़ा आराम करता और उसके बाद होमवर्क में जुट जाता था पिंकू |
     निर्मला टुकुर- टुकुर ताकती रह जाती थी | दादी तरस जाती थी कहानी सुनाने के लिए |
        मन ही मन वह सोचती- " पिंकू को मेरे लिए थोड़ा भी समय नहीं मिलता है |"
     आखिर क्यों ?बच्चे दादी से कहानी नहीं सुनते हैं | कितना व्यस्त हो गया है आज के बच्चे |
    अपनी दादी से दूर होते जा रहे हैं बच्चे | निर्मला भी समय के साथ समझौता कर धीरे- धीरे कहानी भूलती जाती है और केवल अपने पोते पिंकू को टुकुर- टुकुर ताकती रह जाती है |  

- डॉ. सतीश चन्द्र भगत
दरभंगा - बिहार
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क्रमांक - 058



                   उजड़ा चमन 



नेहा के पति रामेश्वर का साड़ी का होलसेल का बिजनेस था। बिजनेस फल-फूल रहा था। नेहा की चार वर्षीय लड़की थी-तान्या। नेहा दूसरी बार गर्भवती हुई तो पति-पत्नी ने सोचा कि भ्रूण परीक्षण करा लेते हैं। शहर के बड़े नर्सिंग होम में पहुंच गए थे। रिपोर्ट में पता चला कि लड़की है। काफी विचार के बाद नेहा ने एबार्शन करवा लिया। इसी दौरान नेहा को कॉम्प्लीकेशन हुई तो डॉक्टर ने नेहा को बताया कि अब वह मां नहीं बन पाएगी। जब वे शहर से घर लौट कर आए तो मालूम पड़ा कि रामेश्वर के साड़ी के शोरूम में आग लग गयी थी। नेहा और रामेश्वर फूट-फूट कर रोए। नेहा को इस बात का एहसास हो गया था कि भ्रूण हत्या कराने से उसकी कोख ही नहीं उजड़ी वरन् उनकी खुशियों का चमन भी उजड़ गया था।

- प्रज्ञा गुप्ता
बाँसवाड़ा - राजस्थान
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क्रमांक - 059



                     ड्योढ़ी


 

बस गाँव के अंदर तक नहीं जाती थी, सो गाँव से पाँच किलोमीटर दूर सड़क पर ही निम्मी और उसकी दादी बस से उतर गईं।बिसना (गाड़ीवान)बैलगाड़ी लेकर सड़क के किनारे उनका इंतज़ार कर रहा था।
बिसना  ने दादी के चरण स्पर्श किया।
"निम्मी बिटिया हमाई सफेद चादर तो बैग से निकाल दो।"बैलगाड़ी में बैठकर दादी ने कहा।
दादी कई दिनों से अपने गाँव जाने की जिद कर रहीं थीं।
दादी संभवतः बीस साल की रहीं होंगीं ,तब पति की मृत्यु के उपरांत उनके भाई गाँव से अपने साथ उन्हें शहर ले आये थे।दादी के साथ उनका चार का बेटा भी था।
अपने भाई पर बोझ नहीं बनी दादी।पाँचवी कक्षा तक पढ़ी दादी ने विद्या -विनोदिनी पास कर स्कूल में शिक्षिका की नौकरी की।
 बेटे को पढ़ाया।
आज,उनका बेटा सरकारी महकमे में अफसर है।सुशील बहू और कम्पनी में जॉब करती पोती निम्मी है।
दादी ने चादर (बड़ी सी सफेद शॉल) ओढ़ ली।
बैलों  के गले में बँधी घंटियों की आवाज़ से लय मिलाती ,पैरों के खुरों से मिट्टी,हवा में उड़ रही थी।दादी मंत्र-मुग्ध सी,खेत की मेड़ ,पोखर,पोखर में खिले कमल,अमराई,कच्चे-पक्के घर,देखती जा रहीं थी।
घर के सामने जैसे बैलगाड़ी रुकी,दादी ने सिर पर ओढ़ी चादर को हल्का सा घूँघट की तरह खींच कर,घर की देहरी को झुककर माथा टेका।
निम्मी हँस पड़ी,बोली"दादी यहाँ तो आपसे बड़ा कोई है नहीं,फिर आपने किसके लिये घूँघट किया?"
"बिटिया,ये जो पुरखों की ड्योढ़ी है न,यहाँ हम,जब पन्द्रह बरस की थीं तब ब्याह कर आईं थीं।सिर पर  चादर डाल,जो मत्था टेका है वो इस ड्योढ़ी के सम्मान में।ये हमसे बहुत बड़ी है"।दादी बोली।

- सुनीता मिश्रा
   भोपाल - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 060



                     चाटूकारिता




भरी सभा में नेता संबोधित कर रहे थे कि अचानक उन्हें खांसी आ गई। मंच पर हड़कंप मच गई लेकिन हड़कंप मचाने वाले चंद लोग थे। कोई भागदौड़ कर उनके लिए पानी का गिलास ला रहा था तो कोई रुमाल लेकर उनके मुंह को पोंछ रहा था। इतनी जोर से खांसी आई कि नेता को बीच में संबोधन अधूरा छोड़कर कुर्सी पर बिठाया गया। फिर तो क्या था कुछ चाटुकार लोग इर्द-गिर्द घूम गए और जबरन नेता के मुंह में कोई पानी डाल रहा कोई मिठाई लाने का आदेश कर रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे कोई बड़ी अप्रिय घटना घटने वाली हो। चंद मिनटों में नेता की खांसी दूर हो गई और नेता ने फिर से बोलना शुरू किया। संबोधन अभी पूरा नहीं हुआ था तभी तभी भीड़ में से आवाज आई कि दुनिया में जब तक चाटुकारिता रहेगी तब तक समाज में सुधार नहीं होगा और ना ही नेताओं में सुधार होने वाला है। एक आम व्यक्ति को जब खांसी चल जाती है तो उस बेचारे को कोई पूछने वाला नहीं और एक सामान्य सा नेता हल्की सी खांसी आ गई तो उसके लिए मानो सारा आकाश और पाताल एक ही करने पर चाटुकार लोग लग गए। नेता ने मन ही मन में सारा हाल समझ लिया। जैसे तैसे संबोधन पूरा हुआ कि लोग हंसते  हुए घर की ओर रवाना हो रहे थे। सभी की जुबान पर एक ही बात चल रही थी कि समाज में चाटुकारिता कभी समाप्त नहीं होगी, जो समाज को गर्त में ले जाने का कार्य करती है। उस वक्त को कोई नहीं भूल पा रहा था। सभी ने वह क्षण अपनी आंखों में कैद कर लिया था।
 
- होशियार सिंह यादव
   महेंद्रगढ़ - हरियाणा
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क्रमांक - 061



                इंसानियत ही धर्म है 



धोती वाले की पत्नी को अचानक मध्य रात्रि में हर्ट अटेक हुआ ।पसीने से तर बतर ,उसके हाथ, पैर सर्द हो गये ! घबराये पति ने तुरंत  पत्नी के चेहरे पर पानी छींट कर उसे होश में लाया। लेकिन पत्नी की धड़कनें बहुत तेज चल रहीं थीं ! इसलिए अचेत की दशा में वह पड़ी थी !
अधेड़ धोती वाला इसी  शहर में पत्नी संग मजदूरी करके गुजारा करता था। घर में उन दोनों के सिवा और कोई नहीं था । 
पति को पत्नी का बुरा हाल देख बहुत घबराहट हो रही थी । करे तो क्या करे! दो बजे रात में किसका दरवाजा खटखटाये ?!
तभी बाहर सड़क पर एक ऑटो के रूकने की आवाज आई। धोती वाले ने सोचा इसको रोक कर पत्नी को जल्दी से हास्पीटल ले चलता हूँ । बाहर जाकर आवाज देकर आटो को रोका और उससे गुहार लगाई । 
लंबी दाढ़ी और टोपी लगाये आटो ड्राइवर ने धोती वाले की गुहार सुनते ही हास्पीटल ले जाने के लिए तैयार हो गया । 
धोती वाले पत्नी संग आटो पर सवार हो कर इलाज के लिए चल पड़े ।लेकिन हास्पीटल पहुँचने से पहले ही रास्ते में पत्नी को जोर से हिचकी हुई और उसने दम तोड़ दिया । 
देखते ही पति उसे पकड़ कर फफक फफक कर रोने लगा ।आखिर ड्राइवर ने हिम्मत बाँध कर पूछा , "भाई जान अब कहाँ चलें ! हास्पीटल या..! " आद्रता उसकी आँखों में उतर आई थी। वह गमछी से आँखें पोछ रहा था ।
कर्तव्य बोध होते ही धोती वाला सख्त हो गया । उसके आँखों से आँसू निकलने बंद हो गये ।उसने गंभीरता से कहा," ले चलो हास्पीटल।" वहाँ 
पहुँचने के साथ उसे मृत्यु घोषित कर दिया गया । उसने तुरंत मृत्यु प्रमाण पत्र बनवाया और उसी आटो से मृत पत्नी को लेकर गंगा घाट पर दाह-संस्कार करने पहुँचा। जहाँ पहले से  शव जल रहे थे।
सूर्य अपनी गति से  आकाश में जगमगा रहा था ।
परंपरानुसार डोम और पात्र की मदद से पत्नी का दाह संस्कार संपन्न हुआ । आखिरकार सूने मन और सूनी आँखों लिए धोती वाला उसी आटो से वापस घर आया। जेब से बचे रूपये निकाल कर ड्राइवर के हाथ में थमाते हुए कहा,
"रख लो, ये रकम बहुत थोड़ा है।आज तुम मुझे सगे भाई से भी बढ़ कर मदद किए , मैं तुम्हारे इस उपकार को जिंदगी भर नहीं भूल सकता । "
 लाख ज़िद करने पर भी ड्राइवर ने रूपये को हाथ नहीं लगाया । उसने कहा , "दुख की घड़ी में मैंने एक इंसान की मदद  की है । यह मेरा फर्ज था। "
धोती वाले की आँखें नम हो गईं ।उसने कहा , 
" ठीक है, आज से तुम मेरे बड़े भाई हो । पत्नी की तेरहवीं में तुम्हें शरीक होना पड़ेगा ।ऐसा ही हुआ। 
दोनों ने मुंडन करवाये और क्रिया कर्म के बाद गंगा घाट पर एक साथ शपथ लिया।टोपी वाले ने शपथ में कहा " मैं आगे से न कभी दाढ़ी बढाऊँगा और ना ही टोपी पहनूँगा । धोती वाले ने कहा , मैं धोती और जनेऊ कभी नहीं धारण करूँगा ।
" बिल्कुल सही ।क्योंकि हमारे बीच धार्मिक दृष्टि से किसी को कोई भेदभाव नहीं दिखनी चाहिए । हम तथाकथित धर्म के वाह्य आडम्बरों से मुक्त हो गये हैं । अब हमारा धर्म सिर्फ मानवता की सेवा करना है ।" दोनों ने एक स्वर से कहा और गंगा मैया को नमन किया ।
गंगा मैया ने खिलखिला कर कहा  , 
" सुनो, मुझे पक्का विश्वास हो गया कि तुम दोनों भाई धर्म के ठेकेदारों को अच्छा सबक सिखाओगे।"

- मिन्नी मिश्रा
पटना  - बिहार
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क्रमांक - 062



              क्या मैं  पीछे हट जाऊँ?




माया जी अपनी सहेली के यहाँ गयी हुई थी। अचानक बारिश शुरू हो गयी तो माया जी के बेटे किशोर ने उनके लिये कार भेज दी ताकि वे गिली न हो। माया जी ने कहा," कार भेजने की क्या जरूरत थी, मैं छाता ले तो गयी थी, आ जाती।" 
     उस दिन माया जी की तबीयत कुछ ठीक नहीं लग रही थी, किशोर ने डॉक्टर को बुला लिया। माया जी नाराज होकर बोली," डॉक्टर को बुलाने की क्या जरूरत थी, जरा सी हरारत थी, थोड़ा आराम कर लेती तो ठीक हो जाती।" 
     किशोर डॉक्टर की बतायी दवाई लेकर आया। माया जी ने डांटा," बारिश में दवाई लेने जाने की क्या जरूरत थी, बाद में ले आते।" 
       मम्मी को दवाई देते हुए किशोर ने कहा," याद है मम्मी जब मैं स्कूल में था, हल्की बूंदाबांदी होने पर भी आप ड्राइवर भैया को कार लेकर भेज दिया करती थी जबकि स्कूल पास में ही था। कार भेजने की जरूरत वहाँ भी नहीं थी क्योंकि छाता तो मेरे पास भी होता था। एक बार मुझे जरा सी खाँसी हुई, आपने डॉक्टर अंकल को फोन कर दिया। उन्होंने दवा लिखी और आप दस मिनिट में दवा लेकर आ गयी, तब भी  बारिश हो रही थी और बाद में तो आप भी जा सकती थी, क्या जरूरत थी...परंतु आपके लिये तो मैं...।" 
     बोलते हुए बेटे की और सुनते हुए मम्मी की आँखों से बरसात हो रही थी। जब बरसात थोड़ी रूकी तो किशोर बोला कि मम्मी, आपने हमेशा आगे बढ़ मेरे लिये इतना किया तो अब मेरी बारी आने पर आप चाहती हैं कि मैं पीछे हट जाऊँ?"

- दर्शना जैन 
खंडवा - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 063



                   अनजान यौवन 




रीमा के घर के पास हर समय आवाजें आती थीं, “मर क्यों नहीं जाती कमली| कोई काम नहीं आता, न अक्ल-सहुर बस हर वक़्त दांत निकालती रहती हो|” ये गरीब पड़ोसन आमदन कम होने की वजह से घरों में काम करती थी| बेटे को सब्जी की रेहड़ी लगवा दी और बेटी कमली को लापरवाह और लड़कों के साथ खेलते रहना माँ को बहुत खलता रहता| पड़ोसन रीमा उसको कभी कभी प्यार से बुला कुछ ना कुछ खाने को दे देती| रीमा ने एक दिन देखा वो गलत लड़कों के साथ गंदी गाली देती कंचे खेल रही है| लड़के उसको अश्लील भी बोल रहे थे, अचानक वारिश आने पर वो नाचती सी अपने होश में नहीं लग रही थी| रीमा ने ये देखा उसे भी बुरा लगा| उसने कमली को बुलाया और बोली, “कमली, ये सूखे कपड़े पहन लो नहीं तो तुम्हारी माँ तुम्हें डाटेंगी| रीमा ने कमली को चाय पिलाई और बोला, “तुम मेरे घर सफाई का काम करो मैं तुझे कपड़े और पैसे सब दूंगी| तुम अपनी माँ को पूछ मुझे बता देना|” कमली रीमा के घर काम करने लगी और बोलना, पहनना, बड़ों का मान सम्मान करना ये बातें सीख कम बोलने लगी| धीरे धीरे रीमा के पास पढने भी लगी| अचानक कमली की माँ को पास ही साइकिल की दूकान वाले ने कमली के साथ शादी की बात करी| कमली अनजान यौवन से बेखबर एक बेटे की माँ बन उससे बातें करती खेलती | 

- रेखा मोहन 
पटियाला - पंजाब 
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क्रमांक - 064



                      यूज़ एंड थ्रो




लिखते हुए अचानक स्याही खत्म हो गई। बोतल में भी स्याही नहीं थी। सोचा शायद बेटे के पास हो। लेकिन उससे पूछे या न पूछे। आजकल हर बात पर झल्लाने लगा है। वे तो यूँ भी अधिकाँश समय अपने कमरे में ही चुपचाप पढ़ते-लिखते रहते हैं। बेटे के जीवन में दखल भी नहीं देते तब भी पता नहीं हर बार उपेक्षा ही मिलती है। ये पेन उनकी पत्नी ने उपहार में दिया था तबसे वे इससे लिखते हैं। आखिर हिम्मत करके सुरेश जी अपना पेन लेकर बेटे के कमरे में गए। वह टेबल पर झुका कुछ लिख रहा था। अचानक उसने पेन को दो-तीन बार झटकारा, चलाया फिर पास रखे डस्टबिन में फेंक दिया।
"अरे पेन फेंक क्यों दिया बेटा। अच्छा भला है। रिफिल ले आना अभी तो खूब चलेगा।" पुराने जमाने के सुरेश को यूँ पेन को फेंक देना अच्छा नहीं लगा। 
"ढेर पेन रखे हैं।" बेटे ने ड्रावर से नया पेन निकालते हुए कहा।
"फिर भी अच्छा भला तो पेन है क्यों फैंकना। मुझे देखो कितने बरस हो गए इस पेन से लिखते हुए आज तक बढ़िया चल रहा है।" सुरेश ने हाथ में पकड़ा पेन दिखाते हुए कहा "मेरे पास स्याही खत्म हो गई है। तुम्हारे पास रखी है क्या"
"ये डिस्पोजेबल युग है, काम हो गया बस। वो पेन डस्टबिन में डालिये और नया ले जाइए। कौन स्याही इस्तेमाल करता है आजकल। ये यूज एंड थ्रो का जमाना है पिताजी।" अजीब उपेक्षा के साथ बोलकर बेटा अपने काम में व्यस्त हो गया।
सुरेश ने हाथों में पकड़े पेन को कसकर भींच लिया। उन्हें लगा डस्टबिन में पेन नहीं एक रिश्ता पड़ा हुआ है जिसका काम अब खत्म हो चुका है।

- विनीता राहुरीकर
भोपाल - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 065 



                         झांसा


     

-- थैंक्स फॉर ऐक्सेप्टिंग माई फ्रेंड रिक्वेस्ट 
-- वेलकम 
-- अपना एक फोटो भेजो
-- क्यों  ?
- शक्ल और उम्र देखनी है।
-- मैं एक आम इंसान हूं कोई सेलिब्रिटी नहीं 
-- ठीक है , क्या करते हो ?
-- बिजनेस
-- योर हाॅबी  ?
-- रूपये कमाना ।
-- व्हाट्स ऐप नंबर दो
-- क्यों  ?
-- रूपये खर्च करने एवं जिंदगी के मजे लेने का तरीका बताऊंगी। 
-- रूपये कमाने में काफी मेहनत करनी पड़ती है। 
-- तो साथ में इंज्वाय भी करो ।
-- कैसे  ?
-- खुलकर मिलकर हमदोनों 
-- मुझे पहेलियाँ मत समझाओ।
-- तुम मर्द हो या - - -
-- एक कर्मठ इंसान, हवस का खरीददार नहीं।
-- फिर भाङ में जाओ भङुऐ।
              और चैट खत्म। 

- सेवा सदन प्रसाद 
मुम्बई - महाराष्ट्र
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क्रमांक - 066



                       दृष्टिकोण




     आज सुभाष बाबू के पोते का अन्नप्राशन है। इसलिए "गुप्ता परिवार'' में काफी चहल -पहल है, परंतु  सुभाष बाबू की दीदी  गुमसुम- सी एक कोने में बैठी हैं।... शादी के आठ साल बाद भी बहू के माँ नहीं बन पाने पर उसने साफ-साफ कह दिया था-"बहू बाँझ है। बेटे की दूसरी शादी करा दो भाई । वंश आगे तभी बढ़ेगा।''
अब वह किसी से आँखें भी नहीं मिला पा रही हैं।
"दीदी, तुम भी थोड़ी मदद कर दो...देर हो रही है।" सुभाष ने कहा।
"तुम्हारी पत्नी रेखा और तुम्हारी बहू ने मिलकर विधि- विधान की सारी  तैयारियाँ कर ली है।अब मेरा क्या काम?" पचास वर्षीया रानी ने भाई सुभाष को जवाब दिया। दरअसल वह समझ नहीं पा रही थीं कि वह बहू की नजरों का सामना कैसे कर पाएँगीं।
अपनी दीदी की उदासीनता और असहजता  देख सुभाष बाबू ने पाकशाला में जाकर अपनी पत्नी को धीरे से कहा--- "दीदी के मन पर बोझ है। उन्हें हल्का करना होगा।"
रेखा ने बहू की ओर देखा। मानो कह रही हों- 'दीदी तो तुम्हारी गुनाहगार है बहू!'
"बाबूजी आप निश्चिंत रहें। बुआजी को मैं देखती हूँ।"  तीस वर्षीया  बहू ने कहा।
 वह चहकते हुए बुआ के पास गई और उनका चरण स्पर्श करते हुए  हँसकर बोली, "बुआजी! आशीर्वाद दीजिए।... मुझे आप से कोई गिला-शिकवा नहीं है। चलिए... मम्मीजी रसोईघर में आपका इंतजार कर रही हैं।"
गुप्ता -परिवार का उदास कोना भी  रोशन हो गया।

- निर्मल कुमार डे 
 जमशेदपुर - झारखंड
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क्रमांक - 067 



                   अशुभ का संकेत




"भाभी, क्या बात है आजकल आप मंदिर नहीं आ रही हैं।आज बहुत दिनों के बाद दिखाई दे रही हैं।"
"बस, वैसे ही, कहीं आने-जाने का मन नहीं करता।"
"नहीं कुछ तो बात है वरना आप तो रोजाना सुबह मंदिर में दर्शन के लिए आ जाती थीं और जब भजन का कार्यक्रम होता था तो सबसे पहले उपस्थित हो जाती थीं!"
"अब क्या बताऊं जीजी, जबसे ये गए हैं, लोगों की निगाह ही बदल गई है। मंदिर में पूजा-पाठ,हवन और भजन- कीर्तन के समय जब भी आती हूं तो पास-पड़ोसी तक मुंह फेर लेते हैं। लगता है कि उन्हें मेरा चेहरा देखकर कुछ अशुभ का संकेत मिलने लगता है!सोचती हूं कि क्या विधवा हो जाना पाप है! "कहते हुए उनकी आंखें भर आईं।
"लेकिन भाभी ऐसा क्यों है! क्या विधवा महिला का शुभ कामों में आने या उसे देख लेने से  ही अशुभ हो जाता है! क्या वही  लोगों के लिए अशुभ होती है?मंदिर में और लोग भी तो आते हैं। पंवार अंकल की पत्नी  तो दस बरस पहले ही गुजर गई थीं और फिर शर्मा जी भी तो अभी कोरोनाकाल में ही विधूर हुए हैं।वे भी मंदिर में नियमित आते हैं उनके आने पर तो कोई मुंह नहीं फेरता!इनका चेहरा देखने से जब किसी का अशुभ नहीं होता तब…!"

- डॉ प्रदीप उपाध्याय
    देवास - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 068



                         परवरिश



अदिति को बड़ी मुद्दत के बाद अपने पुराने शहर जाने का मौका मिला था।जहां जन्म से लेकर कॉलेज जाने तक का समय बिताया था।बचपन और किशोरावस्था के अनगिनत किस्से उसे रह रह कर याद आ रहे थे।किन लोगों से वह मिल पाएगी,कहां कहां जा पाएगी?वह सोच रही थी।
       अपने पुराने घर से ही शुरुवात करनी होगी। वहां दूर के रिश्ते की चाची  सगी, से बढ़ कर तो थी ही।वह पड़ोस में रहती थी।
     समय निकाल कर अदिति वहां पहुंची। चाची ने गले लगाकर स्वागत सत्कार किया।पसंद का खाना बना के रखा था।
उन्हें देखकर अदिति को बहुत आश्चर्य हुआ।वह इतनी कमज़ोर और बूढ़ी लग रही थी कि अगर उन्हें कहीं और देखती तो पहचान ही नहीं सकती थी।  
बातों बातों में पता चला चाचा जी के जाने के बाद नितांत अकेली पड़ गई हैं।बेटा बेटी  विदेश मेंअपने अपने कार्यों में व्यस्त हैं ।कभी आकर मिलना तो दूर फोन भी नहीं करते।
अदिति यह सुनकर बहुत निराश हुई।उसे याद आ रहे थे बचपन के वे दिन जब चाची एक पल को भी बच्चों को नहीं छोड़ती थी।उन्हे बड़ा बनाने के लिए हर समय पढ़ाई का दबाव,खेलने कूदने को भी समय  न देना। हर वक्त एक साए की तरह उनके आगे पीछे रहना।  उनके अनुसार  बच्चों  को माँ  की देख रेख में ही रहना चाहिए। मां को भी समझाती कि बच्चो को जरा भी स्वतंत्रता न दें।कई बार तो अदिति और उसकी बहन की बुराई भी कर देती। बढ़ते बच्चे मां के इस अत्यधिक सुरक्षा और बचाव  की आदत से परेशान रहने लगे।
  अदिति ने चाची से पूछ ही लिया 
"चाची! आपके बच्चे तो इतने अनुशासन में पले बढ़े।अब ऐसा क्या हुआ जो वे आपसे दूरी बना रहे है?
चाची ने जो उत्तर दिया उसे सुनकर वह हैरान हो गई पर बात कितनी सच थी।
चाची एक गहरी सांस लेकर रुंधे हुए गले से बोली। 
"अदिति! बेटी! क्या कहूं  ? दीदी यानी तुम्हारी मां  हमेशा कहती कि बच्चों को इतनी सख्ती से मत रखो। पता है_
"जैसे बाण को धनुष में रख जितना अपनी ओर खींच के रखो वह उतनी ही दूर  छिटक कर जाता है"
वैसे ही बच्चों को जबरदस्ती से अपने वश में रखो तो वे समय मिलते ही दूर भागने लगते हैं।

- ज्योतिर्मयी पंत
गुरुग्राम - हरियाणा
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क्रमांक - 069



                  कहीं धूप कहीं छांव



                                                                                                   
मैं सुबह सवेरे अपने लान में आ कर बैठी ही थी, कि अनायास मेरी नजर मेरे बंगले के सामने बन रहे बहुमंज़िला अपार्टमेंट के पास मजदूरों के टीन के घरों की ओर पड़ी। 
उनमें से एक घर के सामने एक सांवली सलोनी गर्भवती मज़दूरनी हाथ में पेन लिए कुछ लिख रही थी।
 उस युवा मज़दूरनी के चेहरे पर कुछ ऐसा अनूठा लावण्य था कि मेरी नज़र पूरे वक़्त उसके मासूम भोलेभाले चेहरे पर चस्पा रही।
उसे कुछ लिखता देख मैं घोर कौतूहल से भर उठी, और मैंने उससे पूछा, “तेरा नाम क्या है? कहां तक पढ़ी है?”
“मेमसाहब, मैं रौशनी हूँ। दसवीं पास हूँ। मेरा मरद भी यहीं मजदूरी करता था।”
फिर दोपहर को अपनी खिड़की से उसे ईंटों का बोझा ढोते देख मैंने उससे कहा, “बेटा, इस हालत में तुझे यह भारी काम नहीं करना चाहिए। कुछ ऊंच- नीच होते देर नहीं लगती।” 
“अरे मेमसाहिब, मेरा मरद तो टांग तुड़वा खाट पर पड़ा है। इस पापी पेट के गड्ढे को भरने के लिए रोटी भी तो चाहिए।” 
“तू कोई हल्का काम क्यूं नहीं कर लेती? मेरे घर का खाना, सफाई, बर्तन, कपड़ों का काम करेगी? सात हजार रुपये महीने दूँगी।”
“मेमसाहिब, घर का सारा काम कर दूंगी। नौ हजार दो तो कल से ही आ जाती हूँ।” 
“चल आठ हजार ले ले, उससे ज्यादा नहीं।”
“नहीं मेमसाहिब, नहीं पोसाएगा। इस मजदूरी से पोर- पोर दुखता है। दिन भर सांसें फूलती है, बोझा ढोते -ढोते। चलो साढ़े आठ हजार दे दो, न मेरी न आपकी।” 
“नहीं... नहीं... आठ हजार से एक रुपया ज्यादा नहीं।” 
बहरहाल वह राजी नहीं हुई और मजदूरी करती रही।
कितनी ही बार उसे अपने गर्भ के भार से दोहरी होती, पसीने- पसीने हो जिती , ईंटों के भारी बोझ को ढोते देख मैं गहन अपराध भावना से भर उठती। सोचती, ‘साढ़े आठ हजार दे दूं, मुझे क्या फर्क पड़ेगा?
 हम दो प्राणी हैं। संतान कोई हुई नहीं। लक्ष्मी छम- छम बरस रही है मेरे आंगन’, लेकिन फिर सोचती, ‘मैंने समाज -सेवा का कोई ठेका तो नहीं ले रखा।’ 
बस इसी कशमकश में दिन बीत रहे थे। कि एक दिन उसके घर के बाहर लोगों की भीड़ देख मन किसी अनहोनी की आशंका से कांप उठा। मैं अपने पति के साथ सीधी उसके घर की ओर बढ़ चली। 
सामने रौशनी की खून से लथपथ मृत देह खाट पर पड़ी थी, हाथ पैर फेंकते नवजात शिशु के साथ। 
हू.. हू ...कर रोते हुए उसके पति ने मुझसे कहा, “मेमसाहब, मैं लुट गया। इसे ईटों का बोझ खा गया । खुद तो इस दुनिया के फंदों से आजाद हो गई यह। पीछे इस बदनसीब को छोड़ गई। कलमुंही आते ही मां को लील गई। उसी के साथ मर जाती तो कितना अच्छा होता।” 
 मेरे  हृदय ने उसी क्षण एक फैसला लिया। उस नन्ही सी जान को उठा कर कलेजे से चिपकाते हुए मैंने उससे कहा, “मैं पालूँगी इसे। कानूनन गोद  लूंगी।” 
मैंने रौशनी के क्रिया कर्म के लिए कुछ पैसे उसके पति को दिए। घर लौटते वक्त बच्ची मेरी गोद में थी। मेरे पति ने उमगते हुए धीमे से मेरे कान में कहा-" यह हमारी सूनी जिंदगी की बहार! हमारी जिंदगी की छांव!"

- रेणु गुप्ता
जयपुर -राजस्थान 

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क्रमांक - 070 



                           चुभन


               

न जाने क्यू सुबह-सुबह खिले गुलाब को देख उसका मन प्रसन्न हो जाता.
वह पौधा भी ऐसा कि रोज एक फूल देता.
दरवाजा खोल सबसे पहले वह उस पौधे को निहारता.
यह क्रम कई सालों से चला रहा था.
वह पौधा भी अब बड़ा हो गया था. सुबह-सुबह आज कुछ ज्यादा देर तक वह पौधे के पास खड़े होकर उसे निहार रहा था.
सोच रहा था, कि क्या वह भी इसी गुलाब की तरह खिली होगी या मुरझाए फूलों की तरह......?
यह सोच अचानक उसकी आंखें नम हो गई. क्या पता अब उसका पति उसके साथ कैसा व्यवहार करता होगा. जब मिली थी तब उसकी आंखों नमी लिए थी.
 भगवान उसके सारे दुख मुझे दे दो. सोचते ही उसकी आंखें नम होने लगी.
 यह गुलाब का पौधा उसने जाने से पहले तोहफा स्वरूप दिया था...
तभी.. पीछे की आवाज ने उसकी तन्द्रा भंग की...
 "सुनिए...मैं, देख रही हूं कि इस गुलाब को देखे बिना तुम्हारी सुबह नहीं होती....और गुलाब भी तो है.. घर में..उन्हें तो आप देखते भी नहीं...ऐसा क्या है इस गुलाब में...?
 "बस ऐसे ही... कहते हुए वह अंदर चला गया. उसकी आंखों की नमी देख...पत्नी के दिल में उस गुलाब की चुभन.. अंदर तक सिरहन पैदा कर गई..।
             - वंदना पुणतांबेकर 
                   इंदौर - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 071 


                         गतिरोध




        " हैप्पी बर्थडे मम्मी जी! आफिस में जरूरी मीटिंग आ गयी थी, जिससे मुझे आने में देर हो गयी"... प्रिया ने सुधा के पाँव छूते हुए कहा। 
      सुधा पहले से ही भरी बैठी थी, 
"कम-से-कम आज तो बहाने न बनाओ! 
  " बहाने? नहीं मम्मी जी, मैं कोई बहाना नहीं बना रही। मीटिंग के बाद आपके लिए गिफ्ट खरीदने चली गयी थी। आपके लिए जैसा पर्ल-सेट मैं खोज रही थी, मुझे मिल ही नहीं रहा था। बाजार का थोड़ा चक्कर लगाना पड़ा, लेकिन अंत में मिल ही गया। "
"गिफ्ट की क्या जरूरत थी? तुम समय से आ जाती तो मेरी सहेलियों के बीच मेरी नाक  नहीं कटती।"
  " मिसेज चड्ढा का कटाक्ष अभी भी मेरे कानों में गूँज रहा है… 
"सुधा मैंने पहले ही तुझे आगाह किया था कि माडर्न बहू मत ले आ। जो लड़की मंगलसूत्र और सिंदूर की परवाह नहीं करती, वह तेरी क्या करेगी? तुझे क्या पता, आफिस के नाम पर कहाँ जाती है… क्या करती है…?" 
"मम्मी जी! कौन क्या कहता है, मुझे इसकी कोई परवाह सचमुच नहीं है, पर मुझे आपकी परवाह है, आपके खुशियों की परवाह है। 
   वैसे मम्मी जी!आपके बेटे आफिस ही जाते हैं, कहीं और नहीं, क्या आपको पक्का पता है? खैर! वो सब छोड़िए… मैं फ्रेश होने जा रही हूँ, तबतक आप यह नेकलेस पहन के देखिए आप पर कैसी लग रही है। "
     सुधा हतप्रभ रह गयी। सही तो कह रही है।बेटे से बँधी विश्वास की डोर बहू के लिए कमजोर क्यों हो जाती है? बहू सिंदूर नहीं लगाती तो बेटा भी तो जनेऊ नहीं पहनता! वह सोचने लगी… 
       बहू का अपने रहन-सहन के अलावा कभी कोई अशोभनीय व्यवहार नहीं था। दूसरों की बातों में आकर मैं ही हमेशा उससे दुर्व्यवहार करती रही। अपनी तरफ से प्यार देना तो दूर, उसकी पहल पर भी पूर्वाग्रह से ग्रस्त मैं स्वयं ही अवरोधक बनी रही। अब और नहीं… 
    एक दृढ़ निश्चय के साथ सुधा ने प्रिया का गिफ्ट-पैकेट खोला। एक खूबसूरत पर्ल-नेकलेस जिसकी चाहत बरसों से मन में दबी थी, पर जरूरतों की लंबी लिस्ट के सामने  कब दम तोड़ गयी थी । 
    सुधा स्वयं ही प्रिया के रूम में चली गयी। प्रिया ने देखा - नेकलेस अपनी सही जगह पर था साथ ही एक और बहुमूल्य आभूषण मम्मी जी के होठों पर सजा था - उनकी निश्छल मुस्कान जिसने दिल को दिल तक पहुँचने के गतिरोध को समाप्त कर दिया था। 
          
     - गीता चौबे गूँज
       राँची - झारखंड 
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क्रमांक - 072



                          पिंजरा

             

“ मैडम ! मैंने आज हर पिंजरा तोड़ दिया।मैंने विश्वविद्यालय की वाद-विवाद प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त किया है। आपकी वजह से।”
ममता एक बड़ा सा मेडल लिए सामने खड़ी थी। 
 मैडम ने उसे गले से लगा लिया और ढेरों बधाइयाँ दीं।
“ याद है ,दो साल पहले तुम क्या कहती थी?” मैडम ने पूछा। 
“ जी मैडम ! याद है ।”
दोनों ही पुराने दिनों में कुछ देर खो गईं।
“ मैं नहीं कर सकती “ ममता ने कहा 
“ तुम्हें कैसे पता है कि तुम नहीं कर सकती ?” मैडम ने पूछा 
“ मैंने कभी माईक पर सबके सामने खड़े हो कर कुछ नहीं बोला। “
“ तो आज से शुरू करो।” 
“ नहीं.. मुझे डर लगता है।पैर काँपने लगते हैं।”
“ जब कभी बोला ही नहीं तो कैसे पता कि पैर कॉंपने लगते हैं?”
“ मुझे लगता है, मैं खड़ी नहीं रह सकूँगी, सबके सामने।”
“ देखते हैं। नहीं बोल पाओगी तो बैठ जाना। अपने पिंजरे से बाहर तो निकलो।”
     ममता आज बाध्य थी अपने पिंजरे से बाहर निकलने के लिए।
उसे  गॉंधी जयन्ती पर गॉंधी जी के बारे में थोड़ा सा कुछ बोलना था। माईक पर खड़े होते ही उसके पैर कॉंपे जिसे उसने और उसकी मैडम ने ही महसूस किया। वाणी में घबराहट भी थी।लेकिन आज वह हिम्मत कर 2 मिनट का भाषण सफलतापूर्वक दे सकी। हालाँकि कार्यक्रम समाप्ति पर उसने अपना निर्णय सुना दिया कि यह पहला और अंतिम प्रयास है।अब वह कभी भाग नहीं लेगी। मैडम तो जौहरी की भाँति उसकी क़ाबलियत को पहचान गई थीं। आज नमूना भी देख लिया था। अगली बार फिर प्रेरित कर बोलने को कहा। इस बार गीत गाना था। धीरे-धीरे वह हर बार प्रतिभागिता निभाने लगी।
“ मैडम ! यह छोटा सा उपहार आपके लिए। “
ममता ने एक छोटा सा पैकेट मैडम को देते हुए कहा तो दोनों अतीत से वर्तमान में आ गए। 
“ अच्छा लग रहा है न, मन का पिंजरा तोड़ कर ? 
खुला आकाश है अब तुम्हारा ।

- डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘ उदार ‘ 
    फ़रीदाबाद - हरियाणा 
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क्रमांक - 073 



                      खुद के लिए 



             
    पति और बच्चों के घर से जाने के बाद किरण ने सारा बिखरा सामान समेटा,करीने से रखा।फिर इत्मीनान से एक कप चाय बनाई, मोबाइल का स्विच बंद कर दिया।अखबार और डायरी पास रख कर आराम कुर्सी पर बैठ गई। हफ्ते भर में ही उसे लगने लगा था कि इस एक घंटे में ही वह तरो-ताजा हो जाती है।लेकिन पहले---सुबह पांच बजे से बच्चों और दिनेश के नाश्ते और साथ ले जाने वाले टिफिन तैयार करते समय मशीन की भाँति हाथ चलते।पति और बच्चों के जाते ही थकावट दूर करने के लिए  वह मोबाइल लेकर बैठ जाती।कभी वटसअप मैसेज, फेसबुक, कभी चैट,कभी रिश्तेदारों,कभी सहेलियों से फोन पर लंबी बातें---पता ही न चलता,बच्चों का स्कूल से लौटने का समय हो जाता।शरीरक थकावट उतरने की बजाय मानसिक थकावट भी हो जाती।
    मन को लाख समझाने पर भी वह फोन को न छोड़ पा रही थी।अचानक एक हफ्ता पहले उसने किसी लेखिका का लेख पढ़ा,उसके विचारों से प्रभावित होकर उसकी  दिनचर्या  बदल गई। पति और बच्चों के जाने बाद,घर का काम निपटा कर, वह एक कप चाय बनाती,मोबाइल फोन बंद कर आराम से बैठती।चाय के कप से उठती भाप उसके विचारों को भी गरमाने लगती।वह खुद से संवाद करती,भीतर झांकती।उसे लगता जिन्दगी में यही समय उसका अपना है।
      अचानक दरवाजे की घंटी ने उसकी तन्द्रा भंग की।दरवाजा खोला तो सामने दिनेश खड़ा था जो प्रश्नचाचक नजरों से उसे देख रहा था।किरण ने मुस्कुराते हुए कमरे में पड़े एक कप चाय को उठाया और बोली,"चलिए जनाब,आज एक कप चाय को बांट कर पीते हैं।आप यह भी पूछना चाहते हो कि एक हफ्ते से आप के जाने के बाद मेरा फोन कुछ समय के लिए बंद क्यों होता है।जनाब!यह समय मैंने खुद के लिए रखा है,सिर्फ खुद के लिए। 

- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब
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क्रमांक - 074 



                   कटती हुई हवा




पिछले लगभग दस दिनों से उस क्षेत्र के वृक्षों में चीख पुकार मची हुई थी। उस दिन सबसे आगे खड़े वृक्ष को हवा के साथ लहराती पत्तियों की सरसराहट सुनाई दी। उसने ध्यान से सुना, वह सरसराहट उससे कुछ दूरी पर खड़े एक दूसरे वृक्ष से आ रही थी।
सरसराहट से आवाज़ आई, "सुनो! "
फिर वह आवाज़ कुछ कांपने सी लगी, "पेड़खोर इन्सान...  यहां तक पहुंच चुका है। पहले तो उसने... हम तक पहुंचने वाले पानी को रोका और अब हमें...आssह!"
और उसी समय वृक्ष पर कुल्हाड़ी के तेज प्रहार की आवाज़ आई। सबसे आगे खड़े उस वृक्ष की जड़ें तक कांप उठीं। उसके बाद सरसराहट से एक दर्दीला स्वर आया,
"उफ्फ! हम सब पेड़ों का यह परिवार… कितना खुश और हवादार था। कितने ही बिछड़ गए और अब ये मुझ पर... आह! आह!"
तेज़ गति से कुल्हाड़ियों के वार की आवाज़ ने सरसराहट की चीखों को दबा दिया। कुछ ही समय में कट कर गिरते हुए वृक्ष की चरचराहट के स्वर के साथ सरसराहट वाली आवाज़ फिर आई, इस बार यह आवाज़ बहुत कमजोर और बिखरी हुई थी, "सुनो! मैं जा रहा हूँ। मेरे बहुत सारे बीज धरती माँ पर बिखर गए हैं। उगने पर उन्हें हवा-पानी, रोशनी और गर्मी के महत्व को समझाना… मिट्टी से प्यार करना भी। प्रार्थना करना… कि अगली बार मैं किसी ऊंचे पहाड़ पर उगूं… जहां की हवा भी ये… पेड़खोर छू नहीं पाएं। उफ्फ...मेरी जड़ें भी उखड़..."
धम्म से वृक्ष के गिरने का स्वर गूँजा और फिर चारों तरफ शांति छा गयी। सबसे आगे खड़ा वृक्ष शिकायती लहज़े में सोच रहा था, "ईश्वर, तुमने हम पेड़ों को पीड़ा तो दी, पैर क्यों नहीं दिए?"

- डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी
    उदयपुर - राजस्थान
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क्रमांक - 075



                  आभासी दुनिया

 
 
“ बेटा मुझसे भी तो कुछ साझा किया करो, तुम्हारी आज की पीढ़ी अपनी आभासी दुनिया पर ही ज्यादा विश्वास करती है, अपनी हर कामयाबी को कमेंट्स और लाईकस से जोड़ कर देखती है और इसी में जीती है’ – मधू ने अपने बेटे मनु को समझाते हुए कहा, जो फेस बुक और इंस्टाग्राम की दुनिया मे विचरण कर रहा था । 
‘ माँ तुम्हें क्या मालूम, तुम तो अपने रसोईघर की दुनिया में ही रहती हो “ – मनु समझदारी दिखाते हुए बोला । 
“ बेटा इस आभासी दुनिया में सभी संवेदनाएं लुप्त हो रही हैं । तुम्हें मालूम है कल रास्ते में एक दुर्घटनाग्रस्त लड़के को किसी ने उठा कर अस्पताल नहीं पहुंचाया, बल्कि सब उसका वीडिओ बनाने मे लगे रहे और कुछ ही देर में सबकी आँखों के सामने उस लड़के ने दम तोड़ दिया । अगर आभासी दुनिया का जुनून न होता तो शायद आज वह लड़का जिंदा होता। बेटा मैं चाहती हूँ कि तुम इस आभासी दुनिया की मृग तृष्णा में खो कर यथार्थ की दुनिया से बहुत दूर न हो जाओ  “। 
माँ से यह सारा घटनाक्रम सुन कर मनु की आँखेँ भर आई और बहते आंसुओं के साथ उसकी आभासी दुनिया का मायाजाल भी बह गया और वह भावुक हो कर माँ से लिपट गया । 
 
- आशमा कौल 
    फरीदाबाद - हरियाणा
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क्रमांक - 076 



                         रक्तदान

 

कल शाम से जाने कितने लोगों का फोन आ गया। घूमाफिरा कर एक ही ढर्रे वाला प्रश्न- मिसेज निगम कल आपने रक्तदान दिया, तबियत कैसी है! कमजोरी तो नहीं हो रही! अच्छे से खाना-पीना करेंगी, फ्रूट जूस लेना ठीक रहेगा, एक गिलास दूध रात को जरूर ले लेंगी, थोड़ा रेस्ट में रहेंगी, चूल्हा-चौका एकाध दिन तो छोड़ ही दीजिए, घर गृहस्थी का काम हम महिलाओं को बारहों महीने रहता है, मिस्टर निगम को कहियेगा घर संभाल लेंगे, या फिर हमें कहिये हम मदद कर देंगे। बाई द वे खून कितना दिया था! अरे 300 एम.एल.! अरे राम... तब तो आपको बेड रेस्ट करना चाहिए। आदि-आदि..
बार-बार फोन घनघनाता रहा और तरह-तरह की नसीहतें! एक बोतल खून क्या दे दिया कोई जान थोड़े न निकल गई! हूं-हां में मिसेज निगम ने सबको जवाब दिया।
मिसेज निगम अचंभित है । हर फोन करने वाले को इस बात की जानकारी है कि यह खून उन्होंने अपनी माँ को दिया है। उस माँ को जिन्होंने उन्हें नौ महीने अपने गर्भ में रखकर जाने कितने लीटर खून से सींचा होगा और आज मौका मिला एक मुट्ठी खून देने का- वे चूक जाती! लोग सिर्फ मेरी खैरियत पूछ रहे हैं, मेरी कमजोरी की चिन्ता है। किसी ने ये सवाल क्यों नहीं पूछा कि आपकी माँ कैसी है? मुझ बेटी को कैसा महसूस हो रहा है? और... कितनी बेटियों ने अपनी माँ को रक्तदान दिया होगा? ये तो मेरी किस्मत बुलंद थी कि मुझे मौका मिला। दुनिया की हर माँ अपने बच्चों के लिए जीती मरती है। किन्तु कितने बच्चों को ऐसा सुयोग मिलता है?
मैं बहुत खुश हूँ। कल से जीवन में एक नई अनुभूति, नया संचार पैदा हुआ है। काश! ऐसा मौका मुझे बार-बार मिले। माँ-बाप का कर्ज हम बच्चे कभी नहीं चुका सकते। एक और बात कहती चलूँ। कल भाई भौजाई ने फोन पर बताया, माँ को इसके पहले भी खून चढ़ा है किन्तु कल बेटी का खून शरीर में क्या प्रवेश हुआ चमत्कारिक ढंग से माँ स्वस्थ लगने लगी हैं...
मिसेज निगम स्तब्ध, खुशी के आँसू अविरल बह रहे हैं। क्या माँ-बेटी के मन में एक जैसी विचारधारा ही विस्तार पा रही थी !!

- माला वर्मा
 उत्तर 24 परगना - पश्चिम बंगाल
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क्रमांक - 077



                         विदाई


 

 शानू का दिल बैठा जा रहा था।सप्तपदी खत्म होते-होते पंडित जी बार-बार कह रहे थे-कन्या का दान सबसे पवित्र  और शुभ माना जाता है।बारी बारी से आकरआप सभी कन्यादान करें और वर वधू को शुभाशीष दें।
जरूरी रस्मों के बीच पापा की याद उसकी पलकों को भिगो रही थी।
कितना कहा करते थे-मेरी बेटी करोड़ों में एक है।विदाई के वक्त आंसू का एक  कतरा भी नहीं बहने दूंगा अपनी सोन चिरैया का।हंसते हुए टाटा बाॅय बाॅय करते हुए जाएगी ससुराल।राजकुमार मेरी परी को पलकों पर बैठाकर रखेगा।
मन ही मन भावी जीवन की मधुर कल्पना अब घबराहट में बदलने लगी थी।केदारनाथ की भीषण बाढ़ में मम्मी पापा का भीषण लहरों में बह जाना,बड़े भाई का असीम स्नेह संरक्षण,दादी,बाबा का दुलार सब कुछ नजरों के सामने तैरने लगा था उसके।
-चलो शांति!अब कुछ खा पी लो दामाद जी के साथ बैठकर।
भाई,चाची,चाचा और दादी बाबा उसे साथ लेकर पंडाल की ओर चल दिये।
विदाई की बेला पास आ गई थी।सूनी आंखों से घर की दहलीज पार करते हुए अन्न के दानों को दोनों हाथों से घर-आंगन में बिखेरती हुई शानू भैया के कंधे से लगकर फूट-फूटकर रो रही थी।
कार में बैठते हुए दो मजबूत हाथों ने उसकी कोमल हथेलियों को थाम लिया और हौले से कानों में कुछ अस्फुट स्वर सुनाई दिये-
आप अपने ही घर चल रही हैं,शहनाई विदाई दे रही है,तो बारात,गाजे बाजे और नाच गाने आपका अभिनंदन करने को आतुर भी हैं।अब जीवन की नई डगर पर मेरे साथ हो,सभी गमों को विदा करो अपने मन से शानू जी!
आश्वस्त सी होकर शानू ने सिर हिलाया और जीवनसाथी शुभम को आश्वस्त होने की स्वीकृति दी।
मेंहदी रची हथेलियों पर अंकित 'शुभम संग शांति'शब्दों पर प्रेम-पगी उंगलियां नाच रही थीं।
 
-डा.अंजु लता सिंह गहलौत
         दिल्ली
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क्रमांक - 078



                     आधी औरत  


 

" हमारे साथ कभी अच्छा नहीं हुआ। हमें हर कदम पर धोखे मिलते रहे" रोती हुई रीना ने अपनी सहेली सीमा से कहा ।
सीमा सिगरेट का कश खींचते हुए बोली "क्या करूं, मेरी तो किस्मत ही खराब है। मां-बाप ने पढ़ाई के लिए शहर भेजा था लेकिन मैं यहां आकर बर्बाद हो गई"
रीना "कॉलेज की हवा ही कुछ ऐसी है। यहां का ग्लैमर और चकाचौंध देखकर हम लड़कियां दिन में सपने देखने लगती हैं"।
सीमा "अचानक जैसे सपनों को पंख लग गए । चारों तरफ रंगीन नजारे नजर आने लगे। ऊंचे पूरे अमीर रोबिले लड़के देखकर मन बल्लियों उछलने लगता"।
रानी "चकाचौंध में अंधी हमें अपने अच्छे बुरे का भी ध्यान नहीं रहा । हम नशे के कारोबार में फंसते चले गए"।
सीमा "हमेशा पापा मम्मी से झूठ बोलते रहे। पार्ट टाइम जॉब के बहाने हमने रंगरेलियां मनाई"।
रानी "मेरे पापा ने अपनी दो बीघा जमीन बेचकर मुझे डॉक्टर बनाने का सपना देखा लेकिन मैं कहीं की भी नहीं रही"।
 सीमा "मेरी मम्मी हमेशा कहती रही मेरी बेटी मेरा अभिमान है। उन्होंने आज भी सोशल मीडिया पर यही स्टेटस डाला हुआ है"।
रानी "अब तो मुझे अपने से ही घिन आने लगी है ।बॉयफ्रेंड हमने कपड़ों की तरफ बदले। फिगर ठीक करने के लिए एबॉर्शन करवा लिए"।
सीमा "तुम सच कह रही हो। नशे और दौलत की चाह ने हमसे हमारे अंदर की लड़की को छीन लिया"।
रानी "हमने अपने हाथों से माता-पिता के दरवाजे बंद कर लिए । पहले हम रिश्ते ठुकराते रहे। अब हमसे कोई रिश्ता करने को तैयार नहीं"।
सीमा "हम कब लड़की से औरत बन गई हमें पता ही नहीं चला"?
अचानक रास्ते में दोनों को बचपन की एक सहेली विमला मिल जाती है ।
विमला "अरे,तुम दोनों ने अपना क्या हाल बना रखा है ? तुम्हारी शादी, तुम्हारे हस्बैंड, तुम्हारे बाल बच्चे, सब कैसे हैं"?
रानी "तुम शादी की बात कर रही हो। हम तो अभी कुंवारी ही हैं,बिल्कुल तुम्हारी तरह"।
सीमा "अच्छी खासी तो तुम्हारे सामने खड़ी हुई हैं। क्या हम दोनों सहेलियां तुम्हें खालिस औरत नजर आ रही हैं"?
विमला " खालिस औरत तो नहीं लेकिन हां आधी औरत जरूर नजर आ रही हो" ।

-  रमेश चंद्र शर्मा 
  इंदौर - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 079 



                        हस्तक्षेप




रंजना अपने ससुर से बोल रही थी-"पापाजी मैं देखती हूँ कि जब कभी मेरे और राहूल में किसी बात पर बहस होती हैं । आप  मम्मी को लेकर बाहर निकल जाते हैं। जबकि आपको राहुल को समझाना चाहिए। लेकिन आप हमारी बातों को नजरअंदाज कर जाते हैं"। 
पापा बोले-"नहीं बेटी ऐसी कोई बात नहीं हैं। जब तुमदोनों में बहस होती हैं या किसी बात को लेकर तकरार होने लगती हैं, तब मैं और तुम्हारी सास बीच में पड़कर किसी तरह का कोई पक्षपात नहीं करना चाहते हैं"।
"लेकिन आपदोनों को तो गलत सही बताना चाहिए"।बहू नाराज होते हुए बोल पड़ी थी।
वे बोले-"बेटी एक तरफ मेरा बेटा हैं तो दूसरी तरफ मेरी बहू  भी  बेटी के समान हैं। तुम दोनों में जब कोई विवाद होता हैं तो मैं और तुम्हारी सास धीरे से निकलकर मंदिर चले जाते  हैं और भगवान से प्रार्थना करते कि यह तकरार तुम दोनों का वर्षों तक चलता रहे ताकि तुमदोनों के अलावे...तुम्हारी जिंदगी में तीसरा का कोई   चक्कर न रहे अन्यथा जिंदगी अधूरी और खालीपन से भर जायेगा।
मैं सोच रही थी कि यथार्थ मेंं पापाजी का सोच सही था,  क्योंकि उनदोनों का हस्तक्षेप नहीं होने के कारण रोहित के प्रति मेरा विचार हमेशा ही सकारात्मक रहा था और मेरे भैया रोशन मम्मी-पापा के हस्तक्षेप के कारण शनै- शनै नकारात्मक सोच की स्थिति में पहूंच गये थे और तलाक की नौबत आ गयी....।।
पापा के इस सोच को अगर मेरे मम्मी-पापा समझ जाते तो ....आज भैया का भी घर टूटने से बच जाता।

- संजय श्रीवास्तव
    पटना - बिहार
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क्रमांक - 80 



                            दंड



    बर्तनों की हल्की आवाज़ और एक स्वर कौंधता है।
” निर्भाग है तू !  यह देख,  तेरा श्राद्ध निकाल दिया आज।”
आक्रोशित स्वर में क्रोध थाली से एक निवाला निकालता है और ग़ुस्साए तेवर लिए थाली से उठ जाता है।
”मर गई तू हमारे लिए आज से …ये ले…। "
और मुँह पर कफ़न दे मारा ईर्ष्या ने।
स्त्री समझ न पाई मनोभावों को, वह सकपका जाती है। "हुआ क्या ? "
 समाज की पीड़ित हवा के साथ, पीड़ा से लहूँ लहूलुहान कफ़न में लिपटी स्त्री जब दहलीज़ के बाहर पैर रखती है तभी उलाहना से सामना होता है।
” पुरुषों के समाज में नारी हो, तूने नारीत्व छोड़ पुरुषत्व धारण किया ? उसी का दंड है यह ! "
उल्लाहना खिलखिलाते हुए सामने से गुज़र जाता है।

- अनीता सैनी ' दीप्ति '
जयपुर - राजस्थान
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क्रमांक - 081 



                         रहस्य


 


     श्यामेश्वरी और वनवारी की शादी को लगभग दस वर्ष बीत चुके थे मगर अभि तक उनके घर बच्चे की किलकारी नहीं गूंजी थी, दोनों को अपना आँगन बहुत ही सूना सूना लगता था। सरकारी, प्राइवेट अस्पतालों के चक्कर काट काट कर थक चुके थे। श्यामेश्वरी एक दिन बड़ी ही उदास मुखमुद्रा लिए अपनी बालकनी में बैठी सोच में डूबी, आँखों में आँसू भरे हुऐ थे,तभी पड़ोस की आँटी, जो समाज सेविका है, श्यामेश्वरी की उदासी का कारण जानते हुए उसे बच्चा गोद लेने की सलाह देती है। श्यामेश्वरी और वनवारी इस सलाह को मान कर, एक बच्चा गोद लेकर उसका पालन पोषण अच्छी प्रकार से करते है,उसे किसी व्यवसाय में डाल देते है। वह जो कमाता था उसे स्वयं पर ही खर्च करता क्योंकि माँ बाप उससे कोई हिसाब किताब नहीं लेते थे। किसी ने सच ही कहा है कि जरूरत से अधिक लाड़ प्यार और गलत फरमाईशों को मानना घातक सिद्ध होता है। बेटे की जरूरतें बढ़ती गई,  परिणाम स्वरूप वह जिद्दी और हिंसक प्रवृत्ति का हो गया। आखिर में दोनों ने घर उसके हवाले करते हुए एक दिन चुपचाप घर से कहीं निकल गए ।अपना व्यवसाय (दुकान) बन्द करके जब बेटा घर आता है तो घर में माँ बाप को अनुपस्थित पाकर इधर उधर आवाजे लगाता है, फिर देखता है बैठक के कमरे में मेज पर एक कागज पर कुछ यह लिखा होता है -'बेटा हम दोनों तुम्हारे दूसरे घर में रह रहे है, यदि आपने आना होगा तो इस पते पर आ जाना।' लड़के ने झट से पता पढ़ा और चल दिया। रास्ते भर वह सोचता गया, कि इस घर को जल्दी से बेच दूंगा फिर दूसरे घर में रहूंगा। दिये गये पते के मुताबिक वह वहाँ पहुंच जाता है। आगे बड़ा सा बोर्ड लगा था, जिस पर लिखा था "बृद्धाआश्रम " लड़का हक्का बक्का रह गया।
सामने माँ बाप पर नजर पड़ी तो हैरान होकर पूछता है 'आपने तो कहा कि मेरा दूसरा घर कहीं है। 
माँ बाप दोनों भर्राये गले से कहते है --'बेटा यही तुम्हारा घर है, जहाँ से हम दोनों तुम्हें लेकर गये थे ' बेटे को अपनी गलतियों का एहसास हो गया था ।वह सोचने पर विवश हो जाता है कि सब कुछ सहने के वावजूद यह रहस्य अपने हृदय में छिपाये हूये मेरे पुण्यदायी माँ बाप आज इस रहस्य से पर्दा उठाने पर कितने मजबूर हुये होंगें। उसमें आत्मग्लानी का भाव भर जाता है, चरणों में गिर जाता है और अपनी गलतियों का पश्चाताप करने हेतु। 
शिक्षा-'ईश्वर द्वारा प्रदत्त जीवन सदैव सुखकर मानों'

- शीला सिंह 
बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश 
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क्रमांक - 082



                लो मैं अब बैठ गई     




          लक्ष्मी मां की फोटो पर फूलों का हार चढ़ाने के बाद अमृत और उसकी पत्नी राधा ने माता जी की धूप आरती की । दीप आरती और फिर नैवेद्य अर्पण करने के बाद दोनों मां की तस्वीर के समक्ष खड़े होकर प्रार्थना में लीन हो गए । धन धान्य और सुख समृद्धि किसको नहीं चाहिए । मां लक्ष्मी के पास तो इसका अनंत भंडार है । प्रार्थना पूरी करने के बाद फूलों की कुछ पंखुड़ियां टोकरी में से उठाकर अमृत राधा के चरणों पर डालने लगा । उसके चेहरे पर राधा के प्रति आदर और सम्मान के भाव थे ।
 " ये क्या ! "- राधा ने पूजा ।
" मेरे घर की तुम लक्ष्मी हो । "
               सामने मंदिर में फोटो फ्रेम के अंदर कमल के फूल पर खड़ी हुई मां लक्ष्मी हंस पड़ी । 
" भक्त , आज तुमने मुझे अपने वश में कर लिया  । मैं वहीं तो टिकती हूं जहां नारी का सम्मान होता है । तुम्हारे इस फ्रेम में मैं सदियों से कमल के फूल पर खड़ी थी । मैं अब तुम्हारे घर की इस चौकी पर विराजमान होती हूं । "

- मीरा जगनानी 
अहमदाबाद - गुजरात
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क्रमांक - 083



                        अधिकार


                       

तीनों भाई अपनी इकलौती बहन ममता की बड़ी बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहे थे। आज घर का बंटवारा जो होना था। इन सभी की पत्नियां पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर अपनी ननद ममता के प्रति आशंकित थीं की पता नहीं वह भी न अपना हिस्सा मांग ले। तीनों भाइयों की मां जान्हवी देवी गंभीर किंतु शाँत मुद्रा में बैठी सभी के चेहरों को पढ़ रही थीं।
               घर के सामने कार आकर रुकी। ममता का आगमन हो चुका था। ममता काफी खुश दिखाई दे रही थी। सभी ने ममता का स्वागत किया, भले ही दिखावे के लिए ही सही। छोटी बहू अपनी दोनों जेठानियों के कान में धीरे से फुसफुसाया... "देखा दीदी... ननद जी कितनी खुश हैं।" जेठानी नजरें घुमाते हुए व्यंगात्मक लहज़े में बोल पड़ती है... "क्यों नही खुश होंगी... आज जो मन की मुराद पूरी होने वाली है।"
               "ठीक कह रही हो भाभी... सच में मेरी वर्षों की इक्षा पूरी होने वाली है"
               "हम लोगों को पहले ही मालूम था ननद जी...इतनी आसानी से हमें सुख - चैन थोड़ी न मिलने वाला है"
               "लेकिन छोटी तुम्हे किस चीज की कमी है जो हम लोगों की घर - गृहस्ती को..." कहते - कहते छोटा भाई रुक गया।
               "भैया...मैं आज रुकने वाली नहीं हूं... आज अपना अधिकार लेकर ही रहूंगी" इतना कहकर ममता भावुक हो गई। ममता की बात सुनकर सभी भाई मायूस हो गए। "छोटे भैया...याद करो...मैं सबसे छोटी होने के बावजूद, मां के साथ नहीं सो सकती थी...तुमने सदा मां पर अपना ज्यादा अधिकार जताया... मां न चाहते हुए भी तुम्हारी बात रखी... मां से तुम्ही कहते थे ना कि अगर अपनी लड़की को अपने पास सुलाया तो मैं तुम्हारी लड़की को घर से भगा दूंगा...याद करो भैया...मुझे मां के सामीप्य की कमी आज भी महसूस हो रही है"
               "आप लोग चिंता मत करो...मैं संपत्ति में कोई भी हिस्सा लेने नहीं आई हूं... मैं तो अपने उस हिस्से का प्यार और दुलार लेने आई हूं...जो मुझे बचपन में न मिल सका...मैं मां को लेने आई हूं।"
                         
- सुधाकर मिश्र "सरस"
   महू - मध्यप्रदेश
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क्रमांक - 084



                      आदमीघर

 
             
"चल शहर चलते हैं?" शेर शेरनी से बोला।
"शहर? शहर में तो आदमी रहता है।"
"रहता तो है, लेकिन अब वो हमारी तरह बाहर नहीं घूमता घर में रहता है।"
"घर में क्यों?"
"क्योंकि बाहर कोरोना खड़ा है।"
"कोरोना क्या है?"
"राक्षस। जो इंसानों की कहानियों से बाहर निकल आया।"
"और अगर कोरोना ने हमें मार दिया तो?"
"तूने पहाड़ खोखले किए हैं?"
"न।"
"नदी गंदी की है?"
"बिल्कुल नहीं।"
"पेड़ काटे हैं।"
"कैसी बात करते हो।"
"तो फिर कोरोना तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ेगा।"
"शहर जाकर तुम आदमियों पर मूँगफलियाँ फेंकना। मूँगफली न मिले तो छोटे-छोटे कंकर। जैसे चिड़याघर में आदमी हम पर फेंकता है।"
"मज़ा आएगा। लेकिन वो...वो कुछ नहीं कहेगा?"
"मैडम, चिड़याघर में हम उसे कुछ कहते हैं?"
"नहीं तो।"
"तो फिर आदमीघर में वह हमें क्या कहेगा?"

- शिवचरण सरोहा
शकूर पुर - दिल्ली
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क्रमांक - 085



                     पुण्य की कमाई


     
     
 ज्वर में तपती मांँ को दवाई देने के बाद, रात भर उसके सिरहाने बैठ ठंडी पट्टी कर, प्रार्थना करते, जाने कब दोनों बेटा - बहू की आँख लग गई। भोर के उजाले के साथ ही सुगुनी देवी की कमज़ोर सी आवाज़ सुनाई दी - " पानी...।" अधनींद की खुमारी से निकल, आँखें मलते हुए, भैरूं, प्रभुकृपा का प्रत्यक्ष गवाह बन, माँ को घड़े में से पानी लेकर पिलाने लगा। अगले दो - तीन दिन में ही माँ की तबीयत में सुधार आ गया और वह फ़िर से प्याऊ पर बैठने का मन बनाने लगी। 
"अभी कहाँ हिम्मत है तुझमें, माँ, थोड़ा आराम तो कर ले।" चिंतित भैरूं ने सुगुनी देवी को प्यार भरा उलाहना दिया। 
" बेटा, मेरा आराम तो वहीं तेरे बापू की बनाई प्याऊ पर ही है। झुलसाती गर्मी से बेहाल, प्यासे कंठ लिए, आते - जाते राहगीरों को अपने रामझरे से जब तक पानी न पिला दूँ, तब तक कहाँ मुझे चैन पड़ता है? दो घड़ी सुस्ता लेते हैं वो भी, पीपल की छाँव में। सारे पंछी भी प्यासे होंगे, राह देखते होंगे मेरी। उनके परिंडे भी भरने हैं। मेरे नियत काम तो मुझे ही करने होंगे, बेटा। और फ़िर अब तो मेरी तबियत में भी सुधार है, है ना?"
सुबह प्याऊ पर बैठी अपनी माँ के चेहरे पर खेलती पुण्य की कमाई से भरी, तृप्त मुस्कान देख , भैरूं इस उम्र में भी माँ के सेवाभाव को देख, नतमस्तक हो उठा। 

  - डाॅ. विनीता अशित जैन
       अजमेर - राजस्थान
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क्रमांक - 086 



                  मुक्कमल ज़िंदगी 

 


शहर के व्यस्त चौराहे पर हुई भयंकर दुर्घटना में पति की मौत की खबर ने भोलवी को अंदर - बाहर से झिंझोड़ कर रख दिया। आई इस विपत्ति पर स्तब्ध वह अपने दो मासूम बच्चों को सीने से लिपटा कर आँसुओं का समंदर बहाने लगी। सास - ससुर पर जैसे बज्रपात हो गया। और वे चेतना  शून्य हो गए। ई - रिक्शा चलाकर पूरे परिवार का भरण - पोषण करने वाला उसका पति उसे ता जिंदगी अकेला छोड़ कर बेशुमार मुसीबतों की फेहरिस्त थमा गया। जिसमे दर्ज थे दो जून की रोटियों की जुगाड़। पहाड़ जैसी वैधव्य  ज़िंदगी,  बीमार  सास - ससुर की तीमारदारी, बच्चों की तालीम वगैरह-वगैरह.... समझ नहीं पा रही थी की आखिर घर को कैसे संभाले। 
बेवक्त पतझड़ के इस क्रूर  मौसम में अपनो ने सहायता के हाथ बढ़ाने की बजाय मशवरों  की झड़ी लगा दी।
 दूसरी शादी कर लेने, सास - ससुर को आश्रम भेज देने,  बच्चों को लेकर गाँव चले जाने, घर - घर जाकर साफ - सफाई के काम करने इत्यादि...। सारे मशवरों ने उसके दुखों के सागर को और गहरा कर दिया। इसके पहले कि वह दुखों के सागर में डूब जाए उससे उबरने के लिए उसने फैसला लिया कि खुद तैरना सीखना होगा।
बुलंद हौसले की ज़मीन पर उसने अपना फैसला दर्ज किया। घर की थोड़ी बहुत जमा - पूंजी से उसने ई-रिक्शा का इंतजाम किया और अपनी रुकी हुई जिंदगी को सड़क पर उतारकर उसे मुकम्मल रफ्तार देने में जुट गई। तानों , उलाहनों, फिकरों से भरी कंटीली,  पथरीली उबड़ - खाबड़ रास्तों को तय करते हुए वह खुश थी कि जिस मोड़ पर उसके पति का साथ छूटा था वहीं से नई जिंदगी की शुरुआत की थी और जहां से एक नई सुबह की दस्तक उसे साफ सुनाई दे रही थी।

- पूनम सिंह
  रोहिणी - दिल्ली 
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क्रमांक - 087 



             जमीन तो बिकनी ही थी 

 

 
           मोहना कनाडा से आई शमशेर की चिठ्ठी पढ़ कर गुरदित को सुना रहा था | गुरदित की आँखों में ख़ुशी और दुःख के आंसू एक साथ बह रहे थे | चिठ्ठी के  शब्द कम अतीत की बातें ज्यादा याद आ रही थी |  
 “शमशेर ओ शमशेर कहाँ है , यार तेरा दसवी का रिजल्ट आ गया ,ओ तू ताँ कमाल कारता 90 परसेंट नंबर आए है तेरे ,ओ कहाँ है तू ?” मोहना चिल्लाता चिल्लाता बेबे के पास रसोई में पहुँच गया | बेबे लाओ मुहँ मीठा कराओ शमशेर ने तो पुरे गाँव में वाह वाही करा दी | बेबे भी एक  गोंद का लडू मोहने को देते हुए दूसरा शमशेर को खिलाने के लिए बाहर पशुओं के बाड़े की ओर चल दी |
           शमशेर ने दिन रात मेहनत इसलिए की थी कि अगर उसके अच्छे नंबर आ गए तो वो चंडीगढ़ जाएगा पढ़ने |लेकिन पिता गुरदित की बात सुनकर उसे लगा उसके तो सपने हो गए स्वाहा | शमशेर को साफ साफ़ समझा दिया गया दो साल तो यहीं पास के गॉव में साइकिल पर जाकर ही पढ़ना पड़ेगा | इतने सीमित साधनों में तुम्हेँ पढ़ाया जा रहा है ये क्या कोई छोटी बात है | 
              शमशेर ने साथ वाले गॉंव में दाखिला तो ले लिया पसंद के विषय ना मिलने पर पढ़ने में वो रूचि ना रही जो पहले थी | एक साल पूरा होते होते शमशेर की आदतें , सिद्दांत ,दोस्ती सब कुछ बदल गया | गुरदित भी इन बातों से अनभिज्ञ नहीं था पर सोच नहीं पा रहा था कि वो कहाँ गलत हो गया था और सब कुछ ठीक कैसे करे |पैसे की कमी के कारण उसने अपनी सुंदर फूल सी बेटी बसंतो  को भी गॉंव वालों के कहने में आकर जल्द ही डोली में बिठा दिया था | यही सब सोचकर उसका दिल बैठा जा रहा है और रास्ता सूझ नहीं रहा | 
                              इन्हीं सब परेशानियों के बीच बसंतो आई अपने जेठ गगनदीप  के साथ जो कनाडा से आया हुआ था | बाप का उतरा चेहरा देखकर और भाई की सपनीली बातें सुनकर उससे कुछ छुपा ना रह सका | गगनदीप ने सलाह दी , “ बापू पंद्रह लाख तक का इंतजाम कर दो तो मैं शमशेर को अपने साथ ले जाऊंगा वहां काम में खप जाएगा तो नशा पता भी छोड़ देगा , बंदा बन जाएगा बंदा |” यही दो किले जमीन ही तो है मेरे पास बेच दूंगा तो मुझे तो दिहाड़ी ही करनी पड़ जाएगी | 
           “ बापू आज बच्चे के लिए जमीन नहीं बेचोगे तो वो कल नशे के लिए बेच देगा | जमीन बचा कर भी क्या करोगे जब रोज बच्चे को तिल  तिल कर मरता देखोगे | जमीन तो बिकनी ही है बच्चे की ख़ुशी के लिए आज ही बेच दो | आपने भी काम ही करना है दूसरे के खेत में कर लेना और बापू कभी तो बच्चे की हँसते की आवाज सुनोगे |” गुरदित हैरान हो कर बसंतो को देख रहा था कि ये बेटियाँ भी ना जाने कैसे कब इतनी बड़ी हो जाती हैं कि माँ बाप को सलाह देने लग जाती हैं |

      -  नीलम नारंग 
       मोहाली - पंजाब
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क्रमांक - 088 



                       दोषी कौन




 "ओ  सब्ज़ी वाले -- सारी  सब्जियाँ एक ही पॉलिथिन में डाल कर मत दिया करो!"     जैसा पिछली बार  दे दिया था। 
"काहे-- मैडम जी? "       
                            "अरे!  घर जाकर  फिर सब को छाँट कर अलग-  अलग  करने का काम बढ़ जाता है ना। "
"हाँ ! सो तो है।"  लेकिन का करें - सरकार  तो पॉलिथिन पर रोक लगा रही है।बड़ी मुश्किल से चोरी -छिपे  आप जइसन ग्राहकों को ये देते हैं। 
                             "अरे हाँ! मैं भी तो रोज तुम से ही सारी सब्जियाँ  खरीदती हूँ ना।"                      फिर हम ग्राहक तो अपनी सहूलियत का अधिकार भी चाहेंगे ना।                       माना पॉलीथिन पर्यावरण के लिए दीर्घ काल में नुक़सानदेह है पर आज इससे कितनी सहूलियत होती है।
उसी ठेले से गाजर चुनती नीरा देर से दोनों का वार्तालाप सुन रही थी।                        अंत में नीरा से रहा ना गया। उसने महिला को घूरते हुए  देखा, और तीखे स्वर में पूछा--- और आपका  अधिकार के साथ कर्तव्य क्या  है ?

- डाॅ पूनम देवा
  पटना - बिहार         
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क्रमांक - 089 



                        तेरे बगैर




 "मैं नहीं रह सकती तेरे बगैर! तुम से ही मेरा संसार है!"
अंजु जब भी समर्पित भाव से अपने पति से ये बात कहती तो पति का पुरुषत्व अपनी मूंछें ऐंठता हुआ पत्नी को एक दीन - हीन, लाचार, अस्तित्व हीन नारी समझा करता। अंजु की यह आस मन में रह जाती कि कभी पति भी पलट कर यही बात कहे...
इसी आशापूर्ति के लिए एक दिन अंजु ने कहा "सुनिए जी ! मैं कुछ दिनों के लिए यदि मायके चली जाऊँ तो आप रह लोगे न..?"
"हाँ जाओ! मुझे कोई फर्क नहीं पड़ने वाला। घर से अच्छा खाना तो बाहर मिल जाता है।बाई घर के सारे काम कर ही देगी।बाहर से थका -हारा आऊँगा तो लेटते ही नींद आ जाएगी। तुम्हारी जरूरत ही क्या है?"
अपने अस्तित्व के हजारों टुकड़े गीले आँचल में दबाकर घर से निकल पड़ी अंजु!
पति के शब्दों से घायल गिरती -सँभलती सड़क पार कर रही थी कि एक वाहन ने आकर कुचल दिया।जमीन पर जड़ पड़ा था अंजु का शरीर और पिघल रहा था पति का दंभ...
एक मौन चीख गूँज रही थी वातावरण में..
" लौट आओ अंजु। मुझे बहुत जरूरत है तुम्हारी। मैं नहीं रह सकता तुम्हारे बगैर..."
बोल उठी अंजु की आत्मा.
"अब बहुत देर हो चुकी है"

- डॉ सुरिन्दर कौर नीलम
      राँची - झारखंड
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क्रमांक - 090



                          तमाचा




सुशील अपने शालीन व्यवहार के लिए घर परिवार व समाज के साथ साथ विद्यालय में भी जाना जाता था। विद्यालय में उद्घाटन समारोह होना था। उसके लिए सुशील को मंच संचालन के लिए कहा सुशील ने कहा "ठीक है"। मैं मंच संचालन कर लूंगा।इलाका विधायक के साथ सांसद ने मुख्यातिथि रूप में शिरकत करनी थी। विधायक के गुर्गों को पता चला कि सुशील विद्यालय में मंच संचालित करेगा। उन्होंने एक योजना पर काम किया 
इसकी भनक स्थानीय विधायक को भी नहीं थी। जैसे मुख्यातिथि मंच में विराजमान हुए तो सांसद के पी. ए को लेकर विधायक का गुर्गा पंहुच गया और सुशील को अपने तरीके से मंच चलाने के लिए कहने लगे। सुशील ने समझबूझ से काम लिया सीधे ही मुख्यातिथि सांसद से कहा कि आप क्या जल्दी में जाने वाले है। तो आपका भाषण करवा दूं। सांसद मुख्यातिथि ने कहा कि अगर इलाका विधायक चाहते हैं! तो मैं जल्दी चला जाऊंगा। विधायक साथ बैठे थे। आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? विधायक ने सुशील से कहा।
क्योंकि आपके महामंत्री खड़े है! कह रहे हैं सांसद को जल्दी जाना है। सुशील ने कहा। 
विधायक ने महामंत्री को बुलाया और कहा कि सुशील को अपनी तरह से मंच का संचालन करने दो वहां मंच के पास क्यों मजहबा लगाया है? विधायक ने महामंत्री को फटकार लगायी।वहां से महामंत्री तत्काल हट गया। एक महीने के अंतराल महामंत्री को उसके पद से हटा दिया गया। समय का चक्र चला। सुशील को मंत्री का विशेष अधिकारी नियुक्त कर दिया गया । महामंत्री मुंह ताकता रह गया। 

- हीरा सिंह कौशल 
 मंडी - हिमाचल प्रदेश 
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क्रमांक - 091



                        रिंगटोन 



 आज श्रुति मन कहीं लग नहीं रहा था । वह पार्क में बैठने के लिए चली आई । आकर एक बेंच पर बैठ गई और सामने बच्चे खेल रहे थे, कुछ बुजुर्ग धीरे-धीरे टहल रहे थे, कुछ युगल घास पर बैठे बतिया रहे थे । 
बैठे-बैठे कुछ दिन पहले की बातें श्रुति के मन में चलने लगा  'अवि को कितने प्यार से समझाई थी कि देखो काम अपनी जगह और रिश्ते अपनी जगह काम के लिए रिश्ते को भूला नहीं जाता । लेकिन मेरी बातों का उस पर कोई असर ही नहीं होता । दो दिन से न तो फोन करता है और न ही कोई मैसेज। मैं फोन करती हूँ तो नोट रिचेबल आता है । अब क्या करूँ , कैसे समझाऊँ उसे कि वह बहुत-बहुत दिनों के लिए जब बाहर जाता है तो मुझे अकेले मन तो नहीं ही लगता है , बल्कि बात नहीं होने से चिंता भी होने लगती है । जाने कैसे-कैसे ख्याल  आने लगते हैं । कहीं मुझे झूठ तो नहीं कहता । मेरे अलावा कहीं कोई और भी तो नहीं उसकी जिंदगी में ?'  
"ना बाबा ना .. " सहसा उसके मुंह से निकला और एकदम से सिहर सी गई वह ।
तभी उसका मोबाइल बज उठा ।  रिंगटोन से ही समझ गई अवि का ही फोन है । ये रिंगटोन अवि ने ही मेरे मोबाइल में सेट कर दिया था । 'क्या मालूम यहाँ से दूर रहने की उसकी मजबूरी मेरे लिए भी क्या सोच रहा हो ?'
आंखें पनीली हो गई और बुदबुदाई 'धत् मैं भी ना जाने क्या क्या सोचने लगी थी । पर भूला नहीं है वो..'  इधर मोबाइल में रिंगटोन बज रहा था "भुला नहीं देना जी, भुला नहीं देना, जमाना खराब है ... "

- पूनम झा 'प्रथमा '
कोटा - राजस्थान  
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क्रमांक - 092



                          उम्मीद


 

     दिल्ली में रहने वाले श्याम सुंदर जी के पास गांव से फोन आया।
     " नमस्ते श्याम सुंदर जी, मैं आपके गांव से आपका पड़ौसी शर्मा बोल रहा हूं... पंडित सेवाराम शर्मा... पहचाना...! कैसे हो बेटा...? सुनों, आपके पिताजी बाथरूम में गिर पड़े हैं... हमने उन्हें तुरंत गांव में डॉक्टर को दिखाया...डॉक्टर साहब ने फर्स्ट एड के बाद उन्हें पास ही के शहर के एक बड़े अस्पताल में रेफर कर दिया है... आपकी वृद्ध माता जी अकेली हैं... आप तत्काल यहां आइए... उन्हें संभालिए... और हां... अस्पताल का हिसाब भी करना है...।" सेवाराम पंडित  ने एक ही सांस में अपनी बात खत्म कर डाली। फोन का बिल जो बढ़ रहा था।
     " अंकल जी नमस्ते... आपकी बड़ी मेहरबानी... आप लोगों के भरोसे ही तो मम्मी- पिताजी गांव में हैं और हम बेफिक्र हैं...।" कहकर श्यामसुंदर ने एक लंबी सी सांस ली।
     " मेहरबानी काहे की बेटा... इंसान, इंसान के ही काम आता है...।"
      इसी बीच श्यामसुंदर ने अपनी अगली भूमिका तैयार कर ली।
     " अंकल जी, क्षमा चाहता हूं...कल सुबह ही मुझे बिजनेस समिट में अमेरिका जाना है... कृपया आप देख लीजिए... जो भी खर्च होगा भिजवा दूंगा...।" इतना कहकर श्याम सुंदर ने फोन ऑफ कर दिया। उसके पास कुछ और कहने- सुनने का समय ही कहां था?
      सेवाराम जी को इस  संपन्न बेटे से ऐसी तो उम्मीद नहीं थी‌। वे काफी देर तक फोन को अपलक देखते ही रह गए।
              
- रशीद ग़ौरी
  सोजत सिटी - राजस्थान
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क्रमांक -093



                खोया हुआ आदमी 



    रवि के दादाजी काफ़ी उम्र के थे ।उन्हें अपने स्वास्थ्य के लिए टहलना भी ज़रूरी था ।नहीं तो शुगर बढ़ जाता है ।
    दादा जी कहते हैं आज के समय ऐसा होगा कोई नहीं जानता था ।मनुष्य एक दूसरे से मिलता नहीं ।अपने दिल की बातें नहीं कर सकता है ।सभी अपने अपने पिंजरे /घोंसले में बंद रहते हैं ।
     दादाजी की उम्र हो चुकी थी ।उनकी याददाश्त कभी कभी काम नहीं करती थी ,किंतु दिल से इस बात को स्वीकार नहीं करते थे ।अपने आत्मविश्वास से जी रहे थे ।एक दिन शाम के सैर करने में अपने सड़क छोड़ किसी दूसरे रास्ते को पकड़ कर चले जा रहे थे ।क्योंकि उस गली में पुराने थे ।तो सभी एक दूसरे को पहचानते थे ।रवि का मित्र  उन्हें देख रहा था ।दादाजी !दादाजी !आप अपने गली से भटक गए हैं ।किंतु अपने ज़िद्दी स्वभाव के कारण मानने को तैयार नहीं थे ।खोया हुआ आदमी (दादाजी)को रवि के दोस्त ने रवि के घर पहुँचा दिया।

- सुधा पाण्डेय 
  पटना - बिहार
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क्रमांक -094



                     भाईचारा



" देव! यह तुम्हारे साथ कौन आया है?" पंडित शशि शर्मा ने पुत्र से घर में प्रवेश करते ही सवाल किया।
" पिताजी! यह मेरे बचपन के दोस्त सतीश है।" युवा ने मुस्कान चेहरे पर मुस्कान बिखेरते हुए कहा। 
"पर बेटा..." पिताजी कुछ कहते- कहते रुक गए ।
"पिता जी! हम दसवीं तक गांव के स्कूल में पढ़े थे, अब यह अपने शहर में इंजीनियरिंग कर रहा है।" "अच्छी बात है।" पिताजी ने बात में बात मिलाई।
" पिताजी, इसका शहर में कोई नहीं है... हमारे पास एक कमरा खाली है ..तो उसे इसको दे देते हैं।" देव ने पिता की स्वीकृति लेने की अपेक्षा की।
" पर यह तो शायद... उस जाति... से.." पिताजी का अधूरा वाक्य बहुत कुछ कह रहा था। "पिताजी,आप तो अध्यापक हो... फिर भी..."
 "बेटा, देखो जाति- धर्म तो निभाना ही पड़ता है ।"
बीच में टोकते हुए पिताजी ने कहा।
 "अच्छा पिताजी, जब आप बीमार होकर 5 दिन मेडिकल में एडमिट रहे तो आपके कपड़े.. चारों तरफ की सफाई... यहां तक कि भोजन परोसना... सब काम स्पेशल वार्ड में कौन करता था?" देव ने पिता से आपत्तिजनक ढंग से उत्तर दिया।
 "मगर बेटा, बीमारी में तो..."
" नहीं पिताजी, हम विद्यार्थी एक ही जाति के हैं इसलिए दोनों भाई हुए । याद करो.... आपने एक दिन हमारे स्कूल की प्रार्थना सभा में क्या कहा था... बच्चों तुम सब भाई -भाई हो ,छात्र ही तुम्हारी जाति है और विद्या तुम्हारी माता है।" बेटे ने बीते समय को पल में ही स्मृतिपटल पर प्रस्तुत करा दिया।
 पंडित शशि शर्मा ने दोनों के पुराने भाईचारे को देखते हुए सतीश को घर में रहने की अनुमति दे दी ।

- डॉ चंद्रदत्त शर्मा चन्द्र
     रोहतक - हरियाणा
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क्रमांक -095



            राजनीति और शिक्षक 




सीता नौकरी और घर में अपने बोधि उत्तरदायित्व का निर्वहन करते हुए निरन्तर उन्नति के पथ पर आगे बढ़ रही थी l अपने क्षेत्र में उसका काफी सम्मान था l प्रधानाचार्य पदोन्नति के बाद भी पूर्ण निष्ठा और लगन से उसने कितनी ही मिसालें कायम की और उसे राज्य स्तर पर सम्मानित किया गया l राजस्थान में इतने सारे जिले और उसमें भी एक छोटा सा गाँव जहाँ वह प्रधानाचार्य पद पर आसीन l
           अचानक तीन साल बाद उसका तबादला शिक्षा मंत्री ने घर से डेढ़ सौ किलोमीटर दूसरे जिले में कर दिया l घर में बूढ़ी सासू माँ और स्वयं दिल की मरीज़ l अनेक प्रार्थना- पत्र
देकर, स्वयं उपस्थित होकर कितनी ही बार गुहार लगाई, लेकिन गुहार कौन सुने l कहा-आप मिलने नहीं आईं l शिक्षा निदेशक के अधिकारों से तो हाथ ही काट दिए गए l सीता ने तीन महिने तक जॉइन नहीं किया, इस आशा में कि कुछ घर के नजदीक आ जाए l अब गुहार कहाँ लगे, सुनवाई नहीं हुई l   हिम्मत कर उसने घर से डेढ़ सौ किलोमीटर दूर जाना-आना स्वीकार्य किया l प्रतिदिन तीन घण्टे आना-जाना, सासू माँ की सेवा और घर संभालना तय कर लिया लेकिन देखिए, यह कैसी राजनीति जो शिक्षक की जिंदगी से खिलवाड़ कर रही है l 

   - डॉo छाया शर्मा
    अजमेर - राजस्थान
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क्रमांक -096



                  अपना -तेरा 


                                  

मालकिन - मीरा कल से तुम्हें  खाना बनाने नहीं  आना है ।  दो माह के पश्चात हम तुम्हें फिर से बुला लेंगे ।  
मीरा - मालकिन ,पिछले दो माह से मैं खाना बना रही थी और सभी को मेरा बनाया खाना पसंद भी आ रहा था । साहब ,बच्चे और विशेष कर आपकी माँ यानि बच्चों की नानी को मेरे द्वारा बनाया खाना उनके गाँव के जैसा ही स्वादिष्ट लगता था फिर भी मुझे मना क्यों किया जा रहा है ? मेरे घर की आर्थिक दशा तो आपको पता ही है । दो माह  में तो मेरा बजट ही बिगड़ जायेगा ।
मालकिन - मेरी माँ वापस जा रही हैं । उनके जाने के बाद  तुम्हारे साहब की माँ यानि मेरी सासू माँ दो माह के लिए यहांँ आ रही हैं ।
मीरा - मालकिन आपकी सासू माँ की उम्र तो आपकी माँ से 
दस वर्ष अधिक है । फिर कैसे ?
मालकिन - चुप रह । बकवास मतकर । 
    
       -  निहाल चन्द्र शिवहरे 
          झाँसी - उत्तर प्रदेश
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क्रमांक - 097



                          समय


                          

प्रदीप को बधाई देने वालों का तांता लगा था।मकान व उसी में नए ऑफिस का उद्घाटन,सोचा भी नहीं था आज उसकी शान निराली थी । बधाइयां लेते धन्यवाद करते हाथ व मुंह दुखने लगा था।
रात हो गई सब चले गए,अजीब सी खुशी भरी थकान, थकान भी नहीं उल्लसित उत्साहित मन पलकें मूंदने तैयार ही नहीं थे , खुशियां आज उसके चारों ओर नृत्य कर रही थी।
पैसों की तंगी के चलते बारहवीं तक ही पढ़ पाया था और पिता की अचानक मृत्यु के बाद घर की जिम्मेदारी। बहुत आहत था । मामूली सी अकाउंटस की 4000रू.की नौकरी करते पसीना बहाते दस साल गुजर गए और आज,आज उसने अपने ऑफिस में चार सी.ए को नौकरी दी है, बाकी स्टाफ अलग।यह उन्नति कम तो नहीं।
आज उद्घाटन में सारे रिश्तेदार ताऊ की लड़कियां, चचेरी बहनें,चाचीयां,ताई,ताऊ, सभी के खुशी से दांत बाहर गिर रहे थे । तारीफ़ करते नहीं थक रहे थे।
   तभी एक बहन आई व कहने लगी भैया , मुझे भी सिखाना और नौकरी दिलाना इन दिनों परेशान हूं और उसने हामी भरी।
याद आया उसे वह दिन जब वह चचेरी बहन की शादी में गया था,सबने उसे हिकारत भरी नजरों से देखा था खाने तक को नहीं कहा । उसने काम बताने कहा तो मना कर दिया ,डर गए कही कुछ पैसों में हेर-फेर न कर दे। दादी ने जरूर लाड़ किया और खाने को कहा, वह भरी आंखों से घर आया था।
     दस साल बाद यह वही लोग हैं जो उसकी तारीफ करते गले लगाते नहीं थक रहे थे।
आज फिर आंखें भर आई ।आज आंखों में दुख के आंसू न थे ,मिश्रित आंसू खार व मिठास लिए गालों पर ढुलकते हुए उससे पूछ रहे थे तुम्हारा समय बदल गया है या ये लोग , फिर आंसुओं नें हंसकर कहा - तुम तो वही हो ,यह तुम्हारा नहीं, तुम्हारे बदले समय , तुम्हारी धन दौलत और तुम्हारी प्रतिष्ठा का सम्मान  है ।
      आंसूओं ने हौले से कानों में कहा अब सो जाओ समय बहुत हो गया है, बहुत रात बीत गई तुम्हें कल समय से उठना है और कड़ी मेहनत करते हुए धन दौलत और मान प्रतिष्ठा को कायम रखना है। अगर ऐसा नहीं किया तो समय फिर बदल सकता है।समय की कद्र करो।

- डॉ.संगीता शर्मा 
हैदराबाद - तेलंगाना
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क्रमांक - 098



                        चिराग


                                                   

उबासी लेते हुए अर्षदीप ने आपनी दादी मां की गोद में सिर टिका दिया । 
अरे ना ,मेरे बच्चे को तंग ‌ना करो।
अर्षदीप ने सिर खुज़लाते हुए दादी मां के पास शिकायत करते हुये कहा,' मुझे मारा है इसने ।
--कोई बात नहीं मैं मांरुगी इसे ।
'आ हा ! दादी मारेगी ,दादी मारेगी।'
'सिर पर चढ़ा रखा है , कोई सीख ना लेने देना।'
'तेरे को किसने सीख दी है ? आया बड़ा सीख देने वाला।'
'मुझे सीख दी है, मेरे बापू ने ।'
'अच्छा ! मैंने कुछ नहीं दिया. . . ?'
' आप ने तो सिर्फ मारा है,झिड़की दी है ,कान खींचे हैं ।'
'मैंने . . .मारा है .?'
'नहीं मां , सिरियस मत हो ,आपकी नसीहत को कैसे भूल सकता हूँ । तुम तो मेरा खुदा हो।'
 ' वाह ! मेरे लाल . . .।' आपने पोते के साथ ही मां ने  (बुक्कल) बाहों में लेते हुये माथा चूम लिया।
'अब जाओ बेटा , पापा के साथ ऊँगली पकड़ कर जाओ।'
' ऊँगली पकड़ कर , आह. . .हा.ऊँगली पकड़ कर ।'अर्षदीप ने आपने पापा की ऊँगली जोर से पकड़ ली।

                    - डॉ नैब सिंह मंडेर
                       रतिया -हरियाणा 
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क्रमांक - 099



                        बेटियां

  
 

 वह चार बहनों में सबसे छोटी थी!
 जो भी घर में आता पिता से सहानुभूति जताता... 
चार बेटियां!! 
अरे रे! 
दहेज देते देते ही बूढ़ा  हो जाएगा बेचारा... चिता को आग देने वाला भी कोई नहीं! 
उस क्षण बेटियों को बेटा कहने वाले पिता का चेहरा भी मायूसी से भर उठता! 
बड़ी बहन रुऑसी हो उठती! 
मंझली बहनें गुस्से में बड़बड़ाती और उसकी आंखों में निश्चय की लाली उतर आती! 
समय ने करवट ली! बड़ी दोनों  बहनें विश्वविधालय मे प्रवक्ता चयनित हुईं और मंझली डॉक्टर बनी, और वो बनी- जिला कलेक्टर.. 
माता-पिता अब 'कलेक्टर भवन' में रहते हैं! 
अब जो भी घर मे आता है, कहता है- 'काश हमारी भी होतीं ऐसी बेटियां'!

- अंजू अग्रवाल 'लखनवी'
अजमेर -  राजस्थान
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क्रमांक - 100



                  बेटा नहीं बेटी


                     

 "दादाजी दादाजी आप भी मुझे पावनी पोता कहकर बुलाइए ना सिमरन के दादाजी उसको सिमरन पोता कह कर बुलाते हैं सिमरन को बहुत अच्छा लगता है, वह कहती है कि लड़के और लड़की में उसके घर में कोई फर्क नहीं होता है ।"
 पावनी कि बातें सुनकर लता मुस्कुरा दी।
पावनी की बातों को सुन दादा जी बोले,"देखो बुआ आई है उससे पूछो उसको हम कभी बेटा बोले हैं?" 
पावनी लता से पूछने आई और लता के ना कहने पर ठूनकते हुए बोली दादा जी "बुआ तो बहुत बड़ी है आप हमें पोता कहिए ना।" उसको ठूनकते देख लता को बचपन याद आ गया। आज तक पापा ने अपने जीवन में कभी भूल कर भी बेटा नहीं कहा। हमेशा बेटी और बेटी की तारीफ । उस वक्त मन में एक मलाल था। खैर पापा के मना करने पर पावनी रूठ गई मुँह फुलाकर दादाजी के कमरे में बैठ गई। 
     दादाजी पावनी को समझाने लगे "तुम्हारा भाई  कभी नहीं कहता कि हमें पोती कह कर बुलाओ फिर तुम क्यों कहती हो कि हमें पोता कहकर बुलाइये ?"
इस पर पावनी कहती है कि "पवन तो लड़का है । 
दादाजी उससे कहते हैं "तो क्या हुआ तुम भी तो लड़की हो तुम्हें क्यों दूसरे कि पहचान चाहिए। तुम जो हो खुद में पूर्ण हो। तुम कह रही थी कि सिमरन के दादाजी कहते हैं कि बेटा बेटी में फर्क नहीं फिर अपने पोते को पोती क्यों नहीं बोलते जब पोते को पोती  बोलने में शर्म आती है तो पोती को पोता बोलने में कैसा गर्व ? जिस दिन सिमरन के दादा जी अपने पोते को पोती बोलने लगेंगे मैं भी तुम्हें पोता बोलूंगा।" पावनी को शायद ही दादाजी की गूढ़ बातें समझ में आई होंगी पर वह इस इंतजार में खुश हो गए कि कभी तो सिमरन के दादाजी अपने पोते को पोती कहेंगे। 

- मिनाक्षी कुमारी
   पटना - बिहार
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क्रमांक - 101



                         बेचैनी

  


भीषण गर्मी।बस में भीड़ और लंबा जाम।यात्री पसीना पसीना हो रहे थे। छोटे बच्चे तो बहुत परेशान थे।
एक प्यासा बालक बहुत रो रहा था। मां पानी की तलाश में इधर उधर नजर दौड़ा रही थी।
उसकी बोतल का पानी समाप्त हो गया था।ऐसी स्थिति लगभग सभी यात्रियों के साथ थी।
जंगल का इलाका।दूर दूर तक पानी की कोई व्यवस्था नहीं। सब बेहाल। मां बेचारी क्या करें?
ड्राइवर ने शीशे से उस महिला और बच्चे की 
स्थिति देख ली।वह अपनी सीट से उठा और 
आगे खड़ी बस के ड्राइवर के पास जाकर एक गिलास पानी लाकर उस महिला को थमा दिया।
अब बालक पानी पी रहा था,उसकी मां के चेहरे से बेचैनी गायब हो गयी थी।

- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
   धामपुर - उत्तर प्रदेश
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         बीजेन्द्र जैमिनी ( Bijender Gemini )

जन्म : 03 जून 1965
शिक्षा : एम ए हिन्दी , पत्रकारिता व जंनसंचार विशारद्
             फिल्म पत्रकारिता कोर्स
            
कार्यक्षेत्र : प्रधान सम्पादक / निदेशक
               जैमिनी अकादमी , पानीपत
               ( फरवरी 1995 से निरन्तर प्रसारण )

मौलिक :-

मुस्करान ( काव्य संग्रह ) -1989
प्रातःकाल ( लघुकथा संग्रह ) -1990
त्रिशूल ( हाईकू संग्रह ) -1991
नई सुबह की तलाश ( लघुकथा संग्रह ) - 1998
इधर उधर से ( लघुकथा संग्रह ) - 2001
धर्म की परिभाषा (कविता का विभिन्न भाषाओं का अनुवाद) - 2001

सम्पादन :-

चांद की चांदनी ( लघुकथा संकलन ) - 1990
पानीपत के हीरे ( काव्य संकलन ) - 1998
शताब्दी रत्न निदेशिका ( परिचित संकलन ) - 2001
प्यारे कवि मंजूल ( अभिनन्दन ग्रंथ ) - 2001
बीसवीं शताब्दी की लघुकथाएं (लघुकथा संकलन ) -2001
बीसवीं शताब्दी की नई कविताएं ( काव्य संकलन ) -2001
संघर्ष का स्वर ( काव्य संकलन ) - 2002
रामवृक्ष बेनीपुरी जन्म शताब्दी ( समारोह संकलन ) -2002
हरियाणा साहित्यकार कोश ( परिचय संकलन ) - 2003
राजभाषा : वर्तमान में हिन्दी या अग्रेजी ? ( परिचर्चा संकलन ) - 2003

ई - बुक : -
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लघुकथा - 2018  (लघुकथा संकलन)
लघुकथा - 2019   ( लघुकथा संकलन )
नारी के विभिन्न रूप ( लघुकथा संकलन ) - जून - 2019
लोकतंत्र का चुनाव ( लघुकथा संकलन ) अप्रैल -2019
मां ( लघुकथा संकलन )  मार्च - 2019
जीवन की प्रथम लघुकथा ( लघुकथा संकलन )  जनवरी - 2019
जय माता दी ( काव्य संकलन )  अप्रैल - 2019
मतदान ( काव्य संकलन )  अप्रैल - 2019
जल ही जीवन है ( काव्य संकलन ) मई - 2019
भारत की शान : नरेन्द्र मोदी के नाम ( काव्य संकलन )  मई - 2019
लघुकथा - 2020 ( लघुकथा का संकलन ) का सम्पादन - 2020
कोरोना ( काव्य संकलन ) का सम्पादन -2020
कोरोना वायरस का लॉकडाउन ( लघुकथा संकलन ) का सम्पादन-2020
पशु पक्षी ( लघुकथा संकलन ) का सम्पादन- 2020
लघुकथा - 2021  ( ई - लघुकथा संकलन )
मन की भाषा हिन्दी ( काव्य संकलन ) का सम्पादन -2021
स्वामी विवेकानंद जयंती ( काव्य संकलन )का सम्पादन - 2021
होली (ई - लघुकथा संकलन ) का सम्पादन - 2021
मध्यप्रदेश के प्रमुख लघुकथाकार ( ई - लघुकथा संकलन ) - 2021
हरियाणा के प्रमुख लघुकथाकार (ई - लघुकथा संकलन ) -
2021
मुम्बई के प्रमुख हिन्दी महिला लघुकथाकार (ई लघुकथा संकलन ) - 2021
दिल्ली के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021
  महाराष्ट्र के प्रमुख लघुकथाकार ( ई - लघुकथा संकलन ) - 2021
  उत्तर प्रदेश के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021
  राजस्थान के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021
भोपाल के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021
  हिन्दी की प्रमुख महिला लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021
  झारखंड के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021
हिन्दी के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021
इनसे मिलिए ( ई - साक्षात्कार संकलन ) - 2021
सुबह की बरसात ( ई - लघुकथा संकलन ) - 2021
जीवन ( ई - लघुकथा संकलन ) - 2022
मैं कौन हूँ ( ई - काव्य संकलन ) - 2022

बीजेन्द्र जैमिनी पर विभिन्न शोध कार्य :-

1994 में कु. सुखप्रीत ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. लालचंद गुप्त मंगल के निदेशन में " पानीपत नगर : समकालीन हिन्दी साहित्य का अनुशीलन " शोध में शामिल

1995 में श्री अशोक खजूरिया ने जम्मू विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. राजकुमार शर्मा के निदेशन " लघु कहानियों में जीवन का बहुआयामी एवं बहुपक्षीय समस्याओं का चित्रण " शोध में शामिल

1999 में श्री मदन लाल सैनी ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी के निदेशन में " पानीपत के लघु पत्र - पत्रिकाओं के सम्पादन , प्रंबधन व वितरण " शोध में शामिल

2003 में श्री सुभाष सैनी ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. रामपत यादव के निदेशन में " हिन्दी लघुकथा : विश्लेषण एवं मूल्यांकन " शोध में शामिल

2003 में कु. अनिता छाबड़ा ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. लाल चन्द गुप्त मंगल के निदेशन में " हरियाणा का हिन्दी लघुकथा साहित्य कथ्य एवम् शिल्प " शोध में शामिल

2013 में आशारानी बी.पी ने केरल विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. के. मणिकणठन नायर के निदेशन में " हिन्दी साहित्य के विकास में हिन्दी की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं का योगदान " शोध में शामिल

2018 में सुशील बिजला ने दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा , धारवाड़ ( कर्नाटक ) के अधीन डाँ. राजकुमार नायक के निदेशन में " 1947 के बाद हिन्दी के विकास में हिन्दी प्रचार संस्थाओं का योगदान " शोध में शामिल

2021 में प्रियंका कुमारी ने जय प्रकाश विश्वविद्यालय , छपरा - बिहार के अधीन डॉ अनिता ( पटना ) के निदेशन में " आधुनिक हिन्दी लघुकथाओं का विकास : पत्र , पत्रिकाओं और संस्थाओं का योगदान " ( पी. एच . डी ) शोध में शामिल

सम्मान / पुरस्कार

15 अक्टूबर 1995 को  विक्रमशिला हिन्दी विद्मापीठ , गांधी नगर ,ईशीपुर ( भागलपुर ) बिहार ने विद्मावाचस्पति ( पी.एच.डी ) की मानद उपाधि से सम्मानित किया ।

13 दिसम्बर 1999 को महानुभाव विश्वभारती , अमरावती - महाराष्ट्र द्वारा बीजेन्द्र जैमिनी की पुस्तक प्रातःकाल ( लघुकथा संग्रह ) को महानुभाव ग्रंथोत्तेजक पुरस्कार प्रदान किया गया ।

14 दिसम्बर 2002 को सुरभि साहित्य संस्कृति अकादमी , खण्डवा - मध्यप्रदेश द्वारा इक्कीस हजार रुपए का आचार्य सत्यपुरी नाहनवी पुरस्कार से सम्मानित

14 सितम्बर 2012 को साहित्य मण्डल ,श्रीनाथद्वारा - राजस्थान द्वारा " सम्पादक - रत्न " उपाधि से सम्मानित

14 सितम्बर 2014 को हरियाणा प्रदेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन , सिरसा - हरियाणा द्वारा लघुकथा के क्षेत्र में इक्कीस सौ रुपए का श्री रमेशचन्द्र शलिहास स्मृति सम्मान से सम्मानित

14 सितम्बर 2016 को मीडिया क्लब , पानीपत - हरियाणा द्वारा हिन्दी दिवस समारोह में नेपाल , भूटान व बांग्लादेश सहित 14 हिन्दी सेवीयों को सम्मानित किया । जिनमें से बीजेन्द्र जैमिनी भी एक है ।

18 दिसम्बर 2016 को हरियाणा प्रादेशिक लघुकथा मंच , सिरसा - हरियाणा द्वारा लघुकथा सेवी सम्मान से सम्मानित

अभिनन्दन प्रकाशित :-

डाँ. बीजेन्द्र कुमार जैमिनी : बिम्ब - प्रतिबिम्ब
सम्पादक : संगीता रानी ( 25 मई 1999)

डाँ. बीजेन्द्र कुमार जैमिनी : अभिनन्दन मंजूषा
सम्पादक : लाल चंद भोला ( 14 सितम्बर 2000)

विशेष उल्लेख :-

1. जैमिनी अकादमी के माध्यम से 1995 से पच्चीस प्रतिवर्ष अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन

2. जैमिनी अकादमी के माध्यम से 1995 से प्रतिवर्ष अखिल भारतीय हिन्दी हाईकू प्रतियोगिता का आयोजन । फिलहाल ये प्रतियोगिता बन्द कर दी गई है ।

3. हरियाणा के अतिरिक्त दिल्ली , हिमाचल प्रदेश , उत्तर प्रदेश , मध्यप्रदेश , बिहार , महाराष्ट्र , आंध्रप्रदेश , उत्तराखंड , छत्तीसगढ़ , पश्चिमी बंगाल आदि की पंचास से अधिक संस्थाओं से सम्मानित

4. बीजेन्द्र जैमिनी की अनेंक लघुकथाओं का उर्दू , गुजराती , तमिल व पंजाबी में अनुवाद हुआ है । अयूब सौर बाजाखी द्वारा उर्दू में रंग में भंग , गवाही , पार्टी वर्क , शादी का खर्च , चाची से शादी , शर्म , आदि का अनुवाद हुआ है । डाँ. कमल पुंजाणी द्वारा गुजराती में इन्टरव्यू का अनुवाद हुआ है । डाँ. ह. दुर्रस्वामी द्वारा तमिल में गवाही , पार्टी वर्क , आर्दशवाद , प्रमाण-पत्र , भाषणों तक सीमित , पहला वेतन आदि का अनुवाद हुआ है । सतपाल साहलोन द्वारा पंजाबी में कंलक का विरोध , रिश्वत का अनुवाद हुआ है ।
5. blog पर विशेष :-
            शुभ दिन - 365 दिन प्रसारित
            " आज की चर्चा " प्रतिदिन 22 सितंबर 2019 से 17 मई 2021 तक  प्रसारित हुआ है ।
6. भारतीय कलाकार संघ का स्टार प्रचारक
7. महाभारत : आज का प्रश्न ( संचालन व सम्पादन )
8. ऑनलाइन कार्यक्रम : कवि सम्मेलन व लघुकथा उत्सव ( संचालन व सम्पादन )
9. भारतीय लघुकथा विकास मंच के माध्यम से लघुकथा मैराथन - 2020 का आयोजन
10. #SixWorldStories की एक सौ एक किस्तों के रचनाकार ( फेसबुक व blog पर आज भी सुरक्षित )
11. स्तभ : -
     इनसे मिलिए ( दो सौ से अधिक किस्तें प्रकाशित )
     स्तभ : मेरी दृष्टि में ( दो सौ से अधिक किस्तें प्रकशित )
12. लघुकथा साहित्य की प्रथम लघुकथा रैंकिंग - 2021 का आयोजन व संचालन

पता : हिन्दी भवन , 554- सी , सैक्टर -6 ,
          पानीपत - 132103 हरियाणा
          ईमेल : bijender1965@gmail.com
          WhatsApp Mobile No. 9355003609
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Comments

  1. बहुत बहुत बधाई! आदरणीय बीजेन्द्र जैमिनी जी! (लघुकथा- 2022 - संपादक) संकलन पठनीय एवं संग्रहणीय भी | यदि पुस्तक रूप में संकलन आती है तो स्थायित्व भी प्रदान |
    पुनः सादर वंदे!
    -- डॉ. सतीश चन्द्र भगत
    बनौली, दरभंगा, बिहार
    ( फेसबुक से साभार )

    ReplyDelete
  2. बहुत बहुत बधाई जी आदरणीय बीजेन्द्र जैमिनि जी (लघुकथा-2022- सम्पादक) पुस्तक रूप में संकलन हेतु अनन्त शुभकामनायें जी

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  3. मेरी लघुकथा शामिल करने के लिए हार्दिक आभार।

    ReplyDelete
  4. हार्दिक आभार

    ReplyDelete
  5. तहेदिल से आभारी हूं आदरणीय
    मेरी लघुकथा को भी स्थान मिला ।
    समय समय पर आयोजित लघुकथा सफर में मुझे भी अवसर मिलता रहा हैं ।
    आगे भी ये सफर अनवरत चलता रहें । कुछ लघुकथा पढ़ी हैं, सभी बहुत सुंदर लघुकथाएं हैं ।जो कसौटी पर खरी उतरती हैं ।
    इस के लिए सभी लघुकथाकारों को बधाई ,शुभकामनाएं।
    आदरणीय सर का तहेदिल से आभार !

    - बबिता कंसल
    शकरपुर - दिल्ली
    ( WhatsApp से साभार )

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  6. नमस्कार बीजेन्द्र जी 🙏
    आपको पहले तो 2022 की लघुकथा संग्रह के लिए अनेकानेक बधाई 🌹🌹
    आपके इस सफर की ऋंखला अनवरत बिना किसी अवरोध के अनंत तक अपना परचम फहराये यही ईश्वर से कामना और आशीर्वाद है!
    आपने मेरी लघुकथा को स्थान दिया इसके लिए हार्दिक धन्यवाद 🙏

    - चंद्रिका व्यास
    मुम्बई - महाराष्ट्र
    ( WhatsApp से साभार )

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  7. आदरणीय बिजेंद्र जैमिनी जी,
    आपने मेरी लघुकथा 'औकात ' को लघुकथा 2022 में स्थान दिया, ह्रदय से आभार।
    आपका पूरा बायोडाटा पढ़ा, सचमुच आप बहुत ही अच्छा काम कर रहे है। आप बधाई के पात्र हैं।

    - डॉ. उषालाल
    कुरुक्षेत्र - हरियाणा
    ( WhatsApp से साभार )

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  8. 2018, 19 ,20 और 21 के साथ इस वर्ष भी इस 2022 के बृहत्तर लघुकथा संकलन से शोधार्थियों के लिए आपने शोध का एक अध्याय और तैयार कर दिया।
    कथ्य और शिल्प की विभिन्नताओं से अंगीकृत संकलन के 100 कथाकारों की गर्वानुभूति के मूल में आपका लघुकथाओं से लगाव और अथक कार्य के लिए बहुत-बहुत हार्दिक बधाई और अनन्त शुभकामनाएं

    - डॉ. रेखा सक्सेना
    मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
    ( WhatsApp से साभार )

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