लघुकथा - 2020

                                                        
सिर्फ एक - एक लघुकथा

वर्तमान में लघुकथा साहित्य चरम सीमा पर है। ये खुद लघुकथा साहित्य ने अपनी पहचान बनाई है । अब तो प्रतियोगिता के साथ - साथ शोध आदि कार्यों में गति आई है । लघुकथा - 2018 व लघुकथा - 2019 की अपार सफलता के बाद अब लघुकथा - 2020 का सम्पादन किया जा रहा है । जो सफलता की ओर एक कदम है ।  आज के समय में लघुकथा साहित्य में बहुत अधिक विभिन्नता आई है ।  जिस का एक - एक कदम बहुत महत्वपूर्ण है । सभी को मौका भी  दिया जाना चाहिए । इसी अभिलाषा  के साथ आप सब के बीच उपस्थित हुआ हूँ । अतः सभी लघुकथाकारों का स्वागत है । सिर्फ एक बात का ध्यान अवश्य रखें कि लघुकथा 2020 में ही लिखी गई होनी चाहिए । यह मापदंड सभी के लिए है । इस बारें में कोई समझोता नहीं किया जाऐगा । अगर किसी कारण से 2020 से पहलें लिखी लघुकथा ब्लॉग पर आ भी जाती है तो पता चलने पर तुरंत हटा दिया जाऐगा । शेष आप सबके सहयोग पर निर्भर करता हैं ।

                                     - बीजेन्द्र जैमिनी
                                     लघुकथा - 2020
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लघुकथा - 001                                                      
                             मुझे एतराज़ नहीं                      

                                                   -  ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'  
                                                      सिरसा - हरियाणा   
    
        चोपड़ा जी ने जैसे ही पार्क में प्रवेश किया तो सामने बेंच पर गुमसुम बैठे चड्ढा जी को देखा। उनके पास जाकर 'राम-राम' की और पूछा - 'चड्ढा जी! क्या बात, खामोश कैसे बैठे हो, सैर नहीं रहे, सब कुशल तो है?'                                   
'हाँ,सब कुशल है ।'     
' फिरआप इतनी गम्भीर मुद्रा बनाए क्यों बैठे हो?'   
 चड्ढा जी ने मुस्कराने की चेष्टा करते हुए कहा - ' चोपड़ा जी। रात को ढंग से सो नहीं पाया, इसलिए सैर न करके बेंच पर ही बैठ गया।'          
'नींद का ठीक से न आना किसी-न-किसी चिंता के कारण होता है। हम तो दोस्त हैं, मुझसे अपनी मन:स्थिति साझा करोगे तो चिंता का समाधान निकल सकता है।' चोपड़ा जी ने बड़ी आत्मीयता से कहा। 
आत्मीयता की उष्मा पाकर चड्ढा जी को हौसला हुआ तो वे बोले - 'चोपड़ा जी, शीला बिटिया की स्थिति से आप अनभिज्ञ नहीं हैं। उसने पढ़ाई पूरी कर ली है, अब उसके विवाह की चिंता है। मेरे मन में विचार आया कि शीला का रिश्ता अपने मोहित बेटे से हो जाए तो मेरे मन का बोझ हल्का हो सकता है।'            
'चड्ढा जी, शीला बिटिया चाहे पोलियोग्रस्त है, किन्तु उसके गुणों को देखते हुए उसे अपनी बहू बनाने में मुझे प्रसन्नता होगी, किन्तु बच्चों पर अपनी पसन्द-नापसन्द थोपना अच्छा नहीं।'                            चोपड़ा जी की स्पष्टबयानी सुनकर चड्ढा जी ने राहत की सांस ली, क्योंकि शीला उसे पहले ही संकेत दे चुकी थी कि मोहित और वह एक-दूसरे को चाहते हैं। ***
=================================== लघुकथा - 002                                                        
                                गरम शॉल                          
                                
                                                   - कनक हरलालका
                                                        धूबरी -असम
                                                        
सुबह के आठ बज गए थे। फिर भी ठण्ड कम होने का नाम नहीं ले रही। थी। पर सैर के लिए जाना भी जरुरी था। पैरों में मोजे, जूते, सर पर टोपी, स्वेटर शॉल से लैस होकर जब वह पार्क में पंहुची तो वहां फिर वही पतला सा स्वेटर पहने माली दिखा जो पार्क के पौधों की देखभाल में लगा था। 
"अरे सुनो तो" मैंंने कुछ गुस्से से उसे पास बुलाया "इतनी ठण्ड में फिर वही पतला सा स्वेटर...। कल सुबह मैंंने जो तुम्हें अपनी इतनी मंहगी गरम शॉल उतार कर दी थी कि ठण्ड न लगे। उसे क्यों नहीं ओढ़ा...?"
"मेम साब.. वो तो मैंंने अपनी बीमार माँ को दे दी। मुझसे ज्यादा उसकी बूढ़ी हड्डियों को उसकी जरूरत थी।" ***
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लघुकथा - 003                                                       

                            क्वालिटी टाइम                          
                            
                                                - डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
                                                     रायपुर - छत्तीसगढ़ 

"दादा जी, आज जबकि संयुक्त परिवार लगातार कम होते जा रहे हैं, वैसे परिवेश में एक ही छत के नीचे चार पीढ़ी के 45 लोगों का आपका परिवार एक मिशाल ही है। आपके परिवार के सभी सदस्यों के मध्य निहित इस प्रेमभाव का राज क्या है ?" पत्रकार ने पूछा।
"बेटा, इसमें राज की कोई बात ही नहीं है। हमारे परिवार के सभी सदस्य ब्रेकफास्ट सुबह सात और डिनर रात को ठीक नौ बजे एक साथ बैठकर करते हैं। डिनर के पहले सभी अपना स्मार्टफोन मेरे पास छोड़ जाते हैं, जो उन्हें अगले दिन सुबह ब्रेकफास्ट के बाद मिल जाता है। इससे हम सभी आपस में एक दूसरे को क्वालिटी टाइम दे सकते हैं।" घर के मुखिया ने बताया। ***
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 लघुकथा - 004                                                          

                                रिक्शेवाले                             
                                
                                             - विजयानंद विजय
                                                  बक्सर - बिहार        

वह तेजी से रिक्शा लेकर उसके पास पहुँचा और पूछा - " किधर जाना है ? "
उसने सिर हिलाते हुए कहा - " कहीं नहीं। " और मुँह फेर लिया।
रिक्शावाला निराश होकर अपनी सीट से उतर गया और इधर-उधर देखने लगा...शायद कोई और सवारी मिल जाए !मगर...। सिर पर बँधा अँगोछा खोल वह चेहरे पर उतर आए पसीने को पोंछने लगा।चढ़ते सूरज के साथ धूप भी तीक्ष्ण हो गयी थी, जो शरीर को जला रही थी।
रिक्शा लेकर वह वहीं खड़ा इंतजार करता रहा। 
कोई भी सवारी आती, तो ऑटो की ही प्रतीक्षा करती। वहाँ रिक्शेवाले भी हैं, इस पर किसी का ध्यान नहीं जाता।
ऑटो वाले तो इतने हो गये हैं शहर में, कि हर पाँच मिनट में अगला हाजिर। वे आते हैं, सवारियों को बैठाते हैं और फुर्र हो जाते हैं। रिक्शेवाले बेचारे चुपचाप वहीं खड़े निरीह भाव से देखते रह जाते हैं।
इन ऑटो वालों ने तो हमारा जीना मुहाल कर दिया है।बैटरी वाली ऑटो आ जाने से तो और सुविधा हो गयी है लोगों को।आरामदायक सीट पर बैठो और तुरंत पहुँच जाओ।अब कौन बैठेगा हमारे रिक्शे पर, और क्यों बैठेगा ? जहाँ ऑटो से दस रूपये लगेंगे, वहाँ रिक्शे पर भला कोई बीस रूपये क्यों खर्च करेगा ? एक तो मँहगाई की मार, ऊपर से मंदी की चोट। आखिर रोजी-रोटी कैसे चलेगी हम रिक्शेवालों की....? यही सोचते हुए वह अपने रिक्शे पर बैठ गया और एकटक आने-जाने वाले लोगों को देखने लगा।
उसकी नजर सड़क के उस पार गयी। उसने देखा, वह युवक, जो अभी थोड़ी देर पहले उससे मिला था, एक ऑटो में बैठ रहा था। दोनों की नजरें मिलीं और अगले ही क्षण वो हुआ, जिसकी उसने कल्पना तक नहीं की थी। वह युवक सड़क पार करके उसके पास आया और बोला - " मिठनपुरा चलोगे क्या ? "
" हाँ...हाँ।क्यों नहीं बाबू ! " 
" क्या भाड़ा लोगे ? "
" आओ, बैठो बाबू।जो समझ में आए, दे देना। " - रिक्शेवाले ने कहा और अँगोछा सिर पर बाँधकर अपनी सीट पर बैठ गया। वह तेजी से पैडल मारने लगा था और रिक्शे की रफ्तार के साथ जिंदगी भी चल पड़ी थी। ***
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लघुकथा - 005                                                      
                            ह्यूमन हाइबरनेशन।                     
                            
                                   -  डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी
                                           उदयपुर - राजस्थान

उस रोबोटमेन का नाम मिस्की था। यह नाम उसे इसलिए दिया गया था क्योंकि उसकी नेनोचिप में मिस्र की प्राचीन सभ्यता से लेकर आज वर्ष 2255 तक की हर विषय के बारे में न केवल पूरी जानकारी संग्रहित थी बल्कि किसी भी एक या अधिक विषयों के विशेषज्ञ रोबोट का कार्य कर पाने में अकेला ही सक्षम था। अपने ज्ञान के बलबूते पर उसने पैदा होने के छह महीने में ही आर्टिफिशियल इंटेलिजेन्स को रियल इंटेलिजेन्स में बदल दिया था।
आज वह अपने जनक मानव से मिलने आया था और उसे बता रहा था कि, "मकड़ी के जालों में प्राकृतिक एंटीसेप्टिक होता है जो घाव साफ़ रख सकता है। इसलिए उनका आवरण आपके घर पर बना दिया है।"
जनक मानव चुपचाप सुन रहा था। वह रोबोटमेन आगे बोला, “मैंने अब अल्ट्रा वॉयलेट किरणों को अपना भोजन बना लिया है। ज्यूपिटर से हजारों की संख्या में हीरे लाया हूँ, उनसे अपनी और अपनी आने वालीं नस्लों के पुर्जे तैयार करूंगा, जो सैंकड़ों सालों तक सुस्त नहीं पड़ेंगे।"
खिड़की से गुजरती बिजली को देखकर रोबोटमेन मुस्कुराया और कहा, "अब धरती को इन बिजलियों की ज़रूरत नहीं रहेगी। अपनी नयी नस्लों को मैं खुद ही तैयार कर रहा हूँ, पहले ही सेकंड मेरे बच्चे मुझसे दोगुने बड़े होंगे और उनकी चिप में मैं सनातन प्लास्टिक से बनी चिप-न्यूक्लिक-एसिड स्थायी रूप से फिक्स कर रहा हूँ ताकि वो नस्लें मेरे नाम 'मिस्की' से जानी जाएँ।“
“ये रोबोटमेन… ‘मेन’ अच्छा नहीं लगता।“  वह इंसानों की तरह मुंह बिगाड़ने की कोशिश करते हुए आगे बोला, “खैर, मेरी तरह ही तेज गति के दिमाग और बेहतर संतुलन के लिए अपने बच्चों की अंगुलियां भी छह-छह रख रहा हूँ।  अरे हाँ! आपके लिए यह 20 साल पुराना शहद लाया हूँ और कुछ तो धरती पर ऐसा कुछ बचा नहीं कि आप खा सकें।“
“अपनी शारीरिक कमजोरियों के कारण इंसानी नस्ल अब ख़त्म होने की कगार पर है। पेड़, पानी, साफ हवा के बिना आप लोग जी नहीं सकते। आने वाला समय हम रोबोट्स का है। धरती से लेकर सूरज तक सम्भालना है।“ कहते-कहते उसकी मुस्कराहट गहराती जा रही थी।
“अब चलता हूँ, बहुत काम बचा हुआ है। एक बात पूछनी थी, जब आप लोगों को पता था कि पेड़ों की कटाई, धुंआ, गैस आदि ग्लोबल वॉर्मिंग के द्वारा आपकी नस्ल खत्म कर देंगी, तो आप लोगों ने इन बातों को बढ़ावा दिया ही क्यों?”
और बिना उत्तर की प्रतीक्षा किये वह मुड़ा और चला गया। उत्तर पहले ही से उसकी चिप में दर्ज था।
जनक मानव तब भी चुपचाप देख रहा था। वह इस प्रश्न के पूछने का कारण जानता था। ***
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 लघुकथा - 006                                                           
                                 मारी छोरी                              
                                                  - डॉ अलका पाण्डेय 
                                                       मुम्बई - महाराष्ट्र

माँ माँ देखो ना आज मैं स्कूल में प्रथम आयी हूँ , अरे वाह बेटा किस में छोरी,  हिंदी में इंग्लिश में या गणित में अरे नहीं माँ मैं तो दौड़ने की प्रतियोगिता में प्रथम स्थान लाई हूँ , स्कूल में ये क्या बात हे छोरी कोई खेल कूद में भी प्रथम आवे है , और  ये सब अपने घर पर नहीं चलेगा , अपने घर में छोरियाँ सिर्फ मन लगाकर पढ़ाई करती है या घर काम तुम ख़ूब पढ़ो और अपने पिता के जैसे सम्मान पाओ देखा है न आपके पिता को इतना सम्मान मिलता है , वो स्कूल के प्रधानाचार्य हैं हिन्दी के इतने बड़े विद्वान तुम्हारे दादाजी संस्कृत के प्राध्यापक थे जगह जगह उन्हें सम्मान मिलता था,  तुम्हें भी इसी तरह अपना नाम करना है ये खेल कूद दौड़ भाग कुछ नहीं इससे कुछ भविष्य नहीं होने वाला है और फिर छोरी  तेरी शादी करनी है । शादी करने तक  दो चार किताबें पढ़ लें और अपने घर जा अभी तेरे  पिताजी आने वाले हैं मैं उनसे बात करती हूँ तेरा ये दौड़ना कूदना नही चलेगा  हमरे ख़ानदान में यह नही होता , सब नाम रखेंगे छोरी को छोरा बना दिया कोई रिश्ता न करेगा ! बहुत महँगा पड़ेगा .... 
अरे माँ कैसी बातें करती हो आजकल लड़कियाँ खेल कूद में बहुत आगे आ रही है ,अब तो खेल के भी नम्बर मिलते है , हर जगह खेल से नौकरी मिलती है पिताजी तो कुछ नहीं कहेंगे मुझे प्रोत्साहन ही देंगे , उतने में बहार से आवाज़ आती है अरे ओ गोरी की मम्मी क्या कर रही हो जल्दी से 1 गिलास पानी तो लाओ 
जी अभी लाई ग्लास पानी देकर कहती है देखो आपने गौरी को बोत छूट दे रखी है ये क्या बात कर रही है बोल रही है ये दौड़ने मे प्रथम आई है । आप इसे और मत बिगाड़ो , सिर्फ़ पढ़ाई करने दो ,  मुझे ज़रा भी यह खेल कूद पसंद नही है .... 
गोरी यहाँ आओ ...जी , पापा ...
पापा ने गौरी को अपने पास बुलाया और बोले बेटा  बताओ क्या हुआ गोरी ने चहक कर बताया पापा आज  स्कूल की दौड़ प्रतियोगिता में,  मैं पूरे स्कूल में प्रथम  नंबर प्राप्त किया है । और मुझे मेडल मिला । 
शाबास बच्चे शाबाश तुम मेरा बहुत नाम करोगी ... अरे ये क्या कह रहे हैं आप गौरी  की मम्मी झट बोल पड़ी नहीं नहीं ये कुछ दोड़ने,  उड़ने नहीं जाइगी सिर्फ़ पढ़ाई करेगी कुछ  साल में गौरी की शादी करनी है अरे भाग्यवान तुम नहीं जानती आजकल हर क्षेत्र में बहुत  अच्छा स्कोप है बच्चों के लिए और बहुत नाम भी है मेरी बेटी ज़रूर दौड़ेगी  और एक दिन अपना नाम उच्चाऔर बहुत उच्चा  करेगी  ना ना मैं कोईबात न मानूँगी बस मारी छोरी पढ़ेगी और शादी करके अपने घर जाएगी ....
अच्छा गोरी जाओ ये पैसे लो और अपनी सभी सहेलियो  को चॉकलेट खिलाओ  तुम्हारे जीतने की ख़ुशी में 
मै  तुम्हारी मम्मी से बात करता हूँ गौरी के पापा ने गोरी  को पैसे दिये गोरी ख़ुशी ख़ुशी पैसे ले बाहर भाग गई । 
और गौरी के  पापा ने गौरी की  मम्मी का हाथ अपने हाथ में लिया और अपने पास बैठाया यहाँ बैठो मेरे पास और ध्यान से सुनो अब यह तुम्हारा ज़माना नहीं है लड़की को यह पहली दूसरी तीसरी पढ़ा तो उसकी शादी कर दी जाए , समय बहुत बदल गया है लड़कियाँ बहुत आगे जा रही है हर क्षेत्र में  तुम समाचार नहीं देखती पेपर नही पढ़ती ,  मोबाइल यूज़ नहीं करती हो तुमको कहाँ से पता लगेगा ,आज  लड़कियाँ कितनी आगे है , पापा ने गोरी  की मम्मी को यू टीयूब पर  न्यूज़ दिखाई और कई लड़कियों की तस्वीरें दिखाई,  देखो ये लड़कीयों ने अपने देश का व ख़ानदान का नाम रोशन किया है , 
आज कितने बड़े मुक़ाम पर है गौरी  की मम्मी ने जब इतनी  सारी लड़कियों के फ़ोटो देखी तो आश्चर्यचकित हो गई बोल पडी अरे वाह आज कल की  छोरी  तो कहाँ कहाँ तक पहुँच गई रेल चलावे हैं , कार भी , जहाज़ हो मैं तो रसोई घर में ही रह गई, गौरी के पापा ने कहा अब गौरी  का ज़्यादा ख्याल  करो अच्छा खाना पीना खिलाओ और उसकी मर्ज़ी से उसे पढ़ाई के साथ साथ खेलने भी दो मैं जानता हूँ मेरी बेटी बहुत जल्दी इस देश का नाम रोशन करेंगी ,  उसकी माँ को  समझ में आ गया बोली सुनो जी कल ही मुझे मोबाइल लाके देना और चलाना भी सिखा देना , 
मेरी छोरी का फ़ोटो और न्यूज़ उसमें देख सकूँ दुनियादारी मैं भी देखू जानू समझू बहुत कर ली चाकरी घर की , अच्छा हुआ हमारे घर में छोरी  पैदा हुई छोरों  नाही,छोरे का काम छोरी  करेगी , कुछ नया करेगी,  मेरा नाम ज़्यादा होगा मै माँ हूँ छोरी की अजी सुनो कल नही आज चलो बाज़ार मोको मोबाइल अभी लेना है देर नही करनी , पहले ही मैने बहुत देर कर दी , अपनी छोरी को समझने में । ***
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लघुकथा - 007                                                         
                                   मासूम                                  
                                               - डिम्पल गौड़ 'अनन्या'
                                                  अहमदाबाद - गुजरात
                                                  
"अरे करमजले क्या कर रहा है तू ! अल्लाह के खौफ से डर  !"
पाँच वर्षीय नदीम समझ न पाया, आखिर अम्मी नाराज़ किस बात पर हो रहीं! हैरत भरी निगाहों से अम्मी को एकटक बस देखे जा रहा था.
जाकिर भी बीवी की आवाज़ सुन बाहर निकल आया ।
बाहर का दृश्य देख वह भी आग बबूला हो गया !
बेटे को लगभग खींचते हुए अंदर ले गया . पीछे-पीछे रुखसाना भी दौड़ी.
जाकिर ने आव देखा न ताव! दो-चार थप्पड़ जड़ दिए मासूम को. 
"क्या तुम भी ! अब छोड़ो भी इसे . बच्चा है. नहीं जानता कुछ .बच्चे की जान लेकर ही दम लोगे !" 

"सब तुम्हारी गलती है । इतना जाने ही क्यों देती हो पड़ौस में !"
बच्चा सहम सा गया. वह दोनों की ओर देखते हुए सुबक -सुबक रो रहा था और सोच रहा था--आखिर उससे गलती क्या हो गई !
 आज सुबह पास वाली चाची के यहाँ से चुपके से घण्टी और दीपक उठा लाया औऱ अब्बू की बनाई गणेश की मूर्तियों में से एक मूर्ति उठा ली ।
 उसे एक ओर रख, चाची की तरह ही पूजा-अर्चना कर रहा था. ***
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 लघुकथा - 008                                                       

                                      जश्न                                        
                                                   - मीरा जैन
                                                  उज्जैन - मध्यप्रदेश

विपुल के स्वदेश वापसी की खबर सुनते ही दोस्तों में खुशी की लहर दौड़ गई सभी गुफ्तगू कर रहे थे- 'अब आएगा मजा नव वर्ष के जश्न का '
आते ही दोस्तों ने उसे घेर लिया खूब हंसी मजाक , अति उल्लास मोहल्ले में रौनक ही रौनक किंतु विपुल ने नव वर्ष की पार्टी में सम्मिलित होने से मना कर दिया ना सुनते ही एक मित्र का उत्तेजित स्वर उछला-
' यह क्या , हम सब तो इस पार्टी के लिए तेरा ही इंतजार कर रहे थे खूब जोर शोर से मनाएंगे सारा अरेंजमेंट कर रखा है तुझे तो चलना ही होगा लेकिन विपुल टस का मस नहीं हुआ अगली सुबह दोस्तों से मुलाकात हुई सभी ने पार्टी में शानदार जश्न का बखान करते हुए कहा-
' तुझे अमेरिका में भी किसी पार्टी में इतना आनंद नहीं आया होगा जो मजे हमने किये स्वादिष्ट खाना, डांस ,आर्केस्ट्रा ,पटाखे खूबसूरत साज सज्जा वगैरह-वगैरह-- तू तो घर में बैठ केवल टीवी पर ही कार्यक्रम देख रहा होगा अकेले और करभी क्या सकता है विपुल के चेहरे पर गम्भीरता उभर नहीं भरे शब्दों मे केवल इतना ही कह पाया -
' दोस्तों!  मैंने कल लंच में बरसों बाद मां के हाथ का खाना खाया और रात डिनर में मैंने अपने हाथों से बनाया खाना मां को खिलाया उन पलों का मैं वर्णन नहीं कर सकता दोस्तों मेरा प्यार देख मां की आंखों से खुशी के आंसू टपकने लगा इससे बड़ा जश्न मेरे लिए और क्या होगा ?' ***
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लघुकथा - 009                                                           
                                 तमाचा                                    
                                                    - प्रतिमा त्रिपाठी
                                                      राँची झारखण्ड

निखिल महीनों बाद आज घर लौटा, ज्योहीँ घर में प्रवेश किया। एक साथ पूरे घर के सदस्यों ने कहा..."बधाई हो , बधाई हो निखिल" वो आश्चर्यमिश्रित जिज्ञासा से सबकी तरफ देखते हुए बोला..." बधाई! किस बात की बधाई।"

मुँह में लड्डू खिलाते हुए निखिल की माँ ने कहा..."जिस खुशी का हम सबको बर्षो से इंतजार था। आखिर वो खुशी तुमने दे ही दी। ईश्वर ने तुम्हारी सुन ली बेटा!.... हम कहते थे न ईश्वर के घर मे देर है, अंधेर नही है। देखो! आज  तुम्हारी मनोकामना पूरी हो गयी।"

"मैं समझा नही माँ!  कौन सी खुशी कैसी मनोकामना??
आप किस बारे में बात कर रही है।"

"सच में तुम्हें कुछ नही मालूम। बहु ने तुम्हें कुछ नही बताया। हँसते हुए बोली शायद तुम्हें सरप्राइज देना चाहती थी....खैर कोई बात नही हम बता देते है। हम दादा, दादी बनने वाले है और तुम पापा।"
इतना सुनते ही निखिल के पैरों तले जमीन खिसकने लगी। जैसे उसकी पूरी दुनिया हिल रही हो। सबके चेहरे पर एक नजर दौड़ाने के बाद, अपनी मनोदशा को नियंत्रित किया। और एक बनावटी मुस्कुराहट के साथ अपने कमरे में चला गया।
रिद्धिमा पर नजर पड़ते ही निखिल तिलमिला उठा। बामुश्किल खुद पर काबू रखते हुए पूछा।
"तुम माँ कैसे बन सकती हो?"
उसकी आँखों मे गहरे उतरते हुए बोली "क्यों नही बन सकती माँ?" जब तुम पूरी तरह स्वस्थ और सक्षम हो तो ये फिर कैसा सवाल?"
इतना सुनते ही उसके भीतर उबल रहा गुस्सा बाहर आ गया। एक भद्दी सी गाली देते हुए..."क्यों री कुलटा मेरे पीठ पीछे तू कब से गुल खिला रही थी।कौन है तेरे इस नाजायज बच्चे का बाप?"
रिद्धिमा बेहद शान्त स्वर में बोली..."इस खुशी के मौके पर कैसी बात कर रहे हो। तुम्हें तो खुश....
अभी वो आगे कुछ कह पाती तभी चटाक से उसके चेहरे पर थप्पड़ पड़ते ही वो बिलबिला उठी। मगर अविचलित खड़ी रही।
"चुप्प! चरित्रहीन कही की। अपनी करतूत पर परदा डालने को खुशी का नाम दे रही है।"
बिना विचलित हुए उसपर नजरें गड़ाए हुए बोली "हाँ! मैं हूँ चरित्रहीन। बाहर जाओ और जाके सबको बता दो। साथ में इसका कारण भी बता देना। तुम्हारी किस कमी की वजह से मुझे चरित्रहीन बनना पड़ा।" कहते हुए अलमारी से एक लिफाफा निकाल उसके हाथ पर धर दी।
लिफाफे पर नजर पड़ते ही उसका चेहऱा फक्क हो गया। उसका सारा दम्भ धरासायी होकर हांफने लगा। वो पहचान गया। समझ गया कि रिद्धिमा सब जान चुकी है। क्योंकि उसमें उसका मेडिकल रिपोर्ट था। जिसमें साफ शब्दों में लिखा था कि उसमें पिता बनने की क्षमता नही है।
तभी उसके हाथ में दूसरा लिफाफा थमाते हुए रिद्धिमा बोली..." लो इसे भी पढ़ लो! तुम्हें पूरा हक है जानने का कि मेरे इस नाजायज बच्चें का बाप कौन है?"
इस लिफाफे में रिद्धिमा की प्रेग्नेंसी की पूरी रिपोर्ट थी। जो एक आईबीएफ हॉस्पिटल की थी। डॉ नंदिनी सतपथी के हस्तक्षर के साथ  वीर्य डोनर की जगह पर निखिल के छोटे भाई नकुल का नाम था। डॉ नंदिनी नकुल की पत्नी है।
"अब तो साबित हो गया न निखिल की मैं बाँझ नही हूँ। ये तुम्हारी जानकारी में तुम्हारे सहयोग से भी हो सकता था। लेकिन तुम्हारें पुरुष अहम ने मुझे अकेले ही ये रास्ता चुनने पर मजबूर किया।" आज रिद्धिमा के शब्दों के तमाचे की आवाज उसके तमाचे से ज्यादा भारी थी। जिससे उसका पूऱा  वजूद हिल गया।
शर्म अपराधबोध और ग्लानि से झुकी हुई निखिल की आँखे अब बरस रही थी। बड़ी मुश्किल से इतना ही बोला "मुझे माफ कर दो रिद्धिमा!" ***
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लघुकथा - 010                                                        
                                    भीख                                  
                                             - डाँ. विभा रंजन कनक
                                                          दिल्ली
     
रेड लाइट हो जाने के कारण गाडी रुक गई थी। गाडी में ड्राइवर के साथ चार नौजवान सवार थे। एक तीस बत्तीस साल की कृशकाय औरत, तीन साल की बच्ची का हाथ पकडे, ड्राइवर के पास जाकर बोली,
" कुछ पैसे दे दो न भईया.. दो दिन से मैं और बच्ची भूखें हैं..!"
"चल दूर हट.. काम धंधा करना नहीं.. बस भीख मांगना है..!"
 ड्राइवर ने झाड लगा दिया।गाडी सवार मनचलों में से किसी ने कहा,
" आ चल गाडी में बैठ जा.. मेरे घर चल.. मैं खाना भी दूंगा.. और पैसे भी..!"
सभी मनचले ठहाका मार हँसने लगे। औरत ने बुरा सा मुँह बनाया और बोली,
"इन जैसो के कारण.. कहीं कोठी में काम नहीं करती .. और भीख मांगना पड़ता है । " ***
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लघुकथा - 011                                                     

                        बुद्धू कहीं का                     

                                           - प्रेरणा गुप्ता
                                     कानपुर - उत्तर प्रदेश

       ज़िंदगी का बोझ उठाते-उठाते वह तंग आ चुका था। एक तरफ जवान बहन की शादी, दूसरी तरफ बीमार माँ का इलाज, अब तो बस एक ही रास्ता सूझता था ...।
अचानक घर के पीछे रेलवे लाइन पर मालगाड़ी के जाने की आवाज सुनाई दी। फौरन वह घर से निकल कर दौड़ता हुआ वहाँ पहुँच गया। 
ओह ! मालगाड़ी तो जा चुकी थी! तभी दूसरी पटरी पर दूर से कोई ट्रेन आती हुई दिखाई दी। इस बार वह किसी भी हाल में इस मौके को गँवाना नहीं चाहता था। आँखें मींचकर कर, साँसें रोक कर वह पटरियों के बीचोंबीच जाकर खड़ा हो गया। पाँव काँप उठे और हथेलियां भिंच गयीं। 
अगर कहीं सिर्फ़ पाँव कट के रह गये तो ... या फिर हाथ …? छोटी बहन की छवि आँखों के सामने उतर आई, जो कल ही बड़े मनोयोग से उसके लिए दास्ताने बुन रही थी। तभी उसकी निगाह ठीक उसके सामने खड़े उस आदमी पर जा पड़ी, जो मोबाइल पर उसका वीडियो बना रहा था। 
ओह! मरने के बाद भी उसकी मौत का तमाशा … ! नहीं-नहीं!
एकाएक वह कूदकर पटरी के उस पार जा गिरा। आँख मींचे, साँस रोके वहीं कंक्रीट पर पड़ा रहा, जब तक कि ट्रेन धड़़धड़ाती हुई बगल से गुज़र न गयी। 
उसने धीरे से अपनी आँखें खोलीं, सामने छोटी बहन खड़ी उसे हिला रही थी, "हैप्पी न्यू ईयर भैया! क्या आज दुकान नहीं खोलनी?"
वह एक झटके से उठ बैठा, "ओह! अच्छा हुआ जो तूने मुझे जगा दिया। आज तो सुबह से ही ग्राहकों का आना शुरू हो जाएगा। अभी मुझे मगदल की दाल भी फेंटनी है और जलेबी का भी घोल भी देकेस होगा।"
आँखों के सामने शो केस में सजी हुई मिठाइयाँ नाच उठीं। उसने कसकर एक अँगड़ाई ली, खिड़की से झाँकती धूप भी मानो कह उठी थी, "बुद्धू कहीं का!" ***
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लघुकथा - 12                                                          
साँस 
                                              - आचार्य मदन हिमाचली
                                                 सोलन - हिमाचल प्रदेश

बूढी माता सडक के किनारे आने जाने वालों से पैसा माँग कर निर्वाह करते समय बीताने लगी थी। चहरे पर तेज के कारण  बडे घर की लगती थी।  कर्म वीर दूर से देखकर अपने आँसू रोक नहीं पा रहा  था। उसने माता के दोनों बेटों द्वारा उसे घर से निकाल देने का दृष्य आज भी उसके आखो् के सामने बार बार आ रहा था। लेकिन माता आज भी बेटो के विरुद्ध एक भी शब्द सुनना नहीं चाहती थी। पिता के मरने के बाद दोनों लडकोँ ने सारी सम्पत्ति अपने नाम करवा ली थी। धोके से माँ की सम्पत्ति तथा गहने भी पत्नियों की सलाह पर छीन लिए थे। तब माँ ने उफ तक नहीं की थी। बल्कि आहेँ भरते हुए कहा था बेटे!अब मुझे इन गहनो से क्या करना है ?  उसी दिन  से माँ को धक्के मार कर बाहर किया था।
 जो भी माँ को दीन समझ कर घर ले जाने की बात करता था वह उसे यह कह कर टाल देती थी कि जब तक साँस हैं इस होनी को झेलना ही पडेगा।***
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लघुकथा - 013                                                         

                                 शॉल                              

                                           - डा० भारती वर्मा बौड़ाई
                                                देहरादून - उत्तराखंड 
                                                
“अरे! तेरे शॉल में यह क्या लग गया गीत!”
“कुछ नहीं भाभी! थोड़ा सा जल गया।”
“ तो छोड़ दे न इसे पहनना।”
“मुझे अच्छा लगता है भाभी!”
“क्या?
“चीजों को सहेज कर रखना।”
“गली-सड़ी चीजों को?”
“ गले-सड़े रिश्ते भी तो सहेज कर रखे हुए हूँ भाभी! यह तो मेरी अपनी ही चीज है।”
भाभी निरुत्तर हो गीत का मुख देखती रह गयी। ***
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लघुकथा - 14                                                                  
                 मेरा क्या कसूर                    
                                                       - बीजेन्द्र जैमिनी
                                                       पानीपत - हरियाणा

भईया ! भईया !! 
कौन ? 
मैं , आप का भाई सुन्दर ! दरवाजा खोलिए । 
अरे ! इतनी रात में कहाँ से आ रहे हो ?
मुम्बई से पैदल आ रहा हूँ । 
भईया तो सरकारी हिदायतों के कारण से असमंजस में पड़ गये । परन्तु भाभी ने पुलिस को फोन कर दिया । तुरन्त पुलिस आई और सुन्दर को अपने साथ ले गई । भईया  कुछ कर पाते , भाभी ने अपनी सूझबूझ दिखा दी । उधर सून्दर को  सरकारी अस्पताल ने कोरोना नैगेटिव घोषित कर दिया। परन्तु  सुन्दर फिर कभी भईया के पास नहीं आया। भईया की उदासी आज भी चेहरे पर साफ नज़र आती है ।मन ही मन कहता है मेरा क्या कसूर  ....?  ०००
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लघुकथा -  15                                                              
                            मीन की आँख                                

                                            - विभा रानी श्रीवास्तव
                                                  पटना - बिहार

       "अच्छी है या बुरी अभी नहीं समझ पा रहा हूँ लेकिन अभी आपको बता रहा हूँ। इस बात को आप अपने तक ही रखियेगा। मैं पत्नी व बच्चियों के संग एक साल के लिए अमेरिका का सब छोड़-छाड़ कर भारत वापस जा रहा हूँ..," हिमेश के इतना कहते ही रमिया स्तब्ध रह गई।
लगभग बारह साल से पारिवारिक दोस्ती है। हिमेश की पत्नी और रमिया में तथा रमिया के पति और हिमेश में गहरी छनती है.. रमिया को दो बेटे हैं तो हिमेश को दो बेटियाँ। हिमेश नौकरी के सिलसिले में अमेरिका आया। नौकरी व्यवस्थित होने पर शादी और समयानुसार दो बच्चियाँ हुई। हिमेश बहुत सालों से अपने माता-पिता को अपने संग अमेरिका में ही रखना चाह रहा था। भारत में माता-पिता के पास अन्य बच्चे भी थे देखभाल के लिए , परन्तु अब वे वृद्ध हो गए थे । हिमेश पर बराबर दबाव बना रहे थे कि वो भारत वापस आ जाये।
"क्या बेवकूफी वाली बात कर रहे हो मेरे दोस्त। तुम्हारी बच्चियाँ भारत में समझौता क्यों करें? देखो हमने निर्णय किया है कि जब ऐसा समय आयेगा कि हमारी जरूरत हमारे माता-पिता को होगी वे यहाँ अमेरिका में आकर नहीं रहेंगे तो तीन महीना मैं जाकर रहूँगा और तीन महीना रमिया जाकर रहेगी।" रमिया के पति ने हिमेश को राह सुझाने की कोशिश किया।
"और आगे का छ महीना?" हिमेश उलझन में था।
"तब का तब और सोचेंगे...," रमिया ने कहा।
"तब का तब क्या तुम सेवा करने योग्य रह जाओगे? पिता का धन पुत्र को नहीं मिलता,भविष्य का कुछ सोचकर यह कानून बना होगा।" हिमेश की पत्नी गहरी सोच से जगी थी।***
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लघुकथा - 16                                                             
                              कढ़ी चावल                                  
                                                - विजय 'विभोर'
                                                रोहतक - हरियाणा

ओपीडी में आज बहुत भीड़ थी। मरीज़ देखते-देखते डॉ. सुशील ने थकावट महसूस की तो वह थोड़ा रिलैक्स होने बरामदे में आ गए।बैंच पर बेसुध पड़ी एक मैली-कुचैली सी बुढ़िया को देखकर कर्मचारियों से कहा "इन्हें जल्दी से ओपीडी रूम में लेकर आओ।"
कर्मचारियों ने डॉक्टर साहब का हुकुम तुरंत पालन किया। वहां बैठे अन्य लोगों में कानाफूसी चर्चा शुरू हो गई "यह मैली-कुचली  पगली-सी बुढ़िया कौन है जो बड़े डॉक्टर साहब खुद इस पर इतना ध्यान दे रहे हैं?"
सुशील ने सभी मरीजों को छोड़ कर  पहले बुढ़िया का इलाज शुरू किया। कुछ देर बाद बुढ़िया को होश आया तो वह बड़बड़ाई "मैं कहां हूं?"
डॉ सुशील, "ताई! मैं सुशील। पहचाना? तुम अस्पताल में हो।"
बुढ़िया, "अस्पताल.......? डॉ. साहब मैं ग़रीब तुम्हारे अस्पताल का ख़र्चा कैसे दूंगी? छः-छः जवान बेटे होते हुए भी आज मेरा कोई नहीं है।"
डॉ सुशील, "ताई शायद तुमने पहचाना नहीं? मैं तुम्हारे छोटू का दोस्त हूँ। मुझे तो तुम्हारे  खिलाए हुए  कढ़ी-चावल आज भी याद है, जिनको खाने के बाद मैं ठीक हुआ था। हॉस्टल की रोटियों ने तो मेरा डॉक्टरी का कोर्स ही छुड़वा दिया था।"
बुढ़िया, "बेटा! बुढ़ापे के कारण याददास्त कमज़ोर हो गयी है। पर इतना ज़रूर समझ में आ गया, मेरे बेटों से तो ज़्यादा वफ़ादार मेरे कढ़ी-चावल ही हैं।"
कहते हुए बुढ़िया के आँखों से आँसू झर झर बहने लगे।***
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लघुकथा - 17                                                                 

                                  बोझ                                       
                                                    - अनिता रश्मि 
                                                   राँची - झारखण्ड 

   बहुत निर्धन था वह। किसी तरह बेटे का इलाज सरकारी अस्पताल में करा रहा था। कुछ दवाईयाँ बाहर से भी लानी पड़ रही थीं। 
बेटा ठीक नहीं हो सका। उसकी साँसें एक सुबह थम गईं। 
   सबके कहने पर वह एबुंलेंस का इंतज़ार करने लगा। शव वाहन लेने की क्षमता नहीं थी। 
काफी चिरौरी करने के बाद भी एबुंलेंस उपलब्ध नहीं कराया गया। सुबह से दोपहर हुई, दोपहर से शाम। बस, अँधेरी रात आने को थी। एक एबुंलेंस उसके गाँव के रास्ते पर आधी दूर तक जानेवाला था। लेकिन उसके चालक ने भी इंकार कर दिया, 
- आगे ही इस पर बहुत लोग हैं। दो-दो शव को एक साथ लेकर उतनी दूर उबड़-खाबड़ रास्ते पर जाना है। और बोझ नहीं......। 
बात पूरी होने से पहले ही ग्रामीण ने कफन में लिपटे बेटे के शव को कंधे पर उठा लिया। बुदबुदाया,
- ......बाप के कंधे पर बेटे की लाश से बड़ा बोझ है कोई ? 
चालक ने बात सुनी। उसकी नज़रें झुकीं।फिर चुपचाप एबुंलेंस आगे बढ़ गया । ****
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लघुकथा -18                                                               
                            आधे-अधूरे पूरे                                
                                              
                                                  - मधुकांत  
                                              रोहतक - हरियाणा

          शताब्दी पूर्व पांव की खड़ाऊ ने अपनी शक्ति को पहचाना। संगठन बनाया ,हौसला दिखाया, संघर्ष किया। समाज ने पीढ़ियों से कुंठित, शोषित पीड़ा को समझा। सरकार ने वोट पाने के लिए संरक्षण, आरक्षण दिया।  सबने मिलकर उनको सिंहासन पर बैठा दिया। वे शासन करने लगी। 
शासन का भी अपना  उन्माद होता है ।वें इतिहास में अपने ऊपर हुए जुर्म का हिसाब लेने लगी। 
शोषित बनी जनता फिर कराह उठी।  वे भी संगठित होकर अपनी आवाज बुलंद करने लगी। खड़ाऊं को भी उनके शोषण की पीड़ा समझ में आयी तो पुनः संरक्षण, आरक्षण का दौर चला और अगली शताब्दी आते-आते फिर सत्ता परिवर्तन हो गया।
 चिंतक ने सोचा बार-बार यह वर्ग संघर्ष क्यों होता है? 'क्या कभी सब आधे अधूरे पूरे नहीं हो सकते'। नेपथ्य में आकाशवाणी हुई 'नहीं हो सकते ,,,क्योंकि समाज में, शासन चलाने के लिए शासक व  शोषित  दोनों का होना अत्यंत आवश्यक है। ***
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 लघुकथा - 19                                                            
                                      रपट                                     
                                                  - कल्याणी झा 
                                                   राँची - झारखंड

         आज रविवार का दिन था । बारिश का महीना होने के कारण पाँच दिन बाद धूप निकली थी । पुरुष वर्ग खेत का जायजा लेने निकले थे । बच्चे बाहर निकल कर खेल रहे थे। बच्चों में आज होड़ लगी थी, कि कौन कितना ऊँचा कूद सकता है। मुन्नू, गुड्डू, पप्पू, सोमू, चेतू, और उनके साथ सोमू की छोटी बहन मुनिया भी खेल रही थी । मुनिया गेंद से खेल रही थी। इस बार उसकी गेंद दूर चली गई, तो मुनिया भी गेंद के पीछे- पीछे भागी।
              सांझ होते ही सभी बच्चे घर की तरफ जाने लगे। पर उन्हें मुनिया कहीं दिखाई नहीं दी। मुनिया घर पर भी नहीं थी। सभी परेशान हो उसे ढूँढने लगे। पूरे गाँव में शोर मच गया। धीरे-धीरे रात हो चली थी। अभी तक मुनिया की कोई खबर नहीं थी। तभी एक झाड़ी के पास मुनिया के कराहने की आवाज सुनाई दी। वहाँ जाकर देखा तो मुनिया बेसुध पड़ी थी। पूरा शरीर लहू - लूहान था। माँ ने चीखते हुए उसे गोद में ले लिया, और अस्पताल की तरफ भागी। नर्स ने बताया किसी शंकर का नाम ले रही है। 
                  पूरा गाँव शंकर के घर के बाहर खड़ा था। शंकर की माँ (शीला) भीड़ को चीरती हुई सीधे थाने पहुँची। वहाँ पहले से ही शंकर के पिता एक वकील के साथ बैठे थे। 
                  शीला ने थानेदार की तरफ देखते हुए कहा - "साहब मेरे बेटा ने जघन्य अपराध किया है। उसकी रपट लिखिए।"  फिर अपने पति को धिक्कारते हुए बोली - "हमारी बेटी और मुनिया एक ही कक्षा में पढ़ते है। तुम्हें मुनिया में, अपनी बेटी नजर नहीं आयी?"  उसके बाद वकील को निशाना बनाते हुए - "वकील बाबू, इन दरिंदों को बचाने के लिए ही आपने वकालत की डिग्री ली थी। इससे तो अच्छा होता आप अनपढ़ ही रह जाते।" 
                  थाने से वापस आकर शीला ने मुनिया की माँ से इतना ही कहा - "मैं तुम्हारा घाव तो नहीं भर सकती। पर मुनिया को इंसाफ जरूर मिलेगा।" ***
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लघुकथा -  20                                                               
                                  रेखा तो है                                  
                                                    - ड़ा. नीना छिब्बर  
                                                   जोधपुर - राजस्थान

  प्राध्यापक राजाराम जी भारत नगर के पहले निवासी थे।मेन रोड़ से थोडा अंदर की ओर जब यह कालोनी बसी तो इके- दुक्के ही घर थे। जो भी प्लाट खरीद कर मकान बनाता राजाराम जी के घर जरूर जाता। वो भी उनकी उचित मेहमान नवाजी करते।बिजली ,पानी,दैनिक दिक्कतें जो मकान बनाने में आती सब का हल वही कर देते।सब के मुँह पर मास्साहब का गुणगान।।तीन चार सालो में सभी धर्म -जाति व वर्ग के लोग रहने लगे। सामाजिक, धार्मिक और पारिवारिक आयोजनों में धीरे -धीरे
विभिन्नता और अलगाव सा दिखने लगा ।
     राजाराम जी को भी कभी -कभी यह जातिगत दुराव स्पष्ट दिखता ।  उनके पारिवारिक समारोह में भी अब अधिकतर लोग औपचारिकता निभाते दिखते। खाना पीना तो ना के बराबर हो गया था। रविवार को कालोनी के बगीचे में अमरसिंह को देखकर उन्होंने पूछ ही लिया," अमरसिंह जी आप को नहीं लगता पहले आबादी कम थी पर  इन्सानियत और भाईचारे में आनंद अधिक था। अब हर जगह संकीर्णता दिखती है?"  अमरसिंह ने पुरोहित जी का हाथ थामते हुए कहा,"देखिए राजाराम मास्साहब ,अब सभी जातियों एवं वर्गों के अपने अपने तौर -,तरीके ,व अलिखित नियम है । उन्हे निभाना भी जरूरी है। पहले आप जैसों के घर खाना -पीना हमारी मजबूरी थी। "अपनी जाति का  कोई था ही नहीं। 
        बुरा ना मानना ,आप की जनजाति के क ई परिवार हैं तो बस.....उसी में मस्त रहिए।  आप स्वयं शिक्षित हैं   किताबी व व्यवहारिक ज्ञान के अंतर को समझते हैं।  आप का तो हम सब अब भी मान करते हैं आदर से बुलाते हैं   ..शब्द बाण नहीं चलाते ।तो बस भारत नगर में  एक कोना घेरे रहिए। राजाराम जी ने मन में सोचा सच है सौ साल बाद भी भारत नगर ही नही नगरों में  यह रेखा तो  रहेगी ही। ***
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लघुकथा - 21                                                              
                                   सहिष्णुता                                    
                                                     - कुसुम पारीक 
                                                        वापी - गुजरात
                                             
अब हर के कोने कोने में उसकी जरूरत गूँजने लगी थी जो मेरे कानों में शीशा घोल रही थी ।
मन को किसी तरह संयत किया लेकिन उसे अतीत के गलियारे में जाने से न रोक सकी 
आज फिर मुझे पायल पर गुस्सा आ रहा था । क्यों नहीं आते ही इसे घर की जिम्मेदारी दे दी जिससे अब तक कुछ काम धाम सीख  लेती ।
लेकिन नहीं,मुझे भी अच्छी सास बनने का भूत सवार था और पारुल जब इस घर में बहू बनकर आई तब उसे किसी तरह की तकलीफ न हो और मैं अच्छी सास साबित होऊं उस चक्कर में सब काम मैं ही करती रही । 
कई बार उसने काम करने की कोशिश भी की तब अनाड़ियों जैसे काम से घर व किचेन ऐसा बिखर जाता कि मेरे पास सिर पीटने के अलावा कुछ नही बचता ।
विपिन के पापा ने कई बार मुझे कहा भी कि ऋतु , पारुल नए घर, नए माहौल में आई है उसे हमारे घर की परंपरा व तौर तरीके सीखने में समय लगेगा; तुम उस पर थोड़ी थोड़ी जिम्मेदारी डालो जिससे वह अपने अनुसार उसे करती हुई धीरे धीरे तुम्हारे रंग में रंग जाएगी लेकिन मुझे उसका  काम में बेढंगा पन  व हर समय खी ,खी करके खींसे निपोरना बिल्कुल नहीं सुहाता था ।
अरे ,घर संभालना कोई छोटी-मोटी बात नहीं है । केवल दाँत निकालते रहने से गृहस्थियाँ नहीं बसती ।
मेरा गुस्से भरा चेहरा देख व  कड़वी बातें सुनकर पायल सहमी सी अपने कमरे में चली जाती ।
यदि वह कोई काम करती तब घबराहट में कुछ न कुछ गलती कर  बैठती थी ।
उधर मेरी बड़बड़ाहट दिनों दिन बढ़ती जा रही थी ।
बेटा भी रोज की किच किच से परेशान होकर दूसरी जगह रहने का मानस बना चुका था। 
अचानक एक दिन मैं आंगन में फिसलकर गिर पड़ी और पांव की हड्डी टूट गई ।
अब मेरे दुःख की कोई सीमा नहीं रही लेकिन बेबस थी ।
गोपाल जी ने पहले ही कह दिया ,"अब बिस्तर पर पड़कर बड़ बड़ मत करती रहना,शांति से रहोगी तब कोई तुम्हारा काम भी कर देगा अन्यथा सड़ती रहोगी।"
पति द्वारा ऐसी बातें सुनकर मन बहुत दुःखी हुआ और मैंने आँखें दूसरी तरफ  फेर ली,कब नींद आई पता भी नहीं चला, जब नींद खुली तब पायल को बेड के पास खड़ा पाया, जिसके हाथ में एक प्याला था ।
मम्मी जी ,लीजिए  दलिया खा लीजिए फिर आपको दवा दे देती हूँ ।
उसने मुझे उठने में सहयोग किया,मैंने अनमने मन से प्याला लेकर जैसे ही पहला कौर मुँह में डाला एक कुछ पुराना सा मीठा सा स्वाद जीभ पर तैरने लगा लेकिन मैंने मेरे चेहरे पर आते हुए भावों पर वैसे ही पाल जमा दी जैसे बाढ़ के  बहाव को रोका जाता है  और दलिया खत्म कर दिया ।
पायल खाली प्याला किचेन में रख आई फिर गर्म पानी देकर मुझे दवाई दी ।
धीरे-धीरे मैं देखती जा रही थी कि पायल घर का सारा काम संभालती जा रही थी ।
समय पर विपिन व उसके पापा को खाना देना,मेरा पूरा काम करना ,कामवाली आती तब उससे मधुर व्यवहार करना जिससे वह खुश होकर सब काम करती व एकाध दूसरे काम भी कर जाती । बिना कोई शिकन माथे पर लाए,पायल हंसती हुई सारी जिम्मेदारी संभालती जा रही थी लेकिन मैं अब भी खुश नहीं थी।
ईर्ष्या रूपी फन,मन की कल्पनाओं से निकलकर घर में विचरने लगा था ।
मुझे लगता, जैसे मेरा सिंहासन डोलने लगा है । यदि ऐसे ही पायल काम करती रही और जब मैं ठीक हो जाऊँगी तब क्या यह मुझे वापिस मेरा अधिकार देगी? 
महीना भर आते-आते फन मुझे ही डंक मारकर मेरे मन को और जहरीला करने लगा।
 गाहे-बगाहे मैं वापिस पायल को डाँटने लगी ।
उसका हँसता चेहरा फिर उदास रहने लगा ।
एक दिन मैं नींद से उठी  तब  देखा कि पायल हँस हँस कर अपनी मम्मी से बातेँ कर रही थी ।
हाँ मम्मी ,मम्मी जी अभी ठीक है , वह मेरी सेवा  भावना से बहुत खुश हैं ।  मेरे बहुत ध्यान रखती है तुम चिंता मत करना,जल्दी ही चलने लगेंगी । 
मेरे मन में बैठा असहिष्णुता का दंश अपना ज़हर छोड़ने को तैयार नहीं था लेकिन जो कुछ मैं सामने देख रही थी उसे झुठलाया भी नहीं जा सकता था ।
एक-एक कर  मुझे पायल की वह सब अच्छाइयाँ दिखने लगीं जो पिछले दो सालों में मेरे द्वारा किये गए दुर्व्यवहार के बाबजूद इस घर व इसके सदस्यों को अपना बनाने में लगी हुई थी ।
क्या  उसका  यह समर्पण इस घर के लिए जरूरी नहीं है ? 
क्यों मैं यह सोचती रहती हूँ  उसके बारे में हर गलत बात ?
वह भी इस घर का उतना ही हिस्सा है जितनी मैं ।
अगले ही पल मैंने पायल को अपने पास बुला कर उसे  गले लगा कर कहा,"बेटा तुम जिस रूप में हो मुझे बहुत प्यारी लगती हो,यह घर आज से तुम्हारा है क्योंकि इस घर की परंपराओं की थाती तुम्हारे हाथों ही आगे वाली पीढ़ी तक जाएगी।
औऱ अचानक मैंने खुद को, ईर्ष्या रूपी बैसाखी को छोड़कर सहिष्णुता के पाँवों पर खड़े पाया । ***
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लघुकथा -22                                                               
                              ऋतु परिवर्तन                                 
                                                  - नूतन गर्ग 
                                                     दिल्ली

क‌ई दिनों से स्कूल में सफाई जोरों पर चल रही थी, मानों धरातल पर स्वर्ग उतर आया हो ऐसा प्रतीत हो रहा था! सांस्कृतिक कार्यक्रम की तैयारी भी पूरी हो गई थी। चीफ मिनिस्टर साहब ने भी न्यौता स्वीकार कर लिया था। आखिर ज्ञान की देवी सरस्वती मां को जो मनाना था। कहते हैं कि मां सरस्वती जिनकी जिह्वा पर बैठ जाती हैं, उन्हें कभी किसी प्रकार की कमी नहीं होती। वह व्यक्ति सर्वगुण सम्पन्न माना जाता है।
सुबह आठ बजे से कार्यक्रम खुले मैदान में होना निश्चित हुआ था। सबकुछ समय पर हो रहा था। मंत्री जी भी समय पर पंहुच ग‌ए और मां के आगे द्वीप प्रज्वलित करने के लिए आगे बढ़े ही थे कि इंद्र देवता क्रुद्ध हो ग‌ए, लगे बरसने धूप होने पर भी।
बिन मौसम बरसात देख सब कहते नजर आए, काश! हमने प्रकृति के साथ छेड़छाड़ न की होती तो आज यह दिन न देखना पड़ता। वहां पर कार्यक्रम के बजाय अफरातफरी वाला माहौल हो गया था।***
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लघुकथा -  23                                                           
तीसरी रोटी
                                                     - मधु जैन
                                                     जबलपुर - मध्यप्रदेश

रामेश्वर ने पत्नी के जाने के बाद अपने हम उम्र दोस्तो के साथ सुबह शाम पार्क में टहलना और गप्पें मारना साथ ही पार्क के समीप के मंदिर में दर्शन करना को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना लिया था। हालांकि घर में उन्हें किसी प्रकार की कोई परेशानी नहीं थी। सब उनका बहुत ध्यान रखते थे।
आज सभी चुपचाप बैठे थे एक दोस्त को वृद्धाश्रम भेजने की बात से सभी दुखी थे। 
"आप लोग हमेशा पूछते थे कि मैं भगवान से तीसरी रोटी क्यों मांगता हूँ आज बतलाता हूँ। "
"क्या बहु तुम्हें तीन रोटी ही देती है या सिर्फ तीसरी..."
 उत्सुकता से कमल ने पूछा।
"नहीं यार! ऐसी कोई बात नहीं है, बहु बहुत अच्छी है। तुम 
" रोटी चार प्रकार की होती है। पहली सबसे स्वादिष्ट रोटी माँ की ममता और वात्सल्य से भरी। जिससे पेट तो भर जाता है पर मन कभी नहीं भरता।
"सोलह आने सच, पर शादी के बाद माँ की रोटी कम ही मिलती है।"
"हाँ, वही तो, दूसरी रोटी पत्नी की होती है। जिसमे अपनापन और समर्पण भाव होता है जिससे पेट और मन दोनों भर जाते हैं।"
"क्या बात कही है यार ?"
ऐसा तो कभी हमने सोचा ही नहीं, फिर तीसरी रोटी किसकी होती है।"
"तीसरी रोटी बहु की होती है जिसमें सिर्फ कर्तव्य भाव होता है जो पेट भर देती है और वृद्धाश्रम से भी बचाती है।"
थोड़ी देर के लिए चुप्पी छा जाती है।
 "चौथी रोटी किसकी होती है।"मौन तोड़ते हुए कमल ने पूछा। 
"चौथी रोटी नौकरानी की होती है। जिससे न पेट भरता है न ही मन। और स्वाद की तो कोई गारंटी नहीं।"
सबके हाथ तीसरी रोटी के लिए जुड़ गये। ***
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लघुकथा - 24                                                              
           .           दूध की औकात                  
                                                   - नीरू तनेजा 
                                              समालखा
- हरियाणा 

              दिव्या  को रसोई घर में सफाई करते हुए च्यवनप्राश का पुराना डिब्बा मिला तो खोल कर देखा कि उसमें अभी काफी च्यवनप्राश बचा हुआ था जबकि बच्चे नए स्वाद का दूसरा डिब्बा ला चुके थे ! इधर कामवाली सुमन सफाई कर रही थी ! दिव्या ने वह डिब्बा उसे देते हुए कहा –“ ले सुमन, इसे अपने बच्चों को खिला दिया कर ! सेहत ठीक रहेगी और ठंड भी नहीं लगेगी !”
         सुमन ने खुशी-खुशी डिब्बा लेते हुए पूछा - “ इसको खाने का तरीका भी बता देती मेमसॉब !”
         “ जब भी दूध पिऐंगे बच्चे उससे पहले एकाध चम्मच खिला दियो !” दिव्या ने समझाते हुए कहा तो दूध का नाम सुनते ही सुमन की खुशी काफूर हो गई ! वह दिव्या को डिब्बा वापिस करते हुए बोली – “ मेम सॉब! यह खाने की हमारी औकात नहीं है ! जिसकी दूध पीने की औकात हो वही खा सके हैं यह तो ! हां, पानी या एक टाइम चाय के साथ पचाने की कोई चीज हो तो दे दियो !” ***
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 लघुकथा -  25                                                              

                        विरोध के लिए विरोध                      
                        
                                              - शशांक मिश्र भारती
                                            शाहजहांपुर - उत्तर प्रदेश
                                            
पिछले दो महीने से प्रदर्शन बन्द हड़ताल धरना से राजधानी का जन जीवन अस्त व्यस्त रहा।लोग परेशान तो हुए ही बीमार भी ।अस्पताल और बच्चे स्कूल नहीं जा पाये ।
सूचना समाचार की बात करें तो कुछ ही वहां तक पहुंचने में सफल हुए ।शेष के साथ मारपीट कर दी गई ।उनके कैमरे तोड़ दिये ।
आखिर एक दिन गुब्बारा फूट गया ।पक्ष-विपक्ष भिड़ गए ।बड़े बड़े गुलेल पत्थर पेट्रोल बम अवैध हथियार चले।दर्जनों लाशें गिर गयीं ।घायलों की गिनती नहीं ।करोड़ों का सामान जला दिया गया ।कई बच्चों ने अपनी आंखों के सामने अपने माता-पिता को खोया ।चाकू छुरियाँ रक्त स्नान कर गये ।नाले लाल हो गये।
कई दिन कर्फ्यू लगा रहा ।फ्लैग मार्च हुए।शान्ति वार्तायें की गईं ।पीस कमेटियां बैठी।अन्ततः सबकुछ ठीक हो गया ।
एस आई टी बनी रिपोर्ट आयी तो सबका सिर शर्म से झुक गया ।कारण यह सब गिने चुने लोगों ने अपने स्वार्थ विरोध के लिए विरोध की भावना से किया था । ***
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लघुकथा -  26                                                               
                    रंगोली व दिये की महक                 

                                              - सीमा जैन ' भारत '
                                             ग्वालियर - मध्यप्रदेश
                                             
          बहु मंजिला अपार्टमेंट में नीचे वाली आंटी से रिश्ता बहुत पुराना था। कभी-कभी छोटी बातें के अजगर भी पुराने बड़े रिश्तों को निगल जाते हैं। गाड़ी की पार्किंग, गमलों का पानी, सफाई करने वाली उमा की लापरवाहियों ने हमारे रिश्ते को खट्टा कर दिया।
करीब दो महीने हो गये हम दोनों की तरफ से सुलह की कोशिश भी नहीं हुई। 
आज कल आंटी घर में नहीं दिखती है। चौकीदार से पूछा तो उसने कहा- “अंकल अस्पताल में भर्ती हैं।“ सुनकर मन बहुत दुखी हुआ।
अब चौकीदार को ये सब नहीं पता था कि क्या हुआ? कौन उनका साथ दे रहा है? पर मुझे उन दोनों की चिंता होने लगी। एक तो दोनों बच्चे बाहर हैं।
 अब ये त्यौहार का समय है वो भी दीपावली का तो आधे लोगों के पास तो ये बहाना ही काफी होगा कि व्यस्तता के चलते वो सहायता न कर पाए।
आज शाम का समय अपने घर में  रंगोली बना कर दिए सजा रही थी। सोचा जैसे हमेशा आंटी के घर में भी बनाती थी आज भी बना कर आती हूँ।
 इस समय उनसे अपना प्यार जताने के कोई और रास्ता समझ भी नहीं आया। एकदम से फोन लगाने की हिम्मत नहीं हुई। पता नहीं उनको कैसा लगे? परेशान की परेशानी बढ़ाना भी ठीक नहीं। 
उनके सुने, ताला लगे दरवाजे पर रंगोली बना कर दिये रख रही थी कि लगा पीछे कोई खड़ा है। मुड़कर देखा आंटी खड़ी थी। हाथ में थैले, चेहरे पर थकान पर आंखों में वो सब जो मुझे उनकी बाहों में समा जाने को बुला रहा था।
रंगोली और दिए बातें कर रहे थे। दोस्ती की पहल में सफल वो दोनों महक उठे। हम दोनों के तो बस आँसू ही बोल पाये। ***
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लघुकथा -  27                                                             
                           कल्चरल प्रोग्राम                        

                                                    - पूनम झा 
                                                कोटा - राजस्थान 

"क्या हुआ ????......." अपने छोटे बेटे गोलू को स्कूल से लेकर आयी रमा घर में प्रवेश करते ही पति को बेटे रवि ( रवि दसवीं कक्षा का छात्र है ) पर आगबबूला होते हुए देख कर चौंक कर पूछी ।
"यह साहबजादे स्कूल नहीं जाते हैं, लड़कियों से छेड़छाड़ और मटरगश्ती करने जाते हैं ।" क्रोध से पति ने कहा ।
"..........." रमा सवालिया नजरों से देखती रही ।
"अरे! इसके स्कूल के प्रिंसिपल का फोन आया था । शिकायत कर रहे थे और कल हमें स्कूल बुलाया है ।"
"रवि! क्या हमलोगों ने तुम्हें यही सिखाया है ?" रमा बेटे की ओर मुखातिब होते हुए बरस पड़ी "हमारी क्या इज्जत रह जाएगी ? हमारी तो छोड़ो तुम्हें अपने कैरियर की कोई चिंता नहीं है ? तुम्हारा अब बोर्ड  है ...... ..  . ...?"
रवि सिर झुकाए कोने में खड़ा था और गोलू ( दूसरी कक्षा में है ) अपने हाथ में प्राईज लिए बारी-बारी से सभी को देख रहा था ।
 रमा की नजर उसपर पड़ते ही प्यार से बोल पड़ी --"अरे रे रे....मैं तो भूल ही गई !!!!.......। देखिये  गोलू को डांस में फर्स्ट प्राईज मिला है । मैं पेन ड्राइव में लेकर आयी हूँ । आईये सबलोग देखिये गोलू कितना अच्छा डांस करता है । बिल्कुल गोविंदा की तरह डांस कर रहा है ।"
ये कहकर रमा ने पेन ड्राइव को टीवी में लगाकर गोलू के स्कूल के कल्चरल प्रोग्राम में गोलू के डांस को शुरू करके, सबके लिए खाना लगाने रसोई में चली गयी ।
दोनों बच्चे और पापा बहुत खुश हो-होकर गोलू का डांस देख रहे थे । गाना बज रहा था "मैं तो भेलपूड़ी खा रहा था ...लड़की घुमा रहा था .... तुमको मिर्ची .............।" ***
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लघुकथा -  28                                                             

                         दोहरी मानसिकता                        
                         
                                                   - अंजली खेर 
                                               भोपाल - मध्यप्रदेश

ससुराल में भले ही बडी बहू बनकर पूरे परिवार की जिम्मेदारी दौड़-भाग कर निबाहती हूँ पर मायके आने पर तो वापस माँ की नन्ही गुड़िया ही बन जाना दुनिया का सबसे सुखद अहसास होता  हैं ! 
वो माँ की गोद में सिर रखकर लेटने का आलौकिक सुख, उनके हाथों बनी घी चुपड़ी नरम- नरम  रोटियां,  मखाने के लडडू, लच्छा  पराठे और भी ना-ना व्यंजनों  से सजी थाली के  हिलोरें लेते स्वप्न के साथ मैं अपने मायके पहुंची  ! 
स्कूल से लौटी बिटिया जैसे मैं तो  बातों  का पिटारा खोलकर शुरु हो गयी  ....फिर कुछ देर बाद अपनी बातों को विराम देकर  मैंने माँ के हालचाल पूछे   !  फिर कुछ मेरे,  कुछ माँ के दिल के जज्बातों का आदान प्रदान शुरु हुआ .... माँ ने गैस पर चाय चढ़ाई  और मैं हमेशा की तरह प्लेटफार्म पर फट से  उचककर बैठ गयी .....घर परिवार की बात चल पड़ी थी ....माँ ने उबली चाय कप में छानी फिर हम चाय का प्याला लिए ड्राइंग रूम में आ गए ...
रिनी दी भी तो हमारे परिवार की सदस्य की तरह ही थी,   माँ ने बताया कि रिनी की ससुराल में बड़े पूजा पाठ होते हैं ..अभी 6-8 दिन पहले ही तो  राम नवमी में  उसकी सास ने "कन्या भोज" रखा था ..घर का सारा काम रिनी दौड़ दौड़ कर कर रही थी जबकि 3माह से प्रेग्नेंट थी ..ऊपर से बड़ी बेटी का स्कूल और पढाई अलग ...फिर अचानक रिनी की तबीयत खराब हो गयी . .अस्पताल  गए तो डॉक्टर ने अड्मिट कर लिया  ..अब ना जाने क्या समाचार हैं ..बार बार फ़ोन लगाकर पूछना भी अच्छा नहीं लगता, इसीलिए संकोच कर गयी ..पर अब तुम आ गयी हो तो उसके घर पर फ़ोन लगा लो .  ..पता तो चले रिनी कैसी हैं ! 
माँ की  बात सुनकर मुझसे रहा ना गया तो  मैंने तुरन्त दी के घर फ़ोन लगाकर पूछा तो रिनी के पति ने बताया  कि  ज्यादा ब्लीडिंग के कारण डॉक्टर ने डी एन सी (सफाई ) का निर्णय  लिया ..कल ही सब हो गया था ! रिनी  अभी सिटी हॉस्पिटल  अस्पताल में ही हैं !
 सब सुनकर मैं रिनी दी को लेकर बहुत परेशान हो उठी . मैंने माँ को सारी बात बताई और  आनन फानन स्कूटी उठाकर मैं  अस्पताल की ओर रवाना हो गयी !
स्कूटी पार्क  कर मैं काउंटर से पता कर दौड़ते हुए संबन्धित वार्ड तक पहुंची ..दरवाजे पर दस्तक दें मैंने अंदर कदम रखा तो  रिनी दी के सूखे पड़ गए होंठ और  उनकी आंखों में आंसुओं का सैलाब देख मेरा मन भी भींग गया !
कैसी हो दी ..क्या हुआ -....  कहकर मैं बेड के पास  रखी कुर्सी पर बैठते हुये दी का हाथ अपने हाथों में लेकर सहलाने लगी !
अरे होना क्या हैं ..मेरे  हाथ -पैर तो चलते नहीं अब ..पूजा पाठ में इसकी भागमभाग हो गयी और ब्लीडिंग शुरु हो गयी ..पहले तो dr.ने सोनोग्राफी कराई ..पता पड़ा बच्चे की ग्रोथ ही नहीं हो रही हैं ..डॉक्टर ने कहा कि   दवाई से ब्लीडिंग तो रुक जाएगी  पर  पूरे नौ महीने बेड रेस्ट करना होगा और हो सकता हैं कि बच्चा अपाहिज पैदा हो  ..
वो तो भला हो कि सफाई हो गयी .डॉक्टर ने बाद में बताया कि कोख में बेटी थी ....अरे एक तो घर में पहले ही एक लड़की हैं और ऊपर से दूसरी ..वो भी अपाहिज ...कौन पोसता जन्मभर उसे ....रिनी की सास ने एक ही सांस में सब बोल दिया तो उनकी बात सुनकर  मैं तो हैरान हो गयी ...
मेरी आंखों से अंगारे बरस पड़े ...मेरे से चुप  नहीं  रहा गया -"आंटी, आप तो कन्या पूजती हैं ना ! फिर अपने घर में आने वाली लक्ष्मी से इतनी नफरत क्यू, ईश्वर ना करें कि कभी किसी के घर ऐसा घटित हो, फिर भी मुझे  ये बताइए कि यदि बेटा अपाहिज पैदा हो तो वो बिना किसी सहारे ही पल -बढ़ जाता क्या .....क्या अपाहिज बच्चे को जीने के लिए सहारे की जरूरत नहीं पड़ती ...
मुझे गुस्से से उबलते देख रिनी दी ने मुझे शांत रहने का संकेत देने के लिए मेरा हाथ जोर से दबाया ..
मैं रिनी दी की आंखों से छलकती बेबसी को स्पष्ट पढ़ रही थी ..फिर भी उस दिन खुद को रोक पाने में असमर्थ थी -"आंटी, ऐसे पढ़े लिखे परिवार की इतनी हीन और दोहरी मानसिकता देख मुझे तरस आता हैं"- इतना कहकर मैं बिना रिनी दी को पलटकर देखे,  वार्ड से बाहर चली आयी ! ***
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लघुकथा - 29                                                               

                                  नतीजे                                    

                                              - सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
                                           साहिबाबाद - उत्तर प्रदेश

           पिछ्ले सप्ताह ,मैं जब उससे मिला तो वो बहुत उत्साहित और फ्रेश मूड में था । अपनी समान्य प्रक्रति से अलग हल्के - फुल्के हास्य को भी उसने अपनी बात - चीत का हिस्सा बना रखा था ।मैनें भी मजाक में पूछ लिया " आज तो जिन्दगी की जवानी में लौटा दिखता है , हमारी भाभी इस अधेड़ उमर में मेरे यार के लिए  कुछ खास कर रही है क्या ? "
उसके मूड के आलोक में , मैं ये बात कह तो गया पर अन्दर ही अन्दर मैं डर भी गया था कि मेरा यार कहीं बुरा मान गया तो अच्छी - भली मुलाकत का फ्जीता न हो जाय , क्योंकि उसके पास बैठना और बतियाना  हमेशा मेरे दिमाग को ताजगी देता है ।विलास और भौतिकता से अलग वो इन्सानियत की बातों को  बड़ी सादगी से कह जाता है ।
मेरी शंका से अलग मेरी चुटकी पर वो खुल कर हँसा था । मैं भी खुश होकर उसे आत्मीयता से देखता रहा था । फिर उसने अपनी हंसी रोक कर कहा था , " यार तू अपनी उस भाभी की किसी नई हरकत की बात कर रहा है जिसकी वजह मैं इतना खुश हुँ । मेरे भाई ऐसा नहीं है। वो तो हर दिन मेरे लिये किसी न किसी रूप में नई ही होती  है । उसका सर्व सादगी  तो हम दोनों की आदत का हिस्सा है । आज मेरी तसल्ली की असल वजह ये है कि मेरे देश के लोग वर्षों से उलझी अपनी उन बुराईयों को छोड़ने के बारे में सोचने लगे हैं जिनकी वजह मेरा देश इतने सालों बाद भी अपनी गुरबत से निकल नहीं पाया है।अब मुझे लगता है कि अब ज्यादातर लोग  सही दिशा में सोचने लगे हैं ।"
उसकी ये बात सुनकर मेरा मन हुआ कि उसके होठों पर एक ' किस 'अंकित कर दूँ पर उम्र के अंकुश ने मुझे रोक दिया ।
मैने मुस्कुरा कर पूछा , " ऐसा क्या हुआ है कि आज मेरा यार इतना आशावान हो चला है ? "
उसने बिना कोई देरी किये और बिना किसी लाग लपेट के कहा , " तू देख नहीं रहा कि ये जो चुनाव होने को हैं , इनमें लोग उसी को चुनने वाले हैं जो हर तरह से देश के बारे में ही काम करेगा । देश को दंगे - फसादों से दूर रखेगा ।"
मैं ये तो जानता था कि मेरा यार बाहर से ही नहीं दिल से भी भोला है पर मैं ये नहीं जानता था कि मेरा यार  इतना भोला है कि अभी भी वो अपनी उस दुनिया में रहता है , जहाँ भेड़िया भी कभी - कभी किसी हिरन को बक्श देता है । वो ये सोचता ही नहीं है कि भेड़िया ये सब अपना मन मसोस कर तब करता है , जब उसके आस - पास कोई शेर मंडरा रहा होता है ।"
चुनाव हो गये और नतीजे भी आ गये ।
आज फिर मेरा मन किया कि अपने यार से मिल आऊं पर मेरी हिम्मत नहीं हुई क्योंकि मुझे पता है कि आज वो बहुत बैचेन होगा ।नतीजे उसकी उम्मीद से बिलकुल अलग थे । ***
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लघुकथा - 30                                                          

                               सीना चौड़ा                            

                                         - लीना बाजपेयी
                                        भोपाल - मध्यप्रदेश
                                        
पिता अपनी नन्ही गुड़िया को प्यार से निहारते रहते,बेटी का बाप होने का दंश भी कुशलता से संभालते रहते।बिटिया भी धीरे धीरे बड़ी होने लगी।
  पिता पुत्री की तो जैसे दुनिया ही सिमटने लगी । दोनों एक-दूसरे पर जान लुटाने लगे और एक दूजे  की पहचान कहाने लगे। लड़की बिगड़ रही है ,लाड़ कम करो,कम पढ़ाओ, सिनेमा कम दिखाया करो इस साल दसवीं की परीक्षा है कहीं  फेल ना हो जाये,तरह तरह के जुमले भी कानो में समाने लगे।
       आज बिटिया का दसवीं का रिज़ल्ट लेने स्कूल पहूंचे हैं  परिणाम पत्र लेकर बड़ी देर तक सबसे मिलते रहे। बिटिया ने कहा " पापा अब घर चलें" पापा बोले " थोड़ा और रुकते हैं आज तो अपना सीना चौड़ा है " ***
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लघुकथा - 31                                                            
                                धर्म का पर्दा                               

                                                   - गीता चौबे
                                                रांची - झारखण्ड
     
        पूजा स्कूल से आते ही माँ के गले लिपट गयी और चहकते हुए बोली, '' माँ आज मेरे क्लास में एक नयी लड़की आयी...सकीना, बहुत प्यारी है और मेरी बहुत अच्छी दोस्त भी बन गयी। हम दोनों ने साथ मिल कर लंच किया। उसके लंच में परांठा था जो बहुत ही स्वादिष्ट था। ''
     ' सकीना? यह तो मुस्लिम नाम है, आज के बाद तुम उससे दोस्ती नहीं करोगी और न ही उसकी कोई चीज़ खाओगी।'' पूजा की माँ सविता ने तुगलकी फरमान जारी करते हुए कहा।
  'पर क्यूँ माँ? वो तो बहुत अच्छी है और पढ़ाई में भी होशियार है। '
  'बेटा वो लोग मुस्लिम हैं और हम हिन्दू। हमारे धर्म अलग हैं... हमारा उनका कोई मेल नहीं। '
'यह धर्म क्या होता है माँ? सकीना तो बिल्कुल हमारे ही जैसी दिखती है.. वो हमसे अलग कैसे?'
   ' तुम नहीं मिलोगी उससे, बस इतना याद रखो.. हम हिंदू हैं और वो मुसलमान। '
   पूजा को तो चुप करा दिया पर उसके बालमन पर इसका क्या प्रभाव हुआ यह सविता न समझ सकी।
    कुछ दिनों बाद पूजा और सविता राशन लेने एक पन्सारी की दूकान पर गये जहाँ सकीना और उसकी माँ भी गेहूँ ले रही थीं। सविता के कहने पर दूकानदार ने उसी कनस्तर से गेहूँ तौलना शुरू किया जिसमें से उसने सकीना की माँ रूबीना को दिया था।
  ''  अरे अंकल! पूजा ने दूकानदार को टोकते हुए कहा, हमें ये वाला गेहूँ नहीं चाहिए, हमें तो आप हिंदू गेहूँ दीजिए। ''
   ''हिन्दू गेहूँ? बेटा गेहूँ हिंदू या मुसलमान नहीं होता। ''
'भगवान की बनायी कोई भी चीज़ हिंदू - मुस्लिम नहीं होती... इन नैसर्गिक चीज़ों का कोई धर्म नहीं होता।' ईश्वर ने हम सभी को भी एक जैसा बनाकर इस धरती पर भेजा है। पर कितने दुख की बात है कि हम ईश्वर की आराधना तो करते हैं पर उसके बनाए नियमों का पालन नहीं करते... 
''अल्लाह... ईश्वर... फादर...वाहे गुरु...सृष्टि कर्ता के ये सारे नाम हमने ही तो रखे हैं और उसी तरह मुस्लिम... हिंदू... ईसाई और सिख भी हमने ही बनाए। पर प्राकृतिक चीज़ों को भी अगर जाति - धर्म का नाम देना शुरू कर दिया तो इस पृथ्वी को रसातल में जाने से कोई नहीं रोक पाएगा... '' ।
'पर माँ तो बोलती हैं कि सकीना का भोजन मुस्लिम है... है न माँ?'
  सविता पूजा के मासूम सवालों का कोई जवाब न दे पायी। वह सोचने पर मजबूर हो गयी कि जब भगवान ने कोई भेदभाव नहीं रखा तो वह क्यों इस कट्टर परंपरा का वहन कर रही है...
सविता की आंखों पर पड़ा धर्म का पर्दा हट चुका था और उसने पूजा और सकीना को गले से लगा लिया।***
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लघुकथा - 32                                                              
                                    भूख                                   

                                            - डा.साधना तोमर
                                             बड़ौत - उत्तर प्रदेश

मीना ने बेटे के  परिणय - उत्सव  को बहुत ही धूमधाम से मनाया।इकलौता बेटा जो था, सभी नाते रिश्तेदार, मित्र-मण्डली, सहकर्मी उपस्थित थे। सभी वर-वधु को आशीर्वाद दे रहे थे। मीना बहुत खुश थी। इधर से उधर सबसे मिलना, उनके खाने का ध्यान रखना,सबको मान सम्मान देना उसकी प्राथमिकता थी। कुछ लोग प्लेट भर खाना लेते, दो कौर खाकर नीचे रख देते। मीना को उनका यूँ खाना बर्बाद करना बुरा लगता पर कुछ नहीं कह पाती, मेहमान जो ठहरे परन्तु वह भोजन देखकर  सड़क पर झुग्गी में रहने वाले भूखे बच्चों की याद आ जाती। रात के दस बजे कार्यक्रम जैसे ही समाप्त हुआ उसने बेटे से कहा "बेटे गाड़ी निकालो और  सारा भोजन उसमें रखो अभी झुग्गियों में और रेलवे स्टेशन पर गरीबों को खाना खिलाना है। " "मम्मी सुबह खिला देंगे, अब रात हो गयी है। " "नहीं बेटा! अभी चलना है, उन्हें भी ताजा खाना अच्छा लगेगा। " गाड़ी रुकते ही झुग्गी के बच्चों ने उन्हें घेर लिया। खाना देखकर झपट ही पड़े। आसपास के लोग भी आ गए। मीना और उसका बेटा उन्हें बडे प्यार से खाना खिला रहे थे। आज मीना को भूखो को भोजन कराने में जो आनन्द की अनुभूति  हो रही थी  वह तो अपने मित्रों  को खिलाने में भी नहीं हुई।समझ आ रहा था कि भूखे सोना कितना मुश्किल होता है। भूखा ही भोजन की महत्ता समझ सकता है भरी प्लेट कूडे़ में फैंकने वाले अमीर लोग नहीं। काश वे लोग समझ पाते कि जिस भोजन को वे फैंक देते हैं उससे किसी की भूख शान्त हो सकती है। ***
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लघुकथा - 33                                                             

                               अस्मत                                   

                                              - मोनिका शर्मा मन 
                                              गुरुग्राम - हरियाणा

कल्याणी आज बहुत खुश थी क्योंकि उसके भगवान श्री कृष्ण का जन्मदिन था ।उसने भगवान को सुंदर वस्त्र पहनाए। भिन्न भिन्न व्यंजनों से उन्हें भोग  लगाया । पूरे दिन का व्रत रखा। शाम को जब उसके भैया और भाभी ऑफिस से घर आए तो उसे मंदिर चलने की जिद की ।
 कल्याणी के माता पिता की मृत्यु बचपन में ही हो चुकी थी। कल्याणी अपने बड़े  भाई और भाभी के साथ रहती थी ।
कल्याण के प्रति उसकी भाभी का व्यवहार अच्छा ना था। परंतु वह फिर भी खुश रहती। कल्याणी उसका बड़ा भाई व भाभी सब मिलकर पास के श्री कृष्ण मंदिर गए।
 श्री कृष्ण मंदिर में गए भगवान  की भिन्न-भिन्न रूप में झांकी लगी हुई थी।भीड़ इतनी थी कि मानों पूरा बरेली शहर आज इसी  मंदिर में आया हो। अचानक किसी ने वहांँ पर बम  की अफवाह फैला दी। सब जगह अफरातफरी होने लगी और तभी न जाने कुछ आदमियों ने कल्याणी का मुंँह दबोच कर उसे अपनी कार में बैठा लिया । उसे जब होश आया तो उसने स्वयं को स्वयं को  निर्वस्त्र हालत में एक जंगल में पाया। उसे जल्द ही समझ आ गया था कि उसकी अस्मत लुट चुकी है। कल्याणी दर्द से कराह रही थी । जैसे तैसे खुद को छुपाती  जंगल में से जो भी मिला उससे खुद के शरीर को ढकती धीरे-धीरे गिरती पड़ती सड़क के किनारे आई ।  मगर जो कोई भी उसको देखता उसके साथ दुराचार  करता ।वह अब पागल हो गई थी उसको अब किसी भी बात की परवाह नहीं रही। लोग उसे पत्थर से मारते।वह न जाने कितनों का पाप अपने अंदर लिए घुमती।वह दिन भी आ गया जब उसे प्रसव पीड़ा शुरू हुई और वह उसी में मर  गई । उसकी लाश को भी किसी ने छुना गवारा नहीं समझा।
क्या औरत की जिंदगी इतनी सस्ती है ?***
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लघुकथा - 34                                                            
                                पेट भर                                 

                                                 - शर्मिला चौहान
                                                    ठाणे - महाराष्ट्र

          आज खुशी से फूली ना समा रही थी नीमा । मैडम जी ने खाने -पीने का ढे़र सारा सामान दिया है । 
कल पार्टी हुई थी बंगले पर और खाना बच गया था । रात तक तो नीमा थी सरजू और गीता की मदद करने । वो दोनों खाना बनाते और नीमा साफ -सफाई करती । 
आज तो बच्चों को और पति को स्वादिष्ट खाना पेटभर मिलेगा । एक सप्ताह से , संतोष घर पर ही है , सर्दी - ताप से कमजोर हो गया है । काम करने की कौन कहे , बिस्तर से उठने पर भी सिर चकराने लगता है उसका ।
सरकारी अस्पताल में दिखाया तो डॉक्टर ने गोली - दवाई थमाते हुए कहा , " शरीर को ताकत की जरूरत है , अच्छा खाना , फल - फूल , सब्जियां खिलाना ।" 
उसी समय से नीमा सोच में पड़ गई कि पेट भर रोटी - भात तो जुट नहीं रहा , काम बंद और ऊपर से तीन जवान होते बच्चे ।
कल का बचा खाना जब बांधकर रख रही थी तभी सरजू और गीता ने खुद को मिले सेब और केक भी उसे ही पकड़ा दिया , " घर ले जा बच्चे खाएंगे , हम दोनों को तो दो जून खाना यहां मिलता ही है ।" कृतज्ञता से नीमा ने उनको देखा और बड़ी सी पोटली बांध लहकती चली ।
छोटू तो केक देखकर पगला ही जाएगा , सेब छुपाकर रखेगी बच्चों से, सिर्फ संतोष को देगी , हिस्से-बाटे का ताना-बाना बुनते चल ही रही थी कि पीछे से जोर - जोर की आवाजों से पलटी ।
मोटरसाइकिल पर सवार कई लोगों का हुजूम चला आ रहा था । वो रास्ते पर आने वाली सभी चीजों को तोड़ते- फोड़ते , चिल्लाते तेजी से आगे बढ़ रहे थे ।
अगले कुछ पलों में जमीन पर गिरी नीमा ने, दबी कुचली पोटली को समेटते हुए , आँखें मूंद लीं । ***
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लघुकथा -35                                                            
                                वाडरोब                              
                                             - प्रतिभा सिंह 
                                             रांची - झारखंड

--' सिन्हा जी..  सुबह -सुबह  इतने बड़े-बड़े थैले लेकर कहाँ जा रहे हैं ।' आशीष जी ने पूछा ।
-- वो...पास वाले मंदिर 
-- क्यों.. ?
-- कुछ गरम कपड़े गरीबों में बाँटने..
-- ओ....अच्छा.. ! कितना नेक काम  !  अब तो  लग रहा है कि मुझे भी कुछ करना चाहिए । बहुत आत्मसंतुष्टि मिलती है दान-पुण्य करने से ...
--' जी हाँ....हाँ । 'कहते हुए सिन्हा जी तेजी से मंदिर की ओर बढ गये । लौटते समय सिन्हा जी सबसे नजर बचाते हुए अपने घर पहुँचे ।  यह सोचते हुए वह शर्मिन्दगी से खुद में गड़े जा रहे थे कि.. ..आशीष जी ने मुझे कितना गलत समझा । मैं उन्हें कैसे बताता कि  मै तो वाडरोब खाली करने के ध्येय से अपने और बच्चों के बेकार पुराने गरम कपड़े छाँटकर गरीबों को देने गया  था ताकि अपने नये कपड़ों के लिए जगह बना पाऊँ । ***
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 लघुकथा -36                                                               
                       कर्तव्य की सीख                        
                       
                                            - डा. चंद्रा सायता
                                               इंदौर - मध्यप्रदेश
                                               
  "मैं  आज  किसी अपरिहार्य कारण से स्कूल नहीं आ पाऊंगी। कृपया प्रिंसिपल साहब को सूचित कर दीजिए।" अमिता ने स्कूल के कार्यालय में बात करते हुए कहा। अमिता अपने पति के साथ पीहर पहुंची। सारी तैयारियां हो चुकी थीं। सबकी आंखें रो-रोकर सूज गई थीं। अमिता अपने पिता के नहीं रहने की सूचना मिलने पर बहुत रोई थी, पर अब  नहीं।  वह  पिता की तरोताजा किंतु निर्जीव देह को निहार रही थी।
 कुछ पलों में वह उठ खड़ी हुई और मोबाइल  पर स्कूल कार्यालय का नंबर मिलाया--
" सुनिए मैं अमिता बोल रही हूं। मैंने 3 घंटे पहले आपको अपने स्कूल न पाने की विवशता बताई थी । 
 क्या आपने प्रिंसिपल साहब को सूचना दे दी?"
" नहीं मैडम। सॉरी। बस अभी बताने जा रहा हूं" बाबू ने उत्तर दिया ।
" पर अब नहीं बताना है , क्योंकि मैं स्कूल आ रही हूं।" 
 अमिता की बात सुनकर बाबू चकरा गया।
" पर मैडम। आपने....." अमिता ने फोन रख दिया और मां को किचन में बुलाकर  गुपचुप बात कर ली। उसने  साड़ी बदली ।वह पीछे के दरवाजे से निकलकर स्कूल की ओर रवाना हो गई।  बच्चों की कक्षा  समाप्त होने पर अमिता ने  उन्हें रोका। "बच्चों !आज अभी मेरे पिताजी का स्वर्गवास हो गया है ।. मैं आने वाली नहीं थी, किंतु पिताजी की निर्जीव देह देखकर उनकी दी हुई शिक्षा याद आ गई ।
'अपने  कर्तव्य को  हर हाल में प्राथमिकता देना चाहिए यह भी देश की सेवा है बेटा।'
 बच्चे उदास हो गए। अमिता ने उन्हें समझाया "मेरे पिताजी तो अब लौट कर नहीं आ सकते, परंतु बच्चों । तुम्हारा आज का दिन व्यर्थ चला जाता।" सभी नेदो मिनट का मौन रखकर अमिता के स्व. पिता के प्रति श्रद्धा भाव व्यक्त किया। ***
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 लघुकथा -  37                                                             
                                 बुलावा                                   
                                 
                                          - अंजू खरबंदा 
                                                 दिल्ली
ठक-ठक....!
"कौन ? दरवाजा खुला है आ जाओ ।"
"राम राम चन्दा!"
"राम राम बाबूजी! आप यहाँ!"
"क्यूं मैं यहाँ नहीं आ सकता?"
"आ क्यूं नही सकते ! पर यहाँ आता ही कौन है!"
"आया न आज ! ये कार्ड देने मेरे बेटे की शादी का !
"कार्ड ! बेटे की शादी का !"
"हाँ अगले महीने मेरे बेटे की शादी है तुम सब आना ।" 
......!
"...और ये मिठाई सबका मुँह मीठा करने के लिये !"
कांपते हाथों से मिठाई का डिब्बा पकड़ते हुए- 
"हम तो जबरदस्ती पहुंच जाते है शादी ब्याह या बच्चा पैदा होने पर तो लोग मुँह बना लेते हैं और आप हमें बुलावा देकर.....!"
"चन्दा, बरसों से तुम्हें देख रहा हूँ सबको दुआएं बांटते!"
".....!"
"याद है जब मेरा बेटा हुआ था तो पूरा मोहल्ला सिर पर उठा लिया था तुमने खुशी के मारे ।"
"हाँ! और आपने खुशी खुशी हमारा मनपसंद नेग भी दिया था !"
"तुम्हारी नेक दुआओं से मेरा बेटा पढ़ लिख कर डॉक्टर बन गया है और..... तुम सबको उसकी शादी में आना ही होगा !"
"क्यूं नही आएंगे बाबूजी जरुर आएंगे ! आपने इतनी इज्ज्त देकर बुलाया है क्यूं न आएंगे!"
कहते हुए चंदा की आँखे गंगा जमुना सी बह उठी और उसका सिर बाबूजी के आगे सजदे में झुक गया । ***
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लघुकथा - 38                                                              

                                लाड़ो                                      

                                            - श्रुत कीर्ति अग्रवाल 
                                                पटना - बिहार

लाड़ दिखाते हुए,  लेटी हुई अम्माँ के गले में बाँहें डालती हुई वह भी चिपक कर लेट गई।
"कुछ कहना है गुड़िया? 
अम्मा ने बाँहों में भरते हुए पूछा तो पता नहीं क्या सोचती, वह पहले तो मुकर गई...
"ऊँहुक्क!" 
फिर बोली,  "अच्छा अम्माँ, जब तुम छोटी थीं, कौन सी पिक्चर पसंद आती थी तुमको? मतलब ऐक्शन, हॉरर या फिर लव-स्टोरी?"
अम्माँ समझ गईं कि बात कुछ और है, कि कल तक कार्टून और डॉल्स की बातें करने वाली उनकी लाड़ो के प्रश्न आज कुछ बदल से गए हैं। उसका मन टटोलने को कहा, "मुझे तो सिर्फ लव-स्टोरी ही भाती थी।"
आँखें चमक उठी लाड़ो की! "तुमने कभी लव किया था अम्माँ?" 
"हाँ क्यों नहीं? बहुत बार हुआ मुझे लव!"
ठठाकर हँस पड़ी वह... "वो वाला नहीं, सच्चा वाला! जो किसी स्पेशल को देखते ही होता है और जिंदगी भर वैसा ही बना रहता है।"
"तुझको हुआ है क्या?"  खोजती  नजरों से उसकी आँखों में झाँकती अम्मा पूछ रही थीं।
"धत्त्!" पता नहीं क्यों वह शरमा गई।
"कैसा है वह देखने में?" किसी गहरी सहेली की तरह अम्माँ ने पूछा।
"बिल्कुल रणबीर कपूर जैसा!" 
अम्मा ने आश्चर्य से देखा, आँखों में दूधिया सपने झिलमिला रहे थे।
"कहाँ मिली थी उससे?"
"स्टेज प्रोग्राम में!  बहुत अच्छा गाता है। फिर लाइब्रेरी में भी, अब वह रोज स्कूल जाते समय मोटर-साइकिल लेकर पीछे-पीछे आता है। पहले सोंचा डाँट दूँगी पर अम्माँ, अच्छा लड़का है वह!"
"कैसे पता?  कभी बात की है उससे?"
"अभी तक तो नहीं! वही कुछ-कुछ बोलता रहता है, पर मैंने कभी जवाब नहीं दिया।"
"क्या लगता है, सच्चा वाला लव हो गया है तुझे?"
"लगता तो है..."
"फिर तो ठीक है, कल चलती हूँ तेरे साथ। उसके मम्मी-पापा का पता पूछकर शादी की बात चलाऊँ?" 
हड़बड़ा कर उठ बैठी लाड़ो... "अरे नहीं! शादी थोड़े न करूँगी! अभी तो मुझे डॉक्टर बनना है।"
उँगली पर जोड़ते हुए अम्माँ ने कहा, " इसमें तो आठ-दस साल और लगेंगे! तब तक पीछे-पीछे घुमाती रहेगी उसे?"
"नहीं, ऐसा तो नहीं!" वह कुछ सोंच में पड़ गई थी।
"वैसे यह कोई बुरी बात भी नहीं! जब तेरी सहेलियाँ अपने हस्बैंड की क्वालिफिकेशन की बात करेंगी, तू बताएगी कि आठ साल से पीछे-पीछे घूमने वाला हस्बैंड कितनों को मिलता है?"
"क्यों फालतू बातें करती हो अम्माँ! मेरा हस्बैंड भी पढ़ा-लिखा होगा।" लाड़ो गुस्सा हो गई थी।
"तो पढ़ाई-लिखाई करने दे न उसे, मना कर पीछा करने से! ये लड़के लोग न, थोड़े कमअक्ल होते हैं। प्यार से बोलेगी तो और घूमेगा, डाँट कर कहना अभी कैरियर बनाए! लव वगैरह के लिए बहुत टाइम है अभी।"
"हाँ,  यही ठीक रहेगा, उसके लिए भी और मेरे लिए भी!"  लाड़ो ने गहराई से सोंचा और अब अपना निर्णय उसे बिल्कुल सही लग रहा था। ***
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लघुकथा - 39                                                           
                            पांचवी बेटी                              
                                             - नीलम त्रिखा
                                          पंचकूला - हरियाणा
                                          
रात के सन्नाटे को चीरती एक बहुत ही मार्मिक आवाज ने मुझे बेचैन कर दिया और मैं बिना कुछ सोचे दरवाजा खोल कर  पास ही झोपड़ी से आती हुई उस आवाज की तरफ चल दी थोडी सी रोशनी में मैंने वहां रोते हुए एक ओरत को देखा और फिर उससे पूछा क्या हुआ क्यों रो रही हो देखो मैं सामने की ही कोठी में रहती हूं  मुझे बताओ मैं तुम्हारी क्या मदद कर सकती हूं वह एकदम चुप हो जाती है और मुझे बताती है कि उसे दर्द है क्योंकि उसे पांचवा बच्चा होने वाला है मैंने कहा चलो मैं तुम्हें डॉक्टर के पास ले जाती हूं वह बोली मेरा पति दाई को बुलाने गया है आता ही होगा  मैंने कहा तुम दर्द में इतना रो रही हो उसका इंतजार क्यों करना उसके बाद उसने  जो कहा वह सुनकर मेरे मुंह से भी चीख निकल गई उसने मुझे बताया कि अगर पांचवी लड़की हो गई तो वह जिंदा नहीं बचेगी और मैं एक मां हूं इसलिए जोर जोर से रो रही हूं क्योंकि अपने पति के सामने मैं रो नहीं पाऊंगी मैंने कहा चिंता मत करो मैं हूं यह बेटी मुझे दे देना इतने में ही उसका पति अचानक आ गया और मुझे देख कर अपनी पत्नी पर जोर से चिल्लाया पर मैंने उसे शांत करते हुए मैने कहा चुप हो जाओ मुझे पता चला था मुझे बच्चा चाहिए मैं वह पूछने आई हूं और बदले में तुम्हें बहुत सारा पैसा भी दूंगी पर पहले तो उसने थोड़ी सी झूठी नाराजगी दिखायी ओर बोल नहीं नहीं यह कोई ऐसे देने की चीज नहीं है पर उसकी लालची आंखों में चमक आ गई थी और उसने मुझे कहा आप मुझे सुबह तक का समय दें मैं आपको सुबह बता दूंगा मैंने शुक्र किया कि चलो कम से कम वह पैसों के लालच में अगर बेटी हो गई उसे तो नहीं मारेगा अगली सुबह जब मैं वहां गई तो देखा वहां से ढोल की आवाज आ रही थी और वहां जाने पर मुझे पता चला कि उनके घर बेटा हुआ उसकी पत्नी मुझे देखकर खुश होते हुए बोली भगवान ने हमारी सुन ली और मैं वहां से चुपचाप आ गई और अब तक इसी सोच में हूं कि इस तरह से मैं कितनी  बेटियों को बचा पाऊंगी। ***
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लघुकथा -  40                                                            

                               झूठ सच                              

                                              - चन्द्रकान्ता अग्निहोत्री
                                                 पंचकूला - हरियाणा
         

          बहुत देर कर दी आने में? मैंने अपनी बहन कनु से पूछा ।
.....बस ,रास्ते मे मॉल में चले गए तो वहां हमें आपके शहर के सुरेश मिल गए थे।
.......कौन सुरेश? 
......वही जहां कनु की शादी की बात चली थी ।
......ओह्ह अच्छा।रमा ने कहा।
.".....अच्छी तरह मिला ।अच्छा है।उसके बहनोई सजल ने अपनी पत्नी कनु की ओर देखते हुए कहा और हँस दिया ।
."......बस हाल चाल ही पूछा।उन्होंने फिर कहा ।
रमा को  सारा प्रसंग याद आ गया। उसने कहा.....
 ,",,,,,लड़का वह भी अच्छा था पर आपका तो कोई मुकाबला नहीं।आप जैसा हँस मुख व्यक्ति मिलना कठिन है। ......अच्छा आप आराम से बैठो ,मैं चाय बना कर लेती हूं।" रमा ने कहा और वह किचन में चली गयी।
आज भी उसे सब याद था ।अपने ही शहर में एक लड़का देखा था कनु के लिए ।इंजीनियर था और सभ्य भी ।रमा के पति  रमा को साथ नहीं ले जाना चाहते थे ।वे चाहते थे रमा की माँ व उसका भाई ही साथ चलें ।क्योंकि इस बार उन्होंने निर्णय लिया था कि वे कुंडली मिलान की बात ही नहीं करेंगे। कुंडलियों में कभी कोई दोष आ जाता तो कभी कोई ।लेकिन रमा पर भरोसा नहीं था क्योंकि वह सुनियोजित झूठ नहीं बोल सकती थी।पर  रमा ने जिद्द की वह भी जाएगी और चुप रहेगी । वे तीनों उनके घर गए ।इधर- उधर की बातें होती रहीं।कुंडली पर भी चर्चा हुई तो रमा ने कहा," जी हम कुंडलियों के मिलान में विश्वास नहीं रखते ,इसलिए बनवाई ही नहीं ।फिर चाय पीने लगे वातावरण में अपनत्व था कहीं कोई तनाव न  था।  सब खुश थे इतने खुश जैसे पता नहीं क्या मिल गया । बात जमने लगी थी।रमा बहुत खुश थी।
तभी सुरेश की माँ ने कहा ,पंडितों ने तो धंधा बना लिया कुंडली मिलान का। क्या -क्या बोलते हैं और लूटते हैं सो अलग।
,,,,,,, सच कहती हैं आप ,हमने न जाने कितना खर्चा किया ।थक गए कुंडली मिला मिला कर।.
...ओह्ह ,यह क्या कह दिया ।मारे संकोच के आंखे भी नहीं मिला पाई ।एक गहन चुप्पी थी कोई बोलता भी तो क्या। किसी तरह चाय पीकर घर वापिस आ गये।बात अधर में ही लटक गई थी।
इधर चाय तैयार कर कप्स में डाल कर रमा ले आई ।और हंसते हुए कहा ।
,,,,,लीजिये आराम से चाय पीजिये ।आज मुझे कोई झूठ नहीं बोलना। ***
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लघुकथा - 41                                                             
        
                     ये झुग्गी झोपड़ी वाले                  

                                          - प्रियंका श्रीवडताव 'शुभ्र
                                                 पटना -बिहार

रेलवे लाइन के किनारे से उठ कर झुग्गी झोपड़ी शहर के बीच नगर निगम के डंपिंग यार्ड के पास पसर गई। ये बात किसी को भी नहीं जंचती, पर सरलता से कामवाली का उपलब्ध होना सभी के मुंह बंद कर देते। हालांकि ये भी सच था की कहीं भी चोरी चमारी होती तो बिना सोचे समझे ठिकड़ा उसी झुग्गी झोपड़ी वाले के सर पर फूटता।
        यही कारण था कि  रात में  टार्च की टिमटिमाती रौशनी और फुसफुसाने की आवाज जो मुहल्ले  के मुहाने पर अवस्थित उस झुग्गी झोपड़ी के बगल के नगरनिगम के डंपिंग यार्ड के पास से आ रही थी, सभी के कान खड़े कर दिए। झुग्गी झोपड़ी वाले को सौ सौ गालियाँ पड़ने लगी।  
तथाकथित सभी सभ्य लोग आधी रात के अंधेरे में टार्च की रोशनी और फुसफुसाहट की आवाज की  ओर आकर्षित हो रहे थे पर उधर जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे थे। कुछ हिम्मती लोग, झुग्गी झोपड़ी वाले को अपशब्द बोल कुछ गलत होने की आशंका से भयभीत थे किंतु पुलिस को फोन कर जहमत मोल लेना भी नहीं चाह रहे थे। 
सभी अपार्टमेंट और घरों से लोग ताक-झांक किए। दो चार लोग नीचे भी उतरे और अपार्टमेंट के गॉर्ड से पूछे। वो भी बड़े इत्मीनान से बोला -' नगरनिगम का डंपिंग यार्ड है, वहाँ रात में कच्चा माल गिराया जाता  है।' 
ये सुन सभी आश्वश्त हो अपने -अपने घरों के सांकल लगा चैन से टी वी और मोबाइल में व्यस्त हो गए।
   बन्द खिड़की दरवाजे से भी  छोटी बच्ची के रोने की आवाज और किसी के डांटने या धमकाने की स्पष्ट आवाज  आ रही थी। हिम्मत बटोर कर बालकनी से झांकने की कोशिश की। चारो ओर से मशाल की लपट और लोगों के हो हो कि आवाज गूंजने लगी। धांय-धांय सभी की खिड़कियां बन्द होने लगे। सभी अपने-अपने घरों की बत्ती बुझा घर मे ऐसे दुबकने लगे मानो दो सम्प्रदाय का दंगा फैल रहा हो और बचने की कोशिश जारी।  घर में दुबकने वाले मोबाइल से एक दूसरे का हाल पूछ अपने को उनका शुभचिंतक बात रहे थे। तथाकथित एक दो युवा पुलिस को फोन कर अपनी बेचैनी प्रदर्शित किए। रात सबों की आँखों में कटी। 
   सुबह के उजाले ने सबों में हिम्मत भर दी और सभी घर से बाहर निकल रात का जायजा लेना प्रारम्भ किए। रात की घटना की जानकारी के लिए उत्सुक, कोई पेपरवाले से  लपक कर पेपर ले रहा था तो कोई उधर से आने वाले दूधवाला या अन्य किसी राहगीर से सवाल जवाब कर संतोषजनक उत्तर चाह रहा था। 
  तभी कामवाली बाइयों का झुंड एक साथ आया और उस कच्चे माल का चिट्ठा खोल सबों स्तब्ध कर दिया।
   "कमली तुमलोग कैसे जानी की वहाँ कुछ गलत हो रहा है।"
  अरे दीदी, आप लोग डेराते हैं। सबसे पहले तो हमी न आगे बढ़े फिर सभे औरत सब बढ़ी। मर्दाना सबको तो मजबूरी में आगे आना पड़ा। उ लोग का मस्ती न खत्म होने वाला था। उ सब काहे ला आगे आता। 
   दू चार दिन से हमको लगता था इहाँ कुछ गड़बड़ है। बाहर निकलते थे तो ट्रक से लोहा लक्कड़ गिराने लगता था। बाकी लोहा लक्कड़ गिरने से  लड़की के रोने का आवाज कहाँ से आएगा। इहे शक पर हम आज सब औरतन को इकट्ठा किए और सांझ में ही ढेर सारा किरासन तेल लगा के लुगाठी बना लिए थे। ग्यारह बजते जैसे खुसुर पुसुर शुरू हुआ हम सब लुगाठी जला के रौंद दिए। बड़ा मैनेजर बनता था... दे लुगाठी देह हाथ फाड् दिए। कए ठो का त हाथ गोड़ भी जला दिए। पता न कौन पुलिसवा को फोन कर दिया। पुलिस नहीं आती न त सबका राते खटिया खड़ा कर देते। बड़ा आए थे बच्ची सब को कच्चा माल कहने वाले। आज हमलोग सबको उसी आग में झोंक के पक्का माल बनाइए देते।"
     सुबह के अखबार का मुख्य न्यूज पाटली कॉलोनी में अवस्थित नगरनिगम के डंपिंग यार्ड में रात में आग लगने से कई गाड़ियाँ और पुराने समान जल कर स्वाहा हो गए।  सही कारण अभी पता नहीं चला, शायद गाड़ी से पेट्रोल चू जाने से आग लग गई। वहाँ बसे झुग्गी झोपड़ी को हटाया जाएगा। झुग्गी झोपड़ी के कारण यार्ड से सामान चोरी हो रहे थे। ***
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लघुकथा - 42                                                                     
                                  मोह भंग                                        
                                                    - इन्दिरा तिवारी
                                                   रायपुर-छत्तीसगढ़
      
शिव जी की पूजा कर वसुधा नीचे प्रवाहित पतित पावनी गँगा जी के तट पर आकर बैठ गयी।अभी कुछ ही क्षण बीते थे कि अचानक दबे कदमों से आकर निखिल ने उसे दबोच लिया और बोला-
"में तुमसे कितना प्यार करता हूँ एक तुम हो जो मुझसे दूर भागा करती हो क्या मेरे प्यार पर तुम्हें भरोसा नहीं है?"
इस अप्रत्याशित घटना से वसुधा भयभीत हो उठी।जिसकी छाया से वह दूर भागा करती थी अचानक उसीके आगोश में स्वयं को पाकर डरना वाजिब था पर उसे वह कहावत याद आ गयी जो डरा सो मरा। वह उसके गले लग गयी और अपने हाथ पीछे कर उसके इस कुकृत्य को सेल्फी फोटो में कैद कर लिया और बोली -
"तुम तो मेरी सहेली नेहा के प्रेमी हो।मैं अपनी सहेली का प्यार छीनना नहीं चाहती।कभी नेहा से प्यार कभी मुझसे प्यार परसों किसी और से ऐसे ढोंगी से भला कौन प्यार कर सकता है?"कहकर उससे अलग हो गयी।
निखिल झुँझला उठा-
"फिर तुम मेरे गले क्यों लगीं?"
वसुधा के मुख पर विजयी मुस्कान उभर आई।
"तुम नहीं समझोगे  कहकर वहाँ से चल दी अपनी सखी के घर की ओर सेल्फी दिखाकर उसका मोहभंग करने। ***
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लघुकथा -  43                                                              
                             लीप ईयर                                

                                              - डाँ. पूनम देवा
                                              पटना - बिहार

 कितना कुछ सोचा था भाभी ने अपने इस बार २९ फ़रवरी के जन्मदिन पर । लेकिन भाभी का इसी साल सब कुछ खो गया । मेरे  भैया दूसरे को जिंदगी देने वाले,आज खुद को ऊपरवाले के नियती से ना बचा पाए । कुछ दिनों के बाद खुद को संयमित कर भाभी ने पुनः अपना नर्सिंग होम सम्भाल लिया ,कब तक शोक मनाती आगे भी पूरी जिंदगी और पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाने के लिए भी जरूरी था ।
भाभी आज सुबह से बहुत उदास और गुमशुम थी । सारे स्टाफ ,और बाकी लोग को भी हिम्मत नहीं हो रही थीं ,, कुछ करने की  या कहने की ।
तभी भाभी की ननद सारा समान जन्मदिन की शुभकामना के साथ लेकर पहुंच गयी ,
भाभी आपको केक काटना हीं पड़ेगा ,हम सब के लिए,,हम सब ने चार साल तक इंतजार किया है इस दिन के लिए  । हां, मैं  भी भैया को मिस कर रहीं हूं ,मगर अब आपको मैं मिस नहीं करना चाहती ,भैया की कमी तो ताउम्र हम सब को रहेगी हीं ।
भाभी को सारे स्टाफ ने भी घेर लिया,सबकी आंखों में एक हीं  , इच्छा  थी ।
 मेरी प्यारी डाक्टर भाभी मेरे इस प्यार भरे आग्रह को टाल ना सकी ,,,,सारे घर में हैप्पी बर्थडे की आवाजें गूंज उठी ।
केक का टुकड़ा भाभी ने भैया के फ़ोटो से जैसे हीं सटाया ,,भाभी को लगा भैया बोल रहे हो,,,"लीप ईयर"  नहीं,,,,, "लीव डियर " । ***
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लघुकथा -44                                                           

                          एक दूजे  के लिए                          
                          
                                               - डॉ मंजु गुप्ता 
                                               मुंबई - महाराष्ट्र

           लन्दन से खूबसूरत रंजन  अपनी प्रेमिका डॉक्टर  रंजना से शादी करने मुंबई में आया था . लंदन में  रंजन का खुद की ब्रांडेड  इलेक्ट्रोनिक्स सामान की दुकान थी । वेलेंटाइन डे पर  वे दोनों आज शादी के बंधन बंध के अपनी सुहागरात रजनीगन्धा से सजे महकते कमरे में  एक दूजे की बाँहों में डाल के असीमित प्रेम के चुंबन 
से तरंगित हो रही थी । मन की मुरादें आज साकार हई थी । दो बदन औऱ जान एक थी ।
रंजन ने  सुहाग की प्रेम निशानी मंगल सूत्र रंजना को पहनाते हुआ कहा , " यह मेरे दिल की  धड़कनों में बसा श्वाशत प्रेम के मोती हैं  । जो तुम्हारे उर पर मेरे विश्वास की दस्तक   है । "  
" हाँ , ये हम दोनों का वैवाहिक जीवन की अनमोल निशानी है ।  ये काले मोती शिव के रूप धरे दुनिया की बुरी नजर से तुम्हें  बचाएँगे । "
" हाँ , मेरी पार्वती इसमें मेरे प्राण जो बसे हैं । "
" तुम तो मेरी आत्मा हो । मेरे जीवन के वजूद भी । "
" हाँ कल हम दोनों लंदन के लिये उड़ जाएँगे । वहीं पर अपना हनीमून मनाएंगे ।" 
तभी प्यार में भीगी  रंजना को अतीत के पन्ने यादों में खुलने लगे 
   " बस दो महीनों के बाद हनीमून के लिए  लन्दन में  आसमान - सी असीमित मोहब्बत मेरी बांहों में होगी .हम अपनी प्यार की दुनिया वहीं पर बसाएंगे। स्काईपे और व्हाटएप पर जुदाई में  विरह के पलों को  बातों से कट जाएंगे . मुबई के हवाईअड्डे पर विदा होते हुए रंजन ने रजनी की आँखों में झांकते हुए कहा था . 
वापसी में रंजना का   मुरझाया  मन रंजन की  मुलाकातों की खुशबू से भीग रहा था . मेरा मन चाँद रूठने में वह  कितना प्यारा  और ख़ूबसूरत लगता है ।  
 दीवानी रंजना  रंजन की विरह - मिलन की  यादों की पैहरन पहन के  दो महीनें जैसे तैसे व्यतीत हो गए थे ।" 
 आज रंजना ने  अपने  प्रेमनगर  में कैद   रंजन को  महकता लाल गुलाब दिया ।  जिन्दगी   सतरंगी खुशियाँ बिखेर रही थी . आज एक  दूजे की बाहों में 
हकीकत के मन आंगन में  मोहब्बत  का हर लम्हा थम गया  . ***
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लघुकथा - 45                                                          

                               धरती मांँ                             

                                                 -  शालिनी खरे
                                               भोपाल - मध्यप्रदेश
                                               
 रामदीन आंगन में खटिया पर  बैठा बीड़ी पी रहा था किसी गहन चिंता में डूबा ,धनिया उसे चाय का गिलास थमाते हुए चढ़कर बोली, तुम बस बीड़ी ही फूको यहां हम कर्ज में डूबे जा रहे हैं ।
 रामदीन:- तोऔर क्या करूं तू ही बता मैं तो थक गया सोच सोच कर धनिया :-आज दीनू काका ने भी अपनी जमीन का सौदा कर दिया उनका बेटा शहर जाकर पढ़ाई करेगा रामदीन;- और वह दिहाड़ी करेंगे, अरे अपनी मां को बेच कौन सुखी रहा है धनिया:-  तुम बस ऐसे ही राग अलापत रहो और सब देखो कैसे जा रहे हैं शहर को सबके बच्चे पढ़ लिख रहे हैं और हमारे बच्चन यहां भूख से लड़ रहे हैं, तुमरी  इन बातों से पेट भरत है क्या ।
रामदीन :- अरी मूरख अगर हम अपने खेत बेच देंगे तो सोच, क्या तब ही
 हमार पेट भरेगा, अरे कभी तो उस आसमान का दिल पिघलेगा और वो बरसेगा  धनिया :- 
और तुमरी इन बातों से जैसे हमार पेट भर ही जाएगा, बस बैठकर ख्याली महल बनाओ रामदीन :-
पर तेरी बातों में आ कर मैं अपनी मां को नहीं बैंचूगा और दूसरों को भी रोकूंगा । चल आता हूंँ मैं पंचायत घर तक होकर 
 धनिया :-रुको थोड़ा ,जुम्मा को   लेकर आती हूंँ,आज मंदिर में कीर्तन है कोनू बाहर से भजन मंडली आई है रामदीन :-काहे तू भी भजन मंडली में शामिल होगी ।
धनिया :-ना ही तुम भी न,अरे मंदिर में  खीर पूड़ी का प्रसाद बटत रहा , बच्चन के लिए लेने जा रही आज तो खाना मिले बच्चों को अच्छा
 रामदीन :-"मांँ कभी बच्चों को भूखा नहीं रखती ",दूर से बादलों की गड़गड़ाहट सुनाई दी रामदीन व धनिया की आंखें चमक उठी।। ***
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लघुकथा - 46                                                          मालिक 
                                            - डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘ उदार ‘
                                               फरीदाबाद - हरियाणा
                        
होली का त्यौहार आया ।गृह सेवकों के घर जाने का मौसम आया ।एक साल बाद ,चंदू भी निकल पड़ा घर की ओर ,मन में उधेड़बुन लिए हुए।
घर पहुँचते ही माँ ने माथा चूमा, पिता ने हाल -चाल पूछा , पास बैठे। बहन -भाई सब ललक कर  मिले, चिपक कर बैठे रहे।
आते ही मिठाई -पानी सब हाज़िर । माँ ज़िद कर रही कि कुछ और खा ले कितना दुबला हो कर आया है ।
यहाँ चंदू हीरो था हीरो।
मिठाई का टुकड़ा मुँह में रखते ही 
उठ खड़ा हुआ मानो मालिक ने आवाज़ दी हो
“ चंदू.. चंदू ... चंदू...! अरे... कहाँ मर गया...कामचोर .... बुलाओ तो सुनता ही नहीं है..।
कहाँ है..बोलता क्यों नहीं ...जु़बान घिस जाएगी क्या जवाब देने से ...आलसी  कहीं का....?”
मालिक के चिल्लाने की आवाज़ सुन कर चंदू दौड़ता हुआ आया 
“ जी  मालिक ..”
“ कहाँ  मर गया था ...ज़ुबान गिर  गई है क्या ... बोलता क्यूँ नहीं ...बोल नहीं सकता कि आ रहा हूँ..”
 चिल्लाते हुए मालिक ने एक ज़ोरदार थप्पड़ रसीद कर दिया 
चंदू गाल सहलाते हुए ,कंधे पर रखे पोंछे के कपड़े को सँभालता सिर नीचा किए खड़ा रहा ।
“ केवल खाता है..हरामखोर..
काम का न काज का... बस हैरान करता है..नालायक कहीं का...मुसीबत पाल लिया है हमने ....”
पीछे से मालकिन भी बड़बड़ाती हुई आई और धप्प से सोफ़े पर गिरती हुई सी बैठी और चिल्लाई 
“ जा पानी ले आ .. बुलाते-बुलाते गला सूख गया..ज़रा सा काम कहो तो घंटों लगा देता है , जैसे  बहुत बड़ा  काम  कर रहा है “
“ और खाओ .. बेटा ..अच्छा नहीं लगा क्या .. “
अचानक माँ की मनुहार सुन चंदू की तंद्रा ( चिंतन प्रक्रिया ) भंग हुई । 
मिठाई खाते-खाते मन में एक निर्णय ले बैठा कि अब वह यहीं रहेगा , जहाँ उसका स्वमान ज़िन्दा है ।जहाँ उसकी इज़्ज़त है, क़द्र है, महत्व है । यहाँ वह ख़ुद मालिक है । वह दोबारा मालिक से मिलने भी नहीं गया। ***
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लघुकथा - 47                                                                 
                              खिडक़ी                                

                                          - वन्दना पुणतांबेकर
                                              इंदौर - मध्यप्रदेश

रिमझिम बारिश की फुहारों ने मौसम को खुशनुमा बना दिया था।बीना इस खुशनुमा मौसम को देख सुखद अनुभूति महसूस कर रही थीं।तभी बीना
की नजर खिड़की पर पड़ी। खिड़की से आती बारिश की फ़ुहारों को देख बीना खिड़की बंद करने लगी।तभी बीना की नजर सामने से आती 70 साल की बुजुर्ग महिला पर पड़ी।वह अकेली ही चली आ रही थी।भीगी हुई कांपते हाथों से धीरे-धीरे आना उनके जीर्ण होते शरीर की दास्तां बयां कर रहा था।बीना के  अंदर की खुशी की लहर दो मिनट में काफूर हो गई। बीना उस महिला की मदद के लिए भागकर बाहर पहुंची। तब उस महिला ने अपना सामान भरा थैला एक तरफ रखते हुए अपना परिचय देते हुए कहा-, "कि मै तीसरी मंजिल पर रहती हू,मेरे दो बेटे हैं,एक बेटा अपनी पत्नी बच्चो के साथ विदेश में  है,और दूसरा भी बाहर जाने की तैयारी कर रहा है,पति का स्वर्गवास हुए यही कोई 15 साल हो गए हैं। कुछ जरूरत का सामान लेने जाना पड़ता है।तभी बीना पूछ बैठी.. .,"आप अपने छोटे बेटे को क्यो नही कहते की वह बाजार से सामान लाकर दे।वह बोली,"इसकी भी कल ही जॉब लगी हैं!अब यह भी बाहर चला जायेगा।आखिर मुझे ही तो अकेले रहकर सारे काम करने हैं।उसी की प्रेक्टिस कर रही हूं। उसकी बात सुनकर बीना का मन व्यथित हो गया।बीना ने देखा तो लाइट चली गई थी। बीना उन्हें चाय पीने का आग्रह कर उन्हें अपनत्व से बैठाकर गर्म-गर्म चाय पिलाई।अपनत्व से बनी चाय की गर्माहट उन्हे अपने भीगे तन और मन पर बहुत ही सुकून का
अहसास महसूस करा रही थीं।बीना उन्हें लाइट आने पर लिफ्ट से उनके घर छोड़ आई। बीना का अपनापन पाकर वह फफककर रो पड़ी।उनकी व्यथा को देख बीना को महसूस हुआ। कि वह कितनी अकेली हैं,बेटो के रहते हुए भी इस उम्र में इतना हौसला बनाये हुये हैं।इन दो पलों की बात में बीना को एक प्यारी सी सहेली और दोस्त रूपी मां मिल गई। अब बीना उनकी हर समस्या का समाधान समयानुसार निकलने में उनकी मदद करने लगी।बीना अपनी खिड़की का शुक्रिया अदा करने लगी।कि उसे एक अच्छी दोस्त मिल गई। बीना को यह महसूस हुआ।कि दोस्ती किसी उम्र की मोहताज नहीं होती।अब बीना उनकी भावनाओ को बखूबी समझने लगी।और हमेशा उनकी मददकर एक अनोखी ख़ुशी महसूस कर मन ही मन खिडक़ी का शुक्रिया अदाकर मुस्कुरा उठी। ***
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 लघुकथा - 48                                                             

                           प्रकृति का साथ                            
                                                  - नीलम नारंग 
                                                 हिसार - हरियाणा 
                                                 
                सुधा को छोटे बच्चों के साथ समय बिताना बहुत अच्छा लगता था | उनकी प्यारी प्यारी बातें , मासूम सी हंसी अटपटे से सवाल सुन सुधा को लगता था वो अपने बचपन में पहुँच जाती है | जब तक अपने बच्चे छोटे थे उसने उनके साथ खूब मस्ती की अब जब वो बड़े हो गए पढने के लिए बाहर चले गए तो अकेलापन उसे खाने को दौड़ता | इससे बचने के लिए उसने प्राइवेट स्कूल में पढ़ाना शुरू कर दिया | शहर का नामी – गिरामी स्कूल जिसमे पढ़े लिखे परिवारों के बच्चे पढ़ते थे | सुधा को छोटे बच्चों से लगाव था इसलिए उसने पहली कक्षा को पढ़ाना शुरू कर दिया | वह बच्चों से और बच्चे उससे बहुत खुश थे | इस ख़ुशी मे कभी कभी वो स्कूल के  बंधे हुए नियमों के खिलाफ कुछ कर जाती तो उसे प्रिंसिपल को जवाब देना पड़ता तो उसे बहुत महसूस  होता | लेकिन वो बच्चों की ख़ुशी ढूंढने में फिर सब कुछ भूल जाती |  आज चार पांच  दिन के बाद अच्छी खिली खिली  धूप निकली हुई थी कमरे के अंदर बच्चे बहुत से कपड़ो में लदे  हुए सिमटे हुए से बैठे थे | यह देखकर सुधा उन सबको स्कूल के सबसे सुंदर पार्क में ले गयी ताकि वे धूप और प्रकृति का आनंद ले सकें | कुछ ही देर में खिली हुई धूप की तरह बच्चों के चेहरे भी खिल गए |  बच्चों के नए नए सवाल और अचरज भरी बातें उन्हें नया कुछ जानने के लिए उत्साहित कर रही थी | इतने में ही चपरासी आया और सुधा को ऑफिस में बुला लिया गया और उसे फरमान सुना दिया गया आप इस स्कूल को सरकारी स्कूल समझ रही है जो बच्चों को पार्क मे खुले में पढ़ा रही है , ये शहर का सबसे बढ़िया स्कूल है आप को कोई हक नहीं इसका माहौल खराब करने का | यह सब सुनकर सुधा सोचने पर मजबूर हो गयी   क्यों आजकल के बच्चे प्रकृति के बारे में अनजान रह जाते है | भारत जैसे देश में जहाँ सबसे जयादा धूप आती है बच्चों में विटामिन की कमी है | बच्चों को बाहर लाना , उनके बाल सुलभ प्रश्नों का उतर देना उनमें मेल जोल की भावना बढ़ाना बस यही तो उसका उदेश्य था | समझ नहीं पा रही थी वो कहाँ गलत है । ***
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लघुकथा - 49                                                             
                        टिप्स लेना मना है                       
                        
                                         - संतोष श्रीवास्तव
                                         भोपाल - मध्यप्रदेश
        
      सर्व करते हुए लड़के की नजरें गुलाब जामुन और समोसे की प्लेट पर थीं।  "सर चाय भी ले आऊँ?"
" अभी नहीं ,यह खाने के बाद ।"
अमित ने गुलाबजामुन चम्मच से काटते हुए कहा। लड़का आनन-फानन दूसरे ग्राहकों की ओर मुड़ गया।
" तुमने लड़के की ओर देखा। उसकी आँखों में टेंप्टेशन था। नजरें गड़ाए रहते हैं ये, तभी तो रेस्तरां का खाया हजम नहीं होता। "पत्नी रमा ने कहा ।
"गरीब है बेचारा ।तभी तो यहाँ काम करता है ।स्कूल जाने की उम्र है उसकी।" 
अमित ने लड़के को इशारे से बुलाते हुए कहा" दो चाय। और हाँ, चार समोसे और चार गुलाब जामुन भी पैक कर लाओ।"
काउंटर पर बिल चुका कर अमित और रमा गाड़ी की ओर चल दिए ।तभी लड़का दौड़ता आया-"सर आपका पार्सल वहीं छूट गया।" 
ओ थैंक्यू ,तुम्हें सेठ नहीं खिलाता यह सब ।"
"नहीं सिर्फ पगार, कुछ टूट फूट जाए तो पगार में से काट लेता है।"
"क्यों करते हो यह काम? पढ़ाई क्यों नहीं करते? तुम्हारी तो पढ़ाई करने की उम्र है अभी?"
उसने अपनी आँखें रगड़ कर पोछी।
"मेरी बहन अस्पताल में है। उसी के लिए यह नौकरी पकड़ी है। अगर बाबू होते तो यह सब नहीं करना पड़ता। वह लकवा से पीड़ित माँ और बहन के अस्पताल का और मेरी पढ़ाई का सब खर्चा उठाते, पर ......
"चलो अमित क्या पता इसकी कहानी में कितना दम है। नाहक टाइम वेस्ट करने से फायदा ?"
रमा ने बेसब्र होकर कहा। अमित ने पार्सल जबरदस्ती लड़के के हाथ में थमाते हुए कहा-"गॉड ब्लेस यू,इसे
रख लो हमारी तरफ से ।"
"नहीं सर, मेरी ईमानदारी मत डिगाईए। ग्राहकों से टिप्स लेना मना है।" ***
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लघुकथा - 50                                                               
                                और गेहूँ?                                     
                                                 - सुषमा शैली
                                                        दिल्ली
                                                        
गाँव घूमने के लिए नीला दादी के पास आई हुई थी आज खेलते हुए उसे प्यास लगी तो हैंडपम्प की तरफ़ बढ़ गई वहाँ पर रखे गिलास  में पानी भरने की कोशिश करने लगी तभी उसके घर में काम-काज करने वाली कमला का बेटा निहाल भी पानी पीने  आता है और बोलता है " तुम गिलास पकड़ो मैं नल चलाता हूँ "
अच्छा!बोलकर नीला पानी भरकर पीने वाली ही थी कि उसकी दादी वहाँ आ गई बोली"नीला ये पानी फेंक दो मैं देती हूँ तुम्हें भरकर पानी वो पिओ "
क्यों?
जो कहा वो करो बस!
दादी ने गुस्से से कहा।
बरामदे में कमला धोए -सुखाए गेहूँ को बीन रही थी चक्की पर भिजवाना था आज, नीला की दादी के घर आटा ख़त्म होने वाला था।  निहाल को उसकी माँ बुलाती है "लाला इत्तै आव ई बोरी पकड़ लैई गेहूँ डारि देंय हम्म"
निहाल बढ़ गया बरामदे की ओर और दादी माँ ने नीला को समझाया कि वो अछूत है उसका छुआ पानी नहीं पीना चाहिए !
"और गेहूँ ? "नीला ने सहजता से पूछा दादी से और उसकी दादी एकटक नीला को देखती रही । ***
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लघुकथा -  51                                                          
                             बहता पानी                         
                                               -  संगीता सहाय
                                                 रांची - झारखण्ड
                                                 
           रीमा रोज़ शाम को आकर नदी के किनारे पर जाती और घंटों बैठ कर बहते पानी को निहारा करती।रीमा ने बचपन से ही सिर्फ दुख ही देखे थे।माता पिता को पांच वर्ष की उम्र में ही खो चुकी थी,मामा के घर मे पली ,घर मे नौकरानी से ज़्यादा की हैसियत नहीं थी उसकी लेकिन वो  सब सहती गई ,किसी तरह से दसवीं  की पढ़ाई पास की।फिर कॉलेज में दाखिला लिया होस्टल में रह कर पढ़ने लगी।छोटे बच्चों को पढ़ा कर अपने खर्चे निकल लेती थी।उसकी मेहनत का फल उसे मिला,बड़ी कंपनी में नौकरी मिली,और शादी भी हो गई।पर शायद उसके दुखों का कोटा अभी पूरा नहीं हुआ था एक बेटे के जन्म के बाद ही उसके पति का देहांत हो गया।फिर अकेले ही उसने बेटे को बड़ा किया, पढ़ाया और अच्छी नौकरी मिलने के बाद उसकी शादी की।आज बेटा अमेरिका में है और वो फिर अकेली।बहते पानी को देख कर उसे सहारा मिलता ,आखिर उसकी जिंदगी भी तो इस बहते पानी की तरह ही है,  उसकी जिंदगी की परेशानियां नदी के पत्थरों की तरह हैं जैसे उन पत्थरों को पीछे छोड़ते हुए पानी निरन्तर बहता है ठीक उसी तरह वो भी हर परेशानी को पार करते हुए बढ़ती  गई।कोई भी तकलीफ उसके ज़िंदगी के बहाव को रोक न सकी। ***
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लघुकथा - 52                                                              
                              मजबूरी                             

                                            - डॉ विनीता राहुरिकर
                                                भोपाल - मध्यप्रदेश
                           
          "अनु कहाँ गयी है, दिख नहीं रही।" नीमा ने अपने पिताजी से पूछा।
"अनु पूना गयी है। अपनी सहेली के घर।" पिताजी ने जवाब दिया।
"किसके साथ गयी है। भैया-भाभी तो यहीं है।" नीमा ने आश्चर्य से पूछा।
"अकेली गयी है। नितिन ने ट्रेन में बिठा दिया, वहाँ सहेली के पिताजी आ जाएंगे लेने।" पिताजी बोले।
"क्या? आपने उसे अकेले जाने दिया। मुझे तो न कभी तब जाने दिया न अब, जब मैं दो बच्चों की माँ बन गई हूँ। कहीं बाहर जाने का नाम लिया तो सवालों की झड़ी लग जाती है, क्यों, कब, कहाँ, किसके साथ। 
मुझे बन्धन में रखा हमेशा और उसे इतनी स्वतंत्रता।" नीमा पिता को उलाहना देते हुए बोली।
"ये अनु के पिता अर्थात तेरे भैया की परवरिश और सोच है।
तेरे पिताजी की सोच अलग है बेटी।" माँ लाड़ से बोली।
"सोच नहीं, पिताजी पजेसिव हैं, और कुछ नहीं। कभी मुझे कहीं नहीं जाने दिया। न स्कूल के साथ टूर पर न सहेलियों के पिकनिक पर।" नीमा के स्वर में मीठी शिकायत थी।
पिता चुपचाप मुस्कुराते रह गए। बोल नहीं पाए कि बड़ी मिन्नतों के बाद पायी बेटी जिसे लाइलाज बीमारी से बहुत मुश्किल से बचा पाए थे, के प्रति यह पसेसिनेस नहीं एक पिता की भावनात्मक मजबूरी थी ओवर प्रोटेक्शन की।***
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लघुकथा -  53                                                                
                               मानवता                             
                                                   -  डॉ .छाया शर्मा 
                                                 अजमेर -राजस्थान 

           संगीता के पिता मजदूर हैं l वह चार भाई -बहिन हैं l किसी तरह दो जून की रोटी मिल जाती है लेकिन मजदूर पिता रतन पढ़ाई की अहमियत को भली -भांति समझते हैं l कड़ी मेहनत करके हर बच्चे को पढ़ा रहे हैं l बच्चे भी पिता का नाम बोर्ड द्वारा सम्मानित होकर ,कर रहे हैं l संगीता उनमें सबसे बड़ी है l वह पैरों पर खड़े हो कर पिता का हाथ बटांना चाहती है l उसका दाखिला प्राइवेट बी .एड .कॉलेज में हो गया l 
                    परीक्षा का समय नजदीक आया l संगीता की तीस हजार रूपये फीस बकाया थी l कॉलेज वालों ने नोटिस दिया कि यदि कल तक बकाया राशि नहीं जमा कराई गई तो वह परीक्षा नहीं दे सकेगी l 
         बेचारे उसके पिता ,प्राण हलक में ही अटक गए l आखिर क्या करें ?तुरंत वह स्कूल प्रिंसिपल के पास दौड़े ,अपनी व्यथा सुनाई l मैडम जी ,बच्ची का साल बिगड़ जायेगा ,भविष्य अंधकारमय हो जायेगा ,आँखों में आंसू भर लाये l उनका कंठ अवरुद्ध होने लगा l 
          जहाँ सरकार बालिकाओं को शिक्षित कर रही है वहाँ ऐसी स्थिति देख ,स्कूल प्रिंसिपल ने कहा -आप चिंता नहीं करें ,आपकी बेटी होनहार है l जैसी आपकी बेटी ,वैसी मेरी बेटी l मैं व्यवस्था करती हूँ l तत्काल उन्होंने ए .टी .एम .से रूपये निकलवाए और हाथ जोड़कर कहा -आप कॉलेज की बकाया राशि जमा करवाएं और प्रवेश कार्ड लेकर शीघ्र परीक्षा में बच्ची को बैठाये l रूपये वापस लौटाने की जल्दी नहीं है l ***
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लघुकथा -  54                                                               
                        जियो और जीने दो                  
                                                   - प्रीति मिश्रा 
                                             जबलपुर - मध्य प्रदेश

          आज की युवा पीढ़ी अपने अभिमान व्यक्ति अंधी हो गई है कि वह बुजुर्गों बड़ों का यह आज भी भूल गई है जबलपुर से भोपाल जा रहे डिब्बे में एक लड़का आकर बैठ गए जिन्होंने एक यात्री को बहुत परेशान किया,एक बुजुर्ग बैठे थे। उनके साथ बहुत बदतमीजी कर रहे थे और उन्हें बहुत परेशान कर रहे थे पर वह सज्जन पुरुष थे और शांति से बैठे थे अपने मन में राम राम का जाप कर रहे थे। रात्री के लगभग 11:00 बजे अचानक लड़के को मिर्गी का दौरा पड़ा
तड़पने लगा उस डिब्बे में कोई यात्री उसकी मदद के लिए नहीं आया तब कुछ देर बाद वह सज्जन पुरुष होते और अपने थैले से कुछ दवाइयां निकाली और उसे पानी पिलाया थोड़ी देर के बाद उसकी हालत ठीक हो गई और सभी अपनी हरकतों के लिए क्षमा मांगी। बुजुर्गों के पास अनुभव है हमें उनकी इज्जत करनी चाहिए उनके कारण ही हम हैं। ***
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लघुकथा - 55                                                               
                                केंचुली                                   

                                            - सुदर्शन रत्नाकर 
                                            फ़रीदाबाद -हरियाणा

               सुबह उठते ही उसे एहसास हुआ कि उसके भीतर बचपन का शरारती मन जाग उठा है।अँगड़ाई लेकर वह फिर से सो गई।उसके प्रतिदिन के उठने का समय निकल गया था  और वह नियत शेड्यूल से दो घंटा देर से उठी। रोज़ की तरह किचन में नहीं गई।न ही उसने नाश्ता बनाया ,न खाना। पोता-पोती को स्कूल बस में छोड़ने नहीं गई। बाई से किचकिच भी नहीं की ।इसके साथ ही उसकी दिनचर्या ही बदल गई।वह बालकनी में आकर बैठ गई।चाय पीकर अपनी पसंद की मैगज़ीन पढ़ने लगी।आराम से नहाई- धोई  उसके बाद टी.वी देखा जबकि घर के सारे काम  सुचारू रूप से होते रहे ।
       प्रणव और प्रनीति के स्कूल से आने के बाद उनसे ख़ूब मस्ती की तथा उनके साथ अपने बचपन की बहुत सारी बातें साँझा कीं। वे दोनों ख़ुश भी थे और हैरान भी ।शाम होते ही वह पार्क में घूमने चली गई।सोसाइटी की महिलाओं के साथ बैठ कर खूब गप्प -शप्प लगाई । 
             घर का वातावरण शांत बना रहा ।अनुशासन के सारे नियम उसने ताक पर रख दिए थे।रात को सब के साथ बैठ कर उसने खाना खाया,जबकि प्रतिदिन सब से अंत में खाती है।
          रात सोने से पहले उसका मन हल्का था, एकदम निश्चिंत थी वह क्योंकि ज़बरदस्ती ओढ़ी जिम्मेवारियों की केंचुली को उतार आज उनसे स्वयं को मुक्त कर लिया था।
         रात उसे बेहद गहरी नींद आई।***
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लघुकथा -  56                                                              

                       महिला सशक्तिकरण                          
                                                 - बबिता कंसल 
                                                         दिल्ली 
     
     महिला सशक्तिकरण पर बोल रही  नेता ने आखिर में कहा...
"बहनो मैं आप सबसे यही कहना चाहती हूँ ......।
कि बहू को भी बेटी ही समझ कर प्यार और सम्मान देना होगा"!
हम सबको ये पहल अपने घर से ही करनी होगी, यह महिला सशक्तिकरण की पहली सीढी है "।
सभा में आयी बहुत समय बाद मिली सखी कमला ने सविता से पूछा 
"सविता जब से तुम्हारे बेटे की शादी हुई है तुमने मिलना ही छोड़ दिया है। 
नयी बहू कैसी है ?  अब तो समय ही समय है तुम्हारे पास! सब काम बहू ही करती होगी "।
 क्या बताऊँ बहू क्या आयी है किसी रानी से कम नही समझती है अपने को, दिन चढे सोकर उठती है। काम क्या खाक करेगी 
सुबह की चाय भी बेटा ही बिस्तर पर बना कर देता है !
मन किया तो काम करती है "।
"ओहो तुम्हारी तो किस्मत ही खराब है "।
बात सुनकर कमला बोली 
"अच्छा अब तुम बताओ तुम्हारी बेटी तो मजे मे है ससुराल में"।
सविता ने कमला की बेटी के लिए पूछा ।
 "सविता क्या बताऊँ मेरी राजकुमारी की तरह पली  बेटी को तो राजमहल ही मिल गया है ।देखो सुबह  दिन चढे तक सोकर  उठती है!
दामाद इतना अच्छा मिला है कि सुबह  उसके लिए चाय बनाता है ।
घर का काम मन करता है तो करती है। सब काम सास  ही कर लेती है "।
"ओहो तुम तो किस्मत वाली हो जो बेटी को इतना अच्छा ससुराल मिला "।
बात सुनकर सविता ने कमला से कहा।***
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लघुकथा -  57                                                          
मृगतृष्णा
                                                - अमृता सिन्हा
                                                 पटना- बिहार
                                                 
"निशा! जल्दी करो यार! देर हो रही है" राहुल ने खाने की मेज से ही निशा को आवाज़ लगाई।
"आज तो रविवार है ना बेटा! आज भी सुबह-सुबह जाने की तैयारी हो गयी?" बगल में ही व्हीलचेयर पर बैठी बुढ़ी माँ ने पूछा।
हाँ माँ! आज एक वृद्धाश्रम में जाना है। सप्ताह भर तो हम अपने कामों में ही उलझे रहते हैं। एक दिन की छुट्टी मिलती है तो सोचता हूँ कुछ नेक काम भी कर लिए जाएं।"
"लो मैं भी तैयार हो गयी। तुम जरा मोहित, सविता और कार्तिक को फाॅलोअप कर लो, और हाँ, मैंने फल और मिठाईयों के आर्डर दे रखा है। कार्तिक को कह देना, लेना भूलेगा नहीं।" निशा ने जल्दी-जल्दी नाश्ता खत्म करते हुए कहा। 
राहुल फोन पर व्यस्त हो गया। बुढ़ी माँ बड़े कौतूहल से सारी बाते सुन रही थी। बात खत्म होते ही पूछ बैठी, "बेटा, वहाँ बहुत सारे लोग रहते हैं क्या? उनकी देखभाल कौन करता है?"
"हाँ माँ, वैसे वृद्ध जो अकेले हैं या बेटे-बेटी उनका ख्याल नहीं रखते, वे सभी वहाँ एक साथ एक परिवार की तरह रहते हैं। उनकी देखभाल एक संस्था द्वारा की जाती है और समाज के बड़े-बड़े लोग भी समय-समय पर उनसे मिलने आते-जाते रहते हैं " राहुल ने समझाया।
"अच्छा माँ जी! अब हमलोग चलते हैं। आप समय से दवाइयाँ ले लीजिएगा। हमलोग शाम तक वापस आ जाएंगे।"
"श्यामू! माँ जी का ध्यान रखना।" कहते हुए निशा ने राहुल को चलने का इशारा किया। 
तभी माँ अचानक बोल पड़ी "बेटा! मैं सोचती हूँ कि क्यों न मैं भी कुछ दिनों के लिए वृद्धाश्रम में जाकर रहूँ। ढेर सारे लोगों के बीच रहूँगी तो मेरा भी मन बहल जाएगा। वैसे भी तुमलोगों से छुट्टी के दिन ही बात हो पाती है। तुमलोग भी वहीं आ जाया करना मुझसे मिलने।" 
राहुल और निशा अवाक एक दूसरे को देख रहे थे। 
सुनहली किरणें रौशनदान से अंदर आने लगी थीं। शायद धुंध छट चुकी थी। ***
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लघुकथा - 58                                                                  
                                   सुन्दरता                                 
                                                  - डॉ रेखा सक्सेना  
                                                मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश

          सुमुखी आदिवासी बस्ती की  एक लड़की थी। जीवन की जटिल समस्याओं से वह भलीभांति भुक्तभोगी थी। बचपन से ही बेहद सुंदर किशोरावस्था तक आते-आते उसके रूप सौंदर्य की बातें और प्रशंसा जगह-जगह होने लगीं । तब सुमुखी हर समय अपनी सुंदरता को शीशे में निहारती रहती तथा और भी  अधिक अदाओं के साथ  जीवन जीने लगी।
   उसके पिता सुभाषु अपनी एकमात्र बेटी को बहुत ही प्यार करते थे। इस उम्र में बच्चा भटक न जाए, इस आशंका से वह बड़े ही प्यार से उससे बोले -" सुमुखी, अब तुम किशोरावस्था में चल रही हो और इस अवस्था का सौंदर्य गॉड गिफ्ट होता है। अब तुम उस ईश्वर को धन्यवाद दो, जिसने तुम्हें इतना सुंदर बनाया है। तुम अपनी सुंदरता को प्रौढ़ावस्था तक कायम रखकर अपने को दर्पण में निहारना ; तब दुनिया कहे कि वास्तव में, " तुम बहुत ही सुंदर हो", हम तब ही तुम्हें सुंदर मानेंगे। दुनिया भी तुम्हारी इस सुंदरता पर गर्व करें"।
      सुमुखी को पिता की बातें घर कर गई। उसने सुचारू रूप से व्यवस्थित गृहस्थ जीवन जीकर अपने अहंकार रूपी कुरूपता को मिटाने का निश्चय कर लिया; और बेसहारा दीन- हीन लोगों की सहायतार्थ समाज की सेविका बन गई ।मासूम और मलिन चेहरों के दुख- दर्द बांटने वाली सुमुखी अब देवी कहाने लगी। एकदिन गांव के बाल- वृद्ध, नर- नारियों ने उसके कामों से खुश होकर जगह-जगह उसके नाम के झंडे गाड़ दिए।
   प्रौढ़ावस्था को प्राप्त सुमुखी अब दूरदर्शन पर अपनी छवि को निहारती और पापा की बातों को याद कर मुस्कुरा उठी.....। ***
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लघुकथा - 59                                                                   

                      चिड़ियाघर की चिड़िया                   
                                                        - सारिका भूषण
                                                         राँची - झारखंड

      बाहर मौसम बहुत खराब था । जो सड़कें हमेशा भरी - भरी और अशांत दिखा करती थीं आज सुनसान दिख रही थी । एक तो रविवार का दिन , भयंकर ठंढ और ऊपर से हल्की बारिश । हालांकि निहारिका के लिए बूंदों का यह नर्तन अत्यंत मनोहारी और दिल को सुकून देने वाला था । इन बूंदों को तो मानो उन्हें आज न सूरज के तीखे तेवर का डर था और न अपने रास्ते में छतरियों का अवरोध । 

निहारिका बालकनी में खड़ी बस निहार रही थी । ठंढी हवाएं उसके बदन को बहुत अच्छी लग रही थी । ज़िन्दगी में परहेज और हिदायतों से थक चुकी थी । ठंढ में बाहर नहीं निकलना , कपड़ों से ढके रहना , डाइट फ़ूड लेना वगैरह - वगैरह ।
आज सुबह ही निहारिका के पति सूरज टूर पर निकले थे । पता नहीं क्यों पर उसे यह खराब मौसम और खाली घर बहुत भा रहा था । 
सब कुछ हल्का और आज़ाद लग रहा था । मानो चिड़ियाघर में रहने वाले किसी जीव को थोड़ी देर के लिए निकालकर खुली हवा में ला दिया गया हो । 
" हलो , रतन ! गराज़ से गाड़ी निकाल देना । मुझे कुछ काम से बाहर निकलना है । तुम्हें ड्राइव करने की जरूरत नहीं है । मैं खुद ड्राइव करुँगी । " निहारिका अपने ड्राइवर से बात करने के बाद तैयार होने चली गई । 
अलमारी खुली थी और निहारिका खोई सी । उसने चटख लाल रंग की पतली शिफॉन साड़ी और काले रंग का वेलवेट का कोट निकाला । जो सूरज को बिल्कुल  पसंद न था । सिल्क की भारी - भारी साड़ियों , सोने के गहनों और छोटे - बड़े ब्रांडेड पर्स में उसे घुटन होने लगती थी । 
खुले बालों में एक छोटा सा लाल हेयर क्लिप और लाल रंग की स्टोन ज्वेलरी जिसे सूरज की आंखों से बचते हुए उसने फुटपाथ से खरीदा था उस पर बहुत फैब रहा था । माथे पर छोटी काली बिंदी और होठों पर गहरे लाल रंग की लिपस्टिक .......उफ़्फ़ ! आज निहारिका खुद को आईने में देखकर निहाल हो गई । बहुत दिनों बाद उसे आईने के सामने खड़ा होना अच्छा लग रहा था ।
आज निहारिका ने खुद के लिए श्रृंगार किया था ......अपनी स्त्रीत्व के लिए .....किसी और की नहीं बल्कि खुद की तारीफ़ पाने के लिए । आज उसे पहली बार उसे महसूस हो रहा था कि वह बाहर बोर्ड पर लिखी हुई और किसी चिड़ियाघर में बंद कोई चिड़िया नहीं है ***
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लघुकथा -60                                                            
                         बर्फ होती सम्वेदना                     
                         
                                                - कमल कपूर
                                           फरीदाबाद - हरियाणा

              मकर-संक्रांति की वह ठिठुरती सुबह जैसे बर्फानी पानी में नहाकर आई थी ।शीत लहरों के तमाचे खाते हुए वह मंदिर जा रही थी कि दूर से आते किसी शिशु - रोदन स्वर ने उसके बढ़ते कदमों को रोक दिया , फिर उस स्वर - दिशा की ओर मोड़ दिया।
   अब वह एक निर्माणाधीन भवन के कच्चे प्राँगण में खड़ी थी और उसका जी धक्क सा रह गया देख कर कि सरकँडों से बनी एक टूटी -सी टोकरी में बेअसर से फटे कंबल में लिपटा एक दुधमुँहा बच्चा अपनी पूरी ताकत खर्च करके रो रहा था।
  " किसका बच्चा है ये और इस तरह रो क्यों रहा है ? " तड़प कर चीखी थी वह ।
   " हमार बालक है जी अऊर भूक ते रो रिया है जी , " निकट ही रोड़ी कूटती एक फटेहाल  मजदूरनी ने  जवाब दिया तो वह भड़क उठी , " भूखा है तो दूध पिलाओ न इसे ।कैसी माँ हो ? "
   " कहां ते पिलावें जी दूद  ? सुबा ते नाज का इक दाना तलक  तो हमरे हलक ते उतरा ना है जी , " अपनी ओढनी से हाथ पौंछते हुए उसने कहा और  उठकर पास आ गई । " ओह ! "  उसका मन भर आया । पूजा की थाली में धरे फल - मिष्ठान और दूध का पैकेट उसके हवाले करते हुए भीगे स्वर में बोली , " आराम से बैठकर खाओ , फिर बच्चे को दूध पिलाओ । मैं इसके लिए कुछ सामान लेकर अभी आती हूँ । "
    उसकी बहुत -सी दुआएँ लेकर वह घर आ गई ।अपने नन्हे आर्यन के कुछ छोटे गर्म कपड़े और कंबल एक झोले में भरे उसने और खिलौनों से भरे पालने को खाली कर , उसमें झोला धर बाहर निकलने लगी तो आर्यन की  दादी ने टोका , " मुन्ने का पालना मत दो नेहा ! कपड़े -कंबल ठीक हैं बस ।"
   "  आरू अब कहाँ पालने में सोता है ? उस गरीब बच्चे को इसकी ज्यादा जरूरत है माँ ।"
   " उन्हें इसकी कद्र न होगी बेटा ! मेरी बात मानो ।"
   लेकिन नेहा ने उनकी बात नहीं मानी और  सब उसे सौंपकर •••मकर - संक्रांति के दान का पुण्य तथा खूब सारा संतोष बटोरकर लौट आई ।
      लगभग दो घंटे बाद माँ ने आँगन से गुहार लगाई , " नेहाssss ! जरा बाहर तो आना बिटिया •••जल्दी । "
    वह दौड़ी - दौड़ी  -सी आँगन में आई और ••• यह क्या •••? खुले गेट से उसे गली में जो दृश्य नज़र आया , देख कर सन्न रह गई वह••• एक कबाड़ी के ठेले पर उसके दुलारे आरू का वह सुंदर पालना पड़ा  आँसू बहा रहा था ।***
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 लघुकथा -  61                                                           
                                    डिग्री                                       
                                                         -  रूणा रश्मि
                                                        राँची - झारखंड
                                                                                                            
          वर्षों के इंतजार के बाद आज वो पल आने ही वाला है।बड़ी ही बेसब्री से इंतजार किया है सुचि ने इस घड़ी का।और अब प्रतीक्षा की ये घड़ियाँ कट ही नहीं रही हैं।नींद तो आँखों से नदारद ही हो गई है। उसकी बेटी श्रुति डाक्टर की डिग्री लेकर आ रही है।सुबह नौ बजे ही है पहुँचने का समय।   
         घर से तो आठ बजे से पहले ही निकलना होगा, तभी समय पर पहुँच सकेंगे उसको लेने।कितनी तैयारियां करनी हैं उससे पहले।कमरा तो उसका व्यवस्थित कर ही दिया है।बाकी के सभी कार्य भी सुबह निकलने से पहले सम्पन्न कर ही लूँगी, ताकि उसके आने के बाद कामों में ना उलझना पड़े।सुबह बहुत जल्दी उठना होगा, काम वाली को भी तो बता ही दिया है सुबह जल्दी आने के लिए।जल्दी सोना भी होगा।
                यही सब सोचते हुए सुचि अतीत के लम्हों में पहुँच गई। कितनी जद्दोजहद करनी पड़ी थी उसे अपने ससुराल वालों को मनाने में। सम्मिलित परिवार था उनलोगों का। दूर रहते हुए भी सभी एक दूसरे से जुड़े हुए थे।छोटे बड़े सभी कार्य आपसी सहमति से ही होते थे।और ये तो उन सबकी लाडली श्रुति की जिंदगी का बहुत ही अहम् फैसला था, जिसके लिए उन सब की सहमति और आशीर्वाद दोनों ही महत्वपूर्ण था।रवि यूँ तो सुचि के विचारों से सहमत थे पर बड़ों के समक्ष बोल नहीं पाते थे।तब आखिर में सुचि को ही मुखर होना पड़ा था। आखिरकार सभी मान ही गए थे और सभी के आशीर्वाद के साथ श्रुति चल पड़ी थी अपनी जिंदगी के मुकाम को हासिल करने।
      और आज उस सपने को पूरा करके श्रुति घर वापस आ रही थी।आखिर प्रतीक्षा के वो कठिन पल समाप्त हो ही गए।हवाईअड्डे पर दूर से ही  श्रुति को आते देख सुचि की आँखों में खुशी के आँसू छलक आए।भाव विभोर वो श्रुति को निहारती रही और पास आते ही गले से लगा लिया।उसे ऐसा महसूस हो रहा था मानो ये डिग्री श्रुति को नहीं उसे ही मिली हो। ***
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लघुकथा - 62                                                                   

                                   बेटियाँ                                 
                                          - अविनाश अग्निहोत्री
                                                 इंदौर - मध्यप्रदेश
                                 
         शहर के एक उद्योगपति के यहां उनके छोटे बेटे का पहला जन्मदिन बड़ी धूमधाम से मनाया जा रहा था।
उनकी पत्नी रीता भी अपनी सहेलियों के साथ बातों में मशगूल थी,की तभी उसने अपनी एक पुरानी सहेली की और देखते हुए गर्व में भरकर कहा, की मुझे एक पुजारी ने बताया था।कि तुम्हे चाहे कितने ही बच्चे क्यो न हो,बेटे ही होंगे।अब लगता है उसकी भविष्यवाणी ठीक ही थी।
इतना सुनते ही महफिल में ,हसी का एक ठहाका गूंज उठा।यह देख उसकी वही पुरानी सहेली बोली,हां पुजारी जी ने बिल्कुल ठीक ही कहा था।तुम्हे बेटी हो ही नही सकती,क्योंकि बेटियाँ तो हमेशा सौभाग्यशाली माता पिता के हिस्से ही आती है।
उसकी बात सुन वहां सन्नाटा पसर गया,और वो अपनी नन्ही सी बेटी को अपने कलेजे से लगा।वहां से तेज चाल में निकल गई। ***
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लघुकथा - 63                                                             
इंतजार सुहागन का

                                                           - रेणु झा
                                                       रांची - झारखण्ड

         दादीजी के घर पहुंचने में शाम हो गई थी। गांव में उत्सव सा माहौल था। ढेरों रंगीन लाइट सितारों सी झिलमिलाते नज़र आ रहे थे।शहनाई वादन के स्वर माहौल को खुशनुमा बना रहे थे। दादीजी ने बताया कि नरेश चाचा के जमाई बाबू पांच साल बाद बेटी अनुराधा को लेने आ रहे हैं।सुनकर मन हर्षित हुआ और याद हो आया वो दिन,,,,,,,,,,,,,,,,जब हम वर्ष में एक बार दादाजी के घर जरूर जाते थे,पुल से गुजरते वक्त नदी किनारे एक शिव मंदिर और वहां अनुराधा जरूर दिखाई दे जाती। बहुत खूबसूरत।
          घर पर बड़ी मां ने बताया कि प्रोफेसर साहब श्री सुधाकर जी ने अनुराधा को किसी शादी के अवसर पर देखा था और खुद चलकर अनुराधा का हाथ मांगने आए थे आपने बेटे राकेश के लिए,जो इंजिनियर हैं। शादी तय हुई। नरेश देवर जी ने भी विवाह खूब धूमधाम से किया। अनुराधा विवाह के वक्त साक्षात लक्ष्मी लग रही थी। "विवाह के बाद जब कोहबर में दोनों में बातचीत के दौरान राकेश बाबू (दूल्हा)को पता चला कि अनुराधा अंग्रेजी के माध्यम से पढ़ाई नहीं की है तो राकेश बाबू उसी वक्त अनुराधा को छोड़कर चले गए थे।" "घर पर जैसे मातम छा गया।"लेकिन अनुराधा के ससुराल वालों ने नाता निभाने में कभी कोई कसर नहीं छोड़ी।हर मौक़े पर अनुराधा के लिए सौगात लेकर आते। अनुराधा नित भोलेनाथ के मंदिर जाने लगी कुछ पल रूककर मन ही मन पिया की राह भी देखती।"वो मांग में सिंदूर लगाती लेकिन श्रृंगार नहीं करती। मुरझा गई थी अनुराधा लेकिन हिम्मत नहीं हारी।"उसका विश्वास था कि राकेश बाबू जरूर आएंगे।"दशहरा के मौके पर प्रोफेसर साहब आए थे तुम्हारे दादा जी से कह रहे थे"मैं अपनी अनुराधा बहू को बहुत खुशी देना चाहता हूं,वो मेरे घर की लक्ष्मी है।"हम सबने उससे नाता जोड़ा है।"लेकिन अनुराधा की आंखें आज भी राकेश को ढूंढती है।" मैं तो कहता हूं कि"अभागा है मेरा बेटा जिसने मेरी इतनी सुन्दर, सुशील बहू का आदर नहीं किया,वो भी अंग्रेजी भाषा के लिए।"उसे आना होगा मेरी बहू की तपस्या बेकार नहीं जाएगी। मैंने राकेश को ख़बर दे दिया है कि"अगर अनुराधा को नहीं अपनाया तो माता पिता से नाता पहले तोड़ लेना।"सचमुच प्रोफेसर साहब बहुत ही बेहतरीन इंसान हैं।
        आखिर वो दिन आ ही गया जिसका हमें ही नहीं पूरे विरादरि को इंतजार था। मैंने पूछा पूरे विरादरि को इंतजार क्यों? बड़ी मां बोली यही तो गांव की खासियत होती है"बेटी किसी एक की नहीं पूरे गांव की होती है,दुख सुख भी सभी का है। राकेश बाबू आज अपने रिश्तेदारों संग आ रहे हैं तो उत्सव तो बनता है।"आज गांव के लिए बहुत बड़ा दिन है।"अनुराधा की तपस्या सफल हो गई। आज उसके श्रृंगार का वक्त आ गया है।"साजन के बिना श्रृंगार कैसा? श्रृंगार देखने के लिए साजन के आंखों का दर्पण होना चाहिए।"कहते हैं सुहागन का इंतजार बेकार नहीं होता है।*** =================================
लघुकथा - 64                                                
                     दोगला चरित्र         
                                                 - राकेशकुमार  जैनबन्धु
                                                      सिरसा - हरियाणा 

दूर बैठे छोटे चूजे ने प्रश्न करते हुए कहा,"माँ ये मानव कितना स्वार्थी है न।ऐसे तो यह हम सब जीवों को मार-मार कर खा जाता है और आज वैश्विक महामारी के डर से हमें चुग्गा खिला रहा है।"
मादा चिड़िया बोली ,"बेटा तू सही कह रहा है।ये सब डर के मारे  लोक दिखावा कर रहे हैं।देख-देख घर में उस बुढ़िया की हालत देख।थाली में सूखी रोटियाँ पड़ी है।खाते वक्त बैचारी आँसू बहाती है।कैसी जर्जर अवस्था हो गई है उसकी ? 
और दूसरी तरफ उस डोगी टफी को देख जिसके आगे कूलर की ठंडी हवा,खाने को हरदम बिस्किट,पीनट बटर,चीज़ आदि पड़े रहते हैं और नहलाने घूमाने के लिए नौकर रखा हुआ है।"
"माँ इसका मतलब तो ये हुआ कि ये सब छल है। क्या हमें इनसे बचकर रहना चाहिए ? "
" हाँ,तूने ठीक कहा मेरे बच्चे।"
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लघुकथा - 65                                                         

रिश्ते
                                         - अंजू निगम
                                            देहरादून - उत्तराखंड

वो "डुप्लेक्स हाउस" हैं| इसको बनवाने में शर्मा जी ने अपनी पूंजी और सारे अनुभव पिरो दिये| आज गृह प्रवेश है| सफेद बल्ब की लड़ियाँ मकान को जैसे चाँद सी रोशनी में नहला रही हो| घर का अंदर गेंदे और गुलाब की पखुड़ियो से गमक रहा हैं|
       आंनद को भी शाम का न्योता है| एक कसक उसके मस्तिष्क को मथ रही है| इतने घर जैसे संबध थे और न्योता केवल उसके नाम का| पैसो ने एक फांस बना ही ली| उसका मन उखड़ गया था पर पत्नी ने ही ठेला," यूँ जरा सी बात में रिश्ते मत बिगाड़ो!"पत्नी की इसी समझदारी ने घर को एक धागे में बांध रखा है वरना उसके परिवार के मोती कब के बिखर गये होते|
   घर का ऐश्वर्य आनंद को अपनी ओर खींचे जा रहा था| काश वो भी ऐसा कुछ सुमि को पकड़ा पाता,उसकी सारी जिदंगी तो कतर-ब्योत में ही निकल गयी|
  सामने से शर्मा जी ने आंनद का खुली बाँहो से स्वागत किया|
"भाभीजी और बच्चे कहाँ है?"आंनद पूछ बैठा|
"हाँ,अभी मिलवाता हूँ|°कह शर्मा जी उसे ले लॉन में आ गये| लॉन में मानो रईसी बिखरी जा रही थी| आंनद सकुचा उठा|
  मिसेज शर्मा के हाव-भाव से अमीरी टपक रही थी| 
"सरला,ये आंनद!! हमारे पड़ोसी थे पहले!!"शर्माजी अपनेपन से बोले|
"हाँ याद है| दो कमरे वाले घर में न !!आप सब खाना-पीना ठीक से लीजिएगा|  यू नो,बाहर से शेफ बुलाये है|"कह सरला जी का मंहगे परफ्यूम से भीगा आंचल सर्र से शर्मा जी के पास से निकल गया|
बच्चो के नाम पर हाई स्पाईक बनाये हाय हैलो करते टिटहरी से दो युवक|
आंनद  अमीरी के दो कौर मुँह में डाल घर आ गया| अच्छा लगा कि उसे अकेले ही बुलाया गया|
"कैसा लगा घर? "पत्नी का प्रश्न आया|
"हमारे "घर" से बहुत छोटा" आंनद ने सुकून की सांस लेते हुये कहा|
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लघुकथा - 66                                                        
 पहाड़

                                            - छगनराज राव " दीप " 
                                          जोधपुर - राजस्थान

दुर्गाराम नाम का एक आदमी एक छोटे से गांव में अपने छोटे से परिवार के साथ एक घास फूस की बनी झौंपड़ी में जीवन यापन कर रहा था। समय बीतता गया, मेहनत मजदूरी करके नित रोटी पानी का जुगाड़ करके अपने बूढ़े माँ बाप की सेवा भी करता था। इस रोज की दिनचर्या में उसकी पत्नी टीपू पूरा साथ दे रही थी।
शादी के पांच वर्ष बाद विधाता ने टीपू की कोख में वंश का बीज डाल दिया। 
चार महीने का जब भ्रूण हुआ तब से वह आंगनवाड़ी केंद्र से अपना देखरेख करवाने लगी। बच्चे की आशा में घरवाले सभी खुश नजर आ रहे थे। सभी नये मेहमान के आगमन की प्रतीक्षा में लगे हुए थे।
आखिर समय आ ही गया, टीपू के नवम महिना लग गया था, सभी उसका ध्यान रखने लगे। बीस दिन बाद टीपू के दर्द उठना शुरू हुआ तो उसने अपने पति दुर्गाराम को बताया। दुर्गाराम उसको लेकर गांव के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पहुंचा। मगर स्थिति ये हो गई कि नर्स ने बताया कि अभी के अभी इसे शहर के बड़े अस्पताल में लेकर जाना पड़ेगा वरना जच्चा बच्चा सुरक्षित न रह पाएंगे। 
दुर्गाराम अब करे तो क्या करे, क्योंकि उस गांव से शहर जाने के लिए कोई सीधा मार्ग या रोड बना हुआ नहीं था, कारण की वह गांव पहाड़ की तलहटी में बसा हुआ था। पहाड़ को पार पैदल करने के बाद शहर की सड़क मिलती थी।
दुर्गाराम हिम्मत जुटाकर अपनी पत्नी को पीठ पीछे झोली बनाकर बैठाया और पहाड़ पर चलने लग गया, उस दौरान टीपू के दर्द बढ़ता गया पर क्या करे विधि के विधान को कोई बदल नहीं सकता। पथरीले संकड़े रस्ते से पहाड़ की चोटी तक पहुंच गया। अब नीचे उतरते वक्त उसका पैर फिसल गया।क्योंकि उसकी नजर उस सड़क को ढूंढ रही थी, कहते है "सावधानी हटी तो दुर्घटना घटी"। दोनों ही नीचे गिरकर लुढ़कते लुढ़कते नीचे आ पहुंचे। चोटिल तो होने ही थे। तुरन्त दुर्गाराम खड़ा होकर पत्नी के पास गया तो देखा कि पत्नी लहूलुहान अवस्था में बेहोश पड़ी हुई थी। आसपास के लोगो की मदद से अस्पताल ले जाते वक्त मार्ग में ही टीपू ने दम तोड़ दिया, इस संसार को अलविदा कर चली गई। थोड़े महीनों के बाद दुर्गाराम पत्नी वियोग में क्षीण होता गया और उसने भी अपने प्राण त्याग दे दिए। मगर जाते हुए उसने कहा - गांव में सड़क होती तो मेरी पत्नी मरती क्या?
ये पहाड़ नहीं होता तो पत्नी मर जाती क्या?
यदि इस पहाड़ को काटकर सरकार सड़क बनाती तो मेरी पत्नी मरती क्या?
आप सबसे निवेदन है कि गांव से शहर तक पहाड़ को काटकर सड़क जरूर बना देना, ताकि कोई भी मरे नही। तभी आत्मा को शांति मिलेगी। ●●●●
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लघुकथा - 67                                                     
पंछी
                                                - दीपा परिहार
                                                जोधपुर - राजस्थान

राधिका के बच्चे नहीं थे|उसके आस-पडौस में पड़ौसी भी नहीं थे|वे सरकारी क्वार्टर में रहते थे|वहाँ 3-4 ही परिवार रहते थे|उसके पति सैनिक थे|उनका ज्यादा समय आफिस में बीतता|
          राधिका के पास कोई नहीं था जिससे उसका  टाईमपास हो|एक दिन उसने देखा उसके कमरे के रोशनदान पर घोंसला दिखाई दिया| उसने टेबल पर चढकर देखा5-6अण्डे उसमें दिखे वो बहुत खुश हुई वो हर दिन रोशनदान देखती खुश होती|एक दिन अचानक उसे दुःख हुआ जब एक अण्डा हवा से गिर फूट गया|उसे बहुत दुःख हुआ जैसे उसका अपना कोई चला गया|
           उसके बाद राधिका ने घोंसले की सुरक्षा की| थोड़े समय बाद घोंसले से सुन्दर पंछी यानि चिडिया पैदा हुई| राधिका ने उन्हें बच्चो की तरह बडा किया|अब वह अकेली नहीं|उसका आंगन पंछियों से चहचहाहट रहा था|वह बहुत खुश थी|पंछी उसके जीवन का आधार थे|●●
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लघुकथा - 68                                                            
  कैसा होता है मां का प्यार ?
                                             - रामलाल साहू " बेकस " 
                                                  ग्वालियर - मध्यप्रदेश

                       मुझे याद नहीं मेरी मां का अंत काल कब हुआ । बचपन में मेरी देखरेख मेरी बहन ही करती थी,पिताजी तो सुबह खाना बनाकर रख जाते थे और मजदूरी के लिए निकल जाते थे ।
बहन मुझसे लगभग 10 वर्ष बड़ी थी,मेरी जिम्मेदारी बहन के ऊपर ही थी,पिताजी जो खाना बनाकर रख जाते थे बहिन उसी से मेरा पेट भर्ती रहती थी,अभी वह भी आखिर बच्ची ही थी इसीलिए दिन में अपनी सहेलियों के साथ पड़ोस में खेलने चली जाती थी । साथ में मुझे भी ले जाती थी मैं भी वहीं खेलता रहता था,कई बार ऐसे मौके भी आते जब घर में रोटी खत्म हो जाती थी, उस समय मेरी बहन मुझे लेकर अपनी सहेलियों के घर जाती और उनकी माँ से कहती काकी मेरा भैया भूखा है, एक रोटी हो तो दे दो,काकी दो रोटी ले आती तब बहन उन रोटियों को लेकर घर आती और मुझे खिलाती, भूख तो बहन को भी लगी रहती थी तब बहन एक कौर मुझे खिलाती तथा एक कौर खुद खाती, इस प्रकार दोनों की भूख शांत हो जाती थी । इसी प्रकार मेरा लालन पालन चलता रहा, धीरे-धीरे मैं भी होश संभालने लगा था, उन्हीं दिनों पिताजी ने बहन के पीले हाथ कर दिए, अब घर में अकेले रह जाने के कारण परेशानी आने लगी, इस परेशानी को देख पिताजी मुझे लेकर बहन के गांव में ही रहने चले गए वहीं पास में अलग घर लेकर रहने लगे थे, वहां मेरी देखरेख मेरी बहन के द्वारा ही की जाने लगी, कुछ दिन तो सब कुछ ठीक चला लेकिन कुछ समय के बाद बहन के ससुराल वालों को इस प्रकार का मेरा पालन-पोषण अखरने लगा,एक दिन बहन की सास ने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे घर से बाहर भगा दिया, उस वक्त बहन भी मजबूर थी वह  कुछ कह नहीं पा रही थी किन्तु अपने घर के बरामदे में खड़ी खड़ी रो रही थी, और मैं भी रोता जा रहा था और लौट लौटकर बहन की ओर देखता जा रहा था ।।●●●
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लघुकथा - 069                                                     

कत्ले-आम
                                         - ललित समतानी
                                            इन्दौर - मध्यप्रदेश

हम सब एक साथ एक ही नर्सरी में पले बढ़े और एक दिन हमें दो अलग-अलग गाड़ियों में डाल कर कहीं ले जाया जा रहा था । हम सब  खुश थे, जैसे कि बच्चे  किसी पिकनिक पर जा रहे  हों । 
पहली गाड़ी से मेरे कुछ साथियों को एक नवनिर्मित बगीचे में उतारा गया और सलीके से क्रमवार क्यारीयों में रोपा गया । पेट भर पौष्टिक आहार और पानी दिया गया ।  साथियों की खुशी देखकर मैं बहुत खुश था।  सभी अपने नये घर में प्रफुल्लित थे ।  मुझे ऐसा लगा यहाँ उनकी पूरी देखरेख होगी और वे स्वस्थ जीवन गुज़ार पायेगें । दुसरी गाड़ी के हम बचे साथियों को कुछ गमलों में रोपा गया । सारे गमले कतारबद्ध कर एक मंच पर सजाये गये। तेज धूप में  शाम  तक हमें पानी भी नसीब नहीं हुआ । 
देर शाम एक नेताजी मंच पर पधारे और उनके साथ ढेरों लोग मंच पर चढ़ आये और व्यवस्था बिगड़ने लगी । मंच की रेलम पेल में एक-एक कर सारे गमले गिरने लगे, मेरे कई मासूम साथी उनके पैरों तले बेदर्दी से कुचला गये ।  पर्यावरण दिवस के अवसर पर नेताजी द्वारा बगीचे का लोकार्पण समारोह तालियों के साथ समाप्त हुआ । रात के सन्नाटे में मेरे साथियों के कराहने की आवाज मेरे कानों में साफ-साफ सुनाई दे रही थी। मैं भी एक कोने में पड़ा हुआ था।
सुबह मंच खुलने लगा। मेरे साथियों को एक कोने में पोटली में बांध दिया गया था। 
 मुझे लगा कि वे अब जीवन भर कभी सांस न ले पायेगें ।●●●
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लघुकथा - 070                                                          
     लॉक डाउन 
                                                          - रंजना हरित
                                                   बिजनौर - उत्तर प्रदेश

रैना की शादी के 5 वर्ष बीत गए पति  गोपाल  महाराष्ट्र में रहकर नौकरी करता । उसकी सारी ही सहेलियां शहर में पति के साथ रहा करती थी ।
परंतु रैना ने गांव में सासु मां के पास ही रह कर तीन बच्चों को पाला ।
अब वह बच्चों की शिक्षा के लिए पति के पास जाकर शहर में रहना सोचने लगी ।
उसने अपने मन की बात पति गोपाल से बता ई । 
तब वह मना करने लगा कि नहीं ! गांव में  तो  अच्छे इंग्लिश मीडियम  स्कूल  भी  है   , मैं अपने बच्चों को वहीं पर ही  पढ़ाऊंगा  । 
और फिर गांव में घर भी है ,मां भी  तो है  ,  वह  अकेली कैसे रहेगी  ?
        हां !  मां की चिंता    त था बच्चों की पढ़ाई और भविष्य के विषय में सोच - सोच कर   रैना  परेशान रहने लगी  । 
 फिर उसने   गोपाल  से  कोई बात नहीं  की ।
 गोपाल फोन करता तो बच्चे और दादी  ही फोन पर बात करती। 
                   रैना ने  गोपाल से फोन पर बात करनी बंद कर दी , उसने योजना बनाई  ,होली पर जब आएंगे इनके साथ बच्चों को लेकर महाराष्ट्र जरूर -जरूर जाऊंगी।
और तीनों बच्चों का एडमिशन करा कर सासु जी को भी वहीं पर बुला लूंगी  ।  
             होली पर गोपाल सभी के लिए उपहार लेकर आया , पर रैना  उपहार देखकर  कोई  खुशी नहीं  हुई  , वो   तो    बस  शहर जाने की जिद  पर अड़ी थी  ।
 दोनों पति-पत्नी की लड़ाई   में  होली के रंग में भंग हो गया  । 
     अब गोपाल की मां भी  5 वर्ष से बहू की सेवा और प्यार देखकर बेटे गोपाल को मनाने की कोशिश करने लगी  , 
कि बेटा  अब  बच्चों को ले जाओ फिर मैं आ जाऊंगी    ।    परंतु गोपाल नहीं माना  । 
और  न  हीं  रैना ।
    आखिर मां और पत्नी की जिद के आगे गोपाल को झुकना  ही पड़ा ।
 तैयारी  तो रैना ने पहले ही कर रखी थी  ।  खुशी-खुशी बच्चों को लेकर इतने बड़े शहर   महाराष्ट्र में चली गई।   
 मानो रैना का सपना पूरा हो गया और   -
अगले ही दिन  !
 अगले ही दिन   ...शहर  ......में ला क डाउन  ........
 लॉक डाउन  कोरोना संक्रमण के चलते पूरे शहर में  लॉक  डाउन  ।
गोपाल पहले ही 12 व्यक्तियों के साथ एक कमरे में रहकर रात  गुजारा करता था  । 
तथा  अब ऐसी स्थिति  में बच्चों को कहां  ?
और किसके पास ले चले ?
उसने सड़क पर ही पूरी रात बिताई 1 दिन ..2 दिन ...3 दिन..... 15 दिन..... न जाने ऐसे ही कितने दिन  बीत गए ।
 फिर  वे सब पैदल ही सड़क के रास्ते गांव की ओर...... गिरते  ..पड़ते... भूखे ...प्यासे ...सारे  ..बैग .. उठाए हुए    ...एक बच्चे को गोद में.. दूसरे का हाथ साड़ी के पल्लू में बांधकर ..........। रैना ...
  रैना के तो जैसे सारे सपने सपने चूर - चूर हो गए   
       वह उस घड़ी को कोस  रही थी कि काश .....
      मैं पति का कहना मान लेती 
.......। तो आज यह दिन ना देखना पड़ता।
 पति भी  नीची निगाह किए पश्चाताप की अग्नि में जला जा रहा था   । 
      चला जा रहा था ....सोचते हुए   कि आज तक  मैंने पत्नी को  शहर   लाकर   क भी  ..कोई ...  फिल्म  भी नहीं दिखाई । 
            - रंजना हरित
 बिजनौर - उत्तर प्रदेश
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लघुकथा - 071                                                 

          अमिट छाप    

                                                - बकुला पारेख
                                                   इन्दौर - मध्यप्रदेश

   विपरीत परिस्थितियों को झेलते हुए विश्व का हर व्यक्ति सोच रहा है आनेवाला समय ना जाने कैसा आनेवाला है, समाचार पत्र पढ़ते हुए मैं सोच रही थी ।
चलभाष पर नित्य आनेवाले संदेशों को पढ़ते हुए , मैंने कुछ जरूरी चीजों की सूची भेजी । एक सरसरी निगाह भावों पर डाली ,तो दंग रह गई । कहीं पर दो गुना तो कहीं तीन गुना दाम ! घर पहुंच सेवा का शुल्क अलग से।
   खैर सामान आ गया ,पैसा भी चूकता किया। दूसरे दिन बर्तन साफ करने के कूचे की मुझे जरूरत पड़ी । सुबह सुबह तीन पहिया साइकिल पर एक व्यक्ति कुछ सामान के साथ आया, मैंने झट से बाहर निकल कर एक कूचा लिया ,पूछा- भैया कितने का है ? १० रूपए मैं मन ही मन बोल उठी सिर्फ १० रूपए! मेरी निगाह उसके पैरों पर पड़ी ,वह एक पैर से दिव्यांग था। कुछ अधिक दाम दे कर उसके आत्म सम्मान को ठेस पहुंचाना नहीं चाहती थी मैं सो साथ में बगैर जरूरत के कुछ सामान खरीद कर दाम चुकाए।
दो से तीन गुना भाव लेने की लहर में हर चीज मूल भाव में दे कर उस दिव्यांग व्यक्ति ने ईमानदारी के संस्कार की अमिट छाप छोड़ी।
   शायद यूं ही संस्कारों का चयन कर ईश्वर सुरक्षा चक्र देते होंगे न। वह तो चला गया, "खुश रहो, स्वस्थ रहो बेटा " मेरे मुख से उदगार  निकले । ****
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लघुकथा - 072                                                     
 बलि का बकरा 
                                              - यतेंद्र वर्मा
                                               ग्वालियर - मध्यप्रदेश

हाईवे से बैंक जाते हुए ज्यों ही विपिन ने मोटरसाइकिल गाँव के रास्ते पर मोड़ी, त्यों ही अचानक से सड़क पर एक बकरा कुलाँचे भरता हुआ मोटरसाइकिल के सामने आ गया । विपिन ने जैसे तैसे ब्रेक लगाए, फिर भी बकरे को बचाने के प्रयास में वह मोटरसाइकिल समेत फिसलकर सड़क के किनारे गड्ढे में गिर पड़ा । 
पलभर में ही २-३ ग्रामीण जो बकरे के मालिक प्रतीत होते थे, उन्होंने विपिन को गड्ढे से निकाला और सड़क के किनारे पेड़ की छांव में बिठाया । एक अन्य ने ग्रामीणों की मदद से उसकी मोटरसाइकिल गड्ढे से निकालकर सड़क किनारे खड़ी कर दी । ग्रामीणों ने विपिन के हाथ पैरों को सरसरी तौर पर दबाकर/उठाकर देखा । विपिन की शर्ट कँटीली झाड़ियों में फँसकर जगह-जगह से फट चुकी थी और हाथ लहुलुहान थे । दोनो घुटने भी सड़क से छिलकर जीन्स की पैंट से बाहर झाँक रहे थे । ग़नीमत रही कि विपिन सिर पर हेलमेट लगाए हुआ था जिससे उसके सिर में चोट नहीं लगी, फिर भी  चेहरे पर झाड़ियों में गिरने के कारण खरोंचे आ गयी थी ।
एक ग्रामीण ने विपिन से हड़काते हुए पूछा, ज़्यादा चोट तो नहीं लगी ? और समझाईश देते हुए कहा, गाड़ी ज़रा धीरे चलाया करो, वो तो अच्छा हुआ बकरे को कुछ नहीं हुआ वरना कल सालाना पूजा में देवी मंदिर में किसकी बलि चढ़ाते ? 
विपिन भौचक्का होकर सुनता रहा, फिर उसने दयाभाव से बकरे की ओर देखा जो मस्ती में झाड़ियों की पत्तियाँ चबाने में मशगूल था । फिर विपिन ने चुपचाप मोटरसाइकिल चालू की और अपनी शाखा की ओर चला गया । ****
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लघुकथा - 073                                                       
माँ का दर्द
                                        - रश्मि अग्रवाल
                                             नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश

‘‘सोनू! चुप रह... हर समय निठल्ला, दादी से चिपका रहता है। इनकी खाँसी के किटाणु लगेंगे... तब पता चलेगा।’’ भड़ास निकालता रमन... कमरे में चला गया। बेटे के हृदय में.... इतना जहर...? आज जाना.... स्वयं पर हँसती... शान्ती कमरे में पति के फोटो के सम्मुख फूट-फूट कर रोई। वही माँ, जब कमाती... बेटा आज्ञाकारी बालक की कभी भाँति, आगे-पीछे मंडराता आज वृद्ध माँ को
अछूत समझता... कटाक्ष कर रहा। हँसी भी आती कि नारी ईश्वर की अनुपम रचना... पुरुष की जन्मदात्री... उसे कब स्नेह, सम्मान-अधिकार दिया जाता.... और कब दुत्कारा जाता? ‘‘बेला.... बारह बज गये... माँ.... कमरे से बाहर नहीं आई?’’ ‘‘जब भूख लगेगी... तब तुम्हारी माता रानी आयेंगी.... कामचोर कहीं की।’’ व्यंग्य बाण छोड़ती बेला... रसोई में चली गई। खाँसी की तेज आवाज़ों ने... रमन को माँ के कमरे में जाने को मजबूर कर दिया हाँपती-काँपती बेसुध पड़ी, इधर-उधर रक्त के कतरे... शान्ती की कहानी
बयाँ कर रहे थे। पास बैठा सोनू सिर दबा रहा, ‘‘पापा-पापा... दादी को क्या
हो रहा? कोई नहीं देखता। आप उनके बेटे.... जैसे मैं आपका... आप भी
नहीं...? कहते सोनू का स्वर भीग गया। रमन ने डाॅ0 अवस्थी को बुलाया। उन्होंने चैकअप करके कहा मि0 रमन... आपकी माता जी... मेरे पास आईं थीं, सचेत किया, उन्हें टी.बी. है.... तुरंत इलाज करवायें पर आपने ध्यान नहीं दिया... विलम्ब हो चुका.... फिर भी दवाईयाँ लिख रहा हूँ... दे दीजियेगा। कहकर डाॅ0 चले गये। माँ का सिर गोद में रखते... रमन के आँसू छलक आये... ‘‘माँ अपनी बीमारी के विषय में क्यों छुपाया? क्यों अकेली दर्द सहती रहीं... क्यों माँ क्यों?’’ वर्षों का गुब्बार बाहर आ गया। खाँसी के शोर को जबरन दबाती शान्ति का दर्द फूट पड़ा ‘‘बेटा!... कई बार प्रयास किया... बीमारी के विषय में बताऊँ.... इलाज करवाये पर तू...माँ के चेहरे की भाषा पढ़ नहीं पाया.... खाँसी के दर्द को जीभ का स्वाद, चटोरपन और न जाने क्या-क्या कहकर स्वयं को अलग करता रहा। नौ महा रक्त के कतरे से सींचा, लम्बी आयु के लिए मंदिरों के घंटे बजाये, झोली फैलाई, ये सब माँ का धर्म है। तू.... मेरा रक्त, अंश... एक बार सिर्फ एक बार माँ से नजरें मिलाई होतीं, बेटे की दृष्टि से देखा होता, घड़ी दो घड़ी पास बैठा होता, कभी तो खाँसी को बीमारी समझा होता।’’ कहती शान्ती फूट-फूट कर रो पड़ी। ‘‘माँ... माँ अपराधी हूँ... गुनहगार, जो चाहे सजा दो... ऊफ नहीं करूंगा पर आपको मेरे, पोते सोनू के लिए ठीक होना होगा... बड़े से बड़े डाॅक्टर को दिखाकर इलाज... सेवा करूँगा। आप हमें छोड़ कर कैसे जा सकती हो?’’ कहता रमन माँ के सीने से जा लगा पर शान्ती की धड़कन मौन हो चुकी... हमेशा के लिए। ●●●●
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   लघुकथा - 074                                                             
मानसिकता
                                                     - आशा मुंशी
                                                      इन्दौर - मध्यप्रदेश

गंगूबाई कॉलोनी के करीब सभी घरों में बर्तन मांजने का काम सालों से करती आ रही है| एक दिन गंगूबाई काम पर नहीं आई मैंने पड़ोस में जाकर सुरेखा से पूछा,"क्या आज गंगूबाई छुट्टी पर है?"इतने में उसका बेटा आया और बोला,"मैडम जी माँ ने रुपये मंगाए हैं, मेरा छोटा भाई मर गया है उसके अंतिम संस्कार के लिए...." "ओह बड़ा दुख हुआ, क्या बीमार था?" "ये सब कैसे हुआ?" हम सभी ने उसे रुपए दे दिए| कुछ दिनों के बाद गंगूबाई वापस काम पर लौट आई| बहुत उदास थी| मैनें पूछा," कैसे हुआ यह सब|" गंगूबाई बोली, "बाई उसका दिमाग सही नहीं था, पड़ोस में सब लोग उसका मजाक बनाते थे और चिढ़ाते थे| अच्छा ही हुआ, मैं अकेली जान चार बेटे और उसके बाप का पेट पालती हूं|" मैंने पूछा, " वे सब काम पर क्यों नहीं जाते?" गंगूबाई बोली, "नासमिटे निकम्मो को बैठे खाने को मिले तो क्यों करें काम?" मैं गंगूबाई की बात से बहुत दुखी हो गई| मैंने कॉलोनी की सभी महिलाओं से उसकी पगार बढ़ाने की बात कही कि,"महंगाई को देखते हुए हम सभी को उसे कुछ रुपए बड़ा कर देना चाहिए|" इस बात पर मेरे पीठ पीछे महिलाओं ने बहुत बातें बनाई, ताने भी दिए, "ज्यादा आ रहा है तो तुम ही दे दिया करो|" 
खेर? महीना पूरा हुआ गंगूबाई की पगार देने का समय आया तो मैंने उन्हें रुपए दिए, गंगूबाई बोली, "मैडम जी काहे के रुपए मैंने तो बेटे की मौत पर आपसे रुपए ले लिए थे..." "गंगूबाई वह तो...." "नहीं बाई सभी घरों में सभी ने मेरी पगार से वे रुपये काट लिए हैं आप भी..." "नहीं-नहीं गंगूबाई यह रुपये तुम रखो|" मुझे सभी महिलाओं की मानसिकता पर बहुत खेद हुआ था| आज भी मैं उसकी इमानदारी पर गर्व महसूस करती हूँ और कुछ कर नहीं सकी मूक बनी सभी को देखती रह गई|****
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लघुकथा - 075                                                     
कर्म- साइड इफेक्ट 
                                                        - जगदीप कौर
                                                       अजमेर - राजस्थान

सपना आज बहुत खुश थी कयोंकि आज के साइंस के पेपर की बहुत अच्छे से तैयारी की थी उसने.....।
सुबह- सुबह स्कूल जाते हुए अपनी मम्मी से बोली ....
देखना साइंस में मेरे अच्छे नम्बर आएँगे। अच्छा अच्छा ... ध्यान से करना पूरा पेपर , माँ ने कहा । माँ से विदा लेकर वह स्कूल पहुँच गई। परीक्षा हाॅल में पेपर मिलते ही वह उसे पड़ने लगी ।अभी पेपर शुरु ही किया था ,और केवल दो तीन प्रश्न ही हल किए थे।इतने में निरीक्षक महोदया सारी औपचारिक प्रविष्टियों को देखते हुए सपना के पास आयी और पूछने लगी....... तुम्हारे पापा का नाम क्या है?? तुमने अपने पापा का नाम कयूँ नही लिखा?? 
बताओ? ......बताओ?....सपना कुछ बोल नही पाई.........बस उसकी आँखो से अश्रुधारा बह निकली ..........क्या बताती कि उसके पापा ने तो उसके और उसकी माँ का साथ छोड़ दिया है ............और ऐसे पापा का नाम वो अपने नाम के साथ नही जोड़ना चाहती थी। उसने कभी अपने पापा की उँगली नही पकड़ी और न ही कभी उसके पापा ने उसे अपनी गोद में बैठाया था.....छोड़ दिया था अपनी बुरी आदतों की वजह से.......
अश्रुधारा निरंतर बही जा रही थी और उसकी आँखो के आगे नन्ही आँखों से देखे अपनी माँ की पिटाई के दृश्य याद आ रहे थे ............... कैसे उसके पापा उसकी ताई जी का उसकी माँ से ज्यादा ध्यान रखते। उनके चरित्र की कमजोरी ने आज उसको और उसकी माँ को बिल्कुल अकेला कर दिया था....बस यही विचार आ रहे थे,और पेपर खत्म हो गया। रिजल्ट वाले दिन साइंस में सिर्फ पासिंग मार्कस ही मिले थे............. मार्कस देखकर सपना अपने पापा की कर्मो के साइड इफेक्ट को महसूस कर रही थी............ ! ****
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लघुकथा - 076                                                             
रिटायरमेंट
                                          - अर्चना मिश्र
                                       भोपाल - मध्यप्रदेश
           
     विनय प्रकाश रिटायरमेंट के बाद बहुत खुश थे। मन ही मन प्लान बना रखा था उन्होंने। सुबह की सैर के साथ योगा शुरू करूँगा। पत्नी के साथ कहीं बाहर घूमने जाऊँगा।  अब अपने मन की सभी   इच्छाएं पूरी करूँगा ।
   
     कुछ समय तो अच्छा बीता फिर उन्हें इस दिनचर्या से ऊब होने लगी। सुबह पत्नी के साथ सैर को चले जाते। लेकिन शाम भारी लगती। एकाध बार पत्नी ने कहा भी, शाम को बाहर टहल आया करो । 
        शाम को जाते -जाते पार्क में उनके कई मित्र बन गये। वो सभी उनकी तरह रिटायर थे। चूँकि उनका घर पास था, तो शतरंज की महफ़िल उनके घर जमने लगी। बीच- बीच में चाय के कई दौर के साथ कभी पकौड़े, कभी पोहे  की फरमाइश होने लगी।  विनय प्रकाश का घर पर रहना  पत्नी को भारी लगने लगा। उसने कई बार पति से कहा भी कि आप दोस्तों को जल्दी विदा कर दिया करो।
    देखो जी! सरकार ने साठ साल बाद रिटायरमेंट की योजना इसीलिये बनायी है कि हर व्यक्ति अपने कार्य को वर्षों तक करने के बाद आराम करे। अपनी पसंद के कार्य करे, सुकून से जिये, फिर यह दुनिया छोड़े।
   क्या सब के लिये यही नियम है?
पत्नी ने पूछा।
                   "हाँ!"    
  नौकरी में तो यही नियम है। चाहे महिला हो या पुरुष।
 मैं भी साठ साल की हूँ तो मुझे भी  
घर के कार्य से निवृत्ति चाहिये।
       गृहणियों का कोई रिटायरमेंट नही होता। कह मुस्कुराकर विनय प्रकाश टी. वी. देखने में व्यस्त हो गये। 
         दूसरे दिन जैसे ही  विनय प्रकाश के दोस्त आए। उनकी पत्नी तैयार होकर, 
      " मैं आती हूँ , कह बाहर    
      चली गयी।" 
        काफी देर बाद घर लौटते ही विनय प्रकाश ने पूछा।
         "कहाँ गयी थी?"
  आपने बताया था कि सरकार का नियम है साठ के बाद कार्यभार से मुक्ति। अपनी पसंद से जीवन जीना     
मैं बहुत समय से गंदी बस्ती के बच्चों को पढ़ाना चाहती थी। यहाँ की कई महिलाएँ जाती हैं तो मैं भी उनके साथ चली गयी।
     देखिये जी, जब  गृहणी का कोई रिटायरमेंट नही। तो उसके  लिये "एडजस्टमेंट" होना चाहिये। कहकर पत्नी कपड़े बदलने चली गयी। यह सुन विनय प्रकाश हतप्रभ रह गये। ****
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लघुकथा - 077                                                      
पचास रुपये का फटा पुराना नोट
                                                  - महेश राजा
                                               महासमुंद - छत्तीसगढ़

    पुरानी संदूचकी को खंगालते साथ एक पुराना कागज और उसके भीतर लिपटा पचास रूपये का पुराना कटा फटा नोट मिला।
    स्मृतियों के अथाह सागर में गोते लगाकर उस अनमोल मोती,उस क्षण को याद किया तो आँखें चमक उठी।
    वो तो भूल चुकी थी।काफी वर्षों पहले जब उसकी पहली पोस्टिंग वृंदावन महाविद्यालय में हुई थी।बहुत छोटा शहर था।मध्यम वर्गीय परिवार के बच्चे वहाँ शिक्षा ग्रहण करने आते थे।
    उनमें से एक नाम दिनेश वह भूला न सकी थी।सीधा-सादा साधारण परिवार का युवक अखबार और खोमचें लगा कर अपनी पढ़ाई कर रहा था।दिनेश को पढ़ने का बड़ा शौक था।दिनेश उसका प्रिय विद्यार्थी रहा।वह चुपचाप पढ़ता किसी से ज्यादा बात न करता।अच्छे नंबर भी लाता।
   एक बार गुरू पूर्णिमा के दिन सब छात्र अपने अपने शिक्षक के लिये फूल,पेन और अन्य उपहार लाये थे।दिनेश ने बड़े संकोच सहित पचास रूपयें का पुराना खस्ता हालत का नोट एक सादे कागज में लपेट कर दिया था।चरण छूये थे।उसने लेने से ईंकार किया था।परंतु दिनेश ने बड़े अनुनय से कहा था-",मैडम मेरी मेहनत की कमाई है।आप रख लें।"
   उसने ढेरों आशीर्वाद दिया था।
   बाद में उनका तबादला दूसरे शहर हो गया।पता चला था दिनेश ने अच्छे अंको से स्नातक की डिग्री पायी थी।उसकी नौकरी एक स्कूल में शिक्षक के पद पर हो गयी थी।वो खुश हो गयी थी ।
   आज उस पुराने नोट को देखकर अनायास दिनेश की याद हो आयी।उसने उस नोट को माथे से लगाया।मन ही मन निर्णय लिया,आज महाविद्यालय जाते समय वह इस नोट का लेमिनेशन कराकर हमेंशा अपने पास रखेगी।ऐसा सोच कर उसे बड़ा सुकून मिला। ●●●●
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लघुकथा - 078                                                       
अपराध बोध 
                                            - रंजना वर्मा " उन्मुक्त " 
                                                   रांची - झारखण्ड

अखबार बांटने वाले ने अखबार को रोल कर जोर से घुमा कर रघु के बालकोनी में फेंका। रघु जैसे अखबार के इंतजार में ही बैठा था। उसने अखबार को उठाया, फिर उस खबर की तलाश में अपनी आंखों को अखबार के पन्नों में घुसा लिया जो उसे एक अपराध बोध से मुक्त कर सकती थी या जिंदगी भर उसे उस अपराध बोध के साथ जीने के लिए मजबूर कर सकती थी।
   कल की ही तो बात है, वह बाजार से मेन रोड पर तेजी से घर की ओर चला आ रहा था। अचानक तेजी से एक साइकिल सवार लड़का गली से निकल कर सड़क पर आ गया। उसका दिल धड़क उठा। लेकिन वह बच के उसकी गाड़ी से आगे निकल गया। तभी उसके पीछे उसी तेजी से उससे छोटा साइकिल सवार लड़का आया और बुरी तरह उसकी गाड़ी से टकरा गया। उसकी सायकिल गाड़ी के नीचे आ गई और लड़का थोड़ी दूर पर फेंका गया। खून से लथपथ लड़के को देखकर वह घबरा गया। उसने सोचा जल्दी अस्पताल ले चलता हूँ। वह गाड़ी का दरवाजा खोल कर निकला और उस लड़के के पास पहुंचा। तभी कुछ शोर सुनकर उसने पीछे की ओर देखा तो घबरा उठा। काफी भीड़ इकट्ठा होने लगी थी। सभी आसपास के रहने वाले लोग थे। धीरे धीरे भीड़ उग्र होने लगी।
" बच्चे को मार दिया।".. .. भीड़ में से एक आदमी बोला।
 " साले को मार डालो। .... बचने ना पाए।"
 " पकड़ो.... पकड़ो।"
वह दौड़ कर गाड़ी में बैठ गया और गाड़ी स्टार्ट कर वहाँ से निकल पड़ा। लोग चिल्ला रहे थे और वह तेजी से गाड़ी भगा रहा था। उसे घबराहट हो रही थी ,अगर किसी ने उसकी गाड़ी का नंबर नोट कर लिया हो और पुलिस को बता दें ....तो ...फिर उसे उस बच्चे का भी ख्याल आया, "क्या हुआ होगा उस बच्चे का ..... बच गया कि मर गया होगा ।" अगर भीड़ इतनी उम्र नहीं होती तो वह उसे अवश्य ही अस्पताल ले जाता। तब उसके बचने की उम्मीद जाती ।जो भी हो उससे गुनाह हुआ था। वह सारी रात बेचैन रहा।उसे नींद नहीं आयी।
    अखबार का कोना कोना उसने उसने छान डाला। लेकिन कल वाली दुर्घटना का कहीं भी जिक्र ना था।...." क्या यह सड़क दुर्घटना अत्यंत आम थी या अत्यंत महत्वहीन......। ***
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लघुकथा - 079                                                     
दया और करुणा
                                              - चन्द्रिका व्यास
                                             मुम्बई - महाराष्ट्र
कोरोना काल में लॉकडाउन कुछ लंबा ही खींच गया ना... !
मंजरी पति प्रकाश से कहती है  !
प्रकाश हसते हुए तुम्हें पता भी है कब तक रहेगा! 
हालात देख रही हो ना ?
हां! यह कहती हुई उसकी नजर एक कुतिया पर पड़ी जिसका बच्चा दूध खिंचने की कोशिश में  उसके स्तन को अपने नन्हें पैरों से मार रहा था  दूध न आने से खीजकर वह कूं कूं करते हुए अपने सूखे मुंह से निपल खींचने जा रहा था और मां उसे चाटती हुई अपनी ममता दे उसे बहला रही थी! भूखी मां के स्तन में दूध कहाँ? 
इक्के दुक्के लोग ही सड़क पर चल रहे थे! प्रकाश और मैं दवाई और कुछ जरूरी सामान लेने को निकले थे वरना लॉकडाउन में कहां निकलना होता! 
मैने देखा वह कुतिया मुझे बहुत ही कातर नजर से देख रही थी मानो मदद की गुहार कर रही हो !
उसकी दयनीय आंखें और सूखे निपल और चिपका पेट देख मैं समझ गई  वह भूखी है पिल्ला लगातार बिलख रहा था! लगभग  हम घर के पास पहुंच गये थे! 
मेरे कदम जल्दी जल्दी घर की ओर बढ़ने लगे! पीछे मुड़कर देखा वह मुझे विश्वास भरी नजरों से देख रही थी मानो मैं लौटकर उसकी मदद के लिए जरुर आऊंगी  !
मेरा मन करुणा और दया से भर गया था! मैने घर से बिस्किट के दो पैकेट, प्लास्टिक के डब्बे में  दूध लिया और चल पड़ी !
दूर से मुझे आते देख कुतिया खड़ी होती है मानो मेरा आभार कर रही हो एवं बता रही हो कि मेरा विश्वास जीत गया इंसान  में अभी भी इंसानियत बाकी है! ****
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लघुकथा - 80                                                       
पिशाच
                                                - रामदेव धूरंधर
                                                   मॉरिशस
रेगिस्तानी द्वीप कोलीसा की एक बड़ी सी चट्टान पर गजब की धुँध छायी रहती थी। दर्शकों को लगता था धुँध के नीचे कुछ छिपा हुआ है। लोगों पर मायावी सा आकर्षण हो आने से वे धुँध को पोंछने लगते थे। धुँध कुछ कुछ साफ होने पर उन्हें पता चलता था अतीत की एक कहानी उस चट्टान पर लिखी हुई थी। आंधी तूफान उस लिखित कहानी को मिटा न सके थे। युगों पहले की उस कहानी की भाषा की पहचान अब शेष न रही थी। पर जो भाषाएँ कालांतर में विकसित हुईं उन भाषाओं की जड़ उसी भाषा से थी। यही वह रहस्य रहा कि बाद के लोग उस कहानी को अपनी - अपनी भाषा में पढ़ लेते थे। कहानी थी -- 
 खिड़की की फाँक से महल में घुसा हुआ चोर चोरी करने से डगमगा गया था। वह जो भी चीज उठाता था उस में राजा एनाकोसे का नाम लिखा हुआ था। तब तो चोरी का माल बेचते वक्त वह जरूर पकड़ा जाता। पर वह चोरी करने आ ही गया तो खाली हाथ नहीं लौटता। वह महल बुहारे जाने वाली झाड़ू चुरा कर ले जाता। इस झाड़ू में भी राजा एनाकोसे का नाम लिखा हुआ था, लेकिन चोर इसे बेचने के लिए नहीं ले जाता। वह अपनी पत्नी को चोरी छिपे घर बुहारने के लिए देता। दोनों को यह अभिमान तो रहता राजमहल की झाड़ू उनका अपना घर बुहारने के काम आ रही है।
 वह झाड़ू चुराता कि देखा था उस पर एक सर्पिणी कुंडली मारे बैठी हुई है। वह डर कर अलग हटता कि सर्पिणी ने डंक लगा कर उसे धराशायी कर दिया था। उसने मरती आँखों से सर्पिणी की आँखों में राजा एनाकोसे के पिछले जन्म का इतिहास देखा था। पिछले जन्म में वह दानव था। उसका निवाला आदमी का मांस होता था। वह दानव जिसे भी देखे वह अपने लिए बस मांस का गणित बनाता था और उस पर टूट पड़ता था। उसके इस उत्पात से लोगों में हाय - हाय मची रहती थी। भगवान तक लोगों की करुण आवाज़ पहुँचती थी। उसे मिटाना आवश्यक मानने वाले भगवान की परेशानी यह थी कि वह अपने प्राण छिपा कर रखता था। 
 भगवान ने उससे कहा था, “तुम्हारे पाप बहुत हुए। मैं यह भी जानता हूँ तुम मरो तो तुम्हारी आदमखोर वृत्ति तुम में शेष रहेगी। इसका निदान मेरे पास यह है कि तुम्हें एक देश का राजा बना दूँ। तुम राज्य के सुख भोग में पड़ते ही अपनी आदमखोर वृत्ति से ऊपर उठने लगोगे और इस तरह तुम्हारा परिष्कार होता जाएगा।”  
  भगवान उसे अगले जन्म में राजा बनाना चाहता था तो वह बन लिया था। भगवान ने उसे स्वयं नाम दिया था -- राजा एनाकोसे।  
 पर उसने अपने प्राण तो फिर छिपाये। उसके प्राण महल की इसी सर्पिणी में रहते थे। 
 चट्टान पर लिखी हुई उस कहानी का अंतिम अंश था --
 सर्पिणी डंक से मरते हुए चोर को खींच कर बिल में ले गयी थी। सर्पिणी उसे खा रही थी, लेकिन स्वाद राजा एनाकोसे के पेट में जा रहा था। ****
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लघुकथा - 81                                                         
एक पत्र 
                                               - राजेन्द्र शर्मा " निष्पक्ष "
                                                  पानीपत - हरियाणा

 नमस्ते अंकिल,आप मुझे नहीं जानते, क्योंकि आप बहुत बड़े जज हैं।कई बार मैंने आपसे मिलना चाहा, पर पुलिस वाले अंकिल ने मना कर दिया।मैं दस साल की हूँ।आपकी कोर्ट में मेरे मम्मी पापा ने तलाक का केस डाला है,सुनील और ममता नाम है उनका।आज दोनों आएँगे।अंकिल प्लीज आप उन्हें समझाना,अलग रहना अच्छी बात नहीं है,छोटे मोटे झगड़े सबके होते हैं।मैं भी अपनी सहेली से कई बार लड़ती हूँ,दो दिन कुट्टा करके फिर मिल जाते हैं।मेरा छोटा भाई अभी पापा कहना नहीं सीखा।वो बङा क्यूट है।हम दोनों मम्मी या पापा दोनों को नहीं खोना चाहते,बहुत प्यार करते हैं उनसे।मैंने एक
तलाकशुदा आन्टी को देखा है,उनका बेटा अपने पापा को मिस करके बहुत रोता है.....उसकी मम्मा भी रोती है.....पापा को या मम्मी को खरीदा नहीं जा सकता कभी....आप या आन्टी क्या बच्चों के बिना रह सकते हैं?नहीं न?आप तो कानून के संरक्षक हैं,आप यह कानून बदलवा दीजिए,बच्चों के मम्मी पापा के तलाक पर प्रतिबन्ध लगवाएं...प्लीज अंकिल। मम्मी पापा को कहना कि आपकी बेटी आपसे बहुत प्यार करती है,मम्मी या पापा किसी के बिना वह जिन्दा नहीं रह सकती।उन्होंने ऐसा ही करना था तो हम बच्चों को दुनिया में क्यों लाए?क्या इसलिए कि हमारा जीवन आन्सूओं में बिखर जाए....हम अनाथ होकर जिएं?हो सके तो ऐसे माँ बाप को भारी जुर्माना लगाएँ और तलाक को एक जुर्म..... प्लीज अंकिल हम जैसे कितने ही बच्चे आपको दुआ देंगे।हमारे मम्मी पापा को आप ही लौटा सकते हैं। ***
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                           अभी कार्य जारी है                          
                             लघुकथा - 2020
       लघुकथा - 2018 व लघुकथा.- 2019 की अपार सफलता के बाद लघुकथा - 2020 का सम्पादन किया जा रहा है । सभी लघुकथाकार अपनी मौलिक 2020 में लिखित एक लघुकथा नीचें दिये गए WhatsApp Number पर भेजने का कष्ट करें । लघुकथा का किसी भी तरह का फोटों या फाईल नहीं होना चाहिए। बल्कि टाइपिंग होना चाहिए ।
        2020 में लिखी गई लघुकथा सोशल मीडिया , वेबसाइटों या पत्र- पत्रिकाओं में प्रकाशित या प्रसारित लघुकथा को भी यहां भेजा जा सकता हैं ।
        लघुकथा के साथ लेखक का पूरा पता व फोन नम्बर होना अनिवार्य है । सभी लघुकथाओं को bijendergemini.blogspot.com ब्लॉग पर लघुकथा - 2020 शीषर्क के अन्तर्गत प्रसारित किया जाऐगा ।
                                 निवेदन
                            बीजेन्द्र जैमिनी
                   भारतीय लघुकथा विकास मंच
                       पानीपत - 132103
        WhatsApp Mobile - 9355003609
                               

Comments

  1. बहुत सुंदर व उपादेय पहल मैंने आज एक लघुकथा लिखी है जल्दी भेजूँगा ।शुभकामनाओं सहित

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  2. मैं शीघ्र ही लघुकथा भेजने का प्रयास करती हूँ। सूचित करने के लिए बेहद शुक्रिया

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  3. लघुकथाओं उसमें भी अच्छी व पठनीय के लिए अच्छा मंच ।अभी तक अच्छी विषयवस्तु की लघुकथाएं पढने को मिल रही हैं ।सभी को बहुत बहुत बधाई व यशस्वी जीवन के लिए अनंत शुभकामनाएं

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  4. जैमिनी अकादमी
    द्वारा आयोजित
    26 वी
    अखिल भारतीय हिन्दी लघुकथा प्रतियोगिता - 2020

    प्रथम पुरस्कार : 2100/- रु नगद
    द्वितीय पुरस्कार : 1100/- रु नगद
    तृतीय पुरस्कार : 551 /- रु नगद

    तीन सांत्वना पुरस्कार : प्रत्येक को 101/- रु नगद
    21 को प्रशस्ति पत्र से सम्मानित किया जाऐगा
    नियम :-

    1. प्रत्येक लघुकथाकार को अपनी मौलिक कम से कम दो लघुकथा भेजना आवश्यक है ।
    2. प्रतियोगिता में प्रवेश नि:शुल्क है ।
    3. लघुकथा के साथ एक पोस्ट कार्ड या जवाबी लिफाफा डांक टिकट सहित भेजना आवश्यक है ।
    4. अपना पासपोर्ट साईज का फोटों भी भेजें ।
    5. जैमिनी अकादमी का निर्णय अन्तिम व सर्वमान्य होगा ।
    6. उपरोक्त साम्रग्री रजिस्टर डांक या कोरियर से ही भेजें अथवा प्रतियोगिता में शामिल नहीं किया जाऐगा ।
    7. अन्तिम तिथि : 31 मार्च 2020

    रजिस्टर डांक / कोरियर भेजने का पता

    प्रतियोगिता सम्पादक
    अखिल भारतीय हिन्दी लघुकथा प्रतियोगिता - 2020
    हिन्दी भवन , 554- सी , सैक्टर -6
    हाऊसिंग बोर्ड कालोनी
    पानीपत - 132103
    हरियाणा
    मोबाइल - 9355003609

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  5. सर आपका यह कार्य हिंदी में योगदान के लिए सदा अविस्मरणीय रहेगा .आप द्वारा मंच प्रदान कर हम सभी को आगे बढ़ाना कोई आसान काम नहीं
    .आपका बहुत बहुत आभार l

    ReplyDelete
  6. छाया शर्मा ,अजमेर

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