भारत वर्ष में हिन्दी भाषा को चुनौतियाँ

जैमिनी अकादमी द्वारा बसन्त पंचमी के अवसर पर परिचर्चा " भारत वर्ष में हिन्दी भाषा को चुनौतियाँ " रखीं गई है । इस परिचर्चा पर कार्यक्रम भी रखा गया है तथा ओनलाईन भी विचारों के लिए आमंत्रित किया है । 
        भारत की अपनी संस्कृति है जो भारत के साथ - साथ विश्व को भी जाग्रत करती है ।यही भारत की पहचान है । परन्तु भारत में अग्रेंजों के आगमन से भारतीय संस्कृति दूसरे दर्ज की हो गई है । जो भारत के आजाद होने के बाद भी यानि वर्तमान में भी कायम है । जिस की सबसे बड़ी वजह अग्रेंजी भाषा को थोप्पा जाना है । भारत से अग्रेज चल गये है परन्तु अग्रेंजी भाषा आज भी है और ना कभी जा सकती है ।
           श्री कृष्ण दत्त तूफान मैमोरियल साहित्यिक सेवा सीमित ( रजि. ) के संस्थापक श्री देवेन्द्र तूफान ने कहा कि भारत वर्ष में हिन्दी भाषा को मिली आजादी के बाद अधिक चुनौतियाँ मिली है ।कहीं क्षेत्रवादी भाषाओं से , कहीं अग्रेजी से । हमारी कार्यपालिका , विधानपालिका , न्यायपालिका , में सब कार्य अग्रेजी में होता आया है । पहली बार प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी की पहल पर बजट - 2019 हिन्दी भाषा में प्रसारित हुआ है ।  अभी तक हमारी पूर्ण शिक्षा प्रणाली भी अग्रेजी में तल्लीन है । हिन्दी के साथ सदा  सौतेली सन्तान सा व्यवहार होता आया है । हिन्दी बोलने वाला ज्ञानी विद्वान भी भारत वर्ष की सभाओं में मूर्ख कहलाता है । अग्रेजी की abc जानने वाला भी विद्वान कहलाता है ।

हिसार - हरियाणा से प्रदीप नील लिखते है कि 
हिन्दी भाषा को चुनौती किसी और से नहीं बल्कि इसके साधकों से मिल रही है जो गलत हिन्दी लिख कर भाषा का और अधकचरी रचनाएं लिख कर साहित्य का नुकसान तो कर ही रहे हैं, पाठकों को भी भगा रहे हैं ।

नवादा  - बिहार से डॉ.राशि सिन्हा लिखती है कि बात जब चुनौतियों की होती है तो इक बात जो सबसे पहले सामने आती है वह है इसकी ऐतिहासिक प्रष्ठभूमि .सत्य है ,अतिशुद्ध व परिष्क्रत बनाने की फिराक में इसका इतना अधिक संस्क्रतिकरण (संस्क्रत भाषा का समावेशन) कर दिया गया कि अपनी ही भाषायी क्लिष्टता के आवरण  में लिपटी बिचारी हिंदी सामान्य उपयोग के कई शब्दों से अछुती होती चली गई. सामान्य उपयोग के शब्दों के तिरस्कार ने हिंदी को सामान्य लोगों से दूर कर दिया.
 हालाकि इक लंबी यात्रा तय कर हमारी हिंदी आज अपने वर्तमान युग में प्रवेश तो कर गई है किंतु, कई नवीन चुनौतियों के साथ.वर्तमान परिप्रेछ्य की मानें तो भूमंडलीकरण के इस दौर में हमारी हिंदी की अस्मिता  आज और भी अधिक खतरे में पड़ गई है.अच्छी प्रांजल हिंदी के उपयोग की बात छोड़ भी दें तब भी स्वयं वर्तमान युगीन साहित्यिक कर्णधारों द्वारा लगातार किये जा रहे नवीनतम् प्रयोगों हिंदी के शिल्प व स्वरुप काफी विक्रत होते चले जा रहें हैं. सरलीकरण के नाम पर हिंदी पत्रिका,हिंदी चैनलों तथा सोशल मीडिया सभी जगह बेमेल व विजातीय शब्दों व मुहावरों का काफी प्रचलन हो गया है.
      बहुराष्ट्रीय कंपनी तथा पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण को प्रतिष्ठा के रुप में स्वीकार कर आज का युवावर्ग दिखावे की सभ्यता का ऐसा अनुगामी बन बैठा है कि हमारी हिंदी अपने मूल रुप के लिए बिलखती नजर आती है.यह दिखावे की संस्क्रति ही है कि आज हिंदी को बाजारवाद का सामना करना पड़ रहा है और उसे न चाहते हुए भी "हिंग्लिश" के रुप में अपने नये विक्रत स्वरुप को स्वीकारना पड़ा है. युवाओं के 'कूल दिखने व कूल  कूल रहने 'की भौंडी पाश्चात्य चाहत ने  एक अजीब सी विक्रत खेखली पाश्चात्य संस्क्रति को जन्म दिया है फलत: हमारी अपनी हिंदी भाषा को पीछे धकेलकर आज का युवा वर्ग अंग्रेजी या हिंग्लिश भाषा का अनुयायी बना दिखता है.
 रोजगारों के अवसरों में भी अंग्रेजी की प्राथमिकता ने हिंदी को पीछे कर दिया है.
    हिंदी हमारी धरोहर है, राष्ट्र की पहचान, राष्ट्रीय एकीकरण का सशक्त माध्यम अत: इसे सरकारी दायित्व के साथ-साथ जनसामान्य द्वारा भाषायी दायित्व के रुप में स्वीकार कर इसे अपनी प्रतिष्ठा की भाषा समझना आवश्यक है.जब तक हम हिंदी के मामले में अपनी आत्महीनता की  सी सोच व अनुभूतियों की आहुति नहीं देंगें तब तक हिंदी अपने पुर्ण अस्तित्व के स्वीकार्य व सम्मान के लिए छटपटाती ही रहेगी.हिंदी अपनी पूर्ण पहचान के साथ स्थापित व प्रतिष्ठित हो सके इसके लिए हम भारतीयों का सच में हिंदीभाषी होना व भाषायी दायित्व  में अपनी भूमिका समझना आवश्यक है।


    मुम्बई - महाराष्ट्र से डॉ. अर्चना दुबे लिखती है कि  कई लोग यह दलील देने से बाज नही आते है कि अंग्रेजी ज्ञान -  विज्ञान और विकास की भाषा है । जबकि रूस, जर्मनी, जापान और चीन जैसे कई देशों ने अपनी मातृभाषा को अपनाकर यह साबित कर दिया है कि मातृभाषा में विद्दार्थी अधिक सफल होता है और अपनी मातृभाषा के दम पर भी देश तरक्की करता है । 
     हमें हिंदी भाषा को केवल साहित्य के ही साथ नहीं बल्कि ज्ञान के साथ अनिवार्यत: जोड़ना होगा तभी हिंदी को अपेक्षित सम्मानित स्थान प्रदान किया जा सकेगा ।
       भाषा वह माध्यम है जिसके द्वारा हम अपनी भावनाओं और विचारो को किसी दूसरे के समक्ष अभिव्यक्त करते हैं और दूसरे की भावनाओं और विचारो को समझते हैं ।
      एक भाषा जिसने हमें और आपको एक सूत्र में बाधा है उसका नाम है हिन्दी भाषा । हिंदी करोड़ो लोगों की मातृभाषा है । दुनिया के करीब 150 देश ऐसे है जहां हिंदी भाषी लोग रहते हैं ।
      आज हिंदी दिवस/पखवाडा के अवसर पर हमें हिंदी के सबल और कमजोर पक्षों की समीक्षा करना है और कैसे हम सब हिंदी के विकास में अपना योगदान दे सकते हैं ।
   भूमण्डलीकरण ने हिंदी के बाजार को विकसित किया है । हिंदी भाषा को प्रांतीय ,अंग्रेजी और उर्दू भाषा से कड़ी चुनौतिया मिल रही है ।
        "राष्ट्र भाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है,
        और हिंदी ने हमें गूंगेपन से बचाया है"


दिल्ली से सुदर्शन खन्ना लिखते है कि हिन्दी भाषा अपनी शुद्धता खोती जा रही है। जिस हिन्दी भाषा पर कभी हमें गर्व हुआ करता था और हमारे संवाद की मुख्य भाषा थी वही आज अपना खोया सम्मान पुनः प्राप्त करने का प्रयास कर रही है।  दुःख होता है जब आज हम अपने त्योहारों पर अपने सगे-संबंधियों, मित्रों और अन्य परिचितों को किसी भी भारतीय त्योहार पर ‘हैप्पी बसंत पंचमी’, ‘हैप्पी रिपब्लिक डे’, ‘हैप्पी होली’, ‘हैप्पी दिवाली’ आदि लिख कर अपने भाव प्रकट करते हैं।  हिन्दी भाषा को इतनी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है कि वह टूट सी गई है।  ऐसा प्रतीत होता है कि हिन्दी की रीढ़ पर अंग्रेज़ी भाषा की पिस्टल रख कर उस पर दबाव डाला जा रहा है कि हिन्दी में अंग्रेज़ी भाषा के शब्दों को भी जगह दे।  आज आप किसी भी समाचार माध्यम को देख लीजिए, उनके प्रसारण में अंगे्रज़ी शब्दों का बहुतायत से प्रयोग होने लगा है।  कारण यह बताया जाता है कि शुद्ध हिन्दी शब्द लोगों को समझ ही नहीं आयेंगे। हिन्दी भाषा के साथ-साथ हिन्दी भाषी लोगों को भी भयंकर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।  आप किसी भी सभा में बैठे हों, संबंधियों या मित्रों के संग बैठे हों और हिन्दी में बात कर रहे हों तो आपकी ओर उन लोगों का ध्यान ज्यादा आकर्षित नहीं होता।  हाँ, अगर आप हिन्दी बोलते समय उसमेें अंगे्रजी के जुमलों का प्रयोग कर दंे ंतो आप समाज की मुख्यधारा में शामिल हो जाते हैं।  यह और भी दुःख का विषय है कि हमारी शिक्षा में भी हिन्दी को दूसरा पायदान मिला है और पहले पायदान पर अंगे्रजी भाषा कब्जा जमाए खड़ी है।  मैं अंग्रेजी का विरोध नहीं करता पर साथ ही साथ हिन्दी भाषा का अपमान भी नहीं सह सकता।  अभी एक समाचार में पढ़ा कि एक सर्वेक्षण के अनुसार सरकारी स्कूलों के बच्चों को 1 से 100 तक गिनती नहीं बोलनी आती।  मेरा दावा है कि अन्य प्रतिष्ठित स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे भी 1 से 100 तक हिन्दी में नहीं बोल सकते।  इसका जीता जागता उदाहरण दे रहा हूँ।  मैं हर वर्ष एक नेत्र जाँच शिविर के पंजीकरण स्थल पर अपनी सेवाएं देता हूँ।  मेरे साथ आधुनिक युग के छात्र-छात्राएँ भी सहयोग देते हैं। पंजीकरण कराते समय अधिकतर मरीज हिन्दी में अंक बोलते हैं जिनमें से ये छात्र-छात्राएं कुछ ही समझ पाते हैं।  खरीदारी के समय देख लीजिए, यदि किसी दुकानदार ने दस रुपये और पिचहत्तर पैसे बोल दिये तो अधिकतर को पिचहत्तर का अर्थ ही मालूम नहीं होगा।  ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे। मजे की बात तो यह है कि हिन्दी का मजाक उड़ाने वालों से अगर विशुद्ध अंगे्रजी में बात की जाये तो वे इधर-उधर बगलें झांकने लगते हैंे। 

सोलन - हिमाचल प्रदेश से आचार्य मदन हिमाँचली लिखते है कि आज हिन्दी भाषा को भारत मे रहने वाले काले अँग्रेजों से हर कदम पर चुनौतियों का सामना करना पड रहा है जो अपने भविष्य को जन्म घुट्टी मे अँग्रेज़ी और अंग्रेजियत को पिला रही है।स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात पहला काम यदि कोई होना चाहिए था तो वह था  प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्व विद्यालय तक का पाठ्यक्रम हिंदी मे होना चाहिए था।और सारी ब्यवस्था भारतीयों कोदेश के अनुकूल करनी चाहिए थी नकि अँग्रेज़ों की नकल के अनुसार।आज हालात यह है कि हम हिन्दी बोलने मे शर्म और अँग्रेज़ी बोलने मे  गर्व महसूस करते हैं जबकि इससे उल्ट होना चाहिये था।आज इस चुनौती को यदि कार्यान्वित करना  है तो देश की ब्वस्था को वोटों का मोह त्याग कर पूरे देश मे हिन्दी को लागू करने के लिए कडे निर्देश देने होंगे और देश मे जो विद्या बेचने की दुकाने खुली हैं इनपर हिन्दी को लागू करने.के लिये  निर्देश देने होगे।औरदेश कलाकारों प्रचार प्रसार माध्यमों मे जो अँग्रेज़ी बोलने की होड लगी है उस पर अँकुश लगना चाहिए।


शाहजहांपुर - उत्तर प्रदेश से शशांक मिश्र लिखते है कि भारत वर्ष में आजादी से अब तक सबसे बड़ी चुनौती रही है सत्ता की उदासीनता और समय समय पर भाषा के लिए विवाद पैदा करने वाली अनावश्यक बयान बाजी ।ऊपर भाषाओं को जोड़ने के स्थान पर अंग्रेजी भाषा के स्कूलों को बढ़ावा ।कई राज्यों द्वारा अपनी भाषा के बाद अंग्रेजी को महत्व देना ।हिन्दी राष्ट्रभाषा को तीसरे स्थान पर रखना यहीं नहीं हिन्दी दिवस के आयोजन में अतिथियों द्वारा अंग्रेजी में भाषण मात्र एक दिन मनाकर या पखवाड़ा बना कर्तव्य की इतिश्री कर लेना ।आज हिन्दी आगे है चुनौतियों से लड़ रही है तो अपनी  उपयोगिता बाजार में बढ़ती स्वीकार्यता के कारण ।लघु पत्र पत्रिकाओं उसके अपने साहित्यकारों निजी स्वयं सेवी संस्था संगठनों से और यही हर चुनौतियों से जूझ विश्व स्तर पर प्रतिष्ठित भी करने वाले हैं ।

       देहरादून - उत्तराखंड से डाँ. भारती वर्मा लिखती है कि भारतवर्ष में हिंदी के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह है आज भी अनेक भारतीय, भारतीय भाषाओं के प्रति हीनता का भाव रखते हैं। ऐसा वातावरण बना हुआ है यदि अँग्रेजी लिखना-पढ़ना नहीं आता तो आपको अर्धशिक्षित ही माना जाएगा। अँग्रेजी वेशभूषा, खेल, तौर-तरीके जैसे जन्मदिन मनाने का तरीका, अपने रिश्तों को भूल अंकल-आंटी कहने का चलन,हैलो-हाय, बाय-बाय आदि शब्दों के माध्यम से स्व संस्कृति का उपहास और पर संस्कृति के प्रति लगाव.. यह सब हिंदी की क्षति ही कर रहा है।
          हिंदी पर हिंग्लिश का हावी होना, अन्तर्जाल,ए टी एम, चलभाष... सभी पर रोमन अक्षरों और अंकों का उपयोग भी हमें हिंदी से दूर करता प्रतीत होता है। कुछ अन्य भारतीय भाषाओं के बोलने वालों का हिंदी के लिए दुराग्रह भी आग में घी का काम करता है और राजनेताओं, राजनीति, प्रशासन आदि को इस मुद्दे से दूर रखने में सड़क हो जाता है।
              इस सबके अतिरिक्त कुछ अन्य कारण भी हैं जो हिंदी के लिए चुनौती बने हुए हैं। स्वतंत्रता के बाद अगर ईमानदारी से प्रयास किया जाता विश्व की और भारत की सभी भाषाओं की उपयोगी पुस्तकों का अनुवाद हिंदी में उपलब्ध कराने का सार्थक प्रयास होता तो हिंदी की चुनौतियाँ कुछ काम हो गई  होती। हिंदी के साथ-साथ सरकारी स्तर पर भारतीय भाषाओं की भी निष्पक्ष रूप से विकास किया जाता तो दूराग्रही पैदा न होते।
           दक्षिण में हिंदी को पढ़ाने-बढ़ाने से पहले उत्तर भारत के लोगों को दक्षिण की भाषाओं में रुचि लेने को प्रेरित किया जाता तो निश्चय ही आज चुनौतियाँ कम होती।
            यदि तत्काल चुनौतियों को कम करना है तो शीघ्रातिशीघ्र आधुनिकतम तकनीक का उपयोग करके ऐसे सॉफ्टवेयर, एप, संगणक कार्यक्रम विकसित किए जाएँ जो अन्य भारतीय भाषाओं के ज्ञान को हिंदी में तुरंत उपलब्ध करा दें।
         जो पहले और अब तक नहीं हो पाया उसे आज और अभी से ही करना आरम्भ कर दिया जाना चाहिए तो चुनौतियाँ समाप्त होती जाएँगी। हिंदी में हस्ताक्षर से और बैंकों, ए टी एम में हिंदी का विकल्प तो चयन किया ही जा सकता है।
दिल्ली से दूरदर्शन के तकनीकी निदेशक डाँ. आलोक सक्सेना कार्यक्रम में बोलते हुए कहते है कि मैं अग्रेजी का विरोधी नहीं हूँ। परन्तु हिन्दी भाषा को त्याग नहीं सकता हूँ क्योंकि बिना हिन्दी के भारतीय नष्ट हो जाऐगी । अतः हिन्दी को बचाने के लिए कोई ना कोई रास्ता सभी को निकालना चाहिए । मेरे परिवार में पिता जी के समय से ही चम्पक जैसी पत्रिका नियमित रूप से आती है। जिन्हें परिवार के बच्चे आदि खाली समय में पढते है और भारतीय सस्कृति का ज्ञान प्राप्त करते रहते है। और आप से निवेदन करता हूँ कि आप भी ऐसा कोई ना कोई रास्ता निकाल कर , परिवार में हिन्दी भाषा को बढाने का कार्य करें । जिससे भारतीय सस्कृति को जिन्दा रखा जा सके .....।

देवी मन्दिर रामलीला कमेटी , पानीपत के महासचिव विजय शर्मा कार्यक्रम में बोलते हुए कहते है कि भारतीय सस्कृति में तलाक जैसे शब्द नहीं थे । पश्चिमी देशों से आये तलाश जैसे शब्द हमारी सस्कृति को खराब कर रहें है अतः भारतीय सस्कृति को बचाने के लिए हिन्दी भाषा को बढावा देने के लिए विशेष कदम उठाने होंगे । नहीं तो हिन्दी के बिना भारतीय सस्कृति नष्ट हो जाऐगी ।
परिचर्चा से स्पष्ट होता है कि हिन्दी की अपनी सस्कृति व पहचान है । जिस से भारत वर्ष में हिन्दी की उपयोगिता कोई कम नहीं कर सकता है । अतः हिन्दी भाषा तो विदेशों में भी अपनी उपयोगिता सिद्ध कर रही है । यही हिन्दी है यही भारत है । अग्रेज भी हिन्दी को समाप्त नहीं कर सके हैं । काले अग्रेज क्या कर लेगें ..................?
                      - बीजेन्द्र जैमिनी
                          ( आलेख व सम्पादन )

Comments

  1. बिल्कुल सही संयोजन बधाई

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