प्रेम शब्द के विभिन्न स्वरूप

जैमिनी अकादमी द्वारा आयोजित परिचर्चा " प्रेम शब्द के विभिन्न स्वरूप " अपने आप में ही परम भक्ति का स्वरूप ही प्रेम है जो हर दिशा में हर क्षेत्रों में विधमान हैं । कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जहाँ प्रेम का अस्तित्व सम्भव ना हो....। फिर भी हम प्रेम की खोज में इधर उधर भटकते रहते है । और पूरा जीवन भटकते रहते है । ऐसे में हमें क्या करना चाहिए । यही परिचर्चा का उदेश्य है :-

          मुम्बई - महाराष्ट्र से डाँ. अर्चना दुबे लिखती है कि विधाता की सृष्टि में प्रेम मूल तत्व है । सृष्टि का उद्भव और विकास प्रेम से ही हुआ है । प्रेम का आनन्द उसी प्रकार है जिस प्रकार मूक व्यक्ति गुड़ को अपने मुख में रखकर  भी उसका स्वाद नहीं बता सकता ।
     प्रेम सौंदर्य का जनक है । वही जीवन और जगत के सम्बन्धों का नियामक है। प्रेम समाज और सृष्टि को गति देने वाला प्रमुख तत्व है ।
प्रेम का अर्थ 'प्रिय' का भाव अथवा 'प्रिय होना' आदि है ।
महात्मा गांधी जी के अनुसार "जहां प्रेम है वहां दया है, प्रेम में द्वेष की गुंजाइश ही नहीं, प्रेम में अहम भाव नहीं, प्रेम में भेद नहीं, प्रेम में अयोग्यता नहीं, प्रेम स्वार्थी नहीं, प्रेम सत्य से ही प्रसन्न रहा है। प्रेम आशामय है, सब कुछ सह लेता है । प्रेम कभी दावा नहीं करता, वह तो हमेशा देता है । प्रेम से भरा हृदय अपने प्रेम पात्र की भूल पर दया करता है और खुद घायल हो जाने पर भी उसे प्यार करता है।"
        हिमाचल प्रदेश से विजयी भरत दीक्षित लिखते है :-
प्रेम गली है संकरी अधिक
संभल के, भरत ले निकल
सक्षम काष्ठ भेदन में भ्रमर
भेद सकता नहीं, है कमल
             देहरादून - उत्तराखंड से डाँ. भारती वर्मा बौड़ाई लिखतीं है कि बालक के जन्म से ही उसमें प्रेम का गुण होता है। जन्म लेते ही वह माँ की गोद, थोड़े समय बाद पिता, अपने खिलौने, अपनी वस्तुएँ और अपना घर पहचानने लगता है। हम कह सकते हैं कि प्रेम का गुण मनुष्य में स्वाभाविक, प्राकृतिक रूप से विद्यमान रहता है। केवल उसका विकास होना बाकी रहता है।
           बालक जैसे-जैसे बड़ा होता है वह मोह वश अपने-पराये का भेद करता है और बड़े होने पर अभिरुचियों के प्रति प्रेम, देश, अपने मत-विचार, संप्रदाय, समाज, भाषा, रीति-रिवाज, संस्कार आदि से प्रेम होता है। बचपन के मोह छूट जाते हैं।
           इसके बाद निश्छल प्रेम की बारी आती है और निश्छल प्रेम का परकतीकरण तभी सम्भव होता है जब व्यक्ति किसी के संपर्क में आकर लगाव अनुभव करता है और यहीं वह अनुभव करता है कि उसका लगाव स्वार्थ पर आधारित ना हो। यह प्रेम भी सांसारिक होता है। उदाहरणार्थ पति-पत्नी, प्रेमी-प्रेमिका और मित्रों का प्रेम आदि।
         इन सभी प्रकार के प्रेमों का अनुभव करने के पश्चात् मनुष्य ईश्वरीय प्रेम की ओर प्रवृत्त होता है। ये प्रेम सर्वोच्च श्रेणी में रखा जा सकता है जिसमें किसी भी प्रकार का स्वार्थ, लगाव, मोह, राग-द्वेष नहीं होता है। 
                   नागपुर - महाराष्ट्र से जयप्रकाश सूर्य वंशी लिखते है :-

जैसा रामायण में कहा गया है,
स्वारथ लागे करें सब प्रिति
यही है सब मनुज की रीति।

और आज के कलियुग में यह बहुत कम संभव , है और देखा गया है,आज प्रेम के कई रूप देखने को मिलेंगे सही रुप में प्रेम की परिभाषा यह है, निस्वार्थ भाव से बिना किसी स्वार्थ के समर्पित हो जाना ही सही प्रेम है जो आज कदाचित देखने को मिलता है ।
               भुवनेश्वर चौरसिया "भुनेश" लिखते है कि दुनिया को एक सूत्र में पिरोने का एक मात्र रास्ता है प्रेम, प्रेम वह अटूट शब्द है जो है तो महज़ ढ़ाई अक्षर का लेकिन कुरूर से कुरूर व्यक्ति को भी प्रेम में लीन कर सही रास्ते पर लाया जा सकता है। प्रेम शब्द के अंदर गम्भीर अवसाद से घिरे व्यक्ति को भी गलत रास्ते पर जाने से रोकता है जो कुछ भी करने को आतुर रहता है, एक सच्चा प्रेमी कभी कातिल नहीं होता। ।
             दमोह - मध्यप्रदेश से बबिता चौबे " शक्ति " लिखती है कि प्रेम अदम्य अलौकिक अहसास है।जो एक प्रेममय ह्रदय ही समझ सकता है ।प्रेम परमानंद है प्रेम विन जीवन वीरान है ।
प्रेम जीवन का आरम्भ है ।
प्रेम स्वर है ,प्रेम व्यंजन है ,प्रेम गीत है।
             सोलन - हिमाचल प्रदेश से आचार्य मदन हिमाँचली लिखते है कि अढाई अक्षर का शब्द है --प्रेम। इस शब्द मे विश्व को समेटने की अदभुत क्षमता है। सृष्टि के सृजन से लेकर आज तक जब  जब भी प्रेम की अवहेलना हुई है तब तब मानव को विनाश झेलना पडा है और जब जब प्रेम को अपनाया गया है तब तब ईश्वर की अपार कृपा मनुष्य पर रही है। आज देश मे जो कुछ हो रहा है यह सबकुछ प्रेम के अभाव मे हो रहा है । इसलिए प्रेम शब्द के सही परिभाषा को समझते हुए  हमें प्रेम को हृदय से अपनाया जाना चाहिए था।जब हम प्रेम की राह पर चलेँगे तभी कटुता से मुक्ति मिल सकती है ।।
नवी मुम्बई - महाराष्ट्र से चन्द्रिका व्यास लिखती है कि प्रेम पहले से ही आकर्षण का बिंदु रहा है  किंतु यहां प्रेम के विभिन्न स्वरुप को उजागर करना है और उसकी अभिव्यक्ति  को स्पष्ट करना है! 
प्रेम की धारा को हम कई तरह से प्रवाहित कर सकते हैं! 
जैसे पति- पत्नी का प्रेम, दो जवान दिलों का आकर्षण भरा प्रेम, भाई बहन का प्रेम, ईश्वर से प्रेम (अलौकिक) आदि आदि.... बस संबंध के अनुसार प्रेम का स्वरुप बदल जाता है! 
मां-बाप अपने बच्चों को बहुत प्रेम करते हैं !किंतु उसमे उनके प्रति स्नेह और ममता का भाव होता है ! बच्चे माता-पिता से प्रेम करते हैं उसमे उनका आदर भाव और कर्तव्य की भावना होती है!भाई बहन का प्रेम आपस में मधुर बंधन के साथ पवित्र रिश्ते को बताती है! 
दो विपरीत जवान दिलों का प्रेम वासना में डूबा और क्षणिक होता है किंतु यदि वही जवान धडकने परिणय में बंध पति पत्नी के रुप में आते हैं तो वह प्रेम कोई दैहिक नहीं  होता उसमे समर्पण का भाव होता है! 
ईश्वर से जो प्रेम होता है वह अलौकिक होता है
जैसे मीरा का कृष्ण से प्रेम करना! कृष्ण को अपने दिल में बिना किसी चाहना के बैठा स्वयं को समर्पित कर देना! 
यानी "प्रेम में देना होता है पाना नहीं ।
शाहजहांपुर - उत्तर प्रदेश से शशांक मिश्र भारती लिखते है कि मेरे लिए प्रेम महत्वपूर्ण रहा है तो प्रकृति के रूप में ।प्रकृति से प्रेम लगाव मुझे न केवल पर्यावरण के लिए लेखन  प्रोत्साहन का आधार बना ।अपितु कालिदास और भवभूति का प्रकृति प्रेमी होना उसका मेघदूत उत्तर रामचरितम् में चित्रण अभिज्ञान शाकुन्तलम् का चतुर्थ अंक शकुंतला के पतिगृह आगमन का दृश्य किसी रोमांच से कम नहीं है 
उदयपुर - राजस्थान से डाँ. चन्द्रेश कुमार छतलानी लिखते है कि प्रेम एक ऐसी अनुभूति है जिसे शायद कोई आत्मज्ञानी भी समझा ना सके, लेकिन इसका अनुभव दुनिया का सबसे सूक्ष्म प्राणी भी कर सकता है। अनुभूतियों पर किसी का वश नहीं है। धरती के अंदर की बेइन्तहा गर्मी में रहते हुए कीड़े-मकोड़े भी प्रेम करते हैं तो कहीं दूर बियाबाँ जंगलों में रह रहे आदिवासी भी। दुनिया की सबसे छोटी इकाई से लेकर शायद अनंत विस्तारित ब्रह्मांडों तक प्रेम किसी की बपौती नहीं। विचार करें कि हमसे सबसे पहले प्रेम किसने किया था तो हम पाएंगे कि वो हमारे माता-पिता हैं। हमारे पैदा होने से लेकर, यदि वो धरती पर हैं तो आज तक अथवा उनके सम्पूर्ण जीवन काल तक, हमने उनके प्रेम में कभी कमी नहीं पाई होगी। कई बार तात्कालिक आकर्षण को प्रेम मानकर, उसमें असफल युवा स्वयं के साथ अन्याय कर बैठते हैं, उन्हें कोई भी कदम उठाने से पहले अपने माता-पिता के प्रेम के बारे में ज़रूर सोचना चाहिए।
महासमुंद - छत्तीसगढ़ से महेश राजा लिखते है कि  प्रेम तो ईश्वर प्रदत एक ऐसा उपहार है,जो हम सब जीवों को प्रदान किया गया है।प्रेम एक ऐसी आस्था. है जो हम जीवों को ऊंचाई प्रदान करता है।
        प्रेम किसी प्रकार का हो सकता है।मां बेटे का.पिता पुत्री का.भाई बहन का ,दो दोस्तो का  या उन सबका जो अपने अंतःस्थल मे ह्रदय रखते है।
        फिर स्त्री पुरूष के प्रेम को एक ही तुला से क्यों देखा  जाता है।जो सिर्फ दैहिक है।यह अध्यात्मिक ,अलौकिक भी हो सकता है।
     आज के दिन के लिये अनेक बाते कही जा रही है।इसे माता पिता दिवस.या शहीदों से जोडा जा रहा है।यह पूर्ण मर्यादित एक दूसरे पर मर मिटने वाली भावना से ओतप्रोत शुद्ध प्यार क्यों नहीं हो सकता है।इसे सिर्फ वासना से जोडकर इस पवित्र शब्द का हम अपमान कर रहे है।
        स्वनामधन्य बाबा मिडिया से बडी बडी बाते,बडे बडे रेस्टिक्शन इस दिवस के लिये.डरा धमका कर कर रहे है।जबकि स्वयं वे किन भोगों मे लिप्त है,यह जग जाहिर है।
        हमे एक बात पर विचार करना होगा।प्यार जैसी अनुभूति कभी भी किसी के प्रति अनायास हो सकती है।इसे सकारात्मक रूप से देखना उचित होगा।
      नाहक गलत प्रचार के द्बारा इस पवित्र भावना को दुषित करने का हमे कोई हक नहीं।
     कबीर दासजी के शब्दों में "ढाई आखर प्रेम "का पढ लेना ही काफी है।
     जीव जो मानवीय, ईंसानी धर्म से जुडा है,उसे प्रेम करने का पूरा हक है।प्रेम सत्य है.शिव है.सुंदर है।
        इसे पवित्र अर्थो मे लेना ही इसकी पूर्णता है।प्रेम जब तक जीवन मे रहेगा।यह प्रकृति,यह जहां हमेंशा खुशियों से परि पूर्ण रहेगी।
मुजफ्फरनगर - उत्तर प्रदेश से सुशीला जोशी लिखती है कि यह ढाई अक्षर का शब्द प्रेम ही तो है  जो पोथी पढ़वाता है ,ज्ञानी बनाता है , यश दिलाता है और परिवार बनवाता है । यही तो स्वयं से मिलवाता है । एक व्यक्ति को अनेक रूपो में बांटता है । 
     यही वह अक्षर है जो अदृश्य को दृश्य बनाता है । हृदय की भाषा गढ़ता  है । कवि, लेखक , संगीतज्ञ ,गायक ,नायक , नर्तक बनाता है । कल्पना को आकार देता है । मनुष्य  को देवता का दर्जा देता है और हौसले को पंख लगाता है । संसार का निर्माण करता है 
      यही वह अक्षर है जो नये नये अविष्कार कराता है ,प्रयोग कराता है ,प्रमाणित करने की लगन लगाता है । 
         महेश गुप्ता जौनपुरी लिखते है कि प्रेम एक ऐंसा शब्द हैं जो मनुष्य के अन्तर्मन से निकलता हैं | जो मनुष्य को किसी भी व्यक्ति या परिवार के सदस्य से मिलता हैं प्रेम एक ऐसा सागर हैं जिसमें डुब कर पत्थर इंसार भी पानी हो जाता हैं | प्रेम को धन दौलत से बाटा नहीं जा सकता प्रेम एक ऐसा अनमोल रत्न हैं जिसके मोह माया से इंसान का तन मन परिवर्तित हो जाता हैं |
प्रेम शब्द के विभिन्न स्वरुप हैं जो परिवार के सभी सदस्यों से पाप्त होता हैं | एक छोटे से बच्चे को सभी अपना प्रेम न्योछावर करना चाहते हैं चाहे वह इंसान का बच्चा हो या जानवर का बच्चा क्योंकि बच्चा किसी का भी हो बहुत ही प्यारा होता हैं जिसे देख कर मन प्रशन्न हो जाता हैं और प्रेम का अनमोल भाव निकलने लगता है ।
सिवान से लक्षण कुमार लिखते है कि प्रेम तो एक बहाव है जो दिल से निकल कर बहता है। प्रेम एक ऐसी नदी है जो कभी समाप्त नहीं होती। और इसमें लाखों लोग अपने रास्ते को तलाश करते हैं। मोक्ष, मुक्ति को प्राप्त करते हैं और यह कभी थकती नहीं। तुम्हारा मन थक जाता है। तुम्हारा तन थक जाता है। तुम प्रेम को दोष नहीं दे सकते। प्रेम की व्याख्या करने वालों ने गलती की है, प्रेम तो सच्चा है। प्रेम तो थोडे़ समय में आनंद को छू लेता है। और वर्षो प्रेम भी सफल नहीं होता। यह सारी व्यवस्था गलत हो गई है। यह जरूरी नहीं है कि प्रेम क्षणिक नहीं हो सकता। यह भी निश्चित नहीं है कि तुम एक बार जिससे प्रेम करते हो उसी से जीवन भर करना-सच्चा प्रेम है। यदि सुबह का खिला हुआ पुष्प शाम को सूख जाता है तो वह सच्चा पुष्प नहीं है? प्रेम तो परमात्मा की समीपता का आभास कराता है। प्रेम की डोर पकड़कर हम ईश्वर तक पहुंच सकते हैं। जिसने प्रेम का मर्म जान लिया फिर उसे और कुछ जानने की आवश्यकता नहीं।
             भिण्ड - मध्यप्रदेश से मनोरमा जैन पाखी लिखती है कि प्यार,प्रेम ,इश्क मुहब्बत--एक ही अहसास के अलग अलग नाम ।नींव सबकी एक ही,एक ही है पैगाम।
अनेक भावनाओं,अहसासों,रवैयों का सम्मिलित कॉकटेल है प्रेम जो स्नेह ममता ,आदर, समर्पण आदि से प्रारंभ होकर आत्मिक खुशी प्रदान कर जीवन को विभिन्न रंगों से सराबोर कर अवसाद ,तनाव से बचाता है।
कहते हैं कि अगर किसी मुजरिम या गलत मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति के जीवन में यह प्रेम प्रवेश कर जाए तो उसकी लाइफ भी बदल सकती है।अपराध की दुनियाँ छोड सकता है। 
प्राचीन ग्रीकों ने प्रेम को चार भागों में विभाजित किया है :--रिश्तेदारी,दोस्ती,रूमानी इच्छा और दिव्य प्रेम ।
दिव्य प्रेम की अनुभूति राधा-कृष्ण,मीरा की कृष्ण के प्रति आसक्ति ,आदि एतिहासिक चरित्रों में देखी जा सकती है ।
रोमानी इच्छा हीर ,राँझणा,लैला मजनू,शशिपुन्नू जैसे प्रेम प्रसंग बताते हैं ।
यद्यपि आज प्यार ,प्रेम के मायने बदल गये हैं।दैहिक आकर्षण और वासना पूर्ति ही वर्तमान दौर का प्रेम है।
सौंदर्य या अन्य खूबी जब दृष्टा और दृष्टि का भेद भुलाकर स्वयं को खो देता है तब यह प्रेम की अवस्था होती है। पहले आसक्ति होना जरुरी है आसक्ति समाप्त होने पर भक्ति जागती है ।मोह और भक्ति की बीच की अवस्था ही प्यार है प्रेम है।
         जबलपुर - मध्यप्रदेश से  अनन्तराम चौबे " अनन्त " लिखते है कि  माँ का प्यार सर्वश्रेष्ठ होता है जो बच्चो के प्रति होता है माँ बच्चों के लिये अशीम प्रेम  स्नेह  ममता प्यार लुटाती है । नौ माह अपनी कोख में रखकर अपने खून से सींच कर पालती है । स्वमं दुख सहती है । बच्चे के जन्म के साथ माँ का दूसरा जन्म होता है माँ बनना हर नारी का सपना होता है  जिसमें माँ का प्यार समाया होता है माँ की ममता का प्यार होता है 
    प्रेम शब्द अनेक रूपो में अलग अलग रिश्तो से अलग अलग अलग रुप में जुड़ा होता है ।
               दिल्ली से सुदर्शन खन्ना लिखतें है कि प्रेम वास्तव में एक ऐसा शब्द है जिसके विभिन्न स्वरूप हैं।  इस शब्द को अनेक कथाओं और गाथाओं ने अपने अपने अर्थों में परिभाषित किया। मीराबाई की कथा से कौन वंचित है।  इस रूप में प्रेम सर्वोत्कृष्ट ऊँचाई पर पहुँचा और ईश्वर से प्रेम की तुलना कर दी।  भक्ति या प्रेम में आत्मभाव भी झलकता है।  अक्सर हम स्वयं को सर्वाधिक प्रेम करते हैं। अपने ऐश्वर्य और सुख प्राप्ति के लिए साध्य, असाध्य अनेक कर्म करते हैं। जब यही भाव मानव समाज के लिए उड़ेल दिया जाता है और हम स्वयं को मानव सेवा में समर्पित कर देते हैं तो इसे हम निःस्वार्थ प्रेम योग की परिभाषा दे देते हैं। यह स्व-प्रेम का उदाहरण भी है क्योंकि ऐसा करने से मन को संतुष्टि होती है।  मानव कल्याण में खुद को न्यौछावर कर देने से हम दूसरों के प्रेम के पात्र भी बन जाते हैं।  यह प्रेम असीम रूप धारण कर लेता है।  
परिचर्चा के अन्त में " मेरी दृष्टि में " मानो समस्त संसार को एक ही केंद्र की ओर खींचती है यह वह वस्तु है, जिसे प्रेम कहते हैं. शुद्ध प्रेम का कोई उद्देश्य नहीं होता है. उसका कोई स्वार्थ नहीं होता है. वह जबरन किया नहीं जाता है ।
                      - बीजेन्द्र जैमिनी
                       ( आलेख व सम्पादन )


Comments

  1. जय हिन्दी जय भारत

    जैमिनी अकादमी
    द्वारा

    आयोजित परिचर्चा

    " प्रेम शब्द के विभिन्न स्वरूप "

    सक्षेंप में " प्रेम शब्द " के किसी भी कम से कम के स्वरूप पर अपने विचार तथा अपना एक फोटों शीध्र ही नीचें दिये गये WhatsApp पर भेजने का कष्ट करें । परिचर्चा को ब्लॉग पर प्रसारित किया जाऐगा ।

    निवेदन
    बीजेन्द्र जैमिनी
    पानीपत
    WhatsApp Mobile No.
    9355003609

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  2. अच्छी पहल सार्थकता सिद्ध होगी ऐसा विश्वास है ।शुभकामनाएं

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  3. बहुत बहुत धन्यवाद जैमिनी अकादमी को मेरे रचना को ब्लॉग पर प्रसारित करने के लिए

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