शुभ कार्य के लिए प्रार्थना करते हैं। प्रार्थना में लोगों का विश्वास होता है। विश्वास का मतलब स्वार्थ से लिया जाता है । फिर भी लोगों की प्रार्थना सफ़ल भी होती है । अक्सर ऐसा देखा जाता है ।यह लोगों का विश्वास ही सब कुछ होता है । जैमिनी अकादमी की चर्चा परिचर्चा का प्रमुख विषय बनाया गया है। अब आयें विचारों को देखते हैं :- शायद दैनिक प्रार्थना करने वाले नित्य कर्म के समान करते होंगे लेकिन उनमें से भी कितने निस्वार्थ होते होंगे यह कहना कठिन है। ‘वोल्गा से गंगा’ नामक पुस्तक महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी गई बीस कहानियों का संग्रह है। इस कहानी-संग्रह की बीस कहानियाँ आठ हजार वर्षों तथा दस हजार किलोमीटर की परिधि में बँधी हुई हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि यह कहानियाँ मानवों की सभ्यता के विकास की पूरी कड़ी को सामने रखने में सक्षम हैं। 6000 ई.पू. से 1942 ई. तक के कालखंड में मानव समाज के ऐतिहासिक, आर्थिक एवं राजनीतिक अध्ययन को राहुल सांकृत्यायन ने इस कहानी-संग्रह में बाँधने का प्रयास किया है। वे अपने कहानी संग्रह के विषय में खुद ही लिखते हैं कि- “लेखक की एक-एक कहानी के पीछे उस युग के संबंध की वह भारी सामग्री है, जो दुनिया की कितनी ही भाषाओं, तुलनात्मक भाषाविज्ञान, मिट्टी, पत्थर, ताँबे, पीतल, लोहे पर सांकेतिक वा लिखित साहित्य अथवा अलिखित गीतों, कहानियों, रीति-रिवाजों, टोटके-टोनों में पाई जाती है।” इस तरह यह किताब अपनी भूमिका में ही अपनी ऐतिहासिक महत्ता और विशेषता को प्रकट कर देती है। मेरा उस पुस्तक का उल्लेख करने का तात्पर्य यह हैं कि उस पुस्तक में सभी देवी-देवताओं के बारे में भी विस्तार से बताया हुआ है- कुछ मन कमज़ोर पड़ता है तो प्रार्थना में विश्वास करने के लिए बाध्य होते हैं। - विभा रानी श्रीवास्तव
पटना - बिहार
प्रार्थना में विश्वास तो समाहित होता है, याचना का भाव भी निहित होता है। अपने-आप को बहुत छोटा बताने का प्रयास। विवशता का प्रदर्शन। इसलिए प्रार्थना में सांकेतिक प्रक्रिया भी होती है। हाथ जोड़कर खड़े रहना। सिर झुकाना, गिड़गिड़ाना आदि। जतन यही होता है कि जैसे भी हो हमारी प्रार्थना स्वीकृत होकर हमारा काम सिद्ध हो जावे। इसीलिए कहा गया है कि विश्वास में स्वार्थ भरा होता है। इस सबके बावजूद इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि प्रार्थना में समर्पण का भाव भी होता है या छद्म का भी। कुछ ऐसे भी होते हैं जो पूरे विश्वास और समर्पित भाव से विशुद्ध मन से प्रार्थना करते हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी होते हैं जिनकी प्रार्थना में चालाकी होती है, मतलब छिपा होता है। जीवन में यही कठिनाई है। दोहरापन इतना बिखरा पड़ा है कि प्रार्थना करने वाले के भाव को समझ नहीं पाते और धोखा हो जाता है और तब कभी पात्र वंचित रह जाता है , कभी कुपात्र को मन की मुराद मिल जाती है।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
चर्चा बिषय सचमुच दिलचस्प विषय है! प्रार्थना और विश्वास दोनों ही हमारे जीवन में महत्वपूर्ण पहलू निभाते हैं।मेरी राय में-प्रार्थना में विश्वास भरा होता यह बात बिल्कुल सही है, क्योंकि ईश्वर की शक्ति में जिसे विश्वास (आस्तिक)है प्रार्थना भी वही इंसान करता है। और ये भी सच है कि -जब हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं ना, तो ईश्वर को भी स्वार्थ वश दक्षिणा के रूप में रिश्वत ही पेश करते हैं और मन ही मन आंख बंद करके कहते कि हे भगवान मेरी ये इच्छा पूरी कर दे तो में 51 रू चढ़ाऊँ गी,.......दर्शन को आऊगी या ..........भंडारा कराऊंगी । हम अपने विश्वास को व्यक्त करते हैं और अपने ईश्वर या उच्च शक्ति से जुड़ने का प्रयास करते हैं।और पूर्ण विश्वास व स्वार्थ वश प्रार्थनामय हो जाते हैं लेकिन विश्वास में स्वार्थ भरा होता है, यह एक जटिल विषय है। विश्वास में स्वार्थ हो सकता है, जैसे कि जब हम अपने व्यक्तिगत लाभ या इच्छाओं के लिए प्रार्थना करते हैं। लेकिन कभी कभी विश्वास में स्वार्थ भी नहीं होता है, जब किसी अनजान को दुर्घटना या मुसीबत में फंसे होने पर भगवान् से सच्चे दिल से प्रार्थना करते ही हैं । हम विश्वास के कारण दूसरों की मदद करने या अच्छे काम करने के लिए प्रेरित होते हैं। यह महत्वपूर्ण है कि हम अपने विश्वास और प्रार्थना के पीछे के उद्देश्य को समझें और यह सुनिश्चित करें कि हमारा विश्वास और प्रार्थना सकारात्मक और निस्वार्थ भी हो।बाकि सब ईश्वर की शक्ति पर छोड़ देना चाहिए। - रंजना हरित
बिजनौर - उत्तर प्रदेश
एक दम सत्य प्रार्थना में विश्वास भरा होता है. प्रार्थना करने वाले को पूर्ण विश्वास होता है कि उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली जाएगी. प्रार्थना करने वाला विश्वास के साथ प्रार्थना करता है और प्रार्थना कुछ न कुछ मांगने के लिए ही किया जाता है. इसका सीधा अर्थ है कि उस विश्वास में प्रार्थना करने वाले का स्वार्थ भरा होता है. प्रार्थना चाहे कोई भी हर प्रार्थना में कुछ न चाहत होती है. चाहे वह अपने लिए हो या किसी और के लिए हो. समाज के लिए हो या देश के लिए हो. आजकल बिना स्वार्थ के कुछ नहीं होता है. एक तरह से कहा जाय कि स्वार्थ के ऊपर ही प्रार्थना का निर्माण हुआ है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी. विश्वास के साथ ही प्रार्थना किया जाता है कि जिससे हम प्रार्थना करते हैं वो हमारी अपनी स्वार्थ की पूर्ति कर देगा.
- दिनेश चंद्र प्रसाद " दीनेश "
कलकत्ता - प. बंगाल
प्रार्थना मैं विश्वास भरा होता है विश्वास में स्वार्थ भरा होता है। ईश्वर को याद करने का , अपने दुख दर्द , कामना प्राप्त करने का जरिया प्रार्थना है। स्कूल में प्रार्थना हर छात्र करता है । भगवान के प्रति अपनी आस्था , विश्वास को जताता है। तुलसी , कबीर , मीरा , कालिदास आदि ने , कवियों ने अपनी किताब में मंगलाचरण के रूप में ईश्वर को मनाया है। ईश्वर सभी की प्रार्थना को सुनते हैं । कृपा प्रसाद भी देते हैं । लेकिन यही विश्वास में स्वार्थ भाव भरा होता है महत्त्वकांक्षा बढ़ती जाएँ तो उस भूख , लालच को शांत करने का उपाय ईश्वर के पास भी नहीं है। इसलिए कहा गया है कि संतोषी सदा सुखी। - डॉ मंजु गुप्ता
मुंबई - महाराष्ट्र
बिल्कुल सही कहा आपने जब हम प्रार्थना करते हैं तो पक्का विश्वास होता है कि हमारी प्रार्थना में बल है और हमारा ईष्ट हमारा मंगल करेगा। जिस विश्वास के आधार पर प्रार्थना की जाती है वह फलीभूत भी होती है। दूसरी और देखा जाए तो व्यक्ति प्रार्थना कब करता है जब उसकी कोई लालसा होती है, जब वह कोई विपदा में फंस जाता है, उसे कोई दुःख घेर लेता है या उसे किसी प्लाट, मकान इत्यादि की आवश्यकता होती है। भाव कि वह अपने सुख की पूर्ति के लिए प्रार्थना करता है और उस प्रार्थना के विश्वास में उसका स्वार्थ भरा होता है। कोई बिरला ही प्रभु भक्त होता है जो नि:स्वार्थ भाव से प्रतिक्षण प्रार्थना भाव में रहता है। - डॉ. संतोष गर्ग 'तोष'
पंचकूला - हरियाणा
प्रार्थना में विश्वास भरा होता है प्रार्थना कृतज्ञता समर्पण की भावना होती है ! मन प्रकृति की ओर आकर्षित हो अनेकों मन के भाव उपजते है! “चाह नहीं मैं सुर बाला के गहने में गुथा जाऊ “चाह बस इतनी की किसी की भूख का निवाला बन आत्मा तृप्त कर जाऊँ ! निः स्वार्थ भावना होती है ये विश्वास होता है! हर धड़ी को अपने कर्म से जोड़ता है !आप ही जीना है !और हर पल अपने आपको संवारना हैं ! गुरु ज्ञान सब सुन जग में गुरुजन की सेवा विश्वास हैं !गुरु वंदन की रीत भी यही है ,गुरु नाम की प्रीत भी यही छत्र छाया गुरुजन की संग रहे साथ हमारे बढ़े रहे , गुरुजन संग रहे उपकार हमारे !!परंतु विश्वास में स्वार्थ भरा रहता है वो अपनी हुकूमत वर्चस्व चाहता है ! निर्णय की स्तिथि में आने ही नहीं देता ! उसे अपने विश्वास खोने का डर हमेशा बना रहता है !एक ही चेहरे के दो पहलू में इंसान स्वार्थ वशीभूत कर्म ध्यान करता है और दूसरे में निःस्वार्थ भाव होता मन वचन कर्म वाणी से कार्य करता है ! कबीर और रहीम के दोहे में ऐसे अनेकों उदाहरण हमेशा पथ प्रदर्शक बने रहते है !परंतु विश्वास में स्वार्थ भरा होता है , वो अपनी आदतें नहीं बदल सकता है ! वो कर्मठ कर्तव्य परायण प्रेम ,त्याग समर्पण की भावना लेकर राष्ट्रहित समाजहित से निः स्वार्थ जुड़ा होता है ! जो ख़ुद की चरित्र की रक्षा करता वही दूसरों की रक्षा नही कर सकता है जिसकी सोच आदतों में सुधार लाने की अपेक्षा कुसंगति की ओर अग्रसर करता है दूसरों की जिंदगी को नर्क बनाते अपना उल्लू सीधा करता है दूसरों के भविष्य से खिलवाड़ करता! ऐसे अनेकों उदाहरण पौराणिक कथाओं रामायण रावण का चरित्र महाभारत में खलनायक दुर्योधन ने जिसमे स्वार्थ भरा अंत मृत्यु से हुआ ! जिसने निः स्वार्थ सेवा की पहले डाकू फिर आदतों में सुधार ला महर्षि बाल्मीकि रामायण लिखी ऐसे ही गोस्स्वामी तुलसीदास पत्नी रत्नावली से मोह भंग कर आदत में बदलाव ला रामचरित मानस रचना की !इसी तरह रावण ने अपने अंतिम समय में राम से कहा-बुद्धिमान होते हुए,मयवान मृत्यु का कारण बना , राम की तरह चरित्रवान न बन सका ! - अनिता शरद झा
रायपुर - छत्तीसगढ़
प्रार्थना मैं विश्वास भरा होता है व प्रार्थना विश्वास के आधार पर ही की जाती है ....इस कथन मैं कोई संदेह नहीं !! एक विश्वास ही है जिसके सहारे लोग अपने कष्टों के निवारण हेतु नतमस्तक होकर भगवान से प्रार्थना करते है !! विश्वास मैं स्वार्थ इसलिए भरा होता है कि लोग अपनी अधिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति हेतु अधिक से अधिक मांगते रहते हैं !! स्वार्थ इसलिए भरा होता है कि संतुष्टि के मापदंड आजकल बदल चुके हैं !! पैदल चलनेवाला साइकिल , साइकिल वाला कार , कार वाला एक और कार , इस तरह सूची निरंतर बढ़ती रहती है !! प्रार्थना विश्वास से की जाती है व स्वार्थी होना कोई गलत नहीं , लेकिन इच्छाओं को लगाम लगाना जरूरी है !! भगवान भी उतना ही देंगे जितना आवश्यक है !जब हम परमात्मा की सत्ता को स्वीकारते हैं तो उनपर विश्वास भी रखना होगा !! - नंदिता बाली
सोलन - हिमाचल प्रदेश
किसी भी प्रार्थना में इंसान के अंदर का विश्वास भरा होता है, क्योंकि वह मन की गहराइयों से उपजती है। जब कोई व्यक्ति कठिनाई या संकट में होता है, तो वह ईश्वर पर भरोसा करके प्रार्थना करता है। प्रार्थना में आशा, आस्था और निस्वार्थ भाव समाए रहते हैं। परंतु विश्वास, जो जीवन का आधार है, समय के साथ स्वार्थ से जुड़ने लगता है। बहुत बार लोग केवल तभी विश्वास करते हैं, जब उनके लाभ की संभावना हो। यह विश्वास शर्तों और अपेक्षाओं में बंधा होता है। असली विश्वास वह है, जो बिना लाभ-हानि सोचे कायम रहे। इसलिए प्रार्थना में जो निस्वार्थ आस्था होती है, वही सच्चे विश्वास का रूप होना चाहिए। - सीमा रानी पटना - बिहार
प्रार्थना से तात्पर्य है ईश्वर या अपने इष्ट से श्रद्धापूर्वक व्यक्तिगत या सामूहिक रूप से मांगना, निवेदन एवं याचना करना है। दूसरे शब्दों में प्रार्थना ईश्वर से अपनी समस्याओं चिंताओं के लिए मार्गदर्शन और शक्ति पाने की भी विनती है। ऐसा करते समय व्यक्ति ईश्वर के साथ अपने संबंध स्थापित करता हुआ विश्वास से भरा होता है कि प्रभु उसके सुनेंगे। पर प्रभु भी सर्वज्ञ हैं, जब हम यह प्रार्थना व्यक्तिगत होकर दुष्कर्म को फलित करने वाली या किसी का अनिष्ट करने के लिए करते हैं, तो उसमें स्वार्थ की गंध भरी जानकर प्रभु उसे अस्वीकार या अनदेखा कर देते हैं। अतः प्रार्थना विश्वास से सुबुद्धि, सुकर्म युक्त सर्वजन हितार्थ हो तो ठीक है अन्यथा स्वार्थ पूरित प्रार्थना ठीक नहीं।
- डाॅ.रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
"माला फेरत युग भया, गया न मन का फेर तन का मनका साडि करि मन का मनका फेर" आज भक्ति की तरफ रूख करते हैं कि भक्ति या प्राथना पर विश्वास किया जा सकता है, और विश्वास में स्वार्थ भरा है, मेरा मानना है कि अगर भक्ति सही तन मन से में की जाए तो विश्वास भरी होती है जैसा कि उपर के दोहे में बताया गया है कि अगर मन कहीं और हो और तन में दिखावा हो यानि तन कहीं और गूम रहा हो तो भक्ति पर विश्वास कैसे किया जा सकता है, क्योंकि हमारा मन ही स्थिर नहीं है तन तो पहले ही दिखावा कर रहा है, कहने का भाव हमारी भक्ति या प्राथना भगवान तक नहीं पहुंच रही है, द्रौपदी चरित्र हरण में जब द्रौपदी ने अपने सच्चे मन से भगवान को पुकारा तो कृष्ण भगवान जी ने उसी समय उसकी मदद कर डाली लेकिन द्रौपदी ने करूणा भरी आवाज में कहा प्रभु आपने आने में इतनी देरी क्यों कर दी तो भगवान का जवाब था कि आपने अन्तर आत्मा से बुलाया ही कब था, जब बुलाया में तरूंत आ गया पहले तो आपका ध्यान अपने महारथियों की तरफ या तात की तरफ था, जब मुझे आपके मन की पुकार आई तो मैं तरूंत आपकी मदद को हाजिर हुआ इससे जाहिर होता है कि भक्ति में विश्वास भरा है क्योंकि जब सभी से विश्वास उठ गया तो तभी द्रौपदी को भगवान पर विश्वास आया कि वो तो जरूर आएँगे और भगवान विश्वास पर खरे उतरे, अब विश्वास की बात करें कि क्या विश्वास में स्वार्थ भरा होता है तो इसमें कोई दो राय नहीं हैं क्योंकि ज्यादातर लोग भक्ति या प्राथना उसी समय सच्चे मन से करते हैं जब वो किसी संकट में फंसे होते हैं और फिर उनका विश्वास सिर्फ भगवान पर टिका होता है और यही सोचते हैं कि अब भगवान के बिना कोई सहारा नहीं है, और बार बार यही कहते हैं कि हे भगवान अब तेरे पर ही हमारी डोर है और अपने कर्मों के लेखे जोखे के लिए भगवान का आशीर्वाद चाहते हैं और पुरे विश्वास के साथ आस में बंधे रहते हैं, या कई मन्नते माँगते हैं यहाँ तक की पुण्य दान तक भी करते हैं, तीर्थ यात्रा करते हैं कि हमारे पाप धुल जाँए इसी विश्वास से वो कई तोड़के करते हैं और विश्वास रखते हैं हमारी मन्नतें जरूर पूरी होंगी, जिससे जाहिर होता है कि विश्वास में स्वार्थ भरा होता है। - डॉ सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू व कश्मीर
प्रार्थना मन की एक ऐसी अवस्था है जहाँ मनुष्य स्वयं को ईश्वर के समक्ष पूर्ण समर्पण के साथ प्रस्तुत करता है। उसमें केवल विश्वास होता है, एक भाव होता है कि कोई परम शक्ति है जो सुन रही है, चाहे वह इच्छा पूरी हो या नहीं। इसीलिए प्रार्थना में निःस्वार्थ विश्वास होता है — जो कुछ भी ईश्वर देगा, वही उत्तम है। परंतु जब हम 'विश्वास' शब्द का प्रयोग करते हैं, तो कई बार उसमें छुपा होता है स्वार्थ — हमें किसी कार्य की सफलता चाहिए, किसी मनोकामना की पूर्ति चाहिए, इसलिए हम विश्वास रखने का दिखावा करते हैं। यह विश्वास प्रायः शर्तों से भरा होता है — "अगर मेरा काम बन गया, तो मैं यह करूँगा..."। यह एक तरह का सौदा बन जाता है, जहाँ आस्था का स्थान स्वार्थ ले लेता है। इसलिए कहा गया है कि: - प्रार्थना निःस्वार्थ होती है, परंतु स्वार्थी मनुष्य विश्वास को भी स्वार्थ से भर देता है। सच्ची प्रार्थना वहीं है जहाँ व्यक्ति अपने लाभ-हानि की चिंता किए बिना ईश्वर में पूर्ण समर्पण के साथ विश्वास करता है। - रमा बहेड
हैदराबाद - तेलंगाना
प्रार्थना किसी भी रूप में हो, जब तक मन में विश्वास नहीं होगा, प्रार्थना दिल से नहीं होगी। अधूरी होगी। सच्चा विश्वास निस्वार्थ होता है, उसमें स्वार्थ की भावना नहीं होती, जहाँ किंचित मात्र भी स्वार्थ आ गया, वहाँ विश्वास नहीं है प्रभु पर, तब वह प्रार्थना भी नहीं है। प्रार्थना हृदय की गहराइयों से निकल कर आने वाली अभिव्यक्ति है। जब तक हम निस्वार्थ भाव से प्रार्थना करेंगे, विश्वास से करेंगे, प्रभु सुनेंगे और जब उस विश्वास में स्वार्थ भरा होगा, प्रार्थना अधूरी ही मानी जाएगी। - रश्मि पाण्डेय शुभि
जबलपुर - मध्यप्रदेश
" मेरी दृष्टि में " विश्वास ही बहुत बड़ी स्थिति है। परन्तु कई बार स्वार्थ शामिल होता देखा गया है। ऐसी स्थिति में प्रार्थना का कोई अर्थ नहीं रह जाता है। फिर भी लोगों का विश्वास चरम सीमा पर रहता है।
- बीजेन्द्र जैमिनी
(संपादन व संचालन)
यह सच है, वर्तमान परिवेश में प्रार्थना में स्वार्थ भरा होता है, मेरी प्रार्थना पूर्ण हो जाए तो ऐसा करुंगा, वैसा करुंगा, बस उसी में लगा रहता है, कई बार तो स्वार्थ पूर्ण होने उपरान्त भूल जाता है, तदोपरान्त उसका प्राश्चित भी होता है। प्रार्थना भी कई प्रकार की होने लगी। जहाँ विश्वास भरा क्षणिक मोह माया रहता है?
ReplyDelete-आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार "वीर"
बालाघाट - मध्यप्रदेश
(WhatsApp से साभार)
आदरणीय भीष्म साहनी जी को विनम्र श्रद्धांजलि🙏🙇
ReplyDeleteआदरणीय बीजेंद्र जैमिनी जी का धन्यवाद।
ReplyDeleteरेखा सक्सेना जी को बहुत-बहुत बधाई शुभकामनाएं 🙏💐💐😊