ठाकुर प्रसाद सिंह स्मृति सम्मान -2025
कर्म ही सबसे बड़ा धर्म है। यदि हम इंसान होकर इंसानियत का धर्म नहीं निभा रहे तो बाक़ी के सब धर्म बेकार हैं ।हमारा कर्म ही हमारे चरित्र को दर्शाता है और कर्म ही हमारी अच्छे भविष्य को सुनिश्चित करता है। प्रत्येक धर्म हमें अच्छा कर्म करने, भाईचारे व सद्भाव के लिए प्रेरित करता है। फिर भी यदि हम धर्म के नाम पर मार-काट, बर्बरता व भेद-भाव करते हैं तो ऐसे धर्म का पालन करना पुण्य नहीं पाप है। धर्म से बड़ा मनुष्य का चरित्र हैं। धन और स्वास्थ्य फिर भी वापिस लौटये जा सकते है परंतु यदि व्यक्ति चरित्र, नैतिकता, ईमानदारी खो देता है तो अपना सम्मान, प्रतिष्ठा, पद आदि सब कुछ खो देता है। कलंकित चरित्र को निष्कलंक करना कठिन ही नहीं असंभव है। चरित्र कांच सी भी अधिक नाज़ुक होता है। टूटने पर दोबारा जोड़ा नहीं जा सकता। अतः अच्छे चरित्र पर हमारा सबसे अधिक ध्यान रहना चाहिए, धन दौलत से भी अधिक।
- रेनू चौहान
नई दिल्ली
कर्म ही सबसे बड़ा धर्म होता है और धर्म से बड़ा अपना चरित्र होता है। 'कर्म प्रधान विश्व रचि राखा' कर्म के आधार पर ही हमारे समाज में वर्ण व्यवस्था बनी और इसमें भी महत्वपूर्ण बात यह कि चरित्र को प्रधानता दी गयी। अपने धार्मिक स्वभाव और चारित्रिक बल पर ही भक्त रैदास, मीराबाई जैसी महारानी के गुरु बने। कर्म से बड़ा धर्म और धर्म से बड़ा चरित्र होता ही है। चरित्रवान का सब जगह सम्मान होता है। क्योंकि चरित्रवान कभी धर्म मार्ग से नहीं भटक सकता और धर्मानुकूल ही कर्म करता है। चरित्र वह आभूषण है जो व्यक्तित्व में निखार लाता है।इसकी महक इत्र के समान होती है। ऐसे मानव का व्यवहार अलग ही होता है। चरित्र मानवीय मूल्यों में एक अमूल्य मूल्य है।धर्म और कर्म इसी के बल पर बढ़ते हैं।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
एकदम सही बात है कि कर्म ही सबसे बड़ा धर्म है ! जितनी मर्जी प्रार्थनाएं कर लो , भक्ति कर लो , दान पुण्य कर लो , नेक कार्य कर लो , हमें इन सबका फल तभी मिल सकता है , जब हम कर्म करें ! भगवान भी उनकी सहायता करते हैं , जो सतत प्रयास करते हैं , व सत्कर्म करते हैं ! जब हम कर्म को ही धर्म मानेंगे , तौ सफलता मिलेगी ! कर्म ही धर्म है , कर्तव्य है व इससे भी बड़ा है हमारा चरित्र ! श्रेष्ठ व्यक्ति वही है जो अपना कर्म करता है , कर्म को धर्म मानता है , वो इन सब क्रियाओं मैं अपने चरित्र को भी उत्तम , श्रेष्ठ , रखता है !!
- नंदिता बाली
सोलन - हिमाचल प्रदेश
वाह क्या बात है, कर्म ही सबसे बड़ा धर्म है. धर्म से बड़ा चरित्र है. कर्म तो हमेशा से ही हमारे साथ रहता है. या यों कहें तो वह हमारे साथ ही पैदा होता है तो कोई अतिशयोक्ति. नहीं होगी. पैदा होते ही हम पैर इधर उधर करने लगते हैं. बचपन में खेलना कूदना, बालपन में पढ़ाई लिखाई और जवानी में सांसारिक कर्म. यही तो मानव जाति का धर्म है. अगर सही रूप में देखें तो धर्म से बड़ा अपना चरित्र है. क्योंकि जो अपने चरित्र के विरुद्ध कार्य करता है तो लोग उसे अधार्मिक व्यक्ति कहते हैं. मानव चरित्र के विरुद्ध जो कार्य करता है तो उसका कोई धर्म नहीं रह जाता है. फिर वो धर्म जैसे महान चीज़ से कैसे बेहतर हो सकता है. उसका चरित्र तो धर्म से नीचे गिरा हुआ है वह धर्म से बड़ा कैसे हो सकता है. तो यहां पर हम कह सकते हैं कि चरित्रवान व्यक्ती का चरित्र ही धर्म से बड़ा है.
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश "
कलकत्ता - प. बंगाल
अपनी कर्मभूमि को महान बनाना है विध्वंसक बुद्धि का स्तमाल दुष्कर्म अधर्मी करता है ऐसे दरिंदे खूनी अपराधियों की सजा मृत्युदंड ही ,यही धर्म का चरित्र होना चाहिए । अपने विचारो से लक्ष्य प्राप्त करने प्रेरित कर चरित्रवान बनाता है अंतरात्मा की आवाज कहती -धर्म से बड़ा अपना चरित्र है यह विचार हमें अपने लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कर्म करने के लिए प्रेरित करता है।चरित्रवान बना सफलता विचार हमें अपने चरित्र को मजबूत बनाने के लिए प्रेरित करता है। रावण के पास विशाल विद्यावान चरित्र था राम चरित्रवान पुरुषोत्तम राम कहलाए कहते थे विचारों को वश में रखिएगा वो आपके सद चरित्र बनेगे ,और चरित्र को वश में रखिए आपकी आदत बनेगी वे ही आपके आदत्त उत्तम चरित्र व्यवहार वान बनायेंगे! अपनी कर्मभूमि को महान बनाओ
वह कोई और नही दुनिया
जिसको कहती पागल है
वह पागल औरत से जन्म ले
नर से नारायण कहलाया है
सुख दुख का भार प्रकृति ने दिया है गीत संगीत गीता का ज्ञान दिया है दूर देश कलंकित ये कैसी मर्यादा है वह ममता की मूरत शक्ति की पूजा है
- अनीता शरद झा
रायपुर -छत्तीसगढ़
मेरी राय में, मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी पूँजी उसका कर्म और चरित्र ही हैं। धर्म हमें दिशा देता है, परन्तु उस दिशा पर चलकर सत्य, न्याय, करुणा और निष्पक्षता को अपने आचरण में उतारना हमारे कर्मों का कार्य है। जब व्यक्ति अपने कर्म को सर्वोपरि मानकर निःस्वार्थ भाव से समाज, राष्ट्र और मानवता के हित में कार्य करता है, तभी धर्म की वास्तविक सार्थकता सिद्ध होती है।चरित्र किसी भी मनुष्य की पहचान है। सम्मान, विश्वास और प्रतिष्ठा चरित्र से ही उत्पन्न होते हैं। मनुष्य का रूप, पद, धन या शक्ति क्षणिक हो सकते हैं, लेकिन उच्च चरित्र स्थायी होता है और पीढ़ियों तक प्रेरणा देता है। इसीलिए कहा गया है कि धर्म के उपदेशों से बड़ा वह चरित्र है, जो बिना किसी भय और लोभ के, सत्य और न्याय का मार्ग चुनता है। एक चरित्रवान व्यक्ति अपने कर्मों से समाज में आशा का दीप जलाता है, अन्याय के विरुद्ध खड़ा होता है, और राष्ट्र की प्रगति में अपनी सत्यनिष्ठा से योगदान देता है।अतः मैं यह मानता हूँ कि कर्म तथा चरित्र—दोनों मिलकर ही किसी भी मनुष्य को महान बनाते हैं जो अपने मौलिक कर्तव्यों से सत्यमेव का फल अवश्य प्राप्त करते हैं और दूसरों को भी करवाते हैं।
- डॉ. इंदु भूषण बाली
ज्यौड़ियॉं (जम्मू) -जम्मू और कश्मीर
कर्म ही पूजा है - - - कर्म ही सबसे बड़ा धर्म है। कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। कृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से सारे विश्व को कर्म का संदेश दिया है। आदिकाल से आज तक हर धर्म के ग्रंथ कर्म का ही संदेश देते हैं। जब ईश्वर अल्लाह येसु गुरु नानक सहित सारे प्रवर्तक कर्म ही सच्ची आराधना का संदेश लेकर चलते हैं - - कि "ईश्वर अल्लाह तेरो नाम सबको सन्मति दे भगवान " का भजन जन जन के भीतर गूंजता है तब भी मैं यह भी कहूँगी कि धर्म से बड़ा चरित्र है। चरित्र का तात्पर्य सिर्फ शारीरिक शुचिता से नही बल्कि दैहिक दैविक भौतिक तापों अर्थात भावों से निर्धारित होता है। धर्म से बड़ा चरित्र होता है जो मानव कल्याण की दिशा में मील का पत्थर साबित होता है। इसलिये मैं मानती हूँ कि चरित्र ही इंसान की सबसे बड़ी सच्ची पूँजी है।
- हेमलता मिश्र मानवी
नागपुर - महाराष्ट्र
जीवन में कर्म किए जाए, फल की चिन्ता न करते हुए काम किया जाए तो सफलता अर्जित जरुर प्राप्त होती है। अगर हम बिना कर्म किए काम करते है, तो मान और यश का इंतजार करना पर सकता है। कर्म ही सब से बड़ा धर्म है, धर्म से बड़ा अपना चरित्र है। यह सच है। कर्म से धर्म-परायण और साथ ही जीतना ज्यादा धर्म करता है, चरित्र की ओर अग्रसर होता है, कोई भी क्यों न हो जाए। घर संसार से प्रारंभ होकर यश कीर्ति का पौधा कहा तक सिंचित किया जाए, संगत बल, बलिदान और पराक्रम करना अपने ऊपर निर्भर करता है....।
-आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार "वीर"
बालाघाट - मध्यप्रदेश
कर्म जीवन का सबसे बड़ा धर्म है, साथ यह भी सही है कि अच्छा कर्म, सत्कर्म ही धर्म है. कर्मों से ही धर्म निभता है और धर्म से चरित्र बनता है. कभी-कभी धर्म को निभाने से ज्यादा अपना चरित्र निभाना उचित रहता है. झूठ बोलना दुष्कर्म है, लेकिन किसी की जान बचाने के लिए झूठ भी बोलना पड़े तो वह धर्म है. कर्म और धर्म से ही चरित्र बनता है. कर्म अच्छे होंगे तो धर्म अच्छा होगा और चरित्र भी अच्छा होगा. अपने चरित्र को ध्यान में रखकर समुचित कर्म और धर्म करना ही श्रेयस्कर है.
- लीला तिवानी
सम्प्रति - ऑस्ट्रेलिया
कर्म ही सबसे बड़ा धर्म है, का सबसे प्रसिद्ध संस्कृत श्लोक भगवद गीता के दूसरे अध्याय के श्लोक 47 में दिया है कि"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥"। अर्थात आपका अधिकार केवल कर्म करने में है, उसके फल पर नहीं। श्लोक स्पष्ट कहता है कि तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल पर कभी नहीं होता। तुम कभी भी कर्म के फल का कारण मत बनो और कर्म न करने की ओर भी तुम्हारी प्रवृत्ति नहीं होनी चाहिए। यही बात हमारी हिमाचली पहाड़ी बोली में इस कहावत के माध्यम से की जाती है कि "हिल्यां रीज़क, बेहल्यां धक्के"। अर्थात जो चल फिर कर काम करेगा, वह तो पेट भर लेगा लेकिन जो न ही चलेगा और न ही कार्य करेगा। उसे तो भूखे ही रहना पड़ेगा या धक्के खाने पड़ेंगे। धर्म का अर्थ धारण करने से है। इसमें भी यह बात स्पष्ट है कि जो काम करने की प्रवृत्ति को धारण कर लेगा उसका धर्म सार्थक हो जाएगा। कर्महीन व्यक्ति का कोई धर्म नहीं जिसके पास कम है उसके पास धर्म है धर्म व कर्म दोनों ही बिना चरित्र के नहीं हो सकते जिन लोगों के पास कर्म और धर्म के साथ चरित्र होगा। उन्हीं का जीवन सार्थक कहा जाएगा। कहने का भाव है कि कर्म और धर्म से बड़ा व्यक्ति का चरित्र है। जिस व्यक्ति के पास चरित्र नहीं, वह अपने आपको भले ही कितने भी दान पुण्य करके धार्मिक कहलवाने की कोशिश करे। लेकिन उसका वह दिखावा आडंबर ही कहलाएगा, क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने सभी कर्मों को छुपा नहीं सकता। यदि लोगों से छुपा भी लेगा तो, उस परम शक्ति से नहीं छुपा पाएगा। जो कर्म, धर्म और चरित्र के बल पर व्यक्ति विशेष के कर्मों को अवलोकित और मूल्यांकित करता है। इसलिए अपना धर्म ही चरित्र है और चरित्र ही धर्म है।
- डॉ. रवीन्द्र कुमार ठाकुर
बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश
कर्म ही सब से बड़ा धर्म है, धर्म से बड़ा अपना चरित्र है... गीता के अनुसार...कर्म ही हमारा धर्म है। वैसे धर्म और कर्म दोनों पूरक हैं। कर्म वह कार्य है जो हम करते हैं और जीने का सही तरीका ही धर्म है। हम जब पूर्ण निष्ठा एवं सच्चे मन से अपना काम करते हैं तो फल अपने आप मिलता है। अपने माता-पिता को खुश करना, गरीबों की मदद करना यही तो हमारा धर्म है, जो हमारे कर्म से ही जुड़ा है। हमारे जीने का नितीयुक्त तरीका ही हमारा धर्म है। कर्म ही हमारा धर्म है। व्यक्ति के अच्छे कर्म से धर्म और चरित्र का अनुमान हो जाता है चूंकि "व्यक्ति का व्यक्तित्व ही उसका आचरण होता है"। व्यक्ति का कर्म ही उसके विनय विवेक को दर्शाता है। व्यक्ति का व्यक्तित्व ही उसका चरित्र होता है। जो धर्म से ऊपर है
- चंद्रिका व्यास
मुंबई - महाराष्ट्र
हर प्राणी कोई न कोई कर्म करता है,कर्म के बिना सृष्टि ही नहीं चलती लेकिन कर्म कैसा होना चाहिए क्या कर्म और चरित्र आपस में मेल खाते हैं तो आईये आज इसी पर चर्चा करते हैं कि कर्म ही सबसे बड़ा धर्म है और धर्म से बड़ा अपना चरित्र होता है, मेरा मानना है कि कर्म धर्म युक्त होना चाहिए क्योंकि धर्म से रहित कर्म कुकर्म कहलाता है इसलिए कर्म ऐसे करने चाहिए जो शास्त्र और नैटिक सिदांतों के अनुसार हों यह सत्य है कि स्वार्थ रहित कर्मों से दुसरों का कल्याण करना परम धर्म कहलाता है और जब कर्म निस्वार्थ भाव से और धर्म के अनुसार हो तो वह कर्म धर्म के समान माना जाता है तभी तो कर्म को पूजा कहा गया है बैसे भी धर्म से ही कर्म की सही दिया और उदेश्य मिलता है और जो कर्म धर्म युक्त होता है वोही मोक्ष की और ले जाता है यही नहीं धर्म युक्त कर्म करने से ही जीवन में शांति और सुख की प्राप्ति होती है इसलिए कर्म करना तो इंसान का परम धर्म है लेकिन यह भी जरूरी हो जाता है जो हम कर्म कर रहे हैं कहीं उसमें चरित्र को तो नहीं खो रहे हैं क्योंकि धर्म से पहले चरित्र को ध्यान में रखना जरूरी है ,अक्सर देखा गया है की चरित्र हीन व्यक्ति धर्मवीर नहीं बन सकता,चरित्र ही धर्म की नींव है ,अन्त में यही कहुंगा कि कर्म से बड़ा धर्म और धर्म से बड़ा चरित्र माना गया है।
- डॉ सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू व कश्मीर
यह सच है कर्म ही सबसे बड़ा धर्म है क्योंकि विशेषत: मानव कर्म योनि का प्राणी है। वह सत, रज,तम त्रिगुणात्मक प्रकृति के अनुसार कर्म करता है। साथ ही काम, क्रोध, लोभ ,मद और मोह उसको सुकर्मों के दौरान प्रभावित करते हैं। कभी वह इन पांच शत्रुओं के अधिक प्रभाव में आने के कारण चरित्रहीन होकर समाज को और स्वयं को भी कष्टप्रद स्थिति में डाल देता है। अतः उसकी सच्चरित्र बनाने के तथा उसकी दुर्बुद्धि को रोकने में धर्म बहुत बड़ी भूमिका निभाता है। शास्त्रों में भी कहा गया है- "अहिंसा परमो धर्म ", "परहित सरिस धर्म नहीं भाई " ।अतः जगत के अस्तित्व, व्यवस्था, क्रियाशीलता और खुशहाली का दायित्व कर्म और धर्म से ही है। यही सच्चरित्र का निर्माता है ।
- डॉ. रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
" मेरी दृष्टि में " कर्म ही सब कुछ होता है। कर्म का धर्म चरित्र से है। फिर भी कर्म से ही सब कुछ बनता है। कर्म के बिना कुछ भी सम्भव नहीं है। कर्म से बड़ा कुछ नहीं है। कर्म से जीवन है । कर्म से ही अगला जन्म की स्थिति बनती है। अतः कर्म से भविष्य तय होता है। यही कर्म का फल है। जिसके लिए मारा मारी करते हैं।
बहुत बहुत धन्यवाद जैमिनी अकादमी एवं बिजेंद्र जैमिनी जी।।प्रतिदिन अकादमी के पटल पर विचारोत्तेजक एव गहन साहित्यिक विषय पर विचार आमंत्रित किये जाते हैं। हम सभी साहित्य साथी यथासंभव प्रतिदिन ही अपने विचार प्रेषित करते हैं। इसी कड़ी में मुझे ठाकुर प्रसादसिंह स्मृति सम्मान से सम्मानित किया गया है। अत्यंत आभार पटल का और सभी साहित्य मनीषियों का जिनकी प्रेरणा से और आशीर्वाद से लेखनी चलती है।
ReplyDelete- हेमलता मिश्र मानवी
नागपुर - महाराष्ट्र
(फेसबुक से साभार)