योगेन्द्र मौदगिल की स्मृति में ऑनलाइन कवि सम्मेलन

जैमिनी अकादमी द्वारा ऑनलाइन कवि सम्मेलन इस बार " योगेन्द्र मौदगिल "  की स्मृति में  फेसबुक पर   रखा गया है । जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के कवियों ने भाग लिया है । विषय अनुकूल कविता के कवियों को सम्मानित करने का निर्णय लिया है । 
योगेन्द्र मौदगिल का जन्म 25 सितम्बर 1963 को हुआ है । ये पांच भाईयों में सबसे बड़े थे । पिता सेल्स टैक्स विभाग में ओफिसर थे । इनके दो बच्चें है । एक बेटा व एक बेटी है । 
इन का अपने नाम पर यू - टयूब चैनल व ब्लॉग  है । पानीपत सांस्कृतिक मंच के संस्थापक है । इनके कवि गुरु श्री कृष्णदास तूफान पानीपती है। जो राज्य कवि हुए करते थे । कलमदंश पत्रिका का सम्पादन व प्रकाशन छ़ वर्ष तक किया है । दैनिक भास्कर के हरियाणा संस्करण में सन् 2000 व दैनिक जागरण में सन् 2007 में दैनिक काव्य स्तम्भ लिखते रहे हैं । गढगंगा शिखर सम्मान - 2001 , कलमवीर सम्मान - 2002 , युगीन सम्मान - 2006 , उदयभानु हंस कविता सम्मान - 2007 , पानीपत रत्न सम्मान - 2007  आदि प्राप्त हो चुके हैं ।
      इन की रचनाएं सब टीवी , इंडिया न्यूज , जीटीवी , ई टीवी , एम एच वन , इरा चैनल , ईटीसी , जैन टीवी , साधना चैनल आदि पर प्रसारित हो चुकी है । 
     इनकी 06 मौलिक व 12 संपादित पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं । जिन का देहावसान 18 मई 2021 को हुआ । 
सम्मान के साथ रचना : -
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साँप
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जंगल 
में एक दिन 
एक सपेरे
ने जब
साँप को
पकडा
फन को कसकर
जकडा
साँप बोला
मैने तुम्हारा क्या
बिगाड़ा है
मैने तो अपनी
विष ग्रन्थि
को ही तोड
दिया है 
जहर उगलना
बहुत पहले 
ही छोड दिया है
सपेरा मुस्कुराया
उसने सिर को
खुजाया 
साँप ने कहा
अब पहला वक्त नही है
मुझे अब डसने
की जरूरत नही है
साँप बोला 
तू मुझ पर हँस रहा है
आजकल मै नही
आदमी ही आदमी 
को डस रहा है
आदमी ही आदमी 
को डस रहा है

- डॉ. प्रमोद शर्मा प्रेम
 नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
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मैचिंग
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बड़ी दुविधा में फँसी हूँ ।
चिंता में डूबी हूँ ।
हल कैसे मैं पाऊँ ।
रात दिन सोच रही हूँ ।

मिला है कार्ड आने का
भाई की शादी का
शादी में सौ के लिस्ट में ,
प्रथम देख घबराने का।

पति गुर्रा रहे हैं ।
ख़बरदार कर रहे हैं ।
मरने नहीं जाना है।
आशीष साले को ,
पे टी एम करवाना है।

मन ही मन
समय आने की बाट
जोह रही हूँ ।
कौन सी साड़ी पहनूँगी,
उलझन में फँसी हूँ ।

मिल गया ,मिल गया
मैचिंग मास्क मिल गया
खुशी से चिल्ला रही हूँ 
बग़ल में पति झकझोर कर
जगा रहे हैं |

लगता है नहीं मानेगी
कोरोना फैला कर ही दम लेगी
एक तेरा ही तो है आसरा
इस उम्र में क्या साथ छोड़ेगी?

- सविता गुप्ता 
राँची -  झारखंड 
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इश्क की बिजलियाँ हैं लडकियाँ
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बेमिसाल हुस्न की मलिका होती हैं कमसिन लड़कियाँ 
अपनी अलबेली अदाओं पर इतराती हैं लड़कियाँ 

खुदा का कमाल ! कैसी नाजुक होती इनकी उँगलियाँ 
लगती हैं  ऐसी  जैसी हों ताज़ी - ताज़ी  भिंडियां 

छिड़के   इत्र तो खुशबू के बोझ से दब जाती लड़कियाँ 
खेल के मैदान में लगे जैसे गाढ़ी हों बल्लियाँ 

जब बतियाती हैं तो  लगे  हैं बेच रही हैं  कचरियाँ 
जब चले  है तो गिराती नयनों  से इश्क की बिजलियाँ 

दिल की शमां जब बुझती   " मंजु " तब बहाती नाक  लड़कियाँ 
छेड़ के देखों इन्हें  पानी में आग लगाती लड़कियाँ. 

- डॉ मंजु गुप्ता 
 मुम्बई - महाराष्ट्र
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             घर से दूर नौकरीपेशा की दास्तां
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एक दिन
मेरा पेट मुझसे यूँ बोला-
जब से घर से आए हो यहाँ करने नौकरी,
तुमने न दी मुझको रोटी खरी।
दी तो बासी, मिर्च, मसाले भरी।
वह बोला-
देखो, अगर यूं ही करते रहे अठखेलियाँ,
तो मैं हो जाऊँगा खराब ।
तब तुम मुझको क्या दोगे जवाब ?
पेट की बात सुनकर-
मैं लगा सोचने,
क्या करूँ? कहाँ जाऊँ? क्या सबब बनाऊँ?
न था कोई साधन मेरे पास ।
कितने होटल, रेस्तरां, ढाबे मैंने बदले।
पर पेट वहीं का वहीं वह न बदले।
आख़िर वह रूठ गया और हो गया ख़राब ।
तब मेरे पास भी कहाँ था जवाब?
शनिवार को जब मैं अपने घर वापिस आता,
घर के खाने से पेट को राहत दिलाता।
सोमवार को सुबह का नाश्ता करके.
दोपहर का खाना साथ लेकर जाता।
रात के खाने पर बात फिर अड़ आई,
पेट ने फिर मुझसे की लड़ाई।
कुछ दिन हुए, मेरा एक रूम मेट है आया,
घर से सिलेंडर, चूल्हा लेकर आया।
अब वो बनाता है रोटियाँ,
और मैं बनाता हूँ सब्ज़ी।
रोटियों के बनते हैं नक्शे और कार्टून,
जिसे देख मेरा खोलने लगता है खून।
मेरी बनाई सब्ज़ी देख चढ़ जाता है उसका पारा,
पर बिना खाए होता भी नहीं है गुज़ारा।
किन्तु अब धीरे-धीरे लगा है आने खाना बनाना
हो आप में से गर किसी को खाना
तो बेझिझक चले आना
अब मुश्किल नहीं लगता है
खाना बनाने का यह सब्जैक्ट,
क्योंकि कुछ ही दिनों में
हम हो जाएंगे परफैक्ट।

- डॉ. सुनील बहल
नवांशहर - पंजाब
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मंगता  
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बात बिटिया की शादी की
      चल रही थी-----
   वर मंडली बैठक में बैठी दहेज की
             लंबी चौड़ी माँगें गिना रही थी
इतने में बाहर से एक हाँक आई
         एक भूखी सी क्षीण आवाज आई
एक पैसे का---
           एक रोटी का सवाल है माई।। 
हम झटपट बाहर गये
     हाँक लगाने वाले को---
             डाँटा झिड़का और भगा दिया।। 
देखकर हमारा----
            जेटयुगीन बेटा
बोले बिना नहीं रहा
    कि मम्मी एक रोटी माँगने वाले को
भगा दिया है
       - - - - - और इतना माँगने वालों को
 बैठा रखा है।।।
             जाहिर है कि
मोटी चमड़े वाले मंगतों पर
        कोई प्रभाव नहीं था
मंगता तो खैर जा चुका था।। 
दहेज के नाम पर बैठक में
टपकती लार
           लपलपाती जिव्हा
        देखकर हमें गली के किनारे बैठा
प्राणी याद आ गया था।।
        लगा सही कह रहा है बेटा
कि एक रोटी माँगने वाले को भगा दिया है
             और इतना माँगने वालों को
                     बैठा रखा है।। 

- हेमलता मिश्र" मानवी" 
नागपुर - महाराष्ट्र
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पत्नी - महिमा
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कोरोना के काल में,पत्नी है सरताज।
पति बनके नौकर करे,सारे गृह के काज।।

पत्नी तो है सिंहनी,पति गीदड़ का रूप।
पत्नी जी ने ली हड़प,पति-हिस्से की धूप।।

पत्नी है सबला यहाँ,बिलख रहे सब मर्द।
बढ़ती ही तो जा रही,पति-पीड़ा की फर्द।।

बेलन-चकला बन गए,अब घातक हथियार।
बेचारे पति सब रहे,चुपके-चुपके मार।।

तनी रहे पत्नी सदा,चंडी-सी हुंकार।
पौरुष सारा खो गया,पति बेबस,लाचार।।

पत्नी असली मालकिन,देती है फटकार।
पति नाचे इक पैर पर,तो भी तो दुत्कार।।

पत्नी की महिमा बहुत,पत्नी की जयकार।
पत्नी की ही चल रही,यहाँ आज सरकार ।।

पत्नी है बेहद सबल,पति सचमुच में दीन।
नाचे वह,जब-जब बजे,पत्नी जी की बीन।।

वरण स्वामिनी का करे,जब नर करे विवाह।
वाह-वाह की ले जगह,दर्द-व्यथामय आह।।

यह कलियुग अब पति छुएँ,पत्नी के नित पैर।
यही कुशलता-राह है,और इसी में ख़ैर।।

                  - प्रो(डॉ)शरद नारायण खरे
                            मंडला - मध्यप्रदेश
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मानव किसे कहें?
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क्या हो गया है मानव को वह बन बैठा भिखारी।
एक दिन मानव अमीर के घर की घास खा रहा था।
उनके घर की घास खाते खाते वह सोच रहा था दिल में दिया जला रहा था?
मालकिन के दिल में दिया क्या
जला रहा था, क्या सचमुच
जगी,
बोली क्या कर रहे हो भैया,
मानव बोला भूखा लगी मैंया,
मालकिन ले गई घर के अंदर,
चमचमाता डाइनिंग रूम,
झिलमिलाती लांबी।
ओशो आराम  के सारे ठाट नवाबी और किचन से आई जब महक बड़ी तेज, तो भूख बजाने लगी पेट में नगाड़े ,
तो भूख बजाने लगी पेट में नगाड़े लेकिन मालकिन ले गई,
घर के पिछवाड़े,बोली नम हैं,
मुलायम है, कच्ची है,यह घर बाहर की घास से अच्छी !

- उमा मिश्रा " प्रीति"
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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संभलकर बोला करो
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वो बोलते बोलते बोल गए,
फिर अपने ही शब्दों के जाल में,
वो खुद फंसकर रह गए,
पहले भेष बदलकर,
दुनिया को रंग दिखा गए,
जो पकड़ने भागे पीछे,
वो भी चक्कर खा गए,
वो चीजें तमाम बना गए,
लोगों को अपनी तरफ रिझा गए,
खाकर उनका अब मानो,
सब उन्हीं पर चढ़ गए,
इस बार तो वो भी,
सभी एक साथ लपेट गए,
माना वो दमदार हैं,
खुद में काफी नामदार हैं,
पर यह क्या हुआ ,
जरा देखो तो सही,
अपने सिर पर इनाम रखवा गए,
वो इस बार न जाने,
कैसे जुबान को अपनी,
मक्खन सी पिघला गए,
बस मुँह में जो आया,
लंबी ज़ुबान कर मंच से,
धका धक बोल ही गए,
अब विचार तो उनको भी आता होगा,
कुछ बोलो ठीक है,
पर जरा सोच समझकर बोला कीजिए।

- नरेश सिंह नयाल
देहरादून -  उत्तराखंड
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एक गलती
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भाई साहब लोग कहतें हैं
एक गलती से क्या होता
जरा उनसे पूछों 
जो पहली बार लड़की 
देखने गये थे
अौर आज तक
सर खुजा रहे हैं
जरा उनसे पूछो
जो एक बार
रेड बत्ती पर 
ट्रेफिक पार कर
अस्पताल गये थे 
अब अस्पताल का अर्थ 
भी बता देता हूँ
पाताल का अर्थ 
आप लोग जानते हैं
जमीन के नीचे 
अौर अस्त का मतलब 
डूब जाना 
जब हम पाताल में
डूब ही जाते हैं तो फिर 
बचा ही क्या है
किस्मत वाले तैरकर 
या लहरों से टकराकर
किनारे लग जाते हैं
इसलिए यही कहूँगा
जान है तो जहान है

- डॉ .विनोद नायक 
नागपुर - महाराष्ट्र
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डाक्टर साहब
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आप सहोदर भातृ हो , मृत्यु देव के नाथ ।
दोनों ही तुम हरत हो , धन प्राणों के साथ ।।...................१

यदि आरक्षण से बने , चतुर चिकित्सक आप ।
केवल आरक्षित वर्ग के , करो चिकित्सा नाप ।।................२

दांत दर्द किसी और में , तोड़ देत कोई और ।
परदेश प्रतिभा गयी , ए आरक्षण का दौर ।।......................३

पड़ा कब्र में पूछता , सुनो चिकित्सक भाई ।
कौन रोग था देह में , दी थी कौन दवाई ।।........................४

दवा कान की आंख में , आंख कि दीन्ही कान ।
कहो रोग कैसे मिटे , नहि कोई पहिचान ।।......................५

- राजेश तिवारी 'मक्खन'
झांसी - उत्तर प्रदेश
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 चौपट कर दी 
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चौपट कर दी अबकी होली,
 इस कोरोना ने भइया ।

 सैनिटाइजर की बोतल ही है,
अब  पिचकारी रे दइया ।

पूरा चेहरा मास्क छिपा है ,
भौजी ,साली ,मइया ।

अब कैसे मैं रंग लगाऊँ ,
 समझ ना  आवे   भइया ।

बंद नगाड़े ढोल तमाशे ,
ना है  छइयां  छइयां 

 भांग और  ठंडाई भूलो ,
काढ़ा पियो रे दइया ।

चौपट कर दी अबकी होली ,
इस कोरोना ने भइया ।

लॉक डाउन से डरे हुए कुछ,
कुछ कोरोना से दइया ।

दफा चवालीस लगी हुई है,
कैसे  हो ता थइया  ।

चौपट कर दी अबकी होली ,
इस कोरोना ने भइया ।

- सुषमा दीक्षित शुक्ला
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
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टोक्टोकाई 
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मैं हूं टोक्टोकाई कमाल
टोक टोक के मचा दूं धमाल
मेरे सामने जो भी आए
शामत अपनी वो ले आए

कभी किसी की ना तारीफ़ करूं
जीते जी सबको मारूं
काम ना मुझको किसी का भाए
दो चार सुना के मज़ा आ जाए

मकसद है जीवन का मेरे
टोकूँ सबको रखूं घेरे
जब तक आखिरी सांस है भाई
करेंगे टुक टुक टुक टुक
टोक्टोकाई टोक्टोकाई

- मोनिका सिंह 
डलहौजी - हिमाचल प्रदेश
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बातें करें हजार
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रंग लपेटे अटपटे, घूमें वाटर पार्क ।
मछलीघर देखा जहाँ, मिली वहाँ पर शार्क ।।

ठक्कन बनकर फिर रहे, ठक्कन जैसे लोग ।
इधर उधर फिरते मिलें, फैलाकर के रोग ।।

खाकर पीकर पड़ रहे, करें खूब आराम ।
जब मन हो तब भज लिया, सबके दाता राम ।।

आलस की गठरी बना, किया पोस्ट  सुविचार ।
करते धरते कुछ नहीं, बातें करें हजार ।।

नैतिकता की खोल में, मास्क चढ़ा कर कान ।
बनें संत से दिख रहे, अनजाने अंजान ।।

- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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आलस्य का आशियाना 
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देर तक सोने को 
मन मेरा तरसता था 
घर का खाना 
लोगों को खाते देख 
मन जार-जार बरसता था,
अपने भाग्य में तो 
जोमैटो आया ही था 
पत्नी को सास-ससुर ने 
मायके जो बुलाया था,
अपनी तो जैसे 
कोई लॉटरी निकल गई थी 
पत्नी मायके के लिए 
चहकती हुई चली गयी थी,
फिर लॉक डाउन का 
फरमान आ गया 
घर से ही काम करने का 
स्वर्णिम समय आ गया,
मनभर सोता था 
मनचाहा बना कर 
तृप्त होकर खाता था,
पत्नी का बैन 
जिन चीजों पर लगा था 
उन्हें तोड़ कर 
करने-खाने का एक 
अलग ही मजा था,
बिल्ली के भागों 
छींका जो टूटा था 
उसका भी तो आनंद 
जी भर लूटा था,
इन सब ने मिलकर 
अपना रंग दिखाया 
बरसों की मेहनत पर 
पानी फिरता नजर आया 
जब अंदर गया पेट 
बाहर निकल आया,
पत्नी का वीडियो कॉल 
डरते हुए उठाया 
फूटा एटम बम
अरे! ये क्या गुल खिलाया 
सिर्फ इक्कीस दिन में 
ये पेट निकल आया?
कुछ उपाय करके 
पुलिस की गाड़ी में 
घर आ रही हूँ,
संभल कर रहना 
डॉक्टर से पूछ कर 
डाइट/व्यायाम का 
चार्ट लेकर आ रही हूँ,
आलस्य का आशियाना 
आज टूटने को है 
कोई लुटेरा आकर 
आज लूटने को है

- डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
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आदमी  जैसा भगवान 
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एक आधुनिक भक्त 
जब थका टूटा सा। 
पहुंचा भगवान के द्वार 
मंदिर में देखा बंद है भगवान। ।

निरंतर आंसुओं का प्रवाह लिये 
हृदय में भक्ति भाव लिये। 
स्वर में विवशता मन में चाहत 
सब पाने की लालसा में 
आवाज़ देने लगा चौखट 
में सिर फोड़ने लगा। ।

भगवान ने देखा परखा 
मुस्कुराये और बोले क्यों 
आया है मूर्ख यहाँ। 
जाता क्यों नहीं धरती के 
भगवान रहते हैं जहाँ। ।

भक्त लगा कहने प्रभू दया करो 
जब धरती के भगवान 
ना कर सके निदान 
तो शरण आया श्री मान  ।

करो मेरी सहायता नहीं तो 
मैं बन जाऊंगा। 
नेता व्यापारी या अधिकारी 
लोग मेरी जयकार करेंगे और
तुम जैसों को बंद रखेंगे। ।

कोई नाम ना लेने वाला रहेगा 
पूजने की छोड़ो पानी को
भी ना कोई पूछेगा। 

हो जायेगी सूनी धरती 
ऊपर के भगवान से। 
चहुंओर दूराचार फैलेगा
नीचे के हैवान से। 

लगे सोचने भगवान कब तक 
बर्दाश्त करूंगा,कभी तो मुझे 
बंद दरवाजा खोलना होगा
अपनी पहचान को तो 
कायम रखना ही होगा। 

कहा जा आधुनिक भक्त 
सावधान कर पहचान बदलेंगी 
धरती के भगवान की। 
अब होंगे भगवान दुर्लभ लोग
सत्ता परिवर्तन होगा और 
जय होगी आदमी 
जैसे भगवान की। ।
  
- डाॅ. मधुकर राव लारोकर 
बेंगलोर - कर्नाटक
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भारी पड़ा लाॅकडाउन
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लाॅकडाउन के इस काल में
फंस गये जैसे हम जाल में
पड़े रहते थे बेकार जैसे हम
सोचा पायेंगे बीवी का प्यार हम
कुछ दिन तो बीते आराम से 
एक दिन बीवी बोली प्यार से
खाली बैठे बैठे अच्छे न लगते हो
मन्दिर में मूरत समान सजते हो
कुछ हमसे प्यार दिखाओ स्वामी
काम में कुछ हाथ बंटाओ स्वामी
प्यार सुनकर जो मन खिला था
काम सुनकर वही मन रो उठा था
फिर भी बात टाल नहीं सके बीवी की
मदद करने लगे कामों में बीवी की
सब कुछ सहयोग से चल रहा था
लाॅकडाउन धीरे-धीरे बढ़ रहा था
बीवी संग काम करना अच्छा था
मन-वचन-कर्म से मैं सच्चा था
मेरी शराफत एक दिन रंग लायी
कुछ दिन बाद बीवी पूरे रंग में आयी
शुरू में सहयोग सहयोग खेला था
अब तो भैय्या एकतरफा मेला था
अब बीवी बैठकर मजे लेती है 
अक्सर झिड़कियाँ दिया करती है 
लाॅकडाउन तो खत्म हो गया
पर मैं बंधुआ मजदूर हो गया
पहले दफ्तर फिर घर के काम
अब यही दिनचर्या है सुबह-शाम

- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखंड
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 पुना हमको जिताना है 
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पांच साल तक खाई मलाई 
वोटर अब फिर तेरी याद आई ।

तू कर कृपा फिर वोटर भाई 
पुना करुँ मैं क्षेत्र की रह्नुमाई ।

पिछ्ले काल बडा माल बनाया 
नानू मासू सब नौकरी फसाया ।

दारु मुर्गा बी चाचा खूब उडाया 
हर सरकारीयोजना मेंशेयर खाया ।

बहुत समय से तेरा ख्याल भुलाया 
क्या करें इस तंत्र ने था गुदगुदाया ।

अरबों रुपया स्विस में पहुंचाया 
काफी धन कम्पनी में लगाया ।

अब बन्दा तुम्हारा ख्याल रखेगा 
गर नया चुना वो ऊन नहीं रखेगा ।

भ्रष्टाचार की नर्सरी हम सिंच रहे 
वोट वास्ते जाति दीवारें खींच रहे ।

यदि देश को फिर गुलाम बनाना है 
भाई हमको फिर से जिताना है ।।

  - सुरेन्द्र मिन्हास   
  बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश
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कुछ मुस्कुराना चाहिए
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मुख से हटाओ मास्क,सूरत दिखाओ भोली।
इतनी सी बात सुनकर मैडम यूं हमसे बोली।
न देख पाओगे तुम, मूंछों में हमको जानम,
सब बंद ब्यूटी पार्लर,बीती है जबसे होली।।

इस लाक डाउन का यह,जब से चला है चक्कर,
दिन रात ले रहे हैं,मैडम से,साहब टक्कर।
सब काम करते घर में,पड़ती है फिर भी झिड़की,
बस नाम के ही मालिक,नौकर से भी है बदतर।।

कर में रिमोट लेकर,बैठी है जान-ए-जाना
हाय री कैसी किस्मत,हम तो पकाएं खाना।
वह बैठी बैठी खाती और देखती है टी. वी.,
जब मांजते हम बर्तन,वह गुनगुनाएं गाना।।

मैडम से बोले साहब,देवी रिमोटधारी ।
बोलो तो लंच की अब क्या क्या करुं तैयारी।
भारी था सुबह, छोले-भटूरे का नाश्ता,
अब आप पका लेना,आलू मटर तहारी।।

अंतर बताओ हमको,संज्ञा और नाउन में तुम।
क्या फर्क होता बोलो,ताज और क्राउन में तुम।
कुछ प्रश्न ऐसे पूछें, बच्चें यूं आजकल के
अंतर बताओ पापा,मम्मी और ताऊन* में तुम।।

 - डॉ. अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
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कवि इश्क़चंद
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हमारे एक मित्र थे
बड़े ही विचित्र थे
इश्क़ में रहते थे मशरूफ इस कदर
कि नित नई हसीनाओं के साथ आते थे नजर।
मित्र जलन से पूछते थे -
कवि जी ये इश्क़ कब तक?
उनका उत्तर होता 
सेंचूनरी बन जाये तब तक।
फिर जोर से लगाते थे नारा
और गर्म हो जाता था माहौल सारा
उनका नारा होता था प्यारा
"जीवेंम शरद शत्म"
कभी ना हो दौरे-इश्क खत्म"  i
सचमुच वो इशक की सेंचूनरी
बनाना चाहते थे और इश्क़ का 
बादशाह का कहलाना  चाहते थे।
मगर अफसोस  उनके साथ एक हादसा जो हुआ
तो देखिए इश्क़ के बादशाह का क्या हुआ।
होली का रंग छुड़ाते हुए जब
कवि ने करीब से आईना देखा
तो पता चला कि कर चुके हैं पार
वो अपनी जवानी की रेखा।
कनपटियों पर खासी चांदी जड़ आई है
नैन-गर्तों तले गहरी कालिमा भी छाई है।
करीब से देखी जब अपने चेहरे की बनावट
तो धँसे गाल देख कर होने लगी घबराहट।
"जीवेम शरद-शत्म" अब हो गई खत्म, ख्याल आया
चौखटे पर लटका है जब पीरी का साया।
तभी बाहर से परिचित सा इक मधुर स्वर आया
और देखते ही देखते कवि के चेहरे पर नूर लौट आया।
एक़ ही साँस में दौड़ते हुये जब उन्होंने द्वार खोला कमसिन मनमोहक मुस्कान से कवि मन डोला।
अभी द्वारपाल बन कर ही
हो रही थी जवां सुख की अनुभूति
तभी  "अजी सुनते हो" की
बज गई तीव्र कटु तूती।
देख निज गृहस्थी में विकट रोड़ा
कवि-पत्नी ने व्यंग्य तीर छोड़ा --
"इस अधेड़ की तो देखो कैसी है विचित्र बेवसी
समझते हैं फस ही गई है जब भी कोई सुंदरी हसी!!"
"अजी आपकी ढलती उम्र का कैसा  अजीब तक़ाज़ा
शरीर हो गया फ़कीर पर मन अभी भी है राजा!!"
अपनी बेवशी के ज़ख़्मों पर
कटु-पत्नी लेप से कवि तिलमिलाए
और उनके श्रीमुख से कुछ छंद यूं निकल आए---
"अरी, तुम क्या जानो मोल जवां मुस्कान का
मुहब्बत की दुहाई है
तुमने तो हमेसा बसंत में भी
पतझड़ ही मनाई है!!
कब जीने दिया इस दुनिया ने हीर-रांझा, लैला-मजनू को
क्या जलने देगी यह तब मुहब्बत के इस  छोटे से जुगनू को!
नहीं लौटा पाएगी ये दुनिया
कवि के खाबड़ चेहरे पर रौनक को
उसके शरीर की फकीरी को भुला
जगाकर मन की हकूमत को!
तब जाने दो इस कमबख्त दुनिया को उसकी अपनी राह में
और जी लेने दो हमें कुछ लम्हें मुहब्बत की चाह मे।

 - डॉ. अनेक  राम सांख्यान
   बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश
=================================
लाइक और कमेंट 
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हाय रे डिजिटल जमाना
 दिया अच्छा तुने खिलौना
प्यार की पींगे ले लेकर
देते हैं धोखा लाइक 
  कोमेंट  दे देकर !

मैरिज एनिवर्सरी बर्थडे की 
फोटोडाले हैं भर भर के 
 बधाई शुभकामनाओं संग
 नाइस सुपर ब्यूटीफुल कमेंट लाइक देख धन्यवाद और आभार देने को 
खुश हो होकर अंगुलियां दबाते 
   चाहे दर्द हो जमकर !

कहते थे जिसको ठेंगा हम
आज लाइक  कहलाता है
    अंगूठा न दिखे तो
    मायूस  हो जाता है !

  जितनी लाइक उतनी ख्याति
     होती अंगूठे की गिनती
     अंगूठा न हुआ गोया
   सबकी किस्मत बन गया! 

  आभासी दुनिया में रहकर
व्हाटसेप, फेसबुक में घुसकर 
अमूल्य समय देती हूं इनको
कहती हूं सबसे समय नहीं है !

अपने-अपने पटल चलाते 
कवियों की संख्या बढ़ाते 
संपादक बन संकलन निकालते
 व्यापार अपना खूब चलाते !

 किताबों में छप कर खुश होते 
 रुपये दे सम्मानित होते
 फिर भी लाइक कमेंट की खातिर
   झोली अपनी फैलाए रहते !
(सोशल मीडिया )

पटल पर हर कवि,कवियित्री
अपनी प्रतिक्रिया चाहता
 अंगुलियां करती सब तमाशा
    लाइक कमेंट  बना
    प्रतिक्रिया की भाषा !

  दादा दादी के वर्ष घाट का
     जब खाता खुलता
  लकड़ी का सहारा बन 
  एक दूजे के साथ चलते 
      लाइक कमेंट के
 आंकड़ों की भरमार होती
      मानो या ना मानो
     सच्चा सुख मिलता 
      (सोशल मीडिया में) 
नव पीढ़ी को अंगूठा दिखाता !

         -  चंद्रिका व्यास
        मुंबई - महाराष्ट्र
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 कंजूसी पर कुठाराघात
 ******************
 
 सेठ बाबूलाल थे बहुत ही कंजूस,
काम ऐसे करते जैसे कोई जासूस। 
ताक झांक कर देखते चारो ओर,
पैसे बचाने की फ़िराक में खडूस।

बाबूलाल पहुंचे  सत्नारायण कथा में,
चहूंओर नजर घुमा डाले हाथ पॉकेट में।
आरती की थाल जब आई उनके सामने,
धीरे से डाले फटा दस का नोट थाल में।

प्रसन्न हुए जैसे मिल गयी असीम शांति,
तभी पीछे से पीठ पे थाप दी एक आंटी।
मुड़े जब वो तब थमाया 2000 का नोट,
नोट लेकर सेठ ने उसे आरती में डाल दी।

सेठ को थोड़ी खुद पर शर्मिंदगी भी हुयी,
फटी हुई दस का नोट विचारों में घुम गई।
बाहर आकर आंटी से जब बातचीत हुई,
दो हजार की असलियत पता चल गई।

बताया महिला ने गिरे थे पॉकेट से नोट,
नजर पड़ते उठा पकड़ाई आपको नोट।
सच्चाई सुन कर बाबूलाल हो गये शॉक, 
काम न आई चालाकी पहुंचा दिल पे चोट।

अंतर्यामी प्रभु का करिश्मा किया महसूस,
छुपाके डाला था फटा नोट मैं मक्खीचूस।
भगवान पे विश्वास कर हुए कंजूसी से दूर।
खुले दिल से दान करूं,प्रभु रखो महफूज।

                        
                        - सुनीता रानी राठौर
                      ग्रेटर नोएडा - उत्तरप्रदेश
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शादी
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उम्र चाहे जो भी हो
श से बने शब्दों का लुत्फ 
  आनंद हंसी चेहरे पर आ ही जाती

श से होती है शादी
शाला, शाली इसी वर्ण
के हैं अधिकारी
स से बनती है सास ससुर सरहज
जो करती रहती है सीमा की रखवाली

शाली जो कहलाती आधी घरवाली
दोनों के हाथों में थी चाय की प्याली
अचानक सरहज की पड़ी नजर
दिल के कोने में होने लगी जलन
फिर क्या था एक मौका मुझे फिर मिला
गरम चाय के साथ ठंडे कॉफी का
गर्म ठंडे का दौर चल ही रहा था
बीच में आ पड़ा सड़क का एक नाला
जो कहलाता है मेरा साला
सारा मजा हो गया किरकिरा
गरम ठंडा दोनों मिलकर हो गया कड़वा

- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
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कुम्भकर्ण 
********

काश मै कुम्भकर्ण होती ।
परछाई पकड़ने की कोशिश में अपने मन सपनो में जीवंत होती ।
काव्य की अविरल धारा होती 
काश मै कुम्भकर्ण होती 

अपने मन की रानी होती 
घर बार कर्तव्यों को छोड़ 
सपनो की दुनिया में खोई होती ।
ख़्वाबों मेरे चार पहर की कहानी होती ।
सुबह उठना , कर्ण भेदी आवाज कानो को ना सुननी होती । 
चाय नाश्ते से वंचित होती ।
दूसरे पहर नोक झोंक वंचित होती ।
शतरंज का मोहरा प्यादा ना होती ।
शासन मेरा ही चलता ।
घर बाहर की वज़ीर होती ।
हुकूमत चलाना मर्ज़ी होती 

तीसरे पहर की प्रतीक्षा ना होती 
कालबेल सेलफ़ोन की बेल ना होती 
सबके वाट लगा कर रखती 
हरियाली ठंडी हवायें बागों की रानी होती ।
चौथे पहर खानपान साज सृंगार का का मधुर तराना होती ।
अपने ख़्वाबों दुनिया की चाबी होती ।
समय कुम्भकर्ण के आग़ोश में होती ।
काश मैं कुम्भ करन होती 
अपने सपनो की दुनिया में खोई होती ।
 किचन की महती दुनिया की महारानी होती ।
साज श्रिंग़ार बनाव रमी शहज़ादी होती ।
सबके छक्के छुड़ा हिटलर एलिज़ाबेथ महारानी होती ।अपने सपनो की रानी होती 
काश मै कुम्भकर्ण होती ।

- अनिता शरद झा 
मुंबई - महाराष्ट्र
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 जीवन धारा 
 *********

जीवन धारा,
सतत चल पड़ी,
घैसियत कोरोना में.....?
एक दिन,
नाती ने दादा से पूछा,
दादा कोरोना में कोई,
कोई-रोना नहीं होता, 
एक गाड़ी आती हैं, 
जिसमें-
तीन नीले-नीले पहनते हैं,
सोयें हुए को,
उठाकर ले जातें,
मोहल्ले वाले,
अपने-अपने घरों से तमासा देखते,
क्या इसे सीधे ऊपर लेकर जाते हैं,
दादा ने कहा नहीं?
नाती ने फिर पूछा-
दादा, जब दादी सोयी हुई थी, 
तब तो बैंड-बाजा आया था,
आपने तो खूब घस-घस कर नहलाया था,
फिर खूब सिंगार-माला-बहूमूल्य साड़ी-शाल,
पहनाकर बिदाई करते हुए,
दहाड़ मार-मार कर रोये थे,
और तो और इतनी सारी भिड़ थी,
वाह तो अग्नि से संस्कार हुआ था,
मौन धारण कर श्रद्धांजलि दी गई थी,
जैसे कि फिर वापस नहीं आयें?
क्या दादा, 
उसे गाड़ी में लेकर गये हैं, 
उसे फिर वापस लायेगें.....?

-आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार "वीर" 
   बालाघाट - मध्यप्रदेश
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इनबॉक्स वाला इश्क़ 
****************

आज जैसे ही फेसबुक खोला
एक नोटिफिकेशन बोला
मित्रता का निमंत्रण सामने से आया था
देखकर खाली डी.पी थोड़ा सर चकराया था। 

नाम देखा, सुकन्या थी, झट निमंत्रण स्वीकार किया
दिल गदगद हो गया था, और न कोई समाचार लिया
इधर निमंत्रण स्वीकार किया, इनबॉक्स में आगाज़ हुआ
हैलो, हाय से लव यू तक का, सफर मात्र दिन पाँच हुआ। 

दिन छठा था, मिलने का अब दिन निश्चित एक करना था
तभी अचानक ही इनबॉक्स में, टूटा अश्रु झरना था
पूछा मुसीबत क्या हुई, ना-ना कर कई इंकार हुए
फिर संबल की बारिश में, प्रकट उसके उद्गार हुए। 

गिरे पिताजी बाथरूम में, ऑपरेशन भी होना है
जरूरत पूरे दो लाख की, बस इसका ही रोना है
ना सोचा ना समझा बस खाता संख्या पूछा था
तुरंत ट्रान्सफर राशि की, आखिर दिल का सौदा था। 

खाते से राशि कटने का ज्यों ही संदेशा आया था
फेसबुक ने ब्लॉक का नोटिफिकेशन दिखलाया था
वैलेंटाईन का वो दिन मेरा, मातम में तब्दील हुआ 
ऑनलाइन का इश्क़ ये मेरा, यारों यूँ जलील हुआ। 

- अजय कुमार गोयल 
गंगापुर सिटी - राजस्थान
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मर जाएगी 
*********

अब तो 
उम्र हो गई है 
पेट में आंत नहीं 
मुंह मे दांत नहीं ....
कमर 
धनुष हो गई.....
टाट
मोडी हो गई.....
मौत 
सिर पर खड़ी 
ले जाने की 
जल्दी कर रही है
परन्तु मैं एक 
बड़ा नामी-गिरामी
लेखक हूं 
पुरस्कार और सम्मान 
की घोषणा 
हो चुकी है 
ये लिए बगैर 
कहीं नहीं जाऊँगा
मौत भी
मेरा सम्मान 
होता हुआ देखकर
ईर्ष्या से 
मर जाएगी.......
           - बसन्ती पंवार 
        जोधपुर - राजस्थान 
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पड़ोसन
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एक दिन मामला ऐसा विगड़ा
कि पड़ोसी  पड़ोसन का हो गया   आपसी झगड़ा। 
मेरे से सहा न गया
पड़ोसन से रहा न गया
उसने मुझको किया इशारा
मैंने भी गुस्से से उसके पति को दे ललकारा। 
देखकर मुझको पडोसी  जोर जोर से चिल्लाया, 
स्वभाव से नर्म हूं, इसका मतलब यह नहीं आपकी तरह बेशर्म हूं, 
इसको देखकर कांप जाता हूं, 
बोलते बोलते  हांफ जाता हूं, 
इसलिए कम बोलता हूं
मजबूर होने पर ही कुफर तोलता हूं, 
मैंने कह दिया कैसा  फिर यह झगड़ा, 
अपनी वीवी को बालों से क्यों पकड़ा, 
मुझसे सहा नहीं जाता नित रोज का यह झगड़ा, 
पडोसी घूर के बोला, 
शादी के हो गए दस साल
अक्ल न आई सफेद हो गए
सर के सारे बाल, 
आपकी बीवी तो अभी बच्ची है, 
मगर तुम से अच्छी है, 
उसका चेहरा चांद सा चमके
इसको देख मन नहीं धमके, 
   रखती नहीं चीजें संभाल
इसकी निराली है हर बात, 
रूमाल की जगह डाल दिया था इसने मौजा, 
पता चला जब पैंट में  मैंने खौजा, 
 एक दिन अटैची  खोलकर घबरा गया, 
पजामें की जगह  इसने पेटीकोट डाल दिया, 
यही है इसका रोज रोज का धंधा तभी होता नित रोज झगड़ा और पंगा। 
मायके जाये आने का नाम नहीं लेती, 
लेने जाऊं तो किराया भाड़ा नहीं देती, 
साड़ी लेकर  सौ की पांच सौ की बताती, 
हर बात में मुझे उल्लू बनाती, 
    ले जाओ इसे बनालो अपनी घरवाली, 
नहीं करनी पड़ेगी तुझे 
मेरे घर की रखवाली। 
    सुनकर बात पडोसी की 
सुदर्शन बहुत घबराया, 
घर में आते ही  बीवी ने वेलन दे चलाया, 
सर फोड़ दिया कहकर तू है बहुत लफंगा, अपनी संभाली नहीं जाती, लेता है  पड़ोसन से पंगा, 
निकला नहीं उस दिन से 
अपने घर से बाहर, 
पड़ोसन तो बच निकली
मुझे न मिली राहत। 
कहे सुदर्शन छोड़ दो  पड़ोसन को देखना 
झगड़ा हो या पंगा
तरस खाना पड़ोसन  का वर्ना, 
पड़ेगा सबको मंहगा। 

- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
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बिन बुलाए मेहमान
***************

सुबह किसी ने दरवाजे की घंटी बजाई
मन में सोच की दुविधा लिए बोली,"मैं आई"

          दरवाजे पर बिन बुलाये मेहमान पधारे
          दुआ-सलाम कर अटैची पकड़ाये सारे

गेस्ट रूम में ले जाकर अटैची टिकाए   
फटाफट गरमा गर्म चाय के कप पिलाए

           बाई थी चौदह दिन की छुट्टी पर गई 
           मैं खुद ही नाश्ते की तैयारी में जुट गई

नाशता करते सभी ने खूब ठहाके लगाए
मुझे तो बस दोपहर के खाने की चिंता सताए 

             खाने की मेज पर सभी ने लिए चटुकारे 
              मेरा शरीर टूट रहा था थकावट के मारे

जूठे बर्तनों का ढेर देख सिर चकराया 
बिना बुलाये मेहमानों पर गुस्सा आया 

           जैसे तैसे मेहमान निवाजी के तीन दिन गुजारे 
           पति से पूछा,कब जाएँ गे ये मेहमान प्यारे 

मैं क्या बताऊँ, कुछ कह नहीं सकता 
घर आए को "जाओ "कह नहीं सकता 

            मुझे थकावट से खांसी-बुखार हो गया
             डर से मेहमानों का बुरा हाल हो गया 

शाम को ही टैक्सी लेकर विदा हो गए 
"कारोना टैस्ट "कराओ जाते हुए कह गए

               हंसते हुए हम लोट पोट हो गए
               आराम से खांसी बुखार छू मंत्र हो गए 

            बिना बुलाये मेहमान पड़ें सदा भारी
            मंहगाई ने तो पहले से ही मत मारी।

- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब
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आशियाने की आवाज
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कोरोना मे बाई की छुट्टी ने मौका दिया घर व घर की चीजों को पाने का मालकिन से असीम प्यार 
उन्हीं के अनुभवों से साभार

घर की मालकिन जब सारे घर को चमका, सारे काम निपटा, बैठी कुछ पल सुस्ताने
घर का जर्रा जर्रा उस वक्त, जैसे लगा उनसे बतियाने

वे जब अपना चेहरा निहार रही थीं अपने हाथों साफ किये चमक रहे बर्तनों में
तभी अंदर से एक चेहरे ने पूछा
इतने प्यारे कोमल स्पर्श से
पहले कभी नहलाया था हमें

जब नपे-तुले साबुन पानी से निकले, 
रस्सी पर झूल रहे झकाझक कपड़े
उन्हें देख देख मचल रहे थे
तब झाड़ पोंछ के कपड़े भी उन संग
अपनी शक्ल सूरत बदल जाने पर
गर्व से इतराकर लहरा रहे थे

दूर कोने में पड़े, अभी अभी चमके
एक टेबल की आवाज आई
हमें भी घर में अपना समझा
आज क्या बात है भाई? 

तभी दूसरे कोने की मेज जब हटी
तो बोली वहाँ इत्मीनान से सुस्ता रही मकड़ी 
अरे! हम तो बेफिक्री की जिंदगी जी रहे थे
आप हमें हटाने कहाँ से
आ टपकीं! 

कुछ बेचारे शो पीस, जो थे
सबको आकर्षित करने वाले
रोज रोज की पोंछा पांछी की चिकचिक के मारे
आज हो गये, बंद-संदूक के हवाले
अब वे वहाँ से, क्या बोलें बेचारे

और तभी चमचम चमक रहे 
फर्श ने प्यार से कहा
तुम्हारी ही दी हुई चमक में
आ जाओ कुछ पल हमारे
आगोश में

और हम तो कहते हैं कि
इस चमक को पाने में
हुआ होगा कम 
कुछ तो आपका भार
जिम जाने के बचे होंगे
आपके रूपये हजार
पास बैठकर तनिक हमारा 
कभी तो मान लो कुछ आभार

उन्हें अपने आशियाने की 
मानो एक सुदूर आवाज आई -                     
अपनी आजाद जिंदगी के पंखों को
अपने उस घोंसले में समेट
आप क्यों हैं परेशान
जिसे बनाने में लगा दिया जीवन
और संजोये थे कई अरमान
वही चारदीवारी आज 
क्यों बेचैन कर रही है
रह रहकर यही बात
मन को रास नहीं आ रही है

अरे, आज जब अवसर मिला है
तो क्यों नहीं बैठ जाती 
 कुछ पल स्वयं के पास
और कर लेती स्वयं के मन से 
कुछ भावभीनी अंतरंग बात

- श्रीमती सरोज जैन
 खंडवा - मध्यप्रदेश
==============================
चमचागिरी तेरी जय
***************

कागज़ कलम व स्याही ने मिलकर आवाज़ लगाई,
सुनो कवि वर मेरे भाई हास्य औऱ व्यंग्य की बनाकर ढाल, कर दो ऐसा क़माल हास्यरस रूपी चमचों की मचवा दो धमाल,
गाँव, शहर या नगर हो,
बसठराव, पत्रालय या डगर हो।
जिधर भी देखो उधर ही दन-दनाते हैं चमचे,
होंठों पे चाटूकारिता रूपी दवाई का मरहम लगाते हैं चमचे।
अनेक प्रकार के शब्द बाग दिखाते हैं चमचे,
लोगों को अत्याचार व हेरा-फेरी के लिए उकसाते हैं चमचे।
चापलूसी रूपी चमच से ख्याली प्लाव की चटनी चटाते हैं चमचे।
कार्यालयों में झूठे दलालों की भूमिका निभाते हैं चमचे।
ये तो कभी किसी के ना हुए चमचे, ये तो अपनों को भी सबक सिखाते हैं चमचे,
वक्त की कड़वी मार से मारे जाते हैं चमचे।
ओ वर्तमान समय के कर्णधारों,
अपनी बदलती आदतें सुधारो।
मत चमचों की कतार में अपने आप पधारो,
जिसने करवाई चमचागिरी की जय,
कुदरत ने उसकी करवा दी हाय।

- रविन्द्र साथी
 हमीरपुर - हिमाचल प्रदेश
===============================
दुर्लभ 
*****

बॉस बनते ही ,
आदमी की आदमियत जाती रहती है,
दिल और दिमाग सातवें आसमान पर,
संवेदनहीनता गैंडे सी, 
दृष्टि उल्लू की,
कर्ण हो जाते हैं साउंड प्रूफ,
और चमचों को छोड़,
सबके लिए हो जाता है दुर्लभ।

- प्रज्ञा गुप्ता
बाँसवाड़ा - राजस्थान
===========================
 मूंछो का ताव
 **********

  गजब हो गया जब उठने में हो गई  देर 
झांका जब बाहर बदला रूप दिखा 
बीवी देख रही मुझको आँख  तरेर 
घिगगी बँध गई मेरी देख रौद्र रूप 
सोचा अंधे के हाथ लगी कौन सी बटेर 
बीवी बोली बढ गए मेरे भी भाव 
मेरी मूंछों में भी आ गया ताव 
रही ना अब पहले जैसी बाला 
सुन कर मेरे मुँह पर लग गया ताला 
करोगे आज से सफाई घर की तुम 
मैनें रसोई का काम है सम्भाला 
सुन उसकी बात मेरा सिर चकराया 
हे देवी कौन सी बातों में मुझे उलझाया
ये आज तुमने मुझे कैसे उल्लू बनाया
मै भी घाघ फिर प्यार से उसे समझाया 
भागकर मिन्नत कर पार्लर वाली को बुलवाया
तीन घंटे पास बैठ बीवी का काया पलट करवाया 
दो घंटे झूठी तारीफ कर फिर से षोडशी बनाया
पाँच घंटे की मेहनत पर मन ही मन इतराया
खिल गया चेहरा फिर से जो था कुम्हलाया 
बाँध तारीफ के पुल राशन लेने बाजार आया 
वापिस आकर बीवी का नया रूप मैने पाया
साफ सुथरा बिस्तर और  सुन्दर घर को पाया
चहक कर बीवी ने अपने हाथ से खाना खिलाया 
ले रिमोट हाथ में मैनें मनपसंद चैनल लगाया
तिरछी नजर से उसने देखा मेरा हाथ मूँछ पर आया
         - नीलम नारंग 
         हिसार - हरियाणा
==============================
मधुशाला
********

कोरोना ने संकट में हैं
सब के प्राणों को डाला
लॉक डाउन में बंद पड़े हैं
नहीं है मिलती कहीं हाला
युग आया है ऐसा देखो
मंदिर -मस्जिद जा न पाते
स्कूल - कॉलेज बंद पड़े हैं
खुली हुई है मधुशाला

लोग हुए हैं बेबस अब तो
कोरोना ने क्या कर डाला
मजदूर भूखे सड़क पर चलते
घर में भूखी बैठी खाला
 निकला दिवाला अर्थतंत्र का
पाई पाई को तरसे सब हैं
सरकारों के पेट भरें हैं
जन -जन प्यारी मधुशाला

- प्रो डॉ दिवाकर दिनेश गौड़
गोधरा - गुजरात
=============================
भिखारियों का विकास
******************

बाल विकास योजना चला रही है शासन,
या ढकोचला कर रही है।
ट्रेन और मंदिरों के भिखमंगें बच्चों को,
क्यों? अनदेखा कर रही है।
ये भारत के भिखमंगे,
भारत के गौरव बढ़ा रहे हैं,
या नासमझ बन पेट पाल रहे हैं, 
क्या यही इनकी तकदीर है तो, 
बाकी इंसान क्या कर रहे हैं।
रूप की सुंदरता का इंसान,
कि अंदर के गुणों का इंसान।
अगर रूप की इंसान हो तो,
स्वार्थ की पट्टी छोड़ों,
लगाओ छलांग कर दो,
उन खोपला धारी,
भिखमंगों का कल्याण।
अगर अंदर से इंसान हो तो,
भिखमंगों की दर्द को समझो,
वो भी अपने जैसे,
इंसान बन जाएं,
ऐसा कोई उपकार करो।
इंसान इंसान को नहीं,
समझ पा रहा है तो,
देश की विकास को क्या समझेगा, 
दो कौड़ी का धर्मात्मा बन,
भिखारियों को भीख दे,
गर्त में ढकेलेगा।
भीख देना परंपरा का देन कह कर,
अनदेखा कर रहे हैं।
या तो भारत की शान समझकर,
दो टका देकर धर्मात्मा बन कर,
भिखमंगें भिखारियों से,
दुआएं ले रहे हैं।
भला करे! तेरा भगवान,
तो क्या? भिखारी अपना भला नहीं चाहते?
भला चाहेगे क्यों? भिखमंगे, 
एक-एक करके कटोरा जो झलक पड़े,
सब भीख मांगे बैठकर मस्ती करें, 
कोई खोपला बजाए तो,
कोई गाना गाए,
कोई दारू पिए तो,
कोई पाउच खाए,
यही है भिखारियों का विकास, 
मानव की देन से लूट गया संसार।

- उर्मिला सिदार 
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
==========================
हाईटेक भाभी 
***********

अब तो आ जाओ  मेनका , बन कर मेरी भाभी ।
भैया का मन लगता नहीं, पढ़ने में है उदासी ।

टेबल पर लैंप जला , खिंचे क्या -क्या लकीर ,
छुपके मैं देखती , तेरी ही तस्वीर ।

मेरा मन करता है भैया , भाभी लाऊं
हाईटेक ,
नेट - कम्प्यूटर के साथ -साथ , तुझपर पर भी करे रिएक्ट ।

माँ -पिताजी की सेवा करे, घर को बनाये स्वर्ग ।
भैया तुम  उससे उलझो, कर दे बेड़ा गर्क ।

मृगनैनी सी चंचल हो , हिरणी जैसी चाल ।

देखने को जाये सिनेमा, हाथ में डाल हाथ ।

तुम हमे बहुत सताते हो, करवाते सभी काज ।
मुझे मजा जब आएगा ,  वो धमकायेगी दिन-रात।

अपनी सारी ख्वाहिश, देगी तुम पर लाद ।

नहीं तुम पुरा करोगे , जायेगी मायके भाग  ।

इस लग्न में  प्यारे भैया , घोड़ी तुझे चढ़ाऊँ ।
बन -ठन के मैं ननद , प्यारी भाभी लाऊँ ।

सपने देखना बंद करो , कर लो कुछ काम  ।
"सिद्धि" ये  कामना करें पुरे हो अरमान  रे भैया पुरे हो अरमान ।
- अनीता मिश्रा "सिद्धि"
हजारीबाग - बिहार
========================
सिर हो गया गंजा
*************

 कोरोना के काल में, लग गया लाक डाउन,
 कोई बाहर निकल न सकता, सबको रहना इन।
 बच्चे के बढ़ रहे थे बाल, होता था इस पर बवाल।
 एक दिन बात खूब बढ़ गई, मुझको भी तो बात लग गई।
 फिर क्या था ?उठाई कैची हो गई शुरु।
बाई तरफ से काटना शुरू किया,
 और दाहिने पर पहुंच गई।
 दोनों तरफ काट कर ,सामने से देखा,
 ऊंची नीची पहाड़िया दिख रही।
 फिर से किया काटना शुरु ,
  और पीछे तक पहुंच गई।
  इसी तरह से करते करते ,
    बालों की छंटाई हो गई।
   जब मुन्ने ने दर्पण देखा,
    रह गया बेचारा अवाक।
 बोला जोर से चिल्ला कर "सक्षम",
  मां यह तूने क्या कर दिया?
 चली थी मेरे बाल काटने ,
   मुझ को गंजा कर दिया।

 - गायत्री ठाकुर सक्षम
 नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
 ============================


Comments

  1. *कवि इश्क़चंद**
    *डॉ. अनेक राम सांख्यान*

    हमारे एक मित्र थे
    बड़े ही विचित्र थे
    इश्क़ में रहते थे मशरूफ इस कदर
    कि नित नई हसीनाओं के साथ आते थे नजर।
    मित्र जलन से पूछते थे -
    कवि जी ये इश्क़ कब तक?
    उनका उत्तर होता
    सेंचूनरी बन जाये तब तक।
    फिर जोर से लगाते थे नारा
    और गर्म हो जाता था माहौल सारा
    उनका नारा होता था प्यारा
    "जीवेंम शरद शत्म"
    कभी ना हो दौरे-इश्क खत्म" i
    सचमुच वो इशक की सेंचूनरी
    बनाना चाहते थे और इश्क़ का
    बादशाह का कहलाना चाहते थे।
    मगर अफसोस उनके साथ एक हादसा जो हुआ
    तो देखिए इश्क़ के बादशाह का क्या हुआ।
    होली का रंग छुड़ाते हुए जब
    कवि ने करीब से आईना देखा
    तो पता चला कि कर चुके हैं पार
    वो अपनी जवानी की रेखा।
    कनपटियों पर खासी चांदी जड़ आई है
    नैन-गर्तों तले गहरी कालिमा भी छाई है।
    करीब से देखी जब अपने चेहरे की बनावट
    तो धँसे गाल देख कर होने लगी घबराहट।
    "जीवेम शरद-शत्म" अब हो गई खत्म, ख्याल आया
    चौखटे पर लटका है जब पीरी का साया।
    तभी बाहर से परिचित सा इक मधुर स्वर आया
    और देखते ही देखते कवि के चेहरे पर नूर लौट आया।
    एक़ ही साँस में दौड़ते हुये जब उन्होंने द्वार खोला कमसिन मनमोहक मुस्कान से कवि मन डोला।
    अभी द्वारपाल बन कर ही
    हो रही थी जवां सुख की अनुभूति
    तभी "अजी सुनते हो" की
    बज गई तीव्र कटु तूती।
    देख निज गृहस्थी में विकट रोड़ा
    कवि-पत्नी ने व्यंग्य तीर छोड़ा --
    "इस अधेड़ की तो देखो कैसी है विचित्र बेवसी
    समझते हैं फस ही गई है जब भी कोई सुंदरी हसी!!"
    "अजी आपकी ढलती उम्र का कैसा अजीब तक़ाज़ा
    शरीर हो गया फ़कीर पर मन अभी भी है राजा!!"
    अपनी बेवशी के ज़ख़्मों पर
    कटु-पत्नी लेप से कवि तिलमिलाए
    और उनके श्रीमुख से कुछ छंद यूं निकल आए---
    "अरी, तुम क्या जानो मोल जवां मुस्कान का
    मुहब्बत की दुहाई है
    तुमने तो हमेसा बसंत में भी
    पतझड़ ही मनाई है!!
    कब जीने दिया इस दुनिया ने हीर-रांझा, लैला-मजनू को
    क्या जलने देगी यह तब मुहब्बत के इस छोटे से जुगनू को!
    नहीं लौटा पाएगी ये दुनिया
    कवि के खाबड़ चेहरे पर रौनक को
    उसके शरीर की फकीरी को भुला
    जगाकर मन की हकूमत को!
    तब जाने दो इस कमबख्त दुनिया को उसकी अपनी राह में
    और जी लेने दो हमें कुछ लम्हें मुहब्बत की चाह मे।

    *डॉ. अनेक राम सांख्यान*
    घुमारवीं, बिलासपुर (हि. प्र. )
    मो. 7018436953
    ईमेल arsankhyan@gmail.com

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  2. मेरी स्वरचित हास्य व्यंग कविता 30मई 2021 के कवि सम्मेलन के लिए

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