भूपेन्द्र कुमार दत्त स्मृति सम्मान - 2025

   अधिकतर रूप से बचपन सबसे अच्छा कहां जाता है। ना दु:ख की चिंता, ना सुख: की चिंता। सब कुछ सामान्य सा लगता है। फिर भी बचपन तो बचपन है। अतः जीवन में बचपन बहुत महत्वपूर्ण होता है। यही कुछ जैमिनी अकादमी की चर्चा परिचर्चा का प्रमुख विषय है। जिस पर आयें विचारों में से कुछ को पेश किया जाता है। :-
        जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम वो फिर नहीं आते,वो फिर नहीं आते,अगर  मनुष्य की यात्रा की तरफ गौर से सोचें ‌तो‌ मनुष्य के जीवन काल‌ में बचपन, जवानी और बुढ़ापा आना संभव है जबकि  बचपन में मनुष्य को अति आनंद व प्रेम  मिलता है,जवानी में जोश,मनमानी व चहल पहल में घूमता फिरता है और अन्त में बुढ़ापे में आकर अकेलापन,असहाय और कई रोगों से ग्रस्त हो कर अलविदा हो जाता है,यही मानव जीवन की सच्चाई है जिसे हर कोई जानता है लेकिन सब कुछ जानते हुए भी कि हरेक को इन  रास्तों से गुजरना है,बहुत कम लोग जीवन के आखिरी पड़ाव को सही ढंग से व्यतीत करते हैं‌ तो आईये आज का रूख  इसी चर्चा की तरफ ले चलते हैं  कि बचपन में प्रेम बिन मांगे मिलता है लेकिन बुढ़ापे में सिर्फ अकेले रहना पड़ता है, मेरा ख्याल में आजकल के दौर में यह बात किसी से भूली हुई नहीं है कि बुढ़ापा एक अभिशाप बन कर रह गया है,बुजुर्गों को ज्यादातर अकेलापन सताता है चाहे कारण कुछ भी हों लेकिन यह सब भूल रहे हैं कि बुजुर्ग भी कभी बच्चा था और उसे भी बचपन में लाड -प्यार  बिन मांगे खिलौने व असीमित प्यार मिला होता है क्योंकि बचपन प्रकृति की उत्तम रचना है उस समय बच्चा निर्दोष, निष्कपट, मायूस ,सच्चा,ईमानदार  व भगवान का रूप माना जाता है इसलिए उससे हरेक प्यार करता है और बिन मांगे उसे लाड प्यार व प्रेम के कई नामों से उसे पुकार कर प्यार भरी अन्य चीजें भेंट करता है लेकिन वोही बच्चा जब होश संभालता है दुनियादारी की पहचान करता है तो उसमें कई किस्म की अच्छाईयों के साथ बुराईयां भी पनपने लगती हैं,जवानी में आकर और चतुर चलाक बन कर कई किस्म की आदतों को अपना लेता है तथा आखिरकार बुढ़ापे की तरफ आ पहुंचता है जिसमें वो अहसहाय,अपंग, व दुसरों पर बोझ बनने लगता है जिसके कारण अपने आप को अकेलेपन के सिवाय किसी  पर जबरदस्ती ‌से  हक नहीं जमा सकता  क्योंकि जीवन के परिवर्तन के कारण उसके संबंध और परिस्थितियाँ बदल चुकी होती हैं,बच्चे बड़े  होकर अपने परिवार में व्यस्त हो जाते हैं और बुजुर्गों की तरफ कम ध्यान देते हैं जिससे  उनको अकेलापन महसूस होता है,हालांकि ‌यह‌ जीवन की वास्तविकता है, फिर भी हमें  उनके जीवन‌ मे सुधार लाने के  लिए ‌सकारात्मक प्रयास करने  चाहिए ताकि बुजुर्ग भी अकेलेपन से निपटा सकें जब तक हम  अपने आत्मविचार,आत्म विकास और सकारात्मक ‌सोच‌ को बढावा नहीं देंगे तब तक बुजुर्गों का जीवन सार्थक नहीं बन सकता है,यह‌ मत भूलें की बुढ़ापा जीवन का स्वाभाविक सत्य है और उस‌ समय व्यक्ति को सबसे अधिक सहायता‌ की जरूरत होती है और हम सबको धैर्य,प्रेम और  मधुर स्वभाव ‌के‌ साथ उनके साथ ‌पेश‌आना‌ चाहिए ‌ताकि उनका बुढ़ापा भी प्रेम व भाईचारे के‌‌ साथ गुजर सके और‌आने वाली पीढी भी हमसे सबक लेकर हमें भी ऐसा ही व्यवहार दे‌ सके नहीं तो वो दिन दूर नहीं जब बुढ़ापा एक अभिशाप बन कर ही नहीं रह जायेगा‌ वरना बुढ़ापे में कोई ‌जीना भी नहीं  पसंद करेगा,अन्त में यही कहुंगा कि अकेलापन जीवन का एक हिस्सा बन कर रह गया है हमें इसे ‌सकारात्मक तरीके से देखने का प्रयास करना चाहिए क्योंकि उम्र बढने के साथ  समाजिक संबंध ‌कम होने लगते हैं जिससे‌ अकेलापन  बढने लगता है स्वास्थ्य समस्याएं बढने लगती हैं ऐसे में हमें बुजुर्गों की हर बात को ध्यान से सुनना व समझना चाहिए ताकि उन्हें अपना बुढ़ापा भी बचपन की तरह महसूस होने लगे,सच‌ कहा है,हालात सिखाते हैं बातें सुनना और सहना वरना हर व्यक्ति स्वभाव से वादशाह होता है।

 - डॉ सुदर्शन कुमार शर्मा

    जम्मू - जम्मू व कश्मीर 

       यह कथन बचपन के लिए तो एकदम सही है किंतु बुढ़ापे के लिए आज की स्थिति को देखते हुए कुछ हद्द तक सही है। बचपन कितना निष्कपट, प्यारा और मासूम होता है इसलिए उसे ईश्वर का रूप कहा जाता है। बचपन ईश्वर द्वारा प्रदत्त बहुत ही खूबसूरत अवधि (समय) है, या यूं कहें उनके द्वारा प्रकृति को दिया गया उत्कृष्ट और अनुपम उपहार है। बच्चों की निष्कपट, निखालसता, उनका भोलापन एवं मासूमियत लिया हुआ चेहरा , हमें उसे प्रेम करने को विवश कर देता है ,फिर चाहे वह कितनी भी गंदी अवस्था में हो हमारा प्रेम उसे उठा ही लेता है और उसे बिन मांगे प्रेम मिल जाता है। किंतु वहीं बुढ़ापे में हम अकेले रह जाते हैं। कभी जो घर माँ-बाप की रोशनी से चमकता था, फूलों की तरह महकता था वही अकेले रहने पर बाध्य हो जाते हैं। इसमें भी हम अपने स्वभाव, व्यवहार, और अपने कर्म से भी बुढ़ापे में अकेले हो जाते हैं। सभी के साथ ऐसा नहीं होता। जवानी में की ऐसे कर्म या यूं कहें भूल हो जाती है जो बढ़ती उम्र में तकलीफ का कारण बनती है। परिवार वालों से पत्नी बच्चों से उनका व्यवहार ठीक नहीं होता तब भी अकेले रहने की अवस्था आती है। कहते हैं ना...व्यक्ति का व्यवहार ही उसका आइना है। घर के संस्कार भी इस अवस्था में मायने रखता है। पूर्व- नियोजित कर्म ही हमें हमारा फल देता है। जैसा बोओगे वैसा पाओगे।

- चंद्रिका व्यास 

 मुंबई - महाराष्ट्र 

        ये बात सही है कि बचपन में सभी खूब लाड़-प्यार करते हैं। नखरे सह लेते हैं। जिद पूरी कर देते हैं। पूरा ध्यान रखते हैं। खूब बातें करते हैं।लेकिन बुढ़ापे में प्यार करना तो दूर, बातचीत करने में भी लोग रुचि नहीं दिखलाते। बहुधा होता यही है कि एक निश्चित समय पर औपचारिक बातें कर चाय,नाश्ता, खाना लाकर दे दिया, बस। फिर दिनभर अकेलापन झेलते रहो। कोई पूछने वाला नहीं। कोई बातचीत करने वाला नहीं।असल में बच्चे नासमझ और चंचल होते हैं। इसलिए उनकी बातें, उनकी हरकतें मनमोहक लगती हैं। मुग्ध कर देती हैं। जबकि बुढ़ापे में ऐसा कोई आकर्षण नहीं दिखाई देता। वे लोग ये समझते हैं कि बुजुर्गों से बात करेंगे तो वे अतीत की बातों का बखान करने लगेंगे या कोई अनुभव की बात कर सीख देने लगेंगे। बचपन से बुढ़ापे तक के अंतराल में बदलाव हो चुका होता है, जो वर्तमान की स्थिति और परिस्थिति से मेल नहीं करता। उम्र का अंतर होने से विचारों और सोच में सामंजस्य नहीं हो पाता। मान-मर्यादा का भी ध्यान रखना पड़ता है।  इन सब कारणों से बुजुर्गो से लोग दूरी बनाकर रहते हैं और बुजुर्गों को अकेले रहना पड़ता है। परंतु ऐसा नहीं है कि उनके दिल में  बुजुर्गों के प्रति नफरत का भाव होता है। प्यार और सम्मान होता है, पर जतलाते नहीं हैं। जबकि यह आवश्यक है कि बुजुर्गों के साथ बैठना-उठना चाहिए। प्रयास यही करना चाहिए कि उन्हें अकेलेपन का एहसास न हो। 

 - नरेन्द्र श्रीवास्तव

 गाडरवारा - मध्यप्रदेश 

        बचपन बड़ा ही अनमोल दौर होता है। उस समय न हमें कुछ मांगना पड़ता है, न जताना। माँ के हाथ का खाना, पिता का साया, भाई-बहन का साथ,सब अपने आप मिल जाता है। प्यार जैसे हवा में घुला रहता है। कोई गलती भी कर दो, तो डांट के बाद वही प्यार से खाना भी खिला देते हैं। उस वक्त हमें समझ ही नहीं होती कि ये “बिना मांगे” मिल रहा स्नेह कितना कीमती है। लेकिन जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जाती है, जिम्मेदारियाँ आ जाती हैं, रिश्ते बदलने लगते हैं। जिनके लिए हम सबकुछ करते हैं, वही धीरे-धीरे अपने कामों में व्यस्त हो जाते हैं। और एक दिन वही आता है जब चारों तरफ सन्नाटा रह जाता है। न कोई पूछने वाला, न कोई मन की बात सुनने वाला। बुढ़ापा तब सबसे ज़्यादा चुभता है जब याद आता है,कभी हम भी किसी के जीवन की धड़कन थे।

  -  सीमा रानी     

    पटना - बिहार 

           बचपन और बुढ़ापा जीवन के दो ऐसे पड़ाव हैं। जिन में बच्चे और बूढ़े की मन: स्थिति लगभग एक जैसी होती है। दोनों को दूसरों का प्यार एवं सहारा चाहिए होता है। दुर्भाग्यवश वह बहुत कम खुशनसीब लोग होते हैं। जिन्हें बुढ़ापे में यह दोनों चीज नसीब होती हैं। यह वास्तविकता है कि बचपन में प्रेम बिन मांगे मिल जाता है। माता-पिता व अन्य परिजन बच्चों की हरकतों के कारण उनकी ओर आकर्षित हो जाते हैं। क्योंकि बच्चों की अठखेलियां व किलकारियां और मासूमियत सबको अपनी ओर खींचती है। वहीं बुढ़ापा एक ऐसा जीवन का आखिरी मोड़ है। जिस पर चलते-चलते हर किसी बूढ़े आदमी को प्रेम और दिनचर्या के बाकि कामों में दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। शरीर इस अवस्था में नहीं होता कि सारे काम स्वयं कर लिए जाएं। जिन लोगों ने अपनी फिटनेस और खान - पान पर ध्यान दिया होता है। उनको औरों की सहायता की जरूरत बहुत कम पड़ती है। बाकियों को तो अस्वस्थ होने पर दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। मेरे अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि बूढों और बच्चों की, इस अवस्था में मानसिकता एक ही तरह की हो जाती है। वे चाहते हैं कि कोई उनके पास बैठे उनका हाल-चाल जानें और उन्हें सुनें। अकेलापन इस अवस्था में बहुत ही पीड़ादायक होता है। वे चाहते हैं कि उनके अनुभवों को उनके अपने जान-सुनकर उनका लाभ उठाते हुए, अपना अच्छा-भला जानें व करें। इस अवस्था में अपनों की चिंता के साथ, अपने द्वारा अर्जित किए हुए संसाधनों की भी चिंता होती है। वे यह भी चाहते हैं कि उनके परिजन उन सब की चिंता करते हुए। उन्हें संभाले एवं कैसे उन्हें, उन्होंने अर्जित किया हुआ है। उस परिश्रम के बारे में भी, वे जाने लेकिन बहुत कम सौभाग्यशाली लोग होते हैं। जो बुढ़ापे में अपने परिजनों का सानिध्य और सहारा पाते हैं। अधिकांश लोगों का बुढ़ापा अकेले में पीड़ादायक स्थिति में ही व्यतीत होता है। बचपन भी हर किसी को प्रेम व खुशी वाला प्राप्त नहीं होता। जिन बच्चों के माता-पिता जीवन यापन के लिए दिन-रात संघर्ष करते हैं। उन बच्चों को वह प्रेम और सानिध्य प्राप्त नहीं होता। जिसके वह हकदार होते हैं। कटु सत्य यह है कि हमारे देश की अधिकांश जनसंख्या जीवन यापन के लिए दिन-रात संघर्षरत है। उनके बच्चे वह सब प्राप्त नहीं कर पाते। जिसके लिए मौलिक अधिकार स्वरूप में वे हकदार हैं। उनमें से प्रेम भी एक है। इस विश्लेषण से निष्कर्ष स्वरूप यही कहा जा सकता है कि सभी को बचपन में प्रेम बिन मांगे तो मिलता है। लेकिन वह भी परिस्थिति जन्य है। इसके विपरीत बुढ़ापा एकाकीपन का पर्याय बनता जा रहा है।

- डॉ. रवीन्द्र कुमार ठाकुर

 बिलासपुर- हिमाचल प्रदेश

        बचपन में सब प्यार लुटाते हैं , लाड करते हैं , नखरे सहते हैं , जायज़ व नाजायज मांगें पूरी करते हैं !! प्यार तब भी करते हैं जब प्यार मांगा नहीं जाता पर ये आज के मानव के जीवन की सबसे बड़ी विडंबना है कि बेहिसाब प्यार करनेवाले माता पिता को , बुढ़ापे मे लुटाए उस प्यार का एक प्रतिशत भी अपनी संतानों से नहीं मिलता !! भूल जाते हैं बच्चे की किस प्रकार उनके माता पिता ने सब कष्ट से के , त्याग करके , निज इच्छाओं का दमन करके उनकी परवरिश की , व दुनियां में रहकर जीना सिखाया !! हर बलिदान , हर कुर्बानी को भुला, कैसे वो ही बच्चे बुढ़ापे मैं उन्हें वृद्धाश्रम छोड़ आते हैं ?? ये पाप करते हुए वे ये भी भूल जाते हैं कि वे भी तो बूढ़े होंगे !! अपने बच्चों को क्या सिखा रहे हैं वो कैसे संस्कार दे रहे हैं ?? 

 - नंदिता बाली 

सोलन - हिमाचल प्रदेश

     बचपन स्नेह प्रेम रहित होता है जो मांगों रोने से प्रारंभ होता है, जो निरन्तर मांगे पूरी होने लगती है, लेकिन यही  मांग जब चलती रहती  हैं , जो बचपन से आदत बनने के परिप्रेक्ष्य में जिद्दी बन जाता.है, सभी इच्छाओं की पूर्ति होने लगती है। माता-पिता के जीवन में  जब उतार-चढ़ाव आता है, तो बच्चों की मांग पूरी करने में असमर्थ हो जाता है। जिसके परिवेश में बच्चों के मन में हीन भावना आने लगती  है, उसे नहीं मालूम होता है, माता-पिता की परिस्थितियाँ ?  इसी शंकालु  में पढ़ाई-लिखाई, युवा अवस्था, शादी-ब्याह  आदि से गुजरते हुए बुढ़ापे में.जब कदम रखता है, तब तक काफी विलम्ब हो जाता है, जब तक सब कुछ बिखराव हो जाता है , फिर अंत समय में अकेलापन महसूस करने लगता हैं, बुढ़ापे में सिर्फ अकेले रहना पड़ता है....

- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार "वीर"

        बालाघाट - मध्यप्रदेश

      बचपन में प्रेम बिन माँगे मिलता है और बुढ़ापे में अकेले रहना पड़ता है। जिस तरह से प्रेम मासूम होता है, उसमें कहीं स्वार्थ नहीं होता,ठीक उसी तरह से मनुष्य का बचपन है,वह मासूम है और स्वार्थहीन है। उसे किसी से कुछ नहीं चाहिए,बस वह अपनी शरारतों से लुभाता है और प्रेम पाता है। मगर बुढ़ापे में मनुष्य को अकेले रहना पड़ता है। जीवन भर मनुष्य ने जो दिया है,वही पाया है।जवानी में मनुष्य के ऊपर अनेकों जिम्मेदारियां होती हैं,उसे साँस लेने की फुर्सत ही नहीं होती।और जो बैठ गया , उसके पास जिम्मेदारी कहाँ होती है। जब वह जिम्मेदारियों से मुक्त होता है,तब तक बुढ़ापा दस्तक देने लगता है।आज जो हम निभा रहे हैं,कल वह सब बच्चों को करना है।इसे समझना ही होगा।

 - वर्तिका अग्रवाल 'वरदा'

    वाराणसी - उत्तर प्रदेश 

        बचपन में प्रेम बिना मांगे इसलिए मिलता है क्योंकि उस समय बच्चे के पास "अहंकार, सम्पत्ति अथवा सत्ता इत्यादि कुछ भी खोने को नहीं होता है। वह रोता है तो मां उसके पास दौड़ते हुए आती है और वह हंसता है तो सारा संसार उसके साथ खिलखिलाता है। किंतु जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होकर मनुष्य बनता है। वह अपने चारों ओर रिश्तों, विचारों और स्वार्थ की ऊंची ऊंची दीवारें खड़ी कर लेता है। यही दीवारें अंततः उसे उस एकांत में पहुँचा देती हैं जहाँ मात्र “मैं” ही रह जाता है और प्रेम कहीं दूर क्षितिज में खो जाता है।सम्भवतः ईश्वर इसीलिए बुढ़ापे में मनुष्य को एकान्त का वरदान देता है ताकि वह पुनः सोच सके कि उसने जीवन में किसे पाया और किसे खो दिया। यह एकान्तवास दंड नहीं बल्कि सुअवसर है जिसे आत्मा की पुनर्प्राप्ति का अवसर कहना अतिशयोक्ति कदापि नहीं होगी। संविधान भी इसी दर्शन को अपने तरीके से निभाता है जैसे न्याय देते समय वह दोषी को समाज से अलग कर देता है, ताकि उसे अपने कर्मों का साक्षात्कार हो सके। मनुष्य जब उस कालकोठरी के सन्नाटे में बैठता है, तो वही सन्नाटा उसे जीवन का सबसे गूंजता हुआ सबक दे जाता है कि प्रेम किसी से मांगा नहीं जाता बल्कि उसे अपने भीतर जगाया जाता है और यही प्रेम उसकी सफलता का स्रोत बन जाता है।अतः ज्वलंत भाव में निष्पक्ष निष्कर्ष यह निकलता है कि बचपन का प्रेम हमें दूसरों से जोड़ता है और बुढ़ापे का एकान्त हमें स्वयं से जोड़ता है। उक्त एकान्त को जो मानव समझ गया, वही जीवन के इस ओर और मृत्यु के उस पार अर्थात दोनों ओर का सच्चा प्रेमी बन गया।

- डॉ. इंदु भूषण बाली

ज्यौड़ियॉं (जम्मू) - जम्मू और कश्मीर

     बचपन में प्रेम बिन मांगे मिलता है, क्योंकि बचपन दूसरों पर निर्भर रहता है. बच्चे को खुद नहीं पता होता कि उसे क्या चाहिए? बस भूख-प्यास लगने पर रोता है, माता-पिता खुद ही उसकी जरूरत को समझकर उसे प्रेम सहित सब कुछ दे देते हैं. दोनों तरफ से यह प्रेम निश्छल होता है. बुढ़ापे में होती हैं अनंत आकांक्षाएं-अपेक्षाएं. एकाध आकांक्षा-अपेक्षा को तो पूरा किया जा सकता है. उस समय बच्चे भी अपने बच्चों और व्यवसाय में मशगूल होते हैं, साथ ही एकाध आकांक्षा-अपेक्षा पूरी होने पर फिर दूसरी आकांक्षा-अपेक्षा सिर उठाने लगती है और भीड़ में भी अकेलापन लगता है. इसलिए कहा जाता है कि बुढ़ापे में सिर्फ अकेले रहना पड़ता है. फिर बच्चों के साथ भी यही कुछ होता है. इस तरह यह समय-चक्र चलता ही रहता है.

- लीला तिवानी

सम्प्रति - ऑस्ट्रेलिया

           ये ही दुनिया की रीति है बचपन में प्रेम बिन मांगे मिलता है और बुढ़ापे में अकेले रहना पड़ता है. क्योंकि छोटा बच्चा हर किसी को प्यारा लगता है चाहे वह किसी का भी हो. हर कोई उसे गोद लेना चाहता है प्यार करना चाहता है. उसके प्रति भविष्य जुड़ा रहता है. जिस तरह उगते सूर्य को सभी नमस्कार करते हैं ठीक उसी तरह बचपन में प्रेम बिन मांगे मिलता है. सूर्य जब उगता है तो सभी को लगता है कि आज दिन भर धूप रहेगी. इसलिए सभी प्रणाम करते हैं डूबते को कोई नहीं करता की अब तो अंधेरा आ जाएगा. ठीक उसी तरह बचपन को प्यार मिलता है. बुढ़ापा को लोग समझते हैं ये तो कुछ दिनों का मेहमान हैं इसे प्यार देकर क्या होगा. बुढ़ापे में अक्सर लोग चिड़चिड़ा हो जाते हैं या अपने अनुभव की बातें सुनाने लगते हैं जो कोई सुनना नहीं चाहता है. इसलिए उसके पास कोई बैठता नहीं है. अकेला छोड़ देता है. बचपन को प्यार देने में खुद को भी आनंद मिलता है और बुढ़ापे को देने में उतना नहीं मिलता इसलिए बुढ़ापे में अकेले रहना पड़ता है. बुढ़े लोगों से बातचीत करने मे लोग आंनद नहीं महसूस करते हैं. अधिकांश लोगों को फुर्सत ही नहीं मिलती. कोई पास रहने और बात करने वाला नहीं होता इसलिए बुढ़ापे में अकेले रहना पड़ता है. 

 - दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश "

      कलकत्ता - पं. बंगाल 

          "बचपन हर गम से बेगाना होता है "इसलिये बचपन में व्यक्ति प्रिय नफरत कुछ नहीं जानता। बच्चों का मनोविज्ञान बहुत सरल होता है। वे दिखावटी प्रेम और सच्चे लगाव या नफरत का अंदाजा नहीं लगा पाते। और बच्चे मन के सच्चे होते हैं इसलिये सभी का प्यार पा ही लेते हैं। "बिन मांगे मोती मिले मांगे मिले ना भीख " सत्य है यह बात क्योंकि बुढ़ापा ऐसी शै है - - उम्र का वो दौर है जहाँ सच्चा प्रेम भीख में भी नहीं मिलता। आपके पास पैसा है दौलत है शोहरत है तो आपकी औलाद आपको प्यार का अपनेपन का एहसास करायेगी। आपके आसपास के लोग रिश्ते नाते आप को प्रेम का प्रतिदान देंगे लेकिन यदि पैसा जमीन जायदाद नहीं है तो दूर भागेंगे। वैसे आज का जमाना इतना स्वार्थी और स्मार्ट हो गया है कि बूढों से लोग दूर भागते हैं। वृद्धाश्रम की दीवारों के भीतर न जाने कितने वृद्ध अपनों के इंतजार में दम तोड़ देते हैं। नौकरी के लिये दूर जा बसे बच्चों के लिए तडपता बुढापा आज हर दूसरे घर की कहानी है । खैर यह विषय असीम है--निःस्सीम है। ग्रंथ मर जायेंगे लेकिन राम हर युग में नहीं मिलते। माता पिता की आज्ञा पर जीवन बिताने वाली संतान अब नहीं है - - आज के दौर में बुढापा एक सन्नाटा है बस।

- हेमलता मिश्र मानवी 

    नागपुर - महाराष्ट्र

       बचपन में आप बोलते कम और मुस्कुराते अधिक है,जानकार हो या अनजान,बालक की सहज मुस्कान उसे आकर्षित करती है और वह भी बालक के प्रति प्रेम प्रदर्शित करता है। बालक बोलता है तो उसकी निश्छल बातें, तुतलाती बोली सबका मन मोहती हैं। तो फिर प्रेम मिलना स्वाभाविक है। इसके विपरीत बुढ़ापे में मुस्कान कम और अधिक शिकायत या नाराजगी जाहिर करने की आदत हो जाती है। इतना ही नहीं शरीर अशक्त हो जाने की वजह से बूढ़ों में सहनशीलता कम हो जाती है वह दूसरे की व्यस्तता को अपनी उपेक्षा मानकर तीखी प्रतिक्रिया देने लगते हैं। तो ऐसी स्थिति अकेलापन तो देगी ही। वैसे सबके साथ ऐसा ही हो जरुरी नहीं इससे अलग ऐसे भी बूढ़े मिलते हैं जो सक्रिय और खुशहाल जीवन जीते हैं।

 - डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'

     धामपुर - उत्तर प्रदेश 

       बचपन जिसे कहते निश्छल मन।बाल सुलभ भावनाएं जहां स्नेह का पारा वार होता है। प्यार की बौछार होती है। प्रेम बिन मांगे मिलता है।हाव- भाव,भाव भंगिमाओं जैसे रोना यह इंगित करता है बच्चे को भूख लग रही है दूध पिलाओ, खाना खिलाओ,या फिर देखो पेशाब से गीला नहीं हों गया है तुरंत कपड़े नेपकिन बदलो। गोद में उठाओ,लोरी सुनाकर सुलाओ।ये प्रेम पाने के लिए बोलना न हाथ फैलाना पड़ता है।केवल शारीरिक क्रियाएं ही आभास कराती है। कहते हैं न जब बच्चा न रोते तो  मां भी दूध नहीं पिलाती है। दूसरी बात बुढ़ापा बहुधा बचपन का पुनरागमन होता है।जवानी में सांसारिक माया-मोह के बंधन में लिप्त होकर समस्त जिम्मेदारियों को वहन करता है।यह उसका नैतिक दायित्व होता है। बच्चों को पाल- पोसकर पढ़ा-लिखा कर आत्मनिर्भर बनाता है।यही बच्चे माता-पिता से दूर नौकरी के सिलसिले में बाहर चले जाते हैं।तब बुढ़ापा अकेले में ही गुजारना पड़ता है।यह स्थिति काफी कष्टप्रद होती है। जिसमें दूसरों की मदद,स्नेह की अपेक्षाएं निहित होती हैं। अकेलापन काटता है। बुढ़ापे में हाल ही बच्चों जैसा हो जाता है थोड़ा हठीपन, अपनों के बीच समय व्यतीत करने की पिपासा होती है। सम्मान,स्नेह,सेवा की जरूरत महसूस होती है।अकेले रहकर मन में हताशा भर जाती है।इसी दौरान मन की बात बयां न कर पाने से मानव अवसाद में चला जाता है। सुख-दुख को बयां करना, समझना, आत्मीयता को दर्शाता है।कई तरह की बातें दिमाग़ में चलती रहती हैं। जिससे बुढ़ापा शरीर झेल नहीं पाता। परिणाम स्वरूप वह रोग ग्रस्त भी हो जाता है। जीवन का यह क्रम सबके साथ लागू होगा यह अक्षरशः सत्य है, हमें बच्चों को यही शिक्षा देनी चाहिए कि बचपन में जो स्नेह से तुम्हें सिंचित कर बड़े किये हैं।आज जो तुम हो हमारी परिश्रम, संस्कार से हो । तुम्हें भी आगे चलकर अपना दायित्व निर्वहन करना होगा ।बुढ़ापे में हमें तुम्हारी जरूरत होगी तुम हमें अकेले छोड़कर न जाना। अपना फर्ज निभाना।

- डॉ. माधुरी त्रिपाठी 

  रायगढ़ - छत्तीसगढ़ 

           इंसान के लिए बचपन का समय स्वच्छंद एवं सुखद होता है।उसे सभी स्नेह देते हैं।बच्चे का सब लोगों से सुन्दर व्यवहार रहता है।बचपन का क्षण बड़ा स्मरणीय होता है।हमलोग बाल कृष्ण को याद कर हर्षित हो जाते हैं।मनुष्य बचपन में अपनी मां से बहुत प्यार पाता है,जो उसे हमेशा याद रहता है।इस प्रकार स्पष्ट है कि बचपन में प्रेम बिन मांगे मिलता है।आज के दौर में लोग एकल परिवार पसंद करने लगे हैं।मनुष्य आज कल बुजुर्गों पर ध्यान नहीं देते हैं,जो अनुचित है। हमें इनसे ज्ञान और अनुभव सीखना चाहिए।ये हमारे अभिभावक हैं।ये हमें सही मार्ग बताएंगे।ये हमारे मार्गदर्शक हैं।आज की नई पीढ़ी बुजुर्गों को महत्व नहीं देते,उन्हें अकेले छोड़ देते हैं,जो बिल्कुल गलत है।इस प्रकार जाहिर है कि बुढ़ापे में सिर्फ़ अकेले रहना पड़ता है।

 - दुर्गेश मोहन 

   पटना - बिहार

       बचपन में प्रेम बिन मागे मिलता है ! बचपन का प्रेम जताया जाता है  जिसमें सारा परिवार अड़ोसी पड़ोसन प्यार जताने में कमी नहीं करते ! अगर बचपन में बच्चा किसी भी वस्तु के को पाने की जिद करता है तो रिश्ते नातेदार भी पूरा कर ख़ुद भी ख़ुश होते है ! पर बदलते समय परिवेश में प्रेम बिना मांगे मिल जाए असंभव अब समय ही नही  अब बुजुर्ग अपने बचपन के प्रेम को याद कर अपने नाती पोते को सुना हसरत पूरी करते ये नही सोचते आपका भी फर्ज नाती पोते से जिद कर उनके प्रेम का इज़हार पाना होता है आप समय को देख माता पिता की व्यवस्ता को बता ख़ुद भी कन्नी काट लेते यह कह अब के बच्चे सारा रिसर्च गूगल सर्च कर जान लेते है पर ऐसा बिल्कुल नही वे कहते है यदि आप प्रेम से अपना बचपना बताते हम सुन लेते है पर यदि आपके पास अपने दोस्तों के साथ मोबाइल फेस बुक इंटरनेट चर्चा देख समय गवां देते है फिर कहते आज के बच्चे बुजुर्गों से प्यार नहीं करते फिर आपको अकेला रहना पड़ता है एक बच्चे ने यहाँ तक कहा - दादी दादा जी यदि आप हमे प्रेम से समय गति को देख प्रेम का इजहार नही करेंगे तो हम अपने बच्चों को क्या बतायेंगे हमे तो संस्कार संस्कृति रीति रिवाज प्यार से बताना होगा ! आप बिल्कुल अकेले नही रहेंगे । याने आज की युवा पीढ़ी का नही है प्रेम से विसंगतियों का सामना कर बताना होगा आप अकेले नही है !

- अनिता शरद झा

रायपुर - छत्तीसगढ़ 

           प्रेम के दो ध्रुव — बचपन और बुढ़ापा। “बचपन में प्रेम बिना माँगे मिलता है, बुढ़ापे में सिर्फ अकेले रहना पड़ता है।” यह वाक्य जीवन के दो छोरों की भावनात्मक व्याख्या है — एक ओर निर्भरता में मिला सहज स्नेह, दूसरी ओर स्वावलंबन में उपजा एकांत। बचपन में हम प्रेम के सागर में डूबे रहते हैं। हर ओर हमारे लिए कोई न कोई होता है — माँ की गोद, पिता का हाथ, परिवार की चिंता। हम कुछ नहीं माँगते, फिर भी सब मिलता है। यह वह अवस्था है जब प्रेम प्रकृति की तरह स्वतः प्रवाहित होता है। परंतु बुढ़ापा एक ऐसा समय है जब जीवन के रिश्तों की गति धीमी पड़ने लगती है। संतानें अपनी-अपनी दुनिया में व्यस्त हो जाती हैं,परिवार का केंद्र धीरे-धीरे बदल जाता है। अब व्यक्ति को स्वयं से संवाद करना सीखना पड़ता है। वह देखता है, प्रेम का प्रवाह रुका नहीं है, बस उसका मार्ग बदल गया है। अकेलेपन की यह स्थिति यदि आत्मदर्शन में बदले, तो वही एकांत आत्मीयता का रूप ले लेता है। बुढ़ापे का प्रेम मौन है, पर परिपक्व भी है। यह माँगता नहीं, बल्कि स्वीकारना जानता है। यह प्रेम बाहरी नहीं, भीतरी प्रकाश की तरह होता है — जो भीतर से जगता है और चारों ओर फैलता है। इसी सत्य को समझने के लिए हमें अपने परिवारों में स्नेह का पुनःसंवेदन जगाना होगा। वृद्ध माता-पिता को समय देना, संवाद बनाए रखना — यह केवल कर्तव्य नहीं, बल्कि मानवीय उत्तरदायित्व है। क्योंकि जिस बचपन में हमने बिना माँगे प्रेम पाया, उसी प्रेम को लौटाना हमारे जीवन की सबसे सुंदर साधना है। बुढ़ापा तब बोझ नहीं रहता जब उसमें स्मृतियों का आलोक और संबंधों का ताप बचा रहता है। तब वह एक कप चाय — जिसे कोई छोटा-सा पोता अपने हाथों से बनाकर देता है —जीवन का सबसे गरम और सबसे मीठा अनुभव बन जाता है। निष्कर्ष यही है कि प्रेम कभी समाप्त नहीं होता। वह समय, परिस्थिति और पीढ़ियों के साथ रूप बदलता है। बचपन में जो प्रेम हमें दूसरों से मिलता है,बुढ़ापे में वही प्रेम हमें अपने भीतर से खोजना होता है। और जब यह खोज पूर्ण होती है तो एकांत भी आनंद बन जाता है,और जीवन एक मधुर संवाद।

- डाॅ. छाया शर्मा

अजमेर - राजस्थान

" मेरी दृष्टि में " बुढ़ापा अपने आप में अभिशाप से कम नहीं है। बिमारी व अकेलापन ही अभिशाप का प्रमुख कारण है। बुढ़ापे में कोई नहीं पूछता है। सब अपने आप में व्यस्त रहते हैं। फिर भी जीवन तो जीवन है। चाहें बुढ़ापा ही क्यों ना हो.....!

             - बीजेन्द्र जैमिनी 

           (संचालन व संपादन)

                                                    

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