क्या बोलने से ज्यादा हम में सुनने की ताकत होनी चाहिए ?

अक्सर बोलने के लिए कोई पाबंदी नहीं होती है । परन्तु सुनने के लिए भी हमारे अन्दर ताकत होनी चाहिए । जो सुनने के लिए तैयार रहते हैं । वह जीवन में तरक्की अवश्य पाते हैं । यहीं कुछ जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है ।  अब आये विचारों को देखते हैं : -
यह सत्य है कि हमें बोलने की अपेक्षा सुनने की अधिक आदत होनी चाहिए।  प्रकृति भी ऐसा ही चाहती है इसीलिए भगवान ने हमें मुंह एक दिया है, लेकिन कान दो यानि हम अधिक सुनें और कम बोलें। यदि हम बोलने की अपेक्षा सुनने की आदत डाल लेंगे तो इसके कई फायदे हो सकते हैं ।इससे हमारे दूसरों के साथ संबंध अच्छे रहेंगे। हमारी बुद्धि विकसित होगी, दूसरों की बातों से हम नयी  बातें भी सीख सकेंगे। इसके  अतिरिक्त हमें बोलने से पहले सौ बार सोचना भी चाहिए क्योंकि हमारे शब्द एक तीर की भांति होते हैं जो एक बार निकल कर पुनः तरकश में वापिस नहीं आ सकते। कबीर जी ने कहा है "ऐसी बानी बोलिए, मन का आपा खोय"। यदि हम सुनने की आदत डाल लें तो शायद प्रत्येक घर सुखी हो सकेगा। घर में सुख- शांति भी बनी रह सकेगी। किसी भी प्रकार की बहस होने पर हम अपना पक्ष तो रखना  चाहते हैं लेकिन दूसरे का पक्ष सुनना नहीं चाहते। ऐसा सही नहीं है।
- अंजु बहल
 चंडीगढ़
उत्तम श्रोता ही अति उत्तम वक्ता बन सकता है। इस पंक्ति से ही परिचर्चा के विषय का उत्तर मिल रहा है कि बोलने से ज्यादा सुनने में ताकत होती है। 
जिस मनुष्य के अन्दर सुनने की शक्ति पर्याप्त मात्रा में है वह जब भी बोलेगा तो तर्कसंगत बात कहेगा और उसकी बात का प्रभाव भी दूसरों पर अधिक पड़ेगा। 
अक्सर जब कोई व्यक्ति अधिक बोलता है तो उसकी बात को अधिक सम्मान नहीं मिलता इसकी अपेक्षा दूसरे की बात सुनकर बोलने वाला व्यक्ति संतुलित रूप से बोलेगा, जिससे उसके कथन को पूरा सम्मान प्राप्त होगा। 
इसलिए मेरा मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं में सुनने की ताकत का विकास करना चाहिए। 
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
जी बिल्कुल, बोलने से ज्यादा हम में सुनने की ताकत होनी चाहिए। अक्सर लोगों की आदत होती है अपनी बात कहते हैं ,सुनाते हैं ,पर अगले की बात सुनने की कोशिश नहीं करते ।समझना ही नहीं चाहते कि वह क्या कहना चाहता है ।जब तक कोई किसी की भी बात को अच्छी तरह से सुनेगा ,समझेगा नहीं। तब उसका सही ढंग से उत्तर कैसे दे पाएगा और कैसे अगला उसकी बात को समझ पाएगा। यदि हम कुछ बात कहेंगे तो अगला व्यक्ति उसका प्रत्युत्तर देगा और हमें उसको सुनने की क्षमता अवश्य होनी चाहिए ।यदि हम उसके उत्तर को नहीं सुनते या सुनना नहीं चाहते ,तो फिर हमें प्रश्न पूछने या बात कहने का कोई हक नहीं। हमारी बात का भी कोई मतलब नहीं । सामने वाले की बात को सुनकर हम उसे अधिक अच्छी तरह से समझ सकते हैं इसीलिए बोलने से ज्यादा सुनने की ताकत होनी चाहिए।
- गायत्री ठाकुर "सक्षम"
नरसिंहपुर -  मध्य प्रदेश
     बोलने और सुनने दोनों एक-दूसरे के पहलू हैं और दोनों की क्रियाऐं का संचार कर जीवन को सार्वजनिक रूप से सार्थक सार्वभौमिकता होती हैं। यहाँ उन दिव्य आत्माओं को पृथक रखा जाता हैं, जहाँ उन्हें दोनों से कोई भूमिका नहीं है। प्रायः देखने में आता है कि कोई जानबूझकर जरुरत से ज्यादा बोलने की क्षमता रखने के कारण कई-कई उनकी बातों को सुनना पसंद नहीं करते हैं, इसलिए कहा जाता हैं, कि इसने तो कानों को पक्का दिया, यह चरित्रार्थ भी हैं। कई-कई तो जरूर से ज्यादा सुनना पसंद करते हैं और सुनने की धुन में कानों के पर्दे गंवा देते हैं। कई-कई तो कम बोलकर भी अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल हो रहे हैं। सामान्यतः बोलने-सुनने की क्षमताऐं एक जैसी रहने चाहिए ताकि भविष्य में कोई दुष्परिणाम सामने नहीं आये।
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
 अवश्य, इंसान में बोलने से ज्यादा सुनने की शक्ति होनी चाहिए पर वास्तविकता इसके विपरीत होती है। इंसान में इतनी सहनशक्ति नहीं होती कि किसी के विचारों को वह चुपचाप सुनता रहे। उसके हृदय में अपने विचारों को रखने की भी व्यग्रता उत्पन्न हो जाती है जबकि हकीकत में कम बोलना और ज्यादा सुनने के कई फायदे होते हैं --
 हम जब दूसरे की बातों को ध्यान से सुनते हैं तब उस व्यक्ति को अपनापन-सा महसूस होता है और इससे हमारा रिश्ता भी मजबूत होता है।
  जब हम दूसरे की बातों को ज्यादा सुनते हैं तब हम बातों के दूसरे पहलुओं को देख पाते हैं और दूसरे की भावनाओं को समझ पाते हैं। 
  दूसरे की बातों को सुनने से नई- नई जानकारी मिलती है। इसका सदुपयोग भी हम अपने जीवन में कर सकते हैं।
   कम बोलने पर हम ज्यादा सोच-समझकर बोलते हैं, ज्यादा गलतियां नहीं होती, किसी बात का पछतावा नहीं होता। हमें तभी बोलना चाहिए जब हमें किसी चीज की ठोस जानकारी हो।
   कम शब्दों में बहुत कुछ कहने का प्रयास करें, स्पष्ट कहें, घुमा-फिरा कर न कहें।
    अगर हम दूसरे की बातों को गंभीरता से सुनते हैं उसका यह मतलब भी नहीं निकलना चाहिए कि हम उसकी हर बातों से सहमत है। यह हमारे ऊपर निर्भर होता है कि हम उनकी किन बातों को ग्रहण करें या न करें।
    कम बोलने का मतलब यह नहीं कि गलत बातों को चुपचाप सुनते रहें।सही समय पर बोलना भी जरूरी होता है। आवश्यकतानुसार अपने विचारों को भी रखें और ज्यादा सुनने की शक्ति भी रखें क्योंकि  कम बोलना और ज्यादा सुनना वास्तव में फायदेमंद होता है।
                    - सुनीता रानी राठौर 
                    ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
       यूं तो हर कोई बोल भी नहीं सकता। परंतु बोलने से ज्यादा कठिन दूसरे की सुनना होता है। चूंकि सुनने की कला जिसने सीख ली समझो वह सब का चहेता बन गया। क्योंकि हर कोई सुनाना ही चाहता है और सुनना कोई भी नहीं चाहता।
      जिस प्रकार लेखकों से लेखक भागते हैं उसी प्रकार सुनाने वालों से सुनने वाले भागते हैं। हालांकि मनचाहा बोलने के लिए अनचाहा सुनने की ताकत होनी ही चाहिए।
       वैसे मैं चन्द ऐसे लोगों को जानता हूं जिनमें इस ताकत की भरमार होती है। जिन्हें जितना भी सुनाना हो वह सुन लेते हैं। यह बात अलग है कि सुनने के बाद जब मैं उनसे पूछता हूं कि उसने क्या सुनाया है तो उत्तर मिलता है कि याद नहीं आ रहा है।
      जबकि हम जैसे जब एक बार सुन लेते हैं तो उम्रभर भूलते नहीं हैं। इसलिए बोलने से ज्यादा हम में सुनने की ताकत होनी चाहिए। परंतु उसे याद भी रखने की क्षमता होनी चाहिए। ताकि सुनाने वाला सुनाये हुए वार्तालाप से यदि कुछ प्रश्र पूछे तो उसके उत्तर भी दिए जा सकें।
- इन्दु भूषण बाली
जम्म् - जम्म् कश्मीर
       ईश्वर ने मनुष्य को एक मुँह और दो कान दिए हैं।
अर्थात बोलो कम ,सुनो ज्यादा। पर मनुष्य  तो इसके विपरीत ही आचरण करता है । उस के भीतर का" मैं "उसे अशांत करता है और वो अपनी छोटी सी उपलब्धि और मामूली से दुख को भी बड़ा चढ़ा कर बताता है ।यह प्रवृत्ति अधिकांश लोगों में होती है।  ज्यादा बोलने वालों से लोग कतराने लग जाते हैं। तिल का ताड़ बनाना मूल स्वभाव बन जाता है। जबकि हमे बोलना कम चाहिए और सुनना अधिक चाहिए। जब हम किसी की बात सुनते हैं तो हमारा लक्ष्य मौन रह कर ध्यानपूर्वक उसकी ओर रहता है। हमारा दिमाग बात के मर्म को समझता है और फिर उतर दे तो अनेक समस्याएं हल हो जाएं । ज्यादा बोलना ,निरर्थक बोलने की श्रेणी में आता है। 
सुनने के लिए भी एक अनुशासन की जरूरत है जो कठिन है। सच ही कहा है 
बड़े बढ़ाई ना करे ,बड़े ना बोले बोल
   रहिमन हीरा कब कहे,लाख टका मेरा मोल ।।
   मौलिक और स्वरचित है 
- ड़ा.नीना छिब्बर
    जोधपुर - राजस्थान
बोलने से ज्यादा सुनने की ताकत होनी चाहिए। जिससे आपको पता चलेगा आपके बारे में बुराई हो रहा है या तारीफ हो रही है। अगर बुराई हो रही है तो दुखी न हो,और अगर तारीफ भी हो रहा है तो खुशी भी न हो। अगर आप के सुख -दुख प्रगट करते हैं तो यानि आपके विचार का स्विच दूसरे के हाथों में है। आप कोशिश करें यह स्विच अपने हाथों में रखें। अतः मेरे विचार से बोलने से ज्यादा सुनने की ताकत होनी चाहिए।
लेखक का विचार:-कीमत दोनों की चुकानी पड़ती है बोलने के लिए भी और चुप रहने की भी.......।
वक्त का खास होना जरूरी नहीं बल्कि खास लोग के लिए वक्त होना जरूरी है।
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखंड
विचित्र अनोखा परन्तु सत्य है ! दो अनुभव को अपनाए रखने में मेरा मत है।
–एक मुँह और दो कान का अर्थ है कि हम अगर एक बात बोलें तो कम से कम दो बात सुनें ।
अक्सर कहा जाता है.. 'मनचाहा बोलने के लिए अनचाहा सुनने की ताकत होनी चाहिए'।
दो लोगों के मध्य का संतुलन दिखलाता है संवाद। केवल एक लगातार बोलते हैं तो अपने ज्ञान को सीमित रखते हैं सुनने की प्रवृत्ति से दूसरों के अनुभव से भी ज्ञान पाते हैं। सुनने वाले को दो बातों का फ़ायदा होता है। पहला, उसे नई जानकारी मिलती है और दूसरा, वह मिली जानकारी का अच्छी तरह से उपयोग कर सकता है। सुनने की कला अद्धभुत होती है। दूसरे पहलुओं को देख पाना आसान हो जाता है।
कई बार हमें अपनी ही कही बातों पर पछताना पड़ जाता है, जो कि बिना सोचे-समझे लगातार बात करने का नतीजा होता है। –अपनों के लिए गोली सहा जा सकता हैं, लेकिन अपनों की बोली नहीं सही जा सकती है। कम बोलने, लेकिन सोच-विचार कर बोलने वालों को गंभीरता से लिया जाता है।
कम बात करने वालों की यह ख़ासियत होती है कि वे कम शब्दों में बहुत कुछ कह जाते हैं, जिसके कारण उनकी बात हर किसी को याद रह जाती है और किसी को उनकी बात सुनने में झिझक भी नहीं होती है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि उन्हें पता होता है कि आप ज़रूरत पड़ने पर ही बात करते हैं, इसलिए यदि आप कुछ कह रहे हैं तो अवश्य ही कुछ ज़रूरी बात ही होगी।
अतः बोलने से ज्यादा हम में सुनने की ताकत होनी चाहिए...!
- विभा रानी श्रीवास्तव
पटना - बिहार
यह बिल्कुल सही है कि हम में बोलने से ज्यादा सुनने की ताकत होनी चाहिए। जब तक हम किसी को पूरी तरह से धैर्यपूर्वक नहीं सुनेंगे तब तक हम बोलने वाले के प्रति सही धारणा नहीं बना सकेंगे और न ही उचित न्याय कर सकेंगे। सुनने वाले का भी अपना महत्व है। यदि एक डाक्टर अपने मरीज को पूरी तरह से नहीं सुनता तो वह उसका उचित इलाज नहीं कर सकता।
- सुदर्शन खन्ना 
 दिल्ली
धैर्य पूर्वक सुनने वाला ही इंसान बोलने की ताकत रखता है बोलना और सुनना दोनों दो प्रक्रिया है दोनों ही अपने तरीके से शक्तिशाली है कई ऐसे स्थान होते हैं जहां पर बोलना अत्यंत आवश्यक होता है और कई ऐसे जगह होते हैं जहां पर सुन लेना ही बड़ी ताकत समझी जाती है इसलिए समय व्यक्ति परिस्थिति के अनुसार बोलना और सुनने का ताकत का महत्व बदलता रहता है पर कहां गया है गुड लिस्नर होना अति आवश्यक है जहां तक बोलने की सवाल है अपनी प्रशंसा खुद ना करें अगर कोई आपकी प्रशंसा करता है तो उसके लिए आप बहुत-बहुत आभारी बनिए इतना ज्यादा खुश ना हो जाए कि वह आपके लिए अभिमान बन जाए अगर आपकी निंदा की जा रही है तो भी दुखी ना हो समझने का कोशिश करना है की कुछ कमी है हमारे में तभी आलोचना या निंदा हो रही है और इसे कैसे हम बेहतर बना सकते हैं तो सुनना और बोलना दोनों की ताकत अपनी-अपनी है
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
जी सही है यह बात, बोलने से अधिक सुनने की ताकत हम में होनी चाहिए। जिनमें यह ताकत होती है,वह सफल होते हैं।भले ही उनको कोई भी कुछ कहे, लेकिन वो चुपचाप सब सुनते हुए अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते जाते हैं और सफलता प्राप्त करते हैं। राजनीति में तो यह आदत,ताकत वाले सफलता की सीढ़ियां चढ़ते जाते हैं,कभी असफल नहीं होते।बिना हिचक के उसी पाले में बैठ जाते हैं,जिसका कल तक विरोध करते रहे,नाम भी बहुत खूबसूरत देते हैं इस स्थिति को,हृदय परिवर्तन, घर वापसी आदि आदि। चिकना घड़ा कहो या मिट्टी का मानो,सबकी सह लेता साधो। यह उसकी कमजोरी नहीं ताकत होती है। इस सबसे अलग हटकर भी देखें तो हमारी सर्वाधिक उर्जा देखने और बोलने में ही नष्ट होती है।यदि इस उर्जा को नष्ट न होने दें तो ताकत बढ़ेगी ही। इसीलिए बोलने वाले से अधिक ताकतवर सुनने वाला होता ही है।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
बोलने से ज्यादा हमें सुनने की ताकत होनी चाहिए तभी हम जीवन में सफलताएं प्राप्त कर सकते हैं। और अपने जीवन के प्रगति पथ पर अपने दिशा निर्देश कर सकते हैं असंभव जीवन जीने की प्रगति में बोलने से ज्यादा सुनना ही लाभदायक होता है। अगर हम सुनते हैं तो ज्यादा ग्रहण करते हैं और जीवन के राहों में आगे बढ़ते हैं प्रगति पथ के निर्माण में सुनना शांत स्वभाव अधिक सार्थक सिद्ध होता है जीवन के उतार-चढ़ाव में हम अधिक बोलते हैं तो हमारे व्यर्थ की ऊर्जा खत्म होती है परंतु अगर हम सुनते हैं तो जीवन के हर एक अदा में सफलताओं को प्राप्त करते हैं सुनना एक कला है शांत सरल स्वभाव संवेदना के साथ जो व्यक्ति सुनकर अच्छी बातों को ग्रहण करके जीवन की प्रगति पथ पर आगे बढ़ता है वह जीवन की समस्त मंजिल को पाने में अपने यह कलात्मक से सिद्ध करता है एक शांतिप्रिय व्यक्ति का अहम हिस्सा होता है सुनने की ताकत होनी चाहिए और उसे अपनी गलतियों को सुधारने का मौका मिलता है। अगर हम सिर्फ बोलते हैं तो हम अपने क्रम में भूल जाते हैं कि हमें जिंदगी में क्या पाना है और क्या खोना सुनना बेहद जरूरी हो अगर कम बोला जाए और बातों को सुनकर ग्रहण किया जाए तो जीवन सरल हो जाता है जीवन के लिए बहुत ही सार्थक सिद्ध होते हैं। जब हम दूसरों की बातों को  शांति पूर्वक सुनते हैं और उसे ग्रहण करते हैं तो आगे बढ़ने का रास्ता साफ दिखाई देता है।बोलकर अपनी व्याख्या करने से अच्छा है कि श्रोता बनकर दुसरो की बातों  सुने। ग्रहण करना से बेहतर अनुभव होता है। बोलने की प्रक्रिया में हम अपनी भावनाओं को व्यक्त जरूर करते हैं परंतु बोलने से ज्यादा सुनना  चाहिए। बोलने से ज्यादा हमें सुनने की ताकत होनी चाहिए तभी अपने जीवन के सही मार्ग को चुन सकते हैं।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर - झारखंड

  ऐसा कहना सही कह सकते हैं। क्योंकि जब हमारी आदत बोलने की अपेक्षा सुनने को प्राथमिकता देने की अधिक होगी तो यह ताकत बनकर हमारे व्यक्तित्व को सँवारने में काफी हद तक सहायक बनेगी। जिससे  हमारा  पारिवारिक, सामाजिक और व्यवहारिक जीवन सौहार्दपूर्ण, सरस  और  सुदृढ़ बनेगा। सुनने की ताकत हम में सीखने, समझने के साथ- साथ दूसरों को  सम्मान देने की आदत भी सिखाती है। इससे अप्रत्यक्ष रूप से हमें एक और लाभ मिलता है वह है हमारे बोलने में दक्षता। हम जितना अधिक सुनेंगे उतना  अच्छा बोल भी सकेंगे और जितना अच्छा बोलेंगे, हमारी बात को महत्व मिलेगा।
   'चुप ' रहने  को सामान्यतौर पर अच्छा माने जाने का आशय भी यही है कि ' ज्यादा सुनो '। 
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
 गाडरवारा - मध्यप्रदेश
हमारे मंतव्य की अभिव्यक्ति का माध्यम है -बोलना और बोली l हम भावनाओं, आचार विचारों का प्रगटीकरण बोलकर व्यक्त करते हैं l आज इंसान स्वार्थ में अंधी दौड़ दौड़ रहा है ऐसे में व्यक्ति का मितभाषी होना नितांत आवश्यक है l अतः हमें बोलने की अपेक्षा सुनने की क्षमता का विकास करना होगा l श्रवण कौशल एवं भाषण कौशल मानव जीवन को सरल और सहज बनाते हैं l सुनने की क्षमता का विकास हमारे भाषायी ज्ञान का विकास, सामाजिक एवं व्यावहारिक ज्ञान का विकास, दूसरों के विचारों भावों अभिव्यक्तियों को ग्रहण करने का विकास करती हैं l ध्वनि हमारे मस्तिष्क पर दस्तक देती है
जो स्थायी याददास्त बन जाती है l निपुणता और आत्मविश्वास  बढता है l वर्तमान में प्रेजेटेशन के लिए यह सभी आवश्यक है lसुनने
की क्षमता, स्व शिक्षण और स्व चिंतन की ओर हमें ले जाती है l जो आत्मानुभूति तादात्म्य को बढ़ाती है l
सुनने की क्षमता बढ़ाना ही पर्याप्त नहीं है l सुनना, गुनना और व्यवहार में लाना भी आवश्यक है तभी व्यक्ति में सकारात्मक विचार, सत्यता, कर्तव्य, प्रेम की उतपत्ति होगी जो
आनंदनुभूति करवायेगी l
बोलने की कला का विकास सुनने की क्षमता पर निर्भर करता है l आप प्रखर वक्ता बन सकेंगे l
       -----चलते चलते
पहले लोगों की सुनो फिर अपना मंतव्य प्रगट करो l डेविड ब्रिकले ने कहा -"सफल व्यक्ति वही है जो दूसरों द्वारा खुद पर फ़ेंकी गई ईंटो से एक ठोस नींव रख सकता है l
     -   डॉo छाया शर्मा
 अजमेर - राजस्थान
"दबे होठों को बनाया सहारा अपना, 
सुना है कम बोलने से बहुत मसले सुलझ जाते हैं"। 
  सोचा जाए  तो इंसान एक दुकान है और जुबान उसका ताला, 
ताला खुलता है तभी मालूम होता है  कि दुकान सोने की है या कोयले की, 
कहने का मतलब इंसान की बातचीत सबकुछ दिखा देती है कि इंसान कैसा है, उसकी बातचीत  ही उसका परीचय दे देती है, बैसे  भी इंसान को सुनने की आदत होनी चाहिए ज्यादा बोलने की नहीं, 
क्योंकी जीवन में आगे न बढ़ पानो का सबसे बड़ा कारण सुनने की आदत का न होना है। 
तो आईये आज की चर्चा इसी बात से करते हैं कि क्या बोलने से ज्यादा सुनने की ताकत होनी चाहिए, 
यह सच्चाई है कि बोलने से ज्यादा  सुनने की आदत होनी चाहिए  , हम चाहे आफिस में हों, परिवार में हों या समाज के कार्यलय में हों  हमें सुनने के बाद ही बोलना चाहिए और कम  व मीठा बोलना चाहिए  ताकि सभी हमारी बातों को ध्यान से सुनें व अमल करें, 
कई बार ज्यादा बोलने से घर में भी लड़ाई झगड़ा हो जाता है  मुहं से कुछ का कुछ निकल जाता है जिसको वाद में संभालना मुश्किल हो जाता है, यदि  वोलना कम और सुनना ज्यादा हो तो पति पत्नी में भी सवंध मधुर बने रहते हैं, 
ऐसे भी भक्ति में पहले श्रवन आता है फिर कीर्तन यानि पहले सुनें फिर बोलें लेकिन हम उल्टा करने लगते हैं, 
कहा भी गया है बोलो, चलो  बको मत,
देखा जाए हमारे दो कान इसलिए हैं कि हम ज्यादा से ज्यादा सुनें मुहं एक ही है की कम बोलें लेकिन हम सुनते कम हैं बोलते ज्यादा हैं, जब  कोई बात करता है उसकी बात को बीच बीच  में टोकते  रहते हैं जिससे सामनै वाले की बात अधुरी रह जाती है और उसका फ्लो टूट जाता है और हम उसकी नजर में सुलझे हुए नहीं लगते, 
जैसे बोलना एक कला है  बैसे ही सुनना भी एक कला है जिससे हमारे अबगुण दूर होते हैं क्योंकी हम हमेशा अपनी तारिफ को ही सुनते हैं तो निकल चलते हैं लेकिन अगर हम अपनी निंदा को भी सुनें तो हम अपने बहुत से दोष दूर कर सकते हैं इसलिए हमें सुनने की आदत होनी चाहिए, 
सुनने की कला धैर्य से आती है क्योंकी मन का उतावलापन व बिखरापन किसी भी बात को एकाग्रता से सुनने नहीं देता, 
व्यक्ति यही सोचता है कि अगर में अपनी बात नहीं रखुंगा तो सामने बाला  मुझे मूर्ख समझेगा लेकिन जब हम बीच में बोलते हैं तो मूर्ख कहलाते हैं और यह आदत अंहकार से आती है, 
देखा जाए अपनी कीर्ति को हम बार बार सुनना चाहते है्  लेकिन निन्दनिय को नहीं जिस से हमे लाभ हो सकता है  जिससे हम अपनी कमियों को दूर कर सकते हैं, 
आखिर में यही कहुंगा कि जो व्यक्ति कम बोलते  हैं और ज्यादा सुनते हैं उनकी बातों को सभी सुनते हैं और अहमियत भी देते हैं, 
देखा जाए हर व्यक्ति स्वभाव के अनुसार उनके बोलने का तरीका अलग अलग  होता है, कुछ लोग बहुत कम बोलना पसंद करते है् तो कुछ बहुत वातुनी होते हैं, 
मेरे ख्याल में कम शब्दों में कही गई बात अपना गहरा प्रभाव छोड़ देती है ज्यादा बातें अपना प्रभाव कम कर देती हैं, 
इसलिए बोलने से पहले सुनना जरूरी है, ताकि आपको बोलना का मौका मिल सके और सामने वाले की बातों का सही जबाब दे सको, ऐसा करने से आप में एक श्रोता के गुण भी विकसित होंगे, 
सच कहा है, 
जिसे सुनना आ जाए, उसको बोलने की जरूरत नहीं क्योंकी फिर उसका कर्म बोलता है। 
इसलिए  हमें सोच समझ कर बोलना चाहिए और ध्यान से सुनना चाहिए, 
यह भी सच है, 
लफ्ज ही होते हैं इन्सान का आइना, 
शक्ल का क्या वो तो उम्र और हालात के साथ बदल जाती है। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
 हां जी क्रम से देखा जाए तो हमें में सुनने की ताकत होनी चाहिए कोई भी चीज सुनकर ही हम अंतरात्मा में धारण करते हैं और उसे ही किसी को संप्रेषित करने के लिए व्यक्त करते हैं अर्थात बोलते हैं अतः सुनने की ताकत से ही हम ध्यान पूर्वक सुनकर ज्ञान अर्जन करते हैं और अर्जित ज्ञान को दूसरों में व्यक्त करते हैं इससे यही सिद्ध होता है कि बोलने से कहीं अधिक महत्व सुनने की ताकत होती है जिसमें सुनने की ताकत होती है वही व्यक्ति बोलने का ताकत रखता है अतः बोलने से सुनने में ज्यादा ताकत की आवश्यकता होती है।
 - उर्मिला  सिदार 
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
मौखिक अभिव्यक्ति का माध्यम शब्द हैं,जिन्हें  बोलकर लोग परस्पर अपनी भावनाएं व्यक्त करते हैं.कम से कम बोलने वाला एवं मृदुभाषी व्यक्तित्व लोकप्रिय होता है. हमारे अंदर भी बोलने की अपेक्षा सुनने की क्षमता ज्यादा होनी जरूरी है. सुगढ़ और परिमित वाचन कौशल मानव के संपर्क सूत्र को मजबूत करता है.
इसके विपरीत वाचाल और दिमाग चाटने वाले बड़बोलों  को अपमानित करके त्याज्य ही समझा जाता है. यदि समझदारी से विद्वान और विदुषी शख्सियतें सत्संग करके प्रभावी बातें  बताती हैं, निरंतर परहितार्थ गूढ़ और प्रेरक प्रसंगों पर टिप्पणी करती हैं, तो ऐसे वक्ताओं के समीप रहना भाता है,क्योंकि दूरस्थ लाभान्विति और सफलता तभी मिल पाती है.
ऐसे वक्ताओं के शरीर से भी आकर्षणयुक्त तरंगें निकलती हैं .
कम और जरूरी बातें बोलकर अच्छे श्रोताओं को सरलता से अपना मुरीद बनाया जा सकता है.
बोलने वाले अनगिनत व्यवसायों में भी सोच समझकर ही बोलना चोहिये.
यूँ ही कलमकार शाशवत शब्द लिखकर नहीं  गए हैं इस दुनिया से.
-"ऐसी बानी बोलिये,मन का आपा खोय।
 औरन को सीतल करे,आपहु सीतल होय।।"
                       ××
मीठी वाणी बोलिये,सुख उपजत चहुँ ओर। 
वशीकरण एक मंत्र है,तज दे वचन कठोर।।
                  ××××
कोकिल और काक के स्वर भी अच्छे बुरे प्रतीति कराते हैं.
अतः निष्कर्षतः यही कहना सटीक है,कि हमें कम और सार्थक बोलना चाहिये.
ज्यादा बोलने से कभी-कभी अनर्गल बातें  संबंधों  को अपाहिज बना देती हैं.
- डा.अंजु लता सिंह 
 दिल्ली
जी हां मैं इस बात से सहमत हूं ! बहुत बार हम किसी के लिए कहते हैं यह बहुत बड़बोला है किसी की सुनता ही नहीं...इसका मतलब साफ है कोई उसकी बात को तथ्य नहीं देता ! दूसरों की बात को ध्यान से सुनना एवं सार में हम उनकी बातों पर गौर भी करते हैं एवं हमें ज्यादा सुनने से सभी की बातों से बहुत सी बातें जानने और सीखने को मिलती है ! ध्यान से सुनकर ही हम उसकी प्रतिक्रिया दे सकते हैं ना की अधिक बोलकर !
अधिक बोलकर  हम अपनी कमजोरियां भी पिरस देते हैं ! पेट में बात पचा नहीं सकते जिसके परिणाम खतरनाक अंजाम भी देते हैं !!बहुत बोलने वाला  व्यक्ति दूसरे को बोलने का मौका ही नहीं देता यूं कह सकते हैं सुनना ही नहीं चाहता ! कम बोलना और अधिक सुनने वाले की बात को सभी गंभीरता से लेते हैं एवं कम बोलने वाले थोडे़ शब्दों में ही अपनी बात को समझा देते हैं ! उसकी बातों में दम होता है ! सभी उसे सुनना पसंद करते हैं !
अधिक सुनना और कम बोलना हमारे मृदु स्वभाव एवं विवेकशीलता का परिचायक है  !
व्यक्ति का व्यक्तित्व ही उसकी पहचान है ! 
                -  चंद्रिका व्यास
                 मुंबई - महाराष्ट्र
हाँ हमारे अन्दर बोलने से ज्यादा सुनने की ताकत होनी चाहिए ।यहाँ ज्यादा शब्द पर ध्यान देना जरुरी है ।केवल चुप रहने को  नहीं कहा गया है  ।ज्यादा सुनना लाभ दायक होता है ।हम अपनी शक्ति बचाके रखते हैं ,बोलने में कुछ न बोलने वाली बातें भी कहा जाती है जो रिश्तों को भी प्रभावित करती हैं ।अनर्गल बातें व्यक्तित्व को कमजोर करती हैं  ।बात करने का सही तरीका है कि आप दूसरे की बातें ध्यान से सुने ।
- कमला अग्रवाल
गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश
हाँ,बोलिए कम सुनिए ज्यादा। यह बहुत  सही कहा गया है। व्यक्ति के बड़बोलेपन से बहुत  कुछ  उसका व्यक्तित्व पता चल जाता है। " तोल मोल के बोल" ऐसा सदैव कहा जाता है जो सही भी है क्योंकि मुँह से निकली कोई भी बात फिर  वापस नहीं ली जा सकती। दूसरे की बात सदैव हमें ध्यान से सुननी चाहिए ताकि हम कुछ  सीखे। कोई भी व्यक्ति परिपक्व नहीं होता है , वह जीवन पर्यंत निरन्तर सीखता हीं रहता है । क्या  बुरा है अगर हम किसी की बातों को ध्यानपूर्वक सुने। हाँ  जहां आवश्यकता हो वहां जरूर बोले। इसीलिए मेरे विचार से भी सुनना धैर्यपूर्वक किसी को ज्यादा उचित है ना कि हम हीं बोलते जाएं ये सोचकर कि मैं सामने वाले से ज्यादा काबिल हूं। कम बोलकर और दूसरो को सुनकर भी लोग जान सकते हैं कि  सुनने वाला भी ज्ञानी है तभी भी मेरी बात सुन रहा है।  इससे सुनने वाले का मान  और भी बढ़ हीं जाता है। इसीलिए बोलिए  मगर सुनिए भी सब की।
- डाॅ पूनम  देवा
पटना - बिहार

" मेरी दृष्टि में " सुनने के लिए भी जिगर चाहिए । अक्सर सुनना पसंद नहीं करते हैं । जो बोलते हैं वह नये - नये विवादों को जन्म देते रहते हैं । सुनने वाले समस्याओं का समाधान करते हैं । 
- बीजेन्द्र जैमिनी

Comments

Popular posts from this blog

वृद्धाश्रमों की आवश्यकता क्यों हो रही हैं ?

हिन्दी के प्रमुख लघुकथाकार ( ई - लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी

लघुकथा - 2023 ( ई - लघुकथा संकलन )