क्या शिक्षा का मूल उद्देश्य रोजगार के साथ - साथ चरित्र निर्माण भी आवश्यक होना चाहिए ?

शिक्षा में रोजगार व चरित्र निर्माण पैदा करने की शक्ति होनी चाहिए । तभी वह शिक्षा कामयाब  कहीं जा सकती है । वैसे शिक्षा का प्रभाव अपने आप नज़र आता है। यही " आज की चर्चा "  का प्रमुख उद्देश्य है । अब देखते हैं आये विचारों को : -
यह कैसा प्रश्न? जीवन में शिक्षा के साथ रोजगार और चरित्र निर्माण का प्रश्न l l शिक्षा शब्द का सामान्य अर्थ है कुछ सीखना l सीखने के लिए पढ़ना -लिखना आना विशेष आवश्यक नहीं है l 
एक वयक्ति देखकर, सुनकर, जीवन- समाज के कई तरह के खट्टे -मीठे अनुभव प्राप्त कर के भी बहुत कुछ सीखा जा सकता
 है l अपने हुनर से लोगों को कायल करता है l 
स्वामी विवेकानंद ने कहा है -"शिक्षा द्वारा बालक की अंतर्निहित शक्तियों का विकास होता है जिससे वह देश और समाज का सुयोग्य नागरिक बनता है l "सुयोग्य नागरिक बनने के लिए चरित्र निर्माण की आवश्यकता है l शिक्षा के साथ साथ स्वावलंबन, संस्कार, श्रम निष्ठा, कर्तव्य परायणता, सदा चरित जीवन की पवित्रता का पाठ सीखकर सुनागरिक बनने के साथ साथ समाज की सेवा और सार सम्हाल करने लायक बनता है l छोटे छोटे कोमल निर्मल बाल मन पर बालक अनुकरण की प्रवृति से देखकर सीखना उसका अद्भुत गुण होता है l शिक्षा और नौकरी का वास्तव में अपने आप में कोई सीधा संबंध नहीं है, यद्यपि शिक्षा प्राप्त व्यक्ति को नौकरी की प्राप्ति अशिक्षित अनपढ़ से कहीं अधिक सुविधा से प्राप्त हो जाया करती है l शिक्षा का सीधा और वास्तविक संबंध व्यक्ति के मन, मस्तिष्क, आत्मा और इस प्रकार व्यक्तित्व के सम्पूर्ण विकास के साथ ही हुआ करता है l इसके विपरीत नौकरी आदमी अपना तथा अपने घर परिवार का पेट पालने, जीविका चलाने और अन्य भौतिक आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए करता है l शिक्षा को इन या इन जैसे समस्त कार्यो में सहायक अवश्य कहा जा सकता है l इन तथ्यों और तत्वों के चरम सत्य होते हुए भी आज शिक्षा का सीधा संबंध नौकरी से जोड़ दिया गया है,इस बात से कतई इंकार नहीं किया जा सकता l 
आज पढ़ा लिखा होने पर भी प्रार्थना पत्र तक सही भाषा में लिख पाने में समर्थ नहीं हो पाता l त्रासदी यह भी है कि परम्परागत शिक्षा और परीक्षा प्रणाली आज की तकनीकी आवश्यकताओं के कारण सीधे नौकरी दिला पाने मेंभी समर्थ एवं सक्षम नहीं बना पाती , वह मात्र साक्षर बना पाती है l नौकरी पाने के लिए कई तरह का तकनीक व्यक्ति को अलग से सीखना पड़ता है l 
कॉन्वेंट या अंग्रेजी स्कूलों से पढ़े बच्चों में संस्कार का आज अभाव पाया जाता है फिर ये कैसी
 शिक्षा l
जो शिक्षा अपने राष्ट्रीय मानों -मूल्यों का लक्ष्य तक नहीं साध सकती, उसे व्यर्थ ही कहा जा सकता है l 
            चलते चलते --                        
 1. गणितज्ञ शकुंतला देवी, लता मंगेशकर और कई प्रमुख  व्यवसायी आज ऊंचाइयों को छू रहे हैं l 
2.पोथी पढ़ पढ़ जग मुआ 
पंडित भया न कोई l 
ढाई आखर प्रेम का 
पढ़े सो पंडित होय ll 
- डॉ. छाया शर्मा
 अजमेर - राजस्थान
रोजगार के साथ साथ चरित्र भी अति आवश्क है क्योंकी चरित्र के विना शिक्षा भी अधुरी है यहि नही  इसके विना कोई भी रोजगार उजागर नहीं हो सकता, चरित्र ही एक अच्छे  मनुष्य की पहचान है। 
किसी भी  व्यक्ति को मरने के वाद भी अगर याद रखा जाता है तो वो सिर्फ उसके  चरित्र ओर व्यकि्त्व के कारण ही रखा जाता है, हर इन्सान को लोगों की उम्मीद पर खरा उतरना चाहिए क्योंकी लोगों को  हर कर्मचारी से  वहुत सारी उम्मीदें होती हैं, यह तभी पुर्ण होती हैं जव कोई भी कर्मचारी अपने चरित्र में रहकर विना लोभ लालच के विना कार्य करता है, कहा गया है जव चरित्र चला जाता है तो सव कुछ चला जाता है 
इसलिए  मनुष्य को अपने चरित्र की तरफ मूल धयान देना चाहिए, शिक्षा का मतलब सिर्फ रोजगार लेना अोर किताबें पढना या पास होना ही नहीं है, अपितु देखना यह है कि आपकी शिक्षा का कितने लोगों को लाभ हुआ, क्या जो आपको डयूटी दी जा रही है आप उस को सही ढंग से निभा रहे हैं आपका लोगों के प्रति  स्नेह कैसा है यह सब वातें आपका चरित्र दर्शाती हैं। 
इसीकारण किसी भी  कर्मचारी को सर्विस देने से पहले उसका चरित्र सार्टिफिकेट देखा जाता है, आजकाल  वहुत से युवा  कुसंगति का शिकार हो चूके  हैं  जिसका मूल कारण यही है कि पढाई के साथ साथ उनके  चालचलन की तरफ ध्यान नहीं दिया गया, जिसका पूरा दोष उनके माता पिता व गुरूजनों को जाता है, जिनहोंने  चरित्र को महत्व न देकर उनका जीवन भी  खतरे  में डाल कर यह सावित कर दिया की गूरू अोर माता पिता ने अपनी डयूटी को सही ढंग से नही निभाया, जिससे उन दोनों का चरित्र साफ झलकता है, इसलिए शिक्षा का मूल उदेश्य रोजगार लेना ही नहीं हैअपितू इसके साथ साथ चरित्र नि्र्माण भी अति आवश्क है।
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
शिक्षा का मूल उद्देश्य-- 
विद्या ददाति विनयं विनयाद्याति
पात्रताम्-- 
विद्या विनय अर्थात् विनम्रता प्रदान करती है विनम्रता से योग्यता प्राप्त होती है और योग्यता से धन अर्थ कमाया जा सकता है इस प्रकार समुचित रूप से कमाया हुआ धन हम अच्छे कार्यों में खर्च कर सकते हैं
इससे हमें एक आत्मिक संतुष्टि और खुशी मिलती है।
शिक्षा का मूल उद्देश्य रोजगार के साथ-साथ व्यक्ति के व्यक्तित्व चरित्र निर्माण का होना अति आवश्यक है
जैसा कि आज के परिपेक्ष में हम देखते हैं कि चाहे वह समाज का कोई भी वर्ग क्यों ना हो सभी के बच्चे अच्छी शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं बड़े-बड़े अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में पढ़ रहे हैं। इसके बावजूद यह देखने को मिलता है कि बच्चों में संस्कार और सामाजिक गुणों का पुट बहुत कम देखने को मिलता है या नाम मात्र ही रह गया है।
धन कमाने के लिए वह शिक्षा तो ग्रहण कर लेते हैं योग्य भी  हो जाते हैं ट्यूशन और कोचिंग सेंटर के माध्यम से परंतु संस्कार धैर्य और धीरज बहुत कम देखने को मिलता है इसके कारण ही बच्चों में खासकर युवाओं में आत्महत्या जैसी दरें की बढ़ रही है।
वृद्ध आश्रम जैसी व्यवस्था इस कारण  से प्रचलित हुई। विवाह विच्छेद जैसी समस्याएं भी उत्पन्न हो रही है।
उपरोक्त बातों को ध्यान में रखते हुए समाज और परिवार के ढांचे को मजबूती से निर्मित करने के लिए शिक्षा का मूल उद्देश्य रोजगार के साथ-साथ चरित्र निर्माण का होना भी अति आवश्यक होना चाहिए ।
- आरती तिवारी सनत
 दिल्ली
       ईश्वर द्वारा लगाए गए पेट को भरना मानव का पहला कर्त्तव्य है। जिसे भरने के लिए श्रम करना पड़ता है। वह श्रम शारीरिक हो चाह‌े मानसिक हो। चूंकि भूखे भजन भी नहीं होता। 
       श्रम करने के लिए श्रमिक को शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थ होने के साथ-साथ शिक्षित भी होना चाहिए। क्योंकि रोजगार शिक्षा के आधार पर मिलता है।
       शिक्षा की बात करें तो वह भी विभिन्न प्रकार की होती है। जिनमें साधारण और तकनीकी शामिल हैं। साधारण शिक्षा से तकनीकी शिक्षा अत्याधिक प्रभावशाली होती है। जिस पर रोजगार तय किया जाता है।
       अब चरित्र की बात आती है। जिसौके लिए कहा गया है कि धन का खोना अर्थात कुछ ना खोना, स्वास्थ्य का खोना अर्थात कुछ न कुछ खोना परंतु चरित्र का खोना अर्थात सब कुछ खोना।
       अर्थात चरित्र जीवन का सबसे मूल्यवान एवं महत्वपूर्ण अंग है। जिसका निर्माण शिक्षा के माध्यम से शिक्षिक द्वारा संभव है। 
       सर्वविदित है कि चरित्र से घर, गांव, शहर, राज्य और राष्ट्र का उत्थान होता है। जिस पर सब का भविष्य टिका होता है। 
       उल्लेखनीय है कि देश के लिए मर-मिटना चरित्र ही सिखाता है। राष्ट्रीय एकता और अखंडता की प्ररेणा भी चरित्र ही देता है। चरित्र ही देता है सवा लाख से एक लड़ाने की प्ररेणा और वही प्ररेणा कब जिंदा नींव में चिनवा कर अमर करवा दे, पता नहीं चलता। वह चरित्र ही था जो कभी भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के रूप में और कभी उधम सिंह के रूप में फांसी पर चढ़ गया। चरित्र पर भाई मति दास जी आरे से चीरे गए और अब्दुल हमीद अंतिम सांस तक अपने देश के लिए लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए थे। चरित्र का ही रूप सुभाष चन्द्र बोस व आजाद हिन्द फौज है और चरित्र ही चंद्र शेखर आजाद कहलाता है। चरित्र तो वह साहस है जो रानी झांसी में उमड़ा था और महाराणा प्रताप सिंह का गौरव था। मियां डीडो डोगरों के चरित्र के सशक्त स्तम्भों में से एक हैं। चरित्र को ही अब्दुल कलाम माना गया है। जिन्होंने मार्गदर्शन करते हुए शिक्षा दी हुई है कि जहां तक दृष्टि से दिखाई देता है वहां तक जाओ, आगे का रास्ता वहां जाकर दिखाई देगा। चरित्र पसीना और रक्त है। जिसे हमारे सैनिकों ने गलवान घाटी में वीरगति प्राप्त कर प्रदर्शित किया है।
       इसलिए शिक्षा का मूल उद्देश्य रोजगार के साथ-साथ चरित्र का निर्माण अत्यंत महत्वपूर्ण, आवश्यक एवं अनिवार्य होना चाहिए।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
 शिक्षा का मूल उद्देश्य रोजगार के साथ-साथ चरित्र निर्माण भी अनिवार्य रूप से होना चाहिए। शिक्षा का मुख्य उद्देश्य ही होता है चरित्र निर्माण और व्यक्तित्व विकास। साथ ही साथ शिक्षा के द्वारा समाज और देश की आवश्यकता की भी पूर्ति होनी चाहिए।
    प्राचीन और आधुनिकता का समन्वय, भौतिकता व आध्यात्मिकता का समन्वय होना चाहिए। व्यवहार और सिद्धांत का भी संतुलन होना चाहिए।
  शिक्षा में पारिवारिक भाव का विकास एवं शैक्षिक परिवार की संकल्प होनी चाहिए। समग्रता का भी दृष्टिकोण होना जरूरी है।
   सैद्धांतिक और व्यावहारिक स्तर पर कार्य करते हुए देश काल की समय की आवश्यकता के अनुसार रोजगार के साथ-साथ चरित्र निर्माण अनिवार्य है। वर्तमान में कुछ शिक्षित युवा वर्ग जिस तरह आक्रामक तेवर के साथ इंसान को धर्म और जाति में बांटने में लगे हैं यह बहुत ही घातक है। चरित्र निर्माण से प्रेम और सौहार्द का संचार होगा। जीवन सुखमय होगा। लोगों के व्यवहार में नरमी व विनम्रता आएगी और कट्टरता भी खत्म होगी। इसलिए शिक्षा का मूल उद्देश्य रोजगार के साथ-साथ चरित्र निर्माण भी आवश्यक होना चाहिए।
- सुनीता रानी राठौर
               ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
शिक्षा का उद्देश्य रोज़गार तो हो लेकिन इससे पहले चरित्र निर्माण ही होना चाहिए क्योंकि एक शिक्षित व्यक्ति अगर चरित्रवान होगा तो बेरोज़गार रहने कम चांस होंगे और यदि चरित्रहीन होगा तो रोज़गार मिलने के बाद भी बेरोज़गार हो जाएगा । 
वर्तमान ही नही भूतकाल में भी चरित्र निर्माण शिक्षा का मुख्य उद्देश्य था और हमेशा होना चाहिए बालक के नैतिक चरित्र का निर्माण करना ही चाहिए भारतीय दार्शनिकों का अटल विश्वास है कि केवल लिखना-पढना ही शिक्षा नहीं है वरन नैतिक भावनाओं को विकसित करके चरित्र का निर्माण करना परम आवश्यक है। मनुस्मृति में लिखा है कि ऐसा व्यक्ति जो सद्चरित्र हो चाहे उसे वेदों का ज्ञान भले ही कम हो, उस व्यक्ति से कहीं अच्छा है जो वेदों का पंडित होते हुए भी शुद्ध जीवन व्यतीत न करता हो। अत: प्रत्येक बालक के चरित्र का निर्माण करना हर युग में आचार्य का मुख्य कर्त्तव्य समझा जाता रहा है। पुराने समय में इस सम्बन्ध में प्रत्येक पुस्तक के पन्नों पर सूत्र रूप में चरित्र संबंधी आदेश लिखे रहते थे तथा समय –समय पर आचार्य के द्वारा नैतिकता के आदेश भी दिये जाते थे एवं बालकों के समक्ष राम, लक्ष्मण, सीता तथा हनुमान आदि महापुरुषों के उदहारण प्रस्तुत किये जाते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि प्राचीन भारत की शिक्षा का वातावरण चरित्र-निर्माण में सहयोग प्रदान करता था। समय के साथ जीवन जीने के तौर तरीक़े बदले हैं लेकिन जो जीवन की मूल आवश्यकताएँ है वो नहीं बदली हैं । शिक्षा रोज़गार के अवसर प्रदान करती हो साथ ही सद्भावना पूर्ण सामाजिक माहौल भी प्रदान करती हो वर्तमान में यही व्यक्ति की वह आवश्यकता है जो एक शिक्षित समाज से अपेक्षा की जाती है । वास्तव में शिक्षा का उद्देश्य रोज़गार के साथ ही साथ चरित्र निर्माण होना चाहिए । 
- डॉ भूपेन्द्र कुमार धामपुर
 बिजनौर - उत्तर प्रदेश
     जब से मानव सभ्यता का सूर्य उदय हुआ हैं, तभी से भारत अपनी शिक्षा तथा दर्शन के लिए प्रसिद्ध रहा हैं, यह सब भारतीय शिक्षा के उद्देश्यों का ही चमत्कार हैं, कि भारतीय संस्कृति ने संसार का सदैव पथ-प्रदर्शन किया और आज भी जीवित हैं। प्राचीन भारत में प्रत्येक बालक के मस्तिष्क में पवित्रता तथा धार्मिक जीवन की भावनाओं को विकसित करना रहा हैं, नैतिक चरित्र का बालक के व्यक्तित्व को पूर्ण रूपेण विकसित करना, नागरिक एवं सामाजिक कर्तव्यों का विकास करना,  सामाजिक कुशलता तथा सुख की उन्नति करना, राष्ट्रीय सम्पत्ति तथा संस्कृति का संरक्षण एवं विस्तार करना रहा हैं। वही मध्य युग में इस्लाम  पद्धति का प्रवेश हुआ, जहाँ प्रति दिन मुसलमानों द्वारा अपने उद्देश्यों का प्रसार-प्रसार। साथ ही हिंदू संस्कृति, धर्म परायणता के साथ-साथ साहित्य की तरफ रुझान हुआ और काफी धर्म ग्रंथों के साथ अनेकों विद्वानों ने शिक्षा संबधित का बखूबी से बखान कर जोड़ने का प्रयास किया। वर्तमान भारत में शिक्षा को निम्नवत श्रेणियों में विभक्त करते हुए  विश्वविद्यालय, उच्चतर, माध्यमिक, प्राथमिक स्तर पर विभिन्न प्रकार की शिक्षा पद्धति को पारदर्शिता पूर्ण रूपेण विकसित करने जोड़ने का अथक प्रयास किया। जिसमें सभी समुदायों को रोजगार के साथ-साथ, चरित्र निर्माण का अभिनव उपाय सौर ऊर्जा जैसे फल प्रति फल मिलते रहे। किन्तु शिक्षा प्राप्त कर भटक रहें हैं, जिसके कारण नैतिक शिक्षा का हनन होता जा रहा हैं, बेरोजगारी बढ़ने लगी हैं,दर-दर भटक रहें हैं  ऐसे में आजीविका हेतु लुट, खसौत, बेमानी का अम्बार बढ़ता जा रहा हैं। शासकीय व्यवस्थाओं में रोजगार हेतु लम्बी-लम्बी कटारे लगी हुई हैं। जिसका अर्द्धशासकीय 
कार्यालयों ने फायद उठाकर, लम्बे  समय तक कार्य करवा जा रहा हैं, कार्य की अधिकता और वेतन कम प्रदान किया जा रहा हैं। महंगी शिक्षा प्राप्ति पश्चात भी, शिक्षा के अनुरूप वेतन नहीं मिलना और शिक्षा का मूल्यांकन समझ में नहीं आ रहा हैं। जिसके कारण भी चरित्र निर्माण का स्तर भी प्रति दिन घटता जा रहा हैं। इसलिए शिक्षा के उद्देश्य को सार्वभौमिकता और चरित्र निर्माण को वृहद स्तर पर विकसित करने की आवश्यकता प्रतीत होती हैं।
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
   बालाघाट - मध्यप्रदेश
 शिक्षा का मूल उद्देश्य रोजगार के साथ-साथ चरित्र निर्माण के लिए  समीचीन आवश्यकता  महसूस की जा रही है। शिक्षा  के माध्यम से ज्ञान, विवेक, विज्ञान संपन्न होना है ।शिक्षा का उद्देश्य है अर्थात संपूर्ण ज्ञान को प्राप्त करना विवेक के अर्थ को समझना विज्ञान के प्रयोग से भौतिक संसाधन की व्यवस्था करना ।इन तीन ज्ञान से ही मनुष्य संपन्न होकर इस  धरा पर  जी सकता है। शिक्षा का उद्देश्य हर मनुष्य को स्वायत्त मानव बनाना है स्वायत्त मानव का गुण है।
  स्वयं में विश्वास होना, श्रेष्ठता का सम्मान  प्रतिभा और व्यक्तित्व में संतुलन, समाजिक व्यवहार एवं व्यापार में स्वालंबन इन 5 गुणों से मनुष्य समस्या से मुक्त होकर निरंतर सुख पूर्वक जी सकता है।   सामाजिक व्यवहार का अर्थ है आचरण में जीना आचरण का अर्थ है मूल्यों के साथ संबंधों में जीना, चरित्र के साथ समाज में जीना एवं नैतिकता के साथ प्रकृति में जीना, नैतिकता का अर्थ है अर्थनीति, धर्म नीति, राज्य नीति, आचरण में यही तीन   व्यवहार आते हैं। अर्थात हम स्वयं कैसे जी पाए ,परिवार के साथ कैसे जी पाए ,समाज के साथ कैसे जी पाए और प्रकृति के साथ कैसे जी पाएं , इन्हीं ज्ञानो को शिक्षा के माध्यम सेप्राप्त  किया जाता ह।  मनुष्य शरीर और आत्मा दोनों का संयुक्त रूप है आत्मा के लिए ज्ञान और शरीर के लिए भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता होती है जो हमें रोजगार से आय प्राप्त  होती है और शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। ज्ञान हमें सत्य मार्ग दिखाती है। और समस्या से मुक्ति दिलाती है। एवं निरंतर सुख पूर्वक जीने की प्रेरणा देती है यही शिक्षा का मूल उद्देश्य है अर्थात रोजगार के साथ-साथ हमें आत्मज्ञान से मूल्य चरित्र और नैतिकता काभी ज्ञान  होना भी जरूरी है। आत्मज्ञान होने से ही मनुष्य सुख शांति संतोष आनंद के साथ ही संसार में जीता हुआ अपने को मानव रूप में प्रमाणित करेगा । यही जीवन का सार्थक है इसी के लिए शिक्षा की आवश्यकता है। यही शिक्षा का मूल उद्देश्य है।
 - उर्मिला सादार
 रायगढ़ - छत्तीसगढ़
शिक्षा का मतलब ही चहूमुखी विकास है , विवेक का जागना निर्णय की क्षमता और सही ग़लत में फ़र्क़ , 
शिक्षा से ही आते हैं संस्कारों से भी मानव का चारित्रिक विकास होता है परन्तु वह सोने में सुहागा काम करता है यदि व्यक्ति शिक्षित हों और अधिक नैतिक मुल्कों समझ पायेगा 
व्यापक अर्थ में ज्ञान का अर्थ मानसिक विकास से होता है। अत: ज्ञान का तात्पर्य विभिन्न विषयों को रट लेने से ही नहीं है ; अपितु मस्तिष्क को शक्ति प्रदान करते हुए अनुशासन में रखना है। ऐसा ज्ञान उचित और अनुचित का बोध करता है तथा कार्य करने हकी क्षमता का विकास करता है। वास्तव में सच्चा ज्ञान व्यक्ति के जीवन को सफल और सुखी बनाने में पूर्ण सहयोग प्रदान करता है। परन्तु ऐसा उसी समय सम्भव हो सकता है जब
ज्ञान को बालक अपने अनुभव के आधार पर स्वयं ही खोज कर निकाले। इससे वह अपने भावी जीवन में आने वाली कठिनाईयों का बहादुरी के साथ सामना कर सकेगा तथा प्रत्येक समस्या को अपने पूर्व अनुभव के आधार पर सुलझाने में सफल हो सकेगा। यही कारण है कि कुछ शिक्षा-शास्त्रियों ने “विद्या के लिए विद्या“ के स्थान पर “मानसिक विकास” को महत्वपूर्ण स्थान दिया है।
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य सुख और शान्ति प्राप्त करना है। बिना शिक्षा के सुख और शान्ति प्राप्त करना कोरी कल्पना है।
ज्ञान के बल से व्यक्ति की उन्नति एवं विकास होता है।
जब व्यक्ति को विभिन्न संस्थाओं, सांसारिक वस्तुओं, प्राकृतिक नियमों एवं आत्मा का पूर्ण ज्ञान हो जाता है, तो उस समय वह न केवल सांसारिक जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ही सफल होता है अपितु परलोक में भी आनन्द और सुख का अनुभव करता है।
जिस प्रकार भोजन करने से मनुष्य का शारीरि बलवान बन जाता है, उसी प्रकार से ज्ञान द्वारा व्यक्ति अपने विचारों और भावनाओं को अनुशासन में रखना सीख जाता है तथा उन्हें संगठित करने में भी सफल जो जाता है। ज्ञान में वृधि होने पर व्यक्ति में एक शक्ति पैदा हो जाती है, जिसकी सहायता से वह स्वयं को भी परिस्थिति के अनुसार बना लेता है और अपने वातावरण पर भी विजय प्राप्त करने का गौरव प्राप्त करता है।
व्यवसायिक उद्देश्य में भी सफलता उसी समय प्राप्त हो सकेगी, जब किसी अमुक व्यवसाय का पूर्ण ज्ञान होगा।
ज्ञान की सहायता से ही नैतिक तथा चारित्रिक निर्माण के उद्देश्य को पूरा किया जा सकता है।
मानसिक विकास हो जाने पर व्यक्ति इस योग्य हो जाता है कि वह आचार-विचार, कल्पना एवं स्मरण शक्तियों का उचित प्रयोग कर सके। इससे उसको भी लाभ होता है और समाज का भी कल्याण होता है।
 भारत की प्राचीन शिक्षा का दूसरा उद्देश्य था – बालक के नैतिक चरित्र का निर्माण करना। उस युग में भारतीय दार्शनिकों का अटल विश्वास था कि केवल लिखना-पढना ही शिक्षा नहीं है वरन नैतिक भावनाओं को विकसित करके चरित्र का निर्माण करना परम आवश्यक है। मनुस्मृति में लिखा है कि ऐसा व्यक्ति जो सद्चरित्र हो चाहे उसे वेदों का ज्ञान भले ही कम हो, उस व्यक्ति से कहीं अच्छा है जो वेदों का पंडित होते हुए भी शुद्ध जीवन व्यतीत न करता हो। अत: प्रत्येक बालक के चरित्र का निर्माण करना उस युग में आचार्य का मुख्य कर्त्तव्य समझा जाता था। इस सम्बन्ध में प्रत्येक पुस्तक के पन्नों पर सूत्र रूप में चरित्र संबंधी आदेश लिखे रहते थे तथा समय –समय पर आचार्य के द्वारा नैतिकता के आदेश भी दिये जाते थे एवं बालकों के समक्ष राम, लक्ष्मण, सीता तथा हनुमान आदि महापुरुषों के उदहारण प्रस्तुत किये जाते थे। कहने का तात्पर्य यह है कि प्राचीन भारत की शिक्षा का वातावरण चरित्र-निर्माण में सहयोग प्रदान करता था।
सामाजिक, नैतिक तथा अध्यात्मिक मूल्यों को विकास करना। देश का आधुनिकीकरण करने के लिए कुशल व्यक्तियों का होना परम आवश्यक है। अत: हमको पाठ्यक्रम में विज्ञान तथा तकीनीकी विषयों को मुख्य स्थान देना होगा। इन विषयों से चारित्रिक विकास एवं मानवीय गुणों को क्षति पहुँचने की सम्भावना है। अत: आयोग ने सुझाव प्रस्तुत किया है कि पाठ्यक्रम में वैज्ञानिक विषयों के साथ-साथ मानवीय विषयों को भी सम्मिलित किया जाये जिससे औधोगिक उन्नति के साथ-साथ मानवीय मूल्य भी विकसित होते रहें और प्रत्येक नागरिक सामाजिक, नैतिकता तथा अध्यात्मिक मूल्यों को प्राप्त कर सकें।
हमारे जीवन में शिक्षक चरित्र दोनों का ही महत्व है कहावत है “जैसा खाए अन्न वैसा हो मन “
हमारे जीवन के आचरण का मूल आधार है शिक्षा !
- डॉ अलका पाण्डेय 
मुम्बई - महाराष्ट्र
छोट सा शब्द अपने अन्दर व्यापक अर्थ  लिए हुए है जिसके अन्दर सिर्फ़ विशेष सिलेबस निहित नही होता संस्कार , चरित्र निर्माण , जीवन से सम्बन्ध रखने वाली बातें, सफलता मे संयम रखना , असफलता को एक चुनौती के रूप मे लेना आदि ये सब शिक्षा का हिस्सा होता है । चरित्र निर्माण सबसे महत्वपूर्ण व आवश्यक है जो निश्चित रूप से ही शिक्षा का एक ज़रूरी और महत्वपूर्ण हिस्सा है ।आज के दौर मे तो ये सबसे आवश्यक है कि विद्यार्थियों को इसकी शिक्षा दी जानी चाहिए और चरित्र निर्माण की आवश्यकता भी समझाई जानी चाहिए 
   - नीलम नारंग
हिसार - हरियाणा
इसमें कोई दो राय नहीं कि हमारा या कह लीजिए बच्चों का अक्षर ज्ञान शिक्षा से ही प्रारम्भ होता है । अब शिक्षा का प्रारम्भ देखें तो विद्यालय से होता है ।वो देवस्थान जहां एक कोरे कागज पर न जाने कितनी ही तस्वीर उकेरने का कार्य किया जाता है।अर्थात इस बालक को युवा तक ले जाया जाता है।उसे दीन दुनिया का ज्ञान दिया जाता है।उसको इस काबिल बनाया जाता है कि वो आगे चलकर रोजगार प्राप्त कर अपने जीवन का अच्छे से निर्वाह कर सके और ऐसा होता भी है।
         इसलिए हम अपनी शिक्षा के तंत्र में ही रोजगार के साथ चरित्र निर्माण को भी प्रमुखता दे दें तो एक ऐसे युवा का गठन होगा जो सिर्फ रोजगार की ही नहीं बल्कि राष्ट्र और समाज निर्माण को भी समझेगा।उसका व्यक्तित्व हमारे समाज की रीति रिवाजों के अनुकूल होगा।तब शायद वो दिक्कतें नहीं आएंगी जो आज समाज में देखने को मिलती हैं।तभी जाकर शिक्षा का भी सार्थक मायना समझा जाएगा।
      अर्थात शिक्षा का मूल उद्देश्य रोजगार के साथ - साथ चरित्र निर्माण भी आवश्यक होना चाहिए।यदि ऐसा होता है तो राष्ट्र निर्माण तथा सामाजिक सौहार्द की सिलसिला भी संग संग चलता जाएगा।
- नरेश सिंह नयाल
देहरादून - उत्तराखंड
 जहाँ  तक यह प्रश्न है कि क्या शिक्षा का उद्देश्य है रोजगार प्राप्ति के साथ-साथ चरित्र निर्माण आवश्यक रूप से होना चाहिए तो बिल्कुल सही बात है की शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण भी मूल रूप से होना चाहिए चरित्रवान व्यक्ति घर समाज नगर पूरे देश को मजबूती प्रदान करता है उसकी प्रत्येक क्षेत्र में उन्नति का कारण बनता है और यदि व्यक्ति शिक्षित तो है और वह संस्कारी और चरित्रवान नहीं है तो वह किसी के लिए भी समस्या का कारण हो सकता है ऐसे  शिक्षित व्यक्ति और ऐसी शिक्षा का कोई मतलब नहीं है जो किसी भी रुप से समाधान का हिस्सा न होकर समस्या का कारण बनता है इस प्रकार से यह परमावश्यक  आवश्यक है कि शिक्षा का मूल उद्देश्य रोजगार प्राप्ति के साथ-साथ चरित्र निर्माण भी होना चाहिए़़
 - प्रमोद कुमार प्रेम 
नजीबाद - उत्तर प्रदेश
शिक्षा का मूल उद्देश्य चरित्र निर्माण ही है और होना भी चाहिए। मनुष्य एक.सामाजिक प्राणी है। वह परिवार और समाज के बीच रहकर अपना जीवनयापन करता है, इसीलिए यह बहुत ही आवश्यक है कि वह अपने कर्तव्यों और दायित्वों के प्रति जानकार भी रहे , निष्ठा से निभाने में  योग्य, परिपक्व और सामर्थ्यवान भी रहे। चरित्र निर्माण से वह अपनी जिम्मेदारियों को सहज,सरल और सौहार्दपूर्ण वातावरण में निभाने और सामंजस्य बनाने में सक्षम भी रहेगा और सफल भी रहेगा। चरित्र निर्माण के बाद शिक्षा ज्ञानवान भी बनाती है। जो जीवनयापन के लिए आवश्यक रोजगार का मार्ग भी प्रशस्त करती है। अतः जीवन यापन और जीवनशैली के लिए शिक्षा का बहुत ही महत्व है। जिसके लिए संबंधित  सभी को अपनी जिम्मेदारी और जबाबदारी निर्भीकता, गंभीरता और शुचिता से निभानी चाहिए। इसमें से कोई एक पक्ष भी कमजोर रहता है तो उसका प्रभाव पूरे समाज पर पड़ता है।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
  शिक्षा के मूल उद्देश्य रोजगार के पहले चरित्र निर्माण है। इसलिए अभी जो नई शिक्षा नीति बनी है, भारतीय संस्कृति पर आधारित जनतांत्रिक समाज को सफल बनाने के लिए एवम साथ ही साथ  शिक्षा के उचित व्यवसायिक आवश्यकता को अनुभव करते हुए बना है।
वर्तमान भारत में शिक्षा के उचित उद्देश्य का निर्माण का होना। साक्षरता के लिए,भय को मिटाने के लिए ,तौर तरीके  के व्यवहार में बदलाव के लिए शिक्षा के लिए।यह रूपरेखा को ध्यान में रखकर तैयार किया गया है।
 आचरण तथा नैतिक चरित्र विकास,संतुलित व्यक्तित्व का विकास,सामाजिक संगठन का निर्माण एवं भावना के वृद्धि तथा आदर्शवादी उचित मन का विचार का मूल्यांकन के प्राप्ति के लिए शिक्षा,आत्मा सुरक्षा के लिए शिक्षा होनी चाहिये।
चूँकि शिक्षा के उद्देश्यों का ही जीवन के उद्देश्यों से संबंध रहता है। जीवन निर्माण के  उद्देश्य को निर्धारित करता है।
 इनमें से कुछ तो सनातन कुछ निश्चित तथा अपरिवर्तनशील है, और कुछ लचीले अनुकूल योग एवं परिवर्तनशील है ।जैसे जीवन दर्शन, राजनीतिक प्रगति, प्रौद्योगिक की उन्नति,सामाजिक तथा आर्थिक दशाय, मानसिक तथा आध्यात्मिक विचार का विकास। बालकों की रुचियां का विकास,अच्छी आदतों का विकास,विचार शक्ति का विकास
सभी पहलुओं को ध्यान में रखा गया है।
लेखक का विचार:- प्रेम सद्भावना सहानुभूति सहयोग सहनशीलता आत्म अनुशासन तथा कार्यव्यवरायजता, आदि जनतांत्रिक गुणों का विकास करना व्यवसाय तथा उदार
शिक्षा प्रदान करना यह सब गुणों से परिपूर्ण व्यक्ति को रोजगार या व्यवसाय  करना  निश्चित है।
- विजेंयद्र मोहन
बोकारो - झारखण्ड
विषय का सीधा संबंध मानवतावाद और व्यक्तिवाद से है शिक्षा का मूल उद्देश्य चरित्र निर्माण है रोजगार एक माध्यम है
शिक्षा के बहुत सारे रूप हैं पहला परंपरावादी शिक्षा दूसरा व्यवसायिक शिक्षा तीसरा तकनीकी शिक्षा चौथा नीति निर्देशित शिक्षा पांचवा विशेष शिक्षा सभी शिक्षा का मूल उद्देश्य है चरित्र निर्माण और उस चरित्र निर्माण के साथ-साथ कुशलता प्राप्त करना किसी खास विषय में स्वयं को प्रशिक्षित कर उसे रोजगार संबंधी बनावे। 
शिक्षित व्यक्ति रोजगार के प्रति अपनी कुशलता के माध्यम से उत्पादन करते हैं
एक शिक्षक अपने विद्यार्थियों को शिक्षा के माध्यम से मानवता के गुणों के साथ-साथ व्यवसाय संबंधी प्रशिक्षण भी प्रदान करते रहते हैं
वर्तमान शिक्षा नीति इसी बिंदुओं को ध्यान में रखकर बनाए गए हैं शिक्षा के साथ-साथ व्यवसाय संबंधी प्रशिक्षण प्रारंभिक शिक्षा में ही उपलब्ध कराया जाए इस शिक्षा नीति का यदि सही रूप से पालन किया जाए तो निश्चित ही है की आने वाली युवा पीढ़ी प्रशिक्षित बनेंगे
विशेष प्रशिक्षण के माध्यम से प्राप्त की गई शिक्षा और प्रदान करने वाली शिक्षा में विशिष्टता रहती है जिसके कारण उत्पादन में कुशलता देखने को मिलती है
वैसे तो जीविका को पालन हेतु हर इंसान किसी न किसी रूप में पैसा कमा ही लेता है लेकिन शिक्षा और प्रशिक्षण यदि प्राप्त रहेगा तो कमाने का जरिया महत्वपूर्ण रहेगा मानसिक संतुष्टि मिलेगी मानसिक स्वास्थ्य अच्छा रहेगा तो निश्चित है शारीरिक स्वास्थ्य भी अच्छा रहेगा
शिक्षा का मूल उद्देश्य चरित्र निर्माण है और रोजगार या व्यवसाय संबंधी शिक्षा चरित्र को बढ़ाने में मदद करता है
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
किसी भी व्यक्ति को बाल्यावस्था और किशोरावस्था में मिली शिक्षा उसके जीवन की नींव होती है। इसीलिये पहले प्राथमिक शिक्षा के पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा विषय भी सम्मिलित था।
आजकल की शिक्षा तकनीक पर आधारित मशीनी शिक्षा है। इसमें भावात्मक दृष्टिकोण का अभाव है। चरित्र की पुष्टता के लिए मनुष्य का भावनात्मक पक्ष मजबूत होना चाहिए। चारित्रिक गुणों में नैतिकता का स्थान सर्वोच्च है।
"जब संस्कार हमारे चरित्र के आचार-विचार बन जायें। 
जब आचार-विचार जीवन का नैतिक श्रृंगार बन जाये।। 
उत्तम चरित्र अति उत्तम गति देता मानव जीवन को, 
सच्चरित्रता ही दर्शाती कि हम सच्चे अर्थों में इन्सान हैं।।" 
यदि मनुष्य को नैतिकता की शिक्षा ही नहीं मिलेगी तो उसके चरित्र के विकास में अवश्य कमी रह जायेगी। 
कहा जाता है कि परिवार और विद्यालय ही दो स्थान ऐसे हैं जहां मनुष्य के जीवन की आधारशिला रखी जाती है। सच्चरित्र जीवन के लिए इन दोनों जगहों से प्राप्त शिक्षा ही मनुष्य का चरित्र निर्माण करती है। 
खेद यही है कि इन दोनों संस्थाओं के मूल्यों में दिन-प्रतिदिन गिरावट आती जा रही है। संयुक्त परिवारों के विघटन के बाद परिवारों में व्यक्तिवाद, एकलवाद के कारण लालच, स्वार्थ और मात्र स्वयं की उन्नति जैसे अवगुण उपजे हैं। शिक्षा के व्यवसायिककरण ने तो स्वयं वर्तमान शिक्षा के चरित्र पर ही प्रश्नचिह्न खड़े कर दिये हैं। 
इसमें कोई दो मत नहीं कि आजकल सभी की मानसिकता यह हो गयी है कि ऐसी शिक्षा ली जाये जिससे रोजगार मिल सके। न तो माता-पिता, न विद्यार्थी और न ही शिक्षा के नीति-नियंता विद्यार्थियों के चरित्र निर्माण के विषय में सोच रहे हैं। इसलिए ही उच्च शिक्षा प्राप्त युवक-युवतियां भी अपराध में लिप्त पाये जाते हैं। 
एक समाज की सुदृढ़ता और उज्जवल भविष्य के लिए यह अति आवश्यक है कि प्राथमिक शिक्षा से ही चरित्र निर्माण पर विशेष जोर दिया जाये और रोजगारपरक शिक्षा के साथ-साथ चारित्रिक निर्माण कोई असंभव कार्य नहीं है बस इसके लिए सभी को साफ नियत और दृढ़ इच्छाशक्ति से प्रयास करने होंगे। 
साथ ही..... 
इन प्रयासों के क्रियान्वयन हेतु सबसे पहले स्वयं को रखना अनिवार्य है... 
"हृदय में समेटे संवेदना, कदम जमीं पर यूं रखें जायें,
आसमां तक को तेरे आस्तित्व की प्रतीति हो जाये। 
लिबास तो बदल जायेगा, चरित्र सदा रहेगा 'तरंग', 
सदियों तक महके जीवन ऐसी पावन सुगंधि हो जाये।" 
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
सही कहा आपने शिक्षा का उद्देश्य  रोजगार के योग्य बनाना और चरित्र निर्माण करना होना ही चाहिए। वैसे तो बालक का सर्वांगीण विकास शिक्षा का उद्देश्य है ही। 
आदरणीय बीजेंद्र जैमिनी जी को यह विषय रखने की आवश्यकता क्यों महसूस हुई? क्या शिक्षा चरित्र निर्माण से भटक गई?क्या अपने मूल उद्देश्य को छोड़कर यह विशुद्ध व्यवसाय नहीं बन गयी? इसका उत्तर है हां।बस इसीलिए यह विषय विचारणीय ही नहीं अति महत्वपूर्ण है। जितना ज्यादा शिक्षित, उतना चालाकी से भरपूर,फ्राड करने, हेराफेरी करने में आगे।इसकी टोपी उसके सिर करने में माहिर।
एक बात और जितना अधिक शिक्षित उतनी ही संकुचित विचारधारा,मानवता का विरोध करने में आगे, उदाहरण एक पायलट जो जानबूझकर कर हवाई जहाज को टावर से टकराता है,क्या शिक्षित नहीं था वह। जब उच्च शिक्षित वैज्ञानिकों ने ऐसे विषाणु पैदा करने में कोताही नही बरती,जिन्होंने संपूर्ण प्राणि जगत को कोरोना जैसी महामारी परोस दी। अनेक उदाहरण है ऐसे। आप कह सकते हैं भारत में ऐसा नहीं है। सही कहा रहे हैं आप, लेकिन जितने घोटाले, हेराफेरी के कांड हुए हमारे ही यहां उच्च शिक्षित लोगों ने किए। सच्चाई से आंख मूंद लेने से वह झूठ नहीं हो जाता।
इसका कारण हमारी नैतिकता का पतन है। हम लालच के जाल में फंसकर ऐसा काम करते हैं।
इसीलिए शिक्षा का उद्देश्य रोजगार के लिए तैयार करने के साथ चरित्र निर्माण और नैतिकता का विकास होना ही चाहिए। संभवतः नयी शिक्षा नीति इस दिशा में सार्थक सिद्ध हो।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
            बिल्कुल।चरित्र निर्माण और शिक्षा का तो चोली दामन का संबंध है। वह शिक्षा किस काम की जिसमें चरित्र निर्माण पर ध्यान ना दिया जाए। कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं छात्र तथा छात्रा और गुरु होता है कुम्हार की तरह। वह चाहे उसी आकार में ढाल ले। हालांकि आज के शिष्य पहले की तरह नहीं होते किंतु फिर भी प्रयास तो किया जा सकता है। चरित्र निर्माण तो शिक्षा का मूल उद्देश्य है ही।
- श्रीमती गायत्री ठाकुर "सक्षम"
 नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
            बेशक शिक्षा का मूल उद्देश्य रोजगार के साथ-साथ चरित्र निर्माण का होना चाहिये। दशकों नहीं सदियों पहले शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण ही था। धीरे-धीरे जनसंख्या बढ़ती गई   लोगों की रुचि नौकरी की तरफ बढ़ती गई और शिक्षा रोजगार बन के रह गई।
    पहले कहा जाता था----
उत्तम खेती मध्यम बान
भीख चाकरी इख निदान
यानी उत्तम खेती ही है। दूसरे नम्बर पर व्यापार है और तीसरे नम्बर पर नौकरी है जो भीख के समान है।
सभी खेती पर निर्भर रहते थे। कोई नौकरी करना नहीं चाहता था।इसलिए तब शिक्षा का उद्देश्य चरित्र निर्माण ही था,नौकरी का नहीं। लेकिन अब तो शिक्षा केवल नौकरी के लिए ही होती है। या कहे स्वयं शिक्षा रोजगार हो गई है। स्थिति पूरी उल्टी हो गई है। नौकरी प्रथम ,दूसरे स्थान पर पहले के जैसा व्यापार ही है। खेती नीचे आ गया है,तीन नम्बर पर। इसलिए सब नौकरी के लिए ही पढ़ते हैं कि उसे अच्छी नौकरी मिल जाये।
           आज स्कूलों में विद्यालयों में चरित्र की नहीं नौकरी की ही पढ़ाई होती है। इसलिए आज हमारा समाज  पतन के गर्त में जा रहा है। हत्या, बलात्कार,चोरी-डकैती जैसे जुर्म बढ़ रहे हैं। बुजुर्गों का अपमान, नारी का असम्मान बढ़ता जा रहा है। बच्चे माँ-बाप की देखभाल नहीं कर रहे हैं।बड़ो का आदर नहीं कर रहे हैं। ये सब चारित्रिक शिक्षा न होने के कारण ही हो रहा है।
          पहले शिक्षक के सामने विद्यार्थी साइकिल पर नहीं चढ़ता था। आज शिक्षक के साथ तम्बाकू खाता है। ध्रूमपान करता है। ये सब चारित्रिक शिक्षा के आभाव के कारण ही होता है।
               आज के संदर्भ में ये बात सही है कि जीविकोपार्जन के लिए नौकरी की जरूरत है लेकिन साथ ही साथ चारित्रिक उत्थान भी बहुत जरूरी है। अगर अभी इस पर ध्यान नहीं दिया गया तो भविष्य में बहुत सी परेशानियों का सामना करना पड़ेगा।
              पहले घर में या बाहर में बड़े बुजुर्गों का जितना सम्मान होता था आज उतना नहीं है। ये बात सभी जानते हैं।इसलिए मैं तो यह कहूँगा कि नई शिक्षा नीति के साथ एक विषय चरित्र उत्थान का भी रहना चाहिए। जिससे हमारी भावी पीढ़ी ज्ञानवान के साथ-साथ चरित्रवान भी बने और देश फिर से विश्व गुरु बनने की तरफ अग्रसर हो।
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश"
 कलकत्ता - प. बंगाल
शिक्षा का मूल उद्देश्य मनुष्य के सर्वांगीण विकास से जुड़ा होना चाहिए क्योंकि शिक्षा ऐसे ज्ञान का स्रोत है; जहां परिवार, समाज, राष्ट्र का नागरिक शिष्ट, सभ्य  एवं शालीनता के साथ आजीविका  व उच्च पद प्राप्त करने का महत्वपूर्ण साधन होता है।
           आज की शिक्षा मानवता की वैज्ञानिक, तकनीकी प्रगति की तरफ तो उन्मुख है पर अनुशासन, कर्तव्य परायणता, संयमित, सदाचारी, साहसी, निरहंकारी व नैतिक गुणों से परिपूरित चारित्रिक शिक्षा से कोसों दूर होता जा रहा है।
        यदि शिक्षा का उद्देश्य मात्र व्यक्ति को रोजगार देकर उसको उद्दंड, उच्श्रृंखल, कामचोर, हरामखोर, विलासी, चापलूस, भ्रष्टाचारी, स्वार्थी, अहंकारी,अविवेकी नागरिक बना रहा है; तो ऐसे शिक्षित व्यक्ति का जीवन मानवता की एक सामूहिक आत्महत्या के लिए तैयारी समझी जानी चाहिए ।मैं यही कहूंगी कि आज के इस भौतिक युग में शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन की जरूरत है। रोजगार परक  शिक्षा के साथ-साथ शिक्षा  आध्यात्मिकता से भी जुड़ी होनी चाहिए क्योंकि अध्यात्म चरित्र- निर्माण का सुदृढ  आधार होता है 
माना जा सकता है चरित्र किसी भी व्यक्ति की रूह की खुशबू होती है । उसके समग्र व्यक्तित्व का सार होता है जो समाज व राष्ट्र की बेशकीमती संपत्ति होता  है।
 - डॉ.रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
 हमारी पुरानी शिक्षा पद्धति में व्यक्तित्व निर्माण और चरित्र निर्माण पर बहुत ध्यान दिया जाता था ! किसी भी शिक्षा पाने से  पहले व्यक्ति बनना आवश्यक है उसे सच्चरित्र तथा स्वस्थ मस्तिष्क वाला बनना आवश्यक है  !
आज हम नई शिक्षा पद्धति को अपना रहे हैं आज राष्ट्र के लिए नई शिक्षा नीति का आना सर्वथा स्वागत योग्य है ! इस शिक्षा नीति में समाज और राष्ट्र के समक्ष चुनौतियां हैं उनका सामना कैसे किया जाय वह भी बताया जाता है !कहना यही है की शिक्षा की इस नई पद्धति में इस बात पर तो ध्यान दिया गया है कि विश्व शक्ति  एक आर्थिक शक्ति बन उभरे एवं सभी को रोजगार मिले किंतु शिक्षा का मूल उद्देश्य जो है उसे नजर अंदाज कर दिया है ! 
आज यदि पढ़ लिखकर डाक्टर बन जाता है तो वह केवल कमाने के चक्कर में ही रहता है !सेवा भाव की भावना कम हो गई है ! मैं नहीं कहती सभी की किंतु अधिकतर ऐसा ही है ! शिक्षा भी मंहगी हो गई है ! व्यक्ति पढ़ लिखकर तो विशिष्ट बन जाता है किंतु शिष्टता नहीं रहती !
विशिष्टता तभी सार्थक है जब उसमें शिष्टता हो ! 
पहले हमे नैतिक शिक्षा भी दी जाती थी ! अरे एक विषय होता था ! शिक्षा के साथ साथ हमारे चरित्र का निर्माण भी होता था किंतु आज जीवन की रफ्तार तेज है और यह कहीं पीछे छूट गया है ! वैसे आज घर के संस्कार से ही इसकी शिक्षा दादा दादी ,नाना नानी से मिल रही है और ऐसा नहीं है कि सभी को मिल रही है ! बेसीकली इस शिक्षा से हम वंचित होते जा रहे हैं ! 
अतः शिक्षा की जो नई  पद्धति है बहुत ही उम्दा है लेकिन इसके साथ हमारी पुरानी शिक्षा जिसमें व्यक्तित्व निर्माण और चरित्र निर्माण का तड़का था वह तड़का नई पद्धति को लग जाये फिर तो सोने में सुहागा है !
- चंद्रिका व्यास
 मुंबई - महाराष्ट्र
शिक्षा मनुष्य के रोजगार का आधार अवश्य है किन्तु शिक्षा का मुख्य उद्देश्य रोजगार से कहीं अधिक चरित्र निर्माण का है। नैतिक शिक्षा की व्यवस्था हमारी शिक्षा नीति में पहले से ही रही है।  वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों की जटिलता को देखते हुए इस बात की आवश्यकता आज और भी अधिक प्रतीत होती है। जीविका की खातिर कुछ न कुछ रोजगार तो एक अशिक्षित भी अपने आंतरिक हुनर के आधार पर कर ही लेता है। अतः शिक्षा व्यवस्था को नैतिकता केन्द्रित होना चाहिए जिससे समाज का शिक्षित नागरिक एक संवेदनशील एवं जिम्मेदार मनुष्य बन सके और एक स्वच्छ, सुसंस्कृत तथा प्रगतिशील समाज की संरचना कर सके। अतः शिक्षा का मूल उद्देश्य रोजगार के साथ ही साथ चरित्र निर्माण भी अवश्य ही होनी चाहिए।
- रूणा रश्मि "दीप्त"
राँची - झारखंड
शिक्षा का सही अर्थ में साथर्कता तभी है जब व्यक्ति का चरित्र भी सही  हो।अगर रोजगार के साथ- साथ चरित्र निर्माण भी सही तरीके से निर्मित हो तभी ऐसी शिक्षा से व्यक्ति के व्यक्तित्व में चार चांद लग जाता है। कोई भी व्यक्ति यदि लाख पढ़ा लिखा हो और अच्छी कमाई भी हो ,लेकिन अगर उस व्यक्ति का चरित्र सही ना हो तो सब अधूरापन सा होगा। प्रारंभिक शिक्षा के समय बच्चों का एक विषय होता है नैतिक शिक्षा (मोरल साइंस)जो बहुत सही ज्ञान देता है चरित्र निर्माण हेतु। कोई भी मां जो प्रारंभिक शिक्षा की पहली शिक्षिका होती है अपने बच्चों को सदैव सही ज्ञान हीं देती है चाहे  वह खुद अशिक्षित हीं क्यों ना हो। बुनियादी ज्ञान सदैव बच्चों को घर से हीं प्राप्त होता है। इसलिए हम सब को शुरुआत से हीं बच्चों को सही सीख देनी चाहिए। जो बाद में उसके चरित्र निर्माण में सहायक होता है। रोजगार हेतु शिक्षा आवश्यक तो है हीं लेकिन साथ हीं साथ चरित्र निर्माण भी सही होना अतिआवश्यक है।
- डॉ पूनम देवा
पटना - बिहार
शिक्षा का मूल उद्देश्य व्यक्तित्व का समग्र विकास है अर्थात रोजगार के साथ साथ चरित्र निर्माण भी आवश्यक है। केवल पुस्तकों के ज्ञान को शिक्षा नहीं समझना चाहिए। कई बार कई-कई डिग्रियां हासिल किए हुए,ऊंचे पद पर आसीन व्यक्ति अधिक भ्रष्ट होता है। सहजता और इमानदारी का गुण होता ही नहीं। बात बात पर तिलमिलाना,हैंकड़बाजी से भरा होता है। ऐसी किताबी शिक्षा मनुष्य को संस्कार विहीन बनाती है। 
            शिक्षा का मूल उद्देश्य रोजगार के साथ साथ मानवतावादी दृष्टिकोण विकसित करना आवश्यक है। चरित्र की आधारशिला बचपन से ही रखी जाती है। सामाजिक बदलाव के कारण आज संयुक्त परिवार नहीं हैं ।एकल परिवार का प्रचलन है। पदार्थवादी दौड़ के कारण पति पत्नी दोनों नौकरी करते हैं। पहले चरित्र निर्माण की नींव घर में बढ़े-बूढ़ों के द्वारा रखी जाती थी अब यह दायित्व भी विद्यालयों के उपर आ गया है। इस लिए अब शिक्षा का उद्देश्य रोजगार के साथ साथ चरित्र निर्माण करना भी है। सत्य, साहस,धैर्य, उदारता, संयम, प्रेम, विनम्रता और उत्साह आदि गुण वाले ही चरित्रवान कहलाते हैं। अच्छे सामाज व राष्ट्र निर्माण के लिए अच्छे संस्कारों की जरूरत होती है। इस लिए शिक्षा में प्राचीन और आधुनिकता का समन्वय होना चाहिए। मनुष्य को अच्छा नागरिक बनने के लिए नैतिक मूल्यों को ग्रहण करना होगा तभी सुंदर समाज का निर्माण संभव है। नैतिक मूल्य ही चरित्र निर्माण करते हैं। इस लिए हमारी शिक्षा नीति का उद्देश्य भी रोजगार के साथ साथ  चरित्र निर्माण 
भी होना चाहिए। 
- कैलाश ठाकुर 
 नंगल टाउनशिप - पंजाब 
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य के जीवन में  शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ आमदनी का जरिया ना बने बल्कि चरित्रवान भी बने। रोजगार के साथ-साथ चरित्र निर्माण भी सबसे जरूरी है क्योंकि, कोई भी व्यक्ति यदि कम शिक्षित या अनपढ़ भी रहे तो वह कोई न कोई काम करके अपना जीवन सुखी से व्यतीत कर सकता है। अशिक्षित व्यक्ति धनवान हो या धनहीन समाज के लिए लाभदायक सिद्ध होता है। जबकि चरित्रहीन व्यक्ति धनवान हो या ऊंचे पद पर आसीन हो वह अपने घर, परिवार, समाज सबों के लिए घातक एवं कलंक ही सिद्ध होता है। ऐसे व्यक्ति से समाज का उत्थान नहीं बल्कि पतन होता है। कोई भी व्यक्ति भले ही वह डॉक्टर, इंजीनियर, आईएएस, आईपीएस या और भी किसी बड़े पद पर बने या ना बने, लेकिन वह इंसान जरूर बने।
-  मीरा प्रकाश 
  पटना - बिहार
जीवन की नींव ही शिक्षा है  ,,,,,। शिक्षा का मूल उद्देश्य रोजगार के साथ-साथ चरित्र निर्माण होना परम आवश्यक है ।
बिना जीवन मूल्यों के उद्देश्य की आपूर्ति के शिक्षा  अधूरी है। रोजगार के साथ-साथ चरित्र निर्माण शिक्षा का अहम पहलू है।
 स्वतंत्रता के पश्चात हमें शिक्षा के क्षेत्र में किस दिशा में बढ़ना था और हम किस तरफ चल पड़े। हमारी वर्तमान शिक्षा नीति जीवन के मूल उद्देश्यों को पूरा कर पा रही है अथवा नहीं ये तो राष्ट्र निर्माण से साबित हो जाता है ।
शिक्षा के उद्देश्य की बात करते हैं तो स्वामी विवेकानंद ने कहा है कि ,,मैन मेकिंग एंड करैक्टर बिल्डिंग,, यानी व्यक्तित्व का विकास और चरित्र निर्माण ही शिक्षा का मूल उद्देश्य  होना चाहिए ।
व्यक्तित्व का विकास जिससे चरित्र निर्माण होता है वही समग्र विकास की श्रेणी मे आता है ।
 शिक्षा का आधार एवं उद्देश्य ही चरित्र निर्माण होना चाहिए न कि केवल अंक तालिका के नंबर या केवल रोजगार परक शिक्षा।
 पंचकोश के आधार पर बालक का विकास होगा तो वह बालक निस्वार्थ ही होगा सेवाभावी होगा । उसका मूलाधार अध्यात्मिक होना चाहिए ,जिससे शरीर से सबल होगा ,बुद्धिमान होगा ।
शिक्षा से सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति होने आवश्यक है ।
शुरुआत में किसी भी व्यक्ति के 15  से 20 साल के जो पढ़ाई के होते हैं उसी के आधार पर उसके पूरे जीवन का चरित्र निर्माण होता है ।
शिक्षा ऐसी चीज है कि छोटी उम्र से बच्चे के मन पर उसका गहरा प्रभाव होता है जो पूरे जीवन कायम रहता है ।
शिक्षा के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए शिक्षा में प्राचीन व आधुनिकता का समन्वय होना चाहिए ।
व्यवहार के सिद्धांत का संतुलन होना चाहिए एवं शिक्षा स्वायत्त  होनी चाहिए ,मूल्य आधारित होनी चाहिए ।
शिक्षा व्यवसाय न होकर सेवा का माध्यम होनी चाहिए ,साथ में शिक्षा का टुकड़ों टुकड़ों में विचार न करते हुए समग्रता एवं एकात्मता का दृष्टिकोण होना चाहिए ।
इस प्रकार की आधारभूत बातों के आधार पर शिक्षा नीति व्यवस्था एवं पाठ्यचर्या ,पाठ्यक्रम का निर्धारण होना चाहिए ।
शिक्षा के उद्देश्य  बहुत है मगर जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है  पहला चरित्र निर्माण दूसरा जीविकोपार्जन ।
शिक्षा का उद्देश्य एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जो मानव के सर्वांगीण विकास तथा समाज के निर्माण से जुड़ी हुई है । 
उद्देश्यहीन शिक्षा एक दिशाहीन तथा निष्फल प्रयास है।
 शिक्षा के उद्देश्य एवं लक्ष्य निर्धारित होने पर मनुष्य के शारीरिक ,मानसिक ,नैतिक तथा आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया तीव्र होती है ।
शिक्षा के स्वभाव और उद्देश्य का ज्ञान होने पर ही उनकी प्राप्ति के उपाय आसानी से खोजे जा सकते हैं।
 जिसको अपने उद्देश्यों का ज्ञान नहीं होता उसे कभी शिक्षक सफल शिक्षक नहीं माना जा सकता ,उसके निष्क्रिय क्रियाएं शिक्षार्थियों को भटकाती है,,, जिसके परिणाम स्वरूप राष्ट्र का भविष्य अंधेरे में खो जाता है।
अतः राष्ट्र को  सुन्दर एवं कल्याणकारी  शिक्षा व्यवस्था प्रदान करने के लिए शिक्षा को आदर्श उद्देश्यों  से युक्त करना होगा ,क्योंकि शिक्षा केवल ज्ञानार्जन का माध्यम ही नहीं अपितु संस्कार ,संस्कृति का माध्यम भी है।
 - सुषमा दीक्षित शुक्ला
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
शिक्षा का मूल उद्देश्य रोजगार के साथ-साथ चरित्र निर्माण भी आवश्यक होना चाहिए।
 क्योंकि बिना ज्ञान के जीवन मृत्यु के समान होता है ,विद्या से मनुष्य में मनुष्यता आती है, और मनुष्यता से ही मनुष्य के चरित्र की पहचान   होती है ।
अच्छा चरित्र मनुष्य को आगे बढ़ाता है, अनुशासित करता है समाज में सम्मान दिलाता है।
 व्यवहार, रंग रूप, और व्यक्तित्व में चरित्र समाहित होता है। शिक्षा मनुष्य को विनम्र बनाती है, विनम्र से मनुष्य योग्यता प्राप्त करता है, और योग्यता से ही धन प्राप्त करता है ,धन से धर्म प्राप्त होता है, और उस धर्म से ही सुख प्राप्त होता है ,कहा भी गया है ।
संस्कृत में श्लोक भी है।  
येष।म्  न विद्या न तपो न दानम,  ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः ।
ते मृत्यु लो के भूविभार भूता:, मनुष्य रूपेण मृगाशचरनति।
शिक्षा का मूल उद्देश्य अपने स्वभाव में चरित्र का निर्माण सर्वोपरि होना चाहिए ।
 एक युवा ने अपने भविष्य के लिए कई योजनाओं की एक सूची बनाइए और तैयारी करने के लिए वह एक विद्वान के पास गया। वि द्वान ने वह सूची देखी और उसे वापस लौटा दिया ,कि जो जरूरी है वह योजना तो आपने बनाई ही नहीं ।उसके बिना जीवन ही बेकार है युवा ने पूछा वह कौन सी है ?
 विद्वान ने कहा कि अपने स्वभाव व्यवहार में चरित्र का निर्माण करो। व्यवहार में  विश्वसनीय ता और विनम्रता भी लाओ । चरित्र के बिना सब कुछ बेकार है।
 धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य  गया तो कुछ गया ,
चरित्र गया तो सब कुछ गया।
अनुशासित और शिक्षित व्यक्ति में विश्वसनीयता ,विनम्रता व्यवहार में  साफ झलकती है और ऐसा व्यक्ति हर जगह सम्मानित और पूजनीय होता है ऐसे व्यक्ति का सभी अनुसरण करते हैं। 
      अतः शिक्षा का मूल उद्देश्य रोजगार के साथ-साथ चरित्र निर्माण भी प्रमुख होना चाहिए जिससे हमारा भारत  में शिक्षा के साथ-साथ चरित्र का भी  उत्थान हो।
- रंजना हरित     
           बिजनौर - उत्तर प्रदेश
शिक्षा के मूल उद्देश्य रोज़गार के साथ-साथ चरित्र निर्माण भी आवश्यक होना चाहिए। चरित्र से ही किसी देश की सभ्यता का निर्माण होता है। हमारी शिक्षा प्रणाली में चरित्र को बहुत महत्व दिया गया है। हम सभी जानते हैं कि विद्यालयों और महाविद्यालयों में चरित्र प्रमाण-पत्र दिये जाते हैं। यदि चरित्र पर बल न दिया गया होता तो इन प्रमाण-पत्रों की क्या आवश्यकता थी। हर माता-पिता भी यही चाहते हैं कि उनकी सन्तान सुशिक्षित तो हो ही साथ ही सद्चरित्र भी हो। चरित्रहीन को समाज भी दुत्कार देता है, चरित्रहीन के साथ कोई सम्बन्ध भी न रखना चाहेगा।  रोजगार में अच्छा चरित्र बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। चरित्र निर्माण के लिए ही आरम्भ से ही हमारे महापुरुषों के जीवन के बारे में पढ़ाया जाता है। इसके पीछे मूल उद्देश्य यही होता है कि भावी पीढ़ी उनके चरित्र से शिक्षा ले।  देश-प्रेम भी चरित्र का एक गुण है।  ईमानदारी भी चरित्र का एक गुण है। विनम्रता भी चरित्र का एक गुण है। सुसंस्कृत शब्दों का प्रयोग भी चरित्र का एक गुण है। क्रोध न करना भी चरित्र का एक गुण है। अर्थात् चरित्र सर्वगुणसम्पन्न है। किसी भी देश के नागरिक अपने अच्छे चरित्र के कारण ही अपने देश का नाम रोशन करते हैं। चरित्र निर्माण मंे विवेक का बहुत योगदान है।  यदि हमारा विवेक सुप्त है तो चरित्र निर्माण न हो सकेगा।  विवेक जागरण के लिए शिक्षित होना अत्यन्त आवश्यक है। हमारी नई शिक्षा नीति में रोजगार के प्रति बहुत ध्यान रखा गया है। छठी से आठवीं कक्षा में रोजगार संबंधी शिक्षण होगा जिससे एक मजबूत आधार बनेगा। विद्यार्थी को विद्यालय स्तर की आखिरी परीक्षा पास करने के बाद उसे शैक्षिक प्रमाण-पत्र तो मिलेंगे ही साथ ही सीखे गए कौशल के बारे में भी प्रमाण-पत्र दिया जायेगा जो रोजगार दिलाने में सहायक सिद्ध होगा। अब जब विद्यार्थी के पास चरित्र और कौशल दोनों ही होंगे तो उसके सुन्दर भविष्य के निर्माण में कौन बाधा बन सकता है। 
- सुदर्शन खन्ना
दिल्ली
शिक्षा का मूल उद्देश्य रोजगार  के साथ-साथ  चरित्र निर्माण होना आवश्यक ही नही अवश्यमभावी है। 
जैसा कि महान शिक्षक, राजनीतिज्ञ और आचार्य चाणक्य ने कहा है कि -- "बच्चों को ऐसी शिक्षा देनी चाहिए जिससे वे समाज को सुशोभित कर सके" 
उत्तम चरित्र के व्यक्ति ही समाज में  महान कार्य करते हैं और किसी भी समाज और देश की महानता का आकलन इसी बात से किया जाता है । 
हमें भूलना नही चाहिए कि हमारे महान इतिहास और महान संस्कृति के कारण ही हमारे नागरिकों का सम्मान हर जगह होता है।हमारी संस्कृति में सदैव ही उच्च चरित्र वाले व्यक्तियों का सम्मान किया जाता है। हमारे आदर्श हमारे आराध्य  भी सदैव से ही महान चरित्र रहे हैं। वर्तमान समय में तो चरित्र निर्माण की आवश्यकता अधिक है। चिरकाल से ही हमारी संस्कृति पर आक्रांताओं के आक्रमण से आज हमारी भावी पीढ़ी हमारी संस्कृति और उच्च आदर्शों से दूर हो गई है। 
आज पूरा विश्व भारतीय संस्कृति के उच्च आदर्शों और तथ्यों से प्रभावित है। यदि हम आज पुनः भारत को विश्व गुरू बनाना चाहते हैं तो हमें अपनी शिक्षा पद्धति में चरित्र निर्माण पर ध्यान देना होगा। यही भारत की पहचान है।इसके लिए शिक्षा से बेहतर माध्यम कोई और नहीं हो सकता है। 
और हमें अपने  पाठयक्रम में चरित्र निर्माण पर  तथ्य सम्मिलित करने होंगे।
- जगदीप कौर
अजमेर - राजस्थान


" मेरी दृष्टि में " शिक्षा का जीवन में बहुत अधिक महत्व है । शिक्षा से ही जानवर से इन्सान बनता है । वर्तमान में रोजगार के बिना शिक्षा अधूरी है । इसलिए शिक्षा में जीवन चरित्र निर्माण के साथ - साथ रोजगार देने की भी क्षमता होनी चाहिए ।
                                                       - बीजेन्द्र जैमिनी
डिजिटल सम्मान पत्र 

Comments

  1. शिक्षा का तो मूल उद्देश्य ही चरित्र निर्माण होता है। पूर्व में ज्ञानार्जन के साथ-साथ चरित्र निर्माण भी किया जाता था तथा नैतिक शिक्षा भी दी जाती थी। उस समय नौकरी को तुच्छ समझा जाता था। आज की परिस्थिति उलट है। आज के समय में नौकरी प्राथमिकता बन गई है। लेकिन चरित्र निर्माण तो अनवरत चलने वाली शिक्षा है। आज के समय में हो रहे दुराचार ,कदाचार आदि उसी का दुष्परिणाम है। चरित्र अगर बलवान होगा तो कभी भी किसी किस्म का दुराचार या कदाचार नहीं हो सकता, किसी भी काल में। इसीलिए शिक्षा में चरित्र निर्माण का स्थान सर्वोपरि है।

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