क्या आलोचना और निंदा में कोई अन्तर नहीं होता है ?

आलोचना और निंदा में बहुत बड़ा अन्तर होता है । इस को समझने की आवश्यकता हमेशा रहती है । जो निंदा या आलोचना कर रहा होता है । उस पर बहुत बड़ी जिम्मेदारी होती है । जिसे कहते हैं ईमानदारी । कई बार ईमानदारी की आड़ में जलनशीलत छूपी होती है । यही स्थिति गलत होती है ।  यही " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : - 
आलोचना और निंदा में देवता और राक्षसी प्रवृत्तियों जैसा निदर्शन होता है। अतः दोनों में काफी अंतर है ।आलोचक मानवीय चेतना का शुद्ध- बुद्ध भाव- प्रवण होकर व्यक्ति के गुणी स्वरूप को दर्शाता है। सुधार करना उसका परम उद्देश्य होता है। जहां तन- मन की पवित्रता से सहजता व स्वच्छता का दर्शन होता है। क्योंकि आलोचक निष्पक्ष, प्रतिभावान ,प्रेरणादायक तथा सरल हृदय वाला होता है। जिसका मूल उद्देश्य सुधार के लिए निर्देशन करना होता है।
            वही निंदा करने वाला व्यक्ति सदैव दूसरे की उन्नति को देखकर सदैव ईर्ष्या के भाव से जलता रहता है। वह अपने से दूसरों को श्रेष्ठ देखकर स्वयं वैसा हासिल करने के लिए प्रयास भी नहीं करता; बल्कि  कदम- कदम पर दूसरे को हर किसी की आंखों से गिराना, स्वयं को दूसरे के सामने श्रेष्ठ सिद्ध करना, राक्षसी बनावटी हंसी जैसी क्रियाएं ;यानी उसका राक्षसी स्वभाव होता है। दूसरे स्वयं झूठा व अंतर से दग्ध ऊपर से आनंददायक चेहरा व लिबास में नजर आता है। निंदा रस से सराबोर व्यक्ति अहंकारी व राक्षसी प्रवृत्तियों से युक्त होता है।
- डाॅ. रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
आलोचना और निंदा देखने में तो एक सी लगती है किन्तु दोनों में बहुत बड़ा अन्तर होता है । किसी व्यक्ति, कृति, बात अथवा कार्य के गुण दोष आदि के संबंध में प्रकट किया जाने वाला विचार आलोचना कहलाता है तथा किसी की वास्तविक या कल्पित बुराई या दोष पीठ पीछे बतलाने की क्रिया को निंदा कहा जाता है । 
अर्थात् वास्तविक गुण और दोष के आधार पर किया गया विवेचन आलोचना और वास्तविक व कल्पित गुण दोष को आधार बनाकर दूसरों के सामने चर्चा करना निंदा का स्वरूप समझना चाहिए । वैसे भी आलोचना सामने ही अधिक की जाती है जबकि निंदा पीठ पीछे सर्वथा करते बहुत से लोगों को देखा जाता है । 
- डॉ भूपेन्द्र कुमार धामपुर
 बिजनौर - उत्तर प्रदेश
आलोचना और निन्दा दोनों अलग शब्द हैं और इनका अर्थ भी बिल्कुल अलग है।आलोचना मतलब समीक्षा एवं निंदा मतलब बुराई।जब किसी की आलोचना की जाती है तो उसमें सही और गलत दोनों बातों को बतलाते हैं पर निंदा करते समय सिर्फ बुराई की जाती है।आलोचना से सुधार की गुंजाइश बढ़ती है किंतु निंदा से हीन भावना उत्पन्न होती है।
                     -  संगीता सहाय
                      राँची - झारखंड
 आलोचना और निंदा में अंतर होता है। आलोचना मेरा हितैषी करता है‌। आलोचना का जन्म सद्भावना से होता है जिसका सही उद्देश्य कमियों को दूर कर मार्गदर्शन करना होता है जबकि निंदा ईर्ष्यालु और कुंठा से ग्रस्त अहंकारी व्यक्ति करता है जिसका उद्देश्य हमें नीचा दिखाना या आत्मविश्वास गिराना होता है।
   आलोचना का भी एक स्वस्थ उद्देश्य होना चाहिए। उद्देश्यहीन आलोचना निंदा का रूप ले सकती है।
  आलोचना और निंदा को हम सकारात्मक रूप से लें अगर नकारात्मक रूप से लेंगे तो हम कमजोर पड़ जाएंगे और निंदा करने वाला अपने उद्देश्य में सफल हो जाएगा।
 आज लोग आलोचना और निंदा में अंतर नहीं समझ पाते। यही कारण है कि आज सरकार की थोड़ी आलोचना होते ही समर्थक उखड़ पड़ते हैं और अपशब्द का भी प्रयोग कर देते हैं जबकि हकीकत है आलोचक ही शुभचिंतक होता है। जो शीर्षस्थ पद पर बैठे लोग आलोचना सुनना नहीं पसंद करते वह अहंकारी होते चले जाते हैं और दुष्परिणाम होता है कि वे धीरे-धीरे जनता से दूर कटते चले जाते हैं।
 अतः आलोचना और निंदा के अंतर को महसूस करें और आत्मविश्वास के साथ आगे बढ़ते रहें।  
                        - सुनीता रानी राठौर 
                ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
 आलोचना और निंदा दोनों अलग-अलग शब्द हैं हर शब्द का हर था अलग होता है सुनने में दोनों का अर्थ है एक जैसा लगता है लेकिन शुक्षमता से निरीक्षण करने से दोनों की गहराई का अर्थ अलग-अलग  निकलता है। आलोचना का अर्थ है समीक्षा करना अर्थात सही गलत का पता लगाना गलत का समीक्षा और सही का मूल्यांकन होता है समीक्षा का मतलब है सुधार करना ना की निंदा करना और निंदा का अर्थ है गलती को ही देखना निंदा में गलतियां को ही व्यक्त किया जाता है जबकि आलोचना में जो खामियां रहती है उसे सुधार कर प्रेरित किया जाता है जो व्यक्ति प्रेरित का अर्थ समझता है वह व्यक्ति प्रेरणा पाकर आगे बढ़ जाता है अतः दोनों में यही अंतर है आलोचना से प्रेरणा मिलती है और निंदा से घृणा मिलती है। अर्थात बुराई होती है। हर व्यक्ति बुराई में जीना नहीं चाहता भले ही उसकी आलोचना हो हर व्यक्ति गलतियों को सुधार कर जीना चाहता है और अपनी गलती सुधार लेता है वही व्यक्ति प्रशंसा के पात्र होता है आलोचना सकारात्मक और निंदा नकारात्मक की ओर प्रेरित करता है।
- उर्मिला सिदार 
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
निंदा और आलोचना मे प्रथम दृष्ट्या कोई अन्तर नज़र नही आता परन्तु दोनो शब्दों में अन्तर है निंदा करने वाला केवल बुराई करता है उसमें कुछ भी साकारातमक भाव नही होता । लेकिन आलोचना करने वाला व्यक्ति सहज सरल स्वभाव से भी कर सकता है । आलोचना इस भाव से भी की जा सकती है कि जिसकी आलोचना की जा रही है वह सुधार करके आगे के लिए ठीक रास्ता चूने । निंदा पीठ पीछे की जाती है आलोचना मुँह पर भी की जा सकती है । 
   - नीलम नारंग
 हिसार - हरियाणा
आलोचना और निंदा यह दोनों अलग-अलग रूप में परिभाषित की जा सकती है।
आलोचना में किसी भी विषय या व्यक्ति विशेष का दोनों ही पक्ष देखा जाता है उसका सकारात्मक पक्ष और
नकारात्मक पक्ष भी और दोनों की
समालोचना करके फिर किसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं इससे हमेशा सुधार होता जाता है और हम किसी भी क्षेत्र में परिष्कृत होते रहते हैं आलोचना लेख 
सामाजिक विषयों  जैसे  -b.ed के समय इंटर्नशिप के दौरान ट्रेनिंग टीचरों का विशिष्ट प्राध्यापक महोदय पीछे बैठकर सामने बोर्ड पर सामने पढ़ा रहे
शिक्षक पर अपनी प्रतिक्रिया देते हैं ।
हम चुनाव के दौरान देखते हैं चुनाव पर
विशेष रुझान आता रहता है उस पर सभी राजनीतिक विशेषज्ञ अपनी प्रतिक्रिया देते हैं। इसमें सुधार की संभावना होती है।
इसके विपरीत निंदा में विषय से संबंधित केवल उसमें कमियां ‌त्रुटियां 
ही देखी जाती है दूसरा पक्ष अनदेखा कर दिया जाता है।
इस कारण से आलोचना और निंदा दोनों में अंतर होता है यह अंतर देखने वाले के नजरिए पर निर्भर करता है।
- आरती तिवारी सनत
 दिल्ली
आलोचना व  निंदा में कहने के लिए तो कुछ ज्यादा अंतर नहीं दिखता, परंतु जिसकी आलोचना  या निंदा होती है उसके लिए बहुत मायने रखता है ।
निंदा व आलोचना करने से ,करने वाले व जिसकी निंदा व आलोचना होती है बहुत अंतर पड़ता है  ।
       आलोचना   - -किसी  व्यक्ति का कोई कार्य किसी को पसंद ना आए तो वह व्यक्ति की आलोचना कहलाती है ।
निंदा - - अगर किसी व्यक्ति का कार्य पसंद नहीं आए तो वह व्यक्ति की निंदा कहलाती है।
या नि
निंदा कार्य की होती है ,तथा आलोचना व्यक्तित्व की होती है।
 किसी के कार्य में दोष देखना गलत नहीं होता अपितु उसके व्यक्तित्व में दोष देखना गलत होता है ।
यानी किसी व्यक्ति में बुराई देखने  या दिखाने  को निंदा कहते हैं।
 किसी व्यक्ति के कार्य की बुराई तो दिख जाती है परंतु उसके आत्मा की अच्छाई नहीं दिखती।
 मनुष्य में कभी भी परिवर्तन आ सकता है आज जो गलत या अनुचित कार्य करता है वह कल उचित  कार्य भी कर सकता है।

 उसने गलत किया यह आलोचना है ।वह  गलत व्यक्ति है यह उसकी निंदा है ।
महर्षि वाल्मीकि पहले डाकू थे तथा बाद में उन्होंने महाकाव्य रामायण की रचना की ।
ऐसे  ही  पहले व्यक्ति  के कार्य 
त था  उसी  व्यक्ति के व्यक्तित्व में महान परिवर्तन हुआ ।
वे डाकू से महान महर्षि  बने उन्होंने महान ग्रंथ रामायण लिखा।
इसीलिए स्वामी विवेकानंद जी ने कहा है कि  किसी व्यक्ति की निंदा करने की वजाय आप  उसके लिए हाथ आगे बढ़ा सकते हैं अगर नहीं तो  दोनों हाथ जोड़कर आगे बढ़ जाना चाहिए। और उन्हें अपने कर्म रास्ते पर जाने देना चाहिए ।
              - रंजना हरित   
             बिजनौर - उत्तर प्रदेश
     आलोचना का जन्म ही सद्भावनाओं से होता हैं, जिसका उद्देश्य मार्गदर्शन प्रदान किया जा सकता हैं अपितु निंदा अंहकार से जन्म लेती हैं, बुराई करना,  झूठे प्रकरणों में फंसाना, आत्म विश्वास को ठेस पहुँचाना  जिस मानव की जीवन शैली हमेशा ईर्ष्यालु, कुंठा से ग्रसित, मानसिक संतुलन खो चुका, वह हमेशा आते-जाते, कुछ भी हो जाये नकारात्मता को ही प्राथमिकता देते हुए दिखाई देते हैं, जिसका परिणाम कभी-कभी घातक सिद्द होती हैं और आत्मविश्वास खो कर जीवन को समाप्त कर देता हैं? जबकि आलोचना शब्द "लुच" धातु से बना हैं। "लुच" का अर्थ हैं "देखना", आलोचना से जीवन को प्रगति और यश प्राप्त होता हैं, कभी भी आलोचना से विचलित नहीं होना चाहिए और डटकर सामना करना चाहिए, जिसका परिणाम सकारात्मकता को जन्म देती हैं। आज भी वर्तमान परिदृश्य में निंदा और आलोचना में अंतर ही समझ में नहीं आता, जिसके परिणामस्वरूप वे "पानी" जैसा ही शीतलता ही समझते ही रहते हैं।घर-परिवार, सम-सामयिक राजनीतिकताओं, धार्मिकताओं में निंदा और आलोचना को देख लीजिये।
जहाँ किस तरह से वाद-संवादों में  समय चक्र व्यतीत होता हैं और दीर्ध काल तक चलता रहता हैं, जिसके परिपेक्ष्य में परिणाम सार्थकता को जन्म देती हैं?
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
अक्सर हम निंदा और आलोचना में कोई भेद नहीं करते हैं। आलोचना को ही निंदा समझने लगते हैं। जबकि निंदा व्यक्ति की और आलोचना उसके गुण दोषों की होती है। निंदा का उद्देश्य किसी को नीचा गिराना तथा आलोचना का उद्देश्य सुधार करना होता है। आलोचना हमेशा हितैषी ही करता है। आलोचना का जन्म करूणा,प्रेम और मैत्री भाव से होता है। निंदा घृणा से उपजती है।आलोचना आत्मबल को बढ़ाती है जबकि निंदा आत्मबल को गिराती है  ।आलोचना का काम मार्गदर्शन करना होता है और निंदा का लक्ष्य हमारी आत्मा को कुचलना। सच्चे आलोचक हमारे शुभचिंतक होते हैं और एक निश्चित दिशा की ओर प्रेरित करते हैं। 
- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब 
अवश्य! दोनो अलग अलग बाते हैं ! प्रथम यदि हम कोई अच्छा कार्य करते हैं तो हमारी खामियाँ दिखाई जाती है या यूं कहें इसे उनके बताये अनुसार करते तो ज्यादा ठीक रहता! जैसे मैने कोई कहानी, आलेख लिखा और किसी आलोचक ने आलोचना की यानीकि अपना सुझाव दिया !इसका मतलब है वे हमे और 
अच्छा  लिखने को कह रहे हैं!हमे हमारी गल्तियां बताकर हममे और निखार लाना चाहते हैं ! हमारी शुभिक्षा ही चाहते हैं! 
दूसरी ओर निंदा यानी किसी की प्रगति देख जलन करना! उनकी सोच सदा नकारात्मक होती है! 
सभी के सामने उसकी बुराई करना उसे तुच्छ और बेवकूफ समझना ! जलन में आकर उसका मनोबल तोड़ना! 
हमे अपनी सोच सममिा सकारात्मक रखनी चाहिये! 
किंतु हां दोनों ही बातों कि ठंडे दिमाग से सोच हमें निर्णय लेना चाहिए! 
चूंकि प्रथम सोच हमे सोने की तरह चमकाती है और दूसरी हमे हतास करती है और आगे बढ़ने नही देते! 
 - चंद्रिका व्यास
 मुंबई - महाराष्ट्र
आलोचना और निंदा में बहुत बड़ा अंतर होता है । इतना बड़ा अंतर कि आलोचना हमे सही मार्ग पर ला सकती है और निंदा हमे पथ भ्रष्ट कर सकती है । दोनो भले ही देखने और सुनने में समानार्थी हो परंतु इन दोनों कार्य एकदम विपरीत ही होता है ।
आलोचना का मुख्य उद्देश्य पथिको को सही राह दिखाना है । भटके हुए उक्त व्यक्ति को उसके मार्ग की कमी बताकर सही मार्ग पर लाने की कोशिश होती है । जबकि निंदा का कार्य व्यक्ति के हौसलों को अंदर ही अंदर तोड़ना होता है । उसे छोटा साबित कर , उसे कुपंथ की ओर अग्रेसित करना होता है । आलोचित व्यक्ति समाज मे एक महान इंसान बन सकता है , जबकि निंदित व्यक्ति बहुत हद तक समाज के लिए घातक साबित हो सकता है ।
- परीक्षीत गुप्ता
बिजनौर - उत्तरप्रदेश
 आलोचना और निंदा दोनों ही एक दूसरे के विपरीत दिशा की बात है। आलोचना आपके गुरु जन माता-पिता एवं अनुभवी मित्र लोग ही करते हैं ।आलोचना कितनी भी कठोर हो किंतु उसमें मैत्री की सुगंध है। आलोचना का जन्म सद्भावना से होता है जिसका उद्देश्य  उचित मार्गदर्शन करना होता है।
निंदा में दुर्भावना की दुर्गंध है। निंदा अहंकार से जन्म लेती है। जिस का भाव हमें नीचे दिखाना, छोटा साबित करना, आत्मविश्वास  को गिराना होता है।
निंदा आलोचना यह दो ऐसे शब्द है जिनमें एकबारगी को अंतर मालूम नहीं पड़ता है। भेद इतना सूक्ष्म है जिसके कारण हम अक्सर आलोचना को निंदा ही समझ लेते हैं। रंग रूप एक जैसा है किंतु प्रकृति व आत्मा एकदम अलग है।
आलोचना का जन्म करुणा द्वारा होता है।
निंदा का जन्म घृणा के द्वारा होता है ।
आलोचना होती है जगाने के लिए उचित मार्गदर्शन के लिए।
निंदा का लक्ष्य होता है आत्मा पर  घाव करना ।निंदा में दुर्भावना की दुर्गंध है। आत्मविश्वास को गिराना होता है।
लेखक का विचार:- आलोचक हमारे हितेषी ही करते हैं इसलिए कभी भी आलोचना से नहीं घबराना चाहिए। आलोचना करने वाले आपके उद्देश्य में सफल होने के लिए ही करते हैं। आलोचक और आलोचना सुनने वाले को सजग रहने की आवश्यकता है।
निंदा ईर्ष्यालु और कुंठा से ग्रस्त व्यक्ति ही करते हैं निंदा हमें नकारात्मक पर उतारता है ।अतः सुनो और भूल जाओ।
- विजेंयेद्र मोहन
बोकारो - झारखण्ड
निंदा अहंकार को जन्म देती है l अहंकार के वशीभूत होकर ईर्ष्या से व्यक्ति दूसरों को नीचा दिखाने के उद्देश्य से निंदा करता है l निंदा के पीछे दुर्भावना छिपी होती है l व्यक्ति के दिल को धक्का लगे, आत्मा को चोट पहुँचना निंदा है l दोस्त, पड़ोसी आदि की निंदा करते करते हमें उसमें रस आने लगता है, आनंद मिलता है l आत्मा को तुष्टि मिलती है l हम व्यक्ति के व्यक्तित्व की निंदा करते है, यह आदत गलत है l निंदा हमारे बढ़ते कदमों को रोकने के लिए हमारे रास्ते में अवरोध उतपन्न करती है l लेकिन हमें निंदा से विचलित नहीं होना चाहिए l आलोचना करें किन्तु निंदा नहीं l 
आलोचना का अर्थ है -
  आ +लोचन 
चारों   देखना =सब ओर देखना 
जैसे हमारी दो आँखे होती है किसी भी वस्तु को देखने के लिए इसमें गुण और अवगुण दोनों ही देखें जाते है l आलोचना हमारे गुरु, माता, पिता अथवा जो आपसे प्रेम करता है वही आप को गुण दोषों के बारे में बता सकता है l व्यक्ति को गिराया नहीं जाता lआलोचना में व्यक्ति को आगे बढ़ाया जाता है वह प्रेरणा लेता 
है l प्रेम चैतन्य होता है l आलोचना का अर्थ -सकारात्मक पथ प्रदर्शन करना ही है l उसने ऐसा गलत किया, उसे ऐसा करना चाहिए l गलती बताकर साथ ही समाधान भी बता दिया जाता है l 
      निंदा आलोचना के बिल्कुल विपरीत है l निंदा करने से हीन भावना मन में घर कर लेती है l 
निंदा में घृणात्मक बातें करते हैं l आनंद रस बुराई का लेते हैं l समय की बर्बादी करते हैं l स्वयं पर से दृष्टि हटाकर दूसरों की बुराई पर केंद्रित कर लेते है और इस प्रकार जीवन में गलतियों की बहुत बड़ी फौज तैयार हो जाती 
है lपरिणामस्वरूप ये फौज कब घेर ले पता ही नहीं चलता l यही कारण है अधिकांश लोग अपनी गलतियों से पीछा छुड़ाने के लिए आत्महत्या जैसे पाप का सहारा लेते है l निंदा करने वाले की आत्मा टूट जाती है l 
निंदा में बुराइयाँ है l निंदा से नुकसान है फायदा नहीं l अतः 
हमेशा ध्यान रहे मेरे शब्दों से किसी की निंदा तो नहीं हो रही l 
निंदा करने वाले असत्य का आधार लेने लगते हैं, सत्य का नाश हो जाता है l 
            चलते चलते ----
1. निंदा से घबराकर अपने लक्ष्य को नहीं छोड़े क्योंकि लक्ष्य मिलते ही निंदा करने वालों की राय बदल जाती है l 
2. आत्मालोचन में नेगेटिव और पोजेटिव दोनों को देखकर आगे बढ़े l निंदा रूपी दुधारू तलवार से बचें l 
        -डॉ. छाया शर्मा
         अजमेर - राजस्थान 
आज का विषय है क्या आलोचना और निंदा में कोई अंतर नहीं होता
आलोचना और निंदा 2 शब्दों का इस्तेमाल प्राय लोग करते रहते हैं लेकिन सही मायने में दोनों शब्दों से का उद्देश्य बिल्कुल ही अलग है
आलोचना के पीछे एक सकारात्मक विचारधारा होती है मूल्यांकन की भावना होती है और उस भावना में यह निर्देश रहता है कि इसमें गुणवत्ता सुधार किया जाए इसे आलोचना कम सजेशन ज्यादा कहा जा सकता है
निंदा  एक नकारात्मक नकारात्मक शब्द है जिसमें पीठ पीछे बुराई करना इसमें व्यक्ति का अहंकार छिपा रहता है और ईर्ष्या की भावना भरी रहती है दूसरे को नीचा दिखाने के लिए यह निंदा की जाती है यह घातक बहुत होता है
बाहरी तौर पर दोनों के रंग रूप एक जैसे होते हैं लेकिन दोनों का आंतरिक स्वरूप बिल्कुल अलग होता है निंदा में दुर्भावना है लेकिन आलोचना में सुधारने का संकेत है संभलने का मौका है जैसे सुनार लोहार कुम्हार अपनी कला में हथौड़े से पीट-पीटकर उसे एक खूबसूरत आकार देता है उसी प्रकार आलोचना के माध्यम से हर इंसान का उद्देश्य होता है उसे संभालना
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
   . आलोचना और निंदा एकबारगी में तो आमजन ही नही विद्वानों को भी एक समान लगते हैं पर दोनों अलग हैं। यह तो मानव स्वभाव है कि खुद को चाहे कुछ ना आता हो पर दूसरे के काम का मूल्याकंन करने में सब से आगे रहते हैं ।अब बोलने वाला तो बोल गया पर जिसने काम किया उसे हताश,निरूत्साहित और कम आँक कर हम सामने वाले का मनोबल पस्त कर देते हैं ।दूसरी ओर ऐसे भी लोग हैं जो मामूली काम की भी प्रशंसा करके महान बना देते हैं ।
तब उस व्यक्ति की उन्नति रूक जाती है ।बस ऐसे ही आलोचना और निंदा में बारीक अंतर है। निंदा नकरात्मक तरंगों से हमे घेरती है और आलोचना सकरात्मक तरंगों का पुंज है।   समझिए कि दोनों का बाह्य रंगरूप तो एक सा है पर भीतर की आत्मा एकदम विभिन्न है।
   निंदा में दुर्भावना  होती है। जो निंदक होते हैं वो काम का उज्ज्वल पक्ष देखते ही नहीं।  हमारे काम में इतनी गल्तियाँ निकालते हैं कि दुबारा काम करने का मन ही ना  करे जबकि आलोचक सही और गल्त दोनों को तटस्थता से बताता है ।आलोचना करने वाला उस कुम्हार की तरह है जो आकार देने के लिए चोट भी करता है पर तोड़ता नहीं है । बेहतरी के लिए कभी स्नेह से कभी ड़ाँट कर मार्गदर्शन करता है।  यदि किसी को भी सच्ची आलोचना करने वाला मिल जाए तो उस व्यक्ति की प्रतिभा निखरेगी ही। 
   निंदक नियरे राखिए... सच है पर आलोचना  हीरे को तराशने का काम करती है । निंदा में अंहकार है और आलोचना में मित्रता, प्यार और हमारी सफलता पर गर्व करने की भावना होती है। 
  मौलिक और स्वरचित है।
-  ड़ा.नीना छिब्बर
जोधपुर - राजस्थान
आलोचना एक स्वस्थ भाव लिए हुए किसी के गुण-दोष का विवेचन करना है और इससे आलोचक के प्रति सम्मान का भाव उत्पन्न होता है। आलोचना सुधार की प्रक्रिया को सतत रूप से जारी रखने के लिए होती है। 
जबकि निंदा पर-पीड़क होती है। निंदा करने वाला कभी भी किसी की उन्नति को सहन नहीं कर पाता इसीलिए वह ईर्ष्यालु होकर अच्छाई को भी बुराई बनाकर प्रस्तुत करता है। निंदक का एकमात्र उद्देश्य 'टांग खींचना' होता है जबकि आलोचक उत्तम को अति उत्तम करने का प्रयास करता है। 
आलोचना सकारात्मकता से ओत-प्रोत होती है और निंदा पूर्ण रूप से नकारात्मकता से भरी होती है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि आलोचना और निंदा में बहुत अन्तर होता है।
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग '
देहरादून - उत्तराखण्ड
आलोचना और निंदा  मैं जमीन आसमान का अन्तर होता है, क्योंकी आलोचना का जन्म  सच्ची भावना  से होता है जवकि निंदा अहंकार  से अथवा  घृणा  से जन्म लेती है। 
यही नही आलोचना का उदेश्य मा्र्गनिदेशित करना भी हो सकता हैऔर दुसरी तरफ निंदा  का भाव निचा दिखाना, किसी को छोटा दिखाना व आत्मविश्बास को गिराना होता है, यहां तक कि निंदा सिर्फ नीच व  कुंठाग्रस्त व्यक्ति ही करता है क्योंकी उसका उदेश्य लक्ष्य से रोकना होता है कि कहीं उक्त व्यक्ति उससे आगे न निकल जाए
अगर हम आलोचक की वात करें तो वो हमारा हितैषी होता है, और ज्यादातर वो अ्चछा रास्ता दिखाने की कोशिश करता है, जिससे हमें मार्गदर्शन  मिल जाता है और हम  अपनी  गल्तियो को हानी से पहले सुधार लेते हैं। 
इससे यह सावित होता है कि हमें आलोचना करने वालों से घवराना नहिं चाहिए अपितु उसकी आलोचना को ध्यानपूर्वक  सुनकर अपने में सुधार लाना चाहिए। 
कहने का मतलब यह हुआ कि निंदा, चुगली अच्छाई या वूराई नहीं देखती यह निंदक पर निर्भर है वो जिसकी निंदा करने जा रहा है उसे किस भाव में तौलता है जवकि आलोचक इस ताक में होता है कव  मुझे कोई गल्ती मिले मैं तरुंत  उसे उजागर करुं, और उसे चर्चा का बिषय वनाऊं इन सभी वातों से साफ जाहिर होता  है की आलोचना और निंदा में जमीन आसमान का अन्तर है। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू  - जम्मू कश्मीर
आलोचना और निंदा में बहुत फर्क होता है। आलोचना का उद्देश्य व्यक्ति में सुधार करने को प्रेरणा देना, सुझाव देना होता है।जबकि निंदा का उद्देश्य व्यक्ति में सुधार नहीं, उसको निरुत्साहित करना और बदनाम करना होता है आलोचना और आलोचक को समाज में सम्मान प्राप्त है। जबकि निंदा को निंदक को समाज कभी भी अच्छा नहीं मानता। 
आइए इस बात को एक उदाहरण से समझें,
कोई व्यक्ति किसी सड़क दुर्घटना में घायल हो गया और उसका आर्थिक नुकसान भी हो गया है। उसके प्रति आलोचक और निंदक का अलग-अलग नजरिया देखिए - 
आलोचक - भाई ईश्वर की बड़ी कृपा है कि सावधानी के चलते,जान बच गई। धन का क्या है आता जाता रहता है।  एक बात कहना चाहता हूं जब भी सड़क पर चला करो बहुत सावधानी रखा करो और हां अपने साथ नगदी कम लेकर चला करो।
निंदक - अरे यार, शराब पीकर चलेगा तो एक्सीडेंट तो होगा ही, और खूब अंधी कमाई की है इसने, थोड़ा बहुत पैसा चला भी गया तो क्या फर्क पड़ता है।
निंदक बदनाम करने,खिलाफ माहौल बनाने की कोशिश में जुट जाता है, जबकि आलोचक खूबियों का जिक्र कर, कमियों की ओर ध्यानाकर्षण कराते हुए उनमें सुधार के लिए सुझाव भी देता है।
साहित्य जगत,फिल्म जगत,कला और संगीत में तो आलोचना को अनिवार्य मानते हुए आलोचकों को आमंत्रित करके उनके विचार लिए जाते हैं और उनको मीडिया में प्रचारित प्रसारित किए जाते हैं।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर  - उत्तर प्रदेश
 आलोचना और निंदा में थोड़ा बहुत अंतर तो है। वैसे दोनों में किसी दूसरे की निंदा ही होती है। आम तौर पर आलोचना किसी व्यक्ति के द्वारा किये गए कामों के बारे में चर्चा करना होता है। जिसमें अच्छाई भी होती है और बुराई भी।उसमें दोनों का समान रूप से विचार होता है। जबकि निंदा में केवल निंदा ही होती है। केवल उस व्यक्ति के अवगुणों का ही वर्णन होता है। जिसके बारे में चर्चा होती है।
          आलोचना अक्सर साहित्य में ही होती है। जबकि व्यक्तिगत तौर पर  आलोचना और नींद दोनों होती है। आलोचना एक शास्त्र है जबकी निंदा निंदा ही है। 
           हिंदी के सबसे बड़े आलोचक रामविलास शर्मा और नामवर सिंह थे।
नामवर सिंह तो आलोचना के ऊपर पत्रिका भी निकलते थे। उन्होंने कई बड़ी -बड़ी पुस्तकें भी लिखी है आलोचना के ऊपर। 
                 आलोचना के परिपेक्ष्य में निंदा करने वालों की इस दुनिया में कमी नहीं है।लेकिन इसके लिए कोई पुस्तक भी नहीं है न ही शायद कोई लेखक।
         इसलिए आलोचना और निंदा को हम एक नहीं कर सकते हैं। अलोचना में समालोचना समाहित है। जबकि निंदा पूर्ण रूप से निंदा ही है। किसी व्यक्ति या साहित्य के गुण दोष का विचार करना आलोचना है।जबकि निंदा केवल और केवल शिकायत और दोष का वर्णन है। इसलिए दोनों में बहुत अंतर है।
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश"
 कलकत्ता - प. बंगाल
       आलोचक द्वारा आलोचना एक सदभावन का प्रतीक होती है। जिसका उद्देश्य मार्गदर्शन करना हो सकता है। जबकि निंदा अहंकार से जन्म लेती है जिसका भाव सामने वाले को नीचा दिखाना, छोटा प्रमाणित करना व उसके आत्मविश्वास को गिराना होता है।
       इसलिए आलोचना और निंदा में अर्श और फर्श का अन्तर होता है। क्योंकि आलोचना तथ्यों पर आधारित सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार की होती है। अर्थात आलोचना अर्थपूर्ण एवं महत्वपूर्ण होती। आलोचना मित्र एवं शुभचिंतक भी करते हैं। जिनके परिणाम भी अच्छे होते हैं। 
       परन्तु निंदा हमेशा निंदक ही करता है। जो नकारात्मक और द्वेषपूर्ण होती है। हालांकि निंदक की निंदा की चुनौती सफलता प्राप्ति के लिए बल प्रदान करती है।
        इसलिए स्वस्थ आलोचना आलोचक को बुद्धिमानों की सभा में उच्च स्थान दिलाती है और उन्हें सम्माननीय बनाती है। जबकि निंदक को कोई पसंद नहीं करता है। अतः साहित्यकारों को आलोचना करनी चाहिए नाकि निंदा।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
निंदा व आलोचना ये दो ऐसे शब्द हैं जिनमे एकबारगी कोई अंतर मालूम नही पड़ता, दरअसल यह भेद इतना सूक्ष्म है कि जिसके जिसके कारण हम अक्सर आलोचना को भी निंदा ही समझते हैं किंतु इन दोनों में बहुत नजदीक का रिश्ता है। ... आलोचना कितनी भी कठोर हो किंतु उसमे मैत्री की सुगंध है जबकि निंदा में दुर्भावना की दुर्गंध है।
आलोचना करना मनुष्य बुद्धि का आवश्यक स्वरुप है। जहाँ चैतन्य है वहां आलोचना है। और जहाँ श्रद्धा है, वहां केवल स्तुति है।
  श्रद्धा जब चैतन्य से विभाजित हो जाती है तब अंधभक्ति बन जाती है। 
मगर आलोचना और निंदा में अंतर है। आलोचना मात्र विश्लेषण है जिसका परम उद्देश्य गुणवत्त से है, सुधार से है। जहाँ सुधार है, वहां शुद्धता है, वहां सौंदर्य है, पावनता है, निश्चलता है ।
सौन्दर्य ,निश्चल,पावन, शुद्ध - जहाँ यह सब है वहां पवित्रता है। 
आलोचना को निंदा से भिन्न करना आवश्यक है। निंदा शायद अपमान,तिरस्कार के भाव में होती है। यह घमंड और अहंकार से प्रफ्फुलित होती है। इसमें शक्ति का उपभोग है, शक्ति का जन कल्याण के लिए परित्याग नहीं है।
  आलोचना एक निश्चित दिशा की और प्रेरित करती है। निंदा दिशा हीन है।
आलोचना आदर्शों के अनुरूप होती है। निंदा में स्वयं-भोग ही उद्देश्य है।
आदर्श में से सिद्धांतों और अवन्मय को जन्म होता है। बुद्धि और बौद्धिकता का विकास होता है।
आत्म भोगी का कोई आदर्श नहीं है। वहां स्वयं की संतुष्टि के लिए ही सब कुछ करता है।
   आलोचना प्रेरित करती है कि कठिन आदर्शों और सिद्धांतों के अनुरूप प्रयास किया जाए और असंभव होते हुए भी उसे प्राप्त करते रहने में युग्न रहे।
  निंदा स्मरण कराती है की जो आदर्श असंभव है ,वह कभी भी प्राप्त नहीं किये जा सकते ,इस लिए अपने श्रम और प्रयासों के उद्देश्य को स्वयं की संतुष्टि में दूंढ कर जीवन सुख प्राप्त कर लें।
- डॉ अलका पाण्डेय 
मुम्बई - महाराष्ट्र
आलोचना और निंदा में बहुत ही महीन अन्तर होता है। निंदा कुंठाग्रस्त और ईष्र्या से भरपूर व्यक्ति करता है और आलोचना करने वाला कहीं न कहीं किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित होता है। निंदा हो या आलोचना यदि इनसे हमारा अहंकार आहत होता है तो निश्चित रूप से हम कमज़ोर हैं परन्तु यदि हम इनमें सकारात्मकता देखें तो हमारी प्रगति के मार्ग प्रशस्त होते हैं। निंदा या आलोचना करने वालों के बारे में कहा गया है ‘सचिव बैद गुर तीनि जौं प्रिय बोलहिं भय आस, राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास’ अर्थात् मंत्री, वैद्य और गुरु - यदि ये तीन भय या लाभ के कारण केवल प्रिय बोलते हैं किन्तु सत्य नहीं बोलते हैं तो राज्य, शरीर और धर्म, इन तीन का नाश तय होता है। आलोचक और निंदक जब टिप्पणी करते हैं तो उनके भाव अलग-अलग हो सकते हैं किन्तु कृत्य लगभग एक समान होता है। अतः हम कह सकते हैं कि आलोचना और निंदा में कोई विशेष अन्तर नहीं होता है। 
- सुदर्शन खन्ना
 दिल्ली
निंदा और आलोचना में बहुत अंतर है। निंदा किसी एक व्यक्ति के लिए होता है या किसी एक परिवार के लिए होती है। जब की आलोचना किसी भी संगठन की होती है। आप किसी विषय वस्तु पर टिप्पणी किए हों उस पर भी की जाती है या फिर कोई लेखक कुछ लिखता है तो उसकी गलती की आलोचना होती है। जैसे कि हम लोग किसी सरकारी काम के बारे में या किसी पार्टी के बारे में चर्चा करते हैं या शिकायत करते हैं तो यह आलोचना कहलाती है निंदा नहीं। किसी भी ग्रुप, संगठन, संस्था या सरकार की पार्टी चाहे वह पक्ष की हो या विपक्ष की चर्चा या शिकायत आलोचना कहलाती है। जबकि पर्सनल किसी व्यक्ति या उसके घर परिवार के बारे में दूसरों से चर्चा करना शिकायत करना या बातें करना उस व्यक्ति की निंदा कहलाती है।
-  मीरा प्रकाश 
  पटना - बिहार
आलोचना  और  निंदा  अंतर  है  । जहां  आलोचना  किसी  के  द्वारा  किए  गए  कार्य  पर........उसके  गुण-दोषों  को  परखने  और  खामियों  को  समझ  कर  दूर  करने  के  उद्देश्य  से  की  जाती  है  वहीं  निंदा  का  क्षेत्र  व्यापक  है  । ये ईर्ष्या .....अहंकार.......किसी  को  नीचा  दिखाने  अथवा  परेशान  करने  के  उद्देश्य  से  की  जाती  है  । 
      आलोचना  से  किये  गये  कार्य  में  सुधार  की  संभावना  बनी  रहती  है  जबकि  निंदा  से  हताशा  बढ़ती  है.......तनाव  बढ़ता  है.......नकारात्मक  विचार  बढ़ते  हैं  और  व्यक्ति  की  उन्नति  भी  कई  बार  अवरुद्ध  हो  जाती  है  । 
      निंदक  अपनी  आदत  से  मजबूर  होते  हैं  अतः लोगों  को  चाहिए  कि  वे  ऐसी  बातों  को  दरकिनार  करते  हुए.....ऐसे  लोगों  से  दूरी   बनाए  रखते  हुए  सकारात्मक  सोच  के साथ  अपने  काम  से  काम  रखें ।
     - बसन्ती  पंवार 
       जोधपुर  - राजस्थान 
आलोचना और निंदा दोनों की अलग अलग भूमिका है। और इन दोनों में बहुत ही सूक्ष्म अंतर है।  परंतु लोग आलोचना और निंदा में अंतर को समझ नहीं पाते।
आलोचना सकारात्मक रूप का ही एक पहलू है।आलोचना में आपके कार्य का विश्लेषण किया जाता है और उसके अच्छे बुरे पहलुओं पर ध्यान दिलाया जाता है। जिससे उस कार्य में जो भी त्रुटियां रह गई हैं उस को इंगित करना मकसद होता है। आपके लक्ष्य से हटाना या मार्ग अवरुद्ध करना आलोचना में मकसद नहीं होता। यह एक स्वस्थ विचारधारा का प्रतीक है।आलोचना प्रेरित करती है कि अगर कठिन आदर्शों और सिद्धांतों के अनुरूप प्रयास किया जाए तो असंभव  होते हुए भी लक्ष्य प्राप्त होता है।आलोचक हमारा मित्र हो सकता है जो जनता है कि हमारे इस कार्य में जो भी त्रुटियां है वह निर्भीक होकर स्वतंत्र रूप से बिना किसी भेद भाव के एक निष्पक्ष परिणाम होता है।और सच्चा मित्र हमारे अवगुणों से इंगित करवाकर हमें समाज के परिहास से बचाता है।
वहीं निंदा हमें आगे बढ़ने से रोकने के उद्देश्यों से की जाती है। निंदा वही लोग करते हैं जो खुद आगे बढ़ नहीं पाते इसलिए दूसरों के आगे बढ़ने पर ओछी मानसिकता को दर्शाते हैं और पीठ पीछे उनकी बुराई, निंदा चुगली आदि से अपने मन की विसंगतियों को शांत करने का प्रयास करते हैं।निंदा अहंकार से जन्म लेती है जिसका भाव हमें नीचा दिखाना,हमारे को चोट पहुँचाना तथा हमें अपने लक्ष्य से दूर करना होता है।निंदा घमंड और अहंकार से प्रफुल्लित होती है। इसमें शक्ति का उपभोग भी होता है जिससे किसी का भी कल्याण नहीं होता है।
इस तरह आलोचना एक समीक्षात्मक, सकारात्मक पहलू है जो आगे बढ़ने के लिए जरूरी है।लेकिन निंदा सिर्फ आपको लक्ष्य से भटकाने का काम करती है।
- सीमा मोंगा
रोहिणी -  दिल्ली

" मेरी दृष्टि में " आलोचना में कोई ना कोई सिद्धान्त कार्य कर रहा होता है । परन्तु निंदा में कोई सिद्धांत कार्य नहीं करता है सिर्फ जलनशीलत होती है । कदापि इसे आलोचना नहीं कहां जा सकता है 
                                            - बीजेन्द्र जैमिनी
डिजिटल सम्मान 




Comments

  1. Thoughts content of Rekha Saxena's article is appreciable 👍👍

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  2. Well explained the difference by Dr. Rekha Saxena ( Didi ) between आलोचना Vs निंदा !

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  3. While both words appear to be the same ! But gap is major !

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  4. डॉक्टर रेखा सक्सेना के विचार सराहनीय है।👍👍

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  5. डॉक्टर रेखा सक्सेना जी के विचार सराहनीय हैं।👍👍

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  6. डॉक्टर रेखा सक्सेना जी के विचार सराहनीय हैंं।👍👍
    नूपुर

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  7. Article written by doctor Rekha saxena was nice and better than others.

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  8. डॉ रेखा सक्सेना के विचारों से मैं सहमत हूं

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  9. Dr. Rekha Saxena nice thoughts 👍

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  10. Dr Rekha Saxena ji ke thought sarahniya h..,👌👌👍👍

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  11. बहुत सुंदर विश्लेषण,,,,

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  12. Dr Rekha Saxena ' s thought adorable 👌👍👍

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  13. Dr Rekha Saxena's thought adroable 👌👍👍

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  14. Thoughts of Rekha Saxena is appreciable. And she explained her thoughts very deeply.

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  15. सबके विचार सही व सार्थक है

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  16. Dr.rekha Saxena's article is perfect

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  17. I liked Dr Rekha Saxena's thoughts the most. Very well explained

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