अपने सुख के लिए दूसरों को कष्ट देना क्या उचित है ?

अपने सुख के लिए हर कोई सब कुछ करता है परन्तु अपने सुख के लिए दूसरों को कष्ट कभी नहीं देना चाहिए । इसें महापाप भी कहतें हैं । यही कुछ जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : - 
कतई उचित नहीं, अपने सुख के लिए दूसरे को दुख देना। सामान्यतः होता यह है कि हम अपनी सुविधा का तो ध्यान रखते हैं, दूसरे की असुविधा का नहीं। इसीलिए हमारी सुविधा, दूसरे के लिए असुविधाजनक हो जाती है।हमारा सुख दूसरे के लिए दुख हो जाता है।चलती बस से बाहर थूकना,अपने घर का कूड़ा दूसरे के घर के सामने डालना,अपने आयोजन के लिए सार्वजनिक मार्ग को अवरोधित कर देना,अपने घर का गंदा पानी सड़क पर यूं ही छोड़ देना। आजकल बिना मास्क के घूमना, सार्वजनिक स्थान पर धूम्रपान, खुशी के नाम पर अनावश्यक शोर शराबा, यह सब ऐसी ही स्थितियां हैं जिनमें स्वयं को ही सुख मिलता है, अन्य सब तो दुख का ही अनुभव करते हैं।ऐसा कतई उचित नहीं परंतु करते सब है। बहुत सी स्थिति है जिनमें दुखी अनुभव करने वाला,स्वयं भी अपने सुख के लिए औरों को दुख देने से नहीं चूकता। वैसे मानवता तो यही है कि अपने सुख के लिए दूसरों को दुख न पंहुचाये।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
बिल्कुल नहीं, अपने सुख के लिए दूसरों को कष्ट देना कदापि उचित नहीं है। बहुत से आदमी स्वार्थ पूर्ण व्यवहार करके दूसरों को कष्ट देते हैं यह बहुत ही गलत रवैया है। ईश्वर ने सब को बुद्धि एवं विवेक दिया है उसका सही ढंग से उपयोग करके मानव हित की बात करना चाहिए। उसी में बुद्धिमानी है ,उसी में भलाई है। तुच्छ बुद्धि वाले व्यक्ति केवल अपनी संबंध में ही सोचते हैं उन्हें स्वयं तथा स्वयं के परिवार जनों के अलावा और कुछ नहीं सूझता। यह बहुत ही शर्मनाक एवं अव्यवहारिक रवैया है। मनुष्य को सभी के संबंध में, विश्व कल्याण की भावना को ध्यान में रखते हुए सोचना चाहिए। अपने मतलब के लिए दूसरों को कष्ट देना बहुत ही गलत कार्य है हमें कभी भी इस तरह का व्यवहार नहीं करना चाहिए। अपना कार्य करो किंतु दूसरी का भी ध्यान रखो यही उचित है।
 कहा भी गया है––
"परोपकारं इदम  शरीरं"।
- श्रीमती गायत्री ठाकुर "सक्षम"
 नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
अपने सुख के लिए दूसरों को कष्ट देना बिलकुल भी उचित नहीं ! किसी भी रूप में नहीं ! सुख और दुःख इस जीवन के अंग संग हैं - इस सृष्टि के सभी जीव धारी जाने अनजाने में एक दूसरे को कष्ट देते ही रहते हैं - मेरे इस वक्तव्य का भाव मेरे अपने जीवन के अनुभव से उपार्जित तथ्यों पर निर्भर है मेरे ये  लिखने का आशय आज की चर्चा के मूल से जुड़ा भाव है ये किसी भी अर्थात किसी भी  रूप  किसी के लिए अपवाद हो सकता है मगर मेरा ऐसा कोई आशय नहीं ! 
बात कहने के लिए बहुत अधिक महत्वपूर्ण है यदि प्रक्टिकली समझी जाए 
  अब वापिस मूल विषय पे आता हूँ - मैंने अपनी चर्चा में अपने विचार का आधार पहले ही लाइन लिख दिया। - क्या कोई माँ , बच्चा पति पत्नी भाई बहिन आदि किसी को अपने परिवार में कोई कष्ट देकर खुश है नहीं बिलकुल नहीं।  लेकिन विधि का विधान देखिये रोज़ रोज़ ये सब एक दूसरे को अपने सुख के लिए फिर भी  कष्ट  देते हैं।  
ये तो बड़ी अजीब बात हुई / कोई भी ---बच्चा पति पत्नी भाई बहिन आदि किसी को अपने परिवार में कोई कष्ट देकर खुश है नहीं बिलकुल नहीं।  लेकिन विधि का विधान देखिये रोज़ रोज़ ये सब एक दूसरे को अपने सुख के लिए फिर भी  कष्ट  देते हैं। 
वाह वाह - साहिब चित्त भी मेरी पट्ट भी मेरी।  हहहहहहहहः हंसी तो आएगी ही।  
इसके मूल में जो भाव छुपा है उसको समझने के उपरान्त इस वाक्य कर अर्थ ही बदल जायेगा 
वो कैसे - वो यूँ के यदि उस कष्ट में कष्ट देने वाला , कष्ट लेने वाला मिश्री लगा के पेश करे। हाहा हाहा , साहब आप  कमाल करते है - अब  कहोगे।  सो तो सही है।  
ये विषय ही ऐसा चुना मेरे काबिल संपादक श्री बिजेंद्र जी ने।  
समझाता हूँ -  ये सब मैंने क्यों लिखा - १ - वैदिक शास्त्र अनुसार - मेरा सुख सदा से परा अर्थात पर आधारित है सृष्टि के समस्त प्राणी बिना किसी के दुःख का आधार बने सुख का आभास कर ही नहीं सकते।  पूंछो क्यों 
वो यूं के जब भी आप जी हाँ जब भी आप बाहर सुख खोजोगे आप दुःख ही बांटेंगे - 
इसके विपरीत यदि आप अपने भीतर सुख ढूंढोगे तो आप किसी को दुःख नहीं दोगे / जीवन में जो कुछ भी आपके बाहर है सब दुःख है क्योंकि वो स्थाई नहीं है 
मैं आज तक जन्म से पहले से व् जन्म के उपरान्त अब तक करीब १३५६ साधू महात्मा आचार्यों व् सदवृताचार्यों से सुख की आधार मूल प्रतीति हेतु चर्चा कर  चुका अर्थात उनका विचार जान ने हेतु बात कर चुका , सबका एक ही जबाब था 
जानते हैं क्या - ****कि हमारी टोली में आ जाओ साधू बन जाओ - तब समझ आएगी - समाज में रहकर ये बात समझ पाना असंभव।।
- अरुण कुमार शस्त्री
दिल्ली
मनुष्य को सुख क्यों चाहिए... मन की शान्ति के लिए.. मन की शान्ति क्या है... मन की शान्ति पाने के लिए शरीर का सात्विक होना...शरीर का सात्विक होना कैसे होगा...  आत्मा के विपरीत आचरण नहीं करना।
हम दूसरों को कष्ट दें , उन्हें दुख पहुँचाए और समझे कि हमें शान्ति मिल जाएगी, तो यह असंभव है... ।
जमीन में बीज बो कर हम पौधे पेड़ फल फूल पत्ते सुंगध से श्री युक्त / संपन्न बनने के प्रयासरत रहते हैं तो क्या एकल अधिकारी हो जाते हैं । खाद-पानी का सिंचन करने वाले हम क्या स्वयं के लिए प्रकृति का आरक्षण करा लें...! क्या दीपक में तेल डालने वाला स्वयं के लिए ही केवल प्रकाश को सुरक्षित कर रहा होता है..!  दूसरों को सुखी करने की प्रवृत्ति रखने वाला इंसान हकीकत में तो अपने लिए ही सारी सुख-संपत्ति को सुरक्षित कर रहा होता है। प्रकृति के इस नियम पर यदि हमें विश्वास हो जाए तो फिर सुख की संपत्ति के संग्रह की बुद्धि नहीं, सदुपयोग की बुद्धि जागृत हो जाएगी।
- विभा रानी श्रीवास्तव
पटना - बिहार
     सुख-दुःख, धूप-छाँव की तरह हैं। प्रायः देखने में आता हैं, कि कोई जानबूझकर अपने सुख-सुविधाओं के लिए दूसरों को कष्टदायक बनाता हैं, जो पूर्णतः उचित प्रतीत नहीं होता। आजकल जो भी घटित हो रहा हैं,  सूक्ष्म से लेकर वृहद स्तर तक अपना वर्चस्व स्थापित करने में सफल हो रहे हैं, जिसके परिपेक्ष्य में परिणाम सार्थक नहीं हो पाते और दूसरा संकुचित सोच विचारधारा से सामना करना पड़ता हैं जिसके कारण ग्रसित होकर जीवन यापन कर जीवित अवस्था में पहुँच कर विफलताओं में रहता हैं। अन्य सुखद जीवन यापन कर, मजा लेते रहते हैं?
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
किसी के सुख का कारण बनना मानवोचित व्यवहार है और किसी के दुःख का का कारण बनना मानवेत्तर और निंदनीय कार्य है. अपने सुख के लिए किसी दूसरे को कष्ट देना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है. किसी को सुख पहुंचाने से अपने मन को संतुष्टि तो मिलती ही है, जिसको सुख पहुंचाया है, उसके मन की दुआ और आशीर्वाद से खुद का मन भी प्रसन्न रहता है, वह दुआ  किसी-न-किसी सकारात्मक रूप में फलित भी हो सकती है. इसी तरह किसी को दुःख पहुंचाने से अपने मन की असंतुष्टि के अतिरिक्त जिसको दुःख पहुंचाया है, उसकी बद्दुआ खुद के मन को भी मलिन कर देती है, साथ ही अपनी आत्मा भी कचोटती रहती है. इसलिए अपने सुख के लिए किसी दूसरे को कष्ट देना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं है.
- लीला तिवानी 
दिल्ली
"वैष्णव जन तो ते ने कहिये जे, पीड़ पराई जाणे रे....."
"परहित सरिस धर्म नहिं भाई......"
भारतीय संस्कृति यही सन्देश देती है। 
अपवाद को छोड़ दीजिए परन्तु आज प्रायः देखा जा सकता है कि 'परायी पीर' को जानना तो दूर की बात है, स्वयं सुख के लिए दूसरों को पीड़ा पहुंचाकर शर्मिन्दगी का भाव तक नहीं आता, मनुष्य के मन-मस्तिष्क में।  परहित को धर्म मानने वाले ढूंढने से भी नहीं मिलते। 
आज का मनुष्य स्वार्थ में डूबकर मात्र अपने सुख के लिए, दिन-प्रतिदिन परोपकारी भावनाओं से रहित होकर दूसरों को कष्ट देने में लेशमात्र भी संकोच नहीं कर रहा।
वे दिन गये, जब लोग सोचते थे कि हमारे पांव से चींटी तक ना दब जाये। एक इन्सान का दुख दूसरों को व्यथित कर देता है ...... ऐसे इन्सान अब कितनी संख्या में हैं? 
आज मनुष्य, हवस, लोभ-लालच, और स्वार्थ लिप्सा में लिप्त होकर दूसरों को रौंदकर सुखों को पाने की कुत्सित भावना से ग्रसित है। 
जीवन के भौतिक सुखों की क्षणभंगुरता को जानते हुए भी मनुष्य की कोमल परहित भावनाएं समाप्त हो गयी हैं। 
लेकिन यह निर्विवाद तथ्य है कि दूसरों को कष्ट देकर अपने लिए सुख पैदा करने वाले मनुष्य जीवन भर अशान्त ही रहते हैं। दूसरों के लिए गड्ढा खोदने वाला एक-न-एक दिन स्वयं भी उस गड्ढे में गिरता अवश्य है। और शायद तब उसे अहसास होता हो कि अपने सुख के लिए दूसरों को कष्ट देना सर्वथा अनुचित है। 
इसीलिये कहता हूं कि...... 
"बेशक सुखों का समुन्दर लाती है सफलता तेरी,
पर रौंदकर स्वप्न किसी के न आई हो कामयाबी तेरी। 
आनन्दित होगा जमाना तुझसे ज्यादा तेरी सफलता पर, 
पर किसी को रुला कर न आई हो कामयाबी तेरी।।" 
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
दुनिया का हर इन्सान सुख चाहता है। दुख कोई नहीं चाहता। सुख सभी मनुष्यों की कामना है। जिंदगी भर मनुष्य सुख की प्राप्ति के लिए संघर्षशील रहता है। कई बार मनुष्य अपने सुख के लिए सभी नियम तोड़ देता है अर्थात अपने सुख के लिए दूसरों को कष्ट देता है। वह मनुष्य होकर भी दानव या पशु तुल्य बन जाता है। अपने ही जीवन को सुखी समृद्ध बनाने की चेष्टा में लगा व्यक्ति  संपन्न होते हुए भी कभी यश नहीं पाता।हमारे धर्म ग्रन्थों में भी यही लिखा है कि जो मनुष्य दूसरों को कष्ट देकर सुखी होना चाहता है वह नर्क में जाता है। 
        जो व्यक्ति दूसरों के लिए जीता है, उस का जीवन ही अच्छा होता है। हमें दूसरों के दुखों को अनुभव करते हुए, उनके सहायक बनना चाहिए। सच्चा मनुष्य वो है जो समस्त जाति के लिए कल्याणार्थ प्रयत्न करता है। दूसरे की भलाई के लिए अपनी खुशियों का बलिदान करने को तत्पर होता है। अपने सुख के लिए दूसरों को कष्ट देना बिल्कुल उचित नहीं है। 
      सुख एक भाव है। सुख महसूस करने के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण का होना बहुत जरूरी है। एक ही परिस्थिति और घटना को दो व्यक्ति भिन्न भिन्न नजरिये से ग्रहण करते हैं। जिसका चिंतन सकारात्मक होता है, वह दुख को भी सुख में बदलने में सफल हो जाता है। अपने सुख के लिए दूसरों के अहित नहीं चाहता।
- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब
हमारे समाज में कहा जाता है:-जो व्यक्ति अपने सुख के लिए दूसरों के कष्ट देता है वह नरक में जाता है, और जो व्यक्ति दूसरों को सुख देता है, परोपकार करता है वह स्वर्ग में जाता है।
कहावत है:-नर से नरक में भी जाया जा सकता है, और नर से नारायण भी बना जा सकता है।
लेखक का विचार:-परोपकारी मनुष्य स्वर्ग सुख के अधिकारी बनता है ,इसलिए अपने सुख के लिए दूसरे को कष्ट नहीं देना चाहिए।
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखंड
प्रतिकूल परिस्थितियाँ हमें दुःख का आभास देती हैं और अनुकूल परिस्थितियाँ सुख का अहसास कराती हैं, जो कि मनुष्य के अपने अपने कर्म, अकर्म, विकर्मों और सकर्मों का प्रतिफल है, जो प्रारबध के अंश है l लेकिन जो लोग प्रारबध को नहीं मानते वे दुःख का अनुभव करते हैं और रो रो कर अपना जीवन ही नहीं बिताते अपितु दुःख को सुख में बदलने के लिए दूसरों को कष्ट देने से नहीं चूकते l जो मेरी दृष्टि में उचित नहीं है l
ब्रह्म सत्य जगत मिथ्या के आधार पर भौतिकता को सर्वस्व समझ लेने के कारण व्यक्ति दूसरों को कष्ट देने से नहीं चूकता l
  आप अपने सुख के लिए दूसरों को कष्ट देते हैं, भ्र्ष्टाचार करते हैं, अपने कर्तव्यों से विमुख होते हैं, यहीं से आपके दुखों की शुरुआत होती है l कहा भी गया है कि -"अशांतस्य कुतः सुखं "अशांत व्यक्ति को सुख की प्राप्ति कहां?
         -----चलते चलते
हम अपने कर्मफल से नहीं बच सकते, हम जो कुछ भी करते हैं हमारे कर्म प्रभु देख रहे होते हैं किसी भी दिन आपको कर्म का फल सुख- दुःख के रूप में भोगने ही पड़ते हैं l समस्याओं एवं दुःख की परिस्थिति में अन्य को दोष न देकर अपने कर्मफल को स्वीकार करें तथा सुख को खरीदने के लिए दूसरों को कष्ट न दें l ये दोनों (सुख और दुःख )आत्मिक अनुभूति का विषय है जो दूसरों को दुःख देकर सुख खरीदने को लालायित है उनके लिए चंद पंक्तियाँ --
जब तक तेरे पुण्य का बीता नहीं करार
तब तक तेरे माफ है अवगुण करो हजार
      - डॉo छाया शर्मा
 अजमेर - राजस्थान
       बेशक अपने सुख के लिए दूसरों को कष्ट देना उचित नहीं है? परन्तु वर्तमान प्रथा यही है कि अपना काम बनता भाड़ में जाए जनता।
       चूंकि जनता तो जनता है। जिसे मात्र अपने लिए जीना है। अपने सुखों के प्रति ध्यान देना है। भले ही उस सुख से दूसरों को उसके सुख से कहीं अधिक कष्ट झेलना पड़े। उससे उनको कोई मतलब नहीं है। जबकि देखा जाए तो दूसरों कष्ट देना अनुचित ही नहीं बल्कि संवैधानिक दण्डनीय अपराध भी है।
       अतः यह ध्यान देने योग्य है कि अपने सुख के लिए दूसरे को कष्ट ना हो। अन्यथा जब दूसरा जागरूक हो गया तो लेने के देने पड़ जाएंगे और सुख को दुःख में परिवर्तित होते समय नहीं लगेगा।
- इन्दु भूषण बाली
जम्म् - जम्म् कश्मीर
जीवन में हर व्यक्ति को सुख और दुख का सामना करना ही पड़ता है यह दोनों हमारे जीवन के महत्वपूर्ण साथी हैं। जीवन में कभी सुख आता है तो कभी दुख का सामना करना पड़ता है, लेकिन मनुष्य को संकट की घड़ी में कभी भी घबराना नहीं चाहिए। उसे धैर्य से काम लेना चाहिए। बहुत से ऐसे लोग होते हैं जो अपने सुख के लिए दूसरे को दुख देते हैं। लेकिन वैसे लोग भी अपने जीवन में कभी खुश नहीं रह सकते क्योंकि जो गलत करता है उसका परिणाम भी उसे गलत मिलता है। मनुष्य को जीवन में कभी भी अपने सुख के लिए दूसरे को दुख नहीं देना चाहिए।
अच्छा व्यक्ति वही है जो दूसरों के दुख में उसकी मदद करें। यदि आप किसी के दुख में मदद करते हैं तो आपको बहुत ही शांति और राहत महसूस होती है। लेकिन बहुत लोग ऐसे भी होते हैं जो अपने सुख के लिए दूसरों को दुख देते हैं और कष्ट पहुंचाते। अपने सुख के लिए दूसरों को दुख देना किसी भी तरह से उचित नहीं है। मानव जीवन का उद्देश्य है कि अपने मन वचन और काया से औरों की मदद करें। हमेशा यह देखा गया है कि जो लोग दूसरों की मदद करते हैं उन्हें कम तनाव रहता है। मानसिक शांति और आनंद का अनुभव होता है। वह अपनी आत्मा से ज्यादा जुड़े हुए महसूस करते हैं और उनका जीवन संतोष पूर्ण होता है। जबकि स्पर्धा से खुद को और दूसरों को तनाव रहता है। जीवन का एक कटु सच्चाई यह भी है कि जीवन हमारा घटनाओं का चक्र है। यदि बुरी घटनाओं के चक्कर में आप फंसे हैं तो उससे निकलना बहुत मुश्किल होता है। आपके दिमाग में चाहे बुरे विचार आते हो उसकी फिक्र करने की जरूरत नहीं। आप बस l सुबह उठते ही आप एक अच्छा विचार सोचे। या एक अच्छा वाक्य खुद से बोलने के लिए तैयार रखें। जैसे कि आज मैं बहुत खुश हूं। आज मेरी मनोकामना पूर्ण होगी। क्या मैं बहुत अच्छे विचारों वाला व्यक्ति हूं। आप कोई सा भी सुविचार सोच सकते हैं। खुद को अच्छे वाक्यों से प्रेरित करते रहे। नकारात्मक सोच एवं विचारों से बचने के लिए जरूरी है कि सुबह को मोटिवेट करते रहें। जीवन में आप तभी तनावपूर्ण रह सकते हैं खुश रह सकते हैं शांति से रह सकते हैं जब दूसरों के दुख में उसकी मदद करें।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर - झारखंड
अपने सुख के लिए दूसरों को कष्ट देना सर्वथा अनुचित है। क्योंकि जो व्यक्ति स्वार्थी है ,मतलब परस्त है,जो सिर्फ अपना ही सोचता है, जिसे दूसरों का हित नहीं दिखता ,वही अपने सुख के लिए दूसरों को कष्ट देकर ,अपना स्वार्थ सिद्ध करता है।
   हमें यह मनुष्य जीवन, दूसरों के काम आने,दूसरों की सहायता करने के लिए भिला है।देखा तो यह गया है कि किसी को पानी में डूबते हुए, देखकर संवेदनशील व्यक्ति, उसा बचाने के लिए उसी समय पानी में कूद जाता है। भले ही उसके कपड़े, जूते,सामान ,रूपया नष्ट हो जाये।
    फिर हम सभी पारिवारिक और जिम्मेदार व्यक्ति हैं। फिना दूसरों का ध्यान रखे ,हम सामान्य जीवन(स्वार्थ से परिपूर्ण)नहीं जी सकते।चाहे व्यापार हो,चाहे आफिस हो चाहे जहाँ भी हो।
    अतः अपने सुख के लिए दूसरों को कष्ट देना मानवता और इंसानियत नहीं है। क्योंकि अभी भी व्यक्ति पूरी तरह से जानवर नहीं बन पाया है और उसमें मानवीय मूल्यों का नाश नहीं हुआ है। 
   दूसरों को कष्ट देना याने आपना पाप बढ़ाना हैऔर मोक्ष पाने की जगह अनगिनत योनियों को धारण कर जन्म जन्मातर तक भटकते रहना है। 
- डाॅ •मधुकर राव लारोकर 
नागपुर - महाराष्ट्र
कदापि नहीं ! मानव एक बहुत ही महत्वाकांक्षी जीव है ! सुख की लालसा में ,और और के चक्कर में अपनी मनसा पूर्ण करने के लिए यदि किसी को कष्ट हो रहा है अथवा दुख हो रहा है उसे कोई फर्क नहीं पड़ता चूंकि वह उसका स्वभाव है ! हम सब बदल सकते हैं किंतु स्वभाव नहीं !  मनुष्य को अपने कर्मो के सुधार की राह स्वयं तय करनी है ! सुख दुख तो पल दो पल का है कहते हैं न ...
"राम की माया कभी धूप कभी छाया " हमारे कर्म की राह ही हमे ईश्वर तक पहूंचाने में हमारी मदद करती है ! निज स्वार्थ त्याग हमें दूसरे के दुख का भी आभास होना चाहिए ! भगवान शिव ने भी तो सृष्टि के सभी जीवों को मंथन से मिले विष से मिलने वाले दुख और पीडा़ का स्वयं पान किया था ! हमें अपने सच्चे कर्मों का आभास तभी होगा जब किसी की पीडा़ अथवा दुख को हम निःस्वार्थ हरने की कोशिश करते हैं ! किसी की सेवा कर जो मन को शांति मिलती है वही सच्चा सुख है ना कि किसी को कष्ट देकर प्राप्त सुख !
             - चंद्रिका व्यास
            मुंबई - महाराष्ट्र
अपने सुख के लिए दूसरों को दुःख देना कभी भी उचित नहीं है। अपने आगे बढ़ने के लिए किसी को धक्का देना। बस ट्रेन में अपने बैठने के लिए दूसरों को कष्ट देना। ये सब हरगीज उचित नहीं है। पहले अपने सुख की खातिर लोग दूसरों का जमीन हड़प लेते थे और वो दाने-दाने को मोहताज हो जाता था। आज भी बहुत से लोग हैं जो अभी भी हड़प नीति पर चलते हैं। अपनी मौज मस्ती अपनी सुख सुविधा के लिए दूसरों को दुःख देते रहते हैं। जो सरासर अन्याय की श्रेणी में आता है। अपने सुख की खातिर जानवरों को मारना,गरीबों को सताना, महिलाओं के साथ अत्याचार करना,किसी को भूखा रखना, किसी से ज्यादा काम लेना ये सभी कष्टकारी कार्य है। इसे कभी नहीं करना चाहिये। इस सब से दूसरों को दुःख पहुँचता है। इसलिए अपने सुख के लिए दूसरों को दुःख देना उचित नहीं।
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश" 
कलकत्ता - प. बंगाल
यह प्रवृत्ति बिल्कुल अनुचित है दूसरों को कष्ट पहुंचा कर स्वयं को सुख प्राप्त करना जुर्म है अपराध है दूसरों का बद्दुआ उस इंसान को कभी न कभी मिल ही जाएगा सुख और दुख तो मानसिक भावनाएं संतुष्टि की भावनाएं यह तो मायावी है एक लालच है एक प्रतिस्पर्धा की भावना यह विकृत व्यक्तित्व का एक उदाहरण है छीन कर चोरी कर झपट कर किसी का हक मारकर हम धन को हासिल कर लें और उस धन से हम खुश रहेंगे यह छलावा
सुख संतुष्टि में है मेहनत में है परिश्रम में है आपके भाग्य में जितना मिलना लिखा है वह अवश्य मिलेगा
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
"सबको सुखी रखना बेशक हमारे हाथ में नहीं है, 
किसी को दुखी  भी न करें जरूर हमारे हाथ में है"। 
ऊपर लिखी स्तरों मे से साफ झलकता है कि हमें कभी भी किसी को  दुखी नहीं करना चाहिए, 
मगर कई बार इन्सान खुद को सुखी रखने के लिए दुसरों को दुखी करता है, दुसरों का हक खाता है़ व दुसरों के साथ अन्याय करता है, 
क्या ऐसा इन्सान सुखी रह सकता है?  क्या अपने सुख के लिए दुसरों को कष्ट देना उचित है? आइयै आज इसी विषय पर चर्चा करते हैं, 
मेरा मानना है कि दुसरों को दुख देने से इन्सान खुद सुखी कभी भी महीं रह सकता
क्योंकी  मानव अपने जीवन में जो अच्छे बुरे कर्म करता है उसका फल उसे जरूर भुगतना पड़ता है, 
इसलिए मनुष्य को कर्म वही करने चाहिए जिससे दुसरों का भला हो सके व जिससे दुसरों को कष्ट पहुंचे उसे कभी नहीं करना चाहिए। 
यह याद रहे  जो अज्ञान और अंहकार के कारण दुसरों को कष्ट पहुंचाते हैं उनंहें हमेशा कष्ट ही मिलते हैं, 
इसलिए हमें अपनी आत्मा की प्रेरणा से कर्म करने चाहिए। 
अगर देखा जाए मनुष्य हमेशा शान्ति की तलाश में भटकता रहता है लेकिन वो उन तथ्यों को भूल जाता है जिनमें उसे शान्ति मिलेगी, 
यदि कोई दुसरों को कष्ट दे व दुख पहुंचाए और समझे  कि उसे खुद शान्ति मिले तो  यह असंभव है, 
दुसरों की शान्ति भंग करने वाले व्यक्ति के लिए शान्ति की अपेक्षा करने का अर्थ  वैसा ही है जैसे, 
बोया पेड़ बवूल का आम कहां से होए। 
कहने का  मतलब मन की शान्ति बनाने के लिए अपने शरीर को सात्विक बना लें जिससे मन को पूर्ण सुख मिलेगा। 
आखिर मे यही कहुंगा अपने सुख के लिए दुसरों को कष्ट देना कभी भी उचित नहीं
हमेशा यही सोच रखें जो आपके लिए बुरा भी सोचे उसके लिए भला ही करो इसी में आपको पूर्ण शान्ति मिलेगी। 
जो तोको कांटा भुवे तोही भुवे तू फूल तोकों फूल के फूल हैं वाकों हैं त्रिशूल। 
जो तेरे लिए कांटा वोता है  तू उसके लिए फूल वोना चाहिए आपको फूल के वदले फूल व उसको कांटे के वदले कांटे ही मिलेंगे ये सृष्टि का  नियम है। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
अपने सुख के लिए जब मनुष्य दूसरो को कष्ट देगा तो यह निश्चित है कि वह व्यक्ति कुछ अनुचित काम करेगा  ,वह काम कपट के द्वारा ही किया  जायेगा  । यह प्रवृति राक्षसी विचार धारा की है ।फिर तो जैसे विचार वैसे कर्म और वैसा ही फल । यह मार्ग दुर्भाग्य का है ।ठीक ही कहा गया है ...जहाँ सुमति तहाँ संपति नाना ,जहाँ कुमति तहँ विपत्ति निधाना ।
- कमला अग्रवाल
गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश

" मेरी दृष्टि में " किसी को भी , कभी भी दूसरों को जानबूझकर कष्ट नहीं पहुचना चाहिए । कभी ना कभी किसी भी जन्म यह बदलना चुकाना पड़ता है । इस बात को हमेशा ध्यान रखना चाहिए । 
- बीजेन्द्र जैमिनी 

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