गीता के ज्ञान का मूल स्वरूप क्या है ?

महाभारत के समय में कुरुक्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दिया गया अर्जुन को  उपदेश ही गीता का ज्ञान कहलाती हैं । इस का मूल स्वरूप क्या है । यहीं जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : - 
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहते हैं। इस सृष्टि की रचना मूल रूप से तीन गुणों से हुई है। यह तीन गुण सत्व राजस और तमस है। हालांकि आधुनिक विज्ञान आज भी इससे अनजान है। परंतु धार्मिक मान्यता है कि तीन गुण  सजीव, निर्जीव,स्थूल और सुक्ष्म वस्तुओं में रहते हैं। श्री कृष्ण भगवान अर्जुन को यह बताते हैं कि *यह मूल प्रकृति ही संसार के समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली है और आत्मा रूप में चेतन रूप मे चेतन रूपी बीज को  स्थापित करता हूं*। इस जड़ -चेतन के संजोग से ही सभी चर -अचर प्राणियों की उत्पत्ति होती है।साथ ही समस्त योनियों में जो भी शरीरधारी प्राणी उत्पन्न होते हैं उन सभी को धरण करने वाली आत्मा रूपी वीज को स्थापित करने वाला पिता हूं। सात्विक राजसिक और तामसिक यह तीनों गुणों के कारण ही अविनाशी आत्मा शरीर से बंध जाती है। पुरुष प्रकृति से उत्पन्न तीनों गुणों को भोगता है और इन गुणों का साथ ही इस जीवात्मा को अच्छी बुरी एवं योनियों में जन्म लेने के कारण बनता है।
लेखक के विचार:-प्रत्येक व्यक्ति को गीता का अनुकरण करना चाहिए।
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखंड
गीता के ज्ञान का मूल स्वरूप है –कर्म कर फल की चिन्ता मत कर...
उपनिषदों को गौ और गीता को उसका दुग्ध कहा गया है। इसका तात्पर्य यह है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या थी, उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। 
गीता में योग की दो परिभाषाएँ पाई जाती हैं। एक निवृत्ति मार्ग की दृष्टि से जिसमें ‘समत्वं योग उच्यते’ कहा गया है अर्थात् गुणों के वैषम्य में साम्यभाव रखना ही योग है। सांख्य की स्थिति यही है। योग की दूसरी परिभाषा है ‘योग: कर्मसु कौशलम’ अर्थात् कर्मों में लगे रहने पर भी ऐसे उपाय से कर्म करना कि वह बंधन का कारण न हो और कर्म करनेवाला उसी असंग या निर्लेप स्थिति में अपने को रख सके जो ज्ञानमार्गियों को मिलती है। इसी युक्ति का नाम बुद्धियोग है और यही गीता के योग का सार है।
श्रीमद्भगवद्गीता वर्तमान में धर्म से ज्यादा जीवन के प्रति अपने दार्शनिक दृष्टिकोण को लेकर भारत में ही नहीं विदेशों में भी लोगों का ध्यान अपनी और आकर्षित कर रही है। निष्काम कर्म का गीता का संदेश प्रबंधन गुरुओं को भी लुभा रहा है।
श्री भगवान ने सम्पूर्ण गीता शास्त्र में बार-बार आत्मरत, आत्म स्थित होने के लिए कहा है। स्वाभाविक कर्म करते हुए बुद्धि का अनासक्त होना सरल है अतः इसे ही निश्चयात्मक मार्ग माना है।
- विभा रानी श्रीवास्तव
पटना - बिहार
'श्रीमद्भागवत गीता' के अनुसार भगवान शरीर नही अपितु सर्वोच्च शक्ति है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि सृष्टि की रचना तीन गुणों- सत्व, राजस और तमस से हुई है। प्रत्येक सजीव, निर्जीव, स्थूल और सूक्ष्म वस्तुओं में ये तीन गुण विद्यमान रहते हैं। प्रकृति से उत्पन्न ये तीनों गुण के कारण ही अविनाशी आत्मा शरीर से बंध जाती है। श्रीकृष्ण भगवान कहते हैं "मैं ही ब्रह्म (आत्म) रूप में चेतन रूपी बीज को स्थापित करता हूं।" श्रीकृष्ण के इन शब्दों से मनुष्य को आत्मा और परमात्मा की शक्ति का बोध होता है। 
इसी प्रकार 'कर्मण्येवाधिकारस्ते मां फलेषु कदाचन' अर्थात "तेरा अधिकार कर्म में ही है, फल में नहीं"। गीता द्वारा प्रदत्त महत्वपूर्ण ज्ञान है क्योंकि इसके द्वारा मनुष्य को कर्म करने को प्रेरित करते हुए फल के विकारों से दूर रहने का सन्देश दिया गया है। निष्काम कर्म अर्थात काम-क्रोध-मोह-माया-लोभ से बचकर किये गये कर्म ही निष्काम कर्म हैं। 
मेरी समझ में, मनुष्य को स्थितप्रज्ञ होकर निष्काम भाव से आत्मा और परमात्मा की शक्ति के महत्व को मन-मस्तिष्क से स्वीकार करते हुए कर्म-पथ पर गतिशील रहने का संदेश ही गीता के ज्ञान का मूल स्वरूप है। 
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
कुरुक्षेत्र की पृष्ठभूमि में 5000 वर्ष पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया जो श्रीमद्भगवदगीता के नाम से प्रसिद्ध है. यह कौरवों व पांडवों के बीच युद्ध महाभारत के भीष्मपर्व का अंग है. गीता की गणना प्रस्थानत्रयी में की जाती है, जिसमें उपनिषद् और ब्रह्मसूत्र भी सम्मिलित हैं. अतएव भारतीय परम्परा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो उपनिषद् और धर्मसूत्रों का है. उपनिषदों को गौ और गीता को उसका दुग्ध कहा गया है. इसका तात्पर्य यह है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या थी, उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है. उपनिषदों की अनेक विद्याएँ गीता में हैं. गीता कर्मयोग का मार्ग भी दिखाती है, ज्ञानयोग का भी और भक्तियोग का भी. प्रभु से मिलने के अनेक मार्ग हैं, अपने विचारों के अनुसार अपना मार्ग खुद प्रशस्त कीजिए, यही गीता का मूल ज्ञान भी है और महानता भी. तत्वज्ञान का सुसंस्कृत काव्यशैली के द्वारा वर्णन गीता का निजी सौरभ है, जो किसी भी सहृदय को मुग्ध किए बिना नहीं रहता. इसीलिए इसका नाम भगवद्गीता पड़ा, भगवान् का गाया हुआ ज्ञान. यह ज्ञान हमें निष्काम रहते हुए भी निरंतर कर्म करते रहने की सीख देता है. श्री कृष्ण ने स्वयं अपना ही दृष्टांत देकर कहा कि मैं नारायण का रूप हूँ, मेरे लिए कुछ कर्म शेष नहीं है. फिर भी तंद्रारहित होकर कर्म करता हूँ और अन्य लोग मेरे मार्ग पर चलते हैं. अंतर इतना ही है कि जो मूर्ख हैं वे लिप्त होकर कर्म करते हैं पर ज्ञानी असंग भाव से कर्म करता है. यह गीता का मूल भाव भी है और स्वरूप भी.
- लीला तिवानी 
दिल्ली
श्री   मदभागवत गीता  न केवल धर्म का उपदेश देती है वल्कि जीने की कला भी सिखाती है, 
गीता के आदर्शों पर चलकर मनुष्य न केवल खुद का कल्याण करता है बल्कि वह संपूर्ण मानव जाति की भलाई कर सकता है। 
महाभारत के युद्द के पहले अर्जुन ओर श्रिकृष्ण संवाद लोगों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं, 
तो आईये आज की चर्चा  श्री मदभागवद गीता के  ज्ञान के मूल स्वरूप के विषय पर करते हैं कि गीता का मूल स्वरूप क्या है?  
मेरा मानना है कि गीता में 18अध्यायऔर 710 श्लोक हैं व गीता की गणना प्रस्थानत्रभी में की जाती है जिसमें उपनिषद और ब्रहम्सुत्र  भी शामिल हैं। 
भारतिय परम्परा के अनुसार गीता का स्थान वही है जो उपनिषद और धर्मसूत्रों का है, 
यहां तक कि उपनिषद को गौ और गीता को उसका दुग्ध कहा गया है क्योंकी उपनिषदों की अनेक विद्याएं गीता में हैं । 
गीता के दुसरे अध्याय में जो प्रतिष्ठता की धुन पाई जाती है उसका अभिप्राय निर्लेप कर्म की क्षमतावली बुद्दी से ही है। 
भागवद गीता के दितिय अध्याय  को ही गीता का मूल स्वरूप भी कहा जाता है, 
दुसरे अध्याय में कुल72 श्लोक हैं इनमें 63 भगवान कृष्ण द्वारा 6अर्जुन द्वारा और 3 संजय द्वारा कहे गए हैं, 
इसी अध्याय को सांख्ययोग भी कहा गया है। 
इसके  साथ साथ गीता में क्रोध पर नियंत्रण, नजरिए में बदलाब, मन पर नियंत्रण, आत्म मंथन, सोच में निर्माण व कर्म ही थर्म इत्यादी को बिस्तार में समझाया गया है, अन्त में यही कहुंगा वर्तमान जीवन में उतपन्न कठ्नाईयों से लड़ने के लिए मनुष्य को गीता में वताए गए ज्ञान की तरह आचरण करना चाहिए इससे वह उन्नति की और अग्रसर होगा, 
गीता  के ज्ञान को भगवान कृष्ण जी ने अर्जुन को कुरूक्षेत्र में खड़े होकर दिया था, यह श्रि कृष्ण अर्जुन संवाद से विख्यात है। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
श्रीमद भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि इस सृष्टि की रचना मूल रूप से तीन गुणों से हुई है। यह तीन गुण सत्त्व, राजस और तमस है। श्री कृष्ण अर्जुन को यह बताते हैं कि यह मूल प्रकृति इस संसार की समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली है। और मैं ही ब्रह्मा रूप में चेतन रुपए बीच को स्थापित करता हूं। हजारों वर्ष पहले लिखी गई भगवत गीता का विश्लेषण व अभ्यास प्रत्येक विद्वान द्वारा अलग अलग से भी किया गया है।यदि कोई भगवत गीता का सारांश अथाह रूप से समझने में सक्षम हो तो वह परम सत्य का अनुभव कर राज्य की भ्रांति व संसार के दुखों से मुक्त हो सकता है। अर्जुन ने भी महाभारत का युद्ध लड़ते हुए सांसारिक दुखों से मुक्ति प्राप्ति की थी। भगवान श्री कृष्ण द्वारा दिए गए दिव्य चक्षु के कारण अर्जुन कोई भी क्रम बांधे बिना युद्ध लड़ने में सक्षम बनें और उसी जीवन में मोक्ष प्राप्त किया। श्री कृष्ण भगवान साक्षात प्रकट हुए हैं। इससे ज्ञानी पुरुष के प्रभावपूर्ण शब्दों को दर्शाता है, जिसके द्वारा हम अपनी खोई हुई समझ को भी फिर से प्राप्त कर सकते हो और उसके उपयोग द्वारा कर्मों से मुक्त हो सकते हैं। महाभारत में अर्जुन को मोह उत्पन्न हुआ था। क्षत्रिय धर्म होने के बावजूद वह मूर्छित हो चुका था। इसलिए मूर्छा निकालने के लिए कृष्ण भगवान ने अर्जुन को सावधान किया और कहा तेरी मूर्छा उतार तू तेरे धर्म में आ जाए। कर्म करता यह करता तू मत बनना। कृष्ण व्यवस्थित जानते थे और व्यवस्थित के नियम में जितना था उतना ही कृष्ण बोले हैं, लेकिन लोगों की समझ में नहीं आता और कहते हैं कि भगवान ज्ञानी होकर ऐसा क्यों बोले कि इन सब को मार डाल। यह तो कृष्ण का युद्ध के समय का उपदेश था। अर्जुन को सभी रिश्तेदारों को देखकर में उत्पन्न हो गया था भगवान जानते थे वैसे यह मोह कुछ क्षण के लिए ही है। गीता में श्रीकृष्ण भगवान दो ही शब्द कहना चाहते हैं वे दो शब्द लोगों को समझ में आ सके ऐसा नहीं है। इसलिए गीता का इतना बड़ा स्वरूप दिया और उस स्वरूप को समझने के लिए लोगों ने फिर से विवेचन लिखें है। कृष्ण भगवान ने खुद कहा कि मैं जो गीता मैं कहना चाहता हूं उसका स्थूल अर्थ हजार में से एक व्यक्ति समझ सकेगा। इसे हजार स्थूल अर्थ समझने वाले व्यक्तियों में से एक व्यक्ति गीता का सूक्ष्म अर्थ समझ सकेगा। ऐसे हजार सूक्ष्म अर्थ समझने वालों में से एक व्यक्ति सूक्ष्म मतर अर्थ को समझने वालों में से एक व्यक्ति गीता का सूक्ष्म तम अर्थात मेरा आशय समझ सकेगा।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर - झारखंड
     ज्ञान रुपी संसार में विचारों की महत्ता को सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर वृहद स्तर पर केन्द्रित करने
गीता का अत्यधिक महत्वपूर्ण योगदान हैं। कुरुक्षेत्र के विहांग दृश्य  युद्ध भूमि परिक्षेत्र में अर्जुन के हृदय में उत्पन्न विचारधारा को रोचक बनाने श्री कृष्ण ने गीता उपदेश के माध्यम से  प्रयत्नशील रहे, जहाँ 1 से 18 अध्यायों में विभाजित ज्ञान सागर की गंगोत्री में रसावादन करवा करवाकर युद्ध नीतियाँ प्रत्यक्ष प्रणाली से अवगत कराते हुए, प्रेरित किया। यही गीता कालांतर में भव सागर से अपने-अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर हैं। गीता के ज्ञान का मूल स्वरूप "जैसा कर्म करोगे तो उसे वैसा ही फल भोगेगा" यह चरित्रार्थ हैं। दूसरी ओर भी ध्यान केन्द्रित किया हैं "अपनी इंद्रियों को बस में कर लिया तो उसे हर पल खुशी ही दिखाई देयेंगी हैं और अनन्त समय तक चलता रहेगा और अंत में बुरी तरह से सामना नहीं करना पड़ेगा। "हर रुप मैं हूँ, सभी तरह की  संसारिक शक्ति में बस मैं ही मैं होता हूँ, संसार परिवर्तनशील हैं, इसलिए तू युद्ध कर, जो मेरा स्मरण करता हैं, मोक्ष को प्राप्त करता हैं" फिर अपने विहांग दृश्य को बताया। जिसनें भी 
गीता का मूलाधार को समझ लिया, उसे समस्त प्रकार की समस्याओं का समाधान मिल गया।
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
   बालाघाट - मध्यप्रदेश
   .  भगवद गीता श्री कृष्ण के श्रीमुख से अवतरित है और कौरवों और पांडवों के युद्ध में जब महायोद्धा अर्जुन रिश्ते और कर्तव्य के बीच असमंजस में आकर हथियार ड़ालने को तत्पर हो जाता है और अपने कर्तव्य से मुँह मोड़े लेता है तब सारथी कृष्ण उसके मन, आत्मा और विचारों के रथ को सही दिशा में मोड़ते हैं ।वही उपदेश गीता बने ।
गीता का सार हमारे जीवन की सभी समस्याओं का हल है । कर्म हमारे हाथ है फल नहीं इसलिए बिना बल की इच्छा के कर्म ही सर्वोपरि है। शरीर का नाश होता है आत्मा अमर है यह ना जलती है ना कटती है ना नष्ट होती है। जीवन को मोह बंधनो से विलग करना चाहिए। अफने सारे सुख दुख ईश निमित कर कार्य करना चाहिए। जब भी धर्म का विनाश होगा उसके उत्थान के लिए स्वयं इश.आयेंगे। चिंतन करना है चिंता नहीं । चिंता चित्ता समान है। मानव जन्म को सार्थक करने के लिए कर्म,धर्म और दान श्रेष्ठ उपाय है ।
    गीता आ सार है जीवन क्षणभंगुर है, आत्मा अमर.है और कर्म फल की इच्छा के बिना करने है ।.जब हम सबकुछ ईश निमित करते हैं तो जीवध सरल हो जाता है। 
- नीना छिब्बर
    जोधपुर - राजस्थान
गीता के ज्ञान का मूल स्वरूप है कर्म। हमें हर हाल में अपना कर्म करना है। बिना फल की चिंता किये हुए,अपना हर काम करते रहना है। किसी माया मोह के बंधन में नहीं पड़ना है। अपने अधिकार की लड़ाई भी स्वयं आपको ही लड़ना पड़ेगा। चाहे वो लड़ाई किसी के भी साथ हो। अपनों से या गैरों से। युद्ध के मैदान में कोई अपना नहीं होता। इस जहाँ में अपना कोई नहीं है। आप आत्मा हैं और आत्मा का सम्बंध परमात्मा से होता है। सारे संबंधों को तोड़ एक के साथ संबंध रखना है। भगवान श्रीकृष्ण गीता में कहते -"सर्व संबंध परित्राज्य मामेकम शरणम व्रज।" इस संसार में कोई अजर अमर नहीं है। जो आया है उसे जाना ही है। ये शरीर नाशवान है। आत्मा अमर है। जिसके लिए कहा गया है-"नैनं छिंदति शस्त्राणि,नैनं दहति पावकः, न चैनं शोषयन्ति, क्लेदयन्ति मारुतः।" 
इस आत्मा के लिए न मोह रखनी है न माया करनी है। जितने भी संबंध हैं सब शरीर के हैं। शरीर खत्म संबंध खत्म। तुम्हारा संबंध केवल परमात्मा से है। महाभारत में जब अर्जुन को मोह होता है तब भगवान श्रीकृष्ण उन्हें ज्ञान की बातें बता कर कर्म के लिए प्रेरित करते हैं। कर्म प्रधान विश्व करी रखा। इस दुनिया में कर्म ही प्रधान है। इसलिए सारे संबंधों को भुला कर्म करो। यही गीता का मूल उद्देश्य है। 
कर्म किये जा फल की इच्छा मत कर ये इंसान
जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान
ये है गीता का ज्ञान ।
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश" 
कलकत्ता - पं.बंगाल
गीता ज्ञान का मूल स्वरूप इस सृष्टी से पहले भी मैं था, सृष्टी के बाद भी मैंही होऊंगा और मैं ही सर्वत्र विध्यमान हूँ l  यह सृष्टी और जगत परमात्मा का ही स्वरूप है l भगवान अनादि है अनंत हैं l इस शरीर को चलाने वाली आत्मा है l आत्मा, परमात्मा को अलग नहीं किया जा सकता l आत्मा अजर अमर है l अतः हे मानव तू सतकर्म करता चल, फल की इच्छा मत कर l यह संसार माया का स्वरूप है l जो दिखाई देता है वह सत्य नहीं, जो नहीं दीखता वही सत्य है l परमात्मा तो है l सृष्टी के कण कण में विध्यमान है l
         -डॉ. छाया शर्मा
 अजमेर - राजस्थान
गीता के ज्ञान का मूल स्वरूप कर्म है। जैसा बोओगे वैसा ही काटोगे। गीता का उपदेश कहता है कि किसी से मत डरो। चूंकि शरीर पांच तत्वों का बना है और आत्मा के निकल जाने के बाद पुनः पांच तत्वों में विलीन हो जाता है।
       जबकि आत्मा अमर है।वह न मरती है और ना ही जन्म लेती है। जो पाया यहां से ही पाया और जो खोया यहां पर ही खोया है। अर्थात खाली हाथ आए थे और खाली हाथ ही जाना है। चूंकि यहां सब नाशवान है।
       परंतु कर्म अटल हैं। उनका भोग अथवा कष्ट सहना ही पड़ता है। इसलिए गीता अच्छे कर्म करने का उपदेश देती है। जो मरणोपरांत भी समाप्त नहीं होते। गीता का उपदेश मार्गदर्शन करता है कि सुकर्मों और कुकर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ता है। परंतु जिन कर्मों में स्वार्थ को त्याग कर ईश्वर को भेंट कर दिए जाते हैं। उन कर्मों का फल मीठा और सहज होता है।
       अतः गीता सदैव सत्य मार्ग पर चलते हुए अच्छे कार्य कर जीवनयापन करने का उपदेश देती है।
- इन्दु भूषण बाली
जम्म् - जम्म् कश्मीर
धर्म का मूल स्वरूप ही गीता के ज्ञान का मूल स्वरूप है ।
गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को यह बताते हैं कि मूल प्रकृति ही संसार की समस्त वस्तुओं को उत्पन्न करने वाली है और मैं ही ब्रह्म आत्मा रूप में चेतन रूपी बीज को स्थापित करता हूं ।इस जड़ चेतन के सहयोग से सभी चर अचर प्राणियों की उत्पत्ति होती है। साथ ही समस्त योनियों में जो भी शरीर धारी प्राणी उत्पन्न होते हैं उन सभी को धारण करने वाली आत्मा रूपी बीज को स्थापित करने वाला पिता मैं हूँ।
ूं गीता में भगवान कृष्ण अर्जुन से कहते हैं इस सृष्टि की रचना मूल रूप से तीन गुणों से हुई है यह 3 गुण सत्व, रजस और तमस है ।हालांकि आधुनिक विज्ञान आज भी अनजान है, परंतु धार्मिक मान्यता है कि यही तीनों गुण सजीव ,निर्जीव ,स्थूल और सूक्ष्म वस्तुओं में विद्यमान रहते हैं।
 गीता के अनुसार हर इंसान में यह तीनों गुण मौजूद रहते हैं ।
तमो गुण  में किए गए कर्म का फल अज्ञान कहा गया है ,और तमोगुण की वृद्धि होने पर मृत्यु को प्राप्त करने वाला मनुष्य पशु पक्षी आदि नीच योनियों में जन्म लेकर नर्क को भोगता है।
 सात्विक, राजसिक और तामसिक ये तीनों गुण भौतिक प्रकृति से उत्पन्न होते हैं ।प्रकृति से उत्पन्न गुणों के कारण ही अविनाशी आत्मा शरीर से बंध जाती ह,ै साथ ही इस जीवात्मा को अच्छी बुरी योनियों में जन्म लेने का कारण बनता है ।इन तीनों गुणों में सतोगुण अन्य गुणों की तुलना में अधिक शुद्ध होने के कारण पाप कर्मों से जीव को मुक्त करके आत्मा को प्रकाशित करने वाला होता है। जिससे मनुष्य सुख और ज्ञान के अहंकार में बन्ध जाता है ,वही सात्विक गुणों से वास्तविक ज्ञान उत्पन्न होता है भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि सत्व गुण मनुष्य को सुख से बांध देता है फिर जब सतोगुणी होने पर  कोई मनुष्य मृत्यु को प्राप्त करता है तब वह उत्तम कार्य करने वाला स्वर्ग लोक को जाता है ।
साथ ही रजोगुण को कामना और आसक्ति से उत्पन्न हुआ जान करके जीवात्मा कर्मों के फल की आसक्ति में बंध जाता है ।रजोगुण के उत्पन्न होने के कारण फल की इच्छा से ही कार्यों को करने की प्रवृत्ति और मन की चंचलता के कारण विषय भोगों को भोगने की इच्छा बढ़ने लगती है ।रजोगुण से निश्चित  ही लोभ उत्पन्न होता है तथा इसकी वृद्धि होने से  प्राप्त मृत्यु वाला व्यक्ति पृथ्वीलोक में रह जाता है ।रजोगुण में किए गए कार्यों का परिणाम दुख होता है। कुल मिलाकर इतना कह सकते हैं की गीता के ज्ञान का अर्थात धर्म का मूल स्वरूप यही है कि मनुष्य स्वयं को पहचाने एवं अपने अंदर विद्यमान तीनों गुणों में सर्वश्रेष्ठ सात्विक गुणों को विकसित करें, यही मोक्ष का मार्ग है यही स्वर्ग का मार्ग है,,,,,,।
- सुषमा दीक्षित शुक्ला
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
आज का विषय बहुत ही व्यवहारिक है गीता एक ऐसा धार्मिक ग्रंथ है जिसका हर अध्याय हर श्लोक जिंदगी का सही अर्थ दिखलाता है
पहली बात यह है कि गीता का यह सार है यह जीवन परिवर्तनशील है खाली हाथ आए हो खाली हाथ जाना है
जो कुछ तुम्हें मिला यहीं से मिला और यही छोड़ना है तुम क्या लाए हो जो तुम रोते हो
आत्मा अमर है शरीर तो एक वस्त्र है मृत्यु जन्म शाश्वत है हर आत्मा अपने वस्त्र को परिवर्तित करते हैं
जीवन में कर्म की प्रधानता है कर्म ही पूजा है फल की इच्छा नहीं करें फल देने वाले ईश्वर हैं
यह संसार माया का एक रूप है कर्म की प्रधानता कर्तव्य की प्रधानता को देते हुए श्री कृष्ण अर्जुन को यह उपदेश दिया युद्ध भूमि में कोई रिश्ते नाते नहीं देखे जाते युद्ध धर्म और नीति के आधार पर किए जाते हैं
माया मोह सब सांसारिक है छल प्रपंच मायावी है कर्तव्य इन सभी से ऊपर है
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
    गीता के ज्ञान का मूल स्वरूप कर्म और मोक्ष पर आधारित है। गीता के अनुसार जब मनुष्य मन,बुद्धि और इन्द्रियों द्वारा क्रिया करके किसी कर्म को करता है तभी कर्म बनता है। कोई भी मनुष्य किसी 
भी अवस्था में कर्म किए बिना नहीं रहता। विचारों, शब्दों और क्रियाओं से कर्म करते रहते हैं। गीता जी में श्री कृष्ण जी के  अनुसार कर्मों से सन्यास लेना अथवा उनका परित्याग करने की अपेक्षा कर्म योग श्रेयसकर है। कर्मो का त्याग करके मनुष्य सिद्धि अथवा परमानंद प्राप्त नहीं कर सकता। 
       मोक्ष सन्यास योग है।मानव जीवन का परम उद्देश्य मोक्ष प्रापत करना अथवा आवागमन के चक्र से मुक्ति पाना है। गीता में श्री कृष्ण जी के अर्जुन के साथ सारे संवाद कर्म और मोक्ष पर आधारित है। तभी तो श्री कृष्ण कहते हैं "कर्म किये जा,फल की इच्छा मत कर रे इन्सान, जैसा कर्म करेगा, वैसा फल देगा भगवान। कर्मों के अनुसार ही मोक्ष मिलता है। 
- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब

" मेरी दृष्टि में " गीता का ज्ञान कर्म पर आधारित है । जो मूल स्वरूप कहाँ जाता है । यही कर्म जीवन का आधार भी कहाँ गया है । जैसा कर्म वैसा फल । यही गीता के ज्ञान का स्वरूप माना जाता है ।
- बीजेन्द्र जैमिनी 

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