क्या अब रिश्ते अकेलेपन की राह पर चल पड़े हैं ?

अब सभी रिश्ते अकेले पड़ते जा रहे हैं । इसके बहुत से कारण नज़र आते हैं । जो परिवार से लेकर आधुनिक तकनीक इन्टरनेट तक है । फिर भी अकेलेपन किसी भी तरह से  उचित नहीं कहाँ जा सकता है । यही कुछ जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : - 
*मनुष्य सामाजिक प्राणी है समाज के बिना उसका जीवन पशु तुल्य ही है*
तकनीकी क्रांति से आधुनिकता के युग में पाश्चात्य सभ्यता का प्रभाव भी भारत के लोगों पर आया है आज पैसे रुपए वैभव गाड़ी दिखावे की परंपरा ज्यादा बढ़ चुकी है आपका सामाजिक स्तर इसी से ही आंकलन किया जाता है मानवीय संवेदनाएं शून्य होती जा रही है संयुक्त परिवार का विघटन हुआ एकाकी परिवार का जन्म हुआ अब एकाकी परिवार से टूटकर लिव इन रिलेशनशिप यह भी बड़े शहरों से छोटे गांव तक पहुंच गया है कुछ दबे और कुछ खुले रुप में महानगरों में अधिकता है अब कोई भी किसी का दबाव नहीं लेना चाहता अकेले एकाकी जीवन उन्हें पसंद आने लगा दिन पर दिन यह  बढ़ते जा रहा है एक दूसरे का अनुसरन  कर आगे बढ़ रहे हैं मानसिक अवसाद , आत्महत्या में वृद्धि अकेलेपन का ही परिणाम है।
*परिवार और  उसका मानसिक संबल  आज के परिवेश में नगण्य होता जा रहा है जिम्मेदार हम सभी  हैं*
- आरती तिवारी सनत
 दिल्ली
     एक समय था, जब संयुक्त परिवार हुआ करता था।  रिश्तों में मिठास, अपनापन हुआ करता था। शनैः-शनैः जैसे-जैसे  परिवार विस्तार होता गया, दुरियां बढ़ती गई, अलग-अलग होते चले गये। कई-कई शैक्षणिक और कार्य विस्तार के चक्कर में अनेकों राज्यों में विभक्त होते गये, वह परिवार जनों के निवास करते चले गये। अनेकों परिवारजनों के बीच अलग-अलग काम करने तौर तरीकों में अपने-अपनों के बीच दूरियां बढ़ती गई और अकेलापन महसूस किया जा रहा हैं। अकेलेपन की राह पर चल पड़े हैं। संबंधों में अब एक मात्र परिचय ही रह गया, फलाना-फलाना हैं, एक कहावत चरितार्थ होते जा रही हैं।  पृथ्वी पर जमीन वही हैं, जमीन का विस्तार नहीं हुआ, अपितु परिवार का विस्तारीकरण जरूर होता गया  लेकिन ऐसा विस्तार किस काम का, जहाँ अकेलापन विद्यमान हो?
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
हाँ! अब रिश्ते अकेलेपन की राह पर चल पड़े हैं।
अकेले चलना मजबूरी हो गया है या जरूरी , यह सबके सहनशीलता पर तय हो चला है।
चार दिन की चाँदनी फिर अंधेरी रात होती देखी है रिश्तों ने और सीख लिया चाँद सा अकेले चलने में नहीं डरना!
सूरज से कोई आँख नहीं मिला सकता, ग्रहण के समय लोग उससे आँखें चुराते हैं। अपनी लड़ाई खुद अकेले ही तो लड़ना है, लेकिन बिंदास रहना उससे ही सीखना आवश्यक हो गया अकेलेपन के लिए।
- विभा रानी श्रीवास्तव
पटना - बिहार
जी हाँ। अब रिश्ते अकेलेपन की राह में चल रहे हैं। अब पति पत्नि और एक बच्चा, पूर्ण परिवार समझा जाता है। 
    अब रिश्तों में, सभी पारिवारिक नाते बेमानी से हो रहे हैं। इस पर बोनस यह है कि दोस्ती के रिश्ते भी अपनी पहचान खो रहे हैं। 
    पहले मां बाप, भाई बहन,बहू सास,काका काकी,भतीजे भतीजी साथ रहकर खुश रहते थे। अब इन नातों ने अपनी महत्ता खो दिया है। 
    पुत्र परिवार का मुखिया हो जाता है,पिता के जीते जी। न बड़ों का आदर नाहीं छोटों का प्यार, कुछ भी नहीं। 
    परिणाम यह हो रहा है कि रिश्ते अकेले या एकाकी हो गये हैं। उन्हें अब किसी की सलाह की भी दरकार नहीं होती।
   इसी का नतीजा है कि रिश्ते अकेलेपन में कुंठित हो रहे हैं। मानसिक विकृति, आत्महत्या, अपराध भी उसी पैमाने पर समाज में व्याप्त हो रहे हैं और रिश्ते अकेलेपन में अपना अस्तित्व खोते जा रहे हैं। 
    - डाॅ•मधुकर राव लारोकर 
         नागपुर - महाराष्ट्र
  रिश्ते खून के, दिल के, स्वार्थ के, जरूरत के, जीवन को चारों और से घेरे हुए हैं । कभी कांटो में खिले खूबसूरत गुलाब की तरह ,कभी कीचड़ में खिले कमल की तरह और कभी -कभी रजनीगंधा और रात की रानी की भीनी खुशबू बिखेरते हुए । सब से बड़ी बात यह है कि रिश्ते हवा और पानी की तरह जरूरी हैं।  जब से दुनिया धन और बाह्य आडंबर को अपनाने लगी है तब से व्यक्ति अपने परिवार ,समाज, व्यवस्था और सामाजिकता को छोड़ कर ( मैं) की एक मात्र भावना को उत्तम मान कर जीना सीख रहा है। सरल सी बात है जब एकल परिवार में भी "मैं " एक छत्र राज करता है तो हर रिश्ता अकेलेपन की राह पर चलेगा ही । अकेलपन जो मजबूत व्यक्ति को भी धाराशाही कर देता है। मौत से भी बदतर है अकेलापन क्योंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और विकास समूह में ही होता है। इतिहास गवाह है कि जिस के  पास साथी हैं ,रिश्ते हैं वो गरीब होकर भी अमीर है ।दूसरी ओर रिश्तों के बिना अमीर भी गरीब है 
   रिश्तों के अकेलेपन ने ही बच्चे और युवाओं में मानसिक तनाव और अवसाद का साथी बना दिया है।
    हमे अपनी नयी पीढ़ी को पुनः मधुर और सरल सहज रिश्तों की तरफ ले जाना है। 
मौलिक और स्वरचित है ।
 -  ड़ा. नीना छिब्बर 
  जोधपुर - राजस्थान
जी,यही स्थिति है आजकल।आपकी बात से सहमति है कि अकेलेपन की राह पर ही चल पड़े हैं रिश्ते।सबके अपनी-अपनी सोच के या स्वार्थ के दायरे बन गये हैं, और इसी के चलते हम सब अकेलेपन की डगर पर बढ़ चले है।
साथ साथ रहते हुए भी रेल की पटरियों की तरह है अलग-अलग। एक निश्चित दूरी बनाए हुए हमसफ़र। कहीं मिले भी तो किसी दूसरे से और वो भी क्षणिक। बढ़ती तकनीकी सुविधाएं,और आपाधापी की प्रवृत्ति ने रिश्तों में दूरियां पैदा करने में अहम भूमिका निभाई है।
संयुक्त परिवार तो अब कल्पना से लगते हैं।
पारिवारिक आयोजन में भी अब परिवार पर कम व्यवसायिक लाभ किससे मिलेगा,इस बात पर ध्यान रहता है।इस स्थिति के लिए कोई एक जिम्मेदार नहीं,समय परिवर्तन और बदलती पारिवारिक-सामाजिक स्थिति को इस दौर में सभी, जी हां सभी, मैं भी इसमें पूर्ण सहभागी हैं।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
 मनुष्य सामाजिक प्राणी होने से वह समाज में अनेक रिश्तों से जुडा़ रहता है ! रिश्ते सामाजिक संबंध का आधार है !  अकेलापन मानसिक अशांति का कारण है यह हम भली भांति जानते हैं फिर भी ......
इसमें कोई दो राय नहीं है के आजकल की पीढी़ अकेले रहना अधिक पसंद करती है और उसका एक कारण है वह स्वछंद रहना चाहते हैं ! खाना ,सोना, पार्टी ,मनमौजी करना खेलना जाने क्या क्या....कहने का तात्पर्य यही है वे अपने कार्य में किसी की दखलंदाजी पसंद नहीं करते ! वर्तमान में माहौल भी ऐसा हो गया है ! रिश्तों के अकेलेपन की राह पर चलने के कई महिन कारण हो सकते हैं जिन्हें हम देखकर ,जानकर भी रोक नहीं पाते ...कोशिश अवश्य रहती है !
1) जीवन में कुछ पाने की प्रतिस्पर्धा एवं महंगाई की वजह से केवल एक संतान (जो पहले दो थी ) तक सीमित रह गई है !परिवार तो हमने ही छोटा कर दिया इसमें रिश्ते तो सिमट कर रह गये ! बच्चा अपने अधिकार अपनी भावनाएं किसी से शेयर ही नहीं कर पाता ! उसका अधिक समय अकेले मोबाइल, कम्प्यूटर में ही बीतता है सारी जानकारी गुगल से ले ही लेता है !माता-पिता  बच्चे के उज्जवल भविष्य के लिए धनोपार्जन में व्यस्त रहते हैं !कौन किसको समय दे पाता है ! 
2) अकेले रहते रहते रिश्ते प्राय मृतक हो जाते हैं ,संवेदनाएं, भावनाएं लुप्त हो जाती है चूंकि अकेलेपन में संवेदनशीलता ही खत्म हो जाती है !
3) अकेलेपन से अवसाद में जाने की संभावनाएं अधिक रहती है !
कुछ हद्द तक इंटरनेट कनेक्नन का प्रयोग भी अकेलेपन से सशक्त रुप से जुडा़ है !आज बच्चों का ,हमारा रिश्ता इंटरनेट ,फोन से इतना अधिक जुड़ गया है कि हम कह सकते हैं कि हमारी श्वांसे भी उसी से जुड़ गई है ! 
अकेलेपन से दूर करने के लिए घर का वातावरण ,स्कूल, मित्र एवं व्यवहारिक ज्ञान और रिश्तों का महत्व बच्चों को सीखाने से पहले हमें सीखना होगा ! माता -पिता बच्चों को समय दे ,उसकी तकलीफों को ,भावनाओं को समझे जिससे अकेलापन महसूस ना करे ! 
                - चंद्रिका व्यास
                मुंबई - महाराष्ट्र
आज मानव एकता दिवस के अवसर पर पारिवारिक, सामाजिक और मानवीय रिश्तों की एकता में कमी मन को विचलित कर देती है। 
रिश्तों की नींव मानव जीवन का आधार होती है। रिश्ते हमारे सुख-दुख के साथी तो होते ही है, हमारे आत्मविश्वास को बनाये रखने में भी अत्यन्त सहायक होते हैं। 
अकेले-अकेले जीना कोई नहीं चाहता। रिश्तों की कमी हर मनुष्य को पीड़ा देती है। किसी से भी रिश्तों के अकेलेपन के सन्दर्भ में बात तो कीजिए। एक दर्द भरी आह निकलती है मन से। रिश्तों के प्रति मानव मन में आज भी संवेदना भरी हुई है। सब रिश्तों की महत्ता को समझते हैं फिर भी रिश्तों की दीवारें खिसकती जा रही हैं। क्यों? 
मानवीय संवेदनाएं मृत हो गयीं हों, ऐसा नहीं है। परन्तु आज की भौतिकता वाली जिन्दगी में रिश्तों के लिए समय किसी के पास नहीं है। एक तो सिमटते जा रहे परिवारों में बहुत से रिश्ते वैसे ही समाप्त हो गये हैं और बचे हुए रिश्तों में भावनात्मकता का अभाव रिश्तों को अकेलेपन की राह पर ले जा रहा है। 
दूसरे, मनुष्य के जीवन जीने में दिखावापन भी इसका एक कारण है। हमारे जीवन में रुपये का महत्व रिश्तों से अधिक हो गया है। पहले रिश्तों में बनावटीपन नहीं होता था। सुख-दुख में भागीदारी कर्तव्य समझा जाता था। परन्तु आज मनुष्य स्वयं अपनी जीवनचर्या में इतना लिप्त हो गया है कि अपने रिश्तों की गरिमा प्रति उदासीन होना उसकी विवशता सी हो गयी है। 
मैं तो यही कहूंगा कि रिश्तों के अकेलेपन की दशा के लिए रिश्तों को दोष न देकर स्वयं की भूमिका का अवलोकन करना आवश्यक है। 
आज के परिवेश में रिश्तों के सन्दर्भ में...... 
"चन्द सिक्कों की खनखनाहट भर रह गयी है जिन्दगी, 
रिश्तों की उदास गर्माहट भर बस रह गयी है जिन्दगी। 
एहसान सा करता है अपना साया भी साथ चलते हुए, 
अकेलेपन की छटपटाहट भर बस रह गयी है जिन्दगी।।" 
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
आधुनिकता की होड़ में, पैसा कमाने की दौड़ में, आज रिश्ते बुरी तरह से बिखर कर रह गए हैं ।
 इस बनावटी और नीरस चकाचौंध ने रिश्तो की महत्ता को आज खत्म करके रख दिया है ।
 जीवन जीने का अपना-अपना अपना तरीका है, दूसरे की दखल अंदाजी पसंद नहीं है ।
 आधुनिकता के बोझ तले दबकर आज की पीढ़ी अपने मां बाप से किनारा कर रही है।
 विवशता में जी रहे मां-बाप अकेले रहने को मजबूर हैं । परिवार में किसी व्यक्ति की यदि दो संतानें हैं, तो दोनों अपना-अपना घर, अपने तरीके से, अपना रहन-सहन अलग से पसंद करते हैं ।
 संयुक्त परिवारों का विघटन, एकाकी जीवन के प्रति आकर्षण, रिश्तो की मधुरता, लगाव खत्म हो रहे हैं ।यही कारण है कि अब रिश्ते अकेलेपन की राह पर चल पड़े हैं।
- शीला सिंह
 बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश
       रिश्ते अकेलेपन की राह पर अब नहीं चल पड़े बल्कि युगों-युगों से चलते आ रहे हैं और चलते ही रहेंगे। इनकी गति अवश्य कभी धीमी, कभी मध्यम और कभी तीव्र होती रहती है।
       उल्लेखनीय है कि रिश्तों में दूरियां त्रेता युग में भी देखने को मिली और द्वापर युग में भी रिश्ते लहुलुहान होते देखे गए। कहते हैं कुरूक्षेत्र की मिट्टी अभी भी लाल रंग की है।
       जबकि त्रेता युग में गरिमापूर्ण रिश्तों की श्रीराम जी ने चक्रवर्ती सम्राट के सुपुत्र होते हुए भी गुरुकुल एवं वनवास की सभी मर्यादाओं का पालन किया और मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए। परंतु सीता माता का अग्नि परीक्षा के बावजूद त्याग और भरत मिलाप पर लक्ष्मण जी का क्रोधातुर होकर धनुष उठाना रिश्तों पर गंभीर प्रश्नचिन्ह हैं।
       भले ही माता व विमाताओं में वे कोई भेद नहीं करते थे और भाइयों से प्रेम की कोई सीमा नहीं थी। वह प्रजा की भी आंखों के तारे थे और पराक्रम की तो कोई तुलना ही नहीं थी।
       बांसुरी की सुरों संग अथाह प्रेम और सुदर्शन चक्र के साथ रिश्तों और कर्मों पर गीता उपदेश का वर्णन भी श्रीकृष्ण जी ने भलीभांति किया हुआ है। अतः रिश्ते-नाते प्रेम-वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या?
- इन्दु भूषण बाली
जम्म् - जम्म् कश्मीर
रिश्तों के ताने-बाने बुनती हुई ये ज़िंदगी मुसलसल चलती रहती है जन्म से मृत्यु तक।जीवन के हर पड़ाव पर हम अलग-अलग रिश्तों में बंध जाते हैं और उसी के इर्द गिर्द घूमती रहती है हमारी जिंदगी। पहले के समय में रिश्ते प्रगाढ़ हुआ करते थे । लोग जिस रिश्ते में बंधते थे उसको ताउम्र बड़ी ही शिद्दत से निभाया करते थे।उसके लिए वो कुछ तकलीफ़ भी उठाने को तैयार रहते थे और बदले में कुछ नहीं चाहते थे। पर वक्त के साथ-साथ समाज की बनावट और लोगों का रहन-सहन क्या बदला रिश्तों के मायने भी बदल चुके हैं। रिश्तों की प्रगाढ़ता अब पहले सी नही रही। अब परिवार संयुक्त न रहकर अधिकतर एकाकी हो गये हैं ऐसे में रिश्ते भी एकाकी होने लगे हैं।लोग क्या बच्चे ,क्या नौजवान चाहे वो स्त्री हो या पुरुष अकेले रहना ही पसंद करते हैं।वो अपने। काम और मोबाइल को ही अपना हमसफर बना चुके हैं। ऐसे में पुरानी पीढ़ी वाले लोग-हमारे बड़े-बूढ़े इस नये चलन में अपने आप को सबसे अधिक अकेला महसूस कर रहे हैं।
- संगीता राय
 पंचकुला - हरियाणा
अकेलापन आधुनिक समय में विशेष रूप से प्रचलित है।बीसवीं सदी के शुरुआत में परिवार आमतौर पर बड़े और ज्यादा स्थिर थे इसलिए अपेक्षाकृत कम लोग अकेले रहते हैं। 
आज के समय में छोटा परिवार के प्रचलन हो गए हो गया है। जिसके कारण बच्चे जब बड़े होकर होनहार हो जाते हैं तो दूसरे बड़े शहर या विदेशो में अपने हुनर को चमकाने के लिए निकल जाते हैं।
जिसके कारण बेहतर सुख सुविधा के साथ अपना जीवन यापन करने लगते हैं, तथा अकेले पल में रहने से उन्हें नया-नया  क्रिएटिविटी करने का मौका मिलता है।
उनके बुजुर्ग यानि उनके माता-पिता कुछ दिन उनके साथ समय व्यतीत करते हैं लेकिन वहां रहने पर पुरानी पीढ़ी और नई पीढ़ी में आपस में एडजस्टमेंट नहीं हो पाता है जिसके कारण बुजुर्ग  अपने घर लौट आते हैं। घर पर भी उन्हें अकेलापन महसूस होने लगता है। लेकिन पुराने मित्र परिचितों के साथ अपना समय गुजारते हैं।अगर दोनों में से एक हमसफर संसार से विदा हो जाते हैं, तब उन्हें और मानसिक तनाव हो जाता है और तब अकेलापन महसूस करने लगते हैं।
लेखक का विचार:--अस्तित्वादी  मत के
 अनुसार अकेलापन मानव मात्र का सार है। प्रत्येक इंसान दुनिया में अकेला आता है और एक अलग व्यक्ति के रूप में जीवन यात्रा पूरी करता है। 
अंततः अकेला मर जाता है।इसका सामना करते हुए, इसे स्वीकार करते हुए गरिमा और संतोष के साथ जीवन को दिशा प्रदान करना सीखना ही मानव स्थिति है।
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखण्ड
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है वो अकेले जिंदगी बसर नहीं  कर सकता।मिलजुल कर रहना मनुष्य की फितरत और जरूरत है। किसी समय अकेलेपन को सजा के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है। लोगों को जेलों में अकेले कैद कर के रखा जाता है। दिमागी तौर पर बीमार लोगों को जंजीरों से बांध कर अकेले रखा जाता है। अकेलेपन एक खतरनाक बीमारी है। जिस को बहुत सारे देशों में बीमारी का दर्जा दिया जा रहा है। 
        लेकिन दूसरी तरफ अब रिशते अकेलेपन की राह पर चल पड़े हैं। ऐसे लोगों का तर्क है कि अकेले रहने पर खुद पर अधिक फोकस कर पाते हैं। आपसी मेल मिलाप में फिजूल की बातों में समय गंवाने से अकेले वक्त बिताना अधिक अच्छा है। इस से आत्म विश्वास बढ़ता है। आजाद सोच पैदा होती है। नए खयालात पैदा होते हैं। अकेले रहने से सोचने समझने की शक्ति मजबूत होती है।ऐसे लोगों का तर्क है कि आजकल तो तकनीकी युग में वटसअप, फेसबुक आदि आभासी दुनिया में अकेलेपन से कोई परेशानी नहीं। आजकाल की युवा पीढ़ी इसी राह पर चल रही है। लेकिन यह गलत रूझान है। यह समाज और खुद के लिए भी घातक है। इसी लिए हमारे नैतिक मूल्यों में गिरावट आई है। जो संस्कार मनुष्य समाज में रह कर ग्रहण करता है वो अकेले रह कर नहीं ग्रहण कर सकता। अकेलेपन से अच्छा यही है कि गिने चुने दोस्त बनाकर उन के साथ अच्छा समय बिताया जाए।मनुष्य समाजिक प्राणी है, उसे समाज में रह कर मिलजुल कर जीवन यापन करना चाहिए। 
- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब
हाँ ! अब इंसानी रिश्ते भी अकेलेपन की राह पर चल पड़े हैं। आज का युग ही ऐसा आ गया है कि सब अपने-अपने में ही मस्त हैं। पत्नी टी.वी. देखने में मस्त है तो पति मोबाईल चलाने में मस्त है। फोन पर ही सबकी खोज-खबर ले ली जाती है किसी के पास फुर्सत ही नहीं है कि वह जाकर आमने -सामने बात करे या मुलाकात करे।
सभी के पास फोन हो गया है सभी व्हाट्सएप पर ही व्यस्त हैं। एक ही कमरे में बीवी एक तरफ फोन लेकर बैठी है तो दूसरी तरफ पति फ़ोन लेकर बैठा है। करीब रहते हुए भी दूर-दूर है।और दूर वाले करीब हो गए हैं। बीवी कहती है मोबाईल सौतन हो गई है पति कहता है मोबाइल दोसतो गया है। एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लग रहा है। करीबी रिश्ते का ये हाल है तो दूर के रिश्ते का क्या हाल है ये सोचने वाली बात है। रिश्ते को अकेलापन बनाने में थोड़ा बहुत मदद कोरोना का भी हो गया है। खैर दोष मोबाईल का हो या कोरोना का ये बात सत्य है कि रिश्ते अकेलेपन की राह पर चल पड़े हैं। बाप-बेटे में बात नहीं हो रही हैं। भाई-भाई में बात नहीं हो रही है। सास-बहू में बात नहीं हो रही है। ये सब रिश्तों के अकेलेपन की ही पहचान है।
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश" 
कलकत्ता - प. बंगाल
वर्तमान समय में संचार के बढ़ते 
संसाधनों के बीच अकेलापन आधुनिक जीवन की त्रासदी बनते जा रही है। यह न केवल भारत की समस्या है बल्कि दुनिया भी इसे तरह से पीड़ित है। समस्या इतनी बड़ी है कि इससे निपटने के लिए ब्रिटिश सरकार ने तो बकायदा एक मंत्रालय ही गठित कर लिया है। आज की रिश्ते अकेलेपन की राह पर चल पड़े हैं, यह बहुत हद तक सच साबित होता दिख रहा है। आज ऐसे सैकड़ों पूंजीपति परिवार है जो अपने माता पिता को वृद्ध आश्रम में छोड़ आते हैं। अब जिस मां-बाप ने अपने बच्चे को पढ़ाई लिखाई, रोजगार और नौकरी के लिए दिन रात एक कर के उन्हें सफलता पर पहुंचाया। जब अब मां-बाप को उनकी जरूरत है। तो अपनी पत्नी और बच्चों को लेकर अलग होते जा रहे हैं। इस तरह के अकेलेपन रिश्ते को दागदार कर रहे हैं। शादी हुई नहीं की पत्नी बोलती है मां बाप से अलग रहेंगे। उसे इस बात को भी समझना चाहिए कि उसके भी बच्चे कल इसी बात को दोहराएंगे तो उस पर क्या बीतेगी। आज के समय मैं अकेलापन जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप है और दुर्भाग्यवश ऐसे भी सब लोगों की संख्या में दिन-प्रतिदिन बढ़ोतरी होती जा रही है। इसमें जीवन के हर जाति आयु वर्ग के स्त्री, पुरुष शामिल है। अकेलेपन की त्रासदी भोगने वाले इस समूह में भी लोग  हैं जो किसी कारण बस अकेले रहने को मजबूर है। बल्कि यह लोग भी हैं जो परिवार के साथ रहते हुए कार्यस्थल पर भरे पूरे माहौल एवं भीड़ के बीच भी खुद को अलग-थलग और अकेला महसूस करते हैं। अपने को बेहद तन्हा पाते हैं।वही आजकल महानगरों में एकल परिवार में रहने वाले बच्चे खुद को बहुत अकेला महसूस करते हैं। रिश्ते को अकेलापन से दूर होने के कारण सफलता आदमी को अपने करीबियों से दूर लेते जा रहे हैं। पहले संगीत परिवारों में वह सीखने को मिलता था कि लड़कर भी साथ में कैसे रह सकते हैं लेकिन अब संयुक्त परिवार खत्म होते जा रहे हैं जिसके चलते लोगों के बीच दूरियां बढ़ते जा रहे हैं और लोग अकेले में रहने के आदी होते जा रहे हैं पहले आदमी को देखकर दूसरा आदमी मुंह नहीं पहले तथा बल्कि उसके पास पहुंच कर उसके हाल-चाल पूछ लेता था आज आदमी बस अपने परिवार तक सीमित रह गया है और जब परिवार भी उसकी भावनाएं नहीं समझ पाता है तो वह अकेला रह जाता है। इन्हीं वजहों के कारण अब रिश्ते अकेलेपन की राह पर चल पड़े हैं।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर - झारखंड
वर्तमान में बाजार में जीवन के लिए बल्कि यूँ भी कह सकते हैं कि घरेलू जीवन की इतनी वस्तुएं विविधता, विशेषता और आकर्षण लिए उपलब्ध हैं कि उन्हें  पाना हमारी न केवल चाहत बन गई है बल्कि प्रतिस्पर्धा भी बनती जा रही है। जिससे हम सब के जीवन का जैसे मुख्य ध्येय उन्हें प्राप्त कर लेना ही हो गया है। इस वजह से हमारा धन अर्जन, उदार और सहयोग की भावना से परे संकुचित और सीमित हो गया है। एक के बाद क्रमशः चीजों को खरीदते हुए हम अपने घर को सजाने और सँवारने में व्यस्त हो गए हैं। इस व्यस्तता में हम स्वार्थी बनते हुए, परिवार के रूप में भी सिमटते जा रहे हैं और एकल हो रहे हैं।  क्योंकि हमारा बजट भी सिकुड़ गया है। हमारा बाजारू चीजों के प्रति इतना आकर्षण हो गया है कि हम आमद के पहले से तय कर लेते हैं कि इस बार हमें क्या खरीदना है। इस वजह से हम इस उद्देश्य या ललक से बाहर नहीं निकल पाते और आकस्मिक कोई अन्य आवश्यकता आ पड़े तो मुँह बनाने लगते हैं। हम परिवार के अन्य सदस्यों की जरूरतें बोझ लगती हैं। यही वजह हमारे  रिश्तों में उपेक्षा का कारण बन कटुता पैदा कर रही है और हम अकेलेपन की राह पर चल पड़े हैं। क्योंकि जब हम सहयोग नहीं कर पाते तो हमें भी सहयोग नहीं मिलता और यह धारणा सामाजिक रूप में बिखराव का कारण बन रही है।
  यदि इससे बचना है तो हमें अपनी जरूरतों पर चिंतन करना होगा। शौक और लालच पर अंकुश लगाते हुए उदार और सहयोग की भावना को प्राथमिकता देनी होगी। अपने सगे-संबंधियों को उनकी जरूरत पड़ने पर मदद करनी होगी।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
बहुत कुछ मामलों में यह सही है ,कि  रिश्ते अब अकेलेपन की राह पर चल पड़े हैं। नई पौध का बदलता व्यवहार ,पाश्चात्य रहन सहन शैली की नकल एवं अपने को श्रेष्ठतम बताने का प्रयास, बुजुर्गों को उचित सम्मान व व्यवहार नहीं देना, अपनी मनमर्जी अख्तियार करना, कुछ ऐसे कारण हैं जिनकी वजह से अब रिश्ते अकेलेपन की राह पर चल पड़े हैं। जहां नए लोग स्वतंत्र और उन्मुक्त जीवन जी रहे हैं, वही बुजुर्ग लोग भी अपना सम्मान बचा कर सुकून की सांस ले पा रहे हैं। हालांकि अलगाव मानसिक रूप से तो उन्हें दुख देता है किंतु अन्य कोई विकल्प न होने की स्थिति में यही सुगम साधन है जिससे इज्जत और सामंजस्य दोनों बने रहते हैं।
- श्रीमती गायत्री ठाकुर "सक्षम"
 नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
"मुलाकातें जरुरी हैं अगर रिश्ते निभाने हैं, 
लगाकर भूल जाने से पौधे भी अक्सर सूख जाते हैं"
 सोचा जाए मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है वो अकेले जिंदगी बसर नहीं कर सकता, 
लोगों से घुलना मिलना उनके साथ वक्त बिताना, मिलजुल कर रहना हमारी फितरत व जरूरत भी है, 
इसके विपरीत अगर कोई अकेला रहता हो तो जरा सोचिए उसको कितनी परेशानीयों का सामना करना पड़ता होगा। 
कहने का मतलब अकेलापन इस कदर खतरनाक है कि इससे कई विमारियां घेर लेती हैं, 
लेकिन आजकव अक्सर देखा जा रहा है  कि अब रिशते भी अकेलेपन  की राह पर चल पड़े हैं इसके पीछे क्या कारण हैं, क्यों आपसी भाईचारा कम होता जा रहा है, 
आईये आज की चर्चा इसी बात पर करते हैं कि  क्या रिश्तों में दरार आना शूरू हो गई है या लोगों के पास बात करने का समय नहीं है या लोग अकेलेपन को पसंद कर रहे हैं। 
मेरा मानना है कि अब रिश्तों में विश्वास की कमी महसूस  होने लगी है क्योंकी अगर   किसी भी  रिश्ते को मजबूत करना हो तो विश्वास को कभी भी  तोड़ना  नहीं चाहिए इसके साथ साथ किसी भी रिश्ते में प्यार होना बहुत जरूरी है क्योंकी यहां प्यार नहीं होता वहां रिश्ते बस एक बोझ बनकर रह जाते हैं और फिर जिंदगी भर हम उनकी भरपाई नहीं कर पाते, 
याद रहे रिश्ता वह आधार है जो गम को छोटा और खुशी के वड़ा कर देता है। 
इसलिए रिश्तों में कभी दरार न आने दें इनसे हमेशा  करीवी बनाये रखें, 
सच कहा है, 
"मसरूफ रहने के अंदाज  तुम्हें तन्हा न कर दें दोस्त, 
रिश्ते फुरसत के नहीं तबज्जो के मोहताज होते हैं"। 
हम सब जानते हैं की हर रिश्ते की अपनी अपनी अहमियत होती है और इन रिश्तों को निभाने के लिए विश्वास बहुत जरूरी है, 
क्योंकी जिन रिश्तों मे विश्वास नहीं वो रिश्ता नहीं कहलाता चाहे माता पिता का पति पत्नी का या बच्चों का ही  क्यों न हो इसलिए कोशिश करें  हर रिश्ते में विश्वास  व प्यार बना रहे नहीं तो रिश्ते टूटते देर नहीं लगती  और हम अकेलेपन का शिकार हो जाते हैं, 
आजकल दूनिया भर में अकेलेपन की चर्चा हो रही है, 
ज्यों ज्यों आबादी बढ़ती जा रही है  अकेलेपन महसूस करने बालों की संख्या भी बढ़ती जा रही है, 
यकीनन अकेलापन खराब बात है, इसके शिकार होने से मनुष्य को कई विमारियां घेर लेती हैं आजतक अकेलेपन को सजा के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है जैलों में अकेले कैद करके रखा जाता है। 
अकेलेपन में हम पुराने रिश्तों में नई रोशनी देख सकते हैं
इसलिए यहां तक संभव हो सके रिश्तों में अगर दरार पड़ भी गई हो उनमें सुधार लाने का प्रयास करना चाहिए, 
जरा सोचिए इन्सान हजारों सालों से ऐसे ही समाज के तौर पर एक दुसरे के साथ रिश्ते बनाकर रहता आया है, 
यही नहीं ये मुश्किलों से निपटने का मानवता का एक तरीका रहा है और यही हमें अकेलेपन से निपटने में भी मदद करता है, 
इसलिए  रिश्तों को संजोय रखें, 
सच कहा है, 
"अकेलापन क्या होता है कोई ताजमहल से पुछे, 
देखने के लिए पूरी दूनिया आती है, मगर रहता कोई नहीं है"। 
अन्त में यही कहुंगा की रिश्ते  पहले से कम पड़ते जा रहे हैं जिन में चाचे, बहन, मौसी यहां तक की भाई का भी लुप्त होने को जा रहा है किन्तु जो शेष रह गए हैं कृपा इन्हें बनाये रखें व इनमें दरार न पड़ने दें ताकि कोई भी अपनेआप को अकेलेपन की  विमारी में न धकेल सके  क्योंकी अकेलापन स्थायी नहीं होता इसका इलाज इन्सान के पास है क्योंकी वो एक समाजिक प्राणी  है, 
याद रखें
"ना दूर रहने से रिश्ते टूट जाते हैं
और न पास  रहने से जुड़ जाते हैं, यह तो एहसास  के पक्के धागे हैं, जो  याद करने से और मजबूत होते हैं"। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मु कश्मीर
परिवार की परिभाषा ही बदल गई है पहले परिवार तीन चार भाई बहन चाची दादी नानी संयुक्त रूप में रहते तो वह परिवार कहलाता था आज परिवार की परिभाषा है हम दो हमारे दो अब तो यह भी परिभाषा बदल गई है हम दो हमारे एक तो जितनी परिवार की संख्या कम होती जाएगी रिश्ते कम होते जाएंगे पहले कई शब्द थे चाची फूफा मौसी और यह शब्द लुप्त होते जा रहे हैं उनके जगह पर एक शब्द आ गया है आंटी तो रिश्ते सिकुड़ते चले जा रहे हैं और ठेला पर भी निश्चित महसूस होगा इस तरह की संरचना में दो पीढ़ियों का योगदान रहा है इसलिए अभी के बच्चे को हम इसके लिए जिम्मेदार नहीं ठहरा सकते हम लोग खुद उत्तरदाई हैं छोटा परिवार बनाए बच्चों को बाहर भेजने की पढ़ने की चाहत मन में रखे बच्चे हमारी चाहत पूरी कर गए तो अकेलापन तो आएगा ही
रिश्ते तो सिकुड़ गए ही हैं पड़ोसी की भी संख्या बदल गई है हर आदमी भागमभाग की जिंदगी जी रहा है अपने से बगल वाले की भी खबर नहीं है कितने लोग रहते हैं क्या-क्या करते हैं तो रिश्ते तो और अकेले हो ही गए हैं अकेलापन को दूर करने का साधन अब डिजिटल हो गया है या तो टीवी है या हाथ में मोबाइल है यही आप का सबसे बड़ा रिश्तेदार है अकेलेपन का साथी है
- कुमकुम वेदसेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
संकुचित और सिमटते रिश्ते आजकल  आम बात  होती जा रही है जिसे हम शुभ संकेत नही कह सकते।वसुदैव कुटुंबकम की मान्यता हमारे भारत  देश  की परम्परा रही है। लेकिन  आज यह बिल्कुल विलुप्तप्राय होता जा रहा है। हम दो हमारे दो के अलावा व्यक्ति किसी और का सानिध्य चाहता ही नहीं है। बूढ़े मां बाप  को ओल्ड होम सेंटर में रख छोड़ना यह कैसी गंदी मानसिकता समाज में चहुंओर व्याप्त होती जा रही है। पहले लोग आस पड़ोस, गांव, मुहल्ला सब को अपना समझते थे। आजकल लोगो की सोच छोटे घरों की तरह हीं छोटी होती जा रही है। व्यक्ति बिल्कुल अकेला और एकाकीपन की जिन्दगी जीने का आदी होता जा रहा है।यही कारण है कि आज अब रिश्ते अकेलेपन की राह पर चल पड़ी है।
- डॉ पूनम देवा
पटना - बिहार


" मेरी दृष्टि में " रिश्तों को समय अवश्य देना चाहिए । तभी अकेलेपन को दूर किया जा सकता है । सभी रिश्तों में कड़वाहट नहीं होनी चाहिए । कड़वाहट के लिए हर दम , हर समय ध्यान रखना चाहिए । 
- बीजेन्द्र जैमिनी 

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