दिल्ली के प्रमुख लघुकथाकार ( ई - लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
जन्म : 04 अप्रैल 1951, गांव कयामपुर , ज़िला बागपत - उत्तर प्रदेश
शिक्षा : स्नातकोत्तर ( समाजशास्त्र )
प्रकाशित पुस्तकें : -
खाते बोलते हैं ( लघुकथा संग्रह )
चिंगारी तथा अन्य लघुकथाएं ( लघुकथा संग्रह )
आशा किरण ( उपन्यास )
किसलिए ( उपन्यास )
चाचाजी नमस्ते ( उपन्यास )
मैं अभी मौजूद हूं ( ग़ज़ल संग्रह )
ग़ज़ल बोलती है ( ग़ज़ल संग्रह )
मेरी चुनिन्दा ग़ज़लें ( ग़ज़ल संग्रह )
मुक्ति ( नाटक )
संपादित पुस्तकें : -
अनकहे कथ्य ( लघुकथा संग्रह)
पड़ाव और पड़ताल - खंड 10 ( लघुकथा संग्रह)
अपनी अपनी यात्रा ( कहानी संग्रह)
मांझी के मतले और मक्ते(ग़ज़ल संग्रह)
विशेष : -
- लघुकथा लेखन सन 1978 से
- पहली लघुकथा "गुल्लक" इंदौर की चर्चित पत्रिका " वीणा' में प्रकाशित
- लघुकथा और ग़ज़ल में एक जाना-माना नाम
- आकाशवाणी व दूरदर्शन से अनेक रचनाएँ प्रसारित
- कुछ लघुकथाओं का पंजाबी, गुजराती, मलयालम एवं अंग्रेज़ी में अनुवाद
- अनेकों संस्थाओं द्वारा सम्मानित।
सम्पर्क :110, लाजवन्ती गार्डन, नई दिल्ली - 110046
1. चाँद मेरे आजा रे
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सुनो, कम से कम आज के दिन तो समय पर आ जाना।
मुझे याद है भई। शादी के बाद आज तुम्हारा पहला करवा चौथ है।
आज कोई नई कहानी मत सुनाना घर आकर। पूरे दिन बोर हो जाती हूँ घर मे अकेली।
मैं सात बजे तक पहुँच जाऊँगा डार्लिंग।
सुनो, तुम परसों जो साड़ी लाये थे न, मैंने उसमें फॉल लगवा लिया है और लो कट ब्लाउज़ भी सिलवा लिया है।
फिर तो जलवा हो जाएगा डिअर।
और हाँ, तुम्हारी पसन्द की केशर की खीर और दही भल्ले भी बनाकर रखूँगी। तुम्हारे हाथों से पानी पीकर व्रत खोलना है मुझे।
मुझे याद है। अच्छा रखता हूँ फोन।
पति राकेश की बातों से आश्वस्त होकर किरण तेजी से रसोईघर में जाकर भोजन की तैयारी में जुट गई। उसके चेहरे पर उल्लास था तथा होठ कोई रोमांटिक गीत गुन गुना रहे थे।
सात बजते बजते किरण ने भोजन तैयार कर लिया था। नई साड़ी में वह एक अप्सरा -सी लग रही थी।अब उसे राकेश की प्रतीक्षा थी।
समय बीतता जा रहा था। झुंझलाहट में उसने कई बार मोबाइल से सम्पर्क करने की कोशिश की। लेकिन हर बार "नॉट रीचिंग" बता रहा था।
तभी डोर बेल बजी। तेजी से उठकर दरवाज़ा खोला तो बदहवास सी हालत में राकेश खड़ा था। उसकी सफेद शर्ट पर जगह जगह खून के धब्बे देखकर वह चौंक उठी,,,,,,
ये क्या हो गया जी। किसी से झगड़ा कर बैठे क्या?
पहले अन्दर चलो, बताता हूँ।
तुम्हें पता है मैं कब से इंतज़ार कर रहीहूँ। मेरी जान सूख गई थी।
रास्ते में एक आदमी का एक्सीडेंट हो गया था। वह खून से लथपथ था। सब तमाशा देख रहे थे। कई तो मोबाइल से फोटो ले रहे थे। वह सड़क पर पड़ा कराह रहा था। मैंने एक मजदूर की सहायता से अपनी बाइक पर बिठाकर उसे अस्पताल पहुँचाया। जब उसके रिश्तेदार वहाँ पहुंचे, तब मैं वहाँ से निकला।
और तुम्हें मेरी परेशानी का ज़रा भी ख्याल नहीं आया।
आया था किरण तुम्हारा खयाल कि तुम सुबह से भूखी बैठी मेरा इंतज़ार कर रही हो। पर ज़रा यह सोचो कि करवा चौथ पर उसका भी तो घर पर उसकी पत्नी इंतज़ार कर रही होगी। उसे कुछ हो जाता तो!
ऐसा न कहो जी।
किरण ने उसके मुँह पर उंगली रखते हुए कहा,,,,,
तुमने बड़ा नेक काम किया है जी।
अच्छा चलो पहले चाँद देख लो। अरे, चांद तो बादलों में छुप गया है किरण।। राकेश ने अपनी शर्ट उतारते हुए कहा।
मेरे चाँद तो आप हैं जी।। किरण लजाते हुए राकेश के सीने से लग गयी।
शरारती चाँद बादलों से निकल बाहर आ गया था। ****
2. मजबूत दीवार
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आखिर अंजलि को उसकी सासू मां शोभना देवी की परेशानी और बेचैनी का कारण पड़ोस की देवकी आंटी ने बता ही दिया----
"अरे अंजलि, तेरी सास की परेशानी का कारण तू ही है बिटिया।"
"वो कैसे आंटी?'" अंजलि ने हैरत से पूछा।
" अरी, पार्क में सुबह-शाम बैठने वाली सारी बूढी-,ठेरी अपनी अपनी बहुओं की जमकर बुराई करती हैं, और तेरी सास,,,,, ।"
"क्या कहती हैं मेरी सासू मां?"
"यही कि मेरी बहू इतनी अच्छी है कि दूसरी औरतों की तरह मैं उसकी बुराई भी नहीं कर सकती।"
"ओह, तो यह कारण है। फिर तो मुझे ही कुछ करना पड़ेगा आंटी।"
"देख ले बेटी,,,,,तू जाने तेरा काम,,,,,,मैं तो चली।"
शाम को पाँच बजे शोभना देवी आँगन में बैठी चाय का इंतज़ार कर रही थी।तभी अंजलि ने जान- बूझकर एक पुराना मर्तबान ज़ोर से फर्श पर पटक दिया।
'भड़ाक' की आवाज़ से पूरा घर गूंज उठा।
'अरी, क्या टूट गया अंजलि?"चौंकते हुए शोभना देवी ने पूछा।
"सॉरी मम्मी, आपका मनपसंद अचार का मर्तबान टूट गया।" अंजलि ने सोच लिया था कि आज तो डांट ज़रूर पड़ेगी ही।
शोभना देवी ने एक पल को मर्तबान के टूटे हुए टुकड़ों को घूरा फिर शान्त स्वर में बोली---"चल छोड़, टूट जाने दे। पुराना ही तो था।"
सासू माँ को क्रोधित मुद्रा में न देखकर अंजलि विस्मय से बोली--"मम्मी, मुझे डांटो तो सही। नुक्सान तो कर ही दिया ना मैंने। मैं भी तरस गयी हूँ आपकी डांट खाने के लिए।"
"अंजलि, तू क्या समझती थी कि मुझे गुस्सा दिलवा देगी और मैं तेरी बुराई का ढिंढोरा पीटकर खुश हो जाऊंगी। तेरी प्लानिंग
मैं पहले ही भाँप चुकी थी। सास हूँ तेरी।"
ओ,,,,मम्मी जी।" इतना ही निकला अंजलि के मुख से।
"चल चाय ले आ,,,,,, इकठ्ठे बैठकर पियेंगी,,,,,,, पगली कहीं की।"
अंजलि को लग रहा था कि वह एक मजबूत दीवार के साये में पूरी तरह महफूज़ है। ****
3. एक पराजित विजय
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यह एकाकीपन उसके लिए कोई नई बात नहीं है। इससे पूर्व भी उसने कई बार ऐसी स्थिति झेली है।
लेकिन आज जब घर के सभी सदस्य किसी विवाहोत्सव में शामिल होने चले गए, तो वह बेचैनी से इस कमरे से उस कमरे में चक्कर लगाता रहा। नहाया-धोया भी नहीं, और पठन-पाठन चाहकर भी नहीं कर सका।
उसे लगा, जैसे यह एकाकीपन उसकी धड़कनों को जकड़े दे रहा है।
तभी एकाएक वह कुछ सोचते हुए बिस्तर से पलटा। मेज़ पर से काँच का खाली गिलास उठाया। उसे एक पल निहारा और फ़र्श पर छोड़ दिया।
चटाख ! एक शोर हुआ बस्स !!
फ़र्श पर बिखरी गिलास की किरचें देख, पहले वह थोड़ा मुस्कुराया और फिर जोरदार ठहाका लगाया----
हा'''''''''''हा'''''''''हा'''''''''हा'''''''''''हा ***
4.कटखना
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शुरू शुरू में ' वर्क फ्रॉम होम' के कारण दिन भर घर में रहना उसे बहुत अच्छा लगता था। पत्नी द्वारा तैयार किया अपनी पसंद का लंच और स्नैक्स देखकर उसकी बाँछें खिल जाती। काम से थकान होने पर बच्चों के साथ हँसी ठिठोली करते समय वह स्वयं बच्चा बन जाता था।
धीरे धीरे पूरे दिन घर में रहना उसे अखरने लगा था। ऑफिस के दोस्तों और महिला सहकर्मियों से मस्ती के पलों को वह ' मिस' कर रहा था। अब वह दिन भर बौखलाया सा रहने लगा था।। पत्नी बाजार का कुछ कम कहती तो उसे झिड़कने लगता। कार की सफाई के लिए चौकीदार पानी मांगता तो उस पर बरस पड़ता। पड़ोस की दुकान पर समान लेने जाता तो दुकानदार से बेवजह उलझने लग पड़ता। यहां तक कि जब कभी बच्चे खाली समय में अपने साथ खेलने को कहते तो उन्हें काट खाने को दौड़ता था।
एकदिन पड़ोस में किसी के यहाँ विवाह समारोह था। शायद घुड़चढ़ी हो रही थी। कुछ ही देर में दूल्हे की घोड़ी और बाराती उसके घर के सामने गली में आ चुके थे। बैंड की धुन पर कुछ महिलाएं औऱ युवक डांस कर रहे थे।
वह घर के आँगन में पत्नी और बच्चों के साथ बैठा था। कई महीनों के सन्नाटे के बाद बारात की रौनक और बैंड की धुन सुनकर उसके बच्चे रोमांच से भर उठे और हँसते हुए डांस करने लगे।
बच्चों को डांस करते देख पत्नी खिलखिलाकर हँस पड़ी तो उसके चेहरे पर भी मुस्कान खिल उठी। वह अचानक कुर्सी से उठा, फिर बैंड और ढोल की धमाकेदार
धुन पर दोनों बच्चों के साथ साथ मस्त होकर नाचने लगा। ****
5. पूर्ववत
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पिछले दिनों सरकार द्वारा भूमिहीन हरिजनों को खेती योग्य ज़मीन आबंटित करने की योजना बनाई गई। कार्यक्रम तेजी से लागू किया गया। गाँव के समस्त भूमिहीन हरिजनों ने आवेदन भी किया।
एक सप्ताह बाद कार्य-समाप्ति की घोषणा के साथ ही भूमि आबंटन के आंकड़े संबंधित विभाग को भिजवा दिए गए।
पहली ही बारिश के बाद रामु, दीनू और भुलिया के साथ अनेक हरिजन अब भी पूर्ववत ग्राम-सरपंच के खेतों में हलों की मूठ पकड़े काम कर रहे थे।
हाँ, सरपंच को अपनी बढ़ी हुई ज़मीन के लिए कुछ और किसानों व मजदूरों की ज़रूरत थी। ****
6. बिग बॉस
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पहाड़गंज चौराहे की रेड लाइट खराब हो जाने से सभी गाड़ियां अपने गंतव्य तक जाने की जल्दी में फंसी पड़ी हैं। ड्राइवर राम सिंह अपने बॉस के साथ पिछले पंद्रह मिनट से जीप में बैठा है। सुबह से ही उसका मूड खराब है। बॉस के कहने पर वह नीचे उतर कर चारों तरफ़ नज़र घुमाता है।जून माह का तपता हुआ सूरज आग बरसा रहा है। राम सिंह भी बॉस को लेकर भीतर ही भीतर उबल रहा है।
-----आज पिताजी को हड्डियों के डॉक्टर को दिखाना था।
पी ए से फोन करा दिया कि ज़रूरी मीटिंग है, छुट्टी मत करना । घटिया कहीं का।
------ दिन भर इधर उधर के काम कराता है। रात दस बजे तक पीछा नहीं छोड़ता। भूतनी का।
------कभी इसकी घर वाली को शॉपिंग कराओ तो कभी बच्चों को। बंधुआ मज़दूर बना दिया हरामी ने।
तभी ट्रैफिक खुल जाता है।रामसिंह जीप में बैठकर जीप स्टार्ट कर देता है।
"जल्दी करो राम सिंह। दो बजे की मीटिंग है। एक बजकर चालीस मिनट हो गए है।" बॉस चिंतित स्वर में कहता है।
राम सिंह तेजी से जीप को निकालता है। अब जीप पहाड़गंज पुल की चढ़ाई चढ़ रही है। उसने जीप को पुल के बीचोबीच रोक दिया है। वह चाहता है कि बॉस से भरी दोपहरी में धक्के लगवाए। वह दिखावे के लिए जीप के पुर्ज़ों के साथ छेड़छाड़ करता है।
बॉस की घबराहट बढ़ रही है।
तभी राम सिंह को अपने पिता की बात याद आती है कि बेटा, ड्यूटी को भगवान की पूजा समझ कर करना और अपने बॉस की हमेशा इज़्ज़त करना।
"जल्दी करो राम सिंह , दस मिनट रह गए हैं , मीटिंग शुरू होने में।" बॉस अधीर हो उठता है।
" चिंता न करो सर, अभी पहुंचाता हूँ। " कह कर राम सिंह तेजी से जीप को गाड़ियों के बीच से निकालकर ठीक दो बजे मीटिंग हाल के बाहर खड़ी कर देता है। बॉस राहत की सांस लेते हुए फुर्ती से भीतर चला जाता है।
दो घण्टे बाद मीटिंग समाप्ति पर बॉस हँसते हुए बाहर निकलता है और संकेत से राम सिंह को बुलाकर कहता है---
" राम सिँह, ये विज़िटिंग कार्ड है। कल इस नर्सिंग होम में पिताजी को ले जाना। डॉ भारद्वाज से मिलना। वे पूरा चैक अप करेंगे। कोई पैसा नही देना उन्हें, वो मेरे फ्रेंड हैं।। और सुनो, जीप ले जाना।"
राम सिंह अपने बॉस का यह रूप देखकर हतप्रभ है। "थैंक्यू सर।" वह होले से कहता है। उसका दायाँ हाथ सेल्यूट की मुद्रा में उठ जाता है। ****
7. मोर
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नाम, इज्ज़त, शोहरत और दौलत यूँ ही उसके हिस्से में नहीं आये हैं-----कड़ी मेहनत की है उसने। कवि हिमकर ने अपने गीतों और मुक्तकों से देश-दुनिया में एक अलग पहचान बनाई है। उसके अनेक मुक्तक श्रोताओं की जुबान पर रहते हैं। उनकी तालियों के बीच जब वह झूम-झूम कर कविता पाठ करता है तो लगता है जैसे कोई मोर नृत्य कर रहा है।
एक बड़ी संस्था ने हिमकर को सम्मानित करने के लिए आमंत्रित किया हुआ है। अपने काव्य गुरु के साथ आज वह अपनी महँगी कार में आयोजन स्थल की ओर जा रहा है।
" तुम खामोश और गुमसुम से क्यों हो हिमकर?" यह गुरुजी का स्वर है।
" एक प्रशंसक के पत्र ने मुझे विचलित कर दिया है गुरुजी।"
"क्या लिखा है?"
" यही कि मेरे चर्चित और बहुप्रशंसित मुक्तक में तकनीकी अशुद्धि है। लेकिन मेरे मित्रों ने मुझे कभी भी इस बारे में नहीं टोका ।"
"शायद इसलिए कि तुम बुरा न मान जाओ और अपने आयोजनों में उन्हें बुलाना ही बन्द न कर दो।"
"लेकिन आप तो अधिकारपूर्वक कह सकते थे गुरुजी।"
"जब तक मेरे संज्ञान में बात आई, तुम्हारा काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुका था।" गुरुजी ने अपनी सफाई दी है।
कार आयोजन स्थल पर पहुँच चुकी है। सभागार खचाखच भरा है। हिमकर, गुरुजी और मुख्य अतिथि मंच पर विराजमान हो गए हैं।
प्रशस्ति-पत्र पढ़े जाने के उपरान्त मुख्य अतिथि द्वारा हिमकर को माला,शॉल, स्मृति चिन्ह तथा एक लाख रुपये का चेक दे दिया गया है। सभागार में तालियां बज उठी हैं।
श्रोताओं के अनुरोध पर हिमकर झूम झूम कर अपने कुछ मुक्तक सुनाता है। अब उसके बहुचर्चित मुक्तक को सुनकर समूचा सभागार तालियों और सीटियों से गूँज उठा है। हिमकर ने भी श्रोताओं के अभिवादन में अपना हाथ हवा में लहरा दिया है।
तभी हिमकर का बायां हाथ कोट की जेब में रखे प्रशंसक के पत्र को स्पर्श करता है। उसके चेहरे की रंगत फीकी पड़ गयी है। वह माइक छोड़कर बोझिल कदमों से चलकर कुर्सी पर आ बैठा है। उसकी आँखों की कोरों में नमी-सी ठहर गयी है।
श्रोताओं की तालियाँ रुकने का नाम नहीं ले रहीं हैं। ****
8.देश की बेटी
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गाँव के बीचों बीच खुले प्रांगण में स्वतंत्रता दिवस का उत्सव मनाने की तैयारियाँ चल रही हैं। सामने एक मंच बनाया गया है। उस पर रंगीन कागज़ की झंडियाँ सजी हुई हैं। गांव के सरपंच चौधरी सूरत सिंह के निर्देश पर कुछ युवा आवश्यक तैयारियों में जुटे हैं। मैं मंच के सामने बिछी कुर्सियों पर अपने माँ बापू के साथ बैठी हूँ। कुछ ही देर में राष्ट्रीय ध्वज फहराया जायेगा।
अचानक तीन वर्ष पूर्व की घटना मेरी आँखों के सामने घूमने लगती है। में आठवीं कक्षा में थी। विद्यालय में एक समूह गान हेतुमुझे पहली पंक्ति में खड़ा किया गया था। रिहर्सल के दौरान सरपंच सूरत सिंह ने अध्यापिका को कहा कि इस दूसरी जाति की लड़की को पीछे खड़ा करो और मेरी पोती को अगली पंक्ति में । सचमुच उस घटना ने मुझे भीतर तक छील दिया था।
नौंवीं कक्षा में मेरे बापू ने मुझे कस्बे के स्कूल में दाखिला दिलवा दिया था। मैं खेलो में अच्छी थी। जीत राम नाम के कोच ने मुझे कड़ा प्रशिक्षण दिया। इंटरस्टेट खेलों की प्रतिस्पर्धा में दौड़ के दौरान मैं तीन धावकों से पीछे थी। तभी मुझे कोच की बात समरण हो आई कि प्रत्येक दौड़ यह सोच कर दौड़नी है कि तुम अपने देश के लिए दौड़ रही हो। तभी मेरे सामने लहराता हुआ तिरंगा दिखा और लोगों की तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मैं सभी धावकों को पछाड़ती हुई सर्व श्रेष्ठ विजेता बन गई। मुझे गोल्ड मेडल पहनाया गया।
अचानक मंच से सरपंच द्वारा मेरे नाम की घोषणा होने पर मेरी तंद्रा टूटती है।
मैं गर्व से मंच पर पहुंच गई हूँ। ग्राम सरपंच चौधरी सूरत सिंह ने मुझे गाँव की बेटी नहीं बल्कि देश की बेटी कहते हुए मेरे गले में बड़ी सी माला पहना दी है और ध्वजारोहण का संकेत किया है।
मैं राष्ट्रीय ध्वज की डोरी खींचती हूँ । गुलाब के फूलों की पत्तियां मुझ पर बिखर रही हैं। गाँव के स्त्री पुरुष तालियाँ बजा रहे हैं। वातावरण में राष्ट्र गान गूँज उठा है। मेरा दायाँ हाथ लहराते हए तिरंगे को सलामी देने के लिये उठ गया है। ****
9. गुरगा
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पिछले कुछ समय से प्रिंसिपल डॉ भान अनुभव कर रहे थे कि समय की पाबंदी को लेकर स्टाफ मेम्बर्स में उनके प्रति रोष पनपता जा रहा है। वे एक ऐसे व्यक्ति की तलाश में थे जो स्टाफ मेम्बर्स के षड्यंत्रों की जानकारी उन तक पहुंचाता रहे। उनकी अनुभवी नज़रों ने नव नियुक्त प्रोफेसर दिनेश कुमार को अपना गुरगा बनाने की ठान ली।
कॉलेज की छुट्टी का समय हो चुका था। अपनी कार स्टार्ट करके डॉ भान कॉलेज गेट से बाहर निकल रहे थे। संयोग से उन्होंने पैदल जाते हुए प्रोफेसर दिनेश कुमार को देखा और कार उसकी बगल में रोक दी।
"आइए, मिस्टर दिनेश, मैं आपको छोड़ देता हूँ। कार में बैठिए।"
"ठीकहै सर, मैं बैठता हूँ। थैंक यू।" अचकचाकर प्रोफेसर ने कहा और कार की पिछली सीट का दरवाजा खोलकर बैठ गया।
" अरे आगे आइए, यहाँ बैठिए।" डॉ भान की वाणी में शहद घुला था।
" मैं यहीं ठीक हूँ सर।" कुछ सकुचाकर प्रोफेसर दिनेश ने कृतार्थ होते हुए कहा।
डॉ भान ने एक बार फिर उसे आगे बैठने को कहा, किन्तु वह संकोचवश----'"ठीक हूँ सर" कहकर पिछली सीट पर ही बैठा रहा।
दरअसल, दूर देहात से पहली बार राजधानी में आये नए नए प्रोफेसर को यह कहाँ पता था कि कार में आगे बैठने वाला ड्राइवर और पीछे वाला मालिक समझा जाता है । डॉ भान कोअपनी यह स्थिति अपमानजनक लगी।वे रास्ते भर कुछ नहीं बोले। एक-दो स्टॉप के बाद उन्होंने प्रोफेसर दिनेश को नीचे उतार दिया।
" थैंक यू सर।' कहकर सीधा सादा प्रोफेसर कार से उतर कर बस स्टॉप की ओर चल दिया।
" इडियट ।" डॉ भान बुदबुदाए । लेकिन तभी उन के मन के कोने से एक आवाज़ उभरी--" किसी गुरगे का थोड़ा इडियट होना भी ज़रूरी है।"
मुस्कुराते हुए डॉ भान ने कार की स्पीड बढ़ा दी थी। गुरगा इतना-भर सम्मान पाकर खुश था। ****
10. दादी के नुस्खे
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"बेटी हल्के हाथों से बालों की जड़ों में लगा तेल।"
"ठीक है दादी लगाती हूँ। एक बात कहनी है दादी आपसे।"
"बोल बेटी।"
"स्कूल आते जाते रास्ते में एक लड़का घूरता रहता मुझे।क्या करूँ?"
" देख बेटी, बड़ी होती जा रही है तू। ऐसी बातों को एक आध बार तो नज़रअंदाज़ कर दिया करते हैं। पानी जब सिर के ऊपर आने लगे तो मुझे बताना।"
"ठीक है दादी।"
"बेटी, इंटर कॉलेज में मुझे भी एक लड़का उल्टा सीधा बोलता था।एक दिन जब बर्दाश्त नहीं हुआ तो सबके सामने उसे ऐसा जोरदार तमाचा मारा कि एक हफ्ते तक शर्म के मारे कॉलेज में दिखाई नहीं दिया। कई बार बोल्ड होना पडता है बेटी।जरा हाथों में तेल लगाके उंगली चटका।"
" ठीक है, लगाती हूँ। अच्छा दादी, ये लिव इन रिलेशन क्या बला है?"
"अरी बला ही तो है। बिना शादी किये मियां बीवी की तरह रहना कोई अच्छी बात है भला। जवान लड़कियों को अपनी इज्ज़त संभाल के रखनी चाहिए। चल तलुओं की मालिश कर मुलायम हाथों से।"
"दादी एक बात बताओ।सुना है आपने दादाजी के साथ घर से भागकर शादी की थी।"
"अरी तुझे किसने बताया मरी?"
"वो मेरी सहेली वीना को उसकी दादी ने बताया था। कानपुर की है ना उसकी दादी भी।"
"हूँ-म। तो ले सुन।तेरे दादाजी और मैं एक दूसरे को पसंद करते थे। परंतु हमारे घरवालों को यह रिश्ता पसंद नहीं था, क्योंकि तेरे दादाजी और हम अलग अलग जाति के थे।"
"फिर क्या हुआ?"
"अचानक तेरे दादाजी की दिल्ली में सरकारी नौकरी लग गयी। ।मुझे अपना भविष्य सुरक्षित लगा। हमने मंदिर में शादी की फिर दिल्ली चले आये। एक दिन भी लिव इन में नहीं रहे।"
"दादी कमाल कर दिया आपने ये फैसला लेकर।"
"हाँ, शुरू में घर वाले नाराज़ रहे। बाद में परिवार के सब लोग मेरे फैसले से खुश हो गए। चल साड़ी बचा के
घुटने तक मालिश कर।"
"वाह दादी आप तो बहुत दिलेर और समझदार निकली।"
" बेटी, औरत ही घर को स्वर्ग बनाती है। उसकी समझदारी से ही घर मजबूत बनता है। इन छुट्टियों में मेरी मान , तू भी सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग ले ले,समझे। चल अब चुन्नी हटा, तेरी भी कर दूं मालिश।"
" ठीक है दादी। ये लो।" ****
11. मुखौटा
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वह नन्हा बालक एक राजनेता का पुत्र था।
रामलीला के दिन थे। माँ को झिंझोड़ते हुए एक दिन वह बोला--" माँ,,,,, माँ, मुझे भी मुखौटा दिलवा दो ना।"
"क्या करेगा तू उसका ?" माँ ने पूछा।
"किसी को डरा दूँगा, किसी को मूर्ख बना दूँगा ।"बालक ने भोलेपन से कहा।
" ख़बरदार, जो ऐसा किया। तेरे पिता से तो मैं पहले ही दुखी हूं ।" कहकर वह फूट पड़ी ।
नन्हा देर तक दीवार पर टंगे पिता के चित्र को घूरता रहा। ****
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क्रमांक - 02
जन्म : 26 जून 1965 , रेवाड़ी - हरियाणा
माता जी : श्रीमती पुष्पा शूर
पिता जी : श्री सुखदेवराज शूर
शिक्षा : एम.ए. ( इतिहास , हिन्दी ) , एम.एड , एल एल बी , पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर
सम्प्रति : दिल्ली शिक्षा निदेशालय के तहत इतिहास के लेक्चरार
विधा : लघुकथा , कविता , व्यग्य , कहानी आदि लेखन
एंकल प्रकशित पुस्तकें :-
लघुकथा : सरहद के इस ओर , क्रान्ति मर गया , मेरी प्रिय लघुकथाएं
अन्य : मेरी सात कहानियां , मेरे प्रिय हास्य व्यंग्य , पत्थर पर खुदे नाम , रोटी के लिए जिद मत कर , हृदय राग , अपना सौर परिवार , आपदा प्रबंधन एक परिचय , मेरा लेखन तथा जीवन आदि
सम्पादित प्रकाशित पुस्तकें : -
लघुकथा : दूसरी पहल , शिक्षा जगत की लघुकथाएँ , हरियाणा की लघुकथाएँ , दिल्ली की लघुकथाएँ , राजस्थान की लघुकथाएँ , मध्यप्रदेश की लघुकथाएँ , नई सदी की लघुकथाएँ , देश - विदेश से लघुवादी लघुकथाएं आदि
विशेष प्रकाशित पुस्तकें : -
लघुकथाकार अनिल शूर आजाद ( सम्पादक : इन्दु वर्मा )
अनिल शूर आजाद : प्रतिनिधि लघुकथाएं ( सम्पादक : इन्दु वर्मा )
अनिल शूर आजाद की कृतियां : एक अवलोकन ( रेखा पूनिया ' स्नेहल ' )
सम्मान : -
हरियाणा प्रदेश साहित्य सम्मेलन , सिरसा - हरियाणा द्वारा रमेशचंद्र शालिहास स्मृति साहित्य सम्मान
युवा साहित्य मण्डल , गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश द्वारा श्रेष्ठ सम्पादक सम्मान
दिल्ली साहित्य समाज द्वारा साहित्य गौरव सम्मान
स्वतंत्र लेखक मंच , दिल्ली द्वारा विशेष रचनाकार सम्मान
पता : -
ए जी - 1 / 33 बी , विकासपुरी , दिल्ली - 110018
जन्म : 05 सितम्बर 1979 रामपुर - उत्तर प्रदेश
माता:श्रीमती सरोज शर्मा
पिता:श्री राम निवास शर्मा
शिक्षा : बी एस सी , बी.डी.एस
संप्रति :दंत चिकित्सक
लेखन की विधाएँ : लघुकथा, कहानी, कविता, यात्रा वृतांत, हाइकु
विशेष : -
अनेक सांझा संकलनों में लघुकथाएं संकलित
अनेक लघुकथा की आडियो रिकार्डिंग
सम्मान : -
सत्य की मशाल द्वारा साहित्य शिरोमणि सम्मान
हरियाणा प्रादेशिक लघुकथा मंच , गुरुग्राम द्वारा लघुकथा मणि सम्मान
लघुकथा शोधकेंद्र भोपाल के दिल्ली अधिवेशन में लघुकथा श्री सम्मान
प्रतिलिपि सम्मान
संपर्क : बी-1/248, यमुना विहार, दिल्ली-110053
1.तलाश
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"क्या कर रहा है यहाँ ?"बंद सीलन भरी गली में उस बूढ़े को देख वो चिल्लाया।
"अपनी बेटी की ओढ़नी ढूँढ रहा हूँ।"बूढ़े ने आँखें और गड़ा दीं।
"यहाँ क्यों?"
" वो कह रही है इसी गली में खोई है ।"
"फिर मिली ?"
"अब तक तो नहीं।सुना है तार-तार कर दी।"
"तू भी पागल है !खोई हुई चीज भी मिलती है कभी।अच्छा बता बेटी यहाँ भेजी ही क्यों थी तूने ?"
"भूख से लड़ने।"
"कौन थे वो ? पता चला कुछ ?"
"हाँ चल गया पता।"
"कौन ! उसने राजदराना अंदाज में पूछा।
"थे इंसानियत के दुश्मन।"
"किसी ने देखा तो होगा ये सब।"
" नहीं ।सब मुर्दा थे।"
"फिर अब क्या ढूँढ रहा है ?टुकड़े हो चुकी होगी।"
"अब इंसानियत ढूँढ रहा हूँ।"
"हा हा हा !अब उसका क्या करेगा?"
"दूसरी बेटी की ओढ़नी बचाऊँगा।पर तू यहाँ क्या कर रहा है ?"
"मैं भी बरसों से वही तलाश रहा हूँ।चल मिल कर ढूँढते हैं।***
2. बदलते दृष्टिकोण
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सुबह-सुबह पूजा के लिए फूल तोड़ती मीनू माँ की आवाज पर रुक गई। वह गुस्से में जोर-ज़ोर से चिल्ला रही थीं। सदा की तरह निशाना भाभी थीं। जल्दी से गुलाब तोड़ अन्दर भागी मीनू।
"क्या हुआ माँ? इतनी गुस्सा क्यों हो रही हो ?"
"तो और क्या करूँ?बता! इतने दिनों में घर के तौर-तरीके नहीं सीख पाई ये। कोई काम ढंग से नहीं होता इससे। एक तो महारानी जी चाय अब लाई हैं, उसमें भी चीनी कम।" माँ ने गुस्से में ही जबाब दिया।
"माँ मेरी चाय में तो चीनी सही थी, फिर तुम्हें क्यों कम लगी?" मीनू ने प्रश्नवाचक नजरों से भाभी को देखा। "वो दीदी!माँ जी की चाय में ज्यादा चीनी डालने पर आपके भाई नाराज होते हैं। माँ को शुगर है न।" भाभी ने सहमे स्वर में ननद को जबाब दिया।
"बस!सुन लो इसका नया झूठ। अब मुझे मेरे बेटे के खिलाफ भड़का रही है। वो मना करता है इसे!" माँ जी का गुस्सा और बढ़ गया।
"माँ!भाभी ठीक ही तो कह रही हैं। आप डायबिटिक हो। ज्यादा मीठी चाय पीओगी तो आपको ही दिक्कत होगी।"
"अच्छा जी!तो अब ये भी बता दे कि मेरे लिए सब्जी में नमक, मसाले और तेल क्यों नाम का डालती है ? उसमें किसने मना किया है इसे ?" माँ ने व्यंग्य के स्वर में पूछा बेटी से।
"माँ!आप भी जानती हो।हृदय रोगी हो आप और ये सब नुकसान देता है आपको।"
"अच्छा देर तक भी इसीलिए सोती होगी कि जल्दी उठने से मेरी बीमारी बढ़ जायेगी।"
"माँ!क्या देर से उठती हैं भाभी? आजकल कौन उठता है सुबह पाँच बजे! फिर रितु कितनी छोटी है। रातभर जगाती होगी भाभी को।" मीनू ने माँ को समझाना चाहा।
"और क्या दुख हैं इसे!यह भी बता… और तू कब से इसकी इतनी तरफदारी करने लगी! कल तक तो मेरी हाँ में हाँ मिलाती थी!!"माँ ने आश्चर्य से बेटी को देखते हुए कहा।
हाथ में पकड़े गुलाब का काँटा जोर से चुभ गया मीनू के हाथ में। नजरें झुकाकर जबाब दिया, "तब मैं किसी की भाभी नहीं थी माँ।" ****
3. हिजड़ा
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आईने पर नज़र पड़ी तो मैं अचकचा गया।विभिन्न मुखमुद्राओं में सुबह वाला हिजड़ा हर दुकान के आगे नाच गा रहा था। लोग उसके नाचने पर पैसे फेंक कर हँस रहे थे।और वो लोगों से बेपरवाह ताली बजाकर नाच रहा था।एक घृणा की लहर मेरे चेहरे पर छा गई और मैं पीछे हट गया। "साला हिजड़ा !थू ।"
मैं पीछे मुड़ा तो अब आइने में वो पगली घूमने लगी। फटे चीथड़ों में लोगों की भूखी नजरों से बेपरवाह यहाँ वहाँ घूमती।
"उफ !पूरे बाजार का क्या हाल बना दिया है ?कहीं हिजड़ा ,कहीं पगली।कुछ कपड़े उठाकर मैंने उसके तन पर डाल दिये और दुकान के बाहर की जगह में एक फटी चादर डाल दी उसके सोने को।"
अब मैं आइने से नजर हटाकर आँखें बंद कर सोने की कोशिश करने लगा कि नजर फिर आईने पर चली गई। वो गुंडे टाइप लड़के मेरे सामने चले आये उस निरीह पगली को खींचते हुए।मुझसे रूका नहीं गया।
"अरे कहाँ ले जा रहे हो इसे ?इसे बख्श दो पागल है ये।"
"देखो चाचा! सबने दुकान बंद कर दी।बेहतर है तुम भी करो और चलते बनो।"
"नहीं ! मैं तुम्हें ये पाप नहीं करने दूँगा।"
"देखो तुम्हें चाचा कहते हैं हम।दिन रात का आना जाना है बाजार में।नहीं चाहते खून खराबा हो।"उनमें से एक ने चाकू लहराया।
"नहीं बेटा!मेरे बच्चे बहुत छोटे हैं अभी।लेकिन बेटा पाप है ये ।"मरीमरी सी आवाज निकली
"फिर चुपचाप दुकान में चले जाओ।हमें जो करना है करने दो।पाप-पुण्य हम देख लेंगे।लेकिन हमारे हाथ बहक गये तो तुम कल का सूरज नहीं देख पाओगे।"
मैं डर से दुकान का शटर गिरा अंदर बैठ गया।दिल को समझाया क्या लगती है ये पगली मेरी?ऐसी कितनी ही पगली इन लोगों की भेंट चढ़ती होंगी।
और पगली की कातर चीखों से वो सुनसान रात गूँज उठी।
एक झुरझुरी सी आ गई। ठंड में माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहाई। चीखों की गूँज बढ़ती जा रही थी।गला सूख रहा था। मैंने तेजी से उठाकर पानी पिया। चीखें बढ़ती ही जा रही थीं। मैंने पानी का गिलास फेंक कर आईने पर दे मारा।आईना टुकड़े-टुकड़े हो गया।मैं चैन की साँस ले आँखें बंद कर सोने की कोशिश करने लगा कि नजर फिर आईने पर चली गई।अब हर टुकड़े में मेरा अक्स विभिन्न मुख मुद्राओं के साथ ताली बजा बजाकर नाचने लगा।मैंने घृणा से मुँह फेर लिया और जोर से चिल्लाया "साला हिजड़ा!थू।" ***
4. अहल्या
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एक बार फिर अहिल्या इंद्र से छली गई थी।इस बार इंद्र को गौतम ऋषि का चोला ओढ़ने की आवश्यकता नहीं थी।न चंद्रमा को इस बार इस कुकृत्य में भागीदार होना पड़ा।इस युग का इंद्र घर में ही था और अवसर मिलते ही अपनी कुटिल चाल में कामयाब हो गया था।गौतम ऋषि ने एक बार फिर श्राप के लिए मुख खोला कि अहिल्या ने अपने को शीशे की पारदर्शी दीवारों में बंद कर लिया।गौतम ऋषि को ज्ञात हुआ ये अहिल्या भी निर्दोष थी।
अब वो शीशे की दीवार के पार से उसे सिर्फ देख सकते थे।स्पर्श के द्वार इस बार अहिल्या ने बंद किये थे।ऋषि की कोई भी पुकार शीशे के पार से लौट जाती।ऐसे ही समय बीतता रहा। इस बार सजा ऋषि को मिली थी एक निर्दोष को शापमुक्त न करा पाने की।ऐसे ही सालों बीत गये। ऋषि को अपनी अहिल्या को इस शाप से मुक्ति दिलानी थी।उनकी करुन पुकार पर धरती माता प्रकट हुईं।एक कोमल स्नेहिल स्पर्श से अहिल्या की मृगनयनी आँखों से वर्षों से रूकी अश्रुधारा बहने लगी।
"बेटी, तूने अपने को सजा क्यों दे दी?तू पत्थर क्यों बन गई ? बाहर आ बेटी।देख !तेरा गौतम तुझे पुकार रहा। "
"माँ!मैंने सजा मैंने कहाँ दी ?विश्वास की डोर टूटने से हर नारी पत्थर हो जाती है।कितने ही इंद्र आज भी बिना सजा घूम रहे।और पत्थर युग युगान्तर से नारी।ऋषि ने इंद्र को सहस्र आँखों का श्राप न दे सजा दी होती तो पुरुष के रोम रोम में बिंधी ये आँखें आज भी स्त्री को न बेध रही होती और कोई पुरुष उसे पत्थर न बना पाता। " ****
5. आकांक्षा
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“नन्हीं रूचिका का अभिनय बहुत दमदार रहा। फिल्म में बड़े-बड़े कलाकारों के रहते भी उसने अपनी उपस्थिति दर्ज करा दी। दर्शकों का मन मोह लिया। उसके नाम की बड़ी चर्चा है। आपको कैसा लग रहा है?” एक टी.वी चैनल का संवाददाता रुचिका की माँ से पूछ रहा था।
“बेटी की कामयाबी से जो खुशी मिली, उसे बयाँ करना कठिन है। माता-पिता जब बेटा-बेटी के नाम से पहचाने जाते हैं तो उन्हें बहुत गर्व होता है।” शैली ने खुश होते हुए जवाब दिया।
“अभी रुचिका बहुत छोटी है। वह अपना ध्यान पढ़ाई में लगाएगी या फिर अभिनय जारी रखेगी?”
“पढ़ाई भी करेगी, लेकिन अगर कहीं अच्छी फिल्म में रोल मिला तो जरूर करेगी।”
“शैली जी, क्या मैं रुचिका से बात कर सकता हूँ?”
“हाँ, क्यों नहीं…रुचिका बेटे, जरा इधर आना।”
दूसरे कमरे से रुचिका आई तो संवाददाता बोला, “रुचिका बेटे, कैसी हो?”
“ठीक हूँ अंकल।”
“अच्छा यह बताओ, आपको क्या-क्या अच्छा लगता है?”
“मुझे…रिया, दिया के साथ खेलना, पार्क में जाना और साइकिल चलाना…और खूब सारा पिज्जा खाना बहुत अच्छा लगता है।”
“और आप बड़ी होकर क्या बनना चाहती हो?” संवाददाता ने मुस्कराते हुए पूछा।
“मैं तो टीचर बनूंगी, टीचर न सबको डाँट सकती है…” बोलते हुए उसकी नज़र अपनी माँ की ओर गई तो वह सकपका गई, “…नहीं अंकल…मैं तो न…बड़ी कलाकार बनूँगी, दीपिका जैसी।” घबराते हुए रुचिका अटक-अटक कर बोली।
6. गिद्ध
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"छोड़ो मेरी मम्मी को ।कोई हाथ नहीं लगायेगा मेरी माँ को।"कहते हुए निधि माँ के शरीर से लिपट रोने लगी।
"निधि बेटी रो मत।होनी को कौन टाल सकता है ?"बड़ी बुआ ने निधि को गले से लगा लिया। निधि के रोने में तेजी आ गई।
"बेटी!जा कोई नई साड़ी ले आ और नई न हो तो जो सबसे ज्यादा पसंद थी भाभी को वो साड़ी ले आ। कीमती हो तो संकोच मत करना आखिरी श्रंगार है ये इनका।"बड़ी बुआ कहती हुई रो पड़ी।
"लो भाभी अलमारी की चाबी लो। मुझसे ये नहीं होगा।"बड़ी ननद भीगी आँखों से चाबी भाभी को थमाने लगी।
"दीदी !मुझसे भी नहीं होगा।"
अचानक छोटी बहू छवि ननद से चाबी छीन कर बोली "मुझे दो चाबी। मुझे पता है वो कहाँ क्या रखती थीं ? मैं निकालूंगी मम्मीजी की पसंद की साड़ी।"
"ये क्या कर रही है छवि ?अन्दर आकर देख न लें बुआ।"बड़ी बहू प्रीति बोली
"देखने दो दीदी ।देखने की फिक्र की तो सारा जेवर हाथ से निकल जाना है। ये दोनों बहनें कुछ हाथ नहीं लगने देंगी हमारे।"
"कह तो तू ठीक रही है। फिर कुछ नहीं मिलेगा हमें।"
"बहू तुम मम्मी के नहलाने को पानी ले आओ।बाहर ये कौवे इतना शोर क्यों मचा रहे हैं ?"
"कोई जानवर बाहर मरा पड़ा है बुआ।"
"ओह ये कौवे और गिद्ध भी न मरा व्यक्ति दौड़े चले आते हैं ।छवि साड़ी जल्दी ला बेटा।"बुआ बोली
"ये लीजिए बुआजी ।"
"ये क्या ?जीजी पर इतनी साड़ियाँ थीं ।ये इतनी पुरानी और फीके रंग की क्यों लाई हो ?"
"ये मम्मी को बहुत पसंद थी।"
"अभी कुछ दिन पहले जो शादी पहन कर आई थीं वो साड़ी कहाँ है ?वो ही दे दो।अब ये कब इन्हें पहनने आयेंगी प्रीति ?"
"छवि ।बाहर सब शोर मचा रहे हैं। कोई दूसरी साड़ी दे।"प्रीति बोली
"दीदी पता है कितनी मँहगी है वो।कह दीजिए नहीं मिल रही ।पता नहीं कहाँ रखी होगी मम्मी ने।"
"वो नहीं मिल रही बुआ।" प्रीति ने अचकचाते हुए कहा।
"अच्छा!सोने का टुकड़ा दो मुँह में डालने को और गंगाजल,दही भी साथ ही ले आना।
"बुआ जी ये लीजिए।"
"बहू!ये इतना छोटा तार दिखाई भी दे रहा है। जीजी की नाक की नथनी कहाँ है? वही डालते हैं मुँह में।"अब बड़ी चाची थोड़े गुस्से में बोली।
"लाती हूँ।"
"छवि ,वो मम्मी की नथ तो दे जो मम्मी के ऊपर से उतारी थी।"
"दिमाग खराब हो गया है बुआ का दीदी।इतनी भारी नथ मुँह में डाल दें ।और आप भी दीदी क्या आपको नहीं चाहिए जेवर ?"
"छवि ,चूडियाँ तो मैं ही लूँगी मम्मी की।जा उतार जल्दी मम्मी के हाथ से।कहीं बुआ वही न तोड़ कर डाल दें मुँह में।"अब प्रीति अधीर हुई।
"कानों के मेरे हुए ।कहे देती हूँ दीदी।वैसे भी वो मुझे बहुत पसंद हैं।"छोटी बहू जल्दी से बोली।
"ये जेवर हार रखे तो मेरी शादी के लिए थे मम्मी ने।लेकिन आप दोनों को को ज्यादा जरूरत है भाभी।अब साड़ियों का भी बता दो ।"छोटी ननद व्यंग्य से बोली।
"मम्मी की साड़ियाँ मेरी पसंद की हैं। तो मेरी ही हुई।वैसे भी तुम क्या करोगी ?आजकल की लड़कियाँ कहाँ पहनती हैं साड़ी।"
"छवि !कुछ मुझे भी देगी।"
"हाँ हाँ। सब बाँट लेंगे दीदी आधा आधा।"
"कहाँ रह गई तुम सब ?देर हो रही है ले जाने में।फिर रात में दाह-संस्कार नहीं होता।"बाहर से बुआ की आवाज आई।
"छवि!जल्दी कर।"
"हाँ रूको।देखने तो दे मुझे।कौन सी साड़ी देने से नुकसान कम होगा अपना।"
बाहर कौवों को शोर बढ़ता जा रहा था।और अन्दर बुआ की आवाज दबती जा रही थी। ****
7.बंद मर्तबान
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आफिस से वापस आ सूरज दरवाजे पर लगा ताला दूसरी चाबी से खोल अंदर आया। मेज पर चाय की कैटल रोज के जैसे रखी हुई थी।खोलकर कप में चाय डाली तो साथ में रखी पर्ची पर नजर चली गई।"ये क्या ? खाली चाय पी रहे हो।तुम्हें एसीडिटी हो जाती है स्नैक्स साथ वाले डब्बे में हैं।"
"ओह धरा कितना ख्याल रखती हो मेरा।" कहते हुए अलमारी खोली।सामने ही एक चिट रखी थी "डिनर किचिन में रखा है। गर्म करके खा लेना।मेरा इंतजार मत करना।"
"कहाँ चली गई ये आज फिर ? अब घर पर मिलती ही नहीं।"बड़बड़ाते हुए सूरज ने नाइट सूट खींचा कि एक और चिठ्ठी गिर पड़ी।
"वाइल्ड लाइफ फोटोग्राफी के कैंप में जा रही हूँ ।वापसी कुछ दिनों में ही हो पायेगी।तुम्हें बताना तो चाहा ,लेकिन तुम काफी व्यस्त थे। बताने को मौका ही नहीं मिला।तुम मेरे मैसेज देखते ही नहीं या देख लो तो रिप्लाई नहीं करते इसीलिए चिठ्ठी छोड़कर जा रही हूँ।"
सूरज ने फोन उठाकर धरा का नम्बर डायल किया
"कहाँ हो धरा ?"
"बताया तो सूरज।कैंप में।"
"मेरा सोचा ?"
"हाँ। खाना बाई बना देगी।कपड़े भी धो देगी।"
"खाना,कपड़े !बस यही है क्या जिंदगी में।मैं जो अकेला रह जाऊँगा यहाँ ,उसका क्या ?"
"तुम और अकेले !अकेले कहाँ हो सूरज ? तुम्हारी पूरा आफिस तुम्हारा कम्यूटर सब तो वहीं हैं।समय होता ही कहाँ है तुम्हारे पास ?"
"बंद करो ये कैंप शैंप सब धरा।और घर वापस आ जाओ।"
"बंद ! तुम्हारे कहने पर ही तो शुरू किया है। तुम्हीं कहते थे कि मैं खाली हूँ इसलिए हर वक्त तुम्हें परेशान करती हूँ।"
"ये क्या कह रही हो धरा ?"
"वही जो सच है सूरज।सुबह से शाम तक तुम्हारे लम्बे इंतजार के बाद शाम को मैं सोचती थी अब जरूर कुछ वक्त हम साथ गुजारेंगे ।कई-कई दिन गुजर जाते हैं तुमसे बात किये हुए।
मेरे मैसेज मेरे फोन मेरा प्यार तुम्हें बँधन लगता है।खैर!तुम्हारे सारे कपड़े अलमारी में लगा दिये हैं।स्नैक्स किचिन में रख दिये हैं ,कुछ दिन चल जायेंगे।चाबियाँ ड्राअर में रखी हैं।और अब आदत डाल लो।मेरी ऐसी ट्रिप होती ही रहेंगी।"
"और तुम्हारी तबियत खराब हो गई वहाँ फिर ? तुम अकसर कहती हो तुम्हें सपने में दिखता है तुम एक बंद मर्तबान में हो और तुम्हारा दम घुट रहा है।कौन सम्हालेगा धरा ?"
"हाँ सूरज ! यह तो मैं बताना ही भूल गई वो सपना अब कब से नहीं आया।"चहकते हुए बोली धरा ।
"उफ धरा ! मुझे चक्कर आ रहे हैं और ऐसा लग रहा है जैसे मैं एक बंद जार में फँस गया हूँ ,मेरा दम घुट रहा है।"और फोन सूरज के हाथ से गिर पड़ा। ****
8.प्रेम-प्यार
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सर्दियों की अलशाम दो जोड़े पाँव समुद्र किनारे रेत पर दौड़े जा रहे थे। लड़की आगे थी और पीछे भाग रहा लड़का उसे पकड़ने का प्रयास कर रहा था।
"रूक जाओ रश्मि! इतनी तेज मत भागो, गिर जाओगी।"
"गिरती हूँ तो गिर जाऊँ, तुम्हें क्या? मैं न भी रहूँगी तो तुम्हें क्या फर्क पड़ेगा? तुम्हें कौनसा मुझसे प्यार है?”"
"मुझे न सही, तुम्हें तो मुझसे प्यार है। उसी के लिए रूक जाओ।" लड़के ने रश्मि के पास पहुँच उसका हाथ पकड़ते हुए कहा।
"तुम्हें मुझसे बिलकुल प्यार नहीं है।" लड़की ने अपना हाथ से छुड़ाते हुए कहा।
"ऐसा क्यों कहती हो रश्मि…तुम्हें ऐसा क्यों लगता है?" लड़के ने उसका चेहरा अपने हाथो के प्याले में भरते हुए कहा।
लड़की अपने चेहरे को लड़के के हाथों से आजाद करवाते हुए बोली, "तुमने कभी मेरी तारीफ की है? कभी कहा कि तुम बहुत सुंदर हो, चाँद जैसी लगती हो। कभी कहा कि तुम्हारी नीली आँखें झील-सी गहरी हैं। प्यार होता तो कहते न कि तुम्हारे होंठ गुलाब की पंखुड़ियों-से नाजुक हैं…।”
“रश्मि ऐसी बात नहीं है, मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ।” लड़के ने अपनी बात कहनी चाही।
“…मैं तुम्हे अच्छी नहीं लगती हूँ...या फिर कोई और बात है?" कह कर रश्मि लड़के की आँखों को पढ़ने की कोशिश करने लगी।
लड़के ने इधऱ-उधऱ देखा। फिर लड़की को अपने पास खींचा और उसके चेहरे को हाथों में भरकर निहारने लगा। लड़की जैसे ही कुछ बोलने को हुई उसने अपने होठ उसके होठों पर रख दिये। लड़की कसमसाई। खुद को अलग करती हुई बोली, "मुझे बहलाओ मत।”
लड़की के दोनों हाथों को अपने हाथ में लेते हुए लड़का बोला, "मुझे नहीं पता किन्हें चाँद में महबूब दिखता है या फिर महबूब में चाँद…मुझे तो तुम्हारे सिवाय कहीं कुछ नजर ही नहीं आता... तुम्हारे जैसा कोई नहीं दिखता। जब भी तुम्हे देखता हूँ रश्मि, मेरी साँसे रुकने लगती हैं…शब्द खो जाते हैं। इसीलिए तुमसे कभी कुछ कह नहीं पाता। बस इतना जानता हूँ कि तुम हो तो मैं हूँ, तुम्हारे बिन मैं कुछ नहीं हूँ...!" लड़के की आँखों से खारा पानी बह चला था। ****
9. ममता
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"न जाने कितनी देर में खुलेगा ये फाटक।एक गाड़ी निकल गई लगता है अब दूसरी आ रही है।"
"हाँ ,लग तो ऐसा ही रहा है।"
ये डुग्गू इतना क्यों रो रहा है तन्वी ?आस -पास वाले सब इधर ही देखने लगे हैं।एक बच्चा नहीं सम्हलता तुमसे।"स्वर में झुँझलाहट स्पष्ट दिख रही थी पीयूष के।
"भूखा है।जो दूध साथ में लाई थी गर्मी से खराब हो गया है।"पत्नी के स्वर में दुख और बेबसी की स्पष्ट झलक थी
"ये रेलवे फाटक भी ऐसी जगह है जहाँ दूर -दूर तक दूध मिलने की सम्भावना नहीं।और फाटक बंद से ये जाम।तुम भी दूध अच्छी तरह गर्म करके नहीं रख सकती थीं जब जानती हो तुम्हारे आँचल में कुदरत ने दूध दिया ही नहीं तुम्हारे बच्चे के लिए।" सारी खीझ तनु पर उतार दी पीयूष ने।
"रखा तो सही से ही था पीयूष।रास्ते में जाम में ज्यादा ही देर हो गई है।"
"इसको भी भूख से इसी जंगल में रोना था।और तुम क्या यहाँ खिड़की पर खड़ी हो ?जाओ यहाँ से।चले आते हैं न जाने कहाँ से भिखारी ।"
"कुछ मेरे बच्चे को दे दो बाबूजी।भगवान तुम्हारा भला करेंगे।"कार की खिड़की पर बच्चे को गोद में लिए वो भिखारन अब भी रिरिया रही थी।
"चलो हटो।वैसे ही दिमाग खराब हो रहा है।जाओ आगे बढ़ो।"पीयूष गुस्से में बोला।
"बीबीजी ये मुन्ना क्यों रो रहा है इतना ? शायद भूख से।"बुरी तरह फटकार खाकर भी कदम ठिठक गये उस भिखारिन के।
"हा भूखा ही है।"पीयूष के गुस्से से डरती हुई तनु ने जबाब दिया
"तुम गयी नहीं अब तक।और ये क्या कर लेगी तनु जो तुम इसको बता रही हो।खुद भीख माँग रही है ,तुम्हारी क्या मदद करेगी ?"हिकारत से बोला पीयूष।
भिखारिन अब तिरस्कार से भर उठी फिर भी अनसुनी कर बोली "बहन मुन्ने को मुझे दे दो।मैने आपकी बातें सुन ली हैं।मेरे आँचल में दूध है इसके लिए।"
"ये इस भिखारिन का दूध पियेगा तनु ?"पीयूष गुस्से से बोला
तनु ने अनसुनी कर कार का दरवाजा खोल उसे बुला लिया।संतृप्ति के भाव से अब मुन्ना मुस्कुरा दिया।भिखारिन कार से उतर चुपचाप आगे चल दी।
"सुनो ये लो ।"
"ये क्या साहब ? पैसे पर एक दृष्टि डालते हुए उस भिखारिन ने कहा
"रख लो ,तुम्हारे काम आयेंगे।"
"साहब किसी दूसरे गरीब को दे दीजिए। माँ की ममता का कोई मोल नहीं होता।" ****
10. पूजा
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नये साल की वह पहली सुबह जैसे बर्फानी पानी में नहा कर आई थी ।10 बज चुके थे पर सूर्यदेव अब तक धुंध का धवल कंबल ओढ़े आराम फरमा रहे थे ।अनु ने पूजा की थाली तैयार की और ननद के कमरे में झांक कर कहा," नेहा! प्लीज नोनू सो रहा है ,उसका ध्यान रखना।मैं मंदिर जा कर आती हूँ ।"
शीत लहर के तमाचे खाते और ठिठुरते हुए उसने मंदिर वाले पथ पर पग धरे ही थे कि उसके पैरों को जैसे जकड़ लिया एक बच्चे ने।उम्र में उसके नोनू से कुछ ही बड़ा था।शीत की इस कंपकंपाती सर्दी में जहाँ इस उम्र के संभ्रांत घरानों के बच्चे रजाइयों में दुबके ब्लोअर की गरमाहट ले रहे थे वहीं ये कमजोर सा बच्चा तन पर नाममात्र के कपड़े पहने हुए अनु की पूजा की थाली से कुछ खाने को माँग रहा था।देखकर ही प्रतीत हो रहा था उस बच्चे को कई दिनों से पेटभर कर कुछ खाने को नहीं मिला है।पूजा की थाली में रंग-बिरंगे फल ,मिठाइयाँ और लोटे में रखा दूध वो ललचाई नजरों से देख रहा था।सामने से संभ्रांत घराने की एक महिला लगभग धक्का देकर उस बच्चे को अनु से दूर करने लगी।
"अरे हट।न जात का पता न बिरादरी का।सारा दिन आने जाने वालों को तंग करता है।जाइये बहिनजी पूजा कीजिए ,भगवान को झूठा चढायेंगी क्या ? आप शायद पहली बार आयी हैं इस मंदिर में। इसका रोज का काम है पूजा करने वाले व्यक्तियों को परेशान करना।"
अनु ने सामने मन्दिर में भगवान को देखा फिर उस निरीह बालक को।पूजा की थाली से सारा प्रसाद बच्चे को दे दिया।
"आराम से खाओ बेटा।"अनु के मुख पर स्नेह के भाव उमड़ आये
"ये क्या किया आपने ? भगवान को भोग लगाये बिना पुजारी के स्थान पर इसे खाना।पाप लगेगा आपको।"वो महिला अनु से बोली
"कोई बात नहीं।ये पाप है तो ये पाप मैं रोज करने को तैयार हूँ।आप जाइये कहीं देरी से पूजा पर आपके भगवान न रूठ जाये।"अनु मुस्कुराते हुये बोली ! ****
11. स्त्रीत्व
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वह अकेली उदास अपने कमरे में बैठी एकटक बाहर निहार रही थी। परिवार के दबाब में पति ब्याह तो लाया था उसे, पर शादी की रात ही उसे छोड़ प्रेमिका के साथ रहने चला गया था।
सास ने नसीहत की पोटली उसके दामन से बाँध दी थी— ‘पति छोड़ गया तो क्या, तू ब्याहता औरत है, मर्यादा में रहना होगा।’
तब से आज तक अपनी स्त्रियोचित इच्छाओं और संवेदनाओं को मार सबकी सेवा कर रही थी। बाहर लाल फूलों से परिपूर्ण टेसू की डालियाँ जैसे एक-दूसरे के साथ आलिंगनबद्ध हो मुस्कुरा रही थीं। भँवरे कलियों पर डोल रहे थे। हवा में फूलों की मादकता बिखर रही थी। पास के कमरे से देवर-देवरानी की चुहुल की आवाजों से उसके चेहरे पर उदासी के रंग गहरा रहे थे।
देवर के मित्र एक बार फिर से सवाली बन बाहर आँगन में आ खड़े हुए थे। सासु-माँ ने गुस्से में लाल हो उन पर अपने व्यंग्य-बाण बरसाने शुरू कर दिए। उसने हिम्मत की और कमरे से बाहर निकल आई। अमित का हाथ थाम उसने घर की देहरी तक कदम बढ़ाए ही थे कि सासु-माँ की गुस्से भरी आवाज गूँजी, "रूक जा बहू! शर्म कर, किसी की ब्याहता है…?"
"किस बात की शर्म? अमित ने तो हाथ माँगा है मेरा आपसे…और किसकी ब्याहता बता रही हैं मुझे? उसकी, जो पहली रात ही अपनी प्रेमिका के साथ रहने चला गया।"
"वो पुरुष है और तू स्त्री! मर्यादा और पवित्रता का पालन करना तेरा धर्म है।" सास की रौबीली आवाज गूँजी।"
"माँ जी! एक उमीद के साथ बहुत दिनों तक कर लिया मर्यादा का पालन। अब तो मेरे लिए अपने स्त्रीत्व की रक्षा ही सब से बड़ा धर्म है। मर्यादा का पाठ अपने बेटे को पढ़ाना था।"
और वह अमित का हाथ पकड़ देहरी पार कर गई। ***
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क्रमांक - 04
जन्म : 10 जुलाई, 1964
जन्म स्थान : मैनपुरी - उत्तर प्रदेश
शिक्षा : एम. ए. (अंग्रेजी-हिन्दी) ’सत्तरोत्तरी हिन्दी कहानियों में नारी’ विषय पर पी.एच.डी
प्रकाशन : लगभग सभी छोटी, बड़ी और स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां, लघुकथाएं, कविताएं, लेख आदि प्रकाशित।
मौलिक पुस्तकें : 4 कहानी संग्रह-पथराई आंखों के सपने, साजिश, मजबूर और रिश्ते तथा 6 लघुकथा संग्रह - महावर, वचन, सुराही, दिदिया, इंतजार,100 लघुकथाओं का संग्रह तथा 64 दलित लघुकथाएं एवं कविता संग्रह - विद्रोह प्रकाशित।
सम्पादन : कविता संग्रह-वृंदा तथा कहानी संग्रह 18 कहानियां 18 कहानीकार
विशेष : -
1. विभिन्न रचनाएँ पुरष्कृत एवं आकाशवाणी से प्रसारण
2. एक हजार से अधिक लघुकथाएं 180 से अधिक कहानियां और 300 से अधिक कविताएं लिखीं।
3. उड़िया/मराठी/पंजाबी/बंगला/उर्दू/अंग्रेजी आदि में विभिन्न रचनाओं का अनुवाद प्रकाशित।
4. पुरस्कार/सम्मान : विभिन्न प्रतिष्ठित साहित्यिक संस्थाओं द्वारा अनेक सम्मान और पुरस्कार।
5. हिन्दी अकादमी दिल्ली द्वारा कहानी नरेशा की अम्मा उर्फ भजोरिया पर श्रीराम सेंटर दिल्ली में नाट्य मंचन का आयोजन
संप्रति : भारत सरकार में प्रथम श्रेणी अधिकारी
संपर्क 240, बाबा फरीदपुरी, वेस्ट पटेल नगर,नई दिल्ली-110008
प्रकाशित पुस्तकें :-
1. नर्सरी पाठ्यक्रम
2. साँझा संकलन - महानगरिए लघुकथाएँ
सम्मान : -
कलम शिरोमणि २०२०
लघुकथा भूषण सम्मान
लघुकथा श्रेष्ठ समीक्षक सम्मान
विशेष : -
फ़ेसबुक पर सुहाना सफ़र
अनु कपूर की गेम शो की मुख्य संचालिका
पता : -
333 , डॉ मुखर्जी नगर , दिल्ली 110009
विधा : -
लघुकथा, कविता, गीत, मुक्तक, दोहा, हाइकु, कहानी, संस्मरण आदि ज्यादातर सभी विधाओं में अपनी लेखनी चलाई है।
व्यवसाय: -
अध्यापिका, लेखिका कम गृहणी, महिला काव्य मंच दिल्ली की कार्यकारिणी सदस्या, समाज सेवा में संलग्न।
सांझा संकलन : -
जागो अभया, काव्यस्पंदन, समाज ज्योति, अविरल प्रवाह, समय की दस्तक, भाषा सहोदरी, आरूषि, साहित्य अर्पण, प्राज्ञ साहित्य, कोरोना काल में साहित्य आदि।
सम्मान: -
'हिंदी योद्धा' सम्मान 2020, उत्तराखंड में प्राज्ञ साहित्य सम्मान, जय विजय पत्रिका द्वारा 'सर्वश्रेष्ठ लघुकथाकार 2019' ,लघुकथा श्री, भाषा सहोदरी, 'हिन्दी साहित्य कर्नल' स्टोरी मिरर, गुरु वशिष्ठ सम्मान, जागो अभया सम्मान, नदी चैतन्य हिंद गौरव सम्मान, गीत गौरव सम्मान, मां वीणापाणि साहित्य सम्मान - 2020 ,स्वामी विवेकानन्द साहित्य सम्मान, श्रेष्ठ श्रोता सम्मान, देश में जल बचाने हेतु जागरूकता सम्मान, पृकति प्रहरी सम्मान, काव्य भूषण सम्मान, जैमिनी अकादमी हरियाणा द्वारा स्वामी विवेकानंद सम्मान 2021, भारत गौरव सम्मान 2021, टेकचंद गुलाटी स्मृति सम्मान, उत्तम चंद स्मृति सम्मान ,हिन्दी साहित्य संस्थान द्वारा भिन्न-भिन्न सम्मानों से नवाजा गया है। आदि अनेक सम्मान प्राप्त हुए हैं।
पता : -
ई-708, नरवाना अपार्टमेंट, 89 आई०पी०एक्सटैंशन,
दिल्ली -110092
लेखन विधा : लघुकथा, कहानी, आलेख, समीक्षा
प्रकाशित संग्रह :-
एक लघु संग्रह 'दिन अभी ढला नहीं' (2021,जन लघुकथा साहित्य समूह, नवीन शाहदरा दिल्ली द्वारा)
भागीदारी के स्तर पर कुछ प्रमुख संकलन :-
'बूँद बूँद सागर’ 2016,
‘अपने अपने क्षितिज’ 2017,
‘लघुकथा अनवरत सत्र 2’ 2017,
‘सपने बुनते हुये’ 2017,
‘भाषा सहोदरी लघुकथा’ 2017,
'स्त्री–पुरुषों की संबंधों की लघुकथाएं’ 2018,
‘नई सदी की धमक’ 2018,
'लघुकथा मंजूषा’ 2019,
‘समकालीन लघुकथा का सौंदर्यशस्त्र’ 2019
साहित्य क्षेत्र में पुरस्कार / सम्मान :-
पहचान समूह द्वारा आयोजित ‘अखिल भारतीय शकुन्तला कपूर स्मृति लघुकथा’ प्रतियोगिता (२०१६) में प्रथम स्थान।
हरियाणा प्रादेशिक लघुकथ मंच द्वारा आयोजित लघुकथा प्रतियोगिता (२०१७) में ‘लघुकथा स्वर्ण सम्मान’।
मातृभारती डॉट कॉम द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता (२०१८) ‘जेम्स ऑफ इंडिया’ में प्रथम विजेता।
प्रणेता साहित्य संस्थान एवं के बी एस प्रकाशन द्वारा आयोजित “श्रीमति एवं श्री खुशहाल सिंह पयाल स्मृति सम्मान” 2018 (कहानी प्रतियोगिता) और 2019 (लघुकथा प्रतियोगिता) में प्रथम विजेता।
पता :
एफ - 62 , फ्लैट नं - 8 , गली नं - 7, मंगल बाजार के पास , लक्ष्मी नगर , दिल्ली - 110092
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परिवार में सब उत्साहित थे, इस बार नवरात्रों में दुर्गा माँ की स्थापना के लिये शिवा स्वयं माँ की प्रतिमा बना रहा था। आखिरकार जब दुर्गा माँ की प्रतिमा तैयार हो गयी और अपने सधे हाथों से शिवा, प्रतिमा को ‘अन्तिम टच' देने मे लगा हुआ था तभी उसकी पत्नी उमा ने उसे 'जो' कहा उसे सुनकर ही वह काठ हो गया था। और अब, जब प्रतिमा स्थापना की पूजा के लिये उसका पुत्र उसे बुलाने आया।
"पिताजी, पूजा प्रारम्भ हो रही है और आप अभी तक तैयार. . .।"
उसकी बात बीच मेँ ही काटते हुये शिवा बोल उठा था। "बेटा, हम पति-पत्नी तो पूजा मेँ नहीं आ पायेगेँ।" बेटे सहित पुरे परिवार के प्रश्नचिन्ह बने चेहरों की ओर देखता हुआ शिवा दु:खद स्वर में अपनी बात कहता चला गया। "बेटा, पंडाल में जिस देवी की पूजा होने जा रही है, वह तो मेरी बनायी मात्र मिट्टी की प्रतिमा है। लेकिन, हमारे परिवार मेँ खुशियाँ लेकर जो जीती जागती 'देवी’ आने वाली थी, उस देवी माँ को तो 'तुम दोनो' (पुत्र और पुत्रवधू) ने पूजा से पहले ही 'विसर्जित' कर दिया है। ****
02. जवान बच्चे
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"कम्मो। जरा इधर तो आ, तूने अचानक काम पर आना कयों बंद कर दिया?" मिसेज माधवी ने बालकनी की खिड़की से ही गली में गुजरती अपनी काम वाली बाई को आवाज लगाई।
"जी मेम साहब। वो क्या है कि अब हम आप के यहाँ काम नही करेगें।" कम्मो भी गली से ही लगभग चिल्लाती हुयी बोली।
"क्यों कहीं और ज्यादा पैसें मिलने लगे या पैसों की जरूरत नहीं रही।" मिसेज माधवी की आवाज में कटाक्ष था।
इस बार कम्मो कुछ आराम से बोली। " नहीं-नहीं मेमसाहब, बस ऐसे ही। वो. . . वो. . . बच्चे जवान हो गये ना।"
मिसेज माधवी कुछ हैरान सी। "तेरे बच्चे!"
कम्मो गली में आगे जाते-जाते बोल गयी। " नहीं-नहीं मेमसाहब, बच्चे आपके जवान हो गये हैं न।"
मिसेज माधवी की खिड़की खटाक से बंद हो चुकी थी। ***
03. श्राद्ध
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कार शहर को पीछे छोड़ अब बाहरी रास्ते पर दौड़ रही थी। सुबह बेटे से हुयी बहस के बाद उनकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि उससे पूछे कि वह उन्हें कहाँ लेकर जा रहा है। सुबह की बातें एक बार फिर उनके कानों में गूँजने लगी थी।
. . . . "ओह बाऊजी, आप समझ क्यों नहीं रहें हैं? ये फ़ॉरेन है, यहाँ श्राद्ध जैसे ढकोसले करने का लोगों के पास समय नहीं है।" बेटा झुँझलाहट में था।
"लेकिन बेटा अपने पितरों की मुक्ति के लिए यह जरूरी है।"
"आप भी वर्षों से कैसे आडंबरों को ढोए चले जा रहे हैं बाऊजी। अब यहाँ के लोग यह सब नहीं करते तो क्या उनके पूर्वजों की मुक्ति नहीं होती।"
"पर बेटा, यह सब हमारी आस्था और परंपरा...!"
“बस बाऊजी!" बेटे ने उनकी बात बीच में ही काट दी थी। "रहने दीजिए, सुबह-सुबह ये बहस। मुझे और भी कई जरूरी काम हैं।" . . . .
"बाऊजी, बाहर आईए।" कार एक ऊँची आलीशान इमारत के बाहर खड़ी थी और बेटा उन्हें बाहर बुला रहा था।
"वृद्धाश्रम!" बेटे-बहू से जुड़े जीवन के सारे लम्हे एक क्षण में उनकी आँखों के सामने से गुजर गए। सुबह हुयी बहस के बाद बहू का बेटे को अंदर बुलाकर बहुत कुछ समझाने का रहस्य अब उनकी समझ में आ गया था, उनकी आँखें नम होने लगी थी।
"लगता है, आप अभी तक नाराज हैं।" बेटा कह रहा था और वे विचारमग्न थे।
"बाऊजी! इस इमारत की ओर देखिये जरा। यह 'पैराळाइसिस होम' है, और इस बार हम अपने पूर्वजों का श्राद्ध यहाँ रहने वाले लाचार लोगों की सेवा करके मनाएंगे। बाऊजी, आपकी बहू का कहना है कि जरूरतमंदों और बीमारों की सेवा करना भी तो एक तरह का धर्म और पुण्य. . . .।" बेटा अपनी बात कहे जा रहा था और उनकी नम आँखों में कुछ देर पहले अपनी बहू को गलत
समझ बैठने के प्रायच्छित-स्वरूप कुछ आँसू आशीर्वाद के ढलक आये थे। ****
04. नफ़रत
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वह नाराज हो जाती थी अगर मित्रों में से कोई उसे दो बातों के लिये टोकता था। एक; स्वयं को दर्पण मेँ निहारना और दूसरा 'रसायन’ (केमेस्ट्री) के विषय को पढ़ना। लेकिन अब नहीं!. . .
अब तो वह नफरत करती है।. . . . 'दर्पण' से, 'रसायन' से, और उन्हीं मित्रों में से एक मित्र से भी। ****
05. जवाब
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वह ‘वरिष्ठ नागरिक सीट’ पर बैठी हेडफोन लगाए अपने आप में मस्त थी, जब मैंने मेट्रो में प्रवेश किया। बहुत सुंदर तो नहीं कह सकता था, पर भारतीय परिवेश की दृष्टि से बेहतर ही थी। पहनावा भी सभ्य और आकर्षक था। लेकिन एक बात, जो मैं नहीं समझ पाया था, वह थी उसके सिर्फ एक पैर में ‘पायल’ का होना। उसके दूसरे सूने पैर का कारण जानने की कोशिश तो मैं नहीं कर सकता था, लिहाजा कोच में एक तरफ खड़ा होकर मैं भी अपने मोबाइल में मस्त हो गया। मेट्रो में भीड़ कम ही थी। साकेत से एक पचपन-छप्पन वर्षीय सज्जन चढ़े और सीधे उस सीट की ओर पहुँचकर उसे सीट छोड़ने को कहने लगे।
लड़की विनम्र भाव से बोली, ‘‘अंकल! बस ‘एम्स’ पर उतर जाऊँगी।’’
सज्जन कुछ उपदेश देने की मुद्रा में थे शायद। ‘‘ठीक है, पर इस उम्र में तो तुम खड़ी होकर भी यात्रा कर सकती हो।’’
‘‘यह लेडिज कोच में भी तो जा सकती थी।’’ पीछे से एक आवाज आई।
‘‘जानबूझकर आती हैं ये और फिर सीट भी नहीं छोड़ती।’’ एक और शख्स की आवाज थी यह।
न जानें क्यों मैं चुप न रह सका। ‘‘भाई आपके भी तो बेटी होगी, ऐसी ही. . . .!’’
‘‘नहीं अंकल! ईश्वर न करे इनकी बेटी मेरे जैसी हो।’’ उस लड़की ने मेरी बात काट दी।
एम्स आ चुका था। वह कुछ सँभलते हुई उठी और धीरे-धीरे कदम बढ़ाती हुई कोच से बाहर चली गई। चलते समय मेट्रो के फर्श पर लगभग घिसटता हुआ उसका कृत्रिम पैर हम सबकी बातों का सही जवाब दे गया था। ****
06. विसर्जन
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"गणपति भप्पा मौर्या... अगले बरस तू जल्दी आ....।"
हर प्रतिमा विसर्जन के साथ कई आवाजें उठती और इन्हीं आवाजों के साथ उसके चेहरे पर कभी बच्चों जैसी खुशी झलकने लगती तो कभी चेहरा गंभीरता का आवरण ओढ़, वह न जाने क्या सोचने लगता?
धुंधली शाम अब रात में ढलने लगी थी लेकिन उसे अभी तक वहीं टहलते देख 'नाव वाले' से रहा नहीं गया। "विसर्जन तो कब का हो गया बाबा? रात हो गयी है, अब घर जाओ।"
"घर. . .! कौन से घर?" बुजुर्ग ने एक गहरी सांस ली और ग॔गाजी की लहरों को देख, बुदबुदाने लगा। "विसर्जन तो मेरा भी हो गया है। बस, मैं ही गंगाजी में उतरने की हिम्मत नहीं कर पाया अभी तक। ****
07. रिश्तों की भाषा
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"नहीं समीर, इतना आसान कहां होता है सब कुछ भूल पाना।" वर्षो पहले एक रात अचानक उसे छोड़ कर चले जाने वाला पति आज फिर सामने खड़ा सब भूलने की बात कर रहा था।
"तान्या! मैं मानता हूँ कि मैं तुम्हारे प्रेम को नकारकर 'उसके' साथ चला गया था लेकिन अब मेरा उससे अलगाव हो चुका है और मैं हमेशा के लिए तुम्हारे पास लौट आना चाहता हूँ।" उसकी आवाज और आँखें दोनों में अधिकार भरी याचना नज़र आ रही थी।
"आज तुम लौटना चाहते हो लेकिन उस समय तुमने एक बार भी नहीं सोचा कि मेरा क्या होगा? अगर मेरे मित्र ने साथ नहीं दिया होता तो मैं ऐसे समय में जीवन का सामना कभी नहीं कर पाती।"
"तान्या! अब तुम्हे उसका अहसान लेने की कोई जरूरत नहीं, हम फिर एक साथ रह सकते हैं।" उसने आगे बढ़कर तान्या के हाथ थाम लिए।
"समीर! मैं तुमसे कुछ कहना चाहती हूँ।" जाने क्यों उसे समीर के हाथों में पति-प्रेम की अपेक्षा एक पुरुष-प्रेम का अहसास अधिक लगा। "तुम्हारे पीछे मुझे कुछ समय अपने मित्र के साथ भी रहना पड़ा और. . . ." समीर का चेहरे पढ़ते हुए तान्या ने सवालियां नजरे उस पर टिका दी। ". . . हमारे बीच इसे लेकर कभी कोई दुविधा नहीं होगी !"
"तान्या! तुम कैसे भूल गयी कि तुम एक 'ब्याहता' थी!" बदलते भावो के साथ उसकी आवाज भी तल्ख़ होने लगी। ".......ये मेरी ही गलती थी जो मैं लौट कर चला आया।" और उसकी प्रतिक्रिया जाने बिना बात पूरी करते करते वह मुँह फेर चुका था।
वह खामोश खड़ी उसे दूर तक जाते देखती रही, देखती रही। दिल बार-बार कह रहा था। "तान्या, उसे बताओ कि तुम सदा उसकी ही रही हो।" लेकिन जहन दिल को नकार एक ही बात कह रहा था। "जिस्म की देहरी पर खत्म होने वाले संबंध निस्वार्थ रिश्तों की भाषा नहीं पढ़ पाते।" ****
08. मोह-जाल
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सुबह से ही कशमकश में था बिप्ति। आखिरकार उसने 'अखबार' को होटल के फर्श पर फेंक दिया और मन में बढ़ते तनाव से मुक्त होने के लिए कमरे की खिड़की को खोल दिया। एक ठंडी हवा के झोंके के साथ कुछ दूर पर हो रहे कोलाहल के बीच नदी पर फैले अपार जनसमूह ने उसके मन को थोडा शांत किया।
"क्या देख रहे हो साहबजी?" होटल के वेटर बन्नू ने कमरे में घुसते हुए उसका ध्यान आकर्षित किया। "छठी मैया का उत्सव है, बहुत धूम धाम से मनाया जाता है इस नदी पर।"
"अच्छा! सुना तो बहुत है इसके बारें में।"
"हाँ साहब, यह लोक आस्था और सूर्योपासना का पर्व है जिसे चार दिन तक मनाया जाना जाता है।" बन्नू अपना ज्ञान बांचने लगा। "यूँ तो इसे स्त्री-पुरुष सभी करते है लेकिन स्त्रियां विशेष तौर पर इसे पुत्र की प्राप्ति या पुत्र की कुशलता के लिए रखती है। इसमें व्रती सुबह स्नान कर सूर्य को जल अर्पित करने के बाद शुद्ध भोजन का प्रसाद ग्रहण करती है और उसके बाद 36 घंटे का निर्जला व्रत जिसमें पानी भी नहीं पीते, रखती हैं। और साहब जी अपने पुत्र की कुशलता के लिए ये माताएं इतना कठोर व्रत......।" बन्नू अपनी बात कहता जा रहा था और बिप्ति एक बार फिर से अपने तनाव में घिरने लगा था लेकिन इस बार उसका मन एक निर्णय पर पहुँचने लगा था।
"बन्नू एक काम करो, मैनेजर से कहो मेरा 'चेक-आउट' कर के बिल तैयार करे। मुझे जल्दी लौटना है।" कहते हुए बिप्ति, बन्नू की कथा बीच में ही छोड़ अपना सामान समेटने लगा।
चलते-चलते उसने फर्श पर पड़े अखबार को उठा दिल से लगा लिया जिस पर उसके नाम के साथ उसके पिता का संदेश छपा था। "बेटा ! मेरे लिए न सही अपनी माँ के लिए नाराजगी छोड़ कर घर लौट आओ जो पिछले तीन दिन से भोजन, बिछौना सब छोड़, तुम्हे देखने के लिये निर्जला व्रत रखे हुए है।" ****
09. आदर्श एक जुनून
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"मैं मानती हूँ डॉक्टर, कि ये उन पत्थरबाजों के परिवार का ही हिस्सा है जिनका शिकार हमारे फ़ौजी आये दिन होते हैं लेकिन सिर्फ इसी वज़ह से इन्हें अपने 'पढ़ाई-कढ़ाई सेंटर' में न रखना, क्या इनके साथ ज्यादती नहीं होगी?" हजारों मील दूर से 'घाटी' में आकर अशिक्षित और आर्थिक रूप से कमजोर औरतों के लिये 'हेल्प सेंटर' चलाने वाली समायरा, 'आर्मी डॉक्टर' की बात पर अपनी असहमति जता रही थी।
"ये तुम्हारा फ़ालतू का आदर्शवाद है समायरा, और कुछ नहीं।" डॉक्टर मुस्कराने लगा। "तुमने शायद देखा नहीं है पत्थरबाजों की चोट से ज़ख़्मी जवानों और उनके दर्द को, अगर देखा होता तो. . .!"
"हाँ, नहीं देखा मैंने!" समायरा ने उनकी बात बीच में काट दी। "क्योंकि देखना सिर्फ आक्रोश पैदा करता है, बदले की भावना भरता है मन में।"
"तो तुम्हें क्या लगता है कि हमारे फ़ौजी जख्मी होते रहे और हम माफ़ी देकर उनका दुस्साहस बढ़ाते रहे।"
"नहीं, मैं भी चाहती हूँ कि उन्हें सख्त सजा मिले ताकि वे आइंदा ऐसा करने की हिम्मत न करें। लेकिन ये सब तो क़ानून के दायरे की बातें हैं और मैं नहीं समझती कि इस सजा में उनके परिवार को भागीदार बना देना उचित है डॉक्टर।" समायरा की नजरों में एक चमक उभरी आई।
"यानि कि आप दुश्मनों का साथ देना चाहती हैं!" डॉक्टर की बात में एक व्यंग झलक आया।
"डॉक्टर, हमारे दुश्मन ये भटके हुए लोग या इनके परिवार वाले नहीं हैं। हमारी दुश्मन तो सदियों से इनके विचारों में पैठ बनाये बैठी नफरत और निरक्षरता की अँधेरी रातें हैं, हमें इसी रात को सुबह में बदलना है।" वह गंभीर हो गयी।
"तो इस फ़ालतू आदर्शवाद को अपना जुनून मानती हैं आप!" डॉक्टर के चेहरे की व्यंग्यात्मक मुस्कान गहरी हो गयी।
"नहीं! ये फ़ालतू आदर्शवाद नहीं, जीवन का सच है जो हर युग में और भी अधिक प्रखर हो कर सामने आता है।"
"अच्छा! और कौन था वह जिसने ये आदर्श दिया तुम्हे।" सहसा डॉक्टर खिलखिला उठा।
"एक फ़ौजी था डॉक्टर साहब!" अनायास ही समायरा भावुक हो गयी। "जिसने अपनी मोहब्बत भरी अंगूठी तो मुझे पहना दी थी लेकिन ऐसे ही कुछ पत्थरबाजों के कारण अपनी क़समों का सिन्दूर मेरी मांग में भरने कभी नहीँ लौट सका था।"
डॉक्टर की मुस्कराहट चुप्पी में बदल गयी लेकिन समायरा की आँखें अभी भी चमक रही थी। *****
10. एक और एक ग्यारह
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"नहीं समीर नहीं। ये नहीं हो सकता, तुम इस बात को यहीं खत्म कर दो।" तनु के जवाब ने उसको थोड़ा निराश कर दिया।
बहुत अधिक समय नहीं हुआ था उनकी पहचान को। लगभग वर्ष भर पहले ही वह दोनों एक विशेष भर्ती अभियान के तहत एक निजि संस्थान में भर्ती हुए थे। जहां समीर का एक बाजू और एक पांव से लगभग लाचार होना और तनु का आकर्षक होते हुये भी 'मर्दाना' लक्षणों के कारण सहज ही बाकी स्टाफ से अलग-थलग सा हो जाना, उनकी नियति बन गयी थी। ऐसे में कब वे एक दूसरे के करीब आ गए, पता ही नहीं लगा था। लेकिन आज विवाह के प्रश्न पर तनु के इंकार ने समीर को उसकी शारीरिक अक्षमता का तीव्रता से अहसास दिला दिया।
"सॉरी तनु! मुझे लगा कि हमारा रिश्ता विवाह-बंधन में बदल सकता है, लेकिन मैं भूल गया था कि एक अधूरे इंसान को तुम्हारे जैसी योग्य और अच्छी लड़की के बारें में नहीं सोचना चाहिए।" उसकी आँखें नम हो गई।
"ऐसा मत कहो समीर, ख़ुद को अधूरा कह कर अपना मूल्य कम मत करो। अधूरापन तो मेरे जीवन में है, जो न पूर्ण रूप से स्त्री बन सकी और न पुरुष। ऐसा लगता है, जैसे गीली लकड़ी बन कर जी रहीं हूँ जो न जल पा रही है और न बुझ पा रही है।" अपनी बात कहती हुई तनु उठ खड़ी हुई। "समीर, एक 'किन्नर' ही तो हूँ मैं! एक मित्र तो बन सकती हूँ पर किसी की पत्नी नहीं।"
"नहीं तनु।" समीर ने उठ कर जाती तनु का हाथ पकड़ लिया। "तुम एक अच्छी मित्र ही नहीं पत्नी भी बन सकती हो, क्योंकि ये जरूरी तो नहीं कि हमारा संबंध केवल दैहिक रिश्तों पर ही आधारित हो।"
"और ये समाज...!"
"हां तनु। ये समाज हमारी 'फिजिकली डिसमिल्रिटीज' (प्राकृतिक विषमताओं) पर प्रश्न उठाता रहा है, तो ज़ाहिर है कि हमारे संबंधों को भी आसानी से स्वीकार नहीं करेगा।"
"हाँ समीर, और बात इतनी भी नहीं है। एक विवाह का अर्थ शारीरिक जरूरतों के साथ वंश वृद्धि से भी जुलड़ा होता है, क्या तुम इसे स्वीकार. . .?"
"बस और कुछ मत कहो तनु।" समीर ने उसकी बात काट दी थी। "मैं तुम्हारे हर प्रश्न का उत्तर बनने के लिए तैयार हूं, यदि तुम मेरा साथ दे सको। रही बात समाज की, तो जब हम अकेले समाज से संघर्ष करके यहाँ तक पहुंच सकते हैं तो क्या दोनों मिलकर समाज के हर प्रश्न का उत्तर नहीं बन सकते?" उसकी आँखों में झलकते विश्वास को देख, अनायास ही तनु मुस्करा उठी और उसने आगे बढ़ समीर का हाथ थाम लिया। ****
11. अपोस्ट्टाइज एक पहचान
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"कहीं ये सब सपना तो नहीं!" ढलती शाम के साये में आँखें बंद किये वह स्वयं से ही बुदबुदा रहा था। "एक ही दिन में इतना पैसा, कच्ची छत की जगह पक्की छत का मकान और सुंदर कपड़ो सहित कई उपहार। ये सब तो शायद वर्षों तक नहीं बना पाता मैं।"
"हाँ नहीं बना सकता था तू लेकिन..." अचानक ही उसके अंतर्मन से आवाज आई। "इतना सब पाने के लिये जो तूने अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया, उसका क्या?"
"नहीं, मैंने कुछ गलत नहीं किया। मेरे लिए सबसे बढ़कर है मेरा परिवार, जिसके लिये मैं सब कुछ कर सकता हूँ।"
"क्या मेरा त्याग भी. . .?" सहसा कहीं से एक स्वर गूंजा।
"हाँ...हाँ...।" वह चिल्ला उठा। अनायास ही तीव्र प्रकाश से उसकी आँखें खुल गई और साक्षात् ईश्वर को सामने अनुभव कर उसका सर्वांग कांप गया। सर्वशक्तिमान की अवधारणा भय बनकर उसके मन-मस्तिष्क पर इस कदर छाई कि वह डर से काँपने लगा। "क्षमा प्रभु, क्षमा. . . मेरे अपराध के लिये मुझे क्षमा करना प्रभु! मैं अपने दुःखों से हार गया था बस इसलिए अपनी पहचान भी. . .।"
"नहीं पुत्र तुमने कोई अपराध नहीं किया है।" सामने खड़े प्रभु मुस्करा रहे थे। "तुमने मेरा त्याग कब किया पुत्र? तुमने तो केवल मेरे कुछ चिन्हों और प्रतीकों का अपने जीवन में स्थान परिवर्तन कर लिया है। पुत्र, मुझे पाने के लिए तो इन सब की आवश्यकता ही नहीं है। मैं तो सदा ही तुम्हारे अंदर हूँ, इसलिए मुझे पाने के लिए तो केवल तुम्हें स्वयं को ही पाना है पुत्र।"
दूर कहीं सूरज बादलों में ढलने लगा था लेकिन उसके भीतर एक नया सूरज उदय होने लगा था। "हाँ, मैं तो वस्तुतः एक मनुष्य हूँ, मुझे और किसी पहचान की आवश्यकता ही कहाँ है?" कहते हुये वह अनायास ही अपनी बाहरी पहचान के चिन्हों से मुक्त होने लगा था। ****
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क्रमांक - 10
जन्मतिथी -27 फरवरी 1965
जन्म स्थान :जानसठ (मुजफ्फर नगर ) उत्तर प्रदेश
माता : प्रतिभा रानी
पिता : धर्मेंद्र मोहन गुप्ता
शिक्षा : एम.ए. इक्नोमिकस,इतिहास
साझा संकलन : -
अन्तरा शब्द शक्ति ,
अन्तरा शब्द शक्ति होली रंगारंग
रत्नावली
स्वच्छ भारत
चमकते कलमकार
विशेष : -
अनेक राष्ट्रीय समाचार पत्रों व अनेक ई - पत्रिकाओं मे लघुकथा प्रकाशित ।
जैमिनी अकादमी से अनेक डिजीटल सम्मान और अनेक ई - पुस्तको मे प्रकाशित।
Address:-
Pankaj Consul, S-469/10,
4th floor, School Block, Shakarpur, Delhi-110092.
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महिला सशक्तिकरण पर बोल रही नेता ने आखिर में कहा...
"बहनो मैं आप सबसे यही कहना चाहती हूँ ......।
कि बहू को भी बेटी ही समझ कर प्यार और सम्मान देना होगा"!
हम सबको ये पहल अपने घर से ही करनी होगी, यह महिला सशक्तिकरण की पहली सीढी है "।
सभा में आयी बहुत समय बाद मिली सखी कमला ने सविता से पूछा
"सविता जब से तुम्हारे बेटे की शादी हुई है तुमने मिलना ही छोड़ दिया है।
नयी बहू कैसी है ? अब तो समय ही समय है तुम्हारे पास! सब काम बहू ही करती होगी "।
क्या बताऊँ बहू क्या आयी है किसी रानी से कम नही समझती है अपने को, दिन चढे सोकर उठती है। काम क्या खाक करेगी
सुबह की चाय भी बेटा ही बिस्तर पर बना कर देता है !
मन किया तो काम करती है "।
"ओहो तुम्हारी तो किस्मत ही खराब है "।
बात सुनकर कमला बोली
"अच्छा अब तुम बताओ तुम्हारी बेटी तो मजे मे है ससुराल में"।
सविता ने कमला की बेटी के लिए पूछा ।
"सविता क्या बताऊँ मेरी राजकुमारी की तरह पली बेटी को तो राजमहल ही मिल गया है ।देखो सुबह दिन चढे तक सोकर उठती है!
दामाद इतना अच्छा मिला है कि सुबह उसके लिए चाय बनाता है ।
घर का काम मन करता है तो करती है। सब काम सास ही कर लेती है "।
"ओहो तुम तो किस्मत वाली हो जो बेटी को इतना अच्छा ससुराल मिला "।
बात सुनकर सविता ने कमला से कहा। ****
2.कुर्बानी
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"भारत माता की जय "
एक महीना हो गया आज ही के दिन वह तिरंगेमे लिपट कर आ, हम सब की जिन्दगी मे ना खत्म होने वाला आँखो मे आसुओं का सैलाब दे गया ।
उसके वापस आये सामान मे उस की हाथ की लिखी चिट्ठी भी थी ।
जिस को उसने लगभग देश पर कुर्बान होने के दो दिन पहले ही लिखी थी।उसने लिखा था ..माँ सादर प्रणाम,
"घर की याद आती है ।दुश्मन के कितनी ही चौकियाँ उड़ा जब आगे बढेंतो ,दुश्मन नें हमे चारो ओर से घेर लिया है। जब तक साँस रहेगी मातृभूमि की रक्षा के लिए डटे हैं ।शायद अब मातृभूमि का कर्ज निभाने का" ..।
हर जन्म मे मैं तुम्हारा ही बेटा बन जन्म लूँ ,जिसने मुझे बचपन से ही देश भक्ति की सीख दी । हर जन्म मेंआप ही मेरी माँ बनो ।नविता बहुत मन की कच्ची है मै नही आ पाया तो ना जाने मेरे जाने के बाद क्या कर बैठे"? उसकी कोख मे पल रहे मेरे अंश को भी, आप देश पर मर मिटनें का पाठ पढाना ।मैं तो मां ,घर के प्रति फर्ज नही निभा पाऊगा ।बापू अब कैसे है? ,बिस्तर से उठ पाते है या नही "।
अब आपको ही उस घर को सम्भालना होगा ।चाहे खेतों मे हल जोतना हो या घर के कार्य हों आपने हमेशा ,सभी चुनौतियों को बखुबी निभाया है। शायद ये पत्र पहुचने से पहले ....
पत्र पढ कर उसे लगा वह अब कभी उठ नही पाएगी...उस का दिल बैठने लगा । दूर रेडीयो पर बजते गाने की आवाज उसके कानो मे पड़ी. ।
"तुझको चलना होगा ....
जीवन कभी भी ठहरता नही है ।
आधी से तूफा से डरता नही है पार हुआ जो चला सफर मे .....
गाने के बोल सुन ,वो बुदबुदायी हा गर्वहै "मुझे बेटे तुम पर "... जिसने देश के लिए जान दी.........।हर जन्म मे तुम ही मेरे बेटे बनो .....।
उठी और रसोई की तरफ बढ चली । ****
3.फूलवारी
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दरवाज़ा खोलते ही ठंडी बारिश की कुछ बूँदें उसके मुँह पर गिरी ! गर्मी में पानी पड़ने पर ठंडक से मौसम बहुत ही ख़ुशगवार हो गया था। बालकनी में लगे सभी पौधे पानी की बूँदों से नहाकर नयी ताजगी से भर उठे थे।
लीली के पौधे पर रात भर बारिश की बूँदें पडनेे से उसमें प्राण भर गएे थे और पूरा गमला गुलाबी फूलों से भर गया था। गुलाबी फूल ठंडी हवा में झूम रहे थे जैसे ख़ुशी से हँस रहे हो। उनको देख उसका मुस्कुराता चेहरा उसके सामने आ गया था जैसे कह रहा हो "देखो माँ इस पर इस बार कितने फूल खिले है"। उसे याद आया! जब वह लीली के नन्हे पौधे को घर लाया था। चहकते हुए उसने कहा था। "माँ आप कहती थी ना पेड़, पौधों में प्राण होते है इनको नहीं तोड़ना चाहिएँ ,आज स्कूल में भी हमारी मैडम ने बताया !"पेड़ हमे आक्सीजन देते है और हमारे जीवन के रक्षक है"। "हाबेटा मैंम ने ठीक बताया ये हमें फल, फूल और अनेक उपयोगी चीज़ें देते है! "हम मानव स्वार्थी है जो उनको काट देते है !
पर्यावरण की सुरक्षा के लिए इन का होना बहुत ज़रूरी है"। उसने प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा था
जैसे उन से उसकी दोस्ती हो चली थी! अपने जेब ख़र्च से पैसे बचाकर पौधे ले आता था, बालकनी अनेक पौधों से भर गयी। पढ़ाई से समय मिलने पर उन में उसके संग पानी देता और उनके पत्तों और फूलों को ध्यान से देखता। पहली बार जब लीली पर फूल आये तो कितना चहक रहा था आज भी उसे याद है उसका वो चहकता और हँसता चेहरा !
"अरे पानी में क्यों भीग रही हो "?
"आज चाय नहीं मिलेगी क्या"?
तभी सुरेश ने आवाज़ दी।
"देखो सुरेश उसका मुस्कुराता चेहरा, इन पौधों में से कैसे झाँक रहा है !
"वो इनके साथ कैसे हँस रहा है, ये सच है कि उसने देश के लिए जान दे दी! पर वो आज भी इनके रूप में हमारे साथ है "।भरी आँखों से उस के मुँह से सिसकियाँ निकल पड़ी ।
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4. पानी
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"चाय बन गयी हैं आ जाओ पी?!! लो"
रंजना ने चाय के प्याले मेज पर रखते हुए कहा ।
"रंजना देखो बारिश की बूँदों से आज मौसम कितना सुहाना हो गया है । आज इतवार की छुट्टी है हम दोनों को ऑफिस तो जाना नही है ।
हम चाय टेरेस पर चल कर पीते है ।तुम को तो बहुत अच्छा लगता है ना रिमझिम फूहारें मे बैठ कर चाय पीना" !
रमेश ने चाय का प्याला उठा कर चलते हुए कहा ।
"अरे बहुत काम करने है, मीना चार दिन से काम पर नही आ रही है ।सारा घर गन्दा हो रहा है , कपड़ों को भी धोना है, ऑफिस भी जाना है और बच्चोंको पढाने का समय ही नही मिला ।आज घर के सब काम करने हैं "।
रंजना ने एक ठंडी सांस भरते हुए कहा ।
चलो देखो परेशान मत हो !आज हम दोनों मिलकर करेंगे सब काम !कभी तो सहज रूप से समय बिताना चाहिए ।कितना समय हो गया है साथ बैठे"!
तभी घन्टी बजती है ।
"अरे अब कौन आ गया "?
"तुम मीना! आज इतनी सुबह ,रोज़ तुमको कहते -कहते थक गयी थी ,हमेशा लेट आती हो............
मै रोज ऑफिस को लेट हो जाती हूँ ।चार दिन की छुट्टी भी कर ली बिना बताये ,फोन भी तुम्हारा स्विचऑफ आ रहा है "।"
ये माथे पर कैसी पट्टी बँधी है तुम्हारे" ?
" भाभी आप को बताया तो था !
कि हमारी बस्ती मे पानी एक समय आता है वो भी टैंकर से ,और पानी के लिए बस एक सरकारी नल है जिससे हम सब पानी भरते थे ।उसी मे लाईन लगती है रोज सुबह उठकर नम्बर से पानी भरने मे कभी देर भी हो जाती है "।
"वो तो ठीक है पर अब ये चार दिन से बिना बतायें नही आरही हो "।
भाभी अब तक तो किसी तरह काम चल रहा था ! पर अब टैंकर आना बन्द हो गया है ।तो और भी परेशानी बढ गयी है ,और सब नल से ही पानी लेने लगें हैं ।
ये वही बात हो गयी भाभी कि "एक अनार सौ बीमार "
रोज सभी अपने बड़े -बड़े बर्तन लेकर नल पर लाईन लगा लेते है ।
और दूसरे का नम्बर बहुत देर बाद आता हैं । जब नम्बर आता हैं तो पानी आना बन्द हो जाता हैं ।
खाना तक बनाने को पानी नही था उस दिन ...
ऐसा चार दिन पहले भी हुआ ।मेरी बेटी लाईन मे लगी थी मैने खाना बनानें के लिए पानी मँगाया था उससे ।
समय ज्यादा लगता देख ,क्योंकि उस को स्कूल भी जाना था ।
जिन का नम्बर था बस थोड़ा पानी पहले लेने को कहा तो उस को बहुत बुरी तरह से झिड़क दिया ,तब मेरे आदमी ने कहा हमें थोड़ा पानी भर लेने दो काम पर जाना है ।
बस उसी बात पर तू तू मैं मैं उन के साथ हो गयी फिर उन लोगो नें मेरे आदमी को इतना पीटा की अब वो अस्पताल में हैं. उनको छुड़ाने में मुझे और मेरी बेटी को चोट आयी है। अभी वही से आ रही हूँ आप को बताने कि मै कुछ दिन नही आ पाऊँगी !"
उसी लड़ाई में जेब से गिरकर फोन भी टूट गया हैं" ।
आप सही कहती थी भाभी !कि बर्तन साफ करने में और सफाई में पानी व्यर्थ ना कर !ए.सी से निकला पानी सफाई करने में लेलो "!
पौचे से बचा पानी पेड़ पौधों मे डाल दिया कर !
पानी पीनें को नही हैं ,लोगों के पास और तुम उस को व्यर्थ गवाँती हो ।
मैं हमेशा इस बात की उपयोगिता जाने बिना आपकी इस बात को हँसी मे टालती थी और पानी को खुला छोड़ती थी ।
मीना सच कहा तुम ने "एक अनार सौ बीमार " बढती जनसंख्या और
पानी की बढती कमी को अगर हम समय रहते नही समझ पाये कि पानी ही जीवन है .........उसे हमे समझ कर व्यर्थ बहाने से बचाना होगा ।सभ्यता नष्ट भी हो सकती है ।
नही तो आगे आने वाले समय में
ये मुमकिन है ,कि पानी को लेकर ही विश्व युद्ध हो ....।
और जिसके पास पानी है वही राजा होगा ..............। ****
5. जिज्ञासा
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शर्मा जी, देखियें ये उदय के दादा जी आये है।
ये बता रहे है कि हिन्दी के अध्यापक बहुत डाँटतें है, और कुछ पूछनें पर चिल्लाकर सजा भी दे देते है। कल सारा दिन उदय को बेंच पर खड़ा रखा, उदय की तबियत भी खराब हो गयी थी।
प्रिंसिपल साहब ने कहा कि उदय बहुत ही
असहनीय है, पाठ पढनें से पहले ही प्रशन पूछनें लगता है।" ये क्या है"? "कैसे होता है"?
"क्यों होता है" ?
"अपनें आप तो पढता ही नही और दूसरें बच्चों को भी पढनें नही देता ....
इसी कारण उसको सजा दी थी"।
"शर्मा जी, ये बात ठीक नही! बच्चों का बाल सुलभ मन जिज्ञासा से भरा होता है
और बच्चों में जिज्ञासा ही उनका आगे का मार्ग प्रशस्त करती है।
क्या एक गुरु होनें के नाते आप बालक नचिकेता की कहानी नही जानते ?
अपनें पिता के क्रोधित होनें पर, यमराज के पास जाकर और
जिज्ञासा के कारण यमराज से प्रशन पूछकर, नचिकेता जन्म और मृत्यु के रहस्य के बारे में जान गये थे। ****
6. खुशी के रंग
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"जरा सोचो मेघना !
अपनी नाजो से पली चिरैया..... जिसे हमने सब सुख सुविधाओं के साथ पाला ,अभी आगे भी तो पढना चाहती है ....."।
इतने बड़े संयुक्त परिवार मे रह पाएगी......"।
"वो भी बड़ी बहू ...... सोचा है ।कितनी जिम्मेदारी निभानी पड़ेगी.....ना कर पायी तो ...।
"चिरैया से भी पूछो ...."।
"क्यों नही निभा पाएगी "?
"इतना अच्छा परिवार ,इतना पढा लिखा संस्कारी लड़का ,इतना बड़ा कारोबार , रूपया पैसा सब ही तो है ।और उसे पढाने को वो राजी है ।अपनी शिक्षा आगे ले सकती है"।
"रही जिम्मेदारी तो प्यार और अपनत्व से वो भी उठा लेगी मेरी बेटी ....।
"संयुक्त परिवार मे सब का साथ और प्यार भी मिलता है । जिम्मेदारी ही होती है ऐसी सोच ठीक नही "।
बिटिया तुम्हारी कभी हां
और कभी ना सुन कर
दुविधा मे थी मै ....
कही मै गलत तो नही कर रही" । दिल को मजबूत कर ये कड़ा फैसला ले लिया था।
ये सोचकर ,#कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नही मिलता ।
लेकिन आज जब देखती हूँ ।"प्यार, अपनत्व से
उन को अपनाया तुमने ....
जिम्मेदारी निभाते अपने पति के साथ सास ,नन्द पूरे परिवार से भरपूर प्यार ,आदर पाते मन बावरा खुशी से झुमने लगता है" ।
"खुश रहो ......मेरी चिरैया" । ****
7. अपशगुन
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"बहू कुत्तों का रोना अच्छा नहीं होता .....आज भी देखो कितने कुत्ते रो रहें है "।
जब से ये कोरोना का शोर मचा है, कोई भी घर से बाहर नही निकलता। कुत्तों का रोना अपशगुन माना जाता है, कितना खराब समय है चारों तरफ बस हर व्यक्ति डरा हुआ है। कोरोना के चलते .....
ना कही जा सकतें हैं, ना कामवाली बाई को बुला सकते हैं । बच्चें पहलें ही घर से बाहर खेलनें नही जाते थे, अब तो स्कूल भी जाना बन्द हो गया है।
"जी, माँजी !
ये बेचारे भूखे हैं.......।
सब लोग बाहर निकलनें से डरतें है, कोई भी इनको रोटी नही डालता है। सुना है पक्षी भी काफी भूख से मर रहे हैं।
कोरोना के कारण लोगों ने अपनें आप को घर मे कैद कर लिया है, तभी से ही पिछले दस दिन से सास की यही बातें बहू सुनती आ रही है।
आज उसने अपनी सभी पडो़सन सखियों को मैसेज किया ।
सभी पडो़सन सखियों ने आज से रोज दो रोटियाँ अपनें भोजन में ज्यादा बनानें कि सहमति दे दी है।
सभी अपने काम से निमटकर नियत समय पर अपनी घर की देहरी पर खड़े होकर कर कुत्तों को रोटियाँ खिला रही थी।
उस दिन से कुत्तों के रोने की आवाज कभी नहीं आयी । ***
8. आरती का थाल
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"लो कविता तुम आरती उतारो '!
आरती का थाल रेणु से ले भाभी ने कविता को थमा दिया ।
रेणु रूआसी सी हो अपने मनोभाव को चुपचाप छिपा गयी।
शादी मे सब रस्मे निभायी जा रही थी । रेणु भी बहुत उमंग के साथ आगे बढ सब नेकचार करने को उतावली हो जैसे ही आगे आती
भाभी किसी ना किसी अंदाज़ मे
उसे पीछे कर उसे अनदेखा कर अपने मयके वालो से सब रस्मे करा रही थी ।
आरती का थाल यूहं अपने हाथ से लेते देख एकबारगी को तो उसे लगा था वह रो ही पड़ेगी ।
उस को रह रह कर याद आ रहा था ।जब भतीजे की शादी के रिश्ते का पता चला था ।
उस ने कितनी चाव से शादी मे आने की तैयारी की थी ।
नये कपड़े ,गहनें सब नये लिये थे ।
शादी के सप्ताह पहले ही आने के लिए रमेश से जिद्द भी की थी ।
रमेश ने उसे समझाया था कि इतनी जल्दी जा कर क्या करोगी पर वह नही मानी थी उसने कहा था अगर मै ही अपने घर की शादी मे नही जाऊगी तो कौन जायेगा।पता है जब भाई की शादी हुई थी ।बुआ महीना भर पहले आ गयी थी,सब रस्मे भी तो मुझे ही करानी होगी ।मै हुआ जो ठहरी । और रमेश से यह कह कि तुम दो दिन पहले आ जाना ।मयके चली आयी थी ।जब से आयी भाभी की हर बात मे उस की अनदेखी से वह बहुत दुखी थी ।
तभी उसके कन्धे पर हाथ रख किसी ने कहा रेणु क्या सोचने लगी ।
उसने पलट कर देखा रमेश उस का हाथ हिला रहे थे ।
रेणु की आखें गीली देख सब समझ गये ।
"रेणु तुम को कहा था ना ज्यादा उपेक्षा रखना ठीक नही "।
"हा सही कहां था अपने ....!
"भगवान शिव ने मना किया फिर भी मां पार्वती ने नही माना औरअपमानित हुई ।फिर मै तो इन्सान हूँ ।" यह कह रेणु नेकचार पर ध्यान न देते हुए ,रमेश के साथ बैठ कर बातें करनें लगी । ****
9.ट्रैफिक
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"अरे देखकर नही चलता !अन्धा है क्या ?"
क्या कहाँ तूने?"अरे अन्धा होगा तेरा बाप !
"चल गाड़ी से निकल !अभी देखता हूँ तुझे सा..!
गाली किसे देता है!
सड़क के बीच में कार ,मोटर साईकिल वाहक के बीच झगड़ा देख ट्रफिक मे इर्द गिर्द तमाशबीनो की भीड़ इकट्ठा हो गयी ।बात इतनी बढ़ गयी ।तभी दोनों ने एक दुसरे को लात घुसे से मारना शुरु कर दिया !
एक बुज़ुर्ग उन दोनों को बीच से हटाने की कोशिश करने लगे ।
"कोई पुलिस को बुलाओ !
भीड़ देख मीडिया के लोग आ पहुँचे और लाइव रिपोर्टिंग करने लगे ।"हटिये ज़रा कैमरे के सामने से "लोगों को हटाते हुए बोले !लाईव रिपोर्टिग चल रही है !
बुज़ुर्ग ने बीच बचाव करने के उद्देश्य से समझाने की कोशिश की !"अरे लड़ाई से कुछ हासिल नहीं होगा ।केवल दोनों पक्षों का नुक़सान ही होता है ।चलो ख़त्म करो झगड़ा ।क्या जानते नही रोडरेज के कारण समाचारों में कितनो की जान चली गयी । पढ़ें लिखें समझदार हो ।"
एक दुसरे से हाथ मिलाओ ।"और तुम सब तमाशबीनो तुम्हारा कोई फ़र्ज़ नही झगड़ा बढ़ाने में आग में घी का काम कर रहे हो "हम सब को झगड़ा ख़त्म कराना चाहिए !"
"मीडिया वालों लाईव कवरेज दे रहे हो क्या साबित करना चाहते हो! कहाँ मर गयी तुम्हारी संवेदना क्या ख़बर बेचने तक ही सिमित है "।
अब तक दोनों सवार उनकी बातें सुन कुछ सम्भल कर !दोनो आपसी ताल मेल से बातें करने लगे ।
"सुबह ऑफिस के समय जल्दी के कारण ...।दुसरे ने कहाँ
तभी हा...।
ऐ हटो सब चलो सब अपनी मंज़िल ! इस बीच सिपाही ने आ कर सारी भीड़ को वहाँ से हटाया !
और झगड़ा ख़त्म होते देख !
बुज़ुर्ग की आँखें भर आयी ।
भर्रायी आवाज़ में उन के मुँह से बस यही निकला दो साल पहले यदि कोई झगड़ा ख़त्म करा देता तो मेरा पच्चीस साल का बेटा भी आज जीवित होता ।" ****
10. तुलसी का बिरवा
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जब मैनेजर को पता चला कि सुनीता तुम्हारी नर्सरी है ,तो बहुत खुश हुए और बोले कि कुछ पौधें यहाँ कार्यालय मे भी लगवा दो ।
"समय रहते तुमने ये काम शुरू कर दिया "!वर्ना तो .....।
रवि ने उसको देखते हुए कहा।
"हो जायेगा,"कढाई में सब्जी भूनते हुए बोली ।
सुनीता को याद आया वह दिन जब उसने इस घर मे शिफ्ट किया था ।
ये लो बेटा तुलसी का बिरवा" "कल जब तुम माली से बात कर रही थी तुलसी को घर में लगाने के लिये, मैने सुना ,जान गयी कि तुमको भी पेड़ पौधौं से प्यार है "।
"आखिर तुमने नये जीवन की शुरुआत की है ,मैने सोचा इससे अच्छा उपहार तो कोई हो नही सकता "।
"अब तुम इसकी देख भाल करना"।
बगल के फ्लैट मे रहने वाली ,,आँटी हाथ मे पौधा लिये मेरे पास आयी थी ।
"जी आँटी ,माँ कहती थी ,हर स्त्री को तुलसी मे रोज जल देना चाहिए, सीचने पर सुख और सौभाग्य वृद्धि होती है ।और अनेक रोगो मे भी इसका सेवन लाभकारी है ,पर्यावरण की सुरक्षा अलग होगी ..।
उसने अपनी बालकनी से देखा था आँटी ने अनेक पौधें लगा रखे थे ।
एक नर्सरी बना रखी थी, उसमे वो हमेशा उन पौधों की देखभाल करती नजर आती थी ।
खाली समय जब भी मिलता उसके लिये एक पौधा ले आती,और बताती इसमे इतनी खाद डालनी है कैसे देखभाल करनी है उसके पास भी अनेक पौधे हो गये थे।
"क्या बात है ?"आज तुम बहुत उदास लग रही हो ,मुझे बताओ मै क्या कर सकती हूँ तुम्हारे लिए?" आँटी ने सोफे पर बैठते हुए उससे पूछा ।
"अभी तक अनू की ही फीस भरनी होती थी ,अब रानू की भी भरनी होगी हमारी तो सीमित आय है। दोनो का कैसे होगा ,मै भी नौकरी नही कर पाऊँगी ,बच्चे छोटे हैं। उसने धीमी आवाज मे कहा।
बेटा मेरे ,दोनो बेटों के यहाँ से चले जाने पर ,मै और तुम्हारे अंकल अकेले रह गये थे, समय तो कटता नही था ।तब मैने इन पौधों मे अपने बच्चे तलाशने शुरू किये ।
और फिर कुछ पौधों से ही धीरे -धीरे एक नर्सरी बना ली उससे होने वाली आमदनी से मै गरीब बच्चों की पढाई पर खर्च करती हूँ।जिससे मुझे आत्मिक सुख मिलता है ।
"अब तुम भी मेरे साथ जुड़ जाओ
नर्सरी से जो आमदनी होगी तुम अपनी गृहस्थी पर खर्च करना "
इस तरह तुम्हारी घर बैठे ही आमदनी हो जायेगी,शुद्ध हवा और उन को देख आँखों को भी सुख मिलेगा ।
आँटी की दी शिक्षा इतनी कारगर होगी ये सोचा नही था ।
"अरे क्या सोचने लगी ,देर हो रही है
नाश्ता बन गया ,?"
रवि ने तैयार होते हुए उस से पूछा ..।
अभी परोसती हूँ ..कह कर नाश्ता लगाने लगी । ***
11.परिणाम
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"पगली ये तुम क्या करने जा रही थी,माँ बापू के बारे में नहीं सोचा,क्या हाल होता उनका,?
"दीदी क्या मुँह दिखाऊँगी .....? कितनी उम्मीदें थी उनको....!
"पगली तुम ने पूरी महनत के साथ पढ़ाई की,प्रतियोगिता के युग में सफलता के शीर्ष पर सब पहुँचना चाहते है ,पर ज़रूरी नहीं सफल हो ही जाए जिन्दगी की राहें अनन्त है ।
और अवसर भी बहुत मिलेंगे ।जिन पर आगे बढा जा सकता है ।
निराश ना हो ।धैर्य और परिश्रम के साथ आगे बढ़ो।और पराई करो ,आने वाले समय में सफलता ज़रूर मिलेगी।जिसके तुमने सपने देखें थे ।
जीवन बार बार नहीं मिलेगा।प्रकृति हमें जीवन प्रदान करती है ,जीवन जीने के लिएँ ।कुछ निश्चित समय के लिए ।उसको समाप्त करना प्रकृति के नियम के विरूद्ध है"।
रीता ने उसे समझाते हुए कहां
"बेटी सविता "!माँ बापू की आवाज़ सुन सिसकती सविता माँ से लिपट गयी ।"बेटी रीता ने फ़ोन कर हमे बताया है ,बेटी हम उन माँ,
बाप में से नहीं है जो अपने बच्चों को समझ नहीं पाते ,और उनको ग़लत ठहरा कर उन का साथ नहीं दे पाते ,।उम्मीदों को उन पर थोपतें है ।
"हाँबेटी निराशा छोड़ दो "हम तुम्हारे साथ है"। दुबारा महनत से पढ़ना !
मां ने उसको बाहों में भरते हुए कहां
उसके निराश मन को जैसे दो ओस की बूँदें मिल गयी हो।और उसकी सारी निराशा को धो दिया हो । ****
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क्रमांक - 11
निवासी : 1962 से दिल्ली का निवासी
शिक्षा : -
दिल्ली स्थिति धनपतमल डी.ए.एस. से हायर सैकेण्डरी स्कूल में हुई। ग्यारहवीं के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय से वाणिज्य में स्नातक की डिग्री हासिल की।
व्यसाय : -
पिताजी के व्यवसाय में अनुभव प्राप्त करता रहा। पिताजी विद्यार्थियों को टाइप और शाॅर्टहैण्ड में पारंगत किया करते थे।बाद में इसी व्यवसाय को अपनाया।
लेखन : -
स्नातक शिक्षण के दौरान लेखन में रुचि हुई और आरम्भ में कुछ छोटे-मोटे लेख नवभारत टाइम्स में छपे। पारिश्रमिक मिला तो हैरत हुई और उत्साह बढ़ा।एक लम्बे अन्तराल के बाद जुलाई, 2018 में कविता और कथा लेखन में रुचि पुनर्जाग्रत हुई। कविताएं आदि लिखीं यह सिलसिला अभी जारी है
अनुभव : -
दिल्ली विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं की विभिन्न विषयों पर अनेक पीएचडी थीसिस सम्पादित कीं है । कई पुस्तकों का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद किया और वे प्रकाशित भी हुईं। अंग्रेजी की दो वैबसाइट्स का हिन्दी में अनुवाद किया।
पता : -
ए-38, फर्स्ट फ्लोर, डबल स्टोरी
मेन रोड, मलका गंज, उत्तरी दिल्ली
दिल्ली-110007
1. कागज़ का नोट
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‘दूल्हे का सेहरा सुहाना लगता है, दुल्हन का तो दिल दीवाना लगता है’ की धुन पर बाराती नाच रहे थे। कुछ होश में थे, कुछ मदहोश थे। अमीर घराने की शादी की बारात थी । शहर के नामी बैंड वालों के कारिंदे चमकती हुई पोशाकों में चमचमाते बैंड-बाजों पर एक से एक बढ़िया धुन बजा रहे थे। बाराती झूम रहे थे। जैसाकि अक्सर होता है नाचने वालों का एक झुंड सा बन जाता है और बैंड-बाजे वालों का ध्यान भी उन्हीं पर बना रहता है। आधुनिकतम फैशन की नुमाइश करते अमीरजादों और अमीरजादियों को दिल खोलकर नाचने में बहुत मज़ा आ रहा था। कुछ चुनिंदा फिल्मी धुनें बैंड वाले अपनी ओर से पेश कर रहे थे और कुछ बारातियों की फरमाईश पर बजाई जा रही थीं। जब-जब फरमाईशी धुनें बजतीं उन बारातियों के हाथों और मुँह में चमचमाते मोटे नोट लहराने लगते और बैंड बाजे वाले अपनी सारी ताकत झोंक कर धुनें पेश करते पर निगाहें उनकी नोटों पर इस तरह से रहतीं कि कब वे उनके मुँह और हाथ से छूटें और वे कटी पतंग को लूटने की भाँति उन पर लपकें। म्यूज़िक डायरेक्टर के इशारे पर सभी नोट उसके पास जमा किये जा रहे थे। इस बारात से थोड़ी दूरी बनाते हुए गरीब बच्चों का एक दल भी गानों पर अपनी ही मस्ती में थिरक रहा था। निगाहें उन बच्चों की भी नोटों पर थीं जो बारातियों के मुँह और हाथ से छूट कर गिरते। बच्चे इस इंतज़ार में थे कि कभी तो बैंड-बाजे वालों की निगाह से कोई नोट बच जायेगा और उड़कर उनकी तरफ आ जायेगा। जिस किसी बच्चे के हाथ कोई नोट लगता वह लपक कर उड़न-छू हो जाता था इस डर से कि अगर किसी ने पकड़ लिया तो वापिस करना पड़ेगा। गिरते उड़ते लहराते नोटों पर नज़र बैंड बाजे वालों और इधर उधर से घुस आते बच्चों के साथ साथ झाड़-फानूस उठाकर चलने वाले मज़दूरों की भी थी पर वे मज़बूर थे, लाचार थे क्योंकि कंधों और सिर पर बोझा बने फानूसों को वह नीचे भी नहीं रख सकते थे क्योंकि वे सब एक कड़ी में जुड़े हुए थे। शायद वे अपनी किस्मत को कोस रहे थे कि काश वे भी कुछ हुनर जानते तो बैंड वालों का हिस्सा बनते और नोट चुनते। दो सौ, पांच सौ और दो हजार के नोट बरस रहे थे। बच्चों की आंखें बड़े-बड़े नोट देख कर फट रही थीं । कुछ भोले बच्चे कह रहे थे अरे ये तो चूरन वाले नकली नोट हैं तभी तो लुटा रहे हैं। पर कुछ कम ही उम्र में समझदार हो गये बच्चे उन्हें समझा रहे थे कि नोट असली हैं इनसे हम बहुत सारी चीज़ें खरीद सकते हैं। तभी एक बच्चे की निगाह बारात में से उड़ कर आये एक नोट पर पड़ी। वह तेज़ी से लपका और उसने उठा लिया और देखा कि गुलाबी रंग के नोट पर दो के आगे तीन ज़ीरो लगे थे। उसने समझा कि यह दो रुपये का नोट है। अभी वह देख ही रहा था कि अचानक एक बड़ा भिखारी उसकी ओर झपटा क्योंकि उसने जान लिया था कि वह दो हजार का नोट है। पर बच्चा चुस्त था वह उसके हाथ नहीं आया और उसे चकमा देकर भागने लगा पर रास्ते में तेज़ी से आते स्कूटर से टकरा कर गिर गया। उसे बहुत चोट लगी। उसके साथियों ने उसे उठाया और उसे लेकर डाॅक्टर के पास ले जाने लगे थे । बच्चा घबराकर लगभग बेहोश सा हो गया था। पर उसकी मुट्ठी में मज़बूती से बंद थी उसकी मेहनत की कमाई वह दो हज़ार का काग़ज़ का नोट । ****
2. हम ऐसे क्यों हैं
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‘पापा, मुझे स्कूल से मिले होमवर्क में 10 कलर प्रिंट आऊट चाहिएं। सौ रुपये दे दो साइबर कैफे से निकलवा लाऊंगा।’ ‘अरे चिन्ता क्यों करता है बेटे, मुझे पैन ड्राइव में दे दे या ईमेल कर दे मैं ऑफिस में निकालता आऊंगा। फ्री में काम हो जायेगा, तू क्यों परेशान होता है?’ नयी पीढ़ी का बेटा एक बार झिझका। ‘अरे सोच क्या रहा है? जल्दी दे मुझे देर हो रही है, आजकल सरकारी आफिसों में हाज़िरी की मशीनें लग गई हैं, लेट हो जाने पर पैसे वेतन में से खुद ही कट जाते हैं’। अनमने मन से बेटे ने पैन ड्राइव पकड़ा दी। पापा जाते जाते बेटे की माँ की ओर इशारा करते हुए बोले ‘ज़रा तुम इसे समझाओ, मैंने पूरे सौ रुपये बचाये हैं, न मालूम यह क्या सोच रहा था।’
‘मम्मी, आपके पर्स में खूब सारे नए नए पैन, पैंसिल और रबड़ रखे हैं, आज क्या बात है?’ पिंकी बोली । ‘अरे बेटी, आज ही आॅफिस में स्टेशनरी वाला आर्डर सप्लाई कर गया था, अब हमारे ही तो काम आने थे, इसलिए मैं ले आई। तुम्हें जो चाहिए ले लो।’ ‘मम्मी, क्या आॅफिस में सस्ते दामों पर मिलते हैं?’ ‘अरे पगली, सरकारी दफ्तरों में काम करने वालों के लिए ये चीजें फ्री में मिलती हैं। अब हम सरकारी कर्मचारी हो गये तो ये चीजें भी तो हमारे लिये ही आती हैं। देख देख, बिल्कुल लेटेस्ट हैं।’ 15 वर्षीय पिंकी की कुछ समझ में नहीं आ रहा था। बोली ‘मम्मी, मेरी सहेलियों की मम्मियों को भी ऐसे ही मिल जाता होगा।’ मम्मी ‘हां, पिंकी, जो सरकारी दफ्रतरों में काम करती हैं वे ये ला सकती हैं।’ ‘मगर मम्मी, राधा तो कहती थी कि उसकी मम्मी तो नहीं लातीं। वह भी सरकारी दफ्तर में काम करती हैं। कहती हैं ये तो सरासर चोरी है।’ पिंकी की मम्मी को गुस्सा आ गया ‘तू अपना काम कर, औरों की बात पर ध्यान मत दे।’
‘अरे सुनना ज़रा, मांजी के लिए डाॅक्टर ने बहुत सारी दवाइयां लिख दी हैं, हजारों रुपये लग जायेंगे। यह पर्चा ले लो, देखो कहीं से रिबेट मिल जाये तो दवाइयां लेते आना ।’ ‘अच्छा’ कहते हुए वे आफिस चले गये। शाम को लौटे तो दवाइयों का पैकेट थमाते हुए बोले, पर्चा संभाल रखना। मम्मी ने दवाइयां चैक करनी शुरू कीं तो देखा रिबेट के बाद सोलह सौ रुपये बनते थे पर कैमिस्ट का बिल तीन हज़ार रुपये का था। वहीं से ही बोलीं ‘सुनो जी, आप गलत बिल ले आये हैं। सोलह सौ की जगह तीन हज़ार का बिल ले आये हैं। कहीं ज्यादा पैसे तो नहीं दे आये?’ ‘अरे नहीं, तू भी कमाल करती है। दफ्तर में बिल जमा करूंगा तो मुझे तीन हज़ार रुपये मिल जायेंगे, थोड़ा कैमिस्ट फालतू ले लेगा। फिर भी काफी पैसे बचेंगे। किसी काम आ जायेंगे।’
ज़रा सोचें आखिर हम ऐसे क्यों हैं ? *****
3.सैकेंड हैंड
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‘भैया यह किताब कितने की है ?’ पूछ रहा था ग्राहकों से भरी दुकान के काऊंटर पर एक बालक। बड़े-बड़े लोगों की भीड़ में उसकी कोमल आवाज़ दब कर रह जाती थी। आधे घंटे बाद काऊंटर पर भीड़ छंटी तो दुकानदार का ध्यान उस बालक की ओर गया। बिना सोचे समझे उसे झिड़क कर बोला, ‘तूने इस किताब के पैसे दे दिये हैं क्या?’ जोर से बोले जाने के कारण बालक सहम गया था। कुछ देर शून्य में ताकने के बाद बोला, ‘भैया मैं तो आधे घण्टे से इस किताब के दाम पूछ रहा हूँ। आप मेरी तरफ देख ही नहीं रहे थे।’ बालक की कोमलता से प्रभावित दुकानदार अब थोड़ा नरम पड़ गया था, बोला ‘बच्चे, इस किताब का मोल 190 रुपये है।’ बालक हैरान हो गया उसने सोचा नहीं था कि किताब का इतना मोल होगा। बोला ‘भैया कुछ कम हो जायेंगे ।’ दुकानदार बोला ’चलो तुम 180 रुपये दे देना।’ बालक उदास हो गया था उसके पास तो 180 रुपये भी नहीं थे।
यह सब माजरा वहाँ अपने पिता के साथ आया एक बालक देख रहा था जो दुकानदार को किताबें बेचने आये थे। वह बालक दोनों के बीच हो रही बातचीत को सुन रहा था और किताब की ओर भी उचक उचक कर देख रहा था। उसे इतना जरूर समझ में आ गया था कि जो बालक वह किताब खरीदना चाह रहा है वह किताब तो उन किताबों में से एक है जो वह पापा के साथ बेचने आया है। चूँकि वह भी बालक था अतः बालक की दुविधा को समझ रहा था। उसने पापा के कान में कुछ कहा। पापा मुस्कुराए। वह बालक भी खुश हो गया था। तुरन्त वह उस बालक के पास गया और बोला, ‘भाई, अगर तुम्हें एतराज न हो तो तुम मेरे से यह किताब ले लो, सैकंड हैंड जरूर है पर साफ सुथरी है।’ बालक सकपका गया। दुकानदार से नज़रें हटा कर बोला ’भैया, कितने की दे दोगे।’ दूसरे बालक को बरबस हँसी आ गई फिर मुस्कुरा कर बोला ‘भाई, यह किताब मैं तुम्हें ऐसे ही दे रहा हूँ, इसके कोई पैसे नहीं लगेंगे। मेरे पास और भी किताबें हैं अगर तुम्हारे काम आ जाएँ तो वो भी ले लो।’ बालक के उदास चेहरे पर हल्की सी मुस्कान छाने लगी थी। वह उस बालक द्वारा लाई गई किताबों के बंडल को तेजी से देख रहा था। उसमें से उसे दो किताबें और मिल गईं। बालक की खुशी का ठिकाना न था। दुकानदार भी बालकों के बीच हो रहे इस व्यवहार से स्तब्ध था। उधर बालक किताबें वापस लेकर चलने लगा तो दुकानदार ने उसे 6 कापियाँ और 2 नई पेंसिलें दे दीं और उसके पैसे नहीं लिये। बालक हैरान था और दुकानदार दूसरे बालक को धन्यवाद दे रहा था कि उसने दुकानदार को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित कर लिया। दुकानदार हंस कर बोला ‘लो भाई, अब तो सैकंड हैंड के साथ फर्स्ट हैंड भी हो गया।’ बालक के पापा अभी भी मुस्कुरा रहे थे। उधर बालक ने निश्चय कर लिया था कि वह अपने सभी साथियों से कहेगा कि वे पुरानी किताबें बेचें नहीं और उन बच्चों को बाँट दें जिन्हें उनकी जरूरत है पर उनके पास खरीदने के लिए पैसे नहीं है। वापिस जाते समय उसके पिता गर्व से उसकी ओर देख रहे थे। सैकंड हैंड का मूल्य फर्स्ट हैंड से कहीं अधिक हो गया था। ****
4.चुपके से
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‘आहा ... आहा ... बहुत मज़ा आ गया ... बहुत ही स्वादिष्ट थाली थी’ कहते हुए कार में अपने पति और बच्चों के साथ बैठी गृहिणी बाज़ार की एक मशहूर दुकान से लिया खाना चटकारे लेकर खा रही थी। ठंडे पानी की बोतल भी साथ में थी। अब जब कार में बैठ के खाना खाया था तो ज़ाहिर है खाने की पैकिंग का सामान, थर्मोकोल की प्लेटें अभी गाड़ी में ही थीं। इतने में पिछली सीट पर बैठे बच्चों ने गाड़ी का दरवाज़ा खोला और खाली प्लेटें बाहर फेंक दीं। माँ ने देखा तो तुरन्त बच्चों को आदेश दिया ‘ऐसे नहीं फेंकते, चलो वापिस उठाओ।‘ बच्चों ने सकपकाते हुए थालियां वापिस उठा लीं। मुझे देखकर प्रसन्नता हुई। मुझे लगा कि ‘स्वच्छ भारत अभियान’ असर दिखाने लगा है। अभी मैं इस पर गर्व महसूस कर ही रहा था कि गाड़ी की दरवाजा फिर खुला। अबकी बार उस गृहिणी वाली साइड का दरवाजा खुला। उस गृहिणी ने एक थैला दरवाजा खोल के ‘चुपके से’ नीचे सरका दिया था और ऊपर से बोतल में बचे पानी से हाथ धो लिया था। यानि गाड़ी बिल्कुल साफ हो चुकी थी । सुघड़ और कुशल गृहिणी ने अपना गृहस्थ धर्म निभा लिया था। गाड़ी के दरवाजे बंद हो चुके थे और गाड़ी धीरे धीरे बैक होती हुई अपना रास्ता बना रही थी । इतने में बाहर से कोई बोला ‘बहन जी, आपका थैला गिर गया।’ बहन जी सुनकर भी अनजान बनी रहीं और गाड़ी ने रफ्तार पकड़ ली थी। इतने में कूड़ा बीन रहे एक दो बच्चे उस थैले पर लपके। आनन फानन में खोल दिया। मिली तो केवल खाली थालियाँ जो बहन जी ने बच्चों से वापिस उठवाई थीं। कमाल हो गया। ‘चुपके से’ कमाल हो गया। वाह रे मेरे देशवासी। बच्चों को भी शानदार सीख मिली थी। पति को धर्मपत्नी की बुद्धि पर गर्व था। प्रधानमंत्री जी का ’स्वच्छ भारत अभियान’ शुरू होता है डंके की चोट से। कुछ लोग डंके की आवाज़ को दबा देते हैं ‘चुपके से’। ****
5.कुरूप चूजा
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‘विद्यार्थियो ! आज हमारे पाठ का शीर्षक है ‘कुरूप चूजा’।’ हिन्दी की अध्यापिका की बात सुन वि़द्यार्थी व्यवस्थित होकर बैठ गए थे और एकाग्रता से अध्यापिका के सम्बोधन को सुन रहे थे। ‘कुरूप चूजा कथा है एक सफेद रंग की बत्तख और उसके चूजों की। उस बत्तख द्वारा दिये गये पाँच अंडों में से समय आने पर चूजे जन्म लेते हैं। पाँच में से चार चूजे सफेद रंग के होते हैं जबकि पाँचवां चूजा श्याम वर्ण का होता है। समय बढ़ने के साथ साथ चूजे अपनी आँखें खोलते हैं और प्रकृति को देखते हैं। गिरते-पड़ते चूजे धीरे धीरे चलना सीख गये थे। माँ बत्तख जहाँ जहाँ जाती चूजे उसके पीछे पीछे कतार में चलते। बड़े होने पर समझना शुरू किया कि उनमें से चार चूजे तो धवल सफेद वर्ण के हैं और पाँचवां चूजा कुरूप है उसका वर्ण अलग है। उनमें अहम भाव जाग्रत होने लगता है। वे पाँचवे चूजे से दूर दूर रहने लगते हैं। जब बत्तख माँ के पीछे कतार में चलते हैं तो पाँचवे चूजे को सबसे पीछे चलना पड़ता है। पाँचवा चूजे में हीन भावना जन्म लेने लगती है। चूजे बत्तख माँ के साथ तैरना सीखने लगते हैं। तैरते समय जब पाँचवा चूजा जब उनसे आगे निकल जाता है तो वे चिढ़ कर उसे पीछे धकेलने का प्रयास करते हैं। पाँचवें चूजे को दुःख होता है। बत्तख माँ इन सब हरकतों को देख रही होती है। उसके लिये तो पाँचों चूजे ही उसके अपने अंश थे। वह अन्य चूजों को कुछ कहती तो नहीं पर पाँचवें चूजे के प्रति कुछ गलत न हो जाये और वह हीन भावना से ग्रस्त न हो जाये, इस बारे में सतर्क रहने लग गयी थी। बत्तख माँ को अपने प्रति अधिक संवेदनशील देखकर पाँचवें चूजे में आत्मविश्वास भरने लगा था। उसके कुरूप चेहरे पर भी मुस्कुराहट के फूल खिलने लगे थे। बत्तख माँ सावधान थी कि कुरूप चूजे को किसी प्रकार का नुकसान न हो। वह सोचने लगी कि उसके बाद कुरूप चूजे का क्या होगा। बत्तख माँ जिस नदी के पास रहती थी वहाँ कुछ हँस आया करते थे जो धीरे धीरे उसके मित्र बन गये थे और जब भी वे उस नदी में प्रवास करने आते तो बत्तख माँ से अवश्य मिलकर जाते। बत्तख माँ हँसों के प्रवास का इन्तज़ार कर रही थी। समय आने पर हँस आये और बत्तख माँ ने उन्हें अपनी व्यथा सुनाई। हँसों ने बहुत ध्यान से बत्तख माँ की बातें सुनीं। फिर उन्होंने एक निर्णय लिया और कहा कि वे उस चूजे को अपने साथ ले जायेंगे। बत्तख माँ यह सुनकर थोड़ी विचलित तो हुई पर कुरूप चूजे के भविष्य को देखते हुए उसने अनमने मन से हामी भर दी। प्रवास के दौरान हँस कुरूप चूजे के साथ अपना समय बिताते और उससे अठखेलियाँ करते। कुरूप चूजे ने एक दिन हिम्मत करके हँसों से जानना चाहा ‘वह ऐसे रंग का क्यों है जिससे अन्य चूजे उससे नफरत करते हैं।’ हँसों ने कहा ’जो तुमसे नफरत करते हैं भले ही वह कितने सुन्दर क्यों न हों, उनके मन कलुषित हैं, उनके मन कुरूप हैं। तुम भले ही वर्ण से सुन्दर न दिखो, किन्तु तुम्हारा मन निर्मल है, सुन्दर है। असल में तुम उन सभी से अधिक सुन्दर हो।’ देखते ही देखते हँसों के प्रवास का समय समाप्त हो गया और जब वे जाने लगे तो उन्होंने उस चूजे को अपने साथ ले लिया और ले गये अपनी उस दुनिया में जहाँ ऊपरी सुन्दरता से आंतरिक सुन्दरता अपनी छटाएं बिखेरती थी। अब वह चूजा बत्तख बन चुका था और ऐसी दुनिया में रह रहा था जहाँ गुणों का मूल्य समझा जाता था। अब वह बहुत प्रसन्न था और उसे देखकर हँस भी प्रसन्न थे । तो बच्चो, यह थी आज की कहानी। अब कक्षा का समय समाप्त हो रहा है । कल एक नए पाठ का आरम्भ होगा।’ हिन्दी की अध्यापिका उठ गई थीं।
रिश्ता जोड़ने की कवायद में आजकल ऐसी अनेक घटनाएँ देखने को मिलती हैं जहाँ बाहरी सौन्दर्य के आगे आन्तरिक सौन्दर्य हार जाता है। समय के साथ बूढ़े होने वाले सौन्दर्य के आगे हमेशा ही युवा रहने वाले आन्तरिक गुण हार जाते हैं। ऐसे में साथ मिलता है उन लोगों का जो आन्तरिक गुणों के महत्व को परखने की समझ रखते हैं और वे लोग उन हँसों के समान हैं जिन्हें कुरूप चूजे के आन्तरिक गुणों का महत्व मालूम होता है और वे उसका सम्मान करते हैं। कुछ घटनाओं में तेज़ाबी हमलों में अनेक कन्याएँ बदसूरत बना दी जाती हैं। किन्तु ऐसा कायर हमला चाहे उनके बाहरी सौन्दर्य को खराब कर दे पर किसी भी सूरत में वह उनके आन्तरिक गुणों को नष्ट नहीं कर सकता। वे हमेशा ही बरकरार रहेंगे। हमला करने वाले ऐसे कायरों को जिस दिन यह बात समझ आ जायेगी तो वे ऐसी कायराना हरकतें करना बन्द कर देंगे क्योंकि उन्हें मालूम पड़ जायेगा कि इस दुनिया में ऐसे हँस भी हैं जो दूध का दूध और पानी का पानी कर देते हैं। ****
6.मैं ऐसा क्यों हूँ
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‘सुन, तेरे बैग में चाकू है ना, हम फल काटने के लिए लाये थे ?’ शादी के बाद पहली बार हनीमून मनाने आये नवविवाहित जोड़े में पति ने पत्नी से पूछा। दोनों ही हिमाचल प्रदेश के सुप्रसिद्ध हिडिम्बा मन्दिर के पास देवदार के ऊँचे ऊँचे वृक्षों के साथ अपनी फोटो खिंचवाने के लिए आये हुए थे। ‘हाँ, है।’ पत्नी ने उत्साहित होकर कहा। वेशभूषा से दोनों ही पढ़े लिखे और संभ्रांत परिवार के प्रतीत होते थे। पत्नी ने अभी बैग से नया चमचमाता चाकू निकाला ही था कि उनकी फोटो खींचने वाले स्थानीय फोटोग्राफर ने पूछ ही लिया, ‘भाईसाहब, यह चाकू किसलिए, इसकी क्या ज़रूरत है?’ ‘अरे भाई, शादी के बाद पहली बार हनीमून पर आये हैं। जिस पेड़ के साथ खड़े होकर अपना फोटो खिंचवा रहे हैं कम से कम उस पर चाकू से अपना नाम तो गोद लें ताकि हमें यह याद रहे कि हम भी पहली बार यहाँ आये थे और फोटो खिंचवाई थी।’ स्थानीय फोटोग्राफर की आँखों में आँसू आ गये और वह रुदन सा करने लगा। यह देखकर नवविवाहित जोड़ा चौंक कर सकपका गया और पूछने लगा ’अरे भाई, क्या बात हो गई, हम तुम्हें थोड़े ही कुछ कह रहे हैं?’ फोटोग्राफर बोला, ‘आपने मेरा रुदन और मेरे आँसू देख लिये तो आप परेशान हो गये, काश आपने इन पेड़ों के आँसू देखे होते और इनका रुदन सुना होता। जब जब आप जैसे महानुभाव ऐसी हरकत करते हैं तो इनके आँसू बह निकलते हैं और ये रुदन करते हैं और सोचते हैं कि हमने क्या बिगाड़ा है जो हमारी खाल को ही कुरेद दिया जाता है।’ इतना कह कर फोटोग्राफर ने विनम्र होकर कहा, ‘क्षमा चाहता हूँ, इस कार्य में मैं आपका भागीदार नहीं बन सकूँगा। मैं पहाड़ों का रहने वाला हूँ, मैं पेड़ों की व्यथा जानता हूँ। पहले मैं इस बारे में नहीं सोचता था। पर अब परिपक्व हो गया हूँ, इन्हीं पेड़ों की छाँव तले खेला हूँ, पढ़ा हूँ, बढ़ा हूँ। ऐसे ही कितने पेड़ों ने अपने फल खिलाकर मुझे पाला है। आप भी इन्हीं पेड़ों के द्वारा दिये गये फल को काटने के लिए वो चाकू लाये हैं। आप खुद ही सोचिए क्या इन दरख्तों की छाल को चाकू से कुरेदने पर उन्हें तकलीफ़ नहीं होती होगी। आपके लिए वे खामोश हैं, मूक हैं पर मेरे तो बचपन के साथी हैं। मैंने और मेरे अन्य कई फोटोग्राफर साथियों ने यह निर्णय ले लिया है कि चाहे कुछ भी हो हम उन लोगों के फोटो नहीं खीचेंगे जो पेड़ों को तकलीफ पहुँचायेंगे। इसलिए मुझे क्षमा करें।’ फोटोग्राफर की बात सुनकर नवविवाहित जोड़ा हतप्रभ रह गया, कुछ पल सोचा और आँखों ही आँखों में बात करके वे दोनों उस पेड़ से लिपट गये और बोले, ‘फोटोग्राफर जी, अब तो ठीक है, अब तो फोटो खींचोगे।’ फोटोग्राफर इस प्रतिक्रिया की अपेक्षा नहीं कर रहा था। वह बहुत ही आश्चर्यचकित हुआ और मुस्कुरा कर बोला, ‘साहब, अब तो मैं अनगिनत फोटो खींचूंगा और मैं आपसे कोई पैसे भी नहीं लूँगा।’ उसकी आँखों में एक बार फिर आँसू थे पर अब वे खुशी के थे। अक्सर देखा गया है कि हम लोग बिना सोचे समझे ऐसी ओछी हरकतें कर जाते हंै और फिर खुश होते हैं। पेड़ हों या पुरातत्वकाल की ऐतिहासिक इमारतें हों उन पर अपना नाम कुरेदने से बाज नहीं आते। नाम कमाना है तो ऐसे काम करो कि तुम्हारा नाम और तुम्हारा काम मील का पत्थर बन जाये। सुन्दरता को बिगाड़ने में हमें आनन्द की अनुभूति होती है। क्योंकि ऐसी हरकतों की शुरुआत अकेले ‘मैं’ से होती है जो बढ़ते बढ़ते ‘हम’ का दर्जा हासिल कर लेती हैं इसलिए इन सबका प्रतिनिधि होने के नाते ‘मैं’ को बताना होगा कि ‘मैं’ ऐसा क्यों हूँ’। ****
7. सोच
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बार-बार अपने माथे पर आई पसीने की बूँदें पोंछता प्रौढ़ आयु का रिक्शा वाला सामान ढोकर फ्लाईओवर की चढ़ाई चढ़ रहा था। उसकी बेबसी बता रही थी कि कितनी मजबूरी में वह माल ढोने का काम कर रहा है। उसे अपने परिवार का पेट जो पालना था। दूर गाँव में घर पर बूढ़ी माँ, पत्नी और बेटी सभी तो उस पर आश्रित थे। चढ़ाई चढ़ते चढ़ते जब पैरों की ताकत जवाब दे देती थी तो वह उतर कर रिक्शा धकेलने लगता था। पर ऐसा करते समय वह किसी की ओर मदद के लिए नहीं देख रहा था। इस ज़माने में किस के पास समय है जो रुक कर उसकी मदद करता। उसके आस पास से इंसानों को ढोते हुए तिपहिए, बसें, कारें, मोटरसाइकिलें, स्कूटर और साइकिल सवार जा रहे थे। एक तो भार ढोते ढोते परेशान और ऊपर से वाहनों का धुआँ और शोर मचाते हाॅर्न। सामान के बोझ के अलावा वह इन सबका बोझ भी सहन कर रहा था जो उसकी मज़बूरी थी। वह काफी दूर आ गया था और हाँफने लगा था। पैदल धकेलते धकेलते वह फिर से रिक्शा पर बैठ गया था और पैरों की ताकत का इस्तेमाल करने लगा था। पर यह क्या? अचानक ही रिक्शे पर लदे सामान का भार उसे हलका लगने लग गया था और रिक्शे के पहियों में गति भी आ गई थी। इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता उसने एक आवाज़ सुनी ‘आगे देखो भइया, हैंडल सम्भालो।’ रिक्शे के पीछे से एक स्कूटर वाले ने अपनी एक टांग उसके रिक्शे पर टिका दी थी और स्कूटर तथा अपने पैरों की ताकत से वह रिक्शा को धकेल रहा था। इस घटना से हतप्रभ रिक्शा वाले को अपना पसीना पोंछने का वक्त ही नहीं मिला और पसीना उसके माथे से बहकर उसके चेहरे पर अपनी धाराएँ बना रहा था और न जाने कब स्कूटर वाले की इंसानियत के प्रति उसकी कृतज्ञता चुपके से उसकी आँखों से बहती अश्रुओं की धाराओं के रूप में पसीने की धाराओं के आ मिली थी। चढ़ाई समाप्त हो गई थी। यूँ तो जीवन में चढ़ना ही प्रगति की निशानी माना जाता है और ढलान को ह्रास। पर फ्लाईओवर की यह ढलान उसकी गति में प्रगति का द्योतक थी और उसकी मंज़िल अब दूर नहीं थी। रिक्शा वाले ने स्कूटर वाले को धन्यवाद करने के लिये गर्दन घुमायी तो वह तो कहीं का कहीं जा चुका था। ढलान पर बिना पैडल मारे रिक्शा वाला सोचता जा रहा था कि ना जाने कब किस रूप में फरिश्ते आ जाते हैं पता ही नहीं चलता। अब वह पूर्ण ऊर्जा प्राप्त हो चुका था और उसमें एक नयी शक्ति का संचार हो गया था। जी हाँ, ऐसे इंसानी फरिश्ते हमें अक्सर ही मिल जाया करते हैं। ऐसा नहीं कि जो इंसानियत का काम वे करते हैं वह हम नहीं कर सकते पर न जाने क्यों हम ऐसा सोच ही नहीं पाते। यह सोच का ही तो अन्तर होता है कि कोई वृद्ध सड़क पार करने के लिए खड़ा है, वाहनों की आवाजाही से घबरा रहा होता है। पर सैंकड़ों लोगों की भीड़ में से एक फरिश्ता तो निकल ही आता है जो उसे सड़क पार करने में मदद करवा देता है। क्योंकि उसकी सोच ही इंसानियत से भरी होती है। इंसानियत की सोच से भरपूर इंसानी फरिश्ते आम आदमी ही होते हैं जो सब की भाँति अपना उद्देश्य प्राप्त करने के लिए जीवन के पथ पर अग्रसर तो होते ही हैं पर वे अपने मार्ग पर चलते हुए अपनों को ही ज़रूरत पड़ने पर मदद देने के लिए रुक जाते हैं बिना यह चिन्ता किए कि अपनों की मदद करने में उनका समय नष्ट हो जायेगा। कहाँ से आते हैं ये इंसानी फरिश्ते? ये कोई अलग नहीं होते बल्कि हम में से ही होते हैं। संभवतः उनमें सोच का अन्तर होता है, वे मानवता के संस्कारों से, इंसानियत की नीयत से लबरेज होते हैं। आइए हम भी ऐसा सोच कर कुछ ऐसा कर दिखायें जिससे कि इंसानी फरिश्तों की तादाद बढ़ सके।***
8.पटाखे
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दीपावली की संध्या हो चुकी थी। कोठियों में रहने वाले संभ्रांत परिवारों के बच्चे और किशोर वय के नौजवान पटाखे लिये दीपावली मनाने के लिए घर से बाहर निकल आये। कोठियों के नज़दीक बाग की दीवार के आसपास कपड़े प्रेस करने वाले धोबियों के बच्चों के पास पटाखे नहीं थे। कुछ कोठी वालों ने उन्हें मिठाई दे दी थी जिसका वे आनन्द उठा रहे थे। एक बालक ने अपने मुँह में मिठाई का टुकड़ा डाला ही था कि ‘फट ... फटाक ... भम्म ... धम्म... धमाक’ की ज़ोर से आवाज़ आई और बालक के हाथ से मिठाई का टुकड़ा जमीन पर गिर गया। अचानक हुए धमाके से वह घबरा गया था। लेकिन इस धमाके के साथ ही सब बच्चे मिठाई खाना छोड़ उठ खड़े हुए। उन्हें पता चल गया था कि पटाखे छूटने शुरू हो गये हंै। वे कोठियों की ओर दौड़ पड़े जलती फुलझड़ियों और रंग-बिरंगे अनारों का आनन्द लेने। वे पटाखे चला कर खुश हो रहे थे और ये चलते पटाखों को देख कर खुश हो रहे थे ।
कोठियों में रहने वाले लोगों के छोटे बच्चों को उनके माँ-बाप फुलझड़ियाँ जला कर पकड़ा रहे थे और वे हाथ को सीधा कर अपने से दूरी बनाते हुए उनका आनन्द ले रहे थे। जब फुलझड़ी खत्म होने लगती तो उसकी रंग-बिरंगी छटा कम होने लगती और अमीरों के बच्चे थाली में छोड़ दिये गये भोजन की भाँति उन अधजली फुलझड़ियों को भी फेंक देते थे।
पटाखों के शोरगुल में घड़ी ने कब रात के 10 बजा दिये पता ही नहीं चला। इतने में मोटरसाइकिल पर गश्त कर रहे पुलिस वालों ने सायरन बजाते हुए काॅलोनी में प्रवेश किया जो जैसे सभी पटाखों का दम निकल गया हो। कुछ देर तक विश्वस्त होने के बाद पुलिस वाले चले गये। जिस तरह से रात्रि में उल्लू विचरण करते हैं वे बच्चे भी रात के अंधियारे में वापिस आये क्योंकि पुलिस वालों के आने पर वे भी चले गये थे। बच्चों की आँखें उल्लू की आँखों की भाँति अन्धकार को चीर सकती थीं और उल्लू की गर्दन की भाँति बच्चों की गर्दन भी लगभग चारों ओर घूम सकती थी। वे अपने इन्हीं गुणों का प्रयोग करते हुए जले अधजले पटाखे, फुलझड़ियां इकट्ठे कर रहे थे। कुछ फुलझड़ियों की सलाइयाँ अभी गर्म थीं जो इन बालकों के हाथों को तपा रही थीं। पर रोज़ाना ताप से खेलने वाले बच्चों के आगे हार मान रही थीं। बड़ा सा ढेर लग गया था। सब बच्चों ने ढेर के चारों ओर खड़े होकर अपनी सफलता पर ताल ठोंकी और एक बच्चा घर से माचिस ले आया। डर तो उन्हें किसी से था ही नहीं। एक बालक ने ढेरी के पास पहुँच कर पलीते में आग लगा दी। बाकी बच्चे भी दूर नहीं खड़े थे। पटाखों के खोल वाले काग़जों ने आग पकड़ ली थी। बीच बीच में ज्वाला कभी रंग-बिरंगी आभा बिखेरती तो समझ में आ जाता कि अधजली फिरकनी का मसाला जल उठा है। इसी प्रकार कभी फुस्स बम धीमे से बोल उठते तो समझ में आता कि फुस्स बम में भी थोड़ी जान थी। आधा घंटे तक बच्चे झूठे पटाखों से दीपावली मनाते रहे और खुश होते रहे कि उन्होंने मुफ्त में दीपावली का त्योहार मना लिया। पटाखे जलाने के साथ ही त्योहार का मनाना मुकम्मल हो गया था और इंतज़ार था अगली दीपावली का कि शायद उनके माँ-बाप अगली दीपावली पर अन्य चीजों के साथ अपने साथ ले आयें ‘पटाखे’। ****
9. वेल्ला
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‘लाला चेतनदास जी से मैं विनम्र अनुरोध करता हूँ कि वे स्टेज पर आयें’। 65 वर्ष के ऊँची कद-काठी और एकदम सीधी रीढ़ रखे, काली टोपी पहने, मूँछों पर सदैव ताव बनाये रखने वाले लाला चेतनदास जी जब सीट से उठे तो हाल तालियों से गड़गड़ा उठा। पाकिस्तान से विस्थापित होकर बिखरने के बाद व्यापार जगत में फिर से ऊँचाई हासिल करने के लिए लाला जी को आज व्यापार मण्डल द्वारा उनकी उपलब्धियों के लिए सम्मान दिया जाना था। पाकिस्तान में सब कुछ गंवा कर आने के बाद लाला जी ने जी जान से दिन रात एक करके अपने व्यापार को धीरे-धीरे फिर से खड़ा किया था। इस साधना में उनकी सहधर्मिणी और उनके परिवार का पूरा सहयोग था। लाला जी ईमानदारी और मेहनत की मिसाल थे। व्यापारी भाइयों की हर मुसीबत में आगे खड़े होते थे। संवेदनाओं की प्रतिमूर्ति थे। गोपनीय तरीके से जरूरतमंदों की मदद करते और पता तक नहीं चलने देते। धार्मिक कार्यक्रमों में अपनी उपस्थिति का एहसास कराते। लाला जी को अधिकारियों ने लाला जी को एक प्रशस्ति पत्र और एक बहुत खूबसूरत कला का नमूना सम्मान स्वरूप दिया जिसमें सारथी बने श्रीकृष्ण महाभारत के युद्ध में अर्जुन के रथ को संभाले हुए थे। लाला जी भाव विभोर हो माइक पर आए ’आज मैं कहना चाहूँगा कि ज़िन्दगी वास्तव में एक महाभारत है। इस महाभारत को जीतने के लिए कड़ा परिश्रम और त्याग करना पड़ता है। लोगों का हृदय जीतना पड़ता है। ईमानदारी निभानी पड़ती है। और जब आप ज़िन्दगी में बहुत कुछ कमा चुके होते हैं तो समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी निभानी चाहिए। हमारे आपके जीवन में अनेक ऐसी बातें होती हैं जब लगता है कि हम किसी की मदद कर सकते हैं। ऐसे अवसरों पर किसी से पूछने की जरूरत नहीं होती। खुद ही आगे बढ़कर मदद करनी चाहिए। भगवान जिन्हें मदद करने का मौका देते हैं वे सौभाग्यशाली होते हैं। मैं अपने परिवार के प्रति भी कृतज्ञ हूँ जिन्होंने हर हाल में मेरा साथ दिया। उन्हीें के त्याग की बदौलत आज मैं यहाँ पहुँचा हूँ । इन्हीं शब्दों के साथ मैं अपनी वाणी को विराम देता हूँ’ कहकर लाला जी मंच पर लगे सोफे पर बैठ गए। कुछ ने उनके बेटों को यह कह दिया ‘लाला जी को अब तो आराम करने।’ सायंकाल दुकान से लौटने के बाद खाने की मेज पर बैठे बेटों ने अपनी मंशा ज़ाहिर करते हुए कहा ‘पिताजी, आप कल से आराम करें। आगे की मेहनत हम करेंगे।’ ‘अरे भई, मुझे क्या हुआ है, मैं अभी तंदुरुस्त हूँ और मुझे दुकान पर जाकर बैठना ही तो होता है। काम तो तुम्हीं करते हो’ लाला जी ने प्रतिरोध किया। ‘नहीं, हम आपकी नहीं सुनेंगे। दुकान जाने के लिये आपको तड़के उठना पड़ता है। आप कल आराम से उठिये और आराम से दिन बिताइए। जब चाहें दुकान पर आ जायें। लेकिन ये सुबह वाली पाबंदी खत्म।’ बेटों के सामने लाला जी की एक नहीं चली। फिर सुबह हुई । लाला जी उठ गये पर अचानक याद आया कि आज तो काम पर नहीं जाना। समझ में नहीं आया कि इतना समय कैसे गुजारें। थोड़ी देर बाद लालाईन से बोले ‘भई ऐसे तो मैं कामचोर हो जाऊँगा। खाली तो मैं बैठ नहीं सकता। कुछ बताओ।’ लालाईन ने कहा ‘अच्छा आप ऐसे करो कि बाजार जाकर दूध, डबलरोटी ले आओ। कुछ मन बहल जायेगा।’ लाला जी बाजार निकल गये। कुछ देर टहलने के बाद सामान लेते हुए घर वापिस आ गये। थोड़ी देर बाद लाला जी के पास आकर बोलीं ‘बहुत थक गए होगे, आराम कर लो।’ लाला जी हैरान, कुछ सोचते ही जा रहे थे। ‘अच्छा, आप कहो तो एक कप चाय बना देती हूँ।’ लाला जी ने सिर हिला दिया और लगातार कुछ सोचे ही जा रहे थे। लालाईन चाय का प्याला लेकर आ गईं और लाला जी को पकड़ा दिया। जाने ही लगी थीं कि बोलीं ‘बिस्कुट भी लोगे।’ लाला जी बोले ‘हाँ, दे दो। आज तो मैंने नाश्ता भी नहीं किया है। भूख लग रही है।’ ‘हाय मैं मर जावाँ, तुसी नाश्ता वी नहीं कित्ता, हाय हाय ऐ मैनूँ की हो गया है, मैं मर जावाँ।’ लालाईन अपने आप पर बौखला उठी थीं। लाला जी मुस्कुराये और बोले ‘तैन्नूँ कुछ वी नहीं होया, मैं ही वेल्ला हो गया हां’। ****
10. रिटर्न गिफ्ट
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‘बाबू, सुबह से भूखे हैं, कुछ नहीं खाया।’ कहते हुए हाथ फैला दिये। पति-पत्नी दोनों ही फटेहाल हालत में लोगों से उम्मीद लगाये बैठे थे। लोग आ रहे थे, जा रहे थे, कुछ उनकी ओर देखते और यह सोचते हुए बढ़ जाते कि इन लोगों का तो यही काम है। शाम होने को थी। जिस बाज़ार में दोनों पति पत्नी खड़े थे उस बाज़ार में शाम के हलके अंधियारें में जगमगाते रेस्तराओं की भीड़ थी। और उन रेस्तराओं के बाहर थी पैसे वालों की भीड़ जो वहाँ खाना खाने आये थे। पति-पत्नी और धनाढ्य परिवार दोनों ही भूखे थे, एक रेस्तराँ के अन्दर जाने के लिये अनुनय विनय कर रहा था तो दूसरा सड़क पर लोगों से कुछ मिलने की अनुनय विनय कर रहा था। रेस्तराओं के बाहर की भीड़ बदलती जा रही थी। मन्दिरों में शाम की आरती का समय हो गया था। घंटियां मधुर संगीत सुना रही थीं। बाजार के एक किनारे में मन्दिर था। घंटियों की आवाज़ सुनकर भिखारी जोड़ा उस ओर चल पड़ा। यह सोचकर कि भगवान के अपने घर से तो जरूर कुछ मिल जायेगा। भक्तजन आने लगे थे। भिखारी जोड़ा मन्दिर के द्वार तक पहुँच गया था पर अन्दर जाने की हिम्मत नहीं थी और अन्दर जाकर करना भी क्या था। मन्दिर में जाने वाले लोग खूब जोर शोर से भगवान की पूजा कर रहे थे और अपने लिये खुशियाँ माँग रहे थे। बाहर निकलते तो मन्दिर के पुजारी उन्हें हाथ में प्रसाद दे देते। बाहर निकल कर वे प्रसाद का एक हिस्सा उस जोड़े को भी दे देते। पर प्रसाद मुँह में जाते ही वह ऐसे ही खत्म हो जाता जैसे गर्म तवे पर पड़ी पानी की एक बूँद। इतने में एक बालिका अपने पिता के साथ वहाँ से गुजरी । भिखारी जोड़े ने उस बालिका से भी भीख माँगने के लिए हाथ फैलाया। बालिका ने पिता का हाथ खींच कर रोका। पिता ने मुड़ कर देखा तो बालिका उस भिखारी जोड़े की ओर इशारा कर कह रही थी ‘पापा, ये भूखे हैं इन्हें कुछ दे दो।’ ‘बेटी, देर हो रही है। हमें तेरे जन्म दिन का केक लेते हुए वापिस जाना है। चल इधर आ। जल्दी कर।’ बालिका ने पिता से कहा ‘पापा आज मेरा जन्मदिन है, आज तो मेरी चलेगी न। फिर आपको मेरी बात माननी पड़ेगी।’ पिता बोले ‘क्या चाहती है, जल्दी बता।’ ‘पिताजी इन्हें सामने वाले होटल में ले चलो। वहां इनको खाना मिल जायेगा। आप घर में भी आने वालों को आज खाना खिलाओगे न तो इनको भी खिला दो।’ उन्होंने भिखारी जोड़े को अपने साथ चलने के लिए कहा। होटल में जाकर उन्होंने कहा कि इन दोनों को जितना खाना चाहें खिलाओ। पैसे मैं दूँगा।’ दोनों होटल के बाहर बने बैंच पर बैठ गये और उन्हें खाना परोस दिया। वे खाना खाते जा रहे थे। उनके मुर्झाये चेहरों पर मुस्कान खिल उठी थी। अश्रु धार बह चली थी जिसे रोकने या पोंछने का वे कोई प्रयत्न नहीं कर रहे थे। अश्रुधार भोजन के साथ ही उनके मुख में जा रही थी ऐसे जैसे कि गंगाजल।’ उनकी खुशी और उनके चेहरों पर आई मुस्कान ने पिता-पुत्री को भी भावुक कर दिया था । पिता कह रहे थे ‘ले बेटी तेरी पार्टी की शुरुआत हो गई।’ बेटी बोली ‘और हाँ पापा, मुझे रिटर्न गिफ्ट भी मिल गया।’ पिता बोले ‘वह कैसे’? बेटी फिर बोली ‘पापा, इनके चेहरों पर जो मुस्कान है वह मेरे लिये सबसे बड़ा रिटर्न गिफ्ट है।’ बेटी की समझ भरी बातों से गर्व महसूस करते पिता बेटी को लेकर आगे बढ़ गये थे। ऐसा लगा कि भगवान भी मुस्कुरा उठा है। उधर मन्दिर में भक्त भगवान से पूछ रहे थे ‘कैसे करूं तेरी पूजा।’ भगवान समझा रहे थे, ‘तू खुद भी मुस्करा औरों को भी मुस्कुराने की वजह दे बस हो गयी मेरी पूजा।’ *****
11. सद्गति
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‘भाई साहब ज़रा रास्ता दीजिए ... अरे ... अरे ... ऐसे नहीं ... सिर उधर की ओर रखिए ... ज़रा ध्यान से ... आप लोग इधर से आइए ।’ ग़मगीन और गम्भीर मुद्रा में एक सज्जन, अर्थी उठाये हुए संबंधियों और मित्रों को दिशा निर्देश दे रहे थे । श्मशान भूमि के प्रवेश द्वार से लेकर अन्दर की दीवारों पर आध्यात्मिक ज्ञान की बातें अंकित थीं। कर्मकाण्डी पण्डितों का यह व्यवसाय था । ग्राहक रूपी अर्थी के आते ही वे सजग हो जाते थे और आरम्भ हो जाती थी अन्तिम कर्मकाण्ड की कार्यवाही। चार पाँच सौ के लगभग सगे-संबंधियों और मित्रों का नेतृत्व कर रही एक अर्थी को ले जाया जा रहा था वी.आई.पी. प्लेटफाॅर्म पर। सीढ़ियाँ चढ़ते चढ़ते अर्थी उठाने वालों का भी दम फूल रहा था। ऊपर ले जाकर अर्थी पर से शव को उतार कर चिता पर रख दिया गया। साथ आई भीड़ स्पष्ट कर रही थी कि जाने वाला कोई लोकप्रिय या धनाढ्य या कोई नेता या कोई बड़े सम्पर्क वाला था। सन्नाटा सा पसरा हुआ था। लोग आपस में बातें कर भी रहे थे तो भी सन्नाटा था। इस सन्नाटे को तोड़ते चूं-चूं करता आया लकड़ी को ढोए हुए एक ठेला। सीढ़ियों की एक ओर लकड़ियाँ उतार दीं। चिता के आसपास खड़े सम्बन्धियों से चांडालनुमा व्यक्ति कहने लगा ‘पहले मोटी मोटी तना नुमा लकड़ी के गठ्ठे दीजिए’। पच्चीस सीढ़ियों के हरेक पायदान पर लोग डट गये और साथी हाथ बढ़ाना की लय पर मोटे कटे तने आनन फानन में ऊपर पहुँचने लगे। कब बड़े लट्ठे पहुँच गये और कब छोटी लकड़ियाँ जाने लगीं चुपचापियत में कुछ पता ही नहीं चला । मूक आवाज़ में दरख्त के टुकड़े मानो कह रहे हों ‘जीते हुए भी तुमने हमें काटा, मरने के बाद भी तुमने हमें काटा, फिर भी हम तुम्हारे साथ हैं तुम्हारे हर सुख दुख में’। पर शायद इन्सान दरख्तों की आवाज़ नहीं सुन पाते हैं। चिता सजनी शुरू हो गयी थी। लकड़ियों का अंबार लग गया था। चंदन की लकड़ियां भी सामान्य लकड़ियों के साथ मिलजुल गई थीं। दरख्तों ने कभी अमीरी गरीबी में फर्क नहीं किया। सामान्य पेड़ और इंसान की नज़र में चंदन के बहुमूल्य पेड़ एक ही साथ बढ़ते हैं। श्मशान भूमि में भी अमीरी गरीबी का फर्क नज़र आ रहा था। ‘मरने वाले की गति बहुत बढ़िया होगी’ भीड़ में कोई बोला था। ऐसा लगा जैसे बासी तेल में तले पकवान की तुलना देसी घी में पके पकवान से हो रही हो। भई बंदे को सुपुर्दे खाक करना है। अब दस क्विंटल लकड़ी से करे या सौ क्विंटल लकड़ी से, पचास किलो सामग्री से करे या पांच किलो से, एक किलो घी से काम चला लें या दस कनस्तर भी कम पड़ जायें। इसका गति से क्या लेना देना। जाने वाले को मुखाग्नि दे दी गई थी। एक घंटा हो गया था। कोई घड़ी देख रहा था तो कोई ऊँघ रहा था, कोई मोबाइल में व्यस्त था। आखिर में संस्कार कराने वालाएक नया बाँस का लम्बा सा डण्डा लेकर आता दिखाई दिया। पुराने हो चुके अमीर शरीर के लिए सब कुछ नया लाया गया था तो बाँस का डण्डा भी पुराना क्यों हो? कपाल क्रिया के लिए भी नया बाँस। क्या यह सभी बातें सद्गति के लिए आवश्यक हैं? गति सद्गति कैसे हो? कोई ज्ञानी बुजुर्ग कह रहे थे, ‘भई इन सब बातों से क्या होता है? गति कर्मों से होती है। किसी को दुःख न दो बल्कि किसी के दुःख में भागी बनो। किसी के चेहरे पर मुस्कान लाओ। अनपढ़ को पढ़ाओ । गरीब के ईलाज में मदद करो। भूखे को खाना खिलाओ। फटेहाल को कपड़े दो। आदि आदि। सद्गति के ये साधारण नियम हैं। जीवन में ऐसा करेंगे तो पायेंगे ‘सद्गति’। ****
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जन्म : 03 जून 1965
शिक्षा : एम ए हिन्दी , पत्रकारिता व जंनसंचार विशारद्
फिल्म पत्रकारिता कोर्स
कार्यक्षेत्र : प्रधान सम्पादक / निदेशक
जैमिनी अकादमी , पानीपत
( फरवरी 1995 से निरन्तर प्रसारण )
मौलिक :-
मुस्करान ( काव्य संग्रह ) -1989
प्रातःकाल ( लघुकथा संग्रह ) -1990
त्रिशूल ( हाईकू संग्रह ) -1991
नई सुबह की तलाश ( लघुकथा संग्रह ) - 1998
इधर उधर से ( लघुकथा संग्रह ) - 2001
धर्म की परिभाषा (कविता का विभिन्न भाषाओं का अनुवाद) - 2001
सम्पादन :-
चांद की चांदनी ( लघुकथा संकलन ) - 1990
पानीपत के हीरे ( काव्य संकलन ) - 1998
शताब्दी रत्न निदेशिका ( परिचित संकलन ) - 2001
प्यारे कवि मंजूल ( अभिनन्दन ग्रंथ ) - 2001
बीसवीं शताब्दी की लघुकथाएं (लघुकथा संकलन ) -2001
बीसवीं शताब्दी की नई कविताएं ( काव्य संकलन ) -2001
संघर्ष का स्वर ( काव्य संकलन ) - 2002
रामवृक्ष बेनीपुरी जन्म शताब्दी ( समारोह संकलन ) -2002
हरियाणा साहित्यकार कोश ( परिचय संकलन ) - 2003
राजभाषा : वर्तमान में हिन्दी या अग्रेजी ? ( परिचर्चा संकलन ) - 2003
ई - बुक : -
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लघुकथा - 2018 (लघुकथा संकलन)
लघुकथा - 2019 ( लघुकथा संकलन )
नारी के विभिन्न रूप ( लघुकथा संकलन ) - जून - 2019
लोकतंत्र का चुनाव ( लघुकथा संकलन ) अप्रैल -2019
मां ( लघुकथा संकलन ) मार्च - 2019
जीवन की प्रथम लघुकथा ( लघुकथा संकलन ) जनवरी - 2019
जय माता दी ( काव्य संकलन ) अप्रैल - 2019
मतदान ( काव्य संकलन ) अप्रैल - 2019
जल ही जीवन है ( काव्य संकलन ) मई - 2019
भारत की शान : नरेन्द्र मोदी के नाम ( काव्य संकलन ) मई - 2019
लघुकथा - 2020 ( लघुकथा का संकलन ) का सम्पादन - 2020
कोरोना ( काव्य संकलन ) का सम्पादन -2020
कोरोना वायरस का लॉकडाउन ( लघुकथा संकलन ) का सम्पादन-2020
पशु पक्षी ( लघुकथा संकलन ) का सम्पादन- 2020
मन की भाषा हिन्दी ( काव्य संकलन ) का सम्पादन -2021
स्वामी विवेकानंद जयंती ( काव्य संकलन )का सम्पादन - 2021
होली (लघुकथा संकलन ) का सम्पादन - 2021
मध्यप्रदेश के प्रमुख लघुकथाकार ( लघुकथा संकलन ) - 2021
हरियाणा के प्रमुख लघुकथाकार ( लघुकथा संकलन ) - 2021
महाराष्ट्र के प्रमुख हिन्दी लघुकथाकार ( लघुकथा संकलन ) - 2021
मुम्बई के प्रमुख हिन्दी लघुकथाकार ( लघुकथा संकलन ) - 2021
हिन्दी की प्रमुख महिला लघुकथाकार ( लघुकथा संकलन ) - 2021
- बुजुर्ग ( ई - लघुकथा संकलन ) - 2021
बीजेन्द्र जैमिनी पर विभिन्न शोध कार्य :-
1994 में कु. सुखप्रीत ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. लालचंद गुप्त मंगल के निदेशन में " पानीपत नगर : समकालीन हिन्दी साहित्य का अनुशीलन " शोध में शामिल
1995 में श्री अशोक खजूरिया ने जम्मू विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. राजकुमार शर्मा के निदेशन " लघु कहानियों में जीवन का बहुआयामी एवं बहुपक्षीय समस्याओं का चित्रण " शोध में शामिल
1999 में श्री मदन लाल सैनी ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी के निदेशन में " पानीपत के लघु पत्र - पत्रिकाओं के सम्पादन , प्रंबधन व वितरण " शोध में शामिल
2003 में श्री सुभाष सैनी ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. रामपत यादव के निदेशन में " हिन्दी लघुकथा : विश्लेषण एवं मूल्यांकन " शोध में शामिल
2003 में कु. अनिता छाबड़ा ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. लाल चन्द गुप्त मंगल के निदेशन में " हरियाणा का हिन्दी लघुकथा साहित्य कथ्य एवम् शिल्प " शोध में शामिल
2013 में आशारानी बी.पी ने केरल विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. के. मणिकणठन नायर के निदेशन में " हिन्दी साहित्य के विकास में हिन्दी की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं का योगदान " शोध में शामिल
2018 में सुशील बिजला ने दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा , धारवाड़ ( कर्नाटक ) के अधीन डाँ. राजकुमार नायक के निदेशन में " 1947 के बाद हिन्दी के विकास में हिन्दी प्रचार संस्थाओं का योगदान " शोध में शामिल
सम्मान / पुरस्कार
15 अक्टूबर 1995 को विक्रमशिला हिन्दी विद्मापीठ , गांधी नगर ,ईशीपुर ( भागलपुर ) बिहार ने विद्मावाचस्पति ( पी.एच.डी ) की मानद उपाधि से सम्मानित किया ।
13 दिसम्बर 1999 को महानुभाव विश्वभारती , अमरावती - महाराष्ट्र द्वारा बीजेन्द्र जैमिनी की पुस्तक प्रातःकाल ( लघुकथा संग्रह ) को महानुभाव ग्रंथोत्तेजक पुरस्कार प्रदान किया गया ।
14 दिसम्बर 2002 को सुरभि साहित्य संस्कृति अकादमी , खण्डवा - मध्यप्रदेश द्वारा इक्कीस हजार रुपए का आचार्य सत्यपुरी नाहनवी पुरस्कार से सम्मानित
14 सितम्बर 2012 को साहित्य मण्डल ,श्रीनाथद्वारा - राजस्थान द्वारा " सम्पादक - रत्न " उपाधि से सम्मानित
14 सितम्बर 2014 को हरियाणा प्रदेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन , सिरसा - हरियाणा द्वारा लघुकथा के क्षेत्र में इक्कीस सौ रुपए का श्री रमेशचन्द्र शलिहास स्मृति सम्मान से सम्मानित
14 सितम्बर 2016 को मीडिया क्लब , पानीपत - हरियाणा द्वारा हिन्दी दिवस समारोह में नेपाल , भूटान व बांग्लादेश सहित 14 हिन्दी सेवीयों को सम्मानित किया । जिनमें से बीजेन्द्र जैमिनी भी एक है ।
18 दिसम्बर 2016 को हरियाणा प्रादेशिक लघुकथा मंच , सिरसा - हरियाणा द्वारा लघुकथा सेवी सम्मान से सम्मानित
अभिनन्दन प्रकाशित :-
डाँ. बीजेन्द्र कुमार जैमिनी : बिम्ब - प्रतिबिम्ब
सम्पादक : संगीता रानी ( 25 मई 1999)
डाँ. बीजेन्द्र कुमार जैमिनी : अभिनन्दन मंजूषा
सम्पादक : लाल चंद भोला ( 14 सितम्बर 2000)
विशेष उल्लेख :-
1. जैमिनी अकादमी के माध्यम से 1995 से प्रतिवर्ष अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन
2. जैमिनी अकादमी के माध्यम से 1995 से प्रतिवर्ष अखिल भारतीय हिन्दी हाईकू प्रतियोगिता का आयोजन । फिलहाल ये प्रतियोगिता बन्द कर दी गई है ।
3. हरियाणा के अतिरिक्त दिल्ली , हिमाचल प्रदेश , उत्तर प्रदेश , मध्यप्रदेश , बिहार , महाराष्ट्र , आंध्रप्रदेश , उत्तराखंड , छत्तीसगढ़ , पश्चिमी बंगाल आदि की पंचास से अधिक संस्थाओं से सम्मानित
4. बीजेन्द्र जैमिनी की अनेंक लघुकथाओं का उर्दू , गुजराती , तमिल व पंजाबी में अनुवाद हुआ है । अयूब सौर बाजाखी द्वारा उर्दू में रंग में भंग , गवाही , पार्टी वर्क , शादी का खर्च , चाची से शादी , शर्म , आदि का अनुवाद हुआ है । डाँ. कमल पुंजाणी द्वारा गुजराती में इन्टरव्यू का अनुवाद हुआ है । डाँ. ह. दुर्रस्वामी द्वारा तमिल में गवाही , पार्टी वर्क , आर्दशवाद , प्रमाण-पत्र , भाषणों तक सीमित , पहला वेतन आदि का अनुवाद हुआ है । सतपाल साहलोन द्वारा पंजाबी में कंलक का विरोध , रिश्वत का अनुवाद हुआ है ।
5. blog पर विशेष :-
शुभ दिन - 365 दिन प्रसारित
" आज की चर्चा " प्रतिदिन 22 सितंबर 2019 से प्रसारित हो रहा है ।
6. भारतीय कलाकार संघ का स्टार प्रचारक
7. महाभारत : आज का प्रश्न ( संचालन व सम्पादन )
8. ऑनलाइन साप्ताहिक कार्यक्रम : कवि सम्मेलन व लघुकथा उत्सव ( संचालन व सम्पादन )
9. स्तभ : इनसे मिलिए ( दो सौ से अधिक किस्तें प्रकाशित )
स्तभ : मेरी दृष्टि में ( दो सौ से अधिक किस्तें प्रकशित )
पता : हिन्दी भवन , 554- सी , सैक्टर -6 ,
पानीपत - 132103 हरियाणा
ईमेल : bijender1965@gmail.com
WhatsApp Mobile No. 9355003609
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https://bijendergemini.blogspot.com/2021/06/blog-post_9.html
आदरणीय बिजेंद्र जी, सादर प्रणाम. आपकी सुन्दर सोच का विलक्षण उदाहरण. इस आयोजन में मुझे और मेरी रचनाओं को शामिल कर सम्मानित किया है. मैं हृदय से आपका आभारी हूं. इस अंक में शामिल अन्य सभी रचनाकारों को भी बधाई देता हूं.
ReplyDelete- सुदर्शन खन्ना
दिल्ली
( फेसबुक से साभार )
आपके इस सुन्दर प्रस्तुतिकरण की मैं भरपूर प्रशंसा करता हूँ। आपका यह प्रयास लघुकथा के विकास में एक अलग पहचान है । आपको और आपके सभी सहयोगियों को बधाई एवं शुभकामनाएं।
ReplyDelete- अशोक वर्मा
दिल्ली
( WhatsApp से साभार )