बिहार के प्रमुख लघुकथाकार ( ई - लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
जन्मतिथि : 29 अगस्त 1960
जन्मस्थान : सीवान - बिहार
शिक्षा : बी.ए , बी. एड् , एल.एल. बी
सम्प्रति : 2016 से 'साहित्यिक स्पंदन' त्रैमासिक पत्रिका का सम्पादन
विशेष : -
- 2011 में ब्लॉग जगत से जुड़ी
–2012 से हाइकु और लघुकथा लेखन
–2014 में अपना हाइकु समूह बनायी और हाइकु पुस्तक हेतु इवेंट कराया
–2014 में ही वेब जय विजय पर लेखन शुरू किया
–हस्ताक्षर वेब पत्रिका में हाइकु चयन शुरू किया
- 2015 में *साझा नभ का कोना* हाइकु साझा संग्रह और *कलरव* सेदोका - तानका साझा संग्रह का सम्पादन किया
- 2016 में लेख्य-मंजूषा की स्थापना और लघुकथा पुस्तक का सम्पादन शुरू किया
- 2016 में हाइकु शताब्दी वर्ष में लगभग 125 हाइकुकार को शामिल कर .. *साल शताब्दी , शत हाइकुकार, साझा संग्रह* और *अथ से इति : वर्ण पिरामिड* 51 प्रतिभागियों का साझा संग्रह सम्पादित किया –छोटी-छोटी कोशिश है..
–2016 में लगभग 125-130 प्रतिभागियों की हाइकु की दूसरी पुस्तक
साल शताब्दी
शत हाइकुकार
साझा संग्रह
का सम्पादन किया
पता : -
104–मंत्र भारती अपार्टमेंट ,रुकनपुरा , बरेली रोड ,
पटना – 800014 बिहार
01. निदान
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भारत और वेस्टइंडीज के मध्य क्रिकेट का मैच चल रहा था और ऋत्विक जो कि क्रिकेट का ना मात्र शौकीन था अपितु अपने महाविद्यालय की क्रिकेट टीम का एक खिलाड़ी भी की आँखें टी.वी. स्क्रीन पर गड़ी हुई थी। वह भारत की वॉलिंग एवं वेस्टइंडीज की बैटिंग बड़े गौर से देख रहा था...। भारत की बॉलिंग और फील्डिंग पर वह बार-बार मोहित हुआ जा रहा था। उसे टीम के प्रत्येक सदस्य का तालमेल लुभा रहा था तो वेस्टइंडीज की बिखरी–बिखरी बैटिंग पर वह भीतर ही भीतर क्रोधित हो रहा था...।
वेस्टइंडीज के लगातार चार खिलाड़ियों के आउट होते ही उसके मुँह से अकस्मात् निकला,-"इस टीम का हार तो निश्चित है।"
बगल में बैठे उसके छोटे भाई ने कहा,-"अभी तो बैटिंग हेतु उनके खिलाड़ी बाकी हैं..। अभी से ही भैया आप ऐसा कैसे कह सकते हैं..?"
"छोटे! तू नहीं समझेगा... जहाँ बिखराव हो वहाँ हार निश्चित है... भारत ने बॉलिंग एवं फील्डिंग की तरह ही यदि आपसी तालमेल से बैटिंग की तो उनकी जीत निश्चित है।"
"हूँह.. ये.. तो है भैया!"
अपनी बात के साथ ही ऋत्विक के मन–मस्तिष्क में अंकित होने लगे नित्य प्रतिदिन के आपसी लड़ाई-झगड़े... अभी वह इन मानसिक उलझनों में उलझ सुलझ ही रह था कि बाहर से सबसे छोटा भाई रोते हुए दाखिल हुआ,-"भैया! मोहल्ले के हातिम और उसके भाई ने मिलकर मुझे पीटा है...।" इतना कहते हुए वह अपने कमरे में चला गया।
उसके मुँह से अकस्मात् निकला,-"अब मेरा कोई भाई या किसी और का भी भाई ऐसे रोता नहीं आएगा.. हम सब भाई आपस में प्यार-मोहब्बत से मिलकर उदाहरण बनकर रहेंगे और किसी भी समस्या का समाधान मिलकर करेंगे।" ***
02. जागृत समाज
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पुस्तक मेला में लघुकथा-काव्य पाठ समाप्त होते ही वे बुदबुदाये-"ईश्वर तूने आज सबकी प्रतिष्ठा रख ली।"
बगल में बैठे मुख्य अतिथि उनके मित्र के कानों में जैसे ये शब्द पड़े उन्होंने पूछा,-"क्यों क्या हुआ?"
"अरे! तुम नहीं जानते... मैं आयोज में अध्यक्षता तो जरूर कर रहा था परंतु मन में एक अजीब सा डर भी समाया हुआ था.. बकरे की अम्मा सी.. कहीं यहाँ कोई घमासान हुआ तो...!"
"क्यों?"
"ओह्ह! आज सुबह तुमने सुना नहीं क्या अयोध्या राम मंदिर के विषय में, उच्च न्यायालय का क्या निर्णय आया है..?"
"हाँ! सुना तो है... पर ऐसा आपने क्यों सोचा...?"
"तुम समझ तो सब रहे हो फिर भी पूछ रहे हो...!"
"भाई जान! आज समय काफी बदल गया है... ख़ुदा का शुक्र है। सभी समुदाय के लोग पूर्व की अपेक्षा साक्षर ही नहीं अब सुशिक्षित भी हो रहे हैं... वे जानते हैं... सम्प्रदायों की क्षति किसमें है और लाभ किसे है। फूट डालो राज करो अब सफल नहीं होने वाला।"
संध्या हो चुकी थी... एकाएक पूरा मैदान बत्तियों से जगमगा उठा। ****
03.अक्षम्य
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"सुनो! तुम जबाब क्यों नहीं दे रही हो? मैं तुमसे कई बार पूछ चुका हूँ, क्या ऐसा हो सकता है कि किसी भारतीय को गोबर का पता नहीं हो ?"
"क्या जबाब दूँ मेरे घर में ही ऐसा हो सकेगा.. मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी..!"
"आप दोनों आपस में ही बात कर रहे हैं और मुझे मेरे ही कमरे में कैद कर तथा मुझे ही कुछ बता नहीं रहे हैं। क्या मुझे कोई कुछ बतायेंगे?"
"क्या तुम कुछ ऑर्डर पर मंगवाए थे?"अंततः पिता ने पुत्र से ही पूछा।
"हाँ! मैं अमेजन से 'काऊ डंग केक' मंगवाया था। 50% डिस्काउंट पर दो सौ में लगभग पाँच इंच के गोलाकार 12 पीस आया था। परन्तु उसका स्वाद बहुत अजीब था और मेरा पेट भी खराब हो गया। मैं अमेजन के फीड बैक में बताते हुए लिखा भी है कि अगली बार थोड़ा करारा भी बनाकर बेचे।"बेटे की आवाज सुन पिता को अपनी माँ की याद बहुत आने लगी।
"जब से तुम पिता बने हो मेरे पास अकेले आते हो.. इच्छा होती है मेरा पोता गाय का ताजा दूध पीता। तुम जिस तरह गाय को दुहते समय ही फौव्वारे से पी लेते थे। बछड़े से खेलता।"
अपनी माँ के कहने पर हर बार वह कहता," यह हाइजेनिक नहीं है।"
"आप कहाँ खो गए? मैं अपनी गलती स्वीकार तो करती हूँ। लेकिन उन एक सौ पैतालीस लोगों को क्या कहूँ जिन्होंने एमोजन को दिए इसके फीडबैक को पसन्द किया और इसे सही ठहराते हुए शाबासी दिया..।****
04. पश्चाताप
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"माता-पिता के सामने जाकर केवल खड़ा हो जाने से, रिश्तों पर इतने समय से जम रही धूल साफ हो जाएगी..!" मीता ने अपने पति अमित से कहा।
"सामने जाकर खड़ा होने का ही तो हिम्मत जुटा रहा हूँ, जैसे उनसे दूर जाने की तुम्हारे हठ ठानने पर हिम्मत जुटाया था।"
"मेरे हठ का फल निकला कि हमारी बेटी हमें छोड़ गयी और बेटा को हम मरघट में छोड़ कर आ रहे ड्रग्स की वजह से..। संयुक्त परिवार के चौके से आजादी लेकर किट्टी पार्टी और कुत्तों को पालने का शौक पूरा करना था।"
"उसी संयुक्त चौके से बाकी और आठ बच्चों का सुनहला संसार बस गया..।"
"हाँ! अब मेरे भी समझ में आ गया है, शरीर से शरीर टकराने वाली भीड़ वाले घर में एच डी सी सी टी वी कैमरा दादा-दादी, चाचा-चाची, बुआ की आँखें होती हैं..,"
"अब पछतात होत क्या...,"
"आगे कोई बागी ना हो... उदाहरण अनुभव के सामने रहना चाहिए...!" ****
05. इंसाफ
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"अपना बदला पूरा करो, तोड़ दो इसका गर्दन। कोई साबित नहीं कर पायेगा कि हत्या के इरादे से तुमने इसका गर्दन तोड़ा है। तुम मार्शल आर्ट में ब्लैक बेल्ट धारी विशेषज्ञ बनी ही इसलिए थी।" मन ने सचेत किया।
"तुम इसकी बातों को नजरअंदाज कर दो। यह मत भूलो कि बदला में किये हत्या से तुम्हें सुकून नहीं मिल जाएगा। तुम्हारे साथ जो हुआ वो गलत था तो यह गुनाह हो जाएगा।"आत्मा मन की बातों का पुरजोर विरोध कर रही थी।
"आत्मा की आवाज सही है। इसकी हत्या होने से इसके बच्चे अनाथ हो जाएंगे, जिनसे मित्रता कर इसके विरुद्ध सफल जासूसी हुआ।"समझाती बुद्धि आत्मा की पक्षधर थी।
"इसके बच्चे आज भी बिन बाप के पल रहे हैं। खुद डॉक्टर बना पत्नी डॉक्टर है। खूबसूरत है । घर के कामों में दक्ष है। यह घर के बाहर की औरतों के संग..।" मन बदला ले लेने के ही पक्ष में था।
"ना तो तुम जज हो और ना भगवान/ख़ुदा।"आत्मा-बुद्धि का पलड़ा भारी था।
तब कक्षा प्रथम की विद्यार्थी थी। एक दिन तितलियों का पीछा करती मनीषा लड़कों के शौचालय की तरफ बढ़ गयी थी और वहीं उसके साथ दुर्घटना घट गयी थी। जिसका जिक्र वो किसी से नहीं कर पायी। मगर वह सामान्य बच्ची नहीं रह गयी। आक्रोशित मनीषा आज खुश हो रही थी, जब वर्षों बाद उसे बदला लेने का मौका मिल गया। दिमाग यादों में उलझा हुआ था। मनीषा अपने दुश्मन को जिन्दा छोड़ने का निर्णय ले चुकी थी। ****
06. पंच परमेश्वर
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"यह क्या है बबलू.. यहाँ पर मंदिर बन रहा है..?" विक्की ने पूछा।
"हाँ! वक्त का न्याय है।" बबलू ने कहा।
"अगर आप घर में से अपना हिस्सा छोड़ दें तो हम खेत में से अपना हिस्सा छोड़ देंगे।" बबलू ने विक्की से कहा था।
लगभग अस्सी-इक्यासी साल पुराना मिट्टी का घर मिट्टी में मिल रहा था। दो भाइयों के सम्मिलात घर के आँगन में दीवाल उठे भी लगभग सत्तर-बहत्तर साल हो गए होंगे। तभी ज़मीन-ज़ायदाद भी बँटा होगा। ना जाने उस ज़माने में किस हिसाब से बँटवारा हुआ था कि बड़े भाई के हिस्से में दो बड़े-बड़े खेतों के बीचोबीच दस फीट की डगर सी भूमि छोटे भाई के हिस्से में आयी थी। जो अब चौथी पीढ़ी के युवाओं को चिढ़ाती सी लगने लगी थी। बबलू छोटे भाई का परपोता और विक्की बड़े भाई का परपोता थे..। बबलू गाँव में ही रहता था और विक्की महानगर में नौकरी करता था।
'ठीक है तुम्हें जैसा उचित लगे।' विक्की ने कहा था।
घर से मिली भूमि के बराबर खेत के पिछले हिस्से की भूमि बबलू ने विक्की को दिया। आगे से भूमि नहीं मिलने के कारण एक कसक थी विक्की के दिल में , जो आज दूर हो गयी। ****
07. खुले पँख
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"मैं आज शाम से ही देख रहा हूँ.. आप बहुत गुमसुम हो अम्मी! कहिए ना क्या मामला है?"
"हाँ! बेटे मैं भी ऐसा ही महसूस कर रहा हूँ.. बेगम! बेटा सच कह रहा है। तुम्हारी उदासी पूरे घर को उदास कर रही है.. अब बताओ न।" शौकत मलिक ने अपनी बीवी से पूछा।
"कल रविवार है.. हमारे विद्यालय में बाहरी परीक्षा है। आन्तरिक(इन्टर्नल) में जिसकी नियुक्ति थी उसकी तबीयत अचानक नासाज हो गई है। उनका और प्रधानाध्यापिका दोनों का फोन था कि मैं जिम्मेदारी लेकर अपनी उपस्थिति सुनिश्चित करूँ।"
"यह जिम्मेदारी आपको ही क्यों .. और शिक्षिका तो आपके विद्यालय में होंगी?" बेटे ने तर्क देते हुए पूछा।
"ज्यातर बिहारी शिक्षिका हैं। आंध्रा में बिहार निवासी दीवाली से पूर्णिमा तक पर्व में रहते कहाँ हैं।" मिसेज मलिक की उदासी और गहरी हो रही थी।
"चिंता नहीं करो, सब ठीक हो जाएगा।"बेटे ने कहा।
"हाँ! चिंता किस बात की। अपने आने में असमर्थता बता दो कि माँ का देखभाल करने वाली सहायिका रविवार की सुबह चर्च चली जाती है तुम्हारा घर में होना जरूरी है।" पति मलिक महोदय का फरमान जारी हुआ। सहमी सहायिका भी लम्बी सांस छोड़ी।
"कैसी बात कर रहे हैं पापा आप भी? अगर आपके ऑफिस में ऐसे कुछ हालात होते तो आप क्या करते?"
"मैं पुरुष हूँ पुरुषों का काम बाहर का ही होता है।"
"समय बहुत बदल चुका है। बदले समय के साथ हम भी बदल जाएं। कल माँ अपने विद्यालय जाकर जिम्मेदारी निभायेंगी। सहायिका के चर्च से लौटने तक घर और दादी को हम सम्भाल लेंगे।"
"बेटा! तुम ठीक कहते हो... घर चलाना है तो आपस में एक दूसरे की मुश्किलों को देख समझकर ही चलाना होगा.. तभी जिंदगी मज़े में बीतेगी...।"
इतने में उनकी नज़र पिंजरे में बंद पक्षी पर जा पड़ी जो शायद बाहर निकलने को छटपटा रहा था.. पिंजड़ा को खोलकर पक्षी को नभ में उड़ाता बेटे ने कहा,-"सबको आज़ादी मिलनी ही चाहिए।" ****
08. सेतु
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चारों तरफ मैरी किसमस सैंटा सांता क्लॉज का शोर मचा हुआ था..। इस अवसर पर मिलने वाले उपहारों का शैली को भी बेसब्री से प्रतीक्षा थी। कॉल बेल बजा और एक उपहार उसे घर के दरवाजे पर मिल गया। चार-पाँच साल की नन्हीं शैली खुशियों से उछलने लगी,-"मम्मा! मम्मा मैं अभी इसे खोल कर देखूँगी। सैंटा ने मेरे लिए क्या उपहार भेजा है?"
"अपने डैडी को घर आ जाने दो .. ! सैंटा का उपहार कल यानी 25 दिसम्बर को खोल कर देखना। " शैली की माँ ने समझाने की कोशिश किया।
शैली ज़िद करने लगी कि अभी उपहार मिल गया तो अभी क्यों नहीं खोल कर देख ले। माँ बेटी की बातें हो ही रही थी कि शैली के डैडी भी आ गए। वे भी अपनी बिटिया हेतु सैंटा सिद्ध होने के लिए दो-तीन पैकेट उपहारों का लेकर आये थे।
जब तक छिपाकर रखते शैली की नजर पड़ गयी। कुछ ही देर में शैली सारे उपहारों का पैकेट खोलकर बिखरा दी।
"जब तुम जानती थी कि हम उपहार रात में इसके बिस्तर पर रखेंगे, जिसे एमेजॉन पर ऑर्डर किया और कुछ लाने मैं स्वयं बाजार गया था। मेरे वापसी पर शैली को किसी अन्य कमरे में खेलने में व्यस्त रख सकती थी न तुम?" शैली के पिता शैली की माँ पर बरस पड़े।
"इसे आप बाहर नहीं ले गए। कुछ देर तक रोती रही। बहुत फुसलाने पर बाहर से अन्दर आयी। डोर बेल बजने पर यह दौड़ कर दरवाजे तक पहुँच गयी।"शैली की माँ ने कहा।
"ना काम की ना काज.., बहाने जितने बनवा लो..!" शैली के पिता बुदबुदाने लगे । शैली की माँ सुनते भड़क गयी। दोनों में गृह युद्ध हो गया और अबोला स्थिति हो गयी।
शैली के समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर हुआ तो हुआ क्या...?
रात्रि भोजन के समय भी अपने माता-पिता की चुप्पी उसे कुछ ज्यादा परेशान कर दी। शैली अपने पिता के पास जाकर बोली, -"डैडी! मुझे आपसे बात करनी है।"
परन्तु उसके पिता चुप ही रहे।
"क्या मैं आपसे घर की शान्ति की भीख मांग सकती हूँ?" शैली ने कहा। ****
09. पितृ - ऋण
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"बाबूजी!"
"आइये बाबूजी!"
"आ जाइए न बाबा.." मंच से बच्चों के बार-बार आवाज लगाने पर बेहद झिझके व सकुचाये नारायण गोस्वामी मंच पर पहुँच गए।
मंच पर नारायण गोस्वामी के पाँच बच्चें जिनमें चार बेटियाँ , स्वीकृति, संप्रीति स्मृति, स्वाति और एक बेटा साकेत उपस्थित थे।
"मैं बड़ी बिटिया स्वीकृति महिला महाविद्यालय में प्रख्याता हूँ।"
"मैं संप्रीति चार्टर्ड एकाउंटेंड हूँ।"
"मैं स्मृति नौसेना में हूँ।"
"मैं स्वाति बायोटेक इंजीनियर हूँ।
"मैं अपने घर में सबसे छोटा तथा सबका लाड़ला साकेत आपके शहर का सेवक हूँ जिला कलेक्टर।
आप सबके सामने और हमारे बीच हमारे बाबूजी हैं 'श्री नारायण गोस्वामी'।"
"आपलोगों के बाबूजी क्या कार्य करते थे ? यह जानने के लिए हम सभी उत्सुक हैं।" दर्शक दीर्घा के उपस्थिति में से किसी ने कहा।
"हमारे बाबूजी कब उठते थे यह हम भाई बहनों में से किसी को नहीं पता चला। पौ फटते घर-घर जाकर दूध-अखबार बाँटते थे। दिन भर राजमिस्त्री साहब के साथ, लोहा मोड़ना, गिट्टी फोड़ना, सीमेंट बालू का सही-सही मात्रा मिलाना और शाम में पार्क के सामने ठेला पर साफ-सुथरे ढ़ंग से झाल-मुढ़ी, कचरी-पकौड़े बेचते थे।"
दर्शक दीर्घा में सात पँक्तियों में कुर्सियाँ लगी थीं.. पाँच पँक्तियों में पाँचों बच्चों के सहकर्मी, छठवीं में इलेक्ट्रॉनिक्स मीडिया -प्रिंट मीडिया केे पत्रकार व रिश्तेदारों के लिए स्थान सुरक्षित था तो सातवीं पँक्ति में नारायण गोस्वामी बाबूजी के मित्रगण उपस्थित थे।
पिन भी गिरता तो शोर कर देता...। ****
10. रोष
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"क्या हाल है ?" माया ने सुसी को व्हाट्सएप्प पर सन्देश भेजा।
"कोरोना के साथ जीने की कोशिश कर रही हूँ। हा हा हा हा हा..!सुसी ने अनेक हा, हा लिखते हुए कई हँसता हुआ इमोजी भी लगा कर जबाबी सन्देश भेजा।
"अरे मेरी दोस्त! हमसब कोरोना के साथ ही जीने की कोशिश कर रहे हैं..., थैंक्सगिविंग सप्ताह की छुट्टियों में क्या तुम दो घण्टे का समय निकाल सकती हो, या शहर से बाहर जा रही हो?" माया ने सुसी को पुनः व्हाट्सएप्प सन्देश भेजा।
"कोरोना के साथ जीने की कोशिश कर रही हूँ...यानी मुझे सच में कोरोना हुआ है और मुझे पूरे चौदह दिनों का क्वारंटाइन होने का सुख मिल गया है... हा हा हा हा हा..! सुसी ने अनेक हा, हा लिखते हुए कई हँसता हुआ इमोजी भी लगाकर पुनः जबाबी सन्देश भेजा।
"अरे! तुम्हें कैसे हो सकता है? तुम तो कमरे से बाहर नहीं निकलती हो..। इतने महीनों से तुम अपने घर चीन नहीं गयी...,"माया ने सन्देश भेजा।
"बाहर से जो पका भोजन आता है उसे गरम करने किचन तक जाती हूँ। कुछ दिनों पहले मकान मालकिन का प्रेमी शिकागो से आये थे।"
"अरे! शिकागो से कैलिफोर्निया.. हो सकता है कोई ऑफ्फिसियल टूर हो?"
"नहीं केवल प्रेमिका का चेहरा देखने... उन्हें बेहद चिंता लगी हुई थी... रह नहीं पा रहे थे... कुशलता पर विश्वास नहीं कर पा रहे थे...!"
"उनदोनों की उम्र कितनी होगी?"
"लगभग 65-70 की प्रेमिका और 62-72 के प्रेमी!"
"वे दोनों गाये होंगे, 'तुझ में रब दिखता है'..! मैं स्तब्ध हूँ!"
"इसलिए तो हमलोगों में कोरोना दिख रहा है..,"
"किस सोच में डूबी हो?" माया के कन्धे पर हाथ रखती हुई उसकी माँ ने पूछा।
"सामान्य कोरोना होने के बाद जीवित रह जाना भी चिन्ता से मुक्ति नहीं है माँ..! स्वस्थ्य होने के कई महीनों के बाद यादाश्त खो जाना, उच्च रक्तचाप..,"
"क्यों क्या हुआ?"
"सुसी को कोरोना हुआ है और वह मुझे हा हा हा हा हा अनेक हा, हा लिखते हुए कई हँसता हुआ इमोजी भी लगाकर जबाबी सन्देश भेजा।"
"बहादुर बच्ची है उसका हौसला बढ़ाने में तुम भी सहायक होना।" ****
11.रोमहर्षक
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"यह क्या किया तूने?" अस्पताल में मिलने आयी तनुजा ने अनुजा से सवाल किया। अनुजा का पूरा शरीर पट्टी से ढ़ंका हुआ था उनRपर दिख रहे रक्त सिहरन पैदा कर रहे थे। समीप खड़ा बेटा ने बताया कि उसके घर में होती रही बातों से अवसाद में होकर पहले शरीर को घायल करने की कोशिश की फिर ढ़ेर सारे नींद की दवा खा ली.. वह तो संजोग था कि इकलौता बेटा छुट्टियों में घर आया हुआ था।
"तितलियों की बेड़ियाँ कब कटेगी दी?"
"क्या बेटे को अमरबेल बनाना चाहती हो या नट की रस्सी पर संतुलन करना सिखलाना चाह रही हो?"
"सभी सीख केवल स्त्रियों के लिए क्यों बना दी?"
"वो सृजक है.. स्त्री है तो सृष्टि है..! अब भूमि से पूछो वह क्यों नहीं नभ से हिसाब माँगती है..!"
"कोई तो सीमांत होगा न ?"
"एक बूँद शहद के लिए कितने फूलों का पराग चाहिए होता है क्या है मधुमक्खी ने बताया कभी तितली को? पागलपन छोड़ बेटे को विश्वास दिलाने की बातकर कि आगे बुरे हादसे नहीं होंगे..!" अनुजा के बेटे को गले लगाते हुए तनुजा ने कहा। ****
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मूल नाम- मुकेश कुमार वर्मा
जन्म तिथि- 5 जनवरी, 1960.
जन्म स्थान- पटना
शिक्षा- अर्थशास्त्र में स्नातकोत्तर
सम्प्रति- वाणिज्यकर विभाग, बिहार में राज्यकर संयुक्त आयुक्त पद से सेवानिवृत्त
लेखन :-
मूलत: बाल साहित्य व लघुकथा लेखक
प्रकाशित पुस्तकें : -
लघुकथा संग्रह-
1) भेड़िया जिन्दा है (प्रकाशक-शिल्पायन, शाहदरा, दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2008)
2) मां की याद (प्रकाशक-शिल्पायन, शाहदरा, दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2016)
3) उतरन (प्रकाशक-नमन प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2014)
4) मैं अभी बेटी हूँ (प्रकाशक- लाॅर्ड्स पब्लिशिंग हाउस, रांची। प्रकाशन वर्ष- 2008)
बाल कहानी संग्रह-
1) अधूरे ज्ञान का दंड (प्रकाशक-आलेख प्रकाशन, नवीन शाहदरा, दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2008)
2) वात्सल्य का प्रतिदान (प्रकाशक-आलेख प्रकाशन, नवीन शाहदरा, दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2018)
3) चींटी की धरोहर (प्रकाशक-पीताम्बर पब्लिशिंग क0 प्रा0 लि0, करौल बाग, नई दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2010)
4) चाँद की भूल-भुलैया (प्रकाशक-पीताम्बर पब्लिशिंग क0 प्रा0 लि0, करौल बाग, नई दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2012)
5) मोम की परियाँ (प्रकाशक-पीताम्बर पब्लिशिंग क0 प्रा0 लि0, करौल बाग, नई दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2014)
6) मन का दरवाजा (प्रकाशक-पीताम्बर पब्लिशिंग क0 प्रा0 लि0, करौल बाग, नई दिल्ली। प्रकाशन वर्ष- 2014)
7) बेमिसाल मित्र (प्रकाशक-ज्ञान प्रकाशन, कुर्जी, पटना, प्रकाशन वर्ष- 2008)
सम्मान : -
- लघुकथा संग्रह ‘भेड़िया जिन्दा है’ को अखिल भारतीय लघुकथा प्रगतिशील मंच, पटना द्वारा श्री परमेश्वर गोयल लघुकथा शिखर सम्मान, 2009
वर्तमान पता-
फ्लैट संख्या-301, साई हाॅरमनी अपार्टमेन्ट
अल्पना मार्केट के पास, न्यू पाटलीपुत्र काॅलोनी,
पटना-800013 ( बिहार )
स्थायी पता-
द्वारा- श्री महेश्वर नाथ वर्मा ‘गुरु कृपा’
रोड न. 2, विकास नगर, (कोठियां)
कुर्जी, पोस्ट- सदाकत आश्रम, पटना-800010 (बिहार)
1. पास की दूरियाँ
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माँ कई दिनों से ज्वर से पीड़ित थी। हर समय सर और बदन भी दुखते रहते। मगर जिस अंग को सबसे ज्यादा पीड़ा हो रही थी, वह था मां का हृदय। दूर जा बसे एकलौते पुत्र को घर आने का कई बार संदेशा भेजा गया। मगर वह हाईटेक दुनिया के सुलझे-अनसुलझे कामों के जंगल में ऐसा भटका था कि मां की सुधि लेने की उसे फुर्सत ही नहीं हो रही थी।
मां की दशा बिगड़ती चली गई। लाठी के सहारे खड़े पिता अकेले पत्नी को कितना संभालते। एक दिन वे हिम्मत हार बैठे। उन्होंने बेटे को कह दिया, ‘‘बेटा, अब मुझसे नहीं होता। दया करके अब तो आ जाओ।’’
इस आर्त विनीत संदेश का असर हुआ। बेटा दूसरे ही दिन फ्लाईट से आ पहुंचा। बेटे का चेहरा देख मां के हृदय की पीड़ा कम हुई। बेटा मां के पास थोड़ी ही देर बैठकर ऊपर अपने कमरे में चला गया। शाम हुई, फिर रात हुई। मगर बेटा ऊपर कमरे में ही रहा। पिता ने समझाया, ‘‘बेटा थका-हारा है। आज उसे पूरा आराम कर लेने दो। वह सुबह आकर जरूर तुम्हारा पूरा खयाल रखेगा।’’
मां ने इस विश्वास के साथ रात गुजारी। सुबह के आठ बज गए। बेटा नीचे नहीं आया। पिता ऊपर देखने गए तो उसे अभी भी सोया हुआ पाया। नौ बजते-बजते पिता फिर लाठी टेकते ऊपर गए। इस बार गुसलखाने से आवाज आई। वे समझ गए, बेटा तैयार हो रहा है। अब नीचे आएगा ही। मगर दस बज गए। बेटा ऊपर ही रहा।
तभी काॅल बेल बजी। दरवाजे पर जोमैटो ब्वाय नाश्ता लिए हाजिर था। वह ऊपर कमरे में बेटे को नाश्ता पहुंचाकर चला गया। पिता ने थोड़ा और धैर्य रखा। उन्होंने सोचा, ‘चलो अच्छा है। उसने खुद अपना नाश्ता मंगवा लिया।’
मगर देखत-देखते ग्यारह बज गए। अब टूट गई पिता की हिम्मत। वे पत्नी के पास आकर निढाल हो गए। तभी पत्नी का मोबाइल बजा। पत्नी ने देखा मोबाइल पर किसी का व्हाट्सएप मेसेज आया हुआ है। यह मेसेज उसके बेटे का ही था। मां ने मेसेज पढ़ा। लिखा था, ‘मां, तुम कैसी हो ? बुखार उतरा कि नहीं ? दर्द कम हुआ या नहीं ? दवा लेती रहना। पौष्टिक आहार भी ले लेना। मां, साॅरी। मैं अभी आफिस के काम में बिजी हो गया हूं। उसे आनलाइन निपटा रहा हूं। अभी नीचे आ नहीं पाऊंगा। देखता हूं, कबतक आ पाता हूँ। तुम अपना खयाल रखना।’’
मां को लगा, बेटा अभी भी दूसरे शहर में बैठा है। पिता भी समझ गए कि उन्होंने पुत्र को बुलाकर भूल ही कर दी है। ****
2. सम्मान
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मैं अपने मित्र के साथ भोजन कर रहा था। मैंने सभी चीजें बड़े चाव से खा ली। मेरी थाली साफ-सुथरी हो गई। लेकिन मेरे मित्र ने बहुत सारा खाना छोड़ दिया। उसने अपनी पत्नी को पास बुलाया और गर्व भाव से थाली सरकाते हुए कहा, ‘‘प्रिये, मेरा बचा खाना खा लो।’’
उसकी पत्नी बड़े प्रेम से थाली उठाकर चली गई। मैं बड़े हैरत में था। मैंने पूछा, ‘‘तुमने ऐसा क्यों किया ?’’
उसने जवाब दिया, ‘‘हम अन्न का बहुत सम्मान करते हैं। उसे बर्बाद नहीं कर सकते।’’
मैंने तुरंत कहा, ‘‘लेकिन मैं बचे हुए खाने कभी पत्नी को नहीं देता। हिसाब से ही लेता हूं या फिर बचे भोजन को खुद ही खाने का भरसक प्रयास करता हूं।’’
उसने पूछा, ‘‘तो क्या तुम अन्न का सम्मान नहीं करते ?’’
मैंने बेलाग कहा, ‘‘मैं बेशक अन्न का सम्मान करता हूँ । लेकिन मैं पत्नी का भी सम्मान करता हूं। जूठा खिलाकर उसका अपमान नहीं करता।’’ ****
3. स्वार्थ की तेरहवीं
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अपने शहीद पापा की तेरहवीं पर रात के वक्त बेटा छत पर उदास बैठा था। गांव के सभी शुभचिंतक लोग शहीद की आत्मा की शांति के लिए प्राथना करने के बाद अपने-अपने घर जा चुके थे। बच्चे की दादी छत पर आई और बच्चे को उदास बैठा हुआ देखा तो उसे बुलाकर नीचे ड्राइंग रूम में ले आई। चारो तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था। तभी दादी ने टीवी आन कर दिया और एक न्यूज चैनल लगा दिया। उस चैनल पर आतंकवादी घटना को लेकर अभी भी गरमा-गरम बहस चल रही थी। बेटे ने दुखी होकर चैनल बदल दिया। दूसरे चैनल पर भी आतंकवाद से जुड़ी समस्या पर गहन चिन्तन-मनन हो रहा था। बेटे ने फिर चैनल बदला। वहां भी आतंकवाद का ही मसला फेंटा जा रहा था। पृष्ठभूमि में ‘‘बदला लेंगे, बदला लेंगे....’’ का शोर सुनाई दे रहा था।
बेटे ने गुस्से में आकर टीवी बंद कर दिया। उसने दादी से कहा, ‘‘दादी, हमने पापा की आत्मा की शांति के लिए तेरहवीं मना ली और अब हम नए जीवन की शुरुआत में भी लग गए हैं। मगर ये लोग अभी भी इतना बावेला क्यों खड़ा कर रहे हैं ?’’
दादी ने समझाते हुए कहा, ‘‘बेटा, दरअसल जिनका निजी नुकसान नहीं होता, उनकी तेरहवीं कुछ ज्यादा ही लंबी चलती है।’’ ****
4. तीर्थ यात्रा
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माँ वैष्णव देवी के मंदिर जाने का मेरा और पत्नी का कार्यक्रम फाइनल हो गया था। हम उत्साह में थे और ऐसे पवित्र जगह जाने के नाम पर हमारे मन में भक्ति भाव जागृत होने लगा था। हम जम्मू जाने के लिए एयरपोर्ट निकल चुके थे। तभी पिता जी का फोन आया। वे बड़े विचलित से थे। उनकी आवाज थरथरा रही थी। कह रहे थे, ‘‘बेटा, तेरी माँ की तबीयत अचानक बिगड़ गई। दमे के दौरे बढ़ गए हैं। समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूँ ?’’
मैंने पिताजी को ढ़ाढ़स बंधाया और कहा, ‘‘पापा, धीरज धरिए। माँ को दमे की दवा नियमित दीजिए। दौरे कम हो जाएंगे।’’
पिता जी ने बड़ी आशा से पूछा, ‘‘बेटा, आओगे नहीं ?’’
मैंने कहा, ‘‘पापा, साॅरी। हमलोग वैष्णव देवी जा रहे हैं। घर आ नहीं पाएंगे। हम वहाँ जाकर देवी माँ से आशीर्वाद लेंगे। माँ जरूर अच्छी हो जाएंगी। आप ज्यादा चिन्ता न करें......’’ और इतना कहते ही फोन कट गया।
हमारा प्लेन जम्मू के लिए उड़ चला था। मगर मैं एक अपराध बोध से ग्रसित होने लगा था। पत्नी ने समझाया, ‘‘हम एक पुण्य कार्य पर ही जा रहे हैं। ज्यादा मत सोचो, सब अच्छा होगा।’’
अगले दिन हमने माँ के दर्शन किए। हमने देवी माँ से अपनी माँ के लिए दुआएं कीं। देवी माँ का आशीर्वाद लेकर हम आश्वस्त हुए और मंदिर से बाहर निकले। हाथ में फूल और प्रसाद लिए मंदिर की सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी पिता जी का फिर फोन आया। वे काफी नर्वस थे। ठीक से बोल नहीं पा रहे थे। उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, तुम्हारी माँ ठीक से सांस नहीं ले पा रही हैं। लगता है, अब बच नहीं पाएंगी। मैं अकेला क्या करूँ ?’’
मैंने पिताजी को समझाया, ‘‘पापा, मैंने देवी माँ का आशीर्वाद ले लिया है। माँ के साथ ऐसा पहले भी हुआ है। देवी माँ के प्रताप से वे जरूर ठीक हो जाएंगी। आप निश्चिंत रहें......’’
बात पूरी नहीं हुई और एक बार फिर फोन कट गया। हम जम्मू वापस आकर दिल्ली के लिए ट्रेन में बैठ चुके थे। ट्रेन समय पर चल पड़ी। तभी पिता जी का एसएमएस आया, ‘बेटा, सब खत्म-सा हो गया लगता है। तुम्हारी माँ शायद कल की सुबह नहीं देख पाएंगी।’
मैं बहुत विचलित हुआ। क्या माँ के दरबार में हमारी प्रार्थना नहीं सुनी गई ? क्या हमारी यात्रा सफल नहीं हुई ? मैं उदास होकर सोचता रहा और सोने चला गया। काफी देर तक करवटें बदलने के बाद बड़ी मुश्किल से नींद आई। सुबह चार बजते ही पिता जी का फोन आया। इस समय फोन आया देख मैं पूरा आशंकित हो गया। काँपते हाथ से मैंने फोन कान से लगाया। पिता जी की आवाज आई।
उन्होंने कहा, ‘‘बेटा, घबराना मत। आधी रात को तेरा छोटा भाई अपने शहर से एंबुलेंस लेकर आ गया। हम एक घंटे में ही शहर के बड़े अस्पताल पहुँच गए। उसने डाक्टरों से पहले ही बात कर ली थी। आनन-फानन में माँ को आईसीयू में ले जाया गया। वहाँ तुरन्त आक्सीजन चढ़ने लगा। तेरी मरणासन्न माँ की सांसें लौट आईं। अब वे ठीक हैं। सुबह होते ही वार्ड में आ जाएगी।’’
मैंने पिताजी से पूछा, ‘‘पापा, छोटे ने तो कल ही शिरडी जाने के लिए एयर टिकट ले रखा था। क्या वह शिरडी नहीं गया ? क्या टिकट के पैसे डूब गए ?’’
पिताजी ने कहा, ‘‘बेटा, उसने टिकट के पैसों से ज्यादा अपनी माँ की परवाह की। समझो, उसी ने अपनी माँ के प्राण बचा लिए। तुम अब चिन्ता मत करो। निश्चिन्त होकर अपनी तीर्थ-यात्रा पूरी करो।’’
इतना कह, पिताजी ने फोन काट दिया। मैं ग्लानि और क्षोभ से दबने लगा। सुबह दिल्ली पहुंचकर घर लौटते वक्त मैं रास्ते भर यही सोचता रहा कि तीर्थ-यात्रा हमने पूरी की थी कि मेरे छोटे भाई ने ? ****
5. अंधकार का उजाला
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सुबह का समय था। मुझे नहाने की बड़ी जल्दी थी। मुझे चाचा जी को लेने के लिए स्टेशन जाना था। मैं बाथरूम की तरफ बढ़ा। मगर मैंने बाथरूम का दरवाज अंदर से बंद पाया। मैं झल्ला उठा। मैंने पत्नी से पूछा, ‘‘बाथरूम में कौन गया है ?’’
पत्नी ने कहा, ‘‘कामवाली नहाने गई है।’’
मैं चैंक पड़ा, ‘‘कामवाली ? उसे नहाने की इजाजत किसने दी ?‘‘
पत्नी ने कहा, ‘‘मैंने। घर से आते वक्त किसी ने उसके देह पर गंदा पानी गिरा दिया था। इसलिए मैंने उसे नहाने भेज दिया है।’’
मैं पत्नी पर नाराज होने लगा। मैंने कहा, ‘‘बाथरूम वैसे ही गंदा रहता है। वह और गंदा कर देगी।’’
मैं गुस्से में भरकर सोफे पर आकर बैठ गया और कामवाली के बाहर आने का इंतजार करने लगा। तभी कामवाली बाहर निकली। मैं यह सोचकर बाथरूम में घुसा कि अब तो और ज्यादा गंदे बाथरूम में नहाना पड़ेगा। लेकिन मैंने अंदर जाकर जो देखा तो आश्चर्य में डूब गया। बाथरूम बिल्कुल साफ हो गया था। कहीं कोई गंदगी नहीं थी। मैं पहली बार इतने साफ बाथरूम में नहाया। नहाकर मन प्रसन्न हो गया। मैं बाहर निकला और सबसे पहले मैंने कामवाली को ‘धन्यवाद’ कहा। मुझे बेहद ग्लानि हो रही थी कि जिसे हम गलत समझते हैं, वही लोग बेहद बेहतर काम कर जाते हैं। ****
6. दानकर्ता की भूल
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आफिस के चपरासी का माबाईल पुराना पड़कर खराब हो चुका था। उसे घरवालों से बात करने में रुकावटों का सामना करना पड़ता था। एक दिन वह मेरे चैंबर में आया और उसने एक नया मोबाईल आनलाइन मंगा देने की गुजारिश की। उसने कहा, ‘‘सर, पैसा आप लगा दीजिए। मैं धीरे-धीरे कर चुका दूंगा।’’
मैंने उसका निवेदन तत्क्षण स्वीकार कर लिया। मोबाईल आनलाइन बुक हो गया। तीसरे ही दिन कुरियरवाला मोबाईल की डिलीवरी कर गया। मोबाईल पाकर चपरासी प्रसन्नचित्त हुआ और मेरे प्रति कृतज्ञ भी। उसने फिर दुहराया, ‘‘सर, तनख्वाह मिलते ही आपके पैसे लौटा दूंगा।’’ मैं चुप रहा।
नया माह आया। पहली तारीख को वेतन बंट गया। मगर मुझे पैसे वापस नहीं मिले। एक दिन वह मेरे पास आया तो शरमा रहा था। कहा, ‘‘सर, पैसे खर्च हो गए। अगले माह जरूर चुका दूंगा।’’ मैं फिर चुप रहा।
अब वह जब भी मेरे सामने आता तो लजाया रहता और अपराध बोध से ग्रसित दिखता। वह नजरें झुकाकर फाइल रखता और ले जाता। मैं कभी उसकी ओर चेहरा उठा लेता तो उसका चेहरा लाल हो जाता। देखते-देखते दो माह और बीत गए। उसकी दशा वैसी ही बनी रहती। वह धीरे से कहता, ‘‘सर, कुछ समय और दीजिए।’’
एक दिन वह अपराधी की तरह खड़ा था और मेरे कप में चाय डाल रहा था। उसे हाथ कांप रहे थे। चाय की कुछ बूंदें बाहर छिटक गयीं। उसकी यह दशा देख आज मुझे दया आ गई। मैंने तुरन्त निर्णय लिया और कहा, ‘‘दयाराम, वह मोबाईल मेरी ओर से उपहार समझो। तुम्हें पैसे चुकाने की जरूरत नहीं है।’’
वह आश्चर्य और खुशी से लबरेज हो गया। उसका अपराध-बोध विलीन हो गया। यह देख मुझे भी राहत हुई। मगर अगले ही क्षण वह थोड़ा गंभीर हो गया। मैंने पूछा, ‘‘कुछ गड़बड़ हुआ क्या ?’’
उसने कहा, ‘‘सर, यह बात आप पहले भी कह सकते थे। मैं आजतक अपराध के बोझ से दबा आ रहा था। पिछले तीन माह किस तरह बीते हैं, यह मैं ही जानता हूं। आप ये बात पहले कह देते तो मैं पहले ही निश्ंिचत हो जाता ? आपने तो तीन माह के लिए मुझे जिन्दा ही मार दिया था।’’
ये बातें कहकर वह चैंबर से बाहर चला गया। तब स्थिति यह हुई कि वह तो अपराध मुक्त हो गया, लेकिन मैं अपराध बोध से ग्रसित हो गया था। ****
7. ज्ञान तो ज्ञान है
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हमारे कार्यालय में एक बड़े अधिकारी थे। वे ज्ञान का सागर थे। वे कई विषयों में पारंगत थे। लंच टाइम में लंच खाने के बाद उन्हें जैसे ही फुर्सत मिलती तो वे किसी-न-किसी को अपने चैंबर में बिठाकर अपना ज्ञान बांटने लगते। कभी-कभी मैं भी उनके चैम्बर में चला जाता। लेकिन मैंने जल्दी ही यह महसूस किया कि ज्ञान बांटने के बहाने दरअसल वे अपने आप को महिमामंडित करते थे। साथ ही, वे सामने वाले व्यक्ति को बड़ी ही हेय दृष्टि से देखते थे, मानो सामने बैठा व्यक्ति बेहद अज्ञानी और मूढ़ हो। यह सच्चाई खुलते ही मेरे आत्म-सम्मान को ठेस लगी और मैंने उनके चैंबर में जाना छोड़ दिया।
एक दिन किसी अन्य व्यक्ति के साथ एक विषय पर बहस के क्रम में बड़े अधिकारी द्वारा दिया गया ज्ञान बड़ा काम आ गया। उस दिन मैं सोच में डूब गया कि अब आगे क्या करूं। एक तरफ ज्ञान है तो दूसरी तरफ आत्म-अभिमान। दोनों के बीच कशमकश चलती रही। आखिर यह समझ में आया कि भाई, ज्ञान तो ज्ञान है। जहां अवसर मिले, वहां इसे सहर्ष ग्रहण कर लेना चाहिए। इस निरे अभिमान को ज्ञान के प्रवाह के बीच में आड़े नहीं आने देना चाहिए। मैंने उस दिन अपने अभिमान की दीवार ढहा दी। मैं उनके चैंबर में बराबर जाने लगा और ज्ञान की गंगा में गोते लगाने लगा। मैंने फिर इस बात की कतई परवाह नहीं की कि ज्ञान बांटनेवाले की भावना क्या है। ****
8. मोह की बाधा
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एक राजा था। एक बार उसके मन में यह विचार आया कि क्या वह प्रजा का सच्चा हितैषी है। यह परखने के लिए उसने एक योजना बनाई। उसने राज पुरोहित को बुलाया। राजा ने राज पुरोहित से कहा, ‘‘आप एक ऐसे व्यक्ति को लाएं जिसे तैरना नहीं आता हो। उसे राज सरोवर में डुबोया जाएगा। तैरना मुझे भी ठीक से नहीं आता है। यदि मैं उसे बचाने सरोवर में कूद गया तो समझो कि मुझे प्रजा से प्रेम है। यदि नहीं तो समझो कि मैं राजा कहलाने के योग्य नहीं हूं।"
ऐसा ही किया गया। राजा के सामने एक व्यक्ति को राज सरोवर में ढकेल दिया गया। वह पानी में हाथ-पांव मारने लगा। मगर राजा उसे बचाने से पहले एक दुविधा में डूब गया। उसने सोचा, क्या एक स़क्षम राजा को महज एक साधारण प्रजा के लिए प्राण दांव पर लगा देना चाहिए। उसने पानी में कूदने से मना कर दिया। उसने राज पुरोहित से मदद मांगी। राज पुरोहित ने कहा, ‘‘राजन, आप राजा होने की भावना त्याग दीजिए।"
राजा ने तुरंत अपना मुकुट नीचे रख दिया और पानी में कूदने के लिए तैयार हो गया। तभी वह दूसरे धर्म संकट में पड़ गया। उसने सोचा, ‘मैं तीन रानियों का पति हूं। क्या मैं एक साधारण प्रजा के लिए तीन रानियों को विधवा कर दूं ?"
राज पुरोहित ने राजा का मन पढ़ लिया था। उसने कहा, ‘‘राजन, आपको रानियों का मोह त्यागना होगा। आपको भूलना होगा कि आप किसी के पति हैं।"
राजा ने ऐसा ही किया। वह दाम्पत्य स्थिति को भूल गया और एक बार फिर सरोवर में उतरने के लिए उद्यत हुआ। तभी फिर एक नए संशय ने उसे आ घेरा। इस बार उसे चार पु़त्रों की चिंता ने दबोच लिया। राज पुरोहित सब समझ रहे थे। उन्होंने राजा को समझाया, ‘‘राजन, पुत्र का भी मोह त्याग दें। आप तभी अपना यह कर्तव्य पूरा कर पाएंगे।"
राजा ने पुत्रों का भी मोह त्यागा। अब उसके मन में कोई संशय नहीं रहा। वह बिल्कुल साधारण व्यक्ति बन गया। वह सम्पूर्ण मोह त्यागकर पानी में कूद गया और थोड़े प्रयत्न के बाद ही उस व्यक्ति को बचा लाया। राजा ने राज पुरोहित से कहा, ‘‘सभी तरह के मोह त्यागने के बाद मुझमें कोई डर शेष नहीं रह गया था। इससे मेरा काम बड़ा आसान हो गया। मुझे मोह-मुक्त करने के लिए आपको कोटिशः धन्यवाद।"
कहते हैं, तब से ऐसे राजाओं को अपने कर्तव्य निर्वहन में कभी कोई दिक्कत नहीं आती है। ****
9. अपने-अपने सपने
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मध्य आयु वर्ग के माता-पिता इस बात से दुखी रहते कि उनका युवा पुत्र उनके साथ और उनके माँ-बाऊजी के साथ बैठना और विचारों का आदान-प्रदान करना पसंद नहीं करता। घर में रहते हुए भी उन्हें लगता कि वे पुत्र से बहुत दूर रहते हों। एक बार उन्होंने बेटे से विनयपूर्वक आग्रह किया कि सप्ताह में एक बार तो साथ में बैठो। बेटा मान गया। रविवार के दिन दस बजे सभी का साथ बैठना तय हुआ।
नियत तिथि और समय पर बूढ़े दादा-दादी, माता-पिता और पुत्र ड्राइंग रूम में विराजमान हुए। युवा पुत्र ने बातचीत का सिलसिला शुरू किया। वह एक बड़ी कंपनी में ऊँचे पद पर था। उसने भविष्य की अपनी योजना की बात करनी शुरू की। उसने लंदन के अत्याधुनिक रेस्त्रां की भी चर्चा की। उसने कहा, “उस रेस्त्रां में इतने आइटम थे कि उन्हें खाते-खाते पेट भर जाता, मगर मन कभी नहीं भरता। वहां सारी दुनिया की चीजें मिलती हैं। मैं भी भविष्य में ऐसे ही रेस्त्रां शुरू करने के बारे में सोचू रहा हूं।"
इसपर पिता ने कहा, “हाँ, हमारे ज़माने में भी एक ऐसा ही रेस्त्रां होता था, जिसमें कई तरह के डोसे और समोसे मिलते थे।"
माँ बोल पड़ी, “अरे, अपने मायके में गोपाल दादा की चाय की दुकान कितनी फेमस थी। कहने को तो चाय की दुकान थी, मगर उसके यहाँ पकोड़े, जलेबी, गोलगप्पे के क्या कहने ?’’
अब दादाजी कहाँ चुप रहते। वे अपने गांव की सुदूर पतली गली में जा पहुंचे। उन्होंने कहा, “अरे छोड़ो आज की बातें। हमारे ननिहाल का लिट्टी-चोखा पटना तक धूम मचाते थे। गवर्नर और मुख्यमंत्री भी कभी उधर आते तो सर्किट हाउस में लिट्टी-चोखा मंगाकर खाना नहीं भूलते।"
अब दादी भी मुँह खोलनेवाली थी कि तभी युवा पुत्र झल्ला उठा। उसने सोफे के हैंडल पर हाथ मारते हुए कहा, “अब समझ में आया न कि मैं आपलोगों के साथ बातें करना क्यों नहीं पसंद करता हूँ। मैं कहाँ दस-बीस साल आगे जाने की बात कर रहा हूँ। और आपलोग हैं कि भूतकाल में दौड़ पड़े। पापा-मम्मी जहाँ बीस साल पीछे भागे तो दादा चाली साल पीछे। आपलोगों को तो बीता हुआ भूत पीछा ही नहीं छोड़ता है ! इंटरनेशनल क्यूसिन के जमाने में मैं क्या आपलोगों से लिट्टी-पकौड़े डिस्कस करूंगा ?"
बेटा उठ खड़ा हुआ और अपने कमरे में दाखिल हो गया। उसने जोर से दरवाजा बंद कर लिया। आवाज़ सुनकर माता-पिता और दादा-दादी की जैसे नींद खुली हो। वे कुछ पल सकते में रहे। मगर उन्हें अगले ही पल बड़ा साफ महसूस हुआ कि उन्हें तो पुराने दिनों के ही सपने बड़े मीठे लगते हैं। ****
10. प्यार की लाठी
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पिता ने अस्सी वर्ष की आयु की दहलीज पार कर ली थी। बच्चों को लगा, पिता के पाँव अब कमजोर हो गए होंगे। उन्हें अब सहारे की जरूरत है। लिहाजा अस्सीवें जन्मदिन पर उन्हें एक हाई टेक छड़ी भेंट की गयी। छड़ी को खोलकर और बंदकर दिखाया गया कि यह किस प्रकार छोटी और बड़ी हो जाती है और इसका मूठ किस प्रकार पकड़ा जाता है। पिता निर्विकार भाव से छड़ी का डेमो देखते रहे। मुख निःशब्द था, मगर चेहरे की अभिव्यक्ति यह साफ कह रही थी कि तुम बच्चों के होते हुए इस हाई टेक, परन्तु निर्जीव छड़ी की क्या जरूरत ? बच्चे उस चुप अभिव्यक्ति को समझ नहीं सके और गर्व करते रहे कि उन्होंने पिता का पूरा खयाल रखा है।
छड़ी आ जाने के बाद पिता को सचमुच यह लगने लगा कि उनके पाँव कमजोर होने लगे हैं। इस बदलाव से वह बेचैन रहने लगे। वे बच्चों का मन रखने के लिए कभी-कभी छड़ी का इस्तेमाल कर लेते। लेकिन बहुत बुरा अनुभव करते।
एक दिन छड़ी दीवाल के सहारे खड़ी थी। तभी उनका पोता दौड़ता हुआ आया और सीधे छड़ी पर जा गिरा। छड़ी के दो टुकड़े हो गए। पोता भी गिर कर रोने लगा। पिता वहीं सोफा पर बैठे थे। इस घटना से उनके अंदर मिली-जुली प्रतिक्रिया हुई। पोते को गिरा हुआ देख जहाँ पीड़ा हुई, वहीं छड़ी को टूटा हुआ देख उनके अंदर एक ऊर्जा कौंध गयी। उन्हें लगा उनके अपमानित पाँव में सम्मान जाग गया हो। वे तेजी से उठे और रोते हुए पोते को गोद में उठा लिया। वे खूब तेज क़दमों से कमरे में गोल-गोल चलने लगे और पोते को चुप कराने लगे। तबतक बच्चे और उनकी पत्नियां कमरे में आ गए। पिता के पांवों की ऊर्जा देख सभी सकते में थे। उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा था कि पिता के बूढ़े पांवों में इतनी ऊर्जा आयी कहाँ से। तभी उनकी नजर टूटी छड़ी पर गयी। उन्हें फ़ौरन सब समझ में आ गया। उन्हें मूक पिता का सन्देश मिल गया था।
बड़े बेटे ने झट छड़ी उठाई और उसके चार टुकड़े कर डस्टबिन में फ़ेंक दी। दूसरे बेटे ने आगे बढ़कर पिता का हाथ थाम लिया और उन्हें चलने में सहारा देने लगा।
यह सब देख पिता खिलखिला उठे। पोता भी हँसने लगा था। ****
जन्म तिथि - 5 मई 1963
पिता का नाम - डॉ ब्रज बल्लभ सहाय
माता का नाम - श्रीमती माधुरी सहाय
पति का नाम - श्री गिरिजेश प्रसाद श्रीवास्तव
निवास स्थान - पटना (बिहार)
पेशा - गृहणी , स्व रुचि लेखन
शिक्षा - एम.ए. (अर्थशास्त्र)
पुस्तकें : -
'निहारती आँखें' काव्य संग्रह,
'वर्तमान सृजन' साझा काव्य संकलन,
'श्रद्धांजलि से तर्पण तक' एकल कहानी संग्रह ।
'नदी चैतन्य हिन्द धन्य',
'अमृत अभिरक्षा', 'नसैनी',
'जागो अभय', 'समय की
दस्तक',साझा संकलन,
बासंती अंदाज़' साझा काव्य संग्रह
सम्मान -
भोजपुरी बाल कहानी प्रतियोगिता में पुरष्कार प्राप्त
उन्वान प्रकाशन एवं लेख्य मंजूषा साहित्यिक संस्थान
द्वारा "सम्मान प्रतीक" की प्राप्ति,
story mirror एवं फेसबुक के कई ग्रुप द्वारा प्रशस्ति पत्र प्रदान,
पता : -
305, इंद्रलोक अपार्टमेंट, न्यू पाटलिपुत्र कॉलनी, पटना - बिहार 800013
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शाम थी, मगर अंधियारा फैल चुका था। अभी मिन्नी के पापा ऑफिस से आकर चाय भी नहीं पी पाए थे कि किसी ने दरवाजा खटखटाया। कुत्तों के भूँकने की आवाज भी तेज हो रही थी। मिन्नी ज्यों ही, दरवाजा खोलने को लपकी की पापा ने रोक दिया और खुद जाकर दरवाजा खोला। रमेश बाबू झट-पट अंदर आकर दरवाजा सटाया और कहने लगे - "अगले चौक पर बहुत भीड़ लगी है। कुछ लोग कह रहे हैं सड़क के किनारे ही एक बच्चा शॉल में लिपटा है। शॉल के रंग से लोग उसे मुसलमान बस्ती का बता रहे हैं पर मंडल मियां ने कहा उन्होंने बच्चे को देखा है, बिल्कुल हिन्दू का बच्चा है। उसके गले में काला धागा डाला हुआ है। कोई उसे छू भी नहीं रहा। भीड़ में से ही किसी ने पुलिस को खबर कर दिया है।
एक दो नेता जैसे लोग दोनों ही दल से सामने आ उलझ रहे हैं और एक दूसरे के कॉम का श्रृंगार गंदी गालियों से कर रहे हैं। मण्डल मियाँ उसमें कुछ ज्यादा ही बढ़ कर बोल रहे हैं। अब उनका मुँह बंद करना बहुत जरूरी है।
मिन्नी अंकल की बात सुन कर गुस्से में उबल पड़ी -" अजीब लोग हैं किसका बच्चा है फैसला करते रहें, वो बच्चा ठंड से मर भी जाए। मैं जा रही हूँ उस इंसान के बच्चे को बचाने और वो किसी की बात सुने बिना लपक कर सड़क पर आ गई।
तेज हवा के उल्टी दिशा में पैदल बढ़ना कष्टप्रद था। उसने अपने शॉल को कस कर लपेटा और क्षण में वहाँ पहुँच गई। पन्द्रह- बीस व्यक्ति के भीड़ को भेद उसे अंदर पहुँचते देर न लगी। वो हदप्रद रह गई ये देख कर कि एक कुतिया उस बच्चे के निकट उसे अपने पैरों में दबाए बैठी थी और वहीं पर अन्य दो चार कुत्ते खड़े थे जो रह-रह कर भीड़ पर भौंक रहे थे। भीड़ में काना-फूसी के अलावे अन्य कोई हलचल नहीं थी।
जब वो उस नन्हे को उठाने आगे बढ़ी तो कुतिया वहाँ से उठ कर खड़ी हो गई और उसे सूंघने लगी। बाकी कुत्ते भी भौंकना बंद कर दिए।
आश्वस्त हो भीड़ दो भागों में बट गई मगर काना-फूसी जारी थी। ****
2.बिटिया की शादी और शौचालय
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अरे लखिया की माँ! कहाँ हो, मिठाई खाओ।
“ कौन बात का ?”
इ मिठाई से ना समझी का। अपनी कमली राज करेगी...राज। अरे वो पसौनी वाले सेठाराम अपने बेटे के लिए अपनी कमली का हाथ मांग रहे हैं।
“सठिया गए हो का.. अभी बियाह दोगे छोरी को। अभी तो सतरहो पूरा नहीं हुआ है।”
इ सतरह अठारह क्या लगा रखी हो..
“का जी .. टीवी नहीं देखते हो का.. सरकार भी कहती है अठारह साल से पहले लड़की का शादी नहीं करना है। कच्चा घड़ा है अभी।”
अरे अइसा लड़का बार-बार नहीं मिलेगा। अपने आगे बढ़ के सेठाराम हाथ मांग रहे हैं। पूरा खेती बाड़ी है। लड़का तो हीरा है..हीरा। एकदम गौ जैसा स्वभाव है माँ-बाप का।
“त बात पक्का कर दिए ? उ लोग लड़की देखने को नहीं बोला ?”
लड़की का देखना है। हमरी कमली जइसन सुंदर सुशील पढ़ी-लिखी लड़की मिलेगी का उनको।
“अरे तो भी आजकल बिना लड़का-लड़की देखे कोई शादी बियाह करता है का।”
लड़िका खुद देखे हुए है हमर कमली को। उ स्कूल जाती है न जाते-आते पूरा परिवरवे न देखा है कमली को। तबे न सब लट्टू था। स्कूल के बगल में ही न ब्लॉक ऑफिस है वहीं न लड़िका काम करता है।
“ ऑफिस में का करता है ?”
का करता है..कौनो का अफसरी करने वाला तुमरी कमली को बियाह के ले जाएगा। बात करती है ....का करता है। अरे किरानी बाबू के साथे रहता है। कुछ कमाई हो जाता है, कुछ किरानी बाबू उसको दे देते हैं और अपना खेती-बाड़ी है सो अलगे। अकेला है घर में सब जायदाद तो उसी का है।
“तइयो ई कौनो नौकरी नहीं न हुआ। महीना का बंधा तनख्वाह नहीं न है।”
त दानों दहेज कहाँ मांग रहा है। एक जोड़ा बैल, दू थान गहना और लड़िका को एगो मोटरसाइकिल। बस अतने देने को कहा है।
“त एगो बात सुन लीजिए। दहेज देना अपराध है। हम दहेज नहीं देंगे।”
त उ मांग कहाँ रहा है। कह रहा था हमको दान-दहेज नहीं चाहिए पढ़ी-लिखी सुंदर सुशील लड़की चाहिए। हमरी कमली स्कूल में फसट (फस्ट) करती है ई त सारा गाँव जानता है। और पन्द्रह अगस्त को खेल-कूद में अव्वल आई थी, उसी दिन त पूरा परिवार इसको देखा था।
“आप उसका घर परिवार अपने से देखे हैं ?”
ओफ्फ, उसको के नहीं जानता है। पसौनी के मुखिया और सरपंच जी के बाद, रामलाल का परिवार ही नामी है। आ ई लड़िका, रामलाल का पोता है। सेठाराम उनका बड़ा बेटा है।
“देखिए उ पसौनी गाँव में हम अपन बेटी का बियाह नहीं करेंगे।”
अब लीजिए अभी उमर नहीं था, अब गाँव पसंद नहीं। चाहती का हो ? तुमरी बेटी देखने में निमन है; हूर की परी नहीं है।
“आप चाहे जो कहिए, उ पसौनी में बियाह नहीं होगा। पसौनी में केकरो घर में शौचालय नहीं है। मुखिया जी का परिवार भी, खेते में जाता है। जहाँ शौचालय नहीं, वहाँ बेटी नहीं देना।”
अब ई शौचालय का बखेरा कहाँ से आ गया?
“सगरो त पोस्टर लगा है जहाँ सोच वहाँ शौचालय। टी.वी. के सब चैनल पे, रेडियो में एके बात कहता है। और आप त अमिताभ बच्चन के फैन हैं। सब पिक्चर देखते हैं उसका। उ भी त कहता है 'दरवाजा बन्द..'।”
अरे पगली, सरकार शौचालय बनवा रही है न। अपना त उसी में बना। उसके यहाँ भी साल दो साल में बन ही जाएगा।
“त साल दो साल बाद बेटी का बियाह कर देंगे। तब-तक अठारह साल की हो भी जाएगी और कालेज के पढाईयो पूरा हो जाएगा। समझे…” ****
3.कर्म और वाचन
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माँ.. ओ ..माँ..
"क्या हुआ...?"
वाश बेसिन में पानी नहीं आ रहा?
"नीचे से बंद होगा।"
अरी! सुनती हो..रिया बाथरूम से बुला रही है। शायद पानी नहीं आ रहा।
"अजीब हाल है, तो मैं क्या कर सकती हूँ!"
अरी भाग्यवान ! थोड़ा सुन तो लो, मुँह में साबुन लगा हुआ है और पानी नहीं आ रहा।
"ये लड़की भी न, कितनी बार कही हूँ कि बाल्टी में पानी निकाल लो फिर कुछ करो, पर मेरी कोई सुनेगा तब तो। हर मर्ज की दवा है माँ, आवाज लगा दो। वो तो बेकार बैठी हुई है। सुलझाती रहे सभी की समस्याओं को..."
" कल ही सबसे कह दी थी कि मुझे तंग मत करना, एक लेख लिखनी है। इतना सुबह उठ कर जल्दी-जल्दी चाय बनाई और मूड फ्रेस कर लिखने बैठी। मगर शांति मिले तब तो कलम आगे बढ़े। कितने विश्वास से ग्रुप वालों ने कहा था - सलोनी ये लेख तुम्हीं लिखना। पिछले बार तुम्हारे ही लेख से ग्रुप विजयी हुआ था। तुम इतने अच्छे भाव पिरोती हो कि एक एक शब्द सीधे दिल में उतरती है। पर घर में कोई समझे तब न….."
माँ! परेशान मत हो, पापा ने बॉटल का पानी दे दिया था। हम दोनों भाई-बहन स्कूल के लिए तैयार हो गए। आज स्पोर्ट्स है न जल्दी स्कूल जाना था। टिफिन में बिस्किट और फल रख ली हूँ। तुम परेशान मत हो।
अरे मेरी जान! आप छोटी सी बात पर क्यों परेशान हो गईं। आप अपनी लेखनी चलाइए। देखिए पूरा घर आपके साथ है। बच्चे भी आपको जरा भी तंग नहीं किए और तैयार होकर स्कूल चले भी गए। सभी की इच्छा है इस बार जल बचाओ अभियान का पुरस्कार भी आपको ही मिले और मिलेगा भी। जब सबों को मालूम होगा कि इस लेख को लिखने में आप इतनी खो गई थी कि ध्यान ही नहीं रहा कि किचेन और वाश बेसिन का नल खुला रह गया। इस छोटी सी भूल के लिए आप आज चार घंटा बिना पानी के गुजारी हैं तो सभी को आप पर गर्व होगा।
सलोनी ने सर पकड़ लिया।
" उफ़्फ़ अब क्या करूँ.. सच लिखने की धुन में ऐसे खो गई कि ध्यान ही नहीं रहा, मैंने नल खुला छोड़ दिया है। पानी गिरने की आवाज तो कानों से टकरा रही थी पर हर पल दूसरे को ही गलत समझती रही। पानी के हर बून्द की आवाज पर मेरी लेखनी दोगुने वेग से यह सोच चल पड़ती कि बाजू वाली मीता का यही हाल है। जब न तब नल खुला छोड़ देती है। आज पानी मांगने आएगी तो उसे अपना लेख जरूर पढाऊँगी।"
उसकी गलती से नल तो सूख गई पर नयन टपक टपक कर पूरे लेखनी को धो रहे थे।***
4.तैयारी
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अरे रितु ! आजकल दिखती नहीं हो? कहाँ इतना व्यस्त रहती हो ?
“ तैयारी कर रही हूँ।”
किस चीज की? कोई डिपार्टमेंटल परीक्षा है क्या?
“अरे नहीं, बहू लाने की तैयारी।”
अरे वाह! बेटा की शादी तय कर ली क्या ? कब कर रही हो? कुछ बताई नहीं।
“नहीं नहीं.. अभी शादी तय नहीं की हूँ। एक दो साल बाद करूँगी। एक दो साल तो लग ही जाएँगे तैयारी में।”
तुम तो पहेली बुझाने लगी। मकान-वकान बना रही हो क्या ?
“ अरे कुछ नहीं।”
तो ?
“अरे! आजकल जिससे मिलती हूँ वो ही मेरे स्वभाव, रहन-सहन, खान-पान की बातें कर शिक्षा देने लगता है। कहता है ये पुरानी आदतों को छोड़ो। नए जमाने की लडकियाँ ये सब बर्दास्त नहीं करेंगी। ये रोज-रोज, रोटी-चावल खाना, घर में सिलाई कढ़ाई करना, पुराने सामानों को सहेज कर रखना, बात-बात पर शिक्षा देना। अब तुम्हीं बताओ एक दिन में तो ये आदतें छूटेगी नहीं। इन पुरानी आदतों को छोड़ने की कोशिश कर रही हूँ। बस ”
अरे हाँ! इन बातों में तो दम है। तब तो मुझे भी अब सोचना पड़ेगा। दो तीन साल बाद मुझे भी तो बहू लानी है। अच्छा, तुम एक काम क्यों नहीं करती रितु! तुम्हारी तो अभी सास और माँ दोनों हैं। उनसे क्यों नहीं पूछती कि उन्होंने बहू लाने की तैयारी कैसे और क्या की थी?
“ मैंने पूछा था। दोनों ही हँस दी और कहा हमने सिर्फ बेटा को योग्य बनाया और तुमलोग अपने आप ही घर में घर के अनुसार ढल गई। तुमलोग कम से कम तीन चार भाई-बहन होते थे, अतः आपस में ही बड़े छोटे को देख बहुत कुछ सीख लेते थे। अब तुमलोगों ने नए जमाने से होड़ लेने के लिए एक या दो ही बच्चे लाए और उनपर अति लाढ़ टपकाए। हमलोग भी बेटा और बेटी दोनों को पढ़ाया और दोनों को ही पढ़ने के साथ-साथ घरेलू काम भी सिखाया। ताकि कभी अकेले रहना पड़े तो किसी को कोई कठिनाई नहीं हो। तुमलोग बच्चों की पढ़ाई को हौआ बना बच्चों के पीछे पर गए। उन्हें कोल्हू के बैल के समान मुँह बांध पढ़ने के लिए जोत दिया। जब देखने और सीखने की उम्र थी तब तो तुमलोगों ने कुछ सिखाया नहीं या ये कहें सीखने नहीं दिया, तो अब फल भोगो।”
तो तुमने निदान क्या ढूंढा?
“ इसलिए तो आजकल मैं आत्मचिंतन ज्यादा करती हूँ।” और वो मुस्कुरा दी। ****
5.अपनी पीड़ा
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देश जल रहा है पर किसे फर्क पड़ता। सभी अपनी भेड़ चाल में व्यस्त.. उस शहर में हुआ, उस मुहल्ले में हुआ उसकी बेटी..आदि कहते हुए कभी शहर में कमी, कभी मुहल्ले और कभी लड़की की गलतियाँ गिना सभी बढ़ते जा रहे हैं….बस में बैठे लोगों के बीच इस तरह की बातें जिसे फालतू ही कहें समय काटने के लिए हो रही थी।
रमाकांत और उनके पड़ोसी अदीब भी इसमें शामिल थे। दोनों ही एक ही बात कह रहे थे बच्चों को बचपन से ही अच्छे संस्कार देने चाहिए... और फिर दोनों ही अपने परवरिश की तारीफ कर रहे थे। तभी झटके से बस रुकी और उनके गप्प को विराम लगा।
दोनों बस से उतर घर की तरफ बढ़े। रमाकांत का घर दिख रहा था। घर के सामने भीड़ लगी थी। उन्हें देख सेवक राम दौड़ता आया -" भैया..! अच्छा हुआ आपलोग आ गए। आप दोनों के बेटवा को पुलिस ले गई।"
रमाकांत ने उसे झकझोड़ दिया - " मगर क्यों..?"
अब सेवक राम के शब्द गले में ही दबने लगे। वो..वो..ह..म का.. जाने…
"अरे जनाब! बोलिए तो क्या हुआ?" अदीब ने भी उसके कंधे को झकझोड़ दिया।
भैया..भैया..! उ सब लोग कह रहा था..बकुरगंज में चेन खींचने में धराया है..लहरिया कट लेकर मोटरसाइकिल भगा रहा था, उसी में पुलिस पकड़ ली है।
"अरे! ऐसे कैसे पकड़ लेगी पुलिस। लड़का सब तो लहेरिया काटता ही है।" अदीब फिर बोल पड़े।
पीछे से महेंद्र, असगर, जहीन सभी आ पहुँचे। पुलिस ऐसे ही नहीं पकड़ी है। दोनों के पास से चेन भी बरामद हुआ है और पूरा पैसा भी। बात अपने पर आई तो ..कैसे..कैसे…
वे लोग बोले जा रहे थे और अदीब एवं रमाकांत नजरें झुकाए एक दूसरे को देखे बिना बढ़ गए। *****
6.पिंजड़ा
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बचपन से शहर में रहने वाली निवेदिता, पहली बार अपने ससुराल के गाँव आई। दादा ससुर ने आशीर्वाद देते हुए बडे प्यार से कहा -" बहू! अब गाँव और शहर में कोई अंतर नहीं। यहाँ भी शहर की हर सुविधा उपलब्ध है। किसी चीज की कमी नहीं होगी।"
शहर के बड़े घर की तुलना में कई गुणा बड़ा सुविधा सम्पन्न घर को देख, निवेदिता को लगा ही नहीं कि वह गाँव है या शहर। पर कमरे की खिड़की खोलते ही, हरियाली भरे खेत से आती ठंढी हवाओं ने गाँव और शहर का अंतर स्पष्ट कर दिया।
छोटी ननद रागिनी, उसे घर घुमाते हुए आँगन में लगे अमरूद के पेड़ से एक दो पका अमरूद तोड़ कर बोली- "भाभी! ये आपके मीठू के लिए।"
"भाभी! जानती हैं दादाजी ने मीठू के लिए बहुत बड़ा सुनहरा पिंजरा मंगवाया है। उन्हें मीठू के बारे में पता था। चलिए मीठू को नए पिंजरे में डाल अमरूद खिलाएँगे।"
ड्राइंगरूम में सबके साथ बैठ चाय पीते हुए रागिनी ने कहा- "दादाजी! हमलोग गाँव घूमेंगे।"
दादाजी भी हँसते हुए कहे -"ठीक है, कल दिन में घूम लेना आज तो शाम हो गई ।"
रागिनी उत्साहित हो निवेदिता को कहने लगी -" भाभी! गाँव घुमने के बाद आप यहाँ के बारे में जरूर लिखिएगा। उसकी बात सुनते ही दादाजी बोल पड़े - " तुम रमाकांत के साथ चली जाना। बहू कहा जाएगी..."
तत्क्षण रागिनी और दादाजी में वाक युद्ध प्रारम्भ हो गए कि आपलोग अपने को प्रगतिशील विचारधारा वाला कहते हो और आज भी बहू बेटी में अंतर ? आपकी बहू पत्रकार है। गॉंव को जब अपनी नजर से देखेगी तभी तो सच लिखेगी।
रागिनी के अकाट्य सत्य को सुन दादाजी थोड़ा उग्र हो, बोले - " मुझे तो बहू का पत्रकारिता करना ही पसंद नहीं था। पत्रकारिता करनी है तो दूसरे जिला के किसी गाँव में जाए। यहाँ ये सब सम्भव नहीं।"
अंदर आ रागिनी अपना क्रोध मम्मी पर उतारने लगी और निवेदिता सुनहरे पिंजरे को खोल अपने प्रिय तोता को बाहर निकाल खुली हवा में उड़ा दिया। तोता अमरूद की डाल पर बैठ निवेदिता को देख गुटूर गूँ.. गुटूर गूँ.. बोल पड़ा और निवेदिता छलकते नयन से हाथ हिलाते हुए कहा - "जा उड़ जा उन्मुक्त गगन में पर फैला उड़ जा अपने आसमान में…"
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7. हीनता
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एक लंबे समयंतराल के बाद रिंकी और अनामिका एक दिन अचानक टकड़ा गई। दोनों एक दूसरे को देखती रह गई। फिर दोनों, लपक कर एक दूसरे के गले मिली। दोनों का रोम-रोम पुलक रहा था। इतनी बातें ज़ुबान पर आ रही थी, जिसे पल में सम्भालना मुश्किल हो रहा था। दोनों ने इधर-उधर नजर दौड़ाया और एक बैठने की जगह ढूंढ निकाली। इंटर से लेकर आज तक की कहानी दोनों ने सुना डाली। अनामिका अपने डॉक्टर होने पर गर्व कर रही थी। वह बार-बार रिंकी को कह रही थी तूने बड़ी गलती की, जो अपने दिल की न सुन माता-पिता की बातों में आकर मेडिकल इंट्रेंस के लिए समय नहीं दिया। बी.ए., एम.ए. कर, बैंक की नौकरी की और झट-पट शादी। पता है मैं पूरे तीन साल तक लगी रही तब जाकर मेडिकल में दाखिला हुआ। तू कितनी जल्दी बच्चों के चक्कर में पर गई। मैंने तो अपनी जिंदगी को पूरा इंजॉय किया। आज एक मशहूर स्त्री रोग विशेषज्ञ हूँ।
रिंकी ने मुस्कुरा कर कहा मैं भी अपनी दुनिया में मगन हूँ, डॉक्टर नहीं बनी तो क्या हुआ, जो कर रही हूँ बहुत अच्छा लगता है। जानती है, अपनी नौकरी के साथ-साथ मैंने अपनी लेखन रुचि को जिंदा रखा।
अपनी-अपनी कहानियों के साथ-साथ पति और बच्चों की चर्चाएं भी निकल पड़ी। बातों का अंतहीन सिलसिला देख दोनों ने एक दूसरे के घर का पता लिखा और जल्द ही मिलने की आतुरता को प्रदर्शित कर ही रही थी कि अनामिका की एक दूसरी सहेली 'सोमना' आ मिली। रिंकी का परिचय पा चहक उठी क्योंकि मशहूर लेखिका रिंकी 'रिंकिता' की वो फैन थी। उसकी हर पुस्तक उसके आलमीरा में सजी थी। वह पुलक कर रिंकी से उसकी निजी जिंदगी पर बातें करने लगी।
रिंकी अनामिका की सहेली से मिल पुलक रही थी और अनामिका उसके समक्ष रिंकी को बचपन की सहेली बताने में झिझक रही थी। वो झट रिंकी का हाथ पकड़ कार में बैठ गई - “ओ दादी अम्मा जब पोता-पोती साथ नहीं तो क्या काम है हर जगह ये कहने की, कि मैं तो दादी नानी भी बन गई हूँ। मेरा रानू अभी दसवीं में है और पिका तो आठवीं में ही है।”
रिंकी हतप्रभ हो उसे देख रही थी इसे एकाएक क्या हो गया। बच्चे छोटे बड़ें हैं इससे क्या। हम तो वही हैं….. ***
8.अधकिली कली
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'संरिक्षिका वर्किंग वूमेनस हॉस्टल' के तृतीय वार्षिकोत्सव में चीफ गेस्ट के रुप में आमंत्रित आमंत्रण पत्र को देख, मेरे सामने सिमटी, सिकुची देविना आ खड़ी हो गई, जो कुछ वर्ष पूर्व मेरी स्टेनो बन कर आई थी। हर दूसरे दिन लेटर गलत टाइप कर ले आती। डांट खाती फिर ठीक करती।
एक दिन मुझसे नहीं रहा गया तो उसे संग ले कैफेटेरिया में कॉफी पीने आ गई। बातों ही बातों में मैंने उससे हर दूसरे दिन की गलती का कारण पूछा। पहले तो वो सकुचाई पर सर पर प्यार का हाथ पा लाज के पर्दा को नीचे उतार रख दिया ।
"मैम! एक अधखिली कली को जब जबरदस्ती खोला जाता है तो पंखुरियों में दर्द स्वाभाविक है। मैम ! मै अपने अंकल की शिकायत करना नहीं चाहती पर परेशान हूँ ।"
मेरे कान गर्म हो लाल हो गए। मुझे दाई माँ और उनकी नसीहत याद आ गई। बचपन में जब मैं अधखिले फूल की कली को दबा कर खोलने का प्रयास करती तो दाई माँ ऐसा करने से मना करती और कहती -' बेटा जबरदस्ती करने से कली को दर्द होता है।'
देविना की बात समझते देर न लगी। मेरी आँखों में रोष उभर आया, मैं मुट्ठियाँ भींचने लगी।
मेरी प्रतिक्रिया पर देविना घबड़ा गई।
"मैम…! प्लीज आप उन्हें कुछ नहीं कहेंगी। नहीं तो वो मुझ पर दस इल्जाम लगा घर से निकाल देंगे, तो फिर कोई मुझे घर भी नहीं देगा।"
मैंने उठ कर उसे सीने से लगाया और कहा - "आज के बाद ऐसा नहीं होगा। इस कोमल कली को मैं दूसरे गमले में उगाऊँगी।"
उसी शाम उसे बैचलर हॉस्टल में पहुँचा, उसे सुरक्षित किया । मैं अतिप्रसन्न हूँ, उस दिन बचाई एक कली से आज अनेक कलियाँ संरक्षित हो रहीं हैं। ****
9. छत्रछाँह
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रामलाल मुखिया जी के साथ आकर डॉक्टर साहब के समक्ष सर झुकाए चुपचाप खड़ा रहा तो मुखिया जी ही बोल पड़े -" डॉक्टर साहब इसे माफ कर दें, अंजाने में इसने आपकी बहुत बेइज्जती की। अपने किए पर ये इतना शर्मिंदा है कि अकेले आपके पास आने की हिम्मत भी नहीं जुटा पा रहा था।"
कोई बात नहीं रामलाल, इंसान अकसर गलतफहमी का शिकार हो जाता है। तुम्हारी बाछी अब स्वस्थ्य है न..?
"जी..जी… " रामलाल के कंठ से बोल नहीं फूट रहे थे।
"डॉक्टर साहब! एक बात पूंछू ..?" मुखिया जी बोल पड़े।
हाँ.. हाँ.. अवश्य पूछिए..
"डॉक्टर साहब ! मुझे एक बात समझ में नहीं आई कि जब सामने कोई नहीं था, बछिया भी सड़क के किनारे गिरी थी और आप परिवार के साथ थे, फिर भी आप रात के अंधेरे में आगे बढ़ अपने को सुरक्षित करने की जगह वहाँ रुक कर किसी के आने का इंतजार क्यों कर रहे थे? जबकि आपको पता था कि इस गाँव के लोग जाहिल हैं। "
मुखिया जी ! ब्रेक लगाना तो तत्क्षण स्वाभाविक प्रक्रिया है। हाँ ! मैं पुनः तुरत आगे बढ़ सकता था। रात का अंधेरा अवश्य था पर ईमान सफेद था। जीप की रौशनी में सब साफ नज़र आ रही थी। जीप की रौशनी पड़ते ही बाछी पगहा समेत ऊपर से कूद पड़ी। उसके पगहा के साथ खूंटा भी उखड़ गया था। यही कारण था कि वो बच गई। वरना वो जीप से टकड़ा जाती।
मुझे लगा कि गिरने से उसे चोट अवश्य लगी होगी। जब कभी ऐसी कोई घटना होती है तो मुझे मेरे पिताजी याद आ जाते हैं। वो कहते थे -'बेटा किसी को मुसीबत में नहीं छोड़ना चाहिए, खास कर जानवर को तो कभी नहीं।' पिताजी के स्वर कानों में गूंजते रहे और मैं वहाँ रुक कर डॉक्टर के साथ एक इंसान की भी भूमिका निभाता रहा।
मैं जीप रोक किसी सज्जन का इंतजार कर रहा था। पर वहाँ तो उलटा ही हुआ। वो लोग आकर मारो...पकड़ो...भागने न पाए...आदि हल्ला करने लगे। एक दो तो जीप पर डंडा से प्रहार भी किया। तत्क्षण आप देवदूत से प्रकट हो गए।
"यदि मैं उस वक्त नहीं आता तो क्या होता..?कभी सोचा भी..? ये लोग ऐसे जाहिल हैं कि इन्हें आपको और आपके परिवार को चोट पहुँचाते तनिक देर न लगती।"
डॉक्टर साहब मुस्कुरा कर बोल पड़े - "जो सदा अपने पिता की छत्रछाँह में रहता हो उसे स्वतः हर दरिया पार करना आ जाता है चाहे वो कितनी भी बड़ी या गहरी हो।
अब तक चुप रामलाल अपने को संयत कर चुका था। उसके मुख से माफ़ी के अल्फ़ाज़ निकल पड़े और वह डॉक्टर साहब के चरणों में झुक गया। डॉक्टर साहब भी तत्क्षण उसके झुके हाथों को पकड़ लिए, अरे! ये क्या कर रहे हैं।
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10. संवेदना
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विम्मी और रमोला दोनों सखियाँ एक ही अपार्टमेंट में रहती थी, अतः दोनों अपनी रचनाधर्मिता बड़ी जतन से निभाते हुए साथ-साथ ही ऑन लाइन काव्य सम्मेलन भी करती थी।
आज एक ऑन लाइन काव्य सम्मेलन का निमंत्रण था। रमोला को अध्यक्षता करने को आमंत्रित किया गया तो उसने माफी मांगते हुए कहा कि फिर कभी इस कार्यभार को निभाऊंगी, आज मुझे एक बीमार बूढ़ी दादीमाँ को देखने जाना अनिवार्य है। मैं उनसे मिलने का वादा कर उनकी बहू से मिलने का समय निर्धारित कर चुकी हूँ। साहित्य के प्रति कर्तव्य है पर उससे पहले समाज के प्रति भी कुछ कर्तव्य हैं।
फोन पर उधर से आवाज आई - "क्या वहाँ जाने के समय में बदलाव नहीं कर सकती? अध्यक्षता करने का सुअवसर था। एक अच्छी साहित्यकार बनने के लिए इस तरह के कार्य का बहुत महत्व है। इसलिए मैं कह रहा था। आज मंच पर बहुत बड़े-बड़े कवि आ रहे हैं। वरिष्ठ कवियों के बीच अपनी रचना सुनाने का मतलब समझती हैं आप ! कल के समचार पत्र में तस्वीर के साथ नाम छपेंगे! वहाँ तो कल भी जा सकती हैं। अवसर अच्छा था, ऐसे आप सोच लीजिए।"
" जी मैं सोच कर ही कह रही हूँ। संवेदनशील व्यक्ति ही साहित्यकार हो सकते हैं। जब संवेदना ही मर जाएगी तो रचना कहाँ से रची जाएगी। कृपया आप मुझे माफ कर दें।"
विम्मी की भी इच्छा थी कि रमोला उधर वाले की बात मान ले पर रमोला के चेहरे पर उभरे संतोष की झलक देख वो शांत रह गई। दोनों बूढ़ी दादीमाँ के घर की ओर बढ़ गई।****
11.लॉक डाउन फाइव
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अब किसी भी तरह से लॉक डाउन फाइव नहीं आने वाला सोच-सोच लीलापति हाँ ठीक पढ़ा आपने लीलावती नहीं लीलापति परेशान हो उठता। अब जल्द ही लॉक डाउन फोर भी समाप्त होने वाला है और उसे कोई नया बहाना सूझ नहीं रहा। अब वो क्या करेगा। अभी तक तो लीलावती किसी तरह बच बचाकर काम पर जाती और मालकीनियों की कृपा से कुछ न कुछ घर में आ ही जाता जिससे बैठे-बैठे बिना किसी नए बहाना के पेट चल रहा था। अब क्या होगा..अब कौन देगा उस आलसी को काम..और अब वो क्या कह कर पत्नी पर धौंस जमाएगा, चिंता में उसे रात भर नींद नहीं आती। पत्नी जब सुबह रात भर जागे रहने का कारण पूछती तो कह देता दिन भर बेकार बैठे-बैठे ऊब गया है, अब इस उबन से उसे रात भर नींद नहीं आती।
आज सुबह तो हद हो गई । लीलावती उसके हर पैतरे को जानते थी । जैसे ही वो मुँह खोल कुछ नया बहाना करता लीलावती कह पड़ी - "अच्छा...त रात भर नींद ना आया । त दिन में सोएगा । सोने से पहिले सभे बरतन बासन धो के नहा फींच के सो जाना।
बेचारा लीलापति… अत .. अत...अतना.. ..कर रह गया। अब क्या होगा…? ***
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क्रमांक - 04
जन्म तिथि - 1 जनवरी 1966
जन्म स्थान - ग़ाज़ीपुर (उ.प्र.)
शिक्षा - एम.एस-सी; एम.एड् ; एम.ए. (हिंदी)
संप्रति - अध्यापन ( राजकीय सेवा )
लेखन विधा - लघुकथा, कविता, कहानी, व्यंग्य
प्रकाशित पुस्तक : -
संवेदनाओं के स्वर (लघुकथा संग्रह)
प्रकाशित साझा संग्रह : -
(1) आधुनिक हिंदी साहित्य की चयनित लघुकथाएँ (बोधि प्रकाशन)
(2) सहोदरी कथा - 1 (लघुकथा)
(3) दीप देहरी पर (लघुकथा) - उदीप्त प्रकाशन
(4 )सहोदरी सोपान - 4 (काव्य संग्रह)
(5) यादों के दरीचे ( संस्मरण)
(6) परिंदो के दरमियाँ ( सं. - बलराम अग्रवाल)
(7) कलमकार संकलन - 1, 2, 3 - कलमकार मंच
(8) प्रेम विषयक लघुकथाएँ ( अयन प्रकाशन)
(9) नयी सदी की लघुकथाएँ (सं. - अनिल शूर आजाद)
(10) लघुकथा मंजूषा -2, 3, 5 ( वर्जिन साहित्यपीठ)
(11) चुनिंदा लघुकथाएँ (विचार प्रकाशन)
(12) मेरी रचना (रवीना प्रकाशन )
(13) स्वाभिमान ( मातृभारती )
(14) मिलीभगत (साझा व्यंग्य संकलन)
(15) इन्नर (सं. - विभूति बी.झा)
(16) श्रमिक की व्यथा - काव्य संकलन (प्राची डिजिटल पब्लिकेशन)
(17) लम्हे - लघुकथा संकलन (प्राची डिजिटल पब्लिकेशन)
(18)चलें नीड़ की ओर - लघुकथा संकलन (अपना प्रकाशन)
(19) नयी लेखनी नये सृजन - कहानी संकलन (इंक पब्लिकेशन)
(20) इक्कीसवीं सदी के श्रेष्ठ व्यंग्यकार (सं. लालित्य ललित, राजेश कुमार)
(21) जीवन की प्रथम लघुकथा ( ई- लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
(22) मां ( ई- लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
(23) लोकतंत्र का चुनाव ( ई- लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
(24) नारी के विभिन्न रूप ( ई- लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
(25) लघुकथा - 2020 ( ई- लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
(26) कोरोना वायरस का लॉकडाउन ( ई- लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
(26) कोरोना ( ई- काव्य संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी
सम्मान : -
- अखिल भारतीय शब्द निष्ठा सम्मान ( लघुकथा ) - 2017 (राजस्थान)
- प्रेमनाथ खन्ना सम्मान - 2017 (पटना)
- भाषा सहोदरी सम्मान - 2017
- प्रतिलिपि कथा सम्मान - 2018
- साहित्य भूषण सम्मान - 2018(काव्य रंगोली पत्रिका समूह)
- भारतीय लघुकथा विकास मंच , पानीपत - हरियाणा द्वारा " कोरोना योद्घा रत्न सम्मान - 2020 " से सम्मानित
विशेष : -
अतिथि संपादन - देवभूमि समाचार, देहरादून
सह संपादक - राइजिंग बिहार साप्ताहिक, पटना
संपादन, डायमंड बुक्स की बाल साहित्य योजना - 2021
पता : आनंद निकेत , बाजार समिति रोड ,पो. - गजाधरगंज
बक्सर ( बिहार ) - 802103
1.बंधन
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" तुमने मुझसे पूछे बिना इतना बड़ा निर्णय कैसे ले लिया?और...तुमने ये कैसे सोच लिया कि मैं तुम्हें एलाऊ कर दूँगा? " - प्रसून गुस्से में अनिकेत को डाँट रहा था - " अभी एक हफ्ता भी नहीं हुए हैं तुम्हें जॉब ज्वाइन किए हुए, और सोच रहे हो कि तुम सेटल कर जाओगे यहाँ?अपना गाँव और शहर समझ रखा है क्या? ये दिल्ली है। यहाँ पाँव जमाने में अच्छे-अच्छों के पाँव उखड़ जाते हैं। "
अनिकेत चुपचाप सिर झुकाए भैया की डाँट सुन रहा था। गाँव से आकर उसने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की थी।तबीयत खराब हुई थी,तो गाँव के ही एक भैया उसे अपने पास ले आए थे। जब जॉब लग गयी , तो यह सोचकर कि अब भैया-भाभी के यहाँ रहना ठीक नहीं,उसने अलग फ्लैट की व्यवस्था कर ली थी।
" तुम्हें पता है अनिकेत! " - प्रसून उसे समझा रहा था - " फ्लैट का रेंट,एक महीने का एडवांस, इलेक्ट्रिसिटी बिल,मेंटेनेस चार्ज,गैस कनेक्शन, बेड-बिस्तर, बर्तन, आलमीरा आदि सब मिलाकर पच्चीस-तीस हजार का खर्च है अभी। और तुम्हारी सैलरी है ही कितनी?कहाँ से मेंटेन करोगे यह सब? "
" पापा...। " अनिकेत ने बोलना चाहा,तो प्रसून ने बात काट दी - " पापा क्या ? तुम्हें पता भी है,फरवरी में अधिकांश सैलरी इनकम टैक्स में कट जाती है? फिर उन लोगों का मकान किराया और अन्य खर्चे भी तो हैं ?" प्रसून ने वास्तविकता से अनिकेत को अवगत कराने की कोशिश की।
" मगर हम चार लोगों के लिए यह घर छोटा नहीं पड़ेगा क्या भैया? " अनिकेत ने हिम्मत जुटाते हुए भैया से कहा।
यह सुनकर प्रसून गंभीर हो गया। वह अनिकेत के पास आया और उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा - " अनिकेत! घर छोटा हो, तो हो। दिल बड़ा होना चाहिए। तुम क्या समझते हो,मैं तुम्हें इतने बड़े शहर में अकेला छोड़ दूँगा? फिर मैं चाचा को क्या मुँह दिखाऊँगा? " कहते-कहते प्रसून का गला भर आया था।उसने कसकर अनिकेत को सीने से लगा लिया था। ****
2.खुशी
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स्वच्छता अभियान जोरों पर था। सुबह-सुबह ही नगर निगम की गाड़ी गली,मोहल्ले,सड़क की सारी जूठन व कचरे उठा ले गयी थी। सड़क एकदम साफ थी। चार श्वान-शावक गली से निकलकर सड़क पर आ गये थे और कचरे वाली जगह पर कुछ तलाश रहे थे।
चार-पाँच साल की एक बच्ची पास में ही अपनी स्कूल बस के इंतजार में खड़ी थी। वे शावक चलकर उसके पास आए।थोड़ी देर के लिए उसके सामने बैठे। अपनी छोटी-छोटी पूँछें हिलाईं और वापस उसी कचरे वाली जगह पर चले गये।
बच्ची धीरे से उनके पास गयी। स्कूल बैग से अपना लंच बॉक्स निकाला और अखबार में लिपटी पूड़ी और सब्जी उनके सामने रख दी। एक क्षण को वह रुककर उन्हें देखने लगी। वे चारों खा रहे थे और जोर-जोर से पूँछें हिला रहे थे। खुश थे।
बस का हॉर्न सुनाई पड़ा,तो वह मुड़ी,और दौड़ते हुए बस में चढ़ गयी। आज वह निकिता के साथ लंच करेगी। रोज कहती रहती है वह...! *****
3.दायित्व बोध
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माध्यमिक परीक्षा की कॉपियाँ जाँची जा रही थीं। प्रधान परीक्षक अभी नहीं आए थे। कोने वाली बेंच पर वह आराम से कॉपियाँ देख रहा था। अन्य सह-परीक्षकों में आपस में कानाफूसी हो रही थी - " देखो न, ये महानुभाव कितनी धीमी गति से कॉपी जाँच रहे हैं...जैसे रिसर्च कर रहे हों। ऐसे तो हम प्रतिदिन का कोटा भी पूरा नहीं कर पाएँगे, न ही हमारा टार्गेट पूरा होगा। पक्का हमलोगों को डाँट सुनवाएगा ये...! " वह चुपचाप उनकी बातें सुन रहा था ।
तभी परीक्षा नियंत्रक कमरे में आते हैं,और उसका नाम पुकारते हैं। वह उठकर उनके पास जाता है। वे सबको बताते हैं - " ये आपके प्रधान परीक्षक होंगे । " सभी अचरज से उसकी ओर देखने लगते हैं।
कार्य फिर शुरु हो जाता है। वह, जो आराम और सुस्ती से कॉपियाँ जाँच रहा था, अब प्रधान परीक्षक था। एक-एक सह-परीक्षक के पास जाकर उन्हें दिशा निर्देश दे रहा था। उनकी जाँची हुई कॉपियाँ चेक कर रहा था। उनपर दस्तखत कर रहा था। उनका मार्गदर्शन और उत्साहवर्द्धन कर रहा था।
सभी उसकी प्रशंसा व सराहना करते अब अघा नहीं रहे थे। ****
4. पानी
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भीषण गर्मी की वजह से कुएँ सूखते जा रहे थे। पीने के पानी के लिए एक गाँव की महिलाएँ दूसरे गाँवों तक जाती थीं। प्रचंड धूप और गर्मी की वजह से अहले सुबह वे बर्तन ले गाँव से निकलतीं और धूप निकलने से पहले लौट आतीं। उस दिन कम्मो ने भी जिद कर दी साथ चलने की। देर तक कतार में चलते-चलते कम्मो ने माँ से पूछा - " और कितनी दूर जाना है,माँ? "
" बस,थोड़ी दूर और...। " माँ ने उसे हिम्मत बँधाते हुए कहा।
" थोड़ी दूर...थोड़ी दूर करते-करते तो बहुत दूर आ गये हमलोग। " - कम्मो रुआँसे स्वर में बोली - " ऐसे कितनी देर तक चलते रहेंगे?मुझे आज कॉलेज भी जाना है। "
" बस, वहाँ तक। वह गाँव देख रही हो? " माँ ने उँगली से गाँव की ओर इशारा करते हुए कहा।
" पानी कहीं नहीं मिलेगा, माँ। देख नहीं रही हो?धरती तो खुद ही सूखी और प्यासी है। दूर-दूर तक सिर्फ वीराना, सूनापन और सन्नाटा है। पेड़ और जंगल काटकर हमने धरती पर पानी रहने ही कहाँ दिया है?" कम्मो ने माँ को समझाने की कोशिश की।
" हूँ....। फिर भी,पानी तो चाहिए न, कम्मो....। पीने के लिए,जीने के लिए ? " माँ ने उसकी बात समझते हुए कहा।
" यह पानी तो तलाश भी लें हम। मगर हमारी आँखों का पानी,जो मर गया है, उसका क्या करेंगे,माँ? बताओ? इस पानी से तो सिर्फ जीभ की ही प्यास बुझेगी? मन और आत्मा तो रीते के रीते ही रह जाएँगे न? " कम्मो ने समय की नब्ज पर हाथ रख दिया था।
" तू तो अब बड़ों जैसी बातें करने लगी है रे, कम्मो ...! " माँ ने चौंकते हुए उसकी ओर देखा।
" माँ,कहाँ थी लोगों की आँखों की शर्म,संवेदना और मानवता,जब दिल्ली की उस सर्द रात में निर्भया सड़क पर पड़ी तड़प रही थी...? " कम्मो की पनीली आँखों में निर्भया का सारा दर्द उभर आया था जैसे....!
माँ एक क्षण को रूककर कम्मो के चेहरे को पढ़ने लगी, और खामोश हो गई। और रास्ते.....और लंबे होते जा रहे थे! ****
5.अनुत्तरित प्रश्न
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नीले-पीले अजीबोगरीब-से प्लास्टिकनुमा कपड़े पहने, पूरा सिर और चेहरा ढँके हुए एक व्यक्ति बिल्डिंग से बाहर निकलता है।उसे देखते ही सैकड़ों परिंदे उस पर हमला कर देते हैं।कोई सिर पर बैठ गया, कोई कंधे पर, कोई हाथ पर।उसका पूरा शरीर परिंदों से ढँक गया।उसने थैले में हाथ डाला और दाने निकालकर जमीन पर बिखेर दिए।कई दिनों से भूखे परिंदे उन पर टूट पड़े।
वह कुछ देर तक उन्हें देखता रहा।फिर वापस बिल्डिंग की ओर मुड़ गया।
परिंदे उसके पास आए और पूछा -
- ये अचानक हो क्या गया है इस शहर को ? सड़कों पर कोई इंसान क्यों नहीं दिखाई देता आजकल ?
- हूँ...।एक अदृश्य शत्रु ने दस्तक दी है हमारे दरवाजे पर।उससे बचने के लिए हमने खुद को घरों में बंद कर लिया है।
- अदृश्य शत्रु ? कौन है यह अदृश्य शत्रु, जिसका इतना खौफ है तुमलोगों पर ?
- वह एक पर हमला करता है और धीरे-धीरे उससे जुड़े सभी आक्रांत हो जाते हैं।फिर विनाश...महाविनाश ! साक्षात् मौत है वह !
- मगर तुम तो धरती के सबसे बुद्धिमान और शक्तिशाली जीव हो ? तुम अपने आण्विक-पारमाण्विक अस्त्रों-शस्त्रों से उसका विनाश क्यों नहीं कर देते ?
- नहीं कर सकते हम।
- क्या वह तुम मनुष्यों से भी ज्यादा हिंसक, खतरनाक और खौफनाक है ?
उनका प्रश्न अनुत्तरित रह गया।
वह व्यक्ति अपनी बिल्डिंग में जा चुका था। प्रचंड और तीक्ष्ण धूप शरीर को जलाने लगी थी। गर्म हवा साँय-साँय कर रही थी। परिंदे छाँव तलाश रहेे थे और सोच में पड़ गये थेे।ख़ामोशी फिर से डराने लगी थी। ****
6.चिराग जल रहे हैं
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- डॉ. साहब, मेरी तबीयत ठीक नहीं है।
- कहाँ हो तुम ?
- आजाद चौक पर।
- ठीक है। मैं वहीं आ रही हूँ।
- डॉ. साहब, यहाँ मास्क नहीं है।
- इंतजार करो। गाड़ी जा रही है। सभी जवानों को मास्क भिजवा रही हूँ।
- यहाँ सैनिटाइजर की जरूरत है मैम।
- हाँ जरूर।भेज दिया गया है।
- मैम, यहाँ कुछ लोग दूसरे राज्यों से आए हैं।जाँच नहीं करवा रहे हैं।जबरदस्ती कर रहे हैं।
- उन्हें पकड़कर रखो।मैं आ रही हूँ।
एसपी साहिबा, जो खुद एक डॉक्टर भी हैं, ड्राइवर को आवाज देती हैं - " दवाइयाँ गाड़ी में रखवा दीं ? "
" जी मैम। "- ड्राइवर ने कहा।
" आजाद चौक चलो। " - एसपी साहिबा गाड़ी पर बैठती हैं और, उनकी गाड़ी चल पड़ती है.... रोज की तरह नियमित गश्त पर।
हर मोड़ और चौराहे पर वो रूकती हैं।सिपाहियों से बातें करती हैं।उनका हालचाल लेती हैं।उनकी समस्याएँँ सुनती हैं।आसपास मुआयना करती हैं।जरूरी दवाइयाँ, मास्क और सैनिटाइजर देती हैं, और हिदायतें देते हुए आगे बढ़ जाती हैं।
आजाद चौक पर पहुँचकर वो माईक थाम लेती हैं और एनाउंस करने लगती हैं - " सभी नगरवासियों से अनुरोध है कि वे घरों में ही रहें।साफ-सफाई पर पूरा ध्यान दें।मास्क पहनें।साबुन-सैनिटाइजर से हाथ धोते रहें।दूरी बनाकर रहें।अनावश्यक घर से बाहर न निकलें।वरना सख्त कानूनी कार्रवाई की जाएगी।दवा और राशन के सामानों की कोई कमी नहीं होने दी जाएगी।हास्पिटल चौबीसों घंटे खुले हैं।किसी भी तरह की परेशानी हो, तो हास्पिटल या मुझे फोन करें।अफवाहों पर ध्यान न दें और डरें नहीं। "
रात के आठ बज रहे हैं।उनकी गाड़ी ऑफिसर्स क्वार्टर्स के गेट पर रूकती है।एक बच्ची उनके पास आती है। हाथ का थैला उन्हें देती है और आँखों में आँसू लिए पूछती है - " आप घर कब आओगे मम्मा ? "
" बहुत जल्दी, बेटा। बस, ये सब काम खत्म होते ही आ जाऊँगी। " वे बेटी को छूना,सहलाना,प्यार करना चाहती हैं।पर उसकी ओर बढ़े हाथ रूक जाते हैं। वे पापा और दादी का हालचाल पूछती हैं, बेटी को हाथ हिलाकर " बाय " करती हैं, और उनकी गाड़ी शहर की ओर चल पड़ती है।
माँ-बेटी की आँखों में आँसू देख, ड्राइवर भी अपने आँसू नहीं रोक पाता है।सोच में पड़ जाता है वह, कि ये प्रेम, ममता, करुणा के आँसू हैं या निष्ठा, त्याग और कर्त्तव्य के प्रति समर्पण के ! ****
7.रिक्शावाला
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" किधर जाना है बाबू ? " - रिक्शेवाले ने युवक से पूछा। " कहीं नहीं। " - युवक ने कहा।
रिक्शावाला निराश होकर अपनी सीट से उतर गया और इधर-उधर देखने लगा...शायद कोई और सवारी मिल जाए ! मगर...।
सिर पर बँधा अँगोछा खोलकर वह चेहरे पर उतर आए पसीने को पोंछने लगा।चढ़ते सूरज के साथ धूप भी तीक्ष्ण हो गयी थी, जो शरीर को जला रही थी। वहीं रूककर वह सवारी का इंतजार करने लगा।
कोई भी सवारी आती, तो ऑटो की ही प्रतीक्षा करती। वहाँ रिक्शेवाले भी हैं, इस पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता था।
ऑटो वाले तो इतने हो गये हैं शहर में, कि हर पाँच मिनट में अगला हाजिर। वे आते हैं, सवारियों को बैठाते हैं और फुर्र हो जाते हैं। रिक्शेवाले बेचारे चुपचाप वहीं खड़े निरीह भाव से देखते रह जाते हैं।
इन ऑटो वालों ने तो हमारा जीना मुहाल कर दिया है।बैटरी वाली ऑटो आ जाने से तो और सुविधा हो गयी है लोगों को, और फ़जीहत हो गयी है हमारी।आरामदायक सीट पर बैठो और तुरंत पहुँच जाओ।अब कौन बैठेगा हमारे रिक्शे पर, और क्यों बैठेगा ? जहाँ ऑटो से दस रूपये लगेंगे, वहाँ रिक्शे पर कोई बीस रूपये भला क्यों खर्च करेगा ? एक तो मँहगाई की मार, ऊपर से मंदी की चोट। आखिर रोजी-रोटी कैसे चलेगी हम रिक्शेवालों की....? यही सोचते हुए वह अपने रिक्शे पर बैठ गया और एकटक आने-जाने वालों को देखने लगा।अचानक उसकी नजर सड़क के उस पार गयी।
वही युवक, जो अभी थोड़ी देर पहले उसे मिला था, ऑटो में बैठ रहा था। दोनों की नजरें मिलीं और अगले ही क्षण वो हुआ, जिसकी उसने कल्पना तक नहीं की थी।
" मिठनपुरा चलोगे क्या ? " - उस युवक ने पास आकर उससे पूछा।
" हाँ...हाँ।क्यों नहीं बाबू ! "
" क्या भाड़ा लोगे ? "
" आओ, बैठो न बाबू।जो समझ में आए, दे देना। " - रिक्शेवाले ने कहा और अँगोछा सिर पर बाँधकर अपनी सीट पकड़ ली। वह अब तेजी से रिक्शे की पैडल मारने लगा था, और रिक्शे की रफ्तार के साथ जिंदगी भी चल पड़ी थी....। ****
8.फ़र्ज़
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" आपका फोन आया था सर ! आप घर नहीं गये ? " - कैप्टन अभिमन्यु के साथ चलते हुए लांसनायक हैदर खुद को रोक नहीं पाया पूछने से।
" नहीं।अभी यहाँ रहना ज्यादा जरूरी है।" - कैप्टन ने हैदर की ओर देखते हुए कहा।
" येस सर। मगर, घर पर लोग आपका इंतजार कर रहे होंगे।" - हैदर ने चिंता जताई।
" हूँ...। " - भूकंप में ज़मींदोज़ इमारतों की ओर देखते हुए कैप्टन ने कहा - " हैदर, मैं नहीं भी जाऊँगा, तब भी मेरी माँ को मिट्टी नसीब हो जाएगी।घर में और लोग हैंं। लेकिन इन इमारतों के मलबे में दबी न जाने कितनी ज़िंंदगियाँ अपनी साँसों के लिए हमारा इंतजार कर रही हैं।उन तक पहुँचना माँ से मिलने से ज्यादा जरूरी है अभी।सो...कम ऑन यंग मैन।लेट अस मूव।" - और वह तेजी से सामने की ध्वस्त इमारत की ओर बढ़ गया।
अब तक वह कैप्टन को बहुत कठोर और क्रूर अफसर समझता आया था। मगर आज मन उनके प्रति श्रद्धा और आदर से भर गया। देश और इंसानियत की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करने का वास्तविक अर्थ उसे समझ में आ गया था। उसका रोम-रोम स्पंदित हो गया। उसने दूर से ही कैप्टन को सैल्यूट किया - " जय हिंद। " ****
9. झूठा सच
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जंगल के सारे जानवर बेचैन हो गये थे। पास के नगर के भयंकर सन्नाटे ने उन्हें परेशान कर दिया था।
नगर का दृश्य देख वे सिहर गये। चारों ओर आग की उठती लपटें...धुआँ....कालिख...राख....जली हुई बस्तियाँ....यत्र-तत्र जले-अधजले शव ! हवाओं में घुली अमानुषिक और दमघोंटू गंध।
" लगता है लोग यहाँ आपस में ही लड़ मरे हैं। " - एक वृद्ध जानवर ने लंबी साँस खींचते हुए कहा।
" क्या ? ऐसा ? मगर वे तो इंसान हैं। सृष्टि के सबसे बुद्धिमान और विवेकशील जीव ! वे ऐसा कैसे कर सकते हैं ? " - एक साथ सभी जानवर बोल पड़े।
" उससे क्या फ़र्क पड़ता है। सुना नहीं है कि जब विचार कलुषित और दूषित हो जाते हैं, तो लोग जानवर से भी बदतर हो जाते हैं ? जाति-धर्म जैसी संकीर्ण विचारधारा के आधार पर जब वे बँट जाते हैं, तो फिर एक-दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। इतने जानवर तो हम भी नहीं !" - एक बुजुर्ग ने तार्किक रूप से समझाने की कोशिश की। सभी जानवर उसकी ओर देखने लगे।
सहसा सबकी नजर सड़क पर खून से लथपथ मरे पड़े एक कुत्ते की ओर जाती है और प्रश्न हवाओं में तैर जाता है - " मगर....इस बेजुबान का धर्म और मज़हब क्या था ? "
किसी के पास इसका कोई जवाब नहीं था। ****
10.बहिष्कृत
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सूर्यास्त होते ही चिड़ियों का एक जोड़ा उसकी बालकनी में कपड़े सुखाने की अलगनी पर आकर बैठ जाता।सुबह होते ही वे दोनोंं उड़ जाते।उसे आश्चर्य होता कि आहट मात्र से उड़ जाने वाली ये चिड़िया हमारे नजदीक आकर इतनी निश्चिंत कैसे रह जाती हैं ! देखा, तो वे दोनों मिलकर रोशनदान में अपना घोंसला बना रहे थे। धीरे-धीरे पूरे परिवार को उनसे लगाव हो गया था।शाम में हम जब तक उन्हें अपनी अलगनी पर बैठे न देख लेते, हमें सुकून नहीं मिलता।
एक दिन शाम को एक ही चिड़िया आई।सबने सोचा कि एक चिड़िया शायद कहीं रह गयी होगी, दूसरे दिन आ जाएगी।मगर जब दो दिन बीत गये, तो सबको चिंता होने लगी।तीसरे दिन शाम में वह बालकनी में ही बैठा हुआ था कि एक चिड़िया आकर अपने घोंसले में बैठ गयी।उसे आज फिर अकेला देख अनायास उसके मुँह से निकल गया - " अरे !आज फिर अकेले ही आ गयी ? "
तभी बगल में गुड्डे-गुड़िया से खेल रही उसकी छ: वर्षीया बेटी ने कहा - " पापा मुझे पता चल गया है कि चिड़िया अकेली क्यों आती है। "
" बताओ बेटी, क्यों ? " - बेटी की ओर मुड़कर उसने उत्सुकता से पूछा।
" चिड़ी ने घोंसले में अंडे दिए होंगे। तो घोंसले में चिड़े के रहने की जगह नहीं होगी।इसलिए वह रात में सोने के लिए चिड़े को बाहर भेज देती है, जिस तरह घर में जगह कम पड़ जाने के कारण हम दादाजी को बाहर बरामदे में सोने भेज देते हैं। " - बेटी ने उसकी ओर देखते हुए कहा।
" छनाक..." किचेन से बर्त्तन के गिरने की आवाज़ सुनाई पड़ी। बच्ची के जवाब ने उसके कलेजे पर हथौड़े की मानिंद चोट की थी।अब वह अपनी बेटी से ही आँखें नहीं मिला पा रहा था। ****
11.नयी दुनिया
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सभी जंगल की बाहरी सीमा पर खड़े थे।
कौतूहल, उत्सुकता और जिज्ञासा चरम पर थी।
सबकी निगाहें दूर पश्चिम दिशा की ओर थीं।
अँधेरों से निकलकर ज्यों-ज्यों वह नजदीक आता जा रहा था, उसकी आकृति स्पष्ट होती जा रही थी।
पास आते ही, अचानक समूह के सबसे वृद्ध कुत्ते की आँखों ने उस आकृति को पहचान लिया और जोर से भौंका - " अरे ! यह तो अपना कलुआ है! "
" कलुआ ?? " - यह सुनते ही कुत्तों के उस झुंड का सन्नाटा आह्लाद भरे नाद में बदल गया।आगंतुक पर हमला करने की बनाई गयी उनकी रणनीति धरी रह गयी थी।
उनका हीरो, उनका लीडर, उनका मुखिया कलुआ वापस आ गया था !
सभी वृद्ध कुत्ते की ओर देखने लगे।
वह कलुआ के पास गया। पास से उसे देखा। कलुआ वैसा नहीं रह गया था, जैसा वह पहले था।
साफ - सुथरा...भरी-पूरी, मांसल, हृष्ट-पुष्ट देहयष्टि और चेहरे पर चमक !
उसने कलुआ से पूछा - " कहाँ थे इतने दिनों तक ? "
" वो...मैं भटकता हुआ जंगल से बहुत दूर निकल गया था। " - कलुआ ने डरते-डरते बताया। सभी कुत्तों की आँखें उसे घूरने लगी थीं।
" भटककर कहाँ और किधर चले गये थे तुम ? " - बुजुर्ग ने कड़कदार आवाज में पूछा।
" इंसानों की बस्ती में। "
" इंसानों की बस्ती में ? अरे बाप रे ! " - सभी कुत्ते चौंककर एक साथ बोल पड़े।
" घोर अनर्थ ! तुम इंसानों के साथ रहकर आ रहे हो ? " - वृद्ध कुत्ते ने कलुआ से पूछा
" हाँ। "
" तुमने उनका अन्न खाया होगा ? "
" हाँ। "
" उनके हाथ का पानी पिया होगा ? "
" हाँ । तो ? "
" उनकी बातेंं भी सुनते होगे तुम ? "
" हाँ...बिल्कुल। "
" तब तो तुम्हारे दिमाग में भी..... ? "
" क्या ? "
" सुना है इंसान के दिल में एक-दूसरे के प्रति वैमनस्य और नफरत का जहर भरा हुआ है। "
" मुझे तो ऐसा नहीं लगा। "
" अच्छा ! "
" भाई, मैं एक ऐसी बस्ती में रहकर आया हूँ, जहाँ दिवाली में मुसलमान दिए जलाते थे। हिंदू ईद पर सेवईयाँ बाँटते थे। दोनों गुरूद्वारे में लंगर लगाते थे और सभी साथ मिलकर गिरजाघर में मोमबत्तियाँँ जलाकर अमन-चैन की दुआएँ माँगते थे। " - कलुआ ने जब दार्शनिक की तरह बताया, तो सबकी आँखें आश्चर्य से फटी-की-फटी रह गयींं।
" वाह ! आ जाओ फिर।स्वागत है तुम्हारा वापस इस जंगल में। हमारे यहाँ भी न तो कोई जाति है, न धर्म, न ही किसी तरह का कोई भेदभाव है ! " - बुजुर्ग ने कलुआ की आँखों में झाँकते हुए कहा और सभी वापस जंगल की ओर मुड़ गये।****
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क्रमांक - 05
जन्मतिथि : 15 मार्च 1963
जन्म स्थान: मिर्ज़ापुर, उत्तर प्रदेश
शिक्षा : स्नातक विज्ञान
लेखन : कहानी, लघुकथा और कविता लेखन
संग्रह : -
सहोदरी सोपान
सहोदरी लघुकथा
समय की दस्तक,
अक्षरा
ई-बुक :-
चिकीर्षा
संगिनी
हिंदी चेतना
पुरवाई
लघुकथा - 2019
सम्मान : -
- दिल्ली लघुकथा अधिवेशन में लघुकथा श्री सम्मान
- ब्लॉग बुलेटिन द्वारा आयोजित ब्लॉग साहित्य प्रतियोगिता के कहानी वर्ग में ब्लॉग रत्न सम्मान
- स्टोरी मिरर द्वारा लिटररी कर्नल
- पटना पुस्तक मेला में लेख्य मंजूषा की ओर से कविता पाठ के लिये प्रथम पुरस्कार
- प्रतिलिपि की ओर से ऑडियो कथा वाचन में प्रथम पुरस्कार
विशेष : -
- लेखकीय सफर ऑल इंडिया रेडियो के युवा-वाणी प्रोग्राम में अपनी रचना पढ़ने से हुआ।
- पिछले कुछ वर्षों में फेसबुक पर लघुकथाओं के कई ग्रुप से सक्रिय जुड़ाव
- हिंदी कहानियों के कई ऐप पर भी रचनाएँ हैं जिसमें पाठकों की संख्या चार लाख से ऊपर जा चुकी है।
- कई संपादकों ने अपनी ई-बुक में लघुकथा ,कहानी , कविता संकलन में रचनाएँ संग्रहित की हैं
- एक लघुकथा 'अकल्पित' का चुनाव कर, मातृभारती ने उस पर शार्ट फिल्म बनवाई तथा द्वितीय पुरस्कार से नवाज़ा, फिर गली इंटरनैशनल फिल्म फेस्टिवल में कई देशों की प्रस्तुतियों के बीच, इस फिल्म ने 'बेस्ट स्टोरी' का अवार्ड भी जीता।
- दूरदर्शन बिहार के 'खुला आकाश' और 'बेस्ट माॅम' जैसे प्रोग्राम में उपस्थिति।
पता : अचल, जस्टिस नारायण पथ , नागेश्वर कालोनी,
बोरिंग रोड , पटना- 800001 बिहार
1.दो घूँट जिंदगी के
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अजब गुत्थियाँ हैं इस मन की कि जिस उच्च पदासीन बहू के घर में आने की बात से उनके घर के सब लोग खुशी से झूम रहे थे, उनका अपना मन बैठा जा रहा था। पूरी जिंदगी का सरमाया, सजी-सँवरी किफायती गृहस्थी, नाते-रिश्तेदारों से तारतम्य, बच्चों का उत्तम पालन-पोषण... सब बहू की ऊँची तनख्वाह के समक्ष बौने हुए जा रहे थे। डर सा लग रहा था कि चंद पैसों के लिये जिस तरह पति पर निर्भर रहने की स्थिति रही है, कहीं बहू के सामने भी तो नहीँ हो जाएगी? कहीं हर समय स्वाभिमान से समझौता तो नहीँ करना पड़ेगा? बाहरी दुनिया और पैसे कमाने के बारे में, ज्यादा दिलचस्पी न लेने की अपनी आदत पर अफसोस सा होने लगा था।
शादी की गहमा-गहमी.. जिंदगी सामान्य होने में डेढ़-दो महीने बीत गए। आज बेटे-बहू दोनों को ऑफिस जाना था और वह निर्णय ही नहीं ले पा रही थीं कि उठकर सबके लिए चाय-नाश्ता बनाएँ या चादर लपेट कर पड़ी रहें? यह भी तो अच्छा नहीं लगता था कि बस अपने लिये कुछ पकाकर हट जाएँ! पर फिर कौन करेगा? चिंता तो यह भी थी कि कमाऊ बहू के मान-सम्मान के लिये अपना हर समय का साथी, यह रसोईघर, किसी दाई-नौकर को सौंप, अपने सात्विक खान-पान की आदतों से समझौता ही न करना पड़े अब?
अचानक दरवाजा खटखटाकर उनको पुकारती, किसी तूफान की तरह बहू ने कमरे में प्रवेश किया और चाय की ट्रे लेकर उनके पास पालथी मारकर बैठ गई। "माँ, चाय पी लीजिये। मैंने गोभी के परांठे बना लिये हैं, खाकर बताइयेगा!"
वे अचकचा कर उठ बैठीं, "तुझे आता है यह सब?"
"हाँ, हम तीन फ्रेंड्स एक रूम शेयर करते थे न, मैनेज करके खाना खुद ही बनाते थे। रोज कुछ झटपट वाली डिशेज़ और छुट्टियों में स्पेशल! ठीक है न?"
बच्चों सी सरलता थी बातों में, तो दुलार सा आने लगा था उनको! फिर एक नई ऊर्जा के साथ वह उठ खड़ी हुईं, "जल्दी कर, देर नहीं होनी चाहिए पहले दिन! चिंता मत करना, मैं हूँ यहाँ! हम दोनों मिलकर सब काम निबटा लेंगे। बता तो तुझे क्या पसंद है, शाम को वही बनाकर रखूँगी!" ****
2. नई पीढ़ी की नई सोंच
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स्नेहा के पापा की तबियत खराब होने की खबर न आती तो वो येन केन प्रकारेण, अभी कुछ दिन और यहीं रुके रहने का जतन कर ही लेतीं। कहाँ तो दो महीने की इस नन्ही सी जान को छोड़ कर जाने की उनकी हिम्मत ही नहीं हो रही थी ऊपर से स्नेहा ने बताया कि उसकी छुट्टियाँ समाप्त हो गई हैं और अगले महीने से वह अपने ऑफिस जाना भी शुरू कर देगी। कलेजा मुँह में आ गया। पिछले छः महीने से बेटी के प्रसव के चक्कर में यहीं हैं वह और बच्चे के लिये रखी गई उस प्रौढ़ दाई के रंग-ढंग देख रही हैं। उस औरत पर फूल जैसे बच्चे को छोड़ा जा सकता है क्या? तो क्या बेटी को पढ़ा-लिखा कर समर्थ बनाने और अपने पैरों पर खड़े होने की प्रेरणा देने का यह खामियाजा भुगतना पड़ेगा कि अगली पीढ़ी बेरहम दाई-नौकरों के हाथ पलेगी?
पर उनकी दुश्चिंताओं को तो स्नेहा ने हवा में उड़ा दिया। "अमर रहेंगें न घर में! उन्होंने अपने ऑफिस में बात कर ली है, अब वह 'वर्क फ्राॅम होम' करेंगें और वीक में एक-दो दिन ही ऑफिस जाना होगा।"
भौंचक्की थीं वह, "दामाद जी? भला वह कैसे सँभालेंगें बच्चा?"
"पिता हैं वह, मुझसे कम प्यार थोड़े ही करते हैं इससे! हम मैनेज कर लेंगें माँ, आप बिल्कुल निश्चिंत हो कर जाइये!"
थोड़ी हैरत तो जरूर थी पर तनाव छँटने लगा था। नई पीढ़ी की नई सोंच, पर सक्षम हैं ये लोग! अपने रास्ते बना ही लेंगें। ****
3.आजादी
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जैसे-जैसे रात गहरा रही थी, कमला की छटपटाहट बढती ही जा रही थीं! रम्मा भाभी, कोठी वाली मैडम, बंगाली आंटी... सब की सब उसे घेर कर एक साथ चिल्ला रही थीं... कैंची चुरा लिया, लड्डू चुरा लिया... पिंटू चोर है... बाबू का खिलौना उठा ले गया... वो रोक रही थी सबको... बता रही थी पिंटुआ चोर नहीं है, उसने समझा दिया है उसको... अपनी कसम खिलाई है, अब वह किसी का सामना नहीं छूता। ऐसा कोई काम नहीं करेगा अब वो, पर कोई मानता क्यों नहीं? जब मैडम की फिरिज से लड्डू निकाल कर खाया था, चार बरस का बच्चा था। भूखा रहा होगा... समझ नहीं सका होगा या लड्डू देख कर ललचा गया होगा पर ये बात तो पाँच बरस पुरानी है न? अब बड़ा हो गया है, समझने लगा है, पर बदनामी है कि पीछा छोड़ने को तैयार ही नहीं!
इतनी छोटी सी बात सबको पता भी चल गई और सबने बच्चे के सिर पर मानों लिख ही दिया कि वो चोर है। जिसके भी घर में कुछ खोता है, वो पिंटू का नाम लेने लगता है... फिर वही थुक्का-फजीहत शुरू हो जाती है भले बाद में वो सामान उन्हीं के घर में निकल आए। वो लड़ती है, काम छोड़ कर दूसरे के घर का चौका बरतन पकड़ लेती है पर ये बदनामी वहाँ भी पँहुचने में वक्त नहीं लगाती। बस चले तो मुहल्ला ही छोड़ दे वो, पर फिर काम कैसे चलेगा? दूसरे मुहल्ले में आने जाने के समय में तो एक घर का काम निबटा ले वो।
सुबह से रात होने तक पिंटू को साथ लिए, डाँग-डाँग घूमती रहती है। बाकी दाईयाँ जितने समय में चार घर निबटाती हैं वो सात घर का काम कर लेती है, इसी से जलती हैं उससे वो लोग! ये नहीं दिखाई पड़ता किसी को, कि दो पैसे की लालच में अपने शरीर की तरफ तो देखना ही छोड़ दिया है उसने... पर पैसे का ही कौन सा सुख मिल रहा है उसे.. वह उदास होकर सोंच रही थी, सारा तो पिंटू का बाप ही छीन ले जाता है...
" पोछा मारने में इतना समय लगता है? बता क्या कर रहा था उस रूम में इतनी देर? अलमारी तो नहीं खोली थी?"
"बचपन से चोर है, बड़ा होकर डाकू बनेगा।"
"पलक, उसके साथ मत खेलो। कहीं वैसी ही बन गई तो मैं तो घर से ही निकाल दूँगी तुम्हें!"
आवाज़ें पीछा ही नहीं छोड़ रही थीं उसका! दम घुट जा रहा था तो वह छाती पकड़ कर उठ बैठी, सारा बदन पसीने से तर-बतर था... क्या बन कर तैयार होगा पिंटुआ? थोड़े से पैसों की लालच में क्या बना रही है वो अपने बेटे को?
तो क्या आँगनबाड़ी वाली दीदी की बात ही सही है? उस समय क्यों नहीं समझ में आया था उसे? कल से पिंटू को लेकर कहीं नहीं जाएगी वह, पढ़ाएगी उसको! कल ही सबेरे स्कूल में दाखिला कराएगी उसका। कोने वाला स्कूल सुना है बहुत अच्छा है, वो वहाँ के फादर को जानती भी है। जाकर पैर पकड़ लेगी उनका! तनख्वाह मिलते ही पहले स्कूल में जमा कर आएगी... पल्ले में पैसा बचेगा ही नहीं तो क्या छीनेगा पिंटू का बाप? चमड़ी? तो खींच ले चमड़ी, पर करेगी अब वो अपने ही मन का! मेहनत करती है, कमाती है तो खर्च करने की आज़ादी अगर कोई नहीं देता तो छीन कर ही सही, वह खुद लेगी! इसके लिए अंगारों पर भी चलना पड़े तो चलेगी वह! ****
4. बेटी
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रास्ता चलते-चलते, एकाएक सोना पर नजर पड़ी तो बाँछें खिल गईं उनकी। क्या मस्त बॉडी है! फँस जाए ये लड़की तो लाइफ़ में कलर आ जाएँ! जाने कबसे ख्वाब सजाए बैठे हैं इसके, पर ऐसे केवल मन में सोचते रहने से क्या होगा? चलो, उसके साथ बातें-वातें करके देखते हैं कि किस टाइप की लड़की है ये...
"इतनी सुबह-सुबह कहाँ जा रही हो सोना?"
सोना अपने इस पड़ोसी को पहचानती थी, अतः निःसंकोच साथ चलने लगी।
"बीमारी की वजह से मेरी कई क्लासेज छूट गई थीं। सर के पास रिक्वेस्ट करने जा रही हूँ, शायद कुछ दिन वे मुझे ट्यूशन देने को तैयार हो जाए!"
"अरे, पहले क्यों नहीं बताया? कंपनी में जॉब करने से पहले मैं भी तो स्कूल में ही पढ़ाया करता था। आ जाना घर पर, सारी तैयारी करा दूँगा।"
"सच्ची..?"
सोना खुश हो गई थी। कब खाली हैं आप?"
मछली तो कांटे में फँसने को तैयार ही बैठी थी। उनका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। चिर अभीप्सित पूरा करने के लिए परिस्थितियाँ भी साथ दे रही थी मानों, कि पत्नी और बच्चे भी कुछ दिनों के लिए बाहर गए हैं और वह घर में बिल्कुल अकेले हैं।
दिमाग उधेड़-बुन में व्यस्त हो गया। कब बुलाएँ इसे? अभी? पर नहीं, सड़क पर इसके साथ चलते हुए अभी तो पता नहीँ किसने-किसने उन्हें देख लिया होगा! फिर कामवाली के आने का झंझट रहेगा... बारह-एक का समय सबसे बढ़िया है, जब सब लोग काम पर चले जाते हैं और सड़कें सूनी रहती हैं! ज्यादा से ज्यादा ऑफिस से छुट्टी लेनी पड़ेगी, तो ले लेंगे!
निकले तो थे नाश्ते के लिए ब्रेड और अंडे लेने, पर मिठाई और चॉकलेट भी बँधवा लिया। मुदित मन घर लौट रहे थे, जैसे हवा में विचर रहे हों... कि आज तो इस लड़की को शीशे में उतार कर ही रहेंगे! अचानक बगल से गुजरते ऑटो रिक्शा ने इतनी तेज ठोकर मारी की उछलकर वह मुँह के बल दूर जा गिरे और हाथ का सारा सामान इधर-उधर बिखर गया। होश था अभी, शक्ति भर लोगों से अनुरोध भी किया, पर जो कोई मदद को आगे नहीं आया तो समझ गए, यहीं तक थी जिंदगी! फिर वाकई सब कुछ समाप्त हो गया।
पता नहीं कब चेतना लौटी। शरीर दर्द कर रहा था, कमजोरी भी बहुत थी पर गफलत में भी लोगों की बातचीत के स्वर कानों में प्रवेश कर रहे थे...
"बेटा आप इन्हें बहुत सही समय पर ले आईं वरना इनका बचना मुमकिन नहीं था। खून बहुत बह चुका है।"
"डॉक्टर अंकल, ठीक तो हो जाएँगे न ये?"
अरे, ये तो सोना की आवाज थी। उन्होंने धीरे से आंखें खोली...
"अब कोई खतरा नहीं है! देखिये, उन्हें होश भी आ रहा है!"
डॉक्टर ने कहा तो जल्दी से उनके पास आ, सोना अपने नर्म हाथों से उनका सर सहलाने लगी।
"कैसे हैं अंकल आप?"
पता नहीं क्यों, अपने वजूद से घृणा सी हुई। फिर कुछ सोंचकर उन्होंने धीरे से अपना हाथ उठाकर सोना के हाथ पर रख दिया।
"ठीक हूँ बेटी!" ****
5. नर्क
***
रामानुज का पार्थिव शरीर घर आया तो एक बार फिर से चीख पुकार मच गई। उसकी बीबी की बेहोशी, बच्चों का बिलबिलाना, उनसे देखा नहीं जा रहा था। मन चिल्ला-चिल्ला कर कह रहा था, इसके जिम्मेदार वह है.... और कोई नही, बस वही हैं... वो एक ऐसा राक्षस निकले जो अपने भाई को ही लील गया, कि क्या उनको पता नहीं था कि उसका मकान और खेत सबकुछ गिरवी पड़ा है और इस बार की उसकी खड़ी फसल, बारिश नहीं होने से बर्बाद हो गई है? पर वह ऐसा कदम उठा लेगा, कब सोंच सकते थे वह?
आत्मग्लानि फाँस बन कर गले में अटकी हुई थी। कल ही तो रामानुज उनसे कर्जा चुकाने के लिए, दो लाख रुपये माँगने आया था। उन्होंने कह दिया, उनके पास है ही कहाँ इतना रुपया, जो दे दें? सारा पैसा तो बेटे राकेश की पढ़ाई में पहले ही लगा चुके हैं। क्या करते, रामानुज के प्रति शिकायतें भी तो बहुत थीं मन में! अब सोंचते हैं तो लगता है, बँटवारे के पहले वाला समय कितना अच्छा था जब दोनों भाई मिलजुल कर खेती करते थे। कितना प्यार था आपस में, फिर पता नहीं कब, दिलों के बीच दूरियाँ ऐसी बढ़ीं कि एक- दूसरे की हर बात खराब ही लगने लगी। शिकायतें बढ़ी और रंजिशों में बदल गईं। अपने पाँच बच्चों का हवाला देकर, उसने आधे से ज्यादा खेत हथियाने की कोशिश की, उनके दुश्मनों के साथ उठक-बैठक की... पास में पैसे नहीं थे तो कर्जा लेकर अपनी तरफ का मकान पक्का कराने की क्या जल्दी थी उसको?
पर अब ये सारी बातें, सारी सोंच, बेबुनियाद क्यों लग रही है? दे ही दिया होता दो लाख.. तो उनका भाई फांसी लगाकर यूँ तो न लटक गया होता! हत्या का ये पाप तो नहीं आता उनके सर पर? कितनी बड़ी गलती हो गई है उनसे! वो जानते हैं कि अगर चाहते तो बचा सकते थे उसे... कि राकेश से पैसा मंगाया जा सकता था, या कहीं से और से, कुछ न कुछ इंतजाम तो हो ही जाता! पर क्यों नहीं किया? अपने हाथों मार दिया छोटे भाई को, एक बार उसके चेहरे की तरफ ध्यान से देखा भी होता उस समय, तो उसके मन की बात पढ़ ही लेते!
याद आने लगा था बचपन का वह सारा प्यार-दुलार! आत्मग्लानि अब क्रोध में बदल रही थी, सिर को दीवार पर दे मारें या वह भी फाँसी लगाकर रामानुज के बगल मे लेट जाए? क्या करें? कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा, ऐसे नहीं जिया जा सकता...
तीन-चार घंटे से कड़ी धूप में घूमते- घूमते अब उबकाइयाँ और चक्कर से आने लगे थे उनको। वह जानते हैं, बाहर शव के पास उनका उपस्थित न होना, उठकर बाहर चले आना, भाइयों की दुश्मनी की दास्तान को और भी ज्यादा हवा दे रहा होगा पर फिर भी, रामानुज के निर्जीव शरीर की तरफ देखने की हिम्मत ही नहीं थी अंदर में! क्या करें? कैसे वापस ले आएँ अपने रामानुज को?
प्रायश्चित करेंगे अब वह! घर या जीवन त्याग कर नहीं, यहीं पर रह कर! मन ढेर सारे निर्णय लेने में व्यस्त था... रामानुज का खेत-मकान छुड़ाकर, उसके परिवार का लालन-पालन और बच्चों को उनके पैर पर खड़ा कराना अब उनकी जिम्मेदारी है। राकेश को भी विदेश से वापस बुलाना पड़ेगा। बताना होगा कि बड़े इंजीनियर हो तो अपनी विद्या गाँव के दुख-कष्ट दूर करने पर खरचो, विदेशियों को समृद्ध बनाने में नहीं! रामानुज, तुम्हारी शहादत बर्बाद नहीं जाएगी... देखना इस गांव का कोई रामानुज अब आत्महत्या नहीं करेगा। ****
6. मत होना सावित्री
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वही बारिश में धुले धुले, ताजगी भरे पेड़ हैं, वैसा ही जिंदगी से भरा हुआ एक मोर अपने परों को फैला कर नाच रहा है और घर के पीछे स्थित पार्क की ये वही बेंच है, जिस पर बैठ कर कुछ समय मौसम की खूबसूरती का रसास्वादन करने के लिए, पिछले साल, उनकी सावित्री उन्हें खींच कर ले आई थी और वह आदतानुसार उसके इस पागलपन, बुढ़ापे में भी पीछा न छोड़ने वाले इस बचपने पर बुरी तरह से खीझ उठे थे।
अजीब सी बात है, उस समय उनके पास कितने सारे जरूरी काम हुआ करते थे पर एक सावित्री के जाते ही सब कुछ कैसा उल्टा-पुल्टा हो गया है... कि उनका काम, मेहनत से कमाए हुए पैसे, उनके मित्रगण, उनका बेटा और यहाँ तक कि उनकी अपनी आदतें... हर वो चीज जिससे जीवन भर उन्होने बहुत प्यार किया था, अब नीरस लगने लगी है और हर वो चीज जिसे कभी किसी गिनती में ही नहीं लिया, मसलन सावित्री का सुबह-सबेरे से उठ कर न जाने कितने कामों में स्वयं को झोंक देना, उसका बनाया वो खाना, उसका सुरीला स्वर, दस बार उनकी डाँट सुनने के बाद भी उनकी हर सुविधा की ध्यान रखना, उसकी सादगी, रात में थक-हार कर बगल में आकर सो जाना... और उसका वो पूरा का पूरा व्यक्तित्व ही, जिसको उन्होंने उसके जीते-जी अक्सर गौण समझ, नकारा ही था आज मुठ्ठी से फिसलते ही उनको कंगाल क्यों बना गया है? यहाँ तक कि यह खूबसूरत मंजर, पिछले साल उन्होने इसको ठुकराया था न, आज पता नहीं क्यों, बर्दाश्त ही नहीं हो रहा है कि आँसुओं से धुँधलाई आँखों को सँभालते, घर के पिछले दरवाजे से वह वापस अपने कमरे में लौट आए।
आस्था और अभिषेक, उनके बेटे बहू को शायद उनके घर लौटने की आहट नहीं मिली थी, तभी तो तेज-तेज आवाज में होती उनकी बहस, दरवाजों-दीवारों को भेदती, उनके कानों तक पँहुच रही थी। जल्दी ही वह समझ गए कि परसों जो दोपहर में आस्था कार लेकर निकली थी, उसके लिये उसने पहले से अभिषेक की इजाजत नहीं ली थी। इससे नाराज अभिषेक दो दिनों से कार की चाभी छुपाकर आफिस जाने लगा था। आस्था गुस्से से कह रही थी, "हम दोनों पढ़े-लिखे लोग हैं। अगर हमें एक दूसरे का कोई भी ऐक्ट पसंद नहीं आता तो बातें करेंगें आपस में, कनविंस करेंगें एक दूसरे को... पर जबरदस्ती लाद नहीं सकते हैं आप मुझ पर अपना निर्णय! आपको मेरी इस तरह बेइज्जती करने का कोई हक नहीं है।"
सीने में गड़ते शूल की तरह फिर सावित्री याद आ गई उनको... शुरु-शुरु में जब वह कपड़े सुखाने छत पर जाती थी तो एक समवयस्क पड़ोसन भी उसी समय छत पर आ जाती थी। जैसे ही माँ ने उनसे शिकायत की कि बहू छत पर रोज पड़ोसन से गप्पें मारने जाती है, उन्होंने इस सिलसिले को रोकने के लिए छत पर ताला बंद कर दिया था और कपड़ों को बालकनी में सुखाने का हुक्म दे दिया था। कुछ भी तो नहीं कहा था सावित्री ने पर उसकी आँखों में वो जो एक दर्द था, जो उनको उस दिन नहीं दिखाई पड़ा था... आज क्यों इतनी तकलीफ दे रहा है? क्या सावित्री के साथ थोड़ा बेहतर व्यवहार हो सकता था? या उसने ही कभी खुलकर बात की होती? कभी विरोध ही करती?
तुम ही सही हो आस्था ! हमेशा इसी समझदारी से अपने अधिकारों के लिये जागरूक रहना...
तुम सावित्री मत होना। ***
7. स्वभाषा
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"व्हेयर आर यू फ्राॅम?"
" मैं टर्की से आया हूँ।"
"व्हाओ, कैन यू स्पीक हिंदी?"
"हाँ, मैं आपके देश का भाषा सीखकर, तब इधर आया।"
"व्हाट अ प्लेजेंट सरप्राइज़! इट्स रियली य ग्रेट गेश्चर।"
"मैं हिंदी समझ भी सकता हूँ।" ****
8.लाड़ो
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लाड़ दिखाते हुए, लेटी हुई अम्माँ के गले में बाँहें डालती हुई वह भी चिपक कर लेट गई।
"कुछ कहना है गुड़िया?
अम्मा ने बाँहों में भरते हुए पूछा तो पता नहीं क्या सोचती, वह पहले तो मुकर गई...
"ऊँहुक्क!"
फिर बोली, "अच्छा अम्माँ, जब तुम छोटी थीं, कौन सी पिक्चर पसंद आती थी तुमको? मतलब ऐक्शन, हॉरर या फिर लव-स्टोरी?"
अम्माँ समझ गईं कि बात कुछ और है, कि कल तक कार्टून और डॉल्स की बातें करने वाली उनकी लाड़ो के प्रश्न आज कुछ बदल से गए हैं। उसका मन टटोलने को कहा, "मुझे तो सिर्फ लव-स्टोरी ही भाती थी।"
आँखें चमक उठी लाड़ो की! "तुमने कभी लव किया था अम्माँ?"
"हाँ क्यों नहीं? बहुत बार हुआ मुझे लव!"
ठठाकर हँस पड़ी वह... "वो वाला नहीं, सच्चा वाला! जो किसी स्पेशल को देखते ही होता है और जिंदगी भर वैसा ही बना रहता है।"
"तुझको हुआ है क्या?" खोजती नजरों से उसकी आँखों में झाँकती अम्मा पूछ रही थीं।
"धत्त्!" पता नहीं क्यों वह शरमा गई।
"कैसा है वह देखने में?" किसी गहरी सहेली की तरह अम्माँ ने पूछा।
"बिल्कुल रणबीर कपूर जैसा!"
अम्मा ने आश्चर्य से देखा, आँखों में दूधिया सपने झिलमिला रहे थे।
"कहाँ मिली थी उससे?"
"स्टेज प्रोग्राम में! बहुत अच्छा गाता है। फिर लाइब्रेरी में भी, अब वह रोज स्कूल जाते समय मोटर-साइकिल लेकर पीछे-पीछे आता है। पहले सोंचा डाँट दूँगी पर अम्माँ, अच्छा लड़का है वह!"
"कैसे पता? कभी बात की है उससे?"
"अभी तक तो नहीं! वही कुछ-कुछ बोलता रहता है, पर मैंने कभी जवाब नहीं दिया।"
"क्या लगता है, सच्चा वाला लव हो गया है तुझे?"
"लगता तो है..."
"फिर तो ठीक है, कल चलती हूँ तेरे साथ। उसके मम्मी-पापा का पता पूछकर शादी की बात चलाऊँ?"
हड़बड़ा कर उठ बैठी लाड़ो... "अरे नहीं! शादी थोड़े न करूँगी! अभी तो मुझे डॉक्टर बनना है।"
उँगली पर जोड़ते हुए अम्माँ ने कहा, " इसमें तो आठ-दस साल और लगेंगे! तब तक पीछे-पीछे घुमाती रहेगी उसे?"
"नहीं, ऐसा तो नहीं!" वह कुछ सोंच में पड़ गई थी।
"वैसे यह कोई बुरी बात भी नहीं! जब तेरी सहेलियाँ अपने हस्बैंड की क्वालिफिकेशन की बात करेंगी, तू बताएगी कि आठ साल से पीछे-पीछे घूमने वाला हस्बैंड कितनों को मिलता है?"
"क्यों फालतू बातें करती हो अम्माँ! मेरा हस्बैंड भी पढ़ा-लिखा होगा।" लाड़ो गुस्सा हो गई थी।
"तो पढ़ाई-लिखाई करने दे न उसे, मना कर पीछा करने से! ये लड़के लोग न, थोड़े कमअक्ल होते हैं। प्यार से बोलेगी तो और घूमेगा, डाँट कर कहना अभी कैरियर बनाए! लव वगैरह के लिए बहुत टाइम है अभी।"
"हाँ, यही ठीक रहेगा, उसके लिए भी और मेरे लिए भी!" लाड़ो ने गहराई से सोंचा और अब अपना निर्णय उसे बिल्कुल सही लग रहा था।****
9.पैसा ये पैसा
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फोन कान में लगाए-लगाए रंजन के पैर काँपने लगे और वो धम्म से जमीन पर बैठ गया । दोनों आँखों से आँसू बह रहे थे और बचपन से लेकर अभी तक की जाने कितनी घटनाएँ आपस में गड्ड-मड्ड होकर मन को मथ रही थीं । मम्मी पापा का वो प्यार, उनकी वो मेहनत और उसके लिये किये गए उनके संघर्ष और त्याग ! पर वो भी तो उनका अच्छा बेटा था, सो पता नहीं कब, उसके उनके सपनों को शिरोधार्य ही कर लिया, कि जी जान लगाकर पढ़ाई लिखाई की, अच्छे नंबरों से परीक्षाएँ पास कीं और विदेश में नौकरी पाने के लिये भी जी जान ही लगा दिया ।
जब विदेश में एक अदद अच्छी नौकरी का कोई हिसाब नहीं बैठा तो उसकी ये कोशिशें जिद में बदल गई । लगता था बस, एकबार वहाँ चला भर जाय .... कि उसके पास योग्यता है जिसकी वहाँ पर बहुत कद्र है ! पैसे भी बहुत मिलेंगें तो सारा दुःख दारिद्य एकबारगी समाप्त हो जायगा ! इस जिद के एवज में अच्छा खासा पैसा लिया बिचौलियों ने, फिर वीज़ा के चक्कर, मँहगे टिकट .... यूँ एक दिन अभीष्ट पर पँहुच तो गया वो, मगर वहाँ कोई हाथ फैलाए उसकी योग्यताओं का इन्तजार करता नहीं मिला । जिंदा रहने के लिये एक हाॅस्पिटल में ग्राउंड ड्यूटी स्टाफ का काम किया । रहने- खाने, हर चीज पर न्यूनतम खर्च कर बैंक में कुछ डाॅलर भी जमा कर लिये । हाँ, इस जद्दोजहद में पाँच साल का समय जरूर बीत गया ।
फिर मम्मी पापा के दबाव के चलते इन्डिया आया था । विदेश में नौकरी करने के कारण उन कुछ दिनों में वो वी आई पी खातिरदारी मिली कि लगा मानों सारा संघर्ष सफल हो गया है पर यह भी समझ में आ गया कि अब तो इस इज्जत को बनाए रखने के लिये वहीं रहना पड़ेगा और वापसी के सारे रास्ते अब बंद हो चुके हैं । उधर कितने ही लड़की वाले घात लगाकर उसकी आमद का इन्तजार कर रहे थे, सो आनन फानन में शादी भी हो गई । पत्नी को साथ रख पाने की प्रक्रिया में भी भारी जद्दोजहद थी, पर वो भी पूरी हुई और विदेशी धरती पर बेटे नमन ने जन्म लेकर उसको पूरी तरह 'सैटल' कर दिया । सब ठीक ही था, बस अब बचत के नाम पर बैंक एकाउंट में महीने के शुरुआती दिनों में ही कुछ डाॅलर्स के दर्शन होते थे बाकी दिनों को यूँ ही काटना अब किस्मत बन गई थी ।
अभी पापा का ये फोन, कि मम्मी इन्तजार करते करते ही गुजर गईं.... कि मृत शरीर की आँखें अभी तक खुली हैं मानों उसका इन्तजार कर रही हों .... चाहा तो जी जान से था उसने, पर पता नहीं क्यों वो आपका अच्छा बेटा नहीं बन सका पापा !
स्वयं को किसी तरह सँभाल, उसने मोबाइल पर अपने बैंक एकाउंट को खँगाला.... बारह सौ डाॅलर थे अभी ! पापा के एकाउंट में उन्हें ट्रांसफर कर, उसकी उँगलियाँ मैसेज बनाने में तल्लीन हो गईं .. "व्यस्तता बहुत ज्यादा है । अभी आना तो नहीं हो सकेगा । आपके एकाउंट में कुछ पैसे भेजे हैं, जरूरत होने पर निकाल लीजियेगा !" ****
10. दर्द का उत्कर्ष
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मैं एक लौकी हूँ। अब ये आपकी इच्छा है कि आप मुझे कितना प्यार करें .... कि मेरा रस तक निकाल कर पी जाएँ या कभी मेरी सब्जी बनाने पर पति या बच्चों से झगड़ा ही हो जाए।
दस से पंद्रह दिनों की जिंदगी होती है हमारी पर इस छोटी सी उमर में ही दुनिया को पहचान लिया है मैंने। आँखें खोली थीं मैंने एक तोतली सी आवाज से ... "अम्मा देखो मेरी लगाई बेल में लौकी आ गई।" मैं उस नन्हीं सी कली को देख कर मुस्कुराने ही वाली थी कि एक साँवला, झुर्रियों से भरा कुरूप चेहरा मेरे सामने आ गया। "लंबी लौकी की बतिया है। जतन करेगी तो खूब बड़ा फल आएगा ।"
"तो क्या रहमत काका इसके ज्यादा पैसे देंगें?"
"नहीं, इस बार टोकरा में सब्जी भर सिर पर लेकर रेल से सहर चलते हैं, वहाँ मुहल्ले मुहल्ले घूम कर कुछ ज्यादा पैसे मिल जाएँगें।"
नन्ही कली ने जरा शर्माते हुए पूछा..."तब क्या तुम हमको मीठी गोली खाने के लिये दो रूपया दोगी?"
अम्मा इसका कोई जवाब देतीं इसके पहले ही अंदर से एक ११-१२ बरस की लड़की निकली जो शायद इसकी बड़ी बहन होगी "शरमन नहीं आती मीठी गोली माँगते? न भइया की दवा बची है न दद्दा की। अम्मा तीन दिन से खेसारी का साग खा के रह रही हैं। हम लोग को खाली नमक और भात मिलता है उहो कल के लिये नहीं बचा है। इहाँ बात बनाने की जगह जा कर लकड़ी सब भीतर करो ... कहीं जो बरसात हो गई रात में तो चूल्हा तक नहीं जलेगा, फिर कच्चा साग खा कर रहना।"
नन्हीं कली का उतरा हुआ मुँह देखकर अम्मा को दया आ गई तो वो उसका मुँह अपनी छाती में दबा कर प्यार करने लगीं.... "अरे मेरी लाड़ो..... कैसी किस्मत ले के आई है। दो बीघा जमीन थी तेरे बाबू के पास। इतनी उपजाऊ कि साल में दो फसल तक हो जाती थी। हमारे घर में इतना धान सत्तू होता था कि कभी कोई भूखा न सोए। वो तो तेरे भाई का मोटर लारी में पैर आ गया तो तेरे बाबू को कर्जा उठाना पड़ा। देवता आदमी थे तेरे बाबू कि हम लोगों की तकलीफ नहीं देख सकते थे। फसल बिगड़ गई और कर्जा चुका नहीं सके तो जहर खा के प्रान ही त्याग दिये। उसका मरने के बाद भी ऊ लोग नहीं सोंचा कि खेत ही छीन लेंगें तो ई छः प्राणी के परिवार का क्या होगा। उधर तेरे भाई का पैर काटना पड़ा इधर तेरा छोटका भाई जो मेरे पेट में था बेसमय मरा पैदा हुआ। जभी से न, पेट में एतना दरद होता है कि बदन सीधा नहीं होता है।"
"इतना दरद रहता है तो बार बार भारी टोकरा उठा के सहर मत न जाया करो।"
"कैसे काम चलेगा? ऊ लोग तुम्हारी बहन के पीछे पड़े हैं। बाकी का कर्जा जल्दी चुक जाए तो ही अच्छा है।" मैने देखा कि उस कुरूप चेहरे की झुर्रियाँ और गहरा गई थीं।
दो नन्हे, दुलार भरे हाथों के स्पर्श से मुदित मैं जल्दी जल्दी बड़ी हो रही थी और फिर वो दिन भी आ गया जब भिंडी, बैंगन और तरोई के साथ टोकरे में लदी मैं एक महलनुमा मकान के सामने खड़ी थी। मुझे लगा शायद सही जगह आ गई हूँ मैं, कि आज मेरा इतना दाम लग जाए .... अम्मा खुश हो कर दो रूपयों की मीठी गोली खरीद ही लें।
"बीस रूपया किलो का भाव चल रहा है मलकिन्नी" अम्मा गिड़गिड़ा रही थी।
"दिमाग चढ गया है ज्यादा ? साठ रूपया एक लौकी का माँग रही हो ? वैसे ही इन्जेक्शन दे देकर तुम लोग इसको फुला देते हो नहीं तो इसमें है ही क्या?"
लम्बे चले भाव ताव के बाद मैं पैंतीस रूपये में खरीद ली गई और उदासी स उन दो जोड़ी कदमों को दूर जाते देखती रही। ****
11. नीम चढ़ा करेला
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गहरे काले रंग की उस मरगिल्ली सी लड़की को किसी ने जब उनसे नौकरी देने की सिफारिश की थी तब हिकारत से उसे देखते हुए उन्होंने सोंचा था कि इससे भला उनका कौन सा काम निकल सकेगा पर महज खाने कपड़े की तनख्वाह पर उसे रख लेना ऐसा कोई मँहगा सौदा भी नहीं था। तब क्या पता था कि बुटीक का झाड़ू पोंछा करते-करते मालती का मन इस काम में ऐसा रमेगा कि तीन-चार साल बीतते-बीतते वो उनके सबसे अच्छे दर्जी का हाथ पकड़ने लगेगी। एक समय ऐसा भी आया था कि एक से एक नये कट के कपड़े को काटने सिलने का काम हो या डिज़ाइनिंग, इम्ब्राॅयडरी का... मालती की बराबरी करना सभी के लिये असंभव होने लगा।
वो उनकी दूकान के सबसे सुनहरे दिन थे पर पता नहीं कैसे, उनकी वो सस्ती-मद्दी कर्मचारी, उनको धोखा दे कर, शहर के नामी-गिरामी बुटीक में जा, सीधा ग्राहकों को डील करने लगी। तिलमिला उठी थीं वह इस चोट से कि एक मालती के जाते ही उनकी दूकान के काम का स्तर ही गिर गया और जाने कितने पुराने-पुराने ग्राहक टूट कर इधर-उधर होने लगे। फिर जब थोड़े दिनों बाद ये खबर आई कि वहाँ भी नहींं टिकी मालती, तो कलेजे को ठंढक सी मिली... जो लोग कहते थे कि उसे नाममात्र के पैसे देकर उन्होंने उससे बेहिसाब काम लिया था और इसीसे वह काम छोड़ कर भाग गई... अब उनको जवाब मिल जायगा। वह स्वभाव से ही धोखेबाज थी, उसे न पैसे रोक सकते थे व्यवहार!
उस दिन शहर की महिला उद्यमी संघ का सालाना जलसा था। घर के बहुत जरूरी कामों से समझौता करके, सबके मना करने पर भी वह वहाँ गई थीं क्योंकि जब से इस संघ की स्थापना हुई है, वह इसके बोर्ड में हैं और डायरेक्टर की हैसियत से यहाँ उनका काफी मान-सम्मान भी है।
उस समय वह मंच पर ही सुशोभित थीं जब मुख्य अतिथि के आने की उद्घोषणा हुई थी। पर दंग रह गईं वह, जब देखा कि इतने बड़े फैशन डिजाइनिंग इंस्टीट्यूट की प्रिंसिपल के नाम पर, संघ की प्रेसिडेंट और सेक्रेटरी से घिरी... वही मालती मंच की ओर चली आ रही है।
एक अव्यक्त ईर्ष्या से कसैला हो गया मुँह.. फिर अचानक वह उठीं, और भीड़ में छिपते-छिपाते मंच के पीछे से निकल कर बाहर आ गईं। ****
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क्रमांक - 06
जन्मतिथि:16 अप्रैल 1981
शिक्षा:-एम.ए(अर्थशास्त्र),डी.पी.इ
पिता का नाम:श्री सदानंद ठाकुर
माता का नाम:श्रीमती मीना देवी
पति का नाम:अमल झा
बच्चें:पीयूष प्रियदर्शन झा, शाम्भवी प्रियदर्शी
सम्प्रति : शिक्षिका , उत्क्रमित माध्यमिक विद्यालय , करजापट्टी , केवटी , दरभंगा - बिहार
रूचि:-हिन्दी, अंग्रेजी, मैथिली में लिखना और पढना
प्रकाशित पुस्तकें:-साझा संग्रह 'यादें' , दिल के अल्फाज , मेरी धरती, मेरा गाँव, 'चमकते कलमकार,शहादत साझा काव्य संग्रह, बचपन, मिथिला संस्कृति, जख्मी दिल, साझा काव्य संग्रह 'प्रतिबिम्बित जीवन, लघुकथा संग्रह 'पुष्प परिमल, लघुकथा साझा संग्रह 'कथादेश,साझा काव्य संग्रह'काव्य मंजरी साझा संग्रह ई बुक पिता, E-book 'Love is blind' इत्यादि
सम्मान:-
श्रेष्ठ लघुकथाकार सम्मान,
चमकते कलमकार सम्मान,
अजयचंद लघुकथा प्रतियोगिता में प्रथम स्थान,
विवेकानंद स्मृति सम्मान,
जय जय हिन्दी संस्था द्वारा दैनिक श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान,
अनेक मंचों पर आनलाइन एवं आफलाइन काव्य वाचन के लिए सम्मान पत्र, प्राप्त, साहित्य प्रहरी सम्मान,
श्रेष्ठ रचनाकार सम्मान,
मगसम द्वारा 'रचना प्रतिभा सम्मान
मातोश्री सम्मान-2021प्राप्त
Resilient Teacher Award 2018-19 इत्यादि
विशेष : -
आकाशवाणी दरभंगा द्वारा काव्य पाठ का प्रसारण
पता : उत्क्रमित माध्यमिक विद्यालय करजापट्टी
केवटी,दरभंगा - बिहार
1.वचन भंग
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नेता जी मंच पर भाषण दे रहे थे। अनेकों कसमें खाकर वादा कर रहे थे कि मैं आप सबका रहनुमा बनूंगा।
" सब झूठ बोल रहे हैं। पांच साल बाद आज ही दिखाई दे रहे हैं।"सभा में उपस्थित कुछ ग्रामीण आपस में खुसुर-फुसुर कर रहे थे। उनमें से एक ग्रामीण नेता जी पर टमाटर फेंकते हुए उनका वचन भंग कर देता है।"अरे जा, बड़ा आया है रहनुमा बनने।पीछले बार बाढ़,सुखार, आगलगी हुई तो किसी का हालचाल पूछने नहीं आए।" नेता जी मंच से उतर कर पानी-पानी हो कार में बैठ चुपचाप चल देते हैं।****
2. काहे को भेजी परदेश बाबुल
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माता-पिता के आर्थिक तंगी देखकर सुरेश दिल्ली कमाने चला जाता है। उसके पिता जी की अधिक जोर थी कि सुरेश दिल्ली जाकर रूपया कमाए।घर की आर्थिक स्थित ठीक करें । लेकिन छह महीने बाद ही वह कोरोना के कारण कारखाना बंद होने पर गांव की ओर रूख करता है।एक सप्ताह पैदल चलकर अपने गांव पहुंचता है।गांव में उसे एक विद्यालय में चौदह दिन क्वारांटाइन में रखा जाता है।चौदह दिन बाद वह घर पहुंचता है।सभी को उसकी हालत पर तरस आ रही है।" मेरा बेटा मरते-मरते बचा है।इसने क्या हालत कर ली है?" उसके पिता जी के आंखें नम हो जाते हैं। मां भी उसकी दुलार करते हुए दुख प्रकट करती है।"अब न जाएगा मेरा लाल कहीं। यहीं रहेगा,मेरे पास। यही कमाएगा,चैन की रोटी खाएगा।"
सुरेश तपाक से पिता जी से बोलता है," काहे को भेजी परदेश बाबुल।हम त कहले रही,हम नहिखे जायब।"
सुरेश के पिता जी उसको गले लगाते हुए बोलते हैं," अब नहिखे जायब देब परदेश बबुआ।" ****
3. दूसरी मां
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श्रद्धा दूसरी मां रीना जी के आने से बहुत दुखी थी।वह नहीं चाहती थी कि उसकी मां का स्थान कोई दूसरी औरत ले।कभी भी उनसे ठीक से बात भी नहीं करती थी। लेकिन आज वह बिल्कुल बदल गयी। वह अस्पाताल में है और उसकी दूसरी मां उसके पास बैठी है।
" मां,आप यहां से जाइए। नहीं तो आपको भी कोरोना हो जाएगा।" श्रद्धा के आंखों से आंसुओं की धार बहने लगती है।
" मुझे कोरोना छू भी नहीं पाएगा।मेरी प्यारी बिटिया जो मेरे साथ है जिसने कोरोना को बहादुरी से हराया है।"
श्रद्धा का हाथ चूमते हुए रीना जी बोलती है।
श्रद्धा ठीक होकर घर आती है।घर आने पर उसे मालूम होता है कि रीना जी उसके आक्सीजन लेबल कम होने पर अपने जेवर बेचकर आक्सीजन सिलेंडर की इंतजाम की। दिन-रात उसकी देखभाल की। श्रद्धा रीना जी के पास जाकर उनके चरणों पर गिर जाती है और अश्रुपूरित हो कहती हैं," मां, मां मुझे अपने ममता की छांव से कभी नहीं दूर कीजिएगा।मेरे बेरूखे व्यवहार को माफ कर दीजिए।
रीना जी श्रद्धा को उठाकर गले लगा लेती है! ***
4.सीख
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मैं और मेरी सहेलियां अंग्रेजी का गृह-कार्य दिखा रही थी। मैम बहुत सक्त थी।एक भी गलती करने पर कठोर सजा देकर लज्जित करती।सभी सहमे हुए थे।
" जिनका वर्ग-कार्य नहीं है ,वे सब खड़े हो जाएं। " मैम बोली।
कुछ लड़कियां खड़ी हो गयी। लेकिन स्नेहा खड़ी नहीं हुई। मैं तपाक से बोली" मैम,स्नेहा भी गृह-कार्य बनाकर नहीं लायी है।वो खड़ी नहीं हुई है।"
मैम उसको भी खड़ी होने को बोली।वह वर्ग में गृह कार्य कर रही थी। मैम के कहने पर खड़ी हुई।उसे भी सबकी तरह दोनों हाथों पर एक-एक छड़ी लगायी।वह बहुत रोने लगी।
वर्ग से जाते वक्त मैम मुझसे बोली," हमेशा बचाने का काम किया करो, न कि सजा दिलाने का..............।" मैं उनकी बात सुनकर बहुत लज्जित हुई और सिर झुका ली।मन ही मन कसम खायी कि फिर ऐसा कभी नहीं करूंगी।****
5.प्यारा गांव
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अरे रमेश! तुम अभी तक यहीं है। गांव में रहने के लिए उच्च शिक्षा हासिल किए थे।शहर जाओ, खूब पैसा कमाकर गरीबी दूर करो।" उसे देखकर अभिनव को बहुत आश्चर्य हुआ।
मैं कहीं नहीं जाऊंगा। मुझे गांव बहुत प्यारा लगता है। मैं यहीं रहकर आप सबके साथ काम करके परिवार की गरीबी दूर करूंगा। यहां की सुंदरता और अपनापन मुझे मजबूत डोर से बांध रखा है।"रमेश मुस्कराते हुए बोलता है।
"यहां तुम्हारे लायक तो कोई काम नहीं है" अभिनव सोच में पड़ जाता है।
"मैं आप सबके साथ नयी तकनीक से खेती करूंगा , फलदार, छायादार ,औषधिय पौधा लगाकर लगाकर इसकी सुरक्षा करूंगा। परिवार के साथ-साथ गांव की भी गरीबी हरूंगा।" रमेश आत्मविश्वास से बोलता है। ****
6. वृक्ष की महत्ता
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माखनलाल जी अस्पताल में भर्ती हैं।कोरोना होने के कारण उनका आक्सीजन लेबल कम हो गया था। बहुत मुश्किल से आज ठीक हुए हैं।
" आप आज घर जा सकते हैं ।घर जाकर नीम, बरगद,पीपल, अशोक इत्यादि वृक्ष के आसपास कम से कम आधा घंटा रहिएगा। गिलोय, तुलसी के पत्तों का इस्तेमाल काढ़ा बनाने में कीजिएगा। इससे आप जल्द पूरी तरह स्वस्थ हो जाएंगे।" डाक्टर उन्हें सलाह दिए।
वे पत्नी और बेटा की ओर देखने लगते हैं। उन्हें आज अपनी गलती का अहसास हो रहा था । उन्होंने बेटा और पत्नी के मना करने के बाबजूद भी तुलसी के सारे पौधे आंगन से उखाड़ दिए हैं।नीम,आंवला,अशोक,बरगद इत्यादि के वृक्ष मकान के आगे से कटवा दिए हैं ताकि उन्हें सफाई न करना पड़े।उन्हें वृक्षों के गिरते हुए पत्तों एवं उनपर चिड़ियों की चहचहाहट से बहुत चिढ़ थी।वे प्रकृति की अनमोल भेंट की महत्ता पर कभी ध्यान नहीं दिए।
" अब मुझे अहसास हो रहा है कि मैं अपराधी हूं जिसकी सजा मुझे मिली है। मैं तुमलोगों से वादा करता हूं कि जीवन रक्षक वृक्षों को बचाऊंगा और नीम, आंवला, अशोक,बरगद इत्यादि के पौधे लगाऊंगा।अपने आसपास आक्सीजन की कमी नहीं होने दूंगा।"माखनलाल जी कसम खाते हैं। ****
7. एक रूपया
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"अरे माता जी,आप एक रूपया के लिए क्यों अड़ी हैं। छोड़ दीजिए।एक रूपया से क्या होगा?" दुकानदार बोलता है।
" मुझे मेरा एक रूपया दे दो। बूंद-बूंद से घड़ा भरता है।प्रत्येक दिन जमा किए गए यही एक रूपया मेरे जीवन के आर्थिक समस्या को दूर करता है।कभी यही एक रूपया नहीं रहने पर शगुन कार्य नहीं होता।यह मेरा आर्थिक हथियार है। आप सब भी इस बात को समझकर जीवन में पुष्प खिलाएं।" मीना जी एक रूपया मांगते हुए बोलती है। उनकी बात सुनकर दुकानदार एक रूपया दे देता है।वह एक रूपया संभाल कर रखते हुए मुस्कुराती हुई विदा होती है। दुकानदार भी सोच में पड़ जाता है। ****
8.प्लेटफार्म
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दरभंगा जंक्शन पर रंजू अपने पति के साथ दिल्ली जाने के लिए रेलगाड़ी की इंतजार कर रही है।" मां जी,रुपया दीजिए। बहुत भूखा हूं। मां जी, आपको प्रणाम करता हूं।"एक अंधेर उम्र का लड़का रंजू के समक्ष हाथ फैलाए खड़ा है।
"यहां से जाओ ।मेरे पास तुम्हारे जैसे हट्टे-कट्टे के लिए फालतू रूपया नहीं है। रंजू बोलती है।
"मां जी, कहां काम करने जाएं,जिस कम्पनी में काम करते थे, उसके आधे से अधिक मजदूरों को कोरोना हो गया था। मुझे भी कोरोनावायरस हो गया था। कम्पनी बंद हो गयी।जो पैसा जमा किया था, इलाज कराने में खर्च हो गया।अब प्लेटफार्म ही मुझ जैसे मजदूरों का सहारा है।"उसने अपनी बेबसी बताती।उसकी बातों को सुनकर एवं वर्तमान हालातों को देखते हुए रंजू का पति उसे रूपरेखा देने को कहता है।रंजू उसे पचास रूपये देती है।वह रूपया लेकर झूमता हुआ चला जाता है।आगे प्लेटफार्म के एक दुकान से ब्रेड लेकर खाने लगता है।उसे देखकर वह देश की कमजोर होती आर्थिक स्थिति के बारे में सोचने लगती है। ****
9. अच्छे दिन
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"मालकिन कब आएंगे अच्छे दिन।बुधवा के बाबू के टेम्पो लाक्डाइन में नहीं चलती है।दो वक्त की रोटी के लिए मोहताज हो गये हैं। बैंक के कर्मचारी गाड़ी की ऋण भी चुकाने के लिए कहते हैं। मालकिन रनिया भी जवान हो गरी हैं। " ननकी अपनी परेशानी बतायी।
" सब ठीक हो जाएगा।आशा की किरण देखो दस्तक दे रही है।"मीता उगते हुए सूरज की ओर इशारा करती है।
" लेकिन, मालिकन कब? दो साल से यही हालात हैं। मोदी जी भी झूठ बोलते हैं।सब सामानों की कीमतें आसमान छू रही है।" ननकी मीता से कहती है।
" धैर्य रखो। मुसीबतों का सामना करों।प्रभु अवश्य अच्छे दिन आएंगे।" मीता ननकी को समझाती है। तभी मीता का बेटा बताता है कि मां बसों, रेलगाड़ियों के भाड़ें भी बहुत बढ़ गये हैं। पेट्रोल,डीजल के दाम बढने से आम आदमी खुद का गाड़ी भी नहीं चला सकता है। "मालकिन झूठी दिलासा देती है।अच्छे दिन अब कभी नहीं आएंगे।" ननकी बड़बड़ाती हुई घर का काम करके आंगन से निकलती है। ****
10. सुधार
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" सर आप इन छोटे बच्चों से यह क्या करवा रहे हैं। इनके कोमल हाथ खराब हो जाएंगे।किताब पढ़ाकर सेलेबस समाप्त कीजिए।" विद्यालय के प्रधानाचार्य विमल सर वर्ग प्रथम के हिन्दी के शिक्षक सुरेंद्र सर से कहते हैं।
" सर ,ये किताब के सेलेबस का ही भाग है। दीपावली पर्व आने वाली है। बच्चों को उसके बारें में बताया है।उसी के संदर्भ में सभी बच्चे मिलकर सुंदर दीप बना रहे हैं। एक-दूसरे से नये-नये डिजाइन के दीप बनाना सीख रहे हैं।सभी बच्चे भी शांति पूर्वक वर्ग में है।शिक्षा में सुधार करने एवं रोजागारोनमुख करने के लिए अभी से ध्यान देना होगा।तभी शिक्षा में सुधार होगा और एक भी शिक्षित व्यक्ति बेरोजगार नहीं रहेंगे।" सुरेन्द्र जी बताते हैं।
"जी सर, आपका कहना बिलकुल सही है।इसी उम्र से बच्चों में संस्कार देने और आत्मनिर्भर बनाने के लिए ऐसी शिक्षा देने की जरूरत है।आप से अन्य शिक्षकों को भी सीख लेनी चाहिए।" विमल सर सुरेंद्र सर का पीठ थपथपाते हैं और आगे बढ़ जाते । ****
11. हमारा घर
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बैधनाथ जी फूट-फूट कर रो रहे हैं।उनका भाई उनके घर से निकाल दिया है। बड़ी मेहनत से घर बनाए थे। पिता जी की मृत्यु के बाद छोटा भाई घर से बेदखल कर दिया।
"अब हम कहां जाएं।हमारा घर हमारा नहीं रहा। इन्हीं हाथों से एक-एक पैसा जमा कर घर बनाया था। लेकिन आज ............" एक पेड़ के नीचे बैठे पत्नी से बोलते हैं।दो जवान बेटियां भी पास बैठी हैं।
" पापा वो हमारा घर नहीं हो सकता ।आप हिम्मत मत हारिए।हम लोग मिलकर फिर से खुशियों से भरा सुंदर घर बनाएंगे।सभी मिलकर रहेंगे।चाचा तो प्रतिदिन कलह करते थे।वो घर नहीं , नरक है। आपका साथ है तो सपनों का हमारा घर बन जाएगा।"
बड़ी बेटी की बात सुनकर पति-पत्नी मुस्काने लगे।सभी एक-दूसरे का हाथ थाम वहां से मुस्कुराते हुए आगे बढ़े। ****
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जन्म तिथि - 12 जून 1964
माता - शशिप्रभा अग्रवाल
पिता - स्व0 हीरा लाल अग्रवाल
पति का नाम- श्री प्रभात कुमार गोविल
शिक्षा - बी0 एस सी0, कंप्यूटर साईन्स, डी0सी0एच0
कार्य क्षेत्र - अपना विद्यालय का संचालन
विधा - लघुकथा, कविता, हाइकु, आलेख
साझा संकलन : -
मुट्ठी में आकाश
सृष्टि में प्रकाश
लघुकथा साझा संकलन है
विशेष : -
- आ0 मधुकांत जी ने 'नमिता सिंह' की लघुकथा के साथ
जुड़ना
- आ0 बीजेन्द्र जैमिनी जी के विभिन्न ब्लॉग पन्नों पर विभिन्न विषयों पर लघुकथा देने का अवसर प्राप्त हुआ है।
- समाज में हिन्दी के उत्थान के लिए
- गरीब बच्चों की पढ़ाई
- सप्तरंग सेवा संस्थान का संचालन
- लेख्य-मन्जूषा के अन्तर्गत हिन्दी को बढावा देना
पता : -
201, महेश्वरीकुंज अपार्टमेंट ,रोड न0 6,
पूर्वी पटेल नगर , पटना - 23 बिहार
जन्म : 03 जून 1965
शिक्षा : एम ए हिन्दी , पत्रकारिता व जंनसंचार विशारद्
फिल्म पत्रकारिता कोर्स
कार्यक्षेत्र : प्रधान सम्पादक / निदेशक
जैमिनी अकादमी , पानीपत
( फरवरी 1995 से निरन्तर प्रसारण )
मौलिक :-
मुस्करान ( काव्य संग्रह ) -1989
प्रातःकाल ( लघुकथा संग्रह ) -1990
त्रिशूल ( हाईकू संग्रह ) -1991
नई सुबह की तलाश ( लघुकथा संग्रह ) - 1998
इधर उधर से ( लघुकथा संग्रह ) - 2001
धर्म की परिभाषा (कविता का विभिन्न भाषाओं का अनुवाद) - 2001
सम्पादन :-
चांद की चांदनी ( लघुकथा संकलन ) - 1990
पानीपत के हीरे ( काव्य संकलन ) - 1998
शताब्दी रत्न निदेशिका ( परिचित संकलन ) - 2001
प्यारे कवि मंजूल ( अभिनन्दन ग्रंथ ) - 2001
बीसवीं शताब्दी की लघुकथाएं (लघुकथा संकलन ) -2001
बीसवीं शताब्दी की नई कविताएं ( काव्य संकलन ) -2001
संघर्ष का स्वर ( काव्य संकलन ) - 2002
रामवृक्ष बेनीपुरी जन्म शताब्दी ( समारोह संकलन ) -2002
हरियाणा साहित्यकार कोश ( परिचय संकलन ) - 2003
राजभाषा : वर्तमान में हिन्दी या अग्रेजी ? ( परिचर्चा संकलन ) - 2003
ई - बुक : -
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लघुकथा - 2018 (लघुकथा संकलन)
लघुकथा - 2019 ( लघुकथा संकलन )
नारी के विभिन्न रूप ( लघुकथा संकलन ) - जून - 2019
लोकतंत्र का चुनाव ( लघुकथा संकलन ) अप्रैल -2019
मां ( लघुकथा संकलन ) मार्च - 2019
जीवन की प्रथम लघुकथा ( लघुकथा संकलन ) जनवरी - 2019
जय माता दी ( काव्य संकलन ) अप्रैल - 2019
मतदान ( काव्य संकलन ) अप्रैल - 2019
जल ही जीवन है ( काव्य संकलन ) मई - 2019
भारत की शान : नरेन्द्र मोदी के नाम ( काव्य संकलन ) मई - 2019
लघुकथा - 2020 ( लघुकथा का संकलन ) का सम्पादन - 2020
कोरोना ( काव्य संकलन ) का सम्पादन -2020
कोरोना वायरस का लॉकडाउन ( लघुकथा संकलन ) का सम्पादन-2020
पशु पक्षी ( लघुकथा संकलन ) का सम्पादन- 2020
मन की भाषा हिन्दी ( काव्य संकलन ) का सम्पादन -2021
स्वामी विवेकानंद जयंती ( काव्य संकलन )का सम्पादन - 2021
होली (लघुकथा संकलन ) का सम्पादन - 2021
मध्यप्रदेश के प्रमुख लघुकथाकार ( ई - लघुकथा संकलन ) - 2021
हरियाणा के प्रमुख लघुकथाकार (ई - लघुकथा संकलन ) -
2021
मुम्बई के प्रमुख हिन्दी महिला लघुकथाकार (ई लघुकथा संकलन ) - 2021
दिल्ली के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021
- महाराष्ट्र के प्रमुख लघुकथाकार ( ई - लघुकथा संकलन ) - 2021
- उत्तर प्रदेश के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021
- राजस्थान के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021
- भोपाल के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021
- हिन्दी की प्रमुख महिला लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021
- झारखंड के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021
- हिन्दी के प्रमुख लघुकथाकार ( ई लघुकथा संकलन ) - 2021
बीजेन्द्र जैमिनी पर विभिन्न शोध कार्य :-
1994 में कु. सुखप्रीत ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. लालचंद गुप्त मंगल के निदेशन में " पानीपत नगर : समकालीन हिन्दी साहित्य का अनुशीलन " शोध में शामिल
1995 में श्री अशोक खजूरिया ने जम्मू विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. राजकुमार शर्मा के निदेशन " लघु कहानियों में जीवन का बहुआयामी एवं बहुपक्षीय समस्याओं का चित्रण " शोध में शामिल
1999 में श्री मदन लाल सैनी ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी के निदेशन में " पानीपत के लघु पत्र - पत्रिकाओं के सम्पादन , प्रंबधन व वितरण " शोध में शामिल
2003 में श्री सुभाष सैनी ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. रामपत यादव के निदेशन में " हिन्दी लघुकथा : विश्लेषण एवं मूल्यांकन " शोध में शामिल
2003 में कु. अनिता छाबड़ा ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. लाल चन्द गुप्त मंगल के निदेशन में " हरियाणा का हिन्दी लघुकथा साहित्य कथ्य एवम् शिल्प " शोध में शामिल
2013 में आशारानी बी.पी ने केरल विश्वविद्यालय के अधीन डाँ. के. मणिकणठन नायर के निदेशन में " हिन्दी साहित्य के विकास में हिन्दी की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं का योगदान " शोध में शामिल
2018 में सुशील बिजला ने दक्षिण भारत हिन्दी प्रचार सभा , धारवाड़ ( कर्नाटक ) के अधीन डाँ. राजकुमार नायक के निदेशन में " 1947 के बाद हिन्दी के विकास में हिन्दी प्रचार संस्थाओं का योगदान " शोध में शामिल
सम्मान / पुरस्कार
15 अक्टूबर 1995 को विक्रमशिला हिन्दी विद्मापीठ , गांधी नगर ,ईशीपुर ( भागलपुर ) बिहार ने विद्मावाचस्पति ( पी.एच.डी ) की मानद उपाधि से सम्मानित किया ।
13 दिसम्बर 1999 को महानुभाव विश्वभारती , अमरावती - महाराष्ट्र द्वारा बीजेन्द्र जैमिनी की पुस्तक प्रातःकाल ( लघुकथा संग्रह ) को महानुभाव ग्रंथोत्तेजक पुरस्कार प्रदान किया गया ।
14 दिसम्बर 2002 को सुरभि साहित्य संस्कृति अकादमी , खण्डवा - मध्यप्रदेश द्वारा इक्कीस हजार रुपए का आचार्य सत्यपुरी नाहनवी पुरस्कार से सम्मानित
14 सितम्बर 2012 को साहित्य मण्डल ,श्रीनाथद्वारा - राजस्थान द्वारा " सम्पादक - रत्न " उपाधि से सम्मानित
14 सितम्बर 2014 को हरियाणा प्रदेशिक हिन्दी साहित्य सम्मेलन , सिरसा - हरियाणा द्वारा लघुकथा के क्षेत्र में इक्कीस सौ रुपए का श्री रमेशचन्द्र शलिहास स्मृति सम्मान से सम्मानित
14 सितम्बर 2016 को मीडिया क्लब , पानीपत - हरियाणा द्वारा हिन्दी दिवस समारोह में नेपाल , भूटान व बांग्लादेश सहित 14 हिन्दी सेवीयों को सम्मानित किया । जिनमें से बीजेन्द्र जैमिनी भी एक है ।
18 दिसम्बर 2016 को हरियाणा प्रादेशिक लघुकथा मंच , सिरसा - हरियाणा द्वारा लघुकथा सेवी सम्मान से सम्मानित
अभिनन्दन प्रकाशित :-
डाँ. बीजेन्द्र कुमार जैमिनी : बिम्ब - प्रतिबिम्ब
सम्पादक : संगीता रानी ( 25 मई 1999)
डाँ. बीजेन्द्र कुमार जैमिनी : अभिनन्दन मंजूषा
सम्पादक : लाल चंद भोला ( 14 सितम्बर 2000)
विशेष उल्लेख :-
1. जैमिनी अकादमी के माध्यम से 1995 से प्रतिवर्ष अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता का आयोजन
2. जैमिनी अकादमी के माध्यम से 1995 से प्रतिवर्ष अखिल भारतीय हिन्दी हाईकू प्रतियोगिता का आयोजन । फिलहाल ये प्रतियोगिता बन्द कर दी गई है ।
3. हरियाणा के अतिरिक्त दिल्ली , हिमाचल प्रदेश , उत्तर प्रदेश , मध्यप्रदेश , बिहार , महाराष्ट्र , आंध्रप्रदेश , उत्तराखंड , छत्तीसगढ़ , पश्चिमी बंगाल आदि की पंचास से अधिक संस्थाओं से सम्मानित
4. बीजेन्द्र जैमिनी की अनेंक लघुकथाओं का उर्दू , गुजराती , तमिल व पंजाबी में अनुवाद हुआ है । अयूब सौर बाजाखी द्वारा उर्दू में रंग में भंग , गवाही , पार्टी वर्क , शादी का खर्च , चाची से शादी , शर्म , आदि का अनुवाद हुआ है । डाँ. कमल पुंजाणी द्वारा गुजराती में इन्टरव्यू का अनुवाद हुआ है । डाँ. ह. दुर्रस्वामी द्वारा तमिल में गवाही , पार्टी वर्क , आर्दशवाद , प्रमाण-पत्र , भाषणों तक सीमित , पहला वेतन आदि का अनुवाद हुआ है । सतपाल साहलोन द्वारा पंजाबी में कंलक का विरोध , रिश्वत का अनुवाद हुआ है ।
5. blog पर विशेष :-
शुभ दिन - 365 दिन प्रसारित
" आज की चर्चा " प्रतिदिन 22 सितंबर 2019 से प्रसारित हो रहा है ।
6. भारतीय कलाकार संघ का स्टार प्रचारक
7. महाभारत : आज का प्रश्न ( संचालन व सम्पादन )
8. ऑनलाइन साप्ताहिक कार्यक्रम : कवि सम्मेलन व लघुकथा उत्सव ( संचालन व सम्पादन )
9. भारतीय लघुकथा विकास मंच के माध्यम से लघुकथा मैराथन - 2020 का आयोजन
10. #SixWorldStories की एक सौ एक किस्तों के रचनाकार ( फेसबुक व blog पर आज भी सुरक्षित )
11. स्तभ : इनसे मिलिए ( दो सौ से अधिक किस्तें प्रकाशित )
स्तभ : मेरी दृष्टि में ( दो सौ से अधिक किस्तें प्रकशित )
पता : हिन्दी भवन , 554- सी , सैक्टर -6 ,
पानीपत - 132103 हरियाणा
ईमेल : bijender1965@gmail.com
WhatsApp Mobile No. 9355003609
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पढने के लिए क्लिक करें : -
https://bijendergemini.blogspot.com/2021/06/blog-post_9.html
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लघुकथा कारों का समग्र परिचय तथा उनकी एक से बढ़कर एक ग्यारह ग्यारह लघुकथायों का संकलन पढ़कर खुशी हुई। विजयानन्द विजय सर की पुस्तक "संवेदनाओं के स्वर" मैने पढ़ी है। अन्य लघुकथा कारों की रचनाएँ पढ़ने का अवसर उपलब्ध कराने के लिए सम्पादक महोदय का सादर आभार। अगाध शुभकामनाएं।
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