ईश्वर के स्वरूप को आप क्या समझते हैं ?

ईश्वर का स्वरूप पूरी दुनियां की हर वस्तु , जो प्राकृतिक हैं। जिस का उपयोग हर जीव करता है । वह ईश्वर के स्वरूप की परिधि में आती है । ईश्वर का वास हर जगह होता है । यही जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : -
संपूर्ण ब्रह्मांड का अधिष्ठाता ईश्वर ही है। यह संसार ईश्वरमय है। हर सजीव निर्जीव में ब्रह्म है। रामचरितमानस में भगवान ने मनु शतरूपा मैं भगवान से वरदान मांगा कि मुझे आपके सामान पुत्र चाहिए। 88000 वर्षों की तपस्या के बाद भगवान प्रकट हुए और मनु शतरूपा से बोले मैं आपके सामने हूं।
बिन पग चलइ सुनइ बिनु काना।
   कर विन कर्म करइ बिधि नाना।।
अर्थात मेरा यह रूप है आप मुझे जैसे चाहे उस ग्रुप में ढाल सकते हैं। आप मुझे साकार रूप दे सकते हैं।
साकार से जाहिर है निराकार की शक्ति।
    साकार न होता तो निराकार न होता।।
जब हम किसी भी स्वरूप को अपनी दृष्टि में प्रतिबिंबित करते हैं तो उसकी छवि हमारी आंखों में बस जाती है। ईश्वर सनातन है उसका आदि अंत नहीं है। ईश्वर सर्व व्याप्त है इस बार अजन्मा है उसे हम किसी रूप में याद कर सकते हैं कोई भी रिश्ता बनाए उसे स्वीकार है जैसे-
   तमेव माता च पिता त्वमेव
   तमेव बंधुश्च च सखा त्वमेव
   त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव
    तमेव सर्वं मम देव देव।।
अर्थात ईश्वर से हम जो भी रिश्ता  बनाते हैं उसे स्वीकार होता है। ईश्वर आकर्षण है उसमें हमें आनंद की अनुभूति होती है उनके पास पहुंचते ही हमें प्रेम का अनुभव होता है वही सच्चिदानंद परमात्मा ब्रह्म है ईश्वर है परम अक्षर है जिसका कभी नाश नहीं होता।
- पदमा ओजेंद्र तिवारी
 दमोह - मध्य प्रदेश
     वह ऊर्जा हैं, जिसने इस सृष्टि की रचना की, वह ईश्वर हैं। ईश्वर का नाम वैज्ञानिक (वैदिक) नाम "ऊँ" हैं। ईश्वर ने ना सिर्फ सृष्टि बनाई, अपितु इसके  नियम भी बनाए, जिसका अर्थ हैं, ईश्वर? जहाँ अनेकों रूपों,अन्य विभिन्न प्रकार के अवतारों में विभक्त हुआ। साथ ही त्रैत्रायुग, द्वापरयुग में अवतारों की कथा। वर्तमान कलयुग में लुभावने संवाद? अनेकों अनुयायियों, सम्पदाओं,  ग्रंथों का उत्थान? नास्तिक और आस्तिक में आज भी बहस छिड़ी हुई हैं "ईश्वर" पर? ध्यान को सर्वोच्च प्राथमिकता के आधार पर केन्द्रित किया गया हैं। ईश्वर का स्वरूप ही श्रद्धा और सबरी हैं। आज भी वर्तमान परिदृश्य में ईश्वर के विभिन्न रूपों को पूजा जाता हैं, दूसरी ओर ध्यान केन्द्रित किया जायें, तो शिर्ड़ी के साईं बाबा का नाम श्रद्धा के साथ लिया जाता हैं, क्योंकि आस्था और विश्वास स्थापित, ये तो अनन्त भक्ति भाव का परिचायक हैं। इतना ही नहीं विशेष पर्वों पर ईश्वर के विभिन्न रूपों पूजा जाता हैं। मिट्टी के कण-कण में छुपा हुआ हैं, ईश्वर!  गीष्म ॠतु, वर्षाॠतु, शिशिर ॠतु, पर्यावरण में छुपा हुआ हैं, अनन्त पेड़- पौधों में ईश्वरीय रुप। ॠषि मुनियों में झलकता हैं, प्रेम। इसलिए कहा जाता हैं, ईश्वर से प्रार्थना करों तो सब कुछ मिलेगा। हवा, जल, भोज। मंदिर, मज्जिद, गुरुद्वारा, चर्च (हिन्दू, मस्लिम, सिक्ख,  ईसाई) आदियों में ईश्वर परिदृश्य हैं?
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
ईश्वर का स्वरूप माँ का असितत्व होता है।ममता, निश्छलता,संवेदना व्यक्त हो वहां ईश्वरीय शक्ति होती है ।माँ के रूप  मे ईश्वर विराजमान होते हैं।ईश्वर का रूप अदृश्य शक्ति है मन की शक्ति जो हमें पथरीली राहों मे हर कदम पर अपनी शक्तियों को दिखाती है।और हमें सत्य अहिंसा परमो धर्म के रूप मे विस्तृत रूप धारण करती है ।ईश्वर को जानने के लिए आत्म मंथन की आवश्यकता होती है आत्मा का पवित्र होना ईश्वरीय विधान का उत्कृष्ट  स्वरूप है ।मानवता, संवेदनशील और मिठास की तस्वीर ही ईश्वरीय स्वरूप है।माँ जहां आँचल के छाँव मे बच्चों के दुखद पहलू को हरती है ।शांतिपूर्ण तरीके से समस्याओं का समाधान करती है उनमें ईश्वरीय वरदान शामिल होता है ।मानव को हमेशा सत्य की राहो पर चलना चाहिए।कठिन परिस्थितियों मे माँ की ममता ईश्वरीय ज्ञान सिद्ध होती है।पंरपराओंऔर रिवाजों मे ईश्वर को नही बाँधा जा सकता इनका रू सवव्यापी है।जो घट घट मे उपस्थित है।आत्मा के मलिनता को अपने ममत्व के स्वरूप से खत्म करती है ।मा का दायित्व ही ईश्वर का रूपांतरण है।मानवता और माँ की पूजन हो तो ईश्वर साक्षात्कार होते है और जीवन के मोह माया को खत्म करने के लिये तैयार होते हैं।ईश्वर का रूप सरलीकरण और अद्भुत दृश्य होता है ।संवेदना के कण कण मे माँ की छवि ही ईश्वर का सवरूप है।हम अपनी पीडा़ को ईश्वर के चरणों मे सर्मपण करते है और माँ की गोद में दोनों पूरक है इनके हृदय को दुखाना ईश्वर को तकलीफ़ देना होता है ।अतः माँ का  रूप ईश्वरीय शक्ति है और ईश्वर का स्वरूप माँ है।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर - झारखंड
           ईश्वर एक प्रकाश पुंज है, जिस की किरणें समस्त ब्रह्मांड में दसों दिशाओं में विकरित हो रही हैं। सृष्टि के कण-कण में वह समाया हुआ है। शास्त्रों केअनुसार हम सब उसी का अंश हैं। वही इस सृष्टि का रचनाकार है।भूत भविष्य और वर्तमान का वही संचालक है। वह हमें श्रद्धा और भक्ति के साथ अच्छे कर्मों की प्रेरणा देता है तथा हमारे कर्मों के अनुसार ही हमको कर्मों का फल भी देता है अगर हम अच्छा कर्म करेंगे तो अच्छा फल मिलेगा और अगर गलत कार्य करेंगे तो उसका परिणाम भी गलत फल के रूप में ही मिलेगा। वह निराकार भी है और साकार भी है। दोनों ही रूपों में वह पूज्य है एवं शुभ फलदायी है। श्रद्धा,विश्वास और सच्ची भक्ति के द्वारा जो उसको स्मरण करता है वह उसका हमेशा साथ निभाता है। रामायण में तुलसीदास जी ने कहा है,
कलयुग केवल नाम अधारा।
 जान लेहि  सो जाननिहारा।
        अर्थात कलयुग में केवल ईश्वर का स्मरण करने मात्र से ही मानव का उद्धार हो जाता है।
    वह तो "सत्यम शिवम सुंदरम"है।
- श्रीमती गायत्री ठाकुर "सक्षम"
 नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
ईश्वर से बड़ा कोई नहीं। उन्हें किसी ने नहीं देखा। इतने विशाल संसार को चलाने वाला कोई न कोई तो होगा, इस सोच को लेकर  उस चलाने वाले कर्ता-धर्ता को ईश्वर माना गया है। उनके स्वरूप को लेकर भी सब काल्पनिक ही है।  
ईश्वर को प्रभु, भगवान, देव, ऊपरवाला आदि अनेक नामों से पुकारा जाता है।
उनके स्वरूप को लेकर भी सब काल्पनिक ही है। क्योंकि उन्हें किसी ने देखा नहीं है। अतः जो स्वरूप है, आभासी है। इसलिए 
ईश्वर के लिए कहा गया है, '  जाकी रही भावना जैसी, हरि मूरत देखी तिय तैसी।'
सभी धर्मों में भी ईश्वर के लिए अलग-अलग मानक और मान्यताएं हैं। तदनानुसार परंपराएं और विधिविधान भी बने हैं।
ईश्वर के स्वरूप को व्यक्तिगत सोच लेकर यदि अपनी समझ बतलाई जावे तो हमारी हिंदु संस्कृति में जो मान्यताएं निर्धारित हैं, वही स्वीकार करने योग्य हैं और मानी जानी भी चाहिए। मैं भी उनका समर्थक हूं और हृदय से मानता हूं। मंदिरों, धर्मग्रंथों, कैलेण्डर या अन्य माध्यमों में जो रूप बतलाया गया है, वह रूप पूजनीय है।
सार यह कि ईश्वर हमारा जन्मदाता है, पालक और पोषक है। जो भी है, उसकी इच्छा से है। जो हो चुका, जो हो रहा है और जो होगा, उसी ईश्वर की इच्छा का परिणाम है। जिसे बारंबार प्रणाम है।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
ईश्वर वह सर्वोच्च परालौकिक शक्ति है जिसे इस संसार का सृष्टा और शासक माना जाता है. हिन्दी में ईश्वर को भगवान, परमात्मा या परमेश्वर भी कहते हैं. अधिकतर धर्मों में परमेश्वर की परिकल्पना ब्रह्माण्ड की संरचना से जुड़ी हुई है. जैसा कि हमने कहा है ईश्वर एक शक्ति है, इस शक्ति के रूप साकार भी हो सकते हैं, निराकार भी. अपनी-अपनी बुद्धि और श्रद्धा के अनुरूप हम ईश्वर के रूप की संकल्पना करते हैं. 
- लीला तिवानी 
दिल्ली
आज की चर्चा में जहांँ तक यह प्रश्न है की आप ईश्वर के स्वरूप को क्या समझते हैं तो इस पर मैं कहना चाहूंगा की फूल पत्ती या जियो जहां कहीं भी जीवन है वह सब ईश्वर का ही स्वरूप है और निर्जीव वस्तुएं भी सब उसी की महिमा है उसी की बनाई हुई है नन्हे से बीज से पौधे का बनना और उस पर पुष्पों का खिलना उन्हें बीजों का बनना और उन बीजों से पुनः पौधों का बनना यह सब उसी की कृपा है कहीं असंभव सी परिस्थितियों में जब जीवन दिखता है जहां कि उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते तो एहसास होता है कि वह सभी जगह है उसकी उपस्थिति हम सभी में हैं यह अलग बात है कि हमने अपने स्वार्थ वश अपनी प्रवृत्तियों को ऐसा कर लिया है कि हम उसे महसूस नहीं करना चाहते जबकि वह हमें हर पल हर समय देखता रहता है कि हम कब कहां क्या कैसे और किस के लिए किस भावना से काम कर रहे हैं वास्तव में यह सब कुछ जो भी दुनिया में है सब उसी का पसारा है यह हम सब को महसूस करना चाहिए और जो भी कुछ करें उसे करते वक्त यह जरूर सोचना कि हमारे इस कार्य करने से कहीं किसी और को कुछ अहित तो नहीं हो रहा है इस प्रकार हम कह सकते हैं  कि संसार में जो भी कुछ है सब उसी का स्वरूप है  और परमात्मा की ही महिमा है सब कुछ उसी का बनाया है उसी का स्वरूप है ...........
- प्रमोद कुमार प्रेम 
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
ईश्वर तो कण कण मे व्याप्त उस महान अविनाशी सत्ता को कहते हैं जो सतत सम्पूर्ण  ब्रम्हांड सृजनहार ,पालक  व प्रबन्धक है ,
वह सत्य स्वरूप परमात्मा एक है, जिसे हम सभी अलग-अलग नामों से पुकारते हैं ।
धरती ,जल, वायु ,आकाश हर जगह उसकी ही सत्ता है ।
उसकी मर्जी के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिलता ।वह कण-कण में विद्यमान है। हमारे भीतर भी हमारे बाहर भी ।
हर पल हमारे साथ है वह ।
आदि शंकराचार्य ने भी कहा है कि जब तक हम अपने आत्मस्वरूप में नहीं पहुंचते हैं, यह संसार दृष्टिगोचर होता है ।जैसे ही मैं अपने स्वरूप में पहुंचते हैं यह संसार रूपी स्वप्न खो जाता है ।
यदि कुछ रह जाता है तो वह है सर्व व्यापक परम ब्रम्ह ,,,।
धरती जल आकाश वायु हर जगह परमात्मा की सत्ता है ।
सच तो यह है कि हम सभी परमात्मा के अंश हैं और परमात्मा से जुदा  कदापि नहीं रह सकते ।
यह अंश भी समाप्त हो जाता है,,, परमात्मा में विलीन हो जाता है,,,, और केवल रह जाता है  परमात्मा,,।
 - सुषमा दीक्षित शुक्ला
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
जिस तरह सूर्य बिना किसी भेदभाव या पक्षपात के सभी को अपना प्रकाश देता है, उसे फर्क नहीं पड़ता कि कोई उसे जल चड़ा रहा है या नहीं, पूज रहा है या नहीं, वह तो बस देना जानता है, सिवाय इसके कुछ और उसे आता नहीं। ऐसा ही स्वरूप ईश्वर का भी है, वह तो हमारी झोली इस कदर भर देना चाहता है कि कभी कोई कमी महसूस ही न हो।
- दर्शना जैन
खंडवा - मध्यप्रदेश
ईश्वर वह ऊर्जा है जिसने सृष्टि का निर्माण किया है। ईश्वर का वैदिक  नाम * ॐ है। ईश्वर ने सृष्टि बनाई साथ में उसके नियम भी बनाए। नियम सार्वभौमिक व सार्वकालिक है यानि नियम किसी भी काल में सामान रहेगा साथ में स्वयं भी अपने नियम को पालन करेंगे। इसलिए ईश्वर को न्याकारी कहते हैं और हम लोग उन पर विश्वास भी करते हैं।
मानव उनकी सबसे शक्तिशाली रचना है उन्होंने कर्म के आधार पर सृष्टि व जीव जंतु को बनाया है।वेदों के अनुसार आत्मा अर्थात उर्जा न निर्माण किया गया या कभी जन्म हुआ यह केवल मृत्यु के पश्चात शरीर परिवर्तन करता है। अर्थात नए भ्रूण में प्रवेश कर नया शरीर धारण कर लेता है। 
लेखक का विचार:-ईश्वर देवय गुण- कर्म- स्वभाववाला और विद्यायुक्त है उस परमात्मा में ही पृथ्वी और सूर्य आदि लोग स्थित है वह आकाश के सामान सर्वत्र व्यापक है।
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखंड
ईश्वर :- एक ओंकार पारब्रहम परमेश्वर, एक स्करात्मक ऊर्जा, एक परमात्मा जिसमें विलीन होने को हर एक आत्मा अग्रसर रहती है | पंच तत्वों से परे, एक सूक्ष्म निराकार, आदि और अन्त से परे,  निर्गुण ब्रह्म स्वरूप, सृष्टि रचयिता, त्रिगुण स्वामी के स्वामी, एक ज्योति स्वरूप, हर आत्मा के परमात्मा 
- मोनिका सिंह
डलहौजी - हिमाचल प्रदेश
         ईश्वर का मतलब है सबका स्वामी। मतलब सब का मालिक! अर्थात सर्वोच्च सत्ता। जिसके नियंत्रण में सृष्टि का स्वरूप दिखाई पड़ता है। विभिन्न धर्मों या संप्रदायों में ईश्वर को विभिन्न नामों से संबोधित किया गया है। वह एक शक्ति है। उसके नियम शाश्वत हैं। वह सर्वशक्तिमान है। वह न्याय कारी है। ईश्वर के नियम अपरिवर्तित हैं । ईश्वर का प्रकाश ऊर्जा संपूर्ण सृष्टि के कण-कण में विद्यमान है ।
           समाज जिन कथाओं/कुप्रथाओं/कुरीतियों के कारण परेशान रहता है, वह समाज के द्वारा ही निर्मित होती हैं।वह असत्य है। जिन्हें मनुष्य विवेक द्वारा समय-समय पर सुधार कर अपना जीवन सुख पूर्वक जीने का प्रयास करता है। इसका ईश्वर से कोई संबंध नहीं होता। ईश्वर एक अलग निर्गुण निराकार सत्ता/प्रकाश पुंज है।
- सुरेंद्र सिंह
अफ़ज़लगढ़ - उत्तर प्रदेश
ईश्वर का स्वरुप निराकार है। ईश्वर साकार नहीं है। ईश्वर तो कण कण में विद्यमान है। जैसे कस्तूरी मृग के अंदर होती है। वह उस को ढूंढने वन वन घूमता रहता है। उसी प्रकार ईश्वर सर्वशक्तिमान है।भगवान हमारे अंदर, हमारे आस पास, जिस रूप में हम चाहें, मिल जाएँ गे। धन्ना जाट ने तो पत्थर में ही भगवान पा लिया था। भगत रविदास जी ने अपने चर्म के काम में ही कर्म को भगवान मान लिया था। उन्होंने कहा था,मन चंगा, तो कठौती में गंगा ।श्री गुरु नानक देव जी और कबीर जी ने भी यही कहा है कि भगवान, ईश्वर, अल्ला, रहीम कण कण में हैं, बस उसे देखने वाली आंखें चाहिए। कर्म-कांडों से उपर उठना चाहिए। घट घट में राम हैं। अच्छा कर्म ही भगवान का स्वरूप है।
 - कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप -पंजाब
ईश्वर का स्वरूप तो एक ऐसा एहसास है जिसको सिर्फ महसूस किया जा सकता है कण-कण में भगवान है तभी तो आप किसी मंदिर में जाकर बैठी तो आपको एक अलग सी शांति मिलेगी। कभी कोई अच्छा काम करें कैसे किसी गरीब की पढ़ाई के लिए किताब कॉपी देना या फीस देना। किसी भूखे को खाना खिलाना। आपको एक अलग से संतुष्टि मिलेगी।
फूलों में खुशबू है और प्रकृति में इतनी सारी तरह-तरह की जीव जंतु सभी विद्यमान हैं और सभी अपना अपना काम सुचारू रूप से कर रहे हैं।
सूरज के पास गर्मी और रोशनी हैं चांद के पास शीतलता और ठंडक है।
यह सब चीजें हमें महसूस होती है तो कभी-कभी हमें भगवान का एहसास भी महसूस होने लगता है क्योंकि जहां साइंस भी फेल हो जाता है वहां वह लोग भी अपने काम भगवान पर ही छोड़ते हैं। बड़े-बड़े डॉक्टर भी अपने अस्पतालों में मंदिर बना कर क्यों रखते यदि उन्हें भगवान पर आस्था और विश्वास नहीं होता तो।
और ना ही हमारे बुजुर्ग हमें यह कहते कि तुम किसी जरूरतमंद की मदद करोगे तो भगवान हजारों हाथों से तुम्हारी मदद करेगा।
तुझे विश्वास है कि भगवान यदि एक रास्ता बंद करता है तो हजारों रास्ते खोलता है बस आप ठंडे दिमाग से सोचिए।
भगवान  की बनाई हुई अद्भुत शक्ति है इसमें कण-कण में ईश्वर विद्यमान है।
- प्रीति मिश्रा 
जबलपुर - मध्य प्रदेश
ईश्वर का स्वरूप तो निराकार है । जिसे हम ज्योति स्वरूप कह सकते हैं। जिसे हम अपने इस स्थूल शरीर के स्थूल आँखों से नहीं देख सकते हैं।
ईश्वर को हम परमात्मा कहते हैं जिसका स्वरूप ज्योति ही है। इसलिए  किसी के मरने पर सब कहते हैं कि ज्योति में ज्योति मिल गई। परमात्मा किसी के अंदर नहीं रहता है। उसका अंश हम सबके अंदर है। सब आत्माओं का वो परम पिता है। परमात्मा सर्वव्यापी नहीं उसकी याद सर्वव्यापी है। 
            दूसरी बात कोई भी देहधारी ईश्वर नहीं कहला सकता। ईश्वर जन्म मरण के चक्कर में नहीं आता। वह अजन्मा अभोक्ता है। निर्विकार निर्लेप है। उसे कोई छू नहीं सकता। केवल अनुभव कर सकता है। उसका स्वरूप दिव्य है और दिव्य स्वरूप को देखने के लिए दिव्य दृष्टि की आवश्यकता होती है। ईश्वर को हम जिस स्वरूप में अपने मन में धारणा बनाते हैं ईश्वर हमें वैसा ही दिखता है। ये सब हमारे धारणा का परिणाम है जो हम ईश्वर को विभिन्न रुपों में देखते हैं। पर ईश्वर तो एक ही है और वो है निराकार ब्रह्म स्वरूप।
        ईश्वर सर्वज्ञ है। ईश्वर प्रेम रूप है। ईश्वर दया रूप है। ईश्वर भक्ति स्वरूप है। ईश्वर अदृश्य स्वरूप है।
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश" 
कलकत्ता - प. बंगाल
ईश्वर का स्वरूप हमारे आत्मविचार पर निर्भर होता है। आत्मा शुद्ध है तो स्वरूप भी स्वच्छ तथा शक्तिदायक होता है। दूषित विचारवालों को उसके असली स्वरूप का दर्शन ही नहीं हो पाता।
 मेरे विचार में ईश्वर खुद के द्वारा रची एक काल्पनिक मूरत है जो व्यक्ति की आत्म विवेक और शक्ति का प्रतीक है। आराधना द्वारा व्यक्ति आत्मशक्ति को जगाता है और अपनी परेशानियों से निज़ात पाने का रास्ता ढूँढ निकालता है। क्योंकि किसी ने भी दर्शन नहीं किये। जिसे भी दर्शन हुए हैं उनकी व्याख्या उनके अपने विवेक पर निर्भर करता है। सूरदास नेत्रहीन थे फिर भी उन्होंने कृष्ण की बाल-लीला का वर्णन किया है। कबीर के वर्णन की अपनी शैली है। तुलसीदास ने भगवान को पुरुषोत्तम साबित किया है। इस प्रकार स्वरूप मानव मन को एकाग्रचित करने का हथियार है, जिसकी धार से बचना मुश्किल है। कहने का अर्थ एक बार उस हथियार की मूठ हाथ में आ जाने पर मानव उसका दीवाना हो जाता है। लेकिन मूठ पकड़ना ही मुश्किल है।
- संगीता गोविल
पटना - बिहार
सारे विश्व की जड़ में एक शासक, संचालक, प्रेरक  शक्ति काम करती है जो पूर्णतः निष्पक्ष न्यायकारी, नियमरूप, परमसत्ता ही ईश्वर है l 
जो लोग ईश्वरीय नियमानुसार कर्म करते है उनके लिए ईश्वर वरदाता, त्राता, रक्षक, कृपा सिंधु और भक्त वत्तस्ल है और जो इस परमसत्ता के विपरीत कर्म करते हैं उनके लिए ईश्वर यम, काल, वज्र और दुर्देव है l ईश्वर ने हमें स्वतंत्र बुद्धि देकर स्वच्छंद कार्य करने का मौका तो दिया है पर नियमन अपने ही हाथ में रखा है l 
जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान, ये है गीता का ज्ञान... 
या यूँ कहूँ कि शुभ -अशुभ कर्म करना तो हमारे हाथ में है लेकिन उनसे जिन परिणामों की उतपत्ति होगी वह ईश्वरीय नियामक शक्ति के हाथ ही होगी l ईश्वरवादी जानते है कि ईश्वर उसी की मदद करता है जो अपनी मदद स्वयं करते है तथा अपने आचरणों के औचित्य को धर्म की सीमा में रखते हैं जबकि नास्तिक लोग ईश्वर के अस्तित्व /सत्ता पर ही प्रश्न चिह्न लगा देते हैं l 
    ईश्वर साकार या निराकार? कहा गया है -जाकी रही भावना जैसी..... जिस रूप में हम ईश्वर के अस्तित्व का अनुभव करेंगे   
 तदानुसार  ही हमें अनुभूति होगी। वीर बालक एकलव्य ने अपने गुरु द्रोणाचार्य की मूर्ति बनाकर अपना लक्ष्य सिद्ध किया था कहने का आशय यह है कि संस्कारित्जीवन -विकास एवं व्यक्तित्व निर्माण के लिए जीवन में आध्यात्मिक एवं अधिभूत दोनों का मिश्रण होना आवश्यक है l   
मन और आत्मा में जैसे जैसे निकटता बढ़ती जाती है, सात्विक गुणों का समावेश होगा और हम सत्त चित्त आनंद के उपासक बन जाते हैं l शास्त्रानुसार --
      "विश्वासोफलदायकः "
चलते चलते --
नैन दिए जग देखन को और मन को इसका सार दिया l 
जिसने रचा है यह संसार वो है एक अद्भुत कलाकार ll 
    - डॉo छाया शर्मा
अजमेर - राजस्थान
       बड़े-बड़े ऋषि-मुनि भी अपने तपोबल से उक्त प्रश्न का उत्तर देने में सक्षम नहीं हुए। ऐसे में मेरी क्या औकात है कि ईश्वर के स्वरूप का वर्णन शब्दों में कर सकुं? हां माना जाता है कि धन्ने जट्ट ने अपनी सच्ची निष्ठा द्वारा उनसे जुताई-बुवाई भी करवाई थी। 
       हमारे हिन्दू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार ईश्वर दिव्य शक्ति का स्वरूप हैं। जिसमें सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड समाया हुआ है। उसी ब्रह्माण्ड में पृथ्वी और सूर्य जैसे अनेक लोक स्थित हैं। वह आकाश के समान सर्वत्र व्याप्त हैं। जिन्हें प्रकृति के रूप में भी देखा जा सकता है।
       अतः ईश्वर के स्वरूप को हम परमात्मा भी कहते हैं। जो प्रत्येक जीवात्मा में विराजमान हैं। जबकि पुण्य आत्मा और दुरात्मा में भी उन्हीं का अंश होता है। वह कण-कण में भी व्याप्त हैं। उन्हें निर्गुण और निराकार भी माना गया है। जबकि विडम्बना यह है कि नास्तिक उन्हें कुछ भी नहीं मानते।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
 ईश्वर का स्वरूप निराकार है। अर्थात आरूप है। जिसका कोई रूप ना हो। ईश्वर बृह्दाकार स्वरूप में सर्वत्र एक समान फैला हुआ है। जिनका न आदि है ,न अंत है। वह अपरंपार है जिसका कोई आकार नहीं है। वह नित्य वर्तमान है। सभी जगह व्याप्त है। इस अस्तित्व में कोई ऐसा जगह नहीं है ।जहां पर ईश्वर ना हो। कण -कण़ ईश्वर में संपृक्त है । समाया हुआ है। ईश्वर से बढ़कर और कोई वस्तु बड़ा नहीं है। ईश्वर(शून्य )ही सबका आधार है। ईश्वर का ऐश्वर्या जड़ और चैतन्य संसार में दृष्टब्य है ।ईश्वर जड़ वस्तु में क्रियाशील स्वरूप में और चैतन्य में ज्ञान स्वरूप में विद्यमान है। हर मनुष्य के अंतरात्मा में ज्ञान रूप में ईश्वर विद्यमान है। ईश्वर, व्यापक, पारदर्शी ,पारगामी, प्रकाश स्वरूप में साम्य ऊर्जा, मूल ऊर्जा स्वरूप में नित्य प्रगटन और नित्य वर्तमान है ।ईश्वर का अनेक नाम है। उनके नाम के अनुसार उनकी विशेषताएं हैं। मूलतः अस्तित्व में परम ब्रह्म ,मूल ऊर्जा के रूप में सर्वत्र व्याप्त है। ईश्वर क्रिया शून्य होते हुए भी सभी क्रियाओं का आधार है। सभी वास्तविकता  का प्रेरणा है।
 ईश्वर से ही प्रेरित होकर सभी प्रकृति स्व स्फुर्त संचालित हो रही है ।अतः यही कहते बनता है कि ईश्वर का स्वरूप अरुप है। मानव में ईश्वर ज्ञान स्वरूप में और जड़ इकाई में क्रियाशील स्वरूप में, सर्वत्र एक समान व्याप्त है।
 यही ईश्वर है।
 ईश्वर-
  अनुभव काल में आनंद के रूप में ।
विचार काल में समाधान के रूप में ।
व्यवहार काल में न्याय के रूप में। व्यवसाय काल में नियम के रूप में।
 ईश्वर सर्वत्र विराजमान है ।
भावों के स्वरूप में।
 ईश्वर का यही स्वरूप है।
- उर्मिला सिदार 
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
ईश्वर कण कण में है ! जीव तो ईश्वर का ही अंश है और वह प्रभु के अधीन है !मेरा मानना है जीव अनेक हैं किंतु ईश्वर एक है !  हमारा प्रेम ,हमारा दर्द हमें दिखाई नहीं देता केवल अनुभूति होती है उसी तरह ईश्वर की भी हमें अनुभूति होती है ! अपने अहंकार में यदि किसी की आत्मा को हम 
दुखी करते हैं तो मैं समझती हूं कि ईश्वर को दुख दिया चूंकि आत्मा ही परमात्मा है और यही शाश्वत है ! यदि हर जीव ईश्वर का अंश है तो हमें अपने माता पिता एवं गरीब दुखी की सेवा में ही ईश्वर का स्वरुप अवश्य दिखाई देगा ! सृष्टि की लीला रचने वाले लीलाधर की दृष्टि हर जीव पर सम होती है  और जीव ईश्वर का अंश है तो मेरी समझ में किसी भी जीव को दुखी करना यानी ईश्वर को दुख देना है ! बस मैं अब तक यही समझ पाई हूं कणकण में भगवान है !आत्मा ही परमात्मा है !
- चंद्रिका व्यास
 मुंबई - महाराष्ट्र
मानव सभ्यता की शुरुआत सृष्टि के आरम्भ में चार वेदों के ज्ञान से हुई है। संस्कृति, सभ्यता और धर्म वेदों में वर्णित व समर्थित है। ईश्वर ने ब्रह्माण्ड को बनाया है। भौतिक सृष्टि सृजन के साथ समस्त प्राणियों सहित मनुष्य सृष्टि का व्यवहार आरम्भ हुआ तो उस समय ज्ञान देने वाली एकमात्र सत्ता केवल अनादि व नित्य ईश्वर ही थी। मानव में यह क्षमता नहीं है कि वह ज्ञान को उत्पन्न कर सके अर्थात् बिना ज्ञान की प्राप्ति के स्वयं को ज्ञानवान कर सके। ईश्वर को ही सृष्टि की आदि में ज्ञान देने वाला स्वीकार करना होगा। ईश्वर ज्ञानस्वरुप सर्वज्ञ, सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान सत्ता है। इसी कारण इस सृष्टि की रचना हुई है। ईश्वर का वास्तविक स्वरुप जानने का साधन चार वेद और ऋषियों के बनाये हुए वेदों के व्याख्या ग्रन्थ हैं जिन्होंने समय-समय पर उन्हंे बनाया है। ईश्वर सारे संसार व ब्रह्माण्ड का स्वामी है। वह जड़ पदार्थों सहित चेतन जीवों का भी परमेश्वर है। आस्तिक हो या नास्तिक तो भी ईश्वर उन सबका ईश्वर है। 
ईश्वर की कर्म-फल व्यवस्था को समझा गया। अशुभ वा पाप कर्मों का दण्ड ईश्वर देता है। आज संसार के मनुष्य रोगों, अभाव, अन्याय, शोषण आदि अनेक दुःखों से ग्रस्त दिखते हैं जिसका कारण हमारी व्यवस्था के कुछ नियमों में न्यूनता व त्रुटि रहित अच्छे नियमों का पूरा पालन न हो पाना है।
- सुदर्शन खन्ना 
 दिल्ली 
*ईश्वर के स्वरूप को आप क्या समझते हैं* ?
*ईश्वर का कोई रूप नहीं वह निराकार है*
*परब्रह्म परमात्मा भाव के अनुरूप हैं* 
*जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत तिन देखी तैसी*
ईश्वर परमात्मा प्रभु निराकार भाव के अनुरूप ही हर प्राणी के मन में बसते हैं
धरती पर हर एक प्राणी परमात्मा का ही स्वरूप है ईश्वर कण कण में बसे हैं
प्रकृति में फूलों के रंगों में पेड़ पौधों में
तितली भौंरे चींटी में भी परमात्मा हैं
मानव की सत कर्मों में भी परमात्मा का ही अंश है अच्छे विचारों में भी परमात्मा है मानवता सहृदयता सरल हृदय में भी परमात्मा का वास होता है
जर्रे जर्रे में है झांकी मेरे ईश्वर की देखने का नजरिया होना चाहिए मधुर वाणी में भी परमात्मा है एक दूसरे के लिए
प्रेम की भावना ही सर्वोपरि है
*प्रेम में परमात्मा का वास है*
*प्रेम ही ईश्वर*प्रेम ही परमेश्वर*
*प्रेम ही मानव जीवन का जीवन आधार सफलतम जीवन है*
- आरती तिवारी सनत
 दिल्ली
ईश्वर का स्वरूप निराकार है यह एक प्रकार की ऊर्जा है जो दिखाई नहीं देता सिर्फ महसूस की जाती है इसलिए यह एक प्रकार का आत्मविश्वास है आस्था है श्रद्धा है भक्ति है पर एक परम सत्य यह है एक ऐसी एनर्जी है जो पूरे संसार को भिन्न-भिन्न रूपों में संचालित नियंत्रित करती रहती है सबका आधार वह एनर्जी है इसलिए हर इंसान अपनी आस्था के अनुसार ही उन्हें समर्पित करता है
उस एनर्जी का आकार समझ गए पानी की तरह है जिस बर्तन में डालिए वाह उसी आकार का बन जाता है तो ईश्वर का स्वरूप निराकार है पर एक शक्तिशाली एनर्जी है जो पूरे संसार पर संचालित और नियंत्रित करती रहती है
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
हरि अनंत हरि कथा अनंता । यह बात अक्षरशः सत्य है। ईश्वर हर रूप में हमारे आस पास हीं होते हैं लेकिन हम उन्हें ना देख ,ना छू, ना हीं पहचान पाते हैं बस महसूस कर सकते हैं। ईश्वर के स्वरूप को लेकर लगातार मंथन चलता हीं रहता है। कुछ ईश्वर को निराकार तो कुछ साकार की संज्ञा देते हैं। लोगों की ऐसी भी सोच है कि ध्यान और ज्ञान  शक्ति के द्वारा हमें ईश्वर के दर्शन होंगे। ईश्वर के स्वरूप को समझना बहुत मुश्किल है क्योंकि कहा गया है कि  "मानों तो देवता  ना मानो तो पत्थर "। यह बात अक्षरशः सत्य है कण- कण में भगवान है भी, नहीं भी है ,यह भी एक सच्चाई है। इसलिए हम उस परमपिता परमेश्वर को महसूस कर सकते हैं लेकिन उसके स्वरूप को देखने की शक्ति हमें प्राप्त नहीं है। लेकिन जब -जब  हम किसी मुसीबत में फंसते हैं तो हम सहायता हेतु उसी ईश्वर को पुकारते हैं और हमारी सहायता भी वहीं करते हैं यह भी हमें महसूस होता है भले हम उनका स्वरूप ना देख ना जान पाते हैं।
- डॉ पूनम देवा
पटना - बिहार
विश्व में हर जीव की संरचना ईश्वर के माध्यम से हुई है ।
 जब हम दुनिया की शुरुआत के बारे में सोचते हैं थाह नहीं पाते हैं कि आखिर शुरुआत  कहाँ से हुई सोचते हुए थक कर ईश्वर की शरण में चले जाते हैं और वेद ,पुराण के द्वारा बताये रास्ते को अपनाते हैं । उन व्याख्यानों में इतना डूबते हैं कि ईश्वर का एक कालपनिक रुप गढ़ लेते हैं वही हमारी आस्था का प्रतीक होता है किसी के मुरली मनोहर हैं तो कोई विष्णु को पूजता है कोई खुदा को तो कोई ईसा के स्वरुप को मानता है ।नाम अलग -अलग हैं लेकिन सबकी गलियाँ एक ही चौराहे पर मिलती हैं ।कोई न आजतक देख पाया है न देख पायेगा लेकिन अपने आराध्य के पास जाकर सकुन महसूस करता है ।ईश्वर एक अनादि शक्ति है जिसको हमसब केवल शुद्ध आत्मा से महसूस करके असीमित आनन्द पाते हैं ।
- कमला अग्रवाल
गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश
कहने को तो ईश्वर के बहुत से अवतार हैं या रूप है पर इंसान परमात्मा को कहां समझ पाया।भगवान खुद चलकर मनुष्य के पास आ जाए तो भी विश्वास नहीं है।
आज बड़े -बड़े मंच हैं जो भगवान के नाम पर दुकान खोल रखी है उन्हें हम कहाँ समझ पाए, न ईश्वर को न अपने आप को।भगवान मंच पर नहीं है,बड़े- बड़े मन्दिरों इमारतों में मस्जिद में नहीं।
विचारों में नहीं किताबों में नहीं, अगर हैं तो दिल मे हैं।
  हम कलपना भी नहीं कर सकते ईश्वर वो शक्ति है वो ताकत है जो पूरी सृष्टि साक्षी है पूरी प्रकृति प्रमाण है।आप कितने घोड़े दौड़ाओ,कितना दिमाग चलाओ आप पार नहीं पा सकते शुद्ध विचार व कर्म करते रहें आप किसी भ्रामक स्थिति में न पड़ें यह आप ओर किसी के लिए भी अच्छा नहीं है।
                   -  तरसेम शर्मा
                 कैथल - हरियाणा
कहते हैं ईश्वर सर्वशक्तिमान  व सर्वव्यापक है, ईश्वर के विना पत्ता भी नहीं हिल  सकता तो आइयै  ईश्वर के स्वरूप को समझने की कोशिश करते हैं, 
 आजकल ईश्वर के स्वरूप के विषय में संसार व अपने देश के अधिकांश लोग अज्ञान व अविद्या से ग्रस्त हैं, 
ईश्वर विषयक सत्य ज्ञान के वेदों व वेदानुकुल ग्रन्थों में उपलब्ध होता है, जवकि वेद संस्कृत है जो ईश्वर की अपनी भाषा है, इसी भाषा में सृष्टी नें सृष्टी के आरंभ काल में चार ऋषियों को वेदों का ज्ञान दिया उसके वाद इस ज्ञान को अन्य ऋषियों ने रचा और वेदों को  लिपिबिद किया, 
तभी से वेदाध्यन व वेद प्रचार की परम्परा आरम्भ हो गई, 
इन के ज्ञान से ही ईश्वर के सत्यस्वरूप सहित जीवात्मा और सृष्टाी का भी यथोचित ज्ञान प्राप्त हो जाता है। 
ईश्वर की सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए सबसे सरल उपाय सत्यार्थप्रकाश का अध्यन है। 
 ईश्वर  के स्वरूप पर दृष्टी डालें तो आर्यसमाज के दुसरे निगम से इसका ज्ञान हो जाता है, इस निगम मों ईश्वर का स्वरूप वताते हुए कहा गया है, 
कि ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप निराकार सर्व शक्तिमान, न्यायकारी,  दयालु अजन्मा, अन्नत, निर्वीकार, अनादी, अनुपम सर्वधार, सर्वव्यापक अजर , अमर , अभय , नित्य पावित्र और सृष्टी कर्ता है। 
ईश्वर का स्वरूप दो प्रकार का है, एक साकार और दुसरा निराकार और हमारी अपनी अपनी मानतांए हैं हम को जो रूप अच्छा लगता है, उस रूप में ही  ईश्वर को देख सकते हैं। 
जो ईश्वर को साकार मानते हैं वह ब्रम्हा, विष्णू  महेश इत्यादी  की मूर्ति में ईश्वर के दर्शन कर लेके हैं, मगर जो ईश्वर को निराकार मामते हैं वो  विना फोटो व मूर्ति से ही भगवान के दर्शन कर लेते हैं। 
जिस रूप में आप ईश्वर की आराधना करेंगे आपको उसी रूप में प्राप्ती हो जाएगी। 
आखिरकार यही कहुंगा, ईश्वर का कोई रूप नहीं जो में भरण कर सकूं, भगवान सर्वत्र है केवल हमारी अंतरात्मा है जिससे हम उसका नाम जप सकते हैं, जिससे उसका स्वरूप हमें  आटोमैटिक मिल जाएगा। 
यही कटु सत्य है, आम अपनी आत्मा को जगांए, आप सच्चे  मन से  ईश्वर का ध्यान करें, आपको ईश्वर का स्वरूप अपने आप ही नज़र आएगा। 
यही नहीं अगर आप सत्यता भक्ति का सुदपयोग करें और पाजिटब सोच रखें तो निशि्चत रूप में आप ईश्वर का स्वरूप देखेंगे। 
अगर मुझसे पूछें इस पृथ्वी पर सिर्फ मां वाप ही ईश्वर हैं, ईश्वर के रूप में मां वाप दिए गए हैं, उनकी सेवा व ख्याल रखिए, उनको खुश रखिए तो समझ लेना  कि हम भगवान को भी खुश कर रहे हैं। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू -जम्मू कश्मीर

" मेरी दृष्टि में "  ईश्वर का कभी जन्म नहीं हुआ है । वह सभी में विधमान है । जिसे देखा नहीं जा सकता है। सिर्फ अनुभव किया जा सकता है । फिर भी अनुभव सभी के अपने - अपने है ।
                                         - बीजेन्द्र जैमिनी 
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