क्या स्वार्थ से दूर रखना चाहिए अपना जीवन ?

सभी को स्वार्थ से दूर रहना चाहिए । परन्तु ऐसा होता नहीं है। फिर भी दुनियां में ऐसे बहुत से इंसान होते हैं । जो बिना स्वार्थ के कर्म करते हैं । जिनके आधार पर दुनियां में स्वर्ग होता है । यही जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : -
दुनिया में कोई भी व्यक्ति बिना स्वार्थ के नहीं जी सकता। यहां हर व्यक्ति स्वार्थी है। हर व्यक्ति स्वार्थी है का मतलब यह नहीं है कि हर व्यक्ति बुरा है। हमें यह समझना होगा कि आखिर स्वार्थ की परिभाषा क्या है ? एक स्वार्थ ऐसा होता है जिसमें लोग सिर्फ अपने बारे में सोचते हैं और वही काम करते हैं, जिसमें उनको फायदा हो। तब ऐसा व्यक्ति सामने वाले को दुख पहुंचाने, कष्ट पहुंचाने, हानि पहुंचाने से भी पीछे नहीं हटता है। ऐसा व्यक्ति स्वार्थी होता है और ऐसे व्यक्ति के अंदर स्वाद कूट-कूट कर भरा होता है। अब बात करते हैं दूसरे प्रकार के स्वार्थ की, जिसके अंतर्गत ऐसे भी लोग हैं, जिनमें हम लोग दूसरे को मदद करते हैं। दूसरे का भला करते हैं। अपने अलावा अपने आसपास के हर व्यक्ति के बारे में अच्छा सोचते हैं, लेकिन इसके पीछे भी स्वार्थ छिपा रहता है। हम दूसरे के साथ अच्छा इसलिए करते हैं, ताकि हमारे जीवन में बाधा ना आए। ऐसे व्यक्ति ' कर भला तो हो भला'  पर विश्वास करता है और उसी मार्ग पर चलता है। अपनी परिवार की सलामती अपने उज्जवल भविष्य के लिए दूसरों की सेवा करता है। यह भी स्वार्थ का एक प्रकार है। स्वार्थ देना कोई भी व्यक्ति अपने जीवन को आगे नहीं बढ़ा सकते। अपना जीवन स्वार्थ से दूर रखना चाहिए, ऐसा दूर-दूर तक संभव नहीं दिखता है। मनुष्य इच्छाओं का पुतला है। उसकी व्यवहारिक जीवन में अनेकों आकांक्षाएं उठा करते हैं। मनुष्य में स्वार्थ की  पूर्ण परिवार और यश की अनेकों कामनाएं होती है। इसमें अलग-अलग विभिन्न प्रकार के काल्पनिक चित्र मस्तिक में बनते बिगड़ते रहते हैं। जैसे ही कोई स्थिर हुई की मानसिक शक्ति तथा उसकी पूर्ति में जुट जाती है। सही दिशा में काम करने लग जाती है। संसार के विभिन्न गतिविधियों और भौतिक अथवा अध्यात्मिक इच्छाओं की भूमि पर निर्मित होता है।रचनात्मक कदम तो पीछे का है पहले तो सारी योजनाओं को घोषित करने का श्रेय इन्हीं इच्छाओ का है। इसलिए बिना स्वार्थ का कोई भी व्यक्ति अपने जीवन को नहीं जा सकता है। हर व्यक्ति में स्वार्थ छुपा रहता है।
 - अंकिता सिन्हा
  जमशेदपुर - झारखंड
व्यक्ति को समाज से दूर करती है स्वार्थ की भावना ।
जबकि माता पिता गुरु और मित्र  के सहयोग प्राप्त कर के व्यक्ति समाज में योग बनता है। 
स्वार्थ की इच्छा से व्यक्ति  समाज और संगठन से दूर हो जाते हैं। 
रुपया और प्रतिष्ठा के कारण व्यक्ति में "इगो" की भावना उत्पन्न हो जाती है। इसलिए अच्छे समाज राष्ट्र निर्माण के भूमिका से वंचित हो जाते हैं।
समय आ गया है समाज एवं राष्ट्र निर्माण में सहयोग करने की । जो व्यक्ति अपने "ईगो" लेकर बैठे हुए हैं वह व्यक्ति कर्तव्य- निष्ठा, निष्ठावान व्यक्ति की श्रेणी में सम्मिलित हो सकते हैं अगर अपना "ईगो" त्याग दें । 
यही है समय की पुकार !!
यही है:-जीवन में कामयाबी का मूल मंत्र।
लेखक का विचार:-जीवन का मूलमंत्र दूसरों के प्रति निस्वार्थ सेवा भाव रखना।
सेवा भाव के लिए विनम्रता व सहनशीलता सबसे बड़ा गुण है। जो व्यक्ति के पास ममता, करुणा की भावना हो वह अपना समस्त जीवन मानव सेवा में लगा देते हैं।  
अपने जीवन को समाज एवं राष्ट्र हित में आगे बढ़ाना चाहिए।
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखंड
जीवन को स्वार्थ से निश्चित दूर रखना ही चाहिए क्योंकि स्वार्थ हमें परमार्थ करने नहीं देता। लेकिन मेरा माने तो परमार्थ के लिए भी एक स्वार्थ आवश्यक है। जब तक हम अपने शरीर का, मन का, आत्मा का सही तरीके से, जितना जरुरी है उतना ख्याल नहीं रखेंगे दूसरे के लिए चाहते हुए भी कुछ कर नहीं पायेंगे। परमार्थ हेतु स्व का ध्यान रखना स्वार्थ नहीं है।
- दर्शना जैन
खंडवा - मध्यप्रदेश
"परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।। "....(गोस्वामी तुलसीदास)
स्वार्थ और परहित अर्थात् परोपकार का एक-दूसरे से बैर है। स्वार्थी चरित्र में दूसरों के हितों की हानि के मूल्य पर भी केवल स्वयं के लाभ की उग्र भावना होती है। स्वार्थ मनुष्यता पर हावी होकर मनुष्य को निकृष्टतम कार्य करने को प्रेरित करता है। 
जबकि परोपकारी में स्वयं की उन्नति करने के प्रयासों के साथ-साथ दूसरों के हितों के संरक्षण का भाव भी होता है। परोपकार मानव-धर्म को निभाने का सूचक है। 
यह भी सत्य है कि तात्कालिक रूप से स्वार्थ मनुष्य को आनन्दित करे परन्तु जीवन में अन्ततः यही स्वार्थ मनुष्य के लिए कष्टकारी परिणाम अवश्य देता है। स्वार्थी के बुरे समय में कोई साथ नहीं देता, वह नितांत अकेला पड़ जाता है। 
कष्टों के समय भी परोपकारी मनुष्य का साहस नहीं टूटता क्योंकि उसके द्वारा किए गए परोपकार उसकी सहायता के लिए खड़े होते हैं। 
इसलिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि मनुष्य को अपनी उन्नति के लिए सदैव पुरुषार्थ करना चाहिए परन्तु प्रत्येक स्थिति में स्वार्थ को अपने जीवन से दूर रखना चाहिए। 
इसीलिए कहता हूं कि...... 
"मोह-माया के जाल में रहना लक्ष्य मानव का नहीं है, 
तामसिक दुर्भावनाओं का कृत्य मानव का नहीं है।
उचित है जीवन में पुरूषार्थ करना मानव के लिए, 
पर स्वार्थ हेतु मानवीयता से गिरना धर्म मानव का नहीं है।"
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'
देहरादून - उत्तराखण्ड
यह बात जीवन में धारण करनी चाहिए कि हमें अपना जीवन स्वार्थ से दूर रखना चाहिए। लेकिन स्वार्थ मनुष्य की जन्म जात प्रवृत्ति है। ।पदार्थवादी दौड़ में स्वार्थ वृद्धि बहुत बढ़ गई है। मनुष्य जहरीली प्राणी बन गया है। बात बात पर तिलमिलाहट और जहर उगलने लगता है। विवेक हीन हो गया है। स्वार्थ  ही उस के दुखों का सबसे बड़ा कारण है। 
     इस लिए मनुष्य को स्वार्थ को अपने जीवन से दूर रखना चाहिए। स्वार्थ की जगह त्याग को अपनाना चाहिए। त्याग से जीवन में प्रेम बढ़ता है। जो आनंद त्याग में है वो छीना झपटी में नहीं। स्वार्थ के  कारण ही मनुष्य हर जगह सर्वोपरि चाहता है और दुख भोगता है।निष्ठुरता बढ़ रही है और संस्कार छूट रहे हैं। 
- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब 
रामायण में गोस्वामी तुलसीदास जी एक जगह कहते हैं स्वार्थ लाई करही सब प्रीति । औऱ ये बात सत्य है कि लोग स्वार्थ वश ही प्रीति करते हैं। लेकिन सुख और शांति पूर्वक जीवन जीने के लिए। स्वार्थ से दूर ही रखना चाहिए अपना जीवन। क्योंकि जीवन में जब हम स्वार्थ को लाते हैं और जब स्वार्थ पूर्ति नहीं होता है तो हम दुःखी हो जाते हैं। इसलिए हमें स्वार्थ से दूर ही रहना चाहिए।
लोग बच्चे पालते हैं और साथ ही साथ मन में ये स्वार्थ भी पाल लेते हैं कि ये बच्चा बड़ा होकर हमारी देखभाल करेगा। और बच्चा देखभाल नहीं करता है तो लोग दुःखी हो जाते हैं। अरे भाई आप अपना कर्तव्य कीजिये वो अपना कर्तव्य करेगा। आप उससे आशा रखते हैं और आशा पूरी नहीं होती है तो अनदेखी का रोना रोते हैं। किसी से स्वार्थ रखना ही दुःख का कारण हो जाता है।
आप पक्षियों को देखिए कितने कष्ट से वो बच्चा पालते हैं बिना किसी स्वार्थ के। सुबह-सुबह उठकर छोटे-छोटे कीड़े मकोड़े पकड़ -पकड़ लाती है और उनके लाल-लाल चोंच में डाल कर खिलाती है। बच्चे जब उड़ने लायक हो जाते हैं तो उड़ा देती फिर दूसरा घोषला अंडा की तैयारी में जुट जाती है। कोई स्वार्थ नहीं। कोई दुःख नहीं।
इसलिए हमेशा स्वार्थ से दूर रखिए अपना जीवन और सुख शांति से रहिये।
- दिनेश चंद्र प्रसाद " दीनेश" 
कलकत्ता - पं. बंगाल
जीवन को स्वार्थ से दूर रखना चाहिए के बारे में बहुत कुछ कहा गया है. सिनेमा का गीत कहता है-
''अपने लिये जिये तो क्या जिये, तू जी, ऐ दिल, ज़माने के लिये''
साहित्य को देखें, तो तुलसीदास जी रामचरितमानस में कह गए हैं-
''परहित सरिस धर्म नहीं भाई''
धार्मिक परिप्रेक्ष्य से भी संतजन कहते हैं-
''नि:स्वार्थ सेवा भाव ही कामयाबी का मूल मंत्र है.''
काफी हद तक यह सही भी है. जीवन को स्वार्थ से दूर रखकर कार्य करने से जिस परम संतुष्टि की प्राप्ति होती है, वह परम शांतिदायक और अनूठी है. व्यावहारिक दृष्टि से देखा जाए, तो जीवन को स्वार्थ से सर्वथा दूर रखना प्रायः असंभव है. कहीं-न-कहीं हमें सीमा रेखा निर्धारित करनी होती है. तब यही कहना उचित लगता है-
''साईं इतना दीजिये, जा मे कुटुम समाय । 
मैं भी भूखा न रहूँ, साधु ना भूखा जाय ॥''
सेवा भाव ही मनुष्य की पहचान बनाती है और उसकी मेहनत चमकाती है. सेवा भाव हमारे लिए आत्मसंतोष का वाहक ही नहीं बनता बल्कि संपर्क में आने वाले लोगों के बीच भी अच्छाई के संदेश को स्वत: उजागर करते हुए समाज को नई दिशा व दशा देने का काम करता है. अतः अपनी सीमित आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए नि:स्वार्थ सेवा भाव में लगे रहना ही व्यावहारिक और वांछनीय है.
- लीला तिवानी 
दिल्ली
     जीवन परम्परा गत हैं, जहाँ स्वार्थों के बिना कोई कार्य सुचारू रूप से सम्पादित नहीं हो पाते हैं। किसान, सैनिक,ऋषि-मुनियों, गृहणी बिना स्वार्थ के आगे बढ़ोत्तरी करते हैं, लेकिन कुछ लोग स्वार्थ सिद्धि के लिए कार्य करते हुए अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हैं। आज मानव तंत्र इतना विखंडित हो गया हैं, उन्हें किसी की चिंता नहीं रहती, बस अपना ही वर्चस्व स्थापित करने में सफल हो रहे हैं। लोभ, मोह, माया का जाल जिसमें हो , उसे दूसरों की चिंता नहीं रहती।  जिसने अपनी इंद्रियों को बस में कर लिया तो उसे हर पल खुशी ही दिखाई देती हैं। बहुत ही कम लोग हैं।  जो जीवन में स्वार्थ से दूर रहते हैं और वे ही सफल होते हैं। 
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
स्वार्थ, परमार्थ भाई ही तो हैं दोनों एक मन को साफ बनाता है एक मन को मैला, एक किसी दूसरे को खुशी देता है एक कष्ट पहुंचाता है अतः हमें उस पर भाई का हाथ थामना चाहिए जो मन को खुशी दे और दूसरे की मदद भी करवाए और सबसे बड़ी बात यह है कि यह अमूर्त है यह आपमें हैं यह आपको दिखाई नहीं देता परन्तु सामने वाले के लिए यह मूर्त हैं और उस मूर्तता के आधार पर आपकी पहचान आपकी छवि समाज में निर्धारित कर दी जाती है और लोग आपको मान,सम्मान के तराज़ू में तोलने लगते हैं कि आप किस के अधिकारिक हैं अतः हमें हमेशा स्वार्थ से परे रहते हुए परमार्थ का हाथ थामना चाहिए जो हमारे व्यक्तित्व को निखारने में मदद करता है मदद करता है मन को पवित्र बनाने में इसलिए स्वार्थ से हमेशा परे रहना चाहिए।।
- ज्योति वधवा "रंजना"
बीकानेर - राजस्थान
स्वार्थ जैसा कि इसके अर्थ में ही निहित है अपने लिए यानि अपना हित साधने की तीव्र भावना या लालसा। इंसान जन्म से स्वार्थी नहीं होता। संस्कार, पारिवारिक परिवेश, संगति में पड़कर इंसान में स्वार्थ या निःस्वार्थ की भावना जन्म लेती है।  व्यक्ति विकास के साथ-साथ पद, धन और प्रतिष्ठा की लालसा का विकास उसे स्वार्थी बना देता है और यही भाव उसके विकास में बाधा बन जाता है। कभी-कभी तो एक-दूसरे के प्रति वैमनस्यता भी चरम पर पहुंच जाती है। आपसी प्रेम दूर होता है जबकि आपसी प्रेम में स्वार्थ की कोई जगह नहीं होनी चाहिए। हमारे ग्रंथ व धार्मिक पुस्तकें बताती हैं कि जिसमें स्वार्थ भाव होता है उससे सभी दूर रहते हैं। स्वार्थ से ही अहंकार भी जन्म लेता है और अहंकारी इंसान को समाज में सम्मान नहीं मिलता।  अतः भलाई इसी में है कि हमें अपना जीवन स्वार्थ से दूर रखना चाहिए। 
- सुदर्शन खन्ना 
 दिल्ली 
चौरासी भोगने के बाद हमें मनुष्य शरीर प्राप्त होता है।  अपने जीवन का अमूल्य समय परोपकार के कार्यों में लगाना चाहिए मनुष्य जैसे जैसे बड़ा होता  स्वार्थ मोह माया हम इन सभीसे घिर जाता है और धीरे-धीरे वह स्वार्थ में तल्लीन हो जाता है। स्वार्थ मनुष्य को स्वजनों और समाज से दूर कर देता है ।लालच मनुष्य के जीवन की सबसे बड़ी बीमारी है उसे संतुष्टि नहीं रहती यही लालच समाज के लिए राष्ट्र के लिए बाधक है हमें समाज के प्रति कर्तव्य परायण और निष्ठावान होना बहुत जरूरी है। निस्वार्थ भाव से हमें समाज की सेवा करना चाहिए।
- पदमा ओजेंद्र तिवारी
 दमोह - मध्य प्रदेश
*इस संसार में हर चीज स्वार्थ से जुड़ी है साधु संत ज्ञानी कह गए यह वाणी*
मनुष्य सामाजिक प्राणी है एक दूसरे से वह किसी न किसी रूप में स्वार्थ हित से जुड़ा होता है परंतु इस मानव समुदाय में ऐसे लोग भी बहुत हैं जो बिना किसी स्वार्थ के सामाजिक कार्य करते हैं कई प्रकार से लोगों को आर्थिक मानसिक नैतिक सहायता भी करते हैं इसमें किसी प्रकार का स्वार्थ निहित नहीं होता है ऐसे लोग अपने लक्ष्य पर बढ़ते चले जाते हैं नफा नुकसान यह उनके विचारों से परे होता है यह समाज में बहुत ही सम्मानित निश्चल पवित्र निष्कपट देने के भाव से ही होते हैं। ऐसे लोगों से आम लोगों को भी प्रेरणा लेनी चाहिए अपने को स्वार्थ से दूर रख कर ही कोई  नेक कार्य के लिए प्रेरित हों स्वार्थ के बिना किया गया कार्य सफलता की ऊंचाइयों तक ले जाता है आपको समाज में गौरव प्राप्त होता है ऐसे लोगों से गांव समाज देश राष्ट्र का नाम गौरवान्वित होता है।
- आरती तिवारी सनत
 दिल्ली
               समस्त विश्व में जन्म लिए प्राणियों को अपने जीवन यापन के लिए बहुत सी चीजों की आवश्यकता होती है। उनकी पूर्ति के लिए वे लगातार प्रयासरत भी रहते हैं जोकि जरूरी भी है। जब व्यक्ति केवल अपने बारे में ही सोचता है अन्य किसी के बारे में नहीं फिर चाहे अगले का नुकसान ही क्यों ना हो जाए। वह बात या वह कार्य स्वार्थपरता में आ जाता है। कहा भी गया है,
 परोपकाराय फलन्ति वृक्षाः,
परोपकाराय बहन्ति नद्याः।
 परोपकाराय दुहन्ति  गावाः,
 परोपकाराय इदमं शरीरं । 
         अतः हर समय अपने स्वार्थ को दूर रखते हुए परोपकार के संबंध में भी सोचना चाहिए। जीवन की आवश्यकतायें स्वार्थ नहीं कहलाती किंतु दूसरे को नजरअंदाज करके अपने संबंध में सोचना स्वार्थ कहलाता है। इसलिए जहां तक संभव हो अपने जीवन को स्वार्थ से दूर रखना चाहिए।
- श्रीमती गायत्री ठाकुर "सक्षम" 
नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
ऐसा कहना आसान है, परंतु निभाना कठिन है। दैनिक जीवन में ऐसे अनेक अवसर आकस्मिक आ पड़ते हैं, जब स्वयं के हित में निर्णय बरबस लेना पड़ते हैं। हाँ, लेकिन यह बहुत आवश्यक, महत्वपूर्ण और प्रेरक निर्णय भरा कदम या आचरण होगा जब हम स्वार्थ से दूर रहते हुए कोई निष्पक्ष निर्णय लेंगे और ऐसा करना गौरवशाली पूर्ण होगा। सामाजिक और नैतिक जीवन में हमें अपना जीवन स्वार्थ से दूर रखना चाहिए और अपनों को इसकी प्रेरणा भी देना चाहिए। इससे सुखद, सोहार्द्र और प्रेममयी वातावरण निर्मित होगा जो हम सब के बीच पारस्परिक संबंधों को मजबूती प्रदान करेगा।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
सुर नर मुनि जन सब की यही रीति 
स्वार्थ लागि करे सब प्रीति ll 
देवता, मुनि मनुष्य सब स्वार्थ की खातिर ही प्रीति करते हैं l स्वार्थ के दो अर्थ हैं -1.स्व +अर्थ =स्वयं का भला करनाl  2.किसी को हानि पहुंचाते हुए स्वार्थ की पूर्ति करना l इसमें प्रथम प्रकार का स्वार्थ उच्च कोटि का है तो दूसरा निम्नतम कोटि का l जीवन में इस प्रकार के स्वार्थ से दूर रहना चाहिए l 
स्वार्थ हमारा मानवीय गुण हैं जिससे प्रेरित होकर हम कर्म करते हैं l स्वार्थ के अभाव में हम कर्महीन हो जायेंगे l लेकिन ध्यान रहे स्वार्थ में किसी प्रकार दूसरे का अहित नहीं होने पाये l जब देवर्षि तपस्वी स्वार्थ से दूर नहीं रह सके तो हम तो तुच्छ मानव हैं किस प्रकार रह पाएंगे l यदि हमारा व्यवहार शुद्ध है तो परमार्थ भी विशुद्ध ही होगा l जीवन में कृत्रिमता बार बार विकृति है ऐसा होने पर हमारे परमार्थ में भी स्वार्थ होगा लेकिन सहजता में कभी कोई विकृति या स्वार्थ नहीं होता है l व्यक्ति के भीतर विवेक परमात्मा का प्रतिनिधि है ये ही प्रतिनिधि स्वार्थ और परमार्थ के कर्म हमसे करवाता है l हम सांसारिक जीव स्वार्थ रूपीधुरी से बँधे हैं.. पर हित सरिस धर्म नहीं भाई, परपीड़ा सम नहीं अधमाई.. 
       आज स्वार्थवश मनुष्य जितना हिंसक व क्रूर बन गया है उतने तो हिंसक विषैले जीव भी नहीं है l सांप के तो दांत में जहर होता है किन्तु स्वार्थी मनुष्य के ह्रदय में जहर होता है जिसे दूर करने का कार्य धर्म करता है l भारत की सांस्कृतिक धरोहर वसुधैव कुटुंबकम की पोषक रही है वहाँ निकृष्ट कोटि के स्वार्थ को मान्यता नहीं है l 
चलते चलते -----
दुनियाँ में भी पदार्थो की ममता दूर हो और जीवन में आत्मसुख प्रकट करने की कामना उतपन्न होने पर ही मानव दानव की बजाय देव बन सकता है लेकिन मूल्यों के अधोगामी पतन के यूँ कहने को बाध्य कर दिया --
सजदे में खुदा के दिन और रात झुकाते हैं 
गुनाह तो हम करते हैं लेकिन एहतियात भी बरतते हैं l 
      - डॉo छाया शर्मा
अजमेर -  राजस्थान
आज की चर्चा में जहांँ तक यह प्रश्न है कि क्या अपना जीवन स्वार्थ से दूर रखना चाहिए तो इस पर मैं कहना चाहूंगा कि यह बहुत अच्छा विचार है परंतु वर्तमान समय में व्यवहारिक रुप से और यथार्थ में भी यह संभव नहीं दिखता इस दौर मे जब प्रत्येक दशा मे अपना हित साधने की प्रवृत्ति मानव के मन मे घर कर गयी है यह संभव नही है कि पूरी तरह स्वार्थ को त्यागकर अपने जीवन मे काम किया जाये असंभव हैअब तो दुनिया में सभी कुछ हित साधने के साधनों को देखकर ही किया जा रहा है पर यह जो भी हो रहा है अच्छा नही है जब सच और न्याय पर स्वार्थ भारी पडता दिख रहा है और इसी कारण सांस्कृतिक मूल्यो का ह्रास हो रहा है 
- प्रमोद कुमार प्रेम 
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
मानव जीवन स्वार्थ के लिए नहीं, परमार्थ के लिए है  शास्त्रों में भी यही कहा गया है कि साै हाथों से कमाने और हजार हाथों से दान करने की नीति  की प्रवृत्ति हर मनुष्य को अपनानी चाहिए । युग निर्माण संकल्प में इस अत्यंत आवश्यक कर्तव्य की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है ।
 मिल बांट कर खाना, सभी का सहयोगी बने रहना परोपकार की भावना के आधार पर जीवन जीना सर्वश्रेष्ठ माना गया है । स्वार्थ रहित जीवन जीने को सर्वोत्तम जीवन माना गया है । 
स्वार्थी भावना सदैव सद्गुणों की शत्रु रही है । मनुष्य आत्म केंद्रित जीवन जीता हुआ केवल आत्म सुख की लालसा रखता है । घर परिवार समाज व राष्ट्र के लिए अनुपयोगी ही रहता है । 
सार्थक जीवन से परे रहकर ईर्ष्या द्वेष अलगाववाद जैसे दुर्गुणों से घिरा रहता है ।  
मानव जीवन ईश्वर की अमूल्य देन है बार-बार नहीं मिलता। प्रेरणादाई जीवन सभी के लिए अनुकरणीय बनता है  ।इस संसार में सत्कर्म ,परमार्थ और उपकार के अनेक  कार्य है मानवतावादी दृष्टिकोण अपनाते हुए सदैव मानव कल्याण की भावना से ओतप्रोत जीवन होना चाहिए। 
 सत्कर्म सद्भावना रहित केवल ढोंग ही माना जाता है । परमार्थ का आडंबर  न  अपना कर वास्तविक उपकारी भाव अपनाना सदा श्रेयकर रहता है । संसार में आज बुराइयां इसलिए बढ़ रही हैं या फल-फूल रही है क्योंकि  अधिकतर मानवता स्वार्थ के घेरे में गिरी हुई है । परमार्थ के बल पर बड़ी-बड़ी संस्थाएं, धर्म प्रचारक  झूठ और दिखावे का आवरण ओढ़ कर ज्ञान बांट रहे हैं  भीतरी ज्ञान खोखला है  स्वार्थ की भावना तीव्र है । झूठ ,बेईमानी और व्यभिचार पर नियत टिकी है । झूठी शान अपनी चमक बिखेर रही है पर्दे के पीछे पाप पनप रहा है । मर्यादाहीन और बे हयाई जीवन का प्रयाय बन चुका है । बेईमानों की भीड़ में जन हितेषी ढूंढना मुश्किल है ।
 इसके विपरीत स्वार्थ रहित जीवन सर्वश्रेष्ठ श्रेणी में आता है । स्वार्थ रहित व्यक्ति परमार्थ और परोपकार की भावना की परिभाषा को भलीभांति समझता है । जनकल्याण के आधार पर जीवन की सार्थकता को मुख्यता देता है । आडंबर और दिखावे से दूर रहकर केवल और केवल कल्याणकारी भावना को अपनाता है । अतः स्वार्थ से दूर रहकर ही जीवन श्रेष्ठ कहलाता है ।
  - शीला सिंह
 बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश
 जहां स्वार्थ है वहां महाभारत का आगाज़ है | 
जहां महाभारत है वहां सिर्फ विनाश है | 
जहां निस्वार्थ कर्म है वहां सच्चा धर्म है |
स्वार्थ से रहित मनुष्य ही हर समय हर सांस मे इस धरती पर ही स्वर्ग की अनुभूति हर समय प्राप्त कर लेता है | 
और निस्वार्थी व्यक्ति के मुख की आभा देखते ही बनती है|
- मोनिका सिंह
डलहौजी - हिमाचल प्रदेश
  स्वार्थ की राह पर चलना आज के समय में आम बात हो चली है।आजकल के बच्चों में कहां संस्कार की भावना देखी जाती है।वर्तमान में ही जो है,वही सही है।बड़े बुजुर्ग, महिलाओं, बच्चों की कहां कदर होती है।मां बच्चों की नहीं होती है, फिर बच्चे कहां?इस प्रकार आने वाले समय हम अपने आप को कहां रखेंगे यह सोचने का विषय है।
हम परोपकार का बीज बोते हैं नमस्कार करना, गलती होने पर माफी मांगना बड़ों का आदर करना पेड़-पौधों को पानी देना,वातावरण के हर प्राणी जैसे पक्षी, जंगली जानवर जलीय जीव, ऐसी बहुत-सी बातें हैं जिनका हमें ख्याल रखना चाहिए।न जाने बुरे वक्त में आपके कौन तुच्छ   जीव काम आ जाए। कहावत है -'उन जलाशयों का नीर कभी नहीं सूखता जिनका लोग पानी पीते हैं'अर्थात आप दुनिया के काम आते रहो आप कमजोर नहीं पड़ेंगे आप हमेशा ऊर्जावान रहेंगे।
                - तरसेम शर्मा
             कैथल -  हरियाणा
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। मनुष्य में गुण अवगुण दोनों का समावेश होता है। जीवन में व्यक्ति के अनेक उतार चढ़ाव आते हैं। जब व्यक्ति कुछ ग़लत करता है तो उसे स्वार्थ घेर लेता है और व्यक्ति स्वार्थ के अधीन हो जाता है। स्वार्थ से अपना  जीवन व्यक्ति को दूर हीं रखना उचित होता है, लेकिन कहा जाता है कि स्वार्थ में व्यक्ति अंधा हो जाता है। यह हमारे लिए अति आवश्यक है कि हम स्वार्थ रहित जीवन यापन करें ना कि स्वार्थ से भरपूर।इस स्वार्थ रूपी अवगुण से हम जितना दूर रहें उतना हीं हमारा जीवन सही रहेगा। 
- डॉ पूनम देवा
पटना -  बिहार
      हां! हमें अपना जीवन स्वार्थ से दूर रखना चाहिए। यही हमारे धर्मग्रंथों की शिक्षा भी है कि दूसरों के प्रति नि:स्वार्थ सेवा भाव रखना चाहिए। जिसे जीवन का मूलमंत्र भी कहते हैं। चूंकि सेवा भाव से विनम्रता एवं सहनशीलता का गुण फलता-फूलता है और जिस व्यक्ति के मन में ममता, करुणा की भावना हो वह अपना समस्त जीवन मानव सेवा में अर्पित कर देता है और सफलता व सुकून प्राप्त करता है। ठीक इसी भाव से हम सबको अपना जीवन समाज हित में आगे बढ़ाना चाहिए।
      उपरोक्त शिक्षा वह शिक्षा है जो हमें धर्मग्रंथों से बाल्यावस्था में पढ़ने  को मिली थी। जिस पर पूरी ईमानदारी से चलकर हमें सफलता एवं सुकून के स्थान पर असफलता के साथ-साथ 'पागल और राष्ट्रद्रोह' के कलंकित शब्दों से पुरस्कृत हुए। जिसपर यह कहावत स्पष्ट रूप से चरितार्थ हुई कि 'नेकी कर और जूते खा, मैंने खाए तू भी खा'‌।
      उल्लेखनीय है कि कबीर दास जी ने 'कबीरा तेरी झोपड़ी गलकटियन के पास जो करेगा सो भरेगा तू क्यों होत उदास' अपनी खुशी से कदापि नहीं लिखा होगा। यह शब्द कहीं न कहीं उनकी सामाजिक विवशता दर्शाती है।
      अतः भले ही जीवन अनमोल है। जिसकी प्रत्येक सांस मूल्यवान है। परंतु नि:स्वार्थ जीना अंगारों पर चलने के बराबर है। जिसे एक प्रकार का घोर नरक भी कह सकते हैं। जबकि स्वार्थ का रसपान स्वर्ग के मदिरापान से भी ज्यादा मदमस्त है। जिसे हमने स्वयं तय करना है कि नरक भोगकर हम स्वर्ग प्राप्त करना चाहते हैं या स्वर्ग भोगकर नरक भोगना चाहते हैं?
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
 स्वार्थ का अर्थ समझ कर  स्वार्थ को  परार्थ  और परमार्थ तक ले जाना चाहिए ।स्वार्थ का अर्थ है, स्वयं का अर्थ अर्थात  स्वयं की उपयोगिता को समझकर , स्वयं के लिए उपयोगी होने ,के साथ-साथ  परार्थ अर्थात परिवार परमार्थ अर्थात पूरे संसार जहां पदार्थ संसार ,वनस्पति संसार, जीव जंतु संसार, मानव संसार और मानव संसार के अंतर्गत समाज  परिवार  स्वयं आते हैं।इन सबके लिए उपयोगी होना परमार्थ है ,जो व्यक्ति स्वयं के लिए उपयोगी होता है। वही व्यक्ति स्वार्थी कहलाता है अर्थात वह संसार में अपना ही सुख देखता है। दूसरों की सुख का अहसास नहीं होता ।अतः स्वयं को समझे बिना संसार समझ नहीं आता है। जब कोई वस्तु स्पष्ट समझ में नहीं आता है ।तो मनुष्य किस तरह से व्यवहार कार्य सही स्पष्ट रूप से कर पाएगा। यही मानव जाति में फंसाहट है। यही दुख का कारण है। प्रकृति यह अस्तित्व रूप में है ।उपयोगिता के अर्थ में की गई स्वार्थ पूरा करने के लिए नहीं है अतः स्वार्थ से दूर रहकर पदार्थ और परमार्थ क्षेत्र में कार्य करना चाहिए क्योंकि परमार्थ से कार्य और कोई बड़ा कार्य नहीं है अतः स्वार्थ के साथ-साथ प्रार्थी
 प्रार्थी के साथ-साथ परमार्थ क्षेत्र में कार्य करना चाहिए अतः स्वार्थ से दूर रखना चाहिए अपना जीवन को।
 - उर्मिला सिदार 
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसके अंदर स्वार्थ की भावनाएं तो स्वयं ही आ जाती है। जब एक बच्चा रहता है तो वह परमात्मा का अंश रहता है लेकिन वह
बड़ा होने लगता है तो उसके अंदर स्वार्थ आ जाता है। अपना पराए का भेद भी आ जाता है लेकिन स्वार्थी उतना ही होना चाहिए जिससे किसी का भला हो सके या किसी का नुकसान न हो ।जैसे माता-पिता अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए अपने बच्चे का पालन पोषण निस्वार्थ भाव से करते हैं और यह चाहते हैं कि उनका बच्चा स्वावलंबी हो जाए और जीवन पथ पर स्वयं चलने का निर्णय ले सके।
मनुष्य तो स्वार्थ के लिए भगवान की पूजा भी करता है। तभी तो गोस्वामी *तुलसीदास जी ने कहा है -*
*स्वार्थ के लिए ही सब प्रीति करते हैं,*
*स्व+अर्थ।*
स्वार्थ से ऊपर होती उठिए। संसार में यह महामारी स्वार्थ सिद्धि के कारण ही हुई। महाशक्ति बनने की चाहत नहीं हमें इस कठिन परिस्थिति में लाकर खड़ा कर दिया।
 हमें निस्वार्थ भाव से जीना हमारी प्रकृति ने सिखाया।  हमारे पूर्वजों ने हमें सिखाया था । पर आज उन्हीं के बताए हुए ज्ञान के कारण हैइस कठिन परिस्थितियों में भी अपना संयम बनाए हुए हैं।
 *सच्चा धन निस्वार्थ सेवा ही है।*
- प्रीति मिश्रा 
जबलपुर - मध्य प्रदेश
इस विषय पर जहां तक मेरा विचार है कि स्वार्थ और परमार्थ दो ऐसे कथन हैं जो मानव जीवन के कर्मों में शामिल हैं शिक्षा तो यही मिलती है किस स्वार्थ को अपने जीवन में नहीं अपनाओ लेकिन मनुष्य जीवन एक ऐसा जीवन है जब तक स्वार्थ नहीं हो सकेगा तो परमार्थ भी नहीं होगा हमारे वेदों में उपनिषदों में यह पढ़ने को मिलता है पहले आत्मा तब परमात्मा तो जहां तक आत्मा की संतुष्टि ही स्वार्थ कहलाती है लेकिन स्वार्थ की एक सीमा होती है असीमित स्वार्थ हमेशा हानिकारक जीवन में बन जाता है इतना भी स्वार्थ की परवाह न करें कि वह आपके लिए कष्ट कारक दुख कारक हो जाए स्वार्थ के साथ-साथ परमार्थ भी होता रहना है मानव जीवन के व्यक्तिगत इच्छाओं के आवश्यकताओं की संतुष्टि स्वार्थ कहलाती है अपनी इच्छा पूरी होने पर आप उस धन उस सेवा को दूसरों के कामों में लगाइए वह परमार्थ हो गया जब तक परमार्थ नहीं होगा तो कल्याण नहीं होगा इसलिए स्वार्थ और परमार्थ दोनों समानांतर में चलते रहते हैं और यह गुण हर मानव को अपने व्यक्तित्व में अपनाना आवश्यक है
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
आजकल हर मनुष्य स्वार्थ के पीछे भाग रहा है कि किसी ढंग से मेरा हर कार्य पूर्ण हो जाए, उसके पीछे दुसरे को चाहे कितना नुक्सान उठाना पढ़े कहने का मतलब हर इंसान अपना उल्लू सीधा करने को  तुला हुआ है, उसे इस बात से कोई लेना देना नहीं की मुझे भी कुछ जिम्मेदारीयां मिली हैं जिनको  मुझे वाखुवी सै निभाना है। आइयै बात करते हैं क्या हमें स्वार्थ से दूर रहना चाहिए, सच्चाई तो यही है मनुष्य को स्वयं का स्वार्थ नहीं करना चाहिए, उसे अन्य लोगों के फायदे व नुक्सान के वारे मैं भी सोचना चाहिए। जो लोग केवल अपने स्वार्थ की बात करते हैं ऐसे लोगों ु पर से लोगों का विश्वास उठ जाता है और यही वो लोग हैं जो अपनी मर्यादा खो देते हैं। यही नही स्वार्थी इंसान सिर्फ अपना लाभ देखता हैऔर समय आने पर किसी को भी धोखा दे सकता है, ऐसे इंसानों के लिए लाभ ही सब कुछ होता है। स्वार्थी इंसान कठोर हृदय का होता है और समय आने पर गंभीर से गंभीर नुक्सान पहुंचाने से नहीं  चुकता। इसलिए स्वार्थी इंसान से दूर ही रहना चाहिए क्योंकी वो कभी भी गल्त कार्य करने से नहीं रूकेगाऔर हमेशा मीठा वोलेगा ताकि सामने वाले को अच्छा लगे। यह सच है जो कोई निति के नियमों की उल्लंगना करके अपने अपने स्वार्थ की पूर्ती करता है उसकी निंदा ही होती है, कई लोग इतने स्वार्थी होते हैं कि अपने कर्तव्यों के प्रति ख्याल नहीं रखते एेसी अवस्था में उनकी निंदा होनी निश्चिचत है। आखिरकार यही कहुंगा की हमें अपने कार्य के प्रति ईमानदार रहना चाहिए  जो कार्य हमें सौपा गया हो उसे पूरे निष्ठा के साथ निभाना चाहिए ताकि सब का भला हो सके। जो लोग निति के नियमों का, अपने कर्तव्य का और उदार वुद्दी मूलक स्वार्थ का विचार रखेंगे वो स्वार्थी नहीं कहलाते, इसलिए हमें अपना जीवन स्वार्थ से दूर रखना चाहिए। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
मनुष्य जन्म से ही स्वार्थी होता है और यह कोई पाप नहीं अपितु उसकी सहज प्रवृति है .परिवार को पालने का स्वार्थ ....बच्चों की परवरिश का स्वार्थ ......जीवन की वांछित उपलभ्दीयों को प्राप्त करने का स्वार्थ ......प्रभु चरणों मैंलींन होने का स्वार्थ ........लक्ष्य प्राप्ति का स्वार्थ  तरह अलग अलग लोगों के अलग अलग स्वार्थ होते हैं
जो स्वार्थ कर्त्तव्य पूर्ती हेतु मनुष्य सिद्ध करता है वो मैरी दृष्टि मैं आवश्यक हैं .......केवल वो स्वार्थ पूर्ती गलत है जिसे प्राप्त करने के लिए किसी का अहित किया गया हो या किसी को हानि पहुंचाई गयी हो
परोपकार .....सहायता .......आदि भी स्वार्थ के रूप हैं क्यूंकि इनमें आत्मिक शांति ......मानसिक संतुष्टि का स्वार्थ  छिपा होता है .......यदि मनुष्य से स्वार्थ चला गया तो वह मनुष्यनहीं देवता बन जाएगा !!
- नंदिता बाली
सोलन - हिमाचल प्रदेश
पूर्णतः तो यह कह पाना मुश्किल है ! चूंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी होने की वजह से वह समूह में मित्र ,परिवार और समाज के साथ रहना पसंद करता है ! वह स्वार्थी भी होता है ! यह एक कठोर सत्य है कि  अपने परिवार की भलाई के लिए सभी स्वार्थी बन जाते हैं किंतु यह भी सत्य है कि मनुष्य में मानवता के गुण होते हैं !समय आने पर वह संयम के साथ दूसरे की मदद भी करता है ! कभी कभी स्वार्थ में भी मदद की भावना निहित रहती है ! आज कोरोना में हम अपना स्वार्थ देख डर से बाहर नहीं निकलते ताकि संक्रमण न फैले !इसमें भी तो हम अपने स्वार्थ के साथ दूसरे की भलाई चाहते हैं ! मानव गुण होने से उसमे परोपकार की भावना तो होती है ! हमारे पूर्वजों के संस्कार  दया,करुणा सभी हममे हैं अतः किसी के पास धन है तो वह धन देकर गरीबों के लिए किसी भी तरह से मदद करता है ! अस्पताल बनवाता है, विद्धयालय , और अन्य तरीके से मदद करता है ताकि परमार्थ कर वह कुछ पुण्य कर ले ! सामाजिक होने से वह स्वार्थी होता है किंतु मानवी गुण होने से वह परमार्थ की ओर भी झुकता है !
- चंद्रिका व्यास
 मुंबई - महाराष्ट्र
स्वार्थ एक नकारात्मकता का भाव दर्शाने वाला शब्द है। किसी व्यक्ति का स्वार्थी होना उसके प्रति मन में असम्मान के भाव उत्पन्न करता है। इस आधार पर हम अवश्य कह सकते हैं कि हमें अपना जीवन स्वार्थ से दूर रखना चाहिए।
           किन्तु स्वार्थ की ये नकारात्मक भावनाएँ एक सीमा के बाद ही होती हैं। अपने हित के लिए सोचकर किसी भी कार्य के लिए अग्रसर होना भी एक प्रकार का स्वार्थ ही है। परन्तु यदि अपना हित किसी अन्य का अहित न करे, किसी की अवहेलना न करे तो ऐसे स्वार्थ से बचने की आवश्यकता कदापि नहीं है। दूसरों का अहित किए बिना अपना हित सोचना कभी भी बुरा नहीं हो सकता है। क्योंकि अपना हित सोचने वाला सदैव स्वस्थ एवं प्रसन्न रहता है तथा एक स्वस्थ और खुशहाल व्यक्ति ही एक स्वस्थ परिवार और समाज का प्रतिनिधित्व कर सकता है। और तदोपरांत एक सफल राष्ट्र का निर्माता भी बन सकता है।
     हाँ !! ये अवश्य ही सत्य है कि अपने स्वार्थ भाव से भरकर हम कभी भी किसी का अहित न होने दें। अपनी महत्वाकाक्षाओं में लिप्त होकर नीति-अनीति को बिसराते हुए अपनी इच्छाओं को पूर्ण करना निंदनीय है। अतः इस तरह की स्वार्थी प्रक्रियाओं से हमें अवश्य ही बचकर रहना चाहिए।
- रूणा रश्मि "दीप्त"
राँची - झारखंड

" मेरी दृष्टि में " स्वार्थ से जीवन नरकं बनता है । जहाँ स्वार्थ है वहां नरकं है । नरकं जीवन का वह हिस्सा है । जो बार -बार नरकं मे  जीवन जीने के लिए जन्म लेना पड़ता है । इसलिए अपने जीवन को स्वार्थ से दूर रखना चाहिए ।
                                                - बीजेन्द्र जैमिनी
डिजिटल सम्मान

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