जिस कार्य में आत्मा का पतन हो क्या वह पाप है ?

पाप तो पाप होता है । आत्मा का पतन होना निश्चित है ।  जिस कार्य में सकारात्मक ना हो , वह आत्मा का पतन निश्चित करता है । सकारात्मक के साथ  जीवन जीना चाहिए । तभी आत्मा के पतन से बच कर पाप से बचा जा सकता है। यहीं जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते है : -
आज की चर्चा में जहांँ तक यह प्रश्न है कि जिस कार्य को करने में आत्मा का पतन हो क्या वह पाप है वास्तव में पाप और पुण्य को परिभाषित करना एक जटिल प्रश्न है परंतु यह जरूर कहा जा सकता है कि जिस कार्य को करने से जीवों और मानव मात्र एवं समाज की भलाई हो वह कार्य पुण्य है और जिस कार्य को करने से जीवो का हित न हो मानव एवं उसके समाज की क्षति हो और देश का भी अहित हो वह पाप है इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऐसा कार्य करने से व्यक्ति का आत्मिक पतन होता और वह धीरे-धीरे अवनति के गड्ढे में गिरता चला जाता है यह अलग बात है की गलत रास्ते पर चलकर आदमी भौतिक संसाधनों को जुटा लेता है परंतु का आत्मिक रूप से उसका पतन होता ही रहता है जिसका उसे भान तक नहीं होता और वह इन्हीं सब चीजों को जो उसे संतुष्टि प्रदान करती है उन्नति समझता है और पुण्य मानने लगता है स्वार्थ में वह गलत और सही की परिभाषा भूल जाता है जो न केवल स्वयं उसके लिए उसके परिवार के लिए न हीं समाज के लिए और न ही देश के लिए हितकर होता है इससे सभी का अहित ही होता है और देर सवेर उसे इसका फल भुगतना होता है समाज में ऐसे अनेक उदाहरण देखने को मिलते हैं कि ऐसे व्यक्ति जब यह समझने लगते कि वह बहुत बड़े हो गए और कोई उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता तब वह एक झटके में ही आसमान से जमीन पर आ गिरते हैं और ऐसे अवनति के गड्ढे में गिरते हैं कि वहां से निकलना मुश्किल हो जाता है अधिकतर मामलों में यह देखा गया है कि किसी ना किसी रूप से उनके जीवन का भी बहुत जल्दी अंत हो जाता है इस प्रकार कहा जा सकता है की ऐसा कार्य जिसके करने से आत्मा का पतन होता है वास्तव में पाप ही कहा जाएगा .
- प्रमोद कुमार प्रेम 
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
श्रीमद्भग्वद्गीता में कहा गया है-
''न जायते म्रियते वा कदाचि- न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः । 
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥''
इस संदर्भ में देखा जाए, तो आत्मा निर्लिप्त है. उसको कोई लेप-आक्षेप नहीं लगता. ऐसा भी माना जाता है, कि पाप की सजा आत्मा को मिलती है शरीर को नहीं. यह शरीर जिसे हम अपना समझते हैं वह अपना नहीं होता. यह केवल एक जरिया है जिसके द्वारा आत्मा का इस संसार में वास होता है या फिर यह कह सकते हैं, शरीर आत्मा का घर है और कोई भी घर हमेशा के लिए अपना तो होता नहीं है. 
काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार मनुष्य के प्रबल शत्रु हैं जो मनुष्य का जीवन नष्ट कर देते हैं. इन्हें विकार भी कह सकते हैं और पाप भी. विकार ही तो शरीर या आत्मा को विकृत करते हैं. किसी एक विकार के आने से बाकी विकार स्वतः ही आ जाते हैं.
व्यवहार में देखा जाए, तो किसी भी पाप कर्म से शरीर भी प्रभावित होता है, आत्मा भी. उदाहरण के लिए नशे की आदत को लिया जाए. नशा करने वाले का शरीर तो दुष्प्रभावित होता ही है, नशा छोड़ना चाहते हुए भी लिप्सा-लालसा के कारण वह नशा छोड़ नहीं पाता, ऐसे में उसे लगता है कि उसकी आत्मा उसे कचोट रही है. आत्मा की यही कचोट आत्मा का पतन भी है और पाप भी. परिणाम सोचे-समझे बिना किया जाने वाल दुष्कर्म पाप कहलाता है और पाप आत्मा को कचोटता ही है. इसी को आत्मा का पतन कहा जाता है. निष्कर्ष यही निकलता है, कि जिस कार्य में आत्मा का पतन हो, वह पाप है. 
- लीला तिवानी 
दिल्ली
जी हां जिस कार्य में आत्मा का पतन हो वह अवश्य  पाप है । आत्मा को किसी ने नहीं देखा यह एक ईश्वरीय धारणा है कि आत्मा हमारे हृदय में निवास करती है  ।
शरीर बदलता रहता है मगर आत्मा अमर है पाप कर्म के आधार पर  किसी पापी की आत्मा अमर होते हुए भी मृतप्राय है क्योंकि मानव जीवन में कर्म की विशेष महत्ता है। कर्मों पर मानव जीवन टिका है ।
चाहे वह अच्छे हो चाहे बुरे। 
अच्छे कर्म जीवन को श्रेष्ठ बनाते हैं समाज में उसका आदर सम्मान बढ़ाते हैं जीवन सफलता के मार्ग पर अग्रसर होता है जबकि बुरे कर्म जीवन को नर्क बना देते हैं । बुरे कर्म ही आत्मा का पतन करते हैं
जो कार्य मानवता के विरुद्ध है सामाजिकता का शत्रु है । जिसमें राष्ट्र का अहित है , संवेदनहीनता का सूचक है, तथा जिसमें मानवता पूरी तरह से मर चुकी हो ,ऐसे कार्य पाप कहलाते हैं , जिन से आत्मा का पतन होता है ।
 अपराधिक प्रवृत्ति मानव जीवन के लिए अभिशाप की भांति है । 
आज जिस प्रकार के जघन्य अपराध हमारे समाज में हो रहे हैं, वो किसी की भी आत्मा को झकझोर कर रख देते हैं। 
अपराध करने वाला तो अपराधी है ही लेकिन अपराध को उकसाने वाला, उसको छुपाने वाला, उसको शह देने वाला भी सबसे बड़ा अपराधी है । 
हर वह कार्य जो अनैतिक है आत्मा के पतन का कारण बनता है वह जघन्य पाप है अपराध है ।
- शीला सिंह
 बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश 
पाप की सजा आत्मा को मिलती है शरीर को नहीं। यह शरीर जिसे हम अपना समझते हैं वह अपना नहीं होता।यह  केबल एक जरिया है जिसके द्वारा आत्मा इस में वास करती है।या यों कहे शरीर आत्मा का घर है।
कोई भी घर हमेशा के लिए नहीं होता है, कभी ना कभी घर को छोड़ना होता ही है।
उसी प्रकार आत्मा का भगवान द्वारा दिया गया समय सीमा पूर्ण हो जाता है तो वह उस शरीर से निकल जाता है। शरीर पंचतत्व में विलीन हो जाता है। हमारा शरीर पंचतत्व से बना हुआ है।
जैसे ही आत्मा बाहर निकल जाती है शरीर किसी काम का ना रहता है।
जैसे ही आत्मा शरीर से निकलती है उस आत्मा के सभी पाप पुण्य का लेखा- जोखा आत्मा को ही भुगतना पड़ता है। इसलिए किसी भी पाप -पुण्य का फल आत्मा भूगती  है , शरीर नहीं।
लेखक का विचार:-पाप की सजा मिलती तो आत्मा को है। लेकिन शरीर के माध्यम से क्योंकि पाप का कर्ता भी तो आत्मा ही है।
जो कर्ता है वही भोक्ता है। यही ईश्वरीय न्याय है
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखण्ड
आत्मा का रिश्ता तो परमात्मा से होता है
आत्मा का पतन अर्थात परमात्मा से दूर हो जाना और परमात्मा से दूरी इंसान का विकृत हो जाना और जब इंसान विकृत हो जाता है तो समाज में विकृतियां फैल जाती हैं और विकृत समाज से विकृत देश का निर्माण ही होगा।
इसलिए प्राणी को वह कार्य अभी नहीं करना चाहिए जिससे आत्मा का पतन हो जाए। और यदि हर प्राणी इस बात पर अम्ल करेगा तो किसी बेटी का बलात्कार नहीं होगा
और ना ही किसी बेटी को जिंदा जलाया जाएगा।।
- ज्योति वधवा "रंजना"
बीकानेर - राजस्थान
आत्मा एक परम शक्ति है जो अजर अमर है। मन, वचन और कर्म से आत्म-शुद्धि करना ही साधना है, यह साधना ही आत्मा के उत्थान का मार्ग है। 
     इस भौतिक संसार में मनुष्य उत्कृष्ट और निकृष्ट, दोनों प्रकार के कार्यों को करता है। निडरता और निश्चिंतता के साथ जो कार्य नहीं किये जा सकते, उनको आत्मा स्वीकार नहीं करती, इस अस्वीकार्यता से ही आत्मा का पतन होता है और जिससे आत्मा का पतन होता है, निश्चित रूप से वह पाप होता है।
     पुण्य और पाप के अंतर को समझना सरल तो है परन्तु मनुष्य अपने हितों के अनुकूल पुण्य और पाप की व्याख्या कर लेता है जिससे यह सरलता उससे दूर हो जाती है। सद्कर्म ही आत्मा के उत्थान की पूंजी है। मानव-धर्म के विरुद्ध किये गये कार्य पाप-कर्म में परिवर्तित होकर आत्मा पर भार समान होकर ग्लानि उत्पन्न करते हैं और यह ग्लानि ही सिद्ध करती है कि आत्मा पतन की ओर अग्रसर है। 
     परमात्मा के सबसे निकट आत्मा ही है और जब मनुष्य के कार्यों से आत्मा पतनोन्मुख होती है तो इसका अर्थ है कि मनुष्य परमात्मा से विमुख हो रहा है। इस प्रकार आत्मा का पतन और परमात्मा से विमुखता पाप ही तो है। 
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
हाँ जो कार्य आत्मा को तकलीफ़ दे आत्मा को मरने और जलिल करे पतनोन्मुख की ओर ले जायें यह पापों की शृंखला मे आता है।जीवन की धार्मिक अनुष्ठान संपन्न करने के लिए हमे हमेशा सत्य की राह और अंहिसा का साथ देना चाहिए।जिस कार्य से आत्मा मलिनता की पोशाकों मे ढ़के वह पाप कहलाता है।मनुष्य की सफलता उसके सदकर्म और सदाचार  से जाना जाता है।और जीवनशैली को सुखद अनुभव देती है।अगर कोई कार्य हम अपने आत्मा के विरूद्ध जाकर करते है तो विनाश का मार्ग प्ररस्त होता है।आत्मा पंच तत्वों का मिशन जिसमे सत्य, अहिंसा, सदाचार, शिष्टाचार, संवेदनशील, होती है इसे हम मनुष्य गर दैष ,घृणित, लोभ से लोतप्रोत करते है तो पतन कार्य करते है जो पाप की कसौटियों पर आता है।मानवीय संवेदनाओं को जीवित रखने हेतू हमें साफ आत्मा के पदचिन्हों पर चलना चाहिए।कभी कभी लोभवश हम अपने सुखद जीवन को त्याग कर हिंसा के राह पर चल पड़ते है जिससे हमारी आत्मा बेहद दुखों से गुजरती है।आत्मा को हमेशा सदकर्म के रूप धारण करना ही हमारा कंर्तव्य है।इसको दुखा का अपना फायदा नही उठाना चाहिए।हमेशा ईमानदार के पद्धति को अपनाने से आत्मा को सुख प्राप्त होता है।हम अपनी आत्मा को सवश्रेष्ठ रखें।ताकि जीवन की कठिनाइयों का आराम से पार कर सके।पाप प्राणी गर भूलवश करें और अपनी आत्मा से क्षमायाचना कर ले और सुधारने की कोशिशें करें।ताकि जीवन सफलता की उचाईयों तक पहुंचे।सभी का आशीर्वाद, आशीष प्राप्त हो।और पाप का घड़ा एकदिन फुटता ही है।आत्मा को मलिन कर कार्य पतन है और पाप का भागीदारी मे शामिल ।
कार्य से ही जीवन की सफलता मिलती है और मानव को पहचान मिलती है आत्मा का पतन कर के किया गया कार्य पाप है।
कर्म,क्रोध,लोभ  मोह माया मे मानव फंस कर आत्मा को तकलीफ़ देता है और घृणित कार्य को अंजाम देता है ।जो की पाप कहलाता है।अतः हम जिस कर्म को करे और आत्मा पतन हो वह पाप ही है।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर - झारखंड
          हाँ ! जिस कार्य में आत्मा का पतन हो वह कार्य  पाप है। हम कोई भी कार्य करते हैं और हमें लगता है कि ये गलत है तो वह पाप ही है। हर वो गलत कार्य जिसे करने को आत्मा गवाही न दे वो पाप कर्म ही है। जब भी हम गलत कार्य करते हैं तो आत्मा हमें रोकती है वह जानती है इस काम को करने के बाद पछतावा होगा। और जिस काम को करने के बाद पछतावा हो उसमें आत्मा का पतन ही होता है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जिस कार्य में आत्मा का पतन हो वह पाप है।
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश" 
कलकत्ता - पं. बंगाल
जिस कार्य को करने से आत्मा का पतन होता है क्या वह पाप होता है। आत्मा सो परमात्मा आत्मा किसी की बनाई हुई नहीं है वह हमारे शरीर में विद्यमान रहती है।
पाप हमसे नीच कर्म कराते हैं 
जो हमारी उन्नति के मार्ग  को अवरुद्ध करते हैं। पाप रोग शोक पतन अपने
साथ लाता है। अधर्म से मनुष्य भटकता है। पुण्य ही पूजा है
अर्थात
छिति जल पावक गगन समीरा
पंच रचित अति मनोज सरीरा।।
लख चौरासी  भोगने के बाद मनुष्य को मनुष्य  शरीर मिलता है। इसलिए सब कर्म करना चाहिए जिससे पतन न हो। पाप कर्म आत्मा के पतन का कारण बनते हैं।
- पदमा ओजेंद्र तिवारी 
दमोह - मध्य प्रदेश
ईश्वर द्वारा रचित इस सृष्टि में मनुष्य योनि कर्म योनि मानी गई है, अन्य योनि भोग योनि हैं। याने हमारे जन्म में कर्म को प्रमुखता दी गई है। याने हम ऐसे कार्य करें जो हितार्थ के हों, यदि हम इससे विमुख होंगे तो यह ईश्वर के उद्देश्य के विपरीत होगा जिसके परिणामस्वरूप हमें अन्य जीव जंतुओं में से किसी के रूप में जन्म लेना पड़ेगा जिसमें सिर्फ और सिर्फ भोगना ही भोगना है। 
 अतः हमें सत्कर्म करना ही है करना है। इसके लिए हमें ईश्वर ने विवेक और बुद्धि भी दी है और इतनी सामर्थ्य एवं समझ दी है कि हम क्या अच्छा है, क्या बुरा ये तत्काल समझ सकते हैं। हर अच्छे- बुरे  कार्य करने के पहले हमें एहसास होता है परंतु बुरे कार्य करने में हम यदि अनदेखा करते हैं, संभलते नहीं हैं और गलत कार्य कर बैठते हैं तो यही आत्मा का पतन होना है, ईश्वर के उद्देश्य के विपरीत है याने अनुचित है, अधर्म है... पाप है।
अस्तु।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
 गाडरवारा - मध्यप्रदेश
पतित होने में ही पाप है ।जहां भी मनुष्य मानवता से गिर गया तो उसका पतन हो ही गया ।चाहे हम कोई नाम दें या नहीं ।आत्मा के पतन से अभिप्राय हार्दिकता,सौहार्द,सच्चाई, ईमानदारी ,सहजता व मैत्री जैसे भावों का विकास न  हो और मनुष्य केवल जीवन की सुख-सुविधाएं जुटाने में लगा रहे वह भी किसी दूसरे को सीढ़ी बनाकर तो हो ही गया पतन ।किसी भी कार्य को करने के लिए हृदय और मस्तिष्क का तालमेल
 आवश्यक है ।जहां हृदय नहीं वहां भाव नहीं ।और बिना हार्दिक परामर्श के किसी भी कार्य को सम्पन्न
 नहीं कर सकते ।और जहां आत्मीयता न हो वहां पतन है ।फिर उसे पाप भी कह सकते हैं 
- चंद्रकांता अग्निहोत्री
पंचकूला - हरियाणा
     जिसकी इंद्रियां बस में होती हैं, वहां पाप-पुण्य स्थिर होता हैं। आत्मा में चंचलाता के कारण बुद्धि में पतन होता हैं और अनन्त समय तक चलता रहता हैं, विनाश की लीला का तांडव नृत्य प्रारंभ हो जाता हैं और अंत में बुरी तरह से सामना करना पड़ता हैं, जहाँ एक व्यक्ति के कारण घर-परिवार-इष्ट-मित्रों सहित प्रभावित होता हैं। आत्मा को जिसनें जीत लिया,  उसने सर्वस्थ जीत लिया। इसलिए लिये गुरुकुल में नैतिक शिक्षा दी जाती हैं, कि कोई भी पतन की ओर अग्रसर न हो?
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर'
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
आत्मा हमारे अंदर बसती है। अगर कोई कार्य आपकी अपनी आत्मा को गवारा नहीं है, उसे यह कदम गलत लग रहा है, उसने आपके हाथों को रोका है तो निश्चित ही वह पाप होगा । तभी आपके कार्य को घृणित माना जाएगा। 
 उसके बाबजूद आप कार्य करने को उद्धरित होते हैं , वैसी स्थिति में आपने आत्मा का हनन किया है। जब आत्मा का पतन हो जाता है वह दिमाग से काम लेने लगता है। वही पाप की संज्ञा पाता है। आत्मा की मौत आपके चरित्र की मौत है।
- संगीता गोविल
पटना - बिहार
गीता में श्रीकृष्ण ने कहा है मनसा वाचसा कर्मणा पाप केवल वह नहीं होता जिसे हम कर्म के द्वारा करते है
पाप वह भी होता है जिसको करने में
हम अपने जमीर का आत्मसम्मान ना करें वह पाप भी उतना ही बड़ा पाप है
जितना कि वाणी और कर्म से करते हैं
जब आत्मा का पतन हो जाता है तो निश्चित ही वह मानव  होते हुए भी
मानवता की श्रेणी में नहीं आता है
हमें ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए
इससे हमारी आत्मा पर बोझ हो हमारा मन स्वयं हमें धिक्कार करे ।
अंतर्यामी सबका हिसाब रखती है
- आरती तिवारी सनत
 दिल्ली
           जी बिल्कुल, जिस कार्य में आत्मा का पतन हो वह निश्चित रूप से पाप है। इसी से पाप पुण्य का मापदंड होता है। जो सुसंस्कृत है जिसका अंतर्मन साफ है वह कभी गलत काम नहीं करता। इसीलिए वह पुण्य का भागी होता है। इसके उलट जो व्यक्ति अपनी आत्मा को मार कर गलत कार्यों में संलग्न हो जाते हैं और नैतिकता तथा मर्यादाओं को भूल जाते हैं, कुत्सित वासना हेतु नृशंसता एवं वीभतस्ता की सीमा  लांघ कर अमानवीय कृत्य करते हैं वे निश्चित रूप से पाप के भागी होते हैं और इस कार्य में जो भी उनको सहयोग देते हैं वे भी उतने ही   पाप के भागीदार होते हैं। ऐसे व्यक्तियों को तो जीने का अधिकार ही नहीं मिलना चाहिए, मानव मात्र के लिए कलंक है इस तरह की मानसिकता एवं कर्म  करने वाले व्यक्ति। इसका ताजातरीन उदाहरण है हाथरस एवं बलरामपुर तथा अलीगढ़ की ढाई साल की बच्ची ट्विंकल जो इन कुकर्मियों के द्वारा इस हद तक सताई गईं  कि मृत्यु के बाद भी उनके साथ घिनौना  अमानवीय बर्ताव किया गया। उनके परिवार जनों को सताया वो अलग। जब तक समाज में इस तरह के लोग रहेंगे कभी भी समाज का या देश का उत्थान नहीं हो सकता।  इनको समझ तभी आएगी जब इनके साथ या इनकी बहन बेटियों के साथ इस तरह का अमानवीय व्यवहार किया जाएगा। ऐसे लोगों को तो मौत ही सही सजा होती है
- श्रीमती गायत्री ठाकुर "सक्षम"
 नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
जिस कार्य से निश्चित रूप से आत्मा का पतन हो उसे पाप की संज्ञा दी जा सकती है। इन्सान जीवन में अमूमन दो तरह के कार्य करता है।  एक कार्य ऐसा जिससे दूसरे व्यक्ति की पीड़ा दूर होती है, उसके दुःख दूर होते हैं, उसे प्रसन्नता होती है तो हम पुण्य की संज्ञा दे देते हैं और दूसरा कार्य ऐसा जिससे दूसरे व्यक्ति को पीड़ा होती है, दुःख होता है उसे हम पाप की संज्ञा दे देते हैं।  निश्चित रूप से दूसरे को पीड़ा पहुंचाने वाले कार्य से आत्मा का पतन होता है और वह पाप कहलायेगा।
- सुदर्शन खन्ना 
दिल्ली
कार्य बहुत प्रकार के होते हैं कार्य बहुत तरह के होते हैं कुछ कार्यों से आत्मा को संतुष्टि मिलती है कुछ कार्यों से आत्मग्लानि होती है वैसे कार्य जिससे आत्मग्लानि हो बाद में पछतावा हो अपनी ही नजरों में गिर जाएं वह आत्मा का पतन ही कहलाएगा आत्मा तो परमात्मा का एक अंश है अगर आत्मा विक्षिप्त है तो आप खुद महसूस करिए कि परमात्मा के घरों में भी वह बेचैनी होगी इसलिए वह कार्य जो आत्मग्लानि पैदा करें उससे आत्मा का पतन होता है
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
      आत्ममंथन की अत्यंत आवश्यकता है कि कौन सा वह पाप कार्य है जिससे आत्मा का पतन हो जाएगा? जो पहले ही पापों के कारण परम पिता परमात्मा से अलग होकर पतिता हो चुकी है। उसका पतन क्या होगा? 
       सर्वविदित है कि आत्मा को शस्त्र काट नहीं सकता, अग्नि जला नहीं सकती, हवा सुखा नहीं सकती और प्रकृति मार नहीं सकती। चूंकि आत्मा अजर-अमर है। उसके तीन स्वरूप माने गए हैं- जीवात्मा, प्रेतात्मा और सूक्ष्मात्मा।
      अर्थात जो भौतिक शरीर में वास करती है उसे जीवात्मा कहते हैं और शरीर त्यागने के उपरांत उसे प्रेतात्मा कहा गया है। यह आत्मा जब सूक्ष्मतम शरीर में प्रवेश करता है तब उसे सूक्ष्मात्मा कहते हैं। 
     धर्मग्रंथों के अनुसार आत्मा पांच तत्वों अर्थात अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी और आकाश से बने शरीर में 84 लाख योनियों में भ्रमण करती हैं। जिनमें पशु, पक्षी, कीड़े-मकौड़े, कीट-पतंगे, जीव-जंतु, वृक्ष, मानव, दानव एवं देवता आदि सभी शामिल हैं। 
     अतः गीता के उपदेश अनुसार आत्मा का यह जीवन चक्र तब तक चलता रहता है जब तक कि वह पाप कार्यों से मुक्त नहीं हो जाती या उसे मोक्ष नहीं मिल जाता।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
 आत्मा तो न्यायाधीश की तरह मनुष्य को  अच्छी सलाह देती है । लोभ और स्वार्थ में जकड़ा मनुष्य   आत्मा की आवाज को उपेक्षित कर देता है और जो कार्य अपने अनुकूल हो वही करता है। 
वैसे भी  श्रीभग्वतगीता में भगवान कृष्ण ने यह बात स्पष्ट रूप से कही है, कि आत्मा अजर अमर होने के साथ ही शरीर के मृत होते ही किसी अन्य शरीर में प्रविष्ट हो जाती है । ऐसे में आत्मा के पतन का तो प्रश्न ही नहीं उठता। आत्मा की आवाज को नजरअंदाज कर व्यक्ति स्वयं निकृष्ट कार्य करता है और यही पाप है। 
- वंदना दुबे 
  धार - मध्यप्रदेश
अवश्य ! जिस कार्य को करने से हमारी आत्मा दुषित होती है अथवा दूसरे की आत्मा को दुख पहुंचता है तो हम पाप के भागी कहलाते हैं ! यदि हम अहंकार को त्यागकर समभाव रख गरीबों की सेवा ,माता पिताकी सेवा एवं गुरु को मान दे उनकी आत्मा को तृप्त करते हैं तो वही हमारी सच्ची भक्ति है इसके विपरीत कार्यकर  उन्हे दुखी करते हैं अथवा उनकी आत्मा दुखी होती है वह पाप है चूंकि आत्मा ही परमात्मा है ! जीव अनेक है और ईश्वर एक !
कोई व्यक्ति जब घृणित कार्य करता है समझाने पर भी नहीं समझता  तब हम कहते हैं कि इसकी आत्मा मर चुकी है यानीकि उसकी बुद्धि भ्रष्ट हो चुकी है उसके चरित्र का हनन हो चुका है !
हमारी आत्मा हमारे अंदर होती है मानव द्वारा आत्मा के विरुद्ध किया कार्य गलत होता है किसी को ठेस पहुंचती है तो वह पाप है !
अंत में कहूंगी...
 कर्म से मानव पावत है
 परमात्मा से मोक्ष
 मानव के  कर्मानुसार 
देह बदले है आत्मा !
- चंद्रिका व्यास
 मुंबई - महाराष्ट्र
क्या कभी आप ने सोचा है  पाप और पुन्य क्या होता है
तो आईए बात करते हैं पाप किसे कहते हैं किसी की आत्मा  के सताने को पाप कहा जाता है और जब हम किसी की आत्मा को सुख पहुंचाते हैं उसे पुन्य कहा जाता है, या ज्यों कह सकते हैं जो कार्य आत्मा को पतन के रास्ते ले जायें वो पाप कै कार्य होते हैं
यही नहीं जिन भावों से किसी का बूरा होता हो वे सब पाप भाव हैं, क्योंकी  पाप कर्म आत्मा को पतन की तरफ ले जाते हैं। 
पापों  से वचना वहुत जरूरी है, हमे ऐसे कार्य करने से परहेज करना चाहिए जिससे किसी की आत्मा को ठेस पहुंचे, जिस प्रकार स्थान, घर कपड़े को स्वस्छ रखने का प्रयास करना चाहिए, उसी प्रकार आत्मा को भी स्वस्छ रखना जरूरी है, ताकि हमारे अन्दर गल्त विचार पैदा न हों।  
पाप मनुष्य के शरीर  मन  और आत्मा का नारकीय बन्धन है व दुखदायी  में ले  जाने वाला दैत्य है, 
पाप छोटा हो या वड़ा उससे वचना चाहिए। 
यही नहीं जो कार्य हमें पाप की तरफ दकेलने का प्रयास करे वो  कार्य कभी नहीं करना चाहिए, 
क्योंकी जब भी हम कोई कार्य हाथ मे लेते हैं  उसको अच्छा या बूरा वनाना हमारे हाथ में होता है , इसलिए कार्य करते वक्त यही सोचें की मैं यह कार्य भलाई के लिए कर रहा हुं, क्योंकी अपनी आत्मा और परमात्मा से कोई भी चीज छिपी नहीं होती  हर कार्य को करते वक्त मन को साफ रखना अति उतम है जिससे हमारी आत्मा भी शुध्द होगी, 
क्योंकी शरीर से ज्यादा कीमती आत्मा है और आत्मा में ही परमात्मा का वास है, 
लोभ   पाप का बाप है तृष्णा  पाप की मां है इसलिए इनसे वचना चाहिए, किसी भी पाप या पुण्य का फल आत्मा भुगती है शरीर नहीं क्यें न हम सब पुण्य के भागीदार वनें जिससे आत्मा परमात्मा व  अन्य जीव आत्माओं को सुख मिले। 
आखिरकार यही कहुंगा इन्सान को वोही कार्य करने की जरूरत है जिससे   आत्मा का पतन न हो और वो पाप का भागीदार न वने। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू  कश्मीर

" मेरी दृष्टि में "  आत्मा की आवाज का पालन अवश्य करना चाहिए । किसी भी तरह से नकारात्मक को अन्दर नहीं आने देना चाहिए । इसी तरह से आत्मा को पाप कर्म से बचाया जा सकता है । 
 - बीजेन्द्र जैमिनी
डिजिटल सम्मान


Comments

  1. किसी भी इंसान की आत्मा गलत कार्य के लिए प्रोत्साहित नहीं करती वह उसे रोकने का प्रयास करती है किंतु जो अपनी आत्मा को मार कर उसकी अनसुनी करके गलत कार्य करते हैं पाप कर्मों में लिप्त हो जाते हैं वे हमेशा पाप के भागी होते हैं। आत्मा के पतन से बढ़कर दुनिया में कोई पतन नहीं है और इस वृत्ति के लोगों से बढ़कर कोई पापी नहीं हो सकता। आत्मा का नाश अर्थात सर्वनाश।

    ReplyDelete
  2. आदरणीय महोदय, मेरे पास 'आज की चर्चा' में प्रतिभागिता की सूचना तो आती है, पर उसके विजेता की सूचना नहीं आती. कृपया मुझे 'आज की चर्चा' व्हाट्सप्प ग्रुप में जोड़ दें, ताकि प्रतिभागिता के साथ-साथ मुझे 'आज की चर्चा' के विजेता की सूचना भी मिलती रहे. मैं आपकी अत्यं
    त आभारी रहूंगी.
    -लीला तिवानी
    दिल्ली
    मोबाइल नं.- 9868125244

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

वृद्धाश्रमों की आवश्यकता क्यों हो रही हैं ?

हिन्दी के प्रमुख लघुकथाकार ( ई - लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी

लघुकथा - 2023 ( ई - लघुकथा संकलन )