रामधारी सिंह ' दिनकर ' की स्मृति में लघुकथा उत्सव

भारतीय लघुकथा विकास मंच द्वारा इस बार  " लघुकथा उत्सव "  में  " आग " विषय को फेसबुक पर रखा गया है । जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के लघुकथाकारों ने भाग लिया है । विषय अनुकूल  अच्छी व सार्थक लघुकथाओं के लघुकथाकारों को सम्मानित करने का फैसला लिया गया है । सम्मान प्रसिद्ध साहित्यकार रामधारी सिंह ' दिनकर' के नाम पर रखा गया है । 
रामधारी सिंह 'दिनकर' जी का जन्म 24 सितंबर 1908 को बिहार के बेगूसराय जिले के सिमरिया गाँव में एक सामान्य किसान 'रवि सिंह' तथा उनकी पत्नी 'मनरूप देवी' के पुत्र के रूप में हुआ था। दिनकर दो वर्ष के थे, जब उनके पिता का देहावसान हो गया। परिणामत: दिनकर और उनके भाई-बहनों का पालन-पोषण उनकी विधवा माता ने किया। दिनकर का बचपन और कैशोर्य देहात में बीता, जहाँ दूर तक फैले खेतों की हरियाली, बांसों के झुरमुट, आमों के बग़ीचे और कांस के विस्तार थे। प्रकृति का प्रभाव दिनकर के मन में बस गया, पर शायद इसीलिए वास्तविक जीवन की कठोरताओं का भी अधिक गहरा प्रभाव पड़ा।
संस्कृत के एक पंडित के पास अपनी प्रारंभिक शिक्षा प्रारंभ करते हुए दिनकर जी ने गाँव के 'प्राथमिक विद्यालय' से प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की एवं निकटवर्ती बोरो नामक ग्राम में 'राष्ट्रीय मिडिल स्कूल' जो सरकारी शिक्षा व्यवस्था के विरोध में खोला गया था, में प्रवेश प्राप्त किया। यहीं से इनके मनोमस्तिष्क में राष्ट्रीयता की भावना का विकास होने लगा था। हाई स्कूल की शिक्षा इन्होंने 'मोकामाघाट हाई स्कूल' से प्राप्त की। इसी बीच इनका विवाह भी हो चुका था तथा ये एक पुत्र के पिता भी बन चुके थे। 1928 में मैट्रिक के बाद दिनकर ने पटना विश्वविद्यालय से 1932 में इतिहास में बी. ए. ऑनर्स किया। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था।
बी. ए. की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद वे एक विद्यालय में अध्यापक हो गये। 1934 से 1947 तक बिहार सरकार की सेवा में सब-रजिस्टार और प्रचार विभाग के उपनिदेशक पदों पर कार्य किया।  अंग्रेज़ प्रशासकों को समझते देर न लगी कि वे एक ग़लत आदमी को अपने तंत्र का अंग बना बैठे हैं और दिनकर की फ़ाइल तैयार होने लगी, बात-बात पर क़ैफ़ियत तलब होती और चेतावनियाँ मिला करतीं। 4 वर्ष में 22 बार उनका तबादला किया गया। 1947 में देश स्वाधीन हुआ और वह बिहार विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रध्यापक व विभागाध्यक्ष नियुक्त होकर मुज़फ़्फ़रपुर पहुँचे। 1952 में जब भारत की प्रथम संसद का निर्माण हुआ, तो उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया और वह दिल्ली आ गए। दिनकर 12 वर्ष तक संसद-सदस्य रहे, बाद में उन्हें सन 1964 से 1965 ई. तक भागलपुर विश्वविद्यालय का कुलपति नियुक्त किया गया। लेकिन अगले ही वर्ष भारत सरकार ने उन्हें 1965 से 1971 ई. तक अपना हिन्दी सलाहकार नियुक्त किया और वह फिर दिल्ली लौट आए।
इन का 1955 में ' उजली आग '  लघुकथा संग्रह प्रकाशित हुआ है । जिस की आजकल के लघुकथाकारों को क्या तो जानकारी है नहीं या फिर इन का जिक्र नहीं करना चाहते हैं । इन का देहावसान 24 अप्रैल 1974 को चेन्नई में हुआ ।
सम्मान के साथ लघुकथा : -
आग
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"क्क्या आंटी! इतनी जल्दी क्यों जा रही हैं? सुनिए आपलोग आपसे भी कह रहा हूँ अंकल,  होली के बाद जाइये। होली में हम सब साथ रहेंगे तो अच्छा लगेगा।" दिनेश ने कहा।
रवि माथुर पत्नी के संग अपने बेटे के पास विदेश आये हुए थे।  हालांकि वो लोग छः महीने के लिए ही आये थे लेकिन आकस्मिक वैश्विक जंग छिड़ने के कारण लगभग पन्द्रह महीने के लिए रुक गए थे। आज वापसी थी तो बेटे के कुछ दोस्त उनसे मिलने आये और साग्रहानुरोध कर रहे थे कि कुछ दिनों के लिए और ठहर कर जाएँ।
"जाना जरूरी नहीं होता तो जरूर रुक जाता बेटा जी। पेंशन सुचारू रूप से चल सके उसके लिए लाइव सार्टिफिकेट के लिए सशरीर उपस्थिति होगी तथा एक जरुरी मीटिंग है उसमें शामिल होना है और सबसे महत्त्वपूर्ण बात कि टिकट कट गया है।"
"टिकट का क्या है उसे बदला जा सकता है। वर्त्तमान काल में सबकुछ ऑन लाइन हो रहा है। आप हमसे बहाना नहीं बनाइये। प्लीज़ रुक जाइये।" दिनेश के स्वर में बेहद दर्द नज़र आ रहा था, मानों कुछ है जो उसे बेहद सता रहा है।
"जानती है आंटी आपलोग यहाँ हैं तो हमलोगों को भी अच्छा लगता है!" दिनेश की पत्नी ने कहा।
"हाँ आंटी! बड़ों के साथ रहने से ही तो घर, घर लगता है। वरना हमें देखिए दो जन हर पल का साथ फिर भी यहाँ यहाँ दिल में ऐसा दर्द है कि आप दिखला नहीं सकता।" दिनेश ने पुनः कहा।
"जानती हैं आंटी हमें हमारी सासु माँ का यहाँ नहीं आ पाने का बेहद दुःख है।" दिनेश की पत्नी ने कहा।
"हाँ! मेरी माँ का बीजा बार-बार रिजेक्ट हो जा रहा है। कैंसिल करने के पीछे उन्हें लगता होगा कि अकेली औरत बेटे पर ही निर्भर होगी जाएगी तो लौट पाने का कोई आधार नहीं होगा। रुक ही जाएंगी। इसलिए बीजा नहीं दे रहा है।" दिनेश ने कहा!"
"तुमलोग ही क्यों नहीं अपने देश वापस चले जाते हो?" रवि माथुर का हर्षित स्वर में सवाल था।
"यह तो पक्का तय है अंकल कि मैं अपने देश लौट जाऊँगा। दो साल में लौट जाऊँ या चार साल में लौट जाऊँ। एकलौता पुत्र होने के नाते इतना ख्याति कमा लेना चाहता हूँ कि समाज को गर्व हो सके मुझपर। पिता का देखा सपना पूरा करना चाहता हूँ। जिस देश में मेरी माँ नहीं आ सकती है उस देश में तो मुझे रहना ही नहीं है।" दिनेश ने कहा।
"एक दिन भी ऐसा नहीं जाता कि ये अपनी माँ से फोन पर बात ना करते हों। इनकी सुबह माँ से बात करने के बाद ही होती है। मुझे भी लगता है कि हमें माँ के पास ही रहना चाहिए।" दिनेश की पत्नी ने कहा।
"और नहीं तो क्या जिसके खून से मैं बना हूँ उसके लिए कुछ ना कर पाना.. ओह्ह! मैं समझा नहीं सकता अपनी बैचेनी।" दिनेश बिन जल मीन की स्थिति में दिखलाई दे रहा थ।
"तुम जो अर्जन करना चाहते हो वह तो तुम अपने देश में भी कर सकते हो..!" अंकल ने कहा।
"मुझे इस देश की एक बात बहुत व्यवहारिकता पूर्ण लगी। एक-दो महीने के बच्चे को अलग कमरे में सुलाना। वयस्क होने पर अलग कर लेना।" आंटी का स्वर कहीं दूर गए व्यक्ति सा गूँज रहा था।
सभी एक दूसरे को स्तब्धता से देख रहे थे।

- विभा रानी श्रीवास्तव
   पटना - बिहार
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भुख की आग 
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  प्रकृति हरियाली नव रूप शृंगार किया है ।
  शबरी की कुटिया का रूप निखर आया है ।
लोग बाहर से कुटिया की तस्वीरे खिचते आते जाते है। 
अन्दर बच्चे की रोने की आवाज आई । फ़ोटोग्राफ़र से रहा नही गया ।
मासूम बच्चा भुख से बिलख स्तनपान करा विक्षिप्त महिला हरी घाँस पर लेटी थी ।
जैसे ही एपल खाते उसके पास गया ।
उसकी आँखें अंगारे बरसा भुख से व्याकुल चेहरा जीभ फेरते हाथ एपल की ओर लपक लिया ।थोड़ी देर तो हतभ्रत रह गया।
फ़िर केमरे के बाक्स से दो एपल निकाल दिये । जैसे जैसे खा रही थी !
चेहरे पर चमक आ रही थी ! 
मैंने कहा - यहाँ अकेली  ,
उसने कहा - अकेली कहा  -आप भी कुछ पैसे दे दीजिए ना आपकी भी भुख शांत हो जायेगी फ़ोटोग्राफ़र ने कहा -पैसे नही है । 
ये मेरी चैन सोने की है रख लो । तुम्हारा घर कहा है ? 
वो देखिए सामने माँ अंधी ,अपाहिज असमय बाढ़ ने सब कुछ लूट दिया । 
सबरी ने कहा -
साकार रूप आप जैसे लोगों ने बना दिया ।समस्या का हल ? 
हाथ थाम सबरी के घर बच्चे को मूर्त रूप दे दिया। 
मै ,हाँ ,हाँ आप जैसे ?
याने फ़ोटोग्राफ़र अवाक अपनी राह चलने मजबूर पीछे से उसकी आवाज़ गूँज रही पतझड़ के साथ इस सोने की चैन से कुछ दिन पेट की अग्नि शान्त हो जाएगी ?

- अनिता शरद झा 
रायपुर - छत्तीसगढ़
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हल 
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      हारी-बीमारी ने ऐसे घर में ऐसे पैर पसारे कि घर-द्वार, खेती सब लील गयी।
       कर्जे में दबता बुधिया सोचने-समझने की शक्ति खोहता जा रहा था।
        बेटे-बहू शहर के ऐसे हुए कि लौट कर न आए।
        पेट की आग चैन कहाँ लेने देती है।दिन भर हाड़ तोड़ मजूरी कर, रोटी का इंतजाम करके घर पहुँचा।
       पर सुक्खी सदा के लिए उस आग का हल निकाल राम जी के पास पहुँच चुकी थी।

- डॉ भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
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आग
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सुधाकर गरीबी में पलते_बढ़ते 12वर्ष का हो गया पिता मजदूरी करते हैं और माता दूसरे के घर में बरतन,कपड़े का काम।
    माता ने कहा "बेटा सुधाकर,आज काम में नहीं गया।तबीयत तो ठीक है ना तेरी।"
     सुधाकर ने जवाब नहीं दिया।उसकी आंखों से अश्रु बहते रहे।
   माता"बेटा क्यों रो रहा है। बता।मुझे काम पे जाना है, मालकिन गुस्सा होंगी।"
  सुधाकर "माँ, मैं जूते पाॅलिस करने का काम करता हूँ ना,तो दोस्त मेरा मजाक उड़ाते हैं। मुझे बहुत गुस्सा आता है। इसलिए नहीं गया।मां हम लोग गरीब क्यों हैं?"
   माताजी "बेटा यह बता ,जो तेरा मजाक ऊड़ाता है,तू जानता है,वह क्या काम करता है। "
   सुधाकर "माँ वह बदमाश लड़का है।झगड़ा करता है, झूठ बोलता है और भी ना जाने क्या-क्या करता है।"
    माताजी "बेटा यह सब गलत बातें तू नहीं करता।हमें ऐसे लोगों की बात का बुरा नहीं मानना चाहिए। तू मेहनत करता है,पैसे कमाता है।सीधी राह पर चल रहा है।इसी तरह चलते रहना है और अच्छे बने रहने की आग को,बुझने नहीं देना है।"
  सुधाकर "माँ मैं समझ गया।मैं काम पर जा रहा हूँ। "
    
- डाॅ •मधुकर राव लारोकर 
     नागपुर - महाराष्ट्र
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पेट की आग
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फूलमणी का ठिकाना था ,”नई दिल्ली रेलवे स्टेशन,दिल वालों की दिल्ली “जो बाँहें फैलाए सबको अपना बना कर बसा देती है।सीने से लगा कर पेट की आग 
बुझाने का ज़रिया प्रदान करती है।
फूलमणी दो साल पहले ही गाँव से प्रेमी संग भाग कर ,आँखों में सतरंगी सपने लिए प्लेटफ़ार्म पर कदम रखी थी |स्टेशन पर उतरते ही अपना झोला कस कर पकड़ लिया था। जिसमें पचास रूपये ,एक साड़ी ब्लाउज़,कंघी,स्नो,सहेली का दिया लिपस्टिक जो उसने लगभग ख़त्म करके ही उसे दिया था।प्लेटफ़ॉर्म पर भीड़ देख कर भौचक फूलमणी प्रेमी का हाँथ कस कर पकड़े हुए खड़ी थी ;कि तभी प्रेमी ने हाँथ झटका और “नौ दो ग्यारह “बहुत आवाज़ लगाया ,पीछे -पीछे दौड़ी लेकिन प्रेमी भीड़ में ओझल हो चूका था ।कई दिनों तक रोती रही।विक्षिप्त सी हो गयी थी।
किस मुँह से वापस गाँव जाती इसलिए तब से प्लेटफ़ॉर्म पर ही रह रही थी|कभी जूठन ,कभी कोई बचा हुआ दे देता।रात के अंधेरे में यार्ड में खड़ी मालगाड़ी में सिपाही जी ने बंदोबस्त कर दिया था।शरीर को कमाई का ज़रिया बना लिया था |पहले ग्राहक सिपाही जी थे।पैसे के बदले आश्वासन दिया था - “एक दिन तुम्हारे प्रेमी को ज़रूर जेल भेजेंगे” 
रोज़ सिपाही जी नए दोस्त लाते...।एक दिन उभरे पेट को देख सिपाही जी ग़ायब हो गए।कुछ महीनों से सिपाही जी के दोस्त भी नहीं आ रहे थे।
भीड़ की तरफ़ दौड़ी थी ,फूलमणी !सिपाही जी भी मौजूद थे |धड़कनें तेज हो गई थी ...कचड़े में जानी पहचानी प्लास्टिक में बँधे नवजात की साँस अब तक चल रही थी।पूरे बारह घंटे के बाद भी दम घोटूँ बंधन नन्ही परि का बाल भी बाँका नहीं कर सका था|”सिपाही जी उसे उठा अस्पताल पहुँचा आए।
फूलमणी को ,आँचल के भीतर उमड़ी ममता को सँभालना मुश्किल हो रहा था,लेकिन आज फिर सिपाही जी आश्वासन और प्यार का तोहफ़ा बाँटने आ गए थे...।पेट की आग और शरीर की आग दोनों ने दोस्ती कर ली थी।

- सविता गुप्ता 
राँची - झारखंड 
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आग
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होली का समय था दहन के लिए गाँव मे होली लगाई जा रही थी कुछ शरारती लड़कों की एक टोली जिनके साथ राजीव भी रहता है ने मिलकर निश्चय किया कि होली दहन के दिन ही होली जलाने से पहले गाँव के समीप के गोबर के उपलों से बने बिटोडों मे से किसी एक मेआग लगायेंगे फिर होली दहन करेगे........
ऐसा ही किया गया जैसे ही आग बिटोडों मे लगी एक कुतिया तेजी से रोते हुए निकली लगातार रोते हुए घूमती रही. उसके तीन बच्चे आग का ग्रास हो चुके थे 
होली के ढोल बजने की आवाजों मे दब कर रह गयी उसकी आवाज होली दहन के अगले दिन जब किशनी उपले लेने गई तो तीन पिल्लों के कंकाल बिटोडों की राख मे देखकर दुखी मन घर आकर सभी को बताया निर्दोषों की मौत पर पूरा गाँव दुखी मन इस कृत्य की निन्दा कर रहा था अनजाने में हुए अपराध ने ऱाजीव व उसके साथियों के मन को झकझोर कर रख दिया. उन्होने उसी समय से बिना सोचे कोई भी कार्य न करने की शपथ ले ली उनका जीवन व व्यवहार पूरी तरह बदल गया था....!

- डा. प्रमोद शर्मा प्रेम 
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
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आग
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नीलिमा की जिंदगी एक मशीन की तरह हो गई। ना पक्षियों का मीठा कलरव उसे लुभाता था ना उसे प्रकृति के सौंदर्य से भी मन में कोई अनुभूति होती थी ना ही उसे बहती हुई नदी अपनी और आकर्षित किए जाती थी उसे यह लगता था कि दिन-रात बस व निरुद्देश भटक रही है जीवन तो है उम्मीद है.....
गीता का ज्ञान 'कर्म करते जाओ फल की चिंता मत करो', दूसरों को सलाह देना कितना आसान काम है । जिस पर बीती है वही समझता है । पतझड़ के बाद बसंत आता है बी पॉजिटिव किसी की तकलीफ देखकर सांत्वना मानो हर कोई देना अपना फर्ज समझता है। नीलिमा के सामने आज पहाड़ टूट पड़ा था उसे उसके बॉस ने बहुत बुरी तरह फटकार लगाई थी उसकी कोई गलती नहीं थी फिर भी उसे सिर्फ दूसरों के चापलूसी के कारण डांट सुननी पड़ी। वह ईमानदारी से अपना काम कर, चापलूसी नहीं करती थी।  
वह क्या करती?
2 बरस पहले ही उसके पति की मृत्यु हो गई थी ,उसके ऊपर अपने दो बच्चों की जिम्मेदारी है।
अपने बच्चों की पेट की आग बुझाने के लिए उसे नौकरी करना अति आवश्यक है। दो रोटी की भूख और गरीबी कितनी बड़ी चीज है, उस मजबूरी का धनवान लोग बहुत फायदा उठाते जा रहे हैं उसे यह बात समझ भी आ रही थी पर कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा ।
उसकी आंखों से आंसू बहे जा रहे .....।

- प्रीति मिश्रा 
जबलपुर - मध्य प्रदेश
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भूख की आग
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   एक पार्टी विशेष का आगामी चुनाव हेतू शक्ति परीक्षण एवम संभावना ओं की तलाश संबंधित कार्यक्रम रखा गया था।

    बाहर से वक्ता बुलवाये गये थे।आसपास के गाँवों से भीड़ इकट्ठी की गयी।सबको कहा गया था,भोजन के पैकेट और कुछ रूपये मिलेंगे।

   उन्हें बस में भर कर  लाया गया था।रावण भाटा मैदान में बड़े बड़े पंडाल लगाये गये थे।

    भीड़ बढ़ गयी थी।मेहमान देर से आये।फिर कार्यक्रम शुरु हो गया।धूप चढ़ गयी थी।पीने के पानी की यथेष्ठ व्यवस्था भी न थी।दो बज गये।भूख की आग के मारे लोगों की आँते अकड़ने लगी।

    थोडी देर बाद एक छोटी गाड़ी में भोजन के पैकेट लाये गये।भीड को पता चला तो झपट पड़े।कुछ को पैकेट मिल गये।कुछ  पैकेट फट गये।भीड़ के सामने पैकेट कम थे।सब हताश हो गये।

   मंच पर खड़े कुछ विशेष लोग यह दृश्य देख कर खुश हो रहे थे।उन्हें लगा कि इनकी यही भूख की आग आने वाले चुनाव में काम आने वाली  है।भूखे लोगों को आसानी से भरमाया जा सकता है।


- महेश राजा
महासमुंद - छतीसगढ़
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आग
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सब चिल्ला रहे थे आग आग पर किसी ने भी कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।इतने में सोहन बोला ये कैसी आग लगी थी किसी ने भी प्रतिक्रिया नहीं दी।दीपक पास ही खड़ा था तो तुरंत बोल उठा ये कोई आम आग नहीं है।इसे वतनपरस्ती की आग कहते हैं।इसमें प्रतिक्रिया से ज्यादा सय्यम चाहिए होता है।क्योंकि यह आग जोश के साथ साथ होश की भी फरमाइश करती है।इसीलिए सब शांत रहे।
      सोहन समझ गया और उस आग को अपने अंदर लेकर वहां से चले गया।अब वो जी तोड़ मेहनत करने लगा।उसे यह था कि अगर वतन के लिए जहन में आग है तो सैनिक बनकर ही वो आग प्रचंड की जा सकती है।फिर हुआ भी यही दो वर्षों बाद ही सोहन का सलेक्शन आर्मी के लिए हो गया।दीपक भी बहुत खुस था।
            अब सोहन को समझ में आया कि आग केवल भूख की ही नहीं बल्कि वतन की रक्षा की भी हो सकती है।अब वो उसी भूख को जी रहा था।

- नरेश सिंह नयाल
देहरादून - उत्तराखंड
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आग
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     आज से पचास साल पुरानी घटना हैं, जब मैं बारह साल का था, उस समय अधिकांशतः मकान मिट्टियों, कवेलूओं के हुआ करते थे, घर के आंगन में कुआं होते थे, बिजली नहीं थी, मिट्टी तेल से लालटेन की  रोशनी थी। मौहल्ले में भाई-चारा था, एक रौनकें थी। गर्मी का मौसम था, रात्रि के लगभग 9 भी नहीं बजे थे, अचानक बचाओं-बचाओं चिल्लाने, रोने की आवाजें आने लगी, घरों से सब दौड़ पड़े, देखते रह गये, जल्दी-जल्दी कुएं से पानी लाकर आग बुझाने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन समस्या का समाधान नहीं हो रहा था, आग की लपटें तीव्रता से फैल रही थी, उस परिवार के जन घर के अंदर ही थे, उस समय आग बुझाने की मशीन नहीं थी। हमारे पिताजी अचानक मकान के ऊपर चुपचाप पहुँच गये और आरी से बांस, बल्ली काटने लगे, ताकि आग दूसरी ओर प्रवेश नहीं कर सके, देखते-देखते आग को काबू में कर लिया और शेष आग को पानी से बुझा लिया गया, पिताजी के इस हुनर से उस परिवार जनों को बचा तो लिया, लेकिन पेट की आग को नहीं बुझा पायें, क्योंकि घर संसार का सब सामान तहस- नहस हो चुका था।

- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार "वीर" 
    बालाघाट - मध्यप्रदेश
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अनुभूति का ताप : लायब्रेरी
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पिता जी की तेहरवीं हो चुकी थी  सब अपने घर लौट गये थे !
बड़ी जिज्जी छुटक्की तो सुबह ही निकल गये थे । बड़ी बुआ भी आसुं पोछंती फूफा जी के साथ चली गई थी ।
मै पिताजी के कमरें में उनकी उपस्थिती को महसूस करने की गरज से  उनकी किताबो के सान्निध्य मे आकर बैठ गया ।
उनकी इस छोटी सी लायब्रेरी में बच्चो की नन्दन ,बाल भारती,चम्पक से लेकर  इस्मत चुगतई , तस्लीमा नसरीन से लेकर    मैत्रयी पुष्पा , महादेवी वर्मा , मृणाल पाण्डे । कौन सी ऐसी पुस्तक  थी जो न थी।  और हां रामायण ,गीता महाभारत तो उनकी मेज पर ही बीराजती।
किताबे   बिल्कुल उसी अनुशासन से रैक से झांक रही थी जैसे अभी पिताजी सहजता से निराला , सूर ,तुलसी  जो भी पढ़ने का मन करेगा  पढ़ने बैठ जायेंगे ।
कानो मे अब भी उनकी आवाज  जैसे गूंज रही है ।................
"चिंता करता हूं मै जितनी उस अतीत की ,उस सुख की,
उतनी अनन्त मे बनती जाती रेखांये दुख की..............l"
जब वो जयशंकर प्रसाद की कामायनी को बोल बोल कर पढ़ते तो मां जिज्जी से कहती" जा पिताजी को चाय दे आ वरना कवि गोष्ठी खत्म ना होगी"!...............!
तभी  भाई जी कमरे में आये  और  बोले "बता चुन्नु तेरी ट्रेन शाम को है न  पिता जी की तुझे जो समान देने को कहा था सब बाहर रखा है जा पैकिंग कर ले "।
" नही भैय्या"........ मैने उनका हाथ थामकर कहा !मुझे कुछ नही चाहिये बस मुझे उनकी ये किताबे, ये पूरी लायब्रेरी देदो भाई जी .............lवो समान लेकर क्या करूगां मुझे तो  बस पिता जी चाहिये वो इन किताबो मे बसे है"।...........l

- अपर्णा गुप्ता
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
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न्याय व्यवस्था 
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"आख़िर कब तक खाना नहीं खाओगी ,जब पेट में आग लगेगी तो अपने आप सीधी हो जाओगी ,,
'शारदा ज़रा देखना 'अपनी भारी कर्कश आवाज़ में कह ,महिला पुलिस ने ,उसके सामने थाली रखी और वहाँ से चली गयी ।शारदा जो सभी महिला 
क़ैदियों में उम्र में बड़ी दिखती थी और सभी क़ैदी महिला ओ की उलझनों को और झगड़ों को डाँट डपट कर सुलझाने में लगी थी ।नीमा के पास बैठ गयी उसे देखने लगी ।उसको देखता देख ,नीमा सिसकियाँ भरने लगी ।आँखो से दर्द का सैलाब आँसु बन बह निकला ।शारदा ने प्यार से उसके कन्धे पर हाथ रख दिया ।'बेटी कब तक रोती रहोगी ,कुछ खा लो ,क्या बात है ,क्या हुआ था ।सहानुभूति के शब्द सुन ,नीमा जैसे फूट पड़ी थी ।और बताती चली गई ।जब वो बारह बरस की थी ।माँ बापू के देहान्त के बाद चाचा ने उसको पास रख लिया ।कुछ समय तो ठीक रहा पर चाची ने मेरी पढ़ाई छुड़वा कर घर के काम कराना शुरू कर दिया ।बात बात में मारना पीटना शुरू कर दिया ।फिर एक दिन चाचा मुझे शहर में एक घर में छोड़ गये ।मैं वहाँ घर के सभी कार्य करती और वही एक कोने में जगह मिलने पर सो जाती ।चाचा हर मास आ कर मेरी पगार  के पैसे ले जाता था ।मालिक मालकिन का व्यवहार बहुत अच्छा था ।मालकिन ख़ाली समय में मुझे पढ़ाती भी थी ।सब ठीक चल रहा था ।एक दिन मालकिन के भाई घर पर आये ।जब रात मे मालिक ,मालकिन शादी में गये हुएँ थे ।मालकिन के भाई ने मेरे साथ ज़ोर ज़बरदस्ती करने की कोशिश की ।बहुत छुड़ाने पर भी जब वह नहीं माना तो मैने पीतल के फूल दान को उसके  सिर में मारा ओर मारती ही चली गयी ।
पुलिस आयी और मुझे खुन के जुर्म में पकड़ मुझे यहाँ ले आयी ।नीमा ज़ोर ज़ोर से रोने लगी ।शारदा की आँखों से आँसु की धार बह निकली ।उसने नीमा के सिर पर हाथ रखा ।'एक और शारदा '
क्या यही न्याय है ,क्या यही न्यायोचित निर्णय की व्यवस्था है। 'भर्रयायी हुई आवाज़ उसके मुख से निकल पड़ा।

- बबिता कंसल
 दिल्ली
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आग 
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'आखिर ऐसा क्या हुआ कि हमारे ऊष्मा भरे संबंधों में आग लग गई?' चंद्रावती बहिन ने रोते रोते अपनी पड़ोसन शशिकला बहिन से पूछा। ' हमारे पारिवारिक संबंध तो इतने प्रगाढ़ थे कि हम आधी रात को भी एक दूजे की सहायता करने में पीछे नहीं हटते थे। आखिर क्या गलती हो गई हमारे परिवार से कि आपके परिवार ने हमसे मुंह मोड़ लिया ' चंद्रावती बहिन यह पूछते हुए लगातार सुबक रही थीं। यह सुनकर शशिकला बहिन ने कहा कि जब मेरा पुत्र आपके घर आपके पुत्र के साथ खेलने आया तो आपका पुत्र स्कूल का गृहकार्य कर रहा था। आपने मेरे पुत्र को यह कहकर झिड़क कर आपके घर से भगा दिया कि तू खुद तो पढ़ाई -लिखाई करता नहीं है और समय -बेसमय हमारे घर में घुस कर हमारे बच्चे को भी अपने साथ पूरे दिन भटकाता रहता है। आपके इस तरह झिड़कने से हमारे बच्चे का दिल इस कदर टूट गया कि वह दो दिन तक लगातार रोता रहा और उसने ढंग से खाना भी नहीं खाया। यही वह घटना बनी कि इससे हमारा पूरा परिवार आहत हो गया और अपने संबंधों में आग लग गई। अगर उस दिन आपने हमारे बच्चे से प्रेमपूर्वक बर्ताव किया होता तो यह नौबत नहीं आती। सच बात है कि संबंध निभाने में प्रेम की ऊष्मा जरूरी है नहीं तो फिर संबंधों में आग लग जाती है।

- प्रो डॉ दिवाकर दिनेश गौड़
गोधरा -  गुजरात
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 आग
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बड़ी मुश्किल से रामू किसान ने खेत बटाई में लेकर गेहूं उगाया था। उसे पूरी आशा थी कि इस बार गेहूं पैदावार के बाद घर में बच्चों को खाने के लिए अनाज मिल सकेगा। लंबे समय से गरीबी पीछा नहीं छोड़ रही थी, उधर उनकी पत्नी कमली तथा बच्चे नए कपड़े चाहत रखते थे। स्कूल में पढऩे के लिए किताबों की भी जरूरत थी। रामू और उसका परिवार दिन-रात एक किए अपने खेत की देखरेख करता आ रहा था।
फसल पकी ,सारे परिवार ने मिलकर फसल कटाई की और परिवार आज खुश नजर आ रहा था। अगले दिन फसल पैदावार लेनी थी। सारा परिवार खुशी-खुशी घर आया। अचानक सूचना मिली कि उनके इक_े किए हुए गेहूं में आग लग गई है। इतना सुनकर राम के पैरों के नीचे की जमीन खिसक गई। भाग दौड़ कर देखा तब तक आग बहुत फैल चुकी थी। फायर ब्रिगेड को भी बुलाया गया। जी जान से पानी डालकर आग बुझाई किंतु बेचारे रामू की सारी फसल राख हो चुकी थी और रामू ने अपने सारे अरमान पल में खो दिए। धरती पकड़ कर बैठ गया। आंखों से आंसू बह रहे थे। आग का दृश्य उसकी आंखों के सामने से गुजर रहा था। उसकी पत्नी और बच्चे रुआसे  चेहरे से उसके पास पहुंचे और सभी ने रामू को मिलकर उठाया। कहा कि भगवान की मर्जी है। अगले साल फिर फसल उगाएंगे। हमें हिम्मत नहीं हारना चाहिए। इस बार हम और भूखे सही, अगले साल अपनी भूख मिटा पाएंगे।

- होशियार सिंह यादव
महेंद्रगढ़ - हरियाणा
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ममता और भूख से भुभूकती आग
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झूमकी  पास के गांव में ही ब्याही थी ! खुद का घर था, दस बीघा जमीन थी... घर का अनाज अपने खेत से ही पूरा हो जाता था !
शादी के छै महीने बाद अभी अभी तो अंकुराई थी! 

जीवन नैया सुखपूर्वक चल रही थी पर नियति को तो अपना खेल दिखाना था !
हमेशा की तरह इस बार भी समय से बीज बो दिये गये..... बादल बने आशा बंधती किंतु माटी गीली ना होती ! हाय रे किस्मत लगातार 2-3 वर्ष बारिश न होने से जमीन बंजर हो गई! 

कर्ज पे कर्ज --- साहुकार के पास सभी तो गिरवी चढ़ चुका था ! सास ससुर तो पहले ही चल बसे ... पति ने भी चिंता, कर्ज और बिमारी से मुक्त हो ईश्वर की शरण ले ली थी! 
परिवार बिखर चुका था ! झूमकी कर्ज के साथ साहुकार के घिनौने  इरादों को भी झेल रही थी ! 

आखिर कब तक.... पेट की आग भूख और मां की ममता की बेड़ी से जकड़ी एक मां को आखिर अजगर बन साहुकार ने लील ही लिया! 

तन की आग के सामने ममता संग लिपटी पेट की आग ठण्डी पड़ गई.....

            - चंद्रिका व्यास
           मुंबई - महाराष्ट्र
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आग
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 "केशव तुम्हारा आर्मी कैंप से फोन आया है। तुरंत बुलाया है"। केशव के पिता ने सूचना दी।  केशव जो कि कल ही एक सप्ताह की छुट्टी लेकर शादी के बाद की पहली होली मनाने घर आया था, वापस जाने के लिए अपनी सूटकेस जो कि अभी तक उसने अच्छे से खोली भी नहीं थी, बाहर लाने के लिए घर के अंदर की ओर मुड़ा। तभी माताजी ने कहा "बेटा होलिका दहन की पूजा पूरी करके ही निकलना"। अभी तक केशव जो कि शांति से अग्नि के सामने खड़ा बुराई पर अच्छाई की विजय की कामना कर रहा था अशांत भाव से धधक उठा और आग बाहर ही नहीं अंदर भी दहक उठी जिसने केशव को सीमा पर दुश्मनों का खात्मा करने के लिए बेचैन कर दिया।
 
- डाॅ शैलजा एन भट्टड़ 
बैंगलोर - कर्नाटक
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विरहाग्नि 
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सीमा और राजू की शादी को तीन महीने हुए कि राजू को जीविकोपार्जन हेतु बाहर जाना पड़ा l सीमा परिवार में ख़ुशी ख़ुशी काम करने के बाद भी अपनेआप को अकेली महसूस करती l रात को नींद नहीं आ रही थी, वह चाँद से बतिया रही थी और उसकी आँख से झर झर पानी बहने लगा l
  ए चाँद, तुम मन ही मन मेरी दशा देख क्यों इतरा रहे हो l मुझे लगता है इस संसार ने तुम्हारे विषय में झूँठ ही कहा है कि तुम शीतलता देते हो पर सच्चाई कुछ और ही है l तुम मुझ जैसी कितनी विरहा की तड़पन पर मुस्करा रहे हो तुमने कितनों के जग जीवन में आग लगाई है l मत इतराओ मन में और उसे नींद आ गई l
  
    - डॉ. छाया शर्मा 
    अजमेर - राजस्थान
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बुढापे की लाचारी 
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“बाबा,चलो सोने। बहुत रात हो गई। घर में सभी सो गये हैं | देखिए, घूर का आग भी बुझ गया |” तगार में घंटों से जल रहे घूर के सफेद राख को लकड़ी से हिलाते हुए रोशन ने आहिस्ते से कहा । 

“ थोड़ा रूको, पहले इस राख को बाहर बरामदे के छज्जे के नीचे फैला देता हूँ ..|”

“ इतनी रात को...ठंड में.. बाहर ? बाबा, आपको अगर ठंड लग गयी ना तो पापा से डांट सुनना पड़ेगा ।”

“अरे, गुस्साता क्यूँ..है? तुरंत हो जाएगा | लोहे की बाल्टी में राख उठा कर देता हूँ , जरा वहाँ पहुंचा दे| अपने बूढ़े बाबा को मदद कर।” बाबा ने पुचकारते हुए कहा ।

“ओह! इसी फ़ालतू काम के चलते आपको पापा से दो बातें सुननी पड़ती है ! ”

“पिद्दी भर का है और गुरु-घंटाल जैसी बातें करता है।चल, पकड़ बाल्टी |” बाबा ने उसके हाथ में राख भरा बाल्टी थमाया ।
“ पहले बताइए, राख का होगा क्या ?”
“ रे...गद्दा बनेगा |”
“हा..हा..हा...राख का गद्दा...?” पोते ने ठहाका लगाते हुए कहा ।
“ सुनो, हमलोग अभी बिस्तरे पर जाकर रजाई ओढ़कर सो जायेंगे । लेकिन जरा बाहर देखो, बूढी गाय छज्जे के नीचे कैसे खड़ी है ! रात भर ठंड में वो कठुआती रहेगी ! अब तू ही बता , हमें क्या करना चाहिए ? “
“लेकिन ..ये तो पड़ोस वाले शर्मा अंकल की गाय है ?फिर आप इतने परेशान क्यों हो रहे हैं ?” रोशन ने चिढ़ते हुए बाबा से जवाब मांगा |
“हाँ..हाँ..उन्हीं की गाय है | बूढी हो गई..अब दूध नहीं देती ! इसलिए बेचारी मारी फिरती रहती है ! ” 
“ बाबा, मुझे पता है जानवर को अधिक ठंड नहीं लगती ! अब जल्दी से सोने चलिए... सबेरे स्कूल जाना है मुझे । ” 
“ बाहर शीतलहर चल रहा है।कोहरे से हाथ का हाथ नहीं सुझ रहा है! देखो, हमलोग देह पर कितना कपड़ा लादे हैं...| फिर भी ठंड के कारण घंटों से घूर ताप रहे हैं और ये...बेचारी, ठंड में बाहर ...! 
पहले जब यह दूध देती थी तो इसके देह पर बोरा बंधा रहता था । अब दूध नहीं देती है, तो ठिठुर रही है! मालिक को इसका कोई परवाह ही नहीं है , कहाँ गयी!
खैर! अब चलो, राख को वहाँ फैला देते हैं..और इसके ऊपर से बोरा बिछा देंगे, बन जाएगा गद्दा । तब हमारी तरह यह भी गद्दे पर सो जाएगी ।” वहीं पड़े कुछ पुराने बोरे को समेटते हुए दोनों बाहर बरामदे के पास पहुँच गये |
रोशन जैसे ही राख भरी बाल्टी को छज्जे के नीचे उड़ेलने लगा, उसकी नजर कंपकपाती बूढी गाय पर पड़ी । वह तुरंत भागता हुआ अपने कमरे में पहुँचा । वहाँ बिस्तर पर बिछे कंबल को झटके से खींच कर बाहर खड़ी गाय के ऊपर लाकर ओढ़ा दिया | 
बूढी गाय की आँखें डबडबा गईं। मानो वो बाबा से कह रही थीं ... ” फ़िक्र मत करो, " तुम्हारे बुढापे की लाचारी को तुम्हारा पोता भली-भाँती समझेगा |” 

- मिन्नी मिश्रा 
पटना - बिहार
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पेट की आग
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हाड़ कंपाती ठंड में,अधनंगा बदन नंगे पैर रिक्शा खींचते उस बूढ़े से पूछ ही लिया
 उसने," बाबा इस भीषण शीतलहर में आप 
कैसे जीवन बिता रहे है?"
"पेट की आग के सहारे बाबूजी"। रिक्शा चालक छोटा सा उत्तर देकर आगे बढ़ा गया था।

- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
    धामपुर - उत्तर प्रदेश
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आग्नेय
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 पड़ोसी देश का कर्म- धर्म, असत्य समझौता, आतंक का भय, निरीह जनता को गोलियों का शिकार बनाना हद से बाहर हो चुका था।
                           कई नवयुवक बात कर रहे थे- कब तक देश सहेगा??? बदला लेना चाहिए।
                  अगले दिन समाचार सुनकर सब भौचक्के थे कि चुनिंदा टीम रातों-रात दुश्मन के आतंकी अड्डों को ध्वस्त कर लौट आई है ।
              यह क्या सारा देश एक दूसरे से चर्चा करता फूले ना समा रहा था। वहीं एक सुगबुगाहट आग की तरह सबको अंदर ही अंदर जला रही थी कि हमारे विंग कमांडर सहित एक एयर विमान दुश्मन की गोली से ध्वस्त होकर उसी के इलाके में गिर गया था।
            दुश्मन की गिरफ्त में होने पर भी देश की खुफिया जानकारी लेने की प्रताड़ना पर भी उसका गर्वीला अंदाज -" मैं एक फ्लाइंग हिंदू पायलट हूँ"।  उसके यह शब्द दुश्मन के लिए आग के शोले थे। पर उसकी सूझ बूझ से भरे उसके जोशीले उत्तर उसे आग के मुंह से निकाल कर अपनी धरती पर बाइज्जत वापस लौटा लाये।
  यह सुन सबका समवेत स्वर गूंज उठा --"ऐसे व्यक्तित्व का अभिनंदन है। जय हो, जय हो।"
  
-  डाॅ.रेखा सक्सेना 
 मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश 
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आग 
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"मुग्धा, तुम्हारी बेटी अब तक घर नहीं आयी?"- तृप्ति ने ऊँचे स्वर में पूछा।
वो ना जाने कबसे त्रिशा के बाहर जाने के टाइम पर नजरें रखी हुई थी !
" हाँ, पता नहीं कहाँ रह गई ये लड़की !
"पूजा के लिए फूल लाने पास के पार्क में जा रही हूँ", कहकर निकली थी मगर पता नहीं, वापस घर आने में इतनी देर कैसे लग रही है?"- मुग्धा ने चिंतित स्वर में जवाब दिया।
इतने में तृप्ति ने शब्द-बाण दागा - "शाम का वक्त है, सूरज डूब चुका है,
कहीं पूजा के लिए फूल लाने के बहाने किसी लड़के से मिलने तो नहीं चली गई त्रिशा?"
मुग्धा के माथे पर किशोरवय बेटी को लेकर चिंता की लकीरें खींच आयी।
-"नहीं, नहीं...मेरी बेटी ऐसी नहीं है !"
तभी तृप्ति ने फिर से मुग्धा के मन में शंका रूपी आग लगाई-" अरे, अब बच्चे उम्र से पहले सयाने हो रहे हैं !
माता-पिता को भनक तक नहीं लगती और आज की युवा पीढ़ी ना जाने कैसी-कैसी तालीम सीख कर आ जाते हैं, उस पर त्रिशा तो तुम्हारी सौतेली बेटी है !
कुछ ऊँच-नीच हो गयी ना तो तुम्हारी ही छिछलेदारी होगी समाज में"
मुग्धा अपनी पड़ोसन के विचारों को सुनकर घबरा उठी और जल्दी से बाहर आकर त्रिशा की खोज में पार्क जाने के लिए चप्पल पहनने लगी तभी देखा कि सामने से त्रिशा चली आ रही थी।
मुग्धा की त्यौरियाँ चढ़ गयी, तुरंत ही क्रोध भरे स्वर में बोली-" कहाँ गई थी?
फूल लाने में इतनी देर लगाता है कोई?"
"वो मैं मम्मी"- त्रिशा मुग्धा को गुस्से में देखकर हकला गयी।
मुग्धा ने त्रिशा की बात सुने बिना उसके गाल पर जोर से तमाचा जड़ दिया।
त्रिशा की आँखें छलछला आयी।
-"मम्मी, मैं फूल लेकर आ ही रही थी कि पार्क में एक बुजुर्ग आंटी को कराहते देखा, पार्क में सैर करते वक्त उनका पैर फ़िसल गया था और घुटने पर चोट लग गई थी, अंधेरा होने लगा था,आस-पास कोई मदद करने वाला भी नहीं था तो मैं उन आंटी को कॉलोनी के डॉक्टर साहब के यहाँ लेकर गयी और फिर वहीं से उनके घर कॉल किया।
इस वज़ह से मुझे घर लौटने में देरी हो गई"- त्रिशा ने सिसकते हुए सारा वाक़या बताया।
मुग्धा को यह सुनकर बहुत पश्चाताप हुआ...
-"मैं भी कितनी मूर्ख हूँ जो किसी के बहकावे में आकर इतना आपा खो बैठी कि बच्ची की पुरी बात सुने बिना ही उस पर हाथ उठा दिया !"
"सॉरी बेटा, दूसरों की बातों को सुनकर मुझे अपने ही दिये संस्कारों पर भरोसा नहीं रहा"- जलती हुई आँखों से मुग्धा ने तृप्ति को देखा तो वो नजरें चुराती हुई वहाँ से खिसक गई किसी और घर में आग लगाने !

- सुषमा सिंह चुण्डावत
  उदयपुर - राजस्थान
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दहशत की आग 
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     गंगाराम अगहन-पूस मास की ठंडी रातों में आग जला कर हाथ ताप कर पूरी रात अपनी फसलों की खेत- खलिहान में रखवाली करता था। घास-फूस को जलाकर आग तापना उसके मृतप्राय शरीर में संजीवनी भर देती पर आज इसी आग की छोटी सी चिंगारी ने विकराल रूप धारण कर लिया था।
    तेज पछिया हवा के झोंके ने खेत में सूखे फसलों तक  चिंगारी को पहुंचा दिया। देखते ही देखते चिंगारी आग की तेज लपटों में परिवर्तित हो गया। पल भर में ही तेज आग से पके हुए रबी की फसल धू-धू कर जलने लगा।
    गंगाराम जिस फसल की पहरेदारी के लिए आग जलाकर रात भर जगता था वही फसल उसकी आंखों के समक्ष जल रहे थे। वह मदद की गुहार में चिल्लाए जा रहा था। गांव के लोग जुट कर आग बुझाने का अथक प्रयास कर रहे थे पर आग बेकाबू हो चुकी थी।
    कई एकड़ फसल  देखते-ही-देखते जलकर राख हो गई। यह दहशत की आग गंगाराम के साथ ही ग्रामीणों के सपनों को जलाकर राख कर दी थी। छ: महीने की मेहनत पर पानी फिर चुका था। पेट की आग कैसे बुझेगी- यह बात गरीब को खाये जा रही थी।****
    
                          - सुनीता रानी राठौर
                          ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
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कैसी आग
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महानगर से पहुंची तीन युवतियों ने धर्मशाला में सबसे मंहगा कमरा लिया ।
फिर निकल गई शिकार की तलाश में ।धर्म नगरी कहां मिलता ।
एसी खराब का बहाना बनाकर बुला दिया चौकीदार ।सीधा फरमान कर लो इच्छा पूरी ।नहीं तो व्यवस्था करो।
बेचारा मरता क्या न करता ।
 जैसे तैसे पीछा छुड़ाकर भागा।आज भी सवाल उसके दिमाग में बार बार उठता है कि कैसी आग जो किसी के भी हंसते खेलते परिवार को बरबाद कर दे। ****

 - शशांक मिश्र भारती 
शाहजहांपुर - उत्तर प्रदेश
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आग
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"अरे बड़ी दीदी ! तुम्हारी टाँग का ऑपरेशन हो गया अच्छा हुआ । तुम्हारे को देखने आयी हूँ। हमारी सोसाइटी कोसरोना की आग फैल रही है।
तीन परिवारों ने कोरोना पाज़िटिव आने पर घर में 14 दिन के लिए क्वारीनटाइन किया है।"
   "मेरा तो आपरेशन सही समय पर हो गया ।अच्छा , अभी तो मुम्बई कोरोना हब बन गया है।
लोगों को कोरोना डर नहीं रहा था , लापरवाही  का
नतीजा है. पूरा देश इसकी चपेट में फिर आ गया है।पिछले साल के  2020 का मार्च से ज्यादा तबाही इस मार्च में आयी है ।"
 " ठीक कह रही हो बहन। श्मशान में लाशों की कतारें  बिछी हैं । सगे संबधी  अपने भी  शवों को आग 
के हवाले  करने से , अंतिम संस्कार करने से डर रहे हैं "। 
    "कैसे मानव जाति जिंदा रहेगी ?"
  "बहन कोरोना प्रोटोकॉल का पालन करना है , दो गज की दूरी और मास्क लगाना जरूरी है। भीड़ से दूर रहे।
ठीक है दीदी हम सुरक्षित तो देश सुरक्षित रहेगा। टेस्टिंग भी जरूरी है।"
 " लो दीदी मास्क ,  डॉक्टर बेटी  ने अपनी  मोसी के लिए दिए हैं। "
  "नेकी औऱ पूछ-पूछ । हर नागरिक मास्क पहनेगा तो कोरोना की आग खुद ही बुझ जाएगी।"
  
- डॉ मंजु गुप्ता 
मुंबई - महाराष्ट्र
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सास की समझदारी
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नववधु कामिनी की ससुराल में आज मुँह दिखाई का कार्यक्रम चल रहा था। परंपरा के अनुसार दहेज में आये सामान को भी पड़ोस की महिलायें देख रही थीं और अपनी मानसिकता के अनुसार टिप्पणी भी कर रही थीं।
सिर पर लंबा घूंघट किये, कामिनी के कान अचानक खड़े हो गये, जब उसने एक महिला का स्वर सुना, " रमेश (कामिनी के पति का नाम) की माँ बहू तो कुछ भी दहेज नहीं लायी है और जो लायी भी है वह भी कुछ खास नहीं लग रहा। अभी कुछ दिन पहले प्रधान जी की बहू दहेज में इतना सामान लायी थी कि सारे गाँव ने मुँह में उंगली दबा ली थी। उस महिला की बात का कुछ और महिलाओं ने भी समर्थन किया। 
कामिनी समझ गयी कि यह महिला उसके वैवाहिक जीवन में 'आग' लगा रही है परन्तु नववधु कुछ बोल कहाँ पाती है। वह तो अब अपनी सास की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा कर रही थी, कि इस आग की लपटें कितनी ऊँची उठती हैं।
"बहन जी! ये जो सामान आप देख रही हैं, यह दहेज नहीं है।" रमेश की माँ ने जो कहा उसका अर्थ कामिनी सहित कोई महिला समझ नहीं पायी। 
कामिनी की सास ने आगे कहा...."हमारे परिवार को कामिनी के वधु रूप में जो कोहिनूर हीरा मिला है वही हमारा असली दहेज है। यह सामान तो कुछ दिन में पुराना हो जायेगा। परन्तु हमारी सुशील बहू के गुण दिन-प्रतिदिन निखरते जायेंगे और हमारे घर को सुन्दर उपवन बनायेंगे। 
अपनी सास की बातें सुनकर कामिनी का हृदय हर्ष की अनुभूति से भर गया और वह समझ गयी कि पड़ोसन की लगायी आग पर उसकी ममतामयी सास ने अपने विचार रूपी शीतल जल का छिड़काव कर उस 'आग' की लपटें उठने से पहले ही ठंडा कर दिया। 

- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
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ललक की आग 
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दसवीं कक्षा में प्रवेश के बाद से ही स्मिता का मन उचाट हो रहा था। उसे मालूम था कि बोर्ड की परीक्षा होगी और उसे कठिन श्रम भी करना पड़ेगा।
जुलाई-अगस्त के महीने निकल चुके थे। उसके पास समय कम था। एक दिन मम्मी पापा ने उसे बुलाया और उसे अपने पास बिठाकर बोले “स्मिता इस वर्ष तुम्हारा दसवीं बोर्ड है। तुम बड़ी निश्चिंत दिखती हो, चलो तुम्हें एक अच्छी कोचिंग क्लासेस ज्वाइन करा देते हैं।” स्मिता निरुत्तर थी तभी मम्मी बोलीं “स्मिता अपने अंदर लक्ष्य के प्रति आग पैदा करो, ललक पैदा करो। यह ललक कि आग ही तुम्हें दसवीं में ही नहीं सारी जिंदगी आगे बढ़ाएगी। इस आग को अपने मन-मस्तिष्क में जलने दो। चलो तैयार हो इस मिशन में हम तुम्हारे साथ हैं।”स्मिता मम्मी की बात सुनकर मुस्करा दी थी।

- प्रज्ञा गुप्ता
बाँसवाड़ा - राजस्थान
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आग
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जैसे ही रजनीश ने शिखा की चिता में आग लगायी, शिखा जैसे अतुल्य जी की कानों में चीख उठी......"बहुत गर्म है पिता जी , मैं जल जाऊँगी ।"वे चौंककर उधर देखने लगे ।तब तक प्रचण्ड अग्नि ने शिखा की सम्पूर्ण चिता को अपने आगोश में ले लिया ।
       शिखा उनकी इकलौती संतान थी।पत्नी की मृत्यु के पश्चात उन्होंने ही उसकी परवरिश माता-पिता दोनों बन कर किया था।दो साल पहले शिखा ने रजनीश से प्रेम विवाह किया था ।वह चाहते थे कि पहले वो रजनीश को अच्छे से परख लें,फिर उसके साथ शिखा की शादी करें ।पर शिखा की जिद के आगे उनकी एक न चली।एक साल तक तो यह शादी ठीक ठाक चली, एक साल बाद उन दोनों में  खटपट शुरू हो गयी।
     एक दिन वे शिखा के घर उससे मिलने गये।उन दोनों में नयी मोटरसाइकिल खरीदने के लिए बहस चल रही थी।शिखा का कहना था कि एक दो महीना रूक जाते हैं ।कुछ पैसा इकट्ठा हो जाता है तो फिर कुछ बैंक से लोन लेकर नयी मोटरसाइकिल खरीदते हैं ।लेकिन रजनीश रूकने को तैयार नहीं था 
      अतुल्य जी ने चेक काटा और रजनीश को देकर कहा,"जाओ मोटरसाइकिल खरीद लो।" रजनीश खुशी से झूम उठा । लेकिन शिखा का चेहरा मुरझा गया।वह बोल उठी," पिताजी आपने मेरे घर में चिनगारी लगा दी है ।यह चिनगारी मेरे घर को जला देगी।"
     सच में शिखा का अनुमान सही निकला ।अब रजनीश को जिस चीज की इच्छा होती ,वह अतुल्य जी के पास चला जाता ।अतुल्य जी बेटी के घर की शांति के लिए उसके माँग को पूरा कर देते।शिखा को यह सब पसंद नहीं था।वह रजनीश को मना करती ।लेकिन वह नहीं मानता ।अंत में उसने अपने पिता को कसम दी कि वो उसकी मांगो को पूरा न करें ।उसे निकम्मा एवं गैर जिम्मेदार न बनाये।अपनी मांग पूरी न होने पर रजनीश अब सारा गुस्सा शिखा पर उतारने लगा ।अतुल्य जी बेबस थे ।वे चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहे थे।एक शाम वे इसी चिंता में बैठे थे कि खबर आयी कि शिखा ने खुद पर पैट्रोल छिड़ककर आग लगा लिया है और अस्पताल में अंतिम सांस गिन रही है ।अतुल्य जी को विश्वास नहीं हुआ कि शिखा ने खुद को जला लिया है ।जब वो छोटी थी तब यदि वो चूल्हे पर तुरन्त फूली हुई रोटी उसकी थाल में डालते तो वह चिल्ला उठती,"पिताजी, इतनी गर्म रोटी, मैं तो जल जाऊँगी ।"
      भरी आँखो से वो जलती हुई चिता को देखने लगे।उनकी कानों में शिखा की चीख गूंजने लगी, बहुत गर्म है पिताजी, मैं जल रही हूँ ।"
    अतुल्य जी अपने को रोक न सके।उनके कदम पुलिस थाने की ओर बढ़ चले।
                 -  रंजना वर्मा उन्मुक्त
                  रांची - झारखंड
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युवा सरपंच
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पलास के फूल का सौंदर्य न जाने कहाँ खो गया है । लगातार शहरीकरण से गाँवों पर भी प्रश्न चिन्ह लग रहे हैं । भू जल का अभाव ,नदियों का सूखना , पर्यावरण प्रदूषण ,ये सब चिंतनीय है ; ऐसा गाँव के प्रधान जी चौपाल पर कह रहे थे । 
तभी रामरती ने कहा " इस बार हम लोगों ने युवा सरपंच इसीलिए चुना है कि वो नए तरीकों का उपयोग करके गॉंव में खुशहाली लाए । देखो न पड़ोस के गाँव में हमेशा से जो तालाब और कुएँ सूखे रहते थे वो इस बरस कैसे भरे हुए हैं । 
उसकी हाँ में हाँ मिलाते हुए सरयू काका भी कहने लगे , देखो बेटा तुम्हारे भरोसे ही इस बार हम लोग बैठे हैं । अच्छे बीज और वो क्या कहते हैं ऑर्गेनिक खाद  भी दिलवा दो । जिससे खूब फसल हो, अबकी बार कोई भूखा न रहे । पेट की आग से बड़ी कोई आग नहीं होती । 
सबकी बातें धैर्य से सुनते हुए विनय ने कहा जी काका हम लोग मिलकर इस बार उन्नत तकनीकों का प्रयोग करेंगे । गाँव के सभी लोगों का साथ इसी तरह मिला तो जल्दी ही आप सब के सपनों को नए पंख मिलेंगे । 
इस बार सबके घरों में चूल्हे जलने चाहिए , भुखमरी का कष्ट जीते जी आग में जलने के समान होता है , उदास स्वर से रामरती ने कहा ।
हाँ काकी ,ऐसा ही होगा । इस बार सबको भरपूर फसल मिलेगी । 
हम लोगों को  अपने आस पास खूब पेड़ पौधे लगाने होंगे, तभी मौसम भी अच्छा रहेगा और तपन भी कम लगेगी और शरीर भी स्वस्थ रहेगा । जब सब अच्छा होगा तभी तो हम मेहनत के कार्य कर पायेंगे ।
तो बस तय हो गया ,हम लोग मिलजुल कर इसे सबसे अच्छा गाँव बनायेंगे ,सरयू काका के साथ-साथ सभी ने कहा ।
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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आग और अंगारे
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होली दहन के बाद दूसरे दिन रमा सुबह जाकर वहाँ से  कुछ अंगारे लेकर आई ,चूल्हा जलाने के लिए। वह यह रस्म काफी सालों से निभा रही थी । आँगन में एक तरफ उसने छोटा सा चूल्हा बना रखा था  । होली दहन के अंगारों को जला कर उसने आग जलाई और खुद के लिए चाय बनाई । चाय बन जाने पर रमा आग  को बड़े गौर से निहारने लगी।
रमा के पति ने आकर  हँस कर पूछा,- "बन गई तुम्हारी चाय और हो गई तुम्हारी सदियों पुरानी रस्म पूरी। अपनी बीमारी का ख्याल भी नहीं है तुम्हें।" रमा ने गंभीर होकर कहा ,- "ये बस आखरी होली दहन की रस्म है। आग तो आग है ये गैस के चूल्हे में जले या मिट्टी के चूल्हे में। पर ..."
"वही तो मैं भी तुम्हें समझाना चाहता था पर तुम नाहक ही ये रस्म रिवाज निभाने में लगी हो ।" रमा के पतिलघुकथा ने हँस कर कहा ।  "तुम 'पर' कह कर क्यों रुक गई ?" रमा के पति ने उत्सुकता से पूछा।
रमा ने गंभीरता से कहा, - "आग के महत्व को समझना बहुत जरूरी है । एक अंगारे से ये जल उठती है और अंगारे पर ही जाकर खत्म भी हो जाती है । होली की इस पवित्र आग का भी अपना महत्व है जो जीवन और मरण की प्रतीक है। यह कह कर रमा चुप हो गई।
रमा के पति उसके इशारे को समझ गए और चूल्हे की आग को अपने अंदर महसूस करने लगे।
- आभा दवे
मुंबई - महाराष्ट्र
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एक आग ऐसी भी
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           माँ की मृत्यु की खबर सुन आनन-फानन में किरण मायके पहुँच गयी थी और माँ की मृत देह से लिपटकर रोती रही। फिर अचानक संशय से भर कर पूछ बैठी, 
   "ये  कैसे हो गया भाभी…? माँ के शरीर में पूजा के दीपक से कैसे आग लग गयी ? माँ ने तो पूजा-पाठ भी छोड़ दिया था …?" 

"क्या बताऊँ… सब मेरी गलती है। कल माँजी ने कहा कि पापाजी की बरसी है तो एक दीपक जलाकर सिरहाने के टेबुल पर रख दो। मैंने उनकी भावनाओं का ख्याल रखते हुए उनकी बात मान ली। काश! मैंने उनकी यह बात न मानी होती"… कहकर भाभी प्रिया इतनी फूट-फूटकर रोने लगी कि किरण स्वयं को भूल भाभी को चुप कराने लगी, 
   " अब होनी को कौन टाल सकता है भाभी, आप गिल्ट फील न करें।  माँ के साथ इतना ही साथ था हमारा। हमें अपने आप को संभालना होगा। भईया-भाभी! माँ के अंतिम संस्कार में होनेवाले खर्चों में मैं भी कुछ सहयोग करना चाहती हूँ ... कहकर किरण दूसरे कमरे में रखे अपने पर्स से पैसे लेने के लिए कमरे से बाहर निकली, तभी उसे कुछ याद आया और वापस कमरे में घुसने ही वाली थी कि उसे भाभी की दबी हँसी सुनाई दी। वह दरवाजे के बाहर खड़ी हो गयी।  भाभी भइया से कुछ कह रहीं थी, पता नहीं क्या सोचकर किरण ने अपने मोबाइल का रिकार्डर आन कर दिया… 
   "देखा मेरी योजना का कमाल! साँप भी मर गया और लाठी भी न टूटी। कहाँ ये बूढ़ी सारी संपत्ति बेटी के नाम करनेवाली थी और हमें फूटी कौड़ी भी देने को तैयार न थी। वो तो अच्छा हुआ कि कल रात मैंने प्रापर्टी के पेपर पर उनका अंगूठा लगवा लिया था फिर उसके बाद पूजा के दीपक में ढेर सारा घी डालकर कमरे में जला आयी थी और आते-आते उनकी साड़ी का आँचल दीपक पर गिरा गिरा दिया था। दीपक की आग ने हमारा बाकी काम कर दिया। किसी को अनुमान भी न होगा कि बहू को किचन में जलाने वाली आग की लपट उल्टी भी हो सकती है!  "
" लेकिन इतना बड़ा कदम उठा लोगी, मैं सोच भी नहीं सकता था। आखिर मेरी माँ थी वो! न चाहते हुए भी मुझे अपना मुँह बंद रखना पड़ेगा …। " 
 … 'यह तो भइया की आवाज है… इस चुप्पी की कीमत तो इन्हें भी चुकानी ही पड़ेगी… ' 
  और बिना एक पल गँवाए किरण मोबाइल में पुलिस स्टेशन का नंबर मिलाने लगी।
              
         - गीता चौबे गूँज 
             राँची - झारखंड
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कैसा फर्ज 
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               राम लाल हर रोज की तरह सुबह सैर को निकले। वह प्रति दिन सूर्य की पहली किरण, (लालिमा )के साथ घर की वापसी करते।लेकिन आज पूरब दिशा में पहाड़ियों के ऊपर सूर्य के नीचे तेज़ लालिमा देख राम लाल को समझते देर न लगी कि किसी सिरफिरे ने अपना जुर्म छिपाने के लिए जंगल में आग लगा दी है क्योंकि जंगल में कीमती वृक्ष है जो वन विभाग की मिलीभगत से काट कर आग लगा कर मुद्दा गायब कर दिया जाता है। 
               राम लाल सोच ही रहा था कि अब क्या करूँ। पक्षियों का क्रन्दन सुनाई देने लगा।बहुत सारे पक्षी आग से बचने के लिए इधर उधर भाग रहे थे। राम लाल के पास फोन भी नहीं था----'अब क्या करूँ। आगे एक किलोमीटर की दूरी पर पुलिस चौकी है--'वह पूरी समर्था से उधर की ओर चलने लगा। राम लाल की सांस फूलने लगी।लेकिन उस ने हिम्मत नहीं हारी।बस एक ही जुनून शक्ति दे रहा था कि बेजुबानों को बचाना है। 
               बड़ी मुश्किल से हांफते हुए राम लाल पुलिस चौकी पहुँच गया। वहां तैनात पुलिस कर्मियों से वह बोला,",मेहरबानी करके जल्दी से फायर ब्रिगेड को बुलाएं---बहुत से बेजुबान आग में झुलस कर दम तोड़ रहे हैं। "
             बाबा, आराम से बैठिए। धैर्य रखिये---रही बात आग की,वो तो कभी पूरब और कभी पशिचम में लगी ही रहती है। इस में हम कुछ नहीं कर सकते। अपने आप लगी है और अपने आप बुझ जाएगी।राम लाल ने विनती की, कि मुझे वन विभाग के अफसर से बात करवायें। पुलिस कर्मी बड़े धैर्य से  गहरी मुस्कुराहट से बोला,बाबा जी लाख कोशिश कर लीजिए, इस समय साहब का फोन बंद ही आएगा।  इतना कह कर पुलिस कर्मी चलता बना ।राम लाल नि:सहाय हो कर वहीं बैठ गया। 

- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप-  पंजाब
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आग
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निक्की एक छोटा सा बच्चा, लेकिन होंसले बुलंद, शैतान इतना कि सबके नाकों दम कर रखा था।
पढ़ाई में तो अव्वल था ही पर क्रिकेट में भी उस्ताद, लेकिन घर वाले क्रिकेट के खिलाफ, पर क्रिकेट के लिए जुजून दिल में एक आग क्रिकेट के लिए ।
सबके खिलाफ जा कर पढ़ाई के साथ साथ क्रिकेट मैच भी खेलता रहा , ऐसे में सर्वोच्च खिलाड़ी का खिताब अपने नाम करते हुए राज्य की टीम में शामिल हो कर अपना और सबका नाम रोशन किया । 
आगे राष्ट्रीय टीम में शामिल होने के सपने के साथ आगे बढ़ते हुए निक्की काफी उत्साहित नजर आ रहा था लेकिन उसका सपना यहीं तक का था घर वाले उसे वापिस ले आए तथा उसे घर के व्यापार का कार्यभार सौंप दिया।
निक्की अपने पारिवारिक दायित्वों को निभाते हुए क्रिकेट को काफी पीछे छोड़ आया पर दिल में एक अधूरे सपने की आग ने उसे आधा अधूरा सा बना दिया था । अब तो वह दूसरों के सपने पूरे करने में सबकी मदद करता सिवाय क्रिकेट के । 
बस सबको अपनी कहानियां सुनाता उनके सपने को पूरा होते देख खुश होता और खुद अपने अधूरे सपने को याद कर उसकी की आग में अंदर ही अंदर जलता रहता।

- मोनिका सिंह
डलहौजी - हिमाचल प्रदेश
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पेट की आग
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तिनका -तिनका जोड़कर यहां हम सब की झोपड़ियां बनी थीं।  हाय रे ! आफत वाली आंधी ने हम सब को पुन: बेघर कर दिया। ना जाने कहाँ से उड़कर आई एक छोटी सी चिंगारी ने आग का विशाल रूप ले लिया।  सब कुछ  जल कर राख  हो गया । जली राख में बड़ी आशा से गोलूआ कुछ खोज रहा था कि शायद कुछ तो अधजले समानों में खाने को कुछ  मिल जाए। 
वो तो ऊपर वाले की मेहरबानी थी,  कि शाम का समय था । सब खेल -कूद कर रहे थे। कुछ तो अभी काम से वापस भी नहीं आए थे,  कि अचानक ऐसी विपदा आ कर  सब  स्वाहा कर गई।
चलो जान बच गई  हम सब की।  समान भले ना बचा हो।
वैसे भी हमारी झोपड़ी में कौन सा कुबेर का खजाना पड़ा था?
हाँ ,भाई बात तो सही है , लेकिन अब हम बिन छत रात कहाँ?
बाबा ---मैंने सुना है सरकार मुआवजा देती है ऐसे पीड़ितों को,,,अरे नहीं बिटिया ये सिर्फ कहने की बात है, वर्ना कौन हम गरीबों की सुनता है।
नहीं-- बाबा हमें  एक बार प्रयास तो करनी चाहिए ना।
गोलूआ भूख से बेचैन, बेहाल अपनी माँ को झकझोरते हुए माँ झोपड़ी की आग तो बुझ गई, मगर हमारे पेट में लगी आग कैसे बुझेगी? 
माँ आशान्वित नजरों से अभी- अभी मैट्रिक अच्छे नम्बरों से पास बिटिया की कही बाते सुन बोल उठी- ' हाँ ! बेटा कोशिश करने में बुराई हीं क्या है --बताओ आगे क्या करना है।
माँ-- मैंने जिलाधिकारी को अपनी आपातकालीन स्थिती बताते हुए फोन कर दिया है । उन्होंने कहा है वो आ रहे है अपनी टीम लेकर ।
बिटिया तुम्हारे पास उनका न0 ?
हाँ -माँ  मैंने नेट पर खोज लिया।
आज अपनी योग्य और पढ़ाई में अव्वल बिटिया पर माँ को गर्व हो रहा था और शिक्षा की महत्ता का आज विशेष महत्व समझ आ रहा था सभी को रौशनी की बातें सुनकर। 
तभी आवाज लगाती गाड़ियो का काफिला आ गया। डीएम साहब खुद भी जायजा लेने आ गए। 
आप सब आज से सामने वाले सरकारी स्कूल में रहें,  जब तक यहां उचित व्यवस्था न हो जाए रहने की, और  आपके भोजन की भी व्यवस्था की गई है।
जिस लड़की ने मुझे फोन पर  इसकी सूचना दी थी, वो कहाँ है ?
सारी बस्ती वाले एक साथ खुशी से चिल्लाते हुए ---हमारी बस्ती की सबसे होनहार बिटिया रौशनी ने। 
आज रौशनी की सूझ बुझ से हमारी चिंता की आग शांत हो गई। 
आपका बहुत-बहुत धन्यवाद डीएम साहब सबने एक साथ खुशी से सर झुका लिया।

- डाॅ पूनम देवा
पटना - बिहार
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