साहित्यकार युगल जी की स्मृति में कवि सम्मेलन

जैमिनी अकादमी द्वारा साप्ताहिक कवि सम्मेलन इस बार " रेत "  विषय लेकर फेसबुक पर   रखा गया है । जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के कवियों ने भाग लिया है । विषय अनुकूल कविता के कवियों को सम्मानित करने का निर्णय लिया है । सम्मान साहित्यकार युगल जी के नाम से रखा गया है ।
युगल जी का जन्म 17 अक्टूबर 1925 को दीपावली के दिन मोहिउद्दीन नगर (समस्तीपुर )  बिहार में हुआ है । इन की शिक्षा बी.ए.ऑनर्स , हिन्दी साहित्यरत्न, डिप्लोमा शिक्षा आदि हैं ।
इन की 12 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं ।जिसमें तीन उपन्यास , दो निबंध , तीन कहानी संग्रह , तीन नाटक सहित किरचें , जब द्रौपदी नंगी नई हुईं , फूलोंवाली दूब , गर्म रेत , पहाड़ से आगे प्रकाशित लघुकथा संग्रह है । फलक पत्रिका का सम्पादन किया है । इन के दो कविता संग्रह प्रकाशित हुए हैं । इन की मृत्यु 26 अगस्त 2016 को हुई है ।
रचना के साथ सम्मान भी : -
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रेत
***
          
रेत के घर
क्यों बनाते हैं।
वे तो पल भर में ही 
 बिखर जाते हैं।
लकीरों का खेल कहाँ चलता 
रेत के ठिकानों में । 
कुछ दिन तो गुजारो
रेगिस्तान के मकानों में। 
हवा का रुख भी 
रेत पहचानती है। 
किस तरफ को चलना 
वह जनती है। 
रेत पर कदमों के निशान 
ज्यादा नहीं टिकते। 
बहार न आने के दाग 
रेत से नहीं मिटते। 

- गजेंद्र कुमार घोगरे 
वाशिम - महाराष्ट्र
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रेत 
***

रेत सरीखा समय हाथ से फिसल रहा है 
यह बात जो समझ रहा वो सँभल रहा है 

अनभिज्ञता नादानी या अहम में हो कोई 
नैन खुले तो भीड़ से बचके निकल रहा है 

एक बिषय चर्चा है सभी उम्र के लोगों में 
घरों में रहना  बाहर कोरोना टहल रहा है 

जीने की चाह में, मर जाने की ख़बरों को 
अख़बारों में पढ़ कर ये दिल दहल रहा है 

नयी धारणाओं ने बदला है सारा कुछ ही 
जन्म मृत्यु का नियम नही पर बदल रहा है 

नित नई पुरानी मान्यताओं के बीच द्वन्द है 
निडर हुआ नही बाप से बेटा बहल रहा है 

वर्तमान से क्या क्या सीखा बता अनाड़ी 
तेरा क्या है जिसके बलबूते उछल रहा है 

- डॉ भूपेन्द्र कुमार 
धामपुर - उत्तर प्रदेश
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महासंग्राम 
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बारिश , बाढ़ , तूफान 
लाए कुदरती  क्रोध कहर 
रेतों के टीले
ध्वस्त होते 
सड़कें  , नाले बनी नदी , तालाब 
नदियाँ प्रलय मचाती
आक्रोशित समुद्र में छाया ज्वार ही ज्वार 
रेतीले तटों  की 
मर्यादाओं को लाँघ 
तटबंध  तोड़े 
घुस जाता  हर स्थानों ,घरों में जल 
होता फिर सर्वनाश का खेल  
जलमय होती जल क्रीड़ाएं 
हुए तभी 
जलयानों पर नाविक , जन , चेतना 
अनहोनी से भयभीत 
लहरों का महासंग्राम 
उत्क्रांति का ताण्डव 
विध्वंस त्राहि का साम्राज्य 
असुर सा शैतान 
बनता बिगड़ता सृष्टि का राग - ताल 
प्रचण्ड , अधम , उदण्ड आसमान छूती लहरें 
करने लगी सृष्टि विध्वंस 
अमंगल , अमर्यादित हुआ विधि विधान 
कलह , कोलाहल , विनाश , नाश 
शांति कहाँ 
वीर रस आवेश लिए 
रण भू भाग बन जाता 
लेता भेंट, बलि  हर क्षण 
खेलता खूनी फाग 
सुनामी बन जाता 
लील लेता जिंदगियां 
प्रलय , विनाश को 
हे मानव तू  जाग !
न   कर कुदरत से खिलवाड़ ।

 - मंजु गुप्ता 
 मुंबई - महाराष्ट्र
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बढ़ते कदम
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जिंदगी क्यों रेत सी बहती चली जाती दिखे ।
पंख उड़ने को मिले फिर भी न मुस्काती दिखे ।।

बाँधकर अपनी उड़ाने सोच सीमित तुम न करना
मन में हिम्मत धार कर ही तुम सदा पीड़ा को हरना ।।

गीत ग़ज़लों से निकलकर छोड़ विज्ञापन की दुनिया ।
ये जगत कब से तुम्हारा शब्द थामें बढ़ना मुनिया ।।

हो सभी की तुम दुलारी, हो परी पापा की प्यारी ।
पुष्प बन महको जगत में तुम कली सुंदर हमारी ।।

महल ढहते रेत वाले तुम नहीं हो रेत के सम ।
तुमसे उम्मीदें हैं मेरी रोकना मत ये कदम ।।

- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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रेत
***

रेत सा फिसलता रहता ,
बेदर्द वक्त बंद मुट्ठी से ,
फिर भी मन में है मचलती,
आसमान की उमंगे ।
रेत के टीले की सी ,
ढहती हुई  जिंदगानी ,
फिर भी मानव की उम्मीदी देखो।
 बस एक मुट्ठी देह में ही ,
 हमें आकाश जैसे मन संवरते ।
नैनों की  नन्ही सी कोठरी में
गगनचुंबी ख्वाब पलते ।
 रेत तू तो रेत  ही ठहरी  न ,
कब बन सके  हैं तेरे महल ।
एक तिनका उड़ा देता है तेरा वजूद ।
फिर भी तेरे मिलों लम्बे ऊँचे गुंबद।
 जगाते हैं एक अजीब सी उम्मीद।
 हवा के साथ उड़कर ,
ऊंचाई को छू लेने की तेरी जिजीविषा ।
शायद यही है जीवन व्यथा ,
यही है तेरी मेरी कहानी भी ।
तेरी  यही मौन अभिव्यक्त ,
ही  है संवेदना  तेरी ।
और तेरे हौसले की उड़ान भी ।
तेरा वजूद है कितना नाजुक,
 और कितना शक्तिशाली भी ,
जब तू अपने बवंडर से ,
ले उड़ती है पूरी की पूरी बस्तियां।
 परन्तु ये भी  बदनसीबी ही है 
रेत के घर  सजाने वालों की ।
कि जब जब जगी उम्मीद ,
कोई जलजला बहा ले गया ,
रेत का घर हो  महल ।
 जिंदगी में मचल कर 
रह जाती है किसी मासूम की ,
 फिर भी उम्मीद नहीं छोड़ती दामन।
 फिर से तलाशती  है जीवन ।
 शायद  यही है मंथन ,
यही है यही दर्शन जीवन दर्शन ।

- सुषमा दीक्षित शुक्ला
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
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 रेत
***

रत्नाकर और रेत का
बहुत घनिष्ठ है नाता
एक दूजे के बिन रहना
 दोनों को नहीं आता! 

रेत कहे सिंधु कभी
किसी को नहीं अपनाता 
अपनी प्रेयसी लहरों संग
उसको गोद में मेरी दे जाता !

 यौवन की मस्ती में लहरे
   सागर को है लांघती 
जब जब बहका लहरों का यौवन
     थाम उसे मैं लेती! 

कहे रेत रुकती नहीं मैं
 किसी के रोके
समय की तरह फिसलती  हूं
फिर भी, रत्नाकर तेरे प्रेम में बंध
लहरों को समतल राह दिखाती हूं! 

 - चंद्रिका व्यास
 मुंबई - महाराष्ट्र
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जीवन रेत सा फिसला जाए
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रेत की इमारतों पर खड़ा है आज मानव। 
स्वयं के आस्तित्व को ढूंढ रहा है मानव।। 
कोरोना ने गिरा दिए रेत के सारे महल, 
विवश इसके आगे हुआ है आज मानव।। 

आहों कराहों से भरी जिन्दगी सिसकती है।
मुट्ठी में भरी रेत सी जिन्दगी फिसलती है।। 
रेत के दरिया में चंद पानी की बूँदो की तरह, 
आज ये जिन्दगी मंहगी कितनी मिलती है।। 

रेत के कणों सा बिखर रहा है आज जीवन। 
त्राहि-त्राहि कर भटक रहा है आज जीवन।। 
जागती आँखों को चंद सपनों की तलाश है, 
अपनी लाश स्वयं  ढो रहा है आज जीवन।। 

कोरोना का पाप तो कम नहीं किसी तरह। 
धरा मरुस्थल बनायी मनुज ने जिस तरह।। 
रेत की नींव बनाकर इतराता था बहुत जो, 
उसी रेत के भंवर में डूबा मानव इस तरह।। 

बिखरे रेत कणों को अब समेट ना पाओगे। 
अब भीं ना संभले तो रेगिस्तान हो जाओगे।। 
मानवता के कणों से सींचो धरा को वरना, 
रेतीली धूल में मनुज तिनके से उड़ जाओगे।। 

- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'
देहरादून - उत्तराखंड
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रेत 
***

कहाँ 
आसान है
चलना 
रेत पर
मंजिल 
के लिए 
पर सभी 
के लिए
नही 
कुछ तो
होते ही 
है जिन्दगी
भर रेत 
पर चलने
के लिए 
जबकि
हर समय 
वह फिसलती
है पैरो
तले से 
पर उनकी
जिजीविषा 
मात देती 
है निष्ठुर 
रेत को
पा जाते है
मंजिल 
मुश्किल 
हालात मे भी
कर्मयोगी 

- डॉ. प्रमोद शर्मा प्रेम 
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
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रेत
***

रेत होना,बनना
नहीं होता आसान।
पहाड़ों से कण कण 
टूटना होता है श्रीमान।
तब कहीं जाकर
बनती है रेत।
जिसके मिश्रण से
उपजाऊ होते खेत।
कभी देखिए नदी
किनारे के खेत।
दूर तक फैली 
रेत ही रेत।।
खरबूजे और
तरबूज की फसल।
कितने मीठे होते हैं
रेत में उगे ये फल।‌
सीमेंट के साथ बिना रेत
मिलाए, मजबूती नहीं आती।
नदी मानव हितार्थ ही
रेत छोड़ आगे बढ़ जाती।
रेत, हमें जीवन का 
बड़ा पाठ पढ़ाता है।
टूटना,पिसना, बिखरना
बहुपयोगी बनाता है।

-  डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
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रेत की तरह 
*********

कोई कितना भी कहे 
अपने मन की करते जाना 

भले समय अनुकूल नहीं 
हवा का रूख मोड़ते जाना 

दिखे कहीं  दुख जो किसी का 
रेत की मानिंद बिखरते जाना 

अश्रु आएँ तो सहेज लेना उन्हें 
अधरों पर सदा हँसी ढूँढ लाना 

जीवन तेरा तेरे लिए भी तो है 
किसी के लिए यूँ ही न गँवाना 

नफरत दिखे उगती हुई जहाँ 
वहाँ प्रेम के पौधे जा लगाना 

- डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
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रेत
***

रिश्तों की रेत की 
  दीवारें खड़ी कर
    पूछते हैं कैसे 
     संवारें मान्यवर

कुछ अहं में
 कुछ वहम में
  और कुछ पाने
    हथियाने के कर्म में

धराशायी हो गई
  गिर के यारो
   ये तो पलते हैं
    बच्चों से

रूठो मनाओ
  हंसो हँसाओ
   कोई बात दिल में
    कड़वी या छेद

करने वाली भी
  नहीं पालते
   केवल टालते
    क्योंकि समय तो

मुठी में रेत की
  जीवन की तरह है
   क्या ले जाना 
     क्या दे जाना

जख्म तो दुश्मन
   होते हैं
    मरहम तो रिश्ते
     होते हैं

अपनाओ बनाओ
  जितना लगाओ
    उतना नरम 
       होते हैं

अकड़ने में टूटना
  जकड़ने में छूटना
    मनाने में रूठना
      मनुष्य की प्रकृति है

क्रोध तो पछतावा है
  तूफानों को देखा है
    रेत के टीलों को
      बदलते हुए

रिश्तों में सब मिला
  फिर भी सबर नहीं
    वर्षों की सोचते हैं
       बदलने के लिए

ये सोचा नहीं
  घड़ी निर्बाध है
   अभी चूक गए तो
     पल की खबर नहीं

रेत कंकड़ सीमेंट
  बनाते हैं
   कंक्रीट जंगल
    जहाँ जीव उगते नहीं

मिट्टी में मिलके
  देखो यारो
   प्यार सह अस्तित्व में
     सब उगता दिखता है

रेत तो रेत है
  अकेले नहीं
    पकड़ पाता है
      जड़ों को

धूल पानी में घुल
  कीचड़ बन कर
    कमल बन उगना 
      पड़ता है यारो ।।

 - डॉ. रवीन्द्र कुमार ठाकुर
बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश 
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रेत सी है ज़िन्दगी
**************

रेत सी है ज़िन्दगी
चमकती सी फिसलती सी

सोने सी चमकती
चांदी सी दमकती
जीवन रुपी मुठ्ठी से
शनैः- शनैः सरकती सी

रेत सी है ज़िन्दगी
चमकती सी फिसलती सी

लम्हों में डोलती
सांसों को तोलती
रिश्तों में झूलती
चुपके से बिखरती सी

रेत सी है ज़िन्दगी
चमकती सी फिसलती सी

- संगीता राय
पंचकुला - हरियाणा
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रेत
 ***

बेचैनी में जीवन बीता ज्यूं उड़ती हो रेत
महामारी में जगत बन गया इक बंजर खेत
खंडित खंडित मनुज हो गया खुले पड़ें हैं वेश
महामारी में जगत बन गया इक बंजर खेत।

    दिल टूटे हैं हिम्मत खोई
    अश्क हैं सूखे आंख न रोई
   कथनी करनी अलग ही तो थी
   वही है काटी फसल जो बोई
लुट गया है चमन रे भाई अब तो तू चेत 
महामारी में जगत बन गया इक बंजर खेत।

    रहस्य का पर्दा अब खुला है
   जागो तभी से सवेरा हुआ है
   कुदरत का अब जतन करो सब
   बोधपाठ ये प्राप्त हुआ है
कुदरत का जब रक्षण करोगे बरसेगा तब हेत 
महामारी में जगत बन गया इक बंजर खेत।
बेचैनी में जीवन बीता ज्यूं उड़ती हो रेत
महामारी में जगत बन गया इक बंजर खेत।

- प्रो डॉ दिवाकर दिनेश गौड़
गोधरा  - गुजरात
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 रेत      
**

जिंदगी बंद मुठ्ठी फिसलती रही
रेत ज्यों, हम देखते ही रह गये

रोशनी भीड़ में है पिघलती रही
मोम ज्यों, देखते ही हम रह गये

रात आती रही, साँझ ढलती रही
जिंदगी मचले मौत आगोश में

बालू रेत घरोंदा बनाया जहाँ
देखकर लहरों ने मिटाया उसे

प्रतिकूल हवा, बवंडर उठा
तहस नहस किया, सृजन है हँसे

बालू रेती चमके, मृग तृष्णा व्याकुल
नव जीवन का खेल बार बार देखे

धोरे ने देखा मन में वातसल्य जगा
  मगन जिंदगी हो गयी बालू रेत में

अमृतमयी बनी  है विनाश छाया
मुस्कराता ध्वँस, सृष्टि हँस है उठे 

 - डॉo छाया शर्मा
अजमेर - राजस्थान
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मुट्ठी में बंद रेत सी जिंदगी
********************

मुट्ठी में बंद रेत सी,
 फिसल रही जिंदगी।
इधर संभालूं या उधर,
हर ओर बिखरती जिंदगी।
रेत के घरौंदे सी ,
क्षणभंगुर होती खुशियां।
उबर नहीं पाती है पर,
गम के सागर से जिंदगी।
फिर भी हार नहीं स्वीकार,
भींच कर मुट्ठियां अपनी,
संजो लेती हूँ बहुत कुछ,
गीली रेत सी खुशियां।
नहीं छोड़तीं साथ मेरा वो,
जब तक है रफ्तार में जिंदगी।

- रश्मि सिंह
राँची - झारखंड
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रेतीले साज
*********

चलो प्रिये सागर किनारे,
चंद पलों को जी लें।
ले हाथों में हाथ नंगे पाँव, 
नर्म मुलायम सुनहरे रेत पर चलें।

बुने ज़िन्दगी के ख़्वाबों के सागर,
बहा दे सारी परेशानियाँ शोर में 
सागर के लहरों सा आते जाते 
सुख दुख संग संग जी ले।

आओ मरुस्थल पर फैले,
रेतीले साज पर चलें हम।
क़दम से क़दम मिला दूर तक,
मिटा दें ग़मों के निशान रेत सा।

शंख पीठ पर ढोते रेत पर,
उन जीवों से सीखें जीना।
जीवन देकर भी दे जाते,
निशानी अपनी प्यार की।

सविता गुप्ता 
राँची - झारखंड 
==================================
निशान रेत के
***********

चली जा रही हूँ मैं 
अनंत की ओर
दिखता नहीं जिसका 
कहीं ओर छोर। 

उम्मीद है कि मेरे कदमों के निशाँ 
आने वाली पीढ़ी को राह दिखाएंगे, 
भटक भी जाऊँ कहीं तो ये निशान ही 
मेरी पहचान बन मेरी याद दिलाएंगे। 
पर कब तक?
कब तक रह पाएंगे ये निशान? 
रेत की आंधी चलते ही 
मिट जाएगी यह पहचान। 
यह जीवन भी उतना ही क्षणभंगुर है, 
जितना रेत पर पड़े हुए निशान। 

सच कितना मुश्किल होता है न? 
अपने अस्तित्व को 
परिस्थितियों की आंधी से बचाए रखने में, 
सफलता के दीप को संघर्ष के थपेड़ों से 
उम्मीद की ओट कर जलाये रखने में। 

पर जब तक है, पदचिन्हों की स्पष्टता मायने रखती है, 
क्षणभंगुर सफलता की दृढ़ता 
मायने रखती है। 

रुकें नहीं तब तक अनवरत प्रयास 
करते जाएं, 
सफलता के पथ पर पदचिन्ह बनाते हुए 
आगे बढ़ते जाएं। 
                  - गीता चौबे "गूँज" 
                     राँची - झारखंड
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रेत के घरौंदे
**********

 रेत के घरौंदे कभी स्थाई नहीं होते,
क्षण मात्र की खुशी के सुखदाई होते ।
 जरा सा धक्का लग जाने मात्र से ही,
बिखरकर  वे तो चूर चूर हो जाते।

जिंदगी भी है रेत के  घरौंदे की तरह,
मानव जीवन रहता ठीक उसी तरह।
कोई ठिकाना नहीं कब क्या हो जाए?
बेतरतीब हो जाती वह भी उसी तरह।

हर चीज का अपना महत्व होता है,
 जरूरत पर रेत का भी महत्व होता है।
मकान बनाने में काम आती है रेत,
  धूप पड़ने पर "सक्षम" चमकती है रेत।

नदियों के किनारे बहुत मिलती है रेत,
गंगा तट की पवित्र मानी जाती है रेत।
राजस्थान में बहुतायत से मिलती है रेत।
 अरब देशों में  तेल का स्रोत है रेत।

  - गायत्री ठाकुर सक्षम
 नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
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रेत
**

रेत का घर बनाने से क्या फायदा ।
वेग पानी का आये और ढह जायेगा ।
व्यर्थ मेहनत गयी हाथ आया न कुछ ।
काम बेढंग करे तो फिर क्या पायेगा ।।
चांदनी रात में ये रेत चमके गजब ।
बिन लवण स्वाद भोजन में न पायेगा ।।
मृग मरीचिका बनी रेत यह है अजब ।
प्राणी संसार मे सुख कहां पायेगा ।।
- राजेश तिवारी 'मक्खन'
झांसी - उत्तर प्रदेश
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रेत
****

समय का वो रेत सा फिसल जाना,
याद है रेत में वो तेरा नंगे पैरों भागना,
समंदर का किनारा था,
तुम्हारे अरमानों का भी,
तब बावरा मन शीर्ष पर था,
उदगार भावों का तब,
मन से रेत सा फिसल रहा था,
याद है ना कैसे तुमने ,
रेत में सने हाथों से ,
मेरा हाथ पकड़कर दबाया था,
कुछ कहना था तुम्हें मुझसे,
या इशारा कुछ और था,
सचमुच रेत सा फिसलकर,
वो समय हमको ,
घर लौटने का शायद,
इशारा कर रहा था,
रेत में सने पैरों के,
अब निशान पीछे छूट रहे थे,
हम तुम अरमान दबाए,
अपने घर को निकल रहे थे।

- नरेश सिंह नयाल
देहरादून - उत्तराखंड
============================
रेत
***

न जाने क्यों रेत की तरह निकल जाते हैं,
हाथों से वो लोग जिन्हें जिंदगी समझकर
हम कभी खोना नहीं चाहते।।

रेत पर नाम कभी लिखते नहीं,
रेत पर नाम कभी टिकते नहीं,
लोग कहते हैं कि हम पत्थर दिल हैं
लेकिन पत्थरों पर लिखे नाम 
कभी मिटते नहीं।।

- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखंड
=================================


Comments

  1. कवि सम्मेलन में उपस्थित कवियों का सम्मान| यदि तुम भोजन कर चुके, मैं दे दूं तुम्हें पान| |लेकिन भैया ख्याल रख, थूंकना नहीं, खुली जगहों पर|
    कोरोना आया शबाब पर, बीमारी अब हर लमहों पर||जहाँ चले कवि सम्मेलन, साबुन, बाल्टी सामने रखना|
    हर कविता पर सेनेटाइज, बार- बार खुद को करना||कविता कोरोना की सुनाना, जनता पीटेगी तालियाँ| देर रात को घर आने पर, देती पत्नी गालियाँ|•
    सुबह उठेंगे लेट कवि जी, चाय☕ मिलेगी ठंडी|बीबी कहेगी, जरा उतारो सैंया जी अपनी बंडी| गए थे कवि सम्मेलन में तुम, जो रुपये तुम लाए हो|मटक-मटक के सुनी है तुमनें, गीत रात में गाए हैं|•

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