वरिष्ठ कथाकार युगल जी की स्मृति में लघुकथा उत्सव

भारतीय लघुकथा विकास मंच द्वारा इस बार  " लघुकथा उत्सव "  में  " रेत " विषय को फेसबुक पर रखा गया है । जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के लघुकथाकारों ने भाग लिया है । विषय अनुकूल  अच्छी व सार्थक लघुकथाओं के लघुकथाकारों को सम्मानित करने का फैसला लिया गया है । सम्मान प्रसिद्ध कथाकार युगल जी के नाम पर रखा गया है । 
युगल जी का जन्म 17 अक्टूबर 1925 को दीपावली के दिन मोहिउद्दीन नगर (समस्तीपुर )  बिहार में हुआ है । इन की शिक्षा बी.ए.ऑनर्स , हिन्दी साहित्यरत्न, डिप्लोमा शिक्षा आदि हैं ।
इन की 12 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं ।जिसमें तीन उपन्यास , दो निबंध , दो कविता संग्रह ,तीन कहानी संग्रह , तीन नाटक सहित किरचें , जब द्रौपदी नंगी नई हुईं , फूलोंवाली दूब , गर्म रेत , पहाड़ से आगे प्रकाशित लघुकथा संग्रह है । फलक पत्रिका का सम्पादन किया है । इन की मृत्यु 26 अगस्त 2016 को हुई है ।
लघुकथा के साथ सम्मान भी : -
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किसको किसकी जरूरत
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तीन से चार साल पहले गर्मी के मौसम में इस इमारत का निर्माण कार्य आरम्भ हुआ था और वर्ष 2020 में जून महीने के अंत तक कार्य समाप्ति कर उद्घाटन करने का विचार था।
बड़े-बड़े उद्योगपतियों, नेताओं, बिज़नेसमैन इत्यादि के फ्लैट बन रहे थे,इस बहुमंजिला इमारत में।
जब से निर्माण कार्य शुरू हुआ था, मजदूरों ने एक दिन भी चैन की सांस नहीं ली थी।
भरी गर्मी में वे रेत, सीमेंट और ईंटों का बोझ ढोते।
ठेकेदार का आदेश था कि जल्द से जल्द निर्माण कार्य खत्म हो ताकि तय समय पर उद्घाटन किया जा सके।
कई मजदूरों की भीषण गर्मी की वज़ह से तबियत भी खराब हुई लेकिन निर्माण कार्य में कोई शिथिलता नहीं आयी।
गर्मी में लू बजती मगर फिर भी मजदूरों ने रेत की तगारियाँ सर पर उठाकर काम को गति प्रदान की... बारिश के मौसम में कड़कड़ाती बिजली और मुँह पर कोड़ों की तरह बरसते पानी के बीच भी निर्माण कार्य चलता रहा तथा सर्दी के समय मजदूरों के ठिठुरते हाथों ने ईंटें ढ़ोयी।
 सभी मज़दूर जी-तोड़ मेहनत कर रहे थे कि तभी कोरोना महामारी के चलते सभी जगह लॉकडाउन लग गया !
कार्य ठप्प हो गया !
मजदूरों के सामने खाने, पीने, रहने की भयंकर समस्या उठ खड़ी हुई।
मजदूरों ने मार्च, अप्रैल माह जैसे-तैसे गुजारे लेकिन लॉकडाउन और लंबा खिंचता ही चला गया।
विवश होकर मजदूरों के प्रतिनिधि ने इमारत बनाने वाले ठेकेदार से विनती की-"मालिक हम लोगों के रहने के लिए इमारत के कुछ फ्लैट खोल दिये जाये ताकि इस महामारी में निवास हेतु इधर-उधर भटकना नहीं पड़े।"
ठेकेदार ने दिलासा दिया और कहा-"मैं फ्लैट्स के मालिकों से पूछ कर तुम्हारे रहने की व्यवस्था करवाता हूँ।"
मगर अफ़सोस !
कोरोना पीड़ितों के लिए दान-पुण्य करने, सहायता सामग्री वितरित कर अपनी फोटो खिंचवाने वाले नेता, अभिनेता, व्यवसायी...
सभी एक स्वर में मुकर गये !
उनके अनुसार "कीमती फ्लैट्स मजदूरों के रहने की वज़ह से खराब हो सकते थे।"
मजदूर ये सुनकर हतप्रभ रह गये।
-"इस इमारत के निर्माण में रात-दिन मेहनत कर पसीना बहाया, मगर आज जब हमारे सिर पर छत का इन्तज़ाम करने की बारी आयी तो सबने हाथ खिंच लिये !"
व्यथित मजदूरों ने मिलकर एक निर्णय लिया और उसके बाद कोई भी मज़दूर उस इमारत के बचे हुए निर्माण कार्य को करने के लिए तैयार नहीं हुआ !
जल्द ही ख़ूबसूरत मगर पथरीली इमारत रेत, सीमेंट, ईंटों से युक्त एक अधूरा ढाँचा मात्र बनकर रह गयी ! ****


- सुषमा सिंह चुण्डावत
 उदयपुर - राजस्थान
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जलकुकड़े
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      रेत से खेला तो जा सकता है बेटा, पर रेत के महल नहीं बना करते....आज रह-रह कर अमोल को अपने सम्बन्धियों की कही यह बात याद आ रही थी।
            जब भी वह कोई नया काम करता तो सब उसे ऐसे 
देखते जैसे वह कोई अपराध कर रहा है। पूछाताछी और जासूसी का दौर चल पड़ता। उनके लिए तो वह उदंड, जिद्दी, शैतान और कहना न मानने वाला बच्चा था बस। 
            तथाकथित अपनों के इसी दोहरे ईर्ष्यालु व्यवहार ने जैसे उसमें यह कूट-कूट कर भर दिया था कि तुम मुझे जितना निम्न स्तर का आँकते रहोगे उतने ही काम के नए रास्ते मेरे लिए बनते जाएँगे जिन पर चल कर मैं सफलता की नयी परिभाषा लिखता रहूँगा।
                आज अपनी सूझबूझ, प्रबंधन और शक्ति से वह अपने पिता को यमराज से भी वापस ले आया था। उसने दिखा दिया था कि रेत के महल नहीं बना करते पर यदि ठान ले कोई तो विश्वास, धैर्य, संकल्प, दृढ़ इच्छाशक्ति से उसी रेत में सीमेंट, बजरी और पानी मिला कर बहुत कुछ बनाया जा सकता है।****

- डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
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माता-पिता 
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राहुल प्रतीक को गहरी चोट आ गई है। राहुल विद्यालय से प्रतीक की शिकायत आ रही है।  राहुल आज क्रेश  में प्रतीक को सही खाना नहीं खिलाने से उसकी तबीयत खराब हो गई है। आए दिन सीमा, राहुल को फोन कर करके परेशान करती। राहुल की शुरू से इच्छा थी कि, उसके माता-पिता उनके साथ ही शहर में रहे। लेकिन गांव छोड़ते वक्त सीमा ने कह दिया कि वह शहर माता-पिता को साथ नहीं ले जाना चाहती है। राहुल की नौकरी ऐसी थी कि महीने के दस 10 दिन वह बाहर ही रहता था अतः सीमा को पाँच साल के बेटे प्रतीक के साथ कई कई दिनों तक अकेला ही  रहना पड़ता था।  सीमा भी अपनी नौकरी के चलते प्रतीक के प्रति अपनी जिम्मेदारियां अच्छे से वहन नहीं कर पा रही थी। सीमा  जो की रेत पर अपना मकान  बनाने चली थी कुछ ही दिनों में उसे आटे दाल के भाव मालूम हो गए।  खुद आगे से फोन करके उसने माता-पिता को शहर आने की विनती की। आज 10 वर्ष बीत चुके हैं इस निर्णय से सीमा का न सिर्फ घर मजबूत हुआ वरन प्रतीक एक बहुत ही संस्कारी बच्चा बनकर भी सामने आया है। अब सीमा के घर की जड़े मजबूत हो चुकी हैं । घर में सभी फल-फूल रहे हैं। ****

- डाॅ शैलजा एन भट्टड़ 
बैंगलोर - कर्नाटक
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 रेत 
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कमली तसले में रेत भर सिर पर तसला उठाती है और सीमेंट रेती मिक्स करने वाले मशीन में डालती  है, जहां एक लड़का पहले ही खड़ा रहता है जो उसमे पानी डालने का काम कर रहा है! 
सूर्य की तपती धूप... पसीने से तरबतर अपने साड़ी के पल्लू से पसीना पोंछती हुई फिर तसले में रेती लेने जाती है! 
दूर दूसरे  रेत की ढेरी में कमली के बच्चे अपना घर ढूँढ रहे थे! कमली ने अपने बेटे को आवाज लगाई....
भीखू धूप खूब तेज है ,रेत भी गरम हो रही है मुन्नी को लेके उते छांव में बैठ.... उसे बच्चों की चिंता हो रही थी!  समय रेत की तरह फिसला जा रहा था! 
    12.30 बजे खाने का वक्त
कमली ने कपड़े में बंधी रोटी और उबले नमक वाले आलू निकाल भीखू के सामने रखती है और मुन्नी  को भी खाने को कहती है! 
रोटी का कौर दांतों से चबाती हुए कागज की नाव के जैसे कमली सपनों की नदी में पति की यादों संग बहने लगी.....  शंकर एक फैक्टरी के मालिक का ड्राइवर था... साथ ही वॉचमेनी भी करने लगा क्योंकि मालिक ने रहने की भी जगह फैक्टरी में कर दी थी! 
खाना, रहना और पगार गुजारा अच्छा चल रहा था ! सुखी जीवन था !
एक दिन मालिक की जान बचाते शंकर ने वफादारी दिखाते हुए अपने प्राण त्याग दिये! 
करीबन पंद्रह दिनों के बाद मालिक ने सहानुभूति दर्शाते हुए कुछ मुआवजा मेरे हाथों में देते हुए कहा नया वॉचमेन आ गया है.... तुम्हें यहां से जाना होगा! 
मालिक की कृतज्ञ हूं जिन्होंने बेगारी का यह काम दिलाया जहां मजदूरों के रहने के लिए महल से कुछ दूरी पर उनका आशियाना बनाया ! शंकर की यादों में डुबकी लगा ही रही थी तभी भीखू ने कहा मां काम का समय हो गया..... हां! 
हड़बडा़कर बाहर निकलते हुए कहती है ये समय भी कैसे रेत की तरह फिसलता है... 
भैया मां क्या कह रही थी? 
कुछ नहीं.....  सपना देख रही थी टूट गया! 
कैसे भैया? 
अपने बनाये रेत के घर जैसे..... 

- चंद्रिका व्यास
मुंबई - महाराष्ट्र
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रेत में आशा की कोंपल 
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" आह! मेरा पूरा शरीर फफोलों से भर गया है। गर्म रेत की तपन बर्दाश्त के बाहर है…" मर्मांतक चीख को सुनकर ऊपर उड़ती हुई चील जरा नीचे को आयी तो एक स्त्री को गर्म रेत के समुद्र पर तड़पते देखा। मन-ही-मन सोचने लगी… 
'ऐसा दृश्य तो हम चीलों के लिए उत्सव का होता है, परंतु जाने क्यों इस देवी की पीड़ा मुझे अंदर तक बेध रही है। उसकी वेदना समझने का प्रयास करती हूँ'... ऐसा सोच वह थोड़ा और नजदीक गयी और पूछा, 
"बहन! तुम इस तरह इस रेत पर क्यों पड़ी हो? तुम्हारा घर कहाँ गया?" चील की बात को सुनकर कराहते हुए उस स्त्री ने कहा - 
"मैं वनदेवी हूँ । मनुष्यों ने मेरे घर को उजाड़ दिया है। मेरे सारे तरु पुत्रों को मौत के घाट उतार दिए हैं। सूरज की जलन से बचने का कोई आश्रय नहीं रह गया है। इन फफोलों की पीड़ा सहन नहीं होती… ऊ… ऊ… ।"
" तुम्हारे बंधु-बांधव तो होंगे? उनके पास ही चली जाओ", चील ने सहानुभूति जताते हुए कहा। 
" मेरी माँ भूदेवी तो दरारों से भरी पड़ी है। अपनी बेटी की ऐसी हालत देखकर कोई भी माँ टूट जाएगी। इस रेतीले महासमुद्र को पार करने की ताकत नहीं बची अब मुझमें। "
       वनदेवी की बातें सुनकर चील दुखी हो गयी, क्योंकि मनुष्यों द्वारा जंगल साफ करने पर उसका भी तो ठिकाना छीन गया था जिसके कारण उसे निरंतर उड़ते रहना पड़ रहा था। उसने सोचा वनदेवी की हिम्मत बढ़ाने के लिए मुझे कुछ करना चाहिए। इससे पहले कि उनमें जीवित रहने की आस खत्म हो। उसने आसपास नजर दौड़ाई। कुछ दूरी पर एक नन्हा अंकुर अंगड़ाई ले रहा था। सूर्य की किरणें उस पर पड़ने न पाए, चील ने अपने डैने फैला दिए ताकि अंकुर की साँसें चलती रहें। देर तक एक ही सर्किल में उड़ने के कारण चील काफी थक चुकी थी और कुछ देर के बाद रेत पर गिर पड़ी। उस समय बादलों का एक झुंड यह नजारा देख रहा था। चील की सहृदयता को देख बादल रो पड़े। प्राण छूटने से पहले चील ने देखा वह नन्हा अंकुर बादल के अश्रु-जल से नहाकर तरोताजा हो गया था। 
    चील की शहादत वनदेवी के फफोलों पर मानों मरहम लगा गयी। उस नन्हीं कोंपल ने जीने की आस जगा दी थी। 
    
       -  गीता चौबे गूँज 
            राँची - झारखंड
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रेत समान समय के कण
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दो वर्ष से लगातार दसवीं की परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो रहे नवीन के विषय में उसके पिता बहुत चिंतित रहते थे। 
नवीन के पिता उससे अक्सर कहते थे बेटा! "समय बहुत मूल्यवान होता है। यदि इसका उपयोग सही प्रकार से नहीं किया, तो यह रेत की तरह मुट्ठी से फिसल जायेगा और कण-कण होकर बिखर जायेगा। जिस प्रकार बिखरे रेत के कणों को समेट पाना असम्भव है उसी प्रकार बीते समय का लौट पाना भी असम्भव है।" 
परन्तु युवावस्था के उन्माद में खोए नवीन को उनकी बातें समझ नहीं आतीं थीं और वह पढ़ाई से विमुख होकर घूमने-फिरने में समय बिता देता। इसका परिणाम यह हुआ कि वह दसवीं उत्तीर्ण नहीं कर पाया और पढ़ाई छोड़कर दिन भर मटरगश्ती करने लगा। 
समय का पहिया घूमता रहा और एक दिन अचानक दिल का दौरा पड़ने से उसके पिता का स्वर्गवास हो गया। बीस वर्ष का नवीन, जो अभी तक अपने पिता की आय पर निर्भर था, अब उसके सामने जीविका का संकट उत्पन्न हो गया था। 
नौवीं तक पढ़े नवीन को अब अपने जीवन-यापन के लिए बहुत संघर्ष करना पड़ रहा था और तब उसे याद आता था, स्वर्गीय पिता का कथन कि, "समय के कण रेत के समान होते हैं, जो फिसल गये तो फिर हाथ नही आते हैं।" 
परन्तु अब तो नवीन के ऊपर यह कहावत लागू हो रही थी कि "अब पछताए होत क्या, जब चिड़िया चुग गयी खेत।"

- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
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रेत का टीला 
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 बालू के ढ़ेर पर बच्चें खेल रहे थे। सभी बच्चें अपनी- अपनी रेत के महल और आकृति बनाने में व्यस्त थे।  बच्चों की मस्ती चल रही थी,  तभी एक शरारती बच्चा पास पड़े कुते के पिल्ले को पकड़कर रेत में दबाने लगा।  कूं- कूं करता पिल्ला भागता और सब मिलकर पुन: उसे रेत में दबा देते। इस खेल में बच्चों को बड़ा मजा आ रहा था। बच्चों को खेल में ये समझ में नहीं आ रहा था,  कि बेचारे पिल्ले को कष्ट हो रहा था।  अंततः बेचारे पिल्ले को रेत में दबा कर सब बच्चे घर भाग गए।  सोनू  के कपड़े में लगी रेत को माँ साफ कर रही थी और बालू के बड़े ढ़ेर पर खेलने को मना कर रही थी कि कहीं उसके अंदर ना मेरा बच्चा दब जाए।  माँ का प्यार  और दुलार देखकर सोनू को पिल्ले की याद आ गई और वह रूआंसा सा बोला --माँ बचा लो पिल्ले को भी । माँ का हाथ पकड़कर बालू के पास ले गया। दोनों ने मिलकर कुते के पिल्ले को खींच कर बाहर निकाला। कूं - कूं करता बच्चा बेतहासा खुशी से  भागने लगा।

- डाॅ पूनम देवा
पटना -  बिहार
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खतरा
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''रेत का उचित अनुपात न होने से मसाला (सीमेंट के साथ मिश्रण) सही नहीं बनता।
रेत अधिक तो छत टपकने, गिरने,प्लास्टर झड़ने की समस्या और रेत कम तो सेटिंग सही न हो। इसलिए ध्यान रखना चाहिए रेत का समुचित उपयोग हो।'' दादाजी मजदूरों को  समझाया।
राजू को याद आ गयी वह रात। जब निर्माणाधीन बिल्डिंग की छत अचानक एक रात गिर पड़ी।मलबे और रेत के उस पहाड़ में
कितनी ही जिंदगियां दफन हो गयी थीं।

- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर -  उत्तर प्रदेश
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रेत के महल
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चारो ओर बड़े- बड़े पहाड़ों से घिरा एक छोटा सा कस्बा, मानो अपनी अलग ही कहानी कहता हुआ जिए चला जा रहा था । यहाँ तो बस भेड़- बकरी पालने वाले कुछ जिंदादिल लोग ही थे , जो बाँस के बने घरों में रहते हुए अपनी सीमित आमदनी में ही खुश थे । अभी कुछ दिनों पहले ही उनके गाँव में एक पर्यटक आया था जो वहाँ कांक्रीट का नगर बनाने की इच्छा जता रहा था ।
उसने वहाँ के सबसे बुजुर्ग से पूछा " काका अगर आपको मजबूत घर बनाकर दूँगा तो बदले में मुझे क्या देंगे ?
काका ने कहा "पहली बात तो बेटा हम लोग ऐसे ही अच्छे हैं । प्रकृति से जुड़कर रहना ही हमें स्वस्थ्य रखता है । हवा - हवाई बातें और रेत के महलों से हमें दूर ही रहने दो ।
क्यों काका...? मैं तो आपको आज की दुनिया से जोड़ने की कोशिश कर रहा हूँ ।
देखो बेटा यहाँ सब कुछ कितने अच्छे से चल रहा है । खाने को आराम, पीने को साफ पानी व जीने को शुद्ध हवा । क्या ऐसा तुम्हारे नए घर बनने के बाद मिल पायेगा ।
अब तो वो पर्यटक मौन था, चुपचाप सबके चेहरों की मुस्कुराहट को पढ़ने की कोशिश में लगा हुआ था ।

- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
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रैत की कहानी
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सागर किनारे बच्चे रेत का घरोंदा बनाते हैं और पैर के ऊपर रेत रखके उस रेत को नन्हें हाथों से थपथपाते हैं तो उन्हें कितना सकून मिलता है l वे हँसते और खिलखिलाते है जब समुद्र की एक लहर उनके घरोंदे को मिटा देती है l
तब समुन्दर ने बच्चों से पूछा "बच्चों, क्या तुम्हें इस रेत की दिलचस्प कहानी पता है?"
बच्चों ने सिर हिलाया, "नहीं"l
सागर ने कहा आओ तुमको बताता हूँ 
कैसे पहाड़ समुद्र तटो पर रेत के रूप में अपना जीवन समाप्त करते हैं l समय के साथ पहाड़ मिट जाते हैं l
कीचड, रेत, बजरी, कंकड, रोड़ी  के रूप में वह नदी के साथ मिलकर बहते हुए मेरे तट पर आते हैl
क्या कभी तुमने सोचा कि ये चिकने, गोल, सतरंगी खनिज के कण भी कभी चट्टान थे l
ये समुद्री तट रेत के लिए अस्थायी पड़ाव है l कभी बड़ी लहरें इन कणों को समुद्र तल की गहराई में ले जाती हैं, तो कभी छोटी लहरें इसे मेरे किनारे पर धकेलती हैं l तभी तो बच्चों 
समुद्र तट स्वस्थ और पोषित रहता है l
तो अगली बार जब आप अपने पैर की उंगलियों को समुद्र तट पर खोदते हैं तो अपने पैरों के नीचे आने वाली महाकाव्य यात्रा के बारे में सोचें। एक पल के लिए सोचिए कि रेत कहां से आई और कहां जा रही है।

- डॉ. छाया शर्मा
अजमेर - राजस्थान
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रेत
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माता-पिता के मरने के बाद इकलौती श्रेया का पीहर में कोई ना रहा । वह चाचा चाची के पास ही गर्मी की छुट्टियों में मायके जाती। चाचा बड़े प्यार से उसे बुलाते पर चाची हमेशा अपनी अमीरी का रौब उस पर झाड़ती। एक बार जब गर्मी की छुट्टियों में चाचा के बुलाने पर वहां गई तो, एक शाम अचानक सारी लाइटें बंद हो गई और चारों और रेत के बवंडर उठने लगे। राजस्थान में रेत के बवंडर कई बार उठते हैं ।यह आम बात है । हाथ को हाथ सुझाई नहीं दे रहा था। सारे दरवाजे खिड़कियां बंद होने के बावजूद भी जब रेत की आंधी दो -तीन घंटे बाद थमी तो पूरे घर में रेत की मोटी मोटी परतें जम गई।   
        डस्ट एलर्जी होने के बावजूद भी उसने बड़े जतन से दो-तीन घंटे तक रेत को साफ किया। थक कर सो गई। जब सुबह उठी तो 8:00 बज चुके थे और चाची नें उसके सामने चाय पटकते हुए कहा, लो तुम तो यहां आराम फरमाने आई हो । मैंने ही सारा घर साफ किया ।
चाची ने कहा बवंडर रुकने के बाद भी धूल तो हवा में होती है जो घर में जम जाती है और तुम तो सो गई और सुबह उठते ही मुझे सारा घर साफ करना पड़ा। 
      यह सुनकर वह सकते में आ गई। काम में हाथ बंटाना ठीक है मदद करना ठीक है लेकिन क्या वह मायके साफ सफाई कामदार बनकर आई है या बेटी बनकर अगर इस तरह की बातें सुनने को मिले।
 श्रेया ने सोचा क्यों ना अपने रिश्ते के आईने पर जो घमंड की रेत जमी है उसे साफ कर अपने आत्मसम्मान को साफ-साफ देखूं।अगर यह अमीर है तो मेरे घर में भी कुछ कमी तो नहीं।
    जब तक मुझे सम्मान न मिले तब तक मैं यहां कभी ना आऊं।
           -  डॉ.संगीता शर्मा           
              हैदराबाद - तेलंगाना
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रेत
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सोनू के मामा भारतीय सेना में एक उच्च अधिकारी थे और अभी कुछ ही दिनों पूर्व उनका तबादला दिल्ली से जैसलमेर हो गया था जो कि राजस्थान में एक जगह थी। जब गर्मियों की छुट्टियां हुईं तो सोनू के मामा का संदेश आया कि वह छुट्टियों में यहांआकर कुछ दिन घूम जाए। जब सोनू दिल्ली से जैसलमेर पहुंचा तो वह यहां चारों ओर रेत ही रेत देखकर हतप्रभ हो गया। उसने दिल्ली जैसे शहर में रहकर यह कभी नहीं सोचा था कि भारत में कहीं इतनी अधिक रेत हो सकती है कि सब चीजें रेत में ही डूबी दिखाई पड़ें,,; रेत के ही छोटे छोटे पहाड़ हों और जब रेत की आंधी उड़े तो कहीं कुछ दिखाई न पड़े और सब कुछ रेत की चादर में ढंक जाए। सोनू ने दिवस दौरान वहां असहनीय गर्मी भी देखी और पानी की भारी किल्लत भी उसने वहां महसूस की। जब वह एकबार अपने मामा के साथ आसपास के गांवों में घूमने गया तो उसने देखा कि इस रेतीले विस्तार में ग्रामीण महिलाएं दो - तीन किलोमीटर दूर से पानी का घड़ा सिर पर रख कर लाती हैं। उसकी समझ में यह बात नहीं आई कि इस इलाके के लोग इतने कष्ट सहन कर यहां इस इलाके में क्यों रहते हैं और वे सुविधापूर्ण जीवन जीने हेतू कहीं और हरियाले विस्तार में क्यूं नहीं चले जाते जहां उनके पशुओं को घास -चारा और पानी मिले और वे वहां आराम से रह सकें। उसने जब यह बात वहां के एक ग्रामीण से पूछी तो वह बोले कि साहब अपने गांव में चाहे कितनी ही तकलीफें हों, मगर अपने पुरखों का गांव तो संसार में सर्वश्रेष्ठ जगह होती है और उस स्वर्ग को छोड़ कर कहीं और जाने की सोचना भी बड़ा पाप है। यह जवाब सुनकर सोनू नतमस्तक हो गया। ****

- प्रो डॉ दिवाकर दिनेश गौड़
गोधरा - गुजरात
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रेज़ा 
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पका हुआ गेहुँआ रंग,नाक के बीच वाले हिस्से में झुलती नथ जिसकी चमक अब जाती रही थी।हाँ !लाल छोटी सी मोती का रंग चटक अब भी बरकरार ...अक्सर ठेले से सब्ज़ी ख़रीदते समय उस पर नज़र ठिठक जाती थी।कुछ तो कशिश थी उस रेज़ा के चेहरे पर ।
 घर के ठीक सामने बन रहे मकान में रेज़ा को काम करते कभी ईंट ,कभी रेत तो कभी रेत सीमेंट मिलाकर मसाला तैयार कर सर पर रखकर मिस्री को पहुँचाते सुबह नौ से शाम पाँच बजे तक देखती।पिछले तीन महीने से देखते -देखते एक अपनापन सा हो गया है।इसलिए कभी कभार देख कर मैं मुस्कुरा देती तो उसके चेहरे पर भी एक शर्मिला मुस्कान आ जाता।शाम को पौने पाँच बजे से ही वह घर जाने की तैयारी करती हाथ ,पाँव ,मुँह धोकर सर के गमछा को झोले में तह कर रखती।झोले में से कंघी निकाल कर बालों को संवार कर गहरे चंपई रंग की सिंदूर की एक मोटी लकीर कंघी के किनारे से लगाकर फिर अपनी बिंदी को सही जगह पर कर चेहरे पर एक ट्यूब से क्रीम निकाल कर लगाती तो लगता ही नहीं कि क्या यह वही रेज़ा है?
दिसंबर का महीना था।जल्दी ही अंधेरा हो जाता।उस दिन पार्लर में कुछ देर हो गई मैं छह बजे लौटी गेट खोल कर गाड़ी अंदर पार्क कर गेट बंद कर ही रही थी कि सामने के घर से चिल्लाने की आवाज़ें आने लगी।रेज़ा बदहवास सी गाली देती हुई चंडी का रूप धरे बाहर आ रही थी।मैंने जानने के ख़्याल से उस घर तक पहुँच गई...तो देखा मिस्त्री के पूरे सिर से लेकर पूरे मुँह में रेत भरा हुआ था।कुछ रेत उसके बदन पर भी पड़े हुए थे।आँखों में रेत पड़ जाने के कारण हल्के अंधेरे में पानी की तलाश में बाहर आ रहा था...साथ ही भद्दी भद्दी गालियाँ भी दे रहा था।
मुझे समझते देर नहीं लगी कि आज रेज़ा ने अपने बचाव में रेत का बेहतर उपयोग किया।
- सविता गुप्ता
राँची - झारखंड 
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रेत के महल
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बनवारी लाल के फोन की घंटी बार बार बज रही थी।पर वे तो मेहमानों की मेजबानी में मशगूल थे।एक से बढ़कर एक नामचीन हस्तियां मौजूद थीं उनकी पार्टी में। बड़ी बड़ी राजनीतिक हस्तियों से लेकर उद्योगपति तक।अब वह भी कोई ऐरे गैरे थोड़ी न थे।शहर के अग्रणी कॉन्ट्रैक्टर ,शहर के अधिकांश सरकारी प्रतिष्ठान,पुल ,सड़क ,सबके ठेके इन्हें ही तो मिलते थे।आज भी एक बड़ी परियोजना का ठेका मिलने की खुशी में ये शानदार पार्टी रखी गयी थी।जिसमें डूबे बनवारीलाल जी फोन को नजरंदाज करते जा रहे थे।
    पार्टी अपने पूरे शबाब पर थी कि तभी दनादन एक साथ ही सभी बड़े नेताओं , अधिकारियों के मोबाइल घनघनाने लगे।
पता चला कि शहर की कुछ ही साल पहले बनी ओवरब्रिज धराशाई हो गयी ।कितने लोग दब के घायल हो गये और शायद कुछ जानें भी गयीं हैं।अफरातफरी सी मच गयी वहाँ।टीवी ऑन हुआ तो हर चैनल की ब्रेकिंग न्यूज यही थी ..... "जनता की गाढ़ी कमाई का ऐसा हश्र।शहर का प्रमुख फ्लाईओवर ध्वस्त हुआ...... जाने  कितनी जानें गयीं,कितने अपाहिज हुए इसमें दबकर। रेत ही रेत बिखरी ,मानो सीमेंट का इस्तेमाल ही न हुआ हो।कौन है इतनी जानों का हत्यारा , बनवारी लाल ,जिसने घटिया ब्रिज बनाया ,वो नेता  , इंजीनियर, प्रशासनिक पदाधिकारी,जिनकी जेबें गर्म हुईं ,कौन देगा इसका जवाब......"
           सब बाहर की ओर लपके । गाड़ियों का काफिला उस नेस्तनाबूद ब्रिज की ओर मुड़ गया। बनवारीलाल किंकर्तव्यविमूढ़ सोफे पर धंस गये।तभी फिर फोन बजा। इस बार उठा लिया उन्होंने....."अंकल जल्दी सदर अस्पताल आ जाईए।रवि के सर से बहुत खून बह गया है।जो पूल गिरी हमारी बाईक उसी चपेट में आ घयी।जल्दी आईये ,आपको कबसे फोन लगा रहा हूँ......."
    आगे कुछ सुनाई न दिया।कभी सोचा न था कि उनके रेत के महल उनके लाडले की कब्रगाह बन जाएँगे.......

- रश्मि सिंह
रांची - झारखण्ड
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रेत
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         मानव ने चलते-चलते रेत को ठोकर मारी तो वह उड़ कर उसके सिर पर चढ़ गई । यह देखकर मानव तिलमिला उठा और बोला-
" तेरी इतनी औकात कि तू हमारे सिर तक पहुंच गई ?"
" क्या तुम अपना अपमान सहन कर सकते हो  ?"
" नहीं, हरगिज़ नहीं  ।"
" तो फिर मैं क्यों करूं  ? माना कि मैं रेत हूं जिसे तुम तुच्छ समझते हो मगर तुम्हारा पालण-पोषण मैं  ही करती हूं और अंत में भी मेरी ही गोद तुम्हें मिलती है  ।
         आखिर मेरा भी स्वाभिमान है । जब तुम मेरा अपमान करोगे तो मैं खामोश कैसे रह सकती हूं  । और कुछ नहीं तो उड़ कर तुम्हारे सिर पर तो चढ़ ही सकती हूं  ।"
          रेत की बात सुनकर मानव की सारी हेकड़ी जाती रही । 
                      - बसन्ती पंवार 
                   जोधपुर - राजस्थान 
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रेत
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शांति दास जी सोच रहे थे कि आसपास इतना सन्नाटा है। आजकल कोई सुबह की सैर को भी नहीं जाता।
  सुबह हो गई अब चाय तो बना कर पी लेता हूं।
आवाज आई कचरे वाली गाड़ी आई सब लोग कचरा डालो ।
वह सोचे चलो कचरा डालकर ही चाय पीता हूं ।
कचरा उठाकर  बाहर डालने के लिए गए ,तभी कचरे वाले गाड़ी वाले ने कहा - "बाबा मुंह पर कपड़ा बांधकर कचरा डाला करो बाहर महामारी फैली है नहीं तो जान का खतरा हो जाएगा ।"
शांति दास जी ने कहा-बेटा जान का खतरा तो वैसे भी है क्या करूं हमेशा आइसोलेशन में अकेला ही रहता हूं बेटा बहू ऊपर की मंजिल में रहते हैं नीचे मुझे अकेला छोड़ दिया। 
पत्नी के गुजर जाने के बाद यह जिंदगी बोझ हो गई है।
बुढ़ापे के जीवन का बोझ मुझसे सहन भी नहीं होता और यह महामारी मुझे लगती ही नहीं।
ऐसा लगता है कि मरुस्थल के चारों ओर में गिरा हूं और सब तरफ मुझे रेत  दिखाई दे रही है।
कचरे की गाड़ी वाला ने कहा- बाबा आपकी बात है तो मेरे सर के ऊपर से जा रही है ठीक है आपका जीवन आप जानो मैं आगे का कचरा लेता हूं।
चाहे रेत कहो और चाहे  कुछ और कहो आपकी आप जानो .....। ****

- प्रीति मिश्रा 
जबलपुर - मध्य प्रदेश
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रेत में खेलता बच्चा
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   दो दिन बाद आज मौसम खुला था।इस बीच काफी बारिश हुयी थी।आज धूप निकलने के आसार दिख रहे  थे।
     अंश आज दादा के साथ किलकारी गार्डन  आया हुआ था।
   रेत की भीनी भीनी खुशबू मन को मोह रही थी।
    नगर के मध्य में स्थित यह बगीचा बच्चों के लिये सुबह की सैर का आकर्षक स्थल था।
     बगीचे में झूले,फिसलनी और अन्य व्यायाम करने के उपकरण बने हुए थे।बैठने के लिये भी  सुंदर व्यवस्था थी।
    किलकारी के एक तरफ फल,जूस आदि के ठेले लगे हुए थे।दूसरी तरफ एक मैली चटाई बिछाकर एक महिला,छोटे से बच्चे के साथ ढ़ेर सारे मिट्टी के मनमोहक खिलौने लिये बैठी ग्राहक की प्रतीक्षा कर रही थी ।
     बच्चा बार बार खिलौने की जिद करता थाउसकी माँ हर बार मना करती,तो वह रोने लगता था।
   वह रेत में लोटपोट होता,रो रहा था।
     अंश बगीचे के भीतर से यह दृश्य देख रहा था।वह दादा से बोला-"दादा बच्चे की मम्मी उसे खिलौना क्यों नहीं देती ?"
     दादा ने समझाया ,वे गरीब है,उनके घर खाने को कुछ नहीं है।वह महिला खिलौना बेचेगी,तब उनके घर चूल्हा जलेगा।
   अंश ने फिर पूछा-"दादा उनके घर खाने को क्यों नहीं है?हमारे घर तो है।क्यों न हम इसे घर से रोटी लाकर दे दे।"
     दादा पोते की मासूम बातें सुनकर हँसे।लाड़ से उसे गले लगाया।फिर बोले -"चलो उस महिला से खिलौने लेते हैं।"
    अंश खुश हो गया।वह उस जगह पर जाकर खिलौने देखने लगा।फिर  उसने  दो सबसे अच्छे  खिलौने उठाये,दादा की तरफ देखा।दादा ने हामी भरी।
    अंश ने उसमें से एक खिलौना उस बच्चे को दिया।उसकी माँ मना करती रही।
    दादा ने दोनों खिलौने के रूपये दिये।तब वह आश्वस्त हुई।छोटा बच्चा खिलौना पाकर खुश हो गया।वह रेत में ही बैठ कर खिलौने से खेलने लगा।
     अंश ने अपनी बेग से कुछ फल  निकाल कर उस बच्चे को दिये।बच्चें की माँ हाथ जोड़ती रही।
    अब दादा पोते की जोड़ी हाथ में हाथ मिलाये खुशी- खुशी अपने घर की तरफ लौट चली।
   आसमान साफ था।उसमें से सूरज देवता मुस्कुरा रहे थे।
   बच्चा अब भी रेत में खेल रहा था।***

- महेश राजा
महासमुंद - छतीसगढ
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हौसले की उड़ान 
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सात वर्षीय बालक बारंबार गड्ढे में जम्प कर ऊपर आने की कोशिश करता , पास खड़े मज़दूर उसे निकाल देते ! 
ये उसके प्रतिदिन का खेल था । कभी पानी भरे कभी रेत भरे क़भी ख़ाली गड्ढों पर अपना शरीर पानी में रेत में डाल प्रेक्टिस करता , 
बिल्डर इंजीनियर अपनी रोज़ी रोटी के लिये आड़ी तिरछी रेखाओं को खिच ड्राइंग बनाता । ख़ाली टाईम उस सात वर्षीय बच्चे की हरकतें देखा करता था । 
और ख़ूब हँसता । इंजीनियर युवा सोचता इसके माता कितने निश्चिंत हैं । कोरोना की वजह से स्कूल छूट गया । बेरोज़गारी वजह से अपना गाँव घर छोड़ , शहर आ बिल्डर के पास आ रोज़ी रोटी शुरू कर दी ।सात वर्षीय बालक स्कूल जाने से वंचित था । पास आ इंजीनियर के हाथों से बनी आड़ी तिरछी रेखाओं को देख अपना भाग्य संजोता ।
आज वही बालक तैराकी , हाई जम्प में गोल्ड मेडल ला उसी आर्किटेक्चर इंजीनियर से पुरस्कार लेते कहता है ।
सर आपने मुझे पहचाना नही मै वही सात वर्षीय बालक आपके द्वारा बनवाये बिल्डिंग के कालम में जम्प कर अकेले टाईम पास करता आपकी आड़ी तिरछी रेखाओं को देख अपना भाग्य संजोता मुझे भी अनोखा कुछ कर दिखाना हैं आपकी तरह मैंने भी सफलता पाई । प्राईवेट मेट्रिक की परिक्षा पास की और अब आकिटेक्चर बनाना चाहता हूँ 
इंजीनियर साब अवाक थे ?****

- अनिता शरद झा
 मुंबई - महाराष्ट्र
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खुशियों की दौलत 
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 मुम्बई के जुहू - चौपाटी की सैर कराने  अपनी लाडली छोटी  बेटी शुचि और बड़ी   बेटी हिमानी के संग
 गयी ।
" माँ !  रेतीले समुद्रीय तटों पर ज्वार -भाटे का दृश्य मनोहारी लगता है । आती हुई रेतीली लहरें पैरों को चूमती हुई  छुअन से असीम प्रेम को लूटा के बिना कुछ लिए वापस चली जाती है। " हिमानी ने कहा।
  " हाँ " , माँ ने कहा  ।
  "दीदी !रेत के तटों पर सिंधु की अनमोल  सीप , सिप्पियाँ , शेल , श्रद्धलुओं का चढ़ाया हुआ समान जैसे नारियल , फूल आदि ज्वार की लहरें ले आयी हैं। 
 चलो दीदी रेत में धँसी  हम तरह -तरह की  रंग -,बिरंगी  सिप्पी एकत्र करेंगे। यह सीपियों से ग्रीटिंग कार्ड सजाने में काम आएँगे । "
"शुचि ने कहा
"हाँ जमा करते हैं ।"  मुस्कुराते हुए हिमानी ने कहा 
मुझे उन  दोनों की इन  छोटी -छोटी सीपियों की अनमोल दौलत में उनकी असीमित  खुशी नजर आ रही थी । ****

- डॉ मंजु गुप्ता
 मुंबई - महाराष्ट्र
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रेत का घर
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एक गांव में नदी किनारे कुछ बच्चे खेलते हुए रेत के घर बना रहे थे, किसी के पैर किसी के घर को लग जाता और वह बिखर जाता इस बात पर झगड़ा हो जाता थोड़ी बहुत बचकानी उम्र वाली मारपीट भी हो जाती।बदले की भावना से सामने वाले के घर के ऊपर बैठ जाता और उसे मिटा देता और फिर से अपना घर बनाने में तल्लीन हो जाया करता ही बच्चों का काम था।
महात्मा बुध चुपचाप एक और खड़े ये सारा तमाशा अपने शिष्यों के साथ देख रहे थे। बच्चे अपने आप में मशगूल थे तो किसी ने उनकी तरफ ध्यान नहीं दिया इतने में गांव की दादी मां आकर बच्चों को कहते हैं शाम हो गई बेटा तुम सब की मां तुम्हारा रास्ता देख रही है। बच्चों ने चौकते हुए देखा दिन बीत गया है सांझ हो गई और अंधेरा होने को है।
इसके बाद वह अपने ही बनाए घरों पर उछलने कूदे सब मटियामेट कर दिया और किसी ने नहीं देखा कौन किसका घर तोड़ रहा है सब बच्चे भागते हुए अपने घर की ओर चल दिए।
महात्मा बुध अपने शिष्यों से कहा तुम मानव जीवन की कल्पना इन बच्चों की इस कीड़ा से कर सकते हो तुम्हारे बनाए शहर राजधानीया सब ऐसे ही रह जाती है और तुम्हें एक दिन सब छोड़कर जाना ही होता है। तुम जिंदगी की भाग दौड़ में सब भूल जाते हो और खुद खुद से  कभी मिल नहीं पाते। जबकि यह सत्य है जो आया है उसे जाना तो पड़ता है।
अतः जीवन को वर्तमान में जीना चाहिए।

- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखंड
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रेत
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     हम बचपन में जब मकान के काम हेतु रेत आती थी,  बहुत रेत के विभिन्न प्रकार खेल-खिलौने, मकान बनाकर  खेला करते थे। इतना ही नहीं जब मित्रों की टोलियों के साथ पिकनिक मनाने नदी के किनारे जाया करते थे, फिर क्या था, वहां तो रेत की कमी ही नहीं रहती और अपने-अपने तरीके से रेत की आकृति बनाते थे। लेकिन रेत के खेल-खेल में ऐसा विकराल रूप धारण कर लिया, जिसे मित्रों की टोलियों ने सोचा भी नहीं था, ऐसा हो जायेगा, हुआ यह कि रेत को इतना गहरा कर दिया गया और एक मित्र को उसमें डाल कर, उसके ऊपर रेत से धककर घर चले आयें। रात होते-होते उसके घर में राह देखते रहे,  सब मित्रों से पूछताछ हुई, किसी ने कुछ नहीं बताया। देखते-देखते रात हो रही थी, सहसा एक व्यक्ति ने उसे घर लाकर वस्तुस्थिति से अवगत कराया, अगर शवदाह के उपरान्त उस व्यक्ति का ध्यान नहीं जाता तो, अनहोनी घटना घटित हो जाती। उसके बाद सभी मित्र सहम गये और कभी भी इस तरह का खेल रेत नहीं किये?****

- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार "वीर"
   बालाघाट - मध्यप्रदेश
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Comments

  1. था शहर वो एक धरा पर
    नाम बीकानेर यहाँ
    रेत ही रेत थी
    वहां पर
    ना था कोई व्रक्ष वहाँ।।

    पानी की थी बहुत कमी
    बच्चे व्याकुल हुए बहुत वहाँ
    बोले रेत से कोई उपाय बताओ
    क्यो नही है यहाँ व्रक्ष यहाँ।।

    बोली रेत ओ नादान बालको
    हटाओ रेत को आप यहाँ
    रेत के नीचे छुपा है जिप्सम
    नीचे,जल भी भरा है बहुत यहाँ।।

    जितना चाहो ले लो जल
    तोड़ो जिप्सम आप यहाँ
    खूब लगाओ व्रक्ष घनेरे
    खेलो प्रकति सँग यहाँ।।

    रेत ही माता रेत पिता हैं
    जननी हमारी है यहाँ
    अंश रेत का शरीर हमारे
    मौजूद जीवन मे रेत यहाँ।।

    बहुत आभारी धरा आपके
    बालक बोले रेत से वहाँ
    आप माता हो प्रकृति हमारी
    आपने,जीवन सार्थक किया यहाँ।।

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