कोरोना वायरस का लॉकडाउन ( लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी

सम्पादकीय                                                            
कोरोना लॉकडाउन का साहित्य
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कोरोना वायरस ने पूरी दुनियां को अपनी चपेट में ले लिया है । बहुत से देशों ने लॉकडाउन लगा कर  कोरोना की काट का फामूर्ला लागू किया है । जिसमें कुछ हद तक कामयाबी भी मिली है । इन सबमें कलमकारों ने भी अपनी - अपनी सोच यानि जो देखा है जो समझा है । अपनी अपनी विधा में पेश कर रहें है । इसी सोच का परिणाम है यह संंकलन :-
लघुकथा को लेकर " कोरोना वायरस का लॉकडाउन " शीषर्क से संकलन तैयार किया है । जिसमें 101 लघुकथाओं को शामिल किया गया है । शीर्षक के अनुसार ही लघुकथाओं का चयन किया गया है । बाकि तो पाठकों की राय सर्वोत्तम होती है ।
           भारतीय लघुकथा विकास मंच , पानीपत - हरियाणा की ओर से सभी लघुकथाकारों को सम्मानित करने के उद्देश्य से सम्मान - पत्र देने का निर्णय लिया है ।
           सभी को अपनी राय देने का अधिकार है और हम उन सब का स्वागत करतें हैं । आपकी राय के इंतजार में .......।
                                       - बीजेन्द्र जैमिनी
                                          सम्पादक
                              कोरोना वायरस का लॉकडाउन
                                     ( लघुकथा संंकलन )

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लघुकथा - 001                                                         

लॉक डाउन
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                                            - डॉ. सुरिन्दर कौर नीलम
                                                   रांची - झारखण्ड

"रुकिए चाचा! ठहरो भइया! कहां जा रही हैं काकी.....?"
आप सब बेवजह घरों से बाहर न निकलें। लॉक डाउन है। घरों में बंद रह कर ही हम कोरोना को हरा सकते हैं।
पॉकेट से निकाल कर" ये लीजिए.. मास्क पहनिए....!"

"रुको रुको भाई! इतनी तेजी से आप दोनों बाइक पर सवार होकर कहां जा रहे हैं...?"
"कौन है रे तू हमे रोकने वाला?
"पहचाना-सा लगता है....!"
"पुलिस वाला तो नहीं लगता....!"
"तो फिर पुलिस की वर्दी में...?
" दिखा अपना आई कार्ड..!"
................................
" नहीं है न...!"
"हमें लग ही रहा था कि तू फर्जी है"
" रुक जरा... हमें रोक रहा था न...! अभी बुलाता हूं पुलिस को....!
" हैलो हैलो...! पुलिस....!"
"लो आ गई पुलिस की जीप....!"
................................
" माफ़ कीजिए साब जी...!
"मैं सभी बाहर निकलने वालों को रोकना चाहता था कि लॉक डाउन है,घर पर रह कर ही सुरक्षित रह सकते हैं और दूसरे लोगों को भी संक्रमित होने से बचा सकते हैं।पर,साब जी..! कोई मेरी बात मान ही नहीं रहा था, तो मैंनें सोचा यदि मैं पुलिस की वर्दी पहन लूंगा तो सभी मेरी बात मानेंगे। बस इसीलिए साब जी....! और कोई कारण नहीं....!

"शाबाश....! बहुत बढ़िया काम कर रहे हो....!ये लो स्पेशल आई कार्ड और लगे रहो......!"
"और तुम लोग....?"बेवजह घूमने वाले.....!"
"चलो बैठो जीप में.....!"
=====================================लघुकथा - 002                                                        

शेल्टर होम
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                                                  - डॉ. सरला सिंह
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    -बाबूजी लाकडाउन चल रहा है आप कहां जा रहे हैं ?
-पहले जिस दुकान में काम करता था उसी दुकान में सो जाता था। अब दुकान बन्द है तो समझ नहीं आ रहा है कहां जाऊं ? पास में ही शेल्टर होम है अभी तो वहीं रह रहा हूं।
-आपका कोई नहीं है क्या?
-बेटा-बेटी सब हैं, पर रहते यहां से काफ़ी दूर हैं, जाऊं तो जाऊं कैसे?
-खाना पीना कैसे होता है?
-सबके रक्षक भगवान हैं! शेल्टर होम में रहता हूं वहीं खाना भी मिल जाता है।
-फिर यहां बस अड्डे कैसे?
-सुना है सरकार अपने-अपने घर पर जाने के लिए बसों की व्यवस्था कर रही है, उसी को देखने आया था।
-कहां जाना है आपको?
-कानपुर शहर।
 -हां बस जा तो रही है! देखिए जगह मिल जाये तो बढ़िया है, मुझे भी वहीं जाना है। मेरे बच्चे और परिवार वहीं पर है। 
-बाबूजी आइए दो लोगों की जगह मिल रही है, बहुत खुशी की बात है। मगर वहां भी अभी चौदह दिन बाहर ही रहना होगा फिर अपने परिवार से मिल पायेंगे।
-कोई बात नहीं बेटा, अपने गांव देश तो पहुंच जायेंगे, बाकी चौदह दिन भी कट जायेंगे। बुरा हो इस पापी चीन का जिसके कारण हम सबइतना कष्ट भोग रहे हैं।
-हां बाबूजी, सबको अपना कर्मफल अवश्य ही मिलता है। चीन को भी अपने किये की सजा अवश्य ही मिलेगी।
-बेटा हम सबको मिलकर इस आफत से मुक्ति पानी होगी‌।सरकार के कहे अनुसार
चलना होगा तभी इस कोरोना नामधारी दुष्ट से जीता जा सकता है।    
बातें करते हुए कब क्वारंटीन की जगह पहुंच गए पता ही नहीं चला। दोनों ने साथ ही 
चौदह दिन का समय बिताया। फिर अपनी-अपनी मंजिल की ओर चल दिए।    
बेटा दरवाजा खोलो, मैं पापा बोल रहा हूं।
रामप्रसाद जी बेटे का दरवाजा खटखटाते हुए बोले।
-अरे पापाजी आप यहां कैसे आ गये? आपको वहीं रुकना चाहिए था। बेटे ने दरवाजे पर खड़े-खड़े ही जवाब दिया।
-दरवाजा तो खोलो फिर बताता हूं क्या हुआ और कैसे मैं यहां तक पहुंचा। डरो मत मैं चौदह दिन क्वारंटीन सेन्टर में बिता कर आया हूं।
-जी पापा जी, पर वहां तो दुनिया भर के लोग आते हैं और इस घर में छोटे-छोटे बच्चे हैं। आप वहीं चले जाइए। बाद में मैं आपको बुला लूंगा।     
रामप्रसाद आवाक़ रह गए। जिसके लिए सारी परेशानियों को सहकर यहां तक आए, वही घर में नहीं आने दे रहा है। वे धीरे-धीरे पीछे हट गये।   
सड़क पर उन्हें अकेले परेशान खड़े देखकर पुलिसकर्मियों ने पूछा-
बाबूजी कैसे परेशान हैं? बाहर क्यो खड़े हैं?
रामप्रसाद ने आंखों में आंसू भरकर सारी बात बता डाली।
पुलिस वालों की आंखों में आंसू भर आया। उन्होंने रामप्रसाद को पहले अस्पताल भेजा फिर वहां से वहां के शेल्टर होम में पहुंचा दिया ।
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लघुकथा - 003                                                         
सदगति
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                                             - मनोज सेवलकर
                                                  इन्दौर - मध्यप्रदेश

"भैया, आपने टीवी पर प्रधानमंत्री जी का भाषण सुना" गजोधर चाय की दुकान पर भाषण सुनने के बाद दौड़ा-दौड़ा अपने बड़े भाई रामचरण के पास आया । 
"क्या हुआ ! इतना हांफ क्यों रहा है ?" 
"भैया, सरकार ने कोई खतरनाक बीमारी आई है उसके कारण पूरे देश को 21 दिनों के लिए सब बन्द करने का आदेश आज रात 12 बजे से लागू कर दिया है ।"
"क्या ?"
बात सुनकर रामचरण अवाक गजोधर, पत्नी निर्मला और अपने दोनों मासूम बच्चों को देख घोर चिंता से ग्रसित हो गया। इस किराये की खोली में रहकर, अपनी रेहड़ी से मजदूरी कर जैसे-तैसे गुजारा कर रहा था । तिस पर ये मुसीबत । 
"अरे सुन गजोधर ! क्यों न हम अपने गांव बहोरा लौट चलें ?"
"भैया, हमारा  गांव तो यहां से आठ सौ कौस दूर है । बस, रेल सब बन्द ।  पैदल भी चलें तो 20 - 22  दिन से पहले नहीं पहुंच सकते । और सुना है ये बीमारी बहुत खराब है एक दूसरे के छूने से फैलती है ।"
"हां, पर इत्ते दिन यहां रहकर गुजारा कैसे करेंगे? गांव में हमारा घर है, खेत है, मां-बावजी  । सब तो है वहां ।"
"लेकिन भैया, वो सब हम बहुत वर्षों पहले छोड़ आए हैं वहां भी कोई हालात ठीक नहीं है ।"
गजोधर, भैय्या रामचरण के साथ इस अचानक आई आपदा पर गहन चिंतन में सोचने लगे कि गांव तक पहुंचने की दूरी तय करें या यहीं रहकर फांके मारने की मजबूरी । 
तभी रामचरण ने गहन चिंतन कर निर्णय सुनाते हुए कहा- "भाई गजोधर, हम गांव से इस शहर में तरक्की करने आए थे और जो कुछ भी इस शहर ने हमें दिया है वही हम उसे लौटाएंगे । अब हम यहीं जीएंगे और यहीं मरेंगे । 
भैय्या का निर्णय सुन गजोधर, अब उनका आसक्त हो गया ।
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 लघुकथा - 004

   रोज- रोज
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                                                  - डॉ. चंद्रा सायता
                                                      इन्दौर - मध्यप्रदेश

" मुझे नहीं खाना ये खाना। रोज- रोज आलू की झोल वाली सब्जी या फिर ये पनिली दाल।" कहते हुए भयू ने थाली सरका दी।
   यह सुनकर मुन्नी का हाथ भी रुक गया। शायद साथ में कुछ.मिल जाए।
   सुरसती सबसे पहले सबसे छोटे बच्चों मुन्नी और भयू को खाना खिलाती  फिर पति और बाकी बच्चों को।अंत में बचा खुचा स्वयं खा लेती।कभी न बचने पर पानी पीकर रह जाती।
   सुरसती को भयू का कहना सच लगा, मगर करती भी तो क्या? पति का मजदूरी पर जाना बंद है।वह भी जहाँ काम करती थी, उन्होंने उसे आने से मना कर दिया।
  वह अपना दर्द छुपाने के लिए भयू पर बरस पड़ी:-
" सब्जी आए कहाँ से रे?. मैं उस मुए करोना से घर बचाऊं या तेरे बापू की फोज से निपटूं ।",वह रुक गई।मुन्नी ने भी माँ का तमतमाया हुआ चेहरा देख लिरा था।ंजो भयू नहीं देख पाया था ,वो भी मुन्नी ने देख लिया।
माँ की आँखों की कोरें भीग जाने के कारण चमक रही थी।
     "माँ। मैं यह खाना खा लूंगी।" कहते -कहते उसका एक हाथ थाली की ओर बड़ा और दूसरा उसकी आँखों तक पहुंचे-
 पहुंचे, इसके पहले ही एक आँसूं पनिली दाल की कटोरी  में टपक पड़ाः।
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 लघुकथा - 005

वारियर्स
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                                               - अनिता रश्मि
                                              रांची - झारखण्ड

    उसकी पीड़ा उसकी आँखें बयां कर रहीं थीं। जुबान भी। वह बिफर पड़ा पहली बार.... जीवन में पहली बार, 
   - हमारे बारे में कौन सोचता है। हम सभी सकारात्मक खबरों के लिए दर-दर की खाक छान रहे हैं। 
   उसने सीधे मिसेज भल्ला की आँखों में झाँका। वहाँ सहानुभूति की झलक पा उसके मन का दर्द फूट पड़ा। 
   - हम हाॅट स्पाॅट में घंटों बिताकर सभी को सच्ची खबरें परोस रहे हैं। जागरूक करने की  जिम्मेदारी भी निभा रहे हैं। जो पत्थर पुलिसकर्मी और स्वास्थ्यकर्मियों पर चले, वे हमारे कैमरे, माइक से भी टकराए। और हमारे सर-कान से भी. ....। हम भी बाल-बच्चों से दूर रहकर युद्धरत हैं। पर हमारे श्रम को गाली ही मिलती है। हम भी कोरोना से संक्रमित हो सकते हैं लेकिन हमारे बारे में सोचता कौन है। 
    मिसेज भल्ला ने उसके सर से बहते खून को देखा। अपने बरामदे की फर्श पर पर बैठे मीडियाकर्मी की ओर दूर से ही बैंडेज और चार बिस्किट के साथ पानी का बोतल बढ़ा दिया। 
    थोड़ी देर में उसे उठकर वहाँ से जाते हुए देखती रही। उसकी चाल में लँगड़ाहट थी। 
   तीसरे दिन अखबार के पृष्ठ पर एक तस्वीर! मिसेज भल्ला बेहद खुश! तस्वीर के साथ चंद पंक्तियांँ,
   - उस अखबारनवीस की बहादुरी के लिए उसे सम्मानित किया जाएगा। 
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 लघुकथा - 006

संक्रमण 
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                                                 - शेख़़ शहज़ाद उस्मानी 
                                                      शिवपुरी - मध्यप्रदेश

"मीडिया के झूठ, बहसों और टी.आर.पी. बढ़ाने की औक़ात के कारण बहुत सी महिलाएं कोरोना वाइरस वाले समाचारों को भी झूठ, राजनीतिक स्टंट या मुद्दा  समझ रही हैं!"
"हाँ, कुछ तो महज टाइम पास ख़बर मान कर उन्हें क्राईम या हॉरर मूवी की तरह देखकर केवल मज़े ले रही हैं अन्य कुछ लोगों की तरह!"
"उन्हें क़हर ढा रही विषाणु-महामारी के बारे में कुछ विस्तार से समझाओ, तो जवाब मिलता है कि मौत से नहीं डरते! जो सबके साथ होगा, वही हमारे साथ भी, नो टेंशन!"
"विदेशों से लौट कर आ रही हिंदुस्तानी सेलिब्रिटीज़ वग़ैरह की हरक़तों से मुझे तो यह कहावत असरदार लग रही है कि महिलाओं की अक़्ल भी घुटनों में ही होती है।"
"औरतों की ही नहीं, बहुत से पढ़े-लिखों की भी! दिखा दिया न  पूरी दुनिया ने!"
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 लघुकथा - 007

 महाभारत से रामायण 
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                                                        - मिन्नी मिश्रा
                                                            पटना - बिहार

" कोरोना वाइरस का संक्रमण जारी है | बाहर मास्क लगाकर ही निकलें |लोगों से दूरी बनाये रखें | हाथों की सफाई का करते रहें । वाइरस से बचाव के लिए  इम्यून सिस्टम को मजबूत करें । गर्म पानी और जूस का अधिक से अधिक सेवन करें... आदि-आदि...।"  जैसे ही टीवी न्यूज़ में यह प्रसारित हुआ , रमण के घर में बवाल मच गया। 
वाइरस के आतंक से सास और बहू के तेवर में सेंसेक्स की तरह अचानक से उछाल आ गया। 
सास चिंतित हो गई ,  यदि बहू का इम्यून सिस्टम अधिक सक्रीय हो गया तो  वह तेज रफ्तार से जहर उगलना शुरू कर देगी ! एक सुनी कहावत,   'जहर को जहर से ही काटा जाता है। ' उसे फौरन याद आ गया | वह प्रसन्नचित्त बुदबुदाई ,”मुझे अपने इम्यून सिस्टम पर  अधिक ध्यान देना पड़ेगा। आज से नियमित दो गिलास अनार और संतरे का जूस पियूंगी।  रमण (बेटे )को लायक बनाया आखिर किस दिन के लिए?!   “अपने मनेजर बेटे पर गर्व करके बूढी माँ का झुर्रीदार चेहरा तन गया ।

वहीं, बगल वाले कमरे में बहू के दिमाग में बवंडर मचा था , वह बेचैन थी .....
" रमण ,अपनी माँ का बहुत ख्याल रखता है |यदि सासु माँ के इम्यून सिस्टम में उछाल आया तो वह शतक लगा कर ही पवेलियन वापस जाएगी। ओह ! फिर तो 'जीवेद शरदम शतम'  के लंबे पारी का मैच घर में चलता रहेगा  ! हाय! अब इस महासंकट से उबरने का एक मात्र उपाय है ...  जूस पीकर इम्युनिटी को मजबूत करना पड़ेगा ।
 अभी-अभी जूसर से मैंने जग भर कर जूस निकाल के रखा है | जाकर पी लेती हूँ । दोनों के लिए निम्बू पानी बनाकर रख दूंगी | भनक भी नहीं लगेगी |
तभी रमण को इधर आते देख वह सावधान हो गई | पतिदेव की नजर सामने मेज पर रखे पारदर्शक शीशे के जग से टकराई । उन्होंने मुस्कुराते हुए जग को झट से उठा लिया | 
  ”पता नहीं जूस बचेगा भी .. !? “पत्नी अधीर हो रही थी  |
उसकी आशंका सही निकली | सारा जूस रमण गटागट पी गये |   " सुरसा की तरह बढ़ते लाकडाउन के कारण घर के अंदर हो रहे बकझक को मुझे ही तो संतुलित करना पड़ेगा ?! क्यूंकि मैं मर्द हूँ  !इसलिए सबसे ज्यादा इम्यूनिटी की जरूरत मुझे है ...!"  खाली जग को मेज पर पटककर वह टीवी देखने बैठ गये ।
 खटा......क!  आवाज सुनते ही पत्नी पतिदेव के निकट आकर चिल्लायी ! “हा...य ! सारा... जू...स !? आपने.....!” 
पत्नी की मुँह से  तेज आवाज सुनकर रमण भौंचक रह गया। देशी गाय का स्वर अचानक जर्सी की तरह !?   उसके  गले में अटका पड़ा जूस ... फचाक से बाहर निकल कर चमचमाते फर्श पर बिखर गया ।
फिर क्या था! पत्नी बरस पड़ी  ! “ एक तो कोरोना के चलते कामवाली की मनाही है , इसकी सफाई अब मुझे ही करना पड़ेगी !” 
घर में जूस को लेकर कोहराम और बाहर कोरोना का आतंक!  बूढ़ी माँ की घबराहट चरम पर पहुँच गई । तिलमिलाते हुए वह बेटे-बहू के निकट आई । दोनों के बीच छिड़े महाभारत को देखकर उनके हाथ-पाँव फूलने लगे | घर की शान्ति पर घटाटोप अँधेरा छाने लगा |  वह अपने इम्युनिटी बढाने की बात को दिमाग से निकाल बहू से मनुहार करने लगी ,  " बहू तिल का ताड़ मत बनाओ | रमण सारा जूस पी लिया तो क्या हुआ ! अरे..अभी भी झोले में ढेर सारा नारंगी और अनार पड़ा है | कल उसने ही तो खरीद कर लाया था | जाओ जूस बनाकर पी लो |”
 अप्रत्याशित जवाब पाकर... बहू, सासू माँ के चेहरे को एकटक निहारने लगी | उनमें आज उसे अपनी माँ की छवि दिख रही थी | झट वह सासू माँ से लिपट गई |
छिड़े महाभारत को अचानक रामायण में बदलता देख रमण फूले नहीं समा रहे थे | कौशल्या और सीता की जोड़ी उनके मन को भा गई |
 “ वादा करता हूँ , ”मैं राम बनने का भरसक प्रयास करूँगा|” बुदबुदाते हुए रमण एक हाथ माँ के कंधे पर रख दिया और दूसरा हाथ  पत्नी के सिर पर  |
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लघुकथा - 008                                                              

विमल बोध
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                                                  - डॉ. इन्दिरा तिवारी
                                                 रायपुर - छत्तीसगढ़

कुछ इलाकों की तालाबन्दी हटा दी गयी थी।सबके नौकरानियों के आने का सिलसिला शुरू हो गया था।आज रधिया का तीसरा दिन था।वह जैसे ही रसोई घर में गयी आज भी उसे माँजने के लिए थोड़े ही बर्तन मिले।कपड़े सारे मशीन में धूल गए थे।मालकिन के इस परिवर्तन से उसे बड़ा आश्चर्य हुआ।वह ममता के पाश पहुँची-
"दीदी अगर आपके पास समय हो तो कुछ बात करना चाहती हूँ।
"आओ रधिया बस आलमारी ठीक कर रही थी।"कहती हुई ममता कुर्सी पर बैठ गईं।
"दीदी आप सारे बर्तन धो लेती हैं केवल कुछ बड़े बर्तन ही रहते हैं।छोटे कपड़े तो मैं धोया करती थी पर अब सारे कपड़े मशीन से धुल जाते हैं।आप ऐसा क्यों कर रही हैं?क्या मेरा काम पसंद नहीं आता?"
ममता मुस्कुरा उठीं और बोलीं-
"अरे ऐसा कुछ नहीं है!इतने दिनों तक अकेले काम कर जब मैं लेटती थी तब तेरी सूरत सामने आ जाती थी और में सोचने लगती थी कि मैं केवल अपने घर का काम करने में इतनी थक जाती हूँ तू तो दो तीन घरों का फिर अपने घर का काम करते हुए कितना थक जाती होगी आखिर तू भी तो मेरे समान ही कोमल अंगों वाली एक नारी  
है।तब से मैन यह निर्णय ले लिया कि अब से घर के कामों में तेरी सहायता किया करूँगी।"
रधिया ने कहा-
" मालकिन आप कितनी दयालु हैं।हर महीने पूरी तनखा भेजती रहीं अब काम भी हल्का कर दिया।काश! सभी मालकिन ऐसा कर पातीं!"
कहती हुई उसने आगे बढ़कर ममता का हाथ चूम लिया।ममता को ऐसा महसूस हुआ मानों एक गरीब के आशीर्वाद की ऊर्जा उसमें समाहित हो गयी।
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 लघुकथा - 009

जरूरी झूठ
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                                                      - राम मूरत ' राही '
                                                        इन्दौर - मध्यप्रदेश 

पूरे देश में लाॅकडाउन घोषित होने के तीन दिन बाद फूलचंद दूसरों की तरह पैदल अपनी पत्नी कमली को लेकर अपने गाँव की ओर चल पड़ा। जब वह तीन दिन पैदल चलने के बाद, रात में करीब दस बजे अपने गाँव से लगभग डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी पर पहुँचा, तभी चार नकाबपोश लठैतो ने उन्हें घेर लिया। दो नकाबपोश सूटकेस लेकर चल रहे फूलचंद की ओर बढ़े और दो पीछे-पीछे गठरी सर पर रखकर चल रही कमली की तरफ। एक नकाबपोश ने कमली के चेहरे पर टार्च की रोशनी डालते हुवे, ऊपर से नीचे तक घूरकर अपने साथी से कहा --"बहुत खूबसूरत माल है... इसे भी साथ ले चलो।" यह सुनकर कमली ने साहस दिखाते हुवे चारों नकाबपोशों को चेतावनी दी --"खबरदार ! अगर मेरी तरफ कोई बढ़ा तो वो भी कोरोना वायरस का शिकार हो जाएगा। क्योंकि मैं कोरोना वायरस से संक्रमित हूँ। शहर के अस्पताल से भागकर आई हूँ।"
कोरोना वायरस का नाम सुनते ही डर के मारे चारों नकाबपोश लठैत वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गएँ। तब फूलचंद और कमली तेज कदमों से गाँव की ओर चल दिए।
घर पहुँचकर फूलचंद ने कमली से पूछा--"तुमने उन लोगो से झूठ क्यों बोला कि तुम कोरोना वायरस से संक्रमित हो, और अस्पताल से भाग कर आई हो ?"
कमली ने भरे गले से जवाब दिया--"अगर मैं झूठ नहीं बोलती तो वो लोग मेरी इज्जत..."
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 लघुकथा - 010

प्यास
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                                              - कनक हरलालका
                                                 धूबरी - असम

 "अरे लड़के...बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि तेरी माँ पर इलाज नहीं लगा। उनका शरीर शांत हो गया है।" अस्पताल मेंं चार दिन से बाहर बैठे बुधुवा को नर्स आकर कह गई। "उसकी बॉडी को भी मुनिस्पिलिटि  की तरफ से जला दिया जाएगा।
घर पर माँ और बुधुवा दो ही तो जन थे।
छः दिन पहले बुखार में माँ अपने काम वाले घर से लौटी तो सर्दी, खांसी और बुखार तेज हो गया था। उनके घर कोई विदेशी मेहमान आए थे तो उसके मना करने पर भी माँ को काम पर जाना पड़ा था। न जाती तो मालकिन पगार काट लेती। अभी तो महीने के पन्द्रह दिन बाकी थे। धीरे धीरे माँ की तबीयत ज्यादा खराब होने पर बस्ती वालों नेए अस्पताल में खबर की तो वे आकर उसे ले गए थे। सभी बस्ती वालों ने कह दिया था कि यह कोई विदेशी बीमारी है जिसे पकड़ ले फिर वह बचता नहीं है।
माँ हमेशा ही बुधुवा से कहती थी बस अन्तिम समय दो बूंद गंगाजल मुंह में चला जाए तो जीवन सफल हो जाए।
बुधुवा घर से एक खाली शीशी लेकर सभी जगह घूम आया था  कोई थोड़ा सा गंगाजल दे दे तो माँ की मौत तो सुधर जाएगी।
"अरे.. अरे.. तेरी माँ को वायरस वाली बीमारी हुई है। हमारे घर से दूर रह और तू भी कुछ दिन घर से बाहर न निकल।"
बुधुवा खाली शीशी और खाली पेट लिए शून्य सा अस्पताल के बाहर बैठा सोच रहा था कि खाली शीशी का रोना तो जीवन भर रहेगा पर खाली पेट लेकर घर में बन्द कैसे रहे।
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लघुकथा - 011                                                       

  लाॅकडाउन
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                                               - वन्दना श्रीवास्तव
                                                 मुम्बई - महाराष्ट्र

रमेश चिंतामग्न दुखी चुपचाप जमीन की तरफ देख रहा था। तीन साल पहले गांव से आकर मुम्बई के एक उपनगर में डेरा जमाया था। कान्स्ट्रक्शन कम्पनी में साइट पर मजदूरों को सुपरवाइज करने का काम था।पत्नी शीला भी आसपास के घरों में गृहकार्य करती थी। तीनों बच्चे भी स्कूल मे पढ रहे थे।अभी 6महीने पहले ही चाल मे घर लिया था, किराए पर। झुग्गी से निकल कर शिफ्ट किया था।अम्मा बापू को भी चार पैसे भेज दिया करता था।सब ठीक ही चल रहा था, कि अचानक ये अजीब सी बीमारी आ धमकी। सारी साइट्स पर काम बन्द हो गया। पत्नी को भी काम पर जाने पर रोक लग गई। इस आशा में कि 15-20 दिनों में स्थिति समान्य हो जाएगी, थोड़ी बहुत की गई बचत से काम चल रहा था, लेकिन लाॅक डाउन तो बढता ही चला जा रहा था। अब स्थिति गड्बड़ाने लगी थी। उस पर कोढ मे खाज ये कि पलंग से कूदते वक्त फिसल जाने से बड़े बेटे के पैर मे फ्रैक्चर हो गया। प्लाटर चढ़़ाने में बची खुची बचत स्वाहा हो गई। उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे।
 तभी फोन बज उठा जो उसके मालिक ने उसे दिलाया था। मालिक का ही काल था। "जी मालिक"... रमेश ने कहा। "सुन तेरे लिए एक काम है, करेगा?" उधर से मालिक की आवाज़ थी।
"जी, ज़रूर मालिक, लेकिन घर से कैसे निकलूं, ये लोग निकलने कहाँ देंगे?' रमेश ने किचिंत उत्साहित हुआ, लेकिन तुरन्त उदास हो गया।
थोड़ा संयम होकर पूछा,
"अच्छा, जी क्या करना है।"  रमेश ने पूछा।
दरअसल दो दिन से सरकार ने शराब बेचने की इजाज़त दे दी थी। मालिक ने शराब की कालाबाजारी करने के लिए बहुत सारा स्टाक जमा कर लिया था। पता नहीं कैसे पुलिस को खबर लग गई, सूचना मिली है कि पुलिस छापा मारने वाली है। मालिक ने रमेश को योजना बताई, "हम तुम्हें उस शराब का मालिक बताएंगे। लेकिन तुम चिंता न करो, ज्यादा से ज्यादा 3-4 महीने की जेल होगी तुम्हें। पीछे से हम तुम्हारे परिवार को भरण-पोषण का इंतज़ाम करेंगे। बस, शर्त है, हमारा नाम बिल्कुल नहीं लोगे तुम.."
रमेश ने उदास और हारी हुई दृष्टि बच्चों और पत्नी पर डाली और बोला "जी मालिक, मैं तैयार हूं"!
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 लघुकथा - 012

जीत जायेंगे हम
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                                               - महेश राजा
                                               महासमुंद - छत्तीसगढ़

      मनोहर लाल जी के घर के सामने एम्बुलेंस रूकी।आसपास के घरों की खिड़कियां और झरोखे खुल गये।
    गाड़ी से मनोहरलाल जी उतरे साथ में डाक्टर और स्टाफ थे।सभी ने उनका अभिवादन किया।कमला देवी ने दरवाजा खोला।मनोहरलाल जी को पूर्ण स्वस्थ देखकर उनकी आँखों से आँसुओं की अविरल धारा बहने लगी।एक मौन और धन्यवाद भरी आँखों से कमलाजी ने हास्पिटल स्टाफ को नवाजा।मनोहरलाल जी ने हाथ जोड़कर सबको नमस्कार किया।एम्बुलेंस आगे बढ़गयी।आसपास के लोगों ने अपने अपने घरों से तालियां बजाकर उनका स्वागत किया।
   दरअसल आज से कुछ दिनों पहले मनोहर लाल जी महीने का सामान लेकर आटो रिक्शा से उतरे।भीतर पहुंच कर पानी पीया और आराम करने लगे।शाम होते ही उन्हें बुखार जैसा महसूस हुआ और थोड़ी खांसी भी लगने लगी।
   कमलाजी को बताने पर उन्होंने तुलसी का काढा़ और अदरक वाली चाय पिलायी।रात को खिचड़ी खाकर सो गये।
   मनोहरलाल जी अपनी पत्नी कमलादेवी के साथ एक छोटे से शहर में  रहते थे।दोनों बेटे पत्नी व एक पोते सहित अलग अलग शहरों में अपने काम के सिलसिले में रहते।।साल में दोतीन बार वे आजाते।दो तीन बार मनोहरजी चले जाते।शरीर स्वस्थ था।हाँ उमर हो गयी थी।पर,इस छोटी सी जगह का मोह छूट नहीं रहा था।
    अगली सुबह उन्हें साँस लेने में तकलीफ़ हुयी तो जरा भी नहीं धबराये टीवी पर बताये ईमरजैंसी नंबर डायल किया।अपने को अलग कमरें में बंद कर लिया।उससे पहले कमला देवी को ढ़ाढ़स दी।समझाया।दरअसल महामारी ने समूचे विश्व को परेशान कर दिया था।
 एम्स से डाक्टर और एम्बुलेंस आयी उन्हें अपने साथ ले गयी।
   .और आज वे अपने आत्मविश्वास और संबल की वजह से सही सलामत लौट आये थे।
  पत्नी कमला को रोते देखकर हँसे,-"अरी पगली,इतनी जल्दी तुम्हारा पीछा नहीं छोड़ने वाले और अभी तो तुम्हें नाथद्वारा भी तो ले जाना है,प्रभु के दर्शन को।"कमलाजी हँस पड़ी।
   मनोहर लाल जी समझदार थे।वे अब भी सोशल डिस्टेंशन का पालन कर रहे थे।खानपान का भी पूर्ण ख्याल रख रहे थे।आखिर जिंदगी की जंग जीत कर आये थे।अस्पताल में भी डाक्टर्स ने उनकी हिम्मत और सहयोग की तारीफ़ की थी।
  बेटे बहू और पोते के फोन आ रहे थे।सब उनकी कुशलता जानने को ईच्छुक थे।पोता कह रहा था दादा,आपकी बड़ी याद आ रही थी,पर ट्रेन और हवाई यात्रा बंद है।हम सब घरों में बंद है। उन्होंने ने बताया ,-"बेटा इस तरह की बीमारी, या महामारी से ड़रने की बिल्कुल जरूरत नहीं ,सिर्फ़ थोड़ी सी सावधानी और समझदारी की जरूरत है।सोशल डिस्टेंशन बनाये रखना जरुरी है,और घर पर ही रहना है।प्रशासन हमारी पूरी मदद कर रहा है।वफिर  हँस कर बोले,बेटा कोई बात नहीं।और हाँ चिंता मत करना।अभी तो मुझे  तुम्हारे विवाह में शामिल होना है।और वे ठहाके लगा कर हँस रहे थे।
  तभी उन्हें फोन पर सूचना मिली कि थोड़ी देर बाद माननीय मुख्यमंत्री महोदय उनसे बात करने वाले हैं।
   वे पूर्ण उत्साह के साथ पत्नी के साथ मसाले वाली चाय पी रहे थे।
   टीवी पर सभी चैनल्स पर नीचे वाली पट्टी में उनके अस्पताल से सकुशल होने की खबर दिखायी जा रही थी।
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 लघुकथा - 013

  खाली दिमाग 
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                                    - मीरा जैन
                                            उज्जैन - मध्यप्रदेश

आखिरकर आज प्रवीणा का पारा बढ़ ही गया लगभग डांटते हुए बोली -
' रोज-रोज यह क्या तमाशा लगा रखा है जब देखो तब फोन उठाया और लग जाते हो रोमी से बातें करने  न हीं वह तुम्हारा दोस्त है ना कभी तुम उसके घर गए ना कभी वह तुम्हारे घर आया क्लासमेट है तो क्या हुआ हर चीज की लिमिट होती है पजल, जनरल नॉलेज, गणित आदि के बारे में पूछना है तो मैं और अभी तो तेरे पापा भी घर पर ही है कोई जरूरत नहीं कल से उससे बात करने की, ज्यादा ही बोर हो रहा हो तो कभी कभार अपने दोस्तों से बात कर लिया कर समझा' जवाब में मिंटू बस इतना ही कह पाया -
'मम्मी !आप लोग तो मेरे साथ घर पर ही हो पर उसके मम्मी पापा घर पर नहीं है उसे  अकेलापन महसूस ना हो इसलिए मैं उसे फोन लगाता हूं उसके मम्मी पापा कोरोना वारियर्स है '
इतना सुनते ही प्रवीणा का सारा गुस्सा काफूर हो गया उसने मिंटू के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा- ' 'वास्तव में तुम भी कोरोना वारियर्स हो '
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 लघुकथा - 014

 सहयोग
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                                                       - नरेन्द्र श्रीवास्तव
                                               गाडरवारा - मध्यप्रदेश

लॉक डाउन का आज दूसरा दिन था।
    मिश्रा जी अपनी पत्नी के साथ बैठे चाय और पकौड़े का मजा ले रहे थे। चाय का सिप लेकर मुस्कराते हुए पत्नी से पूछने लगे - " क्यों, घर में दूध है क्या? 
हाँ, क्यों? चाहिए क्या ...? " पत्नी जी बोलीं।
" चाहिए नहीं, खीर खाने का बहुत मन हो रहा है। आज के खाने में खीर बनाकर खिला दोगी तो मजा आ जायेगा " -मिश्रा जी चुटकी लेते हुए बोले।
" हाँ... हाँ... क्यों नहीं...  तभी मोबाइल की घंटी बजी  तो  पत्नी ने  बात बीच में छोड़कर मोबाइल उठाया और  पड़ोसिन कमला बहन से बात करने लगीं ... और पूरी बात सुनकर "  हाँ... हाँ जरूर। अभी बताती हूं  "... कहते हुए उन्होंने फोन रख दिया। फिर पति से बोलीं - " अपनी पड़ोसिन कमला बहन का फोन था। उनका दूधवाला आज नहीं आया । उन्हें दूध की जरूरत है।अब आप  बताओ, आपके लिए खीर बनाऊँ या कमला बहन को दे दूँ ? "
" खीर फिर कभी, अभी कमला बहन को दूध दे आओ। लॉक डाउन में उनके बच्चे वगैरह सभी परेशान हो रहे होंगे " - मिश्रा जी तुरंत बोले। 
" मैं भी यही चाह रही थी " कहते हुए पत्नी उठीं और फ्रिज से दूध लेकर कमला बहन को देने चलीं गईं।
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लघुकथा - 015                                                         

लॉकडाउन
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                                           - डॉ. दुर्गा सिन्हा ' उदार '
                                              फरीदाबाद - हरियाणा

“ क्या बात है सुमित्रा ... इधर-उधर चहलक़दमी कर रही हो । कुछ बेचैनी है क्या ?”   
  मौलिक ने पत्नी के कंधे पर हाथ रखते हुए प्यार से पूछा ।
“कुछ नहीं !” पत्नी ने उदासी भरे स्वर में छोटा सा उत्तर  दिया
“ फिर भी ..कुछ तो है ..बताओ 
बात क्या है ?”
पत्नी  के मुख  की ओर एकटक देखते हुए ,प्रश्न भरी निगाहों से पूछा ।
“ मैं.. मैं.. “ कहते -कहते रुक गई सुमित्रा । मौन , मौलिक की ओर देखने लगी।
“ हाँ-हाँ .. कहो..कहो ना..  क्या मैं.. क्या चाहती हो ..?” पति ने फिर प्यार से पूछा । कई दिनों से सुमित्रा की हालत उससे देखी नहीं जा रही थी ।
“ मैं ... थक गई इस लॉकडाउन से.. “ खीझ कर सुमित्रा ने कहा
“ वो तो हम सभी थक गए हैं।  परेशान हो गए हैं... सभी का हाल एक सा ही है । हम तो रिटायर्ड हैं , कमाने खाने की चिंता नहीं । ज़रा उनसे पूछो जो रोज़ कमाते -खाते थे । वो कैसे ज़िन्दगी सँभाल रहे होंगे । अभी 
कुछ समय और ऐसे ही रहना होगा । बचाव का यही तरीक़ा है। क्या किया जा सकता है।”
   पति ने समझाने और ढाढ़स बँधाने की कोशिश की
“ अब सहन नहीं होता .. धैर्य का बाँध टूट सा रहा है । न बच्चे आ पा रहे हैं , न ही हम जा पा रहे हैं । करें क्या ?”
“ यह लो ..” मौलिक ने एक पैकेट सुमित्रा को पकड़ाया 
“ क्या है..?” 
“ ख़ुद ही देख लो ..”
“ अरे.... वाह ...! मज़ा आ गया इतना सुन्दर लैपटॉप ... मेरे लिए .. मेरा है ..” 
“ हाँ .. बिलकुल तुम्हारा .. तुम तो अब expert. हो गई हो,अब तो चाहिए था ... “
“ मैं पहले बच्चों से बात करती हूँ ... समय क्या हुआ है ... बच्चे अभी सोए तो नहीं होंगे न ....?”
    सुमित्रा ख़ुशी -ख़ुशी बच्चों को नं० मिलाने जा ही रही थी कि घंटी बजी 
“ हलो.... हैप्पी मदर्स डे माँ “
आवाज़ के साथ -बच्चों का चेहरा भी सामने आ गया 
“ अच्छा तो यह तेरी चाल है ...”
     पूरे वातावरण में  ख़ुशी की लहर छा गई । लॉकडाउन ख़ुशियाँ भला कैसे छीन सकता था ।
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लघुकथा - 016                                                           

अमर - प्रेम
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                                                - डॉ. विनीता राहुरिकर
                                                    भोपाल - मध्यप्रदेश

नर्स ने दोनों को इंजेक्शन दिया और दो मिनट तक उनकी गिरती हालत को देखती रही। दोनों वेंटीलेटर पर थे और अब बचने की कोई आशा नहीं थी। नर्स की आँखों मे आँसू आ गए।
महीने भर बाद उनका विवाह होना था। लेकिन तभी वैश्विक आपदा के रूप में यह महामारी कहर बनकर टूट पड़ी। ऐसे में अपनी निजी खुशियों को परे रख वे रात दिन मरीजों को बचाने के लिए इस बीमारी से जूझते रहे। दो महीने तक वे दोनों लगातार मरीजों की सेवा में जुटे रहे। न दिन देखा न रात। जितने लोगों को बचा सकते थे बचाया। ठीक होकर जाने वाले मरीज उन्हें भगवान का रूप कहते।
अस्पताल ही उनका घर बन गया और मरीज उनके आत्मीय स्वजन, स्टाफ ही उनका परिवार। 
साथ काम करते हुए भी बस आते-जाते एकदूसरे को देखकर आँखों ही आँखों मे सांत्वना दे देते "चिंता मत करो हम सदा साथ मे रहेंगे। हमारा प्यार अमर है। कुछ ही दिन की परेशानी है फिर तो हमेशा के लिए...." 
और पता नहीं कब, किस मरीज का इंफेक्शन उन्हें लग गया और दोनों ही एक साथ इस वार्ड में अगल-बगल मौत से संघर्ष कर रहे हैं आठ दिन से।
अचानक मॉनिटर पर बीप की आवाज बन्द हो गई। टेढ़ी-मेढ़ी होती लकीर सीधी हो गई।
नर्स की आँखों से आँसू बहने लगे। सामने खिड़की पर सूरज ढल रहा था। नर्स को लगा दोनों देवदूत जैसे ढलती साँझ के सुनहरी रथ पर सवार अपने घर जा रहे हैं। मानवता के इतिहास में उनका नाम भी स्वर्ण अक्षरों में लिखा जाएगा।
"आपका दोनों का प्यार सचमुच अमर है डॉक्टर आपस में भी और मानवता के प्रति भी।" बहते आंसुओं के बीच वह मुस्कुराकर बोली। ***
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लघुकथा - 017                                                           

 कोरोनावायरस का लॉकडाउन
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                                                           - रेणु झा 
                                                         रांची - झारखण्ड

विमला प्रसव पीड़ा से परेशान थी,उसकी मां रमिया बेटी की छटपटाहट समझते हुए बोली,"सूरज विमला को जल्दी अस्पताल ले जाना होगा घर में प्रसव सम्भव नहीं है"। सूरज लॉकडाउन की वजह से परेशान सोच रहा,,,,,,,,,,,"कैसे अस्पताल लें जाय विमला को?"आखिर एक अॉटो रिजर्व कर विमला और उसकी मां को लेकर अस्पताल पहुंचा। वहां अस्पताल बालो ने विमला को भर्ती नहीं किया कहा,"यहां सिर्फ कोरोनावायरस से संक्रमित लोगों को भर्ती किया जाता है"। सूरज विमला को लेकर सदर अस्पताल की ओर बढ़ा।'रास्ते में पुलिस ने रोका,"इस महामारी की बन्दी में कहां जा रहे हो"? फिर पूछताछ शुरू, गाड़ी चेकिंग! समय जैसे जैसे बीत रहा था,'विमला की हालत बिगड़ी जा रही थी'। आखिरकार विमला की मां बोली,"बेटा मुसीबत में हैं,मदद नहीं कर सकते हो!औरत का दुख समझो! फिर पुलिस कर्मियों ने सभी को अस्पताल पहुंचाया"उन्होंने राहत की सांस ली। अस्पताल में औपचारिकता पूरी करने के बाद विमला को भर्ती कराया गया।"लगा डूबते को तिनके का सहारा"। डाक्टरों की देखरेख में विमला ने एक पूत्र को जन्म दिया।बच्चा देखकर रास्ते की अड़चन और परेशानी छू मंतर हो गया।"निराशा में आशा के अंकुर फूटे।"खुशी में चार चांद तब लगा जब शाम के वक्त एक पुलिस कर्मी आकर बोले,"जब अस्पताल से छुट्टी मिले,खबर करना,हम तुम सभी को घर छोड़ देंगे, ये लो हमारा नंबर।"
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लघुकथा - 018                                                        

आनंद के पल
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                                                 - रूणा रश्मि
                                                    रांची - झारखण्ड

शर्मा जी का पूरा परिवार एक ही कमरे में बैठा बातचीत कर रहा है। आज लॉकडाउन का आखिरी दिन है। शायद कल से यह प्रतिबंध समाप्त हो जाए। सभी अपनी अपनी पुरानी दिनचर्या में वापस आने के लिए उत्साहित हैं। तभी अचानक श्रुति का ध्यान गया, दादी का चेहरा उदास है। दादी के निकट जाकर मनुहार के साथ बोली --
  -- क्या हुआ दादी ? आप उदास क्यों हो ? लाकडाउन का प्रतिबंध समाप्त होने वाला है, आप खुश नहीं हो ?
       -- नहीं बेटा, ऐसी बात नहीं है। महामारी का इतना भारी संकट शायद हमारे ऊपर से टलने वाला है और इतने दिनों का प्रतिबंध भी हटने वाला है इसके लिए तो मैं बहुत खुश हूँ।  किन्तु वर्षों बाद अपने पूरे परिवार के संग एक साथ इतना वक्त बिताने का अवसर मिला, भय के माहौल में भी ये इक्कीस दिन खुशियों भरे रहे और कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। इसके लिए मैं तो इस कोरोना को धन्यवाद ही दूँगी। अब तुम लोग फिर इतने व्यस्त हो जाओगे कि किसी के पास मेरे साथ बैठने और बातें करने की फुर्सत ही नहीं होगी। मैं अकेली बैठी तुम लोगों का बस रास्ता ही देखती रहूंगी।
                           उनकी बातें सुनकर सभी की आंखें नम हो गईं। बहू सरला ने पास आकर उनके गले लगाते हुए उन्हें दिलासा दिया 
-- माँजी अब हम आपको शिकायत का मौका नहीं देंगे। इन इक्कीस दिनों में घर से बाहर नहीं निकलने और जीवन की आपाधापी से दूर शांति के इन क्षणों में हमने भी जिंदगी को फिर से जीया है। और हम सब ने यह निर्णय लिया है कि हम अपनी व्यस्ततम दिनचर्या  से भी प्रतिदिन एक साथ बैठने और बातें करने का वक्त जरूर निकालेंगे। और उस समय हमारा मन भी भयमुक्त रहेगा फिर हम एक दूसरे के साथ का भरपूर आनंद उठाएँगे यह हम सबका आपसे वादा है। ***    =====================================
लघुकथा - 019                                                           

संवेदना  
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                                              - वन्दना पुणतांबेकर  
                                                 इन्दौर - मध्यप्रदेश

आज सुबह से ही नेहा का मन व्यथित हो रहा था. मनु के पापा को अपने बड़े भाई के यहां बेंगलुरु में ठहरे हुए आज 15 दिन से ऊपर हो चुके थे. सारा गुस्सा बातों बातों में वह मनु के ऊपर निकाल रही थी. लॉक डाउन के चलते10 वर्षीय मनु घर में रहकर बोर हो चुका था.आते-जाते भूख की रट लगाए रहता. उसकी इस हरकत से परेशान होकर नेहा हमेशा मनु पर खीझती रहती. लॉकडाउन के चलते अब जरूरी सामान भी धीरे-धीरे खत्म होने लगा था. दिन में मनु बालकनी में खड़ा बिस्किट खा रहा था.तभी उसके हाथ से एक बिस्किट का टुकड़ा नीचे सड़क पर जा गिरा. तभी उसने देखा कि गली के डॉग मोती ने झठ से आकर उस बिस्कुट के टुकड़े को उठाकर खा लिया. मनु ने अंदर जाकर रोटी के डिब्बे से रोटी निकाली और  बालकनी से मोती को रोटी डाल दी. डब्बे की आवाज सुन नेहा की आँख खुल गई. उसने गुस्से से आकर मनु को दो थप्पड़ रसीद कर दिए. मनु की आंखों से  झर-झर आंसू बहने लगे.मनु की मां चिल्लाते हुए बोली-" यह क्या कर रहा है...?देख नहीं रहा घर का राशन धीरे-धीरे खत्म हो रहा है..., पापा  पता नहीं कब तक आएंगे, और तू डॉग को खाना खिला रहा है...मनु  रोते-रोते बोला-,"मम्मी मैंने तो एक रोटी निकाली थी. गलती से दो रोटी आ गई देखो ना सभी दुकानें बंद है. उसे कुछ खाने को भी नही मिल रहा है,नेहा क्रोध में अपनी संवेदनाओं को भूल चुकी थी.लेकिन मनु की संवेदना से उसे एहसास हो गया था. कि इंसान हो या जानवर भगवान ने पेट सभी को दिया है। मनु को अपने सीने से लगा कर बोली- "कोई बात नहीं कल से मैं इसके लिए एक रोटी ज्यादा बना दिया करूंगी. मनु ने खुश होकर नीचे देखा.तो मोती तृप्त आँखों से उसे निहारा था. मनु मम्मी की ओर देखकर आत्म संतोष के साथ देखकर मुस्कुरा उठा।
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लघुकथा - 020                                                        

भय मुक्ति 
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                                           - डॉ. सतीश शुक्ला
                                             मुम्बई - महाराष्ट्र

कोरोनाका संकट चारो ओर था.लॉक  डाउन अवधि  भी अनिश्चता पैदा कर रही थी .मधु कर जी वरिष्ठ नागरिक होने के नाते दो माह से अपने कमरे में ही क़ैद थे पत्नी न होने से निपट  अकेले थे भजन पूजन में मन रमाने का असफल प्रयास करते रहते थे 
घरके सदस्य कोरोना के संक्रमण का वास्ता  देकर उनके कारण घर में फैलने का भय जब तब दिखाते  रहते थे 
कलरात को हद हो गयी बहु ने उन्हें ड्राइंग  रूम  में बुलाकर  कहा "बाबू जी आप रोज़ समाचार देखते हो ना?अभी छह माह साल बाहर निकलने का मत सोचना .तुम्हारे कारण हम परिवार को संकट में नहीं डाल सकते है .तुम्हाराक्या तुम तो  जीवन मौत की देहरी पर  इंतज़ार में बैठे हो ,मगर हमे अपने बच्चो का भविष्य देखना है .इसलिएकान खोल  कर सुन लो अगर  देहरी के बाहर निकले तो मुड़ के मत आना ."उन्होंने बेबस  नज़रो से बेटे की ओर देखा जो लैपटॉप  में सर गड़ाए  बैठा था, मानोमौन स्वीकृति  दे रहा हो 
सुबहउन्होने एक झोले  में अपना आवश्यक सामान रखा और घर वालो  को भय मुक्त करने निकल पड़े 
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लघुकथा - 021                                                      

लॉकडाउन सदैव 
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                                    - आभा अदीब राज़दान
                                         लखनऊ - उत्तर प्रदेश

“ अब तो इस लॉकडाउन से बोर हो गए, बस अब बर्दाश्त नहीं होता । फिर से सामान्य जीवन हो जाए तभी सब सुचारू हो ।” नरेन्द्र ने अपने मित्र सुबीर से फ़ोन पर कहा ।
“ बर्दाश्त नहीं होता, यह क्या बात हुई । बर्दाश्त तो करना पड़ता है, फिर दिक़्क़त क्या है । सब घर में बैठे हैं, दोनों समय का भोजन मिल रहा है । और इस विश्व महामारी पर भी नियंत्रण किया जा रहा है ।” सुबीर गंभीर स्वर में बोला ।
“ क्या यार तुम कैसे इतनी सहजता से सब कह रहे हो ।” नरेन्द्र बोला ।
“ प्रकृति के घाव जिस तरह भर रहे हैं, वायु, नदी का जल, शुद्ध हो गया है । पशु पक्षी मगन हैं प्रसन्न हैं । मैं तो गंभीर रूप से सोंच रहा हूं कि कॉरोना को हराने के बाद भी इसी तरह का यह लॉकडाउन सप्ताह में दो दिन ज़रूर रखना चाहिए । और इसका हम सभी को बहुत सख़्ती से पालन भी करना चाहिए । हमारी आनी वाली पीढ़ियों के लिए यही अनमोल तोहफ़ा होगा । जब हमारी प्रकृति पेड़ पौधे जीव जन्तु हवा पानी सब स्वस्थ होंगे तभी हम भी स्वस्थ रह पाएँगे ।” सुबीर ने एक साँस में ही पते की बात कह दी थी ।
सुबीर की सच्ची व सार्थक बात नरेन्द्र को अधिक समझ न आई, बोला, “ चल भाई रखता हूँ एक और फ़ोन आ रहा है ।
सुबीर ने फ़ोन ऑफ़ किया और मन ही मन बोला , “ मूर्ख कहीं का ।” ***
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लघुकथा - 022                                                          

क्लैप तो बनता है
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                                                 -  पूनम झा
                                              कोटा - राजस्थान

आज तो फोन की घंटी पर घंटी बजी जा रही थी । शर्मा जी बहुत व्यस्त थे ऑफिस में । तभी उनके पुराने मित्र डा0 विनय का फोन आ गया । चूँकि शर्मा जी बहुत व्यस्त थे इसलिए उन्होंने सोचा कि फोन काट देते हैं । फिर मन-ही-मन बुदबुदाये 'अभी बड़ा विकट समय है, इसलिए फोन उठा ही लेता हूँ । अमूमन ये रात को बात करता है । आज अभी दिन में .. ........  ?'
"हैलो!!! विनय !!...."
"हाँ!!शर्मा!! क्या समाचार है ?"
"सब ठीक है  विनय ? आज अभी काॅल .......?"
"हाँ !! यार ! आज बहुत देर से बिजली बंद है । जेनरेटर भी ठीक से लोड नहीं ले रही है । इसलिए मरीज को  थोड़ा इंतज़ार करने कहा है ।"
"अच्छा!!तो दिन में भी दोस्त याद आ जाते हैं ?"
"सोचा इंजीनियर साहब से ही बात कर लूं । बिजली का हाल तो तुम ही सुनाओगे । अभी तो कुछ भी नहीं कर पा रहा हूूँ  ।"
"हूँ अअ..  ! मैं तो थर्मल पावर प्लांट में हूँ । यहां तो युनिट चालू है । वहीं आस-पास कोई फाल्ट होगा शायद । ठीक कर रहा होगा ।"
"हाँ!! ये तो सही है । थर्मल ठीक से चल रहा है ?"
"हाँ!! अभी तो चल ही रहा है ।"
"ओह! मेरा मोबाइल डिस्चार्ज होने वाला है ।"
डा0 विनय अपने मोबाइल को देखते हुए कहा ।
"ओके ! चार्ज करो तुम्हें तो ......।"
"वाह! पावर आ गई , अब रखता हूँ । पर तुम सभी बिजली विभाग के कर्मचारियों के लिए भी  क्लैप तो बनता है, यार शर्मा । एक डाक्टर का हाथ भी रुक सकता है यदि बिजली नहीं हो तो ।"
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लघुकथा - 023                                                         

लॉक डाउन 
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                                              - डॉ. वर्षा चौबे
                                            भोपाल - मध्यप्रदेश

तीनों बच्चे सुबह से खाने की रट लगाए थे ।अब कहां से देती कल्लो लॉक डाउन के शुरुआती दिनों में ही तो राशन खत्म होने लगा था और "फिर हम कोई बड़े आदमी थोड़ी हैं जो साल छह महीने का राशन रख लें। रोज कमाने खाने वाले लोग। कंट्रोल का अनाज महीना पूरा करा देता और फिर सच बात तो यह है कि हमें भी लाक डाउन का मतलब कहां समझ आ रहा था।" कल्लो  बड़बड़ाती  हुई  खुद से ही बातें कर रही थी ।
"अरे !कुछ देती क्यों नहीं इनको खाने?" रमेश ने जोर से चिल्ला कर कहा डांट खाकर बच्चे थोड़ी देर के लिए चुप हो गए ।
कल्लो फिर बोली "क्या साल भर का राशन लाकर रख दिए थे घर में जो इतना कोहराम मचा रहे हो। मैं मां हूं तुम्हारे बोलने से पहले ही दे ना देती।" झाड़ू लगाने का नाटक करती हुई बोली ।
"अरे उस दिन सामान बांटने वाले आए थे न वह सामान खत्म हो गया क्या?"
" कब का हो गया, आखिरी जो बिस्किट का पैकेट बचा था वह भी रात को मुनिया को दे दिया था ।"एक लंबी- सी सांस भररक  बोली।
 तभी बाहर के शोर-शराबे की आवाज सुन रमेश भाग कर गया और दौड़कर उल्टे पैर वापस आया "अरी सुन कल्लो वो खाने का सामान बांटने वाले आए हैं ।"
"हां तो तुम पिछले पांव घर में क्यों आए कुछ लेते आते ।"
"अरे वह पूरे परिवार को बुला रहे हैं तभी देंगे।"
"न मैं न जाती तुम चले जाओ और चाहो तो इन बच्चों को ले जाओ।"
" अरे तू भी चली चलेगी तो क्या बिगड़ जाएगा।"
" न जाती मै, देखा नहीं पिछली  बार देने से ज्यादा उनका ध्यान फोटो खिंचवाने में था। कैसे बार-बार सामान देते हुए फोटो खिंचवा रहे थे।"
" तो क्या हुआ ?"
"न मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा था, अरे हम भी मेहनत करके कमाते हैं कोई भीख थोड़ी मांगते हैं ,वो तो काम बंद......।"
" अरे अगर फोटो खिंचवा भी तो क्या हो जाएगा ?"
" ना जी मैं ना जाऊंगी अगर तुम्हें सामान दे तो ले आओ ।और सुनो नहीं तो कुछ रुपए जोड़े थे लेते जाओ अगर कोने वाली राशन की दुकान खुली हो तो उसमें से कुछ सामान ले आना तो बच्चों को खाना पका दूंगी।" कहती हुई कल्लो के अंदर चली गई।  रमेश के हाथ में रखे पैसे उसे तो तोल रहे थे।***
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लघुकथा - 024                                                           

 जीविका
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                                              - सेवा सदन प्रसाद
                                            मुम्बई - महाराष्ट्र

गाँव का खेत - खलिहान और बीच में खड़ा किसना ।किसना बहुत खुश हुआ , गेहूँ की फसल अच्छी हुई है।अब तो उसे गर्म ताजी रोटी खाने को मिलेगी।तभी लाॅरी की आवाज सुनाई पड़ीं।बापू ने किसना को पीछे हटने को कहा।लाॅरी पे सारी बोरियां लाद दी गई।लाॅरी चल पड़ी , किसना को लगा - रोटी गई।
        किसना भी दौड़ पड़ा।आगे - आगे रोटी ,पीछे -पीछे किसना।पीछा करता रहा।कभी बस से तो कभी ट्रेन से।अंततः पहुंच गया शहर, जो देश की राजधानी दिल्ली है।
यहां किसना को नौकरी मिल गई और रहने को घर भी।खाने को छोले बटूरे , 
फ्रायड राईस , चिकेन राईस आदि -आदि।अचानक तूफान की तरह महामारी का आगमन   हुआ।सब कुछ बंद।कारखाने बंद , बस - ट्रेन बंद , शहर बंद यानि टोटल लाॅकडाउन ।फिर खाने के लाले पड़ने लगे।सड़क पे समाज सेवियों द्वारा रोटियां बांटी जाने लगी।किसना भी लाइन में खड़ा हो गया।पर भीख की तरह मिली रोटी खाने की ईच्छा नहीं हुईं।
       फिर दौड़ पड़ा अपने गांव की ओर - -  खेत खलिहान की ओर ।महामारी से ज्यादा भूख की मौत से डर गया।अतः पैदल चल पड़ा -- कभी सड़कों पे - - कभी पत्थरों पे - - कभी रेल की पारियों पे ।बस चलता रहा।मजदूर जब थक जाता है तो उसे गहरी नींद आ जाती है।किसना सो गया - रेल की पटरियों पे।
        सुबह अखबार में एक खबर छपी , तस्वीर सहित। रेल की पटरियों पे रोटियां पड़ी थी और उसके पांच फीट पीछे - किसना की कटी हुई लाश ।
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लघुकथा - 025                                                          

सच्चे वाला प्यार 
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                                                 - नीलम नारंग
                                                   हिसार - हरियाणा

रमेश की उम्र 46 साल के करीब होगी छोटी सी परचून की दूकान सारा दिन ग्राहकों से कम दूकान के सामान से ज्यादा घिरा हुआ रहता | दो बच्चे जिनको पढ़ा लिखा कर कुछ बनाने की तमन्ना हर बाप की तरह उसके दिल में भी घर किये रहती थी | पत्नी सीमा भी घरखर्च में उसकी हर संभव मदद कर रही थी  कभी पी. जी . में खाना बनाती कभी सिलाई कढाई का काम करती | परन्तु  रमेश जब भी घर पहुँचता  अस्तव्यस्त घर और पत्नी को देखकर खीझ उठता और घर में कलह करके घर का माहौल ख़राब कर देता | पत्नी भी उसकी ओर से उदासीन रहने लगी |
           लॉक डाउन में सारा दिन घर में रहने को मिला तो देखा पत्नी सुबह से शाम तक किसी न किसी काम में वयस्त रहती ज्यादातर काम मोल का करती ताकि बच्चों को अच्छा भोजन मिल सके और उनका मनोबल बढाती | वह सारा दिन मोल के काम में लगी रहती और अपने लिए वक़्त ही नहीं निकाल पाती |  अब उसको अपनी गलती का अहसास हो रहा था और उसे लगा की सही मायने में तो अब उसे अपनी पत्नी से सच्चा प्यार हुआ है | प्यार जताया तो लगा की पूरा घर ही खिलखिला उठा है और उसने अपने आप से वादा किया की वह पत्नी के काम और सोच का सम्मान करेगा |          
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लघुकथा - 026                                                           

घंटी ने प्यास बुझाई 
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                                                     - अर्विना गहलोत
                                                ग्रेटर नौएडा - उत्तर प्रदेश

सुबह के समय  संन्नाटा इतना गहरा था केवल चिड़ियों ‌‌‌‌का   कलरव  सुनाई दे रहा था । लेकिन घर की खिड़की पर खड़ी   सोच रही थी कि चिड़ियों कि मधुर आवाज भी अब  मन को  शांत नहीं कर पा रही है  ।  पंद्रह दिन से   खिड़कियों से झांकते मासूम चेहरे अब शोर नहीं कर रहे ना ही खाने की फरमाइश । संन्नाटे को चीरती घर में न्यूज की आवाज  दिल को रह रह  कर दहला  जाती है   । इधर घर में बूँद पानी नहीं बाहर वायरस का खतरा अभी टला नहीं है।बाहर  निकल नहीं सकते ।
प्यास से व्याकुल बच्चों के चेहरे लटक चुके थे ।
कल्पना !  पानी तो बिल्कुल खत्म हो गया अब क्या   करें ‌?
जीजी ! जान बचानी हैं तो घर में ही रहो लेकिन कल्पना दूध के बगैर तो बन जायेगी लेकिन पानी के बगैर कैसे......... पानी वाला भी तो नहीं आ रहा  पानी के सारे बर्तन खाली हो गये है । 
नल से तो खारी  पानी आता है क्या पीये ? 
आस पास के मकानों में कोरोना वायरस के चलते सब लोग अपने गांव चले गए हैं ? 
जीजी घर के पीछे सड़क के किनारे एक झोपड़ी बनी उसके साथ एक छोटा सा खेत है मुझे लगता है वाहां  पीनें का पानी मिल सकता है 
चल छत पर चलते हैं यह घंटी ले चलते है बजाने के लिए ,  कल्पना सुमन जीजी  के साथ ऊपर आ गई देखा झोपड़ी के नजदीक एक आदमी बैठा  है । कल्पना ने जोर जोर से पीतल की घंटी को बजाना शुरू कर दिया एक कैन को रस्सी  की सहायता से छत से नीचे लटका दिया । आदमी ने घंटी की आवाज़ की दिशा में देखा तो कैन को लटका देख समझने में देर नहीं कि और थोड़ा नजदीक पहुंच गया । आदमी को आता देख कल्पना ने पूछा  पीने का पानी मिल सकता है । हमारे पास पानी नहीं है आदमी ने सुना तो कुएं की बोरिंग से एक बाल्टी पानी ले आया कल्पना ने एक केन लटका दी थी उसमें  आदमी ने पानी भर दिया ।
बहन जी जब जरुरत हो केन लटका कर इसी   घंटी को बजा देना इस से वातावरण भी शुद्ध होगा  और मैं आवाज सुनकर पानी भर दुंगा ‌। ईश्वर करे यह आपदा की  घड़ी जल्द समाप्त हो जाये।  वर्ना स्थति भयावह हो सकती है।
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 लघुकथा - 027

कोरेन्टाइन
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                                             - डॉ. विभा रंजक ' कनक '
                                          दिल्ली
   
नरेश को दो दिन से बुखार के साथ खाँसी भी थी। अब तो कँपकँपी भी होने लगी थी पत्नी ने घबडाकर अस्पताल खबर कर दिया। अस्पताल वालों ने उसके परिवार के चारो सदस्यों को ले जाकर कोरेन्टाइन कर और घर को चिन्हित कर दिया।देश में करोना नाम की बीमारी पसर चुकी थी  सारा शहर लॉकडाउन था। सभी का करोना का टेस्ट हुआ और उन सबको पंद्रह दिनों के लिए कोरेन्टाइन में रखा गया था। नरेन की माँ उम्र दराज थी इसलिए उनका विशेष ध्यान रखा जा रहा था। नरेश को अकेले में परिवार की दूरी खल रही थी।यह तो कोरेन्टाइन की दूरी थी पर कुछ दुरियां तो उसने खूद बनाई थी।अपने पिता के देहांत के बाद माँ उसके पास आकर रहने लगी।एक घर में रहते हुए भी उसके पास माँ से मिलने और बात करने का समय नहीं होता था। उसे याद आया अभी तीन महिने पहिले उसका विवाह का वर्षगांठ था। वह माँ के पास पाँव छुकर आर्शीवाद लेने गया था। अभी पाँव छुने के लिये नीचे कर झुका ही था कि मोबाइल बज उठा वह हेलो कहता तत्काल वहाँ से निकल आया। उसने दुबारा फिर पाँव छुने या माँ से आर्शीवाद पाने की चेष्टा नहीं की। उसने यह भी नहीं सुना कि माँ ने उसे क्या आर्शीवाद दिया। एक घर में रहते हुए भी उसकी भेंट बच्चों से भी बिरले बात होती थी। छोटे थे जब यह दुकान से आता तब बच्चे सो चुके होते थें जागता तब बच्चे स्कूल जा चुके होते थे। कब बडे हो गये पता ही नहीं चला। उसने कभी अपने दोनों बच्चों को प्यार से अपने पास बिठाया ही नहीं। दोनों बेटे आज भी उससे बात करने में झिझकते हैं।उन्हें जो भी बातें कहनी होती है उनकी तरफ से उनकी माँ कहती है।उसकी पत्नी भी कहती रहती थी
" थोडा समय मेरे साथ बिताया करो.. यह वक्त दुबारा नहीं आएगा.. वक्त बीत जाएगा.. तब बडा पछतावा होगा..!" 
तब वह खीज कर कहता
" यह जो कमा रहा हूँ.. किसके लिए.. तुम लोगों के लिए न..बैठूंगा तब पैसा कहाँ से आएगा..!
आज पता चला पैसे से बढकर भी दुनियां में परिवार होता है।इस कोरेन्टाइन ने उसे परिवार का महत्व समझा दिया।वैसे पहली रिपोर्ट निगेटिव आया है पर यह पंद्रह दिन उसे काटे नहीं कट रहे थे।वह ईश्वर से प्रार्थना करने लगा एक बार भगवान उसे करोना से निकाल दें उसे माफ कर दें अब वह अपने परिवार को कभी भी कोरेन्टाइन में नहीं जाने देगा....!
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लघुकथा - 028                                                          

विवशता 
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                                                     - प्रज्ञा गुप्ता
                                                    बाँसवाड़ा - राजस्थान

राजू राजस्थान के एक गांव का निवासी है । मुंबई में अपनी पत्नी रमा के साथ मजदूरी करता है ।कोरोना वायरस का संक्र मण फैलने से पूरे देश में लॉक डाउन हो गया था । सरकार द्वारा मजदूरों के खाने-पीने का पूरा इंतजाम किया गया था और उनसे अपील की गई थी  कि अपने घरों में ही रहें।राजू और रमा कोरोना की वजह से किसी भी तरह  से अपने गांव जाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने जैसे तैसे पैसे की व्यवस्था भी कर ली थी।  एक दिन राजू को पता चला कि शराब बिक रही है वह रमा से बहाना बनाकर शराब खरीदने चला जाता है शराब खरीदकर छककर पीता है और लड़खड़ाता हुआ घर वापस आता है। रमा,राजू को देखकर अवाक रह जाती है और उससे पूछती है कि "गांव जाने के लिए जो पैसे तुम्हारे पास थे वे कहां हैं ?" इस पर राजू नशे की हालत में ही हाथ हिलाकर कहता है "उन पैसों की तो मैंने शराब पी ली है।"  यह सुनते ही रमा धम्म से वहीं पसर गई और उसकी आंखों से विवशता के अश्रु गालों पर अविरल बहने लगे थे।
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 लघुकथा - 029

कोरोना वायरस का लॉक डाउन
                                     - हरज्ञान सिंह सुथार हमसफर
                                     फतेहाबाद - हरियाणा

जिस दिन दीदी मायके आई थी उसके अगले ही दिन lockdown की घोषणा हो गई दीदी के आने से घर में एक खुशनुमा माहौल बन गया था यूं भी उसे मायके आने का मौका कब मिलता था जीजू एक बिजनेसमैन है और वे हमेशा अपने कारोबार में व्यस्त रहते हैं दीदी के आने से पिताजी भी बहुत खुश थे उन्हें अपनी बिटिया से बात करने का भरपूर मौका जो मिला था खाना खाने के बाद सारा परिवार भरपूर मनोरंजन करता था दीदी चुटकुलों की माहिर थी और चुटकुले सुना सुना कर पूरे परिवार को खुश रखती थी आखिर 1 महीने के बाद lockdown मैं कुछ छूट की घोषणा हुई आज मैं दीदी को छोड़ने उसके ससुराल जा रहा था पूरे घर में खुशी का माहौल था l lockdown का एक महीना कब गुजर गया हमें पता ही नहीं चला ।
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लघुकथा - 030                                                           

राशन
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                                              - सतीश राठी
                                                    इन्दौर - मध्यप्रदेश

इक्कीस दिन की तालाबंदी ने उसके झोपड़े में सब कुछ अस्त-व्यस्त कर दिया था । घर से बाहर निकला तो देखा  कि  एक स्थान पर कुछ लोग राशन का वितरण कर रहे हैं ।वह वहां पर जाकर खड़ा हो गया।
 एक व्यक्ति ने उससे पूछा," राशन चाहिए क्या?"
 उसने कहा," चाहिए तो सही लेकिन आप वीडियो तो नहीं बनाओगे।"
 उस व्यक्ति ने पूछा," क्यों वीडियो से  भला क्या दिक्कत है।"
 उसने बड़े ही विवशता भरे स्वर में जवाब दिया," मैं नहीं चाहता मेरे बच्चे मुझे किसी वीडियो में भीख मांगता हुआ देखें।" ●●●
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लघुकथा - 0 31                                                         

लाॅक डाउन
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                                                     - सीमा गर्ग मंजूरी
                                                         मरेठ - उत्तर प्रदेश

दूरदर्शन और समाचार पत्र कोरोना वायरस संक्रमण के बिषय में प्रमुखता से समाचार प्रकाशित कर रहे हैं । 
चहूँओर सन्नाटा है साथ ही भयभीत जनता लाॅक डाउन के कारण घर में बंद बैठी हैं । सामाजिक संगठनों द्वारा गरीब जरुरतमन्द लोगों को दूध और भोजन निशुल्क मुहैया कराया जा रहा है ।
ऐसे खस्ताहाल समय में दिहाड़ी मजदूर दीनू बेहद चिन्तित है  
हल्की बूंदाबांदी से बचने के लिए बीबी बच्चों को पेड़ के समीप सीमेंट के पाइप में  सुरक्षित बिठाकर खुद पाइप के ऊपर बैठ कर दीनू सोच में गुम हो गया ।
तीन छोटे बच्चों के साथ पत्नी और स्वयं दीनू पांचों के लिये रोटी का जुगाड़ न कर सकने के कारण दीनू का मन रूंआसा हो रहा है ।
भूख से व्याकुल बीबी बच्चों के मासूम चेहरे उतरे हुए हैं ।
टोकरे में पड़े कुछ खाली बर्तन पेट की भूख शांत नहीं कर सकते ।
पेट तो रोटी से ही भरता है ।
मेरे ये मासूम बच्चें और भुखमरी के हालात सोचकर दीनू का कलेजा मुंह को आ रहा है ।
" हे भगवान ! इस लाॅक डाउन के समय में कहाँ से कैसे पेट भरने का जुगाड़ करूँगा "।
इस बार अतिवृष्टि के साथ ही मोटे मोटे ओले-बरसात से खेतों में खड़ी फसल चौपट हो गयी ।
खेतों में कहीं भी कामगारी नहीं मिली थी । भूखों मरने की नौबत आ गई थी ।मरता क्या नहीं करता । तो अब दीनू पेट पालने की खातिर कुछ दिन पहले ही परिवार के साथ शहर में आया था । 
अभी तक परिवार के लिए एक झोंपड़ी भी नहीं जुटा सका था कि कोरोना के कारण सरकार ने लाॅक डाउन कर दिया ।
सोचते हुए दीनू को अपनी मां की याद आ गयी । 
मेरी माँ जब काम करती थी तो खुशी-खुशी मैया रानी के भजन गाती रहती थी । जिसके कारण बुरे वक्त में भी मां के चेहरे पर मुस्कान तैरती रहती थी । और वह खराब वक्त भी  निकल जाया करता था ।
अब दीनू की आंखों में भी उम्मीद की चमक सी तैरने लगी । जिस ईश्वर ने पेट दिया है वही संकट के समय खाने का जुगाड़ भी करेगा ।
दीनू ने मन-ही-मन माता रानी का नाम लिया ।
" हे माता रानी ! अब तुम ही हमारी पालनहारी हो "। 
अचानक सामने से सामाजिक संस्था की भोजन गाड़ी आती दिखाई पड़ने लगी । ●●●
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लघुकथा - 032                                                           
 

 गो कोरोना गो 
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                                              - मुकेश कुमार ऋषि वर्मा
                                                 आगरा - उत्तर प्रदेश

कोरोना वायरस का प्रकोप सारी दुनिया को सता रहा है | इस गंभीर समस्या से भारत भी अछूता नहीं बचा है | स्वास्थ्य विभाग पूरी तरह से अलर्ट होकर अपना कार्य पूर्ण ईमानदारी से कर रहा है | देशभर में लॉक डाउन लगा दिया गया है | देश की जनता घरों में कैद करा दी गई है, यह उनके हित के लिए ही किया गया है | 
तभी रातों-रात अपने दाव-पैंच चलाकर बने एक नये मुख्यमंत्री जी टी. वी. पर आ धमके | कोरोना पर ऐसा ज्ञान झाड़ा कि एंकर बेहोश होते-होते बचा | जब एंकर साहब को होश आया तो मंत्री जी से सवाल पूछ लिया -
‘सर, जब सारे देश में जनता कर्फ्यू लगा था, उस समय आप बिना मास्क लगाये सैकड़ों लोगों के बीच में सपथ ग्रहण समारोह का आयोजन कर रहे थे, तब आपको कोरोना का डर नहीं लगा | आज आप स्टूडियो में मास्क-वास्क लगाकर आये हैं, समारोह में तो आपके मुँह पर कहीं मास्क-वास्क नहीं था |’
मंत्रीजी एक विचित्र सी कुटिल मुस्कान बिखरते हुए बोले -‘ हमें जनता की चिंता है, स्वयं की नहीं | हम बड़े बैचेन थे जनता की सेवा करने के लिए |’
एंकर साहब सब समझ रहे थे मंत्रीजी के हृदयभाव -
‘अच्छा तो अब आपने जनता की भलाई के लिए और कोरोना से लड़ने के लिए क्या रणनीति बनाई है |’
‘जनता लॉक डाउन के समय घरों में छिपी रहेगी | यह कोरोना पर कड़ा प्रहार है | अगर जनता बाहर निकली तो हम सरकारी वायरस का प्रयोग कड़ाई से करेंगे |’
एन्कर साहब एक नये वाइरस, सरकारी वायरस का नाम सुनकर चोक गये | उन्होंने मंत्रीजी से इसके बारे में भी पूछ लिया |
मंत्रीजी शक्तिमान सीरियल के किलविष वाली हँसी हँसते हुए बोले -‘सरकारी वाइरस मतलब लट्ठ चटकाई’...
अब एंकर साहब पूरी तरह से समझ चुके थे कि वाकई इस देश की जनता इसी के काबिल है जो पूर्ण अंधविश्वासी होकर जाहिल गंवारों की तरह कोरोना जैसे खतरनाक वायरस को भगाने के लिए पागल बनकर ताली, थाली, ड्रम, टीन-टप्पर न जाने क्या - क्या बजाती हुई विजय जुलूस निकाल चुकी थी, मानो पाकिस्तान का विलय भारत में हो चुका था |
एन्कर साहब पुनः होश संभाल कर सवाल करने लगे -‘ तो सर! देश की जनता के लिए रोजमर्रा के उपयोग की वस्तुओं और खासकर मजदूर वर्ग के लिए आपने क्या सोचा है |’
मंत्रीजी अपनी घड़ी देखते हुए बोले -‘ अब हमारे निकलने का समय हो गया है, गो कोरोना गो...!’
और मंत्री जी चले गये |
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लघुकथा - 033                                                         

मजदूर दिवस
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                                                   - ललित समतानी
                                                      इन्दौर - मध्यप्रदेश

आज भी मजदूर चौक पर अभूतपूर्व सन्नाटा पसरा है, शहर में चारों ओर श्मशान सी शान्ती है । न कोई ठेकेदार न कोई कारीगर । दूर-दूर तक कोई उम्मीद नहीं कि इस माह भी लाॅकडाउन समाप्त होगा । दूरदर्शन पर मुख्यमंत्री का 'मजदूर दिवस' पर सन्देश प्रसारित हो रहा था कि कोई मजदूर भूखा नहीं रहेगा । वह बुदबुदाने लगा, साहब भूख के अलावा भी कई अन्य  जरूरतें पूरी करने के लिए भी मजदूरी चाहिये । अनायास ही उसका ध्यान जवान बहन के फट्टे आँचल की ओर खींच गया, पीछे से मुन्ने की मां उसे दुध मांगने पर झूठी तसल्ली दे रही थी और खाट पर लेटे पिताजी के कराहने की आवाज उसे बेबस कर रही थी ।  मुख्यमंत्री का सन्देश "मजदूर जिंदाबाद" के साथ समाप्त हो गया था । ●●●
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लघुकथा - 034                                                          
           
 योद्धा 
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                                        - ओमप्रकाश क्षत्रिय ' प्रकाश '
                                       रतनगढ़ - मध्यप्रदेश

गत बारह घंटे से भीड़ को रामदीन समझासमझा कर हार गया था,'' यार ! लोग भी क्या है ? समझते ही नहीं.''
'' मगर, वे भी क्या करें ? रोजीरोटी के लिए यहां आए थे. जब वही नहीं मिलेगी, तो यहां रह कर क्या करेंगे ?''
'' मगर, इस तरह से पलायन करेंगे तो वे भी मरेंगे और हम जैसे को भी मारेंगे,'' सिपाही रामदीन ने भीड़ से दूर होते हुए कहा,'' यार ! भूखप्यास से परेशान हो गया हूं. न जाने कब पानी और खाना मिलेगा ? लगता है ये कोरोना वायरस का डर न जाने कितने लोगों की जान ले कर रहेगा ?''
'' अरे वह देख, तेरी किस्मत अच्छी है,'' होशियारसिंह ने एक ओर इशारा किया,'' खाना और पानी आ गया है.'' उस ने एक स्वयंसेवी संगठन से खानापानी लेते हुए कहा, '' ले आ . मैं डूयटी करता हूं पहले तू खाना खा ले.''
'' हां यार, भूख लग रही है. मैं खाता हूं,'' कह कर रामदीन ने पैकेट खोल कर सामने रखा. खाने के लिए हाथ बढ़ाया था कि उस के सामने एक निसहाय व्यक्ति आ कर गिर पड़ा. 
रामदीन ने तत्काल उसे उठा लिया. यह देख कर होशियारसिंह चिल्लाया, '' क्या हुआ यार ?''
'' कुछ नहीं भाई ! दो दिन का भूखप्यासा राहगीर है. वह 200 किलोमीटर से पैदल चल कर आ रहा था. आते ही भूख्प्यास से गिर गया,'' यह कहते हुए रामदीन ने उसे खानापानी पकड़ा दिया. 
यह देख कर होशियारसिंह बोला,'' अरे यार ! तू भी तो भूखा है ?''
'' नहीं यार ! मुझ से ज्यादा खाने की इसे जरूरत है,'' कहते हुए रामदीन उसे खाना खाते हुए व्यक्ति को देख कर गुनगुनाया ,'' सही कहते हैं कि दानेदाने पर लिखा होता है खाने वाले का नाम.' ●●●
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लघुकथा - 035                                                        

लाकडाऊन 
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                                                       - अलका पाण्डेय
                                                           मुम्बई - महाराष्ट्र

लाकडाऊन और बढ़ जाने से आज नेहा का मन काफ़ी बैचेन हो गया वह पीछे अपने गार्डन में जा फूलों के संग खेलने व बतियानें लगी , 
गार्डन की ठंडी हवा औरफूलो की ख़ुशबू ने उसे खुशी मिलने लगीं पर विचारों को विराम नही ? 
वह फूलों से कह रही थी तुम तो मेरे पास सुरक्षित हो भगवान के चरण रज ले लेते हो परन्तु ,वहकिसान क्या करेंगे जिनकी खेती ख़राब हो रही है न मंदिर खुले है न मस्जिद न ही शादियाँ न अन्य समारोह हो रहे है । 
बहुत घाटा हो गया ारे फूल खेतो में ही मुरझा गये सरकार कुँछ कर नहीं रही है कहाँ जायेगे किसान करोड़ों का घाटा , 
“फूल भी अपनी क़िस्मत पर रो रहे होंगे हमारा जीवन व्यर्थ कर दिया,  लाकडाऊन ने ,हम लोगों के कितने काम आते थे , कितनी ख़ुशियाँ बाँटते थे ,लोग हमें पाकर कितनेखुँश होते थे ।परन्तु लाकडाऊन ने सबकी खुशियाॉ छिन्न ली , “तभी किरण के कान में हल्की आवाज़ आई फूल ने अपनी भाषा में जैसे कहाँ हो माँ दुखी  मत हो लोग ज़िंदा रहेगेतो हम भी ख़ुश व आबादरहेगे लोग मरते रहेंगे तो हम तो अर्थी पर भी नही जगह  पायेंगे , सुना है यह महामारी में मरने वालों को घर के लोगों को भी लाश नहीं दी जाती है लाशचुपचाप जला देते है। 
इतना दुख इंसान उठा रहा है हमारा दुख कुछ नहीं है । कुछ महिने में हम फिर सब जगह मुस्कुराते दिखेंगे आप “उदास मत हो माँ किरण ने फुल को बहुत प्यार से चुमा व गालो से सहलाया और कहाँ तुम सही कह रहे हो हम बचेंगे तब ही तो सब वापस पा जायेगे अभी तो सिर्फ़ सुरक्षित रहने व सुरक्षित रखने की जरुरत है , नेहा फूल के पास से उठी उसने सब पौधों को पानी दिया और गार्डन की सफ़ाई की तथा फूल को धन्यवाद दिया 
आज एक फूल ने उसको विषाद से बहार निकाल आशा की ज्योत जलाई थी ●●●
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लघुकथा - 036                                                        

अफीम 
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                                            - सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
                                             साहिबाबाद - उत्तर प्रदेश

" बिटिया ! तुम रिजाइन कर दो। मुझे तुम्हारी इस जाब की कोई जरुरत नहीं है ।" 
" ये कैसे हो सकता है , पापा ? यही तो वो वक्त है , जब ये तय होगा कि हम इन्सान हैं या इन्सान के रूप में जानवर हैं। "
" बिटिया , तुम्हारी जान या इज्जत ही न रही तो कौन और कैसे तय होगा कि तुम इन्सान थीं या जानवर और फिर इज्जत से बढ़ कर भी कुछ होता है क्या ? " 
" पापा , आप ये क्या कह रहे हैं ? किसकी हिम्मत है जो आपकी बेटी की इज्जत के साथ खिलवाड़ कर सके ? जहाँ तक जान  की बात है तो वो तो कहीं भी और किसी भी प्रोफेशन में जा सकती है ! "
" फिर भी बेटा ........? "
" ये तो आज तक कभी नहीं हुआ कि जिन लोगों की जान बचाने के लिये तुम लोगों ने अपना जीवन दांव पर लगा दिया हो , वही इतने अन्धें हो गये हों कि अस्पताल जैसी जगह पर बहन - बेटियों के सामने अपने सभी कपड़े उतार दें ? " 
" पापा ! आप चिंता न किजीये । मैने जब इस प्रोफेशन को अपनाया था , तब ही तय कर लिया था कि यहां सभी तरह के मरीज मिलेंगें । सिर्फ लाचार और मजबूर ही नहीं , कुछ एसे भी हो सकते हैं , जो किसी अफीम के नशे के रोगी हों , निरे जानवरों जैसे .......जिन लोगों ने ये हरकत की है उनका इलाज हर तरह से किया ही जा रहा है । सब ठीक हो जायेगा । आप ही तो कहा करते हैं कि इन्सान , इन्सान है या इन्सान के रूप में कुछ और , इस बात का पता  तब ही लग पाता है , जब कोई विपत्ती आती है । " 
" पर इन लोगों ने तो इंसानियत की सारी सीमायें लाँघ दी हैं , ये इन्सान कहाँ रहे ।" 
" ये अफीम के रोगी हैं , पापा ।
" कैसी अफीम ? "
 " अभी आप नहीं समझेंगें ।इन्हें बचपन से ही एक खास किसम की अफीम की आदत डाली गयी है । इनका इलाज थोड़ा मुश्किल जरुर है पर इंसानियत को बचाने के लिये करना तो पड़ेगा ही । " 
पापा , ड्यूटी पर जाती आत्मविश्वास से लबरेज बेटी को स्नेह  से देखते रहे । ●●●
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लघुकथा - 037                                                            

                 मेरा क्या कसूर                      
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                                                - बीजेन्द्र जैमिनी
                                                 पानीपत - हरियाणा

भईया ! भईया !! 
कौन ? 
मैं , आप का भाई सुन्दर ! दरवाजा खोलिए । 
अरे ! इतनी रात में कहाँ से आ रहे हो ?
मुम्बई से पैदल आ रहा हूँ । 
भईया तो सरकारी हिदायतों के कारण से असमंजस में पड़ गये । परन्तु भाभी ने पुलिस को फोन कर दिया । तुरन्त पुलिस आई और सुन्दर को अपने साथ ले गई । भईया  कुछ कर पाते , भाभी ने अपनी सूझबूझ दिखा दी । उधर सून्दर को  सरकारी अस्पताल ने कोरोना नैगेटिव घोषित कर दिया। परन्तु  सुन्दर फिर कभी भईया के पास नहीं आया। भईया की उदासी आज भी चेहरे पर साफ नज़र आती है ।मन ही मन कहता है मेरा क्या कसूर  ....?  ०००
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लघुकथा - 038                                                          
मां की दवाई
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                                              - प्रदीप गुप्ता
                                               अजमेर - राजस्थान

राजन सामान से भरे दो बड़े थैले लेकर घर में दाखिल हुआ । थैले पोर्च में रखकर पसीना पोछते हुऐ पत्नी मोना को आवाज़ लगाई - अरे भाई कहा हो । 
मोना बाहर आकर बोली- ले आए  सब सामान।बहुत देर लग गई।
हां भाई सब सामान आ गया। बच्चों की पसंद के बिस्किट मैगी और चॉकलेट भी ले आया हूं ।बहुत भीड़ थी सामान लेने वालों की और एक एक मीटर की दूरी पर खड़े होने से लाइन भी बहुत लंबी हो गई थी । दो घंटे लगे पर सारा सामान आ गया।
सामान बाहर ही छोड़कर हाथ साबुन से धोकर राजन नहाने चला गया।
जब राजन नहाकर बाहर आकर बैठा तो मां ने आवाज़ लगाई - राजन बेटा बाज़ार गया था मेरी दवाईयां भी लाया क्या ।
अरे मां आपको तो पता ही है कि दो महीने से कमाई बंद है बच्चों की फ़ीस भी भरनी है ।फिर आपकी दवाईयां भी  बहुत महंगी हैं कहां से लेकर आऊँ मेरे  पास बिल्कुल भी पैसे नहीं हैं।बड़ी मुश्किल से घर का जरूरी सामान लाया हूं।
पर बेटा दवाई भी तो जरूरी हैं।
अरे मां एक दो महीने में कुछ नहीं होता है  मैअगले महीने आपकी दवाईयां जरूर ले आऊंगा।
ठीक है बेटा जैसा तुम ठीक समझो । , मां थके स्वर में बोली।
तभी राजन के फोन की घंटी बजी। लाइन पर उसका दोस्त मनीष था ।
हां मनीष कुछ जुगाड हुआ क्या ।क्या हो गया ठीक है तू ऐसा कर मेरे लिए चार बोतल ले ले ।क्या महंगी मिल रही है कोई बात नहीं अब लेनी तो है ही। अरे तू पैसे की चिंता मत कर ।तू तो मेरे लिए चार बोतल ले ले ।ठीक है रखता हूं।
राजन की आंखो में बोतल की कल्पना से ही चमक आ गई थी ।●●●
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 लघुकथा - 039

कोरोना काल मे पति बेहाल
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                                                            - अंकिता सिन्हा
                                                  जमशेदपुर - झारखण्ड

वैश्विक महामारी कोरोना काल में देशभर में लॉकडाउन का तीसरा चरण 17 मई तक है। कोरोना काल मे पति लोगों का हाल बेहाल है। पत्नियां शेरनी का रूप धारण कर चुकी है। अब बेचारे पति को घर पर चूल्हा-चौकी, झाड़ू,,-पोछा, कपड़ा धोने पड़ रहै हैं।  लॉकडाउन में फेसबुक पर टिकटॉक बनाकर पतियों का खूब माखोल उड़ाया जा रहा है। लॉकडाउन में पति लोगों के बारे में कविता, गीत गाकर फेसबुक पर खूब हंसी-मजाक के रूप में दिखाया जा रहा है, जिसे लोग मनोरंजन का साधन बना लिए है। लॉकडाउन के कारण दिनभर बाहर रहकर कारोबार, डयूटी करने वाले पति घरों में लॉक है। घर से तो निकलना है नही तो वो भी मन मारकर पत्नियों के आदेश मान रहे हैं। यह अलग बात है कि अपने देश मे पति का दर्जा परमेश्वर का मिला है। पर समय बलवान होता है जो ना कर दे। लॉकडाउन में पति इस बात को लेकर चिंतित हैं कि जब काम ही बंद है तो घर का खर्चा, बच्चों की पढ़ाई का खर्चा कहा से आएगा। पर पत्नी को इस बात से क्या लेना उन्हें तो बस पति लोगों को सबक सिखलाते का सुनहरा मौका मिला हुआ है।●●●
=====================================लघुकथा - 040                                                        
लाॅकडाउन 
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                                                             - रंजना वर्मा
                                                         रांची - झारखण्ड

मालती अपने पति रमाकांत के मेडिकल रिपोर्ट का इंतजार कर रही थी। उसका दिल जोरों से धड़क रहा था।गलत गलत बातें दिमाग में आ रही थी।
        वह अपने पति के साथ दिल्ली में रहती थी ।उसका पति रमाकांत एक ढाबे में काम करता था। दोनों की जिंदगी बड़े मजे से गुजर रही थी ।तभी गाँव  में  उसकी सास की तबीयत खराब हो गई । रमाकांत को छुट्टी नहीं मिलने के कारण वह अकेले ही गांव अपनी सास के पास आ गई। करोना का प्रकोप इतना फैला कि लॉक डाउन की घोषणा पूरे देश में कर दी गई। लोग अपने-अपने घरों में सिमट कर रह गए। होटल और ढाबे सब बंद हो गए। रमाकांत बेरोजगार हो गया ।उसके सारे जमा पैसे खत्म होने लगे। भूखे मरने की नौबत आ गई ।घर का किराया देने लायक भी उसके पास पैसा ना था। मकान मालिक ने 1 महीने का किराया माफ कर दिया। लेकिन  बोला, अगर वह मकान नहीं छोड़ेगा तो उसे अगले महीने का किराया देना होगा। रमाकांत को समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करें। रेलगाड़ी और गाड़ियों का आवागमन बंद हो जाने के कारण वह वापस भी नहीं जा पा रहा था। अंत में और कोई रास्ता नहीं दिखने पर, वह और उसके गांव के युवकों ने पैदल ही गांव जाने का निश्चय किया। वे बड़ी संख्या में पैदल ही अपने गांव की ओर चल पड़े। कई मीलों का सफर करके जब रमाकांत गांव पहुंचा तो वह पस्त हो चुका था। रास्ते में कभी कुछ लोग कुछ खाना दे देते थे ,अन्यथा वह भूखा ही लगातार सफर करता हुआ अपने गांव पहुंचा। उसका शरीर बुखार से तप रहा था।उसकी हालत देखकर  अस्पताल से डॉक्टर, नर्स और सुरक्षाकर्मी आए और उसे सबसे अलग कमरे में रहने को बोल कर, जांच के लिए उसका सैंपल लेकर अस्पताल गयें । मालती की रोते-रोते हालत खराब थी।वह अपने भाग्य को कोश रही थी।
   " बधाई हो!टेस्ट निगेटिव  निकला।"
   मालती के आंसू भरे नैन खुशी से चमक उठे। ●●●●
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लघुकथा -041                                                             

व्यथा बाल मन की
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                                             - विश्वम्भर पाण्डेय " व्यग्र "
                                                गंगापुर सिटी - राजस्थान

जब छोटू पड़ोस के भाई साहब के यहाँ खेलने जाने को होता तो उसकी माँ ये कहकर मना कर देती कि बेटा, उनसे अपनी लड़ाई हो रही है, उनके यहाँ खेलने नहीं जाते,  ये सुनकर, नन्हा सा बालक मन मसोसकर रह जाता । पर कुछ अन्य घरों के बालक यदा-कदा खेलने आ जाया करते थे । पापा जी से मिलने वालों की कतार भी लगी रहती थी घर पर । सुबह से शाम तक छोटू का आज्ञा पालन में ही निकल जाता कि देखना गेट पर कौन है । पर अब पिछले एक महीने से ना वेल बजती, ना माँ गेट पर देखकर आने की कहती और ना ही घर पर कोई आता और ना ही छोटू अपने मम्मी पापा के साथ अंकल के घर पर ही गया । बालक मानों घर में कैद सा हो गया था । स्कूल का भी उसे इतना ही पता था कि छुट्टी चल रही है । 
             आखिर एक दिन उस नन्हें की वाणी मुखर हो ही गई और वह तुतलाती बोली में अपनी माँ से बोला- माँ, आजकल अपनी सभी लोगों से लड़ाई हो गयी है क्या ? जो ना हम किसी के जाते ना ही कोई हमारे आता ? ये सुनकर माँ एक पल के लिए अवाक सी रह गई और फिर तनिक मुस्कुराते हुए छोटू को समझाते हुए बोली- बेटे, ऐसा नहीं है पर, आजकल एक कोरोना रोग संसार में ऐसा  चल रहा है जो आने-जाने ,भीड़ इकट्ठा होने, किसी को छूने आदि से ही फैलता है इसलिये सरकार ने आने जाने, समूह रूप में इकट्ठे होने पर पाबंदी लगा रखी है अतः ना हम किसी के जाते और ना कोई हमारे घर आता । ये सुनकर बालक का चेहरा बुझ सा गया और अनमने मन से घर के अहाते में अकेला ही अपने खिलौनों से खेलने लग गया और माँ खड़ी-खड़ी बाल मन की व्यथा को समझे जा रही थी ।●●●
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लघुकथा - 042                                                                  

लॉकडाउन
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                                                     - डॉ. विनोद नायक
                                                        नागपुर - महाराष्ट्र

चींटियों को पता था कि पुरी दुनिया में मानव का लॉकडाउन चल रहा है।इसलिए प्रातःकाल से ही चींटियाँ  एक सीधी पंक्ति में , एकचाल से सेना सदृश्य शक्कर के डिब्बे की अोर चली जा रही थीं।शक्कर का एक एक दाना लेकर , कुछ चींटियाँ विजयी मुद्रा में, वापस लौट रही थीं।आती हुई चींटियों को जाती हुई चींटियाँ  बधाई दे रही थीं।
एक चींटी ने दूसरी लौटी हुई चींटी से पूछा -" अौर कितनी दूर है शक्कर का मीठा ढेर ? "ँ
दूसरी चींटी ने शक्कर का टुकड़ा नीचे रखते हुए कहा - "अभी तो सड़क पार करना होगा। सामने वाले घर की सीढ़ियाँ चढ़नी होगी फिर घर के अंतिम कमरे में , बड़े से डिब्बे में ढेर सी शक्कर मिलेगी। वहीं खा लेना अौर कुछ ले आना। "

पहली चींटी ने खुश होकर कहा - "फिर तो हमें हर दिन खाने को मिलेगी। "
दूसरी चींटी ने मुस्कुराते हुए कहा - " हाँ - हाँ , क्यों नही ? " शीघ्र जाअो। "
पंक्ति में लगकर पहली चींटी ने कहा - " ठीक है ठीक मैं शीघ्र जाती हूँ। बड़ी भूख लगी है । "
पहली चींटी , दूसरी चींटी से बोलकर , सड़क पारकर , सीढ़ियाँ  चढ़कर घर के अंतिम कमरे में रखे शक्कर के डिब्बे तक पहुँच गई।शक्कर खा कर स्वयं को तृप्त किया। फिर शक्कर का एक दाना लेकर वापस आ रही थी। सड़क पर तेज चाल में एक कार निकली तो कई चींटियों को रौंदते हुए निकल गई ।
पहली चींटी ने शक्कर का दाना वहीं छोड़कर चिल्लाते हुए कहा - " मानव का लॉकडाउन समाप्त हो गया है। मानव का लॉकडाउन सामप्त हो गया है। अब हमारा लॉकडाउन आरंभ हो गया है। घर से बाहर ना निकलना वरना मारे जाअोगे। "
बाकि चींटियाँ  लॉकडाउन का अर्थ समझ कर घर के अंदर हो रही थीं। ●●●●
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लघुकथा - 043                                                     

           लॉक डाउन 
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                                                   - चन्द्रकान्त अग्निहोत्री
                                                      पंचकूला - हरियाणा

 .......आप कहां जा रहे हैं ?शालिनी ने पूछा।
 ......ऑफिस ।.....गाड़ी आ रही है ।दिवाकर ने कहा।
......आपको खुद ही अभी  घर से बाहर नहीं जाना चाहिए।और वैसे भी इस तरह गाड़ी में जाना तो बहुत रिस्की है ।आपको क्या पता आपसे पहले गाड़ी में कौन - कौन बैठ चुका है ?....वैसे भी आजकल तो सब कुछ ऑनलाइन है।
.....तुम चुप रहो.फाइल्स भी तो आफिस में ही हैं। .... और वह  गाड़ी तो साहब की गाड़ी है।
.....तो क्या साहब को पता नहीं कि पैंसठ साल के ऊपर के व्यक्ति को घर से बाहर नहीं जाना चाहिए ?
.....कुछ सीनियर लोग जा सकते हैं ।जिनकी सरकार को जरूरत है ।

 ...तो फिर 55 साल के पुलिस कर्मचारी को  वापिस घर क्यों भेज दिया था ।  आप मत जाओ।किसी ने देख लिया तो हम सभी मुश्किल में पड़ जाएंगे ।किसी ने शिकायत कर दी तो ? .......अभी तक मन भरा नहीं  आपका। पचहत्तर हो चुके हो।
 ........कितनी बार बोलूं कि चुप करो ।नहीं पता होता तो मत बोला करो ।बहुत जरूरी है जाना।सी. एम ने बुलाया है और कुछ ऐसी नीतियां निर्धारित करनी है जो आने वाले समय में स्कूल के बच्चों के लिए लाभकारी हों।
....…तो अपने बच्चों के बारे में क्या? उनकी सुरक्षा के लिए नीतियां कौन निर्धारित करेगा और पालन करेगा?
.यह ऐसी बात है अगर किसी से जरा भी चूक हुई तो सारे परिवार को उसकी कीमत चुकानी पड़ेगी।और बच्चों की क्या गलती जो पिछले तीन महीने से मन मार कर बैठे हैं।और घर से एक कदम भी बाहर नहीं निकाला।लोग कहते है मूल से व्याज ज्यादा प्यारा होता है।पर यहां तो.......
 .......अच्छा.अगर तुम्हें जाना पड़ता तो तुम न जाती ?
......नहीं जाती क्योंकि अगर मैं न होऊं तब मेरे बिना भी  ऑफिस चलेगा। और मेरी प्राथमिकता सिर्फ मेरा परिवार है । 
.......तुम बस आगे और कुछ नहीं बोलोगी ।यह मेरा काम है मैं देख लूंगा ।कितनी बार समझाया है दिवाकर ने लगभग डांटते हुए कहा।
शालिनी को लगा। कि बोलने का कोई लाभ नहीं।जो उसने ठान लिया  वह करके ही रहेगा ।और उसके जीवन का लॉक डाउन तो विवाह के दिन से ही  शुरू हो गया था लगता है मरने के बाद ही खत्म होगा। ●●●
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लघुकथा - 044                                                       

 अपनापन
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                                          - दिनेश चंद्र प्रसाद " दीनेश "
                                            कलकत्ता - प. बगाल

                 शहर होते हुए  कोरोना गांव में घुस गया था। अब गाँव में ही अस्थायी अस्पताल में कोरोना इलाज चल रहा था। शहर से आने वाले मजदूर शहर से कोरोना उपहार लेकर आये थे। डॉ धर्म सिंह का चचेरा भाई भी कोरोना ग्रसित हो गया था । धर्म सिंह ड्यूटी उनके गांव में ही लग गयी थी। 
             चचेरे भाई चन्दर और उनके परिवार में बातचीत तक नहीं होती थी। घर के सभी लोग मना कर रहे थे कि आप उनका इलाज मत कीजिये वे हमारे दुश्मन है, मर जाने दीजिए उसे।
वगैरह-वगैरह न जाने क्या-क्या सबने कहा।
डॉ धर्म सिंह बोले-" देखिए दुश्मनी अपनी जगह है, इलाज अपनी जगह।
मैं एक डॉक्टर हूँ मुझे अपने भाई या दुश्मन का इलाज नहीं करना है।मुझे तो मानवता का इलाज करना है। यदि मैं चन्दर का ईलाज नहीं करूँगा तो दूसरा कौन करेगा । आखिर वो मेरे भाई ही तो हैं। यहाँ कोई दुसरा डॉक्टर आने वाला नहीं। वो मर जाएंगे  तो मेरा पेशा कलंकित होगा।"
          और आज चन्दर ठीक हो कर सारे गाँव में अपने छोटे भाई का गुड़गान करते नहीं थकते।●●●
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लघुकथा - 045                                                         

कोरोना योद्धा
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                                               - डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई
                                                   देहरादून - उत्तराखण्ड

         प्रधानमंत्री का संदेश...”जो जहाँ हैं वहीं पर रहें, मास्क पहनें, साबुन से हाथ धोते रहें”...दिन-रात बलराम के कानों में गूँजता रहता था। वह देख रहा था आसपास के सारे मजदूर कुछ घर जाने के लिए पैदल निकल गए थे और कुछ जाने की तैयारी में थे।
           वह सोचने लगा कि गाँव के लिए बच्चे और मेहरारू को लेकर निकल भी जाऊँ तो क्या गारंटी है कि सुरक्षित गाँव पहुँच ही जाएँगे! रास्ते में मरने की फजीहत से तो अच्छा है यहीं रहें। जिनगी होगी तो यहाँ भी बचेगी,नहीं होगी तो कहीं भी जाओ छोड़ ही जाएगी।
         उसने परबतिया को कहा.... “ सुन! जो तूने फटी धोती रखी हुई है उससे आज तू हाथ से सिल कर तीन-चार मास्क तैयार कर दे। मैं उसे लगा कर साथी लोगों को समझाने रोज जाऊँगा और बताऊँगा इस लॉक डाउन के समय इस तरह पैदल निकलना बहुत बड़े खतरे को बुलाना है। हम ना जाएँगे परबतिया! परधानमंतरी जो कहे हैं उसे मानते हुए यहीं रहेंगे और मैं कोरोना जोद्धा बन कर लोगों की मदद में जुटूँगा।”
           परबतिया ने इशारे से सिर हिलाया। अपने मरद की आँखों की चमक देखते हुए वह फटी धोती निकाल मुँह ढकने वाले मास्क सिलने लगी।●●●
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लघुकथा - 046                                                   

                                    इंतजार                                      ******
                                                 - डॉ. अजु लता सिंह
                                                    नई दिल्ली
                                            
खुशी से बबीता की बांछें खिल गईं थीं आज.दूरदर्शन पर पक्की खबर आ गई थी,कि उत्तरप्रदेश में बारात घर खुलेंगे,बशर्ते कि कुल बीस सदस्य ही  आयोजन में सम्मिलित होंगे. 
-तो क्या हुआ..वर पक्ष और हमारे मिलाकर आठ लोग बाकी बारह जरूरी वाले.कर डालो जी बस अब बच्चों की शादी..जेठ जी के बैंकटहाॅल में. लड़के वाले भी तैयार ही हैं वैसे भी.                                  
  -अरे क्यों बेकार की  बातें करती हो तुम.एस डी एम ऑफिस जाकर दोनों  बच्चों के गले में  परस्पर माला डलवाकर कोर्ट मैरिज करवा देंगे.   
 -कैसी बातें  करते हैं आप भी.एक ही तो लाडो है हमारी.कितनी लगन से सारी ड्रेसेस बनवाई हैं उसने हर फंक्शन के लिये अलग अलग,फिर कब पहनेगी भला?        
-ओहो!अक्ल पर जोर देकर समय का फायदा उठाना सीखो भाग्यवान!खाना-पीना,गहने,कपड़े, टैंट, कैटरिंग,फोटोग्राफी सभी का खर्च बचेगा.ऐसे नाजुक दौर में कोई आपत्तिजनक सवाल भी नहीं करेगा...समझीं.                              
-'हींग लगे न फिटकरी,रंग चोखो आय'बिल्कुल ठीक सोचा है डैड आपने.पापा मम्मी  की बातें सुनते हुए अचानक शोभा का छोटा भाई बोला.  
-नहीं करनी अभी मुझे शादी.अभी पूरी तरह से जरा लाॅकडाउन खुलने दीजिये, तभी थामूंगी जाकर उनका मजबूत हाथ और ससुराल की चाबियों  का गुच्छा. 
चेहरे पर संतोष और समझदारी के भाव लेकर सुनिधि ने भी अपना निर्णय सुना ही दिया.                                                            सामने वाले वर्मा जी की छत पर उनकी आठवीं कक्षा में  पढ़ने वाली बेटी जोर-जोर से दोहे रट रही थी-"धीरे धीरे रे रे मना धीरे सब कछु होय, माली सींचे सौ घड़ा ,ऋतु आए फल होए."              
इंतजार के लम्हे बढ़ते देखकर भी घरवालों की ओर निहारते हुए बेटी के पिता प्रफुल्लित और आश्वस्त लग रहे थे.    ●●● 
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लघुकथा - 047                                                      

भय से राहत
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                                         - प्रतिभा सिंह
                                         रांची - झारखण्ड

"ओह !..हर जगह ..कोरोना..कोरोना !! , आज तक ऐसी भयावह स्थिति कभी नहीं देखी जिसने पूरे विश्व को अपनी चपेट में ले लिया । अब यह भारत में भी पैर पसारने लगा है। " कहते हुए हितेश्वर बाबू  टी.वी. में आंख गड़ा दिए । आदि की मां अनसुना करते हुए  अपना काम करती रहीं । दस दिन से आदि को मुंबई से वापस बुला लेने की चिरौरी कर रही थी । 
           आदि की मां की बातों को तरजीह ना देते हुए  हितेश्वर बाबू कहते " अभी- अभी तो इतनी मंहगी फ्लाइट का टिकट करा कर भेजा है उससे कहो एहतियात बरते , बाहरी चीजें न खाए और साफ सफाई पर ध्यान रखे वहीं रह कर पढ़ाई करे । यहां आने से क्या होगा ...? "
 रोज की तरह सक्सेना साहब हितेश्वर बाबू के घर शाम चाय पीने आये पर आज थोड़े परेशान दिख रहे थे ।
 " क्या हुआ सक्सेना साहब ... ? "
" अरे !  क्या तुम्हें नहीं मालूम ? ...सारे स्कूल - काॅलेज बंद हो गये हैं  तो अमित को भी भुवनेश्वर से आना है पर टिकट नहीं मिल रहा , शायद ..कल कंफर्म हो इसलिए परेशान हूं यार "
" क्यों बुला रहे हो अभी तो वो भी गया है । वहीं रह कर पढ़ाई- वढाई करे बस थोड़ी सावधानी बरते ।"
 " ये कैसी बातें कर रहे हैं आप ...इस संकट की घड़ी में अपने बच्चों को क्यों छोड़ दें । नजरों के सामने रहेंगे        तो कम से कम तसल्ली तो मिलेगी  "
यह सुन हितेश्वर बाबू को जैसे अपनी गलती का अहसास हुआ और उन्होंने जोर से अपनी पत्नी को सुना कर कहा  । "आप ठीक कह रहे हैं सक्सेना साहब, मैं भी आदि के लिए टिकट  करा देता हूं  । कुछ समय यहीं रहेगा हमलोगों  के साथ, जब तक स्थिति  नियंत्रण में नहीं आ जाती  । "
यह सुन आदि की मां की आंखें छलछला गयीं सक्सेना साहब आज उन्हें ईश्वर तुल्य दिखाई दे रहे थे । ●●●
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लघुकथा - 048                                                           

 कड़वा सच 
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                                                   - डॉ. रेखा सक्सेना
                                                 मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश

"अजी सुनते हो, अपना बेटा घर आ रहा है।" " हाँ, हाँ "।
 "जानती भी हो, मुंबई से पैदल आ रहा है; कोरोना का लॉक डाउन जो चल रहा है। मेरी तो समझ में नहीं आ रहा; कैसे- कैसे वह घर पहुंचेगा? अपने गांव के तो कई लोग हैं। सब साथ में हैं। 8 दिन से पहले नहीं पहुंचेगा"।
     टीवी में समाचार सुनते ही सबके होश उड़ गए। पता चला जिस ट्रक से आ रहे हैं; वह तो दूसरे ट्रक से भिड़ गया। कुछ लोग मारे गए हैं।  "नहीं, नहीं ,ऐसा नहीं हो सकता"।
       पूरा घर जोर- जोर से रोने लगा, फिर पता चला कि कुछ लोग बच गए हैं। फिर धन्नो ने कहा  -"7 दिन तो हो गए हैं। जो बचे हैं ;उनमें हमारा बेटा जरूर होगा। मैंने सपने में देखा है"।
       अगले दिन उनके दरवाजे पुलिस पहुंची; चार प्रवासी मज़दूरों के साथ; उन्हें घर तक छोड़ने के लिए।
 घर के मुखिया धर्मपाल ने कहा--" साहब ,अभी रुको, इन्हें अभी 14 दिन पास में ही मेरा खेत है; वही रहने दो। हम वहीं इन्हें रोटी पानी दे आएंगे"।
       2 गज के फासले पर खड़े, आंखों में आंसू भरे रामू के मुंह से यही निकला-" हाँ- हाँ ,बाबू! यह सच है। 14 दिन के एकांतवास के बाद ही, मैं घर आऊंगा। मुझे खेत में ही दूर से रोटी- पानी जरूर- जरूर पहुंचा देना.......।" ●●●
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लघुकथा - 049                                                           
 जान है तो जहान है
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                                                    - गीता चौबे" गूँज "
                                                       राँची - झारखंड

          "अरे टाॅमी इतना हाँफ क्यों रहे हो? तुम तो शहर में किसी रईश के पालतू कुत्ता थे न? कितने ठाट थे तुम्हारे! सोफ़े पर सोना, महंगे बिस्कुट खाना... खुशबूदार साबुन से नहाना... इतनी सुख-सुविधाएँ छोड़ कर तुम जंगल में क्यों भाग आए?"
"अरे भाई क्या बताऊँ! वहाँ शहर में एक अजीब-सी बीमारी फैली हुई है जो मनुष्यों में एक-दूसरे को छूने से हो जाती है। "
" अब हारी-बीमारी तो लगी रहती है, उसके लिए भागने की क्या जरूरत थी? ऐसे में तुम्हें उनकी मदद करनी चाहिए थी। बड़े कृतघ्न निकले तुम हो! "
" वफादारी हम कुत्तों के खून में होती है, पर इतने दिनों तक मनुष्यों के साथ रहते-रहते मैं भी उन्हीं की तरह हो गया हूँ जो खून के रिश्ते तक की भी परवाह नहीं करते। स्वार्थ के लिए अपने भाइयों की जान लेने में भी नहीं हिचकते। फिर मैं तो उनका एक पालतू कुत्ता हूँ। नहीं भाई, मैं यह खतरा नहीं उठा सकता... आखिर जान है तो जहान है ।" ●●●●
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लघुकथा - 050                                                          

क्वारंटाइन  
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                                     - डॉ. अंजुल कंसल " कनुप्रिया " 
                                    इन्दौर - मध्यप्रदेश

   "यह खाना रखा है दादी"कहते हुए पोते मोहित ने थाली मेज पर सरका दी।
"मोहित बेटा सुन ये क्वारंटाइन क्या होता है?आजकल टी वी पर बार बार आ रहा है।"
"दादी इसका मतलब है फोर्टीन डेज तक अलग कमरे में रहना।दूर से ही बात करना और छूना नहीं।"
"अच्छा बेटा अब समझ आया,जब से तेरे दादू का देहांत हुआ है, मुझे भी क्वारंटाइन में रखा गया है"
"दादी मैं पापा से पूछ कर बताता हूं।"
मोहित जल्दी से दूसरे कमरे में आया, उसने देखा उसके मम्मी पापा और बहन खाने की मेज पर खाना खा रहे हैं,हंस हंस कर बात कर रहे हैं।
   "पापा आपने दादी को क्वारंटाइन में क्यों रखा है,क्या दादी को कोरोना हो गया है।"
"नहीं बेटा ऐसी बात नहीं है,तुमसे किसने कहा?"
दादी ने कहा-"तुम्हारे दादू के जाने के बाद से मुझे भी चौदह वर्षों से क्वारंटाइन में रखा गया है"।
"क्या यह सच है पापा-बोलो न"।
बेटे के मुंह से यह सुनते ही सुरेश का चेहरा उतर गया। ●●●
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लघुकथा - 051                                                           

गुल्लक
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                                           - डॉ. वन्दना गुप्ता
                                                उज्जैन - मध्यप्रदेश

ज़िंदगी के रंग कई रे... साथी रे...! रेडियो पर गाना बज रहा था और मैं अखबार में छपी न्यूज़ पढ़कर संवेदनाओं से तरबतर थी। गुनगुन एक दस वर्षीय बच्ची ने अपनी गुल्लक में से ग्यारह सौ रुपए कोरोना काल में पी एम रिलीफ फण्ड में दान किए थे। बच्ची का फ़ोटो भी छपा था। कितनी मासूम और प्यारी मुस्कुराहट थी उसके चेहरे पर... देश में आई विपदा की घड़ी में उसने अपना खज़ाना लुटा दिया। इस कठिन समय में ज़िंदगी की जंग से लड़ रहे अनेक मजदूरों के पलायन, घर में अनाज का पर्याप्त भंडारण होने के बावजूद फोन पर आग्रह कर खाद्य सामग्री मंगवाने वाले लोलुप लोगों की नकारात्मक खबरों के बीच गुनगुन की खबर ने मुझे सकारात्मक ऊर्जा से भर दिया।
तभी अचानक लड़ाई की तेज़ आवाज़ ने ध्यान भंग किया। उत्सुकतावश बाहर निकली, तो देखा कि मोटी पगार के साथ अतिरिक्त आय पाने वाला पड़ोसी ऑफिसर दो अजनबियों से बहस कर रहा था। घर के सामने सार्वजनिक स्थल पर सहजन के पेड़ की फलियों पर उसके नाज़ायज़ आधिपत्य को लेकर यह झगड़ा आम बात थी। मैं अंदर जाने को पलटी ही थी कि उनके शब्द सुन ठहर गई... मास्क हटने पर देखा... वे अजनबी नहीं थे और रोज़ ही सब्जी विक्रय करने कॉलोनी में आ रहे थे। पड़ोसी ने पेड़ की फलियाँ उन्हें बेची थीं और उनके मोलभाव को लेकर बहस चल रही थी। 
उनमें से एक गिड़गिड़ाया... "साहब जी खाने पीने के लाले पड़ गए, हम मजदूर आदमी हैं, किसी तरह सब्ज़ी बेचने की अनुमति ली है, चार पैसे कमाएंगे तो बाल बच्चों का पेट भरेगा, आपको दुआएं देंगे... पच्चीस रुपए ही थे, इतने में ही फलियाँ दे दो।"
"हमसे ले जाकर सौ रुपए कमाओगे, हमें ही लूटने आए हो, इतने में नहीं देंगे... जाओ.." पड़ोसी गुर्राया।
तभी दूसरे व्यक्ति ने अपने झोले में से गुल्लक निकाली और बोला... "साब जी ई गुल्लक मा पचीस रुपया और है, जे बी ले लो न फलियाँ दे दो... तमारा भला होगा साब..."
पचास रुपये में फलियाँ बेचकर पड़ोसी खुश था, घर बैठे अतिरिक्त कमाई थी ये....
मेरे हाथ के अखबार में फोटो थी गुनगुन की, सामने वे विवश सब्ज़ी विक्रेता... गुल्लक दोनों ने खोली थी, बच्ची ने देश की जरूरत देखकर और उन दोनों ने अपने बच्चों की जरूरत के लिए... दोनों की संवेदनाओं की गुल्लक अभी भी भरी थी, लेकिन पड़ोसी की गुल्लक पैसे लेकर भी खाली थी। ●●●
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लघुकथा - 052                                                     

चिराग जल रहे हैं
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                                                        - विजयानंद विजय
                                                                     बक्सर - बिहार

- डॉ. साहब, यहाँ एक सिपाही की तबीयत खराब हो गयी है।
- कहाँ हो तुम ?
- जी आजाद चौक पर।
- ठीक है। मैं आ रही हूँ।
- डॉ. साहब, यहाँ कुछ मास्क की जरूरत है।
- गाड़ी भेज दी है।जा रही है। थोड़ा इंतजार करो। सभी जवानों को मास्क भिजवा रही हूँ।
- यहाँ सैनिटाइजर चाहिए मैम।
- हाँ जरूर।
- मैम, यहाँ कुछ लोग दूसरे राज्यों से आए हैं।जाँच नहीं करवा रहे हैं।जबरदस्ती कर रहे हैं।
- उन्हें पकड़कर रखो।मैं आ रही हूँ।
एसपी साहिबा, जो खुद एक डॉक्टर भी हैं, ड्राइवर को आवाज देती हैं - " दवाइयाँ गाड़ी में रखवा दीं ? "
" जी मैम। "-  ड्राइवर ने कहा।
" आजाद चौक चलो। " - वह निदेश देती हैं और उनकी गाड़ी निकल पड़ती है.... रोज की तरह शहर की नियमित गश्त पर।

हर मोड़ और चौराहे पर वो रूकती हैं।सिपाहियों से बातें करती हैं।उनका हालचाल पूछती हैं।उनकी समस्याएँँ सुनती हैं।आसपास मुआयना करती हैं।जरूरी दवाइयाँ, मास्क और सैनिटाइजर देती हैं, और हिदायतें देते हुए आगे बढ़ जाती हैं।

आजाद चौक पर पहुँचकर बीमार सिपाही को एम्बुलेंस से हास्पिटल भिजवाती हैं। फिर माईक थाम लेती हैं और एनाउंस करने लगती हैं - " सभी नगरवासियों से अनुरोध है कि वे घरों में ही रहें।एकदम जरूरी हो तभी घर से बाहर निकलें, मगर मास्क जरूर पहनें और सोशल डिस्टेंस मेंटेन करें।साबुन-सैनिटाइजर से हर आधे घंटे पर हाथ धोते रहें।लॉकडाउन के नियमों का पालन करें। इसका उल्लंघन करने पर सख्त कानूनी कार्रवाई की जाएगी।दवा और राशन के सामानों की कोई कमी नहीं होने दी जाएगी।हास्पिटल चौबीसों घंटे खुले हैं।किसी भी तरह की परेशानी हो, तो हास्पिटल या मुझे फोन करें।अफवाहों पर एकदम ध्यान न दें और डरें नहीं। " फिर वे ड्राइवर से कहती हैं - " हास्पिटल की ओर चलो। "

           रात के आठ बज चुके हैं। एसपी साहिबा की गाड़ी ऑफिसर्स क्वार्टर्स के गेट पर रूकती है।एक बच्ची उनके पास आती है। अपने हाथ का थैला उन्हें देती है और आँखों में आँसू लिए पूछती है - " आप घर कब आओगे मम्मा ? "
" बहुत जल्दी, बेटा। बस, ये सब काम खत्म होते ही आ जाऊँगी। " वे बेटी को छूना, सहलाना, प्यार करना चाहती हैं।पर उसकी ओर बढ़े हाथ रूक जाते हैं। वे बेटी से पापा, दादा और दादी का हालचाल पूछती हैं, उसे हाथ हिलाकर " बाय " कहती हैं, और उनकी गाड़ी शहर की ओर मुड़ जाती है।
                  माँ-बेटी की आँखों में आँसू देख, ड्राइवर भी अपने आँसू रोक नहीं पाता है।सोच में पड़ जाता है वह, कि ये प्रेम, ममता, करुणा के आँसू हैं या निष्ठा, त्याग और कर्त्तव्य के प्रति समर्पण के !●●●
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लघुकथा - 053                                                          

किया किसी ने, फल किसे
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                                                             - दर्शना जैन
                                                     खण्डवा - मध्यप्रदेश

एक धार्मिक चैनल पर एक संत कह रहे थे," सभी को अपने कर्म का ही फल मिलता है तो जो आपके साथ हो रहा है उसे अपना कर्मफल मानकर स्वीकार करें, शिकायत न करें।" विजय ने कहा," ऐसा नहीं होता, ये संत महात्मा गलत कह रहे हैं।" मम्मी ने विजय से पूछा कि क्यों, क्या गलत है इसमें? कर्मफल की बात तो लगभग हर धर्म में कही गयी है, फिर हमारे कर्मों का फल हमें आज नहीं तो कल मिलता ही है, उससे हम बच नहीं सकते।" 
     विजय ने कहा," मम्मी, मैं कैसे यकीन करूँ जबकि आज के हालात कुछ और ही कह रहे हैं।" मम्मी ने पूछा कि तुम कहना क्या चाहते हो? जवाब में विजय ने कहा," कोरोना की वजह से अभी लॉकडाउन है, हम में से अधिकांश इसका पूरी ईमानदारी से पालन भी कर रहे हैं। लेकिन लॉकडाउन व सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियाँ उड़ाने वाले कुछ बेपरवाह लोगों के कर्मों का फल उन लोगों को क्यों मिल रहा है जो सरकार के आदेशों, सुझावों व निर्देशों का सम्मान करते हुए कोरोना से लड़ने में सरकार की मदद का अपना फर्ज निभा रहे हैं? "करे कोई, भरे कोई" की कहावत तो सुनी है, इसमें तो किसी के किये को एक या फिर कुछ लोग भरते है। लेकिन अभी तो कुछ के किये को करोड़ों लोग भर रहे हैं, भुगत रहे हैं, क्यों? """●●●
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लघुकथा - 054                                                           

  सेवा
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                                               - बसन्ती पंवार
                                                जोधपुर - राजस्थान

      भविष्य  के  गर्भ  में  क्या  छुआ  है, कोई  नहीं  जान  सकता  ।  रमेश  को  क्या  पता  था  कि  वो  इस  तरह  लाॅकडाउन  में  फंस  जाएगा  । 
        वो  राजस्थान  का  था  और  बम्बई  की  एक  कंपनी  में  काम  करता  था  ।  इसलिए  अपने  परिवार  के  साथ  वह  बम्बई  में  रहता  ।  माँ  का  मन  फ्लेट  में  नहीं  लगता  अतः वह राजस्थान  में  अपने  पैतृक  मकान  में  ही  रहती  । 
      उन्हें  सुगर  और  हार्ट  की  बीमारी  थी  जो  बढ़  गई  । रमेश  मां  को  लेने  आया  तो  उन्होंने  साथ  चलने  से  मना  कर  दिया  ।  तो  वह  यह  सोचकर  बम्बई  आया  कि  पत्नी  व  बच्चों  को  कुछ  समय  के  लिए  मां  के  पास  छोड़  देगा  । मगर  लाॅकडाउन .....सब  बंद .....इकलौता  बेटा ......मां  की  चिंता  । 
       परिचितों,  दोस्तों  से  बात  की .....सभी  ने  असमर्थता  व्यक्त  की । दिन  में  कई  बार  वीडियो  काॅल  करता  मगा उससे  क्या  ?
        पड़ौस  में  शमीम  चाची  रहती  थी  मगर  खान-पान ....जाति  भेद  के  चलते  इतना  आना-जाना  नहीं  था ।  एक  दिन  रमेश  के  पास  उनका  फोन  आया  तो  कहने  लगी  कि  बेटा, तू और  तेरी  मां  कहे  तो  मैं  नहा-धोकर  उन्हें  संभाल  लूं  । तेरी  मजबूरी  समझती  हूं  इसलिए  कह रही  हूं  । 
       सुनकर  रमेश  भावुक  हो  गया  ।  कहने  लगा  कि  चाची  आपने  तो  मेरे  मन  का  बोझ  हल्का  कर  दिया  । 
        चाची  ने साड़ी  पहन  कर मां  की  खूब  सेवा  की  । वीडियो  काॅल  पर  मां  को  स्वस्थ  व  प्रसन्न  देखा  तो  भगवान  के  रूप  में  चाची  के  आगे  नतमस्तक  हो  गया  । 
        इधर  उसके  फ्लेट  का  पड़ौसी  राजस्थान  में  फंसा  हुआ  था,  जो  सिर्फ  मां-बेटे  ही  थे ।  एक  दिन  रात  के  दो  बजे  सुनील  का  फोन  आया  वह  बहुत  घबराया  हुआ  था, बोला-प्लीज  मेरी  मां  को  बचा लो शायद  उन्हें  हार्ट  अटेक  आया  है ।  जल्दी  जाओ, मां  ने  बड़ी  मुश्किल  से  दरवाजा  खोला  है  । 
        सुनकर  दोनों  पति-पत्नी  दौड़े  ।  एम्बुलेंस  बुलाई  और  तुरंत  अस्पताल  ले  गए । उनकी  जान  बच  गई  । 
         तीन  दिन  बाद  जब  घर  लौटे  तो  रमेश  श्यामा  मौसी  को  अपने  फ्लेट  में  ही  ले  आया  । 
         उसे  लगा, इस  बहाने  से  ही  सही  मां  की  सेवा  तो  कर  सका  ।●●●●
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लघुकथा - 055                                                       

दृष्टिकोण 
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                                          - डॉ. रमेश कटारिया पारस
                                               ग्वालियर - मध्यप्रदेश

छोटे भईया घर में प्रवेश करते ही बड़े प्रसन्न मूड में बोले भई आज तो आनन्द आ गया .
आज मैं अचलेश्वर भगवान जी के  दर्शन करनें गया था तभी वहां संध्या आरती शुरू हो गई वहां उपस्थित लोगोँ नें और पुजारी जी नें तरह तरह की आरतियाँ झांझ मंजीरे , घंटे घड़ियाल और तालियाँ बजाते हुऐ ऊंचे स्वर में गाईं क्या आनन्द आया जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता भैया भी  इतनें प्रसन्न थे कि इसका भी वर्णन नहीं किया जा सकता इसके बाद  उन्होनें वहां से लाया हुआ प्रसाद सबको दिया और स्वंय भी खाया 
इतनें में ही दूसरे भईया भी आ गये जब उनसे पूछा कि इतनी देर कहाँ लगा दी तो भईया बोले 
कुछ मत पूछो आज दर्शन करनें अचलेश्वर मन्दिर  चला गया था जैसे ही मैं वहां पहुँचा वहां संध्या आरती शुरू हो गई फ़िर तो पण्डित जी नें तरह तरह की ना जानें कौन कौन सी आरतियाँ याद कर कर के सुनाईं कि ख़त्म होनें का नाम ही नहीं ले रहीं थी 
पूरा एक घण्टा लगा तब कहीं जाकर वो कीर्तन समाप्त हुआ इसीलिए अब आ रहा हूँ मैंने कहा भईया प्रसाद तो खिलाओ तभी भैया बोले प्रसाद कहां लाया हूँ प्रसाद लेनें के चक्कर में पड़ता तो आधा घण्टा और लग जाता भीड़ ही इतनी थी ●●●
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लघुकथा - 056                                                     

चले नीड़ की ओर
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                                                               - मधु जैन
                                                    जबलपुर - मध्यप्रदेश

आज सीमा को वापस मां के यहां आए दो दिन हो गये थे। पर मन उदास है,वह बार- बार फोन चैक करती है ठीक तो है। जानती है रमन फोन नहीं करेगा फिर भी इंतजार तो था ही।
उस दिन टीवी पर महामारी के चलते लाॅक डाउन की घोषणा सुनते  ही सीमा का चेहरा उतर गया था। दो साल के लंबे इंतजार के बाद अब तो फैसले की घड़ी आई थी पर वह भी न जाने कब तक के लिए टल गई मन शंका आशंका के बीच झूलने लगा। चार साल पहले उसके खुशहाल परिवार में सुमन के आने से उठा भूकंप अभी तक थमा नहीं था। सुमन की नियुक्ति उसके पति रमन के आफिस में ही हुई थी जवान तो थी ही साथ ही खूबसूरत भी।
रमन का घर पर भी देर रात सुमन से बातें करना, उसके साथ बाहर जाना उसे पसंद नहीं था। ऐसा नहीं कि उसके आफिस में और लड़कियां नहीं थी उनके साथ बातें करने में सीमा को कोई परेशानी नहीं थी पर सुमन के साथ उसका बढ़ता लगाव इस ईर्ष्या को जन्म दे रहा था। इसी बात को लेकर सीमा और रमन के बीच हमेशा वाद-विवाद होता था। रमन जितनी सफाई देता सीमा का शक उतना ही बढ़ता जाता। फिर कुछ विघ्नसंतोषियों ने सीमा के शक पर उनकी बातों ने आग में घी का काम किया, रमन हमेशा समझाता हम दोनों के बीच ऐसा कुछ भी नहीं है तुम बेकार ही शक करती हो। आखिर दो साल की तकरार के बाद सीमा ने रमन से अलग होने का फैसला कर लिया।और अपनी मां के यहां आ गई। सीमा का बुझा चेहरा देख मां ने पूछा
"क्या हुआ ? परेशान लग रही हो , तबियत तो ठीक है।"
"हां मां, देखो न लग रहा था इस बार तलाक का फैसला हो ही जाएगा पर लाॅक डाउन ने सब गुड़ गोबर कर दिया।"
सीमा को सांत्वना देते हुए, "बेटा जो भी होता है अच्छे के लिए होता है।"
"तलाक होना या टलना मेरे लिए तो दोनों ही बुरा है इसमें अच्छा क्या होगा "
"सीमा रमन का फोन आया था कह रहा था तुम उसका फोन नहीं उठा रही हो।"
"अब क्या बात करना, अब तो सारी बातें खत्म हो गई।"
"फिर भी एक बार बात तो कर लो, वह कहना क्या चाहता है। वह अभी भी तुम्हारा पति है।"
 "ठीक है करती हूं।"
उत्सुकता से, "क्या कहा रमन ने ?"
"विनती कर रहा था, कि इन लाॅक डाउन के समय में वह बच्चों के साथ रहना चाहता है पता नहीं फिर समय मिले या नहीं। कह रहा था पत्नी के नाते न सही एक दोस्त के नाते तो आ जाओ।"
मां की आंखों में उम्मीद की किरण जाग उठी।
"उसकी बात मान लो बेटा, चली जाओ, फिर थोड़े दिन की ही तो बात है।"
"अब क्या रखा है मेरे लिए वहां।"
"अपने लिए न सही बच्चों की खातिर चली जाओ। बच्चों को भी तो पिता का साथ चाहिए। और फिर बच्चों पर जितना हक तुम्हारा है, उतना ही रमन का भी है।"
बच्चे भी जिद करने लगे
"प्लीज मम्मी चलो न, बस थोड़े ही दिन की तो बात है।और स्कूल भी बंद हैं।"
वह बच्चों के साथ बेमन से रमन के यहां आ गई।
घर साफ सुथरा,खाने की वस्तुओं से भरा किसी भी चीज की कमी नहीं थी। रमन भी काफी बदल चुका था। जैसा वह चाहती थी वैसा ही बन गया था। घर के कामों में बराबरी से सहयोग करता। बच्चों को पढ़ाना, उनके साथ खेलना उनसे ढेर सारी बातें करना। बच्चों के चेहरों पर भी वह लम्बे समय बाद खुशी देख रही थी। पर रमन और उसके बीच बातें हां और हूं तक ही सीमित थी। रमन का व्यवहार उससे दोस्त जैसा ही था कभी भी उसे पत्नी की नजर से नहीं देखा। पेशी के दौरान उसके वकील ने रमन पर कैसे कैसे आरोप लगाये। पर रमन ने कभी भी उसपर कोई आरोप नहीं लगाया। उसके इस बदले रुप से कहीं न कहीं सीमा के मन में जमी बर्फ पिघलने लगी थी।
उसे आए हुए पन्द्रह दिन हो गये थे पर इतने दिनों में सुमन का न ही फोन आया और न ही उसने रमन को सुमन से बात करते देखा, कहीं ऐसा तो नहीं उसका शक सचमुच बेबुनियाद था। पर अब इससे क्या फर्क पड़ता है।
फिर भी मन में उधेड़बुन तो चल ही रही थी। मौका मिलते ही उसने रमन के फोन से सुमन के बारे में जानना चाहा पर रमन की फ्रेंड लिस्ट में सुमन का नाम ही नहीं था और न ही उसके फोन काल की कोई डिटेल थी। तो क्या सुमन....
बर्फ का पिघलना जारी था। अब उसके और रमन के बीच हल्की फुल्की बातें भी होने लगी थी। लाॅक डाउन खत्म होने का समय करीब आ रहा था साथ ही सुमन की बैचेनी बढ़ रही थी। काश लाॅक डाउन कुछ दिन और बढ़ जाता।
इस बार घर से जाते हुए सीमा खुश नहीं थी। रमन ने भी वादे के मुताबिक रोकने की कोई कोशिश नहीं की।
पिछली बार जब वह इस घर से निकली थी तो एक बार भी मुड़कर नहीं देखा था। पर इस बार ........पता नहीं किस आशा से एक बार मुड़कर देखा।
स्कीन पर रमन का नं चमकते ही अविलंब फोन उठाया। "हैलो" के साथ खामोशी। 
"बच्चे आपको बहुत याद कर रहे हैं।" सीमा ने बात शुरू की।
"और तुम ?" रमन के इस प्रश्न से वह चौंक उठी लेकिन कोई जवाब नहीं दिया। थोड़ी देर की खामोशी के बाद रमन ने कहा "सीमा शाम को तुम और बच्चे तैयार रहना मैं लेने आ रहा हूं।"
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लघुकथा - 057                                                          

भय से साक्षात्कार
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                                                      - सीमा वर्मा
                                                लुधियाना - पंजाब

नन्हा रोशु बहुत खुश था। बार-बार अपना नया बैग, नई किताबें और लंच बॉक्स संभाल रहा था। अभी कुछ दिन पहले ही तो उसका स्कूल में दाखिला हुआ था। वह स्कूल जाना चाहता था मगर कुछ समझ नहीं पा रहा था आखिर हुआ क्या है? घर का माहौल अजीब सा हो गया था। बाहर वाले दरवाज़े पर ताला लगा दिया गया था। ना कोई अंदर आ सकता था और ना ही बाहर जा सकता था।
वह सब से पूछता मैं स्कूल कब जाऊंगा मगर किसी के पास उसके सवालों का जवाब नहीं था।
आज चार दिन हो चले थे। वह खिसियाकर दादाजी के कमरे में गया और टी वी की तरफ़ देखते हुए बोला, "रोज़-रोज़ वही सब तो आ रहा है, आप बोर नहीं होते? दादा जी ने झट से टी वी बंद कर दिया।
वह उन्हें खींचता हुआ बालकनी में ले गया और जिद्द करता हुआ बोला, "मुझे बाहर घूमने जाना है।"
"देखो, बाहर कोई भी नहीं है।" दादाजी ने कहा
सड़क की तरफ़ देखते हुए वह बोला, "गाय और कुत्ते तो घूम रहे हैं।
दादा जी उदास स्वर में बोले, "इंसान घर के अंदर कैद है और जानवर बाहर घूम रहे हैं।"
फिर अचानक वह पूछ बैठा, "दादाजी, महामारी क्या होती है, क्या लोग इससे मर जाते हैं?"
दादाजी चिंतित हो उठे वह नहीं चाहते थे कि उसके बाल मन में किसी भी प्रकार का भय उत्पन्न हो। उसका दिल बहलाने के लिए वह उसे छत पर ले गए।
 उड़ती पतंगें, मुंडेर पर एक दूसरे के पीछे भागती गिलहरियों को देखकर वह खुश हो गया। अचानक तेज़ी से एक बाज आया और एक गिलहरी को अपने पंजों में दबोच कर आसमान में उड़ गया। गिलहरी की टुर- टुर अब कातर स्वर में बदल गई और रोशु चीखता हुआ दादा जी से जा चिपका।●●●
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लघुकथा - 058
 रँगरेज़ा की थापें 
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                                                       - कल्पना मनोरमा
                                                   दिल्ली

घर में जब से स्वच्छंद विचारधारा वाली बहू सभ्यता, ब्याहकर आई थी तब से घर की रंगत ऐसी बदली कि अपने भी अपनों को पहचानने से इनकार करने लगे थे |
हर छोटी-बड़ी वस्तु में स्वयं को नया बनाने की होड़ पैदा हो गयी थी | पुरखों के हाथ की चीजों को या तो एंटीक बना कर घर के कोनों में सजा दिया गया था या स्टोर-रूम के अँधेरे को सौंप दिया गया था |
सदरद्वार के पाँवदान से लेकर शयनकक्ष के दीये तक सभी अपनी नई मालकिन की ख़िदमत में लगकर सौभगय मना रहे थे।
 ये देखते हुए सास कभी डरते-डराते अपने लाडले बेटे विकास से शिकायत करने का मन बनाती तो वह अति व्यस्त होने का राग सुनाकर माँ को ही शांत करा देता।
निष्कंटक राज्य का सुख परलोकगामी सास की बहू इतना नहीं मनाती... जितना ज़िंदा-लाचार सास की जमी-जमाई गृहस्थी में अपने मन के कँगूरे काढ़ने वाली बहू मनाती है |
इस बहू ने भी घर की हर छोटी-बड़ी परम्पराओं और चाबियों पर अपना आधिपत्य जमाकर सभी को अपनी पाज़ेब की झंकार से  झंकृत कर दिया था।
अब हाल ये था कि सास कुछ भी कहने के लिए अपना मुँह खोलती तो बहू आँखों ही आँखों में  कुछ ऐसा कह देती की सास सन्न रह जाती |  जल्द ही नई दलीलों और न्याय-नीतियों के साथ बहूरानी ने सास की वसीयत उनके हाथों के नीचे से अपने नाम करवाकर उन्हें दो कोणी का बना दिया था।
माता-पिता के उच्च विचारों से सजे-धजे मनबढ़ बच्चों ने भी अपनी दादी और बुआ को गैल पड़ा कंकड़ ही समझ लिया था । दादी के लाख कहने पर भी वे बड़ों को झुक कर न अभिवादन करते और न वेद-मंत्रों को अपनी जुबान से छूने देते ।
 अपने जीवन की धज्जियाँ उड़ते देख वह बिलख पड़ती लेकिन कोई कान तक न देता |
पहनावा-ओढ़ावा ऐसा बदला कि दादी तौबा कर अपनी आँखें मींच लेती। न खाना खाने का समय निश्चित होता और न ही स्थान।
बुआ पवित्रता को तो उसकी माँ के सामने ही सिरे से भुला दिया गया था।
अपनी बनी-बनाई साख़ मिट्टी में मिलते देख सास ने अपनी क्वारी बेटी के साथ इच्छामृत्यु को याद करना  शुरू कर दिया था ।
फिर एक दिन अचानक  सूरज उन दोनों के मनपसंद रंगों से उनका  घर-आँगन रंगने लगा । ऐसी आशा तो उन्होंने कभी की ही नहीं थी सो  रंगरेजा की कूँची की थापें  माँ-बेटी को सुकून से जब भरने लगी तब उनके मन की इन्द्रधनुषी आभा में घर के सारे लोग एक साथ बैठने-उठने के लिए मजबूर हो गए  | 
उनका खाना-पीना ,वाद-व्यवहार, परिधान सब कुछ बदलने लगा  | सड़कों पर घूमते अधनंगे दिन-रात ने भी अपने को ठीक से ढंकना शुरू कर दिया ।होटलों में ताला पड़ गया ।लोग"दाल -रोटी खाओ प्रभु के गुण गाओ"वाली नीति पर चल पड़े ।
ये देखकर बेटा विकास कोमा में चला गया तो बहूरानी सभ्यता ,असहनीय पीड़ा से भर कर  कराह उठी |  चीख़-चीख़कर उसने अपने बच्चों को पुराना ढर्रा न छोड़ने  के लिए खूब-खूब कहा लेकिन आदमी मौके की नज़ाक़त को अच्छी तरह समझता है ।
जिस माँ ने अपने बच्चों को कितनी नाज़ो-नज़ाक़त से पाला था आज वही बच्चे उसको लोभान का धुँआ दिखा रहे थे और ये देख संस्कृति,बेटी के साथ मंद-मंद मुस्कुरा उठी थी ।●●●
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लघुकथा - 059                                                     

खुरदुरी दुनिया 
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                                                      - प्रेरणा गुप्ता
                                                कानपुर - उत्तर प्रदेश

घर का मुख्य द्वार पूरी तरह से बंद किया जा चुका है। न कोई अंदर आ सकता है, न कोई बाहर जा सकता है।
खूँटी पर लटका ताला भी रोज-रोज के बँधन से मुक्त हो, खुशी से फूला नहीं समा रहा है। क्योंकि लोग अपनेआप ही अपने-अपने घरों में कैद जो हो गये हैं।
सुना है कि बंद दरवाजों के बाहर चारों ओर किसी महामारी ने तबाही मचा रखी है। मगर घर के भीतर, महफिलें जमने लगी हैं। सभी सदस्य अपने-अपने आभासी-दड़बों से बाहर निकल आए हैं।
कमरों के फर्श और बाथरूम के टाइल्स पहले से ज्यादा चमचमाने लगे हैं। रसोईघर से बरतनों का शोर भी कम सुनाई देता है।
घर के पुरुष थोड़ा-थोड़ा-सा स्त्री होने लगे हैं और स्त्रियाँ, खिड़की के बाहर नीले अम्बर के तले, पेड़ पर चहचहाती मैना और घर के सूखे गमलों में उगती हरियाली को देखकर अचंभित हैं, "क्या वास्तव में ये खुरदुरी दुनिया इतनी खूबसूरत भी हो सकती है!"
बंद अल्मारियों से लूडो, चाइनीज चेकर बाहर निकल आए हैं।
धूल खा रहे वाद्ययंत्र भी अब बज उठे हैं। पूजाघर से आती स्वर लहरियाँ वातावरण में गूँजने लगी हैं।
तय की गयी दूरियों के बावजूद तीनों पीढियाँ एक साथ नजर आने लगी हैं।
दिन समेटता सूरज, रोशनदान से झाँकता, मानो कह रहा है, "देखना, लौटा लाऊँगा, डूबते हुए जीवन मूल्यों को अपने साथ, एक दिन जरूर ...!" ●●●
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लघुकथा - 060                                                           

आसमान से गिरे
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                                                  - डॉ. चन्द्रावती नागेश्वर
                                                       रायपुर - छत्तीसगढ़

सोनम के माँ  बड़े चाव से अपनी बेटी के साथ  घूमने अमेरिका गई थी। जिंदगी में पहली  बार हवाई
जहाज पर बैठ कर अपने भाग्य पर इतरा रही थी ।सोनम और उसके पति धर्मेश न्यूजरसी शहर में किसी बड़ी कम्पनी में काम करते है उनका तीन वर्षीय पुत्र नानी की देख रेख में घर पर रहता है।हर रविवार को वे चारोंआउटिंग के लिए कहीं न कहीं जाया करते ।सोनम की माँ को आये अभी एक महीना  ही हुआ है कि चीन
से होता हुआ कोरोना वायरस अमेरिका मे भी दस्तक देने लगा।
 सोचे थे इस रविवार को नियाग्रा फॉल देखने जाएंगे ।पर भारतसे फोन आया कि उनका पंचवर्षीय पोता शिवांक  बीमार है ,उसे 3- 4दिनों से बुखार हो गया है  वह दादी -दादी की रट लगाए हुए है । उसके दो दिन बाद  खबर आई कि  बाथ रूम में पांव स्लिप हो जाने से उनके पति के पांव में फेक्चर हो गया है वो हॉस्पिटल में भर्ती हैं ।
         अब तो आनन फानन में उनकी फ्लाइट की टिकिट बुक 
की गई और दूसरे दिन ही उन्हें मुंबई होते हुए नागपुर के लिए रवाना किया गया ।  भारत में भी
कोरोना का ख़ौफ़ समाया हुआ है।एहतियात के तौर पर हर अंतरराष्ट्रीय यात्रियों की प्राथमिक जाँच की जा रही है।आवश्यक निर्देश दिए जा रहे हैं।  वहां पर उन्हें बुखार न होने के कारण घरेलू उड़ान से नागपुर भेज दिया गया । लेकिन  नागपुर के एयर पोर्ट की जांच में एहतियात के तौर पर उन्हें रोक लिया गया।और
15 दिनों के लिए आइसोलेशन सेंटर में भेज दिया गया ।
    अब तो सोनम की माँ का हाल 
रो -रो कर बुरा हो गया । अधिकारियों से  कितनी मिन्नतें कर के हार गईं ,कि एक बार उसे हॉस्पिटल जाकर बीमार पति  को
दूर  से ही देख लेने की अनुमति तो मिले। बेटा कार लेकर आया था  पोता भी जिद करके साथ आ गया था पीछे बैठा कार केबंद शीशे से ही हाथ पसार कर दादी -दादी की गुहार लगाए रो रहा था।
        अब तो 15 दिन बाद ही 
जांच रिपोर्ट नेगेटिव आने पर 
वह अपने घर जा पाएंगी ।उनकी
हालत तो "आसमान से गिरे और खजूर में अटके "की तरह हो गई। । है .....। ●●●
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लघुकथा - 061
 इज्जत की रोटी
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                                                         - यतेन्द्र वर्मा
                                                    ग्वालियर - मध्यप्रदेश

अरे रूचि, रजनी ने अपनी बहु को आदेशित स्वर में पूछा ,आज तुमने कमला को काम पर क्यूँ बुलाया ? हमने मना किया है न, जब तक ये लॉकडाउन ख़त्म नहीं हो जाता तब तक घर के ग्राउंड फ्लोर की साफ सफाई तुम कर लिया करो और ऊपर के फ्लोर की मै और तुम्हारे ससुर जी मिलकर कर लेंगे |
दो दिन बाद कमला फिर आई और रूचि से बोली, दीदी आज घर में खाने को कोई सब्जी नहीं बनी, बच्चों ने भी प्याज से रोटी खायी है | रूचि का दिल पिघल गया और फ्रिज में रखा हुआ फूलगोभी और टमाटर उसे देते हुए बोली, अभी काम पर मत आना सासु माँ नाराज हो रही है |
शाम को पति विमल के बैंक से घर आने के बाद रूचि ने उसे पूरी बात बताई | विमल ने कहा, कल कमला को बुला लेना, कुछ रूपये उसे दे देंगे जिससे इस लॉकडाउन में उसका कुछ दिन गुजारा हो सके, लेकिन घर का काम मत करवाना |
अगले दिन रूचि ने कमला को बुलाया और दरवाजे के बाहर से ही 1000/- रुपये देते हुए कहा कि ये रख लो | कमला ने मना  करते हुए कहा कि दीदी, इस लॉकडाउन में सभी घरों में काम बंद हो गया है, बहुत कर्जा हो गया है, रहने दो, वापस भी तो करना पड़ेगा | इतना कहकर कमला चलने लगी | ऊपर छज्जे पर खड़ी रजनी सब सुन रही थी , उसने ऊपर से ही कहा, कमला चल आंगन धो दे , बहुत दिनों से धुलाई न होने से पूरा फर्श गन्दा हो गया है |●●●
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लघुकथा - 062                                                           

लॉकडाउन
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                                                     - रेखा मोहन
                                                       पटियाला - पंजाब 

पुलिसवाला दम्पति को बोला, “आप दोनों गाड़ी में कहाँ घूम रहें हो|” दोनों पति-पत्नी में पत्नी बोली, “हम घर जा रहे हैं| सब्जी लेने आये थे, सोचा कोई स्टोर खुला होगा| पर सब बंद है|” पुलिसवाला,” अब तो अँधेरा हो गया है और तुम्हें पता नहीं कर्फ्यू लगा हुआ है|” पति, “जी मालूम है कि लॉकडाउन है|” पत्नी ,” हम आज सुबह ही अमेरिका से वापिस आये हैं| हमारा एअरपोर्ट पर टैस्ट और चैकिग हुई और सब ठीक था| वहाँ से आते हुये हमने सोचा खाने को कुछ ले जाएँ|” पुलिसवाला बोला, “ अच्छा तुम दूसरे देश से आये हो? फिर तो तुम रूको तुम्हारा पूरा चैक -अप करना होगा|तुम अभी अपने सभी कागज-पत्र दिखाओ|’दूसरा पुलिस वाला सेहत विभाग को फोन कर बातचीत करता और उनकों सब हालात बारे बताता है| पत्नी,” सब कागज़ -पत्र पकड़ाती पूछती “हम घर कब जा सकते बेटा घर बाहर इंतज़ार कर रहा है|” पुलिसवाले ने देखा उनके बेटे को कोरोना पोजटीब था जो अब ठीक हो चूका था| पुलिसवाले ने मेडिकल टीम को फोन से बुला उनके टैस्ट करवाये फिर बेटा का भी हुआ| मेडिकल टीम ने उन्हें क्वारंटाइन करने के लिये पति ओर पत्नी को भेज दिया| बेटे कों बोला,” तुम घर जाओं, और घर से बाहर मत निकलना|”
औरत गुस्से में तड़फती बोली, “मैने तो सुवह से चाय भी नहीं पी और पन्द्रह दिन एकांतवास में रात को लेटे कभी बैठी देखती , सुनी सड़के पर रोशनी तेज़ आँखों में चुभती|,बड़ी इमारतें का वैभव पर अब बर्बादी से मन में शंका भरती| काला आकाश जो लोगो की गलतियों की इतलाह बन डरावना सा लगता है|” वहीँ मोर, चिडियाँ, तोते आदि आज़ाद से उड़ते मानो कह रहे थे “गाडियों के शोर और लोगो की भीड़ से हम तंग आ चुके हैं| हमारे लिये भी जीने को कुछ छोड़ दो| क्या हम सदा ही लॉकडाउन में ही रहें|”●●●
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लघुकथा - 063                                                          

कोरोना
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                                               - किशन लाल शर्मा
                                                   आगरा - उत्तर प्रदेश

"क्या कोई और लड़की तुम्हारी जिंदगी में आ गई है?"मैसेज पढ़ते ही रमा ने सुकेश को फोन किया था।
"नही तो।तुमसे किसने कहा?"रमा की बात सुनकर सुकेश आश्चर्य से चोंकते हुए बोला,
"तुम मेरी जिंदगी में आनेवाली पहली औरत हो।मै तुम्हे चाहता हूँ।प्यार करता हूँ।"
"फिर शादी से कयो इंकार कर रहे हो?"
"तुम्हे किस नही कर सकता।सो नही सकता।शारीरिक  संबंध नही बना सकता।फिर शादी करके क्या करूँगा?"
"मैंने शादी से पहले तुम्हे ये सब करने से रोका है।शादी के बाद,मैं तुम्हारी हूँ।तुम्हे कुछ करने से नही रोकूंगी।" 
"तुम नहीं रोकोगी।फिर भी ये सब नहीं कर पाऊंगा।फिर बेहतर है।शादी ही नही करू।"
"फिर प्यार करने से तुम्हे कौन रोकेगा?"
"कोरोना। ●●●
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लघुकथा - 064                                                           

तनख्वाह
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                                                    - सत्येन्द्र शर्मा ' तरंग 
                                                  देहरादून - उत्तराखण्ड

     शर्मा जी अत्यन्त चिन्तित होकर, सब्जी काटती हुई अपनी धर्मपत्नी रमा से कह रहे थे - सुनो! कोरोना के बहाने से सरकार ने हमारा मंहगाई भत्ता रोक लिया है। 
     ये भी कोई बात हुई। सरकार अपने खजाने का मुंह क्यों नहीं खोलती... हमारे पेट पर क्यों लात मार रही है? झुंझलाती हुई रमादेवी ने सरकार के प्रति अपना आक्रोश व्यक्त किया।
     शर्मा जी फिर बड़बड़ाये....सरकार को तो बस हम ही रईस नजर आते हैं। कल हमारे साहब फोन पर कह रहे थे कि आपको घर बैठे सरकार तनख्वाह दे रही है।
अरे! हम अपनी मर्जी से तो घर पर नहीं बैठे। कोरोना जैसी महामारी में सरकारी लाॅकडाउन ने ही हमें काम पर ना जाने के लिए मजबूर किया है.... इसमें हमारा क्या दोष? 
हम इतने वर्षों से सरकार की सेवा कर रहे हैं तो क्या इस संकटकाल में हमें वेतन और अन्य सुविधाएं देना सरकार का फर्ज नहीं है? 
उन्होंने जिस प्रत्युत्तर की अपेक्षा में धर्मपत्नी की ओर देखते हुए यह बात कही थी....वैसा ही उत्तर मिला....और नहीं तो क्या? यह सरकार का फर्ज है... रमादेवी ने उनकी अपेक्षानुसार उत्तर देते हुए रसोईघर की ओर प्रस्थान किया।
     सुबह-सुबह पत्नी के साथ एक दूसरी आवाज की बहस को सुनकर शर्मा जी की आंख खुली तो कान लगाये। दूसरी आवाज जो कि उनके घरेलू कार्य करने वाली लक्ष्मी की थी, झट से पहचान ली।
लक्ष्मी का कहना सुनाई दिया कि "मैडम जी! हम गरीब लोग हैं, पति दिहाड़ी मजदूर हैं जो कोरोना के कारण दिहाड़ी पर नहीं जा सकते, बच्चे छोटे हैं, जिनको दाल-भात ही खिला सकें इतने रुपये भी हमारे पास नहीं है। 
मैडम जी! आपके यहां तो मैं इतने वर्षों से मासिक वेतन पर काम कर रही हूं....अब कोरोना वायरस की वजह से आपने ही काम पर आने के लिए मना किया है तो इसमें मेरा क्या कसूर?
आप मुझे महीने की तनख्वाह दे दोगी तो आपका बहुत अहसान होगा... लगभग रुआंसी आवाज में लक्ष्मी बोली। 
रमा देवी झिड़कते हुए बोली.... जब काम नहीं तो तनख्वाह क्यों?
और....
शर्मा जी की आंखों के सामने कल शाम के दृश्य आ रहे थे..... याद आ रही थी घर बैठे तनख्वाह देने वाली सरकार.... याद आ रहा था कुछ महीनों के मंहगाई भत्ता के ना मिलने पर अपना आक्रोश....और सामने थी लगभग गिड़गिड़ाती लक्ष्मी।
शर्मा जी ने बिना एक पल की देरी किए अलमारी से रुपये निकालकर लक्ष्मी के हाथ पर रख दिए।
धर्मपत्नी तीखी नजरों सें उन्हें घूर रही थीं.... लक्ष्मी उन्हें दुआयें दे रही थी....और शर्मा जी एक अपराध से बच जाने के समान शीतल, सुखद शान्ति की अनुभूति कर रहे थे।●●●●
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लघुकथा - 065                                                   

 बेबसी
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                                      - चन्द्रिका व्यास
                                          मुम्बई - महाराष्ट्र 

पापा जी आपको कितनी बार कहा एक जगह शांति से क्यों नहीं बैठ जाते ! किशोर की कर्कश और कठोर आवाज सुन सुनिता रसोई से नैपकिन से हाथ पोछते हुए बाहर  आती है!
क्या बात है किशोर अपने पापा पर क्यों बरस रहा है? 
मां इन्हें आप ही समझा दो, जो यहां रहना है तो चुपचाप रुम में रहे ,रात भर खांस रहे थे! 
मेरे भी दो बच्चे हैं! 
पति मोहन को शांति से हाथ पकड़ सम्हालते  हुए कमरे में  ले जाती है! 
आवाज सुन रुम का दरवाजा खोल बहु मीना बाहर आती है --
क्या बात है पता नहीं  आप लोगों को मेरी अॉनलाइन अॉफिस  वर्क चल रहा है! 
सुनो जी अंदर चलो कहते किशोर के साथ पैर पटकती हुई रुम में जा दरवाजा बंद कर दिया! 
रात किशोर को मीना से कहते सुना क्या मुसीबत है ---लॉकडाउन खुले तो पीछा छूटे! 
तुरंत मीना ने कहा क्या कहते हो? 
घर में बाई नहीं, अॉनलाइन काम खाना, बर्तन कपड़े, सफाई मम्मी पापा के जाने से कौन करेगा? 
पापा को सर्दी खांसी की दवा दे दो ठीक हो जाएंगे! 
तुम्हें कहाँ उनके करीब जाना है मम्मी दे देगी! 
बिस्तर में लेट लंबी श्वास लेते हुए  किशोर ने कहा ---हूं! 
सुबह मोहन मुंह पर मास्क पहन हाथ में थैली ले सुनिता से कहते हैं मैं दूध लेकर आता हूं! 
अश्रु से भीगी आंखों में अपने घर की याद लिए लॉकडाउन खुलने के सपने ले रसोई में सुबह के चाय नाश्ते की तैयारी में जुट जाती है! ●●●●
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लघुकथा - 066                                                       

सुरक्षा कवच
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                                                  - ज्ञानप्रकाश 'पीयूष'
                                                   सिरसा - हरियाणा

मोहल्ले के सफाई-^[कर्मी बासु ने सुबह आठ बजे कचरे की 
खाली ट्राली को निर्धारित स्थान पर लाकर खड़ा कर दिया
और स्वयं सड़क की सफाई करने लगा। उसके चेहरे पर काले रंग का मास्क लगा हुआ था और हाथों में दस्ताने चढ़े हुए थे।
दस्तानों को देखकर उसे अपनी बेटी श्यामा की याद ताजा हो आईं । आज घर से बाहर निकलते समय वह अपने मुँह पर मास्क लगाना भूल गया था। अभी  कुछ  कदम ही वह आगे बढ़ा था कि उसकी दस वर्षीय बेटी श्यामा पापा-पापा पुकारते हुए उसके पास आई और मास्क तथा दस्ताने उसके हाथ में थमाते हुए  बोली ,  " पापा, ये लो आपके सुरक्षा कवच।  जल्दी-जल्दी में आप इन्हें घर पर ही भूल आए थे,इन्हें  पहनो और फिर निश्चिंत हो कर अपनी ड्यूटी पर जाओ। दुष्ट कोरोना आपका कुछ नहीं बिगाड़ सकेगा।"
"थैंक्यू बिटिया, तुम मेरा कितना ख्याल रखती हो? मैं तो  भुलक्कड़ होता जा रहा हूँ।"
यह कहकर उसने अपने मुँह पर मास्क एवं हाथों में दस्ताने चढ़ा लिए और ड्यूटी पर जाते हुए उसने अपनी बेटीश्यामा से कहा, "बिटिया , अब तुम निश्चिंत हो कर घर पर जाओ, मेरी चिंता बिल्कुल भी मत करना और तुम भी अपना ख्याल रखना।
"अच्छा पापा,एक बात और , आप अपनी ड्यूटी देते समय लोगों से निश्चित दूरी भी बनाए रखना। "
"अच्छा, शुभकामनाए।" ●●●●
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लघुकथा - 067

कोरोना
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                                          - भुवनेश्वर चौरसिया ' भुनेश '
                                      गुरुग्राम - हरियाणा

महज़ एक बिमारी नहीं रह गया है
यह अब गीत कविता कहानी ग़ज़लों में ढ़ल गया है।
रोज ही कोरोनावायरस शब्द पर
शब्दों के तीर छोड़े जा रहें हैं।
यह बिमारी कम उत्सव सरीखे हो गया है
नित्य नए नए शब्द कीचड़ उछालने के जैसे उछल रहें हैं।
अभी पिछले दिनों ऐसे ही एक शब्द से पाला पड़ा
मरकज़ जो किसी विशेष समुदाय को टारगेट करने के लिए उछाले गए।
मानव समुदाय एक दूसरे पर छींटाकशी करते हुए
किस गर्त में धंसता जा रहा है
यह अब तक पता नहीं चला है
सही अर्थों में यही कलयुग है
जहां बिमारी भी उत्सव सरीखे हो गया है।
जहां पूरी दुनिया इस लाईलाज बिमारी से जूझ रहा है
वहीं कुछ जगहों पर ताली थाली बजाने के सगूफे गढ़े जा रहे हैं
मान लीजिए आपको बुखार लगा हो और कोई कहे कि
बुखार की दवा पैरासीटामोल की गोली न खाकर
दीप जला दें बिमारी छू मंतर हो जाएगा
तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
धर्म का चोला ओढ़कर अधर्म मार्ग पर चल पड़े हैं
दुनिया के किसी भी मर्ज की दवा
किसी भी धर्म के पास उपलब्ध नहीं है
यदि उपलब्ध होता तो मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे गिरजाघर के दरवाजे बंद नहीं होते।
दरअसल हमलोग बीमारी से अधिक धार्मिक महामारी से पीड़ित हैं। ●●●●
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लघुकथा - 068

लाकडाउन की खुशी 
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                                               - डॉ. मंजु गुप्ता
                                                             मुम्बई - महाराष्ट्र

कोरोना काल में लीना अपने माँ  के घर जाने की मन ही मन सोच रही थी , नोवां महीना भी  चढ़  गया ,  डिलीवरी किधर , कैसे होगी ? माँ के घर में तो सब सुख , सुविधा और माँ को तो बच्चे पालने का अनुभव भी है । ट्रेन भी नहीं चल रही है ।   कैसे माँ के घर जाऊँगी ? 
सासु माँ ने कह दिया था , "  पहला बच्चा माँ के घर ही होता है । "
तभी ललित ने ध्यान मगन अपनी पत्नी लीना के  कँधे पर हाथ  रखके प्यार से कहा , " सरकार ने श्रमिक विशेष ट्रेन प्रवासी मजदूरों के लिए चला दी है । तुम अपनी माँ को फोन कर के कह दो आज हम आ रहे हैं ।" 
"ठीक है।"
उत्साह के साथ लीना  जाने की तैयारी में जुट गयी।
सुटकेस लिए ललित लीना के संग  अलीगढ़ स्टेशन पर   श्रमिक  ट्रैन में बैठ गए।
ट्रैन  छुक - छुक करते हुए अपनी गति पकड़ते ही स्टेशनों को छोड़ते हुए अपने गंतव्य की ओर बढ़ी जा रही थी ।
 लीना    अपने चेहरे पर खुशी लिए बेसब्री से अपने माँ के  घर आगरा  जाने के लिए स्टेशन गिने जा रही थी । आगरा  महज तीन स्टेशन की दूरी पर  था ।  
 तभी लीना  की प्रसव वेदना शुरू हो गयी । दर्द रुकते तो कभी तेज हो जाते थे । 
 वहीं डिब्बे में सामने बैठी महिला ने कहा , "  इसके दिन पूरे हो गये  हैं ,  बच्चा होने पर ऐसे ही दर्द  होते  हैं , 
रेलवे प्रशासन से मदद मांगों । " 
यह सुन के ललित ने  रेलवे प्रशासन के अधिकारी को सारी बात बतायी ।  तुरंत अधिकारी ने डॉक्टर की टीम ललित की बोगी में  भेजी ।
 डॉक्टर ने लीना का चेकअप करके  रेलवे अधिकारी को रेल रोकने को कहा ।
रेल के रुकते ही  पुलिस अधिकारी की मदद लिए रेलवे के कर्मचारियों ने लीना को  अस्पताल में भर्ती कराया ।
लीना के दर्द बढ़ते जा रहे थे । डॉक्टर ने उसे ढाढस बंधाया ।
  डॉक्टर ने आशीर्वाद देते हुए कहा ,"  लो यह तुम्हारे वंश की लाली पुत्र रत्न हुआ और बेटे ने लीना को माँ और ललित को पिता बनने के रिश्ते से जोड़ दिया । ललित !इन दोनों का ध्यान रखना ,  यह मेरा फोन नम्बर है , जब भी लीना, बच्चे  को कोई तकलीफ हो फोन से बताना । "
   वरदान  बना लाकडाउन ललित और लीना को खुशियाँ लुटा रहा था  । ईश बने डॉक्टर ने  लीना को पुनर्जन्म दिया और डॉक्टर के नाम पर ही अपने बेटे का  प्रताप  नाम रखा । ●●●
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लघुकथा - 069                                                        

         चिड़िया उड़               
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                                     - डॉ. नीना छिब्बर
                                     जोधपुर - राजस्थान

    करोना महामारी के चलते पूरा परिवार ही घर के अंदर   कई दिनों से   एक तरह से स्वेच्छा से बंद था। सब एक दूसरे का मनोबल बढ़ाने का प्रयास करते । मिल जुल कर काम और फिर कभी -कभी पुराने खेल ।दादाजी भी बराबर खेल में टक्कर देते थे ।
     आज दादाजी ने कहा कि राज बेटा 'आज तेरे पापा के पसंद वाला चिड़िया उड़ खेलते हैं।बचपन में यह हमेशा जीतता था।  बच्चों ने पूछा ," वही ना जिस में गल्त पक्षी उड़ाने पर मार खानी पड़ती है वो भी स्टाईल से । हथेलियों को जोड़ कर ऊपर नमक -मिर्च ,हल्दी बु्रकने का मंत्र और दे चाँटा। पर होशियार खिलाड़ी बच जाता था। चतुराई का खेल है ।
   तो फर्श पर राज , टीना, दादाजी और पापा बैठ गये । चिडिया,  उड़. कबूतर उड़. हाथी उड़ चल रहा था। बीच -बीच में गल्त  जवाब पर ठहाका गूँजता। फिर वही चाँटा प्रक्रिया ।अचानक पापा ने कहा मैं बोलूँगा। सब ध्यान से सुनना,दादाजी ने कहा, अब आया चैंपियन।चिड़िया उड़, कबूतर उड़,  बकरी उड़, जि़दगी उड़, पर सब की ऊँगलियाँ नीचे थीं पर पापा की ऊपर ।
       दादाजी ने कहा ,"रमेश बेटा यह क्या ?" रमेश ने गीली आवाज में कहा पर पिताजी जि़दगी तो उड़नी ही  चाहिए। मैं उड़ाऊगा चाहे कितने ही चाँटे खाने पड़े । सब ने एक साथ  दादाजी ने को देखा और अपनी -अपनी उँगलियाँ हस कर उठा दी। सच है जि़दगी की उड़ान कौन सकता है।●●●●
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लघुकथा - 070

             पुराना ज़माना               
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                                             - शारदा गुप्ता
                                                  इन्दौर - मध्यप्रदेश          
   “चाय , चाय ,गरम चाय,दादी दादू आ जाओ टेबल पर । गरना गरम चाय का मजा लो ।”आठ वर्षीय श्रुति ने टेबल पर चाय रखते हुए दादा, दादी को आवाज़ लगाई ।
     “अरे वाह कब सिखी तूने चाय बनना?”कहते हुए वे दोनों कुर्सी पर आकर बैठ गाए ।
     “दादी दादी ये चिवda भी लो।मैंने अभी मम्मी के साथ मिलकर बनाया है ।”पास में खड़ी श्वेता ने कहा ।
     दादी ने अभी चिवda चखा भी न था कि राहुल ने अपने द्वारा बनाई केक लाकर उनकी प्लेट में लाकर रख दी ।इतने में बहू पूजा अपने हाथ पोंछती हुई रसोई से बाहर आई तो दादी ने कहा
   “अरे बहू या लॉक डाउन का इतना तो फ़ायदा हस कि बच्चों को रसोई के कामों में आनंद आने लगा है ।”
     “इतना ही नहीं मम्मीजी अब तो आपके बेटे ने भी सब्ज़ी पराँठे बनाने सीख लिए है ।”
    “ चलो ये तो बहुत अच्छा हुआ
घर में सब मिलजुल कर काम कर रहे है ।हँस बोल रहे है । साथ बैठ कर कैरम, ताश, लूडो खेल रहे है ।ऐसा लग रहा है जैसे पुराना ज़माना फिरसे आ गया है ।”दादी ने कहा ।
     “लेकिन कोविद - १९जैसी बीमारी की वजह से पुराना ज़माना आना तो ठीक नहीं है ना माँ ?” नेहा  का छोटा देवर जो अपनी online पढ़ाई पूरी करके नीचे आया था, ने कहा ।
    दादी सोचने लगी ये सच ही तो कह रहा है । ●●●●
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लघुकथा - 071

  गंगा-स्नान
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                                                     - अर्चना राय
                                                     जबलपुर - मध्यप्रदेश

"क्या बात है पापा, आप कुछ परेशान से लग रहे हैं?"
"हाँ बेटा, देख न आज बैशाख पूर्णिमा है… हर साल इस दिन तेरे दादा जी और मैं गंगा-स्नान को जाते थे। पर अब ये कोरोना नाम की अजब बला आ गयी। इसने हम सब को घर में बंद कर दिया।”—कृष्णकांत जी ने उदास स्वर मे कहा। 
"पापा, ये घरबंदी तो बीमारी से हमारी रक्षा के लिए ही की गई है।” 
"हाँ बेटा, वो तो ठीक है...लेकिन आज के दिन गंगा जी में स्नान कर वहाँ साधुओं को खाना खिलाकर जो पुण्य कमाते थे, इस साल वह... " 
"अरे कृष्ण! तू तो व्यर्थ में ही परेशान हो रहा है,”—बरामदे में बैठे कृष्णकांत के पिता जी ने अखबार पर से नजरें हटाए बिना ही कहा। 
"पिताजी! वो गंगा-स्नान..? "
"अरे तू नहाने के पानी में कुछ बूदें गंगाजल की डाल लेना, हो गया गंगा-स्नान और रही साधुओं को भोजन कराने की बात, तो गरीबों को खाना खिलाने वाली संस्था के आज के खाने का खर्च, हम दादा-पोता दे आए हैं।” 
"ये तो अच्छा किया पिताजी, पर हमारा सालों से चला आ रहा गंगा-स्नान कर पुण्य कमाने का व्रत इस साल टूट गया।" 
"नहीं बेटा! बल्कि इस साल तो बिना गंगा-स्नान के ही हमने पहले से कहीं अधिक पुण्य कमा लिया है।" ●●●●
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लघुकथा - 072                                                         

अपराधबोध
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                                                - प्रो. शरद नारायण खरे
                                                मंडला - मध्यप्रदेश

     अस्पताल के आई.सी.यू.वार्ड के एक बेड पर पड़े आशा-निराशा के सागर में डूबते-उतराते हुए वर्मा जी कुछ दिन पुरानी यादों में खो गए ।
"कल हनुमान जयंती है,शर्मा जी।"
"हां,है तो वर्मा जी ।"
"तो ?"
"कल हम सुबह से पूजा के लिए नगर के सबसे बड़े हनुमान मंदिर चलेंगे ।"
"क्यों ?"
"अरे,क्यों क्या ?हम हर साल तो जाते हैं,और वहां की आरती में शामिल होते हैं ।" वर्मा जी ने कहा ।
"पर,इस साल कोरोना के चलते हमें 'सोशल डिस्टेंशिंग'
का ध्यान रखना है ।शर्मा जी बोले ।
"अरे कुछ नहीं होता है,हम सुबह से चलेंगे ।"वर्मा जी ने कहा ।
"नहीं वर्मा जी,आपको जाना है तो जाओ,मैं तो घर में ही भगवान की पूजा कर लूंगा ।मैं तो 'सोशल डिस्टेंशिंग' मानूंगा ।"शर्मा जी ने सारगर्भित बात कही ।
पर वे न माने ।सुूबह से ही मंदिर पहुंच गए ।वहां उन जैसे अनेक भक्तों का जमावड़ा था ।सबने एक साथ समूह बनाकर आरती की,और आज अस्पताल में भर्ती कोरोना के शिकंजे में जकड़े वर्मा जी के पास पश्चाताप के अलावा और कुछ भी शेष नहीं था ।
"आपको,बोतल चढ़नी है ।" एक आवाज़ आई ।
       नर्स की आवाज़ सुनते ही उनकी तंद्रा भंग हुई,और वे हक़ीक़त की दुनिया में लौटकर अपराधबोध के साथ यही सोचने लगे कि ,वास्तव में 'सावधानी में ही सुरक्षा है ।' ****
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लघुकथा - 073                                                    

ईनाम 
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                                                - जगदीप  कौर
                                                अजमेर - राजस्थान

सुधा माॅल जाने को तैयार ही हुई थी कि फोन की घंटी बज उठी ।देखा तो फोन उसकी इंचार्ज का था।उठाने का मन तो नही था कयोंकि कल से लाकडाउन जो होने वाला था और सामान लाने के लिए देर हो रही थी परन्तु उठाना पड़ा......। नौकरी का जो सवाल था। उठाते ही हैलो बोलने पर सामने से चिल्लाने की आवाजआई..........
आप इतनी पुरानी कर्मचारी होते हुए भी ऐसा कैसे कर सकती है?? आपने अभिभावक को अंक कैसे बताएँ??
जी ....मैंने नहीं ..मैंने ऐसा बिलकुल भी नहीं किया अरे...
हमें उस अभिभावक ने बताया है और अब वो बाकी के रिजल्ट की डिमांड कर रहा है........
अब वो अभिभावक बकाया फीस नहीं देंगे ।अब आगे जो भी होगा उसकी जिम्मेदार आप खुद होंगी ।उस बच्चे की बकाया फीस आपसे वसूली जाएगी ।
इतना कहकर उसने फोन पटक दिया ।फिर उसके बाद तो....एकाउंटेंट और सहकर्मियों सभी के फोन आ गए।
सबने बुरे अंजाम को भुगतने के लिए तैयार रहने को कहा।
ये सब सुनकर वह धम्म से सोफे पर जा बैठी , और सोचने लगी कि इतने वर्षो की सेवा,अथक परिश्रम का यह कैसा ईनाम मिला । बच्चो को पढ़ाने के अतिरिक्त, क्रियाकलापों, व सभी अत्याधुनिक प्रपंचों को करने के उपरांत अब बच्चो की फीस भी अध्यापको से ली जाएगी????
गलती क्या थी मेरी...........? 
वाटसएप ग्रुप में बच्चों को एक परीक्षा के अंक बताना?
पर वो तो सारे अंक और रिजल्ट नहीं था?
और वो भी अभिभावकों के बारम्बार प्रार्थना करने पर ही बताए थे...... हाँ उस ग्रुप में वो बकाया फीस वाले अभिभावक भी था .....हम्म । ●●●●
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लघुकथा - 074

टूटी जो नींद
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                                               - डाँ. अंजु दुआ जैमिनी
                                                    फरीदाबाद - हरियाणा

क्या नहीं था साहू  जी के पास। हज़ार गज़ की कोठी, दो ब्याहे पुत्र, नौकर चाकरों की फौज। कुल मिलाकर कारोबारी साहू दुनिया की दृष्टि में सुखी - संपन्न आदमी था।
अब ये क्या बला आ गई सिर पर। कोरोना वायरस । कभी नाम भी न सुना था इसका। अब तक तो प्लेग, डेंगू, काला ज्वर, चिकनगुनिया, स्वाइन फ्लू सुने थे।  चीन से आए विषाणु ने विश्व - भर में कहर ढा दिया। इससे होने वाली मौतों  ने खूब हंगामा बरपाया। 
डेढ़ महीने से साहू जी घर पर थे।
एक दिन अपने दोनों बेटों, बहुओं, पत्नी को बुलाया और कहा -" देखो ! मैंने एक फैसला किया है। तुम्हें बताने के लिए बुलाया है। मेरी उम्र साठ साल से थोड़ी कम है। मैंने पैसा कमाने के लिए बहुत मेहनत की है। न दिन देखा, न रात। भगवान का दिया सब कुछ है मेरे पास पर एक बात का मलाल है। तुमने कभी अपनी ज़िम्मेदारी नहीं समझी। आज भी मैं सबसे पहले घर से जाता हूं और सबसे बाद में घर घुसता हूं। इस डेढ़ महीने में मेरी आंखें खुल चुकी हैं। मैंने अपना गिटार स्टोर रूम से निकाल लिया है और उस पर पड़ी धूल साफ कर ली है। अब मैं अपने शौक को फिर से ज़िंदा करूंगा। ये लो ऑफिस की चाबियां। मेरे रियाज़ का वक़्त हो चला है।" वह गिटार उठाकर पीछे वाले कमरे में चले गए।        ===================================
लघुकथा - 075                                                         

धूप और छाँव
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                                            - कल्याणी झा 
                                                रांची - झारखण्ड

                सुमित्रा देवी अपने पति की फोटो के सामने खड़ी होकर बातें कर रही थी। उन्होंने अपने सफेद और काले बार्डर वाली साड़ी के तह को ठीक करते हुए इधर-उधर देखा।  उसने पति की ओर देखते हुए कहा _ "तुम ठीक ही कहते थे कि सुख और दुःख दोनों साथ चलते है।"
‘’ मालूम है? आज आकाश ने जब बहू से चाय माँगी ,तो बहू ने बड़े प्यार से चाय बना कर दिया। मुझे वह दिन याद आ गऐ ,जब तुम मुझे आवाज लगा कर कहते थे  _ ‘सुमित्रा ssss एक प्याली चाय पिलाना। मैं रसोईघर में कई कामों के बीच भी तुम्हें चाय बना कर देती थी। आज वही भाव मैंने शगुन के चेहरे पर महसूस किया। "अब अपनी लाड़ली श्रुति का चिड़चिड़ापन भी कम हो गया है। माँ के कामों में हाथ बटाती है ,और खूब मन लगाकर पढ़ाई भी करती है।"
"आकाश भी दिन में एक -दो बार मुझसे हाल -चाल पूछ लेता है।" आज उनके चेहरे पर उदासी की जगह एक चमक थी ,और पहले से ज्यादा खुश नज़र आ रही थी।
"मुझे तो लगता है ,बच्चों की कोई गलती नहीं थी। भाग दौड़ में जीवन शैली ही बदल गई थी। आकाश और बहू का ऑफिस में बेहतर प्रदर्शन के लिए परेशान रहना। श्रुति का स्कूल के बाद कोचिंग और ट्युशन में लगे रहना। आधुनिकता की अंधी दौड़ में भागते - भागते सब की मासूमियत जैसे छूट गई थी।" 
                  "अचानक कोरोना वायरस ने आकर सबको रोक दिया। अब रुक जाओ! बहुत दौड़ लिए! थोड़ा सुस्ता लो!आजकल   दूरदर्शन पर रामायण की गंगा बहती है। जिसे हम साथ बैठकर देखते है।"
" मैंने सौ के करीब मास्क बनाये हैं। संस्था वाले अभी लेने आ रहे है,गरीबों को बांटने के लिए।"
" सुनिये! हमारे मजदूर बहुत दुखी और बेहाल है। उनकी बातें कल करुँगी,पहले उनके लिए कुछ कर तो लूँ।" ●●●●
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लघुकथा - 076                                                      

देशहित
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                                                  - डॉ. पुनम देवा
                                                          पटना - बिहार

मां _ मैं आ गया दरवाजा खोल । खट्ट _खट्ट की आवाजें मां के कानों पर हथोड़े सी पड़ रही थी ।
मां ने अपनी बेचैनी को काबू  कर कहा__ बेटा पहले तुम १४ दिनों के लिए सरपंच जी के बनाए सेंटर में चले जाओ । उसके बाद हीं मैं तुम्हें घर में आने दूंगी।
मां__ मेरा जगह _ जगह टेस्ट हुआ है,और मैं बिल्कुल स्वस्थ हूं ।

ना बेटा _ ना ,तू मुम्बई से आ रहा है ,सुना है मैंने सबसे ज्यादा लोगों को यह कोरोना बीमारी वहीं लगी है।
इसलिए सरकार ने जो नियम बनाए हैं __ तू भी पहले उसका पालन कर लें ।१४ दिनों के बाद हीं मैं तुम्हारे लिए इस घर के दरवाजे खोलूंगी।
मां से मिलने को व्याकुल मन पर धैर्य रख बेटा विद्यालय की ओर बढ़ गया ।
आज पढ़ें _लिखे बेटे को अपनी अनपढ़  मां पर गर्व हो रहा था कि आज  उसकी मां ने पुनः एक सुंदर सीख दी___ जागरूकता की और देशहित की।आज समय की यही तो मांग है हम सब जागरूक रहें और अपने से ज्यादा देशहित को प्रार्थमिकता दें ।
सच हीं तो है देशहित में हीं हम सब का हित भी छुपा है । ●●●
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लघुकथा - 077                                                           

                        परीक्षा                          
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                                         - डॉ. वीरेंद्र कुमार भारद्वाज
                                          पटना - बिहार
  लॉकडाउन में ऑनलाइन क्लासों के बीच वह मास्टर टेस्ट ले रहे थे- 
 # आज विश्व का सबसे बड़ा दैत्य कौन है? 
*कोविड-19, कोरोना।
# इसके वार के बारे में बताएँ..? 
*आदमी से आदमी में फैलने वाला, एक व्यक्ति से अनेक संक्रमित हो सकते हैं। संक्रमित व्यक्ति की खाँसी-छींक सबसे खतरनाक..। 
# उसे मारने का हथियार..?
 *साबुन से कम-से-कम 20 सेकंड तक हाथ धोना, बिना ऐसा किए अपना चेहरा न छूना, सोशल डिस्टेंसिंग में रहना।
# इसे कौन वीर परास्त कर सकता है..?
* वह कायर और बुजदिल, जो घरों में दुबक कर रहता है। 
# मास्क, घरबंदी, इलाज और जीवन पर प्रकाश डालें।
* मास्क पहनना वेंटिलेटर पहनने से ज्यादा बेहतर है, तो घरबंदी आई.सी.यू. में रहने से। बीमारी से बचना इलाज से, तो साबुन से हाथ धोना ज़िंदगी से हाथ धोने से ज्यादा बेहतर है।
 # हमारा फर्ज..?
 *लॉकडाउन का पालन करना, स्वयं सुरक्षित हो यथासंभव लोगों की मदद करना।
 # सीख..?
*प्रकृति, घर-परिवार और स्वयं से प्यार करें। पैसे व स्टेटस हमारी ज़िंदगी नहीं बचा सकते। देश से शिक्षा लेकर विदेश में सेवा देना किसी फक्र का द्योतक नहीं। बुरे वक्त में मातृभूमि-मातृगोद ही  काम आती है। अंधी-खौफनाक रफ्तार को रोकें, क्योंकि एक सूक्ष्मातिसूक्ष्म वायरस ने हमारी औकात को एक कौड़ी-सा भी न छोड़ा है। आप स्वयं से स्वयं को नहीं छूना चाहते।
          “धन्यवाद..! सभी को सौ में सौ आए; पर मूल परीक्षा प्रैक्टिकल की होगी, जिसकी आप तैयारी…।” ●●●●               ====================================
लघुकथा - 078                                                     

मास्क
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                                               - डॉ.अनिल शर्मा अनिल
                                                 धामपुर - उत्तर प्रदेश

"मां मैं तुम्हारे लिए मास्क ले आया। लगा रखो मुंह पर, देखो टीवी में बताया था न।" बेटे ने मां को मास्क देते हुए कहा ।
" ठीक किया बेटा। सुरक्षा व बचाव जरूरी है। कोरोना से बचने के लिए।" मां ने खुशी जाहिर करते हुए कहा।
" वाह जी, आपने तो कमाल कर दिया। मुंह पर मास्क होगा तो, मां जी ज्यादा टोका टाकी नहीं करेगी।" बहू भी प्रसन्न नजर आई।
 लॉकडाउन के दौरान बेटे ने घर में रहते हुए मां और बहू के बीच हुई टोका टाकी को कई बार सुनकर भी अनसुना कर दिया था।●●●●
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लघुकथा - 079

पात्र
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                                        - उपेन्द्र प्रताप सिंह
                                         कलिफ़ोर्निय - अमेरिका

 प्रशासन की गाड़ी दरवाज़े पर आकर रुकी थी। बाहर से ही घर में महिलाओं के रुदन के उच्च स्वर सुने जा सकते थे। पीपीई किट पहने हुए कर्मचारी ने बाहर बैठे रिश्तेदार से कहा “क्योंकि सेठ जी की मृत्यु शहर में लाक्डाउन के दौरान हुई है, आदेश है कि घर से केवल एक सदस्य ही मुखाग्नि देने के लिए चल सकता है। सेठ जी के पुत्र से कहिए साथ गाड़ी में चल ले।” रिश्तेदार ने रुँधे गले से आवाज़ दी “श्रवण जा बेटा! पापा को आख़िरी विदा देने का समय आ गया है। हे ईश्वर! कैसा कठिन समय है?” कहते हुए वहीं दीवार पर सर टेक रोने लगे। बढ़ी दाढ़ी और अस्त व्यस्त बालों वाला श्रवण रोते हुए बाहर आया ही था की सहसा चौखट के पीछे से सेठानी की रोती हुई आवाज़ आयी “रुको श्रवण बेटा! तुम तो महज़ तीन माह पहले ही बीमार पिता का हाल लेने आए। पिछले २ सालों से जब वो शय्याग्रस्त थे, उनकी सेवा, दवा, मल-मूत्र सब बिट्टो ने अपने हाथों किया है। तुम जहाँ लंदन में तरक्की के पीछे भाग रहे थे, वहीं बिट्टो ससुराल वालों के ताने सुनकर भी अंत समय तक पिता के सिरहाने रही। तो आज उनके अन्तिम संस्कार का हक़ भी बिट्टो का है।पापा को मुखाग्नि बिट्टो देगी!” श्रवण की आँखें नीची थी और बिट्टो माँ से लिपट रोने लगी। ●●●●
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लघुकथा - 080

कोरोना को दूर भगाएंगे
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                                                       - नेहा शर्मा
                                                      अलवर - राजस्थान

चीनू दौड़ती हुई दादी के पास आती है और कहती है कि- "दादी आप दिन में साबुन से कई - कई बार 
हाथ क्यों धोती हैं।"
दादी चीनू से कहती है कि- " बिटियाँ तुम्हारी मम्मी ने तुम्हें कुछ नहीं बताया क्या?"
चीनू विस्मित होकर पूछती है- "दादी क्या नहीं बताया मम्मी ने मुझे?"
यही चीनू बेटे कि चीन से एक कोरोना नाम की महामारी आई है, जो संक्रामक है। हाथ धोने व साफ-सफाई रखने से उससे
बचा जा सकता है। इसलिए मैं बार-बार
हाथ धोती हूँ। और तुम्हें भी अपने हाथ बार बार धोने चाहिए।ताकि तुम इस जानलेवा महामारी से बच सको।समझी मेरी चीनू बिटियाँ।
चीनू चहकते हुए- "ठीक है दादी तो आज से हम स्वच्छता का मंत्र अपनाएंगे और कोरोना को दूर भगाएंगे।"
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लघुकथा - 081                                                       

संतुष्टि
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                                        - अनिल श्रीवास्तव " अयान " 
                                            सतना - मध्यप्रदेश

पति ने घर में फल लाए ही थे कि पत्नी ने कोरोना के संक्रमण के संदेह, और टीवी में आने वाली सावधानियों के चलते फलों को डेटाॅल के पानी में धोया, सेनेटाइजर की छिड़काव किया, गर्म पानी में नमक डालकर साफ किया फिर सूती रूमाल से साफ कर फ्रिज में सुरक्षित रखा। पत्नी, फलों को देखकर संतुष्ट हुई और पति, पत्नी को देखकर।।●●●●
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लघुकथा - 082                                                        

 राशन 
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                                              - बबिता कंसल
                                        दिल्ली
राठी जी अपने तो कहा था बस्ती मे लगभग तीन सौ ही लोग है ।
पर यहां पर तो बहुत भीड़ है ।
 ये तो हजार लोग से कम नही हैं 
  राशन बाटनें वाले पैकट तो पांच सौ ही है ।
"देखतें है गुप्ता ज़ी जितने बांट सकतें है पैकट बांट देगे ।और सब को बाद मे देखेगे "।
राठी जी ने गुप्ता जी से कहां 
"ठीक है तो आप इनको एक गज की दूरी पर घेरे मे मास्क लगा कर कतार मे  खड़ा कर पैकट बाटनां शुरू करिये "।
गुप्ता जी ने राठी जी से कहा 
सभी  मजदुर दूरी का पालन करते हुए आये और राशन लेते रहे ,देखिये भीड़ नही लगानी है "।
कतार मे लगे लोग दूरी का पालन करतें हुए आगे बढ कर राशन के पैकट लेने लगे ।
"अरे तुम !तुम तो वही होना जिसको कल ही पूरे महीनें का राशन दिया था ।आज फिर से....... कतार मे लगे हो ......"।
राठी जी  जोर से चिल्लाकर बोले 
सुन वह व्यक्ति सिर झुका कर जल्दी से आगे बढ गया ।
अब भीड़ छटनें लगी ,कतार मे लगे लोग आधे ही रह गये ।●●●●
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लघुकथा - 083                                                      

दानदाता
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                                             - राजेन्द्र पुरोहित
                                        जोधपुर - राजस्थान

कच्ची बस्ती में न जाने किसने अफवाह उड़ा दी थी कि दूध और दूध का पाउडर दोनो के ही स्टॉक सरकार के पास समाप्त हो गये हैं। कोरोना के कहर में ऐसी ख़बरें रोज ही उड़ती थीं।  शन्नो के चेहरे पर चिंता की रेखाएँ खिंच गईं। उस की इकलौती गुड़िया तो दूध के बिना खाना ही नहीं खाती थी। रोटी, चावल,जो भी दो, दूध में ही मिला कर खाती थी। साग और दाल से तो जैसे वैर था। गुड़िया के लिये रोजाना दूध की व्यवस्था की फिक्र में शन्नो व्याकुल हो उठी।
बस्ती में रोजाना दानदाताओं की भीड़ उमड़ती। शन्नो यों तो कामवाली बाई थी, पर थी बड़ी खुद्दार। मजाल है किसी दानदाता से अन्न का एक दाना भी लिया हो। दो किलो आटा लो, दस फ़ोटो में भिखारी की तरह खड़े रहो…. छि: … कैसी घिन आती थी उसे।
लेकिन दूध वाली ख़बर ने उसकी नींद उड़ा दी। अकेली विधवा कहाँ भटकेगी दूध के लिये। जो भी दानदाता आता, शन्नो दूध-पाउडर के पैकेट माँग ही लेती। तस्वीर भी खिंचवा लेती। 
कुछ ही दिनों में उसके पास दो किलो से भी अधिक दूध  पाउडर के पैकेट इकट्ठा हो गये। नन्हीं गुड़िया अभी पाँच वर्ष की ही थी, लेकिन दूध पाउडर के पैकेट देख कर उसकी आँखें चमकने लगतीं थीं।
लेकिन उस दिन अफवाह सच हो गई। रात को दूधवालों के मुहल्ले में ही मरीज मिल गये। मुहल्ला बन्द हो गया। दूध की सप्लाई बंद हो गयी। न जाने कितने दिन बन्द रहेगी। पर शन्नो खुश थी, उसके पास तो दूध पाउडर के पैकेटों का भंडार था। 
दोपहर को माँ-बेटी शर्मा जी के घर गये। गुड़िया बाहर ही बैठी। शन्नो ने हाथों-पैरों पर सैनिटाइजर लगाया व मास्क ठीक से पहन कर अंदर गयी। काम होते-होते घर में कोहराम मच चुका था।
 शर्मा जी की बहू का दूध सूख गया था और दूधमुहाँ बिट्टू, भूख के मारे हलकान हो गया था। घर मे दूध की एक बूंद भी नहीं थी। बाहर सारी दुकानें बंद। आस पड़ोस से माँगा तो सभी ने यह कह कर मना कर दिया कि आपको दे देंगे, तो हम कहाँ से लाएंगे।  शर्मा जी व उनकी पत्नी रोने लगे। गुड़िया ने खिड़की से सारा नज़ारा देखा। बिट्टू उसे बेहद प्यारा लगता था। गोल-मटोल, गोरा-गुदगुदा बिट्टू। उसकी हालत देख कर गुड़िया भी रुआंसी हो गयी।
शन्नो का हृदय न जाने कैसा-कैसा हो गया। दूध के अभाव में सम्पन्न व भरेपूरे परिवार की दुर्दशा ने उसे किंकर्तव्यविमूढ़ कर दिया था।
सहसा खिड़की पर दस्तक से सब चौंक उठे। गुड़िया के हाथ मे मिल्क पाऊडर के पैकेट थे व मुख पर मुस्कुराहट। चहक कर बोली," अम्माँ, ये दूध बिट्टू के काम आ जायेगा न??? मुझे तो बिल्कुल पसंद नहीं है ये। उबले चावल और साग दे दोगी न??? कितने अच्छे होते हैं। और हाँ अम्माँ, मेमसाहब को कहना कि गुड़िया हाथ धो कर लायी है ये पैकेट।"
शर्मा जी का पूरा परिवार और शन्नो डबडबायी आँखों से गुड़िया को देख रहे थे। 
फोटो खींचने वाला यहाँ कोई नहीं था।●●●●●
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लघुकथा -084                                                       

     कैसे-कैसे पल    
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                                          - राकेशकुमार जैनबन्धु
                                             सिरसा - हरियाणा

पति के लॉकडाउन में फंसे होने के कारण बरखा व उसकी सास पड़ोसी राकेश के साथ बैलगाड़ी में बैठकर अस्पताल पहुँची।
तभी बरखा की प्रसव पीड़ी को भाँपते हुए डॉ.ने तुरंत ही उसे भर्ती कर लिया।अब बरखा की चीख़ों से पूरा अस्पताल गुंजायमान हो रहा था।
थोड़ी देर बाद डा.साहिबा बाहर आई और राकेश से बोली "मुबारक हो आपके पोता हुआ है। परन्तु आपसे एक बात पूछूँ,"आप इसे बैलगाड़ी में क्यों लेकर आए ? इसे कुछ हो जाता तो।
किसी एम्बुलेंस को फोन कर लेना था।"
गाँव में एक-दो गाड़ी वालों को फोन मिलाया था,पर उन्होंने जाने से मना कर दिया।गाँव में एक एम्बुलेंस भी है,जिसके ड्राइवर ने कोरोना महामारी के चलते हुए बाहरी यात्रा के कारण घर में ही खुद को कोरेंटाइन किया हुआ। वे कहते हैं कि मेरे कारण से कोई प्रभावित हो,यह उचित नहीं है।असल में वे इस नवजात के दादा हैं।
मैं तो इनका पड़ोसी हूँ।""●●●●
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लघुकथा - 085                                                      

व्यूहरचना
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                                                - डॉ. नीलम खरे
                                                    मंडला - मध्यप्रदेश

"यह अपने राजा को क्या सूझा कि पूरे देश में महीने भर को सारी चीज़ों को बंद करा दिया,लोगों के घर से निकलने पर पाबंदी लगा दी ।सारी गतिविधियों को लॉक करा दिया ।" रस्तोगी जी ने मेहरा जी से कहा ।
"भाई,यह सब बहुत ज़रूरी था ।इससे कोरोना की बीमारी फैलने पर रोक लगेगी,क्योंकि यह बीमारी एक आदमी से दूसरे तक पहुंचती है न ।" मेहरा जी ने कहा ।
" और यह ताली-थाली से क्या फायदा होने लगा ,क्या इससे बीमारी डरकर भाग जाएगी ?" रस्तोगी जी ने फिर सवाल दागा ।
"अरे नहीं भाई  इससे बीमारी तो नहीं भागेगी,पर जो डॉक्टर ,कर्मचारी व पुलिस-प्रशासन के लोग इस बीमारी से लड़ रहे हैं,उन्हें हिम्मत व हौसला तो मिलेगा ।वे यह सोचकर क्या दुगने उत्साह से अपनी ड्युटी पूरी नहीं करेंगे कि देखो सारा देश हमारे प्रति किस तरह से आभार प्रकट कर रहा है ?"मेहरा जी ने बात स्पष्ट की ।
"और यह दिया जलाने या उजाला करने से क्या होने लगा ?क्या इस उजाले से बीमारी का वायरस घबरा जाएगा ?"रस्तोगी जी कहां हार मानने वाले थे ।
"अरे भाई रस्तोगी जी दरअसल लोग इस बंदी से घबरा न जाएं,बीमारी के कारण डिप्रेशन में न आ जाएं,घर में घुसे -घुसे निराश न हो जाएं,इसीलिए यह आशा,उम्मीद व आत्मबल का उजाला था,जिसे हमारे देश के कर्णधार ने हमसे करने के लिए कहा था ।"मेहरा जी ने रस्तोगी जी को समझाते हुए कहा ।
 पर रस्तोगी जी की अधीरता अभी पूरी नहीं हुई थी,सो उन्होंने फिर प्रश्न किया कि "आख़िर इस सबको आप क्या कहेंगे ?"
"बीमारी से सफलतापूर्वक लड़ने और सुनिश्चित जीत पाने के लिए व्यूहरचना ।" मेहरा जी ने एक शब्द में सारी तैयारियों को समेटते हुए कहा ।●●●●
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लघुकथा - 086                                                     
  विरासत
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                                                 -  राधेश्याम भारतीय                                                      घरौंडा - हरियाणा

 देशभर में लोक डाउन के कारण फैक्ट्री पर ताला लग चुका था. वह ताला उसे डराने लगा..... और एक दिन वह डर  सच में तब्दील हो गया. फैक्ट्री के गेट पर छंटनी किए गए मजदूरों की सूची लगा दी गई. उम्र अधिक होने के कारण उसका नाम भी उनमें था. उसे ब्रह्मांड हिलता नजर आया. वह जैसे -तैसे अपनी देह को खींचता अपने क्वार्टर तक लाया. उसे दूर -दूर तक दुखों का सागर लहलहाता दिखाई दिया. उसकी आंखों के सामने भूख तांडव करने लगी 
 वह उसी तांडव के डर से गांव की ओर दौड़ पड़ा. वह जितना दौड़ता भूख के कोड़े उतनी ही तेजी से उसकी देह पर पड़ते. तपती धरती आग उगलता आसमान दोनों के बीच वह अपनी क्षमता से ज्यादा दौड़ा. दौड़ते दौड़ते उसके पांव लहूलुहान हो गए. वह लहूलुहान होते पैरों को थोड़ी राहत देने के लिए रुका ही था कि तभी खाकी वर्दी लाठी लेकर उसके सामने खड़ी हो गई. कोई चारा न देख उसने अपनी पीठ  उसके सामने कर दी.
 लाठी को उस पर तरस आया पर एक  गाली देते हुए बोली, " दौड़ जा नहीं तो..... !"
 अब दौडना उसकी मजबूरी थी. वह पहले से तेज दौड़ा. 
 उसने घर पहुंच कर ही पीछा देखा.
 अभी वह ठीक से संभला भी नहीं था कि पाँच जोड़ी आंखें आशा भरी निगाहों से उसकी ओर देख रही थी.
 उसे अपने हाल पर रोना आ रहा था.
" रोता क्यों है रे..... ऐसे में अपने घर आ गया यह क्या कम है!" बूढ़े पिता ने हिम्मत बढ़ानी चाहिए
 पिता के हाथ का स्पर्श पा उसके अंदर दुख का पहाड़ पिघला और वह दूने  वेग से रो पड़ा और रोते रोते ही बोला "बापू जब यहां से गया था तो आप से भूख ही विरासत में मिली थी... शहर गया वहां उस भूख को सदा सदा के लिए दफनाना चाहता था..... पर दफनाना तो दूर उसे कहीं भगा भी नहीं पाया और अब फिर उसी भूख को ले आया हूं.. अपने बेटे को देने के लिए,,,,,, अपने बेटे को देने के लिए!"
 छह जोड़ी आंखों के सामने भूख फिर तांडव करने लगी●●●●
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लघुकथा - 087
     
         जिम्मेदारी              
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                                                   खण्डवा - मध्यप्रदेश    
टीवी पर न्यूज़ चल रही है कि कोरोनावायरस के कारण पूरे देश में  लॉक डाउन कर दिया गया है।  यह खबर  जानते ही ऑफिस से बॉस का फोन आया ,मैडम अभी  लॉक डाउन कर दिया गया है इसलिए घर पर रहकर ही अपना काम करना होगा ।सभी काम अपडेट रखना ।जी सर ,यह कहते हुए शुभी ने अपना फोन रख दिया ।लॉक डाउन और कोरोनावायरस    कामवाली  ने भी काम पर आना बंद कर दिया। अब तो काम और बढ़ गया है सभी सदस्यों के घर में रहने से काम का शेड्यूल थोड़ा बिगड़ गया था जो काम 11:00 बजे खत्म होता था वही काम खत्म होते-होते अब 2:00 बजने लगी। जैसे ही घर के काम से   फ्री होती वैसे ही वहां ऑफिस का काम लेकर बैठ जाती ।ऑफिस के काम से फ्री होकर घर के काम में लग जाती ।शुभी होमवर्क और वर्क फ्रॉम होम के बीच बुरी तरह फस गई थी। बहुत थक कर चूर होने लगी ।रोहन से यह देखा ना गया वह उसकी स्थिति को समझ गया ।अगले दिन बहुत सुबह जल्दी उठा ,झाड़ू हाथ में लेकर घर की सफाई करना शुरू कर दी। यह देख पिताजी बोले अरे, तुझे क्या       पड़ी है यह घर का काम औरतों को शोभा देता है ।यह घर गृहस्ती औरतों की जिम्मेदारी है ।छुट्टी मिली है तो आराम से बैठ आराम कर। पिताजी आप गलत कह रहे हैं घर गृहस्ती पति पत्नी दोनों की जिम्मेदारी है। महिलाएं घर के सभी काम करके सभी की सेवा करके अपनी पूरी जिम्मेदारी निभाती हैं ।और तो और कुछ महिलाएं नौकरी चाकरी करके परिवार की आर्थिक सहायता भी करती हैं तो क्या ऐसे में उनके काम में हाथ बटाना हम पुरुषों की जिम्मेदारी नहीं हैं ।घर के काम करने से हमारा पुरुषार्थ कम नहीं हो जाएगा ।स्त्री पुरुष समानता के इस युग में काम का कैसा बंटवारा। पिताजी को बेटे की बात सही ही नहीं लगी बल्कि उससे सीख भी मिली ।वे भी पास में रखे चाय के प्याले को किचन में रखने चल दिए।●●●●
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लघुकथा - 088
धर्म-नीति
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                                                   - विभा रानी श्रीवास्तव
                                               पटना - बिहार

"देख लो माँ, इसका विस्तार! इसका जो जगह तय है वो इसका है ही जो मेरा जगह है उसमें से भी इसे इसका फैलाव चाहिए!"
     कोरोना से दुनिया त्रस्त हो रही थी। सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंस) बरतने के लिए वर्क एट होम होने की वजह से शोभा अपने शयनकक्ष में और सोहन भोजन मेज को अपना-अपना कार्यक्षेत्र निर्धारित किया। दो सप्ताह सुचारूरूप से चला। आज सुबह शोभा अपना लैपटॉप लेकर भोजन मेज पर ही कार्यालय का काम शुरू की तो सोहन ने अपनी माँ को पुकारा।
"ठीक ही तो है! जब पूरा घर शोभा का है तो सोहन! घर का आधा हिस्सा तुम्हारा है। केवल घर का आधा हिस्सा शोभा का है तो तीन तिहाई हिस्सा तुम्हारे हिस्से में आ जायेगा..!
   एक बात और समझ लो.. ना जाने कितने सालों से पक्षी-जोड़ा बिना किसी लालसा के एक संग रह रहे हैं... अपने पंखों के सहारे उड़ते चले आ रहे हैं पीढ़ी दर पीढ़ी ! आज भी जैसे अनेकानेक साल पहले थे आज भी बिल्कुल वैसे ही हैं, बाग-बगीचों में,  खेतों-खलिहानों में बैठकर दाना चुगना, खतरों से अपना बचाव कर लेना.. फँसे बिना उड़ जाना... "
"माँ की बातें हमेशा न्याय संगत होती है.."शोभा के चहकने से घर का अवसाद मिट रहा था।
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लघुकथा - 089

जान है तो जहान है
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                                               - डॉ संगीता शर्मा
                                       हैदराबाद - आन्ध्रप्रदेश

आज सुमित को संदेश मिला की कोरोना से लड़ते-लड़ते उसके पिताजी की मृत्यु हो गई।कोहारम मच गया । चर्चा हुई की उनकी अंत्येष्टि करने घर लाया जाए पिता वैसे ही कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे और मां ने उसे आगे पढ़ने इसलिए भी विदेश जाने नहीं दिया कि पुत्र को ही क्रियाकर्म करने होते हैं वरना नर्क भोगना पड़ता है। अधोगति नहीं होती पितरों को पानी नहीं मिलता ।अब क्या करें सभी पेशोपश में पड़ गए । तभी मां ने फैसला सुनाया कि धर्म अपनी जगह सारे कर्मकांड कोरोना खत्म होने के बाद कर लेंगे भगवान तो सर्वज्ञ हैं उससे क्या छिपा है उसके तो खुद के पट बंद है।हम लाश घर नहीं लाएंगे उन्हें ही कुछ ले देकर क्रियाकर्म करने को कह दो। बेटा दुनिया का क्या है वो तो कुछ भी कहती हैं हमें उनकी परवाह नहीं ।अगर तुम्हें ही कुछ हो गया तो वंश बेल कैसे बढ़ेगी और हम सभी को कोरोना हो गया तो फिर क्या करेंगे ।यह कहते हुए मां ने धीरे से कहा बेटा जान हैं तो जहान है।●●●●
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कोरोना वायरस का लॉकडाउन
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                                                - रामलाल साहू बेकस    
                                             ग्वालियर - मध्यप्रदेश

 राजकमल व धनराज दोनों घनिष्ठ मित्र थे, दोनों एक दूसरे से मिले बिना एक दिन भी नहीं रह सकते थे, दुर्भाग्य से उन दिनों करोना महामारी का प्रकोप बढ़ रहा था, सरकार ने इसके बचाव में कई तरह के कठोर नियम बना रखे थे शक्ति के साथ लोक डाउन को लागू कराया जा रहा था
कोई भी व्यक्ति कहीं भी आ जा नहीं सकता था, घर के अंदर ही रहना पड़ रहा था, मकान दुकान ट्रांसपोर्ट लोकल वाहन रेलवे सारे ऑफिस,सारे संस्थान बंद थे उस समय जीवन का मूल्य क्या है पता लग रहा था, सारी व्यवस्थाएं बंद थी कुछ भी खुला नहीं था करोना बीमारी चैन बनाकर गुणात्मक रूप में बढ़ रही थी,इस समय सरकारी आदेश के तहत तीन बातों का ध्यान हर किसी को रखना पड़ रहा था नंबर 1 हाथों का धोना नंबर दो मुंह पर मास्क लगाना नंबर 3 एक दूसरे से 2 मीटर की दूरी बना कर रखना,
एक दिन राजकमल थोड़ा सा वक्त निकाल कर इधर उधर से देखभाल के मौका लगाया और चुपचाप धनराज से मिलने उसके घर चला गया,धनराज ने राजकमल को देखकर घर का दरवाजा तो खोला लेकिन अंदर आने का नहीं कहा, राजकमल जैसे ही अंदर के लिए आगे बढ़ा धनराज ने उसे वहीं रोक दिया और कहा यार तेरे से घर पर नहीं बैठा जाता, तुझे मालूम है कि यह बड़ी खतरनाक बीमारी है बहुत घातक है फिर भी घूमने निकल पडा़,धनराज ने राजकमल को वैसे ही उन्हीं पैरों से लौटा दिया राजकमल को यह व्यवहार बहुत बुरा लगा, वह अपने घर लौट लिया, जैसे ही वह घर लौट कर आया, बच्चों ने उसे बाहर ही रोक कर सबसे पहले हाथों को साबुन से धुलवाया फिर जूते बाहर ही उतरवाए उसके बाद पहने हुए कपड़े उतरवाकर उन्हें गर्म पानी में धोने के लिए डलवाया उसके बाद राजकमल को नहाने के लिए कहा, राजकमल ने नहाने के बाद दूसरे कपड़े पहन लिए इसके पश्चात उसे अंदर आने दिया गया,
अब राजकमल को यह समझ में आ रहा था कि यह बीमारी कितनी खतरनाक है इसीलिए धनराज ने उसे बाहर से ही नमस्कार करके लौटा दिया था
राजकमल सोच रहा था कि उसने धनराज के घर जाकर बड़ी गलती की थी,तालाबंदी चल रही है तो उसे घर पर ही रहना चाहिए था उसे अपनी गलती का एहसास हुआ उसने नियमों का पालन करने का संकल्प लिया ।
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लघुकथा - 091                                                           

           पछतावे भरी मुस्कान            
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                                             -   सन्तोष सुपेकर
                                                    उज्जैन - मध्यप्रदेश

देश मे भयानक रूप से संक्रमित महामारी फैले डेढ़ माह से ऊपर हो चला था। लॉक डाउन घोषित होने के कारण  शहर बन्द था ,किसी भी नागरिक का घर से निकलना वर्जित था।आठ दस दिन तो प्रवीण जी ने मोबाइल , टेलीविजन देखकर निकाले ,दो- एक बार घर की सफाई भी की पर अब उन्हें इन सबसे बोरियत होने लगी थी।निराशा हावी हो चली थी,किसी से मिलने, बात करने को जी चाह रहा था, पत्नी -बच्चे  ,परिवहन सेवाएं बन्द हो जाने से  दिल्ली से सैकड़ों किलोमीटर दूर ,उज्जैन में ही अटक कर रह गए थे।
 अकेलापन काटने को दौड़ रहा  था। किसी से रूबरू बात करने को तरस गए थे वे,और इसकी सबसे बड़ी वजह,उनकी अगल- बगल  के दोनों घरों से कोई बोलचाल न होना था। शाम को वे हवा खाने छत पर जाते थे तो पड़ोसियों को देख  मन मसोस कर रह जाते थे।
"काश मैंने छोटी छोटी बातों को नेगलेक्ट किया होता ।काश, हर बात को ईगो पॉइंट न बनाया होता,तो आज इस तरह अकेलेपन  की सज़ा न भुगतना पड़ती , किसी  से बात करने को तरसना न पड़ता" दोनो तरफ की छतों पर घूमते पड़ोसियों को देख उनके अंदर से बार -बार  आवाज उठती थी पर इन असहाय परिस्थितियों में  भी, अहं उन पर हावी हो रहा था ,बार -बार आड़े आ रहा था, किसी से बात  नही करने दे रहा था।
"नही ,बहुत हो गया अब ।हमारी दीवारें और छतें आपस मे मिलती हैं तो  मैं कब तक दूर रहूं?"बमुश्किल, मन कड़ा करके उन्होंने एक निश्चय किया अपने अहं को मन के एक कोने में  धकेला और दाएं वाले पड़ोसी को देख हाथ उठाकर मुस्कुराए।
 नम आंखों वाली मुस्कान। ●●●●
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लघुकथा - 092                                                          

मौत
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                                                  - कृष्ण मनु
                                                धनबाद - झारखण्ड

सहकर्मियों के कहने पर बिना सोचे-समझे अपना बसेरा छोड़कर इस तरह  तपती दोपहरिया में ऊपर  सूरज  की आग और नीचे सड़क की गर्मी  के बीच  पिघलता हुआ वह अब पछता रहा था। 
 जख्मी पैरों को घसीटते हुए भूखा- प्यासा वह कहां जा रहा है? सैंकड़ों मिल दूर स्थित अपना गांव । पर गांव में भी क्या धरा है?  दो रोटी भी मयस्सर नहीं। 
भूख मिटाने की कोई जुगत होती अगर गांव में तो वह शहर आता ही क्यों? माना कि कोरोना महामारी में कारखाना बंद हो गया। नौकरी छूट गई और भूखों मरने की नौबत आ गई। तो भाग कर भी क्या मिल रहा? क्या वहां सरकारी व्यवस्था या दानियों द्वारा खाना नहीं मिलता? कोई और नहीं तो अड़ोसी-पड़ोसी भूख से  मरने नहीं देते।
 धौकता सीना, पीठ से लगा पेट।  प्यास से पपड़ी पड़े होठ। उसे लगा जीवन डोर अब टूटने वाला है।
 उसने  पपड़ी पड़े होठ पर जीभ फेरते हुए  सूरज की ओर देखा। सहसा उसकी आँखों के आगे चिंगारियां फूट पड़ीं, सांस ने साथ छोड़ दिया और वह कटे वृक्ष सा सड़क पर गिर कर चेतनाशून्य हो गया।
साथ चल रहे  मजदूरों ने देखा। उनके सूखे चेहरे और सूनी आंखें पाषाण में तब्दील हो चुके थे। उनमें किसी तरह की प्रतिक्रिया नहीं हुई। वे आगे बढ़ गए। 
उस मजदूर के साथ मानवीय संवेदना की भी मृत्यु हो चुकी थी।●●●●
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लघुकथा - 093                                                    

            बदलाव                  
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                                           - प्रियंका श्री वास्तव ' शुभ्र '
                                      पटना - बिहार 

लक्ष्मीपुर के कोरेंटाइन सेंटर पर दस दिन से लगातार कार्यरत डॉक्टर नर्स को फूल देकर सम्मान प्रदान किया  जा रहा था, उसी बीच रमा दीदी सीनियर नर्स ने रोहण को आगे बुलाया और सर्वप्रथम उसे सम्मानित करने को कहा। सभी भौचक हो उसे देखने लगे।
कार्यक्रम वहाँ के मुखिया जी की तरफ से था, उन्होंने पूछा ये कौन है? 
       "साहेब ये वही लड़का है जो सवारी नहीं मिलने पर सायकिल से दिल्ली से 500 किलोमीटर दूर अपने घर को चल दिया था। रास्ता में पुलिस ने जब पकड़ा और कोरेंटाइन होने को कहा तो बहुत आना-कानी किया। दो डंडा पड़ने के बाद चुप-चाप बैठ गया। दो बार भागने की कोशिश भी किया पर हर बार पकड़ा गया और मार खाया।"
तभी पीछे से किसी ने कहा
 -'भागने में एक्सपर्ट है या मार खाने में... किस बात के लिए सम्मानित किया जाए..' और सभी हँस पड़े।
आपलोग  मेरी पूरी बात सुन लें फिर जिसे हँसना हो जरूर हँसे। ये लड़का दूसरी बार जब पकड़ाया और मार खाया तो मैं इसके पास आई और इसे लेकर यहाँ की सारी व्यवस्था को इसे दिखाई। कैसे डॉक्टर साहब कुर्सी पर ही रात बिता रहें हैं, सारी नर्सें खड़े-खड़े अपने पांव की थकान उतार रही हैं। किचेन में भी ले गई जहाँ इतने लोगों के खाना बनाने की व्यवस्था थी, सब इसे दिखाई। वार्ड, किचेन, बाथरूम सभी जगह की सफाई को दिखा कर बोली- ये लोग मूर्ख हैं जो इतना कुछ कर रहें हैं। तुम घर जाना चाहते हो किसके लिए। यदि तुम्हें कोरोना हो गया तो पता है तुम अपने  घर परिवार के साथ-साथ गाँव के अन्य कितने लोगों को इस बीमारी की चपेट में ले आओगे? 
इसका एक ही जवाब था - " ई कोरोना फोरोना फालतू का चीज हमको नहीं होने वाला।" 
       दूसरे ही दिन इसे तेज बुखार हो गया, जांच की रिपोर्ट अभी नहीं आई थी। ये डबडबाई आँखों से मेरे पास आ बोला -" दीदी अब हम मर जाएँगे न ..?"
मैंने हँस कर कहा अपने बेड पर ही रहो मैं हूँ न .. तुम्हें कुछ नहीं होने दूंगी। 
इसका रिपोर्ट पॉजिटिव आया, पर हमलोगों ने इसे कुछ नहीं बताया। जब ये ठीक हो गया तो इसे बताया कि जिसे तुम हँस रहे थे उसी की चपेट में आ गए थे। उसका चेहरा देखने लायक था।
चौदह दिन पूरे होने के बाद इसे घर जाने की अनुमति मिल गई।  घर जाने की अनुमति मिलने के बाद ये छलछलाई निगाह से आया और डॉक्टर साहब का पांव पकड़ कर बोला -' आज मेरी आँख खुल गई। मुझे भी यहाँ किसी भी तरह का सहयोग करने दें। बीमारों की सेवा  करूँगा तभी मेरा प्रायश्चित पूरा होगा या कल्याण होगा । उस दिन से यह लगातार यहाँ रात-दिन सेवा में लगा हुआ है। जिधर जिस काम की आवश्यकता होती है यह हाजिर हो जाता है। इसकी एक और खूबी है - ये खाना जितना अच्छा बनाता है फूल  का गुलदस्ता भी उतना ही सुंदर बनाता है। हर दिन हर वार्ड में फूल का छोटा गुलदस्ता बना कर यह रखता था और आज के सारे गुलदस्ते भी इसी ने बनाए हैं। अब आपलोग को हँसी आए तो अवश्य हँसिए।
    तालियों की गड़गड़ाहट और रोहण ..रोहण.... की आवाज से पूरा प्रांगण गूंज गया।
    शर्माता हुआ रोहण आगे आया सबको नमस्कार कर बोला -" दो चार डंडा खाने के बाद तो आँख नहीं खुली पर बीमार पड़ने पर सभी के सेवा भाव ने मेरे आँख खोल दिए।  मैं अभी कुछ दिन और यहाँ सभी की  सेवा करना चाहता हूँ। मैं सिपाही बन कर देश की सेवा तो नहीं कर सका पर यहाँ मिले अवसर को अपना भाग्य समझता हूँ। ये भी तो एक देश सेवा ही है। अभी और कुछ दिन करने दें। हाथ जोड़ कर भींगे नेत्र से सबको नमन कर किनारे हट गया। ●●●●
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    लघुकथा - 094                                                       

             ये लोग बोका हैं          
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                                             - चित्त रंजन गोप
                                                    धनबाद - झारखण्ड

   दरवाजे पर मैं थमक गया। गौर से देखा। एक प्लेट गोबर और एक गिलास गोमूत्र रखा हुआ था। मैं साइड काटकर अंदर गया। छोटी बेटी घर में अकेली थी। मैंने पूछा, " ये सब क्या है बेटा? "
" मां ने रखा है। करोना वायरस अंदर नहीं घुस पाएगा।"
" अच्छा !" कहते हुए मैं कुछ देर चुप रहा। मन में डर हुआ कि कहीं सुबह से गोमूत्र पिलाने की योजना भी तो नहीं है।" पुनः पूछा, "बेटा, तुम्हारी मां और दीदी कहां गईं?"
"यज्ञ में।"
"यज्ञ में?"
"हां। करोना यज्ञ हो रहा है न?"
 " जी।" कहते हुए मैंने उसकी तरफ देखा। उसकी बांह पर नजर पड़ी।
" यह क्या है?
" करोना ताबीज। अल्लाह की दुआ भरी है इसमें। आज दो फकीर आए थे। मां ने सबके लिए खरीदा है।"
            खाना ढंका हुआ था। टीवी चला कर मैं खाने बैठ गया। टीवी में अमेरिका की एक खबर दिखाई जा रही थी। एक डॉक्टर ने करोना वायरस के टीके की खोज की। अपने शरीर में टीके का परीक्षण करवाने के लिए पैंतालीस लोग स्वेच्छा से डॉक्टर के पास आए हुए थे।लोग उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे थे। मैंने भी मन-ही-मन सलाम किया। अपनी जान को जोखिम में डालकर...।
" बाबा, अपनी जान को जोखिम में डालकर ये लोग ऐसा क्यों कर रहे हैं?"
" बेटा, मानव कल्याण के लिए ताकि टीके...।"
"टीके की क्या जरूरत? करोना वायरस को भगाने का तो बहुत उपाय है। बाबा, ये लोग हमसे क्यों नहीं सीखते?"
 मुझे हंसी आ गई। पर मुस्कुराकर रह गया। कुछ नहीं बोला।
कुछ क्षण बाद वह बड़बड़ा उठी-- ये लोग बोका हैं ●●●●
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लघुकथा - 095                                                       

गाँव की ओर 
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                                               - सावित्री कुमार
                                             देहरादून - उत्तराखंड

गाड़ी की आवाज से नदी किनारे की झुग्गी बस्ती से कुछ लोग गाड़ी के पास आ गये| " हम लोग आप सबके लिए खाना लाये हैं, आप सब दो-दो हाथ का फासला लेकर यह खाना ले लो|" 
"पर बाबूजी अभी आधे घंटे पहले ही एक गाडी में कुछ भले लोग हम सबको खाना देकर गये हैं|" 
"तो ठीक है हम लोग शाम को खाना लेकर आ जायेंगे|" 
"नहीं बाबूजी, हमें कुछ लोग कच्चा  राशन भी दे गये हैं, उससे हम शाम को पका लेंगे| आप ये खाना किसी ओर बस्ती में बाँट दो जहाँ कोई इसका इंतजार कर रहा होगा|"
"ठीक है भाई, ये हमारा फोन नम्बर रख लो कभी खाना न पहुंचे तो फोन कर लेना पर हमारे शहर को छोड़कर ना जाना|"
"यहाँ तो हमें रोजगार मिला और इस मुश्किल समय में देखभाल, अब ये शहर नहीं छुटेगा साहब|" 
"बापू हम तो आज ही जा रहे हैं आपने उनसे झूट क्यों बोला ? गाड़ी के जाते ही दस साल के किशना ने पूछा|" 
"बिटवा हम उन्हें सच बता देते तो वो हमें रोकने के लिए और सुख सुविधा देनें की कोशिश करते| पर बिटवा हमारा शरीर मेहनत के लिए बना है अगर हम कुछ दिन आराम से बैठकर खा लें, तो फिर मेहनत नहीं कर पाएंगे और अगर ये करोना बीमारी लम्बी चली तो हम सबका शरीर बेकार हो जाएगा यहाँ से गाँव जाकर अपनी बंजर जमीन पर ही मेहनत  करेंगे शरीर भी बना रहेगा और शायद इस बार धरती माँ हमें गाँव में ही रोक ले|"
आशा की किरण संग ले चल पड़ा एक और काफिला गाँव की ओर|●●●●
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लघुकथा -096                                                   

    जादुई शंख   
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                                          - डॉ. लीला दीवान
                                                 जोधपुर - राजस्थान

भीड़ का रेला मंदिर की तरफ जा रहा था। तिल रखने की जगह नहींथी। सब एक साथ धक्का-मुक्की करके मंदिर में सबसे पहले जाना चाहते थे।
कोरोना के बाद आज पहली बार मंदिर खुला था।
सब लोग अपने प्रभु से मिलना चाहते थे। वह सब जादुई  शंख के दर्शन करना चाहते थे।
यह वह जादुई  शंख हैं। जिसके दर्शन  भाग्यशाली लोगों को ही होते हैं।जो एक बार इसके दर्शन कर ले उसके सारे रोग कट जाते हैं ।इसीलिए सब जल्दी-जल्दी मंदिर पहुंचना चाहते थे।
मैं भीअपनी सहेली रानी का हाथ पकड़े मंदिर की तरफ बढ़ रही थी। हम दोनों बहुत थक चुके थे। सो एक चबूतरे पर बैठ गए। हमारे पास एक पेड़ था पेड़ छोटा सा था दस पंद्रह फुट का होगा । उसकी खुशबू आ रही थी ।इतनी खुशबू हमने आज तक नहीं महसूस की हमारी समझ में नहीं आ रहा है यह खुशबू किसकी आ रही है उस पेड़ के अंदर से दूधिया चांदनी जैसी रोशनी निकल रही थी ।मैंने जैसे ही देखा बड़ा अजीब लगा ।उस पेड़ के पत्ते नहीं थे ।बस छोटे-छोटे फूल जैसे थे सब सफेद थे उन्हीं से रोशनी निकल रही थी मेरे पास जो टहनी थी उस पर एक बड़ा सा शंख लगा हुआ था मैंने रानी से कहा रानी देख शंख का पेड़ रानी बोली तोड़ ले मैंने टहनी को नीचे किया। रानी के हाथ में टहनी पकड़ाई और मैं शंख तोड़ने लगी शंख बड़ा था। लेकिन मैंने तोड़ लिया।
  अब शंख मेरे हाथ में था ।मैं उसे देख रही थी। जहां से थोड़ा वहां पर हरे हरे छोटे रेशै जैसे दिखाई दे रहे थे। उससे पानी निकल रहा था। जैसे अपनों से दूर होने का दुख होता है ।
शंख को भी पेड़ से अलग होने का दुख था।
शंख मेरे हाथ में था। मैं रानी से कह रही थी रानी मुझे तो शंख बजाना आता नहीं तू रख ले इसे तुझे बजाना आता है।
     इतने में एक सफेद पोशाक पहने देवदूत जैसा दिखने वाला व्यक्ति हमारे पास आया और बोला बहन जी आप तो बहुत किस्मत वाले हो इसी शंख के लिए दर्शन के लिए तो इतनी भीड़ आई हुई है।
मैंने कहा देखो इस पर तो कितने शंख लगे हुए हैं।
     वह व्यक्ति बोला यह तो आपको दिखाई दे रहे हैं सबको नहीं दिखते।
मैं हंस रही थी क्या मुझे दिव्य दृष्टि मिल गई ।वह व्यक्ति बोला शायद।
मैंने रानी को कहा देख रानी कितने शंख लगे हुए हैं। हां पर छोटे छोटे हैं कोई चने जितने कोई कोड़ी जितने कोई मोगरे के फूल जितने पूरा पेड़ भरा हुआ है ।पत्ते तो है ही नहीं।
रानी ने कहा मुझे तो नहीं दिखाई दे रहे है।
वह व्यक्ति मुस्कुरा रहा था मैं बड़े प्यार से पेड़ को देख रही थी।
कभी उस शंख को देख रही थी जो अभी-अभी मैंने तोड़ा था ।मैं उस व्यक्ति से बोली यह सब शंख  के दर्शन करने आए हैं। तो लो आप इसे ले जाओ। सबको  दर्शन कराओ।
उसने धन्यवाद कहा और दोनों हाथ जोड़कर पहले प्रणाम किया और शंख को बड़े आदर्श के साथ अपने हाथों में ले लिया।
मैंने रानी का हाथ पकड़ा और आगे बढ़ने लगी ।पर बार-बार विचार आ रहा था पेड़ पर शंख लगते हैं। शंख तो समुद्र में होते हैं। इतना विचार आते ही मैंने  पीछे मुड़कर देखा वहां पर पेड़ नहीं था।
रानी ने कहा प्यास लग रही है पानी पीते हैं मुझे भी लगा मुझे प्यास लगी है इतना सोचते ही आकाश में एक बड़ा मटका लटक रहा था। और पानी की धारा उससे निकल रही थी हमने बोक से पानी पिया। पानी शीतल था। मीठा था आज तक ऐसा पानी का स्वाद नहीं चखा पानी क्या अमृता था। हमारे पानी पीते ही वह मटका वापस ऊपर की तरफ खिंच गया।
हम भी आगे बढ़ गए भूख भी लगी थी। कचोरियां पूरी बन रही थी ।लेकिन इतनी बड़ी कढ़ाई हमने आज तक नहीं देखी इतनी बड़ी कढ़ाई जिससे दस बारह आदमी पूरी निकाल रहे थे कचोरीओं का ढेर था। आलू की सब्जियां बन रही थी कहीं भाटिया सीख रही थी कहीं चोखा बन रहे थे ।
हमें ये  देखकर भूख लग गई। इतना सोचते ही सोने की प्लेट में हलवा पूरी लेकर वह देवदूत हमारे पास आया और हमारे हाथों में पकड़ा दी।
वह चला गया कोई किसी से बात नहीं कर रहा था चारों तरफ शांति थी सब अपना अपना काम कर रहे थे यह कैसी दुनिया है आवाज से परे सब तरफ से खुशबू आ रही थी खाने की।
सब मंदिर की तरफ चले जा रहे थे ‌मैंने भी रानी का हाथ पकड़ा और मैं भी मंदिर की तरफ चल दी।
 मेरी आंख खुल गई अरे यह तो सपना था कितना सुंदर सपना था ।और सुबह से लेकर अभी शाम तक मैं सपने में खोई हुई हूं सोचा क्यों नहीं ऐसे कलम बध किया जाए।●●●●
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लघुकथा - 097                                                        

होता है, होता है।
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                                                   - उदय श्री. ताम्हणे
                                              भोपाल - मध्यप्रदेश

        कर्ण कुमार बरामदें में बैठें कोई किताब पढ़ रहे हैं। आंगन में नाती - पोता खेल में मगन है। बेटा भी आज घर से ही आफिस का कामकाज संभाल रहा है। पीज्जा का आर्डर केंसिल हो गया है। बहु नाश्ते के प्रबंध में जुटी है।
कर्ण कुमार गुनगुनाए "बड़े दिनों में खुशी का दिन आया, आज कोई न पूछो मुझसे मैंने क्या पाया।"

अरे! यह क्या कर्ण कुमार जैसे सोते से जाग गये हो, महामारी के प्रकोप की खबर देखकर वे सिहर उठे उनके रौंगटे खड़े हो गए।
तभी छोटा पोता मास्क पहनकर कर बोला "करोना से डरना मना है।" ●●●●
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लघुकथा - 098                                                    

कोरोना का लॉकडाउन
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                                           - संगीता सहाय " अनुभूति "
                                        रांची - झारखण्ड

अरे रे मेघा ! ठहर तो जरा कहाँ सरपट दौड़ी जा रही है। 
हे भगवान इन छोरियों के पांव में तो चक्के जुते हुए है पल भर को भी इन्हें चैन नहीं।
मन ही मन भुनभुनाते हुए मेघा की माँ कहती है क्या मेघा हर वक्त उड़नखटोले पर ही सवार रहती है तू। 
बिजली की गति से भागती हुयी 10 वर्षीय चुलबुली मेघा ने अपनी माँ के गले में गलबहियां डालकर, थोड़ा इतराते हुए और बड़ी चालाकी से मां के गुस्से को कम करने की कोशिश करती हुयी कहती है क्या माँ तुम भी न बूढ़ी अम्मा बन गयी हो। 
नाहक परेशान होती रहती हो हम लड़कियां आज कोरोना के शुक्रगुजार हैं जिसने हमें लॉकडाउन में जीने की आजादी दी है। कोरोना से डरे सहमे लेकिन इंसानों से बेखौफ हम सड़को पर सुरक्षित तो है।
तभी बीच में ही मेघा की माँ बोल पड़ती है, अरे मेरी नादान बिटिया कलयुग में "कोरोना का लॉकडाउन" संभव है लेकिन कोरोना काल मे भी रेप (बलात्कार और बलात्कारियों का ) का  लाकडॉउन असंभव है ।
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लघुकथा - 099                                                      

    खुबसुरत सपना    
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                                                  - कुन्दन पाटिल
                                                      देवास - मध्यप्रदेश

कोरोना वायरस ने एक महामारी का रूप ले लिया था इसका एक इलाज धुन्डा गया लाॅकडाउन (एक तरह का कर्फू) जो पुरे देश में लगाया गया सभी को घरो में मानो कैद कर दिया गया हो लाॅकडाउन मानव इतिहास का पहला अवशर था लाॅकडाउन का मेरा जीवन किसी छत्रपती के समान था सुबह उठना नहाना चाय-पानी, दोपहर भोजन साम कि चाय फिर रात का भोजन इस बिच कुछ समय टीवी देखना मोबाईल चलाना लेट जाना सौ जाना फिर आराम करना एसा शाही जीवन बन गया था कभी लगा क्या मैं सेवा मुक्त हो चुका हुँ देखते देखते लाॅकडाउन के 46 दिन बित गये एक दिन श्रीमती जी की अचानक आवाज आई सूनो जी! देखो घर में किराणा सामान समाप्त हो गया हैं ओर पैसे भी पुरी तरह समाप्त हो गये हैं कुछ करो वर्णा कल से ही, कुछ समझे!
क्या ? मुझे मानो 440 व्हाल्ट का झटका लगा। क्या मुझे वापस मजदूरी पर जाना होगा।सोच कर ही मैं नरवस हो गया मानो कोई खुब सुरत सपना टुट गया हो●●●●
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लघुकथा - 100                                                           

सीख लिया पिता से
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                                                   - नरेश सिंह नयाल
                                                 देहरादून - उत्तराखण्ड

इस लॉकडाउन में बहुत कुछ देखने को मिला,बहुत कुछ सुनने को मिला और बहुत हद तक सीखने को भी मिला।ये सीखना शायद पुस्तकों से सम्भव नहीं होता और न जाने कितनी मेहनत करनी पड़ती अगर सीख देना चाहते किसी को तो।पिछले दस-पन्द्रह दिनों से हमारी गली के बाहर एक गाड़ी रूकती और कतारबद्ध लोगों को पैकेट्स बाँटती और चली जाती।एक मजदूर लगभग 38 वर्ष से ऊपर का रोज अपने बेटे का हाथ पकड़कर उसी से दो पैकेट लेता और मेरे सामने से अपने बच्चे के सगब खुश होकर बातें करते हुए  नीचे बस्ती की ओर चला जाता।ये सिलसिला में रोज देखता और कई बार तो मन में यह भी ख्याल आया ,"देखो किसी को मिलता ही नहीं और कोई रोज दो-दो पैकेट लेकर जाते हैं।
      पर आज नजारा कुछ और था।हाथ में एक ही पैकेट था।उसके चेहरे पर हंसी थोड़ी कम थी।बच्चा प्रश्न किये जा रहा था।आवाज साफ नहीं थी तो जिज्ञासा के चलते मैंने भी उनके पीछे-पीछे चलना शुरू कर दिया।बच्चा ने पूछा ,"आज उन्होंने एक ही पैकेट क्यों दिया जब कि आप मांग भी रहे थे।"बेटे देखो कल तक रोज मिलते थे ना आज हो सकता है उनकी भी कुछ मजबूरी रही हो और उन्होंने एक आधारकार्ड पर एक ही पैकेट दिया।लड़के ने कहा,अच्छा और चलते रहे।
       कुछ कदम चलने के बाद लड़के ने कहा फिर आज हम बगल वाले दादा जी को क्या देंगे।वो तो चल भी नहीं पाते।पिता ने हँसकर उत्तर दिया,देखो आज हमें एक पैकेट तो मिला है ना इसी में से आधा उनको दे देंगे और आधे से हम गुजरा कर लेंगे।इतने में बेटे ने खुशी-खुशी सिर हिलाते हुए,हाँ कहा और झूमता हुआ चलता रहा।
      पूरा माजरा मेरी समझ में आ गया और मैंने अपने कदम अपने घर की तरफ मोड़ लिए।मन में प्रण कर लिया कि ,जब भी इनके हाथों में एक पैकेट होगा तो दूसरा पैकेट मैं लाकर दे  दूँगा।इससे छोटे बच्चे का मिल- बांटकर खाने का भाव भी जीवित रहेगा और पिता की आत्मशक्ति भी बढ़ेगी यह महसूस करके की,मानवता जीवित है। ●●●●
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लघुकथा - 101                                                         

कोरोना का कहर 
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                                            - डॉ. मधुकर राव लारोकर
                                                  नागपुर - महाराष्ट्र

"सर जी, मेरी माताजी हाॅस्पीटल में है और डाक्टर ने कोरोना वायरस का संक्रमण बताया है। माताजी के पास कोई नहीं है। मैं अभी आफिस से आयी तो पता। मुझे हाॅस्पीटल जाने दीजिये। "
    ट्रैफिक इंस्पेक्टर निवेदिता की बात, जरूरत और दस्तावेज देखकर संतुष्ट हो गये और निवेदिता को, हास्पीटल जाने की अनुमति दे दी। 
   हालांकि शहर में धारा 144लागू थी और कोरोना वायरस की तीव्रता देखकर, प्रशासन सख्ती से अपना अपना काम कर रहा था।यह समय की मांग भी थी। 
   हास्पीटल पहुंचने पर, निवेदिता ने देखा कि उसकी माताजी का ईलाज चल रहा था और डाक्टर की, टीम जुटी हुई थी। 
    प्रशासन और पुलिस की टीम उसकी माताजी को, हास्पीटल ले गयी थी और घर पर कोई नहीं था। किसी पड़ोसी ने वायरस की आशंका पर  पुलिस को इसकी सूचना दे दी थी।
   निवेदिता ने एक डाक्टर से बात कर, अपना परिचय दिया था। कुछ देर बाद उसी डाक्टर ने आकर कहा "आपको डाक्टर्स के केबिन में, बुलाया जा रहा है। चलिए। "
   निवेदिता केबिन में पहुंची तो उससे कहा गया"देखिये आपकी माताजी में वायरस का संक्रमण पाया गया है। हम उन्हें एहतियात के तौर पर, आबजर्वेशन में रखेंगे। परंतु आपको अपनी माताजी से, अभी मिलने की अनुमति नहीं है "।आप उनके ईलाज की चिन्ता ना करें। हम सभी, उन्हें देख रहे हैं। हम उन्हें कुछ दिनों तक, अपनी देखरेख में रखेंगे। सरकार की तरफ से सभी खर्च उठाया जा रहा है। वैसे भी, आपकी माताजी की उम्र कुछ ज्यादा है  आप चाहें तो घर जा सकती हैं। शाम को आप आ सकती हैं। "
    निवेदिता का मन तो नहीं हो रहा था,माताजी को अकेले छोड़ने का, किन्तु वह नियम की अवहेलना नहीं कर सकती थी। वह घर की ओर चल पड़ी। 
   शाम को निवेदिता पुन:हास्पीटल आ गयी। डाक्टर ने उसे माताजी से मिलने की अनुमति, इस शर्त पर दी थी कि उसे पूर्णतया सुरक्षा उपकरण पहनना होगा। 
   माताजी निवेदिता को देखकर रो पड़ी। बोली  "बेटी अब ठीक लग रहा है।  यहाँ सभी अच्छे लोग हैं ।ते किसी बात की चिन्ता मत कर। अब यहाँ मत आना।कोरोना वायरस के लोग हैं यहाँ। मेरी तबीयत ठीक हो जायेगी तो तुझे फोन करवाकर बुलवा लूंगी।अब तू जा।"
    निवेदिता किसी आशंका से डरकर रोने लगी और मां से लिपटने के, लिए आगे बढ़ने लगी।
    मां ने उसे डांट कर कहा "बेटी,वहीं रूक जा। मेरे समीप मत आ।मेरा रोग तूझे लग गया तो?और हाँ घर जाकर, कामवाली बाई को कहना कि दो माह बाद आना। उसे घर जाते ही, ऐसा बोल देना। अब जा,मुझे नींद आ रही है। "●●●●
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कोरोना वायरस का लॉकडाउन ( लघुकथा संंकलन ) मे शामिल लघुकथाकारों के डिजिटल सम्मान पत्र 



Comments

  1. मेरी लघुकथा को स्थान देने के लिए आपका हार्दिक आभार🙏

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  2. बहुत बहुत आभार जैमिनी सर।।।

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  3. आभार और धन्यवाद सर जी आपका।मेरी लघुकथा को शामिल करने हेतु।

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  4. सादर प्रणाम गुरुजी अति सुंदर

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