क्या जीवन का सच भौतिक वस्तुओं के संग्रह में है ?

भौतिक वस्तुओं का संग्रह जीवन के लाईफस्टाइल को दर्शाता है । जो जीवन के सच का सामना करता है । यही जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : -
नहीं! बिल्कुल नहीं!! जीवन का सच वस्तुओं के संग्रह में नहीं है बल्कि त्याग में है, समर्पण में है, सेवा में है, ध्यान-धर्म में है। हम नित्य प्रतिदिन देखते हैं कि कैसे मृत्यु का शिकंजा एकदम आकर अपने करूर हाथों से जकड़ कर ले जाता है। वह कभी किसी की उम्र नहीं देखता, अमीरी-गरीबी नहीं देखता, छोटा- बड़ा नहीं देखता, कुछ भी तो नहीं देखता.. फिर हम कैसे कह सकते हैं कि सुख संग्रह में है। 
भौतिक वस्तुओं का संग्रह तो तनाव पैदा करता है, अहंकार देता है, मोह जाल में फँसाता है। सकारात्मक सोच से परे हटाकर नकारात्मक भाव भर देता है।
एक फकीर के पास कुछ नहीं होता फिर भी वह प्रसन्न रहते हुए  स्वयं को त्रिलोकी का बादशाह समझता है। वह किसी राजा के भी बस में नहीं आता बल्कि राजा फकीर को शीश झुकाता है। 
सो सुख संग्रह में नहीं है। संग्रह की हुई वस्तुओं को त्यागना ही पड़ता है यह हम पर निर्भर करता है उन्हें अच्छी स्थिति में त्यागते हैं अथवा पूरी तरह खराब    
करके। हम भरी जवानी में त्याग की परिभाषा समझते हैं अथवा प्रौढ़ावस्था में। 
- संतोष गर्ग
मोहाली - चंडीगढ़
आज की चर्चा में जहांँ तक यह प्रश्न है कि क्या जीवन का सुख भौतिक वस्तुओं के संग्रह में है तो इस पर मैं कहना चाहूंगा कि वास्तव में यह बात निर्विवाद रूप से सही है कि जीवन का सुख भौतिक वस्तुओं के संग्रह में नहीं है केवल संतोष ही सबसे बड़ा सुख है परंतु इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि सांसारिक और सामाजिक पारिवारिक जीवन जीने वाले व्यक्तियों को इन सभी चीजों की आवश्यकता रहती ही है परंतु यह आवश्यकता एक सीमा तक हो तो ही अच्छा है जब इन वस्तुओं के संग्रह की आदत एक सीमा से अधिक बढ़ने लगती है तो यही दुख का कारण बनती है और आदमी को अवनति के गड्ढे में भी डाल सकती है तब वह व्यक्ति आप ने विभिन्न प्रायोजनों को सिद्ध करने के लिए तरह-तरह के हथकंडे होने लगता है और यह भी अकसर देखने में आया है कि भौतिकता का अधिक लालच आदमी की प्रवृत्ति को बिगाड़ देता है और उसे गलत रास्ते तक भी ले जाता है वह इस सब के मोह में गलत आचरण गलत कार्य करने से भी नहीं चूकता और हर दशा में अपनी स्वार्थ सिद्धि को पूरा करना चाहता है अतः यह कहा जा सकता है कि एक सीमा तक भौतिक वस्तुओं का संग्रह जो जीवन यापन सामाजिक जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए आवश्यक है जरूर करना चाहिए परंतु इसका अधिक लालच परिवार के लिए समाज के लिए और देश के लिए कभी भी अच्छा नहीं है और संतोष ही सबसे बड़ा सुख है ़़
- प्रमोद कुमार प्रेम 
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
जीवन अद्वितीय और अलौकिक है। यहाँ जीवनयापन करने वाले सभी विभिन्न स्वभाव और सोच रखने वाले हैं। जीवन के प्रति सबका नजरिया अलग अलग है। इसी कारण से सभी की सुख-दुख  के कारण भी अलग-अलग होते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में यह कहना गलत नहीं होगा कि जीवन का सच के लिए भी सबकी राय और सोच भी अलग-अलग हैं। अनेक ऐसे हैं जो भौतिक वस्तुओं को संग्रह करने को सच मानते हैं तो अनेक ऐसे भी हैं जो भौतिक वस्तुओं को त्याग को जीवन का सच मानते हैं और अनेक ऐसे भी हैं जो न संग्रह को, न त्याग को जीवन का सच मानते हैं बल्कि जीवन में जो है, उसी में संतोष कर जीवन का सच  मानते हैं। संक्षेप में अब इस सोच को लेकर विमर्श किया जा सकता है। इसमें भी सभी बंटे हुए ही नजर आयेंगे। लेकिन हमारी संस्कृति के आधार पर संस्कार,धर्म, दर्शन,आध्यात्म और आदर्श के अनुसार जीवन के सच को भौतिक वस्तुओं के संग्रह को सही नहीं माना गया है। बल्कि इसमें अपनी असहमति ही दी है और ऐसे संग्रह करने वालों को निंदा योग्य माना है। कहते हैं ईश्वर को पाने के लिए साधना आवश्यक है और साधना का मार्ग सुख,सुविधा और भोग से होकर नहीं जाता बल्कि जीवन में कष्ट सहकर साधना होती है। दूसरे भौतिक वस्तुओं का संग्रह विलासिता का परिचायक है।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
मानव जीवन के दो स्तर हैं। एक बाहर का  सुख, दूसरा आंतरिक सुख ।
 इसमें जिस की प्रधानता होती है उसी के अनुसार जीवन को ढाला जाता है।
बाहर से देखने में भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में कोई विशेष अंतर दिखाई नहीं पड़ता है।
क्योंकि समाज के अनुसार जीवन उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन एवं संग्रह करना पड़ता है । इसअनिवार्य  प्रक्रिया  से छुटकारा किसी को भी नहीं मिल सकता है।
आजीविका  उपार्जन के लिए कृषि, व्यापार ,सेवा ,शिल्पकार , आदि कार्य करने पड़ते हैं।
जो मनुष्य भौतिकवादी से दूर बनवासी तपस्वी हैं उन्हें भी भोजन की इच्छा के लिए साधन सामग्री की चिंता के बंधनों से संघर्ष करना पड़ता है। सुविधाओं को जुटाने एवं और सुविधाओं को मिटाने के लिए बहुत कुछ करना पड़ता है।
लेखक का विचार:-इस प्रकार लगभग दोनों जीवन गृहस्थ जीवन एवं वनवासी तपस्वी जीवन में भौतिकवादी दिखते हैं।
जीवित मनुष्य इससे छुटकारा नहीं पा सकते हैं ।क्योंकि जीवन को निर्माण इस ढंग से हुआ है कि लाख प्रत्यन और पुरुषार्थ साधन और सुविधा के लिए बनउसे एक निश्चित तरीके पर चलना ही पड़ेगा बाहर का जीवन हर व्यक्ति का भौतिकवादी ही होती है।
- विजेयद्र मोहन
बोकारो - झारखण्ड
इस विषय संबंधी बहुत सारी विचारधाराएं हैं कुछ विचार उम्र के अनुसार बदलते रहते हैं युवा वर्ग वस्तुओं के संग्रह वस्तुओं की खरीदारी पर ज्यादा विश्वास रखते हैं क्योंकि नए नए नए जीवन की शुरुआत करते हैं आवश्यकताएं भी रहती हैं उससे संबंधित मार्केट में बहुत तरह के सामान उपलब्ध होते हैं नए सपने होते हैं सपनों को सजाने का शौक होता है इसलिए उस उम्र में बहुत युवा वर्ग को सामान को खरीदने का शौक रहता है और उसमें ही वह समझते हैं कि यही जीवन की सच्चाई है
लेकिन एक खास उम्र के बाद वस्तुओं का संग्रह निराधार लगने लगता है लगता है कि यह तो सिर्फ वस्तु है बहुत इच्छा है तो फिर वह दूसरी ओर अपना ध्यान आकर्षित करते हैं तो इस प्रकार से या विषय पर व्यक्तिगत विभिन्नता बहुत है
सामान्य तौर पर अगर देखा जाए तो वस्तु एक साधन है जिसकी आवश्यकता हर इंसान को किसी न किसी रूप में होती है लेकिन जीवन की सच्चाई वस्तुओं के संग्रह में कम और वास्तविकता कुछ और होती है जैसे त्याग समर्पण दया करुणा परोपकार पर इन गुणों की महत्ता सामान्यता एक ऐसे उम्र में होती है जब इंसान अपने भौतिक जीवन से बाहर निकलता है जिंदगी दो स्तरों पर कटती है एक भौतिक स्तर पर और दूसरी आध्यात्मिक स्तर पर दोनों का अपने समय के अनुसार महत्व है पर अगर दोनों का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो भौतिकता से ऊपर आत्मदर्शन अध्यात्मिकता व्यक्तिगत गुणों का महत्व है
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
जीवन का सच भौतिक वस्तुओं के संग्रह में बिलकुल नहीं है, 
क्योंकी संसार की वस्तुओं में सौंदर्य और सुख को तलाश करते हुए, उनके पीछे दौड़े रहने वाले लोग भौतकवादी कहे जाते हैं और उनको कभी शान्ति नहीं मिलती यही नहीं यह लोग आशा तृष्णा के चक्कर में ही सब कुछ लूटा देते हैं।  
सच है, 
"चंद ख्वाहिशों ने बर्बाद कर ऱ़खी है जिन्दगी मेरी, 
सहुलतें तो मिलती हैं मगर सुकून नहीम मिलता "। 
 ऐसे मनुष्य सिर्फ सुख सुवि़धाओं  की वस्तुओं का संग्रह व संचय कर उनसे सुख भोगने को ही अपने जीवन का चरम लक्ष्य मान लेते हैं और चैन की सांस नहीं ले पाते, 
सच कहा है, 
" किस्सा सबकी जिन्दगी का बस इतना सा है, कि जिन्दगी बनाने के चक्कर मे जीना भूल गए"। 
भौतिकवादी  कभी तृप्त नहीं होते वो तृष्णा से भरे रहते हैं। 
 और यह लोग मृग तृष्णा की तरह आजीवन भटकते रहते हैं, इनको कभी भी शान्ति और सन्तोष का दर्शन नही हो पाता। 
ऐसे लोग भौतिक सुख के चक्कर में सारा जीवन नष्ट कर देते हैं 
 यह भी सच है, 
"दो वक्त की रोटी ढूंढने निकला था घर से दुर, 
आज सुकुन की तलाश में जिन्दगी गुजर रही हैृ"। 
 मनुष्य  जीवन का मुख्य कर्तव्य ईश्वर प्राप्ती करना  व उसके चलाएे गए नेक रास्तों पर चलना है, जिससे सभी का भला हो सके न की भौतिक वस्तुओं में उलझना है,  इन्सान को अध्यात्मवादी होना चाहिए,  यानी उच्च मात्रा में कमाया गया धन ही काम में लाना चाहिए जिस से मन में शान्ति मिलती है  जबकि  भौतिकवादी वासनाओं के चक्कर मे पड़ा रहता है और उसमें सिर्फ अंहकार तृष्णा व गुलामी ही हाथ लगती है  ओर भगवान को भूल जाता है,  जवकि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापक है यही नहीं ईश्वर सच्चिदानन्द  स्वरूप है उसी की वक्ति में व उसके वताये गए रास्तों पै चलने से शान्ति व आनदं की प्राप्ती होती है  न की भौतिक वस्तुओं के संग्रह से अत:भगवान को  महत्व देना ही अति उतम माना गया है  और वोही सच्चा  स्वरूप है। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
 जम्मू-  जम्मू कश्मीर
जीवन का सच तो एक ही है और वह है मृत्य।कहा गया है जातस्य हि ध्रुवो मत्यु:।जब इस सत्य से सामना होता है मानव का, तो, भौतिक वस्तुएं छूट जाती है। इसलिए जीवन का सच भौतिक वस्तुओं के संग्रह में नहीं है। लेकिन बिना भौतिक वस्तुओं के जीवन यात्रा कठिन होगी ही।यह भौतिक संसार है और बिना भौतिक वस्तुओं के यहां रहना कठिन है।अब बात संग्रह की,तो आप संग्रह कितना ही कर लें भूख से अधिक तो खा नहीं पाएंगे।यानि अपनी आवश्यकता से अधिक उपभोग नहीं कर पाएंगे, लेकिन उस संग्रह को परोपकार में तो लगा ही सकते हैं। एक मित्र की चावल मिल है,दिन भर चावल की बोरियां देखता है, पर खा नहीं सकता चावल। क्योंकि डायबिटीज के चलते डॉक्टर ने चावल खाने को मना कर दिया है। हमारे जीवन में कोटा प्रणाली है,उपभोग उतना ही कर पाएंगे। जितना कोटा हमारे लिए निर्धारित है। बस संग्रह चाहे जितना कर लें लेकिन वह अनुपयोगी होगा। ईशोपनिषद्  में कहा गया है 
ईशा वास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्‌।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृधः कस्यस्विद्धनम्‌ ॥
अर्थात इस वैश्व गति में, इस अत्यन्त गतिशील समष्टि-जगत् में जो भी यह दृश्यमान गतिशील, वैयक्तिक जगत् है-यह सबका सब ईश्वर के आवास के लिए है। इस सबके त्याग द्वारा तुझे इसका उपभोग करना चाहिये; किसी भी दूसरे की धन-सम्पत्ति पर ललचाई दृष्टि मत डाल।
जब त्यागपूर्ण उपभोग का निर्देश है और यही सच भी है तो भौतिक वस्तुओं के संग्रह को जीवन का सच नहीं माना जा सकता।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
        नहीं, जीवन का सच भौतिक वस्तुओं के संग्रह में नहीं है। यह सब तो भोग विलास की वस्तुएं हैं।सत्व गुणों को अपनाकर,शुद्ध, सात्विक जीवन बिताने में ही सच्चा सुख मिलता है।इसीलिए अपरिग्रह पर जोर दिया जाता है।
- श्रीमती गायत्री ठाकुर "सक्षम"
नरसिंहपुर - मध्यप्रदेश
     जीवन एक मायाजालों में वशीभूत होकर प्रगति के सोपानों की ओर निरंतर अग्रेषित होता जाता हैं, उसकी ही बुद्धिमानी से उसकी इच्छा शक्ति इतनी प्रबल होती जाती हैं, कि सब कुछ प्राप्त कर भौतिकता की ओर अग्रसर हो जाऊं। गरीब से अमीर तक भौतिक वस्तुओं के संग्रह में लगे हुए हैं । भगवान के दर्शन में भी भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति की इच्छाओं का
भंडार हमारे सामने हैं। जब नवजात शिशु का जन्म होता हैं, तो तुरंत बाद ही इच्छा शक्ति जागृत हो जाती हैं। फिर धीरे-धीरे रोटी, कपड़ा और मकान के साये में वशीभूत होकर जीवन का स्वरूप बनता हैं और भौतिकतावादी जीवन, भौतिक-स्थूल दृष्टि कोण का प्रतिफल हैं।  भौतिक वस्तुओं के के प्रति भावनाएं रखते हैं, उनसे प्रेरणा प्राप्त करते हैं। उनकी प्रति से सुखी और दुखी होते हैं। साथ ही अपना लक्ष्य इन भौतिक पदार्थो की और परिस्थितियों को ही बनायें रखने में अपना योगदान देते हुए दिखाई दे रहे हैं? जो सचमुच, सच को  विवेकाधीन विलोपित भी नहीं कर सकते? अगर हम नैतिकतावादी बन कर दिखाने का प्रयास भी नहीं कर सकते?
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
जीवन संघर्ष का दूसरा नाम है,  वह जिस रूप में भी किया जाए।पहले समाज के उच्च वर्ग के श्रेणी में आने के लिए संघर्ष, फिर पढ़े-लिखे वर्ग को अपनाने के लिए संघर्ष और अब बारी आई है मशीनी दौर की । भौतिक सुख की दौड़ में शामिल होने के लिए संघर्ष।
 भौतिक वस्तुओं का कहीं ओर-छोर नहीं है। जितना भी संग्रह करें, लालसा बढ़ती जाती है। वस्तुओं पर जिसकी नजर रहती है वह कभी भी अपनी नजर में बड़ा नहीं बन पाता। अपने शक्ति पर भरोसा नहीं कर पाता। क्योंकि उसकी नजर अपनी नहीं, बल्कि दूसरों की वस्तुओं पर होती है।
इसलिए संतुष्टि बहुत बड़ा सच है। अपने उपयोग की वस्तुओं को अवश्य खरीदें; लेकिन दिखावट के लिए कुछ न खरीदें। उससे पहली बात बजट बिगड़ता है, दूसरी बात संरक्षण मुश्किल होता है और तीसरी बात लालच का दरवाजा बड़ा होता जाता है। उस दरवाजे के अंदर तो बर्बादी का खुला आसमान होता है। 
अतः जीवन की सच्चाई को जियें; न कि वस्तुओं के ढेर को। उसी रकम का अच्छे कामों में उपयोग करें । जीवन को सच का बिंदास बना दें ।
- संगीता गोविल
पटना - बिहार
 यही कहा जा सकता है ।कि भौतिक सुख सुविधाओं से जीवन के सच को नहीं जाना जा सकता है ।मनुष्य को सीखना चाहिए अपरिग्रह ।और अपरिग्रह आता है ,,,,ध्यान से और योग से ।ध्यान और हमारे जीवन को संतुलित करता है। हमे नई दृष्टि मिलती है ।हमारी इच्छाएं क्षीण होने लगती हैं ।फिर भौतिक सुख सुविधाएं सिर्फ हमें सहयोग देती हैं  कि हम अपने रास्ते पर आसानी से आगे बढ़ सकें ।इससे हमें अपनी इच्छाओं का पोषण करने की आवश्यकता नहीं रहेगी । अतः भौतिक सुख- सुविधा हमारा साघन होना चाहिए साध्य नहीं ।तभी हम सच्चाई के मार्ग पर बढ़ सकते हैं ।
चंद्रकांता अग्निहोत्री
पंचकूला - हरियाणा
सही मायने में आज के समय में ऐसे बहुत से लोग हैं जो जीवन का सच भौतिक वस्तुओं के संग्रह में ही समझते हैं। आजकल के संपन्न लोगों के जीवन पर दृष्टि डालें तो लगता है कि उनके जीवन का सच उचित या अनुचित तरीके से धन कमाना और उसका अधिक से अधिक संचय करना, देश-विदेश का भ्रमण करना ही है। अब प्रश्न उठता है कि क्या यही सब मनुष्य के जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य है ? इस प्रश्न का उत्तर जानने से पहले मनुष्य के जीवन पर भी दृष्टिपात करना जरूरी होगा। माता पिता से जन्म लेकर शिशु रूप में मनुष्य संसार में आता है और शारीरिक विधि को प्राप्त करते हुए शैश्वा से युवा काल में प्रवेश करता है। शुरुआती वर्ष में कुछ वर्ष शिक्षा प्राप्ति में निकल जाता है। इसी दौरान उसे जीवन व सांसारिक विषयों पर भी जानने का मौका मिलता है। इसमें शरीर व संसार के बारे में विद्यार्थियों को शिक्षा दी जाती है। इस शिक्षा का परिणाम यह होता है कि मनुष्य नाना प्रकार के स्वास्थवर्धक वह स्वादिष्ट भोजन के साथ ही अल्प अज्ञान के कारण मांसाहारी भोजन का भी सेवन करता है। इसके साथ ही धन उपार्जन कर सुख सुविधाओं की वस्तुओं का संग्रह व संजय कर उनसे सुख भोगने को ही अपने जीवन का चरम लक्ष्य मान लेता है। युवावस्था के बाद वृद्धावस्था आती है और उसमें किस रोग आदि से ग्रस्त होकर या आकल व स्वाभाविक मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। ऐसे लोगों को अपनी आत्मा व संसार को बनाने व चलाने वाले सत्ता के विषय में सोचने का समय ही नहीं मिलता है। यह  मिले भी तो उसे बताने वह समझाने वाले सच्चे ज्ञानी, विद्वान मित्र उपलब्ध नहीं होते। अतः जो लोग सारा जीवन स्कूली शिक्षा को लेकर धन उपार्जन करना, स्वादिष्ट भोजन करना, मौज मस्ती, देश विदेश की यात्रा करना और नाच गाना में समय व्यतीत करते हैं। वह एकांगी जीवन जीते है, जिससे दुखों से उन्हें अस्थाई मुक्ति नहीं हो सकती। यही स्थिति ऐसे मनुष्य की अज्ञानता व अविद्या को प्रकट करती है। उन्हें नाना प्रकार के कृत्यों का क्या क्या परिणाम हो सकता है यह ज्ञान नहीं होता। भी यदा-कदा छोटा बड़ा दान कर व कुछ परोपकारी व सामाजिक कार्य कर अपने को समाज में महान समझते हैं और वे स्वर्ग जैसे कल्पित सुखों की अपेक्षा करते हैं।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर - झारखंड
              नहीं ! जीवन का सच भौतिक वस्तुओं के संग्रह में नहीं है। जब जीवन ही नश्वर है तो फिर संग्रह कैसा। वो भी भौतिक वस्तुओं का जो स्वयं नश्वर है। हम सभी जानते हैं कि साथ कुछ जाने वाला नहीं तो फिर संग्रह करने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।
          जीवन का सच संग्रह  करने में नहीं बल्कि खर्च करने में है। किसका जीवन कितने दिनों तक का है कोई नहीं जानता है तो फिर संग्रह करने से क्या फायदा। क्या पता आप उसका उपभोग कर पायेंगे या नहीं।
        यदि संग्रह करना है तो ऐसे चीजों का संग्रह करना है जो आपके जाने के बाद भी रहे और आपका नाम रोशन करता रहे।अपने सत्कर्मों से,अपने व्यवहारों से,अपने विचारों से
लोगों के दिलों में अपने प्रति सम्मान संग्रह करना है जो आपके जाने के बाद भी आपके नाम से कायम रहे।
           कोरोना महामारी ने ये साबित कर दिया है कि भौतिक वस्तुओं का संग्रह बेकार है। बहुत से लोगों के पास बहुत पैसा है लेकिन वो कहीं जा नहीं सकते ,किसी से मिल नहीं सकते,किसी को कुछ दे नहीं पाते,सिर्फ खानेपीने को छोड़ और कहीं खर्च नहीं कर सकते हैं तो सब बेकार है। तो संग्रह किस काम का।
         इसके बाद आया बाढ़ जो सबकुछ बहा कर लर गया। सारा भौतिक संग्रह बेकार हो गया। इस तरह से हम देखते हैं कि भौतिक वस्तुओं का संग्रह ठीक नहीं। जीवन की सच्चाई खाओ पीओ मौज करो। अपनों को खिलाओ गैरों को भी खिलाओ यदि सामर्थ है तो। घूमों फ़िरो मौज मस्ती करों।जरूरत मंदों की सेवा करो। भूखों को खाना खिलाओ वस्त्रहीनों को वस्त्र दो। जिओ और जीवन दो का मंत्र अपनाओ। यही जीवन की सच्चाई है।
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश" 
कलकत्ता - प. बंगाल
मानव जीवन दुर्लभ है, कहा जाता है कि 84 लाख योनियों में जीवन भुगतने के बाद ही मानव जीवन प्राप्त होता ह, इस दुर्लभ जन्म को पाकर मनुष्य स्वयं को धन्य मानने लगता है मानव जीवन का उद्देश्य सत्कर्म ,परोपकार और न्यायिक तथा व्यवस्थित जीवन यापन करना है, दूसरों के सुख दुख का भागीदार बनना है। आत्म शुद्धि हेतु अध्यात्मवाद और धार्मिक सोच का होना भी जरूरी है, ईश्वर के प्रति आस्था व श्रद्धा भी जरूरी है ।सांसारिकता का गहन ज्ञान भी जरूरी है। पारिवारिक दायित्व निभाने के लिए भौतिक वस्तुओं का संग्रह भी जरूरी ह। यह तो मानव जीवन के उद्देश्य के अंतर्गत एक अलग पहलू है मगर जब भौतिक सुख की वस्तुएं संग्रह करते-करते मानवीय गुणों का विघटन शुरू हो जाए तो वह अनिष्टकारी बन जाता है। मनुष्य जीवन की सच्चाई को केवल सर्व संपन्न जीवन ही मानता है आत्म सुख उसके लिए सर्वोपरि बन जाता है, लेकिन भौतिक वस्तुओं की अधिकता जब  मनुष्य को स्वार्थी, लालची, आत्म- केंद्रित निर्दय , कठोर औरअव्यावहारिक तथा असामाजिक बना देती है तो उसे पृथकता  का भाव झेलना पड़ता है। मन की शांति कोसों दूर भाग जाती है, सब कुछ होते हुए भी मन अशांत और बेचैन, बीमारियों से घिरा हुआ, एक एक एकाकी हो जाता है। अतः जीवन में भाईचारा, मिलन सारी, सभी के सुख दुख का भागीदार बनना, परोपकार की भावना, पर- कल्याण की भावना,स कारात्मक सोच होनी चाहिए। भले ही हमने भौतिक वस्तुओं का संग्रह करने में अपनी योग्यता मेहनत का सहारा लिया हो मगर मन को असली शांति मानव हित -सोच तथा मानवतावादी आचरण को अपनाकर ही मिलती है। यही जीवन का सच है।
 - शीला सिंह
 बिलासपुर -  हिमाचल प्रदेश
कहते हैं स्वास्थ्य ही संपत्ति है ! और ऐसे भी कह सकते हैं कि स्वास्थ्य संपत्ति से बढ़कर है ! संपत्तिहीन होने पर मनुष्य स्वयं को उतना असमर्थ नहीं पाता जितना स्वास्थ्य रहित हो जाने पर  !  यदि व्यक्ति अस्वस्थ हो तो वह प्राप्त सुख सुविधाओं का भी उपयोग और उपभोग नहीं कर सकता !  यदि  पाचन ठीक ना हो तो उत्तम से उत्तम भोजन भी वर्जित है ठीक उसी तरह यदि निद्रा ना आती हो तो रेशम के गद्दो का क्या उपयोग ! वास्तव में जीवन का सुख तो दैनिक जीवन की छोटी-छोटी बातों में ही है ! 
दूसरी एक बात और है भौतिक सुख की लालसा उम्र के अनुसार भी उसकी आवश्यकता बन जाता है जो उसके मन को सुख देता है ! वही बड़ी उम्र में बोझ और बेकार सा लगता है ! उम्र की ढलान पर वह अपने स्वास्थ्य पर और प्रभु की भक्ति की ओर मुड़ जाता है ! उसे केवल ईश्वर पर विश्वास रहता है ! मृत्युपरंत प्रभु का नाम ही साथ जाएगा सुख वैभव यही रहेगा ! अतः भगवान से प्रार्थना करता है बस  हाथ पैर चलते रहे और कुछ नहीं मांगता ! 
बेहतर स्वास्थ्य ही सबसे बड़ा सुख है !
- चंद्रिका व्यास
 मुंबई - महाराष्ट्र
जीवन के लिए भौतिक वस्तुएं साधन मात्र हैं। आज के भौतिकतावादी समय में ये वस्तुएं आवश्यक हो गयी हैं परन्तु इनके संग्रह को जीवन का सच नहीं माना जा सकता। यदि इनको जीवन का सच मान लिया तो इनके ना मिलने पर मनुष्य का मनोबल गिरेगा और जीवन में नकारात्मकता आयेगी। 
मेरा मानना है कि मनुष्य को जीवन यापन में सरलता और सुगमता के लिए भौतिक वस्तुओं का संग्रह तो करना चाहिए परन्तु इनके प्रति आसक्ति नहीं होनी चाहिए। क्योंकि ये भौतिक वस्तुएं क्षणिक सुख के समान होती हैं और इनको जीवन का सच मानने से मानसिक कष्ट और निराशा का सामना करना पड़ सकता है। 
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड 
 जीवन और शरीर  दोनों अलग-अलग वस्तु है। जीवन और शरीर के संयुक्त रूप को मानव कहा जाता है ।जीवन अर्थात आत्मा, आत्मा ही शरीर को चलाता है। भौतिक वस्तु शरीर की आवश्यकता है और आत्मा की आवश्यकता ज्ञान है ।ज्ञान ही जीवन की सच्चाई है ज्ञान अगर किसी मनुष्य को मिल जाता है तो वह हर पल हर क्षण आत्म संतुष्टि में जीता है। निरंतर सुख पूर्वक जीना ही मनुष्य की सच्चाई है। इस सच्चाई को व्यक्त होने के लिए मनुष्य को न्याय ,धर्म  ,सत्य इन तीन ज्ञान का होना आवश्यक है और शरीर के लिए भौतिक ज्ञान का होना आवश्यक है। जीवन शरीर से बड़ा है अतः शरीर की भौतिक वस्तुएँ नाशवान होती है ।स्थाई नहीं रहता हमेशा बदलता रहता है और सत्य कभी नहीं बदलता अतः जीवन का सच्चाई, भौतिक वस्तुओं के संग्रह में नहीं है 
आत्मा ज्ञान का अनुभव कर सच्चाई को प्राप्त करता है ।अतः यही कहते बनता है कि जीवन अर्थात आत्मा को ज्ञान की आवश्यकता है ।शरीर को भौतिक वस्तुओं की आवश्यकता है अतः दोनों का होना आवश्यक है लेकिन आत्मा अमर होती है। ज्ञान अमर होता है। अतः जीवन और ज्ञान कभी नहीं मरता यही सच्चाई है। भौतिक वस्तु संग्रह में सच्चाई नहीं है यह शरीर की आवश्यकता की पूर्ति करता है जब तक शरीर जिंदा रहता है बहुत ही कर सकता की पूर्ति की जाती है यह स्थाई नहीं आता परिवर्तनशील होता है और जो भी स्थाई है वह सच्चाई है ज्ञान स्थाई है ज्ञान ही सत्य है । और इस सत्य का व्यवहार रूप में व्यक्त करके जीना ही सच्चाई है। अतः हर व्यक्ति को भौतिक वस्तु के साथ-साथ सच्चाई पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है भौतिक वस्तु आवश्यकता की पूर्ति के लिए है ना कि संग्रह करने के लिए अस्तित्व में कहीं संग्रह नहीं है आय और व्यय प्रकृति में चलता ही रहता है यह प्रकृति का नियम है प्रकृति कभी मरती नहीं है ।प्रकृति नित्य निरंतर शाश्वत है। यही  सत्य है।
- उर्मिला सिदार 
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
" सांई  इतना  दीजिए
  जामे  कुटुम्ब  समाय ।
  मैं  भी  भूखा  ना  रहूं 
  साधु  न  भूखा  जाय ।।"
उपरोक्त  उक्ति  जीवन  की  जरूरी  आवश्यकता  से  रुबरु  कराती  है  । 
     भौतिक  संसाधन  आज  की  आवश्यकता  है  लेकिन  जीवन  का  सच  नहीं  । 
       जीवन  का  सच  सिर्फ  रोटी, कपड़ा  और  मकान  है  क्योंकि  इनके  बगैर  इंसान  का  गुजारा  नहीं  होता  । 
       वर्तमान  समय  में  हम  भौतिक  संसाधनों  के  गुलाम  बन  गए  हैं  । इनको  हमने  स्टेट्स  सिंबल  मान  लिया  है  ।  जिनके  पास  इन  वस्तुओं  का  अभाव  है, उन्हें  हेय  दृष्टि  से  देखा  जाता  है  जो  कतई  उचित  नहीं  है  । 
       माना  कि  कुछ  वस्तुएं  आवश्यक  है  और  उनके  साथ  ही  आवश्यक  है- ईमानदारी, संतोष, धैर्य, मानवीय  गुण, सकारात्मक  सोच, आत्मविश्वास  और  परिश्रम  से  अर्जित  की  गयी  सीमित  तथा  आवश्यक  वस्तुएं  ताकि  मानसिक  शांति  का  अनुभव  कर  सकें, तनाव  रहित  होकर  अपना  जीवन  यापन  कर  सकें  । 
         - बसन्ती  पंवार 
          जोधपुर  - राजस्थान 
मानव जीवन के दो स्तर है l प्रथम भौतिक और दूसरा आत्मिक या आध्यात्मिक l इनमें से जिसकी प्रधानता होती है उसी अनुरूप जीवन का स्वरूप बनता है l भौतिकवादी स्वरूप में भौतिक वस्तुओं के संग्रह को जीवन का सच मानता है और आध्यात्मिक स्वरूप वाला व्यक्ति "ब्रह्म सत्यम जगत मिथ्या को सर्वोपरि मानता है लेकिन गृह अनुराग और स्वजनों के प्रति कर्तव्य पालन के लिए जीवनोपयोगी वस्तुओं का अर्जन व संग्रह करना पड़ता है और इस अनिवार्य प्रक्रिया से छुटकारा किसी भी व्यक्ति को नहीं मिल सकता  है l मेरे दृष्टिकोण से समग्र जीवन जीने के लिए जीवन में अध्यात्म एवं आधिभूत का समन्वय आवश्यक है, पूर्ण एकांकी जीवन किसी के लिए भी संभव नहीं है l 
    प्रथम स्तर के व्यक्ति भौतिक वस्तुओं के प्रति भावनाएँ रखते हैं,  उनसे प्रेरणा प्राप्त करते हैं, उनकी प्राप्ति से सुखी व खोने से दुःखी होते हैं और अपना लक्ष्य भौतिक संग्रह ही रखते हैं l आध्यात्मिक व्यक्ति विश्व और मानव की श्रेय साधना के प्रति समर्पित होते हैं और तदानुसार अपनी कार्य पद्धति का निर्माण करते हैं l मंदिर में दो व्यक्ति भगवान का दर्शन तन्मयता पूर्वक कर रहे हैं l एक की भावना इस प्रतिमा में घट घट व्यापी सर्वव्यापी भगवान की झांकी देखकर गद गद हो रहा है तो दूसरा मुकुट का श्रंगार, मूर्ति की कलाकृति का मूल्याँकन कर गद गद हो रहा है ऐसे में दोनों का देवदर्शन भिन्न भिन्न परिणाम उतपन्न करता है l 
भौतिकवादी संस्कृति कभी भी व्यक्ति की तृष्णा को शांत नहीं होने देती जबकि दूसरा व्यक्ति धन को दूसरे की अमानत एवं उच्च आदर्शो के लिए सद उपयोग की सामग्री मात्र मानता है l संसार की वस्तुओं में सौंदर्य और सुख को तलाशने वाले भौतिकवादी लोग इसी को जीवन का सच मानेंगे और मृगतृष्णा की भाँति आजीवन भटकते रहते हैं, कभी शांति और संतोष का दर्शन नहीं कर पाते हैं l 
       यदि मानव जीवन में चैन की नींद सोना है तो सत्य, अपरिग्रह के सिद्धांत को अपनाना होगा l जीवन का सच भौतिक संग्रह में नहीं है l आशा और तृष्णा के झूले में हम नहीं झूले, यथार्थवादी बनें, यही दृष्टिकोण होना चाहिए l विश्व गुरु की उपाधि से अलंकृत, विभूषित भारतीय संस्कृति धार्मिक मनोभावों को बढ़ावा देती है l नवीनता और आध्यात्मिक गुणों की ओर बढ़ती है l ऐसे में मानव जीवन का सच भौतिक संग्रह हो ही नहीं सकता l 
            चलते चलते ------
"जीवात्मा सत्य व चेतन सत्ता हैl"
  यह अनादि, अविनाशी, अमर, अल्पज्ञ और कर्मानुसार सुख व दुखों की भोक्ता व कर्म फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था में परतंत्र है तो भौतिक संग्रह जीवन का किस प्रकार हो सकता है l 
        - डॉ. छाया शर्मा
अजमेर - राजस्थान
       जीवन का सच भौतिक वस्तुओं के संग्रह में कतई नहीं है। क्योंकि भौतिक वस्तुएं क्षणिक सुख दे सकती हैं। किंतु परम सुख नहीं दे सकतीं। 
       पांच तत्वों से बना मानव शरीर अंत में पांच तत्वों में ही विलीन हो जाता है।
       हालांकि जीवन के सच की सच्चाई बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, साधु-संत एवं महात्मा भी ढूंढ नहीं पाए। उन्होंने भी जीवन के पांच शत्रुओं का वर्णन करते हुए कहा कि काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार से बचो।
       जबकि कड़वी सच्चाई यह है कि भौतिक वस्तुओं के संग्रह से मानव जीवन में काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार की उत्पत्ति होती है।  जो जीवन का सच नहीं है। क्योंकि जीवन का मूल सच मोक्ष प्राप्ति से है और मोक्ष भौतिक वस्तुओं के संग्रह से नहीं बल्कि अध्यात्मिक ज्ञान संग्रह से प्राप्त होता है। जो जीवन का कड़वा सच है।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
जीवन का सच भौतिक वस्तुओं के संग्रह में बिल्कुल नहीं है क्योंकि यह सब क्षणभंगुर और नष्ट होने वाली चीजें हैं। जब मनुष्य का जीवन ही पानी के बुलबुले के समान है तो भौतिक वस्तुओं का संग्रह कैसे महत्वपूर्ण हो सकता है?
        संग्रह ही करना है तो हम सत्कर्मों का संग्रह करें। वे कर्म ही जीवन में और जीवन के बाद भी हमारे साथ रहते हैं, वही हमारे साथ जाते हैं।
         मेरी दृष्टि में सत्कर्मों के संग्रह से बढ़ कर दुनिया में कुछ नहीं है। ये और इनका प्रभाव सदा रहते हैं, कभी नष्ट नहीं होते।
- डा .भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
मानव जीवन के दो स्तर हैं ,,,एक वाह्य दूसरा आंतरिक ,,,,एक भौतिक दूसरा आत्मिक ।इनमें से जिस की प्रधानता होती है उसी के अनुसार जीवन का स्वरूप बनता है ।भौतिकवादी जीवन स्थूल दृष्टिकोण का प्रतिफल है और आध्यात्मिक जीवन मनुष्य की सूक्ष्म विवेक बुद्धि की अतःप्रेरणा पर अवलंबित है ।
बाहर से देखने में भौतिक और आध्यात्मिक जीवन में कोई विशेष अंतर नहीं दिखता ,क्योंकि शरीर के पोषण एवं निकटवर्ती स्वजनों के प्रति कर्तव्य पालन के लिए घर गृहस्थी की सभी जीवनोपयोगी  वस्तुओं का संग्रह एवं उपार्जन करना पड़ता है, जो कि नैतिक दायित्व में आता है। उनकी मात्रा में न्यूनाधिकता हो सकती है ।पर अनिवार्य प्रक्रिया से छुटकारा किसी को भी नहीं मिल पाता ।
वाह्य जीवन हर व्यक्ति का भौतिकवादी ही रहता है।
 संसार की वस्तुओं के सौंदर्य और सुख को तलाश करते हुए उनके पीछे दौड़ने वाले लोग भौतिकवादी कहे जाते हैं। उनका यह दृष्टिकोण इसलिए अनुपयुक्त माना जाता है क्योंकि उसे अपनाने वाले को मृगतृष्णा की तरह आजीवन भटकते रहना पड़ता है ,कभी शांति और संतोष के दर्शन नहीं होते ।
बाहर का उनका ठाठ बाट देख कर लोग समझते हैं कि वह सुखी होंगे ,,,,पर सच बात यह है कि वह अंदर से असंतुष्ट और अशांत ही होते हैं।
 वस्तुओं के प्रति अत्यधिक आकर्षण उनके  प्रति अनावश्यक मोह आत्मघात  के समान है,,,, एवं हानिकारक भी,,,,। मगर जरूरत भर की आवश्यकताओं की इच्छा एवं उनकी आपूर्ति तो  जीवन  जीने के लिए जरूरी भी  है,,,।
- सुषमा दीक्षित शुक्ला
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
संसार में हर चीज नश्वर है
संसार में सभी जीव मात्र में केवल मनुष्य ही  ऐसा है जो कि सोचने समझने की क्षमता रखता है इसलिए हर संभव यह प्रयास करना चाहिए कि 
हम अपने नेक कार्य, मधुर वाणी, परिवार की महत्ता उसकी खुशी,
समाज के प्रति अपने दायित्व, संस्कार
नैतिक मूल्यों को हम जिस देश में रहते हैं उस देश की माटी का मान करते हुए
अपने जीवन को बहुत ही सरलता के साथ जीवन जीने के लिए आवश्यक वस्तुओं के साथ ही अपना जीवन यापन करना चाहिए ।
जीवन का सच यथार्थ रूप में समझ कर उसको शिक्षा विज्ञान अध्यात्म
योग इन सब को जीवन में अपनाते हुए
अपने जीवन को खुशहाल सुखमय बना सकते‌ हैं इसके लिए भौतिक वस्तुओं के संग्रह की आवश्यकता नहीं होती है बस जीवन के महत्व को समझना अति आवश्यक होता है
अपने जीवन का लक्ष्य क्या है यह समझना अति आवश्यक है।
भौतिक वस्तुओं से भौतिक सुख मिलता है इससे आप आत्मिक सुख कभी प्राप्त नहीं कर सकते यदि भौतिक सुख जीवन का आधार होता
तो धनाढ्य लोगों को शारीरिक दुख
मानसिक दुख नहीं उठाना पड़ता
पैसे से जीवन को आप सुविधाजनक बना सकते हैं किंतु जिंदगी नहीं खरीद सकते हैं जीवन में छोटी-छोटी खुशियों के लिए पैसों की भौतिक वस्तुओं की कोई आवश्यकता नहीं होती हैं
यह केवल मानव मात्र की सोच पर 
निर्भर करता है सुख और दुख यह तो
जीवन यात्रा का एक भाग है हर प्राणी को इस पर से गुजरना  होता है।
*संसार में ऐसा कौन हुआ सुख दुख की बदली घिरी नहीं*जो हिम्मत वाले माझी हैं तूफानों से टकराते हैं*
- आरती तिवारी सनत
 दिल्ली
जी बिल्कुल भी नहीं है , जीवन का सच भौतिक वस्तुओं के संग्रह में  नहीं है । भारतवर्ष की संस्कृति में  कभी भी
भौतिक वस्तुओं के संग्रह को जोर नहीं दिया है ।भारतीय संस्कृति त्याग , परोपकार की संस्कृति है जिसमें आन्तरिक शक्ति , गुणों को जगाने पर  जोर दिया है जो  मानव को आध्यत्म से जोड़ती है । यही चेतना मोह माया के संसार को छोड़ ईश सत्ता से एकाकार कराती है । जितने भी महापुरुष , ऋषि , मुनि , सन्त जैसे कबीर , मीरा , शंकराचार्य , विवेकानन्द , गांधी जी आदि ने भौतिकता का त्याग करके आध्यात्मिक संस्कृति को माना और इसे जीवन में अपनाया है ।
संस्कृति शब्द का हम शब्दिक अर्थ करें तो  संस्कार , सुधार , परिष्कार , शुद्धि , सभ्यता है . यूँ कह सकते हैं कि संस्कृति मानव की जीवन शैली , समाज , राष्ट्र को  परिष्कृत कर विकास  करती है।  विश्व में भारतीय  संस्कृति ५ हजार साल पुरानी मानी जाती है।  भौतिकवादी विश्व आज भारत  ओर देख रहा है।  क्योंकि  भारतीय संस्कृति की समन्वय , सहिष्णुता , सत्य , अहिसा , नैतिकता , धर्मनिरपेक्षता और राष्ट्रीय चेतना और भावनात्मक एकता , सौहार्द भारतीयों के दिलों में कूट - कूट के भरा हुआ है .  संसार को त्याग , दया , शान्ति , प्रेम , मैत्री आदि मानवीय मूल्य भारत से ही मिले हैं . इसी कारण  भारतीय  बहुआयामी संस्कृति   आज तक जीवित है और रहेगी .  इसलिए मैं कहती हूँ - 
आज सुनों मेरे सुरम्य भारत की कहानी 
विविधता से भरे प्रान्तों की पहचान पुरानी 
जिसकी माटी   को सींचते वीर , बलिदानी
जिसमें गूँजती बुद्ध , नानक सूर की बानी  .
भारत को लूटा लोदी , बाबर अनेकों ने 
समा गए वे  भारत माँ में हुए न पराए 
अत्याचारों से संस्कृति को मिटा न पाए 
महिमा भारतीय संस्कृति की जग है गाए .
भारत आध्यात्मिक संस्कृति के कारण विश्व गुरु था ।
अमीरों  के जीवन में धन चमकता है और संतों के जीवन में व्रत चमकते हैं । दोनों एक साथ नहीं चमक सकते हैं ।
 कहने का मतलब है कि जिनके जीवन में भौतिक वस्तुओं के संग्रह करने का शौक होता है ये काम तो धनाढ्य वर्ग ही करता है । ये लोग भौतिक सुख -सुविधाओं को ताउम्र उपभोग करते हैं । 
गरीब , वंचित वर्ग तो पैसों के अभाव में भौतिक वस्तु को जानते ही नहीं  हैं ।  भौतिक वस्तुओं का संग्रह करना तो वे जानते ही नहीं हैं ।
इसलिए भारत की संस्कृति  विदेशियों के अत्याचारों के  बाद भी सुरक्षित व और महान है . 
उपनिषद में कहा  है- " तेन त्यक्तेन  भुन्जीथा  " अर्थात इसमें तीन उपदेश मिलते हैं . १ ईश्वर की सर्वव्यापकता को स्वीकार करना , 
  २ त्यागपूर्वक सांसारिक पदार्थों को भोगना ,
  ३ लालच न करना 
यानी मानव भोग को त्यागपूर्ण रूप में अपनाए . भोग और त्याग में संतुलन करके विरोधाभास को मिटा सकते हैं और भरतीय संस्कृति भोग और त्याग में संतुलन करना सीखती है . जो मानव को कल्याण की ओर ले जाती है . 
गंगा कहने  को एक नदी है . लेकिन मोक्षदायिनी , पापनाशिनी ,  जीवनदायिनी पावन गंगा माँ अनेक मान्याताओं को समेटे हुए है . गंगा के जल में शुद्ध करने की शक्ति होती है और १७ प्रकार के लाभदायक जीवाणु होते हैं . जिससे गंगाजल अशुद्ध नहीं होता है . इसलिए गंगा जल को अमृत कहा है .  इसी मान्यता है कि मरते हुए मानव को गंगा जल पिलाने से स्वर्ग मिलता है  . हर कोई हिन्दू अपने तीर्थ स्थान , मंदिर में गंगाजल को रखते हैं . अब  तो घर बैठे डाकखानों  से  गंगाजल मंगवा सकते हैं ।
नाशवान मानव जीवन है ।कफ़न में जेब नहीं होती है । आँख मुदने पर सारी दौलत इसी संसार में  रह जाती है 
तो भी इंसान इस सच को जान नहीं पाता है । धन संचय पुश्तों के लिए करता रहता है ।  अंत समय पर हमारे राष्ट्रपति स्व डॉ अब्बदुल कलाम जी 0 बैंक बैलेंस था जिन्होंने त्याग की संकृति को अपने जीवन में धारा था ।
अंत में यही कहूंगी कि 
त्याग - भोग से लाते यहाँ संतुलन जीवन में 
तब मानव में बसती मानवता की बस्ती 
सच , सहयोग ,अहिंसा अध्यात्म पर चल के 
मिटा न सका  ' मंजु '   कोई भारत की हस्ती .  
  - डॉ मंजु गुप्ता 
 मुम्बई - महाराष्ट्र
जीवन का सच भौतिक वस्तुओं के संग्रह में नहीं है। यह जीवन क्षण भुंगर है। भौतिकवादी सोच के कारण मानवीय संवेदनाएं घटती हैं भौतिकवादी सोच के कारण मनुष्य दिखावे के चक्कर में पड़ा मानसिक तौर पर बीमार हो गया है। समाज में रुतबा बढ़ाने के लिए अपनी हैसियत से बढ़ कर खर्च के लिए ॠण लेकर कर्जदार बन जाता है। 
          भौतिक वस्तुओं के संग्रह में पड़े  व्यक्ति की दृष्टि सीमित हो जाती है और वो लोक कल्याण की भावना से दूर हो जाता है क्योंकि उस का सारा ध्यान और समय भौतिक वस्तुओं के संग्रह में लगा होता है। ऐसे व्यक्ति की कभी भी तृप्ति नहीं होती क्योंकि जो वस्तु आज खरीदी है वो कल को पुरानी हो जाएगी। फिर नयी  वस्तु लेने की लालसा और नये साधन फिर पुराने हो जाते हैं। यह चक्कर निरन्तर चलता रहता है और मनुष्य इसी चक्कर में जीवन की ओर ध्यान नहीं देता ।बस "खाओ पीओ और ऐश करो"तक सीमित हो जाता है। उसका जीवन विलासिता की ओर जाने के कारण आशंका, संदेह, तनाव, भय और स्वार्थ उस के जीवन का अंग बन जाते हैं। उस में आत्म विश्वास और आत्म बल नहीं रहता बल्कि डरपोक हो जाता है। हर समय कुछ खोने का डर लगा रहता है। इस कारण डिप्रेशन का शिकार हो जाता है ।ऐसे लोग आत्म हत्या भी करते हैं। 
       मनुष्य को जीवन का सच जानना चाहिए। भौतिक और आध्यात्म का संतुलन बना कर जीवन यापन करना चाहिए। प्रकृतिवादी सोच  भी रखनी चाहिए। यह जीवन अनमोल है सिर्फ भौतिक वस्तुओं के संग्रह के लिए नहीं है। हमें पुरुषार्थी बन कर पुरुषार्थ करते हुए उचित तरीके से जीना चाहिए तभी हमारा कल्याण होगा। 
- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप -पंजाब
साथियो भौतिक वस्तुएं तो हमें भौतिक सुख ही प्रदान कर सकती हैं किन्तु मानसिक और आत्मिक सुख पाने के लिये कुछ और ही चहिये ।
भौतिक सुख तो जन्म से लेकर मृतीऊ तक ही साथ देता है किन्तु मानसिक और आत्मिक शान्ती प्राप्त करने के लिये भगवान की शरण में जाना पडता है । साथ ही मानव मात्र के प्रति दया और प्रेम का भाव रखना ही उस परम पिता तक पहुंचने का एकमात्र रास्ता है ।।
  -   सुरेन्द्र मिन्हास
 बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश

" मेरी दृष्टि में "  जीवन में बहुत सी भौतिक वस्तुओं का संग्रह होता है । जिस का समय अनुसार प्रयोग करते हैं । फिर भी यह जीवन का सच कहा जा सकता है । यही प्रश्न आज का आईना है ।
                                           - बीजेन्द्र जैमिनी
डिजिटल सम्मान


Comments

  1. जीवन का सच भौतिक संग्रह में कतई नहीं है। नश्वर संसार की सभी वस्तुएं नश्वर है। स्वयं मनुष्य ही नश्वर है। आवश्यकता से अधिक भौतिक संग्रह माना जाता है। इसीलिए अपरिग्रह पर जोर दिया गया है।

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  2. इंसान के कर्म से उसका लेखा-जोखा होता है। इंसान तो चला जाता है केवल स्मृतियां शेष रह जाती है। कहां भी है "कर्म प्रधान विश्व करि राखा "अर्थात कर्म से ही पहचान होती है। वही जीवन का सच है यथार्थ रूप में

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