समाज सेवा में कर्म का क्या स्थान है ?

समाज सेवा में कर्म अर्थहीन हो जाता है । सिर्फ उद्देश्य समाज सेवा रहता है । समाज के प्रति जिम्मेदारी निभाना भी हो सकता है । कहते हैं कि समाज सेवा सभी के हिस्से में नहीं आती है । किस्मत वालें ही समाज सेवा कर पाते है । बाकि तो समाज सेवा के बहाने अपने उद्देश्य की पूति में लग होते हैं । यही " आज की चर्चा " का विषय भी है । अब आये विचारों को भी देखते हैं : -
     तुलसीदास जी ने कर्म को महत्वपूर्ण मानते हुए कहा है “कर्म प्रधान विश्व करि राखा। जो जड़ करई सो तस फल चाखा।।” अर्थात् कर्म ही जीवन में सबसे प्रधान है, वही अच्छा-बुरा फल प्राप्त करने की भूमिका लिखता है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी निष्काम कर्म करने की बात कही है। इसका सीधा और स्पष्ट अर्थ यही निकलता है कि मानव के जीवन में अच्छे कर्म किसी फल और परिणाम की इच्छा किये बिना करना ही महत्वपूर्ण है। समाज की सेवा में भी निसंदेह कर्म ही सबसे महत्वपूर्ण है। सेवा तन-मन और धन तीन प्रकार से की जाती है। धन तो कोई भी दे सकता है पर मन होगा तभी धन भी दिया जायेगा। सबसे बड़ी सेवा तन और मन से की जाती है । जब मन से व्यक्ति अपना तन लगा कर सेवा कर्म करता है तो उसके सम्मुख अन्य सारे काम फीके पड़ जाते हैं। धन देने में केवल दे दिया जाता है, पर जहाँ कोई अपने सच्चे मन से अपना तन लगा कर किसी की निष्काम सेवा करता है तो उसके लिए कर्म ही पूजा बन जाती है। फिर वह अलग से पूजा करे या न करे कोई अंतर नहीं पड़ता। नर सेवा ही नारायण सेवा है। जो यह करता है वो सबसे श्रेष्ठ है। तो समाज सेवा में कर्म का स्थान सबसे श्रेष्ठ है।
- डा० भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
समाज सेवा ही परोपकार का पर्याय है ।भारतीय  संस्कृति , दर्शन , चिंतन , हिन्दू धर्म ग्रन्थों , गीता में पूण्य कर्म , सद्कर्म  के महत्त्व को बताया  है । गीता में कहा है - "  परस्परमं भावयन्तः श्रेयः परमवादस्यथ। " 
मानव इस क्षणभंगुर संसार में मानवीयता हेतु परोपकार का सौरभ  लुटाए ।पेड़ अपना फल नहीं खाता है । नदियाँ अपना पानी नहीं पीती हैं । इसी तरह मनुष्य भी समाज में परहित में किये कामों की निशानी देनी चाहिए । कर्म से प्रकृति , ब्रह्मांड का हर कण गतिशील है । जो दूसरों के लिए काम करते हैं । पांच तत्वों से निर्मित हमारा शरीर है । आग , वायु, आकाश , पृथ्वी  , जल परहित में ही लगे रहते हैं ।   आग पर तपकर हमें भोजन मिलता है । धरा  अन्न से हमारा पालन पोषण करती है ।हमें नदी  के रूप में   जल मिलता है । वायु हर चेतना को प्राणवायु देती है ।जिनके बिना किसी प्राणी का जीन  संभव नही है । समाज सेवा में  किया हर  कर्म का सर्वश्रेष्ठ स्थान है ।  अर्थव वेद में कहा है -"  जिसने  अपने और दूसरों के लिये सामर्थ्य होने पर भी कल्याण , सुख -सम्पादन का काम नहीं किया ।उसने मानो स्वयं अपने  हाथ - पैरों को काट डाला । "
 हमारे देश में समय - समय पर महापुरुषों की जयंती बनायी जाती है और  सीमाओं पर तैनात सेना के  वीर , बहादुर शहादतों को  कौन भूल सका है । जिन्होंने देश हित में अपने प्राणों का उत्सर्ग किया ।  देश , समाज की सेवा की है ।  भारत माँ के लिए रानी लक्ष्मी बाई  आखिरी साँस  तक अंग्रेजों से लड़ के प्राणों का उत्सर्ग किया । सुभाष चंद्रबोस , महात्मा गाँधी जी , विवेकानन्द जी  का जीवन को कौन भूला सकता है ।  इन्होंने परोपकार , एकता , आत्मबल , संगठन की शक्ति से गुलाम भारत को आजादी दिलायी । भारत माँ की सेवा की । राष्ट्र प्रेम में अपना जीवन समर्पित किया । मनुष्य जीवन में सेवा करना यानी ईश्वर के हस्ताक्षर को प्राप्त करना है । हनुमान तो सदा राम -सीता की सेवा में लगे रहे ।
समाज में हर कोई व्यक्ति तन , मन , धन से अपनी सेवा दे सकता है । जिस के पास जो हो उसी से सेवा करे । आमीर व्यक्ति धन दे कर , व्यक्ति अपनी साहस , विद्या बुद्धि ,  दिलेरी से दुघर्टना,   आपदा आदि में लोगों को बचाना । लेखक अपनी कलम से समाज सेवा कर सकता है । हमें मानवता के धर्म को अपनाना होगा । व्यास जी ने 18 पुराणों में परोपकार को पुण्यकर्म कहा है । जिनका तन - मन परोपकार में लगा हुआ है । उनका तो जीवन सफल हो गया । वे लोग तो सर्वजन हिताय , सर्वजन सुखाय हो गए । जो परमार्थ करते हैं । उन्हें प्रभु का दर्शन  आसानी से हो जाता है । स्व की संकुचित सीमा  टूट जाती है । परहित की   अटूट व्यापकता  आजाती है । मनुष्य वही जो मनुष्य के लिये मरे । इसलिए हमारी संस्कृति विश्वबन्धुत्व  को मनाती है । परोपकार में विश्वकल्याण का भाव समाया हुआ है ।
अंत में दोहा में मैं कहती हूँ - 
सेवा भाव को मान के , करें सदा परमार्थ ।
समाएं निज में पर को , यही कर्म का अर्थ ।
- डॉ मंजु गुप्ता 
 मुंबई - महाराष्ट्र
कर्म योग मोक्ष का मार्ग है। कर्मशील व्यक्ति को अलग से पूजा -पाठ, भक्ति,की आवश्यकता नहीं होती है। उसका कार्य ही ईश्वर के प्रति सच्ची प्रार्थना उपासना और भक्ति होती है।
गीता में भगवान कृष्ण ने भी का कर्म योग की शिक्षा दी है। अपना कार्य अपनी पूरी शक्ति, ध्यान और विश्वास के साथ  करना है।वह फल की इच्छा न रखता । कठोर परिश्रम ही वह बीज है ,जिससे सफलता का वृक्ष उगाया जा सकता है। हमारी सभ्यता संस्कृति औद्योगिक विकास  वैज्ञानिक उन्नति सबका आधार कर्म और परिश्रम है। काम एक वरदान है। इसके बिना जीवन व्यर्थ और निरर्थक है । कर्मशीलता ही मनुष्य को अन्य जीवो से अलग करता है ।इससे के विकास  के लिए अकेले और सामूहिक रूप से वह अपने पसीना बहाता है और समाज कल्याण की सोच रखता है। पवित्रता रखना हो तो पांच काम काम करिएगा -
१ क्रोध पर काबू पाइए ।
२ लोभ को दूर रखिए। 
३किसी से ईर्ष्या न करें ।
४ कभी भी किसी वस्तु से अधिक लगाव न रखें।   
५ इच्छा की अति न करें।
 यह पांच बातें साध ली तो आपके भीतर पवित्रता आ जाएगी। पवित्र होकर आपके हर कर्म सत्कर्म बन जाते हैं।
 रहीम ने सही कहा है 
" _तरुवर फल नहिं खात है,
 सरवर पियहिं न पान। 
कहि रहीम परकाज हित,
 संपत्ति संचय ही सुजान_ ।।"
       - प्रीति मिश्रा 
          जबलपुर -  मध्य प्रदेश
कर्म ही तो सेवा का आधार है।कर्म के बिना कोरे उपदेश किसी का पेट नही भर सकते ।तुलसीदास जी ने कहा है-
'कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जो जस करई सो तस फल चाखा'
तो सेवा के वैसे तो कई रूप है
तन,मन, धन तीनो ही रूपों में
हम यह कार्य कर सकते हैं
किन्तु कई बार हम महसूस कसरते हैं कि केवल मन या केवल धन पर्याप्त नही होता 
जब किसी को बीमारी या वृद्धावस्था से गुजरना पड़ता है
तब सहारे की आवश्यकता होती है।और कर्म का तन वाला स्वरूप ही वहाँ जरूरी होता है ।इस तरह समाज मे परिवार में हर जगह सेवा के तीनों रूपो के कर्म का महत्व है
- रश्मि लता मिश्रा
बिलासपुर - छत्तीसगढ़
समाज सेवा करना हर व्यक्ति के लिए संभव नहीं ।ये मानव प्रवृत्ति है जो निस्वार्थ भाव से दूसरों के दुख दर्द को महसूस करते हैं ।जिनमें संवेदना, दया, परोपकार, ममता, त्याग और सेवा भाव आदि की भावना है वही समाज सेवा में कर्मरत होता है ।इसमें भी लोग अलग अलग तरह से अपना सहयोग करते हैं ।कोई तन से कोई धन से ।लेकिन यदि देखा जाए तो कर्म का ही सर्वोच्च स्थान है ।कई युवा, समाजसेवी संस्थाएँ, अतिवृष्टि, सूखा, भूकंप, बाढ़ ,गरीबी आदि जैसी आपदाओं में कर्म करके ही लोगों की जान बचाते हैं, उनसे पीड़ित  परिवारों के लिए दैनिक आवश्यकताएँ जुटाते हैं ।हमारे देश के वीर सैनिक आए दिन गंभीर विपदाओं का सामना करके ही कर्मवीर कहे जाते हैं ।इसीलिए समाज सेवा बातों से नहीं बल्कि कर्म करने से ही होती है ।इसलिए कर्म का स्थान सर्वोपरि है ।
- सुशीला शर्मा
जयपुर - राजस्थान
समाज सेवा में कर्म ही प्रधान है । यदि कर्म नहीं करेगा तो समाज सेवा नहीं हो सकती , पैसे से नहीं मात्र शारिरिक तौर पर भी दूसरों की मददत करे तो वह समाज सेवा है । समाज सेवा कर्म है । समाज सेवा के प्रसंग में, अच्छा पहलू यह है कि समाज सेवा से हमें केवल अपने ही विषय में सोचने वाले विचार को घटाने में सहायता प्राप्त होती है । इससे हममें सेवा का भाव निर्माण होने में सहायता मिलती है तथा यह भी सीखते हैं कि त्याग कैसे किया जाता हैं । यदि हम आध्यात्मिक उन्नति करना चाहते हैं तो यह सभी महत्वपूर्ण गुण हममें होने चाहिए 
जो लोग विश्व में परिवर्तन लाना चाहते हैं उनके लिए समाज सेवा की ओर झुकाव स्पष्ट है । एक समाज सेवक समाज में अपने योगदान से स्थूल सकारात्मक परिणाम देखेगा । इसमें लोगों की सहायता करना, एक अनुभव के रूप में संतोषजनक हो सकता है । माया में किए गए किसी भी सकारात्मक कर्म का फल माया में ही प्राप्त होगा जो व्यक्ति के कर्म अथवा सुख में पुण्य के रूप में वृद्धि करेगा । समाजसेवा वैयक्तिक आधार पर, समूह अथवा समुदाय में व्यक्तियों की सहायता करने की एक प्रक्रिया है, जिससे व्यक्ति अपनी सहायता स्वयं कर सके। इसके माध्यम से सेवार्थी वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में उत्पन्न अपनी कतिपय समस्याओं को स्वयं सुलझाने में सक्षम होता है। अत: हम समाजसेवा को एक समर्थकारी प्रक्रिया कह सकते हैं। यह अन्य सभी व्यवसायों से सर्वथा भिन्न होती है, क्योंकि समाज सेवा उन सभी सामाजिक, आर्थिक एवं मनोवैज्ञानिक कारकों का निरूपण कर उसके परिप्रेक्ष्य में क्रियान्वित होती है, जो व्यक्ति एवं उसके पर्यावरण-परिवार, समुदाय तथा समाज को प्रभावित करते हैं। सामाजिक कार्यकर्ता पर्यावरण की सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक शक्तियों के बाद व्यक्तिगत जैविकीय, भावात्मक तथा मनोवैज्ञानिक तत्वों को गतिशील अंत:क्रिया को दृष्टिगत कर ही सेवार्थी की सेवा प्रदान करता है। वह सेवार्थी के जीवन के प्रत्येक पहलू तथा उसके पर्यावरण में क्रियाशील, प्रत्येक सामाजिक स्थिति से अवगत रहता है क्योंकि सेवा प्रदान करने की योजना बताते समय वह इनकी उपेक्षा नहीं कर सकता।
समाज सेवा एक ऐसा कार्य जो सामाजिक भलाई के लिए करता है। समाजसेवी एक ऐसा व्यक्ति जो निस्वार्थ भाव से समाज की सेवा करता है। ये सामाजिक-कार्य से अलग है। इस समाज सेवा से जुड़े कई बड़े-बड़े कार्यकर्ताओं ने अपना आर्थिक रूप से योगदान दिया है। सामाजिक कार्य कर्म करने की इच्छा करने वाला ही कर सकता है । समाज के प्रति लोगों के प्रति गहरी चिंता रखने वाला ही अपना समय व पैसा समाज के हित में खर्च कर सकता है । 
- डॉ अलका पाण्डेय
मुम्बई - महाराष्ट्र
सच्चे मन से किया हुआ कर्म कभी निष्फल नहीं जाता । कर्म और जीवन का अटूट सम्बंध है । जब तक व्यक्ति जीवित है उसे कोई न कोई समाजोपयोगी कार्य करते रहना चाहिए । कहा भी गया है - सेवा परमोधर्मः अर्थात जीवों की सेवा से बड़ा कोई धर्म नहीं होता । भगवान श्रीकृष्ण ने भी कर्मयोग के द्वारा अपने तक पहुँचने का मार्ग बताया है । जब व्यक्ति निष्काम भाव से समाज हित में कार्य करता है तो वह इस लोक के साथ परलोक को भी सुधार लेता है । सेवा तन, मन ,धन से की जा सकती है । हमें प्रकृति से प्रेरणा लेते हुए दिन-  रात की तरह गतिशील, तारो की तरह प्रकाशवान, पौधों की तरह विनम्र व जीवन देने वाला होना चाहिए । कर्म छोटा या बड़ा नहीं होता बस हमारा कर्म के प्रति समर्पण कैसा है, उद्देश्य क्या है ये ही उसे प्रभावी बनाता है । 
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर -मध्यप्रदेश
सेवा का अर्थ  ही  कर्म  है ।अपने  लिए  तो सभी  कर्म  करते है। दूसरो की भलाई  के  लिए  निस्वार्थ  भाव  से  किया  गया  कर्म  ही  सेवा  है। यह  तो  एक  पूजा  है । यह एक  आन्तरिक  प्रवृत्ति  है यह एक मानवीय  गुण  जिसमे त्याग  समर्पण  की  भावना  होती  है ।  प्राचीन  काल  से  यह  परम्परा  चली  आ रही  है ।गांव  या मुहल्ले  मे किसी  प्रकार  के अनुष्ठान  यज्ञ  मे स्वेच्छा  से लोग  अपनी कार्मिक  सेवा  देते  रहे है साथ  ही साथ  वस्तुओ  से  भी  सहयोग  करते  रहे  है
समाज  सेवा  का  दूसरा  पक्ष  यह है  कि  जो लाचार  असहाय  होकर  दुखी  और परेशान  है उनलोगो  की निरंतर  सेवा  कर  जिन्दगी  दे रहे  है इस लिए  समाज  सेवा की  भूमिका  अतुलनीय  है । मदर टेरेसा  ने  अपने  अतुलनीय  सेवा  से कुष्ठ  अपंग  की  सेवा  कर विश्व  को सेवा  का  पाठ  सिखा  गयी 
वर्तमान  समय  बहुत  गैरसरकारी  संस्थान  और सरकारी  संस्था  इस  दिशा  मे  कार्य  कर रही  है जिनका  उद्देश्य  बहुत  ही  अच्छा  है भले ही  उसमे  झोल  क्यो  नही हो?
आज का वृद्धाश्रम  अनाथाश्रम   समाज  सेवा  के ज्वलंत  उदाहरण  है । कितने वृद्ध  या वरीय  दम्पत्ति  को इनके समाज सेवी  संस्था  ने नवजोत  जगाया  है उनकी  उदासीनता को  दूर  किया  है। निर्बल  असहाय  बच्चो  को जिन्दगी  दी है  
संसार आयी  आकस्मिक  विपतियो  के प्रति  सकारात्मक  भूमिका  निभाई  है  कभी  बाढ  सूखा  सुनामी तूफान  भूकंप  जैसे  विपत्ति  मे सरकार  सेवा आगे  जाकर  अपनी  पूरी  सेवा  दी है । मानवीय  गुणो  कारण यह अद्भुत  रूप है जो सकारात्मक  भूमिका  अदा  कर  समाज  मे  अपना  योगदान  दे रही  है
- डाँ. कुमकुम वेदसेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
"गहना कर्मणो गति": सचमुच कर्मों की गति बड़ी ही गहन होती है। शुभ कर्मों के कारण ही मनुष्य का जन्म मिलता है और फिर  कोई भी  मनुष्य एकाकी जीवन नहीं जी सकता। गोत्र- परिवार से सामाजिक जीवन प्रारंभ होते होते,  विस्तार पाते पाते, गांव, पंचायत, जिला ,राज्य और देश की सीमा लांघता विश्व- समाज का निर्माण करता है। उसके द्वारा किया गया हर कर्म समाज को समर्पित होता है ।सत्य, अहिंसा, न्याय, दया साक्षरता आदि मानवीय मूल्यों को अंगीकार करते हुए जब हम कर्म करते हैं तो हृदय में दीन- दुखी समाज के प्रति दया और सेवा का भाव उमड़ने लगता है ।निराश्रित, सर्वहारा वर्ग, को प्रसन्नता के लिए अपने तन, मन, कर्म और वचन से सहायता के लिए हर समय तत्पर होने लगते हैं; यह सेवा यथा एनजीओ द्वारा संचालित वृद्ध आश्रमों अनाथालय,  शिक्षा -संस्थाओं में व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से की जा सकती है। इस प्रकार की सामाजिक सेवा से संबंधित कार्य बहुतायत में दर्शनीय हो रहे हैं। सात्विक एवं निष्काम कर्म के प्रति आस्थावान व्यक्ति ही समाज सेवा की ओर उन्मुख हो सकता है क्योंकि सेवा- धर्म अत्यंत गूढ़ है और कठिन भी है
 " आगम -निगम प्रसिद्ध पुराना/ सेवा धर्म कठिन जग जाना।"
 जिसमें निरहंकारिता , सरलता, त्याग तथा सहिष्णुता होती है एवं जो अपने संकल्प में अडिग, दृढ़ निश्चयी व साहसी है ,ऐसा सेवा -व्रती ही इस कार्य में पूर्ण सफल हो पाता है अतः परमार्थिक समाज- सेवा ईश्वरोन्मुखी कर्म है ।
- डाॅ.रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
अपनी सेवा तो सभी कर लेते हैं किंतु बात यहां समाज सेवा में कर्म के स्थान की है! समाज सेवा समूह अथवा समुदाय में व्यक्तियों की सहायता करने की प्रक्रिया है !सच्ची सहायता तन, मन और धन से होती है ! हमारे ह्रदय में सच्ची सेवा भावना और आत्म बल है तो हमारे सेवा करने में कोई बाधक नहीं होता! देखा जाए तो समाज की सेवा करने का भाव ही हमारा प्रमुख आधार है यदि हम समाज सेवा का दृढ़ संकल्प कर लेते हैं तो चाहे रास्ते में आंधी तूफान आ जाए किंतु हम सफलता की ओर बढ़ते ही चले जाते हैं जरूरी नहीं आपके पास धन हो और मैं यह भी नहीं कहती कि समाज सेवा में धन की जरूरत नहीं होती किंतु दृढ़ संकल्पता और आत्म बल साथ हो तो सब संभव है ! समाजसेवा तो कई उद्देश्य को लेकर की जा सकती है शिक्षा के क्षेत्र में ,चिकित्सा के क्षेत्र में ,गरीबों की मदद कर आपातकाल में अन्न ,कपड़े ,दवाइयां सभी से इकठ्ठा कर हम कर सकते हैं आज हमारे सैनिक भाई क्या नहीं करते कश्मीर में इतनी बर्फ गिर रही है वहां जाकर लोगों की मदद करना उनकी जान बचा रहे हैं !वह अपनी परवाह बिल्कुल नहीं करते रेस्क्यू टीम कितनी खतरनाक स्थिति होते हुए भी खुद को जोखिम में डाल औरों की जान बचाते हैं !यह है समाज सेवा ! ऐसा नहीं है कि धन की जरूरत नहीं पड़ती पैसे की पल-पल जरूरत पड़ती है बहुत सी संस्थाएं भी है जो समाज की सेवा करती है बाढ़ आने पर लोगों तक खाने के पैकेट कपड़े दवाइयां संस्थाएं देती है किंतु जो निखालस दिल से प्रेम से सेवा की भावना लेकर काम करते हैं वे तन मन अपना लगा देते हैं ! प्रबंध संस्थान ने किया किंतु बांटने वाले तो उसके कार्यकर्ता ही होते हैं जो मदद की भावना से काम करते हैं समाज सेवा के लिए यदि हम कार्य करते हैं तो हम व्यक्ति छोटे परिवार समुदायों के साथ रहकर उनकी समस्याओं को समझते हैं तो ही हम उनकी मदद कर सकते हैं !मदर टेरेसा ने तो बिमार गरीब की इतनी सेवा की लोग उन्हें भगवान मानने लगे! इंफोसिस के मालकिन लक्ष्मी जी उन्होंने समाज की  सेवा प्रेमभाव और हिर्दय तल से की और अभी भी कर रही हैं  !आज वह पद्मश्री और अनेक सम्मानों से सम्मानित हैं !  समाज सेवा के लिए यदि हम कार्य करते हैं तो हम व्यक्ति छोटे परिवार समुदायों के साथ रहकर उनके समस्याओं को समझते हैं तो ही हम उनकी मदद कर सकते हैं! अतः मैं यही कहूंगी कि समाज सेवा में कर्म का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान  है!
- चन्द्रिका व्यास
मुम्बई - महाराष्ट्र
 व्यक्तियों के उत्थान, निरंतर प्रगति और रोजमर्रा आने वाली  समस्याओं का उचित व समय पर हल करने वाला समूह है। समाज सेवा करने वाली कयी संस्थाएँ जमीनी सतह पर प्रश़़ंसनीय काम करती हैं।  ऐसे कार्यक्षेत्र में कर्म ही प्रधान है। शब्दों द्वारा या कागजी किले बनाने से कुछ नहीं होता है। काम ही जरूरी है। सेवा वही जो की जाए ।जैसे गुरूद्वारों आदि में की जाती है। मदर टेरेसा जझसे अनेक लोग उदाहरण है।
- ड़ा.नीना छिब्बर
जोधपुर - राजस्थान
"सत्कर्मों  का लेखा जोखा कृपालु प्रभु के खाते में लेखबद्ध होता है"ऐसा हमारे पूर्वज कह गए  हैं. यह समाज-सेवा के पुनीत कर्म से ही संभव है. भोजन,वस्त्र,धन और अंगों का दान करना सर्वोपरि कर्म है.परहिताय सारे कर्म स्तुत्य हैं.
- डाँ. अंजु लता सिंह
दिल्ली
सेवा मनुष्य का  स्वभाविक प्रवृत्ति है।समाज सेवा एक  ऐसा पवित्र कर्म है जिसे श्रद्धा और नि:स्वार्थ भाव से करना चाहिए |सेवा ,परोपकार ,दूसरों की सहायता करना मनुष्य का प्रधान कर्त्तव्य है |चाहे वो सेवा ,ज्ञान दान ,अंग दान ,परिश्रम,वृक्षारोपण ,पैसे या अपने सामर्थ्य के अनुसार किसी भी रूप में हो समाज की सेवा हम किसी भी रुप से कर सकते हैं किंतु सेवा के बदले में अपेक्षा न हो,पुण्य कमाना न हो ,स्व लाभ के लिए कर्म न किये जाए |बिना प्रदर्शन के समाज सेवा करना ईश्वर की सेवा से भी उत्तम कर्म है|
          - सविता गुप्ता 
        राँची - झारखंड
समाज सेवा का अर्थ हीं है घर से बाहर निकल कर अपने कर्म से समाज को लाभ पहुंचाना। बिना कर्म के तो सेवा कभी नहीं हो सकती । ऐसे भी कर्म को प्राथमिकता दी जाती है । उसके लिए फल की चिंता नहीं करनी है । फिर समाज सेवा तो धार्मिक कार्य है । अपने लिए पुण्य कमाने का । लेकिन आज कल तो उसके लिए भी कोई जल्दी आगे नहीं बढ़ता ।
- संगीता गोविल
पटना - बिहार
हमारा जीवन सफल और सार्थक तभी कहा जा सकता है,जब हमें औरों से मान-सम्मान मिले। यही तभी संभव है जब हम औरों के हितैषी बनें।उनके दुःख, संकट में काम आवें। मददगार बनें। यहीच सहयोग और सेवा भाव है। यही समाज सेवा है। यही कर्म है। सेवा और सहयोग करने वाले को समाज में सम्मान मिलता है। धर्म में इसे सत्कर्म और पुण्य कर्म माना गया है। हमारे आसपास, समाज मे,पड़ोस में,परिचितों में ऐसे बहुत लोग हैं जो मुश्किलों में जी रहे होते हैं,लाचार हैं,बेबस हैं। हमें ऐसे लोगों की अपनी सामर्थ्य के अनुसार यथासंभव मदद करनी चाहिए। सहयोग और सेवा से हर मुश्किलों का सहज समाधान हो सकता है। ऐसा हरेक को मानकर
चलना चाहिए।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
 गाडरवारा - मध्यप्रदेश

            " मेरी दृष्टि में " कर्म दो प्रकार के होते है । एक तो जिस कर्म से अपेक्षा हो या कुछ प्राप्त होता हो । दूसरा कर्म , जिससे कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा ना हो यानि दूसरा कर्म को समाज सेवा की श्रेणी में रखा जा सकता है । आजकल तो समाज सेवा में भी उद्देश्य या इच्छा का भी समावेश स्पष्ट नज़र आता है ।
                                                  - बीजेन्द्र जैमिनी


Comments

  1. जी मैं जेमिनी जी की बातों से पूर्णतः सहमत हूँ । उसके नाम पर ही आजकल NGO की परंपरा निकल पड़ी है । संगीत गोविल

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