क्या ईर्ष्या से स्वयं का ही नुकसान होता है ?

ईर्ष्या से किसी का कोई लाभ होता देखा है ? फिर भी ईर्ष्यालु अपना व दूसरों का नुकसान करने में सबसे आगे रहते हैं । सबसे बड़ीं बात यह है कि अपना नुकसान कितना भी बड़ा हो जाऐ । परन्तु सामने वाले का नुकसान अवश्य करते हैं । यह ईर्ष्यालु की खासयित होती है । यहीं " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । आये विचारों को भी देखते हैं : -
ईर्ष्या  एक  नकारात्मक  संवेग  है।यह  एक भावनात्मक  पहलू है  जो शरीर  मे अपनी  सोच  के  कारण  उत्पन्न  होती है। इंसान  की सोच  व्यवहार  के जन्म दाता है। यदि  तुलनात्मक  विचार  मन  मे उठे  तो  वह  ईर्ष्या  का  रूप  निश्चित  ही  ले लेगा  चूंकि  भावना  आत्मगत  है सबसे  पहले  स्वयं  को  नुकसान  पहुंचाएगी । उसके  बाद  आसपास  के  वातावरण  को  दूषित  करेगी ।
असफलता  धीरे-धीरे  दरवाजा  खटखटाने  लगती है।
तरह-तरह  के  मानसिक  और शारीरिक  रोग  शरीर  मे  होने  लगते है  ईर्ष्या  से क्रोध  बढने  लगता  है व्यवहार  मे  कटुता  आ जाती  है इसलिए  बहुत  ही  नुकसान  पहुंचाती  है
- डाँ. कुमकुम  वेदसेन 
मुम्बई - महाराष्ट्र
विल्कुल जब हम किसी के प्रति ईर्ष्या करते हैं उसका नुकसान सोचते है अनजाने में ही स्वयं का नुकसान उससे कर देते हैं। ईष्र्या एक खतरनाक बिमारी है इसका ईलाज है सकारात्मक सोच। किसी से ईष्र्या करना अपने लिए नुकसान को आमंत्रण देना है।  किसी से ईष्र्या करके उन्नत संभब नहीं पंरतु प्रेम से।
- हीरा सिंह कौशल
 सुंदरनगर मंडी- हिमाचल प्रदेश
हां ईर्ष्या के कारण स्वयं का नुकसान करता है मनुष्य यह जलन की भावना अपने पड़ोसी और परिवार दोनों के लिए अपने मन में धारणा बना लेता है। जोकि मनुष्य के विकास में बाधा उत्पन्न करती है वह स्वयं को शारीरिक और बाह्य दृष्टि से अपने को नष्ट करता है तरह-तरह की बीमारियों को निमंत्रण देता है। महापुरुष भी कहते हैं क्लेश से कर्मों का नाश होता है : -
१अविद्या-जागरूकता के अभाव में। 
२अस्मिता-अहंकार की अनुभूति।
 ३ राग-आसक्ति 
४-द्वेष-घृणा
 ५-अभि निवेश।
 यह पांच कलेश है। इन्हीं के 5 कर्मों के जाल में मनुष्य उलझा रह जाता है। ऐसी विचित्र पहेली है, जब विवेक का ज्ञान भी प्रकाश हीन हो जाता है।
- प्रीति मिश्रा 
जबलपुर - मध्य प्रदेश
ईष्या ख़ुद को जलाती है दूसरों को नही ।  ईर्ष्या एक ऐसा शब्द है जो मानव के खुद के जीवन को तो तहस-नहस करता है औरों के जीवन में भी खलबली मचाता है। यदि आप किसी को सुख या खुशी नहीं दे सकते तो कम से कम दूसरों के सुख और खुशी देखकर जलिए मत।   यदि आपको खुश नहीं होना है न सही मत होइए खुश, किन्तु किसी की खुशियों को देखकर अपने आपको ईर्ष्या की आग में ना जलाएं। अक्सर समाज में देखा जाता है कि कोई आगे बढ़ रहा है,किसी की उन्नति हो रही है,  नाम हो रहा है किसी का अच्छा हो रहा है तो अधिकांश लोग ऐसे देखने को मिलेंगे जो पहले यह सोचेंगे, कैसे आगे बढ़ते लोगों की राह का रोड़ा बना जाए। उनको कैसे नीचा दिखाया जाए। कैसे समाज में उनकी मजाक बने और कैसे उनकी खुशियां छीनी जाए। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो किसी को आगे बढ़ता देख किसी की उन्नति होते देख आनंद  का अनुभव करते हैं या खुश होते हैं। मेरा मानना है कि यदि आप किसी की खुशियों से खुश  होकर उसे और आगे बढ़ने का प्रोत्साहन देंगे तो इससे दो फायदे होंगे एक तो समाज में आपकी छबि अच्छी बनेगी दूजे आपको एक अंदरूनी खुशी का एहसास होगा और  एक सकारात्मक ऊर्जा का विकास अपने आप आपके अन्दर होगा।  इसे इंसानी कमजोरी कह लीजिए या कुछ और पर सच यह है कि बहुत सारे दुखों का कारण हमारा अपना दुःख  ना होकर दूसरे की खुशी होती है। आप इससे ऊपर उठने की कोशिश कीजिए। आपको सिर्फ अपने आप को आगे बढ़ाते रहना है और व्यर्थ की तुलना के पचड़े में नहीं पड़ना है। तुलना नहीं करनी है। 
आप ईर्ष्या करने के बजाय सामने वाले इंसान के गुणों को अपनाएं और जीवन में उनसे कुछ सीखें और लाभ लें   ताकि आपका जीवन भी खुशहाल हो। ना कि सिर्फ और सिर्फ जलन में आपकी पूरी जिंदगी ऐसे ही व्यर्थ चली जाए। 
अफ़सोस की बात है आज के समाज की कि लोग किसी के दुःख को देखकर तो बहुत दुखी होते हैं सहानुभूति जताते हैं लेकिन किसी की खुशी को देखकर खुश नहीं होते। किसी की उन्नति से किसी के गुणों से जलते हैं और दुखी होते हैं और पुरा प्रयास करते हैं कि सामने वाले का बुरा हो। हम सभी को इससे बचना चाहिए। जलन से अपने आप को बचाये 
आप दूसरों से जल कर अपना अहित करने के बजाये स्वंयम को निखारे कुछ नया करें जले नही , यह आपके समूचे व्यक्तिव  को नस्ट कर जायेगी । 
- डॉ अलका पाण्डेय
मुम्बई - महाराष्ट्र
बिलकुल ईर्ष्या से स्वयं का ही नुकसान होता है ।दूसरे की तरक्की,उपलब्धियों से इंसान ईर्ष्या करने लगता है ।यह एक सामान्य बात है।लेकिन यह एक नकारात्मक सोच है ।इसे बढ़ावा नहीं देना चाहिए ।ईर्ष्या ऐसी आग है जिसमें व्यक्ति का विवेक भस्म हो जाता है।दूसरों की तरक्की या उपलब्धी से ईर्ष्या करने के बजाय उस व्यक्ति की काबिलियत को स्वीकार करते हुए उसकी तारीफ करनी चाहिए ।साथ ही अपने को भी तारीफ करने योग्य बनाने का प्रयास करना चाहिए ।मेहनत से हम भी उस लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं जिसे दूसरों ने प्राप्त किया है ।अतः ईर्ष्या की जगह खुद को श्रेष्ठ बनाने के लिए कटिबद्ध होना चाहिए ।
   - रंजना वर्मा
रांची - झारखण्ड
ईर्ष्या एक नकारात्मक सोच है जिसका जन्म असंतुष्टि से होता है . ईर्ष्या व्यक्ति का विवेक हर लेती है व उसे तिल तिल जलाती है और मानसिक रूप से बीमार कर देती है . ईर्ष्या से ग्रसित व्यक्ति हर समय बुरा सोचता है व अन्य की तरक्की , प्रगति , खुशी पर खुश होने की जगह अप्रसन्न होता है व जलता है . यदि मनुष्य उन हालातों मैं खुश रहना सीख ले जिनमें वो वर्तमान मैं जी रहा है , तो ईर्ष्या समाप्त हो सकती है . संतुष्टि ही ईर्ष्या नामक बीमारी का सरलतम निदान है .
- नंदिता बाली 
सोलन - हिमाचल प्रदेश
जी हाँ, यह बात बिल्कुल सही है कि ईर्ष्या से मानव का स्वयं अपना ही नुकसान होता है |मानव स्वभाव में प्रकृति प्रदत्त गुण,अवगुणों का मिश्रण होता है | व्यक्ति का मन सदैव दूसरों से तुलना किया करता है | वो कहते हैं ना कि ~ दूसरों की थाली में हमेशा घी ज्यादा दिखाई देता है | जिसके कारण व्यक्ति अपने मित्रों, परिचितों, पडौसी आदि की उन्नति सहन नहीं कर पाता है | और, जब व्यक्ति किसी से ईर्ष्या करता है तो वह उस व्यक्ति के प्रति अपने मन में जलन का भाव रखता है जिसके कारण वह स्वयं को प्राप्त सुख सुविधाओं के उपभोग से खुशियाँ नहीं मानता है वरन् दूसरे की उन्नति देखकर ही निरन्तर ईर्ष्या का भाव रखने के कारण मन ही मन कुढ़ता रहता है | निरन्तर जलन, कुढन के कारण व्यक्ति का मन अवसाद से घिर जाता है | दूसरों से जलन भाव रखने के कारण व्यक्ति स्वयं अपना ही खून जलाता है |व्यक्ति जिससे ईर्ष्या भाव रखता है, उसका तो कुछ भी नहीं बिगडता वरन् ईर्ष्यालु व्यक्ति स्वयं चिडचिडा होकर अपने तन, मन की शांति भंग कर बैठता है | हम जब भी दूसरों के प्रति कुंठाग्रस्त होकर कुछ बुरा सोचते हैं तो वह नकारात्मक सोच, विचार हमारे मन में गहरे उतरकर हमारे स्वास्थ्य को ही नुकसान पहुँचाते हैं | ईर्ष्यालु व्यक्ति शारीरिक और मानसिक रूप से बीमार हो जाते हैं |ऐसे व्यक्ति बात, बात पर झुंझला जाते हैं | क्रोधित हो जाते हैं | वे स्वयं को सर्वश्रेष्ठ समझने के कारण दूसरे व्यक्ति को व्यंगोक्ति द्वारा तानाकशी, छींटाकशी से आहत करने का प्रयत्न करते हैं |जिसके कारण उस व्यक्ति के साथ आपसी सम्बन्ध भी बिगड़ जाते हैं | व्यक्ति को ईर्ष्या भाव से बचने के लिए सदैव अपने से निम्न स्तर जीवन यापन करने वाले व्यक्तियों को देखना चाहिये और ईश्वर को कोटिशः धन्यवाद करना चाहिए कि प्रभु प्यारे ने उसे इतना सुन्दर जीवन देकर कृतार्थ किया है | ऐसे करूणामयी उस प्रभु का लख, लख धन्यवाद है |
- सीमा गर्ग मंजरी
 मेरठ - उत्तर प्रदेश
जी बिल्कुल वह अपने अंदर की ऊर्जा ईर्ष्या में लगा देता है और जीवन को स्थिर कर अपने विकास के रास्ते बन्द कर लेता है ।उसे बस सामने वाले से अनावश्यक तुलना की दिखती रह जाती है इससे उसकी अपनी संतानें आदि भी कितनी भी योग्य श्रेष्ठ हो जाये कम ही दिखती हैं अतः जितनी जल्दी हो सके ईर्ष्या को त्याग दे अन्यथा यह तन और मन दोनों का नाश कर देगी पूरा परिवार ही अपने वास्तविक रास्ते से भटक जायेगा ।
- शशांक मिश्र भारती 
शाहजहांपुर - उत्तर प्रदेश
ईर्ष्या  एक  नकारात्मक  भावना   और  सोच  है  । ईर्ष्यालु  व्यक्ति  से  दूसरों  की  खुशी  और  उन्नति  बर्दाश्त  नहीं  होती  ।  वह  सोचता  है  कि  जो  भी,  जितना  भी  अच्छा  हो,  वह  सिर्फ  और  सिर्फ  मेरा  ही  हो,  अन्य  किसी  का  भी  नहीं  ।  दूसरों  का  कुछ  भी  अच्छा  होना  उसे  प्रतिपल  ईर्ष्या  की  अग्नि  में  जलाता  है  ।  वह  उसके  बुरे  के  लिए  सोचता  है,  षड़यंत्र  रचता  है  कि  येनकेन  प्रकारेण  उसका  बुरा  कैसे  किया  जाय  ।  ऐसा  क्या  करे  कि  जिससे  उसकी  सारी  खुशियाँ  मिट्टी  में  मिल  जाय  ।  यह  सोच  ईर्ष्यालु  को  इतना  परेशान  कर  देती  है  कि  उसका  खान-पान,  सुख-चैन  सबकुछ  हवा-हवाई  हो  जाता  है  ।  चिड़चिड़ापन,  डिप्रेशन,  किसी  भी  काम  में  मन  न  लगना,  ढंग  से  बात  न कर  पाना  आदि  परेशानियां  उसे  घेर  लेती  हैं  जिसके  कारण  वह  एकाकी  होने  लगता  है,  रिश्ते  बिगड़ने  लगते  हैं  ।  धीरे-धीरे  ये  सब  भयंकर  बीमारियों  के  रूप  में  उभरने  लगते  हैं  ।  शारीरिक  और  मानसिक  रूप  से  रोगग्रस्त  होकर  ऐसे  व्यक्ति  स्वयं  का  जीवन  बरबाद  कर  लेते  हैं  ।  अतः " सर्वे  भवंतु  सुखिन : सर्वे  संतु  निरामया .......।"  वाली  सकारात्मक  सोच  रखनी  चाहिए  । 
          - बसन्ती पंवार 
              जोधपुर  - राजस्थान 
ईर्ष्या तू न गयी मन से....... ईर्ष्या एक मनोविकार है जिसकी जड़ें गहरायी तक फैली हुयी रहतीं हैं । व्यक्ति लाख कोशिश करने के बाद भी  इससे अछूता नहीं बच पाता । इसके चलते ही क्रोध , वैमनस्य हमारे विचारों व वाणी में झलकने लगता है । कहते हैं न कि किसी की तरफ एक उँगली करो तो तीन उँगलियाँ अपनी तरफ होतीं है । ठीक ऐसा ही ईर्ष्या के मामले में भी होता है दूसरों के प्रति जितनी जलन हमारे मन में होगी उससे हम स्वयं ही झुलसेंगे । ईर्ष्या एक नकारात्मक विचारधारा है इससे जितना संभव हो दूर रहना चाहिए । कहा भी गया है *बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय*
जैसा व्यवहार आप अपने लिए चाहते  हैं वैसा ही आपको दूसरों से करना चाहिए अतः ईर्ष्या को त्याग कर मन में सौहार्दपूर्ण विचारों को ही स्थान देना चाहिए । सबका हित करो जिससे अपने आप ही आपका हित होगा ।
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
ईष्या से स्वंयम का ही अहित होता है यदि कभी जलन और ईर्ष्या के बीच रस्साकशी हो तो ईर्ष्या की निश्चित रूप से जीत होगी। हालांकि इन शब्दों का उपयोग परस्पर एक दूसरे के बदले में किया जाता है, पर दोनों के बीच एक अंतर है। जलन मामूली होती है, और अक्सर अधिक दिखाई देती है। ईर्ष्या किसी व्यक्ति की आत्मा से जोंक की तरह चिपक जाती है और काफी मानसिक ऊर्जा का क्षरण कर देती है। स्वाभाविक रूप से, गहरी पैंठ बनाए हुए और बिना बोले हुए, ईर्ष्या की पहचान महसूस करने वाले या दूसरों के द्वारा आसानी से नहीं की जा सकती। इंसान विपरीत भावों के जाल में उलझता हुआ जीता है। उसके कुछ भाव सकारात्मक होते हैं और कुछ नकारात्मक। प्रेम, सद्भाव, सेवा और त्याग की प्रवृत्ति जहां जीवन के उत्थान का कारण बनती है, वहीं दूसरी ओर क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष जैसे भाव मानव को कितना नुक्सान पहुंचाते हैं, इसकी अनुभूति उसे खुद भी नहीं हो पाती। इनमें ईर्ष्या एक नकारात्मक भाव है, जिसकी तीव्रता कभी मंद तो कभी तेज प्रतीत होती है। कहीं-कहीं तो अत्यधिक ईर्ष्या से ग्रस्त प्राणी दूसरों को हानि पहुंचाने के साथ स्वयं अपने विनाश की ओर अग्रसर होता जाता है। यदि यह मानें कि चिंता चिता के समान है तो ईर्ष्या उसकी अग्नि है। तभी तो इसे जलन की संज्ञा दी जाती है। स्वभाव में ईर्ष्या का पुट कहीं न कहीं अपने आप में छोटेपन का परिचायक है। मनुष्य प्रत्येक क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता, परंतु अविवेकी लोग यह मानने लगते हैं कि मैं सबसे अग्रणी हूं, मुझसे अच्छा या योग्य और कोई नहीं। ऐसी परिस्थिति में जब वे वह नहीं प्राप्त कर पाते जो दूसरे आसानी से भोग रहे होते हैं तो वे ईर्ष्या के भाव से ग्रस्त होने लगते हैं। यह भाव उनकी प्रकृति व संस्कार का हिस्सा बन जाता है। फिर ईर्ष्या जन्म देती है क्रोध और घृणा को, जो और भी भयंकर परिणाम का कारण बनते हैं। समय रहते हमें हमारी ये प्रवृतियाँ सुधारना चाहिये वर्ना भंयकर परिणामहोगे 
और आप सबसे कट कर रह जाओगे 
- अश्विनी पाण्डेय 
मुम्बई - महाराष्ट्र
मानव स्वभाव विचित्रता और विविधताओं से भरा हुआ है। स्वभाव, उसमें निहित गुण और अवगुण के साथ, उनकी संख्या और मात्रा से तय होता है।  स्वभाव से चरित्र बनता है और यही चरित्र परिवार और समाज में पहचान और प्रतिष्ठा देता है।  अतः कह सकते हैं कि व्यक्ति में अच्छे गुण ,अच्छा स्वभाव, अच्छा चरित्र,समाज व परिवार में अच्छी प्रतिष्ठा और मान-सम्मान देता है। जबकि दुर्गुण इससे विपरीत काम करते हैं।  स्वभाव में ईर्ष्या का होना दुर्गुणों में से एक का होना है। यह प्रतिस्पर्धा में स्वयं को पीछे रह जाने की विकलता समझ लेने की जलन होती है जो मन को और फिर मन से तन को जलाती चलती है। समय रहते यदि हम सजग रहकर संभले नहीं तो इससे हम अपना बहुत बड़ा नुकसान कर सकते हैं।
एक तो इससे हम अपने में उपलब्ध योग्यता को ना तो सामर्थ्यवान बना पायेंगे और दूसरा ईर्ष्या से  घुट-घुटकर , जल-जलकर अपने मन और तन को जलाकर कमजोर और रोगी भी बना लेंगे।  जिससे हमारी योग्यता तो विफल होगी ही हमारा जीवन भी दुःखमय,लाचार और समस्याओं से भर जायेगा। अतः हमें हर हाल में ईर्ष्या से बचाते हुये अपनी योग्यता को निखारने का अथक प्रयास करते रहना है। प्रतिस्पर्धा को साहस और संकल्प का प्रतीक बनाना है,जो हमें निपुण भी बनायेगा और कामयाब भी। यही कामयाबी हमें परिवार और समाज से मान- सम्मान पाने के लायक बनायेगी।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
हां ! इससे नुकसान तो स्वयं को ही होता है क्योंकि जब हम किसी की योग्यता और उसकी तारीफ  हमेशा दूसरों से सुनते हैं तो हमें जलन होती है और यही जलन की भावना हमारी मनोमस्तिष्क पर घर कर जाती है तब साधारण जलन की भावना विकराल ईर्ष्या का रूप धारण कर लेती है !
ईर्ष्या एक भावना ही तो है सकारात्मक भाव पनपते हैं तो हमें क्रोध द्वेष जलन की भावना आती ही नहीं है ! उपर्युक्त सभी सोच हमारी नकारात्मक भावनाओं को लेकर ही पनपती है ईशा की भावना सभी में होती है विशेषकर बचपन से ही होती है घर में दो भाई अथवा दो बहने एकदम अथवा कुछ ज्यादा और कुछ कम रंग में ,सुंदरता में  एवं अन्य गुणों में भिन्न है और दोनों में तुलना होती है तब ईर्ष्या की भावना आ जाती है ! बचपन से हमें बच्चों को किसी से तुलना ना करें और विशेष अपने गुणों को भी पढ़ के कि उसके पास क्या है जो दूसरे के पास नहीं है सिखाना चाहिए !
2)दुनिया में कितने प्रकार की प्राप्ति है जिसमें सकारात्मक सोच सबसे बड़ी है सोच हमारी सकारात्मक ही हो !
3)दूसरे से ईर्ष्या करने से अच्छा अपनी तरक्की की तरफ ध्यान देंगे तो हमारे पास ईर्ष्या करने का ध्यान और समय ही नहीं होगा !
4) यदि हम ईर्ष्या करते हैं तो हमें क्रोध भी बहुत आता है और यह तो सभी जानते हैं कि क्रोध का अस्त्र चालक को ही घायल करता है यानिकी क्रोध , नफरत का जहर हम पीते हैं और दूसरे की नुकसान होने या मरने की कामना करते हैं ! 
अंत में कहूंगी ईर्ष्या 
 करने से अच्छा है हम सकारात्मक सोच रखें और अपनी तरक्की की ओर ध्यान दें !
- चन्द्रिका व्यास
मुम्बई - महाराष्ट्र
 हां जी   ईष्या से  स्वयं का नुकसान होता है  ईष्या एक नकारात्मक भाव है जो किसी भी मनुष्य को स्वीकार नहीं होता जो दूसरों को स्वीकार नहीं होता वह ईष्या भाव क्या ?स्वयं को सुख दे पाएगा ,हरगिज़ नही ।ईष्या  स्वयं को ह्रास की ओर ले जाता है  अर्थात हमारे पास जो ऊर्जा (ज्ञान) है ,वह स्वयं और दूसरों को सुख देने के अर्थ में है ,ना कि दुख देने के अर्थ मे ।नासमझी से ऊर्जा (ज्ञान )का उपयोग हम किसी की अपमान ,घृणा ,उपेक्षा में करते हैं, तो स्वयं का अपमान होता है। ईष्या करते हैं तो लोग हमें घृणा करेंगे ,उपेक्षा और निरर्थक निंदा करेंगे ।अतः ईष्या स्वयं को मानसिक असंतुष्टि देता है, जबकि हर मनुष्य संतुष्टि और स्नेह ,सम्मान भाव से जीना चाहता है। अतः ईष्या किसी से नहीं करना चाहिए। जिससेे स्वयं का नुकसान होता है ।दुखी व्यक्ति ही  ईष्या करता है ।सुखी व्यक्ति सुख बढ़ता है ।दुखी व्यक्ति दुख बढ़ता है । जिसके पास जो होता है वही बढ़ता है।
 - उर्मिला सिदार 
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
ईर्ष्या करना मनुष्य के स्वभाव में है। यदि ईर्ष्या स्वस्थ और सही रूप में हो तो वह विकास में सहायक बनती है, पर ऐसा होता नहीं। अधिकतर व्यक्ति दूसरों का ऐश्वर्य, समृद्धि, सफलता,नाम देख कर ईर्ष्या करने लगता है। जिससे ईर्ष्या करता है वह तो निर्विकार भाव से अपना कर्म करता चलता है और अपनी सफलता, विकास के क्रम को अबाध गति से आगे बढ़ाता रहता है, पर ईर्ष्या करने वाला अपने अंदर नकारात्मकता की भावना विकसित कर लेता है। ऐसे में अपने कर्मपथ से विरत होकर केवल ईर्ष्या करना स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालता है, जो स्वयं का ही नुकसान होता है।
          ईर्ष्या नहीं, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा होनी चाहिए ताकि हम व्यक्तित्व का विकास कर सकें।
- डा० भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
ईर्ष्या करना मनुष्य का स्वाभाविक क्रिया है|हाँ ,ईर्ष्या से हम अपने आपको ही नुक़सान पहुँचाते हैं |जलन और ईर्ष्या घुन की तरह हमें खा जाती हैं |हम भीतर ही भीतर सुलगते रहते हैं जो हमारे स्वास्थ्य पर ,परिवार पर प्रतिकूल असर डालती है |यह एक कमजोरी है ,जुनून है जिससे मनुष्य का पतन निश्चित है । इसलिए अक़्लमंद इंसान दूसरों की उपलब्धियों सफलताओं पर ईर्ष्या करने के बदले;खुश होकर उनसे सीखने की कोशिश करता है|
                    - सविता गुप्ता 
                  राँची - झारखंड
जी हाँ  , भारतीय आध्यात्म , दर्शन  , धर्मग्रन्थों  में ईर्ष्या को मानव जीवन  की इंद्रियों के लिए जहर बताया है ।। जिस व्यक्ति में ईर्ष्या का भाव होता है । उसका  मानसिक - शारीरिक स्वास्थ्य असमय ही खराब हो जाता है ।। वह अस्वस्थ हो जाता है । ईर्ष्या से ग्रसित लोग का यह दुर्गुण उनके स्वभाव से पता चल जाता है । उनमें अपना  तेजस्व , ऊर्जा , शक्ति , साकारत्मक सोच आदि का हनन हो जाता है । शरीर रोगग्रत हो जाता है ।  इन नकारात्मक  दुर्गुणों   से मनुष्य की पाचन प्रणाली में रसायनिक परिवर्तन होने से पित्त बढ़ जाता है । पित्त जो मानव के हृदय , मस्तिष्क  की कोशिकाओं  बुद्धि का नष्ट कर देती हैं । ऐसे लोगों में पथरी , जलन , यकृत आदि के  रोगों को जन्म देता है । असंतुलित पित्त रक्त में घुलकर भूख न लगने जैसी बीमारी हो जाती है । ईर्ष्या में  रहनेवाला व्यक्ति धीरे - धीरे समय से पहले बूढा दिखने लगता है । अपने विवेक को खो बैठता है । यह आसुरी वृत्ति , अवगुण मानव को दुख ही देता है । इसलिए हमारे मनीषियों ने ईर्ष्या के रास्ते से जाने रोका है । अतः हमें दैवीय गुणों  जैसे अंहिसा परिवार के दया , प्रेम दया आदि को संस्कारो में अपनाना चाहिए । योग विद्या को माने । आप 1 महीना योग प्रशिक्षक से योग  सीखें । आपका  सकारात्मक सोच होने लगेगी । रोग को भगाने में सहायक होगा ।
 हम अपना अनमोल मानव जीवन को ईर्ष्या के वशीभूत
  होकर  न  खत्म करें । हमें दूसरों की खुशियों को देख जे कुढ़न , जलन नहीं होनी चाहिए । अगर  समाज में  तुम्हारे पहचान का व्यक्ति सफलता का शिखर छूता है । जलने की जरूरत नहीं है । बल्कि उसकी खुशी को बढ़ावा देना चाहिए । कहने का मतलब यही है कि ईर्ष्या हमारी  जिंदगी को जलाती है । हमारा स्वभाव झगड़ालू हो जाता है । हम दूसरों से जरा - जरा बात पर लड़ाई करते हैं । कलह करना किसी को अच्छा नहीं लगता है  । हम अपने भाई  बहनों , दोस्तों की उन्नति देख के जलते हैं । अतः हमें इस विनाश कारी जहर को जीवन से उगलना होगा । तभी हम स्वस्थ जिंदगी जी सकते हैं । उँचाइयों को पा सकते हैं । अंत में दोहे में मैं कहती हूँ : -
  हम  ईर्ष्या की आग में ,  जलकर न होय  राख ।
अपनाएँ संस्कार हम , मिले हमें जग साख । 
- डॉ मंजु गुप्ता 
मुंबई - महाराष्ट्र
ईर्ष्या मानव का ऐसा गुण है जो नहीं चाहते हुए भी उभर जाता है । खास कर जब अपनी मनपसंद चीज दूसरे के पास दिखती है । लेकिन यह स्वभाव अपने अंदर की शक्ति का ह्रास करता है । दिमाग में केवल उसे पाने की होड़ लग जाती है , जो विकृति उत्पन्न कर देती है । विकृतियाँ गलत दरवाजे को खोलतीं हैं । निश्चित रूप से नुकसान अपना ज्यादा होता है, क्योंकि यह हिंसात्मक प्रवृति को जन्म देती है । व्यक्ति गर्त में गिरता जाता है ।
- संगीता रानी
पटना - बिहार
 लड़की में लगे घुन की भांति दूसरों से ईर्ष्या करना अपने तन और मन दोनों का नुकसान है। दूसरा व्यक्ति मुझसे आगे क्यूँ  निकल गया, उसके पास मुझसे ज्यादा क्या- क्या है, मैं आगे निकल कर उसे पीछे करके चैन कैसे पाऊँ। यह जो क्यों-क्या- कैसे का ताकने- झांकने का खेल है यह ईर्ष्या को जन्म देता है। इसमें दूसरे व्यक्ति से आगे निकलने की सोच तो किसी हद तक ठीक है लेकिन उसे पीछे करने की जो मन में होड़ लगी रहती है यह ईर्ष्या खतरनाक है। ईर्षालू व्यक्ति की स्थिति डांवाडोल रहती है वह कभी कोई मंजिल हासिल नहीं कर सकता। 
- संतोष गर्ग
मोहाली - चंडीगढ़
इस बात को जानते सभी है ,लेकिन मानते नहीं है ।मानव में अनेक गुण और अवगुण का समावेश है । ईर्ष्या भी एक प्रकार की स्वभावाविक प्रकिया है जो जरा _ मरा हो तो चलेगा,,मगर हद से ज्यादा होने पर यह बहुत  भयानक परिणाम दे सकता है । ईर्ष्या से व्यक्ति स्वयं को हीं हानि पहुंचाता है,, दूसरे का कुछ नहीं बिगड़ता है । हां ,कभी_ कभी ईर्ष्यावश  हम कुछ "आऊट आफ टै्रक" काम भी कर जाते हैं ,जो अच्छा होता है , परन्तु ईर्ष्या से व्यक्ति अपना खून जला कर अपना मानसिक ह्रास हीं करता है हासिल कुछ नहीं होता है ।"संतोषम परमं सुखम" पर हमें ध्यान देना चाहिए,,मन को वश में रखने की कोशिश करें तो बेहतर है। ईर्ष्या से  खुद का नुक़सान करके कोई फायदा नहीं है यह बात अक्षरशः सत्य है ।
- पूनम देवा
पटना - बिहार

" मेरी दृष्टि में " ईर्ष्या से स्वयं का नुकसान अवश्य होता है । क्योंकि वह विश्वास के पात्र नहीं रह पाता है । वह सबके सामने जंग जाहिर हो जाता है । इसकी भर पाई कभी नहीं होती है । यह ईर्ष्यालु का सबसे बड़ा नुकसान होता  है ।
                                                   - बीजेन्द्र जैमिनी




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