लघुकथा उत्सव : पिता

भारतीय लघुकथा विकास मंच द्वारा इस बार  " लघुकथा उत्सव "  में  " पिता " विषय फेसबुक पर रखा गया है । जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के लघुकथाकारों ने भाग लिया है । विषय अनुकूल  अच्छी व सार्थक लघुकथाओं के लघुकथाकारों को सम्मानित करने का फैसला लिया गया है । सम्मान भी सुगनचन्द मुक्तेश  जी  के नाम पर रखा गया है । जिन का जन्म 03 मार्च 1933 को गांव भूकरका ( हनुमानगढ़ ) राजस्थान में हुआ है । जिन की शिक्षा एम. ए. हिन्दी है । " स्वाति बूँद " लघुकथा संग्रह 1966 में प्रकाशित हुआ है । जिसमें 60 लघुकथा शामिल हैं । जिस का दूसरा संस्करण 1996 मे अन्य 30 लघुकथा के साथ प्रकाशित हुआ है ।  इसके अतिरिक्त उपन्यास , यात्रा - वृत्तान्त , कविता संग्रह , बाल साहित्य सहित लगभग दो दर्जन से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हुईं है । कुछ पुस्तकें हरियाणा साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित हुई हैं । जैमिनी अकादमी द्वारा इन को , इनके जीवन काल में ही सम्मानित किया था । इन की मृत्यु 16 मार्च 2006 को हुई है । अब सम्मान के साथ लघुकथा का भी पढें : -
जीत
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"अब हमें अपने घर वापस चलना चााहिये। कोरोना के भय से कब तक हम यहाँ विदेश में पड़े रहेंगे ?"  एकांश की माँ ऐश ने कहा।
"ऐसी परिस्थिति में हमारा यहाँ रहना ज्यादा उचित है श्रीमती जी। बेहद नाजुक और भयावह परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है !" एकांश के पिता एकनाथ ने कहा।
अचानक से आर्थिक मंदी का सामना करने वाली अनेकों कम्पनियों ने अपने कर्मचारियों की छंटनी कर दिया। एकांश की नौकरी भी उसी क्रम में छूट गई। एक तरफ विदेशी जमीं , मकान का लोन तो दूसरी तरफ़ उसी का आर्थिक सम्बल लिए बुजुर्ग माता-पिता, पत्नी एकता और 5 साल की बेटी ईशा थी। मल्टीनेशनल कम्पनी में उच्च पदासीन एकांश अन्य कई कम्पनियों में साक्षात्कार दे रहा था। लेकिन सफलता हासिल नहीं होने के कारण उसमें चिडचिडापन आता जा रहा था।
एकांश पर आर्थिक भार कम करने के लिए उसकी माँ ऐश अपने पति से देश वापस लौटने की चर्चा छेड़ती है...,-"हम घर जाकर गाँव की जमीन बेचकर एकांश की मदद कर सकते हैं।"
"जमीन-गहना बेचकर मदद करना आखिरी आधार होगा। यहाँ एक महाविद्यालय में मुझे हिन्दी प्रख्याता की नौकरी मिल गई है।" एकनाथ ने कहा।
"आपका कोचिंग बंद करवाकर आराम करने के लिए मैं अपने साथ लेकर आया था। मुझे आत्मग्लानी हो रही है।" एकांश ने कहा।
"हो सकता है कुछ महीने या या एक-दो साल मुझे यह नौकरी करनी पड़े जैसे तुम्हें तुम्हारी पसंद की नौकरी लग जायेगी ,मैं पुन: आराम करने लग जाऊँगा। असमय लाठी का सहारा लेना वक्त को बर्दाश्त नहीं हो पाया..।" एकनाथ ने ठहाका लगाते हुए कहा।
"सुनो जी! मैं भी घर में बने खाने का ऑर्डर लेना चाहती हूँ। वर्षो पहले तुमने मुझसे वादा लिया था अपनी कसम देकर कि मैं कभी नहीं कमाऊँगी।" ऐश ने कहा।
"आकस्मिक युद्ध में तुम भी योद्धा होने का सुख उठा ही लो! तुम्हें अपनी कसम से मुक्त करता हूँ।" एकनाथ ने कहा।
"चलिए माँ बाज़ार से खरीदकर लानेवाली सामग्री की सूचि बनाते हैं.. मैं भी आपकी सहायिका बनना चाहती हूँ। बहती गंगा में आचमन कर ही लूँ।" एकता ने कहा।

- विभा रानी श्रीवास्तव
पटना - बिहार
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गर्व
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आज घर में एक अजीब सा माहौल था । ना तो लोग खुश थे और न ही उदास, लेकिन सभी के चेहरे पर एक खामोशी थी । क्योंकि आज अवि के दसवीं का रिजल्ट आने वाला था। सुमित ( अवि का पिता ) भी कुछ गंभीर थे ।  
किन्तु बाबूजी ( अवि के दादाजी ) माहौल को भांपते हुए-"अरे तुम लोग इस तरह से क्यों चिंतित हो ? रिजल्ट अच्छा ही आएगा । बहुत तेज है हमारा अवि । मैंने जिस तरह से कहा वो उसी प्रकार तैयारी किया था ।"
सुमित मन-ही-मन -'पर बाबूजी आपको नहीं मालूम आजकल की पढाई पहले वाली नहीं है ।'
रिजल्ट देखने के लिए कम्प्यूटर खोलकर बैठा था अवि । कम्प्यूटर देखते-देखते अवि ने पूछा--"दादा जी ! आप लोगों के समय में भी इतना  कम्पीटिशन था क्या ?"
"नहीं बेटा उस समय न तो इतना कम्पीटिशन  था  और न ही इतनी सुविधा थी । पढते वही थे जिसमें पढने की ललक होती थी ।"
तभी अवि की आंखों में एक चमक आ गई और  
सुमित से -"पापा रिजल्ट आ गया ।"
सुमित और बाबूजी प्रश्नवाचक चिन्ह लिए उसकी तरफ देखने लगे ।
अवि-"94% से ऊपर है ।"
सुमित और बाबूजी दोनों एक साथ बोल पड़े -- "मुझे ये विश्वास था ।"
बाबूजी- "मुझे अपने पोता पर गर्व है ।"
अवि दादा जी से लिपटते हुए - "आखिर पोता किसका हूँ ? आप मेरे आदर्श हैं । यू आर ग्रेट दादा जी ।" 
सुमित मुस्कुराते हुए दोनों को देख रहे थे ।

- पूनम झा 
कोटा - राजस्थान
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मैं वस्तु नहीं 
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        काॅफी हाऊस में काॅफी पीते हुए सौरव ने रूही से कहा, "अब तो हमें तीन साल नौकरी करते हो गए हैं। तीन साल से ही हम दोनों एक दूसरे को जानते समझते हैं। अब तो अपने पिता जी से हमारी शादी की बात करो।
      "मेरे पिता जी को कोई ऐतराज नहीं होगा।सौरव तुम अपने पापा से साफ बात कर लो।हमारा मध्य वर्गीय परिवार है।मेरे पिता जी एक मजदूर हैं और उनकी पूंजी इमानदारी है।मेरा सब कुछ मेरे पिता जी, जो मेरी मां भी है ।"रूही ने साफ शब्दों में कहा ।
                "मेरे पापा को तो तुम से मतलब है। उनका तेरे पिता जी  से क्या लेना देना कि वो मजदूर हैं। तुम पढ़ी लिखी,नौकरीशुदा ,सुन्दर युवती हो।"सौरव ने दो टूक कहा ।
         सौरव की बात सुनकर रूही आवाक् रह गई। उस ने पर्स से दो कप  काॅफी के पैसे निकाल कर टिप्स के साथ वेटर को दिये और सौरव से कटुता से कहा,मैं वस्तु नहीं हूँ जिस का मोल तुम आंक रहे हो।"हम गरीब हैं लेकिन बिकाऊ नहीं। 
         
 - कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब
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मुझे ही 
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अचानक तबियत बिगड़ने पर पापा को अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा। जांच रिपोर्ट देखते हुए,डॉ.साहब ने पूछा,"सुरेश तुम्हारे पिताजी ने एक किडनी किसे दान की"?
सुरेश की स्मृति में पिछले माह की घटना कौंध गयी,।जब उसने मोबाइल के लिए पापा से जमकर झगड़ा किया था और अगले दिन नया मोबाइल न मिलने पर घर छोड़कर जाने की धमकी दी थी।
अगले ही दिन पिताजी शाम को थके थके से घर लौटे थे और सौंप दिये थे रुपए उसके हाथों में,न कुछ कहा,न सुना।
डॉ. साहब ने कंधे पर हाथ रखा तो सुरेश इतना ही कह सका,"मुझे ही दी है किडनी,डॉ. साहब"

- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
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पिता का दिल
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फ़ोन लगातार बज रहा था...अजनबी नंबर देख विकास उठा नहीं रहा था।
घर में महज़ चार दिन का राशन ही बचा है..”आगे कैसे चलेगा चार लोगों का पेट?”सोच सोच कर चिंता में घुला जा रहा था।
शायद ,सेठ फिर से बुला रहा हो ?नए नंबर से फ़ोन कर रहा हो?अचानक यह बात दिमाग़ में कौंधीं और विकास फ़ोन लगा दिया -उस अनजान नंबर पर-“आपका एकांउट समाप्त हो चुका है कृपया रीचार्ज करने के लिए ...दबाए।”उस ओर से यह आवाज़ सुन कर विकास,मन मसोस कर रह गया।
रात के ग्यारह बजे एक बार फिर उसी नंबर से फ़ोन आते ही लपक कर विकास ने फ़ोन उठाया...क क कौन?
प्रणाम-बाबूजी!
मेरा नंबर कैसे मिला?
“आँखों से अश्रु धार बह कर पुराने गिले शिकवे को धो रहे थे।”
“लॉकडाउन में मेरी भी नौकरी चली गई है”-पिताजी!
हाँ-“मगर किस मुँह से आएँ।”मैं तो आपसे लड़ झगड़कर अपना हिस्सा का पैसा लेकर शहर आकर बस गया हूँ।आपसे ,भइया -भाभी ,सबसे नाता तोड़कर पाँच साल हो गए ,एक बार भी आप लोगों की सुध नहीं ली।
दूसरे तरफ़ से पिताजी ने कहा भइया से बोल कर तुम्हारा फ़ोन रीचार्ज करवा देंगे और बस का भाड़ा भी  पे :टी :एम करवा देंगे।कल हम सब तुमलोगों का इंतज़ार करेंगे “सबको लेकर यहाँ आ जाओ परिस्थिति ठीक होने के बाद में चले जाना,”तुम्हें मेरी क़सम।”

- सविता गुप्ता
राँची - झारखंड 
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प्यार  
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दिग्विजय के पिता प्रतिष्ठित उद्योगपति थे। दिग्विजय वैभव में पला बढ़ा था। उसका विवाह हो चुका था। पिता की मृत्यु के बाद से पिता का कारोबार वही संभाल रहा था। गर्मी की छुट्टियां शुरु हो गईं थीं। बच्चे बाहर घूमने का प्रोग्राम बना चुके थे। बच्चों के कारण दिग्विजय ने बड़ा  कॉन्ट्रैक्ट छोड़ दिया था। पत्नी ने कारण  पूछा तो दिग्विजय ने कहा कि "माता-पिता का बच्चों की खुशियों में साथ होना जरूरी है। मेरे पिता ने पैसा तो बहुत कमाया पर प्यार के दो बोल सुनने के लिए हम तरस गए। हम जब ₹10 मांगते तो सौ का नोट हवा में लहरा देते शायद उनके प्यार की परिभाषा इतनी ही थी।" बच्चे भी बातें सुन रहे थे  वे पापा को अपलक निहारते  हुये कह रहे थे "यू आर रियली ग्रेट पापा।"

- प्रज्ञा गुप्ता
बाँसवाड़ा - राजस्थान
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पिता बनाम छत
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सड़क किनारे गुब्बारे बेचने वाला एक परिवार महामारी के चलते अपने घर की ओर पलायन कर जाता है। पैसे न होने की वज़ह से उन्होंने पैदल ही चलने की सोची।
अभी थोड़ी दूर ही पहुंचे थे कि बच्चों की मां शांति की तबीयत बिगड़ जाती है और वह भगवान को प्यारी हो जाती है। 
उसके दोनों बच्चे नव और पुछ मासूम से मां को उठाने में लगे रहते हैं परन्तु वह नहीं उठती क्योंकि अब उनकी मां इस दुनिया से अलविदा कह चुकी थी। 
एक और बली असहाय होकर कोरोना की भेंट चढ़ चुकी थी। यह सब पुनीत बच्चों का पिता आंखों में आंसू लिए पास बैठ देखता रहता है। अपने फैसले को कोसता है जब वह गांव छोड़ शहर की ओर मुंह करके खड़ा हो गया था। 
महामारी के चलते आज़ उसी शहर  ने उसे पराया कर दिया था। अब उसके गुब्बारे खरीदने वाला भी कोई नहीं था और न ही उसके परिवार की भूख मिटाने वाला। पत्नी भी आज़ उसे अलविदा कह! दूर आकाश तले! तारा बन चमकने को मजबूर थी। 
यह सब देख वह घबरा गया था कि कहीं यह महामारी, पेट की भूख और प्रकृति का तांडव मेरा पूरा परिवार न छीन ले। यह सब सोचने पर मजबूर पुनीत घबराहट में सड़क किनारे अपनी पत्नी के शव के पास बैठ अपने बच्चों को अपनी तिर-बितर हुई कमीज़ से ही ढक देता है। बच्चों को यह अहसास कराते हुए कि वे अकेले नहीं हैं। पिता अभी जिंदा है इस दुनिया में उनको छत देने के लिए।

- नूतन गर्ग 
दिल्ली
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पिता की लाठी
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  बेटे ने आकर पिता के चरण-स्पर्श किये।
   पिता ने ढेर सारा आशीर्वाद दिया।
    बेटा बोला-"बापु मैं  कभी विवाह नहीं करूंगा!"
     पिता हँसे-"क्यों बेटा?"
    बेटा-"क्योंकि विवाह के बाद बेटा-बहु  अलग हो जाते हैं,, फिर माता पिता  को अकेले रहना पड़ जाता है।शहर में आजकल ऐसा ही हो रहा है"।
    दरअसल इस पिता के दो पुत्र हैं।बड़ा पढ़ -लिख कर अपनी नौकरी के सिलसिले में शहर में रहता है।छोटा साथ में है।पत्नी का देहांत पिछले वर्ष ही हो गया था।छोटा सा खेत है।अब उन्हें कम दिखता है।खेत छोटा सँभालता है।खाने योग्य अन्न पैदा हो ही जाता है।बड़ा हर माह खर्च के लिये कुछ रूपये  भी भेजता है।छुट्टियों में वे घर भी आते हैं।
    पिता ने बेटे के कँधों पर हाथ रखा-"बेटा हर घर में ऐसा हो यह जरूरी नहीं।फिर यह परिस्थिति पर निर्भर करता है।समय पर तुम्हारा विवाह भी होगा।ईश्वर सब ठीक ही करता है।"
    बेटा पिता के गले लग कर रोने लगा-",नहीं...नहीं... बापु मैं तुम्हारी लाठी बन कर सदा तुम्हारे साथ ही रहूँगा।"

- महेश राजा
महासमुंद - छत्तीसगढ़
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अपना-अपना कर्तव्य
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"ये रोजाना सामने वाली बेंच पर बैठे रहने वाले सज्जन कौन है! जब से मैं आया हूँ इनको सुबह शाम वहीं बैठा हुआ देखता हूँ।"
"पापा,ये पास के बंगले में रहने वाले इंजीनयर साहब के पिताजी हैं।इधर-उधर बैठकर अपना समय काटते हैं।"
"क्या इनके परिजन इनका ध्यान नहीं रखते!"
"इनका एक ही तो लड़का है।बहुत गरीबी में जीवन निकाला है।मेहनत मजदूरी कर पढ़ाया-लिखाया और बेटे को इंजीनियर बनाया।अब उनकी पत्नी तो रही नहीं।बेटे के पास ही रहते हैं।बेटा तो अपनी नौकरी पर चला जाता है लेकिन उसने घर के काम के लिए नौकर-चाकर की व्यवस्था कर दी है,इसलिए देखरेख की तो कोई दिक्कत नहीं है।नौकरी के रहते वह ज्यादा समय नहीं दे पाता है इसीलिए अपने अकेलेपन को दूर करने ये घर के बाहर निकल पड़ते हैं।"
"अभी इंजीनियर साहब ने क्या शादी-ब्याह नहीं किया है। कम से कम उनके बीवी-बच्चे रहते तो उनको अकेलापन तो नहींं लगता।"
" ब्याह किया तो है लेकिन उनकी पत्नी यहाँ नहीं आना चाहती है ।वह अपने मायके में ही रहती है और वहीं नौकरी करती है।उसका भाई नालायक निकल गया और अपनी पत्नी के साथ रहता है।वह अपने माँ-बाप को रखने को तैयार नहीं है,जिसके कारण इंजीनियर साहब की बीवी को अपने माता-पिता की सेवा के लिए मायके में रहना पड़ रहा है।"
"लेकिन यह तो गलत है बेटा।"
"पापा,गलत-सही क्या है,यह तो नहीं पता लेकिन हाँ दोनों अपना-अपना कर्तव्य निभा रहे हैं।"

- डॉ प्रदीप उपाध्याय
देवास - मध्यप्रदेश
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उपहार
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"बाबा, आप तो सान्ताक्लॉज बनोगे न। सुना है वह क्रिसमस पर सबको उपहार देता है। आपसे मिले तो हमारे लिए उपहार में एक केक मांग लाना। खाकर देखें कितना मीठा होता है।"
चेहरे पर मुखौटा लगाए लाल कपड़े लाल टोपी लगाए सान्ताक्लॉज बच्चों से हाथ मिला रहा पर नजरें घड़ी पर टिकी थीं। मुस्कुराने की उसे चिन्ता न थी क्योंकि परमानेंट मुस्कुराहट मुखौटे पर चिपकी हुई जो थी।
पांच हजार से ऊपर खरीदारी करने वालों को उपहार पकड़ाना भी उसकी ड्यूटी में शामिल था। आखिरकार बारह बजे मॉल बन्द हुआ पर मैनेजर ने पैसे देना कल पर टाल दिया।
सान्ताक्लॉज के कपड़े उतारकर रख थके निराश कदमों से घर लौटते हुए मन ही मन सोच रहा था बेटे को किन शब्दों मे समझाएगा कि उपहार पाने के लिए पांच हजार की खरीदारी करनी जरूरी होती है सान्ताक्लॉज बनना नहीं।
- कनक हरलालका
-धुबरी - असम
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पापा की बेटी
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तरंगिणी ने किचिन से निकलकर साड़ी के पल्लू से माथे पर उभर आई पसीने की बूँदों को पौछा और कुर्सी  पर बैठ कर टेबल लैंप आन  कर लैटर पेड उठाकर लिखना शुरू करने से पहले सोचने लगी   कहाँ से लिखना शुरू करु समझ ही नही आरहा था ।
" एक के बाद एक कई कागज तोड़ मरोड़ कर फेक दिए ।"
 सिर पर हाथ रख खुद को ही एक चपत लगाई " ये यादें है ।" पगली,  इन्हें कागज में समेटना चाहती है ।लिखना शुरू करेगी मीटरों कागज लग जायेगा फिर भी मन में कोई ना कोईपिता की  याद बाकी रह ही जायेगी । 
" पिता की तो सख्शियत हे ही ऐसी ऊपर सख्त भीतर से मोम । " 
"पत्र लिखने के बजाय तरंगिणी उठो और तैयार हो जाओ ।" पापा को सरप्राइज देने के लिए । "
तरंगिणी ने खुद से ही  प्रश्न किया अगर  उन्होंने तुझे दरवाजे में खड़ी रखा और अंदर ही नहीं घुसने दिया तो क्या करोगी पगली सोचा है ? 
कुछ भी तो नहीं भूली साउथ इंडियन से शादी करने पर पापा ने  यही तो कहा था फिर कभी मत आना इस घर में ,चली जाओ मेरी ............नजरों से दूर चली जाओ ,
सुनो माधवन ! मैं पितृ दिवस पर पापा से मिलना चाहती हूँ ।
"तरंगिणी ! मुझे कोई ऐतराज नहीं है ।"
काश पापा तुमको अपना लें और तुम्हें  फिर  से वही  प्यार मिल जाय  ? " जिसकी तुम हकदार हो " 
" माधवन इस बार हिम्मत करके जारही हूँ । " 
गाड़ी की डिक्की में सामान रख तरंगिणी जाने के लिए 
तैयार हुई ।
तरंगिणी अकेले नहीं  "मैं भी चलता हूँ ।"
भोर का सूरज निकलने से पहले ही उनकी कार घर के दरवाजे पहुंच गई गाड़ी  से उतर कर  तरंगिणी ने पिता को फोन मिलाया।
पापा..... मैं आप से मिलने आना चाहती हूँ।
पापा की बेटी दरवाजे पर खड़ी हो कर पूछ रही है मैं आ जाऊ ... दरवाजा खोले बाहें पसारे अश्रूपूरित नेत्रों से पापा को खड़ा देखकर तरंगिणी भाग कर छोटी बच्ची की तरह पापा के गले लग गई ।
अविनाश ने खुद को संभाल कर जमाई की ओर मुखातिब हुए ।
माधवन ! पितृ दिवस के अवसर पर तुमनें मुझे अनमोल उपहार दिया कह कर माधवन को गले लगा लिया ।

- अर्विना गहलोत
ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
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लक्ष्मी
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कार ससुराल की तरफ जैसे जैसे बढ़ती जा रही थी ! घर का आंगन छूटा जा रहा था । बार बार रूलाई आने पर नये नये पतिदेव कंधे पर हाथ रखते तो पिता के सर पर रखे हाथ की तपिश याद आने लगती ।हाथ में कसकर पकड़ी रेशम की डोरी वाली पोटली को कसकर पकड़ते देख पतिदेव मुस्कुरा कर बोले क्या है इसमें ..............।
रूंधे गले से क्या बोलती बस याद में खो गई बचपन से ही पापा  मुझे अपने घर की लक्ष्मी ,सरस्वती अन्नपूर्णा कहा करते जब भी मै बिमार होती तो सिरहाने पर खूब सारी रेजगारी रख देते सर पर हाथ फेरकर कहते "जल्दी ठीक होजा मेरी लक्ष्मी है तु .."...........!
आज सुबह से ही भरी आँखो से मुझे निहार रहे थे विदा के वक्त ये पोटली थमाकर बोले "ले मेरी लक्ष्मी ,तु तो जा रही है पर रोना मत 'अच्छा '......
"और हां इनमे से एक सिक्का मुझे देती जा "
कहकर फफक पड़े।
रूंधे गले से बस यही कह पाई "ये मेरे पापा का आशिर्वाद है "।

- अपर्णा गुप्ता
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
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असली श्राद्ध 
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       बहुत दिनों से मनो-मस्तिष्क में चलने वाले विचारों के प्रवाह को आज ध्वन्या ने एक किनारा प्रदान किया था।
          श्राद्ध की पूजा सम्पन्न होते ही ध्वन्या अपने पिता की पुस्तक, जो उसने एक सप्ताह पूर्व छपवाई थी, लेकर आई और पंडित जी के सामने रखी।
          पंडित जी! पूजा करके आप इस पुस्तक का अपने हाथों विमोचन कर दीजिये। मेरे पिता की आत्मा उनके लेखन में बसती थी। आज अपनी इस प्रकाशित पुस्तक को देख कर उनकी आत्मा अवश्य संतुष्ट और तृप्त होगी।
         पूजा के बाद जब पंडित जी ने पुस्तक तस्वीर के पास रखी, तो उसे लगा जैसे पिता उसे आशीर्वाद देते हुए कह रहे हों... मेरा असली श्राद्ध तो आज हुआ है।
         
- डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
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पिता का ब्याज
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" पिता जी , पॉलीहाउस खेती से बेमौसम में उगाए खीरा , शिमला मिर्ची के उत्पाद की बढ़ोत्तरी  के लिए " उद्यमी किसान " का   राष्ट्रपति जी ने शील्ड , चेक के साथ प्रमाणपत्र दिया है । "  मुस्कुराते हुए भोला ने कहा।
 "  होठों पर मुस्कान और आँखों में खुशी की चमक लिए पिता ने   बेटे भोला  के कीर्तिमान स्थापित करने के लिए  शाबासी दी । हाँ भोला ,  तुम्हारी सोच की वजह से हमने परंपरागत खेती को छोड़कर आधुनिक  पॉलीहाउस की खेती के लिए सरकारी  योजना के तहत  बैंक के लोन  से सब्सिडी  का लाभ लिया था  और सोलर पैनल लगाके जैविक प्रबंधन से  आधुनिक कृषि प्रबंधन की कम पानी 
की  ' ड्रिप सिंचाई ' को  सोलर पंप की ऊर्जा का लाभ लेके  बिजली की आँख मिचौलीऔर ज्यादा बिल के आने  से बचे थे और पौष्टिक गुणवत्तापूर्ण खीरे , ककड़ी शिमला मिर्ची  आदि की  खूब सारी पैदावार का रिकार्ड भी मेहनत के पसीने का परिणाम है,तू ही तो मेरा ब्याज है ।  "
"   हाँ पिता जी ,  बचपन  तो मेरा आपके साथ  खेतों की मिट्टी में ही गुजरा है। कृषि की बारीकियों को आपसे  ही तो सीखा है । आप ही तो हमारे रोजगार की नींव हो ।अरे पिताजी  ! वो देखो  दूरदर्शन वाले भी  मेरी कामयाबी का इंटरव्यू लेने आ गये हैं । अच्छा हुआ पिताजी  मेरे साक्षात्कार से  और   वीडियों , यूट्यूब  से  हमारे किसान भाइयों   को   पॉलीहाउस से उपज बढ़ाने की भी प्रेरणा मिलेगी    ।"

- डॉ . मंजु गुप्ता 
 मुंबई - महाराष्ट्र
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पिता के सपनें 
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आज राकेश की अपनी कम्पनी की नयी  बिल्डिंग का उद्घाटन है।वह बहुत खुश हैं  इस कारण वह  जल्दी तैयार हो रहा है।
अलमारी से कपड़े निकालते हूं उसे अपने पिता की दी घड़ी मिली ।जिसे देख वह पुरानी यादों में खो गया ।
जब वह आठवीं कक्षा में पढ़ता था।
पिताजी विदेशी कम्पनी में कार्यरत थे । उस समय  पिता जी को वाई टुके (y2k)के संदर्भ में नौकरी से निकाल दिया गया था 
जो पैसा वहाँ जमा किया था ।
उससे पिताजी ने भारत आकर शौफ्ट  वेयर की एक युनिट खोल ली थी , पर विफलता हाथ लगी थी ।
।उसके खर्चे बढ़ते गये ,और क़र्ज़ चढ़ता चला गया ।अार्थिक तंगी के चलते पिता जी इस बात को  सह ना पाये ।
हार्ट अटैक आने से हम सब को छोड़ कर इस दुनिया से चले गये ।पापा का सपना था बड़ा होकर मै इंजिनियर बनू ।
मैंने पापा के सपने को पूरा करने का दृढ़ निश्चय कर लिया ।विदेश ना जाकर अपने देश में ही कार्य करूँगा यही सोच कर कड़ी मेहनत की ।
आठ साल तक कड़े परिश्रम के बाद इंजिनियर  बन कुछ वर्ष नौकरी कर ,बहुत संघर्ष और महनत से मै आज उस मुक़ाम पर पहुँच गया हूँ ।
कि विदेशी शीर्ष कम्पनियों के सोफ्टवेर के औफशोरिग के ठेके मुझे प्राप्त हुए है ।और आज पन्द्रह इंजिनियर मेरी अपनी कम्पनी में काम करते है ।
उसी अपनी नयी बिल्डिंग के उद्घाटन स्वरूप उसे  खुशी के कारण  अपार हर्ष हो रहा है ।
सच ही किसी ने कहां हैं 
महनत ,लालन आत्मविश्वास से छोटे छोटे कार्ययोजना से बड़ी उपलब्धियां प्राप्त हो सकती है ।
धरती से आकाश की ऊंचाइयों को भी नाप सकता है। इसी को बौनी उड़ान कहां जाता है !............।
मेरे पिता कहां होगे मुझे देख खुश होगे।
वह बड़बड़ाया ,जल्दी से तैयार हो गन्तव्य की ओर बढ़ चला ।
- बबिता कंसल
    दिल्ली
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पिता
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तबस्सुम जब कक्षा सात में पढती थी तो एक भयंकर रेल दुर्घटना में उसके दोनो पैर बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गए थे जब वह अपने पापा के साथ अपने मामा के लड़के की शादी में जा रही थी उसे नाचने का बहुत शौक था परन्तु चिकित्सकों को मजबूरी वश उसके दोनों पैर काटने पडे थे चिकित्सकों की सलाह थी कि कृत्रिम पैर लगाये जा सकते है जो काफी खर्चीला काम था पूरा परिवार इस सदमें से कई साल बाद तक भी नही उबर सका था क्योंकि तबस्सुम सभी की दुलारी थी और घर में सबसे छोटी भी उसके पिता एक गरीब मजदूर थे वह बेटी के चेहरे पर मुस्कान देखने को तरस रहे थे वही उसे रोज स्कूल ले जाते और स्कूल की छुट्टी के बाद वहाँ से लाते थे पर उन्होने हिम्मत नही हारी थी वह धीरे धीरे पैसे जोड रहे थे उन्होने परिवार में किसी से यह बात नही बताई थी तबस्सुम अब कक्षा दस की छात्रा थी उसकी परीक्षा समीप थी उसके पिता उसे  डाक्टर के पास ले गए डॉक्टर ने दो दिन बाद आने के लिए कहा .दो दिन बाद तबस्सुम पिता के साथ फिर अस्पताल गई और डॉक्टर ने उसे दोनों पैर कृत्रिम लगा दिये तबस्सुम खुशी से खिलखिलाहट उठी थी उसके पिता को मानो वह सब कुछ मिल गया था जो वह चाहते थे वह बहुत खुश थे बेटी को बहुत दिनों बाद इतना खुश देखकर पिता की नजरे तबस्सुम के हंसते चेहरे को काफी देर तक बहुत ध्यान से देखती रही थी मानों उनकी आत्मा को असीम शांति मिल रही थी जब वह दोनो घर लौटे तो पूरा परिवार बहुत खुश हुआ तबस्सुम को मुसकुराता देखकर मानो उनकी खुशियां वापस लौट आयी  थी...... !

- डा. प्रमोद कुमार प्रेम 
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
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पिता
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आज श्वेता का जन्मदिन है।हॉल  लोगों से भरा हुआ है।चहल पहल हो रही है।डेक चल रहा है।सब आ जा रहे हैं।तभी श्वेता को एक  महीने पहले की बात याद आ जाती है जब उसका 4 किलो वजन भी बढ़ गया था ।तब उसने एक लेख पढ़ा  की  योग तप संयम के द्वारा हम सब कुछ प्राप्त कर सकते हैं।अर्थात आधी बीमारियों को दूर कर सकते हैं। श्र्वेता रोज ही दस मिनट के लिए योगासन अवश्य करती थी। उससे उसका शारीरिक विकास व स्वास्थ्य लाभ तो हो ही रहा था साथ ही पूरे दिन ताजगी व स्रफूर्ति भी महसूस करती।
उनका घर पार्क के सामने था। इस कारण रोज ही पार्क में नियमित घूमना हो जाता था।पिता जी भी इसी विषय पर अक्सर समझाते थे कि हमें संयम और तप का पालन करना चाहिए तभी हमारा जीवन सुखमय हो सकता है।
यह बात श्वेता के दिमाग में बार बार घूम रही थी कि हम संयम का पालन कैसे कर सकते हैं।उसने अपने पिता से पूछा:- 
यह संयम तप क्या होता है??
 उसके पिता ने कहा:-
आओ मैं तुम्हें बताता हूँ। अपने खान-पान में सादा भोजन ले। फल सब्जी का ज्यादा से ज्यादा उपयोग करें  ज्यादा न खाये।बाजार के मैगी,पिज्जा, बर्गर को तो छोड़ ही दे।धार्मिक पुस्तक पर ही अपना समय बिताये। अपनी अच्छीआदतों का विकास करें। बुरी आदतों को छोड़ दें।यही सब संयम के  पालन के अंतर्गत आता है। सभी काम समय पर करें। अपने पूरे दिन का समय निर्धारण करे।किस समय क्या करना है। और उसी के अनुकूल अपना समय व्यतीत करें।देखना आपका जीवन सुखमय हो जाएगा ।सभी काम समय पर हुए मिलेंगे। लगन के द्वारा हम कामयाबी को प्राप्त कर सकते है। 
उसी दिन से श्वेता ने नियमित रूप से करना आरंभ कर दिया।  अचानक सहसा जैसे नींद से जागी हो। अब उसका तीन किलो के करीब वजन भी कम हो गया है।वह वर्तमान में लौट आती है और सब के साथ हँसी-खुशी जन्मदिन की पार्टी मनाती है।
- अलका जैन आनंदी
दिल्ली
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भरोसा
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- "अरे, नौ बज गये हैं, उठ जाओ !"
-"बारह बजने आये, अभी तक नहाकर नहीं आये तुम !"
-तुम्हारी मम्मी बिल्कुल भी सुनती नहीं है मेरी, बस तुम लोगों का ही पक्ष लेती है !"
-"ये वाट्सएप पर देखो, क्या जोरदार विडियो आया है !"
-"सारे टाइम खाना और सोना...पढ़ भी लिया करो थोड़ा !"
-रोटी टाइम पर खा लिया करो, तुम्हारी माँ कोई कामवाली बाई नहीं है जो बार-बार खाना गरम करती रहे तुम्हारे लिए !"
-"पुरा दिन मोबाइल चलाने में बिजी रहते हो !
क्या देखते रहते हो ऐसा?
मोबाइल चेक करना पडेगा तुम्हारा !"
डायलाॅग तो रोज वाले ही थे पर आज वाॅइस आॅफ टोन हाई था ।
 'फादर्स डे' था ना...
पिताजी जानते थे कि जो भी हो, आज के दिन बच्चे पलट कर जवाब नहीं देंगें !

- सुषमा सिंह चुण्डावत
उदयपुर - राजस्थान
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पिता
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बरसात का मौसम था ।मुसलाधार बारिश हो रही थी । सितंबर महीना शुरु होने से वातावरण में ठंडक बढ गयी थी ।पूरा दिन काम के बोझ से बेहाल राकेश फेक्ट्री का हूटर बजते ही अपनी साईकल पर वापिस घर की ओर चलता जा रहा था । बारिश ने उसे जल्दी ही पूरा भिगो दिया वो ठंड से कांपते कांपते थक हार कर घर पहुंचा । उसके बच्चे बरामदे में ही इंतिजार में थे । पापा पापा  हमारी चाक्लेट दो । राकेश ने झोले में हाथ डाल कर उन्हे कुछ पकडाया और दोनों बच्चे खुशी से उछलते अंदर भाग गये ।  दरवाजा लाँघ कर अंदर कदम रखते ही बीवी की कर्क्श आवाज कानों में पडी- मेरी चप्पल लाये कि नहीं । राकेश ने धीरे से सर हां में हिला कर चप्पल उसकी तरफ बढा दी ।वो खुश हो कर अपने कमरे में चली गई । वो धीरे धीरे मां के पास गया उसे दवाइयां दी और निढ़ाल ठंड से कांपता हुआ बिस्तर पर फैल गया । सभी अपने अपने में मस्त थे किसी को भी उसकी चिन्ता नहीं थी ।।

-  सुरेन्द्र मिन्हास
    बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश
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पिता
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काफी दिन से अन्मना रहने के कारण बीना ने अपने पति प्रमोद से कारण जानना चाहा ।
तो पहले प्रमोद ने अनसुना कर दिया ।अक दिन बीना ने प्यार से फिर मालूम करना चाहा तो फिर वह गुस्से में चाय का कप नीचे रखकर गुस्से में उठ खड़ा हुआ।
और बोला क्या बताऊं ?
मेरा हक पिताजी हर साल दीदी को दे देते हैं पिताजी ने फिर ₹200000 (दो लाख रू) दीदी के खाते में ट्रांसफर कर दिए ।
कोई बात नहीं । आपको तो पिताजी का एहसान मानना चाहिए। _ बीना बोली
पिताजी की मेहरबानी से ही  मेरे पापा ने आपको गिफ्ट में ब्लैंक चैक दिया है ।
यह कहकर मुस्काते हुए  बीना ने प्रमोद के हाथों को अपने हाथों में कस कर पकड़ लिया ।
प्रमोद का गुस्सा काफूर हो गया।
आखिर में बीना  टीचर जो ठहरी ।

- रंजना हरित
बिजनौर - उत्तर प्रदेश
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हरसिंगार के फूल

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अविनाश जी दालान  में लगी कुर्सी पर गुमसुम बैठे से थे।गहन सोच की मुद्रा में एकटक बगीचे में लगे हरसिंगार के पेड़ को घूरते नज़र आ रहे थे। पेड़ के नीचे की गीली ज़मीन हरसिंगार के फूलों से पटी हुई थी। रातभर खूशबू बिखेरने वाले हरसिंगार के फूल झड़कर छींटदार सफ़ेद और नारंगी रंग के कालीन की तरह ज़मीन पर बिछ गये थे। इक्का-दुक्का फूल जो डाली पर बच गये थे वो भी सरककर ख़ामोशी से अपने संगी-साथियों के साथ ज़मीन पर आकर मिल रहे थे।इस मनभावन दृश्य को देखकर अविनाश जी कुछ सहज महसूस कर रहे थे।कल रात उनकी अपने इकलौते बेटे राहुल से ज़ोरदार बहस हुई थी।शाम को जब राहुल आॅफिस से आया था बहु उखड़ा-उखड़ा लग रहा था। चाय-पानी के बाद मां सुरभि ने उदासी का सबब पूछा था, "राहुल क्या बात है? बहुत परेशान लग रहे हो।"
राहुल ख़ामोश रहा।
सुरभि ने उदास होकर अपने पति की ओर लाचारी से प्रश्नसूचक दृष्टि डाली। अविनाश जी ने आंखों-आंखों में सुरभि को सांत्वना देते हुए राहुल की ओर देखा। राहुल आंख बंद किए सोफे पर पसरा हुआ था। फिर थोड़ी ऊंची आवाज़ में राहुल से पूछा,"राहुल क्यों नही बता रहे क्या बात है,देखो तुम्हारी मां कितनी परेशान हैं।"
राहुल कुछ तल्खी से बोला,"आप लोगों को कुछ भी बताने से फायदा क्या है!आप दोनों ही मेरी परेशानी की वजह हो।" दोनो आवाक उसका तमतमाया हुआ चेहरा देख रहे थे।
राहुल अपने धुन में कहे जा रहा था,"पिताजी मैंने कितने दिन पहले कहा था कि ये मकान बेचकर मुझे बिजनेस के लिए रुपए दे दीजिए,पर पता नही इस खंडहर से आपको क्या लगाव है और मेरे जज़्बातों और तरक्की से तो आपको कोई सरोकार ही नही है!....आपकी वजह से मुझे किसी और की चाकरी करनी पड़ रही है और मेरी कमज़ोर माली हालत की वजह से ही मेरी गर्लफ्रेंड भी मुझे छोड़कर चली गई।" वो आगे बोल रहा था,"अगर मुझे एक अच्छी ज़िंदगी नही दे सकते थे तो आप लोगों ने मुझे पैदा ही क्यों किया.... बताइए??"
अविनाश जी हतप्रभ थे . उन्हें अपने अंदर सब टूटता हुआ महसूस हो रहा था। राहुल के पैदा होने के कुछ दिन बाद ही एक एक्सीडेंट में उनके दोनों पैर जाते रहे,नौकरी छूट गई। महंगे इलाज के बाद जेब खाली हो गई थी,तो सुरभि के कुछ गहने बेचकर अपने पिता द्वारा बनाए मकान के एक कमरे में  छोटी सी दुकान खोल ली। जैसे-तैसे दोनों पति-पत्नी ने राहुल ने जो और जहां तक पढ़ना चाहा पढ़ाया।उसके लिए उन्हें अपना मकान भी गिरवी रखना पड़ा,गरीबी में दिन गुज़ारे लेकिन इकलौते  बेटे की हर ख्व़ाहिश पूरी की..और आज वही बेटा अपने सर्वार्थ सिद्धि के लिए "पिता"नाम पर ही प्रश्नचिन्ह लगाने पर उतारू था।
ये सब सुनकर तो सुरभि का रो-रोकर बुरा हाल था।
दालान में बैठे-बैठे अविनाश जी सोच रहे थे..."एक पिता कितना अभागा होता है ताउम्र बच्चों के लिए खटने के बाद भी वो औलाद के लिए  कुछ भी नहीं रह जाता।हरसिंगार के झड़े हुए फूलों की तरह अब बुढ़ापे में उनका भी तो कोई मोल नही...अब वो किसी काम के जो नही रहे ..!

- संगीता राय
पंचकुला - हरियाणा
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यादें

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"पापा आपसे कुछ नहीं बनता है ! दवा भी नहीं  पी पा रहे हैं ! और चम्मच में भरी सारी दवा ही फैला दी ! ऐसा कैसे चलेगा?" जवान बेटे ने बिस्तर पर लेटे, सत्तर वर्षीय रिटायर्ड बाप को डंपटते हुए कहा!
"हां बेटा दिक्कत तो है !" बुदबुदाते हुए पिता बोले!
"लगता है कि धीरे-धीरे पापा की याददाश्त जा रही है !" धीरे से बेटे ने अपनी पत्नी की ओर मुखातिब होते हुए कहा!
       पर यह बेटे का भ्रम था! पिता को गुज़रे वक़्त के सारे वाकया याद थे ! वे बेटे के बचपन के दिनों में  पहुंच गए !बेटा अब नन्हें बालक के रूप में  उनके सामने था,और तीन पहिये की साइकिल चलाने की कोशिश कर रहा था!
       "पापा-पापा,मुझसे नहीं बनेगी यह साइकिल चलाते! मैं तो बार-बार गिर जाता हूँ!" बेटे ने तुतलाते हुए कहा!
     "नहीं बेटा, ज़रूर बनेगी !क्यों नहीं बनेगी ?अरे मेरा स्ट्रोंग बेटा सब कुछ कर सकता है! मेरा बेटा, न केवल एक दिन साइकिल के साथ मोटर साइकिल,कार चलाएगा, बल्कि-बल्कि-बल्कि बड़ा होकर मेरा भी सहारा बनेगा!"
      यादों की परतें खुलते ही पिता की आंखें भर आईं! वे वर्तमान में वापस लौट आए,और हिम्मत जुटाकर ख़ुद का सहारा ख़ुद बनने की तैयारी करने लगे!
     
- प्रो. शरद नारायण खरे
मंडला - मध्यप्रदेश

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पिता की सीख

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     'पिता' शब्द जब भी मोहन के मन-मस्तिष्क के समक्ष आता है तो जो छवि उभरती है तब अपने अनुभवों को कहानी का रूप देकर जीवन जीने का सन्देश देने वाले एक पुरुष की होती है।
     मोहन अपने मित्रों को अपने पिता की बातें सुनाकर थकता नहीं था। वह अपने मित्रों से बताता था कि उसके पिता ने कभी भी उसे उपदेशात्मक शैली में जीवन-पथ पर चलना नहीं सिखाया। बल्कि वे स्वयं कार्य करके मौन रहकर शिक्षा दे जाते थे।
      मोहन ने पिता की इस शिक्षा को सदैव अपनाया कि..... "मनुष्य के चेहरे की पूजा नहीं होती, कर्म पूजे जाते हैं।
     इस वाक्य ने मोहन को जीवन में सदैव सम्मान प्राप्त किया और जब भी वह सम्मानित होता, उसे अपने पिता बहुत याद आते।
    
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'
देहरादून - उत्तराखण्ड
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पूर्वजों की बातें

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पिता ने एक दिन पास बुलाकर कहा-तुम जीवन में जरूर पढऩा, एक दिन काम आएगी। परंतु हम अपनी मस्ती में खोए रहते थे, फिर भी पढ़ाई में ध्यान दिया। उस वक्त सोचते थे कि पिता है कुछ कह रहा है तो ठीक कहते होंगे। परंतु जब पढ़ लिखकर रोजगार की लाइन में लगे, तब पढ़ाई काम आई, एहसास हुआ।
एक दिन जब नौकरी की लंबी लाइन में खड़े थे तो सभी अभ्यर्थियों के अंक चैक किये गये। मेरे ही अंक अधिक होने से मेरा चयन हो गया। फिर क्या था मारे खुशी के मैं फुला नहीं समा रहा था। अब तो बुजुर्गों की याद आने लगी। आज वो पिता स्वर्ग सिधार गये किंतु उनकी बातें रह रहकर याद आ रहा है। आज जब सफलता के मुकाम तक पहुंचे एहसास होता है कि पूर्वजों की बातें सत्य निकलती हैं। पिता को आज नहीं भुला पाते हैं।

- होशियार सिंह यादव
महेंद्रगढ़ -हरियाणा
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पिता

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मैंने एक ही बार तो कहा था "पिता जी मुझे इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लेना है"। उन्होंने मेरी तरफ देखकर कहा जरूर था "कितना महंगा होता है ये वाला कोर्स "।परंतु साथ ही साथ यह भी कहा था कि "चल तू तैयारी कर मैं बाकी का देख लूंगा"।बस इतना कहना और तभी से शुरू हो गया।अपना भोजन कम करके बचाना,अपने कपड़ों से कटौती तथा अपनी हर चीज कम करना।बस सांसें मुफ्त की थी तो भर भर के ले लिया करते थे।वो अच्छे से पढ़ाई कर सके इसलिए पिता हर दर्द खुश रहकर सहने लगा।

          आखिरकार लड़के की मेहनत रंग लाई और पिता का त्याग बोला।लड़के को अच्छे कॉलेज में दाखिला मिला और साथ ही साथ उसका प्लेसमेंट भी अच्छी कंपनी में हो गया।जब पिता को यह खबर मिली तो वे फूले नहीं समाए तथा बेटे को गले से लगाकर रोने लगा।अब उसकी तपस्या और लड़के की मेहनत से यह भी सच हो गया।अब दोनों साथ साथ रहते थे और बेटे ने पिता जी का सारा लोन चुका दिया।पिता अब भी न जाने क्यों कौनसे किस्से में क्या खोजता है।

- नरेश सिंह नयाल

देहरादून - उत्तराखंड

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