कालीचरण प्रेमी की स्मृति में लघुकथा उत्सव

भारतीय लघुकथा विकास मंच द्वारा इस बार  " लघुकथा उत्सव "  में  " ग्रामीण जीवन " विषय को फेसबुक पर रखा गया है । जिसमें विभिन्न क्षेत्रों के लघुकथाकारों ने भाग लिया है । विषय अनुकूल  अच्छी व सार्थक लघुकथाओं के लघुकथाकारों को सम्मानित करने का फैसला लिया गया है । सम्मान प्रसिद्ध लघुकथाकार कालीचरण प्रेमी पर रखा गया है । 
कालीचरण प्रेमी का जन्म 15 जुलाई 1962 को गांव मोरटा ( गाजियाबाद ) उत्तर प्रदेश में हुआ । इन की शिक्षा एम.ए हिन्दी व बी.एड़ तक है ।  इन का लघुकथा संग्रह " कीलें " 2002 में प्रकाशित हुआ है । इन के सम्पादन मे लघुकथा संकलन " अन्धा मोड़ " 2010 में प्रकाशित हुआ है ।  इस के अतिरिक्त " युगकथा " कहानी संकलन का भी सम्पादन किया है ।  इन की कई लघुकथा का कई भाषा में अनुवाद हुआ है । सर्वप्रथम 1990 में गाजियाबाद में मेरी  मुलाकात हुई । इसके बाद कई बार मुलाकात हुई । जैमिनी अकादमी द्वारा भी सम्मानित  किया गया। ये डाकं विभाग के उपडाकघर कवि नगर गाजियाबाद उत्तर प्रदेश में कार्यरत रहें । ये ब्लड़ कैंसर से पीड़ित हो गये । जिसके कारण से 24 अप्रैल 2011 को मृत्यु हो गई । 
सम्मान के साथ लघुकथा पेश : -

कड़वी सच्चाई
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     वर्षों पहले रामनिवास जी सरकारी नौकरी मिलने के कारण शहर आ गये थे। परन्तु गाँव में पले-बसे रामनिवास का मन कभी भी शहर में नहीं लगा। सेवानिवृत्ति के बाद जब वह गाँव की मधुर यादें हृदय में समेटे पुन: गाँव जाकर बस गये तो कुछ दिनों के बाद ही उन्हें मालूम हो गया कि अभी भी गाँवों में सुविधाओं का अभाव है। इन अभावों के कारण ही गाँव का युवा पलायन कर गया है।
     एक दिन वे गाँव के कुछ बुजुर्गो के पास जाकर बोले कि "आज भी ग्रामीण जीवन कठिन ही क्यों है?" एक बुजुर्ग ने उसका हाथ पकड़कर धीरे से कहा, "यह एक कड़वी सच्चाई के कारण है, और वह कड़वी सच्चाई यह है....क्योंकि गाँव में लोग सेवानिवृत्ति के बाद ही आना पसन्द करते हैं।" 

- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग'
देहरादून - उत्तराखण्ड
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समाधान 
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               इस बार कौशल पंद्रह दिनों का अवकाश लेकर गाँव में आया था। माता-पिताजी के साथ साथ तो समय बिताएगा ही साथ ही गाँव में भी सबसे मिलेगा, यह सोच कर वह बहुत प्रसन्न था।
               नहा कर जब वह पिता के साथ भोजन करने बैठा तो उसे पिता कुछ चिंतित दिखाई दिए। पूछने पर बोले....” क्या बताऊँ बेटा? कर्ज की मार से दबे गाँव के किसान विवश होकर आत्महत्या करने में लगे हैं। फसल हो नहीं पा रही।सरकार का कर्ज ज्यों का त्यों है, उस पर ब्याज बढ़ता जाता है। समझ नहीं आता इनके लिए क्या करें, कैसे करें?”
            “ मैं कुछ सोचता हूँ पिताजी”... कह कर कौशल ने अपने जैसी गाँव के प्रति कुछ करने की सोच रखने वाले मित्रों से चलभाष पर बात की। सबके सहयोग दो लाख रुपए एकत्रित हुए। एक स्वयं सेवी संगठन “समाधान”की स्थापना कौशल ने अपने पंद्रह मित्रों के सहयोग से की। 
              एक सप्ताह के बाद पिता की सहायता से जरूरतमंद किसानों की सूची बनवा कर उन्हें बुलाया और खेती के लिए बीज, खाद और निश्चित राशि दी। और दो वर्ष के बाद हर किसान से संगठन के लिए हर माह सौ रुपए लौटाने का संकल्प लिया।
              
- डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
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अहसास
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नीम की छांव में बिछी खाट से उठने का मन ही नहीं हो रहा था,लेकिन उठना पड़ा,शहर जो जाना था।कुछ घंटों के लिए आया था और तीन दिन रुक गया वह। दोस्त के परिवारवालों ने जाने ही नहीं दिया।
उसे याद आ गयी,महानगर की वह शादी जब उसका मामाजी के यहां जाना हुआ था।रात को शादी के बाद मामाजी अपने परिवार सहित घर के लिए निकल गये थे और वह अकेला होटल के बाहर खड़ा रह गया था।

- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
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बारिश में ओरी से टपकती बूंदें
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भादो का महीना और हथिया नक्षत्र।कल रात से ही घनघोर बारिश।ऐसा लग रहा है मानो आसमान में सुराख हो गया है और पानी बिना किसी रोक-टोक के धरती के सीने पर बारिश बनकर कहर ढा रही है।
भोर हो गई है। रामरती देवी अपने बिस्तर पर लेटी है आंखें पूरी तरह ऊपर फूस के छप्पर पर गढ़ाए..मन ही मन इंद्र देवता से गुहार लगा रही हैं,'हे भगवान, हम झोंपड़ी वालों का भी तनिक ख्याल कीजिए..इस बरस इत्ते रुपयों का जुगाड़ नही कर पाई कि नई छप्पर डलवा पाती।'
'मेरे परिवार पर किरपा करो प्रभू'... रामरती देवी बुदबुदा रही थीं।उनकी खटिया के बगल में ही,फूस की छत लगातार टपक रही थी..रात उन होने नीचे लोहे की बाल्टी लगा दी थी,मगर अब तो बाल्टी कब की भर चुकी थी और बाल्टी से नीचे बहता पानी अपनी ढलान तलाश कर कोठरीे के कच्ची ज़मीन में भरसक समाने का प्रयास कर रहा था।
इतने में बहु एक तिरपाल सर पर रखे अधगीली सी कोठरी में प्रवेश करती है।रामरती देवी का ध्यान भंग होता है उसकी करुणा मयी आवाज़ से.."अम्माजी,चौके में देखिए क्या कयामत आन पड़ी है.. ठीक चुल्हे के ऊपर  की फूस  लगातार टपक रही है!,अब मैं क्या करूं?"
बहु आगे बोली,"अभी सब उठेंगे,हम बड़े तो समझते हैं, एक-दो पहर भूखे भी रह लेंगे पर बच्चों के लिए कैसे क्या बनाऊं ?"
रामरती देवी ने हौसला देते हुए बहु से कहा,"आज बच्चों,बड़ो सबके  लिए सत्तू के गुड़ पीसकर मीठे लड्डू बना दे..तू देख लेना बच्चे बहुत खुश हो जाएंगे।"
बहु ने हामी भरते हुए ओरी से टपकती बूंदों को देखा.. 
सोच रही थी..'जब मैं छोटी थी अपने भाई-बहनो के साथ इन ओरी से टपकती बूंदों का बेसब्री से इंतज़ार करती थी.. बरसात में इन ओरी से टपकती बूंदों में नहाना कितना रोमांचित करता था उसे'
पर आज उसे  ओरी से टपकती हुई बूंदे बिल्कुल भी नही सुहा रही।
वो चाह रही है कि.. 'बच्चों के उठने से पहले ये बारिश थम जाए,काश'!

- संगीता राय
 पंचकुला - हरियाणा
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गाँव वापसी
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सुरेश इंजीनियर बन गया था उसकी नियुक्ति मुंबई में हुई थी। वह अपनी पत्नी व चार माह की बेटी को लेकर मुंबई आ गया था। एक वर्ष जैसे-तैसे व्यतीत हुआ पर उसे अच्छा नहीं लग रहा था। उसकी पत्नी सारे दिन फ्लैट में अकेली रहती थी। वह बिस्तर पर लेटा ही था कि अतीत की स्मृतियों में खो गया, उसे अपने गांव, माता-पिता व गांव के लोगों की याद आने लगी। खुले खेतों में अपनी पत्नी के साथ काम करना, पक्षियों का कलरव, शाम को गांव के लोगों का चौपाल पर इकट्ठा होना, एक दूसरे का दुख-दर्द बताना, एक दूसरे की मदद करना। भले ही बड़े शहर के अपने नफे-नुकसान हों।उसे लग रहा था जैसे गाँव की मिट्टी की सौंधी सुगंध उसे अपनी ओर खींच रही है।वह सोच रहा था कि ग्रामीण जीवन की तो बात ही निराली है।ऑक्सीजन से भरपूर ताजी हवा, प्रदूषण मुक्त वातावरण,ताजी सब्जियाँ और फल।सोचते-सोचते उसे नींद आ गई थी। सुबह हुई तो पत्नी सुशीला से बोला “मैंने सोच-विचार कर निर्णय लिया है कि हम गांव वापस लौट जाएंगे।" उसने उसी दिन नौकरी छोड़ दी। गांव वापसी पर उनके तन-मन पुलकित हो उठे थे।

- प्रज्ञा गुप्ता
बाँसवाड़ा - राजस्थान
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व्यापार और व्यवहार
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 कानपुर की मशहूर दुकान पर खड़ी नीरूअपनी सखियों के साथ काफी उत्साहित सी होकर काउंटर पर जाकर जोरदार स्वर में बोली-
भैया जी!हमको लड्डू लेकर जाने हैं अपने गांव..अपनी दादी दादू को खिलाने हैं। क्या चखा सकते हैं?
-काहे नहीं!जे लो एक लड्डू धरके दे रए हैं पलेट में सो सबरी चाख लो तनिक तनिक सा।
सुस्वादु लड्डू चखकर सबके मुख पर सुखद अहसास जगा और एक एक किलो लड्डू पैक होने लगे।
सभी डिब्बों में  समाकार के बीस बीस लड्डू देखकर नीरू खुश थी,लेकिन पेमेंट करते समय अपने डिब्बे में कुल उन्नीस लड्डू देखकर परेशान सी होकर वह बोली-भैया!ये क्या ? एक लड्डू कम क्यों?
-बोर्ड पर पढ़िये फिरसे।
-"ऐसा कोई सगा नहीं, जिसको हमने ठगा नहीं"
-आपने जो चखने को मांगा था,वो लड्डू भी तो गिनेंगे बहनजी।
दुकानदार की हाजिरजवाबी सुनकर नीरू ठगी सी रह गई थी। 
गांव में आज सरसों ताई की दुकान पर खड़ी वह आटा,चावल और दाल लेकर जैसे ही घर की ओर मुड़ने लगी,तो पीछे से ममतासे भरी पुकार गूंज उठी-अरी बिटिया!लुभाव तो लेई जाओ.
-वो क्या होता है?
-लाड़-प्यार का एक्स्ट्रा गिफ्ट.
नीरू शहर और गांव में जन-व्यवहार के अंतर को भांपते हुएऔर दस दिन की छुट्टियाँ लेकर गांव के जरूरतमंद  बच्चों को लेकर "व्यापार और व्यवहार" नामक नुक्कड़ नाटिका का प्रदर्शन कराने की योजना मन ही बनाने लगी थी।
           
                     - डा. अंजु लता सिंह
                      नई दिल्ली
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प्राइमरी टीचर
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सरकारी स्कूल की अध्यापिका..? क्या तुम फिर से गांव में रहने के लिए जाओगी?
या फिर तुम जाया करोगी ?
शहर की चकाचौंध छोड़ कर गांव में तुम्हारा क्या मन लगेगा?
मनोज के तीखे ..स्वर... सुनने के बाद भी मंजू कुछ भी मुख से नहीं बोली।
 पर नौकरी करने की जिद पर अड़ी रही ।
पत्नी  मंजू  _ को मनाने के लिए... मनोज ने फिर से मंजू  से बात करने की कोशिश की ...
.तुम्हें पता है मंजू ...
अपने बच्चो को पढ़ाने के लिए ही मैं गांव को ...छोड़कर ....शहर... रहने के लिए आया हूं। 
 यह कहते - कहते ..ही मनोज चुप हो गया और ......
ठीक है कहकर ,
 मंजू के साथ  गांव में जा जाने के लिए सुबह से ही ज्वायनिंग करा ने  लिए तैयार हो गया ।
 फिर रास्ते में हरियाली और ताज़ी हवा का आनन्द लेते हुए मंजू से गुनगुनाते  हुए कहा
 असली जन्नत तो यही  गांव में है।
 
- रंजना हरित 
बिजनौर - उत्तर प्रदेश
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स्मृति 
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 एक बार जब दुर्गा ननिहाल आई तो मामा जी के साथ गाँव आ गई l वहाँ उनका आम का बाग़ घना देखा और अमिया देख मुँह jमें पानी भर आया l ठंडी हवा और नीची लटकती अमिया, वाह!ये सब देख आनंद आ गया l
पगडंडियो पर दौड़ लगाना l गन्ने के खेतों में छिप कर खूब गन्ने खाना, गाजर चलते चलते तोड़ कर खाना l पंछियों की चहचहाट, मोर का सुन्दर नृत्य, कोयल की कूक, पपीहे की टेर मन मयूरा नर्तन करने लगा l
बैलों के गले में बजती घंटी किसी मंदिर से कम नहीं l 
दूर तलक हरितिमा की चादर फैली l लेकिन जब अगले दिन वापस लौटना पड़ा मन मायूस हो उठा l यह स्वर्गिक आनंद अब कब मिलेगा?
   - डॉ. छाया शर्मा
   -अजमेर - राजस्थान
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मिट्टी की महक
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शहर में पले बढ़े हर काम को एक सीमित दायरे में करते हुए एक दिन बच्चो को दादू दादी के पास गांव जाने का ख्याल आया | 
मम्मी पापा ने अक्सर बच्चों को गांव के संघर्ष भरे जीवन के किस्से सुना रखे थे|  जिन्हे बच्चे खुद भी देखना चाहते थे|
फिर आई छुटियां और बच्चे चल पड़े गांव|  लेकिन दिल में कसक कि कैसे रहेंगे वहां जहां ना बिजली, ना खेल के पार्क, ना रेस्तरां, बस खेत ही खेत और गोबर ही गोबर |
'वाह क्या नज़ारा है', गांव पहुंचते ही आई दिल से आवाज | ना वो भीड़ , ना वो शोर, ना वो प्रतिस्पर्धा, ना वो समय की दौड़ | क्या हम इसी धरती पर हैं? ये हरियाली , ये खुली हवा,  ताज़े फल, सब्जियां, फूल, दूध की महक, दही की मिठास , सबका अपनापन और प्यार |
ये सपना है या हकीकत ? नदियों में लहराता ठंडा पानी, मेलों की रौनक ,सच में गांव का ये सुंदर नज़ारा देख कर बच्चे सोच में पड़ कर रह गए कि यहां का जीवन संघर्ष भरा है या वहां का जहां से वो आए हैं ? 
बारिश की बूंदों में उठती हुई वो मिट्टी की महक उनके सामने कई सवालों को खड़ा कर गई और वो मिट्टी की महक बच्चों को अपने गांव के सादगी भरे जीवन से अपना सा बना गई |

- मोनिका सिंह
 डलहौजी - हिमाचल प्रदेश
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      तुम और अपना गाँव
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कमला चाची दरवाजे पर टुकटुकी लगाए आज सुबह से अपने परदेसी बेटे जीवन की अनवरत प्रतीक्षा कर रही थीं ,होली का दिन जो आ गया था ,मगर बेरोजगारी व गरीबी के दंश से उबरने के लिए अपनी प्यारी विधवा मां को बेसहारा छोड़ कमाई करने के लिए परदेस गया था उनका इकलौता बेटा जीवन।
 बेरोजगारी का डंक जीवन को काम की तलाश में अपने प्यारे गांव शांतिपुर के सुकून से दूर चकाचौंध भरे शहर की ओर जाने को मजबूर कर दिया था।
 होली का दिन आ गया था मगर अभी तक जीवन वापस अपने गांव नहीं आ सका था , जिसकी अनवरत से प्रतीक्षा में एक-एक क्षण को बुढ़ापा की ओर तेजी से बढ़ रही बेचारी विधवा मां ने तिनका तिनका जोड़ कर होली पर बेटे के आगमन की संभावना से सोंठ गुड़ की गुझिया व उसके पसंद के होले भून कर रखे थे । कमला चाची ने खुशी के मारे उस दिन भोजन भी नहीं किया कि प्यारे बेटे को अपने हाथ से खिला कर ही खाऊंगी ।
मगर यह क्या,,,,होली धू धू कर जल चुकी थी ,, इंतजार में सुबह हो गई। गांव के गलियारों में बच्चे रंग खेल रहे थे ,लोग लुगाई हुड़दंग कर रहे थे ,गांव की गोरियां टोलियां बनाकर होली गीत गा रही थी  ,मगर इस बेचारी मां का दिल सुनेपन से घिरा था ,,,,
उनकी आंखों का तारा उनका इकलौता लाल जो अब तक घर नहीं पहुंचा था ।
कमला चाची को कुछ घबराहट सी हो रही थी ,कई प्रकार की अशुभ कल्पनाएं उनकी रूह कंपा सी रही थीं , कि बेटा किसी मुसीबत में तो नहीं है ,कहीं मां को भूल तो नहीं गया परदेस में किसी से ब्याह रचा कर या शहर की चकाचौंध देखकर ,,,,,।ये सब सोचकर उनके मन में घबराहट से अनायास ही होने लगती वह ईश्वर को पुकार रही थी ।
अचानक पीछे से किसी ने कमला चाची के आंखों पर रंग लगे  अपने हाथ ढक लिए ।
मां अपने बच्चे का स्पर्श हर हाल में पहचानती ही है चाहे वह अपनी याददाश्त भी क्यों ना खो चुकी हो ,,फिर देखा सामने उसका जीवन वापस आ गया था। वह अपने हाथों में घर के कई सामान, मां के लिए साड़ी ,खाना पकाने के लिए कुकर आदि लेकर अपने गांव वापस लौटा था ,अपनी प्यारी मां के पास,,, अपने गांव के उसी बरगद की छांव में जहां वह पल कर बड़ा हुआ था ।
शहर की घनी आबादी से दूर सुकून का जीवन जीने फिर से वापस आ गया था जीवन,,,,,और मां से बोला ,अब मां अपने गांव में ही रोजगार कर लूंगा ,तुम्हारे पास रहकर, तुम और अपना गांव बहुत प्यारे लगते हो मुझे ,,,।

- सुषमा दीक्षित शुक्ला
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
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पत्नि पीड़ित समूह 
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गांव में सैर को जाते हुए, एक जगह काशीराम के कदम ठहर से गये।सात-आठ व्यक्तियों की भीड़, सुबह छः बजे चौपाल में जमा थी।
  काशीराम कौतूहलवश उनके पास चले गये। पूछा"क्या बात है?आप लोग इतनी सुबह यहाँ। कुछ अशुभ हुआ है क्या?"
   सरपंच ने कहा "हम पत्नि पीड़ित समूह के सदस्य हैं। अपनी पीड़ा का बखान एक दूसरे से कहते हैं और क्या करना है,इस पर विचार कर रहे हैं। "
    कांशीराम ने एक व्यक्ति से पूछा"आप अपना बताइये। आपको अपनी पत्नि से क्या शिकायत है। "
   उस व्यक्ति ने कहा "क्या बताऊँ। मेरी उम्र 50से ऊपर होगी।मेरी पत्नी कहती हैं कि सुबह 5बजे उठकर पैदल चलो।सैर करने जाओ।बीमार रहते हो।दवा-दारू में पैसे खर्च होते हैं। अब आप बताइए ।मैं सुबह सैर करने लायक रह गया हूँ क्या?"
    कांशीराम ने कहा "आप बुरा न माने तो हम आपकी पत्नी से बात करना चाहेंगे। "
     सभी ने इस बात का समर्थन किया। घर पहुँचे तो एक महिला धूंधट काढ़कर आंगन में झाडू लगा रही थी। उस व्यक्ति ने कहा "यही मेरी औरत है।जो मुझे बुरा-भला कहती रहती है। "
  काशीराम ने उससे पूछा "इनकी हालत तो कमजोर दिखती है। तुम इन्हें सुबह सैर के लिए जाने क्यों कहती हो।"
     सुनते ही उस औरत ने अपना धूंधट एक झटके से अलग कर दिया "देखो मुझे और मेरी उम्र को?इसने हमसे दूसरी शादी धोखे से, गलत बोलकर की।एक साल से घर से बाहर निकले नहीं हैं।रात भर खांसते रहते हैं। वह भी बीडी पी-पीकर।आखिर मेरी भी तो कोई चाहत है। मेरी जिंदगी में। है कि नहीं, बोलो।"
     
- डाॅ. मधुकर राव लारोकर 
नागपुर - महाराष्ट्र
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थोथा चना बाजे घना 
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गाँव में सोनी, मोनी के नृत्य, गीत की बहार थी। उनके बिना गाँव  का कोई भी मंगल उत्सव निरर्थक लगता,भले ही उनकी गिनती 'नाच ना आये आँगन टेंढ़ा में होती।' 
शगुन में उन्हें जो भी मिलता जीवन यापन चलता।
 सोनी मोनी हिजड़े जो थे, पर नायक नायिका का रोल बखूबी करते।
एक दिन गाँव में  'थोथा चना बाजे घना' फ़िल्म की सूटिग़ हो रही थी। फिल्म के निर्माता, निर्देशक ने सोनी, मोनी के नाच- गम्मत देख उन्हें अपने साथ ले जाने का विचार बना लिया। 
"अब हमें ना कहना -नाच ना आये आगंन टेढ़ा,  देखो हमें हीरो- हीरोईन का रोल दे रहे हैं।" 
तभी गाँव के वृद्ध ने कहा - “घुरवाँ के दिन बहुर  गे।" 

- अनिता शरद झा 
रायपुर - छत्तीसगढ़
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 रीना
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रीना ससुराल से कुछ दिन रहने के लिए माँ के पास आई हुई है। ऑफिस से आते ही वो अपने और माँ के लिए चाय बना कर लाई। और फ्रिज से सब्जी ले बनाने लगी। यह देख माँ की आँखों में खुशी के आँसू आ गए।चार महीने पहले तक जो लड़की किसी काम के हाथ न लगाती थी आज इतनी कुशल ग्रहणी बन गई ।और माँ चार महीने पहले की बात सोचने लगी।उसका ससुराल भी पीहर के बिल्कुल पास ही है। रीना एक छोटे से गाँव में रहकर पढ़ी लिखी और वही नौकरी पर लग गई। नौकरी लगने के कुछ समय बाद ही उसकी शादी संदीप से हो गई। संदीप उसी के ऑफिस में काम करते हैं।आफ़िस में दोनों की बहुत जमती।माँ टुकर टुकर रीना को देख रही थी।माँ ने कहा,तुम अभी थकी हारी आफिस  से आई हो ।रीना ने कहा, माँ आप तो मुझे कुछ करने ही नहीं देती ,ससुराल में तो मुझे आफ़िस से आकर अकेले ही खाना, बर्तन सब करना होता है और उसके बाद भी कोई कुछ ना कुछ बोल ही रहा होता है।आप मेरी आदत न बिगाडो । मैंने आपको शुरू से देखा है कि आप चाहे सर्विस नहीं भी करती लेकिन सुबह से किस प्रकार घर के कामों में लगी रहती हो। यह बात मैंने अब महसूस की। घर को खुशी पूर्वक चलाने के लिए एक औरत को ही लगना पड़ता है।माँ रीना का मुँह देखती रह गई।जब से ससुराल से आई है सच्चे अर्थों में तो रीना अब आत्मनिर्भर बनी हैं। नौकरी तो कई साल पहले लग गई थी।
जब भूख लगती हैं तो खाना ही चाहिए । यह बात  रीना अब अच्छे से समझ गई थी।
" भूखे भजन न होय गोपाला"।
- अलका जैन आनंदी
   दिल्ली
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ग्रामीण जीवन
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राजू अपने परिवार के साथ खुशहाल जीवन बिता रहा था कि अचानक एक दिन दुखों का पहाड़ टूट पड़ा जिस कंपनी में वह काम करता था  आगजनी से कंपनी की पूरी बिल्डिंग जल गई, कारोबार ठप हो गया। काम करने वाले लोगों को कंपनी से
छुट्टी दे दी गई।शहर में अपना कोई निजी घर नहीं बनाया था.. किराए का  लिया था उसी में उसका परिवार रहता था ।अब इतनी जल्दी काम मिलना मुश्किल ,परिवार को कैसे पाले..? इसी चिंता में रहता, उसकी पत्नी शालिनी ने कहा- क्यों ना हम सुल्तानपुर जाकर अपने पुराने कच्चे घर में रहें। वहां खाने-पीने की भी तंगी नहीं खेत है ।आम के फलों के बगीचे हैं।जो आपके दादा परदादा ने लगाए थे।नीम की ठंडी छांव ,किसी भी प्रकार की कमी नहीं , दोनों को विचार बहुत ही उचित लगा। शालिनी और बच्चों‌‌ को लेकर गांव चला गया वहीं पर पास के गांव में बच्चों का दाखिला करवा देगा और अपनी खेती बाड़ी में नयी तकनीकी और साधन से उन्नत खेती बाड़ी करके
अपनी ‌जीविका भी चलायेंगे।
गांव में रहकर अपनी माटी से भी जुड़े हुए जीवन‌‌ का आंचलिक आनंद भी मिलेगा।

- आरती तिवारी सनत
 दिल्ली
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फर्क
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आज प्रीता की मम्मी का जन्मदिन था, 60 वर्ष की हो गई थी वों मगर अभी भी चकरी की फुर्ती सी कार्य करती थी।
घर का कामकाज हो या बाहर का, हर कार्य बड़ी आसानी से कर लेती थी।
प्रीता उन्हें देखकर सोच में डूब जाती-"आखिर इस उम्र में भी इस स्फूर्ति का क्या राज़ है? हमें तो अभी से थोड़ा सा काम करते ही थकान महसूस होने लगती है"
आज माँ का जन्मदिन था तो प्रीता जाकर उनके पास बैठ गयी और ठिठोली करते हुए पूछने लगी-"मम्मा, आज तो आपको बताना ही होगा कि इस उम्र में भी आप इतनी ऊर्जावान कैसे रहती है"
माँ के चेहरे पर एक मंद मुस्कान छा गयी।
उन्होंने प्यार से प्रीता के सिर पर हाथ फेरा और कहने लगी-"बेटा, ये सब ग्रामीण जीवन का कमाल है।
आज के समय हर काम मशीनों से होने लगा है मगर हमारे समय ये सब सुविधाएँ उपलब्ध नहीं थी।
बर्तन धोने से लेकर कपड़े धोने तक, सब कार्यों में शारीरिक श्रम लगता था, ये कार्य अपने-आप में काफ़ी मेहनत भरे व्यायाम थे, जिससे शरीर तंदुरुस्त रहता था।
आज तो कपड़े धोने हो तो वॉशिंग मशीन, बर्तन साफ करने हो तो डिश वॉशर, पोंछा लगाना हो तो मॉप का यूज़ कर लेते हैं जिससे शारीरिक श्रम ना के बराबर होता है जबकि शरीर को स्वस्थ रखने के लिए ऐसे कार्य आवश्यक है जो चर्बी गलाएं।
अब तुम लोगों को तो झाडू-पोंछा करने, कपड़े और बर्तन धोने में शर्म महसूस होती है, ये कार्य करना अपने स्टेटस के खिलाफ़ लगता है इसीलिए तो आजकल जगह-जगह कुकुरमुत्ते की तरह फिटनेस सेंटर खुल गये हैं जहाँ शरीर की चर्बी कम करवाने और अपने-आपको फिट रखने के लिए तुम जैसे बच्चे मोटी फीस देते हो।
मगर बेटा, हम तो शुरू से ग्रामीण जीवन के रंग में रंगे थे, वहाँ सुबह चार बजे उठकर गाय का दूध दूहते, फिर स्कूल जाने के लिए तैयार होते, वर्तमान समय में जैसे घर के बाहर स्कूल बस बच्चों को लेने आती है, ऐसी सुविधा हमारे समय नहीं थी इसलिए घर से दो-तीन किलोमीटर दूर बनी स्कूल तक पैदल चलकर जाते थे जिससे हमारी मॉर्निंग वॉक हो जाती थी और शरीर स्वस्थ रहता।
साथ ही हमारे ग्रामीण जीवन में मिलावट के लिए कोई स्थान नहीं था, चाहे वो भोजन हो, पानी हो, आवासीय स्थान हो या वायु, सब भौतिक पदार्थ प्राकृतिक रूप से साफ़, स्वच्छ उपलब्ध थे।
आज शहरी जीवन की और मानव की अति आकृष्टता की वज़ह से जनसंख्या में अभूतपूर्व वृद्धि हुई जिससे मिलावटी वस्तुओं की बाढ़ सी आ गयी है क्योंकि उपभोक्ता अत्यधिक है और उत्पाद अपेक्षाकृत कम।
अब आज की युवा पीढ़ी जब ऐसे वातावरण में पली-बढ़ी होगी तो उनका स्वास्थ्य भला कैसे उत्तम होगा?"
माँ की बात सुनकर प्रीता सोच में डूब गयी-" सच में यही सबसे बड़ा फ़र्क है शहरी और ग्रामीण जीवन में, ग्रामीण जीवन में सुविधाएँ कम है मगर सुख अधिक और शहरी जीवन में जितनी अधिक सुविधाएँ, उतना अधिक तनाव, ऐसे में धनी कौन है, शहरी जीवन जीने वाले लोग या ग्रामीण जीवन जीने वाले? ये सचमुच एक विचारणीय प्रश्न है"

- सुषमा सिंह चुण्डावत
उदयपुर - राजस्थान
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माटी की खुशबू
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 राजीव के वापस घर लौटने के अप्रत्याशित निर्णय ने सबको चौका दिया।" मैं अपने देश, अपने घर से अब दूर नहीं रह सकता। मुझे मेरी माटी बुला रही है।"..... राजीव के मुख से निकला यह वाक्य सब को परेशान कर रहा था। गांव की पली-बढ़ी ,लेकिन इतने वर्षों से विदेश में रहने वाली, वही के रंग ढंग में बदल जाने वाली पत्नी को यह निर्णय एक हथौड़े के प्रहार जैसा घातक लगा। भारत में रहने वाले उनके दोनों अनुजो को ,जो समय समय पर अपने बड़े भाई के द्वारा भेजे गए कीमती विदेशी तोहफे और पैसों से लाभान्वित होते रहते थे ,उनको यह सब एक मूर्खतापूर्ण निर्णय लगा । राजीव का मन उनके साथ गांव में रहकर आधुनिक ढंग से खेती बारी करने का था। गांव की जमीन पर दोनों भाई अपना कब्जा समझते थे। उन्हें अपने बड़े भाई के भारत वापस आने की उम्मीद नहीं थी। अब उन्हें हर चीज में अपने बड़े भाई को भी उनका हिस्सा देना पड़ेगा। उन्हें बड़े भाई का वापस गांव आना हर तरह से नागवार गुजर रहा था।पिता चुप थे। बेटे के वापस आने से उनका हृदय जुड़ रहा था तथा मां की ममता हर्षित एवं तृप्त हो रही थी।
    राजीव के सपरिवार घर पहुंचने पर बड़ा ही फीका स्वागत हुआ। भाइयों के भवें चढ़ी रही तथा सब के व्यवहार से  उनके वापस आने की नापसंदी साफ झलक रही थी। तभी राजीव के नाक में पकवानों की खुशबू आयी। वह दौड़कर रसोई घर पहुंचे ।ढके हुए बर्तनों के मुंह को खोला...... कोफ्ते, मटर पनीर, दही बड़े और मां मालपुआ छान रही थी ।उन्होंने झट एक मालपुआ उठा लिया। गरम गरम मालपुआ का ताप सहन न कर पाने पर उन्हें एक हाथ से दूसरे हाथ पर उछालने लगे। थोड़ा ठंडा होने पर अपने दांतो से पुआ को काटा और स्वाद लेकर खाते हुए कहा," इसकी खुशबू, अपना परिवार ,अपना देश ,अपनी माटी ,...... अब मैं इनसे दूर नहीं रह सकता।"
   मां अश्रुपूरित निगाहों से अपने बेटे को खाते हुए निहार रही थी।

           - रंजना वर्मा उन्मुक्त
            राँची - झारखंड
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तमाशा
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   उषा की लाली क्षितिज पर फैल रही थी | बैलों के गले में बँधे घंटी की मधुर आवाज, गाँव के हर गलियों से निकल कर खेतों का रुख़ कर रहे थे|शिवालय के मंदिर की घंटी के साथ कोयल की सुरीली आवाज कानों में रस घोल रहे थे।गाँव की ये ही ख़ुशनुमा तस्वीर और ख़ुशबू मुझे हर साल कुछ दिनों के लिए खींच लाती थी|मैं जी भर कर अपने गाँव प्रवास को जीता था|कभी काका के घर घुघनी का नाश्ता ,कभी अजीया के घर दालभात चोखा ;साथ में उनके गँवई बातें सुनकर आत्मा तृप्त हो जाती |
आज भी प्रतिदिन की तरह माहौल वैसा ही था;सुबह का नाश्ता पड़ोस की मौसी के घर से भरपेट खाकर निकला ही था कि; बाहर शिवालय के तरफ़ कोलाहल और लोगों का हुजुम नज़र आया |उत्सुकतावश ,धोती उठाए भागते हुए नंदु चाचा से पुछा क्या हुआ चचा ?भागते दौड़ते ही उन्होंने जवाब दिया “आज नही छोड़ेंगे ससुरी को”मैने भीड़ के अंदर झाँकने की कोशिश की तो वहाँ का नजारा देख सन्न रह गया |एक अधेड़ महिला का ,दो चार मर्द मिलकर बाल काट रहे थे साथ ही प्रताड़ित ,गाली गलौज करते हुए बोल रहे थे -“डाइन ने जादू -टोना कर दिया है ;इसलिए हर घर के बच्चे काल के गाल में समा रहे हैं|काला जादू जानती है,”इसे ज़िन्दा मत छोड़ो मारो इसे”मैं आगे बढ़ कर रोकने ही वाला था कि ;तभी भीड़ को चीरती हुई एक  पंद्रह  साल की लड़की जो स्कूल जा रही थी ;अपनी साइकिल सहित अंदर घुस आई ,साइकिल वही पटक कर दहाड़ते हुए सभी को ललकारने लगी “ये क्या तमाशा हो रहा है”?अक्ल घास चरने गया है क्या आप लोगों का ?”अपनी आस पास की गंदगी को साफ़ किजीए |”झाड़ -फूँक से इलाज करवाने के बजाए अस्पताल में इलाज करवाइए बच्चों का |अपने अंतर्मन के कचड़े को साफ़ करने के बजाए “आपलोग एक बेसहारा औरत को दोषी मान रहे हैं|”सारे भीड़ को उसने धिक्कारा|
मैं उगते सूरज की रौशनी में बेहतर,सशक्त ,जागरुक कल को अपने सुरक्षा घेरे में लिए अधेड़ महिला को सुरक्षित ओझल होते हुए देख रहा था|

- सविता गुप्ता
राँची - झारखंड 
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कलेक्टर , कुआँ अौर किसान
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-कलेक्टर अपनी कार से,व्यक्तिगत यात्रा पर निकले थे
पत्नी -बच्चे कार में खुशी-खुशी सफर तय कर रहे थे
तीन-चार घंटे चलने के बाद बच्ची ने पानी माँगा 
पत्नी ने कहा - अरे ! पानी रखना तो भूल ही गये
कलेक्टर साहब ने कहा रास्ते में कहीं पानी मिलेगा
तो वहाँ  पी लेना, बच्ची ने कहा - पापा तेज प्यास लगी है
ठीक है वो आगे खेत दिख रहा है चलो वहीं से पानी पी लेते हैं
थोड़ी दूर चलकर खेत के कुएँ  के पास गाड़ी रोक दी
बच्चों सहित कलेक्टर साहब नीचे उतरे , कुएँ के आसपास देखा
कोई नही दिखाई नही दे रहा था, हाँ एक बाल्टी अौेर रस्सी अवश्य थी।
कलेक्टर साहब ने पानी पीने के लिए , बाल्टी उठाई अौर कुएँ में डाल दी
बार-बार कोशिश के बावजूद ,बाल्टी पानी में नही डूब रही थी
तभी पीछे से किसान आया अौर बोला क्या कर रहे हो बाबूजी ?
 पानी पीना है? कलेक्टर साहब ने कहा - लेकिन ये बाल्टी कुएँ  में डूबती ही नही
किसान बड़े प्रेम से कहा- कलम वाले हाथ हैं बाबूजी , किसानी काम कैसे समझ सकेंगे? लाओ, मुझे दीजिए ,बाबूजी । मैं पानी पिलाता हूँ। 
किसान ने बाल्टी में रस्सी के सहारे दो जोर के झटके मारे बाल्टी फौरन पानी में डूब गई।
बाल्टी खींच कर देता हुए कहा - बाबूजी , अभी गिलास लाया अौर पानी देते हुए कहा -बाबूजी ,पानी पीजिये।
सभी ने पानी पी पिया तो  सभी को अच्छा लगा तब , कलेक्टर साहब ने पर्स से निकाल कर सौ रूपये किसान के हाथ में रखते हुए  कहा - लो रख लो , तुमने इतनी मेहनत कर , हमें पानी पिलाया।
किसान ने हाथ झटकते हुए कहा - ये क्या कर रह हो बाबूजी , हम किसान कोई बिकाऊ नही हैं ? हमारा भाव लगा रहे हो? दुनिया बिक जाये लेकिन हम दुनिया का पेट भर ही अपना पेट भरेंगे बाबूजी। रूको बाबूजी ।
तुरंत खेत  में घुसकर हरे-हरे चने के पौधे उखाडकर देते हुए कहा-  ये लेते जाओ बाबूजी , बच्चे खाते रहेंगे तो भूख नही लगेगी अौर पानी के लिए ये हमारा तुम्बा है इसे भर कर रख देता हूँ। बड़ा ठण्डा -ठण्डा अौर मीठा पानी पीते रहना।
कलेक्टर साहब ने किसान को तुम्बा देते हुए उसके चेहरे की प्रसन्नता को देख कर अपने आप को आज बहुत छोटा पाया। हिम्मत जुटाते हुए कहा - दादाजी , मैं आपको कुछ दे तो नही सकता लेकिन आप से अौर भी कुछ ले जा सकता हूँ। अौर किसान के पैरों में अपना सिर रखते हुए कहा - मुझे आशीर्वाद दीजिए , मैं यहाँ का कलेक्टर नाम मात्र का हूँ। असली तो आप किसान . . .

- विनोद नायक 
नागपुर - महाराष्ट्र
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बरसाती आँखें
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आज कई दिनों से पानी लगातार बरस रहा था।
बादलों ने जैसे सारे आसमान का पानी लेकर उसके गांव में उडेल दिया था।
सड़कों पर कमर तक पानी भरा हुआ था। घर द्वार सब बाढ़ में जलमग्न हो गए थे।
दस ही दिन पहले बुधुआ खेत की मुंडेर पर बैठा सूनी आँखों से आकाश को ताक रहा था।
भयंकर गर्मी में ईश्वर से बरसात भेजने की प्रार्थना कर रहा था। खेत पानी के बिना तड़क रहा था। न ही हल चले थे और न ही बीजनों की बुआई हुई थी।
तभी अचानक से घिरे बादल उसके लिए खुशियों की उम्मीद लेकर आए थे। बस वह इन्तजार कर रहा था कि जमीन जरा सी भीजे तो वह हल चलाए पर पानी ने जो मूसलधार लगाई कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था।
घर द्वार तो बाढ़ में बह ही गए घर में रखी बीजन भी सारी पानी में सड़ गई।
पहले सूखा, फिर बाढ़...
"हे भगवान.. ये कैसा खेल दिखाय रहे हो..।" बुधुवा बड़बडा़ उठा।
बस बचा रह गया था बुधुआ... केवल बुधुआ... बेबस किसान और उसकी अनवरत बरसती आंखें...

- कनक हरलालका
धुबरी - असम
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चले  अपने गाँव
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हमारी शादी के बाद ससुरालवालों ने कैसी बंजर जमीन हमें बँटवारे में  दे दी . इस बाँझ जमीन में  कुछ भी पैदा नहीं होता है . 
कैसे पेट भरें ? ”  चिंतित मालती ने पति मनोज से कहा
 " हाँ – हाँ , रात – दिन मुझे भी यही चिंता खाए जा रही है कि कैसे बंजर को उपजाऊ बनाया जाए ? दूसरों के खेतों में मजदूरी करके कब तक हम गृहस्थी की गाड़ी चलाएँगे? “
  " सुनो जी !   रामदुलारी ने अपने खेत की  फसल की पैदावार बढ़ाने के लिए  ‘ मृदा स्वास्थ  कार्ड ‘ के द्वारा पौषक तत्वों की कमी का पता लगाके संतुलित मात्रा में फर्टिलाइजर डाल के उर्वरक क्षमता को बढ़ाया था । अब  उनकी फसल कैसी सुंदर लहलहा रही है  ? चलो जी !  हम भी ‘  मृदा स्वास्थ कार्ड योजना ‘ का लाभ लें .”
 “ हाँ जरूर , हम भी इस तकनीकी जाँच  से बाँझ को उर्वरक में तब्दील कर दें . “
 “ अरे वाह मनोज  ! बंजर  में कैसे सुंदर  गुलाब , सूरजमुखी , गेंदा चमेली आदि के फूल खिला दिए है . देखो बेला कैसा महक रहा है ,लोकी , भिंडी , तोरी  भी कैसी लटक रही हैं? ”
 “ हाँ , ' हरियाली है तो कल है ' की मिसाल प्रकृति की महत्ता  तरह –तरह की सब्जी  संग  बेला के फूलों की  उपयोगिता  भी अथाह है । “
"कोरोना लाकड़ाउन में जब लोगों  बेरोजगार हो गए तो हमारे गाँव की मिट्टी ने ही  शहरों में गए उन ग्रामीणों को वापस अपने  गाँव  बुला लिया, उनकी मेहनत खेतों में रंग लायी है , गौ माता की सेवा कर लाभ उठा रहे हैं  । "
" हां मालती ! सच में अब वे थैली वाला दूध से बच गए । ताजी -ताजी सब्जियां मिल रहीं हैं सो अलग।

- डॉ मंजु गुप्ता
 मुंबई - महाराष्ट्र
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             प्रवासी मजदूर
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छत्तीसगढ़ के रायपुर जिले के पास एक छोटा सा गांव 'छाती ' पड़ता है केजा अपने माता-पिता , छोटा भाई लगनु और उसका अपना परिवार पत्नी एवं 4 साल की बेटी सोनी के साथ रहता है !  ईश्वर की कृपा से 10 बीघा जमीन उनके पास है !  अच्छी खासी फसल होती है ! धान , सब्जी , फूल सभी की खेती होती है ! समय के अनुसार वह सब लगाता है ! घर में गाय ,भैंस घर का दूध घी सभी सुख था ! माता-पिता भाई , पत्नी और वह स्वयं पांचो मिलकर खूब मेहनत करते थे ! खेत से अच्छी इंकम हो जाती थी ! सब मिलाकर गांव में जीवन खुशहाल था !
केजा के बचपन का मित्र मंगलू दिल्ली में काम करता था ! उसी की तरह किसान का बेटा था ! दिल्ली शहर जाकर सब्जी , फल का धंधा कर अच्छे रुपए कमा लेता था !उसके पिता की भी कुछ मदद हो जाती थी ! इस समय उसने केजा से कहा मेरे साथ चलो शहर में बहुत पैसा है ! केजा का दिमाग दौड़ने लगा ! उसने अपने माता -पिता से शहर जाने की बात की ! पिता ने समझाया बेटा गांव में किस चीज की कमी है अच्छी खासी आमदनी तो होती है !
केजा ने पिता से कहा सभी के खेत में जूतने से क्या मतलब! अपना  छोटा तो है !बारिश ना आने से हमें तकलीफ का सामना भी तो करना पड़ता है !  मैं वहां जाकर रुपये  भेजूंगा !  पिता ने कहा बेटा यहां दस हाथ है वहां तू अकेला ....
अकेला कहां !  कमला भी साथ रहेगी !  दोनों मिलकर अच्छा कमा लेंगे ! पिता के लाख समझाने पर भी केजा के दिमाग में तो दिल्ली शहर की चमक दिख रही थी !  केजा दिल्ली में अपने मित्र की तरह सब्जी-भाजी ,फ्रूट का धंधा करने लगा !दिन अच्छे कट रहे थे ... लड़की भी स्कूल जाने लगी ! 
8 साल हो गए वह दिल्ली का होकर रह गया !   पत्नी भी कोठियों में घर काम कर अच्छा कमा लेती थी ! 
दिल्ली को तो उसने अपना लिया किंतु वह प्रवासी मजदूर बनकर रह गया ! 
 आज इस कोरोना काल में लॉग डाउन में सब बंद !  धंधा बंद , ट्रेन बस सभी बंद ! रोज कमाने वाले भूखों मरने लगे केजा के पास कुछ रुपए थे किंतु धीरे-धीरे वह भी खत्म हो गए गांव जाये भी तो कैसे ?
ट्रेन, बस बंद होने से आखिर उसने भी अन्य प्रवासी मजदूरों की तरह ही पैदल यात्रा का निश्चय किया ! बारह साल की बेटी ,पत्नी सभी के साथ भूखे प्यासे अपने गांव की ओर निकल पडे़ !
केजा की समझ में आ गया शहर ने हमें पनाह अवश्य दिया किंतु प्रवासी कह सौतेला पन दिखा दिया ! 
गांव पहुंचते ही उसने हमें अपनी आगोश में ले लिया ! मेरा गांव मुझे कभी जाने को नहीं कहेगा !
परिवार साथ हो और 10 हाथ मिल जाए तो हमें किसी की गुलामी नहीं करनी पड़ेगी !  अपने गांव में ही रहकर उन्नति के द्वार खोल आत्मनिर्भर बनना ही अब मेरा भी ध्येय है ! 

- चंद्रिका व्यास
 मुंबई - महाराष्ट्र
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दादी का गाँव 
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दादी की सिख आज बीत दिन की तरह अपना वजूद क़ायम रखती हैं । 
गर्मी की छुट्टियाँ में बच्चें दादी के घर गाँव आयें हुए थे । बड़े दिनो बाद दादी को मौक़ा मिला था । परिजनों के साथ अपना वर्चस्व स्थापित कर बच्चों को सिख देना दिन भर तुम सब बच्चे दादी के घर आकर भी , टी . वी  आई पेड ,फ़ोन में गेम खेलने में लगे रहते हो , तुम्हारे मम्मी पापा शोर गुल ना हो , एटिकेट मेनर्स के चलते , ये आधुनिक स्पोर्ट की चीज़ें दे , उनके कार्यक्षेत्र में बाधा ना हो , तुम्हारी अपनी क्षमताओ को कम कर दिया है । थोड़ा उच्चल कूद करते हो , ज़रा ज़रा सी बातों पर डाँट लगाई जाती हों ।
    दादी ने कहा - चलो आज , तुम सब बच्चों को पिकनिक पर गाँव की सैर कराने लिये चलती हूँ । अपनी मम्मी से परमिशन के साथ , वाटरबाटल लंच बाक्स अपने साथ रखो । घर से निकलते ही आसमान पर ,एक साथ  परिन्दों ,को एक ही दिशा में उड़ते देख बच्चों ने पूछा ? दादी इन्हें कोई गाइड की आवशकता नही होती ,  दादी ने उत्तर दिया , ये आत्मनिर्भर निर्भीक हो स्वयं का जुगाड़ घोसला बनाने से खाने पीने आगे बढ़ते है । तभी दूसरे बच्चे ने रंग बिरंगे पतंगों को उड़ते गिरते देख पुछा ? उस झुंड में बच्चें कितना ख़ुश हो रहे है पतंग काट कर ,  दादी ने कहा यही इंसानी फ़ितरत है  । जहाँ इंसान बल ,बुद्धि ,विद्या का प्रयोग कर आगे बढ़ना चाहत है , 
तभी तीसरे बच्चें ने तालाब की ओर इशारा करते कहता - देखो इतनी सारी मछलियाँ   तालाब में रह मगरमँछ से बैर नही करती , चौथा बच्चा कहता कमल भी तालाब में खिल अपना  ,अस्तित्व , बरक़रार कर सर्वोच्च स्थान में , दादी ने कहा तुम सब बच्चें  समझदार हो मौसम ख़राब हो चला घर की ओर रूख करते हैं । 
कल तुम्हें हरे भरे खेतो खलिहानों बाग़ बाग़ीचों से परिचय कराऊँगी । छोटे छुटंकी ये नही पूछेंगे की दाल और चावल एक साथ कैसे उगते है धान से चावल कैसे तैयार किया जाता है फ़ुल से फल कैसे तैयार होता है । 

-  अनिता झा 
रायपुर - छत्तीसगढ़
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                 सपना बचपन का 
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          सुरेश का गाँव बहुत ही साफ सुथरा छोटा सा मनोहारी सा था । बस कमी थी तो एक स्कूल की  जो सिर्फ  पाँचवी तक का था और सुरेश पढ़ने का शौकीन।  माँ बाप  खेतिहर मजदूर थे। बच्चे को पढ़ाने के लिए शहर आ गए यहाँ मजदूरी करने लग गए।  शहर की समस्याओं से जूझते हुए वक्त बीतता गया  । पढ़ लिख कर सुरेश महानगर में नौकरी करने लगा । प्राइवेट नौकरी घर-परिवार के साथ सामंजस्य बिठाते बिठाते एक दिन रिटायर्मेंट का दिन भी आ गया । 
                           अब ग्रहस्थी में पति पत्नी ही रह गए थे और सुरेश  की यादें। बचपन में ही गाँव छोड़कर शहर में बसने की मजबूरी और कसक अब कुछ ज्यादा ही सालने लगी थी । अपना दर्द जब कुछ दोस्तों से सांझा किया तो इसी तड़प को वो भी महसूस करते मिले । सभी दोस्तों ने निर्णय लिया कि अपने सुकून को पाने और दर्द को कम करने के लिए   वापिस गाँव चलते है वहाँ कोई ऐसा प्रोजेक्ट शुरू करते है जो गाँव के लोगों को रोजगार दे और वो अपने गाँव को छोड़कर शहर ना जाए।  
अपना सामान समेटते हुए उसके चेहरे पर असीम खुशी और शान्ति के भाव थे ।

- नीलम नारंग 
हिसार - हरियाणा 
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गतिरोध
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        " हैप्पी बर्थडे मम्मी जी! आफिस में जरूरी मीटिंग आ गयी थी, जिससे मुझे आने में देर हो गयी"... प्रिया ने सुधा के पाँव छूते हुए कहा। 
      सुधा पहले से ही भरी बैठी थी, 
"कम-से-कम आज तो बहाने न बनाओ! 
  " बहाने? नहीं मम्मी जी, मैं कोई बहाना नहीं बना रही। मीटिंग के बाद आपके लिए गिफ्ट खरीदने चली गयी थी। आपके लिए जैसा पर्ल-सेट मैं खोज रही थी, मुझे मिल ही नहीं रहा था। बाजार का थोड़ा चक्कर लगाना पड़ा, लेकिन अंत में मिल ही गया। "
"गिफ्ट की क्या जरूरत थी? तुम समय से आ जाती तो मेरी सहेलियों के बीच मेरी नाक  नहीं कटती।"
  " मिसेज चड्ढा का कटाक्ष अभी भी मेरे कानों में गूँज रहा है… 
"सुधा मैंने पहले ही तुझे आगाह किया था कि माडर्न बहू मत ले आ। जो लड़की मंगलसूत्र और सिंदूर की परवाह नहीं करती, वह तेरी क्या करेगी? तुझे क्या पता, आफिस के नाम पर कहाँ जाती है… क्या करती है…?" 
"मम्मी जी! कौन क्या कहता है, मुझे इसकी कोई परवाह सचमुच नहीं है, पर मुझे आपकी परवाह है, आपके खुशियों की परवाह है। 
   वैसे मम्मी जी!आपके बेटे आफिस ही जाते हैं, कहीं और नहीं, क्या आपको पक्का पता है? खैर! वो सब छोड़िए… मैं फ्रेश होने जा रही हूँ, तबतक आप यह नेकलेस पहन के देखिए आप पर कैसी लग रही है। "
     सुधा हतप्रभ रह गयी। सही तो कह रही है।बेटे से बँधी विश्वास की डोर बहू के लिए कमजोर क्यों हो जाती है? बहू सिंदूर नहीं लगाती तो बेटा भी तो जनेऊ नहीं पहनता! वह सोचने लगी… 
       बहू का अपने रहन-सहन के अलावा कभी कोई अशोभनीय व्यवहार नहीं था। दूसरों की बातों में आकर मैं ही हमेशा उससे दुर्व्यवहार करती रही। अपनी तरफ से प्यार देना तो दूर, उसकी पहल पर भी पूर्वाग्रह से ग्रस्त मैं स्वयं ही अवरोधक बनी रही। अब और नहीं… 
    एक दृढ़ निश्चय के साथ सुधा ने प्रिया का गिफ्ट-पैकेट खोला। एक खूबसूरत पर्ल-नेकलेस जिसकी चाहत बरसों से मन में दबी थी, पर जरूरतों की लंबी लिस्ट के सामने  कब दम तोड़ गयी थी । 
    सुधा स्वयं ही प्रिया के रूम में चली गयी। प्रिया ने देखा - नेकलेस अपनी सही जगह पर था साथ ही एक और बहुमूल्य आभूषण मम्मी जी के होठों पर सजा था - उनकी निश्छल मुस्कान जिसने दिल को दिल तक पहुँचने के गतिरोध को समाप्त कर दिया था। 
            
      - गीता चौबे गूँज
      राँची - झारखंड
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फैसला 
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गाड़ियों का काफिला गाँव में घुसा तो धूल का गुबार आसमान पर छा गया । खट-खट गाड़ियों के दरवाजे खुले भकाभक सफेदी  की चमकार लिए कुरता  पायजामा धारी बहुत से लोग उतरे और किसना के घर की और मुड़ गए । माटी को पैरों से गूंथता किसना अपनी तरफ आती भीड़ को देखने लगा लेकिन पैर अपनी गति से चल रहे थे । 
सरपंच जी आगे आगे भागते हुए   किसना के पास आकर ही दम लिया । फूली हुई सांसों पर काबू करते हुए बोले ।
किसना ! नेताजी के लिए है चल  जल्दी से झोपड़ी में से  खटिया लाकर बिछा अपनी महरारु को बोल बाजरे की रोटी बनाले नेता जी खायेंगे ।
किसना ने माटी से निकाल कर पैर धो आया ।
 किसना जे ले आटा  और हरी मिर्च , चूल्हे में भूज के बैंगन बनवाले। 
किसना  ने अंदर जा कर पत्नी को सारा सामान पकड़ा दिया रनिया साबुत सी थाली में खाना देना टेड़ी भेड़ी में मत देना । 
तुम दारु पी कर थाली फैंकना बंद करदो सब थाली दारु की भेंट चढ़ गई एक बची है। 
ठीक है ! ज्यादा मत बोल काम कर ।
किसना का मन तो ना कर रहा था पर संस्कार आड़े आ गए । बड़ों ने घर आए मेहमान की इज्जत करना जो सिखाया है । 
  झोंपड़ी से खटिया निकाला लाया और अदब से नेताजी को बैठा दिया उनके चारों तरफ लोगों का हुजूम उमड पड़ा था  ।केमरे लिए लोगों में फोटू खींचने की होड़ लगी थी । किसना को किसी की बात पल्ले  नहीं पड़ रही थी बस इतना पता था चुनाव आ गया है । 
 सरपंच ने सुत संन्न खड़े किसना को झकझोर कर कहा किसना नेताजी के लिए खाना तैयार हो तो ले आ जल्दी ।
किसना भीतर जाकर खाना ले आया और नेताजी को दे दिया और खुद हाथ जोड़कर खड़ा हो गया ।
नेताजी ने केमरे में देखकर खाना खाया सभी ने नेताजी की तारीफ की कितने महान हैं हमारे नेता जी  मिट्टी के बर्तन बनाने वाले के घर खाना खा रहे हैं। 
"नेता जी ने चलते हुए किसना से कहा वोट हमें ही देना ।"
साहब छोटा मुँह बड़ी बात कुछ फैसले हम पर ही छोड़ दें तो अच्छा है । 

- अर्विना गहलोत
ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
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सौंधी गंध 
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"बच्चों ,दादी का स्वास्थ्य बहुत खराब है तो इस बार हम किसी हिल स्टेशन न जाकर गाँव चलेंगे।"शिवांश ने कहा 
"गाँव .....न डैड ....नो,नेवर..।"अंश, अदिति ने मुँह बनाया 
"जान ...बच्चे बोर हो जायेंगे।उन्हें आदत नहीं है ...डार्लिंग ..आप ही दो दिन के लिए चले जाइये ...फिर हम हिल....।"
"वंशिका...।कीप क्वाइट...।बच्चे अपनों से इसी कारण दूर रहे सदैव ...और मैंने भी हमेशा तुम्हारा मन रखा।पर इस बार नहीं।बच्चों को अपनी जड़ों से भी परिचित होने दो।"शिवांश की आवाज की सर्द कठोरता महसूस कर वंशिका सहम सी गयी। विगत दस सालों में पहली बार शिवांश ने इस तरह से उसकी बात काटी थी।
दो दिन बाद  सभी गाँव में थे। ड्राइवर से कार पीछे-पीछे लाने को कह शिवांश बच्चों के साथ उतर कर पैदल चलने लगा। पहले बच्चों और उनकी माँ ने ना-नुकुर की फिर बच्चों को मजा आने लगा।कच्ची पगडंडी ,कच्चे पक्के घर ,कोई एक मंजिल कोई दो मंजिल ।कोई शहरी मकान जैसा भी दिखा। कहीं खेतों में खड़ी फसल ,कहीं कुयें कहीं कच्चे  मंदिरों पर लहराती लाल -पीली ध्वजा ।बच्चे उत्सुकता से देखते पूछते चले जा रहे थे। कहीं फसल को हाथ से सहलाते तो कभी रुक कर खेतों में चलते हल देखने लगते।
घर की चौखट पर पहुँचते ही औसारे में पिता के साथ गाँव के बड़े बुजुर्गों को देख शिवांश पाँवों में झुक गया
"अरे शिव बेटा , अबकी तो भौत टैम बाद आये । बहुरिया भी आई है का ?और ई का थारे ही बचवा हैं ...पैदल काहे आयो ,खबर कर देतो तो हम फटफटिया भेज देते..।"सभी उपस्थित लोग एक के बाद एक अपनी बात कहने लगे। जिस अपनत्व को शिवांश तरसता था ,उसे देख आँख भर आई। उसनज बच्चों को इशारा किया तो बच्चे झट से बेझिझक सभी के पाँव में झुकने लगे। 
"चल..चल..भीतर चल। हाथ-पाँव धो के कछु जीम ले।"
अंदर जाकर देखा ..वही बचपन का कच्चा ,गोबर से लिपा ,रंगोली से सजा आँगन ।एक कोने में माटी का चूल्हा जिस पर सिंकती रोटियाँ तो चूल्हे की आग को थोड़ा बाहर निकाल कर उस पर रखी पतीली से उठती सौंधी खुशबू..।शिवांश की आत्मा मानों तृप्त हो गयी।
"अम्माँ ,....।"माँ की खटिया के पास  जाकर जैसे ही पुकारा ..माँ मानो जी गयी। गज़ब की फुर्ती से उठ कर शिव को नन्हें बालक की भाँति गले लगा लिया। चार नेत्रों से नेह धारा फूट पड़ी।
"चलो देवर जी , ..पहले जीम लो फिर आराम से बतियाना। "बड़की भौजी ने आकर हौले से टहोका।
       जमीन पर बिछी चटाई, काँसे की थाली में गर्मागर्म फुलका ,दही ,चटनी के साथ देसी घी में बघारी दाल और बाजरे ,मिस्सी की रोटियाँ ।बच्चे यूँ खा रहे थे मानों अमृत मिल गया हो।
"डैड.....यह तो पिज्जा ,चाऊमिन से भी ज्यादा बेस्ट है ।सो यम्मी..।"चावल को हाथ से खाते व ऊँगलियों को चाटते बच्चे बोले तो शिवांश की आँखों में संतुष्ठि के भाव उभरे ।वंशिका की नजरें बच्चों की हरकत व शिवांश की नजरों में प्रश्न देख स्वतः झुक गयी।गर्म रोटी पर रखा मक्खन का ढेला पिघलने लगा था।
- मनोरमा जैन पाखी
भिण्ड - मध्यप्रदेश
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एक और एक ग्यारह 
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आज खेत में  गेहूँ की कुछ अधपकी  फ़सल देख कर उस की आँखे ख़ुशी से नम हो गयी । याद हो आया वह समय जब  उस के पिता उन सब को छोड़ इस दुनिया से चले गये थे ।
माँ ने कहाँ था "बेटी खेत दीनू को बँटाई पर दे देते है ।जितनी फ़सल होगी उसका तीन हिस्सा फ़सल हमे देगा ।साल भर का अनाज होता था ,अब आधे में ही गुज़ारा करना पड़ेगा ।"
"नहीं माँ अब हम मिलकर अपने खेत को जोतेंगे"। उस ने कहां था ।
"पर बेटी तुम्हारे पिता  तुमको पढ़ाना चाहते थे!" माँ ने कहाँ।

"माँ पढ़ाई भी साथ में ज़री रखूँगी"।
 "ठीक है जब तुमने ठान ही लिया है, तो मैं तुम्हारे हर फैसले मे साथ हूँ ।"माँ ने कहाँ "।
जब खेत जोतने लगी तो गाँव के लोगो  ने कितनी बातें की थी ।"अरे ये औरतों का काम नही "ये नहीं कर पाओगी!दो अक्षर क्या पढ़ ली पता नहीं अपने को क्या समझने लगी ,चली है खेत जोतने"।
आसान नहीं था।
पर माँ बेटी ने मिल आख़िर बीज बो दिया था ।और समय पर पानी और गुड़ाई भी करती रही ।महनत रंग लायी !फसल पक कर तैयार हो गयी ।
"ले बेटी कुछ खा ले आज बिना कुछ खाये ही खेत देखने चली आयी ।बेटी ये तुम्हारे हौसले का ही नतीजा है, मैंने तो हिम्मत हार ही दी थी ,हमारा क्या होता ?"
बेटी को खेत निहारते देख ,माँ ने कहाँ ।माँ बापु तो हमेशा कहते थे।" महनत ,लगन और हौसले से क्या नहीं किया जा सकता ।
माँ अच्छा हुआ तुम खाना ले आयी ।भूख भी लगी है।  "खाना खाने लगी ।

- बबिता कंसल
दिल्ली
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ग्रामीण जीवन
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रमन बड़े शहर में रहता था। वह बहुत परेशान तथा दुखी रहता था। एक बार रमन के पिता रामू ने रमन को ग्रामीण क्षेत्र में भेजा। गांव में उसकी बुआ रहती थी। जहां पहुंचने पर गांव में जहां बच्चों के संग खेला, घी दूध जमकर खाया, हंसी खुशी से दिनभर बिताना, बहुत प्रसन्न हुआ, लंबे समय तक गांव से शहर नहीं आया। अखिल रमन
उनके पिता उन्हें लेने के लिए आए। सारी जानकारी हासिल की और वापस अपने घर ले गए। लेकिन यह क्या रमन की फिर से वही हालात। रमन फिर बीमार पड़ गया। समय बीतता चला गया, दवाओं से ठीक नहीं हुआ तो रामू ने रमन को फिर से ग्रामीण क्षेत्र में भेजा। फिर से वापस स्वस्थ हो गया। आखिर रमन ने पता लगा लिया कि गांव में ही असली जीवन है। ग्रामीण जीवन सबसे बेहतर है। फिर तो रमन भी
शहर को छोड़कर गांव में आ गया। आधा जीवन शहर में बिताया और आधा अब गांव में बिताया। उन्होंने बस मरते दम तक यही कहा कि ग्रामीण जीवन सर्वोत्तम जीवन होता है।

- होशियार सिंह यादव
महेंद्रगढ़ - हरियाणा
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कीचड़ में कमल 
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साड़ी का खूँट पकड़कर मेरा बेटा मुझसे हठ करने लगा, “अम्मा...बताओ ना... कीचड़ में क्या खिलता है ?”
“अरे, ...हट, तंग मत कर | देख ऊपर, कितने घने बादल हैं... जोर से बारिश आने वाली है, जल्दी-जल्दी इन बिचडों को लगाकर घर जाना है | कल से घर में चूल्हा नहीं जला है | क्या पता? इंद्र देव आज भी कुपित हो जाएँ ? यदि आज भी ओले बन कहर बरपायेंगे... तो खाना-पीना, रहना, सब दूभर हो जाएगा ! जलावन सूखी बची रहेगी ?! या कल की ही तरह हमें आज फिर सत्तू खाकर दिन काटना पड़ेगा !? इधर, बेचारे इन बिचड़ों को जो हाल होगा वो भगवान मालिक !”
“अम्मा, ये सब मुझे नहीं सुनना ..पहले बताओ...?”
“तू भी सच में बड़ा जिद्दी है| बिना बताये कभी मानता कहाँ ! बेटा, कीचड़ में बिचड़ों का मुस्कुराना  मेरे मन को बहुत सुकून देता है | रे...तू क्या समझेगा ! अभी इसी तरह अबोध जो है ! ”  धान के बिचड़ों को कीचड़ सने हाथों से सहलाते हुए..मैं काले मंडराते बादल को देखने लगी |
“पर, अम्मा... किताबों में तो यही लिखा है कि कीचड़ में कमल खिलता है|”
“रे...पढ़ा होगा  ! पर, जिस किताब की बात तू कर रहा है ना, वो भाषा मुझे नहीं सुहाती ! भूखे पेट...कीचड़ में कमल नहीं, मुझे, धान की बालियाँ लुभाती है |”

- मिन्नी मिश्रा 
पटना  - बिहार
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         भंवरजाल के बीच
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     राजपाल खेत से गांव के अपने घर मे लौटे तो बच्चे को पढाती रीमा उठी और रसोईघर में चली गई।"मम्मी"टिंकू गला फाड़कर चिल्लाया ,"मेरा होमवर्क पूरा करवाओ न।"
"बेटा ,थोड़ा  दादाजी से करवा ले।मैं जरा खाना गरम कर दूं।"
"बाबा,बाबा"टिंकू कुछ डरता -डरता बोला ,"बादल   शब्द का वाक्य में प्रयोग लिखना है।लिखवा दो न।"
"ऐं?बादल?"थके हुए राजपाल बच्चे को डांटने ही वाले थे कि बादल शब्द सुन रुक गए।मार्च के महीने में आसमान में बादल देखकर आए वे वैसे ही तनाव में थे"लिख ले बेटा, किसान की ज़िंदगी का अहम हिस्सा हैं बादल!समय पर न आएं तो मुसीबत और समय से पहले आ जाएं तो और ज्यादा मुसीबत!"

- सन्तोष सुपेकर
उज्जैन - मध्यप्रदेश
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आपदा अवसर नहीं
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नेपाल से छोड़े गए पानी से कोसी का सारा इलाका जलमय हो गया था... कहाँ तो बारिश नहीं होने के कारण धरा अपनी करेजा फाड़े आग उगल रही थी और अब पूरा गाँव के गाँव समुन्द्र में तब्दील हो गया था...।
 चिंतामग्न रतन दास अपने कमरे में लेटे ही थे कि उनका चाकर आकर सूचित करता है कि दरवाजे पर अलगू महतो खड़ा है।
रतन दास बाहर आते हैं और पूछते हैं ,"की बात छैक अलगू ? कह' कोना एलह ?"
"माफ करु गिरहथ.... बाढिक चपेट पेटक आगि पाजारि देलक य' । कतेक दिन सँ घर में चूल्हा न ए पजरल... बड्ड आस ल' क' अहाँ लग एलहुँ य' सरकार ।"
"आस के लेल कतेक पाय अनलह देखाबह त'...।"
"जी! जी हजूर! कहते हुए अलगू अपने गमछे में बंधा गठरी रतन दास की तरफ बढ़ाता है और रतन दास की आँखों की चमक बढ़ती ही है कि उसी बीच चाकर आकर कहता है कि घर के अंदर मलकिनी बुला रही हैं... रतन दास ड्योढ़ी से घर के अंदर जाते हैं कि उनकी पत्नी बोलती है
"इ अहाँ की क' रहल छी ? प्रकृति केँ डांग परलै य' ओकरा उपर किनसाइत ओकर हाय हमरापर ने पड़ि जाय 
   नीक खराब दिन सबहक अबैत छैक "
"हमर घर छियैक कोनो धर्म दान आ मंदिर नहि .... मंदिर मे बिना चढौआ कोनो फल नहि भेटैत छैक ।"
"ओहि मन्दिरक मारि सँ डरु...।"
कुछ सोचते हुए रतन दास घर के बाहर आते हैं और कुछ रुपये अलगू को थमाते हुए कहते हैं , "हमर आँखि तोहर गिरहथनी खोली देलखुन"
चाकर रेडियो का आवाज तेज करता है... 
वक़्त से कल और आज 
वक़्त की हर शह ग़ुलाम 
वक़्त का हर शह पे राज

- विभा रानी श्रीवास्तव
- पटना - बिहार
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बेटी का सपना
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गांव में नदी के मीठे पानी की की सरकारी योजना की दरकार थी । पाइप लाइन का काम भी शुरू हो गया था ।
उधर अल-सुबह हैंडपंप पर पानी भरने के लिये लंबी कतार लगी हुई थी,,स्कूल की घंटी सुन रधिया  का दिल धौकनी का धड़धड़ा उठा । पास खड़ी मां को झिंझोड़ती हुई वो कहने लगी - ^माँ, मुझे भी भैया की तरह स्कूल में पढ़ने जाना है ।^
माँ ने पानी भरने की विवशता जताकर उसके सिर पर हाथ फेरा कि तभी  बड़ी बड़ी गाड़ियों की आवाजाही होती देख सभी चमचमाती गाड़ियों से उतरती महिला को एकटक निहारने लगे ।
माँ,, ये मेडम कौन है?? यहां क्यों आई है ?- रधिया ने माँ से पूछा
ये कलेक्टर मेडम है, हमारे गांव में   घर घर पानी के नल की व्यवस्था देखने आई है, फिर हमें पानी के लिए यहां नही आना होगा - माँ ने कहा  ।
तो फिर मैं भी रोज सुबह स्कूल जाऊंगी और पढ़ लिखकर इन मेडम जैसी बड़ी अफसर बनूंगी, है न माँ - रधिया के चेहरे पर उसके  भविष्य के इंद्रधनुषी रंग चमक उठे थे ।

- अंजली खेर
भोपाल - मध्यप्रदेश
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मेरा तीर्थ
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"सुना है कि तुम तीर्थ पर गये थे ?"
"सही सुना है तुमने।"
"कौन से तीर्थ पर गये थे ?"
"गाँव।"
"गाँव ! गाँव कोई तीर्थ होता है क्या ?"
"हाँ..."
"वो कैसे ?"
"क्योंकि वहाँ मेरे माता-पिता रहते हैं।"

- राम मूरत 'राही'
इंदौर - मध्यप्रदेश
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मधुर मिलन  
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शिल्पा और रोहन दोनों एक मल्टीनेशनल कंपनी में बहुत अच्छे रैंक कार्यरत थे। दोनों एक दूसरे को चाहते थे लेकिन घर वाले कई कारणों से दोनों की शादी में बाधा उत्पन्न कर रहे थे।कारण यह था कि शिल्पा के खानदान में सभी लोग आधुनिकता की दौड़ में थे।और बड़े शहरों के निवासी थे लेकिन रोहन के खानदान के सभी लोग गाँव में रहने वाले ग्रामीण थे।संस्कृतियां दोनों की शादी में आड़े आ रही थीं।लेकिन दोनों की खुशी की खातिर , आखिर घर वालों ने दोनों की शादी के लिए रज़ामंदी दे दी। 
               शिल्पा की डोली तह किए अनुसार गाँव में ही आई।गाँव के रस्मो-रिवाजों में शिल्पा और रोहन एक दूसरे से बात भी नहीं कर पा रहे थे। शादी को आज चौथा  दिन था ।लेकिन रस्में अभी भी पूरी नहीं हुई थीं ।शिल्पा की सहेलियां फोन कर कर के चटुकारे लेना चाहती थीं। लेकिन शिल्पा सभी के फोन काट रही थी।उन पर खीझ भी आ रही थी ।फिर लम्बे  लम्बे मैसेज आने लगे।दरअसल पंडित ने रोहन की दादी जी को कहा कि शादी तो आप लोगों ने जल्दी में कर दी है लेकिन अभी पति पत्नी के संयोग का शुभ अवसर नहीं है। भला अब दादी जी की बात को कौन काटे?हर समय शिल्पा और रोहन दादी जी की निगरानी तले होते।
          आज शरद पूर्णिमा की रात दोनों को आकर्षित कर रही थी।नींद दोनों से कोसों दूर थी।आधी रात को जब सारा परिवार नींद के आगोश में था तो रोहन दबे पाँव शिल्पा के पास आया और इशारे से छत के ऊपर ले गया। चांद की सुन्दर छटा दोनों को मंत्र -मुग्ध करने लगी---अब शिल्पा रोहन की गोद में ऐसे सो रही थी मानो सदियों के बाद उसका अपने चांद से मधुर मिलन हुआ हो। रोहन ने चुटकी लेते हुए शिल्पा से पूछा, "कैसे लगे हमारे ग्रामीणों के रस्मो-रिवाज। "रोहन,मैं बता नहीं सकती,मुझे कितनी खुशी है---रिश्तों में कितना अपनापन और निरछलता है।मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूँ कि मुझे इतना प्यार करने वाला परिवार मिला।मुझे यह ग्रामीण-----'।"दोनों खिलखिला कर हँसने लगे।

- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब 
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        धुंध
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    "क्या बात है शर्मा जी यह अचानक से पेड़-पौधों की दुकान, क्या अब खेती किसानी का इरादा नही है... ?"
       नहीं जी, ऐसा कोई इरादा नही है लेकिन मैंने पौधे वाले को यहाँ इसलिए बुलाया है,कि इसको फायदा तो होगा ही,साथ ही इससे सोसाइटी के लोगों को भी जीवन सुरक्षा मिलेगी।
            मुँह को गुटके से मुक्त करते हुए, दाँत निपोरते सक्सेना जी ने बोला कि-
"तो भला इसमें बेचारे पौधे क्या मदद करेंगे...!!" 
     "सक्सेना जी,यह समय दाँत दिखाने का नही बल्कि दाँत को बचाए रखने का समय है ।" 
      यह मामला अब केवल इसी शहर का नहीं है भाई, अब तो देश के हर हिस्से में ज़हरीला धुआं उगलते चिमनियों,मोटरों, गाड़ियों,वातानुकुलित यंत्रों और इसी तरह की शहरी सभ्यता के उपकणों ने हवा में इतना ज़हर घोल दिया है, कि पक्षियों के साथ अब तो इंसान भी..., 
पक्षियों की चहचहाहट का खत्म होना महज़ पक्षियों का खत्म होना भर नही हैं, बल्कि हमारे लिए भी खतरे का संकेत है ।जिससे उबरने के बजाए हम मुँह मोड़ने में लगे हुए हैं।
         "बढ़ते प्रदूषण को कम करने की जिम्मेदारी किसी दूसरे के सिर पर मढ़ देने की कोशिश इसी आदत का हिस्सा है।शुतुरमुर्ग की प्रजाति यूँ ही खतरे में नही आई,लेकिन जब मनुष्य प्रदूषण को कम करने के बजाय बढ़ाने में ही लगा रहेगा,तो तय मानिए कि हमारी प्रजाति भी संकट में आने वाली है।
          वैज्ञानिक अध्ययन बताता है,कि आज़ की तारीख में देश के अनेक हिस्सों में वायुमंडल का प्रदुषण तय मानकों से काफी ज्यादा है और एक सर्वे रिर्पोट के अनुसार भारत में मौतों का पाँचवा सबसे बड़ा कारण बन गया है।इसके मद्देनज़र हवा को शुद्ध बनाने के तमाम उपाय अब सख्ती से और पूरे देश में लागू होना चाहिए ।
     "किसानों द्वारा पराली जलाने का बहाना न लो ।
पाॅम और मनीप्लांट के पौधे गिफ्ट में बाँटो और लोगों को जीवन दो ।"
    "अरे भाई, 
      जब जागोगे ,तभी सवेरा हो जाएगा।"

- डाॅ. क्षमा सिसोदिया
उज्जैन - मध्यप्रदेश
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बदल गया
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राजनाथ इस बार दस साल के बाद गांव आये थे । गांव आते भी क्यों ? अपने बुजुर्ग माता-पिता को भी साथ ले गए थे । जो उनके साथ ही रहते थे । 
हाँ ! गांव अब पहले जैसा नहीं लगा । बहुत कुछ बदल गया था । जहाँ पगडंडियां थीं , वहाँ चौड़ी-चौड़ी सड़कें थीं । इसलिए घर तक पहुंचने में इसबार अधिक परेशानी नहीं हुई। रास्ते में जहाँ पहले कुछ नहीं था , वहाँ बिल्डिंग और कई बड़ी-बड़ी दुकानें भी दिखी ।
ताला खोलकर घर में सामान रखा । अकेले आये थे । पूरा घर गंदा और मकड़ी के जाले से भरा हुआ था ।
 'सबसे पहले सफाई करवाना होगा' यह सोच ही रहे थे कि एक व्यक्ति आंगन में प्रवेश किया और -"राजे बाबू ! हम त पोखरिक भिरे पर सं देख लेलियै जे कियो गोटा एलखिन हें । त दौड़ल-दौड़ल एलौं ।"
"की हाल-चाल किशुन ?"
"ठीके-ठाक ... । अहां सब त गाम बिसरिये गेलियै । कक्का-काकी सब ठीक छथीन न ?"
"हं सब ठीक छथीन ।"
तब ही आंगन में किसी और की आवाज आई "की हऊ राजे ! सब कुशलमंगल न ?"
"हं,हं,कक्का सब ठीक छै ।" कहते हुए राजनाथ ने काका जी के पैर छूए ।
"दीर्घायु रह ! चलह हमरे अंगना ओतहि चाह भोजन करियह आ बैस क गप्प करब ।"
"ठीक छै कक्का हाथ-पैर धो क अबै छी ।"
उधर से किशुन बोल उठा -"अहां जाऊ बौआ हम रमना के माय के पठा दै छियै घर-दुआरि साफ-सुथरा क देत ।"
"हूँ...।" बोलकर राजनाथ हाथ पैर धोते हुए मन-ही-मन 'बहुत कुछ बदला यहाँ,  बस व्यवहार नहीं बदला । शहर में तो कोई छांकता तक नहीं ।'

- पूनम झा
 कोटा - राजस्थान 
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 अपनत्व भरा जीवन
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    गांव के बगीचे में आम पर मंजरी आ गये होंगे, गेहूं की फसल खलिहान में यूं ही पड़े होंगें---रामप्रवेश चाचा आजकल जब भी साथ बैठते , इन्हीं सब बातों को दोहराया करते।
 रामप्रवेश चाचा करीब एक वर्ष से अपने बेटे के पास दिल्ली आए हुए थे। सब सुख सुविधा मिल रही थी पर उनका ध्यान गांव में ही लगा रहता। उन्हें बंद रूम में बैठकर टीवी देखना मोबाइल चलाना बिल्कुल नहीं भा रहा था।
    उनकी आत्मा नदी किनारे बैठने को, बगीचे में खेत खलिहान में टहलते हुए लोगों से बातें करने को आतुर रहती। खुली स्वच्छ हवा न मिलने से घुटन महसूस होती, वो थके- थके से बीमार रहने लगे थे।
  जो बच्चे शहरी जीवन को लालायित रहते थे-- उसे देखकर उन्हें तरस आ रही थी---जो गांव में टमाटर, खीरा आलू प्याज अति मात्रा में उपजा कर वो लोगों को यूं ही  बांट दिया करते थे--उन्हीं चीजों को  उनके बच्चे पाव किलो में मोलभाव कर खरीद रहे थे-- अपने गांव की ताजी सब्जी फल अनाज उनके आंखों के सामने दृश्यमान होते--इस कारण शहरी वातावरण  रास नहीं आ रहा था-- पर वृद्धावस्था की मजबूरी में यहां रहने को भी बाध्य थे।
अकेलापन काटने को दौड़ता । लोगों की भीड़ --पर कोई जान पहचान नहीं-- कोई बातचीत करने वाला नहीं-- सब अपने आप में मस्त---ग्रामीण जीवन का अपनत्व पाने को उनका मन व्याकुल रहता।
                      
                       - सुनीता रानी राठौर
                        ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
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अहसास
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नीम की छांव में बिछी खाट से उठने का मन ही नहीं हो रहा था,लेकिन उठना पड़ा,शहर जो जाना था।कुछ घंटों के लिए आया था और तीन दिन रुक गया वह। दोस्त के परिवारवालों ने जाने ही नहीं दिया।
उसे याद आ गयी,महानगर की वह शादी जब उसका मामाजी के यहां जाना हुआ था।रात को शादी के बाद मामाजी अपने परिवार सहित घर के लिए निकल गये थे और वह अकेला होटल के बाहर खड़ा रह गया था।

- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
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समाधान 
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               इस बार कौशल पंद्रह दिनों का अवकाश लेकर गाँव में आया था। माता-पिताजी के साथ साथ तो समय बिताएगा ही साथ ही गाँव में भी सबसे मिलेगा, यह सोच कर वह बहुत प्रसन्न था।
               नहा कर जब वह पिता के साथ भोजन करने बैठा तो उसे पिता कुछ चिंतित दिखाई दिए। पूछने पर बोले....” क्या बताऊँ बेटा? कर्ज की मार से दबे गाँव के किसान विवश होकर आत्महत्या करने में लगे हैं। फसल हो नहीं पा रही।सरकार का कर्ज ज्यों का त्यों है, उस पर ब्याज बढ़ता जाता है। समझ नहीं आता इनके लिए क्या करें, कैसे करें?”
            “ मैं कुछ सोचता हूँ पिताजी”... कह कर कौशल ने अपने जैसी गाँव के प्रति कुछ करने की सोच रखने वाले मित्रों से चलभाष पर बात की। सबके सहयोग दो लाख रुपए एकत्रित हुए। एक स्वयं सेवी संगठन “समाधान”की स्थापना कौशल ने अपने पंद्रह मित्रों के सहयोग से की। 
              एक सप्ताह के बाद पिता की सहायता से जरूरतमंद किसानों की सूची बनवा कर उन्हें बुलाया और खेती के लिए बीज, खाद और निश्चित राशि दी। और दो वर्ष के बाद हर किसान से संगठन के लिए हर माह सौ रुपए लौटाने का संकल्प लिया।
              
- डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
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