क्या नि:स्वार्थ कर्म का भी प्रतिकर्म होता है ?

हर कर्म का प्रतिकर्म होता है । चाहें कर्म करने वाला प्रतिकर्म की इच्छा रख या ना रखें ।  वह कर्म नि: स्वार्थ क्यों ना हो ! सभी का प्रतिकर्म होता है । यहीं कुछ जैमिनी अकादमी द्वारा " आज की चर्चा "  का प्रमुख विषय है ।  अब आये विचारों को देखते हैं : -
जी हाँ। बिना स्वार्थ के हम जो कर्म दूसरों के लिए करते हैं। वह सद्कर्म लौट कर हमारे पास आता है।वह कर्म हमारा,हमारे परिवार का शुभ और मंगल कर जाता है।
  जहाँ हम स्वार्थवश कोई कर्म करते हैं। चूंकि वह हम अपने लिए ही करते हैं अर्थात ऐसे कर्म हम जिसे हम दूसरों के लिए नहीं करते हैं। उसका प्रतिकर्म हमें सम्मान और यश कदापि नहीं दे सकता है।
   सृष्टि का यह विधान भी है कि प्रत्येक कर्म का बदला होता है।हम दूसरों के लिए अच्छा सोचेंगे ,दूसरों की मदद बिना लोभ के करेंगे ,तो ऐसे किये गये कर्म हमारे खाते में सद्कर्म और पुण्य के रूप में जुड़ जायेंगे।हमें ऐसे कर्मों का प्रतिफल अच्छा और शुभ प्राप्त होगा।
   इंसानियत तो यही सिखाती है कि हमें दूसरों की पीड़ा,दुख समाप्त करने के लिए तैयार रहना चाहिए। कुछ भले लोग तो ,दूसरों का सहयोग करने अपनी जान की भी बाजी लगा देते हैं। शास्त्रों और पुराणों में यही उल्लेखित है कि अपने लिए सभी जीते हैं। परंतु दूसरे के लिए जीना वास्तविक जीवन कहलाता है।मित्रों यही 
 मानवता भी तो कहलाती है।
  - डाॅ •मधुकर राव लारोकर 
  नागपुर - महाराष्ट्र
 निस्वार्थ कर्म अपने आप मे सब कुछ परिभाषित कर रहा हो वो कर्म जिसमें कुछ भी पाने की चाह न हो या ये कहा जाए कि कर्म करने के बाद कुछ भी रूप में भौतिक या आर्थिक पाने की कोई मंशा न हो वही निस्वार्थ भाव से कर्म होगा हाँ पर निस्वार्थ कर्म में यह प्रतिकर्म हो सकता है कि कर्म करने वाला व्यक्ति को मानसिक सुख आत्मिक सुख या अपने पुण्य के खाते का मन में भाव हो ये उनके द्वारा किये गए निस्वार्थ कर्म का अनजाना या अनचाहा प्रतिकर्म हो सकता है,पर इसे किसी भी तरह से स्वार्थपरख नही कहा जा सकता यह अप्रत्यक्ष रूप से किया जाने वाला कर्म होता है।
अतः अप्रदर्शित निस्वार्थ कर्म का भी प्रतिकर्म होता है।
- मंजुला ठाकुर
 भोपाल - मध्यप्रदेश
हर कर्म का प्रतिकर्म होता है। स्वार्थ,निस्वार्थ यह सब मानवीय भावनाएं हैं। कर्म निस्वार्थ हो या स्वार्थ युक्त इसका प्रतिकर्म होगा ही,रुप कुछ भी हो सकता है। त्वरित प्रतिकर्म न हो,यह हो सकता है लेकिन समयानुसार होगा अवश्य।
हमारे ग्रंथों में कर्म के तीन प्रकार माने गए हैं-
१. संचित कर्म,२.प्रारब्ध कर्म,३.क्रियामाण कर्म।
इसमें कहीं स्वार्थ, निस्वार्थ की बात नहीं। 
हमारे जन्म जन्मांतर के कर्मों को संचित कर्म कहा गया।जिन संचित कर्मों का फल हम वर्तमान में भोग रहे हैं,वह प्रारब्ध कर्म और जो कर्म अब वर्तमान में कर रहे हैं वह क्रियामाण कर्म कहे गए हैं।क्रियामाण और संचित कर्म ही भविष्य निर्धारण करते हैं।
इससे स्पष्ट है कि हर कर्म का प्रतिकर्म होता है। बीज बोया गया तो जमेगा जरुर।बस उसकी प्रकृति के अनुसार उसमें समय लगेगा ही। वह स्वार्थवश बोए या निस्वार्थ भाव से बोए। हर कर्म का प्रतिकर्म, परिणाम होता ही है।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
जब मनुष्य अपने कर्म चाहे हिंसा से हो सिद्ध हो या अहिंसा से बुद्धि से विचार कर निस्वार्थ भाव से कर्म करता है तो वह कर्म धर्म अंतर्गत ही होना है। कहा गया कि प्रत्येक कर्म की समाप्ति ज्ञान में होती है और ज्ञान से मोक्ष तथा परम सुख प्राप्त होता है। निस्वार्थ भाव से कर्म करने की प्रेरणा गीता से मिलता है। महाभारत के युद्ध में श्री कृष्ण ने अपने कर्तव्य से विमुख अर्जुन को उसके कर्तव्य का मांग कराने का भान कराने के लिए श्रीमद भगवत गीता का प्रवचन किया था। श्रीमद्भगवद्गीता वैराग्य अर्थात भक्ति प्रधान अवतार वाज का ग्रंथ नहीं अपितु कर्म योग का ग्रंथ है। हां इसमें अध्यात्म का समावेश अवश्य। गीता भयमुक्त समाज की स्थापना का मंत्र देती है। यही मंत्र विश्व में शांति कायम करने में सर्वथा समर्थ है और यही एकमात्र कारण है कि भाजपा की केंद्रीय मंत्री रहे स्वर्गीय सुषमा स्वराज ने सर्वप्रथम गीता को ही राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने की वकालत करते हुए यह भी कह दिया था कि यह सरकार की प्राथमिकता एवं प्रक्रिया में है। मानव चिकित्सकों को अपने मरीजों का तनाव दूर करने के लिए उन्हें दवाई के साथ-साथ गीता पढ़ने का परामर्श भी देना चाहिए, इससे भी एक कदम आगे बढ़ते हुए हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने मांग की कि गीता को संविधान से ऊपर माना जाना चाहिए। हरियाणा के शिक्षा मंत्री रामविलास शर्मा ने गीता को पाठ्यक्रम में शामिल करने की वकालत करते हुए ट्विटर पर लिखा था कि गीता को शामिल करना किसी धर्म ग्रंथ को शामिल करना नहीं है। मानव निर्माण में जो पुस्तक ग्रंथियां व्यक्ति महत्वपूर्ण है शामिल किया जाएगा चाहे वह किसी भी धर्म या जाति का हो। हर देश में कुछ कैसे लोग होते हैं जो केवल कर्म के लिए ही कर्म करते हैं वह नाम यश अथवा स्वर्ग की भी परवाह नहीं करते वे केवल इसलिए कर्म करते हैं कि उसे दूसरे की भलाई होती है। कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो और भी उच्च स्तर के उद्देश्य को लेकर गरीबों के प्रति भलाई तथा मनुष्य जाति की सहायता करने के लिए अग्रसर होते हैं क्योंकि भलाई में ही उनका विश्वास है और उसके प्रति प्रेम है। देखा जाता है कि नाम तथा यश के लिए किया गया कार्य बहुदा सिद्ध नहीं होता है। यह चीजें तो हमें उस समय प्राप्त होती है। जब हम एक हो जाते हैं असल में तभी तो उसे सर्वोच्च फल की प्राप्ति होती है और सच पूछा जाए तो निस्वार्थ का अधिक फलदाई होती है। पर लोगों में इसका अभ्यास करने का धीरज नहीं रहता।वहीं दूसरी तरफ देखा जाए तो कर्म हिंदू धर्म की अवधारणा है जो एक प्रणाली के माध्यम से कार्य कारण के सिद्धांत की व्याख्या करती है जहां पिछले हितकर कार्यों का हितकर प्रभाव और हनी कर कार्यों का हानिकारक प्रभाव होता है जो पुनर्जन्म का एक चक्कर बनते हुए आत्मा के जीवन में पुणे और परण्या पुनर्जन्म की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं की एक प्रणाली की रचना करती है। कहा जाता है कि कार्य कारण सिद्धांत न केवल भौतिक दुनिया में लागू होता है बल्कि हमारे विचारों शब्दों कार्यों और उन कर्मों पर भी लागू होता है जो हमारे निर्देशों पर दूसरे किया करते हैं कहते हैं कि पृथ्वी पर जन्म और मृत्यु का चक्र 8400000 योनियों में चलता है लेकिन केवल मानव योनि में ही इस चक्र से बाहर निकलना संभव है।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर - झारखंड
     जीवन में दूरगामी पहल हेतु कर्मता  प्रधान हैं, जैसा कर्म करोगे तो उसे वैसा ही फल भोगेगा यह चरित्रार्थ हैं, आवश्यकता जीवन की जननेन्द्रियों की पहचान हैं, जिसके माध्यम से कर्तव्यों को अग्रेषित किया जाता हैं। कई दिखाओं के लिए लक्ष्य की ओर अग्रसर होते, जिसका प्रतिफल अंतिम समय में दिखाई नहीं देता, तो कई नि:स्वार्थ भाव से लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हुए कर्म करते हैं, उन्हें फल की चिंता नहीं रहती हैं। उन महान विभूतियों को देखिये, जिन्होंने ये सोच कर तप नहीं किया कि फल मिलेगा, लेकिन उस तप का ही परिणाम हैं, जिसका  सार्थक से भविष्य में प्रतिफल, प्रतीकात्मक, प्रतिकर्म होते जाता हैं और सफलता मिलती जाती हैं। सब से बढ़ी बात तो यह होती हैं, कि अपनी इंद्रियों को बस में करने की। लोहे को जितना तपाओगें, उतनी उत्कृष्ट आकृतियाँ मिलते जायेगी।
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
स्वार्थ रहित किया गया कार्य अवश्य फलीभूत होता है । 
इस संसार में व्यक्ति नाना प्रकार के प्रयोजन लेकर कार्य करता है, क्योंकि बिना प्रयोजन के कोई भी कार्य हो ही नहीं सकता । 
कुछ लोग नाम यश चाहते हैं, कुछ पैसे की इच्छा रखते हैं तब काम करते हैं । कुछ अधिकार प्राप्त करने के लिए काम करते हैं, अर्थात हर काम के पीछे कोई ना कोई प्रयोजन छुपा होता है। निस्वार्थ भाव से कार्य करने वाले लोगों के हृदय में कल्याणकारी भावना बसती है । ऐसे लोग दूसरों की भलाई हेतु काम करते हैं। उनका उद्देश्य मानव जाति की सहायता करना होता है, कल्याणकारी भावना में उनका विश्वास होता है और प्रेम का भाव भी लक्षित होता है । यह देखा भी गया है कि नाम ,पैसा ,यश के लिए किया गया कार्य शीघ्र फलित नहीं होता लेकिन निस्वार्थ भाव से किया गया कार्य सेवा का रूप ले लेता है, जो शीघ्र फलदाई होता है। अतः निस्वार्थ कर्म का भी प्रति क्रम होता है। निस्वार्थ कर्म मनुष्य में दैवीय गुणों की उत्पत्ति करता है । यह हमारी प्रकृति का मूल मंत्र है । प्रकृति निस्वार्थ भाव से संपूर्ण जगत पर समर्पित है। यहीं से प्रेरणा लेकर व्यक्ति के मन में निस्वार्थ भाव का ज्ञान पैदा होता है । 
निस्वार्थ भाव से किए गए अच्छे कर्म के परिणाम स्वरूप हमें जो कुछ मिलता है वह अमूल्य होता है । आत्म संतुष्टि और मन की शांति व्यक्ति के जीवन को सरल, संभव ,संतुलित और सफल अवश्य बनाती हैं। 
- शीला सिंह
बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश।
भगवान की पूजा या फिर कोई दूसरा कर्म वह भी निस्वार्थ भाव से करना चाहिए।
निस्वार्थ भाव से किया हुआ कर्म का फल हमें मिलता है।लेकिन स्वार्थ भाव से किया गया पूजा प्रार्थना और अन्य कर्म का हमें कभी अच्छा फल नहीं मिल सकता है।
आपने जीवन को झांकनाऔर आत्मा को जानना अलग-अलग बातें हैं।
लेखक का विचार:--- व्यक्ति को खुद को पहचानना जरूरी है। जब तक कुछ समझ में नहीं आएगा कि वह कौन है और उनका क्या धर्म व कर्म है तब तक जीवन व्यर्थ है।
- विजयेन्द्र मोहन
बोकारो - झारखंड
भारतीय पौराणिक कथाओं एवं मान्यताओं के अनुसार  हर कर्म का प्रतिफल अर्थात प्रति कर्म मिलता है। यह सृष्टि का विधान है। कर्म भले ही निस्वार्थ भाव से किया जाए ,उस इंसान  के मन में कोई स्वार्थ या मोह नहीं हो, किंतु विधि के विधान अनुसार उसे उस कर्म का प्रति कर्म तो मिलेगा ही। कर्म करना इंसान के हाथ में होता है ,उसके वश में होता है किंतु प्रति कर्म या प्रतिफल देना उसके हाथ में नहीं। देर सबेर भले ही हो किंतु वह मिलता अवश्य है।
- गायत्री ठाकुर "सक्षम" 
नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश
"नि:स्वार्थ कर्म" शब्द में ही इस प्रश्न का उत्तर छिपा हुआ है। जो प्रतिकर्म की माँग करे वह नि:स्वार्थ कर्म की श्रेणी में आ ही नहीं सकता।
प्रतिकर्म की चाह रखने वालों के मन में नि:स्वार्थ कर्म के विचारों का उद्भव ही नहीं होता। आज हम अपने स्वार्थों के चक्रव्यूह में ही इस तरह उलझ हुए हैं कि किसी की मदद भी तभी करते हैं जब हमें किसी-न-किसी रूप में दूसरे व्यक्ति से अपनी स्वार्थपूर्ति की आशा होती है।
"झूठे चेहरों के नकाब भ्रमित कर गये। 
मानव मन के विरोधाभास चकित कर गये।। 
सेवा के संस्थानों को सेवा से सरोकार नहीं। 
बिना स्वार्थ के होता यहां परोपकार नहीं।।"      
फिर भी प्रत्येक समय में आशा की किरणें अवश्य रहती हैं। आज भी अनेक मनुष्य और संस्थाएँ समाज और देश के प्रति नि:स्वार्थ भाव से दायित्वों का निर्वहन करते हुए किसी प्रतिकर्म की इच्छा नहीं रखते।
इसीलिए कहता हूँ कि...... 
"मोह-माया के जाल में रहना लक्ष्य मानव का न हो, 
तामसिक दुर्भावनाओं से युक्त कृत्य मानव का न हो। 
उचित है जीवन में स्वयं हेतु कर्म मानव के लिए, 
स्वार्थ हेतु मानवीयता से गिरना कर्म मानव का न हो।।"
- सतेन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
       दुनिया में कई तरह के लोग होते हैं। कुछ लोग कर्म के लिए कर्म करते हैं। कुछ लोग धन,दौलत और शोहरत के लिए कर्म करते हैं। जो लोग कर्म के लिए कर्म करते हैं, उन्हें नाम,यश या स्वर्ग की परवाह नहीं होती।वो केवल इस लिए कर्म करते हैं कि दूसरों की भलाई हो।
         नि:स्वार्थ कर्म का प्रतिकर्म  होता है। इस का फल जरूर मिलता है। हमारे कर्म से ही हमारा प्रारब्ध है। अच्छे कार्यो का फल अच्छा मिलता है।नि:स्वार्थ कर्म करने वाले के मन को सुकून और निस्तब्धता का अनुभव करते हैं। ऐसे लोग लोक परलोक में मान पाते हैं। 
-  कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब
जिस तरह किसी भी क्रिया की प्रतिक्रिया होती है ठीक उसी तरह कर्म का भी प्रतिकर्म होता है। चाहे वह निःस्वार्थ भाव से हो स्वार्थ भाव से। आप निःस्वार्थ भाव से कर्म कर रहें हैं तो भी उस कर्म का फल तो  आपको मिलेगा ही। चाहे जिस रूप में मिले। निःस्वार्थ भाव सेवा का ही फल होता है जब हम किसी संकट में फंसते है और अचानक कोई मददगार मिल जाता है और वह भी हमारी निःस्वार्थ भाव से मदद कर देता है। किसी दुर्घटना से जब हम बचते हैं तो कहते हैं कि ईश्वर ने हमें बचा लिया या हमारा बच जाना हमारे शुभ कर्मों का फल है। तो यहाँ पर वही निःस्वार्थ भाव वाले कर्मों का प्रतिकर्म  काम करता है और हम सकुशल सुरक्षित संकट से बच जाते हैं या हमारे काम सफल हो जाते हैं।
        निःस्वार्थ कर्म का ही प्रतिकर्म होता है जो किसी किसी को सबकुछ अच्छा ही अच्छा मिलता है। इसलिए ये बात पूर्णरूपेण सत्य है कि निःस्वार्थ कर्म का भी प्रतिकर्म होता है।
- दिनेश चंद्र प्रसाद "दीनेश" 
कलकत्ता - पं.बंगाल
मेरे मतानुसार निस्वार्थ कर्म का अर्थ है परोपकार या अन्य किसी की सहायता करना और इसका प्रतिकर्म या प्रतिफल है सुख .....सुख मॉनसिक हो सकता है ......भौतिक हो सकता है अथवा आर्थिक
कुछ लोग निस्वार्थ कर्म करने से कतराते हैं क्यूंकि वे सोचते हैं की ऐसा करने से हमारा क्या फायदा होगा ?
भूल जाते हैं ऐसे लोग की की हर अच्छे बुरे कर्म का हिसाब ऊपरवाला रखता है व हर निस्वार्थ कर्म का प्रतिफल भीमिलता है ......ये बात अलग है की इसमें समय ही लग सकता है औरआम मनुष्य में  कम  सहनशक्ति  होती है इंतज़ार करने के लिए
- नंदिता बाली
सोलन - हिमाचल प्रदेश
"कर्म करे किस्मत बने, जीवन का ये मर्म, 
प्राणी तेरे भाग्य में, तेरा अपना कर्म"। 
देखा जाए  मनुष्य कई प्रकार के हेतु प्रयोजन लेकर  कार्य करता है क्योंकी,  बिना हेतु के कार्य हो ही नहीं सकता इसलिए कुछ लोग यश के लिए कार्य करते हैं, कुछ पैसों के  लिए, कुछ अधिकार प्राप्त करने को लिए ओर कुछ चाहते हैं मृत्यु के बाद भी हमारा नाम चलता रहे कहने का भाव की मन में कोई न कोई लालसा रख कर कार्य करते हैं, 
किन्तु चन्द लोग ऐसे भी होते हैं जो केवल कर्म समझ कर कर्म करते हैं, 
वो नाम, यश अथवा स्वर्ग की परवाह नहीं करते वो केवल इसलिए कर्म करते हैं दुसरों की भलाई हो जाए क्योंकी कुछ लोग गरीबों की भलाई व मनुष्य जाति की  सहायता हेतु अग्रसर होते हैं इसलिए की भलाई मैं उनको विश्वास होता है, 
तो आईये आज इसी बात पर चर्चा करते है  कि क्या निस्वार्थ कर्म का भी प्रतिक्रम होता है, 
मेरा मानना है कि निस्वार्थ कर्म को ही सबसे उत्तम कर्म माना गया है, 
देखा जाए नाम तथा यश के लिए किया गया कर्म बहुत शीघ्र फलित नहीं होता, 
निस्वार्थ कर्म ही अधिक फलदायक होता है, 
यदि कोई व्यक्ति कोई व्यक्ति कुछ पल भी निस्वार्थ कार्य करता है तो एक महापुरूष बन सकता है, इसलिए अगर आप किसी की सहायता करना चाहते हैं तो इस बात की चिन्ता मत करो कि आदमी का व्यवहार तुम्हारे प्रति कैसा रहता है
क्योंकी कर्मयोगी के लिए कर्मशीलता जरूरी है, 
जब आप सच्चे मन से निस्वार्थ कर्म करोगे तो हर असंभव कार्य संभव  हो जाएगा, 
निस्वार्थ कर्म करने से आपका मन सदैव शांत होगा और शांत मन से हर कार्य सरल व सुगम होगा, 
दुसरी तरफ अशांत मन उचित निर्णय लेने की क्षमता को  खो देता है पर पूर्ण शांत मन से उचित निर्णय लेना भी आसान हो जाएगा, 
देखा जाए इस जन्म में कर्मों का खाता शुभ करने का तरीका है निष्काम कर्म  क्योंकी, ऐसे कर्म अंहकार के बिना परमात्मा का ध्यान रखते हुए निस्वार्थ  भाव से किये जाते हैं
अन्त में यही कहुंगा कि जब आप निस्वार्थ भावना से किसी के लिए कुछ अच्छा करते हो या सोचते हो यकीन मानिए  इससे वड़ी संतुष्टि दूनिया में मर कर भी नहीं मिलती, 
इसलिए निस्वार्थ कर्म ही सबसे उत्तम माना गया है इससे बड़ा कर्म कोई नहीं है
 निस्वार्थ कर्म में ही इंसानियत हित छिपा होता है जबकि स्वार्थ कर्म में मानवता का  हित ना के बराबर होता है इसलिए निस्वार्थ कर्म ही सर्वोच कर्म है
सच कहा है,
कर्म बिना पूछे बिना बताये ही दस्तक देता है, 
क्योंकी वो चेहरा और पता दोनों याद रखता है। 
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
निस्वार्थ से तात्पर्य है ---बिना अपना हित किए जो भी कर्म  हम करते हैं वह निस्वार्थ की श्रेणी में आता है। ऐसे निस्वार्थ का प्रतिकर्म  परहित यानी परोपकार के रूप में होता है।
       जो निस्वार्थ भाव से सेवा  और उपकार में रत है निरत है इससे न सिर्फ हम अपनी स्व की संकीर्ण  दीवारों को तोड़ पाते हैं;  बल्कि हमारा आत्मविश्वास भी अनंत गुना होता है इससे चित्त की शुद्धि तीव्र गति से होती है ।मन पवित्र व निर्मल होता है। मानव का मानव के प्रति, देश व समाज और राष्ट्र के प्रति किए गए ऐसे सभी कार्य से हम असीम आनंद के साथ ईश्वरीय अनुकंपा के पात्र भी हो जाते हैं।" मानस कार" ने इसको इस रूप में भी परिभाषित किया है
" परहित सरिस धर्म नहिं भाई पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।" दीनबंधु एंड्रूज मदर टेरेसा जैसे निस्वार्थ लोगों के कार्य परोपकार परहित और सेवा के प्रतिकर्म ही हैं।
 - डाॅ.रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
निःस्वार्थ सेवा-कर्म हृदय परिवर्तन का सशक्त माध्यम है, जीवन में कामयाबी का मूल मंत्र है l निःस्वार्थ सेवा- कर्म आपसी सद्भाव का वाहक बन जाता हैl जिसके प्रति हमने सेवा की है वह हमारे प्रति प्रेमभाव से ओतप्रोत होकर कुछ करने को आतुर हो जाता है, यही प्रति कर्म है l
  मानस में लिखा है -
"प्रति उपकार करन का तोरा
सनमुख होत सकत न मन मोरा l"
    हमारे कर्म के पीछे प्रयोजन होता है या यों कहें कि कारण होगा तो कर्म होगा लेकिन निःस्वार्थ सेवा -भाव में प्रतिदान की भावना नहीं होती है l
 आज संसार में मनुष्यों के दुखों का कारण है कि वह तुरंत अपने किये का प्रतिदान चाहता है, प्रतिकर्म चाहता है l अतः निःस्वार्थ सेवा में प्रति कर्म की चाहना नहीं होती l आत्मसंतुष्टि और लोक कल्याण भाव ही प्रमुख होते हैं l इसके लिए प्रबल संयम की आवश्यकता होती है l
गीता में कहा है -कर्म किये जा फल (प्रति कर्म )की इच्छा मत कर रे इंसान... ध्यान रहे हमारी प्रति कर्म की अभिलाषा ही कर्म फल को उलझाती है l मेरी दृष्टि में प्यार आत्मा का विस्तार है जिसमें 
"मैं ""हम "में रूपांतरित हो जाता है l ऐसी अवस्था में निःस्वार्थ कर्म होगा और प्रति कर्म की अपेक्षा नहीं रहेगी लेकिन सामने वाले के द्वारा प्रति कर्म भी होगा ही l
            चलते चलते ----
इतना आसान नहीं निःस्वार्थ सेवा
              करना......
दिल से गुरुर जायेगा तभी तो
            "नूर "आयेगा l
       - डॉ. छाया शर्मा
 अजमेर -  राजस्थान
नि:स्वार्थ का अर्थ ही होता है, स्वार्थ से परे । स्वार्थ में भौतिक और दैविक दोनों ही आता है । अक्सर नि:स्वार्थ का मतलब हम भौतिक से मानते हैं । ये सच है कि नि:स्वार्थ भाव से किया गया कर्म सम्माननीय है किन्तु ऐसा बहुत कम होता है । 
अधिकतर सभी कर्म में कोई न कोई स्वार्थ छिपा होता है । चाहे घर-परिवार, समाज या अन्य कार्य क्षेत्र हो, हमारे कर्म में स्वार्थ रहता ही है । 
यहाँ तक की सत्संग, संकीर्तन या अध्यात्म से जुड़े कर्म में भी स्वार्थ भाव होता ही है । भले इसमें भौतिक स्वार्थ ना होकर दैविक हो ।
      अतः मेरे विचार से इस संसार में कोई भी ऐसा कर्म नहीं है जिसमें भौतिक या दैविक स्वार्थ ना हो । 
   - पूनम झा
कोटा - राजस्थान
 सभी कार्य के प्रति कर्म होता ही है ।बिना प्रति कर्म का कर्म नहीं होता। कर्म दो ही प्रकार के किए जाते हैं एक निःस्वार्थ भाव से और दूसरा स्वार्थ भाव से अर्थात अपने लिए और दूसरों के लिए। जो अपने लिए कार्य करता है ,वह स्वार्थ कहलाता है अर्थात स्वयं की उपयोगिता को महत्व देकर स्वयं के जीने में अपने मन, तन, धन को लगाता है और निःस्वार्थ
 भाव उसे कहते हैं ,जो दूसरों के विकास और जागृति के लिए प्रसन्नता पूर्वक अपने मन, तन, धन को समर्पित कर देता है । निः स्वार्थ भाव में सभी की सुख की कामना के लिए कार्य किया जाता है और स्वार्थ भाव में स्वयं के सुख के अर्थ में काम किया जाता है ।अतः जो व्यक्ति निःस्वार्थ भाव से जीता है ।वह व्यक्ति हमेशा सुखी होकर दूसरों की सुख के लिए कामना करते हुए निरंतर सुख पूर्वक जीता है और जो व्यक्ति स्वार्थ भाव से जीता है वह दूसरों के प्रति घृणा और अपने को श्रेष्ठ मानते हुए जीता है ।ऐसा व्यक्ति को कभी सुख और कभी दुःख से जिंदगी काटते हुए जीता है ।पराए को अपना नहीं मानता स्वयं को ही श्रेष्ठ मानते हुए स्वयं के प्रति ही  अपने मन, तन ,धन हो लगाता है अर्थात सीमित क्षेत्र में रहकर ही जीने का प्रयास करता है। निःस्वार्थ सेवा सर्व सुख के अर्थ में होता है जो सभी के लिए सुखद होता है। अंत में यही कहना बनता है कि, जो व्यक्ति निः स्वार्थ कर्म  के प्रतिफल में सुखद  होता है। अतः हर व्यक्ति के अंदर निःस्वार्थ भाव होना चाहिए।
 - उर्मिला सिदार 
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
बीना स्वार्थ के दान देने वाले  और निःसवार्थ सेवा करने वाले के मन में कोई भाव नहीं होता और  न ही वह फल की इच्छा रखते हैं । उनका मन केवल दयाऔर सद्कर्म की चाह रखता है बदले में उन्हें  आत्मसंतुष्टि प्राप्त होती है ।ऐसे  व्यक्ति मानवता को मानने वाले होते हैं ।पशु-पक्षी किसी का भी दुःख उन्हें विचलित कर देता है । हम प्रायः देखेंगे ऐसे व्यक्ति को स्वयं के लिए  कोई चाह नहीं होती ।वो ईश्वर को हमेशा खुद  के पास महसूस करते हैं । साथ ही यह भी कहूँगी विरले ही इस कसौटी पर खरे उतरेगें ।कम से कम अपने नाम के गुण गान की  चाह तो होती ही है ।
- कमला अग्रवाल
गाजियाबाद - उत्तर प्रदेश


" मेरी दृष्टि में " नि:स्वार्थ कर्म  करने वाले की कोई इच्छा नहीं होती है । फिर भी प्रतिकर्म का सामना करना अवश्य पड़ता है । यहीं कर्म से प्रतिकर्म का सम्बंध कहां जाता है ।
- बीजेन्द्र जैमिनी 

Comments

Popular posts from this blog

वृद्धाश्रमों की आवश्यकता क्यों हो रही हैं ?

हिन्दी के प्रमुख लघुकथाकार ( ई - लघुकथा संकलन ) - सम्पादक : बीजेन्द्र जैमिनी

लघुकथा - 2023 ( ई - लघुकथा संकलन )