क्या भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों की तानाशाही उचित है ?

भारतीय लोकतंत्र दुनियां में अपनी तरह का अलग है । जिसमें राजनीतिक पार्टियों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है । दुनियां में सबसे ज्यादा राजनीतिक पार्टियां भारत में हैं । राजनीतिक पार्टियों के अध्यक्ष की भूमिका अपने आपमें सर्वश्रेष्ठ होती है । यही " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : -
लोकतन्त्र की उत्पत्ति ही तानाशाही को रोकने के लिए हुई। तानाशाही किसी भी व्यक्ति, वर्ग या राजनीतिक पार्टियों की हो, भारतीय लोकतन्त्र में इसके लिए कोई स्थान नहीं है। भारत का इतिहास बताता भी है कि जब भी किसी राजनीतिक पार्टी ने तानाशाही रुख अख्तियार किया है भारतीय लोकतन्त्र ने उसे धूल चटाई है। 
लोकतन्त्र में कोई भी राजनीतिक पार्टी तानाशाही न कर पाये इसीलिए लोकतन्त्र में सशक्त विपक्ष की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण हो जाती है। परन्तु जब विपक्ष स्वयं की कमजोरियों को ही दूर नहीं करेगा तो लोकतन्त्र की क्या खाक रक्षा करेगा।
परन्तु इसके साथ ही यह भी कहना आवश्यक है कि प्रत्येक सत्तारूढ़ राजनीतिक पार्टी की लोकतन्त्र और लोकतांत्रिक व्यवहार के प्रति अधिक जवाबदेही होती है क्योंकि लोकतन्त्र ने ही उसको सत्ता पर काबिज होने का अवसर प्रदान किया है। इसलिए सत्ताधारी पार्टी को लोकतन्त्र की गरिमा बनाये रखना और विपक्ष को लोकतन्त्र की गरिमा बनी रहे, इस पर नजर रखना अति आवश्यक है। 
मेरा यही मानना है कि भारतीय लोकतन्त्र इतना अधिक सशक्त और समृद्ध है कि किसी भी राजनीतिक पार्टी में तानाशाही की प्रवृत्ति जन्म लेती है तो अतिशीघ्र उसका पतन निश्चित है।
इसलिए प्रत्येक राजनीतिक पार्टी को भारतीय लोकतन्त्र की मर्यादा के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझते हुए तानाशाही की प्रवृत्ति को विकसित होने से रोकना चाहिए क्योंकि भारतीय लोकतन्त्र में राजनीतिक पार्टियों की तानाशाही न तो स्वीकार्य है और न ही उचित है।
- सत्येन्द्र शर्मा 'तरंग'
देहरादून - उत्तराखण्ड
लोकतंत्र का अर्थ है जनता का, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन परन्तु आज राजनीति में लोकतंत्र का स्वरूप परिवर्तित हो गया है प्रत्येक दल अपने दल को जितवाने हेतु किसी भी हद तक जा रहा है। उसका उदाहरण वर्तमान में देखने को भी मिल जाता रहा है या हम कर्नाटक का उदाहरण ले सकते हैं इसलिए लोकतंत्र में यह सब बिल्कुल उचित नहीं है ताना शाही ना चली थी ना चलेगी एक बार जब कोई भी राजनीतिक दल में शामिल हो जाता है उसकी पुरजोर कोशिश रहती है कि उसकी कुर्सी पर
मुद्दतों सिर्फ उसके  घर परिवार के  लोग ही राज़ करें जिसके चलते वह किसी भी हद तक चला जाता है जिससे लोकतंत्र का रूप तानाशाह में बदल जाता है जो बिल्कुल सही नहीं है।
- ज्योति वधवा "रंजना"
बीकानेर - राजस्थान
      भारतीय संविधान में चुनाव प्रक्रिया से चुने हुए प्रतिनिधियों से सरकार बनती हैं। पहले मतदान  
मतपत्रों से हुआ करता था, जिसमें लम्बी प्रक्रिया के बाद परिणाम सामने आते थे। जिसमें भी मतदान केंद्रों में असामाजिक तत्वों के द्वारा मतपत्रों लूट आदि हुआ करती थी। अब वर्तमान परिदृश्य में मशीनों से चुनाव परिणाम सामने सामने आते हैं, उसमें भी टीका-टिप्पणी हुआ करती हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त की विशेष रूप से भूमिकाएं होती हैं। पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त स्व.टी.टी.शेषन ने काफी हद तक चुनाव प्रक्रिया में सुधार तो किया, लेकिन एक सुधार भविष्य के लिए करना भूल गए। वह हैं चुनाव तो हो रहे हैं, परन्तु परिस्थितियां ऐसी निर्मित होने लगी कि किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिलता तो प्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त प्रारंभ कर अपनी इच्छानुसार सरकार बनाई जा रही हैं।
इसमें पूर्णतया रोक लगाई जाती तो, वर्तमान में जो घटित हो रहा हैं, वह घटित नहीं होता। आज मतदाता सोचने पर मजबूर हो गया हैं। यह हो क्या रहा हैं? भविष्य में अगर मतदाता चुनाव प्रक्रिया का बहिस्कार कर दे या नोटा की बटन दबा दे तो क्या होगा? भारतीय लोकतंत्र में राजनीति पार्टियों की तानाशाही भी अब आतंकवाद से कम नहीं हैं? भविष्य में सर्व दलों को विचार मंथन की आवश्यकता प्रतीत होती हैं। राष्ट्रपति तथा मुख्य चुनाव आयुक्त को भी इस विषय पर गंभीरता पूर्वक सोचना होगा? तभी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को सुधार जा सकता हैं?
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
 भारतीय लोकतंत्र में तो क्या विश्व में कहीं की कोई भी पार्टीयो की तानाशाही उचित नहीं है। लोकतंत्र अर्थात लोगों की व्यवस्था बनाए रखने के लिए लोकतंत्र की स्थापना की गई है ना कि  पार्टियों के द्वारा तानाशाही करने की। जहां भी इस तरह की तानाशाही राजनीतिक पार्टियों का बोलबाला रहता है वहां कभी भी जनता सुखी नहीं रहता है। तानाशाह की पार्टी या नहीं चलती है कोई भी पार्टी अगर मनमानी करती है तो वह है ज्यादा दिन नहीं टिक पाती है क्योंकि पार्टियां जनता की पोषण के लिए बनाई गई है न की शोषण के लिए। कोई भी देश की किसी भी पार्टी अगर सरकार बनती है तो विपक्षी पार्टियों के साथ तालमेल बिठाकर के अपने देश की उन्नति के लिए एवं लोगों की कल्याण के लिए कार्य करती है जो पार्टी कल्याण के लिए बनाई गई है वही पार्टी अगर लोगों के हित के लिए तानाशाही विधि के द्वारा राज्य चलाता है तो निश्चित ही वहां कोई सुखी नहीं होता ऐसी राजनीति पार्टी राज्य चलाने से क्या मतलब है अतः यही कहा जा सकता है कि भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों की तानाशाही बिल्कुल उचित नहीं है तानाशाही से किसी का हित नहीं होता बल्कि अहित ही होता है। लोकतंत्र में तानाशाही नहीं बल्कि लोकतंत्र की व्यवस्था को बनाए रखने के लिए राजनीतिक पार्टियों को अपने तन, मन ,धन लगाकर लोकतंत्र की व्यवस्था को बनाए रखना होता है। यही राजनीति पार्टी की गरिमा है। यही गरिमा को बनाए रखना ही भारतीय लोकतंत्र है।
- उर्मिला सिदार
रायगढ़ - रायगढ़
तानाशाही को कभी भी सही नहीं है , जहां तानाशाही होगी वहाँ विकास नहीं हो सकता ,लोकतंत्र का मतलब ही होता है की जनता की सुनवाई लोगों की व्यवस्था सबको सम्मान बोलने का हक़ 
 भारत एक प्रजातंत्र देश है । एक समय था, जब भारत गणतंत्रों से भरा हुआ था और जहां राजसत्ताएं थीं वहां भी या तो वे निर्वाचित थीं या सीमित। वे कभी भी निरंकुश नहीं थीं। यह बात नहीं है कि भारत संसदों या संसदीय क्रियाविधि से परिचित नहीं था, बहुत अच्छी परिचित था ! 
आज भारत ने यह प्रजातांत्रिक प्रणाली खो दी।तानाशाही दौर चालू हो गया है जो आने वाले भविष्य के लिए सही संकेत नहीं है! 
हमें हमारे राजनीतिक प्रजातंत्र को एक सामाजिक प्रजातंत्र भी बनाना चाहिए। जब तक उसे सामाजिक प्रजातंत्र का आधार नहीं मिलेगा, राजनीतिक प्रजातंत्र चल नहीं सकता। सामाजिक प्रजातंत्र का अर्थ क्या है....? वह एक ऐसी जीवन-पद्धति है जो स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व को जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वीकार करती है।हमें हमारी लोकतंत्र प्रणाली को दुरुस्त करना होगा पहली से बेहतर तभी जनता का विश्वास राजनीतिक पार्टीयाँ जीत पायेगी ! परिवाद हावी हो रहा है राजनिती में जो नहीं होना चाहिए ...
आज का युवा हर  नागरिक सब देख रहे हैं. पार्टी कार्यकर्ता भी सब देख रहे हैं. वामदलों और कांग्रेस ही नहीं, भाजपा, बसपा और एनसीपी में भी ऐसे गंभीर विचारवान लोग हैं जो देश में लोकतंत्र और विधि का राज चाहते हैं.
पर हो उल्टा रहा है 
भारतीय लोकतंत्र में जनता प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री नहीं चुनती. वह सांसद या विधायक यानी जनप्रतिनिधि चुनती है. पीएम उम्मीदवार तय करना पार्टी तय करती है ..
आज़ादी के बाद भारत एक लोकतंत्र देश बना , 
और हम सब की यह जवाबदारी है की देश को लोकतंत्र रहने दे 
तानाशाही  न बनने दे ! 
सबका कल्याण व देश की विकास लोकतंत्र है 
- डॉ अलका पाण्डेय
 मुम्बई - महाराष्ट्र
भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों की तानाशाही उचित नही है। पर यहां हर दल में तानाशाह लोग बैठे हुए हैं। भारत की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां आजकल उपर बैठे एक दो लोगों द्वारा व्यक्तिगत जागीर की तरह चलाई जा रही है। यह तरीका राजनीतिक घरानों तक ही सीमित नही। यहाँ तक कि हाल ही में बनी आम याद पार्टी या जमीन से उठकर बनी भाजपा जैसे दलों ने भी वन में शो की संस्कृति अपना ली है। राजनीतिक पार्टियां भरतीय संविधान की कार्यशीलता में मूलभूत भूमिका निभाती है, परंतु एक तानाशाह रखवालों के रहते हमारा लोकतंत्र कैसे बना रह सकता है? यही समय है कि भारत की पार्टियां अपने ही उपदेशों पर अमल कर ओर वास्तविक आंतरिक लोकतंत्र लागू करें। संविधान में पार्टियों के लोकतंत्र पर कुछ नही। यह आश्चर्यजनक है कि भारत के संविधान की कार्यनयवन के लिए राजनीतिक दलों की आवश्यकता है। पर यह उन्हें नियंत्रित करने के लिए कुछ नही करता। सांसदों व विधायकों के कारण अस्थिर सरकारों के लंबे दौर के बाद संविधान में दल आधारित नियंत्रण जोड़े गए। संविधान में दल से संबंधित 50 से अधिक नियमों में से लगभग सभी दलबदल  विरोधी प्रावधानों  में एंटी डिफेक्शन मिलते हैं।  हालांकि भारत के लोकतंत्र को 
सबसे अधिक नुकसान इस बात से पहुँच रहा है कि संविधान में राजनीतिक पार्टियों के लिए कोई नियम ही समाहित नही है। चुनाव आयोग एक संवैधानिक निकाय है, लेकिन उसका अधिकार क्षेत्र चुनाव करवाना है, पार्टियों को नियंत्रित करना नही। परिणामस्वरूप भारतीय पार्टियां अपने ही संविधान का पालन नही करती। उनके नेता स्वयं अपनी नियुक्ति करते हैं। वे संगठनात्मक चुनाव नही करवाते। उनके उम्मीदवार पूरी तरह अलोकतांत्रिक तरीके से चुने जाते हैं और दलबदल विरोधी कानून पास होने के बाद वे अपनी पार्टी के विधायकों और सांसदों को जनप्रतिनिधि नही बल्कि कठपुतली समझते हैं। उदाहरण स्वरूप ऐसे दलों में लालू प्रसाद यादव की पार्टी बिहार के राष्ट्रीय जनता दल, नीतीश कुमार की जनता दल यूनाइटेड जदयू, रामविलास पासवान की लोजपा, बंगाल में ममता बनर्जी की टीएमसी शामिल है। 
- अंकिता सिन्हा साहित्यकार
जमशेदपुर -  झारखंड
विषय समीक्षात्मक है इसलिए विश्लेषणात्मक भी बन जाएगा
जहां तक मेरा विचार है लोकतंत्र का अर्थ होता है जनता के द्वारा जनता के लिए जनता के हित में काम करने वाली सरकार जो जनता के द्वारा चुनी जाती है और जनता का प्रतिनिधित्व करती है।
स्पष्ट है जो लोकतांत्रिक पार्टी है व जनता के मांग आवश्यकता सुविधा समस्या के समाधान हेतु विचार करते हुए व्यक्तिगत तौर पर नहीं बल्कि निर्णायक मंडल के माध्यम से कार्य करें।
भारत के संविधान में भी इन बातों की चर्चा की गई है इसलिए यह स्पष्ट है की जनता पर किए गए शासन में संवैधानिक नियम और कानून की अवहेलना नहीं होनी चाहिए
राजनीतिक पार्टी का तानाशाही यह बताता है कि यह लोकतांत्रिक सरकार नहीं बल्कि राजतंत्र है अपनी मर्जी अपनी सुविधा लोग लालच के माध्यम से जनता पर शासन की जा रही है विपक्ष राजनीतिक पार्टी के विचारों एवं कथनों पर किसी भी प्रकार से गौर नहीं किया जा रहा है किसी भी राज्य समाज जाति वर्ग की समस्या को अनदेखा अनसुना करके व्यक्तिगत हित के बाद में आज राजनीतिक पार्टी चल रही है।

इस तरह के तानाशाही के पीछे बहुत सारे कारण हैं पहला कारण है अज्ञानता चुनाव जो होता है वह बाहुबल के माध्यम से होता है दूसरा कारण है 5 वर्षों में अधिक से अधिक पैसा कमा लिया जाए।
3 वर्ष होते होते अगले चुनाव के लिए पब्लिक में ऐसा कर डालें जो या तो डर से मतदान नहीं करें या डर से उसी पार्टी को मतदान करें दोनों हालात में जनता बलि का बकरा बन जाती है
वर्तमान समय में कुछ ऐसे राजनीतिक पार्टी है जो शोषण नहीं कर रही है शासन कर रही है पर कुछ ऐसे भी पार्टी हैं जो शासन नहीं शोषण कर रहे हैं
इन बिंदुओं को ध्यान में रखते हुए यह विचार है कि राजनीतिक पार्टी का तानाशाही प्रतिकूल है स्वीकार करने लायक नहीं है
- कुमकुम वेद सेन
मुम्बई - महाराष्ट्र
तानाशाही पार्टियों की हो सत्ता की। विपक्ष की हो या किसी मोर्चे की। तानाशाही कभी भी उचित नहीं होती लोकतंत्र में तो किसी भी स्तर पर तानाशाही एक आत्मघाती कदम है भारतीय लोकतंत्र में 1975 का दौर ऐसा ही तानाशाही का दौर था,जब देश को आपातकाल के काले अध्याय से गुजरना पड़ा। पूरी दुनिया में देखा कि यह आत्मघाती कदम उस सरकार को ही नहीं उस पार्टी को भी पतन की ओर ले गया इतना सब कुछ हो जाने के बाद भी उनका तानाशाही वाला रवैया अभी कायम है जो उनकी पार्टी के वजूद को समाप्त करने में एक बड़ा कारक है हम बात कर रहे थे तानाशाही की लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों में यदि तानाशाही पूर्ण रवैया होगा तो फिर भला लोकतंत्र कैसे मजबूत बनेगा फिर तो वह नाम मात्र का ही लोकतंत्र होगा। शासन में अपरोक्ष  तानाशाही वाला समय भी हमने देखा है जब एक खास पार्टी के प्रमुख ने प्रधानमंत्री को कठपुतली की तरह इस्तेमाल करते हुए अपना  अपरोक्ष तानाशाही शासन किया।नतीजा अर्श से फर्श तक लाने में जनता ने देर नहीं की। भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों में तानाशाही के लिए कोई स्थान नहीं है। जिस दल में भी जैसा व्यवहार हुआ वह बिखर गया, समाप्त हो गया।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
लोकतंत्र  मैं तानाशाही के लिए कोई स्थान नहीं है और यदि ऐसा होता है तो लोकतंत्र को बहुत नुकसान पहुंचता है दरअसल अति महत्वाकांक्षा और जरूरत से ज्यादा ताकत किसी को भी तानाशाह बना सकती है और यदि किसी के पास बेहिसाब ताकत है व घनबल है  तो वह  उस समय आत्मा मुग्धता का शिकार हो ही जाता है इतिहास ऐसे अनेक उदाहरणों से भरा पडा है और यह महत्वाकांक्षा को बढाने में आग मे घी के समान काम करती है और परिणाम यह होता कि निरअंकुशता हावी हो जाती है यह जो अपना दीर्घकालिक प्रभाव छोडती है
-  प्रमोद कुमार प्रेम 
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
तानाशाही में स्वयम लोगो को परेशान करने व उन्हें दबाने व कुचलने की बू आती है फिर किस तरह कहें कि भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों की तानाशाही उचित है । लोकतंत्र राजनीतिक पार्टियों की जागीर नही है । जिसकी दो टके दलबदलू नेता धज्जियां उड़ाते फिरे । एक समय था जब देश मे राष्ट्रनीति पर नेता काम किया करते थे और एक ये समय है जब बैंक एकाउंट भरो , देश को उजाड़ दो , धर्म मजहब के नाम पर लड़ाकर वोट इकट्ठा करो नामक राजनीति देश मे चरम पर है , जिसके लिए न कोई नियम है और न कानून । तभी यहाँ हर दूसरे सख्स नेता ही नजर आता है । 
पुलिस हो अथवा विभागीय अधिकारी अपना काम करते कब है , नेताओ की अंगुलियों पर ही नाचते रहते । जो किसी भी देश को ले डूबने के लिए पर्याप्त है । जिस देश मे भ्रस्टाचारी अधिकारी , और भ्रष्टाचार करने में सालो का अनुभव किये नेता शामिल हो ऐसे देश मे आतंकवादियों का हमला करना तो उनकी बेवकूफी है । ऐसा देश तो ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों व नेताओ के त्याग व बलिदान से स्वयम ही डूबने की कगार पर होता है । कमाल बात ये है कि भारत मे हर दूसरा व्यक्ति नेता ही तो है , जिसे सिर्फ बैठकर , बिना कुछ करे सब कुछ चाहिए और न मिले तो सीधे सीधे भाषण देने के लिए उसकी तलवारनुमा जुबान नेताओ के भाषणों को भी फेल करती नजर आती है ।
- परीक्षीत गुप्ता
बिजनौर -  उत्तरप्रदेश
 इस पर मेरा विचार इस प्रकार है की भारत के कई राजनीति पार्टी पर, परिवारवाद या व्यक्तिवाद का स्टांप लगा हुआ है। यह कई दशकों से हावी है। अधिकतर राजनीतिक पार्टी व्यक्ति विशेष की निजी संपत्ति हो गए हैं। लेकिन बीजेपी इससे अलग माने जाते हैं क्योंकि उनके यहां कैडर है। भाजपा बड़े गर्व से कहती है  यह बंशवादी  पार्टी  नहीं है। एक छोटा से छोटा कार्यकर्ता भी पार्टी का शीर्ष  पद पर आ सकता है।
परंतु श्री नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री होने पर इस दल में भी व्यक्तिवाद इस कदर हावी हो गया है कि अन्य सभी बड़े नेता हाशिए पर चले गए हैं।
दरअसल राजनीतिक दलों का आंतरिक लोकतंत्र खत्म हो चुका है।
यही हाल क्षेत्रीय दल के लोग भी व्यक्तिवाद परिवारवाद पर  चल रहा है।
लेखक का विचार:- न्यायमूर्ति वेंकटचलिया के अध्यक्षता में बनाए गए आयोग ने सुझाव दिए हैं राजनीतिक दलों को सुधार करणा चाहिए। इनका  सुझाव दिया हुआ है की सभी दलो को  स्वीकार करना चाहिए।
दुख की बात है इनका सुझाव कुछ विपक्षी दल के पाटिया को स्वीकार नहीं है क्योंकि इनलोग का मानना है,निजी संपत्ति है। नेशनल पार्टी कॉन्ग्रेस मैं चौथी पीढ़ी सर्वोच्च पद पर हैं। इसी तरह क्षेत्रीय दल  भी परिवारवाद में फंसा हुआ है। सुधार की बात अभी गर्भ में है।
- विजेंयेद्र मोहन
बोकारो - झारखंड
भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों की तानाशाही उचित नहीं है लेकिन क्या करूं आजकल जो नेता उस पोस्ट पर हो जाते हैं वह अपने बच्चे को ही अपना पार्टी अध्यक्ष बनाना चाहते हैं इस कारण से उनकी तानाशाही और मनमानी चलती रहती है और आगे आने वाले युवा को या जो भी व्यक्ति अच्छा कार्य कर रहा है उसे आगे बढ़ने का मौका ही नहीं मिलता है लोग चीफ मिनिस्टर भी अपने ही पार्टी के पुराने बुजुर्ग या अपने रिश्तेदार को ही बनाना चाहते हैं इस कारण सही विद्रोह होता है जबकि लोकतंत्र में ऐसा नहीं होना चाहिए इसमें सबको समान अधिकार होना चाहिए पर किताबी ज्ञान अलग होता है वास्तविक ज्ञान अलग होता है वास्तविक ज्ञान में हर पिता जी चाहता है कि उसका बेटा ही ही चीफ मिनिस्टर या प्रधानमंत्री बने आजकल आप देखेंगे तो सभी नेताओं के बच्चे नेता हैं।और वह यह भी कहते हैं कि डॉक्टर का बेटा डॉक्टर बन सकता है वकील का बेटा वकील बन सकता है तो नेता का बेटा नेता क्यों नहीं वह अपने मन में यह बिठाकर ही रख दिया है कि हमें जनता को लूटना है और अपना पद प्रतिष्ठा और बंगले को स्थिर रखना है।
यह उचित नहीं है क्योंकि अधिक अति अंत होता है यह प्रकृति का शाश्वत नियम है।
- प्रीति मिश्रा 
जबलपुर - मध्य प्रदेश
    भारतीय लोकतंत्र के पाठ्यक्रम से उचित और अनुचित का प्रश्न ही समाप्त हो चुका है। चूंकि लोकतंत्र में क्वालिटी की नहीं क्वाॅन्टटी अर्थात गुण की नहीं बल्कि मात्रा की जीत होती है। जो राजनीतिक पार्टियों की तानाशाही का आधार है। क्योंकि यदि दिन को रात कहने वालों की मात्रा तीन है और दिन को दिन कहने वालों की संख्या दो है। तो लोकतंत्र में दिन को रात कहने वालों की मतदाता संख्या के कारण विजय होगीे। क्योंकि उनकी संख्या तीन है और दिन को दिन कहने वालों की संख्या दो है। 
     लोकतंत्र में लोगों की मूर्खता को सांख्यिकी के आधार पर  इतना महत्व दिया गया है कि गुणवत्ता वाले आत्महत्या कर लें या रामचंद्र कह गए सिया को ऐसा कलियुग आएगा, हंस चुगेगा दाना-दुनका और कौवा मोती खायेगा वाली कहावत को मान लें।
       उल्लेखनीय यह भी है कि तानाशाही शब्द ही उचित नहीं माना जाता। वह शब्द चाहे राजनीतिक पार्टियों के लिए प्रयोग किया जाए या गैंगस्टरों के लिए उपयोग किया जाए। उसे हर कसौटी पर मानवता के विरुद्ध ही माना गया है।
      अतः यदि सही मायनों में देश की उन्नति एवं विकास चाहिए। तो भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों की तानाशाही जड़ से उखाड़ कर फेंक देने की अति आवश्यकता है। चूंकि यह उचित नहीं है।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
इस भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियो की तानाशाही जितना यहाँ है शायद किसी देश में हो। यहाँ तो जितने भी कर्मकांड होते है सब लोग राजनीतिक पार्टी से जुड़े होते है। इनको हाथ लगाने की औकात न तो पुलिस वाले पास है, न सीबीआई के पास है। हमारे देश की राजनीतिक पार्टी में अच्छे लोग बहुत कम है। ज्यादातर जो गुंडे और मवाली होते है वो राजनीतिक पार्टी के होते है इनसे लगना या इनके खिलाफ कोई भी काम करने का मतलब मौत होता है। सौ में से 5 ऐसे जो ईमानदार होते है बाकी सब चोर उचक्के होते है।यह सच है कि राजनीतिक पार्टियो के तानाशाही के सामने आम आदमी की कोई कीमत नही है। वोट के लिए गरीबो के पैर तक पड़ लेते है।और जीतते ही लात मारकर किनारे कर देते है। 
- राम नारायण साहू "राज"
रायपुर - छत्तीसगढ़
कदापि नहीं।  दरअसल लोकतंत्र ऐसी शासन व्यवस्था है जिसमें जनता अपना शासक खुद चुनती है।  भारत में भी लोकतांत्रिक व्यवस्था है।  राजनीतिक पार्टियां यदि स्वार्थ और सत्ता लोलुपता के लिए तानाशाही जैसे कदम उठाने लगंे तो वह किसी भी स्थिति में उचित नहीं है और न ही विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र के हित में हैं।  भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में किसी भी राजनीतिक पार्टी द्वारा तानाशाही जनता द्वारा किसी भी मूल्य पर स्वीकार्य नहीं होगी। भारतीय लोकतंत्र की बात तो एक तरफ अपने परिवार में भी किसी की तानाशाही को कोई सदस्य बर्दाश्त नहीं करता। 
- सुदर्शन खन्ना
दिल्ली
भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों की तानाशाही उचित नहीं है । वैसे तो भारत में कहने को लोकतंत्र है । पर षड्यंत्र है राजतंत्र का । जब कोई पार्टी बहुमत से जीत जाती है तो सारी हारी हुई पार्टी एक साथ आकर अपना बहुमत का दावा करती हैं और सरकार बना लेती हैं ।तो काहे का लोकतंत्र ?
भारत की जनता से नेता अपना बहुमूल्य वोट ,अपना बहुमूल्य वोट देकर सफल बनाएं कहकर जनता का बहुमूल्य समय और खून पसीने की कमाई इलेक्शन में खर्च करके अपने ही तानाशाही चला कर अब तक देश को नुकसान और जनता को गरीब ही बनाती च ली आयी  हैं ।यह सब राजनीतिक पार्टियों की तानाशाही का ही नतीजा है ।
अब जबकि वैश्विक संकट कोरो ना संक्रमण की समस्या में भी एकजुट होकर अपनी अपनी पार्टियों की राजनीतिक रोटियां सेकने पर लगे हैं।
 एक पार्टी दूसरी पार्टी की बखिया उधेड़ और आरोप-प्रत्यारोप लगाकर जनता के हक में कुछ काम ही नहीं होने देना चाहती अपनी भलाई में तानाशाही या दलबदलू बनकर भारत के लोकतंत्र का  मखोल बनाया जाता रहा है ।
अब जरूरी है राजनीतिक पार्टियों की तानाशाही खत्म करने के लिए कोई सख्त कानून बनाने की। भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों का चयन हेतु प्रावधान की।
सभी भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों की तानाशाही खत्म हो सकती है।
      - रंजना हरित       
  बिजनौर - उत्तर प्रदेश
कतई नहीं! हमारा देश लोकतंत्र गणराज्य है! इसमे जनता के लिए जनता द्वारा शासन का प्रावधान है  ! अतः पद की सर्वोच्चता अपनी योग्यता और जनमत के अधिकार के अनुसार प्राप्त कर सकता है ना कि तानाशाही  से !
साधारण हम अपने घर को ही ले ले वहाँ  भी कोई तानाशाही पसंद नहीं  करता !फिर  यह तो पूरे देश और समाज के निर्माण की बात है जिसके शासक भी हम जनता है और प्रजा भी  !
राजनीतिक क्षेत्र में हम देखते हैं 
की ख़ानदानी अधिकार का मोटिव है! पिता राजनीतिक क्षेत्र में  है तो पिता अपनी गद्दी पर बेटे को ही लाना चाहता है! भाई भतीजा वाद भी चला! 
राजनीति में  कोई किसी का नहीं  होता कुर्सी की लोलुपता ही उसे पार्टी से जोड़ती  है! 
आजकल राजनीति में सत्ता का प्रलोभन इतना बढ़ गया है कि भारी जन मतों से जीतने के बाद धारा सभ्य लोग दल बदल लेते हैं क्योंकि आज राजकारण जनसेवा नहीं धन सेवा बन गया है! इसके उपरांत बड़े बड़े मंत्री पद का प्रलोभन भी होता है! 
आज नेताओं ने तानाशाही दिखा जो एकाधिकार का चोला पहन राजनीति में जो गंद फैलाई है उसे खत्म करें! 
देश के संसाधनों पर हमारा समान रूप से अधिकार है चाहे हम किसी भी क्षेत्र ,समूह और समुदाय के हों इसके लिए हम सभी नागरिक की जिम्मेदारी है कि हम इस पर ध्यान दें आखिर संविधान की आधार शिला हम ही तो हैं! 
अतः भारतीय लोकतंत्र मे राजनीतिक पार्टियों की तानाशाही कदापि उचित नहीं है! 
- चंद्रिका व्यास
 मुंबई - महाराष्ट्र
 भारत किसी भी प्रतिनिधि को राष्ट्रव्यापी रूप से नहीं चुनता ।फिर चुनाव आयोग एक सेंट्रल निकाय क्यों हो ?
हर राज्य के चुनाव आयोग को प्रत्येक पार्टी के स्थानीय खंडों को नियंत्रित करने की शक्ति देनी चाहिए ।यह पार्टियों को विकेंद्रित करेगा ,स्थानीय नेताओं को मजबूत बनाएगा और पार्टी हाईकमान का नियंत्रण कम करेगा ।
भारत की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां आजकल ऊपर बैठ एक या दो लोगों द्वारा व्यक्तिगत जागीर की तरह चलाई जा रही हैं ।यह तरीका राजनीतिक घरानों तक ही सीमित नहीं रहा ।
राजनीतिक पार्टियां भारतीय संविधान की कार्य शीलता में मूलभूत भूमिका निभाती हैं ,परंतु ऐसे तानाशाह रखवालों के चलते हमारा लोकतंत्र कैसे बना रह सकता है।
 यही समय है कि भारत की पार्टियां अपने उपदेशों पर अमल करें और वास्तविक आंतरिक लोकतंत्र लागू करें ।
यह आश्चर्यजनक है कि भारत के संविधान को क्रियान्वयन के लिए राजनीतिक दलों की आवश्यकता है ।यह उन्हें नियंत्रित करने के लिए कुछ भी नहीं करता।
 पार्टी सुप्रीमो उच्च पदों के लिए नियमित रूप से अपना ही निर्वाचन करते हैं।
 हमारी विधायिका में कानून बनाने की प्रक्रिया एक तमाशा बनकर रह गई है ।और इसने हमारे देश को एक राजनीतिक कुलीन तंत्र में बदल डाला है ।
हमें निर्वाचन व्यवस्था को विकेंद्रीकृत करते हुए चुनाव करवाना राज्यों का विषय होना चाहिए।
 पार्टियों को स्वयं प्राथमिक चुनाव के माध्यम से उम्मीदवार चयन करने चाहिए। हमारे सांसदों और विधायकों की असली निर्वाचक शक्तियां बहाल होनी चाहिए नहीं तो भारत के लोकतंत्र का अपमान है।
 भारतीय संसदीय प्रणाली में जान तभी आ सकती है जब इसकी पार्टी व्यवस्था लोकतांत्रिक हो।
 वर्तमान समय में तानाशाही या अधिनायकवाद  या डिक्टेटरशिप उस शासन प्रणाली को कहते हैं जिसमें कोई व्यक्ति विद्यमान नियमों की अनदेखी करते हुए डंडे के बल से शासन करता है।
लोक तांत्रिक पार्टियों की तानाशाही अनुचित है।
- सुषमा दीक्षित शुक्ला
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
   भारत में लोकतंत्र को सबसे अधिक नुकसान इस बात से पहुंच रहा है कि संविधान में राजनीतिक पार्टियों के लिए कोई नियम ही समाहित नहीं है। सभी पार्टियों में  'वन मैन शो'  की पूर्ण झलक दिखती है। अपनी पार्टी के विधायकों और सांसदों को जनप्रतिनिधि नहीं बल्कि कठपुतली समझा जा रहा है। शीर्षस्थ एक-दो नेताओं के द्वारा पार्टी जागीर की तरह चलाई जा रही है। उनके हर विचार को पार्टी का विचार कह लागू कर दिया जाता है। यहां तक कि जनता द्वारा चुनी गई सत्ताधीन पार्टियों द्वारा भी जनता के सहमति बिना हीं, जनता के हितों का अनदेखी कर बड़े-बड़े फैसले थोप दिए जाते हैं। विरोध में आवाज उठाना सरकार को नागवार गुजरता है।
   आप किसी पार्टी के सदस्य हों या देश के नागरिक--- लोकतांत्रिक प्रणाली के अंतर्गत सभी को अपना विचार रखने का हक है और शीर्षस्थ  नेताओं को उन विचारों को सुनना भी अनिवार्य है।
    तानाशाही प्रवृत्ति से अंदरूनी कुंठा जन्म लेती है जो कि धीरे-धीरे विस्फोटक रूप ले लेती है।  वर्तमान में जिस तरह से सरकार तोड़ने और बनाने की प्रक्रिया चल रही है वह भी तानाशाही का ही प्रतीक है। जनता के बहुमत का अपमान, जनता के लिए कार्य न कर सरकार गठन में समय की बर्बादी, बेवजह चुनाव में लाखों का खर्च आदि कार्य राजनीतिक पार्टियों की मनमानी और तानाशाही का ही दूसरा रूप है।
   अतः मेरे विचार से राजनीतिक पार्टियों की तानाशाही बिल्कुल उचित नहीं है। वही सरकार ज्यादा दिनों तक सत्ता में आसीन रहती है जो जनता में विश्वास बनाए रखे और जनता के हित- अहित का ध्यान रखते हुए कार्य करे
                    - सुनीता रानी राठौर
                        ग्रेटर नोएडा -उत्तर प्रदेश
लोकतंत्र में जनता की आकांक्षा ही सर्वोपरि होती है पर वर्तमान दौर में राजनीती जिस करवट बैठ चुकी है, सबसे ज्यादा जनता की आकांक्षा का ही गला घोंटा जा रहा है l यह कभी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा या कभी विपक्ष की तिकड़म का शिकार हो जाती है तो कभी सत्ताधारी दल के अंदरूनी कलह की भेंट चढ़ जाती है l इसका ताजा उदाहरण राजस्थान के सियासी संकट में देखा जा सकता l 
       जिसका हित साधन करने के लिए लोकतंत्र की अवधारणा अस्तित्व में आई थी,लोक हित छोड़   राजनैतिक पार्टियों की तानाशाही का खेमा बन गई हैं l 
ऐसे में लोकतंत्र को कैसे और किस प्रकार सार्थक एवं सफल अवरेखित किया जा सकता है? 
आज लोकतंत्र की मूल भावना और अवधारणा ही वास्तव में लालफीताशाही भ्र्ष्ट राजनीती और निहित स्वार्थी माफिया -राजनीतिज्ञ गठबंधन का शिकार होकर प्रायः समाप्त हो गई है l 
इस प्रकार भारतीय लोकतंत्र में राजनीतिक पार्टियों की तानाशाही जीवन -समाज को अन्धतमस की ओर ढकेले लिए जा रहा है l, विचारणीय प्रश्न है l 
           चलते चलते ----
   1. लोकतंत्र की बुनियाद में स्वच्छ प्रशासन की संभावना हुआ करती है, जो आज की आवश्यकता है l 
2.जब हाथ से टूटे न अपनी हथकड़ी, तब मांग लोग ताकत स्वयं जंजीर से 
अधिकार जब अधिकार पर शासन करे 
तब छीनना अधिकार ही कर्तव्य है बस गरज, गिरते हुए इंसान को हर तरह, हर विधि उठाना धर्म है l 
              - डॉ. छाया शर्मा                 
अजमेर - राजस्थान 


" मेरी दृष्टि में " पार्टियों के अन्दर  लोकतंत्र होना चाहिए । परन्तु ऐसा देखने में नहीं आता है । इसलिए जगह - जगह क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां देखने को मिलती है । यह पार्टियाँ के अध्यक्ष की तानाशाही का परिणाम होता है ।
                                                         - बीजेन्द्र जैमिनी

सम्मान पत्र


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