आम जनता की तरह राजनीतिक दलों में सांसद व विधायकों को अधिकार होने चाहिए

सांसद व विधायक को  जनता ही चुन कर भेजती हैं । परन्तु राजनीतिक दल अपने सांसद व विधायकों के अधिकारों को स्वयं इस्तेमाल करती है । पार्टी को अपने विधायकों के अधिकार नहीं छीनने चाहिए । यही " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । अब आये विचारों को देखते हैं : -
सांसद व विधायक जन प्रतिनिधि हैं। जन प्रतिनिधि होने के कारण उनके अधिकारों की अपेक्षा कर्तव्यों की बात अधिक होनी चाहिए। 
आम जनता को जो  अधिकार प्राप्त हैं, वे अधिकार तो उन्हें प्राप्त हैं ही इसके अतिरिक्त सांसद व विधायक होने के नाते भी उन्हें आम जनता से अलग कुछ अधिकार पहले से ही प्राप्त हैं। इसके अतिरिक्त और कौन से अधिकार सांसद व विधायक को दिये जायें?
लोकतन्त्र में लोकतान्त्रिक अधिकार तो सभी को मिले हुए हैं। राजनीतिक दलों में सांसद व विधायकों को जो मताधिकार प्राप्त है उसकी ही ताकत बहुत है। व्यक्तिगत रूप से किसी सांसद अथवा विधायक को विशेषाधिकार की परम्परा लोकतन्त्र के लिए घातक है।
मेरी समझ से तो राजनीतिक दलों को अपने सांसद व विधायकों के कर्तव्यों में वृद्धि करनी चाहिए और आम जनता को उन कर्तव्यों के क्रियान्वयन के परीक्षण का अधिकार मिलना चाहिए। 
- सत्येन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
हमारे भारत में लोकतंत्र शासन है जिसमें जनता को कर्त्तव्यों के साथ साथ अधिकार भी प्राप्त हैं और वही शासन सफल है जिसमें शासक जन समुदाय के दिल में रहकर उनकी जरूरतों को समझते हुए शासन करे कर्त्तव्यों व अधिकारियों का यह तालमेल लोकतंत्र को और मजबूत बनाता है अब सवाल उठता है कि संसद और विधायकों को भी अधिकार होने चाहिए तो बिल्कुल होने चाहिए क्योंकि सम्पूर्ण शासन व सरकार इन्हीं संसद व विधायकों के द्वारा ही संचालित किया जाता है अब यदि इन्हें कुछ ऐसे अधिकार प्राप्त नहीं होंगे जो जनता से थोड़े अधिक व अलग हों जो शासन को सकुशल संचालित करने में सहायक हों तो बुराई उत्पन्न हो जाएगी और कुछ समाज कंटक लोग लोकतंत्र को हानि पहुंचाने के लिए आज़ाद हो जाएंगे अतः संसद व विधायकों को जनता की तरह राजनीतिक अधिकार प्राप्त होने चाहिए जिससे राजनीति दुषित होने से बची रहे।
- ज्योति वधवा "रंजना"
बीकानेर - राजस्थान
     लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं  में सुधारों की अत्यंत आवश्यकता प्रतीत होती हैं। मतदान का पूर्ण रूपेण महत्वपूर्ण स्तर घटता जा रहा हैं। मुख्य चुनाव आयुक्त द्वारा, प्रशासनिक व्यवस्थाओं के तहत आमजनों से शत-प्रतिशत मतदान करने प्रेरित किया जाता हैं और आमजन बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेकर अपने अमूल्यों वोटों से विजयी करवाते हैं ताकि सांसद-विधायक उनके विचारों को सुने, विकास कार्यों को सम्पादित करने में विशेष योगदान देकर, अपने कर्तव्यों का पालन का बोध करायें। लेकिन आज वर्तमान परिदृश्य में राजनैतिक दलों की स्थितियां विपरित दिशा में परिवर्तित हो चुकी हैं। बहुमतों के अभावों में अपनी अकुशलता का परिचय देते हुए दिखाई देते हैं, जिसका परिणाम पुनः मतदान? पुनः अरबों रुपयों का महा तिरस्कार? प्रश्न उठता हैं, क्या ऐसा ही चलते रहा तो, फिर मतदान पद्धतियों को ही समाप्त कर देना चाहिये। उसकी जगह परीक्षा प्रणाली से चुनाव हो, ताकि शिक्षा पद्धति का महत्व बढ़ता जायेगा, साथ ही दूरगामी पहल सार्थकता की ओर अग्रसरित होगी। फिर अरबों रुपयों का मूल्यांकन समझ में आयेगा? उस समय स्वतंत्रता के पश्चात जो संविधान लिखा गया था, उस समय की परिकल्पना थी। आज 21 वीं हैं,  फिर 22 वीं सदी में प्रवेश करेगा,  फिर अनेकों सदियों में प्रवेश होता चला  जायेगा, इस तरह भविष्य के भव सागर को देखते हुए, पुनर्विचार करने की आवश्यकता प्रतीत होती हैं। जिस तरह से शून्य सदी से निरंतर राजाओं-महाराजाओं ने बदले परिवेशों
में अपने साम्राज्यों का उत्थान तो किया हैं, उस समय तलवारों  की नोकों से विजयीश्री प्राप्त की जाती थी, आज वोटों से? परिवर्तित कुछ नहीं हुआ हैं? पूर्व समय में अपने-अपनों के रक्तों से कपड़े लाल हुआ करते थे,  आज अपने-अपनों के मन विचारों से कपड़े सफेद हो रहे हैं? यह परिवर्तन की लहर हैं?  आम जनता की तरह सांसद व विधायकों को अधिकार होने चाहिये,  ताकि आम जनता की निगरानी में समस्त प्रकार के कार्यों को सम्पादित करने में सुविधा हो और विकास कार्य सुचारू रूप से प्राथमिकताओं के आधार पर सम्पन्न होने में किसी भी तरह की परेशानियों का सामना नहीं करना पड़े?
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
राजनीतिक दल स्वैच्छिक संगठन हैं जिसे चार लोग मिल कर बना सकते हैं और कभी भी खत्म कर सकते हैं। ऐसे संगठन मनमाने तरीके से चलें, यह सरासर विवेकहीन, असंवैधानिक है। याद करें कि अपने को सूचना अधिकार कानून के दायरे से बाहर रखने की दलील में राजनीतिक दलों ने कहा था कि वे स्वैच्छिक संगठन हैं, सरकारी संस्था नहीं। संसद और विधानसभाएं संवैधानिक सत्ता हैं। वहां किसी सांसद, विधायक के लिए पार्टी का ध्यान रखना स्वैच्छिक होना चाहिए, बाध्यकारी नहीं।
यह कितना विचित्र है कि अपने बुद्धि, विवेक से बोलने, अपनी अंतरात्मा के अनुसार काम करने का जो अधिकार सामान्य नागरिक को है वह हमारे विधायकों, सांसदों को नहीं है। वे अपनी-अपनी पार्टी के सुप्रीमो, साहबों, मैडमों के गुलाम होकर रह गए हैं। जब हमारे न्यायाधीश विधायिका को दलीय शिकंजे से मुक्त करने पर विचार करेंगे तभी संविधान में निहित वैयक्तिक जिम्मेदारी की फिर से प्रतिष्ठा हो सकेगी। तभी शासकों, प्रशासकों में गंभीरता, जबावदेही, पारदर्शिता और गतिशीलता भी आएगी। तभी राजनीतिक दलों की उच्छृंखलता पर लगाम लगेगी। अभी तो हमारी हालत कम्युनिस्ट देशों जैसी यानी पार्टी-गुलामी वाली होकर रह गई है।
भारतीय संविधान ने राजनीतिक दलों को कोई भूमिका नहीं दी थी। सांसद, विधायक का निर्वाचन एवं विधायिका का काम बिना किसी राजनीतिक दल के भी चल सकता है। किसी चुनाव में अधिकांश निर्दलीय भी जीत कर आ सकते हैं। विधानसभा फिर भी गठित होगी। सरकार फिर भी बनेगी। शासन चलेगा। तब किसी सांसद की जिम्मेदारी संसद के प्रति न होकर, उस राजनीतिक दल के प्रति कैसे, जिसका वह सदस्य है? न्यायाधीशों को इस पर पुन: विचार करना ही चाहिए। सांसद, विधायक संविधान-पालन की शपथ लेते हैं, पार्टी विधान की नहीं। तब उन्हें पार्टी-निर्देशों से कैसे बांधा जा सकता है? जिसे स्वेच्छा से कुछ बोलने का ही अधिकार न हो, वह देश के लिए क्या खाक सोचेगा? 
- डॉ अलका पाण्डेय
 मुम्बई - महाराष्ट्र
वैसे तो सांसद व विधायकों के बहुत सारे अधिकार मिले हैं, जिससे वो विकास कार्यों सहित अन्य कई तरह के काम करते हैं। पर आम जनता की तरह उन्हें राजनीतिक दलों में भी अधिकार मिलने चाहिए। इनके लिए क्षेत्र का विकास, स्वास्थ्य, शिकायत सर्वोपरि है। जनता के सुख-दुख का ये साथी हैं। इन्हें पता है कि चुनाव जीतकर वो 5 साल तक निश्चिंत रहेंगे, फिर इन्हीं आम लोगों के पास जाना होगा। राजनैतिक दल किसी समाज व्यवस्था में शक्ति के वितरण और सत्ता के आकांक्षी व्यक्तियों व समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे परस्पर विरोधी हितों के सारणीकरण, अनुशासन और सामंजस्य का प्रमुख साधन रहे हैं। वहीँ एक आम आदमी को सूचना का अधिकार के तहत बहुत सारी जानकारियां मांगने का अधिकार प्राप्त है। सूचना का अधिकार बेहद सरल व स्पस्ट है। इसकी किसी व्याख्या या परिभाषा की जरूरत नही है। इसके अनुसार लोक प्राधिकार से तात्पर्य ऐसे संस्थानों से है, जिनकी स्थापना संविधान द्वारा अथवा संसद या विधानसभा के कानून द्वारा हुई हो। या जो सरकारी संस्थानों से चलता हो। इसमे ऐसी गैर सरकारी संस्थाएं भी शामिल है, जो सरकार द्वारा पर्याप्त रूप से वित्तपोषित हो। ऐसी स्पस्ट व्याख्या के बावजूद राजनीतिक दल खुद को इस कानून से बाहर रखना चाहते हैं।
- अंकिता सिन्हा साहित्यकार
जमशेदपुर - झारखंड
जनता की ही तरह राजनैतिक दलों में सांसदों व विधायकों को अधिकार होने चाहिए जहाँ तक इस बात पर चर्चा का प्रश्न है तो भारतीय संविधान देश के प्रत्येक नागरिक को समान अधिकार प्रदान करता है तब स्पष्ट है की सभी को अधिकार बराबर ही होने चाहिए परन्तु आवश्यकता और देशहित को देखते हुए जब किसी भी व्यक्ति को कोई भी विशेष अधिकार और  जिम्मेदारी दी जाती है तो वह अपनी उस जिम्मेदारी उत्तर दायित्व के प्रति पूरी तरह से जवाब देह  होना चाहिए और यदि वह अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने में सफल नहीं रहता तो उसे उस जिम्मेदारी से मुक्त करने या वापस बुलाने लेने का अधिकार भी दिया जाना चाहिए 
- प्रमोद कुमार प्रेम 
नजीबाबाद - उत्तर प्रदेश
सांसद व विधायकों को जितना अधिकार है शायद ही महामहिम राष्ट्रपति को इतना अधिकार हो । दरसल आम नागरिक राष्ट्रपति तक तो नही पहुंच पाता परंतु अपने क्षेत्र के सांसद, विधायको तक अपनी बात के लिए जिझकता जिझकता पहुंच ही जाता है । वह व्यक्ति जो हाथ जोड़ कर घर घर वोट मांगता फिरता था , सब के साथ सुख दुख में खड़े होने की हामी भरे फिरता था , कुर्सी मिलते ही अगले चुनाव तक तो महौदय का पता ही नही चलता । उसे कोई पूछने वाला ही नही है कि महौदय अब तक थे कहाँ  और किस मुँह से फिर वोट मांगने आ गए है । थाने दारो , पुलिस कप्तान तथा जिलाधिकारी का हमेशा इनके निर्देंशन में चलना आम नागरिकों को न्याय न मिल पाने की सीधी सी वजह होती है । इसीलिए इनके इतने अधिकार भी आम नागरिकों के लिए मुसीबत बने रहते है । जिन्हें लिमिटेड करना भी बहुत जरूरी है ।।
- परीक्षीत गुप्ता
बिजनौर - उत्तरप्रदेश
हमारे विचार से कोई भी जनप्रतिनिधि संसद या विधानसभा में जाते हैं वह जनता की आवाज बनकर जाते हैं। ईन्हे राजनीतिक दल से  मुक्त होना चाहिये। राजनीतिक दल का मनमानी पर रोक लगेगी। अभी सभी राजनीतिक दल अपने सांसदों और विधायकों को भेड़- बकरी के तरह हाकनें की परंपरा बना ली है।
यह न तो संविधान की भावनाओं के अनुरूप है।न किसी प्रतिष्ठित लोकतंत्र में ऐसा है,कोई भी राजनीतिक दल स्वैच्छिक संगठन है। जिसे 4 लोग मिलकर बना सकते हैं या खत्म कर सकते हैं।
संसद और विधानसभा संवैधानिक संस्था है।वहां के सांसद विधायक के लिए दल का स्वैच्छिक होना चाहिए न की बाध्यकारी नहीं ।
भारत देश का संविधान इंग्लैंड के संसदीय मॉडल पर आधारित है।
सांसद विधायकों को बंधुआ कैसे बना लिया गया है?
दल बदल कानून के बहाने राजनीतिक दलों को संसदीय कार्रवाई में निर्णायक शक्ति दे कर एक तरह से संविधान का तख्ता पलट गया है।  इन लोगों  को जो संविधान द्वारा मिला अधिकार राजनीतिक दलों ने छीन लिया अभी तो हमारी हालत गुलामी जैसी हो गई है।
लेखक का विचार:- न्यायाधीशों को करना चाहिए पुनर्विचार। भारतीय संविधान मे राजनीतिक दलों को कोई भी भूमिका नहीं थी। विधायिका का काम बिना किसी राजनीतिक दल के भी चल सकता है।
सांसद विधायक संविधान पालन के शपथ लेते हैं। पार्टी विधान कि नहीं, उन्हें पार्टी के निर्देशो से कैसे बांधा जा सकता है? अपनी इच्छा से बोलने का अधिकार नहीं हो, वह   क्या खाक सोचेगा। 
इसलिए आम जनता की तरह सांसद और विधायक को अधिकार होना चाहिए।
- विजयेंद्र मोहन
बोकारो - झारखण्ड
      आम जनता के पास कौन से आधिकार हैं? जो सांसदों और विधायकों के पास नहीं हैं। सत्य तो यह है कि अधिकार ही सांसदों व विधायकों के पास हैं। इसके अलावा यदि नागरिकों के पास अधिकार हैं भी तो वह उसका सदुपयोग करने में सक्षम नहीं हैं। चूंकि उनके अधिकारों की गठरी कभी खुलती ही नहीं है।चाहे संविधान के चारों स्तम्भों में से किसी के पास भी याचिका की जाए। क्योंकि तथाकथित चारों स्तम्भ (विधायिका, कार्यपालिका, न्यायापालिका और पत्रकारिता) धन, शक्ति और रसूख के आगे घुटने टेक चुके हैं। जिसकी जानकारी पूर्णतः राजनीतिक दलों को भी है।
      इसीलिए संविधान कभी लाल किले से और कभी निर्धन किसान के घर से चीख रहा है। जिसकी करूना कोई सुन ही नहीं रहा। इसलिए कार्रवाई का प्रश्न ही उत्पन्न नहीं होता।
      सर्वविदित है कि सांसद और विधायक नागरिकों को मोहरे से अधिक महत्व नहीं देते और उनकी समस्या को संसद या विधानसभाओं में उजागर करने के लिए धन लेते हैं। अन्यथा समस्या हमेशा समस्या ही रहती है। भले ही सरकार ने राष्ट्र स्तर पर समस्या निवारण कार्यालय खोल रखे हैं। जिनमें प्रधानमंत्री कार्यालय समस्या एवं शिकायत निवारण एक है। जहां से भारत के समस्त मंत्रालयों को की गई शिकायत पंजीकृत अंक के साथ भेज दी जाती है।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
आम जनता की भावना हमेशा सत्ता में ऐसे ही नेतृत्व को रखने की होती है जो उनकी परेशानियों को दूर कर सके और उनके अधिकारों की रक्षा कर सके,न कि ऐसी संकट की घड़ी में उनकी चिंता छोड़ पार्टी में ही झगड़ते रहें l चुने हुए जन प्रतिनिधिओं का मूलभूत दायित्व पार्टी हितों से ऊपर उठकर सबसे पहले आम जनता के प्रति है और वर्तमान हालात में सत्तारूढ़ दल इसका अनुसरण कर रहा है या नहीं, यही सबसे बडा प्रश्न चिन्ह आज लगा है जो सबकी जुबां पर है l 
   असहमति की आवाज़ लोकतंत्र में जरूरी है l 
       चलते चलते ---
हर व्यक्ति अधिकार चाहता है पर अपने बोधिउत्तरदायित्व को भुला बैठा है l आपसी झगड़ों में कुछ नहीं रखा l राष्ट्र हित सर्वोपरि होना चाहिए l 
       - डॉ. छाया शर्मा 
             अजमेर - राजस्थान
 आम जनता की तरह राजनीतिक दलों में सांसद व विधायकों को भी अधिकार होने चाहिए जिस तरह जनता अपने अधिकार का उपयोग करता है अपनी व्यवस्था बनाने के लिए और शासन के नियम को मानने के लिए इसी तरह सांसद और विधायक भी अपने अधिकारों का उपयोग करना चाहिए जो जनता के हित के लिए हो ऐसी अधिकारों का जग्गू पालन करता है तो जनता की व्यवस्था बनाए रखने मैं अपने दायित्व और कर्तव्य को भी जनता के हित के लिए उपयोग करता है तभी तो वह अधिकार के हकदार होगा नहीं तो वर्तमान में राजनीति मनमानी ही चल रहा है ऐसे में कोई भी अधिकार उन्हें मिले कोई मतलब का नहीं होता है अब तो इसे ही कहते बनता है कि सांसद व विधायक हो अधिकार लोगों की व्यवस्था बनाने के लिए होनी चाहिए ना की मनमानी करने के लिए।
- उर्मिला सिदार
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
सारे अधिकार सांसद व विधायक के पास ही हैं नाम के लिए वोट का अधिकार आम जनता के पास है। पर इस अधिकार का भी क्या फायदा? जिस तरह सांसद, विधायक दल-बदलू रवैया अपनाकर जनता को मूर्ख बना रहे हैं इससे तो लगता है कि चुनाव प्रक्रिया ही बंद हो जानी चाहिए। बेवजह अमूल्य समय और धन की बर्बादी चुनाव के नाम पर होती है।
 तीन चौथाई समय तो सरकार गिराने और सरकार बनाने में ही बर्बाद करते हैं। जनता की फिक्र कब करेंगे ? 
जब देश महामारी से त्रस्त है। लगभग 13 लाख लोग मौत से लड़ रहे हैं। करीब 31000 लोग मौत के मुंह में समा गए। दो राज्य महामारी के साथ-साथ बाढ़ से त्रस्त है-- कितने सांसद और विधायक सक्रिय हैं मदद करने के लिए?  हमें इस पर विचार करने और ध्यान देने की आवश्यकता है । अगर आज अपने जिम्मेदारियों को पूर्णता से निभाए होते तो महामारी हमारे देश में इतना विकराल रूप नहीं धारण किया होता। 
 आज सभी दलों ने जिस तरह से अपने सांसदों विधायकों को भेड़ बकरी की तरह हांकते हुए सरकार गिराने और बनाने की परंपरा बनाई है वह किसी प्रतिष्ठित लोकतंत्र के अनुरूप नहीं है। अधिकारों का दुरुपयोग कर नियमों की धज्जियां उड़ाई जा रही है। पुलिस इनकी खिदमतगाड़ी में नतमस्तक रहती है। न्याय प्रक्रिया भी इनकी मुट्ठी में कैद होती जा रही है। घोटाला ये करें ---जांच में इनका साथ देने वाला अधिकारी,पुलिस बर्खास्त हो जाती है पर इनका कुछ नहीं बिगड़ता।
 आज हमारा देश कोरोना महामारी के चपेट में विश्व में दूसरे नंबर पर पहुंच गया है और इस विकट स्थिति इन सांसदों और विधायकों का जो हास्यास्पद रवैया देखने को मिल रहा है उसको देखते हुए ये स्वार्थलोलुप विधायक और सांसद आदर और सहानुभूति के पात्र कतई नहीं है।
                             -  सुनीता रानी राठौर 
                          ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश

" मेरी दृष्टि में " भारतीय राजनीतिक दलों में लोकतंत्र नहीं है । यहीं विधायकों व सांसद के अधिकार को सीमित कर दिया जाता हैं । ऐसे में जनता की आवाज नहीं बन पातें हैं । यही लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है। 
                                                   - बीजेन्द्र जैमिनी 
सम्मान पत्र 

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