क्या यह साहित्य का अपमान नहीं है ?

साहित्यिक पुस्तकों को किलो के हिसाब से बेच जा रहा है । यहां पर लेखक की मेहनत और प्रकाशक का पैसा लगा होता है । ऐसे में पुस्तकों को रद्दी के भाव में खरीद कर , किलो के हिसाब से हिसाब से बेचा जा रहा है । यहीं " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय हैं । अब आये विचारों को देखते हैं : -
यह बात बिल्कुल हंड्रेड परसेंट सही है किस साहित्य और साहित्यकारों का दोनों का अपमान है सही होता है दोनों की कोई कीमत नहीं है क्योंकि आज के समाज में लक्ष्मी सर्वत्र पूज्यते और सभी लोग उसकी पूजा करते हैं जो व्यक्ति ज्ञानी हैं पर कभी बुरे काम नहीं करेगा उसकी पढ़ाई लिखाई उससे बुरे काम करने से रोकेगी इसीलिए वह चाह कर भी बुरे काम को नहीं कर सकता । साहित्यकार हमेशा गरीब ही होता है। संकट के काल में क्या करें कोई भी व्यक्ति किताब को जल्दी भेजना नहीं चाहता जरूर कुछ मजबूरियां होती है तब इंसान ऐसे कदम उठाता है।
स्वस्थ रहें मस्त रहें और सरस्वती और विद्या की हमेशा पूजा करते रहे।
विचारों से हमेशा धनवान रहे और किताब कॉपी की इज्जत करें यदि आप के योग्य पढ़ने के लिए नहीं है तो किसी गरीब को दान कर दे।
- प्रीति मिश्रा
 जबलपुर - मध्य प्रदेश
पुराने साहित्य की किलो में बिक्री करना साहित्य का अपमान नहीं है ये वो साहित्य है जो रद्दी के भाव ख़रीदा गया है और सम्मान जनक तरीक़े से सजाकर रखा गया है और एक निश्चित मुल्य के साथ बेचा जा रहा है । अपमान तो तब कह सकते हैं जब उसको कूड़े में फेंक दिया जाता । ये विक्रेता महान है क्योंकि उसने उसे पुनः किसी साहित्य प्रेमी के हाथों तक पहुँचाने का कार्य किया है । 
 वैसे भी वर्तमान में साहित्य के ख़रीदारों की कमी हो गई है रही सही गूगल और इंटरनेट ने कमी पूरी कर दी है साहित्य का अपमान तब है जब एक साहित्य प्रेमी पुस्तक ख़रीद कर अलमारी में रखकर भूल जाता है या यदाकदा ही स्पर्श करता है और सबसे बड़ा अपमान तब होता है जब दूसरी पीढ़ी साहित्य को घर से बाहर निकालती है । तथा रद्दी में बेच देती है वास्तविकताओं पर टिप्पणी करना आसान है निर्वहन बहुत मुश्किल ।
साहित्यकार या साहित्य प्रेमी जब आर्थिक तंगी से जूझ रहा होता है तो वह केवल और केवल सस्ती दरों में मिलने वाले साहित्य की तलाश करता है । ऐसी स्थिति में रेडी पटरी पर बिक रहे १५०/- किलो के भाव में जब साहित्य मिल जाए तो साहित्य पुनः सम्मान को प्राप्त हो जाता है । न कि अपमान को वैसे हमें स्व विश्लेषण करके देखना चाहिए कि हम कितना साहित्य ख़रीद पाते हैं । 
- डॉ भूपेन्द्र कुमार धामपुर 
बिजनौर - उत्तर प्रदेश
 यह अपनी अपनी सोच पर निर्भर करता है कोई साहित्यकार साहित्य का अपमान समझता है तो कोई साहित्यकार साहित्य जन जन तक पहुंचे। इस भाव से देखता है सिर्फ अपनी मानसिकता की सोच है। हम सकारात्मक लेकर सोचतेे हैं, तो उसका कहीं ना कहीं उपयोग होता ही है हम उसकी उपयोगिता को ना समझ पाने के कारण अपने अपने अपमान महसूस करते हैं इस धरातल पर कोई भी चीज की उपयोगिता है अगर उसको उपयोग के लिए लोग खरीद कर ले जा रहे हैं ज्ञान की सूचना पाने के लिए एक अच्छी सोच है अगर वही  साहित्य को  कोई उपयोग ना कर दुरुपयोग के लिए ले जा रहा है तो जरूर यह अपमान वाली बात है साहित्य में जो ज्ञान की सूचनाएं होती है तो इन सूचनाओं को पाकर कोई अपना जिंदगी संभाल लेता है जो इस साहित्य की महत्व नहीं समझता है और दुरुपयोग करता है वह असफल जिंदगी जीता हुआ खुद अपमानित होता है तो इसमें साहित्यकारों को अपमानित होने ना होने की क्या बात है कोई भी साहित्यकार अपमान के लिए ज्ञान नहीं लिखता है सम्मान से लिखता है सम्मान पाने के लिए लोगों को सम्मान पूर्वक जीने के लिए लेकिन वर्तमान धरातल में ऐसा समाज नहीं दिखता है जो सम्मान के लायक हो ऐसे ही हमारी धरा में लोगों की अपेक्षा और उपेक्षा वाली बातें चलती है जो साहित्य की अपेक्षा करता है और उसे अपनी जिंदगी में उतारने की कोशिश करता है वही सार्थक है और जो साहित्य की उपेक्षा करता है वह व्यक्ति सत्य की उपेक्षा करता है ऐसा व्यक्ति कभी भी संतुष्टि के साथ नहीं जी पाता इसीलिए कहा गया है कि जो व्यक्ति समझ कर जीता है वही सफल होता है और जो व्यक्ति नशे में जीता है वह सफल होता है सफल पाने वाला व्यक्ति सम्मानित होता है और सफल जीने वाला व्यक्ति अपमानित होता है हर साहित्यकार सम्मान के लिए साहित्य लिखते हैं उसमें अब मान वाली बात नहीं है और जो कोई उपयोगिता को नहीं समझता है और उसका दुरुपयोग करता है तो हमारे साहित्यकारों की अपमान नहीं और स्वयं का अपमान होता है। इस वाक्य से यही कहते बनता है कि अगर साहित्य उपयोगिता के लिए बेची जा रही है तो साहित्य का अपमान नहीं है यह साहित्यकारों का सम्मान है इसी फैलाने के लिए तो ही साहित्य लिखी जाती है बेचने वाले कम दाम में पेशी या अधिक दाम में भेजें वह मायने नहीं रखता है उसमें लिखी हुई या जन-जन तक पहुंचे और उसका आचरण सुधर जाए यह महत्व है इससे हमें साहित्यकारों को अपमान और सम्मान वाली बात पर ध्यान नहीं देना चाहिए अपने कर्तव्य पर हमेशा डटे रहना चाहिए। यही साहित्यकारों की धीरता, वीरता ,उदारता है।
- उर्मिला सिदार
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
जहाँ सड़को पर साहित्य का ढेर 20 ₹ किलो बिकना साहित्यकारों की रुचि , कौशल , विद्वतत्ता और परिश्रम का प्रतीक है वहीं देश मे साहित्यिक रुचि की कमी का भी प्रतीक है । साहित्य के पाठकों की कमी का भी प्रतीक है । 
      अराजकता में ,आपद काल मे मानव को जब भूखो मरने की नौबत आ जाती है तब साहित्य में पाठकों की कमी के कारण साहित्य को भी सड़क के किनारे बैठ स्वयं की बोली लगाने की नौबत तो स्वाभाविक है । जब जब किसी देश का साहित्य या धर्म  सड़को पर ढेर में लगा नजर आएगा तो समझ जाना चाहिए कि अब देश को साहित्य या साहित्यकारों की आवश्यकता नही और उस देश का कोई धर्म भी नही है । 
       आज हिन्दुओ के देवी देवता सड़को पर जूतों और पैरो से रौंदे जाते है फिर भी हिन्दू चुप है ,खुश और मस्त व व्यस्त है । संस्कार डूब रहे है इसलिए इसलिए आधुनिक तरीके से गृहस्थी बन रही है । पुरुष बिना स्त्री के परिवार बना रहा है और खुश है। फिर साहित्य तो एक एक शब्द की धुन कर लिखा जाता है जी केवल हृदय की दुनिया से उगता है और सर्वग्राही बन जाता है । लेकिन आज के दौर में सर्वग्राह्यता की परिपाटी दम तोड़ चुकी है । किसी को किसी के किसी पक्ष में न तो  कोई रुचि और  न ही आवश्यकता । 
       इंटरनेट की युग मे पुस्तक , पुस्तकालय ,लेखक से कोई सरोकार नही । हर पुस्तक ,हर विषय की जानकारी हर मनुष्य की जेब है । फिर साहित्य में पैसे खर्च करने का कोई औचित्य नजर नही आता ।
- सुशीला जोशी
मुजफ्फरनगर - उत्तर प्रदेश
      सर्वप्रथम जैमिनी अकादमी द्वारा उपरोक्त प्रश्न पर चर्चा करवाने के लिए वह निस्संदेह बधाई की पात्र है। क्योंकि साहित्य ₹150 प्रतिकिलो की बिक्री मात्र साहित्य का ही नहीं बल्कि साहित्यकारों का भी स्पष्ट अपमान है। यह कलम एवं कलमकारों का पीड़ादायिक असहनीय अपराधिक अपमान है। क्योंकि उपरोक्त साहित्य की बिक्री में साहित्यकारों के नाम भी ₹150 प्रतिकिलो के मूल्य में बिक रहे हैं। विशेषकर जिन्होंने ने साहित्य पुरस्कार अपने अदम्य ज्ञान से प्राप्त किए हुए हैं और जिन पुरस्कारों को राष्ट्र के माननीय महामहिम राष्ट्रपति जी देते हैं। 
      जिनपर यह प्रश्न भी उठना स्वाभाविक हैं कि यदि उन वर्तमान साहित्यकारों ने साहित्य पुरस्कार, पद्मश्री, पद्मविभूषण या ज्ञानपीठ पुरस्कार' इत्यादि पुरस्कार अपनी योग्यता पर लिए हैं। तो इस अपराधिक कृत्य पर चुप्पी क्यों साधे हुए हैं? क्यों भारतीय संस्कृति के साथ-साथ राष्ट्रीय अपमान भी कायरों की भांति सहन कर रहे हैं? 
      जबकि सर्वविदित है कि साहित्य, भाषा और संस्कृति राष्ट्र का आधार माना जाता है। जिसे राष्ट्र की धरोहर भी कहा जाता है। जो अनमोल रत्न होते हैं। तो फिर उन रत्नों को फढ़ियों पर ₹150 प्रतिकिलो खुलेआम धड़ल्ले से क्यों बेचा जा रहा है? 
      ऐसे में उपरोक्त साहित्य पुरस्कार, पद्मश्री, पद्मविभूषण या ज्ञानपीठ इत्यादि पुरस्कारों एवं उन पुरस्कारों को माननीय महामहिम राष्ट्रपति जी के करकमलों द्वारा प्राप्त साहित्यकारों का महत्त्व ही क्या रह जाता है? 
      संभवतः यही कारण है कि वर्तमान समय में भी अधिकांश साहित्यकार भूखमरी का शिकार हो रहे हैं। जिन्हें निस्संदेह पागल की संज्ञा भी निस्संकोच दी जाती थी, दी जा रही है और यदि इस पर अंकुश नहीं लगाया गया तो भविष्य में भी दी जाती रहेगी। जिस पर स्थानिय प्रशासन मूकदर्शक रहता है। जो निंदनीय ही नहीं बल्कि घोर दण्डनीय अपराध भी है। 
      जबकि इस सच्चाई से भी मूंह नहीं मोड़ा जा सकता कि वर्तमान साहित्यकारों में स्वार्थ व्याप्त ही नहीं बल्कि जिंदा है और क्षेत्रिय भाषाओं से लेकर राष्ट्रीय भाषा में भी फल-फूल रहा है। अर्थात कलम की 'शक्ति' शक्तिहीन हो रही है और कलमकारों की कलम चुप्पी साधे हुए है। इसलिए 'जहां न पहुंचे रवि, वहां पहुंचे कवि' वाली कहावत भी दम तोड़ रही है।
      जबकि उल्लेखनीय यह भी है कि यदि किसी राष्ट्र को समूल नष्ट करना हो तो उसके साहित्य और संस्कृति को नष्ट कर दो। राष्ट्र स्वयं नष्ट हो जाएगा। जिसे बचाना अति आवश्यक है। अन्यथा खबरदार वह दिन दूर नहीं जब पूर्व राष्ट्रपति एवं भारत रत्न प्रणब मुखर्जी की 'द कोएलिशन ईयर्स' एवं पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी जी की किताबघर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित 'मेरी इक्यावन कविताएं' इत्यादि पुस्तकें ₹150 प्रतिकिलो बिकती दिखाई देंगी।
      अतः राष्ट्र को आत्मनिर्भर एवं समृद्ध बनाने हेतु वर्तमान साहित्यकारों व कलमकारों को निजी स्वार्थ त्याग कर उपरोक्त निंदनीय एवं असहनीय दण्डनीय अपराधिक अपमान के विरुद्ध निर्भय सशक्त कलम उठानी ही होगी।
- इन्दु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू कश्मीर
सड़क किनारे बिकता 150 रु किलो - क्या यह साहित्य का अपमान नहीं है ?  इस संदर्भ में हर व्यक्ति का अपना-अपना नज़रिया हो सकता है। एक धनाढ्य बड़े-बड़े प्रकाशन संस्थानों से कोई भी कीमत चुका कर ढेरों साहित्यिक विभिन्न भाषी पुस्तकों से अपनी लाइब्रेरी सजा सकता है। विदेशों से आॅनलाइन पुस्तकें मंगा सकता है। पर ऐसा कर पाना उस साहित्य-प्रेमी के लिए संभव नहीं है जो मुश्किल से दो जून की रोटी कमाता हो।  साहित्य किसी की बपौती नहीं है। साहित्य में लिखे अनमोल शब्द किसी के गुलाम नहीं हैं। गुलाब का फूल किसी महंगी नर्सरी से खरीदा जाये या किसी सामान्य बगीचे से तोड़ा जाये उसकी खुशबू वही होगी। यह तो नहीं कहा जायेगा कि सामान्य बगीचे से लाया गया गुलाब है इसका क्या मोल? साहित्य भी गुलाब की भांति है। साहित्य को 150 रु किलो के भाव पर बेचने वाले का क्या मनोविज्ञान है, उसकी क्या जरूरत है, वह सड़क किनारे साहित्य क्यों बेच रहा है, क्या सोच कर वह साहित्य ही बेच रहा है और कुछ क्यों नहीं बेच रहा आजीविका के लिए।  न जाने कितने प्रश्न चिह्न लग जाते हैं! सीमित आय वाला साहित्य-प्रेमी या तो पब्लिक लाइब्रेरी में जाकर साहित्य पढ़ेगा या इस तरह से बिकता साहित्य देखकर वह कुछ धन खर्च करने की हिम्मत जुटाएगा। फिर यह भी सोचना होगा कि 150 रु किलो लेते समय भी वह भी अच्छे साहित्य का चुनाव करेगा। हां, यह एक सोच को तो जन्म देता है। यदि प्रकाशन संस्थान ये सोचते हैं कि अमुक साहित्य छपने के बाद उसे महंगे दामों पर बेचकर उन्होंने लाभ कमा लिया है तो बिकने से रह गये साहित्य को स्टाॅक करने का क्या लाभ तो सड़क किनारे साहित्य बेचने वाले उनसे रद्दी के मूल्य सारा स्टाॅक खरीद लेते हैं और फिर इस तरह से सड़क किनारे बेचते हैं। प्रकाशन संस्थान यदि साहित्यिक पुस्तकों का मूल्य कम कर दे ंतो खरीद सकने वालों की संख्या बढ़ सकती है। ऐसी स्थिति में साहित्य सड़कों की खाक नहीं छानेगा। फिर प्रकाशन संस्थान बिकने से रह गई पुस्तकों को रद्दी में न बेचकर निःशुल्क लाइब्रेरियों को दान कर सकती हैं, ऐसे विद्यालयों/संस्थानों में दान कर सकते हैं जहां गरीब वर्ग के बच्चे पढ़ते हों। साहित्य लिखने वाले लेखक को निःशुल्क दे सकते हैं जिससे वह अपने दायरे में बांट सके। ऐसे कदम उठाने से इस स्थिति में काफी सुधार हो सकता है। इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है पर इ समंच के लिए मेरे विचार में यह पर्याप्त है।  धन्यवाद। 
- सुदर्शन खन्ना
 दिल्ली
साहित्य का अपमान क्या ...? और मान क्या ....? चित्र में दिखाई दे रहा है की साहित्य एक सौ पच्चास रु किलो .. ! यह मुझे अपमान नहीं लग रहा जो लोग मंहगी किताब नहीं ख़रीद सकते उन्हें यहाँ अपनी पंसद की किताब कम दाम में मिल जायेगी , साहित्य को जन जन तक पहुँचाने का काम है 
मैं स्वयम कितनी बार भंगार की दुकान से मैगजिनले कर आती २५ रु की मैगजिन ५ रु में मिल जाती है बेचने बाले ने रद्दीमें बेच दी दुकानदार ने किताबो को साफ़ कर दुकान की शोभा बढ़ाई और ग़रीबों को कम दाम में किताबे उपलब्ध करवा दी देनो का भला हुआ ! 
साहित्य का मान रहा, 
आज कल साहित्यकार ही साहित्य का अपमान कर रहे है ...
साहित्यकारों द्वारा पुरस्कार वापसी का दौर ऐसा चला की अनेक विद्वानों और साहित्यकारों ने अपने अपने पुरस्कार वापिस कर दिए / साहित्य कारों और विद्वानो को उनकी योग्यता और कला के लिए पुरस्कार मिला था / पुरस्कार केवल व्यक्ति की योग्यता के साथ साथ समाज का भी एक आइना होता है / साहित्य कारों द्वारा पुरस्कार वापसी द्वारा सरकार का विरोध करना साहित्य का अपमान है / साहित्य को मिले पुरस्कार का इस्तेमाल राजनीती और विरोध के लिए करना उचित नहीं है साहित्य केवल विद्वानो और साहित्यकारों की उपलब्धि ही नहीं है उस पर प्रसंशकों का भी अधिकार होता है और साहित्य को मिले पुरस्कार को लौटाना साहित्यकार की मूर्खता और नासमझी है क्यों की पुरस्कार को साहित्यकार ने अपनी जागीर मान ली है जब की पुरस्कार उसकी कला और लेखन विद्या को मिला है जिसे विरोध के लिए काम में लेना गलत है यदि विरोध ही करना है तो अनशन करे आंदोलन करे सरकार के खिलाफ लिखे और जनता को जगाये न की साहित्य पुरस्कार को लोटा कर साहित्य का अपमान करे ....
साहित्यकार को साहित्य की वजह से पुरस्कार मिलता है जिसे वापस कर वो लोग साहित्य का अपमान करते हैं ऐसे साहित्यकारों को फिर कभी सम्मानित नहीं करना चाहिए और घोर निंदा करनी चाहिए !
साहित्य का मान बढ़ता है पुरस्कार से व साहित्यकार का भी ।
रोड पर साहित्य बेचने बाला अपना परिवार पाल कर जनता की सेवा कर रहा है सस्ते दर में किताबें उपलब्ध करा कर ,
साहित्य सेवा भी कर रहा है जरुरत मंद और जो किताबों तक नहीं पहूच सकते उनका सपना साकार कर रहा है । 
किताबें इतनी मंहगी है की जल्दी से लोग ख़रीद नहीं पाते पर इस तरह वो किताब पा ख़ुश होते है 
जितनी किताबें बिकेगी उतना साहित्य समृद्ध होगा !
शो केश में ५००रु की किताब फुटपाथ पर १०० रु में मिल जाती है , 
पढ़ने वाला ख़ुश बेचने वालाभी ख़ुश , साहित्य भी जन जन तक पहूच रहा है 
डॉ अलका पाण्डेय
 मुम्बई - महाराष्ट्र
निश्चित ही ये भयंकर अपमान है। अगर ऐसा लिख देते की पुस्तकें 150 रुपये की 1 किलो तो भी ठीक था।लेकिन साहित्य 150 रुपये किलो तुल रहा?
क्या हो रहा और क्या नहीं हो रहा
कुछ लोग पढ़ लिख जाते हैं लेकिन पढ़े लिखे नही होते।
ये साहित्य नही चल रहा
इनकी औकात तुल रही 150 रुपये में
- रोहन जैन
देहरादून - उत्तराखंड
आज के परिवेश मे साहित्य एक व्यापार साबित हो रहा है जैसे कि जानते हैं कि साहित्यिक मूल्यों का यह हनन है अपराध है यह और यह कलंकित करने वाली एक विडंबना है साहित्य को बाजार दामों में लाया जा रहा है जहां हमारे वटवृक्ष साहित्य की पूजा किया करते थे साहित्यिक एक साधना थी वहीं पर आज के मानव  कृति साहित्य पर अपना वर्चस्व बनाने की होड़ में लगे हुए हैं साहित्य को ऐसे दामों पर वितरित करना और शहीदों का अपमान करना है साहित्य जगत में ऐसी यह पीड़ा है जिससे कलम से गुजर रही हैं साहित्यकार होना हृदय की पीडा़ को व्यक्त कर देना है  साहित्य का अपमान करने वाले कुछ ऐसे उत्पादित तत्व भी पाए जा रहे हैं जहां साहित्य की दाम लगाई जा रही है। हमारी सभ्यता संस्कृति को विखंडित करने की कोशिश की जा रही है चाहे तो हमारा धरोहर है ।संस्कृति सभ्यता का नियम है जहां पर संस्कृति और सभ्यता ग्रंथ वेद कविताओं गीत, गजलों ,से आगे बढ़ती है जहां मानव द्वारा घृणित कार्य किए जा रहे हैं जहां पर साहित्यिक विधा दम तोड रहीःबेहद ही मार्मिकता और संवेदनशील तथ्य है कि मुल्याकंन किया जा रहा साहित्य हमारी माँ ,धरोहर है इस तरह के उल्लंघन से बाजारों मे मुल्य  कर इसके बज़्म और ऩज्म को हलका किया जा रहा ।बेहद ही साहित्य का अपमान हो रहा ।
- अंकिता सिन्हा कवयित्री
जमशेदपुर - झारखंड
जी उपरोक्त फोटो हमें साहित्य के गिरते स्तर की ओर अंगित करती नजर आती है एक समय था जब में आठ दस वर्ष का रहा होगा तब अकसर लायबेरी वाचनालयो मे मुझे किताबे लेने बदलने भेजा करते थे तब कुछ पढ़ने के शौकीन लोग थे भले ही वे लोग जासुसी उपन्यास कामिक्स प्रत्रिकाये पढ़ते हो पर पढ़ने की उनमे लगन थी यदा कदा तब वे लोग अन्य साहित्य भी पढ़ लिया करते थे गर्मीयों की छुट्टीयों में तो लोग वाचनालय खोलते थे मतलब लोगो मे पढ़ने के प्रती रूची थी आज देश में कितनी लायबेरीया बची हैं? जो बची है वे भी सरकार के रहमो करम पर चल रही हैं लायबेरीया जो चल रही हैं वहा पाठक नदारत हैं मतलब वे भी बन्द के समान ही हैं यदी सरकरी मद्त या सरकारी लायबेरी न हो तो उनको चलाना आज मुश्कील ही नही नामुमकिन है ऐसे मे यदी कोई सदसाहित्य को 150₹ किलो बेचता है तो हमे आश्चर्य क्यों? हम कितनी बार सदसाहित्य खरीद कर पढ़ते हैं में भी कुछ थोड़ा बहुत लिख लेता हुँ मेरे पास भी लगभग 50-60 मेरी  सहभागीता वाली किताबे है पर मेरे परिवार मे ही मेरे साहित्य को पढ़ने की रूची नही है मुझे पता है मेरी जब मृत्यु होगी तब यह सब साहित्य किसी लायबेरी को दे दी जायेगा या हो सकता है उसे रद्दी समझ कर 5-10 ₹ कालो मे बेच दिया जाय तो इसके लिये कौन जुमेदार है? सोचने का विषय हैं सोचिये सोचिये आपके ओर मेरे साहित्य के भी इससे बुरे हाल होने हैं।
- कुन्दन पाटिल
 देवास - मध्यप्रदेश
फुटपाथ पर साहित्य की बिक्री तोलकर,एक सौ पचास रुपए किलो की दर से करना,साहित्य का अपमान नहीं  माना जा सकता। उसे रद्दी के भाव पांच दस रुपए किलो बेचकर गलावट के लिए कागज मिल में भेज दिया जाता तो अपमान मान सकते हैं। ईबुक और इंटरनेट के युग में यह अब भी कोई बुरी स्थिति नहीं।तोल में बिकने वाली यह पुस्तकें नई, नहीं होती, उपयोग की हुई होती है। विभिन्न पुस्तकालयों और पाठकों से रद्दी के भाव ही खरीदी जाती है।कभी कभी सीधे प्रकाशक से भी वह नई पुस्तकें फुटपाथ पर आ जाती है जो किसी कारण बुक स्टोर पर नहीं बिक पाती। इनमें कभी कभी दुर्लभ पुस्तकें भी मिल जाती है। पुस्तक प्रेमी फड़ों से इनको खरीदते हैं और पढ़ते हैं। मैंने स्वयं कई पत्रिकाएं, पुस्तकें ऐसी ही
फुटपाथ की दुकानों से ली हैं, हालांकि वह तोल में नहीं मिली।प्रति के हिसाब से ही मिली।देखा जाएं तो यह लागत मूल्य से भी कम की दर है,लेकिन रद्दी के भाव से दस गुना बेहतर है,इसे अपमानजनक नहीं मानना चाहिए।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
जी हाँ प्रदत तस्वीर में  रद्दी की दुकानों में साहित्य   की किताबें 150 रुपये किलो रद्दी  तराजू में  तौल कर बिक रही हैं । वर्षों में  लिखी यह रचनाकारों की कलम का अपमान के साथ साहित्य का भी निंदनीय अपमान है ।
साहित्य तो समाज को दिशा देता  है । संसार को बदलने की ताकत रखता है ।  जो काम तलवार की धार से नहीं कर सकते हैं उसे हम कलम की धार से का देते हैं ।
रीतिकालीन कवि बिहारी के दोहे ने राजा जयसिंह का हृदय परिवर्तित कर दिया । राजा तुम नववधू  के प्यार में अंधे न हो जाओ राज्य पाट चौपट हो जाए यह दोहा राजा को सुनाया  ।
नहि पराग नहि  मधुर मधु , नहि विकास इही काल ।
अलि कली सों  बिन्ध्यो , आगे कोन्ह हवाल।।
  महाकवि बिहारी के दोहे ने आँखें खोल दी थी । आज मंहगे  साहित्य की किताबों   को लोग , पुस्तक विक्रेता रद्दी में बेच रहे हैं ।
 प्रगति मैदान पर जनवरी 2020 के भव्य  पुस्तक मेले में 
पस्तकों के खरीदार कम थे और देखनेवाले ज्यादा थे । हिंदी की किताबों को समाज के लोग खरीदना नहीं चाहते हैं मुफ्त में अलमारी में सजाना पसन्द करते हैं ।
कोरोना काल से पहले   मेट्रो सिटी मुम्बई में पुस्तक का लोकार्पण था । समीक्षा के नाम पर किताब की प्रशंसा थी । अगर आलोचना कर दी वहीं पर मार - पिटाई हो जाती है ।  ऐसे परिवेश में हिंदी साहित्य की दुर्गति हो रही है ।
ऐसा पूरे  देश में हो रहा है ।
 मुफ्त में हर किसी को किताब चाहिए , पढ़ना कोई नहीं चाहता है ।
हाल ही मेरी 9 वीं किताब दोहों में  मनुआ हुआ कबीर प्रकाशित हुई ।  लीगों ने फोन किये हमें किताब भिजवा दो । मैंने कहा अमेजोन पर बिक रही है वहां से खरीद लो तो वह बोला तुम्हीं खरीद के भेजो ।
यह  लोगों मनोदशा को दर्शाता है । विद्वान कहते हैं किताब हाथ में आएगी तभी बता सकते हैं । क्या बताओगे भाई तुम ?
  मेरी 8 किताबें 8 बार 200  किताब पूरे मुम्बई में मुफ्त में उपहार में बंटी । आज तक किसी विद्वान की , पढ़े लिखे साहित्यकार समीक्षा नहीं आयी ।
जब किसी कार्यक्रम में मिलना हुआ तो वे कहते हैं अच्छा लिखती हो । यह कलम की कीमत है ।
इस बार मुझे अच्छा लगा प्रकाशक ही बेचे । मेरा सिर दर्द नहीं है ।
 भारत में अंग्रेजी का वर्चस्व   छा रहा है ।अब हमें विरोधी शक्तियों से  मुकाबला करने के लिए हिंदी की मसाल जलाए रखनी होगी । 
- डॉ मंजु गुप्ता
 मुंबई - महाराष्ट्र
प्रथम दृष्टया तो ये तसवीर साहित्य का अपमान ही प्रतीत होती है। किन्तु गहराई से यदि सोचें तो ये तो साहित्यप्रेमियों और पढ़ने के शौकीनों के लिए एक सुनहरा अवसर ही प्रतीत होता है। जो बड़ी बड़ी दुकानों में जाकर मँहगी पुस्तकें खरीदने का सामर्थ्य नहीं रखते हैं और विवश होकर पढ़ने की अपनी लालसा को मन में दबाकर ही उन्हें रहना पड़ता है, उनके लिए तो ये खुशियों का खजाना ही प्रतीत होगा। जहाँ तहाँ कूड़े के ढेर पर फेंके जाने के बजाय ये पुस्तकें यदि किसी साहित्यप्रेमी के घर की शोभा बढ़ाएँगी तो इन पुस्तकों का भी मान बढ़ेगा। हाँ, इतना अवश्य सत्य है कि जिस किसी ने भी इन पुस्तकों को इन हालातों तक पहुँचाया है, उसकी तरफ से तो साहित्य का अपमान ही हुआ है। किन्तु साहित्य से लगाव रखने वाले इस अपमान को भी सम्मान में बदल सकते हैं।
- रूणा रश्मि "दीप्त"
राँची -  झारखंड
ओहद !! यह तो अति चिंतनीय एवं निंदनीय है ,,,,।
आखिर कलमकारों के इतना अपमान क्यूँ ?
कलमकार अपने साहित्य से समाज का मार्गदर्शन करता है उसमे सुधार और आवश्यक बदलाव लाने का प्रयत्न करता है ,,क्या यही कारण है ,यही सजा है साहित्यकार की ?
संसार के प्रथम साहित्यकार महर्षि वाल्मीक से लेकर आज तक साहित्यकार समाज सुधारक ही तो रहा है ,,।
फिर आखिर ऐसा  क्यों,,,,?
वर्तमान  परिवेश  में साहित्य की ऐसी स्थिति वाकई खेद जनक है। रद्दी के भाव अनमोल साहित्य को बिकता देख मेरी तो आत्मा ही रो  पड़ी है ,,।
आखिर मैं भी तो एक साहित्य प्रेमी हूं और शायद साहित्यकार भी ,,,,,।
साहित्यकारों  की वर्षों की मेहनत को तराजू में तोलकर  किलो के हिसाब से बेचा जा रहा है ,,, उफ्फ्फ साहित्य मय भारत मे साहित्य की  ये दुर्दशा ,,,,
साहित्य को डेढ़ सौ रुपए किलो के भाव बिकता देख इस उत्तर समाजवादी समय में समाजवादी किस्म का झटका सा लगा ।किताब पढ़ने वाले को तोलकर खरीदने की पटरी विक्रेता से मिल रही है ।
वैसे तो किताबों की दुनिया में पहले भी सस्ता साहित्य टाइप के भंडार बने तो कहीं मंडल बने, लेकिन साहित्य को तराजू में तोल रद्दी के भाव,,,,यह तो साहित्य का अंतिम संस्कार ही समझो ,,,,,।
आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ?क्या सचमुच साहित्य सस्ता हो गया है? क्या साहित्य पर अमेरिकी मंदी की मार पड़ी है ?या उसकी नई सेल लगी है ?शायद साहित्य का थोक के भाव मिलने का कारण अपनी लोकार्पण इंडस्ट्री तो नहीं?
 इसका अर्थ तो यही है कि लोकार्पण कराने वालों ने साहित्य का भाव गिराने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
इस साहित्य मय भारत के 4000 नगरों  व कस्बों में कुल कितना साहित्य हर महीने लोकार्पित  होता होगा ,,,शायद यही वह बिंदु है  जिसने साहित्य की गरिमा को इतना  नीचे गिरा दिया।
 वर्षों की मेहनत के बाद पुस्तक व उपन्यास लिखने वालों का मान सम्मान कौड़ियों के भाव बिक रहा है ,,,,,कितना दुःखद कितना शर्मनाक है ।
साहित्यकारों की मेहनत को तराजू में तोल कर किलो के हिसाब से बेचकर उनके  मुँह पर समाज का तमाचा  सा नजर या  रहा है  शायद किलो के हिसाब से साहित्य को देखकर स्तब्ध हूं!!! आखिर साहित्य का इतना अपमान कैसे बर्दाश्त हो।
 इसका क्या हल है ,,,??
मेरा सवाल स्वयं से भी है और समाज से भी , मैं भी तो एक अदना सी ही सही मगर साहित्यकार  तो हूं ,,,और मैं भी इस समाजवादी  समाज का  ही अंग भी  हूँ ।
- सुषमा  दीक्षित शुक्ला
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
साहित्य का यह अपमान वास्तव में सही नहीं है कि फुटपाथ पर ₹150 किलो बेचा जाए परन्तु सोचने वाली बात यह है की यह स्थिति क्यों आ गई हालात यह है की पाठक अब साहित्य और अच्छा साहित्य पढ़ना तो चाहता है परन्तु वह उसे खरीदना नहीं चाहता मोबाइल फोन के इस दौर में जब सभी कुछ बहुत आसानी से उपलब्ध है तो इसने किताबों को काफी हद तक प्रचलन से बाहर करने में भूमिका निभाई है और जब वही चीजें बहुत आसानी के साथ किसी को उपलब्ध हो तो वह उन्हें क्यों खरीदें दूसरी बात यह भी है कि अच्छा साहित्य लिखने वाले लोग अभी भी ऐसे बहुत हैं जो गुमनामी में जी रहे हैं या जिनके पास इतने संसाधन उपलब्ध नहीं है कि वह उसे सही स्थान तक पहुँचा सके यह बात कहने में कोई संकोच नहीं है कि साहित्य समाज में भी राजनीति पूरी तरह से हावी है और इसमें भी गठबंधन देखे जाते हैं जहाँ केवल और केवल अपने शुभचिंतकों की ही बातें होती है इस प्रकार से कैसे साहित्य का भला हो सकता है यह सोचनीय विषय है समाज में जो विषमताऐं देखी जा रही हैं उस सभी का निदान अच्छे साहित्य के पठन-पाठन से हो सकता है परन्तु इस ओर किसी का भी ध्यान नहीं है जीवन की आपाधापी और एक दूसरे को पीछे छोड़ने की गला काट स्पर्धा ने समाज को कहीं का नहीं छोड़ा है सामाजिक और नैतिक मूल्य निरंतर लुप्त होते जा रहे हैं और केवल एक ही चीज शेष दिखती है वह है निहित स्वार्थ इसने संस्कृति को पथभ्रष्ट करने में अहम भूमिका निभाई है वास्तव में यदि साहित्य का भला चाहते तो निश्चित रूप से अच्छे साहित्य की कद्र करनी होगी पठन-पाठन की ओर रुझान उत्पन्न करना होगा और अच्छा साहित्य खरीद कर पढ़ने की आदत भी डालनी होगी तभी साहित्य का सम्मान संभव है 
- प्रमोद कुमार प्रेम 
नजीबाबाद- उत्तर प्रदेश
एक साधक की साधना सर्जक की सर्जना साहित्य रचना होती है। साहित्यानुरागी के दिल को ठेस पहुंचती है जब वह अपनी रचनाओं को किलो के भाव रद्दी के समान बिकते देखता है। कभी-कभी प्रकाशक की असहयोगात्मक रवैए के कारण अमूल्य रचनाएं प्रकाशित होने से वंचित रह जाती हैं कभी साहित्य के प्रति उदासीनता के कारण रद्दी के भाव किताबें बिकती दिखती हैं।
   जीवन का सबसे अच्छा मित्र किताब होता है परंतु बदलते समय में इंटरनेट ने किताब की बिक्री को प्रभावित किया है। लोग नेट के जरिए अपनी इच्छानुसार विषय-वस्तु का अध्ययन कर लेते हैं। किताब खरीदने के इच्छुक नहीं दिखते।
  किताबों का आदान-प्रदान और उपहार में भेंट करने का भी प्रचलन चल पड़ा है पर बहुत से शख्स हैं जिन्हें साहित्य से लगाव नहीं है। उपहार में मिले किताब  घर के किसी कोने में डाल देते हैं या रद्दी में बेच देते हैं। 
अनमोल कृतियां का अपमान देख ऐसा लगता है मानो साहित्य के कद्रदानो की कमी हो गई है। धर्मशाला में लगे ट्रेड फेयर में एक दुकान में पुस्तकें 150- 200 किलो के भाव से बेचे जा रहे थे। बरसों के अध्ययन और अथक परिश्रम से रचित रचनाएं कौड़ियों के भाव जब बिकती हैं तो साहित्यकार के दिल को ठेस पहुंचती है।
    पर इसका सकारात्मक पहलू भी है। जो साहित्य प्रेमी महंगी किताब खरीद कर नहीं पढ़ पाते वह सस्ती दरों से खरीद कर अपने इच्छाओं को पूर्ण कर पाते हैं। दूरदराज गांव में जो लाइब्रेरी खोलते हैं वे सस्ते दरों पर किताब ले जा कर लाइब्रेरी में संग्रहित कर पाते हैं जिसके वजह से गरीब तबके के लोग भी इसका सदुपयोग करते हुए अपने ज्ञान पिपासा को शांत कर पाते हैं। सरकार को भी गांव में पंचायत स्तर पर अधिक लाइब्रेरी बनाकर साहित्यिक कृतियां को संग्रहित करने की जरूरत है ताकि जन-जन में साहित्य के प्रति अभिरुचि जागे और वे ज्ञानवर्धन कर सकें।
                                   - सुनीता रानी राठौर
                             ग्रेटर नोएडा - उत्तर प्रदेश
इसे साहित्य का अपमान नही बल्कि घोर अपमान कहें तो भी कम है । वो किताबे जो हमे हमारी जमीन , हमारे कल्चर , हमारे देश से और हमे हमसे जोड़ती है , जिंदगी का हरपल नया अंदाज रखने वाले लोग इन्हें ढूंढते फिरते है । कभी ऑनलाइन बुकिंग करते है तो कभी सफर के दौरान बड़ी बड़ी दुकानों और स्टेशनों पर स्थित मैगजीन और किताबो की दुकानों पर इन्हें ढूंढते है और पढ़ते और इनसे सीखते है । किलो के भाव से साहित्यिक किताबो का बिकना ये आज के परिवेश पर वक़्त का तमाचा है ।
दरअसल विज्ञान का ये युग लोगो को बस मोबाइल तक ही सीमित किये हुए है । कब इंसान अपना पूरा दिन मोबाइल में ही बीता देता है , उसे स्वयम मालूम नही होता । यही वजह है कि इंसान न केवल अपने अपनो और समाज से दूर हो गया है बल्कि उसे कुछ नए सीखने की ललक ही नही रही है । लोगो का आपसी सामंजस्य खत्म होता जा रहा है । हमारे द्वारा बनाया गया ये घटिया परिवेश ही इसका जिम्मेदार है कि जिस समाज को साहित्य की पूजा करनी चाहिए , वह समाज उस साहित्य की रद्दी के माफिक बोली लगा रहा  है ।
- परीक्षीत गुप्ता
बिजनौर - उत्तरप्रदेश
 साहित्य के सफर में कहीं अपमान कहीं सम्मान की छांव है।
लेकिन इस तरह के पोस्टर से साहित्य कला का घोर अपमान है। वहां के साहित्य संगठन को चाहिए इसका विरोध( शिकायत) दर्ज कराना। इस कृत्य को  चौतरफा निंदा होनी चाहिए। सोशल मीडिया के माध्यम से भी अपना-अपना टिप्पणी करें। ताकि इस तरह के पोस्टर बनाने वाले पर दंडनीय कार्रवाई हो।
भारतीय हिंदी साहित्य एक राष्ट्र के रूप में अपनी पहचान बनाए हुए हैं। अंग्रेजी के अनुवाद को हिंदी में और भारतीय भाषा में किया जा रहा है। जिससे अंग्रेजी पर निर्भरता कम होगा।
अब अंग्रेजी के प्रतिष्ठित प्रकाशक ऑक्सफोर्ड प्रेस ने  भी हिंदी में प्रकाशन के शुरुआत कर दी है।
वैदिक भाषा ही हिंदी है। आदि काल से लेकर आधुनिक काल तक साहित्य जनता की चित्रवृत्त का प्रतिबिंब करता है। जिसे भारत के सभी भाषाओं में प्रकाशित करने का प्रयास हो रहा है।
साहित्यिक पुस्तकों की घटती बिक्री पर चिंता हो रही है। इसका मूल्य कारण विद्यालय में बच्चों को साहित्य पढ़ने की रुचि विकसित नहीं होना। केंद्रीय सरकार एवं सभी राज्यों की सरकार को ध्यान देने की जरूरत है की विद्यालय को निर्देश दें,की साहित्यिक गतिविधियां आयोजित करके बच्चों को रुचि विकसित करें।
लेखक का विचार: समाज और सत्ता के ढांचे में बदलाव
 की जरूरत है, ताकि इस तरह अपमान के पोस्टर द्वारा साहित्य पर ना लगे।
- बिजेंयेद्र मोहन
बोकारो - झारखण्ड
साहित्यकार हो या फिर कोई अन्य सामान्यजन राष्ट्र का अंग होने के कारण राष्ट्र निर्माण करने वाले कार्यो से सभी का सहयोग अपेक्षित रहा करता है l जैसे बूंद बूंद से घड़ा भरता है, उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति के सहयोग और शक्ति से ही राष्ट्र का निर्माण करने वाले कार्य संभव हुआ करते हैं l साहित्य फुटपाथ पर हो या दुकानों पर समाज का निर्माण ही किया करते हैं चलते राहगीर को अच्छी पुस्तकें आकर्षित करती हैं और सस्ते दाम पर उपलब्ध हो जाती है l सामान्य जन महंगी किताबों को ख़रीदपाने में असमर्थ रहता है l तब उन्हें ये पुस्तकें रास आती हैं l जब छोटा बच्चा किसी कॉमिक्स के लिए मचलता है तो पुरानी कॉमिक्स से बहल जाता है l याद है ना जब हम और आप छोटे थे तोयही छोटी और फुटपाथ की दुकानें हमें  अपने पसंद की बुक पच्चीस पैसे, पचास पैसे जमा कर हमें पढ़ने के लिए दे देता था और जमा कराने पर दस -बीस पैसे किराया लेता था l ऐसी साहित्य की लगन थी कि गिनती करते थे की आज मैंने चार किताबें पढ़ी l फिर ये साहित्य का अपमान कैसे हुआ?  साहित्यकार, पुस्तक विक्रेता और सामान्य जन सभी को इस तथ्य की समुचित जानकारी रहा करती है, इसी कारण साहित्य राष्ट्र का सबसे सजग रूप है l 
    हर युग काल के साहित्यकार ने राष्ट्र चेतना, उसकी आवश्यकता और रुचियों का ध्यान रखते हुए अपना स्वर उसके साथ मिलाया है l 
प्रत्येक युग के रचे साहित्य में आज भी युग भावनाओं की ललक,चेतनाओं की  झंकार सुनी और पढ़ी जा सकती है l इन सैकड़ों -हजारों साहित्यिक स्वरों को कैसे भुलाया जा सकता है, जिन्होंने मुर्दा रगों तक में नया और ओजस्वी रक्त प्रवाहित करने का कार्य किया l 
राष्ट्र प्रेम के गीत, किताबें अन्यबातें  यहीं से पढ़कर जन जन ने पहचाना l 
    जो अमीर वर्ग किताबों से डिग्री प्राप्त कर रद्दी के भाव बेच देते उन्हें सामान्य जन तक पहुंचाने का कार्य इन फुटपाथ के विक्रेताओं ने किया है l इतनी समझ तो रखते ही हैं कि बच्चों और बड़ों की पुस्तकें कैसी पढ़ने योग्य होती हैं l इस प्रकार इन्होंने साहित्य को जनजन तक पहुंचाया है l इससे साहित्य और धर्म दोनों का महत्त्व, मान और मूल्य बढा ही है, अपमान तो नहीं हुआ l 
      चलते चलते -----
1. साहित्य में तोप -तलवार या बम से भी अधिक शक्ति है जो मानव का ह्रदय पटल पर बदलाव ला सकती है l 
2. लोकमान्य तिलक कहा करते थे -"मैं नरक में भी उत्तम पुस्तकों का स्वागत करूंगा, क्योंकि इनमें वह शक्ति है कि जहाँ ये होंगी वहाँ आप ही स्वर्ग बन जायेगा l "
3. पुस्तकों की इसी विशेषता पर मुग्ध होकर प्रॉस्टीन फिल्सस कहते हैं -पुराने कपड़े पहन कर नयी पुस्तकें खरीदिये l
- डॉ. छाया शर्मा
अजमेर - राजस्थान
किसी रचनाकार , साहित्यकार और कवि की मेहनत 150/₹ प्रति किलो  लिखा देखकर  जैमिनी जी ने चर्चा का विषय ऐसा दिया है कि लिखने से पहले कलम  किसी साहित्यकार या कवि  की मेहनत को इस प्रश्न से नाप रही है ।
               आज के समय में जहां नर्सरी से लेकर 8 क्लास तक के बच्चों का कोर्स 7-8 हजार से कम का नहीं मिलता ,उसी देश में एक साहित्यकार  ,रचना कार के  कलम की मेहनत इतनी सस्ती ?
शोचनीय तो है ?
 जिस किताब के शब्दों को  कोई साहित्य का र  सागर से मो ती के  समान चुनकर माला में कि पिरोता है  ,रात दिन मेहनत करता है   ।      
               जिस  कि ताब में  हमारी भारतीय संस्कृति को कैद कर ख़तम  होते देखा जा रहा है । मैं साहित्यकार की मेहनत कोडियो के दाम बिकते ।
        वहां दूसरी ओर सकारात्मक विचार भी गांव की एक पतली गली से निकलते नजर आ रहे हैं।      
                     आज का युग  में  डिजिटल बुक्स उपलब्ध होने लगी है अमीर लोग तो नै ट के माध्यम से  ऑनलाइन बुक्स पढ़ लेते हैं ,परंतु जहां नेट की  सही सुविधा   तो छोड़ो, मोबाइल ही नहीं है ।
   और उनके पास धन की कमी भी  है तब वे  हमारे इस साहित्य  को  खुशी खुशी  पढ़ते हैं   त था साहित्य में रुचि जागृत करके महान कवि, रचनाकार और साहित्यकार बनते  है।
अच्छा साहित्य प्रकाशित होता है बाजार में बिकता भी है पढ़ा भी जाता रहा है। त था साहित्य प्रेमी  अच्छे साहित्य को अपनी लाइब्रेरी  में सुरक्षित भी रखते हैं।
               -  रंजना हरित                
       बिजनौर - उत्तर प्रदेश
  .सड़कों पर किलों के हिसाब से बिकती किताबें 
वह भी साहित्यिक । पढ़ने वाले और साहित्य प्रेमियों के लिए तो यह कारू के खजाने जैसा है ।यदि हम में से कोई ऐसी  दुकानों पर गया है तो देखा होगा कि इनकी भी श्रेणियाँ हैं ।कामिक्स, फिल्मी, हल्का -फुलका साहित्य और साहित्य यानि उपन्यास से लेकर दर्शनशास्त्र , देशी से लेकर विदेशी महान साहित्कारों की अनमोल , अप्राप्य किताबें भी।  श्रेणियों के हिसाब से किलो का मूल्य। सब से महँगी साहित्यिक किताबें। जी हाँ 150  या 200 रूपये किलो। जो बेच रहा है वो तो शायद कम जानता होगा पर जो खरीद रहा है वो तो जानता ही है कि आज कैसा खजाना हाथ लगा है ।
  .  उस खजाने को भी ढ़ूढ़ना पड़ता है। बक दृष्टि चाहिए उस के लिए भी। जरा सोचें तो जब दुकानदार अलग -अलग श्रेणियों में इन्हें बाँटता होगा तो थोड़ा तो संस्कारित होता होगा। उस की दुकान में जो ग्राहक आते होंगे उन्हें भी वो समझ लेता है । जान लेता है यह क्या खरीदेंगे।
   अच्छा साहित्य कम दाम में सोने पे सुहागा। कम से कम भेलपूरी की पुड़िया बनने से बचा। खरीददार मूल्य जानता है इसलिए सहेजकर रखता है । मेरे मतानुसार यह अपमान नहीं है । हम सब बचपन में पुरानी किताबों से पढ़ चुके हैं । बचे हुए पन्नों की रफ कापी भी बनाई है तो  कम दाम पर उतम साहित्य स्वागत योग्य ।।
  -  ड़ा.नीना छिब्बर 
जोधपुर - राजस्थान
जिस चित्र के साथ आज की परिचर्चा को जोड़ा गया है, उसके अनुसार ऐसा प्रतीत होता है कि साहित्य बड़ी दयनीय अवस्था में है। परन्तु यह चित्र मात्र उस विक्रेता की अशिक्षा का परिणाम है जिसे यह ही पता नहीं कि "साहित्य" होता क्या है। यह अवश्य है कि पत्रिकाओं के साथ इस स्थान पर यह सूचना-पट स्वीकार्य नहीं है। 
हमारा साहित्य इतना कमजोर नहीं कि फुटपाथ पर ऐसी निम्नस्तरीय सूचना के साथ उसकी बिक्री हो। एक अज्ञानी व्यक्ति द्वारा कुछ किताबें एकत्र कर साहित्य की बिक्री का सूचना-पट लगा लेने से सशक्त साहित्य की प्रतिष्ठा में कमी नहीं आ सकती। 
साहित्य के क्षेत्र में निराशा की स्थिति अवश्य है परन्तु इतनी भी नहीं कि साहित्य और साहित्यकारों का मनोबल, आत्मविश्वास समाप्त हो जाये। साहित्यकार निरन्तर प्रयत्नशील हैं कि साहित्य का सम्मान स्थापित रहे। साहित्य आज भी अपनी गरिमा के साथ वास्तविक साहित्यकारों और पाठकों के मन-मस्तिष्क में स्थापित है।
 हां, एक पहलू यह भी है कि मुद्रित साहित्य के पाठकों की संख्या में कमी आई है। इसका एक बड़ा कारण आभासी माध्यम से पढ़ने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है। परन्तु साहित्यिक पत्रिकाओं का महत्व और सम्मान कभी कम नहीं हो सकता। बस साहित्य की गुणवत्ता को बनाये रखकर मुद्रित माध्यम की महत्ता को आम पाठकों तक पहुंचाना साहित्यिक पत्रिकाओं का पहला धर्म होना चाहिए। 
मेरे विचार से इस तरह के दृश्यों से साहित्यकारों और साहित्य प्रेमियों को नकारात्मक होने की कतई आवश्यकता नहीं है परन्तु इतना अवश्य है कि वर्तमान दौर में साहित्यिक संस्थाओं, साहित्यकारों और साहित्य अनुरागियों की पहली प्राथमिकता साहित्य के पावन मार्ग पर अपनी सकारात्मक और सशक्त भूमिका निभाने की दृढ़ इच्छाशक्ति होनी चाहिए। 
- सत्येन्द्र शर्मा 'तरंग' 
देहरादून - उत्तराखण्ड
     आज की चर्चा जो जैमिनी अकादमी द्वारा प्रकाशित की गई। जिसे पढ़कर मेरा मस्तिष्क हिल गया कि साहित्यकार की भी कीमत लगभग तय हो गई है।जो फूटी कौड़ियों के भाव से बिकने लगी हैं। आज तक मैंने मात्र रद्दी का भाव सुना था, पर जब मैंने साहित्य का भाव ₹150 प्रतिकिलो सुना तो आश्चर्यचकित रह गया। 
     जिस प्ररेणास्वरूप साहित्य को स्वर्ण अक्षरों से लिखा गया है। उसे कोड़ियों के भाव बेचना कदाचित उचित नहीं है। यह कृत्य साहित्यकारों के लिए चुल्लू भर पानी में डूब मरने वाली बात है। क्योंकि जिन साहित्यकारों को बहुत बड़े-बड़े पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है। क्या वह अब रद्दी के भाव बिकेंगे। जो जनहित के लिए अच्छा संदेश नहीं है। जिससे भावी साहित्यकार पीढ़ी प्रभावित ही नहीं अपितु लज्जित भी होगी। इसलिए अगामी साहित्यकारों के उज्जवल भविष्य के लिए उक्त काले अध्याय को जितनी जल्दी हो सके बंद करना चाहिए।
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू कश्मीर
     भारत में साहित्यकारों का अभूतपूर्व योगदान हैं। उनकी लेखनियों में वह मिठास हैं, जिसके कारण प्रबुद्धजन पढ़ें एवं सुने बिना नहीं रहता। उनके द्वारा गद्य या पद्य किसी भी विधा में पुस्तकों में प्रकाशित करवाकर लेखनीय को चिरस्थायी बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया हैं। ग्रंथालयों में सुधि पाठक रचनाओं का रसास्वादन कर रहे हैं। शोध छात्राओं  ने उनकी पर  रचनाओं पर शोध कार्य भी पूर्ण किया हैं। विभिन्न प्रकाशनों में रचनाएँ प्रकाशित हुई हैं, कई रचनाकारों द्वारा स्वयं के व्यय पर रचनाएँ प्रकाशित भी करवाया हैं। जिसे कई ब्रुक स्टालों पर बिक्री हेतु रखा जाता हैं, कई बिक्री होती हैं, तो कई रखे रहती हैं,कई पुस्तकें तो नि:शुल्क भेंट करने में वितरित हो जाती हैं। जिसके कारण पुस्तकों की लागत भी नहीं निकल पाती, जिन्हें काफी नुकसान का भी सामना करना पड़ता हैं। आज कम्प्यूटर, व्हाटसाप, फेसबुक युग चल रहा हैं, लिखना कोई पसंद नहीं करता, उसी में लिखते जाईये और उसी में भेजते रहिये? आज ऐसा प्रतीत हो रहा हैं, कि साहित्यिक पुस्तकों में दीमक नहीं लगें तथा आर्थिक व्यवस्थाओं के कारण तो नहीं या जन समूहों का ध्यानाकर्षण करवाने हेतु बाजार में 150/- किलों साहित्य तो बेच नहीं रहा? यह चिंतनीय विषय हैं, यह कह सकते हैं  "साहित्य बिक रहा हैं, गली-गली बाजारों में" यह साहित्य जगत का घोर अपमान प्रतीत होता हैं। इस विषय पर सामुहिक रूप से जन चर्चा करनी चाहिए,  ताकि गिरते हुए साहित्य को बचाया जा सकें? 
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर' 
  बालाघाट - मध्यप्रदेश
इसमे अपमान कैसा...अक्सर देखा गया है कि यदि हमारे पास जगह की कमी है अथवा जिसकी जरूरत नहीं  है तो हम चीजों की छटनी करते हैं! हम मैगजीन वगैरह पढ़कर रद्दी वाले को बेच देते हैं! उसके लिए उसकी कोई कीमत नहीं  है किंतु कई लोग उसमे से छांटकर कम कीमत में  खरीदकर ले जाते हैं और अपनी लाइब्रेरी सजाते हैं और साहित्य का आनंद लेते हैं! कई बार इन कबाड़ी के पास से मैने भी किताबें खरीदी हैं और मुझे ऐसा महसूस होता है कि मुझे अनमोल खजाना मिल गया हो! हीरे की कदर जौहरी ही लगा सकता है! 
आज भी सी. एस. टी के पास फोर्ट पे किताब मिलती है जो साहित्य प्रेमी हैं उसे वहा खजाना ही मिल गया लगता है और वह कमदाम में खरीद लगता है! इसमे  साहित्य का अपमान नहीं हो रहा बल्कि ज्ञान का विस्तार हो रहा है! 
गरीब को हम अपनी उतरन समझ कर भी कपड़े देते हैं तो उसका महत्व कम नहीं होता उस समय भी वह कपडा़ उसके तन ढकने का काम करता है! भोजन यदि बच जाता है तो कूड़े में डालने से अच्छा किसी गरीब को दे तो उसका पेट भरता है! भोजन का महत्व कम नहीं होता वह तो पेट भरने का ही काम करता है! 
इसी तरह साहित्य की कीमत कम नहीं चाहे वह किलो के भाव से बिकता हो उसका प्रकाश साहित्य प्रेमी तक पहुंच ही जाता है! 
यदि हीरा जौहरी के पास आ जाता है तो उसकी कीमत बढ़ जाती है वरना तो वह पत्थर ही है! हम कहते हैं ना! "बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद"
अतः मेरे हिसाब से साहित्य सभी जगह पहुंच रहा है! उसका मान बढ़ रहा है! सोने की चमक कम नहीं  होती! 
- चंद्रिका व्यास
 मुंबई - महाराष्ट्र
पुस्तकों का ढेर लगा हुआ है और कीमत भी किलो के भाव। ऐसा क्यों है? बहुत सारे प्रश्न खड़े हो जाते हैं जैसे क्या जैसा दिख रहा है साहित्य की स्थिति वैसी है। जी निसंदेह ऐसी ही है डिजिटल तकनीक ने लोगों को किताबों से दूर कर दिया है। और रही सही कसर लेखकों और प्रकाशकों ने किताब का मूल्य इतना रखते हैं कि अच्छा साहित्य हमारे जैसे अनगिनत मजदूर पाठक लेखक सिर्फ छू कर देखते हैं।वो तो भला हो डिजिटल माध्यम का कुछ ढंग का पढ़ने के झट से मुफ्त में या यूं कहूं एकाध रूपए के इंटरनेट डाटा खर्च करने पर उपलब्ध हो जाता है। जब सरकारी खरीद में किताबें थौक के भाव जाती है तब भी प्रकाशक आम पाठकों से इतना मूल्य वसूलता है कि वो खरीदना ही नहीं चाहते। मान लीजिए एक किताब एक सौ बारह पृष्ठ का है उसका मूल्य आपको चार सौ रुपए मिलेगा जबकि लागत छपाई में बामुश्किल पचास साठ रुपए।जो कि नाजायज है। पुस्तकों के मूल्य जितना कम होगा निश्चित है अधिक बिकेगा लोग आज भी किताब खरीद कर पढ़ना चाहते हैं। गीता प्रेस की किताब खूब बिकती है। जब भी गांव जाता हूं पांच सात किताब जरूर खरीदता हूं। मैं लघुकथा और कविता लिखता हूॅं‌ कोई किताब बताइए जो पचास रुपए की हो एक साथ पांच खरीदूंगा लेकिन निश्चित है होगा नहीं। जबतक ये बेईमानी बंद नहीं होगी रोना जारी रहेगा।
- भुवनेश्वर चौरसिया "भुनेश"
गुड़गांव - हरियाणा
आप बिल्कुल सही कह रहे हैं यह डेढ़ सौ रुपए किलो लिखना सच में साहित्य का अपमान है। साहित्य कोई गली में बिकती सब्जी नहीं है कि जिसका दाम बोली की तरह लगाया जाए ₹100 किलो.. डेढ़ सौ रुपए किलो ..। साहित्य समाज का दर्पण है। माना कि पुस्तकें महंगी होती हैं परंतु इसका अर्थ यह कदापि नहीं है। हाँ! इसको लिखने का एक ढंग होना चाहिए। आप अपनी बात को कहते कैसे हैं, लिखते कैसे हैं, बोलते कैसे हैं। हमारी अभिव्यक्ति से किसी का मान- सम्मान -अपमान झलकता है। इस चित्र में सरासर साहित्य का अपमान है। अगर सस्ती पुस्तकें देनी है उसको भी किसी और सही ढंग से लिख कर रखा जा सकता है। पाठकों को पुस्तकें खरीदने के लिए, पढ़ने के लिए आकर्षित किया जा सकता है।
- संतोष गर्ग
मोहाली - चंडीगढ़
साहित्य का सबसे बड़ा अपमान तो पढ़ा लिखा तबका करता है जब ढेरों के ढेर साहित्यिक किताबें अलमारियों में बंद दीमक का खाद्य बनती हैं। ये अलमारियों में बंद किताबें सिर्फ विद्वता का सूचांक होती हैं। अधिकतर लोग ऐसे भी हैं जो किसी पढ़ने के शौकीन को किताबें देने के लिए राजी नहीं होते बस किताबें बुक्स रैक का श्रृंगार बनी रहें। ऐसी प्रवृति वाले लोग कुछ सालों बाद किताबों की सेल लगा देते हैं और शानो शौकत बघारने के लिए नई किताबें खरीद कर फिर बुक्स रैक भर देते हैं ।हम पढ़े लिखे लोगों का फर्ज बनता है कि हम शुभ कार्यो में पैसे की लेन देन की जगह अच्छी साहित्यिक पुस्तकों का शुगन दें। इस तरह पुस्तक -कल्चर  को बढावा मिलेगा।पुस्तक यात्रा करती ही अच्छी लगती है। पुस्तकों को बेचने की बजाय पुस्तक प्रेमियों में बांटना चाहिए। ये ज्ञान अर्जित करने का मुख्य सत्रोत हैं और सच्चा साथी भी ।पश्चिमी देशों में लोग कार,बस,रेल और हवाई जहाज आदि के सफर में गप्पें लड़ाने की जगह अच्छी किताबें पढ़ना पसंद करते हैं लेकिन हमारे देश में-------।
- कैलाश ठाकुर 
नंगल टाउनशिप - पंजाब


" मेरी दृष्टि में " साहित्य पुस्तकों तक सीमित नहीं रहना चाहिए । साहित्य समाज का दर्पण होता है । आने वाली पीढी के लिए मार्ग दर्शक होता है । साहित्य का किसी भी स्तर पर अपमान नहीं होना चाहिए । 
                                        - बीजेन्द्र जैमिनी
सम्मान पत्र 




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