क्या पवित्र जीवन जीने वाले भी पाप से बच पाते हैं ?

पवित्र जीवन हर कोई नहीं जी सकता है । यह बहुत बड़ी तपस्या है । कई बार पवित्र जीवन जीने वाले भी पाप से बच नहीं पाते है । यह आपने  आस पास सभी ने देखा होगा । यही " आज की चर्चा " का प्रमुख विषय है । आये विचारों को देखते हैं : -
 पवित्र जीवन जीने वाला यानी सत्पुरुष! और सत्पुरुष कौन होते हैं जो अपना अहित करने वालों पर भी दया का अभाव रखते हैं ,अहंकार नहीं करते, दूसरे की निंदा नहीं करते ,क्रोध नहीं करते,दुर्वचन  सुनकर गूंगे बन जाते हैं, स्वयं कोई दुष्कर्म नहीं करते ,परोपकारी होते हैं आदि आदि अनेक गुणवान होते हैं अर्थात फिर तो वह भगवान के बराबर हमें लगने लगता है उससे कैसे पाप होगा कुछ हद तक यह ठीक है और वास्तव में मनुष्य श्रेष्ठ है जिसमें त्याग बलिदान और उपयुक्त होते हैं किंतु यह भी सत्य है मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है अतः उसका जीवन भी संघर्षों से भरा होता है निरंतर संघर्षों से जूझते रहने के कारण थक जाता है तो कभी-कभी समय के अनुसार उनकी भावनाएं भी बदल जाती है रोज आ जाता है स्वार्थी भी बन जाता है कभी-कभी परिस्थितियों में उलझ अपने स्वभाव के प्रतिकूल भी प्रतिक्रिया देने लगता है चाहे वह तो हो ही जाता है अनचाहे अनजाने में हम कभी कभी किसी के लिए कहते हैं ना कि इतना अच्छा आदमी है किंतु गुस्से में बोलकर पूरा किए कराए पर पानी फेर देता है यही बात यहां हो रही है किंतु हम समय साथ अपनी भूल स्वीकार कर सच्चे दिल से पश्चाताप कर लेते हैं तो वह पाप नहीं होता किसी विद्वान विचारक ने कहा है कि मनुष्य का सर्वाधिक पवित्र एवं दिव्य कर्म है उसका पश्चाताप और यही सच्चा पश्चाताप प्रायश्चित बन हमारे हमको हमारी गलतियों को जब धो देता है तो हम पापी नहीं रहते यही बात कृष्ण ने अर्जुन से गीता में युद्ध के समय कही है ए अर्जुन यदि तुम युद्ध में अपनों से लड़ रहे हो तो कोई बात नहीं है क्योंकि तुम्हारी भावनाएं निर्मल है तुम अहंकार क्रोध बदले की भावना को लेकर युद्ध नहीं कर रहे हो तुम अपनी वेदना एवं ग्लानि को कर्म रूप में परिणित कर सुंदर एवं पवित्र मार्ग पर चल रहे हो और यही उनके प्रति तुम्हारा पश्चाताप होगा अतः यह कोई पाप नहीं है अंत में कहना चाहूंगी पवित्र जीवन जीने वाले यदि उचित निर्णय लेते हैं और उनकी नीति में कोई खोट नहीं है नैतिकता की भावना उत्कृष्ट हो तो उस समय लिया गया निर्णय स्वार्थ भरा ही क्यों ना हो पाप नहीं होता !
- चन्द्रिका व्यास
मुम्बई - महाराष्ट्र
पवित्र जीवन जीना बहुत कठिन होता है। बड़े ऋषि महर्षि भी कभी-कभी स्वार्थी हो जाते हैं और उनके ऊपर भी दोष लग जाते हैं उदाहरण के लिए महात्मा गांधी को भी दोषारोपण और पक्षपात के कारण ही उनके ही शिष्य गोडसे ने गोली मारकर हत्या कर दी थी जबकि उन्होंने पूरा जीवन सादगी और उच्च विचार के साथ व्यतीत किया। जैन मुनि इसीलिए मुंह पर पट्टी और सफेद कपड़ा बांधते हैं कि उनके मुंह पर कीड़े ना जाए और हमें पवित्रता का संदेश देते हैं
के बड़े को ज्ञान पीढ़ी दर पीढ़ी चलता आता है स्वच्छता और पवित्रता से यदि हम पूजा-पाठ या भोजन कुछ भी बनाए या करें कोई भी अच्छा काम तो वह सफल जरूर होगा और घर का वातावरण और जहां हम काम करते हैं वहां पर पवित्रता रहेगी। आजकल संत भी पवित्रता का ढोंग करते हैं उनके ऊपर चरित्र हीनता का आरोप भी सिद्ध हो गया है आजकल यह बहुत मुश्किल है कि कौन पवित्र है और कौन सही।
जाने अनजाने में हम सभी कभी ना कभी झूठ बोलने का पाप कर देते हैं निस्वार्थ जीवन बहुत कठिन है आज के युग में मानव मानव को धक्का देकर आगे बढ़ रहा है इस पाप से बचना बहुत मुश्किल है पवित्र जीवन जीने वाले व्यक्तियों के दर्शन तो केवल किताबों और ग्रंथों में होते हैं गौतम बुध और राम के रूप में आजकल ऐसे व्यक्ति हैं और ना ऐसा व्यक्तित्व।
रहिमन इस संसार में भांति भांति के लोग......
- प्रीति मिश्रा 
जबलपुर - मध्य प्रदेश
पाप से कोँई बचा नहीं है , जाने न जाने हर इंसान पाप कर बैठता है । चलते चलते पैरों के नीचे कोंई जंतु आकर मर गया पाप तो वह भी है । यह भी निर्भर करता है की आप पाप किसे समझते हैं हर मानव की पाप पूण्य की व्याख्या अलग-अलग है । पवित्र होने का क्या अर्थ हैं? क्या हम अपने-आप से या फिर दूसरों से पवित्रता में जीने की उम्मीद रख सकते हैं।
मनुष्य का विवेक अनेक परिस्थितियों में यह बात उसके अंतर्मन में कहता है।  बचपन से हमने सीखा है कि झूठ बोलना पाप है, चोरी करना पाप है, धोखा देना पाप है – परंतु हम में से ऐसा कौन है जिसने कभी झूठ ना बोला हो, कभी भी चोरी ना की हो (चोरी सिर्फ धन की ही नहीं होती – समय की चोरी, कामचोरी, किसी को किये जाने वाले धन्यवाद की चोरी भी चोरी ही है), क्या हम में कोई है जिसने कभी किसी को धोखा न दिया हो। असल में हम सबने पाप किया है और समय बेसमय जब हम कुछ गलत करने चलते हैं तो हमारा अंतर्मन हमें चेताता है। हमारा विवेक ईश्वर का दिया हुआ वरदान है जो हमें पाप अर्थात ईश्वर की मर्ज़ी के विरुद्ध काम करने से रोकने की कोशिश करता है। हम अपने विवेक की नहीं सुनते परंतु अपने चंचल मन की सुनते है, पाप कर बैठते हैं और फिर अपने मन को तसल्ली देते हैं कि यह तो छोटा पाप है – हमने कोई हत्या थोड़ी की है, मैंने किसी की ज़मीन थोड़ी हड़प ली है, मैंने किसी को व्यवसाय में धोखा थोड़ी दिया है, मैंने कहाँ किसी महिला की आबरू लूटी है। मैंने जो किया यह तो बहुत छोटी बात है, सब ही तो करते हैं, मैं कोई निराला थोड़े ही हूँ – मैंने कोई बड़ा पाप तो नहीं किया – मैं तो साधारण सा सरल सा जीवन जीने वाला व्यक्ति हूँ – मैं तो किसी का न बुरा सोचता हूँ ना करता हूँ – अपने काम से काम रखता हूँ, ईश्वर को सुबह शाम याद करता हूँ। यह बात तो सही है कि ‘सभी तो करते हैं’ – परंतु इसके कारण सभी दोषी भी हैं, सभी पापी हैं। सब अगर गलत करते हैं तो ‘गलत’ सही तो नहीं बन जाता। हम कभी-कभी अपने आप को यह भी तसल्ली देते हैं कि जब सभी करते हैं तो देखा जायेगा, जो सबके साथ होगा वो मेरे साथ भी हो जायेगा। मनुष्य बचपन से पापकर्म सीखकर पैदा नहीं होता परंतु पापी स्वभाव लेकर ज़रूर पैदा होता है। तभी तो, जबकि सभी काम सिखाने से ही आते हैं, झूठ, धोखा और चोरी जैसे सभी पाप बिना सिखाये ही उम्र बढ़ने के साथ मनुष्य स्वतः ही करने लगता है और समय असमय सांसारिक दृष्टि से छोटे पापों में अपने विवेक को दबाकर पाप करता रहता है। ऐसे में जब हमारा विवेक उस पाप के विषय में हमें कुछ भी बोलना बंद कर देता है तो मनुष्य बड़े पाप भी कर बैठता है। जिसने सांसारिक दृष्टि से कोई बड़ा पाप कर लिया हो तो या तो वह अपराधबोध के कारण सदा उसके बोझ से दबा जीवन जीता है या फिर बार बार ऐसे पापकर्म करके अपने विवेक को सुन्न कर देता है ताकि आगे को इस बोझ का उसे एहसास ही न हो और वह आराम से ऐसे काम करता रहे। दोनो ही सूरत में, सच यह है, कि हम सब पवित्र सृष्टिकर्ता ईश्वर के समक्ष पापी और दोषी हो जाते हैं।
- डॉ अलका पाण्डेय
मुम्बई - महाराष्ट्र
सदैव पवित्र जीवन जीने वालों से पहले तो, पाप होगा ही नहीं और अनजाने में यदि भूल हो भी गई औरयदि उसने उसके लिए प्रायश्चित करके भविष्य में उसे न दोहराने का कड़ा संकल्प ले लिया है तो दयालु ईश्वर के संपर्क में रहने के कारण वह पाप से भी बच जाएगा।  यह सब इतना सहज नहीं है ।पवित्रता मात्र शारीरिक शुद्धि ही नहीं है। शरीर की पवित्रता के साथ-साथ मन की पवित्रता (जहां असत्य तीक्ष्ण, कटु निंदा, हिंसा ,कपट,मिथ्या प्रचार ,तामसिक आहार, दुर्भावना एवं कुदृष्टि नहीं होती )ऐसे ही इंद्रियों एवं हृदय की पवित्रता( नम्रता त्याग, प्रेम ,धैर्य, दीन -दुखी सभी जीवो की सेवा, दया से युक्त जीवन) जरूरी है। इस प्रकार तन- मन इंद्रिय और हृदय की पवित्रता से जीवन जीता हुआ मनुष्य पवित्रता का प्रतिरूप हो जाता है। देखा जाए तो यह पवित्रता ईश्वरीय गुण है और ईश्वर से पवित्र क्या है ?कुछ भी तो नहीं ।सच्चे अंतः करण से जब किसी भी धर्म का व्यक्ति जब अपने इष्ट का नाम लेता है; तो उसके शरीर के सारे पाप, ताप नष्ट हो जाते हैं और शरीर में एक अनुपम तेज, ओज और वाणी में मधुरता भर जाती है। एक बार उस पवित्र जीवन का साक्षी ईश्वर का नाम लेने से ही पापों का नाश हो जाता है। प्रहलाद, गजराज, अजामिल, द्रौपदी, बाल्मीकि की गाथाएं इसका प्रमाण हैं।
        देखा जाए तो पवित्र जीवन एक संकल्प है; जहां आत्मा का विकास करने का शुभ अवसर होता है ।अतः ऐसे पवित्र जीवन में हम अनेक अपवित्र विचारों को यानी बुराइयों को अलग कर सकते हैं और इस प्रकार बुराई रूपी पापों से बच सकते हैं।
 - डॉ. रेखा सक्सेना
मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश
वैचारिक टकराव में पाप-पुण्य का निर्णय करना मुश्किल होता है| एक कार्य किसी के लिए पुण्य समान है, वही कार्य वैचारिक भिन्नता के कारण किसी अन्य के लिए पाप साबित हो सकता है|  यह निर्णय कोई नहीं कर सकते कि क्या पाप है, क्या पुण्य है? जैसे मूर्ति-पूजा रामलाल के लिए पुण्य कार्य है, वहीं पड़ोसी असलम के लिए पाप है| इसी तरह असंख्य उदाहरण हैं| जिनसे एक ही कार्य एक के लिए पाप साबित होता है, दूसरे के लिए पुण्य| पुण्य का शाब्दिक अर्थ है 'फिर से' यानि कि यह कार्य अच्छा है, इसे फिर से किया जाए| बार-बार किया जाए| पाप कार्य की पुनरावृति न हो| यही पाप-पुण्य है|जो मानव अपने वाणी, मन, कर्म व वचन से किसी का अहित नहीं करता, वही जीवन पाक-पवित्र जीवन है| 
- विनोद सिल्ला
टोहाना - हरियाणा
जी हाँ , जो इंसान सच्चा पवित्र जीवन के मार्ग पर चलता है । वह ही पाप से बच पाते हैं । पाप का मतलब यही जो गलत मार्ग अपनाता है । जीव हत्या , नरबलि आदि हिंसक काम करते हैं । पवित्र जीवन जीने वाले तो मन , वचन , कर्म से किसी की निंदा आदि भी नहीं कर सकते हैं । जिनका चिंतन  ईशमय होकर सब प्राणियों के लिये कल्याण करने का होता है । वे अपनी साकारत्मक ऊर्जा का प्रयोग समाज हित में करते हैं ।पवित्र जीवन जीने वाला तो मेरे मतानुसार शाकाहारी ही हो सकता है । जिसमें किसी भी जीव , प्राणी की हिंसा नहीं करने का भाव  रहता  है । क्योंकि वह जीव ईश समान होता है । ऐसे पवित्र  भाव तो उन्हीं सन्तों , महापुरुषों , फकीरों में उत्पन्न होते हैं । जिनमें प्रज्ञा ,  चेतना का स्तर जाग्रत हो जाता है । इसी श्रेणी में गौतम बुद्ध ,  महावीर , गाँधी का नाम सर्वप्रथम आता है । गांधी जी वाकिंग करते समय बहुत ध्यान से चलते थे । पैरों के तले कोई चींटी नहीं मर जाए । मच्छर मारना तो धर्म के विरुद्ध मानते थे । मच्छर में भी ईश का रूप देखते थे । गंगा की तीर्थ नगरी ऋषिकेश जहाँ संत , महात्माओं के सत्संग , प्रवचन होते थे । वातावरण , परिवेश सभी पवित्र है ।  पवित्र जीवन से यही मतलब हो सकता है । सादा जीवन उच्च विचार वाला इंसान तो होते हैं ।  अंगुली पर ही गिना जा सकता है ,  पर उनके चेतना का द्वार उच्च स्तर पर खुल जाए ,तो  वे कुछ न कुछ पाप तो हो ही जाता होगा । मुझे नहीं लगता कोई इंसान आज के जमाने में ऐसा हो जो पाप करने से बच जाएँ । मेरा मुम्बई में पहला जॉब शिक्षिका का क्रिश्चियन स्कूल में  लगा था ।  क्रिसमस पर भव्य कार्यक्रम हुआ था। उनके सारे धार्मिक कार्यक्रम उन्हीं के रीति के अनुसार स्कूल का मुखिया कर रहे थे । अंग्रेजी भाषा में प्रवचन बोले जा रहे थे । एक रस्म थी कि एक छोटे से चाँदी के गिलासी  में  लाल से रँग का शराब सा पेय डाला । उसे उस मुखिया  ने  होंठ लगा के पिया । फिर उसी गिलास से प्रनाध्यापक ने फिर सब क्रिश्चियन स्टाफ ने पिया । मैं और मेरी एक मित्र वहाँ  हिन्दू थी । हमने नहीं पिया । हमारे लिए किसी का झूठा पीना पाप था । जबकि क्रिश्चियन  के  लिए ऐसा पाप  नहीं हो । बापू आशाराम को पूरा भारत ने उसे संत , बापू माना था । वे अब बलात्कारी बन के जेल में सड़ रहा है । कैसे कोई मान सकता है । पवित्र जीवन जीने वाले पाप से बच पाते हैं । वे तो बहुत पवित्र आत्मा होती होंगी । जोनपाप नहीं करती होंगी ।
- डाँ. मंजु गुप्ता
मुम्बई - महाराष्ट्र
पाप का आशय समझा जावे तो यह है कि हमारे द्वारा किया गया ऐसा कर्म जो नैतिक दृष्टि से हमें नहीं करना चाहिए था। इस कर्म में हमारे द्वारा किये गये वे सभी कर्म सम्मिलित हैं,जो हमसे जाने या अनजाने में हुए। इस पाप कर्म का क्या प्रतिफल होता है,क्या नीति निर्धारण है, यह सृष्टिकर्ता का अधिकार क्षेत्र है। पवित्र जीवन जीना अपने आप में शुचिता और गौरवमयी है। पवित्र जीवन जीने वाले का आशय भी स्पष्ट है कि ऐसा जीवन जो सद्भावनाओं से लवरेज है। अनैतिक,अनुचित और अधर्म से मुक्त है,परे है। परंतु इसमें एक संदेह फिर भी निहित है। अनजाने और अन- इच्छा(गैरइरादतन) में किये गये कर्म। इस स्थिति से हरेक को बचना कठिन तो है ही,असंभव भी कह सकते हैं। इसकी सूक्ष्मता को सभी समझते भी हैं और यह स्वभाविक भी है। अतः यह कहना या समझना सत्य और उचित नहीं होगा कि पवित्र जीवन जीने वाले भी पाप से बच पाते हैं। 
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
पाप और पुण्य दो ऐसी वृतियां जिस की परिभाषा, क्षेत्रफल, कर्मफल काल ,समाज ,व्यक्ति और परिस्थितियों के अनुसार बदलता रहता है ।  पवित्र जीवन जिने वाले पाप से बच जाते हैं , पूणर्तः बच जाते हैं कठिन  है । पाप का अर्थ वह काम या भावनाओं जो समाज के निमयानुसार अमान्य हो। जो नैतिकता के दायरें से बाहर  हों। मनुष्य कितना ही संयम , सहनशीलता और नियमों से जीवनयापन करे पर है तो मानल ही ।कभी ना कभी कोई कमजोर क्षण आता है और सारे सद्जीवन को कलंकित कर जाता है ।जब ईश्वर भी अपने उच्चतम कार्यो से मोह वश ,कामवश, प्रतिस्पर्धा वश निम्न काम कर लेते हैं तो मानव तो हाड़ मास का पुतला है । पवित्र जीवन कठिन है ,।
कोशिश कर सकते हैं पर मनसा, कर्मणा ,वाचना से पाप ना है मुश्किल है। आदिकाल से वर्तमान तक यही गत है।
- ड़ा.नीना छिब्बर
जोधपुर - राजस्थान
पाप और पुण्य की व्याख्या परिस्थितियों पर निर्भर करती है । मानवता के कल्याण हेतु किये जाने वाले कार्य अवश्य ही हमें सन्मार्ग पर ले जाते हैं । पाप पर चर्चा हो और चित्रलेखा उपन्यास का उदाहरण न दिया जाय तो वो परिचर्चा सार्थक नहीं कही जा सकती । भगवती चरण वर्मा जी ने  बहुत सुंदर व्याख्या की है *चित्रलेखा उपन्यास* में । इस उपन्यास की कथा पाप और पुण्य की समस्या पर आधारित है । पाप क्या है ? उसका निवास कहाँ है ?
इन प्रश्नों के उत्तर खोजने हेतु महाप्रभु रत्नाकर के दो शिष्य - *श्वेतांक  व विशालदेव* अलग- अलग  परिस्थिति वाले माहौल में जाते हैं । 
श्वेतांक - सामंत बीजगुप्त के घर में उनका सेवक बनकर रहता है ।
विशालदेव - योगी कुमारगिरि के आश्रम में उनके शिष्य बनकर रहता है । दोनों नितांत भिन्न जीवनानुभवों से गुजरते हैं । और अपने - अपने स्वामी के आचरण व जीवन को ही सही मानते हैं । अंत में उनके निष्कर्षों के आधार पर  महाप्रभु रत्नम्बर ने निष्कर्ष निकाला कि-
*संसार में पाप कुछ भी नहीं है , यह केवल मनुष्य के दृष्टिकोण की विषमता का दूसरा नाम है । हम न पाप करते हैं न पुण्य करते हैं , हम केवल वही करते हैं जो हमें करना पड़ता है ।*
अंततः यही कहा जा सकता है कि अच्छे कर्म करते रहें । सत्कर्म कभी निष्फल नहीं होते ।
- छाया सक्सेना प्रभु
जबलपुर - मध्यप्रदेश
पाप और पुण्य की सबकी अपनी अपनी अलग-अलग व्याख्या होती है। सीधे और सरल अर्थ में कहा जाये तो स्वार्थ के वशीभूत होकर दूसरों का अनिष्ट करके अपने क्षणिक लाभ के लिए किया गया कार्य पाप है और निस्वार्थ होकर किसी के हित, परोपकार के लिए किया गया कार्य पुण्य है।  चाहता तो हर कोई यही है कि वह अच्छे कर्म करते हुए पवित्र और शुचितापूर्ण जीवन जिये। मनुष्य परिस्थितियों का दास ही होता है। वह जो अच्छा- बुरा करता है उन्हीं के वशीभूत होकर जानते हुए और कभी अनजाने में करता है। 
         हमारी संस्कृति में कहा गया है कि व्यक्ति के कर्म कभी उसका पीछा नहीं छोड़ते। कर्म अच्छे करें या बुरे... उनका फल तो हमें किसी न किसी जन्म में, किसी भी योनि में भोगना ही पड़ता है। इसलिए प्रयास यही होना चाहिए कि हम जो भी कर्म करें उससे किसी का भी हित ही हो, अहित कभी न हो। यही हमारे वश में है। उसका फल हमें क्या मिलेगा.. यह तो नियति ही जानती है।अतः पवित्र और अच्छा विचार रखते हुए, सत्कर्म करते हुए शुचितापूर्ण पवित्र जीवन जीने का प्रयास होना चाहिए बस
- डा० भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून -उत्तराखंड
 पवित्र जीवन जीने वाले भी पाप से बच पाते हैं नहीं ?क्योंकि पवित्र जिंदगी जीने वाले को पहले पाप का अर्थ समझना होगा पाप का अर्थ है समस्या में जीना आज वर्तमान युग में पवित्र जिंदगी जीने वाला भी अपने आसपास की समस्या से भरी जिंदगी के बीच में पवित्र मानव को भी जीना हो रहा है अतः पवित्र जिंदगी जीते हुए भी मनुष्य समस्या से परे नहीं है हर व्यक्ति आज समस्या से घिरा हुआ है अर्थात पाप से घिरा हुआ है समस्या से जुड़ा हुआ व्यक्ति हमेशा खुश नहीं रहता कभी खुशी कभी गम ऐसा ही अपनी जिंदगी को मान चुका है जबकि वास्तव में हर मनुष्य निरंतर सुखी जीना चाहता है समस्या से मुक्त होकर जीना चाहता है पाप से मुक्त होकर जीना चाहता है लेकिन जीना नहीं हो पा रहा है एक की पवित्रता से कुछ होने वाला नहीं है समग्र मानव जाति को पवित्रता में जीने से समस्या हल हो सकता है अर्थात पाप से मुक्ति हो सकता है पाप से मुक्ति होना बराबर भ्रम से मुक्ति होना भ्रम से मुक्ति होना बराबर मोक्ष को प्राप्त करना जो व्यक्ति मोक्ष प्राप्त करता है वही व्यक्ति पवित्र जिंदगी जीता है भ्रम से मुक्ति होकर जीना ही पवित्रता है जो व्यक्ति भ्रमित है वही समस्या से घिरा हुआ है जो व्यक्ति भ्रम से मुक्ति  होकर जीता है वही व्यक्ति पाप से बचकर जीता है अतः कहा जा सकता है कि कोई जरूरी नहीं वर्तमान युग में पवित्र जीवन जीने वाला व्यक्ति  ही पाप से बच सकता है। हांँ !जो व्यक्ति पवित्रता  मे जीते हुए समस्या से मुक्ति हो जाता है ,तो कहा जा सकता है ,कि पवित्र जीवन जीने वाले भी पाप से बच पाते है।
- उर्मिला सिदार
रायगढ़ - छत्तीसगढ़
'पाप' की व्याख्या हर व्यक्ति अपने तरीके से करता है। पवित्र जीवन की रूप रेखा निर्धारित है। लेकिन पाप के लिए कोई मीटर नहीं है । जो कार्य सामाजिक नियमों से परे होता है वही पाप बन जाता है। मानसिकता का भी असर पड़ता है। भले-बुरे की समझ हीं पाप और पवित्रता की व्याख्या करती है । 
पवित्र जीवन सभी की दृष्टि में आदर्श माना जाता है। संयम, विवेक और आधारभूत नियम ही जीवन को पवित्र बनाता है। लेकिन उन आदर्शों के बीच व्यक्ति एक भी गलत काम करता है तो पूरा समाज उन्हें माफ नहीं करता । लेकिन पाप से ओत-प्रोत व्यक्ति को समाज झुक कर सलाम करता है। जहां तक बचने की बात है , वहां सज्जन व्यक्ति जान-बूझ कर पाप नहीं करता, अनजाने में हो जाता है। इसलिए पाप से बचना किसी के लिए भी मुमकिन नहीं है।
- संगीता गोविल
पटना - बिहार


" मेरी दृष्टि में " पाप से कोई नहीं बच पाता  है । कोई कम कोई ज्यादा । भगवान राम ने अपनी गर्भवती पत्नी को जंगल में छोड़ कर पाप के भागीदार बन गये थे । ऐसे बहुत से उदाहरण हैं  । 
                                             - बीजेन्द्र जैमिनी













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