लघुकथा - 2025

लघुकथा - 001


               उत्कर्ष


आज उत्कर्ष व्यापार में उत्कर्ष का तराना गा रहा था, लेकिन कुछ समय पहले तक ऐसा नहीं था.

“कितने दिनों से व्यापार में स्थिरता लाने की कोशिश कर रहा हूँ, हर दांव में कोई-न-कोई पेच रह जाता है?” उत्कर्ष बहुत उदास हो गया था.

“लागत ही नहीं निकल पा रही तो व्यापार का क्या फायदा और जीने का क्या लाभ!” उत्कर्ष का उत्कर्ष अपकर्ष होता जा रहा था.

इसी धुन में वह किसी अनजान राह पर चला जा रहा था.

“इतने पत्थरों के बीच अंकुर पौधा बनता जा रहा है, वो भी पाइप की टपकती एक-एक बूंद से!” सहसा उसकी सोच का अंकुर फूट पड़ा.

“यह अंकुर भी बीज से ही हुआ होगा, जो फूटने के लिए निरंतर संघर्ष और समर्पण के लिए तैयार रहा होगा!” उसकी सोच का दायरा विस्तृत होता जा रहा था.

“बीज से पौधा बनने में कितना समय लगा होगा, निश्चय ही एक दिन में तो ऐसा हुआ ही नहीं होगा!” उसकी सोच में असीमता के दर्शन हो रहे थे.

“हमारी सोसाइटी की दीवार में तो सातवीं मंजिल पर पीपल का पौधा निकल आया है.” सोच का विस्तार आसमान तक पहुंच गया था!

“ये अंधकार आने वाले भोर की पहचान है !” कल ही तो मैंने पढ़ा था!

“चारों ओर सफलता-ही-सफलता बिखरी हुई है, मुझे सफलता क्यों नहीं मिलेगी, बस थोड़ा-सा धैर्य धारण करना पड़ेगा.”

शायद वही धैर्य अब उत्कर्ष हो गया था!००

                          - लीला तिवानी 

                       सम्प्रति - ऑस्ट्रेलिया

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लघुकथा -002


              शॉर्ट-कट


“देख लो कविता। मैं न कहता था कि आज के ज़माने में पैसा, ताल्लुक़ात और दिखावे से कुछ भी हो सकता है। मैंने पुराना साहित्य समूह ही छोड़ दिया। बेवक़ूफ़ भरे पड़े थे। कोई भी रचना भेजो, उसकी समीक्षा, आलोचना और नुक़्ताचीनी होती थी, बस। इसके सदस्य सौ साल तक यही करेंगे, बस। मुझे देखो, एक निजी वेबसाइट को भुगतान करके कोर्स कर लिया, दो स्थानीय संस्थाओं को चंदा दे कर उनके कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि बन गया। पत्रकारों को दावत दी, तो अखबारों की सुर्खियों में भी आ गया। सोशल मीडिया पर भी एक ऐसा समूह पकड़ लिया, जहाँ मैं जो लिखूँ, प्रकाशित कर देते हैं। हर साल एकमुश्त राशि देनी पड़ती है, बस। जानती हो, अब मेरी गिनती मूर्धन्य साहित्यकारों में होने लगी है। लोग मूर्ख हैं, जो इतनी-सी बात के लिए मेहनत करते हैं।” 

“मैं क्या जानूँ आपके साहित्य के बारे में। आप ठीक ही कह रहे होंगे। अरे हाँ, कल शाम को बाज़ार जाओ, तो फल दूसरी दुकान से लाना। आज वाली से नहीं!” 

“क्यों कविता, क्या हुआ?” 

“अरे, सारे फल कार्बाइड में पकाये हुए थे। पहले तुम जिस दुकान से लाते थे, वहाँ डाल के पके फल मिलते थे। डाल के पके फलों में मिठास और पौष्टिकता होती है। कार्बाइड से पके फल सिर्फ देखने में सुंदर दिखते हैं। उनमें कोई गुण नहीं होता। कभी-कभी तो ज़हरीले भी निकलते हैं। समझ गए?”

“हाँ कविता, तुम्हारी बात समझ में आ गई है। अब फल की दुकान भी पहले वाली पकड़नी पड़ेगी और साहित्य संस्था भी।” ००

                     - राजेन्द्र पुरोहित

                    जोधपुर - राजस्थान 

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लघुकथा - 003


           बुझा चूल्हा


मनिहारिन आवाज लगा रही थी,"चूड़ी ले लो, चूड़ी।"

 मनिहारिन की आवाज सुनकर , मधु ने उसे घर में बुलाया।

 बहू से कहा, " देख तो,मनिहारिन रंग -बिरंगी, खूबसूरत डिजाइन की चूड़ियाँ लायी है। तुम्हारी मुम्बई में तो ये मिलने वाली नहीं। पसंद  कर लो, बाँह भर -भर  पहन लो।"

मनिहारिन चूड़ियाँ दिखाती गयी और बहू पसंद कर,पहनती गयी।

 उसके दोनों हाथ चूड़ियों से भर चुके थे।

मधु बोल उठी, "अरे वाह! लाल, सुनहरी 

 चूड़ियों ने तो तुम्हारी गोरी कलाईयों  में चार चाँद लगा दिए।"

बहू के गाल  लाल हो गए । 

"मम्मी जी, एक काम करते हैं। लच्छों से भरी पूरी टोकरी ही खरीद लेते हैं।

मुंबई  में तो घर से निकलना ही मुश्किल होता है और ऐसी चूड़ियाँ तो कभी दिखी भी नहीं।"

  मनिहारिन, बहू को दुआएँ देती हुईं बाहर आ चुकी थी।

  वह चलते हुए बुद्बुदा रही थी, " भगवान भला करे इन घरवालों का।अब दो दिन से बुझा चूल्हा, फिर जल जाएगा।" ००

                              - डॉ मंजु गुप्ता 

                              मुंबई - महाराष्ट्र 

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लघुकथा - 004


             दिखावा   


  एक दुष्ट आचरण रखने वाले सतपाल के घर के सामने से रामू गुजर रहा था तभी अंदर से आवाज आई -टाइगर, टाइगर, टाइगर।

 रामू चौका और उसने समझा कि आज दुष्ट किसी टाइगर को लेकर आया है। कहीं हमला न बोल दे और शांत हो गया। रामू के चेहरे पर भय की रेखा स्पष्ट दिखाई पडऩे लगी। तभी उसकी नजर एक मरियल, से बच्चे पर पड़ी जिसकी न जाने कब सांस गुम हो जाए। अंदर से फिर आवाज आई-अरे टाइगर, इधर आ। बाहर मत जा वरना कोई कुत्ता काट लेगा। 

मरियल से बच्चे को देख रामू ने राहत की सांस ली और हंसी भी चेहरे पर झलकने लगी। रामू को बड़ा आश्चर्य हुआ और सोचने लगा कि अगर यह टाइगर है तो भीगी बिल्ली कैसी होगी? वह सोचते ही आगे बढ़ गया कि लोगों की कथनी और करनी में कितना अंतर है।००

                        - डा. होशियार सिंह

                         महेंद्रगढ़ - हरियाणा

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लघुकथा - 005


            घुट घुटकर 


चिर-परिचित ऊँचे टीले पर दोनों आज काफ़ी दिनों बाद हाथों में हाथ डाले बैठे थे।जब भी आते इसी टीले पर बैठ दुनिया जहान की बातें,वाद -विवाद,रूठना ,मनाना प्रेम की बातें करते।कभी शीतल लहरें पैर को छू कर निकल जाती तो कभी फेनिल छींटें गुदगुदा जाते।सागर के लहरों पर डोलते छोटे -बड़े जहाज,हिंडोले सी डोलती कश्तियाँ ।युगल सोचते हमारी जीवन की गाड़ी भी इन्हीं कश्तियों की भाँति डोलती ।आज कोर्ट की मुहर के पश्चात,शांत और सुकून से भरी जिसमें न अब शोर है न हलचल।हवा में हल्की ठंडक और सूरज की गुनगुनी तपिश वसंत के दस्तक का आभास करा रहा है और मन भी वसंत हुआ जा रहा है।

  आज दोनों शैंम्पेन की बोतल खोल बारी -बारी से जीत का सीप पी रहे थे।काफ़ी लंबी लड़ाई चली।कोर्ट,सड़क,धरना ,प्रदर्शन।अनेकों बेड़ियों को तोड़ कर आख़िर फ़ैसला आ ही गया…लेकिन अभी भी समाज ,परिवार के कटघरे में खड़े हैं वो …

“क्या,सर उठा कर समाज के बीच हम चल सकेंगे?”

टीसते घाव बिन सुलझे सवालों से जद्दोजहद करते ,टीले पर बैठे दोनों समलैंगिक …कोर्ट के मुहर को घूँट -घूँट जी रहे थे।

आँसुओं के घूँट को हलक में घोंट ,घर की यादों को  घुट घुटकर जीने को मजबूर । ००

                              - सविता गुप्ता

                              राँची -  झारखंड

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लघुकथा - 006


   मौत से खींच लाई बहन


राम बेसुध बिस्तर पर पड़ा था । तेज बुखार, निमोनिया बिगड़ गया,फेफड़ों में घुटती- टूटती साँसें और चेरे पर  मौत की काली छाया । डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर दिए-"अब दवा नहीं, दुआ चाहिए ।" एक-एक कर सब पीछे हट गए। राम की छोटी बहन आरती ने हार नहीं मानी । वह राम को दूसरे अस्पताल में ले आई ।आरती भाई के मजबूत शरीर को नन्हें से बच्चे सा तड़पता देख उसका कलेजा चीर गया । डॉक्टर ने कहा- चिकित्सा में बहुत खर्च आएगा, रिस्क है.... आरती फूट पड़ी...भैया को बचाना है बस....वह डॉक्टर के आगे हाथ जोड़कर गिर पड़ी। भैया को बचा लो, डॉक्टर साहब....पैसे की मत सोचिए....मैं अपने गहने बेच दूँगी...भैया की जान बचा लीजिए। डॉक्टर ने जब फिर सिर हिलाया-"बहुत मुश्किल है..."बात पूरी होती उससे पहले ही आरती फर्श पर घुटनों के बल बैठ गई और सबकी नजरों की परवाह किए बिना डॉक्टर के पैर पकड़ लिए- मेरे भैया की साँस मत छीनो....एक बार और कोशिश करो...पर भैया को बचा लो...वो मेरे बाबा भी हैं,माँ भी हैं....उनके बिना मैं अनाथ हो जाऊँगी। डॉक्टर का मन कांप गया । उसने राम कोदेख एक गहरी सांस ली । ठीक है हम पूरी कोशिश करेंगे। इंसानियत ने दवा से बड़ी दुआ का रूप ले लिया। आरती कभी दवा देती,कभी माथा सहलारही थी,कभी भगवान से झगड़ रही थी । दिन-रात आँखों में नींद नहीं,अधरों पर एक ही प्रार्थना-मुझे कुछ नहीं चाहिए और चमत्कार....बस मेरा भैया लौट आए। निहारिका....मेरी बिटिया....कहाँ है.... आरती फूट पड़ी- भैया, आपकी निहारिका आप की राह देख रही है....आप जीते रहिए....सिर्फ उसके लिए.... राम की आँखों से दो मोती ढुलक पड़े। मशीनों की बीप फिर स्थिर होने लगी । राम को जीने की वजह मिल गई। बहन ने उसे मौत के दरवाजे से बाहर ला खड़ा किया । जब उसकी पत्नी ज्योति उससे मिलने आई तो कमजोर आँखों से,  टूटे हुए दिल से राम के अधरों पर मुस्कान उभरी-"सुनो....तब मै बीमारी से नहीं मोह से लडा था....तुम किससे हार गईं?" इस बार चूड़ी नहीं खनकी,राखी चमकी थी ।

जब दवा हार गई, दुआ थम गई, तब बहन के आँसूओं ने ईश्वर को भी रास्ता  बदलने पर मजबूर कर दिया ।००

                           - डाॅ. छाया शर्मा

                         अजमेर -  राजस्थान

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लघुकथा - 007


          माँ का जिगरा 


फूलो बचपन से ही देखती आई थी पिता का काम सिर्फ  दादा की जमीन से आने वाले पैसे को दारू में उजाड़ना और रात को दारू पीकर  घर आकर बाहर की सारी मायूसी माँ से  मारपीट कर निकालना ।  सुबह उठकर रात्रि के व्यवहार की माफी मांगना बढ़िया भोजन करना फिर निकल जाना ताश खेलने। पिता की यही दिनचर्या थी बरसों से। फूलो देखती मां रात को बापू से   बचने का रास्ता ढूंढ़ती रहती  कहीं कोई चूक हो गयी तो पिट ना जाऊँ और दिनभर उसे काम करते हुए देखती घर का भी और मौल  का भी। घर बैठे जितना कर सकती थी उसी में से पेट काट के वह कुछ ना कुछ  सामान बेटी के दहेज के लिए जोड़ने में लगी रहती। फूलो अकसर मां को कहती ,"माँ मैं शादी नहीं करूंगी। पति ऐसा होता है तो मुझे नहीं रहना ऐसे पति और ऐसे पति के घर में। " माँ समझाती सब पति ऐसे नहीं होते कुछ प्यार करने वाले भी होते हैं पर फूलो  गाँव की भोली भाली ज्यादातर मर्दो की ऐसी छवि ही देखती। उसके मन में अकसर एक प्रश्न उठता जो वह अपने बराबर वालियों के साथ सांझा भी करती कि जो माएँ अपने पति से इतनी दुखी होती हैं वह कैसे पेट काटकर बेटी का दहेज जुटाने की हिम्मत कर लेती हैंऔर बेटी को दूसरे घर भेजने का जिगरा कहां से लाती है । अकसर उसका यह प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता। 

                   - एडवोकेट नीलम नारंग

                          मोहाली - पंजाब 

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लघुकथा - 008


          खूँटे की बकरी


 "पापा मैंने अभी शादी नहीं करनी है ।आप को तो पता ही है कि मुझे रंग मंच और लिखने का कितना जुनून है ।"प्रीति ने पापा को कहा ।

        "   बेटा,शादी के बाद गृहस्थी भी एक रंग मंच ही होता है जिस में गृहस्थी की सफलता के लिए स्वांग करने पड़ते हैं ।बाकी ,लिखने के लिए फुर्सत ही फुर्सत होगी ।उस घर में नौकर-चाकर की फौज है ।पढ़े लिखे बहुत बड़े जिंमीदार हैं ।राजबीर भी कृषि विज्ञान में स्नातक है ।इलाके में सबसे छोटी उम्र का सरपंच है और खूब मान सम्मान भी ।उन लोगों ने खुद तेरा रिश्ता मांगा है ।"रैना साहिब ने बेटी को समझाया ।

        -  शादी के शीघ्र बाद ही पंचायत के चुनाव आ गए ।राजबीर ने खूब भाग दौड़ की लेकिन इस बार सरपंच का पद महिला आरक्षण में आ गया ।राजबीर को बेबसी में प्रीति को चुनाव के लिए खड़ा करना पड़ा । भारी बहुमत से प्रीति जीतकर सरपंच बन गई। पूरे गाँव में उसका मान सम्मान बढ़ गया ।जिला अधीक्षक की मीटिंग में भी वह पूरे जोश के साथ मुद्दे उठाती और बहस करती ।"मनरेगा में औरतों का योगदान "विषय पर प्रीति के भाषण ने उस की ख्याति   पूरे जिले में बढ़ा दी ।लेकिन प्रीति की ख्याति राजबीर के पौरुष पर आघात जैसे थी ।देखते देखते राजबीर का रवैया बदल गया ।बात बात पर प्रीति की बेइज्जती करने में उसे सुकून मिलता ।प्यार से प्रीति ने बहुत बार समझाया लेकिन पानी सिर के उपर से बहने लगा ।राजबीर कुछ सुनने और समझने की शक्ति खो चुका था ।

         घर में बिगड़ते माहौल को ठीक करने के लिए राजबीर की मम्मी ने उसे समझाने की कोशिश की ।लेकिन राजबीर उल्टा कहने लगा,"औरत तो खूँटे की बकरी " होती है ।शेरनी का स्वांग उसे रास नहीं आएगा । राजबीर की इस बात ने प्रीति को अंदर तक हिला दिया ।प्रीति ने भरे मन से राजबीर को पत्र लिखा ,"राज,मैं आप को बहुत प्यार करती हूँ लेकिन मेरी पहचान मेरा वजूद है ।जिस दिन आप ने मेरे वजूद को बराबरी दे दी, मुझे लेने आ जाना ।मैं जा रही हूँ ।यह बात भी समझ लो ,आज की औरत "खूँटे की बकरी "नहीं । 00

                      -   कैलाश ठाकुर 

                   नंगल टाउनशिप - पंजाब

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लघुकथा - 009


          आधा समोसा


   "ड्राइंग रूम में चलिए न, आपका भतीजा आया है।"

  " भतीजा मेरा है, पहले उसे मुझसे मिलने मेरे कमरे में आना चाहिए था। वह बाहर बैठा मजे से गप्पे लगा रहा है।"... राधेश्याम जी ने मुँह फुलाते हुए कहा।

    तभी गरम-गरम समोसे की खुश्बू हवा में तैरती हुई उनके नथुने में समा गई।

   " लगता है उसके लिए समोसा आया है। चलिए न हम लोग भी वहाँ चलते हैं। शायद हमें भी समोसा मिल जाए।"... पत्नी बोली।

    राधेश्याम जी भी समोसे खाने का लोभ संवरण न कर सके और दोनों पति-पत्नी ड्राइंग रूम में पहुँच गए। उन लोगों को देखकर उनके बेटे- बहुएँ और भतीजा क्षण भर के लिए थम गए। छोटी बहू ने उठकर दो प्लेट में एक समोसा को आधा-आधा करके उन्हें दिया। आधा समोसा देखकर उनकी पत्नी की आँखों में आंसू आ गए। राधेश्याम जी को मन हुआ कि वह प्लेट को पटक दें। लेकिन दोनों ने चुपचाप आधा-आधा समोसा खाया और अपने कमरे में आ गए।

   भतीजा जब जाने लगा तो प्रणाम करने के लिए उनके कमरे में आया ।

  "देखा तुमने उन लोगों का हमारे प्रति व्यवहार?"

  " चाचा जी, उन लोगों को आप दोनों की फिक्र है।"

  " फिक्र नहीं, वे लोग हम पर जुल्म करते हैं। मुझे आज भी इतना पेंशन मिलता है कि हम दोनों जी भर कर समोसा खा सकते हैं।अब तुम ये पैसे लो और शाम को हमारे लिए समोसे ले आना।"

  " आपके बच्चे मुझ पर गुस्सा होंगे ।"

   "आज हम दोनों का फुल-बॉडी चैकअप है। हमारे बच्चे साल में एक बार हमारा फुल-बॉडी चैकअप कराते हैं। तुम शाम में समोसे ले आना। अगर हमारे रिपोर्टर्स सही रहे तो आज हम दोनों पति-पत्नी जमकर समोसे खाएंगे।

    शाम में भतीजा समोसा लेकर आया तो घर में बड़ी शांति थी। उसने समोसे का पैकेट राधेश्याम जी की ओर बढ़ाया।

   " मैं समोसे नहीं खा सकता। मेरा कोलेस्ट्रॉल और शुगर बढ़ा हुआ है।"

   "और चाची जी कहाँ है?"

   आज उनका फुल-बाॅडी चैकअप में हार्ट ब्लॉकेज निकला। उन्हें अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती कर दिया गया है।"००

                       - रंजना वर्मा उन्मुक्त 

                            रांची - झारखंड 

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लघुकथा - 010


                 कर्ज़ 


आज दोस्त का शव आया था।तिरंगे में लिपटा हुआ।सेना के बड़े अधिकारी कंधा दे रहे थे।अपार जनसमूह उमड़ पड़ा था।सबकी आँखें नम थीं।

मैं अतीत में खो गया।दोस्त जब भी मुझसे मिलने आता,मैं अभिभूत हो उठता था।एक बार मैंने कहा भी था, "यार,तुम्हें वर्दी में देख मेरा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है।देश के लिए समर्पित भाव से तुम्हारी सेवा स्तुत्य है।"

"तुम लेखक हो न,इसलिए ऐसी बात सोचते हो",उसने बेहिचक जवाब दिया था,"मेरे भाई!यह सैन्य जीवन मेरी आजीविका है।इसी से परिवार की रोटी का जुगाड़ होता है, बस!इसके अलावा कुछ नहीं।"

मैंने अचरज से उसे देख छूटते ही कहा था,"मगर यह आजीविका तुम पर कर्ज़ है देश का।इसकी लाज रखना,मेरे दोस्त!"

मैंने उसका कंधा थपथपाया था।उसकी आँखें भीग गई थीं।

--और अख़बार की ख़बर पढ़ सचमुच मुझे दोस्त पर नाज़ हुआ था।गलवान घाटी में दुश्मन देश के कई सैनिकों को मारकर वह शहीद हुआ था।

मैंने भीड़ में घुसकर देखा।दोस्त का चेहरा दमक रहा था।ऐसा लग रहा था,मानो वह मुस्कराते हुए कह रहा हो,'मेरे भाई!मैंने अपना कर्ज़ चुका दिया है।'

मेरा दाहिना हाथ सैल्यूट की मुद्रा में उठ गया था।००

                   - भगवती प्रसाद द्विवेदी

                           पटना -बिहार 

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लघुकथा - 011


             छुपेरुस्तम


    मोहल्ले की मढ़िया के चबूतरे पर घनश्याम जी अपने परिचितों के साथ बैठे बातें कर रहे थे तभी उनके एक परिचित राधेलाल जी वहाँ आ गए और घनश्याम जी से कहने लगे,  " यार आपका परसों मरीजों को फल वितरण वाला कार्यक्रम तो बहुत शानदार रहा। मैंने अखबार में समाचार पढ़ा और फोटो भी देखीं।"

" हाँ यार! थोड़ा-बहुत जितना बन सकता है,  कभी-कभी कुछ जनहित के काम कर लेता हूं "- घनश्याम जी मन ही मन खुश होते हुए बोले।

" वो तो है। आपके इन कार्यों के समाचार और फोटो  अक्सर अखबार में पढ़ने मिल जाते हैं "- राधेलाल जी बोले।

बातें हो ही रहीं थीं कि वहाँ से उन दोनों के परिचित मिश्रा जी निकले। उन्हें देखकर घनश्याम जी बोले - " यार, इन मिश्रा जी को देखा। ये कभी किसी कार्यक्रम में नहीं आते।  इन्हें कभी कोई धरम-करम करते भी नहीं देखा और न ही कोई जनहित के कार्य करते किसी ने देखा। बस अपनी दुनिया में मस्त। देखो कैसे चुपचाप निकल गए।"

" सच कह रहे हो। मैने भी कभी नहीं देखा "-राधेलाल जी ने हाँ में हाँ मिलाई।

" ऐसा नहीं है। वे बहुत नेक दिल इंसान हैं। मेरे पोते की फीस वही जमा करते हैं " -  वहाँ बैठे एक गरीब बुजुर्ग बोले।

"हाँ, मुझे भी कई बार दवाओं के लिए रुपए दिए हैं और डॉक्टर के पास भी ले गए हैं " एक और सज्जन बोले।

" मेरी भी अक्सर मदद करते रहते हैं " - एक और सज्जन बोले। 

परंतु , मुझे कभी अखबार में पढ़ने नहीं मिला  "- घनश्याम जी बोले।

ये भी उनकी विशेषताता ही समझिये कि उन्होंने कभी अपने नेक कामों का प्रचार-प्रसार नहीं चाहा। "- चबूतरे पर बैठे लोगों में से कोई बोला।

" मानगए। मिश्रा जी तो छुपेरुस्तम निकले " -  कहते हुए घनश्याम जी, राधेश्याम जी के साथ वहाँ से निकल गए।००           

                        - नरेन्द्र श्रीवास्तव

                      गाडरवारा - मध्यप्रदेश 

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लखनऊ - 012


                 मुक्ति


तीस साल की नौकरी से  रिटायर  होकर एक सुकून था कि सतत संघर्ष  के बाद अब जीवन  आराम से कटेगा। पेंशन  से  सभी काम बन पड़ेंगे। 

एक शिक्षक  होने के नातें  आदर सम्मान  हमेशा  मिला था और खुद  पर गर्व भी था।

मगर  तीन चार महीने  से पेंशन  के लियें चक्कर  लगा लगा कर थक गई।  

बेटे के साथ आज फिर आफिस  आई थी इसी उम्मीद  से कि आज कुछ  भी हो जायें  काम करवा कर ही जाना हैं। 

खैर  काम निपटा कर घर पहुँचे भी ना थे कि फोन में  पहली पेंशन  आ गई बेटे ने मुस्कुराते  हुए  कहा "देखा मम्मी  पैसे देकर ही पैसा मिलता हैं,  अजब हैं  ना, पता नही कब हमारा  देश  इस बिमारी  से मुक्त  होगा" ००

                         - अपर्णा गुप्ता 

                      लखनऊ - उत्तर प्रदेश 

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लघुकथा - 013


           रील की दुनिया


प्रतिदिन की तरह आज भी सुबह दुकान खोलते समय रमेश ने दिन की शुरुआत करते हुए मोबाइल स्टैंड सामने रखा । उस पर मोबाइल रखते हुए वह बुदबदाया- ‘आज कुछ अलग और नया धांसू कंटेंट डालना है।’

 पास बैठी आठ साल की बेटी ने कहा - ‘पापा, आज स्कूल की कविता सुनाऊँ?’

 रमेश मुस्कराकर  बोला- ‘ रुको बेटा, कैमरा ऑन कर लूँ... ‘क्यूट गर्ल रेसाइट्स पोएम’  बढ़िया टाइटल रहेगा।’

 बेटी खिलखिलाकर हँस दी, फिर धीमे से बोली - ‘पापा, स्कूल का असली फंक्शन कब होगा?’

 रमेश रील बनाने में खोया रहा। बेटी मायूस हो गई। 

थोड़ी देर बाद पत्नी आई - ‘खाने की थाली लगा दूँ?’

 ‘हाँ, पर पहले रील बना लूँ, आज की थाली खूब व्यूज़ लाएगी। इसमें स्पेशल डीश जो है।’

 पत्नी बिना कुछ कहे लौट गई।शायद रूठ गई थी।

दोपहर को ग्राहक आया - ‘तेल की आधी बोतल और पांच किलो आटा चाहिए।’

 रमेश रील बनाते हुए बोला- ‘दो मिनट ठहरो भाई, ये डायलॉग जोड़ लूँ - ‘आज देखो कितनी महंगाई बढ़ गई!’

 ग्राहक झुँझलाकर चलता बना और रमेश  उसे जाते हुए देखकर बुदबुदाया - ‘लोग अब समझते ही नहीं, ट्रेंड कैसे बनता है…’

शाम ढली तो सड़क पर शोर हुआ।

 एक बाइक फिसली और युवक लहूलुहान पड़ा हुआ था।लोगों की भीड़ जुट गई, किसी के हाथ में पानी नहीं था, सबके हाथ में मोबाइल थे जिनमें रमेश भी  था - ‘यह तो ट्रेंड करेगा,’ कहकर उसने रिकॉर्ड बटन दबाया।अगले ही पल युवक की साँस थम गई और वहां सन्नाटा छा गया। फिर भी लोग रील बनाने में व्यस्त थे।लेकिन रमेश के हाथ काँपे, मोबाइल गिर पड़ा।स्क्रीन पर चमका - ‘वीडियो सेव्ड।’उसका घुटा स्वर निकला - ‘रील बन गई… पर आदमी नहीं बच पाया।’

रात को रमेश घर पहुँचा तो बेटी इंतज़ार में थी - ‘पापा, कल पार्क चलेंगे ना?,वहां बहुत सी रील बनाएंगे। रमेश का सिर झुका हुआ था।मोबाइल की स्क्रीन पर वही रील चल रही थी । एक आदमी मदद करने की जगह वीडियो बना रहा था।

 रील की दुनिया से वह बाहर आया,उसने मोबाइल बंद किया, पर रील उसके भीतर फिर भी चल रही थी। ००

                     ‌   - डॉ प्रदीप उपाध्याय 

                           देवास - मध्यप्रदेश 

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लघुकथा - 015


                 छद्म 

            

शहर के नेता नरेश भान ने शाम को अपने दोनों बेटों को बुलाकर कहा-" कल के बंद की अगुवाई करने का जिम्मा संगठन ने मुझे सौंपा है।

 कल हम सुबह 11:00 बजे चौक से इकट्ठे होकर जुलूस का आयोजन करेंगे और फिर जुलूस शहर की गलियों से गुजरता हुआ डी सी कार्यालय में मांग पत्र के साथ संपन्न होगा।"

इसके बीच भीड़ उग्र हो गई तो..?युवा बेटे ने कहा ।

"तब वहीं जुलूस खत्म समझो।

 गिरफ्तारियां होंगी हम नेता हैं और हम गिरफ्तार हो जाएंगे। नेता ने मुस्कुरा कर जवाब दिया ।

परंतु आप दोनों इस शहर में नहीं रहेंगे । आप दोनों कल दूसरे शहर चले जाएंगे। 

कल को आपका करियर भी तो देखना है। कहीं अरेस्ट-वेस्ट हो गए तो दिक्कत हो जाती है।

हर जगह करेक्टर प्रमाण पत्र की जरूरत पड़ती है ।

अच्छे करियर के लिए पुलिस में कोई केस नहीं होना चाहिए।" दोनों बेटे अपने पिता की बात मानकर दूसरे शहर चले गए ।

दूसरे दिन सुबह जुलूस निकला।

नेताजी के साथ जुलूस वाली शाम तक कई युवा गिरफ्तार हो गए थे ।

उनमें बहुत से युवा पढ़े-लिखे डिग्री धारक थे । सैंकड़ों युवाओं के साथ गिरफ्तार नेताजी का जोश देखते ही बन रहा था ।

वह युवाओं से अपने हक के लिए मर मिटने का आह्वान कर रहे थे ...।

मानो उनका यह आह्वान अपने बेटों के भविष्य के लिए ही हो...। ००

                          - अशोक दर्द 

                  डलहौजी - हिमाचल प्रदेश

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लघुकथा - 016


             सिकंदर 


तालियों की गड़गड़ाहट से बेख़बर माँ , केवल संकल्प को निहारे जा रही थी । जब वह गाए जा रहा था , तब उसकी निहार से बरसता आशीर्वाद , सभी महसूस रहे थे । संकल्प का चुनाव हो गया था । 

लेकिन माँ के सामने वह दृष्य एक के बाद एक आते जा रहे थे , कि कैसे उसनें घरों में काम कर करके संकल्प को बड़ा किया और उसकी संगीत साधना को भी । उसने तब भी उसे टूटते - टूटते , खड़ा किया , जब उसके मना करते रह कर भी संकल्प ने अपने खोए पिता को ढूँढ निकाला । उस पिता ने मुँह बिचकाते , घृणा से थूकते कहा , “ जा , चला जा , तू तो मेरी औलाद ही नहीं है ।” 

“ आपने जीवन में बहुत कुछ झेला होगा ?” एक्सपर्ट ने माँ से पूछा ।

“ मैं उसे झेलना नहीं , प्रकृति का नियम कहती हूँ । जब तक आप टूट कर बिखरोगे नहीं , नया अंकुर बनेगा कैसे ? बादल फटता है तो बारिश होती है , लोगों को बहुत शांति मिलती है । इस लिए वो झेला नहीं मैंने , वह होना ही था । “ 

तभी दूसरे एक्सपर्ट ने कहा , 

“ जो सुरों को बारीकी से जान जाए उसे धुरंधर कहते हैं , और जो गिर कर खड़ा हो जाए , उसे सिकंदर कहते है ।” 

माँ अपने सिकंदर को देख - देख निहाल थी । ००

                          - डॉ आदर्श प्रकाश 

             उधमपुर - जम्मू और कश्मीर 

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लघुकथा - 017


              हरकत


 सुरेश का सबसे बड़ा पुत्र कॉलेज में पढ़ रहा था धीरे धीरे उसकी दोस्ती कुछ आवारा किस्म के लड़कों से हो गई यह लड़के कोई और नहीं बल्कि सहपाठी ही थे दिन भर सिगरेट पीना कॉलेज टाइम में फिल्में देखना राह चलती लड़कियों पर फिकरे क सना उसकी आदत में शुमार था

 एक दिन राज जब कॉलेज से घर आया तो अपने पड़ोसी मिस्टर शुक्ला की नाबालिग बेटी से छेड़छाड़ कर बैठा इस बात को लेकर खूब हंगामा हुआ लड़की के भाई ने राज की जमकर पिटाई की एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते थे राज की हरकत ने दोनों परिवारों के बीच भाईचारा तथा आपसी प्रेम भावना को हमेशा हमेशा के लिए समाप्त कर दिया था ००

           -  हरज्ञान सिंह सुथार हमसफर

                      फतेहाबाद - हरियाणा 

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लघुकथा - 018


           दीये का प्रकाश


चारों ओर दीवाली की धूम थी।आसपास बनी ऊँची-ऊँची बिल्डिंगें और कतार में खड़े गगनचुंबी अपार्टमेंट्स झालरों की जगमगाती रोशनी से नहाए हुए थे। बाजार में अभी भी चहल-पहल थी। सड़क के किनारे फल-मिठाई-सजावट के सामानों की दुकानें रंग-बिरंगे बल्बों से सजी हुई थीं। शाम ढल रही थी और लोग दीवाली की बची-खुची खरीददारी में लगे हुए थे।

                   अपनी झोपड़ी के सामने एक टोकरी में मिट्टी के दीये लिए बैठी कमलिया राह से गुजरने वालों को याचना भरी नजरों से देख रही थी और सोच रही थी कि कुछ और दिये बिक जाते, तो बच्चे के लिए कुछ पटाखे खरीद लेती।  सुबह से जिद किए जा रहा है मनुआ। मगर इलेक्ट्रॉनिक लाईटों के जमाने में अब दीये खरीदता भी कौन है ? न तो छतों की मुड़ेरों पर अब दीपमालाएँ सजती हैं, न ही कुम्हारों की मेहनत का अब कोई मोल रह गया है ? 

                      मनुआ बगल में चुपचाप बैठा कभी माँ की ओर, तो कभी आने - जाने वाले लोगों को देख रहा था।

                 अँधेरा बढ़ने लगा तो कमलिया उठकर दीया जलाने झोपड़ी के अंदर चली गयी। तभी अचानक पावर कट हो गया और चारों ओर घटाटोप अँधेरा छा गया। ऊँचे-ऊँचे मकान और गगनचुंबी इमारतें अँधेरे में कहीं खो गयीं।

             थोड़ी देर में कमलिया हाथ में दीया जलाए झोपड़ी से बाहर आई। मिट्टी के दीये की रोशनी ने धुप्प अँधेरे को चीर दिया।

                  मनुआ ने सिर घुमाकर एक बार अँधेरे की ओर देखा, फिर माँ के हाथ में जगमगाते दीये को...और खुशी से झूमकर नाच उठा, और बोला - माँ, मुझे पटाखे नहीं चाहिए। ००

                          - विजयानंद विजय 

                              नालंदा - बिहार

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लघुकथा - 019


             चंचल मन


आयु के साथ बसंत सा चंचल मन की सदायें सदा ही तड़फाये।

लीना इंडियन एयरलाइंस में एयर होस्टेस है।वह  देश विदेश की सैर करना चाहती थी,अतः उसने अपने ख्वाबों को पूरा करने के लिए इसी का प्रशिक्षण लिया और इंडियन एयरलाइंस में एयर होस्टेस बन गई । लीना की एयरलाइंस में एयर होस्टेस। उसके सपनों का जॉब है ।उसके सपनों के संसार में रीमेश जुड़ गए,वो इंडियन एयरलाइंस में पायलट है।जब भी कभी दोनों की फ्लाइट साथ होती ,मिलते । एक दूसरे को देखना, फिर दोस्ती फिर प्यार । दोनों की जोड़ी खूब जचती थी. रीमेश मज़ाकियाँ  स्वाभाव का था कोई न कोई  मज़ाक करता रहता कभी मज़ाक लीना को सताता कभी उल्लू बनता।  पर फिर भी दोनों एक दूसरे के साथ साथ बहुत खुशी महसूस करते।लीना के माता-पिता विवाह का सुझाब देते रहते पर लीना इस बात को अभी समय देना चाहती थी. एक दिन बातो -बातों में माँ की विवाह की बात भी वता दी। रीमेश लीना के लिए महंगे महंगे उपहार लाता।उसकी अच्छी से अच्छी चीजें खरीदना, खर्च करना, और उसकी यह आदत दिन-ब-दिन बढ़ती ही जा रही थी। लीना समझती " ,एक दूसरे का साथ, एक दूसरे का प्यार, एक दूसरे का विश्वास, सहयोग, अपनापन, जीवन को चलाने के लिए यही काफी है। समय गुजर रहा था।शिशिर ऋतु जा चुकी थी ,और ऋतुराज वसंत का आगमन हो चुका था.वह एक मध्यमवर्गीयपरिवार की सहज और सरल लड़की है। उसने आकाश में उड़ने के सपने जरूर देखें, लेकिन वह जमीन को भी नहीं भूली है।रीमेश के प्रेम में चरमसीमा पर उड़ते देख  उसका जमीर कांप उठा, और क्या करें? क्या नहीं? लेकिन दिल और दिमाग की लड़ाई में दिमाग जीतता हुआ नजर आ रहा था। सच्चाई, वफादारी, देश प्रेम और नैतिकता ने उसे दुहाई दी, और वासंती शाम को देखते हुए वह शिकायत कक्ष की ओर चल पड़ी। सुंदर सुहानी शाम उसके सपनों को नहीं बचा सकी, दोनों ने कैंडल जगा सात फेरे से खुद के चंचल मन को शांत किया। ००

                                   - रेखा मोहन 

                            पटियाला - पंजाब

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लघुकथा - 020


         पिता की लाडली


इस बार मायके जाते हुए स्नेहा ने मन में ठान ही लिया था कि  अपनी भाभी से पूछकर ही रहेगी। आखिर हर बात में उनका "पापा की लाडली बेटी" बोलकर उसे बुलाना, उनका प्यार है या तंज, ये समझ में नहीं आता था।

                 वैसे तो भाभी बहुत अच्छी थीं और दोनों ननद-भाभी के आपस में संबंध भी स्नेहयुक्त ही थे। लेकिन भाभी की इस बात पर मन में हमेशा संदेह होता ही था। अभी पिछले सप्ताह भी पापा से फोन पर बातें करते हुए जब उसका मन भर आया और अपनी रुलाई रोक नहीं सकी, तब भी भाभी ने बाद में ऐसा ही कहा था।

                    स्टेशन से घर आते रास्ते में ही स्नेहा अपने मन में तानाबाना बुन रही थी कि इस संबंध में भाभी से बात करने की शुरुआत कैसे करेगी।

                  रात का खाना समाप्त कर जब दोनों ननद-भाभी छत पर बैठी सुकून से बातें कर रही थीं, तभी बातों ही बातों में भाभी ने कहा-- 

"पापाजी प्यार तो मुझे बहुत करते हैं लेकिन उनकी लाडली तो बस आप ही हैं। दो वर्षों से मैं इनके साथ हूँ फिर भी, अभी तक मेरा नाम इनकी जुबान पर चढ़ नहीं सका है। जब भी पुकारते हैं पहले आपका नाम ही लेते हैं, फिर मेरा।"

      वैसे तो भाभी ने बड़े हल्के मन से ही सुख-दुख के आदान-प्रदान और आपसी बातचीत के क्रम में ये बातें कही थीं। लेकिन स्नेहा के मन का संशय अब दूर हो चुका था।      

           उसने भाभी के सामने इस बात को हल्के से लेते हुए ही हँसकर टाल दिया। लेकिन इतना समझ चुकी थी कि अब उसे भाभी से कुछ पूछने की नहीं बल्कि अपने पापा से ही बात करने की जरूरत है। उन्हें बताना होगा कि वे अब सिर्फ बेटी के ही पिता नहीं हैं, बहू के पिता भी बन चुके हैं। अब एक नहीं उनकी दो-दो लाडली हैं। ००

                           - रूणा रश्मि 'दीप्त'

        ‌                      राँची -  झारखंड

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लघुकथा - 021


                  कर्म 


रश्मि अपने सपने में भी नहीं सोची थी कि वह इतने बड़े घर की बहू बनेगी। वह काम की खोज में इस घर में आयी थी ताकि वह अपनी पढ़ाई के खर्चे को पूरा कर सकें  ।

रश्मि अपने काम से घर के लोगों का दिल जीत लिया था । इस परिवार के लोग उसे कहां काम वाली समझते थे ? उसकी खूबसूरती और मिलनसार स्वभाव से पूरा परिवार प्रभावित था । इन्हीं खूबियों के कारण एक दिन रमा जी बोली -" मैं ऐसी ही बहू की खोज में थी , जो मेरे घर को अच्छी तरह चला सकें। तुम में वो सारी खुबियां है। तुम गरीब की बेटी जरूर हो, लेकिन उच्च संस्कारों वाली हो । तुम मेरी नजरों में कभी काम वाली नहीं थी बल्कि मैं तुम्हें अपनी बहू के रूप में देखती थी। क्या तुम मेरी बहू बनोगी? "

" किंतु मेरे माता-पिता गरीब हैं और आप लोग अमीर। फिर एक गरीब की बेटी इतने बड़े घर की बहू कैसे बन सकती है? " रश्मि उदास स्वर में बोली।

" बड़ा या छोटा कोई नहीं नहीं होता। इंसान अपने कर्म से बड़ा या छोटा होता है। तुम गरीब की बेटी हो तो क्या हुआ? तुम में वो सारी खुबियां है, जो एक संस्कारी बहू में होनी चाहिए। मैं आज ही तुम्हारे मां - बाप से मिलकर शादी की बात पक्की कर दूंगी। यह शादी कैसे होगी यह मुझ पर छोड़ दो? रमा जी बोली।

और शादी की तारीख तय हो गयी । रश्मि अपने स्वभाव और कर्म की बदौलत बड़े घराने की बहू बन गयी । ००

                         - पुष्पेश कुमार पुष्प 

                                  बाढ़ -  बिहार 

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लघुकथा - 022


               देवदूत


झाड़ू लगाने वाली झुमरी जोर-जोर से  घंटी  बजा रही है।

अंदर से एक आवाज आई कौन है जोर-जोर से घंटी क्यों बजा रहा है और सुबह सुबह मेरी नींद क्यों खराब कर दी,

चैन से मुझे सोने नहीं देता

राम किशोर ने गेट का ताला खोला।

तुम कौन हो और यहाॅं क्यों आई हो?

बाबा काकी से कह दो कि चाय पिला दे ठंड बहुत लग रही है?

रामकिशोर ने कहा -" काकी की तबीयत बहुत खराब हो गई है उससे शहर के बड़े अस्पताल में भर्ती कराया गया है,मैं कृष्णकांत का दोस्त हूं ।"

झुमरी ने गहरी सांस लेते हुए कहा - "बाबूजी एक ग्लास पानी तो पिला देना।"

रामकिशोर ने कहा- बेटा अंदर आकर पानी पी लो और चाय बनाओ तुम भी पियो और मुझे भी पिलाओ।

अरे बाबू जी आपने सुबह से कुछ नहीं खाया क्या?आपको तो बहुत जोर से खांसी आ रही है?

  माजी मुझे रसोई नहीं छूने देती   मैं बाहर  झाड़ू लगाती थीऔर कभी-कभी घर को भी झाड़ू पोछा लगा देती थी।

रामकिशोर ने कहा कोई बात नहीं बेटा अगर तुम्हारे पास समय हो तो चाय हम तुम दोनों पीते हैं और रोटी सब्जी बना दो तो मैं खा लूंगा क्योंकि मुझे खाना बनाना नहीं आता और यहाॅं किसी के टिफिन वाले को ढूंढने जा रहा था इस उम्र में घर का खाना ठीक रहता है पर क्या करूं मुझे कोई खाना देने वाला नहीं है।

  बाबूजी आप मेरे हाथ का खाना छुआ हुआ खाएंगे झुमरी ने धीमे स्वर में कहा।

रामकिशोर जी ने कहा हां क्यों तेरे हाथ में क्या खराबी है बाहर होटल में और टिफिन वाले क्या पता कौन हैं और उनकी जात क्या पता?

ठीक है बेटा तू मेरे लिए भगवान बन कर आई हो।

बाबा आप अपने घर में भी अकेली रहती हो झुमरी ने उत्सुकता में पूछा।

हां क्या करूं बेटा मेरे बेटा बहू बाहर विदेश में रहते हैं और मैं अकेला इस अपने घर में रहता हूं।

बाबा मैं आपके लिए अडूसा के पत्ते लेकर आता हूं। आपकी खांसी,बलगम, ज्वार और घुटनों का दर्द सब ठीक हो जाएगा।  

भगवान काकी को जल्दी अच्छा कर दे।

 झुमरी और काका दोनों की आंखों से आंसू निकल गए।

भगवान अच्छे लोगों को इतनी तकलीफ क्यों देता है झुमरी कहती कहती रसोई में खाना बनाने लगती है।

राम किशोर मन ही मन सोचते हैं कि भगवान सबका सहारा देता है इस बच्ची के कारण मेरी खांसी भी ठीक हो जाएगी। यह तो सचमुच देवदूत है। ००

                             - उमा मिश्रा प्रीति

                        जबलपुर - मध्यप्रदेश 

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लघुकथा - 023


            अन्तर्कथा


“ख़ुद से ख़ुद को पुनः क़ैद कर लेना कैसा लग रहा है?” माँ ने बिटिया से पूछा।

“माँ! क्या आप भी जले पर नमक छिड़कने आई हैं?” बिटिया ने कहा।

“तो और क्या करूँ? तुम्हारे प्रति दोषी होते हुए भी उस दुराचारी ने माफी नहीं माँगी और तुम पीड़िता होकर भी एफ.आई.आर. करने से बच रही हो…! जब मामला विश्वव्यापी हो रहा हो तो एफ.आई.आर. नहीं करना, कहीं न कहीं तुम्हारी विश्वसनीयता पर ही प्रश्नचिन्ह लगाता रहेगा!” माँ ने कहा।

“कैसे करूँ एफ.आई.आर.?” बिटिया ने पूछा।

“तो आगे भी सैदव अँधेरे में रहने के लिए तैयार रहो-, इस बार जाल में फँसी हजारों गौरैया-मैना की आजादी का फ़रमान जारी हो सकता था…! तुम उदाहरण बन सकती थी। लेकिन तुमने ही स्वतंत्रता और स्वच्छंदता की बारीक अन्तर को नहीं समझा।” माँ अफ़सोस प्रकट कर रही थी।

“माँ!” बिटिया बिन पानी मछली सी तड़प रही थी।

“तुम क़ानून-अनुशासन समझती नहीं हो या तोड़ना स्वतंत्रता लगता है?” माँ ने पुनः पूछा।

“माँ!” बिटिया पर बिजली गिरी थी।

“जब तुम पंजाब अपने घर में नहीं थी। तुम पटना/बिहार में थी, जब बिहार में शराबबंदी है तो तुमने मस्ती के नाम पर उसका उपयोग क्यों की? बात समझ में आई कि किसी-किसी दुर्घटना में अपनी भी नासमझी रहती है- जिसके कारण अपनी ही आवाज धीमी पड़ जाती है—!” माँ प्रश्नों के मशीनगन दाग रही थी।००

                      - विभा रानी श्रीवास्तव

                           बेंगलूरु - कर्नाटक 

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लघुकथा -‌ 024


              कठपुतली


     वह साहब का एहसानमंद था। साहब ने वक़्त- वक़्त पर उसका साथ दिया। उसकी आर्थिक मदद की। वैसे सभी लोग उन्हें साहब कहकर पुकारा करते थे। लोगों से मुफ्त में बेगार कराने में माहिर और सभी को अपनी कठपुतली समझने वाले साहब जब कभी उसे बुलाते। वह अपने सारे काम छोड़कर उनकी हाजिरी में हाजिर हो जाता। कभी उसने आनाकानी नहीं की। बुलाते ही गुलाम हाज़िर।

     आज उसकी बच्ची की तबीयत ज्यादा ही खराब थी। वह बच्ची को अस्पताल ले जाने के लिए सपत्नीक घर से निकला ही था कि साहब का फोन आ गया।

      " तुम इसी वक्त बंगले पहुंचो...। मेरा ड्राइवर बीमार हो गया है। वह छुट्टी पर है। हमें अभी अर्जेंट जयपुर जाना है। तुम इसी वक्त आ जाओ...।" 

     " साहब... मैं अभी नहीं आ सकता। मेरी बच्ची बीमार है। उसे अस्पताल ले जा रहा हूं। आप कोई दूसरा ड्राइवर देख लीजिए...।"

      यह सुनते ही साहब की त्यौरियां चढ़ गई। 

     " दूसरा ड्राइवर...!! अबे, तेरा दिमाग खराब हो गया है क्या...? अहसान फरामोश...। तेरी बच्ची ज्यादा अहमियत रखती है या मैं...?"

     " साहब...अभी तो अहमियत मेरी बच्ची की है...। मेरी जान है बच्ची...। यह पापा की परी है...।"

     अपनी बीमार बच्ची का मुरझाया चेहरा देखा और  उसने दृढ़ता से जवाब दे  दिया। इस कीमत पर तो वह  कठपुतली बने रह नहीं सकता...। कत्तई नहीं...। भीतर का ज़हन चींख पड़ा।००

                               - डाॅ रशीद ग़ौरी

                   सोजत सिटी - राजस्थान

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लघुकथा - 025


               झुरमुट


आई आई टी का पेपर था कल सो मंयक का मन अत्यन्त बैचेन और डरा हुआ था। बैचेनी उसे अपनी मेहनत को लेकर नहीं थी,बैचेनी का कारण मम्मी-पापा की अत्यधिक उम्मीदें थी। इसी विकलता में वह घर के बाहर बने लॉन में घूमने लगा था। टीचर बनने की उसकी सुप्त आकांक्षा भी अब उसके साथ-साथ ही घूमने लगी थी। 

उसे याद हो आया कि ग्यारहवीं क्लास में जब उसने टीचर बनने के अपने सपनें को पापा से बताया था तो किस प्रकार पापा पहले तो खूब हसे और फिर यह ऐलान ही कर दिया था कि आई आई टी ही करनी है। इसके अलावा कुछ नहीं।

पापा के इस ऐलान से उसमें उसका अपना कुछ नहीं रह गया था अत: उसने अपने सभी सपनों को खुरच-खुरच कर अपने से अलग किया और घायल मन से पापा के सपने को पूरा करनें जुट गया था। अब नींद उसकी होती थी और नींद में सपना पापा का होता था। उसकेे अपने सपने का तो उसकी नींद में भी प्रवेश वर्जित था।

अचानक लाठी की आवाज से उसका मन फिर आज में लौट आया था। मंयक ने देखा कि एक बुढिया लाठी टेकती हुयी बॉउन्ड्री के बाहर बने लाल गुडहल के फूलों से भरे झुरमुट की ओर आ रही थी। उसने पहले तो नीचे ही लग रहे फूलों को तोडा,फिर लाठी के सहारे ऊपर की डालियों को पूरी तरह झुका कर उनके फूलों को तोडा। आगे से-पीछे से,ऊपर से-नीचे से,इधर से-उधर से सभी जगह से फूल लेने के लिये आतुर उसने फूलों के झुरमुट को बुरी तरह झकझोर दिया था और फूल लेकर चली गयी थी। 

मंयक ने देखा कि अभी तक भरे फूलों से खिलखिलाता-सा,अपनी ही मस्ती में मस्त यह झुरमुट अब फूलो से खाली कान्तिहीन,बेतरह अस्त-व्यस्त, अपनी ही डालियों में उलझा-सा और बुरी तरह थका हुआ-सा,बहुत उदास प्रतीत हो रहा था।अनावश्यक ही किसी की आंकाक्षाओं का शिकार बना कैसा मुरझा गया था यह झुरमुट।

मंयक को लगा कहीं वह भी यह झुरमुट ही तो नहीं? ००

                    ‌     - अंजना मनोज गर्ग 

                             कोटा - राजस्थान

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लघुकथा - 026


          घर का टूटना


मैंने घर में जैसे ही कदम रखा, पापा के कमरे से उनके ठहाकों की आवाज़ सुनाई पड़ी। ओह, आज फिर अरुणा आंटी आईं हैं। पापा इस शहर के जाने-माने साहित्यकार हैं और आंटी कविताएं लिखती हैं। साल भर से आंटी हमारे घर चाहें जब, टाईम-बेटाईम आ धमकती हैं, घंटों पापा के साथ उनकी जाने कौनसी साहित्यिक चर्चा होती है? और मम्मी बिचारी इनके लिए चाय-नाश्ता,और खाना बनाने में व्यस्त हो जाती हैं। मुझे तो चिढ़ होती है आंटी से। पापा को देखो कैसे उनकी सेवा-टहल में लगे रहते हैं, मम्मी से तो कभी इतना हँसकर नहीं बोलते देखा मैंने उनको।

"गुड़िया, आ गयी बेटा स्कूल से?" मम्मी ने शायद टेबल पर मेरे बैग रखने की आवाज़ सुन ली थी।

"मैं तेरे लिए खाने की थाली लगा रही हूँ, हाथ मुँह धोकर, आ जा जल्दी से।"

"ओहो!खीर बनी है... किसके स्वागत में?" मैंने डाईनिंग टेबल के करीब चेयर खिसकाते हुए पूछा।

" तेरे पापा का मन था खीर खाने का।"

"पापा का मन था या....?"

मम्मी कुछ नहीं बोलीं केवल मुस्करा कर रह गयीं, मैं जानती थी इस मुस्कराहट के पीछे का दर्द।

" मम्मी, क्यों बनावटी मुस्कराहट का मुखौटा लगाए रखती हो हरदम?... उतार के फेंक क्यों नहीं देतीं।...मैं तुम्हारे साथ हूँ।"

" तू नहीं समझेगी।" 

"टेंथ में पढ़ रही हूँ, बच्ची नहीं हूँ।"

" घर को टूटने से बचाने के लिए मेरा मुखौटा लगाए रखना जरूरी है बेटा।" ००

                                  - सुनीता मिश्रा

                          भोपाल - मध्यप्रदेश 

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लघुकथा - 027


           खिलौने वाला 


                खिलौने वाला ज्यों ही जाने को तैयार हुआ , उसकी छोटी बेटी ने साहस बटोरते हुए धीरे से कहा - ' बापू ! '

              ' हां ! बोल बेटा ! ' खिलौने वाले ने उसका माथा चूमते हुए कहा ।

               ' बापू ! मुझे भी खेलने के लिए ऐसा खिलौना चाहिए । ' उसने एक खिलौने की ओर ऊंगली से इशारा करते हुए कहा ।

              ' बेटा ! यह खिलौना तेरे खेलने के लिए नहीं , बेचने के लिए है । ' उसने बेटी को अपनी मज़बूरी बताते हुए कहा ।

              ' बापू ! मेरी भी तो इनसे खेलने की उम्र हैं । क्या , मेरा बचपन खिलौनों से खेले बग़ैर यों ही काम करते हुए गुज़र जाएगा.....? ' उसने रूठते हुए पूछा ।

            ' बेटा ! ऐसी बात नहीं है । पर ..... बेटा ! यदि इनमें से एक भी खिलौना तुझे खेलने के लिए दे दिया तो.....शाम को हमारे घर चूल्हा नहीं जलेगा । ' उसने बेटी को समझाते हुए अपनी मज़बूरी बताई । इतना कहते-कहते उसकी आंखें छलछला आईं ।

              और इसतरह एक बार फ़िर...... बचपन........पिचके हुए पेटों से हार गया । ००

               -  अशोक आनन 

              मक्सी - मध्यप्रदेश 

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लघुकथा - 028


          प्रेम की ताकत


गांव के चबूतरा पर एक लड़का मैला -कुचैला कपड़ा पहन कर खुद में खोया हुआ दिनभर बैठा रहता था। 

चबूतरा के पास ही चाय का दुकान था। वहां गांव के लोग चाय कम पीने आते, ज्यादा गप्पे लड़ाने आते थे। उस लड़का का वेशभूषा देखकर  उसे पगला बोलते थे।

वो लड़का अचानक कुछ दिनों से ग़ायब हो गया। चाय की चुस्की लेते हुए एक आदमी बोला , अरे आजकल पगला दिख नहीं रहा है।

कुछ महिना  बाद वो लड़का दिखा। आज तो वो लड़का राजकुमार जैसा लग रहा था। गांव के लोग को आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा, अचानक इसमें बदलाव कैसे ? उसके दोस्त से पूछा। ये इतना बदला कैसे?

उसका दोस्त बोला इसको एक लड़की से प्यार हो गया है।००

                                - प्रेमलता सिंह

                                 पटना - बिहार

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लघुकथा - 029


          धर्म की दीवार


जय और नाजिया रंगमंच की दुनिया के चमकते सितारे थे।वे वर्षों से नाटकों में साथ काम करते आ रहे थे--एक दूसरे क़े संवादो में लय की तरह समाए हुए।

जब वे फिल्मी पर्दे पर आए, तो उनकी जोड़ी दर्शकों के दिल मे बस गई।हर निर्माता उनकी केमेस्ट्री का कायल था,हर नई फिल्म में वे दो नाम बार बार दोहराए जाते थे।

इस साथ ने कब जय के मन मे नाजिया के लिए प्रेम का रंग घोला, उसे स्वयं भी पता न चला।

एक दिन जब शूटिंग के बाद वे अकेले बैठे थे, जय ने संकोच भरे स्वर में कहा--

"नाजिया  मैं तुमसे बेहद मोहब्बत करता हूं।मै तुमसे शादी करना चाहता हूँ।"

नाजिया ने शांत निगाहों से उसकी ओर देखा।कुछ पल बाद वह बोली-"मै तुमसे निकाह करने को तैयार हूं, लेकिन मेरी एक शर्त है।"

"शर्त,"जय ने उत्सुकता से पूछा,"कैसी शर्त?"

",तुम्हे मेरा धर्म स्वीकार करना होगा।"

जय उसकी बात2सुनकर क्षण भर को2उत्सुक रह गया, फिर धीरे से बोला"नाजिया शादी औरत आदमी के बीच का बंधन होती है, धर्मो की दीवार नहीं।हम2पति पत्नी बनकर भी अपने अपने धर्म का पालन कर सकते हैं।"

नाजिया की आंखों में हल्की नमी थी,पर स्वर दृढ़--"नहीं जय,मैं अपनी आस्था से समझौता नही कर सकती। मै शादी उसी से करूंगी, जो मेरे धर्म का हो,या मेरे धर्म को माने।तुमसे भी तभी, जब तुम मेरी शर्त स्वीकार करो।"

जय का दिल जैसे किसी बोझ से दब गया हो।क्षण भर मौन रहने के बाद वह  उठा औऱ गहरी सांस लेने के बाद बोला-

"माफ करना नाजिया-मै तुम्हारी शर्त नहीं मान सकता।प्यार में शर्त नहीं होती-और आस्था में मजबूरी नहीं।"

वह धीरे धीरे चला गया।पीछे छूट गई नाजिया-और उनके बीच खड़ी दीवार। ००

                          - किशन लाल शर्मा

                         आगरा - उत्तर प्रदेश 

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लघुकथा - 030


         सोच का दायरा   


" मंगल ! मुझे मालूम था तुम हर बार की तरह इस बार भी दुकान जरूर लगाओगे , लाओ  इक्कीस दीये दे दो।"

" जी साहब।"

" अरे जग्गू बेटा ! साहब जी को इक्कीस दीये देना।"

 दस वर्षीय जग्गू के चेहरे पर असीम मुस्कुराहट हाथ मे दियो का पैकेट-

" लिजिए अंकल !  पूरे इक्कीस दीये रख दिए हैं।"

" शाबाश बेटा ! यह लो रुपए, पढ़ते हो ?"

"जी अंकल ! पांचवी कक्षा मे हूं।"

" बहुत बढ़िया , मन लगाकर पढ़ाई करना नही तो अपने पिता की तरह ही जिंदगी भर कुम्हार का काम करते रह जाओगे।"

" जी अंकल!"

दीये का पैकेट ले प्रमोद ने जैसे ही स्कूटर स्टार्ट की उसी वक्त मंगल उनके करीब आ हाथ जोड़ कहने लगा-

" माफ करिएगा साहब जी ! आपसे एक बात कहना चाहता हूं।"

" हां-हां कहो "

"साहब जी !आज जो बात आपने जग्गू से कहीं फिर कभी मत कहिएगा ।"

" क्यों , मैंने ऐसा क्या कह दिया  जिससे तुम्हें बुरा लगा ?"

 " आपने एक बात तो बहुत अच्छी कही कि खूब मन लगाकर पढ़ाई करना किंतु साथ ही आपने यह भी कहा कि- 'नहीं तो मेरी तरह कुम्हार बनकर रह जाएगा' इस तरह की बातें बच्चों के मन पर गहरा प्रभाव डालती है उनके मन में अपने पैतृक व्यवसाय के प्रति हीनता के भाव जन्म लेने लगते हैं बड़े होकर खुदा ने खास्ता उसकी कहीं नौकरी नहीं लगी तो वह तनाव में कोई गलत कदम उठा सकता है  यदि वह पैतृक व्यवसाय से जुड़ा रहेगा तो अपनी रोज रोटी कमा ही लेगा इसीलिए मै  स्कूल की छुट्टी के दिन इसे अपने साथ कुछ समय के लिए लेकर आता हूं  ताकि वह अपने पैतृक व्यवसाय को समझ सके उसका सम्मान करे।"

मंगल के विचार  सुन प्रमोद का मुंह आश्चर्य खुला का खुला रह गया। मन ही मन सोचने लगा कितनी सकारात्मक सोच है मंगल की, काश! यही सोच आम जनों में भी व्याप्त हो जाए। ००

                                       - मीरा जैन

                            उज्जैन - मध्यप्रदेश

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लघुकथा - 031


         सर्वधर्म समभाव 


" देख भाई ! वो क्या करते हैं और क्या नहीं , मुझे इससे कुछ भी लेना - देना नहीं है । " 

" तू क्या इस देश का नागरिक नहीं है ? " 

" क्यों नहीं हूं , बिल्कुल हूं , जन्म से हूं ।" 

" तेरे देश में इतने लोगों की राह चलते हत्या हो जाय और तुझे उससे कोई मतलब ही न रहे ?  देश का कैसा नागरिक है तू ? "

" जैसा तू है , वैसा ही मैं भी हूं ।"

" नहीं ! मैं तो इस जेहादी दरिंदगी के विरुद्ध हूं और इन हत्याओं से आहत भी हूं ।" 

" होता रह । यह काम सरकार का है कि वह उन लोगों का पता लगाए, जिन्होंने यह कुकृत्य किया है । उन्हें सजा दे या न दे , यह भी सरकार ही जाने । " 

" देश का नागरिक है तू । इस विषय में तेरी भी तो कुछ राय होनी चाहिए।" 

" मैं सर्वधर्म समभाव में यकीन करता हूं । मैं तो यही जानता हूं कि जो जैसा करेगा , वैसा भरेगा भी ...।" 

वो अभी अपनी बात पूरी कर ही रहा था कि एक पत्थर आया और उसके चेहरे को उसके ही लहू से लहू - लूहान कर गया । 

चोट के साथ दर्द इतना दर्दनाक था कि वह कुछ भी कहने - सुनने की हालत में नहीं बचा । ००

                       - सुरेंद्र कुमार अरोड़ा 

                   साहिबाबाद - उत्तर प्रदेश 

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लघुकथा - 032


               भीड़ 


 ऑटोरिक्शा में बैठा कहीं जा रहा था। देर हो रही थी, इसलिए मैंने ड्राइवर को ज़रा तेज़ चलाने के लिए कहा। मेरी बात सुनकर वह दाएँ-बाएँ देखते हुए कहने लगा, "बाऊजी, भीड़ ही इतनी ज्यादा है। तेज चलाएँ भी तो कैसे!"

ड्राइवर की बात सुनकर मैं चुप रहा, कुछ बोला नहीं।

 तभी ड्राइवर फिर से कहने लगा, "इतने लोग मर गए क्रोना से, पर भीड़ फिर भी कम नहीं हुई।"

ड्राइवर की बात मेरे दिल में कटार की तरह चुभी। मेरी आँखों के आगे अपनी युवा  बेटी का चेहरा घूम गया, जो कुछ साल पहले कोरोना की चपेट में आकर यह दुनिया छोड़ गई थी। मेरी आँखें भर आईं। पनीली आँखों से मैंने बाहर की तरफ़ देखा। मुझे सब ख़ाली-ख़ाली-सा लगा। कोई भीड़ नज़र नहीं आई। ००

         - हरीश कुमार 'अमित'

            गुरुग्राम - हरियाणा

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लघुकथा - 033


 ‌‌      आ अब लौट चलें


पापा को चिर निद्रा में सोए तेरह दिन हो गए थे। रीति-रिवाजों के साक्षी बने लोग जा चुके थे और घर में बची थी एक गहरी उदासी। मुझे जाने की तैयारी करते देख छोटा भाई और उदास हो गया। "वापिसी की तैयारी कर रहे हो भैया, कुछ दिन और ठहर जाते?"

"नहीं छोटे अभी रुकना मुश्किल है, लेकिन मैं लौटकर आ रहा हूँ। तुझे अब अकेला नहीं छोडूंगा। और देखना तुम, हम पापा की ज़मीन छुड़ा लेने की इच्छा भी जल्दी ही पूरी कर लेंगें।"

"पर कैसे बड़े भैया, पहले ही इतना कर्ज है और. . .!" उसने अपनी बात अधूरी छोड़ दी थी।

"तू परेशान मत हो छोटे, सब ठीक हो जाएगा। वो कहते हैं न, जब शरीर के किसी हिस्से की बीमारी बढ़ जाए तो जिंदा रहने के लिए उस हिस्से को काट देना चाहिए।"

"मैं समझा नहीं भैया, क्या कहना चाहते हैं आप?"

"भाई, अब आगे खेती के लिए न तो हम कोई 'केमिकल फ़र्टिलाइज़रस' प्रयोग करेंगे और न ही खेती के लिए किसी तरह का कोई कर्ज लेंगें?"

"तो बड़े भैया, फिर खेती कैसे करेंगे? उसकी सवालिया नजरें मेरी ओर थी।

"देख छोटे, खेती तो तब भी होती थी, जब ये रासायनिक खादें और ज़हरीले कीटनाशक नहीं होते थे। गोबर हमारे लिए खाद का काम करता था और नीम, हल्दी, लहसुन जैसी चीज़ें हमारे लिए कीटनाशक बन जाती थी। लेकिन हम अपनी ही जड़ों से कटकर आधुनिक बनने के नाम पर महँगे साधनों की ओर बढ़ते गए, और अनचाहे ही कर्ज़ों के मायाजाल में फसते गए।

"पर बड़े भैया अब ये तरीके कौन अपनाता है? और इन्हें इस्तेमाल करना भी तो मुश्किल है।"

"कुछ मुश्किल नहीं है छोटे, ये जैविक खेती अपने देश में ही नहीं बाहर भी बहुत इस्तेमाल हो रही है। और पापा चाहते थे न कि मैं गाँव में रहकर कुछ करूँ, तो मैं अब गाँव में रहकर ही जैविक संसाधनों को बनाने के साथ इनके इस्तेमाल के लिए भी गाँव वालों को ‘ट्रेंड’ करूंगा और हम मिलकर अपनी खेती भी जैविक संसाधनों से ही करेंगें।

"लेकिन नौकरी छोड़कर ये सब. . . इतना आसान है क्या बड़े भैया?"

"छोटे आसान तो नहीं है, लेकिन मेहनत के रास्ते तो हमेशा मुश्किल होते हैं। और सहज सुलभ मिलने वाले रास्ते तो अक़्सर हमें गहरे गड्ढों की ओर ले जाते हैं; जैसे पापा. . .”    कहते कहते मैंने बात अधूरी छोड़ दी। अनचाहे ही नजरों के सामने पापा की खेत में पेड़ से लटकी देह याद कर के हमारी आँखें झलक आईं थी। ००

                         - विरेंदर ‘वीर’ मेहता

                          लक्ष्मी नगर - दिल्ली

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लघुकथा - 034

           सूरज - चंदा


छः महीने के बेटे को गोद में लेकर माँ गा रही है, " मेरा सूरज है तू, "मेरा चंदा है तू..." रसोई में खाना पकाती माँ की तरफ एक उड़ती सी निगाह डाल कर बच्चे का पिता पत्नी और बेटे के पास जाकर पत्नी के सुर में सुर मिलाकर गाने लगता है, और मेरी आंखों का तारा..." खाना बनाती माँ के कानों में बेटे-बहू का समवेत स्वर गूँजता है, वह पच्चीस साल पीछे लौटकर ख्यालों में खोई रोटी जला देती है, जली रोटी की बू बेटे के कमरे तक चली जाती है, वह माँ पर बिफर पड़ता है, बेटे के शब्द सुनकर माँ बोली, " जब तू छः महीने का था न, मैं और तेरे पिता जी भी इसी तरह सुर में सुर मिलाकर गाते थे यह गाना, माँ की बात सुनकर बेटा पच्चीस साल आगे बढ़ गया । ००

                  - सरोज दहिया ' सरोज '

                   सोनीपत - हरियाणा 

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लघुकथा -  035


            मंगलदोष


रचना पढ़ी-लिखी, आत्मनिर्भर, सुंदर और बहुत ही सरल स्वभाव की लड़की थी। एक लिमिटेड कंपनी में बड़े पद पर कार्यरत थी। उसके मेहनत व लगन से काम करने और समय की समय की सही परख के सभी कायल थे । उसके माता-पिता भी अब ये चाह रहे थे कि रचना को कोई अच्छा घर - परिवार मिल जाये तो उसके हाथ पीले कर दूं ।माँ- पिता को संतान सुख से ही तो असली सुख मिलता है । एक अच्छे वर की तलास  शुरू हो गयी । कई रिश्ते आए, पसंद भी किया गया, लेकिन जैसे ही लड़केवालों को पता चलता कि रचना की कुंडली में मंगलदोष है, वे एक पल में पीछे हट जाते और शादी से इंकार कर जाते । माता - पिता को अब चिंताओं ने घेर लिया......कैसे समाज को समझाएँ की व्यक्ति के सही कर्म से हाथ की लकीरें भी बदल जाती है । हमारी रचना में क्या कमी है....कुंडली में मंगलदोष का अर्थ लोग किस तरह से लगाते है.....जबकि

रचना को समझ नहीं आता कि उसकी शिक्षा, संस्कार, आत्मनिर्भरता, सुंदरता और समझदारी की तुलना एक ग्रह से क्यों की जा रही है।

एक दिन उसके ऑफिस में नए प्रोजेक्ट हेड के रूप में प्रकाश की नियुक्ति हुई। दोनों ने साथ काम किया, दोस्ती हुई और फिर प्यार।

जब बात शादी तक पहुँची, रीमा ने झिझकते हुए कहा, "पर मेरी कुंडली में मंगलदोष है।"

प्रकाश मुस्कराया, "मैंने तुम्हारे साथ काम किया है, तुम्हारे विचारों को समझा है। मुझे किसी ग्रह की नहीं, तुम्हारे चरित्र की परख है। अगर कोई दोष है भी, तो वो इस समाज की सोच में है, तुममें नहीं।"

रीमा की आँखों में चमक आ गईआ और भावविभोर हो गयी । पहली बार किसी ने उसकी आत्मा को कुंडली से ऊपर रखा ।

 दोष व्यक्ति में नहीं, उसके सोच व नजरिए में होता है।००

                   - डॉ. अर्चना दुबे 'रीत'

                       मुंबई - महाराष्ट्र 

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लघुकथा - 036


         वृद्धों की संस्था



मोना सुबह के नौ बजे रास्ते में अपनी दोस्त सुनैना से मिल जाती है-"अरी सुनैना!कहाँ जा रही हो?"

सुनैना -"स्कूल जा रही हूँ।"

मोना असमंजस से पूछती है-"क्यों?"

सुनैना -"मेरी एक स्कूल में नौकरी लग गई है।"

मोना -"अच्छा।कब से?"

सुनैना -"हो गये तीन महीने।"

मोना -"तुमने बताया भी नहीं।ये तो बहुत ख़ुशी की बात है।अभी तक मैं ही पढ़ाती थी,अब से तुम भी पढ़ाती हो।मगर एक बात बताओ,माताजी का क्या हुआ?उनकी ही वजह से तो तुम स्कूल पढ़ाने नहीं निकल रही थी।"

सुनैना -"हाँ।सही बोली।अपने शहर में वृद्धों के लिए एक संस्था खुली है।माँ जी चार घंटे के लिए अब वहीं जाती हैं।"

मोना-"ये तो बड़ी अनोखी बात बतायी।वहाँ वो क्या करती हैं?"

सुनैना -"वहाँ बहुत सारे डिपार्टमेंट्स हैं।जैसे-संगीत का, नृत्य का,भजन का, वाद्य यंत्रों का, क्रिएटिविटी का ,इसी तरह के बहुत सारे और भी विषय हैं।जिसको सीखना है सीखे,जिसको सीखाना है सिखाए।माँ जी भजन बहुत अच्छा गाती हैं,वो वहाँ भजन सीखा रही हैं।योग- अभ्यास, प्राणायाम  इनमें सबके लिए जरूरी है।"

मोना -"वाह ।"

सुनैना -"हाँ मोना!अब माँ जी भी वहाँ जाकर खुश हैं और मैं यहाँ पढ़ाकर खुश हूँ।दोनों की समस्या का समाधान हो गया।"००

                 - वर्तिका अग्रवाल 'वरदा'

                   वाराणसी - उत्तर प्रदेश 

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लघुकथा - 037


                बल 


     रामदेव मंडी में फल बेचकर  अपने परिवार का गुजर बसर कर रहा था।  आज अचानक से रामदेव की तबीयत बहुत खराब हो गई। वह बहुत  चिंतित था , ' अब कैसे रोटी का जुगाड़ हो पाएगा। ' उसकी एकलौती संतान सुनैना ने पिता के  चेहरे पर चिंता का भाव को पढ़ लिया। उसने कहा- " बाबूजी, आज मैं दुकान पर चली जाऊंगी.. आप परेशान मत होइए।"

    तभी मां  ने कहा-" अरे बेटी , तू लड़की है..? कैसे बाजार में दुकान लगाएगी..? "

    " हां,बेटी, तुम्हारी मां ठीक कर रही है। लड़की देख लोग परेशान करते हैं...। और मोल -भाव भी करते हैं ।" पिता ने कहा।

   " बाबूजी, लड़कियाॅऺ अब आइसक्रीम नहीं रही । ऐसा कुछ नहीं होगा। और आप देखना.. मैं अच्छी आमदनी करके लौटूंगी।"

    "ठीक है बेटा! जा बेटी ... सूझ-बूझ के साथ काम करना..."                      " जी बाबूजी! आप भी अपना ख्याल रखना.... अपनी दवाइयां समय पर ले लेना।"

   सुनैना बाजार में दुकान लगा फल बेचने पहुंच जाती है। ग्राहक लड़की को देख फल की खरीदारी इसी से करने लगते हैं। भीड़ लग जाती है। इतने में एक दबंग नेता अपने बॉडीगार्ड के साथ गाड़ी से उतरकर रोबीले आवाज में कहा-  " ऐ लड़की! तुम्हारी टोकरी में जितने फल हैं वो सब तौल दो।"        " जी बाबूजी!"

     वह मन- ही- मन खुश हो रही है...कि अब मैं घर जल्दी ही लौट जाऊंगी। 

    सुनैना ने सभी फल जल्दी-जल्दी तौल दिए। फिर उसने  फल के पैसे मांगे।  नेता ने तपाक से कहा-" मुझसे पैसे मांगने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई..? तुम्हें नहीं मालूम कि मैं कौन हूं..?"

   " पैसा तो देना ही होगा बाबूजी!" सुनैना रोते हुए अड़ गई।

      बकझक होने लगा। भीड़ में से कई व्यक्ति वीडियो बनाने लगे। नेताजी ने यह देखा , जल्दी से फल के पैसे देकर वह वहां से निकल रफूचक्कर हो गया। ००

      - डॉ मीना कुमारी परिहार ' मान्या '

                      पटना -बिहार 

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लघुकथा - 038


               धूमकेतु 


ध्रुव का रिपोर्ट कार्ड पत्नी को थमाते हुए पतिदेव ने कहा ९०% मार्क्स आये हैं । किस कालेज में और कहाँ एडमिशन कराना है 

ये ध्रुव से विचार विमर्श कर बता देना । 

पत्नी ने पुछा - और धूमकेतु के मार्क्स? वो इस बार भी फ़ेल हो गया , अब उसे किसी अच्छे कालेज में एडमिशन नही मिलेगा  उसे अब से नानी के घर ही रहने दो , वहीं प्राईवेट परीक्षा देगा । केवल ध्रुव को वापस बुला लो ।

 धूमकेतु को अपने रिज़ल्ट का अहसास तो पहले से ही था । पढ़ाई की वजह से हीन भावना से ग्रसित अपने आप में खोया रहता । माँ का प्यार भी उसकी कमियों को ढाँक नहीं पाता । 

वो अक्सर छुट्टियों में नानी के गाँव आ जाता , नानी ही उसका प्यार भरा सम्बल थी । नानी ने अपनी गायों का नाम कारी, गोरी मोहनी और डागी का नाम शेरू, ब्लेक़ी रखा था । 

धूमकेतु ने इन्हें ही अपने रोज़गार का ज़रिया बना लिया था । उधर माता पिता ने अपनी सारी पूँजी ध्रुव की उच्च शिक्षा के लिए विदेश  भेजने में लगा दी । नानी के बीमार होने पर जब माता पिता नानी को देखने आये तो धूमकेतु में अदम्य साहस विश्वास देख माँ ने नानी से कहा - अम्माँ हमारे धूमकेतु की चमक को तो आपने ही निखारा है । नानी ने हँसते हुए कहा - ये  बीमारी तो एक बहाना है ।

ताकि तुम्हें यहाँ बुला कर धूमकेतु के छोटे से साम्राज्य की चमक दिखाने दे सकूँ।  वरना तुम दोनो अपने कामों में डूबे कहाँ आते, अब बताओ , इस धूमकेतु की चमक किसी सितारे से कम है क्या?  ००

                         - अनिता शरद झा

                         रायपुर - छत्तीसगढ़ 

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लघुकथा - 039


             पाँचवीं बेटी 


“ यह क्या है? “

“ गोली ।” पति तिमिर ने पत्नी संध्या से कहा 

“ किसलिए ? मुझे कोई बीमारी  नहीं है! दवा की गोली किसलिए ?” आश्चर्यचकित संध्या ने पूछ लिया ।

“ यह बीमारी की दवा नहीं। बेटी होने का शर्तिया इलाज है।”

तिमिर ने भावुक हो कर कहा । पाँच बेटों की भ्रूण हत्या के बाद इस बार हर टोने - टोटके आज़मा कर बेटी चाहता था परिवार । माता-पिता भी परेशान थे कि क्या बेटी हमारे नसीब में ही नहीं। बेटा तो नहीं होना चाहिए। अब बेटा किसी को नहीं चाहिए तो सब मेरे ही यहाँ क्यों। मन्नतें मनाते थक कर यह टोटका भी आज़मा लेना चाहते थे। 

“ नहीं ! मैं दवाई नहीं खाऊँगी और इस बार बेटा हो या बेटी मैं जन्म दूँगी। बहुत सिर ले चुकी हत्या का पाप। बेटा हुआ तो उसकी ऐसी परवरिश करूँगी कि वह समाज में एक आदर्श उदाहरण बनेगा।सब उसे देख कर ईश्वर से उसके जैसा बेटा पाने का वरदान माँगेंगे। बेटा-बेटी ख़राब हैं ऐसा नहीं होता यह हमारी परवरिश पर निर्भर है कि हम उसे कैसा बना पाते हैं। आप निश्चिंत रहिए। आपका बेटा विलक्षण होगा।” कह कर संध्या करवट बदल कर गहरी नींद सो गई।

तिमिर के मन से भी अँधेरा अब धीरे-धीरे छँटने लगा था। सुबह होने को थी और बेटा ही आने को था। ००

                   - डॉ० दुर्गा सिन्हा ‘उदार ‘

                    फरीदाबाद - हरियाणा 

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लघुकथा - 040

             स्वयंसिद्धा 

            

अरी!  सुनंदा जी, आप? बनारस के दशाश्वमेध घाट के पास   'हमारा घर, हमारा स्वाभिमान 'अनाथ - आश्रम में दीपावली की मिठाइओं  के पैकेट  थमाती हुई मालती  स्तंभित रह गयी... सामने  जो औरत थी, उसके दुःख- सुख और संघर्षों की वह साक्षी थी... !  उसके पास के मकान में वह रहती थी! उसका पति रोहित    बुरी तरह आत्ममुग्धता का शिकार था! इसकी उच्चतम डिग्री, कलात्मक विकास, सामाजिक प्रतिष्ठा, एवं नाम यश, गौरव उसके अहं के लिए चुनौती थी। एक संतान थी, मगर उसे भी उसने बचपन से ही उसके विरुद्ध ज़हर पिला रखा था या  पिता से प्राप्त  आर्थिक सुविधा, संरक्षण एवं अनियमित स्वतंत्र, उच्छंखल जीवन चर्या की सहमति के आगे माँ के ममत्व भरी कल्याणकारी सीखे, हिदायतें, वात्सल्य पूर्ण संरक्षण उसे अयाचित अधिकार और वर्चस्व की कोशिश प्रतीत होता था...  

पति के द्वारा लाख धूमिल करने की कोशिशों के वावजूद सामाजिक परिवेश में उसकी  जितनी गौरवान्वित छवि थी, घर में वह एक  भंगिन से  भी निम्नतर थी, क्योंकि उसके लिए हम ओछे, गंदे शब्दों का प्रयोग नहीं कर सकते!

 "जी, मालती जी" .. बेझिझक उनकी आँखों में आँखें डालते हुए उसने   हर्ष- विषाद, राग- विराग  सभी भावों से तटस्थ निर्विकार स्वर में कहा...।

"ओह! आप." .. मालती के स्वर भींग गए...

 "नहीं  मालती  जी! उस नर्क से.... वाक्य अधूरा छोड़ते हुए पुनः कहा- "यहाँ  सभी अपने ,  सभी विशेष... अपनी क्षमतानुसार सभी कार्यरत...    "स्वाभिमानी"...        ००              

                    - डॉ अन्नपूर्णा श्रीवास्तव

                                पटना - बिहार

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लघुकथा - 041


         असली विकलांग


  वह हट्टा-कट्टा बॉडी बिल्डर-सा दिखने वाला आदमी चलती हुई बस में दो की सीट पर अकेला फैलकर ऐसे बैठा हुआ था मानो पूरी बस का मालिक वही है ! उसे देखकर पिछले स्टॉप पर चढ़ा हुआ एक दुबला -पतला किशोर वय का लड़का अपनी बैशाखी संभालते हुए आगे बढा,और हिम्मत करके उस तगड़े आदमी से डरते-डरते बोला -” भाईसाहब थोड़ा खिसक जाइए न,मैं भी बैठ जाऊंगा !’

इस पर उस पहलवान ने ऐसे घूरा मानो उस लड़के ने कोई अपराध कर दिया हो ! फिर लगभग गुर्राते हुए कहा-” तुम्हें दिख नहीं रहा क्या ? सीट खाली कहां है ?”

  “भाईसाहब जी,दो लोग बैठते हैं !” लड़के ने जवाब देने की हिम्मत जुटा ही ली !

    “ले बैठ जा,ज़िद करता है तो !” कहकर वह आदमी थोड़ा -सा कुछ इस तरह खिसक गया ,मानो बहुत बड़ा अहसान कर रहा हो !

         तभी अगले स्टॉप पर एक बूढ़ी औरत हांफते -हूंपते सिर पर एक पोटली रखे बस में दाखिल हुई,और चारों ओर नज़र घुमाकर भरी हुई बस देखकर निराश होकर,चुपचाप एक ओर खड़ी हो गई !

      यह उस विकलांग लड़के से देखा न गया ,वह बहुत ही विनम्रता से उस औरत की ओर मुख़ातिब होकर बोला-” माताजी ,आप इधर मेरी जगह बैठ जाइए,मैं खड़ा हो जाता हूं !” इस पर उस तगड़े आदमी ने उस लड़के को यूं घूरा,मानो उसने कोई आश्चर्यजनक बात कह दी हो ।

” नहीं बेटा,तुम तो बैठे रहो,तुम तो वैसे भी शरीर से दिक्कत में दिख रहे हो।"

  "पर बिटवा तुम तो भगवान की दया से बिलकुल ठीक हो,हट्टे- कट्टे हो,तुम ही खड़े हो जाओ न !” बूढ़ी मां ने एक साथ उन दोनों से कहा !

” नहीं ,मैं क्यों खड़ा होऊं ? आपको बैठना है तो इस लड़के की जगह पर बैठ जाओ,यह भी तो मेरी ही सीट है,मैंने  ही इसे दी है !” वह आदमी  ऐंठते हुए स्वर में बोला !

  “प्लीज माताजी,आप मेरी जगह पर बैठ जाइए न ।मुझे कोई परेशानी नहीं ।मुझे परेशानी तो तब होगी,जब एक वृध्द मां खड़ी रहेगी ,और बेटा बैठा रहेगा ।”

     यह सुनकर बस के सारे लोग उस शारीरिक विकलांग लड़के की ओर देखने लगे। वे सब अब तक यह भी जान चुके थे कि असली विकलांग वह लड़का नहीं,बल्कि उस हट्टे-कट्टे आदमी सहित बस के सारे लोग हैं । ००

                     - प्रो.शरद नारायण खरे

                          मंडला - मध्यप्रदेश 

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 लघुकथा -  042

    ऑनलाइन ऑफलाइन 

                                  

           प्राथमिक स्कूल में भोजनावकाश के समय कुछ बच्चे खेल खेलना चाह रहे थे तो एक बच्चे ने सुझाव दिया कि अपन एक नया खेल-ऑनलाइन ऑफलाइन खेलते हैं । 

         उसकी बात सभी को पसंद आई । दो समूह बनाने का निश्चय किया गया जिसमें जो ऑनलाइन रहना पसंद करते हैं, वे ऑनलाइन वाले समूह में और जो ऑफलाइन रहना पसंद करते हैं, ऑफलाइन वाले समूह में रहेंगे ।

         मैं चुपचाप उन्हें देख रही थी । मैंने देखा कि ऑफलाइन समूह में बच्चे अधिक हैं । ऑनलाइन वालों ने अपने समूह की संख्या बढ़ाने के लिए छोटे बच्चों को शामिल करना शुरू किया ऐसे में एक बच्चा कहने लगा- 

 "मैं तो ऑफलाइन वालों के साथ ही बैठूंगा ।"

       बच्चे उसके साथ जबरदस्ती करने लगे तो मैंने उन्हें रोकते हुए पूछा-

 "बेटा, तुम ऑफलाइन वालों के साथ ही क्यों बैठना चाहते हो ?"

        उसने मासूमियत से जवाब दिया-

  "मैम, घर पर सभी ऑनलाइन रहते हैं और मैं अकेला हो जाता हूं । कम से कम यहां तो मुझे ऑफलाइन वालों के साथ रहने दो ।" ००

                           - बसन्ती पंवार    

                        जोधपुर - राजस्थान

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लघुकथा - 043

             मालिक


बार-बार हांकने पर भी बकरी पुल पर चढ़ने को तैयार ना थी। 

अपने आप को बकरी का  मालिक समझने वाले ने उसकी कमर से एक डंडी बांध दी। 

डंडी के एक कोने पर एक गाजर बांध दी! गाजर बकरी के मुंह से 1 फुट की दूरी पर टंगी हुई थी। 

 गाजर को खाने के लालच में बकरी चलती चली गई। और उससे पता भी ना चला, वह कब पुल पार कर गई। अब तुम ही बताओ यदि मैं वह बकरी नहीं बनना चाहती। मुझे गाजर का लालच नहीं है। 

मैं तुम्हारे कहने पर पुल पर भी नहीं  चढ़ना चाहती। मैं तुम्हें अपना मालिक भी नहीं समझती। तो बताओ इसमें मेरा कसूर क्या है? ००

                                  - रेनू चौहान 

                                     नई दिल्ली

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लघुकथा - 044

            झूले का सच 


"अरे गजब आज भी ये झूला खाली ही है।" स्वाति गार्डन में पड़े एक खाली झूले को देख कर अचंभित होकर कहा। बाकी जगह खूब चहल-पहल थी। 

स्कूल के बगल का यह गार्डन उस सब के मस्ती का केन्द्र था। वह सोच रही थी वो भी क्या दिन थे, स्कूल से छूटते ही सबसे पहले गार्डन पहुंचने की होड़ होती थी और फिर सभी झूला छापने की रहती थी। सभी उससे झूला छीनने की कोशिश करती थी, लेकिन किसी इतनी ताकत नहीं थी कि झूला छीन ले। 

एक दिन एक लड़की को गुस्सा आ गया और वह झूला को रोकने और धक्का देने लगी।

जिस कारण से झूला आडे़ तिरछे जाने लगा।

वह बैलेंस नहीं बना पायी और झूले से गिर गई।

बेहोश भी हो गई थी। 

उसे बहुत बुरा लगा था। सभी पूछते कि क्या हुआ? कैसे गिर गई?

तभी पीछे से जानी पहचानी आवाज आयी "अरे स्वाति तुम यहाँ कैसे? इंडिया कब आयी? अब तो जाॅब भी लग गई होगी?" 

"हाय! विनी कैसी हो? तुमसे ही मिलने आयी हूँ। सारे सवाल एक साथ कर लोगी क्या?" 

"ओके, घर चल।" 

"अच्छा विनी ये बता कि इस झूले पर अब कोई नहीं बैठता है क्या?" 

"नहीं जब से तुम गिरी थी और तुम्हें भूत दिखा था। कोई नहीं बैठता है।"

स्वाति सिर पीटते हुए कहा "हे भगवान, लोग कभी भी अंधविश्वास से दूर नहीं हो पाएंगे।"

"मोहतरमा कुछ दिन विदेश में रहने क्या लगी। ये अंधविश्वास लगने लगा? भूत तो तुम्हें ही दिखा था ना?"

"अरे वो तो मैं उस लड़की से हार नहीं मानना चाहती थी। इसलिए उसपर इल्जाम लगाने के बजाय मनगढ़ंत कहानी बनाकर कह दिया था, 

कि - झूले के ऊपर एक काला भूत बैठा था। उसी को देख कर मैं डर गई और मेरा हाथ छूट गया।"

"हेंऽऽ...?" ००

                          - पूनम झा 'प्रथमा' 

                           जयपुर - राजस्थान 

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लघुकथा - 045

                शहीद 


खेतों में पककर तैयार खड़ी महकती-लहकती धान की फसलों को देखकर चिड़ा और चिड़िया का हृदय उल्लास और उमंग से भर गया। वे दोनों खुशी से झूम उठे। वहीं खेत की मेंढ पर खड़े नीम के पेड़ पर उन्होंने अपना घर बसा लिया। सही समय पर फसल काट ली गई। खुशी की लहर आगे बढ़ी। अंडों से बच्चे निकले। बच्चे बड़े ही सजीले और बंद कली-से बहुत सुंदर थे। चीं चीं चीं करते उन बच्चों को देख दोनों खूब हुलसित होते। 

 तीन-चार दिन बाद। 

 "लगता है किसान अपने फसलावशेषों को जलाने की तैयारी कर रहा है।" भय और आशंका से चिड़े ने कहा। 

"क्या...! क्या कहा...? इतना जल्दी...!" सहमी-सी चिड़िया ने प्रत्युत्तर में इतना ही कहा। अब एक अप्रत्याशित-सा भय इन्हें सताने लगा।

 फिर एक दिन दोपहर बाद किसान आया और अपना काम करके चलता बना।

 मेंढ पर खड़ा नीम का पेड़ भी शीघ्र ही आग की लपटों और जहरीले काले धुँए के बादल में समाने लगा।

"चलो...जल्दी उड़ चलो।" घबराए हुए चिड़े ने उतावलेपन से कहा। 

"कभी माता कुमाता सुनी है। इन दूध मुँहें बच्चों को छोड़कर मैं कैसे जा सकती हूँ। अभी तो इनकी आँखें भी नहीं खुली।" आँखों में आंसू लिए चिड़िया ने कहा।

चिड़ा बेचारा गहरे अंतर्द्वंद्व में फंसा बदहवास-सा बिलखता कभी इधर, कभी उधर उड़ता फिर रहा था।

"यह आग और हवा दूसरे के दुख-दर्द को नहीं पहचानते पगली! अब भी कह रहा हूँ चल उड़ चल।" सुबकते हुए चिड़े ने फिर कहा। 

"पर मैं न आग हूँ और न ही हवा, मैं एक माँ हूँ। मैं दर्द को पहचानती हूँ। तुम चाहते हो तो चले जाओ।" कलेजे पर पत्थर रखते हुए चिड़िया ने कहा ।

   एक अकथ वेदना से भरे पत्नी के सजल नेत्र देख कर चिड़े के मन में करुणा उमड़ने लगी

"अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी...।"

 चीं चीं ची का क्रंदन, तड़प और रुदन भरी चीखों से आसमान भर गया। 

   चिड़िया बच्चों को अपने डेनों से ऐसे ढक कर बैठ गई मानो कोई सिद्ध तपस्विनी मौन साधे समाधि में बैठी हो। 

"जीते जी अग्नि समाधि!...छोटे-छोटे फूल जैसे बच्चे, हाय!...हे ईश्वर!...मैं क्या करूँ इन जीवों को छोड़कर कैसे जाऊँ ?" मौत के रूप में अग्नि की विकराल लपटों को देखकर चिड़ा बेचारा हाथ जोड़े बैठा प्रार्थना कर रहा था। 

   आग की लपटों की तपिश अब उन्हें महसूस होने लगी थी। जरा-सी नीचे वाली टहनियाँ और शाखाएँ भक-भक जलने लगी। अपने चारों ओर ऊँची उठती लपलपाती लपटों को देख चिड़ा गला फाड़-फाड़कर चिल्लाने लगा,

"बचाओ! बचाओ! बचाओ!"

  चिड़िया एकदम शांत, बच्चों को अपने आँचल में छुपाए उनके साथ जल मरने को तैयार बैठी थी।

"हे ईश्वर ! निर्दोष पत्नी और मासूम बच्चों को अपनी आँखों के सामने अग्नि में स्वाह होते कैसे देखूँ ...?" विलाप करते हुए चिड़ा अचानक धुँए से बेहोश होकर नीचे पानी की नाली में जा गिरा। गिरते ही होश आया और घोंसले की ओर उड़ा। उसने घोसले में पंख फड़फड़ाकर शरीर को निचोड़ दिया। उसे उम्मीद जगी और इसी धुन में जान की बाजी लगा दी। 

    कब शाम ढली, कब हवा और आग आमने-सामने हुई, कर्तव्य पथ में डटे न पति को मालूम न पत्नी को।

   अगली सुबह एक नई आशा-उमंग में चिड़िया ने आँखें खोली उसे अपने आसपास चारों ओर कुछ गीला-गीला सा महसूस हुआ। सब कुछ ठीक पाकर खुशी तो बहुत हुई और मन ही मन ईश्वर का धन्यवाद भी किया, लेकिन शीघ्र ही पति को न पाकर अशुभ की शंकाएँ बढ़ने लगी। अचानक चिड़िया की नजर पानी की नाली पर गई, जहाँ पानी से निचुड़ता हुआ एक शहीद का क्षत-विक्षत शव पड़ा था।००

                     - डॉ अशोक बैरागी

              पुण्डरी ( कैथल ) - हरियाणा 

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लघुकथा -0046


          घर का मंदिर


दुर्गा माता के जागरण की तैयारी कई दिन पूर्व शुरू हो गई थी। आज तो उमंग में भरी राधा माता रानी को चढ़ाने के लिए सुंदर साड़ी , लाल गोटेदार चुनरी एवं सुहाग की सारी वस्तुएँ ले रही थी। मन में शंका थी कि कहीं कुछ गड़बड़ नहीं हो जाए इसलिए माता रानी से अरदास भी मन ही मन करती जा रही थी। दोनों दिन कौन झेलेगा मेहमानों को अत: रात को खाने के बाद जागरण का आयोजन तय कर दिया था। 

             सारे रिश्तेदार, मित्र, बंधू और अगड़- पड़ोस के खाना खा रहे थे । किसी को किसी के बारे में पूछने की फुर्सत नहीं थी। खाना खाने के बाद राधा की भाभी ने पूछा "दीदी आपकी सासु माँ दिखाई नहीं दे रही?  कहाँ है वे? राधा सुन कर भी अनसुना कर रही थी। इसी बात का तो डर था कि कोई बुढ़िया के बारे में न पूछ ले। 

भाभी की बात सुन कर चाची सास ने कहा," बहू तुमने ये ठीक नहीं किया। तुमने अपनी सास को नहीं बुलाया और जिस बेटी के पास वे रहतीं है, उस ननद को भी नहीं बुलाया।  लड़ाई अपनी जगह है और धार्मिक आयोजन में तो बुलाना ही चाहिए था।माता रानी ऐसी पूजा को कभी स्वीकार नहीं करती  जो अपने माता- पिता, सास- ससुर का अपमान करते हैं। तुम्हारी पूजा बेकार है। "

      राधा की भाभी तभी तपाक से बोली, वाह बहन जी बहुत खूब। आपने तो हमें भी सीख दे दी अगर हम भी ऐसा ही आपकी माँ के साथ करें तो कैसा लगेगा। आप तो वही बात कर रही हो----

कैसी बात राधा ने पूछा? वही कि घर का मंदिर छोड़ करते पूजा देवी माई की। तुम्हारा मंदिर कहीं ओर है और तुम माता की पूजा कर रही हो। 

राधा बगलें झांकने लगी। मन ही मन पछता रही थी । ००

                              - कृष्णा जैमिनी 

                           गुरुग्राम - हरियाणा 

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लघुकथा - 047


         बदलता स्वरूप


राधिका अपने घर के दूसरे माले की बाल्कनी से देख रही थी। नीचे जाह्नवी अपनी बाइक स्टार्ट कर रही थी। हेलमेट, लैपटॉप बैग, कैमरा और वही तेज और आत्मविश्वासी नजर।

राधिका मुस्कुरा दी।

उसे अपना समय याद आ गया। उस वक्त कोई लड़की ऐसे निकलती तो घर क्या पड़ोसी भी सौ सवाल करते।

जाह्नवी एक न्यूज चैनल में काम करती है। चुनौतीपूर्ण काम। अनियमित समय। अक्सर उसे आने में देर हो जाती। 

शुरू में राधिका को अच्छा नहीं लगता था। लेकिन उसने कभी अपनी इस डर को उसकी बेड़ियां नहीं बनने दी।

उसे याद है एक शाम जाह्नवी ने कहा - "माँ मुझे दो दिनों के लिए अंधेहरी गांव जाना है। एक कवरेज के लिए।"

यहाँ तक तो ठीक था अब बाहर वो भी दो दिनों के लिए। राधिका ना करने ही वाली थी , तभी जाह्नवी ने कहा कि- "ये मेरी बाहर की पहली कवरेज होगी । यदि अच्छी बन पड़ी तो मेरे करियर के लिए बहुत अच्छा होगा। माँ प्लीज़ मुझे मत रोकना। मैं तुम्हारे मन का डर जानती हूँ, लेकिन एक बार मुझ पर विश्वास करो, जैसे अब तक तुम मेरे लिए खड़ी रही, इस बार भी रहना।"

राधिका ने अपनी बात को जुबान पर ही रोक लिया और उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा - "जाओ और अपने कामों से दुनिया को दिखाओ कि लड़की की पहचान उसके सपने तय करते हैं न की घर की दीवारें।"

जाह्नवी आह्लादित हो दूने आत्मविश्वास से माँ के गले लग गई।

जाह्नवी तीसरे दिन वापस आ गई। उसने अपनी डॉक्यूमेंट्री माँ को दिखाया जिसमें गांव की औरतों ने पुरुषों के विरोध के बावजूद अपनी एक संस्था बनाई और गांव की औरतों ने स्वरोजगार शुरू किया और अपने पैरों पर खड़ी होने की कोशिश शुरू की।

"ये सब तूने किया"- खुशी से राधिका की आवाज कांप रही थी।

" हाँ माँ, परिवर्तन सिर्फ शहरों में नहीं गांव की महिलाओं में भी होनी चाहिए। प्रतिभा की कमी नहीं बस उन्हें जगाने के लिए  आत्मविश्वास और आपके विचारों वाली माँ का साथ चाहिए।" और दोनों खिलखिला पड़ी थी।

यही विश्वास यदि मेरे माता-पिता ने मुझ पर दिखाया होता तो आज मैं एक सफल डॉक्टर होती। राधिका की आँखें नम हो गई।

आज जब जाह्नवी अपने काम के लिए निकलती तो वह बस कह देती सावधान रहना, फ़ोन  करती रहना और जाह्नवी विश्वास से हाथ हिला आगे बढ़ जाती।

सच है आज की लड़कियाँ परंपराओं को तोड़ती नहीं है, बस उसका स्वरूप बदल कर आगे बढ़ना चाहती हैं।

डर हमारी पीढ़ी की विरासत थी और साहस आज की पीढ़ी का।

तभी जाह्नवी ने सर उठा कर माँ को देखा और बाय कर आगे बढ़ गई।

राधिका का मन चिंता और गर्व से भर गया।००

                           - मधुलिका सिन्हा

                          गुरुग्राम - हरियाणा

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लघुकथा - 048


              प्रांजल 

  

    "इसके प्रश्नों का मैं क्या जवाब दूँ...!!,

कभी 'सैनिटरी-पैड' के बारे में पूछती है,तो कभी उभरते हुए विशेष अंग के बारे में।"

"प्रभु, मैंने तो आपसे संतान माँगा था और आपने...!!, 

पैदा होते ही आपने इससे माँ की छाया भी छीन लिया ?"

"लोग,भले ही कुछ भी कहें लेकिन मैं इसे एक भला इंसान बनाऊंगा,बिल्कुल इसके नाम के जैसा।"

    सोचते हुए 'रमेश बाबू फुर्ती से उठे और प्रांजल को उठा कर खुले आसमान में उड़ान भरती चिड़ियों और रंग-बिरंगी खूबसूरत तितलियों के बीच छोड़ दिए।

"डैडी,आप मुझे यहाँ पर क्या दिखाने के लिए लाए ?" प्रांजल ने फिर प्रश्न दागा। 

रमेश बाबू को कोई उत्तर न सूझा, तो उन्होंने धीरे से एक तितली को पकड़ कर हाथ में बंद कर दिया।

"पापा...,आप यह क्या कर रहे हैं ?"

प्रांजल जोर से चीखी।

"बेटा, मैं तुम्हें भी इन चिड़ियों और तितलियों की तरह 'हौसले का पंख' वाला 'प्रांजल' बनाना चाहता हूँ।

     "तू,लड़का-लड़की न सही लेकिन हाड़-मांस से बनी एक इंसान तो है।तू मेरा खून है...,तुम कही और नही, मेरे साथ ही जीवन-भर रहोगी।”

आसमान में उड़ान भरते पक्षियों को देख ‘प्रांजल’ ताली बजा रही थी और  रमेश बाबू टकटकी लगा कर प्रांजल के 'ताली' को देखे जा रहे थे। 

   उसकी 'ताली' की आवाज़ से अब पिता को घबराहट नही,बल्कि वकील, जज, डाक्टर,टीचर की आहट सुनायी दे रही थी।

"तुम्हें स्त्री-पुरुष के जेंडर से निकल कर बहुत ऊपर जाना है।" 

प्रांजल के सिर पर हाथ फेरते हुए पहाड़ की दृढ़ता सा अटल पिता ने अपनी बंद मुठ्ठी को खोल दिया। ००

                        - डाॅ.क्षमा सिसोदिया

                         उज्जैन - मध्यप्रदेश 

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लघुकथा - 049


       दीपक तले अंधेरा


संध्या का समय था । डॉ दीनानाथ अपने आरामगाह में आराम फरमा रहे थे ।कुछ समय बाद उनका पुत्र विशाल एवं पोता दिव्यांश आए।उनकी लिखी किताबें , ट्रोफिज ,फोटो आदि उनके पैरों के पास पटक कर चले गए।

दीनानाथ के माथे में  सलवट पड़ गई । वे क्रोधित होकर बोले ," यह क्या स्वांग है ? अरी यशोदा एक कप चाय तो पिला" । सायटिका की शिकार  यशोदा जी लाठी के सहारे उनके पास आई।

उनको मोबाइल पकराती  हुई बोली,"कल दिव्यांग की हल्दी की रस्म होने वाली है,आज से आप के बेकार पड़े स्टडी रूम को उनका बेड रूम बना दिया है। लो अपनी लाडली नव्या से बात कर लो "।

मौके के नजाकत देखकर दीनानाथ मोबाइल कान से चिपका दिया ।दूसरे तरफ से नव्या बोली ,"आप तो साहित्यिक कार्यक्रमों में नारी  स्वाधीनता  की बहुत बातें करते हो "।"अभी भी आप  स्त्री विमर्श का लाइव शो का संचालन करके फ्री हुए है । " " पर आपने मेरी और मेरी मम्मी को सशक्त  स्त्री बनने का मौका कहां  दिया ? मम्मी के बारहवीं करते ही उनकी शादी कर दी ।मम्मी  - पापा ने मेरा बी. ए. फाइनल इयर में आकाश में उड़ने से पहले ही मेरे पंख क्यों  कतर डालें ?आप उस समय क्यों नहीं बोले ?" नव्या की बात सुनकर उनके दिल में हलचल मच गई ।

"जींस की जैक्ट पहनने और केश रंगने से कोई प्रगतिशील नहीं हो जाता ,"कहकर यशोदा ने फोन रख दिया। ००

                               - पूर्णिमा मित्रा 

                          बीकानेर - राजस्थान

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लघुकथा - 050


             मृत्युभोज 



रजुआ बीच जंगल में अपनी भेड़-बकरियों को टिटकारी देता हुआ चरा रहा था, कि तभी उसकी नजर सज्जन सिंह पर पड़ गयी । सज्जन सिंह को सभी गाँव वाले दादा कह कर बुलाते थे। स्वभाव से अच्छे थे इसीलिए औरत - मर्द, बूढे - बच्चे सभी बस दादा - दादा की रट लगाये रहते।

पास जाकर रजुआ ने पूछा, “दादा आज अकेले जंगल में और इतनी दूर कैसे आ गये, किसी जड़ी-बूटी की जरूरत आन पड़ी थी क्या? मुझे बोल देते, मैं ले आता।”

दादा ने रजुआ को धीरे से पलट कर देखा और धीमी आवाज में बोले, “बेटा रजुआ तू! कलेऊ लाया है क्या?  दो दिन से यहीं भूखा पड़ा हूँ, घर छोड़ आया हूँ मैं।”

रजुआ ने अपना खाना दादा की तरफ बढ़ाते हुए कहा, “लो दादा खा लो, पर ये बताओ घर क्यों छोड़ा? पाँच-पाँच बेटे हैं, भरा पूरा परिवार है। सब अच्छा कमाते हैं... फिर?”

“बेटा रजुआ, सब अपने-अपने काम में व्यस्त हैं। मुझे परसों बुखार आ गया था, तो मैंने बड़े लड़के से कुछ रूपये दवा के लिए मांगे, उसने दुत्कार कर भगा दिया, उससे छोटे के पास गया तो उसने भी डांट दिया, इस तरह बारी-बारी से सबने मना कर दिया। फिर मैंने सोच वहाँ रहना बेकार है, कोई किसी का नहीं इस दुखिया संसार में और मैं यहाँ मरने जंगल में चला आया... लेकिन ये भूख!... सहन नहीं होती।” रोते-बिलखते दादा सज्जन सिंह ने रजुआ को अपनी व्यथा सुना दी ।

रजुआ फिर भी मान-मनुहार कर जबरदस्ती दादा को उनके घर छोड़ आया। चार दिन बाद पता चला दादा इस दुनिया में नहीं रहे ।

और ठीक तेरह दिनों के बाद दादा सज्जन सिंह के पांचों लड़कों ने उनका मृत्युभोज (बृह्मभोज) बारह कुन्तल आटे का किया। माल-पुआ, खीर-सब्जी बनाई गई और आसपास के सभी गाँव वालों को भरपेट खाना खिलाया गया - ताकि उनकी आत्मा तृप्त रह सके। ००

                  - मुकेश कुमार ऋषि वर्मा 

                        आगरा - उत्तर प्रदेश 

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लघुकथा - 051


           शस्य श्यामला

 


अबीर न्यूयॉर्क में अपने होटल के बाहर वहाँ के प्रसिद्ध टाइम्स स्क्वैयर घूमने जाने के लिए किसी कैब की तलाश में खड़ा था, तभी उसे सामने से गुज़रती टैक्सी ड्राइव करते एक सरदार जी दिखे। इस पराई धरती पर उस नितांत अजनबी को देख उसका चेहरा खिल उठा और वह बुदबुदाया, "चलो इतने दिनों बाद कोई तो हमवतन मिला, जिससे मैं  अपनी भाषा में बातचीत कर पाऊंगा।"

उसने सरदार जी को रोक कर कहा, “सरदार जी! टाइम्स स्क्वैयर चलना है।”

“अपनी ही गड्डी समझो जी! चलो बैठो आराम से!”

गाड़ी में प्रवेश करते ही हवा में तैरती एक सौंधी सी महक उसके नथुनों से टकराई और तभी उसकी नज़रें सामने डैशबोर्ड पर पड़ीं। वह उत्कट उत्सुकता से भर उठा।

वहाँ एक छोटा सा गमला रखा था और उसमें चटक सब्ज़ नन्हे-नन्हे पौधे लहरा रहे थे।

“अरे सरदार जी, ये जंगल में मंगल कैसे कर रखा है आपने? क्या उगा रखा है आपने इस गमले में?”

“किसान का बेटा हूँ जी! यूँ समझो, हरे-भरे खेतों में ही आँखें खोलीं मैंने। आते वक़्त थोड़ी सी अपने देश की मिट्टी किसी तरह छिपा कर ले आया था। उसे ही यहाँ की मिट्टी में मिला कर ये मक्का उगा रखा है जी मैंने। जब भी वतन की याद सताती है, अपनी इस पुरसुकून दुनिया को नज़र भर कर देख लेता हूँ। दिल को बेहद करार मिल जाता है।”

टाइम्स स्क्वैयर आ पहुँचा था। अबीर ने एक बार फिर सरदार जी के उस हरियाले सपने पर निगाह डाली। उसे भी उसमें अपनी शस्य श्यामला भूमि की प्रतिच्छाया दिखी।

उसे देख इस बेगाने मुल्क में न जाने क्यूँ उसका गला भर सा आया।

 उसने उस गमले की मिट्टी से तिलक लगाते हुए नम आँखों से सरदारजी से विदा ली। ००

                                    - रेणु गुप्ता 

                           जयपुर - राजस्थान 

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लघुकथा - 052


            नई राह 



"अरे ! वाह यह तो बहुत सुन्दर हैं तुमने तो दिल खुश कर दिया आलोक," अजीब सा दिखने वाला आदमी बोला।

"तुम तो मालामाल हो गए समझ लो अब तो, सोने की चिड़िया कहाँ से ले आए, "साथ आए दूसरे आदमी ने हँसते हुए कहा। 

"कुछ तो गड़बड़ है, आलोक ने तो कहा था कि उसके दोस्त आ रहें हैं," मालनी मन ही मन सोच रही थी। 

आलोक के इशारे पर वह दूसरे कमरे में आ गयी। 

आलोक और आगन्तुकों के बीच सौदेबाजी चल रही थी। उसे सारा माजरा समझ आ गया। वह चक्रव्यूह में फँस चुकी है। 

माता पिता के विरोध के बावजूद आलोक के साथ  भागी थी आज पछतावा हो रहा था। 

जल्दी से उसने कुछ पैसे लिए और पीछे के दरवाजे से भाग निकली।

वह किधर जाए यह समाज तो स्वीकारने से रहा।

एक पत्थर पर अपनी चुनरी लपेट कर पास में  बह रही नर्मदा नदी में फेंक दिया और रेत में अपनी चप्पलें छोड़कर नाव में नदी पार चल दी नई राह की खोज में। तट पर लोग चर्चा कर रहे थे  किसी लड़की ने कूद कर जान दे दी। ००

                              - सीमा वर्णिका

                         कानपुर - उत्तर प्रदेश 

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लघुकथा - 053


              फैसला


शारदा बी अकेली पड़ गई । उम्र अभी  हावी नहीं हुई थी । पति की  मौत के बाद गांव में ही रहने का उसका फैसला उस पर ही भारी पड़ा था । बेटा शहर चला गया नौकरी करने और बेटी  पहले ही ससुराल जा चुकी थी । बेटे द्वारा भेजा गया मनीआर्डर मिलने लगा था जिससे उसकी रोजमर्रा की जिंदगी चल रही थी।

बेटी कई बार गुहार लगा  चुकी थी- हमारे साथ रहो आकर। क्यों अकेली पड़ी हो यहाँ! शहर में  जगह न सही हमारे यहाँ कस्बे में  खूब जगह है । पशु हैं, छोटे बच्चे  हैं । मन लगा रहेगा आपका--- लेकिन वह हर बार टाल मटोल कर जाती।

तीन दिनों से  आ रहे बुखार ने जैसे शारदा बी को अंदर तक हिला दिया। उसने निर्णय किया कि वह बेटी के पास ही जायेगी। 

रिक्शेवाले को बुलवाकर  अटैची में कुछ जोड़ी  कपड़े  और सामान रखा और बस अड्डे की ओर चल पड़ी ।

आधे रास्ते में एकाएक उसने रिक्शा वाले को वापस मोड़ने को कहा।

"क्यों  बी! अड्डे नहीं  जाना क्या?"

"नहीं  रे! वापसी घर चल। बेटी के घर जाकर रहना अच्छा नहीं  लगता।"

"सो तो है बी!"

रिक्शा मुड़कर वापसी लौट आया । शारदा  बी को लौटते देख मुहल्ले की औरतों में चर्चा  होने लगी ।

अगले सप्ताह  सभी  ने जाना कि शारदा  बी  ने पास ही के एक प्राइमरी स्कूल में सेविका की नौकरी पा ली थी।

अब उन्हें  बेटे के मनीआर्डर न आने की चिंता नहीं  रहती। ००

                             - अशोक जैन 

                        गुरुग्राम - हरियाणा 

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लघुकथा - 054


             हम है ना



वो महिला पुलिस अधिकारी, अपने सहकर्मियों के साथ रात्रि गश्त के दौरान, ग्रामीण क्षेत्र से शहर की ओर लौट रही थी। रास्ते में सडक़ के किनारे पड़े के नीचे जोर-जोर से एक कुत्ता भौंक रहा था। उस पुलिस अधिकारी ने ज्यों ही गाड़ी रोकी तो कुत्ते ने भौंकना बंद कर, पूँछ हिलाकर च्यंू-च्यंू करता हुआ पेड़ के उस ओर जाने लगा। देखा कि वहाँ बेसुध-सी नग्न अवस्था में एक लडक़ी पड़ी है और उसके जननांगों से हल्का-हल्का रक्तस्राव हो रहा। पुलिस ऑफिसर ने शॉल से उसके बदन को ढकते हुए, सहकर्मियों के सहयोग से उसे अपनी गाड़ी में लेटाकर शहरी बड़े अस्पताल की ओर चल पड़ी।

अस्पताल पहुँचते ही इमरजेन्सी वार्ड के कर्मचारी ने डॉक्टर को कॉल करते हुए, थियेटर में ले गया। कुछ ही समय बाद एक महिला स्वास्थ्यकर्मी बाहर आई और उस पुलिस अधिकारी से कहा—‘‘मैडम इनके किसी रिश्तेदार को बुलाये-। डॉक्टर मैडम ने ऐसा कहा है।’’

‘‘सिस्टर!’’ पुलिस अधिकारी ने कहा, ‘‘हम तो इसके परिवार के बारे में कुछ भी नहीं जानते, यह सडक़ के किनारे लावारिस हालत में पड़ी थी, यहाँ आप तक लेकर आये हैं। इसको जीवन देने के लिए सबकुछ कीजिए। यह भी अपनी तरह किसी की बहन-बेटी है।’’

‘‘दरअसल बात यह है मैडम इसके साथ ज्यादती की गयी है, और दरीन्दगी के दौरान अन्दरूनी अंगों में चोट पहुँची है, ऑपरेशन करना होगा ताकि इन्जर्ड पार्ट में स्टीच लगाये जा सके-।’’

‘‘हाँ-हाँ कीजिए ना सिस्टरजी, अभिभावक के तौर पर मैं सहमती देती हूँ, संभव हो तो जल्दी करें-।’’

‘‘रक्तस्राव अधिक होने से खून की कमी हो गयी। दो-तीन यूनिट ब्लड ट्रांसफ्यूज करना होगा-।’’

‘‘हम है, न! बहन जी, सबसे पहले मैं अपना ब्लड दँूगी और फिर मेरा स्टाफ...।’’

‘‘और वह महिला स्वास्थ्यकर्मी मुस्कुराकर उस महिला पुलिस ऑफिसर को सैल्यूट देते हुए, आत्मविश्वास के साथ ऑपरेशन थियेटर की ओर चल पड़ी।’’ ००

                      - डॉ. रामकुमार घोटड़

                           चूरू - राजस्थान

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लघुकथा - 055


          हवा का रुख



दीवाली पर्व आने में अभी चौबीस दिन शेष थे। मेरे घर के पास गली में कई बच्चे हँसते - खिलखिलाते पटाखेबाजी कर रहे थे। कई दिन से मैं उनकी पटाखेबाजी को नजरअंदाज करता आ रहा था। बच्चों को ,साथ ही उनके पिताओं को कई बार पूर्व में फोन कर समझाने का प्रयास कर रहा था। शोरशराबा और प्रदूषण से जब कुछ ज्यादा ही मैं तंग आ गया तो मैंने आज बच्चों को डाँटते हुए कहा, "  दीवाली भी अभी काफी दूर है, काहे तुम रोज- रोज प्रदूषण फैला रहे हो। जाओ अपने - अपने घरों को। क्यों हमारा जीना मुश्किल कर रहे हो " 

        बच्चे यह डाँट सुनकर अपने- अपने घरों के अंदर जैसे ही गए। उनमें से एक परिवार के बच्चों की माँ जिसके बच्चे सबसे ज्यादा शैतान थे बाहर निकलकर आई और बोली, "  कौन है मैं देखती हूँ बम- पटाखे छोड़ने से मना करता है। बच्चे इस उम्र में पटाखेबाजी नहीं करेंगे तो क्या बड़े होकर करेंगे। लेकर आओ तेज आवाज वाले बम।"

      कुछ महिलाएं भी उसके पक्ष में खड़ी होकर बतियाने लगी थीं। 

         इतना शय पाकर बच्चे खिलखिलाते हुए बम छोड़ने लगे थे और मैं उस बाहुबली महिला की दबंगई और प्रदूषण को बर्दाश्त करता खून का - सा घूँट पीकर सोचता रहा कि वक्त और हवा का रुख अब बहुत बदल गया है, शहर में प्रदूषण नंबर वन पर क्यों आ रहा है तथा बच्चे क्यों बिगड़ रहे हैं।००

                              - डॉ राकेश चक्र 

                     मुरादाबाद - उत्तर प्रदेश 

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लघुकथा - 056


               वापसी  


 सुखहरण  गाँव में रहता था। वहां खेती कर वह सुखी था।  गौने के बाद पत्नी आई । वह शहर में रहने की जिद्द करने लगी। सुखहरण को पता था कि कम पढ़ा -लिखा होने के कारण उसे शहर में अच्छी नौकरी नहीं मिलेगी। पत्नी की जिद्द से तंग आकर उसने एक एजेंसी की मदद ली। उसी  के जरिए वह दुबई चला गया । वहाँ बामुश्किल उसे एयरपोर्ट पर टॉयलेट सफाई का काम मिला। जैसे- तैसे पैसे बचाकर घर भेजता । लेकिन पत्नी को संतोष नहीं था। फोन पर वह बराबर कहती,  " मुझे भी वहीं बुला लो ।" 

सुखहरण बड़ी कठिनाई से उसे टिकट भेज पाया। पत्नी का इंतज़ार करने लगा। जिस दिन पत्नी को आना था उसी दिन उसने  न्यूज़ में  देखा वही प्लेन क्रैश हो गया। कोई नहीं बचा है। खबर देख वह ग़म में डूब गया। तभी टीवी पर फ्लैश देखा, विमान हादसे में मरे सभी यात्रियों के परिजनों को सरकार पच्चीस लाख का  मुआवजा देगी।”

सुखहरण खुशी से उछल पड़ा और गाँव लौटने की तैयारी करने लगा ।००

                          - अर्चना मिश्र

                        भोपाल - मध्यप्रदेश

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लघुकथा - 057


               नास्तिक



 "आज दीपक बाबू को  अहले सुबह मंदिर परिसर में झाड़ू लगाते लोगों ने देखा।" 

"क्या बात करती हो। आज तक किसी ने उन्हें मंदिर में पूजा करते हुए  नहीं देखा है।" पति को भी आश्चर्य हो रहा था 

 "असल में बांग्ला जेठ महीने में हर मंगलवार को बंगाली औरतें मंगल चंडी की पूजा करने जाती है ।लेकिन किसी की नजर नहीं है मंदिर के आसपास  जमा हो गए कूड़े कचड़ों पर। मुझे लगता है इसी लिए दीपक बाबू...। 

 "लोग तो उन्हें नास्तिक समझते हैं।" पति ने कहा। 

लोग कुछ भी समझे, दीपक बाबू   पाखंडी नहीं है।" पत्नी हँसते हुए बोली। ००

                            - निर्मल कुमार दे 

                       जमशेदपुर - झारखंड 

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लघुकथा -  058

  

       पंक  और  पंकज 



"आज  तो उस  श्रमिक  बस्ती  के  कुत्ते  मुझे  काट  ही  लेते ! अच्छा   हुआ   जो उन बच्चों ने उन्हें भगा दिया!"  जूते  के  फीते  खोलते  हुए  मैं  हाँफ रहा  था |

" पर  तुम  वहाँ  उस   बस्ती  में  घूमने जाते  ही  क्यों  हो ? पूरा  शहर पड़ा है घूमने के लिए..." उमा  ने  चिढ़कर  कहा ," और  कहीं  चले जाया  करो  न  घूमने  ,सेहत  

बनाने ! " 

  "अरे  वहाँ  क्या,  एक  अलग  ही  आनंद  आता  है  | "  कहते  हुए  मेरे  चेहरे  पर  संतोष  की  मुस्कान  थी, "वहाँ  रहने  वाले  श्रमिकों  के   अधनंगे , काले लेकिन  चमकदार, तेजस्वी, पावन  चेहरों  वाले  बच्चे  मुझे   देखते  रहते  हैं |  मैं  जब  घुटनों  के  व्यायाम  के लिए  उल्टे  पांव  चलने  लगता हूँ  और  वहाँ  के  कुत्ते मुझ  पर   भौंकते  हैं  तो  देखकर  वे  सारे  बच्चे खूब जोर-जोर  से  हँसते  हैं  | मुझे  जादूगर  कहते  हैं |उनकी   ये प्यारी  हँसी  मेरा  दिन  सफल कर  देती  है  और  मैं , मैं उनकी  हँसी  का  जादू  देख  खुश  होता  हूँ  , उन्हें  बिस्कुट  देता  हूँ |  पंक में  पंकज  देखने  का  ये  आनंद  और  कहीं  कहाँ?" ००

                                - संतोष  सुपेकर

                           उज्जैन - मध्यप्रदेश 

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लघुकथा -‌ 059


          वो कौन था?



आकाश में अभी लालिमा निकलने ही वाली थी कि बस रात भर का सफर तय कर  अपने गंतव्य पर पहुँच गयी। न जाने कब चंदा को झपकी आ गयी थी। आँख खुली तो महेश गायब था। वह बेचैन और परेशान होकर चारों तरफ देख रही थी। पीछे सीट पर बैठी लगभग पैसठ-हत्तर वर्षीय एक महिला से उसने पूछा।

"आँटी, जो मेरे साथ थे उनको आपने देखा?"

"हाँ, वो तो पिछले स्टांप पर ही उतर गये।"

"सामान लेकर उतरे?"

"हाँ, आपको उनके साथ ही उतरना था? वे कौन थे?"

इतना सुनना था कि चंदा फूट-फूट कर रोने लगी। उस महिला ने पूछा।

"क्या हुआ?"

"अब मैं कहाँ जाऊँगी।"

तभी बस कन्डक्टर ने बस खाली करने को कहा। चंदा भी रोती हुई उस महिला के साथ उतर गयी। महिला भी अकेली थी। उसने इसे ढाढस बन्धाते हुए प्यार से पूछा।

"पहले पूरी बात बताओ। वो कौन था?"

"हम दोनों प्यार करते थे। गाँव वाले कभी इस शादी को नहीं होने देते। महेश ने कहा- चलो हम शहर में शादी करके एक साथ रहेंगे। अब सामान के साथ कहाँ चला गया, पता नहीं। माँ के जेवर,पैसे सब उसी में थे।"

और उसकी हिचकी बन्ध गयी। इस अनजान जगह में गाँव से पहली बार इस शहर में आई लगभग पन्द्रह-सोलह साल की अल्हड़ अकेली लड़की को छोड़कर उस महिला को जाते नहीं बना।

"बेटा, यदि मुझपर भरोसा है तो मेरे घर चलो। मैं अकेली ही रहती हूँ। चंदा अचानक भयभीत दिखने लगी। उसने अनजान महिला को शंका से देखा।

"हर व्यक्ति धोखेबाज नहीं होता बेटा! आज मेरे साथ रहना और कल मैं तुम्हें तुम्हारे घर...। ००

                               - पुष्पा पाण्डेय 

                             राँची - झारखंड

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लघुकथा - 060


    सायरा का जादुई थैला



मैं मंगोड़ी की थाल लिए जीना चढ़ने ही वाली थी कि पीछे से सायरा बानो बोली," लाओ आंटी मैं रख दूँगी धूप में,ऊपर ही जा रही हूँ।" यह उसका रोज का धंधा है। आते जाते भाभी दीदी भैया,,सबके काम हँसते हँसते निपटाना।सभी से आत्मीय सम्बंध बना लेना उसका स्वभाव ही है। 

मैं बालकनी में बैठी सोचने लगी कि वह सभी घरों का अटाला,,,कपड़े पुरानी चीज़े आदि सहर्ष ले जाती है।जैसे ही वह ऊपरी मंजिल से उतरी  मैं जिज्ञासावश पूछ बैठी, "सायरा ,हम तुम्हें इतने सूट,,"   वह बीच में ही बात काटते हुए बोली," आंटी,मैं तो बस कॉटन ही पहनती हूँ,आप रोज देखते हो। और मेरी सब सहेलियां रास्ता ही देखती है कि कब मैं पोटला लाऊँ।वे सब अपने हिसाब से बाँट लेती हैं।" और दूसरा सब सामान,,," मैने टोका। बातूनी सायरा तपाक से बोली," रब की दुआ से मेरे पास तो सब  कुछ है।आप लोगों से मिले पंखे फ्रिज़ आदि ,जिसको जो चाहिए ले जाते हैं।"वह अपने चिर परिचित दाँत दिखाते बोली ।मैं बस उसके चेहरे के भावों को देखती रह गई,सच निःशब्द होगई।उसका भाषण जारी था, " अरे ! इसमें मेरा क्या जाता है, ख़ुदा सबका भला करे। और तो और आंटी खाने की चीज़े भी बाट देती हूँ।" कहते हुए अपना बड़ा सा थैला उठाए वह जीना उतर गई। और मज़बूर कर गई मुझे सोचने को कि इस अदनी सी सायरा का दायरा कितना विस्तृत है। ००

                                  - सरला मेहता

                              इंदौर - मध्यप्रदेश 

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लघुकथा - 061


     माटी कहे कुम्हार से

                        

सुबह का समय था। मंदिर में पूजा-अर्चना चल रही थी। बार-बार घंटा बजने की आवाज आ रही थी। इधर बाउंड्री के अंदर अपने परमानेंट नौकर कमला के साथ भूपेश बाबू बातचीत कर रहे थे। कमला ने पूछा, “बाबू, कल आपने मुझे देखा था?”

“नहीं तो। तुम कहां थे?”

“मैं आपके नजदीक ही जमीन पर बैठा था। आप मुझसे दस-बारह हाथ दूर की कुर्सी पर बैठे थे।"

“अच्छा ! जात्रा (नाटक) कैसा लगा?”

 “बहुत सुंदर। अच्छा बाबू, एक बात पूछूं?”

“हां पूछो?”

“पूछना था कि आप तो कमिटी के मैन आदमी हैं, फिर भी इतना पहले जाकर जात्रा देखने क्यों बैठ गए थे?”

          भूपेश बाबू गंभीर होकर बोले—कमला, तुम तो मेरा अपना आदमी हो। सोचो, मैं जमींदार खानदान से हूं। एक शिक्षक हूं। समाज में मेरी कितनी इज्जत है। और जानते हो, कमिटी के लोग मुझे ‘जमीन की टिकट’ काटने का काम दे रहे थे। इसलिए गुस्से में, मैं जाकर जात्रा देखने बैठ गया।”

“बाप रे बाप ! चेयर की टिकट काटने का काम न देकर, आप जैसे आदमी को जमीन की टिकट काटने का काम? कमिटी को इसका ख्याल रखना चाहिए था कि बाबू किस लेबल के आदमी हैं ! सच में, समय बहुत खराब हो गया है बाबू।” कहते-कहते कमला उदास हो गया। उसने गैंती-कुदाली उठाई और खलिहान बनाने के लिए जमीन छीलने लगा। उधर मंदिर के ऊपर बंधे माइक में कबीर वाणी बज रही थी-- माटी कहे कुम्हार से, तु क्यों रोंदे मोहीं...! ००

                 - चित्तरंजन गोप ' लुकाठी '

                        धनबाद - झारखंड

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लघुकथा - 062


         मजबूर मानवता



जैसे ही सवारी गाड़ी स्टेशन का प्लेटफार्म आने पर धीमी हुई, प्लेटफार्म पर कई लोग दिखाई पड़े । उस दिन लगता है कि गाड़ी में चढ़ने वालों की संख्या बहुत थी। जहां तक नज़र जाती थी, चारों तरफ लोगों का हुजूम था। धीमे -धीमे गाड़ी बिल्कुल रुक गई। अंदर से बाहर उतरने वालों की भीड़ और बाहर से अंदर चढ़ने वालों की भीड़, दोनों ही तरफ लोग काफी संख्या में थे। मैं काफी दूर से यात्रा कर रहा था। इच्छा थी कि कोई बडा स्टेशन आने पर थोड़ी देर डिब्बे से बाहर उतर कर प्लेटफार्म पर घूम भी आऊंगा और प्यास लगी थी अतः पानी भी पी आऊंगा। परंतु उफ ये भीड़ ! क्या करूं , कुछ सूझ नहीं रहा था। इतने में बाहर से एक आवाज़ सुनाई पड़ी कि कृपया मेरा सामान सामने की सीट पर रख दीजिए। मैंने देखा तो बाहर एक पतला सा आदमी आंखों में अनुनय - विनय के भाव लिए मुझसे खाली होती सीट पर रूमाल रखने को कह रहा था। मुझे खूब प्यास लगी थी। मैंने कहा - भाई, मुझे प्यास लगी है , नीचे उतरना है। वह बोला - भाईसाहब, आप बैठे रहिए , मैं ले आता हूं। पर कृपया आप मेरे बैग को उस सीट पर रख, उस सीट को सुरक्षित रखिए , जब तक मैं अंदर न आ जाऊं। कितना मानवीय दृष्टिकोण परंतु कितनी मजबूरी में, मैं खड़ा - खडा सोचता ही रह गया। ००

              - प्रो डॉ दिवाकर दिनेश गौड़

                        गोधरा - गुजरात

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लघुकथा - 063


      आत्महत्या अपराध 



         प्रतिभा का पालन पोषण एक प्रतिष्ठित परिवार में भली भांति हुआ था। शिक्षा अध्ययन करने के पश्चात उसकी शादी एक गांव में धन संपन्न परिवार में हो गई। उसका पति पढ़ा लिखा तो था लेकिन कुछ काम नहीं करता था। परिणाम स्वरूप प्रतिभा को ग्रामीण परिवेश के अनुसार अपने आप को ढालना पड़ा। उसका उसे कोई दुख नहीं था।उसने परिस्थितियों से समझौता कर लिया था। लेकिन इस बीच परिवार वालों का व्यवहार बदलने लगा और उसके पति ने भी शराब पीना चालू कर दिया। स्थिति बदतर होने लगी। प्रतिभा की बेटी 8- 10 माह की थी। एक दिन उसके पति ने शराब के नशे में बच्ची को आंगन में बाहर फेंक दिया। प्रतिभा ने दौड़कर उसको उठाया। उसके दिल को बहुत चोट लगी और मन में आत्महत्या का विचार आया। बच्ची को सुला कर उसने रस्सी का एक फंदा बनाया और कमरे में लगी लकड़ी से उस फंदे में वह लटक गई। खिंचाव पड़ते ही उसकी गर्दन पर रस्सी का दबाव बढ़ने लगा। अचानक प्रतिभा की निगाह अपनी मासूम बेटी पर पड़ी। उसके मन में ख्याल आया यदि आज मैं मर जाऊं तो मेरी बेटी को कौन देखेगा? उसका भी जीना मुश्किल हो जाएगा।वैसे भी आत्महत्या अपराध है।नहीं मैं नहीं मरूंगी।जैसे भी हो परिस्थितियों का सामना करूंगी।उसने अपनी उंगलियां रस्सी के फंदे में फंसा कर फंदा ढीला करने की कोशिश की और किसी तरह अपने आप को बचा लिया।अब हौसले से पूर्ण एक नई प्रतिभा का जन्म हो चुका था। ००

                   - गायत्री ठाकुर 'सक्षम' 

                     नरसिंहपुर - मध्य प्रदेश 

 

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लघुकथा - 064


    एक यशोदा ऐसी भी



रानो की टोली ताली बजाते हुए गेट के अंदर आकर जोर से आवाज लगाते हुए "लाओ अम्मा लालन की बधाई।" और ढोलक की तान पर यशोदा के घर लालन भयो गाने पर ठुमके लगाने लगी। 

अम्मा नवजात शिशु को कपड़े में लपेटकर, 

"ले संभाल इसे, तुम्हारी ही जात का है। ले जाओ यहाँ से।" तभी अंदर से दौड़ती हुई बहू आई। 

"मेरा बच्चा मुझे दे दो, मेरा बच्चा मुझे दे दो।"

"अरे! क्या करेगी तू इस बच्चे का।" अम्मा ने उसे अपनी ओर खींचते हुए कहा। 

" अम्मा मैंने इसे जना है यह मेरा बच्चा है।" रिरियाते हुए बोली। 

"पागल तो नहीं हो गई है दुनिया क्या कहेगी।" 

"अम्मा अब तो सरकार ने भी इन्हें मान्यता दे दी है। मेरे पास रहने दे।" हाथ जोड़ते हुए। 

"सरकार वरकार मैं न जानूं, समाज इसे स्वीकार नहीं करेगा। क्या करेगी पालकर? यह वंश तो बढ़ा नहीं सकता।"

रानो के सामने याचना करते हुए। 

 " मेरा बच्चा मुझे दे दो मैं इसे  पढ़ा लिखा कर बड़ा करूंगी। यदि यह टीचर बना तो तुम सबको पढ़ाएगा, इंजीनियर बना तो तुम्हारे लिए घर बनाएगा, डॉक्टर बना तो तुम सब का इलाज करेगा और वकील बना तो तुम्हारे लिए लड़ेगा।" 

किन्नर उसकी बात सुनकर मुस्कुरा उठे।

"पागल बावली हो गई है चल घर के अंदर।" अम्मा ने डांटते हुए कहा। 

वह आँचल फैलाकर रोते हुए बच्चे को मांगने लगी। 

उसका रुदन देखकर रानो की भी आँखे भर आईं। 

रानो ने "ले अपना बच्चा कहते हुए गोद में डाल दिया।"

अम्मा ने आगबबूला होते हुए जैसे ही हाथ ऊपर उठाया।

अम्मा का हाथ पकड़ते हुए "खबरदार जो जच्चा पर हाथ उठाया तो मुझसे बुरा कोई न होगा।" 

अम्मा सहमकर पीछे हट गई। और बोली "इस घर में यह बच्चे के साथ नहीं रह सकती कहीं और जाकर रहे।"

"तेरा मरद कहाँ है बुला उसे।" रानो ने कहा। 

" क्या तू भी बच्चे को रखना चाहे हैं?"

"हाँ आखिर खून है मेरा। पर... "

"पर क्या ?"

"मेरी आमदनी इतनी नहीं है कि मैं किराये का घर ले सकूँ और इस बच्चे को पाल सकूँ।"

"ठीक है तेरे रहने का इंतजाम हो जायेगा। पर एक शर्तें हैं।" दोनों के चेहरे पर आशंका के बादल छा गये। 

"इस बच्चे का सारा खर्च पढ़ाई लिखाई सहित हम करेगें।" सुनते ही दोनों के चेहरे पर मुस्कान आ गई। 

जच्चा और बच्चा दोनों को आशीष देते हुए रानो बोली "तू बड़ी हिम्मत वाली है। काश ऐसी ही हिम्मत हमारी माँ ने भी की होती तो ... " ००

                                 - मधु जैन 

                        जबलपुर - मध्यप्रदेश 

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                              अभी कार्य जारी है 



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