बदलते परिवेश में हिन्दी भाषा का स्वरूप ?
जैमिनी अकादमी द्वारा " बदलते परिवेश में हिन्दी का स्वरूप ? " चर्चा - परिचर्चा का विषय भारतीयता की पहचान है । जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर की भाषा बन गई । परन्तु भारत के अन्दर लोगों की ओछी मानसिकता के कारण हिन्दी बोलने पर हीन दृष्टि से रखते हैं । यहीं कुछ चर्चा - परिचर्चा पर आये विचारों को देखते हैं : -
यह बात सुखद है कि आज के परिवेश में हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार निरंतर विस्तार की ओर अग्रसर है। हिन्दी भाषा में पहले की अपेक्षा दिनोंदिन बहुत लिखा जा रहा है, बहुत कहा जा रहा है और बहुत पढ़ा भी जा रहा है। यह पक्ष हम हिन्दी भाषियों के लिए उपलब्धियों से भरा तो है ही, गौरवपूर्ण भी है। लेकिन दूसरा पक्ष यह भी है कि हमारा सृजन जितना चिंतनशील और सार्थक है, उतना प्रस्तुतीकरण विशुद्ध नहीं है। भावातिरेक की जल्दबाजी में हम अपने सृजन की अभिव्यक्ति में शिल्प और कसावट पर ध्यान नहीं दे पाते और त्वरित प्रस्तुतीकरण कर देते हैं। कभी भाव दोष, कभी शब्द दोष तो कभी व्याकरण दोष की कमी और खामी हमारे उद्देश्य पूर्ण सृजन में बाधक बनती है और पाठकों के दिलो-दिमाग में प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप में जगह नहीं बना पाती।
इस परिप्रेक्ष्य को दृष्टिगत रखकर संक्षिप्त में मेरा ऐसा मानना है कि हमें अपने लेखन में भाषा की मर्यादाएं,विधा की नियमावली और शब्द चयन का अक्षरश: पालन करना होगा। तभी हम न केवल अपने लेखन के साथ बल्कि हिन्दी भाषा, पाठकों के साथ सामाजिक न्याय भी कर पायेंगे।
बदलते परिवेश में हिन्दी भाषा का स्वरूप, कहीं न कहीं विशुद्ध न होकर विद्रूपता लिए हुए है या इस मत को विभाजित कर यूँ भी कहा जाए कि एक स्वरूप पूर्णत: विशुद्ध जिसकी व्यापकता कम और दूसरा स्वरूप कमियों, खामियों को लिए दोषपूर्ण है
जिसकी व्यापकता अधिक है।
हाँ, एक बात और स्पष्ट करना चाहूंगा कि हिन्दी भाषा में जो अंग्रेजी भाषा निर्भीकता और निरंकुशता से निहित की जा रही है यह कदापि न्यायोचित नहीं है और हिन्दी भाषा के स्वरूप को विद्रूप करने के मूल कारकों में से प्रमुख है।
- नरेन्द्र श्रीवास्तव
गाडरवारा - मध्यप्रदेश
यह सर्वविदित है कि यह सृष्टि परिवर्तनशील है। हर वस्तु में परिवर्तन होता है। उसी प्रकार मनुष्य में भी बदलाव आता है। उसके रहन-सहन,बोल-चाल, पहनावा,जीवन शैली। इसमें सबसे बड़ा बदलाव आता है हमारी भाषा पर। समय के साथ साथ वह भी बदलती है, सुधरती है और परिमार्जित होती है। अब हिन्दी भाषा के विषय में चर्चा करें तो यह सदियों -सदियों से पूरी तरह से अपने अस्तित्व में आई ही नहीं। हमारे संविधान की धारा 343 अनुच्छेद (1) के अनुरूप हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया गया है। जिसके आधार पर होना तो यह चाहिये था कि सरकारी कार्यालयों, स्कूलों ,संस्थानों में हिन्दी को विशेष महत्व दिया जाता मगर ऐसा नहीं है। अधिकतर कार्यालयों में, पाठशालाओं, कालेजों, विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी भाषा का ही प्रयोग होता है। बदलते परिवेश में हिन्दी भाषा का प्रयोग हमारे घर, परिवार और समाज में दिन प्रतिदिन गौण होता जा रहा है। अपने घर में माता पिता अपने बच्चों से वार्तालाप हिन्दी की अपेक्षा अंग्रेजी में करना अपनी हैसियत को श्रेष्ठ मानते हैं। समाज में अपनी विशेष पहचान बनाए रखने के लिए लोग हिन्दी के स्थान पर अंग्रेजी में बातचीत करना अपनी शान समझते हैं। आज भारतीय संविधान में हिन्दी का स्थान मुख्य होते हुए भी गौण हो गया है। संस्कारित भावों का स्थान सभ्य-संस्कारों से हट कर अंग्रेजी के शब्दो में आ गया है। हाय-हैलो, बाय-बाय, मौंम डैड, सिस-ब्रो जैसे अंग्रेज़ी शब्दों का बोलबाला दैनिक जीवन के व्यवहार में समा रहा है। हिन्दी भाषा की अनदेखी और उपेक्षा हो रही है। आधुनिक बनना कोई बुरी बात नहीं है मगर अपनी भाषा को सही महत्व और सही स्थान न देना अन्याय है। हर वर्ष हिंदी दिवस मनाया जाता है ताकि हिंदी भाषा को और समृद्ध बनाया जा सके। वास्तव में क्या हम उसे समृद्ध कर रहे हैं ---इसमें मेरा उत्तर नही है। क्योंकि विशेष दिवस भी मात्र नारों,भाषणों और पोस्टर लगाने तक और अखवारों में छपने तक ही सीमित रह गए हैं। बदलते परिवेश में हिन्दी भाषा के स्वरूप को स्वच्छ, निर्मल और ग्राह्य तभी बनाया जा सकेगा यदि हम सब उसे पूरी तरह हृदय से अपनायेगें।
हिन्दी मेरा मान है,
हिन्दी से सम्मान है,
समझना होगा महत्व,
हिन्दी राष्ट्र की आन है।
जय हिंद, जय हिन्दी भाषा।
- शीला सिंह
बिलासपुर - हिमाचल प्रदेश
अगर हम किसी भी भाषा की बात करें तो यह सत्य है कि कोई भी भाषा एक जैसी नहीं रहती, उसमें समय के अनुसार बदलाव आता रहता है,
क्योंकि भाषा का सीधा संबंध मानव जीवन से आंका जाता है जैसे जैसे मानव का स्वरूप बदलता रहता है उसी तरह भाषा भी निरंतर बदलती रहती है,
यहाँ तक हिन्दी भाषा की बात करें तो हिन्दी भाषा की उत्पत्ति संस्कृत भाषा से मानी जाती है उसके बाद यह पाली भाषा में तब्दील होती हुई प्राकृत और प्राकृत से अप्रमंश यहाँ तक यह खड़ी बोली से होती हुई आज की आधुनिक हिंदी तक पहुँच चुकी है, कहने का भाव हिंदी भाषा की उपज लगातार बढ़त की तरफ रही है बैसे भी भाषा बहते नीर की तरह होती है, यह सत्य है हिंदी भी बहते नीर की तरह हर जगह पहुँचने का प्रयास कर रही है, इसका स्वरूप समय समय पर बदलता रहा और यह देश के कोने कोने तक पहुँचने में सफल रही है, अगर ऐसा नहीं होता तो यह भाषा कब से मृत भाषाओं में गिन ली जाती लेकिन इसके बदलते स्वरूप ने इसे जिंदा रखने में मदद की है, जिसका मूल कारण यहाँ के शासन तंत्रों का माना गया है काफी बर्षों तक मुगलों का शासन भारत मे रहा जिसके फलस्वरूप ईरान, ईराक तथा कई अरब देशों की भाषाओं ने हिन्दी का स्वरूप विकसित किया उसके बाद अंग्रेजी हकूमत में भी अंग्रेजी भाषा का गहरा असर पड़ा और १९४७ में अंग्रेजी शासन की मुक्ति के बाद हिन्दी भाषा का विकास फिर जोरों से शुरू हुआ और१९४९ में भारत में संवैधानिक रूप से हिन्दी को राजभाषा का गौरव प्रदान किया गया तथा इसकी बढौतरी का प्रयास जारी रहा पर आजतक भी हिन्दी का राजभाषा के रूप में सचारू रूप से प्रयोग नहीं हो पा रहा है,
यह सत्य है हिन्दी भाषा फिल्मी दूनिया में भी आपने पाँव जमा चुकी है, लेकिन फिल्मों में कुछ उर्दू शैली का प्रभाव भी साथ साथ चलता रहा है जिसके कारण हिन्दी भाषा का प्रयोग अलग अलग अंदाजों मे रहा है,
लेकिन जब से इंटरनेट और कम्प्यूटर की दूनिया में इसके प्रवेश हुआ है तब से हिन्दी भाषा का विस्तार बहुत तेजी से होने लगा है, अब यह आम लोगों की भाषा बन चुकी है, यहाँ तक की सोशल मीडिया के मंच पर भी इसका बोलवाला है, कहने का भाव इसका विकास बढ़त की और है जिससे उपनगरों में महानगरों में काफी बदलाव देखने को मिल रहा है,
अन्त में यही कहुंगा कि हिंदी भाषा के बदलते स्वरूप से समाजिक, राजनितिक, सास्कृतिक, धार्मिक, तथा अन्य कई क्षेत्र, फल फूल रहे हैं, कहने का भाव जैसे जैसे जीवन बदल रहा है हिन्दी का रूप भी बदलता दिख रहा है, चाहे कुछ भी हो हिन्दी का भविष्य समय के साथ साथ उज्जवल की और ही है।
- सुदर्शन कुमार शर्मा
जम्मू - जम्मू व कश्मीर
आज के इस नए परिवेश में बहुत विकास हुआ है,,,,,, नई खोजें ,,,,नए अन्वेषण,,,नए कीर्तिमान और नए आयाम
नवीन विकास की इस दौड़ में हम जैसे जैसे विकासपथ पर अग्रसर हो रहे हैं , वैसे वैसे हम हिंदी से दूर होते जा रहे हैं समस्त भाषाओं की जननी संस्कृत से उत्पन्न हिंदी एक सरल मीठी भाषा है जिसमें जो उच्चारण होता है वो ही लिखा जाता है , कोई शब्द मूक नहीं होता
हिंदी भाषा का विकास तो हुआ , परिमार्जित भी हुई हिंदी पर ये केवल समाज के दस प्रतिशत प्रबुद्ध लोगों के मध्य
प्रत्यक्ष को प्रमाण क्या,,,,,,,,,,,आज भी पध्यक्रम में अंग्रेजी की यदि सात पुस्तकें हैं तो हिंदी की केवल एक पुस्तक
अंग्रजी सीखो ,,,,पढ़ो ,,,,,, पढ़ाओ पर हिंदी को इतने नगण्य स्थान पर स्थापित न करो
हिंदी को लोग बोझ समझने लगे हैं वा जो बच्चा अंग्रेजी में वार्तालाप करता है बुद्धिमान माना जाता है और हिंदी में वार्तालाप करनेवाला गंवार ,,,,,,,,,,ये एक ऐसी कड़वी सच्चाई है जो आम व्यक्ति स्वीकारता नहीं और सीकारणा भी नहीं चाहता
बदलते परिवेश में हिंदी को मान सम्मान देना अत्यावश्यक है जिसकी वो हकदार है
हिंदी को उचित स्थान देने हेतु प्रबुद्ध वर्ग , सामाजिक कार्यकर्ता , नेता , अभिनेता , जनता ,वा शिक्षक ,,,,,,,,सबको मिलकर मुहिम चलाने चाहिए ताकि बदलते परिवेश में हिंदी का उपेक्षित स्वरूप बदलकर अपेक्षित और वांछित स्वरुप प्राप्त कर पाए
हिंदी को मान दिलाएंगे
हिंदी को सशक्त बनाएंगे !!
- नंदिता बाली
सोलन - हिमाचल प्रदेश
वैश्विक परिवर्तन के दौर में जब सब कुछ बदल रहा है तो फिर हिन्दी भी इससे अछूती क्यों रहें?
इसके स्वरुप में परिवर्तन आ रहा है और परिर्वतन,विकास के पथ पर आगे बढ़ने का प्रतीक है। हिन्दी ने विश्व मंच पर अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराई है। जब एफिल टावर पर हिन्दी में, देवनागरी में स्वागतम और आपका स्वागत है, जैसे शब्द लिखे मिलें,विश्व के डेढ़ सौ से अधिक विश्वविद्यालय हिन्दी में पढ़ाई करा रहे हो, हिन्दी विश्व बाजार की भाषा बन चुकी हो तो फिर स्वरुप में परिवर्तन न हो यह तो हो नहीं सकता। हिन्दी ने विभिन्न भाषाओं के शब्दों को न केवल आत्मसात किया है, अपनाया है वरन उनका हिन्दीकरण कर दिया है। जैसे स्टेशन, स्टेशनों कालेज, कालेजों आदि। आभास ही नहीं होता कि ये शब्द किसी विदेशी भाषा के है।मुख सुख सुविधा के अनुसार वाक्य विन्यास में भी बहुत से परिवर्तन हुए हैं। कर्ता,कर्म क्रिया का क्रम निर्धारण बदल रहा है। आम बोलचाल में इसे देखा जा सकता है। ग्लोबल विलेज की अवधारणा के चलते हिन्दी अब बाजार की आवश्यकता बन चुकी है। विश्व बाजार को भारत में व्यापार के लिए हिंदी की जरुरत है तो वह उसे अपना रहा है। उसकी व्यावसायिक
विवशता ही सही लेकिन हिंदी इससे सशक्त हो रही है। विभिन्न भाषाओं के शब्दों के आ जाने से हिन्दी समृद्ध हो रही है। यह भविष्य के लिए एक अच्छा संकेत है।
- डॉ.अनिल शर्मा 'अनिल'
धामपुर - उत्तर प्रदेश
विषय के संदर्भ में मैं यही कहना चाहूँगी कि हमारे भारत का परिवेश ही बदल गया है जिसने हिन्दी के स्वरूप को भी बहुत प्रभावित किया है और उसके लिए सबसे अधिक जिम्मेदार है अंग्रेजी माध्यम स्कूलों का चलन और इसके साथ ही उत्तरदायी है सोशल मीडिया। अंग्रेजी माध्यम स्कूल के बच्चों की हालत यह है कि न उनकी अंग्रेजी उतनी अच्छी होती है न हिन्दी, हिन्दी को वे हिकारत की नजर से देखते हैं। उन्हें हिन्दी के शब्दों का अर्थ समझाने के लिए अंग्रेजी की मदद लेना पड़ती है, जो कि बहुत शर्मनाक है। वे हिन्दी को अच्छे से पढ़ नहीं पाते हैं, हिन्दी व्याकरण की धज्जियाँ उड़ा देते हैं, साहित्यिक व मर्मस्पर्शी हिन्दी की बात तो बहुत दूर है। छोटे छोटे बच्चों को 'जॉनी जॉनी यस पापा 'तो याद रहता है परंतु' जन गण मन' याद नहीं रहता । और रही सही कसर सोशल मीडिया ने पूरी कर दी है जहाँ हिन्दी भाषा को अंग्रेजी का चोला पहनाकर लिखा जाता है जिसे पढ़ना मुझे बहुत घृणास्पद व घटिया लगता है। पर क्या कहें अच्छे अच्छे लोगो को हिन्दी मे टाइप करना नही आता है। समझ नहीं आता यह उनके लिए गर्व की बात है या शर्म की।
प्रभु हमारे देश के माथे की बिन्दी - हमारी मातृभाषा हिन्दी की गरिमा को बनाये रखने में मदद करे - यही हिन्दी की दुर्दशा देख रहे मेरे दिल का अरमान है।
- सरोज जैन
खंडवा - मध्यप्रदेश
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। जिसके फलस्वरूप सम्पूर्ण सृष्टि में सब कुछ परिवर्तनशील है। जिसमें मानव से लेकर मानवीय मूल्यों पर आधारित मानव की मानवता के दृष्टिकोण भी समय-समय पर बदलते परिवेश में बदलते देखे जाते हैं। जिसका प्रभाव विश्व की समस्त भाषाओं पर भी पड़ता है। जिनमें से हिन्दी भी एक भाषा है। जिसे भारतवासियों की प्रमुख भाषा माना जाता है। ऐसे बदलते परिवेश में हिन्दी भाषा का स्वरूप भी कैसे अछूता रह सकता है?
सर्वविदित है कि हम भारतीय वर्षों अंग्रेजों के अधीन रहे हैं और अधीनता अधीनस्थों की भाषा को ही नहीं बल्कि उनके स्वाभिमान एवं आत्मा को भी परिवर्तित कर जाती है। जिसके फलस्वरूप जो व्यक्ति चापलूसी एवं चाटुकारिता में निपुण थे, उन्होंने अंग्रेजों की भाषा के कुछ शब्दों को अपना लिया और भारतवासियों को धौंस दिखाने के लिए उन शब्दों का हिन्दी में प्रयोग करने लगे। इसी प्रकार इससे पहले मुगलों की भाषा को भी अपनाया जा चुका है और अपनी भाषा की शुद्धता को अशुद्ध किया है।
जम्मू और कश्मीर में तो हिन्दी का सत्यानाश यहॉं तक किया जा चुका है कि उर्दू भाषा को हिन्दी भाषा का स्वरूप दे दिया गया था और वही हमें पढ़ाया भी गया था। उदाहरणार्थ हमें हमारे पूजनीय शिक्षकों द्वारा भूमि, पृथ्वी और धरा के स्थान पर ज़मीन पढ़ाया गया था और सर्वविदित है कि ज़मीन हिन्दी का शब्द नहीं है।
अब बदलते परिवेश में परिवर्तन आया है और भारत की सरकारों ने भी इस ओर कुछ ध्यान दिया है। जिसका सीधा श्रेय निस्संदेह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसके उपरांत भारतीय जनता पार्टी को जाता है। जिसका नेतृत्व वर्तमान माननीय विद्वान प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी एवं भारत की महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती द्रौपदी मुर्मू जी सफलतापूर्वक कर रहे हैं।
उल्लेखनीय यह भी है कि वर्तमान भारत सरकार ने सम्पूर्ण भारत में ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी भाषा के प्रचार और प्रसार के साथ-साथ शुद्धता पर भी विशेष ध्यान दिया है। जिसमें हिंग्लिश भाषा का सम्पूर्ण वहिष्कार करते हुए भारतीय सभ्यता, संस्कृति और संस्कारों की शुद्धता की भॉंति हिन्दी को भी शुद्ध किया जा रहा है और उसमें से अंग्रेजी/उर्दू को तिलांजलि देकर शुद्ध हिन्दी का प्रयोग किया जा रहा है।
वर्णनीय है कि इसका प्रभाव जम्मू और कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी द्वारा आयोजित हिन्दी संगोष्ठियों में भी देखा जा रहा है। जहॉं मात्र दोपहरी का भोजन करने के उद्देश्य में आए कतिपय विद्वान (प्रोफेसर) ही नहीं बल्कि हिन्दी भाषा के सम्पादक भी अब भाषा की शुद्धता का पालन करने लगे हैं। चूंकि उपस्थित विश्वविद्यालयों के हिन्दी विद्वान (आदरणीय प्रोफेसर) भी परिचित हो चुके हैं कि अब साधारण लेखक भी अत्यधिक जागरूक हो चुके हैं और विश्वविद्यालयों से आए प्रोफेसरों के लेखन पर भी ध्यान आकर्षित करते हैं।
जिससे अंततः शुद्धता के आधार पर जम्मू और कश्मीर कला संस्कृति एवं भाषा अकादमी जम्मू से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर हिन्दी भाषा में अद्वितीय सुधार हुआ है और बदलते परिवेश में हिन्दी भाषा का स्वरूप सदृढ़ और सशक्त होकर निखरा भी है ?
- इंदु भूषण बाली
जम्मू - जम्मू और कश्मीर
हमारा भारत एक बहु भाषी देश है। भारत में कुल 28 राज्य है और सभी में अलग- अलग भाषाओं का प्रयोग किया जाता है भारत एक ऐसा देश है जहाँ विभिन्न धर्म जाति के व्यक्ति रहते हैं। यहां की भाषाएं बोली जाती है भारत के संविधान में कुल बाइस भाषाओं को अपना अपना दर्जा प्राप्त है।
हमारे भारत वर्ष में शिक्षा की दर काफी बढ़ी है अब जो समाज शिक्षित हैं वह हिन्दी भाषा का प्रयोग सुव्यवस्थित रूप से करता है बोल चाल और सम्पर्क में आने पर आप और तुम का प्रयोग करता है पर कहीं कहीं अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल भी करता है। बदलते परिवेश में भाषा सुधार तो हो रहा है पर अभी भी देहात गांव में अपनी ही क्षेत्रीय बोली का प्रयोग करते हैं हिन्दी को थोड़ा अव्यवस्थित कर देते हैं यूं कहें तो शब्दों का रुप बिगाड देते हैं।
बड़े महानगरों में कुछ लोग हिन्दी को शान से बोलते हैं कुछ हिन्दी बोलते हुए झिझकते है। शर्मिंदगी महसूस करते हैं
हमारी मातृभाषा को विदेशों में बहुत प्यार और सम्मान मिल रहा है। विदेशों में हिन्दी विषय पर परिचर्चा, सेमिनार, व कवि सम्मेलन होते रहते हैं हिन्दी का विस्तार कवियों, रचना कारो के माध्यम से हो रहा है। नवोदित रचकार भी बढ़चढ़ कर प्रतिभाग कर रहे हैं बदलते परिवेश में हमारी राष्ट्रीय भाषा, मातृभाषा को सम्मान मिल रहा है और विस्तार हो रहा है ये हमारे लिए गौरव की बात है
- डाॅ चन्द्रकला भागीरथी
धामपुर - उतर प्रदेश
भारतीय इतिहास में हिन्दी भाषा का अमूल्य योगदान है। जिसके परिप्रेक्ष्य में साहित्य मनिषों ने अपने-अपने स्तर पर गद्य और पद्य में बहुत कुछ लिख दिया है। उन्हीं की शब्द शैलियों भावी अपनी पृष्ठ भूमि और शोध कार्यों में संदर्भ सूची में अंकित करते रहते है, हिन्दी शब्दकोश का सहारा लेते है, क्योंकि वह शब्द शैली कठिन रहती थी। जिसे उनके पद चिन्हों पर चलना, समस्याग्रस्त है। आज भी नवोदित रचनाकारों की लेखनियों में मात्राओं में वृहद रुप में अशुद्धियां देखने को मिलती है। मंचों पर हिन्दी का बखान करना और लिखकर बताना बहुत अंतर है? बदलते परिवेश में हिन्दी भाषा के स्वरूप को सामान्य विचारधारात्मक से जोड़ने का कदम उठाया जा सकता है। आज तो नौनिहाल बच्चों में हिन्दी अंको का ज्ञान ही प्रायः समाप्त सा हो गया है। उन्हें बताना पढ़ता है १ [एक] इस तरह लिखा जाता है। इस तरह से तस्वीर भी बदलने की पहल पहचान बनाने प्रयास करना चाहिए, हम सब हिन्दी भाषा ज्ञान वीरों को ?
- आचार्य डाॅ.वीरेन्द्र सिंह गहरवार 'वीर'
बालाघाट - मध्यप्रदेश
हिन्दी अपने ही घर मे बिलख रही है,कुछ प्रतिशत भारतीय अपनी हिंदी भाषा को उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं ।जैसे अपनी माँ को नजर अंदाज करने वाले आगे चलकर पछताते ही हैं वही हाल हिन्दी को हीन समझने वालों का होना चाहिए क्योंकि ये भी अकाट्य है कि हिन्दी हमारी पहचान है हिन्दी हम भारतीयों की चेतना है ,हम भारतीयों के स्वरूप का मुख्य अंश भी है। हिन्दी को उपेक्षित कर शिक्षा का सर्वांगीण विकास अधूरा है ।हिन्दी को मातृ भाषा का दर्जा मिलना चाहिए । किसी भी व्यक्ति की प्रथम पाठशाला उसका परिवार होता है, और मां को पहली गुरु कहा गया है ,क्योंकि हिंदी हमारी मात्र जुबान है । हिंदी भाषा का स्थान, हम भारतीयों के जीवन में मां और संतान के संबंध जैसा ही होता है। इस पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है बहुत कुछ कहा जा सकता है ।भाषा मनुष्य की अभिव्यक्ति की प्राणद चेतना का नाम है ।
हम भारतीयों की वह चेतना हिंदी है। अर्थात मन के भावों और विचारों की अभिव्यक्ति के लिए जो माध्यम है वह मुख्य तौर पर हिंदी भाषा है ।
भाषा मौखिक और लिखित दो रूपों में विद्यमान रहती है। भाषा वह माध्यम है जिससे हम देश की संस्कृति ,इतिहास ,परंपराएं, संचित ज्ञान, विज्ञान एवं तकनीक तथा अपने महान विरासत को जान पाते हैं । हिंदी हमारी जुबान है अतः हमें अपने बच्चों को हिंदी की ओर उन्मुख करना चाहिए और सरकार को इसे राष्ट्रभाषा का दर्जा अवश्य देना चाहिए ।
सारा जहां यह जानता है कि हिंदी हमारी पहचान है । संस्कृत से संस्कृति हमारी हिंदी से हिंदुस्तान है।
स्वतंत्रता के सूर्योदय के साथ हिंदी को भारत की बिंदी बनना चाहिए था ,लेकिन उस हिंदी के हालात आजादी के 73 वर्ष बाद भी गुलामी के 200 वर्षों से बदतर सिद्ध हो रही है।जिस हिंदी को आगे बढ़ाने के लिए हिंदी भाषी बंगाली राजा राममोहन राय ,ब्रह्म समाज के नेता केशव चंद्र सेन ,सुभाष चंद्र बोस, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने आशा के दीप जलाए ,वह हिंदी अपने ही घर में बिलख रही है उपेक्षित है ।
विश्व में इसकी लोकप्रियता बढ़ी है परंतु परंतु हिंदी भाषा अपने ही घर में भटक रही है,अपनी पहचान होती नजर आ रही है। जबकि शिक्षा में हिंदी को विशेष स्थान देना चाहिए । शिक्षा शब्द संस्कृत के, शिक्ष,धातु से लिया गया है इसका अर्थ है सीखना सिखाना ,अर्थात जिस प्रक्रिया द्वारा अध्ययन और अध्यापन होता है उसे शिक्षा कहते हैं । शिक्षा को सुलभ बनाने के लिए हिंदी भाषा में सिखाया जाना व शैक्षिक जागरूकता फैलाना जरूरी है ।तभी वास्तविक स्वतन्त्रता भी सिद्ध होगी जब शिक्षा मे हिन्दी को यथोचित सम्मान मिलेगा । मैंने अपनी कविता के माध्यम से भारतीयों से ये अपील की है
हिंदुस्तान के रहने वालों ,
हिंदी से तुम प्यार करो ।
ये पहचान है भारत माँ की,
हिंदी का सत्कार करो ।
हिंदी के विद्वानों ने तो ,
परचम जग में फहराए।
संस्कार के सारे पन्ने,
हिंदी से ही हैं पाए ।
देवनागरी लिपि में अपनी,
छुपा हुआ अपनापन है ।
अपनी प्यारी भाषा हिंदी,
भारत मां का दरपन है ।
हिंदुस्तानी होकर तुमने ,
यदि इसका अपमान किया ।
तो फिर समझो भारत वालों ,
खुद का ही नुकसान किया।
हिंदुस्तान के रहने वालों,
हिंदी से तुम प्यार करो ।
यह पहचान है भारत माँ की ,
हिंदी का सत्कार करो ।
- सुषमा दीक्षित शुक्ला
लखनऊ - उत्तर प्रदेश
किसी भी भी देश की पहचान उसकी भाषा से होती है। हम उस अखऺड भारत देश के निवासी हैं जहां की विश्व भाषाओं की जननी सऺस्कृत भाषा रही है। कालांतर भाषायी परिवर्तन होता रहा शासकीय परिवर्तन होते रहे और वर्तमान तक हम अपने देश की राष्ट्र भाषा हिंदी को सौतन की तरह अपना रहे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात मैकाले केथोपे ग ए पाठ्यक्रम के चलते राष्ट्र गौरव हिन्दी अपने ही देश में वह स्थान नहीं लें पा रही है जिसकी वह अधिकारिणी है। इससे बडी विडम्बना क्या हो सकती हैं कि हम अपने ही देश में हिन्दी बोलने के लिए दन्डित हो रहे हों और जुर्माना देना पड़ रहा है। हिन्दी पत्रकारिता ने हिन्दी का वर्चस्व एवं अस्मिता को बचा रखा है। अन्यथा जिस हिन्दी के बोलने तथा लिखने पर हमें गौरव होना चाहिए था उसे बोलने में हम शर्म कर रहे हैं और जिसे बोलने में हमें शर्म आनी चाहिए उस पर गर्व कर रहे हैं। सरकार भी इस मुद्दे पर मौन है। जिस देश में डा राजेन्द्र प्रसाद डा राधाकृष्णन जैसे शिक्षा विद सत्तासीन रहे हों वहां यदि हिन्दी राज काज और राष्ट्रीय भाषा न हों यह आश्चर्य हैं। और वर्तमान में जिस तरह मिश्रित हिन्दी का प्रयोग कर रहे हैं उससे विदेशों में भी उपहास का कारण बन रहें हैं।कुछ विद्वानों का तर्क है कि अऺग्रेजी अन्तर्राष्ट्रीय सम्पर्क भाषा है मैं उनसे विनम्र निवेदन करना चाहता हूं कि 200देशो मेंसे मात्र 14 देशों में अऺग्रीजी सम्पर्क भाषा है बाक़ी देशों में उनकी अपनी राजकाज तथा राष्ट्र भाषा है।
मैं विशेष कर भारत सरकार से भी अनुरोध करना चाहता हूं कि आज़ समय है भाषायी गुलामी से भी देश आजाद होना चाहिए। पूरे देश में राज काज और राष्ट्रीय भाषा हिन्दी होनी चाहिए। और हमारे प्रचार प्रसार माध्यम भी इसमें प्रमुख भूमिका निभाएं और भारत देश में हिन्दी भाषा को राष्ट्रीय भाषा के रुप में स्थापित करने में योगदान दें।
- मदन हिमाचली
सोलन - हिमाचल प्रदेश
आज के परिवेश हिन्दी भाषा का स्वरूप बहुत ही अच्छा है आज देश विदेशों में भी बहुत ही सम्मान मिल रहा है जहाँ कहीं हिन्दी में काव्य गोष्ठी भी होती हैं और जो अंग्रेजी में पढ़ रहे या पढ़ा रहे हैं बच्चों को तो वो हिन्दी को हिन्दी नहीं समझते
- राजकुमारी रैकवार राज
जबलपुर - मध्यप्रदेश
हिंदी आज के डिजिटल युग में वैश्विक भाषा बन गई है। हिंदी में साहित्य की अविरल धारा का अजस्र स्रोत प्रवाह मान है। हिंदी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा होने के साथ-साथ संस्कृति है! सौंदर्य है! अस्तित्व है! जीवन है! निरंतरता है! यह हमारी सभ्यता,संस्कृति और सामाजिक उत्थान के रीति रिवाज, धर्म, दर्शन और विज्ञान सभी में संरक्षित है। आज हिंदी संप्रेषण की भाषा बन गई है। थे अब तो देश के उच्चतम न्यायालय ने भी अपने आदेशों का हिंदी भाषा में अनुवाद करवाने की पहल कर दी है।
मोबाइल पर कई ऐसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय हिंदी साहित्यिक ग्रुप बने हुए हैं जो साप्ताहिक प्रतियोगितायें आयोजित कर रहे हैं। यही नहीं सोरठा,दोहे और छंद बनाना सिखाया जा रहा है। अधिकतर प्रतिष्ठानों की वेबसाइट हिंदी भाषा में उपलब्ध है। नेट पर हिंदी के ऐसे कई सर्च इंजन है जो तुरंत ही अंग्रेजी साइट का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत कर देते हैं। हजारों की संख्या में हिंदी ब्लॉग चल रहे हैं। हजारों हिंदी की पुस्तकों का डिजिटलाइजेशन हो चुका है । सूचना क्रांति से हिंदी को काफी स्वीकृति मिली है। आज के परिवेश में हिंदी संसार की एक महत्वपूर्ण और भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। भारतीय पाठक सर्वेक्षण के अनुसार इंटरनेट पर हिंदी पढ़ने वालों की संख्या प्रतिवर्ष 96% बढ़ रही है जबकि अंग्रेजी में 18 % ही है। तात्पर्य यह है कि हिंदी का महत्व कम ना आंका जाए बल्कि सोच बदलने की आवश्यकता है। मीडिया पर बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव के फल स्वरुप हिंदी भाषा बाजार की भाषा बनती जा रही है।वैश्विक फलक पर आगे बढ़ रही हिंदी का स्वरूप उज्जवल है ।
- प्रज्ञा गुप्ता
बाँसवाड़ा - राजस्थान
समय बदल रहा है, परिवेश बदल रहा है, लोग और उनका जीवन बदल रहा है, विचार और मान्यताएँ बदल रही हैं…तो जब सब कुछ बदल रहा है तो हिन्दी भाषा का स्वरूप भी तो बदलेगा ही। परिवर्तन प्रकृति का नियम है और इसी से विकास भी होता है। बदले समय और परिवेश में बदलते हिन्दी के स्वरूप से निराश होने की आवश्यकता क्यों और किसलिए है? भाषा तो बहती नदी की तरह है। नदी की तरह ही भाषा भी अपना स्वरूप/आकार बदलती रहती है।
भले ही वर्तमान में ऐसा लग रहा हो कि हिंदी उपेक्षित होते-होते हाशिए पर जा रही है। अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों की बढ़ती संख्या, अंग्रेज़ी के माध्यम से विदेशों में नौकरी पाने की चाह नई पीढ़ी में बढ़ती जा रही है, मगर अनेक बातें ऐसी हैं जो हिंदी को एक मज़बूत आधार प्रदान करती जा रही हैं। राजनैतिक क्षेत्र में संसद से सड़क तक हिंदी, हिंदी फ़िल्मों का बढ़ता प्रभाव, साथ ही साथ भोजपुरी आदि आंचालिक बोलियों में बनने वाली फ़िल्में, हिंदी समाचारपत्रों की दिनोंदिन बढ़ती पहुँच अपनी सभ्यता और संस्कृति के प्रति बढ़ती जागरूकता, योग-प्राणायाम आदि का प्रचलन, आयुर्वेद की बढ़ती माँग अनेक ऐसे बिंदु हैं जो हिंदी और भारतीय भाषाओं के उज्जवल भविष्य की ओर इंगित कर रहें हैं।
सबसे अधिक आशान्वित करने वाला तथ्य यह है कि आधुनिक तकनीक ही हिंदी की सबसे बड़ी रक्षक बन कर उभरती दिखाई दे रही है।इस प्रकार के सॉफ़्टवेयर, कम्प्यूटर आदि आते जा रहें हैं जो तत्काल अनुवाद कर कोई भी सूचना हिंदी भाषा में उपलब्ध करा सकते हैं। ऐसी सुविधाएँ दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं और किसी भाषा पर निर्भर होने की मजबूरी समाप्त होती जा रही है। एक समय ७० एवं ८० के दशक में अंग्रेज़ी के बिना काम नहीं चलेगा ऐसा लगता था, मगर आधुनिक तकनीक ने इस निर्भरता को समाप्त करना प्रारंभ कर दिया है।
संविधान के अनुच्छेद ३४३ में इसे भारत संघ की राजभाषा कहा गया है। अनुच्छेद ३५१ इसके विकास के लिए भारत संघ की सरकार को अनेक निर्देश भी देता है। १९७८ से आई ए एस जैसी उच्च परीक्षाओं में हिंदी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को परीक्षा का माध्यम मान लिया गया है। विशाल हिंदी भाषी जनसंख्या भी इसके आधार को मज़बूत करती है।
सभी भारतीय भाषाओं में हिंदी के स्वर और व्यंजनों की भाँति ही होता है। यदि हिंदी आती है तो बंगला, असमिया, उड़िया आदि भाषाओं को बहुत कम समय में सीखा जा सकता है अर्थात् इन भाषाओं का हिंदी से सीधा संबंध है। ठीक इसी प्रकार कन्नड़, मलयालम और तेलुगु भाषाएँ भी हिंदी के अति निकट हैं। मराठी, गुजराती, राजस्थानी और पंजाबी भाषाएँ तो और भी अधिक हिंदी के निकट दिखाई देती है। हिंदी और भारतीय भाषाओं की निकटता इसे और सरल बनाती है। तमिल अवश्य हिंदी से दूर दिखती है मगर वहाँ भी आठ सौ शब्द हिंदी के प्रयोग किए जाते हैं।
इतना व्यापक प्रभाव और एक अति विशाल संख्या बोलने-समझने वालों की। कोई भी विषय इसके माध्यम से पढ़ा और पढ़ाया जा सकता है। किसी भी कार्यालय का कार्य इस भाषा में हो सकता है। समाचारपत्र, पत्रिकाएँ, सरकारी आदेश सभी कुछ इसमें है और हो रहा है।
हिंदी के प्रति मेरा दृष्टिकोण आशावादी है लेकिन साथ ही इसे अपनाने, इसमें सृजन करने, अनुवाद से इसका भंडार भरने तथा इसे सरल, समृद्ध और सभी को स्वीकार्य हो, विज्ञान, तकनीकी की अंग्रेजी पुस्तकों का विद्यार्थियों के लिए ग्राह्य हिन्दी अनुवाद उपलब्ध हो, हिन्दी रोजगार देने में व्यापार करने में सक्षम हो। ऐसा हो भी रहा है पर यहाँ जमें रुकना नहीं है।हिन्दी को ऐसा बनाने के लिए घोर परिश्रम तो करना ही पड़ेगा। जितना कर रहे है उससे दुगुना-तिगुना करना पड़ेगा। प्रत्येक व्यक्ति को यह सोचना होगा कि वह हिन्दी के लिए क्या और कैसे कर सकता है। जन-जन को, संस्थाओं को, शैक्षिक प्रतिष्ठानों को युद्ध स्तर पर कार्य करना होगा। हम अनुकूल परिस्थितियों के भरोसे तनिक भी शिथिल न पड़ें।
- डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई
देहरादून - उत्तराखंड
हिंदी भाषा के स्वरूप में आते सतत परिवर्तन की पृष्ठभूमि में यांत्रिकीकरण एवं अत्याधुनिक तकनीक के उपयोग की महत्वपूर्ण भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। मुद्रण कला के विस्तार के परिणामस्वरुप हिंदी वाचिक स्वरूप से प्रकाशित स्वरूप में परिवर्तित हुई।
समाचार पत्रों, पत्रिकाओं, विज्ञापनों, आकाशवाणी, दूरदर्शन और हिंदी सिनेमा में हिंदी के उपयोग के साथ उसके शब्द कोष में बेतहाशा इज़ाफ़ा हुआ। कंप्यूटर और इंटरनेट में हिंदी के दिनों दिन बढ़ते प्रचलन के साथ यह भाषा जनसाधारण की अभिव्यक्ति का साधन बनी है। देश के विभिन्न अंचलों में सोशल मीडिया के विविध पटलों पर हिंदी के उपयोग से उस पर क्षेत्रीय भाषाओं का प्रभाव पड़ा। साथ ही इंटरनेट पर उपयोग में लाई जाने वाली हिन्दी आंचलिक बोलियां और अंग्रेजी शब्दों के प्रभाव से अछूती नहीं रही। वर्तमान परिवेश में हिंदी के स्वरूप में आते सतत परिवर्तन में भूमंडलीकरण की महत्वपूर्ण भूमिका रही है।
आज पाश्चात्य जगत के गायकों को हिंदी में प्रस्तुतियां देने से गुरेज़ नहीं। आज देशवासी न्यू ईयर, क्रिसमस, वैलेंटाइन डे, चॉकलेट डे, हग डे, रोज़ डे, हेलोवीन डे मनाने लगे हैं जिसके फलस्वरुप इनसे संबंधित अंग्रेजी के शब्दों का हिंदी के साथ प्रयोग होने लगा है।
मीडिया पर बाजारवाद के हावी होने के परिणामस्वरुप वर्तमान परिदृश्य में हिंदी भाषा बाजार की भाषा बनती जा रही है। इस संदर्भ में यह सोचने का मुद्दा है कि वर्तमान के उपभोक्तावादी दौर में हिंदी के इस स्वरूप का उपयोग आखिर क्यों हो रहा है। इसके स्थान पर हिंदी के शुद्ध मानक स्वरूप का उपयोग क्यों नहीं हो पा रहा?
देश के उप नगरों और महानगरों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में हिंदी भाषा का शुद्ध रूप बहुत हद तक अभी तक कायम है। महानगरों की हिंदी आज हिंग्लिश, शहरी हिंदी और मेट्रो हिंदी के नाम से जानी जाने लगी है। कॉन्वेंट शिक्षित पिछली और नई पीढ़ी के जीवन के हर क्षेत्र में अंग्रेजी की घुसपैठ देखी जा सकती है। अतः उनके द्वारा बोली जाने वाली हिंदी में लगभग आधे शब्द अंग्रेजी के होते हैं। आज आकाशवाणी दूरदर्शन फिल्मों और फिल्मी गीतों में टपोरी भाषा का उपयोग धड़ल्ले से हो रहा है।
मीडिया के विविध पटलों पर हिंदी का लोकभाषिक, आंचलिक, क्षेत्रीय, ग्रामीण, महानगरीय, साहित्यिक एवं वैश्विक स्वरूप देखने को मिल रहा है। आज के परिदृश्य में सोशल मीडिया के विभिन्न पटलों पर हिंदी भाषा का उच्छृंखल रूप भी देखने को मिल रहा है। सोशल मीडिया के विभिन्न पटलों पर भद्दी गालियां और अश्लील भाषा के उपयोग से भी परहेज़ नहीं बरता जा रहा। तो इन सब तथ्यों के मद्देनज़र यदि हम कहें कि वर्तमान में हिंदी के मानक रूप की तुलना में जन रूप अधिक परिलक्षित हो रहा है तो यह गलत नहीं होगा।
आज हिंदी जनसाधारण की अभिव्यक्ति के रूप में प्रमुखता से सामने आ रही है। यह हिन्दी भाषा के भविष्य के परिप्रेक्ष्य में एक सकारात्मक और शुभ संकेत है।
- रेणु गुप्ता
जयपुर - राजस्थान
"मेरी दृष्टि में " बदलते परिवेश में हिन्दी भाषा का विस्तार हुआ है । जो रोजी रोटी की भाषा बन गई है । विभिन्न डिजिटल प्लेटफार्म से लोगों की आय का प्रमुख साधन बन गया है। यहीं सबसे बड़ी उपलब्धि है । भविष्य में और अधिक रोजगार उपलब्ध होगा । ऐसी उम्मीद ही नहीं बल्कि पूर्ण विश्वास समझा जाएं ।
- बीजेन्द्र जैमिनी
( लेखक , पत्रकार व संपादक )
Comments
Post a Comment